दिव्यता की तेजोमय किरण - द्युमान


२६. सेवाकार्य का विस्तार

 

जैसे-जैसे आश्रम का विस्तार होता गया, वैसे-वैसे द्युमान का कार्य भी बढ़ता गया। प्रारम्भ में उनका कार्य केवल भोजन कट्टर तक सीमित था और उसमें भी भोजन परोसने का ही कार्य था। पर जैसे- जैसे श्रीमाताजी उनकी सत्यनिष्ठ कार्यदक्षता को देखती गई वैसे-वैसे सहजरूप से उनके हाथ में अधिक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य आते गये। भोजन-कक्ष का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व तो उनपर था ही, फिर श्रीमाताजी और श्रीअरविंद की रसोई का कार्य भी उन्हें सौंपा गया। श्रीमाताजी के किसी भी कार्य के लिये उन्होंने 'नहीं' कभी नहीं कहा था। सदैव।'यस मधर' यही शब्द उनके मुख में रहता था। इसके उपरांत वे दिन में तीन बार श्रीमाताजी के: लिये नाश्ता-भोजन लेकर उनके कमरें में जाते थे और माताजी को भोजन करवाते थे। इस कार्य में उन्हें असीम आनन्द मिलता था। जैसे साक्षात अन्नपूर्णा के लिये वे भोजन ले जाते हों। श्रीमाताजी को जब भी आवश्यकता हो तब उनके काम के लिये चौबिसो घंटे वे तत्पर रहते थे।

१९५५ में आश्रम की व्यवस्था के लिये ट्रस्ट बनाया गया। उसमें श्रीमाताजी  मेनेजिंग ट्रस्टी बनीं और शेष चार द्रस्टियो की नियुक्ती हुई। उसमें द्युमान को भी ट्रस्टी बनाया गया। जब उनको पता चला तो वे श्रीमाताजी के पास गये और हाथ जोड़कर विनती करते हुए कहा, 'मैंने सुना है कि आपने मुझे आश्रम के ट्रस्टी मंडल में लिया है, पर क्यों? मैं तो आपका सेवक हूँ और मुझे सेवक के रूप में ही काम करने दो। आप किसी और को नियुक्त कर लो। ' तब श्रीमाताजी ने

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उन्हें कहा, 'दयुमान, मुझे तुम्हारी आवश्यकता है।' उसके बाद वे एक शब्द भी नहीं बोले। श्रीमाताजी की व्यवस्था को उन्होंने स्वीकार कर लिया। ट्रस्टी बनने से उनके कार्य बहुत बढ़ गये। सरकार के साथ पत्रव्यवहार, साधकों के साथ पत्रव्यवहार, आश्रम के निर्माण का निरीक्षण करना, मीटिंग में उपस्थित रहना, भेटकर्ताओ से मिलना आदि अनेक काम बढ़ गये। इसमें भी जब अमृतभाई ने देह छोड़ी तब उनके सेन्ट्रल ऑफिस का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व भी दयुमान पर आ गया। यह ऑफिस भी उन्होंने कुशलतापूर्वक सम्भाल लिया उपरांत उन्हें यदि आंतरिक प्रेरणा होती तो उसके अनुसार कार्य बढ़ाते जाते थे।

१९६० का वर्ष 'लीप ईयर' था। १९५६ फरवरी की २९ तारीख को श्रीमाताजी ने क्रीडागण में 'अतिमानस के अवतारण' की घोषणा की थी। अब यह तिथि २९ फरवरी १९६० में आ रही थी। द्युमान की इच्छा थी कि इस दिन का उत्सव भव्यरूप से किया जाये। उस दिन 'अतिमानस' का सुवर्णप्रकाश पृथ्वी पर उतरा था, इसलिये इस दिन सब कुछ सुवर्णरंग का बने और इस दिन को कुछ झोंकी लोगों को हो, ऐसी उनकी आंतरिक इच्छा थी। उन्होंने श्रीमाताजी के समक्ष अपनी इच्छा बतायी। तब श्रीमाताजी ने उनसे पूछा, 'अतिमानस अवतारण का वह दिन फिर दृश्यमान हो, ऐसा कुछ करना है? 'हाँ माताजी। द्युमान बोले।

