विभिन्न कार्यों में व्यस्त होते हुए भी द्युमान आंतरिक रुप से तो दिव्यचेतना में एकरूप हो जाना चाहते थे। श्रीमाताजी के साथ उनका आंतरिक सम्बन्ध सतत् बना रहे यही वे चाहते थे। मानव प्रकृति से उठते विरोधों के बीच भी वे सुस्थिर, शांत और अक्षुब्द्ध रहना चाहते थे। अपनी प्रकृतिगत मर्यादाओं से ऊँचे उठकर दिव्य चेतना में स्थिर होने की उनकी सतत् भावना बनी रही। इसलिये जब-जब उनकी प्रकृति से विरोध उठता था उनके मन को कोई घटना क्षुब्द्ध कर जाती तो, तब प्रारम्भ में वे श्रीमाताजी को पत्र लिखते और श्रीमाताजी उन पत्रों का अपने हाथ से उत्तर देती थीं। १९३४ से १९३६ तक तीन वर्ष की अवधि में उन्होंने श्रीमाताजी को बहुत पत्र लिखे थे और प्रत्येक विषय में उन्हें श्रीमाताजी का मार्गदर्शन मिला है। (द्युमान के असंख्य पत्र प्रकाशित होना शेष है।)इन पत्रों में उनके हृदय की श्रीमाताजी के प्रति उत्कट पुकार है। तीब्रतम अभीप्सा है। सर्वत्र शांति स्थापित हो, इसकी प्रबल लालसा है। एक नन्हें बच्चे का अपनी माता के प्रति अटूट विश्वास है और दिव्यशक्ति के प्रति अविचल श्रद्धा और भक्ति भी हे।
इन पत्रों के प्रत्युत्तर में श्रीमाताजी ने उन्हें अचूक मार्गदर्शन भी दिया है, जो साधना पथ पर चल रहे प्रत्येक साधक के उलझे प्रश्नों के उत्तर हैं। उनके द्धारा माँ का बालक के प्रति असीम प्रेम, बालक को सही रास्ते पर ले जाने के मार्गदर्शन की अनोखी रीति, माँ की सतत्
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सजग दृष्टि और उष्मा तथा सामान्य प्रकृति में से दिव्यप्रकृति में प्रेमपूर्वक ले जानेवाली माँ की दिव्यकृपा और करुणा के दर्शन उनमें होते हैं। ये पत्रव्यवहार श्री अरविंद इंटरनेशनलसेंटर फॉर एज्यूकेशन के बुलेटिन में अप्रैल १९९६ से अगस्त १९९९ तक के अंको में दस सप्ताह में प्रकाशित किये गये हैं। इसमें से कुछ झलक निम्नलिखित हैं :-
नये वर्ष की प्रार्थना करते हुए द्युमान श्रीमाताजी को लिखते हैं।
'यह वर्ष समाप्त हो रहा है, नये वर्ष का प्रारम्भ हो रहा है। कृपा करें कि नया वर्ष हमारे लिये दिव्य उपहार लाए।'
श्रीमाताजी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए लिखती हैं, 'हाँ, चेतना को प्रकाश प्रबुद्ध करेगा और अज्ञान की छाया विलीन होगी। मेरे प्रिय बालक को प्रेम और आशीर्वाद। '
दूसरे एक पत्र में प्रार्थना करते हुए लिखते हैं, 'प्रिय माताजी, कृपा करें कि, मेरी सच्चाई बढ़कर मेरे अस्तित्व में फैल जाय।' तब माताजी उन्हें बताती हैं, 'हाँ, यह सत्य भगवान के प्रति अधिकाधिक स्पष्टता और समर्पण लाएगा, जो सर्वांगीण एकता की और ले जाएगा। मेरे प्रिय बालक, सच्चाई ही भागवत् द्द्वार की चाबी है।'
द्युमान की उत्कट अभीप्सा थी कि श्रीमाताजी की सतत् उपस्थिति उनके हृदय में रहे। इसके लिये प्रार्थना करते हुए उन्होंने लिखा था कि, 'प्रिय माताजी, कृपा करें कि मेरे हृदय में आपके आसन का विस्तार और गहराई बढ़ती जाए। वह समुर्ण रूप से आपका ही बना रहे। ' माताजी ने इसके प्रत्युत्तर में कहा कि, 'हाँ, मैं सदा तुम्हारे हृदय में रहती हूँ। सचेतनरूप से तुम्हारे अंदर रहती हूँ।'
बालक माँ से जैसे माँगता है, कुछ सीखना चाहता है. उस प्रकार उन्होंने माताजी के समक्ष अपनी माँग रखी थी, उन्होंने लिखा था,।'माँ, मुझे अधिक से अधिक आप पर भरोसा करना सिखाओ।
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'इसके उत्तर में माताजी ने कहा, 'शांति और नीरवता में तुम अधिक से अधिक मेरी सतत् उपस्थिति के विषय में सचेतन हो सकोगे। '
दूसरी एक माँग करते हुए द्युमान कहते हैं, 'माँ, कृपा करो कि आप जैसी हैं, वैसी ही मैं आपको जान सकूँ। मैं जैसा सोचता हूँ वैसे नहीं। ' प्रत्युत्तर में माताजी ने लिखा, 'मेरे प्रिय बालक, जैसे -जैसे तुम मेरी उपस्थिति के विषय में अधिक सचेतन बनते जाओगे, वैसे-वैसे तुम मुझे अधिक से अधिक जान सकोगे। '
फिर एक तीव्र अभीप्सा व्यक्त करते हुए द्युमान लिखते हैं, 'माँ, मुझे अपना सच्चा बालक बना दो।' इसके प्रत्युत्तर में माताजी ने बताया, 'हाँ मेरे सच्चे बालक, मैं तुम्हे सदा अपने बाहुपाश में रखती हूँ।'
