CWM (Hin) Set of 17 volumes
 PDF    LINK

ABOUT

The Mother’s commentaries on Sri Aurobindo’s 'Thoughts and Aphorisms' spoken or written in French.

THEME

aphorisms

'विचार और सूत्र' के प्रसंग में

The Mother symbol
The Mother

The Mother’s commentaries on Sri Aurobindo’s 'Thoughts and Aphorisms' were given over the twelve-year period from 1958 to 1970. All the Mother's commentaries were spoken or written in French. She also translated Sri Aurobindo's text into French.

Collected Works of The Mother (CWM) On Thoughts and Aphorisms Vol. 10 363 pages 2001 Edition
English Translation
 PDF    aphorisms
The Mother symbol
The Mother

The Mother’s commentaries on Sri Aurobindo’s 'Thoughts and Aphorisms' were given over the twelve-year period from 1958 to 1970. All the Mother's commentaries were spoken or written in French. She also translated Sri Aurobindo's text into French.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' 'विचार और सूत्र' के प्रसंग में 439 pages 1976 Edition
Hindi Translation
 PDF    LINK

'विचार और सूत्र' के प्रसंगमें

 


प्रकाशकीय वक्तव्य

 

    माताजीने श्रीअरविन्दके 'विचार और सूत्र' की ये व्याख्याएं सन् १९५८ से १९७० तक प्रायः १२ वर्षोकी अवधिमें की थीं । ये व्याख्याएं आकार और प्रकारमें भित्र-भित्र तरहकी हैं और इन्हें चार कालोंमें विभक्त किया जा सकता है :

 

    पहला : १९५८ (सूत्र १-१२) : ये व्याख्याएं आश्रमके खेलके मैदानमें ''बुधवारकी क्लासों" में आश्रमके विधार्थियों, अध्यापकों तथा साधकोंके सम्मुख प्रश्नोंके उत्तरके रूपमें दी गयी थीं । (ये क्लासें १९५८ में बंद हो गयीं : उसके बाद माताजी अपने कमरेमें व्यक्तिगत रूपसे अथवा छोटे-छोटे दलोंमें लोगोंसे बातें करने लगीं ।)

 

     दूसरा : १९६० (सूत्र १३-६८) : ये शारीरिक शिक्षणके एक युवक दल-नायकके लिखित प्रश्नोंके माताजी दुरा दिये गये अधिकांश लिखित उत्तर हैं, कुछ उत्तर मौखिक दिये गये थे ।

 

    तीसरा : १९६२- ६६ ( सूत्र ६९- १२४) : ये एक शिष्यको दिये गये मौखिक उत्तर हैं । इस अवधीमें माताजी सूत्रोंकी अपनी व्याख्यासे धीरे-धीरे अलग होती गयीं और इन अवसरोंका उपयोग उन दिनों होनेवाले अपने अनुभवोंकी व्याख्या करनेमें करने लगी ।

 

   चौथा : १९६९-७० (सूत्र १२५-५४१) : ये उपर्युक्त दल-नायकको लिखे गये संक्षिप्त उत्तर है ।

 

    श्रीअरविन्दके 'विचार और सूत्र' लगभग सन् १९१० और १९१५ के बीच लिखे गये थे । श्रीअरविन्दने उनका संशोधन या संपादन नहीं किया । ये मूल अंगरेजीमें सबसे पहले.: १९५८ मेप्रकाशित हुए और इन्हें श्रीअरविन्दके ही किये हुए विभाजनके अनुसार इन तीन भागोंमें बांट दिया गया था : ज्ञान, कर्म और भक्ति ।

 

     माताजीकी सभी व्याख्याएं, चाहे मौखिक हों या लिखित, मूल फ्रेंच भाषामें थीं । प्रथम बार कुछ सूत्रोंकी व्याख्याएं १९५९ में फ्रेंच भाषामें 'पांसे ए आफोरिज्म : त्रादयूई ए कमांते पार ला मैर' शीर्षकसे प्रकाशित हुई ।


 

इनका हिन्दी अनुवाद पहली बार 'श्रीमातृवाणी' के इस खंडमें छप रहा है । शेष व्याख्याएं त्रैमासिक 'श्रीअरविन्द अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा-केंद्र पत्रिका' में फ्रेंच, अंगरेजी और हिन्दी भाषाओंमें क्रमश: छपती रहीं । 'पांसे ए आफोरिज्म : त्रादयूई ए कमाते पार ला मैर' नामकी पूरी फ्रेंच भाषाकी पुस्तकका पहला संस्करण दो भागोंमें सन् १९७४ और १९७६ में प्रकाशित हुआ ।

 

    'श्रीमातृवाणी' (शताब्दी संस्करण ) का यह दसवां खंड उस पुस्तकका पहला पूरा हिन्दी संस्करण है । और अनुवादोंकी तरह यह अनुवाद भी शिक्षा-केंद्रके हिन्दी विभागने उन लोगोंके लिये किया है जो मूल फ्रेंच नहीं पक्ष सकते ।

 

ज्ञान

 

शिक्षाप्रद पुस्तकें पढ्नेके कोई लाभ नहीं, यदि वे

जो कुछ सिखाती हैं उनपर अमल करनेका हम

प्रण न कर लें ।

 

आशीर्वाद

- श्रीमां

 

ज्ञान

 

१ -- मनुष्यके अंदर दो संबद्ध शक्तियां है -- ज्ञान और प्रज्ञा । ज्ञान एक विकृत माध्यममें देखा हुआ उतना-सा ही सत्य है जितना कि मन टटोलता हुआ प्राप्त कर सकता है; प्रज्ञा वह है जिसे दिव्य दर्शनका नेत्र आत्मामें देखता है ।

 

 किसीने पूछा है कि : ''ये शक्तियां संबद्ध क्यों है ?''

 

    मेरा ख्याल है कि हम मनुष्यमें परस्पर लड़ती- झगड़ती इतनी अधिक चीजों देखनेके आदी है कि ''संबद्ध'' शब्द सुनकर हमें आश्चर्य होता है । पर ये दुंद बाहरी आभास है । वास्तवमें ऊपरके स्तरोंसे आनेवाली सभी शक्तियां संबद्ध ही होती है -- वे 'अज्ञान' के विरुद्ध लड़नेके लिये सहमत होती हैं । और श्रीअरविन्द यहां अत्यन्त स्पष्ट रूपमें कहते है ( जो समझते हैं उनके लिये ) कि इनमेंसे एक शक्ति तो मानसिक है तथा दूसरी आत्मिक । श्रीरविन्द ठीक जिस गंभीर सत्यको अपने सूत्रमें व्यक्त करना चाहते हैं वह यह है कि यदि मन इस दूसरी शक्तिको प्राप्त करनेकी चेष्टा करता है तो उसे सफलता नहीं मिलती, क्योंकि यह शक्ति 'आत्मा' की है तथा मनुष्यके अन्दर इसका आविर्भाव आध्यात्मिक चेतनाके साथ ही होता है ।

 

      ज्ञान एक ऐसी वस्तु है जिसे मन बहुत अधिक प्रयासके दुरा ही प्राप्त कर सकता है, भले ही वह 'सत्य-ज्ञान' न होकर 'ज्ञान'का एक मानसिक पक्ष ही क्यों न हों । पर 'प्रज्ञा' तो मनकी. वस्तु है ही नहीं । मन उसे प्राप्त करनेमें सर्वथा असमर्थ होता है, क्योंकि यथार्थमें वह तो यह भी' नहीं जानता कि यह है क्या । में फिर कहती. हूं : 'प्रज्ञा' मूलतः 'आत्मा'की शक्ति है तथा आध्यात्मिक खतनाके साथ ही आविर्भूत होता. है ।

 

   यहां एक रोचक प्रश्न पूछा जा सकता है - श्रीअरविन्द जिसे ''विकृत माध्यममें देखा हुआ सत्य'' कहते है उससे उनका क्या तात्पर्य है ? पहले तो यह विकृत माध्यम है क्या तथा ऐसे माध्यममें 'सत्य' किस दशाको प्राप्त होता ?

 

    सदाकी भाति, श्रीअरविन्दके कथनके कई अर्थ हो सकते हैतो अति-विशेष तथा दूसरा बहुत साधारण ।

 

    अति-विशेष अर्थमें विक़ुत माध्यम मनका माध्यम है जो अज्ञानमें कार्य करता है तया उसके फलस्वरूप सत्यको उसके विशुद्ध रूपमें व्यक्त करनेमें

 

 


असमर्थ है । किन्तु यह सारा जीवन ही जब अज्ञानमें चल रहा है तब विकृत माध्यम यह पार्थिव वातावरण भी है जौ पूरा-का-पूरा इसमेंसे अभिव्यक्त होनेकी. चेष्टा करनेवाले सत्यको एकदम विकृत कर देता है।

 

    यहीं इस वाक्यांशका सूक्ष्मतम रहस्य सामने आता है । मला टटोलकर मन क्या पा सकता है ? हम जानते हैं कि यह सदा ही टटोलता है, कि यह जाननेकी चेष्टा करता है, कि यह धोखा खाता है, फिर अपने पुराने प्रयत्नोंमें ही लौट जाता है, फिर कुछ नये प्रयत्न मी करता है, अन्तमें ... यह बहुत-बहुत-से पदस्सलनोंसें भरी हुई एक यात्रा सिद्ध होती है, और फिर भी यह 'सत्य'का क्या पकडू पाता है ? क्या यह एक खण्ड, एक टुकड़ा, या कोई ऐसी वस्तु होता है जो 'सत्य' तो हों पर हो आशिक, अपूर्ण, अथवा कोई ऐसी वस्तु जो बिलकुल 'सत्य' न हो? बस, यही है मनोरंजक बात ।

 

    हम यह सुननेके अभ्यस्त हों गये है (शायद अनेक बार इसे दुहरा भी चुके है) कि हम केवल आशिक, अपूर्ण तथा खंडित शान ही प्राप्त कर सकते है और फलत: वह सच्चा ज्ञान नहीं हों सकता । यह दृष्टिकोण अतिसाधारण है जिसे समझनेके लिये अपने जीवनमें इसका थोड़ा-सा अध्ययन करना ही पर्याप्त है, पर श्रीअरविन्द जिसे ''विकृत माध्यममें देखा हुआ सत्य'' कहना चाहते है वह इससे भी कहीं असगंध मजेदार है ।

 

     इस माध्यममें स्वयं 'सत्य' अपना स्वरूप बदल लेता है, अब यहां 'सत्य' 'सत्य' ही नहीं रह जाता, बल्कि 'सत्य' की एक विकृति रह जाती है । ओर परिणामस्वरूप, उसका जो कुछ पकडूमें आता है वह कोई ऐसा खण्ड नहीं होता जो सत्य हो, बल्कि उस सत्यका, जो स्वयं विलुप्त हों चुका है, एक पक्ष, एक मिथ्या आभास मात्र रह जाता है ।

 

    तुम्हें समझानेके लिये में एक रूपक दे रही हूं । यह केवल रूपक ही है, इससे. अधिक कुछ नहीं, इसे अक्षरशः. नहीं लेना चाहिये ।

 

   यदि मूल 'सत्य' को हम एक शुभ्र, उज्ज्वल ओर निष्कलंक ज्योतिर्मण्डल माने तो हम कह सकते है कि मानसिक माध्यममें, मानसिक वातावरणमें, यह पूर्ण, शुभ ज्योति सहस्र-सहस्र छटाओंमें बदल जाती है, प्रत्येक स्तरका एक अपना स्पष्ट रंग होता है, क्योंकि वे एक-दूसरेसे पृथक् होते है; उस समय कह सकते है कि माध्यमने शुभ्र ज्योतिको विकृत कर दिया है तथा भाति-भांतिके असंख्य रंगोंमें दिखा दिया है -- जैसे, लाल, हरा, पीला, नीला इत्यादि । ये रंग कही-कही तो अत्यन्त सामंजस्यपूर्ण है और मन

 


उस शुभ्र-मण्डलकी श्वेत-ज्योतिका कोई क्षुद्र टुकडातक नहीं पकड़ पाता, बल्कि पकड़ पाता है, अधिक या कम संख्यामें, विभिन्न रंगोंवाली छोटी- छोटी ज्योतियोंको जिनसे वह श्वेत-ज्योतिका पुनर्गठन मी नहीं कर पाता । फलस्वरूप वह 'सत्य' तक पहुंचानेमें अक्षम रह जाता है । उसके अधिकारमें सत्यके कुछ खण्ड नहीं होते, अपितु एक विघटित सत्य होता है । यही है विघटनकी एक अवस्था ।

 

    'सत्य' एक पूर्णाग वस्तु है तथा उसका सब कुछ आवश्यक है । जिस विकृत माध्यममें (मानसिक वातावरणमें) तुम उसे देखते हों वह उसके सभी तत्वोंको अभिव्यक्त करने, प्रकट करने अथवा यहांतक कि देख सकने- तकमें असमर्थ होता है - और हम कह सकते है कि जो कुछ सर्वोत्कृष्ट है वही उसकी पकडूमें छूट जाता है । अतएव, हम उस वस्तुको 'सत्य' की संज्ञा नहीं दे सकते, बल्कि किसी ऐसी वस्तुकी संज्ञा दे सकते है वों सारतः सत्य तो है किन्तु वहां, उस मानसिक वातावरणमें, अज्ञानके अतिरिक्त और कुछ नहीं रह जाती. ।

 

   अतः, संक्षेपमें, में कहूंगी कि जिस 'ज्ञान'को मानव मन पकड़ सकता है, वह निश्चित रूपसे अज्ञानमें स्थित है; उसे प्रायः अज्ञानमय ज्ञान कहा जा सकता है ।

 

    'प्रज्ञा' है 'सत्य'की दृष्टि -- अपने सारतत्वमें तथा अपनी अभिव्यक्ति क्रियात्मक रूपमें भी 'सत्य'की. दृष्टि ।

 

१२-९-५८

 

२ - अन्तःप्रेरणा बृहत् तथा शाश्वत ज्ञानसे उछलती हुई चमचमाती ज्योतिकी एक अत्यंत पतली धारा है । बुद्धि जितनी पूर्णताके साथ इंद्रियोंके ज्ञानको पार कर जाती है उससे भी कहीं अधिक पूर्णताके साथ यह बुद्धिको पार कर जाती है ।

 

ऐसे अनेक प्रश्न पूछे गये है, जैसे, ''श्रीअरविन्दने भला ऐसा क्यों कहा है ? ''... फिर यह बात या वह बात ।

 

     उत्तरमें मैं कह सकती हूं : ''उन्होंने ऐसा इसलिये कहा है कि उन्होंने वैसा ही देखा है" । परन्तु आरंभमें हमें एक बात जान लेनी चाहिये; श्रीअरविन्दने ये परिभाषाएँ दी है  ये परिभाषाएं एक विरोधामासात्मक रूपमें दी हैं ताकि हम विचार करनेके लिये बाध्य हों ।

 

    कोषोंमें दी गयी परिभाषाएं इन शब्दोंकी सामान्य व्याख्याएं है, साधारण

 


अर्थ है जो तुम्हें विचार करनेके लिये बाध्य नहीं करते । परन्तु श्रीअरविन्द जो कुछ कहते है वह रूढ़िगत धारणाको तोड़नेके उद्देश्यसे कहते है ताकि तुम एक गंभीरतम सत्यका स्पर्श पा सको । इस तरह बहुत-से प्रश्न. यों ही छंट जाते हैं ।

 

     हमारी कोशिश होनी चाहिये उस गंभीरतर ज्ञानको, उस गंभीरतर सत्यको खोज निकालनेकी जिसे श्रीअरविन्द ऐसे ढंगसे व्यक्त करते है जो शब्दोंकी परिभाषा देनेकी प्रचलित रीति नहीं है ।

 

   अब में कुछ प्रश्नोंका उत्तर दूंगी । उनमेंसे एक, सबसे पहला, मुझे अच्छा लगा क्योंकि वह एक विचारशील मनके द्वारा पूछा गया है । वह प्रश्न ''ज्ञान'' शब्दके बारेमें पूछा' गया है और श्रीअरविन्दने जिस अर्थमें इस शब्दका प्रयोग इस सूत्रमें किया है तथा पिछले सप्ताह पढ़ें गये सूत्रमें जिस अर्थमें किया है, उन दोनोंमें तुलना की गयी है ।

 

    पिछले सप्ताह पढ़ें गये सूत्रमें जब श्रीअरविन्द, यदि ऐसा कहा जा सके, ज्ञान तथा 'प्रज्ञा' में विरोध दिखाते हैं तब वह उस ज्ञानकी बात कहते है जिसे सामान्य मानवचेतना काममें लाती है जो ज्ञान प्रयत्न तथा मानसिक विकासके द्वारा प्राप्त किया जाता है; जब कि यहां, उसके विपरीत, जिस ज्ञानका वह जिक्र करते है वह है यथार्थ 'ज्ञान', अतिमानसिक भागवत 'ज्ञान', तादात्म्यजनित 'शान' । और, साथ ही, इसी कारण यहां वह उसे ''बृहत् तथा शाश्वत'' बतलाते है, जो स्पष्ट रूपमें यह निर्देश करता है कि यह ठीक वैसा ही मानव ज्ञान- नहीं है जैसा कि हम उसे समझनेके आदी है ।

 

     बहुत-से लोगोंने पूछा है कि श्रीअरविन्दने यह क्यों कहा है कि धारा ''अत्यन्त पतली.'' है । एक स्पष्ट रूपका निर्माण करनेके लिये, दिव्य, अतिमानसिक 'ज्ञान'की इस विशालता, इस अन्त :प्रेरणाके अनन्त मूलस्रोत तथा उसका जो कुछ अंश मानव मन हृदयंगम और ग्रहण कर सकता है उन दोनोंके बीच एक सुस्पष्ट विरोध दिखलानेके लिये यह एक बहुत सार्थक बिम्ब है । जब कोई उन लोकोंके सम्पर्कमें रहता है तब भी उसे उनका जितना बोध प्राप्त होता है वह बहुत थोड़ा, पतला होता है; वह एक अत्यन्त क्षुद्र सोतेके समान अथवा कुछ टपकती' हुई बुंदों-सा होता है, और ये बंदे अपने-आपमें इरानी पवित्र, इतनी' चमकीली, इतनी पूर्ण होती है कि वे तुम्हें एक अद्भुत अन्तःप्रेरणा बोब देती. हैं, ऐसी धारणा करा देती है कि तुमने असीम-अनन्त क्षेत्रोंका छू लिया है, तथा तुम सामान्य मानवीय अवस्थासे ऊपर बहुत ऊंचे उठ आये हों - और फिर मी जो कुछ देखना बाकी है उसकी तुलनामें यह कुछ भी नहीं है ।

 


    किसीने यह मी पूछा है कि क्या चैत्य पुरुष अथवा चैत्य. चेतना ही वह माध्यम है जिसके दुरा अन्तःप्रेरणा अति है ।

 

     साधारणत:, हां । उच्चतर लोकोंके साथ जो हमारा पहला संपर्क होता है वह चैत्य संपर्क होता है । अवश्य ही, आंतरिक चैत्य उद्घाटन होनेसे पहले अन्तःप्रेरणा पाना दुष्कर है । किसी विशेष प्रकारसे तथा किसी विशेष अवस्थामें, भागवत कृपाके रूपमें अन्तःप्रेरणा आ सकती है, पर सच्चा संपर्क तो चैत्य पुरुषके द्वारा ही प्राप्त होता है, क्योंकि चैत्य चेतना वह माध्यम है जो. भागवत 'सत्य'के साथ सबसे अधिक संबद्ध है।

 

      बादमें, जब कोई मानसिक चेतनासे निकलकर मनसे भी परे, उच्च- तर मनसे भी परे, किसी उच्चतर चेतनामें प्रवेश कर जाता है और 'अधिमानस'के क्षेत्रों एवं 'अधिमानस' े भीतरसे होकर 'अतिमानस'े क्षेत्रों- की ओर खुल जाता है तब वह सीधी अंतःप्रेरणा ग्रहण कर सकता है; और स्वभावत:, उस समय, वे गीतासे बार-बार आती है, यदि हम ऐसा कह सकें तो, वे अधिक सघन, अधिक पूर्ण होती हैं । फिर आता है एक ऐसा समय जब हम अपनी इच्छाके अनुसार अन्तःप्रेरणा पा सकते हैं, पर यह तो स्पष्ट है कि यह अवस्था एक अत्यधिक आन्तरिक विकासकी अपेक्षा रखती है।

 

      मनसे बहुत ऊपरके क्षेत्रोंसे आनेवाली अन्तःप्रेरणा, जैसा कि हम अभी कह चुके हैं, मूल्य और गुणमें उस सर्वोत्तम चीजको मी अतिक्रम कर जाती है जिसे मन और अधिक ऊंचाईसे उत्पन्न कर सकता है, जैसे कि बुद्धि । निस्संदेह, तर्क-बुद्धि मनुष्यकी मानसिक क्रियाके शिखरपर है; वह इन्द्रियोंकी सहायतासे प्राप्त ज्ञानकी आलोचना कर सकती है, उसे संयत कर सकती है । बहुधा ऐसा कहा गया है कि इन्द्रियों ज्ञान-प्राप्तिके नितनित दोषपूर्ण माध्यम है, वे वस्तुओंको ठीक वैसा ही नहीं देख सकतीं जै। कि वे हैं और वे जो सूचनाएं देती है वे बाहरी तथा बहुधा भ्रान्तिमूलक होती हैं । मनुष्यकी तर्क बुद्धि जब पूर्णत: विकसित हों जाती है तब वह इस बातको जान जाती है ओर इन्द्रियोंका ज्ञानपर आस्था नहीं परस्त्री । जब मनुष्य तर्क बुद्धिसे नीचेके स्तरमें होता है, यदि ऐसा कहा जा सकें तो, केवल तभी वह विश्वास करता है कि जो कुछ वह देखता है, जो कुछ वह सुनता है, जो कुछ वह छूता है, वह सब बिलकुल सत्य है । ज्यों ही. वह उच्चतर तर्क-बुद्धिके क्षेत्रमें उत्रीत हो जाता है पद्यों ही वह समझ जाता है कि ये सभी धारणाएं प्रायः सारतः मिथ्या है और वह किसी भी प्रकार उन्हें अपना आधार नहीं बना सकता । परन्तु जो ज्ञान

 


मनुष्यको उस अतिमानसिक या भागवत स्तरसे प्राप्त होता है वह बुद्धि जो कुछ धारणा बना सकती है या जो कुछ समझ सकतीं है उस सबको अतिक्रम कर जाता है, कम-से-कम उसी मात्रामें जिस मात्रामें तर्क-बुद्धि इन्द्रियोंके ज्ञानको अतिक्रम कर जाती है ।

 

     कुछ प्रश्न ऐसे हैं जो एक व्यावहारिक विषयसे संबंधित हैं : ''अन्त:- प्रेरणा प्राप्त करनेकी शक्तिको किस प्रकार विकसित किया जाये ? अन्त:- प्रेरणा प्राप्त करनेकी शर्तें क्या हैं ? क्या उसे निरन्तर प्राप्त करते रहना संभव है ? ''

 

     में इन प्रश्नोंका उत्तर पहले ही दे चुकी हूं । जब मनुष्य अतिमानसिक क्षेत्रोंकी ओर अपने-आपको खोलता है तब वह उन अवस्थाओंमें पहुंच जाता है जहां वह निरन्तर अन्तःप्रेरणा प्राप्त कर सकता है ।तब-तक, सर्वोत्तम उपाय है यथासंभव अपने मनको निश्चल-नीरव बनाना, उसे ऊपरकी ओर मोड़ना तथा एक निश्चल-नीरव और सजग ग्रहणशीलताकी स्थितिमें बने रहना । मनुष्य अपने मनमें जितनी निश्चल- नीरव और पूर्ण शांति स्थापित कर सकेगा उतनी ही अधिक अतःप्रेरणाएं प्राप्त करनेमें समर्थ हो सकेगा ।

 

     किसीने यह मी पूछा है कि क्या अतःप्रेरणाएं कई प्रकारकी होती हैं । अपने मूलमें, नहीं । वे सर्वदा ऐसी. चीज़ें होती है जो विशुद्ध ज्ञाके क्षेत्रसे उतरती हैं और मनुष्यके सबसे अधिक ग्रहणशील, उन्हें प्राप्त करनेके लिये सबसे उपयुक्त भागमें प्रवेश करती हैं; परंतु ये प्रेरणाएं कर्मके विभिन्न क्षेत्रोंमें क्रियाशील हो सकती है : ये विशुद्ध ज्ञानकी अंत:-प्रेरणाएं हों सकती हैं, ये प्रगतिके प्रयासमें सहायता देनेवाली अतःप्रेरणाएं भी हों सकती हैं, और ये किन्हीं कार्र्योकी प्रतिमूर्तिके लिये आनेवाली, किसी व्यावहारिक और बाह्य सिद्धिमें सहायक होनेवाली अतःप्रेरणाएं मी हों सकती हैं । परंतु यहां अंतःप्रेरणाके प्रकार-भेदका प्रश्न उतना नहीं है जितना इस बातका कि लोग उसका प्रयोग किस प्रकार करते हैं -- अतःप्रेरणाएं सर्वदा ज्योति और सत्यकी एक बूंदकी तरह होती है जो मानव चेतनाके अंदर प्रविष्ट होनेमें सफल होती है ।

 

     मानव चेतना इस बूंदका क्या उपयोग करेगी-यह निर्भर करता है मनोभाव, आवश्यकता, अवसर तथा परिस्थितिके ऊपर; इनसे अंतःप्रेरणाके मूल स्वभावमें कोई अंतर नहीं पड़ता, पर व्यावहारिक उपयोगमें, मनुष्य किस काममें उसे प्रयुक्त करता है, इसमें अंतर आ जाता है ।

 

    कुछ प्रश्न अंतः प्रेरणा तथा संबोधिके बीचके विमेदसे संबंधित हैं ।

 


ये दोनों एक ही चीज नहीं है । परंतु मेरा ख्याल है कि अपने पाप-कर्मके बीच, आगे चलकर इस विषयपर फिर आनेका मौका मिलेगा । जब श्रीअरविंद हमें यह बतायेंगे कि वह किस चीजको संबोधि मान्यते है तब हम इस विषयपर विचार करेंगे ।

 

      साधारण और लगभग पूर्ण रूपसे, यदि कोई इस पाठसे सचमुच लाभ उठाना चाहे, जैसे कि श्रीअर्रावंदकी सब रचनाओंसे हम लाभ उठाना चाहते हैं, तो उसका सबसे उत्तम तरीका यह हैं. अपनी चेतनाको एकत्रित करके अपने ध्यानको पाठ्य-विषयपर जमा दो और थोडी.- सी मानसिक समता स्थापित करो - यदि कोई पूर्ण निश्चल-नीरवता स्थापित कर सकें तो वह सबसे बढ़िया बात है - और मनकी स्थिरता, मस्तिष्ककी स्थिरताकी एक ऐसी स्थितिमें पहुंच जाय कि उसका ध्यान दर्पणकी. तरह शांत और स्थिर, पूर्णतः शांत जलकी सतहके जैसा बन जाय । उस. स्थितिइंमें पढ़ी हुई चीज उस सतहको पार कर सताकी गहराईमें पैठ जाती है जहां वह कम-से-कम विकृतिके साथ गृहीत होती है; और उसके बाद, कभी-कमी दीर्घकालके बाद, वह उन गहराइयोंसे ऊपर फूट निकलती हैं तथा मस्तिकमें अपनी पूरी बोध-शक्तिके साथ प्रकट होती है -- बाहरसे प्राप्त किसी ज्ञानकी तरह नहीं, वरन् एक ज्योतिकी तरह जिसे मनुष्य' अपने अंदर वहन करता है ।

 

     इस प्रकार समझनेकी शक्ति अपनी अधिकतम मात्राको पहुंच जाती है । परंतु पढ्नेके समय यदि तुम्हारा मन चंचल रहता है तथा जो कुछ पढ़ा जाता है उसके विषयमें तर्क करने तथा उसे तुरत समझ लेनेकी चेष्टा करता है तो तुम उन शब्दोंमें, निहित शक्ति, ज्ञान तथा सत्यका तीन-चौथाईसे भी अधिक भाग खो देते हों । और आत्मसात् करने तथा अंतरमें जाग्रत् होनेकी यह प्रक्रिया पूरी हो जानेके बाद ही यदि तुम प्रश्न करना आरंभ करो तो तुम देखोगे कि पूछने योग्य बहुत हीं कम बातें हैं, क्योंकि पढ़ी हुई चीजको तुम बहुत अच्छी. तरह समझ चुके हो।

 

१९-९-५८

 

   ३ -- जब मैं बोलता हूं तो तर्क-बुद्धि कहती है : ''बस, यहीं में' कहूंगी'', पर भगवान् मेरे मुंहसे वह शब्द छीन लेते है और होंठ कुछ और ही बोल उठते हैं जिसके आगे बुद्धि कांप-कांप उठती हैं ।

 


जब श्रीअरविंद ''मैं'' कह रहे है तब वह स्वयं अपने विषयमें तथा अपनी अनुभूतिके विषयमें हा बोल रहे है । हमें बड़ा हर्ष होता यदि हम यह कह सकते कि यह कथन प्रतीकात्मक है और यह बहुत-से लोगों- पर लागू हों सकता है, पर दुःखकी बात है कि बात ऐसी बिलकुल नहीं है ।

 

     जब हम कुछ बोलते है तब हमें बहुत बार यह अनुभव होता है कि हम जो कुछ कहना चाहते थे उसे न कहकर दूसरी ही चीज कह बैठे है, पर यह उपयुक्त अनुभवका उलटा है; कहनेका तात्पर्य, जब मनुष्य शांति- पूर्वक अपने-आपमें स्थित होता है और उसे अधिक-सें-अधिक बुद्धि प्राप्त होती है तब वह यह निश्चय करता है कि यह कहूंगा, यह या वह कहूंगा, यही बात युक्तिसंगत है, पर बहुत बार, जब वह बोलने लगता है तब भिन्न आवेग, युक्तिहीन भावनाएं तथा प्राणिक क्रियाएं उसकी जिह्वा पकडू लेती है और उससे ऐसी बातें कहला देती है जो उसे नहीं कहनी चाहिये थीं ।

 

   यहां मी, बात बस यही है, पर, जैसा कि में कह चुकी हूं, है इसके विपरीत । वहां अयुक्तिसंगत आवेग ही तुम्हें आवेश और उत्तेजनाके वशमें होकर बोलनेके लिये बाध्य करता हैं, परंतु यहां, इसके विपरीत, उस आवेगके स्थानमें होती है ऊपरसे आनेवाली एक अंतः प्रेरणा, तर्क बुद्धिके प्रकाश और ज्ञानसे कहीं महत्तर एक प्रकाश तथा एक ज्ञान, जो वाणीको अधिकृत कर लेते हैं और तुमसे ऐसी बातें कहला देते है जिन्हें कोई अत्यंत प्रदीप्त तर्क-बुद्धिकी सहायतासे भी कहनेमें समर्थ न हुआ होता ।

 

     श्रीअरविंद हमसे कहते है कि ''बुद्धि कांप-कांप उठती है'', क्योंकि ये उच्चतर सत्य सर्वदा मानवीय क्षेत्रमें विरोधाभासके रूपमें, तर्क-बुद्धि- विरोधी अंतर्दर्शनके रूपमें प्रकट होते है; पर इसका कारण यह नहीं है कि उच्चतर लोकोंसे आनेवाली चीजोंको समझनेमें तर्क-बुद्धि असमर्थ होती है, बल्कि यह है कि ये अंतर्दर्शन सदा बुद्धिकी समझी हुई और स्वीकार की हुई चीजोंसे आगे, बहुत आगे, होते हैं । जिसे आजकी मानव तर्क-बुद्धि युक्तिसंगत समझती है वही भूतकालमें विरोधामासपूर्ण तथा मूर्खतापूर्ण रहा है, और संभवतः, बलकि हम कह सकते हैं कि निश्चय ही, जो अप्रत्याशित, विरोधामासपूर्ण और क्रांतिकारी अंतर्दर्शन अभी प्रकट हो रहे है तथा तर्क-बुद्धिको कंपा रहे है, वे ही भविष्यमें बहुत युक्तिसंगत बान बन जायेंगे और स्वयं नवीन अंतर्दर्शनोंका सामने कांप उठेंगे!

 

        छोटे-छोटे वाक्योंके दुरा, जो हमारे वस्तुविषयक ज्ञानको कुछ

 

१०


क्षणोंके लिये विचलित कर देते हैं, श्रीअरविंद किसी सतत गतिशील, निरंतर प्रगति करनेवाली तथा सर्वदा रूपांतरित होनेवाली चीजका यह अनुभव ही हमें प्रदान करनेकी चेष्टा कर रहे है, वह चाहते है कि वह हमें तेजीसे आगे बढ़ा ले चलें, इस जगत्में व्यक्त होनेवाली सभी चीजोंकी पूर्ण सापेक्षताका बोध हमें प्रदान करें तथा हमें यह अनुभव दे सकें कि यह विश्व एक उच्चतर और महत्तर 'सत्य' की ओर आगे बढ़ रहा है, सर्वदा आगे बढ़ रहा है ।

 

      हमारे लिये, इस समय, उच्चतम 'सत्य' की' अभिव्यक्ति है अतिमानसिक रूपांतर; यही. 'क्रांति' हमें पृथ्वीपर संसिद्ध करनी' है; और निस्संदेह अधिक- तर मनुष्योंके लिये यह आवश्यक है कि बे इस 'क्रांति' का निरपेक्ष अनुभव करें, अन्यथा बे इसे साधित नहीं कर सकेंगे । परंतु श्रीअरविन्द इस बात- पर जोर देते है ताकि हम इसे भूल न जायं कि यह निरपेक्ष वस्तु भी सापेक्ष ही है तथा यह अमिउयक्ति सर्वदा उस 'निरपेक्ष' के सामने सापेक्ष ही बनी रहेगी जो इससे कहीं अधिक निरपेक्ष है एवं 'अव्यक्त' है जो आगे चलकर अभिव्यक्त होगा ।

 

 २६ -९-५८

 

४ -- में ज्ञानी नहीं हूं, क्योंकि मुझे कोई ज्ञान प्राप्त महिं है, सिवा उस लानके जो भगवान् मुझे अपने कार्यके लिये देते है । मैं कैसे समझ सकता हूं कि जो कुछ मैं देखता हूं बह विवेक है या बुद्धिहीनता ? नहीं, बह इन दोनोंमेंसे कोई नहीं है, क्योंकि देखी हुई वस्तु केवल सत्य होती है-- न बुद्धिहीनता, न विवेक ।

 

मैं ज्ञान नहीं हूं.. ज्ञानी तो वह होता है जो 'ज्ञान'के मार्गका अनुसरण करता है, वह होता है जो केवल के दुरा योग की प्राप्त करना चाहता है और जो एक विशुद्ध बौद्धिक पथसे आरंभ कर उससे परे पहुंच जाना तथा वह 'ज्ञान' प्राप्त करना चाहता है जो अब बौद्धिक नहीं, अपितु आध्यात्मिक है । ओर श्रीअरविन्द कहते है : '' मैं ' शान). ' नहीं हूं... में 'ज्ञान' की खोज नहीं करता, मैंने अपने भगवानके हाथोंमें सौंप दिया है ताकि मेरे दुरा उनका कार्य पूरा हों और भगवान कृपासे प्रति क्षण, उस कामको पूरा करने के लिये मुझे जो कुछ जानना चाहिये, उसे मैं ज्ञान जाता हूं । ''

 

    यह एक प्रशंसनी स्थिति है, यह आत्माकी पूर्ण शांतिकी अवस्था है ।

 

११


अब उपार्जित ज्ञानों, पढ़ी हुई चीजों तथा याद रखने योग्य विषयोंको संचित करनेकी कोई आवश्यकता नहीं रहती, हज़ारों चीजोंसे मस्तिष्कों लाद देने- की कोई आवश्यकता नहीं ताकि जब चाहें तब, किसी कार्यको पूरा करनेके लिये, कोई शिक्षा देनेके लिये या कोई समस्या सुलझानेके लिये आवश्यक ज्ञान हमारे पास मौजूद रहे । अब ता मस्तक शांत है, मस्तिष्क स्थिर है, सब कुछ शून्य, स्थिर, शांत है, और जिस क्षण आवश्यकता होती है उसी क्षण, भगवान्की 'कृपा' से प्रकाशकी एक बुध चेतनाके अंदर टपक पड़ती है और जो कुछ जानना जरूरी होता है उसे मनुष्य जान जाता है । अब मला याद रखनेकी क्या चिता ? अब मला इस ज्ञानको बनाये रखनेकी चिंता कोई क्यों करे? उस दिन या उस क्षण जब कि इसे पानेकी जरूरत होगी यह हमें फिरसे प्राप्त हो जायेगा । प्रत्येक मुहूर्त ही हम एक कोरे पृष्ठकी तरह होते है जिसपर जानने योग्य बातें लिख दी जाती हैं -- पूर्ण ग्रहणशीलताकी शांति, विश्रांति तथा निश्चल-नीरवतामें ।

 

     उस समय जानने लायक चीज जानी जाती है, देखने लायक चीज दिखायी देती है, और चुकी जानने लायक और देखने लायक विषय सीधे परात्पर भगवान्से आते है, इसलिये वे साक्षात् सत्य ही होते हैं, और वे विवेक या बुद्धिहीनता दोनोंकी धारणाओंसे सर्वथा परे होते है । जो चीज सत्य है वह बस सत्य है - बस यही । यदि तुम यह प्रश्न करो कि वह वस्तु मूर्खतापूर्ण है या विवेकपूर्ण तो तुम्हें काफी नीचे उतर आना पड़ेगा ।

 

     बस, आवश्यक है निश्चल-नीरवता और विनम्र, विनीत, सतर्क ग्रहणशीलता । न तो अपनेको दिखानेकी कोई चिंता होनी चाहिये और न होनेकी ही - बस, एकदम विनम्र, एकदम विनीत, एकदम सरल-भावसे यंत्र बन जाना चाहिये जो स्वयं कुछ नहीं है और न कुछ जानता है, पर जो सब कुछ ग्रहण करने तथा सब कुछ प्रसारित करनेके लिये तैयार है ।

 

     पहली शर्त है आत्मविस्मृति, पूर्ण आत्म-समर्पण, अहंका अभाव ।

 

    ओर शरीर परम प्रभुसे कहता है : ''तू जो कुछ चाहता है कि मैं बनूं, वही बनूंगा, तू जो कुछ चाहता है कि में जानु, वही जानूंगा, तू जो कुछ चाहता है कि में करूं, वही करुंगा ।''

 

३- १०-५८

 

५ -- यदि मनुष्य इस बातकी केवल एक झलक जायं कि कितने अनंत भोग, कितनी पूर्ण शक्तियां, सहज-स्वाभाविक ज्ञानके कितने ज्योतिपूर्ण क्षितिज, हमारी सत्ताके कितने विस्तृत

 

१२


शांतिपूर्ण क्षेत्र उन प्रांतोंमें हमारी प्रतीक्षा कर रहे है जिन्हें अभीतक हमारे जैव क्य-विकासने जीता नहीं है, तो वे सब कुछ छोड़ देंगे और तबतक कभी चैनसे नहीं बैठेगे जबतक इन संपदाओंको आयत्त नहीं कर लेते । परंतु पथ संकीर्ण है, द्वार दुर्भेधा है और प्रकृतिके पहरेदार भय, अविश्वास और संशय मौजूद है ताकि हमें कम सामान्य चरागाहोंकी ओरसे पैर मोड़नेसे मना करें ।

 

 श्रीअरविन्दने जो लिखा है, ''झलक पा जाय'', तो उसका अर्थ है ''संपूर्ण रूपसे देख लें पर थोड़े-से क्षणोंके लिये'' । यह स्पष्ट ही है कि यदि इन सुन्दर वस्तुओंका निरंतर दर्शन प्राप्त हो तो वह स्वभावत: तुम्हें पथ ग्रहण करनेके लिये बाध्य करेगा । फिर यह भी निश्चित है कि एक छोटी-सी खंड-झांकी पर्याप्त नहीं होती, उसमें इतनी प्रबल शक्ति नहीं होती कि वह तुम्हें पथ ग्रहण करनेके लिये बाध्य करे ।

 

    परंतु तुम्हें यदि पूर्ण दर्शन प्राप्त हो जाय, भले ही वह थोड़े समयके लिये ही क्यों न हो, तो तुम उसकी उपलब्धिके लिये आवश्यक प्रयास करनेके लोभको संवरण नहीं कर सकते; परंतु वास्तवमें, पूर्ण दर्शन दुर्लभ होता है । इसी कारण श्रीअरविन्द हमसे कहते है. ''यदि मनुष्य केवल.... .।''

 

     सच पूछा जाय तो जो लोग तैयार हैं, जो लोग इस उपलब्धिके लिये असंदिग्ध रूपसे दैव-निर्दिष्ट हैं, उनके विषयमें ऐसा कम ही देखा जाता है कि वे अपने जीवनके किसी विशेष मुहूर्त्तमें, भले ही वह कुछ सेकंडके लिये ही क्यों न हो, यह न अनुभव करते हों कि यह उपलब्धि क्या है ।

 

     परंतु उन लोगोंको भी, जिन लोगोंका भाग्य सुनिश्चित है उन लोगोंको भी, ''उस चीज'' के विरुद्ध हठपूर्वक, घोर संघर्ष करना पड़ता है जिसे हम अपनी सांसकी हवाके साथ ग्रहण करते हुए प्रतीत होते है. ''वह चीज'' है यह आशंका, यह भय कि न मालूम क्या हों जाय । यह कितनी मूर्खता- पूर्ण बात है, क्योंकि अंतिम विश्लेषण करनेपर प्रत्येक व्यक्तिका भाग्य एक ही है : जन्म लेना, जीना -- अधिक या कम अच्छे रूपमें - और मर जाना, और फिर अधिक या कम समयतक प्रतीक्षा करना, फिर दुबारा जन्म लेना, जीना - कम या अधिक उत्तम रूपमें -- और फिर मर जाना और इसी तरह अनिश्चित कालतक दुहराते रहना जबतक कि मनुष्य इससे ऊब जानेके लिये तैयार' न हों जाय ।

 

      भला भय किस बातका ? पुरानी लीकसे बाहर निकल आनेका भय ? मुक्त होनेका भय ? भविष्यमें कैदी न बने रहनेका भय ?

 

१३


     और फिरत, जब तुममें उसे अतिक्रम कर जानेके लिये पर्याप्त साहस हों तो तुम अपने-आपसे कहते हों. ''कुछ भी क्यों न हों! आखिर हम कोई बड़ी चीज दावपर नहीं लगा रहे, है न ? '' परंतु तुम अपने ऊपर अविश्वास करते हों, तुम मन-ही-मन प्रश्न उठाते हो कि क्या यह युक्तिसंगत है, क्या यह सत्य है, क्या यह सब विशुद्ध भ्रम नहीं है, क्या हमारा मस्तिष्क चकरा गयों है, क्या वास्तवमें ऐसी कोई चीज है... । ध्यान रखो, यधापि यह अविश्वास मूर्खतापूर्ण प्रतीत होता है फिर भी यह अत्यंत बुद्धि- मान् लोगोंमें भी पाया जाता है, यहांतक कि उन लोगोंमें भी पाया जाता है जिन्हें बार-बार और विश्वासोत्पादक अनुभव प्राप्त हो चुके है । मैं कहती  कि यह एक ऐसी चीज है जिसे हम अपने भोजनके साथ आत्मसात् करते है, अपनी ससारमें आनेवाली हवाके साथ, दूसरोंके संपर्कके साथ ग्रहण करते हैं, और यही कारण है कि हम उसे ''प्रकृतिका पहरेदार'' कह सकते हैं, जो सर्वत्र ओर सब वस्तुओंमें एक अष्टबाहु राक्षस मछलीकी भांति फिसल- कर आ घुसता है और तुम्हें पकड़कर अंतमें बांध लेता है ।

 

     ओर जब हम डग- दो बाधाओंके पार कर जाते है, जब हमारे अनुभव इतने प्रबल होते है कि कोई संदेह नहीं बना रह सकता, उनपर संदेह करना असंभव हों जाता है -- उनपर संदेह करना मानों अपने जीवनपर ही संदेह करना हो जाता है - उस समय मी वह भयंकर, गंदी, सुखी ओर खट्टी चीज, अर्थात्, अश्वासकी प्रवृत्ति बनी रह जाती है । वह मानवीय गर्वपर आधारित होती है और इसी कारण बहुत दिनोंतक बनी रहती है  । उस समय हम अपनेको इन सभी चीजोंसे बहुत ऊपर समझते हैं और कहते है ''ओह, में! में इन सब फंदोंमें नहीं पड़ता! मैं तो एक बुद्धिमान् आदमी हूं, मैं वस्तुओंको व्यावहारिक दृष्टिसे देखता हू, मुझे कोई धोखा नहीं दें सकता ।'' यह बात घृणित है!..... नीच है । पर यह खतरनाक '

 

    महान् उत्साहकी घडीमें भी, जब हम किसी असाधारण, अद्भुत अनुभूतिसे भरपूर होते है, उस क्षण भी, वह चीज एकदम नीचेसे ऊपर उठ आती है, वह कदर्य, लसीली और घृणास्पद होती है । फिर मी वह ऊपर चढ़ आती है और सब कुछ चौपट कर देती है ।

 

    उसपर विजय प्राप्त करनेके लिये मनुष्यको उद्भट योद्धा बनना होगा । उसे प्रकृतिके सब प्रकारके अंधकारोंके साथ, उसकी समस्त कुटिलताओं ओर प्रलोभनोंके साथ युद्ध करना होगा ।

 

    वह यह सब क्यों करती है? ऐसा लगता है मानों वह स्वयं अपने कथ्यके विपरीत जा रही हों । परंतु में इस बातकी व्याख्या तुम्हारे सामने

 

१४


 अनेक बार कर चुकी हूं : प्रकृति यह अच्छी तरह जानती है कि वह किस ओर जा रही है शल्य क्या है, बह उसे चाहती है, पर... अपने निजी तरीकेसे!

 

    उसे नहीं लगता कि वह समय खो रही है । उसके सामने तो अनंत काल पड़ा है । वह अपनी इच्छाके अनुसार अपने पथका अनुसरण करना चाहती है, अपनी पसंदके अनुसार चक्कर काटती हुई, पीछे लौटती हुई, सीधे पथसे .अलग भटकती हुई चलना चाहती है और एक ही चीजको बार-बार यह देखनेके लिये आरंभ करती है कि देखें, क्या होता है । ओर तब, ये. प्रबुद्ध चंचलमति लोग, जो तुरत, यथासंगव शीध्ग्ताके साथ, लक्ष्यपर पहुंच जाना चाहते हैं, जो सत्य, ज्योति, सौंदर्य और संतुलनके प्यासे होते है... ऐसे लोग उसे तंग करते हैं, उसपर दबाव डालते है, वे उससे कहते है कि सु अपना समय नष्ट कर रही है । अपना समय! और वह हमेशा उत्तर देती है : ''परंतु मेरे सामने शाश्वत काल पड़ा है, क्या मुझे कोई जल्दी है? तुम लोग- इतनी जल्दीमें क्यों हो? '' और फिर, मुस्कराती हुई वह उनसे कहती है : ''तुम जितने अंशमें मनुष्य हो उतने ही अंशमें जल्दबाजी करते हो; अपनेको विस्तारित करो, अनंत बन जाओ, शाश्वत बन जाओ, तब तुम फिर कमी जल्दबाजी न करोगे ।',

 

    रास्तेमें उसके लिये मनबहलावका ऐसा साधन मौजूद है, पर उससे प्रत्येक ब्यक्तिका मन नहीं बहलता ।

 

    उस समय यही होता है जब कोई वस्तुओंको एक महान् ऊंचाईपरसे, बहुत दूरसे देखता है, जब कोई उन चीजोंको देखता है जो विशाल है, लगभग अनंत है; जो चीजों मनुष्यको परेशान करती है, सताती है वे विलीन हो जाती हैं । और तब, जो लोग बड़े ज्ञानी होते है और एक बड़े ऊंचे ज्ञानके लिये जीवनका त्याग कर चूकते है, वे एक मुस्कानके साथ तुमसे कहते है ''तुम दुःख क्यों भोग रहे हों ? उससे बाहर निकल आओ, फिर कोई कष्ट नहीं होगा! '' व्यक्तिगत रूपसे यह बहुत ठीक है, पर आरिवर- कार जब कोई दूसरोंको बात सोचता. है तब उसकी यह इच्छा हो सकती है कि यह सुखांत नाटक, जो जरा दुःखदायी है, शीघ्र समाप्त हो जाय । और यदि कोई चरागाहमें रहनेवाले पशुकी तरह जीवनसे थका हुआ, घासके एक तिनकेसे दूसरे तिनकेतक घूमनेसे, खायी हुई चीजको एक कोनेमें बैठ- कर चाबने, अर्यात्, जुगाली' करनेसे, अत्यंत सीमित क्षितिजोतक दृष्टि प्रसारित करने तथा जीवनकी समस्त चमक-दमक खो देनेसे थका हुआ अनुभव करे, तो यह बिलकुल न्यायसंगत है ।

 

     संभवत: प्रकृतिको इसमें मजा आता है कि हम इस तरहके है, पर,
 

१५


हमारा जहांतक प्रश्न है, हम इससे ऊब गये हैं; हम कुछ और हों जाना चाहते है ।

 

     बस, ऐसे ही समय जब कि हम ऐसी चीजोंसे ऊब चुके होते हैं, जब हम और कुछ होना चाहते है तमी हमारे अंदर साहस लाता है, शक्ति आती है ''और इन तीनों महान् शत्रुओंको -- भय, संदेह और अविश्वासकोजीतनेकी संभावना उत्पन्न हो जाती है । परंतु मैं फिर कहती हूं कि यही पर्याप्त नहीं है कि एक शुभ दिन देखकर कोई बैठ जाय, अपनेको देखे कि वह कैसा है और बस एक बार ही, सदाके लिये उससे युद्ध कर ले । यदि कोई निश्चित होना चाहे कि वह उस चीजसे मुक्त हो चुका है तो उसे ऐसा ही करना होगा, इसे बार-बार करना होगा और लगभग अनंत रूपसे करते रहना होगा । सच पूछा जाय, तो मनुष्य शायद यथार्थमें कमी मुक्त नहीं होता, परंतु एक समय आता है जब वह अपने अंदर इतना बदल जाता है कि वे चीजों उसे स्पर्श नहीं कर सकतीं । मनुष्य उन्हें देख तो सकता है पर वह एक मुस्कानके साथ देखता है । और एक मामूली हरकत ही उन्हें दूर हटा देती है, वे वहीं लौट जाती हैं जहांसे आयी थीं, शायद थोडी-सी परिवर्तित होकर, शायद कम शक्तिशाली, कम हठी, कम आक्रामक बनकर लौट जाती. है और यह क्रम तबतक चलता रहता है जबतक कि 'ज्योति' इतनी पर्याप्त मात्रामें सबल नहीं हों उठती कि समस्त अंधकार विलीन हो जाय ।

 

     जहांतक उन अद्भुत वस्तुओंका प्रश्न है, जिनकी चर्चा श्रीअरविन्द करते हैं, उनका वर्णन न करना ही अधिक अच्छा है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने निजी ढंगसे महसूस करता, स्वीकार करता और अनुभव करता है - और प्रत्येक व्यक्तिके लिये वही सबसे उत्तम है । तुम्हें दूसरोंका तरीका नहीं पकड़ना चाहिये, तुम्हें बस अपना ही रास्ता अपनाना चाहिये, तभी अनुभव अपना पूरा मूल्य, अपना कल्पनातीत मूल्य प्राप्त करता है ।

 

     अन्तमें, मैं चाहती हू कि तुम सब लोग इन अनुभवोंको प्राप्त करो । उसके लिये तुम्हारे अन्दर श्रद्धा, विश्वास, बहुत नम्रता तथा बहुत अधिक सदिच्छा होनी चाहिये ।

 

    अपने-आपको खोलों, अभीप्सा करो और... प्रतीक्षा करो । अनुभव निश्चित रूपसे आयेगा । गवत्कृपा विद्यमान है; वह बस यही चाहती है कि वह सबके लिये कार्य कर सकें ।

 

१०-१०-५८

 

    ६ -- बहुत पीछे मैंने सीखा कि जब तर्क-बुद्धि मर गयी तय

 

१६


   'प्रज्ञा उत्पन्न हुई; इस मुक्तिसे पहले मुझे केवल ज्ञान ही प्राप्त था ।

 

        मैं फिर एक बार तुम्हारे सामने यह बात दुहरा देना आवश्यक समझती हूं कि इन सूत्रोंका रूप जान-बूझकर विरोधाभासात्मक रखा गया है ताकि मनको थोड़ा-सा धक्का दिया जाय और उसे इतना अधिक जगा दिया जाय कि यह समझनेकी कोशिश करे । तुम्हें इन्हें शब्दशः नहीं लेना चाहिये । कुछ लोग इस भावनाका पोषण करते हुए प्रतीत होते है कि ज्ञानी होनेके लिये यह आवश्यक है कि तर्क-बुद्धि विलुप्त हो जाय, पर बात ऐसी नहीं है, बात बिलकुल ही ऐसी नहीं है ।

 

      बस तर्क-बुद्धिको कमी सर्वोच्च शिखर और सर्वेसर्वा नहीं होना चाहिये । जीवनमें बहुत दीर्घ कालतक, सच्चे ज्ञान जैसी कोई चीज प्राप्त करने- से पहले, यह अत्यन्त आवश्यक होता है कि तर्क-बुद्धि ही सर्वेसर्वा हो, अन्यथा तुम अपने आवेगों, सनकों और भावुक कल्पनाओंके हाथोंका - जो थोड़े-बहुत उच्छृंखल होते है -- खिलौना रह जाते हा तया केवल प्रज्ञा- से ही नहीं वरन् अच्छे चाल-चलनेके लिये आवश्यक ज्ञानसे भी बहुत दूर चले जानेका खतरा उठाते हों । परंतु जब तुम साधारण मानव-चेतनाके सर्वोच्च शिखर-रूप तर्क-बुद्धिकी सहायतासे अपनी सत्ताके निम्न अंगोंपर अधिकार जमानेमें सफलता प्राप्त कर लेते हा और फिर यदि उस बिन्दुसे परे जाना चाहते हो, यदि तुम साधारण जीवन, साधारण विचार, वस्तु- विषयक साधारण दृष्टिसे मुक्त होना चाहते हों तो तुम्हें, यदि में ऐसा कह सकूं तो, तर्क-बुद्धिके मस्तकसे ऊपर चढ़ जाना होगा  घृणाके साथ उसे अपने पैरों तले कुचलना नहीं, बल्कि और ऊपर चढ़नेके लिये, उसके परे चले जानेके लिये पादपीठके रूपमें उसका व्यवहार करना होगा, तथा किसी ऐसी चीजको प्राप्त करना होगा जो उसके निर्णयोंकी तनिक भी परवा नहीं करती एवं अयुक्तिसंगत होनेकी क्षमता रखती है, क्योंकि वह अयुक्तिसंगतता एक उच्चतर वस्तु होती है, जिसके साथ एक उच्चतर ज्योति होती है, वह एक ऐसी चीज होती है जो सामान्य ज्ञानसे परे रहती है तथा ऊपरसे, बहुत ऊपरसे, भागवत प्रज्ञासे अन्त-प्रेरणाएं प्राप्त करती ह ।

 

     बस यही है इसका अर्थ ।

 

    यहांपर श्रीअरविन्द जिस ज्ञानकी बात कहते हैं वह साधारण शान है, वह तादात्म्यदुरा प्राप्त ज्ञान नहीं है; यह वह चीज है जिसे मनुष्य बुद्धिके दुरा, चिन्तनमें दुरा, सामान्य पद्धतिके दुरा प्राप्त करता है ।

 

१७


    परन्तु फिर एक बार कह दूं - इसके अलावा बादके सूत्रोंमें हम इस विषयपर फिर वापस आनेका अवसर प्राप्त करेंगे - जल्दबाजीमें यह मान कर कि तुम तुरत प्रज्ञाके अन्दर प्रविष्ट हो जाओगे, तर्क-बुद्धिको त्याग न दो; क्योंकि, प्रज्ञामें प्रवेश करनेसे पहले तुम्हें तैयारी करनी होगी, नहीं तो, तर्क-बुद्धिको त्यागकर तुम अ-बौद्धिक होनेका महान् संकट उठाओगे जो काफी खतरनाक है ।

 

     प्रायः ही अपने लेखोंमें, विशेषकर 'योग-समन्वय 'में श्रीअरविन्द कुछ लोगों- की धारणाके विरुद्ध हमें सावधान करते हैं । ये लोग विश्वास करते हैं कि वे अपने ऊपर कोई यथार्थ संयम रखे बिना भी योग-साधना कर सकते है । ये सभी प्रकारकी अन्तप्रेरणाओंके ग्रहण करते है और फलत: एक खतरनाक असंतुलनकी स्थितिमें जा पहुंचते है जिसमें उनकी सभी दबी, ढकी ओर गुप्त कामनाओंको इस बहाने खुलकर क्रीड़ा करने दिया जाता है कि वे सामान्य परंपराओं तथा सामान्य तर्क-बुद्धिसे मुक्त हों चुके हैं ।

 

     मनुष्य केवल ऊंचाइयोंक ऊपर उठकर ही, मानवीय आवेगोंसे बहुत ऊपर जाकर ही मुक्त हो सकता है । तुम्हें मुक्त होनेका अधिकार केवल तभी प्राप्त होता है जब तुम एक उच्चतर अहंकारशून्य स्वतंत्रताको अधि- कृत कर लेते हो तथा सभी कामनाओं और प्रवेगोंसे छुट्टी पा चूकते हो।

 

    लेकिन, जो लोग बहुत बुद्धिवादी हैं और सामान्य सामाजिक नियमोंके अनुसार बहुत नैतिक है उन्हें यह कभी विश्वास नहीं करना चाहिये कि बे ज्ञानी है, क्योंकि उनका ज्ञान एक भ्रम ही होता है और उसमें कोई गभीर सत्य नहीं होता ।

 

     विधि-विधानोंको तोड़नेकी योग्यता 'प्राप्त करनेके लिये तुम्हें उनसे ऊपर उठ जाना चाहिये, रुढियोंके उपेक्षा करनेके योग्य बननेके लिये तुम्हें उनसे ऊपर जाना चाहिये, सभी कायदे-कानूनोकी अवज्ञा करनेकी क्षमता पानेके लिये तुम्हें उनसे ऊपर जाना चाहिये । और इस स्वतंत्रताका उद्देश्य कमी कोई स्वार्थपूर्ण, व्यक्तिगत वस्तु, किसी महत्वाकांक्षाकी तृप्ति या बड़प्पनकी भावना रखकर., अपने दलसे ऊपर उठ जानेके लिये और अनुग्रहपूर्वक उसकी ओर दृष्टिनिक्षेप करनेके लिये दूसरोंके प्रति, घृणाभावका पोषण कर, अपने व्यक्तित्वको महत् बनाना नहीं होना चाहिये । जब कमी. तुम अपने अन्दर बड़प्पनकी इस भागबानाको अनुभव करो और दूसरों- की ओर विद्रूपकी दृष्टिसे, तुच्छ भावके साथ ताकों और मनमें यह कहो : ''में अब उस जातिका नहीं हूं'', तब अपने ऊपर विश्वास मत करो; क्योंकि उसीक्षण तुम पथहो जाते हो और खड्डमें लुढ़क पड़नेका खतरा उठाते हो ।

 

१८


     जब तुम वास्तवमें प्रज्ञामें, सच्ची प्रज्ञामें, जिसकी श्रीअरविन्द यहां चर्चा करते हैं, प्रवेश पा जाते हो तब फिर वहां कोई ऊंची या नीची चीज नहीं रह जाती, वहां बस शक्तियोंकी एक क्रीड़ा रह जाती है जिसमें प्रत्येक चीजका अपना स्थान और महत्व' होता है, और यदि वहां कोई पद-परंपरा होती भी है तो वह परात्पर प्रभुके प्रति आत्म-समर्पणकी ही पद-परंपरा होती है, वह नीचेकी वस्तुके मुकाबले बड़प्पनकी पद-परंपरा नहीं होती ।

 

     मनुष्योचित समझ-शक्ति, मानवीय तर्क-बुद्धि, मानुषी ज्ञानके द्वारा तुम इस पद-परंपराको नहीं समझ सकते; एकमात्र जाग्रत् आत्मा ही दूसरी जाग्रत् आत्माको पहचान सकती है, तब बड़प्पनकी भावना पूर्ण रूपसे विलीन हो जाती है ।

 

     सच्ची प्रज्ञा तमी प्राप्त होती है जब अहंभाव विलीन हो जाता है और अहंभाव केवल तमी विलीन होता है जब तुम कोई व्यक्तिगत उद्देश्य रखे बिना, किसी लाभकी आशा बिना, परात्पर प्रभुके चरणोंमें अपने-आपको संपूणंत समर्पित करनेके लिये तैयार हो जाते हो, जब तुम ऐसा इसलिये करते इ) कि तुम अन्यथा कर ही नहीं सकते ।

 

१७-१०-५८

 

७ -- जिसे मनुष्य ज्ञान कहते हैं वह मिथ्या बाह्य रूपोंको युक्तिद्वारा स्वीकार करना है । 'प्रज्ञा' पर्देके पीछेतक दृष्टि दौड़ाती और देखती है । तर्क-बुद्धि ब्योरेका निश्चित करती और उनका अंतर बतलाती है । तर्क-बुद्धि विभक्त करती है और 'प्रज्ञा' विभेदकों एक अखंड सामंजस्यके अंदर पीर देती है ।

 

श्रीअरविन्दने जो चीजें ज्ञान, तर्क-बुद्धि और प्रज्ञाके विषयमें लिखी हैं उनका उद्देश्य है सामान्य चिन्तन-पद्धतिकी लीकसे हमें बाहर निकाल लाना तथा, यदि संभव हों तो, हमें बाह्य रूपोंके पीछे विद्यमान सद्वस्तुकी एक झांकी देना ।

 

    साधारणतया, बहुत थोड़े-से विरल अपवादोंको छोड़कर, अधिकतर मनुष्य अपने चारों ओर तथा कभी-कभी अपने अंदर होनेवाली चीजोंको कम या अधिक यथार्थ रूपमें देखकर ही संतुष्ट हों जाते है और अपने अवलोकनोंको छिछले न्यायकी किसी-न-किसी पद्धतिके दुरा श्रेणीबद्ध कर लेते है, और इन्हीं पद्धतियोंको, इसी व्यवस्थापनाको ''ज्ञान''के

 

१९


नामसे पुकारते हैं । उन्हें इस बातका जरा- भी ख्याल नहीं होता, उनमें इस बोधका आरंभतक नहीं होता कि जिन चीजोंको वे देखते, वे छूते, बे अनुभव करते और वे स्वीकार करते है, वे मिथ्या बाह्य-रूप हैं, स्वयं सद्वस्तु नहीं ।

 

      यह एक सामान्य और अटल तर्क है. ''परन्तु मैं इसे देखता हूं, में इसे छूता हूं, मैं इसे अनुभव करता हूं, इसलिये यह सत्य है । ''

 

     परन्तु, इसके विरुद्ध, कहना यह चाहिये : ''मैं इसे देखता हूं, में इसे छूता हूं, मैं इसे अनुभव करता हूं, इसलिये यह अवश्य ही मिथ्या होगा । '' हम दो विपरीत छोरोंपर है और हमारे लिये समझनेका कोई उपाय नहीं ।

 

     श्रीअरविन्दके लिये सच्चा ज्ञान है ठीक तादात्म्यदुरा प्राप्त ज्ञान और प्रज्ञा है वह स्थिति जो सच्चा ज्ञान होनेपर प्राप्त होती है । वह यहां कहते हैं : 'प्रजा' मिथ्या बाझ-रूपोंके पदेंके पीछे देखती है, वह पीछे विद्यमान सद्वस्तुको देखती है । फिर श्रीअरविंद इस बातपर जोर देते है कि जब तुम छिछले, बाह्य ज्ञानके द्वारा किसी वस्तुका वर्णन करते हों तो तुम हमेशा उसके विरोधमें किसी दूसरी वस्तुको रखते हों; तुम जो देखते, छूते और अनुभव करते हो उनकी विसमता दिखाकर ही सर्वदा उनकी व्याख्या करते हो - और तब तुम उन्हें बिलकुल नहीं समझते।

 

     बुद्धि सदा वस्तुओंको एक-दूसरीके विपरीत रखती है और तुम्हें चुनाव करनेके लिये बाध्य करती है । जिनके विचार और तर्क सुस्पष्ट होते है वे लोग वस्तुओंके बीच विद्यमान समस्त भेदोंको देखते है । यह बात विशेष रूपसे देखने लायक है कि तर्क-बुद्धि विभित्रताके द्वारा ही कार्य करती है । चूंकि तुम इस वस्तु और उस वस्तुमें, इस कार्य और उस कार्यमें, इस विषय और उस विषय. में अंतर देखते हो, इसीलिये निर्णय करते हों और तर्क- बुद्धि अपना कार्य करती है ।

 

     ठीक इसी तरह, सच्चा ज्ञान, तादात्म्यदुरा प्राप्त ज्ञान तथा उसके फल-रूप प्रज्ञा बराबर ही उस बिंदुको देखती है जहां विरोधी प्रतीत होने- वाली सभी वस्तुएं सुसमन्वित, परिपूर्ण बन जाती है, और पूर्णत: सुसंहत और सुव्यवस्थित पूर्णता वस्तुका निर्माण करती है । और स्वभावतः, यह बात हमारे दृष्टिकोण, बोध और कर्ममें होनेवाले परिणामोंको संपूर्ण रूपसे बदल देती है ।

 

     अत्यंत अनिवार्य और प्रथम पग यह है कि जो कुछ हमसे कहा गया है उसे कम या अधिक यांत्रिक रूपमें, अच्छी तरह समझे बिना न दुहरा, जैसे, हम कहते हैं कि ''बाह्य रूप मिथ्या है'', हम ऐसा कहते हैं क्योंकि

 

२०


श्रीअरविंदने ऐसा कहा है, पर हम इसे समझते नहीं, और इस सबके बावजूद जब कुछ जानना चाहते है तो उस चीजकी ओर ताकना, उसका निरीक्षण करना, उसे छूना, चखना और सूंघना आरंभ कर देते है, क्योंकि हमें विश्वास नहीं है कि हमें देखने-समझनेका और भी कोई दूसरा साधन प्रान्त है । जब हमें ''चेतनाके पलटने'' का अनुभव प्राप्त होता है, जब हम इन चीजोंके पीछे चले जाते हैं और इन बाह्य रूपोंकी भ्रांतिकी पूर्णत: वास्तविक रूपमें अनुभव करते हैं और जानते हैं, केवल तभी समझना आरंभ करते है । परंतु तुम्हें जबतक यह अनुभव नहीं प्राप्त हो जाता तबतक तुम समस्त सूत्रावलीको पढ सकते हों, उसे बार-बार दुहरा सकते और कंठस्थ कर सकते हो, और विश्वास करो, फिर मी तुम्हें यथार्थ बोध नहीं प्राप्त होगा, तुम्हारे लिये यह सब सत्य नहीं होगा, और ये सब बाह्य रूप ही तुम्हारे लिये एकमात्र साधन बने रहेंगे जिनकी सहायतासे तुम बाहरी जगतके साथ अपना संपर्क स्थापित करोगे ओर यह जान सकोगे कि वह क्या है । और कमी-कभी तो तुम्हारा सारा जीवन ही यह सीखनेमें बीत जाता है कि वस्तुएं अपने बाह्य रूपमें कैसी है और यदि तुम उन सब चीजोंको खूब बारीकीसे, पूरे व्योरेके साथ देखते हों तथा जो कुछ तुम देखते हो या सीखते हों उसे याद रखते हो तो तुम एक बहुत सुशिक्षित, बुद्धिमान् व्यक्ति, तान-वारिधि समझे जाते हों... ।

 

    यदि कोई बहुत अधिक परिश्रम करे तो इन बाह्य रूपोंपर थोड़ी-सी क्रिया कर सकता है, अधिक.-सें-अधिक, उनमें जरा-सा परिवर्तन ला सकता है - बस, इसी तरह विज्ञान तुम्हें जडतत्वका व्यवहार करना सिखाता है -, पर यह कोई सच्चा परिवर्तन नहीं है और यह कोई सच्ची शक्ति मी नहीं है । और, जब तुम उस स्थितिमें हो, तुम यह पूरा-पूरा विश्वास करते हो कि तुम कुछ नहीं कर सकते, अपना स्वभाव बदलनेके लिये मी कुछ नहीं कर सकते; तुम अनुभव करते हा कि तुम एक प्रकारकी नियतिसे आक्रांत हो जो तुम्हारे लिये बहुत भारी है, तुम यह नहीं जानते कि यह नियति कहांसे या कैसे आयी है : तुम समझते हों कि तुम वैसे ही पैदा हुए हो, उस स्थानमें या उस परिवेशमें, उस स्वभावके साथ पैदा हुए हो, तुम्हें जीवनमें यथाशक्ति अच्छे-सें-अच्छे रूपमें चलते जाना होगा, जिन सब चीजोंपर अपना विशेष प्रभाव नहीं उनके साथ समझौता करते हुए तथा अपने स्वभावको बदलनेकी शक्तिके अभावमें स्वभावकी कठिनाइयोंको क्षीण करते हुए आगे बढ़ना होगा । तुम अनुभव करते हो मानों तुम एक जालमें आबद्ध हो गये हों, तुम एक ऐसी चीजके गुलाम

 

२१


हो गये हो जिसकी तुम अवहेलना करते हो, तुम किन्हीं अज्ञात परिस्थितियों और शक्तिके हाथका खिलना बन गये हो, एक ऐसी संकल्प-शक्तिके हाथों नाचते हों जिसकी वश्यता तो तुम नहीं स्वीकार करते पर जो तुम्हें बाध्य करती है । अत्यन्त विद्रोही' लोग मी गुलाम ही होते हैं, क्योंकि मुक्त होनेका एकमात्र पथ है बस पर्देके पीछे चले जाना और यह देखना कि उसके परे क्या है । जब तुम देख लेते हों तब तुम उसके साथ एक हों सकते हो और जब तुम तादात्म्य स्थापित कर लेने हों तब तुम्हें सच्चे रूपान्तरकी चमि।' मिल जाती है ।

 

   हम पढ़ते है, हम समझनेकी चेष्टा करते हैं, हम व्याख्या करते है, हम जाननेकी कोशिश करते है, पर सच्चे- अनुभवका एक ही क्षण हमें हजारों शब्दों और सैकड़ों व्याख्याओंसे कहीं अधिक सीखा देता है ।

 

    अतएव पहला प्रश्न है ''किस तरह अनुभव प्रान्त किया जाय? '' अपने भीतर पैठ जाओ, बस यही है पहला पग !

 

     ओर एक बार जब तुम इतना' पर्याप्त गहराईमें प्रवेश करनेमें सफल हो चूक कि जो कुछ अंदर विद्यमान है उसके सत्यको अनुभव कर सको तब अपने-आपको फैलाओ, धीरे-धीरे और सुव्यवस्थित रूपमें अपनेको विस्तारित करो और विश्वके समान विशाल बनकर सीमाकी भावनाको खो दो ।

 

    तैयारी करनेके लिये ये दो क्रियाएं सबसे पहले आवश्यक है ।

 

     और इन दोनों कार्योंको यथासंभव अधिक-सें-अधिक पूर्ण स्थिरता, शान्ति और निश्चलतामें करना होगा । यह शान्ति, यह निश्चलता मनमें निश्चल- नीरवता उत्पन्न करती है और प्राणके अन्दर अचलता ले आती है ।

 

   इस प्रयासको, इस चेष्टाको तुम्हें बहुत नियमित रूपसे और अध्यवसाय- के साथ दुहराते रहना होगा, और कुछ दिनोंके बाद, कम या अधिक दीर्घ- कालके बाद, तुम एक ऐसे सत्यको देखना आरंभ कर दोगे जो तुम्हारी सामान्य बाह्य चेतनामें दिखायी देनेवाले सत्यसे भिन्न होगा ।

 

    स्वभावत:, भागवत कृपाके प्रभावके कारण, अकस्मात्, एक आन्तरिक पर्दा फट सकता है और तुम यथार्थ सत्यके अन्दर तुरत प्रवेश कर सकते हो; परन्तु ऐसा जब होता है तब मी., यदि तुम उसका पूरा-पूरा मूल्य- महत्व और उसका पूर्ण प्रभाव प्राप्त करना चाहो तो तुम्हें अपने-आपको भीतरी ग्रहणशीलताकी स्थितिमें बनाये रखना होगा और उसके लिये दिन- प्रति-दिन अन्तरमें पैठना अनिवार्य है ।

 

२४- १०-१९५८

 

२२


८- या तो केवल अपने विश्वासोंको ही ज्ञ नाम मत दो और दूसरोंके विश्वासोंको भूल- भ्रांति, अज्ञ या मिथ्याचार मत कहो या संप्रदायोंके मत-मतांतरों और उनकी असहिष्णुताकी निन्दा मत करो ।

 

 संप्रदायोंके कट्टर मत और धर्मकी असहिष्णुता उत्पत्र होनेके कारण यह हैं कि संप्रदाय और धर्म केवल अपने ही विश्वासोंको शान मानते है और दूसरोंके विश्वासोंको भुल-म्रन्ति और अज्ञान अथवा मिथ्याचार समझते हैं ।

 

     बस, इसी सामान्य प्रवृतिके कारण वे जिसे सत्य समझते है उसे एक अटल सिद्धान्तका रूप दे देते हैं और दूसरे लोग जिसे सत्य समझते है उसकी भयंकर रूपसे निन्दा करते है । यह समझना कि हमारा ही ज्ञान एकमात्र सच्चा ज्ञान है, हमारा ही विश्वास एकमात्र सच्चा विश्वास है और दूसरोंका विश्वास सच्चा, अर्थात्, सत्य नहीं है, ठीक यही कार्य है जिसे सभी संप्रदाय और सभी धर्म करते हैं ।

 

   अतएव; तुम यदि ठीक वही करते हो जो सभी संप्रदाय और धर्म करते हैं तो तुम्हें उनकी खिल्ली उडानेका कोई अधिकार नहीं है । तुम भी अनजाने वही कार्य कर रहे हो, क्योंकि तुम्हें वही एकदम स्वाभाविक प्रतीत होता है । श्रीअरविन्द ठीक यही बात तुम्हें समझाना चाहते हैं कि जब तुम यह कहते हो : ''हमारे पास सत्य है और जो कुछ वह नहीं है बह एक भ्रान्त है '' (चाहे तुम इस बातको उतने भद्दे रूपमें कहनेका साहस न मी करो), तुम एकदम वही चीज करते हो जो सभी धर्म और सभी संप्रदाय करते हैं ।

 

    यदि तुम जरा बाह्य वस्तुके रूपमें अपनी ओर ताको तो तुम देखोगे कि जो कुछ तुमने सीखा-पढ़ा या सोचा है, जो कुछ तुमको विशेष रूपसे सत्य और अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतीत हुआ है उस सबको तुमने सहज-स्वाभाविक ढंगसे, उधर कोई ध्यान दिये बिना ही, ज्ञानका रूप दे दिया है और जब दूसरे लोग कहते है : ''ना, ना, यह तो ऐसा है, यह वैसा नहीं है'', तो तुम उनकी भिन्न धारणाका प्रतिवाद करनेके लिये बिलकुल तैयार रहते हो ।

 

    यदि तुम अपनी ओर ध्यानपूर्वक देखे तो तुम इस असहिष्णुताकी बनावटको समझ जाओगे और तुम तुरंत समस्त निरर्थक तर्क-वितर्कको बन्द कर सकते हो । तो, हम फिर उस बातपर वापस आ गये जिसे मैं एक बार पहले कह चुकी हू : हो सकता है कि वस्तुओंके सत्यके साथ तुम्है

 

२३


जो संपर्क प्राप्त हुआ हों, जो तुम्हारा व्यक्तिगत संपर्क हो - कम या अधिक स्पष्ट, कम या अधिक गंभीर, कम या अधिक विशाल और कम या अधिक विशुद्ध संपर्क हों - उसने तुम्हें, विशेष रूपसे तुम्हें, एक रोचक और कमी-कर्म।' एक सुनिश्चित अनुभव प्रदान किया हों, पर इस संपर्कने चूंकि तुम्हें, एक महत्त्वपूर्ण, सुनिश्चित अनुभव प्रदान किया है इसी कारण तुम्हें यह कल्पना नहीं करनी चाहिये कि यह कोई विश्वजनीन अनुभव है और वही संपर्क दूसरेको मी वही अनुभव प्रदान करेगा । यदि तुम यह बात समझ जाओ कि यह विशुद्ध रूपमें एक व्यक्तिगत, निजस्व, आत्मनिष्ठ विषय है और यह कोई निरपेक्ष ओर सर्वमान्य नियम नहीं है, तो फिर तुम दूसरोंके ज्ञानकी उपेक्षा नहीं कर सकोगे, न ही अपने दृष्टिकोण और अपने अनुभवको उनके ऊपर लादनेकी इच्छा करोगे । इस तरह तुम समस्त मानसिक झगड़ोंसे बच जाओगे जो सर्वदा एकदम निरुपयोगी होते हैं ।

 

      स्पष्ट ही, पहले वाक्यको एक परामर्शके रूपमें लिया जा सकता है, परन्तु श्रीअरविन्दने इसे उस अर्थमें नहीं लिखा था; यह तो इसलिये लिखा गया था कि तुम्हें इस भूलके विषयमें सचेत कर दिया जाय जिसे तुम स्वयं करते हों और दूसरोंमें उसे देखकर उसकी खिल्ली उड़ाते हों । केवल इसी विशेष विषयमें नहीं, बल्कि सभी विषयोंमें यह लोगोंकी एक आदत है । और यह विशेष रूपसे देखने लायक बात है कि जब तुममें कोई दुर्बलता, उदाहरणार्थ, जब कम या अधिक स्वाभाविक रूपसे तुममें कोई हास्यास्पद चीज, कोई दोष या अपूर्णता होती है, तो तुम उसे बिलकुल स्वाभाविक समझते हो, वह तुम्हें नहीं खटकती, पर ज्यों ही तुम उती दुर्बलता, उसी अपूर्णता, उसी हास्यजनक चीजको दूसरे व्यक्तिके अन्दर पाते हों तो वह तुम्हें एकदम खटकती है बार तुम कहते हो : ''यह कैसी बात है! वह इस तरहका है! '' परन्तु तुम यह नहीं देखते कि तुम भी ''उसी तरहके'' हो । और तब, तुम उस दुर्बलता और अपूर्णताके साथ, उसे न देखने- की हास्यास्पद बातको भी जोड़ देते हों।

 

      इससे एक शिक्षा ली जा. सकती है. जब कोई बात दूसरे व्यक्तिके अन्दर तुम्हें एकदम अवांछनीय या हास्यास्पद प्रतीत हों -- जब तुम सोचो : ''यह कैसी बात है! वह तो वैसा है, वह उस तरहका आचरण करता है, वह ऐसी बातें कहता।' है, वह ऐसा करता है'' --, तब तुम्हें अपने-अ।पैसे कहना चाहिये : ''हां, हां, परन्तु मै मी शायद बिना. जाने वही चीज करता हू । अच्छा हो कि में दूसरे व्यकितकी आलोचना करने- से पहले सर्वप्रथम स्वयं अपने अन्दर दृष्टि डालूं ताकि मैं निसंदिग्ध हो

 

२४


 सकूं कि में ठीक वही चीज, महज थोड़े-से अन्तरके साथ, वही चीज नहीं करता ।'' ओर, जब-जब तुम्हें दूसरे व्यक्तिका आचरण बुरा लगे तब-तब यदि तुम इसे सामान्य बुद्धि ओर समझदारीके साथ कर सको तो तुम देखोगे कि जविनमें दूसरोंके साथका सम्बन्ध मानों एक आईना है जो हमारे सामने इसलिये रखा गया है कि हम अधिक आसानीसे और अधिक सूक्ष्म दृष्टिसे उस दुर्बलताको देख सकें जिसे हम अपने अन्दर वहन करते है ।

 

   साधारणतः, प्राय.: पूर्ण रूपमें, जो चीज तुम्हें दूसरोंके अन्दर बुरी लगती है बहु ठीक वही चीज होती है जिसे तुम अपने अन्दर वहन करते हो, वह कम या अधिक पर्देके पीछे, कम या अधिक छिपी हुई, संभवत: थोड़ा- सा भित्र आकार लिये रहती है जिससे तुम अपने विषयमें भ्रममें रहते हो । जबतक वह तुम्हारे अन्दर है तबतक तो तुम्है खटकनेवाली नहीं प्रतीत होती, पर ज्यों ही तुम उसे दूसरोंमें देखते हो त्यों ही वह भयानक बन जाती है।

 

    परीक्षण करो, वह तुम्है स्वयं अपने-आपको बदलनेमें बहुत, बहुत मदद देगा और साथ-हीं-साथ, दूसरोंके साथ तुम्हारे सम्बन्धमें तुम्है एक हंसती हुई सहिष्णुता प्रदान करेगा, वह सदिच्छा प्रदान करेगा जो समझसे उत्पन्न होती. है और बह बहुधा. एकदम निरर्थक झगड़ोंका अंत कर देगी ।

 

   तुम झगड़ा किये बिना जी सकते हो । ऐसा कहना बड़ा विचित्र-सा लगता है, क्योंकि, वस्तुएं अमी जैसी है, उनके कारण, इसके विपरीत, ऐसा प्रतीत हो सकता है कि जीवन संघर्ष करनेके लिये ही बना है, इस अर्थमें कि एक साथ रहनेवाले लोगोंका पुरुष कार्य होता है, खुले तौरपर या गुप्त रूपसे झगड़ा करना । तुम हमेशा शब्दोंतक नहीं आते, न (सौ- भाग्यवश) प्रहारतक उतरते हों, पर तुम्हारे भीतर निरन्तर उतेजनाकी स्थिति बनी रहती है क्योंकि तुम अपने चारों ओर उस पूर्णताको नहीं पाते जिसे तुम स्वयं उपलब्ध करना पसन्द करते हो -- कितु जिसे उपलब्ध करना कठिन अनुभव करते हो - पर तुम इसे एकदम स्वाभाविक समझते हो कि दूसरोंको उसे उपलब्ध कर लेगा. चाहिये ।

 

    ''यह कैसी बात है कि वे लोग ऐसे है?''... लोग उन कठिनाइयोंको भूल जाते है जिन्हें वे ''वैसा''  न बनानेमें स्वयं अपने अन्दर अनुभव करते है !

 

     बस, चेष्टा करो और तुम देखोगे!

 

     प्रत्येक वस्तुकी ओर सदभावनाभरी मुस्कानके साथ ताको, जो चीजों तुम्है उत्तेजित, नाराज करती है उन्हें, अन्यने लिये एक प्रकारकी शिक्षाके

 

२५


रूपमें ग्रहण करो और तब तुम बहुत अधिक शान्तिके साथ और बहुत अधिक प्रभावशाली रूपमें जीवन यापन करोगे, क्योंकि इसमें कोई सन्देह नहीं कि मनुष्य जिस पूर्णताको स्वयं उपलब्ध करना चाहता है उसे दूसरों- मे न पानेके कारण होनेवाली नाराजगी और उत्तेजनामें अपनी शक्तिका अधिकांश माग व्यर्थ नष्ट कर देता है ।

 

    दूसरोंको जो पूर्णता प्राप्त करनी चाहिये वहां आकर तुम रुक जाते हो, ओर तुम बहुधा उस लक्ष्यके विषयमें सचेतन नहीं होते जिसका अनुसरण स्वयं तुम्है करना चाहिये । अगर तुम उसके विषयमें सचेतन हों तो जो काम तुम्हें दिया गया है उसीसे आरंभ कर दो, अर्थात्, जो कुछ तुम्है करना है उसे आरंभ कर दो, दूसरे जो कुछ करते हैं उसमें व्यस्त हुए बिना, तुम्हें जो कुछ करना है उसे करो, क्योंकि, आखिरकार, दूसरे जो कुछ करते हैं उससे तुम्हारा कोई सरोकार नहीं । और सच्चा मनोभाव ग्रहण करने- का सबसे उत्तम उपाय है महज अपने-आपसे यह कहना : '''मेरे इर्द-गिर्द जो भी है, मेरे जीवनकी सारी परिस्थितियां, मेरे समीप जो है वे सभी वह आरसी हैं जिसे दिव्य चेतनाने मेरे सम्मुख मुझे यह दिखानेके लिये रखा है कि मुझे कौन-कौन-सी प्रगति करनी चाहिये । जो कुछ मुझे दूसरोंके अन्दर खटकता है वह वही कार्य है जिसे मुझे स्वयं अपने अन्दर करना है ।''

 

    और संभवत: कोव्यक्ति यदि स्वयं अपने अन्दर कोई सच्ची पूर्णता वहन करे तो वह अकसर उसे दूसरोंमें भी देखेगा ।

 

७-११-५८

 

   १ -- अंतरात्मा जो कुछ देखती और अनुभव करती है उसे बह जानती है, बाकी सब कुछ आभास, पूर्वसंस्कार और धारणा है ।

 

 इसका मतलब है कि जो मी ज्ञान अन्तरात्माकी दृष्टि या अनुभवका परिणाम नहीं होता उसका कोई यथार्थ मूल्य नहीं होता ।

 

    परन्तु तुरत यह प्रश्न उठता है (यह मुझसे पहले मी पूछा गया था) : ''भला मनुष्य कैसे जान सकता हैं कि अन्तरात्मा क्या. देखती है? ''

 

   स्पष्ट ही, इसका केवल एक हो समाधान है, अपनी अन्तरात्माके बिषयमें सचेतन होना; और यह बात इस सूत्रको पूरा कर देती है : जबतक तुम अपनी अंतरात्माके विषयमें सचेतन नहीं हो जाते तुम सच्चा ज्ञान

 

२६


 नहीं प्राप्त कर सकते । अतएव, तुम्हारा पहला प्रयास होना चाहिये अपने अन्दर विद्यमान अपनी अन्तरात्माको ढूंढ निकालना, उसके साथ युक्त होना और अपने जीवनको उसीके शासनमें छोड़ देना ।

 

    कुछ लोग पूछते है : ' 'भला कोई यह कैसे जान सकता है कि यही अन्तरात्मा है?'' में इस प्रश्ननका उत्तर पहले कई बार दे चुकी हू । जो लोग यह बात पूछते है उनका यह प्रश्न ही यह साबित करता है कि वे अपनी अन्तरात्माके विषयमें सचेतन नहीं है, क्योंकि जिस क्षण तुम अपनी अन्तरात्माके विषयमें सज्ञान हो जाते हो और उसके साथ एक हो जाते हो, उसी क्षण तुम उसे निश्चित रूपसे जान भी जाते हों ओर यह नहीं पूछते कि इसे कैसे जाना जाय । और वह अनुभव एक ऐसा चीज नहीं है जिसका अनुकरण किया जा सके या जिसकी कल्पना को जा सके, तुम यह झूठा दिखावा नहीं क र सकते कि तुम अपनी अन्तरात्माके संपर्कसे आ गये हो - यह एक ऐ सी चीज है जिसका तुम आविष्कार या अनुकरण नहीं कर सकते । जब अन्तरात्मा जीवनपर शासन करने लगती है तब तुम उसे पूर्ण रूपसे जान जाते हो और उसके विषयमें प्रश्न नहीं बना करते ।

 

     परन्तु जिस सूत्रको हमने पढ़ा है उसकी उपयोगिता यह है कि वह तुम्हें बतलाता है कि जो कुछ तुम विश्वास करते हो कि तुम जानते हों, जो कुछ तुमने सीखा-पढ़ा है या जो कुछ व्यक्तिगत निरीक्षण, व्यक्तिगत अनु- मान, तुलना आदिके द्वारा तुम्हारे जीवन-पथमें तुम्हारे सामने उपस्थित हुआ है, वह अत्यन्त आपेक्षिक ज्ञान है जिसे तुम जीवनके स्थैर्य और यथार्थतः उपयोगी सिद्धान्तका आधार नहीं बना सकते।

 

    क्या हमने कितनी ही बार यह बात नहीं दुहरायी कि जो कुछ मनसे आता है वह बिलकुल आपेक्षिक होता है, मन जितना ना अधिक सुशिक्षित होता है, जितना ही अधिक किसी अनुशासनके अधीन रहता है उतना ही अधिक यह साबित करनेमें समर्थ होता है कि जो कुछ वह प्रस्तुत करता या कहता है वह सत्य है? युक्ति-तर्कके द्वारा हम प्रत्येक वस्तुके सत्यको साबित कर सकते है, पर किसी हालतमें इसका मतलब यह नहीं होता कि वह सत्य ही है । वह बराबर ही मत-, पूर्बसंस्कार, बाह्य रूपपर आधारित ज्ञान बना रह जात है जो स्वयं संदिग्धसे भी कुछ बढ़कर होता है ।

 

    अतएव, ऐसा लगता है कि निकलनेका बस एक ही रास्ता है अपनी अन्तरात्माको ढूंढना ओर उसे प्राप्त करना । वह हमारे अन्दर विद्यमान है, वह ज  छिपी हुई नहीं है, वह तुम्हारे साथ इसलिये नहीं खेल रही कि तुम कठिनाइयोंमें जा गिरो । इसके विपरीत, वह बहुत प्रयास करती है ताकि तुम उसे प्राप्त कर लो, उसकी वाणी सुनो; बस,

 

२७


उसके और तुम्हारी सक्रिय चेतनाके बीच दो व्यक्ति है, प्राण और मन, जिनको बहुत अधिक शोरगुल मचानेकी आदत है । और, चूंकि वे बहुत शोर मचाते है और अंतरात्मा वैसा नहीं करता या यथासंभव कम शोर मचाती है, इसलिये उनका शोर अन्तरात्माकी वाणी सुनानेमें बाधा देता है ।

 

    जब तुम यह जानना चाहो कि तुम्हारी अन्तरात्मा क्या जानती है तो तुम एक आन्तरिक प्रयास कर सकते हों; निस्सन्देह, सतर्क होना जरूरी है, और यदि तुम सतर्क होओ तो तुम मन और प्राणके इस नितान्त बाह्य कोलाहलके पीछे विद्यमान किसी अत्यन्त सूक्ष्म, बहुत स्थिर और बहुत शान्तिपूर्ण चीजको पहचान सकते हो जो जानती है और बतलाती है कि वह क्या जानती है । परन्तु दूसरों (अर्थात् मन और प्राण) का आग्रह इतना अधिक प्रबल होता है और वह चीज (अन्तरात्मा) स्वयं इतनी शान्त-स्थिर होती है कि तुम आसानीसे भूल कर बैठते हो; तुम आवाज उसकी सुनते हो जो सबसे अधिक शोर मचाता है और अधिकांश समय तुम यह नहीं देखते कि वास्तवमें उससे भिन्न दूसरी चीज ही सच कह रही थी । वह चीज तुमपर लादती नहीं, सुननेके लिये तुम्हें बाध्य नहीं करती, क्योंकि वह जोर-जबरदस्ती करना जानती ही नहीं ।

 

     जब तुम हिचकिचाते हो, जब तुम अपने-आपसे यह प्रश्न करते हो कि अमुक प्रकारकी य। उनसे भिन्न परिस्थितियोंमें तुम्हें क्या करना है तब तुम्हारे अंदर एक कामना होती है, तत्काल एक मानसिक और प्राणिक पसंद घुस आती है जो धक्का देती है, डटी रहती है, हठ करती है और अपने-आपको थोपती है, और संसारकी सर्वोत्तम युक्तियोंके साथ तर्क-वितर्क करना आरंभ कर देती है, और यदि तुम खूब सजग न होओ, यदि तुमने प्रबल अनुशासनका अध्यासन किया हो, यदि तुम्हें अपने ऊपर लगाम लगाने- का अभ्यास न हों तो, वह अंतमें तुम्हें यह विश्वास करा देती है कि वह जो कह रही है वही सत्य है, और, जैसा कि मैंने अभी बताया है, वह इतना हो-हल्ला मचाती है कि तुम अपनी अंतरात्माकी शांत, क्षीण आवाज- को, नीरव, सूक्ष्म सुझावको सुन भी नहीं पाते जो कहती है : ''इसे मत करो ।''

 

   ''इसे मत करो'' - यह वाणी प्रायः ही आती है और तुम उसे एक ओर फेंक देते हो मानों वह कोई निर्बल वस्तु हों बार तुम अपने आवेगकी मवितव्यताका अनुसरण करते हों । परंतु, सत्यको प्राप्त करने और उसे जीवनमें उतारनेका तुम्हारा संकल्प यदि, वास्तवमें, सच्चा हो तो तुम्है अधिक- से-अधिक अच्छी तरह इसे सुनना सीखना होगा, तुम्है अधिक-सें-अधिक अच्छी

 

२८


 तरह विवेक करना सीखना होगा, और यदि इसके लिये तुम्हें कुछ प्रयास भी करना पड़े, यदि इससे तुम्हें कुछ दुःख-कष्ट भी हो, तो भी, तुम्हें इसके अनुसार काम करना सीखना होगा । और यदि तुम केवल एक बार मी उसका कहना मान लो तो वह एक सबल सहायक बन जायगी, तुम अपने पथपर काफी अग्रसर हो जाओगे और समझने लगोगे कि अंतरात्मा क्या चीज है और क्या नहीं है तथा इस विवेक और आवश्यक सच्चाईके सहारे अपने लक्ष्यपर पहुंचना तुम्हारे लिये सुनिश्चित हों जायगा ।

 

     परंतु तुम्हें जल्दबाजी नहीं करनी चाहिये, तुम्हें अधीर नहीं होना चाहिये, तुम्हें बहुत लगनके साथ कार्य करते रहना चाहिये । क्योंकि एक बार ठीक करनेके लिये तुम दस बार भूल करते हो, परंतु तुम जब कोई मूल कर बैठो तो तुम्हें अपना सब कुछ छोड़ नहीं देना चाहिये और निराश नहीं होना चाहिये, तुम्हें अपने- आपसे कहना चाहिये कि भगवत् कृपा कभी मेरा साथ नहीं छोड़ती और अगली बार में इससे अच्छा करुंगा ।

 

    अतएव, अंतमें, हम कहेंगे कि चीजोंको जैसी वे हैं उसी रूपमें जाननेके लिये तुम्हें सर्वप्रथम अपनी अंतरात्माके साथ युक्त होना चाहिये और यह कि अपनी अंतरात्माके साथ युक्त होनेके लिये तुम्हें बार-बार और लगनके साथ उसकी इच्छा करनी चाहिये ।

 

     अपने लक्ष्यपर एकाग्र होनेकी तुम्हारी क्षमता जितनी अधिक होगी तुम्हारा रास्ता भी उतना ही कम लंबा होगा ।

 

१ ४- ११ -५८

 

१०- मेरी अंतरात्मा जानती है कि यह अमर है; परंतु तुम 'एक मृत शरीरके टुकड़े-टुकड़े करते हो और विजयके मदमें चिल्ला उठते हो : ''कहां है तुम्हारी अंतरात्मा और कहां है तुम्हारा अमरत्व? ''

 

     यह बा त बहुत बार दुहरायी जा चुकी है - पर कुछ अपवादोंको  छोड़कर बहुत थोड़े -सै लोगोंने यह समझा है - - कि केवल सजातियोको ही सजातियोको जान सकत है । यदि यह बात समझमें अ जाय तो अज्ञ  का आइ अधिकांश माग विलीन हो जायगा ।

 

     एकमात्र अंतरा तुम्हें अंतरप्त्माके जान सकती है और सत्ताके प्रत्येक स्तरपर, एकमात्र समतुल्य वस्तु ही समतुल्य वस्तुको पहचान सकती है । एकमात्र भगवान् ही भगवन  को जान सकते है और, चूंकि हम अपने अंदर

 

२९


भगवानको वहन करते है, इसीलिये हम उन्हें देखने और पहचाननेमें समर्थ होते है । परंतु हम यदि अपनी इंद्रियों और बाह्य प्रक्रियाओंके द्वारा अंतरिक जीवनकी किसी. बातको समझनेकी चेष्टा करें तो इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारा प्रयास पूर्ण असफलता और संपूर्ण भूल-भतीजे समाप्त होगा।

 

      अतएव, यदि तुम यह सोचो कि तुम विशुद्धतः भौतिक चेतनामें रहते हुए प्रकृतिके रहस्योंको जान सकते हो तो तुम एकदम भूल कर रहे हो । ओर किसी वस्तुके सत्यको स्वीकार करनेसे पहले ठोस मौर भौतिक प्रमाण मांगने- की यह आदत अज्ञानके अत्यंत स्पष्ट परिणामोंमेसे एक है । इस मनो- भावके कारण वज्रमूर्ख व्यक्ति मी यह समझता है कि वह उच्चतम वस्तुओं- पर भी अपनी राय दे सकता है तथा गंभीरतम अनुभवोंका गलत साबित कर चुका है ।

 

      निश्चय ही मरे हुए शरीरके टुकड़े-टुकड़े करके तुम अंतरात्माको नहो पा सकते क्योंकि अंतरात्मा तो उससे बाहर चली गयी है । यदि अंतरात्मा उसमेंसे बाहर न चली गयी होती तो शरीर नृत न हुआ होता । श्रीअरविन्दने इस दावेकी मूर्खताकी ओर अंगुली-निर्देश करनेके लिये यह सूत्र लिखा था।   

 

    यह बात आलोचक मानव मनके सभी निर्णयोंके विषयमें लागू होती है और विज्ञानकी सभी पद्धतियोंपर तब लागू होतीं है जब वे विशुद्ध भौतिक वस्तुओंसे भिन्न वस्तुओंके विषयमें अपना फतवा देना चाहती हैं ।

 

    निष्कर्ष बराबर एक ही निकलता है : एकमात्र सच्चा मनोभाव है विनम्रताका भाव, मनुष्य जो कुछ नहीं जानता उसके सामने नीरव आदरका भाव ओर अपने अज्ञानसे बाहर निकल अपनेके लिये एक आंतरिक अभीप्सा- का भाव । कचीजोंमेंसे एक यह भी है जो प्रगति करनेमें मनुष्यजातिकी सबसे अधिक सहायता करती है : जिसे वह नहीं जानती उसका आदर करना, स्वयं अपने-आप यह स्वीकार करना कि वह नहीं जानती और इसलिये वह कोई निर्णय नहीं दे सकती । परंतु सर्वदा इसके विपरीत ही किया जाता है । जिन चीजोंके बारेमें तुम जरा भी नहीं जानते उन्हींके विषयमें तुम अपना निश्चित निर्णय घोषित करते हों, तुम अइग्धकारके साथ कहते हों: ''यह संभव है और यह अ-संभव है'', जब कि तुम यह भी नहीं जानते कि किस विषयकी' चर्चा हो रही है । तुम एक बडप्पनका जामा पहने लेते हो, क्योंकि (दुम उनबानोपर संदेह करने हो जिन्हें तुमने कभी नहीं जाना ।

 

    लोगोंका विश्वास है कि सदेह करना एक चिह्न है, परंतु, वास्तवमें, वह निकृष्टताका एक चिह है ।

 

३०


       संशयवाद और संदेह प्रगतिकी सबसे बड़ी बाधाओंमेसे दो है । वे अज्ञानके साथ उद्धतताकों जोड़ देते है ।

 

२१-११-५८

 

 ११ -- अमरत्वका अर्थ मृत्युके बाद मनोमय व्यक्तित्वका बने रहना नहीं है यद्यपि वह भी सत्य है, बल्कि उसका अर्थ है उस अजन्म और मृत्युहीन आत्माको ज्ञानपूर्वक प्राप्त करना जिसका शरीर केवल एक यंत्र और एक छाया है ।

 

 यहांपर तीन बातें कही गयी है जिनके विषयमें प्रश्न पूछे गये हैं । पहला प्रश्न है : ''मनोमय व्यक्तित्व क्या चीज है? ''

 

     प्रत्येक मनुष्यमें प्रशास्ता शरीरको सजीव बनाती है और पूरे या आशिक रूपसे मनोमय पुरुष उसपर शासन करता है । यह एक साधारण नियम है, परंतु प्रत्येक व्यक्तिमें मनोमय सत्ता गठन और व्यक्तिवाचक दृष्टिसे अलग-अलग मात्रामें प्राप्त होती है । अधिकतर मनुष्योंमें मन एक प्रकार- का तरल पदार्थ होता है और जिसका अपना कोई संगठन नहीं होता, अतः उसका कोई व्यक्तित्व भी नहीं होता । और जबतक मन वैसा, अर्थात् तरल, असंगठित, अपने निजी संहत जीवनसे रहित और व्यक्तित्वहीन होता है, तबतक मृत्युके बाद कोई अस्तित्व नहीं रखता । जब शरीर, शरीरका उपादान विश्वव्यापी भौतिक उपादानमें विलीन हो जाता है तब मन-सत्ता- को गठित करनेवाला उपादान भी मनोमय लोकमें जाकर विलीन हों जाता ह ।

 

    परंतु जब मनोमय सत्ता गठित, सुव्यवस्थित, व्यष्टिभावापत्र हो जाती है और एक व्यक्तित्वका रूप लें लेती है तब वह निर्भर नहीं करती, अपने अस्तित्वके लिये शरीरपर बिलकुल निर्भर नहीं करती और इसलिये शरीर- की मृत्युके बाद मी बनी रहती है । पृथ्वीका मनोमय वातावरण सत्ताओंसे, मनोमय व्यक्तित्वोंसे भरा रहता है जो शरीरके विलीन हो जानेके बाद भी बिलकुल स्वतंत्र रूपसे जीवित रहते है और जब अंतरात्मा, अर्थात्, सच्चा 'स्व' पुनः जन्म लेता है तब वे भी नये शरीरमें पुनः जन्म ले सकते है; क्योंकि अंतरात्मा अपने विगत जन्मोंकी स्मृति अपने साथ वहन करती है ।

 

     परंतु यह वह चीज नहीं है जिसे श्रीअरविन्द 'अमरत्व' कहते है । 'अमरत्व' तो वह जीवन है जिसका न तो आदि है और न अंत, जो न तो उत्पन्न होता है, और न मरता है, जो पूर्ण रूपसे शरीरसे स्वतंत्र होता है -

 

३१


वह सच्चे स्वका जीवन है, प्रत्येक ब्यक्तिकी मूल सत्ता है और वह सच्चा स्व विश्वात्मासे पृथक नहीं है । और इस मूल सत्ताको विश्वात्माके साथ उप- लब्ध एकत्वका बोध प्राप्त है; वास्तवमें, वह सत्ता विश्वात्माकी ही एक साकार, व्यष्टिभावापत्र अभिव्यक्ति है और उसका न तो आदि होता है और न अंत, न जीवन है न मृत्यु, वह शाश्वत रूपमें विद्यमान है और वही अमर है । जब हम इस सच्चे 'स्व' के विषयमें पूर्णत: सचेतन हो जाते है तब हम उसके शाश्वत जीवनमें हिस्सा बंटाते है और इसलिये हम भी अमर हो जाते है ।

 

      परंतु साधारणतया लोगोंमें इस ''अमरत्व'' शब्दके विषयमें कुछ म्गंति है -- यह कोई नयी बात नहीं है, ऐसा अकसर लोग किया करते है । जब कोई अमरत्वकी चर्चा करता है तो अधिकतर भोग यह समझते है कि यहां शरीरको ही अनंत कालतक बनाये रखनेकी बात कही जा रही है।

 

   परंतु शरीर तबतक अनंत कालतक नहीं बना रह सकता जबतक कि, सबसे पहले, वह इस अमर 'स्व'के विषयमें पूरन सचेतन न हों जाय और इसके साथ युक्त न हो जाय, इसके साथ इस हदतक एकाकार न हो जाय कि इसमें भी सतत रूपांतरित होते रहनेकी वही क्षमता, वही शक्ति न आ जाय. जिससे उसे विश्वव्यापी गतिक अनुसरण करनेकी सामर्थ्य प्राप्त हों, सायित्व प्राप्त करनेकी यह पूर्णत: अनिवार्य शर्त है । चूंकि शरीर स्थिर होता है, चूंकि वह विश्व-गतिका अनुसरण नहीं करता, चूंकि वह विश्वके विकासके साथ सतत एकात्मता प्राप्त करनेके लिये पर्याप्त तीव्रताके साथ परिवर्तित होनेमें असमर्थ होता है, इसीलिये वह विकार और मृत्युको प्राप्त होता है । उसकी यह स्थिरता, कठोरता, परिवर्तित होनेकी असमर्थता ही उसे विनाश- को प्रान्त होनेके लिये बाह्य करती है जिसमें उसका उपादान भौतिक उपादानके सामान्य भांडारमें वापस आ जाय. और फिरसे नये रूप बनाये तथा प्रगति करनेमें समर्थ हो । परंतु सामान्यतया, जब लोग अमरत्वकी बात करते हैं तब वे समझते है कि इसका अर्थ ही है शरीरका अमरत्व; यह जानी हुई बात है कि ऐसी चीज अभीतक संसिद्ध नहीं हुई है ।

 

    श्रीअरविन्द कहते है कि यह संभव है और यह मी कहते हैं कि यह प्राप्त होगा, वह इसके लिये एक शर्त रखते है : वह यह है कि शरीरको अतिमानसभावापत्र हों जाना होगा और इसे अतिमानसिक सत्ताके गुणोंमें हिस्सा बंटाना होगा और वे है नमनीयता ओर सतत रूपान्तरित होनेके गुण । और जब श्रीअरविनद यह लिखते हैं कि शरीर केवल एक ''यंत्र और छाया '' है तब वह उस शरीरकी बात करते है जो हमें अभी प्राप्त है और जो संभवत: बहुत दर्घिकालतक ऐसा ही बना रहेगा । यह सच्चे

 

३२


स्वका केवल एक यंत्र है, सच्चे स्वकी एक बहुत हा अपूर्ण अभिकर्ता और एक छाया है -- एक छाया है, अर्थात्, शाश्वत सच्चे 'स्व 'की ज्योति और सुस्पष्टताके मुकाबले एक अस्पष्ट और धूमिल पदार्थ है ।

 

   हमारे मनमें यह बात जाननेका आग्रह कम नहीं होता कि भला यह छाया, यह यंत्र जीवके विकासमें कैसे सहायता कर सकता है और इस यंत्रकों विकसित करनेमें हमें भावी जीवनोंमें कैसे सहायता मिल सकती

 

   प्रत्येक बार जब कोई जीव नये शरीरमें आता है तो इस उद्देश्यसे आता है कि एक ऐसा नया अनुभव प्राप्त करे जो उसके विकासमें सहायक हो तथा उसके व्यक्तित्वको अधिक पूर्ण बनाये । इसी तरीकेसे जीवन-पर- जीवन बिताते हुए चैत्य पुरुष अपनेको गढ़ता और एक ऐसा पूर्ण स्वतंत्र ओर सचेतन व्यक्तित्व बन जाता है जो अपने विकासके शिखरपर पहुंच- कर, केवल नये जन्मके समयका ही नहीं, वरन् उसके स्थान, लक्ष्य और करणीय कार्यका भी चुनाव कर सकता है ।

 

     भौतिक शरीरमें उसका अवतरित होना निश्चित रूपसे अंधकार, अज्ञान और अचेतनतामें ही अवतरण है, और जिस अनुभवको लेनेके लिये वह आता है उसके ' लिये शरीरको उपयोगी बननेसे पहले शरीरके जडतत्त्व'मेंसे महज जरा-सी चेतना ले आनेके लिये उसे अति दीर्घ कालतक कार्य करना पड़ता है । इस तरह, यदि हम युक्तिसंगत और अतींद्रियकी पद्धतिके सहारे शरीरकी साधना करें तो हम उसके साथ-ही-साथ अपनी अन्तरात्मा- की वृद्धि, उसकी प्रगति और: ज्योति-प्राप्तिमें भी सहायता पहुंचाते है ।

 

     शारीरिक व्यायाम करनेका अर्थ है शरीरके कोषोंमें चेतना मरना । तुम इसे जानो या न जानो, पर यह एक वास्तविक तथ्य हे । जब हम अपनी मांसपेशीको अपनी इच्छाके अनुसार चलानेके लिये एकाग्र होते हैं, जब हम अपने अंगोंको मुलायम बनाने, उनमें स्फूतिं या शक्ति या प्रति- रोध या नमनीयता, जो कि स्वाभाविक रूपमें उनमें नहीं होती, ले आनेका प्रयास करते हैं, तब हम शरीरके कोषोंमें एक चेतना संचारित कर देते हैं जो वहां पहले नहीं थी और इस तरह शरीरको एक ऐसा यंत्र बना देते है जो सर्वत्र एक जैसा और ग्रहणशील होता है, जो अपनी क्रियामें तथा अपनी क्रियाके द्वारा प्रगति करता है । शारीरिक विकासका यही असली महत्व है । स्वभावत: एकमात्र यही चीज शरीरमें चेतना नहीं ले आती, परन्तु यह एक ऐसी चीज है जो एकदम व्यापक रूपमें कार्य करती है पर है विरल । में पहले कई बार तुमसे कह चुकी हू कि कला- कार अपने हाथोंमें बहुत बड़ी मात्रामें चेतनाको संचारित करता है, बुद्धि-

 

३३


प्रधान व्यक्ति अपने मस्तिष्कमें भरता है, पर यह एक ऐसी क्रिया है जिसे हम स्थानीय कह सकते हैं जब कि शारीरिक व्यायामकी क्रिया अधिक व्यापक होती है । और जब तुम इस ब्यायमका पूर्णत: अद्भुत परिणाम देखते हों, जब तुम देखते हो कि किस हदतक शरीर पूर्ण बनाया जा सकता है तब तुम समझते हों कि वह किस हदतक जडतत्व- मे' अवतरित चैत्य पुरुषके कार्यके लिये सहायक हो सकता है । क्योंकि जब चैत्य पुरुषके हाथमें एक ऐसा यंत्र होगा जो सुसंगठित, सुसमंजस और शक्ति, नमनीयता तथा संभावनाओंसे पूर्ण हों तो, स्वभावत. ही उससे उसके कार्यमें यथेष्ट सुविधा होगी।

 

      में यह नहीं कहती कि जो लोग शरीर-साधना कर रहे है वे इस लक्ष्य- को अपने सामने रखते हैं, क्योंकि बहुत कम लोग ही यह जानते है कि उसका यह परिणाम होता है, पर चाहे वे इसे जानें बो न जानें, परिणाम तो होता ही है । इसके अलावा, यदि तुम थोड़े-से संवेदनशील होओ, जब तुम एक ऐसे आदमीके शरीरकी क्रियाओंको देखो जिसने कोई युक्ति- संगत और विधिबद्ध शारीरिक शिक्षा पायी हो तो तुम उसमें एक ज्योति एक चेतना, एक जीवनी-शक्ति देखेंगे जो दूसरोंके अन्दर नहीं होती ।

 

     ऐसे. बहुत-से लोग है जो चीजोंको एकदम बाह्य दृष्टिसे देखते है और कहते है : ''उदाहरणार्थ, जो कुली-मजूर कठिन कार्य करनेके लिये विवश होते हैं, जो आवश्यकतावश और अपनी रोजीके लिये, भारी बोझ ढोना सीखते हैं, वे भी अपनी मांसपेशीको विकसित करते हैं और सम्बन्ध लोगों- की तरह व्यायाम करनेमें, जिसका कोई उपयोगी बाह्य परिणाम नहीं निकलता, अपना समय नष्ट करनेके बदले कम-से-कम कुछ उत्पादन तो करते हैं''... यह महज एक अज्ञान है, क्योंकि एक विशेष स्थानिक और सीमित व्यवहारके द्वारा मांसपेशी विकसित करने तथा किसी अंगको बिना कार्य या व्यायामके छोड़ विना, एक सर्वांगपूर्ण कार्यक्रमद्वारा जान-बूझकर और सुसमंजस रूपमें मांसपेशीको विकसित करनेमें एक तात्विक भेद है ।

 

     मजूरों और किसानोंकी तरह जो लोग कोई विशेष कार्य करते हैं और विशेष रूपसे कुछ मांसपेशियोंको विकसित करते है, उनमें बराबर ही एक प्रकारकी. व्यावसायिक विकृति देखी जाती है और उनका विकास किसी रूपमें उनके चैत्य पुरुषकी प्रगतिमें सहायता नहीं पहुंचाता । क्योंकि जीवन अपने संपूर्ण रूपमें यद्यपि चैत्य प्रगतिमें निश्चित रूपसे सहायता पहुंचाता है तो भी वह इतने अचेतन और इतने धमिए रूपमें पहुंचता. है कि बेचारे चैत्य पुरुषको अपने लक्ष्यतक पहुंचनेके लिये बार-बार और अनेक बार तथा अनिश्चित कालतक वापस आते रहना पड़ता है । अतएव, भूल

 

३४


करनेका खतरा बिना उठाये हम कह सकते है कि शारीरिक व्यायाम शरीरकी साधना है और सभी साधनाएं निश्चित रूपसे मनुष्यको अपने लक्ष्यतक पहुंचानेमें सहायता करती है । मनुष्य उसे जितना अधिक स- चेतन रूपसे करता है उतना ही अधिक शीघ्र और उतना ही अधिक व्यापक परिणाम प्राप्त होता है; पर कोई यदि अपनी अंगुष्ठ या पैर या नाकसे अधिक दूरतक देखे बिना मी व्यायाम करे तो भी वह सर्वांगपूर्ण उन्नति- मे' सहायक होता है ।

 

     अन्तमें, हम कह सकते है कि चाहे किसी भी साधनाका अनुसरण नियमित रूपसे, सच्चाईके साथ तथा स्वेच्छासे किया जाय तो वह बहुत अधिक सहायक होती. है, क्योंकि वह पार्थिव जीवनको अधिक तेजीसे उसके लक्ष्यतक ले जाती है और उसे नवीन जीवनको ग्रहण करनेके लिये तैयार करती है । अपने-आपको अनुशासनके अधीन रखनेका मतलब है इस नवीन जीवनको शीघ्र आने देगा और अतिमानसिक सत्यके साथ शीघ्र  संपर्क स्थापित करना ।

 

    भौतिक शरीर, अपनी वर्तमान अवस्थामें, सच्चे स्वके शाश्वत जीवनकी एक छाया, एक बहु विकृत छाया मात्र है; परन्तु यह भौतिक शरीर एक कर्मत विकासके'। प्राप्त हो सकता है; प्रत्येक व्यष्टिगत रूपायनके द्वारा भौतिक उपादान- प्रगति करता है और एक दिन वह इस योग्य हों जायगा कि अभी हम भौतिक जीवनको जैसा जानते है, उसके तथा जो अतिमानसिक जीवन भविष्यमें अभिव्यक्त होगा, उसके बीच एक पुल तैयार कर दे ।

 

२८- १ १-'१८

 

१२ -- उन्होंने अकाटच तर्कोंके द्वारा मेरे सामने सिद्ध कर दिया कि भगवानका अस्तित्व नहीं है और मैंने उनपर विश्वास भी कर लिया । पीछे मैंने भगवानको देखा, क्योंकि वे आये और उन्होंने मेरा आलिंगन किया ।

 

     अब भला मैं किसपर विश्वास करूं, दूसरोंके तर्कोंपर या अपने निजी अनुभवपर?

