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Volume 8 : Hymns in Sanskrit with commentaries & translations, Prayers, The Mahamanustava - Quintessence of Sri Vidya, Sidelights in Sanskrit Literature

CWTVKS Volume 8

T. V. Kapali Sastry
T. V. Kapali Sastry

Volume 8 includes Hymns in Sanskrit with commentaries & translations, Prayers, The Mahamanustava - Quintessence of Sri Vidya, Sidelights in Sanskrit Literature

Collected Works of T. V. Kapali Sastry CWTVKS Volume 8 Editor:   M. P. Pandit
Sanskrit
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भारतीस्तवः




भारतीस्तवः

(शार्दूलविक्रीडितम्)

(१) सृष्टिः सर्गपतेरपारमहिमव्यापार-पात्रायतां भूमिर्विश्वशरीरिणो भगवतः पादारविन्दायते । तत्र श्रीपतिजन्मभिधृतमहस्सराङ्गायिता माहाभाग्यभरा चिरं विजयतां विश्वम्भरा भारतो ॥१॥

(१) सृष्टिकर्त्ताने सृष्टि इसलिये की कि वह उनके अगाध-महिमामय व्यापारका पात्र बने। यह पृथ्वी उन विश्वशरीरी भगवान्का पाद-पद्म है। इस पृथ्वीका उत्तमांग (शीर्षस्थान) यह भारतभूमि है। क्योंकि यहीं भगवान् श्रीपतिके ज्योति धारण करनेवाले अनेक जन्म अपने अंदर बड़े-बड़े अंश धारण करनेवाली ऐसी भारत-विश्वंभरा चिरविजयी हो ॥१॥

(२) अद्य श्रीदिनमद्य भारतकुल-स्वातन्व्य-दीक्षागुरोः स्वाराज्यार्थदृशोऽरविन्दभगवत्सूरेर्जयन्तीदिनम् । अद्यास्तङ्गतमङ्गभङ्ग-बहुलक्लेशं च पूर्व युगं नूनं सङ्गतमद्य मङ्गलयुगं जेजीयतां भूतले ॥२॥

(२) आज मंगल-प्रभात है; विज्ञवर भगवान् श्रीअरविन्दकी जयंतीका दिन है। आपने ही स्वराज्यका सच्चा अर्थ जाना था और ध्रुव तारा बन भारतकी प्रजाको स्वतंत्रताकी दीक्षा दी थी। आज अंग-भंग और नाना दुःख-क्लेशका पुराना युग बीत गया है और एक नया मंगलमय युग आरंभ हो गया है। पृथ्वीपर इस युगका जयजयकार हो ॥२॥

(३) निद्राणा किमु भारतक्षितिरिय किं मूर्छिता मोहतः किं नैरात्म्यवशंवदेररिजनैराक्रान्तसत्त्वा पुनः । भिन्ना सङ्घसहनिभिः किमु जनैश्छिन्नाऽन्तरद्वेषिभिः क्षोणीमण्डल-सार-दिव्यमहिमज्वालैव शान्ता नु किम् ॥३।।

(३) "क्या भारतभूमि सो रही है। क्या मोहसे अभिभूत हो गयी है; क्या उसका सारा सत्त्व ही आत्मामें अविश्वास रखनेवाले शत्रुओंके द्वारा आक्रांत हो गया है; क्या स्वयं हजारों संघोंमें विभक्त, पारस्परिक द्वेषसे भरे लोगोंके द्वारा वह छिन्न-भिन्न कर दी गयी है। क्या पृथ्वीमंडलका सारतत्त्व यह दिव्य-महिमामयी ज्वाला शांत हो गयी है ? ।।३॥

(४) यातः कुत्र पराक्रमस्तव पुरा रक्षांसि येनाऽधुनोः किं यातं बलमम्ब येन भगवद्धर्माः पुरा दर्शिताः । इत्थं व्याकुलचेतनैः सुकृतिभिः पुत्रश्चिराय स्थिते मातर्भारति हन्त ते समुदयः सोऽयं समासाद्यते ॥४॥

(४) “भला तेरा वह पुराना पराक्रम कहां चला गया जिससे तूने पुराकालमें राक्षसोंको मार भगाया था; मां! क्या तेरा वह बल चला गया जिससे तूने प्राचीन कालमें भगवद्धर्मको प्रकाशित किया था?"-इस प्रकार जब कि दीर्घकालसे तेरे कुछ सुकृति संतानोंका चित्त व्यथित हो रहा था तब हंत ! हे मां भारती! तेरा यह अभ्युदय आ उपस्थित हुआ है ॥४॥

(५) शान्तैवाऽसि शमप्रधानजनता-माताऽसि तत् ते गुणः कम्रास्याम्बुरुहैव भासि बहुशः क्लेशैरभिप्लाविता । अन्नाभावजनातुरेऽपि समये काये च काश्य गते मातस्त्वां न जहाति काचन कला सा ते हि सत्याऽऽकृतिः॥५॥

(५) मां! तू शांतिमय है; शांतिप्रधान जनताकी जननी है; यही तेरा गुण है। जब तू बहुत क्लेशसे पीड़ित हो जाती है तब भी तेरा मुखकमल कमनीय ही बना रहता है। जब अन्नाभावसे मनुष्य आतुर हो जाते हैं और शरीर कृश हो जाता है तब भी, हे मां! एक विशिष्ट कला विद्यमान रहती है और वही तेरा सच्चा रूप है ॥५॥

(६) देवात्मा हिमवान् धुलोकतटिनी गङ्गा च यत्राऽश्रया-न्माहात्म्य विभृतो यशश्च विपुलं धयं परं पावनम् । तां त्वां दैवतबृन्दसेवित-महामूर्ति प्रभावोज्ज्वलां को विद्वान् गिरिगहरावनिधुनीस्रोतोमयीं मन्यताम् ॥६॥

(६) जहां आश्रय प्राप्त करनेके कारण देवात्मा हिमालय और धुलोकतटिनी गंगा विपुल, धर्ममय एवं परम पावन यश तथा माहा-त्म्यको प्राप्त हुई हैं, ऐसी देववृंदसेविता महामूत्ति एवं प्रभावोज्वला तुझको भला कौन विद्वान् केवल गिरि-गह्वर, भूमि तथा नदी-नालेके रूपमें देख सकता है ?॥६॥

(७) केषांचिन्मुनिबृन्दपावनजनुभूमिः परेषां पुनः देवानामवतारभूरथ महातीर्थाल्यक्षेत्रभूः । एकेषां चिरकालचित्रचरिता दीर्घायुरेषा मता माताऽस्माकमखण्डचिज्ज्वलनभूनित्यात्म-धर्मार्थभूः ॥७॥

(७) कुछ लोगोंके लिये यह मुनिवृंदकी पावन जन्मभूमि है; कुछ लोगोंके लिये यह देवताओंकी अवतारभूमि है; कुछ लोगोंके लिये महान् तीर्थों तथा क्षेत्रोंकी भूमि है; कुछ लोगोंके लिये चिरकाल अद्-भुत चरित्र दिखानेवाली यह दीर्घजीवी है। परंतु हमारे लिये यह माता अखंड चिज्योतिकी वेदी तथा नित्य आत्मधर्मकी भूमि है ॥७॥

(८) श्लाघन्तां तव दिव्यगुप्तचरितं ते गुप्तविद्याविदो भिक्षन्तां भृतिमुत्तमां तव कृपां ते कर्मभिः कर्मठाः । वन्दन्तां कृतिनो यशस्तव वयं माहात्म्यजीवातवो विद्मो भारतमङ्गलं ध्रुवमिदं मातर्जगन्मङ्गलम् ॥८॥

(८) हे मां ! गुप्तविद्याविशारद लोग तेरे दिव्य गुप्त चरित्र-का बखान करें। कर्मी पुरुष अपने कर्मके उत्तम वेतनके रूपमें तेरी कृपाकी याचना करें। विज्ञ पुरुष तेरा यशोगान करें। पर तेरे माहात्म्यसे जीवन प्राप्त करनेवाले हम लोग यह जानते हैं कि वास्तव-में भारतका ही मंगल जगत्का मंगल है ॥८॥

