१९. हिसाब-किताब और डायरी
भोजनालय की खरीददारी का काम इतना बड़ा था कि इसके लिये एक विशेष आदमी की आवश्यकता थी पर द्युमान इतने समर्थ थे कि भोजन कक्ष की व्यवस्था, बाहर की खरीददारी, उपरांत श्रीमाताजी के सौंपे गये अन्य कार्य, श्री माताजी के रसोईघर का उतरदायित्व यह सभी काम अकेले कर रहे थे। एक साथ इतने सारे कार्य मनुष्य अकेले कैसे कर सकता है? पर इन कार्यों के साथ वे ट्रस्टी बने, मेनेजिंग ट्रस्टी बने, उस्टेरी में खेती की, ग्लोरिया फार्म का सर्जन किया। इतने सब काम बढ़ने के बाद भी वे सदा प्रसन्नचित रहकर कार्य करते रहते। कहीं उद्धेग नहीं, थकान नहीं। .'मैंने यह कार्य किया है'' यह भावना ही नहीं। श्री माताजी की शक्ति ही उनके अन्दर सतत् कार्य कर रही है, ऐसा वे अनुभव करते थे। इसलिये उन्हें कार्य का बोझ कभी नहीं लगा, श्री माताजी के लिये काम करना होता था इसलिये वे काम की छोटी से छोटी बात में भी बहुत सतर्कता रखते थे।
आणंद में थे तब हिसाब में कमजोर थे पर अब रसोईघर की खरीददारी का उतरदायित्व आने से वे सावधानी से हिसाब रखने लगे। इस विषय में उन्होंने बताया था कि, ''जब मुझे बाजारसे खरीदने का काम मिला, तब खरीददारी के पैसे मिलते थे, मैं बाजार जाता, भावताव करता, चार दुकान घूमता ओर फिर खरीदता था। जो कुछ खरीदता उसका पक्का बिल बनवाता फिर सारा हिसाब डायरी में लिखता था। माताजी को हिसाब की डायरी बताता,
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देखती थीं। माताजी हिसाब में पूरी चौकस थीं। मैं आणंद और अमदावाद में हिसाब में बहुत कमजोर था, पर पांडिचेरी में माताजी ने मुझे गणित में होशियार बना दिया। माताजी की शक्ति की क्या बात करूँ ?'' प्रतिदिन हिसाब लिखकर द्युमान माताजी को डायरी भेजते थे। माताजी उस डायरी को जाँचकर, देखकर वापस भेज देती और कोई सूचना होती तो कहती थीं। १९२८ से लेकर १९३४ तक द्युमानभाई का हिसाब लिखने का काम नियमित चलता रहा। १९३४ को एक दिन वे इसी प्रकार हिसाब लिख रहे थे तो वहाँ माताजी आयीं और पूछा, ''द्युमान क्या लिख रहे हो ?'' ''माताजी आज का हिसाब लिख रहा हूँ।'' तब श्री माताजी ने पूछा, ''अब भी मुझे हिसाब बताने की आवश्यकता है क्या ?''
''नहीं, माताजी'' द्युमान सहजता से बोल गये। पर बाद में लगा कि ऐसा कैसे बोल गया। परन्तु तुरन्त श्रीमाताजी ने कहा, ''अब इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। कुछ परेशानी हो तो मुझे बताना, अब हिसाब लिखने की आवश्यकता नहीं है।''
यह सुनकर द्युमान तो गद्गद हो गये। माताजी कितना विश्वास उन पर रखती है? भोजनालय की इतनी बड़ी खरीददारी और उसका हिसाब नहीं देना। परन्तु सात वर्ष तक लगातार हिसाब देकर द्युमान ने माताजी को अपनी निष्ठा, खरीदने की कुशलता और मितव्ययता का पूरा विश्वास करवा दिया था। इसलिये श्रीमाताजी ने उन्हें इस कार्य से मुक्ति दे दी। इस विषय में द्युमान ने एक पत्र में बताया था कि ''माताजी को मुझ पर इतना विश्वास था कि न हिसाब देना, न डायरी बताना, न किसी काम के लिये लिखित आदेश लेना।'' परन्तु यह स्थिति युमान को कोई रातों-रात नहीं मिली थी। इसके पीछे माताजी के प्रति उनका सम्पूर्ण समर्पित जीवन था। दिन रात देखे
