दिव्यता की तेजोमय किरण - द्युमान


 

८. योगी लेले के सान्निध्य में

 

योगी विष्णु भास्कर लेले पहले क्रांतिकारी थे परंतु जेल में जाने के बाद आध्यात्मिक मार्ग पर मुड़ गये थे। गिरनार जाकर कठोर तपश्चर्या की। गुरु दत्तात्रेय के दर्शन किये और फिर लोगों को आध्यात्मिक मार्ग पर ले जाने का कार्य करते रहे। वह गुजरात विधापीठ में कभी-कभी आते और अध्यापकों एवं विधार्थियों को आध्यात्मिक मार्गदर्शन देते। चुनीलाल आणंद में डी. एन. हाईस्कूल में थे तब लेले को मिले थे और लेले उनके घर नापाड भी गये थे इसलिये उनका लेले का योगी के रूप में परिचय तो था ही, यहाँ विधापीठ में अधिक निकट का सम्पर्क बना।

चुनीलाल अपनी आत्मखोज की आकांक्षा के कारण जब लेले विधापीठ में आते तो उनके पास पहुँच जाते थे। फिर तो लेले आध्यात्मिक आकांक्षावाले विधार्थियों के समूह को अलग ढंग से मिलने लगे। उनकी आध्यात्मिक खोज के सम्बन्ध में मार्गदर्शन देते थे। एक बार इसी प्रकार विधार्थीयों से बात करते-करते उन्होंने कहा,।'तुम सब गिरनार जाओ, वहाँ दत्तात्रेय की पादुका के दर्शन करो, पूजन करो। तुम्हें ?कल्पनातीत आध्यात्मिक अनुभूति होगी।'।

'महाराज! हम गिरनार गए हैं, वहाँ रहे भी हे।'

'तो वहाँ तुम्हें क्या अनुभव हुआ ?' लेले ने पूछा!

'हमने प्रकृति का अपार सौन्दर्य देखा। पहाड़ पर चढ़ने-उतरने का आनन्द लिया। रात को आकाश के तारों को झिलमिलाते देखा।

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आकाश का सौन्दर्य देखा। प्रातःकाल बादलों से आच्छादित घाटियाँ देखी। हम जैसे इन्द्रलोक में हो और गिरनार जैसे लोक में हो ऐसा अद्दभुत अनुभव हुआ। इस प्रकार हमें गिरनार में बहुत आनन्द आया।'

चुनीलाल ने कहा।

लेले को तो गिरनार पर हुई आध्यात्मिक अनुभूति की बातें सुननी थी उसके बदले प्राकृतिक सौंदर्य के विषय में सुना तो थोड़े निराश हो गये। वह चुनीलाल की आध्यात्मिक अभिरुचि को जानते थे इसलिये उसकी तरफ देखकर बोले, 'अब तू मेरे साथ गिरनार आना तब तुम्हें पता चलेगा कि गिरनार में क्या है।' जब उनका अमदावाद से गिरनार जाना निश्चित हुआ तब चुनीलाल को भी साथ ले गये। इस यात्रा में लेले उनकी पली गोपिकाबाई, स्नेहरश्मि और चुनीलाल कुल चार व्यक्ति थे। जूनागढ़ में लेले के मित्र, बहाउद्दीन कोलेज के संस्कृत के प्रोफेसर जोशी जो स्वयं भी योगसाधना में गहरा रस लेते थे, उनके यहाँ सभी रात को रहे। लेले अपने मित्र के साथ योग साधना की गहन बातें कर रहे थे, उसके मूक श्रोता थे चुनीलाल। एक साधक और एक योगी के बीच हो रहे आध्यात्मिक वार्तालाप से चुनीलाल को बहुत जानकारी मिली। कितने ही ऐसे अनुभव सुने जो शास्त्रों में कहीं पढ़े ही नहीं थे, उनकी गिरनार यात्रा सार्थक होती लगी। दूसरे दिन सवेरे स्नेहरश्मि, चुनीलाल और लेले ने गिरनार की यात्रा आरम्भ की। गिरनार का माहात्म्य, वहाँ के अघोरियों की साधना, योग के रहस्य आदि अनेक जानकारी लेले से सुनते सुनते वे लोग अम्बाजी तक पहुँच गये। वहाँ रात ठहरे। दूसरे दिन दतात्रेय के शिखर पर पहुँचे। लेले का तो यह साधना स्थल था। यहाँ उन्होंनें कठिन तपस्या करके गुरु दतात्रेय का साक्षात्कार कर करके आदेश प्राप्त

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किया था। भगवान दतात्रेय की महिमा की अनेक बातें अपने साथ के दोनों सहयात्रियों से कही, फिर वे स्वयं गहरे ध्यान में एकाग्र हो गये। बहुत देर के बाद ध्यान से जागे फिर अपने सहयात्रियों को भी ध्यान करने को कहा। अत: चुनीलाल और स्नेहरश्मि ने भी ध्यान किया। परंतु ध्यान के बाद जब लेले ने दोनों को ध्यान में हुए अनुभव के विषय में पूछा तब दोनों ने कहा कि, 'हमें कुछ भी अनुभव नहीं हुआ। ' यह सुनकर लेले थोड़े निराश हो गये। उन्हें तो इन दोनों को आध्यात्मिक अनुभव करवाना था पर दोनों को कुछ हुआ ही नहीं। इस तरह गिरनार पर अनुभूति करवाने की लेले की इच्छा चुनीलाल के मामले में फलीभूत नहीं हुई।

गिरनार की यात्रा के बाद वे सौराष्ट्र का पैदल प्रवास करते- करते आणंद आ पहुँचे। आणंद से लेले और गोपिकाबाई स्नेहरश्मि के साथ उनके गाँव् चिखली गये और चुनीलाल फिर विधापीठ आ गये। पर लेले के साथ गिरनार यात्रा में कोई आध्यात्मिक अनुभूति नहीं हुई इसका रंज दोनों पक्षों को होता रहा। इस विषय में द्युमान ने बाद में पत्र लिखकर बताया था कि, 'योगी लेले के साथ गिरनार के मेरे दूसरे प्रवास में मैं कुछ नहीं प्राप्त कर सका। मेरा विकास नहीं हुआ... मेरी नियति कुछ अलग ही थी... लेले का मुझ पर बहुत स्नेह था, वह मैं कभी भूल नहीं सकता... लेले के साथ रहने का सद्दभाग्य मुझे मेरे जीवन में प्राप्त हुआ, इसलिये मैं कृतज्ञता अनुभव करता हूँ। ' कोलेज के समय में योगी लेले द्धवारा उन्हे आध्यात्मिक अनुभूति चाहे न हुई हो पर उनके अंतरमन को तो उन्होंने योग की तरफ मोड़ ही दिया था। इस कारण चुनीलाल को भविष्य में आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश के लिये सरलता हो गई।

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