दिव्यता की तेजोमय किरण - द्युमान


२१. विरोध का सामना

 

मानव प्रकृति को नियम या अनुशासन के बन्धन सामान्य रूप से स्वीकार नहीं होते हैं। जब जब इस प्रकृति को बदलना आवश्यक होता है तो वह विरोध करती है। नया स्वीकार करने से इनकार करती है। पुराने रूढ़ीग्रस्त, ऐश-आराम भरा जीवन और स्वच्छन्द व्यवहार के अभ्यस्त साधकों की प्रकृति सी द्युमान की बनायी गई अनुशासनबद्ध व्यवस्था को पचा नहीं सकी। कितने ही अविचारी साधकों ने यह मान लिया कि माताजी तो बहुत उदार हैं, वे सभी साधकों की आवश्यकताओं को पूरा करने को तत्पर है, लेकिन द्युमान ने आकर सब अपने हाथ में ले लिया है और वे साधकों को कुछ देने नहीं देते हैं। इस कारण बहुत से साधकों के मन में द्युमान के प्रतिरोष की भावना पैदा हो गई, थे असंतोष व्यक्त करने लगे, इतना ही नहीं, द्युमान की कार्यवाही के विषय में श्रीअरविंद और श्रीमाताजी को लिखित शिकायत करने लगे। द्युमान को प्रारम्भ में मानव प्रकृति की जड़ता का भारी विरोध का सामना करना पड़ा। इस कारण उनका शारीरिक संतुलन बिगड़ने से वे अस्वस्थ हो गये परन्तु श्रीमाताजी में उनकी अटूट श्रद्धा के कारण वे सभी विरोधों को पार करके आश्रम को श्रीमाताजी की इच्छानुसार सुव्यवस्थित कर सके। जब विरोध के कारण उनका मन टूट गया था, उनको चिंता और दुविधा ने घेर लिया था वे श्रीमाताजी को पत्र लिखकर उनसे सीधा मार्गदर्शन प्राप्त करते थे। वे प्रत्येक विरोध के बाद अधिक मजबूत बनकर बाहर निकल आए।

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५ अक्टोबर १९३४ के दिन उन्होंने श्रीमाताजी को पत्र में लिखा, ''मैंने सुना है कि कुछ बहनों ने मेरे विषय में शिकायत की है परन्तु मैं इसकी परवाह नहीं करता हूँ... एक बात है जो मुझे शांत स्थिर रखती है, वह है आपका विश्वास, प्रेम और आपके प्रेम में मेरी श्रद्धा। '' श्री माताजी ने इसका प्रत्युत्तर देते हुए लिखा, ''जबतक स्त्रियों प्राण और अवचेतना में रहेंगी तबतक जैसी करती है वैसी - लड़ाई, ईर्ष्या, वेष, बदले की भावना और हताशा आदि रहेगीं ही। सबसे अच्छा तो यह है कि उस पर बिलकुल ध्यान नहीं देना क्योंकि सचमुच में यह कोई महत्व की बात नहीं है। एक दिन तुम ठीक कर दोगे तो दूसरे दिन फिर गड़बड़ होगी क्योंकि उनकी चेतना बदली नहीं है। ''

द्युमान के कार्य की टीका होती थी तो वे क्षुब्ध हो जाते थे। इस विषय में उन्होंने जब श्रीमाताजी को बताया तब श्रीमाताजी ने उन्हें लिखा, ''तुम इसकी चिन्ता मत करो। तुम जो कुछ करोगे उसकी टीका तो होगी ही इसलिये सबसे अच्छा तो यह है कि तुम लोगों की बात पर ध्यान मत दो और तुम्हारे उच्चतम प्रकाश के अनुसार अपने रास्ते पर चलते रहो। ''

भोजनालय के लोग काम के विषय में और अन्य बातों से अन्दर ही अन्दर फुसफुसाते रहते। इससे त्रस्त होकर द्युमान ने श्रीमाताजी को लिखा ''क्या बात है कि भोजनालय के लोग संघर्ष में मजा ले रहे हैं? क्या एक दिन भी शांति से बीता है? हम भगवान के चरणों में अपना समर्पण करने के स्थान पर सामर्थ्य और अधिकार पाने के पीछे क्यों लगे हुए हैं? हमारी रक्षा करो, माँ, हमारी रक्षा करो। ''

इसके उत्तर में श्रीमाताजीने बताया कि, ''बस, केवल शांति और धैर्य बनाये रखने की आवश्यकता है। यह सब गुजर जाएगा। अभी की उनकी स्थिति में यदि झगड़े न हों तो उन्हें अपना जीवन नीरस लगेगा। ''  