 

यह कोई प्रश्न नहीं जिसे श्रीअरविन्दने पूछा है, बलिक यह तो एक व्यंग्यात्मक प्रहार है । इसका उद्देश्य है मनकी तर्क-शक्तिका. मूर्खताको स्पष्ट रूपमें दिखा देना जो यह समझती है कि बह उन चीजोंके विषयमें

 

३५


भी बातें कर सकती है जिन्हें वह नहीं जानती । बस, इससे भिन्न और यह कुछ नहीं है ।

 

    तुम मनके द्वारा कुछ भी सिद्ध कर सकते हों । यदि तुम्है यह मालूम हों कि मनका कैसे उपयोग किया जाता है और युक्ति-तर्क करने और अनु मा न करने का शान तुम्हें, प्राप्त हे तो तुम प्रत्येक चीजको साबित कर सकते हों । इसके अलावा, यह एक अभ्यास है जो उच्चतर विद्या लयोंमें मनको नमनीय बनाने के लिये दिया जाता है : तुम्हारे सामने किसी विषयक पूर्वपक्ष सिद्ध कर दिया जाता है और उसके बाद तुरत उसका उत्तरपक्ष, उतने ही दृढ़ प्रत्ययके स , तुम्हें सिद्ध करना पड़ता है और यह सब इस आशा साथ किया जाता है कि यदि तुम थोड़ा और ऊपर उठो तो तुम दोनोंका समन्वय प्राप्त कर लोगे ।

 

     अतएव, जिस क्षण यह स्वीकार कर लिया जाता है कि प्रत्येक चीज साबित की जा सकती है तब इसका मतलब है कि युक्ति-तर्क हमें कहीं नहीं पहुंच; क्योंकि तुम यदि ए क चीजको सिद्ध करो और उसके बाद' तुरत ही उससे विरुद्ध चीजको भी सिद्ध कर सको तो यह इस बातका प्रमाण है कि तुम्हारे प्रमाणोंका कोई मूल्य नहीं ।

 

      अनुभव नामकी एक वस्तु भी है । एक सरल हदयके लिये, एक सच्ची और सीधी प्रकृतिके लिये, एक ऐ सी प्रकृतिके लिये जो यह जानती है कि उसका अनुभव सच्चा है, कि वह किसी कामना या मानसिक महत्वाकांक्षा- का कोई मिथ्या रूप नहीं है, बल्कि अन्तरात्मासे आने वाली एक सहज- स्वाभाविक क्रिया है, अनु भव पूणॅता : विश्वासोत्पादक होता है । विश्वास जमानेकी अपनी शक्ति वह उस समय खो बैठता है जब उसके स  ऐ सी चीजों मिल जाती है अथवा अनुभव प्राप्त करने की इच्छा या अपने -आपको बहुत श्रेष्ठ व्यक्त समझने की महत्वाकांक्षा आ जुटती है । यदि तुम्हारे अन्दर वह चीज हे; तीस , क्योंकि कामना और महत्वाकांक्षा अनुभवको मिथ्या बना देते है । मन आका रोका निर्माता है और यदि तुममें बहुत प्रबल कामना हो कि कोई बहुत महत्त्वपूर्ण या मजे दार चीज तुम्हारे लिये घटे तो तुम उसका होना संभव बना सकते हों, कम-से-कम बाह्य रूपमें उ न लें -योंके लिये संभव बना सकते हो जो चीजोंको ऊपर-ही.-ऊपर देखते है । परन्तु, ऐसा बातोंके अतिरिक्त, जब तुम सीधे-सरल, सच्चे और सहज होओ, और सबसे बड़ी बात- यह हो कि अनुभव तुम्हारे पास अपने-आ प, उन्है पाने के लिये तुम्है  ओरसे कोई प्रयास हुए बिन, तुम्हारी सत्ताकी गहरु। ईसा उठनेवाली अभीप्साकी अभिव्यक्तिके रूपमें, आते हों तो ऐसे अनुभवोंपर पूर्ण प्रामाणिकताकी मुहर-छाप लगी होती है; और

 

३६


सारा संसार तुमसे कह सकता है कि वे मूर्खतापूर्ण या भ्रमपूर्ण है, पर कोई बात तुम्हारे व्यक्तिगत विश्वासमें कोई भी परिवर्तन नहीं लायगी । परन्तु स्वभावतः, इसीलिये, तुम्हें स्वयं अपने-आपको धोखा नहीं देना चाहिये, तुम्हें सच्चा और सीधा-सरल होना चाहिये और अन्तःकरणमें पूर्ण सत्य- निष्ठ बने रहना चाहिये ।

 

      किसीने मुझसे पूछा था : ''यह कैसे हों सकता है कि भगवन् एक अविश्वासीके सामने मी प्रकट हो जाते है? '' यह प्रश्न हास्यास्पद है, क्योंकि भगवान् यदि किसी अविश्वासीके सामने प्रकट होना चाहे तो में ऐसी कोई चीज नहीं देखती जो उन्हें, ऐसा करनेसे रोक सकें!

 

     इसके विपरीत, भगवान् मजाक करना जानते हैं (श्रीअरविन्दने कितनी ही बार इस बातको दुहराया है कि परमात्मा हास्यप्रिय हैं और हम ही उन्हें प्रशान्त और सर्वदा गंभीर रहनेवाला बना देना चाहते है), और उन्हें यहां आकर किसी अविश्वासीका आलिंगन करनेमें मजा आता होगा । जिस व्यक्तिने शायद पिछले दिन यह कहा था : ''भगवानका अस्तित्व नहीं है, में उनपर विश्वास नहीं करता, यह तो मूर्खता और अज्ञान है''... उसीको वह अपनी मुजाओंमें ले लेते है, उसे अपनी छातीसे चिपका लेते हैं -- और एकदम उसके मुंहपर हंसते है ।

 

     सब कुछ संभव है, यहांतक कि जो चीजों हमारी. तुच्छ, सीमित बुद्धिको अयुक्तियुक्त प्रतीत होते) है, उनका होना भी संभव है ।

 

     वास्तवमें, जब हम इन सूत्रोंको अंततक पढ़ चुकेंगे केवल तभी हमें इन्हें समझनेका अवसर प्राप्त होगा, क्योंकि प्रत्येक सूत्रमें श्रीअरविन्द हमें एक ऐसी स्थिति-में ला बैठाते है जो उस सत्यसे बिलकुल भिन्न है जिसे हमें खोजना है । पक्ष असंख्य है । दृष्टिकोण अगणित है । और हम अपनेको झूठा बनाये बिना, अपनी. बातका खंडन किये बिना अत्यंत विरोधी बातोंको कह सकते है : सब कुछ इस बातपर निर्भर है कि वस्तुओं- को हम किस तरह देखते है । और, जब हम सब कुछ देख चुकेंगे, अपने लिये सुलभ सभी दृष्टियोंसे जब हम केन्द्रीय 'सत्य'को चारों ओरसे देख लेंगे, तब भी हमें बस जरा-सी झोंकें। ही मिलेगी -- हों सकता है- कि उस समय भी दिन सत्य हमारे लिये चारों ओरसे अछूता ही रह जाय । परन्तु ध्यान देनेकी बात यह है कि यदि भगवानके साथ केवल एक ही संपर्कका अनुभव हमें मिल जाय - एक सच्चा, स्वतःस्फूर्त्त और विशुद्ध अनुभव - तो उस क्षण, उस अनुभवके अन्दर हम सब कुछ, यहांतक कि उससे मी अधिक जान जायेंगे । यही कारण है कि मनुष्य जो कुछ थोड़ा-सा जानता है उसे पूर्ण सच्चाईके साथ जीवनमें

 

३७


उतारना इतना महत्त्वपूर्ण है ताकि वह अनुभव प्राप्त करनेकी' और अनुभवदुरा जाननेकी योग्यता प्राप्त कर सके, मनके द्वारा जाननेकी योग्यता नहीं बल्कि इसलिये कि वह चीजोंको जीवनमें उतारता है, क्योंकि वे उसकी सत्ता और चेतनाका अंग बन जाती है ।

 

   मनुष्य जो कुछ थोड़ा-बहुत जानता है, उसे जीवनमें उतारना ही अधिक जाननेका सबसे उत्तम तरीका है, यह पथपर आगे बढ़नेके सबसे अधिक शक्तिशाली उपाय है - बस, थोड़ा-सा जीवनमें लानेका प्रयत्न हों, पर हों बहुत सच्चा । उदाहरणार्थ, जब तुम जानते हों कि अमुक चीज करने लायक नहीं है, बस, उसे नहीं करना चाहिये । जब तुम अपने अंदर एक दुर्बलता, एक अशक्तता देख लेते हों तो फिर उसे दुबारा प्रकट नहीं होने देना चाहिये । जब तुम्है, किसी तीव्र अभीप्साके होनेपर इस बातकी झलक मिल जाती है कि क्या होना चाहिये, भले ही वह एक क्षणोके लिये ही मिली हों, तो फिर उसे जीवनमें सिद्ध करना भूलना नहीं चाहिये - कभी भी भूलना नहीं चाहिये ।

 

     कुछ ऐसे लोग होते है जो सर्वदा अपनी कमजोरियोंके लिये बिलखते रहते हैं । उससे कुछ विशेष लाभ नहीं होता । यदि तुमने वास्तवमें उन्है एक बार देख लिया हों और यथार्थमें, सच्चे रूपमें समझ लिया हो, यदि तुमने देख लिया हों कि ऐसा नही होना चाहिये, तब बिलखना बन्द कर दो! अब तो बस नित्य प्रयास करना होगा, अब तो अपने अन्दर संकल्प उत्पन्न करना होगा, अब तो प्रत्येक क्षण तुम्है जाग्रत् रहना होगा -- जिस दोषको तुमने एक बार जान लिया है उसे तुम्है फिर दुबारा कमी नहीं होने देना होगा । अज्ञानवश भूल करना, अचेतनतावश भूल करना अवश्य ही बहुत शोचनीय बात है, पर वह संशोधनीय है । परन्तु यह जान लेनेपर भी कि इसे नहीं करना चाहिये, भूल करते रहना एक प्रकारकी कायरता है ओर उसे कभी प्रश्रय नहीं देना चाहिये ।

 

   यह कहना : ''ओह! मानव-स्वभाव ही ऐसा है । ओह! हम लोग निश्चेतनामें है । ओह! हम तो अज्ञानमें है'', यह सब आलस्य और दुर्बलता है । और इस आलस्य और दुर्बलताके पीछे एक बहुत बड़ा अशुभ संकल्प भी विद्यमान है । लो बस!

 

    में यह इसलिये कहती हू कि ऐसे बहुत-सें, अनगिनत लोग है जिन्होंने मेरे सामने यह मर्तव्य प्रकट किया है । और यह सर्वदा ही अपने लिये बहाना बनानेका एक तरीका होता है । यह कहना. ''हम जो कर सकते है करते है'', कोई सत्य कथन नहीं है । क्योंकि, यदि तुम सच्चे हों तो एक बार जो वस्तु तुम देख लेते हा (जबतक तुमने देखा नहीं है तबतक

 

३८


कुछ कहनेको नहीं है), पर जिस क्षण तुम देख लेते हों, उसी क्षण तुम भागवत लेते हो, कृपा भी पा ज ह, और जस क्षण तुम भागवत कृपाको पा उस क्षणसे उसे भूलनेका कोई अधिकार तुम्हें नहीं रहता ।

 

 ५ - १२ -५ ८

 

१३ -- उन्होंने मुझसे कहा : ''ये चीजों दृष्टिम्ग्म हैं ।', मैंने पूछा, दृष्टिम्ग्म क्या अर्थ है तो मुझे बताया गया कि यह एक ऐसी वैयक्तिकया आंतरिक अनुभूति है जिसकी कोई प्रत्यक्ष या भौतिक वास्तविकता नहीं होती । और तब मैं बैठकर मानव तर्क-बुद्धिके चमत्कारोंपर आश्चर्य करने लगा ।

 

    मधुर मां, ''मानव तर्क-बुद्धिके चमत्कारों''से श्रीअरविंदका क्या आशय है?

 

 

 इस सूत्रमें ''उन्होंने''से श्रीअरविन्दका मतलब भौतिकवादियों तथा वैज्ञानिकों- से है और, साधारणतया, उन लोंगसे है जो संसारमें एक भौतिक वास्तविकतापर हीं विश्वास रखते है और वह मानव तर्क-बुद्धिको ही अकेला और अचूक निर्णायक मानते है । इसके अतिरिक्त, वे यहां जिन ''चीजों'' के विषयमें कह रहे है वे सब इस स्थूल जगतके नहीं वरन् दूसरे जगतोंके अनुभव है जो भौतिक आंखोंसे नहीं बल्कि दूसरी आंखोंसे गोचर होते है । इनमें' सूक्ष्म प्रदेशोंमें प्राप्त होनेवाले प्राणिक जगतके इन्द्रियोंद्वारा ग्रहण किये गये अनुभवोंसे लेकर भागवत उपस्थितिके आनन्दके अनुभवतक आ जाते हैं ।

 

   इन्हीं ''चीजों'' तथा ऐसी ही अन्य चीजोंके बारेमें श्रीअरविंदने ''दृष्टि- भ्रम'' शब्दका। प्रयोग होते सुना था । शब्दकोशमें ''दृष्टिभम''का अर्थ यों है : ''अस्वस्थ प्रकारका वेदन जिसका आधार कोई वास्तविक पदार्थ न 'हों अर्थात्, बिना पदार्थका बोध ।', श्रीअरविंद इसका ठीक रूप यों रखते हैं : ''एक ऐसा आत्मविचार या चैत्य अनुभव जिसका किसी वस्तुनिष्ठ या भौतिक पदार्थके साथ कोई संबंध न हो । '' आंतरिक चेतनाके इन तथ्योंके इससे अधिक अच्छी परिभाषा और नहीं हो सकती, क्योंकि ये तथ्य मनुष्यके लिये अत्यधिक मूल्यवान् है और उसे एक विचारनेवाले पशुसे कुछ अधिक बड़ा बना देते है । मानव बुद्धि इतनी सीमित, पार्थिव, दंभपूर्ण रूपमें अज्ञानमय है कि वह निन्दापूर्ण शब्दकी सहायतासे ठीक उन्हीं शक्तियोंको हीन बताना

 

३९


चाहती है जो मनुष्यके सामने एक उच्चतर और श्रेष्ठतर जीवनके द्वार खोल देती है... । इस हठीली नासमझीको देखकर ही श्रीअरविद ''मानव तर्क- बुद्धिके चमत्कारों'' पर व्यंगपूर्वक आश्चर्य करते है । कारण, सत्यको मिथ्यात्वमें इस हदतक बदल देनेकी शक्ति निश्चय ही चमत्कार है ।

 

५-१-१९६० '

 

   १४-- जड़ पदार्थमें तल्लीन रहनेके कारण जो सत्य हमारी आंखोंसे ओझल रहते हैं उनकी अनियमित झांकियोंको विज्ञान दृष्टिम्ग्म कहता है।

 

संयोग सर्वोच्च और वैश्व बुद्धिके कार्यमें कलाकारका अद्भुत स्पर्श है । इस 'बुद्धिने अपनी चेतन सत्तामें -- जैसा कि कल्प कार कैनवसपर अपनी कृति उतारता है -- संसारकी योजना बनायी और उसकी रचना की है ।

 

   यहां कलाकारसे क्या मतलब है?

 

यहां श्रीअरविद विश्वके स्रष्टा, सर्वोच्च प्रभुके कार्यकी एक ऐसे कलाकारकी कृतिसे तुलना करते है जो अपनी तूलिकाके महान् स्पर्शसे अपनी चेतन सत्तामें, जैसे कि कैनवसपर, संसारका चित्र खींचता है । और जब एक ''अद्भुत कला-पद्धति'' के तथ्यके कारण वह तूलिकाके दो आघात अध्यारोपित कर देता है तो वह ''घटनाओंका संयोग'' हो जाता है ।

 

    साधारणतया ''संयोग'' शब्दका अर्थ एक अचेतन और निरर्थक अवसर माना जाता है । पर श्रीअरविंद हमें समझाना चाहते है .कि संयोग और अचेतनताका इस तथ्यके साथ कोई संबंध नही है । इसके विपरीत, यह एक ऐसी चेतना और सुरुचिका परिणाम है जो कलाकारोंके पास होती है और यह एक गहन आशयका दिग्दर्शन मी करा सकता है ।

 

१२-१-६०

 

  ये तारीख तबकी है जब ये प्रश्न पूछे गये थे । कभी-कभी माताजी बहुत बादमें बिना तारीखके उत्तर देती थीं ।

 

४०


१५ -- जिसे लोग दृष्टिम्ग्म कहते है वह मन ओर इंद्रियोंमें उस वस्तुकी परछाईं है जो हमारे मानसिक और इद्रियजनित बोधोंसे परे है । अंधविश्वास मनके इन परछाइयोंको गलत समझनेसे पैदा होता है, दृष्टिभ्रम ओर कुछ नहीं है ।

 

 क्या दृष्टिम्रमकी अंतर्दर्शनसे तुलना की जा सकती है?

 

अंतर्दर्शन- उन वस्तुओंका सूक्ष्म इन्दियोंद्वारा प्राप्त बोध है जो एक ऐसे जगत् में सचमुच अपना अस्तित्व रखती है जो ज्ञान प्राप्त करनेवाली इन्द्रिय- के साथ संबंध रखता है ।

 

   उदाहरणार्थ, वैयक्तिक प्राणिक जगत् के साथ मेल खाता हुआ वैश्व प्राणिक जपात् भी है । जब मनुष्य पर्याप्त रूपमें विकसित हों जाता है, तो उसे एक ऐसी व्यक्तिगत प्राणिक सत्ता प्राप्त हों जाती है जिसके पास देखने, सुनने और सूघने आदिके लिये इन्द्रियों होती है । अतएव, जिसने अपनी प्राणिक सत्ताको भली-भांति विकसित कर लिया है वह चेतन रूपसे और यह याद रखते हुए कि उसने क्या देखा. है, अपनी' प्राणिक दृष्टिकी सहायतासे प्राणिक जगत् में देख सकता है । और साथ ही जो कुछ देखा है उसे याद मी रख सकता है । यही अंतर्दर्शन है ।

 

   इसी प्रकार सब सूक्ष्म जगतों, अर्थात् मानसिक, प्राणिक, अधिमानसिक तथा अतिमानसिक जगतों, बल्कि सत्ताके सभी मध्यवर्ती जगतों और स्तरों- के संबंधमें समझना चाहिये । इस प्रकार, तुम प्राणिक, मानसिक, अधि- मानसिक, अतिमानसिक आदि सब प्रकारके अंतर्दर्शन प्राप्त कर सकते हो ।

 

    इसके अतिरिक्त, श्रीअरविंद कहते है कि जिसे दृष्टिम्रम कहा. जाता है वह मन या शारीरिक इन्द्रियोंपर उस वस्तुका प्रतिबिम्ब है जो हमारे मन और सामान्य इन्द्रियोंसे परे है । अतएव यह प्रत्यक्ष अंतर्दर्शन नहीं वरन् एक प्रतिबिम्बित प्रतिमूर्ति है जो साधारणतया न तो समझी जाती है और न जिसकी व्याख्या ही की जा सकती है । अनिश्चितताका यह गुण अवास्तविकताका आभास बर्ता है और सब प्रकारके अंधविश्वासोंका कारण बनता है । इसी कारण ''गंभीर'' प्रकृतिके चपेग या वे जो अपने-आपको गंभीर समझते है इन तथ्योंके महत्व स्वीकार नहीं करते ठो।र इन्हें दृष्टिम्रम कहते हैं । किंतु जो लोग गुह्य विद्याके तथ्योंमें रुचि रखते है उनको अंतर्दृष्टिका योग्यताके अभिव्यक्त होनेसे पहले इसी प्रकारका बोध अकसर होता है । तब वह योग्यता केवल निर्मित हो रही होती है । किंतु तुम्हें इसे गहने अंतर्दर्शनसे मिला नहीं देना चाहिये । क्योंकि मैं फिर कहती' हूं

 

४१


कि ये तथ्य अधिकतर अज्ञानकी प्रायः पूर्ण अवस्थामें उत्पन्न होते है और साथ ही इनके साथ प्रायः बहुत-सी म्गंति जुडी रहती है और इनकी व्याख्या मी बड़े गलत ढंगसे की जाती है । हम यहां उन लोगोंकी बात नहीं कह रहे जो सच्चाईकी अधिक परवाह नहीं करते । जब ऐसे लोग क्यने अनुभवोंकी कहानी सुनाते है तो उनके साथ बहुत-सी बारीकियों और यथार्थ संकेत जोड़ देते है जो वास्तवमें वहां नहीं होते । उनकी ये बातें स्वभावतया ही उन लोगोंके, जो बुद्धिवादी और विचारशील है, अविश्वासको न्यायसंगत ठहराती है ।

 

   अतएव, हम ''अंतर्दर्शन'' शब्द केवल उन्हीं अनुभवोंके लिये सुरक्षित रखते है जो ज्ञान और सच्चाईकी. अवस्थामें प्राप्त होते है । फिर मी, हम ''दृष्टिभ्रम'' और अंतर्दर्शन दोनोंमें जो कुछ देखते हैं उसका संबंध किसी वास्तविक वस्तुसे अवश्य होता है । यद्यपि उसकी प्रतिलिपि कभी- कमी बहुत अधिक विकृत का दी जाती है ।

 

२०-१-६०

 

१६ -- बहुतेरे आधुनिक वाद-विवाद करनेवालोंकी तरह बहु- शब्द-प्रयोगके नीचे विचारका गला मत घोट दो । अपनी खोज- को सूत्रों और विशिष्ट कथनोंके मोहक प्रभावसे सुला मत दो । सदा खोज करते रहो । उन वस्तुओंका कारण ढूंढ जो एक उतावली दृष्टिके लिये केवल संयोग या म्गंति होती है ।

 

   वस्तुओंका कारण कैसे ढूंढा जाय? यदि यह कार्य मनद्वारा किया जाय तो भी क्या 'सत्य'के सामने भ्रांति हां नहीं रहेगी?

 

मनके अनेक स्तर और प्रदेश हैं, भौतिक मनके स्तरसे लेकर, जो सामान्य विचारोंका निम्न प्रदेश है, जो भ्रांति, अज्ञान और झूठसे भरा रहता है, उच्चतर मनके स्तरतक जो सहज ज्ञानके रूपमें अति- मानसिक सत्यकी किरणोंको ग्रहण करता है, अनेक प्रदेश है । इन- दो छोरोंके बीचमें भी अनगिनत मध्यवर्ती स्तर क्रमबद्ध रूपमें आते है जो एक-दूसरेके ऊपर होते है तथा परस्पर एक-दूसरेको प्रभावित करते है । एक निम्न प्रदेशमें व्यावहारिक बुद्धि अर्थात् सामान्य. ज्ञान होता है जिसका मनुष्य. को बहुत गर्व है और जो सामान्य मनके लिये बुद्धिमत्ता- की. अभिव्यक्ति होता है, यद्यपि यह पूर्णतया अज्ञानके क्षेत्रमें कार्य करता

 

४२


ह । व्यावहारिक बुद्धिके इसी प्रदेशमें ''बहु-शब्द-प्रयोग'' आता है जिसकी. श्रीअर्रावंदने चर्चा की है, इसमें वे सब सूक्तियां और विशिष्ट कथन, वे सब गढेनाढाये वाक्य आ जाते है जो मानसिक वातावरणमें एक मस्तिष्क- त दूसरे मस्तिष्कतक दोहते रहते हैं और जिनका प्रत्येक व्यक्ति उस समय प्रयोग करता है, जब वह उस आदमीकी तरह प्रतीत होना चाहता है जो कुछ जानता है या यह मानता है कि वह बुद्धिमान् है ।

 

   इस प्रकारके अतिसाधारण पाव निम्न प्रकारके विचारसे ही हमें श्रीअरविंद सावधान रहनेके लिये कहते है, जब हम एक नये और अ- प्रत्याशित तथ्यकी उपस्थितिमें होते है और उसकी व्याख्या करनेकी चेष्टा करते है । वे बताते है कि हमें सदा किसी तथ्यकी खोज, उस सर्वोच्च बुद्धिके प्रयोगद्वारा, करनी चाहिये जो वस्तुओंके सच्चे कारणको जानने- की तीव्र इच्छा रखती है । सरल और प्रचलित व्याख्याओंसे आसानीसे संतुष्ट न होकर हमें इस खोजको लगातार करते रहना चाहिये, जबतक कि हम अधिक सूक्ष्म' और अधिक सच्चे सत्यको प्राप्त न कर लें । हमें यह भों पता लग जायगा कि प्रत्येक वस्तुके पीछे, उसके भी पीछे जो संयोग और म्गंति प्रतीत होती है, एक चेतन इच्छा-शक्ति मौजूद है जो सर्वोच्च- अंतर्दर्शनका अभिव्यक्त करती है ।

 

 २७-१-६०

 

    १७ -- कोई व्यक्ति यह निर्धारित कर रहा था कि भगवानको 'यह' होना चाहिये, या 'बह' होना चाहिये, नहीं तो बह भगवान् नहीं होगा । पर मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि में केवल यही जान सकता हू कि भगवान् क्या हैं । मेरी समझमें नहीं आता कि में भगवान्से यह कैसे कहूं कि उन्हें क्या होना चाहिये । कारण, हम किस मापसे उनके विषयमें विचार बना सकते हैं? ये विचार वस्तुतः हमारे अहंभावकी पूर्णताएं होते है ।

 

           क्या व्यक्तिका भगवानके साथ तादात्म्य स्थापित हो चुकने- के बाद उह भौतिक मनसे भी जानना संभव है?

 

भगवानके साथ चेतन रूपसे ' तादात्म्य स्थापित हों जानेके बाद समस्त सत्ता, अपने बाह्य भागोंमें - मानसिक, प्राणिक और शारीरिक भागोंमें मी - इस तादात्म्यके परिणामोंसे गुज़रती. है और तब उसमें'

 

४३


इस हदतक परिवर्तन हो जाता है कि शारीरिक रूपमें भी परिवर्तन दृष्टि- गोचर होने लगता है । एक ऐसा प्रभाव दिखायी देने लगता है जो विचारों, भावों, वेदनों, यहांतक कि कार्योंपर भी क्रिया करता है । कभी- कभी सब क्रियाओंमें, भागवत उपस्थिति और उसके कार्यका एक मूर्त्ति अरि स्थायी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, यह सब बाह्य साधनके द्वारा होता है । किंतु यह नहीं कहा जा सकता कि भौतिक मन भगवानको जानता है, क्योंकि मनका अपना जाननेका ढंग भगवानके लिये पराया है, यह मी कहा जा सकता है कि वह बिलकुल विपरीत है । भौतिक मन स्वयं भागवत प्रभाव ग्रहण कर सकता है और उसके द्वारा रूपांतरित भी हों सकता है, किंतु जबतक वह भौतिक मन रहता है वह न व्याख्या कर सकता है, न ही समझ सकता है, गवान्को जानना तो दूर रहा । कारण, भगवन् को जाननेके लिये व्यक्तिको भगवानके साथ एक हो जाना चाहिये और इसके लिये भौतिक मनकों जो कुछ वह है वह बने रहना छोड़ देना चाहिये, दूसरे शब्दोंमें, उसे भौतिक मन नहीं रहना चाहिये।

 

   इस निम्न त्रिविध सत्तामें (मन, प्राण और शरीरमें) भगवान को जाननेकी योग्यता केवल अतिमानसिक रूपांतरके द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है । और यह उस चरम प्राप्तिसे, जिसका अर्थ दिव्य बनना है, जरा ही पहले आती है ।

 

३-२-६०

 

१८ -- इस जगत् में संयोग जैसी कोई वस्तु नहीं है; भ्रांति का विचार स्वयं हीं म्गंति है । अभीतक मानव मनमें ऐसी कोई म्गंति नहीं आयी जो किसी सत्यको छिपाये हुए या विकृत किये हुए न हो ।

 

 ''म्रंतिका विचार स्वयं ही म्गंति है'', इसका क्या अर्थ है ।

 

हम म्रांतिमें ही निवास करते है । इसे कोई भी विचारशील मन अस्वीकार नहीं कर सकता । किंतु कुछ लोगोंके अनुसार, हम जिसे म्गंति देखते और समझते है और जिसमें जीते हैं, उसके पीछे किसी भी चीजका अस्तित्व नहीं है, वहां नास्तिक है, खालीपन है । जब कि दूसरे कहते है : हम जो कुछ देखने या अनुभव करते है, या जिसमें रहते-

 

४४


सहते है वह एक धोखेवाली, भ्रमपूर्ण प्रतीति है और इसके पीछे -- इसके परे और इसके अंदर - एक 'वास्तविकता' है, एक सनातन 'सत्य' है जिसे हम अपनी सामान्य अवस्थामें नहीं देख पाते, पर यदि हम कुछ कष्ट उठाकर आवश्यक पद्धतियोंका अनुसरण करें तो उसे अनुभव कर सकते है।

 

   इस सूत्रमें, ''भ्रांतिके विचार' से श्रीअरविंद इस दार्शनिक सिद्धांतकी ओर निर्देश करते है कि इस स्थूल जगत्का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है, यह केवल एक बाह्य रूप है जो अहंभाव और इंद्रियोंकी. भ्रांतिसे उत्पन्न होता है ओर जब यह म्गंति दूर हों जायगी तो यह जगत् भी उसके साथ-साथ लुप्त हो जायगा ।

 

   इसके विपरीत, श्रीअरविंद इस बातकी पुष्टि करते है कि बाह्य प्रतीतियोंके पीछे, अत्यधिक सम्मतिपूर्ण प्रतीतियोंके पीछे भी एक सत्य, एक चेतन संकल्प विद्यमान है जो विश्वकी अभिव्यक्तिपर शासन करता है । इस अभिव्यक्तिमें प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक घटना, प्रत्येक परिस्थिति उस वस्तु- का परिणाम है जो उसके पहले आयी और उसका कारण है जो उसके बाद आयेगी । संयोग और असंगति, उस मानव चेतनाकी भ्रमपूर्ण प्रतीतियों है जो वस्तुओंके सत्यको देखनेके लिये अत्यधिक आशिक और सीमित है । किंतु यह मूर्त और वास्तविक सत्य समस्त बाह्य प्रतीतियों- और उनकी भक्तिपूर्ण असंगतिके पीछे विद्यमान है ।

 

   और स्वयं श्रीअरविंद कहते है : जगत् सत्य है; केवल उसके विषयमें हमारा ज्ञान मिथ्या है ।

 

१०-२-६०

 

११ -- जब मेरे अंदर विभाजनकारी बुद्धि थी तो में बहुत-सी वस्तुओंसे पीछे हट जाता था । पर जब मैंने इसे आंखोंसे ओझल कर दिया तो मैंने संसारमें कुरूप ओर अनाकर्षक वस्तुओंकी खोज की पर उन्हें न पा सका ।

 

     क्या दुनियामें सचमुच ऐसी कोई चीज नहीं है जो कुरूप और अनाकर्षक ना हों? क्या हमारी तर्क-बुद्धि ही चीजोंको इस ढंगसे देखती है?

 

 श्रीअरविन्द यहां जो कहना चाहते है उसे सच्चे रूपमें समझनेके लिये

 

४५


व्यक्तिको अन्यने अन्दर तर्क-बुद्धिसे ऊपर उठने और अपनी चेतनाको मान- सिक बुद्धिसे अधिक ऊंचे जगत् में स्थापित करनेका अनुभव होना चाहिये । कारण, ऊपरकी चेतनासे तुम यह देख सकते हो कि जो कुछ जगत्में अस्तित्व रखता है सच्चिदानन्द - सत्-चित्-अग्नन्द - की अभिव्यक्ति ?'है, यह पहली बात है । और इसलिये, यदि तुम बाह्य रूपके पीछे, वह चाहे जो मी हों, काफी गहराईमें जाओ तो सच्चिदानन्दको पा सकते हो, जो सर्वोच्च सौन्दर्यका तत्व है । दूसरे, इस अभिव्यक्त जगत् में प्रत्येक वस्तु सापेक्ष है, यहांतक कि कोई भी ऐसा सौन्दर्य नहीं है जो अपनेसे बड़े सौन्दर्यकी तुलनामें पुरुष भ- लगे, और न ही कोई ऐसी कुरूपता है जो अपने-से बहुत बड़ी कुरूपताकी' अपेक्षा सुन्दर न प्रतीत हो ।

 

    जब तुम ऐसा देख और अनुभव कर सको तो तुम तत्काल एक पूर्ण दृष्टिकोणसे इन प्रभावोंकी ओर इनकी क्यास्तविकताकी चरम सापेक्षताको जान लेते हों । फिर भी, जबतक हम तर्क-बुद्धिका' चेतनामें निवास करते हैं, तो यह एक प्रकारसे स्वाभाविक हा होता है कि जो कुछ हमारी पूर्णताकी अभीप्साको, हमारे विकासके मकल्पकी धक्का पहुंचाता है या जिस चीजसे हम ऊपर उठना या उसे वशमें करना चाहते है वह हमें कुरूप ओर अनाकर्षक प्रतीत होती' है, क्योंकि हम एक उच्चतर आदर्शकी रवोजमें लगे है और अधिक ऊपर चढ़ना चाहते है ।

 

   पर फिर मी, यह एक अर्श-ज्ञान ही है जो कि सच्चे ज्ञानसे कोसों दूर है । यह एक ऐसी बुद्धिमत्ता है जो अज्ञान और अचेतनताके बीच बुद्धि- मान् प्रतीत होती है ।

 

    'सत्य'में सब कुछ इससे भिन्न है और भगवान् ही प्रत्येक वस्तुमें चमकते है ।

 

१७-२-६०

 

२० -- भगवान ने मेरी आंखें खोल दी है । कारण, मैंने अ- संस्कृतकी उदात्ता देखी, अनाकर्षकका आकर्षण देखा, अपूर्णकी पूर्णता और कुरूपका सौंदर्य देखा ।

 

यह सूत्र पिछले सूत्रका पूरक और कुछ-कुछ उसीकी व्याख्या। है ।

 

   वे स्पष्ट शब्दोंमें कहते है कि बाह्य प्रतीतियोंके पीछे तुक 'उत्कृष्ट सत्य' है, जो, कहा जा सकता है कि बाह्य विकृतियोंका प्रकाशमान विरोध है । इस प्रकार, जब आन्तरिक आंखें इस दिव्य सत्यके प्रति खुली होती है तो

 

४६


बह इतनी शक्तिशाली रूपमें प्रकट होता है कि उस वस्तुको मिटा देनेमें सफल हों जाता है जो साधारणतया इसे सामान्य दृष्टिसे छुपा देती है ।

 

२४-२-६०

 

     २१ -- ईसाई और वैष्णव क्षमताकी प्रशंसा करते हैं, पर मैं अपने लिये यह पूछता हू : ''मैं किसे क्षमा करूं और क्या क्षमा करूं? ''

 

     जब भगवान्से क्षमा मांगी जाती है, तो क्या वे सदा हमें क्षमा कर देते है?

 

श्रीअरविन्द स्वयं ही हमें भगवानका उत्तर देते है : ''में किसको क्षमा करूं और क्या क्षमा करूं? '' प्रभु यह जानते हैं कि सब कुछ वे स्वयं ही हैं, अतएव, सब कर्म भी उन्हींके है और सब वस्तुएं भी वे स्वयं ही हैं । क्षमा करनेके लिये व्यक्तिको उससे अलग होना चाहिये जिसे वह क्षमा करता है, और जिस वस्तुको क्षमा करना है वह भी उसके अपने द्वारा नहीं बल्कि किसी दूसरेके द्वारा की जानी चाहिये ।

 

     सच पूछो तो क्षमा मांगते वक्त व्यक्ति यह आशा करता है कि जो कार्य उसने किया है उसके बुरे परिणाम नष्ट हो जायं 1 किन्तु यह तभी संभव है जब की हुई भूलके कारण विलीन हों जायं । यदि तुमने अज्ञान- वश कोई अपराध किया है तो अज्ञानका नाश होना चाहिये; यदि तुमने किसी बुरी भावनाके वश कोई दोष किया है तो उस बुरी भावनाका नाश होना चाहिये तथा उसका स्थान सद्भावनाको लेना चाहिये । खाली पश्चात्ताप ही काफी नहीं है, उसके साथ-साथ उन्नति भी होनी चाहिये ।

 

   कारण, विश्व सतत रूपमें विकास कर रहा है; कोई भी वस्तु अचल नहीं है, सब कुछ सदा बदलता रहता है, चाहे वह आगे बढ़ रहा हो या पीछे हट रहा हों । जो वस्तुएं या कर्म हमें पीछेकी ओर कै जाते है वे हमें बुरे प्रतीत हाते है तथा अस्तव्यस्तता और अव्यवस्थाके कारण होते हैं । उनका एकमात्र इलाज है आयोकी ओर मौलिक गति, उन्नति 1 यह नया अनुकूलन ही पीछे हटनेकी क्रियाके परिणामोंको नष्ट कर सकता

 

   अतएव व्यक्तिको भगवान्से एक अस्पष्ट प्रकारकी शाब्दिक क्षमा नहीं मंगनी चाहिये, बल्कि आवश्यक उन्नति करनेके लिये शक्ति मांगनी

 

४७


चाहिये । कारण, केवल आन्तरिक रूपान्तर: ही किये हुए कर्मके परिणामोंको मिटा सकता है ।

 

 २ - ३ -६ ०

 

२२ - भगवान ने एक मानवीय हाथसे मेरे ऊपर आघात किया; तो क्या मैं यह कहूं : ''हे भगवान्! मैं तेरी धृष्टताके लिये तुझे क्षमा करता हू''?

 

२३ -- भगवानने एक प्रहारके द्वारा मेरा मंगल किया । क्या मैं यह कहूं : ''हे सर्वशक्तिमान्, मै' इस अपकार और निष्ठुरताके लिये तुझे क्षमा करता हू पर फिरसे ऐसा न करना''?

 

       ''भगवानने एक मानवीय हाथसे मेरे ऊपर आघात किया'', इसका क्या अर्थ है?

 

 ये दो सूत्र इस बातको दर्शाते है कि भागवत उपस्थिति समस्त वस्तुओं और समस्त सत्ताओंमें विद्यमान है । और ये उस विचारकों मी विकसित करते है जिसकी अभी चर्चा हों चुकी है, अर्थात्, ऐसी कोई भी चीज ओर कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसे क्षमा किया जाय, क्योंकि भगवान् समस्त वस्तुओंके नीर्माता है ।

 

   ''भगवान्ने एक मानवीय हाथसे मेरे ऊपर आघात किया'', इस वाक्यको इसी तरह पढ़ना और समझना चाहिये । यदि तुम केवल बाह्य प्रतीतियों- को ही देखो तो तुम्है लगेगा कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्यको घूंसा मार रहा है । किन्तु जो व्यक्ति 'सत्य'को देखता और जानता है वह यह समझ लेता है कि वह सर्वोच्च प्रभु ही मानवीय हाथके द्वारा आघात करते हैं, और यह आघात उस व्यक्तिका अवश्य ही भला करेगा जिसपर वह पड़ा है । दूसरे शब्दोंमें, वह उसकी चेतनाको उन्नत करेगा, क्योंकि सृष्टि- का अन्तिम लक्ष्य' ही समस्त प्राणियोंको भगवानकी चेतनाके प्रति जगाना है।

 

   एक बार यह समझमें आ जाय तो इन दो सूत्रोंका शेष भाग बड़ी सरलतासे समझमें आ जायगा ।

 

  क्या हम भगवानको उस भलाईके लिये क्षमा कर दें जो उसने हमारे प्रति की है, और साथ ही यह भी कहें कि फिरसे ऐसा न करना?

 

४८


ऐसे नुस्सेकी विरोधात्मक और मूर्खतापूर्ण बात स्पष्ट ही है ।

९-३-६०

 

२४ -- जब मैं किसी दुर्भाग्यपर रोता-पीटता हू और उसे अशुभ कहता हू, अथवा जब मैं ईर्ष्यालु और हताश होता हू तब मैं जानता हू कि मेरे अंदर फिरसे वही सनातन मूर्ख जाग उठा है ।

 

 यह ''दुर्भाग्य '' क्या है और क्यों आता है?

 

जब व्यक्ति किसी परिणामकी आशासे कार्य करता है और यदि परिणाम वह नहीं आता जिसे वह चाहता था तो वह इसे दुर्भाग्य कहता है । साधारणतया ऐसी प्रत्येक घटना जो इच्छाके विपरीत होती है या जिसे शंकाकी दृष्टिसे देखा जाता है सामान्य मनको दुर्भाग्य प्रतीत होती है । यह दुर्भाग्य क्यों आता है? प्रत्येक अवस्थामें कारण भिन्न होता है; बल्कि घटनाके बाद ही, वस्तुओंको समझनेकी आवश्यकता हमें इस बातके कारण खोजनेके प्रेरित करती है कि यह घटना क्यों हुई थी । किन्तु अधिकतर परिस्थिति-सम्बन्धी हमारा ज्ञान अन्ध और म्गन्तिपूर्ण होता है । हम अज्ञानमें ही फैसला दे बैठते है । और फिर बादमें ही, कमी-कभी तो बहुत देरके बाद, हम आवश्यक दूरीपर खड़े होकर परिस्थितियोंकी शृंखला तथा समग्र परिणामको देखते हैं, और तभी वस्तुओंके वास्तविक स्वरूपको भी देखते है । हम देखते है कि जो चीज हमें बुरी लगती थी वह वस्तुत: बड़ी उपयोगी थी और उसने हमारे आवश्यक विकासमें सहायता पहुंचाये थी ।

 

   श्रीअरविन्द उस व्यक्तिकी अवस्थाको ''सनातन मूर्ख'' कहते है जो अज्ञान और कामनामें डूबा हुआ है और जो प्रत्येक वस्तुको अपने संकुचित और ससीम अहंके दृष्टिकोणसे देखता है । वस्तुओंको शुद्ध रूपमें न्ग्मझने और अनुभव करनेके लिये तुम्हारे अन्दर एक वैश्व दृष्टि होनी चाहिये तथा प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक परिस्थितिमें तुम्हें भागवत उपस्थिति और भागवत इच्छाके प्रति सचेतन होना चाहिये ।

 

   तब हम यह जान लेते है कि हमारे साथ जो कुछ होता है वह सदा हमारे भलेके लिये होता है, पर केवल तभी जब हम अपना दृष्टिकोण आध्यात्मिक रखें और समयके साथ खिलते चलें ।

 

१६-३-६०

 

४९


२५ - जब में दूसरोंको दुःख भोगते हुए देखता हू तो अनुभव करता हू कि मैं अभागा हू; परन्तु वह प्रज्ञा, जो मेरी नहीं है, आनेवाले शुभको देखती है और उसका अनुमोदन करती  है ।

 

      यह प्रज्ञा क्या है?

 

यह सर्वोच्च बुद्धिमत्ता है, सर्वोच्च भगवानकी' बुद्धिमता है । यह वर्तमान, भूत और भविष्यको समान रूपमें देख लेती है । यह समस्त कार्यके कारण और समस्त कारणोंके कार्य जानती है । वह सारी परिस्थितियोंके जिस योगफलको  समग्रतामें एक साथ देख लेती है वह उसे प्रकृति- का एक उत्कृष्ट प्रयत्न प्रतीत होता है, जो भगवानको अधिकाधिक व्यक्त करने तथा उसे भागवत पूर्णताकी ओर ऊपर ले चलनेके लिये किया जाता है । यही वह शुभ है जो निकट आ रहा है । इसीकी ओर सब बढ़ रहे हैं, इसीलिये सच्ची बुद्धिमत्ता इसे पसन्द करती है ।

 

   कारण, हमारा संकीर्ण दृष्टिकोण, हमारा अत्यधिक संकुचित ज्ञान और हमारे पथभ्रान्त वेदन ही हमारे लिये उस चीजको जो उत्रतिकी एक संभावना और अवसर है कष्टमें बदल देते है ।

 

    और इसका प्रमाण यह है कि ज्यों ही हम इस बातको समझ लेते है और इसमें सहयोग देते हैं, हमारा कष्ट दूर हो जाता है ।

 

 २३-३-६०

 

२६ -- सर फिलिप सिडनी'ने फांसीके तख्तेकी ओर जाते हुए एक अपराधीको देखकर कहा था, ''वह देखो, भगवानकी कृपासे वंचित सर फिलिप सिखनी जा रहा है ।', पर और भी अधिक ज्ञानकी बात होती यदि उन्होंने कहा होता, ''बह देखो, भगवानकी कृपासे सर फिलिप सिखनी जा रहा है ।',

 

    में इस सूत्रका अर्थ नहीं समझ पाया ।

 

   २इंग्लैडका एक प्रसिद्ध कवि और असाधारण प्रतिभासंपन्न व्यक्ति ।

 

५०


सर फिलिप सिडनी एक राजनेता और कवि थे, किन्तु जीवनमें सफलता प्राप्त करनेपर भी दे स्वभावसे बड़े नष्ट थे । कहा जाता है कि एक अपराधीको फालीके तख्तेकी ओर ले जाये जाते देखकर उन्होंने यह मशहूर वाक्य कहा था जिसे श्रीअरविन्दने अपने सूत्रमें उद्भृत किया है । इसका उल्था हम यों दे सकते है : ''भागवत कृपाके बिना यह बात मेरे साथ मी हो सकती थी ।'' श्रीअरविन्द कहते हैं कि यदि सर फिलिप सिखनी अधिक बुद्धिमान् होते तो कहते : ''भगवानकी कृपासे मेरे साथ मी ऐसा हो सकता था ।', कारण, भागवत कृपा तो सदा सर्वत्र, प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक घटनाके पीछे मौजूद है, चाहे उस वस्तु या घटना- की ओर हमारी प्रतिक्रिया कैसी भी क्यों न हो, चाहे वह हमें भली प्रतीत हो या बुरी, विपत्तिकारक लगे या सुखदायी ।

 

   यदि सर फिलिप सिडनी योगी होते तो उन्हें मानव एकताका अनुभव होता और उन्होंने प्रत्यक्ष रूपमें यह जान लिया होता कि वे स्वयं या उन्हींकी सत्ताका एक भाग फांसीके तख्तेकी ओर ले जाया जा रहा है । साथ ही, वे यह भी जान लेते कि जो कुछ भी होता है वह भगवानकी कृपासे ही होता है ।

 

३०-३-६०

 

२७ -- भगवान् बहुत बड़े और निर्दयी 'उत्पीड़क' हैं, क्योंकि बह प्यार करते हैं । तुम इस भातको नहीं समझते, क्योंकि तुमने न तो कृष्णको देखा है और न तुम उनके साथ खेले हो ।

 

   ''क़ुष्णके साथ खेलने' का क्या अर्थ है? ''भगवान् बहुत बड़े और निर्दयी उत्पीड़क हैं'', इसका क्या अभिप्राय है?

 

कृष्ण अन्तरस्थ भगवान् है, दे एक ऐसी भागवत उपस्थिति है जो प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक वस्तुमें विद्यमान है । वे सर्वोच्च प्रभुके आनन्द और प्रेमका एक सर्वोच्च पक्ष भी है । वे मुखराहटपूर्ण दयालुता और क्रीड़ापूर्ण प्रसन्नताकी मूर्ति है । वे साथ-हीं-साथ खिलाडी, खेल और रवेलके सारे साथी, तीनों है । और चिक यह खेल, परिणामों सहित पूर्ण रूपसे जाना हुआ है, सोचा हुआ, इच्छित, व्यवस्थित तथा अपनी समग्रतामें चेतन रूप- से खेला जाता है इसलिये इसमें रवेलके आनन्दके सिवाय ओर किसी चीजके लिये स्थान ही नहीं हो सकता । अतएव ''कृष्णको देखने' का

 

५१


अर्थ है अन्तरस्थ भगवानको देखना, ''कृष्णसे खेलने' का अर्थ है अन्तरस्थ भगवानके साथ एक होना तथा उनकी चेतनामें भाग लेना । जब तुम इस स्थितिमें पहुंच जाओ तो तत्काल दिव्य क्रियाके आनन्दमें प्रवेश पा सकते हों । जितना पूर्ण तुम्हारा तादात्म्य होगा उतनी ही पूर्ण तुम्हारी अवस्था होगी ।

 

   किन्तु यदि चेतनाका कोई एक कोना सामान्य बोध, सामान्य बुद्धि, सामान्य वेदनको हीं बनाये रखी तो तुम दूसरोंके कष्टको देखोगे, तुम इस क्रीडाको, जो कि इतने कष्टका कारण होतीं है, बहुत निदयतापूर्ण पाओगे और तब व्यक्तिमें कहोगे कि जो भगवान् इस प्रकारकी क्रीडामें आनन्द लेते है वे निश्चय ही भयानक उत्पीड़क होंगे; किन्तु दूसरी ओर, जब तुम भगवानके साथ तादात्म्य प्राप्त कर चूक), तो उस विशाल एवं अद्भुत प्रेमको नहीं भूल सकते जो वे अपनी क्रीडामें घोलते हैं, और तब तुम यह समझ जाते हो कि हमारी दृष्टिकी ससीमता ही हमें ऐसा निर्णय करनेके लिये प्रेरित करती है और यह कि वे एक दयालु उत्पीड़क नही बल्कि महान् और दयालु प्रेम है जो जगत् और मनुष्योंको उनकी प्रगति- शील यात्रामें द्रुततम मार्गोंके द्वारा पूर्णताकी ओर लें जाता है; यद्यपि यह पूर्णता सदा सापेक्ष होती है तथा इसे सदैव पार किया जाता है ।

 

   किन्तु एक दिन ऐसा आयगा जब प्रगति-पथपर आगे चलनेके लिये इस ऊपरी कष्टकी आवश्यकता नहीं रहेगी, जब उन्नति अधिकाधिक सामंजस्य और आनन्दके साथ साधित हो सकेगी ।

 

६-४-६०

 

२८ -- किसीने कहा था कि नेपोलियन एक निरंकुश शासक तथा बहुत बड़े हत्यारे थे; परन्तु मैंने सशस्त्र भगवानको यूरोपभरमें विचरण करते हुए देखा ।

 

    क्या ये सब युद्ध पृथ्वीके विकासके लिये आवश्यक है?

 

मानव विकासकी एक विशेष अवस्थामें युद्ध अनिवार्य है । प्रागैतिहासिक युगमें समूचा जीवन ही युद्ध था और हमारे समयतक भी मानव इतिहास युद्धबंदी एक लंबी कहनी।. है । युद्ध चेतनाकी एक ऐसी अव्यवस्थाका स्वाभाविक परिणाम है जो जीवनके लिये संघर्ष और अहंभावयुक्त उग्रतासे शासित है । और वर्तमान समयमें, मनुष्योंके द्वारा शान्तिके लिये कुछ

 

५२


प्रयत्न किये जानेपर मी, अभीतक हमें कोई चीज यह निश्चयता नहीं दिला सकती है कि अब युद्ध एक अनिवार्य विपत्ति नहीं है । वस्तुतः, चाहे खुले रूपमें हों या न हों, इस समय मी पृथ्वीके कई स्थलोंपर युद्धकी अवस्था नहीं है क्या?

 

   यह भी ठीक है कि पृथ्वीपर जो कुछ होता है वह अनिवार्य रूपसे उसे उन्नतिकी ओर ले जाता है । अतएव युद्ध साहस, सहनशीलता और निर्भीकताके विद्यालय है । ये एक ऐसे भूतकालका नाश करनेमें उपयोगी हो सकते हैं जो अपना समय पूरा होनेपर भी विलीन होकर अपना स्थान नयी वस्तुओंको देनेसे इंकार करता है । युद्ध पृथ्वीको किसी आक्रमण- कारी और विनाशक जातिसे मुक्त करनेका साधन मी हो सकता है ताकि न्याय और सत्यका शासन स्थापित हो सकें । कुरुक्षेत्रके युद्ध इसका उदाहरण है । युद्ध संकटको उपस्थित करके एक अत्यधिक तामसिक चेतनाकी जड़ताको भी झकझोर सकता है तथा सुप्त शक्तियोंको जगा सकता है । और अन्तमें, यह शान्ति ओर युद्धके भेद तथा युद्ध-कालके तथा उसके पीछे होनेवाले भयंकर दुष्परिणामोंके द्वारा मनुष्योंको एक ऐसा प्रभावकारी साधन ढूंढनेका प्रेरित कर सकता है जिसके द्वारा रूपांतरका यह बर्बर और हिंसक रूप अनावश्यक कर दिया जाय ।

 

  कारण, पार्थिव विकासमें जो कुछ अनावश्यक होता है वह स्वयं ही समाप्त हों जाता है ।

 

१३-४-६०

 

   आपने कहा है : ''ये (युद्ध) एक ऐसे भूतकालका नाश करनेमें उपयोगी हों सकते हैं जो अपना समय पूरा होनेपर मी विलीन होकर अपना स्थान नयी वस्तुओंको देनेसे इंकार करता है ।'' अब जब कि अतिमानस पृथ्वीपर अवतरित हो चुका है, क्या जगत् की वर्तमान अवस्थाको बदलनेके लिये युद्धकी आवश्यकता पड़ेगी?

 

सब कुछ राष्ट्रोंकी ग्रहणशीलतापर निर्भर होगा । यदि वे व्यापक रूपसे तथा शीघ्र ही नयी शक्तियोंके प्रभावके प्रति अपने-आपको खोल दें और काफी जल्दी अपनी धारणाओं तथा अपने कार्योंको बदल दें तो युद्ध लट सकता है । किंतु अभी तो यह हर समय संकटके रूपमें ऊपर मडराता रहता है और प्रत्येक भूल, चेतनाकी प्रत्येक अस्पष्टता इस संकटको बढ़ा रही है ।

 

५३


  फिर भी अंतिम विश्लेषण, प्रत्येक वस्तु वस्तुत., भागवत कृपापर ही निर्भर है और हमें भविष्यकी ओर विश्वास और शांतिपूर्वक देखना चाहिये, साथ ही जितनी तेजीसे हो सकें प्रगति करते चलना चाहिये ।

१५-४-६०

 

२१ -- में भूल गया हूं कि पाप क्या है और पुष्य क्या; मैं तो केवल भगवानको, जगत के अन्दर उनकी लीलाको तथा मानवताके अन्दर उनकी इच्छाको ही देख पाता हू ।

 

   यदि सब कुछ भगवानकी इच्छासे होता है तो व्यक्तिकी इच्छाकी क्या उपयोगिता है?

 

विश्वमें और विशेषतया पृथ्वीपर प्रत्येक वस्तु भागवत योजनाका एक अंग है, यह योजना प्रकृतिद्वारा कार्यान्वित की जाती है । इसे चरितार्थ करनेमें प्रत्येक वस्तुकी आवश्यकता पड़ती है । वैयक्तिक इच्छा प्रकृतिके कार्य करनेका एक साधन है जो उसके कार्यके लिये अनिवार्य है । अतएव वैयक्तिक इच्छा एक तरहसे भागवत इच्छाका ही अंग होती है ।

 

    फिर मी इसे ठीक प्रकार समझनेके लिये व्यक्तिको संकल्प शब्दको दिये गये अर्थको मली-माति जान लेना चाहिये ।

 

   संकल्प, जैसा कि उसके बारेमें सोचा जाता है, एक ऐसा विचार है जो अपने-आपको विकसित कर रहा है और जिसके साथ शक्ति - चरितार्थताकी शक्ति - भी जोड़ी जाती है, जिसके साथ कार्यकारिणि प्रेरणा भी होती. है । यह मानव इच्छाकी व्याख्या है । भागवत इच्छा दूसरी चीज है । यह एक दृष्टि है जिसमें उपलब्धिकी क्षमता जुडी होती है । भागवत इच्छा सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् है, यह अदम्य है और तत्काल कार्य करती है ।

 

   मानवीय इच्छा अनिश्चित है, इसमे प्रायः ही उतार-चढ़ाव आते रहते है । विरोधी इच्छाओंके साथ इसका सदा' संघर्ष चलता रहता' है । यह प्रभाव- कारी तमी होती है जब किसी-न-किसी कारणसे प्रकृतिकी इच्छाके अनुकूल हों जो स्वयं भागवत इच्छाका दूसरा रूप है या जो स्वयं भगवान्? अनुकूल होती हैं और यह भागवत कृपा या योगका परिणाम होता है । अतएव कहा जा सकता है कि वैयक्तिक इच्छा एक ऐसा साधन है

 

५४


जिसे भगवान् हमें अपनी. ओर वापिस ले जानेके लिये प्रयुक्त करते है ।

 

२०-४-६०

 

३० - मैंने एक शिशुक कीचडमें लोटते देखा और फिर उसी बच्चेका उसकी मांके नहला देनेपर स्वच्छ और समुज्ज्वल देखा, पर प्रत्येक बार उसकी नितनित पवित्रताको देखकर मैं कांप उठा ।

 

   क्या बड़े होनेपर भी बच्चा इस पवित्रताको बनाये रख सकता है?

 

    सिद्धांत रूपमें यह असंभव बात नहीं है । कुछ लोग ऐसे हो सकते है जो शहरों, समस्याओं और संस्कृतियोंसे दूर जन्म लेते हैं, और दे अपने पार्थिव शरीरके समस्त जीवनकालमें इस सहज पवित्रताको, उस आत्मा- की पवित्रताको जो मनकी क्रियासे आच्छादित नहीं होती, बनाये रखते हैं ।

 

     कारण, यहां श्रीअरविंद जिस पवित्रताकी बात करते हैं वह सहज प्रवृत्तिकी पवित्रता है जो स्वभाववश प्रकृतिकी प्रेरणाकी आज्ञाके अनुसार चलती है । यह न कोई हिसाब करती है, न प्रश्न और न ही कमी यह पूछती है कि यह चीज अच्छी है या बुरी, कोई कार्य अच्छा है या बुरा, यह पुण्य है या पाप, या परिणाम अनुकूल होगा या प्रतिकूल । ये सब विचार तब सामने आते है जब मानसिक अहंभाव प्रकट होकर चेतना- मे ऊंचे आसनपर विराजमान होना शुरू कर देता है और आत्माकी सहज स्वाभाविकताको ढक देता है ।

 

   आधुनिक ''सभ्य'' जीवनमें माता, पिता और शिक्षक, अपनी व्यावहारिक और तर्क-संगत ''अच्छी सलाह'' के द्वारा बहुत जल्दी इस स्वा- भाविकताको दबा देते हैं जिसे वे अचेतना कहते है और उसके स्थानपर एक मानसिक अहंभावकी' स्थापना कर देते है जो अत्यंत छोटा, संकीर्ण एवं ससीम होता है, जो अपनी. ओर ही मुंडा रहता है और म्गंति, पाप और दंडक विचारोंसे या फिर निजी स्वार्थ, लाभ -- और भावनाके विचारोंसे भरा रहता है । इस सबका अनिवार्य परिणाम यह निकलता है कि दबाव, डर और अपना औचित्य सिद्ध करनेकी प्रवृत्तिसे प्राणिक कामनाएं क्या जाती है।

 

   फिर भी, यदि तुम पूर्ण बनना चाहते हो तो यह कहा जा सकता है कि चूकि मनुष्य एक मनोमय प्राणी है उसे अपने विकासक्रममें इस अव-

 

७५


चेतना और सहज पवित्रताका, जो कि पशुकी स्वाभाविक विशुद्धताके समान है, आवश्यक रूपसे त्याग कर देना चाहिये । और फिर मानसिक वक्रता और अशुद्धताके अइग्नवार्य कास्कनेसे होते हुए मनके ऊपर उठना चाहिये और दिव्य चेतनाकी उच्चतर और प्रकाशमान पवित्रतामें प्रवेश करना चाहिये ।

 

 २७-४-६०

 

    ३१ -- जिस चीजको मैं चाहता था कि सत्य हो या समझता था कि सत्य है, वह नहीं होती; इसलिये यह स्पष्ट है कि संसारको परिचालित करनेवाली कोई सर्वज्ञ सत्ता नहीं है बल्कि केवल एक अंधी आकस्मिकता अथवा एक कठोर कार्य- कारण-परंपरा है ।

 

     कुछ व्यक्तियोंके लिये घटनाएं उस बातकी विरोधी होती है जिसे वे चाहते है या जिसे वे अपने लिये अच्छा समझते है । फलस्वरूप प्रायः ही वे निराशा अनुभव करते है । क्या उनके विकासके लिये यह बात आवश्यक है?

 

निराशा कभी भी विकासके लिये आवश्यक नहीं होती, यह सदा. दुर्बलता और तमसका चिह्न होती है । यह प्रायः ही एक विरोधी शक्ति- की उपस्थितिकी द्योतक होती' है, एक ऐसी शक्तिकी जो जान-बूझकर साधनाके विरोधमें काम करती है ।

 

    इसलिये जीवनकी परिस्थितियां चाहे जैसी हों, तुम्हें सदैव निराशा- से दूर रहना चाहिये और फिर मलिन, उदास और हताश रहनेकी यह आदत वस्तुत: परिस्थितियोंपर निर्भर नहीं होती, बल्कि यह प्रकृतिमें विश्वास न होनेसे उत्पन्न होती है । जिस व्यक्तिमें विश्वास होता है, चाहे वह केवल अपने ऊपर ही क्यों न हो, वह सब कठिनाइयोंका, सब परिस्थितियोंका, अत्यधिक विपरीत परिस्थितियोंका भी, विना निरुत्साहित या निराश हुए, सामना कर सकता है । वह अन्ततक मर्दानगीके साय संघर्ष करता रहता है । जिन व्यक्तियोंकी प्रकृतिमें विश्वास नहीं होता उन्हींमें सहनशीलता और साहसका भी अभाव होता है । श्रीअरविन्द हमें बताते हैं कि

 

    मनुष्योंके लिये उनके भौतिक जीवनकी थोडी-बहुत सफलता व्यक्ति और । वैश्व भौतिक प्रकृतिके बीचके थोड़े-बहुत समन्वयपर निर्भर करती है । कुछ

 

५६


लोगोंकी इच्छा-शक्ति सहज भावमें ही प्रकृतिकी इच्छा-शक्तिके अनुरूप होती है और ये लोग जिस कामको अपने हाथमें लेते हैं उसीमें सफल होते है । इसके विपरीत, कुछ ऐसे लोग है जिनकी इच्छा-शक्ति वैश्व प्रकृतिका लग- मग पूरी तरहसे विरोध करती है । ऐसे लोग जो कुछ करना चाहें उसी- मे असफल होते है ।

 

    जहांतक विकासकी आवश्यकताका प्रश्न है, एक ऐसे संसारमे जो विकसित हा रहा है सभी चीज़ें आवश्यक रूपमें विकासके लिये सहायक होती है । किन्तु वैयक्तिक विकास अनेक जीवनों और अनगिनत अनुभवोंमेंसे होता हुआ आगे बढ़ता है । तुम केवल एक जन्म और एक मृत्युके बीचके जीवनके आधारपर मूल्यांकन नहीं कर सकते । समूची दृष्टिसे यदि देखा जाय तो यह निश्चित है कि असफलता और पराजयका जीवन भी आत्मा- के विकासके लिये उतना ही उपयोगी होता है जितना कि सफलता और विजयके जीवनका अनुभव । सब मिलाकर यह तो निश्चित है कि वह एक उदासीन जीवनसे अधिक उपयोगी होता है, उस जीवनसे जो सामान्य मनुष्योंमें देखनेमें आता है जिसमें सफलता और असफष्टता, तुष्टि और उसका भ्रम, दुःख और सुख बारी-बारीसे आते है और परस्पर मिश्रित हो जाते है । ऐसा जीवन व्यक्तिको स्वाभाविक प्रतीत होता है, और उसमें बड़े प्रयलोंकी आवश्यकता नहीं होती ।

 

५'-५-६०

 

३२ -- अनीश्वरवादी बह भगवान् है जो अपने ही साथ आंख- मिचौली खेलता ह; परन्तु ईश्वरवाद क्या उससे भिन्न है? है, संभवतः; क्योंकि उसने भगवानकी छाया देखी है और उसे पकड़ा भी है ।

 

    ''भगवान् अपने ही साथ आंख-मिचौली खेलते है'', इसका क्या अर्थ है?

 

 आंख-मिचौलीके खेलमें एक छुपा जाता है और दूसरा उसे ढूंढता है । इसी प्रकार भगवान् नास्तिकसे छुप जाते है, और वह कहता है : ''भग- वान्? मैं उसे नही देखता मुझे नहीं पता वह कहां है; इसलिये, उसका अस्तित्व ही नहीं है ।', किन्तु नास्तिक यह नहीं जानता कि भगवान् उसके अन्दर मी है और इसलिये भगवान् ही स्वयं अपने अस्तित्वको

 

५७


अस्वीकार कर रहे है । क्या यह एक खेल नहीं है? फिर मी एक ऐसा दिन आयेगा जब वह भगवानके सामने उपस्थित होगा और उसे यह स्वीकार करना पड़ेगा कि भगवानका अस्तित्व है ।

 

   भगवान्में विश्वास करनेवाला अपने-आपको नास्तिकसे बहुत ऊंचा समझता है, किन्तु वह जो कुछ पकडू पाया है वह केवल भगवानकी परछाइं ही है ओर वह उसीसे चिपटा हुआ सोचता है कि यही स्वयं भगवान् है । कारण, यदि उसने सचमुच भगवानको जाना होता तो वह यह मी आन लेता कि भगवान् सब कुछ है और सब वस्तुओंमें है । तब बह अपने-आपको किसी औरसे ऊंचा समझना छोड़ देता ।

 

११-५-६०

 

   ३३ -- ऐ प्रेमिका! आघात कर! यदि तू इस समय मुझपर आघात नहीं करता तो मैं यही समझूंगा कि तू मुझे प्यार नहीं करता ।

 

    मैं इस सूत्रको भली प्रकार समझ नहीं पाया हूं ।

 

   वे सब लोग जो दिव्य पूर्णताके लिये अभीप्सा करते है यह जानते है कि जो आघात भगवान् अपने असीम प्रेम और कृपाके कारण हमें पहुंचाता है वे हमारी उन्नतिके सबसे अधिक निश्चित और द्रुत मार्ग है । उन्है लगता है कि आघात जितना अधिक कठोर होगा भागवत प्रेम उतना ही अधिक होगा ।

 

   इसके विपरीत, सामान्य मनुष्य भगवान्से सदा एक सरबर, अनुकूल और सफल जीवनकी मंग करते है । वैयक्तिक तुष्टिमें ही वे भगवानकी दयालुता का संकेत देखते है और, इसके विपरीत, यदि उन्हें अपने जीवनमें असफलता और दुर्भाग्यका सामना करना पड़े तो वे शिकायत करते है और भगवान्से कहते है : '' तुम मुझसे प्रेम नहीं करते! ''

 

   इस अज्ञानपूर्ण और गंव वृत्तिके विरुद्ध श्रीअरविन्द अपने ' प्रिय 'सें कहते हैं : ' 'आघात कर, कठोर आघात कर, ताकि मेरे प्रति तेरे प्रेमकी तीव्रता मुझे अनुभव हों । ''

 

१९-५ - ६०

 

५८


   ३४ -- ऐ दुर्भाग्य! तु धन्य है; तेरी ही सहायतासे मैंने अपने परम प्रेमिका मुखमंडल देखा है ।

 

   यदि दुर्भाग्यके द्वारा ही व्यक्ति भगवानका मुंह देखता है तो वह फिर दुर्भाग्य नहीं रहेगा । क्या यह ठीक नहीं है?

 

स्पष्ट ही, यह दुर्भाग्य होनेकी जगह आशीर्वाद होगा। । और ठीक यही बात श्रीअरविन्द कहना चाहते हैं ।

 

   जिन घटनाओंकी हम प्रतीक्षा नहीं करते, जिनकी हम आशा या इच्छा नहीं करते, जौ हमारी इच्छाओंके विरुद्ध होती है उन्हें ही हम अज्ञानवश दुर्भाग्य कहते हैं और फिर रेते-धोते हैं । किन्तु यदि हम जरा अधिक बुद्धिमान बनकर इन घटनाओंके गंभीर परिणामोंका निरीक्षण करें तो पता चलेगा कि ये हमें अपने भगवानकी ओर, अपने प्रियकी ओर, शीध ले जाती हैं, जब कि सुखकर और सुगम परिस्थितियां हमें रास्तेपर सीखनेके लिये उत्साहित करती है, जो सर्वके फूल मार्गमें पड़ते है उन्है चुनने के लिये हमें वहीं रोक देती हैं । हम अत्यधिक दुर्बल है और इतने सच्चे नहीं है कि उन्हें पूरे संकल्पके साथ अस्वीकार कर दें ताकि वे हमें आगे बढ़नेसे रोक न सकें ।

 

   यदि व्यक्ति बिना डगमगाये अपनी सफलता और उससे संबंधित सब सुखोंमें स्थिर रहना चाहता है तो उसे काफी मजबूत होनेके साथ-साथ रास्तेपर काफी आगे बढ़ा हुआ मी होना चाहिये । किन्तु जो लोग मजबूत होते हैं, वे सफलताके पीछे नहीं दौड़ते, न उसकी. चाह करते है, वरन् वे उदासीनताके साय इसे स्वीकार करते है । कारण, वे दुख और दुर्माग्यके कोडोंका मूल्य जानते है ।

 

   किंतु सब कुछ देख लेनेपर सच्ची वृत्ति होगी आत्माकी पूर्ण समता, जो हमें सफलता और असफलताको, सौभाग्य और दुर्भाग्यको, प्रसन्नता और अप्रसन्नताको समान रूपसे शांतिपूर्ण आनंदके साथ स्वीकार करनेके योग्य बनाती है । यह वृत्ति इस बातका चिह्न और प्रमाण है कि व्यक्ति अपने लक्ष्यके निकट है । कारण, तब सब चीजों हमारे लिये ऐसे चमत्कार- पूर्ण उपहार बन जाती' है जिन्हें, प्रभु अपनी' असीम हितचिंतक भावमें हमपर बरसाता है ।

२५-५-६०

 

५९


३५ -- मनुष्य अब भी दुःख-दर्दसे आसक्त हैं; जब वे देखते है कि कोई व्यक्ति हर्ष या शोकसे बहुत ऊपर उठ गया है तो बे उसे अभिशाप देते और चिल्लाकर कहते हैं : ''ओ, तू तो जडू-पत्थर है! '' हसी कारण ईसामसीह आज भी यरुसलममें शूलीपर झूल रहे हैं ।

 

३६ - मनुष्य पापसे आसक्त हैं; जब वे देखते हैं कि कोई व्यक्ति पाप या पुण्यसे बहुत परे चला गया है तो वे उसे अभिशाप देते और चिल्लाकर कहते हैं : ''ओ, तू तो सब बन्धन छिन्न करनेवाला है; तू तो दुष्ट और दुराचारी है! '' इसी कारण अभीतक श्रीकृष्ण वृन्दावनमें वास नहीं करते ।

 

 में इन दो सूत्रोंका अर्थ जानना चाहता हू ।

 

   जब ईसा पृथ्वीपर आये तो वे अपने साथ भ्रातृत्व, प्रेम और शांति- का संदेश लाये । उन्हें दुःख सहते हुए सूलीपर प्राण देने पडे, ताकि उनका संदेश सुना जाय । कारण, मनुष्य दुःख और घृणाका पोषण करते है और चाहते है कि उनका भगवान् उनके साथ ही कष्ट पाये । जब ईसा धरती- पर आये तब मी मनुष्य दुःखको चाहते थे और उनकी शिक्षा और उनके बलिदानके बावजूद वे अभीतक उसे ही चाहते है । वे दुःखसे इतने चिपटे हुए है कि उसके प्रतीकस्वरूप ईसा सदा ही सूलीपर टंगे रहते है और लोगोंकी मुक्तिके लिये स्वयं सदा कष्ट पाते रहते है ।

 

   कृष्ण पृथ्वीपर मुक्ति ओर आनंद लानेके लिये आये । वे मनुष्योंको, उन मनुष्योंको जो प्रकृतिके तथा अपनी लालसाओं और दोषोंके दास हैं, यह कहनेके लिये आये कि यदि वे सर्वोच्च प्रभुमें शरण लें तो वे समस्त दासता और समस्त पापोंसे मुक्त हों जायंगे । किंतु दे अन्यने पापों और पुण्योंसे बहुत अधिक चिपटे हुए हैं, (क्योंकि बिना पापके पुण्य भी नहीं रह सकता) वे अपने पापोंसे प्रेम करते हैं और यह सह नहीं सकते कि कोई मुक्त होकर समस्त दोषोंसे ऊपर उठ जाय ।

 

   इसीलिये कृष्ण, यद्यपि बे अमर है, वर्तमान समयमें वृन्दावनमें सशरीर: मौजूद नहीं है ।

 

३-६-६०

 

    ३७ - कुछ लोग कहते हैं कि श्रीकृष्ण कभी हुए ही नहीं,

 

६०


वह तो एक कल्पित व्यक्ति हैं । उनके कहनेका मतलब है कि वह पृथ्वीपर कभी नहीं हुए; क्योंकि वृन्दावन यदि कहीं न रहा होता तो भागवत भी न लिखी जाती ।

 

     वृन्दावन यदि पृथ्वीपर नहीं तो क्या कहीं और है?

 

समूची पृथ्वी अपने अंदरकी सब वस्तुओंसहित, एक प्रकारका घनरूप है, एक ऐसी चीजका घनरूप जिसका अस्तित्व उन जगतोंमें है जिन्हें हमारी स्थूल आंखें नहीं देख पातीं । प्रत्येक अभिव्यक्त वस्तु सूक्ष्मतर लोकमें किसी जगह अपना एक मूल तत्व, एक विचार या सार-तत्व रखती है । यह अभिव्यक्तिकी एक अनिवार्य शर्त्त है । और अभिव्यक्तिका महत्व सदैव अभिव्यक्त वस्तुके स्रोतपर निर्भर रहता है ।

 

    देवताओंके जगत् में एक ऐसे आदर्श और सामंजस्यपूर्ण वृन्दावनका अस्तित्व है जिसका पृथ्वीका वृन्दावन केवल एक विकृत और हास्यजनक रूप है ।

 

    जिन लोगोंका आंतरिक विकास हों चुका है, चाहे वह इंद्रियोंके हो या आत्माका, वे इन सत्योंको जिन्हें एक सामान्य मनुष्य नहीं देख पात। देखते हैं और उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं ।

 

   अतएव, भागवत के लेखक एक हों या अनेक, निश्चय ही एक सुन्दर, अति वास्तविक और सच्चे आंतरिक जगतके साथ संबंध रखते है । इन लेखकोंने जो कुछ वर्णन या अभिव्यक्त किया है वह सभी उन्होंने इसी जगत् मे देखा और अनुभव किया था ।

 

   कृष्ण मनुष्यके शरीरमें मौजूद थे या नहीं, यह एक बड़ी गौण बात है (शायद बिलकुल ऐतिहासिक दृष्टिसे इसका महत्व हों सकता है), क्योंकि कृष्ण एक वस्तिग्वक सत्ता हैं, सजीव और कार्यरत । और उनका प्रभाव पृथ्वीके विकास और रूपांतरमें एक बड़।. भारी तथ्य रहा है ।

 

८- ६-६०

 

३८ -- आश्चर्य! जर्मनोंने ईसाके अस्तित्वका ही खण्डन कर डाला; फिर भी उन्हें फांसीपर चढ़ानेकी बात आज भी सीजरकी मृत्युके कहीं अधिक बड़ी ऐतिहासिक घटना बनी हुई है ।

 

 ईसा चेतनाके किस स्तरपर निवास करते थे?

 

३१


'गीता-प्रबन्ध' नामक पुस्तकमें श्रीअरविन्द तीन अवतारोंकी चर्चा करते है, उनमेंसे एक ईसा है । अवतार पदम प्रभुकी विभूति होता है जो पृथ्वी- पर मानव शरीर धारण करता है । मैंने स्वयं श्रीअरविन्दको यह कहते हुए सुना था कि सा भगवानके प्रेमके एक पक्षकी विभूति थे ।

 

  सीज रकी मृत्युने रोमके और उसपर निर्भर: दूसरे देशोंके इतिहासमें एक निश्चयात्मक परिवर्तन दर्शाना है । इसलिये वह यूरोपके इतिहासमें एक महत्त्वपूर्ण घटना थी ।

 

   किन्तु ईसाकी मृत्यु मानवी सम्यताके विकासमें एक नये चरणका प्रारंभिक बिन्दु रही है । इसी कारण श्रीअरविन्द हमें बताते हैं कि ईसा- की मृत्यु इतिहासमें अधिक अर्थपूर्ण है । दूसरे शब्दोंमें, सीजरकी मृत्युसे इस बातके ऐतिहासिक परिणाम अधिक बड़े है । ईसाका इतिहास, जैसा कि सुनाया जाता है, भगवानके बलिदानका एक मूर्त और नाटकीय प्रतीक है । परम प्रभु, जो सवंप्रकाशवान्, सर्वज्ञानी, सर्वशक्तिमान्, सर्वसुन्दर, सर्वप्रेममय आवरणको मिथ्या तत्वसे मृत्युको ओर सर्व-आनन्दपूर्ण हैं, मानव अज्ञान ओर दुःखके स्थूल धारण करना स्वीकार करते है, केवल इसलिये कि मनुष्य उस निकल आयें जिसमें वै निवास करते हैं और जिसके कारण ही प्राप्त होते है ।

 

  ३१ - कभी-कभी हम ऐसा समक्षने लगते हैं कि केवल मे ही चीजों वास्तवमें मूल्य रखती है जो कभी नहीं हुई; क्योंकि उनके सामने सबसे खण्ड ऐतिहासिक असफलताएं भी प्रायः निस्तेज और प्रभावहीन प्रतीत होती हैं ।

 

   मैं इस सूत्रका अर्थ समझना चाहता हूं ।

 

 श्रीअरविन्दने इतिहासका गहन अध्ययन किया था, वे जानते थे कि जिस सामग्रीसे इसका निर्माण हुआ है वह किस हदतक अनिश्चित होती है । अधिक बार तो प्रलेखोंकी यथार्थतामें ही सन्देह होता है और जो जानकारी ये देते है वह क्षुद्र, अपूर्ण, तुच्छ और प्रायः ही विकृत होती है । सब मिलाकर, आजका प्रामाणिक मानव इतिहास आक्रमणों, युद्दों, क्रान्तियों, नरहत्याओं और उपनिवेशीकरणकी एक लम्बी और कमी न समाप्त होने- वाली कहानी है । यह भी सच है कि इनमेंसे कुछ आक्रमण ओर हत्याएं

 

६२


चाटुकारिताके शब्दों और गुणोंसे विभूषित कर दी गयी है । ये धर्मयुद्धों, पवित्र युद्दों और सभ्यता सिखानेवाले संग्रामोंके नामसे पुकारी जाती रही है, पर यह सब होते हुए भी हैं लोलुपता और प्रतिकारके कर्म ही ।

  इतिहासमें हमें सांस्कृतिक, कलात्मक या दार्शनिक विकासका वर्णन कभीकदास ही मिलता है ।

   इसीलिये श्रीअरविन्द कहते है कि यह सब मिलाकर एक निराशाजनक वस्तु है जिसका कोई गंभीर अर्थ नहीं ।

 

   दूसरी ओर, उन तथ्यों और घटनाओंकी पौराणिक कहानियोंमें, जिनका शायद पृथ्वीपर कमी अस्तित्व नहो रहा, जिन्हें अधिकृत विज्ञानने प्रामाणिक घोषित नहीं किया, उन लोगोंकी कहानियोंमें, जिनके बारेमें शुष्क बुद्धिवाले विद्वान् शंका करते हैं, हमें मनुष्यकी समस्त आशाओं और अमीप्साओंका स्वच्छ रूप देखनेको मिलता है, उन्हींमें चामत्कारिक और वीरतापूर्ण तथा उत्कृष्ट कार्यका स्वाद पाया जाता है । उनमें व्यक्तिको उस सबका वर्णन मिलता है जो वह बनना चाहेगा, या जैसा बननेकी वह चेष्टा कर रहा है ।

 

    मोटे तौरपर यह वही बात है जो श्रीअरविन्द इस सूत्रमें कहना चाहते

 

 २२-६-६०

 

४० -- इतिहासकी पार अत्यन्त महान् घटनाएं है -- 'ट्राय'' नगरका घेरा, ईसाका जन्म ओर उनका सूलीपर चढ़ना, वृन्दावनमें कृष्ण निर्वासन और कुरुक्षेत्रके रणभूमिपर अर्जुनके साथ उनका संवाद । ट्रायके घेरेने हेलासको उत्पल किया, वृन्दावनमें निर्वासनके कारण भक्ति मार्गका उदय हुआ (क्योंकि उससे पहले केवल ध्यान-धारणा और पूजा-अर्चना थी), ईसाने अपने फांसीके तख्तेपरसे यूरोपको मानव बनाया, कुरुक्षेत्रका वार्तालाप अब भी मनुष्यको मुक्ति प्रदान करेगा । फिर भी कहा जाता है कि इन चारोंमेंसे कोई भी घटना कभी घटी ही नहीं ।

 

     यूनानके पुराणोंमें वर्णित प्रियम देशकी राजधानी ।

     यूनान देशको ही प्राचीन कालमें 'हेलास' कहते थे ।

 

६३


     १ -- क्या पुराने समयका ध्यान और पूजा-पाठ हमारे समयके ध्यान और पूजा-पाठके समान था?

     २ - ''कुरुक्षेत्रका वार्तालाप अब भी मनुष्यको मुक्ति प्रदान. करेगा''. इसका क्या अर्थ है?

 

  १ -- पुराने समयमें, जैसा अब मी. होता है, प्रत्येक धर्मके ध्यान और पूजाके अपने विशेष ढंग होते थे । पर सर्वत्र और सदा ध्यान मानसिक क्रिया और एकाग्रताकी एक विशेष पद्धति माना जाता रहा है । केवल उसकी क्रियाओं और छोटी-छोटी बातोंमें भेद होता है । पूजाका अर्थ है वे धार्मिक उत्सव और उपचार जो एक सूक्ष्म और पूर्ण यथार्थताके साथ किसी देवताके सम्मानमें किये जाते हैं ।

 

   यहां श्रीअरविन्द प्राचीन भारतकी वैदिक और वैदांतिक समयकी पूजा ओर ध्यानकी बात कह रहे हैं ।

 

  २ -- कुरूक्षेत्रके वार्तालापसे उनका मतलब भगवद्गीतासे है । श्री- अरविन्दका विचार है कि गीताका सन्देश उस महान् आध्यात्मिक आंदोलनकारी आधार है जिसने मानवजातिको मुक्तिका मार्ग दिखाया है तथा जो मुक्तिकी ओर अर्थात् मिथ्यात्व और अज्ञानसे मुक्ति और सत्यकी ओर ले जायगा।

 

  जबसे गीता प्रकट हुई है तभीसे उसने एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक कार्य किया है । किन्तु उसकी जो नयी' व्याख्या श्रीअरविन्दने की है उसका प्रभाव अश्व बहुत अधिक बढ़ गया और उसने एक निश्चयात्मक रूप धारण कर लिया है ।

 

२९-६-६०

 

४१ -- कहते है कि ईसाकी कहानी जालसाजी है और कृष्ण कवियोंको सृष्टि है । तब तो इस जालसाजीके लिये भगवानको धन्यवाद दो और उन आविष्कर्ताओंके सामने नतमस्तक हो जाओ ।

 

    ईसाके उपदेशोंने मनुष्यके जीवनमें कौन-सा कार्य किया है?

 

ये उपदेश ईसाई धर्मके प्रारंभिक बिन्दु थे, ये संसारमें क्या लाये इसके जाननेके लिये ईसाई धर्मके विकास और उसके जीवनका ऐतिहासिक और

 

६४


मनोवैज्ञानिक हाल देना होगा, साथ ही इसने पृथ्वीपर क्या कार्य किया है यह भी बताना होगा । यह सब लम्बा हा जायगा और यहां प्रासंगिक भी नहीं होगा ।

 

   में केवल इतना ही कह सकती हू कि इन उपदेशोंके लेखकोंने ईसाकी शिक्षाको लोगोंके सामने यथार्थ रूपमें पुनः प्रस्तुत करनेकी. चेष्टा की हैं और इस सन्देशको लोगोंतक पहुंचानेमें उन्हें कुछ हदतक सफलता भी मिली है । यह शान्ति, भ्रातृत्व और प्रेमका सन्देश है ।

 

   किन्तु जो रूप लोगोंने इस सन्देशको दिया है उसके बारेमें चुप रहना ही अधिक अच्छा है ।

 

६-७-६०

 

४२ - यदि भगवान् मेरे लिये नरकमें स्थान निश्चित कर दें तो मैं नहीं जानता कि मुझे स्वर्गके लिये क्यों अभीप्सा करनी चाहिये । भगवान् जानते हैं कि मेरी भलाईके लिये सबसे उत्तम क्या है ।

 

         क्या स्वर्ग और: नरकका अरिततब है?

 

स्वर्ग और नरक एक ही साथ सत्य और मिथ्या दोनों है । उनका अस्गिव है भी और नहीं मी ।

 

    मानव विचार सर्जनकारी है । वह मानसिक और प्राणिक तत्त्वको, बल्कि सूक्ष्म-भौतिक तत्त्वको भी थोड़े-बहुत स्थायी आकार प्रदान करता है । ये अपकार वास्तविककी' अपेक्षा ज्यादा छाया रूप हाते है किन्तु उन लोगोंके लिये जो इनके बारेमें सोचते है और उनके लिये तो ओर भी अधिक जो उनपर विश्वास करते है, इनका अरीत्व इतना मूर्त होता है कि उन्है इनके सच्चे होनेकी क्रान्ति हो जाती है । जिन धर्मोंमें नरक और स्वर्गका या विभिन्न प्रकारके स्वर्गका खास्तत्व माना जाता है उनके अनुयायियोंने लिये ये चीजों बाह्य रूपमें भी अपना अगस्त्य रखती है और अपनी मृत्युके बाद वे थोड़े-बहुत लम्बे समयके लिये वहां जा भी सकते हैं । किन्तु ये केवल मानसिक रचनाएं होती हैं जिन-में स्थायित्व नहीं होता, न नित्य सत्यता ही होती' है ।

 

  मैंने उन स्वर्गों और नरकोंको देखा है जहां लोग मृत्युके बाद जाते हैं और उन्है यह समझाना बड़ा कठिन होता है कि यह सच नहीं है ।

 

६५


एक बार मुझे किसीको यह विश्वास दिलानेमें कि उसका तथाकथित नरक नरक नहीं है और उसे उसमेंसे निकालनेमें एक वर्षसे मी अधिक लग गया था । यहां श्रीअरविन्द जिस नरककी चर्चा करते है वह एक स्थानकी अपेक्षा चेतनाकी एक अवस्था अधिक है । यह एक ऐसी मनो- हू. वैज्ञानिक अवस्था है जिसे व्यक्ति अपने लिये स्वयं उत्पन्न कर लेता है ।

 

   जैसे तुम अपने अन्दर भगवानके साथ एक आनन्दपूर्ण सम्बन्धका स्वर्ग स्थापित कर लेते हो, उसी प्रकार, यदि तुम अपनी प्रकृतिमें आसुरिक प्रवृत्तियोंको वशमें करनेकी सावधानी न बरतों तो अपनी चेतनामें दुःख और विध्वंसका नरक लिये फिरोगे ।

 

   जीवनमें कुछ ऐसे क्षण आते हैं जब तुम्हारे चारों ओरकी सभी वस्तुएं, चाहे वे व्यक्ति हों या परिस्थितियां, इतनी अस्पष्ट, विरोधी और कुरूप हो उठती हैं कि तुम्हारे अन्दर उच्चतर प्राप्तिकी समस्त आशा लुप्त-सी होती प्रतीत होती है, संसार तुम्हारे लिये एक स्थायी घृणा, अचेतन और दुराग्राही अशान तथा निष्ठुर दुर्भावनाकी अन्धकारमयी रात्रिका रूप धारण कर लेता है और इसका कोई इलाज नहीं दिखायी देता । उस समय तुम श्रीअरविन्दके साथ कह सकते हो, ''भगवानने मेरा स्थान नरकमें निश्चित किया है'', और उनके साथ ही तुम्है सब परिस्थितियोंमें, चाहे वे कितनी ही भयंकर क्यों न प्रतीत होते। हों, भगवानके प्रति पूर्ण समर्पणके पूर्ण आनन्दमें निवास करना चाहिये और प्रभुसे सच्चे दिलसे यह कहन।. चाहिये : ''तेरी इच्छा पूर्ण हो ।''

 

१३-७-६०

 

४३ -- यदि भगवान् मुझे स्वर्गकी ओर खींचते हों, तो यदि उनका दूसरा हाथ मुझे नरकमें ही रोक रखनेकी चेष्टा करता हो तो भी, मुझे ऊपर उठनेके लिये संघर्ष करना चाहिये ।

 

   क्या भगवानको यह नहीं पता कि वे हमारे लिये क्या चाहते है? तब वे हमें दो विरोधी' दिशाओंमें क्यों खींचते है ।

 

भगवान् पूरी तरह जानते है कि वे हमारे किये क्या चाहते हैं । वे हम सबको एक पूर्ण मिलनकी. अवस्थामें अपनी ओर लाना चाहते है ।लक्ष्य  सबके लिये एक ही है किन्तु उसतक पहुंचनेके लिये तरीके, ढंग और

 

६६


 क्रियाएं अनगिनत है । पृथ्वीपर जितने प्राणी है उतनी हीं प्रक्रियाएं भी है । और इनमेंसे प्रत्येक उन परम प्रभुकी इच्छाकी यथार्थ अभिव्यक्ति है जो अपनी समग्र दृष्टि और पूर्ण बुद्धिमत्तामें प्रत्येकके लिये वही करते हैं जो उसके लिये आवश्यक होता है ।

 

    अतः, यदि किसीके अन्दर अपनी अभीप्सा और प्रयत्नको तीव्र बनानेके लिये एक आन्तरिक विरोध वा असंगतिकी आवश्यकता होती है तो प्रभु, अपनी असीम कृपाके फलस्वरूप, उस व्यक्तिको ऊपरकी ओर खींचते और उसे अपने-आप ऊपर उठनेकी शक्ति प्रदान करते है, पर साथ ही उसे नीचे भी रखते है ताकि उसके अन्दर एक आवश्यक प्रतिरोध उत्पन्न हो जाय और इस प्रकार वह अपनी अभीप्सा और प्रयत्नको तीव्र बना सकें!

 

  और यदि कोई श्रीअरविन्दके समान यह देख सकें कि इन दो क्रियाओंका एक ही दिव्य स्रोत है तो रोने-धोने और डरनेके स्थानपर वह प्रसन्न होगा और एक प्रकाशयुक्त और दृढ विश्वासको बनाये रखेगा ।

 

१९-७-६०

 

४४ --केवल बे ही विचार सत्य है जिनके विरोधी विचार भी अपने समय और अपने प्रयोगमें सत्य हैं; अकाटच सिद्धांत ही अत्यंत भयंकर प्रकारके असत्य होते है ।

 

     निर्विवाद मत क्यों सबसे अधिक भयंकर होते है?

 

मन निरपेक्ष, असीम और सनातन सत्यके बारेमें नहीं सोच सकता । वह केवल उसीके बारेमें धारणा बना सकता है जो स्थानीय, अस्थायी, खण्डात्मक और ससीम हो ।

 

   इसलिये मानसिक स्तरपर निरपेक्ष सत्य अपने-आपको अनगिनत खण्डात्मक और परस्पर-विरोधी सत्योंमें विभाजित कर देता है जो मूल सत्यकी प्रकृति बनानेका मला या बुरा प्रयत्न करते है ।

 

  यदि इनमेंसे एक तत्व इस समष्टिसे अलग कर दिया जाय और उसे एकमात्र सत्य. मान लिया जाय तो, चाहे वह कितना मी केन्द्रीय या क्यों न हो, वह अवश्य ही असत्यका रूपधारणा कर लेगा । क्योंकि यह समग्र सत्यके शेष भागको अस्वीकार कर देता है ।

 

   ठीक इसी ढंगसे निर्विवाद मत बनाये जाते है और इसीलिये बे अत्यन्त

 

६७


भयंकर प्रकारके असत्य होते है । क्योंकि इनमेंसे प्रत्येक इस बातपर आग्रह करता है कि केवल वही एकमात्र सत्य है, बाकी सब सत्य नहीं हैं । ये सत्य जब अभिव्यक्त होते हैं तो अपनी अनेकविध और पूरक समग्रता- नें उत्तरोत्तर असीम, सनातन और निरपेक्ष सत्यको व्यक्त करते हैं ।

 

२७-८-६०

 

४५ - तर्क -शास्त्र सत्यका सबसे बड़ा शत्रु है, जैसे ध्रमाभिमानी पुण्यका सबसे बड़ा शत्रु है; क्योंकि पहला अपनी निजी भूल-म्गतियोको नहीं देख पाता और दूसरा अपनी निजी अपूर्णताओंको ।

 

       तर्क-शास्त्र और तर्क-बुद्धिका हमारे जीवनमें क्या कार्य है?

 

तुम्हारे प्रश्ननका जो सबसे अच्छा उत्तर मैं दे सकती हू वह 'योग-समन्वय' का निम्न उद्धरण है : ''तर्क-बुद्धि अपनी समस्त पूर्णतामें एक तार्किक क्रिया है जिसकी विशिष्ट शक्ति सबसे पहले निरीक्षण और व्यवस्थाके द्वारा प्राप्य सामग्रीके बारेमें एक सुनिश्चित ज्ञान प्राप्त कर लेती है । उसके बाद वह इसके परिणामस्वरूप प्राप्त होनेवाले ज्ञानके लिये उस सामग्रीपर क्रिया करती है । यह शान उसे चिन्तन शक्तियोंके प्रारंभिक प्रयोगसे प्राप्त होता है तथा उसीके द्वारा सुनिश्चित एवं विस्तृत भी बनता है । अंतमें वह इस बातका निश्चय कर लेती है कि प्राप्त परिणाम ठीक हैं या नहीं, ऐसा वह एक सावधानीसे किये गये औपचारिक कार्यके द्वारा करती है जो अधिक जागरूक, विचारपूर्ण और कठोर रूपसे तार्किक होता है । यह कार्य उन परिणामोंको कसौटीपर कसता है, अस्वीकार करता है या उनकी पुष्टि करता है । ऐसा करते समय वह उन सुरक्षित मान- दंडों और प्रक्रियाओंका प्रयोग करता है जो विचार और अनुभवद्वारा विकसित किये जाते है । अतएव तार्किक बुद्धिका पहला कार्य प्राप्य सामग्रीका शुद्ध रूपमें सावधानी और बारीकीके साथ निरीक्षण करना है ।''

 

   किन्तु इस सूत्रमें श्रीअरविन्द तर्कबुद्धि। नहीं बल्कि उस तर्क-शास्त्र- की बात करते है जो तर्क-बुद्धिका सहायक एवं साधन है ।

 

   तर्क-शास्त्रका कार्य एक विचारसे दूसरे विचारपर ओर एक तथ्यसे उसके परिणामोंपर शुद्ध रीतिसे पहुंचना है । किन्तु इसके अन्दर सत्यको पहचान सकनेकी योग्यता नहीं होती । अतएव, तुम्हारा तर्कशास्त्र

 

६८


निर्विवाद तो हों सकता है, किन्तु यदि तुम्हारा प्रारंभिक बिन्दु गलत हुआ तो तुम्हारा निष्कर्ष भी गलत होगा, चाहे तुम्हारा तर्क बिलकुल यथार्थ क्यों न हो, बल्कि अपनी यथार्थताके कारण ही वह गलत होगा । यही' बात उस धार्मिकताके साथ भी है जो धार्मिक श्रेष्ठताकी ही एक भावना होती है । तुम्हारी. श्रेष्ठता तुम्हें दूसरोंके लिये घृणा सिखाती है । और तुम्हारा यह अभिमान, जो तुम्हें दूसरोंके प्रति घृणासे भर देता है क्योंकि वे तुम्हारी दृष्टिमें तुमसे कम गुणवान हैं, तुम्हारी श्रेष्ठतकि समस्त मूल्यको नष्ट कर देता है ।

 

   इसीलिये श्रीअरविन्द हमें अपने सूत्रमें बताते है कि तर्क-शास्त्र सत्यका उसी प्रकार सबसे बुरा शत्रु है जिस प्रकार धार्मिक श्रेष्ठताकी भावना सदाचारकी सबसे बड़ी शत्रु है ।

 

२४-८-६०

 

४६ -- जब मैं ' अज्ञान' मे, सोया पड़ा था, तो मैं ध्यान कक्षमें पहुंचा जो साधु-संतोंसे भरा था । मुझे उनकी संगी त उबाऊ लगी और एक बंदीगृह ऋ प्रतीत हुआ; जब मैं जगा तो भगवान् मुझे एक बंदीगृहमें ऋएं लें गये और उसे ध्यान-मंदिर और अपने मिलन-स्थलमें बदल दिया ।

 

    क्या श्रीअरविन्द यहां अपने राजनैतिक जीवनके समयके बन्दीगृहके अनुभवकी चर्चा कर रहे है?

 

हां, श्रीअरविन्द यहां अलीपुर जेलकी अपनी अनुभूतिकी' ओर इंगित कर रहे है ।

 

    किन्तु इस सूत्रमें जो बात मनोरंजक है : वह है दो अवस्थाओंका अन्तर । एक ओर स्थूल जेल था, जहां केवल उनका शरीर बन्द था, जब कि उनकी आत्माका, जो सामाजिक प्रथाएं, पक्षपातों तथा समस्त पूर्व धारणाओं एवं सैद्धान्तिक सीमाओंसे मुक्त हों चुकी थी, भगवानके साथ सीधा और चेतन सम्बन्ध और पूर्णयोगका प्रथम ज्ञान मिला था और दूसरी ओर संकुचित नियमोंका मानसिक बन्दीगृह जो जीवनका त्याग करता है, जिसमें साधारणत: वे लोग अपनेको बन्द करते है जो परंपरागत और रूढ़ विचारोंपर आधारित आध्यात्मिक जीवनके प्रति अपने आपको समर्पित करनेके लिये सामान्य जीवनका त्याग कर देते है ।

 

३९


    अतएव, यहां भी सदाकी भांति, श्रीअरविन्द सच्ची स्वतंत्रताके नायक- के रूपमें हमारे सामने उपस्थित है । यह स्वतंत्रता समस्त नियमों और सीमाओंसे परे है, यह सर्वोच्च और सनातन सदरके साथ पूर्ण मिलनकी सर्वांगीण स्वतंत्रता है ।

२४-१०-६०

 

४७ -- जब मैंने एक उबाऊ पुस्तक पूरी-की-पूरी, प्रसन्नतासे पढ़ ली ओर साथ ही उसकी अरोचकताकी समस्त पूर्णताको देख लिया, तब मैं जान गया कि मैंने अपने मनको जीत लिया है ।

 

   अरोचक पुस्तकको प्रसत्रतासहित पढ़ना कैसे संग्ग्व हो सकता है ।

 

यह तब संभव हो सकता है जब प्रसन्नता इस बातपर निर्भर नहीं करती कि तुम क्या कर रहे हों या तुम्हारे साथ क्या बीत रही है, जब प्रसन्नता उस अपरिवर्तनीय आनंदकी सहज बाह्य अभिव्यक्ति होती है जिसे तुम भागवत उपस्थितिके साथ अपने अंदर लिये फिरते हो । तब यह समस्त क्रियाओं और समस्त परिस्थितियोंमें चेतनाकी एक स्थायी अवस्था होती है । और चूंकि अरोचक वस्तुओंमें सबसे अधिक अरोचक वस्तु अरोचक पुस्तक होती है, श्रीअरविंद यहां मनकी विजय और उसके रूपांतरका अकाटच प्रमाण देनेके लिये इसका दृष्टांत देते है ।

 

१०-११-६०

 

४८ -- मैं जान गया कि मैंने मनको जीत लिया जब मेरे मित्रने घृणित वस्तुके सौंदर्यकी प्रशंसा की । पर मैंने यह भी पूर्ण- तया अनुभव किया कि क्यों दूसरे लोग पीछे हट गये या उन्होंने घृणा की ।

 

 ''कुरूप वस्तुके सौन्दर्य' का क्या अर्थ है?

 

७०


यह वही उपलब्धि है जो विभिन्न दृष्टिकोणोंसे उपस्थित की गयी है और विभिन्न अनुभवोंदुरा व्यक्त की गयी है । उपलब्धि यह है कि प्रत्येक वस्तु सर्वोच्च, सनातन और अश्वा सत्ताकी अभिव्यक्ति है, वह अपनी समग्र पूर्णता और पूर्ण वास्तविकताकी दृष्टिसे अपरिवर्तनीय है । इसी कारण, अपने मन ओर उसके अश्वानमय एवं मिथ्या-बोधपर विजय प्राप्त करके हम प्रत्येक वस्तुके द्वारा उस सर्वोच्च सत्यके संपर्कमें आ सकते है जो एक साथ सर्वोच्च सौन्दर्य और सर्वोच्च प्रेम भी है तथा जो सुन्दर और कुरूप वस्तुओंकी, शुभ और अशुभकी हमारी समस्त मानसिक और प्राणिक धारणाओंसे परेकी चीज है ।

 

   जब हम सर्वोच्च सत्य, सौन्दर्य और प्रेमका नाम लेते है, तो हमें इसे कोई दूसरा अर्थ देना चाहिये, वह अर्थ नहीं जो इन्हें हमारी बुद्धि देती है । इस तथ्यपर बल देनेके लिये ही श्रीअरविंद विरोधाभासी रूप- मे लिखते है : ''कुरूप वस्तुओंका सौन्दर्य' ।''

 

१४- ११-६०

 

         यह दूसरा अर्थ क्या है?

 

मेरा मतलब यह था कि हम बौद्धिक रूपसे भगवानके विषयमें धारणा नहीं बना सकते । केवल जब हम आध्यात्मिक जगत्में प्रवेश करनेके लिये मानसिक जगतसे निकलते है तथा वस्तुओंके बारेमें सोचने मात्रिके स्थानपर उन्हें, जीते है, वह बन जाते है, तभी हम उन्है, सच्चे -रूपमें समझ सकते है । साथ ही, जब हम अपनी अनुभूतिको व्यक्त करना चाहते है, तो हमारे पास वही शब्द होते हैं जो हमारी मानसिक अनुभूतियोको व्यक्त करते है । और हमारे सब प्रयलोंके होते हुए भी ये शब्द उस बातको जिसे हम करना चाहते है अनूदित करनेमे असमर्थ रहते है ।

 

    .इसीलिये श्रीअर्रावंद मनको प्रचलित विचारोंकी लीकसे निकालनेके लिये तथा, जो कुछ कहा जाता है उसकी प्रत्यक्ष दीखनेवाली मूर्खताके द्वारा, अनुभव और दृष्टिमें आयी हुई वस्तुके प्रकाशकी ओर इंगित करनेके लिये प्रायः ही. विरोवाभामोका प्रयोग करते है !

 

२६-१ १- ६०

 

      ४९ -- सौंदर्य और शुभके भगवानको असुन्दर और अशुभमें

 

७१


  अनुभव और प्रेम करना और फिर भी अतिशय प्रेमके कारण उसे उस असुन्दरता और अशुभसे छुड़ाना की कामना करना, यह वस्ति वक पुष्य और नैतिकता है ।

 

    जो अशुभ और असौंदर्य सर्वत्र देखनेमें आते है उन्हें दूर करनेके कार्यमें कैसे सहयोग दिया जाय? प्रेमके द्वारा? प्रेम- की शक्ति क्या है? वैयक्तिक चेतनाका तत्व शेष मनुष्य जातिपर कैसे कार्य कर सकता है?'

 

अशुभ और असुन्दरको दूर करनेमें कैसे सहयोग दिया जाय?.. यह कहा सकता है की सहयोग या कम एक स्तरपरंपराका ह ह; एक अभावात्मक सहयोग और दूसरा भावात्मक सहयोग ।

 

   प्रारंभमें, एक ऐसा ढंग होता है जिसे अभावात्मक कहा जा सकता है । यह तरीका बौद्ध धर्म और उससे मिलते-जुलते दूसरे धर्मोने किया, अर्थात्, ऐसी वस्तुओंको न देखे । सबसे पहले व्यक्ति विशुद्धता और सुन्दरताकी अवस्थामें ही काफी हदतक रहे ताकि वह कुरूप और बुरी बातको देख ही न सकें -- यह कुछ ऐसे हुआ कि असुन्दर वस्तु तुम्हारा स्पर्श ही नहीं करती, क्योंकि तुम्हारे अंदर उसका अस्तित्व ही नहीं है।

 

   यह अभावात्मक प्रणालीकी पूर्णता है । पर यह बिलकुल प्रारंभिक है, अर्यात्, बुरी वस्तुको कमी न देखना, दूसरोंकी बुरी बातकी चर्चा कमी न करना, निरीक्षण, आलोचना और बुरे तथ्योंपर आग्रह कर स्पदनोंको स्थायी नहीं बनाना । बुद्धने यही सिखाया था : प्रत्येक बार जब तुम अशुभकी चर्चा करते हों तो तुम उसे फैलानेमें सहायता देते हो ।

 

   यह समस्याके एक छोरपर है ।

 

  किंतु यह एक सामान्य. नियम होना चाहिये । जो लोग आलोचना करते है उनके पास इसका उत्तर मी है । वे कहते है - ' 'यदि तुम अशुभ- को नहीं' देखोगे तो तुम उसका इलाज मी नहीं कर सकोगे । यदि तुम किसीको उसका कुरूपतापर ही छोड़ दोगे तो वह इससे कभी बाहर नहीं निकलेगी । '' (यह बात पूरी-पूरी' ठीक नहीं है, पर वे अपने कार्यका

 

   श्रीमाताजीने इस प्रश्ननका मौखिक उत्तर दिया था । हम यह पूरी बातचीत वैसी' ही दे रहे है जैसी कि यह टेपरिकार्डपर रिकार्ड की गयी थी ।

 

७२


 औचित्य इसी प्रकार सिद्ध करते है) । अतएव, श्रीअरविंद इस सूत्रमें उन आक्षेपोंका पहलेसे ही उत्तर दे रहे है : तुम अशुमको नहीं देखते इसका कारण अज्ञान, अचेतना या उदासीनता नहीं है । तुम उसे भली प्रकार देख सकते हो बल्कि अनुभव मी कर सकते हो किंतु तुम उसे अपने ध्यानकी शक्ति और चेतनाका आश्रय देकर उसके विस्तारमें सहयोग देना अस्वीकार करते हों । और इसके लिये तुम्है स्वयं इस बोध और भावनासे ऊपर उठना चाहिये । तुम्हें अशुभ या कुरूपताको देख अवश्य सकना चाहिये, पर उसे देखनेमें न तो तुम्है पीड़ा होनी चाहिये, न क्षोभ और दुःख । तुम उसे एक ऊंचाईसे देखो, जहां इन चीजोंका अस्तित्व ही नहीं होता, किंतु तुम्है उसका चेतन बोध होता है, तुम उससे प्रभावित नहीं होते, उससे स्वतंत्र रहते हो । यह पहला पग है ।

 

   दूसरा पग है समस्त वस्तुओंके पीछे स्थित उस सर्वोच्च शुभ और सर्वोच्च सौन्दर्यके प्रति वास्तविक रूपमें सचेतन रहना जो सब वस्तुओंके पीछे है, उन्हें सहारा देता है, और उनके अस्तित्वको अनुमति देता है । जब तुम 'उसको देख लेते हो तो तुम इस मुखौटे और विकृतिके पीछे भी देख सकोगे । यह कुरूपता, यह दुष्टता या यह अशुभ भी एक ऐसी चीजका छद्यवेश है जो मूल रूपमें सुन्दर -मा शुभ है, ज्योतिर्मय और पवित्र है ।

 

  इसके बाद ही सच्चा सहयोग आत! है । कारण, जब तुम्है यह अंतर्दृष्टि, यह बोध प्राप्त हो, जब तुम इसी चेतनामें रहने लगो, तो यह चेतना तुम्हें उसे पृथ्वीपर, अभिव्यक्तिमें खींच लानेकी तथा उस वस्तुके संपर्कमें लानेकी शक्ति देती है जो .इस समय उसकी. एक विकृति- और छद्यवेश है । यह कार्य ऐसे ढंगसे होता है कि विकृति ओर छद्यवेश धीरे-धीरे पीछे स्थित सत्यके प्रभावसे परिवर्तित हों जायंगे ।

 

   अब हम सहयोगके सोपानके शिखरपर है ।

 

   इस प्रकार, इस व्याख्यामें हस्तक्षेप करनेके लिये प्रेमके तत्त्वको लानेकी आवश्यकता नहीं है । किन्तु यदि तुम उस शक्ति या सामर्थ्यके स्वभाव- का जानना या समझना चाहते हों, जो इस रूपान्तरको अनुमति देती है या संपन्न करती है (विशेषकर अ-शुभके विषयमें किन्तु कुछ हदतक कुरूपता- के विषयमें भी), तो तुम देखोगे कि प्रेम सबसे अधिक बलशाली. और समग्र शक्ति हैं - समग्र इस अर्थमें कि यह सब अवस्थाओंमें प्रयुक्त की जाती है । यह पवित्रीकरणके।' शक्तिसे मी अधिक बलशाली है जो गलत इच्छाको समाप्त कर देती है और किसी-न-किसी प्रकार विरोधी शक्तियों- को अपने वशमे कर लेती है, पर रूपांन्तरकी सीधी शक्ति उसमें नहीं

 

७३


होती । पवित्रीकरणकी शक्ति पहले नष्ट करती हैं ताकि पीछे रूपान्तर हों सके । वह एक आकारको नष्ट करती है ताकि उससे अधिक अच्छा आकार बना सकें, जब कि प्रेमको रूपांन्तरके लिये किसी चीजको नष्ट फुरनेकी जरूरत नहीं पड़ती । उसके अन्दर रूपांन्तरकी सीधी शक्ति होती है । प्रेम एक अग्निशिखाके समान है जो कठोर वस्तुको लचकदार बना देती है । और फिर इस लचकदार वस्तुको भी एक प्रकारके पवित्र वाष्प बदल देती है - यह वस्तुको नष्ट नहीं करती, उसे रूपान्तरित करती है ।

 

   अपने साररूपमें और स्रोतमें प्रेम एक ज्वाला है, एक सफेद ज्वाला, जो सब बाधाओंको जीत लेती है । तुम स्वयं इस सम्बन्धमें प्रयोग कर सकते हो । तुम्हारी सत्तामें कोई मी कठिनाई क्यों न हो, एकत्रित हुई भूलों, अयोग्यताओं तथा अज्ञान ओर दुर्मावनाओंका कितना मी बोझ क्यों न हो, इस पवित्र, साररूप सर्वोच्च प्रेमका एक क्षण भी मानों इन सबको एक सर्वसमर्थ ज्योतिमें विलीन कर देता है । इसका एक क्षण और संपूर्ण अतीत समाप्त हो जाता है, यदि तुम इसके सारको क्षण भरके लिये भी छू लो तो सारा बोझ हट जाता है ।

 

   इस बातको समझना बड़ा सरल है कि जिस व्यक्तिको यह अनुभव प्राप्त है वह इसे फैला सकता है, दूसरोंपर कार्य कर सकता है, क्योंकि अनुभव प्राप्त करनेके लिये तुम्है एकमेवका, समस्त अभिव्यक्तिके सर्वोच्च रूपका, संसारमें जो कुछ भी है उस सबके मूल सार-तत्त्व तथा उसके स्रोत और सत्यका स्पर्श करना होगा । और तुम एकताके क्षेत्रमें तत्काल प्रवेश कर जाओगे - तब व्यक्लियोमें पृथक्त्वकी कोई भावना नहीं रहती । वह केवल एक ही स्पन्दन होता' है जो बाह्य रूपमें अनिश्चित कालतक दुहराया जा सकता है । '

 

 'बादमें किसीने श्रीमाताजीसे पूछा : ''क्या केवल एक ही स्पन्दन होता है जो अनिश्चित कालतक दुहराया जा सकता है या दुहराया जाता है?'' माताजीने उत्तर दिया : ''मेरा मतलब एक साथ ही बहुत-सी चीजोंसे था । यह स्पन्दन सर्वत्र अचल-स्थिर है । किन्तु जब कोई इसे चेतन रूपमें चरितार्थ कर लेता है तो उसमें इसे सर्वत्र सक्रिय बना देनेकी शक्ति मी होती है, वह इसे चाहे जिधर मोड सकता है । दूसरे शब्दोंमें तुम किसी चीजको उसके निश्चित स्थानसे ''हटाते'' नहीं, किन्तु चेतना जिधर मोड) जाय, उधर ही उसका दबाव इसे सक्रिय बना देता है ।''

 

७४


   यदि तुम काकी ऊंचे उठ सको तो तुम समस्त वस्तुओंके हृदयमें पहुंच जाते हो, और जो कुछ इस हृदयमें अभिव्यक्त होता है वह सब वस्तुओंमें मी व्यक्त हो सकता है । यही वह महान् रहस्य है, ब्यक्तिके रूपमें भगवानके अवतरणका रहस्य है । कारण, साधारणतया यह होता है कि जो कुछ केन्द्रमें अभिव्यक्त होता है वह बाह्य रूपमें तभी उपलब्ध किया जाता है जब वैयक्तिक रूपमें संकल्प-शक्ति जाग उठती है या प्रत्युत्तर देती है । उधर, यदि केन्द्रीय संकल्प एक व्यक्तिमें सतत ओर स्थायी रूपमें प्रकट होता है तो यह व्यक्ति इस संकल्पमें और दूसरे व्यक्तियोंमें मध्यस्थका काम कर सकता है और उनके लिये भी. संकल्प कर सकत-। है । यह व्यक्ति जो कुछ देखता है और अपनी चेतनामें सर्वोच्च संकल्पको समर्पित करता है वह सब इस प्रकार विस्तारित हो जाता है मानों वह वस्तु प्रत्येक व्यक्तिसे आयी हो । और यदि वैयक्तिक तत्त्वोंका किसी-न-किस कारणसे उस प्रतिनिधि सत्ताके साथ थोड़ा-बहुत चेतन या ऐच्छिक संपर्क हो तो उनका संपर्क प्रतिनिधि स्तरका सार्थकता और योग्यताको बढ़ा देगा । इस प्रकार जड़-पदार्थमें सर्वोच्च कर्म अधिक मूर्त और स्थायी रूपमें सक्रिय हो सकता है । यही चेतनाके अवरोहणका कारण है -- इसे ''ध्रुवीकृत''  चेतना मी कह सकते है, क्योंकि यह पृथ्वीपर सदा किसी निश्चित उद्देश्य और एक विशेष प्राप्ति और कार्यके लिये आती है - यह कार्य अवतारके सामने नियत और स्थिर रूपमें उपस्थित होता है, ऐसे कार्य पृथ्वीपर सर्वोच्च अवतारोंके महान् पग होते है ।

 

  और जब सर्वोच्च प्रेमकी अभिव्यक्तिका, उसके स्फटिकसम ओर केन्द्री भूत, अवरोहणका दिन आयेगा, तो वह सचमुच रूपान्तरका क्षण होगा । क्योंकि, तब कोई चीज उसका अवरोध नहीं कर सकेगी ।

 

   पर चूंकि प्रेम सर्वसमर्थ है, अतः पृथ्वीपर कुछ ग्रहणशीलता अवश्य तैयार की जानी चाहिये ताकि परिणाम ध्वंसकारी न हों । श्रीअरविन्द- ने अपने एक पत्रमें इस बातकी व्याख्या की है । उनसे किसीने पूछा : ''यह वस्तु एकदम ही क्यों नहीं आती? '' उन्होंने कुछ इस प्रकारका जवाब दिया. यदि भागवत प्रेम अपने सतत्वमें पृथ्वीपर अभिव्यक्त हों जाय तो यह बमके गोलेके समान होगा । कारण पृथ्वी इतनी नमनीय और ग्रहणशील नहीं है कि इस प्रेमकी मात्राके अनुसार अपने-आपको विस्तृत कर सके । पृथ्वीको अपने-आपको केवल खोलना ही नहीं, बल्कि विस्तृत भी करना है, अपने-आपको नमनीय मी बनाना है - जड़-पदार्थ अभीतक बड़ा कठोर है । भौतिक चेतनाका तत्व भी ऐसा ही है ।

 

७५


अत्यधिक जड़-पदार्थ ही नहीं वरन् भौतिक चेतनाका तत्व मी बहुत अधिक कठोर है ।

 

 जनवरी ६१

 

 ५ -- पापीसे धृणा करना सबसे बड़ा पाप है, क्योंकि यह भगवान्से घृणा करना है, फिर भी जो ऐसा पाप करता है वह अपने श्रेष्ठ पुष्यमें गौरव मानता है ।

 

जब व्यक्ति चेतनाकी एक विशेष अवस्थामें प्रवेश करता है, तो देखता है कि वह सब कुछ कर सकता है और, अन्तमें ऐसा कोई भी. ''पाप'' नहीं होता जो संभालता रूपमें हमारे अन्दर मौजूद न हों । क्या यह धारणा ठीक है? फिर मी व्यक्ति कुछ वस्तुओंके प्रति विद्रोह करता है और उनसे घृणा करता है; उसके अन्दर कही-न-कहीं एक बिन्दु ऐसा अव३य होता.। है जिसे वह स्वीकार नहीं करता । ऐसा क्यों? 'बुराई' के सामने एक सच्ची वृत्ति, एक प्रभावशाली वृत्ति, क्या है ।

ऐसा कोई पाप नहीं जो हमारे अन्दर न चले... ।

 

   यह अनुभव तब होता है जब किसी कारणसे (यह व्यक्ति-विशेषपर निर्भर है) व्यक्ति अपने-आपको वैश्व चेतनाके संपर्कमें लाता है (उसके असीम सार-तत्वमें नहीं, बल्कि स्थूल जगतके किसी भी सिरपर) ! एक आणविक चेतना होती है, है न-, एक निरी भौतिक होती है और इससे भी अधिक एक सामान्य मनोवैज्ञानिक चेतना होती है । जब तुम अन्तर्मुख हाकर, अहंसे पीछे हटकर चेतनाके इस क्षेत्रके संपर्कमें आते हों, तो इसे पार्थिव मनोवैज्ञानिक या मानव-समूहकी' चेतना कह सकते है (इसमें एक भेद है. ''मानव-समूह' की चेतनाका क्षेत्र छोटा है, जब कि ''पार्थिव चेतना' में पशुओंके ही नहीं, वनस्पतिकी भी क्रियाएं आ जाती है; किन्तु वर्तमान स्थितिमें, चूंकि अपराध, पाप और बुराईकी नैतिक धारणा केवल मानव चेतनाकी वस्तु है, हम इसे केवल सामूहिक मानव मनोवैज्ञानिक चेतना कह सकते है), जब तुम इस चेतनाके संपर्कमें आते हो तो स्वभावतया, यह अनुभव करते हों, देखते और जानते हों कि इसी तादात्म्यसे तुम कोई-सी भी, कही भी मानवी क्रिया कर सकते हों । कुछ

 

७६


हदतक यह सत्यकी चेतना है - यह अहंभावयुक्त भावना कि कौन-सी वस्तु तुम्हारी है, कौन-सी नहीं, तुम क्या कर सकते हों, क्या नहीं, उस समय विलीन हों जाती है । और तुम्है पता लग जाता है कि मानवी चेतना अपने मूल रूपमें इस ढंगसे बनी है कि कोई भी मनुष्य कोई भी काम कर सकता है । और जब तुम सत्यकी चेतनामें होते हो, तो उसके साथ ही तुम्हारे अन्दर यह धारणा भी होती है कि विचार-विवेचन, अरुचिया या अस्वीकृति-यां मूर्खतापूर्ण बातें हैं । वहां सब कुछ संभाव्यता- रूपमें होता है । और यदि शक्तिकी कुछ तरंगें ( जिनका सामान्यत या तुम अनुसरण नहीं कर सकते; तुम उन्हें, आते-जाते अवश्य देखते हो किन्तु उनके मूल स्रोत और उनकी दिशाका तुम्हें, साधारणतया ज्ञान नहीं होता), यदि इसमेंसे कोई भी तरंग तुम्हारे अंदर प्रवेश कर जाय तो वह तुमसे कोई मी काम करा सकती है ।

 

   यदि तुम सदा चेतनाकी इस अवस्थामें रहो औ र कुछ समय बाद यदि अपने अन्दर अग्निकी लोकों, पवित्रीकरण और उन्नतिकी ज्वालाको जाये रखो तो तुम इन शक्तियोंको अपने अन्दर सक्रिय रूप धारण करने तथा अपने-आपको स्थूल रूपमें अभिव्यक्त करनेसे रोक सकोगे, इतना ही नहीं, स्वयं गतिके स्वभावपर कार्य करके उसका रूपांतर मी कर सकोगे । किंतु यह मानी हुई बात है कि जबतक तुम एक उच्च कोटिकी उपलब्धि नहीं प्राप्त कर लेते, तबतक, तुम्हारे लिये चेतनाकी इस अवस्थाको अधिक समयतक बनाये रखना लगभग असंभव होगा । प्रायः तत्काल ही तुम एक स्थूल पृथक् सत्ताकी अहंभावयुक्त चेतनामें जा गिरते हो; और तब ये, सब कठिनाइयां वापिस आ जाती हैं : घृणा, किन्हीं विशेष वस्तुओंके प्रति विद्रोह, इनके दुरा उत्पत्र भय, आदि ।

 

    यह संभव है ( बल्कि निश्चित है) कि जबतक तुम स्वयं पूर्णतया रूपांतरित नहीं हो जाते, घृणा और विद्रोहकी ये क्रियाएं आवश्यक है, ताकि तुम अपने अंदर द्वार बंद करनेके लिये जो करना चाहिये वह करो - कारण, आखिर समस्या तो यही है कि उन्हें अपने-आपको व्यक्त न करने दिया जाय ।

 

    एक और सूत्रमें श्रीअरविन्दने कहा है (मुझे ठीक शब्द इस समय याद नहीं है), कि पाप बस एक ऐसी चीज है जो अपने स्थानपर नहीं है । इस सतत 'अमिव्यक्ति'मे कोई भी वस्तु अपने-आपको दुबारा उत्पन्न नहीं करती और ऐसी वस्तुएं है जो अतीतमें विलीन हों जाती है । जिस समय इन वस्तुओंका विलय आवश्यक हो जाता है तब ये हमारी चेतनाके लिये बहुत सीमित, बुरी एवं अरुचिकर हो उठती है । और हम इनके प्रति विद्रोह

 

७७


करते हैं, क्योंकि इनका जीवनकाल समाप्त हो चुकता है । किंतु यदि हम इसे एक समग्र दृष्टिकोणसे देखते, यदि हम अपने अंदर भूत, वर्तमान ओर भविष्य को एक साथ रख सकते (जैसा कि कहीं ऊपर होता है) र हम इन वस्तुओंकी सापेक्षताको देख सकते । विशेषतया वृद्धिशील विकासकी 'शक्ति' ही हमारे अंदर अस्वीकृतिके संकल्पको पैदा करती है । ओर जहां ये अपने स्थानपर होती है वहां इन्हें पूर्णतया सहन भी किया जाता है । बात केवल इतनी ही है कि जबतक तुममें एक समग्र दृष्टि न हो तबतक इस अनुभूति- की प्राप्ति त्ठगभग असंभव है और यह दृष्टि केवल परम प्रभुमें होती है! अतएव, सबसे पहले तुम्हें परम प्रभुके साथ तादात्म्य प्राप्त कर लेना चाहिये । इसके बाद ही, इस तादात्म्यके साथ तुम एक पर्याप्त रूपमें बाह्य चेतनाका। ओर वापिस लौटकर वस्तुओंके सच्चे रूपकों देख सकते हों । किंतु सिद्धांत यही है और जितनी मात्रामें तुम इसे चरितार्थ कर सकोगे उतनी मात्रामें तुम चेतनाकी एक ऐसी अवस्थापर पहुंच जाओगे जिसमे तुम एक समग्र विश्वाससे उत्पन्न मुस्कानके साथ यह देखेगी कि सब कुछ वैसा है जैसा होना चाहिये ।

 

  स्वभावतया, जो लोग अधिक गहराईसे नहीं सोचते, वे कहेंगे : ''ठीक है, पर यदि हम देखें कि सब वस्तुए वैसी हीं हैं ''जैसी होनी चाहिये'', तो कोई मी वस्तु गति नहीं करेगी । '' पर नहीं! तुम वस्तुओंकी गतिको नहीं रोक सकते! निमिषमात्रके लिये मी वे अपनी गति बंद नहीं करतीं! यह एक सतत और पूर्ण रूपांतर है, एक ऐसी क्रिया है जो कमी बंद नहीं होती. । क्योंकि इस प्रकारसे अनुभव करना हमारे लिये कठिन है, हम यह कल्पना कर सकते है कि यदि हम चेतनार्को किन्हें अवस्थाओंमें प्रवेश करें तो कोई चीज बदलनेसे रह जायगो । किंतु यदि हम तमस्की. पूर्ण दीखनेवाली अवस्थामें मी प्रवेश कर जायं, तो मी वस्तुएं परिवर्तित होती रहेगी और उनके साथ हम भी!

 

  अपने पुल रूपमें, घृणा, विद्रोह, क्रोध और उग्रताकी अन्य. क्रियाएं आवश्यक रूपमें अज्ञान. और संकीर्णताकी क्रियाएं है । इनके साथ संकीर्णताकी सारी दुर्बलताएं होती. है । विद्रोह दुर्बलता है -- इच्छा-शक्तिकी' असमर्यता है । आदमी संकल्प करता है (या वह सोचता है कि वह संकल्प कर रहा है), वह अनुभव करता और देखता है कि वस्तुएं वैसी नहीं है जैसी होनी चाहिये । जो कुछ तुम देखते हो उसके साथ जो बात मेल नहीं खाती उसके प्रति तुम विद्रोह कर देते हों । किंतु यदि तुम सर्व-समर्थ हा, यदि तुम्हारी इच्छा-शक्ति सर्व-समर्थ है, इर्द तुम्हारी. दृष्टि सर्व-समर्थ है तो, तुम्हारे सामने विद्रोह करनेका अवसर हा नहीं आयगा, तुम सदा यही देखेगी

 

७८


कि सभी वस्तुएं वैसी ही हैं जैसी होनी चाहिये । यदि हम एकदम ऊपर उठ जायं और सर्वोच्च संकल्पकी चेतनाके साथ संयुक्त हों जायं, तो हम प्रत्येक पल, विश्वके प्रति क्षण यह देखेंगे कि सब कुछ ठीक वैसा ही है जैसा कि उसे होना चाहिये, ठीक वैसा ही जैसा कि भगवान् चाहते हैं । यही सर्वशक्तिमान् सामर्थ्य है । और तब उग्रताकी सभी क्रियाएं निरर्थक ही नहीं हास्यास्पद हो उठती है ।

 

  अतएव, समाधान केवल एक है : अभीप्सा, एकाग्रता, अंतर्मुखता और तादात्म्यके द्रारा सर्वोच्च संकल्पके साथ अपने-आपको संयुक्त करना । और यही एक साथ सर्वशक्तिमान् ओर पूर्ण स्वतंत्रता भी है । और यही एक- मात्र सर्वशक्तिमान् और एकमात्र स्वतंत्रता है । अन्य सब वस्तुएं तो इसके सादृश्यमात्र हैं । ये रास्तेंपर हो सकती हैं, पर समग्र वस्तु नहीं है । और तब, यदि कोई प्रयोग करता है तो उसे पता लगता है कि इस सर्वोच्च स्वतंत्रता और सर्वोच्च शक्तिके साथ एक ऐसी पूर्ण शांति और अचंचलता भी रहती है जो कमी धोखा नहीं देती । अतएव, यदि तुम्हें किसी ऐसी वस्तुका अनुभव हो जो ऐसी नहीं है, अर्थात्, विद्रोह, घृणा या कोई और ऐसी बात है जिसे तुम स्वीकार नहीं कर सकते, तो इसका अर्थ यह होगा कि तुम्हारे अंदर कोई ऐसा भाग मौजूद है जिसे अमी रूपांतरका स्पर्श प्राप्त नहीं हुआ है, कोई ऐसी चीज जो पुरानी चेतनाको पकड़े हुए है, जो अभी- तक रास्तेपर है । बस, बात इतनी है ।

 

   इस सूत्रमें श्रीअरविन्दने उन लोगोंकी बात की है जो पापीसे घृणा करते है । पापीसे घृणा नहीं करनी चाहिये ।

 

मित्र दृष्टिकोणसे देखी गयी यह वही समस्या वैध । इसका समाधान भी वही है ।

 

 पापीसे घृणा न करना इतना कठिन नहीं है, किन्तु पुण्यात्मा- से घृणा न करना और मी अधिक कठिन है । कारण, पापियोंको ठयक्ति भली-भांति समझ सकता है, गरीब लोगोंको भी भली-भांति समझा जा सकता हैं, किन्तु पुण्यात्माको...

 

किंतु व्यक्ति उनका, जिस वस्तुसे घृणा करता है वह है उनकी अहंभन्य, बस वही । चाहे जो हो, वे बुरा काम नहीं करते यह ठीक ही है - उस- के लिये तुम उन्हें दोषी नहीं ठहरा सकते! किंतु उसी कारण वे अपने-

 

७९


आपको उच्चतर व्यक्ति मान लेते हैं । इसे सहना लोगोंके लिये भारी पंडू जाता है । यह उनकी अपने संबंधमें श्रेष्ठताकी मानव है, यह वह ढंग है जिससे वे अपनी महानतासे इन दीन लोगोंकी ओर देखते है - जो उनसे अधिक बुरे नहीं होते ।

 

   ओह! मेरे पास इसके कई उदाहरण है, बड़े अद्द्भुत!

 

  उदाहरणार्थ, एक व्यक्ति, एक स्त्रीको लें, उसके बहुत-से मित्र हैं जो उससे बहुत अइग्धक प्रेम करते हैं, क्योंकि उन्हें उसके अंदर कुछ विशेष योग्यता दिखती हैं । उसका 'सान्निध्य उन्हें सुखकर प्रतीत होता है, वे उससे हमेशा सीख सकते हैं । तब अचानक, किन्हें परिस्थितियोंके वश, बह स्त्री समाजद्वारा बहिष्कृत कर दी जाती है, क्योंकि उसने अपना संबंध किसी दूसरे पुरुषके साथ स्थापित कर लिया है या बिना विवाह किये किसी दूसरे व्यक्तिके साथ रहने लगी है, दूसरे शब्दोंमें उन सब सामाजिक कारणों- के लिये जिनका स्वयं अपने-आपमें कोई मूल्य नहीं है, लोग उसे ठुकरा देते है और उसके सब मित्र (यहां मै उन मित्रोंकी बात नहीं कर रही जो उससे सचमुच प्रेम करते है), उसके सब सामाजिक मित्र जो उससे रास्तेमें मिलनेपर मुस्कान सहित उसका स्वागत करते थे, अभिवादन करते थे, अब अपनी गर्दन दूसरी ओर मोड लेते हैं और उसकी ओर बिना देखें आगे बढ़ जाते हैं - ऐसा यहां, आश्रममें भी हो चुका है! मैं प्रत्यक्ष उदाहरण नहीं देना चाहती, पर यहां ऐसा कितनी बार हुआ है : जब कभी प्रचलित सामाजिक नियमके विरुद्ध कुछ हुआ तो वही लोग जो इतना प्रेम दिखाते थे  इतनी सहानुभूति प्रकट करते थे - वही कमी-कमी कहते : ''यह तो अब हाथसे गया ।''

 

  जब ऐसी बातें बाहर संसारमें होती है तो मुझे बिलकुल स्वाभाविक प्रतीत होती हैं, किंतु जब ये यहां होती हैं तो मुझे सदा एक धक्का-सा लगता है, यानी मैं अपने-आपसे कहती हू : ''किंतु ये अब भी यहां हैं? '' जो लोग समझते है कि उनके विचार उदार है, वे इन सब ''सामाजिक प्रथाओं''से ऊपर हैं, वे मी सीधे, एकदम इस थालमें जा गिरते हैं । तब अपने अंतःकरणको चुप करानेके लिये वे कहते हैं : ''माताजी इसे स्वीकृत या अनुमति नहीं देती, न ही इसे सहन करती हैं! '' इस प्रकार बाकी चीजोंके साथ एक ओर मूर्खता जोड़ देते है ।

 

  इस अवस्थासे बाहर निकलना बड़ा कठिन है । यही सच्ची धार्मिकता है! - सामाजिक र्प्रातेष्ठाक्ई? यह भावना! किन्तु है यह मनकी संकुचितता, क्योंकि, जिन लोगोंमें जरा भी बुद्धि होती है वे इस फंदेमें नहीं फंसते । उदाहरणार्थ, जो लोग संसारभरमे धर्मकी आये है उन्होंने देखा है कि

 

८०


ये सब सामाजिक नियम पूर्णतया जलवायु, जाति और आदतोंपर निर्भर करते है, इससे भी अधिक समय और युगपर । वे ऐसी बातोंकी ओर देखकर मुस्करा सकते हैं । किन्तु ये ठीक सोचनेवाले लोग, ओह!...

 

   यह प्रारंभिक पग है । जबतक तुम ऐसी अवस्थासे बाहर नहीं निकल आते तबतक तुम योगके योग्य नहीं हो । यदि तुम इस अवस्थामें हो तो सचमुच तुम योगके लिये उपयुक्त नहीं हो - यह प्रारंभिक अवस्था है ।

 

जनवरी ६१

 

  ५१ -- जय मै न्याययुक्त क्रोधके मारेमें सुनता हू तो मुझे मनुष्यकी आत्मप्रवंचना-संबंधी सामर्थ्यपर आश्चर्य होता है ।

 

    जब कोई अपने-आपको छलता है तो सदा सच्चे भावसे ऐसा करता है । वह सदा दूसरोंके भलेके लिये, मानवजातिके हितके लिये तथा आपकी सेवाके लिये ऐसा करता है । फिर वह अपने-आपको धोखा कैसे देता है?

 

मैं भी अपनी ओरसे तुमसे प्रश्न पूछना चाहती थी! क्योंकि तुम्हारा प्रश्न दो प्रकारसे समझा जा सकता है । इसे उस व्यंग. और विनोदके भावमें भी लिया जा. सकता है जिसका प्रयोग श्रीअरविन्दने अपने सूत्रमें किया है जब वे मनुष्यकी आत्म-प्रवंचना-संबंधी सामर्थ्यपर आश्चर्य करते है । कहने- का मतलब, तुम अपने-आपको उस व्यक्तिके स्थानपर रख देते हों जो अपने-आपको छलता है और कहते हों ''पर मै तो सच्चा हू! मै सदा दूसरोंका, मनुष्यजातिका हित चाहत। हू, भगवान्का कार्य करना चाहता हू - इसमें कोई सन्देह नहीं! भला मैं अपने-आपको कैसे छल सकता हूं ''

 

  किन्तु मूल रूपमें स्वयंको चलनेके दो तरीके है जो बिलकुल भिन्न हैं । उदाहरणार्थ, जब तुम देखते हों कि लोग बुरा व्यवहार करते हैं, स्वार्थी, अविश्वस्त और विश्वासघाती बन जाते हैं तो व्यक्तिगत कारणोंसे नहीं बल्कि सद्भावना और भगवान्की सेवाकी लगनके कारण आघात पहनता है । एक ऐसी अवस्था होती है जिसमें तुम डीन वस्तुओंपर अधिकार पा लेते हो और इन्हें अपने अन्दर अभिव्यक्त नहीं होने देते । किन्तु जिस हदतक तुम सामान्य चेतना, सामान्य दृष्टिकोण, सामान्य जीवन और साफल्य

 

८१


विचारके संपर्कमें रहते हो, उस हदतक इनकी संभावना भी तुम्हारे अन्दर मौजूद रहती है, ये चीजें तुम्हारे अन्दर प्रसुप्त ढंगसे रहती हैं । कारण, जिन गुणोंको तुम प्राप्त करना चाहते हो ये वस्तुएं उनकी विरोधी होती है । और यह विरोध हमेशा चलता रहता है -- तबतक, जबतक तुम इनसे ऊ?पर और परे नहीं चले जाते, जबतक तुम गुण और अवगुणसे ऊपर नहीं उठ जाते । जबतक तुममें गुणकी भावना रहती है तबतक उसकी विरोधी वस्तु भी प्रसुप्त रूपमें रहती है । जब तुम गुण और दोषको पार कर जाते हो केवल तभी यह बात समाप्त होती है ।

 

 अतएव, तुम्हें इस प्रकारका जो क्रोध आता है उसका कारण यह तथ्य है कि तुम इन चीजोंसे अभी बिलकुल ऊपर नहीं उठे हों । तुम ऐसी अवस्थामें हों जब तुम इन बातोंको पूरी तरहसे नापसन्द करते हों और तुम स्वयं उन्हें नहीं कर सकते । तबतक तो कुछ कहनेकी आवश्यकता नहीं जबतक तुम अपने क्रोधको बड़े उग्र रूपमें व्यक्त नहीं करते । यदि क्रोधके साथ यह अभिव्यक्ति भी मिल जाती है तो इसका कार्य यह है कि जो भाव तुम रखना चाहते हों और दूसरोंके प्रति तुम्हारे अन्दर जो प्रतिक्रिया होती है, इन दोनोंमें एक प्रकारका पूर्ण विरोध होता है । क्रोध प्राणिक शक्तिका एक विकृत रूप है, एक ऐसे प्राणकी शक्तिका, जो धुंधला और बिलकुल ही असंस्कृत तथा साधारण प्राणिक क्रियाओं और प्रति- क्रियाओंका दास है । जब कोई अज्ञानमय और अहमावयुक्त सकल्पवाला व्यक्ति इस प्राणिक शक्तिका प्रयोग करता है और इस संकल्पका आसपासके दूसरे व्यक्तियोंके संकल्पोंके द्वारा विरोध होता है तो यह शक्ति क्रोधमें बदल जाती है और उस चीजको उग्रताके द्वारा पाना चाहती है जो शक्तिके दबावमात्रसे नहीं मिल सकी ।

 

  इसके अतिरिक्त, अन्य सभी उग्र भावोंकी तरह, क्रोध भी हमेशा दुर्बलता, अक्षमता ओर अयोग्यताका चिह्न है ।

 

  और यहां आत्म-छलना क्रोधको दिये गये अनुमोदन, और चाटुकारितापूर्ण विशेषणमें है -- क्योंकि क्रोध केवल एक अंध, अज्ञानमय और आसुरिक वस्तु ही हो सकता है, दूसरे शव्दोंमें, यह प्रकाशका विरोधी है ।

 

  फिर भी यह दोनोंमेंसे अधिक अच्छा है ।

 

  एक अवस्था और भी है । कुछ लोग ऐसे हैं जो विना जाने या इस- लिये कि वे जानना नहीं चाहते, सदा अपने भइग्क्तगत पितों, अम्पनी रुचियों, अपनी आसक्तियों और अपनी धारणाओंके पीछे चलते है । ये भगवान्के प्रति पूर्णतया समर्पित नहीं होते और अपनी वैयक्तिक गति-विधियोंको

 

८२


छिपानेके लिये नैतिक ओर यौगिक विचारोंका प्रयोग करते है । ऐसे लोग अपने-आपको दोहरा धोखा देते हैं, ये अपनी बाह्य क्रियाओं या दूसरोंके साथ अपने सम्बन्धमें हीं स्वयंको धोखा नहीं देते वरन अपनी व्यक्तिगत क्रियाओंमें भी अपनेको धोखा देते हैं : भगवान्की सेवा करनेके स्थानपर ये अपने अहंभावकी सेवा करते हैं । और यह सदा और सतत रूपमें होता रहता हैं! तुम अपनी और अपने अहंभावकी सेवा करते हो, जब कि बहाना करते हो भगवान्की सेवाका । तब यह आत्म- प्रवंचना नहीं, पाखंड हो जाता है ।

 

  हमेशा प्रत्येक वस्तुको एक बड़े अनुकूल रूपका आवरण देना तथा समस्त क्तिगओंकी अनुकूल व्याख्या करना एक मानसिक अभ्यास है जो सदा विद्यमान रहता है । कमी-कभी यह काफी सूक्ष्म भी होता है, किन्तु किसी समय यह इतने स्थूल प्रकारका होता है कि अपने सिवाय और कोई नहीं छला जाता । यह एक प्रकारका बहाना बनानेका अभ्यास होता है, अनु- कूल मानसिक बहाना बनानेका अभ्यास होता है और जो कुछ व्यक्ति करता है, जो कुछ व्यक्ति कहता है या जो कुछ व्यक्ति अनुभव करता है, उस सबकी एक अनुकूल मानसिक व्याख्या करनेका अभ्यास होता है । उदाहरणार्थ, जो लोग अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रखते और अत्यधिक रोषमें आकर किसीको लप्पड़ मार देते है, वे इसे प्रायः दिव्य क्रोधका नाम देते हैं ।

 

  आत्म-प्रवंचनाकी यह शक्ति भयानक है, अति भयानक है । यह एक कला है जिसके द्वारा मनकों किसी भी अज्ञान और मूर्खताके लिये समर्थन ढ्ढना होता है ।

 

  यह ऐसा अनुभव नहीं है जो कभी-कमी आता हों, इसे प्रत्येक मिनट व्यक्ति अपने अन्दर देख सकता है । और साधारणतया दूसरोंके अन्दर तो यह और भी अधिक सरलतासे देखा जा सकता है! किन्तु यदि तुम ध्यानपूर्वक अपना निरीक्षण करो तो तुम प्रतिदिन हज़ारों बार अपनेको पकड़ सकते हों, ओर उसी अनुकूल ढंगसे देखते हुए कहते हों : ''ओह, यह वही वस्तु नहीं है! '' और तब, यह कमी तुम्हारे लिये वही नहीं होता जो तुम्हारे पड़ोसीके लिये होता है ।

 

जनवरी ६१

 

    ५२ -- यह एक चमत्कार है कि मनुष्य भगवान्से प्रेम कर सकते हैं और मनुष्योंसे नहीं । तब वे किस्से प्रेम करते हैं?


८३


   क्या परोपकार-वृत्तिके द्वारा भगवान्को प्राप्त किया जा सकता हैं ?

 

सब कुछ इसपर निर्भर है कि तुम परोपकार-वृत्तिका क्या अर्थ समझते लोहा । साधारणतया, तुम उन व्यक्तियोंको परोपकारी कहते हो जो दानशीलताके कार्य करते है ।

 

  यहां श्रीअरविन्द परोपकार शब्दकी चर्चा नहीं करते । कारण, जैसा कि लोग सामान्यतया समझते हैं, परोपकार-वृत्ति एक सामाजिक और परंपरागत वृत्ति है, एक प्रकारका बृहदाकार अहंभाव है जो प्रेम नहीं बल्कि छोटेके प्रति दया है जो संरक्षकका रूप धारण कर लेती है।

 

इस सूत्रमें श्रीअरविन्द उन लोगोंकी ओर संकेत करते हैं जो संसार और मनुष्योंसे पूर्णतया सम्बन्ध-विच्छेद कर लेनेकी चेष्टा करते हुए एकाकी भगवान्की एकाग्रतामें खोज करनेके लिये संन्यास-मार्गका अनुसरण करते है । किन्तु श्रीअरविन्दके लिये मनुष्य भगवान्का अंश है और यदि तुम सचमुच भगवान्से प्रेम करते हो, तो यह कैसे हो सकता है कि तुम मनुष्यके साथ प्रेम न करो, क्योंकि वह उन्हींका तो एक पक्ष है?

 

 १८-१-६१

 

   ५३ -- धार्मिक संप्रदायोंके झगड़े उन बर्तनोंके आपसी विवादके समान हैं जिनमें अमरता देनेवाला अमृत भरा जायगा । उन्हें झगड़ने दो, किंतु हमें तो अमृत लेने -- पात्र कोई भी हो -- और अमरत्व प्राप्त करनेसे मतलब है ।

 

  ५४ -- तुम कहते हो कि बर्तनकी सुगंध सुरामें आ जाती है । यह तो स्वाद है, किन्तु इसकी अमर पर देनेवाली क्षमता इससे कौन छीन सकता है?

 

    १ -- अमरताका यह अमृत क्या है जिसकी श्रीअरविन्द चर्चा करते है? इस अमृतमें वह कौन-सी वस्तु है जो हमें अमरताकी शक्ति प्रदान- करती है? क्या यह अमरता शरीरकी अमरता है ?

 

       २ -- जब हमें यह अमृत मिल जाता है तो धार्मिक संप्रदायों-

 

८४


    का क्या होता है? क्या वे अपने लक्ष्यपर पहुंच जाते है?

 

अमरताका यह अभूत सर्वोच्च सत्य है, सर्वोच्च ज्ञान है, यह भगवान्के साथ ऐसा मिलन है जो अमरताकी चेतना प्रदान करता है ।

 

  प्रत्येक संप्रदायका भगवान्तक पहुंचनेका अपना विशेष तरीका होता है और इसी बातमें श्रीअरविन्द इनकी तुलना विभिन्न पात्रोंसे करते हैं । किन्तु बे कहते है : रास्ता कोई भी पकड़ो, इस बातका अधिक महत्व नहीं हैं । महत्व केवल लक्ष्यका है और तुम किसी भी रास्तेपर चलो, लक्ष्य एक ही है । अमृत किसी भी पात्रमें हो, होगा अमृत ही ।

 

  कुछ लोग कहते- है कि बर्तनका सौधापन और जिस रास्तेका तुम अनुसरण करते हो वह रास्ता अमृतका स्वाद बदल देते है, दूसरे शब्दोंमें, वे भगवान्के साथ तुम्हारे मिलनको बदल देते है । श्रीअरविन्द उत्तर देते है : उनतक पहुंचनेका रास्ता भिन्न हों सकता है और प्रत्येक व्यक्ति उसी रास्तेको चुनता है जो उसे पसन्द हो, तथा जो उसकी रुचिके अनुकूल हो, किन्तु स्वयं अमृत, अर्थात् भगवान्के साथ मिलन, समस्त अवस्थाओंमें अमरत्वकी अपनी शक्ति सुरक्षित रखता है ।

 

   अब जब कि यह कहा जाता है कि भगवान्के साथ मिलनके द्वारा व्यक्ति अमरताकी चेतना प्राप्त कर लेता है, तो इसका अर्थ यह है कि हमारी चेतना उस चेतनाके साथ संयुक्त हो जाती है जो अमर है, परिणामस्वरूप वह अपने-आपको भी अमर अनुभव करती है । तब हम ही उन क्षेत्रोंके प्रति चेतन हों जाते है जहां अमरताका निवास है । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि हमारी भौतिक सत्ता रूपान्तरित और अमर हों जाती है; इसके लिये एक बिलकुल दूसरी प्रणालीका अनुसरण करना होगा । और तुम्हें केवल इस चेतनाको पहले प्राप्त ही नहीं करना होगा बल्कि उसे स्थूल जगत् में भी उतार लाना होगा । इसे केवल भौतिक चेतनाका रूपान्तर ही नहीं बल्कि भौतिक सत्ताका भी रूपान्तर साधित करने देना होगा जो एक काफी बड़ा कार्य है ।

 

   संक्षेपमें, तुम्है वैयक्तिक उपलब्धिको समष्टिकी उपलब्धिके साथ मिला नहीं देना चाहिये : जब हमें अमृत मिल गया है तो हम सब संप्रदायोंसे ऊपर उठ गये है, हमारे लिये इनका न कुछ अर्थ रह गया है और न उप- योग । किन्तु, सामान्य और सार्वजनिक रूपमें, इनका मूल्य और उपयोग मार्गके रूपमें तबतक बना रहेगा, जबतक मनुष्य सिद्धि प्राप्त नहीं कर लेते ।

 

२८-१-६१

 

८५


५५ -- मेरे अंदर विस्तारित होओ, ३ वरुण; मेरे अंदर शक्ति- शाली बनो, हे इन्द्र; हे सूर्य, अत्यधिक तेजस्वी और ज्योतिर्मय बनो; हे चन्द्र, सौंदर्य और माधुर्यसे परिपूर्ण होओ; हे रुद्र, भयानक और विकट हो उठी; प्रचंड और वेगवान् बन जाओ, हे मरुत्; सबल एवं साहसी बनो, हे अर्यमा; भोक्ता और सुखदायक बनो, हे भग; कोमल, दयालु, स्नेही और भावुक बनो, हे मित्र; उन्वल और प्रकाशकारी बनो, हे उषा; हे रात्रि, गंभीर और उर्वर बनो; हे जीवन, परिपूर्ण, तत्पर और स्फूर्तिमय बनो; हे मृत्यु, मेरे पगोंको एक धामसे दूसरे धाममें ले चलो । इन सबको समन्वित करो, हे ब्रह्मणस्पति... मैं इन देवताओंके अधीन होऊं, हे काली ।

 

     श्रीअरविन्द कालीको सबसे अधिक महत्व क्यों देते है?

 

जिन गुणोंका ये देवता प्रतिनिधित्व करते है या जिनके ये प्रतीक है उन सबको प्राप्त करना आवश्यक और अच्छा है । इसीलिये श्रीअरविन्द उनका आवाहन करते है और उनसे प्रार्थना करते है कि वे उनकी प्रकृति- को अपने अधीन कर लें । किन्तु, जो परात्पर भगवान्के साथ संयुक्त होना चाहता है, जो सर्वोच्च प्राप्तिके लिये अभीप्सा करता है, उसके लिये यह काफी नहो हों सकता । इसीलिये अनंतमें वे कालिका आवाहन करते हैं ताकि वे उन्हें इन देवताओंके परे जानेकी शक्ति दें ।

 

   क्योंकि, काली विश्व-माताका एक अत्यधिक शक्तिशाली पक्ष है । इन द्वारा सृष्ट सभी देवताओंकी शक्तिसे इनकी शक्ति अधिक महान् है । अत- एव इनसे युक्त होनेका अर्थ है सभी देवताओंकी समष्टिसे अधिक विस्तृत, पूर्ण और शक्तिशाली होना । इसीलिये श्रीअरविन्द कालीके साथ एकत्व- को सबसे ऊपर और परे स्थान देते हैं ।

 

२-२-६१

 

५६ -- ओ उत्सुक विवादकर्ता, तू विवादमें जीत गया है, अब तो तुझपर अत्यधिक दया आनी चाहिये, क्योंकि तूने अपने ज्ञानको विस्तृत करनेका एक अवसर खो दिया है ।

 

विवादका क्या उपयोग है? जिसे हम सत्य समझते हैं उसे

 

८६


   दूसरोंको समझानेका सबसे अच्छा तरीका कौन-सा है?

 

सामान्यतया, जो लोग विवाद करना पसन्द करते है वे वही होते है जिन्हें अपने विचारोंको सुस्पष्ट करनेके लिये विरोधसे उत्तेजना पानेकी आवश्यकता होती है ।

 

   यह स्पष्ट ही एक प्रारंभिक बौद्धिक अवस्थाका चिह्न है ।

 

    किन्तु यदि तुम किसी विवादमें एक निष्पक्ष दर्शकके रूपमें उपस्थित हो (तब भी जब तुम विवादमें हिस्सा ले रहे हों और कोई तुमसे ही विवाद कर रहा हों), तो तुम सदा ही उससे लाभ उठा सकते हों, अर्थात्, तुम कई दृष्टिकोणोंसे किसी प्रश्न या समस्याको सोच सकते हों 1 विरोधी मतोंमें समन्वय लानेके प्रयत्नमें तुम अपने विचारोंको विस्तृत कर सकते हो तथा एक अधिक व्यापक समन्वयतक पहुंच सकते हों ।

 

   जिसे व्यक्ति सत्य समझता है उसे दूसरोंके आगे प्रमाणित करनेका सबसे अच्छा तरीका है उसके अनुसार आचरण करना - और कोई दूसरा तरीका नहीं है ।

 

   यदि कोई विवादमें जीत जाता है तो वह अपनी चेतनाको विस्तृत करनेका अवसर कैसे खो देता है?

 

विवाद मतोंके परस्पर विरोधके सिवाय और कुछ नहीं है, और मत सत्य- के अत्यन्त आशिक पक्षोंके सिवाय कुछ नहीं है? तुम भले एक विषयपर समस्त मतोंको एकत्रित और समन्वित करनेमें सफल हो जाओ, फिर मी तुम्है सत्यकी एक बहुत अपूर्ण अभिव्यक्तिसे अधिक ओर कुछ नहीं मिलेगा ।

 

   यदि तुम विवादमें जीत जाते हो, इसका. मतलब यह होता है कि तुम्हारे मतने दूसरे मतको परास्त कर दिया है, पर तुम्हारे जीतनेका कारण आवश्यक रूपसे यह नहीं होता कि तुम्हारा मत उसके मतसे अधिक सच्चा था, वरन यह कि तुम तर्कोंका प्रयोग अच्छी तरह कर सकते थे, या यह कि तुम अधिक आग्रही विवादकर्त्ता हो । और उस विवादके बाद तुम्है यह विश्वास हों जाता है कि जिस मतकी तुम पुष्टि करते हो वही ठीक है । इस प्रकार तुम प्रश्नका ठापने दृष्टिकोणसे भिन्न दूसरा दृष्टिकोण देखने तथा सत्यका जो एक या अनेक पक्ष तुम्हें पहलेसे लात है उनमें एक और पक्ष छोड़नेका अवसर खो देते हों । तुम अपने ही विचारमें बन्द होकर रह जाते हो तथा उसे विस्तृत करना अस्वीकार कर देते हो ।

 

१७-३-६१

 

८७


  ५७ -- चूंकि बाघ अपनी प्रकृतिके अनुसार कार्य करता है और उसके सिवा कुछ नहीं जानता, वह दिव्य है और उसके अंदर कोई बुराई नहीं है । यदि वह अपनेसे प्रश्न करने '' लगे तो बह अपराधी हो जायगा ।

 

    मनुष्यके लिये सच्चे अथोंमें ''स्वाभाविक'' अवस्था क्या होगी? वह प्रश्न क्यों करता है?

 

पृथ्वीपर' मनुष्य एक संक्रमणकालीन सत्ता है और इसलिये अपने विकास- कालमें वह क्रमश: कई ऐसी प्रकृतिया ग्रहण करता है जिन्हेंने आरोहणके चक्राकार मार्गका अनुसरण किया है और तबतक करती रहेगी जबतक कि वह अपनी अतिमानसिक प्रकृतिकी देहरीतक न पहुंच जाय और अति.. मानवमें रूपान्तरित न हों जाय । यह चकरेखा उसके मानसिक विकासका घुमावदार चक्र है ।

 

  हम ऐसी किसी मी सहज अभिव्यक्तिको ''प्राकृतिक'' कहना पसन्द करते है जो किसी चुनावका, पहलेसे सोचे हुए निश्चयके परिणाम त- हो, दूसरे शब्दोंमें, जिसमें किसी मी मानसिक क्रियाने हस्तक्षेप न किया हो । इसी- लिये जब मनुष्यमें एक ऐसी प्राणिक सहजता होती है जिसमें मानसिक क्रियाका बहुत ही कम प्रभाव होता है, तो वह सरलता अधिक स्वाभाविक प्रतीत होती है । किन्तु यह एक ऐसी सरलता है जो पशुकी सरलतासे बहुत मिलती है तथा विकासके मानव स्तरके एकदम निचले तलमें स्थित है । वह मानसिक हस्तक्षेपसे रहित इस सहजताको पुन: तभी प्राप्त करेगा जब वह अतिमानसिक अवस्थाको प्राप्त कर ले, दूसरे शब्दोंमें, जब वह मनकों पार करके उच्चतर सत्यमें ऊपर उठेगा ।

 

  तबतक, स्वभावत: ही, उसकी सत्ताके ये सभी तरीके प्राकृतिक रहेंगे! किंतु मनके साथ यह विकासक्रम, हम झूठा तो नहीं कह सकते, पर विकृत अवश्य हों गया है, क्योंकि मनका यह स्वभाव है कि वह विकृतिकी ओर खुला रहता है, बल्कि शुरूसे ही वह विकृत है, यह कहना

 

  श्रीमाताजीने यह मी कहा : ''यह कथन आवश्यक नहीं है, मैंने जब ''पृथ्वीपर'' कहा है तो मेरा मतलब यह है कि मनुष्य केवल पृथ्वीका ही प्राणी नहीं है : अपने मूल रूपमें मनुष्य एक वैश्व सता है, किन्तु पृथ्वीपर उसकी अभिव्यक्ति एक विशेष प्रकारकी है ।',

 

८८


अधिक ठीक होगा कि आसुरिक शक्तियोंके उसे विकृत कर दिया है । विकृतिकी यह अवस्था ही हमें ऐसा आभास देती है कि वह स्वाभाविक नहीं है ।

 

  वह प्रश्न क्यों करता है? केवल इसलिये कि यह मनका स्वभाव हैं !

 

   मनके साथ व्यक्तीकरण शुरू हुआ और पृथक्ताकी एक बड़ी तीव्र भावना और चुनावसंबंधी स्वतंत्रताकी एक थोड़-बहुत यथार्थ प्रतीति मी आयी - ये सब मनोवैज्ञानिक अवस्थाएं मानसिक जीवनके स्वाभाविक परिणाम हैं तथा उन सब परिणामोंके लिये जो आज हमारे सामने हैं, अर्थात्, बरजतियों लेकर अत्यधिक कठोर सिद्धातोंतकके लिये द्वार खोल देती है । मन सोचता है कि वह एक या दूसरी चीजमें चुनाव कर सकता है, किंतु उसका यह बोध उस सच्चे सिद्धांतकी विकृतिमात्र है जो केवल तमी प्राप्त हो सकता है जब अंतरात्मा या चैत्य चेतनासे प्रकट होकर सत्ताका शासन-शत्रु अपने हाथमें ले ले । तब मनुष्यका जीवन सचमुच वैयक्तिक और चेतन रूपमें अपने-आपको परिणत करनेवाली सर्वोच्च इच्छा-शक्ति- की अणियक्ति हो जायगा । किंतु मनुष्यकी सामान्य अवस्थामें यह एक असाधारण बात है जो मानव चेतनाको स्वाभाविक नहीं प्रतीत होती -- बल्कि अतिप्राकृतिक प्रतीत होती है ।

 

मनुष्य प्रश्न करता है, क्योंकि मन-रूपी यंत्र सब संभावनाओंको देखनेके लिये ही बनाया गया है; और इसका तात्कालिक परिणाम है शुभ और अशुभका विचार, अर्थात्, क्या ठीक है, क्या गलत है, इसका और इसके परिणामस्वरूप होनेवाले सब कष्टोंका विचार । यह नहीं कहा जा सकता कि यह बुरी चीज। है, यह एक मध्यवर्ती अवस्था है, -- कोई विशेष सुखद अवस्था नहीं है, किंतु फिर मी... मनके पूर्ण विकासके लिये यह अवस्था निश्चय ही अनिवार्य थी ।

 

१७-३-६१

 

५८ -- पशुने मस्त होनेसे शुभ और अशुभके ज्ञान-वृक्षका फल नहीं खाया है, देवताने शाश्वत जीवनका वृक्ष पानेके लिये उसे छोड़ दिया है, मनुष्य ऊपरके स्वर्ग और नीचेकी प्रकृतिके बीचमें खड़ा है ।

 

  क्या यह सच है कि कोई पार्थिव स्वर्ग भी था? मनुष्यको


८९


  बहासे क्यों निकाल दिया गया?'

 

 ऐतिहासिक दृष्टिकोणसे (मै यहां मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोणकी नहीं, ऐतिहासिक दृष्टिकोणकी बात कर रही हूं), यदि मै अपने-आपको अपनी स्मृतिकी भूमिकापर रूख (मै इसे प्रमाणित नहिं कर सकतीं, वस्तुत: कुछ भी प्रमाणित नहीं हों सकता -- और मेरे किचारमें इसका कोई भी सच्चे अर्थमें ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, दूसरे शब्दोंमें, ऐसा प्रमाण जिसे सुरक्षित रखा गया हो । कम-से-कम ऐसा कोई प्रमाण अभीतक मिला नहीं है), किंतु जहांतक मेरी स्मृति जाती है, पृथ्वीके इतिहासमें निश्चय ही एक ऐसा समय था जब एक प्रकारके पार्थिव स्वर्गका अस्तित्व था, इस अर्थमें कि वह एक पूर्णतया सामंजस्यपूर्ण और प्राकृतिक जीवन था; अर्थात्, मनकी अभिव्यक्ति प्रकृतिकी आरोहणकारी गतिके साथ पूर्ण सहमति और सामंजस्य रखती थी, उसमें कोई विकृति या विकार नहीं था । यह स्थूल रूपोंमें मनकी अभिव्यक्तिकी पहली अवस्था थी ।

 

  यह अवस्था कितने समयतक रहीं? - यह कहना कठिन है, किंतु मनुष्यके लिये यह एक ऐसा 'जीवन' था जो पशु-जीवनके विकासके साथ कुछ- कुछ मिलता था । मेरी यह स्मृति उस जीवनकी ओर निर्देश करती है जिसमें शरीर पूर्ण रूपसे अपने प्राकृतिक वातॉवरणके अनुकूल था - जलवायु शरीरकी आवश्यक्यताओंके और शरीर जलवायुकी आवश्यक्यताओंके अनुकूल । जीवन पूर्णतया सहज और स्वाभाविक था, इतना सहज और स्वाभाविक जितना कि एक अधिक प्रकाशयुक्त और चेतन पशु-जीवन होगा । किंतु इसमें वे जटिलताएं और विकृतियां नहीं थीं जिन्हें मन अपने विकासक्रममें पीछेसे ले आया । ऐसे जीवनकी स्मृति मुझे है । मुझे यह स्मरण था ओर जब मै समग्र पृथ्वीके जीवनके प्रति सचेतन हुई तो मैंने इसे फिरसे जीवनमें भी देखा । किंतु मै यह नहीं कह सकती और -ग ही मैं जानती हूं कि यह कितने समयतक रहा, या इसका विस्मतार कहां हुआ । मुझे केवल अवस्था या स्थितिका ही स्मरण है, अर्थात्, जड़-प्रकृति कैसी थी, उस समग' म।-नव-रूप और मानव-चेतना कैसी थी और पृथ्वीके अन्य सब तत्वोंके साथ उसका समन्वय कैसा था - नी:- संदेह, प्राणि-जीवनके साथ, तथा अधिकतर वनस्पतिके जीवनके साथ । प्रकृति-

 

  माताजीने इस प्रश्नका उत्तर मौलिक दिया था । हम यहां वैसे- का-वैसा ही दे रहे है जैसा कि वह रिकार्ड किया गया था ।

 

९०


की वस्तुओंके प्रयोगका, वनस्पतियों और फलोंके गुणोंका, वस्तुत: जो कुछ प्रकृतिका वनस्पति-जगत् हमें दे सकता था उस सबका एक प्रकारका स्वयं- स्फूर्त्त ज्ञान यहां विद्यमान था । न तब आक्रमण-वृत्ति थी, न भय, न विरोध, न संघर्ष ओर न विकृति ही - मन पवित्र, सरल और प्रकाश- पूर्ण था, जटिल नहीं ।

 

  विकासकी प्रगतिके साथ, उसके आगे बढ़ानेकी क्रियाके साथ ही, जब मनने अपने अंदर, अपने ही लिये विकसित होना शुरू कर दिया तो ये समस्त जटिलताएं और विकृतियां आरंभ हुई । हां तो, बाइबलके पहले अध्याय (सृष्टधुत्पत्ति-प्रकरण) की कहानी.में भी, जो बच्चोंकी कहानी-सी प्रतीत होती है, कुछ सत्य है । इस पुस्तककी परंपरा जैसी पुरानी पर- पराओंमें प्रत्येक अक्षर एक विशेष ज्ञानका संकेत होता था । वह उस समयके परंपरागत ज्ञानका चित्रात्मक सारांश होता था । किंतु इसके अतिरिक्त, प्रतीत्कामक कथामें मी एक सत्य' था और वह यह कि पृथ्वीपर सचमुच ही जीवनका एक ऐसा काल, मानवी आकारोंमें मानसी- कृत जड-पदार्थकी प्रथम अभिव्यक्तिका काल था जो तब भी अपनेसे पहले आयी हुई समस्त वस्तुओंके साथ पूर्णतया सुस्वर था और यह तो पीछे ही चीजें बिगड़ ।

 

  ज्ञानके वृक्षका प्रतीक? यह एक ऐसा ज्ञान है जो दिव्य नहीं रहा, यह भौतिक ज्ञान है जिसका स्रोत विभाजनमें है और जिसने सब चीजोंको दूषित करना आरंभ किया था । यह काल कबतक रहा? ( क्योंकि मुझे जिस जीवनका स्मरण है वह प्रायः अमर है -- मुझे ऐसा प्रतीत होता हैं कि विकासक्रममें अचानक ही आकारोंके विघटनको आवश्यकता पैदा हों गयी और यह हुआ प्रगतिके लिये ही) । अतएव, मै नहिं कह सकती कि यह काल कबतक रहा और कहां रहा । यदि कुछ संकेतोंको देखा जाय (किंतु है ये केवल संकेत ही), तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह... के आस-पास हो सकत। हैं, मुझे ठीक पता नहीं कि यह स्थान लंबा और भारतके इस ओर है या दूसरी ओर (यहां माताजी हिंद महासागर- की ओर, अर्थात्, या तो लंकाके पश्चिमकी' ओर या लकवा और जावाके बीच, पूर्वकी ओर संकेत करती है), किंतु निश्चय ही इस स्थानका अब अस्तित्व नहीं है, शायद समुद्र इसे लील गया है । इस स्थानकी अंतर- झांकी और इस जीवन और इसके रूपोंकी चेतना मेरे अंदर बड़ी स्पष्ट है; किंतु स्थूल रूपमें ठीक स्थानादि बताना संभव नहीं है । सच पूछो तो, जब दुबारा मुझे इस जीवनकी अनुभूति हुई, तो मेरे अंदर व्योरेकी चीजें देखनेकी उत्सुकता नहीं थी । वस्तुत:, वहां भावनाकी एक

 

९१


और ही अवस्था' होती है जिसमें इन स्थूल प्रकारके यथार्थ वर्णनोंके लिये उत्सुकता नहीं रहती; तब प्रत्येक वस्तु मनोवैज्ञानिक तथ्यमें बदल जाती है, और यह वस्तु अत्यधिक सरल, प्रकाशमय और सामंजस्यपूर्ण तथा - हमारी समस्त धारणाओंके परेकी वस्तु थो - ठीक-ठीक कहें तो, स्थान ''और काल-संबंधी इन सभी पूर्व धारणाओंसे बिलकुल परेकी वस्तु थी ।

 

 यह एक जीवन था -- सहज, अत्यधिक सुन्दर और प्रकृतिके अतीव निकट; पशुके जीवनके स्वाभाविक विकासकी भाति, वहां कोई विरोध न था, न प्रतिवाद, कुछ मी नहीं था -- सब कुछ अच्छे-सेअच्छे तरीकेसे होता था ।

 

 ( मौन)

 

  मुझे यह स्मृति बार-बार, विभिन्न परिस्थितियोंमें, कई बार प्राप्त हुई है (उसमें वह-का-वही दृश्य या प्रतिमूर्तिया नहीं थीं, क्योंकि यह ऐसी वस्तु नहीं थी जिसे मैंने देखा हो । यह एक जीवन था जो मैंने जिया था) । कुछ समयतक, रात-दिन मुझे एक प्रकारकी समाधिमें एक ऐसा जीवन दिखायी देता रहा जो मैं बीता चुकी थी, और मुझमें इस बातकी पूर्ण चेतना थीं कि यह पृथ्वीपर मानव आकारोंके प्रस्फुटनकी अवस्था थी, ये वे पहले आकार थे जो भागवत सताको मूर्तिमन्त करनेके योग्य बने । हां, यही बात थी : पहली बार मै एक पार्थिव आकारमें, एक विशेष आकारमें, एक वैयक्तिक आकारमें व्यक्त हों सकी थी (विश्व- व्यापी जीवनमें नहीं, वैयक्तिक रूपमें), दूसरे शब्दोंमें, पहली बार, इस जड-पदार्थके मानसीकरणके द्वारा, ऊपरकी सत्ता और नीचेकी सत्ताको संयुक्त किया गया था । यह अनुभूति मेरे जीवनमें कई बार चरितार्थ हु है, किन्तु बाह्य ढांचा सदा एक जैसा होता था । अनुभूति भी बिल- कुल वही होती थी, वह प्रसन्नता-मिश्रित सरलताकी अनुभूति थी, उसमें कोई जटिलता नहीं थो, न कोई समस्या थी, और न जंघाएँ ही, वहां इन चीजोंमेसे कुछ मी नहो था । था केवल प्रेम और सामंजस्यकी एक सामान्य अवस्थामें जीवन बितानेके, केवल इसी अनुभूतिको जीवनमें चरितार्थ करनेके आनन्दका विकास - फूल, धातु, पशु सबमें अच्छा सद्भाव था ।

 

  इसके बहुत समय बाद, यह भी एक व्यक्तिगत बोध ही है, वस्तुएं दूषित होने लगी । शायद इसलिये कि सामान्य विकासके लिये मानसिक स्फटिकीकरण आवश्यक था, अनिवार्य हो गया था, जिससे वह किसी और चीजतक पहुंचनेके लिये तैयार हो जाय; यहीं... छि, ऐसा प्रतीत होता

 

९२


है मानों व्यक्ति एक गढेमें, कुरूपता और अन्धकारमें जा गिरा हों । इसके बाद सब कुछ इतना काला, असुन्दर, कठिन और कष्टदायक हो गया! यह सचमुच, हां, सचमुच पतनका आभास देता है ।

 

 (मौन)

 

 मै एक गुह्यवादोको जानती हूं जो कहता था कि यह सब अनिवार्य नहीं था - वस्तुत: उसके भावकों व्यक्त करना कठिन है । अभिव्यक्ति- की पूर्ण स्वतंत्रतामें मूल स्रोतसे स्वेच्छापूर्वक अलग हो जाना ही इस समस्त अव्यवस्थाका कारण है । क्या ठीक यही बात नहीं है, पर इसकी व्याख्या कैसे की जाय? हमारे शब्द इतने दरिद्र है कि इन चीजोंको समझा नहीं सकते । हम कह सकते हैं कि यह अनिवार्य था, क्योंकि ऐसा हुआ । किन्तु यदि हम सृष्टिके बाहर निकलकर देखें, तो एक ऐसी सृष्टिके बारेमें सोच सकते हैं, बल्कि सोच सकते थे जिसमें वह अव्यवस्था न होती । श्रीअरविन्द भी कुछ ऐसी ही बात कहते हैं, कि यह एक प्रकारकी आकस्मिक घटना थी, इसे आकस्मिक घटना कहा जा सकता है, पर एक ऐसी आकस्मिक घटना, जिसने अभिव्यक्तिके लिये कहीं अधिक महान् और समग्र पूर्णताको प्राप्त करना संभव बना दिया है; यदि यह घटना न हुई होती, तो अभिव्यक्ति उतनी महान् और पूर्ण न होती । किन्तु ये अटकल- बाजियां हैं और कम-से-कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि बेकार अटकल बाजियां हैं । बहरहाल इस विषयका अनुभव और बोध यही है : (यहां माताजी एक निः सहाय पतनका संकेत देती हैं) ओह, एकदम सहसा ।

 

   संभवत., पृथ्वीके लिये ऐसा ही हुआ, एकदम अचानक : एक प्रकारका आरोहण और फिर पतन - किन्तु पृथ्वी तो एकाग्रताका केवल एक छोटा- सा बिन्दु है; पर विश्वके दृष्टिकोणसे बात और ही है ।

 

 (मौन)

 

   उस समयकी याद किसी स्थानपर, पृथ्वीके स्मृति-गर्भमें, अर्थात्, उस क्षेत्रमें जहां पृथ्वीकी समस्त स्मृतियां अंकित है, सुरक्षित है । और जो लोग स्मृतिके साथ संबंध स्थापित कर सकते है, वे कह सकते हैं कि अब मी पार्थिव स्वर्गका कही अस्तित्व अवश्य है, पर मै इसे नहीं जानती, न देखती ही हू ।

 

९३


  और सर्पकी कहानी क्या है? सर्पको इतना अशुभ क्यों माना जाता है?

 

ईसाई लोग कहते हैं कि यह 'अशुभ' की सत्ता हैं ।

 

(मौन)

 

   किन्तु यह सब नासमझी है ।

 

  जिस गुह्यवादीके बारेमें मै कह चुकी हू उसका कहना है कि बाइबलकी 'स्वर्ग और सर्प'की कहानीका सच्चा अर्थ यह है कि मनुष्य, मनके विकास. के द्वारा, पशुकी दिव्यताकी अवस्थासे, पशुओंके ही समान, चेतन. दिव्यता- की अवस्थातक जाना चाहता था (यह इसीका प्रतीक है, जब यह कहा जाता है कि उन्होंने ज्ञानके वृक्षका फल खाया) । तो, और वह सर्प (यह भी कहा जाता है कि सर्प रंगबिरंगा था, अर्थात्, उसमें संतों रंग मौजूद थे) अशुभ बिलकुल ही न था, यह क विकासात्मक शक्ति थी, अर्थात्, विकासकी शक्ति, और स्वभावत इस विकासात्मक शक्तिने ही उन्हें ज्ञानका फल चखाया ।

 

   और फिर उनके अनुसार, जेहोव।  असुरोंका सरदार, सबसे बड़ा असुर था - वह एक ऐसा अहंकारी देवता था जो सबपर अधिकार जमाना एवं सबको अपने वशमें करना चाहता था । जिस क्षणसे उसने, पार्थिव सिद्धिके सम्बन्धमें सर्वोच्च स्वामीकी पदवी ग्रहण की, उसी क्षणसे उसे यह बात स्वभावतया अखरने लगी कि मनुष्य एक ऐसी मानसिक प्रगति कर ले जो उसे स्वामीकी आज्ञाका उल्लंघन करनेकी शक्ति देने- वाला ज्ञान प्रदान करे । वह इस बातसे भयंकर रूपमें क्रोधित हो उठा । कारण, यह ज्ञान मनुष्यको, चेतनाके विकासकी शक्तिके द्वारा, देवता बना सकता है । इसीलिये, उन्हें स्वर्गसे निकाल दिया गया था ।

 

   इसमें पर्याप्त मात्रामें सत्य है, पर्याप्त मात्रामें ।

 

  श्रीअरविन्द भी इससे पूर्णतया सहमत थे । उन्होंने मी यही बात कही थी । मनकी विकासात्मक शक्तिने ही मनुष्यको ज्ञानकी ओर प्रेरित किया -- एक ऐसे ज्ञानकी ओर जो विमाजनका ज्ञान था । और यह भी सच्ची बात है कि शुभ और अशुभको जानकर ही मनुष्य अपने प्रति स- चेतन हुआ । किन्तु स्वभावत, इसने सब कुछ बिगाड़ दिया और वह स्वर्गमें न रह सका । वह करनी चेतनाके द्वारा ही वहांसे खदेड़ दिया गया; वह और न रह सका ।

 

९४


   किन्तु क्या वह जेहोवादुरा निकाल दिया गया था या अपनी चेतनाके द्वारा?

 

ये एक ही बात कहनेके दो भिन्न तरीके है ।

 

   मै समझती हू कि इन सब प्राचीन धर्म-पुस्तकों और प्राचीन परंपराओंमें दी गयी सामग्रीमें एक वर्गक्रम है (यहां माताजी समझके स्तरोंको दिखानेके लिये एक संकेत करती है), और युग, व्यक्तियों और आवश्यकताके अनुसार एक अथवा दूसरा प्रतीक वहांसे ले लिया गया और प्रयोगमें लाया गया । किन्तु एक ऐसा समय भी आता है जब तुम इन चीजोंसे परे जाकर उन्हें उस स्थानसे देखते हो जिसे श्रीअरविन्द ''दूसरा गोलार्ध' कहते है जिसमें तुम यह अनुभव करने लगते हों कि ये केवल, तुम्है उसके संपर्कमें लानेके लिये, कहनेका ढंगमात्र है -- यह देखनेके निम्न ढंग और जीवनके उच्च ढंगके वीचमें एक सेतु है, एक जोड़नेवाली ग्रंथि है ।

 

   और जो लोग तर्क करते है और तुम्है कहते है ''ओह, नहीं वह ऐसा है, यह ऐसा है'', किसी समय बड़े हास्यास्पद प्रतीत होते है! और बहुत- से लोगोंकी यह सहज उत्तर: ''ओह! वह, वह तो असंभव है'', जितना हास्यजनक है उतना हास्यजनक और कोई कथन नहीं है । कारण, कम- से-कम, बल्कि यह भी कहा जा सकता है, अत्यधिक प्रारंभिक ढंगका बौद्धिक विकास मी तुम्हें यह जानने योग्य बना सकता है कि यदि यह संभव न होता तो तुम इसके बारेमें सोच भी' न सकते ।

 

 ( मौन)

 

   ओह! केवल इसे हम दुबारा पा सकते । पर कैसे?

 

  आखिर, उन्होंने पृथ्वीको दूषित कर दिया है, उसे दूषित कर ही दिया, सारे वायुमण्डलको दूषित कर दिया है, सब कुछ दूषित कर दिया है! अतएव, अब वातावरणको एक बार फिरसे वैसा बनानेके लिये जैसा कि उसे होना चाहिये, व्यक्तिको बहुत दूरतक जाना होगा, विशेषकर मनो- वैज्ञानिक ढंगसे बहुत दूरतक जाना होगा, किन्तु जड-पदार्थकी रचाग ही (माताजी अपने आसपासकी वायुको अपने हाथोंसे टटोलती है), इसके ये बम और प्रयोग, ओह, इन्होंने सब घोटाला. कर दिया है.. सचमुच ही जड-पदार्थको अस्त-व्यस्त कर दिया है ।

 

   संभवत: - न, संभवतः नहीं, यह बिलकुल सच है -- कि इसे पीसना,

 

९५


मथना और तैयार करना आवश्यक था ताकि यह उस नयों चीजको, जो अभिव्यक्त नहीं हुई है, ग्रहण कर सकें ।

 

  यह बहुत सरल, बहुत सामंजस्य और प्रकाशसे पूर्ण तो था, पर काफी जटिल नहीं । वस्तुत: इसी जटिलताने सब कुछ दूषित कर दिया है, किन्तु यही: जटिलता अनन्तगुनी अधिक सचेतन सिद्धि जायेगी । और तब, जब पृथ्वी इस जटिलताके साथ भी, उसी प्रकार सरल, प्रकाशपूर्ण और शुद्ध - सरल, पवित्र और शुद्ध रूपसे दिव्य हो जायगी, तभी हम कुछ कर सकेंगे ।

 

  ( ज्यों ही माताजी जानेके लिये उठी, उन्होंने बड़े चमकीले बैगनी रंगका कैनाका फूल देखा)

 

  ठीक ऐसे ही, पार्थिव स्वर्गकी भूमिमें ऐसे ही बहुत-से फूल थ, लाल और इतने सुन्दर!!

 

११-३-६१

 

 ५९ -- धर्मकी सबसे बडी सुविधा यह है कि कभी-कभी तुम भगवान्को पकड़कर उन्है अच्छी तरहसे पीट सकते हो । लोग उन बर्बर जातियोंकी मूर्खताओंकी हंसी उडाते हैं जो, यदि उनकी प्रार्थनाएं स्वीकार न हों तो अपने देवताओंकी मार-पीट करते हैं । ??? ये हंसी उडानेवाले स्वयं ही मूर्ख और बर्बर हैं ।

 

    कोई भगवानको कैसे पीट सकता है?

 

 धर्मकी प्रवृत्ति सदा यह होती है कि वह भगवान्को मनुष्यके रूपमें देखता है । यह रूप होता तो है बहुत परिवर्द्धित और विस्तृत ढंगका पर तलमें ऐसे भगवान् हमेशा मानवीय गुणोंवाले होते है । इसी कारण लोगोंकी भगवान्के साथ ऐसा व्यवहार करना संभव होता है जैसा कि वे अपने मानवीय शत्रुके साथ करते । कुछ देशोंमें ऐसा भी होता हैं कि जब भगवान् लोगोंकी इच्छानुसार कार्य नहीं करते तो वे उन्हें ले जाकर नदीमें फेंक आते है ।

 

   किन्तु क्या ये ''मूर्तिया'' केवल मनुष्यकी रचनाएं ही नहीं भेल, इनका अपना अस्तित्व भी होता है?

 

९६


   रूप कुछ मी हो (जिसे हम तिरस्कारके भावमें ''मूर्ति'' कहते हैं), देवताका बाह्य रूप चाहे जो हो, चाहे हमारी भौतिक आखोंको कुरूप, अति साधारण या भयानक अथवा हास्यापद भी लगे, उसके अंदर सदा उस वस्तुकी उपस्थिति रहती है जिसका वह प्रतीक होता है । वहां एक ऐसा व्यक्ति अवश्य होता है, चाहे वह पुरोहित हो या दीक्षित शिष्य, साधु हो या संन्यासी, जिसमें कुछ शक्ति होती है और जो (साधारणतया यह कार्य पुरोहितका होता है) शक्ति और अंदरकी उपस्थितिको खींचता है । और यह बात वास्तविक और सच्ची है कि वहां शक्ति और उपस्थिति होती भी है । लोग इसीकी, इस उपस्थितिकी ही पूजा करते हैं, लड़की, पत्थर या धातुसे बनी मूर्तिकी नहीं ।

 

  किंतु यूरोपके लोगोंमें यह आंतरिक भाव नहीं होता, बिलकुल नहीं होता, क्योंकि उनके लिये सब वस्तु मानों ऊपरी तल है, इतना ही नहीं, ऊपरी तलाक मी एक टुकड़े है, जिसके पीछे कुछ नहीं है । इसीलिये वे यह सब अनुभव नहीं कर पाते । किंतु मैं इस बातकी पुष्टि करती हू कि वहां उप- स्थितिका होना एक तथ्य है, एक पूर्णतया सच्चा तथ्य ।

 

  बहुत-से लोग कहते हैं कि श्रीअरविन्दके शिक्षा एक नया धर्म है । क्या आप भी यही कहेंगे कि यह एक धर्म है?

 

जो यह कहते हैं, वे मूर्ख हैं, उन्हें यह पता नहीं कि वे क्या कह रहे हैं । जो कुछ श्रीअरविन्दने लिखा है तुम बस उसीको पढ़ लो और तुम्हें पता लग जायगा कि उनकी रचनाओंपर किसी धर्मको आधारित करना संभव ही नहीं है । कारण, ३ प्रत्येक समस्याको, प्रत्येक प्रश्नको उसके सब पक्षों- मे उपस्थित करते हैं तथा प्रत्येक दृष्टिकोणके सत्यको दर्शाते है और वे यह भी बताते हैं कि सत्यपर पहुंचनेके लिये तुम्है एक ऐसा समन्वय' साबित कर लेना चाहिये जो समस्त मानसिक धारणाओंको पार करके विचारके परे स्थित परात्पर सत्तातक पहुंचता हो ।

 

  अतएव, प्रश्नका दूसरा भाग निरर्थक है । साय ही यदि तुमने 'बुलेटिन'का पिछला अंक' पढ़ा होता, तो तुम यह प्रश्न कभी न करते ।

 

 '' 'जगत् के इतिहासमें श्रीअरविन्द जिस वस्तुके प्रतीक है वह कोई शिक्षा नहीं है, -म वह एक नया अन्यत :प्रकाश ही है; वह एक निर्णायक कार्य है जो सीधा भगवान्से प्रवाहित हुआ है । '' - माताजी (१४-२ -६१)

 

९७


   मै फिर दोहराती हू कि जब हम श्रीअरविन्दकी बात कहते हैं तो वहां शिक्षा या अन्तःप्रकाशका प्रश्न ही नहीं उठता, वह तो सर्वोच्च सत्ताकी सीधी क्रिया है । इसपर कोई भी धर्म आधारित नहीं किया जा सकता ।

 

  किंतु लोग इतने मूर्ख होते हैं कि वे किसी भी चीजको धर्मका रूप दे 'सकते हैं क्योंकि उन्हें अपने संकीर्ण विचार और सीमित कर्मके लिये एक स्थिर ढांचेको आवश्यकता पड़ती है । जबतक ३ इस प्रकार स्थापना नहीं कर सकते कि यह चीज सच्ची है और वह झूठी, तबतक वे सुरक्षित नहीं अनुभव करते । किंतु जिन्हेंने श्रीअरविन्दकी पुस्तकोंको पढ़ा और समझा है वे ऐसा नहीं कह सकते । चर्म और योग सत्ताके एक ही स्तरपर स्थित नहीं हैं 1 और आध्यात्मिक जीवन पूर्णतया फुर रूपमें अपना अस्तित्व तभी रख सकता है जब वह समस्त मानसिक मताग्रहोंसे मुक्त हो जाय ।

 

२६-४-६१

 

   ६० -- मर्त्यताका अस्तित्व नहो है, केवल अमर ही मर सकता है; मर्त्य न जन्म ले सकता है, न मर सकता है ।

 

   क्या मनुष्य अपने मानसिक, प्राणिक और भौतिक अनुभवों- को एक जन्म से दूसरे जन्मतक ले जाता है?

 

 प्रत्येकमें यह बात भिन्न ढंगसे होती है । सब कुछ व्यक्तिके विभिन्न भागोंके विकासकी मात्रापर तथा इन भागोंके आतरात्मिक केंद्रके चारों ओर कम या ज्यादा अच्छे संगठनपर निर्भर है । व्यक्ति जितना अधिक संगठित होगा उतना अधिक उसका आस्तत्व चेतन रूपमें स्थायी हो जायगा । साधारणतया, यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने वर्तमान जीवनमें अपने पूर्व जीवनके परिणामोंको लाता है, पर उन जीवनोंकी स्मृतिको नहीं न्यायके रखता । कुछ विरल अपवादोंको छोड्कर साधारणतया जब तुम अपनी अंतरात्माके साथ संयुक्त होते हों, जब तुम उसके प्रति पूर्णतया सचेतन हों जाते हो, केवल तभी तुम पूर्व जन्मोंकी बातें याद रख सकते हो जिन्हें अंतरात्मा अश्विनी. चेतनामें सुरक्षित रखती है ।

 

  अन्यथा अत्यधिक संवेदनशील व्यक्तियोंमें मी ये स्मृतियां खंडित और अनिश्चित होती है तथा समय-समयपर ही उठती हैं, अपइठग्कतर तो इन्हें पहचानना मी कठिन होता है; ये अइग्नश्चित प्रभावसे अधिक कुछ नहीं प्रतीत होती । किंतु जो इन बाह्य प्रतीतियोंके पीछेकी वस्तुको देखना

 

९८


जानता है, वह अपने जीवनकी परिस्थितियोंकी श्रंखलामें एक प्रकारकी समानता देख सकेगा ।

 

४-५-६१

 

६१ -- कुछ भी ससीम नहीं है! केवल 'असीम' ही अपने लिये सीमाएं उत्पन्न कर सकता है । ससीमका न आदि हो सकता है न अंत, क्योंकि आदि और अंतका चिंतन भी इसकी असीमताको घोषित करता है ।

 

    'असीम'का अनुभव कैसे किया जाय?

 

इसका केवल एक ही तरीका है : ससीमकी चेतनासे निकल आओ ।

 

  अति प्राचीन समयसे अबतक, वहां पहुंचनेकी आशासे ही समस्त यौगिक अनुशासनोंका विकास हुआ है और लोग इनका अभ्यास करते आये हैं । इस विषयपर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, पर किया बहुत कम गया है । केवल बहुत थोड़े-से व्यक्ति ही ससीमसे निकलकर असीममें डुबकी लगानेमें सफल हुए हैं ।

 

  फिर भी, जैसा कि श्रीअरविन्दने लिखा है, केवल असीमका ही अस्तित्व है और चूंकि हमारा उपरितलीय बोध झूठा है, हम ससीमके अस्तित्वमें विश्वास करने लगे है ।

 

२०-५-६१

 

६२ - मैंने एक मूर्खको बिलकुल मूर्खतापूर्ण बातें कहते सुना और मुझे आश्चर्य हुआ कि इससे भगवान्का क्या तात्पर्य होगा; मैंने इसपर विचार किया और तब सत्य और ज्ञानके एक विकृत मुखौटेको देखा ।

 

  मूर्खता 'सत्य'का एक विकृत मुखौटा कैसे हो सकती है?

 

 यहां श्रीअरविन्द मूर्खताकी ठीक परिभाषा देते हैं । मुखौटा एक ऐसी वस्तु है जो यथार्थ वस्तुको छिपा देती है; जिसे ढकती है उसे अदृश्य कर देती है । और यदि आवरण विकृत हुआ तो वह जिस वस्तुको ढकता है उसे

 

९९


अदृश्य ही नहीं करता, बल्कि उसकी पूरी प्रकृतिको भ) बदल देता हैं । इसलिये इस परिभाषाके अनुसार, मूर्खता एक ऐसी वस्तु है जो समस्त वस्तुओंके मुल सत्यपर परदा डाल देती है, उसे इस हदतक विकृत कर देती हैं कि वह पहचाना मी नहीं जा सकता ।

 

२३-६-६१

 

   क्या श्रीअरविन्दका तात्पर्य यह है कि किसी स्वतंत्र असत्य या असत्यताका अपने-आपमें कोई अस्तित्व नहीं है?

 

पूर्ण असत्यता तो कोई हो ही नहीं सकती । वस्तुत: यह संभव ही नहीं है, क्योंकि सब वस्तुओंके पीछे भगवान् विद्यमान है ।

 

  यह तो ऐसी बात है जैसे लोग पूछते हैं कि क्या कुछ तत्व विश्वसे लुप्त हों जायंगे । इसका अर्थ क्या हा सकता है, विश्वका नाश? यदि हम अपनी मूर्खतासे बाहर निकल आयें, तो हम ''विनाश'' किसे कह सकते हैं? केवल बाह्य रूप और प्रतीति नष्ट होती है -- और बाह्य प्रतीतिया तो एक-एक करके सभी नष्ट हों जाती है । यह भी कहा गया है (यह सर्वत्र लिखा है और कितनी हा' बातें कही गयी है) कि या तो विरोधी शक्तियां बदल जायगी, दूसरे शब्दोंमें, वे अपने अंदर स्थित भगवान्के प्रति सचेतन होकर दिव्य बन जायगी या फिर नष्ट हो जायंगी । नष्ट हों जानेका क्या अर्थ हुआ? उनका बाह्य रूप? उनकी चेतनाका स्वरूप शायद नष्ट हो जाय पर वह ''चीज'' जो उनके अस्तित्वका, बल्कि समस्त वस्तुओंके अस्तित्वका कारण है, वह कैसे नष्ट हो सकती है? विश्व एक बाह्य विषयीकरण है । उस वस्तुकी बाह्य चेतना है जो सनातन फालसे चली आ रही है, तब? यह कैसे हो सकता है कि 'सब कुछ' का अस्तित्व- न रहे? उस अस?ईम एवं सनातन 'सर्व'से, दूसरे शब्दोंमें, उससे जिसकी किसी प्रकारकी कोई सीमा नहीं है, कौन बाहर निकल सकता है? बाहर निकलनेके लिये स्थान ही नहीं है! निकलके कहां जाय? उसके सिवाS तो और कुछ है ही नहीं ।

 

  और जब हम कहते है कि ''केवल वही है'', तो हम उसे किसी स्थानमें स्थित समझते है जो कि बिलकुल मूर्खतापूर्ण बात है । तब भला कोई किसी चीजको वहांसे बाहर कर सकता है?

 

  तुम एक ऐसे विश्वके बारेमें सोच सकते हों जो वर्तमान अभिव्यक्तिसे बाहर निकला हुआ हों । तुम ऐसे विश्वोंके बारेमें सोच सकते हो जो

 

१००


एक-दूसरेके बाद आते हों, उन वस्तुओंर्क बारेमें मी सोच सकते हो जो पहले विश्वमें थीं पर बादके विश्वोंमे नहीं है । यह बात बिलकुल स्पष्ट है । तुम यह मी सोच सकते हो कि समस्त असत्य और झूठका स्तूप (जो आज हमारे लिये असत्य और झूठ है) किसी विशेष संसारका भाग नहीं होगा क्योंकि संसार अपने आत्मोद्घाटनके मार्गपर होगा । यह सब समझमें आ सकता है, पर ''विनाश''? किंतु जब वह नष्ट हो जाता है तो जाता कहां है? जब हम विनाशके। बात सोचते है तो हम केवल एक रूपके नष्ट होनेकी बात सोचते है (यह चेतनाका रूप हों सकता है, या एक स्थूल रूप मी, पर होता सदा रूप ही है), किंतु जो वस्तु अरूप है उसका नाश कैसे किया जा सकता है?

 

   अतएव, पूर्ण असत्यके नष्ट हों जानेकी चर्चाका अर्थ केवल यह है कि ये समस्त वस्तुएं सदा भूतकालमें ही विद्यमान रहेगी । किंतु वे भविष्यमें होनेवाली अभिव्यक्तियोंका अंग नहीं बनेगी । बस इतना ही ।

 

   तुम इससे बाहर नहीं निकल सकते!

 

    किन्तु क्या वे भूतकालमें बनी रहैगी?

 

हमें बताया गया है कि चेतनाकी एक ऐसी अवस्था है - जब हम ऊपर उठ- कर नास्तिक या निर्वाण और अस्तिसे परे जा सकते है (एक निर्वाणका पक्ष है और एक अस्तिका, ये दोनों सर्वोच्च सत्ताके दो, पर एक साथ रहनेवाले और पूरक पक्ष है) जहां सब वस्तुएं सनातन रूपमें एक साथ रहती हैं, तब व्यक्ति सोच सकता है (भगवान् जाने! शायद यह मी मूर्खता ही न हों!) कि कुछ ऐसी वस्तुओंका समुदाय है जो असत्में होती हैं, और यही होना हमारी चेतनाको विलोप या विनाश प्रतीत होगा ।

 

  क्या यह संभव है? - मुझे पता नहीं । यह भगवान्से पूछना पड़ेगा । किंतु साधारणतया वे ऐसे प्रश्नोंका उत्तर नहीं देते, वे केवल मुस्करा देते है! एक ऐसा समय आता है जब सचमुच तुम कुछ मी. नहीं कह सकते । तुम्हें ऐसा भास होता है कि तुम जो भी कहते हों वह मूर्खता नहीं तो मूर्खताके आस-पासकी वस्तु होती है, और वास्तवमें ऐसे समय चुप रहना ही अच्छा होगा । यही कठिनाई है । कुछ सूत्रोंमें तुम्हें एकदम ऐसा अनु- भव होता है कि उन्होंने (श्रीअरविन्दने) किसी ऐसी वस्तुको पकड़ लिया है जो हम जो कुछ सोच सकते है उससे ऊपर और परे स्थित है, - तब व्यक्ति क्या कहे?

 

(मौन)

 

१०१


   स्वभावतया, जब तुम व नीचे आ जाते हो, तो बहुत कुछ कह सकते हो!

 

  यदि यह हंसीमें कहना हों ( हंसी सद की जा सकती है, मुश्किल यह है - कि लोग उसे इतनी गंभीरतासे ले लेते हैं कि हंसी करते संकोच होता है), ' ''तो व्यक्ति भली-भांति कह सकता है, और यह बात बिलकुल गलत भी नहीं है कि तुम कई बा र एक पागल या मूर्ख व्यक्तिकी बातोंको सुनकर जितना सीख सकते हो उतना एक तर्कवा दी व्यक्तिकी बातोंको सुनकर नहीं सीख सकते । मेरा यही विश्वास है।

 

  तर्कवादी व्यक्तियोंके समा न सुखा देने वाली वस्तु और को ई नहीं है ।

 

 २७-६-६१

 

६३ -- मुसलमान कहते हैं, भगवान् महान् (अल्लाहो अकबर) हैं । ठीक है, वे इतने महान् हैं कि आवश्यकता पड़नेपर वे दुर्बल भी हो सकते हैं ।

 

६४ - भगवान् प्रायः ही अपने कार्यमें असफल होते हैं, यह उनके असीम देवत्वका चिह्न है ।

 

६५ -- चूंकि भगवान् अजेय रूपमें महान् हैं, इसलिये ३ दुर्बल हों सकते हैं; चूंकि वे निर्विकार रूपमें पवित्र हैं, वे मुक्त रूपसे पापमें रत हो सकते हैं; वे नित्यानन्दमय हैं, इसलिये पीडाके आनन्दका भी स्वाद लेते हैं; ३ अविच्छेद्य रूपसे बुद्धिमान हैं, इसलिये उन्होंने अपने-आपको मूर्खतापूर्ण कार्य करनेसे नहीं रोका ।

 

     भगवानको दुर्बल बननेकी क्या आवश्यकता है?

 

 श्रीअरविन्द यह नहीं कहते कि भगवान्को दुर्बल बननेकी आवश्यकता है । वे कहते- हैं कि इस समष्टिमें, शक्तियोंकी लीलाकी पूर्णताकी खातिर दुर्बलता- का क्षण ओर शक्तिका प्रदर्शन, दोनों आवश्यक हो सकते है । वे, कुछ व्यंगपूर्वक, यह भी जोड़ देते है कि चुकी भगवान् सर्वशक्तिमान् है, वे आवश्यकता पड़नेपर दुर्बल भी हो सकते है ।

 

  यह वस्तुत: कुछ नीतिवादियोंके दृष्टिकोणको विस्तृत करनेके लिये कहा

 

१०२


गया है जो भगवान्पर कुछ निश्चित गुणोंका आरोप करते है और उन्है अन्यथा नहीं होने देते ।

 

  जिस रूपमें हम शक्ति और दुर्बलताको देखते हैं, उसमें दोनों समान रूपसे उस दिव्य सत्यकी विकृत अभिव्यक्ति है जो भौतिक बाह्य प्रतीतियोंके पीछे गुप्त रूपमें विद्यमान है ।

 

  क्या भगवान् वास्तवमें असफल होते हैं या दुर्बल बन जाते हैं? या यह केवल उनकी लीला है?'

 

बात ऐसी नहीं है! यह पश्चिमी मनोभावकी विकृति है जो गीताकी वृत्ति- के विरुद्ध है । पश्चिमी मनके लिये सजीव और ठोस रूपमें यह समझना बहुत कठिन है कि सब कुछ भगवान् है ।

 

लोग एक ''स्रष्टा भगवान्''के ईसाई विचारसे बहुत अधिक प्रभावित हैं, उनके लिये सृष्टि एक ओर और भगवान् दूसरी ओर! जब तुम इस- पर चिंतन करते हों तो इसे अस्वीकार कर देते हो, पर यह तुम्हारे संवेदनों और भावोंमें प्रवेश कर चुका है । बड़े सहज, स्वाभाविक ओर प्रायः अवचेतन रूपमें तुम भगवान्के साथ उन सब गुणोंका सम्बन्ध जोड़ देते हों जो सर्वश्रेष्ठ एवं अत्यधिक सुन्दर हैं, और उस वस्तुको मी जो तुम प्राप्त एवं चरितार्थ करना चाहते हो । स्वभावतया, प्रत्येक अपनी चेतनाके अनुसार भगवान्के गुणोंको बदल देता है, किन्तु ये गुण सदा वही होते हैं जिन्हें, वह सर्वश्रेष्ठ समझता है । इसीलिये तुम्है इस विचारसे सहज, स्वाभाविक और अवचेतन रूपमें आघात पहुंचता है कि भगवान् कोई ऐसी चीज भी हों सकते हैं जिससे तुम प्रेम नहीं करते, जिसे तुम पसन्द नहीं करते या जो तुम्है सर्वश्रेष्ठ नहीं प्रतीत होती ।

 

मैं जान-बूझकर इस बातको बड़े सरल और बालोचित ढंगसे कह रही हू ताकि तुम भली-भांति समझ सको । किन्तु मुझे विश्वास है कि बात यही है, क्योंकि मैंने इसे अपने अन्दर बड़े लम्बा समयतक इसी रूपमें देखा है, और इसका कारण था वातावरण और शिक्षा आदिसे निर्मित विशिष्ट अवचेतन रचना । तुम्हें इस शरीरमें एकताकी, भगवान्की पूर्ण और अनन्य एकताकी चेतनाको प्रविष्ट कर सकना चाहिये - अनन्य यह इस- लिये है कि ऐसी कोई भी चीज नहीं है जो इस एकतामें न हो, इसमें वे चीजें भी है जो हमें अरुचिकर प्रतीत होती है ।

 

 'माताजीने इसका उत्तर उसी समय दिया था ।

 

१०३


    इसीके विरुद्ध श्रीअरविन्द युद्ध करते है, क्योंकि उन्होंने भी ईसाई शिक्षा प्राप्त की थी, उन्हें मी लड़ना पड़ा था । और ये सूत्र अवचेतन रचनाके विरुद्ध लड़नेकी आवश्यकताके परिणाम है, उसके फुलके समान है । - कारण, यही बात तुम्हें ऐसे प्रश्न पूछनेके लिये प्रेरित करती है : ''भला ' एं भगवान्में दुर्बलता कैसे हो सकती है? वे मूर्ख कैसे हों सकते है? यह कैसे हों सकता है... '' - किन्तु भगवान्के सिवा ओर कुछ नहीं है! उनके बाहर कोई चीज नहीं है, और यदि कोई वस्तु हमें कुरूप प्रतीत होती है तो इसका एक सरल कारण यह है कि वे उसे इस रूपमें नहीं चाहते । वे एक ऐसे संसारका निर्माण कर रहे हैं, जहां यह अभि- व्यक्ति न हों, अग्भव्यक्ति इस अवस्थामें किसी और अवस्थाकी ओर बढ़ रही है । अतएव, हमारे अन्दरसे जिस चीजको वर्तमान सक्रिय अभिव्यक्ति- मेंसे बाहर निकलना है, उसे हम स्वभावतया हठपूर्वक अस्वीकार कर देते है, अर्थात्, हमारे अंदर अस्वीकृतिकी क्रिया होती है ।

 

  लेकिन वे ही है । उनके सिवाय कोई और चीज है ही नहीं! सुबहसे शामतक और शामसे सुबहतक बस यही रटना है, क्योंकि हर क्षण हम भूल जाते हैं ।

 

  केवल वे ही है, उनके अतिरिक्त कोई चीज है ही नहीं - केवल वे ही हैं, उनके बिना और कोई सत्ता नहीं है, वे अकेले ही हैं!

 

  अतएव, इस प्रकारके प्रश्न पूछनेका मतलब यह है कि व्यक्तिके अन्दर उन लोगोकी एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया अब भी चल रही है जो दिव्य और अदिव्यमें भेद करते है, दूसरे शब्दोंमें, जो भगवान्में ओर उसमें, जो भगवान् नहीं है, भेद करते है । ''मला भगवान् कैसे दुर्बल हों सकते हैं? '' - मै' ऐसा प्रश्न नहीं कर सकती ।

 

  यह मै समझता हू । किन्तु वे भगवान्की 'लीला'की बात करते है । जिसका अर्थ यह हुआ कि भगवान् किसी तरह वस्तुओंके पीछे तो विद्यमान हैं, पर, यह कहा जा सकता है कि, वे खेलके बिलकुल मध्यमें नहीं है, वे सचमुच, पूर्णतया खेलके अंदर नहीं हैं? वे है ।

 

 हां, हां, बे है । पूर्णतया है । 'खेल'! वह तो वे स्वयं ही है ।

 

   तुम भगवान्की चर्चा करते हों, किंतु तुम्हें यह याद रखना चाहिये कि चेतनाके ये सब स्तर होते है; और जब हम भगवान्की या उनके 'खेल'की बात करते है तो हमारा मतलब उन भगवान्से है जो अपनी परात्पर

 

१०४


अवस्थामें, जड-पदार्थके सभी स्तरोंसे परे है । और जब उनकी 'लीला'की बात करते है तो हम उनकी भौतिक अवस्थाकी बात करते है । तब हम कहते है कि परात्पर भगवान् अपनी ओर ही देख रहे है और खेल रहे हैं - अपने ही अंदर अपने ही द्वारा, अपने ही साथ - अपना भौतिक खेल खेल रहे है ।

 

   किन्तु समस्त, भाषा ही ' अज्ञान'की भाषा है । अपने-आपको व्यक्त करनेका सारा ढंग हीं, चाहे व्यक्ति जो कुछ भी कहे, चाहे जिस ढंगसे कहे, आवश्यक रूपमें अज्ञानमय है । इसीलिये जो चीज मूर्त रूपमें सत्य है उसे व्यक्त करना इतना कठिन. हो जाता है । इसके लिये व्याख्याकी जरूरत पड़ती है जो स्वभावतया ही असत्यसे भरी. होगी या अत्यधिक लंबी होगी । इसलिये कई बार श्रीअरविन्दके वाक्य बहुत मलबे होते हैं, केवल इसलिये कि वे इस अज्ञानमयी भाषासे अलग रहना चाहते हैं ।

 

   सोचनेका यह ढंग ही गलत है । विश्वासी और श्रद्धालु, सब-के-सब (विशेषकर पश्चिममें), जब भगवान्के बारेमें बातचीत करते है तो वे यह सोचते हैं कि यह ''कोई और ही वस्तु' ' है । वे सोचते है कि भगवान् कमजोर, कुरूप या अपूर्ण नहीं हो सकते - उनका यह सोचना गलत है, वे संपूर्ण सत्ताको विभक्त और पृथक कर देते हैं । यह एक अवचेतन विचार है, एक ऐसा विचार जो चिन्तन नहीं करता । लोगोंको, सहज' प्रवृत्तिवश इसी प्रकार सोचनेका अम्यास है, वे सचेतन रूपमें नहीं सोचते । उदाहरणार्थ, जब वे सामान्य ढंगसे ' 'पूर्णता''की बात करते है, तो वे उन सब वस्तुओंकी पूर्ण समष्टिको देखते, अनुभव करते और उसकी कल्पना करते है जिन्हें वे गुणयुक्त, दिव्य, कुंदुर और प्रशंसायोग्य समझते है किन्तु यह पूर्णता बिलकुल नहीं है! पूर्णता वह वस्तु है जिसमें किसी भों चीज का अभाव न हों । दिव्य पूर्णता वह समग्र दिव्य सत्ता है जिसमें किसी वस्तुका अभाव नहीं है, दिव्य पूर्णता वह समग्र भागवत सत्ता है जिसमेंसे तुम कुछ भी घटा नहीं सकते । अतएव यह एक बिलकुल उल्टी बात है! नैतिक व्यक्तियोंके लिये दिव्य पूर्णताका अर्थ है वे सब गुण जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं ।

 

  सच्चे दृष्टिकोणसे पूर्णता एक संपूर्ण सत्ता है ( यहां माताजी अपनी मुद्रासे संपूर्ण पृथ्वीको दर्शाती. है), और यह एक तथ्य है कि इस समग्रके बाहर कुछ नहीं है । वहां किसी चीजकी कमी असंभव है और यह मी असंभव है कि कोई ऐसी चीज हों जो इस समग्र सत्ताका भाग नहीं है । कोई ऐसा, वस्तु नहीं है जो इस समग्र सत्तामें न हो । मैं तुम्है समझाती हू : ऐसा हों सकता है कि अमुक विश्वमें सब वस्तुएं विद्यमान न हों, क्यों-

 

१०५


कि विश्व केवल अभिव्यक्तिका एक प्रकार है, किन्तु अन्य सब प्रकारके संभव विश्व मी हैं । अतएव, मै सदा वापिस उसी बातपर आ जाती हू : ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो समग्र सत्ताका भाग न हो ।

 

  अतएव, कहा ज सकता है कि प्रत्येक वस्तु अपने स्थानपर स्थित है, ठीक जैसा कि उसे होना चाहिये, ओ र वस्तुओंके पारस्परिक संबद्ध भी ठीक वैसे ही- है जैसे होने चाहिये ।

 

  किन्तु पूर्णता भगवान्तक पहुंचनेका केवल एक मार्ग है, यह एक पक्ष है, ऐसे और मी अनगिनत पक्ष, कोण और अंग हैं -- भगवान्के पास पहुंचने- छ लिये, अनगिनत रास्ते हैं; उदाहरणार्थ, संकल्प, सत्य, पवित्रता, पूर्णता, एकता, अमरत्व, सनातनता, असीमता, नीरवता, शान्त, अस्तित्व, चेतना आदि-आदि । मागोंकी संख्या असीम है । प्रत्येकके द्वारा तुम भगवान्के एक पक्षको छू सकते हो, उसतक पहुंचकर उनसे संपर्क प्राप्त कर सकते हो । ओर यदि तुम सच्चे रूपमें यह करो तो तुम्हें पता लगेगा कि भेद केवल अत्यन्त बाह्य रूपमें है, प्राप्त होनेवाला संपर्क एक ही है । यह तो ऐसा। हुआ कि तुम पृथ्वीके केन्द्रके चारों ओर घूमते हो और वीचि- दर्शक यंत्रमें उसके सभी पक्षोंको देखते हों, किन्तु ज्योंही?ई. संपर्क स्थापित हो जाता है, सब कुछ एक-सा दिखता है ।

 

  अतएव पूर्णता भगवान्तक पहुंचनेका एक गोलाकार मार्ग है : सब कुछ वही है और सब कुछ वैसा ही है जैसा कि उसे होना चाहिये - ' 'होना चाहिये' ', अर्थात् भगवान्की पूर्ण अभिव्यक्ति । पर हम उनके संकल्पकी बात मी नहीं कर सकते, क्योंकि यदि हम ' 'उनके संकल्प' 'की बात करें तो यह भी एक ऐसी वस्तु होगी जो उनके अन्दरसे निकलती है!

 

  यह भी कह) ज सकता है ( किन्तु यह बहुत नीचे स्तरकी बात है) कि वे वही. है जो वे है और वे ठीक वही हैं जो वे होना चाहते है - यह कहनेके साथ कि ' 'वे ठीक वही हैं जो होना चाहते है ' ', हम बहुत -सें पग नीचे उतर आते है! किन्तु यह तुम्है पूर्णताका एक पक्ष बतानेके लिये है । इसके अतिरिक्त, दिव्य पूर्णताका अर्थ असीमता और सनातनता मी है । दूसरे शब्दोंमें, सब वस्तुएं देश और कालसे बाहर अपना सह-अस्तित्व रखती हैं ।

 

  यह ' 'पवित्रता' 'के शब्दकी तरह है । तुम भागवत पवित्रता और जिसे लोग ' 'पवित्रता' ' कहते है उसके भेदपर अनेक भाषण दे सकते हो । भाग- वत पवित्रता, नरवसे शिखतक, सिवाय दिव्य प्रभावके और किसी प्रभावको स्वीकार नहीं करती -- निचले स्तरतक मी । किन्तु वह पहलेसे ही बहुत विकृत हो चुकी है । दिव्य. पूर्णताका अर्थ यह है कि भगवान्के सिवाय

 

१०६


और किसी चीजका अस्तित्व नहीं है - वे पूर्ण रूपमें शुद्ध है, केवल भगवान् हैं, भगवान्के सिवाय और कुछ नहीं है ।

 

  और इसी प्रकार आगे भी ।

 

७-७-६१

 

६६ -- पाप बह वस्तु है जो एक समय अपने स्थानपर थी, बह अब भी बनी है इसलिये स्थानम्ग्ष्ट है । इसके सिवाय और कोई पाप नहीं है ।

 

   उदाहरणार्थ, क्या निष्ठुरताका भी कभी अपना स्थान था?

 

बिलकुल ठीक, तुम्हारा प्रश्न मेरी दृष्टिके सामने आया था, क्योंकि मेरे सामने लोगोंके सभी प्रश्न आते हैं ।

 

  निष्ठुरतावश मारना? निष्ठुरतावश दूसरोंको कष्ट पहुंचाना? पर यह भी तो भगवान्की ही एक अभिव्यक्ति है, हम सदा वापिस उसी बात- पर पहुंच जाते हैं । यह अभिव्यक्ति प्रकट रूपमें विकृत है । क्या तुम मुझे बता सकते हो कि इस सबके पीछे क्या है?

 

  क्रूरता उन चीजोंमेसे एक है जिनसे श्रीअरविद सबसे अधिक घृणा करते थे, किंतु वे सदा यह भी कहते थे कि यह तीव्रताका एक विकृत रूप है; यह मी कहा जा सकता है कि यह प्रेमकी तीव्रताका विकृत रूप है । एक ऐसी वस्तु है जो किसी मध्य मार्गसे संतुष्ट नहीं होती, जो चरम सीमाएं चाहती है, और यह भी न्यायसंगत ।

 

  मैं यह सदासे जानती थी कि परपीड़न-रतिकी भांति निर्दयता भी उग्र एवं अत्यधिक शक्तिशाली संवेदनकी आवश्यकता है जिससे तमस्की उस मोटी पत्रिके अंदर प्रवेश किया जा सकें जो कुछ भी अनुभव नहीं करती मस्तक अनुभव कर सकनेके लिये अइग्तकी आवश्यकता पड़ती है, शायद इस दिशामें कुछ व्याख्या मिल सके ।

 

  किंतु मूल रूपमें यह समस्या सदा ही बनी रहती है और इसका अब- तक कोई समाधान नहीं मिला । यह ऐसा क्यों हुआ? यह विकृति कहांसे आयी? यह सब विकृत क्यों हों गया है? इसके पीछे सुंदर वस्तुएं मी है, जितना हम कह सकते है उससे कहीं अधिक तीव्र और असीम रूपमें ये शक्तिशाली हैं, आश्चर्यजनक वस्तुएं हैं ये! किंतु यह सब यहां इतना

 

१०७


भयावह क्यों हों गया है? जब मैंने इस सूत्रको पूढा तो तुरंत यह बात मेरे सामने आयी थी ।

 

   पापका विचार एक ऐसी वस्तु है जिसे मै नहीं समझती और यह कमी मेरी समझमें नहीं आया । आदि पाप मुझे एक बड़ा राक्षसी विचार प्रतीत होते था, इससे अधिक बुरा विचार मनुष्यके मनमें नहीं आ सकता - पाप और मै साथ-साथ नहीं चल सकते! तब, स्वभावतया, मैं श्रीअरविंदके साथ पूरी तरह सहमत हू कि पापका अस्तित्व नहीं है । यह मानी हुई बात है, किंतु...

 

   'निष्ठुरता'' जैसी कुछ वस्तुओंको पाप कहा जा सकता है किंतु मैं इसकी यही व्याख्या देख पाती हू कि यह एक रुचिके या एक अत्यधिक शक्ति- शाली संवेदनकी आवश्यकताकी विकृति है । मैंने निष्ठुर व्यक्तियोंमें देखा हैं कि उन्हें ऐसे समय एक प्रकारका आनंद प्रांत होता है, वे उसमें तीव्र प्रकारकी प्रसन्नता अनुभव करते है; यही इसका औचित्य है । यह केवल ऐसी विकृत अवस्थामें है कि घृणित हों उठता है ।

 

   वस्तुएं अपने स्थानपर नहीं है, इस विचारकों तो मैंने उसी समय समझ लिया था जब कि मै छोटी-सी लड़की थी । पर इसकी व्याख्या केवल बादमें एक व्यक्तिसे मिली जिनसे मैंने गुह्यविद्या सीखी थी, क्योंकि सष्ट्धुत्पत्तिकी अपनी प्रणालीमें उन्होंने विभिन्न विश्वोंके क्रमिक प्रलयोंकी विवेचना की थी और कहा था कि प्रत्येक विश्व उस सर्वोच्च सत्ताका एक पक्ष है जो अपने-आपको अरइगम्यक्त कर रही है, प्रत्येक विश्व सर्वोच्च सत्ताके एक पक्षपर आधारित है और फिर बारीबारीसे सभी विश्व भगवान्की ओर लौट जाते हैं (ऊहोंने उन सभी पक्षोंको जो क्रमसे अभिव्यक्त हों रहे थे गिनकर बड़े तर्कपूर्वक बताया था । यह सब असाधारण था - मैंने यह लिख रखा है, पता नहीं कहां) । और उन्होंनें यह भी कहा कि इस बार यह ( मुझे याद नहीं, क्रममें इसकी संख्या क्या थी) एक ऐसा विश्व होगा जो वापिस नहीं लौटेगा और एक अधिकाधिक उन्नत अभिव्यक्तिका अनुसरण करेगा जो प्रायः अनिश्चित कालतक चलेगी, वर्तमान विश्व एक संतुलित विश्व है (यह स्थिर अवस्थामें नहीं बल्कि उत्तरोत्तर संतुलित होनेकी अवस्थामें है), दूसरे शब्दोंमें, यहां प्रत्येक वस्तु अपने स्थानपर है, प्रत्येक स्पंदन, प्रत्येक क्रिया अपने स्थानपर है । और व्यक्ति जितना अधिक निम्न स्तरपर आता है उतना ही अधिक उसे प्रत्येक रूप, प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक वस्तु, समष्टिके संबंधसे, अपने स्थानपर दिखायी' देती है ।

 

   यह सब मुझे बड़ा मनोरंजक लगा, क्योंकि बादमें श्रीअरविंदने भी

 

१०८


यही बात कही है कि यहां ऐसी कोई चीज नहीं है जो बुरी हो, केवल वस्तुएं अपने स्थानपर नहीं हैं - देशमें ही नहीं, कालमें भी, वस्तुत: जागतों, नक्षत्रों आदिमें भी; प्रत्येक वस्तुका अपना ठीक स्थान है । और जब प्रत्येक वस्तु, बृहदाकार वस्तुसे लेकर अत्यधिक सूक्ष्म वस्तुतक, ठीक अपने स्थानपर होगी तभी समष्टि सर्वोच्च सत्ताको उत्तरोत्तर अभिव्यक्त करेगी । क्रय अपने-आपको दुबारा प्रकट करनेके लिये उसे पीछे लौटने या हटनेकी कोई आवश्यकता नहीं होगी । इसी आधारपर श्रीअरविंदने यह कहा है कि इसी सृष्टिमें, इसी विश्वमें एक दिव्य जगत् की पूर्णता अभिव्यक्त हो सरकता है - इसे ही श्रीअरविन्द अतिमानसिक पूर्णता कहते हैं । संतुलन इस सृष्टिका मूल धर्म है और इसीलिये अभिव्यक्तिमें ही पूर्णता प्राप्त की जा सकती है ।

 

   इस संबंधमें वे कौन-सी पहली वस्तुएं हैं जिन्हें अतिमानसिक सत्ता अपने स्थानसे व्यूह करना चाहती है या करनेकी कोशिश कर रही है, ताकि प्रत्येक वस्तु व्यक्तिगत और विश्वगत रूपमें अपने स्थानपर रह सके?

