२२. श्रीअरविंद के प्रकाश में द्युमान
श्री माताजी द्युमान के विरोध में जो चक्रवात उठा था, उसमें उनके अन्दर अधिक शांति, समता, स्थिरता और धैर्य प्रस्थापित करके उन्हें सावधानी से इस परिस्थिति से बाहर निकाल रही थीं। फिर भी साधकों ने जब श्रीअरविंद को द्युमान की शिकायत के सीधे पत्र लिखे और श्री माताजी द्युमान के प्रति पक्षपात करती हैं, उन्हें कुछ कहती नहीं हैं, ऐसे आक्षेप किये तब श्रीअरविंद ने एक साधक द्वारा द्युमान का विरोध करनेवाले सभी साधकों को पत्र द्वारा बताया की द्युमान जो कुछ कर रहे हैं, वह उचित है और श्री माताजी के मार्गदर्शन में कर रहे है। श्रीअरविंद का लिखा हुआ पत्र - जिसमें दयुमान के प्रति उनका विश्वास प्रगट होता है, वह इस प्रकार है :-
''मुझे समझ में नहीं आता कि जो सूचनाएँ दी जाती हैं, उसके विषय में इतनी अधिक मुश्किलों की शिकायत क्यों की जाती है। तुम तो कई वर्षो से आश्रम में हो और काम कर रहे हो, फिर ऐसा व्यवहार किसलिये? द्युमान ने कार्यपद्धति निश्चित करके कार्यों का बँटवारा किया है। तुम्हे तो स्पष्ट रुप से समझ लेना चाहिये। अधिकांश कामों को करने की जानकारी तो तुम्हें है ही और होनी भी चाहिये क्योंकि तुम तो पुराने आश्रमवासी हो। यदि काम करने में तुम्हें मार्गदर्शन नहीं मिले तो तुम्हें वह काम तुम्हारी योग्यता से करना चाहिये। इसमें आपत्ति और विरोध का चक्रवात किसलिये? मुझे समझ नहीं आ रहा है। मान लो कि द्युमान ने अधूरी सूचनाएँ दी, तो क्या तुम्हें अपनी
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निर्णयशक्ति के आधार पर कार्य नहीं करना चाहिये? मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि द्युमान की भूल हो तो तुम्हें उनके दोष-दर्शन के झगड़े में पड़े बगैर उस भूल को सुधार लेना चाहिये। द्युमान को मार्गदर्शन देना चाहिये।
मैं तुम्हें बताता हूँ कि द्युमान की कार्यपद्धति के विषय में तुम्हारा अभिप्राय माताजी और द्युमान की निर्धारित योजना के साथ तालमेल नहीं रखता है। माताजी द्युमान के कार्यो का निरीक्षण करती हैं। उनका ऐसा अभिप्राय है कि ''द्युमान आश्रम के उत्तम कार्यकर्ताओं में से एक है। वे बहुत ही शक्तिसम्पन्न हैं। निरंतर कार्यरत रहते हैं।'' जब तक माताजी उन्हें काम बन्द करने और आराम करने को न कहें तब तक वे काम करते ही रहते हैं, वे माताजी के दृष्टिकोण को ठीक से समझते हैं। माताजी के उद्देश्य और आदर्शो को वे केवल वफादारी से ही नहीं, पर बुद्धिमानी से, पूरी समझदारी से करते हैं। अभी तक द्युमान ने अनेक कार्यो को कुशलता से और व्यवस्थित रीति से नियमन और संचालन किया है। इसमें उन्होंने पूरी सावधानी रखकर कम से कम श्रम करके अधिकतम सफलता प्राप्त की है। तुम्हें चाहिये तो माताजी इस विषय में एक से अधिक उदाहरण दे सकती हैं। मैं मानता हूँ कि किसी काम में मेहनत का बचाव करना, यह एक मात्र उद्देश्य नहीं हो सकता। दूसरे कई ध्येय उसके साथ जुड़े हुए हैं। उसमें से कई तो इससे भी अधिक महत्वपूर्ण हैं। मुझे सिद्धान्त के रूप में यह बात स्वीकार्य है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वभावनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, मानता हूँ। पर यह तभी सम्भव है जब व्यक्ति व्यक्तिगत कार्य कर रहा हो। जहाँ समूह के साथ काम करना होता है तब यह सिद्धान्त स्वीकार्य नहीं होता। वहाँ तो सबके साथ नियमित रहना पड़ता है और पूरे समय काम करना पड़ता है। यह नीति सर्वप्रथम स्वीकार्य होनी चाहिये।
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माताजी के विषय में तुम्हारा कथन मुझे समझ नहीं आ रहा है। अनाज के भंडार की व्यवस्था, मकान बनाने का आयोजन माताजी ने यूं ही नहीं किया है, सभी जानकारी लेकर जाँच परख कर किया है। जब उनको विश्वास हो जाता है कि सब व्यवस्थित चल रहा है तब ही वे उस उत्तरदायित्य से मुक्त होती हैं और सभी कार्यकर्ताओं को योजना के अनुसार आगे बढ़ने का अवसर देती है। फिर भी माताजी ध्यान तो रखती ही हैं। तुम्हें समझना चाहिए कि आश्रम में माताजी द्धारा बनाई गई व्यवस्था के अनुसार ही सभी साधक काम करते हैं। एक दिन ऐसा था जब