(हरिणी)

(१) भरतधरणिं धन्यां मन्यामहे यदियं हि नो भुवनजनताक्षेम काम दधाति परं व्रतम् । भरतधरणेरात्मन्नम्ब त्वमाश्रयभूः सतां प्रभुरसि च भोस्त्रातुं कालेऽखिलं क्षितिमण्डलम् ॥९॥

(१) हम भरतधरणी (भरतकी भूमि अर्थात् भारत) को धन्य मानते हैं, क्योंकि सारे भुवनकी जनताका क्षेम ही उसका परम व्रत है। हे भारतकी आत्मा ! हे अम्बे ! तू सत्पुरुषोंकी आश्रय-भूमि है। समय आनेपर तू समस्त भूमंडलकी रक्षा करनेका सामर्थ्य रखती है ॥९॥

(२) जननि जगतीमन्धप्रायां विभिन्नजनाकुलां तनुमिव घनामेकां कृत्वा विधातुमनाकुलाम् । कलकलभरोल्लोले काले प्रचण्डमहोबले निखिलकलुषध्वान्तध्वंसे दधास्युरुविक्रमम् ॥१०॥

(२) हे जननि ! अंधप्राय, विभिन्न जनतासे आकुल इस पृथ्वी-को एक शरीरकी तरह दृढ़ताके साथ एकीभूत और अनाकुल बनाने-के लिये, हे प्रचंड महोबले ! कोलाहलके समयमें समस्त कलुषित अंध-कारका विध्वंस करनेके लिये तू महत् पराक्रम धारण करती है ॥१०॥

(३) भुवनविजयाद्राज्यं प्राज्यं त्वया न बुभुक्षितं भुवननिहितं भोगैश्वर्य त्वया न च लक्षितम् । भुवनगुरवे गुर्वीमुवी प्रसाधयितुं त्वया व्यवसितकृतिः श्रद्धा बद्धा पुराणि जयोद्यते ॥११॥

(३) हे पुरातनि ! हे विजयोन्मुखी! तूने कभी समस्त भुवन-को जीतकर विशाल राज्यका उपभोग करनेकी इच्छा नहीं की और न भुवननिहित भोगोंकी ओर ध्यान ही दिया। इस सुविशाल भुवनको भुवनेश्वरके योग्य बनानेका दृढ़ संकल्प तेरी श्रद्धामें विद्यमान है ॥११॥

(४) निखिलधरणिक्षेमे दीक्षा दृढं विधृता त्वया न तव जननि स्वार्थेऽनथै कदाचन धीः स्थिता । किमपि भवितुं कर्तुं किञ्चित् चिराय धरातले ध्रुवपरिकरवातैर्गुप्तैः श्रिताऽसि रहोबले ॥१२॥

(४) हे जननी! निखिल धरणीका क्षेम सिद्ध करनेकी दीक्षा तूने ली है; तेरी बुद्धिमें अनर्थ स्वार्थने कभी स्थान नहीं पाया। हे रहस्यबले ! तू, जिसके आश्रयमें ध्रुव और सुरक्षित परिवार रहते हैं, कुछ ऐसा होना और करना चाहती है जो पृथ्वीपर चिरकाल स्थायी होकर रहे ॥१२॥

(५) अमृतवचसस्त्वत्तो मातः पराङ्मुखतां गतान् परिभवशतै—तान् वान्तभ्रमानयि दुर्गतान् । अपि च विषमे न ला नत्वा प्रभूनितरान् नतान् तव तनुभवान् यन्नात्याक्षीस्त्वमम्ब कृपा हि सा ॥१३॥

(५) हे माता! जब तेरे संतानोंने तेरे अमृतवचनसे मुंह मोड़ लिया था, सैकड़ों अपमान पाकर वे हीन हो गये थे, वे अंधकारमें चक्कर काट रहे थे, वे दुर्गतिको प्राप्त हो गये थे और विषम काल उपस्थित होनेपर वे तेरे सामने नहीं, बल्कि दूसरे प्रभुओंके सामने नत हुए थे, तब भी तूने उनका त्याग नहीं किया। हे मां! तेरी अनु-कम्पा ऐसी ही है ॥१३॥

(६) तव तनुभुवामप्येकेषां विदामपुराविदां श्रवणपथमप्यप्राप्ते ते पुरोन्नतवैभवे । विमलचरिते प्रत्ने धर्मे तथा तव धिक्कृते कथमपि चिरं मातः क्षान्तं त्वया पृथुलक्षमे ॥१४॥

(६) जब तेरी प्राचीन महिमाको न जाननेवाले तेरे विद्वान् पुत्रों-के भी कानोंतक तेरा धर्म न पहुंच सका और फलतः उपेक्षित हुआ तब भी, हे विमलचरिते ! हे जननी ! हे प्राचीन कालकी महत्-वैभव- रूपिणी ! तूने यह सब किसी तरह दीर्घकालतक सहन किया हे अमितधैर्यशालिनी!।१४।।

(७) विधुततमसः सुप्तोत्थानेऽधुना तव पुत्रकाः पुरत उदयं पश्यन्तोऽमी महस्समुपासते । तव च वदनं भास्वज्जातं शुभोदयशंसनं वयमयि नमोवाकं ब्रुमः पुरातनि देवि ते ॥१५॥

(७) हे मां! अंधकार दूर हुआ और तेरे संतान नींदसे उठकर सामने उषाका उदय देख रहे हैं तथा ज्योतिकी उपासना कर रहे हैं। तेरा मुखमंडल उद्भासित हो रहा है और कल्याणके आगमन-को सूचित कर रहा है। और हम, हे पुरातनी देवी ! तुझे अपना नमस्कार जना रहे हैं।१५।।

(८) कृतमथ पुरालेशैः पाशैः प्रसीद सवित्रि नो भगवति नय श्रेयो भूयो निसर्गमहोज्ज्वलम् । इदमपि चिरान्नः स्वातन्त्र्यप्रभापथमण्डलं भवतु भवतीमाहात्म्यश्रीनवोदयमण्डलम् ॥१६॥

(८) हे भगवती ! अतीतके क्लेश और बंधन पर्याप्त हैं, हे सवित्रि ! प्रसन्न हो; हमें महत् श्रेयकी ओर ले चल, उस श्रेयकी ओर जो उज्वल और स्वाभाविक है, और हमारी इस स्वतंत्रताका प्रभामंडल तेरी माहात्म्य-श्रीका भी प्रभामंडल हो॥१६॥

(९) सुचिरभरिताद् बन्धान्मोक्षोऽधुना भरतावनेः सकलजगतीकल्याणाय प्रभातनु कल्पताम् । भवतु च तथा लोके यात्रा तवात्मभुवां यथा जननि विलसेदच्छं रूपं वरं तव वास्तवम् ॥१७॥

(९) हे प्रभातनु ! दीर्घकालीन बंधनसे जो यह मुक्ति प्राप्त हुई है, यह समस्त जगतीके कल्याणके लिये हो। हे माता! इस जगत्-में तेरे बच्चोंका चरित्र ऐसा हो जो तेरे सच्चे और स्वच्छ स्वरूपको प्रकाशित करे॥१७॥

(१०) विविधजनतासङ्घातस्य त्वमम्ब सुहृत्तमा विषयबहुले भूगोलेऽस्मिन् शुभाध्वनिदर्शिनी । अधिभुवनमध्यात्मश्रेयोविधानपटीयसी त्वमसि सदृशास्तेऽमी पुत्रा जयेम वयं च ते ॥१८॥

(१०) हे मां! तू भिन्न-भिन्न जनताके संघोंकी परम सुहृद् है। विभिन्न राष्ट्रोंसे पूर्ण इस भूलोकके लिये तू शुभमार्गका निदर्शन करने-वाली है। तू लौकिक और आध्यात्मिक श्रेयका विधान करने में पटु है। हम, तेरे पुत्र भी तेरे योग्य हों, जयी हों॥१८॥

(पृथ्वी)

(१) इयं परमधर्मसूर्मुनिसहस्रसङ्घप्रसू-रसूरिजनदुर्विदप्रकृतिसिद्धसारा घरा। अनादिजनताप्रसूरसुरवंशकालप्रसू--रनर्धचरिताऽद्भुता जयति भारती भूतले ॥१९॥