 

च्युत करना? क्या वह किसीको अपने स्थानसे च्युत करेगी? यदि हम श्रीअरविन्दके विचारकों स्वीकार करें तो वह प्रत्येक वस्तुको अपने स्थान- पर स्थापित करेगी । बस ।

 

  एक चीज है जिसे अवश्य समाप्त होना चा हिय, वह है विकृति, दूसरे शव्दोंमें, सत्यपर असत्यका आवरण क्योंकि जो कुछ भी हम यहां देखते हैं उस सबके लिये वही उत्तरदायी है । यदि यह हटा दिया जाय, तो सभी वस्तुएं पूरी तरह बदल जायंगी, पूर्णतया बदल जायंगी । वे वैसी हों जायंगी जैसी कि हम उस समय अनुभव करते हैं ज ब हम उस चेतना- त बाहर निकल आते हैं । जब तुम उस चेतनासे बाहर निकलकर सत्य- की चेतनामें प्रवेश करते हो, तो तुम एक ऐसे स्थलपर जा पहुंचते हों जहां इस बातपर आश्चर्य होता है कि क्या दुःख, कष्ट, मृत्यु आदिके जैसी कोई वस्तु हो सकती है; आश्चर्य इस अर्थमें होता है कि व्यक्ति यह समझ नही पाता कि यह सब कैसे हो सकता है - यह तब होता है जब व्यक्ति दूसरी' ओर चला जाता है । किन्तु यह अनुभूति स (धारण- तया जिस जगत् को हम ज है उसकी असत्यताके अनुभवके साथ जुही रहती है, जब कि श्रीअरविन्द यह कहते है कि अतिमानसिक चेतनामें निवास करनेके लिये संसारकी अव। स्तविकताका यह बोध आवश्यक नहीं है

 

१०९


-यह केवल असत्यकी अवास्तविकता है, संसारकी नहीं । दूसरे शब्दोंमें कहा जा सकता है, कि संसारका अन्धना सत्य है, जो असत्यसे स्वतंत्र ह ।

 

. मेरा ख्याल है कि यह अतिमानसिक सत्ताका पहला प्रभाव है, ब्यक्तिमें मी यही पहला प्रभाव है, क्योंकि यह कार्य सबसे पहले ब्यक्तिसे हीं आराम होगा ।

 

 १८,-७-६१

 

  ६७ - मनुष्यमें कोई पाप नहीं है, बल्कि अत्यधिक मात्रामें रोग, अज्ञान और दुरुपयोग-वृत्ति है ।

 

  ६८ - पाप-भावनाका होना आवश्यक था ताकि मनुष्य अपनी निजी अपूर्णताओंसे उकता जाय । यह अहंकारका संशोधन करनेके लिये भगवान्का उपाय था । परन्तु मनुष्यका अहंकार स्वयं अपने पापोंके प्रति तो बहुत हीं धीमे रूपमें और दूसरों- के पापोंके प्रति बहुत तीव्र रूपमें जाग्रत् रहकर भगवान्के इस उपायका सामना करता है ।

 

    अपने विकासकी किस अवस्थामें मनुष्य अहंकारसे मुक्त हो पायगा?

 

तब, जब मनुष्यको सचेतन व्यक्तित्व बनानेके लिये अहंकारकी आवश्यकता -त रहेगी ।

 

२७-७-६१

 

 ६१ -- भगवान् हमें पूर्णताकी ओर ले जानेका जो प्रयास करते हैं उसमें बाधा उत्पन्न करनेके लिये हम उनके साथ पाप और पुष्यका खेलके लते हैं । पुष्यकी भावना हमें गुप्त रूपसे अपने पापोंका पोषण करनेमें सहायता प्रदान करती है ।

 

    ये सूत्र हमें अन्यने पाप-पुण्य-संबंधी विचारोंकी व्यर्थताको बताते हैं । आपने भी अपनी ३ फरवरी, १९५८ की अनु-

 

११०


भूति' के निष्कर्षके बारेमें हमसे कहा था : ''मैंने देखा कि जो चीज व्यक्तियोंकी अतिमानसिक बननेमें सहायता करती है या उन्हें रोकती है वह उस चीजसे बहुत भिन्न है जिसकी कल्पना हमारी सामान्य नैतिक धारणाएं करती हैं ।'' आपने आगे यह भी कहा था : ''जो बात बहुत स्पष्ट है वह यह है कि 'दिव्य' या 'अदिव्य' के बारेमें हमारा. मूल्यांकन ठीक नहीं हैं... मुझे ऐसा लगा... कि इस लोक और दूसरे लोकका संबंध उस दृष्टिकोणको बिलकुल बदल देता है जिसके द्वारा वस्तुओंके बारेमें अनुमान लगाना या विवेचन करना चाहिये । इस दृष्टिकोणमें कुछ भी मानसिक नहीं था और इसने यह अनोखी आंतरिक भावना दी कि ऐसी बहुत-सी वस्तुएं, जिन्हें हम भली या बुरी समझते हैं, वास्तवमें वैसी नहीं हैं । यह बिलकुल स्पष्ट था कि सब कुछ वस्तुओंकी सामर्थ्यपर तथा अतिमानसिक जगत् को अनूदित करनेकी प्रवृत्ति या उसके साथ संबंध स्थापित करनेपर निर्भर है ।''

 

  यह अतिमानसिक ''दृष्टिकोण'' कैसा है? यह ''योग्यता'' या अतिमानसिक ज्ञानको अनूदित करनेवाली और उसके साथ संबंध स्थापित करनेवाली ''प्रवृत्ति'' क़िस्में पायी जाती है?

 

मै इस बारेमें जंगलसे गुजरते हुए एक बारहसिंगेके प्रसंग'में कुछ कह चुकी हू । वहां तुम्हें इसका कुछ संकेत मिलता है ।

 

  इसकी व्याख्याके अन्तमें देखिये ३ फरवरी १९५८ की अनुभूति ।

 

  प्रश्न : एक बारहसिंगा जंगलमेंसे होकर पानी पीनेके लिये जाता है, किन्तु इसे कौन प्रमाणित कर सकता है कि वह कहांसे गुजरा है । अधिकतर लोगोंको तो कोई संकेत मिलेगा ही नहीं, शायद वे यह भी नहीं जानते कि बारहसिंगा क्या होता है । जो उसे जानते है वे भी यह नहीं बता सकेंगे कि वह वहांसे गुजरा है । किन्तु जिसने शिकार करना या शिकारकी खोज करना सीखा है, उसे उसके स्पष्ट चिह्न मिल जायंगे । बह केवल इतना ही नहीं कहेगा कि कौन-सी किस्मका बारहसिंगा गुजरा है, बल्कि वह उसकी. ऊंचाई, आयु, लिंग आदिका मी वर्णन कर देगा । इसी प्रकार ऐसे व्यक्ति भी होने चाहिये जिनको शिकारियोंके ज्ञानकी भांति आध्यात्मिक ज्ञान हा ओर जो यह बता सकते हों कि अमुक व्यक्तिका

 

१११


  तब मैंने अपने-आपको अतिमानसिक नौकाकी इस अनुभूतिके सम्पर्कमें रखा है । उस समयसे वस्तुओके सम्बन्धमें मेरी दृष्टि नहीं बदल) है । और मैंने देखा कि इस अनुभूतिका स्थितिपर एक निश्चयात्मक प्रभाव पड़ा है । इसने बड़े स्फोट, यथार्थ और निश्चित रूपसे आवश्यक शर्तोंको उत्पन्न कर दिया ।

 

  इसने एकबारगी केवल नैतिकता-सम्बन्धी सब सामान्य धारणाओंका ही नहीं बल्कि उन वस्तुओंका भी सफाया कर दिया जो यहां, भारतमें, आध्यात्मिक जीवनके लिये आवश्यक समझी जाती हैं । इस दृष्टिकोणसे यह अनुभूति बहुत शिक्षाप्रद थी । सबसे पहले, इस प्रकारकी तथाकथित वैराग्यमूलक पवित्रता । इस वैराग्यमूलक पवित्रताका अर्थ है बस, प्राण- की समस्त क्रियाओंका त्याग; इन्हें लेकर भगवान्की ओर मोड़ना, अर्थात्, इनमें परम सत्ताको देखने और परम सत्ताको स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने देनेके स्थानपर तुम उनसे कहते हा : '', इससे तुम्हारा कुछ सम्बन्ध नहीं है ।'' भगवान्को वहां प्रवेश करनेका अधिकार नहीं है ।

 

  रही बात भौतिक सत्ताकी! यह एक पुरानी बात है, सभी जानते हैं; सदासे ही वैरागियोंने इसका त्याग किया है परंतु इसके साथ प्राणकों मी

 

संपर्क अतिमानसिक सत्ताके साथ है ज ब कि सामान्य मनुष्य, जिन्हेंने अपने मनकों शिक्षित नहीं किया है, यह बात नहीं देख सकेंगे । कहा जाता. है कि अतिमानस पृथ्वीपर उतर आया है, वह अणियक्ति हों चुका है । जो कुछ इस विषयपर लिखा गया है वह मैंने सब पड लिया है । किन्तु मै उन अज्ञानियोमेंसे एक हू जो न कुछ देखते है, न अनुभव करते हैं । तो क्या कोई अधिक शिक्षित बोधशक्तिवाला व्यक्ति मुझे यह बता सकेगा कि मै किन संकेतोंसे उस व्यक्तिको पहचान सकूंगी जो अतिमानसिक संपर्कमें आ चुका है?

 

 उत्तर : ऐसे दो अकाटय चिह हैं जो यह बता सकते है कि किसी व्यक्तिका अतिमानसके साथ संपर्क है :

 

   १. एक पूर्ण और स्थायी समता ।

   २. भागवत ज्ञानमें अटूट विश्वास ।

 

  पूर्ण बननेके लिये समताको समस्त परिस्थितियों, घटनाएं और संपर्कके सामने - चाहे वे स्थूण हों या मनोवैज्ञानिक, चाहे उनका स्वरूप और प्रभाव कुछ भी हों -- अपरिवर्तित और सहज होना चाहिये ।

 

  तादात्म्यदुरा प्राप्त मंत्रित ज्ञानका पूर्ण और निर्विवाद निश्चय ।

 

११२


जोड़ दिया है । केवल कुछ शास्त्रीय वस्तुएं बच रही जो पवित्र समझी गयीं या जिन्हें धार्मिक परंपराने स्वीकार कर लिया, उदाहरणार्थ, ब्याहकी और कुछ ऐसी ही स्वीकृत वस्तुओंकी पवित्रता, किन्तु स्वतंत्र जीवन, ओह, यह समस्त चर्चा धार्मिक जीवनसे असंगत है!

 

  अतएव, इस सबका एकबारगी पूरा-पूरा सफाया हों गया ।

 

 इसका यह मतलब नहीं कि जिस चीजकी मांग की गयी है वह अधिक सरल है । शायद यह बहुत कठिन है ।

 

  सबसे पहले, मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोणसे, जिस शर्तका मैंने बारहसिंगेकी बातमें जिक्र किया था, उसकी आवश्यकता है : वह पूर्ण समता है । यह एक अनिवार्य शर्त है । मैं सन् १९५६ से, बरसों देखती रही हू कि एक भी अतिमानसिक स्पन्दन इस पूर्ण समताके बिना संचारित ही नहीं हो सकता । यदि इस समताको जरा-सा भी विरोध हो, अगर अहंभावकी जरा-सी भी क्रिया हो अथवा उसकी ओर रुचि प्रदर्शित हो, तो वह स्पन्दन उसमेंसे नहीं गुजरता, अर्थात्, वह संचारित नहीं होता । यह अपने-आपमें एक काफी बड़ी कठिनाई है ।

 

  इसके अतिरिक्त, उपलब्धिको पूर्ण बनानेके लिये दो शर्तें और भी हैं, और ३ आसान नहीं है । यह बौद्धिक स्तरपर कठिन नहीं है (यहां मै जिस-तिसकी बात नहो कर रही, वरन् उन लोगोंकी बात कह रही हू जो योग करते है ओर जिन्होंने किसी अनुशासनका पालन किया है) । इन लोगोंके लिये यह अपेक्षाकृत सरल है । मनोवैज्ञानिक स्तरपर भी, यदि इसके साथ समता जोड़ दी जाय तो, यह अधिक कठिन नहीं है । किन्तु ज्यों ही तुम जड़ प्रकृतिके स्तरपर, दूसरे शब्दोंमें, भौतिक और बाद- मे शारीरिक स्तरपर पहुंचते हों, त्यों हीं वह चीज सरल नहीं रह जाती । ये दो शर्ते निम्न हैं : पहली है अपने-आपको विस्तृत और विशाल या यूं कोई, लगभग असीम बनानेकी शक्ति ताकि तुम अपने-आपको अतिमानसिक चेतनाके विस्तारतक फैला सको, जो समग्र चेतना है । अतिमानसिक चेतना समग्रतायुक्त भगवान्की. चेतना है - जब मैं ''समग्रतायुक्त'' कहती हू तो मेरा मतलब उनके 'अभिव्यक्त' पक्षसे है । स्क्मावतया, उच्चतर दृष्टिक्एणसे, सारतत्वके दृष्टिकोणसे (उस वस्तुका सार-तत्व जो 'अभि- व्यक्ति-'में 'अतिमानसिक' बन जाती है), भगवान्के साथ पूर्ण तादात्म्य स्थापित करनेकी योग्यता भी होनी चाहिये, उनके 'अभिव्यक्त' पक्षमें ही नहीं, बल्कि उनके स्थिर अथवा निर्वाण-सम्बन्धी पक्षमें भी जो 'अभितयक्ति' से परे है और 'असत्' है । किन्तु इसके अतिरिक्त व्यक्तिमें भगवान्के 'समवन' (विषमांग) के साथ ही तादात्म्य स्थापित करनेकी योग्यता भी

 

११३


होनी चाहिये । इसका अभिप्राय दो वस्तुओंसे है. पहली - विस्तार, कमसेकम एक असीम प्रकारका विस्तार, दूसरी - जैसा कि मै पहले भी कह चुकी हू, इसके साथ ही एक पूर्ण सर्वांगीण नमनीयता ताकि भगवान्के - 'संभवन'में भी उनका अनुसरण किया जा सके । किसी विशेष समय ही 'व्यक्तिको विश्व जितना विस्तृत नहीं होना है बल्कि उनके 'संभवन'में भी उसे अनिश्चित रूपसे विशाल बनना है । यही दो शर्तें है; इन्हें संभावित रूपमें अवश्य होना चाहिये ।

 

  जबतक भौतिक रूपान्तरका प्रश्न नहीं उठता तबतक मनोवैज्ञानिक और, बहुत हदतक, आभ्यंतरिक दृष्टिकोणसे काम चलता है और वह अपेक्षाकृत सरल है । किन्तु जब 'जड़-पदार्थ'में मूर्त रूप लेनेकी बात आती है, जैसा कि इस संसारमें होता है, जहां प्रारंभ ही गलत है - यहां हम 'अचेतना' और 'अज्ञान'से आरंभ करते हैं - तब काम बहुत कठिन हो जाता है । कारण, यथार्थ बात यह है कि इस 'जडू-पदार्थ' छाछ, ताकि यह अपनी पुरानी 'चेंतना'को पुन: प्राप्त करनेके लिये आवश्यक व्यक्तिकरण तक पहुंच सके, एक ऐसी दृढ़ता प्रदान की गयी थी जो स्व- रूप को स्थिर रखने और व्यक्तित्वकी ठीक इसी संभावनाको बनाये रखने- के लिये अनिवार्य है । व्यक्तिको अतिमानसिक चेतनाको ग्रहण करनेके लिये जिस विस्तार, नमनीयता' और लचीलेपनके आवश्यकता पड़ती है उसके रास्तेमें यही मुख्य बाधा है । मैं सदा ही अपने-आपको इस समस्या- के सामने पाती हू जो काफी ठोस और पूर्णतया भौतिक प्रकारकी समस्या है, जब हमें कोषाणुओंके साथ व्यवहार करना हो और कोषाणुओंको कोषाणु ही बने रहना हो । वे उड़कर ऐसी वास्तविकतामें नहीं बदल सकते जो अब भौतिक न रहे । और इसके साथ-साथ, उनमें कठोरताका अभाव और लचीलापन मी होना चाहिये जो उन्हें, असीम रूपमें विस्तृत होनेके योग्य बना दे ।

 

(मौन)

 

   नौकाकी अनुभूति मुझे सूक्ष्मभोतिक जगत् में हुई थी । और जिन लोगोंको, कुछ धब्बे होनेके कारण, वापिस ले जाना आवश्यक हों गया था, उनमें इन दो क्रियाओंके लिये आवश्यक नमनीयताका अभाव था । किंतु यह 'संभवन'का अनुसरण करनेके लिये अगेह बढनेवाली क्रियासे अधिक विस्तृत होनेकी क्रिया थी । यही नौकासे उतरनेवाले लोगोंकी अगला कार्य प्रतीत होता था, किंतु नौकापर तैयारीका अर्थ था यह विस्तार प्राप्त करने- की योग्यता ।

 

११४


   एक बात और भी थी जिसका मैंने अपनी अनुभूति सुनाते समय जिक्र नहीं किया था  नौकाको चलानेके लिये कोई यंत्र नहीं थे । वहां सब कुछ, सब कुछ इच्छा-शक्तिद्वारा चालित होता था - व्यक्ति और वस्तुएं भी (लोगोंके वस्त्र भी उनकी इच्छाके परिणाम थे) । इस बताने वस्तुओं और व्यक्तियोंके रूपको एक बहुत बड़ी नमनीयता प्रदान कर दी थी । कारण, व्यक्ति इस इच्छा-शक्तिके प्रति सचेतन था जो मानसिक इच्छा नहीं, बल्कि 'आत्मा' की इच्छा-शक्ति थी, अथवा यह मी कहा जा सकता है कि जो आध्यात्मिक इच्छा, अर्थात्, अंतरात्माकी इच्छा थी । किंतु इस बातको यहां मी उस समय अनुभव किया जा सकता है जब व्यक्ति पूर्ण सहजताके साथ कार्य करता है, दूसरे शब्दोंमें, जब कार्य -- जैसे शब्द और क्रिया - मनके द्वारा निर्धारित नहीं होता (यहां मै विचार और बुद्धिकी बात नहीं कर रही), उस मनके द्वारा भी नहीं जो सामान्यतया हमें कार्य करनेके लिये प्रेरित करता है । साधारणतया, जब हम कोई कार्य करते हैं, तो अपने अंदर उसे करनेके संकल्पको देखते हैं (जब हम चेतन हों ओर अपने-आपको कार्य करते हुए देखें तभी यह देखते है; कार्य करनेका संकल्प सदा रहता है - वह बहुत तेज हो सकता है) । उसमें मानसिक हस्तक्षेप, एक सामान्य हस्तक्षेप मी उपस्थित रहता है, इसी क्रममें चीजें होती हैं, अब कि अतिमानसिक कार्यका निश्चय मनकों लांघकर होता है । यहां मनमें- से होकर गुजरनेकी आवश्यकता नहीं है, रास्ता सीधा है । कोई वस्तु प्राणिक केंद्रोंके साथ सीधा संपर्क प्राप्त कर लेती है और विचारमें गुजरे बिना, पूरी चेतनासे उन्हें क्रिया करनेको प्रेरित करती है । यहां चेतना सामान्य क्रमसे कार्य नहीं करती, वह सीधी आध्यात्मिक संकल्पके केंद्रसे 'जड़-पदार्थ' पर कार्य करती है ।

 

  जबतक व्यक्ति मनकी इस पूर्ण अचंचलता सुरक्षित रख सकता है तबतक प्रेरणा पूर्णतया विशुद्ध रहती है, - वह बिशुद्ध रूपमें ही आती है । यदि व्यक्ति इसे ग्रहण कर सके और बोलते समय इसे अपने पास ही रखे तो जो शब्द बाहर निकलेंगे वे मिश्रित नहीं होंगे, विशुद्ध ही होंगे।

 

  यह एक बहुत सूक्ष्म क्रिया है, शायद इसीलिये कि यह प्रचलित नहीं है -- एक जरा-सी गति, एक छोटे-सें-छोटा मानसिक स्पन्दन समूचा वस्तुको अस्त-व्यस्त कर देता है । लेकिन जबतक यह रहती है, पूरी तरह शुद्ध रहती है और यहीं अतिमानसिक जीवनकी निरन्तर अवस्था होनी चाहिये । मानकीकृत आध्यात्मिक संकल्पको हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये; क्योंकि व्यक्तिके पास आध्यात्मिक संकल्प भली-भांति रह सकता है । व्यक्ति हमेशा आध्यात्मिक संकल्पको अभिव्यक्त करता रह सकता है (जो लोग

 

११५


यह मानते हैं कि उनका पथप्रदर्शन उनके अंदर स्थित भगवान् कर रहे हैं उनके साथ ऐसा ही होता है), किंतु वह मानसिक प्रतिरूपमेंसे गुजरता है । और जबतक यह होता रहे तबतक अतिमानसिक जीवन नहीं होता । अति- - मानसिक जीवन उनमेंसे और नहीं गुजरता । मन संचारके लिये गतिहीन क्षेत्र होता है । एक जरा-सी आवाज सब कुछ अस्त-व्यस्त करनेके

 

   लिये काफी होती है ।

 

 (मौन)

 

 यह कहा जा सकता है कि 'अतिमानसिक सत्ता' के पार्थिव चेतनाके द्वारा अपने-आपको अभिव्यक्त कर सकनेके लिये जिस सतत अवस्थाकी आवश्यकता है वह पूर्ण समता है, ऐसी समता जो परम सत्ताके साथ आध्यात्मिक तादात्म्यसे आती है : पूर्ण समताकी अवस्थामें सभी कुछ परम बन जाता है । और यह आती भी अनायास ही है । यह ऐसी समता नहीं है जो चेतन संकल्प, बौद्धिक प्रयत्न या उस अवस्थासे पहले आनेवाले बोधसे प्राप्त होती है । यह ऐसी नहीं है । इसे अनायास, सहज भावमें आना चाहिये ताकि बाहरसे आनेवाली प्रत्येक वस्तुको प्रत्युत्तर देनेका ढंग ऐसा न हो मानों किसी बाह्य वस्तुको उत्तर दिया जा रहा हो । इस स्वत:चालित क्रिया और प्रत्युत्तरका स्थान एक सतत और, यदि यह कहा जा सकें तो, एक वैसे ही बोधको ले लेना चाहिये, क्योंकि प्रत्येक वस्तु आवश्यक रूपमें अपना विशेष प्रत्युत्तर चाहती है, परंतु - यदि ऐसा कहा जा सकें - जो समस्त प्रतिक्रियासे मुक्त हो । यह भेद बाहरसे आकर तुम्हें प्रभावित करनेवाली वस्तु - जिसे तुम उत्तर भी देते हो -- और उस वस्तुमें होता है जो चारों ओर घूमती है और जिसके साथ स्वभावतया ही सामान्य कर्मके लिये आवश्यक स्पन्दन मी रहते हैं । मुझे पता नहीं मैं अपनी बात भली-भांति समझा मी पा रही हू या नहीं... । यह भेद कर्मके वैसे ही क्षेत्रमें उपस्थित स्पन्दनशील क्रिया और एक ऊमी क्रियामें है जो बाहरसे आती है और जो बाहरसे स्पर्श करती है और प्रत्युत्तर पाती है (यह मानव चेतनाकी सामान्य अवस्था है) । दूसरी ओर, जब चेतना भगवान्के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेती है, तब क्रियाएं मानों अंदर ही होती हैं, अर्थात्, बाहरसे कुछ नहीं आता केवल ये वस्तुएं चक्कर काटती रहती है, और स्वभावतया ही चक्करके दौरान इनमें सादृश्य और आवश्यकताके कारण कुछ स्पंदन मी होते हैं, अथवा ये संचारक माध्यममें स्पंदनोंको बदल मी देती है ।

 

११६


   यह मेरे लिये बहुत परिचित चीज है, क्योंकि मेरी सतत रूपमें यही अवस्था है - मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि वस्तुएं बाहरसे आकर टकरा रही हैं, बल्कि मुझे उन आंतरिक क्रियाओंके विषयमें पता है जो अनेक और कभी-कमी विरोधी भी होती हैं; मुझे उस सतत संचारका मी पता है जो क्रियाके लिये आवश्यक आंतरिक परिवर्तनोंको अपने अंदर धारण किये रहता है ।

 

  यही अनिवार्य आधार है ।

 

 इसके बाद विस्तारकी क्रिया आप ही होती जाती है, साथ ही शरीर- मे भी आवश्यक हरे-फेर हों जाते हैं, इस विषयकों सुलझाना कठिन है । यह एक ऐसी समस्या है जिसमें मै अभीतक डूबी हुई हू ।

 

  और तब 'सभवन'की इस क्रियाके बाद नमनीयता आती है । नमनीयताका अर्थ है कठोर रूपका त्याग कर सकनेकी योग्यता - जीवनका सारा, सारा समय ही मनुष्य अपने-आपको व्यक्तिगत रूप देखनेमें बीता डालता है, यह एक चेतन और आग्रहपूर्ण रूपबद्धताका समय होता है, जिसे अंत- मे' मिटाना ही होगा । एक चेतन और वैयक्तिक सत्ता बनानेका अर्थ है सभी वस्तुओंको सतत, सतत और कठोर रूप देना, जानते-बूझते हुए कठोर रूप देना । और बादमें व्यक्ति को इससे विपरीत क्रिया करनी पड़ती है, लगातार और पहले जितने या उससे मी बड़े संकल्पके साथ । साथ ही, मनुष्यने चेतनामें व्यक्तिकरणके द्वारा जो कुछ पाया है उसका लाभ उसे नहीं गंवाना चाहिये ।

 

  कहना पड़ेगा कि यह कठिन है ।

 

  विचारकी दृष्टिसे यह आरंभिक, बहुत सरल वस्तु है । भावनाओंकी दृष्टिसे भी यह कठिन नहीं है । हदयके लिये, दूसरे शब्दोंमें, भावात्मक सत्ताके लिये परम सत्ताके आयाममें अपने-आपको विस्तृत करना भी अपेक्षाकृत सरल है; किंतु शरीर! यह बहुत कठिन है (कैसे कहा जाय?) शरीर अपने जमावके बिंदुको खोये बिना, आस-पासकी राशिमें घुले बिना - परम सत्ताके आयामतक विस्तृत हों जाय - यह बहुत कठिन है । एक बात और भी है, यदि व्यक्ति 'प्रकृति'के बीचमें हों, जहां पर्वत, वन, नदियां और बहुत-सा प्राकृतिक सौन्दर्य हो तथा बहुत-सा खुला स्थान हों, तब यह सब सुखदायी होगा, किन्तु भौतिक रूपमें, अपने शरीरसे बाहर निकलकर और इन दुखदायी वस्तुओंके संपर्कमें आये बिना व्यक्ति एक पग मी आगे नहीं रख सकता । कभी-कभी ऐसा होता है कि तुम किसी ऐसे पदार्थके संपर्कमें आते हों जो सुखद, समस्वर एवं ऊष्मा लिये होता है तथा एक उच्चतर प्रकाशसे स्पन्दित रहता है । किन्तु ऐसा विरले ही

 

११७


देखनेमें आता है । हां, फूल, कभी-कमी फूल भी होते है, पर कभीकदास ही, सदा नहीं । परंतु यह जड़ जगत्, ओह!... तुम्है सब जगह आघात मिलते हैं - खरोंचते लगती है, नोच जाते हो, कोड़े पड़ते है । तुम्है आघात लगते है । जो वस्तुएं नहीं खुलती उन सबसे चपेटे लगती है - ओह'! कितना कठिन है यह! यह मानव जीवन कैसे नहीं खिलता! यह उलझा पड़ा है, यह कठोर, प्रकाशरहित और ऊष्मारहित हो गया है! ओर मै आनन्दकी तो बात ही नहीं कर रही ।

 

 किन्तु किसी समय, जब तुम बहते पानी और वृक्षोंपर सूर्यकी किरणें देखते हो, ओह, वे गाते है -- कण-कण गाता है और प्रसन्न होता है!

 

किंतु यदि भौतिक रूपांतर इतना अधिक कठिन है, तो क्या गुह्य ढंगसे कार्य करना, अर्थात्, किसी चीजको मूर्त रूप देना, गुह्य प्रक्रियाओंदुरा एक नये शरीरको उत्पन्न करना लाभकारी नहीं होगा?

 

इस विचारका अर्थ यह हुआ कि सबसे पहले तो ऐसी सत्ताएं होनी चाहिये जो यहां, भौतिक जगत् में ऐसी उपलब्धि पा चुकी हों जो उन्हें अति- मानसिक सत्ताको मूर्त्त रूप देनेकी शक्ति दे ।

 

मैंने तुम्हें बताया था कि मैंने एक प्राणिक सत्ताको शरीर प्रदान किया था, किन्तु मेरे लिये उस शरीरको स्थूल रूप देना संभव नहीं हुआ : किसी चीजकी कमी थी, किसी चीजकी कमी थी । उसे दृश्य बना मी लिया जाय तो स्थायी रूप नहीं दिया जा. सकता - पहला अवसर पाते ही वह भौतिक रूप छोड़ देता । अभीतक यह स्थिरता नहीं प्राप्त हो सकी ह ।

 

  हमने इस विषयमें श्रीअरविन्दने विचार-विनिमय किया था (विचार- विनिमय - यह कहनेका एक ढंग है), उनसे बात की थी और उन्होंने भी इसे उसी रूपमें देखा था जैसा कि मैंने देखा ओर अनुभव किया था । अर्थात्, एक ऐसी शक्ति है जो किसके पास नहीं है, यह 'पृथ्वी' पर स्वरूप- को बनाये रखनेकी शक्ति है । जिनमें स्थूल रूप देनेकी योग्यता है उनके साथ भी यही होता है, स्थूल रूप नहीं रहता, नहीं रह सकता, उसमें भौतिक वस्तुओंका गुण नहीं रहता ।

 

  अतएव, सृष्टिकी अविच्छिन्नता सुरचित नहीं रखी जा सकती., जबतक कि यहां कोई ऐसी चीज न हों जिसमें यह गुण मौजूद हो ।

 

  मैं समस्त गुह्य क्रियाको विस्तारसे जानती थी, किन्तु मै प्रयत्न करती,

 

११८


तो भी वस्तुको अधिक स्थूल रूप न दे पाती; उसे दृश्य रूप दें सकती थी, पर केवल अस्थायी रूपमें, और वह अपना विकास करनेमें भी असमर्थ होता ।

 

१२-१-६२

 

 ३ फरवरी, १९५८ की अनुभूति

 

 अतिमानसिक जगत् की सत्ताओंमें और मनुष्योंमें वही अन्तर है जो मनुष्यों और पशुओंमें है । कुछ दिन पहले मुझे पशुओंके जीवनसे एकाकार हों जानेकी अनुभूति हुई थी, और यह एक तथ्य है कि जानवर हमें नहीं समझते, उनकी चेतना इस तरह बनी है कि हम उनकी पकडूसे लगभग पूरी तरह बच निकलते है । फिर भी मै' कुछ पालतू जानवरोंको जानती थी - बिल्ली,- कुत्ते -- विशेषकर बिल्लियां, जो हमतक उठ आनेके लिये अपनी चेतनामें प्रायः यौगिक प्रयत्न करती थीं । पर साधारणतः, जब वे हमें, जीते और कार्य करते देखती है तो वे हमें नहीं समझती, वे हमें उस तरह नहीं देखती जैसे कि हम हैं, और हमारे कारण तकलीफ पाती हैं । हम सदा उनके लिये एक पहेली बने रहते है । उनकी चेतनाका एक बहुत छोटा-सा अंश ही हमारे साथ जुड़ा होता है । ठीक यही बात हमारे साथ होती है जब हम अतिमानसिक लोककी ओर देखनेका प्रयास करते हैं । जब चेतनाका नाता स्थापित हों जायगा तमी हम उसे देखेंगे, और तब मी हमारो सत्ताका केवल वही अंश उसे उसके यथार्थ रूपमें देख सकेगा जो इस तरह रूपान्तरणसे गुजर चुका होगा, नहीं तो दोनों जगत्, पशु और मानव जगत् की तरह, अलग-थलग रहेंगे ।

 

  मुझे ३ फरवरीको जो अनुभूति हुई वह इसका प्रमाण है । इसके पहले, अतिमानसिक जगत् के साथ, मेरा संपर्क व्यक्तिगत था, आत्मपरक था, जब कि ३ फरवरीको मैं वहां मूर्त रूपमें धूमी, वैसे ही मूर्त रूपमें जैसे पहले कमी परिसीमों घूमा करती थी, सारी आत्मपरकतासे स्वतंत्र ऐसी एक दुनियामें जिसका अपना अलग अस्तित्व है ।

 

  यह दोनों लोगोंके बीच बनाये जानेवाले एक सेतुके समान है ।

  यह रही वह अनुभूति जो मैंने उसके तुरन्त बाद लिखवाती थी ।

 

 (मौन)

 

  अतिमानस-लोक चिरस्थायी रूपमें विद्यमान है और मैं अति-

 

११९


मानसिक शरीरमें वहां स्थायी रूपसे वर्तमान हू । आज ही मुझे उसका प्रमाण मिला जब मेरी पार्थिव चेतना तीसरे पहरको दोसे तीन बजेके बीच सचेतन रूपमें वहां गयी और रही । अब मै जानती हू कि ? दोनों जगतोंको सतत और सचेतन सम्बन्धमें जोड़नेके लिये जिस चीज- की कमी है वह है वर्तमान स्थितिमें भौतिक जगत् और वर्तमान स्थितिमें अतिमानसिक जगत् के बीचका प्रदेश । इसी प्रदेशका निर्माण व्यक्तिगत चेतना और व्यक्ति निरपेक्ष जगत् में बाकी है । और वह निर्मित हों रहा है । पहले मै उस नयी सृष्टिकी बात किया करती थी, जो बन रही है, वह इसी मध्यस्थ प्रदेशकी बात थी । इसी तरह जब मै इस तरफ होती हू, यानी, भौतिक चेतनाके क्षेत्रमें, और जब मै अतिमानसिक शक्तिको, अतिमानसिक ज्योति और तत्त्वको जड़-तत्वमें निरन्तर पैठते देखती हू तो वह इसी प्रवेशका निर्माण-कार्य होता है जिसे मैं देखती हू और जिसमें मैं भाग लेती हू ।

 

  मैंने अपने-आपको एक विशाल जहाजमें पाया, जो उस जगहका प्रतीकात्मक प्रतिरूप था जहां यह कार्य चल रहा है । एक शहर जितना बड़ा यह जहाज पूर्णतया व्यवस्थित था । निश्चय ही वह कुछ समयसे कार्यरत था, क्योंकि उसकी व्यवस्था पूर्ण थी । यह वह जगह है जहां उन लोगोंको आकार दिया जाता है जो अतिमानसिक जीवनके लिये नियत हैं । ये लोग (या कम-से-कम उनकी सत्ताका एक अंश) पहले ही अतिमानसिक रूपान्तरमेंसे गुजर चुके थे, क्योंकि खुद वह जहाज और जो उसमें सवार थे वे सब न तो भौतिक जगत् के थे न सूक्ष्म- भौतिक जगत् के, न प्राणिक जगत् के और न मानसिक जगत् के - वह एक अतिमानसिक तत्व था । स्वयं वह तत्व ठोस अतिमानसका था, ऐसा अतिमानसिक तत्व जो भौतिक जगत् के सबसे निकट है और जिसकी अभिव्यक्ति सबसे पहले होगी । वहांका प्रकाश सुनहली और लाल ज्योतिका मिश्रण था जिससे जगमगाते नारंगी रंगका एक रूप-पदार्थ बना था । सब कुछ ऐसा ही था - ज्योति ऐसी थी, लोग ऐसे थे, सूक्ष्म छटा भेदके साथ सभी इसी रंगमें रेंग थे और इसी भेदके कारण एक चीज। दूसरी चीजसे अलग पहचानी जा सकती थी । सामान्य छाप एक छायाविहीन जगत् की पड़ती थ), वहां सूक्ष्म अन्तर तो थे पर छायाएं नहीं थीं । वायुमण्डल आनन्द, शास्ति और व्यवस्थासे परिपूर्ण था; वहां सब काम नियमित रूपसे चुपचाप चल रहा था । पर साथ ही वहां शिक्षण, और सब क्षेत्रोंमें प्रशिक्षणकी बारीकियां देखी जा सकती थीं जिनके द्वारा नावके लोगोंको तैयार किया जा रहा था ।

 

वह विशाल तरी अभी-अमी अतिमानसके तटसे आ लगी थी, और यहीं

 

१२०


उन लोगोंके पहले दलको उतरना था जिन्हें अतिमानसिक जगत्का भावी निवासी बनना था । इस पहली उतराईकी पूरी तैयारी हों चुकी थी । वहापर कुछ विशालकाय सत्ताएं तैनात थीं । ये लोग मनुष्य नहीं थे ओर न पहले कभी मानव रहे थे, और न ही वे अतिमानसिक जगत् के स्थायी निवासी थे । उन्है तो ऊर्ध्व लोकसे वहां भेजा गया था ताकि ३ उतराई- की चौकसी कर सकें और उसपर नियंत्रण रख सकें । शुरूसे ही सारे समय उस पूरे समूहका परिचालन मेरे हाथोंमें था । स्वयं मैंने सब दल तैयार किये थे । मैं नावकी सीढ़ी उपरली पैड पर खड़ी थी और एक-एक करके दलोंको बुलाकर नीचे घाटपर भेज रही थी । वे दीर्घ- काय सत्ताएं जो वहां तैनात थीं मानों उतरनेवालोंका निरीक्षण कर रहीं थीं, जो तैयार थे उन्हें अनुमति दे रही थीं औ र जो तैयार नहीं थे उन्हें वा पस नावमें भेज रही थीं जहां उन्है प्रशिक्षण ज रखने था । वहां बडी-बडी जब मै उन्हें देख रही थी तो मेरी चेतनाका वह अंश जो यहांसे गया था उनमें बड़ी रुचि लेने लगा, वह सभीको देखना और पहचानना चाहता था । वह देखना चाहता था कि वे किस तरह बदल गायें थे और उन्हें परखना चाहता था जो तुरत ले लिये गायें और जिन्हें वही रहकर अमी प्रशिक्षण जारी रखना था । कुछ देर बाद, ज ब मैं वहां खड़ी-खड़ी देख रख। थी तो मुझे ऐ सा लगा कि मुझे कोई चेतना या यहांका कोई व्यक्ति -- पीछेकी ओर खींच रहा है ताकि मेरा शरीर जाग सकें - और अपनी चेतनामें मैंने प्रतिवाद किया : ' 'नहीं, नहीं, अमी नहीं! अभी नहीं, मैं लोगोंको देखना चाहती हू । '' मैं देख रही थी और बड़े चावसे ध्यानपूर्वक देख रही थी... । यह तबतक होता रहा जब- तक कि सहसा, यहां इस दीवार-घडीने तीन बज  शुरू कर दिये, वह मुझे जबरदस्ती वापिस धरतीपर ले आयी । मुझे अपने शरीरमें अचानक आ गिरनेका अनुभव हुआ । मै एक झटकेके साथ नीचे उतरी थी पर मेरी स्मृति सही-सलामत थी, यद्यपि एकदम अचानक मुझे वापिस बुला लिया गया था । बिना हीले-डुले मै तबतक शान्त बनी रही जबतक कि मैंने पूरी अनुभूतिको पुनः याद करके सुरक्षित नहीं कर लिया ।

 

  उस नावपर चीजोंके स्वभाव ओर स्वरूप वैसे नहीं थे जैसे हम पृथ्वीपर देखते है । उदाहरणार्थ, उनकी पोशाकों  कपड़ेसे नहीं बनी थीं, और वह चीज। जो कपड़े जैसी लगती थी कपड़ेकी तरह नहीं बुनी गयी थी; वह उनके शरीरका ही एक अंग थी, वे उसी तत्वसे बनी थीं जो तरह-तरहके रूप धर लेता था । उसमें एक तरहकी नमनीयता थी । जब किसी परिवर्तन की आवश्यकता होते तो वह हो जाता था पर किसी

 

१२१


बनावटी या बाह्य तरीकेसे नहीं, बल्कि एक आंतरिक क्रियादुरा, वह चेतनाकी क्रिगदुरा होता था जो उस तत्त्वको रूप या आकृति देती थ) । जीवन अपने आकार आप रच लेता था । वहां सब चीजोंमें एक ही तत्व था : वह आवश्यकता और उपयोगिताके अनुसार अपने स्पन्दनके गुणको मैदान लेता था ।

 

  जिन्हें नये प्रशिक्षणके लिये लौटा दिया गया था उनका रंग एक-सा नहीं था, लगता था कि उनके शरीरपर ऐसे तत्त्वके गहरे धूसर धब्बे थे जो धरतीके तत्वसे मिलते-जुड़ते थे; वे धूमिल लगते थे, मानों ज्योति द्वारा वे -त तो पूरी तरह उतेत-प्रोत हुए थे न रूपान्तरित । ऐसा सब जगह नहीं था, बस कहीं-कहीं ।

 

  घाटपर जो दीर्घकाय सत्ताएं थीं वे उसी रंगकी नहि थीं, कम-से-कम उनमें वह नारंगी आभा नहीं थी, वे अधिक पाण्डुर और पारदर्शी थीं । उनके शरीरके एक भागको छोड्कर बाकीका खाका ही दिखता था । वे बहुत लम्बी थीं, उनके शरीरमें मानों हड्डियों तो थीं ही नहीं, वे आव- श्यकतानुसार कोई भी आकार ले सकती थी । कमरसे पावतक ही स्थायी घनत्व था जो शरीरके बाकी मागोंमें महसूस नहीं होता था, उनका -रंग अदिक पीला था, बहुत थोड़-सी लालिमा लिये, वह अधिक सुनहला था, शायद सफेदके अधिक पास । धवल-से प्रकाशसे आलोकित अंश पारमासी थे; बे  नितान्त पारदर्शी नहीं थे, फिर भी नारंगी तत्वसे कम ठोस और अधिक सूक्ष्म थे ।

 

  जब मैं वापिस बुलायी गयी और उस घड़ी जब मै ''अमी. नहीं'' कह रही थी, दोनों बार मैंने अपने-आपको एक उड़ती. निगाहसे देखा, अर्थात्, अतिमानसिक जगत् में अपने रूपको देखा । मै उन दीर्घकाय सत्ताओं और नावपरके लोगोंका एक मिश्रण थी । मेरा ऊपरी मांग, खासकर सिर एक रेखग्चित्र था, जिसकी अन्तर्वस्तु श्वेत थीं और कोर नारंगी । पांव- की ओर जाते-जाते उसका वर्ण नावके लोगोंकी तरह होता जाता था, यानी, वह नारंगी था; दुबारा सिरकी ओर आते-आते वह अधिकाधिक पारमासक और श्वेत होता जाता था, और लाली घट जाती थी । सिर केवल एक रेखा चित्र-सा था जिसके अन्दर भास्वर सूर्य था, इसमेंसे ज्योतिकी किरणें निकल रही थीं जो संकल्प-शक्तिकी क्रिया थी ।

 

    जिन्हें मैंने जहाजमें देखा था उन सबको मै पहचानती थी । उनमेंसे कुछ ता यहां, आश्रमके थे, कुछ और जगहोंसे आये थे, पर मैं उन्हें, भी जानती थी । वहां मैंने कमी को देखा । लेकिन चूंकि मैं जानती थी कि जब मै लोटों तो मुझे कुछ भी याद न रहेगा, मैंने कोई मी नाम न देने-

 

१२२


का निश्चय किया । और फिर इसकी कोई जरूरत भों नहीं । तीन- चार चेहरे बहुत स्पष्ट दिखायी देते थे, और जब मैंने उन्हें देखा तो मै अपनी उस भावनाको समझ पायी जो वहां पृथ्वीपर उनकी आंखोमें देखते समय पैदा हुई थी : कितना अनूठा उल्लास था उनमें... । दे अधिक- तर युवक थे, बच्चे बहुत कम थे और उबकाई उमर चौदह-पन्द्रहके बीच थी । निश्चय ही, वे दस-बारह वर्षसे कामके न थे (मैं वहां इतने काफी समयतक नहीं ठहरती कि इन सब बारीकियोंको देख सकती) । कुछ एकको छोड्कर वृद्धोंकी संख्या नहीं के बराबर थी । तटपर उतरनेवालोंमें कुछको छोड्कर अधिकतर अधेड़ आयुवाले थे । इस अनुभूतिके पहले ही कुछ व्यक्ति उस जगह कई बार जांचें जा चुके थे, जहां अति- मानसिक बननेकी योग्यतावाले व्यक्तियोंकी परीक्षा होती थी । तब मैंने कई आश्चर्यजनक बातें देखी और उन्है अंकित कर लिया; कुछको तो मैंने इसके बारेमें बताया मी था । लेकिन मैंने आज जिन्हें तट पर उतारा है उन्हें मैंने बड़ी अन्यछी तरह देखा है; वे बीचकी आयुवाले थे, न छोटे बच्चे थे न बूढ़े, कुछ विरल अपवाद अवश्य थे । और यह काफी कुछ मेरी आशासे मेल खाता था । मैंने कुछ म कहने और नाम न बतानेका निश्चय किया । चूंकि मै'' अंततक नहीं रुकी अतः ठीक-ठीक चित्र पाना मेरे लिये संभव न था । वह चित्र -म तो पूरी तरह स्पष्ट था मू पूर्ण । मैं यह भी नहिन चाहती कि कुछको उसके बारेमें बताएं और कुछको नहीं ।

 

  मैं इतना ही कह सकती हू कि यह दृष्टिकोण या फैसला केवल उस तत्वपर आधारित था जिससे लोंगोंका निर्माण हुआ था, अर्थात्, क्या वे पूर्णत: अतिमानसिक जगत् के प्राणी थे? क्या वे उसी विशिष्ट तत्त्वके बने थे जो दृष्टिकोण अपनाया गया था? वह न तो नैतिक था -ग मनोवैज्ञानिक । यह हो सकता है कि जिस तत्वसे उनके शरीर बने थे वह किसी आन्तरिक विधान या आन्तरिक क्रियाका परिणाम हो, पर उस समय तो उसका प्रश्न नहीं था । कम-से-कम इतना तो स्पष्ट है कि वहांके मूल्य कुछ- और हैं ।

 

  जब मै लौट आयी तो अनुभूतिकी यादके साथ-ही-साथ मैं यह मी जानती थी कि अतिमानसिक जगत् स्थायी था, वहां मेरी उपस्थिति भी स्थायी थी, सिर्फ कमी थी तो एक कडीकी जो चेतना और तत्त्वके बीच सम्बन्ध जोड़ सके । और वह कड़ी गढ़ी जा रही है । उस समय मुझे एक चरम सापेक्षकी अनुभूति हुई (वह अनुभूति काफी देरतक, लगभग दिनभर बनी रही) - नहीं, ठीक ऐसा भी नहीं : बह अनुभूति यह थी

 

१२३


कि इस जगत् और उस जगत् के सम्बन्धने उस दृष्टिकोणको नितनित बदल दिया जिसके अनुसार चीजोंका मूल्यांकन और विवेचन होना चाहिये । इस दृष्टिकोणमें कोई मानसिक तत्व न था, बल्कि इसने ऐसी विलक्षण आंतरिक -भावना जगायी कि बहुत-सी चीजें ' जिन्हें हम अच्छा या बुरा मानते हैं 'सचमुच वैसी नहीं हैं । यह बिलकुल स्पष्ट है कि सब कुछ निर्भर है चीजोंकी क्षमतापर, अतिमानसिक जगत् को रूपायित करनेकी स्वाभाविक योग्यतापर या फिर उसके साथ नाता जोड़नेपर । यह हमारी साधारण गुणविवेचनाओंसे बहुत अधिक भिन्न है, कमी-कमी तो विपरीत भी । मुझे एक छोटी-सी चीज याद आ रही है, जिसे अकसर हम बहुत खराब मानते हैं, कितना अजीब लगा यह देखकर कि वास्तवमें वह बहुत बढ़िया थी! कुछ और चीजें जिन्हें हम बहुत महत्त्वपूर्ण समझते है, वास्तवमें कोई महत्व नहीं रखती : अमुक चीज ऐसी है या अमुक वैसी, इसका कोई महत्व नहीं । यह बात बिलकुल स्पष्ट है कि दिव्य और अदिव्यकी हमारी विवेचना ही ठीक नहीं होती । कुछ चीजोंपर तो मैं हंस पड़ी... । भगवद् विरोधी क्या है इसकी हमारी सामान्य भावना कृत्रिम प्रतीत होती है, वह ऐसी चीजपर आधारित लगती है जो सत्य और सजीव नहीं है (और फिर जिसे हम यहां जीवन कहते हैं, उस जगत् की तुलनामें वह जीवंत नहीं लगा), जो मी हो, यह भाव आधारित होना चाहिये दोनों जगतोंके बीचके हमारे संबंधपर और इस बातपर कि अपने संबंधको और मी सरल या कठिन कैसे बनाती हैं । तब इस बातकी विवेचनामें बहुत अंतर पड जायगा कि कौन- सी चीज हमें भगवान्के निकट ले जाती है और कौन-सी दूर । मनुष्यों- मे मी मैंने देखा कि जो चीज उन्हें अतिमानसिक बननेमें मदद देती है या बाधा डालती है वह उससे बहुत भिन्न है जिसकी कल्पना हमारी नैतिक धारणाएं करती है । मुझे लगता है कि हम कितने... हास्यास्पद है ।

 

१२-१-६२

 

   ७० - बिना दया दिखाये अपनी जांच करो, तब तुम दूसरोंके प्रति अधिक उदार और अधिक दयालु होंगे ।

 

बहुत अच्छा!

 

  यह बहुत अच्छा है, यह सबके लिये बहुत अच्छा है, विशेषतया उन लोगोंके लिये जो अपने-आपको बड़ा और बहुत श्रेष्ठ समझते है ।

 

१२४


  किंतु सचमुच इसका संबंध किसी गहरी बातसे है ।

 

  ठीक यही अनुभूति मुझे कुछ समयसे हो रही है । यह कुछ-कुछ पहली वृत्तिसे उलटी है ।

 

  अपने अंतरतम हदयमें मनुष्य अपने-आपको विरोधी शक्तियोंदुरा सताया हुआ और उत्पीड़ित समझता है । जो लोग साहसी होते हैं वे संघर्ष करते हैं, दूसरे रोते हैं । सृष्टिमें इन विरोधी शक्तियोंकी भूमिकाके बारेमें, अर्थात्, उनकी अनिवार्य आवश्यकताके बारेमें मेरी अंतर्दृष्टि अधिकाधिक मूर्त रूप धारण कर रही है, ताकि विकास हो और सृष्टि फिरसे अपना 'स्रोत' बन जाय । यह अंतर्दृष्टि इतनी स्पष्ट है कि व्यक्तिको विरोधी शक्तियोंके रूपांतर या नाशकी मांग करनेके स्थानपर अपना रूपांतर साधित करना चाहिये, यही वह चीज है जिसके लिये उसे प्रार्थना करनी चाहिये, यही वह चीज है जो उसे चरितार्थ करनी चाहिये । यह बात पार्थिव दृष्टिसे कही गयी है, मैं अपने-आपको व्यक्तिगत दृष्टिकोणपर नहीं ला रही । व्यक्तिगत दृष्टिकोणको तो लोग जानते हैं; मैं पार्थिव दृष्टि- कोणसे बात कर रही हू । यह अंतर्दृष्टि है जो अचानक ही आ गयी, समस्त म्गंति, समस्त नासमझी, समस्त अज्ञान और समस्त अंधकारकी दृष्टि और उससे भी बुरी बात, यह कि पार्थिव चेतनाकी समस्त अशुभ इच्छाकी दृष्टि जो इन विरोधी सत्ताओं और शक्तियोंके अधिक लंबे समय- तक चलते रहनेके लिये उत्तरदायी है, जो इन्हें एक महान् अभीप्सा - अभीप्सासे भी बड़ी - आहुतिके रूपमें समर्पित कर देती है ताकि ये विलीन हो जायं, इनके अस्तित्वका कोई कारण न रहे, जिस वस्तुको बदलना है उसके सूचकके रूपमें ये वहां उपस्थित न है ।

 

   ये अनिवार्य उन वस्तुओंके कारण बन गयी जो दिव्य जीवनका निषेध थी । सर्वोच्च सत्ताके प्रति पार्थिव चेतनाका असत्कृत तीव्र रूपसे किया गया यह समर्पण एक प्रकारका मुक्तिका मूल्य है जो विरोधी शक्तियोंको समाप्त करनेके लिये चुकाना पड़ता है ।

 

  यह एक बड़ी तीव्र अनुभूति थी । इसने अपने-आपको यूं अनूदित किया : ''जो भी अश्वराध मैंने किये है उन सबको तुम ले लो, उन्हें स्वीकार करो, उन्हें पोंछ डालों ताकि ये शक्तियां लुप्त हो जायं ।''

 

  दूसरे छोरसे यह सूत्र ठीक यही है, अन्यने सार-तत्वमें यही है । जबतक एक भी मानव चेतनामें अनुभव करने, कर्म करने, या सोचनेकी अथवा महान्, दिव्य अभिव्यक्तिका विरोध करनेकी संभावना है, तबतक किसी औरको दोष देना असंभव है; उन विरोधी शक्तियोंको दोष नहीं दिया जा सकता जो सृष्टिमें इसलिये रखी जाती हैं कि वे तुम्है यह रास्ता दिखा

 

१२५


और उसका अनुभव करा सकें जिसपर तुम्है चलना है ।

 

 (मौन)

 

 जिस अवस्थामें मैंने अपने-आपको पाया बह मानों सर्वोच्च प्रेमकी एक ऐसी 'चेतना' की स्मृति थो - ऐसी स्मृति जो सदा उपस्थित रहती है - जिसे भगवान्में 'पृथ्वी'पर, 'पृथ्वी'में -- 'पृथ्वी'में - आविर्भूत किया है जिससे कि वह उनकी ओर वापिस लौट जाय । कारण, इसका मतलब सचमुच ही संपूणं भागवत 'निषेध'की अवस्थामें उतरना था, यह दिठय प्रकृतिके सारतत्वके ही निषेध था, अतएव यह दिव्य अवस्थाको छोड़ना था ताकि 'पृथ्वी' के अंधकारको स्वीकार करके उसे पुन: दिव्य अवस्थामें लें जाया जा सकें । और, जबतक यह सर्वोच्च प्रेम सर्वशक्तिशाली रूपमें, यहां, इस 'पृथ्वी' पर, चेतन न हो जाय, यह वापसी कमी भी पूरी तरहसे सुनिश्चित नहीं हो सकती ।

 

  यह अनुभूति उस महान् दिव्य संभूति'की अंतर्दृष्टिके बाद आयी और मैंने अपने-आपसे पूछा : ''क्योंकि यह जगत् विकसनशील है और क्योंकि यह अधिकाधिक दिव्य बन रहा है, क्या अदिव्य वस्तुकी इतनी गहरी कष्टदायक भावना और उस अवस्थाकी भावना जो उस अवस्थाकी तुलनामें, जिसे ममि अभिव्यक्त होना है, दिव्य नहीं है, सदा नहीं बनी रहेगी? क्या वे शक्तियां, जिन्हें हम ''विरोधी शक्तियां'' कहते है सदा नहीं बनी रहेगी., अर्थात्, वह चीज, जो गतिका सामंजस्यपूर्ण ढंगसे अनुसरण नहीं करती, नहीं बनी रहेगी? '' तब उत्तर मिला, अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई : त, यही वह समय है जब ऐसा होनेकी. संभावना पास आ गयी है, पूर्ण प्रेमके उस सारतत्त्वकी अभिव्यक्तिका समय आ गया है जो इस अचेतनाको, इस अज्ञानको और इसके फलस्वरूप उत्पन्न अशुभ इच्छाको पूंगा और समग्र बोधके इच्छुक ज्योतिर्मय और अग्नंदपूर्ण विकासमें रूपांतरित कर सकता है । यह एक मूर्त तथ्य है ।

 

  और इसका अर्थ है वह अवस्था जिसमें व्यक्ति उस सबके साथ इतने पूर्ण रूपसे तादात्म्य स्थापित कर लेता है जिसका अस्तित्व है, और वह सब कुछ बन जाता है जो प्रत्यक्ष रूपमें भगवद्विरोधी है । तब व्यक्ति इस विरोधी तत्वको भगवान्के प्रति समर्पित कर सकता है, और इस समर्पणके द्वारा उसे सचमुच रूपांतरित कर सकता है ।

 

 'सूत्र संख्या ७३, ७४,७५ की व्याख्या देखो ।

 

१२६


   आधाररूपमें, पवित्रताके लिये, मनुष्योंमें स्थित 'शुभ' के लिये इस प्रकार- का संकल्प ही (यह सामान्य मानव मनमें धर्मात्मा बननेकी आवश्यकताके द्वारा अनूदित होता है) सच्चे आत्मदानके रास्तेमें सबसे बड़ी बाधा है । यही 'मिथ्यात्व' के और विशेष रूपसे पाखण्डके मूलमें विद्यमान है, दूसरे शब्दोंमें, व्यक्ति कठिनाइयोंके बोझके अपने हिस्सेको अपने ऊपर लेना अस्वीकार कर देता है । श्रीअरविंदने इसी बातको इस सूत्रमें बड़े सरल और सीधे ढंगसे छुआ है ।

 

  धर्मात्मा बननेका स्वांग भरनेकी कोशिश मत करो । यह देखो कि तुम किस हदतक समस्त भगवद्विरोधी तत्त्वके साथ युक्त हो गये हो, उसके साथ एक हो गये हो । बोझका अपना हिस्सा अपने ऊपर ले लो, यह स्वीकार कर लो कि तुम स्वयं अपवित्र और झूठे हो । इस प्रकार तुम इस 'काली छाया' को लेकर समर्पित कर सकते हा और जिस हदतक तुम इसे लेकर समर्पित कर सकोगे उसी हदतक वस्तुएं मी बदल जायेगी ।

 

  पवित्र व्यक्तियोंकी सूचीमें अपने-आपको रखनेकी चेष्टा मत करो । जो अंधकारमें निवास करते है उनके साथ रहना स्वीकार करो और फिर समग्र प्रेमसहित सब कुछ भगवान्को सौंप दो ।

 

२१-१-६२

 

 ७१ -- विचार सत्यको लक्ष्य करके छोड़ा हुआ एक तीर है; वह एक बिन्दुपर तो लग सकता है पर समूचे लक्ष्यको आवृत नहीं कर सकता । परन्तु धनुर्धर अपनी सफलतासे इतना संतुष्ट हो जाता है कि उससे अधिक कुछ नहीं चाहता ।

 

 किंतु यह तो स्पष्ट है, यह हमारे लिये कितना स्पष्ट है!

 

    हां, किंतु पूरे लक्ष्यको बेधनेके लिये क्या करना चाहिये?

 

 धनुर्धारी न बने रहो ।

 

   यह रूपक सुन्दर है । यह उन लोगोंके लिये अच्छा है जो ठीक उसी अश्वस्थामें है, जिसमें वे कल्पना करते हैं कि उन्होंने सत्य ढूंढ लिया है !

 

    यह उन- लोगोंके लिये कहना अच्छा है जो यह सोचते है कि चूंकि

 

१२७


उन्होंने एक बिन्दुको छू लिया है, इसलिये उन्होंने सत्य ढूंढ लिया है । किंतु हमने बहुत बार दूसरी बातें भी कही है ।

 

   यह पूछा जा सकता है कि किस हदतक उस दिनसे ही हों जाय, दूसरे शब्दोंमें, वह सब दृष्टिकोणोंको, प्रत्येक वस्तु- की उपयोगिताको जान सके, क्योंकि तब वह देखता है कि प्रत्येक वस्तु उपयोगी है, प्रत्येक वस्तु अपने स्थानपर है । किंतु कार्य करनेके लिये उसे एक प्रकारसे एक ही बिदुपर एकाग्र होना एवं संघर्ष करना पड़ता है?

 

क्या तुम उस दार्शनिककी कहानी जानते हो जो दक्षिण फांसमें रहता था? मुझे उसका नाम अब याद नहो, पर वह एक बड़ा प्रसिद्ध आदमी था, मौपलियेके विश्वविद्यालयमें वह प्राध्यापक था । उसका मकान शहर- के बाहरी छोरपर था । कई सड़कें उसके घरकी ओर जाती थीं । प्रति- दिन वह व्यक्ति अपने विश्वविद्यालयसे निकलता और उस चौराहेपर पहुंचता जहांसे कई सड़कें भिन्न-भिन्न दिशाओंमें जाती थीं । पर वे सब उसके घरकी ओर जाती थीं, एक एक रास्तेसे तो दूसरी दूसरे रास्तेसे और तीसरी एक और रास्तेसे । प्रतिदिन वह चौराहेपर ठहरता और अपने- आपसे पूछता : ''किस सड़कपर चला जाय? '' प्रत्येक सड़कके अपने लाभ और हानियां थी । यह सब उसके मस्तिष्कमें चलता रहता, कभी लाभ और कमी हानियां, कमी. यह, कमी वह और वह प्रतिदिन अपने घरका रास्ता चुननेमें आध घंटा नष्ट करता ।

 

   वह खुद इसे कार्यके लिये विचारकी अक्षमताके उदाहरणके रूपमें दिया करता था । यदि व्यक्ति सोचना शुरू कर दे तो वह कार्य नहीं कर सकता ।

 

  यहां, नीचे, इस स्तरपर, जबतक व्यक्ति धनुर्धारी है और केवल एक बिन्दुको ही छूता है, यह सब बहुत अच्छा है । किंतु ऊपर जानेपर यह बात सत्य नहीं रहती, बिलकुल उलटी हो जाती है! नीचेके स्तरकी सारी बुद्धि ही ऐसी होती है, वह सब प्रकारकी वस्तुएं देखती है, और क्योंकि वह सभी प्रकारकी चीजें देखती है, वह कर्म करनेके लिये चुनाव नहीं कर सकती । किंतु पूरे लक्ष्यको देखनेके लिये, समग्र सत्यको देखनेके लिये व्यक्तिको दूसरे छोरतक जाना होगा । और जब तुम वहां पहुँचते हो, तो तुम अनेक सत्योंका कुल-जोड़ नहीं देखते । अब वह एकके साथ एक जुड़े सत्योंकी अनगिनत संख्याका जोड़ नहीं रहता, जिसे तुम एक-के-बाद-

 

१२८


एक देखते हो और ''समग्र''को एक साथ नहीं पकडू पाते । जब तुम ऊपर, ऊंचाईपर चले जाते हो तो पहले ''समग्र'' को देखते हो, ''समग्र'' एकबारगी तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाता है, इकट्ठा, पूरा, बिना विभाजनके । मौर तब, व्यक्तिको चुनाव -वही करना होता, उसे तब एक अंतर्दृष्टि प्राप्त हो जाती है और यही चीज करने योग्य है । यह इस या उसमें चुनाव नहीं है -- यह -था वह नहीं है -- क्योंकि बात ऐसी नहीं रही । ये वस्तुएं क्रममें नहीं रहीं, जिन्हें तुम एक-के-बाद-एक देखते हो । यहां समग्रताकी एक साथ ही अनुभूति होती है जो एकताके समान ही अपना अस्तित्व रखती है । चुनावका रूप तब केवल अंतर्दृष्टिका ही होता है ।

 

  किंतु जबतक तुम दूसरी अवस्थामें रहते हो, धनुर्धारीके समान, तुम ''समग्र'' को नहीं देख सकते -- तुम क्रमिक रूपमें ''समग्र'' को नहीं देख सकते । तुम एक सत्यको दूसरेके साथ जोड़ती हुए भी ''समग्र'' को नहीं देख सकते । यही मनकी अक्षमता है । मन नहीं देख सकता । वह सदा क्रमिक रूपमें देखेगी, जिसका अर्थ होगा सदा सत्योंको जोड़ना । और यह ऐसा नहीं है - इसमें कुछ-न-कुछ सदा छूट जायगा, सत्यका अर्थ हीं छूट जायगा ।

 

   जब व्यक्तिको एकत्वमें समग्रताका सार्वभौम और युगपत् बोध होता है, केवल तमी सत्यको उसकी समग्रतामें देखा जा सकता है ।

 

  और तब कार्य एक चुनाव मात्र नहीं रह जाता जिसमें भूल हो सकती है, शुद्धि और विवादकी आवश्यकता पंडू सकती है, तब वह जो कुछ करना है, उसका स्पष्ट दर्शन बन जाता है और अचूक होता है ।

 

३-२-६२

 

७२ -- ज्ञानके उदय होनेका लक्षण है यह अनुभव करना कि अभी मैं न के बराबर या कुछ नहीं जानता; और फिर भी, यदि मैं केवल अपने ज्ञानको ही जान पाता तो इसका अर्थ होता कि मैं सब कुछ पा चुका हूं ।

 

   नींदमें कई बार ऐसा लगता है कि व्यक्तिको भविष्यके बारेमें यथार्य हानि प्राप्त हो गया है । इस. ज्ञानमें सब भौतिक बारीकियां तो निहित होती ही है, साथ ही यह असाधारण रूपसे यथार्थ भी होता है, मानों वहां, गुह्य स्तरपर, सब कुछ ब्योरेवार पहले ही संपन्न हों चुका हों । क्या यह शान यथार्थ

 

१२९


होता है? ज्ञानका यह स्तर कौन-सा है? क्या यह एक ही है या एकसे अधिक? जाग्रत् अवस्थामें, चेतन रूपमें, इसतक पहुंचनेके लिये क्या किया जाय? और इसका क्या कारण च है कि गंभीर व्यक्ति, जिन्हेंने भगवत्प्राप्ति कर ली है, अपनी '' भविष्यवाणियोंमें कभी-कमी मोटी भूलें कर जाते हैं?

 

किंतु यह तो एक पूरे-का-पूरा जगत् है! यहां एक प्रश्न नहीं, बीसियों प्रश्न उठ खड़े होते है ।

 

  पूर्वसूचक स्वप्न कई प्रकारके होते हैं, इसमेंसे कई पूर्वसूचक स्वप्न ता तत्काल ही फलीभूत हो जाते हैं, दूसरे शब्दोंमें, रात्रिका स्वप्न अगले दिन ही चरितार्थ हो जाता है, और कुछ पूर्वसूचक स्वप्न ऐसे होते हैं जिनके पूरा होनेमें थोड़ा-बहुत समय लगता है । और अपना समय-संबंधी स्थितिके अनुसार ये स्वप्न विभिन्न क्षेत्रोंमें देखे जाते हैं ।

 

  जितना अधिक व्यक्ति पूर्ण निश्चयताके निकट पहुंचता है उतनी अधिक ही दूरी बढ़ जाती है, क्योंकि ये अंतर्दर्शन  एक ऐसे जगतोमें प्राप्त होते है जो 'मूलस्रोत' के बहुत निकट है । जो कुछ होनेवाला है उसके साक्षात्कार और उसकी चरितार्थताके बीचका समय बहुत लम्बा हो सकता है । किंतु साक्षात्कार निश्चयात्मक है, क्योंकि वह 'मूलस्रोतके अत्यन्त निकट है । एक ऐसा स्थान है जहां व्यक्ति सर्वोच्च सत्ताके साथ एक हों जाता है, जहां व्यक्ति भूत, भविष्य और वर्तमानके बारेमें सर्वत्र सब कुछ जानता है । किंतु साधारणतया होता यह है कि लोग वहां जाते है पर लौटनेपर, जो देखा था वह भूल जाते हैं । उसे याद रखनेके लिये एक विशेष प्रकारके कठोर अनुशासनकी आवश्यकता है । और यही वह एकमात्र स्थान है जहां व्यक्ति गलती नहीं कर सकता ।

 

  किंतु जोड़नेवाली टांके या कड़िया सदा पूरे नहीं होते, इसलिये व्यक्ति कभी-कदास ही याद रख सकता है ।

 

  हां, तो मैं यह कह रही थी कि जिस स्तरपर व्यक्ति यह सब देखता है, उसके अनुसार वह स्वप्नकी चरितार्थताके समयके बारेमें अनुमान लगा सकता है । तात्कालिक वस्तुएं तो पहलेसे ही हो चुकती हूं, इनका अइइग्स्तत्व सूक्ष्म-भौतिक जगत् में पहलेसे होता है और इन्है वहां देखा जा सकता है - बस, ये वहां है, इनका वहां अस्तित्व है - ये केवल स्थूल जगत् की प्रतिमूर्तिके प्रतिबिम्ब (केवल प्रतिलिपि नहीं) अथवा प्रतिच्छायाएं होती हैं जो अगले दिन या कुछ घंटोंके बाद घटेंगी । वहां तुम वस्तुको यथार्थ रूपमें उसकी सब बारीकियां सहित देखते हो, क्योंकि वह वहां

 

१३०


पहलेसे ही होती है । सब कुछ स्वप्न, उसकी यथार्थता और उसकी शक्तिपर निर्झर करता है । यदि तुममें स्वप्नगत सूक्ष्म-दर्शनकी प्रत्यक्ष और सच्ची शक्ति है तो तुम वस्तुको यथार्थ रूपमें देख लोग; पर यदि तुम इसके साथ अपनी भावनाएं और धारणाएं जोड़ दोगे तो वह अंतर्दर्शन इनसे प्रभावित हो जायगा । अतएव, सूक्ष्म-भौतिक जगत् में यथार्थता पूर्णतया यंत्रपर निर्भर करती है, अर्थात्, स्वप्नद्रष्टा- पर ।

 

  किंतु ज्यों ही तुम एक अधिक सूक्ष्म क्षेत्रमें प्रवेश करते हो, उदाहरणार्थ, प्राणके क्षेत्रमें या मनके क्षेत्रमें जाते हो जो और भी अधिक सूक्ष्म है, तो वहां -- मन ही नहीं, प्राणके क्षेत्रमें भी -- संभावनाओंकी गुंजायश पैदा हो जाती है । तब तुम स्थूल रूपमें यह जान सकते हों कि आगे क्या होनेवाला है, पर ब्योरेमें फर्क पंडू सकता हैं : यहां इच्छाएं और प्रभाव हस्तक्षेप करके विभेद उत्पन्न कर सकते है ।

 

  और इसका कारण यह है कि मूल 'संकल्प-शक्ति' विभित्र क्षेत्रोंमें प्रतिबिंबित होती है और प्रत्येक क्षेत्र उन प्रतिमूर्तियोंकी व्यवस्था और संबंधको बदल देता है । यह जगत् जिसमें हम रहते हैं प्रतिमूर्तियोंका जगत् है । यह अपने सार रूपमें वह वस्तु नहीं, बल्कि वस्तुका प्रतिबिम्ब है । यह कहा जा सकता है कि हम, अपने भौतिक जीवनमें, केवल एक प्रतिबिम्ब हैं, अर्थात्, जो कुछ हम अपनी मूल वास्तविकतामें हैं, उसकी प्रतिमूर्ति है और इन प्रतिबिम्बोंके ढंग ही मूलों और असप्यताको उत्पन्न करते हैं - जो कुछ तुम सार रूपमें देखते हों वह पूर्णतया सत्य और विशुद्ध होता है तथा सनातन कालतक रहता है, प्रतिमूर्तिया तत्वतः बदलती रहती है । और स्पंदनोंमे असत्यता जितनी अधिक होती है विकृति बार परिवर्तन मी उतने हीं अधिक हो जाते हैं । हम कह सकते है कि प्रत्येक परिस्थितिका, प्रत्येक घटना और प्रत्येक वस्तुका एक विशुद्ध अस्तित्व होता है, जो कि उसका सच्चा अस्तित्व है, पर उसी वस्तुकी सत्ताके विभिन्न क्षेत्रोंमें बहुत-सें अशुद्ध या विकृत अस्तित्व भी होते हैं । उदाहरणार्थ, बौद्धिक क्षेत्रमें विकृति शुरू हो जाती है, मानसिक क्षेत्रमें मी बद्रुत-सी विकृतियां आ जाती है और जब आवेशों और वेदनोंके क्षेत्र हस्तक्षेप करते हैं तो इनकी' संरलग और भी बढ़ जाती है । ओर भौतिक स्तरपर पहुचते-न-पहुचते तो प्रायः इन्हें, पहचाना मी नहीं जा सकता, बे बिलकुल ही विकृत हों जाते हैं, इस हदतक कि कभी-कमी यह जानना कठिन हों जाता है कि यह उसीकी स्थूल अभिव्यक्ति है -- उनमें अधिक समानता नहीं होती ।

 

१३१


  समस्याको सुलझानेका यह एक नया ढंग है और यह कई अन्य वस्तुओं- को समझनेके लिये कुंजी प्रदान कर सकता है ।

 

  अतएव, जब तुम एक व्यक्तिको भली-भांति जानते हों, और तुम्हें उसे भौतिक रूपमें देखनेका अभ्यास है, यदि तुम उससे सूक्ष्म-भौतिक जगत् में औमलो तो तुम्हें उसके बारेमें कई और वस्तुओंका पता लगेगा जो अधिक सुनिश्चित, प्रत्यक्ष और महत्त्वपूर्ण हैं, जिन्हें तुमने भौतिक रूपमें पहले नहीं देखा था, क्योंकि स्थूल जगत् की धूमिलतामें वे उसी स्तरपर दूसरी वस्तुओं- अ समान ही प्रतीत हुई थीं । कुछ ऐसे चरित्र या चरित्रके व्यक्त रूप होते हैं जो इतने महत्त्वपूर्ण होते हैं कि भली-भांति देखें जा सकते है, पर वे भौतिक रूपमें प्रकट नहीं हुए । जब तुम इसी व्यक्तिको भौतिक रूपमें देखते हों तो तुम उसके वर्णको, उसके नाक-नक्वोको, उसके मुखके भावकों देखते हो । उसी समग यदि तुम उसे सूक्ष्म- भौतिक जगत् में देखो तो तुम्है अचानक दिखायी देगा कि उसके शरीरके एक मागका एक रंग है और दूसरेका दूसरा, उसकी अग्रवोंमें एक ऐसा भाव है, ऐसी ज्योति है जो पहले बिलकुल दिखायी नहीं देती थी, और सबसे बढ़कर, समस्त आकृति एक भिन्न वस्तुका अभ्यास देती है, एक ऐसी वस्तुका जो हमारी भौतिक आखोंको व्यर्थ प्रतीत होगी पर जो सूक्ष्म दृष्टिके लिये बड़ी स्पष्ट और स्वभावको प्रकट करने- वाली होगी । वह उन प्रभावोंको मी व्यक्त कर देगी जिनके अधीन व्यक्ति रहता है (जो कुछ मै' यहां कह रही हू वह अभी कुछ दिन पहले मेरे अपने अनुभवमें आया. था) ।

 

  अतएव, जिस हदतक तुम चेतन होते हो और जिस स्तरसे तुम देखते हो उसीके अनुसार तुम प्रतिमूर्तियो और घटनाओंको थोड़ा-बहुत निकटसे और थोड़ा-बहुत यथार्थ रूपमें देखते हो । केवल एक इ। दृष्टि सच्ची और सुनिश्चित है और वह भागवत चेतनाकी दृष्टि है । अब समस्या है इस भागवत खतनाके प्रति सचेतन होनेकी ओर इस चेतनाको सर्वदा, समस्त बारीकियोंमें बनाये रखनेकी ।

 

   यहांसे वहांतक, संकेतोंको प्राप्त करनेके कई ढंग है । यथार्थ और निश्चित दृष्टिके, जिससे कुछ लोग परिचित है, कितने ही स्रोत हों सकते है । जब व्यक्तिको अपनी परिस्थितियोंके प्रति सचेतन रहनेका अभ्यास हों जाता है तो उसे यह दृष्टि परिस्थितियों और वस्तुओंके साथ तादात्म्य स्थापित करनेपर प्राप्त हो सकती है । यह संकेत अदृश्य जगत् के उस वाचाल प्राणकिए द्वारा दिया जा सकता है जिसे भविष्यमें होनेवाली वस्तु- की पूर्व सूचना देखनेमें आनन्द आता है -- ऐसा अधिकतर होता है । ऐसी

 

१३२


अवस्थामें सब कुछ ''घोषणा करनेवाले''के नैतिक गुणपर निर्भर करता है । यदि उसे तुम्हें छकाकर सुख मिलता है तो वह तुम्हें सब प्रकारकी. कहानियां सुनायेगाजो लोग इन सताओंसे सूचनाएं प्राप्त करते है उनके साथ प्रायः ऐसा ही होता है । वे लोगोंको फंसानेके लिये पहले तो भविष्यमें होनेवाली घटनाओंके बारेमें बताते है, क्योंकि उन्है प्राण या मन- ख किसी क्षेत्रकी व्यापक दृष्टि प्राप्त है, और जब उन्हें यह पक्का निश्चय हो जाता है कि तुम उनमें विश्वास करते हो, तो वे तुम्हें काल्पनिक कहानियां भी सुनाना आरंभ कर सकते हैं, दूसरे शब्दोमें, तुम मूर्ख बनाये जाते हो । ऐसा प्रायः होता है । अपनी. ओरसे तुम्है इन प्राणियों अथवा सत्ताओंकी चेतनासे - जिन्हें, छोटे देवता मी कहा जाता है -- अधिक उच्च चेतनामें निवास करना चाहिये तथा इनकी घोषणाओंके मूल्य- को ऊपरसे नियंत्रित कर सकना चाहिये ।

 

  यदि तुममें वैश्व मानसिक दृष्टि है तो तुम समस्त मानसिक रचनाओंको देख सकते हो; तुम देखते हों -- और यह बड़ा मनोरंजक होता है - कि किस प्रकार मानसिक जगत् भौतिक स्तरपर चरितार्थ होनेके लिये अपने-आपको संगठित करता है । तुम कई विभिन्न रचनाओंको देखते हो, इनके एक-दूसरेके निकट आने, संघर्ष करने, संयुक्त होने तथा अपने-अ ।पक संगठित करनेके ढंगको भी देखते हो; उन रचनाओंको भी जो सबल होती हैं और अपना प्रभाव डालती है तथा जिन्हें अधिक पूर्ण चरितार्थता भी प्राप्त हो जाती है । अब यदि तुम सचमुच उच्चतर दृष्टि प्राप्त करना चाहते हों तो तुम्हें इस मानसिक जगत् से बाहर निकलकर उन मूल संकल्प- शक्तियोंको देखना पड़ेगा जो अपने-आपको अभिव्यक्त करनेके लिये ही नीचे उतरती है । इस अवस्थामें, तुम्हें सब ब्योरेका पता न भी लगे, पर मुख्य तथ्य, अर्थात्, तथ्यका केन्द्रीय सत्य अवश्य ही निर्विवाद, सत्य एवं पूर्णतया ठीक होता है ।

 

  ऐसे लोग भी होते है जिनमें उन चीजोंके बारेमें भविष्यवाणी करनेकी शक्ति है जिनका पृथ्वीपर अस्तित्व है पर जो दूर, बहुत दूर, भौतिक आंखोमें बहुत दूर हैं - साधारणतया, इन लोगोंमें अपनी चेतनाको बढ़ाने और विस्तारित करनेकी योग्यता होती है । इनमें भौतिक दृष्टि तो होती है, पर वह जरा अधिक सूक्ष्म होती है जो विशुद्ध भौतिक इन्द्रियसें अधिक सूक्ष्म इन्द्रियपर निर्भर करती है (इसे इस अंगकी जीवन-शक्ति भी. कहा जा सकता है) । और तब व्यक्ति इस चेतनाको विस्तारित करके तथा देखनेका संकल्प करके भली-भांति देख सकता है, वह वस्तुओं- को देखता है -- वे पहलेसे ही वस्तुत: वहां होती हैं, केवल वे हमारी

 

१३३


सामान्य दृष्टिके क्षेत्रमें नहीं होती । जिन लोगोंमें यह क्षमता होती है, और जो लोग वही कहते है जो कुछ देखते हैं, अर्थात्, जो सच्चे होते है, गप्प नहीं हाँफते, वे पूर्णतया यथार्थ और ठीक ढंगसे देखते है ।

 

  '' मूलतया तो, इन भविष्यद्रष्टाओं या भविष्यवक्ताओंमें एक बड़ी बात होनी चाहिये और वह है उनकी पूर्ण सच्चाई । किन्तु दुर्भाग्यसे, लोगोंकी उत्सुकता, उनके आग्रह और दबावके कारण - जिसका बहुत कम लोग सामना कर सकते है - होता यह है कि यदि किसी वस्तुको वे यथार्थ और निश्चित रूपमें नहीं देखते तो उनकी आन्तरिक कल्पना-शक्ति जो प्रायः ही उनकी इच्छाके बिना भी वहां उपस्थित हो जाती है, किसी छोटे तत्त्वको वहां जोड़ देती है जिसकी कमी थी । यही चीज भविष्यवाणियों- मे त्रुटियां पैदा करती है । बहुत कम लोगोंमें यह कहनेका साहस होता है : ''ओह, नहीं, यह मै नहीं जानता, मुझे इसका पता नहो है'' -- इतना ही नहीं, उनमें अपने-आपसे भी यह कह सकनेका साहस नहीं होता । और तब जरा-सी कल्पना-शक्तिका प्रयोग कर, जो प्रायः अवचेतन रूपमें ही कार्य करती है, बे बोधकों, सूचनाको पूरा कर देते हैं - तब कुछ भी हो सकता है । बहुत कम इसका प्रतिरोध कर सकते हैं । मैं बहुत, बहुत- से ऐसे सिद्ध पुरुषोंको जानती थी, मै इस अद्भुत प्रतिभासे संपन्न बहुत- से लोगोंको जानती थी; पर उनमें ऐसे बहुत कम थे जो ठीक वहीं रुक जाना जानते थे जहां उनका ज्ञान समाप्त होता है । तो हां, जब ब्योरे- का प्रश्न उठता है, कक्ष कुछ जोड़ देते हैं । यही चीज इन शक्तियोंको एक संदिग्धताका गुण प्रदान कर देती है । व्यक्तिको सचमुचमें सन् होना चाहिये - एक महान् सन्, एक महान् ऋषि - और पूर्णतया स्वतंत्र होना चाहिये, उसे लोगोंके प्रभावमें किसी प्रकार मी नहीं आना चाहिये (स्वभावत: ही मैं यहां उन लोगोंकी बात नहीं कर रही जो दुनियामें यश और नाम चाहते हैं, क्योंकि, उस अवस्थामें बे सबसे स्थूल जालोंमें जा फंसते है) । फिर भी, यदि तुम सद्भावनावश लोगोंको सन्तुष्ट एवं प्रसन्न करना चाहते हो, उनकी सहायता करना चाहते हो, तो यही वस्तुओंको विकृत करनेके लिये काफी है ।

 

जब सूक्ष्म-भौतिक जगत् में घटनाएं तैयार हो जाती हैं और हमें इसे जाननेकी दृष्टि भी प्राप्त हो जाती है तो क्या वस्तुओंको बदलनेका समय निकल जाता है? या तब भी व्यक्ति उनपर क्रिया कर सकता है?

 

१३४


मै यहां एक बड़ा मनोरंजक उदाहरण देती हू । एक बार एक दैनिक पत्र 'ल माते' (Le Matin) (बहुत समय पहले जब कि तुम बहुत छोटे-से होंगे) रोज एक छोटा-सा संकेत निकलता था जिसमें एक लड़का किसी वस्तुकी ओर उंगलीसे संकेत करता था (वह साईस अथवा होटलके लड़के- के वेशमें होता था), वह हमेशा तारीख दिखाता था या मुझे नहीं मालूम क्या दिखाता था - वह एक छोटा-सा सकुच होता था । वस्तुत: जिस व्यक्तिसे यह कहानी सम्बन्धित है वह एक यात्री था और एक बड़े होटलमें ठहरा था, किस शहरमें यह मुझे याद नहीं । हां, तो एक रात या सवेरे, बहुत सवेरे उसे एक स्वप्न आया । उसने देखा कि यह लड़का, यह साईस उसकी मुर्दागाड़ीकी ओर संकेत कर रहा है (जिसमें मृत व्यक्ति यूरोपमें कब्रिस्तानतक ले जाये जाते है), और उसे उसके अन्दर बैठनेके लिये कह रहा है । उसने यह देखा ओर फिर प्रातःकाल जब वह तैयार हुआ और अन्यने कमरेसे बाहर निकला जो कि बहुत ऊंची मंजिलपर था, तो उसने देखा वहां वही लड़का, उसी वेशमें, उसे नीचे जानेके लिये लिपटमें आनेका संकेत दे रहा है । यह देखकर उसे एक धक्का-सा लगा । उसने मना कर दिया और वह बोला : ''न धन्यवाद! '' वह लिपट बीचमें ही गिरा और टूट गया और जितने आदमी उसके अन्दर थे वे सब मर गये ।

 

  इस व्यक्तिने मुझे स्वयं कहा था कि इसके बादसे वह स्वप्नोंमें विश्वास करने लगा!

 

यह एक पूर्णबोध था । उसने उस लड़केको देखा, किन्तु लड़केने लिपटकी जगह उसे मुर्दागाड़ी दिखायी । और जब उसने संकेतक अनुसार उसी लड़के और उसी संकेतको देखा, तो उसने कह दिया : '', धन्यवाद । मै पैदल ही नीचे उतरंग ।'' और बह लिपट (जो जलशक्तिसे चलता था) रास्तेमें ही टूटकर ढेर हों गया । यह सब ऊपर ही हुआ, वह वहीं चूर-चूर हों गया !

 

  मै इसकी व्याख्या यों करती हू कि किसी सत्ताने उसे पूर्व चेतावनी दे दी थी; उस होटलके लड़केकी प्रतिमूर्ति यह सोचनेको उकसाती है कि वहां बुद्धिने, चेतनाने हस्तक्षेप किया था, यह उसकी अवचेतना नहीं थी, अथवा यह मी हो सकता है कि उसकी अवचेतनाने सूक्ष्म-भौतिक जगत् में यह बात जान या देख ली थी कि आगे क्या होनेवाला है । किन्तु उसकी अवचेतनाने ऐसी प्रतिमूर्ति क्यों गढ़ी? मुझे पता नहीं । शायद अव- चेतनाकी कोई चीज इसके बारेमें जानती थी, क्योंकि यह बात पहलेसे वहां, सूक्ष्म-भौतिक जगत् में मौजूद थी । यह दुर्घटना अपने घटित होनेके पहले ही वहां थी - यह दुर्घटना का नियम है ।

 

१३५


   स्पष्ट ही, प्रत्येक दशामें, सदा ही, कभी कुछ घंटोंका (बस यही अधिक- से-अधिक है), तो कमी कुछ सेकंडका फर्क होता है । ओर अधिकतर तो वस्तुएं तुम्हें बता देते। है कि वे वहां उपस्थित है, और तब उन्है तुम्हारी चेतनाके साथ सम्बन्धमें आनेमें कर्मों कुछ मिनट लगते है तो कमी कुछ सेकंड । मै लगातार, लगातार यह जानती हू कि आगे क्या होनेवाला है, उन वस्तुओंके बारेमें भी जिनमें मुझे कोई रुचि नहीं है । पहलेसे वस्तुओंके बारेमें जाननेका कुछ विशेष प्रयोजन नहीं है, क्योंकि इससे कुछ बदलता नहीं । किन्तु इनका अस्तित्व है, ये तुम्हारे चारों ओर मौजूद हैं - यदि तुम्हारी चेतना काफी विस्तृत है, तुम यह सब जान जाते हो, उदाहरणार्थ, अमुक व्यक्ति कोई वस्तु लायगा, ऐसे और भी उदाहरण हैं । और प्रतिदिन ऐसा होता है, या फिर अमुक आदमी आनेवाला है । इसका कारण यह है कि हमारी चेतना विस्तृत होकर चीजोंके साथ संपर्क प्राप्त कर लेती है ।

 

किन्तु उस अवस्थामें यह नहीं कहा जा सकता कि वह पूर्वसूचना देती है । क्योंकि वह वस्तु तो वहां पहलेसे मौजूद होती. है, केवल उसे हमारी इन्द्रियोंके साथ सम्पूर्ण स्थापित करनेमें कुछ समय लगता है क्योंकि वहां कोई ऐसा दरवाजा या दीवार या कोई और चीज है जो देखनेसे रोकती है ।

 

  किन्तु मुझे कई बार ऐसे अनुभव हुए है । उदाहरणार्थ : मै एक बार पर्वतीय प्र देशमें घूम रहीं थी, मैं एक ऐसे रास्तेपर चल रही थी जहां केवल एक ही आदमीके चलने लायक स्थान था - एक ओर ऊंचा पहाड़ तो दूसरी ओर एक सीधी चट्टान । मेरे पीछे तीन बच्चे थे ओर उनके पीछे एक अन्य व्यक्ति था । मै सबसे आगे थी । मार्ग चट्टानोंमेंसे हप्पे कर जा रहा था और वह किधर जा रहा है यह देखना संभव नहीं था (साथ ही वह बड़ा संकटपूर्ण भी था, यदि पैर फिसल जाय, तो आदमी सीधा खन्दकमें जा गिरे) । मैं सबके आगे थीं, अचानक ही मैंने देखा, इन आंखोसे नहीं, दूसरी आंखोसे (यद्यपि मै बड़े ध्यानसे अपने पैरोंकी ओर देख रही थी), मैंने वहां, चट्टानके दूसरे सिरेपर एक सांप देखा । मैंने धीरे-से एक पग आगे बढ़िया और सचमुच ही. दूसरी ओर एक सांप था । इससे मै आश्चर्यके पहले धक्केसे बच गयी क्योंकि मैंने उसे पहले- से ही देख लिया था और सावधानीसे आगे बूढी थी । और क्योंकि मुझे यह धक्का नहीं लगा, मै बच्चोंको भी बिना आघात पहुंचाये यह बता सकी : ''ठहरो, चुप रहो, हीलों मत ।'' यदि यह आघात लगता तो कुछ भोज हों सकता था. । सांपने शोर सुन लिया था । वह कुंडली मारकर

 

१३६


अपने बिलके आगे अपने बचावके लिये तैयार बैठा था, उसका सिर झूम रहा था - वह एक बड़ा विषैला सांप था । यह घटना फांसमें घटी थीं । उस दिन कुछ नहीं हुआ । पर यदि कुछ गड़बड़ या हों-हल्ला होता तो पता नहीं क्या कुछ हों जाता ।

 

  इस प्रकारकी बातें मेरे साथ बहुत, बहुत बार हों चुकी है (सांपके सम्बन्धमें ऐसा मेरे साथ चार बार हों चुका है) । एक बार, रात्रिका समय था, ऐसा यहीं, अरिहन कुप्पम् नामक एक मछुओंके गांवमें हुआ था । यह घटना नदीके पास हुई, ठीक उस स्थानपर जहां बह समुद्रमें गिरती है । रात्रिका समय था । सूर्यास्त शिक्षे होनेसे बहुत जल्दी रात हो गयी थी । हम सड़कपर चल रहे थे ओर ठीक उस समय जब कि मै अपना पैर रखने ही वाली थी - बल्कि मैंने पैर उठा लिया था और उसे नीचे रखने ही वाली थी - मैंने अपने कानमें एक स्पष्ट आवाज सुनी : ''सावधान''! हालांकि उस समय कोई भी बोला नहीं था । तब मैंने सिर उठाया ओर ठीक उस समय जब कि मेरा पैर जमीनको छूने वाला था मैंने एक बड़ा काला नाग देखा, मै उसके ऊपर बड़े आरामसे पैर रख सकती थी - ये ऐसे जीव है जो इसे पसन्द नहीं करते । बह सरककर नदी पार कर गया । मेरे कच्चे, कितना सुन्दर था वह! उसका फन फैला था, सिर ऊंचा किये राजसी ढंगसे वह नदी पार कर गया । यह सब बाह्य रूपसे हुआ । स्पष्ट ही उस दिन मुझे अपनी अशिष्टताका दण्ड मिल गया होता ।

 

  ऐसी सैकड़ों बातें मेरे साथ हों चुकी है, ठीक एक सेकण्ड पहले, उससे जल्दी नहीं, मुझे सूचना मिल जाती थी, और बहुत भिन्न परिस्थितियोंमें । एक बार परिसीमे मै सेठ मिशल बुधवार  को पार कर रही थी (यह पिछले सप्ताहोंकी बात थी; मैंने यह निश्चय कर दिया था कि इतने महीनोंमें मुझे आन्तरात्मिक-सत्ताके साथ, आन्तरिक भागवत सत्ताके साथ संयुक्त हों जाना है और मैं केवल उसीकी' बात सोच रही थी, मेरा इसके अतिरिक्त और किसी चीजसे कोई सरोकार न था) । मैं उस समय लक्समबर्गके पास रहती थी और शामको रोज लक्समबर्गके घूमनेके लिये जाती थी, पर मै सदा अन्तर्मुख ही रहती थी । वहां एक चौराहा- सा था और अन्तमइउख रहते हुए पार करनेके उपयुक्त वह स्थान नहीं था, यह बहुत बुद्धिसंगत मी नहीं था । इस प्रकार एक दिन जब मै उसी अवस्थामें चल रही थी, अचानक मुझे एक धक्का-सा लगा, मानों किसीने मेरे ऊपर चोट की हों । मै स्वभावतया पीछेकी ओर कुंदी और ज्यों ही मैं पीछे कुंदी एक ट्रामकार वहांसे निकल गयी - इस ट्रामकारकी

 

१३७


उपस्थितिको मैंने एक हाफकी दूरीसे अनुभव कर लिया था । इसने मेरे घेरेको, मेरे सुरक्षाके घेरेको छू लिया था (वह उस समय बहुत सशक्त था, वह गुह्य शक्तिसे भरपूर था, और मैं उस शक्तिको रखना जानती थी) सुरक्षाके इस ज्योतिमण्डलको उसका स्पर्श प्राप्त हो गया था और ! सचमुच मुझे पीछेकी ओर फेंक दिया, मानों मुझे कोई भौतिक आघात लगा हों । साथ ही मुझे चालककी गालियां भी सुन्नी पड़ी, मै पीछेकी ओर कुंदी और ट्रामकार ऐन समयपर निकल गयी ।

 

  मुझे अधिक याद नहीं पर तो भी ऐसे बीसियों प्रसंग मै तुम्है सुना सकतीं हू ।

 

  इसके कारण बहुत विभिन्न हों सकते हैं । प्रायः तो ऐसा होता था कि कोई मुझे सूचना दे देता था : एक छोटी-सी सत्ता, कोई प्राणी । और कभी-कमी यह सुरक्षाका घेरा ही रक्षा करता था, सब प्रकारकी वस्तुओंके । दूसरे शब्दोंमें, जीवन केवल भौतिक शरीरतक ही सीमित नहीं था - ऐसा होना सुविधाजनक था, अच्छा था । यह आवश्यक मी है, यह तुम्हारी योग्यताओंको बढ़ाता है । यही बात उस समय मुझे एक ब्यक्तिने कही थी जो मुझे गुह्य विद्या सिखाता था : ''तुम अपनी इंद्रियोंसे, जो बड़ी उपयोगी वस्तुएं हैं, काम नहीं लेती, अति सामान्य जीवन- के लिये भी नहीं ।'' यह सच है, बिलकुल सच है । जितना कि हम सामान्यतया जानते हैं उससे अनंतगुना अधिक हम अपने इंद्रियज्ञान उपयोग करके जान सकते हैं, केवल मानसिक दृष्टिकोणसे ही नहीं, प्राणिक और भौतिक दृष्टिकोणसे मी ।

 

    किंतु इसकी विधि क्या है?

 

ओह! विधि बड़ी सरल है । इसके लिये कुछ अभ्यास है । यह उसपर निर्भर करता है जो व्यक्ति करना चाहता हों ।

 

  यह कई बातोंपर अवलंबित है, प्रत्येक वस्तुकी अपनी विधि होती है । पहली विधि है -- सबसे पहले इसे चाहना, अर्थात्, इसके लिये निश्चय करना । तब तुम्है इन इंद्रियों तथा इनके कार्य करनेके ढंगके विषयमें बताया जायगा -- एक लंबा कार्य है । तुम एक या अधिक इंद्रियोंके जो, या उसे लो जिससे तुम अधिक सुगमताके साथ आरंभ कर सकते हो और तब अपना निश्चय बना लो और नियमोंका पालन करो । ये भी उसी प्रकारके व्यायाम है जिन्हें तुम अपनी मांसपेशियोंके विकासके लिये करते हो । तुम इस प्रकार अपने अंदर संकल्प-शक्ति भी पैदा कर सकते हों ।

 

१३८


  किंतु अधिक सूक्ष्म वस्तुओंके लिये विधि यह है कि जो कुछ व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है उसकी यथार्थ प्रतिमूर्ति गढ़ ले, उसके अनुरूप स्पदनोंके संपर्क प्राप्त कर ले ओर तब एकाग्र होकर अभ्यास करे -- ये अभ्यास होंगे किसी वस्तुके पार देखना या किसी आवाजके पार सुनना', या दूरीसे देख लेता । उदाहरणार्थ, एक बार मै बहुत समयतक, कई महीनों बीमार होकर बिस्तरमें ही रही और बहुत उकता गयी - मैं कुछ देखना चाहती थी । मैं एक कमरेमें थी जिसके दूसरी ओर एक और छोटा-सा कमरा था । उस छोटे कमरेके अंतमें एक तालाब जैसा था जो कि बगीचेके बीचमें एक जिनमें बदल गया; यह जीना किसी बहुत बड़ी और सुन्दर शिल्पशालामें जाता था जो बगीचेके बीचोंबीच बनी थी । क्योंकि मै कमरेमें लेटे-लेटे तंग आ गयी थी, मैं यह देखना चाहती थी कि उस शिल्पशालामें क्या हों रहा है । फिर मैंने पूर्णतया शांत होकर अपनी आंखें बंद कर लीं और अपनी चेतनाको थोडा-थोडा करके, थोडा-थोडा करके बाहरकी ओर भेजना आरंभ किया । रोज-रोज, एक निश्चित समयपर, नियमके मैं यह अभ्यास करने लगी । पहले तो तुम अपनी कल्पनाका प्रयोग करते हो, पर पीछे वह एक तथ्य बन जाता है । कुछ समयके बाद, मुझे भौतिक रूपसे यह अनुभव होने लगा कि मेरी दृष्टिका स्थानांतर हो रहा है : मैं उसका अनुसरण करती रही और तब मैं वहां, नीचेकी वस्तुओंको देखने लगी जिनके बारेमें मै कुछ भी नहीं जानती थ-। । बादमें मैंने जांचकर देखा । शामको मैं पूछा करती थी : ''क्या यह ऐसा है, क्या वह वैसा था? क्या वह वस्तु ऐसी थी? ''

 

   किंतु इसमेंसे हर चीजके लिये तुम्है महीनों धैर्य ओर एक प्रकारके आग्रहके साथ कार्य करना पड़ेगा । एक-एक इंद्रियको, आंख, कानको लो, यहांतक कि तुम स्वाद, सुगंध और स्पर्शके सूक्ष्म ज्ञानको प्राप्त करनेमें भी सफल हो सकते हो ।

 

   माताजीने इसे अधिक सुस्पष्ट करके यों कहा : ''आवाजके पीछेसे सुन लेना, किसी भौतिक तथ्यके, किसी शब्द, आवाज, उदाहरणार्थ, संगीत- के पीछे स्थित सूक्ष्म सत्ताके संपर्कमें आना । व्यक्ति एकाग्र होकर इन चीजोंके पीछेका' आवाज सुन लेता है । ऐसा तब होता है जब वह अपने-आपको उस प्राणिक सत्ताके संपर्कमें ले आता है जो बाह्य प्रतीतियोंके कछु होती है ( यह मानसिक सत्ता भी हो सकती है, किंतु साधारण- तया जो सत्ता भौतिक आवाजके पीछे होती है वह प्राणिक सत्ता ही होती

 

१३९


  मानसिक दृष्टिकोणसे यह अधिक सरल है, क्योंकि वहां तुम्हें एकाग्र होनेका अभ्यास है । अनुमानोंके द्वारा किसी समस्याका हल निकालनेके स्थानपर जब तुम सोच-विचारकर उसका समाधान ढूंढना चाहते हो तो तुम सब कुछ बंद करके एकाग्र, केवल एकाग्र होनेकी कोशिश करते हो, मस्याके केंद्रको तीव्र बनाते हो - तुम सब कुछ बंद करके प्रतीक्षा करते हों, जबतक कि एकाग्रताकी शक्तिके फलस्वरूप तुम्है उत्तर नहीं मिल जाता । पर इसमें मी थोड़ा समय लगता है । किंतु यदि तुम अच्छे विद्यार्थी हो ता- तुम्है इस बातको करनेका अभ्यास होगा, और यह बहुत कठिन नहीं है ।

 

  भौतिक इन्द्रियोंको एक प्रकारसे विस्तारित किया जा सकता है । उदाहरणार्थ, रेड इण्डियन लोगोंकी सुनने और सूंघनेकी शक्ति हमारी इस प्रकारकी शक्तिसे कहीं अधिक होती है - और कुत्तोंकी ! मैं एक रेड इण्यिनको जानती थी ( जब मैं आठ या दस वर्षकी बच्ची ही थी, वह मेरा मित्र था, वह बफेलोबिल नामक व्यक्तिके साथ आया था । वह हिपोड्रोम सरकसका समय था । यह बहुत दिनोंकी बात है, हां, मै उस समय आठ वर्षकी थी) । वह इतना होशियार था कि जमीनके साथ अपना कान लगाकर और इस प्रकार स्पदनोंके तीव्रता पहचानकर दूरीको जान लेता था । उसे यह पता लग जाता था कि किस दूरीसे आदमीके चलनेकी आवाज आ रही है । इसके बाद सभी बच्चे कहने लगे : ''मै भी जानना चाहता हू । '' और तब तुम प्रयत्न करते हों और इसी' प्रकार तुम अपने-आपको तैयार कर लेते हो । तुम सोचते हो तुम खेल रहे हों पर इसमें तुम आगेके लिये तैयारी कर रहे होते हों ।

 

२६-२-६२

 

    ७३ -- जब प्रज्ञा आती है तो उसका सबसे पहला पाठ होता है : ''ज्ञान जैसी कोई चीज नहीं है; हैं केवल अनंत परमदेवकी झांकियां ।''

 

यह ठीक है ।

 

 प्रश्नकी आवश्यकता नहीं है ।

 

   ७४-व्यावहारिक ज्ञान एक दूसरी हा वस्तु है; बह सच्च

 

१४०


और उपयोगी होता है, परंतु वह कभी पूर्ण नहीं होता । अतएव उसे व्यवस्थित और विधिवत् करना आवश्यक पर नाश- कारी होता है ।

 

 ७५ -- व्यवस्थित तो हमें करना ही होगा, पर व्यवस्था बनाते और मानते समय भी हमें सर्वदा इस सत्यको दृढ़ता- पूर्वक पकड़ रहना होगा कि सभी अव्यवस्थाएं अपने स्वभावमें क्षणस्थायी और पूरण होती हैं ।

 

मैंने यह बहुत बार देखा है । एक ऐसा भी समय था जव मै सोचती थी कि यदि व्यक्ति भौतिक प्रकृतिकी संपूर्ण क्रियाके, जैसा कि हम उसे 'अज्ञान'के जगत् में देखते हैं, समग्र, पूर्ण और सर्वांगीण ज्ञानको प्राप्त कर ले, तो शायद इससे हम वस्तुओंके सत्यको फिरसे प्राप्त कर सकें या उस- तक नये सिरे से पहुंच सकें । पर अपने पिछले अनुभवों के बाद मैं ऐसा नहीं सोच सकती ।

 

   मुझे पता नहीं, लोग मुझे समझ पा रहे है या नहीं... । एक समयतक, एक बहुत लंबे समयतक, मैं यह सोचती रही कि विज्ञान - यदि वह पूर्णतया अपनी संमाव्यताओंके अन्ततक पहुंच जाय (यदि यह संभव हो) तो सच्चे 'ज्ञान'तक पहुंच जायगा । उदाहरणार्थ, 'जड़-पदार्थ'की रचनाका अध्ययन करते हुए तथा खोजकी प्रवृत्तिमें आगे बढ़ते-बढ़ते एक ऐसा क्षण आ सकता है जब दोनों मिल जायेंगे । उस समय जब मुझे सनातन सत्यकी चेतनासे वैयक्तिक जगत् की चेतनातकके मार्गकी अनुभूति हुई, यह मुझे असंभव प्रतीत होता था, और यदि तुम मुझसे अब पूछो तो मेरा विश्वास है कि दोनों वस्तुएं, -- विज्ञानको अपनी अंतिम सीमातक पहुंचाकर दोनोंके संयोगकी संभावना और भौतिक जगत् के साथ किसी सच्चे चेतन सम्बन्धकी असंभवत। -- दोनों समान रूपसे अयथार्थ हैं । एक वस्तु और मी है ।

 

  और इन दिनों यह पूरी समस्या अधिकाधिक मेरे सामने आ रही है, मानों इसे मैंने पहले कमी देखा ही नहीं ।

 

  शायद ये दा ऐसे मार्ग हैं जो तीसरे बिन्दुकी ओर जा रहे हैं, और इस क्षण मै इसी तीसरे बिन्दुका... ठीक अध्ययन नहीं, खोज कर रही हू,

 

 'यह उस विशिष्ट यौगिक 'अनुभूति'से सम्बन्धित है जो श्रीमाको १३ अप्रैल, १९६२ को हुई थी ।

 

१४१


ये वों मार्ग एक तीसरे बिन्दुपर मिलेंगे, बही एक 'सच्ची वस्तु' होगी ।

 

  किन्तु यह निश्चित है कि यदि अपनी अंतिम सीमातक पहुंचाये गये वस्तुनिष्ठ, वैज्ञानिक ज्ञानके लिये पूर्णतया समग्र और संपूर्ण बनाना संभव हा तो वह, किसी मी हालतमें, दहलीजतक ले जाता है । श्रीअरविन्द यह। कहते है । थे केवल यह कहते हैं कि यह घातक है, क्योंकि जो लोग इस ज्ञानपर विश्वास करते है वे इसे एक पूर्ण सत्य मानते हैं और इसी बताने उनके लिये दूसरा मांग बन्द कर दिया है । इसी कारण यह पातक हो जाता है ।

 

  किन्तु अपने व्यक्तिगत अनुभवके आधारपर मै कह सकती हू कि जो लोग एक अनन्य आध्यात्मिक मार्गपर, अर्थात्, केवल आन्तरिक अनुभवके मार्गपर ही विश्वास करते हैं, यदि वे उसे अनन्य मानते हैं, तो यह मी घातक हो जाता है । कारण यह उनके आगे केवल एक पक्ष, समग्र नहीं, समग्रका एक सत्य रखता है । दूसरा पक्ष मी मुझे अनिवार्य प्रतीत होता है । जब मैं अत्यन्त सदमा रूपमें, परम उपलब्धिमें संलग्न थी, तो मुझे यह पूर्णतया विवादरहित लगा कि दूसरी उपलब्धि - जो कि बाह्य एवं मृगमद है - एक ऐसी वस्तुकी विकृति (शायद आकस्मिक) है जो दूसरी वस्तुके समान ही सत्य थीं ।

 

   इम इसी ''दूसरी वस्तु''की खोज कर रहे हैं । शायद केवल खोज ही नहीं कर रहे, उसका निर्माण मी कर रहे हैं ।

 

 हमारा इस तरह उपयोग हो रहा है कि हम उसकी अभिसयक्तिमें मांग ले सकें ।

 

 यह अभिव्यक्ति उस वस्तुकी है जिसके बारेमें कोई नहीं सोच सकता, क्योंकि यह अभीतक यहां विद्यमान नहीं है । यह एक ऐसी अभिव्यक्ति है जो आनेवाली है ।

 

  मैं इतना ही कह सकती हू ।

 

 (मौन)

 

 मै आजकल वास्तवमें चेतनाकी इसी अवस्थामें द्रूं, मानों मै सनातन समस्याकी उपस्थितिमें हू, किन्तु एक भी स्थितिमें ।

 

  ये स्थितियां -- आध्यात्मिक स्थिति और ''भौतिक'' स्थिति, यदि हम इन्हें ऐसे नाम दे लें, जिन्हें अनन्य माना जाता है (एकांगी और एक- मात्र, ताकि एक स्थिति सत्यकी दृष्टिसे दूसरी स्थितिके मूल्यको अस्वीकार कर देती है), काफी नहीं है, केवल इसलिये नहीं कि ये एक-दूसरीका

 

१४२


निषेध करती हैं, पर इसलिये भी कि दोनोंको स्वीकार और संयुक्त करके भी समस्याका समाधान नहीं होता । एक और चीज भी है - एक तीसरी चीज जो इन दोनोंका परिणाम नहीं, जिसकी अभी खोज बाकी है, शायद वह समग्र 'ज्ञान'का द्वार खोल देगी ।

 

  मैं इसी बिन्दुपर हू ।

 

  मैं अधिक नहीं कह सकती, क्योंकि मैं ठीक इसी स्थलपर हू ।

 

     इसमें' क्रियात्मक रूपसे कैसे भाग लिया जाय...?

 

यह खोज?

 

यह... हां तो, तलमें सदा एक ही वस्तु है, सदा एक ही वस्तु, अर्थात् अपनी सत्ताको चरितार्थ करना, अपनी सत्ताके सर्वोच्च सत्यके चेतन संपर्क- मे आना, यह चाहे किसी मी रूपमें, किसी भी ढंगसे हो - इसका महत्व नहीं - किंतु रास्ता यही है । हम अपने अंदर एक सत्यको लिये रहते हैं -- प्रत्येक व्यक्तिके अन्दर यह सत्य होता है, ओर इसी सत्यके साथ उसे संयुक्त होना चाहिये, इसी सत्यको जीना चाहिये । इस प्रकार, इस सत्यके साथ संयुक्त होने तथा इसे प्राप्त करनेके लिये जिस रास्तेका वह अनुसरण करेगा, वही वह रास्ता होगा जो उसे 'ज्ञान'के अधिकाधिक निकट ले जायगा । दूसरे शब्दोंमें, ये दोनों -- व्यक्तिगत उपलब्धि और 'ज्ञान' - पूणंतया संयुक्त हैं ।

कौन जाने, मार्गकी यह बहुविधता ही गुप्त 'रहस्य'को प्रकट कर दे, -- उस 'रहस्य'को जो द्वारको खोल देगा ।

 

मुझे नहीं लगता किअकेला व्यक्ति (पृथ्वीकी वर्तमान अवस्थामें), कोई भी व्यक्ति, वह चाहे कितना भी महान् क्यों न हो, उसकी चेतना और उसका मूलस्रोत कितना मी सनातन क्यों न हों, अकेला, अपने-आप, यदि पूर्णतया सच्चे नहीं, तो एक अधिक सच्चे जगत् को बदल सकता है तथा वर्तमान सृष्टिको बदल सकता है, या उस उच्चतर सत्य- को प्रान्त कर सकता है जो एक नया जगत् होगा । ऐसा प्रतीत होता है कि व्यक्तियोंके एक विशेष समूह (अभीतक तो यह कालमें एक क्रमिक श्रेणी है, किन्तु शायद यह देशमें एक समूह भों हो) का होना अनिवार्य है ताकि यह 'सत्य' मूर्त रूप धारण करके अपने-आपको चरितार्थ कर सके । व्यावहारिक रूपमें मुझे इस बातका निश्चय है ।

 

   दूसरे शब्दोमें, कोई अवतार चाहे कितना भी महान्, कितना भी चेतन और शक्तिशाली क्यों न हो, वह बिलकुल अकेला ही पृथ्वीपर अति-

 

१४३


मानसिक जीवनको उपलब्ध नहीं कर सकता । कालमें या तो पंक्तिबद्ध समूह, या फिर देशमें फैला हुआ समूह, या शायद दोनों ही इस उपलब्धि- के लिये अनिवार्य हैं । मुझे इसका पूरा विश्वास है ।

 

व्यक्ति प्रेरणा दे सकता है, रास्ता दिखा सकता है -- स्वयं मार्गपर थल सकता है, अर्थात्, स्वयं उसे चरितार्थ करके मार्ग दिखा सकता है -- किन्तु उसे जगत् में उपलब्ध नहीं कर सकता । उपलब्धि कुछ सामूहिक नियमोंका आदेश मानती है जो सनातन 'सत्ता' ओर अनन्त सत्ताके किसी पक्षकी अभिव्यक्ति होते हैं - स्वभावत:! 'सत्ता' वही होती है, व्यक्ति भिन्न नहीं होते, व्यक्तित्व भिन्न नहीं होते, सब कुछ एक ही 'सत्ता' है । वही 'सत्ता' अपने-आपको एक ऐसे ढंगसे व्यक्त करती है जो हमारे लिये एक समूह, एक दल, एक समाजके रूपमें अनूदित होता है ।

यह लो, इसी विषयपर कोई और प्रश्न है?

