Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
वेद-रहस्य
(पूर्वार्द्ध)
श्री अरविंद
श्रीअरविंद आश्रम
पांडिचेरी
अनुवादक
स्य० आचार्य। अभयदेव विद्यालंकार
जगन्नाथ वेदालंकार
प्रथम संस्करणः 1971
पुनर्मुद्रित : 1986
© स्वत्वाधिकारः श्रीअरविंद आश्रम ट्रस्ट, पांडिचेरी- 605002
प्रकाशक : श्रीअरविंद आश्रम, पांडिचेरी-605002
मुद्रक : श्रीअरविंद आश्रम प्रेस, पांडिचेरी- 605002
प्राक्कथन१
वेदके विषममें परंपरा
वेद प्राचीन कोलमें ज्ञानकी एक पवित्र पुस्तकके रूपमें आवृत था, यह अंत:स्कुरित कविताका एक विशाल संग्रह माना जाता था, उन ॠषिंयों'की-द्रष्टाओं तथा संतोंकी-कृति माना जाता था जिन्होंने अपने मन द्वारा कुछ घड़फर बनानेकी जगह एक महान्, व्यापक, क्षाश्वत तथा अपौरुषेय सत्यको अपने आलोकित मनोके अंदर ग्रहण किया और उसे 'मंत्र'में मूर्त किया, जिन्होने ऐसे शक्तियुक्त मन्त्रोंको प्रकट किया जो किसी साधारण नहीं किन्तु दिव्य स्कुरण तथा दिव्य स्रोतसे आये थे| इन ॠषियोंको जो नाम दिया गया था वह था 'कवि', जिसका अर्थ यद्यपि पीछेसे कोई भी कविता करनेवाला हो गया, पर उस समयमें इसका अर्थ था 'सत्यका द्रष्टा' । स्वयं वेद इन्हें कहता है 'फवय: सत्यश्रुतः' २ अर्थात् 'वे द्रष्टा जो दिव्य सत्यको श्रवण करनेवाले थे', और स्वयं वेदको ही 'श्रुति' नामेसे पुकारा गया था जिसका अर्थ साक्षात्कृत ( अंन्त:भूत ) धर्म-पुस्तक' हो गया । उपनिषदोंके ॠषियोंका भी वेदके विषयमे यही उच्च विचार था और वे अपने-आप जिन सत्योंको प्रतिपादित कस्ती हैं उनकी प्रमाणिकताके लिये बार-बार वेदकी ही साक्षी प्रस्तुत करती हैं और पीछे जाकर ये उपनिषदें भी 'श्रुति'के रुपमे--'इलहामकी धर्म-पुस्तक'के रूपमें आदृत होने लगीं और शास्त्रोमें सम्मिलित कर ली गयीं ।
बेदविषयक यह परम्परा बाह्मण-ग्रंथोंमें भी बराबर रही है और याज्ञिक (कर्मकाण्डी ) टीकाकारोंके द्वारा प्रत्येक बातकी व्याख्या गाथात्मक तथा यज्ञक्रिया-परक कर दिये जानेपर भी तथा पण्डितोंद्वारा ज्ञानकाण्ड और कर्मकाण्डका विभेदक विभाजन (जिसमें मन्त्रमात्रको कर्मकाण्ड तथा उपनिषदोंको ज्ञानकाण्डमें ले लिया गया ) कर दिये जानेपर भी, इस परम्पराने अपने-आपको कायम ही रखा | कर्मकाण्ड-विभागके अन्दर
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श्रीअरविन्दके ग्रन्थ 'Hymns to the Mystic Fire' (अग्नि-स्तुति) की भूमिका उनद्वारा रचित वैदिक साहित्यमे प्रवेशके लिए अत्यन्त होनेसे यहाँ ज्योंकी-त्यों दी जा रही है | --अनुवादक २ जैसे ॠग्वेद 5-57-8, 6-49-6
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ज्ञान-विभागके इस प्रकार डुबा दिये जानेको कठोर शब्दोंमें भर्त्सना एक उपनिषद्में तथा गीतामें भी की गयी है, किन्तु ये दोनों ( उपनिषद् और गीता ) वेदको ज्ञानकी पवित्र पुस्तकके रूपमें ही देखती हैं । यही नहीं किन्तु श्रुतिको (जिसमें वेदके साथ उपनिषदें भी समाविष्ट है ) आध्यात्मिक ज्ञानके लिये परम प्रमाण तथा अभ्रान्त माना गाया है ।
तो क्या येदविषयक यह परंपरा केवल गप्प और हवाई कल्पना है, या बिल्कुल निराधार बल्कि मूर्खतापूर्ण बात है ? अथवा क्या यह तथ्य है कि वेदके पीछेके कुछ मन्त्रोंमें उच्च विचारोंका जो एक केवल क्षुद्र-सा भाग है, उसीक कारण यह परंपरा चली ? क्या उपनिषदोंके कर्ताओंने वैदिक ॠचाओंपर वह अर्थ मढ़ दिया है जो वहाँ असलमें कहीं नहीं है, क्या उन्होंने अपनी कल्पनाके द्वारा तथा मनमौजी व्याख्याके द्वारा उनमेंसे वह अर्थ निकाल लिया है ?, आधुनिक पाश्चात्य विद्वान् आग्रह करते हैं कि यह ऐसी ही बात है और आधुनिक भारतीय मनको भी उन्होंने प्रभावित कर.लिया है । इस दृष्टिकोणके पक्षमें यह तथ्य भी है कि वेदके ऋषि न केवल द्रष्टा थे, किन्तु वे, गायक तथा यज्ञके पुरोहित भी थे, कि उनके गीत सार्वजनिक यज्ञोंमें गाये जानेके लिये लिखे गये थे और वे निरन्तर ही प्रश्वलित क्रिया-कलापकी ओर निर्देश करते हैं और इन यज्ञ-विधियोके बाह्य उद्देश्यों-उद्दिष्ट पदार्थों--जैसे धन, समृद्धि, शत्रुपर विजय आदिकी ही प्रार्थना करते प्रतीत होते हैं । वेदका महान् टीकाकार सायण हमारे सामने सदा ॠचाओंफा कर्मकाण्ड-सम्बंधी अर्थ ही प्रस्तुत करता है । जहाँ आवश्यक हो जाय वहीं और वह भी परीक्षणात्मक विचारके तौररपर वह एक गाथात्मक या ऐतिहासिक अर्थ भी उपस्थित करता है, पर कभी विरले ही अपनी टीकामें कोई उच्चतर अर्थ प्रदर्शित करता है, यद्यपि कभी-कभी वह किसी उच्चतर अभिप्रायकी झलक आ जाने देता है, या इस (उच्चतर अभिप्राय ) को केवल एक विकल्पके रूपमें, मानों किसी याज्ञिक गाथात्मक व्याख्याके हो सकनेकी संभावनासे निराश होकर, विवश-सा होकर; प्रकट करता है । पर फिर भी वह वेदकी आध्यात्मिक रूपसे परम प्रमाणिकता मानता है, इससे विमुख नहीं होता और, नाहीं, वह इस बातसे इन्कार करता है कि ऋचाओंमें एक उच्चतर सत्य निहित है । यह अन्तिम कार्य ( वेदकी आध्यात्मिक प्रमाणिकतासे इन्कार आदि ) हमारे युगके लिये छोड़ दिया गया था और यह पाश्चात्य विद्वानोंने किया तथा अपने मन्तव्य का प्रचार भी किया ।
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पश्चिमी विद्वानोंका मत
योरुषीय विद्वानोंने कर्मकाण्डीय परम्पराको तो सायणसे ले लिया, परन्तु अन्य बातोके लिये इसको (सायणको ) नीचे धकेल दिया । और वे अपने ढंगसे शब्दोंकी व्युत्पत्तिपरक व्याख्याको लेकर चलते गये, या अपने ही अनुमानात्मक अर्थोंके साथ' वैदिक मन्त्रोंकी व्याख्या करते गये और उन्हें एक यथा ही रूप प्रदान कर दिया, जो प्रायश: उच्छृंखल तथा कल्पनाप्रसूत था' । वेदमें उन्होंने जो कुछ खोजा वह था भारतका प्रारम्भिक इतिहास, इसका समाज, संस्थाएं, रीति-रिवाज तथा उस समयकी सभ्यताका चित्र । उन्होंने भाषाओंके विभेदपर आधारित एक मत, एक परिकल्पनाको घड़ा कि उत्तरके आर्योंके द्वारा द्राविड़ भारतपर आक्रमण किया गया था, जिसकी स्वयं भारतीयोंमें कोई स्मृति या परम्परा नहीं मिलती और जिसका भारतके किसी महाकाव्य या प्रमाणभूत साहित्यमें कहीं कुछ उल्लेखतक नहीं पाया जाता । उनके हिसाबसे वैदिक धर्म इसके. सिवाय और कुछ नहीं कि यह प्रकृतिके देयताओंकी पूजा है जो सौर गाथाओंसे भरी हुई तथा यज्ञोंसे पवित्रकी. गयी है, साथ ही यह एक याज्ञिक प्रार्थनाविधि है जो अपने विचारों तथा क्रियाओंमें पर्याप्त आरंभकालिक है और ये जंगली प्रार्थनाएं ही बहु- प्रशंसित, इतना महिमायुक्त बनाया हुआ तथा दिव्यत्वापादित वेद हैं ।
देवताओंका रूपपरिवर्तन और वेद
इसमें कोई सं:देह नहीं हो सकता कि आरंभमें, भौतिक: जगत्की शक्ति-योंकी पूजा होंती थी जैसे सूर्य, चन्द्रमा, घौ और पृथ्वी, वायु, वर्षा और आंधी आदिक, ? पवित्र नदियोंकी तथा अनेक ' देवोंकी जो प्रकृति क्रियाओंका अधिष्ठातृत्य करते हैं । ग्रीसमें, रोममें, भारतमें तथा अन्य पुरातन जातियोंमें प्राचीन पूजाका सामान्य स्वरूप यही था । परन्तु इन सभी देशोंमें इन देवताओंने एक उच्चतर आन्तरिक या आध्यात्मिक व्यापार. ग्रहण करना आरम्भ कर दिया था । पलास एथिनी ( Pallas Atheneप्रखंड ) जो आरंभमें जीस (Zeus) के सिरसे, आकाश-देवतासे, वेदके 'धौ'से ज्यालामय रुपमे उद्भूत होनेवाला उषा-देवता रहा होगा, प्राचीन अभिजात ग्रीसमें एक उच्चतर व्यापारको करनेवाला देवता हो गया और रोमन लोगों द्वारा अपने मिनर्वा ( Minerva) के, विद्या और ज्ञानके देवताके साथ एक कर दिया गया था । इसी तरह सरस्वती, एक नदी-देवता, भारतमें ज्ञान, विद्या, कला और कौशलकी देवी हो जाती है । सभी ग्रीक देवता इस दिशामें परिवर्त्तनको प्राप्त हुए हैं--अपोलो (Apollo), सूर्य देवता, 'कविता तथा
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भविष्यवाणीका देवता हो गया है, हिफस्टस (Hiphaestus), अग्नि-देवता, दिव्य कारीगर. श्रमका देवता हो गया है । पर भारतमें वह प्रक्रिया अधबीचमें रुक गयी और यहाँ वैदेक देवोंने अपने आन्तरिकत या आध्यात्मिक व्यापारोंको तो विकसित किया, किन्तु अपने बाह्यस्वरूपको भी अघिक स्थिरताके साथ कायम रखा औरो उच्चतर प्रयोजनोंके लिये एक नही ही देवमालाको जन्म प्रदान किया । उन्हें उन पौराणिक देयताओंको प्राथमिकता देनी थी जिन्होंने अपने पहले साथियोंमेंसे विकसित होनेपर भी अघिक विस्तृत विश्व-व्यापारोंको धारण कर लिया था, अर्थात् विष्णु, रूद्र, बह्या ( जो वैदिक बृहस्पति या ब्रह्यणस्पतिसे विकसित हुआ ), शिव, लक्ष्मी और दुर्गा । इस प्रकार भारतममें देवताओंमें, परिवर्तन. कम पूर्ण रहा | पहलेके देवता पौराणिक देवमालाके क्षुद्र देवता बन गये और इसका प्रमुख कारण था ऋग्वेदका बचे रहना, क्योंकि वेदमें देवताओंके आध्यात्मिक व्यापार तथा बाह्य व्यापार दोनों एक साथ विद्यमान थे और दोनों पर ही पूरा बल दिया गया था । ग्रीस और रोमके देवताओके प्रारंभिक स्वरूपोंको सुरक्षित रखनेथाला इस तरहका (वेद जैसा ) कोई साहित्यिक लेखा था ही नहीं ।
रहस्यवादी
देवताओंमें इस परिवर्त्तनका कारण प्रत्यक्ष ही इन सब आदिकालीन जातियोंका सांस्कृतिक विकास था क्योंकि ये जातियां क्रमश: अधिकाधिक मानसिकतापन्न और भौतिक जीवनमें उत्तरोत्तर कम रत रहनेवाली होती गयीं । ज्यों-ज्यों इन्होंने सभ्यतामे प्रगति की और अपने धर्ममें तथा अपने देवताओंमें ऐसे सूक्ष्मतर एवं परिष्कृततर पहलुओंको देखनेकी आवश्यकता अनुभव की, तो उनके अधिक उच्चतया मानसिकताप्राप्त विचारों तथा रुचियोंको आश्रय दे सकें और उनके लिये एक सच्ची आध्यात्मिक सत्ताको या किसी दैवी मूर्त्तिको, उनके अवलम्बन और प्रमाणके रूपमें, उपलब्ध कर सकें त्यों-त्यों ये अधिकाधिक भानसिकतापन्न होती गयीं । परन्तु इस अन्तर्मुखी प्रवृत्तिको निर्धारित करनेमें और इसे ग्रहण करनेमें सबसे अधिक भाग लेनेका श्रेय रहस्यवादियोंको दिया जाना चाहिये, जिनका इन आदि सभ्यताओंपर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा था । निःसंदेह प्रायः सब जगह ही रहस्यमयताका एक युग रहा है जिसमें गंभीरतर ज्ञान, और आत्म-ज्ञान रखनेवाले लोगोंने अपने अभ्यास-साधन अर्थपूर्ण विधिविधान तथा प्रतीकोंको स्थापित किया था, एवं अपने अपेक्षाकृत आदिकालीन बाह्य धर्मोके अन्दर या उनके एक सिरेपर गुह्यविधाको रखा था । इस ( रहस्यवाद )
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ने भिन्न-भिन्न देशोंमें भिन्न-भिन्न रूप धारण किया । ग्रीसमें ओेर्फिक तथा एलुसीनियन रहस्य थे, मिश्र और खाल्दियामें पुरोहित तथा उनकी गुह्यविधा और जादू थे, ईरानमें मागी तथा भारतमें ऋषि थे । ये रहस्यवादी आत्मज्ञान तथा गंभीरतर विश्वज्ञान पानेमें निमग्न रहे, इन्होंने खोज निकाला कि मनुष्योंमें एक. गंभीरतर आत्मा और आन्तरतर सत्ता है जो बाह्य भौतिक मनुष्यके उपरितलके पीछे छिपी है और उसे ही खोजना और जानना उसका सर्वोच्च कार्य है । 'तू अपने-आपको जान' यह उनकी महान् शिक्षा थी, जैसे कि भारतमें स्वको, आत्माको जानना महान् आध्यात्मिक आवश्यकता, मनुष्यके लिये सर्वोच्च वस्तु हो गयी थी । उन्होंने विश्वके बाहरी रूपोंके पीछे एक सत्यको, एक सद्वस्तुको भी जाना था और इस सत्यको पा लेना, इसका अनुसरण करना तथा इसे सिद्ध करना उनकी महती अभीप्साका विषय था । उन्होंने प्रकृतिके रहस्यों तथा शक्तियोंको खोज निकाला था जो भौतिक जगत्के रहस्य और शक्तियां नहीं थी परन्तु जिनके द्वारा भौतिक जगत् तथा भौतिक वस्तुओंपर गुप्त प्रभुत्व प्राप्त किया जा सकता था और इस गुह्य विधा तथा शक्तिको व्यवस्थित रूप देना भी इन रहस्य-वादियोंका एक प्रबल कार्य था, जिसमें वे व्यस्त रहते थे | परन्तु यह सब केवल एक कठोर और प्रमादरहित- प्रशिक्षणद्वारा, नियंत्रण .और प्रकृति- शोधनद्धारा ही सुरक्षित रूपसे किया जा सकता था । साधारण मनुष्य इसे नहीं कर सज्जा था । यदि मनुष्य. बिना कठोरतापूर्वक परखे गये और बिना प्रशिक्षण पाये हुए इन बातोंमें पड़ जाय तो यह उनके, लिये तथा अन्योंके लिये खतरनाक होता; क्योंकि इस शक्तियोंका दुरूपयोग किया जा सकता था, .इनके अर्थका अनर्थ किया जा सकता था, इन्हें सत्यसे मिथ्याकी ओर, कल्याणसे अकल्याणकार ओर मोड़ा जा सकता था । इसलिये एक कठोर गुप्तता बरती जाती थी, ज्ञान पर्देकी ओर गुरुसे शिष्यको पहुँचाया जाता था । प्रतीकोंका एक पर्दा रचा गया था जिसकी ओटमें थे रहस्यमय बातें आश्रय ग्रहण कर सकती थी, बोलनेके कुछ सूत्र भी बनाये गये थे जो दीक्षितोंद्वारा ही समझे जा सकते थे, जो अन्योंको या तो अविदित होते थे या उन द्वारा एक ऐसे बाह्य अर्थमें ही समझे जाते थे जिससे उनका असली अर्थ और रहस्य सावधानतापूर्वक छिपा रहता था सब जगहके रहस्यवादका सारांश यही था ।
.वेदोंके गुह्यार्षक होनेकी परंपरा
भारतमें यह परंपरा प्राचीनतम कालसे चली आ रही है कि वेदके
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ऋषि, कवि-द्रष्टा, उपर्युक्त प्रकारके? थे, वे एक महान् आध्यात्मिक और गुह्य ज्ञानसे युक्त थे, जिसतक साधारण मानय-प्राणियोंकी गति नहीं होती; उन्होंने इस ज्ञानको और अपनी शक्तिको एक गुप्त दीक्षाके द्वारा अपने वंशजों तथा चुने हुए शिष्योंतक पहुँचाया था । यह मान लेना निरी कपोल-कल्पना होगा कि भारतमें चली आ रही यह उपर्युक्त परंपरा सर्वथा निराधार है, एवं एक अन्ध-विश्वास है जो एकदम या धीरे-धीरे एक शून्यमेंसे, बिना कुछ भी आघारके, बन गया है । इस परंपराका कुछ-न-कुछ आधार अवश्य होना चाहिये, यह चाहे कितना थोड़ा क्यों न हो या वह गाथाद्वारा तथा शताब्दियोंके उपचयद्वारा चाहे कितना बढ़ा-चढ़ा क्यों न दिया गया हो । और यदि वह ठीक है तो इन कविद्रष्टाओंने अवश्य ही वेदमें अपने गुह्य ज्ञानकी, अपनी रहस्यमय विद्याकी कुछ-न-कुछ बातें व्यक्त की होंगी और वेदमंत्रोंमें ऐसी कुछ वस्तु अवश्य विद्यमान होगी; चाहे वह गुह्य भाषाके द्वारा या प्रसीकोंके कौशलके पीछे कितनी सुगुप्त क्यों न रखी हुई हो और यदि वह वहाँ विद्यमान है तो वह कुछ हदतक उपलभ्य भी होनी चाहिये । यह ठीक. है कि बहुत पुरानी भाषा और लुप्तप्राय शब्दोंके कारण (यास्कने चार सौसे ऊपर ऐसे शब्द गिनाये हैं जिनके अर्थ उसे ज्ञात नहीं थे ) तथा एक कठिन और अप्रचलित भाषाशैलीके कारण वेदका अभिप्राय अंधकारमें पड़ गया हैं, वैदिक प्रतीकोंके अथोंके (जिनका कोष उन्हींके पास रहता था ) खोये जानेसे ये आनेवाली संततियोंके लिये दुर्बोध हो गये । जब कि उप-निषदोंके .कालमें भी उस युगके आध्यात्मिक जिज्ञासुओंको वेदके गुप्त ज्ञानमें प्रवेश पानेके लिये दीक्षा तथा ध्यान (योगाभ्यास ) की शरण लेनी पड़ती थी तो बादके विद्वान् तो किंकर्तव्यविमूढ़ ही हो गये और उन्हें शरण लेनी पड़ी अटकलकी तथा वेदोंकी बौद्धिक व्याख्यापर ही अपना ध्यान केंद्रित करनेकी या इन्हें गाथाओं तथा ब्राह्यण-ग्रंथोंके कथानकों (जो स्वयं प्रायः प्रतीकात्मक तथा अस्पष्ट थे ) द्वारा समझने-समझानेकी । किंतु फिर भी वेदके उस रहस्यकों उपलब्ध करना ही एकमात्र उपाय है जिससे हम वेदके सच्चे अर्थ और सच्चे मूल्यको पा सकेंगे । हमें यास्क मुनिके दिये संकेतको गंभीरतापूर्वक ग्रहण करना चाहिये, वेदके अंदर क्या है इस विषयमें हमें ॠषिके इस वर्णनको की ये "द्रष्टाका ज्ञान हैं, कवि-द्रष्टाके वचन हैं'' स्वीकार करना चाहिये और इस प्राचीन धर्म-ग्रंथके अर्थोंमे प्रवेश पानेके लिये हम जो कोई भी सूत्र प्राप्त कर सकें उसे खोजकर पकड़ना चाहिये । यदि हम ऐसा न करेंगे तो वेद सदाके लिये मुहरबंद पुस्तक ही बने रहेंगे; व्याकरण-विशारद, व्युत्पत्ति-शास्त्री या विद्वानोंकी अटकलें हमारे लिये इन मुहरबंद कमरोंको कभी. खोल नहीं सकेंगी ।
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क्योंकि यह एक तथ्य है कि वेदबिषयक यह परंपरा कि प्राचीन वेदकी ॠचाओंमें एक गुह्य अर्थ और एक रहस्यमय ज्ञान निहित हैं इतनी पुरानी है जितने कि स्वयं वेद । वैदिक ऋषियोंका यह विश्वास था कि उनके मंत्र चेतनाके उच्चतर गुप्त स्तरोंसे अंत:प्रेरित हुए आये हैं और वे इस गुह्य ज्ञानको रखते हैं । वेदके वचन उनके सच्चे अर्थोमें केवल उसीके द्वारा जाने जा सकते हैं जो स्वयं ऋषि या रहस्यवेत्ता (योगी ) हो, अन्योंके प्रति मंत्र अपने गुण ज्ञानको नहीं खोलते । वामदेव ॠषि अपने चतुर्थ मंडलके. एक मंत्र. ( 4.3.16 ) में .अपने-आपका इस रूपमें वर्णन करता है कि मैं अंतःप्रकाशसे युक्त विप्र अपने विचार (मतिभिः ) तथा शब्दों (उक्यै: ) के द्वारा पथप्रदर्शक ( नीथानि) और गुह्य वचनोंको ( निण्या वचांसि ) व्यक्त कर रहा हूँ, ये द्रष्टज्ञानके शब्द (काव्यानि) हैं जों द्रष्टा या ऋषिके लिये अपने आंतर अर्थको बोलनेवाले ( कवये निवचना ) हैं । ॠषि दीर्धतमा ॠचाओंके, वेदमंत्रोंके, विषयमें कहता है कि 'ॠचो अक्षरे परमे व्योमन् अस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदु:' अर्थात् ऋचाएँ रहती हैं उस परम आकाशमें जो अविनाश्य व अपरिवर्तनीय है जिसमें सबके सब देव स्थित हैं' और फिर कहता है; कि 'यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति अर्थात् 'वह जो उसको (उस आकाशको ) नहीं जानता वह ऋषासे क्या करेगा ?' (ऋग्वेद 1 : 164. 39 ) । वह ऋषि आगे चार स्तरोंका उल्लेख करता है जहाँसे वाणी निकलती है, जिनमेंसे तीन तो गुहामें छिपे हुए हैं और चौथा स्तर मानवीय है, और वहींसे मनुष्योंके साधारण शब्द आते हैं, परंतु वेदके शब्द और विचार उन उच्चतर तीन स्तरोंसे संबंध रखते हैं ( 1. 164. 45) । इसी तरह, अन्यत्र वेद (मंडल 10 सूक्त 71 ) में वेदवाणीको परम ( प्रथमम् ), वाणीका उच्चतम, शिखर ( वाचो अग्रम् ), श्रेष्ठ तथा परम निर्दोष ( अरिप्रम् ) वर्णित किया गया है । यह (वेदवाणी ) कुछ ऐसी वस्तु है जो गुहामें छिपी हुई है और वहाँसे निकलती है और अभिव्यक्त होती है ( प्रथम मंत्र ) । यह सत्यद्रष्टामें, ऋषियोंमें, प्रविष्ट हुई है और इसे उनकी वाणीकी पद्धति (पदचिह्नों ) का अनुसरण करनेके द्वारा प्राप्त किया जाता है (तीसरा मंत्र ) । परंतु सब कोई इसके गुह्म अर्थमें प्रवेश नहीं पा सकते । वे लोग जो आंतरिक अभिप्राय नहीं जानते ऐसे हैं जो देखते हुए भी नहीं देखते, सुनते हुऐ भी नहीं सुनते; कोई विरला ही होता ह जिसे चाहती हुई वाणी अपने-आपको उसके संमुख प्रकट कर देती है, जैसे कि सुन्दर वस्त्र पहने हुई पत्नी अपने .शरीरको पतिके सामने खोलकर रख देती है ( चौथा मंत्र ) । अन्य लोग जो 'वाणी'के-वेद-रूपी गौके--दूधको स्थिरतया
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पीनेमें अमर्थ होते हैं, उसके साथ यों फिरते है मानो वह गौ दूध देनेवाली है ही नहीं उनके लिये वाणी ऐसे वृक्षके सभान है जो फलरहित और पुष्परहित है ( पांचवां मंत्र ) । वेदका यह सब कथन कितना स्पष्ट और यथार्थ है । इससे संदेहकी कुछ भी गूंजायशके बिना यह परिणाम .निकलता है कि उस समय भी जब ॠग्येद लिखा जा रहा था ॠचाओकें विषयमें यह माना जाता था कि उनका कुछ गुप्त अर्थ है जो सबके लिये खुला नही है । सचमुच पवित्र वेद-मंत्रोंके अंदर एक इस और आष्यात्मिक ज्ञान थी और ऐसा माना जाता था कि उस ज्ञानके द्धारा ही मनुष्य सत्यको जान सकता है और एक उच्चतर अवस्थामें चढ़ सकता है । यह विश्वास कोई पीछेकी बनी परंपरा नहीं था किंतु इस विश्वासको सैंभवत: सभी ऋषि और प्रत्यक्षत: दीर्धतमा. तथा वामदेव जैसे श्रेष्ठतम ऋषियोंमेंसे कुछ तो अवश्य रखते थे ।
तो यह .परंपरा पहलेसे विद्यमान थी और फिर वह. वैदिक कालके पश्चात् भी चलती गयी । एवं हम देखते हैं कि यास्क मुमि अपने निरुक्तमें वेदकी व्याख्याके अनेक संप्रदायोंका उल्लेख करते हैं । एक याझिक अर्थात् कर्मकांडीय व्याख्याका संप्रदाय था, एक ऐतिहासिक था जिसे गाथात्मक व्याख्याका संप्रदाय कहना चाहिये, एक वैयाकरणों तथा व्युत्तिशास्त्रियों, नैरुक्तों एवं नैयायिकोंद्वारा व्याख्याका संप्रदाय और एक आध्यात्मिक व्याख्याका । यास्क स्वयं धोषित करता है कि ज्ञान त्रिविध है, अतएव सब वेदमंत्रोंके अर्थ भी त्रिविध होते हैं, एक अधियज्ञ या कर्मकांडीय ज्ञान, दूसरा अधिदैवत अर्थात् देवतासंबंधी ज्ञान और अतमें आध्यात्मिक ज्ञान; परंतु .इनमें से अंतिम अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञानका प्रतिपादक अर्थ ही वेदका सच्चा अर्थ है और जब वह प्राप्त हो जाता है तो शेष अर्थ झड़ जाते या कट जाते हैं । यह आध्यात्मिक अर्थ ही त्राण करनेवाला है, शेष सब बाह्य और गौण हैं । वह आगे कहता हैं कि ॠषियोंने सत्यको वस्तुओंके सत्य धर्मको आंतर दृष्टिद्वारा प्रत्यक्ष देखा था', कि पीछेसे वह ज्ञान तथा वेदका आंतरिक अर्थ प्रायः लुप्त होते गये और जो थोड़ेसे ऋषि उन्हें तब भी जानते थे उन्हें इसकी रक्षा शिष्योंको दीक्षित करते जानेद्वारा करनी पड़ी और अंतमें वेदार्थको जाननेके लिये बाह्य और अंतमें वेदार्थको जाननेके लिये बाह्य और बौद्धिक उपायोंको जैसे निरुक्त तथा अन्य वेदांगोंको, उपयोगमें लाना पड़ा । परंतु तो भी, वह कहता है, 'वेदका सच्चा अर्थ ध्यान-योग और तपस्याके द्वारा ही प्रेत्यक्षत: जाना जा सकता है' और जो लोग इन साधनोंको उपयोगमें ला सकते हैं उन्हें वेदज्ञानके लिये किन्हीं भी बाह्य सहायताओंकी आवश्यकता नहीं | सो यास्कका यह कथन भी पर्याप्त स्पष्ट और निश्चयात्मक है |
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यह परंपरा कि वेदमें एक गुह्य तत्त्व है और वह भारतीय सभ्यता, भारतीय घर्म, दर्शन तथा संस्कृतिका मूल स्रोत है ऐतिहासिक तथ्यसे अधिक संगत है न कि यूरोपियनोंका इस परंपरागत विचारका उपहास करनेवाला मत । उन्नसविं शताब्दीके यूरोपियन पंडित जो भौतिकताप्रधान तर्कवादके इसके लेखक थे भारतवातिके इतिहासके विषयमें यह मानते थे कि यह एक प्रारंभिक जंगली या अर्द्ध-जंगली अवस्थामेंसे, एक अपरिपक्य सामाजिक जीवन और धर्ममेंसे और अंधविश्वासोंके समुदायमेंसे हुआ विकास है, जो बुद्धि और तर्ककी, कला, दर्शन तथा भौतिक विज्ञानकी, एक अधिक स्पष्ट और सयुक्तिक तथा अघिक तथ्यपरायण बुद्धिकी उन्नति द्वारा विकसित बाह्य सभ्य संस्थाओं, रीति-रिवाजों और आदतोंका परिणाम है । सो वेद-विषयक यह परंपरागत प्राचीन विचार उनके इस चित्रमें ठीक नहीं बैठ सकता था, उसे तो वे प्राचीन अंधविश्वासपूर्ण विचारोंका एक भाग और आदि जंगली लोगोंकी एक सहज भूल ही मानते थे । परंतु अब हम भारतजातिके विकासके विषयमें अधिक ठीक-ठीक विचार बना सकते हैं । यह कहना चाहिये कि प्राचीन आधतर सभ्यताएँ अपने अंदर भावी विकासके तत्त्वोंको रखे हुए थीं पर उनके आदिम सानी लोग वैज्ञानिक और दार्शनिक या ऊँची बौद्धिक तर्कणा-सक्तिवाले लोग नहीं थे किन्तु रस्यवादी थे, बल्कि रहस्य-पुरुष, गुह्यवादी, धार्मिक जिज्ञासु थे । वे जिज्ञासु थे वस्तुओंके पीछे छिपे हुए सत्य के, न कि बाह्य ज्ञानके । वैज्ञानिक और दर्शिनिक पीछेस आये; उनके पूर्ववर्ती तो रहस्यवादी थे और प्रायः पाइथागोरस तथा प्लेटो जैसे दार्शनिक भी कुछ सीमातक या तो रहस्यवादी थे या उनके बहुतसे बिचार रहस्यवादियोंसे लिये गये थे । भारतमें दार्शनिकता रहस्यवादीयोंकि जिज्ञासामेंसे ही उदित हुई और भारतीय दर्शनोंने उनके (रहस्यवादियोंके ) आध्यात्मिक ध्येयोंको कायम रखा तथा विकसित किया और उनकी पद्धतियोंमेंसें कुछको आगामी भारतीय आध्यात्मिक शिक्षणमें तथा योगमें भी पहुँचाया । वैदिक परंपरा, यह तथ्य कि वेदमें एक रहस्यवादी तत्त्व है, इस ऐतिहासिक सत्यके साथ पूरी तरह ठीक बैठती है और भारतीय संस्कृतिके इतिहासमें 'अपना स्थान प्राप्त करतीं है । तो वेदविषयक यह परंपरा कि वेद भारतीय सभ्यताके मूल आधार हैं न कि केवल एक जंगली याज्ञिक पूजा-विधि, केवल परंपरासे कुछ अधिक वस्तु है, यह इतिहासका एक वास्तविक तथ्य है ।
वेदोंके दोहरे और प्रतीकत्मक अर्थ
परंतु यदि कहीं वेदमंत्रोंमें उच्च आध्यात्मिक ज्ञानके कुछ अंश या
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उच्च विचारोंसे पूर्ण कुछ वाक्य पाये भी जाएँ तो यह कल्पना की जा सकती है कि वे तो शायद वेदका केवल एक स्वल्पसा भाग है, जब कि शेष सब याज्ञिक पूजाविधि ही है, देवताओंके प्रति की गयी प्रार्थना या प्रशंसाके मंत्र हैं जो देयताओंको यज्ञ करनेवालोंपर ऐसे भौतिक वरदानोंकी वर्षा करनेको प्रेरित करनेके लिये बोले जाते थे जैसे कि बहुत-सी गौएँ, घोड़े, लड़ाकू वीर, पुत्र अन्न, सब प्रकारकी संपत्ति, रक्षा, युद्धमें विजय, या फिर आकाशसे वर्षाको ले आनेके लिये, सूर्यको बादलोंमेसे या रात्रिके पंजेसे छुड़ा लानेके लिये, सात नदियोंके खुलकर प्रवाहित होनेके लिये, दस्युओंसे (या द्रविड़ोंसे ) अपनें पशुओंके छुड़ा लानेके लिये तथा अन्य ऐसे ही वरदानोंके लिये बोले जाते थे जो उपरितलपर इस याज्ञिक पूजाके उद्दिष्ट विषय प्रतीत होते हैं । तब इसके अनुसार तो वेदके ऋषि ऐसे लोग होने चाहिये जो कुछ आध्यात्मिक या रहस्यमय ज्ञानवाले होंगे किन्तु वैसे उस युगके अनुकूल सभी साधारण प्रचलित विचारोंके वशीभूत होंगे । तो इन दोनों ही तत्त्वोंको ऋषियोंने अपने वैदिक सत्यों में धुला-मिलाकर रखा होगा और ऐसा मान लेनेसे कम-से-कम अंशत: इसका भी कुछ कारण समझमें आ' जायगा कि वेदमें इतनी अस्पष्टता, बल्कि इतनी विचित्र और कभी-कभी तो हास्यजनक अस्तव्यस्तता क्यों है, जैसी कि परंपरागत भाष्योंके अनुसार वेदमें हमें दिखाई देती है । परंतु यदि, इसके प्रतिकूल, वेदोंमें उच्च विचारोंका एक बहुत बड़ा समुदाय स्पष्ट दृष्टिगोचर होता हो, यदि मंत्रोंका बहुत बड़ा भाग या समूचे-के-समूचे सूक्त केवल उनके रहस्यमय स्वरूप तथा अर्थोंकों ही प्रकट करनेवाले हों, और अंतत: यदि वेदमें आये कर्मकाण्डी तथा बाह्य व्यौरे निरंतर ऐसे प्रतीकोंका रूप धारण करते पाये जाते हों जैसे कि रहस्यवादियोंद्वारा सदा प्रयुक्त किये जाते हैं और यदि स्वयं सूक्तोंके अंदर ही वैदिक शैलीके ऐसी ही होनेके अनेक स्पष्ट संकेत बल्कि कुछ सुस्पष्ट वचनतक मिलते हों, तब सब कुछ बदल जाता है । तब हम अपने सामने एक ऐसी महान् धर्मपुस्तक पाते हैं जिसके दोहरे अर्थ हैं--एक गुह्य अर्थ और दूसरा लौकिक अर्थ, स्वयं प्रतीकोंका भी वहाँ अपना अर्थ है ओ उन्हें गुह्य अर्थोंका एक भाग, गुह्य शिक्षा तथा ज्ञानका एक तत्त्व बना देता है । संपूर्ण ही ऋग्वेद, शायद थोड़ेसे सूक्तोंको अपवाद-रूपमें छोड़कर, अपने आंतरिक अर्थमें एक ऐसी ही महान् धर्मपुस्तक बन जाता है । साथ ही यह आवश्यक नहीं कि उसका बाह्य लौकिक अर्थ केवल पर्देका ही काम करे, क्योंकि ॠचाएँ उनके निर्माताओं द्वारा शक्तिके ऐसे वचन मानी गयी थीं जो न केवल आंतरिक वस्तुओंके लिये किंतु बाह्य वस्तुओंके लिये भी शक्तिशाली थे । शुद्ध आध्यात्मिक
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धर्मग्रंथ तो केवल आध्यात्मिफ अर्थोंसे अपना वास्ता रखता, किंतु ये प्राचीन रहस्यवादी साथ ही वे भी थे जिन्हें 'आकल्टिस्ट' (गुप्तविधावित् ) कहना चाहिये, ये ऐसे थे जिनका विश्वास था कि आंतर साधनोंद्वारा आंतरिक ही नहीं किन्तु बाह्य परिणाम भी उत्पन्न किये जा सकते हैं, विचार और वाणीका ऐसा प्रयोग किया जा सकता है जिससे. इसके द्वारा प्रत्येक प्रकारकी-स्वयं वेदमें प्रचलित मुहावरेमें कहें तो 'मानुषी और दैवी' दोनों प्रकारकी-सिद्धि या सफलता प्राप्त की. जा सकती है ।
वैदिक शब्दोंके सीधे, स्वाभाविक, स्थायी अर्थ
परंतु प्रश्न होता है कि गुह्य अर्थोंका वह समुदाय वेदमें है कहाँ ? वह हमें तभी मिलेगा यदि हम ऋषियोंद्वारा प्रयुक्त शब्दों और शब्द-सूत्रोंको एक स्थिर तथा बिलकुल सीधा अर्थ प्रदान करें, विशेषतया उन कुंजी-रूप शब्दोंको जो ऋषियोंके सिद्धांतोंके इस सारे भवनको उसकी केंद्र-शिलाओंकी तरह धारण करते हैं । ऐसा एक शब्द है महान् शब्द 'ॠतम्' अर्थात् सत्य । सत्य रहस्यवादियोंकी खोजका केंद्रीय विषय था, एक आध्यात्मिक या आंतर सत्य, हमारे अपने आपका सत्य, वस्तुओंका सत्य, जगत्का तथा देवताओंका सत्य, हम जो कुछ हैं और वस्तुएँ जो कुछ हैं उन सबके पीछे विद्यमान सत्य । कर्मकांडीय व्याख्यामें वैदिक ज्ञान के इस 'गुर'-भूत शब्दकी व्याख्या व्याख्याकारकी सुविधा या मौजके अनुसार इसे सभी प्रकारके अर्थोमें लेकर की गयी है--'सत्य', 'यज्ञ', 'जल', 'गया हुआ' और 'अन्न' तक, और जो अनेक अवांतर अर्थ किये गये हैं उनका तो कहना ही क्या है .। यदि हम ऐसे ही अर्थ करेंगे तब तो वेदके साथ हमारे बरतनेमें कोई निश्चितता आ ही नहीं सकती । किंतु हम स्थिर रूपसे इस शब्दको वही प्रधान ( 'सत्य'का ) अर्थ देकर देखें तो एक अद्भुत किंतु स्पष्ट परिणाम निकलेगा । वदि हम वेदमें स्थिर रूपसे आनेवाले अन्य शब्दोंके साथ भी ऐसे ही बर्ते, यदि हम उनका साधारण, स्वाभाविक और बिल्कुल सीधा जो अर्थ है वही करें और वह अर्थ सतत तथा स्थिर रूपसे करें, उनके अर्थोंको लेकर इधर-उधर कूद-फांद न करें या उनको शुद्ध कर्मकांडी आशय देनेके लिये तोड़े-मरोड़े नहीं, यदि हम कुछ महत्त्वपूर्ण शब्दोंको जैसे 'ॠतु', 'श्रवस्' आदिको उनके वे आध्यात्मिक अर्थ देवें, जिनकी वे क्षमता रखते हैं और जो अर्थ ऐसे संदर्भोंमें जिनमें, उदाहरणार्थ, वेद अग्निका 'क्रतुर्ह्रदि' कहकर वर्णन करता है, निःसंदेह हैं ही, तो यह परिणाम और भी अधिक स्पष्ट, विस्तृत ओर व्यापक हो जायेगा | ओर उसके अतिरिक्त यदि हम उन संकेतोंका
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अनुसरण करें जो बहुतायतसे मिलते हैं,--कई बार तो अपने प्रतीकोंके आंतरिक अर्थोंके विषयमें ॠषियोंके अपने सुस्पस्ट कथन ही मिल जाते हैं-और यदि हम अर्थपूर्ण कथानकों तथा रूपकोंकी व्याख्या उसी अभिप्रायमें करें जिसपर वे बार-बार लौटकर आते हैं, जैसे वृत्र पर विजय तथा वृत्रों ( वृत्रकी शक्तियों ) के साथ युद्ध, सूर्यकी, जलोंकी और गौओंकी पणियों तथा अन्य वस्तुओंसे पुनर्मुक्ति, तो संपूर्ण ही ऋग्वेद - अपने-आपको ऐसे सिद्धांत तथा साधनाभ्यासकी पुस्तकके रूपमें प्रकट कर देगा, जो ( सिद्धांत तथा अभ्यास ) निगूढ़ गुप्त, आध्यात्मिक हैं, ऐसे जैसे कि किसी भी प्राचीन देशके रहस्यवादियोंद्वारा उपदिष्ट हुए हो सकते हैं। परंतु तो इस समय हमारे. लिये केवल वेदमें ही उपलभ्य हैं । ये वहाँ जानबूझकर एक पर्देसे ढककर रखे हुए हैं, परंतु पर्दा इतना घना नहीं है जितना कि हम प्रारंभमें इसे कल्पित करते हैं । हमें केवल अपनी आँखोंको जरा खोलकर देखना होता है और वह पर्दा जाता रहता है, वेदवाणी, सत्य, बेद मूर्त्त रूपमें हमारे सामने आ खड़ा होता है ।
वेदके गुह्य वचन--'निण्या वचांसि'
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वेदके अनेक मंत्र हैं अनेक समूचे सूक्ततक हैं जो ऊपरसे ही एक रहस्यवादी अर्थको प्रकट करते हैं, स्पष्ट ही एक गुह्य प्रकारके वचन हैं, एक आंतिरिक अर्थ रखते हैं । जब ऋषि अग्निके विषयमें. कहता है 'सत्यका चमकीला संरक्षक जो अपने निजी धरमें देदीप्यमान हो रहा है'1 अथवा मित्र तथा वरुणके विषयमें या अन्य देवोंके विषयमें कहता है 'सत्यका स्पर्श करनेवाले और सत्यको बढ़ानेवाले'2 अथता 'सत्यमें उत्पन्न हुए'3 तो ये एक रहस्यवादी कविके ही वचन हैं जो वस्तुओंके पीछे छिपे उस आंतर सत्यके विषयमें विचार कर रहा है जिसके प्राचीन संत जिज्ञासु होते थे । तब वह बाहरी अग्नि-तत्त्वकी अधिष्ठातृ-देयता-भूत प्राकृतिक शक्तिका या कर्मकाण्डीय यज्ञकी अग्निका विचार नहीं कर रहा । इसी तरह ऋषि सरस्वतीके विषयमें कहता है कि यह सत्यके वचनोंकी प्रेरयित्री4 और ठीक विचारोंके जगानेवाली है या विचारोंसे समृद्ध है; कि सरस्वती हमें हमारी चेतनाके प्रति जगाती है या हमें 'महान् समुद्रसे' सचेतन करती है और
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1 गोपामृतस्य दीदिविम्, वर्धमानं स्वे दमे | (1-1-8)
2 ऋतवृधै ॠतस्पृज्ञौ । ( 1-2-8)
3 ॠतजातः | (1-144-7)
4 1-3-10, 11. 12
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'हमारे सब विचारोंको प्रकाशित कर देती है', तो निःसंदेह यह नदी-देवता नहीं है जिसकी स्तुतिमें वह सूक्त बोला जा रहा है, ॠषि तो स्तुति, प्रार्थना कर रहा है अंतःप्रेरणाकी शक्तिसे, ( यदि उसे नदी कहें तो ) अंत: प्रेरणाकी नदीसे, सत्यकी वाणीसे, जो हमारे विचारोंमें अपना प्रकाश ला रही है, हमारे अंदर उस सत्यकी, एक आंतरिक ज्ञानकी, रचना कर रही है । सतत ही देवता अपने आध्यात्मिक व्यापारोंके साथ सामने आ जाते हैं; यज्ञ एक आंतरिक कर्मका, देवों और मनुष्योंके बीच एक आंतरिक लेन-देनका बाह्य प्रतीक है, मनुष्य वह सब कुछ देता है, समर्पित करता है जो उसके पास है और बदलेमें उसे देवता शक्तिके घोड़ोंको' प्रकाशकी गौओंको, अनुचर होनेके लिये बलके वीरोंको देते हैं और इस प्रकार अंधकार, वृत्रों, दस्युओं और पणियोंकी सेनाओंके साथ उसके युद्धमें उसे. विजय प्राप्त कराते हैं । जब ऋषि कहता है, ''आओ हम चाहे युद्ध-अश्वके द्वारा या दिव्य शब्दके द्वारा मनुष्यसे परे स्थित शक्तिसे सचेतन बने'' ( 2-2-1०), तो उसके वचन या तो रहस्यपूर्ण अर्थ रखते हैं या उनका कुछ भी संगत अर्थ नहीं है । इस पुस्तकमें ऋग्वेदके जिन अंशोंका अनुवाद दिया गया है उनमें भी ऐसे अनेक रहस्यमय मंत्र हैं और अनेक समूचे सूक्त हैं जो, वे चाहे कितने रहस्यपूर्ण हों, बाह्य याज्ञिक रूपकके उस पर्देको, जिसने वेदके असली अभिप्रायको ढक रखा है, फाड़ फेंक रहे हैं । ऋषि कहता है, 'विचारमे हमारे लिये मानुषी वस्तुओंको अमृतोंमें, वृहत् द्यलोकोंमें पोषित किया है, यह विचार दूध देनेवाली घेनु है जो अपने-आप अनेकरूप ऐश्वर्यको देती है' ( 2-2-9 ) - अनेक प्रकारके ऐश्वर्योंको, गौओंको घोड़ोंको और अन्य बस्तुओंको जिनकी यज्ञकर्ता प्रार्थना करता है. । स्पष्ट है यह कोई भौतिक ऐश्वर्य नहीं. है, ऐसी बस्तु है जिसे विचार, मन्त्रमें मूर्त हुआ बिचार, दे सकता है और उसी विचारका परिणाम ही हमारी मानुषी बस्तुओंको अमृतोंमें बृहत् द्युलोकोंमें प्रोषित करता है । यहाँ दिव्यीकरणकी प्रक्रियाका, महान्, और प्रकाशमय ऐश्वर्योंकि, यज्ञकी आन्तरिक क्रियाद्वारा देवोंसे प्राप्त की गयी निघियोंके नीचे उतार लानेकी प्रक्रियाका संकेत दिया गया है, किंतु ऐसे शब्दोंमें जो आवश्यकतावश रहस्यमय हैं, पर फिर भी उसके लिये इन गुह्य वचनोंको, इन 'निर्णया वचांसि,को, पढ़ना जानता है .काफी अर्थद्योतक है, 'कवये निवचना, हैं । और फिर एक और जगह कहा गया हे कि रात्रि तथा उषा (उषासानक्ता), जो सनातन बहिनें हैं, खूब दूध देनेवाली दुघार गौएँ हैं, दो आनंदपूर्ण बुनकर स्त्रीयोंके समान हैं; जो हमारे पूर्णतायुक्त कर्मोंके तानेको एफ यज्ञके रूपमें (यज्ञस्य पेश: ) चुन रही हैं ( 2-3-6) । फिर ये ऐसे ही
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वचन है जिनका रूप और अर्थ रहस्यवादी हैं, परंतु यज्ञसे आध्यात्मिक रूपको, और गौके, प्रार्थित ऐश्वर्योंके, महान् रयिकी बहुलताके वास्तविफ अर्थको बतलानेवाला इससे अच्छ' निश्चयात्मक कथन कठिमतासे ही मिलेगा ।
प्रतीकोंका पर्दा--दोहरे अर्थ
अपने आशयको प्रतीकों तथा प्रतीकात्मक शब्दोंद्वारा आवृत करनेकी आवश्यकताके वश-क्योंकि गुप्तता रखनी आवश्यक थी-ऋषियोंने शब्दोंके दोहरे अर्थ नियत करनेकी विधिको अपनाया । यह ऐसी विघि है जिसे संस्कृत भाषामें सुगमतासे ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि वहाँ एक शब्द प्रायः अनेक विभिन्न अर्थोंका वाचक होता है, परंतु उसका अंगरेजी भाषामें अनुवाद करना सुगम नहीं है, प्रायः ही असंभव है । इस प्रकार 'गौ' शब्द गायके अतिरिक्त 'प्रकाश' का या 'प्रकाशकी किरण' का भी वाचक है । यह कई ऋषियोंके नामोंमें भी प्रयुक्त हुआ दीखता है, जैसे, 'गोतम' अर्थात् प्रकाशिततम, 'गविष्ठिंर' अर्थात् प्रकाशमें स्थिर । वेदोक्त गौवें सूर्यके गोयूथ हैं जो ग्रीक गाथा-शास्त्र तथा रहस्यवादमें भी सुपरिचित हैं; ये हैं सत्य और प्रकाश और ज्ञानके सूर्यकी किरणें । 'गौ' के इस अर्थको जो कुछ प्रकरणोंमें स्पष्ट ही दृष्टिगोचर होता है सर्वत्र ही संगत रूपसे लगाया जा सकता है और इससे सुसंबद्ध अर्थ बनता जायगा । 'घृत, शब्दका अर्थ. है घी, निर्मल किया हुंआ मक्खन और यह याज्ञिक क्रियाके मुख्य साधनोंमेसे एक. था; परंतु घृतका अर्थ भी प्रकाश हो सकता है, यह 'घृ क्षरणदिप्तयो:' घातुसे बना है और प्रकाशके अर्थमें अनेक स्थलोंपर वेदमें प्रयुक्त हुआ है । जैसे द्युलोकके अधिपति इंद्रके घोड़ोकें विषयमें कहा गया है कि ये 'घृतस्नू'1 हैं ( 3.41.9 ) अर्थात् प्रकाशसे सने हुए-इसका निश्चय ही यह अर्थ नहीं कि वे घोड़े जब दौड़ते थे तो उनसे घी चूता था, यद्यपि इसी विशेषण 'घृतस्नूवः' का यह अर्थ ही प्रतीत होता है जब कि यह उस अन्न-घान्यके लिये प्रयुक्त हुआ है जिसका यज्ञमें आकर भाग लेनेके लिये इंद्रके घोड़े आहूत किये गये हैं । स्पष्ट ही यज्ञंके प्रतीकवादमें घृत शब्ब--
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1 यद्यपि. सायण कई स्थलोंपर घृतको प्रकाशके ही अर्थमें लेता है तथापि यहां वह घृतका अर्थ पानी ( जल ) करता है । वह यह समक्षता प्रतीत होता है कि वे (इन्दके ) दिव्य घोड़े वहुत थक गये थे और उनसे पसीनेका पानी च रहा था । इसी तरह कोई प्रकृतिवादी व्याख्या करनेवाला यह तर्क कर सकत है कि क्योंकि इंद्र अंतरिक्षका देवता है इसलिये उस पुरानें युगका कवि यह विश्वास रखता था कि वर्षा इन्द्रके घोड़ोंका पसीना ही होती है ।
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इस प्रकाशके अर्थके साथ घीके अर्थको जोड़कर-दोहरे अर्थमें प्रयुक्त हुआ है । विचारकी या विचारके अभिव्यंजक शब्दकी शुद्ध घीसे तुलना की गयी है, और 'घिय घृताचीम्' ( अर्थात् प्रकाशमय विचार या समझ ) जैसे प्रयोग हमें मिलते हैं । ॠ० 2-3-2 में एक विचित्र वाक्य आया है जिसमें अग्निको यअके पुरोहितके रूपमें पुकारा गया है कि वह आकर हविको घृत चुवानेवाले मनसे ( घृतप्रुषा मनसा ) सिक्त करे और इस प्रकार घामों ( स्थानों या स्तरों ) को, एकैकशः तीनों द्युलोकोंको तथा देवोंको अभिव्यक्त करे1 । परंतु घी चुवानेवाला मन क्या होगा और घी चुवानेके द्वारा कैसे कोई पुरोहित देवताओंको और त्रिविध द्युलोकोंको अभिव्यक्त कर सकता है ? पर घृतके रहस्यमय तथा आंतरिक अर्थको स्वीकार कीजिये और तब सारा आशय स्पष्ट हो जायगा । ऋषि जो .कहना चाहता है वह है 'प्रकाशकी वर्षा करनेवाला मन', प्रकाशित या प्रकाशप्राप्त मनकी निर्मलता लानेकी क्रिया । और यह कोई मनुष्य-पुरोहित नहीं है और न ही यह भौतिक यज्ञका अग्नि है, किंतु एक आंतरिक ज्वाला है, रहस्यमय द्रष्टृ-संकल्प, कवित्रुय है और वह निश्चय ही इस प्रक्रियाद्वारा देवों और लोकोंको तथा सत्ताके सब स्तरोंको अभिव्यक्त कर सकता है । हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि वैदिक ऋषि न केवल संत थे किंतु द्रष्टा भी थे, वे ऐसे दिव्यदृष्टिसंपन्न थे कि वस्तुओंको अपने ध्यानमें आकृतियोंके रूपमें देखते थे, प्रायः ऐसी प्रतीकात्मक आकृतियोंके रूपमें जो किसी अनुभूतिकी पूर्ववर्ती या सहवर्ती हो सकती थीं और साथ ही वे इस अनुभूतिको मूर्त रूपमें उपस्थित भी करते थे, उसके विषयमें पहलेसे बता सकते या उसे गुह्य मूर्ति प्रदान कर सकते थे । इस प्रकार वैदिक ऋषिके लिये यह सर्वथा सम्भव था कि वह एक साथ ही आन्तरिक. अनुभूतिको और आकृतिके रूपमें इसकी प्रतीकात्मक घटनाको देख सके, निर्मलताकारक प्रकाशके प्रवाहको और 'इस धृत ( घी ) को पुरोहित देव आन्तरिक आत्म-हविपर (जिसने उस अनुभूतिको जन्म दिया है ) उंडेल रहा है इस घटनाको' एक साथ देख सके । यह बात बेशक पाश्चात्य मनको विचित्र लगेगी परन्तु भारतीय मनके लिये, जो भारतीय परम्पराका अभ्यस्त होता है या ध्यान तथा गुह्य दर्शनमें समर्थ है, पूरी तरह समझमें आने योग्य है । रहस्यवादी प्रतीकवादी होते थे और अब भी साधारणतया होते हैं;. वे सब भौतिक वस्तुओं और. घटनाओंतकको आन्तरिक सत्यों तथा सद्वस्तुओंके ही प्रतीक-रूपमें देख सकते हैं, अपने बाह्य
1 यह सायणकृत अनुवाद है जो सीधा शब्दोंसे ही निकलता है ।
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स्वरूपों अपने जीवनकी बाह्य घटनाओं तथा अपने चारों तरफ तो कुछ है उसतकको । इससे एक वस्तु और उसके प्रतीकके विषयमें उनका तादात्म्य-करण या फिर साहचर्य-सम्बन्ध-स्थापन सहज हो जाता है, इसका अभ्यास संभव हो जाता है ।
वेदके अन्य स्थायी शब्दों और प्रतीकोंके अर्थकी भी इसी प्रकारकी व्याख्या की जानी उचित है । जैसे वैदिक 'गौ' ( गाय ) प्रकाशका प्रतीक है, वैसे वैदिक अश्व ( घोड़ा ) शक्तिका; आध्यात्मिक सामर्थ्यका, तपस्याके बलका प्रतीक है । जय ऋषि 'अश्व-रूपवाले और गौएं जिसके आगे हैं ऐसे दानं' 1 को अग्निसे मांगता है तो वह वस्तुतः कुछ सौ-पचास घोड़ोंके समुदायको जिनके आगे कुछ गौवें चल रही हों दान-रूपमें नहीं मांग रहा होता, किन्तु वह मांगता है आध्यात्मिक शक्तिके महापुंजको जो प्रकाशद्वारा परिचालित हो या 'किरण-गौ जिसके आगे-आगे2 चल रही हो,',--ऐसा अनुवाद हम 'गोअग्र'का कर सकते हैं । जैसे एक सूक्तमें पणियोसे मुक्त किये गये किरणोंके समुदायको 'गव्यम्' (गौवें, चमकीला गोयूथ ) कहा गया है, वैसे दूसरे सूक्तमें अग्निसे 'अश्व्य्' (अश्वकी शक्ति, उसके पुंज या प्राचुर्य ) की प्रार्थना को गयी है । इसी तरह ॠषि कभी वीरोंकी या अपने अनुचर योद्धाओंकी प्रार्थना करता है तो कभी अपेक्षया अमूर्त भाषामें और बिना प्रतीकके पूर्ण योद्धृबलकी, 'सुवीर्य' की प्रार्थना करता है; कभी वह प्रतीक और वस्तुको जोड़ देता है । इसी तरह ऋषि देवताओंसे जिस ऐश्वर्यकी प्रार्थना करते हैं उसके एक तत्त्वके रूपमें के पुत्र या पुत्रोंकी या सन्तान, 'अपत्य',की याचना करते हैं, पर यहाँपर भी एक गुह्य अर्थ देखा जा सकता है, क्योंकि कुछ संदर्भोमें हमारा उत्पन्न हुआ पुत्र स्पष्ट ही किसी आन्तरिक जन्मका रूपक है : अग्नि स्वयं हमारा पुत्र होता है, हमारे कर्मोंका अपत्य, वह सुनू जो विश्वमय अग्निके रूपमें अपने पिताका भी पिता है, और अच्छे फल या परिणामवाली, स्वपत्य', वस्तुओंपर पैर रखनेसे ही हम सत्यके उच्चतर लोकका पथ खोज लेते या निर्मित कर लेते हैं (1-72-9) । फिर 'जल'. भी वेदमें एक प्रतीकके तौरपर प्रयुक्त हुआ है । 'सलिलम् अप्रकेतम्' ( झानरहित जल ) यह निश्चेतन समुद्रके लिये कहा गया है जिसमें परमेश्वर निवर्तित हुआ है और जिसमेंसे वह अपनी महिमाद्वारा उत्पन्न होता है (10-120-3) 'महो अर्ण': (महान् समुद्र) कहा गया है ऊपरके
1 गोअग्राम् अश्वपेशसं रातिम् (2. 2.13) ।
2 तुलना करो 'आर्य'को 'ज्योतिरग्र' कहा गया है--ज्योति द्वारा नीयमान ।
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समुद्रके लिये जिसे-जैसा कि एक जगह ( 1-3-12) आया है--सरस्वती हमारे लिये प्रचेतित कर देती है ( प्रचेतयति ) या जिससे वह हमें अन्तर्ज्ञानकी किरणके द्वारा (केतुना ) सचेतन कर देती है । प्रसिद्ध सात नदियोंके विषयमें ऐसा प्रतीत है कि ये उत्तर भारतकी नदियां है, परन्तु वेद वर्णन करता है सात महती दिव्य नदियोंका ( सप्त यह्वी: ) जो द्युलोकसे नीचे उतरती हैं, ये ऐसे जल हैं जो मानते हैं, जो सत्यके ज्ञाता, 'ऋतज्ञाः' हैं और जब थे मुक्त होते हैं, वे हमारे लिये महान् द्युलोकोंके पथको ढूँढ़ देते हैं .। इसी तरह पराशर ऋषि ज्ञान तथा विश्वव्यापी प्राणके विषयमें कहते है कि यह 'जलोंके धरमें' है । इन्द्र वृत्रका वध करके वर्षाको मुक्त करता है, पर यह वर्षा भी दिव्य वर्षा है जो द्युलोकसे आती है और यह सात नदियोंको प्रवहमान कर देती है । इस प्रकार जलोंकी मुक्तिकी गाथा जिसका वेदमें इतने अधिक स्थानोंपर वर्णन है एक प्रतीकात्मक कथाका रूप धारण कर लेती है । इसीके .साथ दूसरी प्रसिद्ध प्रतकात्मक गाथा आती है जिसमें देवताओं और अंगिरस् ऋषियोंके द्वारा पर्वतकी अंधेरी गुफामेंसे सुर्यकी, उसकी गैओं या उसके गोयूथकी अथवा सूर्यलोक-स्वर्-की खोज एवं पुनरुद्धारका वर्णन है । सूर्यका प्रतीक सतत रूपसे उच्चतर प्रकाश और सत्यके साथ सम्बन्धित है: निम्न कोटिके सत्यके द्वारा ढके हुए सत्य में ही सूर्यके घोड़े खोल दिये जाते हैं : महान् गायत्री .मंत्रमें हमारे विचारोंको प्रेरित करनेके लिये जिसका आवाहन किया गया है वह अपने उच्चतम प्रकाशमें स्थित सूर्य ही है । इसी प्रकार वेदमें शत्रुओंके विषयमें कहा गया है कि ये लुटेरे हैं दस्यु हैं, जो गौओंको चुरा लेते हैं या ये हैं वृत्र और वेदकी साथारण व्याख्यामें इन्हें बिल्कुल मनुष्य-शत्रु ही मान लिया गया है, परंतु वृत्र एक असुर है जो प्रकाशको ढकता है और जलोंको रोके रखता है और वृत्रलोग (वृत्रा: ) उसकी शक्तियाँ हैं जो इस व्यापारको सम्पन्न करती हैं । दस्यु अर्थात् लुटेरे या विनाशक हैं अंधकारकी शक्तियां के प्रकाश और सत्यके उपासकोंका विरोध करनेवाली है । सदा ही वेदमें ऐसे संकेत विद्यमान हैं जो हमें बाह्य और ऊपरीसे एक आन्तरिक और. गुह्य अर्थकी तरफ ले जाते हैं ।
उपनिषदोंकी वेदव्याख्याका एक उदाहरण
सूर्यके प्रतीकके सम्बन्धमें पंचम-मंडलस्थ एक सूक्तके एक महत्त्वशाली और अत्यंत अर्थपूर्ण मन्त्रका यहां उल्लेख कर देना ठीक होगा. क्योंकि यह न केवल वैदिक कवियोंके गंभीर रहस्यमय प्रतीकवादको दिखलाता है बल्कि
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यह भी दिखलाता है कि उपनिषदोंके रचयिताओंने ॠग्वेदको कैसा ठीक समझा था और यह उनकी अपने पूर्वज ( वैदिक ) ऋषियोंकि अन्तःप्रेरित ज्ञान (वेद) में श्रद्धाको उचित ठहराता है । वेदमंत्र (5-62-1 ) कहता है कि 'सत्यसे ढका हुआ एक सत्य है जहां वे सूर्यके थोड़ोंको खोल देते हैं । दस शत इकट्ठे ठहरे, वहां वह एक2 था | मैंने सशरीर देवोंमेंसे महत्तम ( श्रेष्ठ, सबसे अधिक महिमाशाली) को देखा3' । अब देखिये कि उपनिषद्का ॠषि इस विचारको, इस रहस्यमय वचनको अपनी निजी पीछेकी शैलीमें किस प्रकार अनूदित करता है, वह सूर्यके केंद्रीय प्रतीकको तो वैसा ही कायम रखता है परंतु अर्थमें किसी प्रकार की गुप्तता नहीं बरतता । ईशोपनिषद्का यह वचन इस प्रकार है ''सत्यका मुख ढका हुआ है एक सुनहरे पात्रसे, हे पूषन्, तू उसे हटा दे सत्यके नियम ( धर्म ) की दृष्टिके लिये4 । हे पूषन्, एक ऋषि, हे यम; हे सूर्य, हे प्रजापतिफे पुत्र, अपनी किरणोंका व्युहन कर और उन्हें एकत्रित कर : मैं उस प्रकाशको देखता हूँ जो तेरा वह उत्कृष्टतम ( कल्याणतम) रूप है ; यह जो पुरुष है यह मैं हूँ'3 | सुनहरे पात्रसे मतल वही है जो .वेदमंत्रमें कहे निम्न कोटिके आवरक सत्य, 'ॠतेन'का है । वेदमंत्रका 'देवानां श्रेष्ठं वपुषाम्' उपनिषद्के ( सूर्यके ) 'कुल्याणतम रूप'के समान है;, यह परम प्रकाश है जो समस्त बाह्य प्रकाशसे भिन्न और बृहत्तर है । उपनिषद्को महावाक्य 'सोऽहमस्मि' वेदके 'तदेकं' (वह एक) के अनुरूप है | 'दशशतका इकट्ठा ठहरना'-- (सायण भी कहता है कि ये सूर्यकी किरणें हैं और वही प्रत्यक्षतः अभिप्राय है )--ईसे ही उपनिषद्की सूर्यके प्रति की गई प्रार्थनामें ''किरणोंका व्युहन करो और उन्हें एकत्र करो (जिससे कि परम रूप दृष्टिगोचर हो सके )'' इस रूपमें ले आया गया है । इन दोनों ही ( वेद और उपनिषद्के ) सन्दर्भोंमें, वेदमें सतत रूपसे ही और उपनिषदमें प्रायश:,सूर्य परस सत्य और ज्ञानका अधिदेवता है और उसकी किरणें वह प्रकाश हैं जो उस परम सत्य और ज्ञानसे निकलता है । इस उदाहरणसे--और ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैं-यह स्पष्ट है कि उपनिषदेके ॠषिको अपने प्रभूत पाण्डित्य सहित मध्यकालीन, कर्मकांडी टीकाकारकी अपेक्षा प्राचीन वेदके अर्थ और
1. ॠतेन ॠतुमपिहितं ध्रु वं वां सूर्यस्य यत्र विमुचन्त्यन् ।
दश शता सह तस्थुस्तदेर्क देवानां श्रेष्ठं वपुषामपश्यम् ।।
2. अयवा यह ( परम सत्य ) एक था |
3. अथवा इसका अर्थ है 'मैंने देवोंके शरिरोंमेंसे महत्तम ( श्रेष्ठ) को देखा' ।
4. अथवा सत्यके नियमके लिये, दृष्टिके लिये |
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अभिप्रायका, अधिक सच्चा ज्ञान था और आधुनिक तथा बहुत भिन्न प्रकार-के मनवाले योरोपियन विद्वानोंकी अपेक्षा तो बहुत ही अधिक सच्चा ।
कुछ शब्दोंके आध्यात्मिक अर्थ
कतिपय आध्यात्मिक शब्द हैं जिन्हें कि हमें सतत रूपसे उनके सच्चे व ठीक अर्थमें लेना होगा यदि हमें वेदके आन्तरिक या गुह्य अर्थका पता लगाना अभीष्ट है । सत्य, 'ॠतं', के अतिरिक्त हमें 'घी' शब्दको जो मंत्रोंमें बारबार प्रयुक्त हुआ है सदा 'विचार' के अर्थमें लेना होगा । 'घी' शब्दका, जो बादके 'बुद्धि' शब्दके अनुरूप है, स्वाभाविक अर्थ यही है । इसका अर्थ है विचार समझ, प्रज्ञा और बहुवचनमें 'अनेक विचार' (घिय:) । साधारण व्याख्याओंमें इस शब्दके भी सब प्रकारके अर्थ किये गये हैं- 'जल', 'कर्म, 'यज्ञ', 'अन्न' आदि, और ऐसे ही विचार भी । परंतु हमें अपनी खोजमें इसे स्थिरतया इसके साधारण और स्वाभाविक अर्थ ( विचार ) में ही लेना है और देखना है कि इससे क्या परिणाम निकलता है । 'केतु' शब्दका बहुत सामान्य अर्थ 'किरण' होता है, परन्तु यह बुद्धि, निर्णय या बौद्धिक बोधका अर्थ भी रखता है । यदि वेदके उन वचनोंकी हम तुलना करें जिनमें 'केतु' शब्द आया है तो हम इस परिणामपर पहुँच सकते हैं कि इसका अर्थ बोधकी या अन्तर्ज्ञानकी किरण है; जैसे उदाहरणके तौरपर, अन्त:स्कुरित ज्ञानकी किरणसे ही (केतुना) सरस्वती हमें महान् समुद्रसे सचेतन करती है; उन किरणोंका भी संभवत: यही अभिप्राय है जो ऊपर स्थित परम आधारसे आती हैं और नीचेकी ओर प्रेरित की जाती हैं; वे हैं ज्ञानकी अन्त:स्कुरणायें,. सत्य और प्रकशके सूर्यकी किरणें । एवं 'ॠतु' शब्दका साधारण अर्थ है 'कर्म' या 'यज्ञ' परंतु इसका अर्थ प्रज्ञा, बल या निश्चय और विशेषतया प्रज्ञाका वह बल जो कर्मका निर्धारण करता है, अर्थात् 'संकल्प' भी होता है । इस अन्तिम अर्थ अर्थात् संकल्पके अर्थमें ही हम इस शब्दको वेदकी गुह्य व्याख्या करनेमें ग्रहण कर सकते हैं । क्योंकि अग्निको द्रष्टृसंकल्प, र्कविकृत:' कहा गया है, अग्नि 'हृदयका संकल्प' (कत्रुर्ह्रुदि ) 1 है । और अन्तमें 'श्रवः' शब्द है जो वेदमें सतस रूपसे आता है और जिसका अर्थ 'कीर्ति' है, टीकाकारोंने इसे 'अन्न' अर्थमें भी लिया है, पर इन अर्थोंको सर्वत्र नहीं किया जा सकता और बहुत करके इनसे कुछ बात नहीं बनती और वाक्यमें एकान्वयका बल भी नहीं आता । परंतु
. 1. वैसे, 4-10-1, 4-41-1
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'बवस् 'श्रु श्रवणे'से (श्रु धातुसे जिसका अर्थ 'सुनना' है ) बना है और स्वयं 'कन' ( श्रवणेंद्रिय) के अर्थमें, तथा मंत्र या प्रार्थनाके अर्थमें-और इस अर्थको सायण भी स्वीकार करता है-प्रयुक्त हुआ है और इससे हम अनुमान कर सकते हैं कि इसका अर्थ 'सुनी हुई वस्तु' है या उसका परिणामभूत ज्ञान जो हमें श्रवणके द्वारा प्राप्त होता है । ऋषिगण अपने-आपको 'सत्यश्रुत': अर्थात् 'सत्यके सुननेवाले' कहते हैं और इस श्रवण द्वारा प्राप्त ज्ञानको. 'श्रुति' नामसे पुकारते हैं । सो वेदकी गुह्य व्याख्या में हम 'श्रव:' शब्दको अन्तःप्रेरणा या अन्त:प्रेरित ज्ञानके 'अर्थमें ही ले सकते हैं. और हम देखते हैं कि यह पूर्ण संगतिके साथ सब जगह ठीक बैठता है । एवं जब ऋषि 'श्रवांसि' के विषयमें कहता है की उन्हें ऊपरकी तरफ ले जाया--जाता है और नीचेकी तरफ लाया जाता है तो वह 'अन्न' या, 'कीर्ति' के विषयमें लागू नहीं हो सकता परंतु यह बिल्कुल संगत और अर्थपूर्ण हो जात है यदि ऋषि यह अन्त:प्रेरणाओंके लिये कह रहा है कि वे ऊपर सत्यतक चढ़ जाती हैं और सत्यको नीचे हमतक..ले आती हैं। इसी पद्धतिको हम वेदमें सर्वत्र लागू कर सकते हैं ? । परंतु इस विषयको हम यहाँ और अधिक विस्तार नहीं दे सकते । इस प्राक्कथनकी लघु सीमाओंके अन्दर ये संक्षिप्त निर्देश ही पर्याप्त होने चाहिये;. इन निर्दोशोंको देनेका यहाँ प्रयोजन यही है की इनसे पाठकको वेदकी व्याख्याकी गुह्यार्थ-पद्धतिके विषयमें प्रारम्भिक अन्तर्दृष्टि, अन्तःप्रवेशार्थ ज्ञान दिया जा सके ।
वेदका गुह्य आशय
तो फिर वह गुप्त अर्थ, वह गुह्य आशय क्या है जो वेदके इस प्रकारके अध्ययनके द्वारा निकलता है ? यह वही है जिसकी हम सभी जगहके रहस्य-वादियोंकी जिज्ञासाके स्वरूपसे अपेक्षा करेंगे | और वह वही है जिसकी भारतीय संस्कृतिके विकासकी .वास्तविक पद्धतिसे भी हमें अपेक्षा करनी चाहिये, अर्थात् आध्यात्मिक सत्यका प्रारम्भिक रूप जो उपनिषदोंमें अपनी पराकाष्ठाको पहुँच गया । वेदका गुह्य ज्ञान ही वह बीज है के पीछे जाकर वेदान्तके अंदर विकसित हुआ । बिस विचारके चारों ओर शेष सब केंद्रित है वह है सत्य, प्रकाश, अमरत्वकी खोज । एक सत्य है जो बाह्य सत्ताके सत्यसे गम्भीरतर और उच्चतर है 'एक प्रकाश हैं जो मानवीय समझके प्रकाशसे बुहत्तर और उच्चतर है एवं जो अंतःप्रेरणा तथा स्वतः- प्रकाशन (इलहाम ) द्रारा आता है, एक अमरत्व है जिसकी तरफ आत्माको उठना है । इसके लिये हमें अपना रास्ता निकालना है, इस सत्य और
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अमरत्वके स्पश ( सम्पर्क ) में आनेके लिये ( ॠत सपन्तः अमृतम्'1 ), सत्यमें उत्पन्न होनेके लिये, उसमें बढ़ानेके लिये, सत्यके लोकमें आत्मतः आरोहण करने और उसमें निवास करनेके लिये । ऐसा करना परमेश्वरके साथ अपनेको युक्त करना है और मर्त्य अवस्थासे अमरत्यमें पहुँचजाना है । यह वैदिक रहस्यवादियोंकी प्रथम और केंद्रीय शिक्षा हैं | प्लेटोके अनुयायी, जिन्होंने अपने सिद्धांतको प्राचीन रहस्यवादियोंसे लेकर विकसित किया था, मानते थे कि हम दो लोकोंके संबंधमें रहते हैं--एक उच्चतर सत्यका लोक जिसे आध्यात्मिक जगत् कहा जा सकता है और दूसरा जिसमें हम रहते हैं, शरीरधारी आत्माका लोक जो उच्चतर लोकसे ही निकला है किंतु जो उसका अवर कोटिके सत्य और अमर कोटिकी चेतनामें अपभ्रंश है । वैदिक रहस्यवादी इस सिद्धांतको अधिक मूर्त्त और अधिक व्यावहारिक रूपमें मानते थे, क्योंकि उन्हें इन दोनों लोकोंका अनुभव प्राप्त था । यहां इस लोकका एक अवर कोटिका सत्य है जो बहुतसे अनृत और भ्रांतिसे ( अमृतस्य भूरे:, 7-60-5 ) मिश्रित है और वहां एक सत्यका धर या लोक ( सदनम् ॠतस्य, 1-164-47 ; 4-21-3) है 'सत्यम् ॠतं बृहत्' है ( अथर्व० 12-1-1 ) जहाँ सब कुछ सत्य-सचेतन है, ॠत-चित् है, ( 4-3-4) । इन दोनोके बीचमें त्रिदिवतक (त्रिविध द्युलोकोंतक ) अनेक लोक हैं और उनके प्रकाश हैं परंतु यह है उच्चतम प्रकाकका लोक, सत्यके सुर्यका लोक, स्वर्लोक या बृहत् द्यौ । हमें उस बृहत् द्युौको ले जानेवाले मार्गकी खोज करनी है, सत्यके मार्गकी, 'ॠततस्य पंथा'की, जैसे की उसे कई बार कहा गया है, देवोंके; मार्ग'की । यह हुआ रहस्यवादियोंका दूसरा सिद्धांत । तीसरा सिद्धांत यह है कि हमारा जीवन सत्य और प्रकाशकी शक्तियों, अर्थात् अमर देवों, तथा अंधकारकी शक्तियोंके बीच चलनेवाला युद्ध है । ये अंधकारकी शक्तियां विविध नामोंद्वारा पुकारी गयी हैं--वृत्र या वृत्राः, बल, पणय:, दस्यु तथा उनके राजगण । इन अंधकारकी शक्तियोंके विरोधको नष्ट करनेके लिये हमें देवोंकी सहायताकी पुकार करनी होती है क्योंकि ये विरोधी शक्तियां हमारे प्रकाशको छिपा देती हैं या इसे हमसे छीन लेती हैं, क्योंकि ये सत्यकी धाराओं ( 'ॠतस्य धारा:', अ 5-12-2 तथा 7-43-4), द्युलोककी धाराओंके बहनेमें बाधा डालती हैं और आत्माकी उर्ध्वगतिमें प्रत्येक प्रकारसे बाधक होती है । हमें आंतरिक यज्ञके द्वारा देवताओंका आवाहन करना है और शब्द द्वारा उन्हें अपने अंदर पुकार लाना है-मंत्र ( शब्द) में ऐसा कर
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1. 1-68-2
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सकनेकी विशेष शक्ति होती है--और उन्हें यज्ञकी हविकी भेंट अर्पण करनी है और इस यज्ञिय दानके द्वारा उनसे आनेवाले प्रतिदानको सुरक्षित कर लेना है जिससे इत प्रक्रियाके द्वारा हम लक्ष्यकी तरफ अपने आरोहणके मार्गका निर्माण कर सकें । बाह्य यज्ञके तत्त्वोंको वेदमें आंतरिक यज्ञ और आत्म-हवि ( आत्म-समर्पण ) के प्रतीकोंके, रूपमें प्रयुक्त किया गया है; हम जो कुछ हैं और हमारे पास जो कुछ है उसे हम देते, प्रदान करते हैं जिससे दिव्य सत्य और ज्योतिके ऐश्वर्य हमारे जीवनमें अवतरित हो सकें ओर सत्यके अंदर हमारे आंसरिक जन्मके तत्त्व बन सकें-एक सच्चा विचार, एक सच्ची समझ, एक सच्ची क्रिया हमारे अंदर विकसित होनी चाहिये जो उस उच्चतर सत्यका विचार, प्रेरणा और क्रिया हो 'ॠतस्य प्रेषा; ॠतस्य धीति:' ( 1- 68-3 ) और इसके द्वारा हमें अपने-आपको उस सत्यके अंदर निर्मित करना चाहिये । हमारा यज्ञ एक यात्रा है, तीर्थयात्रा है और एक युद्ध है-देवोंके प्रति गमन है और हम भी उस यात्राको करते हैं अग्निको, आंतरिक ज्वालाको अपना मार्गशोघक और नेता (अग्रणी ) बनाकर । हमारी मानवीय वस्तुएं उस रहस्यमय अग्निके द्वारा अमर सत्ताके अंदर बृहत् द्यौके अंदर उठायी जाता हैं, उठाकर ले जायी जाती हैं और दिव्य वस्तुएं हमारे अंदर नीचे उतरकर आती हैं । जैसे ऋग्वेदका सिद्धांत ही वेदांतकी शिक्षाका बीज है, वैसे ही वेदका आतंरिक अभ्यास और क्रिया पिछेके योगाभ्यास और योग-क्रियाका बीज है । और अंतमें, वैदिक रहस्यवादियोंकी शिक्षाका चरम शिखर हैं एक वस्तुसत्ताका रहस्य, 'एकं सत्' ( 1-164-46) या तत् एकम्' ( 10-129-2), जो उपनिषद्का महावाक्य ( केंद्रीय वचन ) बन गया । सब देव प्रकाश और सत्यकी शक्तियां, एक (देव ) के ही नाम और शक्तियाँ हैं, प्रत्येक देव स्वयं सब देवता है और उन्हें अपनेमें रखे हुए है । वह एक सत्य है, तत्त् सत्यम्' ( 3-39-5, 4-54-4 तथा 8-45-27 इत्यादि ) और एक आनंद है जिसपर हमें पहुँचना हैं । परंतु फिर भी वेदमें यह अधिकतर पर्देके पीछेसे दिखाई देता है । इस विषयमें और भी बहुत कुछ वक्तव्य है परंतु सिद्धांतका सार, हार्द यही है ।
इस ग्रन्थमें वेदमंत्रोंका जो अनुवाद दिया गया है वह पूरा-पूरा शब्दशः अनुवाद नहीं है अपितु एक साहित्यिक अनुवाद है । परंतु इस अनुवादमें शब्दोकें अर्थ एवं आशय के प्रति, और विचारकी रचनाके प्रति पूरी-पूरी निष्ठा रखी गयी है : वस्तुत: पद्धति ही यह वरती गयी है कि वास्तविक भाषाका बिनाकुछ भी नमक-मिर्च लगाये, बहुत सावधानपूर्वक यथातथ
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अनुवाद करनेसे प्रारंभ किया जाय और व्याख्याके आधारके रूपमें इसीका निरंतर अनुसरण किया जाय; क्योंकि केवल इसी प्रकारसे हम इन प्राचीन रहस्यवादियोंके वास्तविक विचारोंका पता निकाल सकते हैं । परंतु ऋग्वेदके सूक्तों जैसी महान् कविताका, जो अपने रूपकों और अलंकारोंमें शोभाशैलिमें है, अपनी लयमें उदात्त और सुन्दर है, अपनी भाषाशैलीमें पूर्ण है, कोई भी अनुवाद-यदि उसे केवल एक मृत पाण्डित्य-कृति ही न रहना हो--उसकी काव्यशक्तिकी कम-से-कम एक मन्द-सी प्रतिध्वनिको करनेवाला तो होना ही चाहिये । इससे अधिक तो एक गद्यानुवादमें और एक दूसरी भाषामें किया ही नहीं जा सकता । आङ्गलभाषा और वैदिक संस्कृतकी पदावलि एवं वाक्यरचना दो नितान्त भिन्न ध्रुव है; ऋषियोंकी शैली और उनके स्वाभाविक लेखनके भावकी कुछ सीमातक पहुँचनेके लिये अनुवादकको सतत ही वेदके संकेन्द्रित वचनको एक अधिक शिथिल और अधिक क्षीण रूपमें ले आना होता है । अनुवादककी एक दूसरी बड़ी कठिनाई वेदमें सर्वत्र पायी जानेवाली द्वघर्थकता है जिसमें एक ही शब्दद्वारा प्रतीक और प्रतीकसे अभिप्रेत वस्तु दोनों अभिहित होते हैं; जैसे प्रकाश-किरण और गौ, मनका निर्मल प्रकाश तथा साफ किया हुआ मक्खन (घृत ), घोड़े और आध्यात्मिक शक्ति । अनुवादकको ऐसी शब्दावलिका जैसे 'प्रकाशके गोयूथ' या 'चमकती हुई गौएँ' आविष्कार करना पड़ता है या अन्य ऐसी विधि प्रयोगमें लानी होती है जैसे किन्हीं शब्दोंको मोटे अक्षरोंमें लिखना मोटे अक्षरोंमें 'घोड़ा' लिखनेसे यह पता लग जाता है कि यहाँ प्रतीकात्मक घोड़ा ही अभिप्रेत है न कि साधारण घोड़ा-नामक एक भौतिक पशु । परंतु बहुत बार प्रतीकको छोड़ ही देना होता है या फिर प्रतीकको कायम रखा जाता है और उसके आन्तरिक अर्थको यह मानकर छोड़ दिया जाता है कि वह स्वयं समझ लिया जायगा ।1 मैंने अनुवादमें सदा .आशयकी समानताकी रक्षा करते हुए भी सब जगह एक ही शब्दावलि नहीं प्रयुक्त की है, किंतु शब्दके अनुवादको उस उस स्थलविशेषके अनुसार विविध प्रकारसे किया है । प्रायः मुझे मूलमंत्रके पूरे भाव या रंगतको प्रकट कर सकनेवाला ( इंगलिशका ) ठीक उपयुक्त शब्द नहीं मिल सका है; मैंने एककी जगह दो शब्द प्रयुक्त किये हैं या एक शब्दावलि प्रयुक्त की है या फिर वेद- वचनको ठीक-ठीक और पूरा अर्थ देनेके लिये कुछ अन्य उपायका आश्रयण
1. ॠषि कई बार दो भिन्न अर्थोको एक ही शब्दमें संयुक्त करते होते हैं, मैंने यथावसर रख दोहरे अर्थको अनुदित करनेका यज्ञ किया है ।
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किया है ।1 इसके अतिरिक्त बहुधा वेदमें उसके, प्राचीन शब्दोंका या भाषाके धुमावोंका ऐसा प्रयोग हुआ है जिसका आशय वस्तुत: ज्ञात नहीं होता, उसका केवल अनुमान करना होता है या उसके भिन्न अनुवाद भी समानरूप से संभव हो सकते है । अनेक स्थलोंपर मुझे एक अस्थायी अनुवाद देकर छोड़ देना पड़ा है, विचार यह .था कि उनका अन्तिम निर्णय उस समयतक स्थगित रहे जबतक वैदिक सूक्तोंके और अधिक बड़े समुदायका अनुवाद न हो जाय और वह प्रकाशनके लिये तैयार न हो जाय; पर वह समय अभी आया नहीं है ।
जनवरी 1946
अरविन्द
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1. वह ऐसे अन्य कथन श्रीअरविन्दकृत मन्त्रोंके अंगेजी अनुवादसे सम्बन्ध रखते हैं और हिन्दी अनुवादमें भी आवश्यकतानुसार श्रीअरविन्दकी इस शैलीका अनुसरण किया गया है
-अनुवादक
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वैदिक यज्ञ और देवताओंके रूपक
यज्ञका निरूपण कभी-कभी यात्रा था समुद्रयात्राके रूपकके द्वारा किया जाता है; क्योंकिं यह ( यज्ञ ) चलता है, यह आरोहण करता है; इसका एक लक्ष्य--विशालता, वास्तविक अस्तित्व, प्रकाश आनन्द--है और इससे चाहा गया है कि यह अपने उस लक्ष्यपर पहुँचेनेके लिये एक उत्तम, सीधा और सुखमय मार्ग खोज निकाले और उसीपर चले,-यह है सत्यका कठिन किंतु आनंदपूर्ण पथ । इसे दिव्य संकल्पके जाज्वल्यमान बल द्वारा परिचालित होकर मानो पर्वतकी एक अधित्यकासे दूसरी अधि-त्यकापर चढ्या होता है, इसे मानो एक पोतके द्वारा सत्ताके समुद्रको पार करना होता है, इसकी नदियोंको लांघना, इसके गहरे गड्ढों और वेगवती धाराओंका अतिक्रमण करना होता है; इसका उद्देश्य होता है असीमता और प्रकाशके सुदूरवर्ती समुद्रपर पहुँचना ।
और यह कोई सरल या निष्कंटक प्रयाण नहीं है । यह लंबे समयोंतक एक भयंकर और क्रूर युद्ध होता है । निरंतर ही आर्यपुरुषको श्रम करना होता है और लड़ना होता है और विजय प्राप्त करनी होती है; उसे अथक परिश्रमी, अश्रांत पथिक.और कठोर योद्धा होना होता है, उसे एकके बाद एक नगरीका भेदन करना, उसे आक्रांत करना और लूटना, एकके बाद एक राज्यको. जीतना, एकके बाद एक शत्रुको पछाड़ना. और उसे, निर्दयतापूर्वक पददलित करना होता है । उसकी समय प्रगति होती है एक संग्राम-देवों और दानवोंका, देवों और दैत्योंका, इन्द्र और वृत्रका, आर्य और दस्युका संग्राम । उसे विरोधी आर्योका भी खुले क्षेत्रमें सामना करना होता है, क्योंकि पहलेके मित्र और सहायक भी शत्रु बन जाते हैं, आर्य राज्योंके राजा जिन्हें उसे जीतना और अतिलंधन करना होता है, दस्युओंसे जा मिलते हैं और उसके मुक्त और पूर्ण अभिगमनको रोकनेके लिये चरम युद्धमें उसके विरोधमें आ खड़े होते हैं ।
परंतु दस्यु है स्वाभाविक शत्रु | इन विभाजकों, लुटेरों, हानिकारक शक्तियोंको, इन दानवों, विभाजनकी माताके पुत्रोंको ऋषियोंने कई सामान्य संज्ञाओंद्वारा पुकारा है । थे हैं 'राक्षस'; ये हैं खानेवाले और हड़प
1. 'On the Veda' (ऑन दि वेद ) में प्रकाशित अत्रियोंके सूक्तोंके भूमिकाभागमेंसे संकलित संदर्भ |
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जानेवाले, भेड़िये ( वृक ) और चीर डालनेवाले; ये हैं क्षति पहूँचानेवाले, घृणा करनेवाले; ये हैं द्वैध करनेवाले; ये हैं सीमित करनेवाले या निंदा करनेवाले । पर ऋषि हमें कई विशेष नाम भी बताते हैं । उनमें 'वृत', वह सर्प, प्रधान शत्रु है; क्योंकि वह अपनी अंधकारकी कुंडलियोंद्वारा दिव्य सत्ता और दिव्य क्रियाकी सब संभावना को ही रोकता है । और जब प्रकाशके द्वारा वृत्रका वध कर दिया जाता है तो उसमेंसे उससे भी अधिक भयंकर शत्रु उठ खड़े होते हैं । उनमेंसे एक है शुष्ण जो हमें अपने अपवित्र और असिद्धिकर बलसे पीड़ित करता है, दूसरा है नमृचि जो मनुष्यसे उसकी दुर्बलताओके द्वारा लड़ता है, और कुछ अन्य भी हैं जिनमेंसे प्रत्येक निजी विशेष बुराईके साथ आक्रमण करता है । और फिर हैं वल और पणि-इन्द्रिय-जीवनमें लेन-देन करनेवाले लोभी बनिये, उच्चतर प्रकाश और उसकी ज्योतियोंको चुराने और छुपानेवाले । ये प्रकाश और उसकी ज्योतियोंको केवल अन्धकारसे आवृत कर सकते हैं और उनका दुरूपयोग ही कर सकते हैं । ये हैं अशुचिगण जो देवोंकी संपदाके ईर्ष्यालु होते हैं किन्तु यज्ञ करके कभी उन्हें हवि प्रदान नहीं करना चाहते । हमारी अज्ञानता बुराई, दुर्बलता तथा अनेकानेक सीमाओंका साकार रूप रखनेवाले ये तथा अन्य व्यक्तित्व-जो इन अज्ञानता आदि पर व्यक्तित्वारोप या इनके मानयीकरणसे कहीं अधिक कुछ है-मनुष्यके साथ निरन्तर युद्ध करते रहते हैं । ये उसे समीपतासे घेरे रहते हैं या उसपर दूरसे अपने तीर मारते रहते हैं अथवा यहाँ तक कि उसके द्वारोंवाले घरमें देवोंके स्थानमें रहते हैं और अपने आकाररहित और हकलाते हुए मुखोंद्वारा तथा अपने बलके अपर्याप्त निःश्वासके द्वारा उसके आत्म-अभिव्यंजनको दूषित करते हैं । इन्हें निकाल बाहर करना होगा वशमें करके मार डालना होगा, महान् और साहाय्यकारक देवताओंकी सहायताके द्वारा इन्हें इनके निम्न अंधकारमें धकेल देना होगा ।
वैदिक देवता विश्वव्यापी देवताके नाम, शक्तियां और व्यक्तित्व हैं और वे दिव्य सत्ताके किसी विशेष सारभूत बलका प्रतिनिधित्व करते हैं । ये देव विश्वको अभिव्यक्त करते हैं और इसमें अभिव्यक्त हुए है । प्रकाशकी संतान और असीमताके पुत्र ये मनुष्यकी आत्माके अंदर अपने बंधुत्व और सख्यको पहचानते हैं और उसे सहायता पहूँचाना और. उसके अंदर अपने- आपको बढ़ानेके द्वारा उसे बढ़ाना चाहते हैं जिससे कि उसके जगत्को वे अपने प्रकाश बल और सौंदर्यके द्वारा अभिव्याप्त कर सकें । देवता मनुष्यको पुकारते है एक दिव्य सख्य और साथीपनके लिये, वे उसे अपने प्रकाशमय
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वैदिक याज्ञ और देवतओंके रूपक
भ्रातृत्वके लिये आकृष्ट करते और ऊपर उठाते हैं, वे अंधकार और विभाजनफे पुत्रोंके विरोधमें उसकी सहायता आमंत्रित करते और अपनी सहायता उसे प्रदान करते हैं । बदलेमें मनुष्य देवताओंको अपने यज्ञमें आहूत करता है, उन्हें अपनी तीव्रताओं और अपने बलोंकी अपनी निर्मलताओं और अपनी मधुरताओंकी हवि भेंट करता है--प्रकाशमय गौके दूध और घीकी आनंदके पौधेके निचोड़े हुएं रसोंकी, यज्ञके अश्वकी, अपूप और सुराकी दिव्य-मनमे चमकीले हरिओं ( घोड़ों ) के लिये अन्नकी भेंट चढ़ाता है । वह उन्हें ( देवोंको ) अपनी सत्तामें ग्रहण करता है और उनकी देनोंको अपने जीवनमें; यह उन्हें मंत्रों और सोमरसोंसे बढ़ाता है और उनके महान् तथा प्रकाशमय देवत्वोंको पूर्णतया रचता है; वेद कहता है कि वह उन्हें ऐसे रचता है 'जैसे लोहार लोहेको घड़ता है ।
इस सब वैदिक रूपकको समझना हमारे लिये सुगम है, यदि एक बार हमें इसकी कुंजी मिल जाय, परंतु इसे केवल रूपकमात्र मान लेना गलती होगी । देवता निर्विशेष भावोंके या प्रकृतिके मनोवैज्ञानिक और भौतिक व्यापारोंके केवल कविकृत मानवीकरण नहीं हैं । वैदिक ऋषियोंके लिये वे सजीव सद्वस्तुएँ हैं । मानव आत्माके उलट-फेर अवस्थान्तर एक वैश्व संधर्षके निदर्शक होते हैं, न केवल सिद्धांतों और प्रवृत्तियोंकि संघर्षके किंतु उनको आश्रय देनेवाली तथा उन्हें मूर्त्त करनेवाली वैश्य शक्तियोंके संघर्षके भी । ये वैश्व शक्तियां ही हैं देव और दैत्य । वैश्व रंगमंचपर और वैक्तिक आत्मामें दोनों जगह एक ही वास्तविक नाटक उन्हीं पात्रोंके द्वारा खेला जा रहा है ।
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वे देव कौनसे हैं जिनका यजन करना है ? वे कौन हैं जिनका यज्ञमें आवाहन करना है जिससे कि यह वर्धनशील देवत्व मानवसत्ताके अंदर अभिव्यक्त हो सके और रक्षित न सके ?
सबसे पहला है अग्नि, क्योंकि उसके बिना यज्ञिय ज्वाला आत्माकी वेदी पर प्रदीप्त ही नहीं हो सकती । अग्निकी वह ज्वाला है संकल्पकी सप्तजिह्व शक्ति; परमेश्वरकी एक ज्ञान-प्रेरित शक्ति । यह सचेतन ( जागृत ) तथा बलशाली संकल्प हमारी मर्त्यसत्ताके अंदर अमर्त्य अतिथि है, एक पवित्र पुरोहित और दिव्य कार्यकर्ता है, पृथिवी और द्यौके बीच मध्यस्थता करनेवाला है । जो कुछ हम हवि प्रदान करते है उसे यह उच्चतर शक्तियोंतक ले जाता है और बदलेमें उनकी शक्ति और प्रकाश और आनंद हमारी मानवताके अंदर ले आता है |
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दूसरा देव है शक्तिशाली इन्द्र । वह शुद्ध सत्की शक्ति है जो भागवत मन के रूपमें स्वतः-अभिव्यक्त है । जैसे अग्नि एक ध्रव है, ज्ञानसे आविष्ट शक्तिका ध्रुव, जो अपनी धाराको ऊपर पृथ्वीसे धौकी तरफ भेजता है, वैसे ही इन्द्र दूसरा ध्रव है, शक्तिसे आविष्ट प्रकाशका घ्रुव, जो द्योसे पृथ्वीपर उतरता है । वह हमारे इस जगत्में एक पराक्रमी वीर योद्धाके रूपमें अपने चमकीले घोड़ोंके साथ उतरता है, और अपनी विद्युतों, वज्रोंके द्वारा अंधकार तथा विभाजनका विनाश करता है, जीवनदायक दिव्य जलोकी वर्षा करता है, शुनी ( अंतर्ज्ञान ) की खोजके द्वारा खोयी या छिपी हुई ज्योतियोंको ढूंढ़ निकालता है, हमारी मनोमयसत्ताके द्युलोकमें सत्यके सूर्यको ऊँचा चढ़ा देता है ।
सूर्य-देवता है उस परम सत्यका स्वामी-सत्ताके सत्य, ज्ञानके सत्य, क्रिया और प्रक्रियाके, गति और व्यापारके सत्यका स्वामी । इसलिये सूर्य है सब वस्तुओंका स्रष्टा, बल्कि अभिव्यंजक (क्योंकि सर्जनका अर्थ है बाहर ले आना, सत्य और संकल्पके द्वारा प्रकट कर देना ), और यह हमारी आत्माओंका पिता, पोषक तथा प्रकाशप्रदाता है । जिन ज्योतियोंको हम चाहते है वे इसी सूर्यके गोयूथ हैं, गौएँ हैं ।. यह सूर्य हमारे पास दिव्य उषाओंके पथसे आता है और हमारे अंदर रात्रिमें छिपे पड़े जगतोंको एकके बाद एक खोलता तथा प्रकाशित करता जाता है अबतक कि यह हमारे लिये सर्वोच्च,. परम आनंदको नहीं खोल देता |
इस आनंदकी प्रतिनिधिभूत देवता है सोम | उसके आनंदका रस ( सुरा ) छिपा हुआ है पृथिवीके प्ररोहोंमें, पौधोंमें और सत्ताके जलोंमें; यहाँ हमारी भौतिक सत्तातकमें उसके अमरतादायक रस है और उन्हें निकालना है, उनका सवन करना है और उन्हें सब देवताओंको हविरूपमें प्रदान करना है, क्योंकि सोमरसके बलसे ही ये देव बढ़ेंगे और विजयशाली होंगे ।
इन प्राथमिक देवोंमेंसे प्रत्येकके साथ अन्य देव जुड़े हैं जो उसके अपने व्यापारसे उदगत व्यापारोंको पूरा करते हैं । क्योंकि यदि सूर्यके सत्यको हमारि मर्त्य प्रकृति में दृढ़तया स्थापित होना है तो कुछ पूर्ववर्ती अवस्थाएँ हैं जिनका स्थापित हो जाना अनिवार्य है; एक बृहत् पवित्रता और स्वच्छ विशालता जो समस्त पाप और कुटिल मिथ्यात्वकी विनाशक है--यह है वरुण देव; प्रेम और समग्रबोघकी एक प्रकाशमय शक्ति जो हमारे विचारों, कर्मों, और आवेगोंको आगे ले जाती और उन्हें सामंजस्य- युक्त कर देती है; --यह हैं मित्र देव; सुस्पष्ट-विवेचनशील अभीप्सा तथा प्रयत्नकी अमर शक्ति पराक्रम--अर्यमा; सब वस्तुओंका
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समुचित उपभोग करनेकी एक सुखमय अवस्था जो पाप, भ्रांति और पीड़ाके दु:स्वप्नका निवारण करती है--यह है भग । वे चारों सूर्यके सत्यकी शक्तियाँ हैं ।
सोमका समग्र आनंद हमारी प्रकृतिमें पूर्णतया स्थापित हो जाय इसके लिये मन, प्राण और शरीरकी एक सुखमय, प्रकाशमान और अविकलांग अवस्थाका होना आवश्यक है । यह अवस्था हमें प्रदान की जाती है युगल अश्विनोंके द्वारा । प्रकाशकी दुहितासे विवाहित, मधुको पीनेवाले, पूर्ण संतुष्टियोंको लानेवाले, व्याधि और अंगभंगके भैषज्यकर्त्ता ये अश्विनौ हमारे ज्ञानके भागों और हमारे कर्मके भागोंको अधिष्ठित करते हैं और हमारी मानसिक, प्राणिक तथा भौतिक सत्ताको एक सुगम और विजयशाली आरोहणके लिये तैयार कर देते हैं ।
मानसिक रूपोंके निर्माताके तौरपर इन्द्रके, दिव्य मनके सहायक होते हैं उसके शिल्पी ॠभूगण । ये ॠभू हैं मानवीय शक्तियाँ जिन्होंने यज्ञके संपादनसे और सूर्यके ऊँचे निवासस्थानतक अपने उज्ज्वल आरोहणफे द्वारा अमरत्व प्राप्त किया है और जो अपनी इस सिद्धिकी पुनरावृत्ति किये जानेमें मनुष्यजातिकी सहायता करते हैं । थे मनके द्वारा इन्द्रके घोड़ोंका निर्माण करते हैं, अश्विनौके रथका, देवताओके शस्त्रोंका तथा यात्रा एवं युद्धके समस्त साधनोंका निर्माण करते हैं । परंतु सत्यके प्रकाशके प्रदाता तथा वृत्रहंताके रूपमें इन्द्र्के सहायक हैं मरुत् । ये मरुत् संकल्पकी तथा वातिक या प्राणिक बलकी शक्तियाँ हैं जिन्होंने विचारके प्रकाश और आत्मप्रकटनकी गिराको प्राप्त किया है । ये समस्त विचार और वाणीके पीछे उसके प्रेरकके रूपमें रहते हैं और परम चेतनाके प्रकाश, सत्य और आनंदको पहूँचनेके लिये युद्ध करते हैं ।
और फिर स्त्रीलिंगी शक्तियाँ भी हैं; क्योंकि देव पुरुष और स्त्री दोनों है और देवता भी या तो सक्रिय करनेवाली आत्माएँ है या निष्प्रतिरोध रूपसे कार्य संपन्न करनेवाली और यथाक्रम विन्यास करनेवाली शक्तियां हैं । उनमें सबसे पहले आती है अदिति, देवोंकी असीम माता, और फिर उसके अतिरिक्त सत्य चेतनाकी पाँच शक्तियाँ भी हैं--वही अथवा भारती है वह विशाल वाणी जो सब वस्तुओंको दिव्य स्रोतसे हमारे लिये ले आती है; इड़ा है सत्यकी वह दृढ़ आदिम वाणी जो हमें इसका सक्रिय दर्शन प्रदान करती है;. सरस्वती है इस (सत्य) की बहती हुई धारा और इसकी अंत:प्रेरणाकी वाणी; सरमा, अंतर्ज्ञानकी देवी है वह द्युलोककी शुनी जो अवचेतनाकी गुफामें उतर आती है और, वहाँ छिपी हुई ज्योतियोंको ढूँढ़
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लेती है; फिर है दक्षिणा जिसका व्यापार होता है ठीक-ठीक विवेचन करना, क्रिया और हविका विनियोग करना तथा यज्ञमें प्रत्येक देकाको उसका भाग वितीर्ण करना । इसी प्रकार प्रत्येक देवकी भी अमी-अपनी एक स्त्रीलिंगी शक्ति है ।
इस सब क्रिया और संघर्ष और आरोहणके आधार हैं हमारा पिता द्यौ और हमारी माता पृथिवी, देवोंके पितरौ, जो क्रमश: हमारी शुद्ध मानसिक एवं आंतरात्मिक चेतनाको तथा भौतिक चेतनाको धारण करते हैं । इनका विस्तृत और मुक्त अवकाश हमारी सिद्धिके लिये एक आवश्यक अवस्था है । वायु, प्राणका अधिपति, इन दोनोंको अंतरिक्ष, प्राणशक्तिके लोक, के द्वारा जोड़ता है । और फिर अन्य देवता भी हैं--पर्जन्य द्युलोककी वर्षा देधिक्रावा; दिव्य युद्धाश्व अग्निकी एक शक्ति; आधारका रहस्यमय सर्प ( अहिर्बुध्न्य), त्रित आप्त्य जो भुवनके तीसरे लोकमें हमारी त्रिविध सत्ताको निष्पन्न करता, सिद्ध करता है; इनके अतिरिक्त और भीं हैं ।
इन सभी देवत्वोंका विकास हमारी पूर्णताके लिये आवश्यक है । और वह पूर्णता हमें प्राप्त करनी चाहिये अपने सभी स्तरोंपर-पुथ्वीकी विस्तीर्णतामें, हमारी भौतिक सत्ता और चेतनामें; प्राणिक वेग और क्रिया और उपभोगके तथा वातिक स्पंदनके पूर्ण बलमें, जो घोड़े (अश्व) के रूपकसे निरुपित किया गया है, जिस घोड़ेको हमें अपने प्रयत्नोंको आश्रय देनेके लिये अवश्य सामने लाना चाहिये; भावमय हृदयके पूर्ण आनंदमें और मनकी एक चमकीली उष्णता और निर्मलतामें, हमारी समस्त बौद्धिक और अंतमनसिक सत्ताभरमें; अतिमानस प्रकाशके आगमनमें, उषा तथा सूर्यके एवं गौओंकी ज्योतिर्मयी माताके आगमनमें, जो हमारी सत्ताका रूपांतर करनेके लिये आते हैं; क्योंकि इसी प्रकार हम सत्यको अधिकृत करते हैं, सत्यके द्वारा आनंदकी अद्भुत महान् लहरको, आनंदमें निरपेक्ष अस्तित्वकी असीम चेतनाको आयत्त करते है ।
तीन महान् देवता, जों पौराणिक त्रिमूर्त्तिके मूल हैं और परम देवकी तीन वृहत्तम शक्तियां हैं इस क्रमोन्नति और ऊर्ध्वमुख विकासको संभव बनाते है; ये ही ब्रह्यांडकी इन सब जटिलताओंको उसकी विशाल रूप-रेखाओंमें और मूलभूत शक्तियोंमें धारण करते हैं । उनमेंसे पहला ब्रह्मणस्पति है स्रष्टा, वह शब्दके द्वारा, अपने रवके द्वारा सर्जन करता है-- इसका अभिप्राय हुआ कि वह अभिव्यक्त करता है, समस्त सत्ताको और सब सचेतन ज्ञानको तथा जीवनकी गतिको और अंतिम परिणत रूपोंको निश्चेतनाके अंधकारमेंसे बाहर निकालकर प्रकट कर देता । फिर है
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रुद्र प्रचंड. और दयालु, उर्ज्वस्वी देव, जो जीवनके अपने आपको सुस्थित करनेके लिये होनेवाले संघर्षका अधिष्ठाता है; वह है परमेश्वरकी शस्त्रसज्जितत मन्युयुक्त तथा कल्याणकरी शक्ति जो सृष्टिको जबर्दस्ती उपरकी ओर उढाती है, जो कोई विरोध करता है उस सबपर प्रहार करती है, जो कोई गलती करता हे या प्रतिरोध करता है उस सबको चाबुक लगाती है, जो कोई क्षत हुआ है और दुःखी है और शिकायत करता है तथा शरण आता है उस सबकी मरहमपट्टी करती, उसे चंगा कर देती है| तीसरा, विशाल व्यापक गतिवाला विष्णु है ओ अपने तीन पद-कर्मोमें इन सब लोकोंको धारण करता है । यह विष्णु ही हमारी सीमित मर्त्यसत्ताके अंदर इन्द्रिय क्रिया होनेके लिये विस्तृत स्थान बनाता है; उसके द्वारा और उसके साथ ही हम उसके उच्चतम पदोंतक आरोहण कर पाते हैं जहाँ उस मित्र, प्रिय, परम सुखदाता देवको हम अपनी प्रतीक्षा करते हुए पाते हैं ।
हमारी यह पृथ्यी जो सत्ताके अंधकारमय निश्चेतन समुद्रमेंसे निर्मित हुई है, अपनी उच्च रचनाओंको और अपने चढ़ते हुए शिखरोंको द्युलोककी ओर ऊपर उठाती है । मनके द्युलोककी अपनी ही निजी रचनाएँ हैं, पर्जन्य हैं जो अपने विद्युत्-प्रकाशोंको तथा अपने जीवननलोंको प्रदान करते हैं; निर्मलताकी तथा मधुकी धाराएँ नीचेके अवचेतन समुद्रमेंसे उठकर ऊपर चढ़ती हैं और ऊपरके अतिचेतन समुद्रको पहुँचना चाहती हैं; और ऊपरसे वह समुद्र अपनी प्रकाशकी और सत्य और आनंदकी नदियोंको नीचेकी ओर, हमारी भौतिक सत्ताके अंदरतक भी, बहाता है । इस प्रकार भौतिक प्रकृतिके रूपकोंके द्वारा वैदिक कवि हमारे आध्यात्मिक आरोहणका गीत- गान करते हैं ।
वह आरोहण प्राचीन पुरुषों, मानव-पूर्वपितरों, द्वारा पहले ही संपन्न किया जा चुका है और उन महान् पूर्वजोंकी आत्मा अब भी अपनी संतानोंकी सहायता करती है; क्योंकि नवीन उषाएँ पुरानियोंकी पुनरावृत्ति करनेवाली होती हैं तथा भविष्यकी उषाओंसे मिलनेके लिये प्रकाशमें आगे झुकती हैं : कण्व, कुत्स, अत्रि कक्षीवान्, गोतम, शुनःशेप आदि ऋषि विशेष प्रकारकी आध्यात्मिक विजयें प्राप्त करके आदर्श स्थापित कर चुके हैं जिनकी वे विजयें मानवजातिकी अनुभूतिमें सतत पुनरावृत्त होनेकी प्रवृत्ति रखती है, । सप्त ॠषि, वे अंगिरम् मंत्रगान करने, गुफाको तोड़ने, खोयी हुई गौओंको खोजने, छिपे हुए सूर्यको पुनः प्राप्त करनेको उद्यत अब भी और सदैव प्रतीक्षा कर रहे हैं । इस प्रकार आत्मा सहायता करनेवालों और हानि पहुँचानेवालों, मित्रों और शत्रुओंसे भरा हुआ एक युद्धक्षेत्र है । यह सब सजीव है, भरपूर है, वैयक्तिक है,
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सचेतन है सक्रिय है । पथ और शब्दके द्वारा अपने मिजके लिए प्रकाशयुक्त द्रष्ठाओंको, हमारे लिये लड़नेवाले वीरोंको, अपने कार्योकी संतानोंको उत्पन्न करते हैं । ॠषिवृंद और देवता हमारे लिये चमकीली गौएँ खोज लाते हैं;. ॠभ्रुगन मनके द्वारा देवोंके रथ और उनके घोड़ो और उनके चमकते हुए शस्त्र निर्मित करते हैं । हमारा जीवन एक घोड़ा है वो हिनहिनाता हुआ और सरपट दौड़ता हुआ आगे-आगे और ऊपर-ऊपर हमें चढ़ाये लिये जा रहा है; इसकी शक्तियां द्रुतगामी अश्व हैं, मनकी मुक्त हुई शक्तियाँ विस्तृत पंखोंवाले पक्षी हैं; वह मानसिक सत्ता या यह आत्म ऊपरकी और उड़नेवाला हंस या श्येन है जो सैकड़ों लोह-भित्तियोंको तोड़कर बाहर निकल आता है और आनंद-धामके ईर्ष्यालु संरक्षकोंसे सोमकी सुराको छीन लाता है । प्रत्येक प्रकाशपूर्ण परमेश्वरोन्मुख विचार जो हृदयकी गुप्त अगाष गहराइयोंसे निकलता है एक पुरोहित है और एक स्रष्टा है और वह प्रकाशमय सिद्धि तथा पराक्रमपूर्ण कृतार्थताके दिव्य गीतका गान करता है | हम सत्यके चमकीले सुवर्णको खोजते है; हम द्युलोककी निधिकी कामना करते हैं ।
मनुष्यका आत्मा सत्ताओंसे भरा एक संसार हूँ, एक. राज्य है जिसमें परम विजय पानेके लिये या उसमें बाधाएँ डालनेके लिये सेनाएँ संघर्ष करती हैं, एक घर है जिसमें देवता हमारे अतिथि हैं और जिसे असुर अधिकृत कर लेना चाहते है; इसकी शक्तियोंकी पूर्णता और इसकी सत्ताकी विशालता दिव्यसत्रके लिये ( देवताओंके आकर बैठनेके लिये ) यज्ञका आसन (बर्हि: ) बिछाकर उसे व्यवस्थित. और पवित्र कर देती हैं ।
ये हैं वेदके कुछ एक मुख्य रूपक और हैं उन. पूर्व-परखोंकी शिक्षाकी बहुत संक्षिप्त और अपर्याप्त रूपरेखा । इस प्रकार समझा हुआ ऋग्बेद एक अस्पष्ट,. गड़बड़से भरा और जंगली गीतावलि नहीं रहता, यह मनुष्यजातिका एक ऊँची अभीप्सासे युक्त गीतपाठ बन जाता है, इसके सूक्त हैं आत्माकी अपना अमर आरोहण करते हुए गायी आती वीरगाथाके आख्यान ।
कम-से-कम यह है; वेदमें और जो कुछ प्राचीन विज्ञान, लुप्त विद्या, पुरानी मनोभौतिक परंपरा आदि हों उन्हें अभी खोजना शेष ही है ।
--श्रीअरीवन्द
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पहला अध्याय
प्रश्न और उसका हल
वेदमें कुछ रहस्यकी बात है भी कि नहीं, अथवा क्या अब भी वेदमें कुछ रहस्यकी बात रह गयी है ?
यह है प्रश्न जिसका उत्तर साधारणतया 'नकार' में दिया जाता है, क्योंकि प्रचलित विचारोंके अनुसार तो उस पुरातन गुह्यका-वेदका-हृदय निकालकर बाहर रख दिया गया है और उसे सबके दृष्टिगोचर बना दिया गया है, बल्कि अघिक ठीक यह है कि उसमें वास्तविक रहस्यकी कुछ बात कभी कोई थी ही नहीं । वेदके सूक्त एक ऐसी आदिम जातिकी यज्ञ- बलिदान-विषयक रचनाएँ हैं जो अभी तक जंगलीपन से नहीं उठीं । वे धर्मानुष्ठान तथा शान्तिकरण-संबंधी रीति-रिवाजोंकी एक परिपाटीकी रटमें लिखे गये हैं, प्रकृतिकी शक्तियोंको सजीव देवता मानकर उन्हें सम्बोधित किये गये हैं और अधकचरी गथाओं तथा अभी बन रहे अधूरे नक्षत्रविद्या - .संबंधी रूपकोंकी गड़बड़ और अव्यवस्थित सामग्रीसे भरपूर हैं । केवल अन्तिम सूक्तोंमें हमें कुछ गंभीरतर आध्यात्मिक तथा नैतिक विचारोंका प्रथम आविर्भाव देखनेको मिलता है-ये विचार भी कइयोंकी सम्मतिमें उन विरोधि द्रविड़ोंसे लिये गये हैं, जो ''लुटेरे'' और ''वेदद्वेषी'' थे, जिन्हें इन सूक्तोंमें ही जी भरकर कोसा गया है-और ये चाहे किसी तरह प्राप्त किये गये हों, आगे आनेवाले वैदान्तिक सिद्धान्तोंका प्रथम बीज बने । वेदके सम्बन्ध में यह आधुनिकवाद उस स्वीकृत विचारके अनुसार है, जो मानता है कि मनुष्यका विकास बिल्कुल हालकी जंगली अवस्थासे शीघ्रता-पूर्वक हुआ है और इस वादका समर्थन समालोचनात्मक अनुसन्धानकी एक रोबदाबवाली साधन-सामग्री द्वारा किया गया है तथा अनेक शास्त्रोंकी साक्षी द्वारा इसे पुष्ट भी किया गया है । दुर्भाग्यवश ये शास्त्र अभी तक बाल-अवस्थामें हैं और इनके तरीके अभी तक बहुत कुछ अटकल लगानेवाले तथा इनके परिणाम बदलनेवाले हैं । ये हैं -तुलनात्मक भाषाशास्त्र, तुलनात्मक गाथाशास्त्र तथा तुलनात्मक धर्मका शास्त्र ।
'वेदरहस्य, नामसे इन अध्यायोंके लिखनेका मेरा उद्देश्य यह है कि मैं इस पुरातन प्रश्नके लिए एक नथी दृष्टिका निर्देश करूँ । अभी तक इस
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प्रश्नके जो हल प्राप्त हुए हैं उनके विरुद्ध एक अभावात्मक और खण्डनात्मक तरीका इस्तेमाल करनेका मेरा इरादा नहीं है, मैं तो यहाँ केवल भावात्मक और रचनात्मक रूपमें एक कल्पना उपस्थित करूँगा, एक स्थापना (प्रतिज्ञा ) करूँगा जो अधिक विस्तृत आधारपर रची गयी है और जो बृहत्तर तथा एक प्रकारसे पूरक स्थापना है । इसके अतिरिक्त यह भी संभव है कि यह स्थापना प्राचीन विचार और मतके इतिहासमें एक-दो ऐसे महत्त्वपूर्ण प्रश्नोंपर भी प्रकाश डाल सके, जो अभीतक के सामान्य वादों द्वारा ठीक तरह हल नहीं किये जा सके हैं ।
योरोपियन विद्वानोंके ख्यालमें ऋग्वेद ही एकमात्र सच्चा वेद है । इसमें हमें यज्ञसम्बन्धी सूक्तोंका जो समुदाय मिलता है वह एक ऐसी अति प्राचीन भाषा में निबद्ध है जो बहुत-सी लगभग न हल होने लायक कठिनाइयाँ उपस्थित करती है । यह ऐसे शब्दों और शब्दरूपोंसे भरा पड़ा है जो आगेकी भाषामें नहीं पाये जाते. और जिन्हें प्रायः बौद्धिक अटकल द्वारा कुछ सन्देहयुक्त अर्थमें लेना पड़ता - है । ऐसे बहुतसे शब्द भी जो वेदकी तरह अभिजात संस्कृतमें भी वैसे ही पाये जाते हैं वेदमें उनसे कुछ भिन्न अर्थ रखते प्रतीत होते हैं या कम-से-कम उनसे भिन्न अर्थवाले हो सक्ते हैं जो आगेकी साहित्यिक संस्कृतमें उनके अर्थ हुए हैं । और इसकी शब्दावलीका एक बहुत बड़ा़ भाग, विशेषतया अतिसामान्य शब्द, वे जो कि अर्थकी दृष्टिसे अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, आश्चर्यजनक रूपसे इतने विविध प्रकारके परस्पर असम्बद्धसे अर्थ देनेवाले होते हैं कि उनसे, चुनावकी अपनी पसंदगीके अनुसार, संपूर्ण मंत्रको, संपूर्ण सूक्तको बल्कि संपूर्ण वैदिक अभिप्राय को एक बिल्कुल दूसरी रंगत दी जा सकती है । इन वैदिक प्रार्थनाओके अभिप्राय और अर्थको निश्चित करनेके लिये पिछले कई हजार वर्षोमें कम-से-कम तीन गम्भीर प्रयत्न किये जा .चुके हैं । इनमेंसे एक तो-.
( 1 ) ऐतिहासिक कालसे पूर्वका है और यह केवल विच्छिन्न रूपमें ब्राह्मणों और उपनिषदोंमें मिलता है ।
( 2 ) परंतु भारतीय विद्वान् सायणका परंपरागत भाष्य संपूर्ण रूपमें उपलब्ध है तथा-
( 3 ) आज अपने ही समयमें आधुनिक योरोपियन विद्वन्मण्डली द्वारा तुलना और अटकलके महान् परिश्रमके उपरांत तैयार किया गया भाष्य भी विद्यमान है 1
इन पिछले दोनों (सायण और योरोपियन ) भाष्योंमें एक विशेषता समान रूपसे दिखाई देती है--असाधारण असंबद्धता और अर्थलाधव ।
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वेदमें कहे गये विचार अत्यंत असंबद्ध हैं और उनमें कोई अर्थगौरव नहीं है, यह है छाप जो परिणामत: इन भाष्यों द्वारा उन प्राचीन सूक्तों (वेद) पर लग जाती है । एक- वाक्यको जुदा लेकर उसे, चाहे स्वाभाविकतया अथवा अटकलके जोरपर, एक उत्कष्ट अर्थ दिया जा सकता है या ऐसा अर्थ दिया जा सकता है जो संगत लगे; शब्दविन्यास जो बनता है वह चाहे चटकीली- भड़कीली शैलीमें है, चाहे फालतू और शोभापरक विशेषणोंसे भरा है, चाहे तुच्छसे भावको असाधारण तौरपर मनमौजी अलंकार या शब्दाडंबरके आश्चर्यकर विशाल रूपमें बढ़ा दिया गया है, फिर भी उसे बुद्धिगम्य वाक्योंमें रखा जा सकता है, परंतु जब हम सूक्तोंको इन भाष्योकें अनुसार समूचे रूपमें पढ़कर .देखते हैं, तो हमें प्रतीत होता है कि इनके रचयिता ऐसे लोग थे जो, अन्य जातियोंके ऐसे प्रारंभिक रचयिताओंके विसदृश, संगत और स्वाभाविक भावप्रकाशन करने या सुसंबद्ध विचार करनेके अयोग्य थे । कुछ छोटे और सरल सूक्तोंको छोड़कर इनकी भाषा या तो धुंधली है या कृत्रिम; विचार या तो संबंध-रहित हैं या व्याख्या करनेवाले द्वारा जबरदस्ती और ठोक-पीटकर ठीक बनाये गये हैं । ऐसा मालूम देता है कि मूल मंत्रोंको लेकर बैठे विद्वान्को इस बातके लिये, बाधित-सा होना पड़ा है कि उनकी व्याख्या करनेके स्थानपर वह लगभग नयी गढ़न्त करनेकी प्रक्रियाको स्वीकार करे । हम अनुभव करते है कि भाष्यकार वेदके ही अर्थको उतना प्रकट नहीं कर जितना कि वह काबूमें न आनेवाली इसकी सामग्रीको पकड़कर उससे कुछ शकल बनाने और. उसे संगत करनेके लिये उसे ठोक-पीट रहा और कुछ बना रहा है ।
तो भी इन धुंधली और जंगली रचनाओंको समस्त साहित्यके इतिहासमें एक अत्यंत शानदार उत्तम सौभाग्य प्राप्त हुआ है । ये न केवल संसारके कुछ सर्वोत्कृष्ट और गंभीरतम धर्मोंके अपितु उनके कुछ सूक्ष्मतम पराभौतिक दर्शनोंके भी सुविख्यात आदिस्रोतके रूपमें मानी जाती रही हैं । सहस्रों वर्षों चली आयी परंपराके अनुसार, ब्राह्मणों और उपनिषदोंमें, तंत्रों और पुराणोंमें, महान् दार्शनिक संप्रदायोंके सिद्धांतोंमें तथा प्रसिद्ध संतों-महात्माओंकी शिक्षाओंमें जो कुछ भी प्रामाणिक और सत्य करके माना जा सकता है, उस सबके मूलस्रोत और आदर्श मानदंडके रूपमें ये सदा आदृत की गयी हैं । इन्होंने जो नाम पाया वह था वेद अर्थात् ज्ञान,-वेद यह उस सर्वोच्च आध्यात्मिक सत्यके लिये माना हुआ नाम है जहाँतक कि मनुष्यके मनकी गति हो सकती है । किंतु यदि हम प्रचलित भाष्योंको-वे चाहे सायणके हों या आघुनिक सिद्धांतके माननेवाले बिद्वानोके--स्वीकार करते हैं तो
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वेदकी यह .सब-की-सब अत्युत्कृष्ट और पवित्र ख्याति एक बड़ी भारी गप्प हो जाती है । तब तो उलटे वेदमंत्रोंमें इससे अधिक और कुछ नहीं है कि ये ऐसे अशिक्षित और भौतिकवादी जंगलियोंकी अनाड़ी और अंधविश्वास-पूर्ण कल्पनाएँ हैं जिन्हें केवल अत्यंत स्थूल लाभों और भोगोंसे ही मतलब था और जो अत्यंत प्रारंभिक नैतिक विचारों तथा घार्मिक भावनाओंके सिथाय और किसी भी बातसे अनभिज्ञ थे । और इन भाष्यों द्वारा वेदके विषयमें हमारे मनोंपर जो यह अखंड छाप पड़ती है; उसमें कहीं-कहीं आ जानेवाले कुछ भिन्न प्रकारके वेदवाक्योंके कारण, जो कि वेदकी अन्य सामान्य भावनाके बिलकुल विसंवादी होते हैं, कुछ भंग नहीं पड़ता । उनके इस विचारके अनुसार आगे आनेवाले धर्मो और दार्शनिक विचारोंके सच्चे आधार या उद्गम-स्थान तो उपनिषदें हैं न कि वेद । और फिर, उपनिषदोंके विषयमें हमें यह कल्पना करनी पड़ती है कि ये दार्शनिक और विचारशील प्रवृत्ति रखनेवाले मनस्वी पुरुषों द्वारा वेदके कर्मकांडमय भौतिकवादके विरुद्ध किये गये विद्रोहके परिणाम हैं ।
परंतु इस कल्पनासे, जिसका योरोपीय इतिहासके समानान्तर उदाहरणों द्वारा जो कि भ्रमोत्पादक हैं समर्थन भी किया गया है, वस्तुत: कुछ सिद्ध नहीं होता । ऐसे गंभीर और चरम सीमा तक पहुंचे हुए विचार, ऐसी सूक्ष्म और महाप्रयत्न द्वारा निर्मित अध्यात्मविद्याकी पद्धति जैसी कि सारत: उपनिषदोंमें पायी जाती है, किसी पूर्ववर्ती शून्यसे नहीं निकल आयी है । प्रगति करता हुआ मानव मन एक ज्ञानसे दूसरे ज्ञान तक पहुँचता है या किसी ऐसे पूर्ववर्ती ज्ञानको जो धुंधला पड़ गया और ढक गया होता है, फिरसे नया और वृद्धिगत करता है अथवा किन्हीं पुराने अधूरे सूत्रोंको पकड़ता और उनके द्वारा नये आविष्कारोंको प्राप्त करता है । उपनिषदोंकी विचारधारा अपनेसे पहले विद्यमान किन्हीं महान् उद्गमोंकी कल्पना करती है और प्रचलित वादोंके अनुसार ये उद्गम कोई हैं ही नहीं । इस रिक्त स्थानको भरनेके लिये जो यह कल्पना गढ़ी गयी है कि ये विचार जंगली आर्य आक्रान्ताओंने सभ्य द्राविड़ लोगोंसे लिये थे, एक ऐसी अटकल है जो केवल दूसरी अटकलों द्वारा ही संपुष्ट की गयी है । सचमुच अब इस प्रकारका संदेह किया जाने लगा है कि पंजाबसे होकर आर्योंके आक्रमण करनेकी सारी कहानी ही कहीं भाषाविज्ञानियोंकी गढ़न्त तो नहीं है । अस्तु ।
प्राचीन योरूपमें जो बौद्धिक दर्शनोंके संप्रदाय हुए थे, उनसे पहले रहस्य-वादियोंके गुह्य सिद्धान्तोंका एक समय रहा था; ओर्फिक (Orphic ) और एलूसिनियन. ( Elecusinian) रहस्यविद्याने उस उपयाऊ मानसिक
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क्षेत्रको तैयार किया था जिसमेसे पिथागोरस और प्लेटोकी उत्पत्ति हुई । इसी प्रकारका उद्गमस्थान भारतमें भी आगेके यिचारोंकी प्रगतिके लिये रहा हो यह बहुत संभवनीय प्रतीत होता है । इसमें सन्देह नहीं कि उपनिषदोंमें हम विचारोंके जो रूप और प्रतीक पाते है उनका बहुत-सा भाग तथा ब्राह्मणोकी विषय-सामग्रीका बहुत-सा भाग भी भारतमें एक ऐसे कालकी कल्पना करता है जिसमें विचारोंने उस प्रकारकी गुह्य शिक्षाओंका रूप या आवरण धारण किया था जैसी ग्रीक रहस्यविद्याओंकी शिक्षायें थीं ।
दूसरा रिक्त स्थान, जो अभीतक माने गये वादों द्वारा भरा नहीं जा सका है, एक ऐसी खाई है जो कि एक तरफ वेदमें पायी जाती बाह्य प्राकृतिक शक्तियोंकी जड़-पूजाको और दूसरी तरफ ग्रीक लोगोंके विकसित घर्मको तथा उपनिषदों और पुराणोंमें जिन्हें हम पाते हैं ऐसे देयताओंके कार्योके साथ सम्बन्धित किये गये मनोवैंभ्रानिक और आध्यात्मिक विचारोंको विभक्त करती है । क्षण भरके लिये यहां हम इस मतको भी स्वीकार किये लेते हैं कि मानवधर्मका सबसे प्रारम्भिक पूर्णतया बुद्धिगम्य रूप अवश्यमेव प्रकृति-शक्तियोंकी पूजा ही होता है, जिसमें वह इन शक्तियोंको वैसी ही चेतना और व्यक्तित्वसे युक्त मानता है जैसी वह अपनी निजी सत्तामें देखता है । धर्मका प्रारंभिक रूप ऐसा इसलिए होता है कि पार्थिव मनुष्य बाह्यसे प्रारंभ करता है और आंतरकी तरफ जाता है ।
यह तो मान ही रखा है कि वेदका अग्नि देवता आग है, सूर्य देवता सूर्य है, पर्जन्य बरसनेवाला मेघ है, उषा प्रभात है, और यदि किन्हीं अन्य देवताओंका भौतिक रूप या कार्य इतना अधिक स्पष्ट नहीं है, तो यह आसान काम है कि उस अस्पष्टताको भाषाविज्ञान की अटकल या कुशल कल्पना द्वारा दूर कर उसे स्पष्ट भौतिक अर्थ में ठीक कर लिया आय । पर जब हम ग्रीक लोगोंकी देव-पूजापर आते हैं, जो आधुनिक कालगणनाके विचारोंके अनुसार वेदके कालसे अधिक पीछेकी नहीं है, तो हम महत्त्वपूर्ण परिवर्त्तन पाते हैं । देवताओंके भौतिक गुण बिल्कुल मिट गये हैं या वे उनके आध्यात्मिक रूपोंके गौण अंग हो गये हैं । तीव्र-वेगशाली अग्नि-देवता बदलकर पंगु श्रम-का-देवता हो गया है । सूर्य-देवता, अपोलो ( Apollo) कविता और भविष्यवाणीसम्बन्धी अन्त:स्कुरणाका अघिष्ठातृ-देवता हो गया है । एथिनी ( Athene) जिसे प्रारंभिक अवस्थामें हम सम्भवतः उषादेथी करके पहचान सकते हैं, अब अपने भौतिक व्यापारोंकी सब याद भूल गयी है और बुद्धिशालिनी, वलधारिणी, शुद्धं ज्ञानकी देवी हो गयी है । इसी तरह अन्य देवता भी हैं, जैसे युद्धके, प्रेमके, सौंदर्यके देवता जिनके भौतिक व्यापार
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यदि कभी थे भी तो अब दिखाई नहीं देते । इसके स्पष्टीकरणमें इतना कह देना पर्याप्त नहीं है कि ऐसा परिवर्तन मानव-सभ्यताकी प्रगतिके साथ- साथ होना अवश्यंभावी ही था, इस परिर्तनकी प्रक्रिया भी खोज और स्पष्टीकरण चाहती है । हम देखते हैं कि इस प्रकारकी क्रान्ति पुराणोंमें भी हुई जो कि कुछ तो कई एक पुरानोंकी जगह नये नामों और रूपोंवाले अन्य देवताओंके आ जानेसे, पर कुछ उसी अविज्ञात प्रक्रियाके द्वारा हुई जिसे हम ग्रीक देवताख्यानके विकासमें देखते हैं । नदी सरस्वती म्युज ( Muse) और विद्याको देवी बन गयी है, वेदके विष्णु और रुद्र अब सर्वोच्च देवता, देवतात्रयीमेंसे दो अर्थात् क्रमश: जगत्की संरक्षिका और विनाशिका प्रक्रियाके द्योतक बन गये हैं । ईशोपनिषद्में हम देखते हैं कि वहां सूर्यसे एक ऐसे स्वयंप्रकाश दिव्यज्ञानके देवताके रूपमें प्रार्थना की गयी है जिसके कार्य द्वारा हम सर्वोकृष्ट सत्यको पा सकते हैं । और सूर्यका यही व्यापार गायत्री नामसे प्रसिद्ध उस पवित्र वैदिक मंत्रमें है जिसका जप न जाने कितने सहस्रों वर्षोंसे प्रत्येक बाह्मण अपने दैनिक सन्ध्यानुष्ठानमें करता आया है, और यहाँ यह भी ध्यान देने लायक है कि यह मंत्र ऋग्वेदकार, ऋग्वेदमें ऋषि विश्वामित्रके एक सूक्तका है । इसी उपनिषद्में अग्निसे विशुद्ध नैतिक कार्योके लिये प्रार्थनाकी गयी है, उसे पापोंसे पवित्र करनेवाला एवं आत्माको सुपथ द्वारा दिव्य आनंदके प्रति ले जानेवाला माना गया है और यहाँ अग्नि संकल्पकी शक्तिके साथ एकात्मता रखनेवाला तथा मानवकर्मोंके लिये उत्तरदाता प्रतीत होता है । अन्य उपनिषदोंमें यह स्पष्ट है कि देवता मानवदेहमें होनेवाले ऐन्द्रियिक व्यापारोंके प्रतीक हैं । सोम, जो वैदिक यज्ञके लिये सोमरस ( मदिरा ) देनेवाला पौधा ( वल्ली ) था, न केवल चन्द्रमाका देवता हो गया है अपितु मनुष्यमें वह अपनेको मनके रूपमें अभिव्यक्त करता है ।
शब्दोंके इस प्रकारके विकास कुछ कालकी अपेक्षा करते हैं, जो काल वेदोंके बाद और पुराणोंसे पहले बीता है, जिससे पहले भौतिक पूजा या सर्वदेवतामादी चेतनावाद था, जिसके साथ वेदका संबंध जोड़ा जाता है और जिसके बाद वह विकसित पौराणिक देवगाथाशास्त्र निर्मित हुआ जिसमें देवता और अधिक गम्भीर मनोवैज्ञानिक व्यापारोंवाले हो गये । और यह बीचका समय, बहुत सम्भव है, एक रहस्यवादका युग रहा हो । नहीं तो जो कुछ अबतक माना जाता है उसके अनुसार या तो नीचमें यह रिक्त स्थान छूटा रहता है या फिर यह रिक्त स्थान हमने बना लिया है, इस कारण बना लिया है क्योंकि हम वैदिक ऋषियोंके घर्मके विषयमें अनन्य रूपसे एकमात्र प्रकृतिवादी तत्त्वके साथ आबद्ध हो गये हैं ।
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मेरा निर्देश यह है कि यह रिक्त स्थान हमारा अपना बनाया हुआ है और असलमें उस प्रांचीन, पवित्र साहित्यमें ऐसे किसी रिक्त स्थानकी सत्ता है ही नहीं । मैं जो मत प्रस्तुत करता हूँ वह यह है कि स्वयं ॠग्वेद मानव-विचारके उस प्रारम्भकालसे आया एक बड़ा भारी विविध उपदेशोंका ग्रन्थ है, जिस विचारके ही टूटे-फूटे अवशेष ने ऐतिहासिक एलूसिनियन तथा ओर्फिक रहस्य-वचन थे और यह वह काल था जब जातिका आध्यात्मिक और सूक्ष्म मानसिक ज्ञान स्थूल और भौतिक अलंकारों तथा प्रतीकचिह्नोंके एक ऐसे पर्देके पीछे छुपा हुआ. था जो उसके तत्त्वको अनधिकारी पुरुषोंसे सुरक्षित रखता था तथा दीक्षितोंके संमुख प्रकट कर देता था । पर किन कारणोंसे ज्ञानको इस. प्रकार छुपाया जाता था इसका निश्चय करना अब कठिन है ।
आत्मज्ञानकी तथा देवताओं-विषयक सत्यज्ञानकी गुप्तता एवं पवित्रता रखना-यह रहस्यवादियोंके प्रमुख सिद्धान्तोंमेसे एक था । उनका विचार था कि ऐसा ज्ञान साधारण मानवमनको दिये जानेके अयोग्य, बल्कि उसके लिये शायद खतरनाक भी था; कुछ भी हो, यह ज्ञान यदि लौकिक और अपवित्रित आत्माओंके प्रति प्रकट किया जाय तो इसके बिगड़ जाने और दुरुपयुक्त होने तथा विगुण हो जानेका भय तो था ही । इसलिये उन्होंने प्राकृतजनोंके लिये एक बाह्य पूजाविधिका रखना पसंद किया था जो प्रभावकारी होते हुए भी अपूर्ण थी, पर दीक्षितोंके लिए उन्होंने एक आंतरिक अनुशासन-पद्धतिको रखना पसंद किया, और अपनी भाषाको ऐसे शब्दों और अलंकारोंसे आवृत कर दिया था जो एक ही साथ विशिष्ट लोगोंके लिये आध्यात्मिक अर्थ तथा साधारण पूजार्थियों के समूदायके .लिये एक स्थूल अर्थ प्रकट करती थी । वैदिक सूक्त इसी सिद्धन्तको विचारमें रखकर रचे गये थे । वैदिक कंडिकाएँ और विघि-विघान ऊपरसे तो सर्वेश्वरवादकी प्रकृतिपूजाके लिये, जो उस समयका सामान्य धर्म थी, आयोजित किये गये एक बाह्य कर्मकाण्डके विस्तृत आचार थे, पर गुप्त तौरसे ये पवित्र वचन थे, आध्यात्मिक अनुभूति और ज्ञानके प्रभावोत्पादक प्रतीकचिह्न और आत्मसाघनाके आन्तरिक नियम थे जो उस समय मानयजातिकी सर्वोच्च उपलब्ध वस्तुएँ थे ।
सायण द्वारा अभिमत कर्मकाण्डप्रणाली अपने वाह्य रूपमें बेशक टिक सकती है, योरोपियन विद्वानों द्वारा प्रकट किया गया प्रकृतिपरक आशय भी सामान्य रूपमें माना जा सकता है, पर फिर भी इनके पीछे सदा ही एक सच्चा और अभीतक भी छिपा हुआ वेदका रहस्य है, अर्थात् वे रहस्यमय
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वचन, 'निण्या वचांसि'1 हैं, जो कि आत्मामें पवित्र और ज्ञानंमें जागे हुए पुरुषोंके लिये कहे गये थे । वैदिक शब्दोंके आशयों, वैदिक प्रतीकचिह्नोंके अभिप्रायों और देवताओंके अध्यात्मव्यापारोंको, निश्चित करके वेदके इस कम प्रकट किंतु अधिक आवश्यक गुह्यो तत्त्वको आविष्कृत कर देना एक बड़ा कठिन किन्तु अति आवश्यक कार्य है । ये अध्याय तथा इसके साथमें दी गयी वैदिक सूक्तोंकी व्याख्यायें इस ( कठिन और आवश्यक ) कार्यकी तैयारीके रूपमें ही हैं ।
वेदके विषयमें मेरी यह स्थापना यदि प्रामाणिक सिद्ध होती है तो इससे तीन लाभ होंगे । इससे जहां उपनिषदोंके वे भाग, जो अभीतक अविज्ञात पड़े हैं या ठीक तरह समझे नहीं गये हैं, खुल जायंगे वहाँ पुराणोंके बहुतसे मूलस्रोत भी आसानीसे और सफलतापूर्वक खुल जायँगे । दूसरे, इससे सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय परम्परा युक्तिपूर्वक स्पष्ट हो जायगी और सत्य प्रमाणित हो जायगी; .क्योंकि इससे यह सिय हो जायगा कि गम्भीर सत्यके अनुसार. वेदान्त, पुराण, तन्त्र, दार्शनिक सम्प्रदाय सब महान् भारतीय धर्म अपने मौलिक प्रारम्भमें वस्तुतः वैदिक स्रोत तक जा पहुंचते हैं । तक हम आगे आये भारतीय विचार के सब आधारभूत सिद्धान्तोंको उनके मूल बीजमें. या उनके आरम्भिक बल्कि आदिम रूपमें वेदमें देख सकेंगे | इस तरह भारतीय क्षेत्रमें तुलनात्मक धर्मका अधिक ठीक अध्ययन कर सकनेके लिये : एक स्वाभाविक प्रारंभबिन्दु;. उपलब्ध हो जायगा | इसके स्थानपर कि हम असुरक्षित कल्पनाओंमें भटकते रहे अथवा असंभावित विपर्ययोंके लिये और ऐसे संक्रमणोंके लिये जिनका स्पष्टीकरण नहीं किया जा सकता उत्तरदायी बनें, हमें एक ऐसे स्वाभाविक और, क्रमिक विकासका संकेत मिल जायगा जो बुद्धिको सर्वथा संतोष देनेवाला होगा । इससे प्रसंगवश, अन्य प्राचीन जातियोंकी प्रारम्भिक गाथाओं और देवताखयानोंमें जो कुछ अस्पष्टताएं हैं, उनपर भी प्रकाश पड़ सकता है । और अन्तमें इससे, मूल वेदमें जो असंगतियां दीखती हैं उनका एकदम स्पष्टीकरण हो जायगा और वे जाती रहेंगी | ये असंगतियाँ ऊपर-ऊपर ही दीखती हैं, क्योंकि वैदिक अभिप्रायका असलि सूत्र तो इसके आन्तरिक अर्थोमें ही पाया जा सकता है । वह सूत्र ज्यों ही मिल आता है त्यों ही वैदिक सूक्त बिल्कुल युक्तियुक्त और सर्वागपूर्ण लगने लगते हैं, इनकी भावप्रकाशनशैली यद्यपि हमारे आधुनिक बिचारने और बोलनेके तूरीकेकी दृष्टिसे कुछ विचित्र ढंगकी
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1, ॠग्वेद 4-3-16 | इसका अर्थ है 'गुह्य या गुप्त वचन' |
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लगे फिर भी अपने ढंगसे ठीक-ठीक और यथोचित हो जाती है । इसे शब्दावली की अधिकता की अपेक्षा शब्दसंकोच की तथा अर्थलघवकी जगह अर्थगांभीर्यके आधिक्यकी ही दोषिणी माना जा सकता है । वेद तब जंगली-पनके केवल एक मूनोरंजक अवशेष नहीं रहते, बल्कि जगत्की प्रारम्भिक धर्मपुस्तकोंमसे सर्वश्रेर्ष्ठोंकी गिनतीमें जा पहुंचते हैं ।
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दूसरा अध्याय
वैदिकवादका सिंहावलोकन
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.तो वेद एक ऐसे युगको रचना है जो हमारे बौद्धिक दर्शनोंसे प्राचीन था । उस प्रारम्भिक युगमें विचार हमारे तर्कशास्त्रकी युक्तिप्रणालीकी अपेक्षा भिन्न प्रणालियोंसे आयुम्भ होता था और भाषाकी अभिव्यक्तिके प्रकार ऐसे होते थे जो हमारी वर्तमान आदतोंमें बिल्कुल अस्वीकार्य ही ठहरेंगे । उस समय बुद्धिमान्से बुद्धिमान् मनुष्य अपने सामान्य व्यवहारिक बोधों तथा दैनिक क्रियाकलापोंसे परेके बाकी सब ज्ञानके लिये आभ्यन्तर अनुभूतिपर और अन्तर्ज्ञानयुक्त मनकी सूझोंपर निर्भर करते थे । उनका लक्ष्य था ज्ञानालोक, न कि तर्कसम्मत निर्णय; उनका आदर्श था अन्तःप्रेरित द्रष्टा, न कि यथार्थ तार्किक । भारतीय परम्पराने, वेदोके उद्धवके इस तत्त्वको बड़ी सच्चईके साथ संभालकर रखा है । ऋषि स्वयं वैयक्तिक रूपसे सूक्तका निर्माता नहीं था, वह तो द्रष्टा था एक सनातन सत्यका और एक अपौरुषेय ज्ञान का । वेदकी भाषा स्वयं 'श्रुति' है एक छन्द है जिसका बुद्धि द्वारा निर्माण नहीं हुआ बल्कि जो श्रुतिगोचर हुआ, एक दिव्य वाणी है जो असीममेंसे स्पंदित होती हुई आयी और उस मनुष्यके अंत:श्रवणमें पहुँची जिसने पहलेसे ही अपने आपको अपौरुषेय ज्ञानका पात्र बना रखा था । 'दृष्टि' और 'श्रुति', दर्शन और श्रवण, ये शब्द स्वयं वैदिक मुहावरे हैं; ये और इनके सजातीय शब्द, मंत्रोंके गूढ़ परिभाषाशास्त्रके अनुसार स्वत:प्रकाश ज्ञानको और दिव्य अन्तःश्रवणके विषयोंको बताते हैं ।
स्वत:प्रकाश ज्ञान (इलहाम या ईश्वरीय ज्ञान ) की वैदिक कल्पनामें किसी चमत्कार या अलौकिकताका निर्देश नहीं मिलता । जिस ऋषिने इन शक्तियों का उपयोग किया .उसने एक उत्तरोत्तर वृद्धिशील आत्मसाधनाके द्वारा इन्हें पाया था । ज्ञान स्वयं एक यात्रा और लक्ष्यप्राप्ति थी, एक अन्वेषण और एक विजय थी; स्वत:प्रकाशकी अवस्था केवल अन्तमें आयी; यह प्रकाश एक अन्तिम विजयका पुरस्कार था । वेदमें यात्राका यह अलंकार, सत्यके पथपर आत्मा का प्रयाण, सतत रूपसे मिलता है । उस पथपर जैसे यह अग्रसर होता है,
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वैसे ही आरोहण भी करता है; शक्ति और प्रकाशके नवीन क्षेत्र इसकी अभीप्साओंके लिये खुल जाते हैं; यह एक वीरतामय प्रयत्नके द्वारा विस्तृत हुए आध्यात्मिक ऐश्वर्योंको जीत लेता है ।
ऐतिहासिक दृष्टिकोणसे ऐसा माना जा सकता है कि ऋग्वेद उस महान् उत्कर्षका एक लेखा है जिसे मानवीयताने अपनी सामूहिक प्रगतिके किसी एक कालमें विशेष उपायोंके द्वारा प्राप्त किया था । अपने गूढ़ अर्थमें भी, जैसे कि अपने साधारण अर्थमें, यह, कर्मोंकी पुस्तक हैं; आभ्यन्तर और बाह्य यज्ञकी पुस्तक है; यह है आत्माका संग्राम और विजयका स्तोत्र जब कि वह विचार और अनुभूतिके उन स्तरोंको खोजकर पा लेता है और उनमें आरोहण .करता है जो भौतिक अथवा पाशविक मनुष्यसे दुष्प्राप्य हैं; यह है मनुष्यकी तरफ से उस दिव्य, ज्योति दिव्य शक्ति और दिव्य कृपाकी स्तुति जो मर्त्यमें कार्य करती है । इसलिये इस बातसे यह बहुत दूर है कि यह कोई ऐसा प्रयास हो जिसमें बौद्धिक या कल्पनात्मक विचारोके परिणाम प्रतिपादित किये गये हों; नाहीं यह किसी आदिम धर्मके. विधि-नियमोंको बतलानेबाली पुस्तक है । केवल इतना ही है कि अनुभवकी एकरूपतामेंसें .प्राप्त हुए ज्ञानकी निर्व्यक्तिकतामेंसे .विचारोंका एक नियत समुदाय निरन्तर दोहराया जाता हुआ उद्यत हुआ है और एक. नियत प्रतीकमय भाषा उद्गत हुई है, जो सम्भवतः उस आदिम मानवीय बोलीमें इन विचारोंका अनिवार्य रूप थी । क्योंकि केवल यही अपनी मूर्त्तरूपताके और अपनी रहस्यमय संकेतकी शक्तिके-इन-दोनोंके संयुक्त होनेके कारण इस योग्य थी कि उसे अभिव्यक्त कर सके जिसका व्यक्त करना जातिके साधारण मनके लिये अशक्य था ।. चाहे कुछ .भी हो, हम एक ही विचारोंको सूक्त-सूक्तमें दुहराया हुआ पाते हैं, एक ही नियत परिभाषाओं और अलंकारोंके साथ और बहुधा एकसे ही वाक्यांशोंमें और किसी कवितात्मक मौलिकताकी खोजके प्रति या विचारोंकी अपूर्वता और भाषाकी नवीनताकी मांग के प्रति बिल्कुल उदासीनताके .साथ दुहराया हुआ पाते हैं । सौंदर्यमय सौष्ठव आडम्बर या लालित्यका किसी प्रकारका भी अनुसरण इन रहस्यवादी कवियोंको इसके लिये नहीं उकसाता कि वे उन पवित्र प्रतिष्ठापित रूपोंको बदल दे जो. उनके लिये, ज्ञानके सनातन सूत्रोंको दीक्षितोकी अविच्छिन्न परंपरामें पहुँचाते जानेवाले एक प्रकारके दिव्य बीजगणितसे बन गये थे । ...
वैदिक मंत्र वस्तुत: ही एक पूर्ण छंदोबद्ध रूप रखते हैं, .उनकी पद्धतिमें एक सतत सूक्ष्मता और. चातुर्य है, उनमें शैलीकी तथा काव्यमय व्यक्तित्वकी महान विविधताएँ है; वे असभ्य, जंगली और आदिम कारीगरोंकी कृति
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नहीं है बल्कि वे एक परम कला और सचेतन कलाके संजीव नि नि:श्वास हैं, जो कला अपनी. रचनाओंको एक. आमदर्शिका अंत:प्रेरणाकी सबल् किंतु सुनियन्त्रित गतिमें उत्पन्न करती है । फिर भी ये सब उच्च उपहार जानबूझकर एक ही अपरिवर्तनीय ढांचेके बीचमें और सर्वदा एक ही प्रकारकी सामग्रीसे रचे गये हैं । क्योंकि व्यक्त करनेकी कला ऋषियोंके लिये केवल एक साघनमात्र थी न कि लक्ष्य; उनका मुख्य प्रयोजन अविरत रूपसे व्यावहारिक था बल्कि उपयोगिताके उच्चतम अर्थमें लगभग उपथोगितावादी था ।
वैदिक मंत्र उस ॠषिके लिये जिसने उसकी रचना की थी, स्वयं अपने लिये तथा दूसरोंके लिये आध्यात्मिक प्रगतिका साधन था । यह उसकी आत्मामेंसे उठा था, यह उसके मनकी एक शक्ति बन गया था, यह उसके जीवनके आंतरिक इतिहासमें कुछ महत्त्वपूर्ण क्षणोंमें अथवा संकट तकके क्षणमें उसकी आत्माभिव्यक्तिका माध्यम था । यह उसे अपने अंदर देवको अभिव्यक्त करनेमें, भक्षकको, पापफे अभिव्यंजकको विनष्ट करनेमें सहायक था; पूर्णताकी प्राप्ति के लिये संघर्ष करनेवाले आर्यके हाथमें यह एक शस्त्रका काम देता था; इन्द्रके वज्रके समान. यह आध्यात्मिक मार्गमें आनेवाले ढालू भूमिके आच्छादक पर, रास्तेके भेड़ियेपर, नदी-किनारेके लुटेरोंपर चमकता था ।
वैदिक विचरकी अपरिवर्तनीय नियमितताको जब हम इसकी गंभीरता, समृद्धता और सूक्ष्मताके साथ लेते हैं तो इससे कुछ रोचक विचार निकलते हैं । क्योंकि हम युक्तिमुक्त रूपसे यह तर्क कर सकते हैं कि एक ऐसा नियत रूप और विषय उस कालमें आसानीसे संभव नहीं हो सकता था जो विचार तथा आध्यात्मिक अनुभवका आदिकाल था, अथवा उस कालमें भी जब कि उनका प्रारंभिक उत्कर्ष और विस्तार हो रहां था । इसलिये हम यह अनुमान कर सकते हैं कि हमारी वास्तविक संहिता एक युगकी समाप्तिको सूचित करती है, न कि इसके प्रारंभको और न ही इसकी क्रमिक अवस्थाओंमें. से किसी एक कालको । .यह भी, संभव है कि इसके प्राचीनतम सूक्त अपनसे भी अधिक प्राचीन1 उन गीतिमय छंदोंके अपेक्षाकृत नवीन विकसित रूप अथवा पाठांतर हो जो और भी पहलेकी मानवीय भाषाके अधिक स्वच्छंद तथा सुनम्य रूपोंमें ग्रथित थे । अथवा यह भी हो सकता
1. वेद में स्वयं सतत रूप से ''प्राचीन" और ''नवीन'' (पूर्व...नूतन) ॠषियों का वर्णन आया है, इनमेंसे प्राचीन इतने अधिक पर्याप्त दूर हैं कि उन्हें एक प्रकार के अर्ध-देवता, ज्ञानके प्रथम संस्थापक समझना चाहिये ।
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है कि इसकी प्रार्थनाओंका संपूर्ण विशाल समुदाय आर्योंके अधिक विविधतया समद्ध भूतकालीन वाछङ्यमेंसे वेदव्यासके द्वारा किया गया .केवल एक संग्रह हो । प्रचलित विश्वासफे अनुसार उस परंपरागत महर्षि कृष्ण द्वैपायन, उस महान्. संहिताकार (व्यास) के. द्वारा कलियुगके आरंभकी ओर, बढ्ती हुई संध्याकी 'तथा उत्तरवर्ती अंघकारकी शताब्दियोंकी ओर, मुंह मोड़कर बनाया हुआ यह संग्रह शायद दिव्य अंतर्ज्ञानंके युगकी, पूर्वजोंकी ज्योतिर्मयी उषाओंकी केवल अंतिम ही वसीयत है जो अपने वंशजोंको दी गयी है, उस. मानव-जातिको दी गयी है जो पहलेसे ही आत्मामें निम्नतर स्तरोंकी ओर तथा भौतिक जीवनकी, बुद्धि और तर्कशास्त्रकी थुक्तियोंकी अधिक सुगम और सुरक्षित-शायद केवल दीखनेमें ही सुरक्षित-प्राप्तियोंकी ओर .मुख मोड़ रही थी ।
परंतु थे केवल कल्पनाएँ और अनुमान ही हैं । निश्चित तो इतना ही है कि मानव विकासक्रमके नियमके. अनुसार. जो यह माना जाता है कि वेद उत्तरोत्तर अंघकारमें आते गये और उनका विलोप होता गया, यह बात घटनाओंसे पूरी तौरपर प्रमाणित .होती है । यह वेदोंका अंधकारमें आना पहलेसे ही प्रारंभ हो चुका था, उससे बहुत पहले जब कि भारतीय आध्यात्मिकताका अगला महान् युग; वैदांतिक युग, आरंभ हुआ, जिसने उस समयकी परिस्थितियोंके अनुसार इस पुरातन ज्ञानके यथासंभव अधिकसे अधिक अंशको सुरक्षित या पुनः प्राप्त. करनेके लिये संघर्ष किा ।. और तब कुछ और हो सकना प्रायः असंभव ही था .। क्योंकि वैदिक रहस्यवादियोंका सिद्धांत अनुभूतियोंपर आश्रित था । ये अनुभूतियाँ साधारण मनुष्यके लिये बड़ी कठिन होती हैं और रहस्यवादियोंको ये उन शक्तियोंकी सहायतासे होती थीं, जो हममेंसे बहुतोंके अंदर. केवल प्रारंभिक अवस्थामें होती हैं और अभी अधूरी विकसित हैं । .ये शक्तियाँ यदि कभी हमारे अंदर सक्रिय होती भी हैं तो मिले-जुले रूपमें ही और अतएव थे अपने व्यापारमें अनियमित होती हैं । एवं एक बार जब सत्यके अन्वेषणकी प्रथम तीव्रता समाप्त हो चुकी, तो उसके बाद थकावट और शिथिलताका काल. बीचमें आना अनिवार्य था, जिस कालमें पुरातन सत्य आंशिक रूपसे लुप्त हो ही जाने थे । और एक. बार लुप्त हो जानेपर वे प्राचीन सूक्तोंके आशयकी छानबीनके द्वारा आसानीसे पुनरुज्यीवित नहीं किये आ सकते थे; क्योंकि वे सूक्त ऐसी भाषामें ग्रथित थे जो जानबूझकर संदिग्धार्थक रखी गयी थी ।.
