दिव्यता की तेजोमय किरण - द्यूमान
लेखिका
ज्योति थानकी
अनुवादिका
अमिता भट्ट ''क्षमा''
श्री अरविन्द साधना केन्द्र
श्री अरविन्द मार्ग।
वल्लभ विद्यानगर ३८८ १२०।
जिला आणंद - गुजरात
लेखिका : ज्योति थानकी
अनुवादिका : अमिता भट्ट ''क्षमा'
प्रकाशक : प्रा. ड़ॅा. दिलावर सिंह जाड़ेजा
श्री अरविन्द साधना केन्द्र,
वल्लभ विद्यानगर ३८८ १२० जिला आणंद
मुखपृष्ठ : आचार्य अजित पटेल
मुखपृष्ठ १. तथा ४ के चित्रो; देखें : पृष्ठ १३६ और १३८
© प्रकाशक के
हिन्दी : प्रथम आवृत्ति, ५ दिसम्बर २००४
प्रत : १०००
मूल्य : रु. २०
मुद्रक :
चंद्रिका प्रिन्टरी, मिरझापुर रोड, अहमदाबाद ३८० ००१
प्राप्ति स्थान
श्री सुखदेवप्रसाद ठाकुर
श्री अरविन्द सोसायटी केन्द्र,
अर्पित-सी-२/१३, एम. आई. जी.
ऋषिनगर, उज्जैन २४५ ६०१ फोन : (०७३४) - २५१०८५८
प्रस्तावना
अतिमानस के अवतारक और दिव्य मानवजाति के आगमन को भूमिका तैयार करने के लिये इस युग में ४० वर्षों तक एक ही स्थान पर रहकर अतुल्य तपश्चर्या करने वाले महायोगी श्री अरविंद के साथ गुजरात का विशिष्ट सम्बन्ध है। यूं तो दे बंगाल में जन्मे, इंग्लैंड में विद्याभ्यास किया पर स्वतंत्रता संग्राम, योगसाधना और साहित्य सर्जन - उनके जीवन के इन तीन महत्वपूर्ण कार्यों का प्रारम्भ गुजरात में ही हुआ था। गुजरात में वे साढे तेरह वर्ष तक रहे। प्रोफेसर होने के नाते उस समय के युवकों पर उनका विशेष प्रभाव था, इसलिये जब राजनीति के क्षेत्र से निवृत्त होकर योग साधना करने के लिये वे पांडिचेरी गये और वहाँ स्थायी हो गये, तब गुजरात के कई तेजस्वी युवक उनकी योग साधना में जुड़ गये। अम्बुभाई पुराणी, चम्पकलाल पुराणी, बंसीधर पुराणी, चंदुलाल इन्जिनीयर, पूजालाल, के. डी. सेठना, सुंदरम्, चित्रकार कृष्णलाल, वासुदेव, ए. बी. पटेल, नगीन दोशी, जयंतीलाल पारेख आदि अलग-अलग क्षेत्र के अनेक प्रतिभा सम्पन्न युवक - अपना सर्वस्व छोड़कर श्री अरविंद और श्रीमाताजी के प्रति समर्पित हो गये। द्युमान भी उनमें से एक थे।
द्युमान का यह जन्मशताब्दी वर्ष है। उनके शताब्दी वर्ष में, १९२७ में जब वे पांडिचेरी गये तब से १९९२ अगस्त में जब उन्होंने देह छोड़ी, तब तक समर्पित भाव से किये सेवा कार्यों को कुछ झलक गुजरात को मिले इस आशय से सरदार पटेल युनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति और
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श्री अरविंद साधना केन्द्र, वल्लभ विद्यानगर के अध्यक्ष डा. दिलावरसिंहजी जाडेजा ने, उनकी संक्षिप्त जीवन को संजो ले ऐसी पुस्तिका प्रकाशित करने का विचार किया। उन्होंने मुझसे पूछा कि ऐसी पुस्तक मैं लिख कर दूंगी क्या ?' मैंने यह कार्य सहजता से स्वीकार किया क्योंकि जब भी पांडिचेरी जाना हुआ और मैं समाधि को प्रणाम करने गई तब द्युमानभाई का सौम्य, प्रसन्न, मधुर व्यक्तित्व हमेशा मेरे लिये पूज्य भाव का प्रेरक रहा। श्री माताजी के विभिन्न कार्यों के लिये सम्पूर्ण समर्पित द्युमानभाई श्री अरविंद और श्रीमाताजी के मूक सेवक थे। बोलना कम और श्रीमाताजी के कार्य जितना सम्भव हो उतना अधिक उत्तमोत्तम रूप से करना, उनका ध्येय था। इसलिये उनके सतह से नीचे गहराई और व्यापकता वाले जीवन के विषय में बहुत कम जानकारी अपने पास है। श्रीमाताजी द्द्वारा स्थापित आश्रम के सर्जन को नींव में वे रहे हैं। माताजी ने उन्हें पसंद करके प्रशिक्षित किया था। गुजरात के इस लाडले पुत्र ने अपनी कार्यनिष्ठा और भक्ति द्द्वारा कैसे-कैसे यादगार कार्य किये हैं, उसकी झलक गुजरात को मिले, उपरांत श्री अरविंद और श्रीमाताजी के शिष्यों के साथ सम्बन्ध, प्रत्येक शिष्य को उनकी प्रकृति के अनुसार सौंपा गया कार्य और उनका मार्गदर्शन, उनको शिक्षा देने को उनकी विशिष्ट पछीत, शिष्यों के प्रति उनका प्रेम और सबसे विशेष तो शिष्यों पर उनकी कृपा-करुणा और उदारता : ऐसे कितने ही प्रमाण में अज्ञात पहलुओं की भी हमें जानकारी मिले, प्रेरणा मिले यह भावना इस पुस्तक के पीछे रही है। पूर्ण समर्पण से किये गये कार्य, कैसे विशिष्ट बन जाते हैं, इसका विचार इस पुस्तक से मिले, यही आशय है। श्रीमाताजी और श्री अरविंद के प्रति अटूट और अनन्त श्रद्धा, विशुद्धता और सरलता, साथ ही कार्य पूरा करने के लिये अविचल संकल्प और परिश्रम पूर्ण लगातार पुरुषार्थ, इसका दूसरा नाम है द्युमान। ऐसे समर्पित जीवन
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को संक्षेप में लिखने का साहस मैंने किया है। मुझे विश्वास है कि यह प्रेरणादायी जीवन सभी पाठकों को श्री अरविंद तथा श्री माताजी की चेतना का सम्पर्क अनुभव करने में सहायक होगा।
गुजरात के लाड़ले पुत्र द्युमान के बारे में गुजरात से बाहर हिन्दी क्षेत्र में भी जिज्ञासुओं, मुमुक्षुओं को पता चले और वे प्रेरणा लें इस हेतु इसका हिन्दी अनुवाद श्रीमती अमिता भट्ट 'क्षमा'ने बड़े भाव से किया है वह आपके सम्मुख है। जो हिन्दी पाठकों को भी श्री अरविन्द एवं श्री माताजी की चेतना का सामीप्य प्रदान कर उनके जीवन का पथ प्रशस्त करेगा।
इस पुस्तक के लेखन कार्य के लिये डो. जाड़ेजा साहब ने मुझे आवश्यक सभी साहित्य दिया, इतना ही नहीं, समय-समय पर प्रत्यक्ष और फोन पर उनका मार्गदर्शन मिलता रहा, उसके लिये मैं उनका हार्दिक आभार मानती हूँ। इस पुस्तक के लेखन मैं सहायक रही लेख सामग्री के सभी लेखकों से में उपकृत हूँ। ग्रन्थमुद्रण में सक्रिय सहायता करनेवाले 'नवचेतन' के सम्पादक श्री मुकुन्दभाई शाह का तथा इस पुस्तक के प्रकाशन के लिये श्री अरविंद साधना केन्द्र, वल्लभविधानगर का आभार मानकर, श्रीमाताजी से प्रार्थना करती हूँ कि, 'सभी पाठकों को अपना कृपास्पर्श देकर उनके जीवन को दिव्यता के प्रति अभिमुख करें। '
७, स्टाफ क्वार्टर्स, गुरुकुल,
बोखीरा, पोरबंदर-३६० ५७५
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आमुख
गत वर्ष श्री चम्पकलालजी की जन्मशताब्दी के निमित्त 'दिव्यता का पुष्प चम्पकलाल' पुस्तिका प्रकाशित की थी। इस वर्ष इसी परम्परा में द्युमानजी की जन्मशताब्दी के प्रसंग पर 'दिव्यता की तेजोमय किरण - द्युमान' का जीवनचरित्र प्रकाशित हो रहा है। सुयोग से दोनों पुस्तिकाओं की लेखिका ज्योतिबहन थानकी हैं। ज्योतिबहन के मन में चम्पकलाल, द्युमान जैसे उच्च योगसाधकों के प्रति अंतर से आदर है, स्नेहभाव भी है ही। उनकी कलम में सरलता और प्रासादिकता है। जिन अध्यात्मविभूतियों का हमारे ऊपर ऋण है वह यतकिंचित भी उतारने का उनके दिल में कृतज्ञभाव है। आदरभाव, स्नेहभाव और - कृतज्ञता के कारण लिये गये विषय पर ज्योतिबहन तादात्म्यपूर्वक लिखती हैं। दादाजी और द्युमानजी के विषय में पुस्तिकाएँ लिखते समय उन्हें कैसा आनन्दानुभव हुआ, उसकी बात वह आप्तजनों से कहती हैं। ऐसी पुस्तिकाओं के माध्यम आग या इस निमित्त से, अध्यात्ममार्ग की पगडंडी पर वे प्रकाश डालती रहती हैं। ज्योतिबहन आध्यात्ममार्ग की यात्री हैं और सहयात्रियों के साथ में 'सर्वांगी शिक्षण', 'चलो चले भगवान से मिलने', चलो चम्पकलालजी और द्युमानजी की बातें करे, इस प्रकार की गोष्ठी करती रहती हैं।
'दिव्यता की तेजोमय किरण - द्युमान' प्रकाशित करने की प्रक्रिया में आप्तजनों का सहज सहयोग मिलता रहा। उन सबका हार्दिक आभार! पांडिचेरी से कलाबहन, चिन्मयि-अर्चना सहायक रहे। श्री अरविंद आश्रम के आर्काईब्ज की फोटोग्राफ के रूप में
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सहायता मिली। हिन्दी प्रकाशन के लिये अर्पण हर्षदभाई सोमाभाई पटेल (यु. एस. ए.) तथा श्रीमती कुसुमबहन एच. पटेल के माध्यम से प्राप्त हुआ। ज्योतिबहन और डॉ. अंजनाबहन मेहता का सद्भाव तो साथ था ही। मुखपृष्ठ तैयार करने में यहाँ के इप्कोवाला - संतराम कालेज ऑफ फॉरेन आर्टस के आचार्य अजितभाई पटेल की पूरी-पूरी सहायता मिली। पुष्पों के फोटोग्राफ की उचित पसंद में वनस्पतिशास्त्र के आध्यात्म मार्ग के प्रवासी प्रो. यश दवे का उत्साहपूर्ण सहयोग मिला! यह पुस्तक छप रही थी अमदावाद में, मेरा निवास वल्लभविधा- नगर, लेखिका पोरबन्दर में रहती हैं। अमदावाद से 'नवचेतन' के सज्जन और स्वजन जैसे सम्पादक श्री मुकुन्दभाई शाह की मुद्रण में उष्माभरी सहायता मिलती रही। इस पुस्तिका का लोकार्पण श्री अरविंद के पावन चरणों से पुनित और विभूषित वडोदरा के श्री अरविंद निवास में, आदरणीय मुरारीबापु के शुभ हाथों से हुआ। इस प्रकार पांडिचेरी वल्लभविधानगर, पोरबन्दर, अमदावाद, तलगाजरडा, अमेरिका और इंग्लैंड तक दृश्य और अदृश्य ताने-बाने जुड़ते रहे और श्रीमाँ - श्री अरविंद की उपस्थिति आरती की झनकार की तरह गूँजती रही। द्युमान की कितनी अधिक 'गुडविल' है, उसकी जानकारी मुझे पांडिचेरी के श्री मणिभाई (औरोफूड) तथा ललितभाई शाह की ओर, से मिली ही थी, उसकी प्रतीति भी होती रही।
ऋणानुबंधन की बात है। यूं तो बात सौ एक पृष्ठों की एक पुस्तिका छपवानी है, सीधी सादी! कोई कहेगा कि इतनी छोटी-सी बात का इतना महत्व। परंतु वस्तुएँ उसकी उपरी सतह पर दिखायी देती है उतनी सतही नहीं होती हैं। द्युमान का पालन-पोषण आणंद की भूमि पर हुआ, यह उनका मायका था, उसपर वे न्योछावर थे। आणंद
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क्षेत्र से, वल्लभविधानगर से - कोई पांडिचेरी द्युमान से मिलने जाये तो उन्हें कितनी खुशी होती थी। द्युमान में एक ही नजर में दिखाई देता था ऐसा आत्मिक गुण एवं कृतज्ञता का भाव। 'अरे मेरे शिक्षक और आचार्य भीखाभाई साहब और यहाँ मुझे श्री अरविंद रूपी नित्य प्रकाशित प्रकाशस्तम्भ बताने वाली भक्तिबा.... उनके उपकार की क्या बात करूँ।' ऐसा द्युमान आर्द्रभाव से कहते थे। 'मेरे आणंद के अध्ययन काल में १९१५ के आसपास रोपे गये वृक्ष अच्छे तो हैं न ?' - ऐसा उन्होंने एक बार पूछा था। यह बात मैंने रिकार्ड की थी। इस पुस्तिका में इसका उल्लेख है। फिर मेरी बेटी चि. काश्मीरा ने उन वृक्षों के फोटोग्राफ लिये, ग्लोरिया फार्म में द्युमान बैठे हुए थे तब उन्हें वे सौंपे थे। उनके साथ क्रमश: मेरा निकट का सम्बन्ध बनता गया। एक समय तो प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे अंग्रेजी में पत्र लिखा था : Let me have a joy in calling you my dear V. C. I am happy, dear V. C.' उस समय मुझे कुलपति पद प्राप्त नहीं हुआ था। यद्यपि अस्पष्ट सम्भावना थी। एक बार उन्होंने मुझे कहा था कि 'आणंद की भूमि के ऊपर युनिवर्सिटी बनेगी, ऐसा स्वप्न आबु की एक गुफा में (१९१५-२० के दौरान) रात्रिवास के समय उन्होंने देखा था।'
युनिवर्सिटी की बात आयी है तो बता दूं कि १९४८ - १९४९ के समय में वल्लभविधानगर और सरदार पटेल युनिवर्सिटी के दो आधस्थापक भाई काका और भीखाभाई दान लेने के लिये मद्रास गये थे। तब द्युमान के आमंत्रण से वे पहली बार श्री अरविंद - आश्रम, पांडिचेरी गये थे। द्युमान ने दोनों आदरणीयों से उस समय पूछा था कि आप आणंद के ग्रामविस्तार में कॉलेज स्थापित करके क्या करना चाहते हैं ? भाई काका ने कहा, हमें ग्रामविस्तार में उच्च शिक्षा को
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प्रवाहित करने के लिये युनिवर्सिटी की स्थापना करनी है। तब द्युमान ने और जानकारी मांगी 'युनिवर्सिटी बनाओगे तो युनिवर्सिटी में लाईब्रेरी तो होगी ही ?' 'हाँ। ' 'उसमें आप श्रीअरविंद के ग्रंथों का समावेश चाहते हैं या नहीं?' भाईकाका ने तुरंत कहा, 'हाँ।'भाईकाका के मन में श्रीअरविंद के लिये बहुत आदर था। वे वडोदरा कॉलेज में पढ़ते थे तब श्री अरविंद उनके प्रोफेसर थे।
श्रीमाताजी को प्रणाम करने के लिये भाईकाका, और भीखाभाई गये तब द्युमान ने कहा, 'ये लोग युनिवर्सिटी स्थापित करना चाहते हैं और इन्हें श्री अरविंद की पुस्तकें वहाँ रखनी है। ' श्रीमाताजी ने १९५० के पहले की श्री अरविंद की जो पुस्तकें उपलब्ध थीं उनके उपर इस संदर्भ में श्री अरविंद के हस्ताक्षर करवाकर, वे मूल्यवान पुस्तकें दोनों आधस्थापकों को दी। सरदार पटेल युनिवर्सिटी की स्थापना का एक्ट तो ३१-१०-१९५५ के दिन, सरदार श्री के जन्य दिवस, उस समय की मुम्बई धारासभा ने मंजूर किया था। परंतु जिस क्षण श्रीअरविंद ने 'द लाईफ डिवाईन' आदि ग्रंथों पर अपने हस्ताक्षर किये, तभी सरदार पटेल युनिवर्सिटी का बीजारोपण सूक्ष्मजगत में हो चुका था। चाहे ग्रामप्रदेश में युनिवर्सिटी की स्थापना की बात उस समय दिवास्वप्न जैसी लगती हो। उसकी सरकारी घोषणा १९५५ में हुई, पर श्री अरविंद की 'तथास्तु' की मुद्रा बहुत पहले ही पांडिचेरी में अंकित हो चुकी थी। श्री अरविंद के हस्ताक्षर वाला 'द लाईफ डिवाइन' ग्रन्थ आज भी भाईकाका युनिवर्सिटी लाईब्रेरी में सुरक्षित है।
कुछ समय पूर्व उज्जैन (मध्यप्रदेश)के श्री अरविन्द सोसायटी केन्द्र, उज्जैन ने श्री प्रेमशंकर भट्ट द्वारा ज्योतिबहन थानकी की गुजराती पुस्तक 'आपणा द्युमान' का हिन्दी अनुवाद करने की आज्ञा
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माँगी थी। सुश्री श्री अमिता भट्ट 'क्षमा' ने हिन्दी अनुवाद करने की तत्परता और सहमती दिखाई। हमारे विधानगर केन्द्र ने इस हिन्दी अनुवाद को प्रकाशित करने में रुचि ही नहीं ली बल्कि तत्परता भी दिखाई। ऐसे उत्तम प्रेरणादायक एवं धर्म कार्य में सहभागी बनने के लिए श्रीमती अमिता भट्ट 'क्षमा' एवं श्री अरविन्द सोसायटी केन्द्र, उज्जैन के हम आभारी हैं।
'अपने द्युमान' के प्रकाशन की समग्र प्रक्रिया के समय द्युमान के गणेश, लक्ष्मी और कुबेर के साथ मैत्री के संकेत वल्लभविधानगर के श्री अरविंद साधना केन्द्र को मिलते रहे। द्युमान को हम सभी की शताब्दीवंदना!
श्री अरविंद और श्री माताजी की जय हो!
श्री अरविंद साधना केन्द्र दिलावरसिंह जाडेजा
श्री अरविंद का सिद्धि दिन
वल्लभविद्यानगर-३८८ १२०.
दि. ५-१२-२००४
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अनुवादिका का निवेदन
'आपणा द्युमान' पढ़कर प्रेरणा हुई कि श्रद्धेय द्युमान को जीवन वृत्तान्त का परिचय व्यापक पाठकवर्ग को मिलना चाहिए। श्रद्धेय द्युमान का समर्पण कर्मठता, अध्ययन, मितव्ययता, परिश्रम, आजीवन सतत् कार्यशीलता और निरासक्ति वंदनीय है। एक बालक सा हृदय और विश्वास, श्रद्धा और निश्चितता होना भी साधना ही है। निर्भयता उनके सम्पूर्ण-समर्पण का लक्षण था। ऐसे असाधारण व्यक्तित्व को हम जाने, समझे और अनुकरण का प्रयास करें, यही इस अनुवाद का ध्येय है।
महायोगी श्री अरविंद, श्री माताजी के चरणों में यह श्रद्धा सुमन अर्पित है, एवं 'द्युमान' की तेजीस्विता को नमन है।
Amal Kiran.
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१. जन्म और शैशव
'हाँ पटेल, कैसे हो ?'
'स्वामीबापा की कृपा से सब ठीक है।'
'इस समय कहीं जा रहे हो?'।
'तुम जैसे ये भेड बकरी चराने जाते हो वैसे ही मैं खेत की और जा रहा हूँ। काम तो करना ही चाहिये न!'
'हाँ बापू, देखो न सूर्य महाराज भी काम से लग गये। सायं काल तक बिचारे को विश्राम नहीं तो हम मनुष्यों को काम किये वगैर कैसे चलेगा ?'।
'तुम चाहे ढोर चराते हो, पर ज्ञानी लगते हो!'।
'यह तो मेरे प्रभु की दया है। पटेल, आज तुम घर लौटोगे तब तुम्हें वहाँ बहुत अच्छे समाचार मिलेंगे।। आज तुम्हारे यहाँ कुछ नवीन होगा!'
'तुम्हारी वाणी फले, बापू!' ऐसा कहकर पटेल खेतों की दिशा में मुड़ गये और भरवाड अपनी भेड़ बकरियाँ की दिशा में मुड़ गया।
पटेल थे खेडा जिले के आणंद तहसील के नापाड गाँव के देसाईभाई पटेल। खेती की जमीन थी।जमीन स्वयं ही जोततें और ईश्वर की दया से जमीन से उपज भी अच्छी मिल जाती थी। उनकी पत्नी लक्ष्मीबहन भी बहुत भक्तिभाववाली थी। स्वामीनारायण भगवान में उनकी बहुत श्रद्धा थी।वे सरल स्वभाव की थीं। दोनों साधु-संतों और अतिथि-अभ्यागतों को प्रेमपूर्वक भोजन करवाते थे।
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पति-पत्नी दोनों शिक्षापत्री के आदेश के अनुसार भगवत् परायण जीवन जीते थे। देसाईभाई का स्वभाव परोपकारी और उदार होने से नापाड में सभी उनका आदर करते थेl। किसी को कोई मुश्किल हो, कोई सहायता चाहते हों तो देसाईभाई के पास पहुँच जाते और वहाँ से सहायता मिल ही जाती।
प्रतिदिन प्रातःकाल नित्यकर्म करके खेत पर जाने का देसाईभाई का क्रम था। आज भी वे इसी प्रकार खेत के लिये निकले थे। वहाँ रास्ते में उनकी एक भरवाड के साथ भेंट हो गई। भरवाड के साथ बातचीत के बाद वे सब भूल गये और खेत मैं आकर काम में व्यस्त हो गये! फिर जब शाम को घर पहुँचे तब वृद्ध माँजी ने उन्हें कहा, 'भाई, बधाई! लक्ष्मी बहू ने पुत्र को जन्य दिया है और पुत्र भी सुन्दर राजकुँवर जैसा है!' देसाई भाई मन ही मन प्रसन्न हो गये और बोले 'वाह! भाई भरवाड, तू सच्चा निकला, तुम्हारी वाणी फली!' जब पुत्र का मुख देखा तो उनके आनंद का पार न रहा क्योंकि यह बालक देवशिशु जैसा सुंदर था! यह यादगार दिन, १९, जून १९०३ का। दिन!
नापाड जैसे छोटे गाँव में देसाईभाई के घर पुत्र के आगमन से सभी उन्हें बधाई देने के लिये आने लगे।माता-पिताने पुत्र का नाम रखा चुनीलाल।बाल चुनीलाल नापाड में माता-पिता और ग्रामजनो के स्नेह से भरपूर वातावरण में पलने लगा। देसाईभाई ने खेत पर जाने के लिये घोड़ी रखी थी।चुनीलाल को वह घोड़ी बहुत पसंद थी।पिता को घोड़ी पर बैठकर जाते देखकर उसे भी घोड़ी पर बैठकर, लगाम हाथ में लेकर घूमने की इच्छा होती।कभी-कभी उसके पिता घोड़ी पर बिठाते तब उसका बाल मन आनंद से छलकने लगता।
एक बार ठण्डी रात को अलाव जलाकर चारों ओर घर के सभी सदस्य बैठे हुए थे। गाँवों में सर्दियो की रातों में सर्दी दूर करने के
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लिये अलाव जलाकर सभी बैठते हैं और इधर-उधर की बातें करते और शरीर को गरमी देते हैं।उसी प्रकार कुटुम्ब के सभी सदस्य आग तापते बातचीत कर रहे थे।तीन वर्ष का चुनीलाल अपने भाई की गोदी में सो गया, भाई को ध्यान नहीं रहा और अचानक वह लुढककर सीधा अलाव पर गिर गया।वह जल गया और बहुत चीखने लगा। घर के सभी लोग परेशान हो गये कि इतनी रात को इस बालक को कैसे चुप करें? उसके शरीर पर ठण्डक के लिये लेप भी लगाया परंतु जलन इतनी ज्यादा थी कि चुनीलाल किसी तरह शांत ही नहीं हो रहा था। तब उसके पिता ने उसे उठा लिया और गली में जहाँ घोड़ी खड़ी थी वहाँ ले गये। घोड़ी पर उसे बिठा दिया और कहा, 'चलो, हम घोड़ी पर बैठकर घुमने जाते हैं।' पिता-पुत्र घोड़ी पर घुमने निकल पड़े और थोड़ी ही देर में बालक का रोना बन्द हो गया। जलने की वेदना जैसे भूल गया, ऐसा था उसका घोड़ी के प्रति लगाव।
उस समय गाँवों मैं मनोरंजन के साधन नहीं थे, पर मदारी आते थे, बंदरों और साँप के खेल दिखाते थे। नट लोग बाँस पर संतुलन बनाकर नाचते, जादूगर भी जादू दिखाते थे। गाँव के बालकों को जैसे ही समाचार मिलता कि जादूगर और मदारी आए हैं तो तुरंत सभी वहाँ पहुँच जाते थे। चुनीलाल भी जिज्ञासावश मदारी के खेल या जादूगर के जादू देखने पहुँच जाता, उसमें उसे बालसुलभ आनंद आता था परंतु इतनी छोटी उम्र में भी उनके अंतर में लगता था कि इनसे मिलने वाला आनंद सच्चा आनंद नहीं है, स्थायी आनंद नहीं है।
कई बार नापाड में भवाईया (छोटे नाटक खेलने वाले) भी आते थे।विभिन्न प्रकार के वेश बनाकर वे लोगों का मनोरंजन भी करते थे।बहुरूपिये भी आते थे।एक बहुरूपिये ने तो चुनीलाल को कुछ खिला भी दिया था परंतु चुनीलाल पर उसका कोई असर नहीं हुआ।
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मानो बचपन से ही वह प्रभु के रक्षण से आवृत था। नहीं तो ऐसे तांत्रिक-मांत्रिक का छोटे बच्चों पर इतना असर होता है कि वे अचेतावस्था में तांत्रिक के पीछे-पीछे चलने लगते हैं। तान्त्रिक फिर बालक को इस प्रकार दूर ले जाकर अपना चेला बना लेता हैं परंतु यहाँ चुनीलाल न तो अचेत हुआ न उनके पीछे-पीछे चला। उल्टा जब गाँव के लोगों को पता चला तो उन्होंने उस बहुरूपिये को मार-मार कर गाँव के बाहर भगा दिया। साधु महात्मा, तीर्थयात्री यदाकदा गाँव में आते रहते थे। गाँव के सभी लोग साधु-महात्माओं के पीछे-पीछे घूमते रहते थे क्योंकि वे सोचते थे कि साधुओं के पास की सिद्धि द्वारा दुःख दूर हो सकते हैं। साधु महात्माओं के पीछे घूमते ऐसे लोगों को देखकर बालक चुनीलाल सोचने लगता कि 'ये सब लोग ऐसे साधुओं के पीछे क्यों भटकते रहते हैं? साधु भी तो मनुष्य ही हैं।' बाल वय से ही वे अंतर्मुखी हो जाते और गहरे विचारों में डूब जाते थे।
चुनीलाल के मातापिता या कुटुम्बीजन गाँव के मंदिर में दर्शन करने जाते तब वे चुनीलाल को साथ ले जाते। भगवान की मूर्ति के दर्शन करना उसे बहुत अच्छा लगता था परंतु दुसरों की तरह घँटा बजाना, जोर-जोर से गाना या जोरजोर से भगवान की जय बोलना उसे अच्छा नहीं लगता था। वह सभी को मंदिर में ऐसे करते हुए देखता रहता। परंतु उसे स्वयं इस प्रकार भगवान के दर्शन करने की अंतर से इच्छा नहीं होती थी। वह तो शांति से, एकाग्रता से भगवान की मूर्ति को देखता रहता और इसीमें उसे आनंद मिलता था। धर्मपरायण माता-पिता के संस्कार चुनीलाल में भी बचपन से ही आए थे और समय के साथ वह संस्कार संवर्धित होते रहे।
उस समय बालक सात वर्ष का हो उसके बाद ही 'बालपोथी'। (प्रथम के. जी.) में प्रवेश करवाया जाता था। तब तक बालक घर में, गली में, गाँवों की सीमा के वृक्षों के नीचे, नदी किनारे, प्रकृति की
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गोद में, मुक्त वातावरण में खेलते-खेलते सहजता से सीखता था। चुनीलाल के साथ भी ऐसा ही हुआ। सात वर्ष की उम्र में उन्हें नापाड की प्राथमिक शाला में पढ़ने भेजा गया। इस पाठशाला में वे पाँचवीं कक्षा तक पढ़े। सरल और अन्तर्मुखी स्वभाव, किसी से ज्यादा नहीं बोलना, झगड़ा तो कभी करना ही नहीं, हमेशा शांत रहना, कक्षा में शिक्षक पढ़ाते हों तब पूरी तरह ध्यान देकर पढ़ना - ऐसे सद्गुणों के कारण चुनीलाल प्राथमिक शाला के शिक्षकों का प्रिय विद्यार्थी था। शिक्षक तो हमेशा उनको आगे ही बिठाते, पर शर्मीले स्वभाव के कारण चुनीलाल अपनी महत्ता की बात शाला में या घर में किसी से नहीं करते थे। इस शाला में पाँच वर्ष तक उन्होंने प्रथम श्रेणी बनाये रखी थी।
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२. लग्न (विवाह)
आज से सौ सवासौ वर्ष पहले माता-पिता अपनी संतानों का विवाह छोटी उम्र में ही कर देते थे। उसमें भी कन्या की उम्र आठ से दस वर्ष की हो तो उसका विवाह कर ही देते थे फिर कन्या जब वयस्क हो जाती थी तब गौना करके ससुराल भेजी जाती थी। चुनीलाल के साथ भी ऐसा ही हुआ।
एक दिन दोपहर को चुनीलाल की माता लक्ष्मीबहन घर में अकेली ही थी जब किसी ने दरवाजा खटखटाया। उन्होंने देखा कि कोई दो पटेल खड़े थे। अतिथि का स्वागत किया और सत्कार करके पूछा : 'कहीं से आ रहे हैं?'
'कंथरिया गाँव से हम आए हैं, हमारी खेती है। हम देसाईभाई से मिलने विशेष रूप से आए हैं।'
'वे तो खेत पर गये हैं, पर अब आने का समय हो गया है वे आते ही होंगे, क्या कोई खास काम था?'। 'ऐसा कोई खास काम तो नहीं कह सकते, बस लगा - कि उन्हें मिलते जाएं।' बात सुनकर लक्ष्मीबहन को लगा कि आए हैं तो खास काम से, पर - मुझे कहना नहीं चाहते हैं, शायद काम ही ऐसा होगा यह सोचकर वे दूसरी बातें करते रहे। तभी देसाईभाई आ गये। वे उन पटेलों को अच्छी तरह पहचानते थे इसलिये स्वागत करके आने का प्रयोजन पूछने पर उनमें से एक ने कहा, 'देसाईभाई मैं अपनी काशी के लिये तुम्हारे चुनीलाल का रिश्ता माँगने आया हूँ।
'ओ हो, ऐसी बात है! चुनीलाल की माँ ने वनु के लग्न के समय काशी को देखा था। मुझे उसने कहा भी था कि, 'लड़की अच्छी है।' यह तो हमारे मन की बात आपने कह दी।' इस प्रकार सरलता से बात पक्की हो गई और फिर चुनीलाल का विवाह काशी के साथ हो गया। तब दोनो की उम्र थी आठ वर्ष! लग्न क्या होता है उसका पता दोनों में से किसी को नहीं था। लग्न के बाद काशीबहन मायके में रही और चुनीलाल पढ़ाई में लग गये।
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३. दिव्य आदेश मिला
नापाड की प्राथमिक शाला में चुनीलाल का अभ्यास अच्छी तरह चल रहा था। जब वह चौथी कक्षा में थे तब उनकी उम्र ११ वर्ष की थी। इतनी छोटी उम्र में तो उन्हें ध्यान या दिव्य अनुभूतियों के विषय में जानकारी नहीं थी। यद्यपि घर में सत्संग का वातावरण अवश्य था पर वह भक्तिप्रधान वातावरण था, उसमें सूक्ष्म दर्शन या आध्यात्मिक अनुभूतियों का विचार नहीं आता था, फिर भी चुनीलाल के जीवन में ऐसी घटना हुई - इसे तो दिव्य कृपा का परिणाम ही मान सकते हैं।
यह घटना इस प्रकार थी : - वह मई महीने की गर्मी का दिन था। दोपहर को तीन बजे का समय था। तीखी धूप थी पर चुनीलाल को अपने मित्र से काम था इसलिये उसे बुलाने के लिये छत पर चढ़े, उन्होंने देखा, आसपास कोई नहीं था। इस तपती दोपहरी में पक्षी भी कहीं शांत बैठे थे। जरा भी आवाज नहीं हो रही थी। ऊपर खुला नि:स्तब्ध आकाश था। गरम छत पर ग्यारह वर्ष का किशोर खड़ा था, तभी उसे स्पष्ट आवाज सुनाई दी, 'तेरा जीवन सांसारिक कार्यों के लिये नहीं है।' वह चारों तरफ देखने लगा कि यह आवाज किसकी है? पर कोई दिखाई नहीं दिया। वह इधर-उधर देखता रहा, तब कुछ ही क्षणों में एक दैवी हाथ उसे चारों तरफ घूमता दिखाई दिया। वह हाथ उसे चारों तरफ फैले हुई जगत को बताकर कह रहा था कि, 'तू यह देख, इस दुनिया के लिये तू नहीं है। उच्च जीवन जीने के लिये
तेरा जन्म हुआ है।' यह शब्द शान्त हो गये और उसके समक्ष प्रकाश फैल गया। चारों तरफ फैले प्रकाश को देखकर वह स्तब्ध हो गया। यह क्या हो रहा है, उसे समझ नहीं आया।
अब मित्र को बुलाने के बदले वह सीधा नीचे उतर आया। उसका अंतर्मुखी और संकोची स्वभाव तो था ही इसलिये किसी को भी इस विषय में नहीं बताया। अब वह चिंतन करने लगा कि, 'इस वाणी का क्या अर्थ है ?' चाहे उस समय उसके बाल मन को अधिक समझ नहीं आया पर इतना तो अवश्य समझ आगया कि उसे दुनियादारी के जीवन से अलग उच्च जीवन जीना है। इस घटना के विषय में उन्होंने बाद में बताया था, '...उस दिव्य वाणी और दिव्य प्रकाश के चमत्कार के बाद उस अदृश्य दिव्य शक्ति ने मेरा समग्र जीवन अपने हाथ में ले लिया और मुझे मार्गदर्शन दिया, मुझे इधर उधर भटकने से रोका और सीधे रास्ते पर आगे बढ़ाया, इस कारण जीवन जीना मेरे लिये स्वाभाविक बन गया।'
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४. आगे अभ्यास
नापाड में तो छोटी प्राथमिक शाला थी, वहाँ केवल पाँचवी कक्षा तक ही पढ़ाई हो सकती थी। चुनीलाल ने यह अभ्यास पूर्ण किया फिर आगे पढ़ने के लिये नापाड से लगभग चार किलोमीटर दूर नावली गाँव की शाला में प्रवेश लिया। इस शाला में अंग्रेजी की पहली, दूसरी, और तीसरी कक्षा होती थी अर्थात् गुजराती की पाँचवी, छवीं और सातवीं कक्षा तक। चुनीलाल ने नावली की शाला में प्रवेश लिया तब उनकी उम्र बारह वर्ष की थी। अपने एक मित्र के साथ प्रतिदिन पैदल नावली जाते और शाम को घर लौटते। दो वर्ष तक तो शाला में अभ्यास अच्छी तरह चलता रहा और परिणाम भी ठीक आया पर फिर चुनीलाल का मन पढ़ने में कम लगने लगा। छट्वीं कक्षा में भी पिछड़ने के कारण शिक्षकों ने उनके पिताजी को शिकायत की कि 'तुम्हारा पुत्र अभ्यास में पहले जैसा एकाग्र नहीं है, बहुत लापरवाह हो गया है।' पिताजी ने पता किया तो ज्ञात हुआ कि प्रतिदिन पैदल आने-जाने के समय आवारा लड़कों के संग रहने लगा है यह उसका प्रभाव है। यह जानकर उनके पिता चिंता में पड़ गये। बुरी संगत में बच्चा रहेगा तो बिगड़ जाएगा इसलिये पिता ने उपालम्भ देने के बजाय दूसरा रास्ता सोचा। उन्होंने पुत्र को बुलाकर कहा, 'बेटा, तुम्हारी यह शाला ठीक नहीं लगती, देखो न तुम्हारे अंक भी कम आते हैं।' गायकवाड सरकार की अंग्रेजी शाला है वहीं पढ़ाई भी अच्छी होती है, शिक्षक भी अच्छे हैं, इसलिये (अंग्रेजी) तीसरी कक्षा
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तुम वहाँ पढ़ोगे तो अंक भी अच्छे आएंगे।' इस प्रकार समझा कर चुनीलाल को उस शाला से हटाकर गायकवाड के अंग्रेजी स्कूल में भेज दिया। पिता की यह युक्ति सफल रही।
नये विधालय में नये साथी मिले और पुराने आवारा मित्रों का साथ छूट गया, इससे अंग्रेजी की तीसरी कक्षा (गुजराती में सातवीं कक्षा) में चुनीलाल बहुत अच्छे अंकों से उतीर्ण हो गये।
अब फिर चुनीलाल के लिये आगे पढ़ने की समस्या खड़ी हो गई। नावली में अंग्रेजी की चौथी कक्षा थी ही नहीं, इसलिये पुत्र को यदि आगे पढ़ाना हो तो नावली से भी दूर भेजना पड़ेगा और खर्च भी अधिक होगा। इतना खर्च पिता वहन नहीं कर सकते थे फिर भी पुत्र को आगे पढ़ाने की देसाईभाई की तीव्र इच्छा थी। इसी असमंजस में थे तभी एक दिन उनके मित्र भीखाभाई कुबेरभाई पटेल उनके घर आए। वे बी. ए. तक पूना में पढ़े थे और आणंद के दादाभाई नवरोजी (डी. एन.) हाईस्कूल में मुख्य शिक्षक थे। वे दूसरी और तीसरी कक्षा की परीक्षा लेने के लिये नावली आते थे। उन्हें चुनीलाल की आगे पढ़ाई करने की इच्छा का पता था। वे बोरसद से परीक्षा लेने नावली आए थे, रास्ते में नापाड आने से अपने मित्र देसाईभाई से मिलने रुक गये थे। देसाईभाई ने बातचीत के समय पूछा, 'अब चुनीलाल को आगे पढ़ाने के लिये मेरे मन में बहुत दुविधा है। शहर के बोर्डिंग में भेजूँ तो इतना खर्च मैं उठा नहीं सकूँगा।'
'तुम इसे आणंद भेज दो। हम इसी वर्ष अंग्रेजी की चौथी कक्षा प्रारम्भ करनेवाले हैं। रहने के लिये छात्रावास में व्यवस्था कर देंगे, वहाँ रहकर चुनीलाल पढ़ेगा। इसमें तुम्हारा अधिक खर्च भी नहीं होगा।' यह सुनकर पिता के सिर का बोझ कम हो गया और वे प्रसन्न हो गये, अब वे निश्चित थे कि आराम से अपने तेजस्वी पुत्र को आगे
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पढ़ा सकेंगे। चुनीलाल को बुलाकर भीखाभाई ने कहा, 'बेटा, आणंद में तुम्हे छात्रालय में बहुत से लड़कों के साथ रहना पड़ेगा। क्या तुम्हें अच्छा लगेगा? छात्रालय के नियम भी कड़े होते हैं, बार बार घर नहीं आ सकोगे!'
