दिव्यता की तेजोमय किरण - द्युमान


१४. श्री माताजी के प्रथम दर्शन

 

चुनीलाल १९२४ में पांडिचेरी आए थे तब श्री माताजी किसी से भी नहीं मिलती थीं। श्रीअरविंद स्वयं अपने शिष्यों का उत्तरदायित्व उठाते थे, परन्तु १९२६ की २४ हु नवम्बर को श्रीअरविंद को योगसाधना के क्षेत्र में महान सिद्धि प्राप्त हुई। मन की सर्वोच्च भूमिका की अधिमानस शक्ति उनकी देह में उतर आयी। इससे उनकी, अतिमानस के अवतरण की अन्तिम स्थूल भूमिका में - देहकोषो तक करवा कर देह के दिव्य रूपांतर की साधना की सम्भावना हो गई परन्तु इसके लिए अब उन्हें गहन साधना करनी थी इसलिये १२२६ के नवम्बर माह के बाद वे सम्पूर्ण एकांत में चले गये और श्रीमाताजी ने शिष्यों का सभी आंतरिक और बाह्य उत्तरदायित्व उठा लिया। इससे सभी शिष्यों को श्री माताजी के दर्शन प्रतिदिन होने लगे। उनसे सम्पर्क, उनके साथ वार्तालाप भी शिष्य सरलता से कर सकते थे। श्रीमाताजी ने उतरदायित्व सम्भाला उसके बाद ही श्रीअरविंद आश्रम अस्तित्व में आया। इसलिये चुनीलाल ने पुरुषोत्तम के माध्यम से श्रीमाताजी से विनती की और श्री माताजी ने श्रीअरविंद से चुनीलाल की तीव्रतम इच्छा की बात कही तब श्रीअरविंद ने उन्हें आश्रम में आने की सहमति दी और वे १९२७ की १० मई के दिन पांडिचेरी आ पहुँचे।

११ मई का दिन चुनीलाल के जीवन में अविस्मरणीय हो गया। इस दिन उन्हें पहली बार श्रीमाताजी के दर्शन हुए। उन्होंने पुरुषोत्तम के माध्यम से श्रीमाताजी को अपनी आंतरिक इच्छा पहुँचायी थी। उन्हीं पुरुषोतम के कमरे में वे श्रीमाताजी को मिले। चुनीलाल ने चाहे

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श्रीमाताजी को कभी देखा नहीं था पर पहले जब आश्रम में आए थे तब और बाद में भी उनके विषय में बहुत सुना था। उनसे मिलने के पहले ही, उन्होंने तो श्रीमाताजी को अपनी सच्ची माँ के रूप में स्वीकार कर लिया था। सच में तो उन्होंने श्रीअरविंद से कहा था, इसलिये उसमें उनकी पसंदगी का प्रश्न ही नहीं था। पसंद तो श्रीअरविंद और श्री माताजी को करना था। उनकी पसंद तो वे पहली बार आए थे तभी हो गई थी पर उस समय उनकी आंतरिक तैयारी पूरी नहीं हुई थी। इस विषय में श्रीअरविंद ने एक साधक को कहा था, ''द्युमान को मैंने १९२४में स्थायी रूप से पांडिचेरी आने की अनुमति दी होती तो तब वह योगसाधना नहीं कर सकता था। उनकी।''बीईंग'' (प्रकृति) तब इस योग के लिये तैयार नहीं थी। वह कुछ नहीं प्राप्त कर पाता। '' श्रीअरविंद ने उन्हें पसंद तो कर ही लिया था, पर तैयारी के लिये उनको समय दिया गया था। चुनीलाल भी यह समझ गये थे। इस विषय में उन्होंने भी एक पत्र में बताया था कि जितना समय उन्होंने मुझे पांडिचेरी से बाहर रखा, उतने समय में उन्होंने मुझे अन्दर से बराबर तैयार किया।

'' जब वे पांडिचेरी आए तब श्रीअरविंद के योग के लिए आंतरिक रूप से तैयार हो गये थे। इसीलिये श्रीमाताजी जब उन्हें सर्वप्रथम मिली तब उनके विषय में श्रीअरविंद से उन्होंने कहा, ''आज मैं तीन व्यक्तियों को मिली। उसमें एक तो पत्थर जैसा सख्त है। दूसरा (हाव भाव से बताया) कुछ नहीं, पर तीसरा (चुनीलाल) बहुत आगे बढ़ेगा।'' श्री माताजी ने द्युमान को बाद में कहा था कि, ''तुम फुल मत जाना।''

प्रथम दृष्टि से ही श्रीमाताजी ने द्युमान के उज्जवल भविष्य को देख लिया था। हीरा अब कुशल झवेरी के हाथ मैं आ गया था और झवेरी ने प्रथम दिवस से ही उसे तराशना प्रारम्भ कर दिया।

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