श्रीमाताजी को उनकी योजना अच्छी लगी, उन्होंने सहमति दे दी। श्रीमाताजी की सहमति मिलते ही उन्होंने तुरन्त तैयारी शुरु कर दी और २२ फरवरी १९६० का वह दिन आश्रम में सबके लिये अविस्मरणीय बन गया। अतिमानस जगत कैसा होगा? स्वर्णिम प्रकाश में प्रकाशित वस्तुएँ केसी भव्य और दिव्य होगी, उसकी झोंकी द्युमान ने सभी को करवा दी।

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ध्यान खंड में सुवर्णरंग के साटीन के परदे लगाए गए थे और उसमें प्रकाश भी सुवर्ण रंग का प्रसारित हो रहा था। जैसे सचमुच पूरा ध्यान खंड ऊर्ध्व में से सीधा पृथ्वी पर उत्तर आया हो! श्रीमाताजी के पूरे कमरे में सुवर्ण रंग का साटीन बिछा हुआ था, ताकि उस पर चलकर श्रीमाताजी झरोखे में दर्शन देने जा सके। उनके वस्त्र भी सुवर्ण रंग के थे, उस चोगे के बटन सोने के थे। उस दिन उन्होंने जिन-जिन वस्तुओं का उपयोग किया वे सभी सुवर्णरंगी थी। साधकों को स्मृति चिह्न दिया गया उस पर भी सोना चढ़ा हुआ था। उस दिन साधकों को जो वस्त्र दिये गये वे भी सुवर्ण रंग के थे। साड़ी की किनारी भी स्वर्णिम थी। दिन में तो ऐसा लग रहा था कि जैसे समग्र आश्रम सुवर्णरंगी प्रकाश की आभा से झिलमिला रहा है और रात को? रात को 'सर्विस ट्री-समाधि के पास के वृक्ष में सजायै गये असंख्य बल्ब - जैसे आकाश के तारे अतिमानस का दिव्य प्रकाश लेकर समाधि के वृक्ष पर आकर बैठ गये हों। रात्रि की नीरवता में सर्विस का यह वृक्ष अतिमानस वृक्ष अतिमानस प्रकाश से झिलमिलाता वृक्ष बन गया हो! कोई अलौकिक दिव्य सृष्टि, जिसकी मानव मन कल्पना भी नहीं कर सकता हो, वहाँ खड़ी हो गई थी। इसके पीछे कितने दिनों की युमान की मेहनत थी। उनका भगीरथ परिश्रम सार्थक हो गया था।

बाहर के अतिथि ही नहीं, आश्रमवासी तक इस स्वर्णिम आविर्भाव से आनंदित हो गये थे। बाद में श्रीमाताजी ने उन्हें बुलाया,।'अब मैं तुम्हें यह कहूँ कि इन सभी वस्तुओं को वापस बेच दो तो ?'।'माताजी, बेच दूंगा।' जरा भी अटके बगैर उन्होंने कहा। कैसा अनासक्त, तटस्थ और निर्लिप्त व्यक्तित्व। इतना भव्य सर्जन और फिर दूसरे ही क्षण उससे एकदम निर्लिप्त हो जाना।