चुनीलाल ने कहा, 'मुझे अच्छा लगेगा।'
यह सुनकर उसके पिता को विश्वास हो गया कि अब उनका पुत्र बहुत पढ़-लिखकर भीखाभाई जैसा महान बनेगा। भीखाभार्ड़ समग्र चरोतर प्रदेश में प्रशिक्षक और आचार्य के रूप में जाने जाते थे। भाईकाका ने वल्लभ विधानगर की स्थापना का प्रारम्भ १९४६ में किया तब से वे उनके सहयोगी थे।
आणंद डी. एन. विद्यालय में चुनीलाल ने प्रवेश लेकर छात्रालय में रहना प्रारम्भ किया और तभी से उनका अलग ही प्रकार के जीवन का निर्माण प्रारम्भ हुआ। बाद में द्युमान ने एक पत्र में लिखा था कि, 'तुम आज जो मेरा जीवन देख रहे हो उसका प्रारम्भ उसी दिन से हो गया था, उसके बाद सतत् विकास होता गया। उस क्षण से आज तक मैं पीछे नहीं हटा।'
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५. आणंद के डी. एन. हाईस्कूल में
ई. स. १९१६ में गांधीजी ने जिन्हे 'चरोतर का मोती' के रूप में परिचय करवाया था उन श्री मोतीभाई अमीन ने आणंद में चरोतर एज्यूकेशन सोसायटी की स्थापना की। चरोतर एज्यूकेशन सोसायटी ने राष्ट्रभावना के आधार पर दादाभाई नवरोजी हाईस्कूल (जो आज डी. एन. हाईस्कूल के रूप में गुजरात में जाना जाता है) की स्थापना की। इस स्कूल में अंग्रेजी की चौथी कक्षा की कक्षा प्रारम्भ हुई थी इसीलिये चुनीलाल २ अप्रैल १९१७ को, उसके उद्घाटन के दिन ही वहाँ आ पहुँचे। इसी दिन वहाँ छात्रालय का भी प्रारम्भ होना था।
आरंभ में तो छात्रालय में केवल सात विद्यार्थी ही थे। उसमें चुनीलाल को सबसे पहले प्रवेश मिला था।
उस समय विद्यालय का अपना कोई व्यवस्थित भवन नहीं था। मकान बनाने की नींव चरोतर एज्यूकेशन के स्वयंसेवकों और विद्यार्थियों ने खोदी थी। आज डी. एन. हाईस्कूल का जो भव्य भवन खड़ा है, उसकी नींव में, प्रारम्भ में प्रवेश प्राप्त किये सात विद्यार्थियों और आरम्भकाल के स्वयंसेवकों ने बहुत परिश्रम किया था। चुनीलाल ने नींव खोदने से लेकर चीनाई का काम और मकान की छत बनाने तक में सहायता की थी। चुनीलाल 'कठोर परिश्रम का कोई विकल्प नहीं' - का पाठ माध्यमिक शिक्षण के प्रवेश से ही सिख गये थे। निःस्वार्थ कार्य करने में, अन्य के लिये कार्य करने में कितना आनन्द होता है, इसका अनुभव भी उन्हें किशोरावस्था में होने लगा
था। भविष्य में जो महान कार्य उन्हें करना था, जो अथक परिश्रम करना था उसका बीजारोपण डी. एन. हाईस्कूल के प्रवेशकाल में ही हो गया था। समय-समय पर उस में अंकुर फूटते रहे। इस विषय में द्युमान ने स्वयं बाद में बताया था कि ' .... पर इतना तो निश्चित है कि आणंद के विधालय में प्रवेश के बाद मेरा जीवन बदल गया। १९१७की अप्रैल की दूसरी तारीख के दिन आज जो द्युमान है उसके बीज बोये गये, फिर फूले, फले और बड़े हुए।' चुनीलाल को. डी. एन. विधालय में घर जैसी उष्मा, माता-पिता जैसा वात्सल्य, मार्गदर्शन और भाईबन्धुओं जैसा मित्रों का साथ मिला। इसलिये विधालय में उन्हें बहुत अच्छा लगता था। छुट्टियों में घर जाने की बिलकुल इच्छा नहीं होती थी। विधालय के अन्तिम वर्षों में उन्हें अमूल डेरी के स्थापक त्रिमुवन भाई पटेल और शिवाभाई अमीन जैसे मित्र मिले, जिनकी मैत्री जीवन पर्यन्त बनी रही। वर्षों बाद त्रिमुवनदास भाई के साथ सरदार पटेल युनिवर्सिटी के भूतपूर्व कुलपति डो. दिलावरसिंहजी से भेंट हुई थी तब उन्होंने अपने इस बालसखा के विषय में कहा था, 'चुनीभाई पहले से ही अनोखा विद्यार्थी था। ' स्वभाव से धुनी लगता था। उसके अंतरंग को न पहचानने वाले सहपाठी उसे पागल मानते थे। आदर्शाभिमुख चुनीभाई के साथ त्रिमुवनदास भाई का आत्मीय सम्बंध था। छुट्टियों में आणंद आते थे तब चुनीभाई उनके यहाँ रात में रूकते थे। बाद में त्रिमुवनदास भाई उन्हें मिलने विशेष तौर पर पांडिचेरी गये थे।
विधालय का भवन तो तैयार हो गया। हरे-भरे वृक्षों के बीच शाला चलती हो तो कैसा तपोवन जैसा दृश्य लगे, चुनीलाल को लगा कि शाला में वृक्ष तो हॉने ही चाहिये इसलिये उन्होंने शाला में आम, नीम, जामुन आदि के ऐसे वृक्ष बोये जो बढ़कर घने बने। वे स्वयं उनकी देखभाल करते। पचास-सात फूट गहरे कुएँ से पानी खींचकर
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उन्हें पिलाते। इस प्रकार पौधे बड़े होने लगे, पर फिर गर्मियों की छुट्टियों हो गईं। छुट्टियों में तो विधालय और छात्रालय दोनो बन्द हो जाते थे। विधार्थिओं को अनिवार्य रूप से घर जाना पड़ता था। चुनीलाल को अपने प्रिय वृक्षों की चिंता होने लगी और उन्होंने भीखाभाई साहब से अनुमति ले ली कि प्रतिदिन नापाड से पैदल आकर वृक्षों को पानी पिलाकर चले जाएँगे। इस प्रकार पूरी छुट्टियों में प्रतिदिन सवेरे चार-पाँच मील चलकर आणंद आते, कुएँ से पानी खींच-खींच कर वृक्षों को वे पानी देते और फिर उतना ही चलकर नापाड लौट जाते! वृक्षों के प्रति इतना उत्कट प्रेम जो उनके आश्रम जीवन में फला-फूला उसका मूल डी. एन. हाईस्कूल के वृक्षों की देखभाल में है (यह बात द्युमान ने डो. दिलावरसिंह जाडेजा को पांडिचेरी में भेंट के समय कही थी। )'
सेवाभावना का पाठ भी. डी. एन. हाईस्कूल के अभ्यासकाल में चुनीलाल को सीखने को मिला। पंचमहाल में जब भयंकर अकाल पड़ा था तब राहत कार्य के लिये इस स्कूल के विद्यार्थी गये थे, उसमें चुनीलाल भी थे। आदिवासी और भील लोगों के बीच इन विधार्थियों ने ठक्करबापा के नेतृत्व में अकाल राहत कार्य किया था। शैशवकाल से ही अन्य के दुःख में सहायता करने की वृत्ति उनमें थी, वह किशोरावस्था में विकसित हुई। आदिवासी विस्तारों में घूमना, गरीब लोगों को दुःख में राहत मिले ऐसे कार्य करना, उन्हें आश्वासन देना - यह सब कार्य अपनी सुविधा की परवाह किये बगैर वे करते थे। जीवन के ऐसे पाठ उन्हें राहतकार्य के द्वारा मिले। इस विषय में द्युमानभाई ने बाद में लिखा था कि, 'यह शरीर तब बराबर प्रशिक्षित हुआ, मन तैयार हुआ, वह भविष्य के जीवन के लिये ही तैयारी रही होगी।
चुनीलाल को पढ़ने का बहुत शौक था। अन्तर्मुखी होने से मित्र
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मंडली में शायद ही कभी दिखते। पुस्तकें उनकी सच्ची मित्र थीं। डी. एन. हाईस्कूल के अभ्यास काल के समय उन्हें शाला के समृद्ध पुस्तकालय से अनेक पुस्तकों को पढ़ने का अवसर मिला था।*
गहन विषयों की पुस्तकें भी उन्होंने विधार्थी अवस्था में पढ़ डाली थीं। इस विषय में उन्होंने लिखा है कि, 'मेरे जीवन का निर्माण गंभीर विषयों की पुस्तक पढ्ने से हुआ है।' बी. ए. की टेक्स्ट बुक जैसी अंग्रेजी पुस्तकों को मैं, अंग्रेजी की छटविं सातवीं कक्षा में पढ़ता था और वह मुझे समझ आती थीं।
'स्वामी विवेकानंद, श्री रामकृष्ण, स्वामी रामतीर्थ इत्यादि की सभी पुस्तकें उन्होंने अंग्रेजी में उस समय पढ़ी थी। साधु-सन्तों के जीवन चरित्र पढ़े थे। डी. एन. हाईस्कूल के पुस्तकालय से लेकर गिरधर कृत रामायण, तुलसीदास का रामचरित मानस, प्रेमानंद के काव्य, नरसिंह महेता के पद, मीराबाई के भजन, श्रीमद् भागवत, भारत का इतिहास, महाभारत आदि का अध्ययन किया। वेद - उपनिषद और पुरातत्व विधा की पुस्तकें भी पढ़ी। इसमें से कुछ समझ में आया और कुछ नहीं भी समझ आया।'
चाहे सब नहीं समझ में आया पर इन सब पुस्तकों के पठन से उनका अंतरमन सँवरता गया और उसमें भी उपनिषद के दो किशोर पात्र नचिकेता और सत्यकाम-जाबाल तो उनके लिये आदर्श हो गये! जीवन नचिकेता जैसा सत्यपरायण, ध्येयनिष्ठ और सत्यकाम-जाबाल जैसा गुरु समर्पित होना चाहिये, ऐसा उनके अंतर में द्रढ़ता से अंकित हो गया। इसके अलावा चरोतर एज्युकेशन सोसायटी के शिक्षक और
*श्री अरविंद का नाम दार्शनिक के कप में भारत में तब बहुत कम जाना जाता था, तब उनके सम्पादन में १९१४ में प्रारम्भ हुआ (अंग्रेजी) 'आर्य' मासिक आणंद के डी. हाईस्कूल में वहाँ के जागृत शिक्षक के कारण पांडिचेरी से नियमित आता था l*
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स्वयंसेवक शिवाभाई पटेल के पास से उन्हें 'आर्य' के अंक पढ़ने को मिले। चुनीलाल को श्री अरविंद के नाम का परिचय तो था ही। वे स्काउट की प्रवृत्ति से जुड़े हुए थे। उस में विद्यार्थियों की अलग-अलग टुकडियाँ बनाई गई। उन टुकडियों के नाम देश कै नेताओं के नाम से रखे गये। तिलक टुकड़ी, गोखले टुकड़ी अरविंद टुकड़ी आदि। उस में चुनीलाल अरविंद टुकड़ी में थे। इसलिये उन्हें श्री अरविंद के विषय में जानने को मिला। तब श्री अरविंद की योगसाधना को सिद्धि के विषय में लोग कहते थे कि 'वे जमीन से अधर में चलते हैं। ' यह बात भी चुनीलाल को सुनने को मिली। इससे श्री अरविंद के विषय में किशोर चुनीलाल के मन में उस समय बहुत जिज्ञासा जागी। उसके बाद श्री अरविंद के योगदर्शन को व्यक्त करता 'आर्य' मासिक उन्हें मिलता तो वह पढ़ने में डूब जाते।
इस विषय में एक पत्र में द्युमान ने लिखा है कि, 'मैंने 'आर्य' के 'सीक्रेट ऑफ वेदाज' लेख पढ़े तब मुझे लगा कि जैसे श्री अरविंद मुझे वेद पढ़ा रहे हैं, पर तब मैं, उसमें से कितना समझा, भगवान ही जाने! वेद का रस मुझमें गहराई तक उतर गया उसने मेरा जीवन गढ़ा है। 'आर्य' मासिक में श्री अरविंद के एक साथ छः छः ग्रंथों के प्रकरण प्रकाशित होते थे, उन सब ग्रंथों के प्रकरण इतनी छोटी उम्र में वे अंग्रेजी में नियमित पढ़ने लगे। इस प्रकार उनके अंतर में 'योग' के लिये भूमिका तो डी. एन. हाईस्कूल के समय में ही तैयार हो गई थी।
डी. एन. हाईस्कूल के शिक्षकों, स्वयंसेवकों के द्धारा चुनीलाल को जीवन-विज्ञान के अनेक पाठ सीखने को मिले। छोटाभाई से श्रीअरविंद के साहित्य का परिचय हुआ तो अम्बुभाई पुराणी द्धारा अखाड़ा और खेलकूद के महत्व की जानकारी मिली। अम्बुभाई पुराणी श्री चुनीलाल के शिक्षक थे, उनसे उन्होंने मेकाले का 'होरेशियस' पढ़ा। पर उस समय न तो अम्बुभाई को पता था न
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चुनीलाल को कि उन दोनों को एक महान गुरु के शिष्य बनकर एक साथ काम करना होगा। उस समय अम्बुभाई और उनके बड़ेभाई छोटुभाई पुराणी ने सुरत से अमदावाद तक अनेक स्थान पर अखाड़े शुरू किये थे, उसमें अनेक युवक तैयार हो रहे थे। परंतु चुनीलाल को अखाड़े या खेलकूद में रूचि नहीं थी। इस विषय में भी उन्होंने बताया था कि, 'मैं अकेला मेरे पथ पर चलता जा रहा था। मुझे समूह मैं ज्यादा रुचि नहीं थी।' एकाकी रहने का स्वभाव होने के कारण वे इतर प्रवृतियों में कहीं दिखाई नहीं दिये। पर आध्यात्मिक ग्रंथों के अध्ययन से अंतरविकास सतत् होता रहा। फलस्वरूप सामान्य शिक्षण में रूचि कम होने लगी। अंतर में कितनी बार उलझन होती कि उनका अंतर जो चाहता वह यह शिक्षण नहीं दे सकता, तो क्या करें? फिर सच्ची शिक्षा की शोध में वे आणन्द से सुरत के पाटीदार आश्रम में पहुँच गये। उन्हें आशा थी कि यहाँ कुछ नयी शिक्षा मिलेगी, पर वहाँ पता किया तो वही सामान्य शिक्षण था इसलिये वहाँ से लौटकर फिर डी. एन. हाईस्कूल में अभ्यास में लग गये।
डी. एन. हाईस्कूल के अभ्यास के समय उन्हें गांधीजी के भी दर्शन हुए। १९१७ में भरूच में गुजरात शिक्षण मंडल की वार्षिक बैठक हुई थी, उसके प्रमुखपद पर गांधीजी थे। भीखाभाई कई विधार्थियों को गांधीजी के दर्शन के लिये भरुच ले गये थे, उसमें चुनीलाल भी थे। इस बैठक में उन्होंने गांधीजी के प्रथम दर्शन किये। गांधीजी धोती, अंगरखा पहनते थे। सिर पर काठियावाडी पगड़ी बाँधते थे। गांधीजी की सीधीसादी पर अंतर से निकलने वाली स्पष्ट वाणी का चुनीलाल पर बहुत प्रभाव पड़ा। इसलिये ये कहाँ रहते हैं, उसकी जानकारी ले ली। उन्हें पता चला कि अमदावाद में गांधीजी का साबरमती आश्रम चलता है, उसमें गांधीजी के बहुत से छोटे-बड़े साथी रहते हैं और गांधीजी के मार्गदर्शन में सेवाकार्य, तथा देश की
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आज़ादी के लिये कार्य करते हैं। तब ही चुनीलाल ने मन में संकल्प किया कि गांधीजी के आश्रम में जाकर रहना है। अब यहाँ सामान्य अभ्यास नहीं करना है। भरूच से लौटकर आणंद में अभ्यास में लग गये पर अब उनका मन वहाँ लगता नहीं था। अमदावाद गांधीजी के आश्रम में जाने के विचार बार-बार आते थे। ये विचार इतने प्रबल थे कि एक दिन किसी को कहे बगैर चुनीलाल चुपचाप आणंद से अमदावाद साबरमती आश्रम में पहुँच गये।
रेल्वे स्टेशन से तपती दोपहर को दो बजे पैदल चलकर वे आश्रम पहुँचे। भूख भी लग रही थी। आश्रम में कोई जानता भी नहीं था पर मन में संकल्प था कि अब गांधीजी के सानिध्य में रहना है। आश्रम में पूछा तो पता चला कि गांधीजी तो नहीं हैं, तब कस्तुरबा के पास पहुँच गये। उन्होंने भयंकर गर्मी में बापु से मिलने आए हुए इस तरुण विधार्थी का प्रेम से स्वागत किया। कुशल-मंगल पूछकर हाथ, पैर, मुंह धोने की व्यवस्था कर दी। उसके बाद भोजन करवाया। भोजन करते समय बा ने आने का कारण पूछा; तब बताया कि 'मुझे तो बापु के साथ रहना है, इसलिये मैं आया हूँ। 'बा तब कुछ नहीं बोलीं, प्रेम से भोजन करवाकर, आश्रम के व्यवस्थापक फूलचंदभाई के पास ले गई। सारी बात उन्हें बतायी। फूलचंदभाई ने पूछा, 'तुम अपने माता-पिता की अनुमति लेकर आए हो ?' 'नहीं'।'तो तुम अनुमति लेकर आओ, तो ही यहाँ रह सकोगे। ' यह सुनकर चुनीलाल की सभी इच्छाओं पर पानी फिर गया। वह एकदम निराश हो गया। उसे लगा कि इस प्रकार भागकर आना बेकार गया। कस्तुरबा इस तरुण किशोर की मनोव्यथा समझ गई। उन्होंने कहीं, 'बेटा, आज की रात यहाँ रुक जाओ, कल सवेरे चले जाना।' चुनिलाल उस रात साबरमती आश्रम में ठहर गये।
इधर माता-पिता को समाचार मिला कि चुनीलाल कहीं चला
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गया है तो वे व्याकुल हो गये। वे तत्काल आणंद पहुँचे। माँ चुनीलाल के मित्र त्रिभोवनदास से मिली और पूछा, 'मेरा चुनीलाल कहाँ गया होगा?' पर मित्र को भी पता नहीं था तो वह कुछ नहीं बता पाया। परंतु भीखाभाई साहब के अनुमान से उसके पिता अमदावाद साबरमती आश्रम में दूसरे दिन सवेरे उसे ढूंढनें पहुँच गये और उनका पुत्र वहाँ आया है या नहीं, यह पूछा। तभी बा ने चुनीलाल को बुलाकर पूछा, 'क्या यही तुम्हारा पुत्र है ?'
पुत्र को देखते ही पिता प्रसन्न हो गये। फिर बा ने चुनीलाल को प्रेमपूर्वक कहा, 'बेटा! तुम अपने पिता के साथ घर जाओ। इस प्रकार किसी को बताए बगैर नहीं आना चाहिए, माता-पिता को कितनी चिंता होती है? वे सारी रात सोये नहीं होंगे, जाओ बेटा!'
पिता को इतनी जल्दी सवेरे उसे ढूंढने आए हुए देखकर चुनीलाल को बहुत क्षोभ हुआ। पिता ने परिस्थिति को समझकर उपालम्भ का एक शब्द भी नहीं कहा। उन्होंने कहा, 'बेटा, चलो घर। ' फिर पिता पुत्र सीधे आणंद पहुँचे। पिता उसे डी. एन. हाईस्कूल में भीखाभाई साहब के पास ले आए। भीखाभाई ने भी उसे उपालम्भ में कुछ नहीं कहा और पूछा, 'आ गया तू ?' और फिर कहा।'जाओ, भोजन कर लो।' चुनीलाल ने चुपचाप भोजन तो कर लिया पर पिता और साहब जरा गुस्सा नहीं हुए, इस बात का उस पर बहुत प्रभाव पड़ा, वह बहुत रोया। उसे पूछे वगैर जाने की भूल समझ में आ गई। पिता और शिक्षक ने उसे प्रेम से लौटा लिया और उसकी भाग जाने की वृति को प्रेम से निर्मूल कर दिया।
ई. स.१९१७ क से १९२० तक चार वर्ष चुनीलाल ने डी. एन. हाईस्कूल में विद्याभ्यास किया। उस समय डी. एन. हाईस्कूल मुम्बई विश्वविधालय के साथ जुड़ी हुई थी। मैट्रिक की परीक्षा मुम्बई विश्वविधालय द्धारा ली जाती थी। परंतु स्वदेशी आंदोलन और
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असहयोग आंदोलन के कारण अनेक विधालय और महाविधालय भी राष्ट्रीय स्तर पर चलने लगे थे। डी. एन. हाईस्कूल ने भी अंग्रेज सरकार की मैद्रिक परीक्षा न लेते हुए, राष्ट्रीय महाविद्यालय जैसे विधापीठ के साथ सम्पर्क करके, उनकी विनीत की परीक्षा लेने का निश्चित किया। इस प्रकार चुनीभाई ने मैद्रिक की समकक्ष विनीत की परीक्षा अच्छे गुणांक के साथ उत्तीर्ण करके, डी. एन. हाईस्कूल का अभ्यास पूरा कर लिया। बाद में दयुमान ने बताया था कि, 'मेरा प्रशिक्षण डी. एन. हाईस्कूल में हुआ, उसका मैं ऋणी हुँ। प्रतिवर्ष मैं डी.एन. हाईस्कूल को उसके स्थापना दिवस पर पत्र लिखता हूँ। ' इस प्रकार डी. एन. हाईस्कूल ने चुनीलाल के व्यक्तित्व की जो नींव डाली यह इतनी द्रढ़ थी कि फिर अनेक झंझावात आने के बाद भी वे अपने ध्येय से तिल भर भी नहीं डिगे।
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६. शांतिनिकेतन में
डी. एन. हाईस्कूल का अभ्यास पूरा होने के बाद भी चुनीलाल ऐसे विधाधाम की शोध में थे जहां उन्हें उनकी आत्मा का प्रशिक्षण मिले, जहाँ उनके अंतर में जो अविरत शोध चल रहा था, उसे दिशा मिले। इसलिये वे जहाँ-जहाँ उनकी आत्मा को शिक्षण मिलने की संम्भावना लगी, वहाँ-वहाँ गये। हरिद्द्वार गये, ऋषिकेश गये, गुरुकुल कांगडी भी हो आए। फिर कलकता गये। कुछ समय बेलुर मठ में भी रुके पर कहीं उनका चित्त नहीं लगा। फिर मन में आया कि गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर के शांतिनिकेतन में जाऊँ। गुरुदेव के दूर से दर्शन किये थे जब गुजराती साहित्य परिषद में वे अमदावाद आए थे। तब दूर से ही उनके भव्य और प्रतिभावंत व्यक्तित्व को देखकर बहुत ही प्रभावित हुए थे। तब मन की गहराई में इच्छा हुई थी कि उनकी संस्था में अभ्यास करने को मिले तो कितना अच्छा हो। यह सुषुप्त इच्छा उतरोतर बलवती होती गई और उन्हें १२२० में शांतिनिकेतन ले ही आई!
शांतिनिकेतन में वे गुरुदेव रविंद्रनाथ ठाकुर से मिले और अपनी इच्छा बतायी। उन्हें तो योग का गहन अध्ययन करना था पर यहाँ 'योग' का अलग विषय का अभ्यासक्रम नहीं था परन्तु भारतीय संस्कृति और प्राच्य विधा का विषय था, उसमें योग का समावेश हो जाता था। इसलिये उन्हें प्राण विधा में प्रवेश लिया। प्रकांड विद्धान आचार्य क्षितिमोहन सेन इस विभाग के प्रमुख थे। उन्होंने भारतीय संस्कृति का गहरा अध्ययन किया था और साथ ही वे महान साधक और रहस्थवादी साधना के मर्मज्ञ थे। ऐसे तत्वज्ञ ॠषितुल्य अध्यापक
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से भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन करने का अवसर मिला, चुनीलाल इसका पूरा-पुरा लाभ लेना चाहते थे इसलिये वे प्राच्य विधाकी पुस्तकों के अध्ययन में ड़ूब गये। प्रारंभ में आठ घंटे तक पुस्तकों का अध्ययन करते फिर समय की अवधि बढ़ते बढ़ते बीस घंटे तक हो गई। एक वर्ष में तो उन्होंने प्राच्य विधा की सभी महत्वपूर्ण पुस्तकों का अध्ययन पूरा कर लिया। शांतिनिकेतन में अंधिकांश समय वे लेखन पढ़न में ही व्यतीत करते, इसलिये उनका शांतिनिकेतन में किसी के साथ आत्मीय मैत्री सम्बन्ध नहीं हुआ था। एक मात्र दीनबंधु एन्ड्रूजके साथ उनका घनिष्ठ सम्बन्ध बना जो हमेशा बना रहा।
शान्तिनिकेतन के विधार्थीयों के साथ उनका आत्मीय सम्बन्ध भले ही नहीं बना पर जहाँ सभी विधाथिॅयों के साथ मिलकर काम करना होता था तो उसमें चुनीलाल अचूक योगदान देते थे। समूहकार्य भी प्रार्थना का एक भाग है, यह मानकर वे यह कार्य प्रसन्नता से करते थे। शांतिनिकेतन के पास एक बड़ा तालाब था इस कारण मच्छरों का उपद्रव असह्य हो गया था, इससे कई विधार्थी मलेरिया से बीमार हो गये थे। इसलिये वहां के विधार्थीयों ने ही इस तालाब को पाट देने का निश्चय किया। सभी कुदाली, फावडा, तगारे लेकर निकल पड़े। चुनीलाल भी साथ हो लिये। वे सब काम करते करते वेदमंत्रो का उच्चारण करते रहते, इससे वेदमंत्र कंठस्थ हो जाते और काम की थकान भी नहीं होती थी। इस प्रकार उन्होंने श्रम के साथ शिक्षण की नई रीति का शोध कीया। इससे काम उनके लिये ध्यान बन गया और बाद में भी इस प्रयोग ने उनकी जीवन साधना को वेग दिया।
चुनीलाल लगभग एक वर्ष शांतिनिकेतन में रहे, पर इस अन्तराल में गुरुदेव के लगभग सतत् प्रवास में रहने के कारण उनसे मिलना नहीं हो सका। पर उनकी ही चेतना के विस्तार के समान शांतिनिकेतन संस्था में भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन करके आत्मविकास का पाथेय लेकर वे १९२१मे वापस गुजरात आ गये।
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७ गुजरात विधापीठ में अभ्यास
शांतिनिकेतन से आकर चुनीलाल ने गुजरात विधापीठ में प्रवेश लिया। राष्ट्रीय आन्दोलन के भाग के रूप में राष्ट्रीय शिक्षण होना चाहिये, उस समय ऐसी मान्यता व्यापक थी। गांधीजी की प्रेरणा से १२२० में अमदावाद में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना की गई और चुनीलाल को उसमें प्रथम दल के विद्यार्थी बनने का सौभाग्य मिला। यहाँ भी उन्होंने शांतिनिकेतन में प्रारम्भ किये प्राच्यविध्या के अध्ययन को आगे बढ़ाया।
इस विधापीठ के आचार्य थे विध्वान प्राध्यापक गिडवाणी। साथ ही राष्ट्रीय स्तर के कई विद्धान इस विधापीठ में अध्यापक के रुप में अपनी सेवा दे रहे थे। काकासाहेब कालेलकर, मुनि जिनविजयजी, धर्मानन्द कौसाम्बी, नरहरि परीख आदि देशभक्त विध्वानों के सम्पर्क में आने का अवसर चुनीलाल को विधापीठ के अभ्यासकाल में मिला।
यहाँ भी वह विधार्थी के लप में असाधारण ही रहे। सतत् पठन, नहीं तो काँतण (सूत कातना) या गहरा मनन चिंतन। इसी में उनका समय व्यतीत होता था। अब उन्होंने स्वयं के काँते गये सूतकी खादी के वस्त्र पहनना प्रारम्भ कर दिया था। उपरांत प्राच्य विधा के भाग के रूप में 'योग' का भी गहरा अभ्यास करने लगे और योग में उन्हे रस आने लगा था। उन्होंने प्राकृत और पाणिनी के संस्कृत व्याकरण का अभ्यास भी शुरु किया। इन सब के अभ्यास से उनकी आत्मा को जो शिक्षण चाहिये था वह मानो मिलने लगा।
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चुनीलाल की अभ्यासपरायणता, मितभाषिता, परोपकारी और शांत, एकाकी स्वभाव के कारण आचार्य गिडवाणी का ध्यान उनके प्रति आकर्षित हुआ। कुछ ही समय में वह आचार्य के प्रिय विधार्थी बन गये। एक बार डी. एन. हाईस्कूल के वार्षिकोत्सव के समय आनंदशंकर ध्रुव अध्यक्ष के रूप में नहीं आ सके। तब चुनीलाल ने भीखाभाई साहब से बात करते हुए कहा कि 'गिडवाणीजी आएँ तो अच्छा रहेगा। ' फिर चुनीलाल ने सारी परिस्थिति गिडवाणी जी को समझा कर कहा कि, 'साहब, आपको आणंद आना है।' गिडवाणीजी ने अपने प्रिय विद्यार्थी की बात तुरंत स्वीकार कर ली। भीखाभाई साहेब ने तब उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा, 'चुनीलाल, आज तुमने मेरी लाज रख ली।' डी. एन. हाईस्कूल में उन्हें भीखाभाई साहब का स्नेह मिला था, इसी तरह शांतिनिकेतन मैं क्षितिमोहन सेन और दीनबन्धु एंड्रूज का और विद्यापीठ में गिडवाणीजी का स्नेह मिला। सभी का स्नेह सम्पादन करने की, विधार्थी काल में एन्ड्रूज में प्राप्त की गई कला जीवन पर्यन्त विकसित होती रही। इसके फलस्वरूप भविष्य में श्री अरविंद और श्रीमाताजी का भी उन्हे स्नेह प्राप्त हुआ।
विधापीठ के अभ्यासकाल में चुनीलाल का अनेक राष्ट्रभक्तो के साथ भी परिचय हुआ, उनमें स्थित राष्ट्रभक्ति के बीज तेजी से अंकुरित होने लगे और वे भी राष्ट्रभक्ति के रंग में रंगने लगे। दूसरी तरफ उनके अन्दर की सत्य प्राप्ति की आकांक्षा भी स्नातक कक्षा के अभ्यासकाल में अधिक प्रज्जवलित हुई। इस प्रकार इस समयावधि में एक तरफ राष्ट्रीय आन्दोलन के कार्य, दुसरी तरफ अपनी अंतर खोज और तीसरी तरफ विधापीठ में सेवाकार्य - इन तीनों स्तरों पर चुनीलाल का कार्य चलता रहा पर बाहर के लोगों को पता नहीं चला।
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योगी विष्णु भास्कर लेले पहले क्रांतिकारी थे परंतु जेल में जाने के बाद आध्यात्मिक मार्ग पर मुड़ गये थे। गिरनार जाकर कठोर तपश्चर्या की। गुरु दत्तात्रेय के दर्शन किये और फिर लोगों को आध्यात्मिक मार्ग पर ले जाने का कार्य करते रहे। वह गुजरात विधापीठ में कभी-कभी आते और अध्यापकों एवं विधार्थियों को आध्यात्मिक मार्गदर्शन देते। चुनीलाल आणंद में डी. एन. हाईस्कूल में थे तब लेले को मिले थे और लेले उनके घर नापाड भी गये थे इसलिये उनका लेले का योगी के रूप में परिचय तो था ही, यहाँ विधापीठ में अधिक निकट का सम्पर्क बना।
चुनीलाल अपनी आत्मखोज की आकांक्षा के कारण जब लेले विधापीठ में आते तो उनके पास पहुँच जाते थे। फिर तो लेले आध्यात्मिक आकांक्षावाले विधार्थियों के समूह को अलग ढंग से मिलने लगे। उनकी आध्यात्मिक खोज के सम्बन्ध में मार्गदर्शन देते थे। एक बार इसी प्रकार विधार्थीयों से बात करते-करते उन्होंने कहा,।'तुम सब गिरनार जाओ, वहाँ दत्तात्रेय की पादुका के दर्शन करो, पूजन करो। तुम्हें ?कल्पनातीत आध्यात्मिक अनुभूति होगी।'।
'महाराज! हम गिरनार गए हैं, वहाँ रहे भी हे।'
'तो वहाँ तुम्हें क्या अनुभव हुआ ?' लेले ने पूछा!