(१) जो भारतभूमि परमधर्मप्रसविणी है, सहस्र मुनियोंकी जननी है, जिसका स्वाभाविक सत्त्व अज्ञ जनोंके लिये दुर्बोध है, जो. अनादि जनताकी जनयित्री है, असुरवंशके कालको उत्पन्न करनेवाली है, वह अमूल्यचरिता है, भूमंडलभरमें अद्भुत है। उसकी जय हो ॥१९॥

(२) तवाम्ब परिकल्पितं भुवनसर्जनज्योतिषा वपुर्विमलपाटलद्युतिधरं महश्चिन्मयम् । अदृश्यमपि तद् घनं जननि दृश्यमन्तदृशां तदेव सकलावनेहृदयपद्ममच्छ विदुः ॥२०॥

(२) हे मां! भुवनसर्जन ज्योतिने स्वच्छ गुलाबी रंगकी चिन्मय ज्योतिसे तेरा शरीर बनाया है। यद्यपि वह अदृश्य है, फिर भी, हे जननी ! अंतर्दृष्टिवाले लोगोंके लिये वह दृश्य है, घनीभूत है। ज्ञानी जन जानते हैं कि वही समस्त पृथ्वीका विशुद्ध हृदय-कमल है ॥२०॥

(३) तवाम्ब महसां कलाः कलितमूर्तिबन्धा इमे वयं तव तनूभवास्त्वदुपजीव्यजीवानलाः । तवान्नमयसम्पदा वपुषि वर्धिताः पार्थिवे श्वसेम न विना त्वया त्वमसि सर्वमूलं हि नः ॥२१॥

(३) मां, हम तेरे संतान तेरी आत्मज्योतिकी मूर्तिमान कलाएं हैं। तू ही हमारी जीवन-ज्वालाओंको जीवन प्रदान करती है; तेरी ही अन्नभय संपदासे हमारा पार्थिव शरीर बढ़ता है; तेरे बिना हम श्वास भी नहीं ले सकते। तू ही वास्तवमें हमारा समग्र मूल है ॥२१॥

(४) प्रभावगहना गर्तिर्गगनलीनरोचिनिभा तवाम्ब भरतावनेर्भुवनलक्ष्यमुद्विभ्रती । युगाद् युगमतन्द्रिता विनयसि स्वयं पुत्रकान् अपारमहिमाऽम्बिका त्वमसि चित्कला भारते ॥२२॥

(४) हे मां! हे भारतभूमि ! इस जगत्के लक्ष्यको वहन करने-वाली तेरी गतिका प्रभाव आकाशमें लीन प्रभाकी तरह गहन है। तू युग-युग तंद्राहीन होकर, अपने बच्चोंका नेतृत्व करती है। तू अपार महिमावाली अम्बिका है, चित्-कला-रूपिणी है ॥२२॥

(५) इतः प्रथममुत्थितो मनुजनुः पुरा पुण्यवान् अचर्मनयनो मुनिर्दिवमपश्यदुन्मेषवान् । इतो निहतमादिमं मनुजनिष्ठमन्धं तमो जगत्प्रभवगाहनचुमणिरोचिषा भूजुषा ॥२३॥

(५) यहींपर पुराकालमें सबसे पहले पुण्यवान् मनुसंतान मुनि उत्पन्न हुए जो अचर्मचक्षु थे, जिन्होंने खुली आंखोंसे धुलोकतकको देखा था। यहींपर मनुजनिष्ठ (मनुष्यके अंदर निवास करनेवाला) अंध तमस जगत्के मूल स्थानतक प्रवेश करनेवाली उस सूर्य-किरणके द्वारा नष्ट हुआ था जो पृथ्वीको स्पर्श करती है ॥२३॥

(६) इतः शरणमुत्तमं शिवतमाध्वनां भूयसां इतःशरणमच्युतं जगदधीश्वरप्रेयसाम् । इतो जडतमोद्विषामजडलोचनज्योतिषां चिदम्बरमुपेयुषामुदयशैलतुङ्गस्थलम् ॥२४॥

(६) यहींपर कल्याणतम बहुमार्गोका उत्तम शरण है। यहीं-पर जगदीश्वरके प्रियजनका अच्युत शरण है। यहींपर जडतमसकी शत्रु, चिदाकाशमें फैलनेवाली चिन्मय नेत्रकी ज्योतियोंके उदयाचलका स्थान है॥२४॥

(७) नमःसवितृतेजसे भरतभूजुषे तस्थुषे नमो भरतमेदिनीतनुभृते रहस्यार्चिषे । नमः परमपावनश्रुतविदां सवित्र्यै नमो नमो नम इदम्पसु प्रभु गिरां भवत्यै नमः ॥२५॥

(७) भारतभूमिकी सेवा करनेवाले स्थायी सवितृ-तेजको नम-स्कार है। भरतभूमिके शरीरका भरण करनेवाली रहस्य-ज्वालाको नमस्कार है। परम पावन विद्वान् लोगोंकी जननीको नमस्कार है, नमस्कार है। हे इस सबकी जननी ! तुझे नमस्कार है, नमस्कार है। हे वाणियोंकी स्वामिनी ! तुझे नमस्कार है ॥२५॥

(कुमारललिता)

(१) तदम्ब तव रूपं महो भरतभूमेः । वरं प्रभवतां नः शिवाय शिवभामे ॥२६॥

(१) हे अम्ब ! हे कल्याणमयी देवि ! तुझ भारतभूमिका श्रेष्ठ स्वरूप, तेरी ज्योति हमारा मंगल विधान करे ॥२६॥

(२) मृदं तव शरीरं वदन्ति जडकल्पाः। हृदन्तरनिमेषा विदन्ति तव सत्यम् ॥२७॥

(२) जड़प्राय लोग ही यह कहते हैं कि तेरा शरीर मिट्टीका है किंतु जो लोग अपने हृदयमें निनिमेष दृष्टिसे देखते हैं वे तेरे सत्य-को जानते हैं॥२७॥

(३) महस्तव शरीरं चिदम्बरनिवासम् । भुवो जननि सारं बिभर्त्यपि विलासम् ॥२८॥

(३) हे जननि ! चिदाकाशमें निवास करनेवाला तेरा ज्योति विग्रह इस पृथ्वीके सार और विलासको धारण करता है ॥२८॥

(४) भुवो हृदयकीलां मुनीन्द्रवरलीलाम् । भणन्ति भरतोवीं प्रबोधबलगुर्वीम् ॥२९॥

(४) इस जगत्के हृदयकी ज्वाला और महान् ऋषियोंकी लीला-भूमिको ही लोग भरतखंड कहते हैं जो ज्ञानबलसे गुरुत्वको प्राप्त हुई है ॥२९॥

(५) अदम्भचरितानां अपास्तदुरितानाम् । पुरातनयतीनां नराधिकमतीनाम् ॥३०॥

(६) सवित्रि भरतक्ष्मा-शरीरधरवेषा। असि त्वममृतानां सवैर्विहितपोषा ॥३१॥

(५-६) हे दम्भहीन चरित्रवाले, पापको दूर करनेवाले, मान-वातीत बुद्धिको रखनेवाले प्राचीन यतियोंकी सवित्रि ! तू भारतभूमि-के रूपमें शरीर धारण करनेवाली है; तू यज्ञोंके द्वारा देवताओंको पुष्टि देनेवाली है॥३०-३१।।

(७) मतिं सुकृतिलोके शुभामयि दधाना । रतिं भजकलोकेऽ धुनापि विदधाना ॥३२॥

(८) तवाद्भुतमहिमां अभिज्ञकुलजानाम् । दधासि परिपाकं त्वदीयतनुजानाम् ॥३३॥

(७-८) तू सुकृति लोगोंमें मतिको धारण करनेवाली और भक्त-जनोंमें रतिका विधान करनेवाली है। तेरी अद्भुत महिमाको जानने-वाले ज्ञानीकुलमें उत्पन्न हुए अपने संतानोंको तू परिपक्व बनाती है ॥३२-३३।।