एक ऐसी भाषा भी जो हमारी समझके बाहर है, ठीक-ठीक समझमें
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आ सकती है यदि एक बार उसका मूलसूत्र पता लग जाय; पर एक भाषा जो जानबूझकर संदिग्धार्थक रखी गयी है, अपने रहस्यको अपेक्षाकृत अधिक : दृढ़ता और सफलताके साथ छिपाये. रख सकती है, क्योंकी यह उनं प्रलोभनों और निर्देशोसे भरी रहती है जो भटका देते 'हैं । इसलिये जब भारतीय मन फिरसे वेदके आशयके अनुसंधानकी ओर मुडा तो यह कार्य दुस्तर था और इसमें जो कुछ सफलता मिली. वह केवल आंशिक थी । प्रकाशका. एक स्रोत अब भी विद्यमान था, अर्थात् वह परंपरागत ज्ञान जो उनके हाथमें था जिन्होंने मूलवेदको कण्ठस्थ कर रखा था और जो उसकी व्याख्या करते थे, अथवा जिनके जिम्मे वैदिक कर्मकाण्ड था-ये दोनों कार्य प्रारभमें एक ही थे, क्योंकि पुराने दिनोंमें जो पुरोहित होता था वही शिक्षक और द्रष्टा भी होता था । परंतु इस प्रकाशकी स्पष्टता पहलेसे ही धुँधली हो चुकी थी । बड़ी ख्याति पाये हुए पुरोहित भी जिन शब्दोंका वे बार-बार पाठ करते थे, उन पवित्र शब्दोंकी शक्ति और उनके अर्थका बहुत ही अधूरा ज्ञान रखते हुए याज्ञिक क्रियाऍ करते थे । क्योंकि वैदिक पूजाके भौतिक रूप बढ़कर. आंतरिक ज्ञानके ऊपर एक मोटी तहके रूपमें चढ़ गये थे और वे .उसीका गला धोंट रहे थे जिसकी. किसी समय वे रक्षा करनेका काम करते थे । वेद पहले. ही गाथाओं और यज्ञविधियोंका एक समुदाय बन चुका था । इसकी शक्ति प्रतीकात्मक विधियोंके पीछेसे ओझल होने लग गयी थी; रहस्यमय अलंकारोंमें जो प्रकाश था वह उनसे पृथक् हो चुका था और केवल एक प्रत्यक्ष असंबद्धता और कलारहित सरलताका ऊपरी स्तर ही अवशिष्ट रह गया था ।
ब्राह्मणग्रन्ध और उपनिषदें उस एक जबरदस्त पुनरुज्वीवनके लेखचिह्न हैं जो मूलवेद तथा कर्मकाण्डको आधार रखकर प्रारंभ हुआ और जो. आध्यात्मिक विचार तथा अनुभवको एक नवीन रूपमें लेखबद्ध करनेके लिये था । इस पुनरुज्यीवनके ये दो परस्परपूरक रूप थे, एक था कर्मकाण्डसंबंधी विधियोंकी रक्षा. और दूसरा वेदकी आत्माका पुन: प्रकाश-पहलेके द्योतक हैं ब्राह्मणग्रन्थ1, दूसरेकी उपनिषदें ।
ब्राह्यणग्रन्ध वैदिक कर्मकाण्डकी सूक्ष्म विधियोंको, उनकी भौतिक फलोत्पादकताकी शर्तोंको, उनके विविध अंगों, क्रियाओं व उपकरणोंके प्रतीकात्मक अर्थ और प्रयोजनको, यज्ञके लिये जो महत्त्वपूर्ण मूल मंत्र हैं
1. निश्चय ही,ये तथा इस अध्यायमें किये गये दूसरे विवेचन कुछ मुख्य प्रवृत्तियों के सारभूत .और संक्षिप्त आलोचन ही हैं । उदाहरणत: ब्राह्यणग्रथों में हम दार्शनिक संदर्भ भी पाते हैं ।
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उनके तात्परर्यको धुँधले संकेतोंके आशयको तथा पुरातन गाथाओं और परिपाटियोंकी स्मृतिको नियत और सुरक्षित करनेका प्रयत्न करते हैं । उनमें आनेवाले कथानकोंमेसे बहुत-से तो स्पष्ट ही मंत्रोंकी अपेक्षा उत्तरकालके हैं, जिनका आविष्कार उन संदर्भोंका स्पष्टीकरण करनेके लिये किया गया था जो तब समक्षमें नहीं आते थे, दूसरे कथानक संभवत: मूलगाथा और अलंकारकी उस सामग्रीके अंग है जो प्राचीन प्रतीकवादियोंके द्वारा प्रयुक्तकी गयी थी, अथवा उन वास्तविक ऐतिहासिक परिस्थितियोंकी स्मृतियां हैं जिनके वीचमें सूक्तोंका निर्माण हुआ था ।
मौखिक रूपसे चली आ रही परंपरा सदा एक ऐसा प्रकाश होती है जो वस्तुको धुँधला दिखाता है; जब एक नया प्रतीकवाद उस प्राचीन प्रतीकवादपर कार्य. करता है, जो कि आधा लुप्त हो चुका है, तो संभवत: वह उसे प्रकाशमें लानेकी अपेक्षा उसके ऊपर उगकर उसे अधिक आच्छादित ही कर देता है । इसलिये .वाह्मणग्रन्थ यद्यपि बहुत-से मनोरंजक संकेतोंसे भरें हुए हैं, फिर भी हमारे अनुसंधानमें वे हमें बहुत ही थोड़ी सहायता पहुँचाते हैं, न ही वे पृथक् मूलमंत्रोंके अर्थके लियें एक सुरक्षित पथप्रदर्शक होते हैं जब कि वे मंत्रोंकी एक यथातथ और शाब्दिक व्याख्या .करनेका प्रयत्न करते हैं ।
उपनिषदोंके ऋषियोंने एक दूसरी प्रणालीका अनुसरण किया । उन्होंने विलुप्त हुए या क्षीण होते हुए ज्ञानको ध्यान-समाधि तथा आध्यात्मिक अनुभूतिके द्वारा पुनरुज्जीवित करनेका यत्न किया और प्राचीन मंत्रोंके मूलग्रन्य (मूलवेद ) को अपने निजी अन्तर्ज्ञान तथा .अनुभवोंके लिये आधार या प्रमाणके रूपमें प्रयुक्त किया, अथवा यूं कहें कि वेदवचन उनके विचार और दर्शनके लिये एक बीज था, जिससे कि उन्होंने पुरातन सत्योंको नवीन रूपोंमें पुनरुज्जीवित किया । .
जो कुछ उन्होंने पाया उसे उन्होंने, ऐसी दूसरी परिभाषाओंमें व्यक्तकर दिया जो उस युगके लिये जिसमें वे रहते थे अपेक्षाकृत अधिक समझमें आने योग्य थीं । एक अर्थमें उनका वेदमंत्रोंको हाथमें लेना बिल्कुल निःस्वार्थ नहीं था, इसमें विद्वान् ऋषिकी वह सतर्क सूक्ष्मदर्शिनी इच्छा नियन्त्रण नहीं कर रही थी जिससे वह शब्दोंके यथार्थ भाव तक और वाक्योंकी वास्तव रचनामें उनके ठीक-ठीक विचारतक पहुँचनेका यत्न करता है । वे शाब्दिक सत्यकी अपेक्षा एक उच्चतर सत्यके अन्वेषक थे और शब्दोंका प्रयोग केवल उस प्रकाशके संकेतके रूपमें करते थे जिसकी ओर वे जानेका प्रयत्न कर रहे थे । वे शब्दोंके उनकी व्युत्पत्तिसे बने अर्थोंको या तो जानते ही नहीं थे या उनकी उपेक्षा कर देते थे और बहुधा वे शब्दोंकी घटक अक्षरध्वनियोंको
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लेकर प्रतीकात्मक व्याख्या करनेकी सरणि का ही प्रयोग करते थे, जिसमें उन्हें समझना बड़ा कठिनि पड़ जाता है ।
इस कारणसे, उपनिषदें जहाँ इसलिये अमूल्य है कि वे प्रधान विचारोंपर तथा प्राचीन ॠषियोंकी आध्यात्मिक पद्धतिपर प्रकाश डालती हैं, वहाँ के जिन वेदमंत्रोंको उद्घृत करती हैं उनके यथार्थ आशयको निश्चित करनेमें हमारे लिये उतनी ही कम सहायक हैं जितने ब्राह्यण-ग्रन्थ । उनका असलीं कार्य वेदान्तकी स्थापना करना था, न कि वेद की व्याख्या करना ।
इस महान् आन्दोलनका फल हुआ विचार और आध्यात्मिकता एक नवीन तथा अपेक्षाकृत अधिक स्थिर शक्तिशाली स्थापना, वेदकी वेदान्तमें परिसमाप्ति । और इसके अन्दर दो ऐसी प्रबल प्रवृत्तियाँ विद्यमान थीं जिन्होंने पुरातन वैदिक विचार तथा संस्कृतिके विघटनकी दिशामें कार्य किया । प्रथम यह कि इसकी प्रवृत्ति बाह्य कर्मकाण्डको, मंत्र और यज्ञकी भौतिक उपयोगिताको अधिकाधिक गौणै करके अधिक विशुद्ध रूपसे आध्यात्मिक लक्ष्य और अभिप्रायको प्रधानता देनेकी थी । प्राचीन रहस्यवादियोंमे बाह्य और आभ्यन्तर, भौतिक और आत्मिक जीवनमें जो समन्वय, जो समन्वय कर रखा था, उसे स्थानचुत और अस्तव्यस्त कर दिया गया । एक नवीन संतुलन, एक नवीन समन्वय स्थापित किया गया जो अन्ततोगत्वा संन्यास और त्यागकी ओर झुक गया और उसने अपने-आपको तबतक कायम रखा, जबतक वह समय आनेपर बौद्धधर्ममें आयी, हुई उसकी अपनी ही प्रवृत्तियोंकी अतिके द्वारा स्थानच्युत और अस्तव्यस्त नहीं कर दिया वया ।
. यज्ञ, प्रतीकात्मक कर्मकाण्ड अधिकाथिक. निरर्थक-सा अवशेष और यहाँतक कि भारभूत हो गये तो भी, जैसा कि प्राय: हुआ करता है, यन्त्रवत् और निष्फल हो जानेका ही परिणाम यह हुआ कि उनकी प्रत्येक बाह्यसे बाह्य, वस्तुकी भी महत्ताको वढ़ा-बढ़ाकर कहा जाने लगा और उनकी सूक्ष्म विधियों को राष्ट्र-मनके उस भाग द्वारा जो अब तक उनसे चिपटा हुआ था, बिना युक्तिके ही बल-पूर्वक थोपा जाने लगा । वेद और वेदान्तके बीच एक तीव्र व्यावहारिक भेद अस्तित्वमें आया, जो क्रियामे था यद्यपि सिद्धान्त-रूपसे कभी भी पूर्णत: स्वीकार नहीं किया गया, जिसे इस सूत्रमें व्यक्त किया आ सकता है '' वेद पुरोहितोंके लिये, वेदान्त सन्तोंके लिये'' ।
वैदान्तिक हलचलकी दूसरी प्रवृत्ति थी अपने-आपको प्रतीकात्मक भाषाके भारसे क्रमशः मुक्त करना, अपने ऊपरसे स्थूल गाथाओं और कवितात्मक अलंकारोके उस पर्देको हटाना, जिसमें रस्यवादियोंने अपने विचारको छिपा रखा था और उसका स्थान एक अधिक स्पष्ट प्रतिपादन और अपेक्षाकृत
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अधिक दार्शनिक भाषाको प्रदान करना । इस प्रवृत्तिके पूर्ण विकासने न केवल वैदिक कर्मकाण्डकी बल्कि मूल वेदकी भी उपयोगिताको विलुप्त कर दिया । उपनिषदें जिनकी भाषा बहुत ही स्पष्ट और सीधी-सादी थी सर्वोच्च भारतीय विचारका मुख्य. स्रोत हो गयीं और उन्होंने. वसिष्ठ तथा विश्वामित्रकी अन्त:श्रुत ॠचाओंका स्थान ने लिया ।1
वेद शिक्षाके अनिवार्य आधारके रूपमें क्रमशः: कम और कम बरते जानेके कारण अब वैसे उत्साह और बुद्धिचातुर्यके साथ पढ़े जाने बंद हो गये थे; उनकी प्रतीकमय भाषाने, प्रयोसमें न आनेसे नयी सन्ततिके आगे अपने आन्तरिक आशयके अवशेषको भी खो दिया, जिस सन्ततिकी सारी ही विचारप्रणाली वैदिक पूर्वजोंकी प्रणालीसे भिन्न थी । दिव्य अन्तर्ज्ञान के युग बीत रहे थे और उनके स्थान पर तर्कके युगकी प्रथम उषा का आविर्भाव हो रहा था ।
बौद्धघर्मने इस क्रान्तिको पूर्ण किया और प्राचीन युगकी बाह्य परिपाटियोंमसे केवल कुछ एक अत्यादृत आडम्बर और कुछ एक यन्त्रवत् चलती हुई रूढियाँ ही अवशिष्ट रह गयीं । इसने वैदिक यज्ञको लुप्त कर देना चाहा और साहित्यिक भाषाके स्थानपर प्रचलित लोक-भाषाको प्रयोगमें लानेका यत्न किया । और यद्यपि इसके कार्यकी पूर्णता, पौराणिक सम्प्रदायोंमें हिन्दूधर्मके पुनरुज्जीवन के कारण, कई शताब्दियों तक रुकी रही, तो भी वेदने स्वयं इस अवकाशसे न के बराबर ही लाभ उठाया । नये धर्मके प्रचारका विरोध करनेके लिये यह आवश्यक था कि पूज्य किन्तु दुर्बोध मुल वेदके स्थानपर ऐसी घर्म-पुस्तकें सामने लायी जायँ जो अपेक्षाकृत अधिक अर्वाचीन संस्कृतमें सरल रूपमें लिखी गयी हों । ऐसी परिस्थितिमें देशके सर्वसाधारण लोगोंके लिये पुराणोंने वेदोंको एक तरफ धकेल दिया और नवीन धार्मिक पूजा-पाठके तरीकोंने पुरातन विधियोंका स्थान ले लिया । जैसे वेद ऋषियोंके हाथसे पुरोहितोंके पास पहुंचा था, वैसे ही अब यह पुरोहितोंके हाथसे निकलकर पण्डितोंके हाथमें जाना शुरू हो गया । और उस रक्षणमें इसने अपने अर्थोंके अन्तिम अंगच्छेदनको और अपनी सच्ची शान और पवित्रताकी अन्तिम हानि को सहा ।
यह बात नहीं कि वेदोंका यह पण्डितोंके हाथमें जाना और भारतीय
1. यहां फिर इस कथनसे मुख्य प्रवृत्ति ही सूचित होती है ओर इसे कुछ विशेषणोंसे सीमित करनेकी अपेक्षा है । वेदोंको प्रमाण-रूपसे भी उदृत किया गया है, पर सर्वांगरूपसे कहें तो उपनिषदें ही अपेक्षाकृत ज्ञानके ग्रन्थ बन गयीं, वेद अपेक्षाकृत कर्मकाण्डकी पुसतक ही रह गया ।
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पाण्डित्यका वेदमन्त्रोंके. साथ व्यवहार, जो ईसा पूर्वर्की शताब्दियोंसे प्रारम्भ हो गया था; सर्वथा एक घाटेका ही लेखा हो । 'इसकी अपेक्षा ठीक तो यह है कि पण्डितोंके सतर्क अध्यवसाय तथा उनकी प्राचीनताको रक्षित रखने और नवीनतामें अप्रीतिकी परिपाटीके हम ऋणी हैं कि उन्होंने वेदकी सुरक्षा की, इस बातके बावजूद भी रक्षा की कि इसका रहस्य लुप्त हो चुका था और वेदमन्त्र स्वयं क्रियात्मक रूपमें एक सजीव घर्मशास्त्र समझे जाने बन्द हो गये थे | और साथ ही लुप्त रहस्यके पुनरुज्यीवनके लिये भी पाण्डित्यपूर्ण कट्टरताके ये दो सहस्र वर्ष हमारे लिये कुछ अमूल्य सहायतायें छोड़ गये हैं अर्थात् मूल वेदोंके संहिता आदि पाठ जिनके ठीक-ठीक स्वर-चिह्न बड़ी सतर्कताके साथ निश्चित किये हुए हैं, यास्कका महत्वपूर्ण कोष और सायणका वह विस्तृत भाष्य जो अनेक और प्रायः चौंका देनेवाली अपूर्णताओके होते हुए भी अन्वेषक विद्वान्के लिये गंभीर वैदिक शिक्षाके निर्माणकी ओर एक अनिवार्य पहला कदम है |
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वैदिक विद्वान्
जो मूल वेद इस समय हमारे पास है उसमें दो सहस्र वर्षोंसे अधिक कालसे कोई विकार नहीं आया है । जहाँतक हम जानते हैं, इसका काल भारतीय बौद्धिक प्रगतिके उस महान् युगसे प्रारम्भ होता है जो यूनानके संविकासके समकालीन किंतु अपने प्रारंभिक रूपोंमें इससे पहलेका है और जिसने देशके संस्कृत-साहित्यमें लेखबद्ध पायी जानेवाली संस्कृति और सभ्यताकी नींव डाली । हम नहीं कह सकते कि इससे कितनी अधिक प्राचीन तिथि तक हमारे इस मूल वे वेदको ले जाया जा सकता है । पर कुछ ऐसे विचार हैं, जो इसके विषयमें हमारे इस मन्तव्यको प्रमाणित करते हैं कि यह अत्यन्त ही प्राचीन कालका होना चाहिये । वेदका एक शुद्धग्रंथ जिसका प्रत्येक अक्षर शुद्ध हो, प्रत्येक स्वर शुद्ध हो, वैदिक कर्मकाण्डियोंके लिये बहुत ही अधिक महत्त्वका विषय था, क्योंकि सतर्कतायुक्त शुद्धतापर ही यज्ञकी फलोत्पादकता निर्भर थी । उदाहरणस्वरूप ब्राह्मण-ग्रन्थोंमें हमें त्वष्टाकी कथा मिलती है कि वह इस उद्देश्यसे यज्ञकर रहा था कि इन्द्रसे उसके पुत्रवधका बदला लेनेवाला कोई उत्पन्न हो, पर स्वरकी एक अशुद्धिके कारण इन्द्रका वघ करनेवाला तो पैदा नहीं हुआ, किन्तु वह पैदा हो गया जिसका कि इन्द्र वघ करनेवाला बने । प्राचीन भारतीय स्मृति-शक्तिकी असाधारण शुद्धता भी लोकविश्रुत है । और वेदके साथ जो पवित्रताकी भावना जुड़ी हुई है उसके कारण इसमें वैसे प्रक्षेप, परिवर्तन, नवीन संस्करण नहीं हो सके, जैसोंके कारण कि. कुरुवंशियोंका प्राचीन महाकाव्य वदलता-बदलता महाभारतके वर्तमान रूपमें आ गया है । इसलिये यह सर्वथा सम्भव है कि हमारे पास व्यासकी संहिता साररूपमें वैसीकी वैसी हो जैसा कि इसे उस महान् ऋषि और संग्रहीताने क्रमबद्ध किया था ।
मैंने कहा है 'साररूपमें', न कि इसके वर्तमान लिखित रूप में । क्योंकि वैदिक छन्द:शास्त्र कई अंशोंमें संस्कृतके छन्द:शास्त्रसे भिन्नता रखता था
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और विशेषफर पृथक्-पृथक् शब्दोंकी सन्धि करनेके नियमोंको जो की साहित्यिक भाषाका एक विशेष अंग हैं, बड़ी स्वच्छन्दताके साथ काममें लाता था । वैदिक ऋषि, जैसा कि एक जीवित भाषामें होना स्वाभाविक ही था, नियत नियमोंकी अपेक्षा श्रुतिका ही अधिक अनुसरण करते थे; कभी वे पृथक् शब्दोमें सन्धि कर देते थे और कभी वे उन्हें बिना सन्धि किये वैसे ही रहने देते थे । परन्तु जब वेदका लिखित रूपमें आना शुरू हुआ, तब सन्धिके नियमका भाषाके ऊपर और भी अघिक निष्प्रतिबन्ध आघिपत्य हो गया और प्राचीन मूल वेदको वैयाकरणोंने, जहाँतक हो सका, इसके नियमोंके अनुकूल बनाकर लिखा । फिर भी, इस बातमें वे सचेत रहे कि इस संहिताके साथ उन्होंने एक दूसरा ग्रन्थ भी बना दिया, जिसे 'पदपाठ' कहा जाता है और जिसमें सन्विके द्वारा संयुक्त सभी शब्दोंका फिरसे उनके मूल तथा पृथक्-पृथक् शब्दोंमें सन्धिच्छेद कर दिया गया है और यहाँतक कि समस्त शब्दके अंगभूत पदोंका भी निर्देश कर दिया गया है ।
वेदोंको स्मरण रखनेवाले प्राचीन पण्डितोंकी वेदभक्तिके विषयमें यह एक बड़ी उल्लेखयोग्य प्रशंसाकी बात है कि उस अव्यवस्थाके स्थान पर जो इस वैदिक रचनामें बड़ी आसानीसे पैदा की जा सकती थी, यह सदा पूर्ण रूपसे आसान रहा है कि इस संहितात्मक वेदको वैदिक छन्द:शास्त्रफे अनुसार मौलिक स्वर-संगुतियोमें परिणत किया जा सके । और बहुत ही कम ऐसे उदाहरण हैं जिनमें पदपाठकी यथार्थता अथवा उसके युक्तियुक्त निर्णयपर आपत्ति उठायी जा सके ।
तो, हमारे पास अपने आधारके रूपमें वेदका एक ग्रन्थ है जिसे हम विश्वासके साथ स्वीकार कर सकते हैं, और चाहे इसे हम कुछ थोड़ेसे अवसरोंपर सन्दिग्ध या दोषयुक्त भी क्यों न पाते हों, यह किसी प्रकारसे भी संशोधनके उस प्रायः उच्छृंखल प्रयत्नके योग्य नहीं है जिसके लिये कुछ यूरोपियन विद्वान् अपने-आपको .प्रस्तुत करते हैं । प्रथम तो यही एक अमूल्य लाभ है जिसके लिये हम प्राचीन भारतीय पाण्डित्यकी सत्यनिष्ठाके प्रति जितने कृतज्ञ हों, उतना ही थोड़ा है ।
कुछ अन्य दिशाओंमें, जैसे वैदिक सूक्तोंके उनके ऋषियोंके साथ संबंघम जहां कहीं प्राचीन परंपरा पुष्ट और युक्तियुक्त नहीं है वहाँ, संभवत: यह सर्वदा सुरक्षित नहीं होगा कि पण्डितोंकी परंपराका हमेशा निर्विवाद रूपसे अनुसरण किया जाय । परंतु ये सब ब्योरेकी बातें हैं जो बहुत ही कम महत्त्वकी हैं । न ही मेरी दृष्टिमें इसमें सन्देह करनेका कोई युक्तियुक्त कारण है कि वेदके सूक्त अधिकतर अपनी ॠचाओंके सही क्रममें और
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अपनी यथार्थ सम्पूर्णतामें बद्ध हैं । अपवाद यदि कोई हों भी तो वे संख्या और महत्त्वकी दृष्टिसे उपेक्षणीय हैं । जब सूक्त हमें असंबद्धसे प्रतीत होते हैं, तो उसका कारण यह होता है कि ये हमारी समझमें नहीं आ रहे होते । एक बार जब मूल सूत्र हाथ लग जाय, तो हम पाते हैं कि वे पूर्ण अवयवी हैं, जो जैसे कि अपनी भाषा और अपने छन्दोंमें वैसे ही अपनी विचार-रचनामें भी आश्चर्यजनक हैं ।
किंतु जब हम वेदकी व्याख्याकी ओर आते हैं और इसमें प्राचीन भारतीय पाण्डित्यसे सहायता लेना चाहते हैं, तो हम अधिकसे अधिक संकोच करनेके लिये अपनेको बाध्य अनुभव करते हैं । क्योंकि प्रथम श्रेणीके पाण्डित्यके प्राचीनतर कालमें भी वेदोंके विषयमें कर्मकाण्डपरक दृष्टिकोण पहलेसे ही प्रधान था, शब्दोंका, पंक्तियोंका, संकेतोंका मौलिक अर्थ तथा विचार-रचना का मूल सूत्र चिरकालसे लुप्त हो चुका था या धुंधला पड़ गया था, न ही उस समय के विद्वान्में वह अन्तर्ज्ञान या वह आध्यात्मिक अनुभूति थी जो लुप्त रहस्यको अंशत: पुनरुज्जीवित कर सके | ऐसे क्षेत्रमें केवलमात्र पाण्डित्य जितनी बार पथप्रदर्शक होता है, उतनी ही बार उलझानेवाला जाल भी बन जाता है, विशेषकर तब जब कि इसके पीछे एक कुशल विद्वत्तशाली मन हो ।
यास्कके कोषमें; जो हमारे लिये सबसे आवश्यक सहायता है, हमें दो बहुत ही असमान मूल्यवालें अंगोंमें भेद करना चाहिये । जब यास्क एक कोषकारकी हैसियतसे वैदिक शब्दोंके विविध अर्थोंको देता है, तो उसकी प्रामाणिकता बहुत बड़ी है और जो सहायता वह देता है वह प्रथम महत्त्वकी हैं । यह प्रतीत नहीं होता कि वह सभी प्राचीन अर्थोंपर अधिकार रखता था क्योंकि उनमेंसे बहुतसे अर्थ काकक्रमसे और युगपरिवर्तनके कारण विलुप्त हो चुके थे और एक वैज्ञानिक भाषाविज्ञानकी अनुपस्थितिमें उन्हें फिरसे प्राप्त नहीं किया जा सकता था । पर फिर भी परम्पराके द्वारा बहुत कुछ सुरक्षित था । जहां कहीं यास्क इस परम्पराको कायम रखता है और एक व्याकरणज्ञकें बुद्धिकौशलको काममें नहीं लाता, वहाँ वह शब्दोंके जो अर्थ निश्चित करता है, वे चाहे, जिन मंत्रोंके लिये वह उनका निर्देश करता है उनमें सदा न भी लग सकते हों, फिर भी युक्तियुक्त भाषाविज्ञानके द्वारा इसकी पुष्टि की जा सकती है कि वे अर्थ संगत हैं । परन्तु निरुक्ति-कार यास्क कोषकार यास्ककी कोटिमें नहीं आता । वैज्ञानिक व्याकरण पहले-पहल भारतीय पाण्डित्यके द्वारा विकसित हुआ, परन्तु सुव्यस्थित भाषा-विज्ञानके प्रारंभके लिये हम आघुनिक अनुसंधानके ऋणी हैं । प्राचीन निरुक्तकारोंसे लेकर 19वीं शताब्दीतक भी भाषाविज्ञानमें केवलमात्र
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बुद्धिकौशलकी जो प्रणालियां प्रयुक्त की गयी हैं, चाहे वे योरूपमें की गयी .हों, चाहे भारतमें, उनसे अघिक मनमौजी तथा नियमरहित अन्य कुछ नहीं हो सकता । और जब यास्क इन प्रणालियोंका अनुसरण करता है तो हम सर्वथा उसका साथ छोड़नेके लिये बाध्य हो जाते हैं । न ही वह किन्हीं अमुक-अमुक मन्त्रोंकी अपनी व्याख्यामें उत्तरकालीन सायणके पाण्डित्यकी अपेक्षा अधिक विश्वासोत्पादक है ।
सायणका भाष्य वेदपर मौलिक तथा सजीव पाण्डित्यपूर्ण कार्यके उस युगको समाप्त करता है, जिसका प्रारंभक अन्य महत्त्वपूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थोके साथमें यास्कके, निरुक्तको कहा जा सकता है । यह कोष (यास्फका निघण्टु-निरुक्त) भारतीय मनके प्रारंभिक उत्साहके दिनोंमें संगृहीत किया गया था, जब कि भारतीय मन मौलिकताके एक नवीन उद्भवके लिये साधनोके रूपमें प्रागैतिहासिक प्राप्तियोंको संचित करनेमें लगा हुआ था । यह भाष्य (सायणका वेदभाष्य ) अपने प्रकारका लगभग एक अंतिम महान् प्रयत्न है, जिसे पाण्डित्यपरंपरा दक्षिण भारतमें अपने अंतिम अवलंब और केंद्रके रूपमें हमारे लिये छोड़ गयी थी, इसके बाद तो पुरातन संस्कृति मुसलिम विजयके धक्केके द्वारा अपने स्थानसे च्छुत हुई और टूटकर भिन्न-भिन्न प्रादेशिक खण्डोंमें बंट गयी । और फिर तबसे समय-समयपर दृढ़ और मौलिक प्रयत्न कहीं-कहीं फुट निकलते रहे हैं, नयी रचना और नवीन संघटनके लिये बिखरे हुए यत्न भी किये गये है पर बिलकुल इस प्रकारका सर्वसाधारण, महान् तथा स्मारकभूत कार्य नहीं ही तैयार हो सका ।
भूतकालकी इस महान् वसीयतकी प्रभावशालिनी विशेषताएं स्पष्ट ही हैं । उस समयके विद्वान्-से-विद्वान् पण्डितोंकी सहायतासे सायणके द्वारा निर्माण किया गया यह एक ऐसा ग्रन्थ है तो पाण्डित्यके एक बहुत ही महान् प्रयासका द्योतक है शायद ऐसे किसी भी प्रयाससे अघिक जो उस कालमें किसी अकेले मस्तिष्कके द्वारा प्रयुक्त किया जा सकता था । फिर भी इसंपर, सब वैषम्य, हटाकर एक प्रकारकी समरसता ले आनेवाले मन की छाप दिखाई देती है । समूहरूपमें यह संगत है, यद्यपि विस्तारमें जानेपर इसमें कई असंगतियां दीखती है । वह एक विशाल योजनाके अनुसार पर बहुत ही सरल तरीकेसे बना हुआ है, एक ऐसी शैलीमें रचा गया है जो स्पष्ट है, संक्षिप्त है और लगभग एक ऐसी साहित्यिक छटासे युक्त है जिसे भारतीय भाष्य करनेकी परंपरागत प्रणालीमें कोई असंभव ही समझता । इसमें कहींपर भी विघावलेपका दिखाया नहीं है, मंत्रोंमें उपस्थित होनेवाली कठिनाईके साथ जो संघर्ष होता उसपर बड़े चातुर्यके साथ पर्दा डाला
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गया है और इसमें एक स्पष्ट कुशाग्रताका तथा एक विश्वासपूर्ण, पर फिर भी सरल प्रामाणिताका भाव है, जो अविश्वासीपर भी अपनी छाप डाल देता है । युरोपके सर्वप्रथम वैदिक विद्वानोंने सायणकी व्याख्याओंमें यक्तियुक्तताकि विशेष रूपसे प्रशंसा की है ।
तो भी वेदके बाह्य अर्थके लिये भी यह संभव नहीं है कि सायणकी प्रणालीका या उसके परिणामोंका बिना बड़े-से-बड़े संकोचके अनुसरण किया जाय । यही नहीं कि वह अपनी प्रणालीमें भाषा और रचनाकी ऐसी स्वच्छंदता स्वीकार करता है जो अनावश्यक है और कभीकभी अविश्वनीय भी होती है, न केवल यही है कि वह बहुघा अपने परिणामोंपर पहुँचनेके लिये सामान्य वैदिक परिभाषाओंकी और नियत वैदिक सूत्रों तककी अपनी व्याख्यामें आश्चर्यजनक असंगति दिखाता है । थे तो व्योरेकी तृटियाँ हैं, जो संभवत:.उस सामग्रीकी अवस्थामें जिससे उसने कार्य शुरू किया था, अनिवार्य थीं । परंतु सायणकी प्रणालीकी केंद्रीय तृटि यह है कि वह सदा कर्मकाण्ड-दिघिमें ही ग्रस्त रहता है और निरंतर वेदके आशयको बलपूर्वक कर्मकाण्डके संकुचित सांचेमें डालकर वैसा ही रूप देनेका यत्न करता है । इसलिये वह उन बहुतसे मूल सूत्रोंको खो देता है जो इस पुरातन घर्मपुस्तकके बाह्य अर्थके लिये-जो बिलकुल वैसा ही रोचक प्रश्न है जैसा कि इसका आंतरिक अर्थ-बहुत बड़े निर्देश दे सकते है और .बहुत ही महत्त्वके हैं । परिणामत: सायणभाष्य द्वारा ऋषियोंका, उनके विचारोंका, उनकी सांस्कृतिका, उनकी अभीप्साओंका एक ऐसा प्रतिनिघित्व हुआ है जो इतना संकुचित और दारिद्रयोपहत है कि यदि उसे स्वीकार कर किया जाय, तो वह वेदके संबधंमें प्राचीन पूजाभावको, इसकी पवित्र प्रमाणिकताको, इसकी दिव्य ख्यातिको बिलकुल अबुद्धिगम्य कर देता है, या उसे इस रूपमें रखता है कि इसकी व्याख्या केवलमात्र यही हो सकती है कि यह उस श्रद्धाकी एक अंधी और बिना ननुनच किये मानी गयी परंपरा है जिस श्रद्धाका प्रारंभ एक मौलिक भूलसे हुआ है ।
इस भाष्यमें अवश्य ही अन्य पहलू और तत्त्व भी हैं, परंतु वे मुख्य विचारके सामने गौण हैं या उसके ही अनुवर्ती हैं । सायण और उसके सहायकों को बहुधा परस्पर टकरानेवाले विचारों और परंपराओंके विशाल समुदायपर जो भूतकालसे आकर तब तक बचा रहा गया था, कार्य करना पड़ा था । इनके तत्त्वोंमेंसे कुछको उन्होंने नियमित स्वीकृति देकर कायम रूखा, दूसरोके लिये उन्होंने छोटी-छोटी छुटें देनेके लिये अपनेको वाध्य अनुभव किया | यह हो सकता है कि पुरानी अनिश्चितता या गड़बड़ तकमेंसे एक ऐसी
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व्याख्यां निकाल लेनेमें .जिसकी स्थिर आकृति हो और जिसमें एकात्मता हो, सायणका के बुद्धि-कौशल है, उसिके कारण उसके कार्यकी यह महान् औंर .चिरकाल तक अशंकित प्रामाणिकता बनी हो |
प्रथम तत्त्व जिससे सायणको वास्ता पड़ा और जो हमारे लिये बहुत अधिक रोचक है, श्रुतिकी प्राचीन आध्यात्मिक, दार्शनिक अथवा मनोवैज्ञानिक व्याख्याओंका अवशेष था, जो इसकी पवित्रताका असली आधार है । उस अंश तक जहाँ तक कि ये प्रचलित अथवा कट्टरपंथी1 (Orthodox) विचारमें प्रविष्ट हो चुकी थीं, सायण उन्हें स्वीकार करता है. परंतु वे उसके भाष्यमें एक अपवादात्मक तत्त्व ही हैं, जो .मात्रा तथा महत्त्व की दृष्टिसे तुच्छ है । कहीं-कहीं प्रसंगवश वह अपेक्षया कम प्रचलित आध्यात्मिक अर्थोंका चलते-चलते जिक्र कर जाता है या उन्हें स्वीकृति दे देता है । उदाहरणतः, उसने 'वृत्र' की उस प्राचीन व्याख्याका उल्लेख किया है, पर उसे स्वीकार करनेके लिये नहीं, जिसमें कि 'वृत्र' वह आच्छादक (आवरक ) है, जो मनुष्यकी कामना और अभीप्सामोंके विषयोंको उसके पास पहुँचनेसे रोके रखतीं है । सायणके लिये 'वृत्र' या तो केवलमात्र शत्रु है या भौतिक मेघरूपी असुर है, जो जलोंको रोक रखता है और जिसका वर्षा करनेवाले (इन्द्र ) को भेदन करना पड़ता है ।
दूसरौ तत्त्व है गाथात्मक या इसे पौराणिक भी कहा जा सकता है- देयताओंकी गाथाएँ और कहानियाँ जो उनके बाह्य रूपमें दी गयी हैं, बिना उस गंभीरतर आशय और प्रतीकात्मक तथ्यके जो समस्त पुराणके2 औचित्यको सिद्ध करनेवाला एक सत्य है ।
तीसरा तत्त्व आख्यानात्मक या ऐतिहासिक है; प्राचीन राआओं और ऋषियोंकी कहानियाँ जो वेदके अस्पष्ट वर्णनोंका स्पष्टीकरण करनेके लिये ब्राह्यणग्रन्थोंमें दी गयी हैं या उत्तरकालीन परंपराके द्वारा आयी हैं । .इस तत्त्वके साथ सायणका बर्ताव कुंछ हिचकिचाहट से एं युक्त है । बहुधा यह उन्हें मंत्रोंकी उचित व्याख्याके ख्यमें ले लेता है; कभी-कभी वह विकल्पके
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1. इस शब्दका मैं शिथिलताके साथ प्रयोग कर खा हूँ। कट्टरपंथी (()rthodox) और धर्मविरोधी (Heterodox) मे पारिभाषिक शब्द यूरोपियन या सांप्रदायिक अर्थ भारतके लिये, जहाँ सम्मति हमेशा स्वतंत्र रही है, सच्चे_अर्थोंमें 'प्रयुक्त नहीं होते ।
2. यह मान लेना युक्तियुक्त है की पुराण ( आख्यान तथा उपाखयान) और इतिहास ( ऐतिहासिक परंपरा ) वैदिक संस्कृतिके ही अंग थे, उससे पूर्वकालसे जब की पुराणोंके और ऐतिहासिक महकाव्योंके वर्त्तमान स्वरूपोंका विकास हुआ |
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तैर पर एक दूसरा अर्थ भी देता है जिसके साथ कि स्पष्ट तौरसे वह अपनी अधिक बौद्धिक सहानुभूति रखता है, परंतु उन दोनोंमेसे किसे प्रमाणिक माने इस विषयमें वह दोलायमान ही रहता है ।
इससे अधिक महत्त्वपूर्ण है प्रकृतिवादी व्याख्या का तत्त्व । न केवल वहां स्पष्ट या परंपरागत तद्रूपताएं हैं, इन्द्र है, मरुत् हैं, त्रित अग्नि है, सूर्य है, उषा है, परंतु हम देखते हैं कि मित्रको दिनके साथ तद्रूप मान लिया गया है, वरुणको रात्रिके साथ, अर्यमा तथा भगको सूर्यके साथ और ऋभूओंको इसकी रश्मियोंके साथ । हम यहां वेदके संबंघमें उस प्रकृतिवादी सिद्धांतके बीज पाते हैं जिसे यूरोपियन पाण्डित्यने बहुत ही बड़ा विस्तार दे दिया है । प्राचीन भारतीय विद्वान् अपनी कल्पनाओंमें वैसी स्वतंत्रता और वैसी क्रमबद्धं सूक्ष्मताका प्रयोग नहीं करते थे । तो भी सायणके भाष्यमें पाया जानेवाला यह तत्त्व ही योरोपके तुलनात्मक गाथाविज्ञानका असली जनक है ।
परंतु जो तत्त्व व्यापक रूपसे सारे भाष्यमें छाया हुआ है वह है कर्मकाण्डका विचार; यही स्थिर स्वर है जिसमें अन्य सब अपने-आपको खो देते हैं । वेदोंकि सूक्त भले :ही ज्ञानके लिये सर्वोच्च प्रमाण-रूपसे उपस्थित हों, तो भी दार्शनिक मतोंके अनुसार वे प्रधान रूपसे और सैद्धांतिक रूप से कर्मकाण्डके साथ, कर्मोंके साथ, संबद्ध हैं और 'कर्मोंसे' समझा जाता था मुख्य. रूपसे वैदिक यज्ञोंका कर्मकाण्डमय अनुष्ठान । सायण सर्वत्र इसी विचारके प्रकाशमें प्रयत्न करता है । इसी साँचेके अन्दर वह. वेदकी. भाषाको ठोक-पिटर ढालता है, इसके विशिष्ट शब्दोंके .समुदायको भोजन, पुरोहित, दक्षिणा देनेवाला धन-दौलत, स्तुति प्रार्थना; यज्ञ बलिदान-इन कर्मकाण्ड-परक अर्थोंका रूप देता है ।
धन-दौलत ( वनम् ) और भोजन ( अन्नम्) इनमें मुख्य हैं । क्योंकि अधिकसे अधिक स्वार्थसाधक तथा भौतिकतम पदार्थ ही यज्ञके ध्येयके तौंरपर चाहे गये हैं, जैसे स्वामित्व, बल, शक्ति, बाल-बच्चे, सेवक, सोना घोड़े गौएँ, विजय, शत्रुओंका वध तथा लूट, प्रतिस्पर्धी तथा विद्धेसी आलोचकका विनाश । जब कोई व्यक्ति पढ़ता है और मन्त्रके बाद मन्त्रको लगातार इसी एक अर्थमें व्याख्या किया हुआ पाता है, तो उसे गीताकी मनोवृत्तिमें उपरसे दिखाई देनेवाली यह असंगति और भी अच्छी तरह समझमें आने लगती है कि गीत एक तरफ तो वेदकी एक दिव्य ज्ञान (गीता 15--15 ) के रूपमें प्रतिष्ठा करती है, फिर भी दूसरी तरफ केवलमात्र उस वेदवादके रक्षकोंका दृढ़ताके साथ तिरस्कार करती है (गीता 2-42) जिसकी सब
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पुष्पित क्षिक्षायें केवल भौतिक धन-दौलत, शक्ति और. भोगका प्रतिपादन करती हैं ।
वेदके सब संभव अर्थोंमेसे इस निम्नतर अर्थके साथ ही वेदको अन्तिम तौरपर और प्रामाणिकतया बांध देना-यह सायणके भाष्यका सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम हुआ । कर्मकाण्डपरक व्याख्याकी प्रघानताने पहले ही भारतवर्षको अपने सर्वश्रेष्ठ धर्मशास्त्र ( वेद) के सजीव उपयोगसे और उपनिषदोंके समस्त आशयको बतानेवाले सच्चे मूलसूत्रसे वंचित कर रखा था । सायणके भाष्यने पुरानी मिथ्या धारणाओंपर प्रामाणिकताकी मुहर लगा दी, जो कई शताब्दियों तक नहीं तोड़ी जा सकी । और इसके दिये हुए निर्देश, उस समय जब कि एक दूसरी सभ्यताने वेदको ढूँढ़कर निकाला और इसका अध्ययन प्रारम्भ किया, यूरोपियन विद्धानोंके मनमें नयी-नयी गलतियोंके कारण बने ।
तथापि यदि सायणफा ग्रन्ध एक ऐसी चाबी है जिसने वेदके आन्तरिक आशयपर दोहरा ताला लगा दिया है, तो भी वह वैदिक शिक्षाकी प्रारम्भिक कोठरियोंको खोलनेके लिये अत्यन्त अनिवार्य है । यूरोपियन पाण्डित्यका सारा-का-सारा विशाल प्रयास भी इसकी उपयोगिताका स्थान लेने योग्य नहीं हो सका है । प्रत्येक पगपर हम इसके साथ मतभेद रुकनेके लिये बाध्य हैं पर प्रत्येक पगपर इसका प्रयोग करनेके लिये भी बाध्य हैं । यह एक आवश्यक. कूदने-का-तख्ता है, या फिर यह एक सीढ़ी है जिसका हमें प्रवेशके लिये उपयोग करना पड़ता है, यद्यपि इसे हमें आवश्यकही पीछे छोड़ देना चाहिये, यदि हम आगे बढकर आन्तरिक अर्थकी गहराईमें गोता लगाना चाहते हैं, मन्दिरके भीतरी भागमें पहुँचना चाहते हैं ।
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तीसरा अध्याय
आधुनिक मत
सायणने वेदकी कर्मकाण्डपरक व्याख्यापर जो अंतिम प्रामाणिकताकी मुहर लगा दी थी उसे कई शताब्दियों बाद एक विदेशी संस्कृतिकी वेदोंके प्रति जिज्ञासाने आकर तोड़ा । वेदकी प्राचीन घर्मपुस्तफ उस पाण्डित्य के हाथमें आयी जो परिश्रमी, विचारमें साहसी, अपनी कल्पनाकी उड़ानमें प्रतिभाशाली, अपने निजी प्रकाशोंके अनुसार सच्चा, परन्तु फिर भी प्राचीन रहस्यवादी कवियोंकी प्रणालीको सझनेके अयोग्य था । क्योंकि यह उस पुरातन स्वभावके साथ किसी प्रकारकी भी सहानुभूति नहीं रखता था, वैदिक अलंकारों और रूपकोंके अंदर छिपे हुए विचारोंको समझनेके लिये अपने वैदिक या आत्मिक वातावरणमें इसके पास कोई मूलसूत्र नहीं था । इसका परिणाम दोहरा हुआ है, एक ओर तो वैदिक. व्याख्याकी समस्याओंपर जहां अधिक स्वाघीनताके साथ वहाँ अघिक सूक्ष्मता, पूर्णता और सावघानताके साथ विचार और दूसरी ओर इसके .बाह्य. भौतिक अर्थकी चरम अतिशयोक्ति तथा इसके असली. और आन्तरिक रह्स्यका अविकल विलोप ।
अपने विचारोंकी साहसिक दृढ़ता तथा अनुसंघान या आविष्कारकी स्वाधीनताके होते हुए भी योरोपके वैदिक पाण्डित्यने वस्तुत: सब जगह अपने-आपको सायणके भाष्यमें रक्खे हुए परम्परागत तत्त्वोंपर ही अवलंबित रखा. है और इस समस्या पर सर्वथा स्वतन्त्र विचार करनेका प्रयत्न नहीं किया है । जो कुछ इसने सायणमें और ब्राह्मणप्रग्रन्थोंमें पाया, उसीका इसने आधुनिक सिद्धांतों और आधुनिक विज्ञानोंके प्रकाशमें लाकर विकसित कर दिया है । भाषाविज्ञान, गाथाशास्त्र और इतिहासमें प्रयुक्त होनेवाली सुलनात्मक प्रणालीसे निकाले हुए गवेषणापूर्ण निगमनोंके द्वारा, प्रतिभाशाली कल्पनाकी सहायतासे विद्यमान विचारोंको विशाल रूप देकर और इघर उघर बिखरे हुए उपलब्ध निर्देशोंको एकत्रित करके इसने वैदिक गायाशास्त्र, वैदिक हतिहास, वैदिक सभ्यताके एक पूर्ण वादको खड़ा कर लिया है, जो अपने ब्योरेकी बातों तथा पूर्णताके द्वारा मोह लेता हैं और अपनी प्रणालीकी ऊपरसे दिखाई देनेवाली निश्चयात्मकताके द्वारा इस वास्तविकतापर पर्दा डाले रखता है कि यह भव्य-भवन अधिकतर कल्पनाकी रेतपर खड़ा हुआ है ।
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वेदके विषयमें आधुनिक सिद्धांत इस विचारसे प्रारम्भ होता है कि वेद एक ऐसे आदिम, जंगली और अत्यधिक बर्बर समाजीक स्तोत्र-संहिता है, जिसके नैतिक तथा धार्मिक विचार असंस्कृत थे, जिसकी सामाजिक रचना असभ्य थी और अपने चारों ओरके जगत्के विषयमें जिसका दृष्टिकोण बिलकुल बच्चोंका सा था । इस विचारके लिये उत्तरदायी है सायण । यज्ञ-यागको सायणने एक दिव्य ज्ञानका अंग तथा एक रहस्यमय प्रभावो-त्पादकसे युक्त स्वीकार किया था, योरोपियन पाण्डित्यने इसे इस रूपमें स्वीकार किया, कि यह उन प्राचीन जंगली शान्तिकरणसंबन्घी यज्ञ-बलिदानोंका श्रम-साधित विस्तृतरूप था, जो काल्पनिक अतिमानुष व्यक्ति-सत्ताओंको समर्पित किये जाते थे, क्योंकि ये सत्ताएँ लोगोंद्वारा की गयी इनकी पूजा या उपेक्षाके अनुसार हितैषी अथवा विद्वेषी हो सकती थीं ।
सायणसे अंगीकृत ऐतिहासिक तत्त्वको उसने तुरन्त ग्रहण कर लिया और मंवोमें आये प्रशंगोंके नये अर्थ और नयी व्याख्याएँ करके उसे विस्तृत रूप दे दिया । ये नये अर्थ और नयी व्याख्याएँ इस प्रबल अभिलाषाको लेकर विकसित की गयी! थीं कि वेदमन्त्र उन बर्बर जातियोंके प्रारम्भिक इतिहास, रीतिरिवाजों तथा उनकी संस्थाओंका पता देनेवाले सिद्ध हो सकें | प्रकृतिवादी तत्त्वने और भी अधिक, महत्त्वका हिस्सा लिया । वैदिक देवताओंका अपेने बाह्य रूपोंमें स्पष्टतया. किन्हीं प्राकृतिक, शक्तियोंके साथ तद्रूताका जो सम्बन्ध है उसका प्रयोग उसने इस रूपमें किया कि उससे आर्यन गाथाशास्रोंके तुलत्मक अध्ययनका प्रारम्भ किया गय ; अपेक्षया कम प्रघान देवतओंमेसे कुछ की, जैसे सूर्य-शक्तियोंकी, जो कुछ संदिग्ध दद्रुपता है, वह इस रूपमें दिखाई गयी कि उससे प्राचीन गाथ-निर्माण किये जानेकी पद्धतिका पता चलता है और तुलनात्मक. गाथाशास्त्रकी बड़े परिश्रमसे बनायी हुई जो सूर्य-गाथा तथा नक्षत्र-गाथा की कल्पनायें हैं, उनकी नींव डाली गयी ।
इस नये प्रकाशमें वेद-रूपी स्तोत्र-ग्रन्थकी. व्याख्या इस रूपमें की जाने लगी है कि यह प्रकृतिका एक अर्ध-अंधविश्वासयुक्त तथा अर्ध-कवितायुक्त रूपक है, जिसमें साथ ही महत्त्वपूर्ण नक्षत्र-विद्यासंबन्धी तत्त्व भी है | इनसे जो अवशिष्ट बचता है उसमें से कुछ अंश तो उस समयका इतिहास है और कुछ अंश यज्ञबलिदानविषयक कर्मकाण्डके नियम और धिधिथाँ हैं, जो रहस्यमय नहीं हैं, बल्कि केवलमात्र. जंगलीपन तथा, अन्ध-विश्वाससे भरी हुई हैं
पश्चिमी. पण्डितोंकी वेदविषयक यह व्याख्या आदिमि मानवसंस्कृति-सम्बन्धी और निपट जंगलीपनसे हाल हीमें हुएु उत्थान-संबंधी उनकी वैज्ञानिक
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कल्पनाओंसे पूरी. तरह मेल खाती है, जो कल्पनाएँ संपूर्ण 18वीं शताब्दीमें प्रचलित रही हैं और अब भी प्रधानता रखती है । परन्तु हमारे ज्ञानकी वृद्धिने इस पहले-पहलके और अत्यन्त जल्दबाजीमें किये गये सामान्य अनुमानको अब अत्यधिक हिला दिया है । अब हम जानते हैं कि कई सहस्र वर्ष पूर्व मिश्रमें, खाल्दियामें, ऐसीरियामें अपूर्व सम्यताएं विद्यमान थीं और अब इसपर आमतोरसे लोग सहमत होते जा रहे हैं कि एशियामें तथा भूमध्य तटवर्ती जातियोंमें जो सामान्य उच्च संस्कृति थी, ग्रीस और भारत उसके अपवाद नहीं थे ।
इस संशोधित ज्ञानका लाभ यदि वैदिक कालके भारतीयोंको नहीं मिली है तो इसका कारण उस कल्पनाका अभीतक बचे रहना है जिससे योरोपियन पाण्डित्यने शरुआत की थी, अर्थात् यह कल्पना कि वे तथाकथित आर्यजातिके थे और पुराने आर्यन ग्रीक लोगों, कैल्ट लोगों तथा. जर्मन लोगोके साथ-साथ संस्कृतिके उसी स्तरपर थे जिसका वर्णन हमें होमरकी कविताओंमें, प्राचीन नौर्स संतोंमें तथा प्राचीन गौल ( Gaul ) और टयूटनों ( Teuton ) के रोमन उपाखयानोंमें किया गया मिलता है । इसीसे उस कल्पनाका प्रादुर्भाव हुआ है कि ये आर्यन जातियां उत्तरकी बर्बर जातियां थीं जो शीतप्रधान प्रदेशोंसे आकर भूमध्यतटवर्ती योरोपकी और द्राविड़ भारतकी प्राचीन तथा समृद्ध सभ्य जातियोंके अन्दर आ घुसी थीं |
परन्तु वेदमें वे निर्देश जिनसे इस हालके आर्यन आक्रमणकी कल्पना निर्माण हुआ है, संख्यामे बहुत ही थोड़े हैं और अपने अर्थमें अनिश्चित हैं । वहाँ ऐसे कीसी आक्रमणका वास्तविक उल्लेख कहीं नहीं मिलाता । वहुतसे प्रममाणोंसे यह प्रतीत होता है कि आर्यो और अनार्योंके बीचका भेद जिसपर इतना सब कुछ निर्भर है कोई जातीय भेद नहीं, बल्कि सांस्कृतिक भेद था1 ।
1. यह कहा जाता है कि गौर वर्णवाले और उमरी हुई नाशिकवाले आर्यों के प्रतिकूल दस्युओंका वर्णन इस रूपमें आता है कि वे काली त्वचावाले और बिना नासिकावाले ( अनस्) हैं | परन्तु इनमें जो पहला सफेद और कालेका भेद है, वह तो निश्चय ही 'आर्य देवों' तथा 'दासशक्तिओं' के लिये क्रमशः 'प्रकाश' और 'अन्धकार' से युक्त होनेके अर्थमें प्रवृक्त किया गया है । और दूसरेके विषयमें पहली बात यह है कि 'अनस्' शब्दका अर्थ 'बिना नासिका'वाला नहीं है । पर यदि इसका यह अर्थ होता, तो भी यह द्राविढ़ जातियोंके लिये तो कमी भी प्रयुक्त नहीं हो सकता था, क्योंकि दक्षिणात्य लोगोंकी नासिका अपने होनेके वैसा ही अच्छा प्रमाण दे सकती है, जैसा कि उत्तर देशोंमें आर्यों की शुण्डाकार उमरी हुई कोई भी नाक दे सकती है ।
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सूक्तोंकी भाषा स्पष्ट तौरपर संकेत करती है कि एक विशेष प्रकारकी पूजा या आध्यात्मिक संस्कृति ही आर्योंका भेदक चिह्न थी-प्रकाशकी और उसकी शक्तियोंकी पूजा तथा एक आत्म:नियन्त्रण जो 'सत्य' के संवर्धन और अमरताकी अभीप्सा, ॠतम् और अमृतम्, पर आश्रित था । किसी जातीय भेदका कोई भी विश्वसनीय निर्देश वेदमे नहीं मिलता । यह हमेशा सम्भव है कि इस समय भारतमें बसनेवाले जन-समुदायका प्रघान भाग उस एक नयी जातिका वंशज हो जो अघिक उत्तरीय अक्षोंसे आयी थी--या यह भी हो सकता है, जैसा कि श्रीयुत तिलकने युक्तियों द्वारा सिद्ध करनेका यत्न किया है कि उत्तरीय ध्रुवके प्रदेशोंसे आयी थी, परन्तु वेदमें इस विषयमें कुछ नहीं है, जैसे कि देशकी वर्तमान जातिविज्ञान-सम्बन्घी1 मुखाकृतियोंमें भी यह सिद्ध करनेके लिये कोई प्रमाण नहीं है कि यह आर्योंका नीचें उतरना वैदिक सूक्तोंके कालेके आसपास हुआ अथवा यह गौरवर्णवाले बर्बर लोगोंके एक छोटेसे समुदायका सभ्य द्राविड़ प्रायद्वीपके अन्दर शनै: प्रवेश था ।
यह, मानकर भी कि कैल्ट, ट्युटन, ग्रीक तथा भारतीय संस्कृतियां एक ही साधारण सांस्कृतिक उद्वामको सूचित करती हैं, हमारे पास अनुमान करनेके जो आधार हैं उनसे यह निश्चित परिणाम नहीं निकलता कि प्राचीन आर्य संस्कृतियाँ अविकसित तथा; जंगली थीं ।
उनके बाहरी जीवममें तथा जीवनके संगठनमें एक विशुद्ध तथा उच्च सरलताका होना, जिन देवतओंकी वे पूजा किया केरते थे उनके प्रति अपने चिचांरमें तथा अनके साथ अपने सम्बन्धोंमें एक निश्चित भूर्तरूपता तथा स्पष्ट मानवीय परिचयका होना, आर्य सभ्यताके स्वरूपको उससे अधिक शानदार और भौतिकवादी मिश्र-खाल्दियन (Egypto-ehaldean) सभ्यतासे तथा इसके गम्भीरता दिखानेवाले और गुह्यता रखनेवाले घर्मोंसे भिन्न करता है । परन्तु ( आर्य संस्कृतिकी ) वे विशेषताएं एक उच्च आन्तरिक संस्कृतिके साथ असंगत. नहीं हैं । इसके विपरीत. एक महान्
1. मारतमें हम प्राय: भारतीय जातियोंके उन पुराने भाषाविज्ञानमूलक विमागोंसे और मिस्टर रिसले ( Mr. Risley) की उन कल्पनाओंसे ही परिचित हैं, जो पहिलेके किये गये उन्हीं साधारणीकरणों पर आश्रिति हैं । परन्तु अपेक्षाकृत अधिक उन्नत जाति-विज्ञान अब सभी शब्द्व्युत्पत्ति-सम्बधी कसौटियोंको माननेसे इन्कार करता है और इस विचारकी ओर अपना झुकाव रखता है कि भारतके एक ही प्रकारकी जाति निवास करती थी ।
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आध्यात्मिक परम्पराके चिह्न हमें वहां बहुतसे स्थलोंपर मिलते हैं और वे इस साधारण कल्पणका प्रतिषेष करते है ।
पुरानी कैल्टिक जातियोंमें निश्चय ही कुछ उच्चतम दार्शनिक विचार पाये जाते थे और वे अबतक उन विचारोंपर अंकित उस आदिम रस्यमय तथा अन्तर्ज्ञानमय विकासके परिणामको सुरक्षित रखे हुए हैं, जिसे ऐसे चिरस्थायी परिणामोंको पैदा करनेके लिये चिरकालसे स्थिर और अत्यघिक विकसित हो चुकना चाहिये था । यह बहुत सम्भव है कि ग्रीसमें हैलेनिक रूप ( Hellenic Type ) को उसी तक और्फिफ और ऐलुसीनियन ( orphic and eleusinian ) प्रभावोंके द्वारा ढाला गया हो और ग्रीक गाथा-शास्त्र, जैसा कि यह सूक्ष्म आध्यात्मिक निर्देशोंसे भरा हुआ हमें प्राप्त हुआ है, और्फिक शिक्षाकी ही वसीयत हो ।
सामान्य परम्पराके साथ इसकी संगति तभी लग सकती है; यदि यह सिद्ध हो जाय कि शुरुसे आखिरतक सारी-की-सारी भारतीय सभ्यता उन प्रवृत्तियों और विचारोंका विस्तार रही है, जिन्हें हमारे अन्दर वैदिक पुरुषाओं, 'पितरोंने' बोया था । ये प्राचीन संस्कृतियाँ अबतक हमारे लिये आघुनिक मनुष्यके मुख्य रूपोंका, उसके स्वभावके मुख्य अंगोंका, उसके विचार, कला और घर्मकी मुख्य प्रवृत्तियोंका निर्धारण करती हैं । अत: इन संस्कृतियोंकी असाघारण जीवन-शक्ति किसी आदिम जंगलीपनसे निकली हुई नहीं हो सकती । ये एक गभीर और प्रबल प्रागैतिहासिकि विकासके परिणाम हैं ।
तुलनात्मक गाथाशास्त्रने मानवीय उन्नतिकी इस महत्त्वपूर्ण अवस्थाकी उपेक्षा करके मनुष्यके प्रारम्भिक परम्पराओं-सम्बन्धी ज्ञानको विकृत कर दिया है । इसने अपनी व्याख्याका आघार एक ऐसे सिद्धान्तको बनाया है जिसने प्राचीन जंगलियों और प्लेटो या उपनिषदोंके बींचमें और कुछ भी नहीं देखा ।. इसने यह कल्पना की है कि प्राचीन., धर्मोकी नींव जंगली लोगोंके उस .महान् आश्चर्यपर पड़ी हुई है, जो उन्हें तब हुआ जब कि उन्हें अचानक ही इस आश्चर्यजनक तथ्यका बोघ हुआ कि उषा, रात्रि और सूर्य जैसी अद्भुत वस्तुएँ विद्यमान हैं, और उन्होंने उनकी सत्ताको एक असंस्कृत, जंगली और काल्पनिक तरीकेसे शब्दॉमें प्रकट करनेका यत्न किया । और इस बच्चोंकेसे आश्चर्यसे उठकर हम अगले ही कदममें छलांग मारकर ग्रीक दार्शनिकों तथा चैदान्तिक ॠषियोंके गम्भीर सिद्धांतोंतक पहुँच जाते हैं । तुलनात्मक गाथाशात्र्य यूनानी भाषा-विज्ञोंकी एक कृति है, क्सिके द्वारा गैरयूनानी बातोंकी व्याख्या की गयी है और वह भी एक ऐसे
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दृष्टिबिन्दुसे जिसका स्वयं आघार ही ग्रीक मनको गजल तौरसे समझनेपर है । इसकी प्रणाली कोई घीरतापूर्ण वैज्ञानिक अन्येषण होनेकी अपेक्षा कहीं अघिक कवितामय कल्पनाका एक प्रतिभासूचक खेल है ।
इस प्रणालीके परिणामोंपर यदि हम दृष्टि डालें, तो हम वहां रूपकोंकी और उनकी व्याख्याओंकी एक असाघारण गड़बड़ पाते हैं जिनमें कहीं भी कोई संगति या सामञ्जस्य नहीं है । यह ऐसे विस्तृत वर्णनोंका समुदाय है जो एक दूसरेमें प्रवेश कर रहे हैं, गड़बड़ीके साथ एक दूसरेके मार्गमें आ रहे हैं, एक दूसरेके साथ असहमत हैं तो भी उसके साथ उलझे हुए हैं और उनकी प्रामाणिकता निर्भर करती है केवल उन काल्पनिक अटकलोंपर जिन्हें ज्ञानका एकमात्र साघन समझकर खुली छुट्टी दे दी गयी है । यहाँतक कि इस असंगतिको इतने उच्च पदपर पहुँचा दिया गंया है कि इसे सच्चाईका एक मानदण्ड समझा गया है, क्योंकि प्रमुख विद्वानोंने यह गम्भीरतापूर्वक युक्ति दी है कि अपेक्षाकृत अघिक तर्कसम्मत और सुव्यवस्थित परिणामपर पहुँचनेवाली कोई प्रणाली इसी कारण खण्डित और अविश्वसनीय साबित हो जाती है कि उसमें संगति पायी जाती है, क्योंकि ( वे कहते हैं ) यह अवश्य मानना चाहिये कि गड़बड़ीका होना प्राचीन गाथाकवितात्मक योग्यताका एक आवश्यक तत्त्व ही था । परन्तु ऐसी अवस्थामें कोई भी चीज तुलनात्मक गाथा-विज्ञानके परिणामोंमें नियन्त्रण करनेवाली नहीं हो सकती और एक कल्पना वैसी ही ठीक होगी, जैसी कोई दूसरी; क्योंकिैं इसमें कोई युक्ति नहीं है कि क्यों असंबद्ध वर्णनोंके किसी एक विशेष समुदायको उससे भिन्न प्रकारसे प्रस्तुत किये गये असम्बद्ध .वर्णनोंके किसी दूसरे समुदायकी अपेक्षा अघिक ऋमगइछ?ाक. समझा जावे ।
तुलनात्मक गाथा-विज्ञानकी मीमांसाओंमें ऐसा बहुत कुछ है जो उपयोगी है, परन्तु इसके लिये कि इसके अघिकतर परिणाम युक्तियुक्त, और स्वीकार करने लायक हो सके, इसे, एक अपेक्षाकृत अघिक घैर्यसाध्य और संगत प्रणालीका प्रयोग करना चाहिये और अपना संगठन एक सुप्रतिष्ठित घर्म-विज्ञान (Science of Religion) के अंगके रूपमें ही करना चाहिये । हमें यह अवश्य स्वीकार करना चाहिये कि प्राचीन घर्म कुछ ऐसे विचारोंपर आश्रित सघटित संस्थान थे, जो कम-से-कम उतने ही संगत थे जितने की हमारे घर्मविश्वासोंके आघुनिक संस्थानोंको बनानेवाले विचार हैं । हमें यह भी मानना चाहिये कि घार्मिक संप्रदाय औंर दार्शनिक विचारके प्रहिलेके संस्थानोंसे लेकर वादमें आनेवाले अंस्थानोंतक,. सर्वथा बुद्धिगम्य, क्रमिक विकास ही हुआ है । इस भावनाके साथ जब हम प्रस्तुत सामग्रीका विस्तृत
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और गंभीरं रूपसे करेंगेौ तथा मानवीय विचार और विश्वासके सच्चे विकासका अन्वेषण करेंगे, तभी हम वास्तविक सत्यतक पहूँच सकेंगे ।
ग्रीक और संस्कृत नामोंको केवलमात्र तद्रुप्ता और इन बातोंका चातुर्य-पूर्ण अन्वेषण कि हैरेकलकी चिंता (Heracle's pyre) अस्त होते हुए सूर्या प्रतीक है या पारिस (Paris) और हैलन (Helen) वेदके 'सरमा' और 'पणियों'के ही ग्रीक अपभ्रंश हैं, कल्पना-प्रद्यान मनके लिये एक रोचक मनोरज्जनका बिषय अवश्य है, परन्तु अपने-आपमें ये बातें किसी गंभीर परिणामपर नहीं .पहुँचा सकतीं, चाहे यह भी सिद्ध क्यों न हो जाय कि ये ठीक हैं । न ही वे ऐसी ठीक ही हैं कि उनपर गंभीर सन्देहकी गुज्जाइश न हो, क्योंकि उस अधूरी तथा कल्पनात्मक प्रणालीका, जिसके द्वारा सूर्य और नक्षत्र-गाथाकी व्याख्याएँ की गयी हैं, यह एक दोष है कि वे एक-सी ही सुगमता और विश्वासजनकताके साथ किसी भी, और प्रत्येक ही मानवीय परम्परा, विश्वास या इतिहासकी वास्तविक धटना1 तक के लिये प्रयुक्त की जा सकती हैं । इस प्रणालीको लेकर, हम कभी. भी निश्चयपर नहीं पहुंच सकते कि कहां हमने वस्तुतः किसी सत्यको जा पकड़ा है और कहाँ हम केवलमात्र बुद्धिचातुर्यकी बातें सुन रहे हैं ।
तुलनात्मक भाषाविज्ञान ( comparative philology ) सचमुच हमारी कुछ सहायता कर सकता है, परन्तु अपनी वर्तमान अवस्थामें वह भी बहुत ही थोड़ी निश्चयात्मकताके साथ हमारी सहायता कर सकता है । उन्नीसवीं शताब्दीसे पहले भाषाशास्त्रका जो ज्ञान हमारे पास था उसकी अपेक्षा आज आधुनिक भाषाविज्ञानने बड़ी भारी उन्नति कर ली है । इसने इसमें एकमात्र कल्पना या मनमौजके स्थानपर एक नियम और प्रणालीकी भावनाको ला दिया है । इसने हमें भाषाके शब्दरूपोंके अध्ययनके विषयमें और शब्दव्युत्पत्ति-विज्ञानमें क्या सम्भव है और क्या सम्भव नहीं, इस विषयमें अपेक्षया अधिक ठीक विचारोंको दिया है | इसने कुछ नियम निर्धारित कर दिये हैं, जिनके अनुसार कोई भाषा शनै:शनै: बदलते-बदलते दूसरीमें आ जाय करती है और वे नियम इस बातमें हमारा पथ-प्रदर्शन करते हैं कि एक ही शब्द या उससे सम्बन्थित दूसरे शब्द,. जैसे कि वे भिन्न-भिन्न परन्तु सजातीय भाषाओंके परिवर्तित रूपोंमें दिखाई देते हैं,
१. उदाणार्थ, एक बड़ा विद्वान् हमें यह निश्चय दिलाता है कि ईसा और उसके 12 देवदूत सूर्य और 12 महीने हैं । नेपोलियनका चरित्र समस्त आख्यान-यरंपरा या इतिहासमें सबसे अधिक पूर्ण सूर्यगाथा है |
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किन शब्दोके तद्रूप हैं । तथापि यहाँ आकर .इसके लाभ रुक जाते हैं । वे ऊँची-ऊँची आशाहँ जो इसकी उत्पत्तिके समय थीं, इसकी प्रौढ़ताके द्वारा पूर्ण नहीं हुई हैं । भाषाके विज्ञानकी रचना कर सकनेमें यह असफल रहा है और अब भी हम इसके प्रति उस क्षमायाचनापूर्ण वर्णनको प्रयुक्त करनके लिये बाध्य हैं, जो एक प्रमुख भाषाविज्ञानवेत्ताने अपने अत्यधिक प्रयासके कुछ दशकोंके पश्चात् प्रयुक्त किया था, जब वह अपने परिणामोंके विषयमें यह कहनेके लिये बाध्य हुआ था कि "हमारे क्षुद्र कल्यनामूलक विज्ञान," । परन्तु कोई कल्पनामूलक विज्ञान तो विज्ञान ही नहीं हो सकता । इसलिये ज्ञानके अघिक यथार्थ और सूक्ष्मतया विशुद्ध रूपोंका अनुसरण करनेवाले लोग तुलनात्मक भाषाविज्ञानको 'विज्ञान' यह नाम देनेसे सर्वथा इन्कार करते हैं और यहाँतक कि वे भाषा-सम्बन्धी किसी विज्ञानकी संभवनीयतासे ही इन्कार करते हैं ।
सच तो यह है कि भाषाविज्ञानसे जो परिणाम निकले हैं उनमें अभीतक कोई वास्तविक निश्चयात्मकता नहीं है, क्योंकि सिवाय एक या दो नियमोंकें, जिनका प्रयोग बिल्कुल सीमित है, उसमें कहीं भी कोई निश्चित आधार नहीं है । कल हम सबको यह विश्वास था कि वरुण और औरेनस (ouranos) --ग्रीक आकाश--एक ही हैं, आज यह समानता, यह कहकर दोषयुक्त ठहरा दी गयी है कि, इसमें भाषा-विज्ञान-सम्बन्धी गलती है, कल यह हो सकता है कि इसे फिरसे मान लिया जाय । 'परमे व्योमन्', एक वैदिक मुहावरा है, जिसका कि हममेंसे अधिकांश "उच्चतम आकाशमें" यह अनुवाद करेंगे, परन्तु श्रीयुत टी० परम शिव अय्यर अपने बौद्धिक चमफ-दमकसे युक्त और आश्चर्यजनक ग्रंथ ''दि ॠक्स" (ऋग्वेदके मंत्र ) में हमें बताते हैं कि इसका अर्थ है "निम्नतम गुहामें" क्योंकि 'व्योमन्'का अर्थ होता है ''विच्छेद, दरार" और शाब्दिक अर्थ हैं, ''रक्षा (ऊमा) का अभाव" और जिस युक्ति-प्रणालीका उन्होंने प्रयोग किया है वह आधुनिक विद्वान्की प्रणालीके ऐसी अनुरूप है कि भाषाविज्ञानी इसे यह कहकर अमान्य नहीं कर सकता कि ''रक्षाके अभाव" का अर्थ दरार होना संभव नहीं है और यह कि मानवीय भाषाका निर्माण ऐसे नियमोंके अनुसार नहीं हुआ है ।
यह इसीलिये है क्योंकि भाषा-विज्ञान उन नियमोंका पता लगानेमें असफल रहा है जिन नियमोंपर भाषाका निर्माण हुआ है, या यह कहना अघिक ठीक है कि जिन नियमोंसे भाषाका शनै:शनै: विकास हुआ है; और दूसरी ओर इसने एकमात्र कल्पना और बुद्धिकौशलकी पुरानी भावनाको पर्याप्त रूपमें कायम रखा है और संदिग्ध अटकलोंकी ठीक इस प्रकारकी
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(जैसी की अय्यरने दिखलाई है ) बौद्धिक चमक-दमकसे ही भरा पड़ा है । लेकिन तब हम इस परिणामपर पहुँचते हैं कि हमें इस बातके निर्णयमें सहायता देनेके लिये इसके पास कुछ नहीं है कि वेदका 'परमे व्योमन्' उच्चतम आकाश'की ओर निर्देश करता हैं या 'निम्नतम खाईकी
ओर । यह स्पष्ट है कि ऐसा अपूर्ण भाषा-विज्ञान वेदका आशय समझनेके किये कहीं-कहीं एक उज्ज्वल सहायक तो हो सकता है, परन्तु एक निश्चित पथ-प्रदर्शक कभी नहीं हो सकता ।
यह बात वस्तुत: हमें माननी चाहिये कि वेदके संबंधमें विचार करते हुए योरोपियन पाण्डित्यको, योरोपमें हुई वैज्ञानिक प्रगतिके साथ उसका जो सम्बन्ध है उसके कारण, आम जनताके मनोंमें कुछ अतिरिक्त प्रतिष्ठा मिल जाती है । पर सत्य यह है कि स्थिर, निश्चित और यथार्थ भौतिक विज्ञानोंके तथा जिनपर वैदिक पाण्डित्य निर्भर करता है ऐसी इन विद्वत्ताकी दूसरी उज्ज्वल किन्तु अपरिपक्व शाखाओंके बीच एक बड़ी भारी खाई है ! वे (भौतिक-विज्ञान ) अपनी स्थापनामें सतर्क, व्यापक सिद्धान्त बनानेमें मंद, अपने परिणामोंमें सबल हैं और ये (विद्वत्ताकी दूसरी शाखाएँ ) कुछ थोड़ेसे स्वीकृत तत्त्वोंपर विशाल और, व्यापक सिद्धांतोंको बनानेके लिये बाध्य हुई है और किन्हीं निश्चित निर्देशोंको न दे सकनेकी अपनी कमीको अटकलों और कल्पनाओंके अतिरेक द्वारा पूरी करती हैं । ये ज्वलन्त प्रारम्भोंसे तो भरी पड़ी हैं, पर किसी सुरक्षित परिणामपर नहीं पहुँच सकतीं । ये विज्ञान (पर चढ़ने ) के लिये प्रारंभिक असंस्कृत मञ्च अवश्य हैं, पर अभीतक विज्ञान नहीं बन पायी हैं |
इससे यह परिणाम निकलता है कि वेदकी व्याख्याकी सम्पूर्ण समस्या अबतक एक खुला क्षेत्र है जिसमें किसी भी सहायक कृतिका, जो इस समस्यापर प्रकाश डाल सके, स्वागत किया जाना चाहिये । इस प्रकारकी तीन कृतियोंका उद्धव भारतीय विद्वानोसे हुआ है । उनमें दो योरोपियन अनुसन्धानके पद-चिह्नों या प्रणालियोंका अनुसरण करती हैं, फिर भी उन नयी कल्पनाओंको प्रस्तुत करती हैं जो यदि सिद्ध हो जाएँ तो मंत्रोंके बाह्य अर्थके विषयमें हमारे दूष्टिकोणको बिल्कुल बदल दें । श्रीयुत तिलकने "वेदमें आर्योंका उत्तरीय-ध्रुवनिवास"(Arctic Home in the Vedas) नामक पुस्तकमें योरोपियन पाण्डित्यके सामान्य परिणामोंको स्वीकार कर लिया है, परन्तु वैदिक उषाकी, वैदिक गौओंके अलंकारकी और मंत्रोंके नक्षत्र-विद्या-सम्बन्धी तत्त्वोंकी नवीन परीक्षाके द्वारा यह स्थापना की है की, कम-से-कम इस बातकी अधिक सम्भावना तो है ही की
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आर्यजातियहाँ प्रारम्भ्में, हिम-युगमें, उत्तरीय ध्रुवके प्रदेशोंसे उतरकर आयीं ।
श्रीयुत टी० परम शिव अय्यरने और भी अधिक साहसके साथ योरोपियन पद्धतियोंसे अपनेको जुदा करते हुए यह सिद्ध करनेका यत्न किया है कि सारा-का-सारा ऋग्वेद आलंकारिक रूपसे उन भू-गर्भ-संबंधी घटनाओंकों वर्णन है, जो उस समयमें हुई जब चिरकालसे जारी हिम-संहतिका विनाश समाप्त हुआ और उसके पश्चात् भौमिक विकासके उसी युगमें हमारे ग्रहका नवीन जन्म हुआ था । यह कठिन है कि श्रीयुत अय्यरकी युक्तियों और परिणामोंको सामूहिक रूपमें स्वीकार कर लिया जाय, परन्तु यह तो है कि कम-से-कम उसने वेदकी 'अंहि-वृत्र' की महत्त्वपूर्ण गाथापर और सात नदियोके विमोचनपर एक नया प्रकाश डाला है । उसकी व्याख्या प्रचलित कल्पना (theory) की अपेक्षा कहीं अधिक संगत और सम्भव है, जब कि प्रचलित. कल्पना मंत्रोंकी भाषासे कदापि पुष्ट नहीं होती । तिलकके ग्रंथके साथ मिलाकर देखनेसे यह इस प्राचीन धर्मशास्त्र वेदकी एक नवीन बाह्य व्याख्याके लिये प्रारम्भ-बिन्दुका काम दे सकती है और इससे उस बहुतसे अंकका स्पष्टीकरण हो जायगा जो अबतक अव्याख्येय बना हुआ है, तथा यह हमारे लिये यदि प्राचीन आर्यजगत्की वास्तविक भौतिक परिस्थितियोंको नहीं तों कम-से-कम उसके भौतिक प्रारम्भोंको तो नया रूप प्रदान कर देगी न |
तीसरी भारतीय सहायता तिथिमें अपेक्षया कुछ. पुरानी है, परन्तु मेरे वर्तमान प्रयोजनके अघिक नजदीक है । यह है वेदको फिरसे एक सजीव धर्म-पुस्तकके रूपमें स्थापित करनेके लिये आर्यसमाजके संस्थापक स्वामी दयानन्दके द्वारा किया गया अपूर्व प्रयत्न । दयानन्दने पुरातन भारतीय भाषा-विज्ञानके स्वतन्त्र प्रयोगको अपना आघार बनाया, जिसे उन्होंने निरुक्तमें पाया था । स्वयं संस्कृतके एक महाविद्वान् होते हुए उन्होंने उनके पास जो सामग्री थी, उसपर अद्भूत शक्ति और स्वाघीनताके साथ विचार किया । विशेषकर प्राचीन संस्कृत-भाषाके अपने उस विशिष्ट तत्त्वका उन्होंने रचनात्मक प्रयोग किया जो सायणके ''घातुओंकी अनेकार्थता" इस एक वाक्यांशसे बहुत अच्छी तरहसे प्रकट हो जाता है । हम देखेंगे कि इस तत्त्वका, इस मूल-सूत्रका ठीक-ठीक अनुसरण वैदिक ऋषियोंकी निराली प्रणाली समक्षनेके लिये बहुत अधिक महत्त्व रखता है ।..
दयानन्दकी मन्त्रोंकी व्याख्या इस विचारसे नियन्त्रित है कि वेद घार्मिक, नैतिक और. वैज्ञानिक सत्यका एफ पूर्ण ईश्वरप्रेरित ज्ञान है । वेदकी धार्मिक शिक्षा एकदेवातावादकी है और वैदिक देवता एक ही देवके भिन्न-भिन्न
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वर्णनात्मक नाम हैं, सत्य ही वे देवता उसकी उन शक्तियोंके सूचक भी हैं जिन्हें हम प्रकृतिमें कार्य करता हुआ देखते हैं, और वेदोंके आशयको सच्चे रूपमें समझकर हम उन सभी वैज्ञानिक सचाइयोंपर पहुँच सकते हैं जिनका आधुनिक अन्वेषण द्वारा आविष्कार हुआ है ।
इस प्रकारके सिद्धांतकी स्थापना करना स्पष्ट ही, बड़ा कठिन काम है । अवश्य ही ऋग्वेद स्वयं कहता है1 कि देवता एक ही विश्वव्यापक सत्ताके केवल भिन्न नाम और अभिव्यक्तियाँ हैं जो सत्ता अपनी निजी वास्तविकतामें विश्वकी अतिक्रमण किये हुए है; परन्तु मंत्रोंकी भाषासे देवताओंके विषयमें निश्चित रूपसे हमें यह पता लगता है कि वे न केवल एक देवके भिन्न-भिन्न नाम, किन्तु साथ ही उस देवके भिन्न-भिन्न रुप, शक्तियाँ और व्यक्तित्व भी हैं । वेदका एकदेवतावाद विश्वकी अद्वैतवादी, सर्व-देवतावादी और यहाँतक कि बहुदेवतावादी दृष्टियोंको भी अपने अन्दर सम्मिलित कर लेता है और यह किसी भी प्रकारसे आधुनिक ईश्वरवादका कटा-छँटा और सीधा-सा रूप नहीं है । यह केवल मूल वेदके साथ जबर्दस्ती करनेसे ही हो सकता है कि हम इसपर ईश्वरवादके इसकी अपेक्षा किसी कम जटिल रूपको मढ़ देनेमें कामयाब हो सकें ।
यह बात भी मानी जा सकती है कि प्राचीन जातियाँ भौतिक विज्ञानमें उसकी अपेक्षा कहीं अधिक उन्नत थीं जितना कि अभीतक स्वीकार किया जाता है । हमें मालूम है कि मिश्र और खाल्दियाके निवासी बहुतसे आविष्कार कर चुके थे जिन्हें विज्ञानने आधुनिक विज्ञानके द्वारा पुनराविष्कृत किया है और उनमेंसे बहुतसे ऐसे भी हैं जो फिरसे आविष्कृत नहीं किये जा सके हैं । प्राचीन भारतवासी, कम-से-कम कोई छोटे-मोटे ज्योतिर्विद् नहीं थे और वे सदा कुशल चिकित्सक थे । न ही हिन्दु वैद्यक-शास्त्र तथा रसायनशास्त्रका उद्धव विदेशसे हुआ प्रतीत होता है । यह संभव है कि भौतिक विज्ञानकी अन्य शाखाओंमें भी भारतवासी प्राचीन कालमें भी उन्नत रहे हों । परन्तु यह सिद्ध करनेके लिये कि वेदोंमें वैज्ञानिक ज्ञान बिल्कुल पूर्ण रूपमें प्रकट हुआ, जैसा कि स्वामी दयानन्दका कथन है, बहुत अधिक प्रमाणोंकी आवश्यकता होगीं ।
वह स्थापना जिसे मैं अपनी परीक्षाका आधार बनाऊँगा, यह है कि वेद द्विविध रूप रखता है और उन दोनों रूपोंको, यद्यपि वे परस्पर बहुत
1. इन्द्रं मित्र वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान् ।
एकं सद्रिप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: |। (ॠग्० 1-164-46)
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घनिष्ठताके साथ सम्बद्ध हैं, हमें पृथक्-पृथक् ही रखना चाहिये । ऋषियोंने अपनी विचारकी सामग्रीको एक समानान्तर तरीकेसे व्यवस्थित किया था, जिसके द्वारा वही-के-वही देवता एक साथ विराट् प्रकृतिकी आभ्यन्तर तथा बाह्य दोनों शक्तियोके रूपमें प्रकट हो जाते थे और उन्होंने इसे एक ऐसी द्वचर्थक प्रणालीसे अभिव्यक्त किया जिससे एक ही भाषा दोनों रूपोंमें उनकी पूजाके प्रयोजनको सिद्ध कर देती थी । परन्तु भौतिक अर्थकी अपेक्षा आध्यात्मिक अर्थ प्रद्यान है और अपेक्षया अधिक व्यापक घनिष्ठताके साथ ग्रथित तथा अघिक संगत है । वेद मुख्यतया आध्यात्मिक प्रकाश और आत्म-साघनाके लिये अभिप्रेत है । इसलिये यही अर्थ है जिसे हमें प्रथम पुनरूजीवित करना चाहिये ।
इस कार्यमें व्याख्याकी प्रत्येक, प्राचीन तथा आघुनिक, प्रणाली एक अनिवार्य सहायता देती है । सायण और यास्क बाह्य प्रतीकोंके कर्मकाण्डमय ढांचेको और अपनी परम्परागत व्याख्याओं तथा स्पष्टीकरणोंके बड़े भारी भण्डारको प्रस्तुत करते हैं । उपनिषदें प्राचीन ऋषियोंके आध्यात्मिक और दार्शनिक विचारोंकी जाननेके लिये अपने मूलसूत्र हमें पकड़ाती हैं और आध्यात्मिक अनुभूति तथा अन्तर्ज्ञानकी अपनी प्रणालीको हमतक पहुंचाती है । योरोपियन पाण्डित्य. तुलनात्मक अनूसंधानकी एक आलोचनात्मक प्रणालीको देता है । वह प्रणाली यद्यपि अभीतक अपूर्ण है, तो भी जो साघन अबतक प्राप्य है उन्हें बहुत अधिक उन्नत कर सकती है और अन्तमें जाकर वह निश्चित रूपसे एक वैज्ञानिक निश्चयात्मकता तथा दृढ़ बौद्धिक आघारको दे सकेगी जो अबतक प्राप्त नहीं हुआ है । दयानन्दने ऋषियोंके भाष-सम्बन्धी रहस्यका मूलसूत्र हमें पकड़ा दिया है और वैदिक धर्मके एक केन्द्र्भुत. विचारपर फिरसे बल दिया है, इस विचारपर कि जगत्में एक ही देवकी सत्ता है और भिन्न-भिन्न देवता अनेक नामों और रूपोंसे उस एक देवकी ही अनेकरूपताको प्रकट करते हैं ।
मध्यकालीन भूतसे इतनी सहायता लेकर हम अब भी इस सुदूरवर्ती प्राचीनताका पुनर्निर्माण करनेमें सफलता प्राप्त कर सकते हैं और वेदके द्वारसे प्रागैतिहासिक ज्ञानके विचारों तथा सचाइयोंके अन्दर प्रवेश पा सकते हैं ।
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चौथा अध्याय
आध्यात्मिकवाद के आधार
वेदोंके अर्थके विषयमें कोई वाद निश्चित और युक्तियुक्त हो सके, इसके लिये यह आवश्यक है कि वह ऐसे आघारपर टिका हो जो स्पष्ट तौरपर स्वयं वेदकी ही भाषामें विद्यमान हो । वेदमें जो सामग्री है उसका अधिक भाग चाहे प्रतीकों और अलंकारोंका एक समुदाय हो, जिसका आशय खोजकर पता लगानेकी आवश्यकता है, तो भी मंत्रोंकी स्पष्ट भाषामें ही हमें साफ साफ निर्देश मिलने चाहियें जो वेदका आशय समझनेमें हमारा पथप्रदर्शन करें । नहीं तो, क्योंकि प्रतीक स्वयं संदिग्ध अर्थको देनेवाले हैं, यह खतरा है कि ऋषियोंने जिन अलंकारोंको चुना है उनके वास्तविक अभिप्रायको ढूंढ़ निकालनेके बजाय कहीं हम अपनी स्वतंत्र कल्पनाओं और पसंदगीके बलपर कुछ और ही वस्तु न गढ़ डालें । उस अवस्थामें, हमारा सिद्धांत चाहे कितना ही पूर्ण और बुद्धिकौशलसे युक्त क्यों न हो, यह हवाई किले बनानेके समान होगा जो वेशक शानदार हो पर उसमें कोई वास्तविकता या सार नहीं होगा ।
इसलिये हमारा सबसे पहिला कर्तव्य यह है कि हम इस बातका निश्चय करें कि अलंकारों और प्रतीकोंके अतिरिक्त, वेदमंत्रोंकी स्पष्ट भाषामें आध्यात्मिक विचारों पर्याप्त बीज विद्यमान है या नहीं, जों कि हमारी इस कल्पनाको न्यायोचित सिद्ध कर सके कि वेदका जंगली और अनघड़ अर्थकी अपेक्षा एक उच्चतर अर्थ है | और इसके बाद हमें, जहाँ तक हो सके स्वयं सूक्तोंकी अन्त:-साक्षीके ही द्वारा, प्रत्येक प्रतीक और अलंकारका वास्तविक अभिप्राय क्या है तथा वैदिक देवताओंमेंसे प्रत्येकका अलग-अलग ठीक-ठीक आध्यात्मिक व्यापार क्या है यह मालूम करना होगा । वेदकी प्रत्येक नियत परिभाषाका एक स्थिर, न कि इच्छानुसार बदलता रहनेवाला, अर्थ पता लगाना होगा जिसकी प्रामाणिकता ठीक-ठीक भाषा-विज्ञानसे पुष्ट होती हो और जो उस प्रकरणमें जहाँ कि वह शब्द आता है स्वभावत: ही बिल्कुल उपयुक्त बैठता हो । क्योंकि जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, वेदमंत्रोंकी भाषा एक नियत तथा अपरिवर्तनीय भाषा है, यह सावधानीके साथ सुरक्षित तथा निर्दोष रूपसे आदर पायी हुई. वाणी है, जो या तो एक
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विघिविघानसंबंधी संप्रदाय और याज्ञिक कर्मकांडको अथवा एक परंपरागत सिद्धांत और सतत अनुभूतिको संगतिपूर्वक अभिव्यक्त करती है । यदि वैदिक ऋषियोंकी भाषा स्वच्छन्द तथा परिवर्तनीय होती, यदि उनके विचार स्पष्ट तौरसे तरल अवस्थामें, अस्थिर और अनियत होते, तब तो हम जो ऐसा कहते हैं कि उनकी परिभाषाओंमें जैसा चाहो वैसा अर्थ कर लेनेकी सुलभ छुट है तथा असंगति है यह बात एवं उनके विचारोंमें हम जो कुछ संबन्ध निकालते हैं, वह सब न्याय्य अथवा सह्य हो सक्ता था । परंतु वेदमंत्र स्वयं बिल्कुल प्रत्यक्ष ही ठीक इसके विरुद्ध साक्षी देते हैं । इसलिये हमें यह मांग उपस्थित करनेका. अधिकार. है कि व्याख्याकारको अपनी व्याख्या करते हुए वैसी ही सचाई और सतर्कता रखनी चाहिये जैसी उस मूलमें रखी गयी है वह व्याख्या करना चाहता है । वैदिक धर्मके विभिन्न विचारों और उसकी अपनी परिभाषाओंमें स्पष्ट ही एक अविच्छिन्न संबंद्य है । उनकी व्याख्यामें यदि असंगति और. अनिश्चितता होगी, तों उससे केवल यही सिद्ध होगा कि व्याख्याकार ठीक-ठीक सम्बन्धको पता लगानेमें असफल रहा है, न कि यह कि. वदकी प्रत्यक्ष साक्षी भ्रान्तिमनक. है ।
इस प्रारम्भिक प्रयासको सतर्कता तथा सावधानीके साथ कर चुकनेके पश्चात् यदिं मंत्रोंके अनुवादके, .द्वारा यह दिखाया जा सके कि जो अर्थ हमने निश्चित किये थे वे स्वाभाविकतया और आसानीके साथ किसी भी प्रकरणमें ठीक बैठते हैं, यदि उन अर्थोंको हम ऐसे पाये कि उनसे. घुंघले दीखनेवाले प्रकरण स्पष्ट हो जाते हैं और जहाँ पहिले केवल असंगति और अव्यवस्था मालूम होली थी वहाँ उनसे समक्षमें आने योग्य और स्पष्ट-स्पष्ट संगति दीखने लगती है, यदि पूरे-के-पूरे सूक्त इस प्रकार एक स्पष्ट और सुसंबद्ध अभिप्रायको देने लग जायं और फमबद्ध मन्त्र सम्बद्ध विचारोंकी एक युक्तियुक्त शृंखलाको दिखाने लगें, और कुल मिलाकर जो परिणाम निकले वह यदि सिद्धांतोंका एक गम्भीर, संगत तथा पूर्ण समुदाय हो, तो हमारी कल्पनाको यह अधिकार होगीं कि वह दूसरी कल्पनाओंके मुकाबलेमें खड़ी हो और जहाँ थे इसके विशेघमें जाती हों यहाँ उन्हें ललकारे या जहाँ वे इसके परिणामोंसे संगति रखती हों वहाँ उन्हें पूर्ण बनाये । और तब यदि यह पता लगे कि इस प्रकार वेदमें विचारों और सिद्धांतोंका जो समुदाय प्रकट हुआ है वह उस उत्तरवर्ती भारतीय विचार और घार्मिक अनुभूतिका एक अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन रूप है, जो स्वभावत: वेदान्त और पुराणके जनक इए हैं, तो इससे हमारी स्थापना की संभवनीथता कुछ कम नहीं हो जायगी, बल्कि इसके विपरीत उसकी प्रामाणिकता पुष्ट ही होगी ।
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ऐसा बड़ा और सुक्ष्म प्रयास इस छोटी-सी और संक्षिप्त लेखमालाके क्षेत्रसे बाहर की बात है । इन अध्यायोंको लिखनेका मेरा प्रयोजन केवल यह है कि जो सूत्र स्वयं मुझे मिला है उसका जो लोग अनुसरण करना चाहते हैं उनके लिये मार्गका और उसमें आनेवाले मुख्य-मुख्य मोड़ोंका दिग्दर्शन कराऊँ-साथ ही उन परिणामोंका दिग्दर्शन कराउँ जिनपर मैं पहुँचा हूँ और उन मुख्य निर्देशोंका भी जिनके द्वारा वेद स्वयमेव उन परिणामों तक पहुँचनेमें हमारी सहायता करता है । और सबसे पहिले, मुझे यह उचित प्रतीत होता है कि मैं यह स्पष्ट कर दूं कि यह कल्पना मेरे अपने मनमें किस प्रकार उदित हुई, जिससे पाठक उस दिशाको अधिक अच्छी प्रकार समझ सके, जिसे मैंने अपनाया है, अथवा यदि वह चाहे तो, मुझसे जो कोई पक्षपात हो गये हों या मेरी जो कोई वैयक्तिक अभिरुचियाँ हों जिन्होंने इस कठिन प्रश्नपर युक्ति-श्रुंखलाके यथोचित प्रयोगको सीमित कर दिया हो या प्रभावित किया हो उनका वह निवारण. कर सके ।
.जैसा कि अधिकांश शिक्षित भारतीय करते हैं, मैंने भी स्वयं वेदको पढ़नेसे पहले ही बिना परीक्षा किये योरोपियन विद्वानोंके परिणामोंको जो प्राचीन मन्त्रोंकी. धार्मिक दृष्टि तथा ऐतिहासिक व जाति-विज्ञानसंबंधि दृष्टि दोनोंके विषयमें थे, कुछ भी प्रतिकार किये बगैर वैसाका वैसा ही स्वीकार कर लिया था । इसके फलस्वरूप, फिर आधुनिक रंगमें रंगे हिन्दू-मतसे स्वीकृत सामान्य दिशाका ही अनुसरण करते हुए, मैंने उपनिषदोंका ही भारतीय विचार और धर्मका प्राचीन स्रोत, सच्चा वेद, ज्ञानकी आदिपुस्तक समझ लिया था । ऋग्वेदके जो आधुनिक अनुवाद. प्राप्त हैं, केवल उन्हींको मैं इस गंभीर धर्मपुस्तकके विषयमें जानता था और इस ऋष्येदको मैं यही समझता था कि यह हमारे राष्ट्रीय इतिहासका एक महत्त्वपूर्ण लेखा है, परन्तु विचारके. इतिहास या एक .सजीव आत्मिक अनुभूतिके रूपमें मुझे इसका मूल्य या इसकी. महत्ता बहुत थोड़ी प्रतीत होती थी ।
वैदिक बिचारके साथ मेरा प्रथम परिचय अप्रत्यक्ष रूपसे उस समय हुआ जब मैं भारतीय योग-विधिके अनुसार आत्मविकासकी किन्हीं दिशाओंमें अभ्यास कर का था । आत्मविकासकी ये दिशाएं स्वतः ही हमारे पूर्व पितरोंसे अनुसृत, प्राचीन और अब अनभ्यस्त मार्गोकी ओर मेरे अनजाने ही प्रवृत्ति रखती थीं । इस समय मेरे मनमें प्रतीक रूप नामोंकी एक शृंखला उठनी शुरू हुई । ये प्रतीक किन्हीं ऐसी आध्यात्मिक अनुभूतिथोसे सम्बद्ध थे जो मुझे नियमित रूपसे होनी आरम्भ हो चुकी थीं, और उनके बीचमें तीन स्त्रीलिंगी शक्तियों इणा, सरस्वती, सरमाके प्रतीक भी आये । ये
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शक्तियां अन्तर्ज्ञानमय बुद्धिकी चार शक्तियोंमेसे तनकीं-क्रमशः स्यतःप्रकाख (Revelation), अन्तःप्रेरणा ( Inspiration), और अन्त:र्ज्ञान (Intuition) की द्योतक थीं । इनके नामोंमेंसे दो मुझे इस रूपमें सुपरिचित नहीं थे कि ये वैदिक देवियोंके नाम है, बल्कि इससे कहीं अधिक इन शक्तियोके विषयमें मैं यह समझता था कि ये प्रचलित हिंदुधर्म या प्राचीन पौराणिक कथानकोंके साथ संबंध रखती हैं अर्थात् 'सरस्वती' विद्याकी देवी है और 'इणा' चन्द्ववंशकी माता है । परंतु तीसरी 'सरमा' से मैं पर्याप्त रूपसे परिचित था । तथापि इसकी जो आकृति. मेरे अंदर उठी थी उसमें और स्वर्गकी कुतिया ( 'सरमा') में मैं' कोई संबंध निश्चित नहीं कर सका । 'सरमा' मेरी स्मृतिमें आर्गिव हैलन ( Argive Helen)1 के साथ जुड़ी हुई थी और केवल उस भौतिक उषाके रूपककी द्योतक थी; जो खोयी हुई प्रकाशकी गौओंको खोजते-खोजते अंधकारकी शक्तियोंकी गुफामें घुस जाती है । एक बार यदि मूलसूत्र मिल जाता, इस बासका सूत्र कि भौतिक प्रकाश मानसिक प्रकाशको निरूपित करता है, तो यह समझ जाना आसान. था कि स्वर्गकी कुतिया ( 'सरमा' ) हो सकती है अन्तर्ज्ञान, जो अवचेतन मन (Subconscious mind) की अंधेरी युफाओंके अंदर प्रवेश करता है ताकि उन गुफाओंमें बंद पडे हुए ज्ञानके .चमकीले प्रकाशोंको छुटकारा दिलानेकी. और छुटकर उनके जगमगानेकी तैयारी करे । परंतु वह सूत्र नहीं मिला और मैं प्रतिकके किसी सादृश्यके बिना केवल नामके सादृश्यको कल्पित करनेके लिये बाघ्य हुआ ।
पहिले-पहल गंभीरतापूर्वक मेरे विचार वेदकी ओर तब आकृष्ट हुए अब मैं दक्षिण भारतमें रह रहा था | दो बातोंने जो बलात् मेरे मनपर आकर पड़ीं, उत्तरीय आर्य और दक्षिणीय द्रविड़ियोंके बीच जातीय विभागके मेरे विश्वासपर, जिसे मैंने दूसरोंसे लिया था, एक भारी आघात पहुँचाया । मेरा यह जातीय विभागका विश्वास पूर्णत: मिर्भर करता था उस कल्पित भेदपर जो आर्यों तथा द्रविड़ियोंके भौतिक रूपोंमें किया गया है, तथा उस अपेक्षाकृत अधिक निश्चित विसंवादितापर जो उत्तरीय संस्कृतजन्म तथा दक्षिणीय संस्कृतिभिन्न भाषाओंके बीचमें पायी जाती है । मैं उन नये मतोंसे तो अवश्य' परिचित था जिनके अनुसार भारतके प्रायद्वीपपर एक ही सवर्ण-जाति, द्रविड़-जाति या भारत-अफगान ( Indo-Afghan) जाति, निवास करती है, परंतु अबतक मैंने इनको कभी अधिक महत्त्व नहीं दिया था ।
1. ग्रीक गाथाशास्त्रकी एक देवी
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पर दक्षिन भारतमें मुझपर यह छाप पड़नेमें बहुत समय नहीं लगा कि तामिल जातिमें उत्तरीय या 'आर्य' रूप विद्यमान है । जिघर भी मैं मुड़ा, एक चकित कर देनेवाली स्पष्टताके साथ मुझे यह प्रतीत हुआ कि मैं न .केवल ब्राह्मणोंमें किंतु सभी जातियों और श्रेणियोंमें महाराष्ट्र, गुजरात, हिंदुस्थानके अपने मित्रोंके उन्हीं पुराने परिचित चेहरों, रूपों, आकृतियोंको पहिचान रहा हूँ, बल्कि अपने प्रांत बंगालके भी यद्यपि, वह बंगालकी समानता अपेक्षाकृत कम व्यापक रूपमें फैली हुई थी । जो छाप मुझपर पड़ी वह यह थी कि मानो उत्तरकी सभी जातियों, उपजातियोंकी एक सेना दक्षिणमें उतरकर आयी हो और आकर जो कोई भी लोग यहाँ पहिले से बसे हुए हों उन्हें अपने अंदर निमज्जित कर लिया हो । दक्षिणीय रूप ( type) की एक सामान्य छाप बची एही, परंतु व्यक्तियोंकी मुखाकृतियोंका अध्ययन करते हुए उस रूपको दृढ़ताके साथ स्थापित कर सकना असंभव था । और अंतमें यह घारणा बनाये बिना मैं नहीं रह सका कि जो कुछ भी संकर हो गये हों, चाहे जो भी प्रादेशिक भेद विकसित हो गये हों, सब विभेदोंके पीछे सारे भारतमें जैसे एक सांस्कतिक वैसे ही एक भौतिक रूप (type)1 की एकता भी अवश्य है । शेषत:, यह है परिणाम जिसकी ओर पहुँचनेकी स्वयं जाति-विज्ञान-संबंधी विचार2 भी बहुत अधिक प्रवृत्ति रखता है ।
तो फिर उस तीव्र भेदका क्या होगा जो भाषाविज्ञानियोंने आर्य तथा द्राविड़ जातियोंके बीच बना रचा है ? वह समाप्त हो जाता है । यदि किसी तरह आर्यजातिके .आक्रणको मान ही लिया जाय, तो हमें या तो यह मानना होगा कि इसने भारतको आर्योंसे भर दिया और इस तरह बहुत थोड़े-से अन्य परियर्तनोके साथ इसीने यहाँके लोगोंके भौतिक रूपको निश्चित किया, अथवा यह मानना पड़ेगा कि एक कम सभ्य जातिके छोटे-
1. मैंने यह पसंद किया है कि यहां जाति (race) शब्द का प्रयोग न करूं क्योंकि जाति एक ऐसी चीज है है जो, जैसा कि इसके बिषय में साधारणतया समझ जाता है | उसकी अपेक्षा, बहुत अधिक अस्पष्ट है और इसका निश्चय करना बहुत कठिन है । 'जाति' के विषय में सोचते हुए सर्वसाधारण मन में ओ तीन भेदे प्रर्चीलत हैं वे यहां कुछ भी प्रयोजन के नहीं ।
2. ऐसा मैंने सदा यह मानते हुए कहा है कि कम-से-कम आतिविज्ञानसंबंधी कल्पनाएं किसी प्रमाण पर आाश्रित हैं । आतिविज्ञान का एकमात्र दृढ़ आधार यह मत है कि मनुष्य का कपाल वंशपरंपरा से अपरिवर्तनीय है पर इस मत को अब ललकार आने लगा है | यदि यह प्रसिद् हो जाता है तो इसके साथ यह सारा-का-सारा विज्ञान ही प्रसिद्ध हो जाता है |
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छोटे दल ही यहाँ आ घुसे थे, जो बदलकर धीरे-धीरे आदिम निवासियों जैसे हो गये । तो फिर आगे हमें यह कल्पना करनी पड़ती है कि ऐसे विशाल प्रायद्वीपमें आकर भी जहां कि सभ्य लोग रहते थे, जो बड़े-बड़े नगरोंको बनानेवाले थे, दूर-दूर तक व्यापार करनेवाले थे, जो मानसिक तथा आत्मिक संस्कृतिसे भी शून्य नहीं थे, उनपर वे आक्रान्ता अपनी भाषा, घर्म, विचारों. और रीति-रियाजोंको थोप देनेमें समर्थ हो सके । ऐसा कोई चमत्कार तभी संभव हो सकता था, यदि आक्रान्ताओंकी बहुत ही अधिक संगठित अपनी भाषा होती, रचनात्मक मनकी, अधिक बड़ी शक्ति होती और अपेक्षाकृत अधिक प्रबल धार्मिक विधि और भावना होती ।
और दो जातियोंके मिलानेकी कल्पनाको पुष्ट करनेके लिये भाषाके भेदकी बात तो सदा विद्यमान थी ही । परंतु इस बिषयमें भी मेरे पहिलेके बने हुए विचार गड़बड़. और भ्रांत निकले । क्योंकि तामिल शब्दोंकी परीक्षा करनेपर, जो यद्यपि देखनेमें संस्कृतके रूप और ढंगसे बहुत अधिक भिन्न प्रतीत होते थे, मैने यह पाया कि वे शब्द या शब्द-परिवार जो विशुद्ध रूपसे ताभिल ही समझे जाते थे, संस्कृत तथा इसकी दूरवर्ती बहिन लैटिनके बीचमें और कभी-कभी ग्रीक तथा संस्कृतके बीचमें नये संबंधोकी स्थापना करनेमें मेरा पथप्रदर्शन करते थे । .कभी-कभी तामिल शब्द न केवल शब्दोंके परस्पर-संबंधका पता देते थे, बल्कि संबद्ध शब्दोंके परिवारमें किसी ऐसी कड़ीको भी सिद्ध कर देते थे जो मिल नहीं रही होती थी । और इस द्वाविड़ :भाषाके द्वारा ही मुझे पहिले-पहल आर्य भाषाओंके नियमका जो मुझे अब सत्य नियम प्रतीत होता है, आर्य भाषाओंके उत्पत्ति-बीजोंका, था यों कहना चाहिये कि, मानो इनकी गर्भविद्याका पता मिला था । मैं अपनी जांचको पर्याप्त दूर तक नहीं ले जा सका जिससे कि! कोई निश्चित परिणाम स्थापित कर सकता, परंतु यह मुझे निश्चित रूपसे प्रतीत होता है कि द्राविड़ और आर्य, भाषाओंके बीचमें मौलिक संबंध उसकी अपेक्षा कहीं अधिक घनीनिष्ठ और विस्तृत था जितना प्राय: माना जाता है और संभावना तो यह प्रतीत होती है की वे एक ही लुप्त आदिम भाषासे निकले हुए दो विभिन्न परिवार हों । यदि ऐसा हो तो द्राविड़ भारतपर अर्योंके आक्रमण होनेके विषयमें एकमात्र अवशिष्ट साक्षी यही रह जाती है कि वैदिक सूक्तोंमें इसके निर्देश पाये जाते हों ।
इसलिये मेरी दोहरी दिलचस्पी थी, जिससे प्रेरित होकर मैंने पहिले-पहल मूल वेदको अपने हाथमें लिया, यद्यपि उस समय मेरा कोई ऐसा इरादा नहीं' था कि मैं वेदका सूक्ष्म या गंभीर अध्ययन करूँगा । मुझे देखनेमें
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अधिक समय नहीं लगा की वेदमें कहे जानेवाले आर्यों और दस्युओंके बीचमें जातीय विभाग-सूचक निर्देश तथा यह बतानेवाले निर्देश कि दस्यु और आदिम भारतनिवासी एक ही थे, जितनी कि मैंने कल्पना की हुई थी, उससे भी कहीं अघिक नि:सार हैं । परंतु इससे भी अधिक दिलचस्पीका विषय मेरे लिये यह था कि इन प्राचीन सूक्तोंके अंदर गंभीर अध्यात्मिक विचारों और अनुभूतियोका जो बड़ा भारी समुदाय उपेक्षित पड़ा था उसका मुझे पता लग गया और इस अंगकी महत्ता तब मेरी दृष्टिमें और भी बढ़ गई जब पहिले तो, मैने यह देखा कि वेदके मंत्र एक स्पष्ट और ठीक प्रकाशके साथ मेरी अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियोंको प्रकाशित करते हैं, जिनके लिये न तो योरोपियन अध्यात्म-विज्ञानमें, न ही योग की या वेदांतकी शिक्षाओंमें जहाँतक मैं इनसे परिचित था, मुझे कोई पर्याप्त स्पष्टीकरण मिलता था । और दूसरे यह कि वे उपनिषदोंके उन धुँधले संदर्भों और विचारों पर प्रकाश डालते थे जिनका पहिले मैं कोई ठीक-ठीक अर्थ नहीं कर पाता था, और इसके साथ ही इनसे पुराणोंके भी बहुतसे भागका एक नया अभिप्राय पता लगता था ।
इस परिणाम पर पहुँचनेमें सौभाग्यवश मैनै जो सायणके भाष्यको पहिले नहीं पढ़ा था उसने मेरी बहुत मददकी । क्योंकि मैं स्वतन्त्र था कि वेदके बहुतसे सामान्य और बार-बार आनेवाले शब्दोंको उनका जो स्वाभाविक आध्यात्मिक अर्थ है वह दे सकूं, जैसे कि 'घी'का अर्थ विचार या समझ, 'मनस्'का' अर्थ मन, 'मूर्ति' का अर्थ विचार, अनुभव या मानसिक अवस्था, 'मनीषा'का अर्थ बुद्धि, 'ऋतम्'का अर्थ सत्य; और मैं स्वतन्त्र था कि शब्दोंको उनके अर्थकी वास्तविक प्रतिच्छाया दे, सकूं, 'कवि'को द्रष्टाकी, 'मनीषी'-को विचारककी, 'विप्र, विपश्चित्'को प्रकाशित मनसे युक्तकी, इसी प्रकारके और भी कई शब्दोंको; और मैं स्वतन्त्र था कि कुछ शब्दोंका एक आध्यात्मिक अर्थ-जिसे मेरे अधिक व्यापक अध्ययनने भी यूक्तियुक्त ही प्रमाणित किया था--प्रस्तुत करनेका साहस करूं जैसे कि 'वक्ष''का जिसका कि सायणके अनुसार 'बल' अर्थ है और 'श्रवस्''का जिसके सायणने घन, दौलत, अन्न या कीर्ति ये अर्थ किये हैं | वेदके विषयमें आध्यात्मिक .अर्थका सिद्धान्त इन शब्दोंका स्वाभाविक अर्थ ही स्वीकार करनेके हमारे अधिकारपर आधार रखता है ।
सायणने 'घी', 'ॠतम' आदि शब्दोंके बहुत ही परिवर्तनशील अर्थ किये हैं । 'ॠतम्' शब्दका, जिसे हम मनोवैज्ञानिक या आध्यात्मिक व्याख्याकी लगभग कुञ्जी कह सकते है, सायणने कभी कभी 'सत्य', अघिकतर 'यज्ञ'
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और .किसी-कीसी जगह 'जल' अर्थ किया है । आध्यात्मिक व्याख्याके अनुसार निश्चित रूपसे इसका अर्थ सत्य होता है । 'घी'के सायणने 'विचार', 'स्तुति', 'कर्म', 'भोजन' आदि अनेक अर्थ किये है । आध्यात्मिक व्याख्या के अनुसार नियत रूपसे, इसका अर्थ विचार या, समझ है । और यही बात वेदकी अन्य नियत संज्ञाओंके सम्बन्धमें है । इसके अतिरिक्त, सायणकी प्रवृत्ति यह है कि वह शब्दोंके अर्थोंकी छायाओंको और उनमें जो सूक्ष्म अन्तर होता है उसे बिल्कुल मिटा देता है और उनका जो अधिक-से-अधिक स्थूल सामान्य अर्थ होता है वही कर देता है । सारे-के-सारे विशेषण जो किसी मानसिक क्रियाके द्योतक है, उसके लिये एकमात्र 'बुद्धिशाली' अर्थको देते हैं, सारे-के-सारे शब्द जो शक्तिके विभिन्न विचारोंके सूचक हैं--और वेद उनसे भरा पड़ा है--बलके स्थूल अर्थमें परिणत कर दिये गये हैं । इसके विपरीत, वेदाध्ययनसे मुझपर तो इस बातकी छाप पड़ी कि .वेदके अर्थोंकी ठीक-ठीफ छायाको नियत करने तथा उसे सुरक्षित रखनेकी और विभिन्न शब्दोंके अपने ठीक-ठीक सहचारी सम्बन्ध क्या हैं उन्हें निश्चित करनेकी बड़ी भारी महत्ता है, चाहे वे शब्द अपने सामान्य अभिप्रायमें परस्पर कितना ही निकट सम्बन्ध क्यों न रखते हों । सचमुच, मैं नहीं समझ पाता कि हमें क्यों यह कल्पना कर लेनी चाहिये कि वैदिक ऋषि, काव्यात्मक शैलीमें सिद्धहस्त अन्य रचयिताओंके विसदृश, शब्दोंको अव्यवस्थित रूपसे और अविवेकपूर्णताके साथ प्रयुक्त करते थे, उनके ठीक-कीक सहचारी सम्बन्धोंको अनुभव किये बिना ही और शब्दोंकी श्रुखलामें उन्हें उनका ठीक-ठीक और यथोचित बल प्रदान किये बिना ही प्रयुक्त करते थे ।
इस नियमका अनुसरण करते-करते मैंने पाया कि शब्दों और वाक्य-खण्डोंके सरल, स्वाभाविक और सीधे अभिप्रायको बिना छोड़े ही, न केवल पृथक्-पृथक् ॠचाओंका बल्कि सम्पूर्ण सन्दर्भोंका एक असाधारण विशाल समुदाय तुरन्त ही बुद्धिगोचेर हो गया, जिसने वेदके, सारे स्वरूपको ही पूर्णरूपसे बदल दिया । क्योंकि तब यह घर्म-ग्रन्थ वेद ऐसा प्रतीत होने लग गया कि यह अत्यन्त बहुमूल्य विचार-रूपी सुवर्णकी एक स्थिर रेखाको अपने अन्दर रखता है और आध्यात्मिक अनुभूति इसके अंश-अंशमें चमकती हुई प्रवाहित हुई हो रही है, जो कहीं छोटी-छोटी रेखाओंमें, कहीं बड़े-बड़े समूहोंमें, इसके अधिकांश सूक्तोंमें दिखाई देती है । साथ ही, उन शब्दोके अतिरिक्त जो अपने स्पष्ट और सामान्य अर्थसे तुरन्त ही अपने प्रकरणोंको आध्यात्मिक अर्थकी सुवर्णीय रंगत दे देते हैं, वेद अन्य भी ऐसे वहुतसे शब्दोंसे भरा पड़ा है जिनके लिये यह सम्भव है कि, वेदके सामान्य अभिप्रायके विषयमें
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हमारी जो धारणा हो उसीके अनुसार, चाहे तो उन्हें बाह्य और प्रकृति-वादी अर्थ दिया जा सके, चाहे एक आभ्यन्तर और आध्यात्मिक अर्थ । उदाहरणार्थ, इस प्रकारके शब्द जैसे कि रै, रयी, राषस, रत्न केवल भौतिक समूद्धि या घनदौलतके वाचक भी हो सकते हैं और आन्तरिक ऐश्वर्य तथा समृद्धिके भी । क्योंकि ये मानसिक जगत् और बाह्य जगत् दोनोंके लिये एकसे प्रयुक्त हो सकते हैं । घन, वाज, पोषका अर्थ बाह्य धनदौलत, समृद्धि और पुष्टि भी हो सकता है अथवा सभी प्रकारकी सम्पत्तियां चाहे वे आन्तरिक हों चाहे चाह्य, और व्यक्तिके जीवनमें उनकी प्रचुरता और वृद्धि । उपनिषद्में ऋग्वेदके एक उद्धरणकी व्याख्या करते हुए 'राये'को आध्यात्मिक सम्पत्तिके अर्थमें प्रयुक्त किया है, तो फिर मूल वेदमें इसका यह अर्थ क्यों नहीं हो सकता ? 'बाज' बहुधा ऐसे सन्दर्भमें आता है जिसमें अन्य प्रत्येक शब्द आध्यात्मिक अभिप्राय रखता है, जहां भौतिक समृद्धिका उल्लेख समस्त एकरस विचारके अन्दर असंगतिका एक तीव्र बेसुरापन लादेगा । इसलिये सामान्य बूद्धिकी मांग है कि वेदमें इन शब्दोंका प्रयोगको आध्यात्मिक अभिप्राय देनेवाला ही स्वीकार करना चाहिये ।
परन्तु यदि यह संगतिपूर्वक किया जा सके तो इससे न केवल समूची ऋचाएं और, संदर्भ, बल्कि समूचे सूक्त तुरन्त आध्यात्मिक रंगसे रंग जाते हैं । एक ही शर्त है जिसपर वेदोंका यह आध्यात्मिक रंगमें रंगा जाना प्रायः पूर्ण होगा, एक भी शब्द या एक भी वाक्यखण्ड इससे प्रभावित हुए बिना नहीं बचेगा, वह शर्तें यह है कि हमें वैदिक 'यज्ञं'को प्रतीकरूपमें स्वीकार करना चाहिये । गीतामें हम पाते हैं कि 'यज्ञ'का प्रयोग उन सभी कर्मोंके प्रतीकके रूपमें किया गया है, चाहे वे आन्तर हों चाहे बाह्य, जो देवोंको या ब्रह्मको समर्पित किये जाते है । इस शब्दका यह प्रतीकात्मक प्रयोग क्या उत्तरकालीन दार्शनिक बुद्धिका पैदा किया हुआ है, अथवा यह यज्ञके वैदिक विचारमें पहिलेसे अन्तर्निहित था ? मैंने देखा कि स्वयं वेदमें ही ऐसे सूक्त हैं जिनमें 'यज्ञ'का अथवा बलिका विचार खुले तौर पर प्रती-कात्मक है, और दूसरे कुछ सूक्तोंमें यह प्रतीकात्मकता अपने ऊपर पड़े आवरणमेंसे स्पष्ट दिखाई देती है । तब यह प्रश्न उठा कि क्या ये सूक्त बादकी रचनाएं हैं जो पुराने अन्घ विश्वासपूर्ण विधि-विषानोंमेंसे एक प्रारम्भिक प्रतीकवादको विकसित करती हैं अथवा, इसके विपरीत, क्या ये अवसर पाकर कहीं-कहीं उस अर्थका अघिक स्पष्ट रूपमें प्रतिपादन करते हैं जो अविकतर सूक्तोंमें कम-अधिक सावघानीके साथ अलंकरके पदेंसे ढका हुआ रखा । यदि वेदमें आध्यात्मिक संदर्भ सतत रूपसे न पाये जाते तो
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निस्संदेह पहिले स्पष्टीफरणको ही स्वीकार किया जाता । परन्तु इसके विपरीत, सारे सूक्त स्वभायत: एक आध्यात्मिकि अर्थको लिये हुए हैं जिनमें एकसे दूसरे मन्त्रमें एक पूर्ण और प्रकाशमय संगीत है, अस्पष्टता केवल वहां आती है जहां यज्ञका उल्लेख है या हविका अथवा कहीं-कहीं यज्ञ-संचालक पुरोहितका, जो या तो मनुष्य हो सकता है या देवता । यदि मैं इन शब्दोंकी प्रतीकात्मक व्याख्या कर पता था तो मैं हमेशा यह देखता था कि विचारकी श्रंखला. अधिक पूर्ण, अधिक प्रकाशमय, अधिक संगत हो जाती थी और पूरे-के-पूरे, सूक्तका आशय उज्जवल रूपसे पूर्ण हो जाता था । इस-लिये स्वस्थ समालोचनाके प्रत्येकं नियमके द्वारा मैने इसें न्यायोचित अनुभव किया कि मैं अपनी कल्पनाके अनुसार आगे चलता चलूं और इसमें वैदिक यज्ञके प्रतीकात्मक. अभिप्रायको भी सम्मिलित कर दूं ।
तो भी यहीं पर आध्यात्मिक व्याख्याकी सर्वप्रथम वास्तविक कठिनाई आकर उपस्थित हो जाती है । अबतक तो मैं एक पूर्ण रूपसे सीधी और स्वाभाविक व्याख्यापद्धतिसे चल रहा था जो शब्दों और वाक्योंके ऊपरी अर्थ पर निर्भर थी । पर अब मैं एक ऐसे तत्त्व पर आ गया जिसमें एक दृष्टिसे ऊपरी अर्थ को अतिक्रमण कर जाना' पड़ता था, और यह ऐसी पद्धति थी जिसमें प्रत्येक समालोचक और सदसदविवेकी व्यक्तिका मन अवश्य अपने-आपकों निरन्तर सुन्देहोसे आक्रान्त पायेगा | इस तरह कोई भी, चाहे वह कितनी भी सावधानी रक्खे, इस बातमें सदा निश्चित नहीं हो सकता कि उसने ठीक सूत्र ही पकड़ा है और उसे ठीक व्याख्या ही सूझी है ।
वैदिक यज्ञके अन्तर्गत-एक क्षणके लिये देवता और. मन्त्रको छोड़ दे तो-तीन अंग हैं. हवि देनेवाले, हवि और हविके फल | यदि 'यज्ञ' एक कर्म है जो देवताओंको समर्पित किया जाता है तो 'यजमान'' को, हवि देनेवालेको मैं यह समझे बिना नहीं रह सकता कि वह उस कर्मका कर्ता है । ' यज्ञ'-का अभिप्राय है कर्म, वे कर्म आन्तरिक हो या बाह्य, इसलिये 'यजमान' होना चाहिये आत्मा अथवा! वह व्यक्तित्व जो कर्ता है । परंतु साथ ही यज्ञ-प्तंचालक, पुरोहित भी होते थे, होता, ॠत्विक्, पुरोहित, ब्रह्मा, अध्वर्यु आदि । इस प्रतीकात्मकवादमें उनका कौन-सा भाग था ? क्योंकि एक बार यदि यज्ञके लिये हम प्रतीकात्मक अभिप्रायकी कल्पना कर लेते हैं तो इस यज्ञ-विघिके प्रत्येक अंगका हमें प्रतीकात्मक मूल्य कल्पित करना चाहिये । मैने पाया की देवताओंके विषयमें सतत रूपसे यह कहा गया है कि वे यज्ञके पुरोहित हैं और बहुतसे संदर्भोंमें तो प्रकट रूपसे एक अमुाषी सत्ता या शक्ति ही यज्ञका अधिष्ठान करती है । मैने यह भी देखा की सारे वेदमें
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हमारे व्यक्तित्वको बनानेवाले तत्त्व स्वयं सतत रूपसे सजीव शरीरघारी मानकर वर्णित किये गये है । मुझे इस नियमको केवल उलट करके प्रयुक्त करना था और यह कल्पना करनी थी कि बाह्य अलंकारमें जो पुरोहितका व्य व्यक्तित्व है वह आभ्यंतर क्रियाओंमें आलंकारिक रूपसे एक अमानुषी सत्ता या शक्तिको अथवा हमारे व्यक्तित्वके किसी तत्त्वको सूचित करता है । फिर अवशिष्ट रह गया पुरोहितसंबंघी भिन्न-भिन्न कार्योंके लिये आध्यात्मिक अभिप्राय नियत करना । यहाँ मैने पाया कि वेद स्वयं अपने भाषासंबंधी निर्देशों औंर दृढ़ शक्तियोंके द्वारा हमें मूलसूत्रको पकड़ा रहा है, जैसे, 'पुरोहित' शब्दका प्रतिनिधिके भावके साथ अपने असमस्त रूपमें, पुर:-हित "आगे रखा हुआ'' इस अर्थमें प्रयुक्त होना और प्राय: इससे अग्निदेवताका संकेत किया जाना; यह अग्नि मानवतामें उस दिव्य संकल्प या दिव्य शक्तिका प्रतीक है जो यज्ञरूपसे किये जानेवाले सब पवित्र कर्मोंमें क्रियाकी सञ्जालिका
होती हैं ।
हवियोंको समझ सकना और भी अधिक कठिन था । चाहे सोम-सुरा भी, जिन प्रकरणोंमें इसका वर्णन है उनके द्वारा, अपने. वर्णित उपयोग और प्रभावके. द्वारा और अपने .पर्यायवाची शब्दोंसे मिलनेवाले भाषा-विज्ञान- संबंधी निर्देशके द्वारा स्वयं अपनी व्याख्या कर सकती थी, पर यज्ञके घी, 'धृतम्'का क्या अभिप्राय लिया जाना संभव था ? तो भी वेदमें यह शब्द जिस रूपमें प्रयुक्त हुआ है वह .इसीपर बल देता था कि इसकी प्रती- कात्मक व्याख्या. ही होनी. चाहिये । उदाहरणार्थ, अंतरिक्षसे. बूंदरूपमें गिरनेवाले घृतका या .इन्द्रके षोड़ोंमेंसे क्षरित .होनेवाले अथवा मनसे क्षरित होनेवाले घृतका क्या अर्थ हो सकता था ? स्पष्ट ही यह एक बिल्कुल असंगत और व्यर्थकी बात होती, यदि घी अर्थको देनेवाले 'धृत' शब्दका इसक अतिरिक्त कोई और अभिप्राय होता कि यह किसी बातके लिए एक ऐसा प्रतीक है जिसका प्रयोग बहुत. शिथिलताके साथ किया. गया है, यहांतक कि विचारक को बहुधा अपने मनमें, इसके बाह्य अर्थको सवाँशमें गा आशिक रूपसे अलग रख देना चाहिये । नि :संदेह यह भी संभव था कि आसानीके साथ इन शब्दोंके अर्थको प्रसंगानुसार बदल दिया जाय, 'धृत'क़ो कहीं घी और कहीं पानीके अर्थमें ले लिया जाय तथा 'मनस्'का अर्थ कहीं मन और कहीं अन्न या अपूप कर लिया जाय । परंतु मुझे पता लगा कि 'धृत' सतत रूपसे विचार या मनके साथ प्रयुक्त हुआ है तथा वेदमें 'द्यो' मनका प्रतीक है और 'इन्द्र' प्रकाशयुक्त मनोवृत्तिका प्रतिनिधि है और उसके दो घोड़े उस मनोवृत्तिकी द्विविध शक्तियां हैं । मैंने यहांतक देखा कि वेद कहीं-कहीं साफ
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तौरसे बुद्धि ( धिषणा ) की शोषित धृतके रूपमें देवोंके लिये हवि देनेको कहता है, 'ध्रुतं. न पूतं धिषणाम्_ ( 3-2-1 ). । 'धृत' शब्दकी भाषविज्ञानकी द्रृष्टि-से जो व्याख्याएं की जाती हैं, उनमें भी इसका एक अर्थ अत्यधिक था उष्ण चमक है । इन सब निर्देशोंकी अनुकूलताक आधार पर ही मैने अनुभव किया कि 'धृत'के प्रतीककी यदि मैं कोई आध्यात्मिक व्याख्या करता हूं. तो मैं ठीक रास्ते पर हूं । और इसी नियम तथा. इसी प्रणालीको मैंने यज्ञके दूसरे अंगोंमें भी प्रयुक्त करने .योग्य पाया ।
हविके फल देखनेमें विशुद्ध .रूपसे भौतिक प्रतीत होते थे--गौएँ, घोडे, सोना, अपत्य, मनुष्य, शारीरिक बल, युद्धमें विजय । यहां कठिनाई और भी दुस्तर हो गयी. । पर यह मुझे पहले ही दीख चुका था कि वेद की 'गौ' बहुत ही. पहेलीदार प्राणी है, यह किसी पार्थिव गोशालासे नहीं आया है । 'गौ' शब्द के दोनों अर्थ है, गाय और प्रकाश, और कुछ एक संदर्भों में तो, चाहे हम गाय के प्रतीकको अपने सामने रखें भी, तो भी स्पष्ट ही इसका अर्थ प्रकाश ही होता था । यह. पर्याप्त स्पष्ट हो जाता है जब हम सूर्यकी गौओं--होमर (Homer) कविकी हीलियसकीं गौओं--और उषा की गौओं पर विचार करते हैं । आध्यात्मिक रूपमें, भौतिक प्रकाश ज्ञानके--विशेषकर दिव्य ज्ञानके-प्रतीकके रूपमें अच्छी तरह प्रयुक्त किया जा सकता हैं । परंतु यह तो केवल संभावनामात्र थी, इसकी परीक्षा और प्रमाणसे स्थापना कैसे होती ? मैंने पाया कि ऐसे संदर्भ आते हैं, जिनमें आसपासका सारा ही प्रकरण अध्यात्मपरक है और केवल 'गौ'का प्रतीक ही अपने अड़ियल भौतिक अर्थके साथ बीचमें आकर बाधा डालता है । इन्द्रका आह्वान सुन्दर (पूर्ण ) रूपोंके निर्माता, 'सुरूपकृत्नु तौर पर किया गया है कि वह आकर सोमरसको पिये; उसे पीकर बह आनन्दमें भर जाता है और गौओंको देनेवाला ( गोदा: ) हो जाता है, तब हम उसके समीपतम या चरम सुविचारोंको प्राप्त कर सकते हैं, तब हम उससे प्रश्न करते हैं और उसका स्पष्ट विवेक हमें हमारे सर्वोच्च कल्याणको प्राप्त कराता है1 । यह स्पष्ट है कि इस, प्रकारके संदर्भोंमें गौएं भौतिक गाये नहीं हो सकतीं, नाहीं 'भौतिक प्रकाशको देनेवाला' यह अर्थ प्रकरणमें किसी अभिप्रायको लाता है । कम-से-कम एक उदाहरण मेरे सामने ऐसा आया जिसने मेरे मनमें यह निश्चित रूपसे स्थापित कर दिया कि वहां वैदिक गौ आध्यात्मिक प्रतीक ही है । तब मैंने इसे उन दूसरे संदर्भोंमें प्रयुक्त किया जहां 'गौ' शब्द
1. यह ॠग्वेद मंडल 1 सूक्त 4 के आधारपर हैं | ---अनुवादक
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आता या सर्वदा मैंने यही पाया की परिणाम यह होता था कि इससे प्रकरणका अर्थ अच्छे-से-अच्छा .हो जाता था और उसमें अघिक-से-अघिक संभवनीय संगति आ जाती थी ।
गाय और घोड़ा 'गो' , और 'अश्व' निरन्तर इकट्ठे आते हैं । उषाका वर्णन इस रूपमें हुआ है कि वह 'गोमती अश्वावती' है उषा यज्ञकर्त्ता (यजमान ) को घोड़े और गौएं देती है । प्राकृतिक उषाको ले तो 'गोमती'का अर्थ है प्रकाशकी किरणोंसे युक्त या प्रकाशकी किरणोंको जाती हुई और यह मानवीय मनमें होनेवाली प्रकाशकी उषाके लिये एक रूपक है । इसलिए 'अश्यावती' विशेषण भी एकमात्र भौतिक घोड़ोंका निर्देश करनेवाला नहीं हो सकता, साथमें इसका कोई आध्यात्मिक अर्थ भी अवश्य होना चाहिये ।. वैदिक 'अश्व'का अध्ययन करने पर. मैं इस परिणामपर पहुंचा कि 'गौं' और अश्व वहां प्रकाश और शक्तिके, ज्ञान और बलके दो सहचर विचारोंके प्रतिनिधि हैं जो वैदिक और वैदांतिक. मनके लिये सत्ताकी सभी क्रियाओंके द्विविध या युगलरूप पक्ष होते थे ।
इसलिए यह स्पष्ट हो गया कि वैदिक यज्ञके दो मुख्य फल गौओंकी संपत्ति और घोड़ोंकी संपत्ति, क्रमश: मानसिक प्रकाशकी समृद्धि और जीवन-शक्तिकी बहुलताके प्रतीक हैं । इससे परिणाम निकला कि. वैदिक कर्म (यज्ञ) के इन दो मुख्य फलोंके साथ निरन्तर संबद्ध जो दूसरे फल हैं उनकी भी अवश्यमेव आध्यात्मिक व्याख्या हो सकनी चाहिये । शेष केवल यह रह गया कि उन सबका ठीक-ठीक अभिप्राय नियत किया जाय ।
वैदिक प्रतीकवादका एक दूसरा अत्यावश्यक अंग है लोकोंका संस्थान और देवताओंके व्यापार । लोकोंके प्रतीकवादका सूत्र मुझे 'व्याहतियों'के वैदिक विचारमें, ''ओ३म् भूर्भुवः स्व:'' इस मंत्रके तीन प्रतीकात्मक शब्दों-में और चौथी व्याहति 'मह:'का आध्यात्मिक अर्थ रखनेवाले 'ॠत' शब्दके साथ जो संबंघ है उसमें मिल गया । ॠषि विश्वके तीन विभागोंका वर्णन करते हैं, पृथिवी, अंतरिक्ष या मध्यस्थान और घौ, परंतु साथ ही एक आध्यात्मिक बड़ा द्यौ (वृहत् द्यौ ) भी है, जिसे विस्तृत लोक् (वृहत् ) भी कहा गया है और कहीं-कहीं जिसे महान् जल, 'महो अर्णः'के रूपमें भी वर्णित किया गया है । फिर इस ' बृहत्'का 'ॠतम् बृहत्' इस रूपमें अथवा 'सत्यम् ॠतम् बृहत्'1 इन तीन शब्दोंकी परिभाषाके रूपमें वर्णन मिलता है । और क्योंकि तीन लोक प्रारंभिक तीन व्याह्रतियोंसे सूचित होते हैं,
1. सत्यम् बृहत् ऋतम् | अथर्व० 12-1-1
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इसलिये बृहत्'के और ॠत'के इस चौथे लोकका संवंध उपनिषदोंमें उल्लेखित चौथी व्याहृति 'मह:'से होना चाहिये । पौराणिक सूत्रमें ये चार तीन अन्य--'जन:', ' तप:', 'सत्यम्' से मिलकर पूर्ण होते हैं, जो तीन कि हिंदू सृष्टि-विज्ञानके तीन उच्च लोक हैं । वेदमें भी हमें तीन सर्वोच्च लोकोंका उल्लेख मिलता है, यद्यपि उनके नाम नहीं दिये गये हैं । परंतु वैदांतिक और पौराणिक सम्प्रदायमें ये सात लोक सात आध्यात्मिक तत्त्वों या सत्ताके सात रूपों-सत्, चित्, आनंद, विज्ञान, मन, प्राण, अन्न-को सूचित करते हैं । अब यह मध्यका लोक विज्ञान, जो 'मह:'का लोक है, एक महान् लोक है, वस्तुओंका सत्य है, और यह तथा वैदिक 'ॠतम्' जो 'बृहत्'का लोक है, दोनों एक ही हैं, और जहाँ पौराणिक संप्रदायके 'मह:'के बाद, यदि नीचेसे ऊपरका क्रम लें तो, 'जन:' आता है, ( जो आनन्दका, दिव्य सुखका लोक है ) वहाँ वेदमें भी ' ॠतम्' अर्थात् .सत्य ऊपरकी ओर 'मय:' तक, सुख तक, ले जाता है । इसलिये हम उचित रूपसे इस निश्चय पर पहुंच सकते हैं कि ( पौराणिक तथा वैदिक ) ये दोनों सम्प्रदाय, इस बिषयमें एक हैं और दोनोंका आधार इस एक विचार पर है कि अन्दर अपनी चेतनाके सात तत्त्व है जो बाहर सात लोकोंके रूपमें अपने-आपको प्रकट करते? हैं । इस सिद्धान्त पर मैं वैदिक लोकोंकी तदनुसारी चेतनाके आध्यात्मिक स्तरोंके साथ एकता स्थापित-कर सका और तब सारा ही वैदिक संस्थान मेरे मनमें स्पष्ट हो गया ।
जब इतना सिद्ध हो चुका, तो जो बाकी था वह स्वभावत: और अनिवार्य रूपसे होने लगा । मैं यह पहिले ही देख चुका, था कि वैदिक ऋषियोंका केन्द्रीभूत विचार था--मिथ्याके बदले सत्यको, विभक्त तथा सीमाबद्ध जीवनके बदले समग्रता तथा असीमताको लाकर, मानवीय आत्माको मृत्युकी अवस्थासे अमरताकी अवस्थामें पहुँचा देना । मृत्यु है मन और प्राणको अपने अंदर आवेष्टित रखनेवाले जड़तत्त्वकी मर्त्य अवस्था, अमरता है असीम सत्ता, चेतना और आनन्दकी अवस्था । मनुष्य घौ और पृथ्वी, मन और शरीर इन दो लोकों, 'रोदसी'से ऊपर उठकर सत्यकी असीमतामे, 'मह:'में और इस प्रकार दिव्य सुखमें पहुँच जाता है । यही वह 'महापथ' है जिसे ॠषियोंने खोजा था ।
देवोके बिषयमें मैने यह वर्णन पाया कि वे प्रकाशसे उत्पन्न हुए हैं, 'अदिति' के, अनन्तताके पुत्र हैं, और बिना अपवादके उनका इस प्रकार वर्णन आता है कि वे मनुष्यकी उन्नति करते हैं, उसे प्रकाश देते हैं, उसपर पूर्ण जलोंकी, द्यौके ऐश्वर्यकी वर्षा करते हैं, उसके अन्दर सत्यको वृद्धि करते हैं, दिव्य लोकोंका निर्माण करते हैं, उसे सब आक्रमणोंसे बचाकर महान् लक्ष्य
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तक, अखण्ड समृद्धि तक, पूर्ण सुख तक पहुँचाते हैं । उनके पृथक्-पृथक् व्यापार उनकी क्रियाओंसे, उनके विशेषणोसे, उनसे सम्बद्ध कथानकोंका जो आध्यात्मपरक आशय होता था उससे, उपनिषदों और पुराणोंके निर्देशोसे तथा ग्रीक गाथाओं द्वारा कभी-कभी पड़नेवाले आंशिक प्रकाशोंसे निकल आते थे । दूसरी ओर दैत्य जो उनके विरोधी है, सबके सब विभाग तथा सीमाकी शक्तियां हैं, ये जैसा कि उनके नाम सूचित करते हैं, आच्छादक हैं, विदारक हैं, हड़प लेनेवाले हैं, घेरनेवाले हैं, द्वैष पैदा करनेवाले हैं, प्रति-बन्धक हैं, वे ऐसी शक्तियाँ हैं जो जीबनकी स्वतंत्र तथा एकीभूत सम्पूर्णताके विरुद्ध कार्य करती है । ये वृत्र, पणि, अत्रि, राक्षस, शम्बर, वल नमुचि कोई द्राविड़ राजा और देवता नहीं हैं, जैसा कि आधुनिक मन अपनी अतिको पहुँची हुई ऐतिहासिक दृष्टिसे चाहता है कि ये हों; ये. एक अधिक प्राचीन भावके द्योतक हैं जो हमारें पूर्व पितरोंके प्रबल, धार्मिक और नैतिक कार्य-व्यापारोंके अधिक अनुकूल था । ये उच्चतर भद्रकी तथा निम्नतर इच्छाकी शक्तियोंके बीचमें होनेवाले संघर्षके द्योतक हैं और ऋग्वेदका यह विचार तथा पुण्य और पापका इसी प्रकारका विरोध जो अपेक्षाकृत कम आध्यात्मिक सूक्ष्मताके साथ तथा अधिक नैतिक स्पष्टताके साथ पारसियोंके-हमारे इन प्राचीन पड़ोसियों और सजातीय बन्धुओंके-धर्मशास्त्रोंमें दूसरे प्रकारसे प्रकट किया गया है, सम्भवतः एक ही आर्यसंस्कृतिके मौलिक शिक्षणसे प्रादुर्भूत हुआ था ।
अन्तमें मैने देखा कि वेदका नियमित प्रतीकवाद विस्तार पाकर उन कथानकोंमें भी पहुँचा हुआ है जिनमें देवोंका तथा प्राचीन ऋषियोंके साथ उनके संबंधका वर्णन है । इसकी पूर्ण सम्भावना है कि इन गाथाओंमेसे यदि सबका नहीं तो कुछका मूल तो प्रकृतिवादी तथा नक्षत्रविद्यासम्बन्धी रहा हो, पर यदि ऐसा रहा हो तो इनके प्रारम्भिक अर्थकी आध्यात्मिक प्रतीकवादके द्वारा पूर्ति की गयी थी । एक बार यदि वैदिक प्रतीकोंका अभिप्राय ज्ञात हो जाय तो इन कथानकोंका आध्यात्मिक अर्थ स्पष्ट तथा सुनियत हो जाता है । वेद का प्रत्येक तत्त्व उसके दूसरे प्रत्येक तत्त्वके साथ अवियोज्य रूपसे गूंथा हुआ है और इन रचनाओंका स्वरूप ही हमें इसके लिये बाध्य करता है कि हमने एक बार व्याख्याके जिस नियमको स्वीकार कर लिया है उसे हम अधिक-से-अधिक युक्तिसंगत दूरी तक ले जायं । इनकी सामग्री बड़ी चतुराईक साथ दृढ हाथोके द्वारा मिलाकर जोड़ दी गयी है और इनपर हमारे काम करनेमें यदि कोई असंगति बरती जाती है तो उससे इनके अभिप्राय और इनकी सुसम्बद्ध विचार-शृखलाका सारा ताना-बना ही टूट जाता है |
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इस प्रकार वेद, मानो अपनी प्राचीन. ॠचाओंमेसे अपने-आपको प्रकट करता हुआ, मेरे मनके सामने .इस रूपमें उभर आया कि यह सारा-का-सारा ही एक महान् और प्राचीन धर्मकी, जो पहिलेसे ही एक गम्भीर आध्यात्मिक शिक्षणसे विभूषित था, धर्मपुस्तक है, ऐसी घर्मपुस्तक नहीं जो गड़बड़ विचारोसे भरी हो या जिसकी प्रतिपाद्य सामग्री आदिम हो, या जो परस्पर-विरुद्ध तथा जंगली तत्त्वोंकी खिचड़ी हो, बल्कि ऐसी धर्मपुस्तक है जो अपने लक्ष्य और अभिप्रायमें पूर्ण है तथा अपने आपसे अभिज्ञ है; यह अवश्य है कि यह एक दूसरे और भौतिक अर्थके आवरणसे ढकी हुई है, जो आवरण कहीं घना है और कहीं स्पष्ट, परन्तु यह क्षणभरके लिये भी अपने उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य तथा प्रवृत्तिको दृष्टिसे ओझल नहीं होने देती ।
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पाँचवाँ अध्याय
वेदकी भाषावैज्ञानिक पद्धति
वेदकी कोई भी व्याख्या प्रामाणिक नहीं हो सकती, यदि वह सबल तथा सुरक्षित भाषावैज्ञानिक आधारपर टिकी हुई न हो, तो भी यह धर्म-पुस्तक (वेद ) अपनी उस धुंधली तथा प्राचीन भाषाके साथ जिसका केवलमाक् यही लेख अवशिष्ट रह गया है अपूर्व भाषा-सम्बन्घी कठिनाइयोंको प्रस्तुत करती है । भारतीय विद्वानोंके परम्परागत तथा अधिकतर काल्पनिक अर्थोपर पूर्णरूपसे विश्वास कर लेना किसी भी समालोचनाशील मनके लिये असम्भव है । दूसरी तरफ आधुनिक भाषा-विज्ञान यद्यपी अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित और वैज्ञानिक आघारको पानेके लिये प्रयत्नशील है, पर अभी तक वह इसे पा नहीं सका है ।
वेदकी अध्यात्मपरक व्याख्यामें विशेषतया दो कठिनाइयाँ ऐसी हैं झिनका सामना केवलमात्र सन्तोषप्रद भाषावैज्ञानिक समाधानके द्वारा ही किया जा सकता है । पहली यह कि इस व्याख्यापद्धतिको वेदकी बहुत-सी नियत संज्ञाओं के लिये-उदाहरणार्थ, ऊति अवस्, वयस् आदि संज्ञाओंके लिये-कई नये अर्थोंको स्वीकार करनेकी आवश्यक्ता पड़ती है । हमारे ये नये अर्थ एक परीक्षामें तो पूरे उतरते हैं, जिसकी न्यायोचित रूपसे मांगकी जा सकती है, अर्थात् वे प्रत्येक प्रकरणमें ठीक बैठते हैं, आशय को स्पष्ट कर देते हैं और हमें इससे मुक्त कर देते हैं कि वेद जैसे अत्यधिक निश्चित स्वरूंपवाले ग्रन्थमें हमें एक ही संज्ञाके बिल्कुल भिन्न-भिन्न अर्थ करनेकी आवश्यकता पड़े । परन्तु यही परीक्षा पर्याप्त नहीं है । इसके अतिरिक्त, अवश्य ही हमारे पास भाषाविज्ञानका आधार भी होना चाहिये, जो न केवल नये अर्थका समाधान करे, परन्तु साथ ही इसका भी स्पष्टीकरण कर दे कि किस प्रकार एक ही शब्द इतने सारे भिन्न-भिन्न .अर्थोंको देने लगा--इस .अर्थको जो अध्यात्मपरक व्याख्याके अनुसार होता है, उन अर्थोंको जो प्राचीन वैयाकरणोंने किये है और उन अर्थोंको भी जो ( यदि वे कोई हों ) वदकी संस्कृतमें हो गये हैं । परंतु यह तबतक आसानीसे नहीं हो सकता जबतक हम अपने. भाषाविज्ञानसम्बन्धी परिणामोंके लिये उसकी अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक आधार नहीं पा लेते जो हमारे अबतकके ज्ञानसे प्राप्त है |
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दूसरे यह कि अध्यात्मपरक व्याख्याका सिद्धांत अधिकतर मुख्य शब्दोंके--उन शब्दोके जो रहस्यमय वैदिक शिक्षामें कुञ्जीरूप शब्द है-द्वयर्थक प्रयोग पर आश्रित है । यह वह अलंकार है जो परम्परा द्वारा संस्कृतसाहित्यमें भी आ गया है और कहीं कही पीछेके संस्कृतग्रंथोंमे अत्यधिक कुशलताके साथ प्रयुक्त हुआ है, यह है श्लेष या द्विविघ अर्थका अलंकार । परन्तु इसकी यह कुशलतापूर्ण. कृत्रिमता ही हमें यह विश्वास करनेके लिये प्रवृत्त करती है कि यह कवितामय चातुर्य अवश्य ही अपेक्षाकृत उत्तरकालका तथा अधिक मिश्रित व कृत्रिम सांस्कृतिका होना चाहिये । तो अधिकतम प्राचीन कालके किसी ग्रन्थमें इसकी सतत रूपसे उपस्थितिका हम कैसे समाधान कर सकते हैं ? इसके अतिरिक्त वेदमें तो हम इसके प्रयोगको अद्भूत रूपसे फैला हुआ पाते हैं; वहाँ संस्कृत धातुओंकी "'अनेकार्थता" के नियमको जानबूझकर इस प्रकार प्रयुक्त किया गया है जिससे एक ही शब्दमें जितने भी सम्भव अर्थ हो सकते हैं वे सब-के-सब आकर संचित हो जायँ, और इससे, प्रथम दृष्टिमें ऐसा लगता है कि, हमारी समस्या और भी असाधारण रूपसे बढ़ गयी है ।
उदाहरणके तौर पर 'अश्व' शब्द जिसका साधारणतः : घोड़ा अर्थ होता है, आलंकारिक रूपसे प्राणके लिये प्रयुक्त हुआ है--प्राण जो कि वात-शक्ति है जीवन-श्वास है, मन तथा शरीरको जोड़नेवाली एक अर्धमासिक, अर्धभौतिक क्रियामयी शक्ति है । 'अश्व' शब्दके धात्वर्थसे इसके अन्य अभिप्रायोंके साथ-साथ प्रेरणा, शक्ति, प्राप्ति और सुख-भोगके भाव भी निकलते है और इन सभी अर्थोंको | हम जीवनरूपी अश्व ( घोड़े ) में एकत्रित हुआ! पाते हैं, ये सब अर्थ प्राण-शक्तिकी मुख्य--मुख्य प्रवृत्तियोंको सूचित करते हैं | भाषफा इस प्रकारका प्रयोग संभव नहीं हो सकता था, यदि हमारे आर्य पुर्वजोंकी भाषा उन्हीं रूढ़ अर्थोंको देती होती जिन्हें हमारी आधुनिक भाषा देती है अथवा यदि वह विकासकी उसी अवस्थामें होती जिसमें हमारी वर्तमान भाषा है | पर यदि हम यह कल्पना कर सकें कि प्राचीन आर्योंकी भाषामें, जैसे कि यह वैदिक ऋषियोंके द्वारा प्रयुक्तकी गयी है, कोई विशेषता थी जिसके द्वारा शब्द अपेक्षाकृत अधिक सजीव अनुभूत होते थे, वे विचारोंके लिये केवलमात्र रूढ़ सांकेतिक शब्द नहीं थे, अर्थको संक्रान्त करनेमें उसकी अपेक्षा अधिक स्वतंत्र थे जैसे कि वे हमारी भाषाके वादके प्रयोगमें हैं, तो हम यह पायंगे कि ये शब्दरूपी साधन इनका प्रयोग करनेवालोंके लिये जरा भी कृत्रिम अथवा खींचातानीसे युक्त नहीं थे, बल्कि ये तो इस वातके सर्वप्रथम स्वाभाविक साधन थे कि ये उत्सुक मनुष्योंको उन आध्यात्मिक विचारोंको व्यक्त करनेके लिये जो प्राकृत मनुष्योंकी समझके बाहर हैं, एकदम
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नवीन, संक्षिप्त और यथोचित भाषासूत्रोंको पकड़ा दें और उन .सूत्रोंमें जो विचार अंतर्निहित हैं, उन्हें ये अधार्मिक बुद्धिवालोसे छिपाये रखें । मेरा विश्वास है कि. यही सच्चा स्पष्टीकरण है .और मैं समझता हूं कि यदि हम आर्योंकी भाषाके विकासका अध्ययन करें तो यह सिद्ध हो सकता है कि अवश्य भाषा उस अवस्थामेंसे गुजरी है जो शब्दोंके इस प्रकारके रहस्यमय तथा अध्यात्मपरक प्रयोगके किबे अद्भुत रूप से अनुकूल थी, यद्यपि ये शब्द वैसे अपने प्रचलित व्यवहारमें एक सरल, निश्चित तथा भौतिक अर्थ को देते थे |
यह मैं पहिले ही बतला चुका हूँ कि तामिल शब्दोके मेरें सर्वप्रथम अध्ययनने मुझे वह चीज प्राप्त करा दी थी जो प्राचीन संस्कृतभाषाफे उद्गमों तथा उसकी बनावटका पता देनेवाला सूत्र प्रतीत होती थी और यह सूत्र मुझे यहाँ तक ले गया कि मैं अपनी रुचिके मूल विषय 'आर्य तथा द्राविड़ भाषाओंमें संबंध'को बिलकुल ही भूल गथा और एक उससे भी अघिक रोचक विषय 'मानवीय भाषाके ही उद्गमों और उसके विकासके नियमोंके अन्वेषण' में तल्लीन हो गया । मुझे लगता है कि यह महान् परीक्षा ही किसी भी सच्चे भाषाविज्ञानका सर्वप्रथम और मुख्य लक्ष्य होना चाहिये, न कि ये सामान्य बातें जिनमें भाषाविज्ञ विद्धानोंने अभीतक अपने-आपको बांध रखा है ।
आघुनिक भाषाविज्ञानके जन्मके समय जो प्रथम आशाएँ इससे लगायी गयी थीं उनके पूर्ण न होनेके कारण, इसके सारहीन परिणामोंके कारण, इसके एक ''क्षुद्र कल्पनात्मक विज्ञान" के रूपमें आ निकलनेके कारण, अब भाषका भी कोई विज्ञान है इस विचारक़ो उपेक्षाकी दृष्टिसे देखा जाने लगा .है और इसकी संभवनीयता ही से विलकुल इन्कार किया जग्ने जगा है, यद्यपि इसके लिये युक्तियां बिलकुल अपर्याप्त हैं । इस. प्रकार इसके अंतिम रूपमें इन्कार कर दिये जानेसे सहमत होना मुझे असंभव प्रतीत होता है । यदि कोई एक वस्तु ऐसी है जिसे आधुनिक विज्ञानने सफलताके साथ स्थापित कर दिया है, तो वह है संपूर्ण पार्थिव वस्तुओंके इतिहासमें विकासकी प्रक्रिया तथा नियमका शासन । भाषाका गभीरतर स्वभाव कुछ भी हो, मानवीय भाषाके रूपमें अपनी बाह्य अभिव्यक्तियोंमें यह एक सावयव रचना है, एक वृद्धि है, एक लौकिक विकास है । वस्तुत: ही इसके अंदर एक स्थिर मनोवैज्ञानिक तत्व है और इसलिये यह विशुद्ध भौतिक रचनाकी अपेक्षा अधिक स्वतंत्र, लच-कीली और ज्ञानपूर्वक अपने-आपको परिस्थितिके अनुकूल कर लेनेवाली है; इसके रहस्यको समझना अपेक्षाकृत अधिक कठिन है, इसके घटकोंको केवल अपेक्षया अधिक सूक्ष्म तथा कम तीक्ष्ण विश्लेषण-प्रणालियोंके द्वारा ही काबू किया
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जा सकता है । परंतु नियम तथा प्रक्रिया मानसिक वस्तुओंमें भौतिक वस्तुओंकी अपेक्षा किसी हालतमें कम नहीं होते, यद्यपि ऐसा है कि यहां वे अपेक्षाकृत अधिक चंचल और अधिक परिवर्तनशील प्रतित होते हैं । भाषाके उद्यम और विकासके भी अवश्य ही कोई नियम और प्रक्रिया होने चाहियें । आवश्यक सूत्र और पर्याप्त प्रमाण यदि मिल जायं तो वे नियम और प्रक्रिया पता लगाये जा सकते हैं । मुझे प्रतीत होता है कि संस्कृत- भाषामें वह सूत्र मिल सकता है, प्रमाण वहाँ तैयार रखे हैं कि उन्हें खोज निकोला जाय ।
भाषाविज्ञानकी भूल, जिसने इस दिशामें अपेक्षाकृत अघिक संतोषजनक परिणामपर पहुंचनेसे इसे रोके रखा, यह थी कि इसने अपने आपको व्यवहृत भाषाके भौतिक अंगोंके विषयमें भाषाके बाह्य शब्दरूपोंके अध्ययनमें ही लगाये रखा, इसी प्रकार भाषाके मनोवैज्ञानिक अंगोंके विषयमें भी रचित शब्दोके तथा सजातीय भाषाओंमें व्याकरणसंबंधी विभक्तियोंके बाह्य संबंधों-में ही अपने-आपको व्यापृत .रखा । परंतु विज्ञानकी वास्तविक पद्धति तो है मूल तक. जा पहुंचना, गर्भ तक, घटनाओंके तत्त्वों तक तथा उनकी अपेक्षा-कृत छिपी हुई विकासप्रक्यिाओं, तक पहुंच जाना । बाह्य प्रत्यक्ष दृष्टिसे तो हम स्थूल दृष्टिसे दीखनेवाली तथा ऊपर-ऊपरकी वस्तुको ही देख पायेंगे, । घटनाओंफें गंभीर तत्वोंको, उनके वास्तविक तथ्योंको ढूंढ़ निकालनेका सबसे अच्छा तरीका यह है कि उन छिपे हुए रह्स्योंके अंदर प्रवेश किया जाय जो घटनाओंके बाह्य रूपसे ढके रहते हैं, पहले हो चुके उनके उस विकासके अंदर घुसकर देखा जाय जिसके विषयमें उनके ये वर्तमान परिसमाप्त रूप केवल गूढ़ तथा विकीर्ण निर्देशोंको ही देते हैं, अथवा उन संभावनाओंके अंदर प्रवेश किया जाय जिनमेंसे आये कुछ वास्तविक तथ्य जिन्हें हम देखते है। केवल एक संकुचित चुनाव ही होते हैं । इस प्रकारकी प्रणाली ही यदि .चह मानव-भाषाके प्राचीनरूपोंपर प्रयुक्तकी जाय तो, हमें भाषाके एक सच्चे, विज्ञानको दे सकती है । इन रूपरेखाओंके आधारपर मैने जो कार्य करनेका यत्न किया है उसके परिणामोंको इस लैखामालाके, जो स्वयं ही छोटी-सी है और जिसका असली विषय दूसरा है, एक छोटेसे अध्यायमें उपस्थित क़रना जरा भी संभव नहीं है ।1 मैं केवल संक्षेपसे एक या दो विशिष्ट अंगोंका ही दिग्दर्शन करा सकता हूं, जो सीघे तौर पर वैदिक
1. मेरा विचार है कि मैं इनपर एक पृथक ही पुस्तकमें जो 'आर्यों की भाषाके उद्-गमों' के संबंध होगा, चर्चा करूंगा । ( देखो परिशिष्ट )
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व्याख्याके विषय पर लागू होते हैं । और यहाँ मैं उनका उल्लेख केवल इसलिये करूंगा कि मेरे पाठकोंके मनमें से ऐसी किसी भी धारणाका परिहार हो सके कि मैने जो किन्हीं वैदिक शब्दोंके ठीक माने जानेवाले अर्थो-को स्वीकार नहीं किया है वह मैंने केवल उस बुद्धिपूर्ण अटकल लगानेकी स्वाधीनताका लाभ उठाया है जो आधुनिक भाषाविज्ञानके जहां बड़े भारी आकर्षणोंमेंसे एक है, यहाँ साथ-ही-साथ उस भाषाविज्ञानकी सबसे अधिक गंभीर कम जोरियोमेंसे भी एक है ।
मेरे अन्वेषणोंने प्रथम मुझे यह विश्वास करा दिया कि शब्द पौधोंकी तरह, पशुओंकी तरह, किसी भी अर्थमें कृत्रिम उत्पत्ति नहीं हैं, किन्तु उपचय हैं वृद्धि है-ध्वनिकी सजीव बृद्धि हैं और कुछ एक बीजभूत ध्वनियाँ उनका आधार हैं । इन बीजभूत ध्वनियोंसे कुछ प्रारंभिक मूलशब्द अपनी संततियों सहित विकसित होते हैं जिनकी परंपरागत पीढ़ियाँ चलती हैं और जो जातियोमें, वर्गोंमें, परिवारोंमें, चुने हुए गणोंमें, अपने-आपको व्यवस्थित कर लेते हैं, जिनमेंसे प्रत्येकका एक साधारणा शब्द-भण्डार तथा साधाया मनो-वैज्ञानिक इतिहास होता है । क्योंकि भाषाके विकास पर अधिष्ठान करने-वाला तत्त्व है साहचर्य-किन्हीं सामान्य अभिप्रायोंका, वरंच किन्हीं साभान्य उपयोगिताओं तथा ऐन्द्रियक मूल्योंका स्पष्ट विविक्त ध्वनियोंके साथ साहचर्य, जो आदिकालके मनुष्यके नाड़ीप्रधान (प्राण-प्रधान ) मनके द्वारा स्थापित किया जाता था । यह साहचर्यकी पद्धति भी किसी भी अर्थमें कृत्रिम नहीं बल्कि स्वाभा-विक होती थी और सरल तथा निश्चित मनोवैज्ञानिक नियमोंसे नियंत्रित थी |
अपनी प्रारम्भिक अवस्थाओंमें भाषा-ध्वनियां उसे व्यक्त करनेके काममें नहीं आती थीं जिसे हम विचारके नामसे कहते हैं; बल्कि वे किन्हीं सामान्य इंद्रियानुभवो तथा भावावेशोंके शाब्दिक पर्याय थीं । भाषाकी रचना करनेवाले थे ज्ञानतन्तु, न कि बुद्धि । वैदिक प्रतीकोंका प्रयोग करें तो 'अग्नि', और 'वायु', न कि 'इंद्र', मानवीय भाषाके आदिम रचयिता थे । मन निकला है प्राणकी तथा इन्द्रियानुभवकी क्रियाओंमेंसे । मनुष्यमें रहने- वाली बुद्धिने अपना निर्माण इन्द्रियकृत साहचर्यों तथा ऐन्द्रियक ज्ञानकी प्रतिक्रियाओंके आधार पर किया हैं । इसी प्रकारकी प्रक्रियाद्वारा भाषाका बौद्धिक प्रयोग इंद्रियानुभव-सम्बन्धी तथा भावावेशसम्बन्धी प्रयोगमेंसे एक स्वाभाविक नियमके द्वारा विकसित हुआ है । शब्द अपनी प्रारम्भिक अवस्था में इंद्रियानुभवों व अर्थोंकी अस्पष्ट संभावनासे भरे, प्राणप्रेरित आत्म-निस्सरण-रूप थे । पीछे वे विकसित होकर ठीक-ठीक बौद्धिक अर्थोंके नियत प्रतिकोंके रूपमें परिणित हो गये हैं |
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फलतः, शब्द प्रारम्भमें किसी निश्चित. विचारके लिये नियत नहीं किया हुआ था । इसका एक सामान्य स्वरूप था, सामान्य 'गुण' था, जो बहुत प्रकारसे प्रयोगमें लाया जा सकता था और इसीलिये बहुतसे सम्भव अर्थोंको दे सकता था । और अपने इस 'गुण'को तथा इसके परिणामोंको यह अनेक सजातीय ध्वनियोंके साथ साझेमें रखता था, इसमें अनेक सजातीय ध्यनियां भागीदार होती थीं । इसलिये सर्वप्रथम शब्दवर्गोंने, अनेक शब्दपरिवारोंने एक प्रकारकी सामाजिक ( सामुदायिक ) पद्धतिसे अपना जीवन प्रारम्भ किया जिसमें उनके लिये .संभव तथा सिद्ध अर्थोंका एक सर्वसाधाया भंडार था और उन अर्थोंके प्रति सबका एक-सा सर्वसाधारणा अधिकार था । उनका व्यक्तित्व किसी एक ही विचारको अभिव्यक्त करनेके एकाधिकारमें नहीं, किन्तु इससे कहीं अधिक उसी एक. विचारके अभिव्यक्त करनेके अपने छायाभेदमें प्रकट होता था ।
भाषाका प्राचीन इतिहास एक विकास है, जो शब्दोंके इस सामाजिक ( सामुदायिक.) पद्धतिके जीवनसे निकलकर एक या अधिक बौद्धिक अर्थोंको रखनेकी एक वैयक्तिक संपत्तिकी पद्धति तक आनेमें हुआ है । अर्थ-विभाग का नियम पहले-पहल बहुत लचकीला था, फिर उसकी कठोरता बढ्ती गई, जबतक कि शब्दपरिवार और अन्तमें पृथक्-पृथक् शब्द अपने ही द्वारा अपना निजी जीवन आरम्भ करने योग्य नहीं हो गये । भाषाकी बिल्कुल स्वाभाविक वृद्धिकी अन्तिम अस्था तब आती है जब शब्दका जीवन पूर्णरूपसे उस विचारके जीवनके अधीन हो जाता है जिसका वह द्योतक है । क्योंकि भाषाकी प्रथम अवस्थामें शब्द वैसी ही सजीव अथवा उससे भी अधिक सजीव शक्ति होता है, जैसा कि इसका विचार; ध्वनि अर्थको निश्चित करती है । इसकी अन्तिम अवस्थामें ये स्थितियाँ उलट जाती हैं सारा-का-सारा महत्त्व विचार को मिल जाता है, ध्वनि गौण हो जाती है ।
भाषाके प्रारम्भिक इतिहासका दूसरा विशिष्ट अंग यह है कि पहिले-पहल यह विचारोंके विलक्षणतया. बहुत-ही-छोटे भंडारको प्रकट करती है और ये विचार अधिकसे. अघिक जितने सामान्य हो सकते हैं उतने सामान्य प्रकारके होते हैं और सामान्यतया अधिक-से-अधिक मूर्त भी होते हैं, जैसे कि प्रकाश, गति, स्पर्श, पदार्थ, विस्तार, शक्ति वेग इत्यादि । इसके बाद विचारकी विविधता और निश्चिततामें उसरोत्तर वृद्धि होती जाती है । यह वृद्धि होती है सामान्यसे विशेषकी ओर, अनिश्चितसे निश्चितकी ओर, भौतिकसे मानसिककी ओर, मूर्तसे अमूर्तकी ओर, और सदृश वस्तुओंके विषयमें इन्द्रियानुभवोंकी अत्यधिक विविधताके व्यक्तिकरणसे सदृश वस्तुओं,
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अनुभवों और क्रियाओंके बीच निश्चित भेदके व्यक्तीकरणकी ओर । यह प्रगति सम्पन्न होती है विचारोंमें साहचर्यकी प्रक्रियाओंके द्वारा, जो सदा एक-सी होती है सदा लौट-लौटकर आती है और जिनमें (यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि ये भाषाको बोलनेवाले मनुष्यकी परिस्थितियों तथा उसके वास्तविक अनुभवोंके कारण ही बनती हैं तो भी ) विकासके स्थिर स्वाभाविक नियम दिखलाई देते हैं । और आखिरकार नियम इसके अतिरिक्त और क्या है कि यह एक प्रक्रिया है जो वस्तुओंकी प्रकृतिके द्वारा उनकी परिस्थितियों- की आवश्यकताओंके उत्तरमें निर्मित हुई है और उनका अपनी क्रिया करनेका एक स्थिर अभ्यास बन गयी है ? .