'हमने प्रकृति का अपार सौन्दर्य देखा। पहाड़ पर चढ़ने-उतरने का आनन्द लिया। रात को आकाश के तारों को झिलमिलाते देखा।
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आकाश का सौन्दर्य देखा। प्रातःकाल बादलों से आच्छादित घाटियाँ देखी। हम जैसे इन्द्रलोक में हो और गिरनार जैसे लोक में हो ऐसा अद्दभुत अनुभव हुआ। इस प्रकार हमें गिरनार में बहुत आनन्द आया।'
चुनीलाल ने कहा।
लेले को तो गिरनार पर हुई आध्यात्मिक अनुभूति की बातें सुननी थी उसके बदले प्राकृतिक सौंदर्य के विषय में सुना तो थोड़े निराश हो गये। वह चुनीलाल की आध्यात्मिक अभिरुचि को जानते थे इसलिये उसकी तरफ देखकर बोले, 'अब तू मेरे साथ गिरनार आना तब तुम्हें पता चलेगा कि गिरनार में क्या है।' जब उनका अमदावाद से गिरनार जाना निश्चित हुआ तब चुनीलाल को भी साथ ले गये। इस यात्रा में लेले उनकी पली गोपिकाबाई, स्नेहरश्मि और चुनीलाल कुल चार व्यक्ति थे। जूनागढ़ में लेले के मित्र, बहाउद्दीन कोलेज के संस्कृत के प्रोफेसर जोशी जो स्वयं भी योगसाधना में गहरा रस लेते थे, उनके यहाँ सभी रात को रहे। लेले अपने मित्र के साथ योग साधना की गहन बातें कर रहे थे, उसके मूक श्रोता थे चुनीलाल। एक साधक और एक योगी के बीच हो रहे आध्यात्मिक वार्तालाप से चुनीलाल को बहुत जानकारी मिली। कितने ही ऐसे अनुभव सुने जो शास्त्रों में कहीं पढ़े ही नहीं थे, उनकी गिरनार यात्रा सार्थक होती लगी। दूसरे दिन सवेरे स्नेहरश्मि, चुनीलाल और लेले ने गिरनार की यात्रा आरम्भ की। गिरनार का माहात्म्य, वहाँ के अघोरियों की साधना, योग के रहस्य आदि अनेक जानकारी लेले से सुनते सुनते वे लोग अम्बाजी तक पहुँच गये। वहाँ रात ठहरे। दूसरे दिन दतात्रेय के शिखर पर पहुँचे। लेले का तो यह साधना स्थल था। यहाँ उन्होंनें कठिन तपस्या करके गुरु दतात्रेय का साक्षात्कार कर करके आदेश प्राप्त
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किया था। भगवान दतात्रेय की महिमा की अनेक बातें अपने साथ के दोनों सहयात्रियों से कही, फिर वे स्वयं गहरे ध्यान में एकाग्र हो गये। बहुत देर के बाद ध्यान से जागे फिर अपने सहयात्रियों को भी ध्यान करने को कहा। अत: चुनीलाल और स्नेहरश्मि ने भी ध्यान किया। परंतु ध्यान के बाद जब लेले ने दोनों को ध्यान में हुए अनुभव के विषय में पूछा तब दोनों ने कहा कि, 'हमें कुछ भी अनुभव नहीं हुआ। ' यह सुनकर लेले थोड़े निराश हो गये। उन्हें तो इन दोनों को आध्यात्मिक अनुभव करवाना था पर दोनों को कुछ हुआ ही नहीं। इस तरह गिरनार पर अनुभूति करवाने की लेले की इच्छा चुनीलाल के मामले में फलीभूत नहीं हुई।
गिरनार की यात्रा के बाद वे सौराष्ट्र का पैदल प्रवास करते- करते आणंद आ पहुँचे। आणंद से लेले और गोपिकाबाई स्नेहरश्मि के साथ उनके गाँव् चिखली गये और चुनीलाल फिर विधापीठ आ गये। पर लेले के साथ गिरनार यात्रा में कोई आध्यात्मिक अनुभूति नहीं हुई इसका रंज दोनों पक्षों को होता रहा। इस विषय में द्युमान ने बाद में पत्र लिखकर बताया था कि, 'योगी लेले के साथ गिरनार के मेरे दूसरे प्रवास में मैं कुछ नहीं प्राप्त कर सका। मेरा विकास नहीं हुआ... मेरी नियति कुछ अलग ही थी... लेले का मुझ पर बहुत स्नेह था, वह मैं कभी भूल नहीं सकता... लेले के साथ रहने का सद्दभाग्य मुझे मेरे जीवन में प्राप्त हुआ, इसलिये मैं कृतज्ञता अनुभव करता हूँ। ' कोलेज के समय में योगी लेले द्धवारा उन्हे आध्यात्मिक अनुभूति चाहे न हुई हो पर उनके अंतरमन को तो उन्होंने योग की तरफ मोड़ ही दिया था। इस कारण चुनीलाल को भविष्य में आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश के लिये सरलता हो गई।
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१. स्वतंत्रता सेनानी
गांधीजी के प्रभाव के परिणाम से गुजरात में स्वतंत्रता आंदोलन चारों तरफ फैल रहा था। अनेक महानुभाव गांधीजी के स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित हो गये थे। गुजरात तो गांधीजी की अपनी भूमि और उसमें साबरमती आश्रम की स्थापना के बाद गुजरात में स्वतंत्रता संग्राम का ज्वार बढ़ रहा था। १९२१ में अमदाबाद में राष्ट्रीय महासभा का अधिवेशन हुआ। गांधीजी उसके प्रमुख पद पर थे। देश भर से नेता, राष्ट्रभक्त अमदावाद आए थे। उस समय चुनीलाल विधापीठ में अध्ययन करते थे। विधापीठ तो राष्ट्रीय संस्था थी इसलिये उसके सभी संचालक, अध्यापक भी राष्ट्रीय महासभा की व्यवस्था के कार्य में लग गये थे। चुनीलाल भी इस महासभा के स्वयंसेवक बनकर कार्य में लग गये।
इस महासभा में उनका बहुत से महानुभावों के साथ परिचय हुआ। सरोजिनी नायडु ने अपना भाषण अंग्रेजी में दिया। विद्धान फ्रेन्च मनीषी पोल रिशार भी इस महासभा में आए थे। उन्होंने अपना वक्तव्य फ्रेन्च भाषा में दिया। चुनीलाल रिशार के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए, पर उस समय वे नहीं पहचानते थे कि वर्तमानकाल के ऋषि जैसे दिखते यह भव्य और सौम्य पुरुष, पांडिचेरी में श्रीअरविंद के जगत का रूपांतर करने के कार्य में सहयोग करने के लिये फ्रान्ससे आई हुई मीरा के पति हैं। उस समय तो उनकी 'मीरा' का भी कोई परिचय नहीं था, पर फिरभी पोल रिशार और उनके साथ आए युवक चम्पकलाल की और उनका विशेष ध्यान गया था। इसके उपरांत इस
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अधिवेशन में पूरे देश से आए अन्य राष्ट्रभक्त तथा सरदार पटेल, इन्दुलाल याज्ञिक, दरबार गोपालदास, भक्तिबा आदि से भी परिचय हुआ। गुजरात के इन राष्ट्रभक्तों के परिचय से चुनीलाल के हृदय में भी देश के लिये कुछ कर गुजरने की भावना तीव्र होने लगी। उन्होंने सर्वप्रथम बोरसद सत्याग्रह में स्वयंसेवक के रुप में कार्य किया और फिर बारडोली सत्याग्रह में सरदार पटेल के मार्गदर्शन में स्वयंसेवक के रूप में सफलतापूर्वक कार्य किया। इस सत्याग्रह में कार्य करने के परिणाम से चुनीलाल में प्रखर राजभक्ति जाग उठी। इतना ही नहीं, देश के लिये सर्वस्थ त्याग करने की, सेवा करने की भावना अधिक द्रढ़ हो गई। साथ ही देश के लिये और अन्य के लिये कष्ट सहन करने की सहिष्णुता भी आयी। सत्याग्रह मैं जुड़ने के कारण भी चुनीलाल के सुदृढ़ व्यक्तित्व को अधिक तेजस्विता मिली।
१९२३ में नागपुर में होनेवाले झंडा सत्याग्रह में अमदावाद से काँग्रेस के युवकों की एक टुकड़ी पैदल नागपुर जानेवाली थी, उसमें चुनीलाल को भी जाना था, पर उस समय वे २१ दिन के बुखार में जकड़े गये। बुखार उतरने के बाद इस सत्याग्रह में जाने के लिये नाम लिखवाने गये। देवदास गांधी नाम लिख रहे थे। उन्होंने दुर्बल शरीर, फीका मुंह और अशक्त चुनीलाल को देखकर ही मना कर दिया, कहा 'जा, यह तेरा काम नहीं है।' घर जाकर खा-पीकर शरीर अच्छा करो।' चुनीलाल ने बहुत प्रार्थना की पर वे नहीं माने। निराश होकर चुनीलाल लौट गये, पर फिर दो- चार दिन में उन्हें समाचार मिला कि देवदास गांधी अब सत्याग्रह की इस टुकड़ी, के केप्टन नहीं है, उन्हें कहीं और जाना पड़ा है। अब तो सुरेन्द्रजी हैं। यह समाचार मिलते ही चुनीलाल फिर नाम लिखाने पहुँच गये। सुरेन्द्रजी तो चुनीलाल को पढ़ाते थे इसलिये अच्छी तरह पहचानते थे। उन्हें चुनीलाल की आंतरिक शक्ति का परिचय था इसलिये उन्होंने किसी भी प्रक्रार की आनाकानी किये बगैर चुनीलाल का नाम लिख लिया और
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कहा, 'जाओ, जाकर तैयारी करो। निर्धारित दिन- हम यहाँ से प्रयाण करेंगे।' अब चुनीलाल प्रसन्नता से लौट गये।
निर्धारित दिन अमदाबाद से सत्याग्रहियों की टुकड़ी ने प्रयाण किया। देशभक्त युवकों को अपार प्रसन्नता थी। पैदल जाना था, पर किसी को थकान नहीं थी। भारतमाता के लिये प्राण न्योछावर करने की भी सबकी तैयारी थी। उत्साह और उमंग से छलकते हुए सब सुरत से चलते चलते नंदरबार तक आ पहुँचे। वहाँ समाचार मिला कि झंडा सत्याग्रह में विजय मिल गई है, अब आगे नहीं जाना है। गुजरात की यह झंडा टुकड़ी नंदरबार में ही अटक गई। वहां सार्वजनिक सभा आयोजित की. गई। उसमें लगभग दस हजार की जनमेदिनी एकत्र हो गई थी, इसमें इन सत्याग्रहियों का सम्मान हुआ। उसमें सुरेन्द्रजी ने भाषण दिया, फिर चुनीलाल को भी भाषण देने को कहा। अपने अध्यापक का आदेश था इसलिये चुनीलाल ने राष्ट्रीयता पर एक व्याख्यान दिया। दस हजार की जनमेदिनी पर इस व्याख्यान का गहरा प्रभाव पड़ा तभी सबको पता चला कि चुनीलाल प्रभावशाली वक्ता भी है, परंतु इस व्याखान के बाद चुनीलाल के अंतर में ऐसा लगा कि सार्वजनिक रुप से कभी व्याख्यान नहीं करना चाहिये और इसके बाद उन्होंने कभी सार्वजनिक रूप से व्याख्यान नहीं दिया। इस विषय में बाद में द्युमान ने बताया था कि, 'सन् १९२३ में नंदरबार में मैंने अंतिम भाषण किया, उसके बाद मैंने निश्चय किया कि न भाषण करना, न लिखना। जो है वैसा ही जीना। प्रभु कृपा से यह भावना आज तक कायम रही है।' जैसे भावी जीवन का पूर्व संकेत उनको मिल गया हो ऐसे भाषण करना, लिखना यौवनकाल में ही बन्द करके आत्मरत बनकर ही जीने का निश्चय कर लिया। इसके साथ आत्मरत बनकर जीने की उनकी, कभी ?ना भी न की थी, वह दिशा खुल गई।
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१०. भक्तिबा द्वारा प्राप्त संदेश
दरबार गोपालदास और उनकी जाज्वल्यमान पली भक्तिबा गांधीजी के राष्ट्रमुक्ति आंदोलन में सक्रिय थे। दरबार गोपालदास तो सरदार वल्लभभाई पटेल के मित्र जैसे थे। इसलिये सरदार पटेल ने जब खेड़ा और बारडोली सत्याग्रह शुरु किया उसमें इस दम्पति ने सम्पूर्ण साथ दिया। उसमें बारडोली में सरकार ने गैरकानूनी भूमि- कर डाला, इसके विरोध में सरदार पटेल ने सत्याग्रह प्रारम्भ किया। उसमें दरबार गोपालदास और भक्तिबा भी सम्मिलित हुए। स्वयंसेवकों में चुनीलाल ने भी अग्रसर होकर भाग लिया। उन्हे काम मिला भक्तिबा की छावनी में, इस कारण भक्तिबा के साथ उनका परिचय बढ़ा। चुनीलाल की सेवा, त्यागवृति, मितभाषिता, कार्यनिष्ठा और सबसे अधिक तो उनकी परमतत्व को प्राप्त करने की लालसा, इन सबका भक्तिबा को परिचय होने से चुनीलाल के प्रति उन्हें विशेष लगाव हो गया। वे जब सत्याग्रह के लिये लोगों को समझाने जातीं, तब चुनीलाल को भी अपने साथ ले जाती थीं। भक्तिबा से चुनीलाल को बहुत कुछ सिखने को मिला। गांधीजी तब यरवदा जेल में थे। भक्तिबा ने, गांधीजी जेल में से छूटकर गुजरात आए तब गांधीजी को दस लाख रूपये की थैली अर्पण करने का निश्चय किया। इसके लिये चन्दा माँगने भक्तिबा जहाँ-जहाँ जाती वहाँ-वहाँ वे चुनीलाल को अपने साथ में ले जाती थीं। इस प्रकार गुजरात के गाँवो में घूमकर, अनेक लोगों को सम्पर्क करके उन्होंने चन्दा एकत्र करने में सहायता की थी। इस काम में उन्होंने न दिन देखा न रात इस कारण भक्तिबा दस लाख रूपये एकत्र कर सकी और यरवदा जेल में से छूटकर जब गांधीजी गुजरात में आए तब यह थैली उन्हें अर्पण की। देश या भगवद् कार्य के
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लिये रकम एकत्रित करने की शक्ति तो चुनीलाल में पहले से ही थी, इस शक्ति को फिर श्रीमाताजी ने परखा।
चन्दे के इस कार्य के परिणाम से चुनीलाल भक्तिबा के अन्तरंग वर्तुल में आ गए और विचक्षण भक्तिबा इस नवयुवक के अंतर तेज को पहचान गई। उन्हे लगा कि इस युवक का जीवन यहाँ रात-दिन चरखा कातने में या स्वयंसेवक बनकर, यहाँ-वहाँ भागदौड़ करने में व्यर्थ नही जाना चाहिये। यह रत्न तो योग्य झवेरी के हाथ में जाना चाहिये जो उसे सँवार दे, तब यह रत्न बहुमूल्य बनकर प्रकाशित हो उठेगा। चुनीभाई स्वयं इसके लिये सतत् प्रयत्न्शील थे पर उन्हें अपना अंतर सत्व को विकसित कर दे ऐसा कुशल झवेरी कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। पर उनकी खोज चलती रही और अंत में वह सफल हुए।
भक्तिबा और दरबार साहेब पांडिचेरी गये थे। उसके बाद वहाँ से भक्तिबा अमदावाद आयी थीं। सरदार पटेल के यहाँ खमासा गेट के पास ठहरी थीं। दोपहर के बाद भक्तिबा ने सरदार पटेल के भतीजे से कहा, 'भाई, विधापीठ में से चुनीलाल को बुला लाओ, कहना खास काम है इसलिये अवश्य आए।' उस दिन काँतण (सूत कातने का) यज्ञ था। चुनीलाल भी उसमें सम्मिलित थे, तभी भक्तिबा का संदेश मिला। तत्काल आने को कहा था इसलिये चुनीलाल ने सोचा कि 'खास काम के वगैर भक्तिबा इस प्रकार नहीं बुलाऐँगी। ' कताई यज्ञ से अनुमति लेकर वह चल पड़ा। पैदल चलकर, लम्बी दूरी तय करके, खमासा गेट के पास सरदार पटेल के घर आ पहुँचा। भक्तिबा को प्रणाम किया। कुशलक्षेम पूछकर नम्रता से कहा, 'कहिये, किस सेवा के लिये बुलाया है?
'चुनीभाई, आज तो मैंने एक अलग ही काम के लिये बुलाया है। अभी कुछ दिन पहले ही मैं मेरे भाई काशीभाईको* को मिलने
*बारह वर्ष की छोटी उम्र में, पिताजी काशीभाई के मार्गदर्शन में, स्व. कमलाबहन श्री अरविंद- श्रीमाताजी के प्रकाश में जीवन निर्माण के लिये श्री अरविंद आश्रम पांडिचेरी में गये थे।
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पांडिचेरी गई थी। तुम तो जानते हो कि पहले वे कांसिया बेट में थे वहाँ छोटा-सा आश्रम स्थापित किया था। सभी वहाँ योगसाधना करते रहते थे, पर बाद में वे श्री अरविंद की अनुमति मिलने से हमेशा के लिये पांडिचेरी चले गये हैं। अभी मैं पांडिचेरी रहकर आई हूँ। वहाँ पहले भी दो तीन बार गई हूँ। श्री अरविंद' और श्रीमाताजी के मैंने दर्शन भी किये हैं। इस बार मैं वहाँ रही, तब मुझे मन में सतत् विचार आते रहे कि 'चुनीभाई के लिये यही स्थान उत्तम हैं।' इसलिये आज मैंने खास यह बात कहने बुलाया है कि, 'चुनीभाई, तुम विधापीठ के जीव नहीं हो। मुझे विश्वास हो गया है कि तुम विद्यापीठ के जीवन जीने के लिये नहीं जन्मे हो। तुम्हारा सच्चा घर पांडिचेरी है। तुम पांडिचेरी जाओ और श्री अरविंद के पास पहुँच जाओ।'
जैसे वर्षो पहले सुनी हुई वह देव वाणी - 'इस दुनिया के लिये तू नहीं जन्मा है!' - वह फिर इस नारी शक्ति के मुख से प्रगट हो रही थी, ऐसा चुनीलाल को लगा। जैसे दैवीय आदेश उन्हें उनकी आदरणीया भक्तिबा के मुख से दिया जा रहा था, ऐसा उन्हें अनुभव् हुआ इसलिये इस आदेश में सन्देह का कोई स्थान ही नहीं था। पूछने को कोई प्रश्न ही नहीं था। चुनीभाई का रोम-रोम पांडिचेरी का नाम सुनकर झनझना रहा था।
भक्तिबा जितनी उनकी हितचिंतक और निकट की स्वजन थी उतना शायद ही कोई होगा। इसलिए भक्तिबा ने जो सोचा था इसमें रत्तीभर भी तर्क का स्थान नहीं था। उसी क्षण चुनीलाल ने यह आदेश सहर्ष स्वीकार कर लिया और कहा, ''आपने जो मेरे बारे में सोचा है वह उत्तम है। पांडिचेरी तो मैं अभी चला जाऊँ पर आज मेरे पास पैसे नहीं हैं। इसलिये पैसे की सुविधा होगी, तब अवश्य जाऊँगा।''
''पैसे की चिंता मत करो। पांडिचेरी जाने और वहाँ रहने के खर्च के पैसे मैं तुम्हे दूंगी, पर तुम एकबार शीघ्र पांडिचेरी पहुँच जाओ।'' तब चुनीलाल को भक्तिबा का हृदय जगन्माता के वात्सल्य
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से छलकता हुआ लगा। एक माता अपने बालक की जितनी चिंता करती है, उतनी चिंता भक्तिबा चुनीलाल की कर रही थी। उन्होंने अहोभाव से भक्तिबा को वंदन किया, तभी भक्तिबा ने आगे कहा, ''तुम यहाँ से सीधे नापाड जाओ। वहाँ से काशीबहन को तुम्हारे साथ लेकर पांडिचेरी के लिए निकलो l दोनो के खर्च की यह रकम भी लेते जाओ।'' यह सुनकर चुनीलाल गदगद हो गये। इतनी ज्यादा चिंता माँ के सिवाय कौन करता है? एक माँ अपने पुत्र को जैसे उसकी सच्ची माता के पास भेज रही थी। इसका पता तब नहीं था कि दिव्य योजना की तो भक्तिबा एक साधन मात्र थीं। सूत्रधार वह अदृश्य शक्ति थी, जो अनेक मोड़ों से अन्त में निर्धारित स्थल ले ही आयी।
भक्तिबा के ऋण को द्युमान जीवनपर्यन्त नहीं भूले थे। एक पत्र में उन्होंने बताया था कि ''भक्तिबा के द्धारा ब्रहम आदेश आया और वैसा ही हुआ। मन का या विचार करने का स्थान ही नहीं था। आदेश तो आदेश था और उसका पालन हुआ... भक्तिबा ने मेरा भला चाहा था। मुझे उन्होंने अपने साथ गांधीजी के अभियान में बाँधकर नहीं रखा। उन्होंने चाहा होता तो मैं बँधा रहता, पर मेरी आत्मा का व्यवहार देखकर उन्होंने मुझे श्रीअरविंद के पास भेज दिया।'' द्युमान प्रत्येक जून में भक्तिबा को अचूक पत्र लिखते थे। आश्रम के एक अंतेवासी जब गुजरात आ रहे थे तब उन्होंने कहा था, ''तुम वसो जाना, भक्तिबा से मिलना। वे हमेशा मेरी प्रिय भक्तिबा हैं। उनसे तुम इतना कहना कि, १९२१से आज तक आप मेरे लिये वैसी ही हैं और जन्मजन्मांतर तक वैसी ही रहेंगी।''
उनको पांडिचेरी भेजनेवाली, रत्नापारखी भक्तिबा के प्रति द्युमान जीवनभर कृतज्ञता व्यक्त करते रहे।
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११. श्रीअरविंद की शरण में
१९२४ जुलाई की ११ तारीख चुनीभाई के जीवन का निर्णयात्मक दिवस बन गया। उस दिन उन्होंने अपनी धर्मपत्नी काशीबहन के साथ पांडिचेरी में प्रथम पैर रखा, तब तो उन्हें भी पता नहीं था कि यह नगर उनकी दिव्य कर्मभूमि बननेवाला है और इसीलिए वे यहाँ आए हैं। तब तो मन में एक ही चाह थी, श्रीअरविंद से मिलने की। हाईस्कूल में थे तब से ही महायोगी के नाम के प्रति आकर्षण था, समझदार होने के बाद उनके लेख पढ़कर उनके ज्ञान के प्रति खिंचाव जागा और उत्तरपाडा व्याखान पढ़ने के बाद तो श्रीकृष्ण का साक्षात्कार पाए हुए इन महामानव के दर्शन के लिये तीव्र उत्कंठा जागी थी। उनके दर्शन करना ही मन में एक मात्र ध्येय था, पर ११ तारीख को भेंट का अवसर नहीं मिला। १२ तारीख को सवेरे १० बजे श्रीअरविंद ने भेंट स्वीकार की। ११ तारीख को वे काशीभाई के घर पुदुकोट्टा हाउस में रहे और दूसरे दिन की आतुरता से प्रतीक्षा करने लगे।
दूसरे दिन १२ जुलाई को १० बजे से पहले वे लाइब्रेरी हाउस में पहुँच गये। वहाँ नीचे बैठकर प्रतीक्षा करने लगे कि कब श्रीअरविंद बुलाऐँगे, अन्त में वह क्षण आ पहुँचा। भाई अमृत ने नीचे आकर कहा, ''ऊपर श्रीअरविंद तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं, ऊपर आओ।'' दोनो सीढ़ी चढ़कर ऊपर गये। देखा कि आरामकुर्सी में श्रीअरविंद बैठे थे। काले, खुले, कन्धों तक लहराते बाल, थोड़ी सफेद-काली
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दाढ़ी, कुछ सांवला रंग, तेजोमंडित मुखमुद्रा और सूर्य की किरणें निकल रही हों, ऐसी तेजस्वी आँखें।
दीर्घकाल तक तपस्या करके, परमतत्व को प्राप्त किये हुए सिद्ध योगी के समान श्रीअरविंद के प्रथम दर्शन में ही चुनीलाल के अंतर में अनुभव हुआ कि यही तो हैं उनके भाग्यविधाता, जिनको मिलने को उनका अंतर रात-दिन तड़पता था। यही तो हैं वह परमपुरुष, जो उनकी आत्मा के उद्धारक हैं सच में भाग्य उन्हें उचित समय पर, उचित स्थान पर उचित गुरु के पास ले आया है। उन्होंने श्रीअरविंद की गोद में अपना सिर रख दिया। उसी क्षण उन्होंने अनुभव किया कि ११ वर्ष की उस में छत पर जो अनुभव हुआ था और तब से जिस मार्गदर्शक शक्ति ने उनको पल्लू रखा था, उस शक्ति ने अब अपनी पकड़ छोड़ दी है, उन्हें मुक्त कर दिया है क्योंकि उस शक्ति का काम ही चुनीलाल को श्रीअरविंद तक लाना था। उसका कार्य पूरा होते ही वह चली गई। उन्होंने फिर श्रीअरविंद को प्रणाम किया। काशीबहन ने भी उन्हें प्रणाम किया और वे दोनों वहाँ बैठ गये।
इसके बाद श्रीअरविंद ने उनसे पूछा, तीव्र 'तुम्हे क्या चाहिये? तुम यहाँ क्यों आए हो ?''।
''योग करने के लिये आया हूँ।'' चुनीलाल ने कहा। यह सुनकर श्रीअरविंद कुछ क्षण तक चुनीलाल को देखते रहे, फिर पूछा,।''तुम योग के विषय में क्या जानते हो ?'' चुनीलाल उत्तर दे इससे पहले श्रीअरविंद ने योग के विषय में बात प्रारम्भ कर दी। लगभग पचपन मिनट तक उन्होंने योग के विषय में सब समझाया। विशेष रुप से पूर्णयोग क्या है? उसकी साधना में क्या-क्या मुश्किलें आती हैं, योग करने के लिए आवश्यक शर्तें क्या है, इत्यादि के विषय में समझाया। चुनीलाल तो श्रीअरविंद के मुख से निकलनेवाले एक-एक शब्द को एकाग्रतापूर्वक सुन रहे थे उस समय उन्हें सबकुछ तो समझ
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में नहीं आया पर फिर भी इतना तो स्पष्ट हो गया कि श्रीअरविंद ही उनके गुरु हैं। उनको छोड़कर अब वे दूसरे स्थान पर कहीं नहीं जाएँगे। श्रीअरविंद के सान्निध्य में एक घंटा बिताया, उसी समय उनकी आत्मा में स्पष्ट हो गया और उन्होंने इन महागुरु के चरणों में सम्पूर्ण समर्पण कर दिया।
काशीबहन भी श्रीअरविंद की वाणी को सुन रही थीं। उन्हें अधिक समझ में तो नहीं आया पर उनकी आत्मा को प्रतीति हो गई कि उनके पति को अब उनका सच्चा स्थान मिल गया है। श्रीअरविंद को अर्पण करने के लिए उनके पास पैसे तो नहीं थे क्योंकि वह तो भक्तिबा की दी हुई खर्च की रकम थी। श्रीअरविंद को खाली हाथ प्रणाम करना खटक रहा था। तब उनके अंतर में अचानक विचार आया कि, ''पैसा नहीं है तो क्या हुआ? मेरे पास ये सोने की चूडियाँ तो है, यही अर्पण कर देती हूँ'' और उन्होंने अपने हाथ से दोनों चूड़ियाँ उतारकर श्रीअरविंद के चरणों में रख दी। श्रीअरविंद ने कहा,।''इनका मैं क्या करुँगा ?''।
''इनको आप अपने पास रखी या इनको बेचकर जो पैसा मिले, उसका आप उपयोग कर लें।''
''मैं अपने पास रखूंगा।'' श्रीअरविंदने कहा। काशीबहन पहली महिला थी जिन्होंने इस प्रकार श्रीअरविंद को अपने गहने अर्पण किये हों। एक ने श्रीअरविंद को अपना हृदय अर्पण किया। दूसरे ने अपना सौभाग्यचिहन् जैसी सुवर्ण चूडियाँ अर्पण करके, परोक्ष रूप से अपने पति को अर्पण कर दिया। इस प्रकार एक घंटा श्रीअरविंद के सान्निध्य में बिताकर दोनों नीचे उतरे, तब दोनों ही बदल गये थे।
श्रीअरविंद के दर्शन के बाद चुनीलाल के मन में निश्चित हो गया कि अब यहीं रहना है पर श्रीअरविंद की अनुमति अभी नहीं
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मिली थी। इसलिये एक सप्ताह पांडिचेरी रहे फिर उन्होंने श्रीअरविंद से पुछवाया कि, ''मुझे यहीं रहना है, मुझे अनुमति दीजिये। '' तब श्रीअरविंद ने कहलाया कि, ''अभी नहीं। अभी समय नहीं आया है। '' इससे चुनीभाई को लगा कि अभी आश्रम में रहने के लिये पूरी तैयारी नहीं हुई है, पर कोई बात नहीं। अभी श्रीअरविंद ने स्वीकृति नहीं दी है पर एक दिन अवश्य वे मुझे बुलाऐँगे। उस समय वे छ: सप्ताह पांडिचेरी में रहे। फिर काशीबहन के अस्वस्थ होने से, दोनों वापस गुजरात आने के लिये निकले पर जाते समय चुनीलाल ने श्रीअरविंद को कहलाया कि, ''अभी तो आपके कहने से वापस जा रहा हूँ पर अब यही मेरा घर है और मैं यहाँ अवश्य वापस आऊँगा।'' इस प्रकार भविष्य में गुजरात से लौटकर कभी वापस न जाने का संकल्प करके चुनीलाल काशीबहन के साथ पांडिचेरी से फिर नापाड आ गये।
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१२. डी. एन. हाईस्कूल में शिक्षक
चुनीलाल के सामने प्रश्न था कि अब जब तक श्रीअरविंद आश्रम में रहने को वापस नहीं बुलाते तब तक क्या करें? गुजरात विधापीठ में भी वापस नहीं जा सकते थे। वे नापाड से सीधे आणंद डी. एन. हाईस्कूल में गये और अपने आदरणीय शिक्षक भीखाभाई साहब को सारा वृत्तांत बताकर पूछा कि ''अब मैं क्या करुं?'' ''अरे चुनीभाई, परेशान क्यों होते हो? डी. एन. हाईस्कूल में तुम्हारे जैसे शिक्षक की आवश्यकता है। आज से ही काम पर लग जाओ। '' अब वे डी. एन. हाईस्कूल में माध्यमिक विभाग में मैट्रिक तक की कक्षा को पढ़ाने लगे। डी. एन. हाईस्कूल का आदर्श विधार्थी अब आदर्श शिक्षक बन गया। उनके उच्च आदर्श, यौगिक जीवन, कार्यनिष्ठा और विधार्थी के प्रति प्रेम, इन सबके कारण वे विधार्थीयों में बहुत प्रिय बन गये। उनके उच्च जीवन का प्रभाव विधार्थियों पर पड़ने लगा।
इस समयावधि में पांडिचेरी जाने की उनकी आंतरिक तैयारी भी अविरत चलती ही रही। वे श्रीअरविंद को बार-बार पत्र लिखते रहते। योग के विषय में मार्गदर्शन और वहाँ आने के लिये अनुमति माँगते, पर प्रत्येक समय श्रीअरविंद की तरफ से ना ही आता। जैसे ही वहाँ से ना आता वैसे ही चुनीलाल की आंतरिक इच्छा अधिक बलवती बनती जाती... श्रीअरविंद को आर्त हृदय से वे लिखते कि मुझे आश्रम में आना ही है। तब एक बार श्रीअरविंद ने पत्र में लिखा
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''योग तुमको किसने दिया ?'' सान्निध्य में चुनीलाल ने लिखा, ''आप ही ने! आपके सान्निध्य में अब मुझे योग साधना करनी है। '' पर श्रीअरविंद ने उस समय भी अनुमति नहीं दी तब चुनीलाल ने स्पष्ट छप से लिख दिया कि, ''मुझे अस्वीकार करने के लिए आप स्वतन्त्र हैं, पर मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ क्योंकि मेरे तो आप ही हैं, दूसरा कोई नहीं है।'' श्रीअरविंद का प्रत्युत्तर आया कि जब समय आएगा, तब तुमको सूचना देंगे। अब चुनीलाल के पास प्रतीक्षा करने के अलावा कोई चारा नहीं था।
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साढ़े तीन वर्ष तक पांडिचेरी आने के आमंत्रण की चुनीलाल ने तीव्र प्रतीक्षा की। इस अन्तराल में वे आंतरिक रूप से श्रीअरविंद के सम्पर्क में थे ही। श्रीअरविंद उन्हें आंतरिक रूप से अपने योग के लिये तैयार कर रहे थे। यह तो उन्हें बाद में पता चला, जब उनकी आंतरिक तैयारी पूरी हो गई अर्थात् उनका समय आ गया तो पांडिचेरी से श्री माताजी ने पुरुषोतमभाई के माध्यम से कहलवाया कि, ''अब चुनीलाल को कहो कि वह पांडिचेरी आ जाए। '' इसी संदेश की उन्हें अभी तक आतुरता से प्रतीक्षा थी। अब जाने का मार्ग खुल गया था। डी. एन. हाईस्कूल से तो भीखाभाई साहब ने उन्हें आशीर्वाद के साथ अनुमति दे दी और कहा, ''जीवन के श्रेष्ठ मार्ग पर तुम जा रहे हो। तुमको श्रेष्ठ गुरु प्राप्त हुए हैं। उनके आश्रम में तुम अपना जीवन सार्थक करो। मुझे बहुत प्रसन्नता है कि तुम वहाँ जा रहे हो।''
इस प्रकार डी. एन. हाईस्कूल का कार्य सरलता से छूट गया, परन्तु समस्या घर में थी। इतना पढ़ा-लिखा, कमाऊ और परिणति पुत्र सब कुछ छोड्कर चला जाए, यह माता-पिता को कैसे सहन हो? पहले समझाया, फिर गुस्सा किया। माता ने बहुत कुछ कहा, न जाने के लिए गिड़गिड़ायी पर चुनीलाल अड़े रहे। उन्होंने माता-पिता के आक्रोश का कोई प्रत्युतर नहीं दिया। चुपचाप सब सुनते रहे। तब बीमार पिता ने कहा, ''हमारा ध्यान कौन रखेगा, हमें कौन सम्मालेगा? इस प्रकार तू हमको बीमारी में छोड़कर जा रहा है, यह क्या अच्छा लगता है ?''
