१. जन्म और शैशव
'हाँ पटेल, कैसे हो ?'
'स्वामीबापा की कृपा से सब ठीक है।'
'इस समय कहीं जा रहे हो?'।
'तुम जैसे ये भेड बकरी चराने जाते हो वैसे ही मैं खेत की और जा रहा हूँ। काम तो करना ही चाहिये न!'
'हाँ बापू, देखो न सूर्य महाराज भी काम से लग गये। सायं काल तक बिचारे को विश्राम नहीं तो हम मनुष्यों को काम किये वगैर कैसे चलेगा ?'।
'तुम चाहे ढोर चराते हो, पर ज्ञानी लगते हो!'।
'यह तो मेरे प्रभु की दया है। पटेल, आज तुम घर लौटोगे तब तुम्हें वहाँ बहुत अच्छे समाचार मिलेंगे।। आज तुम्हारे यहाँ कुछ नवीन होगा!'
'तुम्हारी वाणी फले, बापू!' ऐसा कहकर पटेल खेतों की दिशा में मुड़ गये और भरवाड अपनी भेड़ बकरियाँ की दिशा में मुड़ गया।
पटेल थे खेडा जिले के आणंद तहसील के नापाड गाँव के देसाईभाई पटेल। खेती की जमीन थी।जमीन स्वयं ही जोततें और ईश्वर की दया से जमीन से उपज भी अच्छी मिल जाती थी। उनकी पत्नी लक्ष्मीबहन भी बहुत भक्तिभाववाली थी। स्वामीनारायण भगवान में उनकी बहुत श्रद्धा थी।वे सरल स्वभाव की थीं। दोनों साधु-संतों और अतिथि-अभ्यागतों को प्रेमपूर्वक भोजन करवाते थे।
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पति-पत्नी दोनों शिक्षापत्री के आदेश के अनुसार भगवत् परायण जीवन जीते थे। देसाईभाई का स्वभाव परोपकारी और उदार होने से नापाड में सभी उनका आदर करते थेl। किसी को कोई मुश्किल हो, कोई सहायता चाहते हों तो देसाईभाई के पास पहुँच जाते और वहाँ से सहायता मिल ही जाती।
प्रतिदिन प्रातःकाल नित्यकर्म करके खेत पर जाने का देसाईभाई का क्रम था। आज भी वे इसी प्रकार खेत के लिये निकले थे। वहाँ रास्ते में उनकी एक भरवाड के साथ भेंट हो गई। भरवाड के साथ बातचीत के बाद वे सब भूल गये और खेत मैं आकर काम में व्यस्त हो गये! फिर जब शाम को घर पहुँचे तब वृद्ध माँजी ने उन्हें कहा, 'भाई, बधाई! लक्ष्मी बहू ने पुत्र को जन्य दिया है और पुत्र भी सुन्दर राजकुँवर जैसा है!' देसाई भाई मन ही मन प्रसन्न हो गये और बोले 'वाह! भाई भरवाड, तू सच्चा निकला, तुम्हारी वाणी फली!' जब पुत्र का मुख देखा तो उनके आनंद का पार न रहा क्योंकि यह बालक देवशिशु जैसा सुंदर था! यह यादगार दिन, १९, जून १९०३ का। दिन!
नापाड जैसे छोटे गाँव में देसाईभाई के घर पुत्र के आगमन से सभी उन्हें बधाई देने के लिये आने लगे।माता-पिताने पुत्र का नाम रखा चुनीलाल।बाल चुनीलाल नापाड में माता-पिता और ग्रामजनो के स्नेह से भरपूर वातावरण में पलने लगा। देसाईभाई ने खेत पर जाने के लिये घोड़ी रखी थी।चुनीलाल को वह घोड़ी बहुत पसंद थी।पिता को घोड़ी पर बैठकर जाते देखकर उसे भी घोड़ी पर बैठकर, लगाम हाथ में लेकर घूमने की इच्छा होती।कभी-कभी उसके पिता घोड़ी पर बिठाते तब उसका बाल मन आनंद से छलकने लगता।
एक बार ठण्डी रात को अलाव जलाकर चारों ओर घर के सभी सदस्य बैठे हुए थे। गाँवों में सर्दियो की रातों में सर्दी दूर करने के
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लिये अलाव जलाकर सभी बैठते हैं और इधर-उधर की बातें करते और शरीर को गरमी देते हैं।उसी प्रकार कुटुम्ब के सभी सदस्य आग तापते बातचीत कर रहे थे।तीन वर्ष का चुनीलाल अपने भाई की गोदी में सो गया, भाई को ध्यान नहीं रहा और अचानक वह लुढककर सीधा अलाव पर गिर गया।वह जल गया और बहुत चीखने लगा। घर के सभी लोग परेशान हो गये कि इतनी रात को इस बालक को कैसे चुप करें? उसके शरीर पर ठण्डक के लिये लेप भी लगाया परंतु जलन इतनी ज्यादा थी कि चुनीलाल किसी तरह शांत ही नहीं हो रहा था। तब उसके पिता ने उसे उठा लिया और गली में जहाँ घोड़ी खड़ी थी वहाँ ले गये। घोड़ी पर उसे बिठा दिया और कहा, 'चलो, हम घोड़ी पर बैठकर घुमने जाते हैं।' पिता-पुत्र घोड़ी पर घुमने निकल पड़े और थोड़ी ही देर में बालक का रोना बन्द हो गया। जलने की वेदना जैसे भूल गया, ऐसा था उसका घोड़ी के प्रति लगाव।
