दिव्यता की तेजोमय किरण - द्युमान


१. स्वतंत्रता सेनानी

 

गांधीजी के प्रभाव के परिणाम से गुजरात में स्वतंत्रता आंदोलन चारों तरफ फैल रहा था। अनेक महानुभाव गांधीजी के स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित हो गये थे। गुजरात तो गांधीजी की अपनी भूमि और उसमें साबरमती आश्रम की स्थापना के बाद गुजरात में स्वतंत्रता संग्राम का ज्वार बढ़ रहा था। १९२१ में अमदाबाद में राष्ट्रीय महासभा का अधिवेशन हुआ। गांधीजी उसके प्रमुख पद पर थे। देश भर से नेता, राष्ट्रभक्त अमदावाद आए थे। उस समय चुनीलाल विधापीठ में अध्ययन करते थे। विधापीठ तो राष्ट्रीय संस्था थी इसलिये उसके सभी संचालक, अध्यापक भी राष्ट्रीय महासभा की व्यवस्था के कार्य में लग गये थे। चुनीलाल भी इस महासभा के स्वयंसेवक बनकर कार्य में लग गये।

इस महासभा में उनका बहुत से महानुभावों के साथ परिचय हुआ। सरोजिनी नायडु ने अपना भाषण अंग्रेजी में दिया। विद्धान फ्रेन्च मनीषी पोल रिशार भी इस महासभा में आए थे। उन्होंने अपना वक्तव्य फ्रेन्च भाषा में दिया। चुनीलाल रिशार के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए, पर उस समय वे नहीं पहचानते थे कि वर्तमानकाल के ऋषि जैसे दिखते यह भव्य और सौम्य पुरुष, पांडिचेरी में श्रीअरविंद के जगत का रूपांतर करने के कार्य में सहयोग करने के लिये फ्रान्ससे आई हुई मीरा के पति हैं। उस समय तो उनकी 'मीरा' का भी कोई परिचय नहीं था, पर फिरभी पोल रिशार और उनके साथ आए युवक चम्पकलाल की और उनका विशेष ध्यान गया था। इसके उपरांत इस

Page 41


अधिवेशन में पूरे देश से आए अन्य राष्ट्रभक्त तथा सरदार पटेल, इन्दुलाल याज्ञिक, दरबार गोपालदास, भक्तिबा आदि से भी परिचय हुआ। गुजरात के इन राष्ट्रभक्तों के परिचय से चुनीलाल के हृदय में भी देश के लिये कुछ कर गुजरने की भावना तीव्र होने लगी। उन्होंने सर्वप्रथम बोरसद सत्याग्रह में स्वयंसेवक के रुप में कार्य किया और फिर बारडोली सत्याग्रह में सरदार पटेल के मार्गदर्शन में स्वयंसेवक के रूप में सफलतापूर्वक कार्य किया। इस सत्याग्रह में कार्य करने के परिणाम से चुनीलाल में प्रखर राजभक्ति जाग उठी। इतना ही नहीं, देश के लिये सर्वस्थ त्याग करने की, सेवा करने की भावना अधिक द्रढ़ हो गई। साथ ही देश के लिये और अन्य के लिये कष्ट सहन करने की सहिष्णुता भी आयी। सत्याग्रह मैं जुड़ने के कारण भी चुनीलाल के सुदृढ़ व्यक्तित्व को अधिक तेजस्विता मिली।

१९२३ में नागपुर में होनेवाले झंडा सत्याग्रह में अमदावाद से काँग्रेस के युवकों की एक टुकड़ी पैदल नागपुर जानेवाली थी, उसमें चुनीलाल को भी जाना था, पर उस समय वे २१ दिन के बुखार में जकड़े गये। बुखार उतरने के बाद इस सत्याग्रह में जाने के लिये नाम लिखवाने गये। देवदास गांधी नाम लिख रहे थे। उन्होंने दुर्बल शरीर, फीका मुंह और अशक्त चुनीलाल को देखकर ही मना कर दिया, कहा 'जा, यह तेरा काम नहीं है।' घर जाकर खा-पीकर शरीर अच्छा करो।' चुनीलाल ने बहुत प्रार्थना की पर वे नहीं माने। निराश होकर चुनीलाल लौट गये, पर फिर दो- चार दिन में उन्हें समाचार मिला कि देवदास गांधी अब सत्याग्रह की इस टुकड़ी, के केप्टन नहीं है, उन्हें कहीं और जाना पड़ा है। अब तो सुरेन्द्रजी हैं। यह समाचार मिलते ही चुनीलाल फिर नाम लिखाने पहुँच गये। सुरेन्द्रजी तो चुनीलाल को पढ़ाते थे इसलिये अच्छी तरह पहचानते थे। उन्हें चुनीलाल की आंतरिक शक्ति का परिचय था इसलिये उन्होंने किसी भी प्रक्रार की आनाकानी किये बगैर चुनीलाल का नाम लिख लिया और

Page 42


कहा, 'जाओ, जाकर तैयारी करो। निर्धारित दिन- हम यहाँ से प्रयाण करेंगे।' अब चुनीलाल प्रसन्नता से लौट गये।

निर्धारित दिन अमदाबाद से सत्याग्रहियों की टुकड़ी ने प्रयाण किया। देशभक्त युवकों को अपार प्रसन्नता थी। पैदल जाना था, पर किसी को थकान नहीं थी। भारतमाता के लिये प्राण न्योछावर करने की भी सबकी तैयारी थी। उत्साह और उमंग से छलकते हुए सब सुरत से चलते चलते नंदरबार तक आ पहुँचे। वहाँ समाचार मिला कि झंडा सत्याग्रह में विजय मिल गई है, अब आगे नहीं जाना है। गुजरात की यह झंडा टुकड़ी नंदरबार में ही अटक गई। वहां सार्वजनिक सभा आयोजित की. गई। उसमें लगभग दस हजार की जनमेदिनी एकत्र हो गई थी, इसमें इन सत्याग्रहियों का सम्मान हुआ। उसमें सुरेन्द्रजी ने भाषण दिया, फिर चुनीलाल को भी भाषण देने को कहा। अपने अध्यापक का आदेश था इसलिये चुनीलाल ने राष्ट्रीयता पर एक व्याख्यान दिया। दस हजार की जनमेदिनी पर इस व्याख्यान का गहरा प्रभाव पड़ा तभी सबको पता चला कि चुनीलाल प्रभावशाली वक्ता भी है, परंतु इस व्याखान के बाद चुनीलाल के अंतर में ऐसा लगा कि सार्वजनिक रुप से कभी व्याख्यान नहीं करना चाहिये और इसके बाद उन्होंने कभी सार्वजनिक रूप से व्याख्यान नहीं दिया। इस विषय में बाद में द्युमान ने बताया था कि, 'सन् १९२३ में नंदरबार में मैंने अंतिम भाषण किया, उसके बाद मैंने निश्चय किया कि न भाषण करना, न लिखना। जो है वैसा ही जीना। प्रभु कृपा से यह भावना आज तक कायम रही है।' जैसे भावी जीवन का पूर्व संकेत उनको मिल गया हो ऐसे भाषण करना, लिखना यौवनकाल में ही बन्द करके आत्मरत बनकर ही जीने का निश्चय कर लिया। इसके साथ आत्मरत बनकर जीने की उनकी, कभी ?ना भी न की थी, वह दिशा खुल गई।

Page 43









Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates