२४. गणपति, लक्ष्मी और कुबेर से मैत्री
इस विषय में यहाँ कुछ बात कर लेते हैं। एक बार द्युमान को श्रीमाताजी ने गणपति का एक सुन्दर चित्र भेंट में दिया। उसके पीछे श्रीमाताजी ने अपने हाथ से लिखा था 'गणपति तुम्हारे उदार मित्र बनें।' गणपति तो विघ्नहरण करनेवाले, रिद्धि सिद्धि के देव। ऐसे गणपति जिनके उदार मित्र हों, उन्हें कभी न तो निष्फलता मिलती है न दरिद्रता अवरोध करती है। संन्यस्त और सत्यार्थी दयुमान को श्रीमाताजी ने श्री गणेश के साथ करवायी दोस्ती फलीभूत हुई थी।
एक बार श्रीमाताजी ने कहा, 'द्युमान, तुम्हारा दाहिना हाथ बताओ तो!' द्युमान का दाहिना हाथ देखकर श्रीमाताजी ने कहा, 'लक्ष्मीजी तुम्हारी मित्र हैं।' गणपति के साथ लक्ष्मीजी को भी द्युमान का मित्र बताया। भारी आर्थिक आपतकाल में गुजर रहे आश्रम को आवश्यक सम्पति मिलती रही।
देवों की समृद्धि के भंडारी का नाम कुबेर है। दूसरे विश्वयुद्ध के समय आश्रम के साधकों के दूर रहनेवाले परिवारजन व बच्चे सुरक्षा के लिये आश्रम में आश्रय लेने आ गये। इतने लोगों को कहाँ रखना, कैसे भोजन करवाना और आर्थिक सहायता का अभाव था? इस विकट परिस्थिति में चिंतित द्युमान पांडिचेरी के गांधीमार्ग पर आश्रम के लिये खरीददारी करने निकले थे, उस समय उन्हें अनुभव हुआ कि उनके सूक्ष्म शरीर में से कोई तेजोमय आकार प्रगट हुआ और अपना परिचय देते हुए बोला, 'मैं कुबेर हूँ देखो सबकुछ यहीं है। तुम्हें चिंता करने का कोई कारण नहीं है। ' वह तेजोमय आकृति फिर अदृश्य हो गई। परंतु द्युमान ने अनुभव किया कि आश्रम को जब भी पैसे की या वस्तु की आवश्यकता हुई तभी उस सूक्ष्म दिव्य भंडार से उन्हें आवश्यक वस्तु और पैसे मिलते रहे।
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