दिव्यता की तेजोमय किरण - द्युमान


२०. द्युमान के विषय में श्री माताजी

 

श्री माताजीने एक बार द्युमान से पूछा, ''द्युमान, तुम्हारा जन्य किस वर्ष हुआ था।''

'' १९०३ में।'?

''सेवा के लिये जन्मे हो। यहाँ सेवा करने आए हो।''

श्री माताजी तो व्यक्ति की अंतरचेतना की गहराई के सत्य को देख सकती थीं। एक साधक को उन्होंने कहा था, ''व्यक्ति से जब मैं पहली बार मिलती हूँ तब उस समय वह होता है, उसे मैं नहीं देखती अपितु, उसे भावी में जो बनना होता है उस स्वरूप को देखती हूँ और फिर मेरी चेतना में उस रूप को टिकाए रखती हूँ जिससे वह भावी स्वरूप शीघ्र प्रगट हो।'' इस प्रकार द्युमान के विषय में भी श्री माताजी ने उनकी सैवाकार्य की अभीप्सा देख ली थी। उन्होंने अपनी चेतना की शक्ति द्धारा उस अभीप्सा को इतना प्रबल बना दिया कि द्युमान श्री माताजी के हनुमान बन गये।

एक बार सभी मुख्य साधक माताजी के पास बैठे थे। अचानक माताजी ने प्रश्न पूछा कि, ''गत वर्ष में तुममें से किसने सबसे अधिक प्रगति की है ?'' उन्होंने उतर् में यह नहीं माँगा था कि सामान्य रूप से किस साधक या साधिका ने गत वर्ष में सबसे अधिक आंतरिक प्रगति की है? उन्होंने पूछा था कि गत वर्ष में आंतरिक जीवन में किसने सबसे अधिक निर्णयात्मक डग भरकर विकास साधा है? तब वहाँ नलिनीकान्त, अमृत, चम्पकलाल  पवित्र, अनिलबरन आदि वरिष्ठ

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साधक उपस्थित थे। अत: वहाँ उपस्थित सभी को लगा कि इन साधकों में से ही कोई नाम होगा, पर सभी को आश्चर्य में डालकर श्री माताजी ने द्युमान का नाम बताया। तब सबको पता चला कि आंतरिक रूप से द्युमान माताजी के कितने निकट हैं। श्री माताजी ने इस विषय में एक साधक को पत्र में लिखा था कि, ''द्युमान मुझे बहुत प्यार से चाहते हैं।'' इस विषय में भी द्युमान ने पत्र में बताया था कि, ''श्री माताजी और श्रीअरविंद मेरे अंतर में स्थिर होकर बस गये थे। मुझे कुछ सोचना नहीं होता था। मैं उनके लिये जन्मा, यहीं आया, उनकी सेवा यही मेरा जीवन आदर्श है। सेवा लेने नहीं, सेवा करने के लिये मैं जिया हूँ। ''लव ध मधर'' - ''माताजी को चाहो'' - इसमें सब आ जाता है। फिर कुछ करने को नहीं रहता है।' माताजी को अति उत्कटता से चाहनेवाले बालक को तो फिर माँ सम्भाला कर ले ही जाएगी न्। इस प्रकार द्युमान ने मुश्किल लगते ऐसे साधना के मुल्य शिखरों को पार किया।

द्युमान १९३० में अस्वस्थ हो गये। नर्वस ब्रेकडाऊन न के भोग बन गये। कितने ही प्रमादी साधकों को द्युमान का कड़क अनुशासन और मितव्ययता पसंद नहीं थी। .इसलिये उन्होंने उनके विरुद्ध श्रीअरविंद तक को पत्र लिखें थे। इसके आघात से युमान अस्वस्थ हो गये, तब माताजी ने उन्हें इस बीमारी से स्वस्थ किया और फिर कभी अस्वस्थ न हो उसके लिए एक प्रभावकारी उपाय भी बताया। उन्होंने कहा, ''द्युमान, तुम पवित्र की हेट पहनकर दोपहर को धूप में एक घंटे धूमो, तुम्हें कभी ऐसी बीमारी नहीं आएगी। '' १९३४ का वर्ष द्युमान के लिए शारीरिक अस्वस्थता का वर्ष था। वे निराशा में पड़ गये थे। इस समयावधि में अपनी शारीरिक स्थिति के विषय में वे श्री माताजी को लगभग प्रतिदिन लिखकर बताते थे।

