Volume 8 : Hymns in Sanskrit with commentaries & translations, Prayers, The Mahamanustava - Quintessence of Sri Vidya, Sidelights in Sanskrit Literature
Volume 8 includes Hymns in Sanskrit with commentaries & translations, Prayers, The Mahamanustava - Quintessence of Sri Vidya, Sidelights in Sanskrit Literature
"भारतीस्तवः” श्री ति. वि. कपाली शास्त्रीका एक उच्च कोटिका काव्य है। कविने भारतके स्वतंत्रता-दिवस-१५ अगस्त, १९४७–के शुभ अवसरपर भारतके अंतरात्माका यह स्तवगान एक सौ श्लोकोंमें किया था और यह सात अलग-अलग छंदोंमें लिखे हुए सात भागोंमें विभक्त है। कविने सर्वप्रथम उस नवीन युगका स्वागत किया है जो भारत-के कठोर दुःख और यंत्रणाका काल समाप्त होनेपर उदय हुआ है और फिर उन श्रीअरविंदका नामस्मरण किया है जो भारतीय स्वतंत्रताके दीक्षा-गुरु हैं और जिन्होंने सबसे पहले अपनी दिव्य दृष्टिसे भारतकी स्वतंत्रता-के आगमनको देखा था तथा यह जाना था कि भारतको कौनसा महान् कार्य इस पृथ्वीपर पूरा करना है। निस्संदेह इस काव्यका मुख्य विषय भारतका अंतरात्मा ही है, पर वह अंतरात्मा अपने सभी लक्षणोंसे संपन्न है जिनकी आकृतियां न केवल आध्यात्मिक विषयोंमें, बल्कि मानव-वर्गो-के आगे-आगे भारतके दीर्घकालिक यात्रा-चमत्कारमें, विविध-विद्या प्रस्थानों-में, शास्त्र-प्रभेदोंमें, अनल्पशिल्पललितकलाकौशलमें लक्षित हो सकती हैं। उनकी छाप स्पष्ट है, निस्संदिग्ध है और वह कर्म तथा विचारके, धर्म तथा दर्शनके क्षेत्रमें-जिसमें एक प्रकारके शून्यवादतकको स्थान प्राप्त हुआ है-अपने विभिन्न रूपोंमें प्रचुरताके साथ दिखायी देती है। इस स्तवन-में सरसरी तौरपर पर विशद् रूपमें इस बातका दिग्दर्शन कराया गया है कि भारतका धर्म कितना उदार, महान् है, उसकी भूमिपर जो राम, कृष्ण तथा अन्यान्य जगत्-चालक महापुरुषोंका आगमन हुआ उसका रहस्य क्या है। अंतमें, बुद्धि-युक्तिके आह्वान, प्रार्थना और पूजाकी वाणी और भी ऊपर उठती है और उन भारत माताकी ओर जाती है जिन्हें इस आचीन परंपराके अनुसार ’भारती’ कहकर संबोधित किया गया है-
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् । वर्ष तद् भारतं नाम भारती यस्य सन्ततिः ॥ (विष्णु पुराण २.३.१)
भारत केवल भूमिखंड नहीं है। कविने उस देशके अधिदेवताके रूप-में भारत माताका यशोगान किया है जिसे विश्वजनक भगवान्की ओर उठनेवाली पृथ्वीकी अभीप्साका केंद्र बननेका सौभाग्य प्रदान किया गया है। कविने उस भारतके संरक्षक आत्माके रूपमें भारतीकी महत्ताका बखान किया है जो नित्य चित्स्वरूपिणी मातासे उद्भूत होकर इस अप-रूप सृष्टिमें आया है। यही वह धुरी है जिसके अवलंबपर पृथ्वी अपनी समस्त गतियोंको परिचालित कर रही है और भविष्यके उस चिरस्थायी गौरवकी ओर अग्रसर हो रही है जिसे, मात्र कार्य करनेके आनंदके उद्देश्य-से ही, उसके संतान परिश्रम करके सिद्ध करेंगे। ’भारतका आत्मा’ कोई कवि-कल्पना नहीं है, देशभक्तका स्वप्न नहीं है, बल्कि वह एक वास्तविक सत्ता है जिसका स्वरूप खुली आंखोंके सामने स्पष्ट रूपमें प्रतिभात होता है।
दो शब्द हिंदी अनुवादके विषयमें। इस अनुवादको सबसे पहले पूरा किया था सिरसीके श्रीविठ्ठलनारायणजी आचार्यने और फिर उसका संपूर्ण संशोधन किया हमारे आश्रमके श्रीचन्द्रदीपनारायणजी त्रिपाठीने। संशोधन करते समय यह आवश्यक समझा गया कि जहांतक संभव हो हिंदीको मूलके समीप रखा जाय जिसमें मूल विचारधारा और शब्दोंकी ध्वनि अक्षुण्ण बनी रहे। यही कारण है-अगर कारण बताना आवश्यक हो-कि जो संस्कृत शब्द हिंदी-भाषाके अंदर चलने योग्य मालूम हुए उन्हें ज्यों-का-त्यों अनुवादमें भी रख दिया गया।
श्रीअरविन्द-आश्रम, पांडीचेरी. २६-८-१९४८ 162 मा. पुं. पंडित
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