भाषाके इस भूतकालीन इतिहाससे कुछ परिणाम निकलते हैं जो वैदिक व्याख्याकी .दृष्टिसे अत्यधिक महत्त्वके हैं । प्रथम तो यह कि इन नियमोंके ज्ञानके द्वारा जिनके अनुसार कि ध्वनि तथा अर्थके संबंध संस्कृतभाषामें बने हैं तथा इसके शब्द-परिवारोंके एक सतर्क और सूक्ष्म अध्ययनके द्वारा बहुत हद तक यह संभव है कि पृथक् शब्दोंके अतीत इतिहासको फिरसे प्राप्त किया जा सके । यह संभव है कि शब्द असलमें जिन अर्थोंको रखते हैं उनका कारणा बताया जा सके, यह दिखाया जा सके कि किस प्रकार वे अर्थ भाषाविकासकी विविध अवस्थाओंमेंसे गुजरकर बने हैं, शब्दके भिन्न-भिन्न अर्थोंमें पारस्परिक संबंध स्थापित किया जा सके और इसकी व्याख्या की जा सके कि किस प्रकार विस्तृत भेदके होते. हुए तथा कभी-कभी उनके अर्थ-मूल्योंमें स्पष्ट विपरीतता तक होते हुए भी उसी शब्दके वे अर्थ है । यह भी सम्भव है कि एक. निश्चित तथा वैज्ञानिक आघार पर शब्दोंके लुप्त अर्थ फिरसे पाये जा सकें और उन्हें साहचर्यके उन दृष्ट नियमोंके प्रमाण द्वारा जिन्होंने प्राचीन आर्य भाषाओंके विकासमें काम किया है तथा स्वयं शब्दकी ही छिपी हुई साक्षीके द्वारा और इसके आसन्नतम सजातीय शब्दकी समर्थन करनेवाली साक्षीके द्वारा प्रमाणित किया आ सके । इस प्रकार वैदिक भाषाके शब्दों पर विचार करनेके लिये एक बिल्कुल अस्थिर तथा आनुमानिक आधारके स्थान पर हम विश्वासके साथ एक सुदृढ़ और भरोसे के लायक आधार पर खड़े होकर काम कर सकते हैं ।
स्वभावतः, इसका यह अभिप्राय नहीं है कि क्योंकि एक वैदिक शब्द एक संभयमें शायद या अवश्य ही किसी विशेष अर्थको रखता था, इसलिये वह अर्थ सुरक्षित रूपसे वेदके असली मूलग्रन्थमें प्रयुक्त किया जा सकता है । परन्तु हम शब्दके एक युक्तियुक्त अर्थको और वेदमें उसका वही ठीक अर्थ है इसकी स्पष्ट संभावना अवश्य स्थापित करते हैं | शेष जो रह
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जाता है वह विषय है उन सन्दर्भोंके तुलनात्मक अध्ययनका जिनमें वह शब्द आता है, और इसका कि प्रकरणमें वह अर्थ निरंतर ठीक बैठता है या नहीं । मैंने लगातार यह पाया है कि एक अर्थ जो इस प्रकार प्राप्त किया जाता है जहाँ कहीं भी लगाकर देखा जाता है सदा ही प्रकरणको प्रकाशित कर देता है और दूसरी ओर मैंने यह देखा है कि प्रकरणके द्वारा सदा जिस अर्थकी भांग होती है, वह ठीक वही अर्थ होता है जिसपर हमें शब्दका इतिहास पहुंचाता है । नैतिक निश्चयात्मकताके लिये तो यह पर्याप्त आधार है, बिल्कुल निश्चयात्मकताके लिये चाहे न भी हो |
दूसरे, भाषाके उद्गमकालमें उसकी एक विलक्षण विशेषता यह थी कि एक ही शब्द बहुत सारे भिन्न-भिन्न अर्थोंको दे सकता था और साथ ही बहुत सारे शब्द ऐसे थे जो एक ही विचारको देनेके लिये प्रयुक्त होते थे । पीछेसे शब्दों और अर्थोंकी यह आलङ्कारिक बहुलता घटने लगी । बुद्धि अपनी निश्चयात्मकताकी बढ़ती हुई मांग और मितव्ययताकी बढ़ती हुई दृष्टिके साथ बीचमें आयी । शब्दोंकी धारण-क्षमता उत्तरोत्तर कम होती गयी; और यह कम और कम सह्य होता गया कि एक ही विचारके लिये अपने ऊपर आवश्यकतासे अधिक शब्दोंका बोझ लादा जाय, एक ही शब्दके द्वारा आवश्यकतासे अधिक भिन्न-भिन्न विचार प्रकट किये जायं । इस विषयमें एक बहुत बड़ी परिमितता, इस मांगके द्वारा नियमित होकर कि विभिन्नताका समर्याद वैभव होना ही चाहिये, भाषाका अन्तिम नियम हो गयी, यद्यपि वह परिमितता अत्यधिक कठोरतापूर्ण नहीं थी । परन्तु संस्कृतभाषा इस विकासकी अन्तिम अवस्थाओं तक पूर्ण रूपसे कभी नहीं पहुंची; बहुत जल्दी ही यह प्राकृत भाषाके अन्दर विलीन हो गयी । इसके अघिक-से-अधिक उत्तरकालीन और अधिक-से-अधिक साहित्यिक रूप तकमें एक ही शब्दके लिये अत्यधिक विभिन्न अर्थ पाये जाते हैं, यह आवश्यकता-से अधिक पर्यायोंकी सम्पत्तिसे लदी हुई है । इसलिये आलंकारिक प्रयोगोंके लिये संस्कृत भाषा असाधारण क्षमता रखती है, जिसका किसी दूसरी भाषामें होना एक कठिन, जबर्दस्तीसे किया गया, तथा निराशाजनक रूपसे कृत्रिम कार्य ही होगा, और यह क्षमता संस्कृतें द्वचर्थकताके अलंकार, श्लेष, के लिये विशेष रूपसे पायी जाती है |
फिर वेदकी संस्कृत तो भाषाके विकासमें और भी अधिक प्राचीन स्तरको सूचित करती है । अपने बाह्य रूपोंतकमें किसी भी प्रथम वर्गकी भाषाकी अपेक्षा यह अपेक्षाकृत कम नियत है; यह रूपों और विभक्तियोंकी विविधता से भरी पड़ी, यह द्रवकी तरह अस्थिर और आकारमें अनिश्चित है, फिर
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भी अपने कारकों तथा कालोके प्रयोगमें यह अत्यधिक सूक्ष्म है । यह अपने मनोवैज्ञानिक या आध्यात्मिक पार्श्वमें अभी नियमिताकार नहीं हुई है, यह बौद्धिक निश्चयात्मकताके दृढ़ रूपोंमें जमकर अभी पूर्ण रूपसे कठोर नहीं बनी है । वैदिक ऋषियोंके लिये शब्द अब भी एक सजीव वस्तु है, एक शक्तिमय वस्तु है जो सर्जनशील और निर्माणकारी है । अब भी यह विचारके लिये एक रूढ़िसंकेत नहीं है, बल्कि स्वयं बिचारोंका जनक और निर्माता है । यह अपने अंदर अपनी मूल धातुओंकी स्मृतिको रखे हुए है, अबतक भी यह अपने इतिहाससे अभिज्ञ है ।
ऋषियोंका भाषाका प्रयोग शब्दके इस प्राचीन. मनोविज्ञानके द्वारा शासित था । जब अंग्रेजी भाषामें हम 'वुल्फ़' (wolf) या 'काउ' (cow) शब्दका प्रयोग करते हैं तो हमें इनसे केवलमात्र वे पशु (भेड़िया या गाय ) अभिप्रेत होते हैं जिनके वाचक ये शब्द हैं, हमें इस बातका ज्ञान नहीं होता कि किस कारण हमें, अमुक ध्वनि अमुक विचारके लिये प्रयुक्त करनी चाहिये, सिवाय इसके कि हम कहें कि भाषाका स्मरणातीत अतिप्राचीन व्यवहार ऐसा ही चला आता है; और हम इसे किसी दूसरे अर्थ या अभिप्रायके लिये भी व्यवहृत नहीं कर सकते, सिवाय किसी कृत्रिम भाषाशैलीके कौशलके तौर पर । परन्तु वैदिक ऋषिके लिये 'वृक'का अभिप्राय था 'विदारक' और इसलिये इस अर्थके दूसरे विनियोगोंमें यह भेड़ियेका वाची भी हो जाता था; 'धेनु'का अर्थ था 'प्रीणयित्री', 'पालयित्री' और इसीलिये इसका अर्थ गाय भी था । परंतु मौलिक और सामान्य अर्थ मुख्य है, निष्पन्न और विशेष अर्थ गौण है । इसलिये सूक्तके रचयिताके लिये यह संभव था कि वह इन सामन्य शब्दोंको एक बड़ी लचकके साथ प्रयुक्त करे, कभी वह भेड़िये या गाय की प्रतिमाको अपने सामने रखे, कभी इसका प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक सामान्य अर्थकी रंगत देनेके लिये करे, कभी वह इसे उस आध्यात्मिक विचारके लिये जिसपर उसका मन काम कर रहा है केवल एक रूढिसकेंतके तौरपर रखे, कभी प्रतिमाको दृष्टिसे सर्वथा ओझल कर दे । प्राचीन भाषाके इस मनोविज्ञानके प्रकाशमें ही हमें. वैदिक प्रतीकवादके अद्भूत संकेतोंको समझना है, जैसा कि ऋषियोंने उन्हें प्रयुक्त किया है, यहां तक कि जो संकेत अत्यंत प्रत्यक्षरूपसे सामान्य और मूर्त प्रतीत होते हैं उन्हें भी इसी प्रकाशमें समझना है । इस प्रकारके शब्द जैसे कि ''धृतम्'', घी, ''सोम'', पवित्र सुरा, तथा अन्य बहुतसे शब्द भी इसी (सांकेतिक ) रूपमें प्रयुक्त किये गये हैं ।
इसके अतिरिक्त, एक ही शब्दके विभिन्न अर्थोंके बीचमें बिचारके द्वारा किये गये विभाग उसकी अपेक्षा बहुत कम भेदात्मक थे जैसे कि वे
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आघुनिक बोलचालकी भाषामें होते हैं .। अंग्रेजी भाषामें ''फ्लीट", (fleet) जिसका अर्थ जहाजोंका बेड़ा है और ''फ्लीट", (fleet) जिसका अर्थ तेल है, दो भिन्न-भिन्न शब्द है, जब हम पहले अर्थमें ''फ्लीट"का प्रयोग करते हैं तब हम जहाजकी गतिकी. तेजीको विचारमें नहीं लाते, नाहीं जब हम इस शब्दको दूसरे अर्थमें प्रयुक्त करते हैं तो उस समय हम समुद्रमें चहाजके तेजीके साथ चलनेको ध्यानमें लाते है । परन्तु ठीक यही बात भाषाके वैदिक प्रयोगमें प्रायः होती है । 'भग' जिसका अर्थ 'आनन्द' है और ''भग", जिसका अर्थ 'भाग' है, वैदिक मनके लिये दो भिन्न-भिन्न शब्द नहीं हैं, परन्तु एक ही शब्द है जो इस प्रकार विकसित होते-होते दो भिन्न-भिन्न अर्थोमें प्रयुक्त होने लग पड़ा है । इसलिए ऋषियोंके लिये यह आसान था कि वे इसे दोनोमेंसे किसी एक अर्थमें प्रयुक्त करें और साथमें उसके पृष्ठमें दूसरा अर्थ भी रहे और वह इसके प्रत्यक्ष व्याच्यार्थको अपनी रंगत देता रहे अथवा यहाँ तक हो सकता था कि इसे वे किसी समुच्चय-बोधक अर्थके अलंकार द्वारा एक ही समय एकसमान दोनों अर्थोंमें प्रयुक्त करें । ''चनस्'' का अर्थ था 'भोजन' परन्तु साथ ही इसका अर्थ 'आनन्द, सुख' भी होता था, इसलिथे ऋषि इसका प्रयोग इस रूपमें कर सकते थे कि असंस्कृत मनके लिये इससे केवल उस भोजनका ग्रहण हो जो यज्ञमें देवताओंको दिया जाता था' पर दीक्षितके लिये इसका अर्थ हो आनन्द, भौतिक चेतनाके अंदर प्रविष्ट होता हुआ दिव्य सुखका आनन्द, और इसके साथ ही यह सोम-रसके रूपककी ओर संकेत करता हो, जो कि एक साथ देवोंका भोजन उमा आनंदका वैदिक प्रतीक दोनों है ।
हम देखते हैं कि भाषाका इस प्रकारका प्रयोग वैदिक मंत्रोंकी वाणीमें सर्वत्र प्रघान .रूपसे पाया जाता है । यह एक बड़ा अच्छा उपाय था जिसके द्वारा प्राचीन रहस्यवादी अपने कार्यकी कठिनाईको दूर कर पाये थे । सामान्य पूजकके लिये 'अग्नि'का अभिप्राय केवलमात्र वैदिक आगका देवता हो सकता था, या इसका अभिप्राय भौतिक प्रकृतिमें काम करनेवाला ताप या प्रकाशका तत्त्व हो सकता था अथवा अत्यंत अज्ञानी मनुष्यके लिये इसका अर्थ केवल- एक अतिमानुष व्यक्तित्व हो सकता था जो 'घन-दौलत देनेवाले', मनुष्यकी कामना को पूर्ण करनेवाले ऐसे अनेक व्यक्तित्वोंमें से एक है । पर जो व्यक्ति अधिक गंभीर विचार करनेमें समर्थ थे उनके लिये इस शब्दसे परमेश्वरके आध्यात्मिक. व्यापारोंको कैसे सूचित किया जा ? इस कामको यह शब्द स्वयं कर देता था । क्योंकि 'अग्नि'का अर्थ .होता था ''बलवान्'', इसका अर्थ था ''चमकीला" या यह भी कह सकते हैं कि शक्ति,
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तेजस्विता । इसलिये यह जहां कहीं भी आये, आसानीसे दीक्षितको एक प्रकाशमय शक्तिके विचारका स्मरण करा सकता था, जो लोकोंका निर्माण करती है और मनुष्यको ऊँचा उठाकर सर्बोच्च को प्राप्त करा देती है, महान् कर्मका अनुष्ठान करनेवाली है, मानवयज्ञकी पुरोहित है ।
श्रोताके मनमें यह कैसे बैठता कि मे सब देवता एक ही विश्वव्यापक देवके व्यक्तित्व हैं ? देवताओंके नाम, अपने अर्थमें ही, इसका स्मरण कराते हैं कि ये केवल विशेषण हैं, अर्थसूचक नाम हैं, वर्णन हैं न कि किसी स्वतंत्र व्यक्तिके वाचक नाम । मित्र देवता प्रेम और सामंजस्यका अधिपति है, भग सुखोपभोगका अधिपति है, सूर्य प्रकाशका अधिपति है, वरुण है परमदेवकी सर्वव्यापक विशालता और पवित्रता जो जगत्को धारण तथा पूर्ण करती है । 'सत् तो एक ही है', ऋषि दीर्घतमस् कहता है, 'पर संत लोग उसे भिन्न-भिन्न रूपोंमें प्रकट करते है; वे उसे 'इन्द्र' कहते है, 'वरुण' कहते हैं, 'मित्र' कहते हैं, 'अग्नि' कहते हैं, वे उसे 'अग्निके' नामसे पुकारते हैं, 'यम'के नामसे, 'मातरिश्वा'के नामसे' |1 वैदिक ज्ञानके प्राचीनतर कालमें दीक्षित इस स्पष्ट स्थापनाकी आवश्यकता नहीं रखता था । देयताओंके नाम स्वयं ही उसे अपने अर्थ बता देते थे और उसे उस महान् आधारभूत सत्यका स्मरण कराये रहते थे जो सदा उसके साथ रहता था ।
परंतु वादके युगोंमें यह उपाय ही, जो ऋषियों द्वारा प्रयुक्त किया गया था, वैदिक ज्ञानकी सुरक्षाके प्रतिकूल पड़ गया । क्योंकि भाषाने अपना स्वरूप बदल लिया, अपनी प्रारंभिक लचकको छोड दिया; अपने पुराने परिचित .अर्थोंको उतारकर रख दिया; शब्द संकुचित हो गया और सिकुड़कर वह अपने अपेक्षाकृत बाह्य तथा स्थूल अर्थमें सीमित हो गया । आनंदका अमृत-रसपान भुला दिया जाकर भौतिक हवि-प्रदान मात्र रह गया, 'घृत'का रूपक केवल गाथाशास्त्रके देवताओंकी तृप्तिके लिये किये जानेवाले स्थूल निषेकका ही स्मरण कराने लग गया, आग, बादल और आंघीके देवता केवलमात्र ऐसे देवता रह गये, जिनमें भौतिक शक्ति और .बाह्य प्रतापके सिवाय और कोई शक्ति नहीं बची । अक्षरार्थ मात्र प्रचलित रहे, जब कि प्राणरूप असली अर्थोंको भुला दिया गया । प्रतीक, वैदिक बादका शरीर बचा रहा, पर ज्ञानकी आत्मा इसके अंदरसे निकल गयी । _________ 1. इन्द्रं मित्रं वश्वमभीमादुरयो दिव्य: स गुरुतमान् । एकं सिद्धिप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु: | (ॠ० १-१६४-४६)
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छठा अध्याय
अग्नि और सत्य
ऋग्वेद अपने सब भागों (मंडलों ) में एकवाक्यता रखता है । इसके दस मंडलोंमेंसे हम कोई-सा लें, उसमें हम एक ही तत्त्व, एक ही विचार, एक-से अलंकार ओर एक ही से वाक्यांश पाते हैं । ऋषिगण एक ही सत्यके द्रष्टा हैं और उसे अभिव्यक्त करते हुए वे एकसमान भाषाका प्रयोग करते हैं । उनका स्वभाव और व्यक्तित्व भिन्न-भिन्न है, कोई-कोई अपेक्षाकृत अघिक समृद्ध, सूक्ष्म और गंभीर अर्थोंमें वैदिक प्रतीकवादका प्रयोग करनेकी प्रवृत्ति रखते हैं; दूसरे अपने आत्मिक अनुभवको अधिक सादी और सरल भाषामें प्रकट करते हैं, जिसमें विचारोंकी उर्वरता, कवितामय अलंकारकी अधिकता या भावों की गंभीरता और पूर्णता अपेक्षया कम होती हैं । अघिकतर एक ॠषिके सूक्स विभिन्न प्रकारके हैं, वे अत्यधिक सरलतासे लेकर बहुत ही महान् अर्थगौरव तक श्रुंखलाबद्ध हैं । अथवा एक ही सूक्तमें चढ़ाव-उतार देखनेमें आते है; वह यक्षके सामान्य प्रतीककी बिलकुल साघारण पद्धतियोंसे शुरू होता है और एक सघन तथा जटिल विचार तक पहुँच जाता है । कुछ सूक्त बिलकुल स्पष्ट हैं और उनकी भाषा लगभग आधुनिक-सी है, दूसरे कुछ ऐसे हैं जो पहले-पहल अपनी दीखनेवाली विचित्र-सी अस्पष्टतासे हमें गड़बड़में डाल देते है । परंतु वर्णनशैलीकी इन विभिन्नताओं से आध्यात्मिक अनुभवोंकी एकताका कुछ नहीं बिगड़ता, न ही उनमें कोई ऐसा पेचीदापन है जो नियत परिभाषाओं और सामान्य सूत्रोके ही कहीं बदल जानेके कारण आता हो । जैसे मेघातिथि काण्व के गीतिभय स्पष्ट वर्णनोंमें वैसे ही दीर्धतमस् औचध्यकी गंभीर तथा रहस्यमय शैल ीमें, और जैसे वसिष्ठकी एकरस समस्वरताओंमें वैसे ही विश्वामित्रके प्रभावोत्पादक शक्तिशाली सूक्तोंमें हम ज्ञानकी वही दृढ़ स्थापना और दीक्षितोंकी पवित्र विधियोंका वही सतर्कतायुक्त अनुवर्तन पाते हैं ।
वैदिक रचनाओंकी इस विशेषतासे यह परिणाम निकलता है कि व्याख्याकी वह प्रणाली भी जिसका मैंने उल्लेख किया है एक ही ऋषिके छोटे-से सूक्त-समुदायके द्वारा वैसी ही अच्छी तरह उदाहरण देकर पुष्टकी जा सकती है जैसे कि दसों मंडलौंसे इकटठे किये हुए कुछ सुक्तोंके द्वारा । यदि
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मेरा प्रयोजन यह हो कि व्याख्याफी अपनी इस शैलीको जिसें मैं दे रहा हूँ इतनी अच्छी तरह स्थापित कर दूं कि इसपर किसी प्रकारकी आपत्तिकी कोई संभावना न रहे, तो इससे कहीं अधिक व्यौरेवार और बड़े प्रयत्नकी आवश्यकता होगी । सारे-के-सारे दसों मंडलोंकी एक आलोचनात्मक परीक्षा अनिवार्य होगी । उदाहरणके लिये, वैदिक पारिभाषिक शब्द 'ॠतम', सत्य, के साथ मैं जिस भावकों. जोड़ता हूँ अथवा प्रकाशकी गौओंके प्रतीककी मैं जो व्याखया करता हूँ उसे ठीक सिद्ध करनेके लिये मेरे लिये यह आवश्यक होगा कि मैं उन सभी स्थलोंको, चाहे वे किसी भी महत्त्वके हों, उद्घृत करूं जिनमें सत्यका विचार अथवा गौका अलंकार आता है और उनकी आशय व प्रकरणकी दृष्टिसे परीक्षा करके अपनी स्थापनाकी पुष्टि करूं । अथवा यदि मैं यह सिद्ध करना चाहूँ कि वेदका इन्द्र असलमें अपने आध्यात्मिक रूपमें प्रकाशयुक्त मनका अधिपति है, जो प्रकाशयुक्त मन 'द्यौ:' या आकाश द्वारा निरूपित किया गया है, जिसमें तीन प्रकाशमान लोक, 'रोचना' हैं, तो मुझे उसी प्रकारसे उन सूक्तोंकी जो इन्द्रको संबोधित किये गये है और उन सन्दर्भोंकी जिनमें वैदिक लोक-संस्थानका स्पष्ट उल्लेख मिलता है, परीक्षा करनी होगी । और वेदके विचार ऐसे परस्पर-ग्रथित और अन्योन्याश्रित हैं कि केवल इतना करना भी पर्याप्त नहीं हो सकता, जबतक कि अन्य देवताओंकी तथा अन्य महत्त्वपूर्ण आध्यामिक परिभाषाओंकी जिनका सत्यके षिचारके साथ कुछ सम्बन्ध है और उस मानसिक प्रकाशके साथ सम्बन्ध है जिसमेंसे गुजरकर मनुष्य उस सत्य तक पहुँच पाता है, कुछ आलोचनात्मक परीक्षा न कर ली जाय । मैं अच्छी तरह समझता हूँ कि अपनी स्थापनाको प्रमाणित करनेका ऐसा कार्य किये जानेकी आवश्यकता है और वैदिक सत्यपर, वेदके देवताओंपर तथा वैदिक प्रतीकोंपर अपने अनुशीलन लिखकर इसे पूरा करनेकी मैं आशा भी रखता हूँ । परन्तु उस उद्देश्यके लिये किया गया प्रयत्न इस कार्यकी सीमासे बिल्कुल बाहरका होगा जिसे इस समय मैंने अपने हाथमें लिया है और जो केवल यहीं तक सीमित है कि मैं अपनी प्रणालीका सोदाहरण स्पष्टीकरण करूं और मेरी कल्पनासे जो परिणाम निकलते है उनका संक्षिप्त वर्णन करूँ ।
अपनी प्रणालीका स्पष्टीकरण करनेके लिये मैं चाहता हूँ कि प्रथम मंडलके पहले ग्यारह सूक्त मैं लूं और दिखाऊं कि किस प्रकारसे आध्यात्मिक व्याख्याके कुछ केन्द्वभूत विचार किन्हीं महत्त्वपूर्ण संदर्भोंमेंसे या अकेले सूक्तोंमेंसे निकलते है और किस प्रकार गम्भीरतर विचारशैलीके प्रकाशमें .उन सन्दर्भोंके आसपासके प्रकरण और सूक्तोंका सामान्य विचार एक बिल्कुल नया ही रूप धारण कर लेते हैं ।
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ऋग्वेदकी संहिता जैसी कि हमारे हाथमें है, दस भागों या मण्डलोंमें क्रमबद्ध है । इस क्रमविभाजनमें दो प्रकारका नियम दिखाई देता है । इन मण्डलोंमेंसे ६ मण्डल ऐसे हैं, जिनमें प्रत्येकके सूक्तोंका ऋषि एक ही है, या एक ही ऋषि-परिवारका कोई ॠषि है । इस प्रकार दूसरे मण्डलमें मुख्यतया गृत्समद ॠषिके सूक्त हैं, ऐसे ही तीसरे और सातवें मण्ड लके सूक्तोंके ऋषि क्रमसे ख्यातनामा विश्वामित्र और वशिष्ठ हैं । चौथा मण्डल वामदेव ऋषिका तथा छठा भरद्वाजका है । पांचवां अत्रि-परिवारके सूक्तोंसे व्याप्त है । इन मण्डलोंमें से प्रत्येकमें अग्निको संबोधित किये गये सूक्त सबसे पहिले इकट्ठे करके रख दिये गये हैं, उसके बाद वे सूक्त आते है जिनका देवता इंद्र है, अन्य देवताओं-बृहस्पति, सूर्य, ऋभुगण, उषा आदि--के आवाहनोंसे मण्डल समाप्त होता है । नवाँ मण्डल सारा ही अकेले सोम- देवताको दिया गया है । पहले, आठवें और दसवें मण्डलमे भिन्न-भिन्न ऋषियोंके सूक्तोंका संग्रह है, परन्तु प्रत्येक ऋषिके सूक्त सामान्यत: उनके देवताओंके क्रमसे इकट्ठे रखे गये हैं, सबसे पहले अग्नि आता है, उसके पीछे इंद्र और अन्तमें अन्य देवता । इस प्रकार प्रथम मण्डलके प्रारम्भमें विश्वामित्रके पुत्र मधुच्छन्दस् ऋषिके दस सूक्त हैं और ग्यारहवाँ सूक्त जेतृका है, जो मधुच्छन्दस् का पुत्र है । फिर भी यह अन्तिम सूक्त शैली, प्रकार और भावमें उन दसके जैसा ही है,. जो इससे पहिले आये हैं और इसलिये इन ग्यारहों सूक्तोंको इकट्ठा मिलाकर इन्हें एक ऐसा सूक्तसमुदाय समझा जा सकता है जो भाव और भाषामें एक-सा है ।
इन वैदिक सुक्तोंको क्रमबद्ध करनेमें विचारोंके विकासका भी कोई नियम अवश्य काम कर रहा है । प्रारम्भके मण्डलका रूप ऐसा रखा गया प्रतीत होता है कि अपने अनेक अंगोंमें वेदका जो सामान्य विचार है वह निरन्तर अपने आपको खोलता चले, उन प्रतीकोंकी आड़में जो स्थापित हो चुके हैं और उन ऋषियोंकी वाणी द्वारा अपने-आपको खोलता चले जिनमें प्रायः सभीको विचारक और पवित्र गायकका उच्च पद प्राप्त है और जिनमें-से कुछ तो वैदिक परम्पराके सबसे अधिक यशस्वी नामोंमेंसे हैं । न ही यह अकस्मात् हो सकता है कि दसवें या अन्तिम मण्डलमें जिसमें ॠषियोंकी अघिक विविधता भी पायी जाती है, हमें वैदिक विचार अपने अन्तिम विकसित रूपोंमें दिखाई देता है और ऋग्वेदके उन सूक्तोंमेंसे जो भाषाकी दृष्टिसे अधिकसे-अधिक आधुनिक है, कुछ इसी मण्डलमें हैं । पुरुष-यज्ञका सूक्त और सृष्टिसम्बन्धी महान् सूक्त हम इसी मण्डलमें पाते हैं । साथ
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ही, आधुनिक विद्वान् यह समझते हैं कि इसोमें उन्होंने वेदान्तिक दर्शनक, ब्रह्यवादका, मूल उद्भव खोज निकाला है ।
कुछ भी हो, विश्वामित्रके पुत्र तथा पौत्रके ये सूक्त जिनसे ॠग्वेद प्रारम्भ होता है आश्चर्यजनक उकृष्टताके साथ वैदिक समस्वरताके प्रथम मुख्य स्वर निकालते हैं । अग्निको सम्बोधित किया गया पहला सूक्त सत्यके केन्द्रभूत विचारको प्रकट. करता है और यह विचार दूसरे व तीसरे सूक्तोंमें और भी दृढ़ हो जाता है, जहाँ अन्य देवताओंके साथमें इंद्रका आवाहन किया गया है । शेष आठ सूक्तोंमें जिनमें अकेला इन्द्र देखता है, एक (छठे ) को छोड्कर जहां वह मरुतोंके साथ मिल गया है, हम सोम और गौके प्रतीकोंको पाते हैं, प्रतिबन्धक वृत्रको और इन्द्रके उस अपने महान् कृत्यको पाते हैं जिसके द्वारा वह मनुष्यको प्रकाशकी ओर ले जाता है और उसकी उन्नतिमें जो विध्न आते हैं उन्हें हटाकर परे फेंक देता है । इस कारण ये सूक्त वेदकी अध्यात्मपरक व्याख्याके लिये निर्षयकारक महत्व के हैं ।
अग्निके सूक्तमें पाँचवीं ॠचासे लेकर आठवीं तक ये चार ॠचायें हैं, जिनमें आध्यात्मिक आशय बड़े बलके साथ. और बड़ी स्पष्टताके साथ प्रतीक-के आवरणको पार करके बाहर निकल रहा है--
अग्निर्होता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रंवस्तम: ।
देवो देवेभिरा गमत् ।।
यदङ् दाशुषे त्यमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
तवेत्तत् सत्यमङ्गर: ।।
जप त्याग्ने दिवेदिवे गोषायस्तर्षिया वयम् ।
नमो भरन्त एमसि ।।
राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् ।
वर्षमानं स्वे दमे ।।
इस संदर्भमें हम पारिभाषिक शब्दोंकी एक माला पाते ह जिसका सीधा ही एक अध्यात्मपरक आशय है, अथवा वह स्पष्ट तौरसे इस योग्य है कि उसमेंसे अध्यात्मपरक आशय निकल सके और इस शब्दावलिने अपनी इस रंगतसे सारे-के-सारे प्रकरणको रंगा हुआ है । पर फिर भी सायण इसकी विशुद्ध कर्मकाण्डपरक व्याख्या पर ही आग्रह करता है और यह देखना मजेदार है कि वह इसतक कैसे पहुंचता है । पहले वाक्यमें हमें 'कवि' शब्द मिलता है जिसका अर्थ दृष्टा है और यदि हम 'ॠतु'का अर्थ यज्ञ-कर्म ही
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मान ले तो भी परिणामत: इसका अभिप्राय होगा-''अग्नि, यह ॠत्विक् जिसका कि कर्म या यज्ञ द्रष्टाका है ।" और यह ऐसा अनुवाद है जो तुरन्त यज्ञको एक प्रतीकका रूप दे देता है और अपने-आपमें इसके लिये पर्याप्त है कि वेदको और भी गम्भीर रूपसे समझनेमें बीजका काम दे सके । सायण अनुभव करता है कि उसे इस कठिनाईको जिस किसी प्रकारसे भी परे हटाना चाहिये और इसलिये वह 'कवि' में जो द्रष्टाका भाव है, उसे छोड़ देता है और इसका एक दूसरा ही नया-सा अप्रचलित अर्थ कर देता है1 । आगे फिर वह व्याख्या करता है कि 'अग्नि 'सत्य' है, सच्चा है, क्योंकि वह यज्ञके फलको अवश्य देता है । 'श्रवस्'का अनुवाद सायण करता है "कीर्ति'', अग्निकी अत्यन्त ही चित्र-विचित्र कीर्ति है । निश्चय ही यहां इस शब्दको घन-संपत्तिके अर्थमें लेना अधिक उपयुक्त होता, जिससे 'सत्य'- की उपयुक्त व्याख्याकी असंगति दूर हो जाती । तब हम पांचवीं ऋचाका यह फलितार्थ निकालेंगे--''अग्नि जो होता है, यज्ञोंमें कर्मशील है, जो (अपने फलोंमें ) सच्चा है--क्योंकि उसकी ही यह अत्यन्त विविध संपत्ति है, वह देव अन्य देवोंके साथ आये ।''
भाष्यकार सायणने छठी ॠचाका एक बहुत अनुपयुक्त और बेजोड़-सा अन्वय कर डाला है और इसके विचारको बदलकर विल्कुल तुच्छ रूप दे दिया है, जो ॠचाके प्रवाहको सर्वथा तोड़ देता है । '' (विविध सम्पत्तियोंके रूपमें ) वह भलाई जो तू हवि देनेवालेके लिये करेगा, वह तेरी ही होगी । यह सच है, हे अंगिर:2 ।'' अभिप्राय यह है कि इस सचाईके बारेमें कोई सन्देह नहीं है कि अग्नि यदि धन-दौलत देकर हवि देनेवालेका भला करता है तो बदलेमें वह भी उस अग्निके प्रति नये-नये यज्ञ करेगा और इस प्रकार यज्ञकर्त्ताकी भलाई अग्निकी हीं भलाई हो जाती है । यहां फिर इसका इस रूपमें अनुवाद करना अधिक अच्छा होता-- "वह भलाई जो तू हवि देनेवाले के लिये करेगा, वह तेरा वह सत्य है, हे अंसिर:'', क्योंकि इस प्रकार हमें एकदम एक अधिक स्पष्ट आशय और अन्वय पता लग जाता है और यज्ञिय अग्निदेवताके लिये जो 'सत्य', सच्चा यह विशेषण लगाया है उसका स्पष्टी-
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1. ''कविशब्दोऽत्र क्रांतवचनो न तु मेधाविनाम्'' । -सायण
2. ''हैं भग्ने, त्वं, दाशुषे हविर्दत्तवते यजमानाय, तत्प्रौत्यर्थ, यद् भद्र वित्त-गृह-प्रजा-पशुरुपं कल्याणं करिष्यसि तद् मर्द तवेत् तवैवै सुखहेतुरिति शेष: । हे अङ्गिरोऽग्ने ! एतश्च सत्वं, त्वत्र विसंवादोऽस्ति, यजमानस्य वित्तादिसम्यत्तैौ सत्यामुत्तक्स्चनुष्ठानेन अग्नेरेव सुखं भवति |" -सायण
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करण हो आता है । वही अग्निका सत्य है कि वह यज्ञकर्ताके लिये निश्चित रूपसे बदलेमें भला ही करता है ।
सातवीं ॠचा कर्मकाण्डपरक व्याख्यामें कोई कठिनाई उपस्थित नहीं करती, सिवाय इस अद्भूत वाक्यांशके कि "हम नमस्कारको धारण करते हए .आते है ।'' सायण यह स्पष्टीकरण करता है कि वहां घारण करनेका अभिप्राय सिर्फ 'करना' है, और वह इस ॠचाका अनुवाद इस प्रकार करता है--"तेरे पास हम प्रतिदिन, रातको और दिनमें, बुद्धिके साथ, नमस्कारको .करते हुए आते है1 । ''आठवीं ॠचामें 'ॠतस्य'को वह सत्यके अर्थमें लेता है ओर इसकी व्याख्या यह करता है कि इसका अभिप्राय है यंज्ञकर्मके सच्चे फल । ''तेरे पास हम आते है, जो तू दीप्यमान है, यज्ञोंका रक्षक है, सर्वदा उनके सत्यका ( अर्थात् उनके अवश्यम्भावी फलका ) द्योतक है, अपने घरमें बुद्धिको प्राप्त हो रहा है1 ।'' यहां फिर, यह अधिक सरल और अधिक अच्छा होता कि 'ॠतम्'को यज्ञके अर्थमें लिया जाता और इसका अनुवाद यह किया जाता--"तेरे पास, जो तू. यज्ञमें प्रदीप्त हो रहा है, यज्ञ (ॠत) का रक्षक है, सदा प्रकाशमान है, अपने धरमें वृद्धिको प्राप्त हो रहा है ।'' अग्निका ''अपना घर", भाष्यकार कहता है, यज्ञशाला है, और वस्तुत: ही इसे संस्कृतमें प्रायः 'अग्नि-गृह' कहते हैं ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि उस संदर्भ तकका जो पहले-पहल देखने पर आध्यात्मिक अर्थकी एक बड़ी भारी सम्पत्तिको देता हुआ लगता है, हम थोड़ा-सा ही जोड़-तोड़ करके एक विशुद्ध कर्मकाण्डपरक, किन्तु.. बिल्कुल अर्थ-शून्य, आशय गढ़ सकते हैं । तो भी यह काम कितनी ही निपुणताके साथ क्यों न किया जाय इसमें दोष और कमियां रह ही जाती हैं और उनसे इसकी कृत्रिमताका पता लग जाता है । हम देखते हैं कि हमें 'कवि'के उस सीघे अर्थको दूर फेंक देना पड़ा है जो इसके साथ सारे वेदमें जुड़ा हुआ है और इसके मत्ये एक अवास्तविक अर्थको मढ़ना पड़ा है । या तो हमें 'सत्य' और 'ऋत' इन दो शब्दोंका एक दूसरेसे सम्बद्धविच्छेद करना पड़ा है जब कि वेदमें ये दोनों शब्द अत्यन्त सम्बद्ध पाये जाते हैं या ॠतको
1. "है अग्ने, वयमनुष्ठातारो दिवेदिवे प्रतिदिनं, दोषायस्त: रात्रावहिन च घिया यद्च्छा, नमो मरन्त: नमस्कारं सम्पादयन्त:, उप समीपे त्वा एमसित्वामा-गच्छाम:" |--सयाण
2. "कीदृशं" त्वां ? राजन्तं दीप्यमानं अव्व्रणां राक्षसकृतहिंसारहितनां यज्ञानां, गोपां रक्षकम् ॠृतस्यसत्यस्य अवश्यम्माविन: कर्मफ़ल्स्य , दीदिविं पुन्ये भृज्ञे वा धोताकं,......, स्वे दमे स्वकीवगृहे यज्ञशालायां हविर्मिवर्धमानम्'' ।-सायण
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जबर्दस्ती कोई नया अर्थ देना पड़ा है और शुरूसे, अन्त तक हमने उन सब स्वाभाविक निर्देशोंकी उपेक्षाकी है जिनके लिये ऋषिकी भाषा हमपर दबाव डालती है |
तो अब हमें इस सिद्धान्तको छोड़कर इसके स्थान पर दूसरे सिद्धान्तका अनुसरण करना चाहिये । और ईश्वर-प्रेरित मूल वेदके शब्दोंको उनका आध्यात्मिक मूल्य पूर्ण रूपसे देना चाहिये । 'ॠतु' का अर्थ संस्कृतमें कर्म या क्रिया है, विशेषकर यज्ञ-रूप कर्म, परन्तु इसका अर्थ वह शक्ति या बल (ग्रीक क्रटोस 'Kratos') भी होता है जो क्रियाको साघित करनेमें समर्थ हो | आध्यात्मिक रूपमें यह शक्ति जो क्रियाको साघित करनेमें समर्थ हो | आध्यात्मिक रुपमे यह शक्ति, जो क्रियाको साधित करनेमें समर्थ होती है, संकल्प है | इस शब्दका अर्थ मन या बुद्धि भी हो सकसा है और सावण स्वीकार कूरता है कि इसका एक संभव अर्थ विचार या ज्ञान भी है । ' श्रंवस्' का शाब्दिक अर्थ सुनना है और इस मुख्य अर्थसे ही इसका आनु-षंगिक अर्थ ' कीर्ति' लिया गया है । पर अध्यात्मरूपसे, इसमें जो सुननेका भाव है वह संस्कृतमें एफ दूसरे ही भावको देता है, जिसे हम ' श्रवण', 'श्रुति', श्रुत-- 'इश्वरीय ज्ञान-; या अंत:प्रेरणासे प्राप्त होनेवाले ज्ञान--में पाते हैं । 'दृष्टि' 'श्रु ति', दर्शन और श्रवण, स्वत: प्रकाश और अन्त:स्फुरणा---ये उस अतिमानस सामर्थ्यकी दो शक्तियाँ है जिसका संबंध सत्यके, 'ऋतम् के प्राचीन वैदिक विचारसे है । कोषकारोंने ' श्रवस्' शब्दको इस अर्थमें नहीं दिखाया है,परन्तु 'वैदिक ॠचा, एक वदिक सूक्त, वेदके ईश्वरप्रेरित शब्द' इस अर्थमें यह शब्द स्वीकार किया गया है । इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि किसी. सस्यमें यह.. शब्द अन्त:प्रेरित ज्ञानके या किसी ऐसी वस्तुके भोक्ता देता था जो अन्त:स्कूंरित हुई हो, चाहे वह शब्द हो या ज्ञान हो | तो इस अर्थको, कम-से-कम अस्थायी तौर पर ही सही, हमें प्रस्तुत संदर्भमें लगानेका, अधिकार. है, क्योंकि दूसरा कीर्तिका अर्थ इस प्रकरणमें बिलकुल असंगत और निरर्थक लगता है ।. फिर नमस् शब्दका भी आध्यात्मिक आशय लेना' चाहिये, क्योंकि इसका शाब्दिक अर्थ है ''नीचे झुकना'' और इसका प्रयोग देवताके प्रति की .गयी सत्कारसूचक नम्रताकी क्रियाके लिये होता है जो भौतिक रूपसे शरीरको दण्डवत् करके की जाती है । इसलिये जब ऋषि "विचार द्वारा अग्निके लिये नम: धारणा करने" की बात कहता है तो इसपर हम मुश्किलसे ही संदेह कर सकते हैं कि वह 'नमस्' को आध्यात्मिक तौर पर आन्तरिक नमस्कारके, देवताके प्रति हृदयसे नत हो जाने या आत्म-समर्पण करनेके अर्थमें प्रयुक्त कर रहा है ।
तो हम उपर्युक्त चार ॠचाओंका यह अर्थ पाते हैं-----
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''अग्नि, जो यज्ञका होता है, कर्मके प्रति जिसका संकल्प दृष्टाका-सा है, जो सत्य है, नानाविध अन्तःप्रेरणाका जो महाघनी है, वह देव देवोंके साथ आवे ।''
"वह भलाई जो तू हवि देनेवालेके लिये करेगा, वही तेरा वह सत्य है, हे अंगिर: ! ''
"तेरे प्रति दिन-प्रतिदिन, हे अग्ने ! रात्रिमें और प्रकाशमें, हम विचारके द्वारा अपने आत्म-समर्पणको घारण करते हुए आते हैं ।"
"तेरे प्रति, जो तू यज्ञोंमें देदीप्यमान होता है (या जो यज्ञों पर राज्य करता है ), सत्यका और इसकी ज्योतिका संरक्षक है, अपने घरमें बढ़ रहा है ।''
हमारे इस अनुवादमें यह त्रुटि है कि हमें 'सत्यम्' और 'ऋंतम्' दोनोंके लिये एक ही शब्द प्रयुक्त करना पड़ा हैं, जब कि, जैसे कि हमें 'सत्यम् ऋतुम् बृहत्'. इस सूत्रमें देखनेसे पता चलता है, वैदिक विचारमें इन दोनों शब्दोंके ठीक-ठीक अर्थोमें अंतर था ।
तो फिर यह अग्निदेवता कौन है जिसके लिये ऐसी रहस्यमयी तेजस्विताकी भाषा प्रयुक्त की गयी है, जिसके साथ इतने महान् और गंभीर :कार्यमें का संबंघ जोड़ा गया है ? यह सत्य का संरक्षक कौन है जो अपने कार्यमें इस सत्यका प्रकाशरूप है, कर्ममें जिसका संककल्प जो अपनी समृद्धतया विविघ अन्तःप्रेरणाओं पर शासन करनेवाली दिव्य बुद्धिसे युक्त है ? वह सत्य क्या वस्तु है जिसकी वह' रक्षा? करता है ? और वह भद्र क्या है जिसे वह उस हवि देनेवालेके लिये करता है जो उसके पास सदा, दिनरात, बिचारमें हविरूपसे नमन और आत्म-समर्पणको धारण किए हुए आता है ? क्या यह सोना है और घोड़े हैं, और गौएं हैं जिन्हें वह लाता है, अथवा ये कोई अधिक दिव्य ऐश्वर्य हैं ?
यह यज्ञकी अग्नि नहीं है जो इन सब कार्योको कर सके, न ही यह कोई भौतिक ज्वाला अथवा भौतिक ताप और प्रकाशका कोई तत्त्व हो सकेता है । तो भी सर्वत्र यज्ञिय अग्निके प्रतीकका अवलंबन किया गया है | यह स्पष्ट है कि हमारे सामने एक रहस्यमय प्रतिवाद है, जिसमें अग्नि, यज्ञ, होता, ये सब एक गंभीरतर शिक्षणके केवल बाह्य अलंकारमात्र हैं और फिर भी ऐसे अलंकार हैं जिनका अवलंबन करना और निरंतर अपने सामने रखना आवश्यक समझा गया था ।
उपनिषदोंकी प्राचीन वैदान्तिक शिक्षामें सत्यका एक विचार देखनेमें आता है जो अघिकतर सुत्रोंके द्वारा प्रकट किया गया है और वे सूत्र वेदकी
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ॠचाओंमेंसे लिये गये है, जैसे कि एक वाक्य जिसे हम पहले ही उद्धृत कर चुके हैं यह है, ''सत्यम् ऋतम् बृहत्"--सच, ठीक और महान् । वेदमें इस सत्यके विषयमें कहा गया है कि यह एक मार्ग है वो सुखकी ओर ले जाता है, अमरताकी ओर ले जाता है । उपनिषदोंमें भी यही कहा गया है कि सत्यके मार्ग द्वारा ही सन्त या द्रष्टा, ऋषि या कवि पार पहुंचता है, वह असत्यको पार कर लेता है, मर्त्य अवस्थाको पार करके अमर सत्तामें पहुंच जाता है । इसलिये हमें यह कल्पना करनेका अघिकार है कि यह एक ही विचार है जिसपर वेदमें और वेदान्तमें दोनों जगह चर्चा चल रही है ।
यह आध्यात्मिक विचार उस सत्यके विषयमें है जो दिव्य तत्त्वका सत्य है, न कि जो मर्त्य संवेदन और बाह्य रूपोंका सत्य है । वह 'सत्यम्' है, सत्ताका सत्य है, अपनी क्रियाके रूपमें वह 'ॠतम्' है, व्यापारका सत्य है,-- दिव्य सत्ताका सत्य जो मन और शरीर दोनोंकी सही क्रियाको नियमित करता है, वह 'बृहत्' है, अर्थात् सार्वत्रिक सत्य है जो असीममेंसे सीधा और अविकृत रूपसे निकलता है । वह चेतना भी, जो इसके अनुरूप होती है, असीम है । ऐन्द्रिय मनकी चेतना तो सीमा पर आघारित है, इसके विपरीत वह सत्यकी चेतना बृहत् अर्थात् विशाल है । एकको 'भूमा', विशाल कहा गया है, दूसरीको 'अल्प', छोटा । इस अतिमानस या सत्य-चेतनाका एक दूसरा नाम 'मह:' है और इसका अर्थ भी है 'महान्', 'विशाल' । और जिस प्रकार :इन्द्रियानुभव एवं बाह्य प्रतीतिके तथ्योंके लिये जो नाना प्रकारके मिथ्यात्वसे ( अनृतम्, अर्थात् असत्यसे या मानसिक तथा शारीरिक क्रियामें सत्यम्के अशुद्ध प्रयोगसे ) भरे होते हैं, हमारे पास उपकरण हैं इन्द्रियाँ, ऐन्द्रियमन ( मनस् ) और बुद्धि ( जो उनकी साक्षीके आधार पर कार्य करती है ), उसी प्रकार सत्य-चेतनाके लिये उसीके अनुरूप शक्तियां हैं--'दृष्टि', 'श्रुति, 'विवेक', सत्यका अपरोक्ष दर्शन, इसके शब्दका अपरोक्ष श्रवण, और जो ठीक हो उसकी अपरोक्ष विवेचन द्वारा पहिचान । जो कोई इस सत्य चेतनासे युक्त होता है या इस योग्य होता है कि ये शक्तियां उसमें अपनी क्रिया करें, वह ॠषि या 'कवि' है, सन्त या द्रष्टा है । सत्यके, 'सत्यम् ' और ऋतम्'क़े, इन विचारों को ही हमें वेदके इस प्रारम्भिक सूक्तमें लगाना चाहिये ।
अग्नि वेदमें हमेशा शक्ति और प्रकाशके द्विविध रूपमें आता है । यह वह दिव्य शक्ति है जो लोकोंका निर्माण करती है, वह शक्ति है जो सर्वदा पूर्ण ज्ञानके साथ क्रिया करती है, क्योंकि यह 'जातवेदस्' है' सब जन्मोंको जाननेवाली है, 'विश्वानि वयुवानी विद्वान्'-- यह सब व्यक्त रूपों या घटनाओंको
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जानती है अथवा दिव्य बुद्धिके सब रूपों और व्यापारोंसे यह युक्त है । इसके अतिरिक्त यह बार-बार कहा गया है कि अग्निको देवोंने मत्योंमें अमृत रूपसे स्थापित किया है, उसे मनुष्यमें दिव्य शक्तिके रूपमें, उस पूर्ण करनेवाली, सिद्ध करनेवाली शक्तिके रूपमें रखा है जिसके द्वारा वे देवता उस मनुष्यके अन्दर अपना कार्य करते है । इसी कार्यका प्रतीक यज्ञको बनाया गया है ।
तो आध्यात्मिक रूपसे अग्निका अर्थ हम दिव्य संकल्प ले सकते हैं, वह दिव्य संकल्प जो पूर्ण रुपसे दिव्य बुद्धिके द्वारा प्रेरित होता है । और असलमें यह संकल्प इस बुद्धिके साथ एक है, यह यह शक्ति है जिससे सत्य चेतना क्रिया करती है या प्रभाव डालती है । 'कविक्रतु' शब्दका स्पष्ट आशय है, वह जिसका क्रियाशील संकल्प या प्रभावक शक्ति द्रष्टाकी है, अर्थात् वह उस ज्ञानके साथ कार्य करता है जो सत्य-चेतनासे आनेवाला ज्ञान है और जिसमें कोई भ्रान्ति या गलती नहीं है । आगे जो विशेषण आये हैं वे इस व्याख्या को और भी पुष्ट करते हैं । अग्नि 'सत्य' है, अपनी सत्तामें सच्चा है; अपने निजी सत्यपर और वस्तुओंके सारभूत सत्यपर जो इसका पूर्ण अधिकार है उसके कारणसे इसमें यह सामर्थ्य है कि यह इस सत्यका शक्तिकी सब क्रियाओं और गतियोंमें पूर्णताके साथ उपयोग कर सकता है । इसके पास दोनों हैं 'सत्यम्' औंर'. 'ऋतम्' ।
इसके अतिरिक्त वह 'चित्रश्रवस्तम:' है; 'ॠतम्' से उसमें अत्यधिक प्रकाशमय और विविध अन्त:प्रेरणाओंकी पूर्णता आती है, जो उसे पूर्ण कार्य करनेकी क्षमता प्रदान करती है । क्योंकि ये सब विशेषण उस अअग्निके हैं जो 'होता' है, यज्ञ का पुरोहित है, जो हवि प्रदान करनेवाला है । इसलिये यज्ञके प्रतीकसे सूचित होनेवाले कार्य (कर्म या अपस्) में सत्यका प्रयोग करनेकी उसकी शक्ति ही अग्निको मनुष्य द्वारा यज्ञमें आहूत किये जानेका पात्र बनाती है । बाह्य यज्ञोंमें यज्ञिय अग्निकी जो महत्ता है उसके अनुरूप ही आभ्यन्तर यज्ञमें इस एकीभूत ज्योति और शक्तिके आन्तरिक बलकी महत्ता है । इस आभ्यन्तर यज्ञके द्वारा मर्त्य और अमर्त्यमें परस्पर संसर्ग और एक दूसरेके साथ आदान-प्रदान होता है । अन्य स्थलोंमें ऐसा वर्णन बहुतायतके साथ पाया जाता है कि अग्नि 'दूत' है, उस संसर्ग और अदान-प्रदानका माध्यम है ।
तो हम देखते हैं कि किस योग्यतावाले अग्निको यज्ञके लिये पुकारा गया है, ''वह देव अन्य देवोंके साथ आये ।'१ ''देवो देवेभि:'' इस पुनरुक्तिके द्वारा जो दिव्यताके विचारपर विशेष बल दिया गया 'है वह तब बिल्कुल साफ समझमें
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आने, लगता है जब हम अग्निके इस नियत वर्णनको स्मरण करते हैं कि वह मनुष्योंमें रहनेवाला देव है, मर्त्योंमें अमर्त्य है, दिव्य. अतिथि है । इसे हम पूर्ण आध्यात्मिक रंग दे सकते हैं यदि हम इसका यह अनुवाद करें, 'वह दिव्य शक्ति दिव्य शक्तियोंके साथ आये ।' क्योंकि वेदार्थकी बाह्य वृष्टिमें देवता भौतिक प्रकृतिकी सार्वत्रिक शक्तियां हैं जिन्हें अपना पृथक्- पृथक् व्यक्तित्व प्राप्त है, अतः किसी भी आन्तरिक दृष्टिमें ये देवता अवश्य ही प्रकृति की वे सार्वत्रिक शक्तियां, संकल्प, मन आदि होने चाहियें जिनके द्वारा प्रकृति हमारे अन्दरकी हलचलोंमें काम करती है । .
परन्तु वेदमें इन शक्तियोंकी साधारण मन:सीमित या मानवीय क्रियामें, 'मनुष्यत्', और इनकी दिव्य क्रियामें सर्वदा भेद किया गया है । यह कल्पना की गयी है कि मनुष्य देवताओंके प्रति अपने आन्तरिक यज्ञमें अपनी मानसिक क्रियाओंका सही उपयोग करे तो उन्हें वह उनके सच्चे अर्थात् दिव्य रूपमें रूपान्तरित कर सकता है, मर्त्य अमर बन सकता है । इस प्रकार ही ॠभुगण जो पहले मानव सत्ताएं थे या मानव शक्तियोके द्योतक थे, कर्मकी पूर्णताके द्वारा-'सुकृत्यया', 'स्वपस्यया--दिव्य और अमर शक्तियां बन गये । मानवका दिव्यको सतत आत्म-समर्पण और दिव्यका मानवके अन्दर सतत अवतरण ही यज्ञके प्रतीकसे प्रकट किया गया प्रतीत होता है ।
इस अमरताकी अवस्थाको जो इस प्रकार प्राप्त होती है आनन्द और परम सुखकी अवस्था समझा गया है जिसका आधार एक पूर्ण सत्यानुभव और सत्याचरण, 'सत्यम्' और 'ऋतम्' है । मैं समझता हूँ इससे अगली ॠचाको हमें अवश्य इसी अर्थमें लेना चाहिये । ''वह भलाई (सुख ) जो तू हवि देनेवालेके लिये करेगा, वह है तेरा वही सत्य हे अग्ने | '' दूसरे शब्दोंमें, इस सत्यका (जो इस अग्निका स्वभाव है ) सार है अभद्रसे मुक्ति, पूर्ण भद्र और सुखकी अवस्था जो 'ॠतम्'के अन्दर रहती है और जिसका मर्त्यमें सृजन होना निश्चित है, जब वह मर्त्य अग्निको दिव्य होता बनाकर उसकी क्रिया द्वारा यज्ञमें हवि देता है । 'भद्रम्'का अर्थ है कोई वस्तु जो भली, शिव, सुखमय हो, और स्वयं इसे अपने अन्दर कोई गम्भीर अर्थ रखनेकी आवश्यकता नहीं । परन्तु वेदमें हम इसे 'ॠतम्'की तरह एक विशेष अर्थमें प्रयुक्त हुआ पाते हैं ।
एक सूक्त ( 5-82) में इसका. इस रूपमें वर्णन किया गया है कि यह बुरे स्वप्न (दुःष्यप्न्यम् ) का 'अनृतम्' की मिथ्या-चेतनाका और 'दुरितम्' का, मिथ्या आचरणका विरोधी है1, जिसका अभिप्राय होता है कि यह सब
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1. परजावत् साविः सौभगम् | परा दू:श्वप्न्यं सुव || ( ॠ० 5-82-4)
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प्रकारके पाप और कष्टका विरोधी है । इसलिये 'भद्रम्'1 'सुवितम्'का (सत्य आचरणका ) समानार्थक है, जिसका अर्थ है यह सब भलाई और सुख-कल्याण जो सत्यकी, 'ऋतक' की अवस्थासे सम्बन्ध रखता है । यह 'मयस्' है, सुख-कल्याण है, और देवताओंको, जो सत्य-चेतनाका प्रतिनिधित्व करते हैं, 'मयोभुवः' कहा गया है अर्थात् वे जो सुख-कल्याण लाते हैं या जो अपनी सत्तामें सुख-कल्याण रखते हैं । इस प्रकार वेदका प्रत्येक भाग, यदि वह अच्छी तरहसे समझ लिया जाय तो, प्रत्येक दूसरे भाग पर प्रकाश डालता है । इसमें परस्पर असंगति हमें तभी दीखती है जब इसपर पड़े हुए आवरणके कारण हम भटक जाते हैं ।
अगली ऋचामें, यह प्रतीत होता है कि फलोस्पादक यज्ञकी शर्त बतायी गयी है । वह यह है कि मानवके अंदर अवस्थित विचार (घी ) दिन-प्रतिदिन, रातको और प्रकाशमें नमन, आराधन और आत्मसमर्पणके साथ निरन्तर उस दिव्य संकल्प और प्रज्ञाका आश्रय ले जिसका प्रतिनिधि अग्नि है, रात और दिन, नक्तोषासा', भी वेदके अन्य सब देवोंकी तरह प्रतीकरूप ही हैं और आशय यह प्रतीत होता है कि चेतनाकी सभी अवस्थाओंमें, चाहे वे प्रकाशमय हों चाहे घुंधली, समस्त क्रियाओंकी दिव्य नियन्त्रणके प्रति सतत वशवर्तिता और अनुरूपता होनी चाहिये ।
क्योंकि चाहे दिन हो चाहे रात, अग्नि यज्ञोंमें प्रदीप्त होता है, वह मनुष्यके अन्दर सत्यका, 'ऋतम्'का रक्षक है और अंधकारकी शक्तियोंसे इसकी रक्षा करता है, वह इस सत्यका सतत प्रकाश है जो मनकी घुंघली और पर्याक्रान्त दशाओंमें भी प्रदीप्त रहता है । ये विचार जो इस प्रकार आठवीं ऋचामें संक्षेपसे दर्शाये गये हैं, ऋग्वेदमें अग्निके जितने सूक्त हैं उन सबमें स्थिर रूपसे पाये जाते हैं ।
अन्तमें अग्निके विषयमें यह कहा गया है कि वह अपने धरमें वृद्धिको प्राप्त होता है । अब हम अधिक देर तक इस व्याख्यासे सन्तुष्ट नहीं रह सकते कि अग्निका अपना घर वैदिक गृहस्थाश्रमीका 'अग्नि-गृह' है । हमें स्वयं वेदमें ही इसकी कोई दूसरी व्याख्या ढूंढनी चाहिये, और वह हमें प्रथम मंडलके 75वें सूक्तमें मिल भी जाती है ।
यजा नो मित्रावरुणा यजा देवां ॠतं वृहत् । अग्ने यक्षि स्वं दमम् । ऋ० १।७५।५
'यज्ञ कर हमारे लिये मित्र और वरुणके प्रति, यज्ञ कर देवोंके प्रति, सत्यके, बृहत्के प्रति हे अग्ने ! स्वकीय घरके प्रति यज्ञ कर देवोंके प्रति, सत्यके, बृहत् प्रति, हे अग्ने ! स्वकीय घरके प्रति यज्ञ कर |'
1. दुरितानि परा सुव | यढ़ू भद्रं तन्न आ सुव || (ॠ० 5-82-5)
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यहां 'ॠतं, बृहत्' और 'स्वं दमम्' यज्ञके लक्ष्यको प्रकट करते हुए प्रतीत होते हैं और ये पूर्णतया वेदके उस अलंकारके अनुरूप हैं जिसमें यह कहा गया है कि यज्ञ देवोंकी ओर यात्रा है और मनुष्य स्वयं एक यात्री है जो सत्य, ज्योति या आनंदकी ओर अग्रसर हो रहा है । इसलिये यह स्पष्ट है कि 'सत्यं', 'बृहत्' और 'अग्नि का स्वकीय घर एक ही है । अग्नि और अन्य देवताओके बारेमें बहुधा यह कहा गया है कि वे सत्यमें उत्पन्न होते हैं, 'ॠतजात', विस्तार या बृहत्के अन्दर रहते हैं । तो हमारे इस संदर्भका आशय यह होगा कि अग्नि जो मनुष्यके अन्दर दिव्य संकल्प और दिव्य शक्ति-रूप है, सत्य-चेतनामें जो इसका अपना वास्तविक क्षेत्र है, बढ़ता है, जहां मिथ्या बन्धन विस्तृत और असीममें, उरौ अनिवधे', टूटकर गिर जाते हैं ।
इस प्रकार वेदके प्रारम्भिक सूक्तकी इन चार ऋचाओंमें हमें वैदिक ॠषियोंके प्रधानभूत विचारोके प्रथम चिह्न देखनेको मिलते हैं,-अतिमानस और दिव्य सत्यचेतनाका विचार, सत्यकी शक्तियोंके रूपमें देवताओंका आवाहन, इसलिये कि वे मनुष्यको मर्त्य मनके मिथ्यारूपोंमेंसे निकालकर ऊपर उठायें, इस सत्यके अन्दर और इसके द्वारा पूर्ण भद्र और कल्याणकी अमर अवस्थाको पाना और दिव्य पूर्णताके साधनके रूपमें मर्त्यका अमर्त्यके प्रति आभ्यन्तर यज्ञ करना तथा उसके पास जो कुछ है एवं वह अपने आप जो कुछ है उसका उस यज्ञमें हवि-रूपसे उत्सर्ग कर देना । शेष सब वैदिक विचार अपने आध्यात्मिक रूपोंमें इन्हीं केंद्रभूत विचारोके चारों तरफ एकत्रित हो जाते हैं ।
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सातवाँ अध्याय
वरुण, मित्र और सत्य
यदि सत्यका यह विचार जिसे हमने वेदके पहले-पहले ही सूक्तमें पाया है अपने अंदर वस्तुत: उस आशयको रखता है जिसकी हमने कल्पनाकी है और उस अतिमानस चैतन्यके विचार तक पहुँचता है जो अमरता या परम पदको पानेकी शर्त है और यदि यही वैदिक ऋषियोंका मुख्य विचार है तो हमें अवश्य सारे-के-सारे सूक्तोंके अंदर यह विचार बार-बार आया हुआ मिलना चाहिये, अध्यात्म-विज्ञान-संबंधी अन्य सिद्धियों तथा तदाश्रित सिद्धियोंके लिये केंद्रभूत विचारके तौरपर मिलना चाहिये । ठीक अगले ही सूक्तमें, जो इन्द्र और वायुको संबोधित किया गया मधुच्छंदसका दूसरा सूक्त है, हम एक और संदर्भ पाते हैं जो स्पष्ट और बिलकुल ही अकाटय आध्यात्मिक निर्देशोंसे भरा पड़ा है, जिसमें 'ॠतम्'का विचार अग्निसूक्तकी अपेक्षा भी अधिक बलके साथ रखा गया है । इस संदर्भम इस सूक्तकी अंतिम तीन ॠचाएँ आती हैं--
मित्र हुवे पूतदक्ष वरुणं च रिशादसम् ।
धियं घृताचीं साधन्ता ।।
ॠतेन मित्रावरुणा ॠतावृधा ॠस्पुशा ।
ॠतुं बुहन्तमाशापे ।।
कवी नो मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्षया ।
रक्षं वधाते अपसम् ।। (1 .2. 7-9 )
इस संदर्भकी पहिली ॠचामें एक शब्द 'दक्ष' आया है जिसका अर्थ सायणने प्रायः बल किया है, पर वस्तुत: जो अध्यात्मपरक व्याख्याके योग्य है, एक महत्वपूर्ण शब्द 'घृत' आया है जो 'धृताचीं' इस विशेषणमें है और एक अपूर्व वाक्यांश है-'धियं घृचाचीम्' । शब्दशः इस ॠचाका यह अनुवाद किया जा सकता है- "मैं मित्रका आह्वान करता हूँ, जो पवित्र बलवाला (अथवा, पवित्र विवेकशक्तिवाला ) है और वरुणका जो हमारे शत्रुओंका नाशक है, (जो दोनों ) प्रकाशमय बुद्धिको सिद्ध करनेवाले (या पूर्ण करनेवाले ) है ।''
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दूसरी ऋचामें हम देखते हैं कि .'ऋत्तम्'को तीन बार दोहराया गया है और 'बृहत्' तथा 'ॠतु' शब्द आये हैं, जिन दोनोंको ही वेद की अध्यात्मपरक व्याख्यामें हम बहुत ही अधिक महत्त्व दे चुके हैं । 'ॠतु'का अर्थ यहाँ या तो यज्ञका कर्म हो सकता है या सिद्धिकारक शक्ति । पहले अर्थके पक्षमें हम वेदमें इस-जैसा ही एक और संदर्भ पाते हैं जिसमें वरुण और मित्र को कहा गया है कि वे 'ॠतु'के द्वारा यज्ञको अधिगत करते हैं या उसका भोग करते हैं, 'ॠतना यज्ञमाशाथे' (ऋ० 1-15-6) । परंतु यह. समानान्तर संदर्भ निर्णायक नहीं है; क्योंकि एक प्रकरणमें यदि स्वयं यज्ञका ही उल्लेख किया गया है, तो दूसरे प्रकरणमें उस शक्ति या बलका उल्लेख हो सकता है जिससे यज्ञ सिद्ध होता है । और यज्ञके साथ 'ॠतना' शब्द वहाँ भी है ही । इस दूसरी ऋचाका अनुवाद शब्दशः वह हो सकता है-''सत्यके द्वारा मित्र और वरुण, जो सत्यको बढानेवाले हैं, सत्यका स्पर्श करनेवाले हैं, एक वृहत् कर्मका अथवा एक विशाल (साधक ) शक्तिका भोग करते हैं (या उन्हें अधिगत करते हैं ) ।''
अंतमें तीसरी ऋचामें हमें फिर 'दक्ष' शब्द मिलता है, 'कवि' शब्द मिलता है जिसका अर्थ 'द्रष्टा' है और जिसे पहले ही मधुच्छंदस् 'ॠतु'के कर्म या संकल्पके साथ जोड़ चुका है, सत्यका विचार मिलता है और, 'उरु-क्षया' यह प्रयोग मिलता है । 'उरुक्षया'में 'उरु ( अर्थात् विस्तृत या विशाल ) 'महान्'के वाचक उस 'बृहत्'का पर्यायवाची हो सकता है जो अग्निके 'स्वकीय घर' सत्यचेतनाके लोक या स्तरका वर्णन करनेके लिये प्रयुक्त हुआ है । शब्दशः मैं इस ऋचाका अनुवाद यों करता हूं-''हमारे लिये मित्र और वरुण, जो द्रष्टा हैं, बहु-जात हैं, विशाल घरवाले हैं, उस बल (या विवेक-शक्ति ) को धारण करते हैं जो कूर्म करनेवाली है ।''
यह एकदम स्पष्ट हो जायगा कि दूसरे सूक्तके इस संदर्भमें हमें विचारों-का ठीक वही क्रम मिलता है और बहुत-से वैसे ही भाव प्रकाशित किये गये हैं जिन्हें पहले सूक्तमें हमने अपना आधार बनाया था । पर उनका प्रयोग भिन्न प्रकारका है और पवित्रीकृत विवेकका विचार, अत्यधिक प्रकाशमय बुद्धि, 'धियं घृताचीम्'का विचार और यज्ञकर्ममें सत्यकी क्रिया 'अपस्'का विचार कुछ अन्य नवीन यथार्थ तथ्योंको प्रस्तुत करते हैं, जिनसे ऋषियोंके जो केंद्रभूत विचार हैं उनपर और अधिक प्रकाश पड़ता है ।
दक्ष शब्द ही इस संदर्भमें अकेला ऐसा है जिसके आशयके संबंधमें वस्तुत: ही संदेहकी गुंजाइश हो सकती है और इसका अनुवाद सायणने प्रायश: 'बल' किया है । यह एक ऐसी धातुसे बनता है जिसका अपनी
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सजातीय अन्य धातुओंमेसे अनेकों (जैसे दश्, दिश्, दह् )की तरह मूलमें अपने विशेष अर्थोमेंसे एक अर्थ 'आक्रामक दबाव' था और इस कारण पीछे से किसी भी प्रकारकी क्षति पहुंचाना इससे प्रकट होने लगा, पर विशेषकर विभाग करने, काटने, कुचलने या कभी-कभी जलानेकी क्षति पहुंचाना । बलके वाचक बहुतसे शब्द ऐसे हैं जो मूलमें 'क्षति पहुंचानेका सामर्थ्य' इस अर्थको रखते थे, योद्धा और घातककी आक्रामक शक्तिके द्योतक थे, जो एक ऐसी शक्ति थी जिसकी आदिकालके मनुष्यके लिये बहुत अधिक कीमत थी, क्योंकि उससे वह बलके प्रयोगसे उस भूमि पर अपना स्थान बना सकता था जिसे उसने उत्तराधिकारमें पाया होता था । इस शृंखलाको हम साधारण संस्कृतके शक्तिवाची शब्द 'बलम्'में भी देखते हैं जो उसी परिवार-का है, जिसका ग्रीक शब्द 'बलो' (Ballo) जिसका अर्थ है 'प्रहार करना, और बैलोस (Belos) जिसका अर्थ है शस्त्र । 'दक्ष' शब्दका जो 'बल' अर्थ लिया जाता है उसका भी मूल यही है ।
पर विभाग करनेका यह विचार भाषा-विकासके मनोविज्ञानमें हमें एक बिल्कुल दूसरे ही विचार-क्रमकी ओर भी ले गया, क्योंकि जब मनुष्यकी यह इच्छा हुई कि उसके पास मानसिक विचारोंके लिये भी शब्द हों तो उसके पास सबसे सुलभ श्रणाली यह थी कि वह भौतिक क्रियाके रूपोंको ही मानसिक क्रियामें भी प्रयुक्त करने लगे । इस प्रकार भौतिक विभाग या पृथक्करणको मानसिक क्रियामें प्रयुक्त किया गया, जो वहाँ परिवर्तित होकर 'भेद करना' इस अर्थको देने लगा । ऐसा प्रतीत होता है कि पहले तो यह चाक्षुष प्रत्यक्षके द्वारा भेद करनेके अर्थमें प्रयुक्त हुआ और पीछेसे मानसिक पृथक्करण, विवेचन, निर्घारणके अर्थको देने लगा । इसी प्रकार 'विद्' धातु जिसका संस्कृतमें अर्थ पाना या जानना है, ग्रीक और लेटिनमें 'देखना' अर्थको देती है । दर्शनार्थक 'दृश्' धातुका मूलमें अर्थ था चीरना, फाड़ डालना, पृथक् करना; दर्शनार्थक 'पश्' धातुमें भी मूल अर्थ यही था । हमारे सामने लगभग एक-सी .ही तीन धातुएं हैं जो इस विषयमें बहुत बोध-प्रद हैं--'पिष्' चोट मारना, क्षति पहुंचाना, बलवान् होना, कुचलना, चूरा करना; और 'पिश्' रूप देना, आकृति गढ़ना निर्माण करना, घटक अवयवोंमें पृथक् होना । इन सारे अर्थोंसे पृथक् करने, विभाजित करने, काटकर टुकड़े करनेका जो मौलिक अर्थ है उसका पता चल जाता है । इसके साथ हम देखें इन धातुओंसे बने यौगिक शब्द 'पिशाच'को जो असुरके अर्थमें आता है और 'पिशुन'को . जिसका अर्थ एक तरफ तो कठोर, क्रूर, दुष्ट, धोखेबाज चुगल-
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खोर है,--ये सारे अर्थ क्षति पहुंचानेके विचारमें से ही लिये गये हैं,--तथा साथ ही दूसरी तरफ इसके अर्थ, ' सूचना देनेवाला, व्यक्त करनेवाला, दर्शाने-वाला स्पष्ट करनेवाला' भी हैं, जो कि दूसरे 'भेद'के अर्थसे निकले हैं । ऐसे ही 'कृ' धातु जिसका अर्थ क्षति पहुंचाना, विभक्त करना, बखेरना है, ग्रीक क्रिनो (Krino) में देखनेमें आती है जिसका अर्थ है मैं छानता हूं, चुनता निर्धारण करता, निश्चय करता हूं । दक्षका भी यही इतिहास है । इसका सम्बन्ध 'दश्' धातुसे है जिसका लैटिनमें एक रूप है 'डोसिओ' (Doceo) अर्थात् मैं सिखाता हूं और ग्रीक में है 'डोकिओ' (Dokeo) अर्थात् मैं विचारता, परखता हूं, गिनता हूं और 'डोकाजो' (Dokazo), मैं निरीक्षण करता हूं, सम्मति रखता हूं ।
इसी प्रकार हमारे पास इसकी सजातीय धातु 'दिश्' है, जिसका अर्थ होता है अंगुलिनिर्देश करना या सिखाना, ग्रीकमें 'डेक्नुमि' (Deiknumi) । स्वयं दक्ष शब्दके ही लगभग बिल्कुल समरूप ग्रीक 'डौक्स' (Doxa) है जिसका अर्थ होता है सम्मति, निर्णय और 'डैक्सिअस' (Dexios) है जिसका अर्थ है चतुर, कुशल, दक्षिण-हस्त । संस्कृतमें दक्ष धातुका अर्थ चोट मारना, मार डालना है, साथ ही समर्थ होना, योग्य होना भी है । विशेषणरूपमें 'दक्ष'का अर्थ होता है चतुर, प्रवीण, समर्थ, योग्य, सावधान, सचेत । 'दक्षिण'का अर्थ 'डेक्सिअस'की तरह चतुर कौशलयुक्त, दक्षिण-हस्त है, और संज्ञावाची 'दक्ष'का अर्थ बल तथा दुष्टता भी होता ही है जो चोट पहुंचानेके अर्थसे निकलता है, पर इसके अतिरिक्त इस परिवारके अन्य शब्दोंकी तरह इसका अर्थ मानसिक क्षमता या योग्यता भी होता है । हम इसके साथ 'दशा' शब्दकी भी तुलना कर सकते हैं जो मन, बुद्धिके अर्थमें आता है । इन सब प्रमाणोंको इकट्ठा कर लेने पर पर्याप्त स्पष्ट तौरसे यह निर्देश मिलता प्रतीत होता है कि एक समयमें 'दक्ष'का अर्थ विवेचन, निर्धारण, विवेचक विचारशक्ति अवश्य रहा होगा और इसका मानसिक क्षमताका अर्थ मानसिक विभाजन (विवेचन ) के इस अर्थसे लिया गया है, न कि यह बात है कि शारीरिक बलका विचार मनकी शक्तिमें बदल गया और इस तरीकेसे यह अर्थ निकला ।
इसलिये वेदमें दक्षके लिये तीन अर्थ सम्भव हो सकते हैं, सामान्यतः बल, मानसिक शक्ति या विशेषत: निर्धारणकी शक्ति-विवेचन | 'दक्ष' निरन्तर 'ॠतु'के साथ मिला हुआ आता है, ऋषि इन दोनोंको एक साथ अभीप्सा करते है 'दक्षाय ॠत्वे' (जैसे 1-111-2, 4-37-2, 5-43-5 में ) जिसका सीधा अर्थ हो सकता है, 'क्षमता और साधक शक्ति' अथवा 'विवेक
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और संकल्प' । लगातार हम इस शब्दको उन संदर्भोमें पाते है जहाँ सारा प्रकरण मानसिक व्यापारोंका वर्णन कर रहा होता है । अन्तिम बात यह है कि हमारे सामने देवी 'दक्षिणा' है जो 'दक्ष'का ही स्त्रीलिंग रूप हो सकती है, जो दक्ष अपने-आपमें एक देवता था और बादमें पुराणमें आदिम पिता, प्रजापतियोंमसे एक माना जाने लगा । हम देखते हैं कि 'दक्षिणका सम्बन्ध ज्ञानके अभिव्यक्तीकरणके साथ है और कहीं-कहीं हम यह भी पाते हैं कि उषाके साथ इसकी एकात्मता कर दी गयी है, उस दिव्य उषाके साथ जो प्रकाशको लानेवाली है । मैं यह सुझाव दूंगा कि 'दक्षिणा' अपेक्षया अधिक प्रसिद्ध 'इणा', 'सरस्वती' और 'सरमा'के समान ही उन चार देवियोंमेंसे एक है जो 'ॠतम्' या सत्यचेतनाकी चार शक्तियोंकी द्योतक है; 'इणा' सत्य-दर्शन या दिव्य स्वत:प्रकाश (Revelation)की द्योतक है; 'सरस्वती' सत्य-श्रवण, दिव्य अन्त:प्रेरणा (Inspiration) या दिव्य शब्दकी, 'सरमा' दिव्य अन्तर्ज्ञान (Intution) की और 'दक्षिणा' विभेदक अन्तर्ज्ञानमय विवेक (Separative intuitional discrimination) की । तो 'दक्ष'का अर्थ होगा यह विवेक, चाहे यह मनोमय स्तरमें होनेवाला मानसिक निर्धारण हो अथवा 'ऋतम्'के .स्तरका अन्तर्ज्ञानमय विवेचन ।
ये तीन ॠचाएं, जिनके सम्बन्धमें हम विचार कर रहे हैं, उस एक सूक्तका अन्तिम संदर्भ हैं जिसकी सबसे पहली तीन ॠचाएं अकेले वायुको सम्बोधित करके कही गयी हैं और उससे अगली तीन इन्द्र और वायुको । मन्त्रोंकी अध्यात्म-परक व्याख्याके अनुसार इन्द्र, जैसा कि हम आगे देखेंगे, मन:शक्तिका प्रतिनिधि है । ऐन्द्रियक ज्ञानकी साधनभूत शक्तियोंके लिये प्रयुक्त होनेवाला 'इंद्रिय' शब्द इस 'इन्द्र'के नामसे ही लिया गया है । उसका मुख्य लोक 'स्व:' है, इस 'स्व:' शब्दका अर्थ सूर्य या प्रकाशमान है, यह सूर्यवाची 'सूर' और 'सूर्य'का सजातीय है और तीसरी वैदिक व्याह्यति तथा तीसरे वैदिक लोकके लिये प्रयुक्त होता है जो विशुद्ध, अन्धकाररहित व अनाच्छादित मनुका लोक है । सूर्य द्योतक है 'ॠतम्'के उस प्रकाशका जो मन पर उदित होता है, स्वः:' मनोमय चेतनाका वह लोक है जो साक्षात् रूपसे इस प्रकाशको ग्रहण करता है । दूसरी ओर 'वायु'का सम्बन्ध हमेशा प्राण या जीवन-शक्तिके साथ है । यह जीवन-शक्ति हमारे नाड़ी-संस्थानको वे सारी-की-सारी वातिक क्रियाएँ प्रदान करती है जो मनुष्यके अन्दर इन्द्रके द्वारा अधिष्ठित मानसिक शक्तियोंका अवलम्ब होती हैं । इन दोनों, इन्द्र और वायुके संयोगसे ही मनुष्यकी साघारण मनोवृत्ति बनी है । इस सुक्तमें इन दोनों देवताओंको निमन्त्रित किया गया है कि वे आयें और
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दोनों मिलकर सोम-रसको पीनेमें हिस्सा लें । यह सोम-रस उस आनन्दकी मस्तीका, सत्ताके उस दिव्य आनन्दका प्रतिनिधि है जो अतिमानस चेतनासे उद्भूत होकर 'ऋतम्' या सत्यमेंसे होता हुआ मनमें प्रवाहित होता है । अपने इस कथनकी पुष्टिमें हमें वेदमें असंख्यों प्रमाण मिलते हैं; विशेषकर नवम मण्डलमें जिसमें सोमदेवताको कहे गये सौसे ऊपर सूक्तोंका संग्रह है । यदि हम इन व्याख्याओंको स्वीकार कर लें, तो हम आसानीके साथ इस सूक्तको इसके अध्यात्म-परक अर्थमें अनूदित कर सकते हैं ।
इन्द्र और वायु, सोम-रसके प्रवाहोंके प्रति चेतनामें जागृत रहते हैं ( चेतथ: ); अभिप्राय यह कि मनःशक्ति और प्राण-शक्तिको मनुष्यकी मनोवृत्तिमें एक साथ कार्य करते हुए, ऊपरसे आनेवाले इस आनन्दके, इस अमृतके, इस परम सुख और अमरताके अन्तःप्रवाहके प्रति जागृत होना है । वे उसे मनोमय तथा वातिक शक्तियोंकी पूर्ण प्रचुरतामें अपने अन्दर ग्रहण करती हैं, चेतयः सुतनां चाजिनीवसू' (पाँचवां मन्त्र ) । इस प्रकार ग्रहण किया हुआ आनन्द एक नयी क्रिया करता है, जो मर्त्यके अन्दर अमर चेतनाका सृजन करती है और इन्द्र तथा वायुको निमन्त्रित किया गया है कि वे आयें और विचारके योगदान द्वारा इन नयी क्रियाओंको शीघ्रताके साथ पूर्ण करें, आयातम् उप निष्कृतम् मक्षु घिया (छठा मंत्र ) । क्योंकि 'घी' है विचार-शक्ति, बुद्धि या समझ । यह 'घी' इन्द्र तथा वायुकी संयुक्त क्रिया द्वारा प्रदर्शित होनेवाली साधारण मनोवृत्तिके और, 'ऋतम्' या सत्य-चेतनाके मध्य- वर्तिनी है, इन दोनोके वीच में स्थित है ।
ठीक इसी स्थल पर वरुण और मित्र बीचमें आते हैं और हमारा संदर्भ शुरू होता है । अध्यात्म-सम्बन्धी उपर्युक्त सूत्रको बिना पाये इस सूक्तके पहिले हिस्से और अन्तिम हिस्सेमें परस्परसम्बन्ध बहुत स्पष्ट नहीं होता, न ही वरुण-मित्र तथा .इन्द्र-वायु इन युगलोंमें कोई. .स्पष्ट सम्बन्ध, दीखता है ।. उस सूत्रके पा लेने पर दोनों सम्बन्थ बिस्कूल स्पष्ट .हो जाते हैं; वस्तुत: वे एक दूसरे पर आश्रित हैं । क्योंकि सूक्तके पहले भागका विषय है--पहले तो प्राण-शक्तियोंकी तैयारी, जिनका द्योतक वायु है, जिस अकेले का पहिली तीन ॠचाओंमें आह्वान किया गया हैं, फिर मनोवृत्तिकी तैयारी जो इन्द्र-वायुके जोड़ेसे प्रकटकी गयी है, जिससे मनुष्यके अन्दर सत्यचेतना- की क्रियाएं हो सकें; सूक्तके अन्तिम भागका विषय है-मानसिक वृत्ति पर इस प्रकार सत्यकी क्रियाका होना जिससे कि बुद्धि पूर्ण हो और कार्यों-का रूप व्यापक हो । वरुण और मित्र उन चार देवताओंमेंसे दो हैं जो मनुष्यके .मन और स्वभावमें 'हिनेवाली सत्यकी इस क्रियाके, प्रतिनिधि हैं ।
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यह वेदकी शैली है कि उसमें जब कोई इस प्रकारका विचार-संक्रमण होता है--विचारकी एक धारा उसमेंसे विकसित हुई दूसरी धारामें बदलती है--तो उनके सम्बन्धकी कड़ी प्रायः इस प्रकार दर्शाई जाती है कि नयी धारामें एक ऐसे महत्वपूर्ण शब्दको दुहरा दिया जाता है जो पूर्ववर्ती धारा-की समाप्तिमें पहले भी आ चुका होता है । इस प्रकार यह नियम, जिसे कोई 'प्रतिध्वनि द्वारा सूचना देनेका नियम' यह नाम दे सकता है, सूक्तोंमें व्यापक रूपसे पाया जाता है और यह सभी ॠषियोंकी एक-सी पद्धति है । दो धाराओंको जोड़नेवाला शब्द यहाँ 'घी' है; जिसका अर्थ है विचार या बुद्धि- । 'घी' मतिसे भिन्न है, जो अपेक्षया अधिक साधारण शब्द है । मति . शब्दका अर्थ होता है, सामान्यतया मानसिक वृत्ति या मानसिक क्रिया, और यह कभी विचारका, कभी अनुभवका तथा कभी सारी ही मानसिक दशाका निर्देश करता है । 'घी' है विचारक मन या बुद्धि, बुद्धि (समझ )के रूपमें यह जो इसके पास आता है उसे धारण करती है, प्रत्येक वस्तुका स्वरूप निरधारित करती है और उसे उचित स्थानमें रखती है,1 अथवा यों कहना चाहिये कि 'धी' प्रायः बुद्धिकी, विशिष्ट विचार या विचारोंकी क्रियाको निर्दिष्ट करती है | विचार (धी ) के द्वारा ही इन्द्र और वायुका आवाहन किया गया है कि वे आकर वातिक (प्राणमय ) मनोवृत्तिको पूर्णता प्राप्त करायें, निष्कृतं धिया । पर यह उपकरण 'विचार, स्वयं ऐसा है जिसे पूर्ण करनेकी, समृद्ध करनेकी, शुद्ध करनेकी आवश्यकता है, इससे पहिले कि मन सत्यचेतनाके साथ निर्बाध संसर्ग करनेके योग्य हो सके । इसलिये वरुण और मित्रका, जो सत्यकी शक्तियाँ है, इस रूपमें आवाहन किया गया है कि वे 'एक अत्यधिक प्रकाशमय विचारको पूर्ण करनेवाले, धियं धृताचीं साधन्ता हैं ।
वेदमें यहीं पहले-पहल धृत शब्द आया है, एक प्रकारसे परिणत हुए विशेषणके रूपमें आया है और यह अर्थपूर्ण वात है कि वेदमें बुद्धिके लिये प्रयुक्त होनेवाले शब्द 'घी'का विशेषण होकर आया है । दूसरे संदर्भोंमें भी हम इसे सतत रूपसे 'मनस्', 'मनीषा' शब्दोंके साथ संबद्ध पाते हैं अथवा उन प्रकरणोंमें देखते हैं जहां विचारकी किसी क्रियाका निर्देश है । 'घृ' धातुसे एक तेज चमक या प्रचण्ड तापका विचार प्रकट होता है, वैसी चमक या तापका जैसा अग्नि या ग्रीष्मकालीन सूर्यका होता है । इसका अर्थ सिंचन या अभ्यंजन भी है जो ग्रीक थातु 'क्रिओ' (chrio) का अर्थ है । एवं
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1. 'धी' धातुका अर्थ होता है धारण करना या रखना |
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इसका प्रयोग किसी तरल (क्षरित होनेवाले ) पदार्थके किये हो सकता है, पर मुख्यतया चमकीले, घने द्रवके लिये । तो इन दो संभावित अर्थोंके कारण घृत शब्दकी जो द्वचर्थकता है उसका ऋषियोंने यह लाभ उठाया कि बाह्य रूपसे तो इस शब्दसे यज्ञमें काम आनेवाला घी सूचित हो और आभ्यन्तर रूपमें मस्तिष्क-शक्ति, मेधाकी समृद्ध और उज्ज्वल अवस्था या क्रिया जो प्रकाशमय विचारका आधार और सार है । इसलिये धियं धुताचीम्से अभिप्राय है वह बुद्धि जो समृद्ध और प्रकाशमय मानसिक क्रियासे भरपूर हो ।
वरुण और मित्रकी जो बुद्धिकी इस अवस्थाको सिद्ध या परिपूर्ण करते हैं, दो पूथक्-पूथक् विशेषणोंसे विशेषता बतायी गयी है । मित्र है पूतदक्ष, एक पवित्रीकृत विवेकसे मुक्त, वरुण रिशादस् है, सब हिंसकों या शत्रुओंका विनाश करनेवाला है । वेदमें कोई भी विशेषण सिर्फ शोभाके लिये नहीं लगाया जाता । प्रत्येक शब्द कुछ अभिप्राय रखता है, अर्थमें कुछ नयी बात जोड़ता है और जिस वाक्यमें यह आता है, उस वाक्यसे प्रकट होनेवाले विचारके साथ इसका घनिष्ठ संबंध होता है । दो बाधाएँ हैं जो बुद्धिको सत्य-चेतनाका पूर्ण और प्रकाशमय दर्पण बननेसे रोकती हैं । पहली तो है विवेक या विवेचनाशक्तिकी अपवित्रता जिसका परिणाम सत्यमें गड़बड़ी पड़ जाना होता है | दूसरे वे अनेक कारण या प्रभाव है जो सत्यके पूर्ण प्रयोगको सीमामें बाँधकर अथवा इसे व्यक्त करनेवाले विचारोके संबंधों और सामजस्योंको तोड़कर सत्यकी वृद्धिमें हस्तक्षेप करते हैं और इस प्रकार, परिणामत:, इसके विषयोंमें दरिद्रता तथा मिथ्यापन ले आते हैं । जैसे देवता वेदमें सत्य-चेतनासे अवतरित हुई उन सार्वत्रिक शक्तियोंके प्रतिनिधि हैं तो लोकोंके सामंजस्यका और मनुष्यमें उसकी वृद्धिशील पूर्णताका निर्माण करती हैं, ठीक वैसे ही जो विरोधी शक्तियाँ इन उद्देश्योंके विरोधमें काम करनेवाले प्रभावोंका प्रतिनिधित्व करती हैं वे 'दस्यु' और 'वृत्र' हैं, जो तोड़ना, सीमित करना, रोक रखना और निषेध करना चाहती हैं । वरुणकी वेदमें सर्वत्र यह विशेषता दिखलाई गयी है .कि वह विशालता तथा पवित्रताकी शक्ति है, इसलिये जब वह मनुष्यके अंदर सत्यकी जागृत शक्तिके रूपमें आकर उपस्थित हो जाता है तब उसके संस्पर्शसे वह सब के दोष, पाप, बुराईके प्रवेश द्वारा स्वभावको सीमित करनेवाला और क्षति पहुँचानेवाला होता है, विनष्ट हो जाता है । वह 'रिशादस्' है, शत्रुओंका उन सबका जो वृद्धिको रोकना चाहते हैं, विनाश करनेवाला है । मित्र जो वरुणकी तक प्रकाश और सत्यकी एक शक्ति है, मुख्यतया प्रेम, आह्वाद, समस्वरताका धोतक है, जो वैदिक नि:श्रेय 'मयस्'का आधार हैं | वरुणकी पवित्रताके
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साथ कार्य करता हुआ और उस पवित्रताको विवेकमें जाता हुआ वह विवेकको दस योग्य कर देता है कि यह सब बेसुरेपन और गड़बड़ीसे मुक्त हो जाय तथा दृढ़ और प्रकाशमय बुद्धिके सही व्यापारको स्थापित कर सके ।
यह प्रगति सत्यचेतनाको, 'ॠतेन', मनुष्यकी मनोवृत्तिमें कार्य करने योग्य बना देती है । सत्यरूपी साधनसे, 'ॠतेन', मनुष्यके अन्दर सत्यकी क्रियाको बढ़ाते हुए, 'ऋतावृधा', सत्यका स्पर्श करते हुए या सत्य तक पहुँचते'हुए, अभिप्राय यह कि मनोमय चेतनाको सत्यचेतनाके साथ सफल संस्पर्शके योग्य और उस सत्यचेतनाको अधिगत करने योग्य बनाते हुए, ऋतस्पृशा', मित्र और वरुण विशाल कार्यसाधक संकल्पशक्तिको उपयोगमें लानेका आनंद लेने योग्य होते हैं, ॠतुं बृहन्तम् आशाषे । क्योंकि संकल्प ही आभ्यन्तर यज्ञका मुख्य कार्य-साधक अंग है, परन्तु संकल्प ऐसा जो सत्यके साथ समस्वर है और इसीलिये जो पवित्रीकृत विवेक द्वारा ठीक मार्ग में प्रवर्तित है । यह संकल्प जितना ही अधिकाधिक सत्यचेतनाके विस्तारमें प्रवेश करता है, उतना ही वह स्वयं भी विस्तृत और महान् होता जाता है, अपने दृष्टिकोणकी सीमाओंसे तथा अपनी कार्यसिद्धिमें रुकावट डालनेवाली बाधाओंसे मुक्त होता जाता है । यह कार्य करता है ''उरौ अनिबाधे'', उस विस्तारमें जहाँ कोई भी बाधा या सीमाकी दीवार नहीं है ।
इस प्रकार दो अनिवार्य चीजें जिनपर वैदिक ऋषियोंने सदा बल दिया है, प्राप्त हो जाती हैं, प्रकाश और शक्ति, ज्ञानमें कार्य करता हुआ सत्यका प्रकाश, धियं धृताचीम्, और कार्यसाधक तथा प्रकाशमय संकल्पमें कार्य करती हुई सत्यकी शक्ति, ॠतुं बृहन्तम् । परिणामतः, सूक्तकी अन्तिम ॠचामें मित्र और वरुणको अपने सत्यके पूर्ण अर्थमें कार्य करते हुए दर्शाया गया है, कवी तुविजाता उरुक्षया । हम देख चुके हैं कि 'कवि'का अर्थ है सत्यचेतनासे युक्त और दर्शन, अन्तःप्रेरणा अन्तर्ज्ञान, विवेककी अपनी शक्तियोंका उपयोग करनेवाला । 'तुविजार्ता' है "बहुरूपमें उत्पन्न" , क्योंकि 'द्युवि' जिसका मूल अर्थ है बल या शक्ति, फ्रेंच शब्द फोर्स (Force) के समान 'बहुत'के अर्थमें प्रयुक्त हुआ है । पर देवताओंके उत्पन्न होनेका अभिप्राय वेदमें हमेशा उनके अभिव्यक्त होनसे होता है, इस प्रकार 'तुविजाता' का अभिप्राय निकलता है ''बहुत प्रकारसे अभिव्यक्त हुए" , बहुत-से रूपोंमें और बहुत-सी क्रियाओंमें अभिव्यक्त हुए । 'उरुक्षया'का अर्थ है विस्तारमें निवास करनेवाले, यह एक ऐसा विचार है जो वेदमें बहुधा आता है, 'उरूं' बृहत् अर्थात् महान्का पर्यायवाची है और यह सत्यचेतनाकी निःसीम स्वाधीनताको सूचित करता है ।
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इस प्रकार 'ॠतम्,की बढ़ती हुई क्रियाओंका परिणाम हम यह पाते हैं कि मानवसत्तासामें विस्तार और पयित्रताकी, आह्लाद और समस्वरताकी शक्तियोंका व्यक्तिकरण होता जाता है, एक ऐसा व्यक्तिकरण जो रूपोंमें समृद्ध, 'ॠतम्'कीं विशालतामें, प्रतिष्ठित और अतिमानस चेतनाकी शक्तियोंका उपयोग करनेवाला होता है ।
सत्यकी शक्तियोंका यह व्यक्तीकरण, जिस समय यह कार्य कर रहा होता है, विवेकको घारित करता है. या इसे दृढ़ करता है, 'दक्षं दषाते अपसम्' । विवेक को अब पवित्र और सुधृत हो गया है, सत्यकी शक्तिके रूपमें सत्यकी भावनामें कार्य करता है और विचार तथा संकल्प को उन सब. त्रुटियों तथा गड़वड़ियोंसे मुक्त करता है जो उनकी क्रिया. और परिणामों में आनेवाली होती है और इस प्रकार इन्द्र और वायुकी क्रियाओंकी पूर्वताको सिद्ध करता है ।
इस संदर्भके पारिभाषिक शब्दोंकी हमने जो व्यख्याकी है उसे पुष्ट करनेके लिये हम चौथे मण्डलके दसवें सूक्तफी एक ॠचा उद्घृत कर सकते हैं ।.
अधा ह्यग्ने ॠतोर्भद्रस्य दक्षस्य साधो: ।
रथीॠतस्य बृहतो वभूय ।। ४.१०. २
''वस्तुत: तभी, हे अग्ने, तू सुखमय संकल्पका सिद्ध करनेवाले विवेकका, विशाल सत्यका रथी होता है ।'' यहां हम यही विचार पाते हैं जो प्रथम मण्डलके पहिले सूक्तमें है अर्थात् कार्यसाधक संकल्पका जो सत्यचेतनाका स्वभाव है, 'कविॠतु: ', और इसलिये जो महान् सुखकी एक अवस्थामें भलाई को 'भद्रम्'को निष्पन्न करता है । 'दक्षस्य साधो:' इस वाक्यांशमें हम दूसरे सूक्तके अन्तिम वाक्यांश, 'दक्षम् अपसम्'का एक मिलता-जुलता रूप तथा स्पष्टीकरण पाते हैं, 'दक्षस्य साधो:'का अर्थ है वह विवेक जो मनुष्यमें आन्तरिक कार्यको पूर्ण और सिद्ध करता है । वृहत् सत्यको हम इन दो क्रियाओंकी, बलक्रिया और ज्ञानक्रियाकी, संकल्प और विवेककी, 'ॠत' और 'दक्ष'की पूर्णावस्थाके रूपमें पाते हैं ।
इस प्रकारके एक-सी संज्ञाओंको. और एक-से विचारोंको तथा विचारोंके एक-से परस्पर संबंधको फिर-फिर प्रस्तुत करते हुए वैदिक सूक्त सदा एक-दूसरेको पुष्ट करते हैं । यह सम्भव नहीं हो सकता था यदि उनका आधार कोई ऐसा सुसम्बद्ध न होता जिसमें इस प्रकारको स्थायी संज्ञाओं जैसे कवि, क्षतु, दक्ष, ॠतम्, आदिके कोई निश्चित ही अर्थ होते हों । स्वयं ॠचाओंकी अन्त:साक्षी ही इस बातको स्थापित कर देती है कि उनके ये अर्थ आध्यात्म-
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परक हैं, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो परिभाषाएं, संज्ञाएं अपने निश्चित महत्त्वको, नियत अर्थको और अपने आवश्यक पारस्परिक संबंधको खो देती हैं, और एक दूसरेके साथ संबद्ध होकर उनका बार-बार आना केवल आकस्मिक तथा युक्ति या प्रयोजनसे शून्य हो जाता है ।
तो हम यह देखते हैं कि दूसरे सूक्तमें हम फिर उन्हीं प्रधान नियामक विचारोंको पाते हैं जिन्हें पहले सूक्तमें । सब कुछ अतिमानस या सत्यचेतना के उस केन्द्रभूत वैदिक विचारपर आश्रित है जिसकी ओर कि क्रमशः पूर्ण होती जाती हुई मानविय मनोवृत्ति इस रूपमें पहुंचनेका यत्न करती है कि वह परिपूर्णताकी ओर और अपने लक्ष्यकी ओर जा रही है । प्रथम सूक्तमें इसका प्रतिपादन केवल इस रूपमें किया गया है कि यह यज्ञका लक्ष्य है और अग्निका विशेष कार्य है । दूसरा सूक्त मनुष्यकी साधारण मनोवृत्तिकी तैयारीके प्राथमिक कार्यका निर्देश करता है, यह तैयारी इन्द्र और वायु द्वारा, मित्र और वरुण द्वारा आनन्दकी शक्तिसे और सत्यकी प्रगतिशील वृद्धिसे संपन्न की आती है ।
हम यह पायेंगे कि सारा-का-सारा ॠग्येद क्रियात्मक रूपसे इस द्विविध विषयपर ही सतत रूपसे चक्कर काट रहा है, मनुष्यकी अपने मन और शरीरमें तैयारी और सत्य तथा नि:श्रेयसकी प्राप्ति और विकासके द्वारा अपने अन्दर देवत्व या अमरत्वकी परिपूर्णता साधित करना |
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आठवां अध्याय
अश्विन् इन्द्र, विश्वेदेवाः
मधुच्छच्छन्दस्का तीसरा सूक्त फिर सोमयज्ञका सूक्त है । इसके पूर्ववर्ती दूसरे सूक्तकी तरह यह भी तीन-तीन मन्त्रोंकी शृंखलाओंसे जुड़कर बना है। इसमें ऐसी चार शृंखलाएँ हैं । पहिली शृंखला अर्थात् पहिले तीम मन्त्र अश्विननोंको संबोधित किये गये हैं, दूसरे, तीसरे 'विश्वेदेवा:'को और चौथे देवी सरस्वतीको । इस सूक्तमें भी हमें अन्तकी कड़ी. में, जिसमें सरस्वतीका आवाहन है एक ऐसा संदर्भ मिलता है जो स्पष्ट अध्यात्मपरक भाव रखता है, और वस्तुत: वह उनकी अपेक्षा कहीं अधिक साफ है जो संदर्भ अबतक हमें वेदके रहस्यमय विचारको समझनमें सहायक हुए हैं ।
परन्तु यह सारा-का-सारा सूक्त अध्यामपरक संकेतोंसे भरा हुआ है और इसमें हम वह परस्पर घनिष्ठ संबन्ध, बल्कि वह तादात्म्य पाते हैं जिसे वैदिक ऋषि मानव-आत्माकी रुचिके तीन मुख्य विषयोंमें स्थापित करना और पूर्ण करना चाहते थे, वे तीन विषय ये ह--विचार तथा इसके अन्तिम विजयशाली प्रकाश, कर्म तथा इसके चरम श्रेष्ठतम सर्वसाधक बल, भोग तथा इसके सर्वोच्च आत्मिक आनन्द । सोम-रस प्रतीक है हमारे सामान्य ऐन्द्रियक सुखभोगको दिव्य आनन्दमें स्थान्तरित कर देनेका । यह रूपान्तर हमारी विचारमय क्रियाको दिव्य बनानेके द्वारा सिद्ध होता है, और जैसे-जैसे यह क्रमश: बढ़ता है वैसे-वैसे यह अपनी उस दिव्यीकरणकी क्रियाको भी पूर्ण बनानेमें सहायक होता है जिसके द्वारा यह सिद्ध किया जाता है । गौ, अश्व, सोमरस ये इस त्रिविध यज्ञके प्रतीकचिह्न हैं । 'घृत' अर्थात् घीकी हवि जो गायसे मिलती है, घोड़ेकी हवि, 'अश्वमेध', सोमके रसकी हवि- ये इसके तीन रूप या अंग हैं । अपेक्षाकृत कम प्रधान एक और हवि है अपूपकी, जो संभवतः शरीरका, भौतिक वस्तुका प्रतीक है ।
प्रारम्भमें दो अश्विनौका आवाहन किया गया है जो अश्वोंवाले हैं, 'घुड़-सवार' हैं प्राचीन भूमध्यतटवर्ती गाथाशास्त्रके कैस्टर ( Castor) तथा पोलीडचूसस (Polydeuces) हैं । तुलनात्मक गाथाशास्त्रोंकी कल्पना यह है कि ये अश्विन् दो युगल तारोंको सूचित करते हैं, जो तारे किसी कारण आकाशीय तारासमूहके अन्य तारोंकी अपेक्षा अधिक भाग्यवान् थे
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कि आर्यलोग इनकी विशेष पूजा करते थे । तो भी आइये हम देखें कि जिस सूक्तका हम अध्ययन कर रहे हैं उसमें इनके विषयमें क्या-क्या वर्णन किया गया है । सबसे पहले इनका वर्णन आता है, "अश्विन्, तीव्रगामी सुखके देवता, बहुत आनन्द-भोग करनेवाले-द्रवत्पाणी पुरुस्पती, पुरुभूजा |'' 'रत्न' और 'चन्द्र' शब्दोंके समान 'शुभ' शब्दका अर्थ किया जा सकता है या तो प्रकाश या भोग; परन्तु इस ' संदर्भमें यह "पुरुभूजा, --बहुत सुखभोग करनेवाले'' इस विशेषणके साथ और ''चनस्यतम्, -आनन्द लो" इस क्रियाके साथ आया है और इसलिये इसे 'भला' या 'सुख' के अर्थमें लेना चाहिये ।
आगे इन युगलदेवताओंका वर्णन आता है, ''अश्विन्, जो. बहुकर्मा दिव्य आत्माएं हैं-- 'पुरुदंससा नरा', विचारको धारण करनेवाले हैं-- 'पुरुदंससा नरा', विचारको धारण करनेवाले हैं--'धिष्ण्या'' जो मन्त्रकी वाणियोंको स्वीकार करते है, और उनमें प्रमुदित होते है-- 'वनतं गिर:' , एक बलवान् विचारके साथ 'शवीरया धिया' ।'' 'नृ' वेदमें देवताओं और मनुष्यों दोनोंके लिये प्रयुक्त होता है और इसका. अर्थ खाली मनुष्य ही नही होता, मैं समझता हूं, प्रारम्भमें इसका अर्थ था 'बलवान्' या 'क्रियाशील' और फिर इसका अर्थ हो गया 'पुरुष', और इसका प्रयोग पुल्लिंग देवोंके लिये, कर्मण्य दिव्य आत्माओं या शक्तियोंके लिये, 'पुरुषा:' के लिये हुआ है जो उन स्त्रीलिंगी देयताओं, 'ग्ना'से उल्टे हैं, जो उन पुल्लिंग देवोंकी शक्तियाँ हैं । फिर भी ऋषियोंके मनोंमें बहुत अंशोंमें इसका प्रारभिक मौलिक अर्थ सुरक्षित रहा, जैसे कि हमें बलवाची 'नृम्ण' शब्दसे और '' नृतमो तृणाम्'' अर्थात् दिव्य शक्तियोंमें सबसे अघिक! वलबान् , इस वाक्यांश से पता लगता है । 'शवस्' और इससे बना विशेषणरूप 'शवीर' बैलके भाव को देते हैं, परन्तु ज्वाला और प्रकाशका अगला विचार भी सदा इसके साथ रहता है; इसलिये 'शवीर' 'घी' के लिये बहुत ही उपयुक्त विशेषण है, विचार जौ प्रकाशमय या विद्योतमान शक्तिसे भरपूर है ।'' 'धिष्ण्या' अर्थात् बुद्धि या समझके साथ है और इसकी सायणने अनुयाद किया है, बुद्धिसे युक्त, 'बुद्धिमन्तौ' ।
आगे फिर अश्विनौका वर्णन आता है, 'जो कर्ममें सही उतरनेवाले हैं; गतिकी शक्तियां हैं, अपने मार्ग पर भीषणताके साथ गति करनवाले हैं,--द्स्त्रा, नासत्या रुद्रव्रत्नी । 'द्स्त्र' ', 'दस्म' इन वैदिक विशेषणोंका अनुवाद निरपेक्ष भावसे सायणने अपनी मन की मौज या सुमीतेके अनुसार 'नाशक' या 'दर्शनीय' या 'दानी' कर दिया है । मैं इसे 'दस्' धातुके साथ जोड़ता हूं, पर 'दस्'का अर्थ मै यहां काटना या विभक्त करना नहीं लेता जिससे की नाश करने ओर दान करनेके दो अर्थ निकलते हैं, नाहीं इसका अर्थ
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'विवेक, दर्शन' लेता हूं जिससे सायणने सुन्दरका, ' दर्शनीय'का अर्थ लिया है, परन्तु मैं इसे कर्म करने, क्रिया करने, आकृति देने, पूर्ण करनेके अर्थमें लेता हूं, जैसा कि दूसरी ॠचामें 'पुरुदंससा'में है । नासत्याके विषयमें कइयोंने यह कल्पनाकी है कि यह, गोत्र-नाम हैं, प्राचीन वैयाकरणोंने बड़े बुंद्धिक्रौशलके साथ इसके लिये 'सच्चे, जो असत्य नहीं हैं' यह अर्थ गढ़ लिया था; परन्तु मैं इसकी निष्पत्ति चलनार्थक 'नस्' धातुसे करता हूं । हमें यह अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि अश्विन् घुड़सवार हैं, कि उनका वर्णन बहुधा गतिसूचक विशेषणोंसे हुआ है, जैसे 'तीव्रगामी' (द्रवत्पाणी) , 'अपने मार्ग पर रूद्रताके साथ चलनेकले' ( रुद्रवर्तनी ); कि ग्रीसो-लैटिन ( Graeco-Latin) गाथाशास्त्रमें कैस्टर (Castor) और पोलक्स (Pollux) समुद्रयात्रामें नाविकोंकी रक्षा करते है और तूफानमें तथा जहाज टूट जाने पर उन्हें बचाते है., और यह कि ऋग्वेदमें भी ये उन शक्तियोंके सूचफ हैं जो ऋषियोंको नौकाकी तरह पार ले जाती हैं अथवा उन्हें समुद्रमें डूबनेसे बचाती हैं । इसलिये 'नासत्या'का यह बिल्कुल उपयुक्त अर्थ जान पड़ता है कि जो समुद्रयात्राके, प्रयाणके देवता हैं या प्रगतिकी शक्तियां हैं । 'रुद्र-वर्तनी'का भाष्य अर्वाचीन विद्वानोंने किया है ''लाल रास्तेवाले'' और यह मान लिया है कि यह विशेषण तारोंके लिये : बिल्कुल उपयुक्त है और वे उदाहरणके लिये इसके समान दूसरे शब्द 'हिरण्यवर्तनी'को प्रस्तुत करते हैं, जिसका अर्थ होता है 'सुनहरे या चमकीले रास्तेवाले' । 'रूद्र'का अर्थ एक समयमें "चमकीला, गहरे रंगका, लाल" यह अवश्य रहा होगा, जैसे 'रुष्' और 'रुश्' धातु इस अर्थके वाचक हैं, जैसे रुधिर, 'रक्त' या 'लाल' का वाचक है, अथवा जैसे लैटिन भाषाके रूवर (ruber) रुटिलस (rutilus) रुफस (rufus)--इन सबका अर्थ 'लाल' है | 'रोदसी'का, जो आकाश तथा पृथिवीक अर्थमें एक द्वन्द्ववाची शब्द है, संभवत: अर्थ था, ''चमकीले'' जैसे कि आकाशीय तथा पार्थिव लोकोंके वाचक दूसरे वैदिक शब्दों 'रजस्' और 'रोचना'का है । दूसरी ओर क्षति और हिंसाका अर्थ भी इस शब्द-परिवारमें समान रूपसे अन्तर्निहित है और लमभग उन सब विविध धातुओंमें जिनसे ये बनते हैं, पाया जाता है । इसलिये ' रुद्र' का 'भीषण' या 'प्रचण्ड' यह अर्थ भी उतना ही उपयुक्त है, जितना '' लाल'' । अश्विन् दोनों हैं 'हिरण्यवर्तिनी' तथा 'रुद्रवर्तनी', क्योंकि वे प्रकाशकी और प्राण-बलकी, दोनों-की शक्तियाँ हैं;. पहले रूपमें उनकी. चमकीली सुनहरी गति होती है, पिछले ?रूपमें वे अपनी गतियोंमें प्रचण्ड होते हैं । एक मन्त्र ( 5 .75. 3 ) में हम स्पष्ट इकट्ठा पाते हैं 'रुद्रा हिरण्यवर्तनी', रौद्र तथा प्रकाशके मार्गमें चलने--
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वाले. अब इस मन्त्रवचनमें अभिप्रायकी संगतिका यदि जरा भी ख्याल किया जाय तो यह अर्थ हमारी समझमें नहीं आ सकता कि तारे तो लाल हैं पर उनकी गति या उनका मार्ग सुनहरा है ।
फिर यहां, इन तीन ऋचाओंमें आध्यात्मिक व्यापारोंकी एक असाधारण शृंखला है, क्या वह एक आकाशीय तारामण्डलके दो तारों पर लागू होगी ! यह स्पष्ट है कि यदि अश्विनोंका प्रारम्भिक भौतिक स्वरूप कभी यह था भी, तो वे ग्रीक गाथाशास्त्रकी भांति यहां भी अपने विशुद्ध तारासंबंधी स्वरूपको चिरकालसे खो चुके हैं और उन्होंने एथेनी ( Athene), उषाकी देवी, की तरह एक आध्यात्मिक स्वरूप और व्यापारोंको पा लिया है । वे घोड़ेकी, ' अश्व'की सवारी करनेवाले हैं, जो अश्व शक्तिका और विशेषकर जीवन-शक्ति और वातशक्तिका -प्राणका-प्रतीक है । उनका सामान्य स्वरूप यह है कि वे आनन्द-भोगके देवता हैं, मधुको खोजनेवाले हैं, वे वैद्य हैं, वे फिरसे बूढ़ेको जवानी, रोगीको आरोग्य, अंगहीनको संम्पूर्णागता प्राप्त करा देते हैं । उनका एक दूसरा स्वरूप तीव्र, प्रचण्ड, अधृष्य गतिका है, उनका वेगवान् अजेय रथ स्तुतिका सतत पात्र है और यहाँ उनका वर्णन इस रूप-में किया गया है कि वे तीव्रगामी हैं और अपने मार्ग पर प्रचण्डतासे चलनेवाले हैं । ये अपनी तीब्रतामें पक्षियोंके समान, मनके समान, वायुके समान हैं ( देखो 5.77. 3 और 78-1 ) 1 । वे अपने रथमें मनुष्यके लिये परिपक्व या परिपूर्ण सन्तुष्टियोंको भरकर लाते हैं, वे आनन्दके, 'मयस्' के, निर्माता हैं । मे निर्देश पूर्णरूपसे स्पष्ट हैं ।
इनसे मालूम होता है कि अश्विन् दो युगल दिव्य शक्तियाँ हैं, जिनका मुख्य व्यापार है मनुष्यके अन्दर क्रिया तथा आनन्दभोगके रूपमें वातमय या प्राणमय सत्ताको पूर्ण करना । परन्तु साथ ही वे सत्यकी, ज्ञानयुक्त कर्म-की ओर यथार्थ भोगकी शक्तियाँ भी हैं । ये वे शक्तियां हैं जो उषा के साथ प्रकट होती हैं, क्रियाकी ने अमोध शक्तियाँ हैं जो चेतनाके समुद्रमेंसे पैदा हुई हैं ( सिंधुमातरा ),,और जो दिव्य ( देवा ) होनेके कारण सुरक्षित रूपसे उच्चतर सत्ताके ऐश्वर्योंको मनोमय कर सकती हैं (मनोतरा रयीणाम् ), उस विचांर-शक्तिफे द्वारा मनोमय कर सकती हैं जो उस सच्चे तत्त्वको और सच्चे ऐश्वर्यको पा लेती है या जान लेती है ( धिया वसुविदा ) --
या वस्त्रा सिन्धुमातरा, मनोतरा रयीणाम् ।
धिया देवा वसुविदा ।। ( १.४६. २ )
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1. मनोजवा अश्विना वातरंहा, 5.77.3 ; ईसाविव पतमन्, 5.78.1
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इस महान् कार्यके लिये वे उस प्रेरक शक्ति (इषम् ) को देते हैं (रास् ) जो अपमे स्वरूप और सारवस्तुके रूपमें अपनेमें सत्यकी ज्योतिको रखती हुई ( ज्योतिष्मती ) मनुष्यको अन्धकारसे परे ले जाती है (तमस्तिर: पीपरत् ),
या नः पीपरदश्चिना ज्योतिष्मती तमस्तिरः ।
तामस्मे रासाषामिषम् ।। ( 1. 46.6 )
वे मनुष्यको अपनी नौकामें बैठाकर उस परले किनारे पर पहुंचा देते हैं जो विचारों तथा मानव मनकी अवस्थाओंसे परे है, अर्थात् जो अतिमानस चेतना है--नावा मतीनां पाराय ( 1. 46. 7 ) । 'सूर्या जो सत्यके देवता सूर्यकी दुहिता है, उनकी वधु बनकर उनके रथ पर आरूढ़ होती है ।
प्रस्तुत सूक्तमें. अश्विनोंका आवाहन इस रूपमें किया गया है कि वे आनन्दके तीब्रगामी देवता हैं, वे अपने साथ अनेक सुखभोयोंको रखते हैं, वे आकर यज्ञकी प्रेरक शक्तियोंमें आनन्द लेवें --यज्वरी: इषः चनस्यातम् । ये प्रेरक शक्तियां, स्पष्ट ही सोमरसके पीनेसे अर्थात् दिव्य आनन्दके अन्त:- प्रवाहसे उत्पन्न होती हैं । क्योंकि अर्थपूर्ण वाणियाँ (गिर: ) जिन्हें चेतनामें नचीन रचनाओंको करना है, पहलेसे ही उठरही हैं, यज्ञका आसन बिछाया जा चुका है, सोमके शक्तिशाली रस निचोड़े आ चुके हैं1 । अश्विनोंको क्रियाकी अमोध शक्तियोंके 'पुरुदंससा नरा'के रूपमें आना है वाणियोंमें आनन्द लेनेके लिये और उन्हें बुद्धिके अन्दर स्वीकार करनेके लिये जहां कि वे प्रकाशमय शक्तिसे परिपूर्ण विचारके द्वारा क्रियाके लिये धारित रखी जायंगी ।2 उन्हें सोम-रसकी हविके समीप आना है, इसलिये कि वे यज्ञकी क्रियाको निष्पन्न कर सकें, 'दस्रा', उन्हें क्रियाको पूर्ण करनेवालोंके रूपमें आना है और उन्हें इसे पूर्ण करना है क्रियाके आनंदको अपनी वह भीषण गति प्रदान करके 'रुद्रवर्तनी' जो उन्हें बेरोकटोक उनके मार्ग पर ले जाती है और सब विरोधोंकी दूर कर देती है । वे आते हैं इस रूपमें कि वे आर्योंकी यात्राकी शक्तियां हैं, महान् मानवीय प्रगीतके अधिपति हैं, नासत्या । सब जगह हम देखते हैं कि जो चीज इन घोड़ेके सवारोंको देनी है वह शक्ति ही है; उन्हें आनन्द लेना है यज्ञिय शक्तियोंमें, वाणीको ग्रहण करना है एक शक्तिशाली विचारमें ऊपर ले जानेको, यज्ञको वह गति देनी है जो मार्ग पर चलनेकी उनकी अपनी भीषण गति है । और शक्तिकी इस मांगका उद्देश्य यह है कि क्रिया कार्य-साधक बन जाय और महान् यात्रामें वेग आ जाय ।
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1. युवाकव: सुता वृक्तबर्हिष: ।
2. शवीरया धिया धिष्णाय वनतं गिर:
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मैं पाठकके ध्यानको विचारकी उस स्थिरताकी ओर और रचनाकी उस सगतिकी ओर तथा रूपरेखाकी उस सुबोध स्पष्टता और निश्चयात्मकताकी ओर सतत रूपसे आकर्षित करूंगा जो अध्यात्मपरक व्याख्याके द्वारा ॠषियों-के विचारमें आ जाती हैं, और इस अध्यात्मपरक व्याख्यासे कितनी भिन्न हैं वे उलझी हुई, अव्यवस्थित और असंगत तथा असंबद्ध व्याख्याएं जो वेदोंकी इस अत्युच्च परंपराकी उपेक्षा कर देती हैं कि वेद विद्याकी ओर गंभीरतम ज्ञानकी पुस्तक है ।
तो हम पहली तीन ॠचाओंका यह अर्थ पाते हैं--
''ओ घोड़ेके सवारो, तेज चालवालो, बहुत अधिक आनन्द लेनेवालो, सुखके अधिपतियो, तुम आनन्द लो यक्षकी शक्तियोंमें । !2
''ओ घोड़ेके सवारो, अनेकरूप कर्मोंको निष्पन्न करनेवाले नर आत्माओ, वाणियोंका आनन्द लो; ओ तुम प्रकाशमय शक्तिसे युक्त विचारके द्वारा बुद्धिमें धारण करनेवालो ।''
''मैंने यज्ञका आसन बिछा दिया है, मैंने शक्तिशाली सोमरसोंको निचोड़ लिया है; क्रियाको पूर्ण करनेवालो, प्रगतिकी शक्तियो ! उन रसोंके पास तुम आओ, अपनी उस भीषण गतिके साथ जिससे तुम मार्ग पर चलते हो |''
जैसे कि दूसरे सूक्तमें वैसे ही इस तीसरेमें भी ऋषि प्रारम्भमें उन देवताओंका आवाहन करता, है जो वातिक या प्राणिक शक्तियोंमें कार्य करते हैं । पर वहां उसने पुकारा था 'वायु'को जो प्राणकी शक्तियोंको देता है, अपने जीवनके घोड़ोंको लाता है; यहाँ वह ''अश्विनौको पुकारता है जो प्राणकी शक्तियोंका प्रयोग करते हैं, उन घोड़ों पर सवार होते है । जैसे कि दूसरे सूक्तमें वह प्राण-क्रिया या वातिक क्रियासे मानसिक क्रिया पर आया था, वैसे ही यहां वह अपनी दूसरी शृंखलामें 'इन्द्र'की शक्तिका आवाहन करता है । निचोड़े हुए आनन्द-रस उसे चाहते हैं, सुता. इमे त्यायव: । वे प्रकाशयुक्त मनको चाहते हैं कि वह आवे और आकर अपनी क्रियओंके लिये उन्हें अपने अधिकारमें ले ले । वे शुद्ध किये हुए है, 'अण्वीभिस्तना', सायणकी व्याख्याफे अनुसार, ''अंगुलियों द्वारा और शरीर द्वारा'' पर जैसा मुझे इसका अर्थ प्रतीत होता है उसके अनुसार "पवित्र मनकी सूक्ष्म विचार-शक्तियोके द्वारा और भौतिक चेतनामें हुए विस्तारके द्वारा" । क्योंकि ये ''दस अंगुलियां हैं, जो सूर्या सूर्यकी दुहिता है, अश्विनोंकी वधू है । नवम मण्डलके प्रथम सूक्तमें यही ऋषि मधुच्छंदूस् इसी विचारको विस्तारसे कहता है, जिसें यहां वह इतने अधिक संक्षेपसे कह गया है | वह 'सोम'के देवताको संबोधित करता
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हुआ कहता है, ''सूर्यकी दुहिता तेरे सोमको शुद्ध करती है, जब कि यह सतत विक़ारके .द्वारा इसके छाननेकी चलनीमें बहकर चारों ओर फैल जाता है'', वारेण शश्वता तना ।1 तुरंत इसके साथ ही वह यह भी कह जाता है, ''सूक्ष्म शक्तियां अपने प्रयत्नमें ( या महान् कार्यमें, संघर्षमें, अभीप्सामें, 'समयें' ) इसे ग्रहण करती हैं, जो दस वधुएं हैं; बहिनें हैं, उस आकाशमें जिसे पार करना. है ।'' 2 यह एक ऐसा वाक्य है जो एकदम अश्विनोंकी उस नौकाका स्मरण करा देता है जो हमें विचारोंसे परे उस पार पहुंचा देती है; क्योंकि आकाश ( द्यौ ) वेदामे .विशुद्ध मानसिक चेतनाका प्रतीक है, जैसे कि पृथिवी भौतिक चेतनाका । ये बहिनें जो विशुद्ध मनके अन्दर रहती हैं, जो सूक्ष्म, 'अण्वी:' हैं, दस वधुएं, 'दश योषणा:' हैं, दूसरी जगह कही गयी हैं दस प्रक्षेप्त्री, 'दश क्षिप:', क्योंकि ये सोमको ग्रहण करती और इसे अपने मार्गमें गति दे देती हैं । ये संमभत: वे ही हैं जिन्हें वेदमें कहीं-कहीं दस किरणें, दश गाव: कहा गया है । वे इस रूपमें वर्णित की गयी प्रतीत होती हैं कि वे सूर्यकी पौत्रियाँ या संतान हैं, न्प्तीभिः विवस्वत: ( 9- 14-5 ) । उपर्युक्त शुद्ध किये जानेके कार्यमें विचारमय चेतनाके सात रूप, 'सप्त धीतय:' इनकी सहायता करते हैं । आगे हमें यह कहा गया है कि ''अपने आशुगामी रथोंके साथ शूरवीर हुआ-हुआ सोम सूक्ष्म विचारकी शक्तिके द्वारा, 'धिया अण्ठया', आगे बढ्ता है और इन्द्रकी पूर्ण क्रियाशीलता ( या उसके पूर्ण क्षेत्र ) तक पहुंचता है और दिव्यताके उस विशाल विस्तार ( या निर्माण ) तक पहुंचनेमें, जहां अमर देवता रहते हैं, वह विचारके अनेक रूपोंको ग्रहण करता हैं" । ( 9-15-1, 2 )
एव पुरू धियायते बृहते देवतातये ।
यत्रामृतास आसते ।।
मैंने इस विषयपर कुछ विस्तारसे विचार इसलिये किया है कि यह दिखा सकूं कि किस प्रकार वैदिक ऋषियोंका सोमवर्णन पूर्णतया प्रतीकात्मक है और कितना अधिक यह अध्यत्मपरक विचारोंसे घिरा हुआ है, जैसा कि उसे अच्छी प्रकार पता लग जायगा, जो नवम मण्डलमेंसे गुजरनेका यत्न करेगा, जिसमें प्रसीकात्मक अलंकारोंकी शोभा अत्यधिक प्रकट हुई है और जो अध्यात्मपरक संकेतोंसे भरपूर है ।
वह चाहे कैसे भी क्यों न हो, यहां मुख्य विषय सोम और इसका
. 1. पुनाति ते परिस्त्रु तं सोम सूर्यस्य दुह्रिता । वरेण शश्वतात तना ।| 9-1-6
. 2. तमीमयवी: समर्य आ गृम्णन्ति योषणो दश । स्वसारः पार्ये दिदि ।। 9-1-7
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शोधन नहीं है, वल्कि इन्द्रका आध्यात्मिक व्यापार है । इन्द्रको इस रूपमें संबोधित किया गया है कि वह अत्यधिक चित्रविचित्र दीप्तियोंवाला है, इन्द्र चित्रभानो । सोमरस उसे चाहते हैं । वह आता है विचार से प्रेरित किया हुआ, प्रफाशयुक्त विचारकसे अंदरसे आगे गति दिया हुआ, धियेषितो विप्रजूतः उस ऋषिके आत्मिक विचारोंके पास जो आनन्दकी मदिराको निचोड़ चुका है, और उन विचारोंको वाणीमें, अन्त:प्रेरित मंत्रोंमें व्यक्त करना चाहता है, सुतावत: उप ब्रह्याणि वाधतः । वह आता है उन विचारोंके पास, प्रकाशयुक्त मन :शक्तिकी गति और वेगके साथ, अपने .उज्ज्वल घोडोंसे युक्त, तूतुजाम उप ब्रह्याणि हरिवः ।. और ऋषि उससे प्रार्थना करता है कि वह आकर सोमकी हविमें आनन्दको दृढ़ करे या थामे, सुते दधिष्व नश्चनः । अश्विनौ आनन्दकी क्रिया में प्राण-संस्थानके सौख्यको ले आये है और उसे शक्ति दे दी है । ऋषिको इन्द्रकी आवश्यकता है कि वह आकर उस सौख्यको प्रकाशयुक्त मनके अंदर दृढ़तासे थाम ले, ताकि वह चेतनामेंसे निकलकर गिर न पड़े ।
''आ, हे इन्द्र ! अपनी अत्यधिक दीप्तियोंके साथ, थे सोमरस तुझे चाह रहे हैं; ये शुद्ध किये हुए हैं सूक्ष्म शक्तियोंके द्वारा और शरीरमें हुए .विस्तारके द्वारा ।''
''आ, हे इन्द्र ! मेरे आत्मिक विचारोंके पास आ, मन द्वारा प्रेरित हुआ-हुआ, प्रकाशयुक्त विचारके द्वारा आगे गति दिया हुआ, जिस मैंने सोमरसको अभिषुत कर लिया है और जो मैं अपने उन आत्मिक विचारोंको वाणीमें व्यक्त करना चाह रहा हूँ ।''
''आ, हे इन्द्र ! अपनी वेगवान् गतिके साथ मेरे आत्मिक विचारोंके पास आ, हे चमकीले घोड़ोंके अधिपति ! तू आ; आनन्दको दृढ़ताके साथ सोमरसमें थाम ले ।''
आगे चलकर ॠषि '' विश्वेदेवा '' सभी देवताओं अथवा किन्हीं विशेष 'सब देवताओं' पर आता है । इस विषयमें विवाद है कि इन ' विश्वेदेवा:' की अपनी कोई विशेष श्रेणी है अथवा यह शब्द केवल सामान्य रूपसे सभी देवगओंका वाचक है । मैं इसे इस रूपमें लेता हूँ कि इस पदका अर्थ है सामूहिक रूपमें विश्वकी सब दिव्य शक्तियाँ, क्योंकि जिन मन्त्रोंमें इनका आवाहन किया गया है उन मन्त्रोंके वास्तविक अर्थप्रकशनमें यह भाव मुझे अधिक-से-अधिक अनुकूल प्रतीत होता है । इस सूक्तमें उन्हें एक सामान्य क्रियाके लिये पुकारा गया है जो अश्विनों तथा इन्द्रके व्यापारोंमें सहायक होती है और इन्हें पूर्ण करती है | उन्हें सामूहिक रूपसे यज्ञमें आना है
और उस सोमको अपने बीचमें बांट लेना है जिसे यज्ञकर्त्ता उन्हें समर्पित करता है; विश्वे देवास आगत, दाश्वांसों दाशुषः सुतम्; स्पष्ट ही इसलिये कि प्रत्येक अपने उचित व्यापारको दिव्य रूपसे तथा आह्लादक रूपसे कर सके । अगली ऋंचामें और अथिक आग्रहके साथ इसी प्रार्थनाको दोहराया गया है; वे सोमकी हविके पास जल्दीसे पहुँचें, तूर्णय:, अथवा इसका यह अर्थ हो सकता है कि वे आवें चेतनाके सभी स्तरों, 'जलों, के बीचमेंसे अपना मार्ग बनाते हुए, उन्हें पार करके आते हुए, जो स्तर कि मनुष्यकी भौतिक प्रकृतिको उनके देवत्वसे पृथक् किये हुए है और पृथ्वी तथा आकाशके बिचिमें संसर्ग स्थापित करनेमें बाधाओंसे भरे हुए हैं; अप्तुरः मुतमागन्त तूर्णयः । वे आयें, उन गौओंकी तरह जो सांध्य वेलामें अपने आश्रय-स्थानों पर पहुँचनेकी जल्दीमें होती हैं, उस्रा इव स्वसराणि । इस प्रकार प्रसन्नता- पूर्वक पहुँचकर वे प्रसन्नतापूर्वक यज्ञको स्वीकार करें और यज्ञसे संलग्न रहें तथा यज्ञको बहन करें, जिससे कि लक्ष्यकी तरफ अपनी यात्रामें, देवोंके प्रति या देवोंके घर-सत्य, बृहत्-के प्रति अपने आरोहणमें इस यज्ञ को वहन करते हुए वे इसे अन्त तक पहुँचा दें, मेधं जुषन्त वह्यय: ।
इसी प्रकार 'विश्वेदेवा:'के विशेषण भी, जो उनके उन स्वरूप तथा व्यापारों-को बताते हैं जिनके लिये वे सोम-हविके पास निमन्त्रित किये गये हैं, सबके लिये समान हैं; वे सब देवताओंके लिये एकसे है, और सारे वेदमें वे उनमेंसे किसीके लिये भी अथवा सभीके लिये समान रूपसे प्रयुक्त किये गये हैं । वे हैं मनुष्यके प्रतिपालक या परिवर्द्धक और कर्ममें, यज्ञमें उसके श्रम तथा प्रयत्नको अवलंब देनेवाले, ओमासश्चर्षणीधृत: । सायणने इन शब्दोंका अर्थ किया है, रक्षक तथा मनुष्योंके धारक । यहां इस बातकी आवश्यकता नहीं है कि इन शब्दोंको मैं जो अर्थ देना पसंद करता हूं उसके विषयमें पूरे-पूरे प्रमाण उपस्थित करनेमें प्रवृत्त होऊं; क्योंकि भाषा-विज्ञान- की जिस प्रणालीका मैं अनुसरण करता हूं उसे मैं पहले ही दिखा चुका हूं । सायणको स्वयमेव यह अशक्य प्रतीत हुआ है कि वह उन शब्दोंका सदा रक्षा अर्थ ही करे, जो अव् धातुसे बने अवस्, ऊति, ऊमा आदि शब्द हैं, जिनका बेदमन्त्रोंमें बहुत ही बाहुल्य पाया जाता है, और वह बाध्य होकर एक ही शब्दका भिन्न-भिन्न संदर्भोमें अत्यधिक भिन्न तथा संबन्धरहित अर्थ करता है । इसी प्रकार, जहाँ 'चंर्षणि' और 'कृष्टि' इन दो सजातीय शब्दों-के लिये जब ये अकेले आते हैं यह आसान है कि इन्हें 'मनुष्य'का अर्थ दे दिया जाय, वहां यह 'मनुष्य' अर्थ इनके समस्त रूपोंमें, जैसे कि 'विचर्षणि, 'विश्वचर्षणि, 'विश्वकृष्टि'में बिना किसी कारणके विलुप्त हो जाता है ।
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सायण स्वयं इसके लिये बाध्य हुआ है कि वह विश्व-चर्षणिका अर्थ 'सर्वद्रष्टा' करे, न कि 'सब मनुष्य' या 'सर्व-मानवीय' । मैं यह नहीं मानता कि नियत वैदिक सज्ञाओंके अर्थोंमें इस प्रकारकी बिलकुल निराधार विभिन्नताएं संभव हो सकती है । 'अव्'के अर्थ हो सकते हैं होना, रखना, रख छोड़ना, धारण करना, रक्षा करना बन जाना, रचना करना, पोषण करना, वृद्धि करना, फलना-फूलना, समृद्ध होना, इश करना, खुश होना; पर वृद्धि करने या पालन-पोषण करनेका अर्थ ही मुझे वेदमें प्रधानतया प्रचलित प्रतीत होता है । 'चर्ष्' ' और 'कृष्' ये धातुएं मूलमें 'चर्' तथा 'कृ'से निकली थीं, जिन दोनोंका ही अर्थ है 'करना', और श्रमसाध्य क्रिया या गतिका अर्थ 'कृष्' (खींचना, हल जोतना ) में अब भी विद्यमान है । इसलिये 'चर्षणि' और 'कृष्टि'का अर्थ है प्रयत्न श्रमसाध्य क्रिया या कर्म अथवा इस प्रकारकी क्रियाको करनेवाले । ये उन अनेक शब्दों (कर्म, अपस्, कार, कीरि, दुवस् आदि ) मेंसे दो हैं जो वैदिक कर्मको, यज्ञको, अभीप्सा करती हुई मानवताके प्रयासको, आर्योंकी 'अरति'को दर्शानेके लिये प्रमुक्त किये गये हैं ।
मनुष्यकी जो सारभूत वस्तु है उस सबमें और उसकी सब प्राप्तियोंमें उसका पोषण या वृद्धि करना, बृहत् सत्य-चेतनाकी पूर्णता और समृद्धताकी ओर उसे सतत वृद्धिगत करना, उसके महान् संघर्ष और प्रयासमें उसे सहारा देना-यह है वैदिक देवताओंका सामान्य व्यापार । फिर वे हैं 'अप्तुर:', वे जो जलोंको पारकर जाते हैं, या जैसा सायण इसका अर्थ करता है, वे जो जलोंको देते हैं । इसका अर्थ वह ''वृष्टि-दाता'' समक्षता है, और यह पूर्णतया सच है कि सभी वैदिक देवता वर्षाके, आकाशसे आनेवाली बहुतायतके ( क्योंकि 'वृष्टि'के दोनों अर्थ होते हैं ) देनेवाले हैं । इस बहुतायतका कहीं-कहीं इस रूपमें वर्णन हुआ है-सौर जल, 'स्वर्वती: अप:' (ऋ. 5-2-11 ) अथवा वे जल जो ज्योतिर्मय आकाशके, 'स्वः'के प्रकाशको अपने अन्दर रखते हैं । परन्तु वेदमें समुद्र और उसके जल, जैसा कि. यह वाक्यांश स्वयं ही निर्देश करता है, प्रतीक हैं चेतनामय सत्ताके, उसके समुदायके और उसकी गतियोंके । देवता इन जलोंकी पूर्णताको बरसाते हैं, विशेषकर उपरले जलोंकी, उन 'जलोंकी जो आकाशके जल हैं, सत्यकी धाराएं हैं, 'ऋतस्य धारा:', और वे सब बाधाओंको पार करके मानवीय चेतनाके अन्दर. जा पहुंचते हैं । इस अर्थमें वे सब 'अप्तुरः' हैं । परन्तु साथ ही मनुष्यका भी इस रूपमें वर्णन हुआ है कि वह जलों को पार करके सत्य-चेतनाके अपने धरमें पहुंचता है और वहाँ देवता उसे पार पहुंचाते हैं; यह विचारणीय है कि कहीं 'अप्तुरः'का वास्तविक अर्थ यहाँ यह ही होता नहीं है, विशेषकर जब की
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अप्तुरः ..... तूर्णय:' इन दो शब्दोंको हम एक दूसरेके आसपास एक ऐसे सम्मन्ध में रखा हुआ पाते हैं जो बड़ी अच्छी तरह अर्थपूर्ण हों सकता है ।
फिर ये सभी देवता किन्हीं आक्रामकोंके ( स्त्रीष् ) आक्रमण हो सकनेसे सर्वथा मुक्त हैं, चोट पहुंचानेवाली या विरोधी शक्तियोंकी हानि ( द्रोह ) से रहित हैं और इसलिये उनके सचेतन ज्ञानकी सर्जक रचनाएं, उनकी ' माया:' स्वच्छन्द रूपसे, व्यापक रूपसे गति करती हैं, अपने ठीक उद्देश्यको प्राप्त कर लेती हैं--अस्त्रिष एहिमायासो अद्रुहः । यदि हम वेदके उन अनेक संदर्भोको ध्यानमें लाये जिनमें यह निर्देश किया गया है कि यज्ञ, कर्म, यात्रा, प्रकाशकी वृद्धि तथा जलोंकी अधिकताका सामान्य उद्देश्य सत्यचेतना, 'ॠतम्' की इसके परिणामभूत सुख, 'मयस'के सहित प्राप्ति है, तथा इस बातपर विचार करें कि ' विश्वेदेवः' के ये विशेषण सामन्य रूपसे असीम, पूर्ण सत्य- चेतनाकी शक्तियों पर घटते है, तो हम यह समझ सकते हैं फि सत्यकी यह उपलब्धि ही इन तीन ॠचाओंमें निर्दिष्ट हुई है । ये 'विश्वेदेवा:' मनुष्यकी वृद्धि करते हैं, ये उसे महान् कार्यमें सहारा देते हैं, ये उसके लिये ' स्व :' के जलोंकी प्रचुरताको, सत्यकी धाराओंको लाते हैं, ये सत्य-चेतनाकी अधृष्य रूपसे पूर्ण तथा व्यापक क्रियाका इसके ज्ञानकी विशाल रचनाओं, 'माय:' के साथ संसर्ग स्थापित करते हैं ।
इला इव स्वसराणि' इस वाक्यांशका अनुवाद मैंने यथासंभव अधिक-से- अधिक बाह्य अर्थमें किया है; पर वेदमें काव्यमय उपमाएं भी केवलमात्र शोभाके लिये बहुत ही कम या कहीं भी नहीं प्रयुक्त की गई हैं; उनका प्रयोग भी आध्यात्मिक अर्थको गहरा करनेके लिये एक प्रतीकात्मक अथवा दोहरे अर्थके अलंकारके साथ किया गया है । वेदमें 'उस्रा' शब्द 'गो' शब्दके समान ही, हर जगह दोहरे अर्थमें प्रयुक्त होता है, अर्थात् यह मूर्त आलंकारिक रूप या प्रतीक, बैल या गाय, के अर्थको देता है और साथ ही आध्यात्मिक अभिप्रायका, चमकीली या ज्योतिर्मय वस्तुओंका, मनुष्यके अन्दर जो सत्यकी प्रकाशमय शक्तियाँ हैं उनका भी निर्देश करता है । ऐसी प्रकशमय शक्तियों-के तौर पर ही 'विश्वेदेवाः' को आना होता है, और वे सोम-रसोंके पास आते हैं, 'स्वसराणि', मानो कि वे शान्ति या सुखके आसनों या रुपों पर आ रहे हों; क्योंकि 'स्वस्' धातु 'सस्' तथा! अन्य कई धातुओंके समान, दोनों अर्थ रखती है, विश्राम करना और आनन्द लेना । वे विश्वेदेवा: सत्य-की शक्तियां हैं जो मनुष्यके अन्दर होनेवाले आनन्द सतत प्रवाहोंमें प्रदेशकरती हैं, ज्यों ही कि इस कार्यकी अश्विनोंकी प्राण-क्रिया तथा मानसिक क्रियाकेद्वारा और इन्द्रकी विशुद्ध मानसिक क्रियाके द्वारा तैयारी हो चुकी होती है |
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"ओ पलन-पोषण करनेवालो, जो कर्ताको उसके कर्ममें सहारा दिये रहते हो, धारे रखते हो, ओ सब-देवो, आवो और बांट लो उस सोमरसको, जिसे मैं वितरित कर रहा हूं ।''
''ओ सब-देवताओ, जो हमें जलोंको उपरसे लाकर देते हो, पार उतर-कर आते हुए तुम मेरी सोमकी हवियोंके पास आओ, प्रकाशमय शक्तियोंके तौर पर अपने सुखके स्थानों पर आओ ।''
''ओ सब-देवताओ, तुम जो आक्रांत नहीं हो सकते हो, जिनको हानि नहीं पहुंचायी जा सकती है, अपने ज्ञानके रूपोंमें स्वच्छन्दताके साथ गति करते हुए तुम आकर मेरे यज्ञके साथ संलग्न रहो, उसके वहन करनेवाले होकर ।''
और अन्तमें, सूक्तकी अन्तिम श्रुंखलामें हम सत्य-चेतनाका इस रूपमें स्पष्ट और असंदिग्थ निर्देश पाते हैं कि वह यज्ञका ध्येय है, सोम-हविका उद्दिष्ट लक्ष्य है, प्राणशक्तिमें और मनमें अश्विनोंका, इच्छका और विश्वेदेवा:का जो कार्य है उसकी चरम कोटि है । क्योंकि ये तीन ऋंचाएं 'सरस्वती'को, दिष्य वाणीको अर्पितकी गई हैं, जो अन्तःप्रेरणाकी उस धाराको सूचित करती है जो सत्यचेतनासे अवरोहण करती है, उतरती है, और इस प्रकार निर्मल स्पष्टताके साथ उन ॠचाओंका आशय यह निकलता है-
''पावक सरस्वती, समृद्धिके अपने रूपोंकी संपूर्ण समृद्धताके साथ विचार- के द्वारा साररूपी ऐश्वर्यवाली होकर हमारे यज्ञको चाहे ।''
''वह, सुखमय सत्योंकी प्रेरयित्री, चेतनामें अतियोंको जागृत करनेवाली सरस्वती यज्ञको धारण करती है ।''
'
'सरस्वती ज्ञानद्वारा, बोधद्वारा चेतनाके अन्दर बड़ी भारी बाढ़को (ॠतम्की व्यापक गतिको ) जागृत करती है और समस्त विचारोंको प्रका-शित कर देती है ।''
इस सूक्तका यह स्पष्ट और उज्ज्वल अन्त उस सबपर अपना प्रकाश डालता है जो इस सूक्तमें पहले आ चुका है । यह वैदिक यज्ञ के तथा मन और आत्माकी एक अवस्थाके बीच घनिष्ठ संबन्ध दर्शाता है, धी और सोम-रसकी हवि और प्रकाशयुक्त विचार, आध्यात्मिक अन्तर्निहित ऐश्वर्यकी समृद्धि, मनकी सम्यक् और सत्य तथा प्रकाशकी ओर. इसकी जागृति और प्रवृत्ति, इनमें अन्योन्याश्रयता दर्शाता है । यह सरस्वतीकी प्रतिमाको इस रूपमें प्रकट करता है कि वह अन्तःप्रेरणाकी, 'श्रुति'की देवी है । और यह वैदिक नदियों तथा मनकी आध्यात्मिक अवस्थाओंके बीच संबन्ध स्थापित करता है | यह संदर्भ उन प्रकाशभरे संकेतोंमेंसे एक है जिन्हें
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ॠषियोंने अपनी प्रतीकामक शैलीकी जानबूझकर रची गयी अस्पष्टार्थओंके बीचमें कहीं-कहीं बिखरे रूपमें रख छोड़ा है, ताकि वे हमें उनके रहस्य तक पहुंचानेमें हमारे पथप्रदर्शक हो सकें ।
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नवां अध्याय
सरस्वती और उसके सहचारी
वेदका प्रतीवाद देवी सरस्वतीके अलंकारमें अपमे आपको अत्यधिक स्पष्टताके साथ प्रकट कर देता है, छुपा नहीं रख सकता । वहुतसे अन्य देवताओंमें आन्तरिक अर्थका तथा बाह्य अलंकारका संतुलन बड़ी सावधानीके साथ सुरक्षित रखा गया है । वेदवाणीके सामान्य श्रोता तकके लिये ऐसा तो होता है कि अलंकारका यह आवरण कहीं-कहीं पारदर्शक हो जाता है या कहीं-कहींसे उसके कोने उठ जाते हैं, पर यह कभी नहीं होता कि वह बिलकुल ही हट जाय । कोई यह संदेह कर सकता है कि 'अग्नि' क्या इसके अतिरिक्त भी कुछ है कि यज्ञिय आगका या पदार्थोमें रहनेवाले प्रकाश या ताप के भौतिक तत्त्वका मानवीकृत रूप है; अथवा 'इन्द्र' क्या इसके अतिरिक्त भी कुछ है कि वह आकाश और वर्षाका. या भौतिक प्रकाश (विद्यत् ) का देव है; अथवा 'वायु' इसके अतिरिक्त भी कुछ है कि वह आंधी और पवनमें रहनेवाला या अधिक-से-अधिक भौतिक जीवन-श्वासका देवता है । पर अपेक्षाकृत छोटे देयताओंके विषयमें प्रकृतिवादी व्याख्यापर विश्वास करनेके लिये बहुत. कम आधार है । क्योंकि यह प्रकट है कि 'वरुण' केवल वेदका यूरेनस ( Uranus) या नैपचून (Neptune) ही नहीं है परंतु वह एक ऐसा देवता भी है जिसके बड़े महान् और महत्त्वपूर्ण नैतिक व्यापार हैं । 'मित्र' और 'भग' का भी इसी प्रकारका आध्यात्मिक स्वरूप है । 'ॠभू' जो मनके द्वारा वस्तुओंकी रचना करते हैं और कर्मोंके द्वारा अमरताका निर्माण करते हैं, कठिनतासे ही कूटे-पीटे आकर प्रकृतिवादी गाथाशास्त्रके प्रोक्रिस्टियन1 सांचेमें डाले जा सकते है । फिर भी वैदिक ऋचाओंके कवियोंके सिर पर विचारोंकी अस्तव्यस्तता और गड़बड़ीका दोष मढ़कर इस कठिनताको हटाया नहीं तो कुचला तो जा ही सकता है ।
1. ग्रीक गाथाशास्त्रमें प्रोक्रस्टी नमक एक असुर था जो सब लोगों को अपनी चारपाईके विलकुल अनुकूल कर लेता था, जो लंबे होते थे उनके पैर काट देता था, वो छोटे होते थे उनको खींचकर उतना लम्बा कर देता था । उससे प्रोक्रस्टियन शब्द बना है, जिसका अर्थ है जबरदस्ती काट-छांटकर, खींचतान कर अनुकूल बनानेवाला ।
--अनुवादक
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पर 'सरस्वती' तो इस प्रकारके किसी भी उपायके वशमें नहीं होगी । वह तो सीधे तौरसे और स्पष्ट ही वाणी की देवी है, एक दिव्य अन्तःप्रेरणाकी देवी है ।
यदि सब कुछ इतना ही होता, तो यह हमें इस स्पष्ट तथ्यसे विशेष अधिक दूर नहीं ले जाता कि वैदिक ऋषि केवल प्रकृतिवादी जंगली नहीं थे, बल्कि वे अपने आध्यात्मिक विचार रखते थे और गाथात्मक प्रतीकोंकी रचना करनेमें समर्थ थे, जो प्रतीक कि न केवल भौतिक प्रकृतिके उन स्पष्ट व्यापारोंको सूचित करते थे जिनका सरोकार उनके कृषिसंबंधी, पशुपालन-संबंधी तथा उनकें खुली हवामें रहनेके जीवनसे था पर साथ ही वे मन तथा आत्माके आन्तरिक व्यापारोंके सूचक भी थे । यदि हम प्राचीन धार्मिक विचारके इतिहासको यों समझे कि यह एक क्रमिक बिकास है जो प्रकृति और जगत् तथा देवताओंके संबंधमें भौतिकसे आध्यात्मिककी ओर, विसूद्ध प्रकृतिवादसे एक उत्तरोत्तर बढ़ते हुए नैतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टिकोणकी ओर हुआ है (और यही, इस समय माना हुआ दृष्टिकोण है,1 यद्यपि यह किसी भी प्रकार निश्चित नहीं है ) तो हमें अवश्यमेव यह कल्पना करनी चाहिये कि वैदिक कवि कमसे-कम पहलेसे ही देवताओंके सम्बन्धमें भौतिक और प्रगतिवादी विचारसे नैतिक तथा आत्मिक विचारकी ओर प्रगति कर रहे थे । परन्तु 'सरस्वती' केवल अन्तःप्रेरणाकी देवी ही नहीं है, इसीके साथ-साथ वह प्राचीन आर्य जगत्की सात नदियोंमेंसे भी एक है । यहाँ तुरन्त यह प्रश्न उठता है कि यह असाधारण एकरूपता-अन्तःप्रेरणा और नदीकी एकरूपता कहांसे आ गई ? और किस प्रकार इन दो विचारोका सम्बन्ध वैदिक मंत्रोंमें आ पहुंचा? और इतना ही नहीं, कुछ और भी है; क्योंकि 'सरस्वती' केवल अपने आपमें ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि अपने संबंधोंके कारण भी महत्त्वपूर्ण है । आगे चलनेसे पहले हम उन सम्बन्धों पर भी शीघ्रताके साथ एक स्थूल दृष्टि डाल जायं, यह देखनेके लिये कि उनसे हमें क्या पता लगता है ।
।. मैं नहीं समझता कि हमारे पास कोई वास्तविक सामग्री है जिससे हम धार्मिक विचारोंके प्रारीम्मक उद्दगम तथा उनके आदिम इतिहासका निश्चय कर सकें । असलमें तथ्य जिसकी ओर सकेत करते हैं वह यह है कि एक प्राचीन शिक्षा थी जो एक साथ ही आध्यात्यि और प्रकृतिवांदी दोनों थी अर्थात् उसके दो पार्श्व थे, जिनमेंसे पहला कम या अधिक धुंधला पड़ चुका था, परन्तु पूर्ण रूपसे लुप्त तो वह जंगली जातियोंमें भी कमी नहीं हुआ था, वैसी जातियों तकमें मी नहीं जैसी उत्तरीय अमेरिका की थीं । पर यह शिक्षा यद्यपि प्रागैतिहासिक थी, तथापि किसी भी प्रकारसे आदिम नहीं थी |
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कविताकी अन्तःप्रेरणाके साथ नदीका साहचर्य ग्रीक गाथाशास्त्रमें भी आता है; पर वहाँ म्यूजिज (Muses) नदियोंके रूपमें नहीं समझी गयी हैं उनका सम्बन्ध केवल एक विशेष पार्थिव धाराके साथ है, वह भी बहुत सुबोध रूपमें नहीं । वह धारा है 'हिप्पोक्रेन' (Hippocrene) नदी, घोड़ेकी धारा, और इसके नामको व्याख्या. करनेके लिये एक कहानी है कि यह दिव्य घोड़े पैगेसत ( pegasus)के सुमसे निकली थी; क्योंकि उसने अपने सुमसे चट्टान पर प्रहार किया और उसमेंसे अन्तःप्रेरणाके जल वहाँसे बह निकले जहाँ चट्टान पर इस प्रकार प्रहार किया गया था । क्या यह कथानक केवल एक् यूनानी परी-कथा ही था ? अथवा इसका कुछ विशेष अर्थ था ? और यह स्पष्ट है कि यदि इसका कुछ अर्थ था, तो क्योंकि यह स्पष्ट ही एक आध्यात्मिक घटना का अन्त:प्रेरणाके जलोंकी उत्पत्तिका संकेत करती है इसलिये वह अर्थ अवश्यमेव आध्यात्मिक अर्थ होना चाहिये था; अयश्य ही यह किन्हीं आध्यात्मिक तथ्योंको मूर्त्त रूपके अन्दर रखनेका एक प्रयास होना चाहिये था । हम इसपर ध्यान दे सकते हैं कि पैगेसस (pegasus) शब्दको यदि प्रारंभिक आर्यजातीय स्यरशास्त्रके अनुसार लिखें, तो यह पाजस बन जाता है और स्पष्ट ही इसका संबन्ध संस्कृतके 'पाजस्' शब्दसे लगता है जिसका मूल अर्थ था शक्ति, गति या कभी-कभी पैर रखाना | स्वयं ग्रीक भाषामें भी इसका संबंध पैगे (pege) अर्थात् धाराके साथ है । इसलिये इस कथानकके शब्दोंमें अन्तःप्रेरणाकी शक्तिशाली गतिके रूपकके साथ इसका सतत संबंध है । यदि हम वैदिक प्रतीकोंकी ओर आएं तो हम देखते हैं कि वहां 'अश्व' या घोड़ा जीवनकी महान् क्रियाशील शक्ति-की, प्राणमय या वातिक शक्तिकी मूर्त प्रतिमा है और निरंतर उन दूसरी प्रतिमाओंके साथ जुड़ा हुआ है जो चेतनाकी द्योतक हैं । 'अद्रि', पहाड़ी या चट्टान, साकार सत्ताका और विशेषकर भौतिक प्रकृतिका प्रतीक है और इसी पहाड़ी या चट्टानमेंसे सूर्यकी गौएं छूटकर आती हैं और जल प्रवाहित होते हैं । 'मधु'की शहदकी, 'सोम'की धाराओंके लिये भी कहा गया है कि वे इस पहाड़ी या चट्टानमेंसे दुही जाती हैं । इस प्रकार चट्टान पर घोड़े के सुमका प्रहार,1 जिससे अन्तःप्रेरणाके जल छूट निकलते हैं, एक बहुत ही स्पष्ट आध्यात्मिक रूपक हो जाता है । न ही इसमें कोई युक्ति है कि यह कल्पनाकी जाय कि प्राचीन ग्रीक और भारतीय इस योग्य नहीं थे कि वे इस प्रकारका आध्यात्मिक निरूपण कर सकें या इसे कवितात्मक औंर रहस्यमय अलंकारमें रख सकें के प्राचीन रहस्यवादका असती कलेवर ही था |
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अवश्य ही हम और दूर तक जा सकते हैं और इसकी पइताल कर सकते हैं कि वीर बैलेरोफन ( Bellerophon) का, जो बैलेरस (Bellrus)का वध करनेवाला है और जो दिव्य घोड़े पर सवार होता है, कुछ मौलिक संबंन्ध उस 'वलहन् इन्द्र'के साथ तो नहीं था जो वेदमें 'वल'का चातक है, उस 'वल' शत्रुका जो .प्रकाशको अपने कब्जेमें कर रखता है । पर यह हमें हमारे विषयकी. सीमासे परे ले जायगा । न ही 'पैगेसस'के कथानककी यह व्याख्या इसकी अपेक्षा किसी और सुदूर परिणाम पर पहुंचा सकती है कि यह पूर्वजोंकी स्वाभाविक 'कल्पना-पद्धतिको दर्शाये और उस प्रणालीको दर्शाये जिसमें वे अन्त:प्रेरणाकी धाराको बहते हुए पानीकी एक सचमुचकी धाराके रूपमें चित्रित कर सके । 'सरस्वती'का अर्थ है ''वह जो धारावाली है, प्रवाहकी गतिसे युक्त है", और इसलिये यह दोनोंके लिये एक स्वाभाविक नाम है, नदीके लिये और अन्त:प्रेरणाकी देवीके लिये । परन्तु विचारणा या साहचर्यकी किस प्रक्रियाके द्वारा यह सम्भव हुआ कि अन्तःप्रेरणाकी नदीके सामान्य विचारका सम्बन्ध एक विशेष पार्थिव धाराके साथ जुड़ गया ? और वेदमें यह एक ही नदीका प्रश्न नहीं है, जो अपने चारों ओरकी प्राकृतिक और गाथात्मक परिस्थितियोंके द्वारा पवित्र अन्त:- प्रेरणाके विचारके साथ किसी अन्य नदीकी अपेक्षा अधिक उपयुक्त रूपसे सम्बद्ध प्रतीत होती हो । क्योंकि यहाँ यह एकका नहीं अपितु सात नदियों- का प्रश्न है, जो सातों कि ऋषियोंके मनोंमें सदा परस्पर-संबद्ध रूपसे रहती हैं और वे सारी ही इकट्ठी 'इंद्र' देवताके प्रहारके द्वारा छूटकर निकली हैं, जब उसने 'पाइथन' 1 ( Python, बड़े भारी सांप, अजगर, वेदके 'अहि' ) पर प्रहार किया, जो उनके स्रोतके चारों ओर कुंडली मारकर बैठा हुआ था और जिसने उनके बाह्य प्रवाहको रोक रखा था । यह असम्भव प्रतीत होता है कि हम यह कल्पना कर लें कि इन सप्तविध प्रवाहोंमेंसे केवल एक नदी आध्यात्मिक अभिप्राय रखती थी और शेषका सम्बन्ध केवल पंजाब-में प्रति वर्ष आनेवाले वर्षाके आगमनसे था । जब हम 'सरस्वती'की अध्यात्म-परक व्याख्या करते हैं, तो इसके साथ ही यह आवश्यक हो जाता है कि हम वैदिक ''जलों''के संपूर्ण प्रतीककी ही अध्यात्मिक व्याख्या करें ।2
1. ग्रीक गाथाशास्त्रमें यह एक भीषणताय सांप या दैत्य था, जिसे अपोलो (Apollo) ने, जो सूर्यका देवता है, मारा था | यही समानता वेदमें इस रूपमें पायी जाती है कि वहां 'इन्द्र'ने 'अही'का वध किया है । - अनुवादक
2. नदियां उत्तरकालके भारतीय विचारमें एक प्रतीकात्मक अर्थ रखती हैं; उदाहरण के लिये, गंगा, यमुना और सरस्वती और उनके संगम तांत्रिक कल्पनामें यौगिक
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'सरस्वती'का सम्बन्ध न केवल अन्य नदियोंके साथ है, किन्तु अन्य देवियोंके साथ भी है जो देवियां स्पष्ट तौरसे आध्यात्मिक प्रतीक हैं, और विशेषकर 'भारती' और ' इला' के साथ । बादके, पौराणिक पूजा-रुपोंमें 'सरस्वती' वाणीकी, विद्याकी और कविताकी देवी है और 'भारती' उसके नामोंमेंसे ही एक है, पर वेदमें 'भारती' और 'सरस्वती' भिन्न-भिन्न देवियाँ हैं । 'भारती' को 'मही' अर्थात् विशाल, महान् या विस्तीर्ण भी कहा गया है । 'इला', 'मही' या ' भारती' और 'सरस्वती' ये तीनों उन प्रार्थनामन्त्रोंमें जिनमें 'अग्नि'के साथ देयताओंको यज्ञमें पुकारा गया है, एक स्थिर सूत्रके रूपमें इकट्ठी. आती हैं ।
इणा सरस्वती मही तिस्त्रो देवीर्मयोभुव : |
बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः || (ॠ. 1-13-9 )
'' 'इलां, 'सरस्वती' और 'मही' ये तीन देवियाँ जो सुखको उत्पन्न करने- वाली हैं, यज्ञिय आसन पर आकर बैठें, वे जों स्खलनको प्राप्त नहीं होतीं, या 'जिनको हानि नहीं पहुंचती' अथवा 'जो हानि नहीं पहुंचाती' ।'' इस अन्तिम विशेषण 'अस्रि :'का अभिप्राय मेरे विचारमें यह है--वे जिनमें कोई भी मिथ्या गति और फलत: उसका कोई बुरा परिणाम-- 'दुरितम्' नहीं होता जिनका पाप और भ्रांतिके अन्ध कूपोंमें किसी प्रकारका स्खलन नहीं होता । दशम मण्डलके 110 में सूक्तमें यह सूत्र और विस्तारके साथ आता है-
आ नो यज्ञं भारती तूयमेतू इला मनुष्वविह चेतयन्ती ।
तिस्त्रो देवीर्बर्हिरेवं स्योनं सरस्वती स्वपस: शदन्तु ।। ( ऋ. .10-110-8 )
'' ' भारती' शीघ्रताके साथ हमारे यज्ञमें आवे और 'इला' यहाँ मनुष्यो-चित चित प्रकारसे हमारी चेतनाको ( या ज्ञानको अथवा बोधोंको ) जागृत करती हुई आवे, और 'सरस्वती' आवे, --ये तीनों देवियाँ इस सुखमय आसन पर बैठें, कर्मको अच्छे प्रकार करती हुई ।"
यह स्पष्ट है तथा और भी अधिक स्पष्ट हो जायगा कि ये तीनों देवियां परस्पर अत्यधिक संबद्ध व्यापारोंको रखतीं हैं, जो 'सरस्वती' की अन्त: -प्रेरणाकी शक्तिके सजातीय हैं । ' सरस्वती' वाणी है, अन्त:प्रेरणा है जो जैसा कि मेरा विचार है, ' ऋतम्' से, सत्यचेतनासे आती है । 'भारती' और ' इला' भी अवश्यमेव उसी वाणी या ज्ञानके विभिन्न रूप होने चाहियें ।
प्रतीक हैं और वे सामान्य रूपसे यौगिक प्रतीकवादमें प्रयुक्त किये गये हैं, यद्यपि एक भिन्न तरीके से |
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मधुच्छंदस्के आठवें सूक्तमें हमें एक ॠचा मिलती है जिसमें 'भारती' का 'मही' नामसे उल्लेख हुआ है--
एक ह्यस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही ।
पक्वा शाखा न दाशुषे || ( ॠ. 1-8-8 )
'इस प्रकार 'मही' इन्द्रके लिये किरणोंसे भरपूर, अपनी बहुलतामें उमड़ती हुई एक सुखमय सत्यके स्वरूपवाली, हवि देनेवालेके लिये इस प्रकार- की हो जाती है मानो वह पके फलोंसे लदी हुई कोई शाखा हो ।'
किरणें वेदमें 'सूर्यंकीं' किरणें हैं | क्या हम यह कल्पना करें कि यह देवी भौतिक प्रकाशकी कोई देवी है, अथवा 'गो' का अनुवाद हम गाय करें और इस प्रकार यह कल्पना करें की 'मही'के पास यज्ञके लिये गायें भरीं पड़ी हैं ? 'सरस्वती'का आध्यात्मिक स्वरूप हमारे सामने आकर हमें इस दूसरी बेहूदी क्ल्पनसे. मुक्त करा देता है, पर साथ ही यह पहली प्रकृति-वादी व्याख्याका भी उसी प्रकार प्रतिषेध करता है । .'मही'का, जो यज्ञमें सरस्वतीकी सहचारिणी है, अन्त: प्रेरणाकी देवीकी बहिन है, उत्तरकालीन गाथाशास्त्रेमें जो सरस्वतीके साथ बिलकुल एक कर दी गयी है इस प्रकारसे वर्णित होना दूसरे सैकड़ों प्रमाणोंके बीचमें इसका एक और प्रमाण है कि वेदमें प्रकाश ज्ञानका, आत्मिक ज्योतिका प्रतीक है । 'सूर्य' अधिपति है अत्युच्च दृष्टिका,. महान् प्रकाशका, 'बृहज्ज्योतिः' अथवा जैसा कि कहीं- कहीं इसके लिये कहा गया है, 'ॠतं ज्योति: ', सच्चे प्रकाशका । और 'ॠतम्' तथा 'बृहत्' इन शब्दोमें संबंध वेदमें सतत रूपसे पाया जाता है ।
यह मुझे असंभव प्रतीत होता है कि इन शब्दप्रयोगोंका इसके. अतिरिक्त कुछ और अर्थ समझा जाय कि इनमें प्रकाशमय चेतनाकी अवस्थाका निर्देश है, जिसका स्वरूप यह है कि वह विस्तृत या विशाल है 'बृहत्', सत्ताके सत्य-से भरपूर है, 'सत्यम्', और ज्ञान तथा क्रियाके सत्यसे युक्त है, 'ॠतम्' । देवताओंके पास यही चेतना होती है । उदाहरणके लिये 'अग्नि' को ' ऋत-चित् ' कहा गया है, अर्थात् वह जो सत्यचेतनावाला है । 'मही' इस सूर्यकी किरणोंसे भरपूर है, वह अपने अन्दर इस प्रकाशको रखती है । इसके अति-रिक्त वह ' सूनृता' है, सुखमय सत्यकी वाणी है, ऐसे ही जैसे कि सरस्वतीके विषयमें भी कहा गया है कि वह सुखमय सत्योंकी प्रेरयित्री है, चोदयित्री सूनृतातानाम् । अतमें वह 'विरप्शी' है, विशाल है या प्रचुरतामें फूट. निकलने-वाली है और यह शब्द हमें इसका स्मरण करा देता है कि सत्य विशालता-रूप भी है ' ऋतम् बृहत्' । और एक दूसरे मंत्र ( ऋ. 1-22-10 ) में उसका वर्णन इस रूपमें आता है की वह 'वरूत्री धिषणा' है, विचार-शक्तिको विशाल
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रूपसे ओढ़े हुए या आलिंगन किये हुए है । तो 'मही' सत्यकी प्रकाशमय व्यापकता है, हमारे अन्दर अपनेमें सत्यको,. 'ॠतम्' को धारण किये हुए जो अतिचेतन. ( Superconscient) है उसकी विशालताको, वृहत्'को प्रकट करनेवाली वह है । इसलिये वह यज्ञकर्ताके लिये पके फलोंसे लदी हुई एक शाखाके -समान है ।
'इला' भी सत्यकी वाणी है, उत्तरकालमें होनेवाली अस्तव्यस्ततामें इसका नाम वाक्का सभानार्थक हो गया है । जैसे सरस्वती है सत्य विचारों या मनकी सत्य अवस्थाओंकी ओर चेतनाको जगृत करनेवाली; चेत्नी सुमतीनाम्, उसी प्रकार 'इणा' भी चेतनाको ज्ञानके - प्रति जागृत .करती हुई, 'चेतयन्ती, यज्ञमें आती है । वह शक्ति से भरपूर है, 'सुबीरा', और ज्ञानको लती है । . उसका भी सम्बन्ध 'सूर्य' के साथ है, जैसे ५-४-४ में अग्निका, संकल्पशक्तिका, आवाहन किया गया है कि वह 'इणा' के साथ समना होकर सूर्यकी, सत्य प्रकाशके अधिपतिकी, किरणोंके द्वारा यत्न करता हुआ आवे, इणया सजोषा यतमानो रश्मिभि: सूर्यस्य । वह - किरणों की, 'सूर्य'की गौओंकी माता है । उसके नामक शब्दार्थ है--वह जो कि खोजती है और पा लेती है और वह नाम या शब्द अपने अन्दर उसी विचार-साहचर्य-को रखता है, जो 'ॠतम्' और 'क्षषि' शब्द में है ।.'इणाको इसलिये ठीक-ठीक यह समझा जा सकता है कि यह द्रष्टाकी दर्शनसक्ति है जो सत्य-को पा लेती है ।
जैसे सरस्वती सत्यश्रवणकी, 'श्रुति' की सूचक है क अन्त:प्रेरणाकी वाणी को देती है, वैसे ही इणा 'दृष्टि' को,. सत्य-दर्शनको सूचित करती. है । यदि ऐसा हो, तो क्योंकि 'दृष्टि' और 'श्रुति' ये ऋषि, कवि, सत्यके द्रष्टाकी दो शक्तियाँ हैं, इसलिये हम 'इणा' और ' सरस्वती'के घनिष्ठ सम्बन्धको समझ सकते हैं । .'भारती' वा या 'मही' सत्यचेतनाकी विशालता है, जो मनुष्यके सीमित मनमें उदित होकर उक्त दो शक्तियोंको, जो दो बहिनें हैं, अपने साथ लाती है । यह भी हम समझ सकते हैं कि किस प्रकार ये सूक्ष्म और सजीव अन्तर पीछे जाकर उपेक्षित हो गये, जब कि वैदिक ज्ञानका ह्रास हुआ और 'भारती',.' सरस्वती', ' इणा' तीनों एकमें परिणत हो गयीं ।
हम इसपर भी ध्यान दे सकते हैं कि इन तीन देवियोंके विषयमें यह कहा गया है कि ये मनूष्यके लिये सुख, 'मयस्' को उत्पन्न करती हैं । वैदिक ऋषियोंकी धारणानुसार जो सत्य और सुख या आनन्द के बीचमें सतत सम्बन्ध है उसपर मैं पहले ही बल दे चुका हूं । मनुष्य अपने अन्दर स्थित सत्य या असीम चेतानके उदयके द्वारा ही पीड़ा और कष्टके इस दु:स्वप्न
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मेंसे, इस विभक्त (द्वन्द्वमय) रचनामेंसे निकलकर उस आनन्दमें, सुखमय अवस्थामें पहुंच जाता है जिसका वरर्ण वेदमें ' भद्रम्', ' मयस्' ( प्रेम और आनन्द ),' स्वस्ति' ( सत्ताकी उत्तम अवस्था, सम्यक् अस्तित्व ) शब्दोंसे तथा अन्य कई अपेक्षाकृत कम पारिभाषिक रूपमें प्रयुक्त ' वार्यम', 'रयि:', 'राय:' जैसे शब्दोंसे किया गया है । वैदिक ऋषिके लिये सत्य एक रास्सा है तथा प्रारंभिक 'कोठरी है और दिव्य सत्ताका आनन्द लक्ष्य है, अथवा यों कहें कि सत्य है नींव, आनन्द है सर्वोच्च परिणाम ।
तो यह है आध्यात्मिकवादके अनुसार 'सरस्वती'का स्वरूप, उसका अपना विशिष्ट व्यापार और देवताओंके बीचमें जो उसके अधिकतम निकट सहचारी हैं उनके साथ उसका समबन्ध । वैदिकि नदीके रूपमें उसका अपनी छ: बहिन नदियोंके साथ जो संम्बन्ध है उसपर ये कहाँ तक कुछ प्रकाश डालते हैं ? सातकी संख्याका वैदिक संप्रदायमें एक बहुत ही मुख्य स्थान है, जैसा कि अधिकतर अति प्राचीन विचार-संप्रदायोंमें है । हम उसे निरन्तर आता देखते हैं--सात आनन्द, सप्त रत्नानि, सात ज्वालाएं, अग्निकी जिह्वाएं या फिरणें, सप्त अर्चिष:, सप्त ज्वालः, विचार-तत्त्वके सात रूप, सप्त धीतय:, सात किराणें या गौएं, जो अवध्य गौ, 'अदिति', देवोंकी माताके रूप हैं, सप्त गाव:, सात नदियाँ, सात माताएं या प्रीणयित्री गौएं, सप्त मातरः, सप्त धेनव:, जो शब्द कि समान रूपसे किरणों और नदियों दोनों-के. लिये प्रयुक्त किया गया है । ये सब सातके समुदाय, मुझे प्रतीत होता है, सत्ताके आघारभूत तत्त्वोंकी वैदिक वर्गीकरण पर आश्रित हैं । इन तत्त्वों-की संख्याका अन्वेषण पूर्वजोंके विचारशी मनके लिये वहुत ही रुचिकर था और भारतीय दर्शनशास्त्रमें हम इसके विभिन्न उत्तर पाते हैं जो 'एक' से शुरू होकर. 20 से ऊपर तक पहुंचते है । वैदिक विचारमें इसके लिये जो आधार चुना गया था वह आध्यात्मिक तत्त्वोंकी संख्या था, क्योंकि ऋषियोंके विचारमें सम्पूर्ण अस्तित्व एक सचेतन सत्ताकी ही हलचल-रूप था । आधुनिक मनको ये विचार और वर्गीकरण चाहे केवल कौतूहल-पूर्ण या निस्सार ही क्यों न प्रतीत हों, पर ये केवल शुष्क दार्शनिक भेद नहीं थे, बल्कि एक सजीव आध्यात्मिक अभ्यास-पद्धतिके साथ निकट रूपसे सम्बन्ध रखते थे, जिसके ये बहुत अंशोंमें विचारमय आधार थे, और चाहे कुछ भी हो, यदि हम इस प्राचीन और दूरवर्ती संप्रदायके विषयमें कुछ भी यथार्थताके साथ अपना विचार बनाना चाहते हों तो हमें अवश्यभेव इन्हें साफ-साफ समझ लेना चाहिये ।.