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तब चुनीलाल ने कहा, ''सबका भगवान है। भगवान तुम्हारा ध्यान रखेंगे।'' यह सुनकर माता- पिता ने देखा कि पुत्र का निर्णय दृढ़ है, इससे वह नहीं डिगेगा तो अन्तिम शस्त्र के लप में रोने लगे। चुनीलाल फिर भी दृढ़ रहे, तब उनकी पली काशीबहन ने सास-ससुर से कहा, ''उन्हें जाना है तो जाने दो। जानेवाले को कोई रोक नहीं सकता। रोकोगे तो भी जाएँगे। इसलिये राज़ीख़ुशी से अनुमति दे दो।'' पर माता-पिता का हृदय था। पुत्र को हमेशा के लिए आश्रम जाने की अनुमति कैसे दे दें? परन्तु शंकर, गौरांग, सिद्धार्थ के समान जो भागवत् कार्य करने के लिये पृथ्वी पर आए हैं उन्हे कौटुम्बिक सम्बन्ध के बन्धन में जकडकर नहीं रख सकते। व्यापक कल्याण के लिये आयी आत्मा आसक्ति से परे होती है। ऐसा ही चुनीलाल के विषय में भी हुआ। वे १९२७ के मई महीने में अपने सच्चे घर जाने के लिए सांसारिक समबंन्धो को छोड़कर चल पड़े। १० मई १९२७ को अपने चिरस्थायी घर पांडिचेरी के श्रीअरविंद आश्रम में श्री गुरुचरण में सम्पूर्ण समर्पित होने को पहुँच गये। उन्होंने माता-पिता को कहा था, ''तुम्हारा ध्यान भगवान रखेंगे'' और उनके पिता १५ वर्ष तक स्वस्थ और आनन्दपूर्ण जीवन जीए थे। माता भी दीर्घायु रही थी। प्रभु के कार्य के लिए जो समर्पित होते हैं, उसके कुटुम्ब का उत्तरदायित्व भी स्वयं भगवान वहन करते हैं इसकी प्रतीति बाद में उनके माता-पिता को भी हुई।
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१४. श्री माताजी के प्रथम दर्शन
चुनीलाल १९२४ में पांडिचेरी आए थे तब श्री माताजी किसी से भी नहीं मिलती थीं। श्रीअरविंद स्वयं अपने शिष्यों का उत्तरदायित्व उठाते थे, परन्तु १९२६ की २४ हु नवम्बर को श्रीअरविंद को योगसाधना के क्षेत्र में महान सिद्धि प्राप्त हुई। मन की सर्वोच्च भूमिका की अधिमानस शक्ति उनकी देह में उतर आयी। इससे उनकी, अतिमानस के अवतरण की अन्तिम स्थूल भूमिका में - देहकोषो तक करवा कर देह के दिव्य रूपांतर की साधना की सम्भावना हो गई परन्तु इसके लिए अब उन्हें गहन साधना करनी थी इसलिये १२२६ के नवम्बर माह के बाद वे सम्पूर्ण एकांत में चले गये और श्रीमाताजी ने शिष्यों का सभी आंतरिक और बाह्य उत्तरदायित्व उठा लिया। इससे सभी शिष्यों को श्री माताजी के दर्शन प्रतिदिन होने लगे। उनसे सम्पर्क, उनके साथ वार्तालाप भी शिष्य सरलता से कर सकते थे। श्रीमाताजी ने उतरदायित्व सम्भाला उसके बाद ही श्रीअरविंद आश्रम अस्तित्व में आया। इसलिये चुनीलाल ने पुरुषोत्तम के माध्यम से श्रीमाताजी से विनती की और श्री माताजी ने श्रीअरविंद से चुनीलाल की तीव्रतम इच्छा की बात कही तब श्रीअरविंद ने उन्हें आश्रम में आने की सहमति दी और वे १९२७ की १० मई के दिन पांडिचेरी आ पहुँचे।
११ मई का दिन चुनीलाल के जीवन में अविस्मरणीय हो गया। इस दिन उन्हें पहली बार श्रीमाताजी के दर्शन हुए। उन्होंने पुरुषोत्तम के माध्यम से श्रीमाताजी को अपनी आंतरिक इच्छा पहुँचायी थी। उन्हीं पुरुषोतम के कमरे में वे श्रीमाताजी को मिले। चुनीलाल ने चाहे
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'' जब वे पांडिचेरी आए तब श्रीअरविंद के योग के लिए आंतरिक रूप से तैयार हो गये थे। इसीलिये श्रीमाताजी जब उन्हें सर्वप्रथम मिली तब उनके विषय में श्रीअरविंद से उन्होंने कहा, ''आज मैं तीन व्यक्तियों को मिली। उसमें एक तो पत्थर जैसा सख्त है। दूसरा (हाव भाव से बताया) कुछ नहीं, पर तीसरा (चुनीलाल) बहुत आगे बढ़ेगा।'' श्री माताजी ने द्युमान को बाद में कहा था कि, ''तुम फुल मत जाना।''
प्रथम दृष्टि से ही श्रीमाताजी ने द्युमान के उज्जवल भविष्य को देख लिया था। हीरा अब कुशल झवेरी के हाथ मैं आ गया था और झवेरी ने प्रथम दिवस से ही उसे तराशना प्रारम्भ कर दिया।
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१५. श्री माताजी के मार्गदर्शन में कार्य का
आरम्भ
चुनीलाल को पांडिचेरी आए हुए दस दिन ही हुए थे कि एक दिन श्री माताजी ने उनको बुलाया और कहा, ''चुनीभाई, तुम सत्येन को भात परोसने में मदद करोगे
हाँ माताजी! '' उन्होंने कहा। उसी दिन से ''भोजन कक्ष'' में उनके भात परोसने के कार्य का प्रारम्भ हुआ, वह बढ़ता-बढ़ता पूरे भोजन कक्ष के उतरदायित्व के रूप में सिर पर आ गया। यह कार्य उनके अन्तिम सांस तक अविरत चलता रहा।
प्रारम्भ में तो श्रीमाताजी अपने हाथों से साधकों को भोजन की थालियाँ देती थीं। श्रीमाताजी अपने कार्यक्रम समाप्त करके डाईनींग रूम (भोजन कक्ष) में आती थीं। वे सभी को परोसती थीं, तब साधकों की संख्या लगभग २५ थी। नलिनीकान्त और विजय सभी डीशें तैयार रखते और श्री माताजी के हाथ में देते, फिर माताजी सबको देती थीं। यही कमरा बाद में साफ करके दर्शन के दिनों में माताजी मुलाकातियों से मिलने के लिए उपयोग करती थीं। १९२७ के बाद भोजन कक्ष बदल गया। उस समय भोजन कक्ष को जहाँ नवीनचंद्र की वर्कशाप है, वहाँ बदला गया। जब भोजन कक्ष बदलना था तब इंजीनियर चन्दूलाल ने छत ठीक करने के लिये आदमियों को पाँच बजे भेजा और चुनीभाई ने तत्क्षण निर्णय लिया कि उस दिन शाम का भोजन उसी रूम में देना है और उन्होंने उसी शाम भोजन
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कक्ष बदल दिया। वे लिखते हैं, ''यद्यपि रसोई घर सत्येन के अधिकार में था, तब भी मैं उनकी अनुमति के लिये रुका नहीं। संयोगों का दबाव ऐसा था कि तत्काल निर्णय लेना था। मैंने सम्पूर्ण श्रद्धा से काम कर डाला। तब से मेरा सिद्धान्त रहा कि परिस्थिति की माँग का अनुसरण करना, पद्धति का नहीं।'' इसी प्रकार उनके सभी काम होते रहे।
उस समय पांडिचेरी में किसी संस्था द्द्वारा पुष्पों की प्रदर्शनी आयोजित की गई। आश्रम ने भी इसमें भाग लिया। चुनीभाई, अम्बुभाई, पुरुषोत्तम तीनों ने रात दिन काम करके फूलों की सुन्दर सजावट की। काम इतना अधिक था कि वे भोजन के लिए भोजन कक्ष में भी नहीं जा सके। भोजन-कक्ष जिनके अधिकार में था उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि ''भोजन-कक्ष' में आकर भोजन करें। टिफिन नहीं भेज सकते हैं।'' पर वे नहीं जा सके। तीसरे दिन श्रीमाताजी प्रदर्शनी देखने आयीं और उन्हें पता चला कि इन तीनों ने दो दिन से कुछ खाया नहीं है तो उन्होंने दो साधकों को पैसा देकर बाहर से खाना मँगवा कर खिलाया। आश्रम में बाहर से खाना मँगाना मना होते हुए भी श्री माताजी ने अपने भूखे बालकों के लिये इस नियम का उल्लंघन कर दिया। तभी चुनीभाई ने निश्चय किया कि यदि मेरे हाथ में भोजन कक्ष का उत्तरदायित्व आएगा तो कोई भी व्यक्ति कभी भूखा नहीं रहेगा। उत्तरदायित्व मिलने पर सच में ऐसी व्यवस्था की कि देर से आनेवाले के लिये उसकी थाली ढ़ँकी हुई अलमारी में रखी जाती या टिफिन भेज दिया जाता था, यह व्यवस्था आज तक चल रही है।
आश्रम की यह पुष्पप्रदर्शनी भव्य थी। यह देखकर पांडिचेरी शहर के लोग भी आश्चर्यचकित हो गये। अभी तक वे सभी यही मानते थे कि आश्रम के लोग बम बनाना जानते हैं या पैसा उड़ाना जानते हैं। पर जब उन्होंने सुन्दर खिले हुए गुलाब और विविध पुष्पों
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का संयोजन देखा तब वे आश्रम की प्रगति से बहुत प्रभावित हुए। पुष्प प्रदर्शन में आश्रम को स्वर्णचन्द्रक (पदक) मिला। इसके पीछे चुनीभाई और उनके दोनो साथियों की रात-दिन की अथक मेहनत थी। इससे श्रीमाताजी भी बहुत प्रसन्न हुई। उन्हें द्युमान के अथक परिश्रम करने की शक्ति, कार्यनिष्ठा और समर्पण का प्रत्यक्ष प्रमाण मिल गया।
प्रारम्भ में भोजन-कक्ष में उन्हें केवल भात परोसने का काम सौंपा गया, फिर सब्जी-दाल परोसने का काम भी दिया गया। आर्थिक व्यवहार सत्येन के पास था। वेंकटरामन और बाला इन दोनों साधकों को बाजार से वस्तुएँ खरीदने का उतरदायित्व दिया गया। चुनीभाई तो वितरण विभाग में ही थे। वे साधकों को प्रतिदिन केले देते, किसी को दाग वाले और खराब केले वे दे नहीं सकते थे और ऐसे केले अधिक मात्रा में होने पर उन्हें बाँटना मुश्किल होता था, इसलिये उन्होंने माताजी से सभी बात बताकर कहा कि, ''फलों को मैं खरीदकर बाजार से लाऊँगा।''
तब माताजी ने कहा, ''मैं तुम्हें पैसे नहीं दूंगी। ''
''नहीं माताजी, पैसे की मुझे आवश्यकता नहीं है। पैसे वे ही लोग चुकाएँ। मुझे तो केवल अच्छे केले और फलों को पसंद करना है, जिससे सभी को अच्छे प्रकार के फल मिले। श्री माताजी ने इसके लिये सहमती दे दी, तो चुनीभाई फल खरीदने के लिए वेंकटरामन और बाला के साथ जाने लगे। वे केले और अन्य फल पसंद करते। यह व्यवस्था लगभग एक वर्ष चली। अब साधकों को अच्छी गुणवत्ता वाले केले मिलने लगे। जब वेंकटरामन बाहर गाँव गये तो बाला पर उतरदायित्व अधिक आ गया, चुनीभाई इसमें मदद करने लगे। कुछ समय बाद बाला को कुछ समय के लिये बाहर गाँव जाना पड़ा तो श्री माताजी ने चुनीलाल को बुलाकर कहा ''तुम बाजार से खरीददारी का
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काम सम्भाल सकोगे?'' श्री माताजी चुनीभाई को कोई भी काम सौंपे तब चुनीभाई का हमेशा एक ही उत्तर होता था ''यस मधर'' - ''हाँ माताजी।'' वे आगे एक शब्द भी नहीं बोलते थे। कैसे होगा? कब होगा? ऐसा कोई प्रश्न उनके मन में उठता ही नहीं था। बस श्री माताजी ने काम सौंपा है तो हो जाएगा। ऐसी अटूट श्रद्धा से काम हाथ में लेते थे और सचमुच में उनके लिये मुश्किल और असम्भव लगते कार्य भी सहजता और सरलता से हो जाते थे।
अब बाजार से खरीददारी के क्षेत्र में चुनीभाई ने प्रवेश किया। सबसे पहले खरीदना था चावल। वे चावल के थोक व्यापारी के पास गये और कहा, ''मुझे एक ही प्रकार के चावल की तीन बोरी चाहिये।''
''मेरे पास एक ही प्रकार के चावल की एक साथ तीन बोरी नहीं है एक बोरी ही है।''
''इसका अर्थ यह है कि हमें अलग-अलग प्रकार के चावल हर बार खाना पड़ेगा। नहीं, यह नहीं चलेगा।'' चुनीभाई ने थोक व्यापारी से चावल खरीदना बन्द कर दिया और चावल उगानेवाले जमींदार के पास गये। इस जमींदार पुरुषोत्तम रेड्डी ने उनकी बहुत सहायता की। फिर किसी ने जमींदार के विषय में श्रीमाताजी को शिकायत की कि यह आदमी ठीक नहीं है तब माताजी ने चुनीभाई को बुलाकर पूछा, ''इस जमींदार के विषय में क्या शिकायतें आ रही हैं ?'' तब चुनीभाई ने माताजी को कहा, ''दूसरों के साथ उसका व्यवहार कैसा भी हो पर मेरे साथ तो उसका व्यवहार अच्छे सद्गृहस्थ जैसा है और वह अच्छी सेवा दे रहा है।'' श्री माताजी ने चुनीभाई की बात स्वीकार कर ली और जमींदार से थोकबन्द खरीदी चलती रही। उसने दस वर्ष तक आश्रम को नियमित उतम प्रकार के चावल पहुँचाए। आश्रम के अपने खेतों में भरपूर फसल होने से पुरुषोत्तम
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रेड्डी से चावल खरीदना बन्द हो गया। चुनीभाई का व्यवहार लोगों के साथ इतना अच्छा और सदभावपूर्ण होता था कि कितना ही उद्दंड मनुष्य भी उनके मधुर व्यवहार से उनके साथ अच्छा व्यवहार करने लगता था। इसका यह प्रत्यक्ष उदाहरण है, ऐसे अनेक उदाहरण उनके जीवन में देखने को मिलते हैं।
इन सब खरीददारी के लिये चुनीभाई को पैसे की आवश्यकता होती थी, वे पैसे उन्हें श्रीमाताजी के पास से सीधे नहीं मिलते, उन्हें सत्येन के पास से लेने पड़ते थे क्योंकि रसोई घर का समग्र अधिकार सत्येन के पास था। इसलिये उन्हें सारा हिसाब सत्येन को देना पड़ता था। इस विषय में श्रीमाताजी के साथ उनका सीधा सम्पर्क नहीं था। यह तो १९३४ में रसोईघर और भोजन-कक्ष का स्थान बदला गया तब श्री माताजीने चुनीभाई को बुलाकर कहा, ''अब रसोईघर का सम्पूर्ण उतरदायित्व तुम्हारे ऊपर है।'' तब से माताजी खरीदी के लिये सारी रकम उन्हें देने लगीं और फिर तो उन्होंने पुरुषोत्तम को भी कहा कि, ''प्रोस्पेरीटी की सभी क्राकरी चुनीलाल को सौंप दो।'' इस आश्रम में इन सात वर्षों में श्रीमाताजी ने चुनीभाई की कार्यशक्ति अच्छी तरह पहचान ली और भोजन कक्ष का समग्र उतरदायित्व उन्हें दे दिया।
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श्रीअरविंद आश्रम में स्थायी कई साधकों को श्रीअरविंद ने स्वयं नये नाम दिये थे। मिस होग्सन को नाम दिया ''दत्ता।'' एक फ्रेन्च साधक को नाम दिया था ''पवित्र'', के. डी. सेठना को नाम दिया था।''अमल किरण''। ये साधक की चेतना को निर्देश करते हुए नाम थे। चुनीभाई के मन में भी होता था कि मुझे भी साधक के रूप में नया नाम श्रीअरविंद या श्रीमाताजी के पास से मिले। आश्रम में आए लगभग एक वर्ष बीत गया पर श्रीअरविंद या श्रीमाताजीने उन्हें कोई नाम नहीं दिया था. इसलिए उन्होंने एक दिन श्री माताजी से प्रार्थना करते हुए कहा कि, ''माताजी, आप मुझे कोई नया नाम दीजिये न! '' तब माताजी ने कहा, ''मैं तुम्हें नया नाम तो दूँ पर वह फ्रेन्च नाम होगा। श्रीअरविंद ने मुझे कहा है कि मैं चुनीभाई को कोई वैदिक नाम देना चाहता हुँ। अभी मुझे वह नाम स्फुरित नहीं हो रहा है, कुछ समय प्रतीक्षा करो।''
श्रीअरविंद उन्हें कोई वैदिक नाम देना चाहते हैं, यह जानकर उन्हे बहुत प्रसन्नता हुई। उसी बीच २४ नवम्बर का दर्शन दिवस आया, तब चुनीभाई को लगा कि आज सिद्धि दिवस को श्रीअरविंद उन्हें नया नाम अवश्य देंगे। २४ तारीख निकल गई पर नूतन नाम नहीं मिला। इसलिये अब वे प्रतीक्षा करने लगे पर उन्हें लम्बी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। २६ तारीख को श्री माताजी ने उन्हें अचानक अपने
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कमरे में बुलाया और कहा, ''चुनीभाई, आज से तुम ''दयुमान'' हो। श्रीअरविंद ने आज तुम्हें यह नया नाम दिया है।
Dyuman - The Luminous One '' द्युमान'' अर्थात् जो प्रकाशवान है। यह नाम स्वयं ही प्रकाशवान है और श्रीअरविंद के द्वारा दिया गया होने से द्युमान का रोम-रोम प्रकाश का अनुभव कर रहा था। जैसे इस नाम के द्वारा श्रीअरविंद ने चुनीभाई का विसर्जन करके प्रकाशपूर्ण द्युमान का सर्जन कर दिया। श्रीअरविंद ने नाम देने में इतना विलम्ब क्यों किया, यह बाद में द्युमान को समझ में आया क्योंकि दयुमान की आंतरचेतना के अनुरूप और वैदिक विचारधारा को व्यक्त करते नाम की श्रीअरविंद शोध कर रहे थे। ''द्युमान'' के रूप में यह नाम उन्हें मिल ही गया। एम. पी पंडित ने इस नाम को स्पष्ट करते हुए बताया कि, ''बहुत ही कम लोगों को इसका ज्ञान है कि श्रीअरविंद ने ''द्युमान'' नाम किसलिये दिया था। वैदिक ऋषियों के युग से द्युमान भव्य भूतकाल को लेकर अवतरित होते आए हैं। इसलिए उन्हें ''वेद'' के लिये जन्मजात आकर्षण रहा है। ऐसे प्रसंग उनके जीवन में आये हैं, जब स्पष्टत: उन्होंने स्वयं को वैदिक ऋषियों के समकक्ष देखा है।''
नये नाम के साथ जैसे द्युमान का नया जीवन प्रारम्भ हुआ। इस जीवन में प्रकाश से अधिक प्रकाश की और प्रयाण करना था। इस जीवन में श्रीमाताजी के दिव्य माध्यम बनकर, सम्पूर्ण समर्पित भाव से अनेक प्रकार के कार्य करना था। इस जीवन में माताजी के साथ एकरूप होकर चेतना का दिव्य रूपांतर करना था। उनके नूतन जीवन की मार्गदर्शक थीं श्रीमाताजी।
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१७. भोजन कक्ष का विकास
भोजन कक्ष में उस समय दूध की समस्या खड़ी हो गई थी। प्रत्येक को ७५० सी.सी. दूध मिले, इस हिसाब से दूध खरीदा जाता था, पर साधकों को इस माप से कम दूध मिलता था। यह द्युमान को खटकता था। उन्होंने खोजबीन की कि दूध कम क्यों हो जाता है? खोज करने पर पता लगा कि दूधवाला जब दूध लाता है तब दूध फैनवाला होता है। फैन उतरने के बाद दूध प्रमाण में कम हो जाता है और दूध गरम करने पर भी कम हो जाता है। द्युमान ने माताजी को सारी सही बात बतायी। स्वयं अब नई व्यवस्था करना चाहते हैं इस विषय में भी बताया। माताजी को द्युमान की व्यवस्था उचित लगी तो स्वीकृति दे दी और इस प्रकार प्रत्येक साधक को दिन में तीन बार २०० सी.सी. दूध मिलने लगा। इस कारण साधकों को कम-ज्यादा दूध की शिकायत नहीं रही। जब श्रीअरविंद को पता चला तब द्युमान को मजाक में कहा कि ''(दूध का) तुम्हारा कप बहुत छोटा है।'' फिर दूध का वितरण ठीक से होने लगा। सभी साधकों को दिन में तीन बार दूध मिलने से वे भी सन्तुष्ट हो गये। बाद में द्युमान ने दूध में भी सुधार किया। जिसकी दूध के बदले दही चाहिये तो उन्हें दही भी दिया जाने लगा। साधक अपनी रुचि के अनुसार अब दूध या दही ले सकते थे।
द्युमान ने दूध में शक्कर देना भी शुरू किया। किसी को दूध फीका पीना हो या किसी को मीठा, इसलिये सबको संतोष हो ऐसी
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व्यवस्था की। भोजन कक्ष के मुख्य कमरे के कोने में एक अलमारी में प्रत्येक साधक के नाम लिखी हुई डिब्बी रखी गई। उस डिब्बी में उस साधक की शक्कर रखी होती थी। साधक भोजन के समय अपनी डिब्बी साथ ले जाते। उसमें रखी गई शक्कर का उपयोग अपनी पसंद से करके, खाली डिब्बी फिर यथास्थान रख देते। दूसरे दिन वह डिब्बी शक्कर से भरकर वहीं रख दी जाती। द्युमान की इस व्यवस्था से साधक सन्तुष्ट हुए क्योंकि अपने हिस्से की शक्कर स्वयं की रुचि से उपयोग करने की इसमें पूरी स्वतन्त्रता थी। साधकों को दूध की तरह भात को भी माप से देना निश्चित हुआ। अनुभव के आधार पर उन्होंने एक व्यक्ति को अनुमान से कितने चावल चाहिये उसके अनुसार मात्रा निश्चित की। यह माप था प्रत्येक व्यक्ति को १०० ग्राम चावल। . एक किलो चावल का प्रमाण १० मनुष्य के लिये ठीक था। द्युमान ने इस प्रमाण के विषय में एक वार्तालाप में बताया था कि ''आज ४८ वर्ष बाद भी चाहे जितनी संख्या में आदमी क्यों न हो, इसी माप के प्रमाण में भात बनाया जाता हैं। यह माप सही सिद्ध हुआ है। ''
द्युमान ने रसोईघर की व्यवस्था सम्भाली तब दाल और अन्य वस्तुएँ, यहाँ तक कि नमक भी फ्रांस से आता था। महामंदी के बाद वहाँ से सामान मँगवाना मुश्किल हो गया। इसलिए द्युमान ने बाजार से मूँग की दाल खरीदी और रसोई में बनवायी फिर माताजी को बतायी। श्री माताजी ने चखकर पसंद की। तब सर्वप्रथम आश्रम की रसोई में भारत की मूँगदाल का प्रवेश हुआ और फिर धीरे - धीरे सभी दालों की खरीददारी स्थानिक बाजार में से होने लगी। फ्रांस से आयात किये जाने वाले नमक के स्थान पर भारत का नमक रसोई में उपयोग करने लगे। परन्तु का नमक बहुत सफेद था, जबकि भारत का नमक काला होता था। अब युमान ने काले नमक को सफेद करने की युक्ति अपनायी। वे नमक को पानी में गलाकर छान
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लेते और उबाल लेते उससे सफेद नमक बन जाता। इस प्रकार से आयात सफेद नमक के स्थान पर भारत के नमक को सफेद बनाकर उपयोग में लिया। ऐसा ही फ़्रांस से आयात फॉस्को के विषय में भी हुआ। फॉस्को के स्थान पर उन्होंने भारतीय कोको का उपयोग किया। फॉस्को बनाने कि लिए वे सवेरे एक बजे उठकर काम में लग जाते। उठकर फॉस्को में शक्कर मिलाते, रात को ही द्युमान और रोहनलाल फॉस्को के टीन भर लेते। फिर उस पर कागज की रिबन बांधकर सील कर देते, तब वितरण के लिये स्टेन्ड पर तैयार रखते। इस प्रकार उनके रात भर के परिश्रम से साधकों को ''फ्रेन्च फॉस्को'' के बदले ''देशी कोको'' पीने को मिला।
उस समय भोजन कक्ष में रसोई मिट्टी के बर्तनों में बनती थी। हण्डे में भात बनता था। ताराबहन भात का उबलता हुआ पानी।(मांड) हण्डे में से निकाल रही थी और हण्डा फूट जाने से बहुत जल गई थी। एक महिने दवाई की, तब पैर के छाले ठीक हुए। द्युमान ने मीट्टी के बर्तन निकालकर उनके स्थान पर धीरे-धीरे नये बर्तन लेना प्रारम्भ किया। अन्य बर्तनों की भी बहुत कमी थी, पर नये बर्तनों के लिए पैसे नहीं थे इसलिये द्युमान ने टूटे चम्मच, रकाबी, डीश सबको पत्थर पर घीसकर उजले बनाए और सुधार कर उपयोग में लिये। उपरांत चीज के जो बॉक्स फाँस से आते थे, उसके उपर के टीन के छोटे छोटे ढक्कन को एकत्रित करके पवित्र के दे देते थे और पवित्र उनसे डीश या ढ़कने की प्लेट बना देते। इस प्रकार १९३० के समय बर्तनों की तंगी को उन्होंने दूर किया, फिर तो जैसे जैसे - पैसे मिलते गये, वैसे वैसे - नये स्टेनलेस स्टील के बर्तन बसाने लगे। भोजन कक्ष में प्रारम्भ में तो ब्रेड-बाहर से खरीदी जाती और वह मैदे की सफेद ब्रेड होती। ब्रेड सवेरे दस बजे ही मिलती और उसे दूसरे दिन की सुबह तक सम्मालना मुश्किल होता था। युमान उस
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ब्रेड की दस स्लाईस बनवाते। वह इतनी पतली स्लाईस होती थी कि बिरेन मजाक में उसे ''पेपर स्लाईस' कहते थे। इस स्लाईस को सेंककर-टोस्ट बनाकर द्युमान सबको देते थे। जब सबसे पहली बार आश्रम में ब्रेड बनाई गई तो वह ईट जैसी बनी। उपर से पत्थर जैसी कड़क बीच में से पोली और कच्ची। पर द्युमान ने आग्रह किया कि उसे फिर से सेंककर खा सकते हैं। इस प्रकार उन्होंने आश्रम की बेकरी में ब्रेड बनाना चालु रखा। धीरे - धीरे ब्रेड की गुणवत्ता सुधरती गई। प्रारम्भ में तो सफेद ब्रेड ही थी क्योंकि बाजार से मैदा खरीदकर ब्रेड बनवाते पर बाद में मद्रास से गेहूँ मंगवाना शुरू किया और उस गेहूँ के आटे से ब्रेड बनवाना शुरु किया, पर यह रोटी बनाने के गेहूँ थे इसलिये ब्रेड अच्छी नहीं बनती थी, फिर भी द्युमान प्रयत्न करने रहे। उस ब्रेड की स्लाईस की मोटाई और पतलेपन के विषय में कितनी ही बार मजाक सुनने को मिलते थे। फिर उन्होंने माताजी की सम्मति लेकर एक ब्रेड में से २१ स्लाईस बनवाना निश्चित कर दिया, तब से अब तक यह प्रमाण चालु है।
ब्रेड के लिये गेहूँ मद्रास से ही आता था। १९३४ के बाद मद्रास के बदले द्युमान ने, जब गणपतराम और मंगलराय आश्रम में स्थायी हो गये, उनसे पंजाब के गेहूँ के विषय में जानकारी ली और वहाँ से गेहूँ मँगवाना प्रारम्भ किया। यह गेहूँ बहुत अच्छे प्रकार का था। इससे ब्रेड की गुणवता भी सुधरी। दूसरे विश्वयुद्ध के समय गेहूँ मिलना मुश्किल हो रहा था। द्युमान के एक मित्र ने कहा ''कराँची से जितने हो सके उतने गेहूँ मंगवा लो, नहीं तो बाद में गेहूँ कहीं नहीं मिलेंगे। इसलिए द्युमान ने कराँची के मेयर से सम्पर्क किया। उन्होंने तार से परिस्थिति बताकर मदद करने को कहा। उस पारसी मेयर ने द्युमान की बहुत मदद की क्योंकि कराँची ही अन्तिम बन्दरगाह था वहाँ से माल भर कर स्टीमर निकलता था, पर इतने थोक में गेहूँ खरीदने के
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लिये पैसे कहीं से लाएँ? द्युमान ने एक वार्तालाप में कहा था कि, ''मैंने अपने मन में निश्चित कर लिया था कि जहाँ तक सम्भव हो, वहाँ तक श्री माताजी से एक भी पैसा नहीं लेना है, इतनी थोकबँध खरीददारी के लिये भी नहीं। भगवान ने आजतक मेरी लाज रखी है। जब भी मुझे पैसे की आवश्यकता होती है, तब प्रत्येक समय कहीं न कहीं से सहायता आ जाती है। सभी ने स्वीकार कर लिया था कि जब भी द्युमान कुछ माँगे, वह माताजी के काम के लिये, और उनके कार्य के लिये उपयोग में आता है।'' लोगों को उन पर इतना अधिक विश्वास था और इसी कारण आश्रम के कार्यों के लिए आर्थिक तंगी नहीं आयी। इस गेहूँ की थोक खरीदी का भुगतान भी एक भक्त धरमचन्दजी ने कर दिया।
भोजन कक्ष में परोसने के छोटे से कार्य से, उनका उतरदायित्व दिन प्रतिदिन बढ़ता ही गया। यह कार्य ही द्युमान की साधना थी, श्री माताजी के प्रति भक्ति थी। एक बार श्री माताजी ने अपना स्वयं का जापान में लिया हुआ फोटो देकर कहा, ''द्युमान, यह फोटो भोजन कक्ष में रखना। सवेरे भोजन कक्ष खोलो तब इस फोटो के सामने तुम कुछ समय ध्यान करना और इसी प्रकार रात को बन्द करते समय भी ध्यान करना।'' भोजन कल में श्रीमाताजी के अन्नपूर्णा स्वरुप का ध्यान प्रतिदिन द्युमान दो बार करते थे, तब से आज तक यह ध्यान होता आया है और भोजन कक्ष का दिन प्रतिदिन विस्तार होता रहा है। भोजन कक्ष का काम कोई स्थूलकार्य नहीं था यह तो उनकी भक्ति और साधना थी। इस साधना और भक्ति के द्धारा द्युमान की आंतरिक शक्तियों इतनी विकसित हो गई थी कि बाद में इस कार्य के साथ साथ अन्य अनेक कार्य का दायित्व भी वे उठाने लगे
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१९. हिसाब-किताब और डायरी
भोजनालय की खरीददारी का काम इतना बड़ा था कि इसके लिये एक विशेष आदमी की आवश्यकता थी पर द्युमान इतने समर्थ थे कि भोजन कक्ष की व्यवस्था, बाहर की खरीददारी, उपरांत श्रीमाताजी के सौंपे गये अन्य कार्य, श्री माताजी के रसोईघर का उतरदायित्व यह सभी काम अकेले कर रहे थे। एक साथ इतने सारे कार्य मनुष्य अकेले कैसे कर सकता है? पर इन कार्यों के साथ वे ट्रस्टी बने, मेनेजिंग ट्रस्टी बने, उस्टेरी में खेती की, ग्लोरिया फार्म का सर्जन किया। इतने सब काम बढ़ने के बाद भी वे सदा प्रसन्नचित रहकर कार्य करते रहते। कहीं उद्धेग नहीं, थकान नहीं। .'मैंने यह कार्य किया है'' यह भावना ही नहीं। श्री माताजी की शक्ति ही उनके अन्दर सतत् कार्य कर रही है, ऐसा वे अनुभव करते थे। इसलिये उन्हें कार्य का बोझ कभी नहीं लगा, श्री माताजी के लिये काम करना होता था इसलिये वे काम की छोटी से छोटी बात में भी बहुत सतर्कता रखते थे।
आणंद में थे तब हिसाब में कमजोर थे पर अब रसोईघर की खरीददारी का उतरदायित्व आने से वे सावधानी से हिसाब रखने लगे। इस विषय में उन्होंने बताया था कि, ''जब मुझे बाजारसे खरीदने का काम मिला, तब खरीददारी के पैसे मिलते थे, मैं बाजार जाता, भावताव करता, चार दुकान घूमता ओर फिर खरीदता था। जो कुछ खरीदता उसका पक्का बिल बनवाता फिर सारा हिसाब डायरी में लिखता था। माताजी को हिसाब की डायरी बताता,
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देखती थीं। माताजी हिसाब में पूरी चौकस थीं। मैं आणंद और अमदावाद में हिसाब में बहुत कमजोर था, पर पांडिचेरी में माताजी ने मुझे गणित में होशियार बना दिया। माताजी की शक्ति की क्या बात करूँ ?'' प्रतिदिन हिसाब लिखकर द्युमान माताजी को डायरी भेजते थे। माताजी उस डायरी को जाँचकर, देखकर वापस भेज देती और कोई सूचना होती तो कहती थीं। १९२८ से लेकर १९३४ तक द्युमानभाई का हिसाब लिखने का काम नियमित चलता रहा। १९३४ को एक दिन वे इसी प्रकार हिसाब लिख रहे थे तो वहाँ माताजी आयीं और पूछा, ''द्युमान क्या लिख रहे हो ?'' ''माताजी आज का हिसाब लिख रहा हूँ।'' तब श्री माताजी ने पूछा, ''अब भी मुझे हिसाब बताने की आवश्यकता है क्या ?''
''नहीं, माताजी'' द्युमान सहजता से बोल गये। पर बाद में लगा कि ऐसा कैसे बोल गया। परन्तु तुरन्त श्रीमाताजी ने कहा, ''अब इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। कुछ परेशानी हो तो मुझे बताना, अब हिसाब लिखने की आवश्यकता नहीं है।''
यह सुनकर द्युमान तो गद्गद हो गये। माताजी कितना विश्वास उन पर रखती है? भोजनालय की इतनी बड़ी खरीददारी और उसका हिसाब नहीं देना। परन्तु सात वर्ष तक लगातार हिसाब देकर द्युमान ने माताजी को अपनी निष्ठा, खरीदने की कुशलता और मितव्ययता का पूरा विश्वास करवा दिया था। इसलिये श्रीमाताजी ने उन्हें इस कार्य से मुक्ति दे दी। इस विषय में द्युमान ने एक पत्र में बताया था कि ''माताजी को मुझ पर इतना विश्वास था कि न हिसाब देना, न डायरी बताना, न किसी काम के लिये लिखित आदेश लेना।'' परन्तु यह स्थिति युमान को कोई रातों-रात नहीं मिली थी। इसके पीछे माताजी के प्रति उनका सम्पूर्ण समर्पित जीवन था। दिन रात देखे
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बगैर, अपने शरीर के विषय में भी सोचे वगैर, किसी बात की आशा के बगैर, कोई पसंद नापसंद के बगैर उन्होंने अविरत जो कार्य किये उससे श्री माताजी ही नहीं, श्रीअरविंद भी उनसे अत्यन्त प्रसन्न थे।
जब द्युमान ने आश्रम में काम सम्भाला तब श्रीअरविंद ने उन्हें दो प्रकार की डायरी लिखने को कहलाया था। एक डायरी में बाहर के सभी विषय पर लिखना था और दूसरी डायरी में अपने अंतर जीवन और साधना की बात लिखना था। द्युमान आश्रम के विषय में बाहर की घटनाओं की डायरी लिखकर दोपहर बारह बजे माताजी को देते थे। अपनी आंतरिक साधना की डायरी लिखकर रात को बारह बजे भेजते थे। कई बार तो एक दिन में इस डायरी में ८० पृष्ठ के लगभग लिखते। यह क्रम सतत् तीन वर्ष तक चला। प्रतिदिन दोनों ड़ायरी लिखकर भेजते पर एक बार भी श्रीअरविंद ने उनको लिखित उतर नहीं भेजा। भले ही श्रीअरविंद के हस्ताक्षर में उन्हें उतर नहीं मिलता था पर उनके हृदय में वह उतर अवश्य आ जाता था। द्युमान अंतर से सीधे मिलनेवाले मार्गदर्शन का अनुसरण करते। इस कारण उनको आंतरिक साधना में किसी भी मुश्किल का अनुभव नहीं हुआ।
श्री माताजी के अस्वस्थ होने पर, उन्हें परेशानी न हो इसलिये युमान ने उनकी डायरी देना बन्द कर दिया, तब माताजी ने द्युमान को बुलाया और पूछा, ''अब तुम डायरी क्यों नहीं भेजते ?'' ''आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं, इसलिये नहीं भेजता हूँ।'' ''परन्तु श्रीअरविंद तो तुम्हारी डायरी की प्रतीक्षा करते हैं।'' यह सुनकर द्युमान के समग्र अस्तित्व में आनन्द की लहर दौड़ गई। मन में हुआ, '' श्रीअरविंद स्वयं इतना मेरा ध्यान रखते हैं। मेरा जैसा तैसा लिखा हुआ वे इतनी गहराई से पढ़ते हैं।'' ''पर वे मुझे उतर क्यों नहीं लिखते हैं ?'' उन्होंने इस विषय में सीधे माताजी से पूछ लिया। ''वे तुमको किसी विशेष कार्य के लिये तैयार कर रहे हैं।'' तब उनको पता चला कि
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उनके प्रत्येक प्रश्न का निराकरण उनके स्वयं के अंतर से सतत् मिलता रहता है, उसके पीछे श्रीअरविंद हैं। श्री माताजी के इस वाक्य ने उनका आत्मविश्वास हजार गुणा बढ़ा दिया।
एक दिन श्रीमाताजी ने उनसे कहा, ''मैने तुम्हारा ध्यान रखने का काम श्रीअरविंद को सौंपा है।'' श्रीमाताजी के मुख से यह सुनकर द्युमान स्तब्ध हो गये। फिर उनको समझ में आने लगा कि वे जो कुछ कार्य कर रहे हैं, उन सब के द्द्वारा श्री माताजी और श्रीअरविंद उनकी चेतना को अधिक से अधिक ऊँची भूमिका पर ले जा रहे हैं। इसलिये फिर उनकी घंटों तक ध्यान में बैठने या जप, तप करने की कोई आवश्यकता नहीं रही। श्री माताजी का कार्य ही उनकी साधना बन गयी थी। इस विषय में भी श्रीमाताजी ने उन्हें एक बार कहा था, ''द्युमान, तुम मेरा काम करते हो और मै तुम्हारा (साधना का) काम करती हूँ।'' द्युमान का काम अर्थात् साधना, भगवान के साक्षात्कार की और गति। इसके लिये तो वे आश्रम आए थे और बाह्य दृष्टि से देखनेवाले को ऐसा ही लगेगा कि वे तो साधना के बदले कार्यों के प्रचंड प्रवाह में बह गये हैं और साधना एक तरफ रह गई है, पर स्वयं श्री माताजी उनको कार्य डाल साधना के मार्ग पर तेजी से गति करवा रही थीं। उन्हें किसी विशिष्ट साधना को करने की आवश्यकता ही नहीं रही।
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१९. द्युमान का निवासस्थान
द्युमान पांडिचेरी आए तब पहले तो वे, अभी जो मकान गेस्टहाउस के रुप में पहचाना जाता है, और जहाँ पहले श्रीअरविंद रहते थे, वहाँ रहे। बाद में उन्हें अभी जहाँ वर्कशाप है, वहाँ कमरा दिया गया। एकाद महीने वे वहाँ रहे। उसके बाद अगस्त में फिर कमरा बदला। पूजालाल के कमरे के पास में जो कमरा है वहाँ - अर्थात् आश्रम के पटांगण में ही उन्हें रहने को मिला। इस कमरे का नाम श्री माताजी ने ''सम्पूर्ण समर्पण'' दिया था। इस कमरे में रहकर द्युमान ने समर्पित कार्य किये। श्री माताजी ने अब उन्हें अधिक अच्छा कमरा देने का निश्चिय किया। इस कमरे में वे लगभग पाँच वर्ष तक रहे। अब श्री माताजी उनके लिये एक विशेष कमरा बनवा रही थी। यह कमरा जून १९३० में तैयार हो गया।
१९ जून को द्युमान का जन्म दिन था। द्युमान को आशा थी कि श्री माताजी उनके जन्म दिन पर यह कमरा देंगी पर उस दिन उन्हें कमरा नहीं मिला। दूसरा दिन भी निकल गया, परन्तु तीसरे दिन २१ जून को सवेरे उन्हें श्री माताजी का पत्र मिला कि, ''आज तुम अपने नये कमरे में रहने के लिये जाओ। आज वर्ष का सबसे लम्बा दिन है। यह प्रकाश का दिन है और तुम प्रकाश हो।'' दो दिन के विलम्ब का रहस्य अब द्युमान की समझ में आया। प्रकाश के उस दिन को माताजी ने प्रकाश रूप बनाकर द्युमान को उनके वर्तमान कमरे में रहने को भेजा। कितनी सहृदयता और कृपा। द्युमान तो माताजी की
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करूणा और दूरदर्शिता को देखकर बहुत अभिभूत हो गये। इसके बाद तो उनके इस कमरे के सामने ही श्रीअरविंद की समाधि बनी और कमरा सच में ही प्रकाशपुंज हो गया। इस कमरे में १९३२ से १९९२ तक द्युमान देह में रहे तब तक वहाँ रहे। इस प्रकाशपूर्ण कमरे में रहकर ही उन्होंने समग्र आश्रम की व्यवस्था सम्माली। कमरे में श्रीअरविंद की समाधि का सतत सानिध्य अनुभव कर सकते थे जैसे समाधि में सोए श्रीअरविंद उन्हें सतत् निहार रहे हों। इस कमरे में उन्होंने श्रीअरविंद और श्री माताजी का साठ वर्ष तक निकट सानिध्य प्राप्त किया।
इस कमरे के नाम के विषय में जब उन्होंने श्रीमाताजी से पूछा तब माताजीने कहा ''इस कमरे का नाम है ''सिद्धि पूर्णता'' (fulfillment), फिर-आगे कहा कि ''कमरे का नाम ''सिद्धि'' दिया है इसका अर्थ यह नहीं है कि इस कमरे में प्रवेश के बाद तुम्हें सिद्धि की कोई आवश्यकता नहीं है।'' यह कहकर श्रीमाताजी ने उन्हें अन्तिम सिद्धि के लिये अभी आंतरिक रूप से सच्च होना है, यह इंगित भी कर दिया। पहले का कमरा था ''सम्पूर्ण समर्पण''। जैसे यह द्युमान की साधना का प्रथम सोपान था। सम्पूर्ण समर्पण सिख होने के बाद साधना का यह दूसरा चरण है ''पूर्णता की प्राप्ति'' और श्रीमाताजी ने इस नाम द्धारा अब इस कमरे में रहकर यह साधना सिद्ध होगी ऐसा आशीर्वाद जैसे उन्हें दे दिया। द्युमान के लिये जैसे अब पूर्णता की प्राप्ति का मार्ग खुल गया।''
इस कमरे में प्रवेश के समय श्रीमाताजी ने उन्हें अपनी पुस्तक ''प्रार्थना और ध्यान' में से दो प्रार्थना फ्रेन्च भाषा में लिखकर भेजी थी, जो इस प्रकार थी :-।
''है प्रभु, तुमने मुझे शक्ति मैं शांति, कर्म में आत्मप्रसाद और सर्व परिस्थितियों में अविचल सुख दिया है।''
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१५ दिसम्बर १९१४
दूसरी प्रार्थना थी :-
''है मेरे प्रियतम, मेरे प्रभु यह एक ऐसी मधुर अवस्था है जिसमें मैं अनुभव करती हूँ कि तेरे लिये और केवल तेरे लिये ही कार्य करती हूँ। मैं तेरी सेवा में तत्पर खड़ी हूँ। तू ही कार्य के विषय में निर्णय करता है, उसकी व्यवस्था करता है, उसे गतिमान करता है, चलाता है, सिद्ध करता है।''
१० अस्टोबर-१९१८
इन प्रार्थनाओं के पास श्री माताजी ने द्युमान शीघ्र किस प्रकार काम करना, कैसे समुर्ण समर्पित भाव में रहकर जीना है, उसकी जैसे रूप रेखा बता दी। इस विषय में बाद में युमान ने बताया था कि, ''प्रार्थना और ध्यान में से जो संदेश माताजी ने मुझे दिये थे वही मेरा जीवन है और रहेगा। अनादिकाल के लिये मैं माताजी का सेवक हूँ। मात्र सेवक और सदा के लिये यही रहनेवाला हूँ।'' इस प्रकार माताजी द्वारा दिये गये नये कमरे में द्युमान का, कार्य द्धारा पूर्णता की प्राप्ति की साधना का जीवन आरम्भ हुआ।
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२०. द्युमान के विषय में श्री माताजी
श्री माताजीने एक बार द्युमान से पूछा, ''द्युमान, तुम्हारा जन्य किस वर्ष हुआ था।''
'' १९०३ में।'?
