दिव्यता की तेजोमय किरण - द्युमान


२९ काशीबहन

 

१९२४ हु में द्युमान के साथ काशीबहन पहली बार पांडिचेरी आयी थीं। उन्होंने श्रीअरविंद के दर्शन किये और अपनी सोने की चूड़ियों भी अर्पण की थीं, तभी से श्रीअरविंद की चेतना के साथ उनका तादाम्य हो गया था। परंतु उनका आश्रम में रहने का समय अभी नहीं आया था। इसलिये उस समय तो चुनीभाई (द्युमान) और काशीबहन, दोनो को नापाड वापस जाना पड़ा था। १९२७ में द्युमान को पांडिचेरी आने की अनुमति मिली, पर उनके मातापिता का बहुत विरोध था। तब काशीबहन ने अपने बीमार ससुर की सेवा का उत्तरदायित्य लिया और सास-ससुर को समझा कर द्युमान को अनुमति दिलवायी। यह है भारतीय नारी के त्याग, सेवा, समर्पण और साधना की भावना। ऐसा भारतीय नारी ही कर सकती है। पति योग-साधना के लिये गुरु के आश्रम में समर्पित होने जा रहा है, वह कभी लौटकर नहीं आएगा, स्वयं का संसार अब समाप्त हो रहा है, पूरी जिन्दगी उन्हें अकेले गुजारनी है और पति के स्थान पर घर का उत्तरदायित्व उन्हें उठाना है - यह सब जानते हुए भी उन्होंने सास-ससुर को कहा, 'उन्हें जाने दो।' उस समय उनका त्याग कितना महान था?     

गुरु के सान्निध्य में द्युमान तो निश्चित होकर अपने सेवाकार्य में और साधना में लग गये, घरबार सब भूल गये पर पतिव्रता स्त्री अपने पति को कैसे भूल सकती है? तीन वर्ष तो बीत गये। फिर काशीबहन ने सोचा, 'एकबार पांडिचेरी जाकर उन्हें देख आऊँ।' इसलिये १९३०

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में वे पांडिचेरी आयीं। श्रीमाताजी ने उनके रहने के लिये व्यवस्था कर दी। आश्रम में काम भी सौंपा। वे आश्रम की भोजनशाला में भोजन करती थी। उस समय द्युमान 'भोजन कक्ष'मे परोसने का काम करते थे। द्युमान ने उस समय श्रीमाताजी से मार्गदर्शन माँगा था। श्रीमाताजी ने द्युमान से कहा था, 'काशीबहन के साथ उन्हें कोई बातचीत नहीं करनी है। ' द्युमान ने इस प्रकार व्यवस्था की कि उनके साथ बोलने का संयोग ही न बना।   काशीबहन आश्रम में कुछ दिन रहीं, फिर उन्हें वापिस जाना था तब उन्होंने माताजी को लिखकर बताया कि, 'मैं वापस गाँव जा रही उनके साथ कोई बातचीत नहीं हो सकी है। मैं घर जाउँगी, तब सब. मुझे पूछेंगे कि वे कैसे है तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूंगी ?' यह पत्र पढ़कर श्रीमाताजी ने द्युमान से कहा, 'काशीबहन जाएँ, उससे पहले उनसे मिल लेना। ' अब द्युमान चिंता में पड़ गये, पर फिर उन्होंने रास्ता निकाला। उन्होंने माताजी से पूछा, 'मैं उनसे मिलूँ तब आप उपस्थित रहेंगी?'।

'क्यों?'

द्युमानने कहा 'यहाँ से जब कोई जाता है उससे पहले वह आपको प्रणाम करने और आशीर्वाद लेने आता है। उसी प्रकार वह भी आएगी तब मैं भी यहाँ रहूंगा और आपकी उपस्थिति में वह मुझसे मिल लेगी।' श्रीमाताजी ने सहमति दे दी। जब काशीबहन श्रीमाताजी को प्रणाम करने के लिये आयीं, तब द्युमान भी वहाँ पहुंच गये और एक दो मिनिट के लिये श्रीमाताजी की उपस्थिति में ही काशीबहन से बात हो गई। फिर काशीबहन नापाड लौट गईं। वहाँ घर के कामकाज और सास-ससुर की सेवा में लग गईं। यहीं द्युमान श्रीमाताजी के सेवाकार्य में पूर्ववत् व्यस्त हो गये। १९३० से १९५४ तक का समय इसी तरह बीत गया।