तो हम वेदमें तत्त्वोंकी संख्याको विविध रूपमें प्रतिपादित हुआ पाते हैं |
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'एक'को समझा गया था मूल और सर्वाधार, इस 'एक'के अन्दर दो तत्त्व रहते थे दिव्य तथा मानव, मर्त्य तथा अमर्त्य । यह द्वित्यसंख्या अन्य प्रकारसे भी दो तत्त्वोंमें प्रयुक्तकी गयी है, आकाश और पृथ्वी, मन और शरीर, आत्मा और प्रकृति, जो सब प्राणियोंके पिता और माता समझे गये हैं । तो भी यह अर्थपूर्ण है कि आकाश और. पृथ्वी जब कि वे प्राकृतिक शक्तिके दो रूपों, मानसिक तथा भौतिक चेतनाके प्रतीक होते हैं, तब वे पिता और माता नहीं बल्कि दो माताएँ होते हैं । तीनका तत्त्व दो रूपोंमें समझा गया था, प्रथम तो त्रिविध दिव्य तत्त्वके रूपमें, जो बादके सच्चिदानन्द, दिव्य सत्ता, दिव्य चेतना और दिव्य आनन्दके अनुरूप है और. दूसरे त्रिविध लौकिक तत्त्व-मन, प्राण, शरीरके रूपमें, जिसपर वेद और पुराणोंका त्रिविध लोक-प्तंस्थान निर्मित हे । परन्तु पूर्ण संख्या जो सामान्यत: मानी गयी हैं वह है 'सात' । यह सातका अंक बना है तीन लौकिक तत्त्वोंके साथ तीन दिव्य तत्त्वोंके योग करने तथा एक सातवें या संयोजक तत्त्वके अन्तर्निवेशसे जो कि ठीक-ठीक सत्यचेतनाका, ॠतम् बृहत्' का तत्त्व है और आगे चलकर जो 'विज्ञान' या 'महः:' के रूपमें जाना । गया है । .इनमेंसे पिछले शब्द (मह:) का अर्थ है विशाल और इसलिये यह 'बृहत्'का समानार्थक है । वेदमें और भी वर्गीकरण आते हैं, पांचका आठका, नौका और दसका तथा जैसा कि प्रतीत होता है, .बारहका भी; पर इस समय हमारा इनसे सम्बन्ध नहीं है ।
यह ध्यान देने योग्य है कि ये सब तत्त्व वास्तवमें अवियोज्य और सर्वत्र व्यापक समझे .गये हैं और इसलिए प्रकृतिकी प्रत्येक पृथक् रचनामें लागू होते हैं । उदाहरणार्थ सात विचार ( सप्त धीसयः ) हैं मन, जो अपने-आपको, जैसा कि अब हम कह सकते हैं, सात भूभिकाओंमेंसे प्रत्येकमें विनियुक्त करता है और भौतिक मन (यदि हम इसे यह नाम दे सकें ), वातिक मन, विशुद्ध मन, सत्य मन आदि-आदिके रूपमें अपनेकी विन्यस्त करता हुआ सप्तम भूमिकामें सर्वोच्च शिखर, 'परम 'परावत्' तक पहुँचता है । सात किराणें या गौए हैं अदिति जो असीम माता है, अवध्य गाय है, परम प्रकृति या असीम चेतना है, बादके प्रकृति या शक्तिके विचारका आदिस्रोत है, (और इस प्राचीन पशुपालनसंबंधी रूपकमालाके अनुसार पुरुष है बैल, वृषभ ) और फिर यह अदिति वस्तुओंकी माता है जो अपनी सृष्टि-क्रियाकी सात भूमिकाओंपर सचेतन सत्ताकी शक्तिके रूपमें आकार धारण कर लेती है । इसी प्रकार सात नदियाँ चेतन धाराएँ है ये सत्ताके समुद्रके उन सप्तीविध तत्त्वोंके अनुरूप हैं जो परिगणित सात लोकोंके रूपमें
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सूत्रवद्ध हो हमारे सामने प्रकट होते हैं । मानवीय चेतानामें उन नदियोंका पूर्ण प्रवाह ही मनुष्यकी पूर्ण क्रियाशीलताका कारण होता है, सारभूत तत्त्वके उसके पूर्ण खजानेको बनाता है, उसकी शक्तिको पूर्ण क्रीड़ाको चलाता है । वैदिक अलंकारमें, उसकी ये गौएँ उन सात नदियोंका जल पीती हैं ।
यदि नदियोंकी इस रूपक-कल्पना स्वीकार कर लिया जाय, -और यदि एक बार इस प्रकारके विचारोंका अस्तित्व मान लिया जाय तो यह स्पष्ट है कि उन लोगोंके लिये जो प्राचीन आर्योका जीवन बिताते थे और वैसी परिस्थितियों में रहते थे, एकमात्र यही रूपक-कल्पना स्वाभाविक हो सकती थी ( उनके लिये वह ऐसी स्वाभाविक और अनिवार्य थी, जैसी आजकलके हम लोगोंके लिये 'प्लेन्स' [planes=भूमिकाओं] की रूपक-कल्पना जिससे थियोसोफिकल विचारोंमे हमें परिचित कराया है ), हाँ तो, यदि इस. कल्पनाको स्वीकार कर लिया जाय तो सात नदियोंमेंसे एकके रूपमें 'सरस्वती'का स्थान स्पष्ट हो जाता है । 'सरस्वती' वह धारा है जो सत्य तत्त्वसे 'ॠतम्' था 'मह:'से आती है और वस्तुत: ही वेदमें इस तत्त्वका वर्णन-उदाहरणार्थ हमारे तीसरे सूक्त. ( 1.3 ) के अन्तिम संदर्भ में-हम इस प्रकार किया गया पोते हैं कि वह महान् जल, 'महो अर्ण:' है, ( ' महो अर्ण:' यह एक ऐसा प्रयोग है जो एकदम हमें बाद की 'महस्' इस संज्ञाके उदगम को बता देता है ) या कहीं-कहीं इस रूपमें कि वह 'महाँ बर्णव: है । तीसरे सूक्तमें हम ' सरस्वती' तथा इन महान् जलोंमें निकट सम्बन्ध देखते हैं ।. तो इस संबन्धकी हमें जरा और निकटताके साथ परीक्षा कर लेनी चाहिये, इससे पहले कि हम वैदिक गौओंके विचारपर तथा 'इंद्र' देवता और सरस्वतीकी सगी संबंधिनी देवीी 'सरमा' के साथ उग गौओंके सम्बन्धपर आवें । क्योंकि यह आवश्यक है कि पहले हम इन सम्मन्धोंकी परिभाषा कर लें, जिससे हम मधुच्छन्दसके शेष सूक्तोंकी परीक्षा कर सकें । वे. सूक्त बिना अपवादके उस महान् वैदिक देवता, द्यौके अधिपति ( इंद्र ) को संबोधित किये गयें हैं जो हमारी कल्पनाके अनुसार मनुष्यके अन्दर मनकी शक्तिका और विशेषकर दिव्य या स्वत:प्रफाश मनका प्रतीक है ।
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दसवां अध्याय
समुद्रों और नदियोंका रूपक
मधुच्छन्दसूके तीसरे सूक्तकीवे तीन ॠचाएँ जिनमें सरस्वतीका .आवाहन किया गया है इस प्रकार हैं-
पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती ।
यज्ञं वष्टु धियावसुः ||
चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् ।.
यज्ञं दुधे सरस्वती ।|
महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना ।
धियो विश्वा वि राजति ।।
प्रथम दो ॠचाओंका आशय पर्याप्त स्पष्ट हो जाता है जब हम यह जान लेते हैं कि सरस्वती सत्य की वह शक्ति है जिसे हम अन्त:प्रेरणा कहते है । सत्यसे आनेवली अन्त:प्रेरणा हमें संपूर्ण मिथ्यात्वसे छुड़ाकर पवित्र कर देती है ( पावका ), क्योंकि भारतीय विचारके अनुसार सब पाप केवल मिथ्यापन ही है, मिथ्या रूपसे प्रेरित भाव, मिथ्या रूपसे संचालित संकल्प और क्रिया ही है । जीवनका और हमारे अपने-आपका केंद्रभूत विचार, जिसको लेकर हम चलते हैं, एक मिथ्यात्व है और वह अन्य सबको भी मिथ्यारूप दे देता है । सत्य हमारे अंदर आता है एक प्रकाश, एक वाणीके रूपमें, और वह आकर हमारे विचारको बदलनेके लिये बाधित कर देता है, हमारे अपने विषयमें और जो कुछ हमारे चारों ओर है उसके विषयमें एक नवीन विवेकदृष्टि ला देता है । विचारका सत्य दर्शन ( Vision) के सत्यको रचता है और .दर्शन का सत्य हमारे अंदर सत्ताके सत्यका निर्माण करता है और सत्ताके सत्य ( सत्यम् ) मेंसे स्वभावत: भावनाका, संकल्पका और क्रियाका सत्य. प्रवाहित होता है. । यह है वास्तवमें वेदका केंद्रभूत विचार ।
सरस्वती, अन्त:प्रेरणा, प्रकाशमय समृद्धताओंसे भरपूर हैं ( वाजेभि-वार्जिनिवती ), विचारकी संपत्तिसे ऐश्वर्यवती ( धियावसु:) है । वह यज्ञको धारण करती है, देवके प्रति दी गयी मर्त्य जीवकी क्रियाओंकी हविको धारण करती है, एक तो इस प्रकार कि वह मनुष्यकी चेतनाको जागृत कर देती
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है (चेतन्ती सुमतीनाम् ), जिससे वह चेतना भावना की समुचित अवस्थाओंको और विचारकी समुचित गतियोंको पा लेती है, जो अवस्थाएँ और गतियां उस .सत्ये अनुरूप होती हैं जहांसे सरस्वती अपने प्रकाशोंको उँडेला करती है और दूसरे इस प्रकार कि वह मनुष्य्की इस चेतनाके अंदर उन सत्योंके उदय होनेको प्रेरित कर देती है ( चोदीयत्री सूनृतानांम्), जो. सत्य कि वैदिक ऋषियोंके अनुसार जीवन और सत्ताको असत्य, निर्बलता और सीमा से छुड़ा देते हैं और उसके लिये परम सुखके द्वारोंको खोल देते हैं ।
इस सतत जागरण और प्रेरण (चेतन और चोदन ) के द्वारा जो 'केतु' (अर्थात् बोधन ) इस एक शब्दमें संगृहीत हैं--जिस 'केतु'को वस्तुओंके मिथ्था मर्त्यदर्शनसे भेद करनेके लिये 'दैव्य-केतु' (दिव्य बोधन ) करके प्राय: कहा गया है,--सरस्वती मनुष्यकी क्रियाशील चेतनाके अंदर बड़ी भारी बाढ़को या महान् गतिको, स्वयं सत्य-चेतनाको ही, ला देती है और इससे वह हमारे सब विचारोंको प्रकाशमान कर देती है (तीसरा मंत्र ) । हमें यह अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि वैदिक ऋषियोंकी यह सत्य-चेतना एक अति- मानस (मनसे परेका, मनोतीत ) स्तर है, जीवनकी पहाड़ीकी सतहपर है (अद्रे: सानु: ) जो हमारी सामान्य पहुँचसे परे है और जिसपर हमें बड़ी कठिनतासे चढ़कर पहुँचना होता है । यह हमारी जागृत सत्ताका भाग नहीं है, यह हमसे छिपा हुआ अति-चेतनकी निद्रामें रहता है । तो अब हम समझ सकते हैं कि मधुच्छंद्स्का क्या आशय है, जब वह कहता है कि सरस्वती अन्त:प्रेरणाकी सतत क्रियाके द्वारा सत्यको हमारे विचारोंमें चेतनाके प्रति जागृत कर देती है ।
परंतु जहां तक केवल व्याकरणके रूपका संबंध है, इस पंक्तिका इसकी अपेक्षा बिलकुल भिन्न अनुवाद भी किया जा सकता है; हम ''महो अर्ण:'' को सरस्वतीके समानाधिकरण मानकर इस ऋचाका यह अर्थ कर सकते हैं कि ''सरस्वती जो बड़ी भारी नदी है, बोधन (केतु ) के द्वारा हमें ज्ञानके प्रति जागृत करती है और हमारे सब विचारोंमें प्रकाशित होती है ।'' यदि हम यहां "बड़ी भारी नदी" इस मुहावरेको भौतिक अर्थमें ले और इससे पंजाबकी भौतिक नदी समझें, जैसा कि सायण समझता प्रतीत होता है, तो यहाँ हमें विचार और शब्द-प्रयोगकी एक बड़ी असंगति दिखायी पड़ने लगेगी, जो किसी भयंकर स्वप्न या पागलखानेके अतिरिक्त कहीं संभव नहीं हो सकती । यर यह कल्पनाकी जा सकती है कि इसका अभिप्राय है, अन्तःप्रेरणाका बड़ा भारी प्रवाह या समुद्र और यह कि यहां सत्य-चेतनाके महान् समुद्र कोई संकेत नहीं है | तो भी, दूसरे ऐसे स्थालोंमें देवातओंके
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संबंधमें यह संकेत बार-बार आता है कि वे महान् प्रवाह या समुदकी विशाल शक्तिके द्वारा कार्य करते है (मह्ना महतो अर्णवस्य 10-67-12), जहां कि सरस्वतीका कोई उल्लेख नहीं होती और यह असंभव होता है कि वहाँ उससे अभिप्राय हो । यह सच है कि वैदिक लेखोंमें सरस्वतीके विषयमें यह कहा गया है कि वह 'इन्द्र' की गुप्त आत्मशक्ति है (यहाँ हम यह भी देख सकते हैं कि यह एक ऐसा प्रयोग है जो कि अर्थसून्य हो जाता है, यदि सरस्वती केवल एक उत्तरकी नदी हो और इन्द्र आकाशका .देवता हो, पर तब इसका एक बड़ा गंभीर और हृदयग्राही अर्थ हो जाता है यदि इन्द्र हो प्रकाशयुक्त मन और. सरस्वती हो वह अन्त:प्रेरणा जों अतिमानस सत्यके गुह्य स्तरसे निकलकर आती है ) । परंतु इससे यह नहीं हो सकता कि सरस्वतीको अन्य देवोंकी अपेक्षा इतना महत्त्वपूर्ण स्थान दे दिया जाय जितना कि तब उसे मिल जाता है यदि '' मह्ना महतो अर्णवस्य''का यह अनुवाद करें कि ''सरस्वतीकी महानताके द्वारा" । यह तो बार-बार प्रतिपादित किया गया है कि देवता सत्य की शक्तिके द्वारा 'ऋतेन', कार्य करते हैं, पर सरस्वती तो सत्यके देवताओंमेंसे केवल एक है, यह भी नहीं कि वह उनमेंसे सबसे अघिक महत्त्वपूर्ण या व्यापक हो ।. इसलिये 'महो अर्ण:'का जो अर्थ मैंने किया है वही एकमात्र ऐसा अर्थ है जो वेदकके सामान्य विचारके साथ और दूसरे संदर्भोंमें जो इस वाक्यांशका प्रयोग हुआ है उसके साथ संगीत रखता है ।
तो चाहे हम यह समझें कि यह बड़ा भारी प्रवाह, ''महो अर्ण:", स्वयं सरस्वती ही है और चाहे हम इसे सत्यका समुद्र समझें, यह एक निश्च-यात्मक तथ्य है, जो इस संदर्भके द्वारा असंदिग्थ रूपमें स्थापित हो जाता है कि वैदिक ॠषि जलके, नदीके या समुद्रके रूपकको आलंकारिक अर्थमें और एक आध्यात्मिक प्रतीकके रूपमें प्रयुक्त करते थे । तो इसको लेकर हम आगे विचार प्रारम्भ कर सकते हैं और देख सकते हैं कि यह हमें कहाँतक ले जाता है । प्रथम तो हम यह देखते हैं कि हिंदू लेखोंमें, वेदमें, पुराण में और दार्शनिक तर्को तथा दृष्टांतों तकमें सत्ताको स्वयं एक समुद्रके रूपमें वर्णित किया गया है । वेद दो समुद्रोंका वर्णन करता है, उपरले जल और निचले जल । वे समुद्र हैं--तो अवचेतनका जो अंधकारमय और अभिव्यक्ति-रहित है और दूसरा अतिचेतनका जो प्रकाशमय है और नित्य अभिव्यक्त है, पर है मानवमनसे परे ।
ॠषि वामदेव चतुर्थ मण्डलके अंतिम सूक्तमें इन दो समुद्रोंका वर्णन करता है | वह कहता है कि एक मधुमय लहर समुद्रसे ऊपरको आरोहण
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करती है और इस आरोहण. करती हुई लहर के द्वारा जो कि 'सोम' ( अंशु ) है, मनुष्य पूर्ण. रूपसे अमरताको पा लेता है; वह लहर या!वह सोम निर्मलता ( 'धृतस्य', जो शुद्ध. किये हुए .मक्खनका, घीका, सुचक है ) गुह्य नाम है; वह देवताओंकी जिह्वा है, वह अमरताकी नाभि है ।
समुद्राढ़ूर्मिर्मषुमां उवारद् उपाशुना सममृतत्वमानट् ।
धृतस्य नाम गुह्यं यदस्ति जिह्वा देवानाममृतस्य नाभि : ।। ( 4-58-1 )
मैं समझता हूँ कि इसमें सन्देह नहीं हो सकता कि समुद्र, मधु, सोम, धृत ये सब कम-से-कम इस संदर्भमें तो अवश्य आध्यात्मिक प्रतीक हैं । निश्चथ ही वामदेवका यह आशय नहीं है कि शराबकी एक लहर या प्रवाह हिन्दमहासागर या बंगालकी खाड़ीके खारे पानीसे निकलकर अथवा यह भी सही कि, सिन्ध नदीके या गंगा नदीके ताजे पानीसे निकलकर ऊपर चढ़ती हुई आयी, और यह शराब धीका गुह्म नाम है । जो वह कहना चाहता है वह स्पष्ट यह है कि हमारे अन्दर जो अवचेतनकी गहराइयां हैं उनमेंसे आनन्दकी या सत्ताके विशुद्ध आह्लादकी एक मधुमय लहर उठती है और इसी आनन्दके द्वारा हम अमरता तक पहुंच पाते हैं, यह आनन्द वह रहस्यमय सत्ता है, वह गुह्य वास्तविकता है, जो अपनी चमकती हुई निर्मलताओंसे युक्त मनकी क्रियाके पीछे छिपी हुई है । वेदान्त भी हमें बताता है कि इस आनन्दका देवता 'सोम' वह वस्तु है जो मन या संवेदनात्मक बोध बन गया है । दूसरे शब्दोमें, समस्त मानसिक संवेदन अपने अन्दर सत्ताके एक गुप्त आनन्दको रखता है और अपने ही अस्तित्वके उस रहस्यको व्यक्त करना चाहता है । इसलिये आनन्द देवताओंकी जिह्वा है, जिससे वे सत्ताके आनन्द का आस्वादन करते हैं; यह नाभि है जिसमें अमर अवस्था या दिव्य सत्ताकी सब क्रियाएं इकठ्ठी बंधी हुई हैं । वामदेव अपने कथनको जारी रखता हुआ आगे कहता है, ''आओ हम निर्मलता (धृत ) के इस रहस्यमय नामको व्यक्त करें,-अभिप्राय यह कि हम इस सोम-रसको, सत्ताके इस गुह्य आनन्द-को, बाहर निकाले; इसे इस विश्व-यज्ञमें अग्निके प्रति, अर्थात् उस दिव्य संकल्प या सचेतन-शक्तिके प्रति जो सत्ताका स्वामी ( ब्रह्मा ) है, अपने सम-र्पणों या प्रणतियोंके द्वारा ( नमोभि: ) थाम लें । वह लोकोंका चार सींगों-वाला बैल है, और जब वह मनुष्यके व्यक्त होते हुए आत्मिक विचारोंको सुनता है तब वह आनन्दके इस गुह्य नामको इसकी गुहासे बाहर निकाल देता है ( अवमीत् ) ।"
वयं नाम प्र ब्रवामा धृतस्य अस्मिन् यज्ञे घारयामा नमोभिः |
उप ब्रह्या शृणवच्छस्यमानं चतु-शृङ्गोऽवमिद् गौर एतत् || (4-58-2)
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समुद्रों और नदियों का रूप
यहां हम इस वासकी तरफ भी ध्यान देते चलें कि क्योंकि सोमरस और धृत प्रतीकात्मक हैं इसलिये यक्षको भी अवश्यमेव प्रसीकात्मक ही होना चाहिये । इस प्रकारके सूक्तोंमें जैसा यह वामदेवका सूक्त है कर्मकांडका आवरण जिसे वैदिक रहस्यवादियोंने ऐसे प्रयत्नपूर्वक बुना था इस. प्रकार विलुप्त हो जाता है जैसे हमारी आंखोके सामनेसे विलीन होता हुआ कोहरा और वहां वैदांतिक सत्य, वेदका रहस्य स्पष्ट. दीखने लगता है ।
वामदेव हमें अपने द्वारा वर्णित इस समुद्रके स्वरूपके विषयमें बिल्कुल भी सन्देहका अवकाश नहीं देता; क्योंकि पांचवी ॠचामें उसने साफ. ही इसे हृदयका समुद्र. कह दिया है, "हृधात् समुद्रात्", जिसमेंसे निर्मलताकी धाराएं, "धृतस्य धारा:'', उठती हैं । वह कहता है कि वे मन और आन्त-रिक ह्रदयके द्वारा उत्तरोत्तर पवित्रकी जाती हुई बहती हैं, "अन्तर्ह्रदा मनसा पूयमाना:'' । और अन्तिम ऋचामें वह सारी ही सत्ताको तीन स्थाननोंमें स्थित हुआ वर्णित करता है, प्रथम तो 'अग्नि' के धाममें जिसके विषयमें दूसरी ॠचाओंसे हम यह जानते हैं कि वह सत्यचेतना है, अग्निका अपना घर है, "स्वं दमम्, ऋतम् बृहत्'', --दूसरे, हृदयमें, समुद्रमें जो स्पष्ट ही वह है जो कि ' हृध समुद्र' --तीसरे, मनुष्यके जीवनमें ( आयुषि ) ।
वामन् ते विश्वम् भुवनम् अधि श्रितम्, अन्तः समुद्रे ह्रुधन्तरायुषि |
( 1 ) अतिचेतन और ( 2 ) अवचेतनका समुद्र, तथा ( 3 ) इन दोनोंके मध्यमें प्राणीका जीवन,---यह ( तीनों मिलकर ) है सत्ताका वैदक विचार ।
अतिचेतनका समुद्र निर्मलताकी नदियोंका, मधुमय लहरका, लक्ष्य है, जैसे कि ह्रदयके अन्दरका अवचेतनका समुद्र उनके उठनेका स्थान है । इक उपरले समुद्रको "सिन्धु" कहा गया है और 'सिन्धु' शब्दके नदी या समुद्र दोनों अर्थ हो सकते है; पर इस सूक्तमें स्पष्ट ही इसका अर्थ समुद्र है । आइये जरा हम इस अदभुत भाषा पर दृष्टि डालें जिस भाषामें कि वामदेव निर्मलताकी इन नदियोंका वर्णन कुरता है । सबसे पहले वह यह कहता है कि देवताओंने उस निर्मलताको, 'धृतम्' को खोजा और पा, लिया, जो 'धृत' तीन रूपोंमें स्थित था, तथा जिसे पणियोंने गौके अन्दर, 'गवि', छिपाया हुआ था ।1 यह नि:संदिग्ध है कि 'गौ' वेदमें दो अर्थोंमें :प्रयुक्त हुआ है, गाय और प्रकाश; गाय बाह्म प्रतीक है, आन्तरिक अर्थ है प्रकाश । गौओं--
1.त्रिधाहितं पणिभिर्गुह्यमानं गवि देवासो धुतमन्वविन्दन् |
(इन्द्र एकं सूर्य एकं बब्रान वेनादेकं स्वषया निष्टत्तक्षु:) || (4-58-4)
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का अलंकार कि उन्हें पणि चुरा ले गये थे और ले जाकर छिपा लिया था, वेदमें निरन्तर आता है । यहां यह स्पष्ट है कि क्योंकि 'समुद्र' एक आध्यात्मिक प्रतीक है--ह्रदयका समुद्र ''समुद्रे हृदि",-- और 'सोम' एक आध्यात्मिक प्रतीक है तथा 'धृत' एक आध्यात्मिक प्रतीक है इसलिये वे गौएं भी जिनमें देवता पणियों द्वारा छिपाये गये 'धृत'को ढ़ूंढ़कर पा लेते हैं अवश्य ही एक आन्तरिक प्रकाशका प्रतीक होनी चाहियें, न कि भौतिक प्रकाशकी सूचक । गौ वास्तवमें 'अदिति' है, असीम चेतना है जो अवचेतनके अन्दर छिपी हुई है, और त्रिविध धुत है त्रिविध निर्मलता, एक तो मुक्त संवेदनकी जो अपने आनन्दके रहस्यको पा लेता है, दूसरे, उस विचारात्मक मनकी जो प्रकाश और अन्तर्ज्ञानको उपलब्ध करता है और तीसरे, स्वयं सत्यकी, चरम अतिमानसिक साक्षात्कारकी । यह इस ॠचा ( 4-58-4) के उत्तरार्धसे स्पष्ट हो जाता है, जिसमें यह कहा गया है कि ''एकको इन्द्रने पैदा किया, एकको सूर्यने, एकको देवताओंने 'वेन'के स्वाभाविक विकाससे रचा"; क्योंकि 'इंद्र' विचारशील मनका, 'सूर्य' अतिमानस प्रकाशका अधिपति है और वेन है सोम, सत्ताके मानसिक आनन्दका अधिपति, इन्द्रिय-मनका रचयिता ।
अब यहाँ हम यह भी देख सकते हैं कि यहांपर वर्णित 'पणि' अवश्य और बलात् आध्यात्मिक शत्रु, अन्धकारकी शक्तियां ही होने चाहियें, न कि द्राविड देवता या द्राविड़ जातियाँ या द्राविड़ सौदागर । अगली (पांचवीं ) ॠचामें वामदेव 'धृतम्' की धाराओंके विषयमें कहता है कि वे ह्रदयके समुद्रसे चलती हैं, जहाँ वे शत्रु द्वारा सैकड़ों कारागारों ( 'व्रजों', वाड़ों ) में इस प्रकार बंदकी हुई पड़ी हैं कि वे दिखायी नहीं देतीं । निश्चय ही, इसका यह अभिप्राय नहीं है कि घीकी या पानीकी नदियाँ ह्रदय-समुद्रसे या किसी भी समुद्रसे उठती हुई वीचमें दुष्ट और अन्यायी द्रीवड़ियोंसे पकड़ ली गयीं और सैकड़ों बाड़ोंमें बन्द कर दी गयीं, जिससे कि आर्योंके लोगोंको या आर्योंके देवताओंको उनकी झांकी तक न मिल सके । तुरन्त हम अनुभव करते हैं कि यह शत्रु, वेदमंत्रोंका पणि, वृत्र एक विशुद्ध आध्यामिक विचार है न कि यह बात है कि हमारे पूर्वजोंका प्राचीन भारतीय इतिहासके तथ्योंको अपनी सन्ततिसे छिपानेके लिये उन्हें जटिल और दुर्गम्य गाथाओंके बादलोंसे ढक देनेका एक प्रयास हो! । ॠषि वामदेव हक्का-बक्का रह जाता, यदि वह कहीं देख पाता कि उसके यझसंबन्धी रूपकोंको आज ऐसा अप्रत्याशित उपहास-रूप दिया जा रहा है । इससे भी कुछ बात नही बनती यदि हम 'धृत'को पानीके अर्थमें लें, 'ह्र्ध समुद्र'को मनोहर झीलके अर्थमें और यह कल्पना
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कर लें कि द्रविड़ियोंने नदियोंके पानीको सैकड़ों बांध लगाकर बन्द कर लिया था, जिससे कि आर्य लोग उनकी एक झांकी तक नहीं पा सकते थे । क्योंकि यदि पंजाबक नदियाँ सब-की-सब हृदयको आनन्द देनेवाली एक मनोहर झील-से निकलती भी हों, तो भी यह नहीं हो सकता कि उनकी पानीकी धाराओं को बहुत ही चालाक तथा अत्यन्त उपायकुशल द्रविड़ियोंने इस प्रकारसे एक गायके अन्दर तीन रूपोंमें रख दिया हो और उस गायको ले जाकर एक गुफामें छिपा दिया हो ।
वामदेव कहता है, ''ये ह्रदय-समुद्रसे चलती हैं; शत्रु द्वारा सैंकड़ों वाड़ोमें बंदकी हुई ये दीख नहीं सकतीं । मैं निर्मलता ( धृत ) की धाराओंकी ओर देखता हूं, क्योंकि उनके मध्यमें सुनहरा बेंत रखा हुआ है ( 5वां मंत्र ) । अन्त:स्थ हृदय और मनके द्वारा पवित्रकी जाती हुई ये बहती हुई नदियोंकी तरह सम्यक् प्रकारसे स्रवण करती हैं; ये निर्मलताकी लहरें ऐसे चलती हैं जैसे पशु अपने. हांकनेवालेकी अध्यक्षतामें चलते हैं (6ठा मंत्र ) । ये महती धाराएं, निर्भलता (घृत ) की धाराएं वेगयुक्त गतिसे भरपूर, किन्तु प्राणकी शक्ति ( वात, वायु ) से सीमित हुई-हुई चलती हैं, मानो कि ये उस रास्ते पर चल रही हों जो समुद्र ( 'सिन्धु' उपरले समुद्र ) के सामने है; ये एक जोर मारते हुए घोड़ेके समान हैं जो अपने सीमित करनेवाले बंधनोंकों तोड़ फेंकता है, जब कि वह लहरों द्वारा परिपुष्ट हो जाता है, ( 7वां मंत्र1 ) ।'' देखते ही यह मालूम हो जाता है कि यह एक रहस्यवादीकी कविता है, जो अपने अभिप्रायको अधार्मिकोंसे छिपानेके लिये रूपकोंके आवरणके नीचे ढक रहा है, जिसे वह कहीं-कहीं पारदर्शक हो जाने देता है ताकि जो देखना चाहते हैं वे उसमेंसे देख सके ।
जो वह कहना चाहता है वह यह है कि दिव्य ज्ञान हर समय हमारे विचारोंके पीछे सतत रूपसे प्रवाहित हो रहा है, परंतु आन्तरिक शत्रु .उसे हमसे रोके रखते हैं । वे हमारे मनके तत्त्वको इन्द्रिय-क्रिया और इंद्रियाश्रित बोध तक ही सीमित कर देते हैं जिससे कि, यद्यपि हमारी सत्ताकी लहरें
1. एता अर्षन्ति ह्रुधात् समुद्राच्छातव्रजा रिपुणा नावचक्षे ।
धृतस्य धारा अभि चाकशीमि हिरण्य यो चेतसो मध्य आसाम् ||५।|
सम्यक् भवन्ति सरितो न घेना अन्तर्ह्रदा मनसा पूयमान: |
एते अर्वन्स्युर्मयो वृतस्य मृगा इव क्षिपणोरीषमानणा: ||६||
सिन्धोरिय प्राष्यने झूषमासो वातप्रमियः पतयन्ति वह्वा:|
धृतस्य धारा अरुषो न वाणी काष्ठा भिन्दभुर्मिभि: पिस्वमानः ||७|| (4-58)
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उन किनारों पर टकराती हैं जो अतिचेतन तक, असीम तक पहुंचते हैं तो भी वे इन्द्रियाश्रित मनकी स्नायवीय क्रिया द्वारा सीमित हो जाती हैं और अपने रहस्यको प्रकट नहीं कर पातीं । वे उन घोड़ोके समान हैं जो नियंत्रण से काबूमें रखे हुए और लगामसे रोके हुए हैं; जब प्रकाशकी धाराएं अपनी शक्तिको बढ़ाकर भरपूर कर लेती हैं, केवल तभी जोर मारता हुआ घोड़ा इन बंधनोंको तो! पाता. है. और वे धाराएं स्वच्छंदततपूर्वक उस ओर बहने लगती है, जहांसे सोमरस अभिषुत हुआ है और वश पैदा हुआ .है-
त्रय सोमः सूयते यत्र यज्ञो धृतस्य धारा अभि तत् पवन्ते | (9)
फिर यह लक्यक्ष्य इस रूपमें व्याख्यात हुआ है कि यह सारा मधु-ही-मधु-है--धृतस्व धारा मधुमत् पवन्ते ( ।0) ; यह आनन्द है, दिव्य परम-सुख है । और यह कि यह लक्ष्य 'सिंधू' है, अतीचेतन समुद्र है, अंतिम ॠचायें स्पष्ट कर दिया गया है जहां वामदेव कहता है 'तिरी मधुमय लहरका हम आस्वादन कर सकें''--तेरी अर्थात् 'अग्नि'की जो दिव्य पुरुष है, लोकोंका चार सींगोवाला बैल है' ''जो लहर जलोंकी शक्ति में, जहां वे इकइठे होते हैं घारणकी हुई है ।''
अपमानिके समिये य आभृतः तमश्याम मधुमन्तं त ऊर्मिम् । ( 11 )
वैदिक ऋषियोंके इस आधारभूत: विचारको हम 'सृष्टि-सूक्त, ( 1 0-129 ) में प्रतिपादित पाते हैं, जहां अवचेतनका इस प्रकार वर्णन किया गया है, ''अंधकारसे घिरा हुआ अंधकार, यही सब कुछ था जो प्रारम्भमें था, एक समुद्र था जो बिना मानसिक चेतनाके था... इसमेंसें एक पैदा हुआ, अपनी शक्तिकी महत्ताके द्वारा । ( 3 ) । पहले-पहल इसके अन्दर इसने इच्छा ( काम ) के रूपमें गतिकी, जो इच्छा मनका प्रथम बीज थी । उन्होंने जो. बुद्धिके स्वामी थे. असत्मेंसे उसे पा लिया जो सतका मिर्माण करता है; हदयके अन्दर उन्होंने इसे सोद्देश्य अन्त:प्रवृत्तिके द्वारा और विचारात्मक मन द्वारा पाया । ( 4 ) । उनकी किरण दिगन्तसम रूप-से फैली हुई थी; उसके ऊपर भी कुछ था, उसके नीचे भी कुछ था1 । ( 5 ) ।'' इस संदर्भमें वे ही विचार प्रतिपादित हैं जो वामदेवके सूक्तमें,
1. तम आसीत्तमसा गाळहमऽप्रेकेतं सलिलं इदम् |
(तुच्छधेनाम्वपहितं यदासीत्) सपसस्तन्महिनाऽवायतैकम् ||३||
कामस्तदपे समवर्तताधि मनस्मे रेतः प्रथमं यदासीत् |
ससो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ।|४।|
तिरश्चिनो विततो रश्मिरेषामधः स्विवासीदुपरि स्विवासीदुपरित् | ....||५||
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परन्तु 'रुपपोंका आवरण यहाँ नहीं है | 'अचेतनके-समुद्रमेंसे 'एक तत्त्व' ह्रदयमें उठता है जो सर्वप्रथम इच्छा ( काम ) के रूपमें आता है; वहां हृदय- समुद्रमें वह सत्ताके आनंदकी एक अव्यक्त इच्छाके रूपमें गति करता है और यह इच्छा उसका प्रथम बीज है जो बादमें इन्द्रियाश्रित मनके रूपमें प्रकट होता है । इस प्रकार देवताओंको अवचेतनके अंधकारमेंसे सत्को, सचेतन सत्ताको, निर्मित कर लेनेका एक साधन मिल जाता है, वे इसे ह्रदयमें पाये हैं और विचारके तथा सोद्देश्य प्रवृत्तिके विकासके द्वारा बाहर निकाल लाते हैं, 'प्रतीष्या', इस शब्दसे मनोमय इश्च्छाका ग्रहण करना अभिप्रेत. है, वह उस पहली अस्पष्ट इच्छासे भिन्न है जो अवचेतनमेंसे प्रकृतिकी केवल प्राणमय गतियोंमें उठती है । सचेतन सत्ता, जिसे वे इस प्रकार रचते हैं, इस प्रकार विस्तृत होती .है मानो यह अन्य दो विस्तारोंके बीचमें दिगन्तसम रूपमें हो; नीचे अवचेतनकी अंधकारमय निद्रा होती है, ऊपर होती है अतिचेतनकी प्रकाशपूर्ण रहस्यमयता । ये ही उपरले और निचले समुद्र हैं ।
यह वैदिक अलंकार पुराणोंके इसी प्रकारके प्रतीकात्मक अलंकारोंपर भी एक स्पष्ट प्रकाश डालता है; विशेषकर 'विष्णु'के इस प्रसिद्ध प्रतीक पूर कि वह प्रलयके बाद क्षीरसागरमें 'अनंत' सांपकी कुण्डलीमें शयन करता है । यहां यह आक्षेप किया जा सकता है फि पुराण तो उन अंधविश्वासी हिंदू. पुरोहितों या कवियों द्वारा लिखे गये थे जो यह विश्वास रखते थे कि ग्रहणोंका कारण यह है की एक दैत्य सूर्य और चन्द्रमाको ग्रसता (खा जाता ) है और वे आसानीसे ही इसपर भी विश्वास कर सकते थे कि प्रलयके समय-में परमात्मा भौतिक शरीरमें सचमुचके दूधके भौतिक समुद्रमें एक भौतिक सांपके ऊपर सोने जाता है और इसलिये यह व्यर्थका बुद्धिकौशल दिखाना है कि इन कहानियोंका कोई आध्यात्मिक अभिप्राय खोजा जाय । मेरा उत्तर यह होगा कि वस्तुत: ही उनमें ऐसे अभिप्राय खोजनेकी, ढूंडनेकी आवश्यकता नहीं है; क्योंकि इन्हीं 'अंधविश्वासी' कवियोंने ही वहाँ स्पष्ट रूपसे कहानियोंके उपरिपृष्ट पर ही उन अभिप्रायोंको रख दिया है जिससे उन्हें प्रत्येक व्यक्ति, जो जानबूझकर अंधा नहीं बनता, देख सकता है । क्योंकि उन्होंने विष्णुके सांपका एक नाम भी रखा है, वह-माम है 'अनंत', जिसका अर्थ है असीम; इसलिये उन्होंने हमें पर्याप्त स्पष्ट रूपमें कह दिया है कि यह कल्पना एक अलंकार ही है और विष्णु, अर्थात् सर्वव्यापक देवता, प्रलय-कालमें अनंतकी अर्थात् असीमकी कुण्डलियोंके अन्दर शयन करता है । बाकी क्षीरसमुद्रके विषयमें यह कि वैदिक अलंकार हमें यह दर्शाता है कि यह असीम सत्ताका समुद्र होना चाहिये और असीम सत्ताकासमुद्र है नितान्त
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मधुरताका, दूसरे शब्दोंमें विशुद्ध सुखका एक समुद्र | क्योंकि क्षीर या मधुर दूध ( जो स्वयं भी एक. वैदिक प्रतीक है ) स्पष्ट ही. एक ऐसा अर्थ रखता है जो वामदेवके सूक्तके 'मधु'; शहद या मधुरतासे सारत: भिन्न नहीं है ।
इस प्रकार हम पाते हैं कि वेद और पुराण दोनों एक ही प्रतीकात्मक अलंकारोंका प्रयोग करते हैं; समुद्र उनके लिये असीम और शाश्वत सत्ताका प्रतीक है | हम यह भी पाते हैं कि नदी था बहनेवाली धाराके रूपकको सचेतन सत्ताके प्रवाहका प्रतीकात्मक वर्णन करनेके लिये प्रयुक्त किया गया है । हम देखते हैं कि सरस्वती, जो सात नदियोंमेंसे एक है, अन्त:प्रेरणा-की नदी है जो सत्यचेतनासे निकलकर बहती है । तो हमें वह कल्पना करनेका अधिकार है कि अन्य छ: नदियां भी आध्यात्यिक प्रतीक होनी चाहियें ।
पर हमें सर्वथा कल्पना और अटकल पर ही निर्भर रहनेकी आवश्यकता नहीं है, वे चाहे कितनी ही दृढ़ कर सर्वथा विश्वासजनक क्यों न हों । जैसे कि वामदेवके सूक्तमें हम देख आये है कि नदियां, ' धृतस्य धारा:', वहां घीकी नदियाँ या भौतिक पानीकी नदियां नहीं हैं पर आध्यात्मिक प्रतीक हैं, वैसे ही हम अन्य सूक्तोंमें सात नदियोंके प्रतीक होनेके संबंघमें बड़ी जबर्दस्त साक्षी पाते हैं । इस प्रयोजनके लिये मैं एक और सूक्तेकी परीक्षा करूंगा; तृतीय मण्डलके प्रथम सूक्तक जो ॠषि विश्वामित्रके द्वारा अग्निदेवताके प्रति गाया गया है; क्योंकि यहां वह सात नदियोंका वर्णन वैसी ही अद्भुत और असंदिग्ध भाषामें करता है, जैसी धृतकी नदियोंके विषयमें वामदेवकी भाषा है । हम देखेंगे कि इन दो पवित्र गायकोंकी गितियोंमें ठीक एकसे ही विचार बिलकुल भिन्न प्रकरणोंमें आते हैं ।
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ग्यारहवां अध्याय
सात नदियां
वेद सतत रूपसे जलों या नदियोंका वर्णन करता है, विशेषकर दिव्य जलोंका, 'आपो देवी:' या 'आपो दिव्या:', और कहीं-कहीं उन जलोंका जो अपने अन्दर प्रकाशमय सौर लोकके प्रकाशको या सूर्यके प्रकाशको रखते हैं, 'स्वर्वतीरप:' । जलोंका संचरण, जो देचताओंके द्वारा या देयताओंकी सहायतासे मनुष्योंके द्वारा किया जाता है, एक नियत प्रतीक है । जिनकी मनुष्य अभीप्सा करता है, जिन्हें मनुष्यको दिलानेके लिये देवता वृत्रों और पणियोंके साथ निरन्तर युद्धमें संलग्न रयते हैं, वे तीन महान् विजयें हैं गौएं, जल और सूर्य या सौर लोक ''गा:, अप:, स्व: '' । प्रश्न यह. है कि क्या ये संकेत आकाशकी वर्षाओंके लिये है, उत्तर भारतकी नदियोके लिये हैं जिनपर द्रविड़ोंने अधिकार कर लिया था या आक्रमण किया था, जब कि वृत्र थे कभी 'द्रविड़ लोग और कभी उनके देवता, गौएँ थीं वे पशु जिनको वहां के मूल निवासी "डाकुओं" ने बाहरसे आकर बसनेवाले आर्योंसे छीनकर हस्तगत कर लिया थां या छूट लिया था-और फिर पणि भी जो गौओंको छीनते या चुराते हैं, वे थे ही थे, कभी द्रविड़ और कभी उनके देवता; -क्या यही तथ्य है अथवा इसका एक गम्भीरतर एवं आध्यात्मिक अर्थ है । क्या 'स्व:' को विजित कर लेनेका अभिप्राय केवल यह है कि सूर्य जो उमड़ते हुए बादलोंसे ढक गया था या ग्रहणसे अभिभूत था या रात्रिके अन्धकारसे घिरा हुआ था, फिरसे पा लिया गया ? क्योंकि यहां तो कम-से-कम यह नहीं हो सकता कि सूर्यको आर्योंके; पाससे "काली चमड़ीके, " और "बिना नाकवाले'' मनुष्य-शत्रुओंने छीन लिया हो । अथवा 'स्व:' की विजयका अभिप्राय केवल यज्ञके द्वारा स्वर्गको जीतनेसे है ? और इन दोनों अभिप्रायोंमेंसे चाहे जो भी ठीक हो, गौ, जल, और सूर्यके अथवा गौ, जल और आकाशके इस विचित्रसे जोड़का क्या अभिप्राय है ? इसकी अपेक्षा क्या यह ठीक नही है कि यह प्रतीकात्मक अर्थोंको देनेवाली एक पद्धति है जिसमें गौएँ, जो 'गा:' इस शब्द द्वारा 'गायें' और 'प्रफाशकी किरणें' दोनों अर्थोंमे निर्दिष्ट हुई हैं, उच्चतर चेतनासे आनेवाले प्रकाश हैं, जिनका मूल उद्गम प्रकाशका सूर्य है ? क्या 'स्व:' स्वयं अमरताका लोक या स्तर
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नही है, जो उस सर्वप्रकासमय सूर्यके प्रकाश यो सत्यसे शासित है जिसे वेदमे महान् सत्य, 'ऋंतम् बृहत्' और सच्चा प्रकश कहा गवा है ? और क्या दिव्य जल, ' आपो देवी:, दिव्या: या स्वर्वती: ', इस उच्चतरं चेतनाके प्रवाह नहीं हैं जो मर्त्य मनपर उस अमरताके लोकसे धाराके रूपमें गिरते हैं ?
निस्संदेह यह आसान है कि ऐसे सन्दर्भ या सूक्त बताये जा सकें जिनमें ऊपरसे देखनेपर इस प्रकारकी किसी व्याख्याकी आवश्यकता प्रतीत न होती हो और उस सूक्तको यह समझा जा सकता हो कि वह वर्षाको देनेकी प्रार्थना या स्तुति है अथवा पंजाबकी नदियोंपर हुए युद्धका एक .लेखा है । परन्तु वेदकी व्याख्या. जुदा-जुदा संदर्भों या सूक्तोको लेकर नहीं की जा सकती । यदि इसका कोई संगत और संबध अर्थ होना है, तो हमें इसकी व्याख्या समग्र रूपमें करनी चाहिये । हो सक्ता है कि हम स्व:'- और गाः'को भिन्न-भिन्न संदभोंमें. बिल्कुल ही भिन्न-भिन्न अर्थ देकर अपनी कठिनाइयोंसे पीछा छुड़ा लें--ठीक वैसे ही जैसे सायण गा:' में कभी गायका अर्थ पाता है, कभी फिरणोंका और कभी एक कमालके ह्रदयलाधके साथ वह जबर्दस्ती ही इसका अर्थ जल कर लेता है ।१ परन्तु व्याख्याकी यह पद्धति केवल. इस कारण ही युक्तियुक्त नहीं हो जाती, क्योंकि वह 'तर्कवाद-संमत' और 'सामान्य बूद्धिके गोचर' परिणामपर पहुँचती है । इसकी अपेक्षा ठीक तोस यह है कि यह तर्क और सामान्य बुद्धि दोनों की ही अवज्ञा करती है । अवश्य ही इसके द्वारा हम जिस भी परिणामपर चाहें पहुंच सकते हैं, परन्तु कोई भी न्यायानुकूल और निष्पक्षपात मन पूरे निश्चयके साथ यह अनुभव नहीं कर सकता कि वही परिणाम वैदिक सूक्तोंका असली मौखिक अर्थ है ।
परन्तु यदि हम. एक अपेक्षाकृत अधिक संगत प्रणालीको लेकर चलें तो अनेकों दुर्लध्य कठिनायां विशुद्ध भौतिक अर्थके विरोधमें आ खड़ी होती हैं । उदाहरणके लिये हमारे सामने वसिष्ठका एक सूक्त (7-49) है, जो दिव्य जलों, 'आपो देवी:, आपो दिव्या:' के लिये है, जिसमें द्वितीय ॠचा इस प्रकार है, 'दिव्य जल जो यो तो खोदे हुए या अपने आप बन गये नालोंमें प्रवाहित होते हैं, वे जिनकी गति समुद्रकी ओर है, जो पवित्र हैं, पावक हैं, वे दिव्य जल मेरी पालना करें ।' यहां तो यह कहा जायगा कि अर्थ
1. इसी प्रकार वह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वैदिक शब्द ' ॠतम्' का कभी यज्ञ, कभी सत्य, कभी जल अर्थ करता है और आश्चर्य तो यह कि ये सब भिन्न-भिन्न अर्थ एकं ही सक्त में और वह भी कूल पांच वा छ: ॠचाओंवाले |
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बिल्कुक स्पष्ट है; ये भौतिक जल हैं, पार्थिव नदियाँ या नहरें हैं--या यदि 'खनित्रिमा:' शब्दका अर्थ केवल "खोदे हुए" यह हो तो ये कुएँ हैं- जिन्हें वसिष्ठ अपने सूक्तमें संबोधित कर रहा है और 'दिव्या:', दिव्य, यह स्तुतिका केवल एक शोभापरक विशेषण है, अथवा यह भी संभव है कि हद इस ॠचा का दूसरा ही अर्थ कर लें और यह कल्पना करें कि यहां तीन प्रकारके जलोंका वर्णन है, -आकाशके जल अर्थात् वर्षा, कुओंका जल, नदियोंका जल । परंतु अब हम इस सूक्तका समग्र रूपमें अध्ययन करते हैं, त. यह अर्थ अधिक देर तक नहीं ठहर सकता । क्योंकि सारा सूक्त इस प्रकार है--
''वे दिव्य जल मेरी पालना करें, जो समुद्रके सबसे ज्येष्ठ ( या सबसे महान् ) जल हैं, जो गतिमय प्रवाहके मध्यमेंसे पवित्र करते हुए चलते हैं, जो कहीं टिक नहीं जाते, जिन्हें वज्रधारी, वृषभ इन्द्रने काटकर बाहर निकाला है ( 1 ) । दिव्य जल जो या तो. खोदी हुई या स्वयं बन गई नहरोंमें बहते हैं, जिनकी गति समुद्रकी ओर है, जो पवित्र हैं, पावक हैं, वे दिव्य जल मेरी पालना करे (2) । जिनके मध्यमें राजा वरूण प्राणियोंके सत्य और नृततको देखता हुआ चलता है, वे जो मधु-स्त्रावी हैं और पवित्र तथा पावक हैं -वे दिव्य जल मेरी पालना करें (3) । जिनमें वरुण राजा जिनमें सोम, जिनमें सब देवता वे दिव्य जल मेरी पालना करें (4)"1 |
यह स्पष्ट है कि वसिष्ठ यहां. उन्हीं जलों, उन्हीं धाराओंके विषयमें कह रहा है जिनका वामदेवने वर्णन किया है--जल जो समुद्रसे उठते हैं और बहकर समुद्रमें चले जाते हैं, मधुमय लहर जो समुद्रसे, उस प्रवाहसे जो वस्तुओंका ह्रदय है, ऊपरको उठती है, जल जो निर्मलताकी धाराएँ हैं, 'ध्रुतस्य धारा :' । वे परमोच्च. और वैश्व चेतन सत्ताके प्रवाह हैं, जिनमें वरुण मर्त्योंके सत्य और अवलोकन करता हुआ गति करता
1. समुद्रज्येष्ठाः सलिलस्य मनुष्यात पुनाना तन्त्यनिविषमानः |
इन्द्रो या वज्री वृषभो रराद सा आपो देवीरिह मामवन्तु ||१||
या आपो दिव्या उत वा खवदन्ति खिनित्रमा उत वा याः स्वयंआः |
समुद्रार्या याः शुचमः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||२||
यासां राजा वरुण याति मध्ये अत्यानृते अवश्यग्जनानाम् |
मधुश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||३||
यासु राजा वरुणो यासु सोमो विश्वे देवा यासुर्ज भवन्ति |
विस्वानरो यास्वम्निः प्रविष्टास्ता आपो देवीरह मामवन्तु ||४|| (ॠ० 7-49)
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है ( देखिये, यह एक ऐसा वाक्यांश है जो न तो नीचे आती हुई वर्षाओंकी ओर लग सक्ता है न ही भौतिक समुद्रकी ओर ) । वेदका 'वरुण' भारतका नैपचून. (Neptune) नहीं है, नाहीं वह ठीक-ठीक, जैसी कि पहले-पहल योरोपीय विद्वानोंने कल्पना की थी, ग्रीक औरेनस ( Ouranos); आकाश है । यह है आकाशीय विस्तारका, एक उपरले समुद्र का, सत्ताकी विस्तीर्णताका, इसकी पवित्रताका अधिपति; दूसरी जगह यह .कहा गया है कि उस विस्तीर्णतामें उसने पथरहित अनन्तमें पथ बनाया है जिसके अनुसार सूर्य, सत्य और प्रकाशका अधिपति, गति कर सकता है । वहांसे वह मर्त्य चेतनाके मिश्रित सत्य और अनृतपर दृष्टि डालता है... । और आगे इसपर ध्यान देना चाहिये कि ये दिव्य जल वे हैं जिनको इन्द्रने काटकर बाहर निकाला है और पृथ्वीपर प्रवाहित किया है--यह एक ऐसा वर्णन है जो सारे वेदमें सात नदियोंके संबंधमें किया गया है ।
यदि इस विषयमें काई संदेह हो भी कि वसिष्ठकी स्तुतिके ये जल वे ही हैं जो वामदेवके महत्त्वपूर्ण सूक्तके जल हैं, 'मधूमान् ऊर्मि:, धृतस्य धारा:', तो यह संदेह ऋषि वसिष्ठके एक दूसरे. सूक्त 7.47 से पूर्णतया दूर हो जाता है । 49वें सूक्तमें उसने संक्षेपसे दिव्य जलोंके विषयमें यह संकेत किया है कि वे 'मधुस्रावी हैं, 'मधुश्च्युत:',और यह वर्णन किया है कि देवता उनमें शक्तिके मदका आनंद लेते हैं, 'उर्ज मदन्ति'; इससे हम यह परिणाम निकाल सकते हैं कि मधु या मधुरता वह 'मधु' है जो 'सोम' है,. आनंदकी मदिरा है, जिसका देवताओंको मद चढ़ा करता है । परंतु 4 7वें सूक्तमें वह अपने अभिप्रायको असंदिग्धरूपसे स्पष्ट कर देता है ।
"हे जलो ! तुम्हारी उस प्रधान लहरका जो इन्द्रका पेय है, जिसे देवत्व-के अन्येषकोंने अपने लिये रचा है, तुम्हारी उस पवित्र, अदूषित, निर्मलताकी प्रवाहक ( घृतप्रुषमु ), मधुमय ( मधुमन्तम्), लहरका आज हम आनन्द ले सकें (1) । हे जलो ! जलोंका पुत्र (अग्नि), वह जो आशुकारी है, तुम्हारी उस अति मधुमय लहरकी पालना करे; हम जौ देवत्वके अन्वेषणमें लगे हैं आज तुम्हारी उस लहरका आस्वादन कर पायें जिससमें इन्द्र वसुओं सहित मदमस्त हो जाता है ( 2 ) । सौ शोधक चालनियोंमेंसे छानकर पवित्रकी हुई, स्वप्रकृतिसे ही मदकारक, वे ( नदियां ) दिव्य हैं और देवताओं की गतिके लक्ष्यस्थान (उच्च समुद्र ) को जाती हैं, वे इन्द्रके कर्मोको सीमित नहीं करतीं, ऐसी नदियोंके लिये हवि दो जो निर्मलतासे भरपूर हो ( धृतवत् ) ( 3 ) । वे नदियां जिन्हें सूर्यने अपनी किरणोंसे रचा है, जिनमेंसे इन्द्रने एक गतिमय लहरको काटकर निकाला है, हमारे लिये उच्च हित (वरिवः)--
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को स्थापित करें | और देवो, सुखकी अवस्थाओंके द्वारा सदा हमारी रक्षा करते रहो ( 4) ''2
यहां हमें वामदेवकी 'मधुमात् उर्मि:', मधुमय मदजनक लहर भिलती है और यह साफ-साफ कहा गया है कि यह मधु, यह भधुरता, सोम है, इन्द्रका पेय है । आगे चलकर 'शतपवित्रा:' इस विशेषणके द्वारा यह और भी स्पष्ट हो गया है, क्योंकि यह विशेषण वैदिक भाषामें केवल 'सोम' को ही सूचित कर सकता है; और, हमें यह भी ध्यानमें लाना चाहिये कि यह विशेषण स्वयं नदियों ही के लिये है और यह कि मधुमय लहर इन्द्र द्वारा उन नदियोंमेंसे बहाकर लायी गयी है, जब कि इसका मार्ग पर्वतों पर वज्र द्वारा वृत्रका वध करके काटकर निकाला गया है । फिर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ये जल सात नदियां हैं, जो इन्द्र द्वारा 'वृत्र' के, अरोधकके, आच्छदकके, पंजेसे छुड़ाकर लायी गयी हैं और नीचे को बहाकर पृथ्वी पर भेजी गयी हैं |
ये नदियां क्या हो सकती हैं जिनकी लहर 'सोम'की मदिरासे भरपूर है पग, से भरपूर है, 'धृत' से भरपूर है, 'उर्ज्'से शक्तिसे, भरपूर है ? ये जल क्या हैं जो देवोंकी गतिके लक्ष्य की ओर प्रवाहित होते हैं; जो मनुष्यके लिये उच्च हित-को स्थापित करते हैं ? पंजाबकी नदियां नहीं, वैदिक ऋषियोंकी मनोवृत्तिमें जंगलियों जैसी असंबद्धता और विक्षिप्तचित्तोंकी सी असंगति रहती थी, इस प्रकारकी कोई जंगली-से-जंगली कल्पना भी हमें इसके लिये प्रेरित नहीं कर सकती कि हम उनके इस प्रकारफे वचनों पर अपना इस प्रकारका अभिप्राय बना सकें । स्पष्ट ही ये सत्य और सुखके जल हैं जो उच्च, परम समुद्रसे प्रशहित होते हैं । ये नदियां पृथ्वी पर नहीं, बल्कि द्युलोकमें बहती हैं; 'वृत्र', जो अवरोधक है, आच्छादक है, उस पार्थिव-चेतना पर जिसमें हम मर्त्य रहते हैं, इनके बहकर आनेको रोके रखता है, जब तक की ' इन्द्र',
1. आपो यं ब: प्रथमं देवयन्त इन्द्रपानमूर्मिमकृष्वतेळ: |
तं वो वयं शुचिमरिप्रमध धूतप्रुषं मधुमन्तं वनेम ||१||
तुमिर्ममापो मधुमत्तमं वोऽपां नवाववत्वाशुहेमा |
यस्मिन्निम्द्रो वसुभिर्मावयाते तमश्याम देवयन्तो वो अश्व ||२||
शतपवित्रा: स्वधया मदन्तीर्देवीर्देवानामपि यन्ति पापः |
ता इन्द्रस्य न मिनन्ति व्रतानि सिन्धुभ्यो हव्यं धृतवज्जुहोत ||३||
याः सूर्यो रश्मिभिराततान इन्द्रो अरदद् गातुमूर्मिम् |
ते सिन्धवो दरियोषातना नो युर्य पात स्वस्तिभि: सदा नः ||४|| (ॠ. 7-47)
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देवरूप. मन, अपने चमकते हुए विद्युतद्धज्रोंसे इस आच्छादकका वध नहीं कर देता और उस पार्थिव चेतनाके शिखरों पर काट-काटकर वहा मार्ग नहीं' बना देता जिसपर नदियोंको बहकर आना होता है । वैदिक ऋरुषियोंके विचार और भाषाकी एकमात्र इसी प्रकारकी व्याख्या युक्तियुक्त. संगत और बुद्धि-गम्य हो सकती है । बाकी जो रहा उसे वसिष्ठ हमारे लिये पर्याप्त स्पष्ट कर देता है; क्योंकि वह कहता है कि ये वे जल हैं जिन्हें सूर्यने अपनी किरणों द्वारा रचा है और जो पार्थिव गतियोंके विसदृशं,.'इन्द्र' के, परम मनके, व्यापारोंको सीमित या क्षीण नहीं करते । दूसरे शब्दोंमें ये. महान् 'ऋतम्. बृहत्'के जल हैं और जैसा कि हमने सर्वत्र देखा है कि यह सत्य सुखको रचता है, वैसा यहाँ हम पाते हैं कि ये सत्यके जल, 'ऋतस्य धाराः', जैसा कि दूसरे उन्हें स्पष्ट ही कहा गया है), ( उदाहरणार्थ: 5-12-2 में कहा गया है, 'जो सत्यके दष्टा, केवल सत्यका ही दर्शन कर, सत्यकी अनेक धाराओंको--ऋतस्य धारा: --काटकर निकाल' )1 मनुष्यके लिये उच्च हित (वरिव: ) को स्थापित करते हैं और उच्च हित है सुख2, दिव्य सत्ताका आनंद ।
तो भी न इन सूक्तोंमें, न ही वामदेवके सूक्तमें सात नदियोंका कोई सीधा उल्लेख आया है । इसलिये हम विश्वामित्रके प्रथम सूक्त ( 3.1) पर आते हैं जो अग्निके प्रति कहा गया है, और इसकी दूसरीसे लेकर चौद-हवीं ॠचा तकको देखते हैं । यक एक लंबा संदर्भ है, परंतु यह पर्याप्त आवश्यक है कि इसे उद्धत किया जाय और इस सारेका ही अनुवाद किया जाय ।
प्राञ्च यज्ञ चकृम् वर्षतां गीः सीभीद्धरिग्न नमसा दुवस्यन्: ||
दिवः शशासुर्विंदया कवीनां गृत्साय चित् तवसे गातुमीषुः ||२||
मयो दषे मैधिर: पूतदक्षो दिव: सुबन्धुर्जनाषु पृथिव्या: ।
अविन्दन्नु देर्शतमप्स्वन्त र्देवासो अग्निमपसि स्वसणाम् ।।३।।
अवर्धयन् त्सुभगं सप्त यह्वीः श्वेतं जज्ञानामरुषं महित्वा ।
शिशुं न जतमभ्यारुरश्वा देवासों अग्नि जनिमान् वपुष्यन् ||४||
शुक्रेभिरङैग रज आततन्वान् क्रतुं पुनानः कविभिः पवित्रैः |
शोचर्वसान: पर्यापुरपां श्रियो मिमीते बृहतीरनुनाः ||५||
वव्राजा सोमनदतीरदग्धा विवो यह्विरवसाना अनग्ना : |
सना अत्र युवतय: सयोनिरेकं गर्भ दधिरे सप्त वाणीः ||६||
1. ॠतं चिकित्व ॠतमिच्चाकिद्धि ॠतस्यं धारा अनु तृन्धि पूर्वी: ।
2. निःसंदेह् 'वरिवः' शब्द का अभिप्राय प्रायः 'शुख' होता भी है |
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स्तीर्णा अस्य संहतो विश्वरूपा वृतस्य योनौ त्रवसे मधुनाम् ।
अस्युरत्र धेनवः पिम्बमाना मही वस्म्स्य मातर समीची |।७||
वभ्राण: सूनो सहसो व्यद्यौद् दधानः शुक्रा रभसा वपूषि ।
श्चोतन्ति धारा मधुनो धृतस्य वृषा यत्र वावृधे काव्येन ||८||
पितृश्चिदूशर्यनुवा विवेद व्यस्य धारा असृजव् वि धेनाः |
गुहा चरन्तं सलिभिः शिवेभि र्दिवो यह्वीभिर्न गुहा बभूव ||९||
पितुश्च गर्भ जनितुश्च वभ्रे पूर्वीरेको अधयत् पीष्याना: ।
वृष्णे सपन्ती शुचेये सबन्धू उभे अस्मै मनुष्ये३ नि पाहि ||१०||
उरौ महां अनिवाषे ववर्षाऽऽपो अग्निं यशस: सं हि पूर्वी: ।
ॠतस्य योनावशयद् वमुना जामिनामग्निरपसि स्वसुणाम् ||११||
अक्रो न वभ्रिः समिथे महीनां विवृक्षेय सूनवे भाऋधौकाजीकः ।
उदुस्रिया जनिता यो जजानाऽपां गर्भो नृतमो यह्वो अग्निः ||१२||
अपां गर्भ दर्शतमोषधीनां वना जजान सुभगा विरूपम् ।
देवासश्चिन्मनसा सं हि जग्मु: पनिष्ठं जातं तवसं दुदस्यन् ||१३||
बृहन्त इद् भानवो भाॠजीकमग्निं सचन्त विधुतो न शुक्राः ।
गुहेव वृद्धं सवसि स्वे अन्तरपार उर्बे अमृतं हुहानाः ||१४||
''हमने ( प्राञ्ंच ) प्रकृष्टतमकी तरफ आरोहण करनेके लिये ( यज्ञं चकृम )यज्ञ किया है, हम-चाहते हैं कि (गी:) वाणी(वर्धता) वृद्धिको प्राप्त हो । उन्होंने [देवोंने] ('अग्नि'.) 'अग्नि'को, (समिद्धि:) उसकी ज्वालाओंकी प्रदीप्तिके साथ, (नमसा) आत्मसमर्पणके नमस्कारके साथ, (दुवस्यन्) उसके व्यापारोंमें प्रवृत्त किया है, उन्होंने (कनीनां) द्रष्टाओंके (विदथा) ज्ञानोंको (दिव:) द्यौ से (शशासु:) अभिव्यक्त किया है और वे उस [अग्नि] के लिये (गातुं) एक मार्गको (ईर्षु:) चाहते हैं, (तवसे) इसलिये कि उसकी शक्ति प्रकाशित हो सके, (गृत्साय चित्) इसलिये कि उसकी शब्दकी पानेकी इच्छा पूरी हो सके । (२ )
''(मेधिर:) मेधासे भरपूर (पूतदक्ष:) शुद्ध विवेकवाला (जनुषा) अपने जन्मसे (दिव:) द्यौका (पृथिव्या:) और पृथिवीका (सुबन्धु:) पूर्ण सखा या पूर्ण निर्माता .वह [अग्नि] (मय:) सुखको (दधे) स्थापित करता है, (देवास:) देवोंने (अप्सु अन्त:) 'जलों'के अंदर, (स्वसणाम् अपसि) बहिनों' की क्रियाके अंदर (दर्शतं) सुदृश्य रूपमें (अग्निम्) 'अग्नि'को (अविन्द्रन् उ) पा लिया। ( ३ )
"(सप्त) सात (यह्वी:) शक्तिशाली [नदियों] ने उसे [अग्निको] (अवर्धयन्) प्रवृद्ध किया, (सुभगं) उसे जो पूर्ण रूपसे सुखका उपभोग करता
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है (श्वेतं जज्ञानं) जो अपने जन्मसे सफेद है, (अरुषं महित्वा) बड़ा होकर अरुण हो जाव है । वे [नदियां] (अभ्यारु:) .उसके चारों ओर गयीं और उन्होंने उसके लिये प्रयत्न किया; (शिशु न जातम् अश्वा:). उन्होंने जो नवजात शिशुके पास घोड़ियोंके तुल्य थीं; (देवास:) देवोंने (अग्निं) अग्निको (जनिमन्) उसके जन्मकालमें (वपुष्यन्) शरीर दिया । (४)
'' (पवित्रै: कविभि:) पवित्र कवियों [ज्ञानाधिपतियों] की सहायतासे (ॠतुं) कर्मपरक संकल्पको (पुनान:) पवित्र करते हुए उसने [अग्नि ने] (शुक्रै:अङ्ग:) अपने साफ, चमकीले अंगोंसे .(रज:) मध्यलोकको (आततन्वान्) ताना और रचा; (अपाम् आयु: परि) जलोंके समस्त जीवनके चारों ओर (शोचि: वसान:) चोगेकी तरह प्रकाशको पहने हुए उसने अपने अंदर (श्रिय:) कान्तियोंको (मिमीते) रचा जो (वृहती:) विशाल तथा (अनूना:) न्यूनता- रहित थी । (५)
''अग्निने (दिव: यह्वी: ) द्युलोककी शक्तिशाली [नदियों] के इधर-उधर (सीं वव्राज) सर्वत्र गतिकी जो [नदियां] (अनदती:) निगलती नहीं, (अब्धा: ) न ही वे आक्रान्त होती हैं, [अवसना:] वे वस्त्र नहीं पहने हुई थीं, (अनग्ना:) न ही वे नंगी थीं । (अत्र) यहां (सना) उन शाश्वत (युवतय:) और सदा-युवती देवियोंने (सयोनी:) जो समान गर्भसे उत्पन्न हुई हैं, (सप्त वाणी:) जो सातं वाणी-रूप थीं (एक गर्भ दधिरे) एक शिशुको गर्भरूपसे धारण किया है । (६ )
"(अस्य) इसके (संहत:) पुंजीभूत समुदाय, (विश्वरूपा:) जो विश्वरूप थे, (धृतस्य योनौ) निर्मलताके गर्भमें, (मधुनां स्रवथे) मधुरताके प्रवाहमें (स्तीर्णा:) फैले पड़े थे, (अत्र) यहां (धेनव:) प्रीणयित्री नदियां (पिन्वमाना:) अपने-आपको पुष्ट करती हुई (अस्थु:) स्थित हुई और (दस्यस्य) कार्यको पूरा करनेवाले देव [अग्नि] की (मातरा) दो माताएँ (मही) विशाल तथा (समीची) समस्वर हो गयीं । (७ )
''(बचाण: ) उनसे धारण किया हुआ तू, (सहस: सूनो) ओ शक्तिके पुत्र ! (शुक्रा रभसा वपूंषि दधान:) चमकीले और हर्षोन्मादी शरीरोंको धारण किये हुए (व्यद्यौत्) विद्योतमान हुआ । (मधुन:) मधुरताकी (घृतस्य) निर्भलताकी (धारा:) धाराएँ (श्चोतन्ति) निकलकर प्रवाहित हो रही हैं, (यत्र) जहां (वृषा) समृद्धिका 'बैल' (काव्येन) ज्ञानके द्वारा (वावृधे) बढ़कर बड़ा हुआ है । (८)
(जनुषा) जन्म लेते ही उसने (पितु: चित्) पिताके .(ऊध:) समृद्धिके स्रोतको (विवेद) ढूंढ़ निकाला और उसने (अस्य) उस [पिता] की (धाराः)
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धाराओंको (वि असृजत्) खुला कर दिया, उस [पिता]की (धेना:) नदियों को (वि [असृजत्] खुला कर दिया । (शिवेभिः सखिभि:) अपने हितकारी सखाओंके द्वारा और (दिवः ह्वीभि:) .आकाशकी महान् [नदियों] फे द्वारा उसने (गुहा चरन्तं) सत्ताके रहस्यमय स्थानोंमें विचरते हुए उसे [पिताको] पा लिया (न गुहा बभूव) तो भी स्वयं वह उसकी रहस्यमयताके अंदर नहीं खो गया । (१ )
''उसने (पितु: च) पिताके और (जनितु: च) जनिता, उत्पन्न करनेवालेके (गर्भ) गर्भस्थ शिशुको (बभ्रे) धारण किया, (एक:) उस एकने (पूर्वी:) अपनी अनेक माताओंका (पीप्याना: ) जो वृद्धिको प्राप्त हो रही थीं, (अधयत्) दुग्धापान किया, सुखोपभोगप्राप्त किया । (अस्मै सूचये वृष्णे) इस पवित्र पुरुष,में ['पुरुष'के लिये] (मनुष्ये उभे) मनुष्यके अंदर रनेवाली ये जो दो शक्तियां (द्यौ और पृथिवी] (सपत्नी सबंधु) एकसमान पतिवाली, एकसमान प्रेमीवाली होती हैं, [उभे निपाहि] उन दोनोंकी तू रक्षा कर । (१०) .
''(अनिबाधे उरौ) निर्बाध विस्तीर्णतामें (महान्) महान् वह (ववर्ध) वृद्धिको प्राप्त हुआ (हि) निश्चयसे (पूर्वी: आप:) अनेक जलोंने (यशस:) यशस्विताके साथ (अग्निं) अग्निको (सं) सम्यक्तया प्रवृद्ध किया । (ऋतस्य योनौ) सत्यके स्रोतमें वह (अशयत्) स्थित हुआ, (दमूना:) वहां उसने अपना घर बना लिया, (अग्नि:) अग्निने (जामीनां स्वसृणाम् अपसि) अविभक्त हुई बहिनोंके व्यापारमें । (११ )
''(अक्र:) वस्तुओंमें गति करनेवाले और (बभ्रिः न) उन्हें थामनेवाले के रूपमें वह (महिनाम्) महान् (समिथे) संगममे(दिदृक्षेय:) दर्शनकी इच्छावाला, (सूनवे ) सोम-रसके अभिषोताके क्तिए (भाऋजीक:) अपनी दीप्तियोंमें ॠजु (य: जनिता) वह, जो किरणोंका पिता था,. उसने अब (उस्रिया ) उन किरणोंको (उत् जजान) उच्चतर जन्म वे दिया,--(अग्नि:) उस अग्निने (अपां गर्भ:) जो जलोंका शिशु था, (यह्व:) शक्तिशाली और (नृतम: ) सबसे अधिक बलवान् था । (१२ )
''(अपां) जलोंके और (ओषधीनां) ओषधियोंके, पृथ्वीके उद्धिदोंके (दर्शतं) सुदृश्य (गर्भ ) गर्भजातको (वना) आनंदकी देवीने अब (विरूपं जजान) अनेक रूपोंमें पैदा-कर दिया, (सुभगा) उसने जो नितान्त सुखवाली है । (देवास: चित्) देवता भी (मनसा) मनके द्वारा (सं जग्मु: हि) उसके चारों ओर एकत्रित हुए और (दुवस्यन्) उन्होंने उसे उसके कार्यमें लगाया (पनिष्ठं तवसं जातम्) जो प्रयत्न करनेके लिये बड़ा बलवान् और बड़ा शक्तिशाली होकर पैदा हुआ था । (१३)
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'' ( बृहन्त इत् भानव:) वे विशाल दीप्तियां (अग्निम्) अग्निके साथ ( सचन्त) संसक्त हो गयीं, जो अग्नि ( भाऋजीकं) अपने प्रकाशोंमें ॠजु था, वे (विद्युत: न शुक्राः ). चमकीली विद्युतोंके. समान थीं, ( अपारे ऊर्वे ) अपार विस्तारमें ( लेस्वे सदसि अन्त: ) अपने स्वकीय स्थानमें, अंदर ( गुहेव ) सत्ताके गुह्म स्थानोंमें, मानो गुहामें. (वृद्धं) बढ़ते हुए उस [अग्नि] से उन्होंने ( अमृतं दुहाना:) अमरताको दुहकर निकाला । ( १४ ) ''
इस संदर्भका कुछ भी अर्थ क्यों न हो,--और यह पूर्ण रूपसे स्पष्ट है कि इसका कोई रहस्यमय अभिप्राय है और यह केवल कर्मकाण्डी जंगलियों की याज्ञिक स्तुतिमात्र नहीं है,--सात नदियां, जल, सात बहिनें यहां पंजाबकी सात नदियां नहीं हो सकतीं । वे जल जिनमें देवोंने सुदृश्य अग्निको खोजकर पाया है, पार्थिव और भौतिक धाराएँ नहीं हो सकती; यह अग्नि जो ज्ञान द्वारा प्रवृद्ध होता है और सत्यके स्रोतमें अपना घर तथा विश्रामस्थान बनाता है, जिसकी आकाश और पृथ्वी दो स्त्रीयां तथा प्रेमिकाएँ हैं, जो दिव्य जलों द्वारा अपने निजी घर, निर्बाध विस्तीर्णताके अंदर प्रवृद्ध हुआ है और उस अपार असीमतामें निवास फरसा हुआ जो प्रकाशयुक्त देवोंको परम अमरता प्रदान करता है, भौतिक आगका देवता नहीं हो सकता । अन्य बहुतसे संदर्भोंकी भाँति ही इस संदर्भमें वेदके मुख्य प्रतिपाद्य विषयका रहस्यमय, आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक स्वरूप अपने-आपको प्रकट कर देता है, यह नहीं कि ऊपरी सतहके नीचे रहकर, यह नहीं कि निरे कर्मकाण्डके आवरणके पीछे छिपकर, किंतु खुले तौरपर, बलपूर्वक-बेशक एक प्रच्छन्न रूपमें, पर वह .प्रच्छन्नता ऐसी है जो पारदर्शक है, जिससे वेदका गुह्म सत्य यहां, विश्वामित्रके सूक्तकी नदियोंके समान, ''न आवृत, न ही नग्न'' दिखायी देता है ।
हम देखते हैं कि ये जल वे ही हैं जो वामदेवके सूक्त और वसिष्ठके सूक्तके हैं, 'घृत' और ' मुधु'से इनका निकट सम्बन्ध है,--"धृतस्व योनौ स्रवथे मधुनाम्, श्चोतन्ति धारा मधुनो धृतस्य'' ; थे सत्यकी ओर ले जाते हैं, वे स्वयं सत्यका स्रोत हैं, वे निर्बाध और अपार विस्तीर्णताके लोकमें तथा यहाँ पृथ्वीपर प्रवाहित होतें है । उन्हें अलंकाररूपमें प्रीणयित्री गौएँ ( घेनव:), घोड़ियाँ ( अश्वा: ) कहा गया है, उन्हें 'सप्त वाणी:', रचनाशक्ति रखनेवाली 'वाग्'-देवीके सात शब्द कहा गया है,--यह 'वाग्' देवी है 'अदिति'की, परम प्रकृतिकी, अभिव्यंजक शक्ति जिसका 'गाय' रूपसे वर्णन किया गया है, ठीक जैसे कि देव या पुरुषको वेदमें 'वृषभ' या 'वृष्ण' अर्थात् 'बैल' कहा गया है । इसलिये वे सम्पूर्ण सत्ताके सात तार है, एक सचेतन सद्धस्तुके व्यापारकी सात नदियाँ, धाराएँ या रूप हैं |
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हम देखेंगे कि उन विचारोंके प्रकाशमें जिन्हें हमने वेदके प्रारंभमें ही मघुच्छन्दसके सूक्तमें पाया है और उन प्रतीकात्मक व्याख्याओंके प्रकाशमें जो अब हमें स्पष्ट होने लगी है; यह संदर्भ जो इतना अधिक अलंकारमय, रहस्यमय, पहेली-सा प्रतीत होता है, बिल्कुल ही सरल और संगत लगने लगता है, जैसे कि वस्तुत: ही वेद के सभी संदर्भ जो पहिले लगभग अबुद्धिगम्यसे प्रतीत होते हैं तब सरल और संगत लगने लगते हैं जब उनका ठीक मूलसूत्र मिल जाता है । हमें बस केवल अग्निके आध्यात्मिक व्यापारभरको नियत करना है, उस अग्निके जो पुरोहित है, युद्ध करनेवाला है, कर्मकर्त्ता है, सत्यको पानेवाला है, मनुष्यके लिये आनन्दको अधिगत करानेवाला है; और अग्निका यह आध्यात्मिक व्यापार हमारे लिये ऋग्वेदके प्रथम सूक्तमें अग्निविषयक मधुच्छन्दसके वर्णन द्वारा पहले से. ही नियत है, --'' वह जो कर्मोंमें द्रष्टाका संकल्प है, जो सत्य है और नानाविध अन्त:प्रेरणाका महाधनी है ।''1 अग्नि है देव, सर्व-द्रष्टा, जो सचेतन शक्तिके रूपमें व्यक्त हुआ है अथवा, आधुनिक भाषामें कहें तो, जो 'दिव्य-संकल्प' या 'विश्व-संकल्प' है, जो पहले गुहामें छिपा होता है और शाश्वत लोकोंका निर्माण कर रहा होता है, फिर व्यक्त होता है, 'उत्पन्न' होता है और मनुष्यके अन्दर सत्य तथा अमरत्वका निर्माण करुता है ।
इसलिये विश्वामित्र इस सूक्तमें जो कहता है वह यह है कि देवता और मनुष्य आन्तरिक यज्ञकी अग्नियोंको जलाकर इस दिव्य. शक्ति. ( अनिदेव ) को प्रदीप्त कर लेते हैं, वे इसके प्रति अपने पूजन और आत्म-समर्पणके द्वारा इसे कार्य करने योग्य बना लेते हैं, वे आकाशमें अर्थात् विशुद्ध मनोवृत्तिमें, जिसका ' प्रतीक ' द्यौ, है, द्रष्टाओंके ज्ञानोंको, दूसरे शब्दोंमें जो मनसे अतीत है उस सत्य-चेतनाके प्रकाशोंको अभिव्यक्त करते है और ऐसा वे इसलिए करते हैं कि वे इस दिव्य शक्तिके लिये मार्ग. बना सकें, जो अपने पूरे बलके साथ, सच्ची आत्माभिव्यक्तिके शब्दको निरन्तर पाना चाहती हुई, मनसे परे पहुंचनेकी अभीप्सा रखती है । यह दिव्य संकल्प अपनी सब क्रियाओंमें दिव्य ज्ञानके रहस्तको रखता हुआ, 'कविक्रतु:', मनुष्यके अन्दर मानसिक एवं भौतिक चेतनाका, ' दिव: पूथिव्या :, .मित्रवत् सहायक होता है या उसका निर्माण करता है, बुद्धिको पूर्ण करता है, विवेकको शुद्धं करता है, जिससे वे विकसित होकर "द्रष्टाओंके ज्ञानों" को ग्रहण करने योग्य हो जाते है और उस अतिचेतन सत्यके द्वारा जो इस प्रकार हमारे. लिये
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।. कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: ।
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चेतनागम्य कर दिया जाता है, वह दृढ़ रूपसे हममें आनन्दफो स्थापित कर देता है, ( ऋचा २, ३ ) ।
इस संदर्भके अवशिष्ट भागमें इस दिव्य सचेतन-शक्ति, 'अग्नि', के मर्त्य और भौतिक चेतनासे उठकर सत्य तथा आनन्दकी अमरताकी ओर आरोहण करनेका वर्णन है, जो अग्नि मर्त्योमें अमर है, जो यज्ञमें मनुष्यके सामान्य संकल्प और ज्ञानका स्थान लेता है । वेदके ॠषि मनुष्यके लिये पांच जन्मों-का वर्णन करते हैं, प्राणियोंके पांच लोकोंका जहां कर्म किये जाते है, '' पञ्च-जना: पञ्चक्षिती: या पञ्चक्षिती: ।'' द्यौ और पृथ्वी विशुद्ध मानसिक और भौतिक चेतनाके द्योतक हैं, उनके बीचमें है अन्तरिक्ष, प्राणमय या वातमय चेतनाका मध्यवर्ती या संयोजक लोक । द्यौ और पृथिवी हैं 'रोदसी', हमारे दो लोक;. पर इनको हमें पार कर जाना है, क्योंकि सभी हम उस अन्य लोकमें प्रवेश पा सकते हैं जो विशुद्ध मनके द्युलोकसे अतिरिक्त एक और ऊपरका द्युलोक है--वृहत्, विशाल द्यौ है जो असीम चेतना, 'अदिति', का आधार बुनियाद ( बुध्न ) है । यह द्यौ है वह सत्य जो सर्वोच्च त्रिविघ लोकको, ' अग्नि'के, 'विष्णु' के उन उच्चतम पदों या स्थानों ( पदानि, सदांसि ) को माताके, गौके, 'अदिति'के उन परम 'नामों'को थामता है । यह वृहत् या सत्य 'अग्नि'का निजी या वास्तविक स्थान अथवा घर कहा गया है, 'स्वं दमम्, स्वं सद:' । ' अग्नि'को इस सूक्तमें पृथिवीसे
अपने स्व-कीय स्थानकी ओर आरोहण करता हुआ वर्णित किया गया है ।
इस दिव्य शक्तिको देवोंने जलोंमें, बहिनोंकी क्रियामें सुदृश्य हुआ पाया है । ये जल सत्यके सप्तविघ जल हैं, दिव्य जल हैं, जो हमारी सत्ताके उच्च शिखरोंसे इन्द्र द्वारा नीचे लाये गये हैं । यह दिव्य शक्ति पार्थिव उद्धिदों, 'ओषघी:' के अन्दर, उन वस्तुओंके अन्दर जो पृथ्वीकी गर्मी ( ओष ) को धारे रखती हैं, छिपी होती है और एक प्रकारकी शक्तिके द्वारा, दो 'अरणियों'--पूथिवी और आकाश-के घर्षण द्वारा इसे प्रकट करना होता है । इसलिये इसे पार्थिव उद्धिदों ( ओषधियों ) का पुत्र और पृथिवी तथा द्यौ:का पुत्र कहा गया है; इस अमर शक्ति को मनुष्य बड़े परिश्रम और बड़ी कठिनाईसे भौतिक सत्ता पर पवित्र मनकी क्रियाओंसे पैदा करता है । परन्तु दिव्य जलोंके अन्दर 'अग्नि' सुदृश्य रूपमें पाया गया है ( ॠचा ३का उत्तरार्ध) और अपने सारे बलसहित तथा अपने सारे ज्ञानसहित और अपने सारे सुखोप-भोगसहित आसानीसे पैदा हो गया है, वह पूर्णतया सफेद और शुद्ध है, अपनी क्रियासे वह अरुण हो जाता है जब कि वह प्रवृद्ध होता है । उसके जन्मसे ही देवता उसे शक्ति, तेज और शरीर दे देते हैं; सात शक्तिशाली
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नदियां उसके सुखमें उसे प्रवृद्ध करती है; वे इस महिमाशाली नवजात शिशुके चारों ओर गीत करती हैं और उसपर घोड़ियों, 'अश्वा:' के रूपमें प्रयत्न करती हैं ( ॠचा ४ ) ।
नदियाँ जिनको बहुधा 'घेनव:' अर्थात् 'प्रीणयित्री गौएं' यह नाम दिया गया है, यहाँ 'अश्वा:' अर्थात् 'घोड़िया' इस नामसे वर्णित हुई हैं, क्योंकि जहाँ 'गौ' ज्ञानरूपिणी चेतनाका एक प्रतीक है, वहाँ 'अश्व', घोड़ा, प्रतीक है शक्तिरूपिणी चेतना का । 'अश्व', घोड़ा, जीवनकी क्रियाशील शक्ति है, और नदियां जो पृथिवी पर अग्निके चारों ओर प्रयत्न करती हैं, जोवनके जल बन जाती हैं, उस जीवनके, प्राणमय क्रिया या गतिके, उस 'प्राण'के जो गति करता है और क्रिया करता है और इच्छा करता है तथा भोगता है । अग्नि स्वयं प्रारंभमें भौतिक ताप या शक्ति-रूप होता है, फिर अपने-आपको घोड़ेके रूपमें प्रकट करता है और तभी वह फिर द्यौ:की अग्नि बन पाता है । उसका पहला कार्य यह है कि जलोंके शिशुके रूपमें वह मध्यलोक-को, प्राणमय या क्रियाशील लोकको उसका पूर्ण रूप और विस्तार और पवित्रता प्रदान करे, रज आततन्वान्, अपने विशुद्ध, चमकीले अंगोंसे मनुष्य-के अन्दर व्याप्त होता हुआ, इसकी अन्त:-प्रवृत्तियोंको और इच्छाओंको, कर्मोंमें इसके पवित्र हुए संकल्पको ( ॠतम् ), अतिचेतन सत्य और ज्ञानकी पवित्र शक्तियोंके द्वारा, 'कविभि: पवित्रै:', ऊपर उठाता हुआ वह मनुष्यके बातमय जीवनको पवित्र करता है । इस प्रकार वह जलोंके समस्त जीवनके चारों ओर अपनी विशाल कांतियोंको ओढ़ता है, धारण करता है, जो कांतियां अब 'बृहती:' विशाल हो गयी हैं, वासनाओं और अन्ध-प्रेरणाओंकी जीर्ण-शीर्ण तथा सीमित गतिमात्र नहीं रही हैं । ( ॠचा ४, ५)
सप्तविध जल इस प्रकार ऊपर उठते हैं और विशद्ध मानसिक क्रियाएं, द्युलोककी शक्तिशाली नदियाँ ( दिव: यहृी: ) बन जाते हैं । वे नदियाँ वहाँ अपने-आपको प्रथम, शाश्वत, सदा-युवती शक्तियोके रूपमें, दिव्य मन-की सात वाणियों या आधारभूत रचनाशील ध्वनियों, 'सप्त वाणी:'के रूपमें प्रकट करती हैं, जो यद्यपि भिन्न धाराएं हैं, पर उनका उद्गम एक ही है- क्योंकि वे सब एक ही पराचेतन सत्यके गर्भमेंसे निकली हैं । विशुद्ध मनका यह जीवन वातमय जीवनके सदृश नहीं है, जो अपनी मर्त्य सत्ताको स्थिर रखनेके लिये अपने उद्देश्योंको निगलता रहता है; इसके जल निगलते नहीं, पर वे विनष्ट, विफल भी नहीं होते । वे हैं शाश्वत सत्य जो मानसिक रूपके एक पारदर्शक आवरणमें ढके हुए हैं; इसलिये यह कहा गया है, न वे वस्त्र पहने हुए है न नग्न है (ॠचा ६) ।
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पर यह अंतिम अवस्था नहीं है । 'यह शक्ति उठकर इस मानसिक निर्मलताके (धृतस्य ) गर्भ या जन्मस्थानके अन्दर चली जाती है जहां जल दिव्य मधुरताकी धाराओंके रूपमें प्रवाहित होते है (स्रवथे मधूनाम् ); वहां जिन रूपोंको यह धारण करती है वे विश्वरूप हैं, विशाल और असीम चेतनाके पूंजीभूत समुदाय हैं । परिणामत: निम्नतर लोककी जो प्रीणयित्री नदियां हैं वे इस अवरोहण करती हुई उच्चतर मधुरताके द्वारा पुष्ट हो जाती है, और मानसिक तथा भौतिक चेतनाएं, जो सर्वसाधक संकल्पकी दो प्रथम माताएं हैं, सत्यके इस प्रकाश द्वारा, असीम सुखसे आनेवाले इस पोषणके द्वारा अपनी समग्र विशालताके साथ पूर्ण रूपसे सम तथा सभ्स्वर हो जाती हैं । वे ' अग्नि'की पूर्ण .शक्तिको, उसकी विद्युतोंकी चमकको, उसके व्यापक रूपों, विश्वरूपोंकी महिमा और हर्षोन्मादको धारण करती हैं । क्योंकि जहाँ स्वामी, 'पुरुष', 'समृद्धिका बैल', अतिचेतन सत्यके ज्ञान द्वारा वृद्धिको प्राप्त होता है, वहाँ सदा ही निर्मलताकी धाराएं और सुखकी धाराएं बहा करती हैं । (ऋचा ७, ८ )
सब वस्तुओंका 'पिता' है स्वामी और पुरुष; वह वस्तुओंके गुह्म स्रोतके अन्दर, अतिचेतनके अन्दर छिपा हुआ है; 'अग्नि' अपने साथी देवोंके साथ और सप्तविध 'जलों'के साथ अतिचेतनके अन्दर प्रवेश करता है, पर इसके कारण हमारी सचेतन सत्तासे बिना अदृश्य हुए ही वह वस्तुओंके 'पिता'के मधुमय ऐश्वर्यके स्रोतको पा लेता है और उसे पाकर हमारे जीवन पर प्रवा-हित कर देता है । वह गर्भ धारण करता है और वह स्वयं ही पुत्र--पवित्र 'कुमार', पवित्र पुरुष, वह एक, अपने विश्वमय रूपमें आविर्भूत मनुष्य-का अन्त:स्थ आत्मा-बन जाता है; मनुष्यके अन्दर रहनेवाली मानसिक और भौतिक चेतनाएं उसे अपने स्वामी और प्रेमीके रूपमें स्वीकार करती है; परंतु यद्यपि वह एक है, तो भी वह नदियोंकी,. बहुरूप विराट् शक्तियों-की अनेकविध गतिका आनंद लेता है । ( ॠचा ९, १० )
उसके बाद हमें स्पष्ट रुपसे यह कहा गया है कि यह असीम जिसके अन्दर वह प्रविष्ट हुआ है और जिसके अन्दर वह वढ़ता है, जिसमें अनेक 'जल' विजयशालिनी यशस्विताके साथ अपने लक्ष्य पर पहुंचते हुए (यशस: ) उसे प्रवृद्ध करते हैं, वह निर्बाध विशालता है जहां 'सत्य' पैदा हुआ है, जो अपार नि:सीमता है, उसका निजी स्वाभाविक स्थान है जिसमें अब वह अपना घर बनाता है । वहां 'सात नदियां', 'बहिनें', एक उद्गमवाली होती हुई भी अब पृथक्-पृथक् होकर कार्य नहीं करती जैसा कि वे पूथिवी पर और मर्त्य जीवनमें करती हैं, बल्कि इसके विपरीत वे वहाँ अविच्छेद्य
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सहेलियोंके रूपमें कार्य करती हैं (जामीनामू अपसि स्वसणाम् ) । इन शक्ति-शाली नदियोंके उस पूर्ण संगम पर 'अग्नि' सब वस्तुओंमें गति करता है और सब वस्तुओंको थामता है; उसके दर्शन (दृष्टि ) को किरणें पूर्णतया ऋजु, सरल होती हैं अब वे निन्ततर कुटिलतासे प्रभावित नहीं होतीं; वह जिस-मेंसे ज्ञानकी किरणें, जगमगाती हुई गौएं, पैदा हुई थीं, अब उन्हें (किरणों या गौओंको ) यह नया उच्च और सर्वश्रेष्ठ जन्म दे देता है; अर्थात् वह उन्हें दिव्य ज्ञानमें, अमर चेतनामें परिणत कर देता है । (ऋचा ११, १२ )
यह भी उसका अपना ही नवीन और अंतिम जन्म है । वह जो पृथिवी-के उद्धिदोंसे शक्तिके पुत्रके रूपमें पैदा हुआ था, वह जो जलोंके शिशुके रूपमें पैदा हुआ था अब अपार, असीममें, 'सुखकी देवी'के द्वारा, उसके द्वारा जो समग्र रूपसे सुख ही सुख है अर्थात् दिव्य सचेतन आनन्दके द्वारा, अनेक स्थोंमें जन्म लेता है । देवता या मनुष्यके अन्दरकी दिव्य शक्तियाँ मनका एक उपकरणके तौर पर प्रयोग करके वहाँ उसके पास पहुंचती हैं | वे, उसके चारों ओर एकत्र हो जाती हैं, तथा इस. नवीन, शक्तिशाली और सफलतादायक जन्ममें उसको जगत्के महान् कार्यमें लगाती हैं ।. वे, उस विशाल चेतनाकी दीप्तियां, इस दिव्य शक्तिके साथ. संसक्त होती हैं तथा इसकी चमकीली विजलियोंके समान लगती हैं और उसमेंसे जो .अतिचेतनमें, अपार विशालतामें, अपने निजी घरमें रहता है, वे. मनुष्यके लिये अमरताको दुहती हैं, ले आती हैं । ( १३, १४ )
तो यह है अलंकारोंके पदके पीछे छिपा हुआ गंभीर, संगत, प्रफाशमय अर्थ जो सात नदियोंके, जlलोंके, पांच लोकोंके, 'अग्नि'के जन्म तथा आरोहण के वैदिक प्रतीकका वास्तविक आशय है, जिसे इस रूपमें भी प्रकट किया गया है कि यह मनुष्यकी तथा देवताओंकी-जिनकी प्रतिकृति मनुष्य अपने अन्दर बनाता है--ऊर्ध्यमुख यात्रा है जिसमें वह सत्ताकी विशाल पहाड़ीके सानुसे सानु तक (सानो: सानुम् ) पहुंचता है । एक बार यदि हम इस अर्थको प्रयुक्त कर लें और 'गौ'के प्रतीक तथा 'सोम'के प्रतीकके वास्तविक अभिप्रायको हृदयंगम कर लें और .देवताओंके आध्यात्मिक व्यापारोंके विषय-में ठीक-ठीक विचार बना लें, तो इन प्राचीन वेदमंत्रोंमें जो ऊपरसे दीखने-वाली असंगतियां,. अस्पष्टताएं तथा क्लिष्ट क्रमहीन अस्तव्यस्तता प्रतीत होती हैं वे सब क्षण भरमें लुप्त हो. जाती हैं । वहां स्पष्ट रूपमें, बड़ी आसानीके साथ, बिना खींचातानीके प्राचीन रहस्यवादियोंका गंभीर और उज्जवल सिद्धान्त, वेदका रहस्य, अपने स्वरूपको खोल देता है ।
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बारहवां अध्याय
उषाकी गौएं
वेदकी सात नदियोंको, जलोंको, 'आप:'को वेदकी आलंकारिक भाषामें अधिकतर सात माताएँ या सात पोषक गौएं, 'सप्त धेनव: ', कहकर प्रकट किया गया है ।. स्वयं 'आप:' शब्दमें ही दो अर्थ. गूढ़ रूपसे रहते हैं; क्योंकि 'अप्' धातुके मूलमें केवल बहना अर्थ ही नहीं है जिससे, बहुत सम्भवत:, जलोंका भाव लिया गया है किंतु इसका एक .और अर्थ 'जन्म होना, 'जन्म देना' भी है, जैसा कि हम सन्तानवाचक 'अपत्य' शब्दमें और दक्षिण भारतके पिता अर्थमें प्रयुक्त होनेवाले 'अप्पा' शब्दमें पाते हैं । सात जल सत्ताके जल हैं; ये वे माताएँ हैं जिनसे सत्ताके सब रूप पैदा होते हैं । परन्तु और प्रयोग भी हमें मिलते हैं-'सप्त गाव:', सात गौएं या सात ज्योतियां और 'सप्तगु' यह विशेषण. अर्थात् वह जिसमें सात किरणें रहती हैं । गु ( ग्व: ) और गौ (गाव: ) ये दोनों आदिसे अन्त तक सारे वैदिक मन्त्रोंमें दो अथोंमें आये हैं, गाय और किरणें । प्राचीन भारतीय विचार-धाराके अनुसार सत्ता और चेतना दोनों एक दूसरेके रूप थे । और अदितिको, जो वह अनन्त सत्ता है जिससे देवता उत्पन्न हुए हैं और जो अपने सात नामों और स्थानों ( धामानि ) के साथ माताके रूपमें वर्णितकी गयी है,--यह भी माना गया है कि वह अनन्त चेतना है, गौ है या वहू आद्या ज्योति है जो सात किरणों, 'सप्त गाव: ', में व्यक्त होती है । इसलिये सत्ताके सप्तरूप होनेके विचारको एक दृष्टिकोणसे तो समुद्रसे निकलनेवाली नदियों, 'सप्त धेनव: ' ,के अलंकारमें चित्रित कर दिया गया है और दूसरी दृष्टिके अनुसार इसे सबको रचनेवाले पिता, सूर्य सविताकी सात किरणों, 'सप्त गाव:', के अलंकारका रूप दे दिया गया है ।
गौका अलंकार वेदमें आनेवाले सब प्रतीकोंमें सबसे अधिक महत्त्वका है । कर्मकाण्डीके लिये 'गौ'का अर्थ भौतिक गायमात्र है, इससे अधिक कुछ नहीं; वैसे ही जैसे उसके लिये इसके साथ आनेवाले 'अश्व' शब्दका अर्थ केवल भौतिक घोड़ा ही है, इससे अधिक इसमें कुछ अभिप्राय नहीं है, अथवा जैसे 'धृत'का अर्थ केवल पानी या घी हैं और 'वीर'का अर्थ केवल पुत्र या अनुचर या सेवक है | जब ॠषि उषाकि स्तुति करता है--"गोमद् वीरवाद् धेहि
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रत्नम् उषो अश्वावत्'' उस समय कर्भकाण्डपरक व्याख्याकारको इस प्रार्थना-में केवल उस सुखमय धन-दौलतकी ही याचना दीखती है जो .गौओं, वीर मनुष्यों ( या पुत्रों ) और घोड़ोंसे युक्त हो । दूसरी तरफ यदि ये शब्द प्रतीकरूप हों, तो इसका अभिप्राय होगा--'' हमारे अन्दर आनन्दकी उस अवस्थाको स्थिर करो जो ज्योतिसे, विजयशील शक्तिसे और प्राणबलसे भरपूर हो ।'' इसलिये यह आवश्यक है कि एक बार सभी स्थलोंके लिये वेद-मन्त्रोंमें आनेवाले द्यौ शब्दका अर्थ क्या है, इसका निर्णय कर लिया जाय । यदि यह सिद्ध हो जाय कि यह प्रतीकरूप है, तो निरन्तर इसके साथ आनेवाले अश्व ( घोड़ा ), वीर (मनुष्य या शूरवीर ), अपत्य या प्रजा ( औलाद ), हिरण्य ( सोना ), वाज ( समृद्धि, या सायणके अनुसार, अन्न ) ,-इन दूसरे शब्दोंका अर्थ भी अवश्य प्रतीकरूप और इसका सजातीय ही होगा ।
'गौ' का अलंकार वेदमें निरन्तर उषा और सूर्यके साथ संबद्ध मिलता है । इसे हम उस कथानकमें भी पाते हैं जिसमें इन्द्र और बृहस्पसिने सरमा कुतिया ( देवशुनी ) और अंगिरस् ऋषियोंकी मददसे पणियोंकी गुफामेंसे खोयी हुई गौओंको फिरसे प्राप्त किया है । उषाका विचार और अङिगरसों का कथानक ये मानो वैदिक संप्रदायके ह्रदयस्थानीय है और इन्हें करीब-करीब वेदके अर्थोके रहस्यकी कुंजी समझा जा सकता है । इसलिये इन दोनों की हमें अवश्य परीक्षा कर लेनी चाहिये, जिससे आगे अपने अनुसंघानके लिये हमें एक दृढ़ आधार मिल सके ।
अब वेदके उषासंबंधी सूक्तोंको .बिलकुल ऊपर-ऊपरसे जांचने पर भी इतना बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि उषाकी गौएं या सूर्यकी गौएं 'ज्योति''-का प्रतीक हैं, इसके सिवाय वे और कुछ नहीं हो सकतीं । सायप्रा खुद इन मंत्रोंका भाष्य करते हुए विवश होकर कहीं इस शब्दका अर्थ ' गाय' करता है और कहीं 'किरणें', हमेशाकी अपनी आदतके अनुसार परस्पर संगति बैठानेकी भी कुछ पर्वाह नहीं रखता; कहीं वह यह भी कह जाता है कि 'गौ' का अर्थ सत्यवाची ' ॠत' शब्दकी तरह पानी होता है ।. असलमें देखा जाय तो यह स्पष्ट है कि इस शब्दसे दो अर्थ लिये जाने अभिप्रेत हैं-- ( १ ) ' प्रकाश' इसकी असली अर्थ है और ( २ ) ' गाय' इसका स्थूल रूपक- रूप और शाब्दिक-अलंकारमय अर्थ है ।
ऐसे स्थलोंमें जैस कि इन्द्रके विषयमें मयुच्छुन्दस् ऋषिके सूक्त ( १.७ ) का तीसरा मंत्र है जिसमें यह कहा गया है-' इन्द्रने दीर्ध दुर्शननके लिये सूर्यको द्युलोकमें चढ़ाया, उसने उसे उसकी गौओं (किरणों) के
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द्वारा सारे पहाड़ पर पहुंचा दिया--बि गोभि: अद्रिम् ऐरवरंयत्,1 गौओंका अर्थ 'किरणें' है इसमें कोई मतभेद नहीं हो सकता ।' परन्तु इसके साथ ही सूर्यकी किरणें 'सूर्य' देवताकी गौएं. है, हीलियस ( Helios) की वे गौएं हैं जिनका ओडिसी (Odyssey) में ओडिसस (Odysseus) के साथियोंने वध किया है, जिन्हें हर्भिज. ( Hermes) के लिये कहे गये होमरके गीतोंमें हर्मिजमे अपने भाई अपोलो (Apollo) के पाससे चुराया है । ये वे गौएं हैं जिन्हें ' वल'नामक शत्रुने या पणियोंने छिपा लिया था । जव मधुच्छन्दस् इन्द्रको कहत!है--'तूने वलकी उस गुफाको खोल दिया; जिसमें गौएं बंद पड़ी थीं' --तब उसका यही अभिप्राय होता है कि वल गौओंको कैद करनेवाला है, प्रकाशको रोकनेवाला है और उस रोके हुए प्रकाशको इन्द्र यज्ञ करनेवालोंके लये फिरसे ला देता है । खोयी हुई या चुरायी हुई गौओंको फिरसे पा लेनेका वर्णन वेदके मंत्रोंमें लगातार आया है और इसका अभिप्राय पर्याप्त स्पष्ट हो जायगा जब कि हम पणियों और अंगिरसोंके कथानककी परीक्षा करना शुरू करेंगे ।
एक बार यदि वह अभिप्राय, यह अर्थ सिद्ध हो जाता है, स्थापित हो जाता ह तो 'गौओं'के लिये की गयी वैदिक प्रार्थनाओंकी जो भौतिक. व्याख्याकी जाती है वह एकदम हिल जाती है । क्योंकि खोयी हुई गौएं जिन्हें फिरसे पा लेनेके लिये ऋषि इन्द्रका आह्यान करते हैं, से यदि द्राविड़ लोगों द्वारा चुरायी गयी भौतिक गौएं नहीं हैं किन्तु सूर्यकी या ज्योतिकी चमकती हुई गौएं हैं, तो हमारा यह विचार बनाना न्यायसंगत ठहरता है कि जहाँ केवल गौओंके लिये ही प्रार्थना है और साथमें कोई विरोधी निर्देश नहीं है वहां भी यह अलंकार लगता है, वहां भी गौ भौतिक गाय नहीं है । उदाहरणके लिये ॠ. १ .४. १, २2 में इन्द्रके विषयमें कहा गया है कि वह पूर्ण रूपोंको बनानेवाला है और दोहनेवालेके लिये भरपूर दूध देनेवाली गौके समान है, कि उसका सोम-रससे चढ़नेवाला मद सचमुच गौओंको देनेवाला है, 'गोदा इद् रेवतो 'मद :' । यदि इस कथनका यह अर्थ समझा जाय की
1 .इसका अनुवाद हम यह भी कर सकते हैं कि '' उसने अपने वज्र (अद्रि) को उससे निकलती हुई दिप्तियों के साथ "चारों और भेजा" पर यह अर्थ| उतना अच्छा और संड़त नहीं लगता | किन्तु यदि हम इसे ही मानें, तो भी 'गोमिः'का अर्थ 'किरणें' ही होता है, गाय पशु नहीं |
2. सुरूपकृत्नुमुतये सुदुधामिव गोदुहे | जुहूमसि प्रविधवि ||
उप नः सवना गहि सोमस्य सोमयाः पिब | गोदा इद्रेवतो मद: || १.४.१, २
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इन्द्र कोई बड़ा समृद्धिशाली देवता है और जब वह पिये होता है उस समय गौओंके दान करनेमें बड़ा उदार हो जाता है, तो निरर्थकता और असंगतता-की हद ही हो जायगी । यह स्पष्ट है कि जैसे पहली ॠचामें गौओंका दोहना एक अलंकार है, वैसे ही दूसरीमें गौओंका देना भी अलंकार ही है । और यदि हम वेदके दूसरे संदर्भोंसे यह जान लें कि 'गौ' प्रकाशका प्रतीक है तो यहाँ भी हमें अवश्य यही समझना चाहिये कि इन्द्र जब सोम-जनित आनंदमें भरा होता है तब वह निश्चित ही हमें ज्योतिरूप गौएं देता है ।
उषाके सूक्तोंमें भी गौएं ज्योतिका प्रतीक हैं यह भाव वैसा ही स्पष्ट है । उषाको सब जगह 'गोमती' कहा गया है, जिसका स्पष्ट ही अवश्य यही अभिप्राय होना चाहिये कि वह ज्योतिर्मय या किरणोंवाली है क्योंकि यह तो बिलकुल मूर्खतापूर्ण होगा कि उषाके साथ एक नियत विशेषणके तौर पर 'गौओंसे पूर्ण' यह विशेषण शाब्दिक अर्थमें ही प्रयुक्त किया जाय । पर वहां विशेषणमें गौओंका रूप प्रतीकात्मक है, क्योंकि उषा केवल 'गोमती' ही नहीं है वह 'गोमती अश्वावती' है, वह हमेशा अपने साथ अपनी गौएं और अपने घोड़े रखती है । 'वह सारे संसारके लिये ज्योतिको रचती है और अंधकारको 'गी'के बाड़ेकी न्याईं खोल देती है ।' 1.9241 । यहां हम देखते है कि बिना किसी भूलचूककी संभावनाके गौ ज्योतिका प्रतीक ही है । हम इसपर भी ध्यान दे सकते हैं कि इस सूक्त ( मंत्र १६ ) में अश्विनोंको कहा गया है कि वे अपने रथको उस पथ पर हांककर नीचे ले जायें जो ज्योतिर्मय और सुनहरा है2-- 'गोमद् हिरण्यवद्' । इसके अति-रिक्त उषाके संबंधमें कहा गया है. कि उसके रथको अरुण गौएं खींचती हैं और कहीं यह भी कहा गया है कि अरुण घोड़े खींचते हैं । 'वह वरुण गौओंके समूहको अपने रथमें जोतती है--युङ्ग्क्ते गवामरुणानामनीकम्', 1.24.11 । यहां 'अरुण किरणोंके समूहको' यह दूसरा अर्थ भी स्थूल अलंकारके पीछे स्पष्ट ही रखा हुआ है । उषाका वर्णन इस रूपमें हुआ है कि वह गौओं या किरणोंकी माता है, 'गवां जनित्री अकृत प्र केतुम्, ।.124.5--गौओं ( किरणों ) की माता ने अन्तर्दर्शन ( Vision) को रचा है ।' और दूसरे स्थान पर उसके कार्यके विषयमें कहा गया है 'अब अन्तर्दर्शन या बोध उदित हो गया है, जहां पहले कुछ नहीं ( असत्) था ।''3 इससे
1. ज्योतिर्विश्वस्मै भवनाय कृष्णती गावो न व्रजं व्युषा आवर्तम: । १.९२.४
2. अश्विना वर्तिरस्मदा गोमद् दस्त्रा हिरण्यवत् ।
अर्वाप्रथं समनसा नि यच्छतम् | (१.९२.१६)
3. वि नूनमुच्छाद् असति प्र केतुः | (१.१२४.११ )
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पुन: यह स्पष्ट है कि 'गौएं' प्रकाशकी ही चमकती हुई किरणें हैं । उषाकि इस रूपमें भी स्तुतिकी गयी है कि वह 'चमकती हुई गौओंका नेतृत्व करने-वाली है (नेत्री गवाम्, ७.७.६.६)', और एक दूसरी ॠचा इसपर पूरा ही प्रकाश डाल देती है जिसमें ये दोनों ही विचार इकट्ठे आ गये हैं, "गौओं की माता, दिनों की नेत्री" (गवां माता मेत्री अह्नाम्, ७-७७-२ ) । अन्तमें मानों इस अलंकार परसे आवरणको कतई हटा देनेके लिये ही वेद स्वयं हमें कहता है कि गौएं प्रकाशकी किरणोंके लिये एक अलंकार हैं. ''उसकी सुखमय किरणें दिखाई दीं, जैसे छोड़ी हुई गौएं''--प्रति भद्रा अदृक्षत.गवां सर्गा न रश्मय:, 4.52.5 । और हमारें सामने इससे भी अधिक निर्णयात्मक एक दूसरी ॠचा (7.79.2) है--''तेरी गौएं (किरणें) अन्धकारको हटा देती हैं और ज्योतिको फैलाती हैं'', सं ते गावस्तम आवर्त्त्ययन्ति ज्योति-र्यच्छन्ति ।1
लेकिन उषा इन प्रकाशमय गौओं द्धारा केवल खींची हीं नहीं जाती, वह इन गौओंको यज्ञ करनेवालोंके लिये उपहाररूपमें देती भी है । वह जब इन्द्रकी ही भांति सोमके आनन्दमें होती है, तो ज्योतिको देती है । वसिष्ठ-के एक सूक्त (७.७५ )में उसका वर्णन इस रूपमें है कि वह देवोंके. कार्यमें हिस्सा लेती है और उससे वे दृढ़ स्थान जहां गौएं बन्द पड़ी हैं, टूटकर खुल जाते हैं और गौएं मनुष्योंको दे दी जाती हैं । ''वह2 सच्चे देवोंके साथ सच्ची है, महान् देवोंके साथ महान् है, वह दृढ़ स्थानोंको तोड़कर खोलती है और प्रकाशमय गौओंको दे देती है, गौएं उषाके प्रति रँभाती हैं''--रुजद् दृळहानि ददद् उस्त्रियाणाम्, प्रति गाय उषसं वावशन्त, 7.75.7 । और ठीक अगली ही ॠचामें उससे प्रार्थनाकी गयी है कि वह यज्ञ-कर्त्ताके लिये आनन्दकी उस अवस्थाको स्थिर करे या धारण करावे, जो प्रकाशसे (गौओं)से, अश्वोंसे (प्राणशक्तिसे) और बहुत-से सुख-भोगोंसे परिपूर्ण हो--'गोमद् रत्नम् अश्वावत् पुरुभोज:'' । इसलिये जिन गौओंको
1. निस्सन्देह इसमें तो मतभेद हो ही नहीं सकता कि वेदमें गौका अर्थ प्रकाश है; उदाहरणके लिये जब यह कहा जाता है कि 'गवा', 'गौ'से, प्रकाशसे, वृत्रको भाग गया तो वहां गाय पशुका तो कोर्द प्रश्न ही नहीं है । यदि प्रश्न है तो यह कि 'गौ'का प्रयोग द्रयर्थक है या नहीं और गौ प्रतीकरूप है कि नहीं ।
2. सत्या सत्येमिर्महती महाद्धिर्देवी देवेभिर्यजता यजत्रैः ।
रजद् वृळहानि ददढ़ुस्रियाणां प्रति गाव उषसं वावशन्त ।। (७.७५.७)
नू नो गोमद् विरबद् धेहि रत्नमुषो अश्वावत् पुरुभोजो अस्मे | (७.७५.८)
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उषा देती है वे गौएं ज्योतिकी ही चमकती. हुई सेनाएं है, जिन्हें देवता और अंगिरस् ॠषि वल और पणियोंके दृढ़ स्थानोंसे उद्धार करके लाये हैं । साथ ही गौओं ( और अश्वों ) की सम्पत्ति जिसके लिये ऋषि लगातार प्रार्थना करते हैं उसी ज्योतिकी सम्पत्तिके अतिरिक्त. और कुछ नहीं हो सकती; क्योंकि यह कल्पना असंभव-सी है कि जिन गौओंको 'देनेके लिये इस सूक्त की सातवीं ॠचामें उषाको कहा गया है वे उन गौओंसे भिन्न हों जो ८वीं में मांगी गयी हैं, कि पहले मन्त्रमें 'गौ' शब्दका अर्थ है 'प्रकाश' और अगलेमें 'गाय', और यह कि ऋषि मुखसे निकालते ही उसी क्षण यह भूल गया कि किस अर्थमें वह शब्द का प्रयोग कर रहा था ।
कहीं-कहीं ऐसा है कि प्रार्थना ज्योतिर्मय आनन्द या ज्योतिर्मय समृद्धिके लिये नहीं है, वल्कि प्रकाशमय प्रेरणा या बलके लिये है, 'हे द्युकी पुत्री उषा : ! तू हमारे अन्दर सूर्यकी रश्मियोंके साथ प्रकाशमय प्रेरणाको ला'--'गोमतीरिष आवह दुहितर्दिव:, साकं सूर्यस्य रश्मिभि :', 5.79.8 | सायणने गोभती: इषः'का अर्थ किया है 'चमकता हुआ अन्न1 । परन्तु यह स्पष्ट ही एक निरर्थक-सी बात लगती है कि उषासे कहा जाय कि वह सूर्यकी किरणोंके साथ, किरणोंसे ( गौओंसे ) युक्त अन्नोंको लाये । यदि ' इष्' का अर्थ अन्न है; तो हमें इस प्रयोगका अभिप्राय लेना होगा 'गोमांसरूपी अन्न', परन्तु यद्यपि प्राचीन कालमें, जैसा कि ब्राह्मणग्रंथोंसे स्पष्ट है, गोमांसका खाना निषिद्ध नहीं था, फिर भी उत्तरकालीन हिंदुओंकी भावनाको चोट पहुंचानेवाला होनेसे जिस अर्थको सायणमे नहीं लिया है, वह अभिप्रेत ही नहीं है और यह भी वैसा ही भद्दा है जैसा कि पहला अर्थ । वह बात ऋग्वेदके एक दूसरे मन्त्रसे सिद्ध हो जाती है जिसमें अश्विनोंका आह्वान किया गया है कि वे उस प्रकाशमय प्रेरणाको दें जो हमें अंधकारमेंसे पार कराकर उसके दूसरे किनारे पर पहुचा देती है--'या न: पीपरद् अश्विना ज्योतिष्मती तमस्तिर:, ताम् अस्मे रासाथाम् इषम्' 1 .46.6 ।
इन नमूनेके उदाहरणोंसे हम समझ सकते हैं कि प्रकशकी गौओंका यह अलंकार कैसा व्यापक है और कैसे अनिवार्य रूपसे यह वेदके लिये एक अध्यात्मपरक अर्थकी ओर निर्देश कर रहा है । एक सन्देह फिर भी बीचमें आ अपस्थित होता है । हमने माना कि वह एक अनिवार्य परिणाम है कि 'गौ' प्रकशके लियें प्रयुक्त हुआ है, पर इससे हम क्यों न समझें कि इसका सीधा-सादा मतलब दिनके प्रकाशसे है, जेसा कि वेद की भाषासे निकलता
1. गोमतिर्गोभिरूपेतानि आवह आनय---सायण |
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प्रतीत होता है ? वहां किसी प्रतीककी कल्पना क्यों करें, जहां केवल एक अलंकार ही है ? हम उस दुहरे अलंकारकी कठिनाईको निमंत्रण क्यों दें जिसमें 'गौ'का अर्थ तो हो 'उषाका प्रकाश' और उषाके प्रकाशको 'आन्तरिक ज्योति'का प्रतीक समझा जाय ? यह क्यों न मान ले कि ऋषि आत्मिक ज्योतिके लिये नहीं; बल्कि दिनके प्रकाशके लिये प्रार्थना कर ऐ थे ?
ऐसा मानने पर अनेक प्रकारके आक्षेप आते हैं और उनमें कुछ तो बहुत प्रबल हैं । यदि हम यह मानें कि वैदिक सूक्तोंकी रचना भारतमें हुई थी और यह उषा भारतकी उषा है और यह रात्रि वही यहाँ की दस या बारह घष्टेकी छोटी-सी रात है, तो हमें यह स्वीकार करके चलना होगा कि वैदिक ऋषि जंगली थे, अन्धकारके भयसे बड़े भयभीत रहते थे और समझते थे कि इसमें भूत-प्रेत रहते हैं, वे दिन-रातकी परम्पराके प्राकृतिक नियमसे भी--जिसका अबतक बहुतसे सूक्तोंमें बड़ा सुन्दर चित्र खिंचा मिलता है--अनभिज्ञ थे और उनका ऐसा विश्वास था कि आकाशमें जो सूर्य निकलता था और उषा अपनी बहिन रात्रिके आलिंगनसे छूटकर प्रकट होती थी, वह सब केवल उनकी प्रार्थनाओंके कारण से ही होता था । पर फिर भी वे देवोंके कार्यमें अटल नियमोंका वर्णन करते हैं और कहते हैं कि उषा हमेशा शाश्वत सत्य व दिव्य नियमके मार्गका अनुसरण करती है । हमें यह कल्पना करनी होगी कि ॠषि जब उल्लासमें भरकर पुकार उठता है 'हम अंधकारको पार करके दूसरे किनारे पहुंच गये हैं' ! तो यह केवल दैनिक सूर्योदय पर होनेवाला सामान्य. जागना ही है । हमें यह कल्पना करनी होगी कि वैदिक लोग उषा निकलने पर यज्ञके लिये बैठ जाते थे और प्रकाशके लिये प्रार्थना करते थे, जब कि वह पहलेसे ही निकल चुका होता था । और यदि हम इन सब असभव कल्पनाओंको मान भी लें, तो आगे हमें यह एक स्पष्ट कथन मिलता है कि. नौ या दस महीने बैठ चुकनेके उपरान्त ही यह हो सका कि अंगिरस् ऋषियोंको खोया हुआ प्रकाश और खोया हुआ सूर्य फिर से मिल पाया । और जो पितरों के द्वारा 'ज्योंति' के खोजे जाने का कथन लगातार मिलता है, उसका हम क्या अर्थ लगायेंगे ? जैसे:--
''हमारे पितरोंने छिपी हुई ज्योतिको ढूंढ़कर पा लिया, उनके विचारोंमें जो सत्य था, उसके द्वारा उन्होंने उषाको जन्म दिया-गूळ्हं ज्योति: पितरो अन्वविन्दन् सत्यमन्त्रा अजनयन् 'उषासुम्, ७.७६.४।'' यदि हम किसी भी साहित्यके किसी कविता-संग्रहमें इस प्रकारका कोई पद्य पावें, तो तुरन्त हम उसे एक मनोवैज्ञानिक या आध्यात्मिक रूप दे देंगे, तो फिर वेदके साथ हम दूसरा ही बर्ताव करें इसमें कोई युक्तियुक्त कारण नहीं दीखता |
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फिर भी यदि हमें वेदके सूक्तोंकी प्रकृतिवादी ही व्याख्या करनी है और कोई नहीं, तो भी यह बिलकुल साफ है कि वैदिक उषा और रात्रि कम-से-कम भारतकी रात्रि और उषा तो नहीं हो सकतीं । यह केवल उत्तरी ध्रुवके प्रदेशोंमें ही हो सकता हैं कि इन प्रकृतिकी घटनाओंके संबंधमें ऋषियोंकी जो मनोवृत्ति है और अंगिरसोंके विषयमें जो बातें कही गयी हैं ये कुछ समझमें आने लायक बन सकें । प्राचीन वैदिक आर्य उत्तरीय ध्रुवसे आये, इस कल्पना ( वाद ) को क्षणभर के लिए मान लेनेपर यह बहुत अधिक संभव हो सकता है कि उत्तरोय घ्रुवकी स्मृतियाँ वेदके बाह्य अर्थमें आ गयी हों, फिर भी यह कल्पना उस आन्तरिक अर्थका निराकरण नहीं करती जो प्रकृतिसे लिये गये इन प्राचीन अलंकारोंके पीछे छिपा है, न ही इसके मान लेनेसे यह सिद्ध हो जाता है कि उषासंबंधी ॠचाओंकी इसकी अपेक्षा और अधिक सुसंबद्ध और सीधी-स्पष्ट किसी दूसरी व्याख्याकी आवश्यकता नहीं है ।
उदाहरणके लिये हमारे सामने अश्विनोंको कहा गया प्रस्कण्व काण्काव सूक्त ( १.४६ ) है जिसमें उस ज्योतिर्मय अन्तःप्रेरणाका संकेत है जो हमें अन्घकारमेंसे पार कराके परले किनारेपर पहुँचा देती है । इस सूक्तका उषा और रात्रिके वैदिक विचारके साथ घनिष्ठ संबंध है । इसमें वेदमें नियत रूपसे आनेवाले बहुतसे अलंकारोंका संकेत मिलता है; जैसे ॠतके मार्गका, नदियोंको पार करनेका, सूर्यके उदय होनेका, उषा और अश्विनोंमें परस्पर-संबंधका, सोम-रसके रहस्यमय प्रभावका और उसके सामुद्रिक रसका ।
''देखो, आकाशमें उषा खिल रही है; जिससे अधिक उच्च और कोई वस्तु नहीं है, जो आनन्दसे भरी हुई है । हे अश्विनो ! मैं तुम्हारी महान् स्तुति करता हूं ( 1 ) ।1 तुम जिनकी सिंधु माता है, जो कार्यको पूर्ण ।
1. एवो उषा अपूर्व्या व्युच्छति प्रिया दिव: । स्तुषे वामश्विन बृहत् ।। (१-४६-१ )
या रखा सिन्धुमातरा मनोतरा रयीणाम् । धिया देवा वसुविदा ।। २।।
आदारो वां मतीना नासत्या मतवचसा । पातं सोमस्य घृष्णुया ।।५।।.
या न: पीपरवश्विना ज्योतिष्ममी तमस्तिर: । तामस्मे रासायामिषम् ।।६।।
आ नो नावा मतीनां यातं पाराय गन्तवे । युञ्जामश्विना रयम् ।।७।।
अरित्रं वां दिवस्पृषु तीर्थे रथः | धिया युयुज्र इन्दवः ||८||
दिवस्कच्वास इन्दवो वसु सिन्धुनां पदे । स्वं वर्त्रि कुह धित्सयः।।९।।
अभूदु भा उ अंशवे हिरण्यं प्रति सूर्य: । हयज्जिह्ययासितः ।।१०।।.
