११. श्रीअरविंद की शरण में
१९२४ जुलाई की ११ तारीख चुनीभाई के जीवन का निर्णयात्मक दिवस बन गया। उस दिन उन्होंने अपनी धर्मपत्नी काशीबहन के साथ पांडिचेरी में प्रथम पैर रखा, तब तो उन्हें भी पता नहीं था कि यह नगर उनकी दिव्य कर्मभूमि बननेवाला है और इसीलिए वे यहाँ आए हैं। तब तो मन में एक ही चाह थी, श्रीअरविंद से मिलने की। हाईस्कूल में थे तब से ही महायोगी के नाम के प्रति आकर्षण था, समझदार होने के बाद उनके लेख पढ़कर उनके ज्ञान के प्रति खिंचाव जागा और उत्तरपाडा व्याखान पढ़ने के बाद तो श्रीकृष्ण का साक्षात्कार पाए हुए इन महामानव के दर्शन के लिये तीव्र उत्कंठा जागी थी। उनके दर्शन करना ही मन में एक मात्र ध्येय था, पर ११ तारीख को भेंट का अवसर नहीं मिला। १२ तारीख को सवेरे १० बजे श्रीअरविंद ने भेंट स्वीकार की। ११ तारीख को वे काशीभाई के घर पुदुकोट्टा हाउस में रहे और दूसरे दिन की आतुरता से प्रतीक्षा करने लगे।
दूसरे दिन १२ जुलाई को १० बजे से पहले वे लाइब्रेरी हाउस में पहुँच गये। वहाँ नीचे बैठकर प्रतीक्षा करने लगे कि कब श्रीअरविंद बुलाऐँगे, अन्त में वह क्षण आ पहुँचा। भाई अमृत ने नीचे आकर कहा, ''ऊपर श्रीअरविंद तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं, ऊपर आओ।'' दोनो सीढ़ी चढ़कर ऊपर गये। देखा कि आरामकुर्सी में श्रीअरविंद बैठे थे। काले, खुले, कन्धों तक लहराते बाल, थोड़ी सफेद-काली
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दाढ़ी, कुछ सांवला रंग, तेजोमंडित मुखमुद्रा और सूर्य की किरणें निकल रही हों, ऐसी तेजस्वी आँखें।
दीर्घकाल तक तपस्या करके, परमतत्व को प्राप्त किये हुए सिद्ध योगी के समान श्रीअरविंद के प्रथम दर्शन में ही चुनीलाल के अंतर में अनुभव हुआ कि यही तो हैं उनके भाग्यविधाता, जिनको मिलने को उनका अंतर रात-दिन तड़पता था। यही तो हैं वह परमपुरुष, जो उनकी आत्मा के उद्धारक हैं सच में भाग्य उन्हें उचित समय पर, उचित स्थान पर उचित गुरु के पास ले आया है। उन्होंने श्रीअरविंद की गोद में अपना सिर रख दिया। उसी क्षण उन्होंने अनुभव किया कि ११ वर्ष की उस में छत पर जो अनुभव हुआ था और तब से जिस मार्गदर्शक शक्ति ने उनको पल्लू रखा था, उस शक्ति ने अब अपनी पकड़ छोड़ दी है, उन्हें मुक्त कर दिया है क्योंकि उस शक्ति का काम ही चुनीलाल को श्रीअरविंद तक लाना था। उसका कार्य पूरा होते ही वह चली गई। उन्होंने फिर श्रीअरविंद को प्रणाम किया। काशीबहन ने भी उन्हें प्रणाम किया और वे दोनों वहाँ बैठ गये।
इसके बाद श्रीअरविंद ने उनसे पूछा, तीव्र 'तुम्हे क्या चाहिये? तुम यहाँ क्यों आए हो ?''।
''योग करने के लिये आया हूँ।'' चुनीलाल ने कहा। यह सुनकर श्रीअरविंद कुछ क्षण तक चुनीलाल को देखते रहे, फिर पूछा,।''तुम योग के विषय में क्या जानते हो ?'' चुनीलाल उत्तर दे इससे पहले श्रीअरविंद ने योग के विषय में बात प्रारम्भ कर दी। लगभग पचपन मिनट तक उन्होंने योग के विषय में सब समझाया। विशेष रुप से पूर्णयोग क्या है? उसकी साधना में क्या-क्या मुश्किलें आती हैं, योग करने के लिए आवश्यक शर्तें क्या है, इत्यादि के विषय में समझाया। चुनीलाल तो श्रीअरविंद के मुख से निकलनेवाले एक-एक शब्द को एकाग्रतापूर्वक सुन रहे थे उस समय उन्हें सबकुछ तो समझ