७ फरवरी १९३४ के पत्र में उन्होंने लिखा, ''बीमारी के बाद

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मेरा शरीर बहुत कमजोर होता जा रहा है और मैं बेहोश हो जाता हूँ। यह कैसी स्थिति है कि मैं बार-बार बीमार हो जाता हूँ और मेरा शरीर बहुत कमजोर हो जाता है। आपके कार्य करने के लिये जितना मजबूत होना चाहिए उतना मजबूत नहीं हूँ। मुझे शरीर पर बहुत भरोसा था, पर अब मैं निराश हो गया हूँ।'' इसके उत्तर में श्रीमाताजी ने लिखा, ''तुम्हारा शरीर ठीक है, पर तुम उसे उचित आराम और खुराक नहीं देते हो। मुझे तुम्हें इस विषय में सावधान रहने को कहना पड़ता है क्योंकि मैं उसे बलवान और स्वस्थ बनाना चाहती हूँ और इसके लिये नियमित आराम और पौष्टिक खुराक आवश्यक है। इसके लिये मैं तुम्हे रस पीने के लिये संतरे दूंगी। प्रातःकाल का समय सबसे अच्छा होता है। यदि तुम मुझे एक कप दो तो मैं शाम को रस भरकर तुम्हें पहुँचा दूंगी, तुम सवेरे उठकर पी लेना।''

इस प्रकार स्वयं माताजी ने उनके पथ्य भोजन का ध्यान रखा। आराम करने के लिए भारपूर्वक आग्रह रखा। दूसरे एक पत्र में उन्हें माताजी ने स्पष्ट लिखा कि ''तुम्हारा आग्रह काम करने के लिये है, जबकि मेरा आग्रह सबसे पहले तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक हो, इस पर है।'' एक और पत्र में लिखा, ''तुम मधु और मक्खन क्यों नहीं लेते? यह दोनो वस्तुएँ तुम्हारे स्वास्थ्य के लिये बहुत अच्छी है। यह पचने में हल्की और पुष्टिकारक है, खाँसी के लिये तुम गरम दूध में मिश्री और मधु (शहद) डालकर पियो या पवित्र तुम्हारे लिये जो रस तैयार करता है, उसमें भी मधु डालकर लो। '' एक निराश और बीमार बालक को उसकी माँ जिस प्रकार प्रेम से समझाकर, पटाकर खिलाती-पिलाती है, भोजन देती है इससे भी अधिक ध्यान-पूर्वक माताजी ने द्युमान को उनके नर्वस ब्रेकडाउन की आपत्ति से बाहर निकलने में सहायता की थी। श्री माताजी की सूचनाओं का पालन करते-करते धीरे-धीरे उनकी बीमारी तो चली गई और शरीर इतना अच्छा हो गया कि रात- दिन घंटों तक काम करने पर भी नहीं थकता था।

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११३४ की १९ जून के दिन श्री माताजी ने द्युमान को बुलाकर कहा, ''द्युमान, आज तुम्हारा जन्मदिन है, रसोई में जाओ और लीलादी और अन्य को कहो कि आज कुछ विशिष्ट बनाए। '' उस दिन भोजन कक्ष में ग्यारह व्यंजन थे इसके उपरांत एक विशिष्ट मिष्ठान्न भी बनाया गया था। अभी तक श्रीअरविंद और श्रीमाताजी के जन्मदिवस पर ही मिष्ठान्न बनता था पर १९३४ से श्रीमाताजी ने द्युमान के जन्मदिवस को यह विशिष्टता प्रदान की। तब से प्रति वर्ष १९ जून को भोजन-कक्ष में साधकों को विशिष्ट मिष्ठान्न मिलता है। इसके वारा जान सकते हैं कि श्रीमाताजी द्युमान को कितना ऊँचा स्थान देती थीं।

श्रीमाताजी ने द्युमान के जन्मदिवस पर दूसरी तरह भी विशिष्टता दी। द्युमान को तो प्लेग्राउन्डमें

 जाकर शारीरिक कसरतें करने का समय ही नहीं होता था। वे कभी प्लेग्राउन्ड (खेल के मैदान) में जाते ही नहीं थे। श्रीमाताजी प्रतिदिन शाम को नियमित खेल के मैदान में जाती थीं। १९ जून को श्रीमाताजी ने द्युमान को खेल के मैदान में बुलाया।