अभूदु पारमेतवे पन्दा ॠतस्य साधुया । अदर्शि वि स्रुतिर्दिवः ||११||
तत्तदिदमोरवो अरिता प्रति भुवति | मदे सोमस्य पिप्रन्तोः ||१२||
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करनेवाले हो, जो मनमेंसे होते हुए उस पार पहुंचकर ऐश्वर्यो (रयि ) को पा लेते हो, जो दिव्य हो और उस ऐश्वर्य ( वसु ) को विचारके द्वारा पाते ही ( 2 ) । हे समुद्रयात्राके देवो जो शब्दको मनोमय करनेवाले हो ! यह तुम्हारे विचारोंको भंग करनेवाला है--तुम प्रचंड रूपसे सोमका पान करो ( 5 ) । हे अश्विनो ! हमें वह ज्योतिष्मती अन्त:प्रेरणा दो, जो हमें तमस्से निकालकर पार पहुंचा दे ( 6 ) । हमारे लिये तुम अपनी नाव पर बैठकर चलो, जिससे हम मनके विचारोंसे परे परले पार पहुंच सकें । हे अश्विनो ! तुम अपने रथको जोतो ( 7 ) । अपने उस .रथको जो द्युलोक-में इसकी नदियोंको पार करनेके लिये एक बड़े पतवारवाले जहाजका काम देता है । विचारके द्वारा आनन्दकी शक्तियां जोती गयी हैं ( 8 ) । जलों-के स्थान ( पद ) पर द्युलोकमें आनन्दरूपी सोम-शक्तियां ही वह ऐश्वर्य (वसु) हैं । पर अपने उस आवरणको तुम कहां रख दोगे, जो तुमने अपने-आपको छिपानेके लिये बनाया है ( 9 ) । नहीं, सोमका आनन्द लेनेके लिये प्रकाश उत्पन्न हो गया है,--सूर्यने, जो अन्धकारमय था, अपनी जिह्वा-को हिरण्यकी ओर लपलपाया है ( 10 ) । ऋतका मार्ग प्रकट हो गया है, जिससे हम उस पार पहुंचेगे; द्युके बीच का सारा खुला मार्ग दिखलायी पड़ गया है ( 11 ) । खोजनेवाला अपने जीवनमें अश्विनोंके निरन्तर एक-के बाद दूसरे आविर्भावकी ओर प्रगति किये चलता है ज्यों-ज्यों वे सोमके आनन्दमें तृप्ति-लाभ करते हैं ( 12 ) । उस सूर्यमें जिसमें सब ज्योति ही ज्योति है, तुम निवास करते हुए (या चमकते हुए ), सोम-पानके द्वारा, वाणीके द्वारा हमारी मानवीयतामें सुखका सर्जन करनेवाले के रूपमें आओ ( । 3 ) । तुम्हारी कीर्त्ति और विजयके अनुरूप उषा हमारे पास आती है जब तुम हमारे सब लोकोंमें व्याप्त हो जाते हो और तुम रात्रिमेंसे सत्योंको विजय कर लाते हो ( 1 4 ) । दोनों मिलकर हे अश्विनो, सोम-पान करो, दोनों मिलकर हमारे अंदर शान्तिको प्राप्त कराओ उन विस्तारोंके द्वारा जिनकी पूर्णता सदा अविच्छिंन्न रहती है ( 15 ) । ''
यहं इस सूक्तका सीधा और स्वाभाविक अर्थ है और हमें इसका भाव समझनेमें कठिमाई नहीं होगी, यदि हम वेदके मूलभूत विचारों और अलंकारोंको स्मरणा रखेंगे । 'रात्रि' स्पष्ट ही आन्तरिक अंधकारके लिये आलंकारिक
वावसाना विवस्वति सोमस्य पीत्या गिरा । मनुष्पच्छंभू आ गतम् ।।१३||
युवोरुधा अनु श्रियं परिज्मनोरूपाचरत् । ॠता वनथो अक्तुभिः ||१४||
उभा पिबतमश्विभा नः यच्छतम् | अविद्रियाभिरुतिभिः ||१५||
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रूपसे कहा गया है; उषाके आगमनके द्वारा रात्रिमेंसे 'सत्यों'को जीतकर हस्तगत किया जाता है । यही उस सूर्यका, सत्य के सूर्यका उदय होना है जो अंधकारके बीचमें खो गया था--यही उस खोये हुए सूर्यका परिचित अलंकार है जिसे देवों और अङ्गरस ऋषियोंने फिरसे पाया-और अब यह अपनी अग्निकी जिह्याको स्वर्णीय ज्योतिके प्रति, हिरण्यके प्रति, लपलपाता है । क्योंकि हिरष्य, सुवर्ण उच्चतर ज्योतिका स्थूल प्रतीक है, यह सत्यका सोना है और यही वह निधि है, न कि कोई सोनेका सिक्का, जिसकें लिये वैदिक ऋषि देवोंसे प्रार्थना करते हैं । आन्तरिक अंधकारमेंसे निकालकर ज्योतिमें लानेके इस महान् परिवर्तनको अश्वी करते हैं, जो मन- की और प्राण-शक्तियोंकी प्रसन्नतायुक्त ऊर्ध्वगतिके देवता हैं, और इसे वे इस प्रकार करते हैं कि आनन्दका अमृतरस मन और शरीरमें उँडेला जाता और वहां वे इसका पान करते हैं । वे व्यंजक शब्दको मनोमय रूप देते हैं वे हमें विशुद्ध मनके उस स्वर्गमें ले जाते हैं जो इस अंधकारसे परे है और वहां वे विचारके द्वारा आनन्दकी शक्तियोंको काममें लाते हैं ।
पर वे द्युके जलोंको भी पार करके उससे भी ऊपर चले जाते हैं, क्योंकि सोमकी शक्ति उन्हें सब मानसिक रचनाओंको तोड़ डालनेमें सहायता देती है और वे इस आवरणको भी उतार फेंकते हैं । वे मनसे परे चले जाते हैं और सबसे अन्तिम चीज जो वे प्राप्त करते हैं वह 'नदियोंका पार करना' कही गयी है, जो कि विशुद्ध मनके द्युलोकमेंसे गुजरनेकी यात्रा है, वह यात्रा है जिससे सत्यके मार्ग पर चलकर परले किनारे पर पहुंचा जाता है और जबतक अन्तमें हम उच्चतम पद, परमा परावत्, पर नहीं पहुंच जाते तबतक हम इस महान् मानवीय यात्रासे विश्राम नहीं लेते ।
हम देखेंगे कि न केवल इस सूक्तमें बल्कि सब जगह उषा सत्यको लानेवालीके रूपमें आती है, स्वयं वह सत्यकी ज्योतिसे जगमगानेवाली है । वह दिव्य उषा है और यह भौतिक उषा (प्रभात होना ) उसकी केवल छायामात्र है और प्राकृतिक जगत्में उसका प्रतीक है ।
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तेरहवां अध्याय
उषा और सत्य
उषाका वर्णन बार-बार इस रूपमें किया गया है कि वह गौओंकी माता है । तो यदि 'गौ' वेदमें भौतिक प्रकाश या आध्यात्मिक ज्योतिका प्रतीक हो, तब इस वाक्यका या तो यह अभिप्राय होगा कि वह, दिनके प्रकाशकी जो भौतिक किरणें हैं उनकी माता या स्रोत्र है, अथवा इसका यह अर्थ होगा कि वह दिव्य दिनके ज्योति:प्रसारको अर्थात् आन्तरिक प्रकाशकी प्रभा तथा निर्मलताको रचती है । परंतु वेदमें हम देखते हैं कि देवोंकी माता अदितिका वर्णन दोनों रूपोंमें हुआ है, गौरूपमें और सबकी सामान्य माताके रूपमें; वह पर ज्योति है और अन्य सब ज्योतियां उसीसे निकलती हैं । आध्यात्मिक रूपमें अदिति, दनु या दितिके विपरीत, परा या असीम चेतना है, देवोंकी माता है, उधर 'दनुं' या 'दिति'1 विभक्त चेतना है और वृत्र तथा उन दूसरे दानवोंकी माता है जो देवताओंके एवं प्रगति करते हुए मनुष्यके शत्रु होते हैं । और अधिक सामान्य रूपमें कहें, तो वह 'अदिति' भौतिक चेतनासे प्रारम्भ करके ज्गत्स्तर -संबंधिनी जितनी चेतनाएं. हैं उन सबका आदिस्रोत है; सात गौएं, 'सप्त गाव: ', उसीके रूप हैं और हमें बताया गया है कि उस माताके सात नाम या स्थान हैं । तो उषा जो गौओंकी माता है, केवल इसी परा ज्योतिका इसी परा चेतनाका, अदिति-का कोई रूप या शक्ति हो सकती है और सचमुच हम उसे 1.113.19 में इस रूपमें वर्णित हुई पाते हैं--माता देवनामदितेरनीकम् । 'देवोंकी माता, अदितिका रूप ( या शक्ति ) ।'
पर उस उच्चतर या अविभक्त चेतनाकी ज्योतिर्मयी उषाका उदय सर्वदा सत्यरूपी उषाका उदय होता है और यदि वेदका उषादेवता यही ज्योतिर्मयी उषा है, तो ऋग्वेदके मंत्रोंमें हमें अवश्यमेव इसका उदय या आविर्भाव बहुधा सत्यके-ऋतके-विचारके साथ संबद्ध मिलना चाहिये ।
1. यह न समझ लिया जाय कि 'अदिति' व्युत्पतिशास्त्रानुसार 'दिति' का श्रमावात्मक है; ये दोनों शब्द बिलकुल ही भिन्न-भिन्न दो धातुओं '--अद्' और 'दि' से बने हैं ।
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और इस प्रकारका संबंध हमें स्थान-स्थान पर मिलता है । क्योंकी सबसे पहले तो हम यही देखते हैं कि उषाको कहा गया है वह 'ठीक प्रकारसे ॠतके पथका अनुसरण करती है', ( ॠतस्य पन्यामन्वेतीति साधु, (1-124-3 ) । यहां 'ॠतके जो कर्मकाण्डपरक वा प्रकृतिवादी अर्थ किये जाते हैं उनमेंसे कोई भी ठीक नहीं घट सकता; यह बार-बार कहे चले जानेमें कुछ अर्थ नहीं बनता कि उषा यज्ञके मार्गका अनुसरण करती है, या पानीके मार्गका अनुसरण करती है । तो इसके स्पष्ट मतलबको हम केवल इस प्रकार टाल सकते हैं कि 'पन्था ॠतस्य'का अर्थ हम सत्यका मार्ग नहीं, बल्कि सूर्यका मार्ग समझें । लेकिन वेद तो इसके विपरीत यह वर्णन करता है कि सूर्य उषा के मार्ग का अनुसरण करता है (न कि उषा सूर्यके ) और भौतिक उषाके अवलोकन करनेवालेके लिये यही वर्णन स्वाभाविक भी है । इसके अतिरिक्त, यदि यह स्पष्ट न भी होता कि इस प्रयोगका अर्थ दूसरे संदर्भोमें सत्यका मार्ग ही है, फिर भी आध्यात्मिक अर्थ बीचमें आ ही जाता है; क्योंकि तब 'उषा सूर्यके मार्गका अनुसरण करती है' इसका अभिप्राय यही होता है कि उषा उस मार्गका अनुसरण करती है जो सत्यमयका या सत्यके देवका, सूर्य-सविताका मार्ग है ।
हम देखते ह कि उपर्युक्त 1-124-3में इतना ही नहीं कहा है, बल्कि वहां अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट और अघिक पूर्ण आध्यात्मिक निर्देश विद्यमान है--क्योंकि 'ॠतस्व पन्यामन्वेति साधु', के आगे साथ ही कहा है 'प्रजान--तीव न दिशो मिनाति ।' "उषा सत्यके मार्गके अनुसार चलती है और जानती हुईके समान वह प्रदेशोंको सीमित नहीं करती ।" 'दिश:' शब्द दोहरा अर्थ देता है यह हम ध्यानमें रखें, यद्यपि यहां इस बातपर बल-देनेकी विशेष आवश्यकता नहीं है । उषा सत्यके पथकी दृढ़ अनुगामिनी है और चूंकि इस बातका उसे ज्ञान या बोध रहता है, इसलिये वह असीमता को, बृहत्को, जिसकी वह ज्योति है, सीमित नहीं करती । यही इस मंत्र- का असली अभिप्राय है, यह बात ५म मण्डलकी एक ॠचा (5-80-1 )से निर्विवाद रूपसे स्पष्टतया सिद्ध हो जाती है और इसमें भूलचूककी कोई संभावना नहीं रह जाती । इसमें उषाके लिये कहा है-द्युतद्यामानं वृहतीम् ॠतेन ॠतावरीं... स्वरावहन्तीम् । ''वह प्रकासमय गतिवाली है, ऋतसे महान् है, ॠतमें सर्वोच्च ( या ॠतसे युक्त ) है, अपने साथ स्व:को लाती है ।'' यहां हम वृहत्का विचार, स्वर्लोकके सौर प्रकाश का विचार पाते हैं; और निश्चय ही ये विचार इस 'प्रकार घनिष्टता और दृढ़तासे एकमात्रभौतिक उषाके साथ संबद्ध ।नहीं रह सकते । इसके
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साथ हम 7-75-1के वर्णनकी भी तुलना कर सकते है-व्युषा आवो दिविणा ॠतेन आविश्कृष्वाना महिमानमागात्त् । "द्यौमें प्रकट हुई .उषा सत्यके द्वारा वस्तुओंको खोल देती है, वह महिमाको व्यक्त करती हुई आती है ।" यहां पुन: हम देखते हैं कि उषा सत्यकी शक्तिके द्वारा सब वस्तुओंको प्रकट करती है और इसका परिणाम यह बताया गया है कि एक प्रकारकी महत्ता-का आविर्भाव हो जाता है ।
अन्तमें इसी विचारको हम आगे भी वर्णित किया गया पाते हैं, बल्कि यहां सत्यके लिये 'ॠत'के बजाय सीधा 'सत्य' शब्द ही है, जो 'ऋतम्'की तरह दूसरा अर्थ किये जा सकनेकी संभावनाके लिये अवकाश ही नहीं देता, सत्या सत्येभि र्महती महद्वि्भर्देवी देवेभि:... (7-75-7 ), ''अपनी सत्तामें सच्ची उषा देवी सच्चे देवोंके साथ महान् देवी महान् देवोंके साथ... ।'' वामदेवने अपने एक सूक्त ४-५१में उषाके इस ''सत्य" पर बहुत बल दिया है, क्योंकि वहां वह उषाओंके बारेमें केवल इतना ही नहीं कहता कि ''तुम सत्यके द्वारा जोते हुए अश्वोंके साथ जल्दीसे लोकोंको चारों ओरसे धेर लेती हो" 1, ॠतयुग्भि: अश्वै: ( तुलना करो 6.65.2 ) ,2 परन्तु वह उनके लिये यह भी कहता है-भद्रा ऋतजातसत्या: ( 4.51. 7 ), ''वे सुखमय हैं और सत्यसे उत्पन्न .हुई .सच्ची हैं ।'' और एक दूसरी ऋचामें वह उनका वर्णन इस रूपमें करता है कि ''वे देवियां हैं जो ऋतके स्थानसे प्रबुद्ध होती हैं ।''3
'भद्र' और 'ऋत'का यह निकट संबंध हमें अग्निको कहे गये मधुच्छन्दस्- के सूक्तमें विचारोंके इसी प्रकारके परस्परसंबंधका स्मरण करा देता है । वेदकी अपनी आध्यात्मिक व्याख्यामें हम प्रत्येक मोड़ पर इस प्राचीन विचार-को पाते हैं कि 'सत्य' आनन्दको प्राप्त करनेका मार्ग है । तो उषाको, सत्यकी ज्योतिसे जगमगाती उषाको, भी अवश्य सुख और कल्याणको लाने-वाला होना चाहिए । उषा आनन्दको लानेवाली है, यह विचार वेदमें हम लगातार पाते हैं और वसिष्ठने 7-81-3 में इसे बिलकुल स्पष्ट रूपमें कह दिया है-या वहसि पुरु स्पाहं रत्नं न वाशुषे मयः । ''तू जो देनेवाले-को ऐसा कल्याण-सुख प्राप्त कराती है, जो अनेकरूप और स्पृहणीय आनंद ही हे । ''
वेदका एक सामान्य शब्द 'सूनृता' है जिसका अर्थ सायणने ' 'मधुर और
1. यूयं हि देवीॠॅतयुग्भिरश्वै: परिप्रयाय भूवनामि सद्यः: । ( 4-51-5 )
2. वि तद्यउयुररुणग्भिरश्वैश्चित्रं भान्त्युपसश्च्द्रथाः (6-65-2)
3. ॠतस्य देवीः सदसो बुधानाः | (4-51-8)
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सत्य वाणी" किया है, परंतु प्रतीत होता है कि इसका प्रायः और भी अघिक व्यापक अभिप्राय ''सुखमय सत्य' है । उषाको कहीं-कहीं यह कहा गया है कि वह 'ॠतावरी" है, सत्यसे परिपूर्ण है और कहीं उसे "सुनृता-वती" कहा .गया है । वह आती है सच्चे और सुखमय शब्दोंको उच्चारित करती हुई ''सूनृता ईरयन्ती" । जैसे उसका यह वर्णन किया गया है कि वह जगमगाती हुई गौओंकी नेत्री है और दिनोंकी नेत्री है, वैसे ही उसे सुखमय सत्योंकी प्रकाशवती नेत्री भी कहा गया है, भास्वती नेत्री सूनृतानाम् ( 1 -92-7 ), और वैदिक ऋषियोंके मनमें ज्योति, किरणों या गौओंके विचार और सत्यके विचारमें जो परस्पर गहरा संबंध है, वह एक दूसरी ॠचा १. ९२. १४ में और भी अधिक स्पष्ट तथा असंदिग्ध रुपसे पाया जाता है-गोमति अश्वावसि विभावरि, सूनृतावति । ''हे 'उष:, जो तू अपनी जगमगाती हुई गौओंके साथ है, अपने अश्वोंके साथ है, अत्यधिक प्रकाशमान है और सुखमय सत्योंसे परिपूर्ण है ।'' इसी-जैसा पर इससे अधिक स्पष्ट वाक्यांश 1-48-2 में है, जो इन विशेषणोंके इस प्रकार रखे जानेके अभिप्रायको सूचित कर देता है-"गोमतीरष्वावतीर्विश्वसुविदः" । "उषाएं जो अपनी ज्योतियों (गौओं ) के साथ है, अपनी त्वरित गतियों ( अश्वों ) के साथ हैं और जो सब वस्तुओंको ठीफ प्रकारसे जानती हैं ।''
वैदिक उषाके आध्यात्मिक स्वरूपका निर्देश करनेवाले जो उदाहरण ऋग्वेदमें पाये जाते हैं, वे किसी भी प्रकार यहीं तक सीमित नहीं हैं । उषाको निरन्तर इस रूपमें प्रदर्शित किया गया है कि वह दर्शन व बोधको तथा ठीक दिशामें गतिको जागृत करती है । गोतम राहूगण कहता है, ''वह देवी सब भूवनोंको सामने होकर देखती है, वह दर्शनरूपी आंख अपनी पूर्ण विस्तीर्णतामें चमकती है; ठीक दिशामें चलनेके लिये संपूर्ण जीवनको जगाती हुई वह सब विचारशील लोगोंके लिये वाणीको प्रकट करती है ।" 1 विश्वस्य वाचमविदन् मनायो: ( 1 -92-9 ) ।
यहां हम उषाको इस रूपमें पाते हैं कि वह जीवन और मनको बंधन-मुक्त करके अधिक-से-अधिक पूर्ण विस्तारमें पहुंचा देती है और यदि हम इस उपर्युक्त निर्देशको यहीं तक सीमित रखें कि यह केवल भौतिक उषाके उदय होने पर पार्थिव जीवनके पुन: जाग उठनेका ही वर्णन है तो हम ऋषिके चुने हुए शब्दों और वाक्यांशोंमें जो बल है उस सारेकी उपेक्षा ही कर
1. विश्वानि देवी भूवनाभिचक्ष्या प्रतीची चक्षुएर्विया वि भाति ।
विश्वं जीवं चरसे बोधयम्ती विश्वस्य वाचमविदन्मनायोः || (ॠ. 1-92-9)
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रहे होंगे और यद्यपि, उषासे लाये जानेवाले दर्शनके लिये यहां जो शब्द प्रयुक्त किया गया है, 'चक्षु:', उसे केवल भौतिक दर्शनशक्ति को ही सूचित कर सकने योग्य माना जा सकता है तो भी दूसरे संदभोंमें हम इसके स्थान पर 'केतु' शब्द पाते हैं, 'जिसका अर्थ है बोध, मानसिक चेतनामें होनेवाला बोधयुक्त दर्शन, ज्ञानफी एक शक्ति । उषा है 'प्रचेता:, इस बोधयुक्त ज्ञानसे पूर्ण । उषाने, जो ज्योतियोंकी माता है, मनके इस बोधयुक्त ज्ञान-को रचा है, गवां जनित्री अकृत प्र केतुम् ( 1-124-5 ) । वह स्वयं ही दर्शनरूप है--''अब बोधमय दर्शनकी उषा खिल उठी है, जहाँ कि पहले कुछ नहीं (असत् ) था", वि ननुमुच्छादसति प्र केतुः ( 1-124-11 ) । वह अपनी वोधयुक्त शक्तिके द्वारा सुखमय सत्योंवाली है, चिकिस्थित् सूनृतावरि (4-52-4)
हमें बताया गया है कि यह बोध, यह दर्शन, अमरत्यका है--अमृतस्य केतु: ( 3 .61 .3 ) । दूसरे शब्दोंमें यह उस सत्य और सुखकी ज्योति है जिससे उच्चतर या अमर चेतनाका निर्माण होता है । रात्रि वेदमें हमारी उस अंधकारमय चेतनाका प्रतीक है जिसके ज्ञानमें अज्ञान भरा पड़ा है और जिसके संकल्प तथा क्रियामें स्खलनपर स्खलन होते रहते हैं और इसलिये जिसमें सब प्रकारकी बुराई, पाप तथा कष्ट रहते हैं । प्रकाश है ज्योतिर्मयी उच्चतर चेतनाका आगमन जो सत्य और सुखको प्राप्त कराता है । हम निरन्तर 'दुरितम्' और 'सुवितम्' इन दो विरुद्धार्थक शब्दोंका प्रयोग पाते हैं । दुरितमका शाब्दिक अर्थ हैं स्खलन, गलत रास्से पर जाना और औपचारिक रूपसे वह सब प्रकारकी गलती और बुराई, सब पाप, भूल और विपत्तियोंका सूचक है । 'सुवितम्'का शाब्दिक अर्थ है ठीक और भले रास्ते पर जाना और यह सब प्रकारकी अच्छाई तथा सुखको प्रकट करता है और विशेषकर इसका अर्थ वह सुख-समृद्धि है जो सही मार्ग पर चलनेसे मिलती है । सो वसिष्ठ इस देवी उषाके विषयमें ( 7.78.2 ) में इस प्रकार कहता है-' 'दिव्य उषा अपनी ज्योतिसे सब अंधकारों और बुराइयोंको हटाती हुई आ रही है,''1 (विश्वा तमांसि दुरिता ), और बहुतसे मंत्रोंमें इस देवीका वर्णन इस रूपमें किया गया है कि वह मनुष्योंको जगा रही है, प्रेरित कर रही है, ठीक मार्गकी ओर, सुखकी ओर (सुविताय ) ।
इसलिये वह केवल सुखमय सत्योंकी ही नहीं, किन्तु हमारी आध्यात्मिक समृद्धि और उल्लासकी भी नेत्री है, उस आनंदको लानेवाली है जिसतक
1. उषा याति ज्योतिषा वाषमाना विश्वा तमांसि दुरिताय देवी | (7.78.2)
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मनुष्य सत्यके द्वारा पहुंचता है या जो सत्यके द्वारा मनुष्यके पास लाया जाता है, ( एषा मेत्री रषस: सूनृतामाम्, 7.76. 7 ) । यह समृद्धि जिसके लिये ऋषि प्रार्थना करते हैं भौतिक ऐश्वर्योंके अलंकारसे. वर्णितकी गयी है; यह 'गोमद् अश्वावद् वीरवद्' है, या यह 'गोदाम्' अश्वावद् रथवच्च राधः' है | गौ (गाय ), अश्व ( घोड़ा ), प्रजा या अपत्य ( संतान ), नृ या वीर ( मनुष्य या शूरवीर ), हिरण्य ( सोना ), रथ ( सवारीवाला रथ ), श्रव: ( भोजन या कीर्ति ) -याज्ञिक संप्रदायवालोंकी व्याख्याके अनुसार ये ही उस संपत्तिके अंग हैं जिसकी वैदिक ऋषि कामना करते थे । यह लगेगा कि इससे अधिक ठोस दुनियावी, पार्थिव और भौतिक दौलत कोई और नहीं हो सकती थी; नि:संदेह ये ही थे ऐश्वर्य हैं जिनके लिये कोई बेहद भूखी, पार्थिव वस्तुओंकी लोभी, कामुक, जंगली लोगोंकी जाति अपने आदि देवोंसे याचना करती । परंतु हम देख चुके हैं कि 'हिरण्य' वेदमें भौतिक सोनेकी अपेक्षा दूसरे ही अर्थमें प्रयुक्त किया गया है । हम देख आये हैं कि 'गौएं' निरन्तर उषाके साथ संबद्ध होकर बार-बार आती हैं, कि यह प्रकाशके उदय होने का आलंकारिक वर्णन होता है और हम यह भी देख चुके हैं कि इस प्रकाशका संबंध मानसिक दर्शनके साथ है और उस सत्यके साथ है जो सुख लाता है । और अश्व, घोड़ा, आध्यात्मिक भावोंके निर्देशक इन मूर्त्त अलंकारोंमें सर्वत्र गौके प्रतीकात्मक अलंकारके साथ जुड़ा हुआ आता है; उषा 'गोमती अश्वावती' है । वसिष्ठ ? ॠषिकी एक ॠचा ( 7.77.3 ) है जिसमें वैदिक अश्वका प्रतीकात्मक अभिप्राय बड़ी स्पष्टता और बड़े बलके साथ प्रकट होता है--
देवानां चक्षु: सुभगा वहन्ती, श्वेतं नयन्ती 'सुदृशीकमश्वम् ।
उषा अदर्शि रश्मिभिर्व्यक्ता, चित्रामधा विश्वमनु प्रभूता ।।
'देवोंकी दर्शनरूपी आंखको लाती हुई, पूर्ण दूष्टिवाले सफेद घोड़ेका नेतृत्व करती हुई सुखमय उषा रश्मियों द्वारा व्यक्त होकर दिखायी दे रही है; यह अपने चित्रविचित्र ऐश्वर्योंसे परिपूर्ण है, अपने जन्मको, सब वस्तुओंमें अभिव्यक्त कर रही है ।' यह पर्याप्त स्पष्ट है कि 'सफेद घोड़ा' पूर्णतया प्रतीकरूप ही हैं१ ( सफेद घोड़ा यह मुहावरा अग्निदेवताके लिये प्रयुक्त ।
1. घोड़ा प्रतीकरूप हो है, यह पूर्णतया स्पष्ट हो जात है दीर्धतमस् के सूक्तों में जो कि यज्ञ के घोड़े के सम्बन्ध में हैं, अश्व दीर्धक्रावन्-विषयक भिन्न भिन्न ॠषियों के सूक्तों में और फिर बृहदारण्क उपनिषद् के आरम्भ में जहाँ वह जटिल आलंकारिक वर्णन है जिसका आरम्भ "उषा घोड़े का सिर है" ( उषा वा अवश्य मेष्यस्य शिरः) इस वाक्य से होता है |
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किया गया है जो अग्नि कि 'द्रष्टाका संकल्प' है कविक्रतु है, दिव्य संकल्पकी अपने कार्योंको करनेकी पूर्ण दृष्टि-शक्ति है । ( 5. 1 .4.) 1 और वे 'चित्र-विचित्र ऐश्वर्य' भी आलंकारिक ही हैं जिन्हें वह अपने साथ लाती है, निश्चय ही उनका अभिप्राय भौतिक धन-दौलतसे नहीं है |
उषाका वर्णन किया गया है कि वह 'गोमती अश्वावती वीरवती' है और क्योंकि उसके साथ लगाये गये 'गोमती' और 'अश्वावती' ये दो विशेषण प्रतीकरूप हैं और इनका अर्थ यह नहीं है कि वह 'भौतिक गौओं और भौतिक घोड़ोवाली' है बल्कि यह अर्थ है कि वह ज्ञानकी क्योतिसे जग-मगानेवाली और शक्तिकी तीव्रतासे युक्त है, तो 'वीरवती'का अर्थ भी यह नहीं हो सकता कि वह 'मनुष्योंवाली है या शूरवीरों, नौकर-चाकरों वा पुत्रोंसे युक्त' है, बल्कि इसकी अपेक्षा इसका अर्थ यह होगा कि वह विजय-शील शक्तियोंसे संयुक्त है अथवा यह शब्द विल्कुल इसी अर्थमें नहीं तो कम-से-कम किसी ऐसे ही और प्रतीकरूप अर्थमें ही प्रयुक्त हुआ है । यह बात 1.113. 18 में बिलकुल स्पष्ट हो जाती है । 'या गोमतीरुषस: सर्व- बीरा:...ता अश्ववदा अश्वनवत् सोमसुत्वा ।' इसका यह अर्थ नहीं है कि 'वे उषाएं जिनमें कि भौतिक गायें हैं और सब मनुष्य या सब नौकर-चाकर हैं, उन्हें सोम अर्पित करके मनुष्य उनका भौतिक घोड़ोंको देनेवाली के रूपमें उपभोग करता हैं ।' उषा देवी यहाँ आन्तरिक उषा है जो कि मनुष्यके लिये उसकी बृहत्तम सत्ताकी विविध पूर्णताओंको, शक्तिको, चेतना को और प्रसन्नताको लाती हैं; यह अपनी ज्योतियोंसे जगमग है, सब संभव शक्तियों और बलोंसे युक्त है, यह मनुष्यको जीवन-शक्तिका पूर्ण बल प्रदान करती है, जिससे कि वह उस वृहत्तर सत्ताके असीम आनंदका स्वाद ले सके ।
अब हम अधिक देर तक 'गोमद् अश्वावद् वीरवद् राध:'को भौतिक अर्थोमें नहीं ले सकते; वेदकी भाषा ही हमें इससे बिलकुल भिन्न तथ्यका निर्देश कर रही है । इस कारण देवों द्वारा दी गयी इस संपत्तिके अन्य अंगोंको भी हमें इसीकी तरह अवश्यमेव आध्यात्मिक अर्थोमें ही लेना चाहिये; संतान, सुवर्ण, रथ ये प्रतीकरूप ही हैं; 'श्रव:' कीर्त्ति या भोजन नहीं है, बल्कि इसमें आध्यात्मिक अर्थ अन्तर्निहित हैं और इसका अभिप्राय है वह उच्चतर दिव्य ज्ञान जो इन्द्रियों या बुद्धिका विषय नहीं है बल्कि
1 अग्निम्च्छा देवयतां मनांसि चक्षूंवीव सूर्ये सं चरन्ति ।
यदीं सुवाते उषसा विरूपे श्वेतो वाजी जायते अग्रे अह्नाम् || (5.1.4)
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जो सत्यकी दिव्य श्रुति है और सत्यके दिव्य दर्शन से प्राप्त होता है; 'राध: दीर्धश्रुतमम् ( 7.81.5 ) 'रयिं श्रवस्यूम्' (7.75.2 ). सत्ताकी वह संपन्न अवस्था है, आध्यात्मिक समृद्धिसे युक्त वह वैभव है जो दिव्य ज्ञानकी ओर प्रवृत्त होता है (श्रवस्यु ) और जिसमें उस दिव्य शब्दके कम्पनोंको सुननेके लिये सुदीर्ध, दूर तक फैली श्रवणशक्ति है, जो दिव्य शब्द हमारे पास असीमके प्रदेशों (दिश: ) से आता है । इस प्रकार उषाका यह उज्ज्वल अलंकार हमें वेदसंबंधी उन सब भौतिक, कर्भकाण्डिक, अज्ञानमूलक भ्रांतियों-से मुक्त कर देता है जिनमें यदि हम फँसे रहते तो वे हमें असंगति और अस्पष्टताकी रात्रिमें ठोकरों-पर-ठोकरें खिलाती हुई एकसे दूसरे अंधकूपम ही गिराती रहती; यह हमारे लिये बंद द्वारोंको खोल देती है और वैदिक ज्ञानके ह्रदयके अंदर हमारा प्रवेश करा देती है ।
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चौदहवां अध्याय
आंगिरस उपाखयान और गौओं का रूपक
अब हमें गौके इस रुपकको, जिसे हम वेदके आशयकी कुंजीके रूपमें प्रयुक्तु कर रहे हैं, अंगिरस् ऋषियोंके उस उद्भुत उपाख्यान या कथानकमें देखना है जो सामान्य रूपसे कहें तो सारीकी सारी वैदिक गाथाओंमें सबसे अधिक महत्त्वका है ।
वेदके सूक्त, वे और जो कुछ भी हों सो हों, वे सारे-के-सारे मनुष्यके सखा और सहायकभूत कुछ ''आर्य'' देवताओंके प्रति प्रार्थनारूप हैं, प्रार्थना उन बातोंके लिये है जो मंत्रोंके गायकोंको-या द्रष्टाओंको, जैसा कि वे अपने-आपको कहते हैं (कवि, ॠषि, विप्र ) -विशेष रूपसे वरणीय (वर, वार ), अभीष्ट होती थीं । उनकी ये अभीष्ट बातें, देयताओंके ये वर संक्षेपसे 'रयि', 'राधस्' इन दो शब्दोंमें संगृहीत हो जाते हैं, जिनका अर्थ भौतिक रूपसे तो धन-दौलत या समृद्धि हो सकता है और आध्यात्मिक रूपसे एक आनन्द या सुख-लाभ जो आत्मिक संपत्तिके किन्हीं रूपोंका आधिक्य होनेसे होता है । मनुष्य यक्षके कार्यमें, स्तोत्रमें, सोमरसमें, धृत या घीमें, सम्मिलित प्रयत्नके अपने हिस्सेके तौरपर, योग-दान करतां है । देवता यज्ञमें जन्म लेते है वे स्तोत्रके द्वारा, सोम-रसके द्वारा तथा घृतके द्वारा बढ़ते हैं और उस शक्तिमें तथा सोमके उस आनंद और मदमें भरकर वे यज्ञकर्ताके उद्देश्योंको पूर्ण करते हैं । इस प्रकार जो ऐश्वर्य प्राप्त होता है उसके मुख्य अंग 'गौ' और 'अश्व' हैं; पर इनके अतिरिक्त और भी हैं, हिरष्य (सोना ), वीर (मनुष्य या शूरवीर), रथ (सवारी करनेका रथ ), प्रजा या अपत्य (संतान ) ।. यज्ञके साधनोंको भी--अग्निको, सोमको, धृत को--देवता देते हैं और वे यज्ञ में इसके पुरोहित, पवित्रता-कारक, सहायक बनकर उपस्थित होते हैं, तथा यज्ञमें होनेवाले संग्राममें वीरोंका काम करते हैं,--क्योंकि कुछ शक्तियां एसी होती हैं जो यज्ञ तथा मंत्रसे घृणा करती हैं, यज्ञकर्तापर आक्रमण करती हैं और उसके अभीप्सित ऐश्वर्योंको उससे जबर्दस्ती छीन लेती या उसके पास पहुँचनेसे रोके रखती हैं । ऐसी उत्कण्ठासे जिस ऐश्वर्यकी कामनाकी जाती है उसकी मुख्य शर्ते है उषा तथा सूर्यका उदय होना और द्युलोककी वर्षाका और सात नदियों-भौतिक या रहस्यमय---
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( जिन्हें कि वेदमें द्युलोककी शक्तिशालिनी वस्तुएँ 'दिवो यह्वी:' कहा गया है ) का नीचे आना । पर यह ऐश्वर्य भी, गौओंकी; घोड़ोकी , सोनेकी, रथोंकी, संतानकी यह परिपूर्णता भी अपने-आपमें अंतिम उद्देश्य नहीं है; यह सब एक साधन है दूसरे लोकोंको खोल देनेका, 'स्व:' को अधिगत कर लेनेका, सौर लोकोंमें आरोहण करनेका, सत्यके मार्ग द्वारा उस ज्योतिको और उस स्वर्गीय सुखको पा लेनेका जहां मर्त्य अमरतामें पहुँच जाता है ।
यह है वेदका असंदिग्ध सारभूत तत्त्व । कर्मकाण्डपरक और गाथापरक अभिप्राय जो इसके साथ बहुत प्राचीन कालसे जोड़ा जा चुका है, बहुत प्रसिद्ध है और उसका यहां विशेष रूपसे वर्णन करनेकी आवश्वकता नहीं है | संक्षेपमें, यह यज्ञिय पूजाका अनुष्ठान है जिसे मनुष्यका मुख्य कर्तव्य माना गया है और इसमें दृष्टि यह हैं कि इससे इहलोकमें धन-दौलतका उपभोग प्राप्त. होगा और यहाँके बाद परलोकमें स्वर्ग मिलेगा । इस संबंधमें हम आधुनिक दृष्टिकोणको भी जानते हैं, जिसके अनुसार सूर्य, चन्द्रमा, तारे,उषा, वायु. वर्षा, अग्नि, आकाश, नदियों तथा प्रकृतिकी अन्य शक्तियोंको सजीव देवता मानकर उनकी पूजा करना, यज्ञके द्वारा इन देवताओंको प्रसन्न करना, इस जीवनमें मानव और द्राविड़ शत्रुओंसे और प्रतिपक्षी दैत्यों तथा मर्त्य लुटेरोंका मुकाबला करके धन-दौलतको जीतना और अपने अधिकारमें रखना और मरनके बाद मनुष्यका देवोंके स्वर्गको प्राप्त कर लेना, बस यही वेद है । अब हम पाते हैं कि अतिसामान्य लोगोंके लिये ये विचार चाहे कितने ही युक्तियुक्त क्यों न रहें हों, वैदिक युगके द्रष्टाओंके लिये, ज्ञान-ज्योसिसे प्रकाशित मनों ( कवि, विप्र ) के लिये वे वेदका आन्तरिक अभिप्राय नहीं थे । उनके लिये तो ये भौतिक पदार्थ किन्हीं अभौतिक वस्तुओंके प्रतीक थे; 'गौएं' दिव्य उषाकी किरणें या प्रभाएँ थीं, 'घोड़े' और 'रथ' शक्ति तथा गतिके प्रतीक थे, 'सुवर्ण' था प्रकाश, एक दिव्य सूर्यकी प्रकाशमय संपत्ति-सच्चा प्रकाश, 'ॠतं ज्योति:'', यज्ञसे प्राप्त होनेवाली. धन-संपत्ति और स्वयं यज्ञ ये दोनों अमने सब अंग-उपांगोंके साथ, एक उच्चतर उद्देस्य--अमरताकी प्राप्ति-के लिये मनुष्यका जो प्रयत्न है और उसके जो साधन हैं, उनके प्रतीक थे । वैदिक द्रष्टाकी अभीप्सा थी मनुष्यके जीवनको समृद्ध बनाना और उसका विस्तार करना, उसके जीवन-यज्ञमें विविध. दिव्यत्यको जन्म देना और उसका निर्माण करना, उन दिव्यत्वोंकी शक्तिभुत जो बल, सत्य, प्रकाश, आनन्द आदि हैं उनकी वृद्धि करना जबतक कि मनुष्यका आत्मा अपनी सत्ताके परिवर्धित और उत्तरोत्तर खुलते जानेवाले लोकोंमेंसे होता हुआ ऊपर ने चढ़ जाय, जबतक वह यह न देख ले कि दिव्य द्वार
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(देवीर्द्वार:) उसकी पुकारपर खुलकर झूलने लगते हैं और जबतक वह उस दिव्य सत्ताके सर्वोच्च आनंदके अंदर प्रविष्ट न हो जाय जो द्यौ और पृथिवीसे परेका है । यह उर्द्व-आरोहण ही अंगिरस् ऋषियोंकी रुपककथा है ।
वैसे तो सभी देवता विजय करनेवाले और गौ, अश्व तथा दिव्य ऐश्वयोंको देनेवाले हैं, पर मुख्य रूपसे यह महान् देवता इन्द्र है जो इस संग्रामका वीर और योद्धा है और जो मनुष्यके लिये प्रकाश तथा शक्तिको जीतकर देता हे । इस कारण इन्द्रको निरन्तर गौओंका स्वामी 'गोपति' कहकर संबोघित किया गया है; उसका ऐसा भी आलंकारिक वर्णन आता है कि वह स्वयं गौ और घोड़ा है; वह अच्छा दोग्धा है जिसकी कि ॠषि दुहनेके लिये कामना करते हैं और जो कुछ वह दुहकर देता है वे हैं पूर्ण रूप और अंतिम विचार; वह 'वृषभ' है, गौओंका सांड है; गौओं और घोड़ोंकी वह संपत्ति जिसके लिये मनुष्य इच्छा करता है, उसीकी है । 6.28.5 में यह कहा भी है--'हे मनुष्यो ! ये जो गौएँ हैं, वे इन्द्र हैं; इन्द्रको ही मैं अपने हृदय से और मनसे चाहता हूँ ।'1 गौओं और इन्द्रकी यह एकात्मता महत्त्वकी है और हमें इसपर फिर लौटकर आना होगा जब हम इन्द्रको कहे मधुच्छन्दस्के सूक्तोंपर विचार करेंगे ।
पर साधारणतया ऋषि इस ऐश्वर्यकी प्राप्तिका इस तरह अलंकार खींचते है कि यह एक विजय है, जो कि कुछ शक्तियोंके मुकाबलेमें की गयी है; वे शक्तियाँ 'दस्यु' हैं, जिन्हें कहीं इस रूपमें प्रकट किया गया है कि वे अभीप्सित ऐश्वयौंको अपने कब्जेमें किये होते हैं जिन ऐश्वर्योंको फिर उनसे छीनना होता है और कहीं इस रूपमें वर्णन है कि वे उन ऐश्वर्योंको आर्योंके पाससे चुराते हैं और तब आर्योंको देवोंकी सहायतासे उन्हें खोजना और फिरसे प्राप्त करना होता है । इन वस्तुओंको जो कि गौओंको अपने कब्जेमें किये होते हैं या चुराकर लाते हैं, 'पणी' कहा गया है '। इस 'पणि' शब्दका मूल अर्थ कर्ता, व्यौहारी या व्यापारी रहा प्रतीत होता है, पर इस अर्थको कभी-कभी इससे जो और दूरका 'कृपण'का भाव प्रकट होता है उसकी रंगत वे दी जाती है । उन पणियोंका मुखिया है 'बल' एक दैत्य जिसके नामसे संभवत: ' चारों ओरसे घेर लेनेवाला' या 'अंदर बन्द कर लेनेवाला' यह अर्थ निकलता है, जैसे 'वृत्र'का अर्थ होता है विरोधी, विध्न डालनेवाला या सब ओरसे बन्द करके ढकनेवाला ।
. यह सलाह देना बड़ा आसान है कि पणि तो द्रवीड़ी हैं और
1 इमा या गाव: स जनास इन्द्र:, इच्छामि-हृदा मनसा चिदिन्द्रम् |
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'वल' उनका सरदार या देवता है, जैसा कि वे विद्वान् जो वेद में प्रारंभिक से प्रारंभिक इतिहासको पढ़नेकी कोशिश करते हैं, कहते भी हैं । पर यह आशय जुदा करके देखे गये संदर्भोमें ही ठीक ठहराया जा सकता है; अधिकतर सूक्तोंमें तो ॠषियोंके वास्तविक शब्दोंके साथ इसकी संगति ही नहीं बैठती और इससे उनके प्रतीक तथा अलंकार नुमायशी निरर्थक बातोंके एक गड़बड़ मिश्रणसे दीखने लगते हैं । इस असंगतिमें की कुछ बातोंको हम पहले ही देख चुके है; यह हमारे सामने अघिकाघिक स्पष्ट होती चलेगी, ज्यों-ज्यों हम खोयी हुई गौओंके कथानककी और अधिक नजदीकसे परीक्षा करेंगे ।
'वल' एक गुफामें; पहाड़ोंकी कंदरा ( बिल ) में रहता है; इन्द्र और अंगिरस् ऋषियोंको उसका पीछा करके वहाँ पहुँचना है और उसे अपनी दौलतको छोड़ देनेके लिये बाध्य करना है.; क्योंकि वह गौओंका 'वल' है--'वलस्य गोमत:' ( 1. 11 .5 ) । पणियोंको भी इसी रूपमें निरूपित किया गया है कि वे चुरायी हुई गौओंको पहाड़की एक गुफामें छिपा देते हैं, जो उनका छिपानेका कारागार 'वव्र' या गौओंका बाड़ा 'व्रज', कहलाता है या कभी-कभी सार्थक मुहावरे में उसे 'गव्यम् ऊर्वम्' ( 1.72 .8 ) कह दिया जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है, गौओंका विस्तार' या यदि 'गो'का दूसरा भाव लें, तो ''ज्योतिर्मय विस्तार", जगमगाती गौओंकी विस्तृत संपत्ति । इस खोयी हुई संपत्तिको फिरसे पा लेनेके लिये 'यज्ञ' करना पड़ता है; अंगिरस् या बृहस्पति और अगिरस् सच्चे शब्दका मन्त्रका, गान करते हैं; सरमा स्वर्गकी कुतिया, ढूंढ़कर पता लगाती है कि गौएँ पणियोंकी गुफामें है; सोम-रससे बली हुआ इन्द्र और उसके साथी द्रष्टा अगिस् पदचिह्नोंका अनुसरण करते हुए गुफामें जा घुसते हैं, या बलात् पहाड़के मजबूत स्थानोंको तोड़कर खोल देते हैं, पणियोंको हराते हैं और गौओंको छुड़ाकर ऊपर हांक ले जाते है ।
पहले हम इससे संबंध रखनेवाली कुछ उन बातोंको ध्यानमें ले आवें जिनकी कि उपेक्षा नहीं की जानी चाहिये, जब कि हम इस रूपक या कथा-नकका असली अभिप्राय निश्चित करना चाहते हैं । सबसे पहली बात यह कि यह कथानक अपने रूपवर्णनोमें चाहे कितना यथार्थ क्यों न हो तो भी वेदमें यह एक निरी गाथात्मक परंपरामात्र नहीं है, बल्कि वेदमें इसका प्रयोग एक स्याधीनता और तरलताके साथ हुआ है जिससे कि पवित्र परंपराके पीछे छिपा हुआ इसका सार्थक आलंकारिक रूप दिखायी देने लगता है । बहुधा वेदमें इसपरसे इसका गायात्मक रूप. उतार डाला गया है और इसे मंत्र-गायककी वैयक्तिक आवश्यकता या अभीप्साके अनुसार प्रयुक्त
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किया गया है । क्योंकि यह एक क्रिया है जिसे इन्द्र सदैव कर सकनेमें समर्थ है; यद्यपि यह इसे एक बार हमेशाके किये नमूनेके रूपमें अंगिरसोंके द्वारा कर चुका है फिर भी वह वर्तमानमें भी इस नमूनेको लगातार दोह-राता है, 'वह निरन्तर गौओंको खोजनेवाला--' गवेषणा' करनेवाला है और इस चुरायी हुई संपत्तिको फिरसे पा लेनेवाला है ।
कहीं-कहीं हम केवल इतना ही पाते हैं कि गौएं चुरायी गयीं और इन्द्रने उन्हें फिरसे पा लिया; सरमा, अंगिरस् या पणियोंका कोई उल्लेख नहीं होता । पर सर्वदा यह इन्द्र भी नहीं होता जो कि गौओंको फिरसे छुड़ाकर लाता है । उदाहरणके लिये, हमारे पास अग्निदेवताका एक सूक्त है, पंचम मण्डलका दूसरा सूक्त, जो अत्रियोंका है । इसमें गायक चुरायी हुई गौओंके अलंकारको खुद अपनी ओर लगाता है, ऐसी भावामें जो इसके प्रतीकात्मक होनेके रहस्यको स्पष्ट तौरसे खोल देती है ।
'अग्निको बहुत काल तक माता पृथ्वी भींचकर अपने गर्भमें छिपाये जती है, वह उसे उसके पिता द्यौको नहीं देना चाहती; वहां वह तबतक छिप पड़ा रहता है, जबतक कि वह माता सीमित रूपमें संकुचित रहती है ( पेषी ), अंतमें जब वह बड़ी और विस्तीर्ण ( महिषी ) हो जाती है तब उस अग्निका जन्म होता है ।1 अग्निके इस जन्मका संबंध चमकती हुई गौओंके प्रकट होने या दर्शन हनेके साथ दिखाया गया है । "मैंने दूर पर एक खेतमें एक को देखा, जो अपने शस्त्रोंको तैयार कर रहा था, जिसके दांत सोनेके थे, रंग साफ चमकीला था; मैंने उसे पृथक्-पृथक् हिस्सोंमें अमृत ( अमर रस, सोम ) दिया; वे मेरा क्या कर लेंगे जिनके पास इन्द्र नहीं है और जिनके पास स्तोत्र नहीं है ? मैंने उसे खेतमें देखा, जैसे कि यह एक निरन्तर विचरता हुआ, बहुरूप, चमकता हुआ. सुखी गौओंका झुंड हो; उन्होंने उसे पकड़ा नहीं, क्योंकि 'वह' पैदा हो गया था; वे ( गौएं ) भी जो बूढ़ी थीं, फिरसे जवान हो जाती हैं ।"2 परन्तु यदि इस समय ये दस्यु जिनके पास न इन्द्र है. और न स्तोत्र है, इन चमकती हुई. गौओंको
1. कुमारं माता युवतिः समुब्ध गहा विभर्ति न ददाति पित्रे.... 5.2.1
कमेतं त्वं युवते कुमार पेषी विभर्षि महिषी जजान |.... 5.2. 2
2. हिरण्यदन्तं रुचिवर्णमारात् क्षेत्रादपश्यामायुधा मिमानम् ।
ददानो अस्मा अमृतं विप्रुक्वत् किं मामनिन्द्राः कृष्णवन्ननुकथाः ||
क्षेत्रादपश्यं तनुतश्चरन्तं समद्युथं न पुरु शोभमानम् ।
न ता अगृभ्रन्नजनिष्ठ ही वः पलिक्नीरिद्युवतयो भवन्ति || 5.2.3,4
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पकड़नेमें अशक्त हैं, तो इससे पहले वे सशक्त थे जब कि यह चमकीला और जबर्दस्त देवत्व उत्पन्न नहीं हुआ था । ''वे कौन थे जिन्होंने मेरे बल-को ( मर्यकम्; मेरे मनुष्योंको समुदायको, मेरे वीरोंको ) गौओंसे अलग किया ? क्योंकि उन (मेरे मनुष्यों ) के पास कोई योद्धा और गौओंका रक्षक नहीं था । जिन्होंने मुझसे उनको लिया है, वे उन्हें छोड़ दें, वह जानता है और पशुओंको हमारे पास हांकता हुआ आ रहा है ।"1
हम उचित रूपसे प्रश्न कर सकते हैं कि ये चमकनेवाले पशु क्या हैं, ये गौएं कौन हैं जो पहले बूढ़ी थीं और फिरते जवान हो जाती हैं ? निश्चित ही वे भौतिक गौएं नहीं हैं, न ही यह खेत कोई यमुना या जेहलमके पासका पार्थिव खेत है, जिसमें कि ऋषिको सोनेके दांतोंवाले योद्धा देवका और चमकनेवाले पशुओंका भव्य दर्शन हुआ है । वे हैं या तो भौतिक उषाकी या दिव्य उषाकि गौएं, पर इनमेंसे पहला अर्थ लें तो भाषा ठीक नहीं जंचती; सो यह रहस्यमय दर्शन निश्चित रूपसे दिव्य प्रकाशका दर्शन है, जिसे कि यहाँ आलंकारिक रूपसे वर्णित किया गया है । वे ( गौएं ) हैं ज्योतियां जिन्हें कि अन्धकारकी शक्तियोंने चुरा लिया था और जो अब फिरसे दिव्य रूपमें प्राप्त कर ली गयी हैं, भौतिक अग्निके देवता द्वारा नहीं, बल्कि जाज्वल्यमान शक्ति ( अग्नि देव ) के द्वारा जो कि पहले भौतिक सत्ताकी क्षुद्रतामें छिपी पड़ी थी और अब उससे मुक्त होकर प्रकाश-मय मानसिक क्रियाकी निर्मलताओंमें प्रकट होती है ।.
तो केवल इन्द्र ही ऐसा देवता नहीं है जो इस अन्धकारमयी गुफाको तोड़ सकता है और खोयी हुई ज्योतियोंको फिरसे ला सकता है । और भी कई देवता हैं जिनके साथ भिन्न-भिन्न सूक्तोंमें इस महान् विजयका संबंध जोड़ा गया है । उषा उनमेंसे एक है, वह दिव्य उषा जो इन गौओंकी माता है । ''सच्चे देवोंके साथ जो सच्ची है, महान् देवोंके साथ जो महान् है, यज्ञिय देवोंके साथ यज्ञिय देवत्ववाली है, वह दृढ़ स्थानोंको तो ड़कर खोल देती है, वह चमकीली गौओंको दे देती है; गौएं उषाके प्रति रंभाती हैं ।''2 अग्नि एक दूसरा है, कभी वह स्वयं अकेला युद्ध करता है, जैसे कि हम पहले देख चुके हैं, और कभी इन्द्रके साथ मिलकर जैसे--'हे इन्द्र,
1. के मे मर्यकं वियवन्त गोभिर्न येषां, गोपा अरणअश्विवास |
य ई जगृभूरव ते सृजन्त्वाजाति पश्य उप नश्चिकित्वान् || 5.2.5
2. सत्या सत्येभिर्महती महद्भिर्देदी देवेभिर्यजता यजत्रैं: ।
. रुजद् दर्ळ्हानि ददस्त्रियाणां प्रति गाव उषसं वावशन्त |।, 7.75. 7
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हे अग्नि, तुम दोनोंने गौओंके लिये युद्ध किया है ( 6.60.2 )'1 या फिर सोमके साथ मिलकर जैसे--'हे अग्नि और सोम ! वह तुम्हारी वीरता ज्ञात हो गयी थी, जब कि तुमने पणियोसे गौओंको लूटा था ।. ( 1-93-4 ) ।'2 सोमका संबंध एक दूसरे संदर्भमें इस विजयके लिये इन्द्रके साथ जोड़ा गया है; 'इस देव ( सोम ) ने शक्तिसे उत्पन्न होकर, अपने साथी इन्द्रके साथ पणियोंको ठहराया'3 और दस्युओंके विरुद्ध लड़ते हुए देवोंकि सब वीरतापूर्ण कार्योको किया (6.44.22, 23, 24 ) । 6.62.11 में अश्विनोंको भी इस कार्यसिद्धिको करनेका गौरव दिया गया है--'तुम दोनों गौओंसे परिपूर्ण मजबूत बाड़ेके दरवाजोंको खोल देते हो ।'4 और फिर 1.112.18 में पुन: कहा है, 'हे अगिर: ! ( युगल अश्विनोंको कभी-कभी इस एकत्ववाची नाममें संगृहीतकर दिया जाता है ) तुम दोनों मनके द्वारा आनन्द लेते हो और तुम सबसे पहले गौओंकी धारा-गोअर्णस:--के विवरमें प्रवेश करते हो,5 'गोअर्णस:' का अभिप्राय स्पष्ट है कि प्रकाशकी उन्मुक्त हुई, उमड़ती हुई धारा था समुद्र ।
बृहस्पति और भी अधिकतर इस विजयका महारथी है । '' बृहस्पति-न, जो सर्वप्रथम परम व्योममें महान् ज्योतिमेंसे पैदा हुआ, जो सात मुखों-वाला है, बहुजात है, सात किरणोंवाला है, अन्धकारको छिन्न-भिन्न कर दिया; उसने स्तुभ् और ऋक्को धारण करनेवाले अपने गणके साथ, अपनी गर्जना द्वारा 'वल'के टुकड़े-टुकड़े कर दिये । गर्जता हुआ वृहस्पति हव्यको प्रेरित करनेवाली चमकीली गौओंको ऊपर हाँक ले गया और वे गौएं प्रत्युत्तरमें रंभायीं ( 4.50.5 )' और 6.73.1 और 3 में फिर कहा है, '' बृहस्पति जो पहाड़ी ( अद्रि ) को तोड़नेवाला है, सबसे पहले उत्पन्न हुआ है, आंगिरस है;.. उस बृहस्पतिने खजानोंको ( वसूनि ) जीत लिया,
1. ता योषिष्टमभि गा :।
2. अग्नीषोमा चेति तद्वीर्य वां यदमुष्णीतमभवसं पर्णिं गा : ।
3. अयं देव: सहसा जायमान इन्द्रेण युजा पणिमस्तभायत् । 6.44.22
4. दळहस्य चिद् गोमतो वि ब्रजस्य दुरो वर्तम् ।
5. याभिरङ्गिरों मनसा निरण्यथोऽप्रं गच्छथो विवरे गो-अर्णस: ।
6. बृहस्पतिः प्रथमं जायमानो महो ज्योतिष: परमे व्योमन् ।
सप्तास्यस्तुविजातो रवेण वि सप्तरश्मिरधमत्तमांसि ।।
स सुष्टुभा स ॠक्वता गणेन बलं रुरोज कलिगं रवेण ।
बृहस्पतिरुस्त्रिया हव्यसूदः कनिक्रदद् वावशतीरुदाजत् ||
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इस देवने गौओंसे भरे हुए बड़े-बड़े बाड़ोंको जीत लिया ।''1 मरुत् भी जो कि बृहस्पतिकी सच्च ऋक्के गायक हैं, इस दिव्य क्रियासे संबंध रखते हैं, यद्यपि अपेक्षाकृत कम साक्षात् रूपसे । 'वह, जिसका हे मरुतो ! तुम पालन करते हो, बाड़ेको तोड़कर खोल देगा', (6.66.8 ) 2 । और एक दूसरे स्थान पर मरुतोंकी गौएं सुननेमें आती हैं ( 1.38.2 ) 3 ।
पूषाका भी, जो कि पुष्टि करनेवाला है, सूर्य देवताका एक रूप है, आवाहन किया गया है कि वह चुरायी हुई गौओंका पीछा करे और उन्हें फिरसे दूंढ़कर लाये, ( 6.54 ) -'पूषा हमारी गौओंके पीछे-पीछे जाये, पूषा हमारे युद्धके घोड़ोंकी रक्षा करे ( 5 )... हे पूषन्, तू गौओंके पीछे जा ( 6 )... जो खो गया था उसे फिरसे हमारे पास हांककर ला दे ( 10 ) 4 |' सरस्वती भी पणियोंका वध करनेवालीके रूपमें आतीं है । और मधुच्छन्दस्-के सूक्त( 1. 11 .5 ) में हमें अद्भुत अलंकार मिलता है, 'ओ वज्रके देवता, तूने गौओंवाले वलकी मुफाको खोल दिया; देवता निर्भय होकर शीघ्रतासे गति करते हुए (या अपनी शक्तिको व्यक्त करते हुए ) ''तेरे अंदर प्रविष्ट हो गये ।''5
क्या इन सब विभिन्न वर्णनोंमें कुछ एक निश्चित अभिप्राय निहित है, जो इन्हें परस्पर इकट्ठा करके एक संगतिमय विचारके रूपमें परिणत कर देगा, अथवा यह बिना किसी नियमके यूं ही हो गया है कि ऋषि अपने खोये हुए पशुओंको ढूंढ़नेके लिये और युद्ध करके उन्हें फिरसे पानेके लिये कभी इस देवताका आवाहन करने लगते हैं और कभी उस देवेताका ? बजाय इसके कि हम वेदके अंशोंको पृथक्-पृथक् लेकर उनके विस्तारमें अपने-आपको भटकावें यदि हम वेद के विचारोको एक संपूर्ण .अवयवीके रूपमें लेना स्वीकार करें तो हमें इसका बड़ा सीधा और संतोषप्रद उत्तर मिल जायगा । खोयी हुई गौओंका यह वर्णन परस्परसंबद्ध प्रतीकों और अलंकारोंके पूर्ण संस्थानका अंगमात्र है । वे गौएं यज्ञके द्वारा फिरसे प्राप्त होती हैं और आगका
1. यो अद्रिभित् प्रथम्जा ॠतावा बुहस्पसिराङ्गिरसो हमिष्मानू ।....
बृहस्पतिः समजयदू वसूनि महो व्रजान् गोमतो देव एव: ।... 6.73.1,3
2. मरुतो यमवय... स व्रजं वर्ता । 3. '' क्व वो गावो न रण्यन्ति । 4. पूषा गा अन्वेतु नः पूषा रक्षत्वर्वत: (5 )... पूषन्ननु गा इहि ( 6 ) पुनर्नो नष्ठमाजतु ( 10 )
5. त्वं बलस्य गोमतोऽपावरद्रिवो. विलमू ।.
त्वां देवा अभिम्युषस्तु ज्यमानास आविषुः ||
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देवता अग्नि इस यज्ञकी ज्वाला है, शक्ति है और पुरोहित है-मंत्र (स्तोत्र ) के द्वारा ये प्राप्ति होती हैं और वृहस्पति इस मंत्रका पिता है, मरुत् इसके गायक या ब्रह्मा है, (ब्रह्माणो मरुत: ), सरस्वती इसकी अन्तःप्रेरणा है; - इस द्वारा ये प्राप्त होती है और सोम इस रसका देवता है, तथा अश्विन् इस रसके खोजनेवाले, पा लेनेवाले, देनेवाले और पीनेवाले हैं । गौएँ हैं प्रकाशकी गौएं, और प्रकाश उषा द्वारा आता है, या सूर्य द्वारा आता है, जिस सूर्यका कि पूषा एक रूप है और अन्तिम यह कि इन्द्र इन सब देवताओंका मुखिया है, प्रकाशका स्वामी है, 'स्व:' कहानेवाले ज्योतिर्मय लोकका अधिपति है,--हमारे कथनानुसार वह प्रकाशमय या दिव्य मन है; उसके अंदर सब देवता प्रविष्ट होते हैं और छिपे हुए प्रकाशको खोल देनेके उसके कार्यमें हिस्सा लेते हैं ।
इसलिये हम समझ सकते हैं कि इसमें पूर्ण औचित्य है कि एक ही विजयके साथ इन भिन्न-भिन्न देवताओंका संबंघ बताया गया है और मधु-च्छन्दस्के आलंकारिक वर्णनमें इन देवताओंके लिये यह कहा गया है कि ये 'वल' पर प्रहार करनेके लिये इन्द्रके अंदर प्रविष्ट हो जाते हैं | कोई भी बात बिना किसी निश्चित विचारके यूं ही अटकछपच्चुसे या विचारोंकी एक गड़बड़ अस्थिरताके वशीभूत होकर नहीं कही गयी है । वेद अपने वर्णनों-की संगतिमें और अपनी एकवाक्यतामें पूर्ण तथा सुरम्य है ।
इसके अतिरिक्त, यह जो प्रकाशको विजय करके जाना है वह वैदिक यज्ञकी महान् क्रियाका केवल एक अंग है । देवताओंको इस यज्ञके द्वारा उन सब वरोंको (विश्वा वार्या ) जीतना होता है जो कि अमरताकी विजय-के लिये आवश्यक हैं और छिपे हुए प्रकाशोंका आविर्भाव करना केवल इनमें-से एक वर है । शक्ति ( अश्व ) भी वैसी ही आवश्यक है जैसा कि प्रकाश (गौ); केवल इतना ही आवश्यक नहीं है कि 'वल'के पास पहुंचा जाय और उसके जबर्दस्त पंजेसे प्रकाशको जीता जाय, वृत्रका वध करना और जलोंको मुक्त करना भी आवश्यक है; चमकती हुई गौओंके आविर्भावका अभिप्राय है उषाका और सूर्यका उदय होना; यह फिर अधूरा रहता है; बिना यज्ञ, अग्नि और सोमरसके । ये सब वस्तुएं एक ही क्रियाके विभिन्न अंग हैं, कहीं इनका वर्णन जुदा-जुदा हुआ है, कहीं वर्गोमें, कहीं सबको इकट्ठा मिला-कर इस रूषमें कि मानो यह एक ही क्रिया है, एक महान् पूर्ण विजय है । और उन्हें अधिगत कर लेनेका परिणाम यह होता है कि वृहत् सत्यका आवि-र्भाव हो जाता है और 'स्व':की प्राप्ति हो जाती है, जो कि ज्योतिर्मय लोक है और जिसे जगह-जगह 'विस्तृत दूसरा लोक' ऊरुम् उ लोकम् केवल
देवता अग्नि इस यज्ञकी ज्वाला है, शक्ति है और पुरोहित है,--मंत्र (स्तोत्र ) के द्वारा ये प्राप्त होती हैं और बृहस्पति इस मंत्रका पिता है, मरुत् इसके गायक या ब्रह्मा हैं, (ब्रह्माणो मरुत:), सरस्वती इसकी अन्तःप्रेरणा है;--रस द्वारा ये प्राप्त होती हैं और सोम इस रसका देवता है, तथा अश्विन् इस रसके खोजनेवाले, पा लेनेवाले, देनेवाले और पीनवाले हैं । गौएँ हैं प्रकाशकी गौएँ, और प्रकाश उषा द्वारा आता है, या सूर्य द्वारा आता है, जिस सूर्यका कि पूषा एक रूप हे और अन्तिम यह कि इन्द्र इन सब देवताओंका मुखिया है, प्रकाशका स्वामी है, 'स्व:' कहानेवाले ज्योतिर्मय लोकका अधिपति है,--हमारे कथनानुसार वह प्रकाशमय या दिव्य मन है; उसके अंदर सब देवता प्रविष्ट होते हैं और छिपे हुए प्रकाशको खोल देनेके उसके कार्यमें हिस्सा लेते हैं ।
इसलिये हम समझ सकते हैं कि इसमें पूर्ण औचित्य है कि एक ही विजयके साथ इन भिन्न-भिन्न देवताओंका संबंध बताया गया है और मधु-च्छन्दस्के आलंकारिक वर्णनमें इन देवताओंके लिये यह कहा गया है कि ये 'वल' पर प्रहार करनेके लिये इन्द्रके अंदर प्रविष्ट हो जाते है । कोई भी बात बिना किसी निश्चित विचारके यूं ही अटकलपच्चूसे या विचारोंकी एक गड़बड़ अस्थिरताके वशीभूत होकर नहीं कही गयी है । वेद अपने वर्णनों-की संगतिमें और अपनी एकवाक्यतामें पूर्ण तथा. सुरम्य है ।
इसके अतिरिक्त, यह जो प्रकाशको विजय करके लाना है वह वैदिक यज्ञकी महान् क्रियाका केवल एक अंग है । देवताओंको इस यज्ञके द्वारा उन सब वरोंको (विश्वा वार्या ) जीतना होता है जो कि अमरताकी विजय-के लिये आवश्यक हैं और छिपे हुए प्रकाशोंका आविर्भाव करना केवल इनमें-से एक वर है । शक्ति (अश्व) भी वैसी ही आवश्यक है जैसा कि प्रकाश (गौ); केवल इतना ही आवश्यक नहीं है कि 'वल'के पास पहुंचा जाय और उसके जबर्दस्त पंजेसे प्रकाशको जीता जाय, वृत्रका वध करना और जलोंको मुक्त करना भी आवश्यक है; चमकती हुई गौओंके आविर्भावका अभिप्राय है उषाका और सूर्यका उदय होना; यह फिर अधूरा रहता है, बिना यज्ञ, अग्नि और सोमरसके | ये सब वस्तुएं एक ही क्रियाके विभिन्न अंग हैं, .कहीं इनका वर्णन जुदा-जुदा हुआ है, कहीं वर्गोंमें, कहीं सबको इकट्ठा मिला-कर इस रूपमें कि मानो यह एक ही क्रिया हैं, एक महान् पूर्ण विजय है । और उन्हें अधिगत कर लेनेका परिणाम यह होता है कि बृहत् सत्यका आवि-र्भाव हो जाता है और 'स्व':की प्राप्ति हो जाती है, जो कि ज्योतिर्मय लोक है और जिसे जगह-जगह 'विस्तृत दूसरा लोक', उरुम् उ लोकम् या केवल
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'दूसरा लोक', उ लोकम् कहा है । पहले हमे इस एकताको अच्छी तरह हृदयंगम कर लेना चाहिये यदि हम ऋग्वेदके विविध संदर्भोंमें आनेवाले इन प्रतीकोंका पृथक्-पृथक् परिचय हृदयंगम करना चाहते हैं ।
इस प्रकार 6.73 में जिसका हम पहले भी उल्लेख कर चुके हैं, हम तीन मंत्रोंका एक छोटा सा सूक्त पाते हैं जिसमें ये प्रतीक-शब्द संक्षेपमें अपनी एकताके साथ इकट्ठे रखे हुए हैं; इसके लिये यह भी कहा जा सकता है कि यह वेदके उन स्मारक सूक्तोंमेंसे एक है जो वेदके अभिप्रायकी और इसके प्रतीकवादकी एकताको स्मरण कराते रहनेका काम करते हैं ।
''वह जो पहाड़ीको तोड़नेवाला है, सबसे पहले उत्पन्न हुआ, सत्यसे युक्त, बृहस्पति जो आंगिरस है, हविको देनेवाला है, दो लोकोंमें व्याप्त होनेवाला, (सूर्यके ) ताप और प्रकाशमें रहनेवाला, हमारा पिता है, वह वृषभकी तरह दो लोकों (द्यावापृथिवी ) में जोरसे गर्जता है ( 1 ) । बृह-स्थति, जिसने कि यात्री मनुष्यके लिये, देवताओंके आवाहनमें, उस दूसरे लोकको रचा है, वृत्रशक्तियोंका हनन करता हुआ नगरोंको तोड़कर खोल देता है, शत्रुओंको जीतता हुआ और अमित्रोंका संग्रामोंमें पराभव करता हुआ ( 2 ) । बृहस्पति उसके लिये खजानोंको जीतता है, यह देव गौओंसे भरे हुए बड़े-बड़े बाड़ोंको जीत लेता है, 'स्व:'के लोककी विजयको चाहता हुआ, अपराजेय, बृहस्पति प्रकाशके मंत्रों द्वारा (अर्कै: ) शत्रुका वध कर देता है ( 3 ) ।"1 एक साथ यहाँ हम इस अनेकमुख प्रतीकवादकी एकता-को देखते हैं ।
एक दूसरे स्थलमें जिसकी भाषा अपेक्षाकृत अधिक रहस्यमय है, उषाके विचारका और सूर्यके लुप्त प्रकाशकी पुन: प्राप्ति या नूतन उत्पत्तिका वर्णन आता है, जिसका कि बृहस्पतिके संक्षिप्त सूक्तमें स्पष्ट तौरसे जिक्र नहीं आ सका है । यह सोमकी स्तुतिमें है, जिसका प्रारंभिक वाक्य पहले भी उद्धृत किया जा चुका है, ( 6.44.22 ) ''इस देव (सोम ) ने शक्ति द्वारा पैदा होकर अपने साथी इन्द्रके साथ पणिको ठहराया; इसीने अपने अशिव
1. यो अद्रिभित् प्रथमजा ॠतावा बृहस्पतिराअङ्गिरसो हविष्मान् ।
द्विबर्हज्मा प्राघर्मसत् पिता न आ रोदसी वृषभो रोरवीति ।। १।।
जनाय चिद् य ईवत उ लोकं बृहस्पतिर्देवहुतौ चकार ।
ध्यन् वृत्राणि वि पुरी दर्दरीति जयच्छत्रुंरमित्रान् पूत्सु साहन् ।।२।।
बृहस्पति: समजयद् वसूनि महो व्रजान् गोमतो देव एषः ।
अप: सिषासन्त्स्वरप्रतीतो बृहस्पतिर्हन्त्यमित्रमर्कै: ।।३।। 673
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पिता (विभक्त सत्ता ) के पाससे युद्धके हथियारोंको और ज्ञानके रूपोंको (.माया:) छीना ।22। इसीने उषाओंको शोभन पतिवाला किया, इसीने सूर्यके अन्दर ज्योतिको रचा, इसीने द्युलोकमें-इसके दीप्यमान प्रदेशों (स्व: के तीन लोकों ) में--( अमरत्वके ) त्रिविध तत्त्वको, और त्रिविभक्त लोकोंमें छिपे हुए अमरत्वको पाया (यह अमृत का पृथक्-पृथक् हिस्सोंमें देना है जिसका कि अत्रिके अग्निको संबोधित किये गये सूक्तमें वर्णन आया है, सोम-का त्रिविध हव्य है जो कि तीन स्तरों पर, 'त्रिषु सानुषु', शरीर, प्राण और मन पर दिया गया है ) ।23| इसीने द्यावापृथिवीको थामा, इसीने सात रश्मियोंवाले रथको जोड़ा । इसीने अपनी शक्तिके द्वारा ( मधु या घृत के ) पके फलको गौओंमें रखा और दस गतियोंवाले स्रोतको भी ।"1
यह मुझे सचमुच बड़ी हैरानीकी बात लगती है कि इतने तेज और आला दिमाग ऐसे सूक्तोंको जैसे कि ये है पढ़ गये और उन्हें यह समझ-में न आया कि ये प्रतीकवादियों और रहस्यवादियोंकी पवित्र, धार्मिक कवि-ताएं हैं, न कि प्रकृति-पूजक जंगलियोंके गीत और न उन असभ्य आर्य आक्रान्ताओंके जो कि सभ्य और वैदान्तिक द्रविड़ियोंसे लड रहे थे ।
अब हम शीघ्रताके साथ कुछ दूसरे स्थलोंको देख जायं जिनमें कि इन प्रतीकोंका अपेक्षाकृत अधिक बिखरा हुआ संकलन पाया जाता है । सबसे पहले हम यह पाते हैं कि पहाड़ीमें बने हुए गुफारूपी बाड़ेके इस अलंकार-में गौ और अश्व इकट्ठे आते हैं, जैसे कि अन्यत्र भी हम यही बात देखते हैं । यह हम देख चुके हैं कि पूषाको पुकारा गया है कि वह गौओंको खोजकर लाये और घोड़ोंकी रक्षा करे । आर्योंकी संपत्तिके ये दो रूप हमेशा लुटेरों ही की दया पर ? पर आइये; हम देखें । ''इस प्रकार सोमके आनंदमें आकर तूने, ओ वीर ( इन्द्र ) ! गाय और घोड़ेके बाड़ेको तोड़कर खोल दिया, एक नगरकी न्याईं ( 8. 32. 5 ) ।2 हमारे लिये तू बाड़ेको तोड़कर सहस्रों गायों और घोड़ोंको खोल दे । ( 8.34.14 ) ।"3 "है
1. अयं देव: सहसा जायमान इन्द्रेण यजा पणिमस्तभायत् ।
अयं स्वस्य पितुरायुधानीन्दुरमुष्णादशिवस्य माया: ।।२२।।
अयमकृणोदुषस: सुपत्नीरयं सूर्ये अदषाज्ज्योतिरन्त: ।
अयं त्रिधातु दिवि रोचनेषु त्रितेषु विन्ददमृतं निगूळहम् ।।२३।।
अयं द्यावापृथिवी विष्कभायदयं रथमपुनक् सप्तरश्मिम् ।
अयं गोष शच्या पक्वमन्त: दाधार दशयन्त्रमुत्सम् ।।२४।। ( 6.44 )
2. स गोरश्वस्य वि व्रजं मन्दान: सोम्येभ्यः । पुरं न शूर दर्षसि ।।
3. आ नो गव्यान्यश्वा सहस्त्रा शूर दुर्दृहि |
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इन्द्र ! तू जिसे गौ, अश्व और अविनश्वर सुखको धारण करता है, उसे तू यज्ञकर्त्ताके अन्दर स्थापित कर, पणिके अन्दर नहीं, उसे जो नींदमें पड़ा है, कर्म नहीं कर रहा है और देवोंको नहीं ढूंढ़ रहा है, अपनी ही चालोंसे मरने दे; उसके पश्चात् (हमारे अन्दर ) निरन्तर ऐश्वर्यको रख जो अधिका-घिक पुष्ट होते जानेवाला हो, (8 .97.2-3 ) ।"1
एक दूसरे मंत्रमें पणियोंके लिये कहा गया है कि वे गौ और घोड़ोंकी संपत्तिको रोक रखते हैं, अवरुद्ध रखते हैं । हमेशा ये वे शक्तियाँ होती हैं जो अभीप्सित संपत्तिको पा तो लेती हैं, पर इसे काममें नहीं लातीं, नींदमें पड़े रहना पसंद करती हैं, दिव्य कर्म (व्रत ) को उपेक्षा करती हैं और ये ऐसी शक्तियाँ हैं जिन्हें अवश्य नष्ट हो जाना या जीत लिया जाना चाहिये इससे पहले कि संपत्ति सुरक्षित रूपसे यज्ञकर्त्ताके हाथमें आ सके और हमेशा ये 'गौ' और 'घोड़े' उस संपत्तिको सूचित करते हैं जो छिपी पड़ी है और कारागारमें बन्द है और जो किसी दिव्य पराक्रमके द्वारा खोले जाने तथा कारागारसे छुड़ाये जानेकी अपेक्षा रखती है ।
चमकनेवाली गौओंकी इस विजयके साथ उषा और सूर्यकी विजयका या उनके जन्म होनेका अथवा प्रकाशित होनेका भी संबंध जड़ा हुआ है, पर यह एक ऐसा विषय चल पड़ता है जिसके अभिप्राय पर हमें एक दूसरे अध्यायमें विचार करना होगा । और गौओं, उषा तथा सूर्यके साथ संबंध जुड़ा हुआ है जलोंका; क्योंकि जलोंके बंधनमुक्त होनेके साथ वृत्रका वध होना और गौओंके बंघन-मुक्त होनेके साथ 'वल'का पराजित होना ये दोनों परस्पर सहचरी गाथाएं हैं । ऐसी बात नहीं कि ये दोनों कथानक बिलकुल एक दूसरेसे स्वतंत्र हों और आपसमें इनका कोई संबंध न हो । कुछ स्थलों-में, जैसे 1.32.4 में, हम यहाँतक देखते हैं कि वृत्रके वधको सूर्य, उषा और द्युलोकके जन्मका पूर्ववर्ती कहा गया है और इसी प्रकार कुछ अन्य संदर्भोंमें पहाड़ीके खुलनेको जलोंके प्रवाहित होनेका पूर्ववर्ती समझा गया है । दोनों-के सामान्य संबंधके लिये हम निम्नलिखित संदर्भो पर ध्यान दे सकते हैं-
( 7.90.4 ) 'पूर्ण रूपसे जगमगाती हुई और अहिंसित उषाएं खिल उठीं; ध्यान करते हुए, उन्होंने (अंगिरसोंने ) विस्तृत ज्योतिको पाया;
1. यमिन्द्व दधिषे त्यमश्वं गां भागमध्ययम् ।
यजमाने सुन्यति दक्षिणायति तस्मिन् तं धेहि मा पणौ ।
य इन्द्र सस्त्यव्रतोइनुश्वापमदेवयु: ।
स्वै: ष एवैर्मुमुरत् पोष्यं रयिं सनुतर्धेहि तं तत: ।।
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उन्होंने जो इच्छुक थे, गौओंके विस्तारको खोल दिया और उनके लिये द्युलॉक से जल प्रस्रवित हुए ।'1
( 1. 72..8 ) ' यथार्थ विचारके द्वारा द्युलोककी सात ( नदियों ) ने सत्य-को जान लिया और सुखके द्वारोंको जान लिया; सरमाने गौओंके दृढ़ विस्तारको ढूंढ़ लिया और उसके द्वारा मानवी प्रजा सुख भोगती है ।''2
( 1.100.18 ) इन्द्र तथा मरुतोंके विषयमें, 'उसने अपने चमकते हुए सखाओंके साथ क्षेत्रको अधिगत किया, सूर्यको अधिगत किया, लोंको अधि-गत किया ।'3
( 5.14.4 ) अग्निके विषयमें, ' अग्नि उत्पन्न होकर दस्युओंका हनन करता हुआ, ज्योतिसे अन्धकारका हनन करता हुआ, चमकने लगा; उसने गौओंको, जलोंको और स्व:को पा लिया ।'4
( 6.60.2 ) इन्द्र और अग्निके बिषयमें, 'तुम दोनोंने युद्ध किया । गौओंके लिये, जलोंके लिये, स्व: कैं लिये, उषाओंके लिये जो छिन गयी थीं; हे इन्द्र ! हे अग्ने ! तू ( हमारे लिये ) प्रदेशोंको, स्व:उको, जगमगाती उषाओंको, जलोंको और गौओंको एकत्र करता है ।''5
( 1.32.12 ) इन्द्रके विषयमें, ' ओ वीर! तूने गौको जीता, तूने सोम-को जीता; तूने सात नदियोंको अपने स्रोतमें बहनेके लिये ढीला छोड़ दिया ।''6
अन्तिम उद्धरणमें हम देखते हैं कि इन्द्रकी विजित वस्तुओंके बीचमें सोम भी गौओंके साथ जुड़ा हुआ है । प्रायश: सोमका मद ही वह शक्ति होती है जिसमें भरकर इन्द्र गौओंको जीतता है; उदाहरणके लिये देखो--3.43.7, सोम 'जिसके मदमें तूने गौओंके बाड़ोंको खोल दिया';7 2.15.8, 'उसने अंगिरसोंसे स्तुत होकर, 'बल' को छिन्न-भिन्न, कर दिया और पर्वतके
1. उच्छन्नुषस: सुविना अरिप्रा उरु ज्योतिर्विविदुर्दीध्याना: ।
गव्यं चिदूर्वमुशिजो वि वव्रुस्तेषामनु प्रदिव: सस्त्रुराप: ।।
2. स्वाध्यो दिव आ सप्त यह्वी रायो दुरो व्यृतज्ञा अजानन् ।
विदद् गव्यं सरमा दृक्हमूर्व येना नु कं मानुषी भोजते विट् ।।
3. सनत् क्षेत्र सखिभि: श्वित्न्येभिः सनत् सूर्य सनदपः सुव्रज्र: ।
4. अग्निर्जातो अरोचत ध्नन् वस्यूञ्चोतिषा तम: । अविन्दद् गा अप: स्व: ।।
5. ता योधिष्टमभि गा इन्द्र नूनमप: स्वरुषसो अग्न ऊळहाः |
दिश: स्वरुषस इन्द्र चित्रा अपो गा अग्ने युवसे नियुत्वान् ।।
6. अजयो गा अजय: शूर सोमंमवासृज: सर्तवे सप्त सिन्धुन् ।
7. यस्य मदे अप गोत्रा वयर्थ ।'
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दृढ़ स्थानोंको उछाल फेंका; उसने इनकी कृत्रिम बाधाओंको अलग हटा दिया; ये सब काम इन्द्रने सोमके मदमें किये ।'1 फिर भी, कहीं-कहीं यह क्रिया उलट गयी है और प्रकाश सोम-रसके आनंदको लानेवाला हो गया है, अथवा ये दोनों एक साथ आते है जैसे 1 .62.5 में ''ओ कार्योको पूर्ण करनेवाले ! अंगिरसोंसे स्तुति किये गये तूने उषाके साथ (या उषाके द्वारा ), सूर्यके साथ (या सूर्यके द्वारा ) और गौओंके साथ (या गौओंके द्वारा ) सोम-को खोल दिया ।"2
अग्नि भी, सोमकी तरह, यज्ञका एक अनिवार्य अंग है और इसलिये हम अग्निको भी परस्पर संबंध प्रदर्शित करनेवाले इन सूत्रोंमें सम्मिलित हुआ पाते हैं, जैसे 7.99.4 में, 'सूर्य, उषा और अग्निको प्रादुर्भूत करते हुए तुम दोने विस्तृत दूसरे लोकको यज्ञके लिये (यज्ञके उद्देश्यके रूपमें ) रचा ।'3 और इसी सूत्रको हम 3.31.1 54 में पाते हैं, फर्क इतना है कि वहाँ इसके साथ 'मार्ग' (गातु ) और जुड़ गया है, और यही सूत्र 7.44.35 भी है, पर वहाँ इनके अतिरिक्त 'गौ' का नाम अधिक है ।
इन उद्धरणोंसे यह प्रकट हो जायगा कि वेदके भिन्न-भिन्न प्रतीक और रूपक कैसी घनिष्ठताके साथ आपसमें जुड़े हुए हैं । और इसलिये हम वेद-की व्याख्याके सच्चे रास्तेसे चूक जायँगे यदि हम अंगिरसों तथा पणियोंके कथानकको इस रूपमें लेंगे कि यह एक औरोंसे अलग ही स्वतंत्र कथानक है, जिसकी हम अपनी मर्जीसे जैसी चाहें व्याख्या कर सकते हैं, बिना ही इस बातकी विशेष सावधानी रखे कि हमारी व्याख्या वेदके सामान्य विचार- के साथ अनुकूल भी बैठती है, और बिना ही उस प्रकाशका ध्यान रखे जो वेदके इस सामान्य विचार द्वारा कथानककी उस आलंकारिक भाषा पर जिसमें कि यह वर्णित किया गया है पड़ता है ।
1. भिनद् थलमङ्गि:रोभिर्तानो वि पर्षतस्य दृहितान्यैरत् ।
रिणग्रोधांसि कृत्रिमाष्येषां सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार । ।
2. गृणानो अत्रिग्रोभिर्दस्म विवरुषसा सूयेंण गोभिरन्धः ।
3. उरुं यज्ञाय चक्रथुरु लोकं जनयन्ता सूर्यमुषासमग्निम् ।
4. इन्द्रो नृभिरजनद् दीवान: साकं सूर्यमुषसं गातुमग्निम् ।
5. अग्निमुप ब्रुव उषसं सूर्य गाम् ।
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पन्द्रहवाँ अध्याय
खोया हुआ सूर्य और खोयी हुई गौएं
सूर्य और उषाका विजय कर लेना या इनका फिरसे प्रकट होना इस विषयका वर्णन ऋग्वेदके सूक्तोंमें बहुत पाया जाता है । कहीं तो यह इस रूपमें मिलता है कि 'सूर्य'को ढूंढ़कर प्राप्त कर लिया गया और कहीं 'स्व:' अर्थात् सूर्यके लोकको प्राप्त किया गया या इसे विजित किया गया, ऐसा वर्णन है । सायणने यद्यपि 'स्व:'को 'सूर्य'का पर्याय मान लिया है, फिर भी कई स्थलोंसे यह बिलकुल स्पष्ट है कि 'स्व:' एक लोकका नाम है, उस उच्च लोकका जो सामान्य पृथ्वी और आकाशसे ऊपर है । कहीं-कहीं अवश्य इस 'स्वः'का प्रयोग 'सौर ज्योति'के लिये हुआ है, जो सूर्यकी और इसके प्रकाशसे निर्मित लोककी--दोनोकी ज्योतिके लिये है । हम देख चुके हैं कि वह जल जो स्वर्गसे नीचे उतरता है और जो इन्द्र और उसके मर्त्य साथियों द्वारा जीता जाकर उपभोग किया जाता है 'स्वर्वती: आप'के .रूपमें वर्णित किया गया है । सायण इस 'आप:'को भौतिक जल मानकर 'स्यर्वती: 'का कोई दूसरा अर्थ निकालनेके लिये बाध्य था और इसलिये वह लिखता है कि इसका अर्थ है, 'सरणवती:' अर्थात् बहनेवाले । परंतु यह स्पष्ट ही एक खींचातानीका अर्थ है, जो मूल शब्दसे निकलता हुआ प्रतीत नहीं होता और जो शायद किया भी नहीं जा सकता । इन्द्रके वज्रको स्वर्लोकका पत्थर, स्वर्य अश्मा, कहा गया है । इसका अभिप्राय यह हुआ कि इसका प्रकाश वही है जो सौर ज्योतिसे जगमगाते इस लोकसे आता है । इन्द्र स्वयं 'स्वर्पति' अर्थात् इस ज्योतिर्मय लोक 'स्व:'को अधिपति है ।
इसके अतिरिक्त, जैसे हम देखते हैं कि गौओंको खोजना और फिरसे प्राप्त कर लेना यह सामान्यतया इन्द्रका कार्य वर्णित किया जाता है और वह बहुधा अगिरस् ऋषियोंकी सहायतासे तथा अग्नि और सोमके मंत्र व यज्ञके द्वारा होता है, वैसे ही सूर्यके खोजने और फिरसे पा लेनेका संबंध भी उहीं साधनों और हेतुओंके साथ है । साथ ही इन दोनों क्रियाओंका एक दूसरेके साथ निरन्तर संबंध है । मुझे लगता है कि स्वयं वेदमें ही इस बातकी पर्याप्त साक्षी है कि ये सब वर्णन असलमें एक ही महान् क्रिया-के अंगभूत हैं । गौएं उषा या सूर्यकी छिपी हुई किरणें हैं और अंधकारसे उनकी
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मुक्ति उस सूर्यके जो कि अंधकारमें छिपा हुआ था उदय हो जानेका कारण होती है या चिह्न है । यही उच्च ज्योतिर्मय लोक 'स्व:'की विजय है, जो हमेशा यज्ञकी, यज्ञिय अवस्थाओं और यज्ञके सहायक देवोंकी सहायतासे होती है । मैं समझता हूं इतने परिणाम निःसंदेह स्वयं वेदकी भाषासे निक-लते हैं । परन्तु साथ ही वेदकी उस भाषासे इस बातका भी संकेत मिलता है कि यह 'सूर्य' दिव्य-ज्योतिको देनेवाली शक्तिका प्रतीक है और 'स्व:' दिव्य सत्यका लोक है और इस दिव्य सत्यकी विजय ही वैदिक ऋषियोंका वास्तविक लक्ष्य और उनके सूक्तोंका मुख्य विषय है । अब मैं यथासंभव शीघ्रताके साथ उस साक्षीकी परीक्षा करूंगा जिससे हम इन परिणामों पर पहुंचते हैं ।
सबसे पहले, हम देखते हैं कि वैदिक ऋषियोंके विचारमें 'स्व:' और 'सूर्य' भिन्न-भिन्न वस्तुएं हैं, पर साथ ही इन दोनोंमें एक घनिष्ठ संबंध भी है । उदाहरणके लिये भरद्वाजके सूक्त ( 6.72. 1 ) में सोम और इन्द्रको कहा गया है--"तुमने सूर्यको प्राप्त किया, तुमने स्व:को प्राप्त किया, तुमने सब अंधकार और सीमाओंको छिन्न-भिन्न कर दिया ।"1 इसी प्रकार वामदेवके सूक्त' 4.16.4 में इन्द्रको कहा है--"जब प्रकाशके सूक्तों द्वारा ( अर्कै:) स्व: सुदृश्य रूपमें पा लिया गया और जब उन ( अंगिराओंने ) रात्रि-मेंसे महान् ज्योतिको चमकाया उस समय उस (इन्द्र ) ने अंधकारके सब बंधनोंको ढीला कर दिया जिससे कि मनुष्य अच्छी तरह देख सकें ।" पहले वर्णनमें हम यह देखते हैं कि 'स्व:' और 'सूर्य' परस्पर भिन्न हैं न कि 'स्व:' सूर्यका ही एक दूसरा नाम है । पर साथ ही 'स्व:'का पाया जाना और 'सूर्य'का पाया जाना दोनों क्रियाओंमें बहुत निकट संबंध है, बल्कि असलमें ये दोनों मिलकर एक ही प्रक्रिया हैं और इनका परिणाम यह है कि सब अंधकार और सीमाएं नष्ट हो जाती हैं । वैसे ही दूसरे स्थलमें 'स्व:'के सुदृश्य रूपमें प्रकट होनेको रात्रिमेंसे महान् ज्योतिके चमक निकलनेके साथ जोड़ा गया है, जिसे हम अन्य स्थलोंके इस वर्णनके साथ मिला सकते हैं कि अंगिरसोंने अंधकारसे ढके हुए सूयको फिरसे प्रकट किया । सूर्यको अंगिरसोंने अपनी सूक्तों या सत्य मंत्रोंकी शक्ति द्वारा प्राप्त किया और
1. युवं सूर्य विविदथुर्युवं स्वर्विश्वा तमांस्यहतं निदश्च । (ऋ. 6.72. 1 )
2. स्वर्यद्वेदि सुदृशीकमकैंर्महि ज्योती रुरुचुर्यद्ध वस्तो: ।
अन्धा तमांसि दुधिता विचक्षे नृभ्यश्चकार नृतमो अभिष्टौ ।।
(ऋ. 4.16.4 )
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'स्व:' भी अंगिरसोंके सूक्तोंके द्वारा ( अर्कै: ) प्राप्त और प्रकट ( सुदृश्य ) किया गया । इसलिये यह स्पष्ट है कि 'स्वः'में रहनेवाला पदार्थ एक महान् ज्योति है और वह ज्योति सूर्यकी ज्योति है ।
यदि दूसरे वर्णनोंसे यह स्पष्ट न होता कि 'स्व:' एक लोकका नाम है तो शायद हम यह भी कल्पना कर सकते थे कि यह 'स्व: शब्द सूर्य, प्रकाश या आकाशका ही वाचक एक दूसरा शब्द होगा । पर बार-बार 'स्वः'के विषयमें कहा गया है कि यह एक लोक है जो कि रोदसी अर्थात् द्यावापृथिवीसे परे है या दूसरे शब्दोंमें इसे विस्तृत लोक 'उरु लोक' या विस्तृत दूसरा लोक 'उरु उ लोक' या केवल वह ( दूसरा ) लोक 'उ लोक' कहा है । इसका वर्णन यों किया गया हैं कि यह महान् ज्योतिका लोक है, जहाँ भयसे नितान्त मुक्ति है और जहाँ गौएँ अर्थात् सूर्यकी किरणें स्वच्छन्द होकर क्रीडा करती हैं ।
ऋग्1 6.47.8 में कहा है--"हे इन्द्र ! जानता हुआ तू हमें उस उरु लोकको, 'स्व' तकको प्राप्त कराता है, जो ज्योतिर्मय है, जहाँ भय नहीं है और जो सुरवी जीवन ( स्वस्ति ) से युक्त है । '' ऋg 3.2.7 में वैश्वानर अग्निको द्यावापृथिवी और महान् 'स्व:'में आपूरित होता हुआ वर्णन किया गया है--''आ रोदसी अपृणदा स्वर्महत्'' । इसी प्रकार वसिष्ठ अपने सूक्तमं विष्णुको कहता है--''ओ विष्णु ! तुमने दृढ़तासे इस द्यावापृथिवीको थाम रखा है और ( सूर्यकी ) किरणों द्वारा पृथिवीको धारण कर रखा है और सूर्य, उषा और अग्निको प्रादुर्भूत करते हुए तुम दोने, यज्ञके लिये ( अर्थात् यज्ञके परिणामस्वरूप ) इस दूसरे विस्तृत लोक ( उरुम् उ लोकम् ) को रचा है'',2 ऋग् 7 .99 .3,4 । यहाँ भी हम सूर्य और उषाकी उत्पत्ति या आविर्भावके साथ विस्तृत लोक स्व:का निकट सम्बन्ध देखते हैं ।
इस 'स्व:के विषयमें कहा गया है कि यह यज्ञके द्वारा मिलता है, यहीं हमारी जीवनयात्राका अन्त है, यह वह बृहत् निवासस्थान है जहाँ हम पहुँचते हैं वह महान् लोक है जिसे सुकर्मा लोग प्राप्त करते हैं (सुकृतामु लोकम् ) । अग्नि द्यु और पृथिवीके बीचमें दूत होकर विचरता है और तब इस बृहत् निवासस्थान 'स्व:'को अपनी सत्ता द्वारा चारों ओरसे घेर लेता है, ''क्षयं बृहन्तं परि भूषति" 3.3.2 । यह 'स्व:' आनन्दका लोक है और उन सब
1. उरुं नो लोकमनुनेषि विद्वान्त्स्वर्वज्ज्योतिरभयं स्वस्ति ।
2. व्यस्तभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखै:'' ।
"उरुं यज्ञाय चक्रथुरु लोकं जनयन्ता सूर्यमुषासमग्निम्'' ।। ( ऋ. 7.99 .3,4 )
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ऐश्वर्यों भरपूर है जिनकी वैदिक ऋषियोंको अभीप्सा होती है । ऋग्.1 5.4.11, में कहा है-
''हे जातवेद: अग्नि ! जिस पुरुषको तू, उसके सुकर्मा होनेके कारण, वह सुखमय लोक प्रदान करता है वह पुरुष अश्व, पुत्र, वीर, गौ आदिसे युक्त ऐश्वर्य और स्वस्ति प्राप्त करता है ।''
यह आनन्द मिलता है ज्योतिका उदय होनेसे । अंगिरस् इसे इच्छुक मनुष्यजातिके लिये तब ला पाते हैं जब वे सूर्य, उषा और दिनको प्रकट कर लेते हैं । ''स्व:को जीतनेवाले इंद्रने दिनोंको प्रकट करके इच्छुकोंके द्वारा-- उशिग्भि:2--उन सेनाओंको जीत लिया है जिनपर उसने आक्रमण किया है, उसने मनुष्यके लिये दिनोंके प्रकाशको ( केतुम् अह्नाम् ) उद्धासित किया है और बृहत् सुखके लिये ज्योतिको अधिगत किया है'' --अविन्दज्ज्योतिर्बृहते रणाय, 3-34-4 |3
यदि इन और इसी प्रकारके अन्य केवल खण्डश: उद्धृत वैदिक वाक्योंको देखा जाय, तो अबतक हमने जो कुछ कहा है उस सबकी व्याख्या बेशक इस प्रकार भी की जा सकती है कि, रैड इण्डियन लोगोंकी एक धारणाके सदृश, आकाश और पृथ्वीसे परे सूर्यकी किरणोंसे रचा हुआ एक भौतिक लोक है; यह एक विस्तृत लोक है, वहाँ मनुष्य सब भय और बाधाओंसे स्वतन्त्र होकर अपनी इच्छाओंको तृप्त करते हैं और उन्हें असंख्य घोड़े, गौ, पुत्र, सेवक आदि मिलते हैं । परन्तु जो कुछ हम सिद्ध करना चाहते हैं वह यह नहीं है । बल्कि इसके विपरीत यह विस्तृत लोक, 'बृहद् द्यौ' या 'स्व:', जो हमें द्यु और पृथ्वीसे परे पहुँचकर पाना है, यह अतिस्वर्गिक महान् विस्तार, यह असीम प्रकाश एक अतिमानस उच्चलोक है, मनोतीत दिव्य 'सत्य' और अमर आनन्दका अत्युच्च लोक है और इसमें रहनेवाली ज्योति, जो इसकी सारवस्तु और इसकी तात्त्विक वास्तविकता है, 'सत्य'की ज्योति है । इस लोकके बारेमें ऐसा अनेक बार कहा गया है कि द्यु और पृथ्वीको पार करके ही इस तक पहुँचा जा सकता है । उदाहरणके लिये,
1. यस्मै त्वं सुकृते जातवेद उ लोकमग्ने कृणवः स्योनम् ।
अश्विनं स पुत्रिणं वीरवन्तं गोभन्तं रयिं नशते स्वस्ति ।। ( 5.4.11 )
2. 'उशिग्मिः' शब्द 'नृ'को तरह मनुष्यों और देवताओके लिये प्रयुक्त होता है,
परन्तु 'नृ'के समान ही कभी-कभी विशेषकर 'अंगिराओं'का ही निर्देश करता है ।
3. '' इन्द्र: स्वर्षा जनयन्नहानि जिगायोशिग्भि: पूतना अभिष्टि: ।
प्रारोचयन्मनवे केतुमह्नाविन्दज्ज्योति रणाय ।। (3. 34.4)
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'मनुष्योंने वृत्रका हनन करके, आकाश और पृथ्वी दोनोंको पार करके अपने निवासके लिए बृहत् लोकको बनाया' ', ध्नन्तो वृत्रमतरन् रोदसी अप उरु क्षयाय चक्रिरे । (ऋ. 1.36.4 )
परन्तु इस समय तो इतने पर ही बल देना पर्याप्त है कि यह एक लोक है जो किसी अन्धकारके कारण हमारी दृष्टिसे ओझल है, इसे हमें पाना है तथा स्पष्ट रूपसे देखना है और यह देखना व पाना इस बातपर आश्रित है कि उषाका जन्म हो, सूर्यका उदय हो और सूर्यकी गौएँ अपनी गुप्त गुहासे निकलकर बाहर आवें । वे आत्माएँ जो यज्ञमें सफल होती हैं 'स्वर्द्दश्' हो जाती हैं, 'स्व:'को देख लेती हैं और 'स्वर्विद्' हो जाती हैं अर्थात् 'स्व:'को पा लेती हैं या जान लेती हैं । 'स्यर्विद्'में 'विद्' धातु है जिसके पाना और जानना दोनों ही अर्थ हैं और एक दो स्थलोंमें तो इसके स्थानपर स्पष्ट ज्ञानार्थक 'ज्ञा' धातुका ही प्रयोग हुआ है और वेदमें ही यह भी कहा है कि अन्धकारमेंसे प्रकाशको जाना गया ।
अब 'स्व:' या इस बृहत् लोकका स्वरूप क्या है, यह प्रश्न है जो शेष रहता है और इसका निर्णय वेदकी व्याख्याके लिये बहुत ही महत्त्वका है । क्योंकि 'वेद जंगलियोंके गीत 'हैं' और 'वेद प्राचीन सत्य ज्ञानकी पुस्तक है' इन दोनों अति विभिन्न कल्पनाओंमेंसे किसी एकका ठीक होना इस प्रश्नके निर्णयपर इधर या उधर हो सकता है । परन्तु इसे प्रश्नका पूरा-पूरा निर्णय तो इस बृहत् लोकका वर्णन करनेवाले सैकड़ों बल्कि अधिक प्रकरणोंके विवादमें पड़े बिना नहीं हो सकता और यह इन अध्यायोंके क्षेत्रसे बिल्कुल बाहरका विषय हो जाता है । पर फिर भी आंगिरस सूक्तोंपर विचार करते हुए और उसके बाद हम इस प्रश्नको फिर उठायेंगे ।
तो यह सिद्ध हुआ कि 'स्व:'को देखने या प्राप्त करनेके लिये सूर्य और उषाके जन्मको एक आवश्यक शर्त मानना चाहिये और इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वेदोंमें इस सूर्यकी कथाको या आलंकारिक वर्णनको तथा 'सत्य मत्रों'के द्वारा अंधकारमें से ज्योतिको चमकाने, पाने और जन्म देनेके विचारको क्यों इतना महत्त्व दिया गया है ? इस कार्यको करनेवाले इन्द्र और अगिरस् हैं और ऐसे स्थल बहुतसे है जिनमें इसका वर्णन हुआ है । यह कहा गया है कि इन्द्र और अंगिराओंने 'स्व:' या 'सूर्य'को पाया (अविदत् ), इसे चमकाया या प्रकाशित किया (अरोचयत् ), इसे जन्म दिया'
1. हमें यह स्मरण रखन चाहिये कि यज्ञमें देवताओंके प्रकट होनेको वेदमें उनके जन्मके रूपमें वर्णित किया है |
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(अजनयत् ) और इसे जीतकर अधिगत किया (सनत्) । वास्तवमें अधिकतर अकेले इन्द्रका ही वर्णन आता है । इन्द्र वह है जो रात्रिमेंसे प्रकाशका उदय करता है और सूर्यको जन्म देता है--''क्षपां वस्ता जनिता सूर्यस्य", 3.49.4 । उसने सूर्य और उषाको उत्पन्न किया है,1 (2.12.7 ) । या और विस्तृत रूपमें कहें तो उसने सूर्य, द्यौ और उषा तीनोंको इकट्ठा जन्म दिया है,2 (6.30.5 ) । स्वयं चमकता हुआ वह उषाको चमकाता है, स्वयं चमकता हुआ वह सूर्यको प्रकाशमय करता है--''हर्यन्नुषसमर्चय: सूर्य हर्यन्नरोचय:'', 3.44.2 । ये सब उस इन्द्रके महान् कर्म हैं, 'जजान सूर्यम् उषसं सुदंसाः', (3.32.8 ) ।3 वह सुवज्र इन्द्र अपने शुभ्रवर्ण (चमकते हुए ) सखाओंके क्षेत्रफो जीतकर अपने अधिकारमें कर लेता है, सूर्यको अधिकृत करता और जलोंको अधिकृत करता है--'सनत् क्षेत्रं सखिभिः श्वित्न्येभि: सनत् सूर्य सनदप: सुवज्रः', 1.100.18 । वह इन्द्र दिनोंको जन्म देने द्वारा 'स्वः'को भी जीतनेवाला है, जैसा कि हम पहले देख चुके हैं (स्वर्षा: ) । वेदके इन सब पृथक्-पृथक् वाक्योंमें सूर्यके जन्मका अर्थ हम यह भी ले सकते हैं कि यह सूर्यकी प्रारंभिक उत्पत्तिका वर्णन है, जो सूर्य पहले नहीं था उसे देवताओंने रचा; परंतु जब हम इन वाक्योंका दूसरे वाक्योंके साथ समन्वय करके देखेंगे तो हमारा यह भ्रम दूर हो जायगा । सूर्यका यह जन्म उषाके साथ उसका जन्म है, उदय है, रात्रिमेंसे उसका जन्म है । यह जन्म यज्ञके द्वारा होता है--'इन्द्रः सुयज्ञ उषस: स्वर्जनत्'', (2.21.4 ) । ''इन्द्रने अच्छी प्रकार यज्ञ करके उषाओं और सूर्यको उत्पन्न किया ।" और मनुष्यकी सहायतासे यह संपन्न होता है-''अस्माकेभिर्नृभि: सूर्य सनत्''--हमारे 'मनुष्यों'के द्वारा उसने सूर्यको जीता (1.100.6 ) । और बहुतसे मंत्रोंमें इसे अंगिरसोंके कार्यका फल वर्णित किया गया है और इसका संबध गौओंके मुक्त होने और पहाडियोंके तोड़े जानेके साथ है ।
तथा ऐसे ही अन्य स्थल हमें ऐसी कल्पना नहीं करने दे सकते-जो अन्यथा की जा सकती थी--कि सूर्यका जन्म या प्राप्ति केवल उस आकाश (इन्द्र )का वर्णन है जो प्रतिदिन उषाकालमें सूर्यको पुनः प्राप्त कर लेता
1. य: सूर्य: य उषसं जजान । (ऋ० 2.12.7 )
2. साकं सूर्य जनयन् द्यामुषासम् ।
3.इन्द्रस्थ कर्म सुकृता पुरूणि व्रतानि देवा न मिनन्ति विश्वे ।
दाधारर्य: पृथिवीं द्यामुतेमां जजान सूर्यमुषसं सुदंसा: ।। (ऋ 3.32.8 )
4. क्या यह वही क्षेत्र नहीं है जिसमें अत्रिने चमकती इर्द गौओंको देखा था ?
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है । जब इन्द्रके बारेमें यह कहा जाता है कि वह घने अंधकारमें भी ज्योतिको, पा लेता है ( सो अंधे चित्तमसि ज्योतिर्विदत् ) तो यह स्पष्ट है कि यह उसी ज्योतिकी ओर संकेत है जिस एक ज्योतिको-इन सब अनेकानेक प्राणियोंके लिये एक ही साझी ज्योतिको-अग्नि और सोमने पाया था- ''अविन्दतं ज्योतितिरेकं बहुभ्यः'', 1 .93.4 ), जब उन्होंने पणियोकी गौओंको चुराया था ।1 यह ''वह जागृत ज्योति है जिसे सत्य की वृद्धि करनेवालोंने उत्पन्न किया था, एक देवको देव ( इन्द्र ) के लिये उत्पन्न किया था'',2 ( 8.89.1 ) । यह वह गुप्त ज्योति (गुह्यं ज्योति: ) है जिसे पितरोंने, अंगिरसोंने उस समय पाया था जब उन्होंने अपने सत्य मंत्रोके द्वारा उषाको जन्म दिया था । यह वही ज्योति है जिसका वर्णन मनु वैवस्वत या कश्यप ऋषिके 'विश्वेदेवा:'-देवताक रहस्यमय सूक्तमें है, जिसमें कहा गया है-''उनमेंसे कुछने ऋक्का गायन करते हुए महत् सामको सोच निकाला और उससे उन्होंने सूर्यको चमकाया" ', 8.29.10 ।3 और यह ज्योति मनुष्यकी सृष्टिसे पहले हुई हो ऐसा नहीं है, क्योंकि ऋं. 7.91.1 में कहा है-''हमारे नमस्कारसे वृद्धिको पानेवाले, प्राचीन और निष्पाप देवोंने (अंधकारकी शक्तियोंसे ) आच्छादित मनुष्यके लिये सूर्यसे उषाको चमकाया ।'' यह उस सूर्यकी प्राप्ति है जो अंधकारके अंदर रह रहा था और यह प्राप्ति अंगिराओंने अपने दस महीनोंके यज्ञके द्वारा की । वेदकी इस कहानी या अलंकार-वर्णनाका प्रारंभ कहींसे भी क्यों न हुआ हो, यह बहुत प्राचीन है और बहुत जगह फैली हुई है और इसमें यह कल्पनाकी गयी है कि सूर्य एक लंबे काल तक लुप्त ( खोया हुआ ) रहा और इस बीचमें मनुष्य अंधकारसे आच्छादित रहा । यह कहानी भारतवर्षके आर्य लोगोंमें ही नहीं, किंतु अमेरिकाके उन 'मय' लोगोंमें भी पायी जाती है जिनकी सभ्यता अपेक्षाकृत जंगली और संभवत: इजिप्शियन संस्कृतिका पुराना रूप थी । वहां भी यही किस्सा है कि सूर्य कई महीनों तक अंधेरेमें छिपा रहा और बुद्धिमान् लोगों ( अंगिरस् ऋषियों ? ) की प्रार्थनाओं और पवित्र गीतोंसे
1. अग्नीषोमा चेति तद्वीयं वां यहमुष्णीतमवसं पर्णी गा: ।
अवातिरतं बृसयस्य शेषोऽविन्दतं ज्योतिरेकं बहुभ्यः ।। 1 .93.4
2. येन ज्योतिरजनयन्नृतावृधो देवं देवाय जागृवि । ॠ० 8 .89. 1
3. अर्चन्त एके महि साम मन्वत तेन सूर्यमरोचयन् । 8.29.10
4. कुविदङ्ग नमसा ये वृधास: पुरा देवा अनवद्यास आसन् ।
ते वायवे मनवे वाषितायावासयन्नुषसं सुर्येण || ॠ० 7.91.1
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वह फिर प्रकट हुआ । वेदके अनुसार ज्योतिका यह पुनरुदय पहिले-पहल आंगिरस नामक सप्तर्षियोंसे हुआ है, जो मनुष्योंके पूर्व पितर हैं, और फिर इसे उनसे लेकर निरंतर मनुष्यके अनुभवमें दोहराया गया है ।
इस विश्लेषण द्वारा हमें यह मालूम हो जायगा कि वेदमें जो ये दो कहानियाँ आती है--पहिली यह कि सूर्य लुप्त था और यज्ञ तथा मंत्र द्वारा इन्द्र और आंगिरसोंने उसे पुन: प्राप्त किया और दूसरी यह कि गौएं लुप्त थीं और उन्हें भी मंत्र द्वारा इन्द्र और आंगिरसोंने ही पुनः प्राप्त किया--ये दो अलग-अलग गाथाएँ नहीं, किंतु वास्तवमें एक ही गाथा हैं । इस एकात्मता पर हम पहले ही बल दे चुके हैं, जब हमने गौओं और उषाके परस्पर-संबंधके विषयमें विवाद चलाया था । गौएँ उषाकी किरणें हैं, सूर्यकी 'गौएँ' हैं; वे भौतिकशरीरधारी पशु नहीं हैं । लुप्त गौएँ सूर्यकी लुप्त किरणें हैं और उनका फिरसे उदय होना लुप्त सूर्यके पुनरुदयकी पहलेसे सूचना देता है । परंतु अब यह आवश्यक है कि स्वयं वेदकी ही स्पष्ट स्थापनाओंके आधारपर इस एकात्मताको सिद्ध करके उन सब संदेहोंको दूर कर दिया जाय जो यहाँ उठ सकते हैं ।
वस्तुत: वेद हमें स्पष्ट रूपसे कहता है कि गौएँ ज्योति हैं और वह बाड़ा (व्रज ) जिसमें वे छिपी हुई हैं अंधकार है । ऋ 1.92.4 में जिसे हम पहले भी उद्घृत कर चुके हैं, यह दिखा ही दिया गया है कि गौ और उनके बाड़ेका वर्णन विशुद्ध रूपसे एक रूपक ही है-''उषाने गौ के बाड़ेकी तरह अंधकारको खोल दिया ।''१ गौओंकी पुन:प्राप्तिकी कहानीके साथ ज्योतिके पुनरुदयका संबंध भी सतत पाया जाता है; जैसे कि ऋ० 1.93.4 में कहा है-' तुम दोनोंने पणियोके यहाँसे गौओंको चुराया... तुमने बहुतोंके लिये एक ज्योतिको पाया ।'' अथवा जैसे कि ऋ. 2.24.3,2 में वर्णन है--''देवोंमें सबसे श्रेष्ठ देवका यह कार्य है; उसने दृढ़ स्थानोंको ढीला कर दिया, कठोर स्थानोंको मृदु कर दिया । वह बृहस्पति गौओं (किरणों ) को हाँक लाया; उसने मंत्रोंके द्वारा (ब्रह्मणा) वलका भेदन किया, उसने अंधकारको अदृश्य कर दिया और 'स्व:' को प्रकाशित किया ।'' और ऋ. 5.31.33 में हम देखते हैं क--''उस (इन्द्र )ने दोग्ध्री गौओंको
1. ज्योतिर्विश्वस्मै भुवनाय कृष्वती गावो न बजं व्युषा आवर्तम: ।।
2. तद्देवानां देवतमाय कर्त्वमश्रथ्नन् दृळहातदन्त वीळिता ।
उद् गा आजदभिनद् ब्रह्मणा वलमगूहत्तमो व्यचक्षयत् स्व: ।। 2.24.3
3. प्राचोदयत् सुदुधा वव्रे अन्तर्वि ज्योतिषा संववृत्वत्तमोऽव: । 5.31.3
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आवरण कर लेनेवाले बाड़ेके अंदर प्रेरित किया, उसने ज्योतिके द्वारा अंधकार के आवरणको खोल दिया ।'' पर इतना ही नहीं, बल्कि यदि कोई कहे कि वेदमें एक वाक्यका दूसरे वाक्यके साथ कोई संबंध नहीं है और वेदके ऋषि भाव और युक्तिके बंधनोंसे सर्वथा स्वतंत्र होकर अपनी मानसिक कल्पनासे गौओंसे सूर्य तक और अंधकारसे द्राविड़ लोगोंकी गुफा तक मनमौजी उड़ानें ले रहे हैं, तो इसके उत्तरमें हम निश्चयपूर्वक एकात्मताको सिद्ध करनेवाले वेदके दूसरे प्रमाण भी दे सकते हैं । ऋ. 1.33.101 मे कहा है-''वृषभ इन्द्रने वज्रको अपना साथी बनाया अथवा उसका प्रयोग किया (युजम् ), उसने ज्योतिके द्वारा अंधकारमेंसे किरणों ( गौओं ) को दुहा ।'' हमें स्मरण रखना चाहिये कि वज्र 'स्वर्य अश्मा' है और इसके अंदर 'स्व:' की ज्योति रहती है । फिर 4 .51 .22 में जहाँ पणियोंका प्रश्न है, कहा गया है--''स्वयं पवित्र रूपमें उदित होती हुई और दूसरोंको भी पवित्र करनेवाली उषाओंने बाड़े ( ब्रज ) के दरवाजोंको खोल दिया और अंधकारको भी खोल दिया''-- (व्रजस्य तमसो द्वारा ) । यदि इन सब स्थलोंके उपस्थित होनेपर भी हम इसपर आग्रह करें कि वेदमें आयी गौओं और पणियोंकी कहानी एक ऐतिहासिक किस्सा है तो इसका कारण यही हो सकता है कि स्वयं वेदकी अन्त:साक्षीके होते हुए भी हम वेदोंसे अपना वैसा ही अर्थ निकालनेपर तुले हुए हैं । नहीं तो हमें अवश्य स्वीकार करना चाहिये कि पणियोंकी यह परम गुप्त निधि-''निधिं पणीनां परमं गुहा हितम्" --पार्थिव पशुओं की संपत्ति नहीं है, किंतु जैसा कि परुच्छेप दैवोदासिनें ऋ. 1.30.3 में स्पष्ट किया है, ''यह द्यु की निधि, पक्षीके बच्चेकी तरह, गुप्त गुहामें छिपी पड़ी है; गौओंके बाड़ेकी तरह, अनंत चट्टानके बीचमें, ढकीं पड़ी है''-- ( अविन्वद् दिवो निहितं गुहा निधिं वेर्न गर्भ परिवीतमश्मन्यनन्ते अन्तरश्मनि । व्रजं वची गवामिव सिषासन् ) ।
ऐसे स्थल वेदमें बहुतसे हैं जिनसे दोनों कहानियोंमें परस्पर संबंध या एकात्मता प्रकट होती है । मैं नमूनेके लिये केवल दो-चारका ही उल्लेख करूँगा । जिन सूक्तोंमें इस कहानीके विषयमें कुछ विस्तारसे कहा गया है उनमेंसे एक है ऋ० 1 .62. । उसमें हम यह पाते हैं ''हे शक्तिशाली इन्द्र ! तूने दशग्वाओं ( अंगिरसों ) के साथ मिलकर बड़े शब्दके साथ वलका विदारण किया । अंगिराओंसे स्तुति किये जाते हुए तूने उषा, सूर्य और गौओंके
1. युजं वज्र वृषभश्चक्र इन्द्रो निर्ज्योतिषा तमसो गा अदुक्षत् । 1.33.10
2. व्यू ब्रजस्य तमसो द्वारोच्छन्तीव्रञ्छुयः छुपायका: । 4.51 .2
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द्वारा सोमको प्रकाशित किया ।"1 ॠ 6.17.32 में कहा है- "हे इन्द्र ! तू स्तोत्रोंको सुन और हमारी वाणियोंके द्वारा बढ़, सूर्यको प्रकट कर, शत्रुओंका हनन कर और गौओंको भेदन करके निकाल ला ।'' ऋ. 7.98.63 में हम देखते है--"ओ इन्द्र ! गौओंकी यह सब संपत्ति जो तेरे चारों तरफ है और जिसे तू सूर्यरूपी आँखसे देखता है, तेरी ही है । तू इन गौओंका अकेला स्वामी है ( गवामसि गोपतिरेक इन्द्र ) ।'' और किस प्रकारकी गौओंका वह इन्द्र स्वामी है, यह हमें सरमा और गौओंके वर्णनवाले सूक्त 3.31 से मालूम होता है- "विजेत्री ( उषाएँ ) उसके साथ संगत हुई और उन्होंने अन्धकारमें से महान् ज्योतिको जाना । उसे जानती हुई उषाएँ उसके पास गयीं; इन्द्र गौओंका एकमात्र स्वामी हो गया- ( पतिर्गवामभवदेक इन्द्र: ) '' । इसी सूक्तमें आगे बताया गया है कि किस प्रकार मनके द्वारा और सत्य ( ऋत ) के सारे मार्गको खोज लेने द्वारा सप्त ऋषि अगिरस् गौओंको उनके दृढ़ कारागारसे निकालकर बाहर लाये और किस प्रकार सरमा, जानती हुई, पर्वतकी गुफा तक और उन अविनश्वर गौओंके शब्द तक पहुँच पायी ।4 उषाओं और ' स्व:'की बृहत् सौर ज्योतिकी प्राप्तिके साथ इन्द्र और अंगिरसोंका वही संबंध हम 7 .90.4 में पाते हैं-- 'अपने पूर्ण प्रकाशमें, बिना किसी दोष, छिद्र या त्रुटिके, उषाएँ निकल पड़ी; उन ( अंगिराओं ) ने ध्यान करके बृहत् ज्योति ( उरु ज्योति: ) को पाया । कामना करनेवालोंने गौओंके विस्तारको खोल दिया; आकाशसे उनके ऊपर जलोंकी वर्षा हुई' ।5
1. सरष्युभि: फलिगमिन्द्र शक्र वलं रवेण दरयो दशग्वैः ।।
गृणानो अङ्गिरोभिर्दस्म विवरुषसा सुर्येण गोभिरन्ध: ।। 1.62.-5
2. अधि ब्रह्म वावृषस्वोत गीर्भि :।
आविः सूर्यं कृणुहि पीपिहीषो जहि शत्रुंरभि गा इन्द्र तृन्धि ।। 6.17.3
3. तवेदं विश्वमभित: पशव्यं यत् पश्यसि चक्षसा सूर्यस्थ ।
गवामसि गोपतिरेक इन्द्र ।। 7.98.6
4. अभि जैत्रीरसचन्त स्पृधानं महि ज्योतिस्तमसो निरजानन् ।
तं जानती: प्रत्युदायन्नुषास : पतिर्गवामभवदेक इन्द्र: ।।
विळौ सतीरभि धोरा अतृन्दन् प्राचाहिन्वन् मनसा सप्त विप्रा : ।
विश्वामविन्दन् पथ्यामृतस्य प्रजोनन्नित्ता नमसा विवेश ।।
विदद् यदी सरमा रुग्णमद्रेर्महि पाथ: पूर्व्य सध्यक् क: ।
अग्र नयत् सुपद्यक्षराणामच्छा रवं प्रथमा जानती गात् ।। ( ऋ० 3.31.4-6)
5. उच्छन्नुषस: सुदिना अरिप्रा उरु ज्योतिर्विविदुर्दीध्योना : ।
गव्यं चिदूर्वमुशिजो वि वव्रुस्तेषाम्नु प्रदिवं संस्रुराप: ।। 7. 9०. 4
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इसी प्रकार 2.19.3में भी दिन, सूर्य और गौओंका वर्णन है--'उसने सूर्यको जन्म दिया, गौओंको पाया और रात्रिमेंसे दिनोंके प्रकाशको प्रकट किया ।'1 4.1.13में, यदि इसका दूसरा अर्थ न हो तो, उषाओं और गौओंको एक मानकर कहा गया है--'चट्टान जिनका बाड़ा है, दोग्घ्री ( दोहन देनेवाली ), अपने ढकनेवाले कारागारमें चमकती हुई, उनकी पुकारका उत्तर देती हुई उषाओंको उन्होंने बाहर निकाला ।'2 परन्तु इस मन्त्रका यह अर्थ भी हो सकता है कि, हमारे पूर्वपितर अंगिराओं द्वारा, जिनका इससे पहले मन्त्रमें वर्णन हुआ है, पुकारी हुई उषाओंने उनके लिये गौओंको बाहर निकाला । फिर 6.17.5में हम देखते हैं कि उस बाड़ेका भेदन सूर्यके चमकनेका साधन हुआ है--'तूने सूर्य और उषाको चमकाया, दृढ़ स्थानोंको तोड़ते हुए; उस बड़ी और दृढ़ चट्टानको अपने स्थानसे हिला दिया, जिसने गौओंको घेर रखा था ।'3 अन्तमें 3.39 में हमें कहानीके रूपम दोनों अलंकारोंकी बिल्कुल एकात्मता मिलती है--'मर्त्योमें कोई भी हमारे इन पितरोंकी निन्दा करनेवाला नहीं है ( अथवा मैं इसे इस प्रकार कहूँ, कोई मानवीय शक्ति इनको बद्ध या अवरुद्ध करनेवाली नहीं ) जो हमारे पितर ( पणियोंकी ) गौओंके लिये लड़े हैं । बड़े-बड़े कामोंको करनेवाले और महिमाशाली इन्द्रने उनके लिये गौओंके दृढ़ बाड़ोको खोल दिया । तब अपने सखाओं नवग्वाओंके साथ एक सखा इन्द्रने अपने घुटनोंके बल गौओंको ढूढ़ते हुए, तब दस दशग्वाओंके साथ इन्द्रने अन्धकारमें रहते हुए असली सूर्यको ( अथवा मेरी व्याख्यामें, 'सत्य'के सूर्यको ) पा लिया । 3.39.4,|'4 । यह स्थल पूर्ण रूपसे निर्णायक है । गौएँ पणियोंकी गौएँ हैं, जिनका पीछा करते हुए अगिरस् हाथों और घुटनोंके बल गुफामें घुसते हैं । पता लगानेवाले इन्द्र और अगिरस् हैं, जिन्हें दूसरे मन्त्रोंमें नवग्वा और
1. अजनयत् सूर्य विदद् गा अक्तुनाह्यां वयुनानि साधत् ।। 2.193.3
2. अस्माकमत्र पितरो मनुष्या अभिप्रसेदुॠॅतमारुषाणा: ।
अश्मब्रजा: सुदूधा वव्रे अन्तख्दुस्त्रा आजन्नुषसो हवाना: ।। 4.1.13
3. येभि: सूर्यमुषसं मन्दसानोऽवासयोम वृळहानि वर्द्रत् ।
महामद्रिं परि गा इन्द्र सन्तं नुत्था अच्चुतं सदसस्परि स्यात् ।। 6.17.5
4. नकिरेषां निन्दिता मर्त्येषु ये अस्माकं पितरो गोषु योधा: ।
इन्द्र एषां दृंहिता माहिनायावानुद् गोत्राणि ससृजे दंसनावान् ।।
सखा ह यत्र सखिभिनंवग्वैरभिज्ञ्वा सत्यभिर्गा अनुग्मन् ।
सत्यं तदिन्द्रो दशभिर्दशग्वै: सूर्य विवेद तमसि क्षियन्तम् ।। 3.39.45
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दशग्वा कहा गया है । और वह वस्तु जो पर्वतकी गुफामें पणियोंके बाड़ेमें घुसनेपर मिलती है, पणियों द्वारा चुराई गयी कोई आर्योकी धनदौलत या भौतिक गौएँ नहीं, बल्कि 'सूर्य है, जो अन्धकारमें छिपा हुआ है' (सूर्य: तमसि क्षियन् ) ।
इसलिये इस स्थापनामें अब कोई प्रश्न शेष नहीं रहता कि वेद की गौएँ, पणियोंकी गौएँ, वे गौएँ जो चुरायी गयीं, जिनके लिये लड़ा गया, जिनका पीछा किया गया और जिन्हें फिरसे पा लिया गया, वे गौएँ जिनकी ऋषि कामना करते हैं, जो मन्त्र व यज्ञ के द्वारा और प्रज्वलित अग्नि और देवोंको बढ़ानेवाले छन्दों और देवोंको मस्त करनेवाले सोमके द्वारा जीती गयीं, प्रतीकरूप गौएँ हैं, वे 'प्रकाश' की गौएँ हैं । और वेदके 'गो', 'उस्रा', 'उस्रिया' आदि अन्य शब्दोंके आंतरिक भावके अनुसार वे चमकनेवाली, प्रकाशमान, सूर्यकी गौएँ (किरणें ) हैं, उषाके चमकीले रूप हैं । अबतकके विवेचनके इस अपरिहार्य परिणामसे हम यह समझ सकते हैं कि वेदकी व्याख्याका रहस्यमय आधार जंगलियोंकी पूजाके स्थूल प्रकृति-वादसे कहीं अधिक ऊपर सुरक्षित है । वेद अपने-आपको प्रतीक-रूप वर्णनकी पवित्र, धार्मिक पुस्तकके रूपमें प्रकट करते हैं, जिसमें सूर्यकी पूजा या उषाकी पूजाका अथवा उस आन्तरिक ज्योति, सत्यके सूर्य (सत्यम् सूर्यम् ) का पावन आलंकारिक वर्णन है जो हमारे अज्ञानरूपी अन्धकारसे ढका हुआ है और जड़प्राकृतिक सत्ताकी अनन्त चट्टानके अन्दर--''अनन्ते अन्तरश्मनि'' ( 1.130.3 ) --उस दिव्य सुपर्ण, दिव्य हंसके शिशुके रूपमें छुपा हुआ है ।
यद्यपि इस अध्यायमें मैने अपने-आपको कुछ कठोरताके साथ इस विषयके प्रमाणों तक ही सीमित रखा है कि गौऐं उस सूर्यकी ज्योति हैं जो कि अन्धकारमें छिपा हुआ है; फिर भी 'सत्य' की ज्योति और ज्ञानके सूर्यके साथ उनका संबंध उद्धृत किये गये एक-दो मन्त्रोंमें स्वयं ही स्पष्ट हो गया है । हम देखेंगे कि यदि हम अलग-अलग मन्त्रोंको न लेकर आंगिरस सूक्तोंके सभी स्थलोंकी परीक्षा करें, तो जो संकेत हमने इस अध्यायमें पाया है, वह अधिकाधिक स्पष्ट और निश्चित रूपमें हमारे सामने आयेगा । परन्तु पहले हमें अगिरस् ऋषियों और गुहाके निवासी उन रहस्यपूर्ण पणियोंपर एक दृष्टि डाल लेनी चाहिये, जो अन्धकारके साथी हैं और जिनसे छीनकर ये अगिरस् ऋषि खोयी हुई चमकीली गौओंको और खोये हुए सूर्यको पुन: प्राप्त करते हैं ।
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सोलहवाँ अध्याय
अंगिरस् ऋषि
'अंगिरस्' नाम वेदमें एकवचनमें या बहुवचनमे-अधिकतर बहुवचनमें--बहुत जगह आया है । पैतृक नाम या गोत्रसूचक नामके तौरपर 'आंगिरस' यह शब्द भी कई जगह बृहस्पति देवताके विशेषणके तौरपर वेदमें आया है । पीछेसे अंगिरस् ( भृगु तथा अन्य मंत्रद्रष्टा ऋषियोंकी तरह ) उन वंशप्रव्रर्तक ऋषियोंमें गिना जाने लगा था जिनके नामसे वंश तथा गोत्र चले और पुकारे जाते थे, जैसे 'अंगिरा:' से आगिरस, 'भृगु' से भार्गव । वेदमें भी ऐसे ऋषियोंके कुल हैं, जैसे अत्रय:, भृगव:, कण्वा: । अत्रियोंके एक सूक्तमें ( 5.11 .6 ) अगिरस् ऋषियोंको अग्नि (पवित्र आग ) को खोज निकालने-वाले कहा गया है, एक दूसरेमें ( 10.46.9 ) भृगुओंको ।1 बहुधा सात आदिम अंगिरसोंका वर्णन इस रूपमें हुआ है कि वे मनुष्य पुंरखा हैं, 'पितरो मनुष्या: ', जिन्होंने प्रकाशको खोज निकाला, सूर्यको चमकाया और सत्यके स्वर्लोकमें चढ़ गये । दशम मण्डलके कुछ सूक्तोंमें अंगिरसोंको कव्यभुक् पितरोंके तौरपर यम ( एक देवता जो कि पीछे के सूक्तोंमें ही प्रधानतामें आया है ) के साथ संबंधित किया गया है, वहाँ ये अंगिरस्-गण देवताओंके साथ बर्हिपर बैठते हैं और यज्ञमें अपना भाग ग्रहण करते हैं ।
यदि अगिरस् ऋषियोंके विषयमें संपूर्ण तथ्य इतना ही होता तो इन्होंने गौओंके खोजनेमें जो भाग लिया है उसकी व्याख्या करना बड़ा आसान था; बल्कि उसकी व्याख्यामें कुछ खास कहनेकी जरूरत ही न थी, तब तो इतना ही है कि ये पूर्वपुरुष हैं, वैदिक धर्मके संस्थापक हैं, जिन्हें इनके वंशजोंने आंशिक रूपसे देवत्व प्रदान कर दिया है और जो उत्तरी ध्रुवकी लंबी रात्रिमें से उषा और सूर्यकी पुन:प्राप्तिके कार्यमें या प्रकाश और सत्यकी विजयमें देवोंके साथ सतत रूपसे संबन्धित हैं । परन्तु इतना ही सब कुछ नहीं है, वैदिक गाथा इसके और गम्भीर पहलुओंका भी वर्णन करती है ।
पहिले तो यह कि अगिरस् केवल देवत्वप्राप्त मानुष पितर ही नहीं हैं
1. बहुत संभव है, अंगिरस् ऋषि अग्निकी ज्वलत् (अंगार ) शत्तियां हैं और भृगुगण सूर्यकी सौर शशक्तियां हैं ।
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किन्तु वे हमारे सामने इस रूपमें भी दिखाये गये हैं कि वे द्युलोकके द्रष्टा हैं ( दिव्य ऋषि हैं ), देवताओंके पुत्र हैं वे द्यौके पुत्र हैं और असुरके, बलाधिपतिके वीर हैं या शक्तियाँ हैं । 'दिवस्युत्रासो असुरस्य वोरा:' यह एक ऐसा वर्णन है जो, अगिरसोंके संख्यामें सात होनेके कारण, तत्सदृश ईरानियन गाथाके अहुरमज्द ( Ahura Mazda ) के सात देवदूतोंका शायद केवल आकस्मिक रूपसे, पर प्रबलतासे स्मरण करा देता है और फिर ऐसे संदर्भ भी हैं जिनमें अंगिरस् बिल्कुल प्रतीकात्मक हो गये दीखते हैं, वे मूल अग्निके पुत्र और शक्तियाँ हैं, वे प्रतीकभूत प्रकाश और ज्वालाकी शक्तियाँ हैं और वे उस सात मुखवाले, अपनी नौ और अपनी दश प्रकाश-किरणोंवाले एक अगिरस्में, नवग्वे अङ्गिरे दशग्वे सप्तास्ये, एकीभूत भी हो जाते हैं जिसपर और जिस द्वारा उषा अपने संपूर्ण आनन्द और वैभवके साथ खिल उठती है । ये तीनों स्वरूपवर्णन एक ही और उन्हीं अंगिरसोंके प्रतीत होते हैं, क्योंकि इनमें उनके विशेष गुण और उनके कार्य अन्य फर्कके होते हुए भी अभिन्न ही रहते हैं ।
अगिरस्ं ऋषि दैव भी हैं और मनुष्य भी हैं, उनके इस प्रकार दुहरे स्वरूपवाले होनेकी व्याख्या दो बिलकुल विपरीत तरीकोंसे की जा सकती है । हो सकता है कि वे मूलत: मनुष्य-ऋषि रहे हों और उनके वंशजोंने उन्हें देवताका रूप दे दिया हो और इस देवत्वापादनमे उन्हें दिव्य कुल-परम्परा तथा दिव्य व्यापार भी दे दिये गये हों; या फिर वे मूलत: अर्धदेव हों, प्रकाश और ज्वालाकीं शक्तियाँ हो, जिनका मनुष्य-जातिके पितरों तथा उसके ज्ञानके आविष्कारकोंके रूपमें मानुषीकरण हो गया हो । ये दोनों ही प्रक्रियाएँ प्राथमिक गाथाविज्ञानमें स्वीकार की जाने योग्य हैं । उदाहरणार्थ, ग्रीक कथानकके कैस्टर ( Castor ) और पोलीडूसस ( Polydeuces) और उनकी बहिन हे हेलेन ( Helen ) मानुष प्राणी थे, यद्यपि ये जुस ( Zeus ) के पुत्र थे, और मृत्युके बाद ही देव हुए । परन्तु बहुत सम्भावना यह है कि ये तीनों मूलत: ही देव थे-लगभग निश्चयसे कहा जा! सकता है कि युगल, घोड़ेपर चढ़नेवाले, समुद्रमें नाविकोंकी रक्षा करनेवाले कैस्टर और पोलीडूसस वैदिक अश्विनौ हैं जो घुड़सवार हैं जैसा कि 'अश्विन्' यह नाम ही बताता है, अद्भुत रथपर चढ़नेवाले हैं, युगल भी हैं समुद्रमें 'भूज्यु' की रक्षा करनेवाले हैं, अपार जलराशिपर से पार तरानेवाले, उषाके भाई है; और कैस्टर एवं पोलीडूससकी बहन हेलेन उषा है या वह देवशुनी 'सरमा' ही है जो दक्षिणाकी तरह उषाकी शक्ति, लगभग उसकी मूर्त्ति (प्रतिमा) है | पर इनमेंसे कुछ भी मानें इसके आगे एक और विकासक्रम
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हुआ है, जिसके द्वारा ये देव या अर्धदेव आध्यात्मिक व्यापारोंसे युक्त हो गये हैं, शायद उसी प्रक्रिया द्वारा जिससे ग्रीकधर्ममें Athene, उषा, का ज्ञानकी देवीके रूपमें परिवर्तन तथा Apollo, सूर्य, का दिव्य गायक और द्रष्टाके, भविष्यवाणी और कविताके प्रेरक-देवके रूपमें परिवर्तन हो गया ।
वेदमें यह संभव है कि एक और ही प्रवृत्ति काम कर रही हो--अर्थात् उन प्राचीन रहस्यवादियोंके मनोंमें प्रधानतया विद्यमान, सतत और सर्वत्र पायी जानेवाली प्रतीकवादकी प्रवृत्ति या आदत । हर एक बात, उनके अपने नाम, राजाओं और याजकोंके नाम, उनके जीवनकी साधारणसे साधारण परिस्पितियाँ--ये सब प्रतीकोंके रूपमें ले आयी गयी थीं और वे प्रतीक उनके असली गुप्त अभिप्रायोंके लिये आवरणका काम देते थे । जैसे वे 'गौ' शब्दकी द्वचर्थकताका उपयोग करते थे, जिसका अर्थ 'किरण' और 'गाय' ये दोनों होते थे, जिसमें गाय ( उनके पशुपाल-जीवनसम्बन्धी संपत्तिके मुख्य रूप ) की मूर्त प्रतिमा उसके छिपे हुए अभिप्राय आन्तरिक प्रकाशके लिये (जो उनकी उस आध्यात्मिक संपत्तिका मुख्य तत्त्व था ) जिसकी वे अपने देवोंसे प्रार्थना करते थे आवरण बन सके, वैसे ही वे अपने नामोंका भी उपयोग करते थे, उदाहरणार्थ, गोतम 'प्रकाशसे अधिक-से-अधिक भरा हुआ', गविष्ठिर 'प्रकाशमें स्थिर', एवं ऊपरसे देखनेमें जो निजी दावा या इच्छा-सी प्रतीत होती है, उसके नीचे वे अपने विचारमें रहनेवाले विस्तृत और व्यापक अभिप्रायको छिपाये होते थे । इसी प्रकार वे बाह्य तथा आन्तर अनुभूतियोंका भी, थे चाहे अपनी हों या दूसरे ऋषियोंकी, उपयोग करते थे । यज्ञस्तम्भके साथ बाँधे गये शुन:शेपकी प्राचीन कथामें यदि कुछ सत्य है तो, जैसा कि हम अभी देखेंगे, यह बिल्कुल निश्चित है कि ऋग्वेदमें यह घटना या गाथा एक प्रतीकके रूपमें प्रयुक्त की गयी है । शुन:शेप है मानवीय आत्मा जो पापके त्रिविध बन्धनसे बद्ध है और अग्नि, सूर्य तथा वरुणकी दिव्य शक्तियों द्वारा वह इससे उन्मुक्त होता है । इसी प्रकार कुत्स, कण्व, उशना काव्य जैसे ऋषि भी किन्हीं आध्यात्मिक अनुभूतियों तथा विजयोंके प्रतीक या आदर्श बने हैं और उस स्थितिमें इन्होंने देवताओंके साथ स्थान प्राप्त किया है । तो फिर इसमें कुछ आश्चर्यकी बात नहीं कि सात अगिरस् ऋषि भी इस रहस्यमय प्रतीकवादमें, अपने परंपरागत या ऐतिहासिक मानुष स्वरूपका सर्वथा त्याग किये बिना ही, दिव्य शक्तियों और आध्यात्मिक जीवनके जीवन्त बल बन गये हों । तो भी हम यहां इन अटकलों और अनुमानोंको एक तरफ छोड़ देंगे और इनफी जगह इस परीक्षामें प्रबृत्त होंगे कि अंगिरसोंके व्यक्तित्वके उपर्युक्त तीन तत्त्वों या पहलुओंके तथा
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अन्धकारमेसे सूर्य और उषाको फिरसे प्राप्त करनेके अलंकार में क्या-क्या भाग रहा है ।
सबसे पहिल हमारा ध्यान इस बात पर जाता है कि वेदमें अगिरस् शब्द विशेषणके तौरपर प्रयुक्त हुआ है, अधिकतर उषा और गौओंके रूपरू के प्रकरणमें । दूसरे, यह अग्निके नामके तौरपर आया है, इन्द्रके विषयमें कहा गया है कि वह अंङ्गिरस् बन जाता है और बृहस्पतिको भी अगिरस् या आंगिरस पुकारा गया है, जो स्पष्ट ही केवल भाषालंकारके तौरपर या गाथात्मक तौरपर नहीं कहा गया है बल्कि विशेष अर्थ सूचित करनेके लिये और इस शब्दके साथ जो आध्यात्मिक या दूसरे भाव जुड़े हुए हैं उनको लक्षित करनेके लिये ही ऐसा कहा गया है । यहाँ तक कि अश्विन् देव भी सामूहिक रूपसे अगिरस् करके संबोधित किये गये हैं । इसलिए यह स्पष्ट है कि अगिरस् शब्द वेदमें केवल ऋषियोंके एक कुलके नामके तौरपर नहीं किन्तु इस शब्दके अन्दर निहित एक विशिष्ट अर्थको लेकर प्रयुक्त हुआ है । यह भी बहुत संभव है कि यह शब्द जब एक संज्ञा, नामके तौरपर प्रयुक्त किया गया है तब भी इसके अन्तर्निहित भावको स्पष्ट गृहीत करते हुए ही ऐसा किया गया है, बहुत संभव तो यहाँ तक है कि वेदमें आनेवाले नाम ही, यदि हमेशा नहीं तो सामान्यतया, अपने अर्थपर बलप्रदानपूर्वक प्रयुक्त किये गये हैं, विशेषतया देवों, ऋषियों और राजाओंके नाम । वेदमें इन्द्र शब्द सामान्यतया एक नामके तौरपर प्रयुक्त हुआ है तो भी हम वेदकी शैलीकी कुछ अर्थपूर्ण झांकियाँ पाते हैं जैसे कि उषाका वर्णन करते हुए उसे 'इन्द्रतमा, अङ्गिरस्तमा' कहा गया है, --'सबसे अधिक इन्द्र', 'सबसे अधिक अगिरस्'; और पणियोको 'अनिन्द्रा:' अर्थात् इन्द्ररहित वर्णित किया गया है । ये स्पष्ट ही ऐसे शब्दप्रयोग हैं जो इन्द्र या अंगिरससे निरूपित होनेवाले व्यापारों, शक्तियों या गुणोंसे युक्त होने या इनसे रहित होनेके भाव को सूचित करनेके अभिप्रायसे किये गये हैं । तो हमें अब यह देखना है कि वे अभिप्राय क्या हैं और अंगिरस् ऋषियोंके गुणों या व्यापारोंपर उन द्वारा क्या प्रकाश पड़ता है ।
'अङ्गिरस्' शब्द अग्निका सजातीय है, क्योंकि यह जिस धातु 'अगि' (अंग ) से निकला है वह अग्निकी धातु 'अग्'का केवल सानुनासिक रूप है । इन धातुओंका आन्तरिक अर्थ प्रतीत होता है प्रमुख या प्रबल अवस्था, भाव, गति, क्रिया, प्रकाश ।1 और इनमेंसे अन्तिम अर्थात् 'प्रदीप्त या
1. प्रमुख या प्रबल अवस्थाके लिये संस्कृत शब्द है 'अग्र' जिसका अर्थ होता है अगला या शिखर और ग्रीकमें 'अगन' जिसका अर्थ है 'अधिकतासे' । प्रमुख भावके लिये
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जलता हुआ प्रकाश' इस अर्थसे ही 'अग्नि, आग, 'अंगार' (दहकता कोयला, अंगारा) और 'अंगिरस्' शब्द बने हैं । अतः अगिरस्का अर्थ होना चाहिये ज्वालामय या दीप्त । वेदमें और ब्राह्मण-ग्रंथोंकी परंपरामें भी अगिरस् मूलत: अग्निसे निकट-संबद्ध माने गये हैं । ब्राह्मणोंमें यह कहा गया है कि अग्नि आग है, अगिरस् अंगारे हैं, पर स्वयं वेदका निर्देश ऐसा प्रतीत होता है कि वे (अंगिरस् ) अग्निकी ज्वालाएँ हैं या ज्योतियाँ हैं । ऋ 10.62 में अगिरस् ऋषियोंकी एक ऋचामें उनके बारेमें कहा गया है कि वे अग्निके पुत्र हैं और अग्निसे उत्पन्न हुए हैं वे अग्निके चारों ओर और विविध रूपवाले होकर सारे द्युलोकके चारों ओर उत्पन्न हुए हैं ।१ और फिर इससे अगली पंक्तिमें इनके विषयमें सामुदायिक रूपसे एकवचनमें बोलते हुए कहा है--'नवग्यो नु दशग्यो अङ्गिरस्तम: सचा देवेषु मंहते' अर्थात् नौ किरणोवाला, दश किरणोंवाला सबसे अधिक अगिरस् (यह अंगिरस्-कुल ) देवोंके साथ या देवोंमें समृद्धिको प्राप्त होता है । इन्द्रकी सहायतासे ये अगिरस् गौओं और घोड़ोंके बाड़ेको खोल देते हैं, ये यज्ञ करनेवालोंको रहस्य-मय आठ कानोवाला गो-समूह प्रदान करते हैं और उसके द्वारा देवताओंमें 'श्रवस्' अर्थात् दिव्य श्रवण या सत्यकी अन्तःप्रेरणा उत्पन्न करते हैं (10.62. 5,6,7 ) । तो यह काफी स्पष्ट है कि अंगिरस् ऋषि यहाँ दिव्य अग्निकी प्रसरणशील ज्योतियाँ हैं जो द्युलोकमें उत्पन्न होती हैं, इसलिये ये दिव्य ज्वालाकी ज्योतियाँ हैं न कि किसी भौतिक आगकी । ये प्रकाशकी नौ किरणोंसे और दश किरणोंसे संनद्ध होते हैं, अगिरस्तम बनते हैं अर्थात् अग्निकी, दिव्य ज्वाला की जाज्वल्यमान अर्चियोंसे पूर्णतम होते हैं और इसलिये कारागारमें बन्द प्रकाश और बलको मुक्त करनेमें तथा अतिमानस (विज्ञानमय ) ज्ञानको उत्पन्न करनेमें समर्थ होते हैं ।
चाहे यह स्वीकार न किया जाय कि प्रतीकपरक यही अर्थ ठीक है,
ग्रीक शब्द 'अगपे' है जिसका अर्थ है प्रेम और शायद संस्कृत 'अंगना' अर्थात् स्त्री । इसी तरह प्रमुख गति तथा क्रियाके लिये मी इसी प्रकारके कई संस्कृत, ग्रीक तथा लेटिनके शब्द हैं ।
1. ते अङ्गिरस: सूनवस्ते अग्ने: परि अज्ञिरे ।।5।|
ये अग्ने: परि जज्ञिरे विरूपासो दियस्परि ।
नवग्वो नु दशग्यो अङ्गिरस्तम: सचा देवेषु मंहते ।।6।।
इन्द्रेण युवा नि: सृजन्त वाधतो व्रजं गोमप्तन्तमश्विनम् ।
सहस्र मे ददतो अष्टकर्ष्य: श्रवो देवेष्वक्त ।।7।।
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पर यह तो स्वीकार करना होगा कि यहाँपर कोई प्रतीकात्मक अर्थ ही है । ये अंगिरस् कोई यज्ञ करनेवाले मनुष्य नहीं हैं, किंतु द्युलोकमें उत्पन्न हुए अग्निके पुत्र हैं, यद्यपि इनका कार्य बिल्कुल मनुष्य अगिरसोंका है जो पितर हैं, (पितरो मनुष्या: ); ये विविध रूप लेकर उत्पन्न हुए हैं ( विरूपास: ) । इस सबका यही अभिप्राय हो सकता है कि ये अग्निकी शक्तिके विविध रूप हैं । प्रश्न होता है कि किस अग्निके, क्या यज्ञशालाकी ज्वालाके, सामान्य अग्नि-तत्त्व के या फिर उस दूसरी पवित्र ज्वालाके जिसका वर्णन किया गया है 'द्रष्टृ-संकल्पसे युक्त होता' या 'जो द्रष्टाका कार्य करता है, सत्य है, अन्त:प्रेरपाओंके विविध प्रकाशसे समृद्ध है' ( अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तम:) । यदि यह अग्नि-तत्त्व है तो अगिरस्से सूचित होनेवाली जोज्वल्यमान चमक सूर्यकी चमक होनी चाहिये अर्थात् अग्नि-तत्त्वकी वह आग जो सूर्यकिरणोंके रूपमें प्रसृत हो रही है और इन्द्रसे, आकाशसे संबद्ध होकर उषाको उत्पन्न करती है । इसके अतिरिक्त अन्य कोई भौतिक व्याख्या नहीं हो सकती, जो अगिरस् गाथाकी परिस्थितियों तथा विवरणोंसे संगत हो । परंतु यह भौतिक व्याख्या अगिरस्-ऋषियोंसंबंधी अन्य वर्णनोंका कुछ भी स्पष्टीकरण नहीं दे सकती कि वे द्रष्टा हैं, वैदिक सूक्तोंके गायक हैं, कि वे जैसे सूर्यकी और उषाकी वैसे बृहस्पतिकी भी शक्तियाँ हैं ।
वेदका एक और संदर्भ है, ( 66.3, 4,5 )1 जिसमें इन अंगिरस् ऋषियोंका अग्निकी ज्वालामय अर्चियोंके साथ तादात्म्य बिल्कुल स्पष्टतया और अभ्रान्त रूपसे प्रकट हो जाता है । ' ( शुचे अग्ने ) हे पवित्र और चमकीले अग्नि ! (ते ) तेरे ( शुचय: भामास: ) पवित्र और चमकीले प्रकाश (वातजूतास:) वायुसे प्रेरित होकर (विष्यक् ) चारों तरफ (चिचरन्ति ) दूर-दूर तक पहुँचते हैं; (तुविम्रक्षास: ) प्रबलतासे अभिभूत करनेवाले (दिव्या नवग्वा:) दिव्य2 नौ किरणोवाले ( वना3 धृषता रुजन्तः वनन्ति ) वनोंको बलपूर्वक तोड़ते-फोड़ते हुए उनका उपभोग करते हैं । ( 'वना
1. वि ते विश्वग्वातजूतासो अग्ने भामास: शुचे शुचयश्चरन्ति ।
तुविम्रक्षासो दिव्या नवग्वा वना वनन्ति घृषता रुजन्तः ।।३।।
थे ते शुकास: शुचय: शुचिष्म: क्षां वपन्ति विषितासो अश्वा: ।
अध भ्रमस्स उर्विया वि भाति यातयमानो अधि सानु पृश्ने: ।।४।।
अध जिह्वा पापतीति प्रवृष्णो गोषुयुषो नाशनिः सृजाना ।
2. नवग्वाका दिव्य विशेषण ध्यान देने योग्य है ।
3.वना'का अर्थ सायणने 'यज्ञिय अग्निक लिये लक्कड़' ऐसा किया हैं ।
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वनन्ति' शब्द अत्यंत अर्थपूर्ण रूपसे इस. ढके हुए अभिप्रायको दे रहे हैं कि 'उपभोग-योग्य वस्तुओंका उपभोग करते हैं' । ) ।3। (शुचिष्म:) ओ पवित्र प्रकाशवाले ! (ये ते शुक्रा: शुचय: ) जो तेरे चमकीले और पवित्र प्रकाश (क्षां ) सम्पूर्ण पृथ्वीको (वपन्ति)1 आक्रान्त या अभिभूत करते हैं (विषितास: अश्वा:) वे तेरे सब दिशाओंमें दौड़नेवाले घोड़े हैं । (अथ ) तब (ते भ्रम: ) तेरा भ्रमण (पृश्ने:) चित्रविचित्र रंगवाली [मरुतोंकी माता, पृश्नि गौ]की (सानो: अधि ) उच्चतर भूमिकी तरफ (यातयमान: ) यात्राका मार्ग दिखलाता हुआ (उर्विया विभाति ) विस्तृत रूपमें चमकता है । ।4। (अध ) तब (जिह्वा ) तेरी जीभ (प्रपापतीति ) ऐसे लपलपाती है (गोषुयुधो वृष्ण: सृजाना अशनि: न ) जैसे गौओंके लिये युद्ध करनेवाले वृषासे छोड़ा हुआ वज्र ।5।' यहाँ अगिरस् ऋषियोंकी ज्वालाओं (भामासः, शुचय: ) से जो स्पष्ट अभिन्नता है उसे सायण 'नवग्वा:' का अर्थ 'नवजात किरणें' करके टालना चाहता है । परंतु यह बिल्कुल स्पष्ट है कि यहाँके 'दिव्या: नवग्वाः' तथा 10.62 में वर्णित 'अग्निके पुत्र, द्युलोकमें उत्पन्न होनेवाले नवग्वाः' एक ही हैं, इनका भिन्न होना संभवित नहीं है । यदि इस अभिन्नताके लिये किसी पुष्टिकी जरूरत है तो यह उपर्युक्त संदर्भमें आये इस कथनसे और भी पुष्ट हो जाती है कि नवग्वोंकी क्रिया द्वारा होनेवाले अग्निके इस भ्रमणमें उसकी जिह्वा इन्द्रके (गौओंके लिये लड़नेवाले और वृषा इन्द्रके ) अपने हाथोंसे छूटे हुए वज्रका रूप धारण करती है और यह तेजीसे लपलपाती हुई आगे बढ़ती है, निःसंदेह द्युलोककी पहाड़ी में अंधकारकी शक्तियोंपर आक्रमण करनेके लिये ही आगे बढ़ती है; क्योंकि अग्नि और नवग्वोंका प्रयाण (भ्रमण ) यहाँ इस रूपमें वर्णित किया गया है कि यह पृथ्वी पर घूम चुकनेके उपरान्त पहाड़ीपर (सानु पृश्ने: ) चढ़ना है ।
यह स्पष्ट ही ज्वाला और प्रकाशका प्रतीकात्मक वर्णन है--दिव्य ज्वाला पृथ्वीको दग्ध करती है और फिर वह द्युलोककी विद्युत् तथा सौर शक्तियोंकी दीप्ति बनती है; क्योंकि वेदमें अग्नि जहाँ जलमें उपलब्ध होनेवाली तथा पृथ्वीपर चमकनेवाली ज्वाला है वहाँ वह सूर्यकी ज्योति तथा विद्युत् भी है । अगिरस् ऋषि भी, अग्निकी शक्तियाँ होनेके कारण, अग्निके इस अनेकविध स्वरूप व व्यापारको ग्रहण करते हैं । यज्ञ द्वारा प्रदीप्तकी गयी दिव्य ज्वाला इन्द्रको विद्युत्की सामग्री भी प्रदान करती है, विद्युत्की, वज्रकी,
1. 'ज्ञां वपीन्त'का अर्थ सायणने 'पृथ्वीके वालोंको मूंडते है'ऐसा किया है |
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'स्वर्य अश्मां'की जिसके द्वारा वह अंघकारकी शक्तियों का विनाश करता है और गौओंको, सौर ज्योतियोंको, जीत लेता है ।
अग्नि, अंगिरसोंका पिता, न केवल इन दिव्य ज्वालाओंका मूल और उद्गम-स्थान है किन्तु वह स्वयं भी वेदमें पहिला अंगिरस् (प्रथमो अंगिरा: ) अर्थात् परम और आदिम अंगिरा वर्णित किया गया है । इस वर्णन द्वारा वैदिक कवि हमें क्या अभिप्राय जताना चाहते हैं ? वह हम अच्छी तरह समझ सकते हैं यदि हम उन वाक्योंमेंसे कुछ एक पर जरा दृष्टिपात करें जिनमें इस प्रकाशमान और ज्वालायुक्त देवताको 'अंगिरा:' विशेषण दिया गया है । पहिले तो यह कि यह दो बार अग्निके एक अन्य नियत विशेषण 'सहस: सूनुः ऊर्जो नपात्' ( बलके पुत्र या शक्तिके पुत्र ) के साथ संबद्ध होकर आया है । जैसे 8 .60.2 में संबोधित किया गया है 'हे अगिर:, बलके पुत्र' ( सहस: सूनो अङ्गिर: )1 और 8 .84..4 में 'हे अग्ने ! अगिर: ! शक्तिके पुत्र ! ' ( अग्ने अङ्गिइर ऊर्जो नपात् ) ।2 और 5. 11 .633 में कहा गया है ''तुझे हे अग्ने ! अंगिरसोंने, गुप्त स्थानोंमें स्थापित तुझे ( गुहा हितं ) प्राप्त कर लिया, जंगल-जंगलमें ( वने-वने, अथवा यदि हम उस छिपे हुए अर्थके संकेतको स्वीकार करें जिसे हम 'वना वनन्ति' इस शब्दावलि में पहिले देख चुके हैं तो 'प्रत्येक उपभोग्य पदार्थमें' ) स्थित तुझको । सो तू मथा जाकर ( मथ्यमान ) एक महान् शक्ति होकर उत्पन्न होता है, तुझे वे बलका पुत्र कहते हैं, हे अगिर: !'' तो इसमें संदेहका अवकाश नहीं कि यह बलका विचार अगिरस् शब्दकी वैदिक धारणामें एक आवश्यक तत्त्व है और, जैसा कि हम देख चुके हैं, यह इस शब्दके अर्थका एक भाग ही है । अग्नि, अंगिरस् जिन धातुओंसे बने हैं उन 'अग्', 'अगि ( अंग् ) ' में बलका भाव निहित है; अवस्थामें, क्रियामें, गतिमें, प्रकाशमें, अनुभवमें प्रबलता इन धातुओंके अर्थका अन्तर्निहित गुण है । बलके साथ-साथ इन शब्दोंमें प्रकाशका अर्थ भी है । अग्नि, पवित्र ज्वाला, प्रकाशकी ज्वलन्त क्ति है औंर अगिरs भी प्रकाशके ज्वलन्त बल हैं ।
परंतु किस प्रकाशके, भौतिक या आलंकारिक ? हमें यह कल्पना नहीं
1. अच्छा हि त्वा सहस: सूनो अङ्गि:र: स्रुचश्चरन्त्यध्वरे ।
ऊर्जो नपातं घृतकेशमीमहेऽग्निं यज्ञेषु पूर्थ्यम् ।। ( ऋ ० 8.6०.2 )
2. कया ते अग्ने अङ्गिर ऊर्जो नपादुपस्तुतिम् । वराय देव मन्यवे । । ( ऋ. 8.84.4)
3. त्यामग्ने अड़िरसो गुहा हितम् अन्यविन्दन् शिश्रियाणं वने वने ।
स जायसे मथ्यमानः सहो महत् त्यामाहु: सहसत्युत्र अङ्गिर ।। ( ॠ. 5. 11 .6 )
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कर लेनी चाहिये कि वैदिक कवि इतनी अपक्व तथा जंगली बुद्धिवाले थे कि वे सभी भाषाओंमें सामान्यरूपसे पाये जानेवाले ऐसे स्पष्ट आलंकारिक वर्णन कर सकनेमें भी असभर्थ थे जिनमें भौतिक प्रकाश आलंकारिक रूपसे मानसिक तथा आत्मिक प्रकाशका, ज्ञानका, आन्तरिक-प्रकाश-युक्तताका वर्णन करनेको प्रयुक्त किया जाता है । वेद बिल्कुल साफ कहता है 'द्युमतो विप्रा:' अर्थात् प्रकाशयुक्त ज्ञानी और 'सूरि' शब्द (जिसका अर्थ होता है ऋषि ) व्युत्पत्ति-शास्त्रके अनुसार 'सूर्य' से संबद्ध है और इसलिये मूलत: इसका अर्थ अवश्य ' प्रकाशयुक्त' ऐसा होना चाहिये । 1.31.11 में इस ज्वालाके देवके विषयमें कहा गया है, 'हे अग्ने ! तू प्रथम अगिरस् हुआ है, ऋषि, देवोंका देव, शुभ सखा है । तेरी क्रियाके नियममें ( व्रतमें ) मरुत् अपने चभकीले भालोंके साथ उत्पन्न होते हैं, जो क्रान्तदर्शी हैं और ज्ञानके साथ कर्म करनेवाले हैं ।' तो स्पष्ट है कि 'अग्नि अंगिरा:' में दो भाव विद्यमान हैं, ज्ञान और क्रिया; प्रकाशयुक्त अग्नि और प्रकाशयुक्त मरुत् अपने प्रकाश द्वारा ज्ञानके द्रष्टा, ऋषि, 'कवि' हुए हैं । और ज्ञानके प्रकाश द्वारा शक्तिशाली मरुत् अपना कार्य करते हैं क्योंकि वे अग्नि के ' व्रतमें'--उसकी क्रियाके नियममें--उत्पन्न हुए हैं या आविर्भूत हुए हैं । क्योंकि स्वयं अग्नि हमारे सम्मुख इस रूपमें वर्णित कियां गया है कि वह द्रष्टृ-संकल्पवाला है, 'कविक्रतु:' है, क्रियाका वह बल है जो अन्त:प्रेरित या अतिमानस ज्ञानके ( श्रवस् के ) अनुसार कार्य करता है, कारण 'कवि' शब्द द्वारा यह ( अन्त:प्रेरित या अतिमानस ) ज्ञान ही अभिप्रेत होता है न कि बौद्धिक ज्ञान । तो यह. 'अग्नि अगिरस्'-नामक महान् बल, 'सहो महत्', इसके सिवाय और क्या है कि यह दिव्य चेतनाका ज्वलन्त बल है, पूर्ण सामंजस्यमें कार्य करनेवाले प्रकाश और शक्तिके अपने दोनों युगल गुणोंसे युक्त दिव्य चेतनाकी जाज्वल्य-मान शक्ति है ठीक ऐसे ही जैसे कि मरुतोंका वर्णन किया गया है कि वे 'कवयो यिद्मनापस:' हैं, क्रान्तदर्शी हैं, ज्ञानके साथ कार्य करनेवाले ? इस परिणामपर पहुँचनेके लिये तो हम युक्ति देख ही चुके हैं कि उषा दिव्य प्रभात है न कि केवल भौतिक सूर्योदय, कि उसकी गौएँ या उषा तथा सूर्य की किरणें उदय होती हुई दिव्य चेतनाकी किरणें व प्रकाश हैं और कि इसलिये सूर्य ज्ञानके अधिपतिके रूपमें प्रकाशप्रदाता है और कि 'स्व:', द्यावा-पृथिवीके परेका सौर लोक, दिव्य सत्य और आनन्दका लोक है, एक शब्दमें
1. त्यमग्ने प्रथमो अङ्गिरा ऋषिर्दैवो देवानामभव: शिव: सखा ।
तव व्रते कवयो विद्मनापसोऽजायन्त मरुतो भ्राजदृष्टय: ।। ( ऋ. 1.31. 1 )
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कहें तो यह कि वेदमें प्रकाश व ज्योति ज्ञानका, दिव्य सत्यके प्रकाशनका प्रतीक है । अब हमें यह परिणाम निकालनेके लिये भी युक्ति प्राप्त हो रही है कि ज्वाला-जो प्रकाशका ही एक दूसरा रूप है--दिव्य चेतना ( अतिमानस सत्य ) के बलके लिये वैदिक प्रतीक है. ।
एक दूसरी ऋचा ( 6.11. 3 ) में आया है, 'वेपिष्ठो अङ्गिरसां यद्ध विप्र:' अर्थात् ''अंगिरसोंमें सबसे अधिक प्रकाशयुक्त द्रष्टा'' । यह किसकी तरफ निर्देश है यह स्पष्ट नहीं है । सायण 'वेपिष्ठो विप्र:' इस विन्यासकी तरफ ध्यान नहीं देता, जिससे 'वेपिष्ठः'का अर्थ एकदम स्पष्ट तौरसे स्वयमेव निश्चित हो जाता है कि 'विप्रतम, सबसे अधिक द्रष्टा, सबसे अधिक प्रकाश-युक्त' । सायण यह कल्पना करता है कि यहाँ भारद्वाज, जो इस सूक्तका ऋषि है, स्वयं अपने-आपकी स्तुति करता हुआ अपनेको देवोंका 'सबसे बड़ा स्तोता' कहता है । पर यह निर्देश शंकनीय है । यहाँ अग्नि ही 'होता' है, पुरोहित है (देखो पहिले दूसरे मन्त्रोंमें 'यजस्व होत:', 'त्वं होता' ), अग्नि ही देवोंका यजन कर रहा है, अपने ही तनूभूत देवोंका ( 'तन्वं तय 'स्वां', दूसरा मन्त्र ), मरुतों, मित्र, वरुण, द्यौ और पृथिवीका यजन कर रहा है ( पहिला मन्त्र ) । क्योंकि इस ऋचामें कहा है--
' ( त्वे हि ) तुझमें ही ( धिषणा ) बुद्धि ( धन्याचित् ) यद्यपि यह धन्या है, धनसे पूर्ण है तो भी ( देवान् प्रवष्टि ) देवोंको चाहती है, ( गृणते जन्म यजष्यै )१ मंत्रगायकके लिये [दिव्य] जन्म चाहती है जिससे वह देवोंका यजन कर सके; ( यज्ञ विप्र: अङ्गिरसां बेपिष्ठ: रेभ:) जब कि, विप्र, अगिरसोंमें विप्रतम [ सबसे अधिक प्रकाशयुक्त] स्तोता ( इष्टौ मषु च्छन्द: भनति ) यज्ञमें मघुर छन्द उच्चारण करता है ।' इससे लगेगा कि अग्नि ही स्वयं विप्र है, अंगिरसोंमें वेपिष्ठ ( विप्रतम ) है । या फिर दूसरी तरफ यह वर्णन बृहस्पतिके लिये उपयुक्ततम लगेगा ।
क्योंकि बृहस्पति भी एक अगिरस् है और वह है जो अगिरस् बनता है । जैसा कि हम देख चुके हैं, वह प्रकाशमान पशुओंके जीतनेके कार्यमें अगिरस् ऋषियोंके साथ निकटतया संबद्ध है और वह संबद्ध है ब्रह्मणस्पतिके तौर पर, ब्रह्मन् ( पवित्र वाणी या अन्त:प्रेरितं वाणी ) के पतिके तौर पर; क्योंकि उसके शब्द द्वारा ( रवेण ) बल टुकड़े-टुकड़े हो गया और गौओंने इच्छाके साथ रंभाते हुए उसकी पुकारका उत्तर दिया । अग्निकी शक्तियोंके तौर
1. धन्धा चिद्धि त्ये धिषणा वष्टि प्र देवान् जन्म गुणते यजध्यै ।
वेपिष्ठो अङ्गिरसां यद्ध थिप्र:मधु च्छदो भनति रेभ इष्टौ ।। (ॠ. 6. 11 .3 )
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पर ये अंगिरस् ऋषि उसकी तरह ही कविक्रतु हैं, वे दिव्य प्रकाशसे युक्त हैं और उसके द्वारा दिव्य शक्तिके साथ काम करते हैं; वे केवल ऋषि ही नहीं हैं किंतु वैदिक युद्धकेवीर है, 'दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीरा: (3-53-7 )', अर्थात् द्यौके पुत्र हैं, बलाधिपतिके वीर हैं, वे हैं (जैसा 6.75.91 में वर्णित है ) 'पितर जो माधुर्य (आनन्दके जगत् ) में बसते हैं, जो विस्तृत जीवनको स्थापित करते हैं, कठिन स्थानोंपर विचरते हैं, शक्तिवाले हैं, गम्भीर२ हैं, चित्र सेनावाले हैं, इषुबलवाले हैं, अजेय हैं, अपनी सत्तामें वीर हैं, विशाल हैं, शत्रुसमूहका अभिभव करनेवाले हैं', पर साथ ही वे हैं (जैसा कि अगली ऋचामें उनके विषयमें कहा गया है) 'ब्राह्यणास: पितर: सोम्यासः' अर्थात् वे दिव्य वाणी (ब्रह्म ) वाले हैं और इस वाणीके साथ रहनेवाले अन्त:प्रेरित ज्ञानसे युक्त है3 । यह दिव्य वाणी है 'सत्य मन्त्र', यह है विचार (बुद्धि ) जिसके सत्य द्वारा अगिरस् उषाको जन्म देते हैं और खोये हुए सूर्यको द्युलोकमें उदित करते हैं । इस दिव्य वाणी (ब्रह्य ) के लिये दूसरा शब्द जो वेदमें प्रयुक्त होता है वह है 'अर्क', जिसके अर्थ दोनों होते हैं मन्त्र और प्रकाश, और जो कभी-कभी सूर्यका भी वाचक होता है । इसलिये यह है प्रकाशकी दिव्य वाणी (ब्रह्म ), वह वाणी (ब्रह्म ) जो उस सत्यको प्रकाशित करती है जिसका कि सूर्य अधिपति है, और सत्यके गुह्य स्थानसे इसका उद्भूत होना सूर्य द्वारा अपनी गोरूप ज्योतियोंकी वर्षा करनेसे संबद्ध है, सो हम 7.36.1 में पढ़ते हैं 'सत्यके सदनसे ब्रह्म उद्भूत हो, सूर्यने अपनी रश्मियों द्वारा गौओंको उन्मुक्त कर दिया है ।'
प्र ब्रह्यैतु सदनाद् ऋतस्य, वि रश्मिभि: ससृजे सूर्यो गा: ।
इस (ब्रह्म )को भी वैसे ही प्राप्त करना, अधिगत करना होता है जैसे स्वयं सूर्यको और इसकी प्राप्तिके लिये भी (अर्कस्य सातौ) देवोंको अपनी सहायता वैसे ही देनी होती है, जैसे सूर्यकी प्राप्ति (सूर्यस्य सातौ) और स्व: की प्राप्ति के लिये (स्वर्षातौ ) ।
1. स्वादुषंसद: पितरो वयोधा: कृच्छे्श्रित: शक्तीवन्तो गभीराः ।
चित्रसेना इषुबला अमृध्रा: सतोवीरा उरवो व्रातसाहा: । । (ऋ० 6.75.9 )
2. तुलनोय: 10.62 में किया गया अंगिरसोंका यह वर्णन कि ये अग्निके पुत्र हैं, रूप
में विभिन्न है. पर ज्ञानमें गम्भीर हैं-'गम्भीर- वेपस:' । (मंत्र 5)
3. वेदमें ब्राह्मण शब्दका यही अर्थ प्रतीत होता है । यह तो निश्चित है कि जातसे
ब्राह्यण या पेशेसे पुरोहित इसका अमिप्राय बिलकुल नहीं है । यहां पितर योद्धा भी हैं,
और विप्र भी । चार वर्णोंका वर्णन ॠग्वेदमें एक ही जगह आया है, उस गंभीर पर
अपेक्षाकृत पीछेकी रचना पुरुषसूक्त में |
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इसलिये आङ्गिरा न केवल अग्नि-बल है किंतु बृहस्पति-बल भी है । बृहस्पतिको अनेक वार 'आंगिरस' करके पुकारा गया है जैसे कि, 6.73.1 में-
यो अद्रिभित् प्रथमजा ऋताया वृहस्पतिराङ्गिरसो हविष्मान् ।
'बृहस्पति, जो पहाड़ीको ( पणियोंकी गुफाको ) तोडनेवाला, प्रथम उत्पन्न हुआ, सत्यवाला, आंगिरस और हविवाला है' और 10.47.6 में हम बृहस्पति का आंगिरस रूपमें और भी अधिक अर्थपूर्ण वर्णन पाते हैं ।
प्र सप्तगुमृतषीतिं सुमेधां बृहस्पतिं मतिरच्छा जिगाति ।
य आङ्गिरस: नमसोपसधः............
'बिचार ( बुद्धि ) बृहस्पतिकी तरफ जाता है, सात किरणोंवाले, सत्य धारणावाले, पूर्ण मेधावालेकी तरफ, जो आंगिरस है, नमस्कार द्वारा पास पहुँचने योग्य ।' 2. 23. 18 में भी गौओंकी उन्मुक्ति और जलोंकी उन्मुक्तिके प्रकरणमें बृहस्पतिको 'अंगिर:' संबोधित किया गया है ।
तव श्रिये व्यजिहीत पर्वतो गयां गोत्रमुदसृजो यदङ्गर: ।
इन्द्रेण युजा तमसा परीवृतं बृहस्पते निरपामौब्जौ अर्णवम् ।।
तेरी विभूतिके लिये पर्वत जुदा-जुदा फट गया जब कि, हे अंगिर: ! तूने गौओंके बाड़ेको ऊपर उन्मुक्त कर दिया, इन्द्रके साथमें, हे बृहस्पति ! तूने जलोंके पूरको बलपूर्वक खोल दिया जो अन्धकारसे सब तरफसे आवृत था ।'
हम यहाँ प्रसंगवश इस बातकी तरफ भी ध्यान दे सकते हैं कि जलोंकी उन्मुक्ति जो वृत्रगाथाका विषय है कितनी घनिष्ठताके साथ गौओंकी उन्मुक्तिके साथ संबद्ध है जो अगिरस् ऋषियोकी और पणियोंकी गाथाका विषय है तथा यह कि वृत्र और पणि दोनों ही अंधकारकी शक्तियाँ हैं । गौ सत्यकी, सच्चे प्रकाशकर्त्ता सूर्यकी (सत्यं तत्...सूर्य ) ज्योतियाँ हैं; और वृत्रके आवरक अंधकारसे उन्मुक्त हुए जलोंको कभी सत्यकी धाराएँ ( ॠतस्य धारा: ) कहा गया है तो कभी 'स्वर्वती: अप:' अर्थात् स्वःके, प्रकाशमय सौर लोकके जल ।
तो हम देखते हैं कि प्रथम तो अगिरस् अग्निकी-द्रष्टृसंकल्पकी-शक्ति है, वह ऋषि है जो प्रकाश द्वारा, ज्ञान द्वारा काम करता है । वह अग्निके पराक्रमकी ज्वाला है; उस अग्निके जो महान् शक्तिके रूपमें यज्ञका पुरोहित होनेके लिये और यात्राका नेता बननेके लिये जगत्में उत्पन्न हुआ है, अग्नि जो कि वह पराक्रम है जिसके विषयमें वामदेव ( 4.1.1 ) देवोंसे प्रार्थना करता है कि वे उसे यहाँ मर्त्योंमें अमर्त्यके तौरपर स्थापित करें, वह बल है जो महान कार्य (अरति) को संपन्न करता है । फिर स्थानपर
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अंगिरस् बृहस्पतिकी शक्ति है या कम-से-कम बृहस्पतिकी शक्तिसे युक्त है, वह बृहस्पति जो सत्य विचारनेवाला और सात किरणोंवाला है, जिसकी प्रकाशमय सात किरणें उस सत्यको धारण करती हैं जिसे वह विचारता है ( सप्तधीति ),- और जिसके सात मुख उस शब्द ( मन्त्र ) को जपते हैं जो सत्यका प्रकाश करता है, वह देव जिसके विषयमें ( 4.50.4-5 में ) कहा गया है-
बृहस्पति: प्रथमं जायमानो महो ज्योतिष: परमे व्योमन् ।
सप्तास्यस्तुविजातो रवेण वि सप्तरश्मिरधमत् तमांसि ।।
स सुष्टुभा स ऋक्वाता गणेन वलं रुरोज फलिगं रवेण ।.......
