दिव्यता की तेजोमय किरण - द्युमान


 

१३. पांडिचेरी गमन

 

साढ़े तीन वर्ष तक पांडिचेरी आने के आमंत्रण की चुनीलाल ने तीव्र प्रतीक्षा की। इस अन्तराल में वे आंतरिक रूप से श्रीअरविंद के सम्पर्क में थे ही। श्रीअरविंद उन्हें आंतरिक रूप से अपने योग के लिये तैयार कर रहे थे। यह तो उन्हें बाद में पता चला, जब उनकी आंतरिक तैयारी पूरी हो गई अर्थात् उनका समय आ गया तो पांडिचेरी से श्री माताजी ने पुरुषोतमभाई के माध्यम से कहलवाया कि, ''अब चुनीलाल को कहो कि वह पांडिचेरी आ जाए। '' इसी संदेश की उन्हें अभी तक आतुरता से प्रतीक्षा थी। अब जाने का मार्ग खुल गया था। डी. एन. हाईस्कूल से तो भीखाभाई साहब ने उन्हें आशीर्वाद के साथ अनुमति दे दी और कहा, ''जीवन के श्रेष्ठ मार्ग पर तुम जा रहे हो। तुमको श्रेष्ठ गुरु प्राप्त हुए हैं। उनके आश्रम में तुम अपना जीवन सार्थक करो। मुझे बहुत प्रसन्नता है कि तुम वहाँ जा रहे हो।''

इस प्रकार डी. एन. हाईस्कूल का कार्य सरलता से छूट गया, परन्तु समस्या घर में थी। इतना पढ़ा-लिखा, कमाऊ और परिणति पुत्र सब कुछ छोड्कर चला जाए, यह माता-पिता को कैसे सहन हो? पहले समझाया, फिर गुस्सा किया। माता ने बहुत कुछ कहा, न जाने के लिए गिड़गिड़ायी पर चुनीलाल अड़े रहे। उन्होंने माता-पिता के आक्रोश का कोई प्रत्युतर नहीं दिया। चुपचाप सब सुनते रहे। तब बीमार पिता ने कहा, ''हमारा ध्यान कौन रखेगा, हमें कौन सम्मालेगा? इस प्रकार तू हमको बीमारी में छोड़कर जा रहा है, यह क्या अच्छा लगता है ?''

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तब चुनीलाल ने कहा, ''सबका भगवान है। भगवान तुम्हारा ध्यान रखेंगे।'' यह सुनकर माता- पिता ने देखा कि पुत्र का निर्णय दृढ़ है, इससे वह नहीं डिगेगा तो अन्तिम शस्त्र के लप में रोने लगे। चुनीलाल फिर भी दृढ़ रहे, तब उनकी पली काशीबहन ने सास-ससुर से कहा, ''उन्हें जाना है तो जाने दो। जानेवाले को कोई रोक नहीं सकता। रोकोगे तो भी जाएँगे। इसलिये राज़ीख़ुशी से अनुमति दे दो।'' पर माता-पिता का हृदय था। पुत्र को हमेशा के लिए आश्रम जाने की अनुमति कैसे दे दें? परन्तु शंकर, गौरांग, सिद्धार्थ के समान जो भागवत् कार्य करने के लिये पृथ्वी पर आए हैं उन्हे कौटुम्बिक सम्बन्ध के बन्धन में जकडकर नहीं रख सकते। व्यापक कल्याण के लिये आयी आत्मा आसक्ति से परे होती है। ऐसा ही चुनीलाल के विषय में भी हुआ। वे १९२७ के मई महीने में अपने सच्चे घर जाने के लिए सांसारिक समबंन्धो को छोड़कर चल पड़े। १० मई १९२७ को अपने चिरस्थायी घर पांडिचेरी के श्रीअरविंद आश्रम में श्री गुरुचरण में सम्पूर्ण समर्पित होने को पहुँच गये। उन्होंने माता-पिता को कहा था, ''तुम्हारा ध्यान भगवान रखेंगे'' और उनके पिता १५ वर्ष तक स्वस्थ और आनन्दपूर्ण जीवन जीए थे। माता भी दीर्घायु रही थी। प्रभु के कार्य के लिए जो समर्पित होते हैं, उसके कुटुम्ब का उत्तरदायित्व भी स्वयं भगवान वहन करते हैं इसकी प्रतीति बाद में उनके माता-पिता को भी हुई।

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