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१९७३ में नवम्बर १७ तारीख शाम को ७-१५ बजे श्रीमाताजी ने शरीर छोड़ दिया, परन्तु श्रीमाताजी ने नलिनीकान्त, द्युमान को और उनके साथियों को ऐसा तैयार किया था कि माताजी देह में थीं, तब आश्रम की सभी प्रवृत्तियों जिस प्रकार चलती थीं, उसी प्रकार चलती रहें। द्युमान ने आश्रम का वित्तीय पक्ष सम्भाल किया था, वैसे भी नलिनीकान्त और प्रधुत जैसे वरिष्ठ साधकों के देहत्याग के बाद द्युमान का उत्तरदायित्व बहुत बढ़ गया था। वे इस नये कार्यभार को श्रीमाताजी डाल दी गई अपनी प्रबल आंतरिक शक्ति से उठाते रहे। मेनेजिंग ट्रस्टी कुन्नुमा के अवसान के बाद आश्रम के मेनेजिंग ट्रस्टी का उत्तरदायित्व भी उनके सर पर आ गया। इसको भी उन्होंने श्रीमाताजी का आदेश समझा। दर्शन-दिनों में तो उषाकाल से सायंकाल तक वे दर्शन-संदेश और ब्लेसिंग पैकेट देने के कार्य में व्यस्त रहते थे। उपरांत इन दिनों में भोजन कक्ष का काम बढ़ जाता था। मुलाकातियों का आनाजाना भी बढ़ जाता, फिर भी प्रसन्नतापूर्वक, जरा भी थके बगैर, थे सभी कार्य अपनी विशिष्ट शैली से करते रहते थे। १९७१ में श्रीमाताजी ने उन्हें एक बार कहा था, 'द्युमान, श्रीअरविंद तुम्हें देख रहे हैं, वे तुम पर बहुत प्रसन्न हैं' और अब यह भी कह सकते हैं कि, ' श्रीमाताजी उन्हे देख रही थीं और वे अत्यन्त प्रसन्न थीं। ' श्रीअरविंद और श्रीमाताजी की उन पर अविरत दृष्टि उन्हें इतने कार्य करने की प्रेरणा और शक्ति दे रही थी।

१९७८ का वर्ष श्रीमाताजी का जन्म शताब्दी का था। द्युमान ने इस वर्ष का उत्सव भी स्मरणीय बना दिया। प्रत्येक दर्शनार्थी को श्रीअरविंद और श्रीमाताजी के स्मृतिचिह्न भेंट में मिले और उन्हें वे अपने पास सदा रख सके, ऐसा आयोजन किया। उनके पास श्रीमाताजी की उपयोग की हुई साड़ियों पड़ी हुई थीं। इन साड़ियों के एक-एक इंच के चौकोर टुकड़े करवाये और इसी प्रकार श्रीअरविंद की

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धोती के टुकड़े करवाये। दोनों टुकड़ोंको क्लात्मक रूप से एक फ़ोल्डर में चिपकाया गया। ये   कलात्मक फ़ोल्डर श्रीमाताजी के जन्मदिन पर दर्शन के लिये आए साधकों को द्युमान के हाथों से मिले। श्रीअरविंद और श्रीमाताजी की ऐसी अमूल्य स्मृति भेंट प्राप्त करके दर्शनार्थियों ने धन्यता का अनुभव किया।

१९८६ अप्रैल की चार तारीख को श्रीअरविंद को पांडिचेरी आए ७५ वर्ष हो गये थे। द्युमान को अंतःप्रेरणा हुई कि इस दिन का उत्सव सुन्दर होना चाहिये। श्रीअरविंद १९१० १० अप्रेल की ४ तारीख को सर्वप्रथम पांडिचेरी आए थे तब वे पहली बार शंकर चेट्टी के मकान में रहने गये थे। वहाँ उपरी मंजिल पर उन्होंने गहन साधना की थी। अब द्युमान ने सोचा कि हम शंकरचेट्टी के मकान के उस कमरे में जाकर ध्यान और प्रार्थना द्द्वारा श्रीअरविंद को अंजलि दें, पर यह मकान किसी ऐसे व्यक्ति के अधिकार में था जो आश्रम से जुड़े हुए नहीं थे, पर इससे क्या हुआ? द्युमान तो जाकर सीधे उसके मालिक से मिले और सारी बात बताई तो मकान मालिक ने प्रसन्नतापूर्वक इस कमरे में आकर ध्यान- प्रार्थना करने की अनुमति दे दी। फलस्वरूप आश्रमवासी श्रीअरविंद के पांडिचेरी में सर्वप्रथम निवास के दर्शन कर सके। द्युमान को अंतःकरण में प्रेरणा होते ही वे उसका क्रियान्वयन करके तत्काल प्रयत्न प्रारम्भ कर देते थे। कौन करेगा, कैसे होगा, आदि प्रश्न उनकी मन की भूमिका पर उठते ही नहीं थे। बस प्रेरणा हुई और वह कार्य में परिणित हो जाती। इसी कारण द्युमान अनेक कार्य तीव्रता से कर सकते थे।