'बृहस्पतिने महान् प्रकाशमेंसे उच्चतम आकाशमें प्रथम उत्पन्न होकर,- बहुतसे रूपोंमें उत्पन्न होनेवाले, सात मुखवाले, सात रश्मिवाले बृहस्पतिने अपने शब्दसे अंधकारको छिन्न-भिन्न कर दिया । अपने ऋक् तथा स्तुभ् ( प्रकाशके मंत्र तथा देवोंके पोषक छंद ) वाले गण ( सेना ) द्वारा उसने वलको अपने शब्दसे भग्न कर दिया ।' इसमें संदेह नहीं किया जा सकता कि बृहस्पतिके इस गण या सेनासे (सुष्टुभा ऋक्वाता गणेन ) यहाँ अभिप्राय अगिरस् ऋषियोंसे ही है जो सत्य मंत्र द्वारा इस महान् विजयमें सहायता करते हैं ।
इन्द्रके लिये भी वर्णन आता है कि वह अंगिरस् बनता है या अगिरस्- गुणोंसे युक्त होता है ।1 'वह अंगिरसोंके साथ अंगिरस्तम होवे, वृषोंके साथ वृषा ( रश्मियों और 'अप:', जलोंके विचारसे, जो कि गौएँ, गाव:, धेनव: हैं, वृषा है पुंशक्ति या पुरुष, नृ ), सखाओंके साथ सखा होता हुआ, ऋक्वालोंके साथ ऋक्वाला वह यात्रा करनेवालोंके साथ (गातुभि:-जो आत्माएँ विशाल और सत्यस्वरूप तक पहुँचानेवाले मार्गपर अग्रसर होती हैं उनके साथ ) सबसे बड़ा है, वह इन्द्र हमारे फलने-फूलनेके लिये मरुत्वान् (मरुतोंसे संयुक्त ) होवे । ' यहाँ प्रयुक्त किये गये विशेषण सब अंगिरस् ऋषियोंके अपने निजी विशेषण हैं और यह कल्पना तथा आशाकी गयी है कि अंगिरस्त्स्व ( अंगिरसने ) को बनानेवाले जो संबंध या गुण हैं उन्हें इन्द्र अपनेमें धारण कर लेदे । इसी तरह ऋ. 3 .3 1. 7 में कहा है-
अगच्छदु विप्रतम: सखीयन् असूदयत् सुकृते गर्भमद्रि: ।
ससान मर्यो युवभिर्मखस्यन् अथाभवद् अङ्गिरा: सद्यो अर्चन् । ।
1. सो अड़ि:रोभिरङ्गिरस्तमो भूद् वृषा वृषभि: सखिभि: सखा सन् ।
ऋग्मिभिऋग्मी गातुभिर्ज्येष्ठो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र उती ।। ऋ 1.100.4
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'सबसे अधिक ज्ञान-प्रकाशवाला (विप्रतम:, यह 6.11 .3 के 'वेपिष्ठो अङ्गिरसां विप्र:'का संवादी प्रयोग है ), मित्र होता हुआ (सखीयन्, अगिरस् महान् युद्धमें मित्र या साथी होते हैं ) वह चला ( अच्छत्, उस मार्ग पर-गासुभि:-जिसे सरमाने खोज निकाला था ), पहाड़ीने सुकर्म करनेवालेके लिये अपनी गर्भित वस्तु (गर्भम् ) को तुरंत प्रस्तुत कर दिया; जवानों सहित उस मर्दने (मर्यो युवभि:- युवा शब्द अजर-अक्षीण शक्तिके भावको भी प्रकट करता है ) संपत्ति की पूर्णताको चाहते हुए उसे अधिगत कर लिया (मखस्यन् ससान ), इस तरह एकदम स्तोत्र गाते हुए (अर्चन् ) वह अगिरस् हो गया ।'
यह इन्द्र जो अगिरस्के सब गुणोंको धारण कर लेता है, हमें स्मरण रखना चाहिए, स्व: का (सूर्य या सत्यके विस्तृत लोकका ) अधिपति है और यह हमारे पास नीचे उतर आता है अपने दो चमकीले घोड़ों (हरियों ) के साथ--जिन घोड़ोंको एक जगह 'सूर्यस्य केतू, पुकारा गया है अर्थात् सूर्यकी बोधकी या ज्ञानगत दृष्टिकी दो शक्तियाँ-इसलिये उतर आता है कि यह अंधकारके पुत्रोंके साथ युद्ध करे और महान् यात्रामें सहायता पहुँचावे । वेदके गुह्य अर्थके संबंधमें हम जिन परिणामोंपर पहुँचे हैं वे सब यदि ठीक हैं तो इन्द्र अवश्य ही दिव्य मनकी शक्ति (इन्द्र, पराक्रममूर्ति, शक्तिशाली1 देव ) होना चाहिये, उस दिव्य मनकी जो मनुष्यके अंदर जन्म ग्रहण करता है और वहाँ अपनी दिव्य पूर्णताकी प्राप्ति तक शब्द (ब्रह्म, मंत्र ) तथा सोमके द्वारा बढ़ता रहता है । यह वृद्धि प्रकाशके जीतने तथा बढ़नेके द्वारा जारी रहती है, बढ़ती जाती है, जबतक कि इन्द्र अपने-आपको पूर्णतया उस संपूर्ण प्रकाशमय गोसमूहके अधिपतिके रूपमें प्रकट नहीं कर देता जिसे वह 'सूर्यकी आँख'' द्वारा देखता है, जबतक कि वह ज्ञानके संपूर्ण प्रकाशोंका स्वामी दिव्य मन नहीं बन जाता ।
इन्द्र अगिरस् बननेमें मरुत्वान् होता है अर्थात् मरुतोंवाला या 'मरुत् हैं सहचारी जिसके ऐसा' बनता है, और ये मरुत्, आंधी और विद्युत्के चमकीले तथा रौद्र देव, वायुकी अर्थात् प्राण या जीवनके अधिष्ठातृ-देवकी जबर्दस्त शक्तिको और अग्नि अर्थात् द्रष्टृ-संकल्प की शक्तिको अपने अंदर एक किये हुए हैं । अतएव ये ऋषि, कवि हैं जो ज्ञानसे (अपना ) कार्य करते हैं (कवयो विद्मनापस: ), जब कि ये साथ ही युद्ध करनेवाली शक्तियाँ भी हैं जो दृढ़तया स्थापित वस्तुओंको, कृत्रिम बाधाओंको (कृत्रिभाणि
1. पर साथ ही शायद 'चमकीला ' मी ; जैसे इन्दु, चन्द्रमा; इन, तेजस्वी, सूर्य: इन्ध् प्रदीप्त करना ।
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रोधांसि ), जिनमें अन्धकारके पुत्रोंने अपने को सुरक्षित रूपसे जमा रखा है, द्युलोकके प्राणकी और द्युलोककी विद्यत्की शक्तिके द्वारा उखाड़ फेंकती हैं, और वृत्र तथा दस्युओंको जीतनेमें इन्द्रको सहायता देती हैं । गुह्य वेदके अनुसार ये मरुत् वे जीवन-शक्तियाँ प्रतीत होते हैं जो मर्त्य-चेतनाके अपने-आपको सत्य और आनन्द की अमरतामें बढ़ाने या विस्तृत करनेके प्रयत्नमें विचारके कार्य को अपनी वातिक या प्राणिक शक्तियों द्वारा पोषण प्रदान करती हैं । कुछ भी हो, उन्हें भी 6 .49. 11 में अगिरस्के गुणोंके साथ काम करतें हुए ( अङ्गिरस्वत् ) वर्णित किया गया है--'हे जवानो और ऋषियो तथा यज्ञकी शक्तियो, मरुतो ! ( दिव्य ) शब्दका उच्चारण करते हुए उच्च स्थानपर ( या पृथ्वीके वरणीय स्तरपर या पहाड़ी पर, ' अधि सानु पृश्ने:' जो बहुत संभवत: 'वरस्याम्'का अभिप्राय है ) आओ, शक्तियो जो कि बढ़ती हो, अगिरस्1 के समान ठीक-ठीक चलती हो ( मार्गपर, गातु ), उसको भी जो प्रकाशयुक्त नहीं है ( अचित्रम्, जिसने उषाके चित्र-विचित्र प्रकाशको नहीं पाया है उसे, हमारे साधारण अन्धकारकी रात्रिको ) प्रसन्नता देते हो ।'2 यहाँ हम अगिरस्-कार्यकी उन्हीं विशेषताओंको देखते हैं, अग्निकी नित्य जवानी और शक्ति ( अग्ने यविष्ठ ), शब्दको प्राप्त करना और उसका उच्चारण करना, ऋषित्व ( द्रष्टृत्व ), यज्ञके कार्यको करना, महान् मार्गपर ठीक-ठीक चलना जो जैसा कि हम देखेंगे, सत्यके शब्दकी ओर, बृहत् और प्रकाशमय आनन्दकी ओर ले जाता है । मरुतोंको ऐसा भी कहा गया है ( 10.78.5 ) कि मानो वे वास्तवमें ''अपने सामसूक्तों सहित अगिरस् हों, वे जो सब रूपोंको धारण करते हैं '', ( विश्वरूपा अङ्गिरसो न सामभि: ) ।
यह सब कार्य और प्रगति तब संभव बतायी गयी है जब उषा आती है । उषाका भी 'अङ्गिरस्तमा' कहके और साथ ही 'इन्द्रतमां भी कहके वर्णन किया गया है । अग्निकी शक्ति, अगिरस्-शक्ति, अपने-आपको इन्द्रकी विद्युत्में तथा उषाकी किरणोंमें भी व्यक्त करती है । दो
1. यह ध्यान देने योग्य है कि सायण यहां इस विचारको पेश करने का साहस करता
है कि अंगिरसूका अर्थ है गतिशील किरर्ण (अंग्, गीत करना इस धातुसे ) या अंगिरस्
ॠषि । यदि वह महान् पंडित अपने विचारोंका और मी अषिक साहसके साथ
अनुसरण करता दुआ उनके तार्किक परिणाम तक पहुंचनेमें समर्थ होत, तो वह
आधुनिक वादका उसके मुख्य मूलभूत अंगोंमें पहलेसे ही पता पा लेता ।
2. आ युवानः कवयो यज्ञियासो मरुतो गन्त गृणतो वरस्वाम् ।
अचित्रं चिद्धि जिन्वाथा वृधन्त इत्या नक्षन्तो नरो अङ्गिरस्वत् ।
ऋ० 6 .4 9. 11
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ऐसे संदर्भ उद्धृत किये जा सकते हैं जो अगिरस्-शक्तिके इस पहलूपर प्रकाश डालते हैं । पहला है 7.79. 2-31 में--''उषाएँ अपनी किरणोंको द्युलोकके प्रांतों, छोरों तक चमकने देती हैं, वे उन लोगोंके समान मेहनत करती हैं जो किसी कामपर लगाये गये होते हैं । तेरी किरणें अन्धकारको भगा देती हैं, वे प्रकाशको ऐसे फैलाती हैं मानो कि सूर्य अपनी दो बाहुओंको फैला रहा हो । उषा हो गयी है ( या उत्पन्न हुई है ) इन्द्र-शक्तिसे अधिक-से-अधिक पूर्ण ( इन्द्रतमा ), ऐश्वर्योंसे समृद्ध; और उसने हमारे कल्याण-जीवनके लिये ( या भलाई और आनन्दके लिये ) ज्ञानकी अन्तःप्रेरणाओं, श्रुतियोंको जन्म दिया है । देवी, द्युलोककी पुत्री, अङ्गिरस-पनेसे अधिकसे अधिक भरी हुई ( अङ्गिइरस्तमा ) उषा अच्छे कामोंको करनेवालेके लिये अपने ऐश्वर्योंका विधान करती है ।'' वे ऐश्वर्य जिनसे उषा समृद्धिशालिनी है प्रकाशके ऐश्वर्य और सत्यकी शक्तिके सिवाय और कुछ नहीं हो सकते । इन्द्र-शक्तिसे अर्थात् दिव्य ज्ञानदीप्त मनकी शक्तिसे परिपूर्ण वह उषा उस दिव्य मनकी अन्त:प्रेरणाओं, श्रुतियोंको ( श्रवांसि ) देती है जो श्रुतियाँ हमें आनन्दकी तरफ ले जाती हैं । अपनेमे विद्यमान ज्वालामय, देदीप्यमान अगिरस्-शक्तिके द्वारा वह अपने खजानोंको उनके लिये प्रदान करती और विधान करती है जो महान् कार्यको ठीक ढंगसे करते हैं और इस प्रकार मार्गपर ठीक तरीकेसे चलते है- (इत्था नक्षन्तो अङ्गिरस्वत् ) ।
दूसरा संदर्भ 7-75 में है--''द्युलोकसे उत्पन्न हुई उषाने सत्यके द्वारा ( अन्धकारके आवरणको ) खोल दिया है और वह विशालता (महिमानम् ) को व्यक्त करती हुई आती है, उसने द्रोहों और अंधकार ( द्रुहस्तम: ) के तथा उस सबके जो अप्रिय (अजुष्टं ) है, आवरणको हटा दिया है, अगिरस्-पनेसे अधिक-से-अधिक परिपूर्ण वह ( महान् यात्राके ) मार्गोंको दिखलाती है ।१। आज हे उष: ! हमें महान् आनन्द की यात्राके लिये (महे सुव्रिताय ) जगाओ, सुखभोगकी महान् अवस्थाके लिये ( अपने ऐश्वर्यको ) विस्तारित करो, हममें अन्तःप्रेरित ज्ञानसे पूर्ण (श्रवस्युम् ), विविध दीप्तिवाले (चित्रम् ) धनको धारण कराओ, हे हम मर्त्योंमें मानुषि और देवि ! ।२। ये हैं दृश्य उषाकी दीप्तियाँ जो विविधतया दीप्त (चित्रा:) और अमर रूपमें
1. व्यञ्जते दिवो अन्तेश्व्क्तून् विशो न युक्ता उषसो यतन्ते ।
सं वे गायस्तम आ वर्तयन्ति ज्योतिर्यच्छन्ति सवितेच बाहु ।।
अभूदुषा इन्द्रतमा मघोन्यजीजनत् सुविताय श्रवांसि ।
वि दिवो देवी दुहिता दधात्यअङ्गिरस्तमा सुकृते वसूनि || ॠ० 7.79.2-3
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आयी हैं, दिव्य कार्योंको जन्म देती हुई वे अपने-आपको प्रसारित करती हैं, अन्तरिक्षके कार्योंको उनसे भरती हुई,''--
जनयन्ता दैव्यानि व्रतानि, आपृणन्तो अन्तरिक्षा व्यस्थु:1 ।
हम फिर अगिरस-शक्तिको यात्रासे सम्बन्धित पाते हैं, अन्धकारको दूर करने द्वारा तथा उषाकी ज्योतियोंको लाने द्वारा इस यात्राके मार्गोंका प्रकाशित होना पाते हैं । पणि प्रतिनिधि हैं उन हानियोंके (द्रुह:, क्षतियाँ या वे जो क्षति पहुँचाते हैं ) जो दुष्ट शक्तियों द्वारा मनुष्यको पहुँचायी जाती हैं, अन्धकार उनकी गुफा है; यात्रा वह है जो प्रकाश और शक्ति और ज्ञानके हमारे बढ़ते हुए धनके द्वारा हमें दिव्य सुख और अमर आनन्दकी अवस्थाकी ओर ले जाती है । उषाकी अमर दीप्तियाँ जो मनुष्यमें दिव्य कार्यों (व्रतों ) को जन्म देती हैं और पृथ्वी तथा द्यौके बीचमें स्थित अन्तरिक्ष के कार्योंको ( अर्थात्, उन प्राणमय स्तरोंके व्यापारको जो वायुसे शासित होते हैं और हमारी भौतिक तथा शुद्ध मानसिक सत्ताको जोड़ते हैं ) उनसे (अपने दिव्य कार्योंसे ) आपूरित कर देती हैं वे ठीक ही अगिरस्-शक्तियाँ हो सकती हैं । क्योंकि वे ( अगिरस्) भी दिव्य कार्योंको अक्षत बनाये रखकर ( अमर्धन्तो दैव्या व्रतानि ) सत्यको प्राप्त करते और बनाये रखते हैं । निश्चय ही यह उनका (अंगिरसोंका ) व्यापार है कि वे दिव्य उषाको मर्त्य (मानुप्र ) प्रकृतिके अन्दर उतार लावें जिससे वह दृश्य ( प्रकट ) देवी अपने ऐश्वर्योंको उँडेलती हुई वहाँ उपस्थित हो सके, जो एक साथ ही देवी और मानुषी है, (देवि मर्तेषु मानुषि ), देवी जो मर्त्योंमें मानुषी होकर आयी है ।
1. व्युषा आवो दिविजा ऋतेनाऽऽविष्कृण्वाना महिमानमागात् ।
अप द्रुहस्तम आवरजुष्टमअङ्गिरस्तमा पथ्या अजीग: ।।
महे नो अद्य सुविताय बोध्युषो महे सौभगाय प्र यन्धि ।
चित्रं रयिं यशसं धेह्यस्मे देवि मर्तेषु मानुषि श्रवस्युम् ।।
एते त्ये भानवो दर्शतायाश्चित्रा उषसो अमृतास आगुः ।
चनयन्तो दैव्यानि व्रतान्यापृणन्तो अन्तरिक्षा व्यस्थुः ।। (ऋ 7.75.1-3)
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सत्रहवाँ अध्याय
सात-सिरोंवाला विचार, स्व: और दशग्वा ऋषि
तो वैदिक मंत्रोंकी भाषा अगिरस् ऋषियोंके द्विविध रूपका प्रतिपादन करती है । एकका संबंध वेदके बहिरंगसे है; इसमें सूर्य, ज्वाला, उषा, गौ, अश्व सोमसुरा, यज्ञिय मन्त्र ये सब एक-दूसरेसे गुंथकर एक प्रकृतिवादसुलभ रूपक बनाते हैं, दूसरे अंतरंग रूपमें इस रूपकमेंसे इसका आन्तरिक आशय निकाला जाता है । अगिरस् ज्वालाके पुत्र हैं, उषाकी ज्योतियाँ हैं, सोमरस पीनेवाले और देनेवाले हैं, मंत्रके गायक हैं, सदा युवा रहनेवाले और ऐसे वीर हैं कि सूर्य, गौओं एवं धोड़ोंको और सारे ही खजानों-को अंधकारके पुत्रोंके पंजेसे हमारे लिये छीन लाते हैं । पर साथ ही ये सत्यके द्रष्टा, सत्यके शब्दको पा लेनेवाले और उसके बोलनेवाले हैं, और सत्यकी शक्तिके द्वारा ये प्रकाश और अमरताके उस विशाल लोकको हमारे लिये जीत लाते हैं जिसका वेदमें इस रूपमें वर्णन हुआ है कि वह वृहत् है, सत्य है, ॠत है और उस ज्वालाका स्वकीय घर है जिसके कि ये अगिरस् पुत्र हैं । यह भौतिक रूपक और ये आध्यात्मिक निर्देश आपसमें बड़ी घनिष्ठताके साथ गुंथे हुए हैं और ये एक दूसरेसे अलग नहीं किये जा सकते ।
इसलिये हम सामान्य बुद्धिके आधार पर ही इस परिणाम पर पहुँचनेके लिये बाध्य होते हैं कि वह ज्याला जिसका कि ॠत और सत्य अपना घर है स्वयं उस ऋत और सत्यकी ही ज्याला है, कि वह प्रकाश जो सत्यसे और सत्य विचारकी शक्तिसे जीतकर प्राप्त किया जाता है सिर्फ भौतिक प्रकाश नहीं है, वे गौएं जिन्हें सरमा सत्यके पथ पर चलकर पाती है केवल भौतिक पशु नहीं हैं, घोड़े केवल द्राविड़ लोगोंकी भौतिक पशुओंकी वह संपत्ति नहीं हैं जिसे आक्रांता आर्य-जातियोंने जीतकर अपने अधीन कर लिया था, न ही ये सब केवलमात्र भौतिक उषा, इसके प्रकाश और इसकी तेजी से गति करती हुई किरणोंके ही रूपकात्मक वर्णन हैं, और न वह अंधकार जिसके कि पणि तथा वृत्र रक्षक हैं केवल भारतकी या उत्तरीय ध्रुवकी रात्रियोंका अंधकारमात्र है । हम तो अब यहाँ तक बढ़ चके हैं कि इस
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विषयमें एक युक्तियुक्त कल्पना प्रस्तुत करनेमें समर्थ हैं, जिसके द्वारा हम इस सब आलंकारिक रूपकके असली अभिप्रायको सुलझा सकते हैं और इन ज्योतिर्मय देवों तथा इन दिव्य प्रकाशमान ऋषियोंकी (अर्थात् अंगिरसोंकी ) वास्तविक दिव्यताको खोज निकाल सकते हैं ।
अगिरस् ऋषि एक साथ दिव्य और मानव दोनों प्रकारके द्रष्टा हैं । वेदमें ऐसा द्विविध स्वरूप अपने-आपमें केवल इन ऋषियोंके लिये ही असा-धारण या विशिष्ट धर्म नहीं है । वैदिक देवताओंकी भी दो प्रकारकी क्रिया होती है; ये दिव्य हैं और अपने स्वरूपमें पहिलेसे विद्यमान हैं, पर वे मर्त्य स्तर पर अपनी क्रिया करते हुए मानव हो जाते हैं जब कि ये मनुष्यके अन्दर महान् उत्थानके लिये क्रमश: बढ़ रहे होते हैं । उषा देवीकी स्थितिका वर्णन करते हुए यह भाव बहुत सुन्दर ढंगसे व्यक्त किया गया है, 'देवी जो मर्त्योंके अन्दर मानुषी है', (देवि मर्तेषु मानुषि ); पर अगिरस् ऋषियोंके रूपकमें यह द्विविध स्वरूप एक परम्पराके द्वारा और अधिक पेचीदा हो गया है, उस परम्पराके अनुसार ये मानव पितर हैं, प्रकाशके, मार्गके और लक्ष्यके अन्वेषक हैं । हमें देखना होगा कि यह पेचीदगी वैदिक संप्रदाय और वैदिक प्रतीकवादकी हमारी कल्पना पर क्या प्रभाव डालती है ।
अगिरस् ऋषि सामान्यत: संख्यामें सात वर्णित किये गये हैं, वे 'सप्त विप्र:' हैं जो पौराणिक परम्परा1 द्वारा हम तक सप्तर्षि (सात ऋषियों ) के रूपमें पहुंचे हैं और जिन्हें भारतीय नक्षत्र-विद्याने बृहत् ऋक्षके तारा-मण्डलमें बैठा दिया है । पर साथ ही उन्हें 'नवग्वा' और 'दशग्वा'के रूपमें भी वर्णित किया गया है । यद्यपि ऋ. 6.22.2 में उन प्राचीन पितरोंके विषयमें कहा गया है कि सात द्रष्टा जो नवग्वा थे, (पूर्वे पितरो नवग्वा: सप्त विप्रास: ) तो भी 3.39.5मे हम नवग्वा तथा दशग्वा इन दो विभिन्न श्रेणियोंका उल्लेख पाते हैं, जिनमें दशग्वा संख्यामें दस हैं और नवग्वा शायद नौ हैं, यद्यपि इनके नौ होनेके बारेमें स्पष्ट वर्णन नहीं है-
सखा ह पत्र सखिभिर्नवग्वैरभिक्ष्वा सत्यभिर्गा अनुग्मन् ।
सत्यं तदिन्द्रो वशभिर्दशग्वैः सूर्य विवेद तमसि क्षियन्तम् । ।
''जहाँ अपने सखाओं नवग्वाओंके साथ एक सखा इन्द्रने गौओंका अनु-सरण करते हुए दस दशग्वाओंके साथ उस सत्यको पा लिया, और उस सूर्यको भी पा लिया जो अंधकारमें रह रहा था ।" दूसरी ओर ऋ. 4.51.4
1. यह आवश्यक नहीं है कि सप्तर्षियोंके जो नाम पुराणमें आते हैं वे वही हो जो बैदिक परम्परामें हैं ।
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में हमें अंगिरसोंके बारेमें एक सामूहिक, एकवचनात्मक वर्णन मिलता है कि ये सात चेहरोंवाले या सात मुखोंवाले, नौ किरणोंवाले और दस किरणों-वाले हैं--(नवत्रवे अङ्गिरे दशग्वे सप्तास्ये ) 10.108.8में हमें एक दूसरे ऋषि 'अयास्य'का नाम मिलता है जो नवग्वा अंगिरसोंके साथ जुड़ा हुआ है ।1 10.67में इस 'अयास्य'के लिये कहा गया है कि यह हमारा पिता है जिसने सत्यमेंसे उत्पन्न होनेवाले सात सिरोंके महान् विचारको पाया है और यह अयास्य इन्द्रके लिये स्तुति-मंत्रोंका गान करता3 है । इसके अनु-सार कि नवग्वा, सात या नौ हैं, अयास्य आठवां या दसवां ऋषि होगा ।
परम्परा यह बताती है कि अगिरस् ऋषियोंकी दो श्रेणियोंका पृथक्-पृथक् अस्तित्व है, एक तो नवग्वा जिन्होंने नौ महीने यज्ञ किया और दूसरे दशग्वा जिनके यज्ञका कार्यकाल दस महीने रहा । इस व्याख्याके अनुसार हमें नवग्वा और दशग्वाको इस रूपमें लेना होगा कि ये 'नौ गौओं वाले' और 'दस गौओं वाले' हैं और प्रत्येक गौ तीस उषाओंकी द्योतक है जिनसे मिलकर यज्ञके वर्षका एक महीना बनता है । परन्तु कम-से-कम एक संदर्भ तो ऋग्वेदका ऐसा है जो कि ऊपरसे देखनेमें इस परम्परागत व्याख्याके सीधा विरोधमें जाता है । क्योंकि 5.45की 7वीं ऋचा में और फिर 11 वींमें यह कहा गया है कि वे नवग्वा थे, न कि दशग्वा, जिन्होंने दस महीने यज्ञ किया या स्तुति-मंत्रोंका गान किया । यह ७वीं ऋचा इस प्रकार है--
अनूनोदत्र हस्तयतो अद्रिरार्चन् येन वश मासो नवग्वा: ।
ॠतं यती सरमा गा अविन्दद् विश्वानि सत्याङ्गिराश्चकार ।।
"यहाँ हाथसे हटाये हुए पत्थरने आवाजकी (या वह हिला ), जिससे कि नवग्वा दश मास तक मंत्रपाठ करते रहे । सत्यकी ओर यात्रा करती हुई सरमाने गौओंको पा लिया; अगिरस्ने सब वस्तुओंको सत्य कर दिया ।'' और ११वीं ऋचामें इस कथनको फिर दोहराया गया है--
धियं वो अप्सु दधिषे स्वर्षा ययातरन् दश मासो नवग्वाः ।
अया धिया स्याम देवगोपा अया धिया तुतुर्यामात्यंह: ।।
'मै तुम्हारे लिये जलोंमें ( अर्थात् सात नदियोंमें ) उस विचारको रखता हूं जो स्वर्गको जीतकर हस्तगत कर लेता है3, (यह एक बार फिर उस
1. एह गमन्नृषय: सोमशिता अयास्थो अड़िइरसो नवग्बा: । ( 10.108.8 )
2. इमां धियं सप्तशीर्ष्णीं पिता न ॠतप्रजातां वृहतीमविन्दत् ।
तुरीयं स्यिज्जनयद् विश्वजन्योध्यास्य उक्थमिन्द्राय शंसन् ।। ( 10.67.1 )
3. सायणने इसका अर्थ यह लिया है कि 'मैं जलोंके निमित्तसे क्षति करता हूं अर्थात्
इसलिये कि वर्षा हो,--'धियं स्तुतिम् अप्सु अप्निमित्तं...दधिषे धारयामि |' पर
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सात सिरोंके विचारका वर्णन आ गया जो सत्यसे उत्पन्न हुआ है और जिसे अयास्यने पाया है ), जिसके द्वारा नयग्वाओंनेदस महीनों को पार किया । इस विचारके द्वारा हम देवोंको अपने रक्षकके रूपमें पा सकें, इस विचारके द्वारा हम पापका अतिक्रमण कर सकें ।' कथन बिल्कुल स्पष्ट है । सायण-ने अवश्य सातवें मन्त्रकी व्याख्या करते हुए एक हलका सा प्रयत्न यह किया है कि 'दश मास' दस महीनेको उसने विशेषण मान लिया है और फिर उसका अर्थ किया है 'दस महीनोंवाले अर्थात् दशग्वा', पर उसने भी इस असंभवसे अर्थको वैकल्पिक रूपमें ही ग्रहण किया है और ग्यारहवीं ऋचामें इसे बिल्कुल छोड़ दिया है, वैकल्पिक रूपमें भी नहीं लिया है ।
तो क्या हम यह अनुमान करें कि इस सूक्तका कवि परम्पराको भूल गया था और इसलिये वह दशग्वा तथा नवग्वामें गड़बड़ कर रहा था ? ऐसी कोई कल्पना मानने योग्य नही है । कठिनाई हमारे सामने इसलिये उपस्थित होती है कि हम यह समझ बैठते हैं कि वैदिक ऋषियोंके मनमें नवग्वा तथा दशग्वा ये अंगिरस् ऋषियोंकी दो अलग-अलग श्रेणियाँ थीं । परन्तु इसकी अपेक्षा प्रतीत यह होता है कि वे दोनों अंगिरस्त्वकी (अंगि-रसपनेकी ) दो अलग-अलग शक्तियाँ थीं और ऐसी अवस्थामें नवग्वा ऋषि ही दशग्वा हो सकते थे, यदि ये अपने यज्ञके कालको बढ़ाकर नौके स्थान पर दस महीनेका कर लेते । सूक्तमें 'दश मासो अतरन्' इस प्रयोगसे यह भाव प्रकट होता है कि पूरे दस महीनेके समयको पार कर लेनेमें कोई कठिनाई सामने आती थी । प्रतीत होता है कि यही काल था जिसके बीच-में अन्धकारके पुत्रोंको यज्ञ पर आक्रमण करनेका सामर्थ्य या हौसला हो सकता था; क्योंकि यह सूचित किया गया है कि ऋषि दस महीनोंको केवल तभी पार कर सकते हैं जब वे उस विचारको अपने अन्दर धारण कर लेते हैं जो 'स्व:' अर्थात् सौर लोकको जीत लानेवाला है, पर एक बार जब ये इस विचारकों पा लेते हैं तब निश्चित ही ये देवताओंकी छत्रच्छायामें आ जाते हैं और पापके आक्रमणोंसे पार हो जाते हैं, पणियों और वृत्रोंके द्वारा हो सकनेवाली क्षतियोंसे परे हो जाते हैं ।
यह 'स्यः'को जीत लानेवाला विचार (स्वर्षा धी: ) निश्चयसे वही है जो कि सात-सिरोंवाला विचार (सप्तशीर्ष्णी थी: ) है, सात-शिरोंवाला वह
यहां कारक अधिकरण-बहुवचन है और 'दधिषे' का अर्थ है 'मैं रखता हूं या थामता
हूं' अथबा अध्यात्मपरक अभिप्रायको लें तो 'विचारता हूं' या 'विचार में थामता हूं
अर्थात् ध्यान करता हूं ।' 'धी'की तरह 'धिषणा' का अथ है 'विचार'; इस प्रकार
'धियं दधिषे' का अर्थ होगा 'मैं विचारता हूं' या 'विचार का ध्यान करता हूं |'
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विचार जो सत्यमेंसे पैदा हुआ है जिसे नवग्वाओंने साथी अयास्यने खोज निकाला है । क्योंकि हमें बताया गया है कि अयास्य इसके द्वारा 'विश्वजन्य' हो गया और सब लोकोंके जन्मोंका आलिंगन करते हुए उसने एक चौथे लोकको या चतुर्व्यूढ लोकको उत्पन्न किया और यह चौथा लोक निचले-तीन लोकों--द्यौ, अन्तरिक्ष तथा पृथिवी-से परेका अतिमानस लोक ही होना चाहिये जो घोरके पुत्र कण्वके अनुसार वह लोक है जहाँ मनुष्य वृत्र का वध कर चुकनेके बाद द्यावा-पृथिवीको पार करके पहुंचते हैं । इसलिये यह चौथा लोक 'स्व: ' ही होगा । अयास्यका सात-सिरोंवाला विचार उसे 'विश्वजन्य' बन जाने योग्य बना देता है, जिसका संभवत: यह अभिप्राय है कि वह आत्माके सब लोकों या जन्मोंको अधिगत (प्राप्त ) कर लेता है, और वह विचार उसे इस योग्य कर देता है कि वह किसी चौथे लोक (स्व:) को प्रकट या उत्पन्न कर सके (तुरीयं स्विज्जनयद् विश्वजन्य: ), और वह विचार भी जो सात नदियोंमें स्थापित किया गया है और जिससे नवग्वा ऋषि दस महीनोंको पार कर लेने योग्य हो जाते हैं 'स्वर्षा' है अर्थात् वह 'स्व:' पर अधिकार करा देता है । वे दोनों स्पष्टतया एक ही हैं । तो क्या इससे हम इस परिणाम पर नहीं पहुँचते कि वह अयास्य ही है जिसके नवग्वाके साथ आ मिलनेसे नवग्वाओंकी संख्या बढ़कर दस हो जाती है, और जो 'स्व:'को जीत लेनेवाले सात-सिरोंवाले विचारकी अपनी खोजसे उन्हें इस योग्य बना देता है कि वे नौ महीनेके यज्ञको लंबा करके दसवें महीने तक ले जा सकें ? इस प्रकार वे दस दशग्वा हो जाते हैं । इस प्रकरणमें हम इसपर भी ध्यान दे सकते हैं कि सोमके मदका, जिससे इन्द्र 'स्व:'की शक्ति (स्वर्णर ) को प्रकट करता है या बढ़ाता है, इस रूपमें वर्णन हुआ है कि वह दस किरणोंवाला है और प्रकाशक है (दशग्वं वेपयन्तम् 8.12 .2 ) ।
यह परिणाम 3.39.5 के संदर्भसे, जिसे हम पहले ही उद्धृत कर आये हैं, पूरे तौरसे पुष्ट हो जाता है । क्योंकि वहाँ हम पाते हैं कि इन्द्र खोयी हुई गौओंके पद-चिह्नोंका अनुसरण तो नवग्वाओंकी सहायतासे करता है, पर यह केवल दस दशग्वाओंकी मददसे ही हो पाता है कि वह उस अनु-सरणके उद्देश्यमें सफल होता है और उस सत्यको, सत्यं तत्, उस सूर्यको जो अन्धकारमें पड़ा हुआ था, पा लेता है । दूसरे शब्दोंमें जब नौ महीने का यज्ञ लंबा होकर दसवें महीनेमें पहुंच जाता है, जब नवग्वा दसवें ऋषि अयास्यके सात-सिरोंवाले विचारके द्वारा दस दशग्वा बन जाते हैं, तभी 'सूर्य' मिल पाता है और 'स्व:'का प्रकाशमान लोक खुल जाता है तथा जीत
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लिया जाता है । 'स्वः'की यह विजय ही यज्ञका और अंगिरस् ऋषियोंसे पूर्ण किये जानेवाले महान् कार्यका लक्ष्य है ।
पर महीनोंके अलंकारका क्या अभिप्राय है ? क्योंकि अब यह स्पष्ट हो गया है कि यह एक अलंकार है, मूक रूपक है; इसलिये वर्ष यहाँ प्रतीकरूप है और महीने भी प्रतीकरूप हैं1 । यह एक वर्षके चक्करमें हो पाता है कि खोया हुआ सूर्य और खोयी हुई गौएं फिरसे प्राप्त होती हैं, क्योंकि 10.62.2 में हम स्पष्ट कथन पाते हैं-
ऋतेनाभिन्दन् परिवत्सरे वलम् ।
'' 'सत्यके द्वारा, एक वर्षके चक्करमें', अथवा सायणने जैसी इसकी व्याख्याकी है कि 'उस यज्ञके द्वारा जो एक वर्ष तक चला', उन्होंने वलका भेदन किया ।'' यह संदर्भ अवश्य उत्तरीय ध्रुववाली कल्पनाका अनुमोदन करता प्रतीत होता है, क्योंकि यहाँ सूर्यके दैनिक नहीं, वार्षिक प्रत्यावर्तन का उल्लेख है । लेकिन अलंकारके इस बाह्य रूपसे हमारा कोई संबंघ नहीं; न ही इसका प्रमाणित हो जाना हमारी अपनी कल्पना पर किसी प्रकारसे असर डालता है; क्योंकि यह बड़ी अच्छी प्रकार हो सकता है कि उत्तरीय ध्रुवकी लंबी रात्रि, वार्षिक सूर्योदय तथा अविच्छिन्न उषाओंके अद्भुत अनुभवको रहस्यवादियोंने आत्मिक रात्रि तथा इसमेंसे कठिनतासे होनेवाले प्रकाशोदयका अलंकार बना लिया हो । पर समयका, महीनों तथा वर्षोंका यह विचार प्रतीकके रूपमें प्रयुक्त किया गया है, यह बात वेदके दूसरे संदर्भोंसे स्पष्ट होती है, विशेषकर बृहस्पतिको कहे गये गृत्समद--के सूक्त 2 .24 से ।
इस सूक्तमें वृहस्पतिका वर्णन इस रूपमें किया गया है कि उसने गौओं-को हांका, दिव्य शब्दके द्वारा, ब्रह्मणा, बलको तोड़ डाला, अन्धकारको छिपा दिया और 'स्व:'को सुदृश्य कर दिया2 । इसका पहिला परिणाम यह होता है कि वह कुआं बलपूर्वक तोड़ा जाकर (यमोजसातृणत् ) खुल जाता है, जिसके मुंह पर चट्टान पड़ी हुई है और जिसकी धाराएं शहदकी, मधुकी, सोमके माधुर्यकी हैं, ( 'अश्मास्यम् अवतं मधुधारम्', 2.24.4 ) । चट्टानसे ढका यह शहदका कुआं अवश्य वह आनन्द है या दिव्य मोक्षसुख है जो आनन्दमय अत्युच्च त्रिगुणित लोकमें रहती है, यह त्रिगुणित लोक
1. देखो कि पुराणों में युग, पल, मास आदि सब प्रतीकरूप हैं और यह कहा यया है
कि मनुष्य का शरीर संवत्सर है ।
2. उद् गा आजदभिनद् बह्यणा वलमगूहत्तमो व्यचक्षयत् स्व: । (ऊ. 2.24.3 )
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है पौराणिक संप्रदायके सत्य, तपस् और जन-लोक जो सत्, चित्-तपस् और आनन्द इन तीन उच्चतम तत्वों पर आश्रित हैं । इन तीनके अधोभागमें चौथा वेद का 'स्व:' और उपनिषद् और पुराणोंका 'मह:' है, जो सत्यका लोक है ।1 इन चारोंसे मिलकर चतुर्गुणित चौथा लोक बनता है, (तुरीय, नीचेके तीन लोकोंकी अपेक्षासे भी चौथा ) । ऋग्वेदमें इन चारका वर्णन इस रूपमें आया है कि ये चार अत्युच्च तथा गुह्य स्थान हैं और 'उच्चतर चार नदियों'के आदिस्रोत हैं । तो भी यह ऊपरका चतुर्गुणित लोक कहीं-कहीं दोमें विभक्त हुआ प्रतीत होता है, 'स्व:' जिसका अधोभाग है और 'मय:' या दिव्य मोक्षसुख शिखर है, जिससे कि आरोहण करते हुए आत्मा-के पांच लोक या जन्म (दो ये और तीन निम्नतर ) हो जाते हैं । अन्य तीन नदियां सत्ताकी तीन निम्नतर शक्तियाँ हैं, जिनसे तीन निम्न लोकों-के तत्त्व निर्मित होते हैं ।
इस रहस्यमय शहदके कुएंको वे सब पीते हैं जो 'स्व:'को देखनेमें समर्थ होते हैं और वे इसके लहराते हुए माधुर्यके स्रोतको खोलकर एक साथ कई धाराओंमें प्रवाहित कर देते हैं :--
तमेव विश्वे पपिरे स्यर्दृशो बहु साकं सिसिचुरुत्समुद्रिणम् ।। 2.24.4 ।।
एक साथ प्रवाहित की गयी बहुत-सी धाराएँ वे ही सात नदियाँ हैं जो इन्द्रके द्वारा वृत्रका वधकर चुकनेके बाद पर्वतसे नीचेकी ओर बहाई जाती हैं । ये सत्यकी धाराएँ या नदियाँ हैं (ऋतस्य धारा:), और ये हमारी कल्पनाके अनुसार सचेतन सत्ताके उन सात तत्वोंकी द्योतक हैं जो सत्य और आनन्दमें अपनी दिव्य परिपूर्णतामें प्रतिष्ठित होते हैं । यही कारण है कि सात-सिरोंवाले विचारको (सात-सिरोवाले विचारसे अभिप्राय है दिव्य सत्ताका ज्ञान जिसके सात सिर या शक्तियाँ हैं, या बृहस्पतिका वह ज्ञान जो सात-किरणोंवाला है, 'सप्तगुम्' ) जलोंमें, सात नदियोंमें सुदृढ़ करना या विचार द्वारा स्थापित करना होता है, भाव यह है कि दिव्य
1. उपनिषद् तथा पुराणोंमें 'स्व' और 'द्यौ' में कोई फर्क नहीं किया गया है | इसलिये
यह आवश्यक हुआ कि 'सत्यके लोक' के लिये एक चौथा नाम ढ़ूंढ़ा जाय और यह
'मह:' मिल गया है, जिसके विषय में तैत्तिरीय उपनिषद् में यह कहा है कि महा-
चमस्यने इसे चौथी व्याहृत्तिके रूपमें जाना था, जब कि शेष तीन व्याहृतयां थीं,
स्व:, भुवः और भू: अर्थात बेदके'द्यौ, अन्तरिक्ष और पृथिवी | (देखो, तैत्तिरीय 5.1--
भूर्भुव: सुवरिति वा एसास्तिस्त्रो व्याहृतय: । तासामु ह स्मैतां चतुर्थी महाचमस्य:
प्रवेदयते इति ।
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चेतनाके सात रूपोंको दिव्य सत्ताके सात रूपों या गतियोंमें रखना होता है; (धियं वो अप्सु दधिषे स्वर्षाम् ) 'मैं स्वर्विजयी विचारको जलोंमें रखता हूँ ।'
स्वर्द्रष्टाओं (स्वर्दृशः ) की आखोंके सामने 'स्व:' के सुदृश्य हो जानेसे और उनके मधुके कुएँको पीनेसे तथा उसमेंसे दिव्य जलोंको बाहर प्रवाहित करनेसे यह होता है कि नये लोक या सत्ताकी नयी अवस्थाएँ प्रकाशमें आ जाती हैं, यह बात हमें अगली ॠचा 2.24.5 में स्पष्ट रूपसे कही मिलती है--
सना ता काचिद् भुवना भवीत्वा माद्भि: शरद्भिभि र्दुरो वरन्त व: ।
अयतन्ता चरतो अन्यदन्यदिद् या चकार वयुना ब्रह्मणस्पतिः ।।
'ये कोई सनातन लोक (सत्ताकी अवस्थाएँ ) हैं जिन्हें आविर्भूत होना है; महीनों और वर्षोके द्वारा उनके द्वार तुम्हारे लिये बन्द1 हैं (या खुले हैं ); बिना ही प्रयत्नके एक (लोक ) दूसरे में चला जाता है, और इन्हींको ब्रह्मणस्पतिने ज्ञानके लिये व्यक्त किया है ।' ये चार (या दो) सनातन लोक हैं जो 'गुहा'में छिपे हुए हैं, सत्ताके ये गुह्य, अनभिव्यक्त या पराचेतन अंश हैं जो यद्यपि अपने-आपमें सत्ताकी सनातन रूपसे विद्यमान अवस्थाएँ (सना भुवना ) हैं पर हमारे लिये ये असत् हैं और भविष्यमें हैं, इन्हें सद्रूपमें लाया जाना या रचा जाना है । इसलिये वेदमें स्व:के लिये कहीं तो यह कहा गया है कि उसे दृश्य किया गया (जैसे यहाँ, व्यचक्षयत् स्व: ) या ढूंढ़ लिया गया और हस्तगत कर लिया गया (अविदत्, असनत् ), और कहीं यह कहा गया है कि उसे रचा गया (भू, कृ) ।
ऋषि कहता है कि वे गुह्य सनातन लोक समयकी गतिके द्वारा, महीनों और वर्षों द्वारा, हमारे लिये बन्द पड़े हैं; इसलिये स्वभावत: हमें समयकी गति द्वारा ही इन्हें अपने अन्दरे खोज लेना है, प्रकाशित करना है, जीतना है, रचना है, फिर भी, एक अर्थमें, समयके विरोधमें जाकर । मुझे लगता है कि एक आन्तरिक या आध्यात्मिक समयमें होनेवाला यह विकास वही है जिसे यज्ञिय वर्षके और दस महीनेके प्रतीकोंसे प्रकट किया गया है, जो
सायणका कहना हैं कि यहां 'वरन्त' का अर्थ है 'खुले हुए' जो बिल्कुल सम्मव है । पर आम तौर से 'वृ' का अर्ध भेड़ना, बन्द करना, ढक देना यही होता है, विशेषकर तब जब कि इसका प्रयोग उस पहाड़ी के द्वारों के लिये आता है जहांसे नदियां निकलकर बहती हैं और गौएं बाहर आती हैं; वृत्र दरवाजों को बन्द करनेवाला है | खोलना अर्थ 'वि-वृ' और 'अप-वृ' का होता है । तो मी यदि यहां 'वरन्त' का अर्थ खोलना ही हो, तो उससे हमारा पद्य और अदिक ' प्रबल ही होता है ।
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वर्ष और महीने उससे पहले बिताने होते हैं जब कि आत्माका प्रकाशक मन्त्र (ब्रह्म ) सात-सिरोंवाले उस स्वर्विजयी विचारको ढॅूढ़ लेने योग्य होता है जो अन्तमें चलकर हमें वृत्र और पणियोंकी सब क्षतियोंसे पार कर देता है ।
नदियों और लोकोंका सम्बन्ध हमें 1.62 में स्पष्ट रूपसे मिलता है, जहाँ इन्द्रके विषयमें यह वर्णन आया है कि वह नवग्वाओंकी सहायतासे पर्वतको तोड़ता है और दशग्वाओंकी सहायतासे वलका भेदन करता1 है । अगिरस् ऋषियोंसे स्तुति किया गया इन्द्र उषा, सूर्य और गौओंके द्वारा अन्धकारको खोल देता है, वह पार्थिव पर्वतकी ऊपरकी चौरस भूमिको फैलाकर विस्तृत कर देता है और द्यौके उच्चतर लोकको थाम लेता है2 । क्योंकि चेतनाके उच्चतर स्तरोंको खोल देनेका परिणाम होता है भौतिक स्तरके विस्तारका बढ़ना और मानसिक स्तरकी उच्चताका और ऊँचा होना । ऋषि नोघा आगे कहता है, ''यह सचमुच उसका सबसे अधिक महान् कार्य है, उस कर्ताका सुन्देरतम कर्म है (दस्मस्य चारुतममस्ति वंस: ) कि चार उच्चतर नदियाँ मधुकी धाराएँ बहाती हुई कुटिलताके दो लोकोंको पोषण देती हैं ।''
उपह्वरे यदुपरा अपिन्वन् मध्यर्णसो नद्यश्चतस्र: । ( 1 .62 .5 )
यह फिर वही मधुकी घाराओंवाला कुआँ आ गया जो अपनी अनेक धाराओंको एक साथ नीचे प्रवाहित करता है, ये धाराएँ दिव्य सत्ता, दिव्य चेतनाशक्ति, दिव्य आनन्द, दिव्य सत्यकी वे चार उच्चतर नदियाँ हैं जो अपने माधुर्यके प्रवाहके साथ मन और शरीरके दो लोकोंके अन्दर उतरकर उन्हें पालती-पोसती हैं । ये दो लोक, ये रोदसी, साधारणत: कुटिलताके अर्थात् अनृतके लोक हैं-ऋत या सत्य सरल है और अनृत या असत्य कुटिल है--क्योंकि ये लोक अदिव्य शक्तियों, वृत्रों तथा पणियों, अन्धकार तथा विभक्तताके पुत्रोंसे होनेवाली क्षतियोंके लिये खुले होते हैं । ये अब ऐसे सत्य एवं ज्ञानके रूप, वयुना, बन जाते हैं जो बाह्य कर्मके साथ संगति रखता है । गृत्समदके 'चरतो अन्यद् अन्यद्' और 'या चकार वयुना ब्रह्मण-स्थति:' --इन वचनोंका अभिप्राय स्पष्टत: यही है | ऋषि आगे चलकर अयास्यके उस कर्मका परिणाम बताता है जिसे वह पृथिवी और द्यौके सत्य, सनातन तथा एकीभूत रूपको खोलकर प्रकट करनेके लिये करता है ।
1. स सुष्टुभा स स्तुभा सप्त बिप्रै: स्वरेणाब्रि स्वयों नवग्यै : ।
सरष्युभि: फलिगभिन्द्र शन वलं रवेण दरयो दशग्वै: ।। ( 1.62.4 )
2. गृणानो अङ्गिरोभिर्दस्म विवरुषसा सूर्येंण गोभिरन्ध: ।
वि भूम्या अप्रथय इन्द्र सानु दिवो रज उपरमस्तभाय: ।। ( 1 .62 .5 )
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''अयास्यने अपने स्तुतिमंत्रोंसे सनातन और एक घोंसलेमें रहनेवाले दोको खोलकर उनके द्विविध रूपों ( दिव्य तथा मानवीय ? ) में प्रकट कर दिया, पूर्ण रूपसे कार्यसिद्धि करते हुए उसने पृथिवी और द्यौको ( व्यक्त हुए पराचेतनके, 'परमं गुह्यम्'के ) सर्वोच्च व्योममें थाम लिया, जैसे भोक्ता अपनी दो पत्नियोंको ।''1 आत्मिक जीवनके सनातन आह्लादमें भरकर आत्माका अपनी दिव्य रूपमें परिणत हुई मानसिक तथा शारीरिक सत्तामें रस लेनेका इससे अघिक स्पष्ट और सुन्दर आलंकारिक वर्णन नहीं हो सकता था ।
ये विचार और इसमें आये कई वाक्यांश बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे गृत्समदके सूक्तमें आते हैं । नोधा रात्रि और उषाके, काली भौतिक चेतना त्तथा चमकीली मानसिक चेतनाके संबंधमें कहता है कि वे फिर नवीन रूपमें जन्म लेकर ( पुनर्भुवा ) द्यौ और पृथिवीके इधर-उधर अपनी स्वकीय गतियोंसे एक दूसरीके अन्दर चली जाती हैं2, स्वेभिरेवै:..... चरतो अन्यान्या; एक ऐसी सनातन मित्रतामें आबद्ध होकर एक दूसरीके अंदर चली जाती हैं जिस मित्रताको उनका पुत्र उच्च कार्यसिद्धि द्वारा करता है और वह उन्हें इस प्रकार थामता है । सनेमि सख्यं स्यपस्यमान: सूनुर्दाधार शवसा सुदंसा: ।९। नोधाके सूक्तकी ही तरह गृत्समदके सूक्तमें भी अगिरस् सत्यकी प्राप्ति और असत्यके अनुसंधान द्वारा 'स्व:' अधिगत करते हैं,--उस सत्यको अधिगत करते हैं जहाँसे वे मूलत: आये हैं और जो सभी दिव्य 'पुरुषों'का 'स्वकीय घर' है । 'वे जो लक्ष्यकी ओर अग्रसर होते हैं और पणियोंकी निधिको पा लेते हैं, उस परम निधिको जो गुहामें छिपी पड़ी थी; वे ज्ञानको अपने अन्दर रखते हुए और अनृतोंको देखते हुए फिर उठकर वहाँ चले जाते हैं जहाँसे वे आये थे और उस लोकमें प्रविष्ट हो जाते हैं । सत्यसे युक्त असत्यों पर दृष्टि डालते हुए वे द्रष्टा फिर उठकर महान् पथपर आ जाते है-;3 महस्पथः, सत्यके पथपर या महान् विस्तृत लोकमें जो उपनिषदोंका 'मह:' है ।
1.द्विता वि वव्रे सनजा सनीडे अयास्यः स्तयमानेभिरकैं: ।
भगो न मेने परमे व्योमन्नधारयद्रोदसी सुदंसा: ।। ( 1 .62.7 )
2.सनाद् दिवं परि भूमा विरूपे पुनर्भुया युवती स्वेभिरेवै: ।
कृष्णेभिरक्तोषा रुशद्मिर्वपुर्भिरा चरतो अन्यान्या ।। (1 .62 .8)
3.अभिनक्षन्तो अभि ये तमानशुर्निषिं पणीनां परमं गुहा हितम् ।
ते विद्वांस: प्रतिचक्ष्यानृता पुनर्यत उ आयन् तदुदीयुराविशम् ।।
ॠतावान: प्रतिचक्ष्यानृता पुनरात आ तस्थुः कवयो महस्पथः ।
(2.24.6-7 )
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अब हम वेदके इस रूपककी गुत्थीको सुलझाना आरम्भ करते हैं । बृहस्पति है सात किरणोंवाला विचारक, 'सप्तगुः', 'सप्तरश्मि:', वह सात चेहरों या सात मुखोंवाला अगिरस् है, जो अनेक रूपोंमें पैदा हुआ है, 'सप्तास्य: तुविजातः', नौ किरणोंवाला है, दस किरणोंवाला है । सात मुख सात अगिरस् हैं, वे उस दिव्य शब्द (ब्रह्म ) को दुहराते हैं जो सत्यके स्थानसे, 'स्यः'से आता है और जिसका स्वामी है बृहस्पति (ब्रह्मणस्पति: ) । साथ ही प्रत्येक मुख बृहस्पतिकी सात किरणोंमेंसे एक-एकका सूचक है, इसलिए ये सात द्रष्टा, 'सप्त विप्राः', 'सप्त ऋषयः' हैं, जो ज्ञानकी इन सात किरणोंको पृथक्-पृथक् शरीरधारी बना देते हैं । फिर ये सात किरणें सूर्यके सात चमकीले घोड़े, 'सप्त हरित:' हैं और इनके आपसमें मिलकर पूर्णतया एक हो जानेसे अयास्यका सात-सिरोंवाला विचार बन जाता है, जिसके द्वारा खोया हुआ सूर्य फिरसे प्राप्त होता है । फिर वह विचार सात नदियोंमें, सत्ताके (दिव्य और मानव ) सात तत्त्वोंमें स्थापित किया जाता है, जिनकी समष्टि (जोड़ ) परिपूर्ण आत्मिक सत्ताका आधार बनती है । यदि हम अपनी सत्ताकी इन सात नदियोंको जीत लेते हैं जिन्हें वृत्रने रोक रखा है और इन सात किरणोंको जीत लेते हैं जिन्हें वलने रोक रखा है, अपनी उस पूर्ण दिव्य चेतनाको अधिगत कर लेते हैं जो सत्यके स्वतन्त्र अवतरणके द्वारा सारे अनृतसे मुक्त हो गयी है, तो इससे 'स्व:'का लोक सुरक्षित रूपसे हमारे अधिकारमें हो जाता है और हमारी मानसिक तथा भौतिक सत्ता हमारे दिव्य तत्त्वोंके अन्तःप्रवाह द्वारा अन्धकार, असत्य व मृत्युसे ऊपर उठकर दिव्य सत्तामें परिणत हो जाती है और हमें उससे मिलनेवाला आनन्द उपलब्ध हो जाता है । यह विजय ऊर्ध्वयात्राके बारह काल-विभागोमें समाप्त होती है, इन बारह काल-विभागोंका प्रतिनिधित्व करनेवाले यज्ञिय वर्षके बारह महीने हैं; यह एक एक काल-विभाग एकके बाद एक सत्यकी अधिकात्तिक बृहत् उषाको लाता हुआ आता है, तबतक जबतक कि दसवेंमें पहुँचकर विजय सुरक्षित तौरसे नहीं हो जाती । नौ किरणोंका और दस किरणोंका बिलकुल ठीक-ठीक अभिप्राय क्या हो सकता है, यह अपेक्षाकृत अधिक कठिन प्रश्न है और अबतक हम इस स्थितिमें नहीं हैं कि इसे हल कर सकें; पर अभी तक जो प्रकाश हमें मिल चुका है, वह भी ऋग्वेदके इस संपूर्ण रूपकके प्रधान भागको प्रकाशित कर देनेके लिये पर्याप्त है ।
वेदके प्रतीकवादका आधार यह है कि मनुष्यका जीवन एक यज्ञ है, एक यात्रा है, एक युद्धक्षेत्र है । प्राचीन रहस्यवादी अपने सूक्तोंका विषय मनुष्यके आध्यात्मिक जीवनको बनाते थे, पर उनके अपने लिये वे मर्त रूप-
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में आ जायें और जो अपात्र हैं उनसे इनका रहस्य छिपा रहे इन दोनों उद्देश्योंसे वे इसे कवितामय अलंकारोंमें चित्रित करते थे और उन अलंकारों-को वे अपने युगके बाह्य जीवनमेंसे लिया करते थे । वह जीवन मुख्यतया पशुपालकों और कृषकोंका जीवन था, क्योंकि उस समयका जनसमुदाय युद्धों-के कारण और जातियोंके एक स्थानसे उठकर अपने राजाओंके नीचे दूसरे स्थान पर जाते रहनेके कारण बदलता रहता था । और इस सारी क्रियामें यज्ञके द्वारा देवताओंकी पूजा सबसे अधिक गंभीर और उज्ज्वल वस्तु हो गयी थी, शेष सब क्रियाएं इसीमें आकर इकट्ठी हो गयी थीं । क्योंकि यज्ञके द्वारा वर्षा होती थी जिससे भूमि उपजाऊ बनती थी, यज्ञ द्वारा पशुओं के रेवड़ और घोड़े मिलते थे जिनका होना शान्तिकालमें और युद्धमें आव-श्यक था, सोना मिलता था, भूमि (क्षेत्र ) मिलती थी, नौकर-चाकर मिलते थे, वीर योद्धा लोग मिलते थे जो महत्ता और प्रभुताको कायम करते थे, रणमें विजय मिलती थी, स्थल-यात्रा और जल-यात्रामें सुरक्षा मिलती थी, जो यात्रा उस जमानेमें बड़ी मुश्किल और खतरनाक होती थी, क्योंकि आवा-गमनके साधन बहुत कम थे और अन्तर्जातीय संगठन बड़ा ढीला था । उस बाह्य जीवनके सारे मुख्य-मुख्य रूपोंको जो उन्हें अपने चारों ओर दिखायी देते थे रहस्यवादी कवियोंने ले लिया और उन्हें आन्तरिक जीवनके सार्थक अलंकारोंमें परिणत कर दिया । मनुष्यके जीवनको इस रूपमें रखा गया है कि वह देवोंके प्रति एक यज्ञ है, या इस रूपमें कहा गया है कि वह एक यात्रा है और इस यात्राको कहीं खतरनाक जलोंको पार करनेके अलं-कारसे प्रकट किया गया है और कहीं इस रूपसे कि वह जीवनकी पहाड़ी-के एक स्तरसे दूसरे स्तर पर आरोहण करना है, और, तीसरे इस मनुष्य-जीवनको इस तरह प्रकट किया गया है कि वह शत्रु-राष्ट्रोंके विरुद्ध एक संग्राम है । पर इन तीनों अलंकारोंको जुदा-जुदा नहीं रखा गया है । यज्ञ भी एक यात्रा है; सचमुच यज्ञको स्वयं इस रूपमें वर्णित किया गया है कि वह है दिव्य लक्ष्यकी ओर चलना, यात्रा करना; इस यात्रा और इस यज्ञ दोनोंके विषयमें लगातार यह कहा गया है कि ये अंधकारमयी शक्तियोंके विरुद्ध एक संग्राम हैं ।
अंगिरसोंके कथानकमें वैदिक रूपकके ये तीनों प्रधान रूप आ गये हैं और आकर इकट्ठे जुड़ गये हैं । अंगिरस् 'प्रकाश'के यात्री हैं । 'नक्षन्तः' और 'अभिनक्षन्तः' ये दोनों उनकी विशेष स्वाभाविक क्रियाका वर्णन करने-के लिये प्रयुक्त किये गये हैं । वे ऐसे हैं जो लक्ष्यकी ओर यात्रा करते हैं और सर्वोच्च लक्ष्यको पा लेते '' :-
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अभिनक्षन्तो अभि ये तमाशुर्निर्षि परमम् (2 .246 )
उनकी क्रियाका इसलिये आवाहन किया गया है कि वे मनुष्यके जीवनको उसके लक्ष्यकी ओर और अधिक आगे ले चलें -
सहस्रसावे प्र तिरन्त आयु: । ( 3.53.7 )
पर यह यात्रा भी, यदि मुख्यत: यह एक खोज है, छिपे हुए प्रकाशकी खोज है, तो अंधकारकी शक्तियोंके विरोधके कारण एक साहस-कार्य और एक संग्राम बन जाती है । अगिरस् उस संग्रामके वीर और योद्धा हैं, 'गोषु योधाः' । इन्द्र उनके साथ प्रयाण करता है, उनके इस रूपमें कि वे पथके यात्री हैं, 'सरष्युभि:', इस रूपमें कि वे सखा हैं, 'सखिभिः', इस रूपमें कि वे द्रष्टा हैं और पवित्र गानके गायक हैं, 'ऋग्मिभि:', कविभिः', पर साथ ही इस रूपमें भी कि वे संग्रामके योद्धा हैं 'सत्यभिः' । जब इन अंगिरसोंके बारेमें कुछ कहना होता है तो इन्हें प्रायः 'नृ' या 'वीर' नामसे याद किया जाता है, जैसे इन्द्रके लिये कहा गया है कि उसने जग-मगाती हुई गौओंको 'अस्माकेभि: नुभिः', ''हमारे नरोंके द्वारा'' जीता । उनकी सहायतासे शक्तिशाली बनकर इन्द्र यात्रामें विजय पाता है और लक्ष्य तक पहुँचता है, 'नक्षद्दाभं ततुरिम्' । पर यह यात्रा या प्रयाण उस मार्ग पर होता है जिस मार्गको स्वर्गकी कुतिया सरमाने खोजकर पाया है, जो सत्यका मार्ग है, ''ॠतस्य पन्था:'', और जो सत्यके लोकोंकी ओर लेजाने-वाला महान् पथ, 'महस्पथ:' है । अर्थात् साथ ही यह यात्रा यज्ञिय यात्रा है; क्योंकि इस यात्राकी मंजिलें वैसी ही हैं जैसे नवग्वाओंके यज्ञके काल-विभाग है'; और यह यात्रा यज्ञकी तरह ही सोमरस तथा पवित्र शब्दकी शक्तिसे संपन्न होती है ।
शक्ति, विजय और सिद्धिके लिये साधन-रूपसे सोम-रस का पान करना वेदके व्यापक अलंकारोंमेंसे एक है । इन्द्र और अश्विन् अव्वल दर्जेके सोम-पायी हैं, पर वैसे सभी देवता इसके अमरत्व प्रदान करनेवाले घूंट में हिस्सा लेते हैं । अगिरस् भी सोमकी शक्तिमें भरकर विजयी होते हैं । सरमा पणियोको भय दिखाती है कि देखो, अयास्य और नवग्वा अगिरस् अपने सोम-जनित आनन्दकी तीक्ष्ण तीव्रतासे युक्त होकर आयेंगे :--
एह गमन्नुषयः सोमशिता अयास्यो अङिरसो नवग्वा: ( 10.108.8 )
यह वह महती शक्ति है जिससे मनुष्योंमें सत्यके मार्गका अनुसरण करनेका बल आ जाता है । ''सोमके उस आनंदको हम चाहते हैं जिससे, ओ इन्द्र ! तूने 'स्यः'की शक्तिको (या स्व:की आत्माको, स्वर्णरम् ) समृद्ध किया, दस किरणोंवाले और ज्ञानका प्रकाश देनेवाले (दशग्वं वेपयन्तम,)
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उस आनंदको जिससे तूने समुद्रफो पोषित किया है; सोमके उस मदको जिसके द्वारा तू महान् जलों (सात नदियों ) को रथोंकी तरह आगे हांककर समुद्रमें पहुँचा देता है--उसे हम चाहते हैं, इसलिये कि हम सत्यंके मार्ग पर यात्रा कर सकें ।"1 पन्थामृतस्य यातवे तमीमहे । सोमकी शक्ति आने पर ही पहाड़ी टूटकर खुल जाती है, अंधकारके पुत्र पराजित हो जाते हैं । यह सोम-रस वह माधुर्य है जो ऊपरके गुह्य लोक की धाराओंमेंसे बहकर आता है, यह वह है जो सात नदियोंमें प्रवाहित होता है, यह वह है जिसके साथ होने पर घृत, रहस्यमय यज्ञका घी, सहज प्रेरणा बन जाता है, यह वह मधुमय लहर है जो जीवन-समुद्रसे उठती है । ऐसे अलंकारों-का केवल एक ही अर्थ हो सकता है; यह (सोम ) दिव्य आनंद है, जो सारी सत्तामें छिपा हुआ है, जो यदि एक बार अभिव्यक्त हो जाय, तो यह जीवनकी सब ऊँची, उत्कृष्ट क्रियाओंको सहारा देता रहता है और यह वह शक्ति है जो अंतमें मर्त्यको अमर कर देती है, यह 'अमृतम्' है, देवोंका अमृत है ।
पर वह वस्तु जो अंगिरसोंके पास रहती है मुख्यत: शब्द है; उनका द्रष्टा (ऋषि ) होना उनका सबसे अधिक विशिष्ट स्वरूप है । वे हैं--ब्राह्यणास: पितर: सोम्मास:..... ॠतावृधः (6.75.10 )
अर्थात् वे पितर हैं जो सोमसे भरपूर हैं और जिनके पास शब्द है और, इसी कारण जो सत्यको बढ़ानेवाले हैं । इन्द्र उन्हें (अंगिरसोंको ) मार्ग पर प्रेरित करनेकी इच्छा रखता हुआ उनके गाकर व्यक्त किये गये विचारोंके साथ अपने-आपको जोड़ता है और उनकी आत्माके शब्दोंको पूर्णता व शक्ति देता है:--
सो अङ्गिरसामुचथा जुजुश्वान् ब्रह्मा तूतोदिन्द्रो गातुमिष्णन् । (2.20.2 )
जब इन्द्र अंगिरसोंकी सहायतासे ज्योतिमें और विचारकी शक्तिमें समृद्ध हो जाता है तभी वह अपनी विजय-यात्राको पूर्ण कर पाता है और पर्वत पर स्थित अपने लक्ष्य तक पहुंच पाता है, 'उसमें हमारे पूर्व पितर, सात द्रष्टा, नवग्वा, अपनी समृद्धिको बढ़ाते हैं उसे बढ़ाते हैं जो अपने प्रयाणमें विजयी होनेवाला है, जो विध्न-वाधाओंको तोड़फोड़कर (अपने लक्ष्य तक ) तैर जाता है, पर्वत पर खड़ा हुआ है, जिसकी वाणी अहिंसित है, जो अपने विचारोंसे सबसे अधिक ज्योतिष्मान् और बलवान् है ।'
1. येना दशग्वामघ्रिगुं वेपयन्तं स्वर्णरम् । येना समुद्रमाविथा तमीमहे ।।
येन सिन्ध्ं महीरपो रथां इव प्रचोदय: । पन्यामृतस्य यातवे तमीमहे ।।
(8. 12 .2-3 )
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तमु नः पूर्वे पितरो नवग्वाः सप्त विप्रासो अभि वाजयन्तः ।
नक्षद्दाभं ततुरिं पर्वतेष्ठामद्रोघवाचं मतिभि: शविष्ठम् ।। ( 6.22.2 ) ।|
'ऋक्'के, प्रकाशके मन्त्रके गानसे ही वे हमारी सत्ताकी गुहामें छिपी हुई सौर ज्योतियोंको पा लेते हैं, अर्चन्तो गा अविन्दन् । 'स्तुभ्'से, सात द्रष्टाओंके मन्त्रोंके आधारभूत छन्दसे, नवग्वाओंके कम्पन करते हुए स्वरसे ही इन्द्र 'स्व:'की शक्तिसे परिपूर्ण हो जाता है, 'स्वरेण स्वर्य:', और दश-ग्बाओंकी आवाजसे, 'रव'से ही वह 'वल'के टुकड़े-टुकड़े कर डालता है ( 1.62..4 ), क्योंकि यह 'रव' उच्चतर लोककी आवाज है, वह वज्र-निर्घोष है जो इन्द्रकी विद्युत्प्रभामें होता है, अंगिरसोंकी अपने मार्ग पर प्रगति द्युलोकोंके इस 'रव'की अग्रगामिनी होती है ।
प्र ब्रह्माणो अङ्गिइरसो नक्षन्त प्र क्रन्दनुर्नभन्यस्य वेतु । ( 7.42.1 )
बृहस्पतिकी आवाज द्यौकी गर्जना है, बृहस्पति वह अगिरस् है जो सूर्य-को, उषाको, गौको और शब्दके प्रकाशको खोज लेता है, बृहस्पतिरुषखं सूर्य गामर्क विवेद स्तनयन्निव द्यौ: ।' सत्य-मंत्रके, उस सत्य विचारके जो सत्यके छन्दमें प्रकट होता है, परिणामस्वरूप ही, छिपी हुई ज्योति मिल जाती है और उषाका जन्म हो जाता है;
गूळहं ज्योति: पितरो अन्वविन्वन् सत्यमन्त्रा अजनयन्नुषासम् । ( 7.76.4 )
क्योंकि वे अंग्रिरस् हैं जो यथातथ वचन बोलते हैं इत्था वदद्भि: अङिगरोभी-रोभि: । ( 6.18.5 )
जो ऋक्के स्वामी हैं, जो पूर्ण रूपसे अपने विचारोंको रखते हैं;
स्याधीऋॅक्वभि: । ( 6.32..2 )
''वे द्यौके पुत्र हैं, शक्तिशाली देवके वीर सिपाही हैं, जो सत्य कथन करते हैं और सरलताका विचार करते हैं और इस कारण जो इस योग्य हैं कि जगमगाते हुए ज्ञानके स्थानको धारण कर सकें और यज्ञके अत्युच्च धामको मनोगत कर सकें'';
ऋतं शंसन्त ऋजु दीध्याना दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीरा: ।
विप्र पदमङ्गिरसो दधाना यज्ञस्य धाम प्रथमं मनन्त ।। ( 10.67.2 )
यह असंभव है कि ये सब इस प्रकारके वर्णन केवल यही अर्थ देनेवाले हों कि कुछ आर्य ऋषियोंने एक देवता और उसके कुत्तेका अनुसरण करके गुफामें रहनेवाले द्रविड़ोंसे चुरायी हुई गौएं फिर प्राप्त कर लीं या रात्रिके अंधकारके बाद उषाका फिर उदय हो गया । उत्तरी ध्रुवकी उषाकी अद्-भुतताएं भी स्वयं इनका कुछ स्पष्टीकरण देनेमें सर्वथा अपर्याप्त हैं । इन अलंकारोंमें जो साहचर्य है, इनमें जो शब्द (ब्रह्य), विचार (धी) , सत्य,
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यात्रा करने और असत्य पर विजय पा लेने आदिका विचार है--जो विचार कि हमें, इन सूक्तोंमें सर्वत्र मिलता है और जिसपर इन सूक्तोंमें लगातार जोर दिया गया है--उसका स्पष्टीकरण इस तरह किसी प्रकार भी नहीं किया जा सकता ।
जिस कल्पनाको हम प्रस्थापित कर रहे हैं केवल वही इस बहुविध रूपकको खोल सकती है, इसमें एकता स्थापित कर सकती है और यह जो असंग-तियोंका मिश्रण-सा दिखायी देता है उसमें आसानीसे दीख जानेवाली स्पष्टता और संगति ला सकती है और यह एक ऐसी कल्पना है जो कहीं बाहरसे नहीं लायी गयी बल्कि स्वयं मन्त्रोंकी ही भाषा तथा निर्देशोंसे सीधी निकलती है । सचमुच, यदि एक बार हम केंद्रभूत विचारको पकड़ लें और वैदिक ऋषियोंकी मनोवृत्ति तथा उनके प्रतीकवादके नियमको समझ लें तो कोई भी असंगति और अव्यवस्था शेष नहीं रहती । वेदमें प्रतीकोंकी एक नियत पद्धति है जिसमें कि, सिवाय बादके कुछ-एक सूक्तोंके, कहीं कोई महत्त्व-पूर्ण फेरफार होना संभव नहीं हुआ है और जिसके प्रकाशमें वेदका आन्तरिक अभिप्राय सब जगह अपने-आपको इस तरह तुरंत प्रकट कर देता है मानो वह इसके लिये तैयार ही हो । अवश्य ही वेदमें भी प्रतीकोंके परस्पर मिलाने व जोड़नेमें कुछ सीमित स्वतंत्रता है, जैसे कि किसी भी नियत कवितामय रूपकमें होती है,--उदाहरणके लिये, वैष्णवोंकी धार्मिक कविताओंमें; पर इसके पीछे जो सारभूत विचार है वह सदा स्थिर तथा संगत है और परिवर्तित नहीं होता ।
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अठारहवां अध्याय
मानव पितर
अंगिरस् ऋषियोंकी ये विशेषताएं प्रथम दृष्टिमें यह दर्शाती प्रतीत होती हैं कि अंगिरस् वैदिक संप्रदायमें अर्द्ध-देवताओंकी एक श्रेणी हैं, अपने बाह्य रूपमें वे प्रकाश और वाणी और ज्वालाके सजीव शरीरधारी रूप हैं या यह कहना चाहिये कि वे इन प्रकाश आदि के साकार व्यक्तित्व हैं पर अपने आन्तरिक रूपमें वे सत्यकी शक्तियां हैं जो युद्धोंमें देवताओंकी सहायता करती हैं । किन्तु दिव्य द्रष्टाके तौर पर भी, द्यौके पुत्र और देवके वीर योद्धाके तौर पर भी, ये ऋषि अभीप्सायुक्त मानवताको सूचित करते हैं । यह सच है कि मूल-रूपमें वे देवोंके पुत्र हैं 'देमपुत्रा:', अग्निके कुमार हैं, अनेक रूपोंमें पैदा हुए बृहस्पतिके रूप हैं और सत्यके लोकके प्रति अपने आरोहणमें उनका इस प्रकार वर्णन किया गया है कि वे फिरसे उस स्थान पर आरोहण कर पहुंच जाते हैं जहाँसे वे आये थे; पर अपने इन स्वरूपों तकमें वे भलीभाँति उस मानवीय आत्माके द्योतक हो सकते हैं जो स्वयं उस लोकसे अवरोहण करके नीचे आया है और जिसे अब पुन: आरोहण करके वहाँ पहुंचना है, क्योंकि अपने उद्गममें यह एक मानसिक सत्ता है; अमरता का पुत्र है (अमृतस्य पुत्र:), द्यौका कुमार है जो द्यौमें पैदा हुआ है और मर्त्य केवल उन शरीरोंमें है जिन्हें यह धारण करता है । यज्ञमें अगिरस् ऋषियोंका भाग मानवीय भाग है और वह यह है--शब्दको पाना, देवोंके प्रति आत्माकी सूक्तिका गायन करना, प्रार्थनाके द्वारा, पवित्र भोजन तथा सोमरस द्वारा दिव्य शक्तियोंको स्थिर करना और बढ़ाना, अपनी सहायतासे दिव्य उषाको जन्म देना, पूर्ण रूपसे जगमगाते हुए सत्यके प्रकाशमय रूपोंको जीतना और आरोहण करके इसके रहस्य तक, सुदूरवर्ती तथा उच्च स्थान पर स्थित घर तक पहुंचना ।
यज्ञके इस कार्यमें वे द्विविध रूपमें प्रकट होते हैं,1 एक तो दिव्य
1. यहां यह ध्यान देने योग्य है कि पुराण विशेष तौरसे पितरोंकी दो श्रेणियोंके भी बीचमें
भेद करते हैं, एक तो दिव्य पितर हैं जो देवताओंकी एक श्रेणी है, दूसरे हैं मानव
पुरखा, इन दोनोंके लिये ही पिण्डदान किया जाता है । पुराणोंने स्पष्ट ही इस
विषयमें केवल प्रारंभिक परम्पराको ही जारी रखा है |
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अंगिरसोंके रूपमें 'ऋषयो दिव्या:', जो देवोंके समान किन्हीं अध्यात्मशक्तियों तथा क्रियाओंके प्रतीक हैं और उनका अधिष्ठातृत्व करते हैं, और दूसरे मानव पितरोंके रूपमें, 'पितरो मनुष्याः', जो ऋभुओंके समान मानवप्राणियोंके रूपमें भी वर्णित किये गये हैं या कम-से-कम इस रूपमें कि वे मानवीय शक्तियां हैं जिन्होंने अपने कार्यसे अमरताको जीता है, लक्ष्यको प्राप्त किया है और उनका इसलिये आवाहन किया गया है कि वे उसी दिव्यप्राप्तिमें बादमें आनेवाली मर्त्यजातिकी सहायता करें । दशम मण्डलके पिछले यम-सूक्तोंमें तो ॠभुओं और अथर्वणोंके साथ अगिरसोंको भी 'बर्हिषद्' कहा गया है और यह कहा गया है कि वे यज्ञमें अपने निजी विशेष भागको ग्रहण करते हैं, पर इसके अतिरिक्त अवशिष्ट वेदमें भी हम देखते हैं कि एक अपेक्षाकृत कम निश्चित पर अधिक व्यापक और अधिक अभिप्रायपूर्ण अलंकारमें उनका आवाहन किया गया है । और यह आवाहन महान् मानवीय यात्रा के लिये ही किया गया है, क्योंकि मृत्युसे अमरताकी ओर, अनृतसे सत्यकी ओर मानवीय यात्राको ही इन पूर्व पुरुषोंने पूर्ण किया है और अपने वंशजोंके लिये मार्ग खोल दिया है ।
उनके कार्यके इस स्वरूपको हम 7.42 तथा 7.52 में पाते हैं । वसिष्ठ के इन दो सूक्तोंमेंसे प्रथममें ठीक इसी महान् यात्राके लिये, 'अध्वरयज्ञ'1 के लिये देवोंका आवाहन किया गया है । 'अध्वर यज्ञ' वह यज्ञ है जो दिव्यताओंके घरकी ओर यात्रा करता है या जो उस घर तक पहुँचनेके लिये एक यात्रारूप है और साथ ही जो एक युद्ध है; क्योंकि यह वर्णन आता है कि 'हे अग्ने ! तेरे लिये यात्रामार्ग सुगम है और सनातन कालसे वह तुझे ज्ञात है । सोम-सवनमें तू अपनी उन रोहित (या शीघ्रगामी ) घोड़ियोंको जोत जिनपर वीर सवार है । वहाँ स्थित हुआ मैं दिव्य जन्मोंका
सायण 'अध्वर यत्रका अर्थ करता है 'अहिंसित यज्ञ'; पर 'अहिंसित' इस अर्थवाला शब्द कभी मी यज्ञके लिये पर्यायरूपमें प्रयुक्त हुआ नहीं हो सकता । 'अध्वर' है 'यात्रा' 'गमन' इसका संबंध 'अध्वन्'से है, जिसका अर्थ मार्ग या यात्रा है, यह 'अध्' धातुसे बना है जो इस समय लुप्त हो चुकी है, जिसका अर्थ था चलना, फैलाना, चौढ़ा होना, धना होना इत्यादि । 'अध्वन्' और 'अध्वर' इन दो शब्दों का संबंध हमें इससे पता चल जाता हैं कि 'अध्व'का अर्थ वायु या आकाश है और 'अध्वर' भी रस अर्थमें आता है । ऐसे संदर्भ वेदमें अनेकों हैं, जिनमें 'अध्वर' या 'अध्वर यज्ञ'का संबंध यात्रा करने, पर्यटन करने, मार्ग पर अग्रसर होनेके विचारके साथ है |
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आवाहन करता हूँ (ॠचा 2 ) । '1 यह मार्ग कौनसा है ? यह वह मार्ग है जो देवताओंके घर तथा हमारी पार्थिव मर्त्यताके बीचमें है, जिस मार्गसे देवता अन्तरिक्षके, प्राण-प्रदेशोंके बीचमेंसे होते हुए नीचे पार्थिव यज्ञमें उतर आते हैं और जिस मार्गसे यज्ञ और साथ ही यज्ञके द्वारा मनुष्य ऊपर आरोहण करता हुआ देवताओंके घर तक पहुँचता है । 'अग्नि' अपनी घोड़ियोंको अर्थात् वह जिस दिव्य बल का द्योतक है उसकी बहुरूप शक्तियों या विविध रंगवाली ज्वालाओंको जोतता है, और वे धोडियाँ 'वीर'को अर्थात् हमारे अंदरकी उस संग्रामकारिणी शक्तिको वहन करती हैं जो यात्राका कार्य सफलतापूर्वक चलाती है । और दिव्य जन्म स्वतः देव हैं तथा साथ ही मनुष्यमें प्रकट होनेवाली दिव्य जीवनकी वे अभिव्यक्तियाँ हैं जो वेदमें देवत्व करके समझी जाती हैं । यहाँ अभिप्राय यही है, यह बात चौथी ऋचासे स्पष्ट हो जाती है, ''जब सुखमें निवास करनेवाला अतिथि उस वीरके, -जो ( आनन्दमें ) समृद्ध है,--द्वारोंसे युक्त घरमें चेतनापूर्ण ज्ञानवाला हो जाता है, जब अग्नि पूर्णतया सन्तुष्ट हो जाता है और घरमें स्थिरतापूर्वक निवास करने लगता है, तब वह उस प्राणीके लिये अभीप्सित वर प्रदान करता है जो यात्रा करनेवाला है",2 या यह अर्थ हो सकता है कि उसकी यात्राके लिये (इयत्यै ) अभीष्ट वर देता है ।
इसलिये यह सूक्त परम कल्याणकी तरफ यात्रा करनेके लिये, दिव्य जन्मके लिये, आनन्दके लिये अग्निका एक आवाहन है । और इसकी प्रारम्भिक ऋचा उस यात्राके लिये जो आवश्यक शर्ते हैं उनकी प्रार्थना है, अर्थात् इसमें उन बातोंका उल्लेख है जिनसे इस यात्रा-यज्ञका रूप, 'अध्वरस्य पेश:', बनता है और इनमें सर्वप्रथम वस्तु आती है अंगिरसोंकी अग्रगामी गति; ''आगे-आगे अंगिरस् यात्रा करें, जो अगिरस् 'ब्रह्म' (शब्द ) के पुरोहित हैं, आकाशकी (या आकाशीय वस्तु बादल या बिजलीकी ) गर्जना आगे-आगे जाय, प्रीणयित्री गौएं आगे-आगे चलें जो अपने जलोंको बिखेरती हैं और दो पत्थर, सिलबट्टे ( अपने कार्यमें ) --यात्रामय यज्ञके रूपको बनानेमें लगाये जायँ । ''
1. सुगस्ते अग्ने सनवित्तो अध्या युक्ष्वा सुते हरितो रोहितश्च ।
ये वा सद्मन्नरुषा वीरवाहो हुवे देवानां जनिमानि सत्त: ।।
2. यदा वीरस्य रेवतो दुरोणे स्योनशीरतिथिराचिकेतत् ।
सुप्रीतो अग्नि: सुधितो दम आ स विशे दाति वार्यमियत्यै ।। ऋ. 7.42.4
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प्र बह्याणो अङिरसो नक्षन्त प्र क्रन्दर्नभन्यस्य वेतु ।
प्र धेनव उदंप्रुतो नवन्त, युज्यातामद्री अध्वरस्थ पेश: ।। 7.42.1 ।।
प्रथम, दिव्य शब्दसे युक्त अंगिरस्, दूसरे, आकाशकी गर्जना जो ज्योतिष्मान् लोक 'स्व:' की तथा शब्दमेंसे वज्रनिर्धोष करके निकलती हुई इसकी बिजलियोंकी आवाज है, तीसरे, दिव्य जल या सात नदियाँ जो प्रवाहित होनेके लिये 'स्व:' के अधिपति इन्द्रकी उस आकाशीय विद्युत् द्वारा मुक्तकी गई है, और, चौथे, दिव्य जलोंके निकलकर प्रवाहित होनेके साथ-साथ अमरताको देनेवाले सोमका निचोड़ा जाना, ये चीजें हैं जो 'अध्वर यज्ञ' के रूप, पेशः'को निर्मित करती हैं । और इसका सामान्य स्वरूप है अग्रगामी गति, दिव्य लक्ष्यकी ओर सबकी प्रगति, जैसा कि यहाँ सूचित किया गया है गतिवाची तीन क्रियापदों 'नक्षन्त', 'वेतु', 'नवन्त' द्वारा और उनके साथ उनके अर्थपर बल देनेके लिये अग्रवाची 'प्र' उपसर्ग लगाकर, जो मन्त्रके प्रत्येक वाक्यांशको प्रारम्भ करता और उसे स्वर प्रदान करता है ।
परन्तु 52वाँ सूक्त और भी अधिक अर्थपूर्ण तथा निर्देशक है । प्रथम ॠचा इस प्रकार है ''हे असीम माता अदितिके पुत्रो ( आदित्यास:), हम असीम बन जायँ ( अदितयः स्याम ), 'वसु, दिव्यता तथा मर्त्यतामें हमारी रक्षा करें ( देवत्रा मर्त्यत्रा ), हे मित्र और वरुण ! अधिगत करनेवाले हम तुम्हें अधिगत कर लें, हे द्यौ और पृथिवी ! होनेवाले हम 'तुम' हो जायें'',
सनेम मित्रावरुणा सनन्तो भवेम द्यावापृथिवी भवन्तः । 7.52, 1 ।
स्पष्ट ही अभिप्राय यह है कि हमें असीमको या अदितिके पुत्रोंको, देवत्वोंको अधिगत करना है और स्वयं असीम, अदितिके पुत्र, 'अदितय:, आदित्यास:', हो जाना है । मित्र और वरुणके विषयमें हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि ये प्रकाश तथा सत्यके अधिपति 'सूर्य सविता'की शक्तियाँ हैं । और तीसरी ॠचा इस प्रकार है, ''अगिरस्, जो लक्ष्यपर पहुँचनेके लिये शीघ्रता करते हैं, अपनी यात्रा करते हुए, देव सविताके सुखकी तरफ गति करें और उस ( सुख ) को हमारा महान् यज्ञिय पिता और सब देवता एक मनवाले होकर हृदयमें स्वीकार करें'',
तुरष्यबोइङ्गिरसो नक्षन्त रत्न देवस्य सवितुरियाना : ।
पिता च तन्नो महान् यजत्रो विश्वे देवा: समनसों जुषन्त ।। (ऋ. ओं 7.52.3 )
इसलिये यह बिलकुल स्पष्ट है कि अगिरस् सौरदेवताके उस प्रकाश तथा सत्यके यात्री हैं जिसमेंसे वे जगमगानेवाली गौएँ पैदा हुई हैं जिन गौओंको अगिरस् पणियोसे छीनकर लाते हैं, और उस सुखके यात्री हैं, जो, जैसा कि हम सर्वत्र देखते हैं, उस प्रकाश तथा सत्यपर आश्रित । साथ ही यह
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भी स्पष्ट है कि इस यात्राका अर्थ है देवत्वमें, असीम सत्तामें, विकसित होना (आदित्या: स्याम ), जिसके लिये इस सूक्त (ऋचा 1 ) में यह कहा गया है कि जौ देवत्व तथा मर्त्यत्वमें हमारी रक्षा करते हैं ऐसे मित्र, वरुण और वसुओंकी हमारे अन्दर क्रिया द्वारा दिव्य शांति तथा दिव्य सुखकी वृद्धिसे यह अवस्था आती है ।
इन दो सूक्तोंमें अगिरस् ऋषियोंका सामान्यत: उल्लेख हुआ है, पर अन्य सूक्तोंमें हमें इन मानव पितरोंका निश्चित उल्लेख मिलता है जिन्होंने सर्वप्रथम प्रकाशको खोजा था और विचारको और शब्दको अधिगत किया था और प्रकाशमान सुखके गुह्य लोकोंकी यात्रा की थी । उन परिणामोंके प्रकाशमें जिनपर हम पहुँचे हैं, अब हम अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण संदर्भोका अध्ययन कर सकते हैं जो गंभीर, सुन्दर तथा उज्ज्वल हैं और जिनमें मानवीय पूर्वपुरुषोंकी इस महान् खोजका गान किया गया है । उनमें हम उस महान् आशाका सारभूत वर्णन पायेंगे जिसे वैदिक रहस्यवादी सदा अपनी आंखोंके सामने रखते थे; वह यात्रा, वह विजय प्राचीन, प्रथम प्राप्ति है जिसे प्रकाशयुक्त पितरोंने अपने बाद आनेवाली मर्त्य जातिके लिये एक आदर्शके रूपमें स्थापित किया था । यह विजय थी उन शक्तियों पर जो चारों ओरसे घेर लेनेवाली रात्रि (रात्री परितक्म्या, 5.30.14 ) की शक्तियाँ हैं, वृत्र, शम्बर, वल हैं, ग्रीक गाथाशास्त्रके टाइटन, जायंट, पाइथन, (Titans Giants, Pythons ) ह, अवचेतनाकी शक्तियाँ हैं जो प्रकाश और बलको अपने अन्दर, अपनी अन्धकार तथा भ्रांतिकी नगरियोंके भीतर रोक लेती हैं, पर न तो इन्हें उचित प्रकारसे उपयोगमें ला सकती हैं, न ही इन्हें मनुष्यको, मनोमय प्राणीको, देना चाहती हैं । उनके अज्ञान, पाप और ससीमताको न केवल हमें अपने पाससे काटकर दूर कर देना है, बल्कि उनका भेदन कर डालना है और भेदन करके उनके अन्दर जा घुसना है, तथा उसमेंसे प्रकाश, भद्र और असीमताके रहस्यको निकाल लाना है । इस मृत्युमेंसे उस अमरताको जीत लाना है । इस अज्ञानके पीछे एक रहस्यमय ज्ञान और सत्यका एक महान् प्रकाश बन्द पड़ा है । इस पापने अपने अन्दर अपरिमित भद्रको कैद कर रखा है, सीमित करनेवाली इस मृत्युमें असीम, अपार अमरताका बीज छिपा पड़ा है । उदाहरणके लिये, 'वल' ज्योतियोंका वल है (वलस्य गोमत:, 1. 11 .5 ), उसका शरीर प्रकाशका बना हुआ है (गोवपुष: वलस्य, 10.68.9 ), उसका बिल या उसकी गुफा खजानोंसे भरा एक नगर है; उस शरीरको तोड़ना है, उस नगरको भेदन करके खोलना है, उन खजानोंको हस्तगत करना है । यह कार्य है जो मानवजातिके लिये नियत
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किया गया है और पूर्वपुरुष इस कार्यको मानवजातिके लाभके लिये एक बार कर चुके हैं, जिससे उसे करनेका मार्ग पता लग जाय और फिर उन्हीं उपायों द्वारा तथा उसी प्रकार प्रकाशके देवताओंके साथ मैत्रीं द्वारा लक्ष्यपर पहुँचा जा सके । ''वह पुरातन साख्यभाव तुम देवताओंके तथा हमारे बीचमें हो जाय, जैसा कि तब था जब उन अंगिरसोंके साथ मिलकर जो ( शब्दको ) ठीक प्रकारसे बोलते थे, ( हे इन्द्र ! ), तूने उसे च्युत कर दिया था जो अच्छुत था; और हे कार्योको पूर्ण करनेवाले ! तूने 'वल' का वध कर दिया था, जब कि वह तुझपर झपटा था और तूने उसके नगरके सब द्वारोंको खोल डाला था ।''1 सभी मानपरम्पराओंके उद्गममें यह प्राचीन स्मृति- जुड़ी हुई है । यह इन्द्र तथा वृत्र-सर्प है, यह अपोलो ( Apollo) तथा पाइथन ( Python) है, ये थॉर (Thor) ) तथा जायन्ट ( Giants) हैं, सिगर्ड ( Sigurd) और फाफ्तर ( Fafner) हैं, ये खाल्दियन गाथाशास्त्र ( Celtic mythology) के परस्परविरोधी देवता हैं । पर इस रूपककी कुंजी हमें केवल वेदमें ही उपलब्ध होती है, जिस रूपकमें प्रागैतिहासिफ मानवताकी वह आशा या विद्या छिपी रखी है ।
प्रथम सूक्त जिसे हम लेंगे महान् ऋषि विश्वामित्रका सूक्त 3.39 है; क्योंकि वह हमें सीधा हमारे विषयके हृदयमें ले जाता है । यह प्रारम्भ होता है 'पित्र्या धी:' अर्थात् पितरोंके विचारके वर्णनसे और यह विचार उस स्व: य. युक्त ( 'स्व:' वाले ) विचारसे भिन्न नहीं हो सकता जिसका अत्रियोंने गायन किया है, जो वह सात-सिरोंवाला विचार है जिसे अयास्यने नवग्वाओंके लिये खोजा था, क्योंकि इस सूक्तमें भी विचार का वर्णन अंगिरसों, पितरोंके साथ जुड़ा हुआ आता है । ''विचार हृदयसे प्रकट होता हुआ, स्तोमके रूपमें रचा हुआ, अपने अधिपति इन्द्रकी ओर जाता है ।"2 इन्द्र, हमारी स्थापनाके अनुसार, प्रकाशयुक्त मनकी शक्ति है, प्रकाशके तथा इसकी विद्युत्के- लोकका स्वामी है, शब्द या विचार सतत् रूपसे गौओं या स्त्रियोंके रूपमें कल्पित किये गये हैं, 'इन्द्र' वृषभ या पतिके रूपमें, और शब्द उसकी कामना करते हैं और इस रूपमें उनका वर्णन भी मिलता है कि वे उसे ( इन्द्रको ) खोजनेके लिये ऊपर जाते हैं, उदाहरणार्थ देखो 1.9.4, गिर: प्रति त्वामुवहा-सत... वृषभं पतिम् । 'स्व:'के प्रकाशसे प्रकाशमय मन ही लक्ष्य है जो
1. तन्न: प्रत्नं सख्यमछुस्तु युष्मे इत्या वदद्धिर्वलमङ्गिरोभिः ।
हन्नच्युतच्युद्दस्मेषयन्तमृणो: पुरो वि दुरो अस्य विश्वा: ।। (6.18.5 )
2. इन्द्र मति र्ह्रुद आ वच्यामानाच्छा पतिं स्तोमतष्टा जिगाति । ( 3 .39. 1 )
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वैदिक विचार द्वारा तथा वैदिक वाणी द्वारा चाहा गया है, जो विचार और वाणी प्रकाशोंकी गौओंको आत्मासे, अवचेतनाकी गुफासे जिसमें कि वे बन्द पड़ी़ थीं, ऊपर को धकेलकर प्रकट कर देते हैं, स्वःका अधिपति इन्द्र है वृषभ, गौओंका स्वामी, 'गोपति:' ।
ऋषि इस विचारके वर्णनको जारी रखता हुआ आगे कहता है--यह है ''वह विचार जो जब व्यक्त हो रहा होता है तब ज्ञानमें जागृत होकर रहता है'', अपने आपको पणियोंकी निद्राके सुपुर्द नहीं करता--या जागृवि-र्विदथे शस्यमाना, ''वह जो तुझसे (या तेरे लिये ) पैदा होता है, हे इन्द्र ! उसका तू ज्ञान ! प्राप्त कर ।"1 यह वेदमें सतत् रूपसे पाया जानेवाला एक सूत्र है । देवताको, देवको उसका ज्ञान रखना होता है जो मनुष्यके अंदर उसके प्रति उद्बुद्ध होता है, उसे हमारे अंदर ज्ञानमें उसके प्रति जागृत होना होता है (विद्धि, चेतथ:. इत्यादि ), नहीं तो यह एक मानवीय वस्तु ही रह जाती है और यह नहीं होता कि वह ''देवोंके प्रति जाय'', (देवेषु गच्छति ) । और उसके बाद ऋषि कहता है ''यह प्राचीन (या सनातन ) है, यह द्युलोक से पैदा हुआ है; जब यह प्रकट हो जाता है तब यह ज्ञानमें जागृत रहता है, सफेद तथा सुखमय वस्त्रोंको पहिने हुए यह हमारे अंदर पितरोंका प्राचीन विचार है ।'' 2 सेयमस्मे सनजा पित्र्या धीः ।
और फिर ऋषि इस विचारके विषयमें कहता है कि यह ''यमोंकी माता है जो यहाँ यमोंको जन्म देती है, जिह्वाके अग्रभागपर यह उतरती है और खड़ी हो जाती है, युगल शरीर पैदा होकर एक दूसरेके साथ संयुक्त हो जाते हैं और अंधकारके घातक होते हैं और जाज्वल्यमान शक्तिके आधारमें गति करते .हैं ।'' 3 मैं यहाँ इसपर विचार-विमर्श नहीं करूँगा कि ये प्रकाशमान युगल क्या हैं, क्योंकि इससे हम अपने उपस्थित विषयकी सीमासे परे चले जायँगे, इतना ही कहना पर्याप्त है कि दूसरे स्थलोंमें उनका वर्णन अंगिरसोंके साथ तथा अंगिरसोंकी उच्च जन्मकी (सत्यके लोककी ) स्थापनाके साथ संबद्ध होकर आता है और वे इस रूपमें कहे गये हैं कि 'वे युगल हैं जिनमें इन्द्र अभिव्यक्त किये जानेवाले शब्दको रखता है'', ( 1.83.3 );
1. इन्द्र यत्ते जायते विद्धि तस्य । (3.39.1 )
2. दिवश्चिदा पूर्व्या जायमाना वि जागृविर्विदथे शस्यमाना ।
भद्रा व्रस्त्राण्यर्जुना वसाना सेयमस्मे सनजा पित्र्या धीः ।। (3.39.2 )
3. यमा चिदत्र यमसूरसूत जिह्वाया अग्रं पतदा ह्यस्थात् ।
वपूंषि जाता मिथुना सचेते तमोहना तपुषो वुष्न एता ।। (3 .39.3 )
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और वह जाज्वल्यमान शक्ति जिसके आधारमें वे गति करते हैं, स्पष्ट ही सूर्यकी शक्ति है, जो (सूर्य ) अंधकारका घातक है और इसलिये यह आधार और वह आघार एक ही हैं जो सर्वोच्च लोक है, सत्यका आधार, ऋतस्य बुध्नः है, और अंतिम बात यह है कि यह कठिन है कि इन युगलोंका उनके साथ बिल्कुल कुछ भी संबंध न हो जो सूर्यके युगल शिशु हैं, यम और यमी,-यम जो दशम मण्डलमें अगिरस् ऋषियोंके साथ संबद्ध आता है ।1
इस प्रकार अंधकारके घातक अपने युगल शिशुओं सहित पित्र्य विचारका वर्णन कर चुकनेपर आगे विश्वामित्र उन पूर्वपितरोंका वर्णन करता है जिन्होंने सर्वप्रथम इसे निर्मित किया था और उस महान् विजयका जिसके द्वारा उन्होंने "उस सत्यको, अंधकारमें पड़े हुए सूर्यको'' खोज निकाला था । ''मर्त्योंमें कोई ऐसा नहीं है जो हमारे उन पूर्वपितरोंकी निन्दा कर सके ( अथवा, जैसा कि इसकी अपेक्षा मुझे इसका अर्थ प्रतीत होता है कि मर्त्यताकी कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो उन पूर्वपितरोंको सीमित या बद्ध कर सके ), जो हमारे पितर गौओंके लिये युद्ध करनेवाले हैं । महिमावाले, महा-पराक्रमकार्यको करनेवाले इन्द्रने उनके लिये दृढ़ बाड़ोंको ऊपरकी तरफ खोल दिया-वहाँ जहाँ एक सखाने अपने सखाओंके साथ, योद्धा नवग्वाओंके साथ घुटनोंके बल गौओंका अनुसरण करते हुए, दस दशग्वाओंके साथ मिलकर उस (इन्द्र ) ने उस सत्यको, 'सत्यं तद्, पा लिया, सूर्यको भी जो अंधकारमें रह रहा था ।"2
यही है जगमगाती हुई गोओंकी विजयका तथा छिपे हुए सूर्यकी प्राप्तिका अलंकार जो प्रायश: आता है; परंतु अगली ऋचामें इसके साथ दो इसी प्रकारके अलंकार और जुड गये हैं और वे भी वैदिक सूक्तोंमें प्रायः पाये जाते हैं, वे हैं गौका चरागाह या खेत तथा मधु जो गौके अंदर पाया जाता है । ' 'इन्द्रने मधुको पा लिया जो जगमगानेवालीके अंदर इकट्ठा किया
1. इन तथ्योंके प्रकाशमें ही हमें दशम मणडलमें आये यम और यमीके सैबादको समझना चाहिये जिसमें बहिन अपने भाईसे संयोग करना चाहती है और फिर इसे आगामी युग की संततियोंके लिये छोढ़ दिया गया है, जहां आगामी युगोंका अभिप्राय वस्तुत: प्रतीकरूप कालपरिमाण से है, क्योंकि आगामीके लिये जो शब्द 'उत्तर' आया है उसका अर्थ आगामीके बजाय ''उच्चतर'' अधिक ठीक है 1
2. नकिरेषां निन्दिता मर्त्येषु ये अस्माकं पितरो गोषु योधाः ।
इन्द्र एषां दृंहिता माहिनावानुद् गोत्राणि ससृजे वंसनावान् ।।
सखा ह पत्र सखिभिर्नवग्वैरभिक्वा 'सस्वभिज्ञ्वा अनुग्मन् ।
सत्यं तदिन्तो दशभिर्दशग्वै: सूर्य विवेद तमसि क्षियन्तम् ।। (3.39.4-5 )
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हुआ श, स्त्र चरागाह1 में पैरोंवाली तथा खुरोंवाली ( दैलत ) को |"2 जगमगानेवाली 'उस्त्रिया' ( साथ ही 'उस्रा' भी ) एक दूसरा शब्द है जो 'गो'के समान दोनों अर्थ रखता है, किरण तथा गाय, और वेदमें 'गो'के पर्यायवाचीके तौरपर प्रयुक्त हुआ है । सतत रूपसे यह हमारे सुननेमें आता है कि 'घृत' या साफ किया हुआ मक्खन गौमें रखा गया है, वामदेवके अनुसार वह वहाँ तीन हिस्सोमें पणियो द्वारा छिपाया गया है; पर कहीं यह मधुमय घृत है और कहीं केवल मधु है, 'मधुमद् घृतम्' और 'मधु' । हम देख चुके हैं कि गौकी देन घी और सोमलताकी देन ( सोमरस ) अन्य सूक्तोंमें कैसी घनिष्ठताके साथ जुड़े आते हैं और अब जब कि हम निश्चित रूपसे जानते हैं कि गौका क्या अभिप्राय है तो यह अद्भुत तथा असंगत लगनेवाला संबंध पर्याप्त स्पष्ट और सरल हो जाता है । 'घृत'का अर्थ भी 'चमकदार' होता है, यह चमकीली गौकी चमकदार देन है; यह मानसिक सत्तामें सचेतन ज्ञानका वह निर्मित प्रकाश है जो प्रकाशमय चेतनाके अंदर सम्भृत ( रखा हुआ ) है और गौकी मुक्तिके साथ यह भी मुक्त हो जाता है । 'सोम' है आह्लाद, दिव्य सुख, दिव्य आनंद जो सत्ताकी प्रकाशमय अवस्थासे भिन्न नहीं किया जा सकता और जैसे वेदके अनुसार हमारे अंदर मानसिक सत्ताके तीन स्तर हैं वैसे ही घृतके भी तीन भाग हैं, जो तीन देवताओं सूर्य, इन्द्र और सोमपर आश्रित हैं और सोम भी तीन हिस्सोंमें प्रदान किया जाता है, पहाड़ीके तीन स्तरोंपर, 'त्रिषु सानुषु' । इन तीनों देवताओंके स्वरूपका ख्याल रखते हुए हम यह कल्पना प्रस्तुत कर सकते हैं कि 'सोम' इन्द्रियाश्रित मन ( Sense mentality ) से दिव्य प्रकाशको उन्मुक्त करता है, ' इंद्र' सक्रिय गतिशील मन ( Dynamic mentality ) ) से; 'सूर्य' विशुद्ध विचारात्मक मन (pure reflective metality ) से । और गौके चरागाहसे तो हम पहलेसे ही परिचित हैं; यह वह 'क्षेत्र' है जिसे इन्द्र अपने चमकीले सखाओंके लिये 'दस्यु'से जीतता है और जिसमें अत्रिने योद्धा अग्निको तथा जगमगाती हुई गौओंको देखा था, उन गौओंको जिनमें वे भी जो बूढ़ी थीं फिरसे, जवान हो गयी थीं । यह खेत, 'क्षेत्र, केवल एक दूसरा रूपक है उस प्रकाशमय घर ( क्षय ) के लिये जिस तक कि देवता यज्ञ द्वारा मानवीय आत्माको ले जाते हैं ।
1. नमे गो: । 'नम' बना है 'नम' धातुसे, जिसका अर्थ है चलना, घूमना, विचरना; ग्रीकमें नेमो (Namo) धातु है; 'नम' शब्दक अर्थ है घुमनेका प्रदेश, चरागाह, जो ग्रीकमें नैमोज (Namos) है |
2. इन्द्रो मधु संभृतमुस्त्रियायां पद्वद्विवेद शफवन्नमे गो: ।।6 ।।
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आगे विश्वामित्र इस सारे रूपकके वास्तविक रहस्यवादी अभिप्रायको दर्शाना आरंभ करता है । 'दक्षिणासे युक्त उसने (इन्द्रने ) अपने दक्षिण हाथमें (दक्षिणे दक्षिणावान्) उस गुह्य वस्तुको थाम लिया, जो गुप्त गुहामें रखी थी और जलोंमें छिपी थी । पूर्ण रूपसे जानता हुआ वह (इन्द्र ) अंधकारसे ज्योतिको पृथक् कर दे, ज्योतिर्वृणीतं तमसो विजानन्, हम पापकी उपस्थिति से दूर हो जायँ ।'1 यहाँ हमें इस देवी दक्षिणाके आशयको बतानेवाला एक सूत्र मिल जाता है, जो दक्षिणा कुछ संदर्भोंमें तो यों प्रतीत होती है कि यह उषाका एक रूप या विशेषण है और अन्य संदर्भोंमें यह यज्ञमे हवियोका संविभाजन करनेवाली प्रतीत होती है । उषा है दिव्य आलोक और दक्षिणा है वह विवेचक ज्ञान जो 'उषा'के साथ आता है और मनकी शक्तिको, इन्द्र को, इस योग्य बना देता है कि वह यथार्थको जान सके और प्रकाशको अंधकारसे, सत्यको अनृतसे, सरलको कुटिलसे विविक्त करके वरण कर सके, 'वृणीत विजानन् । इन्द्रके दक्षिण और वाम हाथ ज्ञानमें उसकी क्रियाकी दो शक्तियाँ हैं; क्योंकि उसकी दो बाहुओंको कहा गया है 'गभस्ति' और 'गभस्ति' एक ऐसा शब्द है जिसका अर्थ सामान्यत: तो सूर्यकी किरण होता है पर साथ ही इसका अर्थ अग्रबाहु भी होता है, और इन्द्रकी ये दो शक्तियाँ उसकी उन दो बोधग्राहक शक्तियोंके, उसके उन दो चमकीले घोड़ों, 'हरी'के अनुरूप हैं जो इस रूपमें वर्णित किये गये हैं कि वे सूर्यचक्षु, 'सूरचक्षसां' है और सूर्यकी दर्क्षन-शक्तियाँ (Vision power ), 'सूर्यस्य केतू' हैं । दक्षिणा दक्षिण हाथकी शक्तिकी-'दक्षिण'की-अधिष्ठात्री है, और इसलिये हम यह शब्द-विन्यास पाते है-'दक्षिणे दक्षिणावान्' । यही (दक्षिणा) वह विवेकशक्ति है जो यज्ञकी यथातथ क्रिया पर तथा हवियोंके यथातथ संविभागपर अधिष्ठातृत्व करती है और यही इन्द्रको इस योग्य बना देती है कि वह पणियोकी झुंडमें इकट्ठी हुई दौलतको सुरक्षित रूपसे, अपने दाहिने हाथमें, थाम ले । और अंतमें हमें यह बतलाया गया है कि वह रहस्यमय वस्तु क्या है जो हमारे लिये गुफामें रखी गयी थी और जो सत्ताके जलोंके अंदर छिपी है, उन जलोंके अंदर जिनमें पितरोंका विचार रखा जाना है, अप्सु धियं दधिषे । यह है छिपा हुआ सूर्य, हमारी दिव्य सत्ताका गुप्त प्रकाश, जिसे पाना है और ज्ञान द्वारा उस अंधकारमेंसे निकालना है जिसमें यह छिपा पड़ा है । यह प्रकाश भौतिक प्रकाश नहीं है, यह तो एक
1. ''गुहाहितं गुह्यं गूठ्हमप्सु हस्से दधे दक्षिणे दक्षिणावान् ।।6।।''
" ज्योतिर्वुणीत तमसो विजानन्नारे स्याम दिरितादभिके ।।7।।''
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विजानन् शब्दसे पता लग जाता है क्योंकि इस प्रकाशकी प्राप्ति होती है यथार्थ ज्ञान द्वारा और दूसरे इससे कि इसका परिणाम नैतिक होता है, अर्थात् हम पापकी उपस्थितिसे दूर हो जाते हैं 'दुरिताद', शाब्दिक अर्थ लें तो विपरीत गतिसे, स्खलनसे, जो हमारी सत्ताकी रात्रिमें हमें तब तक वशमें किये रहता है, जबतक सूर्य उपलब्ध नहीं हो जाता और जबतक दिव्य उषा उदित नहीं हो जाती ।
एक बार यदि हमें वह कुंजी मिल जाती है जिससे गौओंका, सूर्यका, मधुमदिराका अर्थ खुल जाय, तो अंगिरसोंके कथानककी तथा पितरोंके जो कार्य हैं उनकी सभी घटनाएँ (जो वेदमंत्रोंकी कर्मकाण्डीय या प्रकृतिवादी व्याख्यामें ऐसी लगती हैं मानो जहाँ-तहाँ के टुकड़ोंको इकट्ठा जोड़कर एक बिल्कुल असंगत-सी चीज तैयार कर दी गयी हो और जो ऐतिहासिक या आर्य-द्राविड़ ब्याख्यामें अत्यंत ही निराशाजनक तौरपर दुर्घट प्रतीत होती हैं, इसके विपरीत ) पूर्णतया स्पष्ट तथा संबद्ध लगने लगती हैं और प्रत्येक दूसरीपर प्रकाश डालती हुई नजर आती है । प्रत्येक सूक्त अपनी संपूर्णताके साथ तथा दूसरे सूक्तोंसे जो इसका संबंध है उसके साथ हमारी समझमें आ जाता है; वेदकी प्रत्येक जुदा-जुदा पंक्ति, प्रत्येक संदर्भ, जहाँ-तहाँ बिखरा हुआ प्रत्येक संकेत मिलकर अनिवार्य रूपसे और समस्वरताके साथ एक सामान्य संपूर्णताका, समग्रताका अंगभूत दीखने लगता है । यहाँ हम यह जान चुके हैं कि क्यों मधुको, दिव्य आनन्दको यह कहा जा सकता है कि उसे गौके अंदर, सत्यके जगमगाते हुए प्रकाशके अंदर रखा गया; मधुको धारण करनेवाली गौका प्रकाशके अधिपति तथा उद्गमस्थान सूर्यके साथ क्या संबंध है; क्यों अंधकारमें पड़े हुए सूर्यकी पुनःप्राप्तिका संबंध पणियोंकी गौओंकी उस विजय या पुनःप्राप्तिके साथ है जो अंगिरसों द्वारा की जाती है; क्यों इसे सत्यकी पुनःप्राप्ति कहा गया है; पैरोंवाली और खुरोंवाली दौलतका तथा गौके खेत या चरागाहका क्या अभिप्राय है । अब हम यह देखने लगे हैं कि पणियोंकी गुफा क्या वस्तु है और क्यों उसे जो 'वल' की गुहामें छिपा है यह भी कहा गया है कि वह उन जलोंके अंदर छिपा है जिन्हें इन्द्र 'वृत्र'के पंजेसे छुड़ाता है, उन सात नदियोंके अंदर छिपा है जो नदियाँ अयास्यके सात-सिरोंवाले स्वर्विजयी विचारसे युक्त हैं; क्यों गुफामेंसे सूर्यके छुटकारेको, अंधकारमेंसे प्रकाशके पृथक्करण या वरणको यह कहा गया है कि यह सर्वविवेचक ज्ञान द्वारा किया जाता है; 'दक्षिणा' तथा 'सरमा' कौन हैं और इसका क्या अभिप्राय है कि इन्द्र खुरोंवाली दौलतको अपने दाहिने हाथमें थामता है । और इन परिणामोंपर
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पहुँचनेके लिये हमें शब्दोंका अभिप्राय खींचतान करके नहीं निकालना है, यह नहीं करना है कि एक ही नियत संज्ञाके, जहाँ जैसी सुविधा होती हो उसके अनुसार, भिन्न-भिन्न अर्थ मान लें, अथवा एक ही वाक्यांश या पंक्तिके भिन्न-भिन्न सूक्तोंमें भिन्न-भिन्न अर्थ कर लें अथवा असंगतिको ही वेदमें सही व्याख्याका मानदण्ड मान लें; बल्कि इसके विपरीत ॠचाओंके शब्द तथा रूपके प्रति जितनी ही अधिक सचाई बरती जायगी उतना ही अधिक विशद रूपमें वेदका सामान्य तथा व्योरेवार अभिप्राय एक सतत स्पष्टता और पूर्णताके साथ प्रकट हो जायगा ।
इसलिये हमें यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि जो अभिप्राय हमारी खोजसे निकला है उसे हम अन्य संदर्भोंमें भी प्रयुक्त करें, जैसे कि वसिष्ठके सूक्त 7.76में, जिसकी मैं अब परीक्षा करूंगा । यद्यपि उसमें ऊपर-ऊपरसे देखने पर केवल भौतिक उषाका एक आनंदसे पुलकित कर देनेवाला चित्र ही प्रतीत होगा पर जब हम इस सूक्तकी परीक्षा करते हैं तो यह प्रथम छाप मिट जाती है । हम देखते हैं कि यहाँ सतत रूपसे एक गंभीरतर अर्थ सूचित होता है और जिस क्षण हम उस चाबीका उपयोग करते हैं जो हमें मिली है उसी क्षण वास्तविक अभिप्रायकी समस्वरता दिखायी देने लगती है । यह सूक्त प्रारम्भ होता है परम उषाके प्रकाशके रूपमें सूर्यके उस उदयके वर्णनसे जिस उदयको देवता तथा अंगिरस् साधित करते हैं ।
1'सविता, जो देव है, विराट् नर है, उस प्रकाशमें, ऊपर चढ़ गया है जो अमर है और सब जन्मोंवाला है, ज्योतिरमृतं विश्वजन्यम्; (यज्ञके ) कर्म द्वारा देवोंकी आंख पैदा हो गयी है (अथवा, देवोंकी संकल्प-शक्ति द्वारा अन्तर्दर्शन पैदा हो गया है ); उषाने संपूर्ण लोकको (या उस सबको जो अस्तित्वमें आता है, सब सत्ताओंको, विश्व भुवनम् ) अभिव्यक्त कर दिया है ।' यह अमर प्रकाश जिसमें सूर्य उदित होता है, अन्य स्थलोंमें सच्चा प्रकाश, ऋतं ज्योति:, कहा गया है; और वेदमें सत्य तथा अमरत्व सतत रूपसे संबद्ध पाये जाते हैं । यह है ज्ञानका प्रकाश जो सात-सिरोंवाले विचारके द्वारा दिया गया, जिस विचारको अयास्यने पाया था जब कि वह 'विश्वजन्य अर्थात् विराट् सत्तावाला हो गया था, इसीलिये इस प्रकाशको भी 'विश्वजन्य' कहा गया है, क्योंकि यह अयास्यके चतुर्थ लोक, 'तुरीयं स्वि'दं_से संबंध रखता है जिस लोकसे शेष सब पैदा होते हैं और जिसके
1. उदु ज्योतिरमृतं विश्वजन्य विश्यानर: सविता देवो अश्रेत् ।
ॠत्वा देवानामजनिष्ट चक्षुराविरकर्भुवनं विश्वमुषा: ।। (ॠ. 7.76.1 )
२५८
सत्यसे शेष सब अपने विशाल विराट्रूपमें अभिव्यक्ति प्राप्त करते हैं, कि पहलेकी तरह अनृत और कुटिलताकी सीमित अवस्थाओंमें । इसीलिये इसे यह भी कहा गया है कि यह देवोंकी आंख है और दिव्य उषा है जो संपूर्ण सत्तामात्रको अभिव्यक्त कर देती है ।
दिव्य दर्शनके इस जन्मका परिणाम यह होता है कि मनुष्यका मार्ग उसके लिये अपने-आपको प्रकट कर देता है तथा देवोंकी या देवोंके प्रति की जानेवाली उन यात्राओं (देवयाना: ) को प्रकट कर देता है, जो यात्राएं दिव्य सत्ताके अनंत विस्तारकी ओर ले जाती हैं । 'मेरे सामने देवोंकी यात्राओंके मार्ग प्रत्यक्ष हो गये हैं, उन यात्राओंके जो सत्य नियमका उल्लङ्गन नहीं करतीं, जिनकी गति वसुओं द्वारा निर्मित की गयी थी । यह सामने उषाकी आंख पैदा हो गयी है और वह हमारे घरोंके ऊपर (पहुंचती हुई ) हमारी तरफ आ गयी है ।'1 घर वेदमें एक स्थिर प्रतीक है उन शरीरोंके लिये जो आत्माके निवास-स्थान हैं, ठीक वैसे ही जैसे खेत (क्षेत्र ) या आश्रय-स्थान (क्षय ) से अभिप्राय होता है वे स्तर जिनमें आत्मा आरोहण करता है तथा जिनमें वह ठहरता है । मनुष्यका मार्ग वह मार्ग है जिसपर वह सर्वोच्च लोकमें पहुंचनेके लिये यात्रा करता है, और वह वस्तु जिसे देवोंकी यात्राएं हिंसित नहीं करतीं देवों की क्रियाएं हैं, जीवनका दिव्य नियम है जिसमें आत्माको बढ़ना होता है, जैसा कि हम पांचवीं ऋचामें देखते हैं जहाँ इसी वाक्यांशको फिर दोहराया गया है ।
इसके बाद हम एक विचित्र आलंकारिक वर्णन पाते हैं, जो आर्योंके उत्तरीय ध्रुव-निवासकी कल्पनाको पुष्ट करता प्रतीत होता है । ''वे दिन बहुत-से थे जो सूर्यके उदयके पहले थे (अथवा, जो सूर्यके उदय तक प्राचीन हो गये थे ), जिनमें हे उष: ! तू दिखायी पड़ी, मानो कि अपने प्रेभीके चारों ओर घूम रही हो और तुझे पुन: न आना हो ।"2 सचमुच ही यह ऐसी उषाओंका चित्र है जो अविच्छिन्न हैं, जिनके बीचमें रात्रि व्यवधान नहीं डालती, वैसी जैसी कि उत्तरीय ध्रुवके प्रदेशोंमें दृष्टिगोचर होती हैं । अध्यात्मपरक आशय जो इस ऋचासे निकलता है वह तो स्पष्ट ही है ।
1. प्र मे पन्या देवयाना अवृश्रन्नमर्षन्तो वसुभिरिष्क्रुतासः ।
अभूदु केतुरुषस: पुरस्तात् प्रतीच्यागादधि हर्म्येभ्यः।। (ऋ. 7.76.2 )
2. तानीदहानि बहुलान्यासन् या प्राचीनमुदिता सूर्यस्य ।
यत: परि जार इवाचरन्त्युषो वदृक्षे न पुनर्यतीव ।। (ऊ. 7.76.3 )
२५९
ये उषाएं क्या थीं ? ये वे थीं जो पितरों, प्राचीन अंगिरसोंकी क्रियाओं द्वारा रची गयी थीं । ''वे सचमुच देवोंके साथ (सोमका ) आनंद लेते थे,1 वे प्राचीन द्रष्टा थे जो सत्यसे युक्त थे, उन पितरोंने छिपी हुई ज्योतिको पा लिया; सत्य विचारसे युक्त हुए-हुए (सत्युमन्त्राः, उस सत्य विचारसे जो अन्त:प्रेरित वाणी, मंत्र, में अभिव्यक्त हुआ था ) उन्होंने उषाको पैदा कर दिया ।"2 और यह उषा, यह मार्ग, यह दिव्य यात्रा, पितरोंको कहां ले गयी ? समतल बिस्तारमें, 'समाने ऊर्वे', जिसे अन्य स्थलोंमें 'निर्बाध विस्तार' नाम दिया गया है, 'उरौ अनिबाधे', यह स्पष्ट ही वही वस्तु है जो वह विशाल सत्ता वा विशाल लोक है जिसे कण्वके अनुसार मनुष्य तब रचते हैं जब वे वृत्रका वध कर लेते हैं और द्यावापृथिवीके पार चले जाते हैं; यह है बृहत् सत्य तथा 'अदिति'की असीम सत्ता । ''समतल विस्तारमें वे परस्पर संगत होते हैं और अपने ज्ञानको एक करते हैं ( अचबा पूर्णतया ज्ञान रखते हैं ), और परस्पर होड़ या संधर्ष नहीं करते; वे देवोंकी क्रियाओंको क्षीण नहीं करते ( सीमित या क्षत नहीं करते ), उनमें बाधा न डालते हुए वे वसुओं (को शक्ति ) द्वारा ( अपने लक्ष्यकी तरफ ) गति करते हैं ।"3 यह स्पष्ट है कि सात अंगिरस्, चाहे वे मानव हों चाहे दिव्य, ज्ञान, विचार या शब्दके, सात सिरों-वाले विचारके, बृहस्पतिके सात-मुखोंबाले शब्दके भिन्न-भिन्न सात तत्वोंको सूचित करते हैं और समतल विस्तारमें आकर वे एक विराट् ज्ञानमें समस्वर हो जाते हैं । स्खलन, कुटिलता, असत्य जिनके द्वारा मनुष्य देवोंकी क्रियाओंका उल्लङधन करते हैं तथा जिनके द्वारा उनकी सत्ता, चेतना व ज्ञानके विभिन्न तत्त्व एक दूसरेके साथ अंधे संघर्षमें जुट जाते हैं, दिव्य उषाकी आख या दर्शन (Vision ) द्वारा परे हटा दिये जाते हैं ।
सूक्त समाप्त होता है वसिष्ठोंकी इस अभीप्साके साथ कि उन्हें वह दिव्य तथा सुखमयी उषा प्राप्त हो जो गौओंकी नेत्री तथा समृद्धिकी पत्नी
1. मैं थोड़ी देरके लिये 'सधमाद:'के परम्परागत अर्थको ही स्वीकार किये लेता हू, यधपि
मुझे यह निश्चय नहीं कि यह अर्थ शुद्ध ही है |
2. त इद्देवानां सधमाद आसन्नृतावानः कवयः पूर्व्यासः ।
गुळहं ज्योतिः पितरो अन्यविन्दन्त्स्यत्यमन्त्रा अजनयन्नुषासम् ।।
(ऋ. 7.76.4 )
3. समान ऊर्वे अधि संगतासः सं जावते न यतन्ते मिथस्ते ।
ते देवानां न भिनन्ति व्रतान्यमर्षन्तो वसुभिर्यादमानाः (ॠ. 7.76.4)
२६०
है और साथ ही जो आनंद तथा सत्योंकी (सूनृतानाम् ) नेत्री है ।1 वे वही महाकार्य करना चाहते हैं जिसे पूर्व द्रष्टाओंने, पितरोंने, किया था, और इससे यह परिणाम निकलेगा कि ये अगिरस् मानवीय हैं, न कि दिव्य । कुछ भी हो, अंगिरसोंके कथानकका अभिप्राय इसके सब अंग-उपागोंसहित नियत हो गया है, सिवाय इसके कि पणियोंका तथा कुक्कुरी सरमाका ठीक-ठीक स्वरूप क्या है, और अब हम. इस ओर प्रवृत्त हो सकते हैं कि चतुर्थ मण्डलके प्रारम्भके सूक्तोंमें जो संदर्भ आते हैं उनपर विचार करें, जिनमें मानव पितरोंका साफ-साफ उल्लेख हुआ है और उनके महान् कार्यका वर्णन किया गया है । वामदेवके ये सूक्त अंगिरसोंके कथानकके इस अंग पर अत्यधिक प्रकाश डालनेवाले तथा इस दुष्टिसे अत्यावश्यक हैं और अपने-आपमें भी वे ऋग्वेदके अधिक-से-अधिक रोचक सूक्तोमेंसे हैं ।
1. प्रति क स्तोमैरीळेते वसिष्ठा उषर्बुधः सुभगे तुष्टुवांस: ।
गवां नेत्रो वाजपत्नी न उच्छोषः सुजाते प्रथमा जरस्व ।।
एषा नेत्री राधसः सूनृतानामुषा उच्छन्ती रिम्यते वसिष्ठै: ।
( ऋ. 7.76.-7 )
२६१
उन्नीसवां अध्याय
पितरोंकी विजय
महान् ऋषि वामदेवके द्वारा दिव्य ज्वाला को, द्रष्ट्संकल्प (Seer-Will) को, 'अग्नि'को, संबोधित किये गये सूक्त ऋग्वेदके उन सूक्तोंमेंसे हैं जो अधिक-से-अधिक रहस्यवादी उद्गारवाले हैं और यदि हम ऋषियों द्वारा प्रयुक्तकी गयी अर्थपूर्ण अलंकारोंकी पद्धतिको दृढ़तापूर्वक अपने मनोंमें बैठा लेवें तो ये सूक्त अपने अभिप्रायमें बिलकुल सरल हो जाते हैं । किन्तु यदि हम ऐसा न कर सकें तो ये हमें बेशक ऐसे प्रतीत होंगे मानो ये केवल शब्दरूपकोंकी चमक-दमकवाली एक धुन्धमात्र हैं, जो हमारी समझको चक्कर-में डाल देते हैं । पाठकको प्रतिक्षण उस नियत संकेत-पद्धतिको काममें लाना होता है जो वेदमंत्रोंके आशयको खोलनेकी चाबी है; नहीं तो वह उतना ही अधिक धाटेमें रहेगा, जितना कि वह रहता है जो तत्त्वज्ञान-शास्त्रको पढ़ना चाहता है पर जिसने उन दार्शनिक पारिभाषिक-संज्ञाओंके अभिप्रायको अच्छी तरह नहीं समझा जो उस शास्त्रमें सतत रूपसे प्रयुक्त होती हैं, अथवा हम यह कहें कि जितना वह रहता है जो पाणिनिके सूत्रोंको पढ़नेकेा यत्न करता है पर यह नहीं जानता कि व्याकरणसंबंधी संकेतोंकी वह विशेष पद्धति क्या है जिसमें वे सूत्र प्रकट किये गये हैं । तो भी आशा है वैदिक रूपकोंकी इस पद्धति पर पहले ही हम पर्याप्त प्रकाश प्राप्त कर चुके हैं, जिससे कि वामदेव हमें मानवीय पूर्वपितरोंके महाकार्यके विषयमें क्या कहना चाहता है इसे हम काफी अच्छी तरह समझ सकते हैं ।
प्रारम्भमें अपने मनमें यह बात बैठा लेनेके लिये कि वह महाकार्य क्या था, हम उन स्पष्ट तथा स्वतः-पर्याप्त सूत्र-वचनोंको अपने सामने रख सकते हैं जिनमें पराशर शाक्त्यने उन विचारोंको प्रकट किया है । 'हमारे पितरोंने अपने शब्दों द्वारा (उक्थै: ) अचल तथा दृढ़ स्थानोंको तोड़कर खोल दिया; तुम अंगिरसोंने अपनी आवाजसे (रवेण ) पहाड़ीको तोड़कर खोल दिया; उन्होंने हमारे अंदर महान् द्यौके लिये मार्ग बना दिया; उन्होंने दिनको, स्वःको और अन्तर्दर्शन (Vision) ) को और जगमगानेवाली गौओंको पा लिया ।'
२६२
चक्रुर्दिवो बृहतो गातुमस्मे अह: स्यर्विविदुः केतुमुस्त्रा; ।। (ऋ. 1 .71 .2 )1
यह मार्ग, वह कहता है, वह मार्ग है जो अमरताकी ओर ले जाता है; 'उन्होंने जो उन सब वस्तुओंके अन्दर जा घुसे थे जो यथार्थ फल देने-वाली हैं, अमरताकी तरफ ले जानेवाला मार्ग बनाया; महत्ताके द्वारा तथा महान् (देवों ) के द्वारा पृथिवी उनके लिये विस्तीर्ण होकर खड़ी हो गयी, माता अदिति अपने पुत्रोंके साथ उन्हें थामनेके लिये आयी (या, उसने अपने-आपको प्रकट किया )' (ऋ० 1.72.92 ) । कहनेका अभिप्राय यह है कि भौतिक सत्ता ऊपरके असीम स्तरोंकी महत्तासे आविष्ट होकर तथा उन महान् देवताओंकी शक्तिसे आविष्ट होकर जो उन स्तरों पर शासन करते हैं, अपनी सीमाओंको तोड़ डालती है, प्रकाशको लेनेके लिये खुल जाती है और अपनी इस नवीन विस्तीर्णतामे वह असीम चेतना 'माता अदिति'के द्वारा तथा उसके पुत्रों, परमदेवकी दिव्य शक्तियों द्वारा थामी जाती है । यह है वैदिक अमरता ।
इस प्राप्ति तथा विस्तीर्णताके उपाय भी पराशरने अति संक्षेपसे अपनो रहस्यमयी, पर फिर भी स्पष्ट और हृदयस्पर्शी शैलीमें प्रतिपादित कर दिये हैं । 'उन्होंने सत्यको धारण किया, उन्होंने इसके विचारको समृद्ध किया; तभी वस्तुत: उन्होंने, अभीप्सा करती हुई आत्माओंने (अर्य: ) इसे विचारमें धारण करते हुए, अपनी सारी सत्तामें फैले हुए इसे थामा ।'
दधन्नृतं धनयन्नस्य धीतिमादिदर्यो दिधिध्वो विभृत्रा: । (ऋ. 1. 71 .3 )
'विभृत्रा:'में जो अलंकार है वह सत्यके विचारको हमारी सत्ताके सारे ततत्वोंमें थामनेको सूचित करता है, अथवा यदि इसे सामान्य वैदिक रूपकमें रखें, तो इस रूपमें कह सकते हैं कि यह सात-सिरोंवाले विचारको सातोंके सातों जलोंके अन्दर धारण करनेको, अप्सु धियं धिपे, सूचित करता है, जैसा कि अन्यत्र इसे हम लगभग ऐसी ही भाषामें प्रकट किया गया देख चुके हैं । यह इस अलंकारमय वर्णनसे स्पष्ट हो जाता है जो तुरन्त इसके बाद इसी ऋचाके उत्तरार्द्धमें आया है,-'जो कर्मके करनेवाले हैं वे तृष्णा-
।. यह पूरा मंत्र इस प्रकार है-
वीळु चिद् दृळहा पितरो न उक्यैरद्रिं रुजन्नङ्गिरसो रवेण ।
चक्रुर्दिवो वृहतो गासुमस्मे अहः स्यर्विविदु: केतुस्रा: ।।
2. आ ये विश्वा स्यपत्यानि तस्थुः कुष्यानासो अमृतत्याय गातुम् ।
मह्ना महद्धि: पृथिवी वि तस्ये माता पुत्रैरदितिधार्यसे वेः ।।
२६३
रहित (जलों ) की तरफ जाते हैं, जो जल आनन्दको तुष्टि द्वारा दिव्य जन्मों-को बढ़ानेवाले हैं',
अतृष्यन्तीरपसो यन्त्यच्छा देवाञ्जन्म प्रयसा वर्धयन्ती: ।
तुष्टि पायी हुई सप्तविध सत्य-सत्तामें रहनेवाली सप्तविध सत्य-चेतनार आनन्दको पानेके लिये जो आत्माकी भूख है उसे शांत करके हमारे अन्दर दिव्य जन्मोंको बढ़ाती है, यह है अमरताकी वृद्धि । यह है दिव्य सत्ता, दिव्य प्रकाश और दिव्य सुखके उस त्रैतका व्यक्तीकरण जिसे बादमें चलकर वेदान्तियोंने सच्चिदानन्द कहा है ।
सत्यके इस विराट् फैलावके तथा हमारे अन्दर सब दिव्यताओंकी उत्पत्ति तथा क्रियाके (जो हमारे वर्तमान सीमित मर्त्य जीवनके. स्थान पर हमें व्यापक और अमर जीवन प्राप्त हो जानेका आश्वासन दिलानेवाले हैं ) अभिप्रायको पराशरने 1 .68 में और भी अधिक स्पष्ट कर दिया है । 'अग्नि', दिव्य द्रष्टृ-संकल्प (Seer-Will) ) का वर्णन इस रूपमें किया गया है कि वह द्युलोकमें आरोहण करता है तथा उस सबमेंसे जो स्थिर है और उस सबमें-से जो चंचल है रात्रियोंके पर्देको समेट देता है, 'जब वह ऐसा एक देव हो जाता है कि अपनी सत्ताकी महिमासे इन सब दिव्यताओंको चारों ओरसे घेर लेता है ।'1
''तभी वस्तुत: सब संकल्पको (या कर्मको ) स्वीकार करते हैं और उसके साथ संसक्त हो जातें हैं, जब हे देव ! तू शुष्कतामेंसे ( अर्थात् भौतिक सत्तामेंसे, जिसे एक ऐसी मरुभूमि कहा गया है जो सत्यकी धाराओंसे असिञ्चित है ) एक सजीव आत्माके रूपमें पैदा हो जाता है, सब अपनी गतियों द्वारा सत्य तथा अमरताको अधिगत करते हुए दिव्यताका आनन्द लेते हैं ।"2
भजन्त विश्वे देवत्वं नाम, ऋतं सपन्तो अमृतमेवै: ।
"सत्यकी प्रेरणा, सत्यका विचार एक व्यापक जीवन हो जाता है (या सारे जीवनको व्याप्त कर लेता है ), और इसमें सब अपनी क्रियाओंको पूर्ण करते हैं ।''
ॠतस्य प्रेषा ऋतस्य धीति र्विश्वायुर्विश्वे अपांसि चक्रुः । (ऋ. 1 .68.3 ) ।
1.श्रीणन् उप स्थाद् दिवं भुरण्युः स्थातुश्चरथमक्तून् वयूर्णोत् ।
''परि थदेषामेको विश्येषां भुवद्देवो देवानां महित्वा'' ।। (ॠ. 1.68.1 )
2. आदित्ते विश्वे ऋतं जुषन्त शुष्काधद्देव जीवो अनिष्ठा: ।
भजन्त विश्ये देचत्वं नाम ॠतं सपन्तो अमृतमेवैः ।। (ऋ. 1.68.2 )
२६४
और वेदकी उस दुर्भाग्यपूर्ण भ्रांत व्याख्याके शिकार होकर जिसे यूरो-पीय पाण्डित्यने आधुनिक मन पर थोप रखा है, कहीं हम अपने मनमें यह विचार न बना लें कि ये पंजाबकी ही सात भूमिष्ठ नदियां हैं जो मानव पूर्व-पितरोंके अतिलौकिक महाकार्यमें काम आती हैं, इसके लिये हमें ध्यान देना चाहिये कि पराशर अपनी स्पष्ट और प्रकाशकारिणी शैलीमें इन सात नदियोंके बारेमें क्या. कहता है । ''सत्यकी प्रीणयित्री गौओंने ( 'धेनवः', एक रूपक है जो नदियोंके लिये प्रयुक्त किया गया है, जब कि 'गावः' या 'उस्राः' शब्द सूर्यकी प्रकाशमान गौओंको प्रकट करता है ) रभाते हुए, सुख-मय ऊधसोंसे उसकी पालनाकी, उन्होंने द्यौमें आनन्द लिया; सुविचारको सर्वोच्च ( लोक ) से वर रूपमें प्राप्त करके नदियां पहाड़ीके ऊपर विस्तीर्ण होकर तथा समताके साथ प्रवाहित हुई'',
ऋतस्य हि धेनवो ववशाना:, स्मदूध्नी: पीपयन्त द्युभक्ता: ।
परावतः सुमतिं भिक्षमाणा वि सिन्धवः समया सस्रुरद्रिम् ।। ( ऋ. 1.73.6 )
और 1.72 8में एक ऐसी शब्दावलिमें उनका वर्णन करता हुआ जो दूसरे सूक्तोंमें नदियोंके लिये प्रयुक्त हुई है, वह कहता है, ''विचारको यथार्थ रूपसे रखनेवाली, सत्यको जाननेवाली, द्यौकी सात शक्तिशाली नदियों ने आनन्दके द्वारोंको ज्ञान में प्रत्यक्ष किया, 'सरमा'ने जगमगाती गौओंके दृढ़त्वको, विस्तारको पा लिया; उसके द्वारा मानुषी प्रजा आनन्द भोगती है ।''
स्वाध्यो दिव आ सप्त यह्वी:, रायो दुरो व्यृतला अजानन् ।
विदद् गव्यं सरमा द्ळमूर्व, येना नु क मानुषी भोजते विट् ।।
स्पष्ट ही ये पंजाबकी नदियां नहीं हैं बल्कि आकाश ( द्यौ ) की नदियां हैं, सत्यकी धाराएं हैं1 सरस्वती जैसी देवियां हैं जो ज्ञानमें सत्यसे युक्त हैं और जो इस सत्यके द्वारा मानुषी प्रजाके लिये आनन्दके द्वारोंको खोल देती हैं । यहाँ भी हम वही देखते हैं, जिसपर मैं पहले ही बल दे चुका हूँ, कि गौओंके ढूंढ़ निकाले जानेमें तथा नदियोंके बह निकलनेमें एक गहरा सम्बन्ध है; ये दोनों एक ही कार्यके, महाकार्यके .अंगभूत हैं, और वह है मनुष्यों द्वारा सत्य तथा अमृतकी प्राप्तिका महाकार्य, ॠतं सपन्तो अमृतमेवै: ।
अब यह पूर्णतया स्पष्ट है कि अंगिरसोंका महाकार्य है सत्य तथा अमरता की विजय; 'स्व:' जिसे महान् लोक, वृहद् द्यौ:, भी कहा गया है सत्यका
1. देखो ॠ. 1.32.8 में हिरण्यस्तूप अंगिरस् 'वृत्र'से मुक्त होकर आये हुए जलोंका इस
रूपमें वर्णन करता है कि वे ''मनकी और आरोहण करते हैं'', मनो रुहाणा: और
अन्यत्र वे इस रूपमें कहे गये है कि ये वे जल है जो अबने अन्दर ज्ञानको रखते है,
आपो विचेतस: (1 .88. 1) ।
२६५
लोक है जो सामान्य द्यौ और पृथिवीसे ऊपर है, जो द्यौ तथा पृथिवी इसके सिवाय और कुछ नहीं हो सकते कि ये सामान्य मानसिक तथा भौतिक सत्ता हों; बृहत् द्यौका मार्ग, सत्यका मार्ग जिसे अंगिरसोंने रचा है और सरमाने जिसका अनुसरण किया है वह मार्ग है जो अमरताकी तरफ ले जाता है, अमृतत्वाय गातुम्; उषाका दर्शन (केतु ), अंगिरसों द्वारा जीता गया दिन वह अन्तर्दर्शन है जो सत्य-चेतनाको अपने स्वभावसे ही होता है; सूर्य तथा उषाकी जगमगाती हुई गौएं, जो पणियोंसे जबर्दस्ती छीनी गयी हैं, इसी सत्य-चेतनाकी ज्योतिया हैं जो सत्यके विचार, ऋतस्य धीतिःको रचनेमें सहायक होती हैं, यह सत्यका विचार अयास्यके सात-सिरोंवाले विचारमें पूर्ण होता है; वेदकी रात्रि मर्त्य सत्ताकी अंघकारावृत चेतना है जिसमें सत्य अवचेतन बना हुआ है, पहाड़ीकी गुफामें छिपा हुआ है; रात्रिके इस अंधकारमें पड़े हुए खोये सूर्यकी पुनःप्राप्तिका अभिप्राय है अंधकारपूर्ण अवचेतन अवस्थामेंसे सत्यके सूर्यकी पुन:प्राप्ति; और सात नदियोंके भूमिकी ओर अधःप्रवाह होनेका मतलब होना चाहिये हमारी सत्ताके सप्तगुण तत्त्वकी उस प्रकारकी बहि:प्रवाही क्रिया जैसी वह दिव्य या अमर सत्ताके सत्यमें व्यवस्थितकी जा चुकी है । और फिर इसी प्रकार, पणि होने चाहियें वे शक्तियां जो सत्यको अवचेतन अवस्थामेंसे बाहर निकलनेसे रोकती हैं और जो सतत रूपसे इस (सत्य ) के प्रकाशोको मनुष्यके पास से चुरानेका प्रयत्न करती हैं और मनुष्यको फिरसे रात्रिमें ढकेल देती हैं और वृत्र वह शक्ति होनी चाहिये जो सत्यकी प्रकाशमान नदियोंकी स्वच्छन्द गतिमें बाधा डालती है और उसे रोकती है, हमारे अंदर सत्यकी अन्तःप्रेरणा, ॠतस्य प्रेषामें बाधा पहुंचाती है, उस ज्योतिर्मयी अन्त:प्रेरणा, ज्योतिर्मयीम् इषम्में जो हमें रात्रिसे पार कराके अमरता प्राप्त करा सकती है । और इसके विप-रीत, देवता, 'अदिति'के पुत्र, होने चाहियें वे प्रकाशमयी दिव्यशक्तियां जो असीम चेतना 'अदिति'से पैदा होती हैं, जिनकी रचना और क्रिया हमारी मानवीय तथा मर्त्य सत्ताके अंदर आवश्यक हैं, जिससे कि हम विकसित होते-होते दिव्य रूपमें, देवकी सत्ता (देवत्वम्) में परिणत हो जायं, जो कि अमरताकी अवस्था है । 'अग्नि' सत्य-चेतनामय द्रष्टृ-संकल्प है, वह प्रधान देवता है जो हमें यज्ञको सफलतापूर्वक करनेमें समर्थ बना देता है; वह यज्ञ-को सत्यके मार्ग पर ले जाता है, वह संग्रामका योद्धा है, कर्मका अनुष्ठाता है और अपने अंदर अन्य सब दिव्यताओंको ग्रहण किये हुए उस 'अग्नि'की हमारे अंदर एकता तथा व्यापकताका होना ही अमरताका आधार है । सत्यका लोक जहां हम पहुंचते हैं उसका अपना घर है तथा अन्य देवोंका
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अपना घर है और वही मनुष्यके आत्माका अंतिम प्राप्तव्य धर है । और यह अमरता वर्णितकी गयी है एक परम सुख के रूपमें, असीम आत्मिक संपत्ति तथा समृद्धिकी अवस्था, रत्न, रयि, राधस् आदिके रूपमें, हमारे दिव्य घरके खुलनेवाले द्वार हैं आनंद-समृद्धिके द्वार, रायो दूर:, वे दिव्य द्वार जो उनके लिये झूलते हुए सपाट खुल जाते हैं जो सत्यको बढ़ानेवाले (ऋतावृध: ) हैं, और जिन द्वारोंको हमारे लिये सरस्वतीने और इसकी बहिनोंने, सात सरिताओंने, सरमाने खोजा है; इन द्वारोंकी तरफ और उस विशाल चरागाह (क्षेत्र ) की तरफ जो विस्तीर्ण सत्यकी निर्बाध तथा सम निःसीमताओमें स्थित है बृहस्पति और इन्द्र चमकीली गौओंको ऊपरकी ओर ले जाते हैं ।
इन विचारोंको यदि हम स्पष्टतया अपने मनोंमें गड़ा लेवें तो हम इस योग्य हो जायंगे कि वामदेवकी ऋचाओंको समझ सकें, जो उसी विचार-सामग्रीको प्रतीकमयी भाषामें बार-बार दोहराती हैं जिसे पराशरने अपेक्षाकृत अधिक खुले तौर पर व्यक्त कर दिया है । वामदेवके प्रारंभिक सूक्त 'अग्नि1-को, द्रष्ट्र-संकल्पको ही संबोधित किये गये हैं । उसका इस रूपमें स्तुति-गान किया गया है कि वह मनुष्यके यज्ञका बंधु या निर्माता है, जो मनुष्य-को साक्षाद् दर्शन (Vision) के प्रति, ज्ञान (केतु ) के प्रति जागृत करता है, स चेतयन् मनुषो यज्ञबन्धुः (ऋ. 4.1 .9 ) । ऐसा करता हुआ, ''वह इस मनुष्यके द्वारोंवाले घरोंमें कार्यसिद्धिके लिये प्रयत्न करता हुआ निवास करता है; वह जो देव है, मर्त्यकी कार्यसिद्धिमें साधन बननेके लिये आया है ।
'' स क्षेति अस्प दुर्यासु साधन् देवो मर्तस्य सधनित्वमाप ।। (4. 1. 9 )
वह क्या है जिसे यह सिद्ध करता है ? यह अगली ॠचा हमें बताती है । ''यह 'अग्नि' जानता हुआ हमें अपने उस आनंदकी तरफ ले जाय जिसका देवोंने आस्वादन किया है, जिसे सब अमर्त्योंने विचार द्वारा रचा है और 'द्यौष्पिता', जो जनिता है, सत्यका सिञ्चन कर रहा है ।''
स तू नो अग्निर्नयतु प्रजानअच्छा रत्नं देवभक्तं यदस्य ।
धिया यद् विश्वे अमृता अकृष्वन् द्यौष्पिता जनिता सत्यमुक्षन् ।।
(ऋ. 4.1. 10 )
यही है पराशर द्वारा वर्णित अमरताका परम सुख जिसे अमरदेवकी सभी शक्तियोंने सत्यके विचारमें तथा इसकी प्रेरणामें अपना कार्य करके रचा है, और सत्यका सिञ्चन स्पष्ट ही जलोंका सिञ्जन है जैसा कि 'उक्षन्' शब्दसे सूचित होता है, यह वही है जिसे पराशरने पहाड़ीके ऊपर सत्यकी सात नदियोंका प्रसार कहा है ।
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वामदेव अपने कथनको जारी रखता हुआ आगे हमें इस महान्, प्रथम या सर्वोच्च शक्ति,. 'अग्नि,के जन्मके बारेमें कहता है, जो जन्म सत्यमें होता है, इसके जलोंमें, इसके आदिम घरमें होता है । 'प्रथम वह ( अग्नि ) पैदा हुआ जलोंके अंदर, बृहत् लोक ( स्व:) के आधारके अंदर, इसके गर्भ ( अर्थात् इसके वेदि-स्थान और जन्म-स्थान, इसके आदिम घर ) के अंदर; वह बिना सिर और पैरके था, अपने दो अंतोंको छिपा रहा था, वृषभकी मांदमें अपने आपको कार्यमें लगा रहा था ।'1 वृषभ है देव या पुरुष, उसकी मांद है सत्यका लोक, और अग्नि, जो 'द्रष्टृ-संकल्प'है, सत्य-चेतनामे कार्य करता हुआ लोकोंको रचता है; पर वह अपने दो अंतोंको, अपने सिर और पैरको, छिपाता है । कहनेका अभिप्राय यह है कि उसके व्यापार पराचेतन तथा अवचेतन (Superconscient and subconscient ) के बीचमें क्रिया करते हैं, जिनमें उसकी उच्चतम और निम्नतम अवस्थाएं क्रमश: छिपी रहती हैं, एक तो पूर्ण प्रकाशमें दूसरी पूर्ण अंधकारमें । वहाँसे फिर वह प्रथम और सर्वोच्च शक्तिके रूपमें आगे प्रस्थान करता है और सुखकी सात शक्तियों, सात प्रियाओंकी, क्रियाके द्वारा वह वृषभ या देवके यहाँ पैदा हो जाता है । 'प्रकाशमय ज्ञान द्वारा जो प्रथमशक्तिके रूपमें आया था, वह ( अग्नि ) आगे गया और सत्यके स्थानमें, वृषभकी मांदमें, वांछनीय, युवा, पूर्ण शरीरवाला, अतिशय जगमगाता हुआ, वह पहुंच गया; सात प्रियाओंने उसे देवके यहाँ पैदा कर दिया ।'2
इसके बाद ऋषि आता है मानवीय पितरोंके महाकार्यकी ओर, अस्माकमत्र पितरो मनुष्याः, अभि प्र सेदुऋॅतमाशुषाणाः । ''यहाँ हमारे मानव पितर सत्यको खोजना चाहते हुए इसके लिये आगे बढ़े; अपने आवरक कारागारमें बन्द पड़ी हुई चमकीली गौओंको, चट्टानके बाड़में बन्द अच्छी दुधार गौओंको वे ऊपरकी तरफ ( सत्यकी ओर ) हाँक ले गये, उषाओंने उनकी पुकारका उत्तर दिययां ।13। उन्होंने पहाड़ीको विदीर्ण कर दिया और उन्हें ( गौओंको ) चमका दिया; अन्य जो उनके चारों तरफ थे उन
1. स जायत प्रथम: पस्त्यासु महो बुध्नेरजसो अस्य योनौ ।
अपादशीर्षा गुहमानो अन्ताऽऽयोयुवानो वृषभस्य नीळे ।। ( ऋ. 4.1. 11 )
2. प्र शर्ध आर्त प्रथमं विपन्याँ ॠतस्य योना वृषभस्य नीळे ।
स्पार्हो युवा वपुष्यो विभावा सप्त प्रियासोऽजनयन्त वृक्ष्णे ।। ( ऋ. 4.1.12 )
3. अस्माकमत्र पितरो मनुष्या अभि प्र सेसुॠॅतमाशुषाणा : ।
अश्मव्रजा: सुदुघा वव्रे अन्तरुदुस्रा आजन्नुषसो हुवाना: ।। (ॠ. 4.1.13 )
२६८
सबने उनके इस (सत्य) को खुले तौर पर उद्घोषित कर दिया; पशुओंको हांकनेवाले उन्होंने कर्मोंके कर्त्ता ( अग्नि ) के प्रति स्तुति-गीतोंका गान किया, उन्होंने प्रकाशको पा लिया, वे अपने विचारोंमें जगमगा उठे ( अथवा, उन्होंने अपने विचारों द्वारा कार्यको पूर्ण किया ) 1 ।14। उन्होंने उस मनसे जो प्रकाशकी (गौओंकी, गव्यता मनसा ) खोज करता है, उस दृढ़ और निबिड़ पहाड़ीको तोड़ डाला जिसने प्रकाशमयी गौओंको घेर रखा था; इच्छुक आत्माओंने दिव्य शब्द द्वारा, वचसा दैव्येन, गौओंसे भरे हुए दृढ़ बाड़ेको खोल दिया2 15 ।'' ये अंगिरसोंके कथानकके सामान्य आलंकारिक वर्णन हैं, पर अगली ऋचामें वामदेव अपेक्षाकृत और भी अधिक रहस्यमयी भाषा-का प्रयोग करता है । ''उन्होंने प्रीणयित्री गौके प्रथम नामको मनमें धारण किया, उन्होंने माताके त्रिगुणित सात उच्च ( स्थानों ) को पा लिया; मादा गायोंने उसे जान लिया और उन्होंने इसका अनुसरण किया, प्रकाशरूपी गौको शानदार प्राप्ति ( या शोभा ) के द्वारा एक अरुण वस्तु आविर्भूत हुई ।
ते मन्वत प्रथमं नाम धेनोस्त्रिः सप्त मातु : परमाणि विन्दन् ।
तज्जानतीरभ्यूनूषत व्रा आविर्भुवदरुणीर्यशसा गो: । । ( ॠ. 4.1.16 )
यहाँ माता है 'अदिति', असीम चेतना, जो 'धेनु' या प्रीणयित्री गौ है, जिसके साथ अपने सप्तगुण प्रवाहके रूपमें सात सरिताएं हैं, साथ ही वह प्रकाशकी 'गौ' भी है जिसके साथ उषाएं है, जो उसके शिशुओंके रूपमें हैं; वह अरुण वस्तु है दिव्य उषा और गायें या किरणें हैं उसके खिलते हुए प्रकाश । जिस माताके त्रिगुणित सात परम स्थान हैं जिन्हें उषाएं या मानसिक प्रकाश जानते हैं और उनकी ओर गति करते हैं, उस माताका प्रथम नाम होना चाहिये परम देवका नाम या देवत्व, वह देव है असीम सत्ता और असीम चेतना और असीम सुख, और तीन वेदि-स्थान हैं तीन दिव्य लोक जिन्हें इसके पहले इसी सूक्तमें अग्निके तीन उच्च जन्म कहा3 है, जो पुराणोंके 'सत्य', 'तपस्' और 'जन' हैं, जो देवकी इन तीन असीमताओंके अनुरूप हैं और इनमेंसे प्रत्येक अपने-अपने तरीकेसे हमारी
1. से मर्मृजत ददृवांसो अद्रिं तदेषामन्ये अभितो विवोचन् ।
पश्वयन्त्रासो अभि कारमर्चन् विदन्त ज्योतिश्चकृपन्त धीभि: ।।
(ऋ. 4.1.14)
2. ते गव्यता मनसा दृध्रमुमुब्धं गा येमानं परि षन्तमद्रिम् ।
दृळह्ं नरो वचसा दैव्येन व्रजं गोमन्तमुशिजो वि वव्रुः ।। (ॠ. 4.1.15 )
3. देखो मंत्र ७,-''त्रिरस्य ता परमा सन्ति सत्या स्पार्हा देवस्य जनिमान्यग्ने: ।''
२६९
सत्ताके सप्तगुण तत्त्वको पूर्ण करता है । इस प्रकार हम अदितिके त्रिगुणित सात स्थानोंकी श्रेणियां पाते हैं, जो सत्यकी दिव्य उषामेंसे खुलकर अपनी संपूर्ण शोभामें प्रकट हो गयी हैं1 । साथ ही हम देखते हैं कि मानवीय पितरों द्वाराकी गयी प्रकाश तथा सत्यकी उपलब्धि भी एक आरोहण है, जो परम तथा दिव्य पदकी अमरताकी तरफ होता है, सर्वस्रष्ट्री असीम माता के प्रथम नामकी ओर होता है, इस आरोहण करनेवाली सत्ताके लिये उस (माता ) के जो त्रिगुणित सात उच्च पद हैं उनकी ओर होता है और सनातन पहाड़ी (अद्रि) के सर्वोच्च सम-प्रदेशों (सानु) की ओर होता है ।
यह अमरता वह आनंद है जिसका देवोंने आस्वादन किया है, जिसके विषयमें वामदेव हमें पहले ही बतला चुका है कि यह वह वस्तु है जिसे 'अग्नि'को यज्ञ द्वारा सिद्ध करना है, यह वह सर्वोच्च सुख है जो ऋ 1 .20.7 के अनुसार अपने त्रिगुणित सात आनन्दोंसे युक्त है । क्योंकि आगे वह कहता है : ''अन्धकार नष्ट हो गया, जिसका आधार हिल चुका था; द्यौ चमक उठा ( रोचत द्यौ:, अभिप्राय प्रतीत होता है स्व:के तीन प्रकाश-माय लोकों, दिवो रोचनानि, की अभिव्यक्तिसे ); दिव्य उषाका प्रकाश ऊपर उठा; सूर्य ( सत्यके ) विस्तीर्ण क्षेत्रोंमें प्रविष्ट हुआ, मर्त्योंके अन्दर सरल तथा कुटिल वस्तुओंको देखता हुआ2 । |17। इसके पश्चात् सचमुच वे जाय गये और वे ( सूर्य द्वारा किये गये कुटिलसे सरलके, अनृतसे सत्यके पार्थक्य द्धारा ) विशेष रूपसे देखने लगे; तभी वस्तुत: उन्होंने उनके अन्दर उस सुखको थामा जिसका द्युलोकमें आस्वादन किया गया है, रत्नं धारयन्त द्युभक्तम् । (हम चाहते हैं कि ) सबके सब देव हमारे सब घरोंमें होवें, हे मित्र, हे वरुण, वहाँ हमारे विचारके लिये सत्य होवे3।'' विश्वे विश्वासु दुर्यासु देथा मित्र धिये वरुण सत्यमस्तु ।।18।। यह स्पष्ट वही बात है जो पराशर शाक्त्य द्वारा इसकी अपेक्षा भिन्न भाषामें व्यक्तकी जा चुकी है,
1. इसी विचार को मेधातिथि काण्व ने ( ॠ, 1.20.7 में ) दिव्य सुखके त्रिगुणित सात
आनंदों, रत्नानि त्रि: साप्तानि, के रूपमें व्यक्त किया है, अथबा यदि और अधिक
शाब्दिक अनुवाद लें, तो इस रूपमें कि आनन्द जो अपनी सात-सातकी तीन श्रेणियोंमें
है, जिनमेंसे प्रत्येकको ॠभु अपने पृथकू-पृथक् तथा ,पूर्ण रूपमें प्रकट कर देते हैं,
एकमेक सुशस्तिमि: ।
2. नेशत् तमो दूधितं रोचत द्यौरुद् देव्या उषसो भानुरर्त ।
आ सूर्यो बृहतस्तिष्ठद्ज्राँ ॠजु मर्तेषु वृजिना च पश्यन् । । ( ऋ. 4.1.17 )
3.आदित् पश्चा वुदुधाना व्यरुपन्नादिद् रत्नं धारयन्त द्युभक्तम् ।
विश्वे विश्वासु दुर्यासु देवा मित्र धिये वरुण सत्यभस्तु ।। (ऋ. 4.1.18 )
२७०
अर्थात् सत्यके विचार और प्रेरणा द्वारा सारी सत्ताकी अभिव्याप्ति हो जाना और उस विचार तथा प्रेरणामें सब देवत्वोंका व्यापार होने लगना जिससे हमारी सत्ताके अंग-अंगमें दिव्य सुख और अमरताका सृजन हो जावे ।
सूक्त समाप्त इस प्रकार होता है, 'मैं अग्निके प्रति शब्द बोल सकूं, जो अग्नि विशुद्ध रूपमें चमक रहा है, जो हवियोंका पुरोहित (होता ) है, जो यज्ञमें सबसे बड़ा है, जो हमारे पास सब कुछ खानेवाला है; वह दोनों- को हमारे लिये निचोड़ देवे, प्रकाशकी गौओंके पवित्र ऊधस्को और आनन्दके पौदे ( सोम ) के पवित्रीकृत भोजनको जो सर्वत्र परिषिक्त है1 ।19। वह यज्ञके सब अधिपतियोंकी (देवोंकी ) असीम सत्ता ( अदिति ) है और सब मनुष्योंका अतिथि है; (हम चाहते हैं कि ) अग्नि जो क्यने अन्दर देवोंकी वृद्धिशील अभिव्यक्तिको स्वीकार करता है, जन्मोंको जाननेवाला है, सुखका देनेवाला होवे ।20।'2