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में नहीं आया पर फिर भी इतना तो स्पष्ट हो गया कि श्रीअरविंद ही उनके गुरु हैं। उनको छोड़कर अब वे दूसरे स्थान पर कहीं नहीं जाएँगे। श्रीअरविंद के सान्निध्य में एक घंटा बिताया, उसी समय उनकी आत्मा में स्पष्ट हो गया और उन्होंने इन महागुरु के चरणों में सम्पूर्ण समर्पण कर दिया।
काशीबहन भी श्रीअरविंद की वाणी को सुन रही थीं। उन्हें अधिक समझ में तो नहीं आया पर उनकी आत्मा को प्रतीति हो गई कि उनके पति को अब उनका सच्चा स्थान मिल गया है। श्रीअरविंद को अर्पण करने के लिए उनके पास पैसे तो नहीं थे क्योंकि वह तो भक्तिबा की दी हुई खर्च की रकम थी। श्रीअरविंद को खाली हाथ प्रणाम करना खटक रहा था। तब उनके अंतर में अचानक विचार आया कि, ''पैसा नहीं है तो क्या हुआ? मेरे पास ये सोने की चूडियाँ तो है, यही अर्पण कर देती हूँ'' और उन्होंने अपने हाथ से दोनों चूड़ियाँ उतारकर श्रीअरविंद के चरणों में रख दी। श्रीअरविंद ने कहा,।''इनका मैं क्या करुँगा ?''।
''इनको आप अपने पास रखी या इनको बेचकर जो पैसा मिले, उसका आप उपयोग कर लें।''
''मैं अपने पास रखूंगा।'' श्रीअरविंदने कहा। काशीबहन पहली महिला थी जिन्होंने इस प्रकार श्रीअरविंद को अपने गहने अर्पण किये हों। एक ने श्रीअरविंद को अपना हृदय अर्पण किया। दूसरे ने अपना सौभाग्यचिहन् जैसी सुवर्ण चूडियाँ अर्पण करके, परोक्ष रूप से अपने पति को अर्पण कर दिया। इस प्रकार एक घंटा श्रीअरविंद के सान्निध्य में बिताकर दोनों नीचे उतरे, तब दोनों ही बदल गये थे।
श्रीअरविंद के दर्शन के बाद चुनीलाल के मन में निश्चित हो गया कि अब यहीं रहना है पर श्रीअरविंद की अनुमति अभी नहीं
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मिली थी। इसलिये एक सप्ताह पांडिचेरी रहे फिर उन्होंने श्रीअरविंद से पुछवाया कि, ''मुझे यहीं रहना है, मुझे अनुमति दीजिये। '' तब श्रीअरविंद ने कहलाया कि, ''अभी नहीं। अभी समय नहीं आया है। '' इससे चुनीभाई को लगा कि अभी आश्रम में रहने के लिये पूरी तैयारी नहीं हुई है, पर कोई बात नहीं। अभी श्रीअरविंद ने स्वीकृति नहीं दी है पर एक दिन अवश्य वे मुझे बुलाऐँगे। उस समय वे छ: सप्ताह पांडिचेरी में रहे। फिर काशीबहन के अस्वस्थ होने से, दोनों वापस गुजरात आने के लिये निकले पर जाते समय चुनीलाल ने श्रीअरविंद को कहलाया कि, ''अभी तो आपके कहने से वापस जा रहा हूँ पर अब यही मेरा घर है और मैं यहाँ अवश्य वापस आऊँगा।'' इस प्रकार भविष्य में गुजरात से लौटकर कभी वापस न जाने का संकल्प करके चुनीलाल काशीबहन के साथ पांडिचेरी से फिर नापाड आ गये।
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