आश्रम के दो युवा केप्टननों ने द्युमान को अपनी जुड़ी हुई हथेलियों पर बैठाकर पूरे मैदान में जुलुस के रूप में घूमाया। श्री माताजी अखंड भारत के नक्शे के पास कुर्सी पर बैठी थीं। पास में प्रणवदा खड़े होकर वहाँ से गुजरते विविध समूहों का सलाम ले रहे थे। द्युमान को केप्टन इस प्रकार उठाकर लाए, तब प्रणवदा जोर से फ्रेन्च में बोल उठे, ''बीन फेत आ द्युमान'' - ''द्युमान को जन्मदिवस पर अभिनंदन।'' इस प्रकार १२ जून का दिन भोजन-कक्ष में, क्रीडांगण में (खेल का मैदान) में और सभी साधकों के मन में भी विशिष्ट हो गया। इस प्रकार का उत्सव श्रीमाताजी जब तक खेल के मैदान में आती रही अर्थात् १९५८ तक चलता रहा।

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प्रत्येक साधक को उसके जन्मदिन पर फोटो, पुस्तकें या अन्य वस्तुएँ श्रीमाताजी अपने हाथ से देती थीं, पर द्युमान को केवल जन्मदिवस का अभिनन्दन लिखित में ही मिलता था। इसी प्रकार दर्शन दिवस पर श्रीमाताजी सभी साधकों को कार्ड, ब्लेसिंग पैकेट आदि देती थीं तब द्युमान श्रीमाताजी के पास खड़े रहते और साधकों को देनेवाली वस्तुऐं वे  माताजी को देने जाते। उन्हें श्री माताजी कुछ नहीं देती थी। पर इससे द्युमान के मन में कोई विचार नहीं आता कि श्रीमाताजी उन्हें कुछ क्यों नहीं देती है। एक दिन श्री माताजी ने इस विषय में उन्हें कहा, ''द्युमान, इन वस्तुओं की तुम्हें आवश्यकता नहीं है इसलिये तुम्हें नहीं दी जाती है।''।

''यस मधर, मेरे पास तो आप हैं न, फिर मुझे और क्या चाहिये ?'' यह था द्युमान का तत्क्षण उत्तर। यह सुनकर श्री माताजी अत्यन्त प्रसन्न हो गई।

कई बार द्युमान काम में इतने अधिक व्यस्त होते थे कि अपने जन्मदिन पर श्री माताजी से आशीर्वाद लेने भी नहीं जा सकते थे, तब श्रीमाताजी स्वयं उनके कमरे में आकर अपने हाथ से लिखा हुआ जन्मदिवस कार्ड-पुथगुच्छ दे जाती थीं। १९७२ का वर्ष, श्रीअरविंद का जन्मशताब्दी वर्ष था। द्युमान ने इस समग्र वर्ष में भव्य उत्सव हो उसके लिये वर्षों पहले तैयारी कर रखी थी। इस वर्ष द्युमान के जन्मदिवस पर श्री माताजीने अपने हस्ताक्षर से कार्ड लिखकर दिया। उसमें लिखा था -

१९-६-७२

To Dyuman

Bonne fete and a long life of happy and remarkable useful life.

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with love and blessings

                                                                          Mother

(द्युमान के जन्मदिवस पर अभिनन्दन।

आनन्दपूर्ण और उल्लेखनीय दीर्घ जीवन हो।

प्रेम और आशीर्वाद के साथ। )

                                                                         माताजी

''श्रीअरविंद के जन्मशताब्दी वर्ष पर श्रीमाताजी ने बहुत लम्बा जीवन ही नहीं, पर यह जीवन उल्लेखनीय रूप से उपयोगी और आनंदप्रद हो'' इसका आशीर्वाद भी साथ में दिया। इस आशीर्वाद से दयुमान अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक सजग और कार्यरत रह सके।

श्रीमाताजी के लिये दयुमान केवल साधक ही नहीं थे, किन्तु उनके पुत्र, सेवक, सेक्रेटरी, खजान्ची आश्रम के व्यवस्थापक, भोजनाध्यक्ष आदि सभी थे। जैसे वे श्रीमाताजी के अस्तित्व का भाग ही बन गये थे। अपना अलग अस्तित्व उन्होंने इस सीमा तक मिटा दिया था कि श्रीमाताजी द्युमान की अंतर चेतना में सीधे उतर कर कार्य कर सकती थीं। द्युमान की हनुमान जैसी भक्ति और शक्ति में श्री माताजी को सम्पूर्ण विश्वास था। दूसरी और श्रीमाताजी के कार्य के लिये असम्भव को भी सम्भव करने की तत्परता दयुमान में थी।

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