प्रार्थना के साथ अपनी आंतरिक स्थिति, अपनी स्वभावगत मर्यादाओं की बात को द्युमान ने श्रीमाताजी के समक्ष रखी है। एक पत्र में उन्होंने लिखा है, 'यह कैसी बात है कि मैं कुछ पढ़ता नहीं हूँ सिखता नहीं हूँ। कितने ही लोग भाषा सिख रहे हैं, चित्रकारी सिख रहे हैं, कोई संगीत सिख रहा हैं, कोई योग की पुस्तकें पढ़ते हैं। कितने ही 'आर्य', में से श्री अरविंद के लेखों की नकल करते हैं। 'इसके उत्तर में श्रीमाताजी कहती हैं, 'यह सब उनके लिये है, जिनका मन बेचैन रहता हो और जिन्हें किसी मानसिक काम की आवश्यकता हो। ' एकबार फिर उनके मन में विचारों की हलचल होने लगी कि आंतरिक रूप से मैं कुछ नहीं करता हूँ। तब अपनी मनःस्थिति के विषय में श्रीमाताजी को लिखा था, 'यह कैसी बात है कि मैं कुछ नहीं करता हूँ। यह सत्य कभी-कभी मेरे लिये पहेली बन जाता है। मेरे पास इसका समाधान नहीं है। परंतु इसकी कोई परवाह नहीं। बस, मैं माँ के साथ रहूँ वे मेरे साथ रहें, वे मेरे पास हों तो मुझे कुछ और
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नहीं चाहिये।' श्रीमाताजी ने लिखा, 'सचमुच, यह सबसे अधिक सच्चाई है। मेरे प्रिय बालक, मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ।'
मन कभी-कभी अपनी स्वभावगत मर्यादाओं से ऊपर उठ जाने से परेशान होकर उन्होंने माताजी को लिखा, 'माँ, मैं अपने स्वभाव से तंग आ गया हूँ। यदि मैं काम पूरा करना चाहूँ तो मुझे इससे उपर उठना ही चाहिये। वह मुझे बार-बार धकेलता है। वह मुझे शंका, अविश्वास और अहंकार की स्थिति में खींचने की कोशिश करता है। ' 'है माँ, मुझे और मेरी प्रकृति को अस्तव्यस्तता से ऊपर उठा लो। अपने अनंत प्रेम के मुक्त और विशाल वातावरण में साँस लेने दो।'
इसके उत्तर में श्रीमाताजी ने बताया, 'एक ही दिन में मानव अपने स्वभाव को जीत नहीं सकता है। धीरज और दृढ़ संकल्प के साथ प्रयत्न करने से अवश्य विजय मिलेगी।'
एक बार अनजाने में श्रीमाताजी की आज का पालन युमान नहीं कर सके, इस कारण उनके हृदय में बहुत दुःख होने लगा, तब उन्होंने श्रीमाताजी को पत्र द्धारा बताया, 'आपकी अवज्ञा करने का मेरा कोई इरादा नहीं था। आपकी आज्ञा-मुझे सायंकाल पाँच बजे मिली, तब बर्तन पोंछने का काम समाप्त हो गया था। मैंने अनजाने में आपकी आज्ञा की अवहेलना की, उसके लिये मैं आपके चरणों में नतमस्तक होकर निवेदन करता हूँ कि मैं किसी भी दंड के लिये प्रस्तुत हूँ।'
इसके उत्तर में श्रीमाताजी ने लिखा, 'दंड किसलिये मेरे बालक? मैंने ऐसा कुछ नहीं सोचा है। मैंने यह भी नहीं सोचा कि मेरे किसी नियम का उल्लंघन तुमने किया है। यह सब गलतफहभी है। तुम्हें यह पता होना चाहिये कि मैं तुम पर विश्वास करती हूँ और मुझे तुम्हारी सच्चाई और गहन उत्साह पर पूरा भरोसा है। इसी
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आधार पर तो हम मिलकर काम कर रहे हैं। जब भी कुछ सुधार करना होता है तो मैं तुम्हें बता देती हूँ। मेरे वात्सल्य पर कभी शंका मत करना। ' श्रीमाताजी उन्हें कितना विश्वास दिलाती हैं।
द्युमान अपनी प्रत्येक अनुभूति के विषय में श्रीमाताजी को लिखकर बताते थें और उसमें भी मार्गदर्शन लेते थे। एक अनुभूति के विषय में लिखते हैं, 'मेरी प्रिय माताजी, जब आप मुझे खिड़की में से देख रही थी तब मैंने क्या देखा? मुझे ऐसा लगा कि मेरा हृदय काँच जैसा पारदर्शक है और उसमें आप अपना ही चेहरा देख रही थीं। मेरी प्रिय माताजी सदा मेरे हृदय में हैं। मेरी माँ, मेरी माँ।'
इसके उत्तर में माताजी बताती हैं कि, 'यह एक बहुत ही सुन्दर और सच्ची अनुभूति है। मैं प्रसन्न हूँ कि तुम्हें यह अनुभूति हुई। ही! मै सदा तुम्हारे हृदय में हूँ।'
अपने मन, प्राण में उठते सभी भावों को श्रीमाताजी के समक्ष सहजता से प्रकट करने से, द्युमान को पता ही नहीं चला कि इस प्रकार वे निम्न प्रकृति से मुक्त होकर श्रीमाताजी की चेतना के साथ तद्रुप होने लगे हैं। यही तो श्रीमाताजी की शिष्यों के तैयार करने की विशिष्ट पद्धति रही है।
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