दिव्यता की तेजोमय किरण - द्युमान


६. शांतिनिकेतन में

 

डी. एन. हाईस्कूल का अभ्यास पूरा होने के बाद भी चुनीलाल ऐसे विधाधाम की शोध में थे जहां उन्हें उनकी आत्मा का प्रशिक्षण मिले, जहाँ उनके अंतर में जो अविरत शोध चल रहा था, उसे दिशा मिले। इसलिये वे जहाँ-जहाँ उनकी आत्मा को शिक्षण मिलने की संम्भावना लगी, वहाँ-वहाँ गये। हरिद्द्वार गये, ऋषिकेश गये, गुरुकुल कांगडी भी हो आए। फिर कलकता गये। कुछ समय बेलुर मठ में भी रुके पर कहीं उनका चित्त नहीं लगा। फिर मन में आया कि गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर के शांतिनिकेतन में जाऊँ। गुरुदेव के दूर से दर्शन किये थे जब गुजराती साहित्य परिषद में वे अमदावाद आए थे। तब दूर से ही उनके भव्य और प्रतिभावंत व्यक्तित्व को देखकर बहुत ही प्रभावित हुए थे। तब मन की गहराई में इच्छा हुई थी कि उनकी संस्था में अभ्यास करने को मिले तो कितना अच्छा हो। यह सुषुप्त इच्छा उतरोतर बलवती होती गई और उन्हें १२२० में शांतिनिकेतन ले ही आई!

शांतिनिकेतन में वे गुरुदेव रविंद्रनाथ ठाकुर से मिले और अपनी इच्छा बतायी। उन्हें तो योग का गहन अध्ययन करना था पर यहाँ 'योग' का अलग विषय का अभ्यासक्रम नहीं था परन्तु भारतीय संस्कृति और प्राच्य विधा का विषय था, उसमें योग का समावेश हो जाता था। इसलिये उन्हें प्राण विधा में प्रवेश लिया। प्रकांड विद्धान आचार्य क्षितिमोहन सेन इस विभाग के प्रमुख थे। उन्होंने भारतीय संस्कृति का गहरा अध्ययन किया था और साथ ही वे महान साधक और रहस्थवादी साधना के मर्मज्ञ थे। ऐसे तत्वज्ञ ॠषितुल्य अध्यापक

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से भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन करने का अवसर मिला, चुनीलाल इसका पूरा-पुरा लाभ लेना चाहते थे इसलिये वे प्राच्य विधाकी पुस्तकों के अध्ययन में ड़ूब गये। प्रारंभ में आठ घंटे तक पुस्तकों का अध्ययन करते फिर समय की अवधि बढ़ते बढ़ते बीस घंटे तक हो गई। एक वर्ष में तो उन्होंने प्राच्य विधा की सभी महत्वपूर्ण पुस्तकों का अध्ययन पूरा कर लिया। शांतिनिकेतन में अंधिकांश समय वे लेखन पढ़न में ही व्यतीत करते, इसलिये उनका शांतिनिकेतन में किसी के साथ आत्मीय मैत्री सम्बन्ध नहीं हुआ था। एक मात्र दीनबंधु एन्ड्रूजके साथ उनका घनिष्ठ सम्बन्ध बना जो हमेशा बना रहा।

शान्तिनिकेतन के विधार्थीयों के साथ उनका आत्मीय सम्बन्ध भले ही नहीं बना पर जहाँ सभी विधाथिॅयों के साथ मिलकर काम करना होता था तो उसमें चुनीलाल अचूक योगदान देते थे। समूहकार्य भी प्रार्थना का एक भाग है, यह मानकर वे यह कार्य प्रसन्नता से करते थे। शांतिनिकेतन के पास एक बड़ा तालाब था इस कारण मच्छरों का उपद्रव असह्य हो गया था, इससे कई विधार्थी मलेरिया से बीमार हो गये थे। इसलिये वहां के विधार्थीयों ने ही इस तालाब को पाट देने का निश्चय किया। सभी कुदाली, फावडा, तगारे लेकर निकल पड़े। चुनीलाल भी साथ हो लिये। वे सब काम करते करते वेदमंत्रो का उच्चारण करते रहते, इससे वेदमंत्र कंठस्थ हो जाते और काम की थकान भी नहीं होती थी। इस प्रकार उन्होंने श्रम के साथ शिक्षण की नई रीति का शोध कीया। इससे काम उनके लिये ध्यान बन गया और बाद में भी इस प्रयोग ने उनकी जीवन साधना को वेग दिया।

 चुनीलाल लगभग एक वर्ष शांतिनिकेतन में रहे, पर इस अन्तराल में गुरुदेव के लगभग सतत् प्रवास में रहने के कारण उनसे मिलना नहीं हो सका। पर उनकी ही चेतना के विस्तार के समान शांतिनिकेतन संस्था में भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन करके आत्मविकास का पाथेय लेकर वे १९२१मे वापस गुजरात आ गये।

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