''सेवा के लिये जन्मे हो। यहाँ सेवा करने आए हो।''
श्री माताजी तो व्यक्ति की अंतरचेतना की गहराई के सत्य को देख सकती थीं। एक साधक को उन्होंने कहा था, ''व्यक्ति से जब मैं पहली बार मिलती हूँ तब उस समय वह होता है, उसे मैं नहीं देखती अपितु, उसे भावी में जो बनना होता है उस स्वरूप को देखती हूँ और फिर मेरी चेतना में उस रूप को टिकाए रखती हूँ जिससे वह भावी स्वरूप शीघ्र प्रगट हो।'' इस प्रकार द्युमान के विषय में भी श्री माताजी ने उनकी सैवाकार्य की अभीप्सा देख ली थी। उन्होंने अपनी चेतना की शक्ति द्धारा उस अभीप्सा को इतना प्रबल बना दिया कि द्युमान श्री माताजी के हनुमान बन गये।
एक बार सभी मुख्य साधक माताजी के पास बैठे थे। अचानक माताजी ने प्रश्न पूछा कि, ''गत वर्ष में तुममें से किसने सबसे अधिक प्रगति की है ?'' उन्होंने उतर् में यह नहीं माँगा था कि सामान्य रूप से किस साधक या साधिका ने गत वर्ष में सबसे अधिक आंतरिक प्रगति की है? उन्होंने पूछा था कि गत वर्ष में आंतरिक जीवन में किसने सबसे अधिक निर्णयात्मक डग भरकर विकास साधा है? तब वहाँ नलिनीकान्त, अमृत, चम्पकलाल पवित्र, अनिलबरन आदि वरिष्ठ
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साधक उपस्थित थे। अत: वहाँ उपस्थित सभी को लगा कि इन साधकों में से ही कोई नाम होगा, पर सभी को आश्चर्य में डालकर श्री माताजी ने द्युमान का नाम बताया। तब सबको पता चला कि आंतरिक रूप से द्युमान माताजी के कितने निकट हैं। श्री माताजी ने इस विषय में एक साधक को पत्र में लिखा था कि, ''द्युमान मुझे बहुत प्यार से चाहते हैं।'' इस विषय में भी द्युमान ने पत्र में बताया था कि, ''श्री माताजी और श्रीअरविंद मेरे अंतर में स्थिर होकर बस गये थे। मुझे कुछ सोचना नहीं होता था। मैं उनके लिये जन्मा, यहीं आया, उनकी सेवा यही मेरा जीवन आदर्श है। सेवा लेने नहीं, सेवा करने के लिये मैं जिया हूँ। ''लव ध मधर'' - ''माताजी को चाहो'' - इसमें सब आ जाता है। फिर कुछ करने को नहीं रहता है।' माताजी को अति उत्कटता से चाहनेवाले बालक को तो फिर माँ सम्भाला कर ले ही जाएगी न्। इस प्रकार द्युमान ने मुश्किल लगते ऐसे साधना के मुल्य शिखरों को पार किया।
द्युमान १९३० में अस्वस्थ हो गये। नर्वस ब्रेकडाऊन न के भोग बन गये। कितने ही प्रमादी साधकों को द्युमान का कड़क अनुशासन और मितव्ययता पसंद नहीं थी। .इसलिये उन्होंने उनके विरुद्ध श्रीअरविंद तक को पत्र लिखें थे। इसके आघात से युमान अस्वस्थ हो गये, तब माताजी ने उन्हें इस बीमारी से स्वस्थ किया और फिर कभी अस्वस्थ न हो उसके लिए एक प्रभावकारी उपाय भी बताया। उन्होंने कहा, ''द्युमान, तुम पवित्र की हेट पहनकर दोपहर को धूप में एक घंटे धूमो, तुम्हें कभी ऐसी बीमारी नहीं आएगी। '' १९३४ का वर्ष द्युमान के लिए शारीरिक अस्वस्थता का वर्ष था। वे निराशा में पड़ गये थे। इस समयावधि में अपनी शारीरिक स्थिति के विषय में वे श्री माताजी को लगभग प्रतिदिन लिखकर बताते थे।
७ फरवरी १९३४ के पत्र में उन्होंने लिखा, ''बीमारी के बाद
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मेरा शरीर बहुत कमजोर होता जा रहा है और मैं बेहोश हो जाता हूँ। यह कैसी स्थिति है कि मैं बार-बार बीमार हो जाता हूँ और मेरा शरीर बहुत कमजोर हो जाता है। आपके कार्य करने के लिये जितना मजबूत होना चाहिए उतना मजबूत नहीं हूँ। मुझे शरीर पर बहुत भरोसा था, पर अब मैं निराश हो गया हूँ।'' इसके उत्तर में श्रीमाताजी ने लिखा, ''तुम्हारा शरीर ठीक है, पर तुम उसे उचित आराम और खुराक नहीं देते हो। मुझे तुम्हें इस विषय में सावधान रहने को कहना पड़ता है क्योंकि मैं उसे बलवान और स्वस्थ बनाना चाहती हूँ और इसके लिये नियमित आराम और पौष्टिक खुराक आवश्यक है। इसके लिये मैं तुम्हे रस पीने के लिये संतरे दूंगी। प्रातःकाल का समय सबसे अच्छा होता है। यदि तुम मुझे एक कप दो तो मैं शाम को रस भरकर तुम्हें पहुँचा दूंगी, तुम सवेरे उठकर पी लेना।''
इस प्रकार स्वयं माताजी ने उनके पथ्य भोजन का ध्यान रखा। आराम करने के लिए भारपूर्वक आग्रह रखा। दूसरे एक पत्र में उन्हें माताजी ने स्पष्ट लिखा कि ''तुम्हारा आग्रह काम करने के लिये है, जबकि मेरा आग्रह सबसे पहले तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक हो, इस पर है।'' एक और पत्र में लिखा, ''तुम मधु और मक्खन क्यों नहीं लेते? यह दोनो वस्तुएँ तुम्हारे स्वास्थ्य के लिये बहुत अच्छी है। यह पचने में हल्की और पुष्टिकारक है, खाँसी के लिये तुम गरम दूध में मिश्री और मधु (शहद) डालकर पियो या पवित्र तुम्हारे लिये जो रस तैयार करता है, उसमें भी मधु डालकर लो। '' एक निराश और बीमार बालक को उसकी माँ जिस प्रकार प्रेम से समझाकर, पटाकर खिलाती-पिलाती है, भोजन देती है इससे भी अधिक ध्यान-पूर्वक माताजी ने द्युमान को उनके नर्वस ब्रेकडाउन की आपत्ति से बाहर निकलने में सहायता की थी। श्री माताजी की सूचनाओं का पालन करते-करते धीरे-धीरे उनकी बीमारी तो चली गई और शरीर इतना अच्छा हो गया कि रात- दिन घंटों तक काम करने पर भी नहीं थकता था।
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११३४ की १९ जून के दिन श्री माताजी ने द्युमान को बुलाकर कहा, ''द्युमान, आज तुम्हारा जन्मदिन है, रसोई में जाओ और लीलादी और अन्य को कहो कि आज कुछ विशिष्ट बनाए। '' उस दिन भोजन कक्ष में ग्यारह व्यंजन थे इसके उपरांत एक विशिष्ट मिष्ठान्न भी बनाया गया था। अभी तक श्रीअरविंद और श्रीमाताजी के जन्मदिवस पर ही मिष्ठान्न बनता था पर १९३४ से श्रीमाताजी ने द्युमान के जन्मदिवस को यह विशिष्टता प्रदान की। तब से प्रति वर्ष १९ जून को भोजन-कक्ष में साधकों को विशिष्ट मिष्ठान्न मिलता है। इसके वारा जान सकते हैं कि श्रीमाताजी द्युमान को कितना ऊँचा स्थान देती थीं।
श्रीमाताजी ने द्युमान के जन्मदिवस पर दूसरी तरह भी विशिष्टता दी। द्युमान को तो प्लेग्राउन्डमें
जाकर शारीरिक कसरतें करने का समय ही नहीं होता था। वे कभी प्लेग्राउन्ड (खेल के मैदान) में जाते ही नहीं थे। श्रीमाताजी प्रतिदिन शाम को नियमित खेल के मैदान में जाती थीं। १९ जून को श्रीमाताजी ने द्युमान को खेल के मैदान में बुलाया।
आश्रम के दो युवा केप्टननों ने द्युमान को अपनी जुड़ी हुई हथेलियों पर बैठाकर पूरे मैदान में जुलुस के रूप में घूमाया। श्री माताजी अखंड भारत के नक्शे के पास कुर्सी पर बैठी थीं। पास में प्रणवदा खड़े होकर वहाँ से गुजरते विविध समूहों का सलाम ले रहे थे। द्युमान को केप्टन इस प्रकार उठाकर लाए, तब प्रणवदा जोर से फ्रेन्च में बोल उठे, ''बीन फेत आ द्युमान'' - ''द्युमान को जन्मदिवस पर अभिनंदन।'' इस प्रकार १२ जून का दिन भोजन-कक्ष में, क्रीडांगण में (खेल का मैदान) में और सभी साधकों के मन में भी विशिष्ट हो गया। इस प्रकार का उत्सव श्रीमाताजी जब तक खेल के मैदान में आती रही अर्थात् १९५८ तक चलता रहा।
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प्रत्येक साधक को उसके जन्मदिन पर फोटो, पुस्तकें या अन्य वस्तुएँ श्रीमाताजी अपने हाथ से देती थीं, पर द्युमान को केवल जन्मदिवस का अभिनन्दन लिखित में ही मिलता था। इसी प्रकार दर्शन दिवस पर श्रीमाताजी सभी साधकों को कार्ड, ब्लेसिंग पैकेट आदि देती थीं तब द्युमान श्रीमाताजी के पास खड़े रहते और साधकों को देनेवाली वस्तुऐं वे माताजी को देने जाते। उन्हें श्री माताजी कुछ नहीं देती थी। पर इससे द्युमान के मन में कोई विचार नहीं आता कि श्रीमाताजी उन्हें कुछ क्यों नहीं देती है। एक दिन श्री माताजी ने इस विषय में उन्हें कहा, ''द्युमान, इन वस्तुओं की तुम्हें आवश्यकता नहीं है इसलिये तुम्हें नहीं दी जाती है।''।
''यस मधर, मेरे पास तो आप हैं न, फिर मुझे और क्या चाहिये ?'' यह था द्युमान का तत्क्षण उत्तर। यह सुनकर श्री माताजी अत्यन्त प्रसन्न हो गई।
कई बार द्युमान काम में इतने अधिक व्यस्त होते थे कि अपने जन्मदिन पर श्री माताजी से आशीर्वाद लेने भी नहीं जा सकते थे, तब श्रीमाताजी स्वयं उनके कमरे में आकर अपने हाथ से लिखा हुआ जन्मदिवस कार्ड-पुथगुच्छ दे जाती थीं। १९७२ का वर्ष, श्रीअरविंद का जन्मशताब्दी वर्ष था। द्युमान ने इस समग्र वर्ष में भव्य उत्सव हो उसके लिये वर्षों पहले तैयारी कर रखी थी। इस वर्ष द्युमान के जन्मदिवस पर श्री माताजीने अपने हस्ताक्षर से कार्ड लिखकर दिया। उसमें लिखा था -
१९-६-७२
To Dyuman
Bonne fete and a long life of happy and remarkable useful life.
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with love and blessings
Mother
(द्युमान के जन्मदिवस पर अभिनन्दन।
आनन्दपूर्ण और उल्लेखनीय दीर्घ जीवन हो।
प्रेम और आशीर्वाद के साथ। )
माताजी
''श्रीअरविंद के जन्मशताब्दी वर्ष पर श्रीमाताजी ने बहुत लम्बा जीवन ही नहीं, पर यह जीवन उल्लेखनीय रूप से उपयोगी और आनंदप्रद हो'' इसका आशीर्वाद भी साथ में दिया। इस आशीर्वाद से दयुमान अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक सजग और कार्यरत रह सके।
श्रीमाताजी के लिये दयुमान केवल साधक ही नहीं थे, किन्तु उनके पुत्र, सेवक, सेक्रेटरी, खजान्ची आश्रम के व्यवस्थापक, भोजनाध्यक्ष आदि सभी थे। जैसे वे श्रीमाताजी के अस्तित्व का भाग ही बन गये थे। अपना अलग अस्तित्व उन्होंने इस सीमा तक मिटा दिया था कि श्रीमाताजी द्युमान की अंतर चेतना में सीधे उतर कर कार्य कर सकती थीं। द्युमान की हनुमान जैसी भक्ति और शक्ति में श्री माताजी को सम्पूर्ण विश्वास था। दूसरी और श्रीमाताजी के कार्य के लिये असम्भव को भी सम्भव करने की तत्परता दयुमान में थी।
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२१. विरोध का सामना
मानव प्रकृति को नियम या अनुशासन के बन्धन सामान्य रूप से स्वीकार नहीं होते हैं। जब जब इस प्रकृति को बदलना आवश्यक होता है तो वह विरोध करती है। नया स्वीकार करने से इनकार करती है। पुराने रूढ़ीग्रस्त, ऐश-आराम भरा जीवन और स्वच्छन्द व्यवहार के अभ्यस्त साधकों की प्रकृति सी द्युमान की बनायी गई अनुशासनबद्ध व्यवस्था को पचा नहीं सकी। कितने ही अविचारी साधकों ने यह मान लिया कि माताजी तो बहुत उदार हैं, वे सभी साधकों की आवश्यकताओं को पूरा करने को तत्पर है, लेकिन द्युमान ने आकर सब अपने हाथ में ले लिया है और वे साधकों को कुछ देने नहीं देते हैं। इस कारण बहुत से साधकों के मन में द्युमान के प्रतिरोष की भावना पैदा हो गई, थे असंतोष व्यक्त करने लगे, इतना ही नहीं, द्युमान की कार्यवाही के विषय में श्रीअरविंद और श्रीमाताजी को लिखित शिकायत करने लगे। द्युमान को प्रारम्भ में मानव प्रकृति की जड़ता का भारी विरोध का सामना करना पड़ा। इस कारण उनका शारीरिक संतुलन बिगड़ने से वे अस्वस्थ हो गये परन्तु श्रीमाताजी में उनकी अटूट श्रद्धा के कारण वे सभी विरोधों को पार करके आश्रम को श्रीमाताजी की इच्छानुसार सुव्यवस्थित कर सके। जब विरोध के कारण उनका मन टूट गया था, उनको चिंता और दुविधा ने घेर लिया था वे श्रीमाताजी को पत्र लिखकर उनसे सीधा मार्गदर्शन प्राप्त करते थे। वे प्रत्येक विरोध के बाद अधिक मजबूत बनकर बाहर निकल आए।
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५ अक्टोबर १९३४ के दिन उन्होंने श्रीमाताजी को पत्र में लिखा, ''मैंने सुना है कि कुछ बहनों ने मेरे विषय में शिकायत की है परन्तु मैं इसकी परवाह नहीं करता हूँ... एक बात है जो मुझे शांत स्थिर रखती है, वह है आपका विश्वास, प्रेम और आपके प्रेम में मेरी श्रद्धा। '' श्री माताजी ने इसका प्रत्युत्तर देते हुए लिखा, ''जबतक स्त्रियों प्राण और अवचेतना में रहेंगी तबतक जैसी करती है वैसी - लड़ाई, ईर्ष्या, वेष, बदले की भावना और हताशा आदि रहेगीं ही। सबसे अच्छा तो यह है कि उस पर बिलकुल ध्यान नहीं देना क्योंकि सचमुच में यह कोई महत्व की बात नहीं है। एक दिन तुम ठीक कर दोगे तो दूसरे दिन फिर गड़बड़ होगी क्योंकि उनकी चेतना बदली नहीं है। ''
द्युमान के कार्य की टीका होती थी तो वे क्षुब्ध हो जाते थे। इस विषय में उन्होंने जब श्रीमाताजी को बताया तब श्रीमाताजी ने उन्हें लिखा, ''तुम इसकी चिन्ता मत करो। तुम जो कुछ करोगे उसकी टीका तो होगी ही इसलिये सबसे अच्छा तो यह है कि तुम लोगों की बात पर ध्यान मत दो और तुम्हारे उच्चतम प्रकाश के अनुसार अपने रास्ते पर चलते रहो। ''
भोजनालय के लोग काम के विषय में और अन्य बातों से अन्दर ही अन्दर फुसफुसाते रहते। इससे त्रस्त होकर द्युमान ने श्रीमाताजी को लिखा ''क्या बात है कि भोजनालय के लोग संघर्ष में मजा ले रहे हैं? क्या एक दिन भी शांति से बीता है? हम भगवान के चरणों में अपना समर्पण करने के स्थान पर सामर्थ्य और अधिकार पाने के पीछे क्यों लगे हुए हैं? हमारी रक्षा करो, माँ, हमारी रक्षा करो। ''
इसके उत्तर में श्रीमाताजीने बताया कि, ''बस, केवल शांति और धैर्य बनाये रखने की आवश्यकता है। यह सब गुजर जाएगा। अभी की उनकी स्थिति में यदि झगड़े न हों तो उन्हें अपना जीवन नीरस लगेगा। ''
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किसी भी स्थिति में शांति रखकर स्वस्थ रहने के लिये श्रीमाताजी द्युमान को कहती रहती थीं। द्युमान पर ऐसा भी आक्षेप किया गया कि वे कंजूस हैं। इस विषय में जो उन्होंने श्रीमाताजी को लिखा कि, ''बहुत से लोग मुझे कंजूस कहते हैं क्योंकि मैं बाल माँगों को स्वीकार नहीं करता हूँ। मैं कंजूस हूँ। लोग जैसा चाहते हैं वैसा मैं खुले हाथवाला और उदार बन जाऊँ, यह एकदम असम्भव है। क्योंकि तब हमें केवल भोजनखर्च के लिये सोलह हजार रूपयों की नहीं, पर चालीस हजार रूपयों की आवश्यकता होगी। यह किस प्रकार सम्भव हो सकता है ?'' तब श्रीमाताजी ने उन्हें बताया कि, ''तुम्हारी बात बिलकुल सत्य है, मुझे तुम कंजूस नहीं लगते हो। यदि मैं लोगों की बातें सुनती तो हम कब के बर्बाद हो चुके होते। '' श्री माताजी द्युमान के कार्यों को अच्छी तरह जानती थीं। इसी कारण वे उन्हें लोगों की बेहूदी माँगों, अपेक्षाओं, टीकाओं की और बिलकुल ध्यान दिये बगैर - उनको आंतरिक रूप से जो मार्गदर्शन मिले, उसके अनुसार कार्य करने को कहती थी। द्युमान पर जैसे - तैसे आक्षेप होने से वे कभी - कभी हताश और निराश हो जाते, पर श्रीमाताजी उन्हें फिर स्वस्थ कर देती थीं।
द्युमान पक्षपाती हैं, ऐसा भी आक्षेप किया गया। उन्होंने इस विषय में श्री माताजी को लिखा कि, ''न'' ने मेरे उपर पक्षपाती होने का आक्षेप किया है। मैंने उन्हें प्रत्येक ढंग से समझाने का प्रयत्न किया पर उसके मन से यह बात मैं दूर नहीं कर सका हूँ। '' तब श्रीमाताजी ने उसके उत्तर में कहा, ''सबसे अच्छी बात है तो यह है कि सभी तुच्छ बातों की उपेक्षा करो। सबसे अधिक महत्व की बात यह है कि भगवान अपने अन्दर और अपने लिये जो चाहते हैं, उसी की इच्छा करो। '' जब झगड़े बढ़ने लगे तब द्युमान ने श्रीमाताजी को लिखा, ''अशुभ का सामना किस प्रकार करना, इसका प्रशिक्षण हमें नहीं
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मिला है और हम इतने नियंत्रित भी नहीं कि सत्य पर अडिग रह सके, इतने सुसंस्कृत भी नहीं की स्थिर और शांत जीवन जी सके।'' इसके प्रत्युत्तर में श्री माताजी ने उन्हें बताया कि, ''चंचलता के सामने स्थिरता, पूर्ण शांति और जब तक तूफान का शमन न हो जाय तब तक चुपचाप खड़े रहना चाहिये।''
वे कभी-कभी बहुत निराश हो जाते। चारों तरफ से होनेवाले विरोधों के कारण, वे ऐसा मानने लगते कि वे स्वयं योग्य कार्यकर्ता नहीं हे। इस विषय में भी उन्होंने श्रीमाताजी को लिखा था, ''साधक तथा कार्यकर्ता के रूप में मैं एकदम अयोग्य और बेकार हूँ। ऐसे कितने ही विचार मेरी निष्फलता को व्यक्त करते हैं।'' तब श्रीमाताजी उन्हें सावधान करते हुए कहती हैं, ''तुम जानते हो कि ये सब विचार बिलकुल असत्य है और विरोधी शक्ति द्धारा आते हें। इन सब विचारों को प्रेमपूर्वक निकाल देना चाहिये क्योंकि इनका स्वागत करना अर्थात् भगवान के प्रति अविश्वास प्रगट करना है। बालक कभी अपने विश्वास के लिये चिंतित नहीं होता है, वह तो स्वाभाविक रूप से 'आगे बढ़ता रहता है।'' इस प्रकार हताशा-निराशा के विचारों का हमला जब द्युमान पर प्रबल हो जाता तब श्रीमाताजी ने विरोधी शक्ति की इन सूचनाओं पर भी बिल ध्यान न देने को बार- बार लिखकर बताया था।
अपने विरोधियों को सही समझ मिले, वे सद् भाव सहयोग से काम करें, इसके लिये भी द्युमान ने श्री माताजी से प्रार्थना करते हुए बताया था कि, ''मैं आपकी सहायता माँगता हूँ ऐसी सहायता कि मेरे सहकर्मियों के सब गड़बड घोटाले निकल जाएं और वे सम्पूर्ण रूप से आपके प्रति समर्पित हो जाएँ।'' श्री माताजी ने उन्हें बताया कि, ''जो निष्कपट हैं, उन्हें मैं सहायता कर सकती हूँ उन्हें मैं सरलता से भगवान की और मोड़ सकती हूँ। पर जहाँ कपट है, वहाँ मैं कुछ नहीं कर
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सकती। मैं ने तुम्हें पहले भी कहा था कि हमें बहुत धैर्य रखना चाहिये और प्रतीक्षा करनी चाहिये कि परिस्थिति सुधर जाये। पर सचमुच मैं यह नहीं जानती कि तुम क्यों परेशान हो रहे हो और तुम्हारी यह परेशानी परिस्थिति को सुधारने में कहाँ तक सहायता करूंगी? तुम अनुभव द्द्वारा जानते हो कि गड़बड़ और अंधेरे में से बाहर निकालनेका का बस एक ही रास्ता है :- 'बहुत दृढ़, स्थिर और शांत रहो। अपनी समता में दृढ़ रहो और तूफान को गुजर जाने दो। इन तुच्छ झंझटों और झगड़ों से ऊपर उठो और फिर से मेरे प्रकाश और मेरे प्रेम की शक्ति में जागो, जिसने तुम्हें कभी भी छोड़ा नहीं है। ''
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२२. श्रीअरविंद के प्रकाश में द्युमान
श्री माताजी द्युमान के विरोध में जो चक्रवात उठा था, उसमें उनके अन्दर अधिक शांति, समता, स्थिरता और धैर्य प्रस्थापित करके उन्हें सावधानी से इस परिस्थिति से बाहर निकाल रही थीं। फिर भी साधकों ने जब श्रीअरविंद को द्युमान की शिकायत के सीधे पत्र लिखे और श्री माताजी द्युमान के प्रति पक्षपात करती हैं, उन्हें कुछ कहती नहीं हैं, ऐसे आक्षेप किये तब श्रीअरविंद ने एक साधक द्वारा द्युमान का विरोध करनेवाले सभी साधकों को पत्र द्वारा बताया की द्युमान जो कुछ कर रहे हैं, वह उचित है और श्री माताजी के मार्गदर्शन में कर रहे है। श्रीअरविंद का लिखा हुआ पत्र - जिसमें दयुमान के प्रति उनका विश्वास प्रगट होता है, वह इस प्रकार है :-
''मुझे समझ में नहीं आता कि जो सूचनाएँ दी जाती हैं, उसके विषय में इतनी अधिक मुश्किलों की शिकायत क्यों की जाती है। तुम तो कई वर्षो से आश्रम में हो और काम कर रहे हो, फिर ऐसा व्यवहार किसलिये? द्युमान ने कार्यपद्धति निश्चित करके कार्यों का बँटवारा किया है। तुम्हे तो स्पष्ट रुप से समझ लेना चाहिये। अधिकांश कामों को करने की जानकारी तो तुम्हें है ही और होनी भी चाहिये क्योंकि तुम तो पुराने आश्रमवासी हो। यदि काम करने में तुम्हें मार्गदर्शन नहीं मिले तो तुम्हें वह काम तुम्हारी योग्यता से करना चाहिये। इसमें आपत्ति और विरोध का चक्रवात किसलिये? मुझे समझ नहीं आ रहा है। मान लो कि द्युमान ने अधूरी सूचनाएँ दी, तो क्या तुम्हें अपनी
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निर्णयशक्ति के आधार पर कार्य नहीं करना चाहिये? मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि द्युमान की भूल हो तो तुम्हें उनके दोष-दर्शन के झगड़े में पड़े बगैर उस भूल को सुधार लेना चाहिये। द्युमान को मार्गदर्शन देना चाहिये।
मैं तुम्हें बताता हूँ कि द्युमान की कार्यपद्धति के विषय में तुम्हारा अभिप्राय माताजी और द्युमान की निर्धारित योजना के साथ तालमेल नहीं रखता है। माताजी द्युमान के कार्यो का निरीक्षण करती हैं। उनका ऐसा अभिप्राय है कि ''द्युमान आश्रम के उत्तम कार्यकर्ताओं में से एक है। वे बहुत ही शक्तिसम्पन्न हैं। निरंतर कार्यरत रहते हैं।'' जब तक माताजी उन्हें काम बन्द करने और आराम करने को न कहें तब तक वे काम करते ही रहते हैं, वे माताजी के दृष्टिकोण को ठीक से समझते हैं। माताजी के उद्देश्य और आदर्शो को वे केवल वफादारी से ही नहीं, पर बुद्धिमानी से, पूरी समझदारी से करते हैं। अभी तक द्युमान ने अनेक कार्यो को कुशलता से और व्यवस्थित रीति से नियमन और संचालन किया है। इसमें उन्होंने पूरी सावधानी रखकर कम से कम श्रम करके अधिकतम सफलता प्राप्त की है। तुम्हें चाहिये तो माताजी इस विषय में एक से अधिक उदाहरण दे सकती हैं। मैं मानता हूँ कि किसी काम में मेहनत का बचाव करना, यह एक मात्र उद्देश्य नहीं हो सकता। दूसरे कई ध्येय उसके साथ जुड़े हुए हैं। उसमें से कई तो इससे भी अधिक महत्वपूर्ण हैं। मुझे सिद्धान्त के रूप में यह बात स्वीकार्य है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वभावनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, मानता हूँ। पर यह तभी सम्भव है जब व्यक्ति व्यक्तिगत कार्य कर रहा हो। जहाँ समूह के साथ काम करना होता है तब यह सिद्धान्त स्वीकार्य नहीं होता। वहाँ तो सबके साथ नियमित रहना पड़ता है और पूरे समय काम करना पड़ता है। यह नीति सर्वप्रथम स्वीकार्य होनी चाहिये।
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माताजी के विषय में तुम्हारा कथन मुझे समझ नहीं आ रहा है। अनाज के भंडार की व्यवस्था, मकान बनाने का आयोजन माताजी ने यूं ही नहीं किया है, सभी जानकारी लेकर जाँच परख कर किया है। जब उनको विश्वास हो जाता है कि सब व्यवस्थित चल रहा है तब ही वे उस उत्तरदायित्य से मुक्त होती हैं और सभी कार्यकर्ताओं को योजना के अनुसार आगे बढ़ने का अवसर देती है। फिर भी माताजी ध्यान तो रखती ही हैं। तुम्हें समझना चाहिए कि आश्रम में माताजी द्धारा बनाई गई व्यवस्था के अनुसार ही सभी साधक काम करते हैं। एक दिन ऐसा था जब माताजी ने साधकों को उनके स्वभाव और विचार के अनुसार काम करने की स्वतन्त्रता दी थी, तब कई बार माताजी अपना अभिप्राय बताती थी पर उसके अनुसार कार्य करने के लिये दबाव नहीं करती थीं। परिणाम क्या आया? जानते हो? अस्तव्यस्तता, अपव्यय, अनुशासनहीनता और टकराहट। माताजी के आदेशों का उल्लंघन सभी जगह होने लगा, स्वच्छन्दता बढ़ गई। आश्रम में अराजकता का साम्राज्य फैल गया। यदि आश्रम का संचालन उसी प्रकार चलता रहता तो आश्रम का अस्तित्व तो वर्षो पूर्व मिट गया होता। इस विषम परिस्थिति को रोकने के लिये ही माताजी ने द्युमान और उनके जैसे अन्य साधकों को पसंद किया। ये सभी पूरे विश्वासपात्र हैं। उनकी ही सहायता से माताजी ने सभी विभागों की पुनर्रचना की है। सुंदर कार्यशैली बनाई है। अनुशासन पालने का आग्रह किया है। विभागीय प्रमुख को अनुशासन पालने की आज्ञा दी गई है। तदुपरांत माताजी स्वयं सभी विभागों की देखरेख करती हैं। मुझे पता है कि प्रत्येक विभाग में पुरानी कमियाँ अभी रह गई है। उसके लिये कई कार्यकर्ता उत्तरदायी हैं। ये लोग पुरानी आदत छोड़ते नहीं और अनुशासनहीन व्यवहार करते हैं। यदि माताजी का नियंत्रण न हो तो आज ही आश्रम की सारी व्यवस्था ढ़ह जाए।
दयुमान माताजी की बातों को छिपाते है और माताजी के कहे
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बगैर अपनी इच्छा से सभी काम करते हैं ऐसा तुम मानते हो, तुम्हारी यह मान्यता गलत है। माताजी सबकुछ जानती हैं और कुछ भी उनकी जानकारी के बाहर नहीं है। तुम्हारे दूसरे पत्र में तुमने जो लिखा है वह माताजी के लिये नया नहीं है। द्युमान के विरुद्ध अनेक शिकायतें और विरोध की टीका आयी है। द्युमान की कार्यशैली, कड़ा अनुशासन, व्यवस्था का आग्रह, अत्यधिक मितव्ययता और सखी के विषय में बहुत शिकायतें माताजी को मिली है, उसकी छानबीन माताजी ने स्वयं की है और जहां योग्य लगा वहाँ परिवर्तन भी किये हैं परन्तु उन्होंने द्युमान की अभिगम का दृढ़ता से समर्थन किया है। माताजी ने स्वयं मितव्ययता और अनुशासन का पालन किया है। साधकों की अनुचित माँगों, इच्छाओं और तरंगों के वश में न होने का व्यवहार स्वीकार किया है। द्युमान के विरुद्ध ऐसी बातों की शिकायतें आती है, वह किस प्रकार मान्य हो सकती है? माताजी ने यदि ऐसी शिकायतों को मान्य किया होता तो द्युमान से कैसे उत्तम प्रकार से काम करवा सकती थीं ? द्युमान यदि लचीले रहे होते, कट्टरता छोड़ दी होती और सबको उनकी मर्जी से काम करने को पूरी छूट दी होती तो वे लोकप्रिय तो अवश्य होते, पर माताजी के कार्य के उत्तम माध्यम नहीं बन सकते थे। द्युमान की प्रकृति में जो कमियाँ होंगी, उसकी चिंता तुम्हें नहीं, माताजी को करनी है। वह यदि अत्यधिक कड़े होगें तो माताजी उनमें परिवर्तन लाएँगी। तुम्हारी शिकायतें तुम्हारे ''अहम'' और ''आसक्तियों'' से उत्पन्न हुई है, उससे प्रेरित होकर तुम हल्ला मचाते हो। माताजी ऐसे अनुचित व्यवहार के सामने कभी झुकती नहीं हैं। यदि वे झुकी होती तो पुरानी अराजकता की परिस्थिति फिर आ जाती और आश्रम भरभराकर धराशायी हो जाता।''
ता. ७-१- १९३७ - श्रीअरविंद
श्रीअरविंद और श्री माताजी द्युमान की कार्यपद्धति को, उनकी
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अनुशासनप्रियता को, उनकी मितव्ययता से परिपूर्ण व्यवस्था को पूरा प्रोत्साहन देते थे। अन्तत: साधकों ने द्युमान की व्यवस्था का स्वीकार कर लिया और धीरे-धीरे विरोध का चक्रवात शान्त हो गया।
*
एकबार एक साधक ने श्रीअरविंद से पूछा कि आपके आश्रम में एक साथ पाँच सौ अभीप्सु अचानक मिलने आ जाएँ तो उनकी व्यवस्था के सम्बन्ध में आप क्या करेंगे? श्रीअरविंद ने अपनी विशिष्ट आनंदी शैली में कहा, ''क्या हुआ? उन्हें मैं द्युमान को सौंप दूँगा। '' श्रीअरविंद ने द्युमान के लिये कहा है, ''इधर-उधर गये बिना सीधी गति में ध्येय की प्राप्ति करने का पुरुषार्थ, जिस उन्नत आदर्श का पालन ये करते हैं, उसके प्रति वफादारी, प्रकाश को प्राप्त करना और सत्य की सेवा करने का उनका तीव्र संकल्प - ये है दयुमान के चरित्र की दृढ़ता। ''
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२३. आश्रम की आर्थिक समस्या
१९२६के अंत में श्री माताजी ने आश्रम का सारा उत्तरदायित्व उठा लिया। उस समय तो शिष्यों की संख्या केवल २४ थी। सभी बहुत मितव्ययता से रहते थे, इसलिये खर्च का कोई प्रश्न ही नहीं था। पर धीरे-धीरे साधकों की संख्या बढ़ने लगी, आश्रम की प्रवृत्तियों का भी विस्तार होने लगा। उसके लिये पैसों की आवश्यकता पड़ने लगी, परन्तु श्रीअरविंद किसी से चन्दा लेने के विरुद्ध थे। कोई दाता स्वेच्छा से आश्रम को दान दे तो स्वीकार किया जाता था, पर आगे जा कर आश्रम के लिये माँग करना या चन्दा एकत्र करना, साधकों को भी इसकी सख्त मनाही थी। आश्रम के बहुत सारे शुभचिंतकों ने श्रीअरविंद से इसके लिये स्वीकृति लेने का प्रयत्न किया कि बंगाल, महाराष्ट्र गुजरात के श्रीमती से दान की माँग की जाए तो बहुत रुपये मिले और आश्रम को फिर कभी पैसों की तंगी नहीं होगी, पर श्री अरविन्द ने इसके लिये कभी अनुमति नहीं दी!