चतुर्थ मण्डलके दूसरे सूक्तमें हम बहुत ही स्पष्ट तौर पर और अर्थ- सूचक रूपसे सात ऋषियोंकी समरूपता पाते है जो ऋषि कि दिव्य अंगिरस् हैं तथा मानवीय पितर हैं । उस संदर्भसे पहले, 4.2.11 से 14 तक ये चार ऋचाएं आती हैं जिनमें सत्य तथा दिव्य सुखकी अन्वेषणाका वर्णन है । 'जो ज्ञाता है वह ज्ञान तथा अज्ञानका, विस्तृत पृष्ठोंका तथा कुटिल पृष्ठोंका जो मर्त्योंको अन्दर बन्द करते हैं, पूर्णतया विवेक कर सके; और हे देव, संतानमें सुफल होनेवाले सुखके लिये 'दिति'को हमें दे डाल और 'अदिति'की रक्षा कर ।' 3 यह ग्यारहवीं ॠचा अपने अर्थमें बड़ी ही अद्भुत है । यहाँ हम ज्ञान तथा अज्ञान की विरोधिता पाते हैं जो वेदान्तमें मिलती है; और ज्ञानकी समता दिखायी गयी है विशाल खुले पृष्ठोंसे जिनका वेदमें बहुधा संकेत आता है; ये वे विशाल पृष्ठ हैं जिनपर वे आरोहण करते हैं जो यज्ञमें श्रम करते हैं और वे वहाँ अग्निको 'आत्मानन्दमप' (स्व-जेन्य ) रूपमें बैठा पाते हैं ( 5. 7. 5 ); वे हैं विशाल अस्तित्व जिसे वह अपने निजी शरीरके लिये रचता है ( 5 .4. 6 ), वे सम-विस्तार हैं, निर्बाध बृहत् हैं ।
1. अच्छा वोचेय शुशुचानमग्निं होतारं विश्वभरसं यजिष्ठम् ।
शुच्यूधो अतृणन्न गवामन्धो न पूतं परिषिक्तमंशोः ।। (ऋ 4.1.19 )
2. विश्वेषमदितिर्यज्ञियानां विश्वेषामतिथिर्मानुषाणाम् ।
अग्निर्दैवानामव आवृणानः सुमृळीको भवतु जातवेदा: ।। 4.1.20
3. चित्तिमचित्तिं चिनवद् वि विद्वान् पृष्ठेव वीता वृजिना च मर्तान् ।
राये च न: स्वपत्याय देव दितिं च रास्वादितिमुरुष्य ।। 4.2,11
२७१
इसलिये जिसे हम सत्यके लोकमें पहुंचकर पाते हैं, वह देवकी असीम सत्ता ही है और यह अदिति माताके त्रिगुणित सात उच्च स्थानोंसे युक्त है, 'अग्नि'के तीन जन्मोंसे युक्त है, जो अग्नि असीमके अंदर रहता है; अनन्ते अन्त: (4.1.7 ) । दूसरी तरफ अज्ञानकी तद्रूपता दिखायी गयी है कुटिल या विषम पृष्ठोंसे जो मर्त्योंको अंदर बन्द करते हैं और इसीलिये यह सीमित विभक्त मर्त्य सत्ता है । इसके अतिरिक्त यह स्पष्ट है कि यह अज्ञान ही अगले मंत्रार्धका दिति है, दितिं च रास्व अदितिम् उरुष्य, और ज्ञान है अदिति । 'दिति'का, जिसे दनु भी कहा गया है, अर्थ है विभाग; और बाधक शक्तियां या 'वृत्र' हैं उसकी संतानें जिन्हें दनवः, दानवाः, दैत्या: कहा गया है, जब कि अदिति है वह सत्ता जो अपनी असी-मतामें रहती है और देवोंकी माता है । ऋषि एक ऐसे सुखकी कामना कर रहा है जो संतानमें अर्थात् दिव्य कार्यों और उनके फलोंमें सुफल हो; और यह सुख प्राप्त किया जाना है एक तो इस प्रकार कि उन सब ऐश्वर्योंको जीता जाय जिन्हें हमारी विभक्त मर्त्य सत्ताने अपने अंदर धारण कर रखा है पर 'वृत्रों' तथा 'पणियो'ने जिन्हें हमसे छिपा रखा है, और दूसरे इस प्रकार कि उन्हें असीम दिव्य सत्तामें धारित किया जाय । उन ऐश्वर्योंके धारणको हमें अपनी मानवीय सत्ताकी सामान्य प्रवृत्तिसे, 'दनु' या 'दिति'के पुत्रोंकी अधीनतासे बचाना होगा, रक्षित रखना होगा । यह विचार स्पष्ट ही ईश उपनिषद्के उस विचारसे मिलता है जिसमें यह कहा गया है कि ज्ञान (विद्या ) और अज्ञान (अविद्या ), एकता और बहुरूपता ये दोनों ब्रह्ममें निहित हैं और इनका इस प्रकार धारण करना अमरताकी प्राप्तिकी शर्त है ।2
इसके बाद हम सात दिव्य द्रष्टाओं पर आते हैं । ''अपराजित द्रष्टाओं-ने द्रष्टाको (देवको, अग्निको ) कहा, उसे अंदर मानव सत्ताके धरोमें धारण करते हुए; यहाँसे (इस शरीरधारी मानव सत्तासे ) हे अग्ने ! कर्म द्वारा अभीप्सा करता हुआ (अर्य:) , तू अपनी उन्नतिशील गतियोंसे उन्हें देख
1. 'वृजिना'का अर्थ है कुटिल और यह वेदमें अतृतकी कुटिलताको सूचित करनेके लिये
. प्रयुक्त हुआ है जो सत्यकी सरलता (ॠजुता)से विपरीत है, पर यहां कवि स्पष्ट ही
अपने मनके अन्दर 'वृज्'के धात्वर्थको रखे हुए है, अर्थात् पृथक् करना, पर्दा डालकर
विभक्त करना, और इससे बने विशेषण-शब्द 'वृजिन'का यह शाव्दिक अर्थ ही 'मर्तान्
को विशेषित करता है ।
2. विद्याञ्चाविद्याग्च यस्तद् वेदोभयं सह ।
अविद्याया मृत्युं तीर्त्या विद्ययाइमृतमश्नुते ।। ईश. 1 1
२७२
सके जिनका तुझे दर्शन (Vision) प्राप्त करना चाहिये, जो सबसे अति- क्रान्त, अद्भुत हैं, (देवके देवत्व हैं) ।"
कविं शशासु: कवयोऽदब्धा:, निधारयन्तो दुर्यास्वायो: ।
अतस्त्वं इश्यां अग्न एतान् पड्भि: पश्येरद्भुतां अर्य एवं: ।। (4.2.12 )
अब यह पुनः देवत्वके दर्शन (Vision) की यात्रा है । ''तू, हे अग्ने ! सर्वाधिक युवा शक्तिवाले ! उसके लिये जो शब्द का गान करता है और सोमकी हवि देता है और यज्ञका विधान करता है, (उस यात्रामें ) पूर्ण पथ-प्रदर्शक है । उस आरोचमानके लिये जो कर्मको पूर्ण करता है, तू सुख ला, जो सुख उसके आगे बढ़नेके लिये बृहत् आनंदसे युक्त हो, कर्मके कर्त्ताको (या, मनुष्यको) तुष्टि देनेवाला हो (चर्षणिप्रा: ) ।13|1 अब ओ अग्ने ! उस सबको जिसे हमने अपने हाथों और पैरोंसे और अपने शरीरोंसे रचा है, सच्चे विचारक (अंगिरस्) इस रूपमें कर देते हैं, मानो कि यह तेरा रथ है, जो दो भुजाओंके (द्यौ और पृथिवीके, भुरिजो: ) व्यापार द्वारा बना है । सत्यको अधिगत करना चाहते हुए उन्होंने इसके प्रति अपना मार्ग बना लिया है, (या इस सत्य पर वश प्राप्त किया है ) ऋतं येमु: सुध्य आशुषाणा:।14।2 अब उषा माताके सात द्रष्टा, (यज्ञके) सर्वो-त्कृष्ट विनियोक्ता, हम पैदा हो जायं जो अपने-आपमें देव हैं; हम अंगिरस्, द्यौ पुत्र, बन जायं, पवित्र रूपमें चमकते हुए हम धन-दौलतसे भरपूर पहाड़ीको तोड़ डालें ।15।''3 यहाँ हम बहुत ही स्पष्ट रूपमें सात दिव्य द्रष्टाओंको इस रूपमें पाते हैं कि वे विश्व-यज्ञके सर्वोत्तम विधायक हैं और इस विचारको पाते हैं कि मनुष्य ये सात द्रष्टा ''बन जाता है'', अर्थात् वह उन द्रष्टाओंको अपने अंदर रचता है और स्वयं उनके रूपमें परिणत हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे वह द्यौ और पृथिवी तथा अन्य देव बन जाता है, अथवा जैसा इसे दूसरे रूपमें यों प्रतिपादित किया गया है कि वह अपनी स्वकीय सत्तामें दिव्य जन्मोंको पैदा कर लेता है, रच लेता है या निर्मित कर लेता है, (जन्, कृ, तन् ) ।
1. त्वमग्ने वाधते सुप्रणीति: सुतसोमाय विधते यविष्ठ ।
रत्नं भर शशमानाय घृष्वे पृथु श्चन्द्रमसे चर्षणिप्रा: ।। (4.2.13)
2. अधा ह यद् वयमग्ने त्वाया षड्भिर्हस्तैभिश्चकृमा तनूभि: ।
रथं न क्रन्तो अपसा भुरिजोॠॅतं येमुः सुध्य आशुषाणा: ।। (4.2.14)
3. अधा मातुरुषस: सप्त विप्रा जायेमहि प्रथमा वेबसो नून् ।
दिवस्पुत्रा अङ्गिरसो भवेमाडद्रिं रुजेम धनिन शचन्त: ।। (4.2.15)
२७३
आगे मानवीय पितरोंका उदाहरण इस रूपमें दिया गया है कि उन्होंने इस महान् ''बन जाने''के और इस महाप्राप्ति व महाकार्यके आदिम आदर्श (नमूने) को उपस्थित किया है । ''अब भी, हे अग्ने ! जैसे हमारे उत्कृष्ट पूर्व पितरोंने, सत्यको अघिगत करना चाहते हुए, शब्दको अभिव्यक्त करते हुए, पवित्रता और प्रकाशकी ओर यात्राकी थी; उन्होंने पृथिवीको (भौतिक सत्ताको) तोड़कर उनको जो अरुण थीं (उषाओंको, गौओंको ) खोल दिया ।16।1 पूर्ण कर्मोंवाले तथा पूर्ण प्रकाशवाले, दिव्यताओंको पाना चाहते हुए वे देव जन्मोंको लोहेके समान घड़ते हुए ( या दिव्य जन्मोंको लोहेके समान घड्ते हुए ), 'अग्नि'को एक विशुद्ध ज्वाला बनाते हुए, 'इन्द्र'को बढ़ाते हुए, प्रकाशके विस्तारको (गौओंके विस्तारको, गव्यम् ऊर्वम् ) पहुच गये और उन्होंने उसे पा लिया ।17।2 अंदर जो देवों के जन्म हैं वे अन्तर्दर्शन ( Vision ) में अभिव्यक्त हो गये, मानो ऐश्वर्योंके खेतमें गौओंके झुण्ड हों, ओ शक्तिशालिन् ! ( उन देवोंने दोनों कार्य किये ). मर्त्योंके विशाल सुखभोगोंको (या उनकी इच्छाओंको ) पूर्ण किया और उच्चतर सत्ताकी वृद्धिके लिये भी अभीप्सुके तौर पर कार्य किया ।
आ थूथेव क्षुमति पश्वो अख्यद्देचानां यज्जनिमान्त्युग्र ।
मर्तानां चिदुर्वशीरकृप्रन्, वृधे चिदर्य उपरस्थायोः ।। (ऋ. 4.2.18 )
स्पष्टही यह इस द्विविध विचारकी पुनरुक्ति है, जो दूसरे शब्दोंमें रख दी गयी है, कि दितिके ऐश्वर्योंको धारण करना और फिर भी अदितिको सुरक्षित, रखना । ''हमने तेरे लिये कर्म किया है, हम कर्मोंमें पूर्ण हो गये हैं, खुली चमकती हुई उषाओंने सत्यमें अपना घर आयत्त कर लिया है, ( या सत्यके चोगेसे अपने आपको आच्छादित कर लिया है ), अग्निकी परि-पूर्णतामें और उसके बहुगुणित आनंदमें, अपनी संपूर्ण चमकसे युक्त जो देवकी चमकती हुई आँख है, उसमें ( उन्होंने अपना धर बना लिया है ) ।19।'' 3
ऋचा 4.3.11 में फिर अंगिरसोंका उल्लेख आया है, और जो वर्णन इस ॠचा तक हमें ले जाते हैं उनमेंसे कुछ विशेष ध्यान देने योग्य हैं; क्योंकि
1. अधा यथा न: पितर: परास: प्रत्नासो अग्न ऋतमाशुषाणा : ।
शुचीदयन् दीधितिमुक्थशासः क्षामा भिन्दन्तो अएणीरप वन् ।। ( 4.2.16 )
3. सुकर्माण: सुरुचो देवयन्तोऽयो न देवा जनिमा धमन्तः ।
शुचन्तो अग्निं ववृधन्त इन्द्रमूवं गव्यं परि षदन्तो अग्मन् ।। ( ऋ. 4.2.17 )
3. अकर्म ते स्वपसो अभूम ऋतमवस्रन्नुषसो विभातीः ।
अनूनमग्निं पुरुधा सुश्चन्द्रं देवस्य मर्मृजतश्चारु चक्षुः ।। ( ऋ. 4.2.19 )
२७४
इस बातको जितना दोहराया जाय उतना थोड़ा है कि वेदकी कोई भी ॠचा तबतक भली भांति नहीं समझी जा सकती जबतक कि इसका प्रकरण न मालूम हो, सूक्तके विचारमें उसका क्या स्थान है यह न मालूम हो, उसके पहले और पीछे जो कुछ वर्णन आता है वह सब न मालूम हो । सूक्त इस प्रकार प्रारंभ होता है कि मनुष्योंको पुकारकर कहा गया है कि वे उस 'अग्नि' को रचे जो सत्यमें यज्ञ करता है, उसे उसके सुनहरी प्रकाशके रूपमें रचे, (हिरष्यरूपम्, हिरष्य सर्वत्र सत्यके सौर प्रकाश, ॠतं ज्योति:, के लिये प्रतीकके तौर पर आया है ) इससे पहले कि अज्ञान अपने-आपको रच सके, पुरा तनयित्नोरचित्तात् ( 4.3.1 ), उसे रच लें । इस अग्निदेवको कहा गया है कि वह मनुष्यके कर्मके प्रति और इसके अंदर जो सत्य है उसके प्रति जागृत हो, क्योंकि वह स्वयं 'ॠतचित्' है, सत्य-चेतनामय है, विचारको यथार्थ रूपसे धारण करनेवाला है, ॠतस्य बोधि ॠतचित् स्वाधीः (4.3.4) --क्योंकि सारा अनृत केवल सत्यका एक अयथार्थ धारण ही है । उह मनुष्यके अंदरके सब दोष और पाप और न्यूनताओंको विभिन्न देवत्वों या परम देवकी दिव्य शक्तियोंको सौंपना होता है, जिससे कि उन्हें दूर किया जा सके और अंतत: मनुष्यको असीम माताके सम्मुख निर्दोष घोषित किया जा सके-अदितये अनागस:, ( 1.24.15 ), अथवा उसे 'असीम सत्ता'के लिये, जैसा कि इसे अन्यत्र प्रकट किया गया है, निर्दोष घोषित किया जा सके ।
इसके बाद नौवीं तथा दसवीं ॠचामें हम, अनेकविध सूत्रोंमें प्रकट किये गये, संयुक्त मानवीय तथा दिव्य सत्ताके, 'दिति' और 'अदिति'के विचारको पाते हैं जिनमेसे पिछली अर्थात् अदिति अपने साथ पहली अर्थात् दितिको प्रतिष्ठित करती है, उसे नियंत्रित और अपने प्रवाहसे आपूरित करती है । 'सत्य जो कि सत्यसे नियमित है, उसे मैं चाहता हूँ ( अभिप्राय है, मानवीय सत्य जो दिव्य सत्यसे नियमित है ), गौ की अपक्व वस्तुएँ और उसकी परिपक्य तथा मधुमय देन ( पुनः, अभिप्राय यह होता है कि अपूर्ण मानवीय फल तथा विराट् चेतना व सत्ता के पूर्ण और आनंदमय दिव्य फल ) एक साथ हों; वह (गौ ) काली ( अंधेरी और विभक्त सत्ता, दिति ) होती हुई आधारके चमकीले जल द्वारा, सहचरी धाराओंके जल द्वारा (जामर्येण पयसा) पालित होती है ।9।1 सत्यके द्वारा वृषभ व नर, 'अग्नि' अपने
1, ॠतेन ऋतं नियतमीळ आ गोरामा सचा मधुमत् पक्वमग्ने ।
कृष्णा सती रुशता धासिनैषा जामर्येण पयसा पीपाय ।। (ॠ. 4.3.9)
२७५
पृष्ठोंके जलसे सिक्त हुआ, न कांपता हुआ, विस्तारको (विशाल स्थान या अभिव्यक्तिको ) स्थापित करता हुआ विचरता है; चितकबरा बैल विशुद्ध चभकीले स्तनको दुहता है ।1०|'1 उस एककी जो मूलस्रोत है, धाम है, आधार है, चमकीली सुफेद पवित्रता और त्रिविध लोकमें अभिव्यक्त हुए जीवनकी चितकबरी रंगत-इन दोनोंके बीच प्रतीकात्मक विरोषका वर्णन वेदमें जगह-जगह आता है; इसलिये चितकबरे बैलका और विशुद्ध चमकीले ऊधस् या जलोंके स्रोतका यह अलंकार, अन्य अलंकारोंकी तरह, केवल मानवीय जीवनके बहुरूप, अनकविध अभिव्यक्तिकरणके विचारको ही दोहराता है,--ऐसे मानवीय जीवनके जो पवित्र, अपनी क्रियाओंमें शान्तियुक्त एवं सत्य और असीमताके जलोंसे परिपुष्ट है ।
अंतमें ऋषि प्रकाशमय गौओं और जलोंका इकट्ठा वर्णन ( जैसा वर्णन वेदमें बार-बार और जगह-जगह हुआ है ) करने लगता है, "सत्यके द्वारा अंगिरसोंने पहाड़ीको तोड़कर खोल दिया और उछालकर अलग फेंक दिया और गौओंके साथ वे संयुक्त हो गये; उन मानवीय आत्माओंने सुखमयी उषामें अपना निवास बनाया 'स्व:' अभिव्यक्त हो गया जब कि अग्नि पैदा हुआ ।11।2 हे अग्ने ! सत्यके द्वारा दिव्य अमर जल, जो अक्षत थे, अपनी मधुमय बाढ़से युक्त, एक शाश्वत प्रवाहमें प्रवाहित हो पड़े, जैसे कि अपनी सरपट चालमें तेजीसे दौड़ता हुआ घोड़ा ।12।''3 ये चार (9.10.11.12 ) ऋचाएँ वास्तवमें अमरता-प्राप्तिके महाकार्य की प्रारंभिक शर्तोको बतानेके लिये अभिप्रेत हैं । ये महान् गाथाके प्रतीक हैं, रहस्यवादियोंकी उस गाथाके जिसके अंदर उन्होंने अपने अत्युच्च आध्यात्मिक अनुभवको अधार्मिकोंसे छिपाकर रखा था, पर जो, शोकसे कहना पड़ता है, उनकी संततिसे भी काफी अच्छी तरहसे छिपा रहा । ये रहस्यमय प्रतीक थे, जिनसे उस सत्यको व्यक्त करना अभिप्रेत था जिसकी उन्होंने अन्य सबसे रक्षाकी थी और जिसे वे केवल दीक्षितको, ज्ञानीको, द्रष्टाको देना चाहते थे, इस बातको वामदेव स्वयं इसी सूक्तकी अंतिम ॠचामें अत्यधिक सरल
1. ॠतेन हि ष्मा वृषभश्चिदक्त: पुमां अग्नि: पयसा पृष्ठघेन ।
अस्पन्दमानो अचरद् वयोधा वृषा शुक्रं दुदुहे पृश्निरुधः ।। (ऋ. 4.3.10 )
2. ऋतेनाद्रिं व्यसन् भिदन्तः समङिरसो नवन्त गोभि: ।
शुन नर: परि षदन्नुषासमावि: स्वरभवज्जाते अग्नौ ।। (ऋ. 4.3.11 )
3. ॠतेन देवीरमृता अमृक्ता अर्णोभिरापो मधुमद्भिरग्ने ।
वाजी न सर्गेषु प्रस्तुभान: प्र सदमित् स्रवितवे दधन्युः ।। (ऋ. 4.3.12) ।
२७६
और जोरदार भाषामें हमें बताता है--''ये सब रहस्यमय शब्द हैं जिनका मैंने तेरे प्रति उच्चारण किया है, जो तू ज्ञानी है, हे अग्ने ! हे विनियोजक ! जो आगे ले जानेवाले शब्द हैं, द्रष्टा-ज्ञानके शब्द हैं, जो द्रष्टाके लिये अपने अभिप्रायको प्रकट करते है,--मैंने उन्हें अपने शब्दों और अपने विचारोंमे प्रकाशित होकर बोला है ।"
एता विश्वा विदुषे तुभ्यं वेधो नीथान्यग्ने निण्या वचांसि ।
निवचना कवये काव्यान्यशंसिषं मतिभि र्विप्र उक्थेः ।। (ऋ. 4.3.16 )
ये रहस्यमय शब्द हैं, जिन्होंने सचमुच रहस्यार्थको अपने अंदर छुपा रखा है, जो रहस्यार्थ पुरोहित, कर्मकाण्डी, वैयाकरण, पंडित, ऐतिहासिक, गाथाशास्त्री द्वारा उपेक्षित और अज्ञात ही रहा है, जिनके लिये वे शब्द अंधकारके शब्द या अस्तव्यस्तताकी मुहरें ही सिद्ध हुए हैं, न कि वैसे जैसे कि वे महान् प्राचीन पूर्वपितरों और उनकी प्रकाशपूर्ण संततिके लिये थे, निण्या वचांसि नीथानि निवचना काव्यानि (अर्थात् रहस्यमय शब्द जो आगे ले जानेवाले हैं, अपने अभिप्रायको प्रकट कर देनेवाले, द्रष्टा-ज्ञानसे युक्त शब्द ) ।
२७७
बीसवां अध्याय
देवशुनी सरमा
अब भी अंगिरसोंके कथनाकके दो स्थिरभूत अंग अवशिष्ट हैं जिनके सम्बन्धमें हमें थोड़ा और अधिक प्रकाश प्राप्त करनेकी आवश्यकता है, जिससे हम सत्यके, और प्राचीन पितरोंके द्वारा उषाकी ज्योतियोंकी पुन:-प्राप्तिके इस वैदिक विचारको पूर्णतया अधिकृत कर सकें; अर्थात् हमें सरमाका स्वरूप और पणियोंका ठीक-ठीक व्यापार नियत करना है, ये दो वैदिक व्याख्याकी ऐसी समस्याएँ हैं जो परस्पर घनिष्ठताके साथ सम्बद्ध हैं । यह कि सरमा प्रकाशकी और संभवत: उषाकी कोई शक्ति है बहुत ही स्पष्ट है; क्योंकि एक बार जब हम यह जान लेते हैं कि वह संघर्ष जिसमें इन्द्र तथा आदिम आर्य-ऋषि एक तरफ थे और 'गुफा' के पुत्र दूसरी तरफ थे कोई आदिकालीन भारतीय इतिहासका अनोखा विकृत रूप नहीं है बल्कि वह प्रकाश और अंधकारकी शक्तियोंके बीच होनेवाला एक आलंकारिक युद्ध है, तो सरमा जो जगमगानेवाली गौओंकी खोजमें आगे-आगे जाती है और मार्ग तथा पर्वतका गुप्त दुर्ग इन दोनोंको खोज लेती है, अवश्यमेव मानवीय मनके अन्दर सत्यकी उषाकी अग्रदूती होनी चाहिये । और यदि हम अपने-आपसे पूछें कि सत्यान्येषिणी कार्यशक्तियोंमेसे वह कौनसी शक्ति है जो इस प्रकार हमारी सत्तामें अज्ञानके अन्धकारमें छिपे पड़े सत्यको वहाँसे खोज लाती है तो तुरन्त हमें अन्तर्ज्ञान (Intuition) का स्मरण आयेगा । क्योंकि 'सरमा' सरस्वती नहीं है, वह अन्तःप्रेरणा (Inspiration) ) नहीं है, यद्यपि ये दोनों नाम हैं सजातीय से । सरस्वती देती है ज्ञानके पूर्ण प्रवाहको; वह महती धारा, 'महो अर्ण:' है, या महती धाराको जगानेवाली है और वह सब विचारोंको पूर्णरूपसे प्रकाशित कर देती है, 'विश्वा धियो वि राजति' । 'सरस्वती' सत्यके प्रवाहसे युक्त हैं और स्वयं सत्यका प्रवाह है; 'सरमा' है सत्यके मार्गपर यात्रा करनेवाली और इसे खोजनेवाली, जो स्वयं इससे युक्त नहीं है बल्कि जो ( सत्य ) खोया हुआ है उसे ढूंढ़कर पानेवाली है । नाहीं वह 'इडा' देवीके समान, स्वतःप्रकाश-ज्ञान ( Revelation) की सम्पूर्ण वाणी, मनुष्यकी दिव्य गुरु है; क्योंकि जिसे वह खोजना चाहती है उसका पता पा लेनेके बाद
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भी वह उसे अधिगत नहीं कर लेती, बल्कि सिर्फ यह खबर ऋषियोंको तथा उनके दिव्य सहायकोंको पहुँचा देती है, जिन्हें उस प्रकाशको जिसका पता लग गया है अधिगत करनेके लिये फिर भी युद्ध करना पड़ता है ।
तो भी हम देखते हैं कि वेद स्वयं सरमाके बारेमें क्या कहता है ? सूक्त 1.104 में एक ष्ठचा ( 5वीं ) है जिसमें सरमाके नामका उल्लेख नहीं है, नाहीं वह सूक्त स्वयं अंगिरसों या पणियोंके विषयमें है, तो भी उसकी एक पंक्ति ठीक उसी बातका वर्णन कर रही है जो वेदमें सरमाका कार्य बताया गया है--''जब यह पथप्रदर्शक प्रत्यक्ष हो गया, वह, जानती हुई, उस सदनकी तरफ गयी जो मानो 'दस्यु'का घर था ।''
प्रति यत् स्वा नीथादर्शि दस्योरोको नाच्छा सदनं जानती गात् ।
सरमाके ये दो स्वरूप हैं : ( 1 ) ज्ञान उसे प्रथम ही, दर्शनसे पहिले, हो जाता है, न्यूनतम संकेतमात्रपर सहज रूपसे वह उसे उद्भासित हो जाता है, तथा ( 2 ) उस ज्ञानसे वह बाकीकी कार्यशक्तियोंका और दिव्य-शक्तियोंका जो उस ज्ञानको खोजनेमें लगी होती हैं पथप्रदर्शन करती है । और वह उस स्थान, 'सदनम्' को, विनाशकोंके घरको ले जाती है जो सत्यके स्थान,
'सदनम् ऋतस्य', की अपेक्षा सत्ताके दूसरे ध्रुव (Pole ) पर है अर्थात् अन्धकारकी गुफा या गुह्यस्थानमें-गुहायाम्-है, ठीक वैसे ही जैसे देवोंका घर प्रकाशकी गुफा या गुह्यतामें है । दूसरे शब्दोंमें, वह एक शक्ति है जो पराचेतन सत्य (Superconscient Truth ) से अवतीर्ण होकर आयी है और हमें उस प्रकाश तक ले जाती .है जो हमारे अन्दर अवचेतन ( (Subconscient ) में छिपा पड़ा है । ये सब लक्षण अन्तर्ज्ञान ( Intuition ) पर बिल्कुल घटते हैं ।
सरमा नाम लेकर वेदके बहुत थोड़े सूक्तोंमें उल्लिखित हुई है और वह नियत रूपसे अंगिरसोंके महाकार्यके या सत्ताके सर्वोच्च स्तरोंकी विजयके साथ संबंद्ध होकर आयी है । इन सूक्तोंमें सबसे अघिक आवश्यक सूक्त है अत्रियोंका सूक्त 5 .45, जिसपर हम नवग्वा तथा दशग्वा अंगिरसोंकी अपनी परीक्षाके प्रसंगमें पहले भी ध्यान दे चुके हैं | प्रथम तीन ॠचाएँ उस महाकार्यको संक्षेपमें वर्णित करती हैं--''शब्दोंके द्वारा द्यौकी पहाड़ीका भेदन करके उसने उन्हें पा लिया, हाँ, आती हुई उषाकी चमकीली ( ज्योतियाँ ) खुलकर फैल गयीं, उसने उन्हें खोल दिया जो बाड़ेके अन्दर थीं, स्व: ऊपर उठ गया; एक देवने मानवीय द्वारोंको खोल दिया1 ।।1।।
1. विदा दिवो विष्यन्नद्रिमुक्यैरायत्या उषसो अर्चिनो गुः ।
अपावृत व्रजिनीरुत स्वर्गाद् वि दुरो मानुषीर्देव आव: ।। 5.45.1 ।।
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सूर्यने बल और शोभाको प्रचुर रूपमें पा लिया; गौओंकी माता (उषा ) जानती हुई विस्तीर्णता ( के स्थान ) से आयी; नदियाँ तीव्र प्रवाह बन गयीं, ऐसे प्रवाह जिन्होंने (अपनी प्रणालीको ) काटकर बना लिया; द्यौ एक सुधड़ स्तम्भके समान दृढ़ हो गया ।।2।।1 इस शब्दके प्रति गर्भिणी पहाड़ीके गर्भ महतियोंके (नदियोंके या अपेक्षाकृत कम संभव है कि उषाओंके ) उच्च जन्मके लिये (बाहर निकल पड़े ) । पहाड़ी पृथक्-पृथक् विभक्त हो गयी, द्यौ पूर्ण हो गया (या उसने अपने-आपको सिद्ध कर लिया ); वे (पृथिवीपर ) बस गये और उन्होंने विशालताको बाँट दिया2 ।।3।।'' यहाँ, ऋषि जिनके संबन्धमें कह रहा है वे हैं इन्द्र तथा अंगिरस्, जैसा कि बाकी सारा सूक्त दर्शाता है और जैसा वस्तुत: ही प्रयोग किये गये मुहावरोंसे स्पष्ट हो जाता है; क्योंकि ये आंगिरस गाथामें आम तौरसे प्रयुक्त होनेवाले सूत्र हैं और ये ठीक उन्हीं मुहावरोंको दोहरा रहे हैं, जो मुहावरे उषा, गौओं और सूर्यकी मुक्तिके सूक्तोंमें सतत रूपसे प्रयुक्त हुए हैं ।
इनका अभिप्राय क्या है, यह हम पहलेसे ही जानते हैं । हमारी पहलेसे बनी हुई त्रिगुण (मनःप्राणशरीरात्मक ) सत्ताकी पहाड़ी, जो अपने शिखरोंसे आकाश (द्यौ ) में उठी हुई है, इन्द्र द्वारा विदीर्ण कर दी जाती है और उसमें छिपी हुई ज्योतियाँ खुली फैल जाती हैं; 'स्व:' पराचेतनाका उच्चतर लोक, चमकीली गौओं (ज्योतियों ) के ऊर्ध्वमुख प्रवाहके द्वारा अभिव्यक्त हो जाता है । सत्यका सूर्य अपने प्रकाशकी संपूर्ण शक्ति और शोभाको प्रसृत कर देता है, आन्तरिक उषा ज्ञानसे भरी हुई प्रकाशमान विस्तीर्णतासे उदित होती है,--'जानती गात्' यह वही वाक्यांश है जो 1.104.5 में उसके लिये प्रयुक्त हुआ है जो 'दस्यु' के घरको ले जाती है; और 3.31.6 में सरमाके लिये,--सत्यकी नदियाँ जो इसकी सत्ता तथा इसकी गतिके बहि:प्रवाह (ऋतस्य प्रेषा ) को सूचित करती हैं अपनी द्रुत धाराओंमें नीचे उतरती हैं और अपने जलोंके लिये यहाँ एक प्रणालीका निर्माण करती हैं; द्यौ अर्थात् मानसिक सत्ता पूर्ण बन जाती है और एक सुघड़ स्तम्भकी न्याई सुदृढ़ हो जाती है जिससे कि वह उस उच्चतर या अमर जीवनके बृहत् सत्यको थाम सके जो अब अभिव्यक्त कर दिया गया है और उस
1 वि सूर्यो अमतिं न श्रियं सादोर्वाद् गवां माता जानती गात् ।
धन्यर्णसो नद्य: खादोअर्णा: स्थूणेव सुमिता र्दृहत द्यौ: ।। 5.45.2 ।।
2. अस्मा उक्थाय पर्वतस्य गर्भो महीनां जनुषे पूर्व्याय ।
वि पर्वतो जिहीत साषत द्यौराविवासन्तो दसयन्त भूम ।। 5.45.3 ।।
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सत्यकी विशालता यहाँ सारी भौतिक सत्ताके अंदर बस गयी है । पहाड़ीके गर्भों, 'पर्वतस्य गर्भ:' का जन्म, उन ज्योतियोंका जन्म जो सात-सिरोंवाले विचार, 'ऋतस्य धीतिः' को निर्मित करती हैं और जो अन्तःप्रेरित शब्दके प्रत्युत्तरमें निकलती है', उन सात महान् नदियोंके उच्च जन्मको प्राप्त कराता है जो नदियां क्रियाशील गतिमें वर्तमान सत्यके सार-तत्त्व, 'ऋतस्य प्रेषा'को निर्मित करती हैं ।
फिर ऋषि 'पूर्ण वाणीके उन शब्दों द्वारा जो देवोंको प्रिय हैं' इन्द्र और अग्निका आवाहन करता है,--क्योंकि इन्हीं शब्दों द्वारा मरुत्1 यज्ञ करते हैं, उन द्रष्टाओंके रूपमें जो अपने द्रष्टृ-ज्ञान द्वारा सुचारु रूपसे यज्ञिय कर्म करते है ( उक्थेभि र्हि ष्मा कवय: सुयज्ञा:.... मरुतो यजन्ति ।4। ) इसके बाद ऋषि मनुष्योंके मुखसे एक उद्बोधन और पारस्परिक प्रोत्साहनके वचन कहलाता है कि वे भी क्यों न पितरोंके समान कार्य करें और उन्हीं दिव्य फलोंको प्राप्त कर लें । 'अब आ जाओ, आज हम विचारमें पूर्ण हो जायँ, कष्ट और असुविधा को नष्ट कर डालें, उच्चतर सुख अपनाये,' ।
एतो न्वद्य सुध्यो भवाम प्र दुच्छुना मिनवामा वरीय: ।
'सब प्रतिकूल वस्तुओंको ( उन सब वस्तुओंको जो आक्रमण करती और विभक्त कर देती हैं, द्वेषांसि ) अपनेसे सदा बहुत दूर रखें; हम यज्ञके पतिकी तरफ आगे बढ़ें ।।5।।2 आओ, मित्रो, हम विचारको रचे ( स्पष्ट ही जो अंगिरसोंका सात-सिरोंवाला विचार है ), जो माता ( अदिति या उषा ) है और जो गौड़े आवरक बाड़ेको हटा देता है ।'3 अभिप्राय पर्याप्त स्पष्ट है, नि:संदेह ऐसे ही संदर्भोंमें वेदका आन्तरिक आशय अपने-आपको प्रतीकके आवरणसे आधा मुक्त कर लेता है ।
इसके बाद ऋषि उस महान् और प्राचीन उदाहरणका उल्लेख करता है जिसके लिये मनुष्योंको पुकारा गया है कि वे उसे दोहरायें, वह है अंगिरसोंका उदाहरण, सरमाका महापराक्रमकार्य । ''यहाँ पत्थर गतिमय किया गया, जिसके द्वारा नवग्वा दस महीनों तक मंत्रका गान करते रहे, सरमाने सत्यके पास जाकर गौओंको पा लिया, अंगिरसोंने सब वस्तुओंको सत्य कर दिया4 ।।7।। जब कि इस एक महती ( उषा जो कि असीम अदितिको
1. जीवन की विचार-साधक शक्तियां, जैसा कि आगे चलकर प्रकट हो जायगा ।
2.आरे द्वेषांसि सनुतर्दधाम, अयाम प्राञ्चो यजमानमच्छ ।।5।।
3. एता धियं कृणवामा सखायोऽप या मातां ऋणुत व्रजं गो: ।।6 ।।
4. अनूनोदत्र हस्तयतो अद्रिरार्चन् येन दश मासो नवग्वा: ।
ऋतं यती सरमा गा अविन्दद् विश्वानि सत्याङ्गिराश्चकार ।।5.45. 7।।
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सूचित करती है, माता गवामदितेरनीकम् ) के उदयमें सब अंगिरस् गौओंके साथ ( अथवा इसकी अपेक्षा शायद यह ठीक हो कि 'प्रकाशोंके द्वारा', जो प्रकाश गौओं या किरणोंके प्रतीकसे सूचित होते हैं ) मिलकर इकट्ठे हो गये; इन (प्रकाशों ) का स्रोत उच्च लोकमें था; सत्यके मार्ग द्वारा सरमाने गौओं-को पा लिया ।।8।।''1 यहाँ हम देखते हैं कि सरमाकी गति द्वारा, जो सरमा, सत्यके मार्ग द्वारा सीधी सत्यको पहुंच जाती है, यह हुआ है कि सात ऋषि, जो अयास्य और बृहस्पतिके सात-सिरोंवाले या सात-गौओंवाले विचारके द्योतक हैं, सब छिपे हुए प्रकाशोको पा लेते हैं और इन प्रकाशोंके बलसे वे सब इकट्ठे मिल जाते हैं, जैसा कि हमें पहले ही वसिष्ठ कह चुका है कि, वे समविस्तारमे, 'समाने ऊर्वे' इकट्ठे होते है, जहाँसे उषा ज्ञानके साथ उतरकर आयी है, (ऊर्वाद् जानती गात्, ऋचा 2 ) या जैसा कि यहाँ इस रूपमें प्रकट किया गया है कि इस एक महतीके उदयमें अर्थात् 'असीम चेतना' में इकट्ठे होते हैं । वहां, जैसा कि वसिष्ठ कहता है, वे संयुक्त हुए-हुए ज्ञानमें सम्मत हो जाते हैं (इकट्ठे जानते हैं ) और परस्पर सघर्ष नहीं करते, 'संगतास: संजानत न यतन्ते मिथस्ते, अभिप्राय यह है कि वे सातों एक हो जाते हैं, जैसा कि एक दूसरी ऋचामें सूचित किया गया है; वे सात-मुखों-वाला एक अंगिरस् हो जाते हैं--यह ऐसा रूपक है जो सात-सिरोंवालें विचारके रूपकके अनुसार ही है--और यही अकेला संयुक्त अंगिरस् है जो सरमाकी खोजके फलस्वरूप सब वस्तुओंको सत्यकर देता है (ऋचा 7 ) । समस्वर, संयुक्त, पूर्णताप्राप्त द्रष्टा-संकल्प सब मिथ्यात्व और कुटिलताको ठीक कर देता है, और सब विचार, जीवन, क्रियाको सत्यके नियमोंमें परिणत कर देता है । इस सूक्तमें भी सरमाका कार्य ठीक वही है जो अन्तर्ज्ञान ( Intuition ) का होता है, जो कि सीधा सत्य पर पहुंचता है, सत्यके सरल मार्ग द्वारा न कि संशय और भ्रांतिके कुटिल मार्गों द्वारा और जो अंधकार तथा मिथ्या प्रतीतियोंके आवरणके अन्दरसे सत्यको निकालकर मुक्त कर देता है; उस (सरमा ) से खोजे और पाये गये प्रकाशोंके द्वारा ही द्रष्टा-मन सत्यके पूर्ण स्वतः-प्रकाश-ज्ञान ( Revelation ) को पानेमें समर्थ होता है ।
सूक्तका अवशिष्ट अंश वर्णन करता है सात-घोड़ोवाले सूर्यके अपने उस खेतकी ओर उदय होनका ''जो खेत लम्बी यात्राकी समाप्ति पर उसके
1. विश्वे अस्या व्युषि माहिनायाः सं यद् गोभिरङिरसो नवन्त ।
उत्स आसां परमे सधस्थ ॠतस्य पथा सरमा विदद् गा: ।।5.45.8 ।।
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लिये विशाल होकर फैल जाता हे'', वेगवान् पक्षी (श्येन ) की सोम-प्राप्तिका, और युवा द्रष्टाके द्वारा देदीप्यमान गौओंवाले उस खेतको पा लिये जानेका, सूर्यके ''प्रकाशमय समुद्र'' पर आरोहणका, ''विचारकों द्वारा नीयमान जहाजकी तरह'' सूर्यके इस समुद्रको पार कर लेनेका और उनकी पुकारके प्रत्युत्तरमें उस समुद्रके जलोंका मनुष्यमें अवतरण होनेका । उन जलोंमें अंगिरस्का सप्त-गुणित विचार मनुष्य द्रष्टा द्वारा स्थापित किया गया है । यदि हम यह याद रखें कि सूर्य द्योतक है पराचेतना या सत्यचेतनामय ज्ञानके प्रकाश-का और 'प्रकाशमय समुद्र' द्योतक है माता आदतिके अपने त्रिगुणित सात स्थानोंके साथ पराचेतनके लोकोंका, तो इन प्रतीकात्मक1 उक्तियोंका अभि-प्राय समझ लेना मुश्किल नहीं होगा । यह उच्चतम प्राप्ति है उस परम लक्ष्यकी जो अंगिरसोंकी पूर्ण कार्यसिद्धिके बाद, सत्यके लोक पर उनके संयुक्त आरोहणके बाद प्राप्त होता है, ठीक वैसे ही जैसे वह कार्यसिद्धि सरमाके द्वारा गौओंका पता पा लिये जानेके बाद प्राप्त होती है ।
एक और सूक्त जो इस संबंघमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण है तृतीय मण्डलका 31वां सूक्त है, जिसका ऋषि विश्वामित्र है । ''अग्नि (दिव्य-शक्ति ) पैदा हो गया है, अरुष ( आरोचमान देव, रुद्र ) 'के महान् पुत्रोंके प्रति यज्ञ करनेके लिये जो हवि दी गयी है उससे उठती हुई अपनी ज्वालासे वह कंपायमान हो रहा है, उनका शिशु बड़ा महान् है, एक व्यापक जन्म हुआ है, चमकीले घोड़ोंको हांकनेवालेकी (इन्द्रकी, दिव्य मनकी ) यज्ञोंके द्वारा बहुत महान् गति हो रही है' ।।3|। विजेत्री (उषाएं ) स्पर्धामें उसके साथ संसक्त हो गयीं, वे ज्ञान द्वारा अंधकारमें से एक महान् प्रकाशको छुड़ा लाती हैं; जानती हुई उषाएं उसके प्रति उद्गत हो रही हैं, इन्द्र जगमगाती गौओं-का एकमात्र स्वामी बन गया है ।4|3 'उन गौओंको जो ( पणियोंके ) दृढ़ स्थानके अन्दर थीं, विचारक विदीर्ण करके बाहर निकाल लाये; मनके द्वारा सात द्रष्टाओंने आगेकी ओर ( या ऊपर उच्च लक्ष्यकी ओर ) उन्हें गति दी,
1. वेद की अन्य अनेक अबतक धुंधली दीखनेवाली उक्तियोंको भी हम इसी आशयमें
सुगमतासे समझ सकते हैं, उहाहरण 8.68.9, ''हम अपने युद्धोंमें तेरी सहायता
से उस महान् दौलतको जीत लेंवें जो जलोंमें और सूर्यमें रखी है-अप्सु सूर्ये महद
धनम" इत्यादि को ।
2. अग्निर्जज्ञे जुह्वा3 रेजमानो महस्पुत्रां अरुषस्य प्रयक्षे ।
महान् गर्भो मह्या आतमेषां मही प्रवृद्धर्यश्वस्य यज्ञै: ।। (ॠ. 3.31.3 )
3. अभि जैत्रीरसचन्त स्पृधानं महि ज्योतिस्तमसो निरजानन् ।
तं जानती: प्रत्यूदायन्नुषासः पतिर्गवामभवदेक इन्द्रः: ।। 3.31.4 ||
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उन्होंने सत्यके संपूर्ण मार्ग (यात्राके लक्ष्य-क्षेत्र ) को पा लिया, उन (सत्यके परम स्थानों ) को जानता हुआ इन्द्र नमन द्वारा उनके अन्दर प्रविष्ट हो गया ।''
वीळौ सतीरभि धीरा अतृन्दन् प्राचाहिन्यन् मनसा सप्त विप्रा: ।
विश्वामविन्दन् पथ्यामृतस्य प्रजानन्नित्ता मनसा विवेश ।। (ऋ. 3. 31 .5 )
जैसा कि हमें सर्वत्र पाते हैं, यह महान् जन्म, महान् प्रकाश, सत्य ज्ञान- की महान् दिव्यगतिका वर्णन् है, जिसके साथ लक्ष्य-प्राप्ति और देवों तथा द्रष्टाओं (ऋषियों ) का ऊपरके उच्च स्तरोंमें प्रवेश भी वर्णित है । आगे हम इस कार्यमें सरमाका जो भाग है .उसका उल्लेख पाते हैं । ''जब सरमा-ने पहाड़ीके भग्न स्थानको ढूंढ़कर पा लिया, तब उस इन्द्रने (या संभव है, उस सरमाने ) महान् तथा उच्च लक्ष्यको सतत बना दिया । वह सुन्दर परोंवाली सरमा उसे ( इन्द्रको ) अविनाश्य गौओं (उषाकी अवध्य गौओं ) के आगे ले गयी, प्रथम जानती हुई वह उन गौओंके शब्दकी तरफ गयी ।।6।।"1 यह पुन: अन्तर्ज्ञान ( Intuition ) है जो इस प्रकार पथप्रदर्शन करता है; जानती हुई वह तुरन्त और सबके सामने जा पहुंचती है, बन्द पड़े हुए प्रकाशोंके शब्दकी ओर--उस स्थानकी ओर जहाँ खूब मजबूत बनी हुई और अभेद्य प्रतीत होनेवाली ( वीळु, दृढ़ ) पहाड़ी टूटी हुई है और जहाँसे अन्वे-षक उसके अन्दर घुस सकते हैं ।
सूक्तका शेष भाग अंगिरसों और इन्द्रके इस पराक्रम-कार्यके वर्णनको जारी रखता है । ''वह (इन्द्र ) जो उन सबमें महत्तम द्रष्टा था, उनसे मित्रता करता हुआ गया, गर्भिता पहाड़ीने अपन गर्भोंको पूर्ण कर्मोंके कर्त्ताके लिय बाहरकी ओर प्रेरित कर दिया; मनुष्यत्वके बलमें, युवा ( अंगिरसों ) -के साथ एश्वर्योंकी समृद्धिको चाहते हुए उसने (इन्द्रने ) उसे अधिगत कर लिया, तब प्रकाशके मन्त्र ( अर्क ) का गान करता हुआ वह तुरन्त अंगिरस् हो गया ।।7।।2 हमारे सामने प्रत्येक सत् वस्तुका रूप और माप होता हुआ वह सारे जन्मोंको जान लेता है, वह शुष्णका वध कर देता है ।"3 अभिप्राय यह है कि दिव्य मन (इंद्र ) एक ऐसा रूप धारण करता है जो संसारकी प्रत्येक सत् वस्तुके अनुरूप होता है और उसके सच्चे दिव्य रूपको
1. विदद् यदी सरमा रुग्णमद्रे र्महि पाथ: पूर्व्य सध्न्यक्कः ।
अग्रं नयत् सुपद्यक्षराणामच्छा रवं प्रथमा जानती गात् ।।3.31.6।।
2. अगच्छदु विप्रतम: सखीयन्नसूदयत् सुकृते गर्भमद्रि: ।
ससान मर्यो युवभिर्मखस्यन्नथाभवदीङ्गरा: सद्यौ अर्चन् ।। 3.31.7 ।।
3. सत : सत: प्रतिमानं पुरोभूर्विश्या वेद जानिमा हन्ति शुष्णम् ।
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तथा अभिप्रायको प्रकट करता है और उस मिथ्या-शक्तिकी नष्ट कर देता है जो ज्ञान तथा क्रियाको विरूप, विकृत करनेवाली है । ''गौओंका अन्वेष्टा, द्यौके स्थान (पदं) का यात्री, मन्त्रोंका गान करता हुआ वह सखा अपने सखाओंको ( सच्ची आत्माभिव्यक्तिकी ) सारी कमियोंसे मुक्त कर देता है |।8।।1 उस मनके साथ जिसने प्रकाशको ( गौओंको ) खोजा था, वे प्रकाशक अमरताकी ओर मार्ग बनाते हुए शब्दों द्वारा अपने स्थानों पर स्थित हो गये, ( नि गव्यता मनसा सेदुरर्कै: कृण्वानासो अमृतत्याय गातुम् ) । यह है उनका वह विशाल स्थान, वह सत्य, जिसके द्वारा उन्होंने महीनोंको (दशग्वाओंके दश मासोंको ) अधिगत किया था ।।9।।2 साक्षात् दर्शन ( Vision ) में समस्वर हुए ( या पूर्णतया देखते हुए ) वे ( वस्तुओंके ) पुरातन बीज-का दूध दुहते हुए अपने स्वकीय ( घर, स्व: ) में आनन्दित हुए । उनके ( शब्दकी ) आवाजने सारे द्यावापृथिवीको तपा दिया ( अर्थात् तपती हुई निर्मलताको, 'धर्म, सप्तं घृतं', रच दिया, जो सूर्यके गौओंकी देन है ); उसमें जो कि पैदा हो गया था, उन्होंने उसे रखा जो दृढ़स्थित था और गौओंमें वीरोंको स्थापित किया ( अभिप्राय है कि युद्ध-शक्ति ज्ञानके प्रकाशके अन्दर रखी गयी ) ।।10।।3
''वृत्रहा इंद्रने, उनके द्वारा जो कि पैदा हुए थे ( यज्ञके पुत्रोंके द्वारा ), हवियोंके द्वारा, प्रकाशके मन्त्रों द्वारा चमकीली गौओंको ऊपरकी ओर मुक्त कर दिया, विस्तीर्ण और आनन्दमयी गौ ( अदितिरूपी गौ, बृहत् तथा सुखमय उच्चतर चेतना ) ने उसके लिये मधुर अन्नको, घृत-मिश्रित मधुको लाते हुए, अपने दूधके रूपमें उसे प्रदान किया ।।11।।4 इस पिताके लिये (द्यौके लिय ) भी उन्होंने विस्तीर्ण तथा चमकीले स्थानको रचा, पूर्ण कर्मोंके करने-वाले उन्होंने इसका सम्पूर्ण दर्शन (Vision) पा लिया । अपने अवलम्बन से मातापिताओं ( पृथिवी और द्यौ ) को खुला सहारा देते हुए वे उस उच्चलोकमें स्थित हो गये और इसके सारे आनन्दसे सराबोर हो गये ।।12।।5
1. प्र णो दिव: पदवीर्गव्युरर्चन् त्सखा सखीरमुञ्चन्निरवद्यात् ।|3.31.8 ||
2. नि गव्यता मनसा सेदुरर्कै: कृष्वानासो अमृतत्वाय गातुम् ।
इदं चिन्नु सदनं भूर्येषां येन मासां असिषासन्नृतेन ।। 3. 31 .9 ।।
3. संपश्यमाना अमदन्नभि स्वं पय: प्रत्नस्य रेतसो दुधाना: ।
वि रोदसी अतपद् धोष एषां जाते निःष्ठामदधुर्गोषु वीरान् ।। 3.31.10 ||
4. स जातेभिर्वृत्रहा सेदु हव्यैरुदुश्रिया असृजदिन्द्वो अर्के: ।
उरुच्यस्मै धृतवद् भरन्ती मधु स्वाद्म दुदुहे जेन्या गौ: ।|3.31.11 ||
5. पित्रे चिच्चक्रु: सदन समस्मै महि त्यिषीमत् सुकृतो वि हि ख्यन् ।
विष्कम्नन्त: स्कम्भनेना जनित्री आसीना ऊर्ध्व रभसं वि मिन्वन् ।।3.31. 12 ||
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जब (पाप और अनृतको ) हटानके लिये महान् विचार पृथिवी तथा द्यौको व्याप्त करनेके अपने कार्यमें एकदम बढ़ते हुए उसको थामता है, धारण करता है--तब इन्द्रके लिये, जिसमें सम तथा निर्दोष वाणियाँ रहती हैं, सब अधृष्य शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं ।।13|।1 उसने महान्, बहु-रूप और सुखमय खेतको (गौओंके विशाल खेतको, स्व:को ) पा लिया है; और उसने एक साथ सारे गतिमय गोव्रजको अपने सखाओंके लिये प्रेरित कर दिया है । इन्द्रने मानवीय आत्माओं (अंगिरसों ) द्वारा देदीप्यमान होकर एक साथ सूर्यको, उषाको, मार्गको और ज्वालाको पैदा कर दिया है । ।15।।"2
अवशिष्ट ऋचाओंमें यही अलंकार जारी है, केवल वर्षाका वह सुप्रसिद्ध रूपक और बीचमें आ गया है जो इतना अधिक गलत तौर पर समझा जाता रहा है । ''प्राचीन पैदा हुएको मैं नवीन बनाता हूँ जिससे मैं विजयी हो सकूं । तू अवश्य हमारे अनेक अदिव्य घातकोंको हटा दे और स्व: को हमारे अधिगत करनेके लिये धारण कर ।।19।।3 पवित्र करनेवाली वर्षाएँ हमारे सामने (जलोंके रूपमें ) फैल गयी हैं; हमें तू आनन्दकी अवस्थाको ले जा जो उनका परला किनारा है । हे इन्द्र ! अपने रथमें बैठकर युद्ध करता हुआ तू शत्रुसे हमारी रक्षा कर, शीघ्रातिशीघ्र हमें गौओंका विजेता बना दे ।।20।।4 वृत्रके वधकर्त्ता, गौओंके स्वामीने (मनुष्योंको ) गौओंका दर्शन करा दिया; अपने चमकते हुए नियमों (या दीप्तियों ) के साथ वह उनके अन्दर जा घुसा है जो काले हैं (प्रकाशसे खाली हैं, जैसे कि पणि ); सत्यके द्वारा सत्योंको (सत्यकी गौओंको ) दिखाकर उसने अपने सारे द्वारोंको खोल दया है, 5प्र सूनृता दिशमान ॠतेन दुरश्च विश्वा अवृणोदप स्वा: ।।21||'' अभिप्राय यह है कि वह हमारे अन्धकारके अन्दर प्रवेश करके (अन्त: कृष्णान्
1.महो यदि धिषणा शिश्नथे धात् सद्योवृधं विभ्वं रोदस्यो : ।
गिरो यस्मिन्ननवद्या: समीचीर्विश्वा इन्द्राय तविषीरनुत्ता: ।। 3.31.13।।
2. महि क्षेत्रं पुरु श्चन्द्रं विविद्वानग्दित् सखिभ्यश्चरथं समैरत् ।
इन्द्रो नृभिरजनद् दीद्यान: साकं सूर्यमुषसं गातुमग्निम् ।।3.31.15||
3. तमङ्गिरस्वन्नमसा सपर्यन् नव्यं कृणोमि सन्यसे पुराजाम् ।
द्रुहो वि याहि बहुला अदेवी: स्वश्च नो मधयन् त्सातये धाः ।।3.31.19।।
4. मिहः पावका: प्रतता अभूवन् त्स्वस्ति न: पिपृहि पारमासाम् ।
इन्द्र त्वं रथिर: पाहि नो रिषो मक्षूमक्षू कृणुहि गोजितो न: ।।3.31.20।।
5. अदेदिष्ट वृत्रहा गोपतिर्गा अन्त: कृष्णां अरुषैर्धामभिर्गात् ।
प्र सूनृता विशमान ॠतेन दुरश्च विश्वा अवृणोदप स्वाः ।।3.31.21 ।।
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गात्) उन 'मानवीय द्वारोंको' जिन्हें पणियोंने बन्द कर रखा था, तोड़कर खोल डालता है और उसके बाद अपने निजलोक, स्वःके द्वारोंको भी खोल देता है ।
सो यह है वर्णन इस अद्भुत सूक्तका, जिसके अधिकांशका मैंने अनुवाद कर दिया है क्योंकि यह वैदिक कविताके रहस्यवादी तथा पूर्णतया आध्यात्मिक दोनों ही प्रकारके स्वरूपको चामत्कारिक रूपसे खोलकर सामने रख देता है और ऐसा करते हुए यह उस रूपकके स्वरूपको भी स्पष्टतया प्रकट कर देता है जिसमें सरमा का अलंकार आया है । सरमाके विषयमें ऋग्वेदमें जो अन्य उल्लेख आते हैं वे इस विचारमें कोई विशेष महत्त्वकी बात नहीं जोड़ते । एक संक्षिप्त उल्लेख हम 4.16.8 में पाते हैं 'जब तू हे इन्द्र (पुरुहूत ) पहाड़ीका विदारण करके उसके अन्दरसे जलोंको निकाल लाया तब तेरे सामने सरमा आविर्भूत हुई; इसी प्रकार हमारा नेता बनकर अंगिरसोंसे स्तुति किया जाता हुआ तू बड़ोंको तोड़कर हमारे लिये बहुतसी दौलतको निकाल ला' ।1 यह अन्तर्ज्ञान ( Intiuion ) है जो दिव्य मनके सामने इसके अग्रदूतके रूपम आविर्भूत होता है, जब कि जलोंका सत्यकी उन प्रवाह-रूप गतियोंका प्रादुर्भाव होता है जो इस पहाड़ीको तोड़कर निकलती हैं जिसमें वे वृत्र द्वारा दृढ़तासे बन्दकी हुई थीं (ऋचा 7 ); और इस अन्तर्ज्ञान द्वारा ही यह देव ( दिव्य मन, इन्ड ) हमारा नेता बनता है, इसके लिये कि वह प्रकाशको मुक्त कराये और उस बहुतसी दौलतको अधिगत कराये जो पणियोके दुर्गद्वारोंके पीछे चट्टानके अन्दर छिपी पड़ी है ।
सरमाका एक और उल्लेख हम पराशर शाक्त्यके एक सूक्त, ऋ. 1.72 में पाते हैं । यह, सूक्त उन सूक्तोंमेसे है जो निःसंदेह पराशरके अन्य बहुत से सूक्तोंकी ही भांति वैदिक कल्पनाके आशयको अत्यधिक स्पष्टताके साथ प्रकट कर देते हैं, पराशर बहुत विशद-प्रकाश-युक्त कवि है और उसे यह सदा प्रिय है कि रहस्यवादीके पर्देके एक कोनेको ही नहीं किंतु कुछ अधिकको हटाकर वणन करे । यह सूक्त छोटा-सा है और मैं इस पूरेका ही अनुवाद करूँगा ।
नि काव्या वेधस: शश्वतस्कर्हस्ते दधानो नर्या पुरुणि ।
अग्निर्भुयद् रयिपती रयीणां सत्रा चक्राणो अमृतानि विविश्वा ।। (ऋ. 1 .72. 1 )
अपने हाथमें अनेक शक्तियोंको, दिव्य पुरुषोंकी शक्तियोंको (नर्या पुरूणि ), धारण करते हुए उसने, अपने अंदर, वस्तुओंके शाश्वत विधाताके द्रष्टा-ज्ञानोंको
1. अपो यदद्रिं पुरुहत दर्दराविर्भुवत् सरमा पूर्व्य ते ।
स नो नेता वाजमा दर्षि भूरिं गोवा रुजन्नङिरोभिर्मृणनः ।। 4.16.8 ।।
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रचा है; अग्नि अपने साथ सारी अमरताओंको रचता हुआ ( दिव्य ) ऐश्वर्योंका स्वामी हो जाता है ।।1।।
अस्मे वत्सं परि षन्तं न विन्दन्निच्छन्तो विश्वे अमृता अमरा: ।
श्रमयुव: पदव्यो धियंधास्तस्थुः पदे परमे चार्वग्ने: ।।2।।
सब अमत्योंने, उन्होँने जो ( अज्ञान द्वारा ) सीमित नहीं हैं, इच्छा करते हुए, उसे हमारे अंदर पा लिया, मानो वह (अदितिरूपी गौका ) बछड़ा हो, जो सर्वत्र विद्यमान है; श्रम करते हुए, परम पदकी ओर यात्रा करते हुए, विचारको धारण करते हुए उन्होंने परम स्थानमें 'अग्नि' की जगमगाती हुई ( शोभा ) को अधिगत कर लिया ।।2।।
तिस्त्रो यदग्ने शरदस्त्वामिच्छुचिं घृतेन शुचय: सपर्यान् ।
नामानि चिद् दधिरे यज्ञियान्यसूदयन्त तन्व: सुजाता: ।।३।।
हे अग्ने ! जब तीन वर्षों तक ( तीन प्रतीकरूप ऋतुओ या काल-विभागों तक जो संभवत: तीन मानसिक लोकोंमेंसे गुजरनेके कालके अनुरूप हैं ) उन पवित्रोंने तुझ पवित्रकी 'घृत' से सेवाकी, तब उन्होंने यज्ञिय नामोंको धारण किया और सुजात रूपोंको ( उच्च लोककी ओर ) गति दी ।|3|।
आ रोदसी वृहती वेविदाना: प्र रुद्रिया जभ्रिरे यज्ञियास: ।
विदन्मर्तो नेमधिता चिकित्वानग्निं पदे परमे तस्थिवांसम् ।।4।।
वे महान् द्यावापृथिवीका ज्ञान रखते थे और उन रुद्रके पुत्रों, यज्ञके अधिपतियोंने उन्हें आगेकी ओर धारण किया; मर्त्य मानव अन्तर्दर्शन ( Vision ) के प्रति जाग गया और उसने अग्निको पा लिया, जो अग्नि परम स्थानमें स्थित था ।।4|।
संजानाना उप सीदन्नभिज्ञु पत्नीवन्तो नमस्यं नमस्यन् ।
रिरिक्वांसस्तन्य: कृष्वत स्वा: सखा सख्युर्निमिषि रक्षमाणा: ।।5 ।।
पूर्णतया ( या समस्वरताके साथ ) जानते हुए उन्होंने उसके प्रति घुटने टेक दिये; उन्होंने अपनी पत्नियों ( देवोंकी स्त्रीलिंगी शक्तियों ) सहित उस नमस्य को नमस्कार किया; अपने-आपको पवित्र करते हुए ( या संभव है, यह अर्थ हो कि द्यौ और पथ्वीकी सीमाओंको अतिक्रमण करते हुए ) उन्होंने, सखाकी निर्निमेष दृष्टिमें रक्षित रहते हुए प्रत्येक सखाने, अपने निज ( अपने असली या दिव्य ) रूपोंको रचा ।।5 ।।
त्रि: सप्त यद् गुह्यानि त्वे इत्पदाविदन्निहिता यज्ञियासः ।
तेभी रक्षन्ते अमृतं सजोषा: पशूञ्च स्थातृञ्चरथं च पाहि ।।6।।
तेरे अंदर यज्ञके देवोंने अंदर छिपे हुए त्रिगुणित सात गुह्य स्थानोंको पा लिया; वे एक हृदयवाले होकर, उनके द्वारा अमरताकी रक्षा करते हैं ।
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रक्षा कर तू उन पशुओंकी जो स्थिति हैं और उसकी जो गाहमय है ।।6।।
विद्वां अग्ने वयुनानि क्षितीनां व्यानुषक्छुरुषो जीवसे धा: ।
अन्तर्विद्वां अध्वनो देषयानानतन्द्रो दूतो अभवो हविर्वाट् ।। 7 ।।
हे अग्ने ! लोकोंमें सब अभिव्यक्तियों (या जन्मों ) के ज्ञान को रखता हुआ ( अथवा मनुष्योंके सारे ज्ञानको जानता हुआ ), तू अपनी शक्तियोंको सतत रूपसे जीवनके लिये धारण कर । अंदर, देवोंकी यात्राके मार्गोको जानता हुआ, तू उनका अतन्द्र दूत और हवियोंका वाहक हो जाता है ।। 7 ।।
स्वाध्यो दिव आ सप्त यह्वि रायो दुरो व्यृतता अजानन् ।
विदद् गव्यं सरमा दृळहमूवं येना नु कं मानुषी भोजते विट् ।। 8 ।।
विचारको यथार्थ रूपसे धारण करती हुई, सत्य को जानती हुई द्युलोककी सात शक्तिशाली ( नदियों ) ने आनंद ( सम्पत् ) के द्वारोंको जान लिया; सरमाने गौओंकी दढ़ताको, विस्तीर्णताको पा लिया, जिसके द्वारा अब मानुषी प्रजा ( उच्च ऐश्वर्योंका ) आनंद लेती है ।। 8 ।।
आ ये विश्चा स्वपत्यानि तस्थु : कृण्वानासो अमृतत्याय गातुम् ।
मह्ना महद्भि: पृथिवी वि तस्थे माता पुत्रैरदितिर्धायसे वे: ।।9 ।।
जिन्होंने यथार्थफल ( अपत्य ) वाली सभी वस्तुओंका आश्रय लिया था उन्होंने अमरताकी ओर मार्ग बनाया; महान् ( देवों ) के द्वारा और महत्ताके द्वारा पृथिवी विस्तृत रूपमें स्थित हुई; माता अदिति, अपने पुत्रोंके साथ, धारण करनेके लिये आयी |।9।।
अधि श्रियं नि दधुश्चारुमस्मिन् हिवो ददक्षी अमृता अकृष्वन् ।
अध क्षरन्ति सिन्धवो न सृष्टा प्र नीचीरग्ने अरुषीरजानन् ।।10।।
अमर्त्योंने उसके अंदर चमकती हुई शोभाको निहित किया, जब कि उन्होंने द्यौकी दो आखोंको ( जो संभवत: सूर्यकी दो दर्शन-शक्तियों, इन्द्रके दो घोड़ोंसे अभिन्न हैं ) बनाया; नदियां मानो मुक्त होकर नीचेको प्रवाहित होती हैं; आरोचमान (गौओं ) ने, जो यहां नीचे थीं, जान लिया हे अग्ने ! ।।10।।
यह है पराशरका सूक्त जिसका मैंने यथासंभव अघिक-से-अघिक शब्दशः अनुवाद किया है, यहाँ तक कि इसके लिये भाषामें कुछ थोड़ेसे असौष्ठवको भी सहन करना पड़ा है । प्रथम दृष्टिमें ही यह स्पष्ट हो जाता' है कि इस सारे-के-सारे सूक्तमें ज्ञानका, सत्यका, दिव्य ज्वालाका प्रतिपादन है, जो (ज्वाला ) कदाचित् ही सर्वोच्च देवसे भिन्न हो सकती है, इसमें अमरताका और इस बातका प्रतिपादन है कि देव ( अर्थात् दिव्य शक्तियाँ ) यज्ञ द्वारा आरोहण करके अपने देवत्वको, अपने परम नामोंको, अपने वास्तविक रूपोंको, दिव्यताके अपने त्रिगुणित सात स्थानों सहित परमावस्थाकी जो जगमगाती
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हुई शोभा है उसको पहुँच जाते हैं । इस प्रकारके आरोहणका इसके सिवाय कोई दूसरा अर्थ नहीं हो सकता कि यह मनुष्यके अंदरकी दिव्य शक्तियोंका जगत्में सामान्यतया उनके जो रूप दिखायी देते हैं उनसे उठकर, परे जगमगाते हुए सत्यकी तरफ आरोहण है, जैसा कि सचमुच पराशर स्वयं ही हमें कहता है कि देवोंकी इस क्रिया द्वारा मर्त्य मनुष्य ज्ञानके प्रति जागृत हो जाता है और परम पदमें स्थित अग्निको पा लेता है;
विदन् मर्तो नेमधिता चिकित्वान् अग्निम् पदे परमे तस्थिवांसम् ।
इस प्रकारके सूक्तमें सरमाका और क्या मतलब है, यदि वह सत्यकी कोई शक्ति नहीं है, यदि उसकी गौएँ प्रकाशकी दिव्य उषाकी किरणें नहीं हैं ? प्राचीन लड़ाकू जातियोंकी गायोका तथा हमारे आर्य और द्राविड़ पूर्वजोंके अपनी पारस्परिक लूटों और पशुहरणोंपर किये जानेवाले रक्तपातमय कलहोंका अमरता तथा देवत्वके इस जगमगाते हुए स्वत:प्रकाश ज्ञानसे क्या संबंध हो सकता है ? अथवा ये नदियाँ क्या होंगी जो विचार करती हैं और सत्यको जानती हैं और छिपे हुए द्वारोंका पता लगा लेती हैं ? या क्या अब भी हम यही कहेंगे कि ये पंजाबकी नदियाँ थीं जिन्हें द्रविड़ोंने बाँध लगाकर रोक दिया था, या जो अनावृष्टिके कारण रुक गयी थीं और सरमा आर्योंके दूत-कर्मके लिये एक गाथाकी पात्र थी, या केवल भौतिक उषा थी ?
दशम मण्डलमें एक सूक्त पूरा-का-पूरा सरमा के इस ''दूत-कर्म'' का वर्णन करता है, यह सरमा और पणियोंका संवाद है; परंतु सरमा के विषयमें जितना हम पहलेसे जानते हैं उसमें यह कुछ और विशेष नयी बात नहीं जोड़ता और इस सूक्तका महत्त्व इसमें है कि यह गुफाके खजानेके जो स्वामी हैं उनके बारेमें विचार बनानेमें हमें सहायता देता है । तो भी, हम यह देख सकते हैं कि न तो इस सूक्तमें, न ही दूसरे सूक्तोंमें जिन्हें हम देख चुके हैं, सरमाके देवशुनी (द्युलोककी कुतिया ) के रूपमें चित्रणका जरा भी निर्देश हमें मिलता है, जो संभव है कि वैदिक कल्पनाके बादमें होनेवाले विकासमें सरमाके साथ संबद्ध हो गया होगा । यह निश्चित ही चमकीली सुन्दर-पैरों-वाली देवी है, जिसकी ओर पणि आकृष्ट हुए हैं और जिसे वे अपनी बहिन बना लेना चाहते है--इस रूपमें नहीं कि वह एक कुतिया है जो अनेक पशुओंकी रखवाली करेगी, बल्कि एक ऐसी देवीके रूपमें जो उनके ऐश्वर्योंकी प्राप्तिमें हिस्सा लेगी । तो भी इसका द्युलोककी कुतियाके रूपक द्वारा वर्णन अत्यधिक उपयुक्त और चित्ताकर्षक है और कथनकमेंसे उसका विकसित हो जाना अनिवार्य था ।
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प्राचीनतर सूक्तोंमेंसे एकमें सचमुच हम एक पुत्रका उल्केख पाते हैं जिसके लिये सरमाने ' 'भोजन प्राप्त कर लिया था'' ,-यह अर्थ उस प्राचीन व्याख्याके अनुसार है जो इस शब्दावलीकी व्याख्याके लिये एक कहानी प्रस्तुत करती है कि सरमाने कहा था कि मैं खोयी हुई गौओंको तो ढूंढ़ लूंगी पर शर्त यह है कि यज्ञमें मेरी संतानको भोजन मिलना चाहिये । पर यह स्पष्ट ही एक कल्पनामात्र है जो इस व्याख्याको प्रमाणित करनेके लिये गढ़ ली गयी है और जिसका स्वयं ऋग्वेदमें किसी भी स्थान पर उल्केख नहीं आता । जिसमें उपर्युक्त शब्दावली आयी है वह ऋचा इस प्रकार है--
इन्द्रस्याङ्गिरसां चेष्टौ विचत् सरमा तनयाय धासिम् । (ऋ. 1.62.3 )
इसमें वे द कहता है ''यज्ञमें-था अधिक संभवत: इसका यह अर्थ है कि इन्द्र और अंगिरसोंकी (गौओंके लिये की जानेवाली ) खोजमें-सरमाने पुत्रके लिये एक आधारको ढूंढ़ लिया", (विदत् सरमा तनयाय धासिम् ), क्योंकि यहाँ धासिम् शब्दका आशय अधिक संभवत: 'आधार' ही प्रतीत होता है । यह पुत्र, पूरी सभावना है कि, वह पुत्र है जो यज्ञसे पैदा हुआ है, जो वैदिक कल्पनाका एक स्थिर तत्त्व है, न कि यह कि पुत्रसे अभिप्राय यहाँ सरमासे पैदा हुई कुत्तोंकी संतति हो । वेदमें इस जैसे वाक्यांश और भी आते हैं, जैसे ऋ. 1.96.4 में स मातरिश्वा पुरुवार- पुष्टिर्विदद् गातु तनयाय स्यर्वित् । ''मातरिश्वा (प्राणके देवता, वायु ) ने बहुतसे वरणीय पदार्थोंको (जीवनके उच्चतर विषयोंको ) बढ़ाते हुए, पुत्रके लिये मार्गको ढूंढ़ लिया, स्वःको ढूंढ़ लिया ।'' यहाँ विषय स्पष्ट ही वही है, पर पुत्रका किसी पिल्लोंकी सन्ततिसे कुछ सम्बन्ध नहीं है ।
दशम मण्डलमें एक बादके सूक्तमें यमके दूतोंके रूपमें दो सारमेय कुत्तोंका उल्लेख आता है, पर उनकी माताके रूपमें सरमाका वहां कोई संकेत नहीं है । यह आता है प्रसिद्ध 'अन्त्येष्टिसूक्त' ( 10.14 ) में और यहाँपर ध्यान देने योग्य है कि 'यम' का तथा उसके दो कुत्तोंका ऋग्वेदमें वास्तविक स्वरूप क्या है । बादके विचारोंमें यम 'मृत्यु' का देवता है और उसका एक अपना विशेष लोक है; पर ऋग्वेदमें प्रारंभत: यह सूर्यका एक रूप रहा प्रतीत होता है, यहांतक कि इतनी पीछे जाकर भी जब कि ईशोपनिषद् की रचना हुई, इस नामको हम सूर्यवाची नामके रूपमें प्रयुक्त किया गया पाते हैं,-और फिर सत्यके अतिरोचमान देवके युगल शिशुओं (यम-यमी ) में से एक । वह धर्मका संरक्षक है, उस सत्यके नियम, सत्यधर्मका जो अमरताकी शर्त है और इसलिये वह स्वयं अमरताका ही संरक्षक है । उसका लोक है स्व: जो अमरताका लोक है, अमृते. लोके अक्षिते, जैसा कि हमें 9.11 3.7 में
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बताया गया है, जहाँ अजस्त्र ज्योति है, जहाँ स्व: स्थित है, पत्र ज्योतिरजस्त्र यस्मिन् लोके स्वर्हितम् । सू. 10.14 वास्तवमें उतना मृत्युका सूक्त नहीं है जितना कि जीवन और अमरताका सूक्त है । यमने और पूर्वपितरोंने मार्गको ढूंढ़ लिया है जो मार्ग उस लोकको जाता है जो गौओंकी चरागाह है, जहाँसे शत्रु उन चमकती हुई गौओंका हरण नहीं कर सकता-
यमो नो गातुं प्रथमो विवेद नैषा गव्यूतिरपभर्तवा उ, यत्रा न: पूर्वे पितर: परेयु : ।
( 10.14.2 )
द्यौके प्रति आरोहण करते हुए मर्त्यके आत्माको आदेश दिया गया है कि 'चार आंखोंवाले, चितकबरे दो सारमेय कुत्तोंको उत्तम (या, कार्यसाधक ) भार्गपर दौड़कर अतिक्रमण कर जा'1 । द्यौको जानेवाले उस मार्गके वे चार आँखोंवाले संरक्षक हैं, वे अपने दिव्य दर्शन द्वारा उस मार्गपर मनुष्योंकी रक्षा करते हैं
यौ ते श्वानौ यम रक्षितारौ चतुरक्षौ पथिरक्षी नृचक्षसौ । ( 10.14.11 )
और यमको कहा गया है कि वह इन्हें अपने मार्गपर जाते हुए आत्माके लिये रक्षकके तौरपर देवे । ये कुत्ते हैं ''विशाल गतिवाले, आसानीसे तृप्त न होनेवाले'' और नियमके देवता (यम) के दूतोंके तौरपर ये मनुष्योंके अन्दर विचरते हैं ।2 और सूक्तोंमें प्रार्थना है कि 'वे (कुत्ते ) हमें यहाँ असुखमय (लोक ) में फिरसे सुख प्राप्त करा देवें जिससे हम सूर्यको देख सकें ।''3
यहाँ फिर हम प्राचीन वैदिक विचारोंके क्रमको पाते हैं, प्रकाश और सुख और अमरता; और ये सारमेय कुत्ते सरमाके प्रधानभूत गुणोंको रखते हैं, अर्थात् दिव्य दर्शन, विशाल रूपसे विचरण करनेवाली गति, जिस मार्ग द्वारा लक्ष्यपर पहुँचा जाता है उस मार्गपर यात्रा करनेकी शक्ति | सरमा गौओं के विस्तारकी तरफ ले जाती है, ये कुत्ते आत्माकी रक्षा करते हैं जब कि वह चमकीली और अनश्वर गौओंके दुर्जेय चरागाह, खेत (क्षेत्र ) की यात्रा कर रहा होता है । सरमा हमें सत्य प्राप्त कराती है, सूर्यका दर्शन प्राप्त कराती है जो सुखको पानेका मार्ग. है; ये कुत्ते दु:ख-पीड़ाके इस लोकमें पड़े हुए मनुष्यके लिये चैन लाते हैं ताकि वह सूर्य का दर्शन पा ले । चाहे सरमा इस रूपमें चित्रित की जाय कि वह सुन्दर पैरोंवाली देवी है जो मार्गपर तेजीसे जाती है और सफलता प्राप्त कराती है, चाहे इस रूपमें कि वह
1. अति द्रव सारमेयौ श्वानौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा । 10.14.10
2. उरूणसावसुतृपा उदुम्बलौ यमस्य दूतौ चरतो जनां अनु । (10.14.12 ) (क)
3. तावस्मभ्यं दृशये सूर्याय पुनर्दातामधुद्येह् भद्रम् ।। (10.14.12) ख
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देवशुनी है जो मार्गके इन विशाल गतिवाले संरक्षकों (सारमेयों ) की माता है, विचार एक ही है कि वह सत्य की एक शक्ति है, जो खोजती है और पता पा लेती है, जो अन्तर्दृष्टिकी एक दिव्य शक्ति द्वारा छिपे हुए प्रकाशका और अप्राप्य अमरताका पता लगा देती है । पर उसका व्यापार खोजने और पता पा लेने तक ही सीमित है ।
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इक्कीसवां अध्याय
अन्धकारके पुत्र
एक बार नहीं बल्कि बार-नार हम यह देख चुके हैं कि यह संभव ही नहीं है कि अंगिरसों, इन्द्र और सरमाकी कहानीमें हम पणियोंकी गुफासे उषा, सूर्य व गौओंकी विजय करनेका यह अर्थ लगावें कि यह आर्य आक्रांताओं तथा गुहानिवासी द्रविड़ोंके बीच होनवाले राजनैतिक व सैनिक संधर्षका वर्णन है । यह तो वह संघर्ष है जो प्रकाशके अन्वेष्टाओं और अंधकारकी शक्तियोंके बीच होता है; गौएँ हैं सूर्य तथा उषाकी ज्योतियाँ, वे भौतिक गायें नहीं हो सकतीं; गौओंका विशाल भयरहित खेत जिसे इन्द्रने आर्योंके लिए जीता 'स्व:' का विशाल लोक है, सौर प्रकाशका लोक है, द्यौका त्रिगुण प्रकाशमय प्रदेश है । इसलिये इसके अनुरूप ही पणियोंको इस रूपमें लेना चाहिये कि वे अन्धकार-गुहाकी शक्तियाँ हैं । यह बिलकुल सच है कि पणि 'दस्यु' या 'दास' हैं; इस नामसे उनका वर्णन सतत रूपसे देखनेमें आता है, उनके लिये यह वर्णन मिलता है कि वे आर्य-वर्णके प्रतिकूल दास-वर्ण हैं, और रंगवार्चा 'वर्ण' शब्द ब्राह्मणग्रंथोंमें तथा पीछेके लेखोंमें जाति या श्रेणीके लिये प्रयुक्त हुआ है, यद्यपि इससे परिणाम नहीं निकलता कि ऋग्वेदमें इसका यह अर्थ है । दस्यु हैं' पवित्र वाणीसे घृणा करनेवाले; ये वे हैं जो हवि या सोमरसको देवोंके लिये अर्पित नहीं करते, जो गौओं व घोड़ोंकी दौलत तथा अन्य खजाने अपने ही लिये रख लेते हैं और उन चीजोंको द्रष्टाओं (ऋषियों ) के लिये नहीं देते; ये वे हैं जो यज्ञ नहीं करते । यदि .हम चाहें तो यह भी कल्पना कर सकते हैं कि भारतमें दो एसे विभिन्न संप्रदायोंके बीच एक संघर्ष हुआ करता था और इन संप्रदायोंके मानवीय प्रतिनिधियोंके बीच होनेवाले इस भौतिक संधर्षको देखकर उससे ही ऋषियोंने अपने प्रतीकों को लिया तथा उन्हें आध्यात्मिक संघर्षमें प्रयुक्त कर दिया, वैसे ही जैसे उन्होंने अपने भौतिक जीवनके अन्य अंग-उपांगोको आध्यात्मिक यज्ञ, आध्या-त्मिक दौलत और आध्यात्मिक युद्ध व यात्राके लिये प्रकीकके रूपमें प्रयुक्त किया । यह कल्पना ठीक हो या न हो, इतना तो पूर्णतया निश्चित है कि कम-से-कम ऋग्वेदमें जिस युद्ध और विजयका वर्णन हुआ है वह कोई भौतिक युद्ध और लूटमार नहीं बल्कि एक आध्यात्मिक संघर्ष और आध्यात्मिक विजय है ।
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यदि हम इक्के-दुक्के संदर्भोंको लेकर उन्हें कोई-सा एक विशेष अर्थ दे डालें जो केवल उसी जगह ठीक लग सके जब कि हम उन बहुतसे अन्य संदर्भोंकी उपेक्षा कर देते हों जिनमें वह अर्थ स्पष्ट ही अनुपपन्न ठहरता है तो अर्थ करनेकी यह प्रणाली या तो विचारतुलापर ठीक न उतरनेवाली होगी या एक कपटपूर्ण प्रणाली होगी । हमें वेदके उन सभी उल्लेखोंको इकट्ठे लेना चाहिये जिनमें पणियोका, उनकी दौलतका, उनके विशेष गुणोंका और उन पणियोंपर प्राप्तकी गयी देवों, द्रष्टाओं तथा आर्योंकी विजयका वर्णन है और इस प्रकार उन सभी संदर्भोंको इकट्ठा लेकर देखनेसे जो परिणाम निकले उसे सर्वत्र एकसमान स्वीकार करना चाहिये । जब हम इस प्रणालीका अनुसारण करते हैं तो हम देखते हैं कि इन संदर्भोंमेंसे कई संदर्भ ऐसे हैं जिनमें पणियोंके संबन्ध में यह विचार कि ये मानवप्राणी हैं पूर्णतया असम्भव लगता है और उन सन्दर्भोसे यह प्रतीत होता है कि पणि या तो भौतिक अन्धकारकी या आध्यात्मिक अन्धकारकी शक्तियाँ हैं; दूसरे कुछ सन्दर्भ ऐसे हैं जिनमें पणि भौतिक अन्धकारकी शक्तियाँ सर्वथा नहीं हो सकते; या तो वे देवान्वेषकों और यज्ञकर्ताओंके मानवीय शत्रु हो सकते हैं या आध्यात्मिक प्रकाशके शत्रु; फिर अन्य कुछ संदर्भ हमें ऐसे मिलते हैं जिनमें वे न तो मानवीय शत्रु हो सकते हैं न भौतिक प्रफाशके शत्रु, बल्कि निश्चित तौर पर वे आध्यात्मिक प्रकाश, दिव्य सत्य और दिव्य विचारके शत्रु हैं । इन तथ्योंसे केवल एक ही परिणाम निकल सकता है कि पणि वेदमें सदा आध्यात्मिक प्रकाशके और केवल आध्यात्मिक प्रकाशके शत्रु हैं--
इन दस्युओंका सामान्य स्वरूप बतलानेवाले मूलसूत्रके तौरपर हम ऋक् 5.14.4 को ले सकते हैं, ''अग्नि पैदा होकर चमका, ज्योतिसे दस्युओंका, अन्धकारका हनन करता हुआ; उसने गौओंको, जलोंको, स्वःको पा लिया ।''
अग्निर्जातो अरोचत, ध्नन् दस्यूञ्ज्योतिषा तम: ।
अविन्दद् गा अप: स्व: ।। ( 5.14.4 )
दस्युओंके दो बड़े विभाग हैं, एक तो 'पणि' जो गौओं तथा जलों दोनोंको अवरुद्ध करते हैं पर मुख्यतः जिनका संबंध गौओंके रोधनसे है, दूसरे, 'वृत्र' जो जलोंको और प्रकाशको अवरुद्ध करते हैं पर मुख्य रूपसे जिनका संबंध जलोंके रोधनसे है; सभी दस्यु निरपवाद रूपसे 'स्वः' को आरोहण करनेके मार्गमें आकर खड़े हो जाते हैं और वे आर्य द्रष्टाओं द्वारा की जानेवाली ऐश्वर्यकी प्राप्तिका विरोध करते हैं । प्रकशके रोधनसे अभिप्राय है उन द्वारा 'स्व:' के दर्शन, स्वदृश्, और सूर्यके दर्शनका, ज्ञानके उच्च दर्शन, उपमा
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केतु: ( 5.34.9 तथा 7.30.3) का विरोध; जलोंके रोधनसे अभिप्राय है उन द्वारा 'स्व:' की विपुल गति 'स्वर्वती: अप:' का सत्य की गति या प्रवाहों, ऋतस्य प्रेषा, ॠतस्य धारा: का विरोध; ऐश्वर्य-प्राप्तिसे विरोधका अभिप्राय है 'स्वः'के विपुल सारपदार्थ वसु, धन, वाज, हिरष्यका उन द्वारा रोधन, उस महान् संपत्तिका रोधन जो संपत्ति सूर्यमें और जलोंमें निहित है, (अप्सु सूर्ये महद् धनम् ) । तो भी क्योंकि सारी लड़ाई प्रकाश और अंधकारके बीच, सत्य और अनृतके बीच, दिव्य माया और अदिव्य मायाके बीच है, इसलिये सभी दस्यु यहाँ एकसमान अंधकारसे अभिन्नरूप मान लिये गये हैं; और अग्निके पैदा होने और चमकने लगनेपर ही ज्योति उत्पन्न होती है जिसके द्वारा वह ( अग्नि ) दस्युओंका और अंधकारका हनन करता है । ऐतिहासिक व्याख्यासे यहाँ बिल्कुल भी काम नहीं चलेगा, यद्यपि प्रकृतिवादी व्याख्याको रास्ता मिल सकता है यदि हम इस संदर्भको अन्य वर्णनसे जुदा रूपमें ही देखें और यह मान लें कि यज्ञिय अग्निको प्रज्वलित करना दैनिक सूर्योदयका कारण होता है; पर हमें वेदके तुलनात्मक अध्ययनसे किसी निर्णयपर पहुँचना है न कि जुदा-जुदा संदर्भोके बल पर ।
आर्यों और पणियों या दस्युओंके बीचका विरोध पांचवें मण्डलके एक अन्य सूक्त ( 5.34 ) में स्पष्ट हो गया है, और 3 .34 में हमें आर्यवर्ण यह प्रयोग मिलता है । यह हमें अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि 'दस्यु' अंधकारसे अभिन्न-रूप बताये गये हैं, इसलिये आर्योका संबंध प्रकाशसे होना चाहिये, और वस्तुत: ही हम पाते हैं कि स्पष्टतया दास-अंधकारकी कल्पनाके मुकाबलेमें सूर्यके प्रकाशको वेदमें आर्य-प्रकाश कहा गया है । वसिष्ठ भी तीन आर्यजनोंका वर्णन करता है जो ''ज्योतिरग्राः'' अर्थात् प्रकाशको अपना नेता बनानेवाले हैं, जो प्रकाशको अपने आगे-आगे रखते हैं ( 7. 33. 7 ) । आर्य-दस्यु प्रश्नपर यथोचित रूपसे तभी विचार हो सकता है यदि एक व्यापक विवाद चलाया जाय जिसमें सभी प्रसंगप्राप्त संदर्भोंकी परीक्षाकी जाय और जो कठिनाइयाँ आवें उनका मुकाबला किया जाय । परंतु मेरे वर्तमान प्रयोजनके लिये यह प्रारंभिक-बिन्दु पर्याप्त है । हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि वेदमें हमें 'ऋत्तं ज्योति:', 'हिरण्यं ज्योति:', 'सत्य प्रकाश'; 'सुनहला प्रकाश' ये मुहाविरे मिलते हैं जो हमारे हाथमें एक और सूत्र पकड़ाते हैं । अब सौर प्रकाशके ये तीन विशेषण, आर्य, ॠत, हिरण्य, मेरी रायमें परस्पर एक दूसरेके अर्थ के द्योतक हैं और लगभग समानार्थक हैं । सूर्य सत्यका देवता है, इसलिये इसका प्रकाश 'ॠतं ज्योति:' है, यह सत्यका प्रकाश वह है जिसे आर्य, वह देव हो या मनुष्य, धारण करता है और जिससे उसका आर्यत्व
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बनता है, फिर 'सूर्य'के लिये 'सुनहला' यह विशेषण सतत रूपसे प्रयुक्त हुआ है और 'सोना' वेदमें संभवत: सत्यके सारका प्रतीक है, क्योंकि सत्यका सार है प्रकाश, यह वह सुनहरा ऐश्वर्य है जो सूर्यमें और 'स्व:' के जलोंमें ( अप्सु सूर्ये ) पाया गया है,--इसलिये हम 'हिरण्यं ज्योति:' यह विशेषण पाते है । यह सुनहला या चमकीला प्रकाश सत्यका रंग, 'वर्ण' है; साथ ही यह उन विचारोंका भी रंग है जो विचार उस प्रकाशसे परिपूर्ण हैं जिसे आर्योंने जीता था, उन गौओंका जो रंगमें चमकीली, शुत्र्क, श्वेत हैं, वैसी जैसा कि प्रकाशका रंग होता है; जब कि दस्यु, क्योंकि वह अंधकारकी एक शक्ति है, रंगमें काला है । मेरी सम्मतिमें सत्यके प्रकाशका, आर्यज्योति का, चमकीलापन ही आर्यवर्ण है अर्थात् उन आर्योंका वर्ण जो 'ज्योतिरग्राः' हैं; अज्ञानकी रात्रिका कालापन पणियोंका रंग है, दासवर्ण । इस प्रकार प्रायः 'वर्ण'का अर्थ होगा 'स्वभाव' अथवा वे सब जो उस विशेष स्वभाववाले हैं, क्योंकि रंग स्वभावका द्योतक है; और यह बात कि यह विचार प्राचीन आर्योंके अंदर एक प्रचलित विचार था मुझे इससे पुष्ट होती प्रतीत होती है कि बादके कालमें भिन्न-भिन्न रंग-सफेद, लाल, पीला, काला--चार जातियों ( वर्णों ) में भेद करनेके लिये .व्यवहृत हुए है ।
ऋ. 5. 34 का संदर्भ निम्न प्रकार है-
''वह ( इन्द्र ) पाँचके साथ और दसके साथ आरोहण करनेकी इच्छा नहीं करता; वह उसके साथ संयुक्त नहीं होता जो सोमकी हवि नहीं देता, चाहे वह वृद्धिको ही क्यों न प्राप्त हो रहा हो; वह उसे पराजित कर देता है या अपनी वेगयुक्त गतिसे उसका वध कर देता है, वह देवत्वके अभिलाषी ( देवयुः ) को उसके सुखभोगके लिये गौओंसे परिपूर्ण बाड़ा देता है । '' (मंत्र 5 )
''युद्ध-संघट्टमें ( शत्रुका ) विदारण करनेवाला, चक्र ( या पहिये ) को दृढ़तासे थामनेवाला, जो सोमरस अर्पित नहीं करता उससे पराङमुख पर सोमरस अर्पित करनेवालेको बढ़ानेवाला वह इन्द्र बड़ा भीषण है और सबका दमन करनेवाला है; वह 'आर्य' इन्द्र 'दास' को पूर्णतया अपने वशमें कर लेता है । '' ( मंत्र 6 )
''पणिके इस सुखभोगको उत्सारित करता हुआ, उसका अपहरण करता हुआ बह ( इन्द्र ) आता है और वह देनेवालेको ( दाशुषे ) उसके सुखके लिये 'सूनरं वसु' बाँटता है अर्थात् वह दौलत बांटता है जो वीर-शक्तियोंसे ( शब्दार्थतः, मनुष्योंसे ) समृद्ध है ( यहाँ 'सूनरम्' का अर्थ मैंने 'वीर-शक्तियोंसे समद्ध' किया, क्योंकि 'वीर' और 'नृ' बहुधा पर्यायरूपमें प्रयुक्त होते हैं) ।
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वह मनुष्य जो इन्द्रके बलको ॠद्ध करता है एक दुर्गम यात्रामें अनेकरूपसे रुकावटें पाता है।" (1दुर्गे चन घ्रियते आ पुरु) (मंत्र 7 ) ।
''जब मघवा (इन्द्र) ने चमकीली गौओंके अंदर उन दो (जनों) को जान लिया जो भरपूर दौलतवाले (सुधनौ) और सब बलोंसे युक्त (विश्वशर्धसौ ) हैं, तब वह ज्ञानमें बढ़ता हुआ एक तीसरे (जन ) को अपना सहायक बनाता है और तेजीसे गति करता हुआ अपने योद्धाओंकी सहायतासे गौओंके समुदाय को (गव्यन्) ऊपरकी तरफ खोल देता है ।'' (मंत्र 8) 2
और इस सूक्तकी अंतिम ऋचा आर्य (चाहे वह देव हो या मनुष्य) के विषयमें यह वर्णन करती है कि वह सर्वोच्च ज्ञानदर्शन पर पहुंच जाता है (उपमां केतुम् अर्य: ), जल अपने संगमोंमें उसे पालित करते हैं और उसके अन्दर बलवती तथा 'जाज्वल्यमान संग्राम-शक्ति (क्षत्रम् अमवत् त्येषम् ) रहती है3।
जितना कुछ इन प्रतीकोंके बारेमें हम पहलेसे ही जानते हैं उतनेसे हम इस सूक्तका आन्तरिक आशय सुगमतासे समझ सकते हैं । इन्द्र, जो दिव्य मनः-शक्ति है, अज्ञानकी शक्तियोंके पाससे उनकी छिपाकर रखी हुई दौलत ले लेता है और जब वे अज्ञान-शक्तियाँ प्रचुर और पुष्टियुक्त होती हैं तब भी वह उनसे संबंध स्थापित करनेको तैयार नहीं होता, वह प्रकाशमयी उषाकी बन्द पड़ी गौओंको उस यज्ञ करनेवाले को दे देता है जो देवत्वोंका अभिलाषी है । वह (इन्द्र ) स्वयं आर्य है जो अज्ञानके जीवनको पूर्ण तौरसे
1. ॠषि देवोंसे सदा यह प्रार्थना करते हैं कि वे 'सर्वोच्च सुख' की ओर उनका मार्ग बना
देवें जो मार्ग सुगम और अकण्टक, 'सुग' हो; 'दुर्ग' इस सुगमका उलटा है, यह वह
मार्ग है जो अनेकविध (पुरु) आपत्तियों और कष्टों व कठिनाइयोंसे मरा पढ़ा है ।
2. न पञ्जभिर्दशभिर्वष्टद्यारभं नासुन्वता सचते पुष्यता चन ।
जिनाति वेदमुया हन्ति वा धुनिरा देवयुं भजति गोमति वजे ।।5।।
वित्यक्षण: समृतौ चक्रमासजोऽसुन्वतो विषुण: सुन्वतो वृधः ।
इन्द्रो विश्वस्य दमिता विभीषणो यथावशं नयति दासमार्य ।।6।।
समीं पणेरजति भोजन मुषे वि दाशुषे भजति सूनरं वसु ।
दुर्गे चन ध्रियते विश्व आ पुरु जनो यो अस्य तविषीमचुक्रुधत् ।।7।। .
सं यज्जनौ सुधनौ विश्वशर्धसाववेदिन्द्रो मधवा गोषु शुभ्रिषु ।
युजं ह्य१न्यमकृत प्रवेपन्युदीं गव्यं सृजते सत्वभिर्धुनि: ।।8|। (ऋ. 534 )
3. सहस्रसामाग्निवेशिं' गृणीषे शत्रिमग्न उपमां केतुमर्य: ।
तस्मा आपः संयतः पीपयन्ततस्मिन् क्षत्रममवत्तेवेषमस्तु ||9|| (ॠ.5.34)
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उच्चतर जीवनके वशमें कर देता है, जिससे यह अज्ञानका जीवन उस सारी दौलतको जो इसके कब्जेमें थी इस उच्चतर जीवनके हाथमें सौंप देता है । देवोंको निरूपित करनेके लिये 'आर्य' तथा 'अर्य' शब्दोंका प्रयोग, न केवल यहीं पर बल्कि अन्य संदर्भोंमें भी, अपने-आपमें यह दर्शानेकी प्रवृत्ति रखता है कि आर्य तथा दस्युका विरोध एक राष्ट्रीय या जातिगत अथवा केवलमात्र मानवीय भेद नहीं है, बल्कि इसका एक गभीरतर अर्थ है ।
योद्धा यहां निश्चित ही सात अंगिरस् हैं, क्योंकि वे ही, न कि 'मरुत्' जैसा कि सायणने 'सत्वभि:'का अर्थ लिया है, गौओंकी मुक्तिमें इन्द्रके सहायक होते हैं । पर जिनको इन्द्र चमकीली गौओंके अन्दर प्रविष्ट होकर अर्थात् विचारके पुञ्जीभूत प्रकाशोंको अधिगत करके पाता है या जानता है, वे तीन जन यहाँ कौन हैं इसका निश्चय कर सकना अधिक कठिन है । बहुत अधिक संभव यह है कि वे तीन हैं जिनके द्वारा अंगिरस्-ज्ञानकी सात किरणें बढ़कर दस हो जाती हैं, जिससे अगिरस् सफलतापूर्वक दस महीनोंको पार कर लेते हैं और सूर्य तथा गौओंको मुक्त करा लेते हैं; क्योंकि यहाँ भी दो (जनों )को पा लेने या जान लेने और तीसरे (जन )की मदद पा लेनेके बाद ही इन्द्र पणियोंके पाससे गौओंको छुड़ा पाता है । इन तीन जनोंका सम्बन्ध प्रकाशको नेता बनानेवाले (ज्योतिरग्रा: ) तीन आर्यजनों (7.33.7 )के प्रतीकवादके साथ तथा 'स्वः'के तीन प्रकाशमान लोकोंके प्रतीकवादके साथ भी जुड़ सकता है, क्योंकि सर्वोच्च ज्ञान-दर्शन (उपमा केतु: )की उपलब्धि उनकी क्रियाका अन्तिम परिणाम है और यह सर्वोच्च ज्ञान वह है जो 'स्वः'के दर्शनसे युक्त है तथा अपने तीन प्रकाशमान लोकों (रोचनानि)में स्थित है जैसा कि हम 2.3.14 में पाते हैं, स्वदृशं केतुं दिवो रोचनस्थामुषर्बुधम्, ''वह ज्ञान-दर्शन जो 'स्यः'को देखता है, जो प्रकाशमान लोकोंमें स्थित है, जो उषामें जागृत होता है ।"
ऋ. 3.34में विश्वामित्रने 'आर्यवर्ण' यह पदप्रयोग किया है, और साथ ही वहाँ उसने इसके अध्यात्मपरक अर्थ की कुञ्जी भी हमें दे दी है । इस सूक्तकी (8 से 10 तक ) तीन ऋचाएं निम्न प्रकारसे है-
सत्रासाहं वरेण्यं सहोदां ससवांसं स्वरपश्च देवी: ।
ससान य: पृथिवीं द्यामुतेमामिन्द्रं मदन्त्यनु धीरणास: ।।8|।
'' (वे स्तुति करते हैं) अतिशय वांछनीय, सदा अभिभव करनेवाले, बलके देनेवाले, 'स्व:' तथा दिव्य जलोंको जीतकर अधिगत करनेवाले (इन्द्र)
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की; विचारक लोग उस इन्द्रके आनन्दमें आनन्दित होते हैं, जो पृथिवी तथा द्यौको अधिकृत कर लेनेवाला है ।।8।।"
ससानानात्यां उत सूर्यं ससानेदरः ससान पुरुभोजसं गाम् ।
हिरण्ययमुत भोगं ससान हत्वी दस्यून् प्रायं वर्णमावत् ।।9।।
' 'इन्द्र घोड़ोंको अधिगत कर. लेता है, सूर्यको अधिगत कर लेता है, अनेक सुख-भोगोंवाली गौको अधिगत कर लेता है; वह सुनहले सुख-भोगों-को जीत लेता है, दस्युओंका वध करके वह 'आर्य वर्ण'की पालना करता है ( या रक्षा करता है ) ।। 9 ।। ''
इन्द्र ओषधीरसनोदहानि वनस्पतीँ रसनोदन्तरिक्षम् ।
बिभेद वलं नुनुदे विवाचोऽथाभचद् दमिताभिक्रतूनाम् ।।10।।
''इन्द्र ओषधियोंको और दिनोंको जीत लेता है, वनस्पतियों और अन्त-रिक्षको जीत लेता है, वह 'बल'का भेदन कर डालता है और वाणियोंके वक्ताको आगेकी तरफ प्रेरणा दे देता है, इस प्रकार वह उनका दमन-कर्ता बन जाता है जो उसके विरुद्ध कर्म करनेका संकल्प रखनेवाले हैं ( अभि-ॠनाम् ) ।।10।। ''
यहाँ हम देखते हैं कि .उस सारी दौलतके प्रतीकमय तत्त्व आ गये हैं जिसे इन्द्रने आर्यके लिये जीता है और उस दौलतमें सम्मिलित हैं सूर्य, दिन,' पृथिवी, द्युलोक, अन्तरिक्षलोक, घोड़े, पार्थिव उद्धिद्, ओषधियाँ और वनस्पतियाँ ( 'वनस्पतीन्' यहाँ द्वचर्थक है, वनके अधिपति और सुखभोगके अधिपति ); और 'वल' तथा उसके सहायक दस्युओंके विरोधी रूपमें यहां हम 'आर्यवर्ण'को .पाते हैं ।
परन्तु इससे पूर्ववर्ती ऋचाओंमें ( 4-6में ) पहले ही 'वर्ण ' शब्द इस अर्थमें आ चुका है कि यह आर्यके विचारोंका रंग है, उन विचारोंका जो सच्चे तथा प्रकाशसे परिपूर्ण हैं । 'स्वःके विजेता इन्द्रने, दिनोंको पैदा करके, इच्छुकों ( अंगिरसों ) को साथ लेकर ( दस्युओंकी ) इन सेनाओं पर आक्रमण किया और इन्हें जीत लिया; उसने मनुष्यके लियें दिनोंके ज्ञान-दर्शनको ( केतुम् अह्नां ) प्रकाशित कर दिया, उसने विशाल आनन्दके लिये प्रकाशको पा लिया ( ऋचा 4 ) । उसने अपने उपासकके लिये इन विचारोंको ज्ञान-चेतनासे युक्त किया, जागृत किया, उसने इन ( विचारों ) के चमकीले 'वर्ण'- को आगे ( दस्युओंकी बाधासे परे ) पहुंचा दिया ( अचेतयद् धिय इमा जरित्रे प्रेमं वर्णमतिरच्छुक्रमासाम् ) ( ऋचा 5 ) । वे महान् इन्द्रके अनेक महान् और पूर्ण कर्मोंको प्रवर्तित करते हैं ( या उनकी स्तुति करते है ); अपने बलसे, अपनी अभिभूत कर देनेवाली शक्तिमें भरकर, अपनी ज्ञान-की-क्रियाओं
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द्वारा ( मायाभि: ) वह कुटिल दस्युओंको पीस डालता है (ऋचा 6 ) ।'1
यहाँ हम 'केतुम् अह्नाम्' अर्थात् 'दिनोंका ज्ञान-दर्शन' इस वैदिक मुहावरे-को पाते हैं जिससे सत्यके सूर्यका वह प्रकाश अभिप्रेत है जो विशाल दिव्य आनन्द प्राप्त कराता है, क्योंकि 'दिन वे हैं जो मनुष्यके लिये इन्द्रसे की गयी 'स्व:'की विजय द्वारा उस समय उत्पन्न किये गये हैं जब, जैसा कि हम जानते हैं, इन्द्रने पहले उत्पन्न अंगिरसोंकी सहायतासे पणि-सेनाओंका विनाश कर लिया तथा सूर्य और प्रकाशमय गौओंका उदय हो चुका । यह सब कुछ देव मनुष्यके लिये और मनुष्यकी शक्तियोंका रूप धारण करके करते है, न कि स्वयं अपने लिये क्योंकि वे तो पहलेसे ही इन ऐश्वर्योंसे युक्त हैं; -मनुष्यके लिये वह इन्द्र 'नृ' अर्थात् दिव्य मनुष्य या पुरुष बनकर उस पौरुषके अनेक बलोंको धारण करता है ( नृवद्.... नर्या पुरूणि-मंत्र 5 ), मनुष्यको वह इसके लिये. जागृत करता है कि वह इन विचारोंका ज्ञान प्राप्त करे, जिन विचारोंको यहाँ प्रतीकरूपमें पणियोंके पाससे छुड़ायी गयी चमक-दार गौएं कहा गया है; और इन विचारोंका चमकीला रंग ( शुक्रं वर्णमासाम् ) स्पष्टत: वही है जो 'शुक्र' या ' श्वेत' आर्य-रंग है, जिसका नौवीं ऋचामें उल्लेख हुआ है । इन्द्र इन विचारोंके 'रंग'को आगे ले जाकर या वृद्धिंगत करके पणियोंके विरोधसे परे कर देता है ( प्र वर्णमतिरच्छुक्रम् ), ऐसा करके वह दस्युओंको मार डालता है और आर्यके 'रंग'की रक्षा करता है या पालना करता है और वृद्धि करता है, ( हत्वी दस्यून् प्रायं वर्णमावत् ।9। ) । इसके अतिरिक्त एक बात यह है कि ये दस्यु कुटिल हैं ( वृजिनान् ), तथा ये जीते जाते हैं इन्द्रके कर्मों या ज्ञानके रूपों द्वारा, उसकी 'मायाओं' द्वारा, जिन मायाओंसे, जैसा कि अन्य कई स्थानों पर कहा मिलता है, वह इन्द्र दस्युओंकी, 'वृत्र 'की या 'वल' की विरोधिनी ' मायाओं'को अभिभूत करता है | ' ॠजु' और 'कुटिल ' ये वेदमें सततरूपसे क्रमश: 'सत्य' और 'अनृत' के पर्यायवाचीके तौर पर आते हैं | इसलिये यह स्पष्ट है की ये 'पानि-दस्यु'
1. इन्द्र: स्वर्षा जनयन्नहानि जिगायोशिग्भि: पृतना अभिष्टिः ।
प्रारोचयन्मनवे केतुमह्नामविन्दज्ज्योतिर्बृहते रणाय ।।4।।
( इन्द्रस्तुजो बर्हणा आ विवेश नृवत् दधानो नर्या पुरूणि ) ।
अचेतयद् धिय इमा जरित्रे प्रेमं वर्णमतिरच्छुक्रमासाम् ।।5।।
महो महानि पनयन्त्यस्येन्द्रस्थ कर्म सुकृता पुरूणि ।
वृजनेन वृजिनान् त्सं पिपेष मायाभिर्दस्थूँरभिभूत्योजा: ।।6।।
( ऋ. 3. 34. 4 6 )
३०१
अनृत और अज्ञानकी कुटिल शक्तियां हैं जो अपने मिथ्या ज्ञानको, अपने मिथ्या बल, संकल्प और कर्मोंको देवों तथा आर्योके सच्चे ज्ञान, सच्चे बल, सच्चे संकल्प और कर्मोके विरोधमें लगाती हैं । प्रकाशकी विजयका अभिप्राय है इस मिथ्या ज्ञान या दानवीय ज्ञान पर सत्यके दिव्य ज्ञानकी विजय; और उस विजयका मतलब है सूर्यका ऊर्ध्यारोहण, दिनोंका जन्म, उषाका उदय, प्रकाशमान किरणों रूपी गौओंकी मुक्ति और उन गौओंका प्रकाशके लोकमें चढ़ना ।
ये गौएं सत्यके विचार हैं, यह हमें सोम देवताके एक सूक्त 9.111 मै पर्याप्त स्पष्ट रूपमें बता दिया गया है ।
'इस जगमगानेवाले प्रकाशसे अपनेको पवित्र करता हुआ अपने स्वयं जुते घोड़ों द्वारा वह सब विद्वेषिणी शक्तियोंको चीरकर पार निकल जाता है, मानो उसके वे घोड़े सूर्यके स्वयं जुते घोड़े हों । निचोड़े हुए सोमकी धारारूप, अपनेको पवित्र करता हुआ, आरोचमान, जगमगानेवाला वह चभक उठता है, जब कि वह ऋक्के वक्ताओंके साथ सात-मुखों-वाले ऋक्के वक्ताओं ( अंगिरस्-शक्तियों ) के साथ, ( वस्तुओंके ) सब रूपोंको चारों ओरसे घेरता है ।' ( ऋचा 1 )
'तू, हे सोम ! पणियोंकी वह दौलत पा लेता है; तू अपने आपको 'माताओं'के द्वारा (अर्थात् पणियोंकी गौओंके द्वारा, क्योंकि दूसरे सूक्तोंमें पणियोंकी गौओंको 'माता' यह नाम कई जगह दिया गया है ) अपने स्वकीय घर (स्व: ) में चमका लेता है, 'सत्य के विचारों'के द्वारा अपने घरमें (चमका लेता है ), सं मातृभिर्मर्जयसि, स्व आ दमे, ॠतस्य धीतिभिर्दमे । मानो उच्चतर लोकका (परायत: ) 'साम' ( समतापूर्ण निष्पत्ति या सिद्धि, [समाने ऊर्वे] समतल विस्तारमें ) वह (स्व: ) है जहाँ (सत्यके ) विचार आनन्द लेते हैं । त्रिगुण लोकमें रहनेवाली (या तीन मूलतत्त्वोंवाली ) उन आरोचमान (गौओं ) द्वारा वह ( ज्ञानकी ) विशाल अभिव्यक्तिको धारण करता है, वह जगमगाता हुआ विशाल अभिव्यक्तियोंको धारण करता है ।' (ऋचा 2 ) 1
1. अया रुचा हरिण्या पुनानो विश्वा द्वेषांसि तरति स्ययुग्वभि: ।
सूरो न स्वयुग्वभि: ।
धारा सुतस्य रोचते पुनानो अरुषो हरि: ।
विश्वा यदृपा परियात्यृक्वभि: सप्तास्येभिॠॅक्वभि: ।।1।।
त्वं त्यत् पणीना विदो वसु सं मातृभिर्मर्जयसि स्व आ दम
३०२
यहां हम देखते हैं कि पणियोंकी गौएं थे विचार हैं जो सत्यको प्राप्त कर लेते हैं । पणियोंकी जिन गौओंके विषयमें यहाँ यह कहा गया है कि इनके द्वारा सोम अपने निज घरमें [ अर्थात् उस घरमें जो 'अग्नि' तथा अन्य देवोंका घर है और जिस घरसे हम इस रूपमें परिचित हैं कि वह 'स्यः'का बृहत् सत्य (ॠत बृहत्) है ] साफ और चमकीला हो जाता है और यह कहा गया है कि ये जगमगानेवाली गौएं अपने अन्दर सर्वोच्च लोकके त्रिगुण स्वभावको रखती हैं (त्रिधातुभि: अरुषीभि: ) और जिनके द्वारा सोम उस सत्यके जन्मको या उसकी विशाल अभिव्यक्ति'को धारण करता है, उन गौओंसे वे विचार अभिप्रेत हैं जो सत्यको प्राप्त कर लेते हैं । यह 'स्व:', जो उन तीन प्रकाशमान लोकोंवाला है जिनकी विशालतामें ''त्रिधातु''की समतापूर्ण निष्पन्नता रहती है ('त्रिधातु' यह मुहावरा प्रायः उस त्रिविध परम तत्त्वके लिये प्रयुक्त हुआ है जिससे त्रिगुणित सर्वोच्च लोक, तिस्र: परावतः बना है), अन्यत्र इस रूपमें वर्णित किया गया है कि यह विशाल तथा भयरहित चरागाह है जिसमें गौएं इच्छानुसार विचरण करती हैं और आनंद लेती हैं (रण्यंति ) और यहाँ भी यह (स्व: ) वह प्रदेश है जहाँ सत्यके विचार आनन्द लेते हैं (यत्र रणन्ति धीतय: ) । और अगली (तीसरी ) ॠचामें यह कहा गया है कि 'सोम'का दिव्य रथ ज्ञानको प्राप्त करता हुआ, प्रकृष्ट (परम) दिशाका अनुसरण करता है और अन्तर्दर्शन (Vision ) से युक्त होकर किरणों द्वारा आगे बढ़नेका यत्न करता है, (पूर्वामनु प्रदिशं याति चेकितत् सं रश्मिभिर्यतते दर्शतो रथो दैव्यो दर्शतो रथ: ) । यह परम् दिशा स्पष्ट ही दिव्य या वृहत् सत्य की दिशा है; ये किरणें स्पष्टत: दिव्य उषाकी या सत्यके सुर्यकी किरणें हैं, वे गौएं हैं जिन्हें पणियोंने छिपा रखा है, ये हैं प्रकाशमान विचार, चमकीले रंगकी 'धियः', 'ॠतस्य धीतयः' ।
वेदकी सारी अन्त:साक्षी जहाँ कहीं भी पणियों, गौओं, अंगिरसोंका उल्लेख हुआ है, नियत रूपसे इसी परिणामको संपुष्ट करता है, स्थापित
ॠतस्य धीतिभिर्दमे ।
परावतो न साम तद् यात्रा रणन्ति धीतयः ।
त्रिधातुभिरख्षीभिर्वयो वषे रोचमानो वयो वयो ।।2|। (ॠ. 9.111 )
।. वय:, तुलना करो 6.21.2-3 से; जहां यह कहा गया है कि जो इन्द्र ज्ञानी है और
जो हमारे शब्दों (वाणियों) को वहन करता है और उन शब्दों द्वारा यशमें प्रवृद्ध
होता है (इन्द्रं यो विदानो गिर्वाहसं गीर्मिर्यज़वद्धम्), वह इन्द्र उस अंधकारको जो
ज्ञानसे शून्य फैला पड़ा था सूर्य के द्वारा उस रूपमें परिणत कर देता है जो ज्ञानकी
अभिव्यक्तिसे मुक्त है, (स इत्तमोऽयुनं ततन्त्रत् सूर्येण वयुनवच्चकार ) ।
३०३
करती है । पणि हैं सत्यके विचारोंके अवरोधक, ज्ञान-रहित अंधकार (तमो-ऽवयुनम् ) में निवास करनेवाले, जिस अंधकारको इन्द्र और अगिरस् दिव्य शब्दके द्वारा, सूर्यके द्वारा हटाकर उसके स्थानमें प्रकाशको ले आते हैं, ताकि जहां पहले अंधकार था वहाँ सत्यका विस्तार अभिव्यक्त हो जाय । इन्द्र पणियोंके साथ भौतिक आयुधोंसे नहीं बल्कि शब्दोंसे युद्ध करता है ( देखो ऋ. 6.39.2 ); पणीँर्वचोभि: अभि योधदिन्द्र: । जिस सूक्तमें यह वाक्यांश आया है उस सूक्त ( 6.39 ) का बिना कोई टिप्पणी किये केवल अनुवाद कर देना पर्याप्त होगा, जिससे इस प्रतीकवादका स्वरूप अंतिम रूपसे प्रकट हो जाय ।
'उस दिव्य और आनंदमग्न क्रान्तदर्शी ( सोम ) की, उसकी जो यज्ञका वाहक है, उसकी जो प्रकाशमान विचारवाला मधुमय वक्ता है; प्रेरणाओंको, हे देव ! हमसे, शब्दके वक्तासे संयुक्त कर, उन प्रेरणाओंको जिनके आगे-आगे प्रकाशकी गौएं हैं ( इषो गोअग्रा: ) ।' ( मंत्र 1 )
'यह था जिसने चमकीली ( गौओं, 'उस्त्रा:' ) को, जो पहाड़ीके चारों ओर थीं चाहा, जो सत्यको जीतनेवाला, सत्यके विचारोंसे अपने रथको जोते हुए था ( ऋतधीतिभिॠॅतयुग् युजान: ) । ( तब ) इन्द्रने ' वल' के अभग्न पहाड़ी-सम प्रदेश ( सानु ) को तोड़ा, शब्दोंके द्वारा उसने पणियोंके साथ युद्ध किया ।' ( मंत्र 2 )
'यह ( सोम ) था जिसने, चन्द्र-शक्ति ( इन्दु ) के रूपमें, दिन-रात लगकर और वर्षोंमें, प्रकाशरहित रात्रियोंको चमकाया, और वे ( रात्रियां ) दिनोके साक्षाद् दर्शन ( Vision, केतु ) को धारण करने लग पडी, उसने उषाओंको रचा जो उषाएं जन्ममें पवित्र थीं ।' ( मंत्र 3 ) ।
'यह था जिसने आरोचमान होकर प्रकाशरहितोंको प्रकाशसे परिपूर्ण किया; उसने सत्यके द्वारा अनेकों ( उषाओं ) को चमकाया, वह सत्यसे जोते हुए घोड़ोंके साथ, 'स्व:'को पा लेनेवाले पहियेके साथ चल पड़ा, कर्मोंके कर्त्ताको ( ऐश्वर्यसे ) परितृप्त करता हुआ ( चर्षणिप्रा: ) ।' ( मंत्र 4 ) 1
1. मन्द्रस्य कवेर्दिव्यस्य वह्नेर्विप्रमन्मनो वचनस्य मध्वः।
अपा नस्सस्य सचनस्य देवेषो युवस्व गृणते गोअग्राः ।।1।।
अयमुशान: पर्यद्रिमुस्त्रा ऋतधीतिभिॠॅतयुग्युजान: ।
रुजदरुग्णं वि वलस्य सानुं पर्णीर्वचोभिरभि थोधदिन्द्रः ।|2।।
अयं द्योतयदद्युतो व्य१ क्तून् दोषा वस्तो: शरद इन्दुरिन्द्र ।
इमं केतुमदधुर्नु चिदह्नां शुचिजन्मन उषसश्चकार ।।3।।
अयं रोचयदरुचो रुचानो३ऽयं वासयद् व्यृ१तेन पूर्वी : ।
अयमीयत ॠतयुग्भिरश्वै: स्वर्विदा नाभिना चर्षणिप्रा: ।।4।।
३०४
सर्वत्र विचार, सत्य व शब्द ही पणियोंकी गौओंके साथ संबद्ध पाया जाता है; दिव्य-मनःशक्ति-रूप इन्द्रके शब्दों द्वारा वे जीते जाते हैं जो गौओं-को अवरुद्ध करते हैं, जो अंधकारपूर्ण था वह प्रकाशमय हो जाता है; सत्यसे जोते गये घोड़ोंसे खिंचनेवाला रथ (ज्ञानके द्वारा, स्वर्विदा नाभिना ) सत्ताकी, चेतना और आनंदकी प्रकाशमय विस्तीर्णताको पा लेता है जो अबतक हमारी दृष्टिसे ओझल है । 'ब्रह्य' (विचार ) के द्वारा इन्द्र 'वल'का भेदन करता है, अंधकारको ओझल करता है, 'स्वः'को सुदृश्य करता है ।
उद् गा आजद् अभिनद् ब्रह्यणा वलम् ।
अगूहत्तभो व्यचक्षयत् स्व: ।। (ऋ. 2.24.3 )
सारा ऋग्वेद प्रकाशकी शक्तियोंका एक विजयगीत है और गीत है प्रकाशकी शक्तियोंके ऊर्ध्वारोहणका, जो आरोहण सत्यके बल तथा दर्शनके द्वारा होता है और जो इस उद्देश्यसे होता है कि सत्यके स्रोत व घरमें, जहाँ कि सत्य अनृतके आक्रमणसे स्वतंत्र रहता है, पहुँचकर उस सत्यको अधिगत कर लिया जाय । 'सत्यके द्वारा गौएं (प्रकाशमान विचार ) सत्य-में प्रविष्ट होती हैं, सत्यकी तरफ जानेका यत्न करता हुआ व्यक्ति सत्यको जीतता है; सत्यका अग्रगामी बल प्रकाशकी गौओंको पाना चाहता है और (शत्रुको ) बीचमेंसे चीरता हुआ चला जाता है; सत्यके लिये दो विस्तृत लोक (द्यौ व पृथिवी ) बहुल, बहुविध और गभीर हो जाते हैं, सत्यके लिये दो परम माताएं अपना दूध देती हैं ।'
ऋतेन गाय ॠतमा विवेशुः ।
ॠतं येमाम ऋतमिद् वनोति, ऋतस्य शुष्मस्तुरया उ गव्यु: ।
ऋताय पृथ्यी बहुले गभीरे,ॠताय धेनू परमे दुहाते ।।
( ऋ. 4.23. 9-10 )
३०५
बाईसवां अध्याय
दस्युओंपर विजय
दस्यू आर्य-देवों तथा आर्य-ऋषियों दोनोंके विरोधमें खड़े होते हैं । 'देव पैदा हुए हैं 'अदिति'से वस्तुओंके उच्चतम (परम ) सत्यमें, दस्यु या दानव पैदा हुए हैं 'दिति'से निम्नतर (अवर ) अंधकारमें, देव हैं प्रकाशके अधिपति तथा दस्यु रात्रिके, और पृथिवी, द्यौ तथा मध्यके लोक (शरीर, मन तथा इनको जोड़नेवाले जीवन-प्राण )-इस त्रिविध लोकके आरपार इन दोनोंका आमना-सामना होता है । सूक्त 10.108 में आता है कि सरमा सर्वोच्च लोकसे, पराकात्, उतरती है; उसे 'रसा'के जलोंको पार करना पड़ता है, उसे 'रात्रि' मिलती है जो अपने अतिलंघन किये जानेके भयसे (अतिष्कदो भियसा) उसे स्थान दे देती है; वह दस्युओंके घर पहुंचती है, (दस्योरोको न.. .सदन । 1.104.5 ), जिस घरको स्वयं दस्युओंने ही इस रूपमें वर्णित किया है कि वह 'रेकु पदम् अरलकम्' (10.108.7 ) है, अर्थात् अनृतका लोक जो वस्तुओंकी सीमासे परे है । है तो उच्च लोक भी वस्तुओंकी सीमासे परे गया हुआ. क्योंकि वह इस सीमासे आगे बढ़ा हुआ या इस सीमाको लांघे हुए है; है यह भी ''रेकु पदम्'' पर 'अलकम्' नहीं किंतु 'सत्यम्' है, सत्यका लोक है न कि अनृतका लोक । अनृतका लोक है अंधकार जो कि ज्ञानरहित है (तमो अवयुनं ततन्वत्) । जब इन्द्रकी विशालता बढ़कर द्यौ, पृथिवी और मध्यलोक (अन्तरिक्ष ) को लांघ जाती है (रिरिचे), तब वह (इन्द्र ) आर्यके लिये, इस (अनृतलोक ) के विपरीत, सत्य और ज्ञानके लोक (वयुनवत्) को रचता है, जो ज्ञान और सत्यका लोक इन तीन लोकोंसे परे है और इसलिये 'रेकु पदम्' है । इस अन्धकारको इस अधोलोकको जो रात्रि और निश्चेतन का लोक है (वस्तुओंकी साकार सत्तामें इस रात्रि और अचेतनाको प्रतीकके तौरपर इस रूपमें वर्णित किया गया है कि यह वह पर्वत है जो पृथिवीके अभ्यन्तरसे उठता है और द्यौ के पृष्ठ तक जाता है ) उस गुप्त गुफासे निरूपित किया गया है जो पहाड़ीके अधोभागमें है और जो अन्घकारकी गुफा है ।
पर गफा पणियोंका केवल घर है, पणियोंका क्रिया-क्षेत्र तो है
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पृथिवी, द्यौ और मध्य-लोक । पणि अचेतनाके पुत्र हैं, पर स्वयं अपनी क्रियामें वे पूरे-पूरे अचेतन नहीं हैं; वे प्रतीयमान ज्ञानके रूपों (माया: ) को धारण करते हैं पर ये रूप वस्तुतः अज्ञानके रूप हैं जिनका सत्य अचेतनके अन्धकारमें छिपा हुआ है और इनका उपरितल या अग्रभाग अनृत है, न कि सत्य । क्योंकि संसार जैसा यह हमें दीखता है उस अन्धकारमेंसे निकला है जो अन्धकारमें छिपा हुआ था ( तम आसीत् तमसा गूढम् ), उस गम्भीर तथा अगाध जल-प्रवाहमेंसे निकला है जिसने सब वस्तुओंको आच्छादित कर रखा था, अचेतन समुद्र ( अप्रकेतं सलिलम् ) में से निकला है (देखो 10.129.3 ) ।1 उस असत्के अन्दर द्रष्टाओं ( कवियों ) ने हृदयमें इच्छा करके और मनमें विचारके द्वारा उसे पाया जिससे सत्य सत्ता रचित होती है2। वस्तुओंके सत्यका यह अनस्तित्व ( असत् ) उनका प्रथम रूप है, जो अचेतन समुद्रसे उद्भूत होता है; और इसका महान् अन्धकार ही वैदिक रात्रि है जो 'जगतो निवेशनी' है, जगत्को तथा जगत्की सारी अव्यक्त संभाव्य वस्तुओंको अपने अन्धकारमय हृदय ( वक्ष:स्थल ) में धारण किये हुए है (रात्रिम् जगतो निवेशनीम् ) । यह रात्रि हमारे इस त्रिगुण लोकपर अपना राज्य फैलाती है और इस रात्रिके अन्दरसे द्यौ में, मानसिक सत्तामें उषा पैदा होती है जो उषा सूर्यको अन्धकारमें से छुड़ाती है जहाँ वह छिपा हुआ तथा ग्रहणको प्राप्त हुआ पड़ा था, और जो 'असत्' में, रात्रिमें, परम दिनके साक्षात् दर्शनको रचती है ( असति प्र केतुम् ) । इसलिये इन तीन लोकोंके अन्दर ही प्रकाशके अधिपतियों ( देवों ) तथा अज्ञानके अधिपतियों ( दस्युओं ) के बीच युद्ध चलता है, अपने सतत उतार-चढ़ावोंमेंसे गुजरता हुआ चलता रहता है ।
'पणि शब्दका अर्थ है व्यवहारी, व्यापारी, जो 'पण' धातुसे ( तथा 'पन3 से, तुलना करो तामिल 'पण'-करना और ग्रीक 'पोनोस ( Ponos ) ' --श्रम करना ) बनता है और पणियोंको हम संभवत: यह समझ सकते
1. तम आसीत्तमसा गळहमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् ।
तुच्छश्चेनाभ्यपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम् ।।
2. सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ।। (ॠ. 10.129.4)
3 सायण 'पन' धातुका अर्थ वेदमें 'स्तुति करना' यह लेता है, पर एक स्थान पर उसने
' व्यवहार' अर्थ भी स्वीकार किया है । मुझे प्रतीत होता है कि अधिकांश सन्दर्भोंमें
इसका अर्थ 'क्रिया' है | क्रियार्थक 'पण'से ही, हम देखते हैं, कमेंन्द्रियोंके प्राचीन
नाम बने हैं. जैसे 'पाणि' अर्थात् हाथ, पैर या खुर, लैटिन पेनिस (Penis), इसके साथ
पायु'की भी तुलना कर सकते हैं ।
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हैं कि ये वे शक्तियाँ हैं जो जीवनकी उन सामान्य अप्रकाशमान इन्द्रिय-क्रियाओंकी अधिष्ठात्रियां हैं जिनका सीधा मूल अन्धकारमय अवचेतन भौतिक सत्तामें होता है, न कि दिव्य मनमें । मनुष्यका सारा संघर्ष इसके लिये है कि वह इस क्रियाको हटाकर इसके स्थानपर मन और प्राणकी प्रकाशयुक्त दिव्य क्रिया ले आये जो ऊपरसे और मानसिक सत्ताके द्वारा आती है । जो कोई इस प्रकारकी अभीप्सा रखता है, इसके लिये यत्न करता है, युद्ध करता है, यात्रा करता है, जीवनकी पहाड़ीपर आरोहण करता है, वह है आर्य ( आर्य, अर्य, अरिके अनेक अर्थ हैं श्रम करने, लड़ने, चढ़ने या उदय होने, यात्रा करने, यज्ञ रचनेवाला ) । आर्यका कर्म है यज्ञ, जो एक साथ एक युद्ध और एक आरोहण तथा एक यात्रा है, एक युद्ध है अन्धकारकी शक्तियोंके विरुद्ध, एक आरोहण है पर्वतकी उन उच्चतम चोटियोंपर जो द्यावापृथिवीसे परे 'स्वः'के अन्दर चली गयी हैं, एक यात्रा है नदियों तथा समुद्रके परले पारकी, वस्तुओंकी सुदूरतम असीमताके अन्दर । आर्यमें इस कर्मके लिये संकल्प होता है, वह इस कर्मका कर्ता ( कारु, किरि इत्यादि ) है, देव जो उसके कर्ममें अपना बल प्रदान करते है 'सुक्रतु' .हैं, यज्ञके लिये अपेक्षित शक्तिमें पूर्ण है; दस्यु या पणि इन दोनोंसे विपरीत है, वह ' अक्रतु' है । आर्य है यज्ञकर्ता 'यजमान, 'यज्यु'; देव जो उसके यज्ञको ग्रहण करते हैं, धारण करते हैं, प्रेरित करते हैं, 'यजत', 'यजत्र' है, यज्ञकी शक्तियाँ हैं; दस्यु इन दोनोंसे विपरीत है, वह 'अयज्यु' है ।
आर्य यज्ञमें दिव्य शब्द, गीः, मन्त्र, ब्रह्म, उक्यको प्राप्त करता है, वह ब्रह्या अर्थात् शब्दका गायक है; देव शब्दमें आनन्द लेते हैं और शब्दको धारित करते हैं ( गिर्वाहसः, गिर्वणसः ) । दस्यु शब्दसे द्वेष करनेवाले और उसके विनाशक हैं ( ब्रह्यद्विष: ), वाणीको दूषित या विकृत करनेवाले हैं (मृघ्रवचस: ) । दस्युओंके पास दिव्य प्राणकी शक्ति नहीं है या मुख नहीं है जिससे वे शब्द बोल सकें, वे अनास: ( 5 .29. 10 ) हैं; और उनके पास शब्दको तथा शब्दके अन्दर जो सत्य रहता है उसे विचारनेकी, मनोमय करनेकी शक्ति नहीं है, वै 'अमन्यमानाः' हैं, पर आर्य शब्दके विचारक हैं, 'मन्यमानाः' हैं, विचारको, विचारशील मनको और द्रष्टा-ज्ञानको धारण करनेवाले, 'धीर, मनीषी, कवि' हैं; साथ ही देव भी विचारके अत्युच्च विचारक हैं (प्रथमो मनोता धीय:, काव्य: ) । आर्य देवत्वोंके इच्छुक ( देवयुः, उशिज: ) हैं, वे यज्ञ द्वारा, शब्द द्वारा, विचार द्वारा, अपनी सत्ताको तथा अपने अन्दरके देवत्वोंको वृद्धिगत करना चाहते हैं । दस्यु हैं देवोंके द्वेषी देवद्विष:, देवत्वके बाघक (देवनिद:), जो किसी प्रकारकी
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भी वृद्धि नहीं चाहते (अवृधः ) । 'देव' आर्यपर ऐश्वर्य बरसाते हैं, आर्य अपना ऐश्वर्य देवोंको देता है, दस्यु अपनी दौलतको आर्यके पास जानेसे रोकता है जबतक कि वह उससे जबर्दस्ती छीन ही नहीं ली जाती, और वह देवोंके लिये अमृतरूप सोम-रसको नहीं निचोड़ता जो देव इस सोमके आनंदको मनुष्यके अन्दर पैदा करना चाहते हैं; यद्यपि वह 'रेवान्' है, यद्यपि उसकी गुफा गौओं, घोड़ों और खजानोंसे भरी पडी है (गोभिरश्वेभिर्वसुभिनर्यृष्टम् ), तो भी वह अराधस् है, क्योंकि उसकी दौलत मनुष्यको या स्वयं उसे किसी प्रकारकी समृद्धि या आनन्द नहीं देती--पणि सत्ताका कृपण है । और आर्य तथा दस्युके बीच संधर्षमें पणि सदा आर्यकी प्रकाशमान गौओंको लूट लेना और नष्ट कर देना, चुरा लेना तथा उन्हें फिरसे गुफाके अंधकारमें छिपा देना चाहता है । ''भक्षकको, पणिको, मार डालो; क्योंकि वह भेड़िया है (विदारक, 'वृक' है ) ।"1
यह स्पष्ट है कि ये वर्णन आसानीके साथ मानवीय शत्रुओंकी ओर भी लगाये जा सकते हैं और यह कहा जा सकता है कि दस्यु या पणि मानवीय शत्रु थे जो आर्यके संप्रदायसे तथा उसके देवोंसे द्वेष किया करते थे, पर हम देखेंगे कि इस प्रकारकी कोई व्याख्या बिल्कुल असंभव है, क्योंकि सूक्त 1.33 में जहाँ ये विभेद अत्यधिक स्पष्टताके साथ चित्रित किये गये हैं और जहाँ इन्द्र तथा उसके मानवीय सखाओंका दस्युओंके साथ युद्ध अत्यन्त यत्नपूर्वक वर्णित किया गया है, यह संभव नहीं है कि ये दस्यु, पणि और वृत्र मानवीय योद्धा, मानवीय जातियाँ या मानवीय लुटेरे हो सकें । हिरण्यस्तूप आंगिरसके इस सूक्तमें पहिली दस ऋचाएँ स्पष्टतया गौओंके लिये होनेवाले युद्धके विषयमें हैं और अतएव पणियोके विषयमें हैं ।
''एतायामोप गव्यन्त इन्द्रमस्माकं सु प्रमर्ति वावृधाति ।
अनामृण: कुविदादस्य रायो गवां केतं परमायर्जते न: ।। ( 1.33.1 )
आओ, गौओंकी इच्छा रखते हुए हम इन्द्रके पास चलें; क्योंकि वही हमारे अंदर विचारको प्रवृद्ध करता है; वह अजेय है और उसकी सुख-समृद्धियाँ (राय: ) पूर्ण हैं वह प्रकाशमान गौओंके उत्कष्ट ज्ञानन्दर्शनको हमारे लिये मुक्त कर देता है (उसे अंधकारसे जुदा कर देता है) । गवां केतं परमावर्जते न: (ऋचा 1 ) ।
उपेदहं धनदामप्रतीतं जुष्टां न श्येनो वसतिं पतामि ।
इन्द्रं नमस्यन्नुपमेभिरर्कै र्य: स्तोतृभ्यो हव्यो अस्ति यामन् ।। ( 1. 33. 2 )
1. जहो न्यत्रिणं पर्णि वृको हि षः ।। (6. 51. 14 )
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मैं अघर्षणीय ऐश्वर्यप्रदाता (इन्द्र ) की ओर शीघ्रतासे जाता हूँ, जैसे कोई पक्षी अपने प्यारे घोंसलेकी ओर उड़कर जाता है, प्रकाशके परम शब्दोंके साथ इन्द्रके प्रति नत होता हुआ, उस इन्द्रके प्रति जो अपने स्तोताओं द्वारा अपनी यात्रामें अवश्य पुकारा जाता है ( नत होता हुआ उसकी ओर जाता हूँ ) ( ऋचा 2 ) ।
नि सर्वसेन इषुर्धी रसक्त समर्यो गा अजति यस्य वष्टि ।
चोष्कूयमाण इन्द्र भूरि वाम मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध ।। ( 1. 33. 3 )
वह ( इन्द्र ) अपनी सब सेनाओंके साथ आता है और उसने अपने तूणीरोंको दृढ़तासे बाँध रखा है; वह योद्धा है ( आर्य है ) जो, जिसके लिये वह चाहता है, गौएँ ला देता है । ( हमारे शब्द द्वारा ) प्रवृद्ध हुए ओ इन्द्र ! अपने प्रचुर आनंदको हमसे अपने लिये मत रोक रख, हमारे अंदर पणि मत बन । चोक्यूयमाण इन्द्र भूरि वामं मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध ( ऋचा 3 ) ।"
यह अंतका वाक्यांश सहसा ध्यान खीचनेवाला है । पर प्रचलित व्याख्यामें इसे यह अर्थ देकर कि ''हमारे लिये तू कृपण मत हो'' इसके वास्तविक बलको खो दिया गया है । इस अर्थसे यह तथ्य ध्यानमें नही आता कि पणि दौलतके अवरोधक हैं, वे दौलतको अपने लिये रख लेते हैं और इस दौलतको न वे देवको देते हैं न ही मनुष्यको । इस वाक्यांशका अभिप्राय स्पष्टत: यही है कि ''आनंदकी अपनी भरपूर दौलत रखता हुआ तू पणि मत बन, अर्थात् ऐसा मत बन जैसा पणि होता है कि वह अपने हाथमें आयी दौलतोंको केवल अपने ही लिये रखता है और मनुष्यके पास जानेसे बचाता है; अभिप्राय हुआ कि आनंदको हमसे दूर छिपाकर अपनी पराचेतन गुहामें मत रख जैसे पणि अपनी अवचेतन गुफामें रखे रखता है ।''
इसके बाद सूक्त पणिका, दस्युका तथा पृथिवी और द्यौको अधिगत करनेके लिये उस पणि या दस्युके साथ इन्द्रके युद्धका वर्णन करता. है ।
''वधीर्हि दस्युं धनिनं धनेन एकश्चरन्नुपशाकेभिरिन्द्र ।
धनोरधि विषुणक् ते व्यायन्नयज्यानः सनका: प्रेतिमीयुः । । ( 1. 33. 4 )
वरंच, अपनी उन शक्तियोंके साथ जो तेरा कार्य सिद्ध करती हैं एकाकी विचरता हुआ तू, हे इन्द्र ! अपने वज्र द्वारा दौलतसे भरे दस्युका वध कर डालता है; वे ( बाणरूप शक्तियाँ ) जो तेरे धनुषपर चढ़ी हुई थीं पृथक्-पृथक् सब दिशाओंमें तेजीसे गयीं और वे जो ऐश्वर्यवाले होते हुए भी यज्ञ नहीं करते थे अपनी मौत मारे गये 1 ( ॠचा 4 )
परा चिच्छीर्षा ववृजुस्त इन्द्राऽयज्यानो यज्यभि: स्पर्धमाना ।
प्र यद् दिवो हरिवः स्थातरुग्र निरव्रर्ता अधमो रोदस्यो: । (।1. 33. 5)
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वे जों स्वयं यज्ञ नहीं करते थे और यज्ञकर्ताओंसे स्पर्धा करते थे, उनके सिर उनसे अलग होकर दूर जा पड़े, जब कि, ओ चमकीले घोड़ोंके स्वामिन् ! ओ द्यौमें दृढ़तासे स्थित होनेवाले ! तूने द्यावापृथिवीसे उन्हें बाहर निकाला जो तेरी क्रियाके नियमका पालन नहीं करते (अव्रतान् ) । ( ॠचा 5 )
अयुयुत्सन्ननवद्यस्य सेनामयातयन्त क्षितयो नवग्या: ।
वृषायुधो न वध्रयो निरष्टा: प्रवद्भिरिन्द्राच्चितयन्त आयन् ।। ( 1.33.6 )
उन्होंने निर्दोष ( इन्द्र ) की सेनासे युद्ध ठाना था; नवग्वाओंने उस ( इन्द्र ) को प्रयाणमें प्रवृत्त किया; उन बधिया बैलोंकी तरह जो साँड़ ( वृषा ) से लड़ते हैं वे बाहर निकाल दिये गये, वे जान गये कि इन्द्र क्या है और ढलानोंसे उसके पाससे नीचे भाग आये । ( ऋचा 6 )
त्यमेतान् रुदतो जक्षतश्चायोधयो रजस इन्द्र पारे ।
अवादहो दिव आ दस्युमुच्चा प्र सुन्वत: स्तुवतुः शंसमावः ।। ( 1. 33.7 )
ओ इन्द्र ! तूने उनसे युद्ध किया जो मध्यलोकके परले किनारेपर ( रजस: पारे, अर्थात् द्यौके सिरेपर ) हँस रहे थे और रो रहे थे, तूने उच्च द्यौसे दस्युको बाहर निकालकर जला डाला, तूने उसके कथनकी पालना की जो तेरी स्तुति करता है और सोम अर्पित करता है । ( ऋचा 7. )
चक्राणास: परीणहं पृथिव्याः हिरण्येन मणिना शुम्भमाना: ।
न हिन्वानासस्तितिरुस्त इन्द्रं परि स्पशो अदधात् सूर्येण ।। ( 1.33.8 )
पृथिवीके चारों ओर चक्र बनाते हुए वे सुनहरी मणि ( 'मणि' यह सूर्यके लिये एक प्रतीक-शब्द है ) के प्रकाशमें चमकने लगे; पर अपनी सारी दौड़-धूप करते हुए भी वे इन्द्रको लाँघकर आगे नहीं जा सके, क्योंकि उस ( इन्द्र ) ने सूर्य द्वारा चारों तरफ गुप्तचर बैठा रखे थे । ( ऋचा 8 )
परि यदिन्द्र रोदसी उभे अबुभोजी र्महिना विश्वत: सीम् ।
अमन्यमानाँ अभि मन्यमानैर्निर्ब्रह्मभिरधमो दस्युमिन्द्व ।। ( 1. 33. 9 )
जब तूने द्यावापृथिवीको चारों तरफ अपनी महत्तासे व्याप्त कर लिया तब जो ( सत्यको ) नहीं विचार सकते उनपर विचार करनेवालों द्वारा आक्रमण करके ( अमन्यमानान् अभि मन्यमानै: ) तूने ओ इन्द्र ! शब्दके वक्ताओं द्वारा ( ब्रह्मभि: ) दस्युको बाहर निकाल दिया । ( ऋचा 9 )
न ये दिव: पृथिव्या अन्तमापुर्न मायाभिर्धनदां पर्यभूवन् ।
युजं वज्रं वृषभश्चक्र इन्द्रो निर्ज्योतिषा तमसो गा अदुक्षत् ।। ( 1. 33.10 )
उन्होंने द्यौ और पृथिवीके अंतको नहीं पाया और वे अपनी मायाओसे ऐश्वर्यप्रदाता (इन्द्र) को पराजित नहीं कर सके; वषभ इन्द्रने वज्रको
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अपना सहायक बनाया, प्रकाश द्वारा उसने जगमगाती गौओंको अंधकारमेंसे दुह लिया ।'' (ऋचा 10 )
यह युद्ध पृथिवीपर नहीं, किंतु अन्तरिक्षके परले किनारेपर होता है, दस्यु वज्रकी ज्वालाओं द्वारा द्यौसे बाहर निकाल दिये जाते हैं, वे पृथिवीका चक्कर काटते हैं और द्यौ तथा पृथिवी दोनोंसे बाहर निकाल दिये जाते हैं; क्योंकि वे द्यौमें या पृथिवीमें कहीं भी जगह नहीं पा सकते, क्योंकि द्यावापृथिवी सारा-का-सारा अब इन्द्रकी महत्तासे व्याप्त हो गया है, न ही वे इन्द्रके वज्रोंसे बचकर कहीं छिप सकते हैं; क्योंकि सूर्य अपनी किरणोंसे इन्द्रको गुप्तचर दे देता है और उन गुप्तचरोंको वह इन्द्र चारों तरफ नियुक्त कर देता है, और उन किरणोंकी चमकमें पणि ढूंढ़ लिये जाते हैं । यह आर्य तथा द्राविड़ जातियोंके बीच हुए किसी पार्थिव युद्धका वर्णन नहीं हो सकता; न यह वज्र ही भौतिक वज्र हो सकता हैं, क्योंकि भौतिक वज्रका तो रात्रिकी शक्तियोंके विनाशसे तथा अंघकारमेंसे उषाकी गौओंके दुहे जानेसे कोई संबंध नहीं है । तब यह स्पष्ट है कि ये यज्ञ न करने-वाले, ये शब्दके द्वेषी जो इसके विचारनेतकमे असमर्थ हैं, कोई आर्य संप्रदायके मानवीय शत्रु नहीं है । ये तो वे शक्तियाँ है जो स्वयं मनुष्यके ही अंदर द्यौ तथा पृथिवीको अधिगत करनेका प्रयत्न करती हैं । ये दानव हैं, द्रविड़ नहीं ।
यह ध्यान देने योग्य बात है कि वे शक्तियाँ ''पृथिवी तथा द्यौकी सीमा (अंत )''को पानेका यत्न तो करती हैं, पर पानेमें असफल रहती हैं; हम अनुमान कर सकते हैं कि ये शक्तियाँ पृथिवी तथा द्यौसे परे स्थित उस उच्चतर लोकको जो केवल शब्द और यज्ञद्वारा ही जीता जा सकता है, शब्द या यज्ञके बिना ही अधिगत कर लेना चाहती हैं । वे अज्ञानके नियमसे शासित होकर सत्यको अधिगत करना चाहती हैं; पर पृथिवी या द्यौकी सीमाको पानेमें असमर्थ रहती हैं; केवल इन्द्र और देव ही इस प्रकार मन, प्राण और शरीरके विधि-नियमको पार करके आगे जा सकते हैं, जब कि पहले वे इन तीनोंको अपनी महत्तासे परिपूर्ण कर लेते है । सरमा ( 10.108.6 में ) पणियोंकी इसी महत्त्वाकांक्षाकी तरफ संकेत कर रही प्रतीत होती है--''हे पणियो ! तुम्हारे वचन कुछ भी प्राप्त करनेमें असमर्थ रहें, तुम्हारे शरीर पापी और अशुभ हों; अपने चलनेके लिये तुम मार्गको पद-दलित न कर सको; वृहस्पति तुम्हें (दिव्य तथा मानुष ) दोनों लोकोंके सुखको न दे ।"1
1. असेन्या व: पणयो वचांसि अनिषव्यास्तन्व: सन्तु पापी: ।
अधृष्टो व एतवा अस्तु पनथाः, बुहस्पतिर्य उभया न मृळात् ।। ( 10.108.6 )
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पणि सचमुच गर्वके मदमें यह प्रस्ताव रखते है कि 'हम इन्द्रके मित्र हो जायंगे, यदि वह हमारी गुफा में आ जायगा और हमारी गौओंका रखवाला बन जायगा ।'1 इसका सरमा यह उत्तर देती है कि 'इन्द्र तो सबको पराजित करनेवाला है, स्वयं वह पराजित तथा पीड़ित नहीं हो सकता ।2 और फिर पणि सरमासे यह प्रस्ताव करते हैं कि 'हम तुझे बहिन बना लेंगे यदि तू हमारे साथ रहने लगेगी और उस सुदूर लोकको नहीं लौटेगी जहाँसे तू देवोंकी शक्ति द्वारा सब बाधाओंका मुकाबला करके (प्रबाधिता सहसा दैव्येन) आयी है ।'3 सरमा उत्तर देती है, ''न मैं भाईपनेको जानती हूँ, न बहिनपनेको, इन्द्र और घोर अगिरस् जानें; गौओंकी कामना करते हुए उन्होंने मेरा पालन किया है, इसलिये मैं आयी हूँ; चले जाओ यहाँसे, ओ पणियो ! किसी प्रशस्त स्थानको (मंत्र 10 ) । यहाँसे कहीं दूर प्रशस्त स्थानको चले जाओ, ओ पणिओ! गौएँ जिन्हें तुमने बन्द कर रखा है सत्य द्वारा ऊपर चली जायं, वे छिपी हुई गौएं जिन्हें बृहस्पतिने ढूंढ़ा है और सोमने व अभिषवके पत्थरों (ग्रावाण: ) ने तथा प्रकाशयुक्त द्रष्टाओंने (ढूंढ़ा है ) ।', (मंत्र 11 ) 4
सूक्त 6.53 में, जो कि पुष्टिकर्ता पूषाके नामसे सूर्यको संबोधित किया गया एक सूक्त है, हम यह विचार-भी पाते हैं कि पणि स्वेच्छासे अपना खजाना दे दें ।
''वयमु त्वा पथस्पते रथं न वाजसातये । धिये पूषन्नयुज्यहि ।। (ऋ.6.53.1 )
हे मार्गके अधिपति पूषन् ! हम ऐश्वयोंको प्राप्त करनेके लिये, विचार के लिये, रथकी न्याई तुझे नियुक्त करते हैं । (मंत्र 1 )
अदित्सन्तं चिदाधृणे पूषन् दानाय चोदय ।
पणेश्चिद् वि म्रदा मन: ।। (6. 53.3 )
हे प्रकाशमान पूषन् ! उस पणिको भी जो देता नहीं है तू देनेके लिये प्रेरित कर; पणिके भी मनको तू मदु कर दे । (मंत्र 3 )
1. आ च गच्छान् मित्रमेना दधाम, अथा गवां गोपतिर्नो भवाति । (3 )
2. नाहं तं वेद दभ्यं दभत् स:, यस्येदं दूतीरसरं पराकात् । (4 )
3. एवा च त्वं सरम आ जगन्थ प्रबाधिता सहसा दैव्येन ।
स्वसारं त्वा कृणवै मा पुनर्गा अप ते गवां सुभगे भजाम ।। (10.108.9 )
4. नाहं देव भ्रातूत्वं नो स्वसृत्वमिन्द्रो विदुरङिरसश्च धोरा: ।
गोकामा मे अच्छदयन् यदायमपात हत पणयो वरीय: ।। (10.108.10)
दूरमित पणयो वरीय उद्गावो यन्तु मिनतीर्ॠतेन ।
बुहस्पतिर्या अविन्दन्निगूळहा: सोमो ग्रावाण ऋषयश्च षिप्रा: ।। (10.108.1 1 )
३१३
वि पथो वाजसातये चिनुहि वि मृधो जहि । साधुन्तामुग्रू नो धियः।। ( 6.53.4 )
उन मार्गोंको तू चुनकर पृथक् करदे जो मार्ग ऐश्वर्योंको प्राप्त करानेके लिये हैं, आक्रान्ताओंका वधकर डाल, हमारे विचार पूर्णताको प्राप्त हो जावें । (मंत्र 4)
परि तृन्धि पणीनामारया हृदया कवे । अथेमस्मभ्यं रन्धय ।। (6.53.5 )
हे द्रष्ट ! अपने अंकुशसे पणियोंके हृदयोंको विद्ध कर; इस प्रकार उन्हें हमारे वश कर दे । (मंत्र 5 )
वि पूषन्नारया तुद पणेरिच्छ हृदि प्रियम् । अथेमस्मभ्यं रन्धय ।। (6.53.6 )
अपने अंकुशसे, हे पूषन् ! तू उनपर प्रहारकर और पणिके हृदयमें हमारे आनंदकी इच्छाकर, इस प्रकार उसे हमारे वश कर दे । (मंत्र 6)
यां पूषन् ब्रह्मचोदनीमारां बिभर्ष्याधृणे ।
तया समस्य हृदयमा रिख किकिरा कृणु ।। (6.53.8 )
जिस ऐसे अंकुशको तू धारण करता है जो शब्दको उठनेके लिये प्रेरित करनेवाला है उससे, हे प्रकाशमान पूषन् ! तू सबके हृदयोंपर अपना लेख लिख दे और उन हृदयोंको छितरा हुआ कर दे, (इस प्रकार उन्हें हमारे वश कर दे ) । (मंत्र 8 )
या ते अष्ट्रा गोओपशाऽऽघृणे पशुसाधनी ।
तस्यास्ते सुम्नमीमहे ।। (6.53.9 )
जो तेरा अंकुश ऐसा है जिसमें तेरी किरण नोकका काम करती है और जो पशुओंको पूर्ण बनानेवाला है (अभिप्राय है, ज्ञान-दर्शनके पशुओंको, पशु-साधनी, तुलना करो चतुर्थ ऋचामें आये ''साधन्तां धियः''से ) उस (अंकुश ) का आनंद हम चाहते. हैं । (मंत्र 9 )
उस नो गोषणि षियमंश्वसा वाजसामुत ।
नृवत् कृणुहि वीतये ।। (6.53.10 )
हमारे लिये उस विचारको रच, जो गौको जीत लेनेवाला है, जो घोड़ेको जीत लेनेवाला है और जो दौलतकी पूर्णताको जीत लेनेवाला है ।'' (मंत्र 10 )
पणियोंके इस प्रतीककी हमने जो व्याख्याकी है यदि वह ठीक है तब इस सूक्तमें वर्णित विचार पर्याप्त रूपसे सभझमें आ सकते हैं और इसके लिये ऐसी आवश्यकता नहीं है, जैसा कि सायण ने किया है, कि पणि शब्दमें जो सामान्य आशय अन्तर्निहित है उसे अलगकर .दिया जाय और पणिका अर्थ केवल 'कृपण, लुब्ध मनुष्य' इतना ही समझा जाय और यह समझा जाय कि इस कृपणके ही संबधमें भूखसे मारा हुआ कवि इस प्रकार दीनतापूर्वक सूर्य-देवतासे प्रार्थना कर रहा है कि तू इसे मदु करदे और देनेवाला बना दे ।
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वैदिक विचार यह था कि अवचेतन अंधकारके अंदर तथा सामान्य अज्ञानके जीवनमें वे सब ऐश्वर्य छिपे पड़े हैं जो दिव्य जीवनसे संबंध रखते हैं और इन गुप्त ऐश्वर्योंका फिरसे प्राप्त किया जाना आवश्यक है और उसका उपाय यह है कि पहले तो अज्ञानकी अनुतापरहित शक्तियोंका विनाश किया जाय और फिर निम्न जीवनको उच्च जीवनके अधीन किया जाय ।
इन्द्रके संबंधमें, जैसा कि हम देख चुके हैं, यह कहा गया है कि वह दस्युका या तो वधकर देता है या उसे जीत लेता है और उसकी दौलत आर्यको दिलवा देता है । इसी प्रकार सरमा भी पणियोंके साथ बंधुत्व कायमकर संधिकर लेनेसे इन्कार कर देती है, बल्कि उन्हें यह सलाह देती है कि तुम अपने-आपको समर्पणकर दो और देवों तथा आर्योंके आगे झुक जाओ, और कैदकी हुई गौओंको ऊपर आरोहण करनेके लिये छोड़ दो और तुम स्वयं इस अंधकारको छोड़कर किसी प्रशस्त स्थानको चले जाओ (आ वरीय: ) । और प्रकाशमान द्रष्टा, सत्यके अधिपति पूषाके अंकुशके अविरत स्पर्शसे ही पणिका हृदय-परिवर्तन होता है--उस अंकुशके जो बन्द हृदयको भग्नकर खोल देता है और इसकी गहराइयोंसे पवित्र शब्दको उठने देता है, उस चमकीली नोकवाले अंकुशके जो जगमगाती गौओंको पूर्ण बनाता है, प्रकाशमान विचारोंको सिद्ध करता है; तब सत्यका देवता इस पणिके अंधकारपूर्ण हृदयमें भी उसीकी इंच्छा करने लगता है जिसकी आर्य इच्छा करता है । इस प्रक्रार प्रकाश तथा सत्यकी इस गहराई तक पहुंचनेवाली क्रिया द्वारा ही सामान्य अज्ञानमय इन्द्रिय-क्रियाकी शक्तियां आर्यके वशमें हो जाती हैं ।
परंतु साधारणत: पणि आर्यके शत्रु, दास हैं । 'दास' अधीनता या सेवाके अर्थमें नहीं बल्कि विनाश या क्षतिके अर्थमें (दासका अर्थ सेवक भी है जब कि वह करणार्थक 'दस्'से बनता है; 'दास' या 'दस्यु'का दूसरा अर्थ है शत्रु, लुटेरा और यह उस 'दस्' धातुसे बनता है जिसका अर्थ है विभक्त करना, चोट मारना, क्षति पहुंचाना; पणि आर्यके दास इस दूसरे अर्थमें ही है ) । पणि लुटेरा है प्रकाशकी गौओंको, वेगके घोड़ोंको और दिव्य ऐश्वर्यके खजानोंको बलपूर्वक छीन ले जाता है, वह भेड़िया है, भक्षक है, 'वृक' है, 'अत्रि' है; वह शब्दको बाधा डालकर रोकनेवाला (निद् ) और शब्दको विकृत करनेवाला है । वह शत्रु है, चोर है, झूठा या बुरा विचार करनेवाला है जो अपनी लूटमारोंसे और बाधाओंसे मार्गको दुर्गम बना देता है; ''शत्रुको, चोरको, कुटिलको जो कि विचारको झूठे रूपमें स्थापित करता है, हमसे बहुत दूर, बिलकुल परे कर दे; हे सत्ताके पति ! हमारे मार्गको
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आसान यात्रावाला कर दे ।..... .पणिका वध कर दे, क्योंकि वह एक ऐसा भेड़िया है जो खा जानेवाला है''1 (6.51.13-14 ) ।
यह आवश्यक है कि उसका आक्रमणके लिये उठना देवोंके द्वारा रोका जाय । ''इस देव (सोम)ने जन्म पाकर, सहायकके रूपमें इन्द्रको साथ लेकर बलके प्रयोगसे पणिको रोक दिया''2 (6.44.22 ) और स्वःको, सूर्यको तथा सब ऐश्वर्योंको जीत लिया । पणियोंको मार डालना या भगा देना अभीष्ट है जिससे उनके ऐश्वर्य उनसे छीनकर उच्चतर जीवनको समर्पित किये जा सकें । ''तू जिसने पणिको लगातार भिन्न-भिन्न श्रेणियोंमें विभक्त-कर दिया, तेरे ही ये जबर्दस्त दान हैं, हे सरस्वति । सरस्वति ! देवोंके बाधकोंको कुचल डाल''3 (6.6। ) । ''हे अग्नि और सोम ! तब तुम्हारी शक्ति जागृत हुई थी जब कि तुमने पणिके पाससे गौएं लूटी थीं और बहुतोंके लिये एक ज्योतिको पा लिया था ।''4 (1.93.4 )
जब देव यज्ञके लिये उषामें जागृत होते हैं तब कहीं ऐसा न हो कि पणि भी यज्ञकी सफल प्रगतिमें बाधा डालनेके लिये जाग उठे, सो उन्हें अपनी गुफाके अन्धकारमें सोये पड़े रहने दो । ''हे ऐश्वर्योंकी सम्राज्ञी उष: ! उन्हें तू जगा दे जो हमें परिपूर्ण करते हैं (अर्थात् जो देव हैं ), पर पणियोंको न जगाते हुए सोये पड़े रहने दे । ऐ ऐश्वर्योंकी सम्राज्ञी ! ऐश्वर्यके अधिपतियोंके लिये तू ऐश्वर्योंको साथ लेकर उदित हो, हे सत्यमयी उषः ! उसके लिये तू ऐश्वर्योंको साथ लेकर (उदित ) हो जो तेरा स्तोता है । यौवनमें भरी हुई वह (उषा ) हमारे आगे चमक रही है, उसने अरुण गौओंके समूहको रच लिया है, असत्में साक्षात् दर्शन विशाल रूपमें उदित हो गया है,''5
1- अप त्यं वृजिनं रिपुं स्तेनमग्ने दुराध्यम् । दविष्ठमस्य सत्पते कृधी सुगम् ।।
...... जही न्यत्रिणं पणिं वृको हि षः: ।। (6.51.13-14)
2. ''अयं देव: सहसा जायमान इन्देण युजा पणिमस्तभायत् ।'' (6.44.22 )
3. या शश्वन्तमाचखादावसं पर्णि ता ते दात्राणि तविषा सरस्वति ।
सरस्वति देवनिदो निबर्हय ।। (6.61.1, 3 )
4. अग्नीषोमा चेति तद् वीर्य वां यदमुष्णीतमवसं पर्णि गा: ।