(९) विचित्रमितिहास पवित्रचरितं ते । न विस्मयमियात्को पुरातनि विदन् ना ॥३४॥

(९) हे पुरातनी ! तेरे पवित्र चरित्रसे भरे हुए विचित्र इति-हासको जाननेवाला ऐसा कौन है जो आश्चर्यचकित न हो? ॥३४॥

(१०) नरः श्रवणशाली स्मरन्नपि कथायाः । कथं प्रचुरसारां भजेत न कलां ते ॥३५॥

(१०) जो श्रवणशाली मनुष्य तेरी कथाको स्मरण करता है वह भला तेरी प्रचुरसार (अत्यधिक सार-तत्त्वोंसे भरी हुई) कला-को प्राप्त किये बिना कैसे रह सकता है ? ॥ ३५॥

(हंसमाला)

(१) भरतक्ष्मान्तरात्मन् भवसि वं प्रसूनः । वरतेजोशजातं तनुबन्धं बिभर्षि ॥३६॥

(१) हे मां ! हे भारतभूमिकी अंतरात्मा ! तू हमारी जननी है। उत्तम तेजके अंशसे उत्पन्न शरीरको तू धारण करती है ॥३६।।

(२) तनुबन्धेष्वबन्धा तनुजन्मस्वनन्धा । विमुखानात्मजातान् स्वमुखानम्ब धत्से ॥३७॥

(२) हे मां! तू शरीरबंधनोंसे अबंध (बंधनरहित) रहती है; अपने पुत्रोंके प्रति तू अनंध (जो अंधा न हो) रहती है। तू अपने विमुख पुत्रोंको स्वमुख (सम्मुखीन) बनाती है॥३७॥

(३) अपि नीचैः प्रविद्धं युगपूगैर्विवृद्धम् । प्रथितं भूमिगोले चरितं ते समृद्धम् ॥३८॥

(३) नीच लोगोंके द्वारा आक्रांत होनेपर भी तेरा चरित्र युग-युगमें बढ़ता रहा, समृद्ध होता रहा और भूमंडलमें प्रकट होता रहा ॥३८॥

(४) तव वक्षोजदुग्धा- मृतसंवर्धितास्ते । अमराणां सखाय-स्तनुजाताः पुराऽऽसन् ॥३९।।

(४) तेरे वक्षस्थलके दूधसे संवृद्ध तेरे वे संतान पुराकालमें अमरगणके सखा हुए थे॥३९॥

(५) भरतोामिहाम्ब प्रथमो मानुषाणाम् । दिवमाक्रम्य बुद्ध्या भुवमप्युदभार ॥४०॥

(५) हे मां! इस भारतभूमिमें ही मनुष्योंके आदि पुरुषने अपनी बुद्धिके द्वारा धुलोकपर आक्रमण करके इस भूलोकका उद्धार किया था।॥४०॥

(६) इह लोकान्तराणां मनुजो मार्गदर्शी । वपुषा बन्धवान-प्यमरत्वं जिगाय ॥४१॥

(६) यहींपर लोक-लोकांतरका मार्ग दिखानेवाले मनुष्योंने शरीर-में बद्ध होनेपर भी अमरत्वको जीत लिया था ॥४१॥

(७) परमाकाशगानां ऋषिदृप्टश्रुतानाम् । इह मन्त्राक्षराणां वरनादोर्मिमाला ॥४२॥

(८) भुवि वृन्दं घुलोका दमृतप्राशनानाम्। रुचिभिः प्लावयित्वा सवनायाचकर्ष ॥४३॥

(७-८) यहींपर परमाकाश-स्थित एवं ऋषियोंद्वारा दृष्ट और श्रुत मंत्राक्षरोंकी उत्कृष्ट नादतरंगमालाने अमृतभोजी देववृंदको सुरुचिसे परिप्लावित करके धुलोकसे यहां यज्ञके लिये आकर्षित किया था॥४२-४३॥

(९) समुदायस्य भव्यां सरणिं मानवानाम् । इह धर्मव्यवस्था-मकरोद्रामभद्रः ॥४४॥

(९) यहींपर श्रीरामचन्द्रजीने मानवसंघका कल्याणपथ निश्चित किया था-धर्मव्यवस्था की थी॥४४॥

(१०) ध्वजिनीर्वानराणां वशयित्वा नरेन्द्रः । यमिनां सार्वभौमो मनसां वा विचेष्टाः ॥४५॥

(११) अनयद्राक्षसीय कुलमास्यं यमस्य । दुरहकारमूलं हृदयस्थः पुमान् वा ॥४६॥

(१०-११) यहींपर उन नरेंद्रने बानर-सेनाओंको इस तरह अपने वशमें किया जिस तरह एक संयमी-सम्राट् मनुष्योंके मनकी चेष्टाओं-को अपने वशमें करता है और उन्होंने वैसे ही राक्षसकुलको पृत्युके मुखमें पहुंचा दिया जैसे हृदयस्थ पुरुष दुरहंकारके मूलको पहुंचा देता है।४५-४६॥

(१२) इह जातो यदूनां कुलपुत्रो मुरारिः । महतां भारतानामपि पश्यन् विनष्टिम् ॥४७॥

(१३) अगमद् युदरगं परतत्त्वोपदेष्टा । नरनारायणात्मा कृत कर्मोपदेशम् ॥४८॥

(१२-१३) यहींपर यदुकुलपुत्र श्रीमुरारी उत्पन्न हुए थे। महान् भरतवंशका सर्वनाश देखकर भी वह परतत्त्व-उपदेशक संग्राम-भूमिमें गये और उन नर-नारायणने कर्मोपदेश किया ॥४७-४८।।

(१४) इह तद् ब्रह्मतेजो- बहुलं क्षत्रवीर्यम् । नरनाथेषु मूर्त जनकाद्येषु वार्तम् ॥४९॥

(१४) यहींपर वह ब्रह्मतेजबहुल शुभ क्षात्र वीर्य जनकादि नर-नाथोंमें मूर्तिमान हुआ था ॥४९॥

(१५) तव पुत्रैः पुराणै- विवृतोऽप्यम्ब योऽसौ । अमितस्यांश एवं प्रमितो वैभवस्य ॥५०॥

(१५) हे मां ! जो कुछ तेरे पुराण-पुत्रोंने विवृत किया है वह तेरे अमित वैभवका एक सीमित अंश ही है॥५०॥

(उपजातिः)

(१) अक्षय्यसम्पत्तिरजय्यतेजा-भूमे«दयाब्जभूता। काश्चित्कलां चित्कलिकाप्रसूर्ति तां त्वां विदो भारतगां विदन्ति ॥५१॥

(१) हे अम्ब! तेरी सम्पत्ति अक्षय्य है; तेरा तेज अजय्य है। तू भूमंडलका हुत्कमल है; तू चित्कलिकासे उत्पन्न एक कला है। ऐसी तुझको विद्वान् लोग भारतभूमि जानते हैं ॥५१॥

(२) तत्तादृशं ते तपनीयतुल्य वृत्त पुरावृत्तविदाममूल्यम् । सत्वं च तत् ते महतां विनुत्यं कालेन यन्न व्ययमेति मातः ॥५२॥

(२) तेरा चरित्र स्वर्ण-जैसा है और प्राचीन इतिहासवेत्तागोंके लिये अमूल्य है। तेरा सत्त्व (आंतर बल) महापुरुषोंके लिये भी स्तुत्य है और कालद्वारा भी उसका व्यय नहीं होता ।।५२॥

(३) विलक्षणा विश्वजनीनविद्या हुधाऽनवद्या विबुधेव्यपथा। भूमण्डलोज्जीवनचारुचर्या कथागतिश्चित्रतमा त्वदीया ॥५३॥

(३) तेरी विलक्षण विश्वजनीन विद्या रमणीय और निदोष है, विबुष लोगों (देव तथा विद्वान् लोगों) द्वारा स्तुत्य मार्गवाली है। भूमंडलको उज्जीवित करनेवाली चार चर्यासे पूर्ण तेरी कथाधारा अत्यंत अद्भुत है ॥५३॥

(४) न केवलं ब्रह्मविदामृषीणां लोकान्तराबद्धदृशां सता आदिस्थलं लोकविदां कलाना-ममिज्ञलोकस्य च भारति त्वम् ॥५४॥