१९९३ में श्रीअरविंद आश्रम की शाला के स्थापना के ५० वर्ष पूरे होने से उसकी स्वर्णजयंती मनाने का विचार आया। इसके लिये वे स्कूल की प्रिन्सीपाल पारूदी और फिज़ीकल एज्यूकेशन के अध्यक्ष प्रणवदा को मिले। उनके साथ मिलकर उत्सव के कार्यक्रम की

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रूपरेखा तैयार की और कार्य आरम्भ किया। अब तक के आश्रम के विद्यालय में पढ़कर देश-विदेश गये हुए आश्रम के सभी भूतपूर्व विधार्थियों को इस उत्सव में सम्मिलित होने का निमन्त्रण देना था। इसी लिये शीघ्रता से सभी विधार्थियों के पते एकत्रित किये गये। सभी तैयारी हो गई, पर उत्सव के पहले ही वे चल बसे परच आश्रम की परम्परा के अनुसार उत्सव मनाया गया।

आंतरिक सूझ, त्वरित निर्णय शक्ति, आयोजन के अनुसार तुरन्त कार्य हाथों में लेकर पूरा करने की वृत्ति के कारण द्युमान के सभी कार्य आश्रम की परम्परा के अनुसार सार्थक ढंग से हुए। जैसा द्युमान का लेखन सीधा, सचोट और संक्षिप्त होता था वैसे ही उनका कार्य भी सीधा, सचोट और अविलम्ब होता था।

एक दिन वे प्रातःकाल भोजनालय का निरीक्षण करके वापस आए तब उन्हें आश्रम के दरवाजे के पास रखी हुई एक साइकल दिखायी दी। उसकी सीट पर कवर नहीं था, इस पर ध्यान गया। तीन चार दिन तक देखते रहे। फिर मन में विचार आया कि 'बिचारा सवेरे जल्दी नलिनीदा के ऑफिस में काम करने आता होगा और कवर खरीदने का उसे समय नहीं मिलता होगी।' यह सोचकर उन्होने सीट का नया कवर खरीदकर उस पर चढ़ा दिया! बस काम हो गया, फिर उस व्यक्ति को पता चले या न चले, इसकी परवाह नहीं थी। पर जब उस मनुष्य को पता चला कि यह काम द्युमान ने किया है तो वह गद्गद हो गया। इस प्रकार शुभ विचार को तत्काल अमल में लाने का उनका स्वभाव था। ऐसा ही त्वरित कार्य उन्होंने आश्रम के थियेटर में किया। एक बार वे आश्रम के थियेटर में गए, वहीं कार्यकर्ता नाश्ता कर रहे थे। उन्होंने देखा कि वे अलयुमिनियम की प्लेटों में नाश्ता कर रहे है। उन्होंने दूसरे दिन नाश्ते के लिये स्टेनलेस स्टील की प्लेटें भेज दी।

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इस प्रकार अनेक कार्य उनकी दृष्टि में आ जाते थे।

आश्रम में आए तब से आश्रम में शरीर से विदा ली तब तक सतत् इसी प्रकार काम करते रहें। श्रीमाताजी के लिये कार्य करने का आनन्द, उत्साह इतना छलकता था कि उस कार्य में उनकी बढ़ती उस कभी अवरोधक नहीं बनी। जबकि जैसे-जैसे उनके कार्य का विस्तार होता गया वैसे-वैसे उनकी शक्ति बढ़ती गई। श्रीमाताजी के कार्य के प्रति उनका लगाव इतना अधिक था कि उन्होंने एक बार कहा था कि,।'जब मेरी मृत्यु होगी और तुम मेरे शरीर को चिता पर रखोगे और जलाओगे तब मेरी आत्मा तो कूदकर बाहर निकल कर तुरन्त दूसरा जन्य ले लेगी, जिससे माताजी का काम अधिक से अधिक कर सके।'

श्रीमाताजी के कार्य के प्रति उनकी ऐसी उत्कट प्रीति थी।

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