एक बार एक साधक को किसी कारणवश तीन सौ रूपयों की तत्काल आवश्यकता हुई। उसने श्री माताजी से यह रकम माँगी। तब श्रीमाताजी के पास बचत का एक रूपया भी नहीं था। श्रीमाताजीने द्युमान को बुलाकर पूछा, 'तीन सौ रूपये हैं?'।
'नहीं माताजी, अभी तो हम बहुत आर्थिक तंगी में हैं।'
श्रीमाताजी ने अपनी अलमारी का खाना खोलकर सोने का एक गहना निकाला और द्युमान के हाथ में रखकर कहा, 'जाओ, यह बेचकर पैसे ले आओ...' यह सुनकर द्युमान को बहुत आघात लगा।
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माताजी का गहना बेचने जाना पड़ेगा? यह कैसी कठिन स्थिति है? वे चिंतित हो गए। तब माताजी ने कहा, 'विचार मत करो, शीघ्र बेचकर पैसे ले आओ।' पैसा प्राप्त करने के लिये उस समय द्युमान के पास दूसरा कोई रास्ता ही नहीं था। इसलिये गहना लेकर उन्हें बाजार जाना पड़ा। सोना बेचने का उनके जीवन में यह पहला प्रसंग था। पर उन्होंने चार दुकान घूमकर, भावताव करके अधिक से अधिक कीमत में बेचकर पैसे माताजी के हाथ में रख दिये।
परंतु एक गहना बेचकर कोई आर्थिक समस्या हल नहीं हो सकती थी। द्युमान को अभी तो इससे भी कठिन काम करने थे। दूसरे विश्वयुद्ध ने आश्रम की आर्थिक आपत्ति को अधिक बढा दिया। आश्रम में साधकों के उपरांत उनके कुटुम्बीजन और बच्चे भी सुरक्षा के लिये आने लगे। इन सबके निर्वाह का प्रश्न था। उपरांत बालकों की पढ़ाई न बिगड़े, इसके लिये श्रीमाताजी ने आश्रम में पाठशाला भी आरम्भ कर दी। अब इन सबके लिये बहुत पूँजी की आवश्यकता थी। स्वैच्छिक दान तो उस समय नहीं के बराबर ही आता था। इस कारण पैसे कहीं से प्राप्त करें, यह बहुत बड़ा प्रश्न था। श्रीमाताजी ने इस प्रश्न का भी समाधान कर दिया। एक दिन उन्होंने द्युमान को बुलाया और पूछा, द्युमान तुमको आसक्ति है ?' 'नहीं माताजी।' द्युमान बोले।
तब श्रीमाताजी ने पेरिस में उनके कुटुम्बियो के दिये हुए अति मूल्यवान गहनों का डब्बा बाहर निकाला, उसमें से गहने निकालकर ढ़ेर कर दिया और कहा, 'बाजार में जाकर बेच आओ, अभी आश्रम को पैसे की बहुत आवश्यकता है।' यह सुनकर, इतने कीमती गहने देखकर युमान तो दिग्मूढ हो गये। अरे! माताजी के रिश्तेदारों ने उनको भेंट के रूप में दिये इतने कीमती गहने इस प्रकार कैसे बेच दें? वे तो स्तब्ध होकर खड़े ही रह गये। माताजी ने उन्हें जागृत करते हुए
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अब माताजी का आदेश था, पर अन्दर से दिल नहीं मानता था। मन में सोच रहे थे, ऐसा काम भी करना है? फिर भी माताजी का आदेश मानकर बाजार गए। झवेरी को बुलाकर लाए। गहनों की कीमत आँकी गई। अभी वर्तमान भाव के अनुसार तो उनकी बहुत बड़ी कीमत होगी। झवेरी को लगा कि इन लोगों को पैसे की बहुत आवश्यकता है इसलिये जिस भाव से माँगूगा, उस भाव से दे देंगे। उसने बहुत कम कीमत में खरीदने की तैयारी बताई। बाजार भाव से भी यह भाव बहुत कम होने से द्युमान ने उससे कहा 'हमें यह गहने इस भाव में नहीं बेचना है। तुम जाओ। जब बेचना होगा तब बता देंगे। ' वह झवेरी तो चला गया। फिर द्युमान ने विचार किया। ये तो श्रीमाताजी के गहने हैं। सुनार तो इन्हें गलाकर नये गहने बनाएगा, इसके बजाय तो श्रीमंत साधकों को यदि प्रस्ताव रखें तो वे प्रसादी के रुप में ले जाएंगे और कीम्रत भी अधिक देंगे। इस योजना के अनुसार उन्होंने श्रीमंत साधकों को गहने देकर, अच्छी मात्रा में रकम एकत्रित करके श्रीमाताजी को दी। श्रीमाताजी द्युमान की व्यवहार कुशलता देखकर प्रसन्न हो गई। इस प्रकार उस समय तो आश्रम की आर्थिक समस्या का हल हो गया।
एक बार पुन: तत्काल पैसों की आवश्यकता हुई तब श्रीमाताजी ने द्युमान को पुन: बुलाया। श्रीमाताजी को उनकी दादीमाँ ने चांदी की एक बहुत मूल्यवान बड़ी भेंट में दी थी। उसे अलमारी में से निकालकर द्युमान को देकर कहा, 'इसे बेचकर आओ।' यह सुनकर युमान को फिर बहुत आघात लगा। वे जानते थे कि दादीमाँ की स्मृतिचिह्न जैसी यह मूल्यवान घड़ी श्रीमाताजी को बहुत ही प्रिय है। इसलिये वे यह घड़ी बेचने में आनाकानी करने लगे। उन्होंने कहा,।'माताजी! यह नहीं बेचनी है। ' तब श्रीमाताजी ने उन्हें कहा, 'भावना
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में बहे बिना, यह काम करना है। तत्काल पैसों की आवश्यकता है। ' द्युमान को श्रीमाताजी की आज्ञा माननी ही पड़ी। मजबूर होकर घड़ी हाथों में ली, पर बाजार में बेचने के बदले उद्योगपति लालजीभाई हिंडोचा के पास गये, उन्हें परिस्थिति बतार्ड़। घड़ी उन्हें दी। लालजीभाई ने उसके दस हजार रूपये दिये, जिसका आज दस लाख रूपयों से अधिक मूल्य है। युमान ने श्रीमाताजी के हाथ में रकम रख दी। घड़ी लालजीभार्ड़ के घर पहुँच गई है यह भी बता दिया। तब श्रीमाताजी प्रसन्न हो गईं। जब लालजीभाई श्रीमाताजी के दर्शन करने आए, तब श्रीमाताजी ने उन्हें इतना ही कहा, 'मेरी दादीमाँ की घड़ी अपनी अलमारी में सम्मालकर रखना। '' यह सुनकर लालजीभाई की आँखों में आँसू आ गए, उन्हें लगा कि, ' श्रीमाताजी की कितनी प्रिय वस्तु मुझे मिली है। ' इसके बाद श्रीमाताजी ने अपनी दादीमाँ के दिये हुए गहने भी द्युमान को बेचने के लिये दे दिये। इस विषय में द्युमान ने एक पत्र में लिखा है कि, 'श्रीमाताजी ने माणिक और नीलम वाला सोने का मुकुट मुझे बेचने को दिया। मोती के हार, हीरे के गहने, नीलम, माणिक और पुखराज के पेरिस के गहने भी मुझे बेचने को दिये। यह सब आश्रम के लिये मुझे बेचना पड़ा। भेंट में मिली हुई कितनी अति मूल्यवान वस्तुऐं भी माताजी ने निकाल दीं। यह सब बेचने का आघातजनक काम मुझे करना पड़ा। इसके कारण कभी-कभी ब्रेकडाउन जैसी स्थिति हो जाती थी। मुझे गहरा आघात लगता था, पर मैं क्या करूँ ? 'माताजी के आदेश शिरोधार्य करता हूँ। मैं उनका आज्ञाकारी सेवक हूँ। कुछ भी बोले बगैर चुपचाप बाजार में गहने खरीदने वाले के पास जाता, उसे बुलाकर लाता हूँ। सौदा करके रकम माताजी को सुपुर्द करता, तब मेरा हृदय बैठने लगता है।'
आश्रम चलाने के लिये श्रीमाताजी को गहने बेचने पड़े हैं, ईसका पता साधकों को भी नहीं था। आश्रम कैसी कठिन आर्थिक
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इस शोध के बदले, द्युमान ने मुम्बई के उद्योगपति केशवदेव पौदार (नवजात) को पत्र लिखकर परिस्थिति की जानकारी दी। उन्होंने तत्काल एक लाख रुपये भेज दिये और कहा, धीरे धीरे साड़ियां बेचकर जो रकम मिले वह भी माताजी को अर्पण कर देना। इस प्रकार उस समय की आपात स्थिति भी द्युमान ने अपनी व्यावहारिक बुद्धि कौशल से सम्भाल ली। इसके बाद तो द्युमान को लक्ष्मीजी, गणेश और कुबेर की अनुभूति होने से पैसों को कभी तंगी नहीं पड़ी। श्रीमाताजी के कार्य के लिये जितनी चाहें, उतनी रकम एकत्रित कर सकते थे।
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२४. गणपति, लक्ष्मी और कुबेर से मैत्री
इस विषय में यहाँ कुछ बात कर लेते हैं। एक बार द्युमान को श्रीमाताजी ने गणपति का एक सुन्दर चित्र भेंट में दिया। उसके पीछे श्रीमाताजी ने अपने हाथ से लिखा था 'गणपति तुम्हारे उदार मित्र बनें।' गणपति तो विघ्नहरण करनेवाले, रिद्धि सिद्धि के देव। ऐसे गणपति जिनके उदार मित्र हों, उन्हें कभी न तो निष्फलता मिलती है न दरिद्रता अवरोध करती है। संन्यस्त और सत्यार्थी दयुमान को श्रीमाताजी ने श्री गणेश के साथ करवायी दोस्ती फलीभूत हुई थी।
एक बार श्रीमाताजी ने कहा, 'द्युमान, तुम्हारा दाहिना हाथ बताओ तो!' द्युमान का दाहिना हाथ देखकर श्रीमाताजी ने कहा, 'लक्ष्मीजी तुम्हारी मित्र हैं।' गणपति के साथ लक्ष्मीजी को भी द्युमान का मित्र बताया। भारी आर्थिक आपतकाल में गुजर रहे आश्रम को आवश्यक सम्पति मिलती रही।
देवों की समृद्धि के भंडारी का नाम कुबेर है। दूसरे विश्वयुद्ध के समय आश्रम के साधकों के दूर रहनेवाले परिवारजन व बच्चे सुरक्षा के लिये आश्रम में आश्रय लेने आ गये। इतने लोगों को कहाँ रखना, कैसे भोजन करवाना और आर्थिक सहायता का अभाव था? इस विकट परिस्थिति में चिंतित द्युमान पांडिचेरी के गांधीमार्ग पर आश्रम के लिये खरीददारी करने निकले थे, उस समय उन्हें अनुभव हुआ कि उनके सूक्ष्म शरीर में से कोई तेजोमय आकार प्रगट हुआ और अपना परिचय देते हुए बोला, 'मैं कुबेर हूँ देखो सबकुछ यहीं है। तुम्हें चिंता करने का कोई कारण नहीं है। ' वह तेजोमय आकृति फिर अदृश्य हो गई। परंतु द्युमान ने अनुभव किया कि आश्रम को जब भी पैसे की या वस्तु की आवश्यकता हुई तभी उस सूक्ष्म दिव्य भंडार से उन्हें आवश्यक वस्तु और पैसे मिलते रहे।
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२५ आज्ञाकारी सेवक
'आश्रम में आने के बाद मेरे कई मित्रों ने अलग-अलग भाषा सिखी, उन्होंने पुस्तकें पढ़ी, लेखन कार्य किया। कई नियमित समुद्र के किनारे भ्रमण को जाते, समुद्र के किनारे बैठते। परन्तु मैंने माताजी के काम के सिवाय दूसरा कुछ नहीं किया। मैं एक समय खिलाड़ी था, अखाड़ेबाज़ था, दौड़ में प्रथम आता था। आश्रम में आकर जब मैंने श्रीअरविन्द के दर्शन किये तब मुझ पर अपूर्व शांति उतर आई। उसी क्षण मेरी सभी विशेषताओं. का लोप हो गया, रह गई केवल सेवावृत्ति। बस, माताजी और श्रीअरविंद का काम रात-दिन करता रहा। मैं आश्रम के बाहर कहीं गया ही नहीं। कुछ देखा भी नहीं। मैंने तो आश्रम के खेल के मैदान में दिखाई जानेवाली फिल्म भी नहीं देखी क्योंकि उसके कारण मेरा काम अटक जाता। मेरे चौबीस घंटे सेवा में ही जाते हैं। माताजी और श्रीअरविंद की कृपा से मुझे कोई काम असम्भव नहीं लगा, यही मेरी साधना रही है।'
एक पत्र में द्युमान ने अपनी साधना के विषय में उपर्युक्त कथन लिखा था। श्रीअरविंद और श्रीमाताजी के कार्य ही उनकी जीवन साधना थी। अविरत कार्य के द्धवारा माताजी की अधिकतम सेवा करना, यह उनका जीवन ध्येय था। इसलिये जबतक श्रीमाताजी देह में थीं, तबतक वे पांडिचेरी के बाहर नहीं गये। उसके बाद केवल एक बार और वह भी माताजी के कार्य के लिये उड़िसा गये थे। उनकी अपने लिये तो समय ही कहीं था? कई बार तो रात - रात भर वे
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काम करते रहते। प्रतिदिन अठारह घंटे तक काम करना उनके लिये सामान्य था।
एक बार रात को वे माताजी के साथ काम करने लगे, उसमें इतने मग्न हो गये कि समय का ध्यान ही नहीं रहा। काम समाप्त हुआ, घड़ी देखी तो सबेरे के चार बजे थे। यह देखकर माताजी बोलीं, 'अरे द्युमान, चार बज गये।'।
'यस, मधर।'।
'चलो, फिर अब नया काम शुरु करें। सोने का समय तो चला गया। '।
'यस मधर। '
और फिर दोनों ने नया काम हाथ में ले लिया। इस प्रकार कई बार वे रातभर काम करते रहते थे।
श्रीमाताजी आश्रम के बाहर के व्यवहार और कार्यों के विषय में द्युमान पर बहुत निर्भर रहती थीं। इसीलिये उन्हें बार-बार द्युमान को पूछना पड़ता था। रात को भी माताजी देर तक काम करती रहती और उन्हें द्युमान से कुछ पूछना होता था। श्रीमाताजी को तकलीफ न हो और वे उन्हें तत्काल बुला सकें इसलिये माताजी के काम करने के कमरे के बाहर के बरामदे में वे सो जाते। श्रीमाताजी को काम होता तब अपने कमरे का दरवाजा खोलकर आवाज देती, 'द्युमान' और द्युमान तुरन्त उठ खड़े होते। ऊपर सीढि से जाने पर देर होगी इसीलिये आंगन में पड़ी हुई निसरणी को दीवार पर अड़ाकर ही रखते, ताकि माताजी बुलाए तो तुरन्त निसरणी से चढ़कर जा सकें, इसके लिये बरामदे या माताजी के कमरे के बाहर जमीन पर चटाई डालकर, तकिया रखकर वर्षों तक सोते रहे। इस प्रकार दिन हो या रात, अपने शरीर द्धवारा श्रीमाताजी का काम अधिक से अधिक हो, उसके लिये सदैव तत्पर रहते थे।
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१९३८ में श्रीअरविंद कै साथ दुर्घटना हो गई। उसके बादवेकयुम क्लीनर से श्रीअरविंद का कमरा साफ करने का काम श्रीमाताजी ने द्युमान को सौंपा था। अतिमानस के अवतरण की साधना के परिणाम से श्रीअरविंद की देह अत्यन्त तेजस्वी हो गई थी, अत: द्युमान को माताजी ने कहा था, 'तुम श्रीअरविंद का कमरा साफ करो तब श्रीअरविंद की और मत देखना।'
श्रीमाताजी के आज्ञाकारी इस सेवक ने पाँच वर्ष तक श्रीअरविंद का कमरा साफ करने का काम किया, पर एक बार भी उन्होंने श्रीअरविंद की और नहीं देखा। कैसी अद्दभूत आज्ञाकारिता। एकबार उन्हें श्रीअरविंद के कमरे की छत का एक पटिया ठीक करने का काम श्रीमाताजी ने सौंपा। इस पटिये में छेद करके भंवरी ने बिल बना दिये थे। द्युमान ने सीढ़ी लगाई, उस पर चढ़कर पटिये को वेकयुम क्लीनर से साफ किया और उसे सील कर दिया। यह सब उन्होंने इतनी सतर्कता से किया कि एक छोटा-सा कंकर भी नीचे नहीं गिरा। इस पटिये के ठीक नीचे श्रीअरविंद का पलंग था और वे सो रहे थे, पर उन्हें पता भी नहीं चला। सच में उनका यह काम सभी कार्यों से आत्यधिक कठिन था और वे जानते थे कि माताजी उनकी कसौटी कर रही हैं। इस कसौटी में वे सम्पूर्ण रूप से खरे उतरे।
श्रीमाताजी से साधक आए दिन माँग करते रहते। माताजी उनको पूरा करने के लिये द्युमान को बुलाकर कहती, 'द्युमान, ये वस्तुऐं लानी हैं, अथवा इतने रुपये चाहिये। ' दयुमान वह वस्तु या उतनी रकम श्रीमाताजी को तत्काल दे देते। श्रीमाताजी का कब किसकी आवश्यकता होगी, यह उन्हें पता होता था इसीलिये पहले से ही वस्तुएँ तैयार रखते थे, पर कभी- कभी श्रीमाताजी अचानक भी कुछ माँग लेतीं, इसलिये आश्रम में आनेवाली भेंट की राशि अपने पास सम्मालकर रखते थे, इस कारण श्रीमाताजी माँगे तब अपने इस
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कोष से तत्काल दे सकते थे। एक बार श्रीमाताजीने द्युमान से कहा,।'मुझे पच्चीस हजार रुपये की तुरन्त आवश्यकता है।'
'हाँ, माताजी! अभी लाता हूँ' और यह राशि उन्होंने तुरन्त लाकर दे दी, माताजी ने पूछा, 'तुम अब क्या करोगे?'
'मैं फिर से एकत्र कर लूँगा। ' माताजी को कभी आर्थिक तंगी न हो, इसके लिये वे बहुत सावधान रहते थे। श्रीमाताजी का अपना कोई व्यक्तिगत कमरा नहीं था। जिस कमरे में वे आराम करती थी, वह भी सार्वजनिक कमरा था। उसमें लोगों का आना-जाना लगा रहता था। इस कारण माताजी ठीक से आराम भी नहीं कर पाती थीं। एक दिन माताजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। क्रीडागण से जल्दी आ गई और युमान को बुलाकर कहा, 'द्युमान, तकिया लाओ, मुझे कुछ देर सोना है। ' द्युमान ने तकिया लाकर दिया। कमरे में अंधेरा करके माताजी ने आधे घंटे आराम किया। तब द्युमान को चिंता हो गई। वे सोचने लगे कि 'माताजी को दिन में आराम करना हो तो कहीं करेंगी? इस विषय में उन्होंने श्रीमाताजी से पूछा भी। फिर कहा, 'माताजी, यह तो सार्वजनिक कमरा बन गया है। आपके लिये एक अलग कमरा होना चाहिये, ऐसा आपको नहीं लगता है ?' तब माताजी ने कहा, 'क्या आवश्यकता है ?' तब द्युमान ने कहा, 'माताजी बहुत आवश्यक है, आपकी तबियत ठीक नहीं तब दिन में आप कहीं आराम कर पाएंगी? द्युमान के आग्रहपूर्वक आवश्यकता बताने पर उन्होंने कहा,
'ठीक है, कमरा बनाओ पर उस कमरे के लिये आश्रम के पैसे का उपयोग नहीं होना चाहिये, देखना।'।
'ठीक है माताजी, आश्रम का एक पैसा भी उपयोग में नहीं लेंगे। ' द्युमान ने मुम्बई में नवजात को पत्र लिखा कि, 'मुझे एक लाख
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रूपये भेजो। उससे माताजी के लिये कमरा बनाना है।' नवजात ने तुरन्त रुपये भेज दिये। द्युमान ने श्रीमाताजी के लिये विशेष रुप से कमरा बनवा दिया।१९६२ से श्रीमाताजी उस कमरे में रहने गईं, पर वहाँ भी परिस्थिति वही की वही रही। मुलाकाती, साधक, जन्मदिवस के आशीर्वाद लेनेवालों का आना-जाना लगा रहता था।
कई बार द्युमान को श्रीमाताजी से आश्रम के विषय में तत्काल कुछ पूछना या निर्णय लेना होता था और उस समय माताजी समाधि में (ट्रान्स में) चली गई हों तब द्युमान अपनी आत्मा द्धारा श्रीमाताजी के पास पहुँच जाते और उन्हें समाधि से जागृत करते। श्रीमाताजी अपने कमरे से बाहर आकर द्युमान को पूछती थीं कि, 'द्युमान, क्या बात है ?' तब द्युमान श्रीमाताजी से मार्गदर्शन ले लेते। श्रीमाताजी के साथ उनका इतना प्रगाढ़ आंतरिक सम्बन्ध था कि वे आत्मा बस श्रीमाताजी के पास पहुँच जाते थे। श्रीअरविंद ने ५ दिसम्बर१ १९५० की रात को १ बजकर २० मिनट पर देहत्याग किया उस समय माताजी अपने कमरे में समाधि में थीं। अब, श्रीमाताजी समाधि में हो तब उनके शरीर को स्पर्श करके जगाने की तो मनाही थी और श्रीमाताजी का इस घटना की तत्काल जानकारी देना अनिवार्य था। इसलिये फिर द्युमान को कहा गया कि, 'तुम माताजी को समाधि में से जागृत करो।' द्युमानने अपने आत्मिक सम्पर्क डाल माताजी को समाधि में से जगाया। ऐसी माताजी की चेतना के साथ द्युमान की प्रगाढ़ तद्रुपता थी।
उषाकाल से मध्यरात्रि तक द्युमान सतत् कार्यरत रहते थे। प्रतिदिन सवेरे छ: बजे और दर्शन दिवस हो तो सवेरे चार बजे भोजन कक्ष में पहुँच जाते। वहाँ की सारी व्यवस्था देखते, रसोईघर में रसोई की व्यवस्था पर दृष्टि डाल लेते। जो कुछ सूचनाएँ देनी हो या कुछ कहना हो तो कह देते। उसके बाद जब तक श्रीमाताजी देह में रहीं,
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२६. सेवाकार्य का विस्तार
जैसे-जैसे आश्रम का विस्तार होता गया, वैसे-वैसे द्युमान का कार्य भी बढ़ता गया। प्रारम्भ में उनका कार्य केवल भोजन कट्टर तक सीमित था और उसमें भी भोजन परोसने का ही कार्य था। पर जैसे- जैसे श्रीमाताजी उनकी सत्यनिष्ठ कार्यदक्षता को देखती गई वैसे-वैसे सहजरूप से उनके हाथ में अधिक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य आते गये। भोजन-कक्ष का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व तो उनपर था ही, फिर श्रीमाताजी और श्रीअरविंद की रसोई का कार्य भी उन्हें सौंपा गया। श्रीमाताजी के किसी भी कार्य के लिये उन्होंने 'नहीं' कभी नहीं कहा था। सदैव।'यस मधर' यही शब्द उनके मुख में रहता था। इसके उपरांत वे दिन में तीन बार श्रीमाताजी के: लिये नाश्ता-भोजन लेकर उनके कमरें में जाते थे और माताजी को भोजन करवाते थे। इस कार्य में उन्हें असीम आनन्द मिलता था। जैसे साक्षात अन्नपूर्णा के लिये वे भोजन ले जाते हों। श्रीमाताजी को जब भी आवश्यकता हो तब उनके काम के लिये चौबिसो घंटे वे तत्पर रहते थे।
१९५५ में आश्रम की व्यवस्था के लिये ट्रस्ट बनाया गया। उसमें श्रीमाताजी मेनेजिंग ट्रस्टी बनीं और शेष चार द्रस्टियो की नियुक्ती हुई। उसमें द्युमान को भी ट्रस्टी बनाया गया। जब उनको पता चला तो वे श्रीमाताजी के पास गये और हाथ जोड़कर विनती करते हुए कहा, 'मैंने सुना है कि आपने मुझे आश्रम के ट्रस्टी मंडल में लिया है, पर क्यों? मैं तो आपका सेवक हूँ और मुझे सेवक के रूप में ही काम करने दो। आप किसी और को नियुक्त कर लो। ' तब श्रीमाताजी ने
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उन्हें कहा, 'दयुमान, मुझे तुम्हारी आवश्यकता है।' उसके बाद वे एक शब्द भी नहीं बोले। श्रीमाताजी की व्यवस्था को उन्होंने स्वीकार कर लिया। ट्रस्टी बनने से उनके कार्य बहुत बढ़ गये। सरकार के साथ पत्रव्यवहार, साधकों के साथ पत्रव्यवहार, आश्रम के निर्माण का निरीक्षण करना, मीटिंग में उपस्थित रहना, भेटकर्ताओ से मिलना आदि अनेक काम बढ़ गये। इसमें भी जब अमृतभाई ने देह छोड़ी तब उनके सेन्ट्रल ऑफिस का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व भी दयुमान पर आ गया। यह ऑफिस भी उन्होंने कुशलतापूर्वक सम्भाल लिया उपरांत उन्हें यदि आंतरिक प्रेरणा होती तो उसके अनुसार कार्य बढ़ाते जाते थे।
१९६० का वर्ष 'लीप ईयर' था। १९५६ फरवरी की २९ तारीख को श्रीमाताजी ने क्रीडागण में 'अतिमानस के अवतारण' की घोषणा की थी। अब यह तिथि २९ फरवरी १९६० में आ रही थी। द्युमान की इच्छा थी कि इस दिन का उत्सव भव्यरूप से किया जाये। उस दिन 'अतिमानस' का सुवर्णप्रकाश पृथ्वी पर उतरा था, इसलिये इस दिन सब कुछ सुवर्णरंग का बने और इस दिन को कुछ झोंकी लोगों को हो, ऐसी उनकी आंतरिक इच्छा थी। उन्होंने श्रीमाताजी के समक्ष अपनी इच्छा बतायी। तब श्रीमाताजी ने उनसे पूछा, 'अतिमानस अवतारण का वह दिन फिर दृश्यमान हो, ऐसा कुछ करना है? 'हाँ माताजी। द्युमान बोले।
श्रीमाताजी को उनकी योजना अच्छी लगी, उन्होंने सहमति दे दी। श्रीमाताजी की सहमति मिलते ही उन्होंने तुरन्त तैयारी शुरु कर दी और २२ फरवरी १९६० का वह दिन आश्रम में सबके लिये अविस्मरणीय बन गया। अतिमानस जगत कैसा होगा? स्वर्णिम प्रकाश में प्रकाशित वस्तुएँ केसी भव्य और दिव्य होगी, उसकी झोंकी द्युमान ने सभी को करवा दी।
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ध्यान खंड में सुवर्णरंग के साटीन के परदे लगाए गए थे और उसमें प्रकाश भी सुवर्ण रंग का प्रसारित हो रहा था। जैसे सचमुच पूरा ध्यान खंड ऊर्ध्व में से सीधा पृथ्वी पर उत्तर आया हो! श्रीमाताजी के पूरे कमरे में सुवर्ण रंग का साटीन बिछा हुआ था, ताकि उस पर चलकर श्रीमाताजी झरोखे में दर्शन देने जा सके। उनके वस्त्र भी सुवर्ण रंग के थे, उस चोगे के बटन सोने के थे। उस दिन उन्होंने जिन-जिन वस्तुओं का उपयोग किया वे सभी सुवर्णरंगी थी। साधकों को स्मृति चिह्न दिया गया उस पर भी सोना चढ़ा हुआ था। उस दिन साधकों को जो वस्त्र दिये गये वे भी सुवर्ण रंग के थे। साड़ी की किनारी भी स्वर्णिम थी। दिन में तो ऐसा लग रहा था कि जैसे समग्र आश्रम सुवर्णरंगी प्रकाश की आभा से झिलमिला रहा है और रात को? रात को 'सर्विस ट्री-समाधि के पास के वृक्ष में सजायै गये असंख्य बल्ब - जैसे आकाश के तारे अतिमानस का दिव्य प्रकाश लेकर समाधि के वृक्ष पर आकर बैठ गये हों। रात्रि की नीरवता में सर्विस का यह वृक्ष अतिमानस वृक्ष अतिमानस प्रकाश से झिलमिलाता वृक्ष बन गया हो! कोई अलौकिक दिव्य सृष्टि, जिसकी मानव मन कल्पना भी नहीं कर सकता हो, वहाँ खड़ी हो गई थी। इसके पीछे कितने दिनों की युमान की मेहनत थी। उनका भगीरथ परिश्रम सार्थक हो गया था।
बाहर के अतिथि ही नहीं, आश्रमवासी तक इस स्वर्णिम आविर्भाव से आनंदित हो गये थे। बाद में श्रीमाताजी ने उन्हें बुलाया,।'अब मैं तुम्हें यह कहूँ कि इन सभी वस्तुओं को वापस बेच दो तो ?'।'माताजी, बेच दूंगा।' जरा भी अटके बगैर उन्होंने कहा। कैसा अनासक्त, तटस्थ और निर्लिप्त व्यक्तित्व। इतना भव्य सर्जन और फिर दूसरे ही क्षण उससे एकदम निर्लिप्त हो जाना।
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१९७३ में नवम्बर १७ तारीख शाम को ७-१५ बजे श्रीमाताजी ने शरीर छोड़ दिया, परन्तु श्रीमाताजी ने नलिनीकान्त, द्युमान को और उनके साथियों को ऐसा तैयार किया था कि माताजी देह में थीं, तब आश्रम की सभी प्रवृत्तियों जिस प्रकार चलती थीं, उसी प्रकार चलती रहें। द्युमान ने आश्रम का वित्तीय पक्ष सम्भाल किया था, वैसे भी नलिनीकान्त और प्रधुत जैसे वरिष्ठ साधकों के देहत्याग के बाद द्युमान का उत्तरदायित्व बहुत बढ़ गया था। वे इस नये कार्यभार को श्रीमाताजी डाल दी गई अपनी प्रबल आंतरिक शक्ति से उठाते रहे। मेनेजिंग ट्रस्टी कुन्नुमा के अवसान के बाद आश्रम के मेनेजिंग ट्रस्टी का उत्तरदायित्व भी उनके सर पर आ गया। इसको भी उन्होंने श्रीमाताजी का आदेश समझा। दर्शन-दिनों में तो उषाकाल से सायंकाल तक वे दर्शन-संदेश और ब्लेसिंग पैकेट देने के कार्य में व्यस्त रहते थे। उपरांत इन दिनों में भोजन कक्ष का काम बढ़ जाता था। मुलाकातियों का आनाजाना भी बढ़ जाता, फिर भी प्रसन्नतापूर्वक, जरा भी थके बगैर, थे सभी कार्य अपनी विशिष्ट शैली से करते रहते थे। १९७१ में श्रीमाताजी ने उन्हें एक बार कहा था, 'द्युमान, श्रीअरविंद तुम्हें देख रहे हैं, वे तुम पर बहुत प्रसन्न हैं' और अब यह भी कह सकते हैं कि, ' श्रीमाताजी उन्हे देख रही थीं और वे अत्यन्त प्रसन्न थीं। ' श्रीअरविंद और श्रीमाताजी की उन पर अविरत दृष्टि उन्हें इतने कार्य करने की प्रेरणा और शक्ति दे रही थी।
१९७८ का वर्ष श्रीमाताजी का जन्म शताब्दी का था। द्युमान ने इस वर्ष का उत्सव भी स्मरणीय बना दिया। प्रत्येक दर्शनार्थी को श्रीअरविंद और श्रीमाताजी के स्मृतिचिह्न भेंट में मिले और उन्हें वे अपने पास सदा रख सके, ऐसा आयोजन किया। उनके पास श्रीमाताजी की उपयोग की हुई साड़ियों पड़ी हुई थीं। इन साड़ियों के एक-एक इंच के चौकोर टुकड़े करवाये और इसी प्रकार श्रीअरविंद की
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धोती के टुकड़े करवाये। दोनों टुकड़ोंको क्लात्मक रूप से एक फ़ोल्डर में चिपकाया गया। ये कलात्मक फ़ोल्डर श्रीमाताजी के जन्मदिन पर दर्शन के लिये आए साधकों को द्युमान के हाथों से मिले। श्रीअरविंद और श्रीमाताजी की ऐसी अमूल्य स्मृति भेंट प्राप्त करके दर्शनार्थियों ने धन्यता का अनुभव किया।