 

  १३ अप्रैलकी अनुभूतिके बादसे आपके अंतर्दर्शनमें किस प्रकार भेद आया है?

 

 मै फिर कहती हू ।

 

 बहुत लम्बी समयतक मुझे ऐसा प्रतीत होता रहा कि यदि व्यक्ति अपनी चरम सीमातक पहुंचे हुए वैज्ञानिक रास्ते और अपनी चरम सीमा- तक पहुंचे हुए आध्यात्मिक रास्ते - उसकी चरम उपलब्धि - के बीचमें एक पूर्ण ऐक्य स्थापित कर सकें, यदि उन दोनोंको मिला सके तो, वह स्वभावतया उस सत्यको, उस समग्र 'सत्य'को पाकर हस्तगत कर लेगा जिसे वह ढूंढ रहा है, किन्तु यह होगा उन दोनों अनुभूतियोंके साथ - जो मुझे प्राप्त हुई थी -- बाह्य जीवनकी अनुभूति (वैश्वीकरण बोर निर्वैयक्तिककरणके साथ, उन समस्त यौगिक अनुभूतियोंके साथ जिन्हें व्यक्ति भौतिक शरीरमें प्राप्त कर सकता है), और 'मूलस्रोत'के साथ एक समग्र और पूर्ण ऐक्यकी अनुभूति । अब जब कि मुझे ये दो अनुभूतियां प्राप्त हों चुकी हैं और कुछ ऐसी बात हों चुकी है -- जिसका मै अभी ब्योरा नहीं दे सकती -- मै यह जानती हू कि दोनोंका ज्ञान और दोनोंका संयोग काफी नहीं है; एक तीसरी वस्तु मी है जिसमें ये दोनों समाप्त होती है और इस तीसरी वस्तुका निर्माण हो रहा है, और यह अपनी चरितार्थताके प्रक्रियामेंसे गुजर रही है । यही तीसरी वस्तु उस 'उपलब्धि', उस 'सत्य'की ओर ले जा सकती है जिसे हम खोज रहे हैं ।

 

  अब कुछ स्पष्ट हुआ?

 

१४४


मेरे मनमें कुछ और ही बात थी.. । इसके बाद ( १३ अप्रैलकी इस अनुभूतिके बाद), भौतिक जगत् के सम्बन्धकी दृष्टि कैसे और किस बातमें परिवर्तित हुई है?

 

 उसकी चेतनाका एक निकट अनुमान ही यहां दिया जा सकता है ।

 

 मैं योगके द्वारा भौतिक जगत् के साथ एक ऐसे सम्बन्धतक पहुंची जो चौथे आयाम (आन्तरिक आयाम जो योगमें असंख्य हो जाते हैं) के विचारपर आधारित था और मैंने इस वृत्ति और चेतनाकी इस अवस्था- का लाभ उठाया । मैंने आन्तरिक दिशाके द्वारा तथा इन आन्तरिक दिशाओंकी चेतनाको पूर्ण बनाकर भौतिक जगत् और आध्यात्मिक जगत्- के बीचके सम्बन्धका अध्ययन किया -- मुझे यह अनुभूति उस अंतिम अनुभूतिसे पहले हुई थी ।

 

  स्वभावतया, बहुत समयतक उन तीन आयामोंके बारेमें कोई प्रश्न ही नहीं उठता था - ये पूर्णतया भ्रान्ति और मिथ्यात्वके जगत् की' वस्तुएं थीं । किन्तु अब चौथे आयामकी भावनाका प्रयोग और तत्सम्बन्धी सब वस्तुएं मुझे ऊपरी प्रतीत होती हैं । और यह चीज इतनी सबल है कि मुझे यह अब दिखायी नहीं देती । दूसरा, अर्थात्, तीन आयामोवाला जगत्, बिलकुल अवास्तविक है । और फिर वह जगत् (यह कैसे कहा जाय?) मुझे औपचारिक प्रतीत होता है, मानों एक तरहके प्रवेशके लिये यह दूसरे स्थानपर रखनेका एक रूढ़िगत उपाय हों ।

 

  और यह कहना, अर्थात्, दूसरा जगत् और सच्ची स्थिति क्या है? ... यह समस्त बौद्धिक अवस्थाओंका इतने बाहरकी चीज है कि मै इसे रूप दे ही नहीं सकतीं ।

 

  किंतु मै जानती हू कि एक निश्चित रूप सामने आयेगा । किंतु वह आयेगा चरितार्थ अनुभूतियोंकी शृंखलामें, जो मुझे अभी प्राप्त नहीं हुई हैं !

 

 (मौन)

 

  यह विधि जो मेरे लिये बड़ी उपयोगी और बहुत सुविधाजनक थी तथा जो मेरे योगमें सहायक थो आर जिसने मुझे जड-पदार्थपर एक अधिकार भी प्रदान किया, मुझे एक ढंग, एक मार्ग, एक प्रक्रिया प्रतीत हुई, पर यह वह नहीं है ।

 

  यही वह अवस्था है जिसमें मै निवास कर रही नष्ट ।

 

१४५


इससे अधिक मैं नहीं कह सकती ।

 

२४-५-६२

 

७६ -- यूरोप अपने व्यावहारिक और वैज्ञानिक संगठन और कार्यकुशलताके लिये अपने ऊपर गर्व करता है । मैं तबतक प्रतीक्षा कर रहा हू जबतक उसका संगठन पूर्ण नहीं हो जाता; तय एक बच्चा ही उसका नाश कर देगा ।

 

  जब बुलेटिनमें ये सूत्र छापे थे तब आपने इस सूत्रको छोड़ देनेके लिये कहा था । यह सूत्र काफी रहस्यमय है - इसके अतिरिक्त मै उसे अच्छी तरह समझना चाहूंगा । फिर मैं यह मी जानना चाहूंगा कि अब हम इसे प्रकाशित करें या नहीं ।

 

उन्होंने यह कहा लिखा था?

 

 सूत्रोंमें ।

 

हां, लेकिन उन्होंने एक खास पुस्तक नहीं लिखी है : ये सूत्र इधरउधरसे इकट्ठे किये गायें थे ।

 

   नहीं, नहीं, बिलकुल नहीं । श्रीअरविदके पास एक विशेष कापी थी जिसमें वे एकके-बाद-एक सूत्र लिखते जा रहे थे । और यह सूत्र दूसरोंके बीचमें ही था ।

 

(मौनके बाद) ''एक बालक''...

  शुरूमें, उन्होंने, अंगरेजीमें क्या लिखा था?

 

    ''अपने-आपपर गर्व करता है ।''

 

अपने-आपपर गर्व करता है. मैं, मै कहूंगी ।

 

     लेकिन वे कहना क्या चाहते थे?

 

१४६


मुझे नहीं मालूम ।

 

   स्वभावतया, उसी शक्तिकी बात हो सकती है जो नष्ट हों चुकी है, क्योंकि पृथ्वीको नष्ट नहीं करते ।

 

  हां, पृथ्वीको नष्ट नहीं किया जा सकता, लेकिन एक संस्कृतिको नष्ट किया जा सकता है ।

 

हां

 

   वे कहते है : ''यूरोप नष्ट हो जायगा । ''

 

हां.... लेकिन कौन-सा बच्चा?

 

  मुझे ऐसा लगता है कि यह कुछ ऐसी बात है जो पूर्णतया सच है, एक पूर्णतया सच्ची भविष्यवाणी -- लेकिन मुझे नहीं मालूम ।

 

    आपने कहा था कि इस सूत्रको छोड़ देना ही अच्छा होगा ।

 

 ल्लकिन अब, इसके विपरीत मुझे यह लग रहा है कि इसे कहना आवश्यक है ।

 

    ल्लकिन मै नहीं सोचती कि उसके लिये समय आ चुका है - ''आ चुका है'', मेरा मतलब सिद्धिके लिये; उसे कहनेका समय आ चुका है लेकिन उसे चरितार्थ करनेका नहीं ।

 

 ''बालक''... क्या बालकका मतलब 'नयी' दुनिया नहीं हो सकता - एक स्मितसे ही वह इन सबको ढहा देगा ।

 

 हां, यह संभव है -- यह संभव है ।

 

 (मौन)

 

इसके अन्दर एक भयावह सामर्थ्य है... कोई दुर्जेय तत्व है । तुम कल्पना नहीं कर सकते कि इसमें कितनी शक्ति है, यह सचमुच ऐसा है मानों प्रभुने खुद कहा हों. ''मैं प्रतीक्षा कर रहा हू ''... मै प्रतीक्षा कर रहा हू... ।

 

११-१२-७१

 

१४७


  ७७ - प्रतिभा एक पद्धतिका आविष्कार करती है; सामान्य बुद्धि उसे एक सांचेमें ढालती जाती है जबतक कि कोई दूसरी नवीन प्रतिभा आकर उसे तोड़फोड़ न दे । एक सेनाका - अनुभवी सैनिकोंद्वारा परिचालित होना विपज्जनक है; क्योंकि '१. दूसरे पक्षमें भगवान् नेपोलियनको नियुक्त कर सकते हैं ।

 

   ७८ -- जब ज्ञान नया होता है तो वह अजेय होता है, जब वह पुराना हो जाता है तो अपना गुण खो देता है । यह इसलिये कि भगवान् सर्वदा आगेकी ओर बढ़ते रहते हैं ।

 

यहां श्रीअरविन्द एक ऐसे ज्ञानकी चर्चा करते है जो अन्तःप्रेरणा या अन्त:- प्रकाशसे प्राप्त होता है । और यह तब होता है जब कोई वस्तु अचानक नीचे उतरती है और बुद्धिको आलोकित कर देती है । अचानक, तुम्है प्रतीत होता है कि तुम किसी विशेष वस्तुको पहली बार जान रहे हो, क्योंकि बह सीधी 'प्रकाश' और सच्चे ज्ञानके क्षेत्रसे आती है ओर वह सत्यकी समस्त अन्तर्जात शक्तिके साथ आती है जो तुम्हें आलोकित कर देती है । और जब वह तुम्हें प्राप्त होती है तो सचमुच ऐसा प्रतीत होता है कि इस 'प्रकाश'के आगे कोई भी चीज नहीं ठहर सकती । और यदि तुम उसे अपने अन्दर कार्य करने देनेकी सावधानी बरतों तो वह रूपांतरका उतना कार्य कर लेती है जितना अपने क्षेत्रमें कर सकती है ।

 

   यह एक ऐसी अनुभूति है जिसे व्यक्ति प्रायः ही प्राप्त कर सकता है । जब यह आती है - पर कुछ समयके लिये, अधिक लम्बे समयके लिये नहीं - तो प्रत्येक वस्तु इस 'प्रकाश'के चारों ओर व्यवस्थित होती प्रतीत होती है । ओर तब, वह धीरे-धीरे बाकी चीजोंके साथ धूल-मिल जाती है । बौद्धिक ज्ञान रहता है । यह किसी-न-किसी रूपमें गठित हो जाता है, और यही बाकी रहता है, पर यह खोखला-सा लगता है । इसमें अब वह प्रेरक शक्ति नहीं रह जाती जो सत्ताकी समस्त क्रियाओंको अपना रूप दे लेती है । श्रीअरविन्दके कहनेका भाव यही है । संसार वेगसे आगे बढ़ रहा है, प्रभु सदा आगे-आगे चलते है और यह सब वह पिछला सिरा है जिसे वे अपने पीछे छोड़ देते है किन्तु इसमें तात्कालिक शक्ति या उस क्षणका महत् बल नहीं होता जिस क्षण उन्होंने इसे जगत् में प्रक्षिप्त किया था ।

 

    तुम्हें ऐसा लगता है कि यह मानों सत्यकी वर्षा हो रही है; जो लोग इसे पकडू सकते हैं, चाहे वह एक बूंद ही क्यों न हों, उन्हें अन्तप्रकाश मिलता है । किन्तु यदि वे एक अनोखे वेगसे आगे नहीं बढ़ते तो भगवान्

 

१४८


अपनी सत्यवर्षाके साथ आगे निकल जाते है, और उसे दुबारा पकड़नेके लिये व्यक्तिको बहुत दौड़ना पड़ता है ।

 

श्रीअरविन्द यही कहना चाहते है ।

 

    हां, किन्तु यह ज्ञान सचमुच रूपान्तरकी शक्ति प्राप्त कर सके...

 

हां, यह उच्चतर 'शान' ही है, यह वही सत्य है जो अपने-आपको अभि- व्यक्त करता है, जिसे श्रीअरविन्द ''सच्चा ज्ञान'' कहते है और यही वह 'ज्ञान' है जो समस्त सृष्टिका रूपान्तर करता है । भगवान् इसे सारे समय पृथ्वीपर उंडेलते रहते हैं ओर यदि तुम पिछड़ा नहीं जाना चाहते तो तुम्हें बहुत जल्दी करनी पड़ेगी ।

 

  पर क्या तुमने अपने मस्तिष्कमें कमी तेज रोशनीका-सा अनुभव नहीं किया है? जो यों अनूदित होता है : ''ओह! हां'', किसी समय तुम किसी वस्तुको बौद्धिक रूपसे जानते थे, किन्तु वह मर्द थी, वह निर्जीव थी और अब अचानक ही वह एक बहुत बड़ी शक्तिके रूपमें आती है जो चेतनाके अन्दरकी प्रत्येक वस्तुको इस 'प्रकाश'के चारों ओर व्यवस्थित कर देती है -- किन्तु यह अधिक देरतक नहीं ठहरती । कमी-कभी तो यह कुछ घंटे ही ठहरती है, और कभी कुछ दिन ठहरती है, किन्तु इससे अधिक कमी नहीं, जबतक कि तुम अपनी गतिविधिमें अधिक धीमे दा न हों । और इस बीच सत्यका 'स्रोत' दूर, दूर, बहुत दूर चला जाता है... ।

 

   इस सबका अर्थ है मनोवैज्ञानिक रूपान्तर, किन्तु जब 'जड़पदार्थ' और 'शरीर'पर कार्य करना हो तो व्यक्तिको किस ज्ञानकी जरूरत होती है?

 

यह, मेरे बच्चे, मै अभी, यह नहीं कह सकती, क्योंकि इसका मुझे पता नहीं है ।

 

   क्या यह किसी अन्य प्रकारका ज्ञान है?

 

 न, मुझे नहीं लगता ।

 

 ( मौन)

 

१४९


शायद यह एक अन्य प्रकारकी क्रिया है, किन्तु अन्य प्रकारका ज्ञान नहीं ।

 

(मौन)

 

  जो वस्तु 'जड़-पदार्थ'का रूपान्तर करती है उसके बारेमें तुम केवल तभी बात कर सकते हो जब 'जडू-पदार्थ' कम-से-कम थोड़ा-सा रूपान्तरित हों जाय, अर्थात्, जब रूपान्तर आरंभ हो जाय । तभी इस प्रक्रियाके विषय- मे बात की जा सकती है । किन्तु अभी...

 

 (मौन)

 

  किन्तु सत्तामें कैसा मी, किसी भी स्तरपर रूपान्तर क्यों न हो, उसका निम्न स्तरोंपर सदा ही प्रभाव पड़ता है । एक क्रिया सदा होती है; जो चीजें शुद्ध रूपमें बौद्धिक प्रतीत होती हैं उनकी भी, निश्चय ही, मस्तिष्क- की रचनापर प्रतिक्रिया होती है ।

 

   ऐसे अन्तप्रकाश केवल नीरव मनमें ही हो सकते है -- कम-से-कम अचंचल मनमें, एक ऐसे मनमें जो सर्वथा शान्त और अविचल हो, नहीं तो ३ आते ही नहीं । या फिर यदि वे आते भी है तो व्यक्ति अपने शोरमें उन्है जान नहीं पाता । स्वभावतया यह अनुभूति शान्त, नीरवता और ग्रहणशीलताको अधिकाधिक स्थापित करनेमें सहायता पहुंचाती है । एक ऐसी वस्तुका प्रभाव, जो बहुत अचल तो हों पर बन्द नहीं, अचल हो पर खुली हुई, अचल हो पर ग्रहणशील भी, यह एक ऐसा प्रभाव है जो ठीक बार-बार आनेवाली ऐसी अनुभूतियोंदुरा ही स्थिर होता है । उस नीरवतामें जो मृत, मर्द और अनुत्तरशील है और एक प्रशान्ति मनकी ग्रहणशील नीरवतामें एक अन्तर है, इसमें बहुत बड़ा अन्तर है । किन्तु यह उन्हीं अनुभूतियोंका परिणाम है । हम जो भी उन्नति करते हैं वह सदा, बिलकुल स्वाभाविक रूपमें, ऊपरसे आनेवाले सत्योंका ही परिणाम होती है । इसका एक प्रभाव होता है, ऐसी समस्त वस्तुओंका शरीरके कार्यपर - अंगोंको कार्यपर, मस्तिष्कके कार्यपर, स्नायुओं आदिके कार्यपर एक प्रभाव पड़ता है । यह निश्चय हीं बाह्य आकृतिपर प्रभाव पड़नेसे पहले, बहुत पहले हों जायगा ।

 

  वास्तवमें, जब लोग रूपान्तरकी बात करते हैं, तो वे विशेषकर एक रंगीन रूपान्तरकी बात किया करते है, है न? एक सुन्दर बाह्याकृति ! प्रकाशमयी, कोमल, नमनीय, इच्छानुसार परिवर्तित होनेवाली । किन्तु
 

 १५०


यह, अर्थात्, अंगोंका रूपान्तर जो कदाचित् हों सुन्दर होता है, इसके बारेमें व्यक्ति अधिक नहीं सोचता! पर फिर मी यही रूपान्तर सबसे पहले होगा, बाह्य आकृतिके रूपान्तरसे बहुत पहले ।

 

   श्रीअरविन्दने अंगोंका स्थान चक्रों'दुरा लिये जानेकी बात कही थी ।

 

हा, हां, उन्होंने कहा था तीन सौ वर्ष!

 

(श्रीमाताजी हंसती हैं)

 

मौन)

 

  कारण, सोचना काफी है, और तुम सरलतासे समझ जाओगे । यदि बात केवल एक वस्तुको रोककर दूसरीको आरंभ करनेकी होती, तो यह काफी तेजीसे किया जा सकता था । किन्तु शरीरको जीवित रखा जाय ताकि वह अपना कार्य जारी रखे और साथ ही उसमें एक नयी क्रिया मी आरंभ हों जाय जो उसे जीवित रहने दे और रूपान्तर भी हो -- इन संयोगोंको चरितार्थ करना बड़ा कठिन है । मैं इसे बहुत अच्छी तरह समझती हू, बहुत अच्छी तरह... उस अनन्त कालको, जिसकी इस कार्यमें आवश्यकता पड़ेगी, ताकि बिना किसी संकटके यह कार्य हों जाय ।

 

  विशेषतया जब हम हदयकी बातपर आते हैं, हदयका स्थान 'शक्ति'का केन्द्र, एक अत्यधिक महती सक्रिय शक्ति लेगी! (श्रीमाताजी हंसती है) ठीक किस क्षण रक्त-संचार बन्द हो जायगा और उसका स्थान शक्ति ले लेगी।? यह कठिन है!

 

(मौन)

 

सामान्य जीवनमें तुम किसी वस्तुके बारेमें पहले सोचते हो और तब उसे करते हा, किन्तु यहां बिलकुल उलटी बात है । इस जीवनमें तुम्हें कार्य पहले करना होगा और समझना होगा पीछे, वह मी बहुत पीछे । पहले तुम्हें उसे करना होगा, बिना सोचे करना होगा । यदि तुम सोचोगे, तो कुछ भी अच्छा न कर सकोगे, दूसरे शब्दोंमें, तुम पुराने ढर्रेपर लौट पड़ोगे ।

 

६-१०-६२

 

 'चक्र, चेतनाके केन्द्र ।


१५१


७९ -- भगवान् अनन्त दिव्य संभावनाएं हैं । इसीलिये 'सत्य' कभी चुपचाप नहो बैठता, और इसीलिये उसकी संतानकी भूल-म्गंति भी न्यायसंगत है ।

 

८० -- कुछ भक्तोंकी बातें सुनकर हम अनुमान कर सकते हैं कि भगवान् कभी हंसते नहीं; हेन' सत्यके अधिक समीप था जब उसने 'उनके अंदर दिव्य अरिस्टोफेन'को पाया ।

 

हां, इससे उनका यह अभिप्राय है कि जो वस्तु एक क्षण सत्य है वह दूसरे क्षण सत्य नहीं रहती । और यही वस्तु 'म्गन्ति'की सन्तानका औचित्य सिद्ध करती है ।

 

   शायद उनका मतलब यह है कि भ्रान्ति है ही नहीं ।

 

हां, यह वही बात है, एक ही बात कहनेका यह दूसरा ढंग है । कहनेका आशय यह है कि जिसे हम अब भ्रान्ति कहते है वह किसी अन्य समय सत्य था ।

 

भ्रान्ति कालमें एक विचार है ।

 

 ऐसी वस्तुएं भी हैं जो सचमुचमें भ्रान्ति प्रतीत होती ह ।

 

अभीके लिये ।

 

  ठीक यही बात है । यह एक आभास है : हमारे समस्त मूल्यांकन तात्कालिक होते है । इस क्षण वे एक प्रकारके है; दूसरे क्षण वैसे नहीं रहते, हमारे लिये म्गन्तियां बन जाते हैं, क्योंकि हम चीजोंको एकके-बाद- एक देखते हैं । किन्तु भगवान्को वे ऐसी नहीं प्रतीत होती, क्योंकि सब कुछ उनमें है ।

 

  अब जरा एक क्षणके लिये यह कल्पना करनेकी कोशिश करो कि तुम भगवान् हो! सब वस्तुएं तुम्हारे अन्दर है । केवल दिलबहलावके लिये तुम उन्हें एक क्रम-विशेषणमें बाहर लाते हो । किन्तु तुम्हारे लिये, तुम्हारी

 

   १जर्मनीके एक कठोर व्यंग करनेवाले आलोचक और कवि ।

   यूनानके प्रसिद्ध नाटककार और कवि ।

 

१५२


चेतनामें एक ही समय सब कुछ है । समय है ही नहीं, न भूत है न वर्तमान और न भविष्य -- सब इकट्ठे है । और सभी संभव संयोग भी है । वे अपनी खुशीके लिये कमी एक वस्तु बाहर लाते हैं और कभी दूसरी, और ऐसे ही चलता रहता है । और तब ३ बेचारे जो नीचे हैं और केवल एक छोटा-सा अंश ही देखते है (वे केवल उतना ही देख सकते हैं), वे कहते है : ''ओह यह, यह तो एक म्गन्ति है ।'' यह म्गन्ति कैसे हुई? केवल इसलिये कि वे केवल उतना-सा ही देखते हैं ।

 

   यह स्पष्ट है, है न, यह समझना सरल है । म्गन्तियां यह विचार देश ओर काल-सम्कधी विचार है ।

 

   यह तो ऐसे हुआ जैसे कोई वस्तु एक ही समय हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती । और फिर भी यह सत्य है, एक वस्तु है मी और नहीं मी है । कालका विचार ही भ्रान्तिका विचार लाता है -- वेश और काल ।

 

   इसका क्या अर्थ हुआ कि एक वस्तु एक ही समय है भी और नहीं मी है, यह कैसे हो सकता है?

 

वह है और साथ ही उसकी विरोधी वस्तु भी है । इसलिये हमारे लिये, एक ही समय 'हां' और '' नहीं हो सकते । किन्तु भगवान्के लिये हमेशा हां और ना एक साथ होते है ।

 

  यह हमारी देशकी धारणाके अनुसार है । हम कहते है : ''मैं वहां हू इसलिये तुम वहां नहीं हो सकते । '' किन्तु मै वहां हू, तुम वहां हों, सब वहां है । (माताजी हंसती हैं) इस बातको समझनेके लिये तुम्है केवल देश और कालके विचारसे बाहर निकल सकना चाहिये ।

 

   यह एक ऐसी चीज है जिसे बड़े ठोस रूपमें अनुभव किया जा सकता है, पर हमारे देखनेके ढंगसे नहीं ।

 

  निश्चय ही, इन सूत्रोमेसे बहुत-से सूत्र ऐसे समय लिखे गये है जब उच्चतर मन अचानक ही 'अतिमानस'के प्रति खुल जाता है । अभीतक वह यह नहीं भूल पाया है कि सामान्य ढंगसे उसके लिये यह बात कैसी है, किन्तु बह यह मी देखता है कि अतिमानसिक ढंगके लिये यह कैसी है । और तब, वह तुम्हें इस प्रकारकी चीजें देता है, यही विरोधाभासका रूप देता है । कारण, एक चीज अभी भली नहीं है और दूसरीकी झांकी मिल गयी है ।

 

(लंबा मौन)


१५३


 वास्तवमें, यदि तुम ध्यानपूर्वक देखो तो तुम्है यह सोचना पड़ेगा कि भगवान् अपने लिये एक बड़ा भारी प्रहसन खेल रहे है । अभिव्यक्ति स्वयं ही एक प्रहसन है जो दे अपने साथ और अपने लिये खेल रहे हैं । - वे दर्शकका स्थान लेकर अपनी ओर देखते हैं । और इसलिये, अपने- 'आपको देखनेके लिये उन्है देश और कालके विचारको स्वीकार करना ही पड़ेगा, नहीं तो वे अपनी ओर नहीं देख सकेंगे! और तत्काल ही पूरा प्रहसन शुरू हों जाता है । किन्तु यह एक प्रहसन है, इससे अधिक कुछ नहीं!

 

  रही हमारी बात, तो हम इसे अधिक गंभीरतासे लेते है क्योंकि हम कठपुतलियां हैं, है न? किन्तु ज्यों हीं हमारी कठपुतलीकी भूमिका समाप्त हों जाती है हम यह भलीभाँति देख लेते हैं कि यह केवल एक प्रहसन है ।

 

 कुछके लिये यह बस्तुत: दुःखान्त नाटक भी है ।

 

हां, पर हम ही इसे दुखना बनाते है । यही बात है, हम ही इसे दरखास्त बनाते हैं ।

 

  अभी कुछ दिन हुए मैंने छयानपूर्वक देखा, मैंने एक ही प्रकारकी घटनाओंको मनुष्यों और पशुओंके साथ होते देखा है । यदि तुम अपने- आपको पशुओंके साथ एक करके देखो तो तुम्है भली-भांति पता चल जायगा कि वे ऐसी घटनाओंको दुखपूर्ण नहीं मानते -- उन पशुओंको छोड़- कर जो मनुष्यके संपर्कमें आते हैं (किन्तु उनकी अवस्था स्वाभाविक नहीं होती, वह संक्रमणकी अवस्था है । वे पशु और मनुष्यके बीचकी संक्रमण अवस्थाके प्राणी है), और स्वभावतया सबसे पहले ३ मनुष्यके दोष ही अपनाते है, उन्है अपनाना सदा सरल होता है! और इस कारण वे बिना बात दुःखी होते हैं ।

 

  कितनी ही बातें है... । कितनी ही बातें है... । मनुष्यने मृत्युको भयानक और सांघातिक बना लिया है । पिछले दिनों मैंने देखा -- पिछली रात या उससे पिछली रात, मैंने कम-से-कम दो घंटे एक ऐसे जगत् में गुजारे जिसे सूक्ष्म-भौतिक' कहते है, जहां जीवित और मृत बिना कोई भेद-भाव

 

 'चेतना, जो जडु-पदाथंसे आत्मातक आरोहण करती है । उसके क्रमश: बढ़ते स्तरोंमें सूक्ष्म-भौतिक ही वह अवस्था या स्तर है जो जड-पदार्थके सबसे अधिक नजदीक है।

 

१५४


अनुभव किये साथ-सत्य विचरते है -- इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता । वहां कोई फर्क है ही नहीं । वहां जीवित सत्ताएं थीं - सत्ताएं जिन्हें हम ''जीवित'' कहते है और वे मी जिन्हें हम ''मृत'' कहते है । वे सत्ताएं वहां थीं, इकट्ठी रहती थीं, वे इकट्ठी खाती थीं, वे इकट्ठी चलती- फिरती थीं, इकट्ठी मनबहलाव करती थीं, सब काम मिलकर करती थीं । वह सब एक सुन्दर प्रकाश था, शान्त और बहुत सुखकर । यह बहुत सुखकर था । मैंने अपने-आपसे कहा : देखो, मनुष्योंने ही इस प्रकार एक दरार डाल दी है और फिर कहते हैं : ''अब : मृत्यु! '' और मृत्यु! इस बातकी सुन्दरता इसमें है कि तुम उनके साथ ऐसा व्यवहार करते हो मानों वे अचेतन वस्तुएं हैं जब कि यह शरीर अभी चेतन है ।

 

 ( मौन)

 

 कहां, कहां है 'भ्रान्ति'? 'म्गन्ति' कहां हैं?

 

  कहनेका आशय यह है कि भ्रान्ति है ही नहीं । केवल असंभव वस्तुओं- की बाह्य प्रतीति होती है, क्योंकि हमें यह पता नहीं कि प्रभु समस्त समावना है और वे जो चाहे कर सकते है, जैसे चाहें, कर सकते है । यह हमारे मस्तिष्कमें नहीं घुस सकता । हम सदा कहते रहते है : ''यह हों सकता है और फिर, वह नहीं हो सकता ।'' किंतु यह सत्य नहीं है! यदि वह नहीं हो सकता तो इसका कारण हमारी मूढ़ता है, किंतु संभव सब कुछ है ।

 

 (मौन)

 

 देखो तो जरा । केवल ३ ही नाटकको देखते है जो चिंता नहीं करते, क्योंकि वे जानते हैं कि क्या होनेवाला है, उन्हें प्रत्येक वस्तुका पूर्ण ज्ञान है - ऐसी प्रत्येक वस्तुका जो हा रही है, जो हो चुकी है और होनेवाली छै- -- बह वहां है, सब कुछ है, उनके सामने सब उपस्थित है । दूसरे वे लोग हैं, अर्थात्, नाटकके पात्र जिन बेचारोंको कुछ पता नहीं -- वे अपनी भूमिका भी नहीं जानते! और वे बहुत अधिक चिंतित हों जाते हैं, क्योंकि उनसे एक ऐसी भूमिकामें काम करवाया जाता है जिसे वे नहीं जानते । यह विचार मुझे अभी आया है, पर है बड़ा तंत्र : हम सब एक प्रहसन कर रहे है, किंतु हम यह नहीं जानते कि यह नाटक है क्या, न ही यह जानते है कि यह कहांसे आया है, कहां जा रहा है और न उसकी पूरी

 

१५५


बात ही जानते है । हम मुश्किलसे थोड़ा-सा ही जानते है और वह मी गलत, केवल उतना जो हमें एक क्षणमें करना है । और हम उसे जानते भी बुरे तरीकेसे है, और फिर चिंतित हो उठते है । किंतु जब व्यक्ति 'समग्र ' को जान लेता है, तो उसे चिंता नहीं होती, वह मुस्कराता है -- भभगवान्को यह सब बड़ा मजेदार लगता होगा किंतु हम... । हमें भी उन्हींकी तरह मनबहलाव करनेकी पूरी शक्ति दी गयी है ।

 

   बस, हम उसके लिये कष्ट नहीं उठाते ।

 

      यह सरल नहीं है!

 

 ओह! यदि यह सरल होता... हां, यदि यह होता, तो लोग इससे ऊब जाते ।

 

  कमी-कभी हम अपने-आपसे पूछते हैं : क्यों? आखिर यह जीवन इतना दुःखमय क्यों है? किंतु यदि यह एक सतत जादुई सुन्दरता होता, ते। सबसे पहले तो कोई इसका मूल्यांकन ही न कर पाता, क्योंकि उस अवस्थामें तो यह स्वाभाविक होता -- विशेष रूपसे इस कारण कोई महत्व न देता, क्योंकि यह पूर्णतया स्वाभाविक होता - और तब, यह न कहा जा सकता कि व्यक्ति परिवर्तनके लिये ही थोड़ा-सा गड़बड़झाला न पसंद करता । कुछ निश्चित नहीं है ।

 

  शायद यही है वह पार्थिव स्वर्गकी कहानी...... स्वर्गमें उन्हें सहज ज्ञान प्राप्त था, दूसरे शब्दोंमें, वे जीते थे, उन्है वही चेतना प्राप्त थी जो पशुओंमें होती है, उतनी ही., जितनी कि जीवनके थोड़े-से उपभोगके लिये, यूंही जीवनका आनंद पानेके लिये काफी हो । किंतु उन्होंने क्यों, कैसे, कहां जा रहे है, क्या करना होगा इत्यादिको जानना चाहा । और तब सारा झमेला शुरू हुआ -- वे शांतिपूर्वक प्रसन्न रहनेसे उकता गायें ।

 

 (मौन)

 

 मेरे विचारमें इससे श्रीअरविन्दका अभिप्राय यह था कि बाकी सब वस्तुओंकी तरह म्गन्ति भी एक मिथ्या वस्तु है । वस्तुत: भ्रान्ति है ही नहीं, केवल समावनाए-हीं-संभावनाएं है, और यदि वे सब एक साथ हों तो प्रायः ( और आवश्यक रूपमें) विरोधी होती है, पर विरोधी केवल बाह्य रूपमें । व्यक्ति केवल अपनी ओर देखकर कहे : ''मैं भ्रान्ति किसे कहता हू '', वस्तुको केवल आमने-सामने देखे तो तत्काल देख पायगा कि यह एक मूर्खता है -- भ्रान्ति

 

१५६


है ही नहीं और वह तुम्हारी पकडसे निकल जाती है ।

 

 (मौन)

 

  मुझे ऐसा लगता है कि श्रीअरविन्द उस समय अपनी आरोहणकी अवस्थामे थे, अंतर्भासात्मक मन एक छिद्र बना रहा था और 'अतिमानस'के संपर्कमे आ रहा था और तब ' अतिमानस' एकदमसे विचारमें विस्फोटकी भांति आ धमका । बस, यह ऐसे ही आता है, प्रलाप! ओर उन्होंने ये लिखी । यदि तुम क्रियाका अनुसरण करो तो 'स्रोत'को देख पाते हों ।

 

  स्पष्ट ही, वे यही कहना चाहते थे कि म्गन्ति अनगिनत ओर अनंत संभावनाओंमेसे एक है । ''अनंत' 'का अर्थ है कि सत्ताकी संभावनाके बाहर किसी मी वस्तुका अस्तित्व नहीं है । तब फिर भ्रान्तिका कहां रखा जाय? म्गन्ति तो इसे हम हीं कहते हैं न, ओर हमारा यह कथन बिलकुल मन- माना है । हम कहते हैं : ' 'यह भ्रान्ति है'' - किसकी अपेक्षा? हमारे इस निर्णयकी दृष्टिसे कि ''यह सत्य है' ', किंतु निश्चय ही भगवान्के निर्णयके अनुसार ऐसा नहीं है, क्योंकि यह मी उन्हीका एक अंश है ।

 

  चेतनाके इस विस्तारको ऐसे लोग ज्यादा नहीं सह सकें ।

 

  है न, अब जब मैं इस दृष्टिकोणसे देखना शुरू करती हू ( श्रीमाताजी अपनी आंखें बंद कर लेती हैं), तो एक ही साथ दो वस्तुएं दिखायी देती है : हां, यह मुस्कराहट, प्रसन्नता और हंसी है और फिर शांति; यह शांति ही है न? एक शांति जो पूर्ण, ज्योतिर्मय ओर सर्वांगीण है । वहां कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो प्रतिरोध करे, वहां विरोध है ही नहीं; कुछ भी संघर्षकारी नहीं है । केवल एक आलोकपूर्ण समस्तरता है -- पर फिर मी जिसे हम भ्रान्ति, दुःख या कष्ट कहते हैं ३ सब मी उपस्थित हैं । वह किसी वस्तुको नहीं दबाती, देखनेका यह एक अन्य ढंग है ।

 

 (लंबा मौन)

 

 इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि व्यक्ति सच्चे दिलसे इसमेंसे बाहर निकलना चाहता हो तो यह उतना कठिन नहीं है : तुम्है कुछ नहीं करना पड़ता, केवल भगवान्को सब कुछ करने दो । ओर वे सब कुछ करते है । वे सब कुछ करते है । बे....... यह अद्भुत है! अद्भुत है!

 

  वे किसी मी वस्तुको अपने हाथमें लें ले?ते है, उसे भी जिसे हम एक सर्वथा सामान्य बुद्धि कहते है और तब वे तुम्है इस बुद्धिको विश्राम करनेके लिये

 

१५७


बस एक ओर रखना सिखाते है : ''लो, शांत रहो, अब और मत हिलो-डुलो, चिंता मत करो, मुझे तुम्हारी आवश्यकता नहीं'', - तब एक द्वार खुल जाता है - तुम्हें यह भी नहीं लगता कि तुम्है उसे खोलना है, वह तो पूरा- खुला पड़ा है, तुम दूसरी ओर लें जाये जाते हो (यह सब कार्य कोई अर?'' करता है, तुम नहीं); और तब तुम्हारे लिये दूसरा मार्ग अपनाना असंभव हो जाता है ।

 

  यह सब... ओह! मनका यह वीर परिश्रम जो समझनेके लिये जी-तोड़ यत्न करता है! अह, बह कड़ी मेहनतसे अपना सिर फोड़ता है... बिलकुल व्यर्थ! बिलकुल व्यर्थ! इससे कोई लाभ नहीं होता । यह तो केवल ताशके पत्तोंका फेंकना हुआ ।

 

तुम्हारे सामने एक तथाकथित समस्या है : क्या कहा जाय या क्या किया जाय या कैसे कार्य किया जाय या...? कुछ करनेको नहीं है, कुछ भी नहीं, तुम्है केवल प्रभुसे यह कहना है : ''तुम देख ही रहे हो, बात ऐसी है'', और फिर सब समाप्त । फिर, तुम शांत रहते हो, अत्यधिक शांत । और तब बिलकुल सहज भावसे, उसके विषयमें सोचे बिना, विचारे बिना और हिसाब लगाये बिना, बल्कि जरा भी कुछ किये बिना - तुम वही करते हों जो तुम्है करना है, अर्थात्, भगवान् स्वयं उसे करते हैं, तुम नहीं करते । वे करते हैं, वे परिस्थितियोंको संजोते हैं, लोगोंको व्यवस्थित करते हैं, वे तुम्हारे मुखमें अथवा तुम्हारी कलममें शब्द रख देते है - वे सब कुछ करते हैं, सब, सब, सब, तुम्हारे करनेके लिये कुछ बाकी नहीं रहता, कुछ नहीं, यक, अपने-आपको आनंदमें रहने दो ।

 

 मुझे विश्वास है कि लोग सचमुच यह नहीं चाहते ।

 

     किन्तु सफाईका कार्य कठिन है, पहलेसे सफाई करनेका कार्य ।

 

किंतु तुम्हें यह करनेकी आवश्यकता नहीं है! वे ही तुम्हारे लिये कर देते है ।

 

   किन्तु ये सदा आक्रमण करते रहते है, अर्थात्, पुरानी चेतना, पुराने विचार

 

हां, अभ्यासवश वह फिरसे शुरू होना चाहता है - तुम्हें यह कहना है : ''प्रभु, आप देखें, आप देखें, आप देखें यह ऐसा है'', बस इतना ही । ''प्रभु, आप देखें, आप इसे देखें, आप इसे देखें, आप इसे देखें, आप वहां उस मूर्खको देखें ।''

 

१५८


बस बात समाप्त हों गयी, और वह भी तत्काल ही... 1 किंतु, मेरे बच्चे, यह अवस्था अपने-आप ही बदल जाती है, जरा भी प्रयास नहीं करना पड़ता । तुम्हें केवल सच्चा बनना होगा, दूसरे शब्दोंमें, सचाईसे यह चाहना होगा कि यह ऐसा होना चाहिये । तुम इस बातसे पूरी तरह सचेत हो कि तुम कुछ नहीं कर सकते, तुममें कोई क्षमता नहीं है । मुझे यह अधिकाधिक अनुभव हो रहा है कि जड़-पदार्थका यह मिश्रण जैसा कि यहां है, इन कोषाणुओं और अन्य सबका मिश्रण बहुत दयनीय, बहुत ही क्षुद्र वस्तु है! मैं नहीं जानती कि कुछ ऐसी अवस्थाएं होती है या नहीं जिनमें लोग अपने-आपको शक्तिशाली, अद्भुत, आलोकित और समर्थ समझते हों; परंतु मुझे तो लगता है कि यह इसलिये होता है कि वे सत्य रूपमें यह नहीं जानते कि वे वैसे है! जब मनुष्य सचमुच यह देख लेता है कि उस- का निर्माण कैसे हुआ है, तो वह जान लेता है कि सचमुच वह कुछ नहीं है, कुछ नहीं है; किंतु सब कुछ करनेमें समर्थ है, बशर्ते... बशर्ते कि वह भगवान्को कार्य करने दे । पर ऐसी वस्तु सदा होती है जो अपने-आप करना बहुत पसंद करती है, यही कठिनाई है, नहीं तो...।

 

  ना, तुम श्रेष्ठ सद्भावनासे भरे हो सकते हा और तुम सचमुच कुछ करना चाहते हो । यहीं बात पूरे कार्यको जटिल बना देती है । या फिर तुममें विश्वास नहीं होता, तुम सोचते हो कि भगवान् इसे नहीं कर सकेंगे, इसलिये खुद ही करना पड़ेगा, क्योंकि वे इसे नहीं जानते! (माताजी हंसती है) इस प्रकारकी मूखंता बहुत फैली हुई है, है न, कि : ''वे वस्तुओंको कैसे देख सकते हैं? हम 'मिथ्यात्व' के जगत् में रहते हैं, वे 'मिथ्यात्व' को कैसे देख सकते हैं और... '' ठीक यहीं बात है, भगवान् वस्तुओंको वैसी ही देखते हैं जैसी कि वे हैं ।

 

  मै उन लोगोंकी बात नहीं कह रही जिनमें बुद्धि नहीं है, मै उन लोगों- की बात कह रही हू जो बुद्धिमान् हैं और जो प्रयत्न करते है -- उनके किसी भागमें एक प्रकारका विश्वास होता है, उन लोगोंमें भी जो जानते हैं कि हम 'अज्ञान' और 'मिथ्यात्व के जगत् में निवास करते है और एक भग- वान् है जो सत्यस्वरूप हैं, वे भी कहते है : ''इसीलिये क्योंकि वे सत्य- स्वरूप है, वे नहीं समझते (माताजी हंसती हैं) । वे हमारा मिथ्यात्व नहीं समझते, हमें स्वयं उसका ख्याल रखना होगा ।'' यह बात प्रबल और व्यापक है ।

 

 हम बिना बातकी जटिलताएं खड़ी कर लेते हैं ।

 

     यह बात मैंने प्रायः ही अपने-आपसे पंछी है; जब व्यक्ति

 

१५९


भगवान्से कोई प्रार्थना करता है और उन्हें समझाना चाहता है कि कोई वस्तु ठीक नहीं है, तब मुझे सदा ऐसा प्रतीत होता है कि उसे बलपूर्वक अपने-आपको एकाग्र करना चाहिये, और प्रत्येक अवस्थामें दूरकी किसी ऊंची वस्तुका आवाहन करना चाहिये । क्या यह ठीक है? या यह वस्तुत:...

 

यह हमपर निर्भर है!

 

  रही बात मेरी तो मै अब उन्हें सर्वत्र, सब समय, सब समय अनुभव करती हू... उनका भौतिक संपर्कतक अनुभव करती हू - यह सूक्ष्म- भौतिक होता है, पर है भौतिक -- वस्तुओंमें, वायुमें, लोगोंमें.... । इस प्रकार, (माताजी अपने हाथोंसे अपने मुखको दबाती है) । और व्यक्तिको दूर जानेकी आवश्यकता नहीं, मुझे केवल इतना- ही करना होता है (माता- जी अपने हाथोंको थोड़ा अंदरकी ओर मोड़ती हैं), एकाग्रताका एक सेकण्ड और भगवान् मौजूद होते हैं, मौजूद होते हैं, वे सर्वत्र है, है न? ३ दूर केवल तभी होते है जब हम उन्है दूर समझते है।

 

  स्वभावतया जब हम वैश्व चेतनाके सभी प्रदेशों, सभी स्तरोंके विषयमें सोचना शुरू करते हैं और यह समझने लगते हैं कि वे वहां, दूर, बड़ी दूर, परले सिरेपर है तो वे सचमुच दूर, दूर, बहुत दूर हो जाते है! (माताजी हंसती है) । किंतु जब हम यह सोचते है कि वे सर्वत्र मौजूद हैं, वे ही सब कुछ है और केवल हमारा बोध ही हमें उन्है देखने और उनकों अनुभव करनेसे रोकता है; तो सब छ पलट जाता है । हमें केवल इतना करना है (माताजी अपने हाथ अंदरकी ओर मोड़ती है); यह इस प्रकारकी और इस प्रकारकी क्रिया है (माताजी बारी-बारीसे हाथ अंदर और बाहरको ओर मोड़ती हैं), यह क्रिया बड़े ठोस प्रकारकी होती है । तुम ऐसा करते हों (बाहरकी ओरकी क्रिया), और सब कुछ कृत्रिम, कठोर, रूखा, गलत, मिथ्या, हां, कृत्रिम हों जाता है । तुम ऐसा करते हों (अंदरकी ओरकी क्रिया) तब सब कुछ विशाल, शांत, आलोकमय, प्रशांत, असीम और आनंद- मय हों जाता है । और केवल यह, केवल यह (माताजी बारी-बारीसे अपने हाथोंको अंदर और बाहरकी ओर मोड़ती है) । कैसे? कहां? इसका वर्णन नहीं किया जा सकता, किंतु यह केवल, चेतनाकी केवल एक क्रिया है, और कुछ नहीं । चेतनाकी एक क्रिया । और सच्ची चेतना और झूठी चेतनाके बीचका अंतर अइत्वकाधिक... यथार्थ होता जाता है, साथ ही क्षीण भी - इससे बाहर निकलनेके लिये तुम्है कोई ''बहुत बड़े'' काम नहीं करने पड़ती । पहले, तुम ऐसा सोचते थे कि तुम किसी वस्तुमें निवास करते

 

१६०


हो और उससे बाहर निकलनेके लिये तुम्है, एक तीव्र अंतमुखताकी, एकाग्रता और तल्लीनताकी आवश्यकता है । किंतु अब तुम्हें प्रतीत होता है कि यह एक ऐसी वस्तु है जिसे तुम स्वीकार करते हों (माताजी अपने मुखको अपने हाथकी ओटमें कर लेती है), एक ऐसी वस्तु जो पतले छिलकेके समान है, पर है बहुत कही - बहुत कड़ी, पर लचकीली, अत्यधिक शुष्क, किंतु बहुत महीन, बहुत ही महीन, बहुत महीन, मानों एक नकाब पहने रखा हो; और तब तुम ऐसा करते हों; (माताजी संकेत करती है) वह लुप्त हो जाती है ।

 

  तुम उस समयका पूर्वज्ञान पा सकते हो, तब तुम्हें इस नकाबको हटानेकी आवश्यकता नहीं रहेगी, वह इतना महीन हो जायगा कि नकाब- को हटाये बिना ही व्यक्ति उसमेंसे देख सकेगा, अनुभव और कार्य कर सकेगा । यह कार्य अभी होना शुरू हुआ है ।

 

  किंतु समस्त वस्तुओंमें यह 'उपस्थिति'... यह एक 'स्पंदन' है, किंतु एक ऐसा 'स्पंदन' है जिसमें सब कुछ मौजूद है -- 'स्पंदन', जिसमें एक प्रकारकी अनंत शक्ति, अनंत आनंद और अनंत शांति है और है विशालता, विशालता, विशालता जिसकी कोई सीमा नहीं... । किंतु है यह एक 'स्पंदन ही, यह... ओह, प्रभु! इसके बारेमें सोचा नहीं जा सकता, इसलिये कुछ कहा मी नहीं जा सकता । यदि व्यक्ति सोचे तो सोचते ही सारी खदबद फिरसे शुरू हो जाती है, इसी कारण उसके संबंध- मे कह भी नहीं सकता ।

 

  नहीं, वे बहुत दूर हैं, क्योंकि तुम उ'है बहुत दूर मानते हो । तब मी जब तुमने यह सोचा कि वे इस प्रकार ( अपने मुखकी ओर संकेत करती हैं) मौजूद हैं, तुम्हारा स्पर्श कर रहे हैं... यदि तुमने उनकी उपस्थिति अनुभव की हो । यह किसी. ब्यक्तिके साथ संपर्क जैसा नहीं होता । यह वैसा नहीं है । यह एक ऐसी वस्तु है जो बाह्य या परकीय नहीं है, जो बाहरसे अंदरकी ओर नहीं आती । यह वैसी. नहीं है... यह सर्वत्र है ।

 

  अतएव तुम सर्वत्र, सर्वत्र, सर्वत्र, सर्वत्र - अंदर बाहर, सर्वत्र, सर्वत्र केवल उन्है ही अनुभव करते हो - उन्है, उनके सिवाय कुछ नहीं । वे, उनके 'स्पंदन'

 

  नहीं, तुम्है, यह बंद करना होगा ( सिरकी ओर संकेत करती है), जब- तक तुम इसे बंद न करोगे, तबतक 'सच्ची वस्तु' को नहीं देख सकोगे -- तुम तुलनाएं ढूँढ़ते हो, तुम कहते हो : ' 'यह ऐसा है, यह वैसा है,'' ओह!...

 

१६१


 

(मैंने)

 

  और तुम्है कितनी बार, कितनी बार यह प्रतीत होता है... कोई रूप नहीं है - रूप है भी और नहीं भी, तुम इसके विषयमें कुछ नहीं कह लसकते । दृष्टिका आभास होता है पर आंखें नहीं हैं - आंखें नहीं हैं, किंतु दृष्टि है -- दृष्टि है, मुस्कराहट है और मुहर नहीं है, चेहरा नहीं है । पर फिर भी मुस्कराहट है, दृष्टि है और (माताजी हंसती है) तुम यह कहे बिना नहीं रह सकते : ''हां, प्रभु, मै मूर्ख हू! '' किंतु वे हंसते हैं, और तुम भी हंसते हो और आनंदित होते हो ।

 

  तुम इसकी व्याख्या नहीं कर सकते! इसकी व्याख्या की भी नहीं जा सकती, इसकी चर्चा मी नहीं की जा सकती । तुम कुछ नहीं कह सकते । तुम जो कुछ कहते हो वह कुछ नहीं है, कुछ नहीं ।

 

 १२-१०-६२

 

८१ -- भगवान्का हास्य कभी-कभी शिष्ट कानोंके लिये बड़ा ही भद्दा और अनुपयुक्त होता है; उन्हें मोलिऐर' बननेसे संतोष नहीं होता, उन्हें तो अरिस्टोफेन और राबले' बननेकी भी आवश्यकता होती है ।

 

८२ -- यदि मनुष्य जीवनको कम गंभीरतापूर्वक लें तो वे बहुत शीध उसे अधिक पूर्ण बना सकेंगे । भगवान् कभी अपने कार्यको गंभीरतापूर्वक नहीं लेते; इसीलिये हम इस अद्भुत विश्वको देख रहे हैं ।

 

८३ -- लज्जासे अत्युत्तम परिणाम प्राप्त होते हैं और सौंदर्य- बोध तथा नैतिकता दोनोंमें ही हम उसकी बिलकुल उपेक्षा नहीं कर सकते; परंतु इस सबके बावजूद यह दुर्बलताका एक चिह्न और अज्ञानका एक प्रमाण है ।

 

  यहां एक प्रश्न हो सकता है कि चीजोंको गमीरतापूर्वक

 

 फ्रासके सर्वश्रेष्ठ सुखान्त नाटककार ।

 फ्रांसकी व्यंग्य-लेखक ।

 

१६२


   लेनेकी बताने जीवनको अधिक पूर्ण बननेसे कैसे रोका है?

 

पुण्य-भावना हमेशा जीवनमें उन वस्तुओंको दबा रखनेमें व्यस्त रहती है जो उसे जीवनमें बुरी लगती हैं और संसारके विभिन्न देशोंके सभी पुण्योंको यदि एक साथ एकत्र कर दिया जाय तो जीवनमें बहुत थुड़ी-सी चीजें ही बच रहेगी ।

 

  पुण्य-भावना पूर्णताकी खोज करनेका दावा करती है, परंतु पूर्णताका अर्थ है एक समग्रता । अतएव ये दोनों बातें एक-दूसरेको काटती है । पुण्य-भावना बहिष्कार करती है, कम करती है, सीमाएं बांधती है और पूर्णता प्रत्येक चीजको स्वीकार करती है, किसी चजिका परित्याग नहीं करती, बल्कि प्रत्येक चीजको उसके ठीक स्थानमें रखती है - वे दोनों (पुण्य-भावना और पूर्णता) एक-दूसरेको ठीक-ठीक समझ नहीं सकती ।

 

  जीवनको गंभीरतापूर्वक लेनेका साधारणतया अर्थ है दो बातें करना; पहली, उन चीजोंको महत्व देना जो शायद कोई महत्व नहीं रखती; दूसरी, जीवनको उन थोड़े-से गुणोंमें सीमित कर देना जो पवित्र और जीवनके लिये उपयोगी समझे जाते है । कुछ लोगोंमें (उदाहरणार्थ, उन लोगोंमें जिनके विषयमें यहां श्रीअरविन्द कह रहे हैं, अर्थात्, कट्टर और अति-नैतिक लोगोंमें) यह पुण्य-भावना बड़ी रूखी-सूखी, नीरस, भद्दी और आक्रामक बन जाती है और उसे हर जगह, प्रत्येक हर्षयुक्त, स्वाधीन और सुखमय वस्तु- मे दोष-ही-दोष दिखायी. देते है ।

 

  जीवनको पूर्ण बनानेका (यह तो जानी हुई बात है कि यहां मेरा मत- लब है, पृथ्वीपरके जीवनसे) एकमात्र पथ है उसकी ओर काफी ऊंचाई- पैरसे देखना ताकि तुम उसे संपूर्ण रूपमें देख सको, केवल उसके वर्तमान पूर्ण रूपको ही नहीं, बल्कि उसके भूत, वर्तमान और भविष्यके संपूर्ण रूप- को मी देख सको; यह जो कुछ पहले था, जो कुछ अब है और जो कुछ -आगे होगा -- हमें यह सब एक साथ देखनेमें समर्थ होना चाहिये । क्योंकि एकमात्र यही तरीका है जिससे हम प्रत्येक चीजको उसके ठीक- ठीक स्थानमें रख सकते हैं । उस समय कोई मी चीज दबायी नहीं जा सकती, कोई मी चीज नहीं दबानी चाहिये, बल्कि प्रत्येक चीज अपने उचित स्थानमें होनी चाहिये और बाकीके साथ उसका पूर्ण सामंजस्य बना रहना चाहिये और उस समय जो सब चीजें कट्टर धार्मिक व्यक्तिको इतनी 'बुरी.', इतनी 'तिरस्कार योग्य,', इतनी. 'अग्राह्य' प्रतीत होती. है वे सब एक पूर्णत: दिव्य जीवनके आनन्द और स्वातंच्यके कार्य बन जाता है । और तब कोई भी. चीज परमात्माके इस अद्भुत हास्यको जानने, समझने, अनु-

 

१६३


भव करने और जीवनमें उतारनेसे हमें रोक नहीं सकेगी -- उस परमात्मा- के हास्यको जो स्वयं अपनी ही ओर अनंत भावसे देखनेमें असीम आनन्द अनुभव करते हैं ।

 

  यह आनन्द, यह अद्भुत हास्य ही है जो समस्त अन्धकार, समस्त दुःख- 'दर्द और समस्त संतापको विलीन कर देता है! इस आन्तर सूर्यको पानेके लिये तथा उसकी किरणोंमें स्नान करनेके लिये स्वयं अपने अन्दर पर्याप्त गहराईतक प्रवेश करना काफी है और तब सब कुछ सुसमंजस, ज्योतिर्मय, सूर्यमय हास्यक झरना बन जाता है, जिसमें कहीं मी कोई छाया या दुःख नहीं रह सकता ।

 

  यदि तुम उस स्थानसे देख सकनेमें, वहां रहनेमें समर्थ हो सको तो वास्तवमें बडी-सेबडी कठिनाइयों, दुःख-कष्टों और शारीरिक वेदनाओंकी भी असत्यताको देख सकोगे, - तब तुम्हारे लिये कठिनाई, दुःख-कष्ट और वेदना नामकी कोई चीज नहीं रह जायगी - प्रत्येक च्जि ही एक हर्ष- मय और ज्योतिपूर्ण प्रकंपनका रूप ले लेगी ।

 

   मुख्य रूपसे यही अत्यन्त शक्तिशाली साधन है जिससे कठिनाइयोंको विलीन किया जा सकता, दुख-कष्टोंको जीता जा सकता और वेदनाओंको दूर किया जा सकता है । इनमें पहले दो अपेक्षाकृत (मैं अपेक्षाकृत कह रही हू) आसान हैं, अनंतिम चीज कुछ अधिक कठिन है, क्योंकि लोगोंको शरीर और वह जो कुछ अनुभव करता है उस सबको ' अत्यन्त ठोस, सु- निश्चित समझनेका अभ्यास पंडू गया है । परन्तु यह भी वैसी ही चीज है; हमने अपने शरीरको एक तरल, नमनीय, अनिश्चित, नर्म वस्तुके रूपमें देखना न सीखा है, न अभ्यास किया है । हमने इसके अन्दर इस ज्योतिर्मय हास्यको प्रविष्ट करनेकी विधि नहीं सीखी है जो समस्त अंधकार, समस्त कठिनाई, समस्त असंगति, समस्त असामंजस्यको, जो कुछ कराहता, रता और विलाप करता है उसको विलीन कर देता है ।

 

  और यह सूर्य, यह दिव्य हास्यका सूर्य प्रत्येक वस्तुके एकदम केन्द्रमें विद्यमान है, प्रत्येक वस्तुका सत्य है - आवश्यकता बस यही है कि हम उसे देखना, अनुभव करना और जीवनमें उतारना सीख़ें ।

 

  और इसके लिये हमें उन लोगोंसे दूर रहना चाहिये जो जीवनको अत्यन्त गंभीर रूपमें लेते हैं, वे ऐसे लोग हैं जिनसे मनुष्य ऊब उठता है ।

 

  जब कमी वातावरण गंभीर हों उठे तो तुम कह सकते हों कि कहीं कोई चीज ठीक नहीं है, कोई हानिकारक प्रभाव, कोई पुरानी आदत भीतर घुसनेका प्रयास कर रही है जिसे कमी स्वीकारना नहीं चाहिये । यह सब पश्चात्ताप, यह सब संताप, अयोग्यताकी भावना, अपराधकी भावना और

 

१६४


 फिर एक पग और आगे, पापकी भावना - ओह! यह सब... मुझे लगता है कि ये सब एक दूसरे युग, अन्धकारके युगकी चीजें है ।

 

   परन्तु ये सब चीजें जो बनी हुई है, जो चिपकी रहने और बनी रहने- की चेष्टा करती हैं, ये सब निषेध और जीवनको दो भागोंमें - छोटा और बड़ा, पवित्र और अपवित्र - बांट देनेका यह तरीका! जो लोग यह घोषणा करते हैं कि वे आध्यात्मिक जीवनका अनुसरण करते है, वे कहते हैं : ''यह कैसी बात है! तुम भला ऐसी तुच्छ चीजोंको, जिनका इतना कम महत्व है, आध्यात्मिक अनुभवका विषय कैसे बना सकते हो? '' और फिर भी यह एक ऐसा अनुभव है जो अधिकाधिक ठोस और वास्तविक होता जाता है, स्थूल रूपतकमें! ऐसी चीजोंके दो भाग नहीं हैं जिनमेंसे एकमें भगवान् हों और दूसरेमें न हों । भगवान् सर्वदा, सर्वत्र विद्यमान हैं । वह किसी चीजको गंभीरतापूर्वक नहीं लेते, वह प्रत्येक चीजसे आनन्द प्राप्त करते है और वह तुम्हारे साथ खेलते हैं यदि तुम उनके साथ खेलना जानो । तुम खेलना नहीं जानते, लोग खेलना नहीं जानते । परन्तु वह, कितनी अच्छी तरह खेलना जानते हैं! कितनी अच्छी तरह खेलते हैं! प्रत्येक चीजके साथ, छोटी-से-छोटी चीजके साथ खेलते है । तुम्हें अपनी मेजपर चीजें रखनी हैं? ऐसा मत समयों कि तुम्हें सोच-समझकर, सजाकर रखना होगा, नहीं, तुम तो खेलने जा रहे हो : तुम इस चीजको यहां और उस चीजको वहां रख दो और फिर इसी तरह रखते चले जाओ । और फिर दूसरी बार दूसरे ढंगसे रखो... । कितना सुन्दर खेल है और कितना आनन्द दायी !

 

  अब बात समझमें आ गयी; अब हम यह जाननेकी कोशिश करेंगे कि भगवान्के साथ-साथ कैसे हंसा जाता है ।

 

१४-१-६३

 

  ८४ -- अतिप्राकृत वह चीज है जिसके स्वभावको हमने नहीं प्राप्त किया है या अभीतक नहीं जाना है, अथवा जिसे प्राप्त करनेका साधन अभीतक हमने नहीं आयत्त किया है । चमत्कारोंके लिये सर्वसाधारण लोगोंकी रुचि इस बातका चिह्न है कि मनुष्यका आरोहण अभीतक पूर्ण नहीं हुआ है ।

 

८५ -- अतिप्राकृत अविश्वास करना युक्तिसंगत और

 

१६५


समझदारी है; परंतु उसपर विश्वास करना भी एक प्रकारकी बुद्धिमत्ता ही है ।

 

८६ -- उच्चकोटिके संतोंने चमत्कार किये हैं; उच्चतर कोटि- के संतोंने उनकी निन्दा की है; उच्चतम कोटिके संतोंने उनकी निन्दा भी की है और उन्हें किया भी है ।

 

८७ -- अपनी आंखें खोलों और देखो कि वास्तवमें जगत् क्या है और भगवान् क्या हैं; व्यर्थ और मधुर कल्पनाओंसे कोई संबंध मत रखो

 

   आपने या श्रीअरविन्दने बाह्य मानवीय चेतनाकी बाधाओंको जीतनेके एक साधनके रूपमें चमत्कारोंका अत्यधिक उपयोग क्यों नहीं किया है? आप लोगोंने बाहरी चेतनाके प्रति इस प्रकारकी उपेक्षा, इस प्रकार हस्तक्षेप न करने या इस प्रकार सावधानीके साथ विवेक करनेका भाव क्यों रखा है?

 

 जहांतक श्रीअरविन्दका प्रश्न है, मैं बस वही जानती हू जो उन्होंने मुझसे कई बार कहा है । साधारणतया, लोग भौतिक जगत् या प्राणिक जगत् में किये गायें हस्तक्षेपको ही ''चमत्कार' ' कहते है । इन हस्तक्षेपोंमें हमेशा अज्ञानकी क्रिया एं तथा स्वेच्छाचा रिता मिली-जुली होती हैं।

 

  परन्तु मनके राज्यमें श्रीअरविन्दने जो चमत्कार किये है वे अगणित हैं; परन्तु स्वभावत: ही उन्है वे ही देख सकते थे जिन्हें एक सीधी, सच्ची और शुद्ध दर्शन-शक्ति प्राप्त थी - और बहुतोंने उन्हें देखा है । परन्तु इ स मिश्रणके कारण ही ३ कोई प्राणिक या भौतिक चमत्कार करनेसे झंकार करते थे -- मै जानती हू -- उन्होंने यह अस्वीकार किया था ।

 

  मेरा अनुभव यह है कि अभी जगत् जिस स्थितिमें है उसमें यदि कोई प्रत्यक्ष चमत्कार, कोई भौतिक या प्राणिक चमत्कार होगा तो वह अवश्यमेव मिथ्यात्वके बहुत-से तत्वोंको अपने हिसाबमें शामिल कर लेगा जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता । ये निश्चित रूपसे मिथ्या चमत्कार होते हैं और उन्है स्वीकार नहीं किया जा सकता । मैंने उन घटनाओंको देखा है जिन्हें लोग चमत्कार कहते है; मैंने एक बार बहुत-सी घटनाओंको देखा जिन्हेंने अनेक ऐसी चीजोंके बने रहनेका अधिकार दिया जो मेरे लिये अनुमोदनीय नहीं हैं ।

 

१६६


   आजकल लोग जिस चीजको चमत्कार कहते है वह प्रायः हमेशा प्राणिक जगत् की सत्ताओंके द्वारा संपन्न की जाती है अथवा उन मनुष्योंकी द्वारा की जाती है जो प्राण-जगत् की सत्ताओंके साथ संपर्क बनाये रहते हैं और यह चीज एक मिश्रण होती है - यह कुछ ऐसी चीजोंको वास्तविक या सत्य स्वीकार करती है जो सत्य नहीं हैं । और यह इसी आधारपर कार्य करती है । अतएव यह स्वीकार्य नहीं है ।

 

   मै पूरी तरह नहीं समझ पाया कि आपके इस कथनका क्या तात्पर्य है कि श्रीअरविन्दने ''मनमें कई चपत्कार'' किये ।

 

चमत्कार तब हुआ जब उन्होंने मानसिक चेतनाके अन्दर अतिमानसिक शक्तिको डाला । उन्होंने मानसिक चेतनामें (उस मानसिक चेतनामें जो समस्त भौतिक गतिविधियोंका संचालन करती है) एक अतिमानसिक रचना या शक्ति या सामर्थ्यको डाल दिया जिसने तुरत ही सारे संगठनको बदल दिया । उसने तत्काल कुछ ऐसे परिणाम उत्पन्न किये जो ऊपरसे देखने- मे युक्तिसंगत न थे, क्योंकि यह कार्य मानसिक युक्ति-तर्कके अनुसार अपनी क्रिया-धाराका अनुसरण नहीं करता ।

 

  वह स्वयं कहा करते थे कि ऐसा तब हुआ था जब अतिमानसिक शक्ति और ऊर्जापर उनका पूरा अधिकार था और अपनी इच्छाके अनुसार वह उनका प्रयोग कर सकते थे । जब-जब उन्होंने उस शक्तिका एक निश्चित उद्देश्यके साथ किसी विशिष्ट स्थानपर प्रयोग किया तो वह अचूक, अनिवार्य सिद्ध हुई, उसका परिणाम अबाधित रहा । हम इसे चमत्कार कह सकते है ।

 

  उदाहरणके लिये, एक मनुष्यके। ले लो जिसे कोई बीमारी है, जिसे दर्द है; जब श्रीअरविन्दको इस अतिमानसिक शक्तिपर अधिकार प्राप्त था (एक समय ऐसा था जब, वह कहते थे कि, वह संपूर्णता: उनके अधिकारमें थी, यानी, वह उसका उपयोग अपनी. मर्जीके मुताबिक कर सकते थे, वह जहां चाहते वहीं उसे कार्यमें लगा देते थे), तब वह इस 'संकल्प- शक्ति'को मानों किसी प्रकृतिगत अस्तव्यस्तताके अन्दर, चाहे वह भौतिक, प्राणिक या मानसिक हो, डाल देते, इस अतिमानसिक शक्तिको, एक उच्च- तर सामंजस्यकी, एक उच्चतर सुव्यवस्थाकी इस शक्तिको उतार लाते और वहां प्रयोग करते और वह तुरन्त कार्य करती । वह स्वयं एक व्यवस्था होती थी, एक सुव्यवस्था, जो स्वाभाविक सामंजस्यसे कहीं ऊंचा सामंजस्य उत्पन्न करती थी । वह मानों एक उपचार होता था और वह

 

१६७


किसी भी सामान्य मानसिक और भौतिक साधनोंसे प्राप्त उपचारसे अधिक पूर्ण, अधिक व्यापक होता ।

 

  ये चमत्कार संख्यामें काफी अधिक थे । पर मनुष्य इतने अन्धे है, अपनी साधारण चेतनामें इतने जड़ है कि वे हमेशा कोई-न-कोई व्याख्या डालते है, वे सर्वदा कोई-कोई सफाई दे सकते है । केवल वे लोग ही इसे देखनेमें समर्थ होते हैं जिनमें श्रद्धा कौर अभीप्सा होती है, कोई बहुत शुद्ध वस्तु होती है, अर्थात्, जो वास्तवमें जानना चाहते है वे ही प्रत्यक्ष देख सकते है ।

 

  जब वह शक्ति प्राप्त थी तब, वह यहांतक कहा करते थे कि, उसके लिये उन्हें कोई प्रयास नहीं करना पड़ता था, उन्हें केवल इतना ही करना पड़ता था कि सुव्यवस्था और अतिमानसिक सामंजस्यकी इस शक्तिको वहां लगा दें और फिर उसी क्षण अभीप्सित परिणाम प्राप्त हो जाता था ।

 

  चमत्कार क्या चीज है? क्योंकि श्रीअरविद अकसर कहा करते थे कि चमत्कार नामकी कोई चीज नहीं है और, साथ- ही-साथ, 'सावित्री'में, उदाहरणार्थ, वे कहते हैं :

 

    ''यहां सब कुछ चमत्कारके द्वारा ही बदल सकता है ।''

 

[सावित्री : १-५-९७]

 

 यह इस बातपर निर्भर है कि तुम इसे कैसे देखते हों, इस ओरसे या उस ओरसे ।

 

  तुम केवल उन्हीं चीजोंको चमत्कार कहते हो जिनकी व्याख्या स्पष्ट नहीं होती अथवा जिनकी कोई मानसिक व्याख्या नहीं होती । इस दृष्टिकोणसे हम कह सकते हैं कि ऐसी अनगिनत चीजें होती रहती है जो चमत्कार हैं, क्योंकि तुम यह नहीं समझा सकते कि वे कैसे या क्यों हुई ।

 

    तब सच्चा चमत्कार क्या होगा?

 

 मै नहीं समझती कि सच्चा. चमत्कार क्या हा सकता है, क्योंकि इसके साथ ही यह प्रश्न उठता है कि चमत्कार किसे कहते है । एक सच्चा चमत्कार... । मन ही वह चीज है जो चमत्कारोंकी धारणा बनाती है । क्योंकि मन, अपनी निजी तर्कयुक्तिके द्वारा यह निर्णय करता है कि अमुक अवस्थामें अमुक वस्तु हो सकती है या नहीं । परन्तु यह तो मनकी सीमाएं हैं । क्योंकि, परात्पर प्रभुकी दृष्टिसे, भला कोई

 

१६८


चमत्कार हो ही कैसे सकता है? प्रत्येक वस्तु वे स्वयं है जिसे दे मूर्त रूप देते हैं ।

 

  तब हम उस मार्गकी महान् समस्यामें प्रवेश करते हैं जिसका अनुसरण किया गया है; वह शाश्वत मार्ग है, जैसा कि श्रीअरविन्दने 'सावित्री'में समझाया है । स्वभावतः, यह बात समझमें आने योग्य है कि जो चीज पहले मूर्तिमान हुई वह वही चीज है जिसमें मूर्तिमान होनेकी इच्छा है । और सबसे पहली बात जो स्वीकार करने योग्य है तथा जो क्रमविकासके सिद्धल्तके अनुसार युक्तिसंगत प्रतीत होती है, बह यह है कि मूर्तिमान होनेकी क्रिया उत्तरोत्तर बढ्ती है, वह सनातन कलसे संपूर्ण विद्यमान नहीं है । (मौन) यह कहना बड़ा कठिन है, क्योंकि हम यह कल्पना करनेके अभ्याससे बाहर निकलनेमें समर्थ नहीं है, कि वह एक सुनिश्चित राशि है जो असीम रूपसे अपनेको उन्मीलित कर रही है और केवल किसी निश्चित राशिसे ही प्रारंभ किया जा सकता है । हम लोग हमेशा ही (कम-से-कम जिस ढंगसे हम बात करते है उसके अनुसार) एक क्षणकी बात सोचते हैं (हंसती हैं) जब भगवानने अपने-आपको साकार बनानेका निश्चय किया था । उस ढंगसे व्याख्या करना आसान हो जाता है । वह अपनेको धीरे-धीरे, क्रमश: मूर्तिमान करते हैं, और इसका अर्थ है उत्तरोत्तर होनेवाला विकास, परन्तु यह केवल कहनेका एक ढंग है । चूंकि कोई आरंभ नहीं है इसलिये कोई अन्त भी नहीं है और फिर भी क्रमविवर्तन है । अनुक्रमका अर्थ, विकासका अर्थ, प्रगतिका अर्थ केवल अभिव्यक्तिके प्रसंगमें ही होता है । यदि तुम केवल पृथ्वीकी बात कोह तो तुम बहुत सच्चे रूपमें और युक्तिसंगत ढंगसे व्याख्या कर सकते हों, क्योंकि पृथ्वीका, उसकी आत्मामें नहीं, भौतिक स्वरूपमें एक आरंभ है । संभवतः स्थूल विश्वका मी एक आरंभ है ।

 

 (मौन)

 

  यदि तुम इस ढंगसे देखो तो, विश्वके लिये, चमत्कारका अर्थ होगा किसी दूसरे विश्वसे किसी चीजका सहसा प्रवेश । और पृथ्वीके लिये, यह बात समस्याको छोटा करके अधिक समझने योग्य बना देती है, चमत्कारका अर्थ है किसी ऐसी चीजका, जो पृथ्वीकी नहीं की, एकाएक पृथ्वी में प्रवेश । पृथ्वीमें एक ' ऐसे तत्वका प्रवेश जो मौलिक रूपसे इस भौतिक जगत्का (पृथ्वी यही तो है) नहीं है, एक मौलिक और तात्कालिक परिवर्तन ले आता है ।

 

१६९


  परन्तु यहां मी, यह कहा गया है कि प्रत्येक तत्त्वको ठीक केन्द्रमें तत्त्व- रूपमें सब कुछ है इसलिये उस तरहके चमत्कारका होना संभव नहीं है ।

 

   यह कहा जा सकता है कि चमत्कारका भाव केवल एक सीमित जगत्- -का, एक सीमित चेतना और एक सीमित परिकल्पनाका भाव है । यह 'किसी ऐसी चीजका आकस्मिक और बिना किसी तैयारीके घुस आना है - प्रविष्ट होना, हस्तक्षेप करना है जो इस भौतिक जगत् में विद्यमान नहीं थी । अतएव, स्पष्ट ही यदि कोई ऐसी संकल्प-शक्ति या चेतना अभिव्यक्त हो जाय जो पृथ्वीकी अपेक्षा कही अधिक असीम और अधिक शाश्वत जगत् की हो तो अवश्य ही पृथ्वीपर उसे चमत्कार कहा जायगा । परन्तु यदि कोई सीमित जगत् से बाहर आ जाय, ससीम जगत् के बोधसे बाहर आ जाय तो उसके लिये चमत्कारका कोई अस्तित्व नहीं रहता । परम प्रभुको इसीमें मजा आये तो वे लीला वश चमत्कार कर सकते है, परन्तु चमत्कार नामकी कोई वस्तु नहीं है - वे सबके साथ सभी संभव खेल खेलते हैं!

 

  तुम उन्हें तभी समझना आरंभ करते हो जब तुम इस तरह अनुभव करो, यह अनुभव करो कि वे सभी संभव खेल खेलते हैं, और ''संभव''का अर्थ मानवीय कल्पनाके अनुसार संभव नहीं, उनकी निजी धारणाके अनुसार संभव है!

 

  और यहां, चमत्कारके लिये कोई स्थान नहीं, भले ही कोई चीज चमत्कार जैसी दिखायी पड जाय ।

 

 (मौन)

 

    यदि धीमे क्रमविकासके स्थानपर हठात् कोई ऐसी चीज प्रकट हों जाय जो अतिमानसिक जगत् की हों तो मनोमय जीव, मनुष्य उसे चमत्कार कह सकता है, क्योंकि वह एक ऐसी चीजका हस्तक्षेप होगा जिसे वह अपने अन्दर ज्ञानपूर्वक धारण नहीं करता ओर जो उसके सशक्त जीवनमें हस्तक्षेप करती है । और यथार्थमें, चमत्कारोंके प्रति जो यह रुझान है, जो बहुत प्रबल है - जो लोग मानसिक रूपमें बहुत अधिक विकसित है उनकी अपेक्षा बच्चोंमें तथा बच्चों जैसा हृदय रखनेवालोंमें बहुत अधिक प्रबल है - उसकी ओर यदि तुम दृष्टिपात करो तो तुम्हें, पता चलेगा कि यह 'परम अद्भुत' -- सामान्य जीवनमें प्राप्त होने योग्य किसी मी चीजसे बहुत अधिक ऊंची किसी चीज -- की अभीप्साकी सिद्धिमें विश्वास है ।

 

  वास्तवमें, शिक्षामें हमें सर्वदा दो समानान्तर प्रवृत्तियोंको प्रोत्साहित

 

१७०


करना चाहिये । पहली है, 'परमाश्चर्यमय'के लिये तरसनेकी प्रवृत्ति, उस चीजकी प्यास जो अप्राप्य प्रतीत होती है, जो तुम्हें मिथ्यात्वकी भावनासे भर देती है । परन्तु इसके साथही-साथ, जब हम संसारकी ओर, जैसा कि यह है, देखें तो हमें यथार्थ शुद्ध, सच्चे निरीक्षणको उत्साहित करना चाहिये, पूरे ब्योरेकी यथार्यताके लिये समस्त कल्पनाओंको दूर करने, निरन्तर संयम रखने, एक अत्यन्त व्यावहारिक, अत्यन्त सतर्क विवेकशीलता- पर जोर देना चाहिये । ये दोनों बातें समानान्तर चलनी चाहिये । सामान्यतया, तुम इस विचारसे एकको मार देते हों कि यह दूसरेको बढ़ानेके लिये आवश्यक है । परन्तु यह एकदम गलत है । ये दोनों साथ-साथ रह सकती है और एक ऐसा क्षण भी है जब मनुष्यको यह देखनेका पर्याप्त शान रहता है कि ये दोनों एक ही वस्तुके दो पक्षी हैं और वही है दिव्य दृष्टि, उच्चतर विवेक । उस समय एक सीमित दर्शन और दिव्य दृष्टिके स्थानपर हमारा विवेक एकदम सच्चा, शुद्ध, यथातथ्य बन जाता है । पर वह विशाल होता है और अपने अन्दर एक ऐसे समूचे क्षेत्रको लिये रहता है जो अभीतक ठोस अभिव्यक्तिका अंग नहीं है ।

 

  शिक्षाके दृष्टिकोणसे यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण होगी ।

 

संसार जैसा है, उसे ठीक-ठीक वैसा ही स्थूल रूपमें, अत्यन्त पार्थिव और ठोस ढंगसे देखना तथा जैसा वह हों सकता है उसे एक अत्यन्त मुक्त, अत्यन्त ऊंची, अत्यधिक आशा और अभीप्सा और अद्भुत निश्चयतासे भरी हुई सूक्ष्म-दृष्टिसे देखना - ये दोनों विवेकशक्तिके दो ध्रुवके समान छोर हैं । हम अत्यन्त महान्, अत्यन्त अद्भुत, अत्यन्त सशक्त, अत्यन्त अर्थ- पूर्ण और अत्यन्त संपूर्णके रूपमें जिसकी कल्पना कर सकते है वह उसके मुकाबले कुछ नहीं है जो यह हो सकता है और इसके साथ-ही-साथ ब्योरे- मे जो हमारी छोटी-सें-छोटी यथार्थता होगी वह कमी पर्याप्त यथार्थ नहीं होगी । और ये दोनों एक साथ रहने चाहिये । जब मनुष्य इसे (नीचे- की ओर संकेत) जानता है और जब उसे (ऊपरकी ओर संकेत) जानता है तब वह दोनोंको साथ रखनेमें समर्थ होता है ।

 

  और चमत्कारोंकी आवश्यकताका सबसे बढ़िया संभव उपयोग यही है । चमत्कारोंकी आवश्यकता अज्ञानकी एक भंगिमा है. ''ओह! मैं चाहूंगा कि यह ऐसा हो! '' यह अज्ञान और असमर्थताकी एक भंगिमा है । और जे। लोग कहते है : ''तुम चमत्कारोंमें निवास करते हो'', वे केवल अन्तको देखते है जो नीचे होता है - फिर मी वे उसे केवल अपूर्ण रूपमें जानते हैं - और दूसरेके साथ उनका कोई सम्पूर्ण नहीं होता ।

 

१७१


  चमत्कारकी यह आवश्यकता अवश्य बदलकर उस वस्तुके लिये एक सज्ञान अभीप्सा बन जानी चाहिये (जो पहलेसे ही मौजूद है, जो विद्यमान है), और इन सब अभीप्साएं सहायतासे प्रकट होगी - ये सब अभीप्साएं आवश्यक है या, यदि कोई उनकी ओर एक अधिक सच्चे क्षरीकेसे देखे तो, शाश्वत अभिव्यक्तिमें सहायक -- सुन्दर सहायक है ।

 

   निस्संदेह, बहुत कठोर युक्ति-तर्कवाले लोग तुमसे कहते है : ''तुम प्रार्थना क्यों करते हो? तुम अभीप्सा क्यों करते हो? तुम माँगते क्यों हो? भगवान् जो चाहते है वही करते हैं और वही करेंगे जो वे चाहते है ।'' अवश्य ही बात ठीक है, यह कहनेकी कोई आवश्यकता नहीं, परन्तु यह उत्कंठा कि : ''हे भगवान्! तू प्रकट हो! '' उनकी अभिव्यक्तिको एक अधिक तीव्र स्पन्दन प्रदान करती है ।

 

  अन्यथा, उन्होंने, इस जगत् को वैसा न बनाया होता जैसा कि यह है -- संसार जो कुछ है वही फिरसे बन जानेकी उसकी अभीप्साकी तीव्रता- मे एक विशिष्ट शक्ति, एक विशिष्ट आनन्द, एक विशिष्ट स्पन्दन है ।

 

   और उसीके लिये - ''उसीके लिये''. अंशतः, खण्ड: - एक क्रम- विकास विद्यमान है ।

 

   शाश्वत रूपसे पूर्ण, शाश्वत परिपूर्णताको शाश्वत रूपसे अभिव्यक्त करने- वाला विश्व प्रगतिका आनन्द न पा सकेगा ।

 

६-३-६३

 

८८ -- इस जगत् को मृत्युने रचा था ताकि वह जी सके । क्या बर्र मृत्युको मिटा देगा? तब जीवन भी समाप्त हो जायगा । तू मृत्युको मिटा नहीं सकता, किंतु उसे महत्तर जीवनमें रूपांतरित कर सकता है ।

 

८९ - इस जगत् को क्रूरताने बनाया था ताकि वह प्रेम कर सके । क्या तू क्रूरताको विनष्ट कर देगा? तब तो प्रेम भी नष्ट हो जायगा । सु क्रूरताको नष्ट नहीं कर सकता, परंतु उसे उसके विरोधी तत्त्व, तीक्ष्ण प्रेम और आनन्दोल्लासमें परिवर्तित कर सकता है ।

 

 ९० - इस जगत्को अज्ञान तथा भूल-म्गंतिने गढ़ा था ताकि वे जान सकें । क्या तू अज्ञान और भूल-म्रतिको दूर कर

 

१७२


देगा? तब तो ज्ञान भी विलीन हो जायगा । तु अज्ञान और भूल-प्रगतिको दूर नहीं कर सकता, परंतु उन्हें विशुद्ध और प्रोज्जवल ज्ञानमें परिणत कर सकता है ।

 

११ - यदि केवल जीवन ही होता और मृत्यु न होती तो फिर अमरत्व नामकी कोई चीज ही न होती; यदि केवल प्रेम ही होता और क्रूरता न होती तो फिर आनंद केवल एक प्रकारका मैदा और क्षणस्थायी उल्लास ही रह जाता; यदि केवल ज्ञान ही होता और अज्ञान न होता तो हमारी अधिक-से- अधिक पहुंच एक सीमित तर्क-शक्ति और इहलौकिक विज्ञता- तक हा होती, उससे परे हम जा ही न पाते ।

 

९२ -- मृत्यु रूपांतरित होकर जीवन बन जाती है और वही है अमरत्व; क्रूरता परिवर्तित होकर प्रेम बन जाती है और वही है असह्य आनंदातिरेक; अज्ञान बदलकर प्रकाश बन जाता है जो ज्ञान और प्रज्ञाके भी परे जा पहुंचता है ।

 

 यह ठीक कही भावना है, अर्थात्, विरोध और विपरीतता प्रगतिके लिये एक प्रकारका उत्तेजक तत्त्व ह । कष्ट, यह कहना क क्रूरता बिना प्रेम कुनकुना या शिथिल होगा... । दिव्य प्रेमका तत्व अभिव्यक्त और अनभिव्यक्तके परे है, उसका शिथिलता या क्रूरताके साथ कोई संबंध नहीं है; केवल, श्रीअरविदका विचार ऐसा प्रतीत होता है, कि विरोधी चीजें जड-तत्वको इस तरह बढ़नेके लिये कि उसकी अभिव्यक्ति अधिक तीव्र हो सकें, सबसे अधिक तेज और प्रभावकारी साधन हैं ।

 

  एक अनुभवके रूपमें यह बात बिलकुल ठीक है, इस अर्थमें ठीक है कि सबसे पहले, जब मनुष्य शाश्वत प्रेम, परात्पर प्रेमके संस्पर्शमें आता है तो तुरत उसे... (किन शब्दोंमें कहा जाय?) एक बोध, एक अनु- भव होता है - यह एक प्रकारकी समझ नहीं है बल्कि बहुत ठोस चीज है - कि भौतिक चेतना चाहे जितनी मी आलोकित क्यों न हो, चाहे जितने अच्छे ढंगसे क्यों न डली हो, चाहे जितने अच्छे रूपमें क्यों न तैयार की गयी हों, उस प्रेमको अभिव्यक्त करनेमें असमर्थ है! पहली धारणा इस प्रकारकी अक्षमताकी होती है । फिर आता है एक अनुभव, ठीक ऐसी चीज आती है जो उसका एक रूप प्रकट करती है जिसे हम ठीक ''क्रूरता'' तो नहीं कह सकते, क्योंकि यह वैसी क्रूरता नहीं है जैसी हम

 

१७३


जानते हैं, बल्कि यों कहे कि सारी परिस्थितियोंके बीच एक स्पंदन होता है जिसमें प्रेमको, जैसा कि वह यहां अभिव्यक्त है, अस्वीकार करनेका एक प्रकारका तीव्र भाव होता है । हां, वह यही है, भौतिक जगत् कोई चीज जो प्रेमकी, जैसा कि अभी वह विद्यमान है, अभिव्यक्तिको अस्वीकार करती है । मैं यहां साधारण जगत् की बात नहीं कहती, मैं अभी अधिक- से-अधिक मात्रामें विद्यमान चेतनाकी बात कहती हू । (यह एक अनुभव है, मैं एक ऐसी चीजकी बात कह रही हू जो हों चुकी है) । अतएव, चेतनाका वह अंश जो इस विरोधसे स्पृष्ट हुआ है, प्रेमके मुल्की ओर एक सीधी पुकार भेजता है, उस पुकारमें एक ऐसी तीवरता होती है जो अस्वीकृतिकी इस अनुभवके बिना कदापि उत्पन्न न हुई होती । सीमाएं भंग हो जाती हैं और एक नीचे आ जाती है जो पहले अभिव्यक्त न हो पाती और एक ऐसी चीज प्रकट हों जाती है जो पहले प्रकट नहीं हुई थी ।

 

   इस दृष्टिसे देखें तो जिसे हम जीवन और मृत्यु कहते हैं उनके विषयमें स्पष्ट ही एक अनुरूप अनुभव विद्यमान है । यह अनुभव है इस प्रकार मृत्युकी उपस्थितिका ''ऊपर छाते रहना'' या निरंतर बने रहना और मृत्युकी समावनाका होना, जिसका वर्णन 'सावित्री'मे इस प्रकार किया गया है : बचपनके पालनेसे लेकर कब्रतक तुम्हारी पूरी यात्रामें निरंतर तुम्हारे साथ, मृत्युकी विभीषिका या उपस्थिति अनवरत रूपसे साथी बनी रहती है । और साथ-ही-साथ कोषोंमें विद्यमान है नित्यताकी शक्तिके लिये एक तीव्र पुकार जो इस सतत विभीषिकाके कारण है, अन्यथा कभी न होती । इस तरह हम समझ पाते हैं, बिलकुल ठोस रूपमें यह अनुभव करना आरंभ करते है कि ये सब चीजें 'अभिव्यक्ति'को तीव्र बनानेके तरीके हैं, उसकी प्रगति करानेके, उसे अधिकाधिक पूर्ण बनानेके मार्ग हैं । और यदि ये मार्ग मद्दे हैं तो इसका कारण यह है कि स्वयं यह 'अभिव्यक्ति' बहुत भद्री -- अपरिपक्व है । और जैसे-जैसे यह अपनेको पूर्ण बनायेगा, जैसे-जैसे वह उस चीजको अभिव्यक्त करनेके योग्य बनाती जायगी जो शाश्वत रूपसे प्रगतिशील है, वैसे-वैसे भद्दे साधन पीछे छूटते जायंगे और उनके स्थानपर सूक्ष्मतम साधन आते जायंगे और ऐसे क्रूर विरोधोंकी आवश्यकताके बिना संसार आगे बढ़ता जायगा । यह केवल इसलिये ऐसा है कि संसार अभी अपने बचपनमें है हार मानव चेतना मी एकदम बचपन- की अवस्थामें है ।

 

   यह बहुत ही ठोस अनुभव है ।

 

  अतएव, जब प्रगति करनेके लिये पृथ्वीको मरनेकी आवश्यकता नहीं होगी तब मृत्यु श्री न रहेगी । जब प्रगति करनेके लिये पृथ्वीको दुःख-कष्ट

 

२७४


उठानेकी आवश्यकता न रहेगी तब दुःख-कष्ट भी न रहेगा । और जब प्रेम करनेके लिये पृथ्वीको घृणा करनेकी आवश्यकता नहीं रह जायगी तो फिर घृणा भी न रहेगी ।

 

 (मौन)

 

   सृष्टिको उसके तमस् से बाहर निकाल लाने और उसकी उन्नतिके शिखर- तक आगे बढ़ा लें जानेका यह बहुत ही तेज और बहुत ही फलदायी साधन

 

 (दीर्घ मौन)

 

   सृष्टिका एक विशेष पक्ष है (जो शायद बहुत आधुनिक पक्ष है) -- वह है अव्यवस्था और अस्तव्यस्ततासे बाहर निकल आनेकी आवश्यकता । अस्तव्यस्तता असमजसतासे उत्पन्न होती है । यह अस्तव्यस्तता, यह अव्यवस्था सब प्रकारके रूप ग्रहण करती है, यह संघर्षमें, निरर्थक प्रयासमें, अपव्ययमें परिवर्तित हो जाती हैं । यह निर्भर है उस स्तरपर जिसमें तुम हो, परन्तु भौतिक स्तरपर, कार्यमें इसका मतलब होता है व्यर्थके जटिलता, शक्ति और सामग्रीका अपव्यय, समयकी हानि, नासमझी, ग़लतफ़हमी, क्रम- भंग, गड़बड़झाला । यही वह चीज है जिसे पुराकालमें वेदोंमें कहा गया था वक्रता (एक ऐसी चीज जो मुंडी है, जो सीधे लक्ष्यकी ओर जानेके बदले व्यर्थ ही टेडा-मेडा और नुकीला रास्ता पकडू लेती है) । यह एक ऐसी चीज है जो विशुद्ध दिव्य क्रमकी सुसमंजसताके एकदम विपरीत है; दिव्य कर्म कितना सरलतापूर्ण होता है ।... वह बालसुलभ प्रतीत होता है, बेढंगा और पूरे निरर्थक चक्करोंके स्थानपर सीधा, बिलकुल सिवा! परन्तु यह स्पष्ट है कि यह (अस्तव्यस्तता) मी वही चीज है; अस्तव्यस्तता विशुद्ध ओर दिव्य सरलताकी आवश्यकताको उद्दीप्त करनेका एक तरीका है । शरीर बहुत, बहुत अधिक अनुभव करता है कि प्रत्येक चीज सरल, एक- दम सरल होती!

 

  और शरीरको इस प्रकारके एकत्रीकरण या संयमको -- अपने-आपको रूपान्तरित करने योग्य बनानेके लिये बस एक ही चीजकी आवश्यकता है, अपने-आपको सरल बनानेकी, सरल बनानेकी, सरल बनानेकी । प्रकृतिकी ये सब जटिलताएं, जिन्हें आजकल लोग समझने लगे है और  अध्ययन करने लगे हैं, जो मामूली-से-मामूली बातके लिये इतनी

 

२७५


जटिल है (हमारी मामूली-से-मामूली क्रिया एक ऐसे जटिल संगठनका परिणाम होती है जो प्रायः अचिंत्य है - निःसंदेह, इन सब चीजोंको पहलेसे देख लेना और उन्हें संयुक्त करना मानव विचारशक्तिके लिये असंभव ही होता), आजकल विज्ञान इनका आविष्कार कर रहा है । और हम बहुत 'स्पष्ट रूपमें देखते हैं कि यदि इस क्रियाको दिव्य होना हो, अर्थात्, यदि इस अव्यवस्था और अस्तव्यस्ततासे त्राण पाना हो तो इसे सरल, बिलकुल सीधा-सादा, सरल रूप लेना होगा ।

 

 (दीर्घ मौन)

 

  कहनेका मतलब, प्रकृतिमें, अथवा यों कहे कि, स्वयं प्रकृति आत्माभिव्यक्तिके अपने प्रयासमें एक अविश्वसनीय, लगभग अनन्त-असीम जटिलताका आश्रय लेनेके लिये बाध्य हुई ताकि वह मूल 'सरलताको' पुनः प्रकट कर सके ।

 

   और तुम फिर उसी बातपर वापस आ जाते हो । जटिलताकी अधिकतामेंसे ही ऐसी सरलताकी संभावना आती है जो खाली नहीं बल्कि भरी होगी । एक ऐसी सरलता होगी जिसमें सब कुछ होगा; जब कि इन जटिलताओंके बिना सरलता एक खोखली चीज होगी ।

 

  लोग ऐसी खोजों करनेके पथपर हैं । उदाहरणार्थ, शरीर-रचनाशास्त्रमें, वे शल्य-चिकित्साके लिये आविष्कार कर रहे हैं और वे आविष्कार अविश्वसनीय रूपसे जटिल हैं! यह प्रायः 'जड़ पदार्थ'के तत्त्वोंके विभाजनके जैसा है - कितनी भयंकर जटिलता है! और इन सबका लक्ष्य है, इन सबका प्रयास है एकत्वको अभिव्यक्त करना, एकमात्र सरलताको - भाग- वत स्थितिको प्रकट करना ।

 

 (मौन)

 

 संभवत: यह शीध्ग्तासे होगा... । परन्तु प्रश्न घटकर यह रूप ले लेता है - उस सद्स्तुको आकर्षित करनेकी एक पर्याप्त, पर्याप्त - तीव्र और फलदायी - अभीप्सा जो रूपान्तर कर सकती है, जटिलताको 'सरलता'में, क्रूरताको 'प्रेम'में रूपान्तरित कर सकती है, इसी तरह और मी...।

 

  यह शिकायत करने और कहनेसे कोई लाभ नहीं कि यह कितनी दया नयी स्थिति है । क्योंकि यह ऐसी ही है । यह ऐसी क्यों है?... संभवत:, यह जब ऐसी न रहेगी तब हम जायेंगे । यही बात दूसरे ढंगसे

 

१७६


कही जा सकती है, यदि दम जान जायं तो फिर यह ऐसी न रहेगी ।

 

  फिर यह कल्पना-जल्पना : ''यदि यह ऐसी न होती तो कहीं अच्छा होता,'' आदि-आदि, यह सब व्यावहारिक नहीं है, इससे कोई काम नहीं बनता, यह निरर्थक है ।

 

  जो कुछ आवश्यक है उसे करनेकी शीध्ग्तासे करनी चाहिये ताकि यह ऐसी न रहे; बस, यही है एकमात्र व्यावहारिक चीज ।

 

  शरीरके लिये यह बहुत मजेदार बात है । पर यह एक पहाड़ है, अनुभूतियोंका एक पर्वत है, देखनेमें बहुत छोटे पर बहुत्वमें इनका अपना स्थान है । '

 

१५-५-६३

 

९३ -- दुःख-दर्द हमारी दिव्य जननीका स्पर्श है जो हमें यह सिखाती है कि किस तरह सहन किया जाता और आनंद- मे वर्द्धित हुआ जाता है । उस माताजी शिक्षाके तीन स्तर हैं -- सबसे पहले सहनशीलता, फिर अंतरात्माकी समता और अंतमें परमानंद ।

 

 जहांतक नैतिक बातोंसे सम्बन्ध है, यह बिलकुल स्पष्ट है, इसमें तर्क करने- की कोई गुंजायश नहीं - सभी नैतिक कष्ट तुम्हारे स्वभावको बनाते है और तुम्है सीधे आनन्दतक ले जाते हैं, बशर्ते कि तुम यह जानो कि उन्है कैसे लिया जाय । परन्तु जब वे शरीरको छूते हैं... ।

 

यह सच है कि डाक्टरोंने कहा है कि यदि तुम शरीरको यह सिखाई कि दंडकों कैसे साह जाता है तो शरीर अधिकाधिक सहनशील बन जाता है और शीध्ग्तासे उसके भंग होनेकी संभावना कम हो जाती है -- यह एक परिणाम है । जो लोग यह जानते है कि कहीं कोई दर्द होनेपर एक- दम विचलित हुए बिना कैसे रहा जाता है, जो चुपचाप बर्दाश्त कर सकते है, अपनी मानसिक समतोलता बनाये रखते हैं, .ऐसा लगता है कि उनमें

 

   जब यह व्याख्या छपनेके लिये जा रही थी तब माताजीने यह टिप्पणी की : ''विद्वान लोग इसे अस्वीकार करेंगे, वे कहेंगे कि यह सब फालतू बातें हैं; परन्तु इसका कारण यह है कि मैं उनके शब्दोंका व्यवहार नहीं कर रही हू, यह सिर्फ शब्दोंका प्रश्न है ।''

 

१७७


किसी प्रकारकी अस्तव्यस्तताके बिना व्याधि सहनेकी शारीरिक क्षमता बढ़ जाती है । यह एक बहुत बड़ी चीज है । मैंने स्वयं अपने सामने यह प्रश्न रखा, विशुद्ध व्यावहारिक, बाह्य दृष्टिसे रखा, और ऐसा लगा - कि बात ऐसी ही है । आन्तरिक रूपसे यह बात मुझसे बहुत बार कही ' '' गयी थी - कही गयी और छोटे-छोटे अनुभवोंद्वारा दिखायी गयी - कि शरीरके विषयमें जितना माना जाता है वह उससे बहुत अधिक सह सकता है बशर्ते कि दु:ख-दर्दके साथ भय और दुश्चिताको न जोड़ दिया जाय । यदि इस मानसिक क्रियाको हटा दिया जाय, शरीरको अकेला छोड़ दिया जाय, उसे इस बातका कोई डर या आशंका या दुश्चिता न हों कि क्या होने जा रहा है - कोई क्लेश-संताप न हो -- तो शरीर बहुत अधिक सह सकता है ।

 

  दूसरा कदम है, जब शरीरने सहनेका निर्णय कर लिया है (हां, जब वह सहन करनेका निश्चय कर लेता है), तब तुरत तीक्ष्णता, दर्दके अन्दर जो कुछ उग्र है वह विलीन हो जाता है । मै एकदम भौतिक बात कह रही हूं ।

 

  और यदि तुम शान्त-स्थिर बने रहो (यहां एक आन्तरिक शान्तिकी आवश्यकता आ जाती है जो दूसरा विशिष्ट तत्व है), यदि तुम्हारे अन्दर आन्तरिक शास्ति विद्यमान हों तो दर्द लगभग एक सुखदायी संवेदनके रूपमें बदल जाता है -- ''सुखदायी'' उस अर्थमें नहीं जिस अर्थमें साधारणतया लोग इस शब्दको लेते हैं, बल्कि एक प्रकारके आरामका बोध होता है । मैं यहां फिर एक विशुद्ध भौतिक, स्थूल चीजकी बात कह रही हूं

 

  और अन्तिम स्तर है, जब शरीरके कोषाणुओंमें भागवत उपस्थिति और सर्वोच्च भागवत संकल्पपर श्रद्धा-विश्वास उत्पन्न हो जाता है, जब उन्हें इस बातका भरोसा हों जाता है कि सब कुछ भलेके लिये है, तब आता है महान् आनन्दानुभव - कोष खुल जाते हैं, इस ढंगसे, और ज्योतिर्मय तथा आनंदविभोर बन जाते है ।

 

  यह हो जाती है चौथी अवस्था (यहां प्रश्न केवल तीन ही अवस्थाओं- का है) ।

 

  अनंतिम अवस्था संभवत: प्रत्येक ब्यक्तिकी पहुंचके अन्दर नहीं है, परन्तु पहली तीनों अवस्थाएं बिलकुल स्पष्ट है -- मै जानती हू कि वे स्पष्ट है । परन्तु मेरे सामने जो प्रश्न था वह केवल यह था कि यह कोई गिद्ध मानसिक अनुभव तो नहीं है, केवल इसी कारण कि वेदनाको सहन किया गया है शरीरमें कुछ घिसाई और टूट-फूट तो नहीं होती; परन्तु मैंने डाक्टरों-

 

१७८


से पूछा और उन्होंने मुझे बताया कि यदि बचपनमें ही शरीरको कष्ट सहना सिखाया जाय तो सहनेकी शक्ति इतनी अधिक बढ़ जाती है कि वह वास्तवमें रोगोंकी रोक सकती है, अर्थात्, रोग अपनी धाराका अनुसरण नहीं करते, उनकी क्रिया रुक जाती है । यह एक बहुमूल्य चीज है।

 

१०-८-६३

 

९४ - सभी त्याग एक ऐसे महत्तर आनंदके लिये किये जाते हैं जिसे अभीतक हमने हस्तगत नहीं किया है । कुछ लोग कर्तव्य पूरा करनेके आनंदके लिये त्याग करते हैं, कुछ शांतिके आनंदके लिये, कुछ भगवान्के आनंदके लिये और कुछ आत्मपीड़न आनंद पानेके लिये त्याग करते हैं । परंतु इससे कहीं अच्छा यह है कि तुम विश्वातीत स्वतंत्रता तथा अक्षुब्ध परमानंदतक पहंचनेके लिये त्याग करो ।

 

मुझे त्यागका बहुत अधिक अनुभव नहीं है - क्योंकि त्यागकी भावना होनेके लिये यह आवश्यक है कि मनुष्य चीजोंसे चिपका हो, और बराबर ही और आगे जानेकी, और भी ऊंचे उठनेकी, और मी अधिक अच्छा, बहुत अच्छा करनेकी, और अच्छा होनेकी प्यास हो, आवश्यकता महसूस हो । त्यागकी भावनाका अनुभव करनेके बदले तुम एक अच्छे छुटकारेका अनुभव करते हो -- तुम किसी चीजसे छुट्टी पा जाते हो, ऐसी चीजसे छुटकारा पा जाते हों जो तुमपर बोझ बनी थी, जो तुम्हें नीचे दबाये थी, तुम्हारी अग्रगतिको रोक रही थी । यही बात मैंने उस दिन कही थी. हम अभी वही चीज हैं जो हम होना नहीं चाहते और वह (भगवान्) वह सब है जो हम बनना चाहते है - अपनी अहंकारजन्य मूर्खताके साथ जिसे हम, अपना ''हम'' कहते हैं वह ठीक वही चीज है जो हम अब नहीं रहना चाहते, और हम उसे झाडू फेंकनेपर, उससे मुक्त हो जानेपर कितने प्रसन्न होंगे, क्योंकि फिर हम वह हो सकेंगे जो कि होना चाहते है ।

 

   यह एक बहुत ही सजीव अनुभव है ।

 

   एकमात्र क्रिया जिसे मै जानती थी और जो मेरे जीवनमें कई बार दोहरायी गयी है वह है भूलका त्याग । कोई चीज होती है जिसे तुम सत्य मानते हों - जो किसी समय शायद सत्य थी भी -, जिसके ऊपर तुम अंशत: अपने कार्यको आधारित करते हों, जो वास्तवमें केवल एक राय थी।

 

१७९


तुमने समझा था कि वह चीज एक सच्चा अनुमान था और उसके साथ सभी युक्तिसंगत तर्क संलग्न थे, और तुम्हारा कार्य (कार्यका एक अंश) उसपर आधारित था ओर उसके साथ सम्बन्धित सभी बातोंका क्रम स्वाभाविक था । और एकाएक, एक अनुभव, एक वातावरण या एक अन्तःप्रेरणा तुम्हें सावधान करती है कि तुम्हारा निर्णय उतना सत्य नहीं है जितना प्रतीत होता है । फिर एक समूचा निरीक्षण या अध्ययन-काल आता है (अथवा कभी-कभी बात एक अन्तःप्रकाश रूपमें, एक महान् प्रमाणके रूपमें आती है), ओर तब केवल भावना या मिथ्या ज्ञान ही नहीं बल्कि समस्त निष्कर्षको बदल देना पड़ता है, शायद किसी बिन्दुपर संपूर्ण क्रिया-पद्धति ही बदलनी पड़ती है । उस समय एक प्रकारका संवेदन होता है, एक ऐसी चीज होती है जो त्यागके संवेदनसे मिलती-जुलती है - यानी, उस समय तुम्हें उन सारी चीजोंको रद्द कर देना पड़ता है जिन्हें तुमने बनाया था - कमी-कभी यह कार्य काफी बड़ा होता है और कमी- कभी बहुत छोटा, पर अनुभव एक जैसा ही होता है । यह एक बलकि क्रिया, शक्तिकी क्रिया होती है जो भंग करती है । और जो कुछ मग किया जाता है उससे, सभी पुरानी आदतोंसे एक बाधा उठती है; यह भंग होने और साथ-साथ लगी बाधाकी क्रिया ही साधारण मानव चेतनामें त्यागकी भावनाके रूपमें प्रकट होती है ।

 

   मैंने इसे अभी हालमें ही देखा है; यह नगण्य है; वे सब ऐसी परि- स्थितियां हैं जिनका अपने-आपमें कोई महत्व नहीं । जब उन सबका एक साथ अध्ययन किया जाता है तभी ये मजेदार बन जाती हैं और केवल यही क्रिया है जो मेरे जीवनमें कई बार हुई है और इसलिये मै' इसे भली-भाँति जानती हू । जैसे ही सत्ता आगे बढ्ती है विघटनकी शक्ति मी बढ्ती है, अधिकाधिक प्रत्यक्ष बन जाती है और बाधा कम होने लगती है । परन्तु मुझे एक ऐसे समयकी याद है जब अधिक-से-अधिक बाधाएं थीं (इस बातको आधी शताब्दी बीत चुकी है) ', और उस समय इसके अतिरिक्त और कुछ मी न था, यह हमेशा मेरे बाहरकी चीज होती थी - मेरी चेतनासे बाहर नहीं बल्कि मेरे संकल्पके बाहरकी -- कोई ऐसी चीज थी जो मेरे संकल्पका विरोध करती थी । मुझे कभी यह नहीं लगा कि मैंने किसी चीजका त्याग किया हों, मुझे हमेशा यही धारणा हुई कि मैं वस्तुओं- के विलीन होनेके लिये उनपर दबाव डालती रही हू । पर अब, अधिकाधिक दबाव भी अगोचर होता जा रहा है; वह तुरतफुरत कार्य करता है, जैसे ही वस्तुओंके समूहको भंग करनेवाली शक्ति प्रकट होती है सब कुछ विलीन हो जाता है, कोई प्रतिरोध नहीं होता । दूसरी ओर, मुक्ति-

 

१८०


का भाव भी मुश्किलसे आता है - फिर भी एक चीज होती है जो मजा लेती और कहती है : ''ओह! अभी और मी है! '' कितनी बार मनुष्य स्वयं अपने-आपको सीमित कर देता है...! कितनी बार तुम समझते हों कि तुम आगे बढ़ रहे हों, निरन्तर बढ़ रहे हों, बिना किसी बाधाके, बिना रुके हुए और कितनी -बार तुम अपने आगे एक छोटी-सी सीमा खड़ी फरा लेते हो! यह कोई बड़ी सीमा नहीं होती क्योंकि यह एक विशाल समग्रके अन्दर एक बहुत छोटी चीज होती है पर यह तुम्हारे कार्यके सामने एक छोटी-सी सीमा बन जाती है । और जब शक्ति उस सीमाको भंग करनेके लिये कार्य करती है तब तुम आरंभमें अपनेको मुक्त अनुभव करते हों, तुम्हें प्रसन्नता होती है; परन्तु अब, उतना भी नहीं रहता, बस एक मुस्कान होती है । क्योंकि यह मुक्तिका बोध नहीं होता, बस ऐसा प्रतीत होता है मानों रास्तेपरसे एक पत्थर हट गया है ताकि हम आगे बढ़ सकें ।

 

  यह त्यागकी भावना एक अहकेन्द्रित चेतनामें ही आ सकती है । स्वभावतः: लोग (जिन्हें मैं एकदम आदिम कहती हू) चीजोंसे चिपक जाते है - जब उनके पास कोई चीज होती है तो वे उसे छोड़ना नहीं चाहते! यह चीज मुझे कितनी बचकानी लगती है ।... जब कभी इन्हें,, इन लोगोंको, कुछ देना पड़ता है तो इन्हें कष्ट होता है! क्योंकि इनके पास जो चीज होती है उसके साथ ये एकात्म हो जाते हैं । परन्तु यह बचपन है । सच्ची प्रक्रिया जो पीछेकी ओर है वह है वस्तुओंमें विद्यमान बाधा- की मात्रा जो एक विशेष ज्ञानके आधारपर निर्मित है - जो एक विशेष समयमें शान था और जो दूसरे समयमें नहीं - एक आशिक ज्ञान था, जो क्षणिक तो नहीं पर स्थायी मी नहीं था । इसी ज्ञानपर वस्तुओंकी संपूर्ण रचना हुई है जो यह कहनेवाली शक्तिका विरोध करता है : ''नहीं, यह सत्य नहीं है (हंसती हैं), तुम्हारा आधार सच्चा नहीं रहा, वह हटा दिया गया है ।'' और फिर आह! वह दुखदायी होता है - यही वह चीज है जिसे लोग त्यागके रूपमें अनुभव करते हैं ।

 

   वास्तवमें त्याग करना कठिन नहीं होता बल्कि स्वीकार करना कठिन होता है (माताजी मुस्कराती है), जब मनुष्य जीवनको उस रूपमें देखता है जैसा कि अभी वह है... । परन्तु फिर यदि मनुष्य स्वीकार करता है तो उस सबके बीच कैसे रहा जाय और कैसे यह अक्षर आनन्द पाया जाय - अक्षर आनन्द वहां नहीं बल्कि यहांसे पाया जाय?