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बगैर, अपने शरीर के विषय में भी सोचे वगैर, किसी बात की आशा के बगैर, कोई पसंद नापसंद के बगैर उन्होंने अविरत जो कार्य किये उससे श्री माताजी ही नहीं, श्रीअरविंद भी उनसे अत्यन्त प्रसन्न थे।
जब द्युमान ने आश्रम में काम सम्भाला तब श्रीअरविंद ने उन्हें दो प्रकार की डायरी लिखने को कहलाया था। एक डायरी में बाहर के सभी विषय पर लिखना था और दूसरी डायरी में अपने अंतर जीवन और साधना की बात लिखना था। द्युमान आश्रम के विषय में बाहर की घटनाओं की डायरी लिखकर दोपहर बारह बजे माताजी को देते थे। अपनी आंतरिक साधना की डायरी लिखकर रात को बारह बजे भेजते थे। कई बार तो एक दिन में इस डायरी में ८० पृष्ठ के लगभग लिखते। यह क्रम सतत् तीन वर्ष तक चला। प्रतिदिन दोनों ड़ायरी लिखकर भेजते पर एक बार भी श्रीअरविंद ने उनको लिखित उतर नहीं भेजा। भले ही श्रीअरविंद के हस्ताक्षर में उन्हें उतर नहीं मिलता था पर उनके हृदय में वह उतर अवश्य आ जाता था। द्युमान अंतर से सीधे मिलनेवाले मार्गदर्शन का अनुसरण करते। इस कारण उनको आंतरिक साधना में किसी भी मुश्किल का अनुभव नहीं हुआ।
श्री माताजी के अस्वस्थ होने पर, उन्हें परेशानी न हो इसलिये युमान ने उनकी डायरी देना बन्द कर दिया, तब माताजी ने द्युमान को बुलाया और पूछा, ''अब तुम डायरी क्यों नहीं भेजते ?'' ''आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं, इसलिये नहीं भेजता हूँ।'' ''परन्तु श्रीअरविंद तो तुम्हारी डायरी की प्रतीक्षा करते हैं।'' यह सुनकर द्युमान के समग्र अस्तित्व में आनन्द की लहर दौड़ गई। मन में हुआ, '' श्रीअरविंद स्वयं इतना मेरा ध्यान रखते हैं। मेरा जैसा तैसा लिखा हुआ वे इतनी गहराई से पढ़ते हैं।'' ''पर वे मुझे उतर क्यों नहीं लिखते हैं ?'' उन्होंने इस विषय में सीधे माताजी से पूछ लिया। ''वे तुमको किसी विशेष कार्य के लिये तैयार कर रहे हैं।'' तब उनको पता चला कि
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उनके प्रत्येक प्रश्न का निराकरण उनके स्वयं के अंतर से सतत् मिलता रहता है, उसके पीछे श्रीअरविंद हैं। श्री माताजी के इस वाक्य ने उनका आत्मविश्वास हजार गुणा बढ़ा दिया।
एक दिन श्रीमाताजी ने उनसे कहा, ''मैने तुम्हारा ध्यान रखने का काम श्रीअरविंद को सौंपा है।'' श्रीमाताजी के मुख से यह सुनकर द्युमान स्तब्ध हो गये। फिर उनको समझ में आने लगा कि वे जो कुछ कार्य कर रहे हैं, उन सब के द्द्वारा श्री माताजी और श्रीअरविंद उनकी चेतना को अधिक से अधिक ऊँची भूमिका पर ले जा रहे हैं। इसलिये फिर उनकी घंटों तक ध्यान में बैठने या जप, तप करने की कोई आवश्यकता नहीं रही। श्री माताजी का कार्य ही उनकी साधना बन गयी थी। इस विषय में भी श्रीमाताजी ने उन्हें एक बार कहा था, ''द्युमान, तुम मेरा काम करते हो और मै तुम्हारा (साधना का) काम करती हूँ।'' द्युमान का काम अर्थात् साधना, भगवान के साक्षात्कार की और गति। इसके लिये तो वे आश्रम आए थे और बाह्य दृष्टि से देखनेवाले को ऐसा ही लगेगा कि वे तो साधना के बदले कार्यों के प्रचंड प्रवाह में बह गये हैं और साधना एक तरफ रह गई है, पर स्वयं श्री माताजी उनको कार्य डाल साधना के मार्ग पर तेजी से गति करवा रही थीं। उन्हें किसी विशिष्ट साधना को करने की आवश्यकता ही नहीं रही।
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