दिव्यता की तेजोमय किरण - द्युमान


१९. द्युमान का निवासस्थान

 

द्युमान पांडिचेरी आए तब पहले तो वे, अभी जो मकान गेस्टहाउस के रुप में पहचाना जाता है, और जहाँ पहले श्रीअरविंद रहते थे, वहाँ रहे। बाद में उन्हें अभी जहाँ वर्कशाप है, वहाँ कमरा दिया गया। एकाद महीने वे वहाँ रहे। उसके बाद अगस्त में फिर कमरा बदला। पूजालाल के कमरे के पास में जो कमरा है वहाँ - अर्थात् आश्रम के पटांगण में ही उन्हें रहने को मिला। इस कमरे का नाम श्री माताजी ने ''सम्पूर्ण समर्पण'' दिया था। इस कमरे में रहकर द्युमान ने समर्पित कार्य किये। श्री माताजी ने अब उन्हें अधिक अच्छा कमरा देने का निश्चिय किया। इस कमरे में वे लगभग पाँच वर्ष तक रहे। अब श्री माताजी उनके लिये एक विशेष कमरा बनवा रही थी। यह कमरा जून १९३० में तैयार हो गया।

१९ जून को द्युमान का  जन्म दिन था। द्युमान को आशा थी कि श्री माताजी उनके जन्म दिन पर यह कमरा देंगी पर उस दिन उन्हें कमरा नहीं मिला। दूसरा दिन भी निकल गया, परन्तु तीसरे दिन २१ जून को सवेरे उन्हें श्री माताजी का पत्र मिला कि, ''आज तुम अपने नये कमरे में रहने के लिये जाओ। आज वर्ष का सबसे लम्बा दिन है। यह प्रकाश का दिन है और तुम प्रकाश हो।'' दो दिन के विलम्ब का रहस्य अब द्युमान की समझ में आया। प्रकाश के उस दिन को माताजी ने प्रकाश रूप बनाकर द्युमान को उनके वर्तमान कमरे में रहने को भेजा। कितनी सहृदयता और कृपा। द्युमान तो माताजी की

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करूणा और दूरदर्शिता को देखकर बहुत अभिभूत हो गये। इसके बाद तो उनके इस कमरे के सामने ही श्रीअरविंद की समाधि बनी और कमरा सच में ही प्रकाशपुंज हो गया। इस कमरे में १९३२ से १९९२ तक द्युमान देह में रहे तब तक वहाँ रहे। इस प्रकाशपूर्ण कमरे में रहकर ही उन्होंने समग्र आश्रम की व्यवस्था सम्माली। कमरे में श्रीअरविंद की समाधि का सतत सानिध्य अनुभव कर सकते थे जैसे समाधि में सोए श्रीअरविंद उन्हें सतत् निहार रहे हों। इस कमरे में उन्होंने श्रीअरविंद और श्री माताजी का साठ वर्ष तक निकट सानिध्य प्राप्त किया।

इस कमरे के नाम के विषय में जब उन्होंने श्रीमाताजी से पूछा तब माताजीने कहा ''इस कमरे का नाम है ''सिद्धि पूर्णता'' (fulfillment), फिर-आगे कहा कि ''कमरे का नाम ''सिद्धि'' दिया है इसका अर्थ यह नहीं है कि इस कमरे में प्रवेश के बाद तुम्हें सिद्धि की कोई आवश्यकता नहीं है।'' यह कहकर श्रीमाताजी ने उन्हें अन्तिम सिद्धि के लिये अभी आंतरिक रूप से सच्च होना है, यह इंगित भी कर दिया। पहले का कमरा था ''सम्पूर्ण समर्पण''। जैसे यह द्युमान की साधना का प्रथम सोपान था। सम्पूर्ण समर्पण सिख होने के बाद साधना का यह दूसरा चरण है ''पूर्णता की प्राप्ति'' और श्रीमाताजी ने इस नाम द्धारा अब इस कमरे में रहकर यह साधना सिद्ध होगी ऐसा आशीर्वाद जैसे उन्हें दे दिया। द्युमान के लिये जैसे अब पूर्णता की प्राप्ति का मार्ग खुल गया।''

इस कमरे में प्रवेश के समय श्रीमाताजी ने उन्हें अपनी पुस्तक ''प्रार्थना और ध्यान' में से दो प्रार्थना फ्रेन्च भाषा में लिखकर भेजी थी, जो इस प्रकार थी :-।

''है प्रभु, तुमने मुझे शक्ति मैं शांति, कर्म में आत्मप्रसाद और सर्व परिस्थितियों में अविचल सुख दिया है।''

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१५ दिसम्बर १९१४

दूसरी प्रार्थना थी :-

''है मेरे प्रियतम, मेरे प्रभु यह एक ऐसी मधुर अवस्था है जिसमें मैं अनुभव करती हूँ कि तेरे लिये और केवल तेरे लिये ही कार्य करती हूँ। मैं तेरी सेवा में तत्पर खड़ी हूँ। तू ही कार्य के विषय में निर्णय करता है, उसकी व्यवस्था करता है, उसे गतिमान करता है, चलाता है, सिद्ध करता है।''

१० अस्टोबर-१९१८

इन प्रार्थनाओं के पास श्री माताजी ने द्युमान शीघ्र किस प्रकार काम करना, कैसे समुर्ण समर्पित भाव में रहकर जीना है, उसकी जैसे रूप रेखा बता दी। इस विषय में बाद में युमान ने बताया था कि, ''प्रार्थना और ध्यान में से जो संदेश माताजी ने मुझे दिये थे वही मेरा जीवन है और रहेगा। अनादिकाल के लिये मैं माताजी का सेवक हूँ। मात्र सेवक और सदा के लिये यही रहनेवाला हूँ।'' इस प्रकार माताजी द्वारा दिये गये नये कमरे में द्युमान का, कार्य द्धारा पूर्णता की प्राप्ति की साधना का जीवन आरम्भ हुआ।

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