माताजी ने साधकों को उनके स्वभाव और विचार के अनुसार काम करने की स्वतन्त्रता दी थी, तब कई बार माताजी अपना अभिप्राय बताती थी पर उसके अनुसार कार्य करने के लिये दबाव नहीं करती थीं। परिणाम क्या आया? जानते हो? अस्तव्यस्तता, अपव्यय, अनुशासनहीनता और टकराहट। माताजी के आदेशों का उल्लंघन सभी जगह होने लगा, स्वच्छन्दता बढ़ गई। आश्रम में अराजकता का साम्राज्य फैल गया। यदि आश्रम का संचालन उसी प्रकार चलता रहता तो आश्रम का अस्तित्व तो वर्षो पूर्व मिट गया होता। इस विषम परिस्थिति को रोकने के लिये ही माताजी ने द्युमान और उनके जैसे अन्य साधकों को पसंद किया। ये सभी पूरे विश्वासपात्र हैं। उनकी ही सहायता से माताजी ने सभी विभागों की पुनर्रचना की है। सुंदर कार्यशैली बनाई है। अनुशासन पालने का आग्रह किया है। विभागीय प्रमुख को अनुशासन पालने की आज्ञा दी गई है। तदुपरांत माताजी स्वयं सभी विभागों की देखरेख करती हैं। मुझे पता है कि प्रत्येक विभाग में पुरानी कमियाँ अभी रह गई है। उसके लिये कई कार्यकर्ता उत्तरदायी हैं। ये लोग पुरानी आदत छोड़ते नहीं और अनुशासनहीन व्यवहार करते हैं। यदि माताजी का नियंत्रण न हो तो आज ही आश्रम की सारी व्यवस्था ढ़ह जाए।
दयुमान माताजी की बातों को छिपाते है और माताजी के कहे
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बगैर अपनी इच्छा से सभी काम करते हैं ऐसा तुम मानते हो, तुम्हारी यह मान्यता गलत है। माताजी सबकुछ जानती हैं और कुछ भी उनकी जानकारी के बाहर नहीं है। तुम्हारे दूसरे पत्र में तुमने जो लिखा है वह माताजी के लिये नया नहीं है। द्युमान के विरुद्ध अनेक शिकायतें और विरोध की टीका आयी है। द्युमान की कार्यशैली, कड़ा अनुशासन, व्यवस्था का आग्रह, अत्यधिक मितव्ययता और सखी के विषय में बहुत शिकायतें माताजी को मिली है, उसकी छानबीन माताजी ने स्वयं की है और जहां योग्य लगा वहाँ परिवर्तन भी किये हैं परन्तु उन्होंने द्युमान की अभिगम का दृढ़ता से समर्थन किया है। माताजी ने स्वयं मितव्ययता और अनुशासन का पालन किया है। साधकों की अनुचित माँगों, इच्छाओं और तरंगों के वश में न होने का व्यवहार स्वीकार किया है। द्युमान के विरुद्ध ऐसी बातों की शिकायतें आती है, वह किस प्रकार मान्य हो सकती है? माताजी ने यदि ऐसी शिकायतों को मान्य किया होता तो द्युमान से कैसे उत्तम प्रकार से काम करवा सकती थीं ? द्युमान यदि लचीले रहे होते, कट्टरता छोड़ दी होती और सबको उनकी मर्जी से काम करने को पूरी छूट दी होती तो वे लोकप्रिय तो अवश्य होते, पर माताजी के कार्य के उत्तम माध्यम नहीं बन सकते थे। द्युमान की प्रकृति में जो कमियाँ होंगी, उसकी चिंता तुम्हें नहीं, माताजी को करनी है। वह यदि अत्यधिक कड़े होगें तो माताजी उनमें परिवर्तन लाएँगी। तुम्हारी शिकायतें तुम्हारे ''अहम'' और ''आसक्तियों'' से उत्पन्न हुई है, उससे प्रेरित होकर तुम हल्ला मचाते हो। माताजी ऐसे अनुचित व्यवहार के सामने कभी झुकती नहीं हैं। यदि वे झुकी होती तो पुरानी अराजकता की परिस्थिति फिर आ जाती और आश्रम भरभराकर धराशायी हो जाता।''
ता. ७-१- १९३७ - श्रीअरविंद
श्रीअरविंद और श्री माताजी द्युमान की कार्यपद्धति को, उनकी
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अनुशासनप्रियता को, उनकी मितव्ययता से परिपूर्ण व्यवस्था को पूरा प्रोत्साहन देते थे। अन्तत: साधकों ने द्युमान की व्यवस्था का स्वीकार कर लिया और धीरे-धीरे विरोध का चक्रवात शान्त हो गया।
*
एकबार एक साधक ने श्रीअरविंद से पूछा कि आपके आश्रम में एक साथ पाँच सौ अभीप्सु अचानक मिलने आ जाएँ तो उनकी व्यवस्था के सम्बन्ध में आप क्या करेंगे? श्रीअरविंद ने अपनी विशिष्ट आनंदी शैली में कहा, ''क्या हुआ? उन्हें मैं द्युमान को सौंप दूँगा। '' श्रीअरविंद ने द्युमान के लिये कहा है, ''इधर-उधर गये बिना सीधी गति में ध्येय की प्राप्ति करने का पुरुषार्थ, जिस उन्नत आदर्श का पालन ये करते हैं, उसके प्रति वफादारी, प्रकाश को प्राप्त करना और सत्य की सेवा करने का उनका तीव्र संकल्प - ये है दयुमान के चरित्र की दृढ़ता। ''
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