 

१८१


मेरे लिये सप्ताहोंतक यह समस्या रही है ।

 

  मै इस निर्णयपर पहुंची हू : तत्वतः, चेतना और भगवान्के साथ एकत्व ही वह चीज है जो आनन्द प्रदान करती है - वह सिद्धान्त है -, अतएव, चेतना और भगवान्के साथ एकत्व, चाहे यह इस जगत् में हो जैसा कि यह है, अथवा भावी जगत् के निर्माणके अंदर हों, एक हीं होना चाहिये -- तत्व रूपमें । मैं अपने-आपसे सब समय यही कहती हूं : ''यह क्या बात है कि तुम्है यह आनन्द नहीं प्राप्त होता? ''

 

   मुझे यह प्राप्त है -- जब समूची चेतना एकत्वमें एकाग्र हो जाती है; किसी भी क्षण, किसी भी चीजके बीच, चेतनाके एकत्वपर एकाग्र होनेकी यह क्रिया होते ही आनन्द आ जाता है । परंतु मुझे यह कहना ही पड़ेगा कि ज्यों ही मै इसमें कार्यरत होती हू त्यों ही वह विलीन हों जाता है... । यह एक जगत् है, पर बहुत ही अस्तव्यस्त जगत्, श्रमका जगत् है जहां मैं अपने चारों ओरके लोगों और वस्तुओंपर कार्य करती हू । अतएव, आवश्यक रूपसे मैं उन सबको एक प्रकारसे ग्रहण करनेके लिये बाध्य होती हू जो मुझे घेरे होते हैं ताकि मैं उनपर कार्य कर सक् । मैं उस अवस्था- को पहुंच गयी हू, जिसमें सभी प्रकारके संस्पर्श, यहांतक कि अत्यन्त दुःख- दायी समझे जानेवाले संस्पर्श भी, मुझे पूर्णत: शान्त और उदासीन छोड़ देते हैं - ''उदासीन'' पर निष्क्रिय उदासीन नहीं : उस समय किसी प्रकार- की कोई कष्टदायी प्रतिक्रिया नहीं होती, पूर्ण तटस्थता बनी रहती है (शाश्वतकी ओर इशारा करती हुई भंगिमा), पूर्ण समताकी स्थिति विद्यमान रहती है । परंतु इस समतामें इस बातका सुनिश्चित ज्ञान होता है कि क्या करना चाहिये, क्या कहना चाहिये, क्या लिखना चाहिये, क्या निश्चय करना चाहिये, वास्तवमें प्रत्येक चीजका ज्ञान रहता है जो कर्मको अंतर्भूत करता है । वह सब पूर्ण तटस्थताकी स्थितिमें होता है और साथ- ही-साथ शक्तिका बोध भी बना रहता है : शक्ति निर्णय करती है, शक्ति कार्य करती है, और तटस्थता बनी रहती है -- परंतु कोई आनंद नहो रहता । मुझमें उत्साह नहीं होता, आनन्द और कार्यका पूर्णत्व नहीं होता ।

 

   मुझे यहां यह मी कह देना चाहिये कि संसारकी वर्तमान अवस्थामें इस आनन्दकी चेतनाकी स्थिति खतरनाक होगी । क्योंकि इसकी ऐसी प्रतिक्रियाएं होती हैं जो करीब-करीब निरपेक्ष होती हैं - मैं देखती हू कि आनन्दकी इस स्थितिमें एक भीषण शक्ति होती है । परंतु मैं ''भीषण'' शब्दपर जोर दे रही हू, इस अर्थमें भीषण कि वह असहिष्णु या असह्य होती है - बल्कि असह्य होती है -- उन सबके लिये जो अनु-

 

१८२


रूप नहीं होते । जो चीज परात्पर दिव्य प्रेम है ठीक वही चीज या लगभग वही चीज (एकदम वही नहीं पर लगभग) यह भी है; इस आनन्द या परम सुखका स्पन्दन दिव्य प्रेमके स्पन्दनका ठीक एक छोटा- सा प्रारंभिक रूप है, ओर यह पूर्ण रूपसे - हां, इसके लिये कोई दूसरा शब्द नहीं है - असहिहणु है, इस अर्थमें कि यह किसी ऐसी चीजका प्रवेश नहीं होने देता जो इसके विपरीत हो ।

 

   ऐसी हालतमें सामान्य चेतनाके लिये स्वभावत: ही उसके परिणाम भयावह होंगे, है न? इसे मैं बिलकुल अच्छी तरह देखती हू, क्योंकि कभी-कभी यह शक्ति आती है -- यह शक्ति आती है और तब तुम्हें ऐसा लगता है कि हर चीज फट जायगी । क्योंकि यह एकत्वके सिवा और किसी चीजको सहन नहीं कर सकती, यह स्वीकार करनेवाले प्रत्युत्तरके अति- रिक्त और किसी चीजको बर्दाश्त नहीं कर सकती, ग्रहण करने और स्वीकार करनेवाली चीजको छोड्कर कुछ नहीं सह सकती । और यह कोई मनमानी इच्छा नहीं है, बल्कि इसकी सत्ताका तथ्य अपने-आपमें सर्वशक्ति- मान् है, उस अर्थमें, ''सर्वशक्तिमान्'' नहीं जिस अर्थमें लोग सर्वशक्तिमान् समझते हैं, बल्कि एक सच्ची सर्वशक्तिके रूपमें । यानी, वह शक्ति संपूर्ण रूपसे, सर्वांगीण रूपसे, ऐकान्तिक भावसे विद्यमान रहती है । वह सबको धारण करती है, पर जो कुछ उसके प्रकंपनके विपरीत होता है बह, स्वभावत ही, परिवर्तित होनेके लिये बाधित होता है, क्योंकि कोई चीज विलीन तो हो नहीं सकती । और यह परिवर्तन तुरत-फुरती होनेवाला, जिसे हम नृशंस, निरंकुश कह सकते है, इस जगत् में जैसा कि यह है, बड़ा अनर्थकारी होता है ।

 

   यही वह उत्तर है जो मुझे अपनी समस्याके लिये प्राप्त हुआ ।

 

  चूंकि यह ऐसा था इसलिये मैंने अपने-आपसे कहा : ''क्यों? '' मै जो हू... किसी भी क्षण मुझे यह करना है (ऊपरकी ओर इशारा) ओर यह है... सिवा परम प्रभुके और कुछ नहीं है, सब कुछ 'वही' है - पर एक ढंगसे इतना निरपेक्ष कि जो कुछ 'वह' नहीं है वह सब विलीन हों जाता है! अब फिर अनुपात की बात (हंसती है), ऐसी बहुत अधिक चीजें होगी जिन्हें विलीन होना होगा!

 

   मै इसे समझ गयी ।

 

१७ और २४-८-६३

 

१८३


९५ -- कामनाके पूर्ण त्यागसे या कामनाकी पूर्ण संतुष्टिसे ही भगवान्के साथ पूर्ण मिलनकी अनुभूति हो सकती है, क्योंकि इत्र दोनों तरीकोंसे आवश्यक शर्त पूरी हो जाती है - कामना- . का नाश हो जाता है ।

 

इच्छा या कामनाको पूर्ण रूपसे सन्तुष्ट करना असंभव है, यह एकदम असंभव कार्य है, और ऐसे ही इच्छाका त्याग करना मी । तुम एक इच्छा- का त्याग करते हों और दूसरी पैदा हो जाती है । अतएव, दोनों काय सापेक्ष रूपमें असंभव हैं । संभव है, केवल ऐसी अवस्थाको प्राप्त करना जिसमें इच्छा हो ही नहीं ।

 

(लंबा मौन)

 

   यह खेदका विषय है कि मैं आती हुई सब अनुभूतियोंको लेखबद्ध नहीं कर सकती । कारण, ठीक उन्हीं दिनों और इस पूरे कालमें यहां उस सच्ची क्रियाका एक बहुत स्पष्ट बोध विद्यमान था जो कि सर्वोच्च इच्छा- की अभिव्यक्ति है, ' यह सर्वोच्च इच्छा व्यक्ति-रूपी साधनके द्वारा सहज, स्वाभाविक रूपमें अनायास ही अनूदित हो जाती है, यह मी कहा' जा सकता है कि शरीरके द्वारा अनूदित होती है - (क्योंकि मन शान्त होता है और शान्त बना रहता है) । उस क्षणका एक और मी बोध है जब कि भागवत संकल्पकी यह अभिव्यक्ति. इच्छाकी उत्पत्ति और एक ऐसे विशेष स्पन्दनके कारण क्षुब्ध और विकृत हो जाती है जिसका अपना 'एक विशिष्ट गुण होता है और जिसकी उत्पत्तिके मी अनेक प्रत्यक्ष कारण होते हैं । यह केवल किसी वस्तुकी प्यास, किसी वस्तुकी आवश्यकता या किसी वस्तुसे आसक्ति नहीं होती । उदाहरणार्थ, इस स्पन्दनकी उत्पत्तिका एक कारण यह भी हो सकता है कि व्यक्त संकल्प सर्वोच्च संकल्पकी अभिव्यक्ति प्रतीत होता है या हर हालतमें उसे सर्वोच्च संकल्पकी अभिव्यक्ति माना गया था, किन्तु उस तात्कालिक क्रियाके, जो स्पष्ट ही सर्वोच्च संकल्पकी अभिव्यक्ति श्री, ओर उसके परिणाम, जो कि आना चाहिये था, उसके बीच कुछ गड़बड़ी पैदा हो गयी - यह एक ऐसी भूल है जिसे व्यक्ति प्रायः ही करता है । तुम्हें ऐसा सोचनेका अभ्यास है कि जब तुम 'वह' चाहते हो तो तुम्है 'वही' मिलना चाहिये, कारण, तुम्हारी दृष्टि बहुत संकुचित है - बहुत संकुचित और बहुत सीमित - जब कि वस्तुत: 'समग्र'को देख सकना चाहिये जो तुम्हें यह बताता है कि यह स्पन्दन कुछ अन्य स्पन्दनोंको आरंभ करनेके लिये

 

१८४


आवश्यक है और सबको अपने अन्दर समाविष्ट करनेवाला समग्र ही किसी परिणामोको उत्पन्न करेगा - यह परिणाम वर्तमान स्पन्दनका तात्कालिक फल नहीं है । मुझे पता नहीं यह बात तुम्हारे सामने स्पष्ट हुई या नहीं, पर है यह एक सतत अनुभूति ही ।

 

  और ठीक इसी कालमें, मैंने इस तथ्यकी अध्ययन और निरीक्षण किया है कि किस प्रकार इच्छाका यह स्पन्दन सर्वोच्च सत्ताद्वारा उत्पादित संकल्पके स्पन्दनके साथप्रतिदिनकी छोटी-छोटी क्रियाओंके लिये -- जोड़ा गया है और ऊपरकी दृष्टिके द्वारा ( हां, यदि व्यक्ति इस ऊपरकी दृष्टिके प्रति सचेतन होनेका ध्यान रखे) व्यक्ति देखता है कि किस प्रकार यह स्पन्दन ठीक वही था जिसे सर्वोच्च सत्ताने उत्पन्न किया है, किन्तु सतही स्कूल चेतनाद्वारा प्रतीक्षित तात्कालिक परिणामोको पानेके स्थान- पर, उसका कार्य सभी स्पन्दनोंको आरंभ करना और एक अन्य अधिक सुदूर और पूर्ण परिणामोको प्राप्त करना था । मै कोई बहुत बड़ी वस्तुओंकी बात नहीं कह रही और न ही पार्थिव क्रियाओंकी; मै केवल जीवनकी छोटी-छोटी क्रियाओंकी चर्चा कर रही हू : उदाहरणार्थ, मैं किसी- से कहती हू : ''मेरे लिये वह लाओं'', और वह बिना समझे उस वस्तुको लानेके स्थानपर दूसरी वस्तु लें आता है । तब यदि व्यक्ति 'समग्र'की दृष्टि रखनेकी परवाह न करे, तो एक विशेष स्पन्दन उत्पन्न हो सकता है, इसे अधैर्य अथवा संतोषके अभावका स्पन्दन कह सकते है । साथ ही यह भी आभास मिलता है कि भगवान्के स्पन्दनको न किसीने समझा है ओर न ग्रहण किया है । हां, तो इसके अतिरिक्त छोटे-सें स्पन्दनमें जो कि या तो अधैर्यका होता है या फिर जो कुछ होता है उसके प्रति अज्ञानका, ग्रहणशीलता या प्रत्युत्तरके अभावके ही इस आभासमें इच्छाके गुण है - इसे इच्छा नहीं कह सकते पर यह है उसी प्रकारका स्पन्दन - यही वस्तुओंको जटिल बनानेके लिये आती है । यदि व्यक्तिकी दृष्टि पूर्ण और यथार्थ हों, तो वह जानता है कि ये शब्द ''मुझे वह दो'' तात्कालिक परिणामोको नहीं, बल्कि एक अन्य वस्तुको उत्पन्न करेंगे और यह अन्य वस्तु फिर एक और ही वस्तुको लें आयेगी और अब यह वस्तु ठीक वही होगी जो होनी चाहिये । मै नहीं जानती, मेरी यह बात तुम्हारे सामने स्पष्ट हुई है या नहीं क्योंकि यह जरा जटिल है । किन्तु इसने ही मुझे सर्वोच्च संकल्पके स्पन्दन और इच्छाके स्पन्दनके बीचके अन्दरकी कुंजी प्रदान की थी, इसके' साथ ही एक अधिक विशाल और सर्वागीण दृष्टिके द्वारा इच्छाके स्पन्दनको निकाल देनेकी समावना भी मेरे सामने आयी -- यह दृष्टि अधिक विशाल, अधिक समग्र और अधिक सुदूरकी

 

१८५


वस्तु थी, दूसरे शब्दोंमें, यह एक विशालतर समष्टिकी दृष्टि थी ।

 

  मै इस बातपर आग्रह करती हू, क्योंकि यह समस्त नैतिक तत्त्वको दूर कर देती है । इच्छाके निन्दात्मक विचारकों दूर कर देती है । यह दिष्टि भले और बुरेके, शुभ और अशुभके, उच्च और निम्न आदिके सभी विचारोंको भी अधिकाधिक दूर कर देती है । तब वहां रह जाती है केवल एक वस्तु जिसे स्पन्दनशील गुणका अन्तर कह सकते है - ' 'गुण '' फिर मी उच्चतर या निम्नतरका आभास देता है, यह गुण नह) होता और न ही तीव्रता होती है । मुझे पता नहीं एक स्पन्दनको दूसरे स्पन्दनके अलग करनेके लिये कौन-से वैज्ञानिक शब्दका प्रयोग किया जाता है, पर है यह वही ।

 

   और तब देखने योग्य बात यह है कि वह स्पन्दन, जिसे भगवान्द्वारा उद्भूत स्पन्दनका गुण मी कह सकते हैं, रचनात्मक होता है - वह निर्माण करता हैं, वह शांत और प्रकाशपूर्ण होता है, जब कि दूसरा स्पन्दन, जो इच्छा आदिका होता है, वस्तुओंको जटिल और अस्तव्यस्त बना देता है, उन्हें नष्ट कर देता और तोड़-मरोड़ देता है, उन्है अस्तव्यस्त करता, उन्है, विकृत एवं टेढ़ा कर देता है - और यह बात प्रकाशको वहांसे हटाकर एक ऐसी धूसरता उत्पन्न कर देती है जो पीछे उग्र क्रियाओंदुरा अधिक तीव्र होकर बहुत गहरे रंगकी काली छाया बन जाती है । किन्तु वहां भी जहां आवेश नहीं होता या आवेश हस्तक्षेप नहीं करता, वहां भी ऐसा ही होता है । सच ही, भौतिक सद्वस्तु स्पन्दनोंका एक क्षेत्रमात्र बन गयी है, ऐसे स्पन्दनोंका जो आपसमें धूल-मिल जाते है ओर दुर्भाग्यवश, संघर्षमें आकर परस्पर टरकाते है और यह संघर्ष एवं टक्कर कुछ स्पन्दनों- द्वारा उत्पन्न इस प्रकारकी अव्यवस्था, उपद्रव और अस्तव्यस्तताके आकस्मिक आक्रमण होते है, वस्तुत: ये स्पन्दन अपने मूल रूपमें केवल अज्ञानके स्पन्दन होते है - यह इसलिये होता है कि व्यक्ति इसे जानता नहीं । ये अज्ञानके स्पन्दन तो होते ही है, साथ ही बहुत तुच्छ, बहुत संकीर्ण और बहुत सीमित भी होते हैं - बहुत ही अल्पकालिक । अब यह ऐसी समस्या नहीं रहती जो मनोवैज्ञानिक दृष्टिसे देखी जा सकें । यह केवल स्पन्दन-रूप ही रह जाती है ।

 

   यदि तुम इसे मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोणसे देखो... मानसिक स्तरपर ही, तो यह बात सरल हा जाती है । प्राणिक स्तरपर मी यह कठिन नहीं होती । भौतिक स्तरपर यह जरा अधिक भारी पड़ती है, क्योंकि यह '' आवश्यकताओं' 'का रूप धारण कर लेती है । किन्तु यहां मी इन दिनों बहुत-सें अनुभव प्राप्त किये जा चुके हैं. शरीर-निर्माण और उसकी

 

१८६


आवश्यकताओंके, उसके लिये क्या भला है या क्या बुरा, इसके विषयमें चिकित्सा-संबंधी और वैज्ञानिक विचारोंका अध्ययन; और इसे यदि इसके मूलस्रोतके लें जाया जाय तो बात फिर स्पन्दनोंके प्रश्नपर आ जाती है । यह सब बड़ा मनोरंजक था : ऊपरसे ऐसा प्रतीत हुआ (कारण, सामान्य चेतनाद्वारा देखी जानेवाली सभी वस्तुएं विशुद्ध रूपमें बाह्य ही होती है), हां, तो ऐसा प्रतीत हुआ कि भोजनदुरा किसीके अन्दर विष चला गया है, और अब यह विशेष अध्ययनकी वस्तु बन गया कि अंदर विष जानेकी यह किया पूर्ण है या सापेक्ष, दूसरे शब्दोंमें, क्या यह अज्ञान और बुरी प्रतिक्रियापर एवं सच्चे स्पंदनकी अनुपस्थितिपर आधारित थी । इसका निष्कर्ष यह निकला कि यह भगवान्के स्पदनोंकी संख्या और कुल योग और उन स्पदनोंके बीचके अनुपातोंका प्रश्न है जो अभी भी अज्ञानकी वस्तुएं हैं । और इस अनुपातके अनुसार ही यह एक मूर्त्त और वास्तविक वस्तुका या फिर उस वस्तुका रूप ले लेती है जिसे वहांसे हटाया जा सकता है, दूसरे शब्दोंमें, जो सत्यके स्पदनोंके प्रभावका सामना नहीं करती । बहुत मनोरंजक था यह सब! कारण, ज्योंही चेतनाको शारीरिक क्रियामें होने- वाले कष्टकर कारणका पता लगा (चेतनाने यह देख लिया कि वह कहांसे आया और क्या था), त्योंही इस विचारके साथ कि : ''देखें, क्या हा रहा है'', निरीक्षण आरंभ हो गया । सबसे पहले, शरीरको पूर्ण विश्रामकी अवस्थामें लिखा दिया और उसे यह निश्चय दिखाया, जो कि वहां सदा हीं होता है, कि भगवान्की इच्छाके बिना कुछ नहीं होता, फल भी उन्हींके हाथमें है, और सब परिणाम मी उन्हींकी इच्छापर निर्भर हैं, इसलिये व्यक्तिको पूर्णतया शांत रहना चाहिये । ओर तब शरीर भी पूर्ण- तया शांत हो जाता है, वह चंचल नहीं होता, वह उत्तेजित नहीं होता, वह स्पंदनशील नहीं होता, कुछ भी नहीं - वह बड़ा शांत रहता है । इसके बाद, परिणाम किस हदतक अनिवार्य होंगे? क्योंकि कुछ ऐसा पदार्थ जिसमें शरीरके तत्वों तथा उसके जीवनके प्रतिकूल कोई तत्व सम्मिलित है उसके अंदर चेतना गया है, तब अनुकूल और प्रतिकूल तत्वों अथवा अनुकूल और प्रतिकूल स्पदनोंके बीचका अनुपात क्या हुआ । तब मैंने बड़े स्पष्ट रूपमें देखा कि अनुपात शरीरके उन अणुओंकी संख्याके अनुसार जो सीधे भागवत सत्ताके प्रभावमें होते हैं और केवल सर्वोच्च स्पंदनको ही प्रत्युत्तर देते है तथा कुछ अन्योंके अनुसार जो अभी भी स्पंदन- के सामान्य ढंगको ही अपनाते है, भिन्न होता है । यह बहुत स्पष्ट था, क्योंकि वहां सभी संभावनाएं देखी जा सकती थीं - सामान्य संघातसे लेकर, जो इस हस्तक्षेपसे बिलकुल अस्तव्यस्त हों जाता है और जहां व्यक्तिको

 

१८७


अवांछित तत्वसे मुक्त होनेके लिये सभी सामान्य साधनोंको लेकर अपने- आपसे युद्ध करना पड़ता है, उस स्थितितक जब कि औसब-के-सब अणु सर्वोच्च शक्तिको उत्तर देते है जिससे कि दूसरी वस्तुका कोई प्रभाव नहीं पंडू -सकता । किंतु यह अभी आनेवाले कलका स्वप्न है - हां, हम इस रास्तेपर 'चेले अवश्य रहे है । और तत्त्वोंके अनुपात मी काफी अनुकूल हो गया है -- मैं इसे अत्यधिक शक्तिशाली तो नहीं कहती, क्योंकि इससे अभी यह बहुत दूर है, पर काफी अनुकूल अवश्य कहती हू, जिसका अर्थ यह हुआ कि बीमारीके परिणाम बहुत समयतक नहीं टिके और जो नुक्सान हुआ मी, वह भी कम-से-कम ।

 

  किंतु इस क्षणकी, एक-के-बाद-एक, सनी अनुभूतियां, समस्त भौतिक अनुभूतियां, शरीरकी अनुभूतियां एक ही निष्कर्षपर पहुंचती है : सब कुछ उन तत्वोंके जो केवल सर्वोच्च सत्ताको ही प्रत्युत्तर देते हैं, जो रूपांतरके रास्तेपर तो हैं पर आधे इधर. और आधे उधर है तथा उन तत्वोंके जो अभी मी जडपदाथंके स्पंदनकी पुरानी प्रक्रियामेंसे गुजर रहे है, इन दोनोंके बीचके अनुपातपर निर्भर करता है । इन पिछले तत्वोंकी संख्या कम प्रतीत हो रही है, काफी कम होती प्रतीत हों रही है, किंतु अभी मी अप्रीतिकर प्रभाव अथवा प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करनेके लिये ऐसी बहुत-सी वस्तुएं मौजूद है, ऐसी वस्तुएं जिनका रूपांतर अभी नहीं हुआ है और जो अभी मी सामान्य जीवनकी वस्तुएं हैं । किंतु सब समस्याएं, चाहे वे मनोवैज्ञानिक समस्याएं हों या विशुद्ध भौतिक समस्याएं, रासायनिक समस्याएं - समस्यामात्रका अंतिम रूप यही होता है -- स्पंदनकी ही समस्याएं हैं । यहां एक तो स्पदनोंकी समग्रताका बोध होता है और दूसरा उस अंतरका बोध जिसे -- यदि स्थूल और निकटतम ढंगसे कहा जाय तो - रचनात्मक और विनाशात्मक स्पन्दनोंका अन्तर कहा जा सकता है । हम कह सकते है - यह केवल कहनेका. एक ढंग है - कि जो स्पन्दन एकमेवसे आते हैं तथा 'एकत्व'को अभिव्यक्त करते है वे रचनात्मक होते हैं, और सामान्य एवं विभाजक चेतनाकी सभी जटिलताएं विनाशकी ओर लें जाती है ।

 

 (लंबा मौन)

 

 लोग हमेशा कहते है कि इच्छा ही कठिनाइयोंको उत्पन्न करती है और यह है मी सच । इच्छा केवल एक ऐसी वस्तु हो सकती है जो संकल्पके स्पन्दनके साथ जोड़ दी जाती है । संकल्प -- जब कि वह एकमात्र

 

१८८


संकल्प, अपनेको अभिव्यक्त करनेवाला सर्वोच्च संकल्प होता है - तो वह सीधा और तात्कालिक होता है, वहां किसी भी बाधाकी समावना नहीं रहती । अतएव जो भी कार्यमें विलंब करे, बाधा पहुंचाये ओर उसे जटिल बना दे, बल्कि असफल मी कर दे, उसमें अवश्य ही इच्छाका मिश्रण होता है ।

 

   व्यक्ति उसे हर वस्तुमें देखता है । उदाहरणार्थ, बाह्य कर्मके क्षेत्र- का उदाहरण लें, बाल जगत्का, बाह्य वस्तुओंका (स्वभावतया यह कहना कि यह ''बाह्य'' है अपने-आपको केवल एक मिथ्या स्थितिमें रखना है), किन्तु, हम एक उदाहरण लेते है : एक व्यक्ति चेतनाकी उच्चतम अवस्थामें, सत्यकी चेतनाकी अवस्थामें किसीसे कहता है : ''जाओ (यहां मैं हजारोंमेसे एक उदाहरण दें रही हू), जाओ, अमुक ब्यक्तिसे मीलों और उससे यह वस्तु प्राप्त करनेके लिये यह कोह ।', यदि वह व्यक्ति ग्रहणशील है, आन्तरिक रूपमें अचंचल ओर समर्पित है तो वह जाकर उस ब्यक्तिसे मिलता है । उससे ''वह सब'' कहता है और काम हो जाता है, बिना किसी प्रकारकी उलझनके, यों ही । किन्तु यदि उसको मान- सींक चेतना सक्रिय है, यदि उसमें पूरी श्रद्धा नहीं है और उसमें अहंभाव और अज्ञानका समस्त मिश्रण मौजूद है तो उसे कठिनाइयां दीखने लगती हैं, और वह समाधानके लिये सब समस्याएं देखता है, वह सब प्रकारकी उलझनें देखता है - स्वभावतया ऐसा ही होता है । और तब अनुपातके अनुसार (यह सदा ही अनुपातोंका प्रश्न होता है), उलझनें पैदा होती हैं, समय लगता है और कायोंमें देर हों जाती है, पर इससे मी अधिक बुरा यह होता है कि चीज विकृत हो जाती है, ठीक वैसी नहीं होती जैसी होनी चाहिये, वह बदल जाती है, क्षीण हो जाती है, उसका स्वरूप बिगड़ जाता है अथवा अन्तमें वह बिलकुल ही नहीं होती -- इसमें कई, कई स्तर होते हैं, पर यह सब उलझनों (मानसिक उलझनों) और इच्छाके क्षेत्रकी वस्तु है । जब कि दूसरा रास्ता तत्काल फल दिखाता है । ऐसे अनगिनत दृष्टांत और मी है, (सभी तरहके दृष्टांत) और तात्कालिक दृष्टांत भी । तब लोग तुमसे कहते हैं : ''ओह! तुमने एक चमत्कार किया है'' -- चमत्कार कुछ नहीं हुआ । यह सदा इसी ढंगसे किया जाना चाहिये । यह इसलिये कि किसी मध्यवर्ती वस्तुने कार्यमें हस्तक्षेप नहीं किया है ।

 

   मैं नहीं जानती यह स्पष्ट हुआ कि नहीं, परन्तु आरिवर... ।

 

  अतएव, ऐसा छोटी-से-छोटी वस्तुसे लेकर पृथ्वीके एक बड़े कायंतकके साथ हो सकता है । पार्थिव कार्यमें ऐसी वस्तुओंके उदाहरण हमारे

 

१८९


सामने हैं जो इसी प्रकार संपन्न हुई हैं - पर तभी, यदि कोई अच्छा मध्यवर्ती मिल जाय । किसीको यह समझमें नहीं आया कि यह कैसे हुआ या क्यों हुआ - इस प्रकार, सरलतासे बड़े सीधे ढंगसे सब कुछ संपन्न हों गया । जब कि कुछ अन्य उदाहरणोंमें एक केवल विजया ' 'परमिट पानेके लिये पहाड़ उठाना पड़ता है । अतएव, अत्यधिक छोटी वस्तुसे, अति मामूली शारीरिक व्याधिसे एक अत्यधिक सार्वभौम कार्यतक एक ही सिद्धान्त काम करता है । प्रत्येक वस्तु इस एक ही सिद्धान्तके अन्तर्गत आ जाती है ।

 

४-११-६३

 

९६ - शास्त्रके सत्यको अपनी आत्माके अंदर अनुभव कर फिर यदि तू चाहे तो, बुद्धिद्वारा अनुभवकी परीक्षा कर और उसका वर्णन कर, लेकिन उसके बाद भी अपने वर्णनपर अविश्वास कर, पर अपने अनुभवपर कभी नहीं ।

 

इसकी व्याख्याकी आवश्यकता नहीं है ।

 

  दूसरे शब्दोंमें, बच्चोंके लिये इसकी व्याख्या यों करनी चाहिये कि सूत्र जो भी हों, धर्मग्रंथ जो भी हों, कक्ष सदा ही अनुभूतिके क्षुद्र आकार होते हैं, उससे निम्न कोटिके होते हैं ।

 

  शायद कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें इस बातको जाननेकी आवश्यकता है ।

 

१७ - जब तू अपने आत्मिक अनुभवको प्रस्थापित करे और दूसरोंके भिन्न आत्मिक अनुभवको अमान्य करे तब जान लें कि भगवान् तुझे मूर्ख बना रहे हैं । क्या सु अपनी आत्माके परदेके पीछे उनका आत्मानन्दपूर्ण हास्य नहीं सुनता?

 

ओह, कितना सुन्दर!

 

   व्यक्ति केवल मुस्कान-भरा वचन कह सकता है : अपने अनुभवपर शंका मत करो; कारण, तुम्हारा अनुभव तुम्हारी सत्ताका सत्य है । किन्तु यह मत सोचों कि यह वैश्व सत्य है । और इस सत्यके आधारपर दूसरोंके सत्यका विरोध कभी मत करो, क्योंकि प्रत्येकके लिये उसका अनुभव उसकी सत्ताका सत्य है । और एक समग्र सत्य इन सब वैयक्तिक सत्योंका केवल जोडमात्र है... और इससे बढ़कर वह स्वयं प्रभुका अनुभव भी है ।

 

१९०


१८-सत्यदर्शन, प्रत्यक्ष दर्शन, प्रत्यक्ष श्रवण या सत्यकी अनुप्रेरित स्मृति, अर्थात् 'द्रष्टि', 'श्रुति', 'स्मृति' है; यह उच्चतम अनुभूति है और नये सिरेस किये जानेवाले अनुभव- द्वारा सर्वदा प्राप्य है । शास्त्रोंका वचन इस कारण सर्वोत्तम प्रमाण नहीं है कि उसे भगवान्में कहा था, बल्कि इसलिये है कि उसे अंतरात्माने देखा था ।

 

मेरा ख्याल है कि यह ' 'भगवान्के आदेश' 'मे बाइबलके विश्वासका उत्तर है, ये आदेश मूसाको प्राप्त हुए और स्वयं भगवान्में कहे और मूसाने सुने - ऐसा संभव नहीं है, इस बातको घुमा-फिराकर कहनेका यह एक ढंग है । ( माताजी हंसती हैं) ।

 

  ''अत्यधिक प्रामाणिक क्योंकि आत्माने इसे देख लिया है' ', किन्तु यह सर्वोच्च प्रमाण केवल उस आत्माके लिये है जिसने उसे देखा है, सब सत्ताओंके लिये नहीं । जिस आत्माको यह अनुभूति हुई और जिसने उसे देखा केवल उसीके लिये यह सर्वोच्च प्रामाणिकता रखती है, दूसरों- के लिये नहीं ।

 

  यह एक ऐसी वस्तु थी जिसने मुझे बचपनमें ही सोचनेको विवश किया - ये बारह 'आदेश' जो असाधारण रूपसे सामान्य हैं : ' 'अपने पिता और मातासे प्रेम करो... किसीको मारो मत... '' ये बड़े अरुचिकर ढगकी तुच्छ-सी बातें हैं । और मूसा इन्है सुननेको सिनाई पर चले थे... । अब मुझे यह नहीं पता कि श्रीअरविन्द उस समय भारतके धग्रंर्मथोंकी बात सोच रहे थे... चीनके धर्मग्रंथ भी है ।

 

 (मौन)

 

 मेरा अनुभव अधिकाधिक यह है कि अन्तःप्रकाश (वह आता है, है न?), अन्तप्रकाश समस्त विश्वपर लागू हों सकता है, किन्तु अपने स्व- रूपमें यह सदा ही व्यक्तिगत होता है, सदा ही व्यक्तिगत होता है ।

 

  यह मानों ऐसा हुआ कि एक व्यक्तिको सत्यका एक दृष्टिकोण प्राप्त हुआ, यह निश्चित रूपमें, निश्चित रूपमें एक दृष्टिकोण ही है, उसी क्षण- से जब कि उसे शब्दोंका बाना पहनाया जाता है ।

 

   तुम्हें एक शब्द विहीन और विचारहीन अनुभूति होती है, एक प्रकारका स्पन्दन होता है जौ तुम्हें पूर्ण सत्यका वेदन प्रदान करता है और तब यदि तुम बिलकुल निश्चल बने रहो, कुछ जाननेकी चेष्टा न करो, तो कुछ

 

१९१


समयके बाद तुम्हें ऐसा प्रतीत होगा कि कोई वस्तु छारण-यंत्रसे गुज़रती हुई अपने-आपको एक प्रकारके विचारके रूपमें अनूदित करती है । तर यह विचार, यह अभीतक एक विचार ही है, एक तरल-सा, अर्थात्, बड़ा सामान्य-सा विचार, - परन्तु यदि तुम तब भी अत्यधिक निश्चल, अतर्क एवं नीरव रहो तो, यह एक दूसरे छारणयंत्रसे गुजरता है और फिर एक प्रगाढ़ता प्राप्त कर लेता है - ब्दोंकी तरह जो फिर शब्द बन जाती है ।

 

   किन्तु यह, जब तुम्है पूरी तरह सच्चाईस यह अनुभव प्राप्त हा जाता है (जब तुम अपनी आंखोमें धूल नहीं झोंकते), आवश्यक रूपमें बातको कहनेका एक दृष्टिकोण, एक हग होता है, बस इतना ही । ओर शायद यद इतना ही होता है । इसके अतिरिक्त, एक वस्तु ओर भी है जो स्पष्ट देखी जाती है । जब तुम किसी विशेष भाषाके अम्यस्त होते हों तो बात तुम्हारे सामने उसी भाषामें आती है । मेरे लिये यह सदा अंगरेजीमें या फ्रासीसीमें आती है, चीनीमें नहीं आती, जापानीमें नहीं आती । शब्द अनिवार्य रूपमें अंगरेजी या फ्रांसीसी होते हैं । कभी-कभी कोई शब्द संस्कृतका मी आता है (क्योंकि भौतिक रूपमें मैंने एक बार संस्कृत सीखी थी) । ऐसा मी हुआ है कि मैंने किसी औरके द्वारा उच्चरित संस्कृतके शब्द सुने हैं (स्थूल रूपमें नहीं) पर वे मेरे आगे स्पष्ट नहीं हुए, वे धुँधले-से बने रहे, और जब मैं बिलकुल भौतिक चेतनामें आ ' जाती हू, मेरी स्मृतिमें केवल अस्पष्ट-सी आवाज रह जाती है, परन्तु सुस्पष्ट शब्द नहीं । अतएव, ज्यों ही वस्तु अपना स्पष्ट आकार धारण करती है, बह सदा एक वैयक्तिक दृष्टिकोण ही होता है ।

 

  तुममें एक प्रकारकी, बहुत ही गंभीर सच्चाई होनी चाहिये । एक उत्साह तुमपर छाछ जाता है, क्योंकि अनुभूति अपने साथ एक असाधारण शक्ति लाती है, शक्ति वहां होती है - वह शब्दोंके आनेसे पहले ही रहती है, शब्दोंके साथ वह कम हो जाती है - किन्तु शक्ति वहां होती अवश्य है, और इस शक्तिके साथ तुम अपने-आपको विश्वमय अनुभव करते हो, तुम्हें ऐसा आभास होता है. ''यह एक वैश्व साक्षात्कार है'' -- हां, यह वैश्व साक्षात्कार है, किन्तु जब तुम इस बातको शब्दोंमें कहते हो, तो यह वैश्व नहीं रह जाती; वह केवल उन मस्तिष्कोंपर लागू. होती है जो उस प्रकारके कथनको समझनेके लिये ही बने हैं; शक्ति पीछे विद्यमान है, किन्तु तुम्हें शब्दोंके परे जाना चाहिये ।

 

 ( मौन)

 

१९२


   ऐसी वस्तुएं मेरी अनुभूतिमें अधिकाधिक आ रही हैं और मैं उन्है कागज- के टुकड़ेपर अंकित कर लेती हू, प्रकिया सदा यही होती है, सर्वदा । सबसे पहले, एक प्रकारका विस्फोट होता है, मानों सत्यकी शक्तिका विस्फोट - यह आतिशबाजीका, जो कि पूरी श्वेत होती है, एक बड़ा विस्फोट होता है;... (माताजी मुस्कराती हैं) आतिशबाजीके खेलसे कहीं अधिक । और तब वह आगे बढ़ता है, बढ़ता चला जाता है (अपने सिरसे ऊपर- की ओर संकेत करती है), वह अपना कार्य करता है, कार्य करता चला जाता है तब एक विचारका आभास होता है (किन्तु विचार नीचेके स्तरपर होता है, विचार एक आवरणकी भांति होता है), विचारमें अपना वेदन होता है, वह वेदनकी ओर ले भी जाता है - वेदन वहां पहलेसे था, पर विचारसे रहित, इट्सलिये वेदनकी परिभाषा नहीं की जा सकती, वहां वस्तु केवल एक ही है, सदा प्रकाशपूर्ण शक्तिका विस्फोट । और तब बादमें यदि तुम उसकी ओर देखते हो और बिलकुल शान्त बने रहते हों, विशेषतया जब मस्तिष्क नीरव रहता है, सब कुछ नीरव हो जाता है (माताजी निश्चलताका संकेत ऊपरकी ओर करती हैं), तब, अचानक, कोई मस्तिष्कमें कह उठता है -- हां, कोई बोलता है । और यह बोलनेवाला विस्फोट ही होता है । तब मैं एक कागज आर पेन्सिल लेकर लिखने बैठ जाती हू । किन्तु बोलनेवाले ओर लिखनेवालेके बीचमें एक छोटा- सा मार्ग रह जाता है । इस कारण, जब वह लिखा जा रहा होता है, वहां ऊपरकी कोई सत्ता उससे सन्तुष्ट नहीं होती । तब मी मै शान्त बनी रहती हू : '', यह शब्द नहीं, वह शब्द'' - कभी-कमी वस्तुको निश्चयात्मक बनानेमें दो दिन लग जाते हैं । किन्तु जो लोग अनुभवकी शक्तिसे सन्तुष्ट हो जाते हैं, वे तुम्हें कहीं आबद्ध कर देते हैं और तुम्हें उन सनसनीपूर्ण अनुभूतियोंके जगत् में लें जाते है जो सत्यकी विकृतियां मात्र होती है ।

 

   व्यक्तिको बड़ा स्थिर, बहुत शान्त और बहुत विवेचक होना चाहिये -- विशेष रूपसे शान्त, नीरव, नीरव, नीरव; अनुभूतिको पकड़नेके लिये जरा भी चेष्टा नहीं करनी चाहिये : ''ओह! यह क्या है, यह क्या है? '' ऐसा करनेसे सारी बात बिगड़ जाती है । किन्तु, देखो - सावधानीपूर्वक देखो । शब्दोंमें कुछ शेष रह जाता है, एक ऐसी वस्तु जिसे पहला स्पन्दन अपने पीछे छोड़ गया है (बहुत छोटी-सी!) किन्तु एक ऐसी वस्तु अवश्य होती है जो तुम्हारे मुंहपर मुस्कराहट लें आती है, जो सुखद है, जो फेनिल शराबके समान चमकती है और तब यहां (माताजी काल्पनिक ढंगसे एक शब्द, एक स्थल दर्शाती हैं) सब कुछ नीरस बन जाता है । तब व्यक्ति अपने भाषा-ज्ञानके साथ, या शब्दोंकी लयतालकी भावनाके

 

१९३


साथ देखता है : ''वह रहा रोड़ा'', तुम्हें इस रोडेको हटाकर प्रतीक्षा करनी होगी, और फिर अचानक ही वह आ जाता है; ओह! वह ठीक स्थानपर आकर पड़ता है : उपयुक्त शब्द! यदि तुममें धैर्य है, तो एक या दो दिनके बाद वह बिलकुल ही यथार्थ बन जाता है ।

 

५-२-६४

 

   ९९ - शास्त्रके वचन अभ्यंतर हैं; शास्त्रकी जो व्याख्या हृदय और बुद्धि करती हैं ख़स उसीमें भूल-म्रातिको अपना स्थान प्राप्त होता है ।

 

मुझे इस बातका पूरा निश्चय नहीं कि यह उक्ति व्यंगात्मक नहीं है... । जो लोग कहते हैं कि ''धर्मग्रंथ अचूक हैं! '' उन्है वे उत्तर देते हैं : ''हां, हां, यह तो मानी हुई बात है, धर्मग्रंथ अचूक हैं, किन्तु अपनी समझ- से सावधान रहना ।''

 

   किन्तु सत्यकी वाणी यह है :

 

   १०  - अपने धार्मिक विचार और अनुभवमेंसे सब प्रकारको नीचता, संकीर्णता और छिछलेपनको निकाल फेंक । विशाल- तम क्षितिजोंसे भी कहीं अधिक विशाल बन, उच्चतम कंचनजगासे भी कहां अधिक उच्च, गभीरतम सागरोंसे भी कहीं अधिक गभीर बन ।

 

   १०१ - भगवान्की दृष्टिमें समीप या दुर नहीं है, वर्तमान, भूत या भविष्य नहीं है । ये चीजें तो महज उनके जगच्चित्रके लिये एक सुविधाजनक परिपेक्षण हैं ।

 

 १०२ -- इंद्रियोंके लिये यह सदा ही सत्य है कि सूर्य पृथ्वीके चारों ओर घूमता है; यह बुद्धिके लिये मिथ्या है । बुद्धिके लिये यह सर्वदा सत्य है कि पृथ्वी सूर्यके चारों ओर घूमती है; यह सर्वोच्च दृष्टिके लिये मिथ्या है । न तो पृथ्वी घूमती है न सूर्य; बस, सूर्य-चेतना तथा पृथ्वी-चेतनाके संबंधमें एक परि- बर्तन होता है ।

 

(एक लंबा मौन)

 

१९४


असंभव, मै कुछ नहीं कह सकती ।

 

   इसका अर्थ यह होगा कि भौतिक जगत्-सम्बन्धी हमारा सामान्य बोध एक मिथ्या बोध है ।

 

 हां, स्वभावतया ।

 

    किन्तु तब सच्चा बोध किसके जैसा होगा?

 

 हां तो, बात यही है, लो!

 

   ... भौतिक जगत्का सच्चा बोध - वृक्ष, व्यक्ति, पत्थर - ये सब अतिमानसिक दृष्टिको किस तरह देखेंगे?

 

यही वह बात है जिसके विषयमें व्यक्ति कुछ नहीं कह सकता! जब तुम्हें सत्यके विवानकी अनुभूति और चेतना होती है, अथवा उसकी जो सत्यका प्रत्यक्ष अनुभव, उसकी प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है, तो तुम्है तत्काल किसी अवर्णनीय वस्तुका आभास मिलता है, क्योंकि समस्त शब्द एक और ही क्षेत्रकी वस्तुएं हैं : समस्त बिम्ब, तुलनाएं और अभिव्यक्तियां उसी क्षेत्रको हैं ।

 

   मुझे ठीक यही बड़ी कठिनाई हुई थी । २१ फरवरीका दिन था । सारे समय जब मैं सत्यकी प्रत्यक्ष अभिव्यक्तिकी चेतनामें रही, मैं अपनी अनुभूतिको तथा उसको जो मै देख रही थी सूत्रबद्ध करतेकी चेष्टा करती रही - यह सब असंभव था । वहां शब्द नहीं थे । वहां तुरन्त स्वयं सूत्र ही हमें तत्काल दूसरी चेतनामें ला गिराता है ।

 

   उस अवसरपर सूर्य और पृथ्वी-सम्बन्धी सूत्रकी स्मृति मुझे हो आयी ... इसे ''चेतनाका परिवर्तन'' भी कह सकते हैं - चेतनाका परिवर्तन, यह भी एक क्रिया है ।

 

  मेरा ख्याल है कि कोई कुछ भी नहीं कह सकता । मै भी अपने- आपको कुछ कहने योग्य नहीं पाती । कारण, जो भी कहा जाय उसका अर्थ केवल अनुमानित वर्णन ही होता है जो कि बहुत रोचक नहीं होता ।

 

   किन्तु जब आप इस सत्य-चेतनामें होती हैं तो क्या यह

 

१९५


  आत्मनिष्ठ अनुभव होता है या स्वयं जड़ पदार्थ हीं अपना रूप परिवर्तित कर लेता है?

 

   हां, सब कुछ - समस्त जगत् ही भिन्न हों जाता है । प्रत्येक वस्तु भिन्न ''हो जाती है । और मेरे अनुभवने मुझे एक बातका विश्वास दिला दिया है, जिसे मै अभीतक निरन्तर अनुभव करती रहती हू : वह यह कि ये दो अवस्थाएं (सत्य और मिथ्यात्व) एक ही समय और साथ-साथ रहती हैं और यह केवल... हां, यह वही है जिसे वे ''चेतनाका परिवर्तन'' कहते हैं; दूसरे शब्दोंमें, चाहे व्यक्ति इस चेतनामें रहे या किसी दूसरी चेतनामें रहे, किन्तु वह किसी भी वस्तुके लिये कोई गति नहीं करता ।

 

   हमें उन शब्दोंका प्रयोग करना पड़ता है जो गतिशील हैं, क्योंकि हमारे लिये सभी वस्तुएं गतिशील है, किंतु चेतनाका यह परिवर्तन एक गति नहीं है - यह गति बिलकुल भी नहीं है । तो तुम उसके विषय- मे कुछ कैसे कह सकते हा, कैसे उसका वर्णन कर सकते हो?

 

   यदि हम यह कहे मी : ''यहां एक अवस्था दूसरी अवस्थाका स्थान ले लेती है'', स्थान ले लेती है... तत्काल ही हम वहां क्रियाको लें आते हैं... । हमारे सभी शब्द ऐसे होते हैं, हम क्या कह सकते हैं? अभी कल ही यह अनुभूति बिलकुल ठोस और सबल थी और इस- लिये किसीको अपने-आपको या किसी और वस्तुको स्थानच्युत करनेकी आवश्यकता नहीं है ताकि सत्य-चेतना विकृति और विरूपताकी चेतनाका स्थान लें सकें । दूसरे शब्दोंमें, जीवित रहने और यह सच्चा स्पंदन -- आवश्यक और सच्चा स्पंदन -- बन जानेकी क्षमतामें यह शक्ति प्रतीत होती है कि यह 'मिथ्यात्व' और 'विकृति'के स्पंदनका इस हदतक स्थान लें सकता है... । उदाहरणार्थ, 'विकृति'के स्पंदनका परिणाम स्वभावतया कोई दुर्घटना या विपत्ति होगा, किंतु यदि इन स्पंदनोंके केंद्रमें एक ऐसी चेतना हा जो सत्यके स्पंदनके प्रति सचेतन रह सकती हा ओर फलत: सत्यके स्पंदनकी अभिव्यक्ति भी कर सकती हो, तो वह दूसरे स्पंदनको नष्ट कर सकती है, उसे नष्ट कर देना भा चाहिये । बाह्य रूपमें इसे विपत्तिको रोकनेवाला हस्तक्षेप कहा जायगा ।

 

  इस बातका आभास अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है कि केवल 'सत्य' ही एकमात्र उपाय है जिससे जगत् बदला जा सकता है, धीमे रूपांतरकी अन्य सभी प्रक्रियाएं स्पर्श रेखापर ही पहुंचती है (तुम अधिकाधिक आगे बढ़ते रहते हो पर मिलते कभी नहीं), और अंतिम पग यही होना चाहिये, सच्चे स्पंदनकी स्थापना ।

 

१९६


व्यक्तिको आशिक प्रमाण मिलते हैं । किंतु, क्योंकि ये आशिक हैं, ये वस्तुको प्रमाणित नहीं कर सकते । कारण, तुम सामान्य अनुभूति और बोध- की सदा ही व्याख्या कर सकते हो - यह कहकर कि इस बातका पूर्वाभास हमें मिल चुका है और यह पहलेसे निश्चित था, उदाहरणार्थ, कि यह दुर्घटना विफल होगी, इसलिये हस्तक्षेप इस विफलताका कारण बिलकुल नहीं है बल्कि नियतिवाद इ) है जिसने निश्चय किया है । अब इसे प्रमाणित कैसे किया जाय? अपने-आपको व्यक्ति कैसे विश्वास दिलाये कि कारण कोई अन्य है । ऐसा करना संभव नहीं ।

 

  है न, ज्यों ही तुम आत्म-अभिव्यक्ति करने लगते हो, त्यों ही तुम मनमें प्रवेश कर जाते हों और ज्यों ही तुम मनमें प्रवेश करते हों त्यों- ही तुम उक्त प्रकारका तर्क करने लगते हों जो कि एक भयानक वस्तु है, क्योंकि वह सर्वशक्तिमान् है : यदि सब वस्तुओंका पहलेसे अस्तित्व है और वे साथ-साथ रहती है, अनंत कालसे, तो तुम एक वस्तु दूसरी वस्तुमें कैसे बदल सकते हो?... कोई भी वस्तु, चाहे वह कैसी भी क्यों न हो, कैसे बदल सकती है?

 

  यह कहा जाता है श्रीअरविद स्वयं मी यहां यहीं कहते है) कि परम सत्ताकी चेतनाके लिये न भूत है, न कोई काल और न कोई क्रिया है, कुछ भी नहीं है - सब वर्तमान है । जब हम अपनी भाषामें ऐसा कहते हैं कि ''अनंत कालसे'' ऐसा हो रहा है, तो यह मूर्खता है, क्योंकि वास्तवमें सब कुछ वर्तमानमें ''है'' । अतएव प्रत्येक वस्तु ''है'' (माता- जी अपनी बांहोंको एकदूसरेपर आड़ा रखती हैं) और फिर यही बात अंतिम है, यहां कुछ भी किया नहीं जा सकता । तब यह विचार, बल्कि कहनेका यह ढंग (क्योंकि यह केवल कहनेका ढंग है), उन्नतिके भावकों समाप्त कर देता है, विकासक्रमको समाप्त कर देता है, हां, सचमुच समाप्त कर देता है... और तुम्है बताया जाता है : ''यह नियतिवादका एक भाग है कि तुम्हें उन्नतिके लिये प्रयत्न करना चाहिये'' -- हां, यह सब एक अलंकारयुक्त भाषा है ।

 

और यह मी ध्यानमें रखो कि कहनेका यह ढंग केवल एक क्षणिक अनुभूति है, परंतु समस्त अनुभूति नहीं । एक ऐसा क्षण होता है जब व्यक्ति ऐसा अनुभव करता है, किंतु यह अनुभव समग्र नहीं होता, यह आशिक होता है । यह अनुभव करनेका केवल एक ढंग है, सब कुछ नहीं । सनातन चेतनामें इससे कहीं अधिक गहन, कहीं अधिक अनिर्वचनीय वस्तु है -- कहीं अधिक । यही वह पहली व्याकुलता और विस्मय है जो व्यक्तिको तब होता है जब वह अपनी सामान्य चेतनासे बाहर निकल आत।

 

१९७


है । किंतु यही सब कुछ नहीं है । यह पूरी चीज नहीं है । जब इन दिनों इस सूत्रकी स्मृति मुझे आयी तो ऐसा लगा कि यह केवल एक ऐसी झलकमात्र है जो व्यक्तिको अचानक मिल जाती है या फिर, दो अवस्थाओं- के बीचके विरोधका वेदन है, किंतु यह समग्र वस्तु नहीं है, पूरी वस्तु नहीं है - इसके अतिरिक्त कोई अन्य वस्तु भी है ।

 

   कोई और वस्तु है, जो हम समझते हैं उससे बिलकुल भिन्न, किंतु यह अपने-आपको उस रूपमें अनूदित करती है जिसे हम समझ सकते हैं । और वह, उसके विषयमें कुछ नहीं कहा जा सकता, कहा इसलिये नहीं जा सकता क्योंकि वह अवर्णनीय है, अवर्णनीय ।

 

   इसमें व्यक्ति यह अनुभव करता है कि जो कुछ भी हमारी सामान्य चेतनामें मिथ्या, असत्य, विकृत और कुटिल हो जाता है, वह 'सत्य- चेतना'के लिये मूलत: सच्चा होता है । किंतु सच्चा किस ढंगसे? ठीक यही वह बात है जो शब्दोंद्वारा नहीं कही जा सकती, क्योंकि शब्द 'मिथ्या' जगत् की वस्तुएं हैं ।

 

 दूसरे शब्दोंमें, क्या जगत् की भौतिकताको यह चेतना नष्ट नहीं कर देगी, क्या उसका रूपान्तर हो जायगा... था फिर वह जगत् ही दूसरा होगा?

 

 (मौन)

 

 इसे समझना होगा।.... मेरा ख्याल है कि जिसे हम जड़ पदार्थ कहते है यह सचमुच जगत्का मिथ्या रूप ही नहीं है ।

 

  इससे मिलती-जुलती कोई और वस्तु भी है । किन्तु...

 

  उदाहरणार्थ, यह सूत्र एक पूर्ण आन्तरिक अनुभवमें समाप्त होगा । और एक पूर्ण आन्तरिक अनुभव ही सच्चा हो, यह बात ठीक नहीं है । कारण, यह प्रलय है, निर्वाण है । .किन्तु वहां केवल निर्वाण ही नहीं है, एक ऐसी दृश्य सत्ता है जो वास्तविक है, जो मिथ्या नहीं है -- कर्तित यह कैसे कहा जाय?... इस वस्तुको मैंने बहुत बार अनुभव किया है - बहुत बार, केवल एक झलकके रूपमें ही नहीं - वास्तविकताके रूपमें भी... (पर इसे कैसे व्यक्त किया जाय? शब्द सदा धोखा देते हैं)... एकत्वके पूर्ण अर्थमें, एकत्वकी चेतनामें दृश्य वस्तुके किये, दृश्य अवस्थाके लिये स्थान है -- एक वस्तु दूसरीको नष्ट नहीं करती, बिलकुल मी नहीं । तुम्हें भेदका संवेदन हो सकता है । इसका. यह अर्थ नहीं कि यह वही सत्ता

 

१९८


नहीं है, किन्तु यह उसका एक लिख अन्तर्दर्शन है । मै तुम्है कह चुकी हू कि व्यक्ति जो कुछ भी कहे उसका कुछ अर्थ नहीं है । वह मूर्खता हैं, क्योंकि यहां शब्दोंसे असत्य जगत्को व्यक्त करनेका काम लिया जाता है, किन्तु... हां, शायद इसीको श्रीअरविन्द ''एकतामें बहुविधता''का भाव कहते हैं । यह शायद उससे थोड़ा मिलता-जुलता है, उसी तरह जैसे कि व्यक्ति अपनी सत्ताकी आन्तरिक बहुविधताको अनुभव कर लेता है, यह कुछ-कुछ ऐसा ही है... मुझे पृथक 'मैं'का कोई वेदन नहीं है, जस भी नहीं, बिलकुल भी नहीं, शरीरमें भी नहीं, और यह मुझे बहिर्गत सम्बन्धकी किसी विशेष भावनाको रखनेसे नहीं रोकता... हां, यह ''सूर्य और पृथ्वीकी चेतनाके पारस्परिक सम्बन्धपर'' लें आता है, जो कि बदल जाता है । (माताजी हंसती हैं) सत्य ही, यह शायद कहनेका सबसे अच्छा ढंग है । यह चेतनाका सम्बन्ध है । यह अपने-आपका और ''दूसरों''का सम्बन्ध बिलकुल नहीं है -- बिलकुल नहीं, वह पूरा नष्ट हो गया है -- किन्तु यह व्यक्तिकी सत्ताके विभिन्न भागोंकी चेतनाके पारस्परिक सम्बन्ध जैसा हों सकता है । और यह स्पष्ट ही इन विभिन्न भागोंको एक बाह्यता प्रदान करता है ।

 

 (लंबा मौन)

 

    हम अब दुर्घटनाकी विफलताके उस दृष्टांतपर आते है जो सरलतासे समझमें आ सकता है । यह हम भली-भाति सोच सकते है कि ''सत्य- चेतना''का हस्तक्षेप पहलेसे ''सतत काल''के लिये निश्चित था और इसमें कोई ''नया'' तत्व नहीं है, किन्तु यह बात इस तथ्यको नहीं काटती कि इस हस्तक्षेपने ही दुर्घटनाको रोक दिया था (और यह उस शक्तिपूर्ण प्रभाव- की एक यथार्थ प्रतिमूर्ति है जो इस सच्ची चेतनाका दूसरी चेतनापर पड़ता है) । यदि व्यक्ति भगवान्पर अपनी सत्ताकी प्रणाली प्रक्षिप्त करे तो यह सोचा जा सकता है कि उन्है बहुत-से प्रयोग करनेमें मजा आता है, वे यह देखना चाहते है कि यह सब खेलमें कैसे जमता है (यह एक ओर चीज है, यह इस बातको नहीं रोकती कि वहां एक ''सर्व-चेतना'' है जो सतत रूपमें सब वस्तुओंको जानती है -- यह सब कुछ पूर्णतया अनुपयुक्त शब्दोंमें कहा गया है), किन्तु जब व्यक्ति कार्यकी पद्धतिकी ओर देखता है तो यह इस बातको अप्रमाणित नहीं करता कि हस्तक्षेप ही दुर्घटनाको रोक सका है । सत्य-चेतनाने असत्य चेतनाका स्थान लेकर असत्य चेतनाकी प्रक्रियाको रोक दिया ।

 

१९९


  और मुझे लगता है कि ऐसा प्रायः ही होता है - जितना कि तुम सोचते हों उससे कहीं अधिक । उदाहरणार्थ, प्रत्येक बार जब कोई रोग दूर हों जाता है, प्रत्येक बार जब कोई दुर्घटना रुक जाती है, प्रत्येक बार जब कोई विपत्ति, पार्थिव विपत्ति भील जाती है तो इस सबका अर्थ स? यह होता है कि समग्रताके स्पन्दनने अव्यवस्थाके स्पन्दनमें हस्तक्षेप करके अव्यवस्थाको समाप्त कर दिया है ।

 

  अतएव, श्रद्धालु लोग जो सदा यह कहते है : ''भगवान्की कृपासे यह सब हुआ है'', बिलकुल असत्य नहीं कहते ।

 

  मै केवल यह तथ्य बता रही हू कि व्यवस्था और समग्रताका यह स्पन्दन ही हस्तक्षेप करता है (उसके हस्तक्षेपके कारणसे हमारा. कुछ मत- लब नहीं है, यह केवल एक वैज्ञानिक तथ्यका प्रतिपादन है), और इस विषयमें मुझे बहुत-से अनुभव हो चुके हैं ।

 

 तब क्या यही जगत् के रूपान्तरकी प्रक्रिया है?

 

हां

 

  व्यवस्थाके इस स्पन्दनका अधिकाधिक सतत रूपमें अभि- व्यक्त होना ।

 

 हां, ठीक यही । बिलकुल यही । बिलकुल यही ।

 

  और इस दृष्टिकोणसे भी मैं देख चुकी हू... । यह सामान्य विचार मुझे बिलकुल गौण और व्यर्थ प्रतीत होता है कि इस तथ्य (रूपान्तरके तथ्य) को पहले-पहल शरीरमें ही लक्षित होना चाहिये, जिसमें चेतना अत्यधिक ठोस ढंगसे अभिव्यक्त होती है । इसके विपरीत, यह जहां कहीं सबसे सरल और समग्र रूपमें हों सके, एक ही समय होता है और यह आवश्यक नहीं है कि कोषाणुओंका यह समूह (माताजी अपने शरीरकी ओर इशारा करती हैं) इस क्रियाके लिये सबसे अधिक तैयार हो । अतएव, यह बाह्य रूपसे बहुत लम्बे समयतक ऐसा ही बना रह सकता है, तब मी, जब उसमें विशेष बुद्धि और ग्रहणशीलता हो । मेरा मतलब यह है कि चेतना, इस शरीरका चेतन बोध, उस बोधसे असीम रूपमें उच्च है जो उन सब व्यक्तियोंको, जिनके साथ वह संपर्कमें आ गयी है प्राप्त हो सकता है, उनक्षणोंको छोड्कर, -- क्षणोंके -- जब अन्य शरीर भगवत्कृपाके रूपमें इस 'बोब'को प्रान्त कर लेते है; जब कि इस देहके दृष्टांतमें यह एक

 

२००


स्वाभाविक एवं स्थायी अवस्था है । यह इस तथ्यका एक वास्तविक परिणाम है कि यह 'सत्य-चेतना' अणुओंकी इस समूहपर दूसरोंकी अपेक्षा अधिक सतत रूपमें केन्द्रित है - अधिक प्रत्यक्ष रूपमें । किन्तु तथ्योंमें, कार्यमें, पदार्थमें एक स्पन्दन दूसरेका स्थान उस स्थलपर लेता है जहां वह परिणामोंके दृष्टिकोणसे अत्यन्त विशिष्ट और प्रभावशाली होता है ।

 

  यह ऐसी चीज है जिसे मैंने बहुत, बहुत स्पष्ट रूपसे अनुभव किया है और इसे कोई तबतक अनुभव नहीं कर सकता जबतक अहं बना रहे । क्योंकि भौतिक अहंमें अपने महत्वका भाव होता है और यह भाव भौतिक अहंके साथ ही समाप्त होता है । और जब यह समाप्त खै जाता है तो व्यक्तिको यथार्थतः यह पता लग जाता है कि सच्चे स्पन्दनका हस्तक्षेप या उसकी अभिव्यक्ति अहंभावों या व्यक्तित्वोंपर नहीं निर्भर करती (वे मानव व्यक्तित्व या राष्ट्र व्यक्तित्व या प्राकृतिक व्यक्तित्व -- पशु, वनस्पति आदि...), यह कोषाणुओं और जड़ पदार्थ - जिनमें ऐसे समुदाय होते हैं जो रूपान्तर लानेके लिये विशेष उपयुक्त होते हैं - की एक प्रकारकी क्रीड़ाप्रिय निर्भर करता है - ''रूपान्तर'' नहीं, बल्कि यथार्थ रूपमें कहे तो प्रतिस्थापन, मिथ्यात्वके स्पन्दनके स्थानपर सत्यके स्पन्दनका प्रतिस्थापन । और यह तथ्य समुदायों और व्यक्तियोंसे बिलकुल स्वतंत्र रह सकता है (कुछ अंश यहां और कुछ अंश वहां हो सकता है, एक वस्तु यहां तो दूसरी वहां हो सकती है); यह ऐसे स्पन्दनके किसी गुणके सत्यसे सदा मेल खाता है जो एक प्रकारकी स्फीति -- एक ग्रहणशील स्फीति - पैदा कर देता है, तब वह तथ्य वहां घट सकता है ।

 

  दुर्माग्यसे, जैसा कि मैंने शुरूमें ही कहा था, सभी शब्द बाहरी प्रतीतियोंके जगत् के है ।

 

 (मौन)

 

   और यह मेरा सदाका अनुभव रहा है, इस विषयका मुझे अन्तर्ज्ञान और विश्वास भी सदा रहा है (यह विश्वास अनुभवपर आधारित है); ये दो स्पन्दन ऐसे है (माताजी एकको दूसरेपर चिपकाने और छाननेकी क्रियाओंका संकेत करती हैं), सदा ऐसे रहते हैं, सदा, सर्वदा ।

 

शायद यह तब एक अद्भुत वस्तु बन जाती है जब कि छनकर आने- वाला द्रव्य इतना बड़ा होता है कि वह देखा जा सके । किन्तु मुझे ऐसा लगता है - यह एक बहुत तीव्र आभास है - कि यह एक ऐसा तत्व है जो सदा होता रहता है, सदा, सर्वत्र, प्रतिक्षण सूक्ष्म ढंगसे (यहां वे

 

२०१


बिन्दुओंके चिह्न बनाती हुई छाननेका संकेत करती है), सूक्ष्मातिसूक्ष्म ढंग मे, और किन्हीं परिस्थितियोंमें, किन्हीं दिशाओंमें जो कि देखी जा सकती है, जिन्हें वह दृष्टि देख सकती है (यह एक प्रकारकी प्रकाशमय स्फीति होती है, मै इसकी व्याख्या नहीं करना चाहती), वहां, छाननेकी क्रियाका प्रभो चमत्कारका आभास देनेके लिये काफी है । वरना यह एक ऐसी वस्तु है जो जगत् में सब समय, बिना रुके होती रहती है (बिन्दुओका वही संकेत ३ फिर करती हैं), मिथ्यात्वके एक बहुत छोटे कणका स्थान प्रकाश लें लेता है, हां, मिथ्यात्वका स्थान प्रकाश ले लेता है... सदा, सर्वदा । और यह स्पन्दन (जिसे मै अनुभव करती हू, देखती हू) अग्निका आभास देता है, इसीको वैदिक ऋषि मानव चेतनामें, मनुष्यमें, जड़ पदार्थ- मे ''ज्वाला''का नाम देते थे; वे सदा किसी ''ज्वाला''की बात किया करते थे । यह सचमुचमें एक उच्चतर अग्निकी तीव्रताका स्पन्दन है ।

 

  शरीरको मी ऐसा कई बार लगा, विशेषतया तब जब कि कार्य बड़ा एकाग्र और घनीभूत होता था, यह अनुभव ज्वरके अनुभव जैसा है । दो या तीन रात पहले, कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ था । शक्तिका अवरोहण हुआ, इस सत्य-शक्तिका विशेष तीव्रताके साथ अवरोहण हुआ... । हां, यही अब हों रहा है, यही हों रहा है सर्वत्र, सब समय । यदि ऐसा एक काफी बड़े समुदायमें हो तो यह एक चमत्कार-सा लगता है - किन्तु यह समस्त पृथ्वीका चमत्कार है ।

 

  व्यक्तिको दृढ़ता डटे रहना चाहिये, क्योंकि इस वस्तुके कुछ परिणाम होते हैं, यह शक्तिका वेदन लाती है और बहुत कम लोग इसे कम या अधिक रूपमें अपना सन्तुलन बिगाड़े बिना अनुभव कर सकते है । कारण, उनके पास पर्याप्त शान्तिके, एक विशाल और अत्यधिक नीरव शान्तिके आधार नहीं होता । मै कई बार कह चुकी हू : ''केवल एक उतर है, एक ही उतर, व्यक्तिको शान्त, शान्त, और अधिक शान्त, अधिकाधिक शान्त होना चाहिये और यह कि अपने मस्तिष्ककी सहायतासे समाधान कमी मत ढूंढ, क्योंकि मस्तिष्क समाधान नहीं ढूंढ सकता । केवल शान्त रहना चाहिये, शान्त, शान्त, स्थिर रूपमें शान्त रहना चाहिये । अचंचलता और शान्त, अचंचलता और शास्ति -- केवल यही उतर है ।',

 

  मैं यह नहीं कहती कि यह कोई इलाज है, किन्तु उतर केवल यही है : अचंचलता और शान्तिके साथ डटे रहो । अचंचलता और शान्तिके साथ डटे रहो... ।

 

 तभी कुछ होगा ।

 

२५-३-६४

 

२०२


विवेकानंदने, संन्यासका गुणगान करते हुए कहा है कि सारे भारतीय इतिहासमें केवल एक ही जनक हुए हैं । पर खात ऐसी नहीं है, क्योंकि जनक किसी एक व्यक्तिका नाम नहीं है, बल्कि आत्म-न्यास राजाओंके वंशका नाम है तथा एक आदर्शका विजय-निनाद है ।

 

१०४ -- लाखों गैरिकधारी संन्यासियोंमें कितने सिद्ध हैं? कुछ थोड़े-से सिद्ध तथा सिद्धिके समीप पहुंचनेवाले अनेक लोग ही किसी आदर्शको न्यायसंगत सिद्ध करते है ।

 

१०५ - सैकड़ों ही संन्यासी सिद्ध हुए हैं, क्योंकि संन्यासका बहुत अधिक प्रचार किया गया है और असंख्य लोगोंने इसका अभ्यास किया है; ख़स, यही बात जीवन्मुक्तिके आदर्शपर भी लागू कर दी जाय तो हमें सैकड़ों जनक प्राप्त हो जायेंगे ।

 

१०६ - संन्यासकी एक निर्दिष्ट वेश-भूषा और बाह्य चिह्न होते हैं; अतएव लोग समझते है कि वे उसे आसानीसे पहचान सकते हैं, परंतु किसी जनककी आंतरिक सुप्तावस्था अपना डंका नहीं पीटती और वह सांसारिक पहनावा ही पहनती है; उसके सामने तो नारद भी विभागों हो गये थे ।

 

१०७ -- मुक्त होकर संसारमें रहना और फिर भी साधारण मनुष्योंका जीवन यापन करना बहुत कठिन है; परंतु यह कठिन है इसी कारण इसके लिये प्रयास करना और इसे सिद्ध करना चाहिये ।

 

 फितना स्पष्ट प्रतीत होता है यह!

 

     स्पष्ट तो यह है, पर कठिन भी है ।

 

समस्त आसक्तिसे दूर रहनेका अर्थ आसक्तिके अवसरोंसे मांग जाना नहीं है, क्या यह ठीक नहीं? वे सब लोग जो अपने. आपको तपस्वी कहते है केवल स्वयं ही आसक्तिसे नहीं भागते वरन दूसरोंसे भी कहते है कि वे संसारमें जीवन-यापनका प्रयत्न न करें ।

 

२०३


   मुझे यह बड़ा स्पष्ट प्रतीत होता है । जब तुम्है एक वस्तुको न अनु- भव करनेके लिये उससे मांग जानेकी आवश्यकता होती है तो इसका यह अर्थ है कि तुम उसी स्तरपर हो, उससे ऊपर नहीं ।

 

  वह सब जो दबाता है, पंगु एवं क्षीण बना देता है तुम्है स्वतंत्र नहीं 'बनाता । जीवनकी समग्रतामें, उसके सब वेदनोंभें व्यक्तिको स्वतंत्रताकी अनुभूति होनी चाहिये ।

 

  वस्तुत: मैंने इस विषयपर शुद्ध रूपसे भौतिक स्तरपर विशद अध्ययन किया है... । सब प्रकारकी संभव भ्रान्तियोंसे बचनेके लिये ब्यक्तिकी प्रवृत्ति म्गन्तियोंके सभी अवसरोंको दबानेकी होती है । उदाहरणार्थ, यदि तुम व्यर्थके शब्द नहीं कहना चाहते, तो तुम बोलना बन्द कर देते हो; जो तस्मों मौनव्रत लेते हैं वे सोचते है कि कक्ष अपनी वाणीपर नियंत्रण रख रहे हैं, यह सच नहीं है । यह केवल बोलनेके अवसरको दबाना ओर परिणामस्वरूप बेकार बातोंको रोकना हुआ । भोजनके साथ भी यही बात है : वही भोजन खाना जो आवश्यक हों । हम आजकल जिस संक्रमणकालकी अवस्थामें है उसीमें, पूर्णतया पशुजीवनमें नहीं बने रहना चाहते, उस जीवनमें जो स्थूल आदान-प्रदान और भोजनपर ही आधारित है । किन्तु यह मानना मूर्खतापूर्ण होगा कि व्यक्ति एक ऐसी अवस्थापर पहुंच गया है जहां शरीर भोजनके बिना टिक सकता है (फिर मी, इसमें एक बड़ा अन्तर आ गया है । क्योंकि वस्तुओंके पोषण-तत्वका विवेचन करने- का प्रयत्न किया जा रहा है जिससे कि उसके परिमाणको घटाया जा सके), किन्तु स्वाभाविक प्रवृत्ति लोगोंकी उपवासकी होती है -- यह एक भ्रान्ति है।

 

   कहीं हम अपने कार्यमें कोई भूल न कर बैठे, इस भयसे कार्य करना छोड़ देते हैं । बोलनेमें कोई भूल न हो, इस डरसे बोलना बन्द कर देते हैं; हम खानेके आनन्दके लिये न खाटें, इस डरसे खाना बन्द कर देते हैं -- यह स्वतंत्रता नहीं, यह केवल बाह्य अभिव्यक्तिको कम-से-कम करना है, और इस सबका प्राकृतिक अन्त निर्वाण होता है । किन्तु यदि भगवान् केवल निर्वाण ही चाहते तो यहां केवल निर्वाण ही होता । यह स्पष्ट है कि वे समस्त विरोधोंके सह-अस्तित्वका विचार रखते है और उनके लिये यह सब एक समग्रताका आरंभ है । तब प्रत्यक्षत: यदि व्यक्ति यह समझे कि वह इसीके लिये बना है तो वह उनकी केवल एक अभिव्यक्तिको चून सकेगा, जिसका अर्थ है अभिव्यक्तिका अभाव । किन्तु यह भी एक सीमा है । और यही उनकी प्राप्तिका एकमात्र मार्ग नहीं है, बल्कि जस भी नहीं है ।

 

२०४


   यह एक बड़ी प्रचलित प्रवृत्ति है और संभवतया एक बड़े प्राचीन सुझाव - से या श गरी बीस अथवा अयोग्यता से उत्पन्न हुई है - अर्थात्, अपनी आवश्यकताओंके कम, कम, बहुत ही कम करते जाना, अपनी गतिविधियोंकी कम करना, अपने शब्दोके कम करना, भोजन कम करना, सक्रिय जीवन कम करना, और तब सब कु छ बड़ा संकुचित हो जाता है । कोई भी गलती न करने की अभीप्सामें, व्यक्ति उसे करने के सभी अवसरों - को दब डा लता है, यह कोई इ लाज नहीं है ।

 

  किन्तु दूसरा रास्त बहुत, बहुत अधिक कठिन है ।

 

 (मौन)

 

 न, समाधान केवल भागवत प्रेरणाके अनुसार कार्य करनेमें है, भागवत प्रेरणाके अनुसार ही औलना, भागवत प्रेरणाके अनुसार ही खाना । यही कार्य कठिन है क्योंकि स्वभावत: भागवत प्रेरणाके साथ तत्काल व्यक्तिकी अपनी प्रेरणा जुड़ जाती है ।

 

  मेरे विचारमें त्यागके सभी प्रचारकोंका विचार यह था कि जो कुछ बाहरसे या नीचेसे आये उसे दबा दिया जाय ताकि यदि ऊपरकी कोई वस्तु अभिव्यक्त हो तो व्यक्ति उसे ग्रहण करनेकी अवस्थामें रह सकें । किंतु सामूहिक दृष्टिकोणसे यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो हज़ारों वर्ष लें सकती है । पर व्यक्तिगत दृष्टिकोणसे यह संभव है; किंतु तब व्यक्तिको सच्ची प्रेरणा ग्रहण करनेकी अभीप्साको अविकल रूपमें बनाये रखना चाहिये -- पूर्ण ''मुक्ति''की अभीप्साको नहीं, बल्कि भगवान्के साथ ''सक्रिय'' तादात्म्यकी अभीप्साको, दूसरे शब्दोंमें, जो वे चाहे वही चाहना, वे जो चाहें वही करना, केवल उन्हींकी द्वारा, नन्हींमें अपना अस्तित्व रखना । तब व्यक्ति त्यागकी विधिका प्रयोग कर सकता है, किंतु यह उस ब्यक्तिकी विधि है जो दूसरोंसे अपना संबंधविच्छेद करना चाहता है । क्या इस दशामें कोई समग्रता रह सकती है?... मुझे यह संभव प्रतीत नहीं होता ।

 

  ठयक्ति जो करना चाहता है उसकी सार्वजनिक रूपमें घोषणा करनेसे उसे काफी सहायता मिलती है । यह बात कई विरोधोंको, भ्रमों और संघर्षोको उत्पन्न कर सकती है, किंतु इसकी क्षति बहुत हदतक, यदि ऐसा कहा जा सकता है, सार्वजनिक प्रत्याशासे पूर्ण हो जाती है क्योंकि दूसरे लोग तुमसे कुछ आशा रखते हैं । निश्चित रूपमें यही उन वेशोंका कारण है, अर्थात्, लोगोंको सूचना देना । स्पष्ट ही यह बात तुम्हें कुछ

 

२०५


लोगोंकी घृणा एवं दुर्भावनाका पात्र बना सकती है किंतु ऐसे लोग भी है जो यह अनुभव करते हैं कि इसके पास नहीं जाना चाहिये, इसकी ओर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिये, क्योंकि इससे उनका कुछ मतलब नहीं है ।

 

  पता नहीं क्यों यह मुझे सदा नीम-हकीमी ही प्रतीत हुई है -- भीम-हकीमी नहीं मी हो सकती और कुछ लोगोंमें ऐसा नहीं भी होता, किंतु फिर भी लोगोंसे यह कहनेका एक तरीका है : ''जस देखो, मैं क्या हू ।'' और मैं कहती हू कि इससे सहायता. मिल सकती है । पर इस- मे असुविधाएं भी हैं ।

 

  जो कुछ भी हों यह अभी है बचपन ही ।

 

  ये सब साधन हैं, अवस्थाएं और सोपान हैं, किंतु... सच्ची स्व- मंत्रणाकार अर्थ है समस्त वस्तुओंमें मुक्ति -- सब साधनोंसे भी मुक्ति ।

 

 (मौन)

 

   यह एक प्रतिबंध है, एक संकीर्णता है, जब कि 'सत्य वस्तु' है उन्मुक्तता, विस्तार और सबके साथ तादात्म्य ।

 

  जब तुम अपने-आपको घटाते हो, घटाते हो, घटाते ही चले जाते हों तो तुम्हें, यह अनुभव नहीं होता कि तुम अपने-आपको खो रहे हो, बल्कि तुम्हें, यह भय ही नहीं रहता कि तुम अपने-आपको खो मी सकते हों - तुम एक ठोस और कड़ी वस्तु बन जाते हो । किंतु यदि तुम विस्तारणका ढंग चुनी - अधिक-से-अधिक विस्तारका - तो तुम्है अपने- आपको खो देनेका भय नहीं होना चाहिये ।

 

  पर ऐसा करना कही अधिक कठिन है ।

 

  हां, यह ठीक है, पर इस बाह्य जगत् में जो प्रतिक्षण तुम्हें निगलता रहता है यह सब कैसे संभव है? उदाहरणार्थ, मैं उन लोगोंके विषयमें सोच रहा हू जो पश्चिममें रहते हैं; काम, लोगोंसे मिलना-जुलना, टेलीफोन आदि उन्हें हरदम खाने डालते है, उन्हें एक मिनटका मी समय नहीं मिलता कि वे अपने ऊपर अनवरत गिरती हुई धूलिको साफ कर सकें । ऐसी अवस्थाओंमें यह सब कैसे संभव है?

 

 

इसे तो तुम्हें उसी रूपमें स्वीकार करना होगा जैसा कि वह है और फिर वहीं छोड़ देना होगा ।

 

२०६


  यह एक दूसरा छोर है... निश्चय ही मठ, एकांत स्थान, जंगलों या गुफाओंमें पलायन, आधुनिक समयके अति व्यस्त जीवनके प्रतिकारके लिये आवश्यक हैं पर एक-दो शताब्दी पहलेकी अपेक्षा अब लोग ऐसा कम करते है । किंतु मुझे यह सब समझका अभाव प्रतीत होता है -- और यह बहुत समयतक ठहरा भी नहीं ।

 

  स्पष्ट ही अत्यधिक कर्म अत्यधिक निश्चलताकी ओर ले जाता है ।

 

   किंतु सामान्य अवस्थाओंमें व्यक्तिको जो कुछ बनना चाहिये वह बननेका ढंग कैसे जाना जाय?

 

 व्यक्ति एक या दूसरी अतिमें न गिरे इसका क्या उपाय है?

 

     हां, वह सामान्य जीवन व्यतीत करे और फिर मी मुक्त रहे ।

 

मेरे बच्चे, इसीलिये तो. आश्रम बनाया गया था । इसके पीछे यही विचार था । कारण, जब मैं फांसमें थी मैं सदा अपने -आपसे यही प्रश्न पूछा करती थी : ' 'अपने-आपको पानेके लिये व्यक्तिको समय कैसे मिल सकता है? अपने-आपको मुक्त करनेके उपायको समझनेके लिये व्यक्ति- को समय कैसे मिले?'' तब मैंने सोचा : एक ऐसा स्थान होना चाहिये जहां सब भौतिक आवश्यकताएं पर्याप्त मात्रामें पूरी हो जायं, ताकि यदि कोई सम्मुख अपने-आपको मुक्त करना चाहे तो मुक्त हो सकें । और इसी विचारकों आधार मानकर - किसी और विचारकों नहीं - आश्रमकी स्थापना हुई थी -- ऐसा स्थान, जहां लोगोंको जीवनकी सभी आवश्यकताएं उपलब्ध हों ताकि उनके पास ' सच्ची वस्तुके ' विषयमें सोचने के लिये समय रहे ।

 

  (माताजी मुस्कराती हैं) मानव प्रकृति ही ऐसी है कि अभीप्साका स्थान अब आलस्यने लें लिया है ( सबके लिये यद्यपि यह सत्य नहीं है, पर कुल मिलाकर सामान्य स्थिर त ऐसी ही है), और स्वतंत्रताका स्थान उच्छृंखलताने या स्वेच्छाचारिताने लें लिया है । यह इस बातको प्रमाणित करनेके बराबर है कि मनु ष्यजातिको अधिक सचाईके साथ दासतासे कर्मठतामें आनेके लिये तैयार होनेसे पहले क्रूरतापूर्ण व्यवहारमें गुजरना पड़ेगा ।

 

  पहली क्रिया बिलकुल इस प्रकारकी है : '' आखिर एक ऐसा स्थान

 

२०७


ढूंढना चाहिये जहां व्यक्ति एकाग्र हो सकें, अपने-आपको पा सकें, भौतिक वस्तुओंमें व्यस्त हुए बिना सच्चे रूपमें जी सकें''; यह पहली अभीप्सा है (इसी आधारपर - कम-से-कम शुरूमें -- साधकोंका चुनाव हुआ था), किन्तु यह बात बहुत दिन चलती नहीं! वस्तुस्थिति पीछे सरल हो जाती है और व्यक्ति बहक जाता है । क्योंकि यहां कोई नैतिक बन्धन नहीं है, इसलिये मूर्खतापूर्ण कार्य किये जाते हैं ।

 

  तब मी यह नहीं कहा जा सकता कि साधकोंके चुनावमें गलती हुई है -- यद्यपि ऐसा सोचनेके लिये व्यक्ति प्रेरित होता है पर यह सत्य नहीं है । कारण, चुनाव एक आन्तरिक चिह्नके आधारपर हुआ है जो कि बिलकुल यथार्थ और स्पष्ट है... शायद कठिनाई यहां है कि आन्तरिक वृत्तिको बिना मिलावटके बनाये रखना कठिन हो जाता है । ठीक यही. श्रीअरविन्द चाहते थे, इसीके लिये उन्होंने प्रयत्न भी किया था; वे कहते थे : ''यदि मुझे सौ व्यक्ति मी मिल जायं तो वे मेरे लिये काफी हैं । '' किन्तु बहुत दिनतक सौ नहीं हुए, और मुझे यह कह देना चाहिये कि सौ होते-न-होते उनमें मिलावट आ गयी थी ।

 

  कई आये, सच्ची वस्तुसे प्रेरित होकर ही, किन्तु... आदमी अपने-आपको पीछे ढीला छोड़ देता है । दूसरे शब्दोंमें, सच्ची अवस्थामें दृढ़तापूर्वक टिके रहना उसके लिये असंभव हो जाता है ।

 

    हां, मैंने यह देखा कि जगत् की बाह्य अवस्थाएं जब अत्यधिक कठिन हो जाती हैं, तो अभीप्सा मी काफी अधिक तीव्र हो जाती है ।

 

 हां, यह तो है ही ।

 

   यह बहुत अधिक तीव्र हों जाती है, यह प्रायः जीवन-मरण- का प्रश्न बन जाता है ।

 

 हां, बात यही है । दूसरे शब्दोंमें मनुष्य इतना स्थूल है कि उसे अतियों- की आवश्यकता पड़ती है । श्रीअरविन्दने यही कहा था : प्रेमको सच्चा होनेके लिये घृणाकी आवश्यकता पड़ी; सच्चा प्रेम घृणाके दबावके नीचे ही उत्पन्न हो सका । ' बात यही है । व्यक्तिको वस्तुउसी रूपमें

 

 'देखें मूत्र ८८ सें ९२ तक ।

 

२०८


स्वीकार करनी चाहिये जैसी कि वे है ओर फिर आगे बढ़नेका प्रयत्न करना चाहिये । बस, इतना ही !

 

  इसीलिये शायद इतनी सारी कठिनाइयां है -- कठिनाइयां यहां इकट्ठी हो जाती हैं चरित्रकी कठिनाइयां, स्वास्थ्य-सम्बन्धी कठिनाइयां, और परिरिथतियोंकी कठिनाइयां -- और यह इसलिये कि चेतना कठिनाइयोंके दबाव- से जाग्रत् होती है । यदि सब कुछ सरल और शान्तिमय हों जाय तो व्यक्ति सों जाता है ।

 

  इसी प्रकार श्रीअरविन्दने युद्धकी आवश्यकताकी व्याख्या की थी । शान्तिकालमें तुम फूल जाते हो ।

 

  कैसी दयनीय अवस्था है यह!

 

  मै यह नहीं कह सकती कि यह सब मुझे अच्छा लगता है, किन्तु है यह ऐसा ही ।

 

 मूलतः, यह बात वही है जो श्रीअरविन्दने 'भगवत् मुहूर्त'में कही है : यदि तुममें शक्ति और ज्ञान है और तुम उस अवसरसे लाभ नहो उठाते तो तुम्है धिक्कार है ।

 

 यह बदला बिलकुल.. नहीं है, यह दण्ड बिलकुल नहीं है, किन्तु तुम अपने ऊपर एक आवश्यकताको, उग्रताके विरुद्ध प्रतिक्रिया करनेके लिये एक उग्रतापूर्ण आवश्यकतल्हो.।, खींच लेते हो ।

 

 ( मौन)

 

  यह अनुभूति मुझे अधिकाधिक हों रही है : इस सच्चे भागवत प्रेमके साथ हमारा संपर्क अपने-आपको अभिव्यक्त कर सके, दूसरे शब्दोंमें, वह स्वतंत्रतापूर्वक प्रकाशमें आ सकें इसके लिये प्राणियों और वस्तुओं, दोनोंमें एक असाधारण शक्तिकी आवश्यकता है, पर वह अभीतक पैदा नहीं हुई है । अन्यथा सब कुछ तितर-बितर हो जाता है ।

 

कई बहुत निश्चयात्मक बारीकियां हैं, किन्तु स्वभावतया क्योंकि वे ''बारीकियां'' है या बहुत व्यक्तिगत बातें है उनकी चर्चा नहीं की जा सकती । किन्तु बारंबारके अनुभवोंके प्रमाण अथवा प्रमाणोंके आधारपर मुझे यह कहना पंडू रहा है : जब विशुद्ध प्रेमकी यह शक्ति -- अद्भुत शक्ति है यह -- जो कि समस्त अभिव्यक्तियोंसे आगे निकल जाती है, प्रचुर मात्रामें और मुक्त रूपसे अभिव्यक्त होनी शुरू होती है तो ऐसा लगता है मानों बहुत-सी वस्तुएं एकदम ही भरभराकर नीचे गिर पड़ी है । वे अब वहां नहीं टिक पाती । वे वहां नहीं टिक पाती, वे घुल

 

२०९


गयी है । तब.. तब सब कुछ रुक जाता है । और यह रुकना जिसे तुम अपमानजनक मान सकते हों वास्तवमें उससे विपरीत है, वस्तुत: यह असीम भागवत कृपा है ।

 

  केवल एक बोध, जिस स्पन्दनमें व्यक्ति सामान्यतया और प्रायः सदा ही निवास करता है उसके और दूसरे स्पन्दनके बीचके अन्तरका एक ठोस और प्रत्यक्ष बोध, इस दुर्बलताकी, जिसे मै अरुचिकर कहती हू - और जो सचमुच ही तुममें मतली पैदा करती है -- स्वीकृति सबका अन्त करने- ख लिये काफी है ।

 

  अभी कल ही और आज प्रातः मी बड़े लम्बे समयतक यह शक्ति अभिव्यक्त होती रही, तब अचानक ही, एक वस्तु सामने आयी, वह मानों प्रज्ञा थी, एक अपरिमित प्रज्ञा जिसने सब कुछको एक पूर्ण शान्तिमें बदल दिया; जो कुछ होना चाहिये वह होगा । उसके होनेमें उतना समय लगेगा जितना कि लगना चाहिये और तब सब कुछ ठीक हो जाता द्रुत । इस प्रकार तत्काल ही सब कुछ ठीक हो जाता है, किन्तु दीप्ति बूझ जाती ह ।

 

  केवल धैर्य रखनेकी आवश्यकता है ।

 

  श्रीअरविन्दने यह भी लिखा है : तंत्री रूपसे अभीप्सा करो, किन्तु अधैर्य- के बिना... तीव्रता और अवैर्यके बीचका अन्तर बड़ा सूक्ष्म है... यह अन्तर केवल स्पन्दनका है । यह सूक्ष्म है, किन्तु सारा अन्तर इसीमें

 

  तीव्रताके साथ, किन्तु अधैर्यके बिना! ठीक यही । ऐसी अवस्थामें ही व्यक्तिको होना चाहिये ।

 

  और फिर बहुत लम्बे समयतक, बहुत लम्बे समयतक आन्तरिक परिणामोंसे, अर्थात्, निजी और व्यक्तिगत प्रतिक्रियाओंके तथा शेष जगत् के साथ आन्तरिक सम्बन्धोंकें परिणामोंसे सन्तुष्ट रहना चाहिये । यह आशा या इच्छा नहीं करनी चाहिये कि वस्तुएं शीक्ष चरितार्थ हों । कारण, जब व्यक्ति जल्दबाजी करता है तो कार्यमें देर लगा देता है ।

 

  यदि ऐसा है, तो ऐसा ही है ।

 

  हम जीते हैं, मेरा मतलब मनुष्योंमें है, उद्विग्नतापूर्वक जीते हैं, यह जीवनकी लघुताके सम्बन्धमें एक प्रकारकी अर्ध-चेतन अनुभूति है । (मनुष्य इसके करेमें सोचते नहीं, पर इसे एक अर्ध-चेतन ढंगसे अनुभव अवश्य करते हैं); और तब वे सदा सब काम जल्दी, जल्दी, और नगदी करना चाहते है, एक वस्तुसे दूसरी वस्तुकी ओर भागते है, एक कायका शीक्ष समाप्त करके दूसरेको हाथमें ले लेना चाहते है, जब कि करना यह

 

२१०


चाहिये कि वे प्रत्येक वस्तुको अपनी सनातनतामें निवास करने दें । तुम सदा ही आगे, आगे, आगे जाना चाहते हों... और तुम कार्यको बिगाड़ देते हो ।

 

  इसीलिये कइयोंने यह उपदेश दिया है : महत्वपूर्ण क्षण केवल वर्तमान है -- व्यावहारिक रूपमें यह सच नहीं है, किन्तु मनोवैज्ञानिक रूपसे इसे सत्य होना चाहिये । दूसरे शब्दोंमें, व्यक्ति प्रत्येक क्षण अगली वस्तु- को पहलेसे ही देखें या चाहे या प्रतीक्षा किये बिना या उसके लिये तैयारी किये बिना अपनी अधिकतम शक्यतामें प्रतिक्षण जियें । कारण, तुम हर समय जल्दी, जल्दी, जल्दीमें होते हों... और तुम कुछ भी अच्छी तरह नहीं कर सकते । तुम एक आन्तरिक तनावकी अवस्थामें होते हो जो कि मिथ्या, बिलकुल मिथ्या होती है ।

 

जिन लोगोंने बुद्धिमान् बननेके लिये प्रयत्न किया है उन सबने सदा यह कहा है : (चीनियोंने इसका प्रचार किया है, और भारतीयोंने इसका प्रचार किया है) सनातनताकी भावनामें जीओ । यूरोपमें भी यह किसीने कहा था कि व्यक्तिको आकाश और नक्षत्रोंके बारेमें चिन्तन करना चाहिये ओर इस प्रकार उनकी असीमताके साथ एकाकार होना चाहिये, उस सबके विषयमें चिन्तन करना चाहिये जो तुम्है, विशाल बनाता हो, तुम्है शान्त प्रदान करता हो ।

 

  ये हैं साधन ही, पर है अनिवार्य ।

 

  और यही मैंने शरीरके कोषाणुओंमें भी देखा है । यह कहा जा सकता है कि वे भी उस कार्यमें जो उन्है करना है सदा जल्दी मचाते हैं, वे सोचते है शायद उसे करनेके लिये पीछे उनके पास समय न रहे । अतएव वे कोई भी कार्य ठीक ढंगसे नहीं करते । कुछ ऐसे अभद्र व्यक्ति होते हैं जो सब कुछ उलट-पलट देते हैं, उनकी क्रियाएं बड़ी रखी और अभद्र होती हैं । ऐसे लोगोंमें ही इस प्रकारकी जल्दबाजी अधिक होती है । ऐसे लोगोंमें जल्दबाजी बहुत होती है : जल्दी करो, जल्दी करो, जल्दी करो... । अभी कब ही, एक व्यक्ति दोनोंके दर्दकी शिकायत कर रहा था; और कह रहा था : ''ओह! इससे मेरा कितना समय नष्ट हो रहा है, मै कितने धीरे-धीरे कार्य करता. हू ।'' मैंने कहा : (माताजी हंसती) नए).. ''तो फिर! '' पर उसे सन्तोष नहीं हुआ । बीमार होनेपर शिकायत करनेका अर्थ है कि तुम अन्दरसे बड़े पोलें हो, बस इतना ही, किन्तु यह कहना : ''मै समय खो रहा हू, मै कार्य धीरे-धीरे करता हू,'' उस जल्दबाजीका एक प्रत्यक्ष चित्र है जिसमें लोग रहते है -- तुम जीवनमेंसे एक धूमकेतुके समान गुजरते हो... कहां जानेके लिये?... अन्तमें टूटने और नष्ट होनेके लिये ही न!

 

२११


इस सबका क्या लाभ?

 

 (मौन)

 

 मूलतः इन सूत्रोंसे यह शिक्षा मिलती है कि व्यक्तिके लिये दिखायी देनेकी अपेक्षा होना अधिक आवश्यक है । उसे जीना चाहिये न कि दिखावा करना, दूसरोंको यह दिखानेकी अपेक्षा कि वह कुछ चरितार्थ कर रहा है, यह कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है कि वह वस्तुको उसके समग्र औ र पूर्ण रूपमें सच्चाईके साथ चरितार्थ करे ।

 

  यहां मी वही बात है, व्यक्ति जो कुछ कर रहा है उसे बतानेकी आवश्यकता अनुभव करता है, इस प्रकार वह अपने आधे कर्मको नष्ट कर डा लता है ।

 

  पर साथ ही यह तुम्है यह देखने और जा ननेमें सहायता प्रदान करता है कि तुम ठीक-ठीक किस बिन्दुपर हों !

 

यह बुद्धिकी बुद्धिमत्ता थी जब उन्होंने कह। था : ' 'मध्यम मार्ग,'' न बहुत अधिक यह, न बहुत अधिक वह । न इसमें गिरा न उसमें गिरो -- प्रत्येक वस्तुका एक छोटा-सा भाग और एक संतुलित मार्ग... किन्तु ' 'विशुद्ध' ' । विशुद्धता और सत्यनिष्ठा एक ही वस्तु है ।

 

१६ - ९- ६४

 

   १०८ -- जब नारदने जनकके कार्योका निरीक्षण किया तो उन देवर्षिने भी उन्हें एक भोगपरायण, संसारासक्त और लंपट प्राणी समझा । जबतक तू अंतरात्माको नहीं देख पाता तबतक तू यह कैसे कह सकता है कि यह मनुष्य मुक्त है या बद्ध?

 

 यह सब प्रकारके प्रश्नोंको खड़ा कर देता है । उदाहरणार्थ, यह कैसे दुआ कि नारद आत्माको न देख पाये?

 

 मेरे लिये यह बड़ी सरल-सी बात है । नारद अर्ध-देवता थे, क्या यह ठीक नहीं है? वह अधिमानस जगत् के थे और उनके लिये काने-आपको मूर्त्त रूपमें प्रकट करना संभव था । इन सत्ताओंमें अन्तरात्मा नहीं होती । देवताओंके अन्दर वह दिव्य चिनगारी नहीं होती जो अन्तरात्माका केन्द्र- बिन्दु है, चूंकि केवल पृथ्वीपर ही (मै भौतिक जगत् की बात नहीं कह

 

२१२


रही), हा, तो केवल पृथ्वीपर ही प्रेमका अवरोहण हुआ जो जड-तत्वको केन्द्रमें स्थित भागवत उपस्थितिका मूलस्रोत था । और स्वभावतया, चूंकि उनमें आन्तरात्मिक सत्ता नहीं है, वे आन्तरात्मिक सत्ताको पहचानते भी नहीं । इसमेंसे कुछ ऐसी सताएं भी है जिन्हेंने भौतिक शरीर इस- लिये धारण करना चाहा कि वे आन्तरात्मिक सत्ताका अनुभव प्राप्त कर सकें -- पर ऐसी सत्ताएं बहुत नहीं है ।

 

   सामान्यतया, उन्होंने यह विभूतिके रूपमें, आशिक रूपमें ही किया है, पूरे-का-पूरा अवतार लेकर नहीं । उदाहरणार्थ, कहा जाता है कि विवेकानंदने शिवकी एक विभूति थे । किन्तु स्वयं शिवने स्पष्ट रूपमें यह इच्छा व्यक्त की थी कि वे अतिमानसिक जगत् के साथ ही पृथ्वीपर जन्म लेंगे । जब पृथ्वी अतिमानसिक जीवनके लिये तैयार हों जायगी, वे आयेंगे । प्रायः ये सभी सत्ताएं तभी प्रकट होगी -- वे उस क्षणकी प्रतीक्षा कर रही है । वे आजके संघर्ष और अन्धकारको नहीं चाहतीं ।

 

  निश्चय ही, नारद भी उनमेंसे एक थे जो यहां आये... । वस्तुत: वे विनोदभावसे आये थे । वे परिस्थितियोंके साथ खेलना बहुत पसन्द करते थे । किन्तु उन्है आन्तरात्मिक सत्ताका ज्ञान नहीं था और इसी कारण जहां आन्तरात्मिक सत्ता थी, वे उसे पहचान न पाये ।

 

  किन्तु इन सब वस्तुओंकी व्याख्या नहीं की जा सकती : ये व्यक्तिगत धारणाएं और अनुभव है, यह पर्याप्त बाह्य ढंगका ज्ञान नहीं है जो सिखाया जा सकें । उस विषयके बारेमें कुछ नहीं कहा जा सकता जो व्यक्तिगत अनुभवपर निर्भर हा और जिसका महत्व केवल उसीके लिये हों जिसे उसका अनुभव हो चुका हो ।

 

  जो श्रीअरविन्दने कहा है वह भारतीय परंपराके अध्ययनपर आधारित है और उन्होंने वही कहा है जो उनके अनुभवके साथ मेल खाता

 

 ''आत्मा''को देखनेके लिये, क्या व्यक्तिको पहले अपनी आत्माको जानना चाहिये?

 

हां, आत्माके साथ, दूसरे शब्दोंमें, आन्तरात्मिक सत्ताके साथ सम्बन्ध बनाने- के लिये, पहले व्यक्तिके अपने अन्दर अन्तरात्मा होनी चाहिये, और केवल मनुष्योंमें ही -- विकासक्रमके मनुष्योंको पास, जो पार्थिव सृष्टिकी रचना हैं - आन्तरात्मिक सत्ता है ।

 

  इन सभी देवताओंमें आन्तरात्मिक सत्ता नहीं है, केवल नीचे उतरकर,

 

२१३


मनुष्यकी आन्तरात्मिक सत्ताके साथ संयुक्त होनेसे वे इसे पा सकते हू, किन्तु स्वयं उनमें यह नहीं है ।

 

  १२-१- ६५

 

१०९ -- मनुष्य जिस स्तरतक पहुंच चुका है उससे ऊपरकी सभी चीजें उसे कठिन प्रतीत होती हैं और उसके अपने सहायता- शून्य प्रयासके लिये कठिन हैं भी; परंतु मनुष्यके अंदर विद्यमान भगवान् जब ठेका ले लेते है तब ३ सभी चीजें तुरत सरल और आसान बन जाती है ।

 

बिलकुल अभी ठीक ।

 

   अभी दो या तीन दिन हुए मैंने एक प्रश्नके उत्तरमें लिखा है, और मैंने कुछ ऐसा कहा ह : श्रीअरविन्द प्रभु ह, किन्तु प्रभुका एक मांग, समग्र प्रभु नहीं । कारण, प्रभु सब कुछ हैं -- वह सब जो अभिव्यक्त हों चुका है और वह सब मी जो अभिव्यक्त नहीं हुआ । मैंने आगे कहा : ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो प्रभु न हों, कोई मी नहीं, हां, ऐसा कुछ नहीं है जो प्रभु न हो, किन्तु ऐसे लोग बिरले हैं, जो प्रभुके प्रति सचेतन हों । और सृष्टिकी यह निश्चेतना ही असत्य बनाती है ।

 

  यह एकदम कितना स्पष्ट था : वह रहा, वह रहा, लेकिन आखिर यह असत्य आया कैसे? परन्तु इसी वस्तुमें; सृष्टिकी निश्चेतना'में ही सृष्टिका मिथ्यात्व निहित है । ज्यों ही सृष्टि भगवान्की सत्ताके प्रति सचेतन हों जायगी, मिथ्यात्व समाप्त हा जायगा ।

 

  बात ऐसी ही है, यही है न; सब कुछ कठिन है, सब कुछ श्रमसाध्य है, सब कुछ कष्टपूर्ण, सब कुछ दुःखमय है क्योंकि सब कुछ भगवान्की चेतनाके बाहर किया गया है । किन्तु जब वे अपने राज्यको पुन: अधिकृत कर लेंगे (बल्कि जब लोग उन्हें, अपने राज्यको फिरसे अधिकृत करने देंगे), और जब वस्तुएं उनकी चेतनाके अन्दर, उनकी चेतनाके साथ संपन्न की जायंगी तो सब कुछ केवल सरल ही नहीं वरन एक अवर्णनीय आनन्द- मे आश्चर्यजनक और वैभवपूर्ण भी हो जायगा ।

 

  यह एक प्रमाणके रूपमें आया है । कहा जाता है : ''यह क्या है, मिथ्यात्व किसे कहते हैं? सृष्टि मिथ्या क्यों है? '' यह इस अर्थमें भ्रान्ति नहीं है कि उसका अस्तित्व नहीं है -- उसका. पूरा-पूरा अस्तित्व है, किन्तु... किन्तु वह जो वास्तवमें है उसके प्रति सचेतन नहीं है । केवल

 

२१४


यही नहीं कि वह अपने मूलस्रोतके प्रति सचेतन नहीं है बल्कि यह अपने सारतत्व, अपने सत्यके प्रति भी चेतन नहीं है । वह अपने सत्यके प्रति सचेतन नहीं है । इसी कारण वह असत्यमें निवास करती है ।

 

   यह सूत्र बहुत सुन्दर है । अब कुछ और कहनेको बाकी नहीं रहा, है न? यह स्वयं ही सब कुछ कह देता है ।

 

३-३-६५

 

  ११० -- सूर्यकी बनावट या मंगलकी रूप-रेखाको देखना निस्संदेह एक बहुत बड़ा कार्य है; परंतु जब तेरा पास वह यंत्र होगा जो मनुष्यकी आत्माको वैसे ही दिखा देगा जैसे तू कोई चित्र देखता है, तब तू भौतिक विज्ञानके आश्चर्यजनक कार्यको बच्चोंके खिलौने समझकर उनपर हंसेगा।

 

  यह उसी बातका विस्तार है जो हम उन लोगोंके विषयमें कह रहे थे जो ''देखना'' चाहते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि रामकृष्णने विवेकानंदने कहा था : ''तुम भगवानको उसी भांति देख सकते हो जैसे तुम मुझे देखते हो, और उसी प्रकार उनकी आवाज सुन सकते हो जैसे मेरी आवाज सुनते हों । '' कुछ ऐसे लोग है जो इसे घोषणाके रूपमें लेते हैं कि भगवान् सशरीर पृथ्वीपर मौजूद थे । मैंने कहा : (मुस्कराते तुम) '', ऐसा नहीं है । उनका मतलब यह था कि यदि तुम सच्ची चेतनामें जाओ तो उनकी आवाज सुन सकते हो (मै कहती हू कि भौतिक रूपमें सुननेकी अपेक्षा ज्यादा अच्छी तरह सुन सकते हो और भौतिक रूपमें देखनेकी अपेक्षा इसे कहीं अधिक स्पष्ट रूपमें देख सकते हों) । '' ''ओह! किन्तु... '' ज्यों ही तुम अपनी आंखें खोल लेते हों, यह सब अवास्तविक हो जाता

 

   क्या भौतिक विज्ञानके चमत्कारोंपर आपको हंसी आती है?

 

   ''चमत्कार''! यह सब ठीक है, यह उन लोंगोंका काम है । किन्तु उनका अपरिमित आश्वासन मुझे हंसनेको प्रेरित अवश्य करता है । वे सोचते हैं कि वे जानते हैं । वे कल्पना करते है कि उन्है कुंजी मिल गयी है, इसी बातपर हंसी आती है । उनका विचार है कि जो कुछ उन्होंने सीखा है उसके द्वारा ३ प्रकृतिके स्वामी बन गये है -- यह बचपना है । जब-

 

२१५


तक कि वे सर्जन कारी शक्ति और सर्जनकारी संकल्पके साथ संपर्कमें नहीं आते, कोई-न-कोई वस्तु सदा उनसे बच निकलेगी ।

 

  यह एक ऐसा अनुभव है जिसे व्यक्ति सरलतासे कर सकता है । एक वैज्ञानिक समस्त दृश्य तथ्योंकी व्याख्या कर सकता है, वह भौतिक शक्तियों- का प्रयोग मी कर सकता है, उनसे मनचाहा कार्य करवा सकता है । और ३ स्थूल' भौतिक दृष्टिकोणसे अत्यधिक आश्चर्यजनक परि।गामोंपर पहुंच भी गायें हैं, किन्तु तुम उनसे केवल यह प्रश्न पूछो, यह सरल-सा प्रश्न पूछो : ''मृत्यु क्या है?' वस्तुत: वे इस विषयमें कुछ भी नहीं जानते । ३ इस तथ्यका, जैसा कि वह भौतिक रूपमें व्यक्त होता है, वर्णन अवश्य कर देते है किन्तु यदि वे सच्चे होंगे तो उन्है यही कहना पड़ेगा. कि यह वर्णन कुछ भी स्पष्ट नहीं करता ।

 

   एक क्षण सदा ऐसा होता है जब वह कुछ मी नहीं बताता । कारण, जानना... हां, जाननेका अर्थ है कर सकना ।

 

 (मौन)

 

  जो भी हों, जड़वादी विचारको, वैज्ञानिक विचारकों अधिक-सें-अधिक इतना ही पता लग सकता है कि वह आगेकी बात नहीं देख सकता । अवश्य ही वे कई बातें जान लेते है, किन्तु पार्थिव घटनाओंका उन्मीलन उनकी भविष्यदृष्टिसे परेकी वस्तु है । मेरे विचारमें वे केवल इसी बातको स्वीकार कर सकते हैं - एक आकस्मिकता होती है, संयोगोंका एक क्षेत्र होता है जो उनकी समस्त गणनासे छूट जाता है । एक आधुनिक वैज्ञानिकसे, जिसे आधुनिकतम ज्ञान प्राप्त है, मेरी कमी बातचीत नहीं हुई है, इसलिये मुझे इस बातका पूरा विश्वास नहीं है, मै नहीं जानती कि वे कहांतक उन तत्वोंको स्वीकार करते है जो न तो देखे जा सकते है, न गणनामें आ सकते है ।

 

  मेरे विचारमें श्रीअरविन्दका इससे यह तात्पर्य है कि जब व्यक्ति आत्मा- के संपर्कमें आता है और उसे आत्माका ज्ञान प्राप्त हो जाता है, तो यह इतना अद्भुत शान होता है, भौतिक वस्तुओंके शानसे इतना अधिक अद्भुत कि तब अवहेलनाकी हंसी आ जाती है । मेरे विचारमें उनका यह तात्पर्य नहीं था कि आत्माका ज्ञान तुम्है भौतिक जीवनकी उन वस्तुओंका ज्ञान प्रदान करता है जिन्हें तुम विज्ञानकी सहायतासे नहीं सीखते ।

 

  केवल एक ही बात है (मुझे पता नहिं विज्ञान यहां तक पहुंचा है या नहीं), और वह है भविष्यको पहलेसे देखनेकी असंभवता । किन्तु वे शायद

 

२१६


यह कहते हैं कि वे शायद इसका कारण यह बातमें कि अभीतक वे अपने यंत्रों ओर प्रणारिनयोंकी पूर्णतातक नहीं पहुंच सकें हैं । उदाहरणार्थ, वे शायद सोचते है कि जिस समय पृथ्वीपर मनुष्य प्रकट हुआ था, उस समय यदि उनके पास वे यंत्र होते जो अब हैं तो ३ पशुके मनुष्यमें रूपान्तरको या पशुके अन्दरकी किसी वस्तुके परिणामस्वरूप मनुष्यके प्रादुर्मावको पहलेसे जान लेते । मै उनकी अति आधुनिक स्थापनाओंके विषयमें कुछ नहीं जानती । (माताजी मुस्कराती है) ऐसी अवस्थामें उन्है वातावरणके उस अन्तरको जान सकना और माप सकना चाहिये जो किसी ऐसी वस्तुके आनेसे हों गया है जो उसमें पहले नहीं थी, क्योंकि यह अभी तक भौतिक क्षेत्रकी वस्तु है । ' किन्तु मेरे कालमें श्रीअरविन्दका तात्पर्य यह नहिं था, ३ यह कहना चाहते थे कि आत्माका जगत् और आन्तरिक सत्य भौतिक रूपकी अपेक्षा इतने अधिक अद्भुत है कि समस्त भौतिक ''आश्चर्य'' तुम्हें हंसनेको प्रेरित करते है - यही अर्थ ठीक जान पड़ता है ।

 

   किन्तु जिस कुंजीकी आप चर्चा कर रही है और जो उनके पास नहीं हैं, क्या वह आत्मा ही नहीं है? क्या वह आत्माकी शक्ति ही नहीं है जो जड़-पदार्थ पर उसे बदलनेके लिये कार्य

 

  'एक साधकने माताजीसे पूछा कि क्या यह ''कोई वस्तु'' अति- मानसिक शक्ति ही नहीं थी? माताजीने उत्तरमें कहा : ''मैं इसे कोई नाम न देना चाहूंगी । कारण, लोग इसे एक मत बना लेंगे । यही बात तव हुई थी जब १९५६ मे वह घटना घटी जिसे हम ''पहली अति- मानसिक अभिव्यक्ति'' कहते हैं । मैंने इसे धार्मिक सिद्धार्थ बननेसे रोकने- के लिये भरसक कोशिश की । किन्तु यदि मै कहूं कि अमुक दिन अमुक घटना घटी, तो वह बडी-बडी अक्षरोंमें लिख दी जायगी, और तब यदि किसीने इससे कुछ भिन्न बात कही तो उससे कहा जायगा : ''तुम नास्तिक हो ।'' मै यह नहीं चाहती । तथापि यह निर्विवाद है कि अब वातावरण बदल गया है, वातावरणमें नवीन वस्तु प्रवेश कर गयी है -- इसे ''अतिमानसिक सत्यका अवरोहण'' कहा जा सकता है, क्योंकि हमारे लिये इस शब्दका एक अर्थ है । किंतु मै इसकी घोषणा नहीं करना चाहती, क्योंकि मै यह नहीं चाहती कि यह उस घटनाको वर्णित करनेवाला एक शास्त्रीय या ''कच्चे। '' ढंग हो । इसीलिये मै जान-बूझकर अपने वाक्यको अस्पष्ट छोडे देती हू ।''

 

२१७


  कर रही है -- भौतिक चमत्कार करनेके लिये भी? क्या आत्मामें वह शक्ति नहीं होती?