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किसी भी स्थिति में शांति रखकर स्वस्थ रहने के लिये श्रीमाताजी द्युमान को कहती रहती थीं। द्युमान पर ऐसा भी आक्षेप किया गया कि वे कंजूस हैं। इस विषय में जो उन्होंने श्रीमाताजी को लिखा कि, ''बहुत से लोग मुझे कंजूस कहते हैं क्योंकि मैं बाल माँगों को स्वीकार नहीं करता हूँ। मैं कंजूस हूँ। लोग जैसा चाहते हैं वैसा मैं खुले हाथवाला और उदार बन जाऊँ, यह एकदम असम्भव है। क्योंकि तब हमें केवल भोजनखर्च के लिये सोलह हजार रूपयों की नहीं, पर चालीस हजार रूपयों की आवश्यकता होगी। यह किस प्रकार सम्भव हो सकता है ?'' तब श्रीमाताजी ने उन्हें बताया कि, ''तुम्हारी बात बिलकुल सत्य है, मुझे तुम कंजूस नहीं लगते हो। यदि मैं लोगों की बातें सुनती तो हम कब के बर्बाद हो चुके होते। '' श्री माताजी द्युमान के कार्यों को अच्छी तरह जानती थीं। इसी कारण वे उन्हें लोगों की बेहूदी माँगों, अपेक्षाओं, टीकाओं की और बिलकुल ध्यान दिये बगैर - उनको आंतरिक रूप से जो मार्गदर्शन मिले, उसके अनुसार कार्य करने को कहती थी। द्युमान पर जैसे - तैसे आक्षेप होने से वे कभी - कभी हताश और निराश हो जाते, पर श्रीमाताजी उन्हें फिर स्वस्थ कर देती थीं।

द्युमान पक्षपाती हैं, ऐसा भी आक्षेप किया गया। उन्होंने इस विषय में श्री माताजी को लिखा कि, ''न'' ने मेरे उपर पक्षपाती होने का आक्षेप किया है। मैंने उन्हें प्रत्येक ढंग से समझाने का प्रयत्न किया पर उसके मन से यह बात मैं दूर नहीं कर सका हूँ। '' तब श्रीमाताजी ने उसके उत्तर में कहा, ''सबसे अच्छी बात है तो यह है कि सभी तुच्छ बातों की उपेक्षा करो। सबसे अधिक महत्व की बात यह है कि भगवान अपने अन्दर और अपने लिये जो चाहते हैं, उसी की इच्छा करो। '' जब झगड़े बढ़ने लगे तब द्युमान ने श्रीमाताजी को लिखा, ''अशुभ का सामना किस प्रकार करना, इसका प्रशिक्षण हमें नहीं

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मिला है और हम इतने नियंत्रित भी नहीं कि सत्य पर अडिग रह सके, इतने सुसंस्कृत भी नहीं की स्थिर और शांत जीवन जी सके।'' इसके प्रत्युत्तर में श्री माताजी ने उन्हें बताया कि, ''चंचलता के सामने स्थिरता, पूर्ण शांति और जब तक तूफान का शमन न हो जाय तब तक चुपचाप खड़े रहना चाहिये।''

वे कभी-कभी बहुत निराश हो जाते। चारों तरफ से होनेवाले विरोधों के कारण, वे ऐसा मानने लगते कि वे स्वयं योग्य कार्यकर्ता नहीं हे। इस विषय में भी उन्होंने श्रीमाताजी को लिखा था, ''साधक तथा कार्यकर्ता के रूप में मैं एकदम अयोग्य और बेकार हूँ। ऐसे कितने ही विचार मेरी निष्फलता को व्यक्त करते हैं।'' तब श्रीमाताजी उन्हें सावधान करते हुए कहती हैं, ''तुम जानते हो कि ये सब विचार बिलकुल असत्य है और विरोधी शक्ति द्धारा आते हें। इन सब विचारों को प्रेमपूर्वक निकाल देना चाहिये क्योंकि इनका स्वागत करना अर्थात् भगवान के प्रति अविश्वास प्रगट करना है। बालक कभी अपने विश्वास के लिये चिंतित नहीं होता है, वह तो स्वाभाविक रूप से 'आगे बढ़ता रहता है।'' इस प्रकार हताशा-निराशा के विचारों का हमला जब द्युमान पर प्रबल हो जाता तब श्रीमाताजी ने विरोधी शक्ति की इन सूचनाओं पर भी बिल ध्यान न देने को बार- बार लिखकर बताया था।

अपने विरोधियों को सही समझ मिले, वे सद् भाव  सहयोग से काम करें, इसके लिये भी द्युमान ने श्री माताजी से प्रार्थना करते हुए बताया था कि, ''मैं आपकी सहायता माँगता हूँ ऐसी सहायता कि मेरे सहकर्मियों के सब गड़बड घोटाले निकल  जाएं और वे सम्पूर्ण रूप से आपके प्रति समर्पित हो जाएँ।'' श्री माताजी ने उन्हें बताया कि, ''जो निष्कपट हैं, उन्हें मैं सहायता कर सकती हूँ उन्हें मैं सरलता से भगवान की और मोड़ सकती हूँ। पर जहाँ कपट है, वहाँ मैं कुछ नहीं कर

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सकती। मैं ने तुम्हें पहले भी कहा था कि हमें बहुत धैर्य रखना चाहिये और प्रतीक्षा करनी चाहिये कि परिस्थिति सुधर जाये। पर सचमुच मैं यह नहीं जानती कि तुम क्यों परेशान हो रहे हो और तुम्हारी यह परेशानी परिस्थिति को सुधारने में कहाँ तक सहायता करूंगी? तुम अनुभव द्द्वारा जानते हो कि गड़बड़ और अंधेरे में से बाहर निकालनेका का बस एक ही रास्ता है :- 'बहुत दृढ़, स्थिर और शांत रहो। अपनी समता में दृढ़ रहो और तूफान को गुजर जाने दो। इन तुच्छ झंझटों और झगड़ों से ऊपर उठो और फिर से मेरे प्रकाश और मेरे प्रेम की शक्ति में जागो, जिसने तुम्हें कभी भी छोड़ा नहीं है। ''

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