उस समय गाँवों मैं मनोरंजन के साधन नहीं थे, पर मदारी आते थे, बंदरों और साँप के खेल दिखाते थे। नट लोग बाँस पर संतुलन बनाकर नाचते, जादूगर भी जादू दिखाते थे। गाँव के बालकों को जैसे ही समाचार मिलता कि जादूगर और मदारी आए हैं तो तुरंत सभी वहाँ पहुँच जाते थे। चुनीलाल भी जिज्ञासावश मदारी के खेल या जादूगर के जादू देखने पहुँच जाता, उसमें उसे बालसुलभ आनंद आता था परंतु इतनी छोटी उम्र में भी उनके अंतर में लगता था कि इनसे मिलने वाला आनंद सच्चा आनंद नहीं है, स्थायी आनंद नहीं है।
कई बार नापाड में भवाईया (छोटे नाटक खेलने वाले) भी आते थे।विभिन्न प्रकार के वेश बनाकर वे लोगों का मनोरंजन भी करते थे।बहुरूपिये भी आते थे।एक बहुरूपिये ने तो चुनीलाल को कुछ खिला भी दिया था परंतु चुनीलाल पर उसका कोई असर नहीं हुआ।
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मानो बचपन से ही वह प्रभु के रक्षण से आवृत था। नहीं तो ऐसे तांत्रिक-मांत्रिक का छोटे बच्चों पर इतना असर होता है कि वे अचेतावस्था में तांत्रिक के पीछे-पीछे चलने लगते हैं। तान्त्रिक फिर बालक को इस प्रकार दूर ले जाकर अपना चेला बना लेता हैं परंतु यहाँ चुनीलाल न तो अचेत हुआ न उनके पीछे-पीछे चला। उल्टा जब गाँव के लोगों को पता चला तो उन्होंने उस बहुरूपिये को मार-मार कर गाँव के बाहर भगा दिया। साधु महात्मा, तीर्थयात्री यदाकदा गाँव में आते रहते थे। गाँव के सभी लोग साधु-महात्माओं के पीछे-पीछे घूमते रहते थे क्योंकि वे सोचते थे कि साधुओं के पास की सिद्धि द्वारा दुःख दूर हो सकते हैं। साधु महात्माओं के पीछे घूमते ऐसे लोगों को देखकर बालक चुनीलाल सोचने लगता कि 'ये सब लोग ऐसे साधुओं के पीछे क्यों भटकते रहते हैं? साधु भी तो मनुष्य ही हैं।' बाल वय से ही वे अंतर्मुखी हो जाते और गहरे विचारों में डूब जाते थे।
चुनीलाल के मातापिता या कुटुम्बीजन गाँव के मंदिर में दर्शन करने जाते तब वे चुनीलाल को साथ ले जाते। भगवान की मूर्ति के दर्शन करना उसे बहुत अच्छा लगता था परंतु दुसरों की तरह घँटा बजाना, जोर-जोर से गाना या जोरजोर से भगवान की जय बोलना उसे अच्छा नहीं लगता था। वह सभी को मंदिर में ऐसे करते हुए देखता रहता। परंतु उसे स्वयं इस प्रकार भगवान के दर्शन करने की अंतर से इच्छा नहीं होती थी। वह तो शांति से, एकाग्रता से भगवान की मूर्ति को देखता रहता और इसीमें उसे आनंद मिलता था। धर्मपरायण माता-पिता के संस्कार चुनीलाल में भी बचपन से ही आए थे और समय के साथ वह संस्कार संवर्धित होते रहे।
उस समय बालक सात वर्ष का हो उसके बाद ही 'बालपोथी'। (प्रथम के. जी.) में प्रवेश करवाया जाता था। तब तक बालक घर में, गली में, गाँवों की सीमा के वृक्षों के नीचे, नदी किनारे, प्रकृति की
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गोद में, मुक्त वातावरण में खेलते-खेलते सहजता से सीखता था। चुनीलाल के साथ भी ऐसा ही हुआ। सात वर्ष की उम्र में उन्हें नापाड की प्राथमिक शाला में पढ़ने भेजा गया। इस पाठशाला में वे पाँचवीं कक्षा तक पढ़े। सरल और अन्तर्मुखी स्वभाव, किसी से ज्यादा नहीं बोलना, झगड़ा तो कभी करना ही नहीं, हमेशा शांत रहना, कक्षा में शिक्षक पढ़ाते हों तब पूरी तरह ध्यान देकर पढ़ना - ऐसे सद्गुणों के कारण चुनीलाल प्राथमिक शाला के शिक्षकों का प्रिय विद्यार्थी था। शिक्षक तो हमेशा उनको आगे ही बिठाते, पर शर्मीले स्वभाव के कारण चुनीलाल अपनी महत्ता की बात शाला में या घर में किसी से नहीं करते थे। इस शाला में पाँच वर्ष तक उन्होंने प्रथम श्रेणी बनाये रखी थी।
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