 

 उसके पास यह शक्ति है और वह लगातार इसका प्रयोग भी कर रही है, किन्तु मानव चेतना इसके प्रति सचेतन नहीं है, और एक बड़ा अन्तर यह है कि वह चेतन हो जाती है, किन्तु यह एक ऐसी वस्तुके प्रति चेतन होती है जो ''सदा वहां'' मौजूद रहती है । दूसरे व्यक्ति इसे अस्वीकार कर देते हैं, क्योंकि वे उसे देखते नहीं ।

 

  उदाहरणार्थ, मुझे इसका अध्ययन करनेका. अवसर मिला था । मेरे लिये, परिस्थितियां, व्यक्तित्व, सब घटनाएं, सब सत्ताएं, सब किन्हें नियमोंके अनुसार चलती हैं, यदि इन्है नियम कहा जा सकें तो; ये नियम कठोर नहीं होते । किन्तु जो मैं देखती हू और जो मुझे देखनेमें समर्थ बनाता है वह यह है : एक बात मुझे दूसरी बातकी ओर ले जायगी, फिर वह उससे आगे लें जायगी, और यह भी कि चूंकि वह व्यक्ति ऐसा है, उसके साथ यह घटेंगी । यह अधिकाधिक यथार्थ होता है । इससे मै आवश्यकता पड़नेपर भविष्यवाणी भी कर सकती हू । किन्तु उस क्षेत्रमें कारण और परिणामका यह सम्बन्ध मेरे लिये बिलकुल स्पष्ट है और त्यों द्वारा अनुमोदित है -- पर, जैसा कि श्रीअरविन्द कहते हैं, जिन लोगोंमें यह दृष्टि और आत्माकी यह चेतना नहीं है, उनमें परिस्थितियां अन्य नियमोंके अनुसार कार्य करती है जो कि ऊपरी होते है, इन्हें वे वस्तुओंके स्वाभाविक परिणाम समझते है । ये नियम बिलकुल ऊपरी होते ' हैं; ये गहन विश्लेषणके आगे नहीं टिक सकते किन्तु व्यक्तियोंमें आन्तरिक योग्यता नहीं होती, इसलिये उन्हें इससे कष्ट नहीं होता, यह बात उन्हें स्पष्ट प्रतीत होती है ।

 

   मेरे कहनेका मतलब यह है कि इस आंतरिक ज्ञानमें विश्वास मिलानेकी शक्ति नहीं होती । इसीलिये जब किसी घटनाके विषयमें मै देखती हूं : ''ओह ! यह (मेरे लिये) बिलकुल स्पष्ट है; मैंने भगवान्की शक्तियोंका वहां कार्य करते देखा है, मैंने अमुक-अमुक परिणाम उत्पत्र होते देखे है और स्वभावत: यही कुछ होनेवाला है । '' मेरे लिये यह बिलकुल स्पष्ट है, किंतु जो मै जानती हू वह नहीं कहती क्योंकि वह उनके अनुभवकी किसी मी वस्तुसे मेल नहीं खाता । वह उन्हें इधर-उधरकी बातें और: पाखंडभरे दावे प्रतीत होंगे । दूसरे शब्दोमें, जब तुम्हें स्वयं वह अनुभूति नहीं हुई है तो दूसरेकी अनुभूति तुम्हें विश्वासोत्पादक नहीं लगती, तुम्है वह निश्चय दिखा हो नहो सकतीं ।

 

२१८


    यह शक्ति उतनी जड़-पदार्थपर कार्य करनेवाली शक्ति नहीं है - यह बात तो लगातार होती ही रहती है - जबतक सम्मोहक उपाय ही न प्रयुक्त किये जायं (जिनका कुछ मूल्य नहीं है, और जिनका कुछ फल मी नहीं निकलता), यह बुद्धिको खोलनेवाली है (कपालके ऊपर भेदनेकी मुद्रा); यही बात बहुत कठिन है... जो वस्तु अनुभवमें नहीं आयी उसका अस्तित्व ही नहीं होता ।

 

    किंतु यदि उनकी आखोंको सामने कोई चमत्कार हों भी जाय तो ये उसकी भौतिक व्याख्या उपस्थित करेंगे । उनके लिये यह स्थूल शक्तियोंसे भिन्न किसी अन्य शक्तिके हस्तक्षेपके अर्थमें चमत्कार नहीं होगा । उनके पास अपने लिये अपनी भौतिक व्याख्या होगी, वह विश्वास उत्पन्न करनेवाली नहीं होगी ।

 

    तुम इसे केवल तभी समझ सकते हों जब स्वयं तुमने अपनी अनुभूतिमें इस क्षेत्रका स्पर्श कर लिया हो ।

 

    अतएव, तुम देखते हो और भली प्रकार देखते हो कि कोई वस्तु तुम्हारे अंदर जितनी जाग्रत होती है उतनी ही तुम्हारी समझनेकी संभावना अधिक होती है । इसीमें व्यक्ति अपना आश्रय पाता है, यही आधार है ।

 

   जड़-पदार्थका रूपांतर शायद उतनी महत्त्वपूर्ण बात नहीं है जितनी कि सत्य कियाके प्रति चेतन होना है ।

 

 मेरा ठीक यही अभिप्राय है । व्यक्तिके उसके प्रति सचेतन हुए बिना एक विशेष बिंदुतक रूपांतर हो सकता है ।

 

  यह कहा जाता है, कहा जाता है न, कि इस बातमें बहुत अंतर है । जब आदमी आया तो पशुके पास इसे जाननेका कोई साधन न था । हां, तो मै कहती हू यहां भी ठीक यही बात है । मनुष्यने जो कुछ प्राप्त किया है उस सबके होते हुए मी उसके पास साधन नहीं है । कुछ चीजें हों सकती है । उसे इसके। ज्ञान बहुत पीछे, तब प्रान्त होगा जब उसके अंदरकी ''कोई वस्तु'' इतनी विकसित हो जायगी जो उसे देखने योग्य बनायेगा ।

 

  वैज्ञानिक प्रगति मी जब अपनी चरम सीमापर पहुंच जाती है, जहां व्यक्तिको ऐसा आभास मिलता है कि यहां वस्तुओंमें प्रायः कोई भेद नहीं रहा है, उदाहरणार्थ, जब वे तत्त्वके एक उस एकत्वपर पहुंच जाते है, जब ऊसर प्रतीत होता है कि यह केवल एक संक्रमणसे बढ़कर कुछ नहीं है

 

२१९


और वह मी प्रायः एक अवस्था और दूसरी अवस्था (भौतिक और आध्यात्मिक) के बीच अगोचर और अगम्य बन गया है; , बात ऐसी नहीं है, बिलकुल नहीं । उस प्रकारके एकत्वको जाननेके लिये व्यक्तिके अपने अंदर ''उस दूसरी वस्तु''की अनुभूति होनी चाहिये, अन्यथा वह उसे नहीं जान सकता ।

 

  क्योंकि उन्होंने व्याख्या करनेकी योग्यता प्राप्त कर ली है, इसीलिये वे अपने लिये बाह्य तत्वोंकी इस प्रकार व्याख्या. कर लेते है कि वे आत- रिक तथ्योंकी वास्तविकताके निषेधमें ही फंसा जाते हैं - वे कहते है कि ये उस वस्तुके आगेकी कड़ी हैं जिनका उन्होने अध्ययन किया है ।

 

  बात यह है कि उसकी अपनी रचनाके कारण - क्योंकि यह कहा जा सकता है कि कोई ऐसी मानवी सत्ता नहीं है जिसके पास इतनी सूक्ष्म सता, आंतरिक सत्ता, अर्थात्, आत्माके साय संबंधका कम-से-कम एक विचार या छाया या आरंभ न हो -- इसी कारण इसके निषेधमें सदा ही एक दरार होती है, किंतु उसे वे दुर्बलता समझते है, -- यही उनकी एकमात्र शक्ति है ।

 

 (मौन)

 

   सच ही, जब व्यक्तिको अनुभूति हों जाती है, जब उसे उच्चतर शक्तियोंका अनुभव और ज्ञान तथा उनके साथ तादात्म्य प्राप्त हों जाता है, केवल तभी वह समस्त बाह्य ज्ञानकी सापेक्षताको देखता है; किंतु तबतक नहीं, तबतक यह नहीं हो सकता जबतक बह अन्य सत्योंको अस्थीय- कार ही करता है ।

 

  मेरे विचारमें श्रीअरविद यही कहना चाहते थे; जब दूसरी चेतना विकसित होगी केवल तभी वैज्ञानिक मुस्कराकर कहेगा : ''हां, वह सब ठीक था, किंतु... ''

 

  वस्तुत: यह एक वस्तु दूसरीतक नहीं पहुंचा सकती -- भगवत्कृपाका अद्भुत तथ्य हों तो और बात है । यदि वैज्ञानिकके अंदर पूर्ण सच्चाई है, जो उसे उस बिंदुको, जहांसे कोई वस्तु उसकी बुद्धिसे बच निकलती है, देखने, उसका पूर्व ज्ञान और बोध प्राप्त करनेमें समर्थ बनाती है, तब यह सच्चाई उसे चेतनाकी दूसरी अवस्थातक ले जा सकती है, किंतु यह प्रतिक्रियाओंके द्वारा नहीं हों सकता । नये बोधकों, नये स्पंदन और आत्माकी नयी अवस्थाको स्वीकार करनेके लिये किसी वस्तुको अपना स्थान छोड़ना हीं होगा ।

 

२२०


   एक बात और मी है : यह एक व्यक्तिगत प्रश्न है, किसी वर्ग या श्रेणीका नहीं - प्रश्न है कि क्या एक वैज्ञानिक ''कुछ और''... बननेके लिये तैयार है या नहीं ।

 

 (मौन)

 

   केवल एक बात दूढतापूर्वक कही जा सकती है : तुम जो कुछ जानते हो, चाहे यह कितना भी सुन्दर क्यों न हो, उसकी तुलनामें कुछ नहीं है जो तब जान सकोगे जब अन्य प्रणालियोंको उपयोग कर सकोगे । हा, बात यही है ।

 

 (मौन)

 

  अभी पिछले दिनों मेरे कार्यका समस्त उद्देश्य यह) था : जाननेकी इस अनिच्छापर कैसे कार्य किया जाय? यह बहुत लंबे समयसे चला आ रहा है, यह उसके आगेकी अंश है जो श्रीअरविंदने अपने एक पत्रमें कहा था । उन्होंने कहा था कि भारतने अपनी प्रणालियोंके द्वारा आध्यात्मिक जीवन- के लिये उससे कही अधिक कार्य किया है जितना कि यूरोपने अपने संशयों और प्रश्नोंका साथ किया है । बात ठीक यही है । यह उस ज्ञानकी, उमर विशेष प्रणालीकी जो कि विशुद्ध भौतिक प्रणाली नहीं है, अस्वीकृति है, यह अनुभवका, अनुभवकी वास्तविकताका निषेध है -- इसका उन्हें कैसे विश्वास दिलाया जाय?... ओर फिर कालीकी अपनी प्रणाली होती है, मार लगानेकी । किंतु मेरे अनुसार इसका अर्थ है अत्यधिक अपव्यय और थोड़ा-सा फल ।

 

  यह भी एक बड़ी समस्या है ।

 

  मेरे विचारमें समस्त प्रतिरोधपर विजय पानेमें जो एकमात्र विधि समर्थ हों सकती है वह है प्रेमकी विधि; किंतु विरोधी शक्तियोंने इसे इतना विकृत कर दिया है कि सच्चे लोगोंकी, सच्चे जिज्ञासुओंकी एक बड़ी संख्या इस विधिसे, इसके विकृत होनेके कारण, बचती है । कठिनाई यहीं है । इसीलिये इसमें' समय लग रहा हैं । फिर मी... ।

 

२९-५-

 

२२१


१११ -- अपनी सारी प्राप्तियोंके बावजूद तान एक शिशुके समान है; क्योंकि जय वह कोई चीज खोज निकालता है तब चिल्लाता और शोर मचाता हुआ सड्कोंपर इधर-उधर दौड़ता है; प्रज्ञा अपने कार्यको बहुत दीघंकालतक एक विचार- पूर्ण और शक्तिशाली मौनताके अंदर छिपाये रखती है ।

 

११२ - भौतिक विज्ञान बकवास करता है और इस तरह आचरण करता है मानों उसने समस्त सान अधिकृत कर लिया हो । प्रज्ञा, जय चलती है तो, अपने एकाकी पदक्षेपको अपरिमेय महासागरोंके तटपर प्रतिध्वनित होते हुए सुनती है ।

 

 मौन... ओह! इसके बारेमें कुछ कहनेकी अपेक्षा इसका अभ्यास करना अधिक अच्छा है ।

 

  यह एक अनुभव है जो मुझे बहुत समय पहले यहां हुआ था । जो कुछ ब्यक्तिमें सीखा है उसका तत्काल ही प्रचार और उपयोग करनेकी इच्छा और उस उच्चतर ज्ञानके साथ संपर्कके बीचका भेद, जहां व्यक्ति यथासंभव शांत रहता है ताकि वह रूपांतरके लिये प्रभाव उत्पन्न कर सके । मुझे एक सजीव अनुभूति हुई है -- यह सजीव अनुभूति आधे दिनतक रही -- किंतु अब वह मुझे पुरानी, बहुत पुरानी और बहुत पीछेकी प्रतीत होती है ।

 

  इस मौनकी शक्ति क्या है? जब व्यक्ति ऊपरकी ओर उठता है ता वह एक प्रकारकी विशाल नीरवतामें प्रवेश करता है जो कि जम गयी है, जो सर्वत्र विद्यमान है, किंतु इस नीरवताकी शक्ति कौन-मी है? क्या यह कुछ करती है?

 

पहले जब लोग जीवनसे विलग हो जाना चाहते थे तो वे इसी वस्तु- की खोज करते थे । वे समाधिस्थ हों जाते थे, वे आग्नेय शरीरको निश्चल छोड़ देते थे और फिर दुबारा उसमें प्रवेश करते थे, और तव वे पूर्णतया प्रसन्न हो जाते थे । जो संन्यासी जीवित ही मृमिगत हों जाते थे वे इसी प्रकारके थे । वे कहते थे : ''अब ऐन अपना कार्य पूरा कर लिया है (दे बड़े सुन्दर वाक्योंके प्रयोग करते थे), मैंने ओना काम समाप्त

 

२२२


कर लिया है, मै अब समाधिमें जाता हू ।'' और वे जीवित अवस्थामें ही जमीनके अंदर समाधि ले लेते थे । वे किसी कमरे या किसी मी स्थानमें प्रवेश करते थे और उसे बंद कर दिया जाता था और बस फिर सब कुछ समाप्त! तब होता यह था : दे समाधिमें चले जाते और उनका शरीर कुछ समय बाद स्वभावत: ही विघटित हो जाता, और वे स्वयं 'शांति'में निवास करते थे ।

 

   किंतु श्रीअरविद कहते है कि यह 'नीरवता' शक्तिशाली हैं !

 

शक्तिशाली, हां ।

 

  हां, तो मै यह जानना चाहता हू कि यह ठीक किस रूप- मे शक्तिशाली है? कारण, व्यक्तिको ऐसा प्रतीत होता है कि वह एक सनातन कालतक वहां रद्द सकता है ।

 

एक सनातन कालतक नहीं -- 'सनातन' कालतक ।

 

      बिना इसके कि बद किसी वस्तुको बदले ।

 

, क्योंकि इसकी अभिव्यक्ति नहीं हुई है, यह अभिव्यक्तिसे बाहर- की वस्तु है । किंतु श्रीअरविद यह चाहते है कि व्यक्ति उसे यहां, नीचे उतारे । बस यही है बात, कठिनाई यही है । और उसे दुर्बलता- को, तथा जो हमें मूढ़ता प्रतीत होती हैं उसको भी, बल्कि सब कुछको स्वीकार करना चाहिये । और ऐसा व्यक्ति लाखोंमें एक मी नहीं होता जिसमें यह सब करनेका साहस हो ।

 

  पलायन करनेके लाखों तरीके हैं । टिके रहनेका केवल एक तरीका है, और वह है समस्त दुर्बलताओंके आभासको, शक्तिहीनताके आभास और अबोधके आभासको, हां, 'सत्य'के निषेधके आभासको सचमुच स्वीकारनेका साहस और सहनशीलता । पर यदि तुम इसे स्वीकार नहीं करते तो यह कमी नहीं बदलेगा । जो लोग महान्, प्रबुद्ध, बलवान् और शक्तिशाली और ऐसे सब कुछ बने रहना चाहते है, वे फिर वहीं टिके रहते है, दे पृथ्वीके लिये कुछ नहीं कर सकते ।

 

  और बोधका यह अभाव एक छोटी-सी वस्तु है (एक बहुत ही छोटी

 

२२३


वस्तु, क्योंकि चेतना इतनी सक्षम हैं कि वह इससे जरा मी प्रभावित नहीं होती), किंतु यह न समझनेकी क्रिया सामान्य एवं सर्वांगीण है । अर्थात्, जो तुम करते हो उसके कारण तुम अपमान, घृणाका व्यवहार आदि सब स्वीकार कर लेते हो क्योंकि उनके अनुसार (पृथ्वीके ''महान् विद्वानों''के अनुसार) तुमने अपनी दिव्यता छोड़ दी है । वे बिलकुल ऐसा तो नहीं कहते; वे कहते है : ''क्या? तुम कहते हों तुम्हारे पास दिव्य चेतना है, और फिर... '' और ऐसा सब लोगोंमें, सब परिस्थितियों- मे देखनेमें आता है । कमी-कभी, एक क्षणके लिये, किसीको एक झलक मिल सकती है, किंतु ऐसा अपवादरूप ही होता है, जब कि सब यही कहते है : ''ठीक है, अपनी शक्ति दिखाओ ।'' सर्वत्र ऐसा ही है ।

 

   उनके लिये, स्पष्ट ही, पृथ्वीपर दिव्य सत्ताको सर्वशक्तिमान् होना ही चाहिये ।

 

 यही बात है ''अपनी शक्ति दिखाओ, संसारको बदलो । और आरंभके लिये : जो मैं चाहता हूं वह करो । ऐसा ही है न? पहली और सबसे महत्त्वपूणं वस्तु है : जो मै चाहता हू वह करो, अपनी शक्ति दिखाओ ।'' हां, तो यही बात  सदा कहते रहते है ।

  

 २५-९-५६

 

११३ -- घृणा एक गुप्त आकर्षणका चिह्न है जो अपने-आपसे पूर भावनाके लिये उत्सुक तथा स्वयं अपने ही अस्तित्वको अस्वीकार करनेके लिये पागल रहता है । बह भी भगवान्- ण जीवनके अंदर - उनकी ही एक लीला है ।

 

११४ -- स्वार्थपरायणता ही एकमात्र पाप, नीचता ही एकमात्र अधर्म और घृणा ही एकमात्र अपराध है । अन्य सभी चीजें आसानीसे शुभ वस्तुओंमें पलटी जा सकती है, पर थे तीनों बड़े हठके साथ देवत्वका विरोध करती है ।

 

 यह एक प्रकारके स्पंदनके समान है -- उन लोगोंसे प्राप्त स्पंदन जो घृणा कर ह । यह कहा जा सकता ह क यह एक ऐसा स्पंदन ह

 

२२४


जो अपने मूरूपमें प्रेमके स्पंदनके समान ही है । इसकी गहराईमें वही वेदन विद्यमान है । यद्यपि ऊपरी तलपर यह उसका विरोधी है, पर इसका आधार वही स्पंदन है । और यह मी कहा जा सकता. है कि तुम उस वस्तुके उतने ही दास हो जिससे घृणा करते हों जितना कि उस वस्तुके जिससे तुम प्रेम करते हो,. बल्कि उससे भी अधिक । यह ऐसी वस्तु है वों तुझे पकडू लेती है, तुम्हारे पीछे पंडू जाती है और तुम इससे प्रेम करते हा, यह एक वेदन है जो तुम्है प्रिय है, क्योंकि इसकी उग्रताके नीचे आकर्षणकी एक ऐसी उष्णता है जो उतनी ही बड़ी है जितनी कि तुम अपने प्रेमपात्रके लिये अनुभव करते हो । और ऐसा प्रतीत होता है कि बाह्य प्रतीतिकी इस विकृतिका कारण केवल अभिव्यक्तिकी क्रियामें है ।

 

  जिससे तुम घृणा करते हो वह तुम्हारे विचारमें, उसकी अपेक्षा जिससे तुम प्रेम करते हो, अधिक रहता है और यह विचारमें अधिक रहना इसी आंतरिक स्पंदनके कारण होता है ।

 

इन सव ''वेदनों'' (इन्हैं क्या कहा जाय?) मे एक प्रकारका स्पंदन होता है जिसके केंद्रमे एक बड़ी मूलमूत वस्तु होती है, जिसपर मानों तहों पर-तहै चढ़ी हुई है जो उसे छुपाये है । तब उसके ठीक केंद्रमें जो स्पंदन होता है वह बिलकुल यही होता है और ज्यों ही वह अपनी अभि- व्यक्तिके लिये ''फूल उठता है, त्यों ही वह विकृत हों जाता है । प्रेम- के लिये मी यही बात बिलकुल स्पष्ट है । बहुत अधिक व्यक्तियोंमें यह बाह्यत: एकदम भिन्न आंतरिक स्पंदनोवाली वस्तु होती है, कारण, यह एक ऐसी वस्तु है जो वापिस अपने ऊपर जा गिरती है, कठोर हों जाती है और अविकल रखी अहंकारपूर्ण क्रियाके वशीभूत होकर प्रेमपात्रको अपनी ओर खिचना चाहती है । तुम प्रेम पाना चाहते हो । तुम कहते हो : ''मै उस व्यक्तिसे प्रेम करता हू,'' किंतु साथ ही वह वस्तु जो तुम चाहते हों, वह भावना जिसमें तुम निवास करते हों, यह होती है : ''मै चाहता हू कि वह भी मुझसे प्रेम करे ।'' अतः यह एक ऐसी विकृति है जो लगभग उतनी ही बड़ी है जितनी कि घृणाकी है, जिसका अर्थ है कि व्यक्ति अपनी प्रेमपात्र वस्तुको नष्ट करना चाहता है जिससे कि वह उससे बंधा न रहे । कारण, जो तुम चाहते हों वह तुम्हें अपने प्रेमपात्रसे नहीं मिन्ठता । तुम उसे नापुट करना चाहते हों ताकि तुम स्वतंत्र हो जाओ । दूसरी दशामें तुम एक प्रकारके आंतरिक क्योके अधीन होकर अपने-आपको कठोर बना लेते हों, क्योंकि तुम स्वयं उसे नहीं पाते, अपने प्रेमपात्रके आत्मसात् नहीं कर सकते । और सच्ची बात तो यह है कि (माताजी

 

२२५


हंसती हैं) गहनतर सत्यके दृष्टिकोणसे इनके रूपोंमें अधिक भेद नहीं है ।

 

   जब केन्द्रीय स्पन्दन विशुद्ध रहता है औ र अपनी प्रारंभिक विशुद्धता मे अपने-आपको अभिव्यक्त करता है, तो यहीं प्रस्फुटन हो ता है ( इसे क्या कह जा य?... यह एक ऐसी वस्तु है जो अपने -आपको विकीर्ण करती है । यह एक दुआन्नी है जो गरिमापूर्ण ढंगसे विस्तारित होता है, जो पुष्पिके समान खिलता है, हां, उज्ज्वल रूपमें खिलता है); तभी वह सच्चा रहत। है । भौतिक रूपमें यह अनूदित होता है आत्म-दनमें, आत्म-विस्मृति- मे, आत्माकी उदारतामें । औ र यही सच्ची क्रिया है । किन्तु जिसे साधारणतया ' 'प्रेम' ' कहा जाता है वह प्रेमके केन्द्रीय स्पन्दनके उतनी ही दूर है जितनी कि घृणा; अन्तर केवल इतना है कि एक सिकुड़ते है, कठोर और ठोस बन जाता है और दूसरा पहर करता है, बस इसीमें सारा अन्तर है ।

 

  यह बात विचारोंमें देखनेमें नहीं आती, केवल स्पन्दनोंमें ही देखी जा ती है । यह बहुत मनोरंजक है ।

 

  अभी पिछले दिनों मैंने इसका कोई कम अध्ययन नहीं किया है । मुझे इन स्पन्दनोंको देखने का अवसर प्राप्त हुआ है. '' बाह्य परिणाम रत्रेदजनक हो सकते हैं, व्यावह  दृष्टिकोणसे घृणा मी हों सकते है, अर्थात् इस प्रकारका स्पन्दन हानि पहुंचाने और वनाशकी प्रवृत्तिको उत्सा हित करत। है, किन्तु गहनतर सत्यके दृष्टिकोणसे यह एक ऐसी विकृति नहीं है जो दूसरेसे बहुत अधिक बड़ी हो, यह केवल अधिक आक्रामक अवश्य है -- तो भी । ''

 

  यदि तुम इस अनुभूतिका और अधिक, गहनतर अध्ययन करते हो, यदि तुम इस स्पन्दनपर अपने-आपको एकाग्र करते हों तो तुम देखते हों कि यह सृष्टिका आधर्मिक स्पन्दन है औ र यही उस सबमें जो वस्तुत : है, रूपान्तरित और विकृत हुआ है । और तब वहां एक प्रकारकी सर्वग्राही उष्णता भी है ( इसे ठीक ' 'मधुरता '' नहीं कहा जा सकता, किन्तु यह होगी एक उग्र प्रकारकी उतरा, एक सर्वग्रास ही उष्णता जिसमें मुस्करा हट भी उतनी ही है जितना कि विषाद -- वस्तुत: मुस्कराहट विपादसे कहई अधिक है...

 

  यह बात विकृतिक । औचित्या सिद्ध नहीं करती किन्तु सबसे अधिक यह उस चुनावके विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है जिसे म मनने ( विशेष षतया मानव नै तिकताने) एक प्रकारकी विकृति और एक दूसरे प्रकट विकृतिके वीचि किया है । विकृतियोंकी एक प्रकारकी शृंखला है जिन्हें लोग ' 'बुरा' ' कहते हैं; विकृतियोंकी एक अन्य शृंखला भी है जिसमें लोग रस लेते हैं, या

 

२२६


जिसे लगभग सराहते है ' पर फिर भी यदि मूलतत्वकी दृष्टिसे देखा जाय नोक यह विकृति दूसरी विकृतिसे कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है -- यह केवल चुनावका प्रश्न है ।

 

  मूलतः व्यक्तिको पहले केन्द्रीय स्पन्दनको देखना चाहिये और तब उस अद्वितीय और अद्भुत गुणकी प्रशंसा करनी चाहिये ताकि अनायास और सहज भावमें समस्त विकृतियोंसे दूर रहा जा सके, चाहे जो मी हों, अच्छी विकृतियोंसे और साथ ही दुष्ट विकृतियोंसे मी ।

 

  हम सदा उसी वस्तुपर आ जाते हैं, समस्याका समाधान एक ही है; वस्तुओंके सत्यको जानना और उससे चिपटे रहना, - इस मूलभूत सत्य- को, मूलभूत प्रेमके सत्यको प्राप्त करना और उसीके चिपटे रहना ।

 

२५-१२- ६५

 

  ११५ -- जगत् एक दीर्घ आवर्तित-दशमलव है और उसका पूर्णांक है ब्रह्म । आवृत्तिकाल प्रारंभ ओर समाप्त होता हुआ प्रतीत होता है, पर भग्नांश अनंत होता है; इसका कभी अंत नहीं होगा और वास्तवमें इसका कोई प्रारंभ भी नहीं था ।

 

  ११६ -- वस्तुओंका 'आदि और अंत' हमारी अनुभूतिको व्यक्त करनेवाले लौकिक शब्द हैं; अपने यथार्थ स्वरूपमें इन शब्दों- मे कोई सत्य नहीं है; न तो कहीं आदि है और न कहीं अंत ।

 

केवल पिछले सप्ताह ही इस अनुभूतिका पूरा विकास हुआ ।

 

   अपने मूल रूपमें यह बात जगतोंके लिये और व्यक्तियोंके लिये एक ही है, विश्वोंके लिये और जगतोंके लिये । केवल अवधिमें अन्तर होता है -- एक व्यक्ति, वह छोटा-सा है, एक जगत्, वह जरा बड़ा है; और एक विश्व, वह जरा और अधिक बड़ा है! किन्तु जो कुछ आरंभ होता है उसका अन्त भी होता है ।

 

   फिर भी श्रीअरविन्द कहते है कि ''न आदि है, न अन्त''

 

 हमें शब्दोंका प्रयोग तो करना ही पड़ता है, किन्तु वास्तविक ''वस्तु'' छूट जाती है । जो हमारे सामने ''सनातन तत्व'', ''सर्वोच्च सत्ता'', ''भगवान्''के नामसे अनूदित किया गया है उसका न आदि है, न अन्त

 

२२७


(हमें यह कहना पड़ता है कि ''वह है'', किन्तु बात ऐसी नहीं है, क्योंकि यह 'अनभिव्यक्त' और 'अभिव्यक्त' दिनोंसे ऊपर है; यह एक छैस वस्तु है जिसे व्यक्ति 'अभिव्यक्ति'में समझ या देख सकनेमें असमर्थ है), और इसका न आदि है, न अन्त । किन्तु सतत और सनातन ।रूपमें यह एक ऐसी वस्तुमें व्यक्त होता है जिसका आरंभ भी होता है और अन्त भी । केवल, 'अन्त' होनेके दो तरीके हैं, एक विनाश और पूर्ण विलय प्रतीत होता. है और दूसरा है रूपान्तर । ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे-जैसे 'अभिव्यक्ति' पूर्णातिपूण होती जायगी, वैसे-वैसे विनाशकी आवश्यकता कम होती जायगी और फिर एक ऐसा क्षण आयगा जब वह लुप्त हों जायगी और उसका स्थान विकसनशील रूपान्तरकी प्रक्रिया लें लेगी । किन्तु कहने- का यह तरीका बिलकुल मानवी और बाह्य हैं ।

 

  मैं शब्दोंकी अपर्याप्तताको पूरी तरह जानती हू, किन्तु शब्दोंके द्वारा ही तुम्है वास्तविक वस्तुको पकड़ना है... । मानव-विचारकी (और अभि- व्यक्तिकी तो और मी अधिक) कठिनाई यह हैं कि शब्दोंमें आरंभकी भावना सदा रहती है ।

 

 (मौन)

 

   मुझे ऐसी अभिव्यक्तिकी अनुभूति हा चुकी है -- ऐसा कहा जा सकता है कि एक 'स्पन्दनशील' अभिव्यक्तिकी जो प्रस्फुटित होती है, पीछे हट जाती है, फिर खुलती है और पुन: पीछे हट जाती है... । एक ए_सा समय आता है जब यह प्रस्फुटन ऐसा होता है, तरलता और नमनीयता एवं परिवर्तनकी क्षमता ऐसी होती है कि पुनर्निर्माणके लिये पुनः विलय होने- की आवश्यकता नहीं पड़ती; यह एक विकसनशील अभिव्यक्ति होगी । मै एक गुह्यवेत्ताको जानती थी । वह कहा करता था कि यह विश्वकी सातवीं सृष्टि है, छ: बार पहले प्रलय हो चुकी नैण और यह सृष्टि सातवीं है, किन्तु यह अपना पुन: विलय किये बिना ही अपना रूपान्तर साधित कर सकेगी - पर इस बातका कुछ मी महत्व नहीं है, क्योंकि जब व्यक्ति- के पाँसे सनातन चेतना होती हे तो उसके लिये इस बातका कोई महत्व नहीं रहता कि यह ऐसा हों सकता है या वह वैसा हा सकता है । केवल सीमित मानव चेतनामें ही, एक अन्तहीन वस्तुके  इस प्रकारकी महत्वाकांक्षा या आवश्यकता होती है, क्योंकि व्यक्तिके अन्दर एक ऐसी वस्तु है जिसे ''सनातनताकी स्मृति'' कहा जो सकता है और सनातनताकी यह स्मृति इस बातकी अभीप्सा करती है कि अभिव्यक्ति इस सनातनतामें भाग

 

२२८


ले । किन्तु यदि सनातनताकी यह भावना सक्रिय होती है एवं विद्यमान रहती है तो व्यक्तिको खेद नहीं होता -- (वेद इसलिये नहीं होता क्योंकि वह मैले-कुचैत्ठे कपड़ोंको त्याग देता है, ऐसा करता है न! (उसे। वे कपड़े पसन्द हो सकते है, पर वह उनके लिये रेता-धोता नहीं) । यहां भी यही बात है । यदि एक विश्व लुप्त हों जाय तो इसका अर्थ यह होगा कि वह अपना कार्य पूरी तरह पूरा कर चुका है, वह अपनी संभावनाओंके अंतिम छोरतक पहुंच गया है और अब उसके स्थानपर दूसरेको आना चाहिये ।

 

  मैंने पूरे मोडका अनुसरण किया है । जब तुम अपनी चेतना और विकासमें बच्चे होते हों, तुम्है इस बातकी अत्यधिक आवश्यकता अनुभव होनी है कि पृथ्वीको लुप्त नहीं होना चाहिये, उसे सदा. बने रहना चाहिये (जितना भी हों सकें रूपान्तर अवश्य हों, किन्तु पृथ्वी सदा बनी रहे) । कुछ समय बाद, जब व्यक्ति जरा परिपक्व अवस्थाको प्राप्त कर लेता है, तब वह इसे बहुत कम महत्व देता है । और जब वह सनातनताकी भावनाके साथ सतत संपर्क प्राप्त कर लेता है, तो केवल चुनावका प्रश्न बाकी रह जाता है । वह अब आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि यह एक ऐसी वस्तु है जो सक्रिय चेतनापर कोई प्रभाव नहीं डालती । कुछ दिन पहले (मुझे याद नहीं कब, पर अभी हालमें ही), एक सवेरे मै इसी 'चेतना'में बनी रही और मैंने सत्ताके विकासके मोडपर देखा कि इस प्रकारकी आवश्यकताने (जो अंतरीय आवश्यकता प्रतीत होती थी), पृथ्वी- के जीवनको लम्बा करनेकी आवश्यकताने - पृथ्वीके जीवनको असीम रूपमें न्श्म्बा करनेकी आवश्यकताने -- मूर्त रूप धारण कर लिया है । अब वह इतनी अन्तरीय नहीं रही; यह मानों ऐसा हुआ कि व्यक्ति किसी दृश्यको देखकर अपना निर्णय देता है कि इसे ऐसा होना चाहिये या वैसा होना चाहिये... । दृग़ीटकोणके परिवर्तनके रूपमें यह बात मनोरंजक है ।

 

   यह एक कलाकारके समान है, किन्तु एक ऐसा कलाकार जो अपना निर्माण कर रहा था और जो, एक प्रयोग, दो प्रयोग, तीन प्रयोग बल्कि .जितने प्रयोगोंकी आवश्यकता पड़ी उतने प्रयोग कर रहा था, तब वह एक ऐसी वस्तुपर पहुंचा जो अपने-आपमें पर्याप्त रूपमें पूर्ण होनेके साथ-साथ इतनी ग्रहणशील भी है कि अपने-आपको नयी अभिव्यक्तियों तथा इन नयी अभिव्यक्तियोंकी आवश्यकताओंके अनुकूल इस ढंगसे बना सके कि प्रत्येक वस्तुको पीछे हटाना, फिर मिला-जुला देना और पुनः उत्पन्न करना आवश्यक नहीं होगा । किन्तु यह बात बस इतनी ही है और जैसा कि मैने कहा है, यह प्रश्न चुनावका है । अभिव्यक्ति बाह्यीकरणके आनन्दके

 

२२९


लिये की गयी है, है न? (आनन्द या रुचि या... जो कुछ भी हो) और जब निर्मित वस्तु पर्याप्त रूपमें नमनीय, पर्याप्त रूपमें ग्रहणशील, पर्याप्त रूपमें लचीली और पर्याप्त रूपमें व्यापक होती है ताकि उसमें इतनी क्षमता हो कि अभिव्यक्त होती हुई नयी शक्तियां उसे सदा ढालती रहें,, तब प्रत्येक वस्तुका पुनः निर्माण करनेके लिये प्रत्येक वस्तुको नाट करनेकी आवश्यकता नहीं होगी ।

 

  यह मोड एक पुरानी कहावतके साथ सामने आया था : ''जो आरंभ होता है उसका अन्त भी होगा'' -- यह मुझे मनुष्यकी उन मानसिक रच- नाओंमेंसे एक रचना प्रतीत होती है जो आवश्यक रूपमें सच्ची नहीं होती किन्तु आन्तरिक रूपमें मनोरंजक बात यह है कि ज्यों ही तुम इसे एक उच्चतर दृष्टिकोणसे (अथवा सच पूछो तो, एक अधिक केन्द्रीय दृष्टिकोणसे ) देखते हो तो इस समस्याकी तीक्ष्णता समाप्त हो जाती है।

 

  ऐसा प्रतीत होता है कि यह वही सिद्धार्थ नहीं, क्योंकि यह सिद्धार्थ नहीं है - एक नियम है जो व्यक्तिपर, जागतों एवं विश्वंभर, सबपर लागू होता है ।

 

 (लंबा मौन)

 

   ज्यों ही तुम व्यक्त करनेकी चेष्टा करते हो ( माताजी विपर्ययका संकेत करती है) सब कुछ मिथ्या हो जाता है... मै चेतनाके साथ., 'सर्व'के साथ सम्बन्धके अनुभवको देख रही थी; 'सर्व'के साथ मानव सत्ताके सम्बन्धके; सर्वके साथ पृथ्वीके (पृथ्वीकी चेतना) सम्बन्धके; सबके साथ अभिव्यक्त विश्वकी चेतनाके सम्बन्धके; सर्वके साथ उस चेतनाके सम्बन्धके जो विश्वपर -- समस्त विश्वोपर -- आधिपत्य रखती है; और यह अवर्णनीय तथ्य कि चेतनाका प्रत्येक बिन्दु ( एक ऐसा बिन्दु जो स्थानको नहीं घेरता), ऐसा चेतनाका प्रत्येक बिन्दु समस्त अनुभवको प्राप्त कर सकता है... यह कहना बहुत कठिन है ।

 

   यह कहा जा सकता है कि केवल सीमाएं ही भेदोंको उत्पन्न करती हैं -- कालीके भेद, देशके भेद, आयामके भेद, सामर्थ्यके भेद । केवल सीमाएं ही ऐसा करती है । ज्यों ही चेतना अभिव्यक्तिके किसी स्थलपर अपनी सीमाओंका. त्याग कर देती है, अभिव्यक्तिका आयाम कुछ भी हो (हां, अभिव्यक्तिके आयामका बिलकुल महत्व नहीं), अभिव्यक्तिके किसी मी स्थलपर, यदि व्यक्ति सीमाओंके बाहर आ जात। है, तो ''वही'' एक चेतना होती है ।

 

२३०


   हंस दृष्टिकोणसे देखनेके बाद यह कहा जा सकता है कि सीमा ओक ई स्वीकृतिने ही अभिव्यक्तिको अनुमति दी है । अभिव्यक्तिकी संभावना सीमाकी भावनाको स्वीकार करनेके साथ आयी... यह कहना असंभव है । ज्यों ही व्यक्ति बात करना आरंभ करता है, उसे सदा एक ऐसी वस्तुका। भान होता है जो ऐसा करती है (विपर्ययका वही संकेत), एक प्रकारका झुकाव, और तब यह समाप्त हों जाता है, मूल वस्तु चली जाती है । तब दार्शनिक भाव आगे आकर कहता है : ''तुम ऐसा कह सकते हो, वैसा कह सकते हों...! '' यदि शब्दोंका प्रयोग किया जाय तो प्रत्येक बिन्दुमें 'असीम' और 'सनातन'की चेतना निहित है ( ये शब्द है, मात्र शब्द) । किन्तु अनुभूतिकी. समावना वहां होती है । यह एक प्रकारसे देशकी सीमासे बाहर निकल आना है... । खेलके भावने यह कह। जा यकता है कि पत्थरमें भी, बल्कि... हो, निश्चय ही जलमें भी, और आग- मे भी अवश्य ही उसी चेतनाकी शक्ति विद्यमान है - हां, चेतना ( जो भी शब्द हम प्रयुक्त करते हैं वे मूर्खतापूर्ण है!) मूल, सार, आद्य ( इस सबका कुछ अर्थ नहीं है), सनातन, असीम... । इसका भी कुछ अर्थ नहीं है, यह मुझे उस धूलक। आभास देता है जो कांचपर इसलिये डाल दी जाती है जिससे वह पारदर्शक न रहे ।... अन्तमें, निष्कर्षके रूपमें, उस अनुभूतिमें निवास कर चुकनेके बाद ( इन दिनों यह अनुभव मुझे बार- बार हुआ था, वहां यह सर्वोच्च स्थितिपर रहा, सब वस्तुओं, कार्य, क्रियाओं आदिके होते हुए भी इसीका वहां सबपर आधिपत्य रहा), किसी भी विधिके प्रति समस्त आसक्ति, उन विधियोंको प्रति जिन्होने युगों लोगोंको च लाया. है मुझे एक बचकानापन लगता है । और फिर भी, यह केवल एक चुनाव ही तो है : तुम यह चाहते हो कि ऐसा हों या वैसा हो, तुम यह या यह या यह कहते हो... मेरे बच्चों, अपना मनोरंजन करो... यदि इससे तुम्हारा मनोरंजन होता हो तो ।

 

   किन्तु यह निश्चित है ( प्रचलित भाषाके अनुसार), यह निश्चित है कि मानव मनकों कार्य करनेकी प्रेरणा पानेके लिये एक घर बनानेकी आवश्यकता है -- थोड़ा-बहुत बड़ा, थोड़ा-बहुत पूर्ण, थोड़ा-बहुत नमनीय । किन्तु उसे एक निवास-स्थानकी आवश्यकता है । केवल ( माताजी हंसती है) बात यही नहीं है । यह सब कुछको मिथ्या बना देता है ।

 

   और अनोखी बात यह है -- हा, अनोखी बात यह है -- कि बाह्य रूपसे व्यक्ति यंत्रवत् जीवनके कुछ ढरोंके अनुसार रहता चला जाता है ( जो अब तुम्है, आवश्यक प्रतीत नहीं होते, न ही जिनमें अम्यासको स्वाभाविक शक्ति ही रहती है) और जिन्हें तुमने प्रायः यंत्रवत् ही स्वीकार

 

२३१


कर लिया है एवं जीवनमें उतार लिया है और इसके साथ यह भावना रहती है (एक प्रकारकी भावना, अथवा वेदन, किन्तु यह न भावना है, न वेदन, यह एक प्रकारका बहुत सूक्ष्म बोध है) कि 'कोई वस्तु' जो अवर्णनीय रूपसे विशाल है उसे चाहती है । मै कहती हू उसे ''चाहती है'' या मैं कहती हू उसे ''चुनती है'', किन्तु वस्तुत: यह उसके लिये ''संकल्प करती है'' । यह एक ऐसा संकल्प है जो मानव इच्छाके अनुसार कार्य नहीं करता, बल्कि जो उसके लिये संकल्प करता है - जो उसे चाहता है, या उसे देखता है या उसके बारेमें निश्चय करता है । और प्रत्येक वस्तुमें यह प्रकाशमय, स्वर्णिम और अनिवार्य स्पन्दन विद्यमान है जो आवश्यक रूपमें सर्वशक्तिमान् है । और यह 'निश्चयता'के पूर्ण सुखकी पृष्ठभूमि प्रदान करता है जो एक सदय और विनोदपूर्ण मुस्कराहटके द्वारा चेतनामें जरा और नीचे अपने-आपको अनूदित करता है ।

 

   आगे जाकर श्रीअरविन्द उन जगतोंकी चर्चा करते है जिनका न आदि है, न अन्त और वे कहते हैं कि उनकी उत्पत्ति और उनका नाश ''हमारी बाह्य चेतनाके साथ आंख -मिचौलीका खेल है...

 

यह निश्चय ही उस वस्तुको कहनेका जिसे मैंने अभी कहा है एक बहुत सुन्दर ढंग है ।

 

   मैं पूछना यह चाहता था कि क्या ''दूसरे पार्श्व''से स्थूल जगत्को स्पष्ट रूपसे देखा जाता है या वह सब वाष्प बनकर उड़ जाता है?

 

यह भी इन पिछले दिनोंका एक अनुभव है । यह मुझे एक सुनिश्चित और पूर्ण ढंगसे प्राप्त हुआ था (यद्यपि, इसे व्यक्त करना बहुत कठिन है) कि भौतिक जगत् की, जैसा कि वह आज है, यह तथाकथित ''म्गन्ति''

 

 'सूत्र संख्या ११७ -- अन तो यह ठीक है कि मै पहले कभी नहीं था या इ नहीं था या ये राजा नहीं थे ओर न ऐसा ही है कि हम सब इसके बाद नहीं रहेंगे । केवल ब्रह्म ही नहीं, वरन ब्रह्ममें विद्यमान सभी जीव और वस्तुएं नित्य है; उनका सृजन और संहार तो हमारी बाहरी चेतनाके साथ खेला जानेवाला आरवमिचौलीका खेल है ।
 

२३२


अनिवार्य थी, अर्थात् दोडनेके, वस्तुओंके प्रति सचेतन होनेके स्थूल ढंग या स्थूल विम्ग्पिर इस सृष्टिकी ' 'भान्ति' 'ने विजय प्राप्त कर ली और उसके बिना इ सका अस्तित्व न होता । और न ही यह एक ऐसी वस्तु है जो सच्ची चेतनाकी प्राप्तिके बाद असत् में विलीन हो जायगी - यह वह वस्तु है जो एक विशेष ढंगसे आकर जुड़ जाती है, और यह पहले अनुभव की गयी थी और हम इसी वस्तुमें उस समय अपनी मूल चेतनामें निवास कर चुके थे ।

 

  यह मानों इस सृष्टिका औचित्य सिद्ध करना हुआ जिसने एक विशेष प्रकारके बोधकों संभव बना दिया है ( जिसके लिये बाह्यीकरणके ये शब्द -- ' 'स्पष्टता' ', ' 'यथार्थता' ' प्रयुक्त हो सकते है) जिसका इसके बिना अस्तित्व ही न होता । कारण, उस समय जब यह 'चेतना' -- पूर्ण चेतना, सच्ची चेतना, एकमात्र चेतना -- वहां वतंमान थी, केवल वही वहां थी, बस, वही विद्यमान थी, और कुछ नहीं था, तब यह कहा जा सकता है कि एक प्रकारके स्पन्दनके रूपमें वहां एक वस्तु थी, एक ऐसा स्पन्दन जिसमें स्पष्टता पर्व बाह्य यथार्थता थी, जिसका अस्तित्व इस सृष्टिके बाह्य रूपके बिना नहीं टिका रह सकता था... । हां, तो यह बड़ा-सा ''क्यों?'' वहां सदा उपस्थित रहा है -- यह बड़ा ''ऐसा क्यों, यह सब क्यों?'' जिसका परिणाम होता है वह सब जो मानव चेतनामें दुःख-कष्ट, बेबसी, और सामान्य चेतनाकी सभी मयकरताओंके रूपोंमें व्यक्त होता है -- क्यों? यह क्यों? और तब इसका उत्तर यों था सच्ची चेतनामें एक प्रकारका स्पंदन होता है जो बाह्यीकरणके स्पष्ट, यथार्थ एवं प्रत्यक्ष होता है, जो उसके बिना अपना अस्तित्व नहीं रख सकता, जिसे अपने-आपको अभि- व्यक्ति करनेका अवसर ही न मिलता । यह निश्चित है । यही उत्तर है -- ' 'क्यों' 'को दिया गया सबसे अधिक शक्तिशाली उत्तर ।

 

   यह स्पष्ट है -- बिलकुल स्पष्ट है -- कि जो कुछ हमारे लिये विकास, एक विकासशील अभिव्यक्तिके रूपमें अनूदित होता है वह हमारी परिचित स्कूल अभिव्यक्तिका नियममात्र नहीं है, वरन् सनातन अभिव्यक्तिका मूल सिद्धांत है । यदि तुम नीचे, पार्थिव विचारके स्तरतक फिरसे उतरना चाहते हो तो कह सकते हों कि बिना विकासके अभितयक्ति ही नहीं होती । किंतु हम जिसे 'विकास' कहते हैं, जो हमारी चेतनाके लिये ''विकास' ' है, वह वहां ऊपर है.. यह कुछ भी हो सकता है, एक आवश्यकता, जो भी उसे कहना चाहो - यह एक प्रकारका पूर्ण तत्व है जिसे हम नहीं समझते, सजाका पूर्ण तत्व : यह 'ऐसा' है, क्योंकि यह 'ऐसा ' है । बस यही । किंतु हमारी चेतनाके लिये, यह अधिकाधिक, और अच्छे-से-

 

२३३


अच्छा होता है (ये शब्द मूर्खतापूर्ण हैं), हमें इसका अधिकाधिक पूर्ण और अच्छे रूपमें आभास मिलता है । यही अभिव्यक्तिका मूल सिद्धांत है।

   मुझे एक ऐसी अनुभूति मी हुई जो आयी तो क्षणिक रूपमें थी पर इतनी यथार्थ थी कि मै कह सकती हू (बहुत बुरे ढंगसे) -- मैं 'अनभिव्यक्ति'के ''रस''के विषयमें कहने लगी थी - कि 'अभिव्यक्ति'के कारण अनभिव्यक्तिमें एक विशेष रस होता है ।

 

  यह सब शब्द मात्र है, किंतु तुम्हारे पास मी तो यही कुछ है । शायद एक दिन हमारे पास कुछ ऐसे शब्द और एक ऐसी मापा होगी जो इन वस्तुओंको ठीक ढंगसे व्यक्त कर सकेगी, यह संभव है, किंतु यह होगा सदा एक अनुवाद ही ।

 

  वहां एक स्तर है (छाती जितनी ऊंचाईकी ओर सकेत करता है), जहां कोई वस्तु शब्दों, प्रतीकों, वाक्योंके साथ इस प्रकार (लाड़-प्यार और भावुकताकी भंगिमा) खेल करती है और यह सुन्दर प्रतिमूर्तियां बढ़ती है । यह परम वस्तुके साथ संपर्क स्थापित करनेकी शक्ति रखती है । शायद अधिक बड़ी (क्षम-सेकम इतनी बड़ी या शायद इससे बड़ी) यहांसे (माथे जितनी ऊंचाईका संकेत करती है) अधिक बड़ी दार्शनिक अभिव्यक्ति (''दार्शनिक'' शब्दका प्रयोग, बात कहनेका एक ढंग है) : प्रतिमूर्तियां । दूसरे शब्दोंमें कविता । यहां इस अवर्णनीय स्पंदनके प्रति प्रायः अधिक सीधी पहुंच होती है । यहां मै' श्रीअरविदकी भावाभिव्यक्तिको उसके कवितामय रूपमें देखती ऐसे, इसका एक अपना आकर्षण है. सरलता है - सरलता और मधुरता और पैठ जानेवाले आकर्षण -- जो तुम्है, मस्तिष्ककी सभी वस्तुओंकी अपेक्षा अधिक घनिष्ठ रूपमें सीने संपर्कमें ले आता

 

   जब व्यक्ति इस सनातन चेतनामें निवास करता है, तब शरीरका होना या न होना, इससे कुछ अधिक अन्तर नहीं पड़ता, किन्तु जब व्यक्ति तथाकथित रूपमें ''मर'' जाता है, तो क्या भौतिक जगत्का बोध स्पष्ट ओर यथार्थ रहता है या वह वैसा ही अस्पष्ट और अयथार्थ हो जाता है जैसा कि दूसरे जगतोंके चेतना तब हों सकती है जब कि वह इस ओर, अर्थात्, इस लोकमें होता है? श्रीअरविन्द आंख-मिचौलीके खेलकी चर्चा करते है । किन्तु आरव-मिचौलीका खेल मनो- रंजक होता है, यदि सत्ताकी एक अवस्था दूसरी अवस्थाओंकी चेतनाको दूर न हटा दे ।

 

१३४


कल या परसों, सारे दिन ही, प्रातःकालसे सांयकालतक कोई वस्तु मुझसे कहती रही : ''मै हू, मै पृथ्वीपर मृत्युकी चेतना हू, या वह चेतना मेरे पास है ।', मै इसे शब्दोंमें अनूदित करती हू किन्तु, मानों ऐसा कहा गया था : ''पृथ्वी और भौतिक वस्तुओंके सम्बन्धमें निष्प्राण व्यक्तिकी यही चेतना होती है... । मै वह निष्प्राण व्यक्ति हू जो पृथ्वीपर रहता है ।'' चेतनाकी स्थितिके अनुसार (क्योंकि चेतना अपनी स्थिति सदा बदलती रहती है), चेतनाकी स्थितिके अनुसार यह बात यों थी : ''इसी प्रकार निष्प्राण व्यक्तियोंका पृथ्वीके साथ सम्बन्ध है ।', फिर : ''मै पूर्णतया उस निष्प्राण व्यक्तिके समान हू जिसका पृथ्वीके साथ संबंध है ।'' फिर : ''मै एक निष्प्राण व्यक्तिके समान रहती हू जो पृथ्वी की चेतनामें रहता है । '' और फिर : ''मै एकदम उस निष्प्राण व्यक्तिके समान हू जो पृथ्वीपर रहता है ''... आदि-आदि । मै अपना काम करती रही, सदाकी भांति बोलती और कार्य करती रही । किन्तु बहुत दिनोंसे ऐसा होता रहा, बहुत समय- से, दो वर्षसे अधिक समयसे मै जगत्को इस प्रकार देख रही थी (ऊपर- की ओर गति, एक अंशसे दूसरे अंशकी ओर, जो ऊपर लटक रहा है), और अब मै इसे इस प्रकार देखती हू (नीचेकी ओर गति) । मै नहीं जानती, मै तुम्हें कैसे समझाऊं, क्योंकि इसमें मनकी कोई चीज नहीं है, और मानस भावसे रहित वेदनोंमें कोई ऐसी अस्पष्ट-सी वस्तु होती है जिसकी परिभाषा करना कठिन है । किन्तु शब्द और विचार कुछ दूरी- पर थे (मस्तिष्कके चारों ओर संकेत करती हैं), एक ऐसी वस्तुके समान जो देखती है और परखती है, अर्थात्, जो वही कहती है जो वह देखती है -- वह वस्तु जो आस-पास होती है । और मुझे आज दो-तीन बार यह अनुभूति बड़े सबल रूपमें हुई (मेरा मतलब यह है कि इस अवस्थाने समूची चेतनापर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था), यह एक आभास था (या वेदन या बोध, किन्तु यह ऐसा कुछ है_ नहीं) : मै एक निष्प्राण व्यक्ति हू जो पृथ्वीपर रहता है ।

 

   इसकी व्याख्या कैसे की जाय?

 

   और तब, उदाहरणार्थ, अन्तर्दर्शनके सम्बन्धमें बाह्य यथार्थताका वहां अभाव होता है (माताजी आंखोसे न देखनेका संकेत करती है) । मै' चेतना- से होकर और उसके द्वारा देखती हू । सुननेका मी मेरा ढंग बिलकुल दूसरा है । यहां एक प्रकारकी ''विभेदकी क्रिया'' होती है (यह ''विवेक'' नहीं होता), एक ऐसी वस्तु जो बोधमें चुनाव करती है, ऐसी वस्तु जो निर्णय करती है (निर्णय करती है, किन्तु यंत्रवत् नहीं) कि क्या. सुना गया है और क्या नहीं सुना गया, क्या देख.।. गया है और क्या नहीं देखा

 

२३५


गया । देखनेमें तो यह ऐसी होती ही है, पर सुननेमें यह और भी सबल होती है : किन्हीं वस्तुओंके लिये व्यक्ति केवल एक लगातार होती हुई भनभनाहट ही सुनता है, जब कि कुछ वस्तुओंको वह स्फटिकके समान स्पष्ट रूपमें सुनता है; कुछ बड़ी अस्पष्ट-सी होती है, केवल आधी ही सुनी जाती हैं । देखनेके साथ मी यही है; मानों सब कुछ एक चमक- दार कुहरेके पीछे स्थित हों (अत्यन्त चमकदार, किन्तु है वह एक कुहरा ही, दूसरे शब्दोंमें, वहां यथार्थताका अभाव है), और फिर अचानक ही एक पूर्णतया यथार्थ एवं स्पष्ट वस्तु सामने आ जाती है, छोटी-छोटी बारीकियोंका मी असाधारण रूपसे यथार्थ ज्ञान प्राप्त हों जाता है । सामान्यतया, यह अन्तर्दर्शन वस्तुओंमें स्थित चेतनाकी अभिव्यक्ति होता है, अर्थात्, प्रत्येक वस्तु अधिकाधिक अन्तरीय प्रतीत होने लगती है, और कम- से-कम बाह्य... । और ये वे अन्तर्दर्शन नहीं होते जो दृष्टिपर थोप जाते है, न ही वह शोरगुल होता है जो सुननेकी क्रियापर लादा जाता है, यह चेतनाकी एक प्रकारकी क्रिया होती है जो किन्हीं वस्तुओंको देखने योग्य बना देती है और किन्हें वस्तुओंसे एक अतीव अयथार्थ' पृष्ठभूमिका काम लेती है ।

 

 चेतना वही चुनती है जिसे वह देखना चाहती है ।

 

यहां व्यक्तिगत कुछ नहीं है -- कोई मी वस्तु व्यक्तिगत नहीं । स्पष्ट ही, यहां चुनाव एवं निर्णयकी भावना विद्यमान है, किन्तु व्यक्तिगत चुनाव एवं निर्णयका आभास यहां नहीं मिलता -- इसके अतिरिक्त, ' 'व्यक्तिगत' ' वस्तु एक ऐसी आवश्यकताका रूप ध ।.रण कर लेती है जो' इसे ( माताजी अपने हाथोंको छूती है) हस्तक्षेप करनेके लिये प्रेरित करती है । खानेकी क्रियाको लो, यह एक बड़ी अजीब क्रिया है -- बहुत ही अजीब... । यहां ऐ सा होता है मानों कोई शरीरकी सहायता कर रहा हो ( जो कि एक बड़ी यथार्थ और सुनिश्चित वस्तु भी नहीं है, बल्कि कई वस्तुओंसे बनाया गया एक संघात है जो संघटित हों गया है), और तब जो घटता है... उसकी वह सहायता करता है! न, सचमुच यह एक बड़ी अजीब- सी स्थिती है । आज यह बड़ी शक्तिशाली थी, पूरी चेतनापर इसका आधिपत्य था । साथ ही कुछ ऐसे क्षण होते हैं जब कि व्यक्तिको यह अनुभव होता है कि एक बड़ी तुच्छ-सी बात संपर्कको छिन्न-भिन्न कर देती है ( गांठ खोलनेका संकेत, मानों शरीरके साथका बन्धन टूट गया हो), ओर जब व्यक्ति अत्यधिक अविचल आर अत्यधिक उदासीन -- हां, उदासीन - रहे तभी यह सम्बन्ध बना रह सकता है ।

 

२३६


   इन अनुमूतियोंके पहले सदा व्यक्तिको भागवत उपस्थितिके साथ एक बड़ी घनिष्ठ और अन्तरीय निकटताका अनुभव होता है, इस सुझावके सहित : ''क्या तुम किसी भी बातके लिये तैयार हो? '' स्वभावतया मै' कहती हू. '' किसी भी बातके लिये ।'' और वह 'उपस्थिति' इतनी चमत्कारिक रूपसे ती हो जाती है कि समूची सत्तामें एक प्रकारकी प्यास-सी जाग उठती है कि वह सदा उपस्थित रहे । तब केवल उसीका अस्तित्व रहता है, केवल उसी वस्तुके अस्तित्वका हेतु है । और व्यक्तिके अन्दर एक और सुझाव पैदा होता है : ''क्या तुम किसी भी बातके तैयार हो?

 

  मै शरीरकी बात कर रही हू । यहां आन्तरिक सताओंका प्रश्न नहीं है, प्रश्न है शरीरका ।

 

  और शरीर सदा 'हा' कहता है, वह ऐसा करता है (आत्मदानका मंकेत) : न यहां चुनाव होता है, न कोई पसन्द, अभीप्सा भी नहीं, एक पूर्ण, पूर्ण आत्मदान । और तब मुझे इन वस्तुओंकी अनुभूति होती है; कल सारा दिन ऐसा अनुभव हुआ : ''एक निष्प्राण व्यक्ति पृथ्वीपर रह रहा है । '' इसके साथ एक बोध था (जो बहुत सशक्त ते। नहीं, पर पर्याप्त मात्रामें स्पष्ट अवश्य था), यह जीवनके ढंग-सम्बन्धी उस बड़े अन्तरको दर्शाता था. जो मेरे और दूसरों, सभी दूसरोंके बीच था । यह अभी बहुत अधिक सुनियत नहीं है, न ही सुनिश्चित एवं यथार्थ है, किन्तु यह बहुत स्पष्ट है -- बहुत अधिक स्पष्ट, इसे बड़ी स्पष्टताके देखा जा सकता है, यह जीवनको जीनेका एक अन्य ढंग है ।

 

   किसीमें यह कहनेकी प्रवृत्ति हों सकती है कि चेतनाके दृष्टिकोणसे यह कोई प्राप्ति नहीं है, क्योंकि वस्तुएं लुप्त हो जाती है । मुझे पता नहीं, क्या यह एक प्राप्ति है?

 

यह केवल एक संक्रमण-काल ही हो सकता है । यह केवल मार्गकी एक अवस्था हैं ।

 

  चेतनाके दृष्टिकोणसे यह एक बहुत भारी प्राप्ति है । कारण, बाहा वस्तुओंकी समस्त दासता, उनके साथ समस्त बन्धन समाप्त हो जाते हैं, बिलकुल छूट जाते हैं -- हां, बिलकुल छूट जाते हैं और पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त हो जाती है । दूसरे शब्दोंमें, केवल? वे ही रह जाते है, सर्वोच्च स्वामी, जो प्रभु हैं । इस दृष्टिकोणसे यह प्राप्तिके सिवाय और कुछ नहीं हो सकता । यह एक इतनी मौलिक उपलब्धि है... । यह स्वतंत्रता

 

२३७


चरम पूर्णत प्रतीत हो ती है, एक ऐसी वस्तु जिसे चरितथि करना व्यक्तिके लिये पृथ्वीपर सामान्य जीवन व्यतीत करते हुए असंभव माना जाता है ।

 

  यह पूर्ण स्वतंत्रता की अनुभूतिके समान है जिसे व्यक्ति तब अपनी सत्ता- के उच्चतर भ ।गोंमें प्राप्त करता है जब वह शरीरपर निर्भर नहीं होता, किन्तु जो बात विशेष महत्वपूर्ण है, वह यह है ( मै इसपर अधिक बन देती हू), यह शरीरकी चेतना है जो इन अनु भवोंको प्राप्त करती है, औ र यह एक शरीर ही है जो अभीतक दृश्य रूपमें यहां है ।

 

  स्पष्ट ही, यहां वैसा औ र कुछ नहीं है जो मानवी सत्ताओंको '' जीवनमें भरोसा '' प्रदान करता है । ऐसा प्रतीत होता है कि बाह्य जगत् के लिये कोई मी सहारा नहीं रहा है, केवल एक वस्तु है... सर्वोच्च संकल्प । यदि इसे सामान्य शब्दोंमें अनूदित किया जाय तो, हां, तो शरीरमें जीवित होने की भावना सिर्फ इसलिये होती है क्योंकि सर्वोच्च प्रभु चाहते है कि बह जीवित रहे, अन्यथा वह जीवित नहीं रह सकता।

 

  हां, किन्तु मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्णताकी अवस्थाके अन्तर्गत सब कुछ आ जाना चाहिये, अर्थात्, व्यक्ति सर्वोच्च अवस्थामें निवास कर सकता है और यह सत्ता भौतिक अवस्था- को समाप्त नहीं कर देती ।

 

  किन्तु वह उसे समाप्त नहीं करती ।

 

  किन्तु आप फिर मी कहती है कि यह ''दूर'' है, यह ''परदेके पीछे'' है, कि इसमें इस दूसरी अवस्थाकी यथार्थता और स्पष्टताका अभाव है ।

 

यह, यह विशुद्ध रूपसे एक मानवी और ऊपरी बोध है । मुझमें यह भावना जरा भी नहीं है कि मैंने कुछ वों दिया है, इसके विपरीत, मै यह समझती हू कि यह अवस्था उस अवस्थासे अधिक ऊंची है जिसमें मै पहले थी ।

 

    भौतिक दृष्टिकोणसे भ)?

 

जो कुछ प्रभु चाहते है वही होता है -- बस इतना ही; बात यहीं आरंभ होती है और यहीं समाप्त हो जाती है ।

 

  यदि वे मुझसे कहते... । जो कुछ वे चाहते है वही शरीरको करना

 

२३८


होगा, ओर वह कर सकता है, वह इसके लिये भौतिक नियमोंपर निर्भर नहीं होता ।

 

     जो कुछ वे देखना चाहते है वही देखते है, जो कुछ बे सुनना चाहते है वही सुनते है ।

 

निः सन्देह ।

 

    और जब वे भौतिक रूपमें देखना या सुनना चाहते हैं, तो यह पूर्ण रूपसे देखता और सुनता है ।

 

हां, पूर्णरूपसे । ऐसे क्षण मी होते हैं जब अन्तर्दर्शन इतना यथार्थ होता है जितना कि वह पहले कमी नहीं था । किन्तु यह क्षणिक होता है; आता है, चला जाता है । कारण, यह शायद केवल उस बातके आश्वासन के समान होती है जो आगे होगी । किन्तु उदाहरणार्थ, लोगोंके आन्तरिक सत्यका बोध (वह नहीं जिसके अस्तित्वपर वे विश्वास करते हैं, न ही वह जो वह होनेका दावा करते है या जो वे प्रतीत होते हैं -- यह सब समाप्त हो जाता है), किन्तु उनके आन्तरिक सत्यका बोध असीम रूपसे पहलेसे अधिक यथार्थ होता है । उदाहरणार्थ, मै एक छायाचित्र देखती हू । यहां किसी वस्तुके ''माध्यम''से देखनेका प्रश्न नहीं होता; मै प्रायः एकमात्र वही देखती हू जो कि यह व्यक्ति है । ''माध्यम'' इस हदतक क्षीण हो जाता है कि कभी-कमी उसका अस्तित्व ही नहीं रहता ।

 

   स्वभावतया, यदि मानव संकल्प इस शरीरपर अपना प्रभाव जताना चाहे, यदि मानव संकल्प यह कहे : ''माताजी को यह करना चाहिये, या माताजीको वह करना चाहिये या उन्हें यह कर सकना चाहिये, उन्हें वह कर सकना चाहिये.. .'' तो वह पूरी तरह छला जायगा । वह कहेगा : ''वे किसी कामकी नहीं ।'' क्योंकि उसकी आशा नहीं मचानें... । और मनुष्य लगातार अपनी इच्छाएं एक-दूसरेके ऊपर लादते रहते हे, या मनुष्य स्वयं ऐसे सुझाव ग्रहण करता है और उन्हें, अपनी इच्छाओंके रूपमें व्यक्त करता है, बिना यह देखे कि यह सब बाह्य 'मिथ्यात्व' है ।

 

 ( मौन)

२३९


   शरीरसे एक प्रकारकी निश्चयता है कि चाहे कुछ सकिण्डोके लिये ही यदि मैं सर्वोच्च सत्ताके साथ अपने सपकंको  खो दूं ('मै' का अर्थ यहां शरीर है) तो वह तत्काल मर जायगा । केवल सर्वोच्च सत्ता ही इसे जीवित रखती है । ऐसा ही है । तब स्वभावतया मनुष्योंकी अज्ञानमय और मूर्खतापूर्ण चेतनाके लिये यह एक बड़ी दयनीय अवस्था है -- मेरे लिये यही सच्ची अवस्था है! कारण, उनके न्ठिये सहज और स्वाभाविक रूपमें, बल्कि यूं कहना चाहिये एक पूर्ण रूपमें, पूर्णताका चिह्न जीवनका?शक्ति है, सामान्य जीवनकी,... हां, तो वह अपना अस्तित्व ही नहीं रखती -- वह पूर्णतया लुप्त हो गयी है ।

 

  हां, कई बार, अनेक बार शरीरने यह प्रश्न किया है : ''मै 'तुम्हारी शक्ति' और 'तुम्हारा बल' अपने अन्दर क्यों नहीं अनुभव करता? '' और उत्तर, सदा मुस्कराहटसे भरा उत्तर यह होता था (यह शब्दोंकी सहायतासे अनूदित किया जाता है किन्तु वह शब्दोंके रूपमें प्राप्त नहीं होता), उत्तर सदा यह होता है : ''धीरज रखो, धीरज, यह होनेके लिये व्यक्तिको ''तैयार'' होना होगा । ''

 

और ९ मार्च, १९६६हैं

 

  ११७ -- न तो यह ठीक है कि मै पहले कभी नहीं था या तू नहीं था या ये राजा नहीं थे और न ऐसा ही है कि हम सब इसके बाद नहीं रहेंगे । केवल ब्रह्म ही नहीं, वरन ब्रह्ममें विद्यमान सभी जीव और वस्तुएं नित्य हैं । उनका सृजन और संहार तो हमारी बाहरी चेतनाके साथ खेला जानेवाला आंखमिचौलीका खेल है ।

 

   ११८ -- एकांतवासका प्रेम इस बातका लक्षण है कि तुममें ज्ञानकी ओर प्रवृत्ति है; परंतु स्वयं ज्ञान तभी प्राप्त होता है जब हम भीडभाडके अंदर, संग्राम और हाट-बाजारके अंदर एकांतताका स्थायी बोध प्राप्त कर लेते हैं ।

 

  ११९ -- महान् कार्य' करते हुए और विराग परिणामोंको लाते हुए यदि तुम यह अनुभव कर सको कि तुम कुछ नहो कर रहे हो तो जान लो कि भगवानने तुम्हारी आंखोंपर अपना पर्दा हटा लिया है ।

 

२४०


  १२० -- जब तुम पर्वतकी चोटीपर एकाकी, स्थिर और मौन बैठते हो तव यदि तुम उन क्रांतियोंको देख सको जिन्हें तुम परिचालित कर रहे हो तो यह कहा जा सकता है कि तुम्हें दिव्यदृष्टि प्राप्त है और तुम नाम-रूपसे मुक्त हो गये हो ।

 

  १२१ -- अकर्मसे प्रेम करना मूर्खता है और अकर्मसे घृणा करना भी मूर्खता है; अकर्म नामकी कोई चीज ही नहीं है । बालुकापर पड़ा आइ पत्थर भी जिसे लोग यों ही बेकार ठुकरा दिया करते हैं, विश्व-ग्रह्माण्डपर अपना प्रभाव उत्पल करता रहता है ।

 

 यह बह अनुभव है जो मुझे इन दिनों हुआ है, यह कल या परसों हुआ था । एक अदम्य शक्तिकी भावना, जो सबपर शासन करती है : जगत्पर, वस्तुओंपर, लोगोंपर, सबपर, सबपर शासन करती है । भौतिक रूपमें हिलने-डुलनेकी जरा मी आवश्यकता नहीं और यह भौतिक स्थूल प्रति- क्रिया केवल उस भागके समान है जो पानीके अत्यन्त वेगपूर्ण प्रवाहमें बन जाती है - ऊपरी तलाक झाग - किन्तु 'शक्ति' एक सर्वशक्तिसंपत्र धाराके समान इसके नीचे बहती रहती है ।

 

  और कहनेको कुछ नहीं है ।

 

  तुम सदा वहीं लौट आते हो : जानना, यह ठीक है; कहना, यह मी अच्छा है; करना, यह बहुत ही अच्छा है. किन्तु बनना, यही वह एक- मात्र वस्तु है जिसमें शक्ति है ।

 

  हां, तो, लोग चंचल हो उठते हैं, क्योंकि वस्तुएं ''शीघ्रतासे आगे नहीं बढ़ती''; तब मैंने अन्तर्दर्शनमें रचनाको, उस दिव्य सृष्टिको देखा जिसका निर्माण हो रहा था, जो नीचे इन सब वस्तुओंके होते हुए, बाहरी हलचल- के होते हुए भी सर्वशक्तिसंपत्र और अदम्य रूपमें विद्यमान थी ।

 

  किन्तु शक्तिकी इस विट्रा धाराको क्या अपनी अभिव्यक्ति- के लिये साधनोंकी आवश्यकता है?

 

 एक मस्तिष्ककी ।

 

 किन्तु वास्तवमें केवल मस्तिष्ककी ही नहीं । यह शक्ति अपने-आपको अभिव्यक्त कर सकती है, जैसा कि पहले यह

 

२४१


  मानसिक या अतिमानसिक ढंगसे किया करती थी । यह बलके द्वारा प्राणिक रूपमें अपने-आपको अभिव्यक्त कर सकती है । यह मांसपेशियोंके द्वारा मी अपनी अभिव्यक्ति कर सकती है, किन्तु यह भौतिक, विशुद्ध और प्रत्यक्ष रूपमें अपने-आपको कैसे अभिव्यक्त कर सकती है (क्योंकि आप ''भौतिक शक्ति''- के विषयमें प्रायः ही चर्चा करती हैं)? ऊपरके 'कर्म' और यहांके सच्चे 'कर्म'में क्या अन्तर है?

 

प्रत्येक बार जब मै इस 'शक्ति'के प्रति सचेतन हुई, मुझे वही अनु- भूति हुई । ऊपरका 'संकल्प' एक स्पंदनद्वारा अपने-आपको अनूदित करता है जो निश्चित ही प्राणिक शक्तिसे आच्छादित होता है, किंतु सूक्ष्म-भौतिक मे कार्य करता है । तुम एक विशेष प्रकारके स्पंदनको देखते हो जिसका वर्णन करना कठिन होता है पर जो किसी घनीभूत वस्तुके समान प्रतीत होता है (टुकड़ोंमें नहीं), कोई ऐसी वस्तु जो हवासे अधिक घानी प्रतीत होती है, किंतु अत्यधिक एकसार है, उसमें एक स्वर्णिम प्रकाश है, अत्यधिक प्रेरक शक्ति है, जो एक संकल्पको व्यक्त करती है (वह मानव संकल्प जैसी प्रकृतिका नहीं होता, वह विचारकी अपेक्षा अंतर्दर्शनके प्रकृतिका होता है, यह एक जतर्दर्शनके समान होता है, जो चरितार्थ होनेपर आग्रह करता है), एक ऐसे क्षेत्रमें, जो स्थूल पदार्थके बड़ा निकट होता है, किंतु यह अंतर्दर्शनके बिना दिखायी नहीं देता । और वह, वह 'सदन' लोगोंपर, वस्तुओं और परिस्थितियोंपर एक दबाव डालता है, क्योंकि वह उन्हें अपने अंतर्दर्शनके अनुसार ढालना चाहता है । वह अदम्य होता है । वे लोग मी जो इससे उलटा सोचते है, इससे उलटा चाहते है, न चाहते हुए भी करते वही है जो वह चाहता हो वे वस्तुएं भी जिनका स्वभाव ही विरोध करना है -- इन सबको भी लौटना पड़ता है ।

 

   राष्ट्रिक घटनाओंको लिये, राष्ट्रोंके बीचके संबंधोंके लिये, पार्थिव परि- स्थितियोंके लिये भी यह इसी प्रकार कार्य करता है, एक प्रबल 'शक्ति'के समान निरंतर, निरंतर कार्य करता है । और तब यदि स्वयं व्यक्ति भागवत संकल्पके साथ तादात्म्यकी अवस्थामें हों तो वह विचारके, किसी भी धारणया भावके हस्तशेपके बिना इस बातको समझ लेता है, करता, देखता और जानता हैं ।

 

 'यहां यह जानना मनोरंजक होगा कि इस वार्तासे जरा पहले माताजीसे यह प्रश्न पूछा गया था : ''क्या वियतनाममें अमरीकियोंकी उप-

 

२४२


   पार्थिव चेतनामें और जड़-पदार्थमें, तमस् का प्रतिरोध यह परिणाम उत्पन्न करता है कि यह कार्य सिवा और पूर्णतया सामंजस्यपूर्ण होनेके स्थानपर अस्त-व्यस्त हो जाता है । उसमें विरोध, अव्यवस्था और संघर्ष पैदा हो जाते है । बल्कि सब कुछको ''सामान्य रूपमें'', बिना संघषके (जैसा कि होना चाहिये), व्यवस्थित होनेके स्थानपर, यह समस्त तमs, जइ विरोध एवं प्रतिरोध करता है, सब कुछको एक ऐसी अस्त-व्यस्त क्रिया बना देता है जिसमें सब धक्का-मुक्की करते हे और तब वहां अव्यवस्था और विनाशका साम्राज्य स्थापित हो जाता है, और यह सब आवश्यक होता है केवल प्रतिरोधके कारण, किंतु यह अनिवार्य नहीं होता, अनिवार्य नहीं भी हों सकता, वस्तुत: इसे अनिवार्य होना चाहिये भी नहीं था । कारण, यह 'संकल्प', यह 'शक्ति' पूर्ण सामंजस्यकी 'शक्ति' है जिससे प्रत्येक वस्तु अपने स्थानपर है और जो अद्भुत ढंगसे व्यवस्था लाती है, यह एक अतीव प्रकाशमयी एवं पूर्ण अव्यवस्थाके रूपमें आती है जिसे व्यक्ति अंतर्दर्शनमें देख सकता है, किंतु जब वह नीचे आकर जड़-पदार्थ- पर दबाव डालती है तो सब कुछ सिर उठाता है और प्रतिरोध करना आरंभ कर देता है । अतएव, इस अवस्था और अस्त-व्यस्तता और विनाशके किये भागवत कार्य और भागवत शक्तिको दोषी ठहराना भी एक और मानव मूर्खता है । बल्कि तमs (बुरी भावनाकी बात तो छोड़, हा, तमस ही विपत्तिको उत्पल करता है । यह नहीं कि विपत्तिको बुलाने- की इच्छा की गयी थी, यह मी नहीं कि इसे पहलेसे देख लिया गया था, बल्कि यह प्रतिरोन्ग्से उत्पत्र हुई ।

 

  और तब इसके साथ भागवत कृपाके कार्यको जोड़ दिया जाता है जो आकर, जहां कहीं संभव हो, वहां, दूसरे शब्दोंमें, जहां कहीं वह स्वीकार कर लिया जाता है, परिणामको कम कर देता है । यही इस बात-

 

  स्थिति या उनका हस्तक्षेप उचित है? '' इसका माताजीने यह उत्तर दिया : ''तुम किस दृष्टिकोणसे यह प्रश्न पूछ रहे हो?

 

  ''यदि तुम्हारा दृष्टिकोण राजनीतिक है - राजनीति झूठसे ओतप्रोत है और मेरा इससे कोई संबंध नहीं ।

 

  ''यदि दृष्टिकोण नैतिक है -- नैतिकता वह ढाल है जिसका सामान्य जन सत्यसे अपनी रक्षा करनेके लिये प्रयोग करते हैं ।

 

  ''यदि तुम इसे आध्यात्मिक दृष्टिकोणसे पूछ रहे हों -- केवल भगवद् इच्छा ही असंदिग्ध है और इसे मनुष्य अपने कार्योंमें विकृत एवं मिथ्या रूप दे देता है ।'

 

२४३


की व्याख्या करता है कि पार्थिव एवं मानव तत्वकी अभीप्सा, श्रद्धा और पूर्ण विश्वासमें व्यवस्थाकी शक्ति होती है, क्योंकि ये भागवत कृपाको आने एवं प्रतिरोधके परिणामोंको सुधारनेकी अनुमति देते है ।

 

  यह एक स्पष्ट, हां, बहुत स्पष्ट, बल्कि व्योरेमें भी स्पष्ट अंतर्दर्शन है । यदि व्यक्ति चाहे तो वह भविष्यवाणी मी कर सकता है और जो उसने देखा है कह सकता है । किंतु एक प्रकारकी अति करुणा होती है जो इस भविष्यवाणीको करनेसे रोकती है, क्योंकि सत्यकी वाणीमें अभि- व्यक्तिकी एक शक्ति होती है और प्रतिरोधके परिणामोंको बता देना अवस्थाको ठोस रूप देता है और भागवत कृपाकी क्रियाको घटा देता है । इसीलिये देखकर भी व्यक्ति उसे कह नहीं सकता, कहना चाहिये भी नहीं ।

 

  किंतु, निश्चित रूपसे, श्रीअरविद यह कहना चाहते थे कि यही सामर्थ्य, यही शक्ति सब कुछ करती है -- सब कुछ कर सकती है । जब व्यक्ति उसे देख लेता है या उसके साथ एक हो जाता है उसी समय वह उसे जान लेता है, और वह यह जानता है कि सचमुच यही बह एकमात्र वस्तु है जो कार्य करती है और सृष्ट करती है; शेष सब उस क्षेत्रका, या उस जगत्का या जड़-पदार्थका या मूल-तत्वका परिणाम है जिसमें वह कार्य करती है -- यह उस प्रतिरोधका परिणाम है, किंतु यह वह क्रिया नहीं है । और उसके साथ एकत्व स्थापित करनेका अर्थ है उस 'क्रिया'के साथ एकत्व स्थापित करना । और नीचे- की वस्तुके साथ एकत्व स्थापित करनेका अर्थ है प्रतिरोधके साथ एकत्व स्थापित करना ।

 

  तब क्योंकि यह बेचैन हो उठती है, इधर-उधर घूमती है, चंचल हो उठती है, यह चाहती है, सोचती है, योजनाएं बनाती है... यह कल्पना करती है कि यह कुछ कर रही है - यह प्रतिरोध करती है ।

 

  कुछ समयके बाद (थोड़े-से समयके बाद) मै छोटी-छोटी वस्तुओंके उदाहरण दे सकेगी, तुम्हें यह दिखलानेके लिये कि 'शक्ति' कैसे कार्य करती है, और उसमें कौन-सी वस्तु हस्तक्षेप करती है, और कौन-सी घुल-मिल जाती है, अथवा कौन-सी वस्तु इस 'शक्ति'द्वारा चालित होती है और कौन-सी इसकी गतिको विकृत करती है और इसका परिणाम भी, अर्थात्, भौतिक बाह्य रूप जैसा कि हम उसे देखते है । एक बहुत छोटी-सी वस्तुका, जिसका संसारमें कुछ मी महत्व नहीं है, उदाहरणार्थ इस ढंगकी स्पष्ट व्याख्याको हमारे सामने रखता है जिसमें प्रत्येक वस्तु उत्पन्न होती है और फिर यहां विकृत हो जाती है ।

 

२४४


और ऐसा सब वस्तुओंके साथ, सबके साथ, सदा-सर्वदा, सदा-सर्वदा होता है । और जब व्यक्ति कोषाणुओंका योग करता है, तब मी वही बात देखता है : वहां 'शक्ति' कार्य करती है और तब (माताजी हंसती है) शरीर इस 'क्रिया'का क्या उपयोग करता है!...

 

 (मौन)

 

  तत्काल ही तब 'क्यों और कैसे'का प्रश्न सामने आ जाता है । किंतु यह क्षेत्र मानसिक जिज्ञासाका है । क्योंकि महत्त्वपूर्ण बात है प्रतिरोधकों समाप्त करना । यही महत्वपूर्ण चीज है, प्रतिरोधको समाप्त करना, ताकि विश्व वही बन जाय जो कि उसे बनना चाहिये, अर्थात्, एक सामंजस्य और प्रकाशपूर्ण एवं अद्भुत शक्तिकी और एक अद्वितीय सौन्दर्यकी अभिव्यक्ति । बादमें जब प्रतिरोध समाप्त हो जायगा, यदि व्यक्ति जिज्ञासावश यह जानना चाहेगा कि ऐसे क्यों हुआ है... इसका कुछ महत्व नहीं रहेगा । किंतु अब, 'क्यों'को खोजनेसे नहीं वरन सच्ची वृत्ति बनानेसे उपायकी प्राप्ति होगी । बस, यही वस्तु महत्त्वपूर्ण है ।

 

  सभी कोषाणुओंमें पूर्ण समर्पण, पूर्ण आत्म-निवेदनदुरा प्रतिरोधको समाप्त करना, यदि व्यक्ति ऐसा कर सकता हो तो ।

 

  वे इस तीव्र आनंदका अनुभव पाना आराम करते हैं जिसमें व्यक्ति केवल भगवा द्वारा, भगवान्के लिये, भगवान्में अपना अस्तित्व रखता है !

 

  जब यह स्थिति सर्वत्र स्थापित हा जायगी, तब सब कुछ ठीक हो जायगा ।

 

६-७-६६

 

१२२ -- यदि तू अपने ही मतदूरा मूर्ख न बनना चाहे तो सबसे पहले यह देख कि किस दृष्टिसे तेरा विचार सत्य है, फिर इस बातपर बिचार कर कि किस दृष्टिसे उससे उलटा तथा उसका विरोधी बिचार भी सत्य है; अंतमें, इन विभेदकों कारण तथा भगवान्के सामंजस्यकी कुंजी ढूंढ निकाल ।

 

१२३ -- कोई मत न तो सत्य होता है न मिथ्या, केवल जीवनके लिये उपयोगी या अनुपयोगी होता है; क्योंकि बह

 

२४५


कलकी सृष्टि होता है ओर कालीके साथ ही वह अपना प्रभाव और मूल्य खो देता है । तू मत-मतांतरसे ऊपर उठ और चिरस्थायी प्रज्ञाकी खोज कर ।

 

१२४ -- जीवनके लिये अपने मतका व्यवहार कर परंतु उसे अपनी आत्माको जंजीरोंसे बांधने मत दे ।

 

 (थोड़ी देरके मौनके बाद)

 

 मै यह जाननेका प्रयत्न कर रही थी कि मत किस प्रकार उपयोगी हो सकते है... । श्रीअरविद कहते हैं कि ये ''उपयोगी या अनुपयोगी'' होते हैं -- मत किस बातमें उपयोगी हो सकता है?

 

   ये कुछ समयतक काम करनेके लिये सहायक होते है ।

 

, ठीक इसी बातका मुझे खेद है । लोग अपने मत्ताके अनुसार कार्य करते है और उसका कुछ मूल्य नहीं होता । मुझे सदा ऐसे लोगोंके पत्र मिलते हैं जो किसी कार्यको करना चाहते है या नहीं करना चाहते; वे मुझसे कहते है : ''यह मेरा मत है, यह बात सच्ची है, यह सच्ची नहीं है,'' और सदा ९९ प्रतिशतसे अधिक उनका कहना गलत होता है, यह एक मूर्खता है ।

 

  तुम बड़े स्पष्ट रूपमें देखते हो -- हां, यह देखा जा सकता है -- कि उससे उलटे मतका मी उतना ही मूल्य है; यहां प्रश्न केवल वृत्तिका है, बस इतना- ही । और स्वभावतया, अहंभावकी अभिरुचिया उसके साथ मिली रहती है : व्यक्ति इसे अधिक पसंद करता है कि यह ऐसा हो, इसलिये उसका मत मी वही होता है कि यह ऐसा है ।

 

  किंतु जबतक मनुष्यके पास कार्य करनेके लिये उच्चतर प्रकाश नहीं होता तबतक उसे अपने मतका ही प्रयोग करना पड़ता है ।

 

मतसे बुद्धिमत्ताका होना अधिक अच्छा है, दूसरे शब्दोंमें, समस्त संभावनाओंपर, प्रश्नके सभी पक्षोंके बारेमें सोच लो आर तब यथासंभव कम-से-कम स्वार्थी होनेका यत्न करते हुए कार्यके विषयमें यह देखो, उदा-

 

२४६


हरणार्थ, कि कौन-सा कार्य अधिक-सें-अधिक लोगोंके लिये उपयोगी हो सकता है या कौन-सा कम-से-कम वस्तुओंको नष्ट करता है, अर्थात्, कौन- सा कार्य अधिक-से-अधिक रचनात्मक है । अंतमें ऐसा दृष्टिकोण रखते हुए, जो आध्यात्मिक नहीं केवल उपयोगी और निःस्वार्थ है, अपने मतकी अपेक्षा बुद्धिमत्ताके अनुसार कार्य करना अधिक अच्छा है ।

 

   हां, किंतु जब व्यक्तिके पास प्रकाश न हो, तो अपने मत या अहंभावको बीचमें मिलाये बिना कार्य करनेका ठीक ढंग क्या होगा?

 

मेरी समझमें समस्याके सभी पक्षोंपर विचार किया जाय और उन्है जहां- तक संभव हों निःस्वार्थ भावसे अपनी चेतनाके समक्ष रखा जाय और फिर देखा जाय कि क्या सर्वश्रेष्ठ है (यदि यह संभव हा तो), अथवा यदि बुरे परिणाम पैदा करता है तो उसे, जो कम-से-कम बुरा हों ।

 

  मै यह पूछना चाहता था कि सबसे अच्छी वृत्ति कौन- सी है? हस्तक्षेपकी वृत्ति या ।उदासीनताकी? इनमेंसे कौन-सी अच्छी है?

 

  हां, ठीक यही बात है, हस्तक्षेप करनेके लिये व्यक्तिको इस बातका निश्चय होना चाहिये कि वह स्वयं ठीक है । तुम्हें इस बातका निश्चय होना चाहिये कि वस्तु-संबंधी तुम्हारा दृष्टिकोण दूसरे या दूसरोंके दृष्टि- कोणों या अनुभवोंसे अधिक उच्च, श्रेष्ठ और सच्चा है । हां, तो हस्त- क्षेप न करना सदा ही अधिक बुद्धिमानीकी बात है -- लोग बिना किसी तुक या कारागके हस्तक्षेप करते है, केवल इसलिये क्योंकि दूसरोंको सलाह देनेकी उनकी आदत है ।

 

   तुम्है चाहे सच्ची वस्तुकी अंतरानुभूति हो, तो भी हस्तक्षेप करना बिरले बुद्धिमत्तापूर्ण कहा जायगा । ऐसा करना अनिवार्य केवल तब होता है जब कोई किसी ऐसे कामको करना चाहे जिसका अंत आवश्यक रूपमें किसी विपत्ति में हो । तब भी हस्तक्षेप (माताजी मुस्कराती है) सदा फलप्रद नहीं होता ।

 

  सत्य ही, हस्तक्षेप करना केवल तभी ठीक होता है जब कि व्यक्तिको यह पूर्ण निश्चय हो जाय कि उसने सत्यको देख लिया है । केवल इतना ही नहीं, उसे परिणामोंका स्पष्ट दर्शन मी हो जाय । दूसरोंके कार्र्योमें

 

२४७


हस्तक्षेप करनेके लिये व्यक्तिको देवदूत होना होगा -- हां, देवदूत, एक ऐसा देवदूत जिसमें समस्त हित-भावना और पूर्ण करुणा हो । तुम्हें उन परिणामोंकी अंतरानुभूति भी होनी चाहिये जिनका प्रभाव तुम्हारे हस्तक्षेपके द्वारा दूसरेके भाग्यपर होगा । लोग सदा सलाह देनेको उत्सुक रहते है : ''यह करो, वह मत करो'', मैं यह देख रही हू; उन्है इस बातकी कल्पना भी नहीं है कि किस हदतक वे गड़बड़ी पैदा कर रहे हैं । वे। गड़बड़ीको, अव्यवस्थाको बढ़ा रहे हैं । और कभी-कमी दे व्यक्तिके सामान्य विकासको भी हानि पहुंचाते हैं ।

 

  मैं सलाहोंको सदा ही खतरनाक समझती हूं और प्रायः ही बिलकुल निरर्थक ।

 

  तुम्है दूसरोंकी बातोंमें टांगे नहीं अदानी चाहिये, जबतक कि, सबसे पहले तुम दूसरेसे असीम रूपमें अधिक बुद्धिमान् न होओ (स्वमावतया, व्यक्ति हमेशा अपने-आपको अधिक बुद्धिमान् मानता है!), किंतु मेरा मत- लब यह निष्पक्ष रूपसे है, अपने मतसे नहीं, जबतक कि तुम उससे अधिक अच्छी तरह वस्तुओंको देख नहीं सकते, जबतक तुम स्वयं आवेगों, इच्छाओं, अंध प्रतिक्रियाओंसे ऊपर नहीं होते । तुम्हें स्वयं इन सभी वस्तुओंसे ऊपर उठना होगा।, केवल तमी तुम्हें दूसरे- के जीवनमें हस्तक्षेप करनेका अधिकार हो सकता है -- मलें ही बह तुमसे इसकी मांग करे । और जब वह तुमसे इसकी मांग ही नहीं करता तो यह केवल एक ऐसी वस्तुमें टांग अडानेके समान हुआ जिससे तुम्हारा कोई संबंध नहीं है ।

 

 (माताजी एक लंबे चिंतनमें निमग्न हो जाती हैं और फिर आगे कहती हैं )

 

 मैंने अभी एक बड़ा विचित्र-सा चित्र देखा! यह कुछ-कुछ पर्वतकी ढलानके समान था जो एकदम खड़ी ढलान थी और कोई व्यक्ति (मनुष्य के प्रतीकके रूपमें) उसके ऊपर चढ़ रहा था । एक सत्ताको... । यह बड़ी अजीब-सी बात है, मैंने इसको कई बार देखा, ऐसी सत्ताओंको जो बिना वस्त्रोंके थीं, पर फिर मी नंगी नहीं थीं । दूसरे शब्दोंमें, उन्होंने एक प्रकारके प्रकाशके वस्त्र पहने रखे थे । किंतु यह एक ऐसे प्रकाश- का आभास नहीं देता जो विकीर्ण होता है, ऐसा कुछ भी नहीं । वह एक वायुमंडलकी भांति है, बल्कि एक प्रभामंडल, ऐसा प्रभामंडल जो दिखायी देता है । अतएव, यह पारदर्शिता आकृतिको ढकती नहीं और साथ ही आकृति

 

२४८


नंगी भी नहीं रहती... । और तब आकाशसे -- वहां एक विस्तृत आकाश था जो नीचेसे लेकर ऊपरतक व्याप्त था (यह एक चित्रके समान था), -- अत्यंत स्वच्छ, अत्यन्त प्रकाशमय विशुद्ध आकाश - वहां अनगिनत... सैकड़ों वस्तुएं थी जो पक्षियोंके समान उस सत्ताकी ओर उड़ रही थी और वह एक संकेतसे उन्है अपनी ओर बुल रही थी । वह सब सामान्यतया हल्का नीला, श्वेत था; बीच-बीचमें एक पंखका ऊपरका सिरा या कलगी- का ऊपरी मांग जो कि कुछ गहरे रंगका था, प्रतीत होता था, किन्तु यह एक आकस्मिक घटना थी । वे पक्षी आये, वे सैकडोंके संख्यामें आये और उसने उन्है एक संकेतके द्वारा इकट्ठा कर लिया । तब उसने उन्है पृथ्वीपर भेज दिया (वह सत्ता एक सीधी ढलानपर खड़ी थी), उसने उन्है नीचे घाटीमें मेज़ दिया. । और तब वे वहां... (माताजी हंसी) मत या राय बन गायें ! वे मत या राय बन गये! उनमेंसे कुछ गहरे रंगके थे, कुछ हलके रंगके, कुछ भूरे, कुछ नीले...

 

  वे पक्षियोंकी कुछ जातियोंके समान थे जो इस ढंगसे पृथ्वीकी ओर आ रहे थे । किन्तु यह एक चित्र था, चित्र मी नहीं, क्योंकि वह हिलडुल रहा था । बड़ा मनोरंजक था बह!

 

  और उसने कहा : ''देखो, इस ढंगसे मत बनाये जाते हैं ।''... बे आकाशसे आये थे, विस्तृत आकाशसे, विस्तृत और प्रकाशपूर्ण स्वच्छ आकाशसे; जो न नीला था न श्वेत, न गुलाबी न... वह चमकीला था, केवल चमकीला, और उस आकाशमेसे... जैसा कि मैंने कहा था, सैकड़ों, हजारोंकी संख्यामें आये और वह सत्ता भी वहां थी, उसने उन्है अपने पास बुलाया, और तब अपने हाथोंसे रेंकते किया और उन्हें पृथ्वीपर भेज दिया, और... वे मत या राय बन गये! मेरा समाल है, मै तब हंसने लगी, मेरा ठूसते बड़ा मनोरंजन हुआ ।

 

  बड़ी विचित्र बात है यह ।

 

  और वे सब नीचे चले आये, हां, नीचे चले आये - नीचे, तुम देख नहीं सकते -, वे नीचे आते रहे ।

 

 हां, तो, मत भी प्रकाशके आकाशसे आ सकते है! (माताजी हंसती है) ।

 

  वस्तुतः, चित्र शब्दोंसे अधिक अभिव्यंजक होते हैं ।

 

१४-९-६६

 

२४९


  १२५ -- प्रत्येक विधान चाहे जितना सर्वग्राही या स्वैराचारी क्यों न हो, कही-न-कही किसी ऐसे विरोधी विधानके सामने आ जाता है जिससे उसका कार्य रोका जा सकता हैं, बदला जा सकता है, नष्ट किया जा सकता है या टाला जा सकता है ।

 

  १२६ -- प्रकृतिका सबसे अधिक बाध्यकारी विधान केवल एक सुनिश्चित पद्धति है जिसे प्रकृतिके अधीश्वरने रचा है और जिसका वह निरंतर उपयोग करते हैं; परमात्माने उसे बनाया था और परमात्मा उसको अतिक्रम भी कर सकते हैं, पर सर्वप्रथम हमें अपने कारागृहके दुरोंको खोलना होगा तथा परमात्माकी अपेक्षा प्रकृतिमें कम जीवन यापन करना सीखना होगा ।

 

प्रकृतिका ऐसा कोई विधान नहीं है जिसका अतिक्रम न किया जा सके या जिसे बदला न जा सके, केवल हममें' यह विश्वास होना चाहिये कि भगवान् ही सबपर शासन करते है और यदि, हम अपने सहस्रों वर्षोंके पुराने अम्यासको बन्दीगृहसे निकलना और अपने-आपको उनकी इच्छापर पूर्ण रूपसे छोड़ना सीख सकें तो हमारा उनके साथ सीधा संपर्क स्थापित हो सकता है ।

 

  सच पूछो तो कोई भी वस्तु स्थायी नहिं है, सब कुछ सदा बदलता रहता है; और यह आरोहणकारी रूपांतर ही एक-एक पग करके इस निश्चेतन ओर मर्त्य सृष्टिको प्रभुकी शाश्वत और सर्वशक्तिमान् चेतनाकी ओर ले जायगा ।

 

३-८६१

 

  १२७ -- विधान एक प्रक्रिया अथवा एक सूत्र है; परंतु आत्मा प्रक्रियाओंका प्रयोग करती और सूत्रोंके परे चली जाती है ।

 

प्रकृतिके नियम भौतिक प्रकृतिके लिये तब आवश्यक होते है जब यह औतरात्मिक सत्ता. (आत्मा) के प्रभावके कले नहीं होती, क्योंकि औतरात्मिक सत्ताके पास ही दिव्य शक्ति होती है जो अपने उद्देश्योंकी पूर्तिके

 

२५०


लिये सभी प्रक्रियाओं और सूत्रोंका प्रयोग कर सकती है तथा उसे अपनी इच्छानुसार परिवर्तित कर सकती है ।

 

५-८-६९

 

  १२८ -- प्रकृतिके अनुरूप जीवन यापन करो -- यही है पश्चिमका सिद्धांत; पर किस प्रकृतिके अनुरूप, शरीरकी प्रकृति- के अनुरूप या उस प्रकृतिके अनुरूप जो शरीरको अतिक्रम करती है? सबसे पहले इसीका निर्णय करना होगा ।

 

  १२९ -- हे अमृत पुत्र! तू प्रकृतिके अनुरूप नहीं, भगवान्के अनुरूप जी; और प्रकृतिको भी अपने अंतःस्थित देवताके अनु- रूप जीवन यापन करनेके लिये विवश कर ।

 

  मां, यहां ''शरीरका अतिक्रम करनेवाली प्रकृति'' से श्रीअरविंदका क्या मतलब है?

 

जो प्रकृति शरीरका अतिक्रम करती है वह वह प्रकृति है जो शरीरके नष्ट होनेपर भी बनी रहती है, यह आतरात्मिक प्रकृति है जो अमर है और दिव्य सारतत्वके बनी है । अंतरात्मा भगवान्के प्रति सचेतन हो सकती है और उसे ऐसा होना चाहिये, क्योंकि वे उसके केंद्रमें हैं और उसे चेतन रूपमें उनके साथ संयुक्त होना चाहिये ।

 

७-८-६१

 

१३० -- भाग्य उन सब चीजोंका देश और कालके बाहर भगवान्का पूर्वज्ञान है जो देश और कालमें घटित होंगी; जो कुछ उन्होंने पहलेसे देखा है उसे ही शक्तियोंके संघर्षके द्वारा 'शक्ति' और 'प्रयोजन' कार्यान्वित करते हैं ।

 

   मां, यदि सब कुछ पूर्वदृष्टि है तो फिर अभीप्सा और मानव प्रयत्नका स्थान क्या हुआ?

 

 प्रत्येक क्षेत्रमें (भौतिक, प्राणिक और मानसिक) सब कुछ पूर्वदृष्ट
 

२५१


है, किंतु उच्चतर क्षेत्र (अधिमानस और उससे ऊपर) का हस्तक्षेप घटनाओंमें एक और नियतिवाद ले आता है और वस्तुओंकी दिशाके बदल सकता है । यह कार्य अभीप्सा ही कर सकती है ।

 

   जहांतक मानव प्रयत्नका प्रश्न है, यह पूर्वनिश्चित घटनाओंका एक अंग है और इसकी भूमिका शक्तियोंकी क्रीडाके कुलयोगमें पहलेसे देखी जाती ह ।

 

 ९-८- ६१

 

१३१ -- चूंकि भगवानने प्रत्येक वस्तुको पहलेसे जाना और उसके लिये संकल्प किया है, इसलिये तुझे निष्क्रिय बनकर बैठ नहीं जाना चाहिये ओर उनके विधानकी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिये, क्योंकि तेरा कार्य भी उनकी एक प्रधान कार्य. कारी शक्ति है । अतएव, उठ और कार्यमें लग जा, पर अहंमन्यताके साय नहीं, बल्कि उस घटनाके परिस्थित्यनुकूल यंत्र तथा बाह्य कारणके रूपमें जिसे भगवानने पहलेसे ही निर्धारित कर रखा है ।

 

१३२ -- जय मैं कुछ नहीं जानता था, तब मैं दोषी, पापी और अपवित्र लोगोंसे घृणा करता था, क्योंकि मैं स्वयं दोष, पाप और अशुद्धिसे भरा था; परंतु, जब मैं शुद्ध पवित्र हो गया और मेरी आंखें खुल गयीं तम मैं अपने अंतरमें चोर और हत्यारेके सामने नतमस्तक हो गया तथा बार-बनिताके चरणोंकी पूजा की; क्योंकि मैंने देखा कि इन आत्माओंने पापके प्रचंड बोझको स्वीकार किया है तथा वश्व-सागरसे मथित विषके सर्वाधिक अंशको हम सबके लिये पान कर लिया है ।

 

जिसने यह भली-भांति समझ लिया है कि जगत् केवल अपनी अभि- व्यक्तिमें एक सर्वोच्च सत्ताके सिवाय और कुछ नहीं है, उसके लिये सभी मानवी नैतिक विचार निश्चित रूपसे लुप्त हो जाते हैं और उसके स्थान- पर उनके अंदर समग्रकी एक दिव्य दृष्टि प्रकट हो जाती है जिसमें सब वस्तुओंके मूल्य बदल जाते हैं - कितने अधिक बदल जाते हैं!

 

१४-८-६९


३५२


१३३ -- असुर देवताओंसे भी अधिक बलशाली होते हैं, क्योंकि उन्होंने भगवान कोप और शत्रु-भावका बोझ बहन करना और उनका सामना करना स्वीकार किया हैं । देवगण केवल भगवान के प्रेम तथा सुखद आनंदके मधुर भारको ही स्वीकार करनेमें समर्थ हुए ।

 

श्रीअरविद सचमुच जो कुछ कहना चाहते हैं उसे समझनेके लिये उनके विचारमें जो अद्भुत विनोद-वृत्ति थी उसे जानना जरूरी है ।

 

१६-८-६९

 

   तो फिर देवता आलसी हैं? फिर उनकी महानता और उनका वैभव कहां है? हम निम्न सत्ताओंकी पूजा क्यों करते है? और तब तो दानव प्रभुके अधिक प्रिय बेटे होने चाहिये?

 

श्रीअरविंदने यहां जो लिखा है वह, चरा सोयी हुई सत्ताओंको जगानेके लिये एक विरोधोक्ति है । लेकिन उनके वाक्योंमें छिपे सारे व्यंगको समझना चाहिये और सबसे बढ़कर, उस तात्पर्यको समझना चाहिये जो उन्होंने शब्दोंके पीछे रखा था । इसके अलावा चाहे वे आलसी हों या न हों, मैं कोई आवश्यकता नहीं देखती कि हम इन छोटे या बड़े देवताओंकी पूजा करें । हमारी पूजा केवल परम प्रभुकी ओर जानी चाहिये जो सब वस्तुओं और सब सत्ताओंमें हैं ।

 

 ६-११-६

 

१३४ -- जब तुम यह देखनेमें समर्थ होते हो कि किस तरह चरम आनंद पानेके लिये दुःख-कष्ट आवश्यक होते हैं, एकांत सफलताके लिये विफलता और चूडान्त क्षिप्रताके लिये विलंब- का होना आवश्यक होता है, तब तुम भगवान्की क्रियाका कुछ अंश, चाहे कितने ही धीमे और अस्पष्ट रूपमें क्यों न हो, समझना आरंभ कर सकते हो ।

 

१३५ -- प्रत्येक रोग स्वस्थताके किसी नवीन आनंदकी ओर जानेका एक पथ है, प्रत्येक अमंगल और दुःख-ताप प्रकृतिका किसी अधिक तीव्र आनंद और मंगलके लिये स्वर मिलाना

 

२५३


है, प्रत्येक मृत्यु विशालतम अमरत्वकी ओर उद्घाटन है । यह क्यों और कैसे हो सकता है -- यह भगवानका  गुप्त रहस्य है जिसकी तहमें केवल अहंकार-विमुक्त आत्मा ही पैठ सकती है ।

 

१३६ -- तेरा मन या तेरा शरीर क्यों यंत्रणा भोग रहा है? क्योंकि परदेके पीछे विद्यमान तेरी आत्मा उस यंत्रणाकी इच्छा करती है या उसमें आनंद मानती है; यदि तू चाहे -- और अपने संकल्पपर डटा रहे -- तो आत्माके शुद्ध आनंदका विधान तू अपने निम्नतर अंगोंपर लाद सकता है ।

 

व्यक्तिको केवल इस अनुभूतिके लिये प्रयत्न करना है और फिर उस प्रयलमें लगे रहना है; तभी उसे पता लगेगा कि जो कुछ यहां कहा गया है वह बिलकुल सत्य है ।

 

१९-८-६९

 

  १३७ -- ऐसा कोई लौह-कठोर या अलंध्य विधान नहीं है कि कोई विशिष्ट संस्पर्श दुःख या सुख उत्पन्न करेगा; सच पूछा जाय तो तेरी अंगोंके बाहरसे ब्रह्मका जो धक्का या दबाव उनके ऊपर आता है उसका मुकाबला तेरी आत्मा जिस तरीकेसे करती है, वह तरीका ही इन दोनों प्रतिक्रियाओंको उत्पन्न करता है ।

 

स्पष्ट ही एक घटन। या एक ही संपर्क एक ब्यक्तिमें आनन्दकी भावना और दूसरेमें कष्टकी भावना उत्पन्न करता है और यह प्रप्येककी अपनी आन्तरिक वृत्तिपर निर्भर करता है ।

 

  और यह बोध तुम्है महान् उपलब्धिके मार्गकी ओर ले जाता है, क्योंकि जब तुम यह केवल समझ ही नहीं, अनुभव भी कर लेते हों कि सर्वोच्च प्रभु ही समस्त वस्तुओंके रचयिता है और जब तुम उनके सतत संपर्कमें आ जाते हो, तो सब कुछ उनकी कृपाका परिणाम हो जाता है और एक उज्ज्वल और शान्त आनन्दमें परिणत हों जाता है ।

 

 १-८-६९

 

२५४


१३८ - तेरे अन्दरकी आत्म-शक्ति जब बाहरसे आनेवाली वैसी ही शक्तिके संस्पर्शमें आती है तब वह मानसिक अनुभव तथा शारीरिक अनुभवके मूल्योंके अनुरूप उस संस्पर्शकी मात्राओंको सुसमंजस नहीं कर पाती; इसी कारण तुझे दुःख, शोक या अशान्ति होती है । विश्व-शक्तिके प्रश्नोंका जो उत्तर तेरे अन्दरकी शक्ति प्रदान करती है उसे यदि तू उपयुक्त रूपमें व्यवस्थित करना सीख जाय तो सु देखेगी कि दुख सुखदायी बन रहा है अथवा विशुद्ध आनन्दमें परिवर्तित हो रहा है । यथोचित सम्बन्ध ही आनन्दमय होनेकी शर्त है, ऋतम् ही आनन्दकी कुंजी है ।

 

मनप्यकी दूसरोंके साथ अपने सम्बन्धको शारीरिक, प्राणिक या मानसिक आधारित करनेकी आदत है, इसी कारण, वहां प्रायः सदा ही असामंजस्य आर काटुट रहता ह । इसके विपरीत यदि उन्होने अपन संबन्धोंको आन्तरात्मिक संपर्कों (आत्माका आत्माके साथ) पर आधारित किया होता तो वे देखते कि विक्षुब्ध बाह्य प्रतीतियोंके पीछे, एक गहन समस्तरता विद्यमान है जो जीवनकी सभी गतिविधियोंमें व्यक्त हों सकती है ओर इस समस्वरताके कारण ही यह अव्यवस्था और कष्ट भान्ति और आनन्दमें परिवर्तित हो जायेंगे ।

 

२८-८-१९६

 

१३९ - अतिमानव कौन है? बह जो इस जडाभिमुखी भग्न मनोमय मानव सत्तासे ऊपर उठ सके तथा एक दिव्य शक्ति, एक दिव्य प्रेम और आनन्द एवं एक दिव्य ज्ञानके अन्दर पहुंचकर अपने-आपको विश्व-भावापत्र और दिव्य-भावापत्र बना सके ।

 

अतिमानवका अब निर्माण हो रहा है और एक नयी चेतना इस निर्माणको पूर्ण बनानेके लिये अभी हालमें ही पृथ्वीपर अभिव्यक्त हुई है ।

 

  किन्तु यह शायद ही संभव है कि एक भी मानव इस अंतिम परिणति- पर पहुंच चुका हरे।-, यह इसलिये और भी कम संभव है कि इसके साथ- साथ शरीरका भी रूपप्पतर होना चाहिये जो अभीतक नहीं हुआ है ।

 

३०-८-६९

 

२५५


   १४० -- यदि तू इस संकीर्ण मानवीय अहंभावको वनाये रखे और अपनेको अतिमानव समझे तो तू अपनी ही अहंताके फेरमें पड़ा हुआ मुझ है, अपनी निजी शक्तिके हाथोंका खिलौना और अपनी निजी भूल-म्रन्तियोंकी कठपुतली है ।

 

 स्वभावतया, इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वे सब महत्वाकांक्षी लोग जो इस समय अपने. आपको अतिमानव कहते हैं ढोंगी है, या अभिमानी हैं जो अपने-आपको तो धोखा देते ही हैं, दूसरोंको भी धोखा देनेका यत्न करते हैं ।

 

३०-८-६९

 

१४१ - नीत्शेने अतिमानवको इस रूपमें देखा मानो ऊंटकी स्थितिसे वाहर निकलती हुई कोई सिंह-आत्मा हो, पर अतिमानवका सच्चा आभिजातिक चिह्न और लक्षण तो यह है कि सिंह कामधेनुके ऊपर खड़े हुए ऊंटकी पीठपर अवस्थित हो । यदि बह्र समस्त मानवजातिका दास न बन सके तो इ उसका स्वामी बननेके योग्य नहीं है, और यदि तू अपने स्वभावको वशिष्ठकी कामधेनु न बना सके जिसके थनसे सारी मनुष्यजाति अपनी अभीप्सित वस्तु ले सह तो भला तेरे सिंह-सरीखे अतिमानवत्वका क्या लाभ?