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१९५४में काशीबहन पांडिचेरी आयीं, तब फिर द्युमान ने श्रीमाताजी से पूछा, 'अब मुझे क्या करना है ?'  श्रीमाताजी ने कहा, 'क्यों, तुम सबसे मिलते हो, तो उनसे मिलने में क्या आपत्ति हो सकती है ? ' श्रीमाताजी ने उस समय उन्हें मिलने की सम्मति दे दी क्योंकि अब द्युमान साधना में बहुत स्थिर हो गये थे! काशीबहन द्युमान के कमरे में ही आकर उनसे मिली। नीचे चटाई पर बैठकर बातचीत की। द्युमान जब पहली बार पांडिचेरी में आए थे तब काशीबहन को हिस्टीरिया का रोग था, कभी भी दौरा पड़ जाता था। इसलिये द्युमान ने उस रोग के विषय में पूछा, इसका उन पर बहुत प्रभाव पड़ा और उन्होंने कहा, 'ओहो, अब तक तुम्हें मेरा वह रोग याद है ?' अन्य बातचीत करके वे चली गई। फिर काशीबहन दो तीन बार पांडिचेरी आई और इसी प्रकार द्युमान से दौ-चार मिनिट मिल लेती और कुछ दिन रहकर वापस चली जाती थीं पर फिर लम्बें समय तक उनका पांडिचेरी आना सम्भव नहीं हुआ। पर उनके उपर श्रीअरविंद और श्रीमाताजी की कृपा थी। इसलिये जब उनकी आंतरिक तैयारी पूरी हो गई तब संयोग ऐसे बने कि वडोदरा में श्रीअरविंद सोसायटी के अध्यक्ष अम्बाप्रेमीजी को नापाड में रह रही काशीबहन का पता चला। अम्बाप्रेमी उनसे मिलने नापाड गये और उनकी पांडिचेरी आने की इच्छा जानकर कहा, 'मैं जब पांडिचेरी जाऊँगा, तब आपको अवश्य ले जाऊँगा। '

अम्बाप्रेमी ने द्युमान से पूछा कि, 'मैं काशीबहन को मेरे साथ ले आऊँ तो तुम उनसे मिलोगे न ?' द्युमान ने कहा,. 'जैसे अनेक लोगों से मिलता हूँ वैसे ही उनसे भी मिलूँगा। ' अम्बाप्रेमी के साथ थे १९७५  में पांडिचेरी आयीं और द्युमान से मिली। पर अब सास-ससुर के अवसान होने से नापाड में सेवाकार्य के लिये हमेशा की तरह वापस

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जाना आवश्यक नहीं था। इसलिये काशीबा ने अम्बाप्रेमी से कहा कि,।'मुझे तो अब यहीं रहना है। ' अम्बाप्रेमी ने अपने मकान 'प्रेमीहाउस' में रहने के लिये दो कमरे दे दिये और सभी सुविधा कर दी। तब से वे पांडिचेरी में ही रहीं। प्रसंग पर कभी-कभी द्युमान से मिलती भी थी, विशेषकर उनके जन्मदिन पर। जैसे अन्य साधक द्युमान से मिलते थे वैसे ही वे भी मिलती थीं। द्युमान ने उनके विषय में बात करते हुए एक साधक से कहा था, 'हम अच्छे मित्र हैं। ' 'ग्लोरिया' के इन्चार्ज मनीन्द्रजी को उन्होने १२ अगस्त १९९१ के दिन लिखे पत्र में काशीबहन के विषय में लिख था कि, 'आज काशीबहन अपना जन्मदिन मानती हैं। मैं तुमसे मिलने 'ग्लोरिया' आऊँगा, फिर वहाँ से लौटते हुए उनसे मिलने जाऊँगा। वह बहुत ही अच्छे स्वभाव की स्त्री हे। हम दोनों हमउम्र  उनका ८९वां वर्ष चल रहा हैं

८९ वें वर्ष में द्युमान के काशीबहन के विषय में कहे गये ये वाक्य, काशीबहन के पति की साधनामय जीवन में कभी भी अपनी ओर से विक्षेप नहीं पहुँचाने की भावना को प्रगट करते हैं। द्युमान के देहत्याग के चार वर्ष के बाद १५ मई १९९६ के दिन, काशीबहन ने भी आश्रम में ही शरीर छोड़ा। पति के साधनामय मार्ग के लिये अपना समस्त जीवन त्याग, तप और कठोर संयम से व्यतीत करनेवाली यशोधरा, विष्णुप्रिया जैसी नारियों की सूची में काशीबहन भी हैं।

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