१९८६ अप्रैल की चार तारीख को श्रीअरविंद को पांडिचेरी आए ७५ वर्ष हो गये थे। द्युमान को अंतःप्रेरणा हुई कि इस दिन का उत्सव सुन्दर होना चाहिये। श्रीअरविंद १९१० १० अप्रेल की ४ तारीख को सर्वप्रथम पांडिचेरी आए थे तब वे पहली बार शंकर चेट्टी के मकान में रहने गये थे। वहाँ उपरी मंजिल पर उन्होंने गहन साधना की थी। अब द्युमान ने सोचा कि हम शंकरचेट्टी के मकान के उस कमरे में जाकर ध्यान और प्रार्थना द्द्वारा श्रीअरविंद को अंजलि दें, पर यह मकान किसी ऐसे व्यक्ति के अधिकार में था जो आश्रम से जुड़े हुए नहीं थे, पर इससे क्या हुआ? द्युमान तो जाकर सीधे उसके मालिक से मिले और सारी बात बताई तो मकान मालिक ने प्रसन्नतापूर्वक इस कमरे में आकर ध्यान- प्रार्थना करने की अनुमति दे दी। फलस्वरूप आश्रमवासी श्रीअरविंद के पांडिचेरी में सर्वप्रथम निवास के दर्शन कर सके। द्युमान को अंतःकरण में प्रेरणा होते ही वे उसका क्रियान्वयन करके तत्काल प्रयत्न प्रारम्भ कर देते थे। कौन करेगा, कैसे होगा, आदि प्रश्न उनकी मन की भूमिका पर उठते ही नहीं थे। बस प्रेरणा हुई और वह कार्य में परिणित हो जाती। इसी कारण द्युमान अनेक कार्य तीव्रता से कर सकते थे।
१९९३ में श्रीअरविंद आश्रम की शाला के स्थापना के ५० वर्ष पूरे होने से उसकी स्वर्णजयंती मनाने का विचार आया। इसके लिये वे स्कूल की प्रिन्सीपाल पारूदी और फिज़ीकल एज्यूकेशन के अध्यक्ष प्रणवदा को मिले। उनके साथ मिलकर उत्सव के कार्यक्रम की
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रूपरेखा तैयार की और कार्य आरम्भ किया। अब तक के आश्रम के विद्यालय में पढ़कर देश-विदेश गये हुए आश्रम के सभी भूतपूर्व विधार्थियों को इस उत्सव में सम्मिलित होने का निमन्त्रण देना था। इसी लिये शीघ्रता से सभी विधार्थियों के पते एकत्रित किये गये। सभी तैयारी हो गई, पर उत्सव के पहले ही वे चल बसे परच आश्रम की परम्परा के अनुसार उत्सव मनाया गया।
आंतरिक सूझ, त्वरित निर्णय शक्ति, आयोजन के अनुसार तुरन्त कार्य हाथों में लेकर पूरा करने की वृत्ति के कारण द्युमान के सभी कार्य आश्रम की परम्परा के अनुसार सार्थक ढंग से हुए। जैसा द्युमान का लेखन सीधा, सचोट और संक्षिप्त होता था वैसे ही उनका कार्य भी सीधा, सचोट और अविलम्ब होता था।
एक दिन वे प्रातःकाल भोजनालय का निरीक्षण करके वापस आए तब उन्हें आश्रम के दरवाजे के पास रखी हुई एक साइकल दिखायी दी। उसकी सीट पर कवर नहीं था, इस पर ध्यान गया। तीन चार दिन तक देखते रहे। फिर मन में विचार आया कि 'बिचारा सवेरे जल्दी नलिनीदा के ऑफिस में काम करने आता होगा और कवर खरीदने का उसे समय नहीं मिलता होगी।' यह सोचकर उन्होने सीट का नया कवर खरीदकर उस पर चढ़ा दिया! बस काम हो गया, फिर उस व्यक्ति को पता चले या न चले, इसकी परवाह नहीं थी। पर जब उस मनुष्य को पता चला कि यह काम द्युमान ने किया है तो वह गद्गद हो गया। इस प्रकार शुभ विचार को तत्काल अमल में लाने का उनका स्वभाव था। ऐसा ही त्वरित कार्य उन्होंने आश्रम के थियेटर में किया। एक बार वे आश्रम के थियेटर में गए, वहीं कार्यकर्ता नाश्ता कर रहे थे। उन्होंने देखा कि वे अलयुमिनियम की प्लेटों में नाश्ता कर रहे है। उन्होंने दूसरे दिन नाश्ते के लिये स्टेनलेस स्टील की प्लेटें भेज दी।
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इस प्रकार अनेक कार्य उनकी दृष्टि में आ जाते थे।
आश्रम में आए तब से आश्रम में शरीर से विदा ली तब तक सतत् इसी प्रकार काम करते रहें। श्रीमाताजी के लिये कार्य करने का आनन्द, उत्साह इतना छलकता था कि उस कार्य में उनकी बढ़ती उस कभी अवरोधक नहीं बनी। जबकि जैसे-जैसे उनके कार्य का विस्तार होता गया वैसे-वैसे उनकी शक्ति बढ़ती गई। श्रीमाताजी के कार्य के प्रति उनका लगाव इतना अधिक था कि उन्होंने एक बार कहा था कि,।'जब मेरी मृत्यु होगी और तुम मेरे शरीर को चिता पर रखोगे और जलाओगे तब मेरी आत्मा तो कूदकर बाहर निकल कर तुरन्त दूसरा जन्य ले लेगी, जिससे माताजी का काम अधिक से अधिक कर सके।'
श्रीमाताजी के कार्य के प्रति उनकी ऐसी उत्कट प्रीति थी।
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२७. दूरदर्शिता
इसके लिये रसोईघर की तैयारी पहले करनी थी। इतने अधिक मनुष्यों के लिये तीन समय के भोजन की व्यवस्था करना सरल नहीं था। इसकी तैयारी रसोईघर से प्रारम्भ की। रसोई में भाप से भोजन बने उसके लिये बॉयलर जुलाई १९६९ में उसी दिन आया जिस दिन नील आर्मस्ट्रोंग और उनके दो साथियों ने चन्द्रमा की धरती पर पैर रखे। यह 'स्टीम-कुकींग' रसोई के लिये आशीर्वाद रूप बन गया। १९७२ में श्रीअरविंद शताब्दि का भव्य आयोजन था जो स्वप्न द्युमान ने देखा था, वह भी उन्होंने पूरा किया। एक साथ बीस हजार ' से भी अधिक मनुष्यों की रसोई बन सके ऐसा वैज्ञानिक, आधुनिक उपकरण के उपयोग वाला, मंदिर जैसा स्वच्छ रसोईघर देखने के लिये आज देश विदेश से लोग आते ई। इसके पीछे द्युमान का अथक परिश्रम और दीर्घदृष्टि है।
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द्युमान ने देखा कि पांडिचेरी की जनसंख्या बढ़ती जा रही है। आश्रम में साधकों की संख्या भी भविष्य में बढ़नेवाली है। इस कारण आश्रम को मकान किराये का खर्च भी बढ़ता जाएगा इसलिये आश्रम का अपना निवासस्थान होना चाहिये। मकानमालिकों की दया पर आश्रम नहीं निभ सकेगा। इस समय आश्रम का आर्थिक आपातकाल समाप्त हो चुका था और निधि एकत्रित होने लगी थी, इसलिये द्युमान ने निर्माण कार्य पर ध्यान केन्द्रित करवाया। 'न्यूक्रिएशन देखने जाते। उनकी इस दूरदर्शिता के परिणाम से आश्रम भविष्य में होनेवाली आवास की बड़ी तंगी से बच गया।
द्युमान ने सोचा कि आश्रम को अनाज के सम्बन्ध में स्वावलम्बी होना चाहिये। इसलिये जैसे-जैसे धन की सुविधा होती गई वैसे-वैसे उन्होंने उजाड़, वीरान जमीन सस्ते भाव से खरीद ली और अपने संकल्पमय पुरुषार्थ से उस जमीन को फलद्रुप बनाया। रासायनिक खाद के उपयोग के बगैर, केवल देशी खाद का उपयोग करके जमीन में से वे गेहूँ चावल, फल और शाक-भाजी की भरपूर फसल लेने लगे। इसी प्रकार उन्होंने चावल, नारियल और फलों को बाहर से नहीं मँगाना पड़े, ऐसी व्यवस्था कर दीं।
आश्रम के साधकों को गाय का शुद्ध दूध मिले, इसके लिये गोशाला भी होनी चाहिये, यह सोचकर द्युमान ने गोशाला का काम शुरू किया। उत्तम गायें मँगवायी, उनकी देखभाल की, गोपालन की पुस्तकों का अध्ययन करके एक आदर्श गौशाला खड़ी कर दीं। दूध के लिये भी उन्होंने आश्रम को स्वावलम्बी बना दिया। इस काम में उन्हें योग्य सहयोगी मिलते रहे। इतना ही नहीं, श्रीमाताजी ने दूध पीना छोड़ दिया था. पर द्युमान की गौशाला की प्रशंसा सुनकर उन्होंने दूध मँगाया और पीया, फिर तो वे भी गौशाला का दूध नियमित लेने लगीं।
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अपनी भावी योजना को साकार करने के लिये द्युमान सतत् प्रयत्नशील रहते थे, अत: बहुत अधिक काम करना पड़ता था, वे कभी विचार नहीं करते थे या पूंजी कहीं से आएगी उसकी भी चिंता नहीं करते थे। बस उनके अंतर से लगता कि आश्रम के भावी विकास के लिये इस काम को करना आवश्यक है तो पैसा न हो तो भी काम प्रारम्भ कर देते और फिर पैसा कहीं न कहीं से उन्हें मिल ही जाता था। उन्हें विचार आया कि आश्रम की प्रवृत्तियों और श्रीमाताजी की एक डॉकयुमेंट्री फिल्म बननी चाहिये, जिससे भविष्य में बालकों की श्रीमाताजी कैसी थीं, कैसे काम करती थी इसकी जानकारी मिले। 'श्री ओरोबिंदो आश्रम-फॉर चेप्टर्स' अजीत बोस द्धारा बनाई गई इस फिल्म के पैसे किसने दिये, इसका किसी को पता नहीं चला और किसीने जानने का प्रयल भी नहीं किया। आज इस फिल्म का मूल्यांकन नहीं कर सकते। देश-विदेश के केन्द्रों में इस फिल्म के द्धारा असंख्य लोग वास्तविक जीवन में श्रीमाताजी की कार्यवाही को देख सकते हैं। इसके पीछे भी दयुमान की दीर्घदृष्टि रही है।
इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री थीं, तब आश्रम में आयी थीं। वे आश्रम के मुल्य निवास में पवित्रदा था। द्युमान नै सोच रखा था कि आवश्यक हुआ तो वे स्वयं इंदिरा गांधी के संत्री बनकर पूरी रात पहरा देंगे। उन्होंने यह किया भी। संत्री को वापस भेजकर उन्होंने स्वयं ही इंदिराजी की चौकीदारी की। दीर्घदृष्टि के साथ प्रत्युत्पनमति भी उनकी तेज थी अत: वे त्वरित कार्य कर पाते थे।
श्रीअरविंद नीरोदबरन से 'सावित्री' महाकाव्य लिखवाते थे। इस कारण द्युमान ने सोचा कि नीरोदबरन के मुख से सम्पूर्ण सावित्री की पंक्तियों बुलवाकर रिकार्ड की जाये तो भविष्य की पीढ़ी को पता चले कि जो 'सावित्री' का पवन कर रहे हैं, उन्हीं से श्रीअरविंद ने
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सम्पूर्ण 'सावित्री' महाकाव्य लिखवाया है। इस विचार को उन्होंने तुरन्त क्रियान्वित करना शुरू किया। नीरोदबरन को उन्होंने अपनी योजना समझायी और उनकी सहमति ले ली। इस काम के लिये महीने में दो बार वे नीरोदबरन को अपने साथ ग्लोरिया फार्म पर ले जाते थे। इस विषय में नीरोदबरन ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि 'हम दोनों महीने में दो, तीन बार ग्लोरिया फार्म जाते, वहाँ मनीन्द्र मुझसे 'सावित्री' का पाठ बुलवाकर रिकार्ड करता था। इस प्रकार क्रमश: सम्पूर्ण सावित्री' महाकाव्य का रिकार्ड हुआ। उसके कैसेट मनीन्द्र के पास हैं। इसके पीछे द्युमान का क्या आशय था, मुझे नहीं पता। शायद मनीन्द्र जानता हो, पर द्युमान ने मुझसे 'सावित्री' का रिकार्डिंग इसलिये करवाया होगा कि श्रीअरविंद के पास बैठकर उनके बोले गये 'सावित्री' के मूल पाठ को मैंने सुना था और लिखा था। इसके उपरांत श्रीअरविंद को मैंने 'सावित्री' पढ़ते हुए सुना था, पर उन्ही की शैली में 'सावित्री' का पुन: प्रस्तुतिकरण मैंने किया है, ऐसा मानना सही नहीं है। '
चाहे नीरोदबरन ने उसी शैली में 'सावित्री' का पठन न किया हो, फिर भी उन्होंने कितनी बार श्रीअरविंद के मुख से 'सावित्री' को सुना था। इसीलिये सहज रुप से ही उनके उच्चारण आ जाये, यह स्वाभाविक था। शायद 'सावित्री' का इस रिकार्डिंग के पीछे द्युमान का हेतु कुछ और हो सकता है पर समग्र 'सावित्री' का पठन नीरोदबरन के मुख से करवाकर नई पीढ़ी के लिये उन्होंने एक खजाना सुरक्षित कर लिया है।
द्युमान के पास आश्रम के भावी रूप का दर्शन था। वे बहुत दूर तक देखते थे और उन्होंने इस प्रकार आश्रम के कार्यों का विकास किया कि आश्रम का यह भावी स्वरूप मूर्तिमंत होता चला गया।
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२८. दिव्य कृषक
द्युमान की वृक्षों के साथ बचपन से ही आत्मीयता थी। डी. एन हाईस्कूल, आणंद में बोये गये और छुट्टियों में पाँच-छ: मील पैदल चलकर केवल वृक्षों को पानी पिलाने आनेवाले किशोर के हृदय में धरती के प्रति, वृक्षों के प्रति असीम प्रेम था, वह उनके समग्र जीवन भर बढ़ता गया। पाटीदार के रूप में कृषि इनका परम्मरागत व्यवसाय था। धरती के साथ उनका जन्म से नाता था, परन्तु आश्रम में आने के बाद अनेक प्रवृत्तियों में व्यस्त रहने के कारण धरती के साथ आत्मियता व्यक्त करने का उन्हें समय ही नहीं मिलता था। परन्तु श्रीमाताजी का कार्य करनेवाले, उन्हें समर्पित, उनके बालकों में जो सुषुप्त बीज पड़े होते हैं उसे अचूक अंकुरित और विकसित होने का अवसर और वातावरण मिल ही जाता है। फिर चाहे बाहर के कार्यों का दबाव इतना अधिक होता है कि अपने अन्दर की शक्तियों को प्रगट करने का समय नहीं मिल रहा है, ऐसी स्थिति के बावजूद भी ये शक्तियों प्रगट हुए बगैर नहीं रहती हैं। यही तो श्रीमाताजी की विशिष्टता है। इसी प्रकार अत्यधिक कार्यों के बीच भी चम्पकलाल ने उत्तम चित्र बनाए। पूजालाल ने सुन्दर काव्यों का सृजन किया। अम्बुभाई पुराणी ने श्रीअरविंद के साहित्य को गुजराती रूप दिया और अच्छे गधकार के रूप में जाने गये। नीरोदबरन डॉक्टर होने के साथ उत्कृष्ट कवि बने। इस प्रकार प्रत्येक साधक की आंतरिक शक्ति को श्रीमाताजी प्रगट होने का अवसर देती थीं। द्युमान के सम्बन्ध में भी यही हुआ। उनका धरती से प्रगाढ़ नाता था। यह नाता आश्रम में आकर इतना मजबूत बना कि धरतीमाता प्रसन्न होकर, अपने इस लाडले पुत्र के समक्ष अपनी समृद्धि प्रगट करती रहीं।
आश्रम के लगभग दस किलोमीटर दूर एक सरोवर था। वहाँ आसपास की जमीन उबड़-खाबड़, पथरीली और वीरान थी। आश्रम
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ने इस जमीन को खरीद लिया। आजकल यह 'लेक-एस्टेट' के रूप में जानी जाती है। सुन्दर बाग बगीचे से नंदनवन जैसी है, पर उस समय यह जमीन ऐसी पथरीली और बंजर लगती थी कि देखनेवालों को ऐसा लगता था कि यह जमीन किसलिये खरीदी गई होगी? एक बार युमान बाहर से आए मेहमानों को लेकर सरोवर पर गये थे, तब उस जमीन पर थे क्या - क्या पैदा करना चाहते हैं और इस जमीन को वे कैसे उपयोगी बनाना चाहते हैं, इसकी बातें उन मित्रों से उत्साहपूर्वक - कही। तब मित्रों ने कहा, 'ऐसी पथरीली जमीन में क्या उगेगा? यह तो एकदम बेकार है। ' यह सुनकर द्युमान तो कुछ नहीं बोले, पर उनके सहयोगियों ने कहा, 'अच्छी उपजाऊ जमीन पर तो सब कोई पैदावार कर सकते हैं, पर हमारे आश्रम की यही विशेषता है कि वह असम्भव को भी सम्भव बना देता है। '
यह सुनकर उन मित्रों को लगा कि, 'यह मनुष्य अपनी बड़ाई कर रहा है। ' पर भविष्य ने बता दिया कि यह वास्तविकता थी। उस बंजर जमीन पर द्युमान ने साधना की। उस जड़ जमीन में उन्होंने चैतन्य का आविर्भाव किया। अथक परिश्रम करके उसे खेती के योग्य बना दिया। उसमें फलों के वृक्ष बोए, परन्तु बाद में ग्लोरिया फार्म का काम बढ़ने से यह 'लेक-एस्टेट' और उसकी जमीन उन्होंने दूसरे कार्यकर्ताओं को सौंप दी। आज तो वह बंजर जमीन उपवन बन गई है। हज़ारों नारियल के पेड़ हैं, नींबू-आम के पेड़ हैं। फूलों के सुन्दर बगीचे हैं जिसके ताजे फूलों से श्रीअरविंद-श्रीमाताजी की समाधि का शृंगार होता है। इसके उपरांत एक छोटी गौशाला भी वहाँ चल रही है।
एक बार द्युमान ने भोजनालय के अपने साथी वेदप्रकाश से कहा, 'चलो, मेरे साथ, हमें एक जमीन देखने जाना है।' आश्रम से लगभग १७ किलोमीटर दूर, लगभग सौ एकड़ से अधिक यह जमीन थी। वेदप्रकाशजी लिखते हैं कि, 'जमीन सूखी, प्यासी, उजाड़, चेतनारहित थी l इस जमीन पर शायद ही किसी प्राणी या मनुष्य के
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द्युमान ने श्रीमाताजी को इस विषय में बताया। श्रीमाताजी ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि, 'मेरे पास इस जमीन को खरीदने के पैसे नहीं हैं।' कुछ रुक कर फिर उन्होंने अनेक तीखे प्रश्न किये। द्युमान पर काम का अत्याधिक बोझ था, इसलिये माताजी अब नया काम लेने को तैयार नहीं थी। पर द्युमान इस जमीन के लेने के विषय में दृढ़ संकल्प थे। उन्होंने श्रीमाताजी के तीखे प्रश्नों का विनम्रता से उत्तर दिया और कहा, 'पैसे का प्रबन्ध मैं कर लूँगा।' श्रीमाताजी ने सहमति दे दी। बस, द्युमान को इतना ही चाहिये था। श्रीमाताजी का आशीर्वाद मिलते ही वे प्रसन्न हो गये, जैसे उन्हें हमेशा के लिये एक अमूल्य खजाना मिल गया। श्रीमाताजी ने इस जमीन को नाम दिया 'ग्लोरियालेंड' - 'द ग्लोरी ऑन अर्थ'। अब वे इस जमीन के टुकड़े में अंतर्निहित ऐश्वर्य को प्रगट करने के काम में लग गये। जिस जिसने सुना कि द्युमान इस जमीन पर काम कर रहे हैं उन्होंने द्युमान को पागल धुनी आदमी कहा। उनकी इस धुन को देखकर लोग हँसने लगे। लगभग प्रतिदिन सभी उनको यही कहते कि, 'ऐसी जमीन पर कुछ पैदा होगा? यह तो निरा पागलपन है। बिलकुल व्यर्थ परिश्रम कर रहे हो!' कितने ही वर्षों तक लोगों के मुंह से उन्होंने ये बातें सुनी पर द्युमान अपने संकल्प पर अडिग रहे। अकेले जूझते रहे। इस बंजर धरती की गहराई में स्थित सौन्दर्य को बाहर लाने के लिए कठोर परिश्रम करते रहे। वे प्रतिदिन 'ग्लोरिया' जाते। वर्षा हो, ठंड हो या
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झुलसानेवाली गर्मी हो, एक भी दिन ऐसा नहीं होता था कि वे।'ग्लोरिया' न गये हों। कभी-कभी तो दिन में दो बार जाते थे। इसमें रविवार की छुट्टी भी नहीं होती थी। भूमि को तैयार होने में वर्षों लग गये, भूमि की आत्मा जाग उठी। भूमि, आत्मा और सूर्य जैसे एक हो गये। उन्होंने इस भूमि में मानवजाति के लिये और भविष्य के लिये श्रीमाताजी का संदेश सुनाया, 'जहरीले रसायन और दवाइयों से पृथ्वी माता को दूषित मत करना. ' और इस संदेश के अनुसार उन्होंने इस भूमि पर वर्षों पहले खेती की। धरती को प्रसन्न करके ढ़ेरों फसल प्राप्त की। श्रीमाताजी ने सम्मति देते समय आरम्म में ही शर्त रखी थी कि रासायनिक खाद से खेती नहीं करनी है। द्युमान ने इस शर्त का पालन किया।
एक पत्र में उन्होंने लिखा था, 'ग्लोरिया' में और जड़ पदार्थ में योग का एक नया अध्याय प्रारम्भ किया। हमने रासायनिक खाद का उपयोग नहीं किया। जंतुनाशक दवाइयों का उपयोग नहीं किया, फिर भी अच्छी फसल प्राप्त की। श्रीमाताजी ने मुझे एक बार पूछा था कि, 'द्युमान, तुम विषैली दवाइयों का उपयोग तो नहीं करते हो न?' 'नहीं माताजी, गोबर का खाद, अन्य देशी खाद, पानी और सूर्यप्रकाश यही हमारे फसल उगाने के साधन हैं। ' हमने देशी खाद का उपयोग करके जल और सूर्य की सहायता से धरतीमाता की सेवा की, उसकी चेतना जगायी है। उसे उर्वरा बनाया है, विकृत नहीं किया है। इसलिये वह हमें बहुत अच्छी फसल देती है। 'ग्लोरिया' की जमीन में धान बहुत होता था, द्युमान ने एक वर्ष में दो बार धान की फसल ली। इससे चावल का उत्पादन दुगुना हो गया। आश्रम की आवश्यकता से अधिक चावल होने से बाजार में बेचना प्रारम्भ किया, इससे आमदनी भी हो गई। यधपि वहाँ की जलवायु गेहूँ के लिये ठीक नहीं थी फिर भी द्युमान ने वहाँ गेहूँ बोने के प्रयोग किये और गेहूँ का उत्पादन भी होने लगा। आलू उगाने के प्रयोग किये तो आलू भी होने लगे। इसके उपरांत केले, आम, अन्य
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फल, शाकभाजी और नारियल आदि अच्छे प्रमाण में उत्पन्न हो रहा है। आश्रम की आवश्यकता के बाद जो अधिक पैदा होता उसे बाहर बेचा जाता है। धरतीमाता की अनन्य भाव से सेवा करने से वह प्रसन्न होती है तो धनधान्य के ढ़ेर कर देती है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण द्युमान और उनके साथियों की सेवा से होनेवाला 'ग्लोरिया' का उत्पादन मान सकते हैं।
आज यह 'ग्लोरिया फार्म' देश विदेश में प्रसिद्ध है। कृषि विशेषज्ञ विशेष तौर पर यहाँ आते हैं। भारत की केन्द्र सरकार कै कृषि विभाग के अधिकारी 'ग्लोरिया' यदा-कदा आकर, किसी भी रासायनिक खाद का उपयोग किये बगैर इतनी अधिक फसल देखकर आश्चर्य व्यक्त करते हैं। 'ग्लोरिया' की जमीन खरीदने के बाद द्युमान ने आसपास के खेत भी खरीद लिये। उसमें 'अन्नपूर्णा फार्म' भी था। यह जब खरीदी थी तब यह जमीन भी बंजर थी। द्युमान और उनके सहयोगियों ने परिश्रम करके धरती को मुलायम बनाया। चार वर्ष में तो यह जमीन भी 'ग्लोरिया' जैसी उर्वरा हो गई। इतना अच्छा उत्पादन देखकर 'ओरोविल' के लोगों ने माँग की कि, 'यह तो ऑरोविल के हिस्से की जमीन है। अन्नपूर्णा हमारा है, हमें दे दो।' द्युमान ने इस जमीन में भगीरथ परिश्रम किया था। लाखों रुपये खर्च करके उसे खेती के योग्य बनाया था। अब जब कि जमीन उर्वरा बनकर फसल देने लगी, तब ऑरोविल वासियों ने माँग की, जब जमीन खरीदी तब क्यों नहीं बोले? - ऐसा उनके मन में लग रहा था, फिर भी द्युमान ने पूरी जांच-पड़ताल की, जमीन के नक्शे प्राप्त किये और देखा कि यह जमीन ऑरोविल के हिस्से में नहीं आती थी। उन्होंने श्रीमाताजी के सामने सारा वृत्तांत बताया और कहा कि,।'उनकी यह माँग उचित नहीं है।' पर श्रीमाताजी तो करुणामयी थी, उन्होंने ऑरोविल वासियों पर कृपा बरसायी। यह ' अन्नपूर्णा फार्म' उन्हें मिले इसके लिये द्युमान को कहा, 'अन्नपूर्णा फार्म' उन्हे दे दो। वे लोग भी अपने ही हैं न्? श्रीमाताजी का आदेश द्युमान के लिये
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सर्वस्व था। उन्होंने जरा भी हिचकिचाये बगैर, इतने परिश्रम से सींचकर हराभरा बनाया 'अन्नपूर्णा फार्म' श्रीमाताजी को आज से सहजरूप से दे दिया। इतना ही नहीं श्रीमाताजी ने उन्हें कहा कि,।'ग्लोरिया' की गौशाला का पाँच हजार लीटर दूध भी उन्हें प्रतिदिन दो...। ' इस प्रकार अन्नपूर्णा और दूध दोनों श्रीमाताजी की कृपा से ऑरोविलवासियो को मिले।
जीवन के अन्तिम दिनों तक द्युमान 'ग्लोरिया' के साथ जुड़े रहे। उनके शरीरत्याग के छः दिन पहले, १३ अगस्त १९९२ के दिन।'ग्लोरिया' के इन्चार्ज मनीन्द्र को पत्र में उन्होंने लिखा था, 'यह कैसी विवशता है कि मैं आज, कल और शनिवार को 'ग्लोरिया' नहीं आ सकूँगा! मैं सोमवार को आउँगा। आश्रम का एकाउंट का काम बहुत बड़ा है। चेक और सभी कागज (बिल) बहीखाते में लिखना है। सभी तैयार करके श्रीमाताजी को अर्पण करना है। जबतक यह कार्य समाप्त नहीं हो जाता तबतक मैं फुरसत में नहीं हूँ। ' १५ अगस्त के दर्शन दिवस का संदेश वितरण, अर्पण की निधि का हिसाब, उसका व्यवस्थित लेखन - इन सभी कार्यों के बीच भी वे 'ग्लोरिया' को भूले नहीं थे। 'ग्लोरिया' यह जड़ जमीन में चैतन्य का प्रागटय, द्युमान की साधना की फलश्रुति है। श्रीमाताजी के चरणों में धन, धान्य और फल-फूलों का ढ़ेर कर देने की द्युमान की अभीप्सा का यह मूर्तिमंत स्वरूप है। भगवान के लिये अहंशून्य बनकर समर्पित भाव से किया हुआ काम का कैसा चमत्कारिक परिणाम आता है, इसका 'ग्लोरिया' प्रत्यक्ष दृष्टांत है। यूं भी यह कह सकते हैं कि 'ग्लोरिया' की जमीन के एक एक कण में द्युमान के जगाए हुए चैतन्य का आविर्भाव है।
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२९ काशीबहन
१९२४ हु में द्युमान के साथ काशीबहन पहली बार पांडिचेरी आयी थीं। उन्होंने श्रीअरविंद के दर्शन किये और अपनी सोने की चूड़ियों भी अर्पण की थीं, तभी से श्रीअरविंद की चेतना के साथ उनका तादाम्य हो गया था। परंतु उनका आश्रम में रहने का समय अभी नहीं आया था। इसलिये उस समय तो चुनीभाई (द्युमान) और काशीबहन, दोनो को नापाड वापस जाना पड़ा था। १९२७ में द्युमान को पांडिचेरी आने की अनुमति मिली, पर उनके मातापिता का बहुत विरोध था। तब काशीबहन ने अपने बीमार ससुर की सेवा का उत्तरदायित्य लिया और सास-ससुर को समझा कर द्युमान को अनुमति दिलवायी। यह है भारतीय नारी के त्याग, सेवा, समर्पण और साधना की भावना। ऐसा भारतीय नारी ही कर सकती है। पति योग-साधना के लिये गुरु के आश्रम में समर्पित होने जा रहा है, वह कभी लौटकर नहीं आएगा, स्वयं का संसार अब समाप्त हो रहा है, पूरी जिन्दगी उन्हें अकेले गुजारनी है और पति के स्थान पर घर का उत्तरदायित्व उन्हें उठाना है - यह सब जानते हुए भी उन्होंने सास-ससुर को कहा, 'उन्हें जाने दो।' उस समय उनका त्याग कितना महान था?
गुरु के सान्निध्य में द्युमान तो निश्चित होकर अपने सेवाकार्य में और साधना में लग गये, घरबार सब भूल गये पर पतिव्रता स्त्री अपने पति को कैसे भूल सकती है? तीन वर्ष तो बीत गये। फिर काशीबहन ने सोचा, 'एकबार पांडिचेरी जाकर उन्हें देख आऊँ।' इसलिये १९३०
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में वे पांडिचेरी आयीं। श्रीमाताजी ने उनके रहने के लिये व्यवस्था कर दी। आश्रम में काम भी सौंपा। वे आश्रम की भोजनशाला में भोजन करती थी। उस समय द्युमान 'भोजन कक्ष'मे परोसने का काम करते थे। द्युमान ने उस समय श्रीमाताजी से मार्गदर्शन माँगा था। श्रीमाताजी ने द्युमान से कहा था, 'काशीबहन के साथ उन्हें कोई बातचीत नहीं करनी है। ' द्युमान ने इस प्रकार व्यवस्था की कि उनके साथ बोलने का संयोग ही न बना। काशीबहन आश्रम में कुछ दिन रहीं, फिर उन्हें वापिस जाना था तब उन्होंने माताजी को लिखकर बताया कि, 'मैं वापस गाँव जा रही उनके साथ कोई बातचीत नहीं हो सकी है। मैं घर जाउँगी, तब सब. मुझे पूछेंगे कि वे कैसे है तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूंगी ?' यह पत्र पढ़कर श्रीमाताजी ने द्युमान से कहा, 'काशीबहन जाएँ, उससे पहले उनसे मिल लेना। ' अब द्युमान चिंता में पड़ गये, पर फिर उन्होंने रास्ता निकाला। उन्होंने माताजी से पूछा, 'मैं उनसे मिलूँ तब आप उपस्थित रहेंगी?'।
'क्यों?'