(४) हे भारती! तू न केवल ब्रह्मज्ञानी ऋषियोंका, न केवल लोकांतरमें दृष्टि रखनेवाले सत्पुरुषोंका ही आदिस्थल है, बल्कि तू लोकज्ञानी नाना कलाभिज्ञ लोगोंका भी आदिस्थल है ॥५४॥

(५) न केवलं पूर्वयुगेषु पश्चा-दपि प्रभावोज्ज्वलशीलवृत्ताः । तदा तदा रूढबलास्तवाख्यां प्रख्यातिमारादनयंस्तनूजाः ॥५५॥

(५) न केवल प्राचीन युगोंमें, बल्कि बादके युगोंमें भी समय-समयपर प्रभावसे प्रोज्वल शीलवृत्तिवाले, प्रौढ़ बलवाले तेरे संतानोंने दूर-दूरतक तेरी ख्याति फैलायी ॥५५॥

(६) तथा पुराणैस्तव पुत्रवर्ग-स्त्रिवर्गपद्यास्वपि नित्यनिष्टः विद्याविभेदव्यवसायधीरे-राविष्कृतं भारति वैभवं ते ॥५६।।

(६) इसी तरह, हे भारती! त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) में ध्रुव-निष्ठ और विविध-विद्या-व्यवसायमें धीर तेरे प्राचीन पुत्रोंके द्वारा तेरा वैभव आविष्कृत हुआ॥५६॥

(७) दुष्टं च यत् स्वीकरणाक्षम वा यद् दैवयोगाद् घटितं पूराऽभूत् । निराकृतं तत् तव देवि शक्त्या मांसार्बुद शस्त्रचिकित्सयेव ॥५७॥

(७) प्राचीन कालमें दैव-दुर्योगद्वारा जो कुछ दूषित घटित हुआ और जो स्वीकार करने योग्य नहीं था, उसे तूने, हे देवि ! उसी तरह त्याग दिया जैसे शस्त्रचिकित्साके द्वारा अतिरिक्त मांस काटकर फेंक दिया जाता है ॥५७॥

(८) वज्यं न यत् त्यागसहं च नासीत् यदात्मसात्कारसहं च वृत्तम् । अङ्गीकृतं तत्तु बलस्य भूम्ना पोषाय बल्यं सुरुचोव भुक्तम् ॥५८॥

(८) और जो कुछ वर्ण्य नहीं था, जिसे त्याग करना संभव नहीं था, जो आत्मसात् किया जा सकता था, उसे तूने अपने बलाधिक्यके द्वारा उसी तरह अंगीभूत कर लिया जिस तरह पोषणके लिये बल-दायक, रुचिपूर्ण आहारको ग्रहण किया जाता है ॥५८॥

(९) यल्लोकयात्रास्वनुपेक्षणीयं लक्ष्यं नराणां शुभजीवनस्य । कलाभिनिष्पाद्यफलस्य तस्य त्वं भारती संभवभूमिरासीः ॥५९॥

(९) जो लोकयात्राके लिये उपेक्षणीय नहीं है, जो मनुष्यके शुभ जीवनका लक्ष्य है-वह लक्ष्य जिसको कलाके द्वारा निष्पन्न किया जा सकता है, उसकी जन्मभूमि, हे भारती! तू ही है ॥५९॥

(१०) अनादिकालादवधि विधूय कष्टान्यरिष्टान्यनुभूय भूयः । उद्धारणासक्तमनास्सुतानां भूमङ्गलायाध समुद्यताऽसि ॥६०॥

(१०) अनादि कालसे सब प्रकारकी सीमाका वर्जन कर, बार-बार दुःख-कष्ट, दुर्भाग्यका भोग कर आज तू अपने पुत्रोंका उद्धार करनेकी इच्छाके साथ भूमंडलके मंगलके लिये उठ खड़ी हुई है ॥६०॥

(११) गङ्गा वराङ्गादिव देवि शम्भो-रम्भोजबन्धोरिव मानुमाला। प्रभा पवित्रा तव सत्यधारा निरन्तरा भारति भाति नित्या ॥६१॥

(११) हे देवि! शंभुके श्रेष्ठ अंग (मस्तक) से निकलनेवाली गंगाकी तरह और कमलबंधु (सूर्य) की किरणमालाकी तरह, हे भारती, तेरी सत्यधारा और पवित्र प्रभा नित्य-निरंतर प्रकाशित होती है ॥६१॥

(१२) अस्तूपरोधो भवतूपराग-स्तव श्रियां सन्ततभासनस्य । तथापि ते भारति नित्यसिद्धः प्रकाशतामेति पुनः प्रभावः ॥६२॥

(१२) तेरी श्रीके निरंतर प्रज्वलित होनेमें कोई बाधा उपस्थित हो अथवा उसपर ग्रहण लगे, तो भी हे भारती! तेरा नित्यसिद्ध प्रभाव बार-बार प्रकाशित होता है ॥६२॥

(१३) अनन्यसामान्यमदनसत्त्वं विचित्रमेतचिरजीवित ते। युगाद् युगं यात्यपि कालचके चक्रे जरा यन्न पदं तवार्थे ॥६॥

(१३) तेरा चिरजीवन असामान्य है, भूरि-सत्त्व है, विचित्र है क्योंकि कालचक्र यद्यपि एक युगसे दूसरे युगमें चला करता है, फिर भी तेरे ऊपर वह जरा भी अपना पदचिह्न नहीं छोड़ता ॥६३॥

(१४) आयुर्द्रदिष्ठं तव नव्यसारं स्वार्थभोगैकरतप्रविद्धम् । लोकस्य यत् त्वं निखिलस्य योग-क्षेमाय धामातुलमाबिमर्षि ॥६४॥

(१४) तेरी आयु दृढ़तम और नव्यसार (सतत नूतन शक्तिसे भरपूर) है और मात्र स्वार्थभोगसे आहत नहीं है; क्योंकि तू निखिल जगत्के योगक्षेमके लिये अतुल प्रभाव धारण करती है ॥६४।।

(१५) नानागुणानां जनताभिदानां अखण्डभूमण्डलभूषणानाम् । तत्तद्विशेषानुगुणेन सारान् सगृह्य संमानसि त्वमार्या ॥६५॥

(१५) हे आयें ! तू नाना गुणवाली और अखंड भूमंडलका भूषण- रूपी विभिन्न जनताके सार-स्वरूप मनुष्योंको उनके विशेष-विशेष गुणों-के अनुसार संग्रह कर उनका सम्मान करती है ॥६५॥

(१६) सञ्चित्य सञ्चित्य पुरोपभोगान् संस्कारभूयिष्ठबलाऽसि जाता। बहुप्रमेदस्य मनुष्यजात-स्यादर्श एकोऽसि निदर्शनाय ॥६६॥

(१६) अतीत कालके अनुभवोंका संचय करते-करते तू बहुत अधिक संस्कारबलसे सम्पन्न हो गयी है। नाना भेदोंसे युक्त मनुष्यजातिके निदर्शनके लिये तू एक आदर्श (दर्पण) बन गयी है ॥६६॥

(१७) आत्मार्थधर्मे बहुधा नराणां स्वभावचेष्टारुचिभिर्विभिन्ने। व्यस्तं समस्तं च तमात्मनि त्वं धत्से यथासारमसारवर्जम् ॥६॥

(१७) मनुष्योंकी स्वभावगत चेष्टा और रुचिके कारण बहुधा-विभक्त जो उनका आत्मार्थ जीवनका धर्म है, उसको तू अपने अंदर पृथक्-पृथक् और एक साथ यथासार-लेशमात्र भी सार-तत्त्वको छोड़े बिना-धारण करती है॥६७।। (१८) नास्तिक्यनिन्दास्पदशाक्यसिंह-धर्मेऽपि सत्यं हितमाददाना । आस्तिक्यचित्तस्य विचारपौत-स्यावासमूस्त्वं भुवने विभासि ॥६॥