(अवातिरत बृसयस्य शेष: ) अविन्दतं ज्योतिरेकं बइम्ब: ।। (1.93.4)
5. प्र बोधयोषः. पुणतो मघोन्यबुध्यमानाः पणयः ससन्तु ।
रेवदुच्छ मदवभ्यो मघोनि रेवत् स्तोत्रे सूनृते जारयन्ती ।।10|।
अवेमश्वैद् युवति: पुरस्ताद् युङ्गक्ते गवामरुणानामनीकम् ।
वि नूनमुच्छादसति प्र केतु (र्गृहं गुहमुप तिष्ठाते अग्नि: ) ।। (ऋ. 1.124)
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( 1.124.10-11 ) । या फिर इसी बातको 4.51 में देख सकते हैं--''देखो, हमारे आगे वह ज्ञानसे परिपूर्ण श्रेष्ठतम प्रकाश अन्धकारमेंसे उदित हो गया है, द्यौकी पुत्रियां विशाल रूपमें चमक रही हैं, इन उषाओंने मनुष्यके लिये मार्ग रच दिया है ( मन्त्र 1 ) । उषाएं हमारे आगे खड़ी हुई हैं जैसे कि यज्ञोंमें स्तम्भ; विशुद्ध रूपमें उदित होती हुई और पवित्र करनेवाली उन ( उषाओं ) ने बाड़ेके, अन्धकारके द्वारोंको खोल दिया है ( मन्त्र 2 ) । आज उदित होती हुई उषाएं सुख-भोक्ताओंको समृद्ध आनन्द देनेके लिये ज्ञानमें जागृत कर रही हैं, अन्धकारके मध्यमें जहां प्रकाश क्रीडा नहीं करता पणि न जागते हुए सोये पड़े रहें ( मन्त्र 3 ) ।''1 इसी निम्न अन्धकारक अन्दर वे पणि उच्च लोकोंसे निकालकर डाल दिये जाने चाहियें और उषाओंको जिन्हें पणियोंने उस रात्रिमें कैद कर रखा है चढ़ाकर सर्वोच्च लोकोंमें पहुंचा देना चाहिये । इसलिये वेदमें कहा है-
''न्यक्रतून् ग्रथिनो मृध्रवाच: पर्णी रश्रद्धाँ अवृधां अयज्ञान् ।
प्रप्र तान् दस्यूँरग्निर्विवाय पुर्वस्चकारापरां अयज्यून् ।। ( 7.6.3 )
जो पणि कुटिलताकी गांठ पैदा करनेवाले हैं, जो कर्मोंको करनेका संकल्प नहीं रखते, जो वाणीको विकृत करनेवाले हैं, जो श्रद्धा नहीं रखते, जो वृद्धिको नहीं प्राप्त होते, जो यज्ञ नहीं करते, उन पणियोंको अग्निने दूर, बहुत दूर खदेड़ दिया; उस पूर्व अर्थात् प्रकृष्ट या उच्च ( अग्नि ) ने जो यज्ञ नहीं करना चाहते उन ( पणियों ) को सबसे नीचे, अपर, कर दिया ।।3 ।।
यो अपाचीने तमसि मदन्ती: प्राचीश्चकार नृतम: शचीभि :... ।
और उनको ( गौओंको; उषाओंको ) जो निम्न अन्धकारमें आनन्द ल रही थीं, अपनी शक्तियोंसे उस नृतम ( अग्नि ) ने सर्वोच्च ( लोक ) की तरफ प्रेरित कर दिया ।।4 ।।
यो देह्यो अनमयद् वधस्नैर्यो अर्यपत्नीरुषसश्चकार ।
उसने अपने आघातोंसे उन दीवारोंको जो सीमित करनेवाली थीं तोड़ गिराया, उसने उषाओंको आर्यकी सहचारिणी, अर्यपत्नी कर दिया ।।5।।''
1. इदमु त्यत् पुरुतमं पुरस्ताज्ज्योतिस्तमसो वयुनावदस्थात् ।
नूनं दिवो दुहितरो विभातीर्गातु कृंणवन्नुषसो जनाय ।।
अस्थुरु चित्रा उषस : पुरस्तान्मिता इव स्यरवोडध्वरेषु ।
व्यु व्रजस्य तमसो द्वारोच्छन्तीव्रच्छुचय: पादका: ।।
उच्छन्तीरद्य चितयन्त भोजान् राधोदेयेयायोषसो मधोनी: ।
अचित्रे अन्त: पणय: ससन्त्वबुध्यमानास्तमसो विमध्ये ।। (4.5 1.1 -3 )
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नदियां और उषाएं जब 'वृत्र' या 'वल'के कब्जेमें होती है तब वे 'दासपत्नी' कही गयी है देवोंकी क्रिया द्वारा वे 'अर्यपत्नी बन जाती हैं आर्यकी सह-चारिणी हो जाती हैं ।
अज्ञानके अधिपतियोंका वधकर देना चाहिये या उन्हें सत्यका और सत्य के अन्वेष्टाओंका दास बना देना चाहिये, परन्तु पणियोंके पास जो दौलत है उसे पा लेना मानवीय परिपूर्णताके लिये अनिवार्य है; इन्द्र मानो ''पणिके दौलतसे अधिकतम भरे मूर्धापर'' खड़ा हो जाता है, ( पणीनां वर्षिष्ठे मूर्ध-न्नस्थात् । ऋ. 6.45.31 ) । वह स्वयमेव प्रकाशकी गौ और ( शक्तिमय ) वेगका घोड़ा बन जाता है1 और सदा प्रवृद्ध होती रहनेवाली सहस्रों गुणा दौलत बरसा देता है2 । पणिवाली उस प्रकाशमान दौलतकी परिपूर्णता और द्यौकी तरफ आरोहण, जैसा कि हमें पहलेसे ही मालूम है, अमरत्वका मार्ग है और अमरत्वका जन्म है । ''अंगिराने ( सत्यकी ) सर्वोच्च अभि-व्यक्ति (वय: ) को धारण किया, उन ( अंगिरसों ) ने जिन्होंने कर्मकी पूर्ण सिद्धि द्वारा अग्निको प्रज्वलित किया था; उन्होंने पणिके सारे सुख-भोगको, इसके घोड़ोंवाले और गौओंवाले पशु-समूहको, अपने हस्तगत कर लिया ( 1 .83 .4 ) । यज्ञों द्वारा सर्वप्रथम अथर्वाने पथका निर्माण किया, उसके बाद सूर्य पैदा हुआ जो 'व्रतपा' और 'वेन' अर्थात् नियमका रक्षक और आनन्दमय है (तत: सूर्यो व्रतपा वेन आजनि ) । उशना काव्यने गौओंको ऊपरकी तरफ हांक दिया । हम चाहते हैं कि इनके साथ यज्ञ द्वारा वह अमरत्व पा सकें जो नियमके अधिपतिके पुत्रके तौरपर उत्पन्न हुआ है ( 1 .83.5 ) ''3, यमस्य जातममृतं यजामहे ।
अंगिरा द्रष्टा-संकल्प ( Seer-Will ) का द्योतक ॠषि है, अथर्वा दिव्य पथपर यात्राका ॠषि है, उशना काव्य उस द्युमुखी इच्छाका ऋषि है जो इच्छा द्रष्टा-ज्ञानमेंसे पैदा होती है । अगिरस् उन ज्योतियोंकी संपदाको और सत्यकी शक्तियोंको जीतते हैं जो निम्न जीवनके तथा निम्न जीवनकी कुटिलताओंके पीछे छिपी पड़ी थीं; अथर्वा उनकी शक्तिमें पथका निर्माण कर
1. गौरसि वीर गव्यते, अश्वो अश्वायते भय ।। (ॠ. 6.45.26 )
2. यस्य वायोरिव द्रवद् भद्रा राति: सहस्त्रिणी ।। (6.45.32 )
3. आदङ्गिराः: प्रथमं दधिरे वय इद्धाग्नय: शम्या ये सुकृत्यया ।
सर्व पणे: समविन्दन्त भोजनमश्वावन्तं गोमन्तमा पशुं नर: ।।4।।
यज्ञैरथर्वा प्रथम: पथस्तते तत: सूर्यो व्रतपा वेन आजनि ।
आ गा आजदुशना काव्यः सचा यमस्य जातममृतं यजामहे ।।5।।
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देता है और तब प्रकाशका अधिपति सूर्य पैदा हो ताजा है जो दिव्य नियम-का तथा यम-शक्तिका संरक्षक है, उशना हमारे विचारकी प्रकाशात्मक गौओंको सत्यके उस पथपर हांकता हुआ ऊपर उस दिव्य आनन्द तक पहुंचा देता है जो सूर्यमें रहता है; इस प्रकार सत्यके नियममेंसे वह अमरत्व पैदा हो जाता है जिसकी आर्य-आत्मा यज्ञ द्वारा अभीप्सा किया करता है ।
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तेईसवाँ अध्याय
परिणामोंका सार
अब हम ऋग्वेदमें आनेवाले अगिरस्-कथानककी, सभी सम्भव पहलुओंको लेकर तथा इसके मुख्य प्रतीकों सहित, समीपताके साथ परीक्षा कर चुके हैं और इसलिये इस स्थितिमें हैं कि इससे हमने जो परिणाम निकाले हैं उन्हें यहाँ निश्चयात्मकताके साथ संक्षेपसे वर्णित कर दें । जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूँ, अगिरसोंका कथानक तथा वृत्रकी गाथा-थे दो वेदके आधारभूत रूपक हैं, ये सारे वेदमें पाये जाते हैं, और बार-बार आते हैं, ये सूक्तोंमें इस रूपमें आते हैं मानो ये प्रतीकात्मक अलंकारवर्णनाके दो आपसमें घनिष्ठतया जुड़े हुए मुख्य तार हैं और इन्हींके चारों ओर अवशिष्ट सारा वैदिक प्रतीकवाद बानेकी तरह ओतप्रोत है । यही नहीं कि ये इसके केंद्रभूत विचार हैं बल्कि ये इस प्राचीन रचनाके मुख्य स्तम्भ हैं । जब हम इन दो प्रतीकात्मक रूपकोंके अभिप्रायको निश्चित कर लेते हैं तो मानो हमने सारी ही ऋक्-संहिताका अभिप्राय निश्चित कर लिया । क्योंकि यदि वृत्र और जल बादल और वर्षाके तथा पञ्जाबकी सात नदियोंके प्रवाहित हो पड़नेके प्रतीक हैं और यदि अगिरस् भौतिक उषाके लानेवाले हैं तो वेद प्राकृतिक घटनाओंका एक प्रतीकवाद है जिसमें इन प्राकृतिक घटनाओंको देवों और ऋषियों तथा उपद्रवी दानवोंका सजीव रूप देकर वर्णित किया गया है । और यदि 'वृत्र' और 'वल' द्राविड़ देवता हैं तथा 'पणि' और 'वृत्रा: ' मानवीय शत्रु हैं तो वेद द्राविड़ भारतपर प्रकृतिपूजक जंगलियों द्वारा किये गये आक्रमणका एक कवितामय तथा कथात्मक उपाख्यान है । किन्तु इस सबके विपरीत यदि वेद प्रकाश और अन्धकार, सत्य और अनृत, ज्ञान और अज्ञान, मृत्यु और अमरताकी आध्यात्मिक शक्तियोंके मध्य होनेवाले संघर्षका एक प्रतीकवाद है तो यही असली वेद है, यही सम्पूर्ण वेदका वास्तविक आशय है
हमने यह परिणाम निकाला है कि अगिरस् ऋषि उषाके लानेवाले हैं, सूर्यको अन्धकारमेंसे छुड़ानेवाले हैं, पर ये उषा सूर्य अन्धकार प्रतीकरूप हैं जो आध्यात्मिक अर्थमें प्रयुक्त किये गये हैं । वेदका केन्द्रभूत विचार है अज्ञानके अन्धकारमेंसे सत्यकी विजय करना और साथ ही सत्यकी विजय
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द्वारा अमरताकी भी विजय कर लेना । क्योंकि वैदिक ऋतम् जहाँ मनो-वैज्ञानिक विचार है वहाँ आध्यात्मिक विचार भी है । यह 'ऋतम्' सत्ताका सत्य सत्, सत्य चैतन्य, सत्य आनन्द है जो इस शरीररूप पृथिवी, इस प्राणशक्तिरूप अन्तरिक्ष, इस मनरूप सामान्य आकाश या द्यौसे परे है । हमें इन सब स्तरोंको पार करके आगे आना है उस पराचेतन सत्यके उच्च स्तरमें पहुँच सकें जो देवोंका स्वकीय घर है और अमरत्वका मूल है । यही 'स्व:'का लोक है जिसतक पहुँचनेके लिये अंगिरसोंने अपनी आगे आनेवाली सन्ततियोंके लाभार्थ मार्ग ढूंढ़ा है ।
अंगिरस् एक साथ दोनों हैं, एक तो दिव्य द्रष्टा जो देवोंके विश्व-सम्बन्धी तथा मानवसम्बन्धी कार्योंमें सहायता करते हैं, और दूसरे उनके भूमिष्ठ प्रतिनिधि, पूर्वज पितर, जिन्होंने सर्वप्रथम वह ज्ञान पाया था जिसके वैदिक सूक्त गीत हैं' संस्मरण हैं और फिरसे नवीन रूपमें अनुभव करने योग्य सत्य हैं । सात दिव्य अगिरस् अग्निके पुत्र या अग्निकी शक्तियाँ है, द्रष्टा-संकल्पकी शक्तियाँ हैं और यह 'अग्नि' या 'द्रष्टा-संकल्प' है दिव्य शक्तिकी दिव्य ज्ञानसे उद्दीप्त वह ज्वाला जो विजयके लिये प्रज्यलित की जाती है । भृगुओंने तो पार्थिव सत्ताकी वृद्धियों (उपचयों ) में छिपी हुई इस ज्वालाको ढ़ूँढ़ा है, पर अगिरस् इस ज्यालाको यज्ञकी वेदीपर प्रज्वलित करते हैं .और यज्ञको यज्ञिय वर्षके काल-विभागोंमे लगातार जारी रखते हैं, जो काल-विभाग उस दिव्य प्रयासके काल-विभागोके प्रतीक हैं जिसके द्वारा सत्य का सूर्य अन्धकारमेंसे निकालकर पुन: प्राप्त किया जाता है । वे जो इस वर्षके नौ महीनोंतक यज्ञ करते हैं नवग्वा हैं, नौ गौओं या किरणोंके द्रष्टा हैं, जो सूर्यकी गौओंकी खोज आरंभ करते हैं और पणियोंके साथ युद्ध करनेके लिये इन्द्रको प्रयाणमें प्रवृत्त करते हैं । वे जो दस महीनोंतक यज्ञ करते हैं दशग्वा हैं, दस किरणोंके द्रष्टा हैं, जो इन्द्रके साथ पणियोकी गुफामें घुसते हैं और खोयी हुई गौएँ वापिस ले आते हैं ।
यज्ञ यह है कि मनुष्यके पास अपनी सत्तामें जो कुछ है उसे वह उच्चतर या दिव्य प्रकृतिको अर्पित् कर के और इस
यज्ञका फल यह होता है कि उसका मनुष्यत्व देवोंके मुक्तहस्त दानके द्वारा और अधिक समृद्ध हो जाता है । संपत्ति जो इस प्रकार यज्ञ करनेसे प्राप्त होती है आध्यात्मिक ऐश्वर्य, समृद्धि, आनन्दकी अवस्थासे निर्मित होती है और यह अवस्था स्वयं यात्रामें सहायक होनेवाली एक शक्ति है और युद्धकी एक शक्ति है । क्योंकि यज्ञ यात्रा है, एक प्रगति यज्ञ स्वयं यात्रा करता
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है जो उसकी यात्रा 'अग्नि'को नेता बनाकर दिव्य मार्गसे देवोंके प्रति होती है और 'स्वः''के दिव्य लोकके प्रति अंगिरस पितरोंका आरोहण इसी यात्राका आदर्श रूप (नमूना ) है । अगिरस्-पितरोंकी यह आदर्श यज्ञ-यात्रा एक युद्ध भी है, क्योंकि पणि, वुत्र तथा पाप और अनृतकी अन्य. शक्तियाँ इस यात्राका विरोध किया करतीं हैं और इन्द्र तथा अगिरस् ऋषियोंकी पणियोंके साथ लडाई इस युद्धका एक मुख्य कथांग है ।
यज्ञके प्रधान अंग है दिव्य ज्वालाको प्रज्वलित करना, 'घृत'की तथा सोमरसकी हवि देना और पवित्र शब्दका गान करना । स्तुति तथा हविके द्वारा देव प्रवृद्ध होते हैं, उनके लिये कहा गया है कि वे मनुष्यके अन्दर उत्पन्न होते हैं, रचे जाते हैं या अभिव्यक्त होते हैं तथा यहाँ अपनी वृद्धि और महत्तासे वे पृथिवी और द्यौको अर्थात् भौतिक और मानसिक सत्ताको इनका अधिक-से-अधिक जितना ग्रहणसामर्थ्य होता है उतना बढ़ा देते हैं और फिर, इन्हें अतिक्रान्त करके, अवसर आनेपर उच्चतर लोकों या स्तरोंकी रचना करते हैं । उच्चतर सत्ता दिव्य है, असीम है, जिसका प्रतीक है चमकीली गौ, असीम माता, अदिति; निम्न सत्ता उसके अन्धकारमय रूप दितिके अधीन है ।
यज्ञका लक्ष्य है उच्च या दिव्य सत्ताको जीतना और निम्न या मानवीय सत्ताको इस दिव्य सत्तासे युक्त कर देना तथा इसके नियम और सत्यके अधीन कर देना । यज्ञका 'घृत' चमकीली गौंकी देन है, यह 'घृत' मानवीय मनके अन्दर सौर प्रकाशकी निर्मलता या चमक है । 'सोमरस' है सत्ताका अमृतरूप आनन्द जो जलोंमें और सोम-नामक पौधे (लता ) में निगूढ़ रहता है और देवों तथा मनुष्यों द्वारा पान करनेके लिये निचोड़ा जाता है । शब्द है अन्तःप्रेरित वाणी जो सत्यके उस विचार-प्रकाशकों अभिव्यक्त करती है जो आत्मामेंसे उठता है, हृदयमें निर्मित होता है और मन द्वारा आकृति-युक्त होता है । 'अग्नि' घृतसे प्रवृद्ध होकर और 'इन्द्र' सोमकी प्रकाशमय शक्तिसे तथा आनन्दसे सबल और शब्द द्वारा प्रबुद्ध होकर, सूर्यकी गौओंको फिरसे पा लेनेमें अगिरसोंकी सहायता करता है ।
बृहस्पति सर्जनकारी शब्दका अधिपति है । यदि अग्नि प्रथम अंगिरा है, वह ज्वाला है जिससे अंगिरस् ऋषि पैदा हुए हैं तो बृहस्पति वह एक अंगिरा है जो सातमुखवाला अर्थात् प्रकाशकारी विचारकी सात किरणों-वाला और इस विचारको अभिव्यक्त करनेवाले सात शब्दोंवाला (एक अंगिरा ) है, जिसकी ये सात ऋषि (अंगिरस् ) उच्चारण-शक्तियाँ बने हैं । यह सत्यका सात सिरोंवाला अर्थात् पूर्ण विचार है जो मनुष्यके लिये यज्ञकी
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लक्ष्यभूत पूर्ण आध्यात्मिक संपदाको जीतकर उसके लिये चौथे या दिव्य लोकको जीत लाता है । इसलिये अग्नि, इन्द्र, बृहस्पति, सोम सभी इस रूपमें वर्णित किये गये हैं कि ये सूर्यकी गौओंको जीत लानेवाले हैं और उन दस्युओंके विनाशक हैं जो उन गौओंको छिपा लेते हैं और मनुष्यके पास आनेसे रोकते हैं । सरस्वती भी, जो दिव्य शब्दकी धारा या सत्यकी अन्तःप्रेरणा है, दस्युओंका वध करनेवाली और चमकीली गौओंको जीतने-वाली है, उन गौओंको ढूंढ़ा है इन्द्रकी अग्रदूती सरमाने जो सूर्यकी या उषाकी एक देवी है और सत्यकी अन्तर्ज्ञानमयी शक्तिका प्रतीक मालूम होती है । उषा एक साथ दोनों है, स्वयं वह इस महान् विजयमें एक कार्यकर्त्री भी है और पूर्ण रूपमें उसका आगमन इस विजयका उज्ज्वल परिणाम है ।
उषा दिव्य अरुणोदय है, क्योंकि सूर्य जो उसके आगमनके बाद प्रकट होता है पराचेतन सत्यका सूर्य है; दिन जिसको वह सूर्य लाता है सत्यमय ज्ञानके अन्दर होनेवाला सत्यमय जीवनका दिन है, रात्रि जिसे वह विध्वस्त करता है अज्ञानकी रात्रि है जो अबतक उषाको अपने अन्दर छिपाये है । उषा स्वयं सत्य है, सूनृता है और सत्योंकी माता है । दिव्य उषाके इन सत्योंको उषाकी गौएँ, उषाके चमकीले पशु कहा गया है; जब कि सत्यके वेगवान् बलोंको जो उन गौओंके साथ-साथ रहते हैं और जीवनको अधिष्ठित करते हैं उषाके घोड़े कहा गया है । गौओं और घोड़ोंके इस प्रतीकके चारों ओर वैदिक प्रतीकवादका अधिकांश घूम रहा है, क्योंकि ये ही उन सम्पत्तियोंके मुख्य अंग हैं जिन्हें मनुष्यने देवोंसे पाना चाहा है । उषाकी गौओंको अन्धकारके अधिपति दानवोंने चुरा लिया है और ले जाकर गूढ़ अवचेतनाकी अपनी निम्नतर गुफामें छिपा दिया है । वे गौएँ ज्ञानकी ज्योतियाँ हैं, सत्यके विचार हैं (गावो मतय: ), जिन्हें उनकी इस कैदसे छुटकारा दिलाना है । उनके छुटकारेका अभिप्राय है दिव्य उषाकी शक्तियोंका वेगसे ऊर्ध्वगमन होने लगना ।
साथ ही इस छुटकारेका अभिप्राय उस सूर्यकी पुनःप्राप्ति भी है जगे अन्धकारमें छिपा पड़ा था, क्योंकि यह कहा गया है कि सूर्य अर्थात् दिव्य सत्य, ''सत्यं तत्'', ही वह वस्तु थी, जिसे इन्द्र और अंगिरसोंने पणियोकी गुफामें पाया था । उस गुफाके विदीर्ण हो जानेपर दिव्य उषाकी गौएँ जो सत्यकी सूर्यकी किरणें हैं आरोहण करके सत्ताकी पहाड़ीके ऊपर जा पहुँचती है, और सूर्य स्वयं दिव्य सत्ताके प्रकाशमान ऊर्ध्व समुद्रमें ऊपर चढ़ता है, जो विचारक हैं वे जलमें जहाजकी तरह इस ऊर्ध्व समुद्रमें
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सूर्यको आगे-आगे ले जाते हैं जबतक कि वह इसके दूरवर्ती परले तटपर नहीं पहुँच जाता ।
पणि जो गौओंको कैद कर लेनेवाले हैं, जो निम्न गुफाके अधिपति हैं, दस्युओंकी एक श्रेणीमेंके हैं, जो दस्यु वैदिक प्रतीकवादमें आर्य देवों और आर्य द्रष्टाओं तथा कार्यकर्ताओंके विरोधमें रखे गये हैं । आर्य वह है जो यज्ञका कार्य करता है, प्रकाश का पवित्र शब्द प्राप्त करता है, देवोंको चाहता है और उन्हें बढ़ाता है तथा स्वयं उनसे बढ़ाया जाकर सच्चे अस्तित्वकी विशालता प्राप्त करता है; वह प्रकाशका योद्धा है और सत्यका यात्री है । 'दस्यु' है अदिव्य सत्ता जो किसी प्रकारका यज्ञ नहीं करती, दौलतको बटोर-बटोरकर जमा तो कर लेती है, पर उसका ठीक प्रकार उपयोग नहीं कर सकती, क्योंकि वह शब्दको नहीं बोल सकती या पराचेतन सत्यको मनोगत नहीं कर सकती, शब्दसे, देवों से और यज्ञसे द्वेष करती है और अपना कुछ भी उच्च सत्ताओंको नहीं देती, बल्कि आर्यकी संपदाको उससे लूट लेती है और अपने पास रोक रखती है । वह चोर है, शत्रु है, भेड़िया है, भक्षक है, विभाजक है, बाधक है, अवरोधक है । दस्यु अन्धकार और अज्ञानकी शक्तियाँ हैं जो सत्य तथा अमरत्वके अन्वेष्टाका विरोध करती हैं । देव हैं प्रकाशकी शक्तियाँ, असीमता (अदिति ) के पुत्र, एक परम देवके रूप और व्यक्तित्व जो अपनी सहायताके द्वारा तथा मनुष्यके अन्दर अपनी वृद्धि और मानुष व्यापारोंके द्वारा मनुष्यको ऊँचा उठाकर सत्य और अमरतातक पहुँचा देते हैं ।
इस प्रकार आंगिरस-गाथाका स्पष्टीकरण हमें वेदके सम्पूर्ण रहस्यकी कुञ्जी पकड़ा देता है । क्योंकि वे गौएँ और घोड़े जो आर्योंसे खो गये थे और जिन्हें उनके लिये देवोंने फिरसे प्राप्त किया, वे गौएँ और घोड़े जिनका इन्द्र स्वामी और प्रदाता है और वस्तुत: स्वयं गौ और घोड़ा है यदि भौतिक पशु नहीं हैं, यज्ञ द्वारा चाही गयी संपदाके ये अंग यदि आध्यात्मिक सम्पत्तियोंके प्रतीक हैं तो इसी प्रकार इसके अन्य अंग पुत्र, मनुष्य, सुवर्ण, खजाना आदि भी जो सदा इनके साथ सम्बद्ध आते हैं, इन्हीं अर्थोमें होने चाहिये । यदि गौ जिससे 'घृत' पैदा होता है कोई भौतिक गाय नहीं है, बल्कि जगमगानेवाली माता है तो स्वयं घृतको भी जो जलोंमें पाया गया है और जिसके लिये यह कहा गया है कि पणियोने उसे गौके अन्दर त्रिविध रूपमें छिपा दिया था, भौतिक हवि नहीं होना चाहिये; न ही सोमका मघू-रस भौतिक हवि हो सकता है जिसके विषुयमें यह भी कहा गया है कि वह नदियोंमें होता है समुद्रसे एक मधुमय लहरके
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रूपमें उठता है तथा ऊपर देवोंके प्रति धारारूपमें प्रवाहित होता है । और यदि ये प्रतीकरूप हैं तो यज्ञकी अन्य हवियोंको भी प्रतीकरूप ही होना चाहिये; स्वयं बाह्य यज्ञ भी एक आन्तर प्रदानके अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता । और यदि अंगिरस् ऋषि भी अंशत: प्रतीकरूप हैं या देवोंकी तरह यज्ञमें अर्ध-दिव्य कार्यकर्ता और सहायक हैं तो वैसे ही मृगुगण, अथर्व-गण (अथर्वाण: ), उशना और कुत्स तथा अन्य होने चाहियें जो उनके कार्यमें उनके साथ सम्बद्ध आते हैं । यदि अंगिरसोंकी गाथा तथा दस्युओंके साथ युद्धकी कहानी एक रूपक है, तो वैसा ही अन्य आख्यायिकाओं-को भी होना चाहिये जो ऋग्वेदमें उस सहायताके विषयमें पायी जाती हैं जो दानवोंके विरुद्ध लडाईमें ऋषियोंको देवों द्वारा प्रदान की गयी थी, क्योंकि वे आख्यायिकाएँ भी उन्हीं जैसे शब्दोंमें वर्णित की गयी हैं और वैदिक कवियोंने उन्हें सतत रूपसे अंगिरसोंके कथानकके साथ इस तरह एक श्रेणीमें रखा है जैसे कि ये इनके समान आधारवाली हों ।
इसी प्रकार ये दस्यु जो दान और यज्ञका निषेध करते हैं और शब्दसे तथा देवोंसे द्वेष करते हैं और जिनके साथ आर्य निरन्तर युद्धमें संलग्न रहते हैं, ये वृत्र, पणि व अन्य यदि मानवीय शत्रु नहीं है बल्कि अन्धकार, अनृत और पापकी शक्तियाँ हैं, तो आर्योंकि युद्धोंका, आर्य-राजाओंका तथा आर्योंकी जातियोंका सारा विचार आध्यात्मिक प्रतीक और आध्यात्मिक उपाख्यानका रूप धारण करने लगता है । वे अविकल रूपमें ऐसे हैं या केवल अंशत: ही-यह अपेक्षाकृत अधिक व्यौरेवार परीक्षाके बिना निर्णीत नहीं किया जा सकता, और यह परीक्षा इस समय हमारा उद्देश्य नहीं है । हमारा वर्तमान उद्देश्य केवल यह देखना है कि हम जो इस विचारको लेकर चले हैं कि वैदिक-सूक्त प्राचीन भारतीय रहस्यवादियोंकी प्रतीकात्मक पवित्र पुस्तकें हैं और उनका अभिप्राय आध्यात्मिक तथा मनोवैज्ञानिक है--अपने इस विचारकी पुष्टिके लिये हमारे पास प्राथमिक पर्याप्त सामग्री है या नहीं । इस प्रकारकी पर्याप्त प्राथमिक सामग्री विद्यमान है यह हमने स्थापित कर दिया है, क्योंकि अबतक हमने जितना विचार-विवेचन किया है उससे ही हमारे पास इसके लिये पर्याप्त आधार है कि वेदके पास हमें गंभीरताके साथ इसी दृष्टिकोणको लेकर पहुँचना चाहिये और कि वेद भावनामय काव्यमें लिखे गये इसी प्रकारके प्रतीकवादके ग्रंथ हैं इस दृष्टिको ही सामने रखकर इनकी व्यौरेवार व्याख्या करनी चाहिये ।
तो भी अपने पक्षको पूर्णतया सुदृढ़ करनेके लिये यह अच्छा होगा कि वृत्र तथा जलों-सम्बन्धी दूसरी सहचरी गाथाकी भी परीक्षा कर ली
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जाय जिसे हमने अंगिरसों तथा प्रकाशकी गाथाके साथ इतना निकट रूपसे सम्बद्ध पाया है। इस सम्बन्धमें पहली बात यह है कि वृत्रहन्ता 'इन्द्र', अग्निके साथ, वैदिक विश्वदेवतागणके मुख्य दो देवताओंमेंसे एक है और उसका स्वरूप तथा उसके व्यापार यदि समुचित रूपसे निर्धारित हो सकें तो आर्योंके देवोंका सामान्य रूप सुदृढ़तया नियत हो जायगा । दूसरे यह कि मरुत् जो इन्द्रके सखा हैं, पवित्र गानके गायक हैं, वैदिक पूजाके विषयमें प्रकृतिवादी मतके सबसे प्रबल साधक-बिन्दु हैं; वे निःसन्देह आँधीके देवता हैं और अन्य बड़े-बड़े वैदिक देवोंमेंसे दूसरे किसीका भी, अग्निका या मित्र-वरुणका या त्वष्टाका और वैदिक देवियोंका या यहांतक कि सूर्यका भी या उषाका भी ऐसा कोई प्रख्यात भौतिक स्वरूप नहीं है । यदि इन आंधीके देवताओंके विषयमें यह दर्शाया जा सके कि ये एक आध्यात्मिक स्वरूप और प्रतीकवादको रखे हुए हैं तब वैदिक-धर्म तथा वैदिक कर्मकाण्ड के गम्भीरतर अभिप्रायके सम्बन्धमें कोई सन्देह अवशिष्ट नहीं रह सकता । अन्तिम बात यह कि वृत्र और उससे सम्बद्ध दानवों, शुष्ण, नमुचि आदिकी निकट रूपसे परीक्षा करनेपर यदि पता चले कि ये आध्यात्मिक अर्थमें दस्यु हैं तथा यदि वृत्र द्वारा रोके जानेवाले आकाशीय (दिव्य ) जलोंके अभिप्रायका और अधिक गहराईमें जाकर अनुसन्धान किया जाय तब यह विचार कि वेदमें ऋषियों और देव तथा दानवोंकी कहानियाँ रूपक हैं एक निश्चित आरम्भ-बिंदुको लेकर चलाया जा सकता है और वैदिक लोकोंका प्रतीकवाद एक सन्तोषजनक व्याख्याके अधिक समीप लाया जा सकता है ।
इससे अधिक प्रयत्न करना इस समय हमारे लिये संभव नहीं; क्योंकि वैदिक प्रतीकवाद जैसा कि सूक्तोंमें प्रपञ्चित किया गया है अपने अंग-उपांगोंमें अत्यधिक पेचीदा है, अपने दृष्टि-बिन्दुओंमें अत्यधिक विविधता रखता है, अपनी प्रतिच्छायाओंमें और अवान्तर निर्देशोंमें व्याख्या करने-वालेके लिये अत्यन्त अधिक अस्पष्टताओं तथा कठिनाइयोंको उपस्थित करता है और सबसे बढ़कर यह कि विस्मृति और अन्यथाग्रहणके पिछले युगों द्वारा यह इतना अधिक धुँधला हो चुका है कि एक ही पुस्तकमें इसपर समुचितरूपसे विचार कर सकना शक्य नहीं । इस समय हम इतना ही कर सकते हैं कि मुख्य-मुख्य मूलसूत्र ढ़ूँढ़ निकालें और जहांतक हो सके उतना सुरक्षित रूपमें ठीक-ठीक आधारोंको स्थापित कर दें ।
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द्वितीय खण्ड
सूक्तरत्न-संग्रह
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इन्द्र और अगस्त्यका संवाद
ऋग्वेद, मण्डल 1, सूक्त 17०
इन्द्र
न नूनमस्ति नो श्वः कस्तद् यदद्भुतम् ।
अन्यस्य चित्तमभि सञ्चरेष्यमुताधीतं वि नश्यति ।।1 ।।
वह (न नूनम् अस्ति ) न अब है (नो श्व: ) न कल होगा; (तद् क: वेद यद् अद्भुतम् ) उसे कौन जानता है जो सर्वोच्च और अद्भुत है ? (अन्यस्य चित्तम् ) अन्यकी चेतना (अभि सञ्चरेष्यम् ) इसकी गति और क्रियासे संचारित तो होती है, (उत आधीतम् ) पर जब हम विचार द्वारा इसके समीप पहुँचते हैं, तब (वि नश्यति ) यह लुप्त हो जाता है ।।1 ।।
अगस्त्य
किं न इन्द्र जिधांससि भ्रातरो मरुतस्तव ।
तेभि: कल्पस्व साधुया मा न: समरणे वधी: ।।2|।
(इन्द्र किं न: जिघांससि) हे इन्द्र ! तू क्यों हमारा वध करना चाहता है ? (मरुत: तव भ्रातर: ) ये मरुत् तेरे भाई हैं । (तेभि: साधुया कल्पस्व) उनके साथ मिलकर तू पूर्णताको सिद्ध कर; (समरणे ) हमें जो संघर्ष करना पड़ रहा है उसमें (न: मा वधी: ) तू हमारा वध मत कर ।|2।।
किं नो भ्रातरगस्त्य सखा सन्नति मन्यसे ।
विद्या हि ते यथा मनोऽस्मभ्यमिन्न दित्ससि ।।3|।
अरं कृष्यन्तु वेदिं समग्निमिन्धतां पुर: ।
तत्रामृतस्य चेतनं यज्ञं ते तनवावहै ।।4।।
(किं, भ्रात: अगस्त्य) क्यों, ऐ मेरे भाई अगस्त्य ? (सखा सन् ) तू मेरा मित्र है तो भी (न:. अतिमन्यसे ) अपने विचारको मुझसे परे रखता है ? खैर, (विद्म हि ) मैं खूब अच्छी तरह जानता हूँ (यथा ) कि क्यों तू (ते मन: ) अपने मनको (अस्मभ्यम् इत् न दित्ससि) हमें नहीं देना चाहता ||3||
३२९
वे मरुत (वेदिम् अरं कृण्वन्तु ) वेदि तैयार कर लें, (पुर: अग्निम् समिन्धताम् ) अपने आगे अग्नि प्रज्वलित कर लें । (तत्र ) वही अर्थात् उसी अवस्थामें (अमृतस्यचेतनम्) चेतना अमरत्वकी प्राप्तिके लिये जागृत होगी । आ (ते यज्ञं तनुवावहै) हम दोनों मिलकर तेरे लिये तेरे फल- साधक यज्ञका विस्तार करें ।।4।।
त्वमीशिषे वसुपते वसूनां त्वं मित्राणां मित्रपते धेष्ठ: ।
इन्द्र त्वं मरुद्धि: सं वदस्वाध ॠतुथा हवींषि ।।5।।
(वसूनां वसुपते ) हे वसुओंके, सब जीवन-तत्त्वोंके शासक, वसुपते ! (त्वम् ईशिषे ) तू शक्तिशाली स्वामी है । (मित्राणां मित्रपते ) हे प्रेम-शक्तियोंके शासक प्रेमाधिपते ! (त्वं धेष्ठ: ) तू स्थितिमें प्रतिष्ठित करनेके लिये सबसे अधिक सबल है । (इन्द्र ) हे इन्द्र ! (त्वं मरुद्धि: संवदस्व) तू मरुतोंके साथ सहमत हो जा, (अध ) और तब (ऋतुथा ) सत्यकी सुव्यस्थित पद्धतिके अनुसार (हवींषि प्राशान) हवियोंका स्वाद ले ।।5||
भाष्य
इस सूक्तमें जो आधारभूत विचार है उसका संबंध आध्यात्मिक प्रगतिकी एक अवस्थासे है, और यह अवस्था वह है जब मनुष्यका आत्मा केवल विचार-शक्तिके द्वारा ही शीघ्रताके साथ आगे बढ़कर पार हो जाना चाहता है ताकि समयके पहले ही,--सचेतन क्रियाकी जो क्रमश: एकके बाद दूसरी अवस्थाएँ आती हैं उन सबमें पूर्ण विकास पाये बिना ही,-वह सब वस्तुओंके मूल कारण (स्रोत)तक पहुँच जाय । देव जो मानव-विश्व और विराट्-विश्व दोनोंके शासक हैं उसके इस प्रयत्नका विरोध करते हैं और मनुष्यकी चेतनाके अंदर एक जबर्दस्त संघर्ष चलता है, जिसमें एक तरफ तो अपनी अहंभावप्रेरित अति उत्सुकतासे युक्त व्यक्तिगत आत्मा होता है और दूसरी तरफ विश्व-शक्तियाँ जो विश्वके दिव्य उद्देश्यको पूर्ण करना चाह रही होती हैं ।
ऐसे क्षणमें ॠषि अगस्त्यकी, अपनी आन्तर अनुभूतिमें, इन्द्रसे भेंट
1. यह अनुवाद मैं सामान्य पाठकों के लिये दे रहा हूं । अमुक शब्द का अर्थ अमुक
तौर पर मैंने क्यों किया है रसके विस्तार में जाना, इसके लिये भाषाविज्ञान-संबंधी
तथा अन्य प्रकार के प्रमाण देना यहां संभव नहीं होगा और वैसे भी यह थोड़े से
अन्वेषक विद्वान् लोगों के लिये ही रुचिकर होगा, इसलिये यहां इसे मैं छोह दे रहा
हूं या स्थगित कर रहा हूँ ।
३३०
होती है । इन्द्र स्वःका अधिपति है और 'स्व:' है विशुद्ध प्रज्ञाका लोक । दिव्य सत्यमें पहुँचनेके लिये आरोहण करते हुए आत्माको इस लोकके बीचमें से होकर गुजरना होता है ।
सर्वप्रथम इन्द्र कहता है कि हे अगस्त्य ! वस्तुओंका वह मूल स्रोत अविज्ञेय है जिसे पानेके लिये तुम ऐसी अधीरताके साथ यत्न कर रहे हो । वह कालमें नहीं पाया जा सकता (वह कालातीत है ) । वह वर्तमानकी वास्तविक वस्तुओंके अंदर नहीं रहता, न ही वह भविष्यमें फलित होनेवाली संभाव्य वस्तुओंमें है । वह न अब है, न अबके बाद होता है । उसका अस्तित्व देश और कालसे अतीत है, और इसलिये वह स्वयं उससे नहीं जाना जा सकता जो देश और कालमें सीमित है । वह अपने रूपों और अपनी क्रियाओंके द्वारा अपने-आपको उसकी चेतनाके अंदर व्यक्त करता है जो वह स्वयं नहीं है (अन्यस्य ) और उन क्रियाओंका अभिप्राय यह है कि उसकी उन क्रियाओं द्वारा ही उसका साक्षात्कार किया जाना चाहिये । पर यदि कोई सीधा स्वयं इसके पास पहुँचनेका और इसके स्वरूपका अध्ययन करनेका यत्न करता है तो झट यह उस विचारमेंसे जो इसे ग्रहण करना चाहता है निकलकर अन्तर्धान हो जाता है और ऐसा हो जाता है मानो यह है ही नहीं (देखो, मंत्र 1 ) ।
अगस्त्य अबतक नहीं समझ पाता कि भला क्यों अपने लक्ष्यके अनुसरणमें उसका ऐसा जबर्दस्त विरोध किया गया है, वह तो उसीका अनुसरण कर रहा था जो सब मनुष्योंका अंतिम लक्ष्य है और उसके सब विचार तथा उसके सब अनुभव जिसकी माँग कर रहे हैं । 'मरुत्' विचारकी शक्तियाँ है जो अपनी अग्रगतिकी सबल तथा दीखनेमें विनाशक क्रियाके द्वारा उस सबको तोड़ गिराती हैं जो अबतक निर्मित हुआ है तथा नवीन रचनाओंकी उपलब्धिमें सहायक होती हैं । इन्द्र है विशुद्ध प्रज्ञाकी शक्ति, वह मरुतोंका भाई है, अपनी प्रकृतिमें उनका सजातीय है यद्यपि सत्तामें उनसे ज्येष्ठ है । तो इन्द्रको उन मरुतोंकी सहायतासे उस पूर्णताको निष्पन्न करना ही चाहिये जिसके लिये अगस्त्य. इतना प्रयलशील है, उसे शत्रु नहीं बन जाना चाहिये, उसके मित्र (अगस्त्य ) को लक्ष्यकी प्राप्तिके लिये जो यह भीषण संघर्ष करना पड़ रहा है उसमें इन्द्रको उसका वध नहीं करना चाहिये (देखो, मन्त्र 2) ।
इन्द्र उत्तर देता है कि है अगस्त्य ! तुम मेरे मित्र और भाई हो, (आत्मत: अगस्त्य इन्द्रका भाई इस तरह है कि ये दोनों एक परम सत्ताके पुत्र हैं मित्र इस तरह है कि ये दोनों एक प्रयत्नमें सहयोगी होते हैं तथा
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दिव्य प्रेममें, जो देव और मनुष्यको जोड़नेवाला है, ये दोनों एक होते हैं ), और इसी मित्रता तथा बन्धुताके सहारे तुम उत्तरोत्तर आनेवाली पूर्णतामें बढ़ते हुए वर्तमान अवस्थातक पहुँच पाये हो; पर अब तुम मेरे प्रति ऐसा व्यवहार कर रहे हो जैसे कि मैं कोई अवर कोटिकी, घटिया दर्जेकी शक्ति हूँ और देवके राज्यमें अपनेको सिद्ध किये बिना ही तुम परे पहुँच जाना चाहते हो । क्योंकि अगस्त्य अपनी बढ़ी हुई विचार-शक्तियोंको सीधे अपने लक्ष्यकी तरफ ही फेरना चाहता है, इसकी जगह कि वह उन्हें विराट् प्रज्ञामें सौंप देवे जिससे कि वह विराट् प्रज्ञा अपनी सिद्धियोंको अगस्त्य द्वारा सारी मानवतामें सुसमृद्ध कर सके तथा अगस्त्यको सत्यके मार्गपर अग्रसर कर सके । इसलिये इन्द्र कहता है अहंभावसे भरा हुआ प्रयत्न रोक दो, महान् यज्ञको ग्रहण करो, यज्ञके प्रधान अंग तथा यात्राके पथ-प्रदर्शकके तौरपर अपने आगे अग्निको, दिव्य शक्तिकी ज्वालाको, प्रज्वलित कर लो । मैं (इन्द्र ) और तुम (अगस्त्य ), विराट् शक्ति और मानव आत्मा, दोनों मिलकर फलसाधक आन्तरिक क्रियाको समस्वरताके साथ विशुद्ध प्रज्ञाके स्तरपर विस्तृत करेंगे, ताकि यह क्रिया वहाँ अपनेको सुसमृद्ध कर सके और पार होकर लक्ष्यको पहुँच सके । क्योंकि जब निम्न सत्ता अपने-आपको उत्तरोत्तर दिव्य क्रियाओंके अर्पण करती चलती है, ठीक तभी मर्त्यकी सीमित तथा अहंभावसे परिपूर्ण चेतना जागृत होकर असीमता तथा अमरत्वकी उस अवस्थातक पहुँच सकती है जो उसका लक्ष्य है, (देखो, मंत्र 3, 4 ) ।
अगस्त्य इस देवकी इच्छाको स्वीकार कर लेता है और उसे आत्म-समर्पण कर देता है । वह इस बातपर सहमत हो जाता है कि वह इन्द्रकी क्रियाओंमें भी सर्वोच्च शक्तिको देखे और उसे सिद्ध करे । अपने स्वकीय लोकसे इन्द्र जीवनके उन सब तत्त्वों (वसुओं ) पर सर्वोच्च अधिपतिके रूपमें शासन करता है जो मन, प्राण और शरीरके त्रिगुण लोकमें अभिव्यक्त होते हैं, और इसलिये उसमें ऐसी शक्ति है कि वह उस 'दिव्य सत्यकी सिद्धिके लिये, जो विश्वमें अपनेको अभिव्यक्त करता है, इस त्रिगुण लोककी रचनाओंको--प्रकृतिकी क्रियामें-उपयोगमें ला सके । साथ ही इन्द्र सर्वोच्च अधिपति है प्रेम और आनंदका जो प्रेम और आनंद उसी (मन, प्राण और शरीरके ) त्रिगुण लोकमें व्यक्त होते हैं और इसलिये उसमें ऐसी शक्ति है कि वह इसकी रचनाओंको समस्वरताके साथ-प्रकृतिकी स्थितिमें--यथास्थान स्थापित कर सके । अगस्त्यको जो कुछ भी सिद्धि हुई है उस सबको वह, यज्ञको हविकी तरह, इन्द्रके हाथोंमें सौंप देता है ताकि इन्द्र उसे अगस्त्यकी चेतनाके सुप्रतिष्ठित भागोंमें धारण करा सके तथा नवीन रचनाओंको संपन्न
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करनेके लिये उसे गति दे सके । इन्द्रको एक बार फिर अगस्त्यके जीवनकी ऊर्ध्यगामिनी अभीप्सा-शक्तियों (मरुतों ) के साथ मैत्री-संलाप करना है और उस ऋषिके विचारों तथा उस प्रकाशके बीचमें, जो हम तक विशुद्ध प्रज्ञाके द्वारा आता है, एकता स्थापित करानी है । वह शक्ति (इन्द्र-शक्ति ) तब अगस्त्यके अंदर यज्ञको हवियोंका उपभोग करेगी, वस्तुओंके उस उचित नियमक्रमके अनुसार उपभोग करेगी जो उस पार जनेवाले सत्यसे व्यवस्थित तथा शासित होता है, (देखो, मंत्र 5 ) ।
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इन्द्र, दिव्य प्रकाश का प्रदाता
ऋग्वेद मण्डल 1, सूक्त 4
सुरूपकृत्नुमूतये सुदुधामिव गोदुहे ।
जुहूमसि द्यविद्यवि ।।1।।
(सुरूपकृत्नुम्) जो पूर्ण रूपोंका निर्माता है (गोदुहे सुदुधामिव) और गो-द्धोहकके लिये एक खूब दूध देनेवाली गौके समान है उस [ इन्द्र] 1 को हम (ऊतये) बृद्धिके लिये (द्यविद्यवि जुहूमसि) दिन प्रतिदिन पुकारते हैं ।।1।।
उप न: सवना गहि सोमस्य सोमपाः पिब ।
गोदा इद्रेवतो मद: ।।2|।
(न: सवना उप आगहि ) हमारी सोम-रसकी हवियोंके पास आ । (सोमपा: ) हे सोम-रसोंके पीनेवाले ! (सोमस्य पिब) तू सोम-रसका पान कर; (रेवत: मद: ) तेरे दिव्य आनंदका मद (गोदा: इत् ) सचमुच प्रकाश देनेवाला है ।|2।।
अथा ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम् ।
मा नो अति ख्य आ गहि ।।3।।
(अथ ) तब अर्थात् तेरे सोम-पानके पश्चात् (ते अन्तमानां सुमतीनाम् ) तेरे चरम सुविचारोंमेंसे कुछको (विद्याम) हम जान पावें । (मा न: अति ख्यः ) उनको हमें अतिक्रमण करके मत दर्शा, (आगहि ) आ ।।3।।
परेहि विग्रमस्तृतभिन्द्रं पृच्छा विपश्चितम् ।
यस्ते सखिभ्य आ वरम् ।।4।।
(परेहि) आ जा, (इन्द्रं पृच्छ) उस इन्द्रसे प्रश्न कुर (विपश्चितम् ) जो स्पष्टदर्शी-मनवाला है, (विग्रम् ) बड़ा शक्तिशाली है एवं (अस्तृतम् ) अपराभूत है, और (य: ते सखिभ्य: ) जो तेरे सखाओंके लिये (वरम् आ) उच्चतर सुख लाया है ।।4।।
1. [ ] ऐसे वर्गाकार कोष्ठोंमें दिखायेगये शब्द मूल अंग्रेजी अंग्रेजी ग्रन्थमें नहीं हैं और वे
अनुवादको सुबोध वनानेके लिये जोड़े गये हैं । -अनुवादक
३३४
उत व्रवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत ।
दधाना इन्द्र इद् दुवः ।।5।।
(उत निद: न: ब्रुवन्तु ) और हमारे अवरोधक1 भी हमें कहें कि ''नहीं, (इन्द्रे इत् दुवः दधाना: ) अपनी क्रियाका आधार इन्द्रपर रखते हुए तुम (अन्यत: चित् नि: आरत ) अन्य क्षेत्रोंमें भी निकलकर आगे बढ़ते जाओ'' ।।5।।
उत न: सुभगाँ अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टय: ।
स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि ।।6।।
(उत ) और (दस्म ) हे. कार्यसाधक ! (अरि:) योद्धा, (कृष्टय: ) कर्मके कुर्ता2 (न: सुभगान् वोचेयु: ) हमें पूर्ण सौभाग्यशाली कहें; (इन्द्रस्य शर्मणि इत् स्याम ) हम इन्द्रकी शांतिमें ही रहें ।।6।।
एमाशुमाशवे भर यज्ञश्रियं नृमादनम् ।
पतयन्मन्दयत्सखम् ।।7।।
(आशवे ) तीव्रताके लिये (आशुम्) तीव्रको (ला ), (मन्दयत्सखम् ) अपने सखाको आनंदित करनेवाले [ इन्द्र] को (पतयत्) मार्गमें आगे ले आता हुआ तू (ईम् नृभांदनं यज्ञश्रियम् आभर) इस यज्ञश्रीको ले आ जो मनुष्यको मदयुक्त कर देनेवाली है ।।7।।
अस्त पीत्वा शतक्रतो धनों वृत्राणामभवः ।
प्रावो वाजेषु वाजिनम् ।।8|।
(अस्य पीत्वा ) इस [सोम-रस] का पान करके (शतक्रतो ) हे सैंकड़ों क्रियाओंवाले ! (वृत्राणां धन: अभव: ) तू आवरणकर्ताओंका वध कर
1. या निन्दक, 'निद:' । 'निदूं' धातु, मेरा विचार है, वेद में बंधन, सीमा एवं घेरेके अर्थमें
आयी है, और ये अर्थ इसे 'भाषाविज्ञान द्वारा भी पूर्ण निश्चयात्मकताके साथ प्रदान
किये जा सकते हैं । 'निदित' अर्थात् बद्ध और 'निदान' अर्थात् बन्धन-रज्जु, इन
दोनों शब्दोंका भी आधार यही धातु है । पर साथ ही इस धातुका अर्थ निन्दा करना
मी है । गुह्य कथन की इस अदभुत शैलीके अनुसार विभिन्न सन्दमोंमें कहीं एक अर्थ
प्रधान होकर रहता है कहीं दूसरा, पर कहीं भी एक अर्थ दूसरे अर्थ का
पूर्ण बहिष्कार सही करता ।
2. 'अरिः कृष्टयः' का अनुवाद ''ओर्य लोग'' या ''राणप्रिय जातियां'' मी हो सकता है ।
'कृष्टि' और 'चर्षणि', जिसका अर्थ सायणने ''मनुष्य'' किया है, 'कृष्' तथा 'चर्ष्'
धातुओंसे बने है जिनका मलू अर्थ है 'श्रम, प्रयत्न या श्रमसाध्य कर्म' | इन शब्दोंका
अर्थ कहीं-कहीं 'वैदिक कर्म का कर्ता' और कहीं स्वयं 'कर्म' भी हौ जाता' है ।
३३५
डालनेवाला हो गया है, और तूने (वाजिनम्) समृद्ध, मनको (वाजेषु ) उसकी समृद्धियोंमें (प्र आव: ) रक्षित किया है ।।8।।
तं त्या वाजेषु वाजिनं वाजयामः शतक्रतो ।
धनानामिन्द्रसातये ।।9|।
(वाजेषु वाजिनं सातये ) अपनी समृद्धियोंमें समृद्ध हुए उस तुझको (इन्द्र शतक्रतो) हे इन्द्र ! हे सैंकड़ों क्रियाओंवाले ! (धनानां सातये ) अपने प्राप्त ऐश्वर्योंकि सुरक्षित उपभोगके लिये (वाजयामः ) हम और अधिक समृद्ध करते हैं ।।9|।
यो रायोऽवनिर्महान्तसुपार: सुन्वत: सखा ।
तस्मा इन्दाय गायत ।।10|।
(य: महान् राय: अवनि: ) जो अपने विशाल रूपमें एक दिव्य सुखका धाम है, (सुन्वतः सुपारः सखा ) जो सोम-प्रदाताका ऐसा सखा है कि उसे सुरक्षित रूपसे पार कर देता है, (तस्मै इन्द्राय गायत ) उस इन्द्रके प्रति गान करो ।।10।।
सायणकी व्याख्या
1. (सुरूपकृत्नुम् ) शोभनरूप [वाले कर्मों] के कर्ता, इन्द्रको हम (ऊतये ) अपनी रक्षाके लिये (द्यविद्यवि ) प्रतिदिन (जुहूमसि ) बुलाते हैं, (गोदुहे सुदुधाम् इव) जैसे गोदोहकके लिये सुष्ठुदोग्घ्री गायको [कोई बुलाया करता है] ।
2.(सोमपाः ) हे सोम-पान करनेवाले इन्द्र ! (न: सवता उप आ-गहि) तू हमारे [तीन] सवनोंमें आ, और (सोमस्य पिब ) सोमको पी; (रेवतः मद: ) तुझ धनवान्की प्रसन्नता (गोदा: इत् ) सचमुच गौओंको देनेवाली है, अर्थात् जब तू हमसे प्रसन्न हो जाता है तब निश्चय ही हमें बहुत-सी गौएँ देता है ।
3. (अथ ) तेरे उस सोम-पानके अनंतर हम, (ते अन्तमानां सुमतीनाम् ) जो तेरे अत्यंत समीप हैं ऐसे सुमतियुक्त पुरुषोंके मध्यमें [स्थित होकर] (विद्याम ) तुझे जान लें । (न: अति मा खः ) तू हमारा अतिक्रमण करके [अन्योंको अपने स्वरूपका] कथन मत कर, [किंतु] (आगहि ) हमारे पास ही आ ।
4. होता यजमानसे कहता है कि हे यजमान ! (परेहि ) तू इन्द्रके पास जा और जाकर (इन्द्रमू) उस इन्द्रसे (विपश्चितम् ) मुझ बुद्धिमान् होताके विषयमें (पृच्छ) पूछ [कि मैंने उसकी सम्यक् प्रकारसे स्तुति की है वा नहीं] , उस इन्द्रसे जो (विग्रम्) मेघावी, अहिंसित
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है और (यः ते सखिभ्यः ) जो तेरे सखाओं [ॠत्विजों] (वरम) श्रेष्ठ धन [आप्रयच्छति] 1 सब तरफसे प्रदान करता है ।
5. (न: ) हमारे [अर्थात् हमारे ऋत्विज] (ब्रुवन्तु ) कहें [अर्थात् इन्द्रकी स्तुति करें],-(उत ) और साथ ही (निद: ) ओ निन्दा करनेवाले पुरुषो ! तुम [यहाँसे] तथा (अन्यतः चित् ) अन्य स्थानसे भी (नि: आरत ) बाहर निकल जाओ,-[हमारे ऋत्विज] (इन्द्रे इत् दुव: दधाना: ) इन्द्रकी सदैव परिचर्या करनेवाले हों ।
6. (दस्म ) हे [शत्रुओंके] विनाशक ! (अरि: उत ) हमारे शत्रुतक (न: सुभगान् वोचेयुः ) हमें शोभन घनोंका मालिक कहें,-(कृष्टय: ) मनुष्य [अर्थात् हमारे मित्र तो ऐसा कहेंगे ही, इसमें कहना ही क्या]; (इन्द्रस्य शर्मणि स्याम इत् ) इन्द्रके [प्रसादसे प्राप्त हुए] सुखमें हम अवश्य होवें ।
7. हे यजमान ! (आशवे ) [समस्त सोमयागमें] व्याप्त इन्द्रके लिये (ईम् आभर ) इस [सोम]को ला, [जो सोम] (आशुम् ) [तीनों सवनोंमें] व्याप्त होनेवाला है, (यज्ञश्रियम् ) यज्ञको संपदा है, (नृमादनम्) मनुष्यों, अर्थात् ऋत्विजों व यजमानोंको हर्षित करनेवाला है, (पतयत् ) यज्ञविधियोंमें आनेवाला है, (मन्दयत्सखम् ) [यजमानको] आनंदित करने-वाले [इन्द्र]का सखा है ।
8. (शतक्रतो ) हे अनेक कर्मोंवाले इन्द्र ! (अस्य पीत्वा ) इस सोमका अंश पीकर तू (वृत्राणां धन: अभव: ) वृत्रोंका [अर्थात् वृत्र जिनका मुखिया है ऐसे शत्रुओंका] हन्ता बन गया है, और तूने (वाजेषु ) रणोमें (वाजिनम् ) अपने योद्धा भक्तकी (प्राव: ) पूर्णतया रक्षा की है ।
9- (शतॠतो) हे अनेक कर्मोंवाले या अनेक प्रज्ञाओंवाले इन्द्र ! (धनानां सातये ) धनोंके संभजनके लिये (वाजेषु ) युद्धोंमें (वाजिनं तं त्वा) बलवान्2 उस तुझको (वाजयाम: ) हम बहुत सारे अन्नोंसे युक्त .करते हैं ।
1. इति शेष: |
2. देखो कि सायण वे मंत्रमें 'वाजेषु बाजिननम्'का अर्थ करता है ''रणोंमें योद्धा'' और
इससे ठीक अगले ही 'मंत्रमें इसीका अर्थ ''युद्धोंमें बलवान्'' यह कर देता है | और
'वाजेषु वाजिनं वाजयाम:' इस वाक्यांशमें उसने मूल शब्द 'वाज'के ही भिन्न-भिन्न
तीन अर्थ कर डाले हैं, ''युद्ध'', ''बल'' और ''अन्न'' | यह सायणकी शैलीकी
अत्यधिक असंगतियुत्तताका एक उदाहरणरूप नम-ना है ।
मैंने यहां दोनों (अपने तथा सायणके) अर्थोंको इकट्ठा दे दिया है ताकि पाठक
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10. (तस्मै इन्द्राय गायत ) उस इन्द्रके स्तुतिगीत गाओ (य: ) जो ( राय: अवनि: ) धन-दौलतका रक्षक है, ( महान् ) महान् गुणोंवाला है, ( सुपार: ) [कर्मोको] उत्तमताके साथ पूर्ण करनेवाला है, ( सुन्वत: सखा ) और सोमयाग करनेवाले यजमानका भित्रवत् प्रिय है ।
विश्वाभित्रका पुत्र ऋषि मधुच्छन्दसू सोम-रसकी हवि लेकर इन्द्रका आवाहन कर रहा है । इन्द्र है प्रकाशमय मनका अधिपति इन्द्रका आवाहन वह इसलिये कर रहा है कि वह प्रकाशमें वृद्धिगत हो सके । इस सूक्तमें, प्रयुक्त सब प्रतीक सामुदायिक यज्ञके प्रतीक हैं । इस सूक्तका प्रतिपाद्य विषय यह है कि इन्द्र आकर सोमका, अमरताके रसका, पान करे और उस सोमपानके द्वारा उसके अंदर बल तथा आनंदकी वृद्धि हो, और उसके परिणामस्वरूप मनुष्यमें प्रकाशका उदय हो जाय जिससे उसके आन्तरिक ज्ञानमें आनेवाली बाधाएँ हट जायँ और वह उन्मुक्त मनके उच्चतम वैभव प्राप्त कर ले ।
पर यह सोम क्या वस्तु है, जिसे कहीं-कहीं ग्रीक शब्द अम्ब्रोशिया (Ambrosia) )का वाच्य तत्त्व अमृत भी कहा गया है, मानो यह अपने-आपमें अमरताका सार-पदार्थ हो ? सोम है उस दिव्य आनन्द किंवा आनन्द-तत्त्वका प्रतीक जिसमेंसे, वैदिक विचारके अनुसार, मनुष्यकी सत्ता उद्भूत हुई है, यह मानसिक जीवन निकला है । एक गुप्त आनंद है जो सत्ताका आधार है, सत्ताको धारण करनेवाला वातावरण या आकाश है, सत्ताका लगभग सार-तत्त्व ही है | इस आनंदके लिये तैत्तिरीय उपनिषद्में कहा गया है कि यह दिव्य सुखका आकाश है जो यदि न हो तो किसीका भी अस्तित्व न रहे1 । ऐतरेय उपनिषद्में बताया गया है कि सोम, चंद्र-देवताके रूपमें,
दोनों शैलियोंकी तथा दोनोंसे निकलनेवाले परिणामोंकी एक दूसरेके साथ सुमतासे
तुलना कर सके । जहां कहीं सायणको अर्थ के पूरा करनेके लिये या उसे आसानीसे
समझामें आने लायक मनानेके लिये अपनी तरफसे अध्यहार करना पड़ा है उसे मैंने
[ ] इस प्रकारके कोष्ठमें प्रदर्शित कर दिया है । मेरी समझमें, एक ऐसा पाठक भी
जो संस्कृतसे अपरिचित है, अकेले इसी नमूनेको देखकर, उन युक्तिओंका समर्थन कर
सकेगा जिनके आधार पर आधुनिक समालोचक मनको यह युक्तितुक्त जंचता है कि वह
यह माननेसे इन्कार कर दे कि वैदिक संहिताकी व्याख्याके लिये सायण एक
विश्वसनीय अंतिम प्रमाण है ।
1. देखो तै 2।7--"को ह्येवाऽन्यात् क: प्राष्यात् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् | एष ह्येवानन्दयाति |"
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विराट् पुरुषके इन्द्रियाधिष्ठित मनसे पैदा होता है और जब मनुष्यकी रचना होती है तब वही चंद्रमा फिर मनुष्यके अंदर इन्द्रियाधिष्ठित मन-रूप होकर अभिव्यक्त हो जाता है ।1 क्योंकि आनंद ही इन्द्रिय-संवेदनके अस्तित्वका हेतु है, या हम यों कह सकते हैं कि सत्ताका जो गुप्त आनंद है उसे भौतिक चेतनाकी परिभाषाओंमें रूपांतरित करनेका एक प्रयत्न ही इन्द्रिय-संवेदन है । उस भौतिक चेतनाको प्राय: 'अद्रि' अर्थात् पहाड़ी, पत्थर या घनीभूत पदार्थके प्रतीकसे निरूपित किया गया है । उसके अंदर दिव्य प्रकाश और दिव्य आनंद दोनों ही छिपे और बंद हुए पड़े हैं और इन्हें वहाँसे मुक्त या निष्कासित किया जाना है । आनंद, रसके रूपमें; सार-तत्त्वके रूपमें, इन्द्रियाधिष्ठित विषयों तथा इन्द्रियानुभूतियोंमें, पृथ्वी-प्रकृतिकी उपजरूप पौधों व वनस्पतियोंमें रखा हुआ है, और इन वनस्पतियोंमें से रहस्यपूर्ण सोमलता सब इन्द्रिय-क्रियाओं तथा उनके सुखभोगोंके पीछे रहने-वाले उस तत्त्वका प्रतीक है जो दिव्य रस प्रदान करता है, जिससे दिव्य रस निचोड़ा जाता है । इस दिव्य रसको इसमेंसे क्षरित करना होता है और एक बार क्षरित हो जाय तो फिर इसे विशुद्ध करना और तीव्र बनाना होता है जबतक कि यह प्रकाशयुक्त, किरणोंसे परिपूर्ण, आशुगतिसे परिपूर्ण, बलसे परिपूर्ण, 'गोमत्', 'आशु', 'युवाकु' न हो जाय । सोमका यह दिव्य रस देवोंका मुख्य भोजन बन जाता है, वे देव सोम-हविके लिये बुलाये जानेपर, आकर आनंदका अपना भाग ग्रहण करते हैं और उस दिव्य आनंदके बलमें वे मनुष्यके अंदर प्रवृद्ध होते हैं, मनुष्यको उसकी उच्चतम शक्यताओंतक ऊँचा उठा देते हैं और उसे दिव्य उच्च अनुभूतियोंको पा सकने योग्य बना देते हैं । जो अपने अंदरके आनंदको हवि बनाकर दिव्य शक्तियोंके लिये अर्पित नहीं कर देते, बल्कि अपने-आपको इन्द्रियों तथा निम्न जीवनके लिये सुरक्षित रखना पसंद करते हैं वे देवोंके पूजक नहीं किंतु पणियोंके पूजक है । पणि इन्द्रिय-चेतनाके अधिपति हैं, इस चेतनाकी सीमित क्रियाओंमें व्यवहार करनेवाले हैं, वे रहस्यपूर्ण सोम-रसको नहीं निचोड़ते, विशुद्ध हवि अर्पित नहीं करते, पवित्र गान नहीं गाते । ये पणि ही प्रकाशमयी चेतनाकी दिव्य किरणोंको, सूर्यकी उन जगमगाती गौओंको हमारे पाससे चुरा ले जाते हैं, और उन्हें ले जाकर अवचेतनकी गुफामें,
1. देखो ऐत० खण्ड 1-2-''मनसश्चन्द्रमाः'' ।... ''चन्द्रमा मनो भूत्वा ह्रदयं प्राविशत् |"
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भौतिकताकी धनी पहाड़ीमें, बंद कर देते हैं, और देवशुनी सरमा, प्रकाशमय अन्तर्ज्ञान, जब उन गौओंके पदचिह्नोंका अनुसरण करते-करते पणियोंकी गफाके पास पहुँचती है तब उसे भी थे कलुषित कर देते हैं ।
पर इस सूक्तमें जो विचार दिया गया है वह हमारी आन्तरिक प्रगतिकी एक विशेष अवस्थासे संबंध रखता है । यह अवस्था वह है जब कि पणियोंका अतिक्रमण किया जा चुका है और 'वृत्र' या 'आच्छादक' भी जो हमसे हमारी पूर्ण शक्तियों तथा क्रियाओंको पृथक् किये रखता है और 'वल' भी जो प्रकाशको हमसे रोके रखता है, पराजित हो चुके हैं । परंतु अब भी कुछ ऐसी शक्तियाँ हैं जो हमारी पूर्णताके मार्गमें बाधक बनकर आ खड़ी होती हैं । वे हैं सीमामें बाँधनेवाली शक्तियाँ, अवरोधक या निन्दक, जो यद्यपि समग्ररूपमें किरणोंको छिपा तो नहीं लेते, न बलोंको रोक ही लेते, हैं, पर तो भी हमारी आत्म-अभिव्यक्तिकी त्रुटियोंपर निरंतर बल देकर वे यह यत्न करते हैं कि इस (आत्म-अभिव्यक्ति ) का क्षेत्र सीमित हो जाय और वे अबतक सिद्ध हुए आन्तरिक विकासको आगे आनेवाले विकासके लिये बाधक बना देते हैं । तो ऋषि भधुच्छन्दस् इन्द्रका आवाहन कर रहा है कि वह आकर इस दोषको दूर कर दे और इसके स्थानपर एक वृद्धिशील प्रकाशको स्थिर कर दे ।
वह तत्त्व जो यहाँ 'इन्द्र' नामसे सूचित किया गया है मनःशक्ति है जो प्राणमय चेतनाकी सीमाओं और धुंधलेपनसे मुक्त है । यह वह प्रकाश-मयी प्रज्ञा है जो विचार या क्रियाके उन सत्य और पूर्ण रूपोंको निर्मित करती है जो प्राणके आवेगोंसे विकृत नहीं होते, इन्द्रियोंके मिथ्याभावोंसे प्रतिहत नहीं होते । इसकेलिये यहाँ एक ऐसी गायकी उपमा दी गयी है जो गोदोग्धाको प्रचुर मात्रामें दूध देनेवाली है, दोग्ध्री है । 'गो' शब्दके संस्कृतमें दोनों अर्थ होते हैं, गाय और प्रकाशकी किरण । वैदिक प्रतीक-वादियोंने इस द्विविध अर्थका प्रयोग एक दोहरे रूपकको दिखानेके लिये किया है और वह रूपक उनके लिये निरा अलंकार ही नहीं बल्कि उससे अधिक कुछ था, क्योंकि प्रकाश, उनकी दृष्टिमें, विचारका एक उपयुक्त काव्यमय प्रतीक ही नहीं है बल्कि सचमुचमें उसका एक भौतिक रूप भी है । इस प्रकार 'गौएँ' जो दुही जाती हैं सूर्यकी गौएं हैं, सूर्य है स्वतः- प्रकाशयुक्त और अन्तर्ज्ञानयुक्त मनका अधिपति; या वे गौएँ उषाकी गौएँ हैं, और उषा वह देवी है जो सौर महिमाको अभिव्यक्त किया करती है । ऋषि इन्द्रसे यह कामना कर रहा है कि हे इन्द्र ! तू मेरे पास आ और अपनी पूर्णतर क्रियाशीलता द्वारा अपनी किरणोंको अत्यधिक मात्रामें मेरे
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ग्रहणशील मनपर डालता हुआ तू मेरे अंदर दिन प्रतिदिन सत्यके इस प्रकाशकी वृद्धि करता जा । (मन्त्र 1 )
दिव्य सत्ता और दिव्य क्रियामें रहनेवाला जो आनन्द है उसे आलंकारिक रूपमें सोमरस कहकर वर्णित किया गया है । उसकी हमारे अंदर चेतना-युक्त अभिव्यक्ति होनेसे ही विशुद्ध प्रकाशमय प्रज्ञाकी क्रिया स्थिर और वृद्धिंगत हो जाती है । क्योंकि वह प्रज्ञा इसीपर फूलती-फलती है, उसकी क्रिया अन्तःप्रेरणाका एक मदयुक्त आनंद बन जाती है जिसके द्वारा किरणें प्रचुरताके साथ और उल्लासके साथ प्रवाहित होती हुई अंदर आती हैं । ''जब तू आनंदमें होता है तब तेरा मद सचमुच प्रकाशको देनेवाला होता है'', गोदा इद् रेवतो मद: । (मंत्र 2)
क्योंकि तभी उन बाधाओंको जिन्हें अवरोधक शक्तियां अब भी आग्रह-पूर्वक बीचमें डाले हुए हैं तोड़-फोड़कर, परे जाकर हम ज्ञानके उन अंतिम तत्त्वोंके कुछ अंशतक पहुँच सकते हैं जो प्रकाशमय प्रज्ञाको प्राप्य हैं । सत्य विचार, सत्य संवेदन--यह है 'सुमति' शब्दका पूर्ण अभिप्राय; क्योंकि वैदिक 'मति'में केवल विचार ही नहीं बल्कि मनोवृत्तिके भावमय अंश भी सम्मिलित हैं । 'सुमति' है विचारोंके अंदर प्रकाशका होना; साथ ही यह आत्मामें होनेवाली प्रकाशयुक्त प्रसन्नता और दयालुता भी है । परंतु इस सदर्भमें अर्थका बल सत्य विचारपर है, न कि मनोभावोंपर । तो भी यह आवश्यक है कि सत्य विचारमें प्रगति उस चेतनाके क्षेत्रमें ही प्रारंभ हो जाय जिस चेतनातक हम पहुँचे हुए हों; यह नहीं होना चाहिये कि जरा देरके लिये होनेवाली दीप्तियां और चकाचौंध करनेवाली क्षणिक अभिव्यक्तियाँ हमारे सामने आवें जो हमें अतिक्रमण किये हुए, हमारी शक्तिसे परेकी होनेके कारण अपनेको सत्य रूपमें व्यक्त करनेमें अशक्त रहें और हमारे ग्रहणशील मनको गड़बड़ीमें डालती रहें । इन्द्रको केवल प्रकाशक ही नहीं होना चाहिये, किंतु सत्य विचार-रूपोका रचयिता, सुरुप कृत्नु भी होना चाहिये । (मंत्र 3 )
आगे ऋषि सामुदायिक योगके अपने किसी साथीकी ओर अभिमुख होकर, या संभवतः अपने ही मनको संबोधन करता हुआ, उसे (साथीको या अपने मनको ) प्रोत्साहित करता है कि आ, तू इन उलटे सुझावोंकी बाधाको जो तेरे विरोधमें खड़ी की गयी है पार करके आगे बढ़ जा और दिव्य प्रज्ञा (इन्द्र ) से पूछ-पूछकर उस सर्वोच्च सुखतक पहुँच जा जिसे इस प्रज्ञा द्वारा अन्य पहले भी पा चुके हैं । क्योंकि यह वह प्रज्ञा है जो स्पष्टतया विवेक कर सकती है और सब प्रकारकी गड़बड़ी व सब प्रकारके
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धुंधलेपनका, जो अबतक भी विद्यमान है, हल निकाल सकती या उसे हटा सकती है । गतिमें तीव्र, प्रचण्ड, शक्तिशाली होती हुई यह, अपनी शक्तिके कारण, प्राणमय चेतनाके आचेगोंकी तरह अपने मार्गोमें स्खलनको प्राप्त नहीं होती (अस्तृतम् ) अथवा संभवत: इस शब्दका अधिक ठीक आशय यह हो सकता है कि अपनी अपराजेय शक्तिके कारण यह प्रज्ञा आक्र मणोंके वशीभूत नहीं होती; वे आक्रमण आच्छादकों (वृत्रों ) के हों या उन शक्तियोंके जो सीमामें बांधनेवाली हैं । (मंत्र 4)
इसके आगे उन फलोंका वर्गन किया गया है जिन्हें पानेकी ऋषि अभीप्सा करता है । इस पूर्णतर प्रकाशके हो जानेसे, जो मानसिक ज्ञानके अंतिम रूपोंके आ जानेपर खुलकर प्रकट हो जाता है, यह होगा कि बाधाकी शक्तियाँ संतुष्ट हो जायाँगी, स्वयमेव आगेसे हट जायँगी तथा और अधिक उन्नति और नवीन प्रकाशपूर्ण प्रगतियोंको आनेके लिये रास्ता दे देंगी । फलतः वे कहेंगी, ''लो, अब तुम्हें वह अधिकार दिया जाता है जिसे अबतक हम, उचित तौरसे ही, तुम्हें नहीं दे रही थीं । तो अब न केवल उन क्षेत्रोंमें जिन्हें तुम पहले ही जीत चुके हो बल्कि अन्य क्षेत्रोंमें तथा अक्षुण्ण पड़े प्रदेशोंमें भी अपनी विजयशील यात्रा जारी करो । अपनी यह क्रिया पूर्णरूपसे दिव्य प्रज्ञाको समर्पित करो, न कि अपनी निम्न शक्तियोंको । क्योंकि महत्तर समर्पण ही तुम्हें महत्तर अधिकार प्रदान करता है ।''
'आरत' शब्द जिसका अर्थ गति करना या यत्न करना है, अपने सजातीय 'अरि, 'अर्य', 'आर्य, 'अरति', 'अरण' शब्दोंकी तरह वेदके केंद्रभूत विचारको अभिव्यक्त करनेवाला है । 'अर्' धातु हमेशा प्रयत्नकी या संघर्षकी गतिको अथवा सर्वातिशायी उच्चताकी या श्रेष्ठताकी अवस्थाको निर्दिष्ट करती है; यह नाव खेना, हल चलाना, युद्ध करना, ऊपर उठाना, ऊपर चढ़ना अर्थोमें प्रयुक्त की जाती है । तो 'आर्य' वह मनुष्य है जो वैदिक क्रिया द्वारा, आन्तर या बाह्य 'कर्म' अथवा 'अपस्' द्वारा, जो देवोंके प्रति यज्ञरूप होता है, अपने-आपको परिपूर्ण करनेकी इच्छा रखता है । पर यह कर्म एक यात्रा, एक प्रयाण, एक युद्ध, एक ऊर्ध्वमुख आरोहणके रूपमें भी चित्रित किया गया है । आर्य मनुष्य ऊँचाइयोंकी तरफ जानेका यत्न करता है, अपने प्रयाणमें, जो एक साथ एक अग्रगति और ऊर्ध्वारोहण दोनों है, संघर्ष करके अपना मार्ग बनाता है । यही उसका आर्यत्व है, 'अर्' धातुसे ही निष्पन्न एक ग्रीक शब्दका प्रयोग करें तो यही उसका 'अरेटे' गुण है । 'आरत'का अनुवाद अवशिष्ट वाक्यांशके साथ मिलाकर
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यह किया जा सकता है कि, ''निकल चलो और संघर्ष करके अन्य क्षेत्रोंमें भी आगे बढ़ते जाओ ।'' (मंत्र 5 )
शब्द-प्रतिध्वनियों द्वारा विचार-संबंधोंको सूचित करनेकी सूक्ष्म वैदिक पद्धतिके अनुसार इसी विचारको अगले मंत्रके 'अरि: कृष्टयः' शब्दों द्वारा फिर उठाया गया है । मेरे विचारमें ये 'अरि: कृष्टयः' पृथ्वीपर रहनेवाली कोई आर्य जातियाँ नहीं हैं (यद्यपि यह अर्थ भी संभव है जब कि समूहात्मक या राष्ट्रगत योगका विचार अभिप्रेत हो ), बल्कि ये वे शक्तियाँ हैं जो मनुष्यको उसके ऊर्ध्वारोहणमें सहायता देती हैं, ये उसके आध्यात्मिक सबंधु हैं जो उसके साथ सखा, मित्र, बंधु, सहयोगी (सखाय:, युज:, जामय: ) के रूपमें बँधे हुए हैं क्योंकि जो उसकी अभीप्सा है वही उनकी अभीप्सा है और उसकी पूर्णता द्वारा वे परिपूर्ण होते हैं । जैसे अवरोधक शक्तियाँ संतुष्ट हो गयी हैं और उन्होंने रास्ता दे दिया है वैसे ही उनको भी संतुष्ट होकर अन्ततः अपने उस कार्यकी पूर्ति घोषित करनी चाहिये जो पूर्ति मानवीय आनंदकी पूर्णता द्वारा संसिद्ध हुई है । और ऐसी दशामें आत्मा इन्द्रकी उस शांतिमें विश्राम पायेगी जो दिव्य प्रकाशके साथ आती है--इन्द्रकी शांति अर्थात् उस पूर्णताप्राप्त मनोवृत्तिकी शांति जो संपिरपूर्ण चेतना और दिव्य आनंदकी ऊँचाइयोंपर स्थित है । (मंत्र 6 )
इसलिये दिव्य आनंद वेगयुक्त तथा तीव्र किया जानेके लिये आधारमें उँड़ेला गया है और इन्द्रको, उसकी तीव्रताओंमें सहायक होनेके लिये, समर्पित कर दिया गया है । क्योंकि, आन्तरिक संवेदनोंमें अभिव्यक्त यह अगाध आनंद ही वह दिव्य परमानंद प्रदान करता है जिससे मनुष्य या देव सबल होता है । दिव्य प्रज्ञा तब अभीतक अपूर्ण रही अपनी यात्रामें आगे बढ़नेमें समर्थ होगी और देवके मित्रके प्रति अवरोहण करती हुई उसे सोमाहुतिके प्रतिफलके रूपमें आनंदकी नवीन शक्तियाँ प्रदान करेगी । अर्थात् इन्द्र अब और आगे बढ़ सकेगा तथा सोमपानके बदलेमें सखाको ऊपरसे आनेवाला आनंद प्रदान कर सकेगा । (मंत्र 7 )
क्योंकि इसी बलको प्राप्त करके मनुष्यस्थ मनने उन सबको नष्ट किया था जो आच्छादक या अवरोधक होकर इसके संकल्प और विचारकी शतगुणित प्रगतियोंमें बाधा डालते थे; इसी बलके द्वारा इसने बादमें उन भरपूर तथा विविध ऐश्वर्योंकी रक्षा की जो पहले हुए युद्धोंमें, 'अत्रियों' और 'दस्युओं'से--अर्थात् उनसे जो अधिगत ऐश्वर्योंको हड़प जाने और लूट लेनेवाले हैं--जीते जा चुके थे । (मंत्र 8 )
ऋषि मधुच्छन्दस् अपने कथनको जारी रखता हुआ आगे कहता है
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कि यद्यपि वह प्रज्ञा पहलेसे ही इस प्रकार समृद्ध और विविध निधियोंसे पूर्ण है तो भी हम अवरोधकों और वृत्रोंको हटाकर इसकी समृद्धिकी शक्तिको और अधिक वृद्धिगत करना चाहते हैं ताकि हमें निश्चित तथा भरपूर रूपमें अपने ऐश्वर्योंकी प्राप्तियाँ हो सकें । (मंत्र 9 )
क्योंकि यह प्रकाश, अपनी संपूर्ण महत्ताकी अवस्थामें सीमा या बाधाहे सर्वथा स्वतंत्र यह प्रकाश आनंदका धाम है; यह शक्ति वह है जो मनुष्यके आत्माको अपना मित्र बना लेती है और इसे युद्धके बीचमेंसे सुरक्षित रूपसे पार कर देती है, यात्राके अन्ततक, इसकी अभीप्साके अंतिम प्राप्तव्य शिखरपर, पहुँचा देती है । (मंत्र 10 )
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इन्द और विचार-शक्तियाँ
ऋग्वेद, मण्डल 1, सूक्त 171
प्रति व एना नमसाहमेमि सूक्तेन भिक्षे सुमतिं तुराणाम् ।
रराणता मरुतो बेद्याभिनिं हेडो धत्त वि मुचध्वमश्वान् ।।1 ।।
(एना नमसा ) इस नमनके साथ (अहम् व: प्रति एभि) मैं तुम्हारे प्रति आता हूँ, (सूक्तेन) पूर्ण शब्दके द्वारा मैं (तुराणाम् सुमतिं भिक्षे) उनसे सत्य मनोवृत्तिकी याचना करता हूँ जो यात्रामें तीव्र गतिवाले हैं । (मरुत: ) हे मरुतो ! (वेद्याभि: रराणत) ) ज्ञानकी वस्तुओंमें आनंद लो, (हेड: ) अपना क्रोध (निधत्त ) एक तरफ रख दो, (अश्वान् ) अपने घोड़ोंको (विमुचध्वम्) खोल दो ।।1 ।।
एष व: स्तोमो मरुतो नमस्यान् हृदा तष्टो मनसा धायि देवा: ।
उपेमा यात मनसा जुषाणा यूयं हि ष्ठा नमस इद् वृषास: ।।2|।
(मरुत: ) हे मरुतो ! (एष व: स्तोम: ) देखो, यह तुम्हारा स्तोत्र है; (नमस्वान् ) यह मेरे नमनसे परिपूर्ण है, (हृदा तष्ट: ) यह हृदय द्वारा रचा गया था, (देवा: ) हे देवो ! (मनसा धायि ) यह मन द्वारा धारण किया गया था, (इमा: उपयात ) मेरे इन स्तोत्रोंके पास पहुँचो (मनसा जुषाणा: ) और इन्हें मन द्वारा सेवित करो; (हि) क्योंकि (यूयम्) तुम (नमस: ) नमनके1 (इद् ) निश्चयपूर्वक (वृधास: स्था: ) बढ़ानेवाले हो ।।२।।
स्तुतासो नो मरुतो मुलळयन्तुत स्तुतो मधया शंभविष्ठ: ।
ऊर्ध्वा न: सन्तु कोम्या वनान्यहानि विश्वा मरुतो जिगीषा ।।3।।
(स्तुतास: मरुत: ) स्तुति किये हुए मरुत् (नं: मृळयन्तु ) हमारे लिये सुखप्रद हों, (उत स्तुत: मघवा) स्तुति किया हुआ ऐश्वर्यका अधिपति
1. सायणने यहां सर्वत्र 'नमस्'का वही अपना प्रिय अर्थ 'अन्न' किया है । क्योंकि
''प्रणामके बढ़ानेवाले'' यह अर्थ, स्पष्ट ही, नहीं हो सकता । इस संदर्भसे तथा
अन्य कई संदर्भोंसे यह स्पष्ट है कि यह शब्द नमस्कारके भौतिक अर्थके पीछे अपने
साथ एक आध्यात्मिक अर्थ मी रखता है जो यहां साफ तौर पर अपनी मूर्त्त प्रतिमा
छोड़कर सामने आ गया है |
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[ इन्द्र ] तो (शंभविष्ठ: ) पूर्णतया सुख का रचयिता हो गया है । (न: कोम्या वनानि ) हमारे वांछनीय आनंद1 (ऊर्ध्वा: सन्तु) ऊपरकी ओर उत्थित हो जायँ, (मरुत: ) हे मरुतो! (विश्वा अहानि ) हमारे सब दिन (जिगीषा) विजयेच्छाके द्वारा (ऊर्ध्वा सन्तु) ) ऊपरकी ओर उत्थित हो जायँ ।।3।।
अस्मादहं तविषादीषमाण इन्द्राद् भिया मरुतो रेजमान: ।
युष्मभ्यं हव्या निशितान्यासन् तान्यारे चकृमा मृळता न: ।।4।।
(अस्मात् तविषाद् ईषमाण: ) इस महाशक्तिशाली द्वारा अधिकृत हुए (इन्द्राद् भिया रेजमान: अहम् ) इन्द्रके भयसे काँपते हुए मैंने (मरुत: ) हे मरुतो ! (युष्मभ्यं हव्या निशितानि आसन् ) जो हवियाँ तुम्हारे लिये तीब्र बनाकर रखी थीं (तानि ) उन्हें (आरे चकृम ) दूर रख दिया है । (न: मृळक) हमपर कृपा करो ।।4।।
येन मानासश्चितयन्त -उस्रा व्युष्टिषु शयसा शश्वतीनाम् ।
स नो मरुद्धिर्वृषभ श्रूवो धा उप उग्रेभि: स्थविर: सहोदा: ।।5।।
(येन) जिसके द्वारा (मानास: ) मनकी गतियाँ (व्युष्टिषु) हमारे प्रभातकालोंमें (शश्वतीनां शवसा2 ) शाश्वतिक उषाओंकी प्रकाशमयी शक्तिके द्वारा (चितयन्त: ) सचेतन और (उस्राः3) प्रकाशसे जगमग हो जाती हैं (स वृषभ4 ) उस तूने, हे गौओंके पति ! (मरुद्धि: ) मरुतोंके
1. 'वन' शब्दके दोनों अर्थ हैं ''जंगल'' और ''सुखमोग'' या विशेषणके रूपमें लें तो
''सुखमोगके योग्य'' । वेदमें प्रायः यह द्विविध अर्थको लिये हुए आता है-हमारी
मौतिक सत्ताको ''सुखदायी वृद्धियां'', वनानि पृथिव्या: ।
2. वेदमें सामर्थ्य, बल, शक्तिके लिये बहुतसे शब्द प्रयुक्त दुए है और उनमेंसे प्रत्येक
अपने साथ एक विशेष सूक्ष्म अर्थभेद रखता है । 'शवस्' शब्द प्रायः शक्तिके साथ
. प्रकाशके अर्थको भी देता है |
3. स्त्रीलिंगमें 'उस्रा' यह शब्द 'गो'के पर्यायवाचीके रूपमें प्रयुक्त दुआ है, जिसके एक
साथ दोनों अर्थ है, गाय और प्रकाशकी किरण । 'उषा' भी गोमती है अर्थात् किरणोंसे
परिवृत या सूर्यको गौओंसे युक्त । मलू मंत्रमें 'उस्रा'को स्वरसाम्य रखनेवाज्ञे एक
शब्दके साथ मिलाकर अर्थगर्भित प्रयोग किया गया है 'उस्रा व्युष्टिषु'; यह वैदिक
ॠषियों द्वारा प्रयुक्त उन सामान्य युक्तियोंमेंसे एक है जो ऐसे विचार या संबंधको
ध्वनित करती है जिसे ॠषि स्पष्ट तौरसे खोज देना आवश्यक नहीं समझते ।
4. 'वृषम'का अर्थ है बैल, पुरुष, अधिपति या बीर्यशाली । इन्दको सतत रूपसे 'वृषम'
या 'वृषन्' कहा गया है । कहीं यह शब्द अकेला स्वयं प्रयुक्त हुआ है जैसे कि यहां;
और कहीं इसके साथ अन्वित (संबद्ध) किसी दूसरे शब्दके साथ, जो इसके साथ गौओं-
के विचारको ध्वनित करनेके लिये आता है जैसे ''वृषम: मतीनाम्'' अर्थात् 'विचारोंका
अधिपति', जहां स्पष्ट ही बैल और गौओंका रूपक अभिप्रेत है |
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साथ मिलकर (न: श्रव: धा: ) हमारे अंदर अन्तःप्रेरित ज्ञान निहित कर दिया है,--उस तूने जो (उग्र: ) बलशाली (स्थविर: ) स्थिर और (सहोदा: ) बलप्रदाता है, (उग्रेभि: ) उन बलशालियोंके साथ भिलकर [हमारे अंदर अन्तःप्रेरित ज्ञान निहित कर दिया है] ।।5।।
स्वं पाहीन्द्र सहीयसो नुन् भवा मरुद्धिरबयातहेला ।
सुप्रकेतेभि: सासहिर्दधानो विद्यामेष बृजनं जीरदानुम् ।।6।।
(इन्द्र ) हे इन्द्र ! (त्वम् ) तू (सहीयस: ) प्रवृद्ध बलवाली (नून्1 ) शक्तियोंकी (पाहि ) रक्षा कर; (मरुद्धि: अवयातहेळा: भव) मरुतोंके प्रति तेरा जो क्रोध है उसे तू दूर कर दे,--(सासहि: ) तू जो शक्तिसे परिपूर्ण है और (सुप्रकेतेभि: ) सत्य बोधसे युक्तं उन [मरुतों] के द्वारा (दधान: ) धारण किया हुआ है । हम (वृजनम् इषं विद्याम ) ऐसी प्रबल प्रेरणा प्राप्त करें जो (जीरदानुम्) बाधाओंको वेगपूर्वक छिन्न-भिन्न कर देनेवाली है ।।6।।
यह सूक्त इन्द्र और अगस्त्यके संवादका उत्तरवर्ती सूक्त है और अगस्त्यकी तरफसे कहा गया है । इसमें अगस्त्य मरुतोंको मना रहा, प्रसन्न कर रहा है, क्योंकि उसने उनके यज्ञको शक्ततर देव (इन्द्र )के आदेशसे बीचमें रोक दिया था । अपेक्षाकृत कम प्रत्यक्ष रूपसे, विचारकी दृष्टिसे इस सूक्तका संबंध इसी (पहले ) मण्डलके 165वें सूक्तके साथ है । यह 165वां सूक्त इन्द्र और मरुतोंका संवादरूप है, जिसमें स्वर्गके अधिपति (इन्द्र )की सर्वोच्चता धोषित की गयी है और इन अपेक्षाकृत अल्प-प्रकाशमान मरुतोंको उसके अधीन शक्तियां स्वीकार किया गया है जो मनुष्योंको इन्द्रसे संबंधित उच्च सत्योंकी तरफ प्रेरित करती हैं । ''इनके (मनुष्योंके ) चित्रविचित्र प्रकाशवाले विचारोंको अपने प्राणका बल देते हुए इनके अंदर मेरे (मुझ इन्द्रके ) सत्योंको ज्ञानमें प्रेरित करनेवाले बन जाओ । जब कर्ता कर्मके लिये क्रियाशील हो जाय और विचारककी प्रज्ञा हमें उसके अंदर रच दे
1. प्रतीत होता है कि आरंभमें 'नृ' शब्दका अर्थ क्रियाशील', 'वेगवान्' या 'दृढ़' था ।
हमारे सामने 'नृम्ण' शब्द है जिसका अर्थ बल है, और 'नृतमो नृणाम्' जिसका अर्थ
है शक्तियोंमें सबसे अधिक शक्तिशाली | बादमें इसका अर्थ 'पुरुष' या 'मनुष्य' हो
गया और वेदमें यह प्रायः उन देवोंके लिये प्रयुक्त हुआ है जो पुरुष-शक्तियां हैं जो
प्रकृतिकी शक्तियों पर प्रभुत्व करती हैं, और जिनके मुकाबलेमें स्त्रीलिंग शक्तियां हैं
'ग्ना' या 'गना' |
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तब, हे मरुतो ! निश्चिततया तुम उस प्रकाशयुक्त द्रष्टा (विप्र ) के प्रति गति करने लगो'' --ये हैं उस संवादके अंतिम शब्द, उन अल्पतर देवों (मरुतों ) को दिया गया इन्द्रका अंतिम आदेश ।
ये ऋचाएँ पर्याप्त स्पष्ट तौरपर मरुतोंका आध्यात्मिक व्यापार निश्चित कर देती हैं । मरुत तत्त्वतः विचारके देवता नहीं, बल्कि शक्तिके देवता हैं, तो भी उनकी शक्तियाँ सफल होती हैं मनके अंदर । साधारण अशिक्षित (अदीक्षित ) आर्य पुजारीके लिये ये मरुत् वायु, आँधी और वर्षाकी शक्तियां थे । उनके लिये प्राय: आँधी-तूफानके रूपक ही प्रयुक्त किये गये हैं और उन्हें 'रुद्र' अर्थात् उग्र, प्रचण्ड कहा गया है; --यह 'रुद्र' नाम मरुतोंके साथ शक्तिके देवता अग्निको भी .दिया गया है । यद्यपि कहीं-कहीं इन्द्रको मरुतोंमें ज्येष्ठ वर्णित किया गया है,--इन्द्रज्येष्ठो मरुद्गण:,--तो भी पहले पहल यही प्रतीत होगा कि ये अपेक्षया वायुके लोकसे संबंध रखते हैं, और वायु है पवन-देवता, वैदिक संप्रदायमें जीवनका अधिपति, प्राण नामसे वर्णित उस जीवन-श्वास या क्रियाशील बलकार स्रोत और प्रेरक जो मनुष्यके अंदर वातिक और प्राणमय क्रियाओंसे द्योतित होता है । पर यह मरुतोंके बाह्य रूपका केवल एक भाग है । उग्रताकी ही तरह भ्राजिष्णुता भी उनकी विशेषता है । उनसे संबद्ध प्रत्येक वस्तु तेजोयुक्त है, वे स्वयं, उनके चमकीले शंस्त्रास्त्र, उनके स्वर्णिल आभूषण, उनके देदीप्यमान रथ--ये सभी भ्राजमान हैं । नं केवल वे वर्षाको, जलोंको, आकाशीय विपुल ऐश्वर्यको नीचे भेजते हैं, और नवीन प्रगतियों तथा नवीन निर्माणोंके लिये मार्ग बनानेके लिये दृढ़-से-दृढ़ वस्तुओंको तोड़ गिराते हैं, बल्कि अन्य देवों इन्द्र, मित्र, वरुणकी तरह जिनके साथ मिलकर वे इन व्यापारोंको करते हैं, वे भी सत्यके सखा हैं, प्रकाशके रचयिता हैं । इसी लिये ऋषि गौतम राहूगण उनसे प्रार्थना करता है :--
युयं तत्सत्यशवस आविष्कर्त महित्वाना । विध्यता विधुता रक्षः ।।
गूहता गुह्यं तमो वि यात विश्वामत्रिणम् । ज्योतिष्कर्ता यदुश्मसि ।।
ऋg० 1.86.9,10
''सत्यके तेजोमय बलसे युक्त मरुतो ! अपनी शक्तिशालितासे तुम उसे अभिव्यक्त कर दो; अपने विद्युद्-वज्रसे राक्षसको विद्ध कर दो ।
1... मन्मानि चित्रा अपियातयन्त एषां भूत नवेदा म ऋतानाम् ।|
आ यद् दुवस्याद् दुवसे न कारुरस्माञ्चक्रे मान्यस्य मेधा ।
ओ षु वर्त्त मरुतो विप्रमच्छ... (1. 165. 131, 14 )
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आवरण डालनेवाले अंधकारको छिपा दो, प्रत्येक भक्षकको दूर हटा दो, उस प्रकाशको रच दो जिसे हम चाह रहे हैं ।''
और एक दूसरे सूक्तमें अगस्त्य उनसे कहता है-
नित्यं न सूनुं मधु बिभ्रत उप क्रीडन्ति क्रीडा विहथेषु धृष्वय: । 1 .66 .2
''वे अपने साथ (आनंदका ) माधुर्य लिये हुए हैं, जैसे कि अपने शाश्वत पुत्रको लिये हों, और अपना खेल खेल रहे हैं,-वे जो ज्ञानकी क्रियाओंमें तेजस्वी हैं ।''
इसलिये मरुत् मानस सत्ताकी शक्तियां हैं, ये वे शक्तियां हैं जो ज्ञानमें सहायक होती हैं । स्थिरीभूत सत्य, प्रसृत प्रकाश उनमें नहीं है, उनकी सम्पदा है गति, खोज, विद्युद्दीप्ति, और जब सत्य प्राप्त हो जाय तब उसके पृथक्-पृथक् प्रकाशोंका अनेकविध खेल ।
हम देख चुके हैं कि अगस्त्यने इन्द्रके साथ अपने संवादमें एक से अधिक बार मरुतोंकी चर्चा की है । उन्हें इन्द्रका भाई कहा है और यह कहा है कि इन्द्रको अगस्त्यपर जब कि वह पूर्णताके लिये संघर्ष कर रहा है, प्रहार नहीं करना चाहिये । उस पूर्णता-प्राप्तिमें मरुत् उसके (इन्द्रके ) उपकरण हैं, और क्योंकि ऐसा है इसलिये इन्द्रको उनका उपयोग करना चाहिये । और समर्पण तथा मैत्रीसंधानकी उपसंहाररूप उक्तिमें अगस्त्य इन्द्रसे प्रार्थना करता है कि तू फिर मरुतोंके साथ संलाप कर और उनके साथ एकमत हो जा ताकि यज्ञ दिव्य सत्यकी क्रिया और नियमक्रममें आगे उस तरफ चल सके जिस तरफ यह चलाया गया है । उस समय अगस्त्यके अंदर जो संकट पैदा हुआ था जिसने उसके मनपर ऐसा जबर्दस्त प्रभाव छोड़ा उसका स्वरूप एक उग्र संघर्षका था, जिसमें उच्चतर दिव्य शक्ति (इन्द्र ) ने अगस्त्य तथा मरुतोंका सामना किया और उनकी रभसपूर्ण प्रगतिका विरोध किया । इस अवसरपर दिव्य प्रज्ञा (इन्द्र ) जो विश्वपर शासन करती है, तथा अगस्त्यके मनकी रभसपूर्ण अभीप्साशक्तियों (मरुतों ) के बीचेमें परस्पर एक रोष तथा कलह चलता रहा । दोनों ही शक्तियाँ मानवसत्ताको उसके लक्ष्यपर पहुँचाना चाहती हैं । पर उसकी यात्रा, प्रगति वैसे संचालित नहीं होनी चाहिये जैसा कि क्षुद्रतर दिव्य शक्तियाँ (मरुत् ) पसंद करती हैं, बल्कि यह वैसे संचालित होनी चाहिये जैसे कि गुप्त दिव्य प्रज्ञाने, जिसे सत्य सदा प्राप्त है, अबतक सत्यकी खोज कर रही अभिव्यक्त प्रज्ञाके लिये ऊर्ध्व स्तर पर दृढ़तया संकल्पित और निश्चित कर रखा है । इसलिये मानवसत्ता (अगस्त्य ) का मन बृहत्तर शक्तियोंके लिये एक रणक्षेत्र बना रहा है और अभीतक भी वह उस अनुभूतिके त्रास और भयसे कांप रहा है |
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इन्द्रको समर्पण किया जा चुका हैं, अगस्त्य अब (इस सूक्तमें) मरुतोंसे विनती कर रहा है कि वे मैत्री-संधानकी शर्तें स्वीकार कर लें ताकि उसके आन्तरिक जीवनकी पूर्ण समस्वरता फिरसे स्थापित हो जाय । महान् देव (इन्द्र) के प्रति वह जो समर्पण कर चुका है उस समर्पणभावके साथ वह मरुतोंके पास आता हैं और उसे उनके तेजोयुक्त सैन्यतक विस्तृत करता हैं । मानसिक भूमिका तथा उसकी शक्तियोंकी पूर्णता जिसे अगस्त्य चाह रहा है, उनकी निर्मलता, सरलता, सत्यदर्शनकी शक्ति तबतक अधिगत नहीं हो सकती जबतक उच्चतर ज्ञानके प्रति विचार-शक्तियों (मरुतों) के प्रयाणमें तीब्र वेग न आ जाय । पर ज्ञानके प्रति यह गति जब गलत तरीकेसे चलायी गयी, समुचित प्रकारसे प्रकाशमय नहीं हुई, तब वह इन्द्रके जबर्दस्त विरोधके कारण रुक गयी और कुछ समयके लिये अगस्त्यके मनसे पृथक् हो गयी । इस प्रकार बाधा पाकर मरुत् अगस्त्यको छोड़ अन्य यज्ञ-कर्ताओंके पास चले गये हैं;. अब अन्यत्र ही उनके देदीप्यमान रथ चमकते हैं, अन्य क्षेत्रोंमें ही उनके वायुवेग घोड़ोंके सुम वज्रनिर्घोष करते हैं । ऋषि उनसे प्रार्थना कर रहा है कि अपना रोष एक तरफ रख दो, एक बार फिर ज्ञानके अनुसरणमें और इसकी क्रियाओंमें आनंद लो; अब और अधिक मुझे छोड्कर परे मत जाओ, अपने घोड़े खोल दो, यज्ञके आसनपर अवतीर्ण हो जाओ और वहाँ अपना स्थान ग्रहण करो, हवियोंका अपना भाग स्वीकार करो (देखो, मंत्र 1) ।
वह फिर इन शोभाशाली शक्तियों (मरुतों) को अपने अंदर सुस्थित, दृढ़ करना चाहता है, और इसके लिये वह उनके प्रति जो कुछ अर्पित कर रहा है वह है एक स्तोत्र, वैदिक ऋषियोंका 'स्तोम' । रहस्यवादियोंकी पद्धतिमें, जो भारतीय योगके संप्रदायोंमें कुछ-कुछ बची हुई है, शब्द एक शक्ति है, शब्द रचना किया करता है । क्योंकि रचनामात्र एक अभि- व्यंजन है, उच्चारण है, प्रत्येके वस्तु असीमके गुह्यधाममें पहलेसे ही विद्यमान है, गुहा हितम्, और यहाँ वह क्रियाशील चेतना द्वारा केवल व्यक्त रूपमें लायी जानी है । वैदिक विचारके भी कुछ संप्रदाय लोकोंको शब्दकी देवी (वाग्देवी) द्वारा रचित मानते हैं और यह समझते हैं कि ध्वनि प्रथम आकाशीय कंपनके रूपमें रचना की पूर्ववर्ती हुआ करती है । स्वयं वेदमें ही ऐसे संदर्भ मिलते हैं जो पवित्र मंत्रोंके कवितात्मक छन्दों-अनुष्टुप्, त्रिष्टुप्, जगती, गायत्री-को उन छन्दों व स्वरोंका प्रतीकभूत न्द्रते हैं जिनमें वस्तुओंकी विश्वव्यापी गति ढाली गयी है ।.
तो शब्दोच्चारण द्वारा हम रचना करते हैं और मनुष्योंके लिये तो
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यह भी कहा गया है कि वे मंत्र द्वारा अपने अंदर देवोंको रचित करते हैं । फिर, जिसे हमने अपनी चेतनाके अंदर शब्द द्वारा रचा है, उसे हम वहाँ शब्द द्वारा इस प्रकार सुस्थापित भी कर सकते हैं कि वह हमारी आत्माका अंग बन जाय और न केवल हमारे आन्तरिक जीवनमें बल्कि बाह्य भौतिक जगत्पर भी प्रभाव डालनेवाला हो जाय । उच्चारण द्वारा हम रचते हैं, स्तोत्र द्वारा स्थापित करते हैं । उच्चारणकी शक्तिके तौरपर शब्दको 'गी:' या 'वचस्' नाम दिया जाता हैं; स्तोत्रकी शक्तिके तौरपर 'स्तोम' । दोनों ही रूपोंमें इसे 'मन्म' या 'मंत्र' और 'ब्रह्म' ये नाम दिये गये हैं; 'मन्म' या 'मंत्र'का अर्थ है मनके अंदर विचारका व्यक्तीकरण और 'ब्रह्म'का अर्थ. है हृदय या आत्माका व्यक्तीकरण । (क्योंकि ऐसा प्रतीत होता हैं .कि 'ब्रह्मन्'1 शब्दका प्रारंभिक अर्थ यही रहा होगा, बादमें यह परमात्मा या विराट् सत्ताके लिये प्रयुक्त होने लगा ।)
मंत्रके निर्माणकी पद्धति दूसरी ऋचामें वर्णित की गयी है और इसकी फलसाघकताके लिये जो आवश्यक शर्ते हैं वे भी वहाँ बता दी गयी हैं । अगस्त्य मरुतोंको स्तोम अर्पित करता है, जो एक साथ स्तुति और समर्पण दोनोंका स्तोत्र है । हृदय द्वारा रचा गया यह स्तोम, मन द्वारा संपुष्ट होकर मानस सत्ताके अंदर अपना समुचित स्थान प्राप्त करता है । मंत्र यद्यपि मनके अंदर विचारको अभिव्यक्त करता है तथापि वह अपने तात्त्विक अंशमें बुद्धिकी रचना नहीं है । उसके एक पवित्र तथा फलोत्पादक शब्द होनेके लिये यह आवश्यक हैं कि वह अन्तःप्रेरणाके रूपमें उस अतिमानस लोकसे आया हो जिसे वेदमें 'ऋतम्' अर्थात् सत्य नाम दिया गया है, और साथ ही वह हृदय द्वारा या प्रकाशमयी प्रज्ञा, मनीषा द्वारा बाह्य चेतनाके अंदर गृहीत हुआ हो । हृदय, वैदिक अध्यात्मविज्ञानमें, भावावेशोंके स्थानतक ही सीमित नहीं है; यह स्वत:प्रवृत्त मनके उस सारे विशाल प्रदेशको समाविष्ट किये हुए है जो हमारे अंदर अवचेतनके अधिक-से-अघिक समीप पहुँचा हुआ है तथा जिसमें से संवेदन, भावावेश, सहजज्ञान, आवेग उठते हैं और वे सब अन्तर्ज्ञान तथा अन्त:प्रेरणाएँ भी उठती हैं जो बुद्धिमें आकार प्राप्त करनेसे पहले इन उपकरणोमेंसे गुजरकर आती हैं । यह है वेद और वेदान्तका "हृदय", जिसके वाचक शब्द वेदमें 'हृदय,, 'हृद्' या 'ब्रह्मन्'
1. यह शब्द वृह् (वृहस्पति, बृह्यणस्पति) रूपमें मी पाया जाता है । और ऐसा प्रतीत होता
है कि इसके प्राचीनतर रूप वृहन् और महन् भी रहे होंगे । वहुत संभव है कि व्रहन्
(पष्ठी-ब्रुह्रस्) से ही, ग्रीक शब्द फ्रेनोस् (phren, phrenos) बने हों,
जिनका अर्थ है मन ।
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हैं । उस हृदयके अंदर, मनुष्यकी जैसी वर्तमान अवस्था है उसमें, 'पुरुष' केंद्रभूत होकर आसीन हुआ माना गया है । अवचेतनकी विशालताके समीप उस हृदयमें, सामान्य मनुष्यके अंदर--जो अभीतक उन्नत होकर उस उच्च लोकतक नहीं पहुँचा, जहां असीमके साथ संपर्क प्रकाशमय और घनिष्ठ तथा साक्षात् हो जाता है--विराट् आत्माकी अन्त:-प्रेरणाएँ अधिकतम सरलताके साथ प्रविष्ट हो सकती हैं और अत्यधिक तीव्रताके साथ व्यक्तिगत आत्मापर अघिकार पा सकती हैं । इसलिये हृदयकी शक्ति द्वारा ही मंत्र रचित होता है । परंतु इस मंत्रको हृदयके बोधमें ही नहीं अपितु मन (प्रज्ञा) के विचारमें भी ग्रहण तथा घारण करना होता है; क्योंकि विचारका सत्य जिसे शब्दका सत्य अभिव्यक्त करता है तबतक दृढ़तापूर्वक अधिगत नहीं किया जा सकता या तबतक सामान्यत: फलसाधक नहीं हो सकता जबतक प्रज्ञा इसे ग्रहण नहीं कर लेती, बल्कि अंडेकी तरह इसे से नहीं लेती । हृदय द्वारा विरचित होकर यह मन द्वारा सुस्थित किया जाता है ।
पर एक और अनुमोदन भी अपेक्षित है । वैयक्तिक मनने स्वीकृति दे दी है, विश्वकी फलसाधक शक्तियोंकी भी स्वीकृति मिलनी चाहिये । मन द्वारा धारण किये गये स्तोत्रके शब्दोंने एक नवीन मानसिक स्थितीके लिये आधार सुरक्षित कर दिया है जिसमेंसे भविष्यमें आनेवाली विचार-शक्तियोंको प्रकट होना है । मरुतोंको आवश्यक तौरपर उन (स्तोत्रके शब्दों) के पास पहुँचना चाहिये तथा उनको अपना आधार बनाना चाहिये, इन विराट् शक्तियोंका जो मन है उसे व्यक्तिगत मनकी रचनाओंको स्वीकृति देनी चाहिये तथा उनके साथ अपने-आपको जोड़ना चाहिये । केवल इसी तरह हमारी आन्तरिक या बाह्य क्रिया अपनी उच्च फलसाधकता प्राप्त कर सकती है ।
मरुतोंके पास ऐसा कोई कारण नहीं कि वे अपनी अनुमति देनेसे इन्कार करें या अपने विरोधको और लंबे कालतक जारी रखनेपर आग्रह करें । दिव्य शक्तियाँ स्वयमेव व्यक्तिगत आवेगकी अपेक्षा एक उच्चतर नियमका पालन करती हैं, उनका यह नैसर्गिक स्वभाव है और उनका यह कार्य भी होना चाहिये कि वे मर्त्यकी सहायता करें जिससें वह अमरके प्रति अपना समर्पण कर दे और उस सत्यके, बृहत्के प्रति आज्ञा-पालकताको अपने अंदर बढ़ाये जिसके लिये उसकी मानवीय शक्तियाँ अभीप्सा कर रही हैं (देखो, मंत्र 2) ।
इन्द्र स्तुत और स्वीकृत हो चुकनेके बाद अब मर्त्यके साथ अपने संपर्कमें कष्टप्रद नहीं रहा है; दिव्य संस्पर्श अब पूर्णतया शांति और सुखका सृजन
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करनेवाला हो गया है । मरुतोंको भी, स्तुत और स्वीकृत हो जानेपर, अपनी हिंसा एक तरफ रख देनी चाहिये । अपने सौम्य रूप धारण करके, अपनी क्रियामें सुखप्रद होकर, आत्माको कष्ट तथा बाधाओंके बीचमेंसे न ले जाते हुए, उन्हें भी शक्तिशाली एवं विशुद्ध-रूपसे उपकारशील सहायक बन जाना चाहिये ।
इस पूर्ण समस्वरताके स्थापित हो चुकनेपर, अगस्त्यका योग विजयके साथ अपने लिये निर्दिष्ट किये हुए नवीन तथा सरल मार्गपर चल पड़ेगा । लक्ष्य सर्वदा यह है कि हम जहाँ हैं वहाँसे चढ़कर एक उच्चतर स्तरपर पहुँच जायँ,--उस स्तरपर जो विभक्त तथा अहंभावपूर्ण संवेदन, भावावेश, विचार और क्रियाके सामान्य जीवनफी अपेक्षा उच्चतर है । और यह उत्थान सर्वदा इसी प्रबल संकल्पसे अनुगत होना चाहिये कि जो विरोध करते हैं तथा मार्गमें रुकावट डालते हैं उन सबपर हमें विजय प्राप्त करनी हैं । पर यह होना चाहिये सर्वाङ्गीण उत्थान । सब सुख (वनानि) जिन्हें मनुष्य पाना चाहता हैं और मनुष्यकी जागृत चेतनाकी-वेदकी संक्षिप्त प्रतीकात्मक भाषामें कहें तो उसके 'दिनो'की-सभी क्रियाशील शक्तियाँ उस उच्च स्तरतक उठ जानी चाहियें । 'वनानि'से अभिप्रेत हैं वे ग्रहणशील संवेदन जो सब बाह्य विषयोंमें आनंद प्राप्त करना चाहते हैं, जिस आनंदके अन्वेषणके लिये ही उनकी सत्ता है । ये संवेदन भी बहिष्कृत नहीं रखे गये । किसीका भीं वर्जन नहीं करना है, सबको दिव्य चेतनाके विशुद्ध धरातलोंतक उठा ले जाना है (देखो, मन्त्र 3) ।
पहले अगस्त्यने मरुतोंके लिये दूसरी अवस्थाओंमें हवि तैयार की थी 1 उसके अंदर जो कुछ भी था जिसे वह इन विचार-शक्तियों (मरुतों) के हाथोंमें रख देना चाहता था उस सबको उसने इसके लिये खोल दिया था कि मरुत् उसमें अपनी गर्भित शक्तिका पूर्णतम उपयोग कर सकें; पर उसकी हविमें दोष होनेके कारण मध्य-मार्गमें ही उसके सामने एक बड़ा शक्तिशाली देव (इन्द्र) शत्रुके तौरपर आ पहुँचा था और केवल भय तथा महान् कष्टके पश्चात् ही अगस्त्यकी आँखें खुली थीं और उसके आत्माने सभर्पण कर दिया था । अबतक भी उस अनुभूतिके भावोद्वेगोंसे कांप रहा वह बाध्य कर दिया गया हैं कि उन क्रियाओंका अब बह परित्याग कर दे जिन्हें उसने ऐसी प्रबलताके साथ तैयार किया था । पर अब वह फिर मरुतोंको हवि देने लगा हैं, किंतु अबकी बार उसने उस शानदार नामके साथ और भी अधिक प्रबल 'इन्द्रके देवत्व' को जोड़ लिया है । तो मरुतोंको चाहिये कि वे उस पहली हविमें भंग पड़नेके लिये रोष न करें,
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बल्कि इस नवीन और अपेक्षाकृत अघिक उचित रूपसे परिचालित कर्मको स्वीकार कर लें (देखो, मंत्र 4) ।
अंतिम दो ऋचाओंमें अगस्त्य मरुतोंसे हटकर इन्द्रके अभिमुख होता है । मरुत् तबतक मानवीय मनके प्रगतिशील प्रकाशके प्रतिनिधि रहते हैं जबतक मनकी गतियां अपनी प्रथम धुंधली गतियोंसे, जो अभी-अभी अवचेतनके अंधकारमेंसे बाहर निकली होती हैं, उस प्रकाशमयी चेतनाकी प्रतिमामें रूपांतरित नहीं हों जातीं जिस चेतनाका अधिपति पुरुष, प्रति- निध्यात्मक पुरुष है इन्द्र । धुंधलेपनसे निकल वे (मनकी गतियाँ) सचेतन हो जाती हैं, संध्याकालीन जैसे अल्प प्रकाशसे प्रकाशित, अर्ध-प्रकाशित या भ्रांतिजनक प्रतिबिंबोंमें परिणत हुई अवस्थासे ऊपर उठ वे इन अपूर्णताओंको अतिक्रान्त कर जाती हैं और दिव्य ज्योतिको धारण कर लेती हैं । यह इतना बड़ा विकास कालमें क्रमश: सिद्ध होता है, मानवीय आत्माके प्रभातोंमें, उषाओंके अविच्छिन्न क्रमिक आगमनके द्वारा सिद्ध होता है । क्योंकि उषा वेदमें मनुष्यकी भौतिक चेतनामें दिव्य प्रकाशके नूतन आगमनोंकी प्रतीकभूत देवी हैं । यह अपनी बहिन रात्रिके साथ बारी-बारीसे आया करती है; परन्तु वह स्वयं अंधकारमयी भी प्रकाशकी एक जननी है और उषा सर्वदा उसे ही प्रकट करने आया करती हैं जिसे इस काली भौंओंवाली माता (रात्रि) ने तैयार कर रखा होता है । तो भी यहाँ ऋषि सतत उषाओंका वर्णन करता प्रतीत होता है, प्रतीयमान विश्राभके और अंधकारके इन व्यवधानोंसे विच्छिन्न उषाओंका नहीं । क्रमागत प्रकाशोंके उस सातत्यते संभूत दीप्यमान शक्तिके द्वारा मनुष्यकी मानसिक सत्ता तीव्रतापूर्वक आरोहण करती हुई पूर्णतम प्रकाश पा लेती है । पर वह बल जो इस रूपांतरको संभव बनाता हैं और इसका अधिष्ठाता है, सदा ही इन्द्रका पराक्रम होता है । यह (इन्द्र) वह परम प्रज्ञा है जो उषाओंके द्वारा, मरुतोंके द्वारा, अपने-आपको मनुष्यके अंदर उँड़ेल रही है । इन्द्र है प्रकाशमयी गौओंका वृषभ, विचार-शक्तियोंका स्वामी, प्रकाशमान उषाओंका अधिपति ।
अब भी इन्द्रको चाहिये कि वह मरुतोंको प्रकाशप्राप्तिके लिये अपने उपकरणके तौरपर प्रयुक्त करे । उनके द्वारा यह द्रष्टाके अतिमानस ज्ञानको प्रतिष्ठित करे । उनकी (मरुतोंकी) शक्ति द्वारा मानवीय स्वभावके अंदर उसकी (इन्द्रकी) शक्ति प्रतिष्ठित होगी और वह (इन्द्र) उस मानवस्वभावको अपनी दिव्य स्थिरता, अपनी दिव्य शक्ति प्रदान कर सकेगा, ताकि वह (मानवस्वभाव) आघातोंसे लड़खड़ा न जाय या प्रबल क्रिया--
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शीलताकी बृहत्तर क्रीड़ाको जो हमारी सामान्य क्षमताके मुकाबलेमें अत्यधिक महान् है, धारण करनेमें विफल न हो जाय (देखो, मंत्र 5) ।
मूरुत् इस प्रकार शक्तिमें प्रबल होकर सदा उच्चतर शक्तिके पथ-प्रदर्शन और रक्षणकी अपेक्षा करेंगे । वे हैं पृथक्-पृथक् विचार-शक्तियोंके अधिपति पुरुष, इन्द्र हैं इकट्ठा सब विचार-शक्तियोंका अधिपति एक पुरुष । उस (इन्द्र) में वे (मरुत्) अपनी परिपूर्णता तथा समस्वरता पाते हैं । तो अब इस अङ्गी (इन्द्र) तथा इन अंगों (मरुतों) के बीच कलह और विरोध नहीं रहना चाहिये । मरुत् इन्द्रको स्वीकार कर उससे उन वस्तुओंका उचित बोध पा लेंगे जिनका जानना अभीष्ट होगा । वे आंशिक प्रकाशकी चमक द्वारा भ्रांतिमें नहीं पड़ेंगे या सीमित शक्तिसे ग्रस्त होकर लक्ष्यसे बहुत दूर नहीं जा पड़ेंगे । वे इस योग्य हो जायँगे कि इन्द्रकी क्रियाको धारण किये रख सकें, जब कि वह (इन्द्र) उन सबके विरोधमें अपनी शक्ति लगाये जो अब भी आत्माके और उसकी संपूर्णताके बीचमें बाधक होकर खड़े हो सकते हैं ।
इस प्रकार इन दिव्य शक्तियोंकी तथा इनकी अभीप्साओंकी समस्वरतामें मानवीयता वह प्रेरणा पा सकेगी जो इस जगत्के सहस्रों विरोधोंको तोड़- फोड़ डालनेमें पर्याप्त सबल होगी और वह मानवीयता, संघटित व्यक्तित्व-वाले व्यक्तिमें या जातिमें, सत्वर उस लक्ष्यकी तरफ प्रवृत्त हो जायगी जिस लक्ष्यकी झांकी तो निरंतर मिला करती है पर तो भी जो उस मनुष्यके लिये भी अभी बहुत दूर ही है जिसे अपने संबंधमें यह प्रतीत होने लगा है कि मैंने तो लक्ष्यको लगभग पा ही लिया है (देखो, मंत्र 6)
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अग्नि, प्रकाशपूर्ण संकल्प
ऋग्वेद, मण्डल 1, सूक्त 77
कथा दाशेमाग्नये कास्मै देवजुष्टोच्यते भामिने गी: ।
यो मर्त्येष्यमृत ऋताया होता यजिष्ठ इत् कृणोति देवान् ।।1 ।।
(कथा अग्नये दाशेम) कैसे हम अग्निको हवि दें ? (का देवजुष्टा गी:) कौन-सा देव-स्वीकृत शब्द (भामिने अस्मै) देदीप्यमान ज्वालाके अधिपति इस [अग्नि] के लिये (उच्चते) बोला जाता है ? (य:) जो (मर्त्येषु अमृत:) मर्त्योमें अमर, (ऋतावा) सत्यसे युक्त, (यजिष्ठ: होता) यज्ञका साधकतम होता हुआ (देवान् कृणोति इत्) देवोंको विरचित कर देता है ।।1|।
यो अध्वरेषु शंतम ॠतावा होता तमु नमोभिरा कृणुध्यम् ।
अग्निर्यद् वेर्मर्ताय देवान्त्स चा बोधाति मनसा यजाति ।।2।।
(य:) जो अग्नि (अध्वरेषु होता) यज्ञोंमें 'होता' है, (शंतम:) शांतिसे परिपूर्ण है, (ऋतावा) सत्यसे परिपूर्ण है (तम् उ) उसे तुम अवश्य (नमोभि:) अपने समर्पणों द्वारा (आकृणुध्वम्) अपने अंदर रचो (यद् अग्नि:) जब अग्नि (मर्ताय) मर्त्यके लिये (देवान् वे:) देवोंको अभिव्यक्त1 करता है, तब (स बोधाति) वह उनका बोध रखता हैं, और (मनसा यजाति च) मन द्वारा उनका यजन भी करता हैं, उन्हें हवि भी प्रदान करता है ।।2।।
स हि क्रतु: स मर्य: स साधुर्मित्रो न भूदद्भुतस्य रथी: ।
त मेधेषु प्रथमं देवयन्तीर्विश उप ब्रुवते दस्यमारी: ।।3।।
(हि) क्योंकि (स क्रतु:) वह संकल्प है, (स मर्य:) वह बलरूप है, (स साधु:) वह पूर्णताको सिद्ध करनेवाला है, वह (मित्र: न) मित्रकी तरह (अद्भुतस्य रथी: भूत्) परम सत्ताका रथी हो जाता है । (तं प्रथमं दस्मम्) उस सर्वप्रथमके प्रति, उस परिपूर्ण करनेवालेके प्रति (मेधेषु) समृद्धियुक्त यज्ञोंमें (देवयन्ती: आरी: विशः) देवत्वको चाहनेवाली आर्य प्रजाएँ (उपब्रुवते) शब्द उच्चारित करती हैं ।।3।।
1 या ''देवान् वे:=देवों के अन्दर प्रविष्ट होता हैं ''
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स नो नृणां नृतमो रिशादा अग्निर्गिरोऽवसा वेतु धीतिम् ।
तना च ये मघवानः शविष्ठा वाजप्रसूता इषयन्त मन्म ।।4।।
(नृणां मृतम:) शक्तियोंमें सबलतम और (रिशादा:) विनाशकोंको हड़प जानेवाला (स: अग्नि:) बह अग्नि (अवसा) अपनी उपस्थितिके द्वारा (गिर:) शब्दोंको और (धीतिम्) उनके विचारको (वेतु) अभि-व्यक्त कर दे,1 (ये च) और वे जो (तना) अपने विस्तारसे (मघ-वान:) ऐश्वर्यके अधिपति तथा (शविष्ठा:) सबसे अघिक बलशाली हैं (वाजप्रसूता: [स्युः] ) अपने ऐश्वर्यको बिखेरनेवाले हो जायाँ, और (मन्म इषयन्त) बिचारको अपनी अन्तःप्रेरणा देवें ।।4।।
एवाग्निर्गोतमेभिर्ऋतावा विप्रेभिरस्तोष्ट जातवेदा: ।.
स एषु धुम्नं पीषयत् स वाजं स पुष्टिं याति जोषमा चिकित्वान् ।।5।।
(एव) इस प्रकार (ऋतावा अग्नि:) सत्यसे युक्त अग्नि (गोतमेभि:) गोतमों-प्रकाशके स्वामियों2---द्वारा (अस्तोष्ट) स्तुत किया गया है, (जातवेदा:) वह लोकोंको जाननेवाला अग्नि (विप्रेभि:) विप्रों-निर्मल-मनों-द्वारा [स्तुत किया गया है] । (स एषु) वह इन [गोतमों या विप्रों]के अंदर (द्युम्न पीपयत्) प्रकाशकी शक्तिको पोषित करेगा, (स वाजम्) वह समृद्धिको [ पोषित करेगा]; (चिकित्वान् सः) बोधयुक्त वह [अपने बोधों द्वारा] (पुष्टिं) पुष्टि (जोषुम्) प्राप्त करेगा ।।5।।
गोतम राहूगण इस सूक्तका ऋषि है, सूक्त अग्निकी स्तुतिमें गाया है, अग्नि है दिव्य संकल्प जो विश्वमें कार्य कर रहा है |
'अग्नि वैदिक देवोंमें सवसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, सबसे अघिक व्यापक
1. या ''गिर: धीतिं वेतु=शब्दोंमें तथा विचारमें प्रविष्ट हो जाय ।''
2. बाहरी अर्थ लें तो 'गोतमेमिः'का अर्थ होगा इस सूक्तका द्रष्टा जो गोतम रहूगण
ॠषि है उसके परिवारके व्यक्तियों द्वारा | परंतु हम निरंतर देखते हैं कि मंत्रोंमें
जहां ॠषियोंके नाम प्रयुक्त किये गये हैं वहां साथ ही उनका अर्थ बतानेवाले गूढ़
संकेत मी रख दिये गये हैं । दस संदर्भमें 'गोतमेमि र्ॠतावा, विप्रेमिर्जातवेदाः' इस
प्रकार शब्दोंको जोड़कर रखनेसे 'गोतम' कौन हैं दसकी एक असंदिग्ध व्याख्या निकल
आती है, अर्थात् गोतम विप्र ही हैं और कोई नहीं, वैसे कि इसी सूक्तकी तीसरी
ॠचामें 'तं प्रथमंदेवयन्ती:, दस्मम् आरी:' इस प्रकारकी शब्दयोजनासे यह स्वयमेव
व्याख्यात हो जाता है कि आर्य प्रजाएं वे हैं जो 'देवयन्ती:' हैं, देवत्वको चादने-
वाली हैं |
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हैं । भौतिक जगत्में वह सामान्य भक्षक और उपभोक्ता है । साथ ही बह पवित्रकर्ता भी है, जब वह भक्षण करता है और उपभोग करता है तब भी वह पवित्रकर्ता है । यह वह आग है जो तैयार करती हैं और पूर्णता लाती है; साय ही यह वह अग्नि है जो सात्म्य करती है और शक्तिकी वह उष्णता है जो रूप बनाती है । यह जीवनकी उष्णता हैं और वस्तुओंमें रसको, अर्थात् उनकी तात्त्विक सत्ताके सारको और उनके आनंदके सारको उत्पन्न करती है ।
इसी तरह वह प्राणका भी संकल्प है, क्रियाशील जीवन-शक्ति है, और उस शक्तिके रूपमें भी वह उन्हीं व्यापारोंको करती है । भक्षण और उपभोग करती हुई, पवित्रीकरण करती हुई, तैयार करती हुई, सात्म्य करती हुई, रूप बनाती हुई वह सदा ऊपरकी तरफ उठती है और अपनी शक्तियोंको 'मरुतों', मन:शक्तियोंके रूपमें परिणत कर देती है । हमारे मनोविकार और धुंधले भावावेग इस अग्निके ज्वलनका धुआँ हैं । केवलमात्र इसीका अवलंब पाकर हमारी सब नाड़ीगत शक्तियाँ अपनी क्रिया करनेमें सुनिश्चितता पाती हैं ।
जहाँ वह (अग्नि) हमारी प्राणमय सत्तामें स्थित संकल्प हैं और क्रियाके द्वारा इसे (प्राणको) पवित्र करता हैं, वहाँ वह मनमें स्थित संकल्प भी है और अभीप्साके द्वारा मनको निर्मल करता है । जब वह बुद्धिके अंदर प्रविष्ट होता है तब वह अपने दिव्य जन्मस्थान और घरके समीप आ रहा होता है । वह विचारोंको फलसाधक शक्तिकी तरफ ले जाता हैं; वह सक्रिय शक्तियोंको प्रकाशकी तरफ ले जाता हैं ।
यद्यपि वह सर्वत्र ही जन्मा हुआ है और सभी वस्तुओंमें निवास करता है तथापि उसका दिव्य जन्मस्थान और घर हैं सत्य, असीमता, वह बृहत् विराट्-प्रज्ञा जहाँ ज्ञान और शक्ति आकर एक हो जाते हैं । कारण, वहाँ समस्त संकल्प वस्तुओंके सत्यके साथ समस्वर होकर रहता है और इसलिये फल-साधक होता है; समस्त विचार उस प्रज्ञाका अंश होकर रहता है जो कि दिव्य नियम है, और इसलिये वह दिव्य क्रियाको पूर्णरूपेण नियमित करने-वाला होता है । 'अग्नि' चरितार्थता प्राप्त करके अपने स्वकीय घरमें--सत्यमें, ॠतमें, बृहत्में-शक्तिमान् हो जाता है । वहीं पहूँचानेके लिये वह (अग्नि) मनुष्यजातिकी अभीप्साको, आर्यकी आत्माको, विराट् यज्ञके मूर्धाको ऊपरकी तरफ ले जा रहा है ।
जब एक महान् अतिक्रमण किये जानेकी, मनसे अतिमानसमें संक्रान्तिकी, जो बुद्धि अबतक मनोमय सत्ताकी नेत्री बनो हुई थी उसके एक दिव्य
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प्रकाशमें रूपांतरित हो जानेकी प्रथम संभावना होने लगी उस क्षणमें,-जब वैदिक योगके बीचमें आनेवाला ऐसा अति गंभीर और कठिन समय आया उस समय ऋषि गोतम राहूगण अपने अंदर अन्तःप्रेरित शब्द लाना चाह रहा हैं । वह शब्द उसे तथा अन्योंको उस शक्तिके अनुभव करनेमें सहायता देगा जो अवश्यमेव उस संक्रान्तिको कर देगी और प्रकाशमान समृद्धिकी वह अवस्था ला देगी जिससे वह रूपांतर-कार्य प्रारंभ हो सकेगा ।
आध्यात्मिक दृष्टिसे देखें तो वैदिक यज्ञ उस विराट् तथा व्यक्तिगत क्रियाका प्रतीक है जो स्वतः-सचेतन, प्रकाशमान तथा अपने लक्ष्यसे अभिज्ञ हो गयी है । विश्वकी सारी प्रक्रिया अपने स्वरूपसे ही एक यज्ञ है, वह स्वेच्छापूर्वक किया जाय या अनिच्छापूर्वक । आत्मोत्सर्ग करनेसे आत्म-पूर्णताकी प्राप्ति, त्याग करनेसे वृद्धि, यह एक विश्वव्यापक नियम है । यदि कोई आत्मोत्सर्ग करनेसे इन्हार करता है, तो भी वह विश्वकी शक्तियोंका ग्रास तो बनता ही है । ''खानेवाला (भोक्ता) स्वयं भी खाया जाता है'' 1 यह एक अर्थपूर्ण और भीषण उक्ति है जिसमें उपनिषद्ने विश्वके इस रूपको संगृहीत कर दिया है, और एक दूसरे संदर्भमें मनुष्योंको देवोंके पशु2 कहा गया है । जब इस नियमको पहचान लिया जाता है और स्वेच्छापूर्वक स्वीकार कर लिया जाता है तभी-केवल तभी-इस मृत्युके राज्यको पार किया जा सकता है तथा यज्ञ (त्याग) के कर्मो द्वारा अमरता संभव बनायी तथा प्राप्त की जा सकती है । इसके लिये मानवीय जीवनकी सभी शक्तियाँ तथा संभाव्यताएँ, यज्ञके प्रतीक-रूपमें, विश्वके दिव्य जीवनके प्रति उत्सर्ग कर दी जाती हैं ।
ज्ञान, बल और आनंद ये दिव्य जीवनकी तीन शक्तियाँ हैं; विचार और विचार-जनित रचनाएँ, संकल्प और संकल्प-जनित कार्य, प्रेम और प्रेम-जनित समस्वरताएँ ये उनके अनुरूप तीन मानवीय क्रियाएँ हैं जिन्हें ऊपर उठाकर दिव्य स्तरतक पहुँचाया जाना हैं । सच और झूठ, प्रकाश और अंधकार, वैचारिक उचितता और अनुचितताके द्वंद्व ज्ञानकी गड़बड़ें हैं जो अहंकार-रचित विभागसे पैदा होती हैं; अहंकार-जनित प्रेम और घृणा, सुख और दु:ख, हर्ष और पीड़ाके द्वंद्व प्रेमकी गड़बड़ें हैं, आनंदके विकार हैं; सबलता और निर्बलता, पाप और पुण्य, कर्मण्य ता और अकर्मण्यताके द्वंद्व संकल्पकी गड़बड़ें हैं जो दिव्य बलको बिखेरनेवाली हैं ।
1. अहमन्नम्, अन्नमदन्तमद्मि । तै० उप० 3.10.6
2. पशुरेद स देवानाम् । वृ० उप० 1.4.10
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और ये सब गड़वड़ें इसलिये उठती हैं, और ययाँतक कि हमारी क्रियाकी आवश्यक अंग बन जाती हैं, क्योंकि दिव्य जीवनकी ये त्रिविध शक्तियाँ ( ज्ञान, बल, प्रेम) विभक्त करनेवाले अज्ञानके कारण एक दूसरेसे अलग हो जाती हैं--ज्ञान तो बलसे प्रेम दूसरे दोनों ( बल और ज्ञान) से । इस अज्ञानको, प्रबल विश्वव्यापक मिथ्यात्वको ही हटाया जाना है । अतः सत्यके द्वारा ही वास्तविक समस्वरता, अखंड सौभग्यका, दिव्य आनंदके अंदर प्रेमकी अंतिम कृतार्थता या परिपूर्णताका मार्ग खुल सकता है । इसलिये जब मनुष्यके अंदरका संकल्प दिव्य तथा सत्यसे अभिव्याप्त, अमृत: ॠतावा, हो जाता है केवल तभी वह पूर्णता, जिसकी तरफ हम 'अग्रसर हो रहे हैं, मानव-जातिके अंदर सिद्ध की जा सकती है ।
तो 'अग्नि वह देय है जिसे मर्त्यके अंदर सचेतन होना है । अन्तःप्रेरित शब्द को उसे ही अभिव्यक्त करना है, इस द्वारवाले प्रासाद (मंदिर) में और इस यज्ञकी वेदीपर सुप्रतिष्ठित करना हैं ।
''किस प्रकार हम अग्निको हवि दें ?'' ऋषि पूछता है । देनेके लिये यहाँ जो शब्द 'दाशेम' प्रयुक्त हुआ है उसका शाब्दिक अर्थ हैं 'बांटें'; इसका एक गूढ़ संबंध विवेकके अर्थमें आनेवाली 'दश्' धातुसे भी है । वस्तुत: यज्ञ एक व्यवस्थापन या वितरण है, मानवीय क्रियाओं और सुखोपभोगोंको उन विभिन्न विराट् शक्तियोंके लिये बांटना है, जिनके क्षेत्रमें वे (मानवीय क्रियाएँ और सुखोपभोग) उनके अधिकारसे ही आते हैं । इसी लिये वेदमंत्रोंमें बार-बार देवोंके भागका उल्लेख आया हैं । यज्ञकर्ताके सामने समस्या यह होती है कि वह अपने कर्मोंकी उचित व्यवस्था कैसे करे, उनका उचित विभाग कैसे करे, क्योंकि यज्ञ हमेशा नियम तथा दिव्य विधान (ऋतु; बादके साहित्यमें जिसे 'विधि' नाम दिया गया है) के अनुसार ही होना चाहिये । मर्त्यके अंदर उच्च नियम तथा सत्यका शासन हो जाय इसके लिये सबसे महत्त्वपूर्ण तैयारी है उचित व्यवस्था करनेका संकल्प होना ।
इस समस्याका हल निर्भर करता है उचित उपलब्घिपर और उचित उपलब्घि प्रारम्भ होती है सच्चे आलोक देनेवाले शब्दसे, उस अन्त:-प्रेरित विचारकी अभिव्यक्तिसे जो (विचार) द्रष्टाके पास 'बृहत्'से आता है । इसलिये आगे ॠषि पूछता हैं, ''कौन-सा शब्द अग्निके प्रति उच्चारित किया जाता है ?'' कौन-सा स्तुत्यात्मक शब्द, कौन-सा उपलब्धिकारक शब्द ? दो शर्तें पूरी होनी आवश्यक हैं । पहली यह कि वह शब्द अन्य दिव्य शक्तियोंसे स्वीकृत होना चाहिये, अर्थात्, वह इस प्रकारका होना चाहिये कि उस अनुभूतिकी संभाव्यताको खोल देता हो या उस अनुभूतिके प्रकाशकों
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अपने अंदर रखता हो जिसके द्वारा दिव्य कार्यकर्ता अर्थात् देव अपने-अपने व्यापारोंको मानवीयताकी बहि:स्थ चेतनाके अंदर अभिव्यक्त करनेके लिये तथा वहाँ अपने उन व्यापारोंमें खुले तौरपर लगे रहनेके लिये प्रेरित किये जा सकें । और दूसरी यह कि वह (शब्द) 'अग्नि'के, देदीप्यमान ज्वालाके इस देवताके, द्विविध स्वरूपको प्रकाशित करनेवाला होना चाहिये । 'भाम'के दोनों अर्थ हैं, ज्ञानका प्रकाश और कर्मकी ज्वाला । 'अग्नि' एक ज्योति भी है और एक शक्ति भी ।
शब्द आता है । यो मर्त्येषु अमृत: ऋताथा । 'अग्नि' विशेष रूपसे मर्योंमें अमर है । अग्निके द्वारा ही असीमताके अन्य प्रकाशमान पुत्र परमदेवके उस आविर्भाव और आत्म-विस्तार (देववीति, देवताति) को सिद्ध करनेमें समर्थ होते हैं जो विराट् तथा मानवीय यज्ञका उद्देश्य भी हैं और उसको पद्धति भी हैं । क्योंकि 'अग्नि' है वह दिव्य संकल्प जो सदा सब वस्तुओंमें उपस्थित है, सदा विनाश कर रहा और रच रहा है, सदा निर्माण कर रहा और पूर्ण कर रहा है, विश्वकी जटिल प्रगतिको सदा सहारा दे रहा है । यही है जो सब मृत्यु और परिवर्तनके बीच स्थिर बना रहता है । यह शाश्स्वनतिक तौरपर और अविच्छेद्य रूपमें सत्य-युक्त है । प्रकृतिके अंतिम धुंधलेपनमें, भौतिकताकी निम्नतम प्रज्ञाशून्यतामें, यह संकल्प ही एक छिपा हुआ ज्ञान है तथा यह इन सब अंधकारपूर्ण गतियोंको, यंत्रचालितकी तरह, दिव्य नियमके अनुसार चलनेके लिये तथा उनकी प्रकृतिका जो सत्य है उसका अनुवर्तन करनेके लिये बाध्य करता हैं । यहीं है जो बीजके अनुसार वृक्षको उगाता है और प्रत्येक कर्मको उचित फलसे युक्त करता है । मनुष्यके अज्ञानके अन्धकारमें,--जो भौतिक प्रकृतिके अन्धकारकी अपेक्षा कम है तो भी उससे अधिक बड़ा है,--यह दिव्य संकल्प ही शासन करता है और पथप्रदर्शन करता हैं, उसकी अंधताके अभिप्रायको तथा उसकी पथभ्रष्टताके उद्देश्यको जानता है और उसके अंदर विराट् मिथ्यात्वकी जो कुटिल क्रियाएँ हो रही हैं उनमेंसे विराट् सत्यकी उत्तरोत्तर अभिव्यक्तिको विकसित करता जाता है । भास्वर देवोंमें अकेला वही बडी चमकके साथ प्रज्वलित होता है और रात्रिके अंधकारमें भी वैसे ही पूर्ण आलोक (दर्शनशक्ति) से युक्त रहता है, जैसे कि दिनकी जगमगाहटोंमें । अन्य देव हैं 'उषर्दुष:', उषाके साथ जागनेवाले ।
इसलिये वह 'होता' (हवि देनेवाला ऋत्विज्) है, यज्ञके लिये सबलतम या सबसे अधिक योग्य हैं, वह जो सर्वशक्तिमान् होता हुआ सर्वदा सत्यके नियमका अनुसरण करता है । हमें स्मरण रखना चाहिये कि 'हव्य'
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हमेशा 'कर्म'के अर्थको देता हैं तथा मन या शरीरका प्रत्येक कर्म यह समझा गया है कि वह विराट् सत्ता और विराट् इच्छाके अंदर अपने प्रचुर ऐश्वर्यमेंसे उत्सर्ग करना हैं । अग्नि, दिव्य संकल्प, वह है जो हमारे कर्मोंमें हमारे मानवीय संकल्पके पीछे खड़ा रहता हैं । जब हम सचेतन होकर हवि देते हैं तब बह सामने आ जाता है; यह वह ऋत्विज् है जो सम्मुख निहित (पुरोहित) है, हविका पथप्रदर्शन करता है और इसकी फलोत्पादकताका निर्णायक होता है ।
इस स्वत:परिचालित सत्य द्वारा, इस ज्ञान द्वारा जो विश्वमें एक निभ्रांन्त संकल्पके रूपमें कार्य कर रहा है, वह मर्त्योंके अंदर देवोंको रच देता है । अग्नि मृत्युसे परिवेष्टित शरीरके अंदर देवत्वकी संभाव्यताओंको आविर्भूत कर देता है; 'अग्नि' उन (संभाव्यताओं) को समर्थ वास्तविक रूप तथा परिपूर्ति (सिद्धि) प्राप्त करा देता है । वह हमारे अंदर अमर देवोंके जाज्वल्यमान रूप रच देता है 1 (मंत्र 1)
यह कार्य वह इस रूपमें करता हैं कि वह एक विराट् शक्ति हैं जो विद्रोह करनेवाली मानवीय सामग्रीपर क्रिया करती है, तब भी क्रिया करती है जब कि हम अपने अज्ञानमें ग्रस्त होकर ऊर्ध्वमुख अन्तःप्रेरणाका प्रतिरोध करते आते हैं और, अपने कर्मोको अहंकारपूर्ण जीवनके प्रति समर्पित करनेके अभ्यस्त होनेके कारण, अबतक भी दिव्य समर्पणको करनेके लिये तैयार नहीं होते या अभीतक कर नहीं सकते । पर अग्नि स्वयं हमारे अंदर विरचित हों जाय यह उसी अनुपातमें होता है जिस अनुपातमें हम अपने अहंभावका दमन करना सीखते हैं और यह सीखते हैं कि प्रत्येक कार्यमें इस अहंभावको विराट् सत्ताके आगे झुकनेके लिये बाध्य करें और कार्यकी छोटी-से-छोटी क्रियाओंमें सचेतन होकर इसे दिव्य संकल्पके सिद्ध करनेमें लगावें । इस प्रकार दिव्य संकल्प मानवीय मनके अंदर साक्षात् उपस्थित तथा सचेतन हो जाता है और इसे दिव्य ज्ञान से आलोकित कर देता है । इसी प्रकार वह अवस्था प्राप्त की जाती है जिसमें यह कहा जा सकता है कि मनुष्यने अपने परिश्रम द्वारा महान् देवोंको रचा ।
'रचने'के लिये संसकृतका जो शब्द यहाँ प्रयुक्त हुआ है वह है 'आ कृणुध्वम्' । 'कृणुध्यम्'से पहले जो 'आ' उपसर्ग लगा है वह इस विचारको देता है कि बाहरकी किसी वस्तुको अपनेपर खींच लाना है और अपनी स्वकीय चेतनाके अंदर लाकर उसे घड़ना या विरचित करना है । 'आ-कृ' अपने प्रतिलोम 'आ-भू' प्रयोगके अनुरूप है; 'आ-भू' प्रयुक्त होता हैं उस अवस्थाको बतानेके लिये जब कि देव अमरताके संस्पर्शके साथ मर्त्यके पास
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आते हैं और, देवताके दिव्य रूपके मानवताके रूपपर पड़नेसे, वे उस (मर्त्य) के अंदर ''होते हैं'', ' 'बनते हैं'', आकृति पाते हैं । विराट् शक्तियाँ विश्वमें क्रिया करती हैं और वहाँ विद्यमान रहती हैं; मनुष्य उनको अपनेपर लेता हैं, अपनी स्वकीय चेतनामें उनकी एक प्रतिमा बनाता है और उस प्रतिमाको उस जीवन तथा शक्तिसे समन्वित करता है, जो जीवन और शक्ति सर्वोच्च सत्ताने अपने निजके दिव्य रूपोंके अंदर तथा विश्वशक्तियोंके अंदर फूँके हैं ।1
जब इस प्रकार 'अग्नि' मर्त्यके अंदर वैसे ही उपस्थित तथा सचेतन हो जाता है जैसे धरमें 'घरका मालिक' 2 रहता है, तब वह अपनी दिव्यताके वास्तविक स्वरूपमें प्रकट होता है । जब हम अंधकाराच्छन्न होते हैं और सत्य व नियमसे अभिद्रोह कर रहे होते हैं तब हमारी प्रगति एक अज्ञानसे दूसरे अज्ञानमें ठोकरें खाती हुई प्रतीत होती है और दुःख तथा विध्नसे भरपूर होती है | सत्यके प्रति सतत समर्पणों द्वारा, नमोभि:, हम अपने अंदर दिव्य संकल्पकी उस प्रतिमाको रचते हैं जो उपर्युक्त अवस्थाके विपरीत शांतिसे परिपूर्ण होती है, क्योंकि बह निश्चित रूपमें सत्य व नियमसे युक्त होती है । आत्माकी समता3 जो विश्वव्यापी प्रज्ञाके प्रति समर्पण द्वारा रचित होती है, हमें एक निरतिशय शांति और निर्वृति प्रदान करती है । और क्योंकि यह प्रज्ञा सत्यके सरल मार्गपर रखे गये हमारे सब पगोंकी पथप्रदर्शक होती है, इसलिये उसकी सहायतासे हम सब स्खलनों (दुरितानि) से पार होजाते हैं ।
इसके अतिरिक्त, जब अग्नि हमारी मानव-सत्ताके अंदर सचेतन हो जाता है तो उसके साथ यह भी होता है कि हमारे अंदर जो देवोंकी रचना हो रही हैं वह एक वास्तविक प्रकट वस्तु बन जाती है, परदेके पीछे हो रही वस्तु नहीं रहती । हमारे अंदरका संकल्प वर्धित होते हुए देवत्वके प्रति सचेतन हो जाता है, इस अभिवृद्धिकी प्रक्रियाके प्रति जागृत हों जाता है, इस की दिशाओंको अनुभव करने लगता है । मानवीय कर्म तब बुद्धिपूर्वक संचालित और विश्वशक्तियोंके प्रति अर्पित होकर पहलेकी तरह कोई यंत्रवत् परिचालित, अनिच्छापूर्वक दी गयी था अपूर्ण हवि नहीं
1. हिन्दू प्रतिमापूजाका यही वास्तविक आशय और वही वास्तविक कलना है, जिसमें इस
प्रकार महान् वैदिक प्रतीकोंको भोतिक रूप दे दिया गया है ।
2. गृहपति; और 'विश्वरपति' मी, अर्थात् प्राणीमें अवस्थित स्वामी या राजा ।
3. गीताप्रोक्त 'समता' ।
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रहता; विचारशील और निरीक्षणशील (द्रष्टा) मन भी तब भाग लेने लगता है और उस यज्ञिय संकल्पका उपकरण बन जाता हैं । (मंत्र 2)
अग्नि सचेतन सत्ताकी शक्ति है, जिसे हम 'संकल्प' नामसे पुकारते हैं, यह संकल्प मन तथा शरीरके व्यापारोंके पीछे क्रिया करता है । अग्नि हमारें अंदर रहनेवाला वह सबल (मर्यः, मजबूत, पुरुष) देव है जो अपने बलको सब आक्रामक शक्तियोंके विरोधमें लगाता हैं, जड़ताको रोकता हैं, हृदयकी और शक्तिकी प्रत्येक असमर्थताको दूर करता हैं, पुरुषत्वकी सब न्यूनताओंको निकाल बाहर करता है । अग्नि उस वस्तुको वास्तविक रूप दे देता है, सिद्ध कर देता है जो उसके बिना एक असिद्ध अभीप्सा या निष्फल विचार ही बनी रहती । वह योगका कर्ता (साधु) है; अपनी भट्ठीपर काम करता हुआ वह दिव्य शिल्पी हथौड़ेकी चोटें लगा-लगाकर हमारी पूर्णताको गढ़ता है । यहाँ उसके विषयमें कहा गया है कि वह परम सत्ताका रथी बनता है । वह 'परम' और 'अद्भुत' जो गति करता हैं और अपने-आपको ''अन्यकी चेतनाके अंदर'' 1 सिद्ध करता है,--यहाँ वही शब्द 'अद्भुत' प्रयुक्त हुआ है, जो इन्द्र और अगस्त्यके संवादमें आ चुका है,--क्रियाकी लगामोंको पकड़नेवाली रथीरूप इस शक्ति (अग्नि) से ही अपनी उस गतिको संचालित करता है । मित्र भी, जो प्रेम तथा प्रकाशका देवता है, एक ऐसा ही रथी है । क्योंकि प्रेम जब प्रकाशमय हो जाता है तो वह समस्वरताको पूर्ण (सिद्ध) कर देता है जो दिव्य क्रियाका लक्ष्य है । पर साथमें संकल्प तथा प्रकाशके इस देवता (अग्नि) की शक्ति भी अपेक्षित है । शक्ति और प्रेम जब मिल जाते हैं और दोनों ज्ञानकी ज्योतिसे आलोकित होते हैं तब वे जगत्में परम देवको पूर्ण (सिद्ध) कर देते हैं ।
संकल्प सर्वप्रथम आवश्यक वस्तु है, मुख्य वास्तविक रूप देनेवाली शक्ति है । इसलिये जब मर्त्यजाति सचेतन होकर महान् लक्ष्यकी तरफ मुँह मोड़ती है और, अपनी समृद्धता-प्राप्त शक्तियोंको द्यौके पुत्रोंके लिये समर्पित करती हुई, अपने अंदर दिव्यताको रचनेका यत्न करती है तब वह द्यौके पुत्रोंमें प्रथम और मुख्य अग्निके प्रति ही सिद्धिदायक विचारको उत्थापित करती है, सर्जनकारी शब्दको निर्मित करती है । क्योंकि आर्य वही हैं जो इस कर्मको करते हैं तथा इस प्रयत्नको स्वीकार करते हैं--कर्म जो सब क्रर्मों
बृहत्तम है, प्रयत्न जो सब प्रयत्नोंमें महत्तम है,-
1. देखो, ऋग्वेद 1.170 जिसकी व्याख्या इस ग्रन्थके प्रथम अध्यायमें आ चुकी है
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और अग्नि है वह शक्ति जो दिव्य क्रियाका आलिंगन करती है और उस क्रिया द्वारा कार्यको परिपूर्ण करती है । वह क्या आर्य हैं जो दिव्य संकल्पसे, अग्निसे रहित है, उस अग्नि ( संकल्प) से जो श्रम तथा युद्धको स्वीकार करता है, कार्य करता और जीतता है, कष्ट सहन करता और विजय प्राप्त करता है ? (मंत्र 3)
इसलिये यह संकल्प ही है जो उन सब शक्तियोंको उच्छिन्न कर डालता है जो प्रयत्नको विनष्ट करनेमें लगी होती हैं, यही है जो सब दिव्य शक्तियोंमें सबलतम है, जिसमें परम पुरुषने अपने-आपको प्रतिमूर्त कर रखा है, इसलिये इसे चाहिये कि यह इन मनुष्यरूपी पात्रोंको अपनी साक्षात् उपस्थितिसे कृतार्थ करे । वहाँ यह मनको यज्ञके उपकरणके तौरपर प्रयुक्त करेगा और अपनी उपस्थितिमात्रसे उन अन्तःप्रेरित सिद्धि-दायक शब्दोंको अभिव्यक्त कर देगा जो मानो ऐसे रथ हैं जो देवोंके संचारके लिये रचे गये हैं, और ध्यानशील विचारको यह आलोकित कर देनेवाली वह समझ प्रदान करेगा जो दिव्य शक्तियोंके रूपोंको इसके लिये अनुमति देगी कि वे हमारी जागृत चेतनाके अंदर अपनी बाह्य रूप-रेखा बना लें ।
उसके बाद वे अन्य शक्तिशाली देव जो अपने साथ उच्चतर जीवनके ऐश्वर्य लाते हैं,--इन्द्र और अश्विनौ, उषा और सूर्य, वरुण और मित्र और अर्यमा,-अपने उस रचनात्मक विस्तारके साथ मनुष्यके अंदर अपने तेजस्वितम बलोंको धारण कर सकते हैं । ये अपने ऐश्वर्योंको, हमारी सत्ताके गुह्य स्थानोंसे बरसाकर, हमारे अंदर इस प्रकार रच दें कि वे (ऐश्वर्य) हमारे दिनकी तरह प्रकाशमान प्रदेशोंमें उपयोगमें लाये जा सकें और उनकी प्रेरणाएँ दिव्यीकारक विचारको ऊपर दिव्य मनमें तबतक संचालित करती जायँ जबतक कि वह (विचार) अपने-आपको उच्च दीप्तियोंमें रूपांतरित न कर दे । (मंत्र 4)
इस पाँचवें मंत्रके साथ सूक्त समाप्त होता है । इस प्रकार, अन्त:प्रेरित शब्दोंमें, दिव्य संकल्प, अग्नि, गोतमोंके पवित्र गानों द्वारा स्तुत किया गया है । ऋषि अपने नाम और अपने वंशके नामको एक प्रतीकात्मक शब्दके तौरपर प्रयुक्त कर रहा है; इसमें .''प्रकाशमान''के अर्थ में आने-वाला वैदिक 'गो' शब्द विद्यमान हैं, और 'गोतम'का अर्थ है ''पूर्णतः प्रकाश-युक्त" । जो प्रकाशपूर्ण प्रज्ञाके प्रचुर ऐश्वर्यको धारण कर लेते हैं (गोतम बन जाते हैं) उन्हींके द्वारा दिव्य सत्यका स्वामी (अग्नि) समग्र रूपसे प्राप्त किया जा सकता है तथा इस लोकमें, जो एक अपेक्षाकृत क्षुद्र रश्मिका
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लोक हैं, स्तुत और सुस्थित किया जा सकता है,-गोतमेभिर्ऋ्तावा । और जिनके मन शुद्ध हैं, निर्मल और खुले हैं जो 'विप्र' हैं उन्हींमें उन महान् जन्मोंका उन जात लोकोंका सत्य ज्ञान उदित हो सकता है, जो इस भौतिक लोकके पीछे छिपे हैं और जिनमेंसे यह (भौतिक लोक) अपने बलोंको प्राप्त करता और धारण करता है--विप्रेभिर्जातवेदा: ।
अग्नि 'जातवेदस्' है, जातको अर्थात् जन्मों, जात (उत्पन्न) लोकोंको जाननेवाला है । यह पाँचों लोकों1 को पूर्ण रूपसे जानता हैं, अपनी चेतनामें वह इस सीमित और पराश्रित भौतिक समस्वरतातक ही सीमित नहीं है । यह तीन उच्चतम अवस्थाओं2में, रहस्यमयी गौं3के ऊधस्में, चार सींगोंवाले बैल4फे विपुल ऐश्वर्यमें भी प्रवेश रखता है । उस विपुल ऐश्वर्यमेंसे वह इन 'आर्य' अन्वेषकोंके अंदर प्रकाशको पोषण प्रदान करेगा, उनकी दिव्य शक्तियोंको प्रचुरताको परिवर्धित करेगा । अपने प्रकाशमय बोधोंकी उस परिपूर्णता और प्रचुरताके द्वारा यह विचारसे विचारको, शब्दसे शब्दको जोड़ता जायगा, जबतक कि मानवीय प्रज्ञा इतनी समृद्ध और समस्वर न हो जायगी कि वह सहार सके और दिव्य विचार बन जाय । (मंत्र 5)
1. वे लोभ जिनमें कमशः भौतिक तत्त्व, प्राण-शक्ति, मन, सत्य ओर आनन्द सारभूत
शक्तियां हैं । दे क्रम से भुवः, स्व:, महस् और 'जन या मयस्' कहे जाते हैं |
2. दिव्य सत्ता,चैतन्य, आनन्द,--सच्चिदानन्द ।
3. अदिति असीम चेतना, लोकोंकी माता ।
4. दिव्य पुरुष, सच्चिदानन्द; तीन उच्चतम अवस्थाएं ओर चौथा सत्य--ये उसके चार
सींग हैं |
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पांचवां अध्याय
सूर्य सविता-रचयिता और पोषक
ऋग्वेद, मण्डल 5 सूक्त 81
युञ्जते मम उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चित: ।
वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही ê