द्युमानने कहा 'यहाँ से जब कोई जाता है उससे पहले वह आपको प्रणाम करने और आशीर्वाद लेने आता है। उसी प्रकार वह भी आएगी तब मैं भी यहाँ रहूंगा और आपकी उपस्थिति में वह मुझसे मिल लेगी।' श्रीमाताजी ने सहमति दे दी। जब काशीबहन श्रीमाताजी को प्रणाम करने के लिये आयीं, तब द्युमान भी वहाँ पहुंच गये और एक दो मिनिट के लिये श्रीमाताजी की उपस्थिति में ही काशीबहन से बात हो गई। फिर काशीबहन नापाड लौट गईं। वहाँ घर के कामकाज और सास-ससुर की सेवा में लग गईं। यहीं द्युमान श्रीमाताजी के सेवाकार्य में पूर्ववत् व्यस्त हो गये। १९३० से १९५४ तक का समय इसी तरह बीत गया।
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१९५४में काशीबहन पांडिचेरी आयीं, तब फिर द्युमान ने श्रीमाताजी से पूछा, 'अब मुझे क्या करना है ?' श्रीमाताजी ने कहा, 'क्यों, तुम सबसे मिलते हो, तो उनसे मिलने में क्या आपत्ति हो सकती है ? ' श्रीमाताजी ने उस समय उन्हें मिलने की सम्मति दे दी क्योंकि अब द्युमान साधना में बहुत स्थिर हो गये थे! काशीबहन द्युमान के कमरे में ही आकर उनसे मिली। नीचे चटाई पर बैठकर बातचीत की। द्युमान जब पहली बार पांडिचेरी में आए थे तब काशीबहन को हिस्टीरिया का रोग था, कभी भी दौरा पड़ जाता था। इसलिये द्युमान ने उस रोग के विषय में पूछा, इसका उन पर बहुत प्रभाव पड़ा और उन्होंने कहा, 'ओहो, अब तक तुम्हें मेरा वह रोग याद है ?' अन्य बातचीत करके वे चली गई। फिर काशीबहन दो तीन बार पांडिचेरी आई और इसी प्रकार द्युमान से दौ-चार मिनिट मिल लेती और कुछ दिन रहकर वापस चली जाती थीं पर फिर लम्बें समय तक उनका पांडिचेरी आना सम्भव नहीं हुआ। पर उनके उपर श्रीअरविंद और श्रीमाताजी की कृपा थी। इसलिये जब उनकी आंतरिक तैयारी पूरी हो गई तब संयोग ऐसे बने कि वडोदरा में श्रीअरविंद सोसायटी के अध्यक्ष अम्बाप्रेमीजी को नापाड में रह रही काशीबहन का पता चला। अम्बाप्रेमी उनसे मिलने नापाड गये और उनकी पांडिचेरी आने की इच्छा जानकर कहा, 'मैं जब पांडिचेरी जाऊँगा, तब आपको अवश्य ले जाऊँगा। '
अम्बाप्रेमी ने द्युमान से पूछा कि, 'मैं काशीबहन को मेरे साथ ले आऊँ तो तुम उनसे मिलोगे न ?' द्युमान ने कहा,. 'जैसे अनेक लोगों से मिलता हूँ वैसे ही उनसे भी मिलूँगा। ' अम्बाप्रेमी के साथ थे १९७५ में पांडिचेरी आयीं और द्युमान से मिली। पर अब सास-ससुर के अवसान होने से नापाड में सेवाकार्य के लिये हमेशा की तरह वापस
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जाना आवश्यक नहीं था। इसलिये काशीबा ने अम्बाप्रेमी से कहा कि,।'मुझे तो अब यहीं रहना है। ' अम्बाप्रेमी ने अपने मकान 'प्रेमीहाउस' में रहने के लिये दो कमरे दे दिये और सभी सुविधा कर दी। तब से वे पांडिचेरी में ही रहीं। प्रसंग पर कभी-कभी द्युमान से मिलती भी थी, विशेषकर उनके जन्मदिन पर। जैसे अन्य साधक द्युमान से मिलते थे वैसे ही वे भी मिलती थीं। द्युमान ने उनके विषय में बात करते हुए एक साधक से कहा था, 'हम अच्छे मित्र हैं। ' 'ग्लोरिया' के इन्चार्ज मनीन्द्रजी को उन्होने १२ अगस्त १९९१ के दिन लिखे पत्र में काशीबहन के विषय में लिख था कि, 'आज काशीबहन अपना जन्मदिन मानती हैं। मैं तुमसे मिलने 'ग्लोरिया' आऊँगा, फिर वहाँ से लौटते हुए उनसे मिलने जाऊँगा। वह बहुत ही अच्छे स्वभाव की स्त्री हे। हम दोनों हमउम्र उनका ८९वां वर्ष चल रहा हैं
८९ वें वर्ष में द्युमान के काशीबहन के विषय में कहे गये ये वाक्य, काशीबहन के पति की साधनामय जीवन में कभी भी अपनी ओर से विक्षेप नहीं पहुँचाने की भावना को प्रगट करते हैं। द्युमान के देहत्याग के चार वर्ष के बाद १५ मई १९९६ के दिन, काशीबहन ने भी आश्रम में ही शरीर छोड़ा। पति के साधनामय मार्ग के लिये अपना समस्त जीवन त्याग, तप और कठोर संयम से व्यतीत करनेवाली यशोधरा, विष्णुप्रिया जैसी नारियों की सूची में काशीबहन भी हैं।
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विभिन्न कार्यों में व्यस्त होते हुए भी द्युमान आंतरिक रुप से तो दिव्यचेतना में एकरूप हो जाना चाहते थे। श्रीमाताजी के साथ उनका आंतरिक सम्बन्ध सतत् बना रहे यही वे चाहते थे। मानव प्रकृति से उठते विरोधों के बीच भी वे सुस्थिर, शांत और अक्षुब्द्ध रहना चाहते थे। अपनी प्रकृतिगत मर्यादाओं से ऊँचे उठकर दिव्य चेतना में स्थिर होने की उनकी सतत् भावना बनी रही। इसलिये जब-जब उनकी प्रकृति से विरोध उठता था उनके मन को कोई घटना क्षुब्द्ध कर जाती तो, तब प्रारम्भ में वे श्रीमाताजी को पत्र लिखते और श्रीमाताजी उन पत्रों का अपने हाथ से उत्तर देती थीं। १९३४ से १९३६ तक तीन वर्ष की अवधि में उन्होंने श्रीमाताजी को बहुत पत्र लिखे थे और प्रत्येक विषय में उन्हें श्रीमाताजी का मार्गदर्शन मिला है। (द्युमान के असंख्य पत्र प्रकाशित होना शेष है।)इन पत्रों में उनके हृदय की श्रीमाताजी के प्रति उत्कट पुकार है। तीब्रतम अभीप्सा है। सर्वत्र शांति स्थापित हो, इसकी प्रबल लालसा है। एक नन्हें बच्चे का अपनी माता के प्रति अटूट विश्वास है और दिव्यशक्ति के प्रति अविचल श्रद्धा और भक्ति भी हे।
इन पत्रों के प्रत्युत्तर में श्रीमाताजी ने उन्हें अचूक मार्गदर्शन भी दिया है, जो साधना पथ पर चल रहे प्रत्येक साधक के उलझे प्रश्नों के उत्तर हैं। उनके द्धारा माँ का बालक के प्रति असीम प्रेम, बालक को सही रास्ते पर ले जाने के मार्गदर्शन की अनोखी रीति, माँ की सतत्
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सजग दृष्टि और उष्मा तथा सामान्य प्रकृति में से दिव्यप्रकृति में प्रेमपूर्वक ले जानेवाली माँ की दिव्यकृपा और करुणा के दर्शन उनमें होते हैं। ये पत्रव्यवहार श्री अरविंद इंटरनेशनलसेंटर फॉर एज्यूकेशन के बुलेटिन में अप्रैल १९९६ से अगस्त १९९९ तक के अंको में दस सप्ताह में प्रकाशित किये गये हैं। इसमें से कुछ झलक निम्नलिखित हैं :-
नये वर्ष की प्रार्थना करते हुए द्युमान श्रीमाताजी को लिखते हैं।
'यह वर्ष समाप्त हो रहा है, नये वर्ष का प्रारम्भ हो रहा है। कृपा करें कि नया वर्ष हमारे लिये दिव्य उपहार लाए।'
श्रीमाताजी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए लिखती हैं, 'हाँ, चेतना को प्रकाश प्रबुद्ध करेगा और अज्ञान की छाया विलीन होगी। मेरे प्रिय बालक को प्रेम और आशीर्वाद। '
दूसरे एक पत्र में प्रार्थना करते हुए लिखते हैं, 'प्रिय माताजी, कृपा करें कि, मेरी सच्चाई बढ़कर मेरे अस्तित्व में फैल जाय।' तब माताजी उन्हें बताती हैं, 'हाँ, यह सत्य भगवान के प्रति अधिकाधिक स्पष्टता और समर्पण लाएगा, जो सर्वांगीण एकता की और ले जाएगा। मेरे प्रिय बालक, सच्चाई ही भागवत् द्द्वार की चाबी है।'
द्युमान की उत्कट अभीप्सा थी कि श्रीमाताजी की सतत् उपस्थिति उनके हृदय में रहे। इसके लिये प्रार्थना करते हुए उन्होंने लिखा था कि, 'प्रिय माताजी, कृपा करें कि मेरे हृदय में आपके आसन का विस्तार और गहराई बढ़ती जाए। वह समुर्ण रूप से आपका ही बना रहे। ' माताजी ने इसके प्रत्युत्तर में कहा कि, 'हाँ, मैं सदा तुम्हारे हृदय में रहती हूँ। सचेतनरूप से तुम्हारे अंदर रहती हूँ।'
बालक माँ से जैसे माँगता है, कुछ सीखना चाहता है. उस प्रकार उन्होंने माताजी के समक्ष अपनी माँग रखी थी, उन्होंने लिखा था,।'माँ, मुझे अधिक से अधिक आप पर भरोसा करना सिखाओ।
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'इसके उत्तर में माताजी ने कहा, 'शांति और नीरवता में तुम अधिक से अधिक मेरी सतत् उपस्थिति के विषय में सचेतन हो सकोगे। '
दूसरी एक माँग करते हुए द्युमान कहते हैं, 'माँ, कृपा करो कि आप जैसी हैं, वैसी ही मैं आपको जान सकूँ। मैं जैसा सोचता हूँ वैसे नहीं। ' प्रत्युत्तर में माताजी ने लिखा, 'मेरे प्रिय बालक, जैसे -जैसे तुम मेरी उपस्थिति के विषय में अधिक सचेतन बनते जाओगे, वैसे-वैसे तुम मुझे अधिक से अधिक जान सकोगे। '
फिर एक तीव्र अभीप्सा व्यक्त करते हुए द्युमान लिखते हैं, 'माँ, मुझे अपना सच्चा बालक बना दो।' इसके प्रत्युत्तर में माताजी ने बताया, 'हाँ मेरे सच्चे बालक, मैं तुम्हे सदा अपने बाहुपाश में रखती हूँ।'
प्रार्थना के साथ अपनी आंतरिक स्थिति, अपनी स्वभावगत मर्यादाओं की बात को द्युमान ने श्रीमाताजी के समक्ष रखी है। एक पत्र में उन्होंने लिखा है, 'यह कैसी बात है कि मैं कुछ पढ़ता नहीं हूँ सिखता नहीं हूँ। कितने ही लोग भाषा सिख रहे हैं, चित्रकारी सिख रहे हैं, कोई संगीत सिख रहा हैं, कोई योग की पुस्तकें पढ़ते हैं। कितने ही 'आर्य', में से श्री अरविंद के लेखों की नकल करते हैं। 'इसके उत्तर में श्रीमाताजी कहती हैं, 'यह सब उनके लिये है, जिनका मन बेचैन रहता हो और जिन्हें किसी मानसिक काम की आवश्यकता हो। ' एकबार फिर उनके मन में विचारों की हलचल होने लगी कि आंतरिक रूप से मैं कुछ नहीं करता हूँ। तब अपनी मनःस्थिति के विषय में श्रीमाताजी को लिखा था, 'यह कैसी बात है कि मैं कुछ नहीं करता हूँ। यह सत्य कभी-कभी मेरे लिये पहेली बन जाता है। मेरे पास इसका समाधान नहीं है। परंतु इसकी कोई परवाह नहीं। बस, मैं माँ के साथ रहूँ वे मेरे साथ रहें, वे मेरे पास हों तो मुझे कुछ और
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नहीं चाहिये।' श्रीमाताजी ने लिखा, 'सचमुच, यह सबसे अधिक सच्चाई है। मेरे प्रिय बालक, मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ।'
मन कभी-कभी अपनी स्वभावगत मर्यादाओं से ऊपर उठ जाने से परेशान होकर उन्होंने माताजी को लिखा, 'माँ, मैं अपने स्वभाव से तंग आ गया हूँ। यदि मैं काम पूरा करना चाहूँ तो मुझे इससे उपर उठना ही चाहिये। वह मुझे बार-बार धकेलता है। वह मुझे शंका, अविश्वास और अहंकार की स्थिति में खींचने की कोशिश करता है। ' 'है माँ, मुझे और मेरी प्रकृति को अस्तव्यस्तता से ऊपर उठा लो। अपने अनंत प्रेम के मुक्त और विशाल वातावरण में साँस लेने दो।'
इसके उत्तर में श्रीमाताजी ने बताया, 'एक ही दिन में मानव अपने स्वभाव को जीत नहीं सकता है। धीरज और दृढ़ संकल्प के साथ प्रयत्न करने से अवश्य विजय मिलेगी।'
एक बार अनजाने में श्रीमाताजी की आज का पालन युमान नहीं कर सके, इस कारण उनके हृदय में बहुत दुःख होने लगा, तब उन्होंने श्रीमाताजी को पत्र द्धारा बताया, 'आपकी अवज्ञा करने का मेरा कोई इरादा नहीं था। आपकी आज्ञा-मुझे सायंकाल पाँच बजे मिली, तब बर्तन पोंछने का काम समाप्त हो गया था। मैंने अनजाने में आपकी आज्ञा की अवहेलना की, उसके लिये मैं आपके चरणों में नतमस्तक होकर निवेदन करता हूँ कि मैं किसी भी दंड के लिये प्रस्तुत हूँ।'
इसके उत्तर में श्रीमाताजी ने लिखा, 'दंड किसलिये मेरे बालक? मैंने ऐसा कुछ नहीं सोचा है। मैंने यह भी नहीं सोचा कि मेरे किसी नियम का उल्लंघन तुमने किया है। यह सब गलतफहभी है। तुम्हें यह पता होना चाहिये कि मैं तुम पर विश्वास करती हूँ और मुझे तुम्हारी सच्चाई और गहन उत्साह पर पूरा भरोसा है। इसी
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आधार पर तो हम मिलकर काम कर रहे हैं। जब भी कुछ सुधार करना होता है तो मैं तुम्हें बता देती हूँ। मेरे वात्सल्य पर कभी शंका मत करना। ' श्रीमाताजी उन्हें कितना विश्वास दिलाती हैं।
द्युमान अपनी प्रत्येक अनुभूति के विषय में श्रीमाताजी को लिखकर बताते थें और उसमें भी मार्गदर्शन लेते थे। एक अनुभूति के विषय में लिखते हैं, 'मेरी प्रिय माताजी, जब आप मुझे खिड़की में से देख रही थी तब मैंने क्या देखा? मुझे ऐसा लगा कि मेरा हृदय काँच जैसा पारदर्शक है और उसमें आप अपना ही चेहरा देख रही थीं। मेरी प्रिय माताजी सदा मेरे हृदय में हैं। मेरी माँ, मेरी माँ।'
इसके उत्तर में माताजी बताती हैं कि, 'यह एक बहुत ही सुन्दर और सच्ची अनुभूति है। मैं प्रसन्न हूँ कि तुम्हें यह अनुभूति हुई। ही! मै सदा तुम्हारे हृदय में हूँ।'
अपने मन, प्राण में उठते सभी भावों को श्रीमाताजी के समक्ष सहजता से प्रकट करने से, द्युमान को पता ही नहीं चला कि इस प्रकार वे निम्न प्रकृति से मुक्त होकर श्रीमाताजी की चेतना के साथ तद्रुप होने लगे हैं। यही तो श्रीमाताजी की शिष्यों के तैयार करने की विशिष्ट पद्धति रही है।
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३१. बिदाई
१९९२ की १५ अगस्त का दर्शन दिवस पास होने से द्युमान का कार्यभार बढ़ गया था। दर्शनार्थियों की संख्या सतत् बढ़ने से भोजन कक्ष में दर्शन दिवस के समय भोजन की विशिष्ट व्यवस्था की जाती है। इसके उपरांत बाहर से आनेवाले सभी आगन्तुक उन्हें सतत् मिलते रहने से भी उन - दिनों में आराम का समय बहुत कम मिलता था। १५ अगस्त को सवेरे साढ़े चार बजे वे भोजन- कक्ष में गये। वेदप्रकाश से मिलकर सभी व्यवस्था के विषय में जानकारी ली। नाश्ता करके फिर संदेश-वितरण के काम में लग गये। सबेरे साढ़े पाँच से साढ़े नौ तक चार घंटे दर्शनार्थियों को अपने हाथ से १५ अगस्त के दर्शन दिवस के संदेश दिये। उसके बाद समाधि के पास ध्यान का समय था इसलिये संदेश वितरण को रोककर वे अपने ऑफिस में आ गये। कागज़ात पर आवश्यक हस्ताक्षर किये। 'चेक ड्राफ्ट' जो 'ओफरींग' के आए थे, उन सबको नोट किया। फिर साढ़े दस बजे संदेश-वितरण के लिये आ गये। दोपहर के बाद लगभग सवा चार बजे तक सतत् संदेश- वितरण किया। फिर कैशियर के ऑफिस में आकर आवश्यक कागज़ात देखे। तब शाम के लगभग पौने छ: बज रहे थे। अविरत काम से उनका शरीर थकान अनुभव कर रहा था।
१६ अगस्त को इच्छाबहन के अग्निसंस्कार की विधि में वे श्मशान गये। शरीर अत्यन्त थक गया था। बिस्तर पर सोए पर बैचेनी होने लगी और बुखार आ गया, पर रात को उन्होंने किसी को बताया नहीं। १७ तारीख को सबेरे स्वास्थ्य अधिक खराब होने से डॉक्टर को बुलाया गया। डॉक्टर ने जाँच करके आश्रम के नर्सिंग होम में भरती करने की सलाह दी क्योंकि वहीं उन्हें ठीक से आराम मिल सकता था। वे नर्सिंग होम नहीं जाना चाहते थे परंतु डॉक्टर के आग्रह
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से नर्सिंग होम में १७ तारीख को सवेरे भर्ती हो गये। वहाँ डॉस्टरो ने इलाज शुरू कर दिया। शाम को पाँच बजे भोजन कक्ष के उनके सहयोगी मनसुखभाई जोशी उनकें स्वास्थ्य की पूछताछ करने आए तब वे बिस्तर पर लेटे थे। उन्होंने संकेत से मनसुखभाई को पास बुलाकर, हस्ताक्षर किये हुए कागज की थप्पी बताते हुए कहा, 'कागज तैयार है, ले जाओ।' मनसुखभाई ने उनके शरीर पर हाथ रखकर देखा तो बुखार नहीं था इसलिये उन्होंने कहा, 'बुखार तो नहीं है, अब आपको कैसा लग रहा है ?'
कुछ देर बाद द्युमान ने धीरे से कहा, 'मैं ठीक नहीं हूँ।'
'क्या हो रहा है ?' फिर थोड़ा रुककर उन्होंने अंग्रेजी में कहा, Pressure of things', 'अर्थात् ?' मनसुखभाई ने स्पष्ट करने को कहा, इसलिये फिर बोले, Pressure of atmosphere ( फिर मनसुखभाई ने अधिक स्पष्टता का आग्रह नहीं किया और पूछा,।'आपको कमजोरी लगती है ?' 'ही' इतनी बातचीत करके मनसुखभाई लौट गये और द्युमान नर्सिंगहोम में डॉस्टरो की देखभाल में आराम करने लगे।
दूसरे दिन १८ तारीख को मनसुखभाई शाम को सवा चार बजे फिर द्युमान के पास आए तब ड़ेाकटर बहन ने उन्हें कहा, 'द्युमानभाई को साँस की तकलीफ है, देखना कि वे अधिक बातें न करें। कमरे में किसी को आने मत देना।' मनसुखभाई द्युमान के पास आए। वे पलंग पर दो तकियों का सहारा लेकर बैठे थे। बोलने की मनाही थी, इसलिये मनसुखभाई पास में बैठकर देखते रहे। द्युमान को साँस की तकलीफ थी, कभी साँस तेज हो जाती थी, कभी धीमी हो जाती थी, वे बार- बार अपनी आँखे बन्द कर रहे थे। अपने आप में पूरे जागृत थे। एक हाथ से गद्दे पर थपकी मार रहे थे जैसे उनके मन में कुछ उथलपुथल चल रही हो। पाँच बजे मनसुखभाई ने पूछा, 'मैं जाऊँ ?' 'जाओ' उन्होंने कहा।
मनसुखभाई सीधे भोजन कक्ष में गये। वेदप्रकाश जी को
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मिलकर सारी बातें बताई। वेदप्रकाशजी तुरन्त नर्सिंगहोम में आ पहुँचे। द्युमान को पूछा, 'कैसे हो?' तब द्युमान ने कहां, 'मनसुख ने तुमको मेरे साथ हुई बातचीत बताई है क्या? वेदप्रकाश जी ने 'हाँ' कहा, फिर वे द्युमान के शरीर पर हाथ फेरने लगे। कुछ ही देर में द्युमान की आंखों में आँसू थे। वेदप्रकाशजी बताते हैं कि, 'मैंने उनकी आँखों में कभी आँसू नहीं देखे थे। मैं हिल गया। ये आँसू प्रेम के, जुदाई के, बिदाई के, विश्वास के, भक्ति, कृतज्ञता के जीवन और मृत्यु पर स्मित के थे। मैं नहीं जानता था कि इस प्रकाशमय व्यक्तित्व की शाश्वती के, दु:खपूर्ण आशीर्वाद के आँसुओं को किस प्रकार स्वीकार करूँ?
मैंने काँपती उँगलियों से उन आँसुओं को पोंछ दिया। तब मुझे पता नहीं था कि वे हमेशा के लिये बिदाई ले रहे हैं।
बिदा की घड़ी में वेदप्रकाशजी द्युमान के पास थे। १९ अगस्त को द्युमान का स्वास्थ्य अधिक खराब हो गया था। उन्हें आक्सीजन देना प्रारम्भ किया गया। द्युमान आक्सीजन की टयूब को खींचकर निकालने लगे तब डॉक्टर बहन ने कहा, 'इससे आपको अच्छा आराम मिलेगा। ' फिर आज्ञाकारी बालक की तरह वे आक्सीजन लेने लगे। साढ़े सात के बाद तबियत अधिक बिगड़ने पर अन्य द्रस्टियों को समाचार दिये गये।
सभी ट्रस्टी तत्काल आ पहुँचे। द्युमान आँखें बन्द करके जैसे आराम से सो रहे थे। रात्रि को लगभग आठ बजे उनका धड़कता हुआ हृदय बन्द हो गया। फिर उनके पार्थिव शरीर को उनके कमरे में दर्शनार्थ रखा गया। उसके बाद उनकी देह को मेडिटेशन हॉल में दर्शनार्थ रखा गया। रात-दिन दर्शनार्थी आते रहे। उनके अंतिम दर्शन के लिये बड़ी संख्या में लोग एकत्रित हो गये थे। २१ अगस्त को सवेरे नौ बजे आश्रम के कोझनोव गार्डन में नलिनीकान्त गुण की समाधि के पास उनके पार्थिव शरीर को समाधि दी गई।
दिव्यलोक के ऋषिकुल से श्रीमाताजी के कार्य के लिये पृथ्वी पर
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उतर आयी यह वीर आत्मा अपने जीवन के अंतिम समय तक सेवा में प्रवृत्त रही। जब उनकी हिसाब की डायरी के पृष्ठ खोलें गये, तब १९ अगस्त तक का व्यवस्थित हिसाब लिखा हुआ था। १९ तारीख को तो उन्होंने चिरबिदा ली। उनकी श्रीमाताजी के प्रति अपूर्व श्रद्धा भक्ति, उनकी कार्यनिष्ठा, अथवा कार्य करने की शक्ति और सामुहिक जीवन में भी दिव्यशक्ति के अवतरण वारा उच्च आध्यात्मिक समाज की स्थापना की उनकी उत्कट अभीप्सा, माटी जैसी जड़ मानी जानेवाली वस्तु में भी प्रेम और पुरुषार्थ की, प्रकाश और चेतना जगाने के लिये उनकी साधना केवल आश्रम के लोगों को ही नहीं, अपितु उनके सम्पर्क में आनेवाले प्रत्येक को ऊर्ध्वमार्ग में जाने के लिये, दिव्य जीवन जीने के लिये, निरंतर प्रेरणा देती रहेगी। उनकी प्रकृति में एक विशिष्टता थी, उनके आसपास के लोगों को वे 'अपने दयुमान' जैसे आत्मीय लगते थे।
कर्मयोगी द्युमान के लिये प्रभु की सेवा में किया गया कर्म, योग का पर्याय था। उनका जीवनकार्य गुरु की सेवारूप में समर्पित था। श्री अरविंद और श्रीमाताजी की समाधि के ऊपर छाया करता, सदा जलता 'सर्विस ट्री' जैसे द्युमान के जीवन का प्रतीक लगता है। अपने अस्तित्व के अणु-अणु को, रोम-रोम को दयुमान ने माँ और श्री अरविंद के चरणों में न्योछावर कर दिया था। गुरु के प्रति पूर्ण विश्वसनीयता, गुरु के लिये पूणॅ प्रेम, गुरुवरों की पूर्ण सेवा -यही युमान के ध्येयमंत्र थे। आरम्भिक वर्षों में श्रीमाताजी ने द्युमान को पूछा था, 'किस वर्ष में तुम्हारा जन्म हुआ था ?' द्युमान ने कहा, ' १९०३ में। ' श्रीमाताजी तुरन्त बोली थीं, 'तो फिर तुम जन्मे हो, सेवा के लिये (यु केम डाउन टु सर्व! )' दिव्यता की तेजोमय किरण उन दयुमान को अपनी सब की शताब्दीवंदना!
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३२. आपूर्ति
१ श्री चम्पकलाल का पत्र
श्री अरविंद आश्रम पांडिचेरी
१९-६-७७
द्युमानभाई
माताजी के कमरे में तुम्हारा आज का प्रवेश अलग ही था। जब तुम आज सवेरे ऊपर से माताजी के कमरे से बाहर निकले और मैंने सामने से नीचे जाते हुए देखा, उस समय तुम्हारा हावभाव और स्मित देखकर (तुम्हारे जाने के बाद) मुझे लगा कि यदि द्युमान सदैव ऐसे ही दिखायी दें तो कितना अच्छा हो।
तुम ऊपर आए तब आज के सुमंगल दिन का मुझे पता ही नहीं था। मेरा मन एकदम शांत और कोरा (रिक्त) रहता है। जिसे अनुभव हुआ हो, वही जान सकता है। इस स्थिति से बाहर आना अच्छा नहीं लगता है। आज के शुभ सुमंगल दिन को माताजी तथा श्री अरविंद के समक्ष मेरी यही प्रार्थना है -
सदा हँसते हुए, सबको हँसाते रही - यही आकांक्षा करता* चम्पक का
सप्रेम यथाघटित
मूल अमरेली के और आश्रमवासी के रूप में श्री अरविंद आश्रम, पांडिचेरी में स्थायी निवासी मनसुख जोशी से दिलावरसिह जाडेजा को पू चम्पकलाल का द्युमान को सम्बोधित उपर्युक्त पत्र मिला है। ई.स. (१९२३ से १९७३) तक श्रीअरविंद और श्री माँ के निकट के शिष्य के रूप में श्री चम्पकलाल (१९०३ - १९९२ ) को गुरु की प्रत्यक्ष और अहर्निश सेवा करने का अनन्य अवसर प्राप्त हुआ था।
इस पत्र में 'आज का सुमंगल दिन का जो उल्लेख है वह १९ जून के दिन आनेवाले द्युमान के जन्मदिन का निर्देश है।
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(पांडिचेरी के श्रीअरविंद आश्रम में श्री अरविंद और श्रीमाताजी की समाधि पर झुका हुआ 'सर्विस ट्री श्री माँ ने ई.स. १९३० में लगाया था। चमकते पीले फूलोंवाले इस वृक्ष का फोटोग्राफ इस पुस्तक के मुखपृष्ठ पर छापा गया है। इसका वनस्पति शास्त्र में नाम है pletophorum petrocarpum है। 'भगवान की सेवा करने के आनन्द से बड़ा कुछ नहीं है। 'ऐसा श्रीमाताजी ने कहा है। समाधि पर छाया करते हुए, झुका हुआ यह वृक्ष श्री अरविंद - श्री माँ की सेवा कर रहा है। श्री द्युमान की आंतरचेतना के साथ दिव्य गुरु का दिन- रात सेवा, फल प्राप्ति से निरासक्त आज्ञानुसार सेवा जुड़ी हुई है, इस संदर्भ में यह चित्र मुखपृष्ठ पर छापा गया है। यह वृक्ष पचास वर्ष का हुआ तब द्युमान ने १९८० में इस वृक्ष के फोटोग्राफ वितरित किये. थे - इसके साथ 'सावित्री' की निम्न पंक्तियाँ छापी थी, जिसमें द्युमान की पहचान भी परोक्ष रुप से संकलित है।
* 'To him who serves with a free equal heart obedience is his princely training's school.....'
२. 'सर्विस द्री'
१९८८ फरवरी के महीने में २ तारीख को द्युमान के साथ 'सर्विस ट्री' के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तरी आयोजित हुई थी। वह 'मधर इन्डिया' के जनवरी १९८९ के अंक में प्रकाशित हुई थी। उसे संक्षिप्त रुप से यहाँ साभार उदधृत किया गया है। 'सर्विस ट्री' के पास बैठकर श्रीअरविंद आश्रम की शाला के बालकों ने द्युमान से प्रश्न पूछे थे और द्युमान भाई ने उत्तर दिये थे :-
प्रश्न - आज जहाँ 'सर्विस ट्री' है वहाँ पहले क्या था?
उत्तर - आज जहाँ 'सर्विस द्री' है उसके पास पानी की तीन टंकियों थी। आश्रम का प्रारम्भ हुआ तब माताजी ने वहाँ 'सर्विस द्री'
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पौधा लगाने की सूचना दी। बोटेनिकल गार्डन से पौधा लाया गया। सन् १९३० के मइं के महीने में एक मंगलवार को यह पौधा रोपा गया।
प्रश्न - माताजी ने ऐसा क्यों किया।
उत्तर - किसी को पता नहीं है कि माताजी ने ऐसा क्यों किया था।
प्रश्न - सर्विस ट्री का पौधा माताजी ने रोपा था?
उत्तर - नहीं, उन्होंने नहीं रोपा था। उन्होंने रोपने का आदेश दिया था।
प्रश्न - आपने टंकियों बाट दीं? उत्तर - श्रीअरविंद के देहोत्मर्ग के पहले हम लोगों ने (श्री माताजी की सूचना के अनुसार) टंकियों बाट दी थी, ऊपर फर्न डाला था।
प्रश्न - फिर क्या हुआ?
उत्तर - बताता हूँ। फिर श्रीअरविंद ने देहोत्मर्ग किया (१९५०), तब माताजी ने हमें कहा, 'मैं श्रीअरविंद के शरीर को यहाँ आश्रम के बीचोंबीच समाधि देना चाहती हूँ। '
प्रश्न - क्या उसी के अनुसार किया गया?
उत्तर -हाँ, देहोत्मर्ग (१९५० दिसम्बर) के बाद उसी के अनुसार किया गया। उसके बाद एक दिन माताजीने अपनी बात की, 'यदि मुझे कुछ हो (अर्थात् देहोत्मर्ग प्राप्त हो) तो मुझे श्रीअरविंद की समाधि के स्लेब के ऊपर के खाली भाग में रखना।' माताजी की इच्छानुसार वहीं उन्हें समाधि दी गई (१९७३ नवम्बर)! श्रीअरविंद का शरीर इस समाधि में एकदम नीचे है, उसके ऊपर पाँच फूट के अंतर में स्लेब है उसके ऊपर माताजी के शरीर को रखा गया है। हम समाधि के दर्शन करते हुए, स्पर्श करते हुए, या सिर से स्पर्श करते हुए ध्यान करते हैं
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तब श्रीअरविंद और श्रीमाताजी दोनो की भक्ति, सेवा करते हैं।
प्रश्न - सर्विस ट्री भी श्रीअरविंद और माताजी की सेवा कर रहे हैं, या नहीं?
उत्तर - हाँ दिनरात उभय की सेवा कर रहा है। माताजी और श्रीअरविंद हमें कहते थे कि हम सदा के लिये यहीं रहेंगे। वास्तव में वे यहीं हैं। इस समाधि में श्री अरविंद का शरीर है। माताजी का शरीर है। दोनों की चेतना सक्रिय है। समाधि विश्व का केन्द्र बन गई है। पूरा विश्व प्रभु के पास यहाँ आता है। नया जीवन प्राप्त करता है।
प्रश्न - आप सर्विस द्री को प्रतिदिन पानी देते थे?
उत्तर - हाँ। अम्बुभाई (श्री अम्बुभाई पुराणी नहीं) और मैं पानी देते थे। तुम अम्बुभाई को पहचानते हो? वे १२२८ में यहीं आए तब युवक थे। यहीं काम करने वालों की एक टुकड़ी थी। प्रश्न - सर्विस ट्री का बहुत तेजी से विकास हुआ, सच है न?
उत्तर - हाँ, उसे पर्याप्त पानी मिला, अच्छा उर्वरक मिला और माताजी की देखभाल मिली। इसके विकास का श्रेय माताजी को देना चाहिये। आँधी में सर्विस ट्री की शाखाएँ टूट जाती थी। तुम ध्यान से देखो। कितनी ही शाखाएँ कटी हुई हैं। सर्विस द्री की शाखाएँ जब गिरने की स्थिति में होती हैं तब हम उन्हें काट देते हैं ताकि वे समाधि को नुकसान न करे। श्रीअरविंद की समाधि की रचना हुई तब सर्विस ट्री की उस बीस वर्ष थी।
प्रश्न - सर्विस ट्री का कोई चित्र है?
उत्तर - १९८०में सर्विस द्री ने अपने आयुष्य की अर्धशताब्दी पूरी की तब उस में ढेरों फूल आए थे। हमने उसके फोटो खिंचवाये। फोटो की बहुत कापियाँ बनवायी और अर्धशताब्दी समारंभ के प्रसंग पर सबको एक एक प्रति दी थी।
अनुवाद - रणधीर उपाध्याय (द्युमानकी द्युति में से)
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(१) वनस्पतिशासत्रीय नाम - 'शेफ़लेरा एकीनो फायला।। श्रीमाताजी ने इस पुष्य का लक्षण 'सुव्यवस्थित भौतिक शक्ति' बताया है।
(२ ) नीचे के दूसरे पुष्य का नाम, 'लोसोनिया इनर्मीस!' श्री माताजी का बताया गया इसका आंतरिक लक्षण, 'भगवान की और झुकी हुई शक्ति। '
टीप्पणी - द्युमान की प्रबन्धन शक्ति तथा भगवान की सेवा करने की उनकी वृत्ति का आंतरिक साम्य उपर्युक्त दोनो पुष्पों के गुणलक्षणों के साथ देखने को मिलता है।
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४. सत्संग
(वल्लभविद्यानगर स्थित सरदार पटेल युनिवर्सिटी के विद्यार्थियों के ग्रीष्मावकाश में प्रतिवर्ष पांडिचेरी में आयोजित युवाशिविर के संयोजक के कप में डी. दिलावरसिह जाडेजा साथ आए थे, तब ता. २०-६-१९८८ के दिन डी. जाडेजा ने दयुमानभाई से कई प्रश्न पूछे थे और उत्तर प्राप्त किये थे। यह सब एक कैसेट में उतारा गया है जो नीचे उद्घृत किया गया है।)
प्रश्न - आपको माताजी ने सेवा करने की शक्ति दी है?
उत्तर - हाँ, उन्होंने ही मुझसे कहा था - 'you come down to serve' यह धृव सत्य है! मैं उनकी सेवा के लिये जन्मा हूँ! 'लव मधर' इस वाक्य में सबकुछ आ जाता है। जैसे जैसे प्रेम का विकास होता है वैसे वैसे सभी वस्तुएँ उसमें आ जाती हैं। जब (प्रभु से) प्रेम नहीं करते हैं तब सभी दूर ताकना पड़ता है। ग्रन्थ पढ़ने पड़ते हैं। प्रयत्न करने पड़ते है। तुम प्रेम में कूद पड़ी। प्रेम में तो कूद पड़ना होता है सम्पूर्ण :।
प्रश्न - आपका जो कर्मयोग है, यह भक्ति का है एक स्वरूप है, क्या यह सच है?
उत्तर - हाँ, भक्ति का स्वरूप, ज्ञान का स्वरूप सभी एक दूसरे से जुड़ जाता है। परंतु कर्म मुख्य है। हमारा योग divine Manifestation के लिये हैI The Divine has to manifest and one has to transform it. और रूपांतर करना हो तो 'one has to work'.
प्रश्न - श्री अरविंद के योग को हम 'कलेकटीव योग' के रूप में पहचानते हैं तो कलेकटीव योग में - इस सामूहिक योग में, ऐसा नहीं होता है कि इसके काम में व्यक्तिगत स्वभाव के कारण मतभेद पैदा हो और मुश्किलें आएँ?
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उत्तर - यह होता है, यह-सभी होता है। जब तक सुपर माईंड पूरी तरह कब्जा नहीं कर ले और मनुष्य इसको रिस्पॉन्स नहीं दे, तब तक यह मानव - स्वभाव रहेगा ही। हम सभी इसमें से गुजरते है, कोई बचता नहीं हैं। पर अंदर के ह्रदय को कोई बात डिस्टर्ब नहीं करती है।
प्रश्न - मतभेद होते हैं काम में, प्रवृत्तियों में तो उसमें से आप मार्ग कैसे निकालते हो?
उत्तर - मैं मतभेद को आगे नहीं बढ़ने देता।
प्रश्न - फिर इसमें से कोई मार्ग?
उत्तर - हाँ, इसमें से कोई मार्ग निकल आता है। समय सब सम्भाल लेता है। समय उसका कार्य करता ही रहता है। मुझे इसका अनुभव है।
प्रश्न - आपने कल १९ जून १९८८ को अपने अर्थपूर्ण जीवन के ८५ वर्ष पूरे किये। यह ८५ वर्ष का समय बहुत महत्व का है। आपका जीवन योगमय है। समर्पित जीवन है तो इस प्रसंग पर आपके मन में कैसे विचार आते हैं?
उत्तर - सामान्य रूप से सभी जन्मदिन मनाते हैं। उत्सव करते हैं। मेरे मन में सब दिन एक समान है। जन्मदिन पर तो डिवाईन ग्रेस उतरता है, उसका काम करता है और भविष्य के लिये मार्ग अधिक खोल देता है। अबकी बार एक भिन्न बात हो गई। द्युमान नेचर जिसे कहते हैं उसके ऊपर हायर नेचर है। इसमें विकास होने लगा है। अभी है द्युमन नेचर, परंतु इट इज नोट हेव स्ट्रेंथ। मुझमें इस बार यह बन गया है।
प्रश्न - अर्थात् दयुमन से जो हायर है, वह प्लेन अब वर्क करता है?
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उत्तर - हां, देट प्लान इज वर्किंग अपान मी। अब भी ह्यूमन नेचर में हूँ। बट इट हैज नोट हयुमन स्ट्रेंथ। दी स्ट्रेंथ इज ओफ हायर नेचर।
प्रश्न - आपके जन्मदिन पर कोई विशेष अनुभव?
उत्तर - मेरा भाव अधिक से अधिक मदर की और चला गया है। यह अब इतना आगे बढ़ गया है कि कोई भी वस्तु मेरी इनर पीस को डिस्टर्ब नहीं कर सकती है।
प्रश्न - श्रीअरविंद और माताजी का जो संदेश है उसे ग्रहण करने (झेलने) के लिये अभी गुजरात, भारत और विश्व का वातावरण अनुकूल है क्या? आपको ग्रहणशील लगता है?
उत्तर - मैं इसमें नहीं पड़ता हूँ। मैं यह देखता हूँ कि मैं कितना ग्रहणशील हूं? मैं कहाँ हूँ। मैं श्रीअरविंद और माताजी के लिये क्या कर रहा हूँ? मैं इसी प्रकार सोचता हूँ। दूसरे क्या करते हैं? तुम क्या करते हो? यह मुझे नहीं देखना हैं। मुझे स्वयं क्या करना है, यही सोचता हूँ। यहाँ जो आते हैं वे मन्दिर में जाते हैं, जय माँ, जय माँ करते हैं, परंतु मुझे आशा है कि कोई तो इसमें से सच्चा साधक निकलेगा। इसी आशा से ही जी रहा हूँ..। यहाँ आने के बाद एक व्यक्ति का भी जीवन सुधर जाये, भले न सुधरे, एक घड़ी-भर भी उनके मन में अभीप्सा जागे तो यही मेरे लिये पर्याप्त है। प्रश्न - आश्रम की योग साधना में अब कोई नई गतिशीलता का, किसी नये मोड़ का अवसर है, ऐसा आपको दिखाई देता है क्या? उत्तर - यह सब व्यक्तिगत है। प्रत्येक व्यक्ति जैसे-जैसे स्वयं विकास करेगा वैसे-वैसे जो मोड़ लेना होगा, लेगा। यह सारा योग व्यक्तिगत है, सामूहिक होते हुए भी व्यक्ति के ऊपर उसका आधार है। प्रश्न - आपकी जीवन पद्धति?
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उत्तर - १९२३ से मैंने भाषण करना, लिखना बिल्कुल बन्द कर दिया है, केवल कार्य करता हूँ। कार्य बड़ा है या छोटा है, ऐसा प्रश्न नहीं करता हूँ। मुश्किल है या सरल, इसका विचार नहीं करता। कैसा भी हो, मदर जो काम सौंपती है, मैं करता हूँ।
प्रश्न - प्राणशक्ति को वश में रखना हो तो क्या करना चाहिये। प्राणशक्ति वश में न रहे तो मुश्किलें पैदा करती हैं। उसे किस प्रकार प्रशिक्षित कर सकते हैं?
उत्तर - प्राणशक्ति का, नेचर का कंट्रोल साइकिक बिईंग करता है। जब साइकिक बिईंग अग्रभाग में आता है तब किसी प्रयल की आवश्यकता नहीं होती। प्राण चाहे जितना कूदफाँद करे, तो भी यह उसे खिसकने नहीं देती। यह मैंने अपने समग्र जीवन में अनुभव किया है।
विश्वसनीयता, आज्ञाकारिता, कृतज्ञता - यह सब मेरे लिये स्वाभाविक हो गया है, मैंने इसके लिये प्रयास नहीं किये। यह मेरे लिये सहजसाध्य है। इसलिये मुझे जीवन में कोई मुश्किल नहीं पड़ी।
प्रश्न - अपने सम्बन्ध में कुछ कहेंगे?
उत्तर - भगवान सबको मिलाते हैं। सभी भगवान का कार्य करते हैं। भगवान कार्य करते हैं। वह सदा करेंगे। सभी के साथ मेरा सम्बन्ध 'उसी' ने जोड़ा है, वही निभाएगा।
प्रश्न - आपका प्रेरक बल क्या है?
उत्तर - माताजी। 'Love the Mother, She is forever'.
(सौजन्य - स्व. डो. रणधीर उपाध्याय कृत पुस्तक 'द्युमान की धुति'
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५. सन्दर्भ सूची
पुस्तक/सामयिक का नाम लेखक प्रकाशन वर्ष
१.. द्युमाननी द्युति' रणवीर उपाध्याय २१ फरवरी१९९३
(अमदाबाद)
. २. Service letter M.P.Pandit 1-11-1992 ओर
( No. 239 & No.240.) (Pondicherry) 1-12-1992
३. Recent Publications 'Sabda' (June 2003)
Pondicherry
Dyuman - The Luminous - Karmayogi.
by Krishna Chakrvarti
४. Bulletin of Shri Aurobindo international Centre of
Education (Quarterly issues from April 1996 to August 1998 Pondicherry)
Dyuman's Correspondence with the mother.'
५. श्रीअरविंद आश्रम, पांडिचेरी संचालित ग्लोरिया फार्म के संचालक श्री
मनीन्द्र को लिखे हुए दयुमान के पत्र -
(दयुमान के सैकडों अप्रकाशित पत्र अभी सम्पादित होना शेष है। )
'हम ध्यान द्द्वारा प्रगति कर सकते, यदि कार्य सच्चे भाव से
होता है तो इसके द्वारा हम दसगुणा प्रगति कर सकते हैं। '
- श्री माताजी
श्री माताजी के परम भक्त
सोमाभाई वल्लभभाई पटेल नडियाद को
श्रद्धांजलि
हर्षद सोमाभाई पटेल एवं कुसुमबहन हर्षदभाई पटेल
ओहियो, अमेरिका
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