(१८) नास्तिक्य-निंदास्पद (नास्तिकता कहकर जिसकी निंदा की जा सके) शाक्यसिंह (बुद्ध) के धर्म से भी सत्य और हित (शुभ) का आहरण कर तू विचार-शोधित आस्तिक्यचित्त (आस्तिक बुद्धि) की आवास-भूमिके रूपमें भुवनमें प्रकाशित है॥६८॥

(१९) कालेन मालिन्यमिते पवित्रे धर्म पुराधर्मविदामृषीणाम् । कर्मच्छलाद् भारतधर्मवृक्षं वृक्षादनी काचिदधिप्ररूढा ॥६९॥

(१९) प्राचीन धर्मवेत्ता ऋषियोंका पवित्र धर्म जब कालक्रमसे मलिन हुआ तब कर्मके नाममें भारत-धर्म-रूपी वृक्षपर एक प्रकारकी वृक्षभोजी लता (आकाश-वेलि) आरूढ़ हुई ॥६९।।

(२०) दण्डेन दंशानपसारयिष्यन् गामेव निम्नन्निव धर्मवीरः । कर्माभिभूतं परमार्षधर्म मर्मस्वहन् कमविशोधनार्थी ॥७०॥

(२०) जैसे कोई धर्मवीर गायका दंशन करनेवाले कीड़ेको हटाने-के लिये लाठीसे गायको ही मारे, वैसे ही कर्मसंशोधकोंने कर्माभिभूत परम आर्ष-धर्मके मर्मस्थानमें चोट पहुंचायी ॥७०॥

(२१) कारुण्यमूर्तिः कमनीयवृत्तै-र्जातस्सुतस्ते नरलोकरत्नम् । शून्योपदेशेऽपि दिशंश्च धर्म योऽसौ वितेने धवलं यशस्ते ॥७१॥

(२१) तेरा करुणामूर्ति पुत्र अपने रमणीय आचरणके कारण मनुष्यलोकका रत्न बन गया, जिसने शून्यका उपदेश देनेपर भी धर्म-का निर्देश करके तेरे धवल यशका विस्तार किया ॥७१॥

(२२) अन्धां विभिन्नां तिमिरेषु पश्य-नासेतुशीताचलमात्मभासा । यो भासयन् भारतभूमिमेकां चचार बालोऽपि स ते विलासः ॥७२॥

(२२) जिन बालक (शंकराचार्य) ने देशको आसेतुहिमाचल अंधकारसे अंध, विभक्त देखकर आत्मज्योतिके द्वारा अखंड भारतभूमिके रूपमें उद्भासित किया, वह तेरे ही विलास थे॥७२॥

(२३) प्रेमातिरेकादुदितस्य भूमा भावस्य निर्द्वन्द्वसहस्य गम्यम् । न्यदर्शयद् यः पुरुषं पुराण आत्मन्यसावम्ब तव प्रसादः ॥७३॥

(२३) जिन्होंने प्रेमातिरिक्तसे उदित और निद्वंद्वसह (जो द्वंद्व-भाव सहन न कर सके) भावाधिक्यसे प्राप्य पुराण-पुरुषको अपने अंदर प्रकाशित करके दिखा दिया, वह (चैतन्य महाप्रभु) हे मां! तेरे ही प्रसाद थे॥७३॥

(२४) अन्यैरमूदृग्भिरनर्घवृत्तै-रलोकसामान्यबलेन वितैः। सर्वषा संस्कृतिराहिता ते पुत्रेषु चेदम्ब किमत्र चित्रम् ॥७४॥

(२४) यदि ऐसे-ऐसे अमूल्य जीवनवाले, असाधारण बलके लिये प्रसिद्ध अन्यान्य पुरुषोंने तेरे संतानोंको सर्वतोमुखी संस्कार प्रदान किया तो इसमें भला क्या आश्चर्य है ? ॥ ७४॥

(२५) अध्यात्मसम्पत्तिमतां महद्भि-महाविभूतिप्रभवैः समृद्धाम्। खामम्ब कल्याणपरम्परार्थः सतामुपास्ते समयोऽद्य भव्यः ॥७५ ॥

(२५) अध्यात्मसंपत्तिवाले पुरुषोंमें महत् तथा महाविभूतिसंजात पुरुषोंसे समृद्ध तेरे लिये, हे मां! सत्पुरुषोंके कल्याणपरम्परार्थ आज भव्य समय प्रतीक्षा कर रहा है ॥७५।।

(मन्दाक्रान्ता)

(१) तस्मादस्मास्वमरजनतासत्त्वमाधत्स्व किञ्चित् सनद्धानां धुरि वयममी येन यामस्तवाथै । मातर्भूरि प्रथितमकरोत् पुत्रवर्गः पुरा चेद् भूयः श्लाध्यं भवति विपुल भावि कर्तव्यशेषम् ॥७६ ॥

(१) अतः हे मां! किंचित् अमरवृंदका सत्त्व हमारे अंदर डाल दे जिससे हम तेरे कार्यके लिये सद्ध पुरुषोंकी धुरी बन सकें। यदि तेरे संतानोंने पुराकालमें पर्याप्त प्रसिद्ध कार्य किया तो आज उससे भी कहीं अधिक प्रशंसनीय कर्म करना बाकी है ॥७६।।

(२) यद्यप्यम्ब त्वमसि तमसा हन्त्रि की तथापि त्वज्जातानामयि कृतधियां त्वं हि नः कारयित्री। मानुष्यं ते यदपि सकलं साध्वपत्यं समान किञ्चित् तत्राप्ययति गुरुतां भारतीयात्मजातम् ॥७॥

(२) हे मां! हे तमोहंत्री ! यद्यपि तू स्वयं कार्य करनेवाली है तथापि तू अपने बुद्धिसंस्कारसंपन्न हम पुत्रोंसे कार्य कराती भी है। यद्यपि सभी मनुष्य एक समान तेरे ही सत् संतान हैं तथापि तेरे भारतीय आत्मज सबसे कुछ विशिष्ट हैं ॥७७।।

(३) क्षोणीमेवं भरतनरपत्यहितामर्चनीया-मर्चामधेहतममृतमप्यत्र भात्येव गोप्यम् । कश्चिद् ब्रूयात् किमपि विबुधमन्य इत्थं सहासं को वा मृत्वां भजति पृथिवीं दैवबुद्ध्येति धीमान् ॥७८॥

(३) भरत राजाके नामसे अंकिता और पूजनीया इस भूमिको यदि हम इस प्रकार पूजा करते हैं तो इसमें कुछ रहस्यपूर्ण शाश्वत सत्य है। कोई-कोई तथाकथित बुद्धिमान हंसते हुए इस प्रकार कह सकते हैं कि भला कोई भी बुद्धिमान मनुष्य मृत्तिकामयी पृथ्वीको दैव-बुद्धिसे कैसे पूज सकता है।॥७८॥

(४) पृथ्वी बुद्धर्जडपरिचयात् सम्प्रतीता जडा चे-दन्तर्विद्वानपि जड इति प्रोच्यतां मर्त्यलोकः । चक्षुह्यं यदिह बिभृयात् कुचिद्वा जडत्वं वैचित्री सा जगदुपगता चिद्विकासक्रमस्य ॥७९॥

(४) बुद्धिका जड़से परिचय होनेके कारण यदि पृथ्वी जड़ प्रतीत होती है तो फिर अंतश्चेतन मनुष्यको भी जड़ ही कहें। आंखसे दिखायी देनेवाली कोई भी चीज यदि जड़त्व वहन करती है तो यह वास्तवमें जगत्में होनेवाले चैतन्यके क्रमविकासका ही एक वैचित्र्य है ॥७९॥

(५) एकं प्राज्ञ प्रथममपि तन्मध्यमन्तं निरन्तं नैकं सर्व भवति च पुनर्द्वन्द्वमद्वन्द्वभूतम् । लीनं कापि प्रकटमपि वा सर्वभावस्वतन्त्रं सर्वोन्माथे सकलजननेऽप्येतदात्मावलम्बम् ॥८०॥

(५) एक प्राज्ञ (प्रज्ञासम्पन्न वस्तु) है; वह आदि, मध्य और अंत है, पर फिर भी अंतहीन है। एक नहीं है, सब कुछ हुआ है; फिर वह द्वन्द-अद्वन्द भी है। वह कहीं गुप्त है अथवा प्रकट है, सब भावोंमें स्वतंत्र है। सबके नाशमें, सबकी उत्पत्तिमें भी वह स्वावलंबी है।८०॥

(६) ब्रूमः सत्यं गहनगहनं सर्वतोव्याप्तमुच्च शून्याभासं किमपि न घनं नाघनं वा न चान्धम् । नासीत् सोमो न च दिनकरोज्योतिषां वा न चक्र नेयं यत्र क्षितिरपि पुनः का कथा मानुषाणाम् ॥८॥

(६) हम सत्य कहते हैं-वह गहनातिगहन है, सर्वत्र व्याप्त है, उच्च है, शून्यसा प्रतीत होता है, कुछ ऐसी चीज है जो न धन है न अघन है, और न अंधा है। वहां न चंद्र है न सूर्य है और न नक्षत्र-मंडल है, यह पृथ्वी भी नहीं है, फिर मनुष्योंकी तो बात ही क्या ? ॥८१॥

(७) लेशस्पन्दः किमपि विवरं स्धयामास यत्र व्याक्षेपोत्थं भुवनक्तितेरन्तरं तच्च वृत्तम् । अम्भो नित्यं निखिलजगतामक्षयं तन्निधानं विज्ञाः पाहुविधुततिमिरैलोंचनैलोकयन्तः ॥८२॥

(७) वहां एक क्षीण स्पंदन हुआ और उससे एक रंध्र उत्पन्न हुआ। विक्षोभसे उत्पन्न वह रंध्र भुवनके विस्तारके लिये अवकाश बन गया। अंधकारविरहित नेत्रोंसे देखनेवाले विज्ञ पुरुष उसे निखिल जगत्का अक्षय निधान, नित्य अम्भस् (जल) कहते हैं ॥८२॥

(८) दुरादुबैरमृतविभवान्निश्चलादम्बुराशे-रम्मोचिन्दुर्विवरवलयस्याकमे सम्प्रवृत्तः। यस्मादस्मिन्नखिलभुवनस्येमभावकाशे ब्रह्माण्डानां द्रुतगतिभवं मण्डलं निर्जगाम ॥८३॥

(८) दूरसे, ऊर्ध्वसे, अमृतवैभववाली निश्चल अम्बुराशिसे आ-कर एक जलबिंदु उस विवरमंडलको आक्रांत करने लगा और उस बिंदु-से निखिल भुवनकी स्थिति और विनाशके अवकाशमें द्रुतगतिसे उत्पन्न होनेवाला ब्रह्मांडमंडल निकलने लगा ॥८३॥

(९) यत्रैकोऽसौ तरणिरणुवत् सग्रहो नित्यचारी यो दृश्याण्डे प्रतिनिधिरभूत् पुष्करस्य प्रभासः । यस्य क्रान्तेभ्रमपरिगता निर्धता भूतधात्रो धत्ते कुक्षौ मह इह निजे नित्यसुप्तेव गुप्तम् ॥८४॥

(९) यह ग्रहसहित नित्यचारी सूर्य वहां एक अणुके समान है और यह इस दृश्य ब्रह्मांडमें प्रविष्ट ज्योतिवाले महाकाशका प्रतिनिधि है। उसके भ्रमणके कारण यह नित्य-सुप्ता-जैसी भूतधात्री (पृथ्वी) प्रक्षिप्त और भ्रमाक्रांत हुई, जो अपने कुक्षमें गुप्त रूपसे ज्योति धारण करती है।।८४॥

(१०) क्षिप्तामारात् तमसि पतितां विश्वगर्भादनन्तात् पृथ्वीमेतां जडतनुमपि प्रश्वसन्तीं भ्रमन्तीम् । अन्तर्वनीममृतऋतचिन्मोदसद्भावसारै-साधारैरनुगतवतो कापि धात्रो विधात्री ॥८५ ॥

(१०) विश्वगर्भ अनन्तसे, दूरसे फेंकी हुई, अंधकारमें गिरी हुई, जड़तनु होनेपर भी श्वास-प्रश्वास लेनेवाली, भ्रमण करनेवाली, ऊर्ध्व आधारवाले सत्, चित्, ऋत, अमृत और आनंदके सारको गर्भमें धारण करनेवाली इस पृथ्वीका एक धात्री-विधात्रीने अनुगमन किया ॥८५॥

(११) सा चित् काचित् कथमपि बहिलोकचकादवका स्वाधिष्ठानात् परमनमसः प्रस्थिता निश्चितार्था । छायेवैनामनु वसुमती नित्यनिर्णिदरक्षा यात्वा शिक्षामधित समये स्वापबोधेऽविबाधम् ॥८६॥

(११) वह, कोई चैतन्यमयी सत्ता, किसी तरह बाह्य लोकचक्र-के बाहरसे, सीधे अपने धाम परम आकाशसे निश्चित उद्देश्यके साथ आयी। इस जड़शरीरवाली वसुमतीका छायाकी तरह अनुगमन करने-वाली, उसकी नित्य अनिद्र रक्षा करनेवाली उस सत्ताने यथासमय बिना किसी उद्वेगके उसे स्वापबोध (जागरण) की शिक्षा दी ॥८६॥

(१२) उवैर्धामो भुवनविततेर्मण्डलात् सा परस्ता-श्रीचैः प्राप्ता जडजगदिदं पार्थिव पातुकामा । आवृण्वन्ती धरणिमखिलां धारयन्तो समन्ता-दन्तः स्वस्थामकृत सरसां भूतसर्ग प्रविष्टा ॥८७॥

(१२) वह इस पार्थिव जड जगत्की रक्षा करनेकी कामना-से विश्वके विस्तारमंडलके परे उच्च धामसे नीचे आयी और उसने अखिल धरणीको आवृत करके, चारों ओरसे धारण करके और भूत-सृष्टिमें प्रवेश करके उसे भीतरमें स्वस्थ और सरस बनाया॥८७।।

(१३) तत्राप्यन्तहृदयमभवत् सैव गोलस्य भूमे-यंत्र प्रोतं प्रबलमसुचिन्मोदसत्त्वं समस्तम् । या सर्वस्य क्रमविधिवशात् तेजसा स्वेन गुप्तं पाकं धत्ते फलति च यतः प्राणबुद्ध्यादिरूपम् ।।८८॥

(१३) वह इस भूमंडलके अंदर हृदय बनी जिसमें प्रबल सत्, चित्, आनंद और प्राण सब-के-सब ओतप्रोत हैं। वह अपने निजी तेजसे क्रम और विधिके अनुसार सबका परिपाक करती है और उससे प्राण, बुद्धि आदि फल प्राप्त होते हैं ॥८८॥

(१४) तैलं लीन निरयति तिलात् साधु संमदनोत्थं वह्निः सुप्तो ज्वलति च शमीगर्भजो घर्षणेन । पक्का भूमिर्गुणबलवतोस्सम्पदश्चेतनानां माहाभाम्याद्विसजतितरामास्तराणां क्रमेण ॥८९॥

(१४) तिलमें छिपा हुआ तेल अच्छी तरह मर्दन करनेसे निकलता है; शमीगर्भमें सुप्त अग्नि घर्षणसे जलती है। परिपक्व भूमि भी बड़े-बड़े अंशोंसे चेतनाकी गुणबलवाली संपदाओंके एक-एक तह प्रकट करती है।।८९॥

(१५) कल्याणानां निविरधिभुवे सर्वदेवात्मभासा-नित्या निखिलधरणेद्लमाधारधात्री। तेजोबत्रैजनयति वचोजीवनस्वान्तगर्भ-मयं रूपं परिणतफलाऽमय॑सारं दधाना ॥९०॥

(१५) वह पृथ्वीपर कल्याणोंकी निधि और सब देवताओंकी ज्योतिकी माला है। वह नित्या, निखिल धरणीके मूल और आधार-को धारण करनेवाली है। अमर्त्यसारको धारण करनेवाली, परिणत-फला वह माता वाक्, प्राण और मनको गर्भमें धारण करनेवाले तेज, अप और अन्नसे मानव-रूपका सृजन करती है ॥९०॥

(१६) नग्ना मग्ना जगति जडिते वर्मणा स्वेन धान्ना निःश्वासेन लथयति जडं सारमुद्धर्तुकामा । व्याप्ताप्यन्तर्बहिरपि भुवं स्वीयमाधारचक्र बिमाणेयं भरतधरणावत्र कृत्यानि धत्ते ॥९१॥

(१६) वह अपने तेजोमय नग्न शरीरसे इस जड़ीभूत जगत्में डूब जाती है और सारतत्त्वका उद्धार करनेके लिये अपने निःश्वासके द्वारा जड़को ढीला बना देती है। वह इस भूमिके भीतर और बाहर व्याप्त होनेपर भी अपने आधारचक्रको कायम रखती हुई इस भरत-भूमिमें अपने कार्य करती है ॥९१॥

(१७) रूपं यस्यास्त्रिदशवपुषः संहतं ज्योतिरीड्यं साधु व्यक्तं धरणिभुवनस्यात्मभूतं प्रभूतम् । दृश्यं व्याप्तं जडमपि यया भूजगद् धार्यमाणं सा नो माता जयति भरतक्षोणिरक्षामधामा ॥९२॥

(१७) जिसकी दिव्य शरीर-रूपी, महत्, स्तुत्य और संहत ज्योति अच्छी तरह व्यक्त होकर भूमंडलका आत्मा बनी, जो दृश्य जड़ जगत्-में भी व्याप्त होकर उसे धारण करती है, उस हमारी अक्षय तेजवाली भारत माताकी जय हो॥९२॥

(१८) यस्याः शुभ्रज्वलनकलया भारतीयान्तरात्मा व्यक्तीभूय प्रचुरजनताधारमूलं बिभर्ति । यस्यास्सत्त्वं हृदयसुगमं प्राप्य धीरा ध्रियन्ते सा नो माता जयति भरतक्षोणिरक्षामधामा ॥९३॥

(१८) जिसकी शुभ्र ज्वालाके अंशसे भारतभूमिकी अंतरात्मा व्यक्त होकर प्रचुर जनताका आधार बनती है, जिसके हृदयद्वारा ग्राह्य सत्त्वको प्राप्त होकर धीर पुरुष जीवन धारण करते हैं, उस हमारी अक्षय तेजवाली भारत माताकी जय हो॥९३॥

(१९) यस्याश्चित्तश्वसितलवतो मानवो लब्धजीवः क्रीडापात्रं लसति समये नाकिनां भूविलासे । यस्याः संविद् भवति जनिभूर्भुजुषां चेतनानां सा नो माता जयति भरतक्षोणिरक्षामधामा ॥९४॥

(१९) जिसके चैतन्य-श्वासके लेशमात्रसे लब्धजीव मनुष्य देव-ताओंके भूमि-विलासके समय उनका क्रीडा-पात्र बनता है। जिसके संविद्से भूलोकमें चेतन प्राणी उत्पन्न होते हैं, उप्त हमारी अक्षय तेज-वाली भारत माताकी जय हो ॥१४॥

(२०) ज्योतिर्वीचिप्रथनपटुना प्राणवेगेन यस्याः प्रादुर्भावो जगति घटते जन्मिनां बुद्धिमाजाम् । अन्तर्यस्यामखिलजनिमद्वम॑णां वा समष्टिः सा नो माता जयति भरतक्षोणिरक्षामधामा ॥९५ ॥

(२०) ज्योतितरंग फैलानेमें पटु जिसके प्राणावेगसे जगत्में बुद्धि-मान मनुष्योंका प्रादुर्भाव होता है; जिसके अंदर सब शरीरधारियोंकी समष्टि विद्यमान है, उस हमारी अक्षय तेजवाली भारत माताकी जय हो ॥१५॥

(२१) यामाश्रित्य प्रकृतिमवनिर्भूतसर्गस्य धत्ते या भूतानामघनकरणैः कर्मणां चोदयित्री । अर्थे यस्याः श्वसिति च विदन् मर्त्यलोकोऽविदन् वा सा नो माता जयति भरतक्षोणिरक्षामधामा ॥१६॥

(२९) जिसका आश्रय करके पृथ्वी भूतसृष्टिकी प्रकृतिको धारण करती है, जो सूक्ष्म करणके द्वारा भूतमात्रके कर्मोकी प्रेरणा देती है, जिसके लिये मनुष्यलोक जानमे या अनजानमें जीवन धारण करता है, उस हमारी अक्षय तेजवाली भारत माताकी जय हो ॥१६॥

(२२) ज्योतिर्व्यक्तं वपुरिह बहिश्चतसां दुर्गमं तत् प्राणैरन्तःकरणसचिवैः प्राप्यमन्तर्मुखानाम् । यत्सायुज्यादमरविभवान् मानवो याति यस्याः सा नो माता जयति भरतक्षोणिरक्षामधामा ॥९७॥

(२२) जिसका व्यक्त ज्योति-शरीर बहिर्मुखी मनवाले मनुष्यके लिये दुर्बोध है और अंतर्मुखी मनुष्यके लिये अंतःकरणसहित प्राणके द्वारा प्राप्य है तथा जिसके साथ सायुज्य प्राप्त कर मनुष्य देवताओंके ऐश्वर्यको प्राप्त करता है, उस हमारी अक्षय तेजवाली भारत माता-की जय हो ॥९७॥

(२३) भूमावस्यां मनुजदनुजैरर्दितायामुदास्या दास्याद् दीनं नरकुलमसल्लोकतो मोचयित्री। धोरलाध्यं धवलयशसं बिभ्रती पुत्रवर्ग सेयं माता जयति भरतक्षोणिरक्षामधामा ॥९८॥

(२३) जो इस भूमिके मनुष्य-रूपी दानवोंसे पीड़ित होनेपर सिर ऊंचा रखती है, जो दीन मनुष्योंको असत् लोगोंकी दासतासे मुक्त करती है और धीरोद्वारा प्रशंसनीय धवल यशवाले पुत्रोंका भरण करती है, उस हमारी अक्षय तेजवाली भारत माताकी जय हो॥९८॥

(२४) स्थान भौम विबुधजनताभोग्यमाधिसमानाः शक्तोदिव्यास्सुरभुवनतः संमिलन्तीधरन्ती । दैवप्रेप्साज्वलितहृदयैर्मानुपैयक्तसारा सेयं माता जयति भरतक्षोणिरक्षामधामा ॥९९॥

(२४) इस पृथ्वीको देववृंदके लिये योग्य बनानेकी कामना रखने-वाली और सुरलोकसे आकर यहां मिलनेवाली दिव्य शक्तियोंको जो धारण करती है तथा दैवप्रेप्सा (भगवान्को प्राप्त करनेकी अभीप्सा) से प्रज्वलित हृदयवाले मनुष्योंके अंदर जिसका सारतत्त्व व्यक्त होता है, उस हमारी अक्षय तेजवाली भारत माताकी जय हो ॥९९॥

(२५) तेजोमूर्ति सकलजगतीक्षेमभार वहन्ती-मप्यम्ब त्वां भरतधरणेरन्तरात्मेति विद्मः । याचामस्त्वां तदिति जननीमुज्ज्वलस्ते प्रसादः सर्वाङ्गनः समुदयभरः सम्पदामाविरस्तु ॥१००॥

(२५) यद्यपि तू समस्त जगत्का क्षेमभार वहन करनेवाली तेजो-मूर्ति है, तथापि हम जानते हैं कि तू भारतभूमिकी अंतरात्मा है। अतएव हम तुझ जननीसे यह याचना करते हैं कि समस्त संपदाओंसे भरा हुआ तेरा उज्वल प्रसाद हमारे सारे अंगोंके द्वारा आविर्भूत हो॥१००॥

इति
श्रीमहर्षिरमणभगवत्पादानुध्यातश्रीभगवद्वासिष्ठगणपतिमुनिप्रवरान्तेवासिनः, पूर्णयोगाचार्यश्रीमदरविन्दभगवत्पादानुध्यातस्य, भारद्वाजस्य विश्वेश्वरसूनोः कपालिनः कृतिः
भारतीस्तवः समाप्तः।









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