 

समस्त मानवजातिका दास बननेक। अर्थ उसकी सेवाके लिये तत्पर रहना है, और कामधेनु बननेका अर्थ है शक्ति, प्रकाश और समस्याको इतनी प्रचुर मात्रामें दे सकना जितनी सें मनुष्यजाति अपने अज्ञान और अपनी अक्षमतासे बाहर निकल सकें : यदि ऐसा न हो तो अतिमानव पृथ्वीके किये एक सहायक नहीं बल्कि बोझ बन जायगा ।

 

३१-८-६

 

   १४२ -- संसारके सम्मुख निर्भयता और प्रभुतामें सिंह बनो; धैर्य और उपयोगितामें ऊंट बनो; अचंचलता, सहनशीलता और मातूसुलभ उपकारितामें गाय बनो । भगवानके दिये सभी सुखोंपर टूट पड़ो जैसे सिंह अपने शिकारपर टूट पड़ता

 

२५६


  है, परंतु आनंद-विलासके उस अनंत क्षेत्रमें लोट-पोट करने और चरनेके लिये समस्त मनुष्यजातिको भी ले आओ ।

 

सत्ताके विकासके लिये इन गुणोंकी तबतक आवश्यकता रहती है जबतक वह दिव्य नहीं बन जाती, यह हमें इस बातकी मी याद दिलाती है कि जबतक मानवजाति ऊपर नहीं उठेगी तबतक रूपान्तर पूर्ण नहीं हो सकता ।

 

 १-९-६९

 

  १४३ --यदि कलाका कार्य प्रकृतिका अनुकरण करना हो हो, तो सभी चित्रशालाओंको जला डालों और उनके बदले छाया- चित्र (फोटोग्राफी) बनानेके लिये कार्यालय खोल दो । चूंकि कला उस चीजको प्रकट करती है जिसे प्रकृति छिपाये रखती है, हंसी कारण एक छोटे-से चित्रका मूल्य लखपतियोंके समस्त जवाहरात और राजाओंके खजानोंसे भी कहीं अधिक होता है ।

 

   १४४ -- यदि तुम केवल दृश्य-प्रकृतिका ही अनुकरण करो तो तुम या तो किसी शवका चित्र या कोई निर्जीव खाका अथवा कोई दानवाकृति ही आक डालोगे; सत्य तो उस वस्तु- मे रहता है जो दृश्य ओर इंद्रियगोचर वस्तुओंके पीछे और परे रहती है ।

 

   यह कहा जाता है कि फोटोग्राफी आधुनिक कलाका माध्यम है । इस विषयमें आपकी क्या राय है?

 

सब कुछ फोटोग्राफीके प्रयोगपर निर्भर करता है । अपनी स्वाभाविक प्रकृति और प्रचलित उपयोगके अनुसार यह वास्तविक वस्तुका यथार्थ चित्रण होता है, जितनी अधिक यह यथार्थ और वास्तविक होती है, उतनी अधिक यह उपयोगी भी होती है ।

 

  किन्तु इस बातका. खण्डन नहीं किया जा सकता कि कुछ कलाकार फोटोग्राफीको अपनी अभिव्यक्तिके साधनके रूपमें प्रयोग करते है । किन्तु तब जो वह करते हू वह प्रकृतिकी ठीक नकल नहीं होती, वह केवल आकारों ओर रंगोंकी एक विशेष व्यवस्था होती है जो किसी अन्य वस्तुको

 

२५७


अभिव्यक्त करनेके लिये की जाती है, उस वस्तुको जो साधारणतया भौतिक रूपोंके द्वारा आवृत्त होती है ।

 

४-९-६९

 

१४५ - ऐ कवि! ऐ कलाकार! यदि तू केवल प्रकृतिके सामने दर्पण पकड़े रखे तो क्या तू समझता है कि प्रकृति तेरे कार्यमें आनंद लेगी? वह तो अपना मुंह ही फेर लेगी । किस चीजके लिये भला तू उसके सामने दर्पण पकड़े रखता है? स्वयं उसके लिये नहीं, बल्कि एक जीवनहीन रेखाचित्र और प्रतिबिंबके लिये, एक छायामय अनुकरणके लिये । सच पूछो तो तुझे प्रकृतिकी गुप्त अंतरात्माको पकड़ना होगा, तुझे चिर- दिन शाश्वत प्रतीकमें विद्यमान सत्यका पीछा करना होगा, और उसे कोई दर्पण तेरे लिये पकडू न सकेगा, उस प्रकृति- के लिये भी नहीं जिसे तू खोजता है ।

 

   प्रकृतिका वह ''शाश्वत प्रतीक'' क्या है जिसकी चर्चा श्री- अरविन्द यहां करते हैं?

 

 यह 'प्रकृति'की वह गुप्त आत्मा है जो एक सनातन प्रतीक है और इस आत्माके इस सत्यको ही कवि और कलाकारको खोजना एवं अभिव्यक्त करना चाहिये ।

 

७-९-६

 

१४६ - मैं यूनानियोंकी अपेक्षा शेक्सपीयरके अंदर अधिक महान् और अधिक सुसमंजस सार्वभौम कलाकार पाता हू । लेपसा गोत्रों' और उसके कुत्तेसे लेकर लियर और हेमलेट तक उसकी सभी सृष्टिका सार्वभौम हैं ।

 

१४७-- यूनानियोंकी व्यक्तिके समस्त सूक्ष्मतर मनोभावोंकी उपेक्षा करके सार्वभौतिक खोज की; शेक्सपीयरने व्यक्तिगत

 

 शेक्सपीयरके नाटकोंके पात्र ।

 

२५८


   स्वभावके अत्यंत विरल व्योरोंको विश्वजनीन बनाकर कहीं अधिक सफलताके साथ सार्वभौमताकी खोज की । जिस चीज- का व्यवहार प्रकृति हमसे अनंतके छिपानेके लिये करती है उसीका उपयोग शेक्सपीयरने मानवताकी आखोंको सम्मुख मनुष्यमें विद्यमान 'अनतगुण'को प्रकट करनेके लिये किया ।

 

  १४८ - शेक्सपीयरने ही प्रकृतिके सामने दर्पण पकड़ रखनेके रूपका आविष्कार किया था, पर वही एकमात्र कवि भी था जो कभी प्रतिलिपि, छायाचित्र या प्रतिकृति उतारनेके लिये राजी नहीं हुआ । जो पाठक फालस्टाफ', मैकबेथ,' लियर' या हेमलेट'में प्रकृतिका अनुकरण देखता है उसे या तो अंतरात्मा- की आंतरिक आंख प्राप्त नहीं है अथवा वह किसी प्रचलित सूत्रद्वारा विमोहित हो गया है ।

 

   १४९ -- भला तु भौतिक प्रकृतिके अंदर कहां फालस्टाफ, मैकबेथ या लियरको पायेगा? उसके पास उसको छायाएं और संकेत तो हैं, पर स्वयं ३ तो उस (प्रकृति) से बहुत ऊंचे है ।

 

 १५० -- केवल दोके लिये आशा है, एक तो, उस व्यक्तिके लिये जिसने भगवानका स्पर्श अनुभव किया है और उसकी ओर आकर्षित हुआ है तथा दूसरे, उसके लिये जो संदेहवादी जिज्ञासु तथा अपने मतसे संतुष्ट नास्तिक है; परंतु सभी धर्मोंका कर्मकाडियों तथा स्वतंत्र  रट लगानेवाले शुक पक्षियोंका जहांतक प्रश्न है, वे तो ऐसी मृतात्मा हैं जो मृत्युका अनुसरण करती हैं और उसे जीवंत कहती हैं ।

 

   धर्मको सूत्रबद्ध करनेवाले लोग भगवान्की प्रतिमा बना- कर क्या साधारण जनताकी सहायता नहीं करते? क्या आप इस बातपर विश्वास नहीं करती कि धर्म सामान्य लोगोंको सहायता पहुँचाता है?

 

 शेक्सपीयरके नाटकोंके पात्र ।

 

२५९


जो कुछ होता है वह सब सर्वोच्च प्रभुकी इच्छासे होता है, जिससे कि समूची सृष्टि भगवान्के विषयमें ज्ञान प्रान्त कर सकें ।

 

 किन्तु कार्यका अधिकांश भाग विपरीत विचार और निषेधके द्वारा संपन्न होता है । इसी ढंगसे धर्म इन तथाकथित धर्मावलंबियोंके एक ऐसे बड़े भागके लिये कार्य करते हैं जो बिना श्रद्धा-विश्वासके, या उससे भी कम अनुभवके साथ धर्मका अनुसरण करते है ।

 

 १४-९-६९

 

 १५१ -- एक मनुष्य एक वैज्ञानिकके पास आया और उसने उससे शिक्षा लेनी चाही; उस शिक्षकने उसे सूक्ष्म दर्शक तथा दूरदर्शक यंत्रोंमें दिखायी देनेवाली चीजोंको दिखाया, पर उस आदमीने हंसते हुए कहा : ''यह तो स्पष्ट ही है कि जिस शीशे- का व्यवहार आप माध्यमके रूपमें कर रहे हैं उसी शीशेने आखोंको सामने यह सब इंद्रजाल फैला दिया है; मै तबतक विश्वास नहीं कर सकता जबतक आप हमारी खाली दृष्टिके सामने इन सब आश्चर्योंको न दिखा दें ।'' तब वैज्ञानिकने उसके सामने बहुतेरे आनुषंगिक तथ्यों तथा प्रयोगोंके द्वारा यह सिद्ध किया कि उसका ज्ञान विश्वसनीय है, फिर उस आदमीने मुस्कराते हुए कहा : ''जिसे आप प्रमाण कहते है उसे मैं संयोग कहता हू, संयोगोंकी संख्या प्रमाणका निर्माण नहीं करती; और आपके प्रयोगोंका जहांतक प्रश्न है ३ तो स्पष्ट ही असामान्य परिस्थितियोंसे प्रभावित हैं और वे प्रकृतिके एक प्रकारके पागलपनके अंग हैं ।', जब उसके सामने गणितके परिणामोंको रखा गया तब तो वह क्रोधित होकर चिल्ला उठा : ''निस्संदेह यह सब धोखा-धड़ी, प्रलाप और कुसंस्कार है; क्या आप मुझे यह विश्वास करा देनेकी कोशिश करेंगे कि ये निरर्थक दुर्बोध संख्याएं सच्ची शक्ति और अर्थ रखती हैं? '' तब वैज्ञानिकने उसे एकदम निकम्मा, मुझ समझकर बाहर निकाल दिया; क्योंकि उसने स्वयं अपनी अस्वीकृतिकी पद्धति तथा स्वयं अपनी नकारात्मक तर्क-प्रणालीको ही नहीं समझा । अगर हम किसी निष्पक्ष और उदार मनकी खोजको अस्वीकार करना चाहें तो हम अपनी अस्वीकृतिको छिपानेके लिये सदा ही अत्यंत आदरणीय लंबे-लंबे शब्द पा सकते है तथा ऐसे परी-

 

२६०


   क्षण एवं शर्त लाद सकते हैं जो खोजको असत्य सिद्ध कर दें ।

 

वैज्ञानिक जौ अधिकतर जड़वादी होते हैं गुह्य और आध्यात्मिक ज्ञानका निषेध करनेके लिये उसी. प्रणालीको अपनाते है, जिसका प्रयोग अज्ञानी और मूर्ख विज्ञानका निषेध करनेके लिये करते हैं ।

 

  क्योंकि एक सद्भावनावाले व्यक्तिको जो प्रत्यक्ष प्रमाण प्रतीत होता है वह कुछ सीखनेके अनिच्छुकको पाखण्ड लगता है ।

 

 १७-९-६

 

१५२ -- जब हमारा मन जड्तत्वमें सन्निहित होता है तब हम समझते हैं कि केवल जड़त्व ही सत्य है; जब हम जड़ा- तीत चेतनामें पीछे हट आते हैं तब हम जड-तत्वको एक छग्रवेशके रूपमें देखते तथा यह अनुभव करते हैं कि केवल चेतनाके अंदर ही जीवनको सद्वस्तुका स्पर्श प्राप्त है । तब भला इन दोनोंमेंसे कौन सत्य है? मालूम नहीं, भगवान् जानें । परंतु जिस मनुष्यको दोनों अनुभव हो चुके हों वह आसानीसे कह सकता है कि कौन-सी अवस्था अधिक ज्ञान- दायक. अधिक सामर्थ्यपूर्ण तथा अधिक आनंदमय है ।

 

१५३ -- मै विश्वास करता हू कि अभौतिक चेतना भौतिक चेतनाकी अपेक्षा कहीं अधिक सत्य है । क्योंकि मैं पहलीमें यह जानता हू कि दूसरीमें मुझसे क्या छिपा हुआ है तथा साथ ही जडुतत्वमें मन जो कुछ जानता है उसे भी मैं अधि- कृत कर सकता हू।

 

  हम सदा ही अभौतिक चेतनामें कैसे निवास कर सकते हैं?

 

तुम ऐसा। नहीं कर सकते और यह ठीक मी नहीं होगा ।

 

  श्रीअरविन्द जिस भौतिक चेतना और अभौतिक चेतनाकी चर्चा कर रहे हैं उससे अधिक उच्च चेतनाके विषयमें यहां उन्होंने कुछ नहीं कहा है; - दूसरे शब्दोंमें, वे उस अतिमानसिक चेतनाके विषयमें कुछ नहीं कह रहे जो अन्य समस्त चेतनाओंको अपने अन्दर धारण करती है तथा. इस प्रकार सत्ताके कमी स्तरोंकी ज्ञान प्राप्त कर सकती है । इसी चेतनाके

 

२६१


लिये व्यक्तिको अभीप्सा करनी चाहिये, केवल यही हमें समग्र सत्यका ज्ञान प्रदान कर सकती है ।

 

 १८-९- ६९

 

१५४ -- स्वर्ग और नरक केवल आत्माकी चेतनामें अस्तित्व रखते हैं । ठीक है, पर उसी तरह यह पृथ्वी और उसके भू-खंड समुद्र और खेत, रेगिस्तान, पहाड़ और नदिया भी अस्तित्व रखते हैं । समूचा जगत् ही परमात्माके दर्शनकी अभिव्यक्तिके अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।

 

१५५ -- मात्र एक ही आत्मा और एक ही स्त है; अतएव, हम सब एक ही विषय-वस्तुको देखते हैं; परंतु एक आत्म- सत्ताके अंदर मन और अहंकारकी बहुतेरी गाँठें हैं, अतएव, हम एक ही विषय-वस्तुको विभिन्न प्रकारके आलोक और खायामें देखते हैं ।

 

१५६ -- आदर्शवादी भूल करता है; सच पूछो तो मनने इन सब जगतोंके सृष्टि नहीं की थी, बल्कि जिसने मनकी सृष्टि की थी उसीने उनकी भी सृष्टि की । मन केवल गलत कप- मे देखता है, क्योंकि जो कुछ सृष्ट हुआ है उसे वह आशिक रूपमें तथा एक-एक व्योरेके देकर देखता है ।

 

   यहां, हमारे जीवनमें, आदर्शवाद हमें किस ढंगसे सहायता पहुंचा सकता है?

 

ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीअरविन्द यहां दर्शनकी उस पद्धतिकी चर्चा करते हैं जो यह घोषणा करती है कि 'विचार'ने ही जगतोंका निर्माण किया है । स्वभावतया, यह बात गलत है ।

 

  जो आदर्शवादी जड़ पदार्थके दास बननेसे झंकार करते है उन्हें इस दर्शनका अनुसरण करनेकी आवश्यकता नहीं है, वे अपने आदर्शवादके द्वारा दूसरोंको भौतिक इच्छाओंके दास न बने रहनेमें सहायता कर सकते है ।

 

२२-९-६

 

२६२


१५७ -- रामकृष्णने यह कहा था और विवेकानंदने यह कहा था । हां, परंतु मुझे उन सत्योंको भी जान लेने दो जिन्हें अवतारने वाणीबद्ध नहीं किया और पैगंबरने अपनी शिक्षाओंमें प्रकट नहीं किया । मनुष्यके विचारने हमेशा जो कुछ चिंतन किया है और मनुष्यकी जिह्वाने जो कुछ कभी उच्चारित किया है भगवान्में उससे बहुत अधिक सर्वदा बना रहेगा ।

 

१५८ -- रामकृष्ण क्या थे? मानव-शरीरमें अभिव्यक्त भगवान्; परंतु पीछेकी ओर अपनी अनंत नैर्व्यक्तिकता तथा अपने विश्वमय व्यक्तित्वके साथ स्वयं भगवान् विराजमान रहते हैं । और विवेकानंद क्या थे? शिवके नेत्रके एक उज्जवल कटाक्ष; परंतु उनके पीछे विद्यमान है बह भागवत दृष्टि जिससे बह उत्पन्न हुए और स्वयं शंकर उत्पन्न हुए और ब्रह्मा, विष्णु तथा सर्बातीत ॐ प्रकट हुए ।

 

    जब एक बार अतिमानसिक चेतना दृढ़तापूर्वक स्थापित हो जायगी तो क्या तब भी अवतारोको पृथ्वीपर जन्म लेनेकी आवश्यकता पड़ेगी?

 

इस प्रश्नका उत्तर देना तब अधिक सरल होगा जब अतिमानस सजीव सत्ताओंके द्वारा पृथ्वीपर अभिव्यक्त होगा ।

 

  मैंने सदा लोगोंको यह कहते सुना है कि श्रीअरविन्द अंतिम अवतार थे; किन्तु निश्चय ही वे मनुष्य-शरीरमें अंतिम अवतार है - बादकी बात किसीको नहीं पता... ।

 

२३-९-६९

 

१५९ -- जो कृष्णको, नरकमें अवस्थित नारायणको नहीं पहचानता बह भगवानको संपूर्णतः नहीं जानता; जो केवल कृष्णको जानता है वह कृष्णको भी नहीं जानता; फिर यह विपरीत सत्य भी पूर्णतः सत्य है कि यदि तू एक नन्हे मुरझाये हुए, कुरूप ओर सुगंधहीन पुष्पमें संपूर्ण भगवानको देख सके तो तूने उनके परम सत्यको आयत्त कर लिया है ।

 

२६३


  एक बार जब किसीने श्रीअरविन्दका योगमार्ग पकड़ लिया है, तो क्या उसे अन्य सब देवी-देवताओंके पंथोंको छोड़ नहीं देना चाहिये?

 

जो व्यक्ति सच्चे रूपसे श्रीअरविन्दके मार्गका अनुसरण करता है, जैसे ही उसे इस मार्गका अनुभव प्राप्त होना शुरू होगा, उसके लिये अपनी चेतना- को किसी मी देवी और देवताके या उन सबके सम्मिलित मततक असंभव हो जायेगा ।

 

२६-९-६

 

१६० -- निसार दार्शनिक ज्ञानके व्यर्थ जालों तथा अनुर्वर बौद्धिकताकी सुखी धूलिको त्याग दो । केवल वही ज्ञान पाने योग्य है जिसका उपयोग जीवंत आनन्द प्राप्त करनेके लिये किया जा सकें और जिसे स्वभाव, कर्म, रचना और सत्तामें व्यक्त किया जा सके।

 

१६१ - जो ज्ञान तुझे प्राप्त है मस वैसा ही बन और उसीको जीवनमें उतार; तभी तेरा ज्ञान तेरे अंदर विद्यमान जीवंत भगवान् होगा ।

 

    किस हदतक ''बौद्धिक शिक्षण'' हमारे मार्गमें सहायता पहुंचा सकता है?

 

यदि बौद्धिक शिक्षण अपनी चरम सीमातक ले जाया जाय तो वह मनकों इस असंतोषजनक निष्कर्षतक ले जाता है कि वह 'सत्य'को जाननेमें असमर्थ है और उन लोगोंको जिनकी अभीप्सा सच्ची है यह (बौद्धिक शिक्षण) निश्चल रहनेकी और उस निश्चलतामें उच्चतर स्तरोंकी ओर खुलनेकी आवश्यकताकी ओर लें जाता है जिनसे ज्ञान प्राप्त हों सकता है ।

 

२७-९-६

 

२६४


१६२ -- क्रमविकास अभी समाप्त नहीं हुआ ह; बुद्धि ही प्रकृतिका अंतिम तत्व नहीं है, न चिंतनशील पशु ही उसकी सर्वोच्च रचना है । जैसे मनुष्य पशुमें से आविर्भूत हुआ, वैसे ही मनुष्यमेंसे अतिमनुष्य प्रकट हो रहा है ।

 

मैं इस सूत्रको अंगरेजीमें देखना चाहूंगी कि श्रीअरविन्दने ''आविर्भूत होना'' क्रियाको किस कालमें प्रयुक्त किया है, वर्तमान कालमें या भविष्यमें।

 

   यदि यह भविष्यत्कालमें प्रयुक्त हुई है तो यह आश्वासन है जिसे हम सब जानते है और जिसकी ससिद्धिके लिये हम कार्य कर रहे है । और यदि वर्तमान कालमें... तो मुझे ओर कुछ नहीं कहना है ।

 

 २९-९-६९

 

  १६३-- कठोरतापूर्वक नियम पालन करनेकी शक्ति ही स्वाधीनताकी भित्ति है; इसी कारण अधिकांश साधनाओंमें जीव- को अपने दिव्य स्वरूपकी पूर्ण स्वाधीनतामें ऊपर उठ जानेसे पहले अपने निम्नतर अंगोंमें विधि-विधानके अधीन रहना पड़ता तथा उसे जीवनमें ससिद्ध करना पड़ता है । जो साधनाएं स्वाधीनतासे आरंभ होती हैं वे केवल उन शक्तिधर मनुष्योंके लिये हैं जो स्वभावतः मुक्त हैं अथवा अपने पूर्व जन्मोंमें अपनी स्वतंत्रता स्थापित कर चुके है ।

 

  वे कौन-सी साधनाएं है जो ''स्वाधीनतासे आरंभ होती है'', जिनकी यहां श्रीअरविंदने चर्चा की है?

 

मै सोचती हूं कि इससे श्रीअरविन्दका अभिप्राय प्रारंभिक दीक्षा-सम्बन्धी उन विभिन्न अनुशासनोंसे है जिनका ऐसे दीक्षागृहोंमें अभ्यास किया जाता था. - उन दिनों, जब कि इनका एक अपना महत्व था और अपनी सत्ता होती थी ।

 

  हमारा युग बहुत भौतिकवादी बन गया है; वह अब ऐसे दीक्षागृहोंको वही महत्व या वही अधिकार नहीं देता ।

 

३०-९-६९

 

२६५


१६४ -- जो स्वेच्छा-स्वीकृत विधानको स्वतंत्रतापूर्वक तथा पूर्णता और समझदारीके साथ पालन करनेमें पीछे रह जाते हैं, उन्हें दूसरोंकी इच्छाके अधीन रखना चाहिये । राष्ट्रोंकी पराधीनताका यह एक प्रधान कारण है । जब किसी शासकके पैरों तले उनका ऊधमी अहंकार कुचला जा चुकता है, तब उन्हें स्वतंत्रताद्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करनेके योग्य बननेका एक नवीन अवसर प्रदान किया जाता है अथवा, यदि उनमें शक्ति होती है तो वे इसे स्वयं आयत्त कर लेते हैं ।

 

१६५ -- हमारी असंस्कृत स्थितिमें स्वतंत्रताका अर्थ है दूसरोंके विधानको नहीं, वरन् स्वयं अपने लादे हुए विधानको मानना । मात्र भगवानके अंदर तथा आत्माकी प्रधानताके द्वारा ही हम पूर्ण स्वतंत्रताका उपभोग कर सकते हैं ।

 

सच्ची स्वाधीनताका अर्थ है भगवानके साथ सतत रूपमें एक होकर रहना और केवल वही करना जो भगवान् हमसे कराते है ।

 

  किन्तु तबतक दूसरे व्यक्तियोंके नियम और सामाजिक एवं नैतिक परिपाटियोंको माननेकी अपेक्षा अपने ऊपर एक कर्म और व्यवहार-संबंधी उच्चतर नियम लागू करना तथा सच्चे दिलसे उसका पालन करना अधिक अच्छा है ।

 

 १-१०-३९

 

  जब व्यक्ति समाजमें रहता है, तो क्या उसके लिये अकसर अपनी इच्छाद्वारा प्रयुक्त नियमोंको माननेके स्थानपर दूसरों- द्वारा लागू नियमोंको माना आवश्यक नहीं हों जाता?

 

स्पष्ट ही, यदि व्यक्ति समाजमें रहना चाहे या रहनेको सम्मत हो तो उसे समाजके नियम मानने ही होंगे, अन्यथा व्यक्ति अव्यवस्था और गड़बड़ी- का तत्व बन जाता है।

 

  किन्तु जो अनुशासन स्वेच्छासे स्वीकार किया जाता है वह उच्चतर चेतनाके आन्तरिक विकास और प्रगतिके लिये हानिकारक नहीं हो सकता ।

 

३-१०-६

 

२६६


१६६ -- पाप और पुष्यका द्विविध विधान हमारे ऊपर इस कारण लाद दिया गया है कि अभी हमें वह आदर्श जीवन और आंतरिक ज्ञान नहीं प्राप्त है जो आत्माको सहज-स्वाभाविक तथा अभ्यंतर रूपसे उसकी आत्मपरिपूर्णताकी ओर ले जाता है । पाप-पुष्यका विधान हमारे लिये समाप्त हो जाता है जब भाग- बत सूर्य अपनी अनावृत गरिमाके साथ सत्य एवं प्रेममें स्थित अंतरात्माके ऊपर चमकता है । उस समय मूसाका स्थान ईसा, शास्त्रका स्थान वेद' ले लेता है ।

 

     क्या आपके ख्यालमें पाप और पुण्यके इस विचारने मानव- जातिका कुछ हित किया है?

 

जैसा कि श्रीअरविन्दने कहा है, पाप और पुण्यका नियम उस समय जब क हज़ारों वर्ष पहले यह मानवजातिपर लागू किया गया था, निश्चय ही उसके विकासके लिये आवश्यक था । किन्तु आज इसका न कोई अर्थ रह गया है न उपयोगिता । और, अब इसकी और ध्यान देनेकी आवश्यकता नहीं ।

 

  यह अतीतका वह अंग है जिसका अधिकार अब और नहीं माना जाना चाहिये ।

 

  किंतु ऐसा करनेके लिये, इसका स्थान एक अधिक आलोकित और सच्चे नियमको लेना होगा, अव्यवस्था और भ्रष्टताको नहीं ।

 

४-१०-६

 

   और यह आलोकित नियम' कौन-सा है?

 

भागवत आदेशके प्रति पूर्ण और सहज आज्ञाकारिता । इसी आदेश- को समस्त नियमोंका स्थान लेना चाहिये ।

 

२६-९-७०

 

 शास्त्र -- ग्रंथ; वेद - ज्ञान ।

  यह प्रश्न इन टिप्पणियोंको प्रकाशित करते समय बादमें श्रीमांसे पूछा गया था ।
 

२६७


   क्या सभी सामाजिक और नैतिक प्रथाओंको तोड़ना अच्छा है, जैसा कि नयी पीढ़ी कर रही है? क्या इन चीजोंका कुछ मूल्य नहीं है?

 

जिस चीजका एक युगमें मूल्य होता है उसका दूसरे युगमें कोई मूल्य नहीं रह जाता, क्योंकि मानव-चेतना विकास करती रहती है । किंतु तुम्हें एक बातपर विशेष ध्यान देना होगा कि जिस नियमको मानना बंद किया जाय उसके स्थानपर एक ऐसे अधिक ऊंचे और अधिक सच्चे नियमको रखा जाय जो आनेवाली पूर्णताके रास्तेमें सहायता कर सकें ।

 

  तुम्है किसी कानूनको तोड़नेका अधिकार तबतक नहीं है जबतक कि तुम उससे ऊंचे और अच्छे नियमको जान न लो और उसका पालन न कर सको ।

 

५-१०-६१

 

 उच्चतर नियम'का कैसे पालन किया जाय?

 

प्रत्येक क्षण वही करो जो भगवान् तुमसे चाहते है ।

 

२६-९-७०

 

१६७ -- जब हम अज्ञानके बंधनोंमें जकड़े रहते है तब भी अंतरस्थ भगवान् हमें सर्वदा ठीक-ठीक पथसे ले चलते हैं; परंतु उस हालतमें, यद्यपि लक्ष्य सुनिश्चित होता है, हम उसे चक्कर काटते हुए तथा गलत रास्तेमें भटकते हुए प्राप्त करते हैं ।

 

भगवानके द्वारा पूर्वदृष्ट लक्ष्य सदा प्राप्त होता है, किंतु केवल वही लोग उसे सीधे और प्लेन रूपमें प्राप्त कर सकते हैं जिनकी चेतना भागवत चेतनाके साथ एक हों गयी है । अन्य लोग - उनकी एक कड़ी संख्या जो केवल अपनी बाह्य सत्ताके प्रति सचेतन है - बहुत-से चक्कर काटकर ही लक्ष्यको प्राप्त करते हैं, और इसमें कभी-कमी ऐसा भी प्रतीत होता है कि वे अपने लक्ष्यसे विमुख हों गये है ।

 

६-१०-६

 

   १यह प्रश्न' ये टिप्पणियां प्रकाशित करते समय बादमें श्रीमांसे पूछा गया था ।

 

२६८


   १६८ -- योगमें 'क्रास' ( + ) सूचित करता है उस अंतरात्मा ओर प्रकृतिको जो अपने प्रगाढ़ तथा पूर्ण एकत्वको प्राप्त कर चुके हैं; परंतु अज्ञानकी गन्दगियोंके अंदर हमारा पतन हो जानेके कारण यह दुःख-भोग और पवित्रीकरणका प्रतीक बन गया है ।

 

   १६९ -- ईसामसीह पवित्र बनानेके लिये जगत् में आये, पूर्ण बनानेके लिये नहीं । स्वयं उनकों यह भविष्य-ज्ञान प्राप्त था कि उनका जीवन-कार्य असफल हो जायगा तथा उन्हें फिरसे भगवान्की तलवार लेकर उसी जगत् में वापस आनेकी आवश्यकता होगी जिसने उनको अस्वीकार कर दिया था ।

 इस सूत्रमें ''भगवान्की तलवार''का क्या अर्थ है?

 

भगवान्की तलवार वह शक्ति है जिसका सामना कोई नहीं कर सकता ।

 

७-१०-६९

 

१७० -- मुहम्मदका मिशन आवश्यक था, अन्यथा हम आत्मशुद्धिके प्रयासकी अतिरंजनाके कारण इस विचारके साथ ही इतिश्री कर देते कि पृथ्वी केवल साधु-संन्यासियोंके लिये ही अभिप्रेत है तथा नगरोंका निर्माण रेगिस्तानकी डचोढीके रूपमें ही हुआ था ।

 

१७१ -- अन्ततः प्रेम और शक्ति एक साथ मिलकर ही जगत्- की रक्षा कर सकते हैं, केवल प्रेम या केवल शक्ति नहीं । हंसी कारण ईसाको एक दूसरे आविर्भावकी प्रतीक्षा करनी पड़ी तथा मुहम्मदका धर्म, जहां बह पंगु नहीं बना है, इमामोंके द्वारा किसी मेहदीकी प्रतीक्षा करता है ।

 

अकेला प्रेम, जिसका प्रचार ईसाने किया। था, मनुष्योंको बदल नहीं सका ! अकेलि शक्ति भी, जिसकी शिक्षा मुहम्मदने दी, मनुष्योंको परिवर्तित नहीं कर सकी, यह बहुत दूरक बात है ।

 

  इसीलिये जो चेतना आज मनुष्यके रूपांतरके लिये कार्य कर रही है

 

२६९


उसने शक्ति और प्रेमको संयुक्त कर दिया है और जिसने इस रूपांतरको साधित करना है वह भागवत प्रेमकी शक्तिके साथ ही पृथ्वीपर अवतरित होगा ।

 

१०-१०-६

 

१७२ -- नियम-कानून जगत् की रक्षा नहीं कर सकता, इसीलिये मूसाके अध्यादेश मानवताके लिये मर गये है तथा ब्राह्मणोंके शास्त्र दूषित और म्ग्यिमाण हैं । जो विधान स्वतंत्रताके अंदर मुक्त कर दिया जाता है वही मुक्तिदाता बनता है । पंडित नहीं योगी, संन्यास नहीं कामना, अज्ञान तथा अहंभावका आंतरिक परित्याग आवश्यक है ।

 

यह एक निर्विवाद स्पष्टीकरण है, और हम ठीक यही करनेका प्रयत्न कर रहे है । किंतु मानव प्रकृति विद्रोही होती है, उसे कामना, अज्ञान और अहंभावके त्यागके मूल्यपर स्वाधीनता प्राप्त करना कठिन लगता है । अधिकतर लोग कामना, अज्ञान और अहंभाव से रहित मुक्ति- की अपेक्षा उनकी दासता अधिक पसंद करते है ।

 

१३-१०-६९

 

१७३ -- एक बार विवेकानंदने भी भावावेशमें आकर इस मिथ्या सिद्धांतको स्वीकार कर लिया था कि साकार भगवान् इतने अधिक अनैतिक होंगे कि उन्हें साह नहीं जा सकता और सभी भले आदमियोंका यह कर्तव्य है कि उन (भगवान्) का विरोध करें । परंतु कोई सर्वशक्तिमान् अतिनैतिक संकल्प- शक्ति और बुद्धि यदि जगत्का संचालन करती हो तो निश्चय ही उसका विरोध करना असंभव है; हमारा विरोध केवल उन्हींके उद्देश्योंको पूरा करेगा और वास्तवमें वह उन्हींके द्वारा निर्देशित होगा । अतएव, उन्हें तिरस्कृत या अस्वीकृत करनेके बदले क्या उनकी खोज करना ओर उन्हें जानना कहीं अधिक अच्छा नहीं है?

 

१७४ -- अगर हम भगवानको जानना चाहें तो हमें अपने

 

२७०


  अहंकारपूर्ण तथा अज्ञानमय मानवीय मानदण्डोंका त्याग करना होगा अथवा उन्हें उन्नत और सार्वभौम बनाना होगा ।

 

मानव-बुद्धिके अनुसार संसार भयंकर रूपसे अनैतिक है, दुःख और कुरूपता- से भरा हुआ है, विशेषतया मनुष्यजातिके आविर्भावके बादसे । इसलिये मानव चेतनाके लिये यह स्वीकार करना कठिन है कि यह संसार भगवान्- की अपनी कृति है । कारण, यह मनुष्यको एक सर्वशक्तिमान् दैत्यका कार्य प्रतीत होता है ।

 

  किंतु श्रीअरविद यह मी कहते हैं कि बुरा-भला कहनेके स्थानपर समझनेका प्रयत्न करना अधिक अच्छा है ।

 

  ओर समझनेका सर्वश्रेष्ठ ढंग क्या यही नहीं है, अपने-आपको इस सर्वोच्च चेतनाके साथ संयुक्त करना ताकि हम उसी प्रकार देखें जैसे वह देखती है और उसी प्रकार समझें जैसे वह समझती है? निश्चय ही यही एकमात्र सच्ची बुद्धिमत्ता है ।

 

  और  योग ही सर्वोच्च सत्ताके साथ संयुक्त होनेका सच्चा ढंग है ।

 

१५--१०-६९

 

१७५ -- चूंकि एक भला मनुष्य मर जाता या असफल होता है और बुरे लोग जीते रहते और विजयी होते हैं, इसलिये क्या भगवान् बुरे है? इसमें मुझे कोई तर्क नहीं दिखता । सबसे पहले तो मुझे यह प्रतीति हो जानी चाहिये कि मृत्यु और असफलता अशुभ हैं; मैं कभी-कभी सोचता हू कि जब वे आती हैं तब, उस समय, हमारे लिये परम शुभ होती हैं । परंतु हम अपने हृदयों और स्नायुओंके धोखेमें रहते हैं और यह तर्क करते हैं कि जिस वस्तुको वे पसंद नहीं करते या नहीं चाहते वह निस्संदेह बुरी होगी ।

 

  किंतु उन लोगोंके बारेमें क्या कहा जाय जो अभागों. हैं ओर जो कुछ हाथमें लेते है उसमें असफल होते है?

 

सबसे पहले, और सदाके लिये यह जान लेना चाहिये कि संयोग जैसी कोई चीज नहीं है, न अच्छी, न बुरी ।

 

२७१


 जो वस्तु हमारे अज्ञानको संयोग प्रतीत होती है, वह बस उन कारणों- का फल है जिनकी हम अवज्ञा करते है ।

 

  यह निश्चित है कि जिसमें इच्छाएं है और जिसकी इच्छाएं पूरी नहीं होती उसके लिये यह इस बातका चिह्न है कि भागवत कृपा उसके साथ है और वह उसे अनुभवके द्वारा द्रुत वेगसे प्रगतिके पथपर चलाना चाहती है और उसे यह सिखाती है कि भगवदिच्छाके प्रति सहज और स्वेच्छा- पूर्वक किया गया समर्पण किसी मी इच्छाकी तुष्टिसे निश्चित रूपमें कही अधिक प्रसन्नता प्रदान करता है, एक ऐसी प्रसन्नता जो शांति और प्रकाशसे युक्त होती है ।

 

 १७-१०-६९

 

१७६ - जब मै अपने विगत जीवनका सिंहावलोकन करता हूं तो देखता हू कि यदि मैं असफल न हुआ होता ओर कष्ट न भोगता तो अपने जीवनके चरम वरदानोंको ही खो देता; फिर भी पीड़ा और विफलताके समयमें दुर्भाग्यका अनुभव कर- के विकल हो गया था । चूंकि हम अपनी नाकके नीचे धटित एक घटनाके अतिरिक्त ओर कोई चीज नहीं देख पाते इसीलिये हम इस तरह रोते-धोते ओर हो-हल्ला मचाते हैं । शांत हो जाओ, ऐ मूर्ख हृदयों! अहंभावका वध कर डालों, विशालता तथा विश्वमयताकी दृष्टिसे देखना और अनुभव करना सीखो ।

 

१७७ -- पूर्ण विश्वव्यापक दृष्टि तथा विश्वभय भाव समस्त भूल-भांति तथा दुःख-कष्टकी दबा हैं; परंतु अधिकांश व्यक्ति केवल अपनी अर्हताके क्षेत्रको ही विस्तारित करनेमें सफल होते हैं ।

 

   ''विश्व व्यापक दृष्टि और विश्वमय भाव'' क्या है और इन्है कैसे प्राप्त किया जा सकता है?

 

इसका अर्थ बस यही है, एक ही साथ समग्र पृथ्वीका दर्शन और उस समग्र दर्शनके परिणामस्वरूप पैदा होनेवाली भाबना । इस सबमें एक साथ सब कुछ विद्यमान होता है, प्रकाश और अंधकार, कष्ट ओर आनंद, सुख और

 

१७२


दुःख, और यह सब फिर भगवानके प्रति पूजा-भावका एक स्पंदन उत्पन्न कर देता है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सभी ष्ठवनियां एक साथ सुनी जानेपर परम आवाहनकी एक ही ध्वनि खै बन जाती हैं ।

 

 १८-१०-६९

 

१७८ -- मनुष्य कहते हैं और सोचते हैं : ''अपने देशके लिये! '' ''मनुष्यजातिके लिये! '' ''जगत् भरके लिये! '' परंतु सच पूछो तो उनका मतलब होता है : ''अपने देशके अंदर दृष्ट स्वयं अपने सर्वके लिये! '', ''मनुष्यजातिमें दृष्ट अपने स्वके लिये! '', अपने ख्यालके अनुसार संसारके रूपमें कल्पित अपने स्वके लिये! '' यह एक प्रकारकी विस्तृति हो सकती है, पर बह मुक्ति नहीं है । विशालतामें निर्जन होकर रहना और एक विशाल कारागारमें बद्ध रहना -- ये दोनों स्वतंत्रताके एक जैसी अवस्थाएं नहीं हैं ।

 

 स्वतंत्र होनेके लिये, कारागारमेंसे निकलना ही होगा । और यह कारागार अहं है -- पृथक व्यक्तित्वकी यह भावना । मुक्त होनेके लिये व्यक्तिको चेतन और समग्र रूपमें सर्वोच्च सत्ताके साथ तादात्म्य स्थापित करना होगा, और इस तादात्म्यके द्रारा अपने अहंकी सीमाओंको तोड़ना होगा आर अपने- आपको वैश्व रूप देकर अहंके अस्तित्वको ही समाप्त कर देना होगा, चाहे चेतनाका व्यष्टि रूप बना भी रहे ।

 

१९-१०-६९

 

१७९ -- अपने पड़ोसीके अंदर विद्यमान भगबानके  लिये, स्वयं अपने अंदर विद्यमान भगवानके लिये, अपने देशमें तथा अपने शत्रुके देशमें विद्यमान भगवानके लिये, मनुष्यजातिमें विद्यमान भगवानके लिये, वृक्ष, पत्थर और पशुमें विद्यमान भगवानके लिये, जगत् में और जगत् से बाहर विद्यमान भगवानके लिये जीवन धारण करो और तब समझो कि तुम स्वतंत्रताके सीधे पथपर हो ।

 

इसके साथ कुछ और जोड़नेके नहीं है । यह सत्य है -- स्पष्ट रूपसे सत्य

 

१७३


है - और निश्चयता प्राप्त करनेके लिये व्यक्तिको यह अनुभूति प्रान्त करनी होगी, क्योंकि केवल अनुभूति हीं पूरी तरह विश्वास दिलाती है ।

 

२१-१०-६९

 

१८०-- क्षुद्रतर और बृहत्तर दोनों प्रकारके सनातनत्व है; क्योंकि सनातनत्व आत्मासे संबंधित एक शब्द है और वह कालके अंदर भी विद्यमान रह सकता है तथा साथ ही काल- का अतिक्रमण भी कर सकता है । जब शास्त्र ''शाश्वती समा'' कहते हैं तब उनका मतलब कालके एक दीर्घ प्रसार और स्थायित्वसे या प्रायः एक अपरिमेय कल्पसे होता है; एकमात्र पूर्ण भगवान्में ही पूर्ण शाश्वतता है । फिर भी जब कोई भीतर प्रवेश करता है तब देखता है कि यथार्थमें सभी वस्तुएं शाश्वत हैं; कहीं अंत नहीं है और न कभी कोई आरंभ ही था ।

 

   अनन्तताकी अनुभूति कैसे प्राप्त की जाय?

 

शशावत, अर्थात्? भगवानके साथ अपने-आपको संयुक्त करके ।

 

२३-१०-६९

 

  १८१ -- अब तुम किसी दूसरेको मूर्ख कहते हो, जैसा कि तुम कभी-कभी करते ही हो, तब उसके साथ यह भा मत भूलो कि तुम स्वयं भी सारी मनुष्यजातिमें सबसे बड़े मूर्ख रहे हो ।

 

१८२ -- भगवान् मौकेपर मूर्ख बनना पसंद करते है; मनुष्य मौक़े-बेमौके मूर्ख बनता है । अंतर बस इतना ही है ।

 

  बहुत वर्षोंसे हम देख रहे हैं कि हमारे प्रायः सभी बच्चे, छोटे और बड़े, अपनी नित्यप्रतिकी भाषामें असाम्य शव्दोंका व्यवहार करने लगे है, उदाहरणार्थ, प्रत्येक वाक्यके बीचमें वे ''मूर्ख'', ''बेवकूफ'' आदि, तथा इसी प्रकारकी अन्य भारतीय भाषाओं- की गालियां प्रयुक्त करते हैं, यद्यपि उनका उसमें कोई बुरा

 

२७४


  भाव नहीं होता । उनकी इस बुरी आदतको, जो अब काफी बढ़ चुकी है, कैसे दूर किया जाय?

 

 इसका एकमात्र उपाय है उन्हें यह सिखाना कि बोलनेसे पहले सोच लें तथा केवल वही शब्द मुंहसे निकालें जो विचारकों प्रकट करनेके लिये अति अनिवार्य हों ।

 

  जितना कम बोला जाय, उतना ही अच्छा । और यदि किसी दूसरे- को या दूसरोंको कुछ बताना अनिवार्य हो तो बुद्धिमत्ता इसीमें है कि अनीवर्य शब्द ही बोले जायं, उससे अधिक कुछ नहीं ।

 

२४-१०-६९

 

१८३ -- वृद्धोंकी दृष्टिमें एक चींटीको डूबनेसे खचा लेना एक साम्राज्य स्थापित करनेसे भा अधिक घड़ा कार्य ह । इस बिचारमें एक सत्य है, पर एक ऐसा सत्य जिसे आसानीसे अतिरंजित किया जा सकता है ।

 

१८४ -- एक गुणको,-- करुणातकको, - अनुचित रूपमें सभी गुणोंसे ऊंचा उठा देनेका तात्पर्य है अपने ही हाथोंसे प्रज्ञाकी आखोंको बंद कर देना । भगवान् निरंतर एक समन्वयकी ओर अग्रसर होते हैं ।

 

सभी अतिशयोक्तियों, सभी पृथक्करणोंका अर्थ है संतुलनका अभाव और समस्तरता-संबंधी दोष; अतएव, यह सब उस व्यक्तिके लिये एक भूल होती है जो कि पूर्णताकी खोज करता है । कारण, पूर्णता केवल सर्वोच्च समग्रतामें ही निवास कर सकती है ।

 

२८-१०-६९

 

१८५ - जबतक तेरी आत्मा भेद-भाव करती है तबतक तू दुःखी पशुओंके प्रति दया-भाव बनाये रख सकता है; परंतु मानवता तुझसे कोई और महत्तर वस्तु पानेकी अधिकारिणी है, बह तुझसे प्रेमकी, सहानुभूतिकी, बंदुत्व, समान व्यक्ति तथा भाईसे प्राप्त होनेवाली सहायताकी मांग करती है ।

 

२७५


१८६ -- संसारके कल्याणमें अशुभके योगदानसे तथा कभी- कभी पुण्यात्माओंसे पहुंचनेवाली हानिसे कल्याणकामी अंतरात्मा- को कष्ट पहुंचता है । फिर भी न तो दुःखी होओ न विभागों, बल्कि मानवताके साथ भगवान् जिन तरीकोंसे व्यवहार करते हैं उनकी खोज करो तथा उन्हें शांतिपूर्वक समझो ।

 

   ''श्रीअरविन्द यहां यह कहना चाहते हैं कि चेतनाकी एक ऐसी ऊंचाई है जहां शुभ और अशुभकी सामान्य धारणाएं अपना समस्त मूल्य खो देती है । वे हमें अपनी चेतनामें ऊपर उठनेकी, पृथ्वीपर जिस प्रकार वस्तुएं घटती है उससे देते हैं ।

 

 प्रभावित होनेके स्थानपर भगवान्के साथ संयुक्त होनेकी सलाह तभी हम समझ सकेंगे कि चीजें ऐसी क्यों है ।

 

२९-१०-६१

 

१८७ -- भगवानके विधानमें अशुभ नामकी कोई वस्तु नहीं है, बल्कि केवल शुभ है या उसके लिये तैयारी ।

 

१८८ -- पुण्य और पाप इसलिये बनाये गये थे कि तेरी आत्मा संघर्ष और प्रगति करे; परंतु जहांतक परिणामका संबंध है वह भगवानके हाथोंमें है, जो पाप और पुष्यसे परे रहकर अपने-आपको चरितार्थ करते हैं ।

 

पाप और पुण्य विकास और प्रगतिकी आवश्यकताकी पूर्तिके लिये मानव मनके आविष्कार है -- किंतु दिव्य चेतनामें पाप और पुण्यका अस्तित्व नहीं हैं ।

 

  समूचा विश्व ही उस वस्तुकी ओर एक धीमी विकास-क्रिया है जिसे उसे अभिउयक्त करना है ।

 

३०-१०-६९

 

  १८९ -- अंतरमें निवास करो; बाह्य घटनाओंमें विचलित मत होओ ।

 

  १९० -- दानशीलताके दिखावेके लिये अपने दानोंको सर्वत्र

 

२७६


न बिखेरो; तुम जिसकी सहायता करते हो उसे समझो और उससे प्रेम करो । अपने अंदर अपनी आत्माको वर्द्धित होने दो ।

 

१९१ -- जब तुम्हारे संग गरीब हों तो गरीबोंकी सहायता करो; परंतु इस बातका भी ख्याल रखो और प्रयास करो कि तुम्हारी सहायता पानेके लिये कोई गरीब ही न बना रहे ।

 

 भगवानके लिये सतत अभीप्सा करते हुए अपने अंदर निवास करना ही हमें जीवनकी ओर एक मुस्कराहटके साथ देखने तथा शांतिपूर्वक रहनेके योग्य बनाता है, बाह्य परिस्थितियां कैसी भी क्यों न हों ।

 

  गरीबोंके बारेमें श्रीअरविन्द कहते है कि गरीबोंकी सहायता करना अच्छा है बशर्त्ते कि यह दानका एक व्यर्थ दिखावा न हो । किंतु दुःख और कष्ट- का इलाज करनेकी चेष्टा करना कहीं अधिक बड़ा कार्य है, जिससे कि पृथ्वीपर कोई गरीब ही न रहे ।

 

 ३१-१०-६१

 

१९२--भारतका प्राचीन सामाजिक आदर्श यह मांग करता था कि पुरोहित स्वेच्छापूर्वक सादा जीवन यापन करे, पवित्रता और विद्वत्तासे परिपूर्ण हो तथा समाजको निशुल्क शिक्षा प्रदान करे, राजा युद्ध करे, शासन करे, दुर्बलोंकी रक्षा करे एवं युद्धक्षेत्रमें अपना जीवन अर्पित कर दे, वैश्य व्यापार करे, उपार्जन करे तथा अपना उपार्जित धन मुक्तहस्त होकर समाजको वापस लौटा दे, और शूद्र शेष समाजके लिये एवं भौतिक वस्तुओंकी प्राप्तिके लिये परिश्रम करे । शूद्रके दासत्वकी क्षतिपूर्तिके लिये उसने उसे आत्मनयागके कर, रक्तके कर तथा धसंपत्तिके करसे मुक्त कर दिया था ।

 

आरंभमें, कोई छ: हजार वर्ष पहले, यह बिलकुल ठीक था, और प्रत्येकका उसकी प्रकृतिके अनुसार वर्गीकरण किया जाता था । बादमें यह एक कठोर सामाजिक प्रथा बन गयी, अर्थात्, जन्मके अनुसार वर्गीकरण होने लगा और अंतमें यह इतना मनमाना हो गया कि इसमें व्यक्तिके सच्चे गुणस्वभावकी बिलकुल ही उपेक्षा. कर दी गयी । तब यह विचार ही गलत हो गया और इसे समाप्त हों जाना पड़ा ।

 

२७७


  किंतु ज्यों-ज्यों मनुष्य विकसित होता जा रहा है, त्यों-त्यों उसके व्यवसाय अब अपनी प्रकृति ओर योग्यताके अनुसार अधिकाधिक वर्गीकृत हो रहे हैं, ओर अब उनमें कठोरता कम है और बे अधिकायिक सच्चे बनते जा रहे हैं ।

 

 ७-११-६९

 

१९३ -- दरिद्रताका होना एक अन्यायपूर्ण तथा सुव्यवस्थित समाजका प्रमाण है, और हमारी सार्वजनिक दानशीलता एक डाकूके विवेकका प्रथम और धीमा जागरण है ।

 

१९४ -- हमारे प्राचीन महाकाव्यके रचयिता, वाल्मीकि, एक न्यायपरायण और प्रबुद्ध सामाजिक स्थितिके लक्षणोंमें केवल सार्वजनीन शिक्षा, नैतिकता तथा आध्यात्मिकताको ही नहीं, वरन् इस बातको भी अंतर्गत करते हैं कि ऐसा एक भी आदमी नहीं रह जाना चाहिये जो मोटा अन्न खानेके लिये बाध्य हो, ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं होना चाहिये जो मुकुट- हीन और राजतिलकविहीन हो अथवा जो भोग-विकासका एक तुच्छ और हीन दास बनकर जीवन यापन करता हों ।

 

१९५ -- श्रेणीगत या व्यक्तिगत रूपसे दरिद्रताका वरण करना महान् और उपकारी कार्य है, पर इसे यदि विकृत रूपसे सर्व- सामान्य या राष्ट्रीय आदर्शके रूपमें स्थापित किया जाय तो यह संहारक बन जाता है तथा जीवनसे उसकी समृद्धि और प्रसारताको छीनकर उसे निस्वन बना देता है ।

 

१९६ -- नैसर्गिक शरीरके लिये जैसे रोग आवश्यक नहीं है वैसे ही सामाजिक जीवनके लिये दरिद्रताकी कोई आवश्यकता नहीं है; जीवनके अनुचित अभ्यास तथा समाज-संबंधी समुचित संगठनके विषयमें हमारा अज्ञान ही इन दोनों क्षेत्रोंमें परिहार्य वित्युखलताका भ्रमपूर्ण कारण है ।

 

  क्या ऐसा दिन आयेगा जब कोई गरीब नहीं रहेगा, न ही संसारमें कोई दुःख रहेगा?

 

२७८


यह उन लोगोंके लिये, जो श्रीअरविन्दकी शिक्षाको समझते हैं एवं उसमें श्रद्धा रखते हैं, बिलकुल निश्चित है ।

 

  क्योंकि हम एक ऐसा स्थान बनाना चाहते हैं जहां ऐसा हो सके, इसी- लिये हम ओरोवीलकी स्थापना करना चाहते हैं ।

 

  किंतु हममेंसे प्रत्येकको अपना रूपांतर करनेका प्रयत्न करना चाहिये जिससे कि यह उपलब्धि संभव हो सकें । कारण, मनुष्योंका कष्टके एक अधिक बड़ा भाग उसकी अपनी मूलों -- भौतिक और नैतिक दोनों -- का परिणाम है ।

 

८-११-६

 

  यह आप कैसे कहती है कि ओरोवीलमें कोई दुःख या कष्ट नहीं होगा, जब कि जो लोग ओरोवीलमें रहनेके लिये आयेंगे वे इसी संसारके हैं, और इन्हीं दुर्बलताओं और इन्हीं दोनोंके साथ पैदा हुए हैं?

 

  मैंने यह कभी नहीं सोचा कि ओरोवीलमें कमी दुःख-कष्ट नहीं होगा, क्योंकि मनुष्योंकी वर्तमान स्थिति यह है कि दे कष्टको पसंद करते है और उसे बुरा-भला कहते समय भी उसे पुकारते रहते हैं ।

 

  किंतु हम उन्हें शांतिके साथ सचमुच प्रेम करने तथा आत्माकी समताको बनाये रखनेकी शिक्षा देनेका प्रयत्न करेंगे ।

 

  मैं उस गरीबी ओर भिखारीपनकी बात कहना चाहती थी जो लाचारी- से हमें स्वीकार करने पड़ती है ।

 

  ओरोवीलमें जीवनकी व्यवस्था इस प्रकार की जायगी कि गरीबी वहां रहेगी ही नहीं - और यदि भिखारी बाहरसे आयें मी, तो या तो उन्है वहांसे चले जाना पड़ेगा या उन्है अतिथिशालामें रखकर कामका आनंद लेना सिखाया जायगा ।

 

९-११-६९

 

  आश्रम और ओरोवीलके आदर्शमें मूल अंतर क्या है?

 

भविष्यके प्रति और भगवान्की सेवाके प्रति अपनाये गयी वृत्तिके विषयमें कोई मूल अंतर नहीं है ।

 

२७९


  किंतु आश्रमके निवासियोंके विषयमें यह समझा जाता है कि उन्होंने अपना जीवन योगके प्रति अर्पण कर दिया है (विधार्थियोंको छोड्कर जो यहां केवल असुययनके लिये आये है और जिनसे जीवनमें अपना चुनाव करनेके लिये नहीं कहा जाता) ।

 

  जब कि ओरोवीलमें प्रवेश पानेके लिये मानवजातिके विकासके लिये एक सामूहिक प्रयोग करना तथा इस प्रयोगके लिये केवल सद्भावनाका होना ही पर्याप्त ह ।

 

१०-११-६९

 

१९७ -- स्पर्धा नहीं वरन् एथेंस मानवजातिके लिये विकास- का आदर्श नमूना है । प्राचीन भारत अपनी विशाल धन- संपत्ति और विशाल उपभोगके आदर्शके साथ सबसे अधिक महान् था । आधुनिक भारत, जिसकी प्रवृत्ति राछव्यापी तापस जीवनकी है, अपने जीवनमें दुर्बलता एवं अवनतिको प्राप्त हो गया है ।

 

१९८ -- यह स्वप्न मत देखो कि जय तुम भौतिक दरिद्रता- से मुक्त हो जाओगे तो मानवजाति प्रसन्न और संतुष्ट हो जायेगी अथवा समाजके सब दुःख-दरिद्र तथा समस्याएं पुर हो जायंगे । यह केवल पहली और निम्नतम आवश्यकता हैं । जबतक अंतःस्थित आत्माकी व्यवस्था दोषपूर्ण रहेगी, तबतक बाह्य अशांति, अव्यवस्था और विप्लवकी अवस्था हमेशा बनी रहेगी ।

 

यह बिलकुल स्पष्ट है; ओर हम यही बात लोगोंको समझानेकी चेष्टा कर रहे है । एक सुरक्षित और शांत जीवन लोगोंको सुखी बनानेके लिये काफी नहीं है । एक आंतरिक विकास आवश्यक है और एक ऐसी शांति भी जो भगवानके साथ चेतन संपर्कसे आती है।

 

१३-११-६९

 

२८०


१९९ -- यदि आत्मामें दोष दुआ तो शरीरको रोग तुषार घेरेगा ही; क्योंकि मनके पाप शरीरके पापोंके गुप्त कारण होते हैं । इसी प्रकार गरीबी और कष्ट भी तबतक मनुष्य- पर आते ही रहेंगे, जबतक कि मानवजातिका मन अहंभावके अधीन रहेगा ।

 

२०० -- धर्म और दर्शन मनुष्यको उसके अहंभावसे मुक्त करनेमें सबसे अधिक सहायक होते हैं । तब अंतःस्थित स्वर्गका राज्य सहज हो जायगा और स्वभावत: वह एक बाह्य दिव्य नगरमें प्रतिबिंबित हो उठेगा ।

 

 श्रीअरविन्द 'दर्शन' और 'धर्म' शब्दोंका प्रयोग करते हैं ताकि सब समझ सकें । किंतु वे यह अच्छी तरह जानते थे कि मानव अहंभावका फलप्रद इलाज धर्म और दर्शनसे परे, सच्चे आध्यात्मिक जीवनमें है, एक ऐसे जीवन- मे जिसे भौतिक चेतनाने पृथ्वीपर स्वीकार कर लिया है और अपना लिया है -- यह एक ऐसी वस्तु है जो अंततः उसे अहंकारसे मुक्त होनेकी सामर्थ्य. प्रदान करेगी ।

 

 १५-११-६९

 

२०१ -- मध्य युगके ईसाई धर्मने मनुष्यजातिसे कहा : ''मनुष्य, तू अपने पार्थिव जीवनमें एक बुरी वस्तु है और भगवानके सामने एक कीटमात्र है; अपने अहंभावका त्याग कर दे, भविष्यके राज्यके लिये जीवन धारण कर और अपने-आपको भगवान् और उसके पुरोहितके अधीन कर दे ।', इसके परिणाम मनुष्यजातिके लिये कोई अधिक अच्छे नहीं निकले । आधुनिक ज्ञान मनुष्यजातिसे कहता है : ''मनुष्य, तू एक क्षण- भंगुर जीव है और जीव प्रकृतिके सामने एक चींटी था केंचुए- से अधिक नहीं है, विश्वमें एक क्षणिक है । अतएव, राज्यके लिये जीवन धारण कर और चींटीके समान ही अपने प्रशिक्षित शासक और विज्ञान-विशारदके अधीन होकर रह ।', क्या यह शिक्षा पहलीसे कुछ अधिक सफल होगी?

 

२०२ -- उधर वेदांत कहता है : ''मनुष्य, तू भगवानके तत्त्व

 

२८१


और स्वभावसे ही बना है, अन्य मनुष्योंके साथ एकात्म है । जाग, और चरम दिव्यताको प्राप्त कर, अपने अंदर और दूसरोंके अंदर भगवानके लिये जीवन धारण कर ।', यह उपदेश जो केवल कुछ ही लोगोंको दिया गया था अब समूची मानवजातिको उसकी मुक्तिके लिये दिया जाना चाहिये ।

 

 इसमें' जोड़नेके लिये कुछ नहीं है । श्रीअरविंदने बड़ी स्पष्टता और निपुणतापूवंक पहले अशुभकी व्याख्या की है और फिर उसका इलाज बताया है । जो कुछ उन्होंने हमें सिखाया है उसे व्यवहारमें लानेके सिवाय और अब कुछ नहीं करना है ।

 

१६-११-६९

 

२०३ -- मानवजाति सदा ही सबसे अधिक विकास तब करती है जब बह प्रकृतिके सामने अपने महत्त्वकी, अपनी स्वतंत्रता और वैश्व-भावकी पुष्टि करती है ।

 

२०४ -- पशु-रूपी मानव एक अंधकारमय आरंभिक है, वर्तमान प्राकृतिक मानव बहुरंगी और उलझा हुआ और बीच- का रास्ता है, किंतु अलौकिक मानव हमारी मानव यात्राका आलोकपूर्ण और परमोच्च लक्ष्य है ।

 

मनुष्यको पूरी विकास-शक्ति तब प्राप्त होती है जब वह यह अनुभव करने लगता है कि वह प्रकृतिसे न तो बंधा है न ही उसके नियमोंदुरा सीमित है ।

 

   प्रकृति भगवान्की एक सीमित अभिव्यक्तिमात्र है, जब कि मनुष्य शक्ति और ज्योतिकी सब संभावनाओंको लाता हुआ भगवान्की सचेतन अभिव्यक्ति बननेके लिये बना है ।

 

१८-११-६९

 

२०५ -- जीवन और कर्म तब अपने शिखरपर पहुंच जाते हैं और तुम्हारे लिये सदाके लिये गौरवान्वित हो उठते हैं जय तुम प्रत्येक विचार और क्रममें, कला, साहित्य और

 

२८२


जीवनमें, धर, राज्य और समाजमें, संपत्तिको प्राप्त, अधिकृत और वितरण करने में तथा अपनी निम्नतर मर्त्य सत्तामें एकमेव अमर सत्ताको मूर्त और अभिव्यक्त करनेकी शक्ति पा लेते हो ।

 

 निःसंदेह यह मनुष्यकी उस अवस्थाका वर्णन है जब वह अपनी सत्ता- की चोटीपर पहुंच जायगा । किंतु अतिमानवकी ओर तो यह केवल पहला कदम होगा ।

 

२४-११-६१

२८३

कर्म

 

आत्मबिकास और आध्यात्मिक अभीप्सा व्यक्तिको

अपने कर्मपर नियंत्रण रखनेमें समर्थ बना देती है ।

 

*

 

सीखना अच्छा है, वैसा बनना अधिक, अच्छा है ।

 

 २५-११- ६१  --श्रीमां


 

कर्म

 

२०६ -- भगवान् मनुष्यको रास्ता दिखाते हैं, जब कि मनुष्य अपने-आपको उलटी ओर ले जाता है; उच्चतर प्रकृति निम्न-तर मर्त्य सत्ताके स्खलनोंपर चौकसी रखती है । यही वह उलझन और विरोध है जिसमेंसे निकलकर हमें एक स्पष्ट ज्ञान और आत्म-एकत्वमें प्रवेश करना है, केवल यही निर्दोष कर्म- को संभव बनाता है ।

 

जीवनमें एकमात्र सुरक्षा, अपनी पुरानी भूलोंकी परिणामोंसे बचनेका एकमात्र रास्ता आंतरिक विकास है, जो भागवत उपस्थितिके साथ सचेतन एकत्व स्थापित करनेमें सहायक होता है । बह एकमात्र सच्चा पथप्रदर्शक हमारी सत्ताका और सभी सत्ताओंका 'सत्य' है ।

 

२५-११-६१

 

२०७ -- तुम्हें सब जीवोंपर दया करनी चाहिये, यह बात अच्छी है किंतु यह तब अच्छी नहीं रहती जम तुम अपनी दयाके दास बन जाते हो । भगवान के सिवाय और किसीके दास मत बनो, उनके अत्यधिक ज्योतिपूर्ण देवदूतोंके भी नहीं ।

 

जो लोग सत्यके अनुसार अपना-जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, उनके लिये एकमात्र मार्ग है भागवत उपस्थितिके प्रति सचेतन होना और केवल उन्हींकी इच्छाके अनुसार जीवन बिताना ।

 

   अशुभ और कष्टसे बचनेका एकमात्र मार्ग यही है; सदा शांति, प्रकाश और आनंदमें निवास करनेका भी यही एकमात्र मार्ग है ।

 

२ ६- ११-६१

 

२०८ -- दिव्यानंद है भगवानका उद्देश्य जिसे उन्होंने मनुष्य- जातिके लिये निश्चित किया है; सबसे पहले तू इस परम श्रेयको अपने लिये प्राप्त कर ताकि तू इसे संपूर्णत अपने साथी प्राणियोंमें भी विस्तारित कर सके ।
 


   २०९ -- जो केवल अपने लिये ही अर्जन करता है वह बुरे रूपमें अर्जन करता है, भले ही वह उसे स्वर्ग ओर पुण्यका ही नाम क्यों न दे ।

 

मनुष्यको परमानंद पानेका अधिकार है क्योंकि उसकी रचना इसीके लिये हुई थी । किंतु सभी अहंभावपूर्ण क्रियाएं इस परमानंदकी विरोधी होती है । अत: यदि व्यक्ति उसे केवल अपने लिये ही खोजता है तो बह उसे अपनी ओर खींचनेके स्थानपर दूर हटा देता है । आत्म-विस्मृति और आत्म-निवेदनके द्वारा, बदलेमें कुछ भी मांगे बिना या यूं कहै अपने- आपको परमानंदमें इस प्रकार लीन करके कि वह सभीपर फैल जाय, व्यक्ति आंतरिक शांति और आनंद प्राप्त करता है, जो उसे कभी नहीं छोड़ते ।

 

२१-११-६९

 

      मां, ' 'आत्म-विस्मृति'' और ''आत्म-निवेदन'' मे क्या अंतर ?

 

हैं । 

 

आत्म-विस्मृति केवल एक निष्क्रिय अवस्था हो सकती है जो अहंभावकी पूर्ण अनुपस्थितिके परिणामस्वरूप प्राप्त होती है । जब कि आत्म-निवेदन, जिसका कि पूरा मूल्य तभी होता है जब वह भगवानके प्रति किया जाता है, एक सक्रिय प्रक्रिया है जो अपने अंदर प्रेमके विशुद्ध- तम एवं उच्चतम रूपको लिये रहती है ।

 

  भगवानके प्रति पूर्ण आत्म-समर्पण ही मनुष्यके अस्तित्वका सच्चा हेतु है ।

 

३०-११-६१

 

२१०-- अपनी अज्ञानावस्थामें मैंने समझा था कि क्रोध महत् और प्रतिहिंसा गौरवपूर्ण हो सकती है; परंतु अब जय मैं अकिलीस को प्रचंड कोपमें देखता हूं तो एक बहुत सुन्दर

 

   यह होमरके महाकाव्य 'इलियड'का मुख्य पात्र है और यूनानी सभ्यतामें मनुष्यत्वका आदर्श गिना जाता है ।

 

२८८


बालकको एक बहुत सुन्दर क्रोधमें देखता हूं और मै प्रसन्नता तथा आमोदसे भर जाता हूं ।

 

२११ --शक्ति जब क्रोधसे ऊपर उठ जाती है तो महान् होती है; विनाश भव्य होता है, परंतु वह प्रतिहिंसासे आरंभ हो तो अपनी जाति खो देता है । इन चीजोंका त्याग कर दो, क्योंकि ये निम्नतर मानवतासे संबंध रखती हैं ।

 

क्रोध और बदलेकी भावना निचली मानवताकी वस्तुएं हैं, ये बीते कलकी मानवजातिकी चीजों है, आनेवाले कलकी नहीं ।

 

१-१२-६९

 

२१२ -- कविगण मृत्यु और बाहरी क्लेशोंको बहुत अतिरंजित कर देते हैं, पर एकमात्र दुखांत नाटक है अंतरात्माकी असफल सफलताएं तथा एकमात्र महाकाव्य है मानवका देवत्वकी ओर विजयपूर्ण आरोहण ।

 

साधारणतया, मनुष्य जो एकमात्र दुःखद वस्तु है उससे पीड़ाकर अनुभव नहीं करता, वह प्रभावित नहीं होता, अर्थात्, आत्माको प्राप्त करने तथा उसीके नियमके अनुसार जीवन बितानेमें असफलता ।

 

   सच तो यह है कि एकमात्र सच्ची दुःखद बात है अपनी आत्माके प्रति, आंतरात्मिक सत्ताके प्रति सचेतन न होना, अपने जीवनको संपूर्णतः उसीके दुरा संचालित होनेकी अनुमति न देना ।

 

   सच्ची पराजय तब होती है जब व्यक्ति अपनी आत्माको पाये बिना, उसके नियमके अनुसार जीवन बिताये बिना ही मृत्युको प्राप्त हो जाता हैं ।

 

   और सच्चा महाकाव्य, सच्चा गौरव भगवानको अपने अंदर प्राप्त करने और उन्हींके विधानके अनुसार जीनेमें है ।

 

३-१२-६९

 

 यह वाक्य मूलमें अंग्रेजीमें था ।

 

२८९


२१३ -- हृदय और शरीरके दुःख-शोक हैं बालकोंका अपने तुच्छ कष्टों और अपने टूटे खिलौनोंके लिये रोना । अपने भीतर हंसों, पर बच्चोंको सांत्वना दो; यदि तुम्हारे लिये संभव हो तो, उनके खेलमें भी भाग लो ।

 

मानवी चेतनाकी संकीर्णता ही उन घटनाओंको दुखांत बना देती है जो दिव्य चेतनाके लिये सामान्य विकासकी क्रियाएं मात्र होती हैं । किंतु जब व्यक्ति यह जान भी ले, तो भी उसके अंदर उन लोंगोंके लिये, जो अभीतक अज्ञानके दुःखमें निवास करते हैं, गहरी सहानुभूति हो सकती है और होनी चाहिये ।

  

 ४-१२-६९

 

२१४ -- ''प्रतिभाशाली व्यक्तियोंमें सर्वदा कोई चीज असाधारण होती है और अव्यवस्थित होती है ।'' और क्यों न हो ? क्योंकि स्वयं प्रतिभा भी एक असामान्य उपज है और मनुष्यके साधारण केंद्रके बाहर होतीं है ।

 

२१५ -- प्रतिभा है प्रकृतिका अपने मानव-सांचेके भीतरसे काराबद्ध देवताको मुक्त करनेका प्रथम प्रयास; इस प्रक्रियामें  मेंसांचेको क्षति-ग्रस्त होना पड़ता है । आश्चर्यजनक बात तो यह है कि दरारें इतनी कम और सामान्य होती हैं ।

 

ज्यों ही मनुष्य भगवानके प्रति सचेतन हो जाता है और उनके साय जुड़ जाता ह, वह निश्चय ह सामान्य दलीय असामान्य बन जाता है, क्योंकि तब उसमें सामान्य मानव प्रकृतिका निर्माण करनेवाली दुर्बलताएं नहीं रहती ।

 

   किंतु सौभाग्यवश आंतरिक प्राप्तिके तथ्यके कारण बह सामान्य लोगों- में पायी जानेवाली शेखी बधारनेकी आदत भी खो देता है और इस तरह औरोंकी बुरी भावनाओंसे मी बच सकता है ।

 

५-१२-६९

 

२९०


२१६ -- कभी-कभी प्रकृति स्वयं अपनी बाधाके ऊपर अत्यंत कुपित हो उठती है ओर क्रय वह अंतःप्रेरणाको मुक्त करनेके लिये मस्तिष्कको ही बिगाड़ देती है; क्योंकि इस प्रयासमें साधारण भौतिक मस्तिष्ककी समतोलता ही उसकी प्रधान विरोधिनी होती है । ऐसे लोगोंके पागलपनकी उपेक्षा करो ओर उनकी अंतःप्रेरणासे लाभ उठाओ ।

 

वस्तुतः, वस्तुओंको पूर्ण विश्वासकी शांत मुस्कानके साथ देखना ही बुद्धिमत्ता है । कारण, मनुष्य इस समय जिस चेतनामें निवास करता है वह परम प्रभुके प्रयोजनोंको बिलकुल नहीं समझ सकती ।

 

७-१२-६१

 

२१७ -- अपनी प्रचंड शक्ति तथा ज्वलंत देवत्वके साथ आधारमें अत्यंत वेगसे प्रवेश करती हुई कालीको भला कौन सह सकता है ? केवल वही जिसे कृष्णने पहलेसे हो अधिकृत कर रखा हो ।

 

यह इस बातको कहनेका सुन्दर और व्यंजनापूर्ण ढंग है कि केवल भगवानकी सचेत उपस्थिति ही सब उग्रताओंके वशमें कर सकती है और जीत सकती है ।

 

८-१२-६९

 

२१८ -- अत्याचारीसे घृणा मत कर, क्योंकि, यदि वह प्रबल हो तो तेरी धृणा उसके विरोधकी शक्तिको बड़ा देगी; यदि वह दुर्बल हो तो तेरी घृणा निरर्थक है ।

 

२१९ -- घृणा एक शक्तिशाली तलवार है, पर इसकी धार सर्वदा दोहरी होती है । यह प्राचीन जादूगरोंकी क्रियाके जैसी है जो, यदि अपने शिकारसे वंचित कर दी जाती तो भेजनेवालेको ही निगलन जानेके लिये क्रोधके साथ वापस आ जाती थी ।

 

२२० --जय तू अपने शत्रुपर आघात करता हो तब भी उसके

 

२९१


अंदर विधमान भगवान्से प्यार कर इस तरह दोनोंमेंसे कोई भी नरकका भागीदार न होगा ।

 

२२१ -- मनुष्य शत्रुओंकी बात करते हैं पर, कहां हैं वे ? मैं तो केवल विश्वके विशाल अखाड़ेमें किसी एक या दूसरे पक्षके पहलवानोंको ही देखता हूं ।

 

यह सब मानवजातिको अपनी एकताके प्रति जागनेके उद्देश्यसे लिखा गया है । जब व्यक्ति इस एकताके प्रति चेतन हा जाता है तथा सब व्यक्तियोंमें भगवानको देखता है तब उस वस्तुको अनुभव करना सरल हों जाता है जिसकी श्रीअरविंद सलाह दे रहे है ।

 

 ९-१२-६९

 

२२२ -- संत और देवदूत ही दिव्य सत्ताएं नहीं है; दैत्य और असुरके लिये भी प्रशंसाके शब्द कहो ।

 

२२३ -- पुराने ग्रंथोंमें असुरोंको ज्येष्ठ देवता कहा जाता है । और वे अब भी वही हैं कोई भी देवता पूरी तरहसे दिव्य नहीं होता जबतक कि उसमें एक असुर न छिपा हुआ हो ।

 

२२४ -- यदि मैं राम नहीं हो सकता तो मै रावण होऊंगा; क्योंकि वह विष्णुका अंधकारमय पक्ष है ।

 

इसका अर्थ यह है कि बिना बलके मधुरता और बिना शक्तिके भलाई अपूर्ण होती है ओर वे भगवानको पूरी तरहसे व्यक्त नहीं कर सकतीं ।

 

   श्रीअरविंदने जिस प्रकारकी अलंकारिक भाषाका प्रयोग किया है उसीको आगे चलाते हुए, मै यह कह सकती हूं कि जो असुर रूपांतरित हों चुका है, उसकी दयालुता और उदारता एक सीधे-सादे देवदूतकी दयालुता ओर उदारतासे अनंतगुनी प्रभावशाली है ।

 

११-१२-६१

 

२९२


२२५ -- त्याग करो, त्याग करो, सदा त्याग करो, पर भगवान् के और मानवताके लिये, त्यागके लिये त्याग नहीं।

 

२२६ -- स्वार्थपरता अंतरात्माका हनन कर देती है; इसे नष्ट कर दो । किंतु इस बातका ध्यान रखो कि तुम्हारी परोपकार-वृत्ति दूसरोंकी आत्माओंको नष्ट न कर दे ।

 

२२७-- अधिकतर परोपकार-ब्रुती स्वार्थपरताका ही अत्यधिक उन्नत रूप होती है ।

 

    मां, परोपकार-वृति दूसरोंकी आत्माका हनन कैसे कर सकती है ?

 

दूसरोंकी (परोपकार-भावनामें) धनादिसे सहायता करके साथ-साथ यदि तुम उनपर अपना दृष्टिकोण भी लादोतो इससे तुम उनकी अंतरात्माका हनन ही कर डालोगे, क्योंकि नैतिक ओर सामाजिक नियम किसी तरह उस आंतरिक नियमका स्थान नहीं लें सकते जिसे प्रत्येक व्यक्तिको अपनी आत्मासे पाना चाहिये ।

 

१३- १२-६९

 

२२८ -- भगवानके आदेशपर जो व्यक्ति बंध नहीं करता, बह संसारमें बहुत बड़े विनाशका कारण होता है ।

 

२२९ -- जबतक हो सके मानव जीवनका सम्मान क२ने;  मानवजातिके जीवनको और भी अधिक सम्मान दो ।

 

२३० -- मनुष्य क्रोध, घृणा अथवा बदलेकी बेलगाम भावना- से किसीका वध करते हैं; उसके परिणामस्वरूप उन्हें देर या सवेर कष्ट उठाना ही पड़ेगा । या फिर वे अपनी स्वार्थ- पूर्तिके लिये ठंडे भावमें यह कार्य करते हैं; भगवान् उन्हें क्षमा नहीं करेंगे । वध करनेसे पहले मनुष्योंको अपनी आत्मा- मे यह जान लेना चाहिये कि मृत्युका अर्थ कष्टसे मुक्ति है,

 

२९३


    बे उसमें, जिसपर प्रहार किया जा रहा है, स्वयं प्रहारमें तथा प्रहार करनेवालेमें, भगवानको देख लें ।

 

   मां, किन परिस्थितियोंमें भगवान् देते है ?

 

यह ठीक वह प्रश्न है जिसका उत्तर मै नहीं भगवानने मुझे कमी वध करनेके लिये नहीं कहा ।

 

१४-१२-६९

 

२३१ -- साहस और प्रेम ही अनिवार्य गुण है; और सब गण यदि धुंधले या निस्तेज पड जायं तो भी ये दोनों आत्माको जीवित रखेंगे।

 

२३२ -- नीचता और स्वार्थपरता ही ऐसे पाप है जिन्हें क्षमा करनेमें मैं कठिनाई अनुभव करता हूं; पर ये दोनों प्रायः सभी लोगोंमें पाये जाते हैं । अतएव, इन्हें दूसरोंमें देखकर हमें इनसे घृणा नहीं करनी चाहिये, बल्कि अपने अंदर इनका नाश करना चाहिये ।

 

२३३ -- सज्जनता और उदारता आत्माका सूक्ष्म आकाश हैं; इनके बिना व्यक्ति काल-कोठरीमें पड़ा कीड़ा ही दिखायी देता ह ।

 

२३४ -- तुम्हारे गुण ऐसे न हों जिन्हें मनुष्य सराहें या पुरस्कृत करें, बल्कि ऐसे हों जो तुम्हें पूर्णता प्रदान करें, जिनकी तुम्हारी प्रकृतिमें निवास करनेवाले भगवान् तुमसे मांग करते है ।

 

   मा, क्या आप निम्नलिखित शब्दोंकी व्याख्या कर सकेंगी ?

 

    १. साहस और प्रेम

    २. नीचता और स्वार्थपरता

    ३. सज्जनता और उदारता

 

३९४


   १. साहसका अर्थ है भयके सभी रूपोंकी पूर्ण अनुपस्थिति ।

 

  २. प्रेम है बदलेमें कुछ मी चाहे बिना अपने-आपको देना ।

 

   ३. नीचता एक प्रकारकी दुर्बलता है जो हिसाब-किताब करती है ओर दूसरोंसे उन गुणोंकी मांग करती है जो स्वयं उसमें नहीं है ।

 

  '४. स्वार्थपरताका अर्थ है अपने-आपको विश्वके केंद्रमें रखना और यह चाहना कि सबका अस्तित्व मेरे संतोषके लिये ही हो ।

 

  ५. सज्जनताका अर्थ है समस्त वैयक्तिक हिसाब-किताबको अस्वीकार कर देना ।

 

  ६. उदारताका अर्थ है दूसरोंके संतोषमें अपना संतोष पाना ।

 

 १५-१२-१९६१

 

२३५ -- परोपकार, कर्तव्य, परिवार, देश, मानवजाति -- ये जब आत्माके उपकरण नहीं रहते तो ये उसके बंदीगृह बन जाते हैं ।

 

२३६ -- हमारा देश मातृरूप भगवान् है; उसके बारेमें' तबतक बुरी बात न कहो, जबतक कि तुम उसे प्रेम और कोमल-भाव- के साथ न कह सको ।

 

२३७ -- मनुष्य अपने लाभके लिये ही देशके प्रति मिथ्या व्यवहार करते है; फिर भी यह मानते रहते है कि उन्हें मातृहत्याकी ओरसे घृणामें मुंह मोड लेनेका अधिकार है ।

 

     स्नेहमयी मां, परोपकार, कर्तव्य, परिवार, देश, मनुष्यजाति - ये आत्माके सच्चे उपकरण कैसे हो सकते है ?

 

अंतरात्मा भगवानकी है, और उसे केवल भगवानकी ही आज्ञा और सेवामें रहना चाहिये । यदि भगवान् उसे परिवार, देश या मनुष्यजातिके लिये कार्य करनेका आदेश दें तो यह बहुत अच्छा है और वह बिना बन्दी हुए ऐसा कर सकती है ।

 

   यदि यह आदेश उसे भगवान्से प्राप्त नहीं होता तो इनकी सेवा करनेका अर्थ केवल सामाजिक और नैतिक परंपराओंका पालन करना है।

 

१७-१२-६९

 

३९५


२३८ -- अतीतके सांचोंको तोड़ दो,  उसकी प्रतिभाको, उसकी भावनाको सुरक्षित रखो, अन्यथा तुम्हारा कोई भविष्य नहीं होगा ।

 

२३१ -- क्रांतियां पुरानी वस्तुओंको तोड-फोड़ देती हैं और उन्हें एक कड़ाहेमें डाल देती हैं, किंतु उसमेंसे निकलता है वही पुराना दास जिसका बस चेहरा ही नया होता है ।

 

२४० -- संसारमें सफल क्रांतियां केवल छ: ही हुई हैं और इनमेंसे भी अधिकांश असफल जैसी ही रही है; फिर भी महान् और श्रेष्ठ असफलताओंके द्वारा ही मानवजाति आगे बढ्ती है ।

 

     स्नेहमयी मां, ''महान् और श्रेष्ठ असफलताओं'' से श्रीअरविन्दका क्या अभिप्राय है ?

 

कसी घटनाकी महानता और श्रेष्ठता उसकी भौतिक सफलतापर नहीं, बल्कि उन भावनाओंपर निर्भर है जो उसे प्रेरित करती है और उस लक्ष्यपर निर्भर है जिसके लिये मनुष्य काम करते है ।

 

   सफलता महानताका कारण नहीं होती, बल्कि कार्यको प्रेरित करनेवाला उद्देश्य और भावनाओंकी श्रेष्ठता ही उसका कारण होती है ।

 

 १८-१२-६९

 

२४१ -- नास्तिकता गिरजाघरोंकी दुष्टता ओर धर्मकी संकीर्णताके विरुद्ध किया गया एक आवश्यक प्रतिवाद है । भगवान् इन दूषित ताशके महलोंको चकनाचूर करनेके लिये इसका प्रयोग पत्थरके रूपमें करते हैं ।

 

२४२ -- न जाने कितनी ही अधिक घृणा और मूर्खताको मनुष्य पेटीमें भरकर, सजाकर उसपर 'धर्मका' ठप्पा लगानेमें सफल हो जाते है।

 

   स्नेहमयी मां, क्या अधिक अच्छा है, धर्म या नास्तिकता ?

 

२९६


जबतक धर्मोंका अस्तित्व रहेगा, तबतक उनके विरोधका पलड़ा बराबर रखनेके लिये नास्तिकता अनिवार्य रहेगी । अच्छा तो यह है कि दोनों ही स्वयं मिटकर अपना स्थान सत्यकी एक सच्ची और निःस्वार्थ खोजको तथा इस खोजके उद्देश्यके लिये पूर्ण आत्म-निवेदनको दे दें ।

 

 २१-१२-६१

 

२४३ -- जब भगवान् बुरे-से-बुरा प्रलोभन देते है तभी भगवान् सर्वोत्तम पथ-प्रदर्शन करते हैं, जब वे निर्दयतापूर्वक दण्ड देते हैं तभी पूर्ण रूपसे प्रेम करते है, जब वे उग्रतापूर्वक विरोध करते हैं तभी वे पूर्ण सहायता देते हैं ।

 

२४४ -- यदि भगवान् मनुष्योंको प्रलोभन देनेका भार अपने ऊपर न लें तो जगत्  ही नष्ट हो जाय ।

 

२४५ -- अपने अंदर प्रलोभनोंको आने दो, जिससे कि इनके साथ संघर्ष करनेमें तुम्हारी निम्न प्रवृत्तियां समाप्त हो जायं ।

 

२४६ -- यदि तुम अपना शोधन भगवानके ऊपर छोड़ दो तो वे तुम्हारे अशुभको तुम्हारे अंदरसे समाप्त कर देंगे; किंतु यदि तुम अपना पथ-प्रदर्शन आप ही करनेका हठ करो तो तुम बहुतसे बाहरी पाप-तापमें जा गुरगे ।

 

२४७ -- ऐसी प्रत्येक वस्तुको जिसे मनुष्य अशुभ कहते हैं, तुम भी अशुभ न कहो, केवल उसी वस्तुको अस्वीकार करो जिसे भगवानने अस्वीकार किया है; ऐसी प्रत्येक वस्तुको जिसे मनुष्य अच्छा कहते हैं, तुम भी अच्छा न कहो, केवल उसीको अंगीकार करो जिसे भगवानने अंगीकार किया है ।

 

   स्नेहमयी मां, यदि व्यक्ति भगवानके प्रति पूर्ण समर्पण कर दे तो भी क्या उसे अपने व्यक्तिगत संकल्पको, चुनावकी शक्ति आदिको विकसित करनेकी आवश्यकता पड़ेगी ? क्या ये वस्तुएं मार्गकी बाधाएं नहीं बन जायेगी ?

 

२९७


व्यक्तिगत संकल्प और चुनाव-शक्ति उन लोगोंके लिये आवश्यक गुण है जो साधारण अज्ञान और भ्रमकी अवस्थामें निवास करते है ।

 

   भगवानके प्रति पूर्ण समर्पणका अर्थ ही है इनका त्याग । किन्तु दुर्माग्यसे बहुत-से लोग अपने-आपको भुलावा दे लेते हैं कि उन्होंने अपने- आपको पूरी तरहसे भगवानको सौंप दिया है, और फिर भी वे अपने अंदर एक अत्यंत सक्रिय 'अहं' को बचाये रखते है जो उन्है भागवत इच्छाको स्पष्ट रूपमें देखने नहीं देता; यदि ऐसे लोग व्यक्तिगत इच्छा एवं विवेकका त्याग कर दें तो उनके असंगत एवं अस्थिर-बुद्धि हों जानेका डर रहता है ।

 

   सबसे पहले तो व्यक्तिको एक पूर्ण सच्चाई प्राप्त करनी होगी जिससे कि उसे यह निश्चय हा जाय कि वह अपने-आपको धोखा नहीं दे रहा है, और उसे इस बातके स्पष्ट प्रमाण मिल जाने चाहिये कि भागवत इच्छा ही व्यक्तिका पथप्रदर्शन करती है तथा उसे कर्मके लिये प्रेरित करती है ।

 

 २२ - १२ - ६१

 

२४८ -- संसारमें मनुष्योंके पास दो प्रकारके आलोक है, कर्तव्य और सिद्धान्त; किन्तु जिस ब्यक्तिने भगवानका आश्रय ले लिया है, वह इन दोनोंको त्यागकर इनके स्थानपर भागवत इच्छाको ले आया है । यदि लोग इसके लिये तुम्हें गाली दें तो, हे दिव्य यंत्र, परवाह मत कर, पर हवा अथवा सूर्यके समान अपनी राहपर बढ़ा खल जो पोषण भी करते है और नाश भी ।

 

२४९ -- भगवानने तुझे लोगोंकी प्रशंसाएं बटोरते फिरनेके लिये नहीं, वरन् निर्भय होकर अपना आदेश माननेके लिये अपनाया है ।

 

२५ -- संसारको भगवानकी नाटकशाला मानो, तुम अभिनेता- का मुखौ टा बनो और फिर उन्हें ही अपने द्वारा अभिनय करने दो । यदि लोग तुम्हारी प्रशंसा करते है या तुम्हें दुत्कारते हैं, तो यह जान लो कि वे मुखौटे ही हैं; केवल अंतरस्थित भगवानको अपना एकमात्र आलोचक और दर्शक मानो ।

 

२९८


सबसे पहले यह आवश्यक है कि तुम भागवत संकल्पके प्रति सचेतन होओ और इसके लिये तुम्हारे अन्दर न कोई कामना होनी चाहिये न व्यक्ति- गत इच्छा ।

 

   इस स्थितिको पानेके लिये सबसे अच्छा उपाय यह है कि व्यक्ति अपनी सारी अभीप्सा भागवत पूर्णताकी ओर मोड दे, बिना कुछ शेष रखे अपने-आपको उसके प्रति समर्पित कर दे तथा अपनी सभी तुष्टियोंके नये उसीकी ओर निहारते ।

 

   बाकी सब कुछ स्वयं इसके फलस्वरूप हो जायगा ।

 

 २३-१२-६९

 

२५१ -- यदि अकेले कृष्ण एक तरफ हों और सेना और गोले-बारूद तथा अपने सिद्धान्तों और नारोंके साथ लैस और संगठित संसार दुसरी ओर हो, तो भी भगवानके एकाकीपनको ही चुनो । परवाह मत करो यदि संसार तुम्हारे शरीरको रंद दे और उसकी गोपियां तुम्हारे चीथते कर दे, तथा उसकी घुड़सवार सेना तुम्हारे अंगोंको कुचलकर उसे आकाररहित लौंदा बनाकर एक ओर डाल दे; कारण, मन तो सदा ही मिथ्यारूप रहा है और शरीर एक मृत ढांचा । इसके खोलोंसे मुक्त होकर ही आत्मा ऊपरकी ओर उठकर विजय प्राप्त करती है ।

 

यह सूत्र हमें यह बताता है कि हमें केवल एक ही चुनाव करना है -- सब कुछके बावजूद हमें भगवानके साथ जुतना है, तब भी, जब कि सारा संसार हमारे विरुद्ध हो जाय, क्योंकि संसारके पास अपनी मानसिक और शारीरिक सत्तामें एक ऊपरी शक्ति ही है, जब कि भगवानके पास सत्य- की सनातन शक्ति है ।

 

२६-१२-६९

 

२५२ -- यदि तुम यह सोचते हो कि पराजय ही तुम्हारा अंत है तो युद्धके लिये आगे मत बढ़ो, अधिक शक्तिशाली हो तो भी न बढ़ो। कारण, भाग्यको कोई खरीद नहीं सकता, न ही शक्ति अपने अधिकर्ताके साथ बंधी हुई है । किंतु

 

२९९


पराजय अंत नहीं है, यह केवल एक द्वार है या एक आरंभ है ।

 

२५३ -- तुम कहते हो मेरे हाथ असफलता लगी है । इस- की जगह यह कहो कि भगवान् अपने लक्ष्यकी ओर चक्राकार गतिसे बढ़ रहे हैं।

 

२५४ - संसारसे निराश होकर तुम भगवानको पकड़नेके लिये दौड़ते हो । यदि संसार तुमसे अधिक बलशाली है तो क्या तुम भगवानको अपनेसे दुर्बल समझते हो ? तुम उनके आदेशके लिये तथा उसे पूरा करनेकी शक्ति प्राप्त करनेके लिये उन्हींकी ओर मुडों ।

 

   स्नेहमयी मां, भगवानको अपने लक्ष्यकी ओर जानेके लिये चक्कर क्यों काटने पड़ते है ? वे इच्छा करते ही आसानीसे उसे एकदम प्राप्त कर सकते हैं, इससे अन्य सबका कार्य भी अधिक सुगम और प्रभावकारी हो जायगा, क्या यह ठीक नहीं हैं ।

 

निश्चय ही श्रीअरविंदने यह नहीं कहा है कि ''भगवान्''के चक्कर काटनेकी आवश्यकता है, क्योंकि वे सर्वशक्तिमान् हैं, किंतु उनमें ऐसी निरंकुश शक्ति नहीं है जैसा कि मनुष्य समझते हैं ।

 

   किसी वस्तुको समझना शुरू करनेके लिये व्यक्तिको यह जानना और समझना होगा कि समस्त विश्वमें ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो उनकी सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापक संकल्प-शक्तिकी अभिव्यक्ति 'न हो'; उनके साथ चेतन रूपसे संयुक्त होनेसे ही व्यक्ति इसे समझना आरंभ कर सकता है, पर मानसिक रूपसे नहीं, बल्कि चेतना और अंतर्दृष्टिकी अद्भुत क्रियाके रूपमें ।

 

  अपनी सामान्य चेतनामें, विशालतम बुद्धिमत्ताके होते हुए भी, मनुष्य सृष्टिके एक अत्यंत छोटे-से कणको ही देख सकता है, अतएव वह उसे समझ' तो सकता नहीं, और निर्णय तो और भी कम दे सकता है ।

 

  यदि हम संसारके रूपांतरको शीघ्र लाना चाहते है तो हम अच्छे-से- अच्छा यही कर सकते हैं कि निःशेष भावमें, बिना हिसाब-किताब किये अपने-आपको उन्हें सौंप दे, जो सब कुछ जानते हैं ।

 

२ ८- १२-६९

 

३००


२५५ -- जबतक किसी महान् ध्येयके पक्षमें एक भी अविचल विश्वासबाला व्यक्ति हो, बह कभी असफल नहीं हो सकता ।

 

२५६ -- तुम बड़बड़ाते हो : तर्क इस विश्वासका आधार नहीं बन पाता । मूर्ख ! यदि ऐसा होता तो तुम्हें न तो विश्वास- की आवश्यकता होती न तुमसे उसकी मांग ही की जाती ।

 

२५७ -- हदयका विश्वास एक गुप्त ज्ञानका अस्पष्ट एवं प्रायः ही विकृत प्रतिबिंब होता है । प्रायः जितना अधिक संशय विश्वासीको सताता है उतना अत्यधिक हठी अविश्वासीको नहीं । वह स्थिर इसलिये रहता है कि उसके अवचेतनामें कोई ऐसी वस्तु होती है जो जानती है । बह उसके अंधविश्वासको और धूमिल संशयोंको सहती है और उसे उस वस्तुके प्रकट करनेमें सहायता पहुंचाती है जिसे वह जानता है।

 

  स्नेहमयी मां, क्या ऐसा ''अंध-विश्वास'' रखना अच्छा है जो न प्रश्न करे न तर्क ?

 

जिसे सामान्यत: मनुष्य अंध-विश्वास कहते हैं वह वास्तवमें वह वस्तु होती है जिसे भागवत कृपा कमी-कमी उन लोगोंको प्रदान करती है जिनकी बुद्धि इतनी विकसित नहीं हुई कि वे सच्चे ज्ञानको प्राप्त कर सकें । अतएव, अंध-विश्वास बहुत सम्माननीय हो सकता है, यधापि यह बात ठीक है कि जिस व्यक्तिके पास सच्चा ज्ञान है वह इससे कहीं उच्च अवस्थामें है ।

 

२९-१२-६९

 

    स्नेहमयी मां, विश्वास किस स्तरकी वस्तु है -- मानसिक स्तरकी या आंतरात्मिक ?

 

विश्वास संपूर्णतया आंतरात्मिक विषय है ।

 

३०-१२-६१

३०१


२५८ -- संसार सोचता है कि वह तर्कके प्रकाशके सहारे आगे बढ़ रहा है, किंतु वास्तवमें उसे आगे चलाते हैं विश्वास और सहज प्रेरणाएं ।

 

२५९ -- तर्क अपने-आपको विश्वासके अनुकूल बना लेता है और सहज प्रेरणाओंको भी न्यायोचित ठहराता है, किंतु बह प्रेरणाको अवचेतन रूपमें ग्रहण करता है; अतएव, लोग सोचते हैं कि वे तर्क-संगत व्यवहार कर रहे हैं ।

 

२६ -- तर्कका एक ही कार्य है, इंद्रिय-बोधोंको व्यवस्थित ढंगसे रखना और उनकी आलोचना करना । उसके अपने अंदर न तो प्रत्यक्ष निष्कर्षका कोई साधन है, न कार्य करने- का आदेश । जब बह सोचता है कि बह मौलिक रूपसे किसी वस्तुको चला रहा है, तो वह अन्य साधनोंपर पर्दा डाल रहा होता है ।

 

२६१ -- जबतक तुममें 'प्रज्ञा' न उत्पत्र हो, तबतक तर्कका प्रयोग करो, उसके ईश्वर-प्रदत्त प्रयोजनके लिये, इसी प्रकार विश्वास ओर सहज प्रवृत्तिको भी उनके प्रयोजनोंके लिये । अपने विभिन्न अंगोंको परस्पर अड़ाते क्यों हो ?

 

   स्नेहमयी मां, सामान्य जीवन और आध्यात्मिक जीवनमें तर्क, श्रद्धा, और सहजप्रवृत्तिका सबसे बड़ा प्रयोजन क्या हैं ।

 

प्रत्येकका अपने स्वभावके अनुसार अपना प्रयोजन होता है; वह उस लक्ष्यपर निर्भर है जिसे व्यक्ति अपने सामान्य जीवनमें प्राप्त करना चाहता है ।

 

   जहांतक आध्यात्मिक जीवनका प्रश्न है, उसका केवल एक ही उद्देश्य है : भगवानको जानना और उसके साथ संयुक्त होना; इसमें सभी साधन प्रयुक्त किये जा सकते हैं, विशेषतया विश्वास, जो निश्चित ही नए जिज्ञासुओंकी लिये अत्यधिक शक्तिशाली रूपमें प्रेरणारूप होता है ।

 

३१-१२-६१

 

३०२


२६२ -- सदा अपने उतरोतर बढ़ते हुए वस्तु-बोधके प्रकाशमें देखो और कार्य करो, पर यह बोध केवल तर्क करनेवाले मस्तिष्कका न हो । जब मस्तिष्क भगवानको नहीं समझ सकता तो वे हदयके साथ बात करते हैं ।

 

२६३ -- यदि तुम्हारा हृदय तुम्हें कहें कि कोई बात इस प्रकार, इन साधनोंके दुरा और इस समय होगी तो उसमें विश्वास न करो । किंतु यदि वह तुम्हें भगवानके आदेशके रूपमें पवित्रता और विशालताका आभास दे तो उसकी बात सुनो ।

 

२६४ -- जब तुम्हें आदेश मिले तो उसको माननेमें ही अपनी सारी शक्ति लगा दो । बाकी सब भगवानकी इच्छा और व्यवस्थापक छोड़ वों, इन्हें ही लोग संयोग, दैव और भाग्य कहते है ।

 

स्पष्ट ही, मनकी नीरवतामें ही व्यक्ति भागवत आदेशकों जान सकता है । जाननेकी सच्ची विधि शब्दों और विचारोंसे परे है ।

 

   ऐसा होनेपर सब कुछ बड़ा स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि व्यक्ति भागवत आदेशकों पहले जान लेता है और उसका वर्णन करनेवाले शब्द पीछे आते हैं ।

 

 १-१-७०

 

२६५ -- यदि तुम्हारा लक्ष्य महान् हो और साधन छोड़, तो भी कार्य करते रहो, कारण कर्मके द्वारा ही ये बढ़ सकते हैं ।

 

२६६ -- समय और सफलताकी  न करो । अपनी भूमिका निभाते रहो, चाहे उसमें सफलता मिले था असफलता।

 

२६७ -- आदेश तीन रूपोंमें आ सकता है, तुम्हारी प्रकृतिका संकल्प और विश्वास, तुम्हारा आदर्श जिसे तुम्हारा हृदय और मस्तिष्क स्वीकार करते हैं और भगवान् और उसके देवदूतोंकी आवाज ।

 

३०३


२६८ -- कई ऐसे समय होते हैं जब कार्य करना बुद्धिमानी- का काम नहीं होता था उसे करना संभव ही नहीं होता; तब तुम एकांत स्थानमें जाकर या अपनी आत्माके एकाकीपन- मे बैठकर तपस्या करो और भगवानके आदेश अथवा उनके प्रकट होनेकी प्रतीक्षा करो ।

 

२६९ -- सभी आवाजोंके आदेशपर ही एकदमसे कूद मत पड़ो, क्योंकि तुच्छ सत्ताएं तुम्हें ठगनेके लिये उतावली बैठी हैं अपना हृदय पवित्र रखो और फिर सुनो ।

 

सच ही, यह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है कि प्रत्येक आवाजको भगवानकी आवाज नहीं समझ लेना चाहिये, क्योंकि इस प्रकार किसी ठगके आदेशको मानकर व्यक्ति खतरेमें पड़ जायगा । एकमात्र सुरक्षा समस्त व्यक्तिगत इच्छाके पूर्ण अभावमें है, भगवानकी सेवा करने और पूर्ण शांतिमें निवास करनेकी इच्छा भी वहां नहीं होनी चाहिये । केवल तभी व्यक्ति अपनी विवेक-बुद्धिपर भरोसा रख सकता है ।

 

 ३-१-७०

 

२७० -- कुछ ऐसे समय होते हैं जब ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् कठोरतापूर्वक भूतकालको प्रश्रय दे रहे हैं; तब जो कुछ हो चुका है और है, वह मानों जमकर बैठ जाता है और अटल वाणीका बाना पहनकर कहता है : ''मै' रहूंगा ही ।', तब भी डटे रहो, चाहे तुम्हें ऐसा लगे भी कि तुम सर्वेश्वरसे लड़ाई कर रहे हो । कारण, यह उसकी सबसे अधिक तीखी परीक्षा है ।

 

२७१ -- मानवी रूपसे किसी कार्यमें असफलता या निराशाके हाथ लगनेसे बात समाप्त नहीं होती, स्थिरता केवल तब आती है जब आत्मा प्रयत्नका त्याग कर देती है ।

 

इसका प्रयोजन हमें इस बातके लिये उत्साहित करना है कि हम बाह्य प्रतीतियोंसे प्रभावित हुए बिना अपने प्रयत्नमें लगे रहें,, भले ही ऐसा प्रतीत हो कि कोई परिणाम नहीं आ रहा ।

 

३०४


   जीवनमें हमें वही करना चाहिये जो हमारे बोधकों करने योग्य सच्ची वस्तु प्रतीत हो, चाहे दूसरे लोग हमारी कितनी भी आलोचना करें या हमारी हंसी उड़ायें । कारण, लोगोंके मतका कुछ मूल्य नहीं है, केवल भागवत इच्छा ही सच्ची है और उसीकी विजय होगी ।

 

४-१-७०

 

२७२ -- जो व्यक्ति उच्च आध्यात्मिक पदविया प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें अनंत कसौटियों और परीक्षाओंमें उत्तीर्ण होना होगा । किंतु अधिकांश व्यक्ति तो केवल परीक्षकोंको घूस देनेको ही उत्सुक रहते हैं ।

 

२७३ -- जबतक तेरे हाथ मुक्त हैं ? तबतक अपने हाथोंसे, वाणी और मस्तिष्कसे, सभी प्रकारके शस्त्रोंसे युद्ध करता रह । क्या बैर अपने शत्रुकी कालकोठरीमें बंधा पड़ा है ? क्या उसने तेरे मुखमें पकड़ा ठूंसकर तुझे चुप करा दिया है ? अपनी मूक सर्वाक्रामक आत्मा ओर विशाल संकल्प-शक्तिसे युद्ध कर और जब तू मृत्युको प्राप्त हो जाय तव भी तू उस विश्वव्यापी शक्तिके साथ युद्ध करता रह जो तेरे अंदर स्थित भगवान्से प्रकट हुई थी ।

 

सत्य एक कठिन और आयासपूर्ण विजय है । इस विजयको प्राप्त करनेके लिये व्यक्तिका सच्चा योद्धा बनना होगा, एक ऐसा योद्धा जिसको किसीका भय न हो, न शत्रुका न मृत्युका । कारण, यह संघर्ष सारे संसारके विरुद्ध, शरीरमें या शरीरके बिना भी, चलता रहेगा और उसका अंत विजयमें ही होगा ।

 

६-१-७०

 

२७४ -- तू सोचता है कि अपनी गुहामें या पर्वतकी चोटीपर बैठा संन्यासी एक पत्थरके समान निठल्ला बैठा है । तुझे क्या पता ? बह शायद संसारको अपनी संकल्प-शक्तिकी धाराओंसे प्लावित कर रहा हो तथा अपनी आत्माकी अवस्थाके दबावसे उसमें परिवर्तन ला रहा हो ।

 

३०५


२७५ -- जिस वस्तुको ये मुक्त व्यक्ति पर्वतकी चोटीपर बैठे अपनी आत्मामें देखते. हैं उसे योद्धा और पैगंबर भौतिक जगत्में उद्घोषित एवं क्रियान्वित करनेको आगे आ जाते हैं ।

 

२७६ -- ब्रह्यविधावादी अपने कथनमें गलत होते हैं पर साररूपमें वे ठीक होते हैं । फ्रेंच क्रांतका कारण यह था कि भारतकी महमामंडित चोटियोंपर बैठी आत्माने भगवानकी स्वतंत्रता, महत्त्व और समानताके रूपमें कल्पना की थी।

 

यह केवल इस बातका द्योतक है कि आत्माकी शक्ति सभी भौतिक शक्तियोंसे बहुत बड़ी है । किंतु लक्ष्य-सिद्धिके लिये दोनोंकी आवश्यकता

 

 ७-१-७०

 

२७७ -- समस्त वाणी और कर्म शाश्वत 'नीरवता'से तैयार होकर निकलते हैं ।

 

२७८ -- 'सागर'की गहराइयोंमें कोई हलचल नहीं होती, किन्तु ऊपरी तलपर उसके कोलाहल और किनारेसे टकराहटका आनंद- दायी शोर होता रहता है; प्रचंड कार्यके बीच वास करनेवाली मुक्त आत्माकी भी यही बात होती है । आत्मा कार्य नहीं करती; बह केवल अपने अंदरसे प्रचंड कार्यकी प्रेरणाको निस्सारित करती है ।

 

यह बात मी हमें यही बताती है कि कार्यका उद्गम उसीमें प्रकट हुई 'चेतना' और 'शक्ति' के अंदर होता है जो भौतिक रूपमें कार्यरत सत्ताओंसे बिलकुल मित्र होती है, जब कि ये सत्ताएं अज्ञानवश सोचती है कि स्वयं दे ही कार्य कर रही हैं ।

 

८-१-७०

 

३०६


२७९ -- ओ भगवानके सिपाही और योद्धा, तेरे लिये यह दुःख, कष्ट और लज्जा क्यों? कारण तेरा जीवन तो एक गौरव है, तेरे कार्य आत्मा-निवेदन है, विजय तेरा देवत्व और पराजय तेरी जीत है ।

 

जो व्यक्ति भगवानके प्रति पूर्णतया आत्म-निवेदित है, उसके लिये न कष्ट है न लज्जा, क्योंकि भगवान् सदा उसके साथ है तौर उनकी उपस्थिति सभी वस्तुओंको गौरवपूर्ण बना देती है ।

 

९-१-७०

 

२८० -- क्या तुम्हारे निम्न अंग अभी भी पाप और शोकका आघात अनुभव करते हैं ? किंतु ऊपर चाहे वे देखें या न देखें तेरी आत्मा राजसी ठाठमें विधमान है, शांत, मुक्त और विजेताके गौरवसे परिपूर्ण । निश्चय रख कि अंत आनेसे पहले ही भगवती मां अपने कार्यको कर लेगी और तेरी सत्रके उपावानको आनंद और पवित्रतासे परिपूर्ण कर देंगी ।

 

२८१ -- यदि तेरा हृदय दुःखी है, यदि बहुत समयसे तूने कुछ भी प्रगति नहीं की है, यदि तेरी शक्ति शिथिल और निस्तेज हो गयी है, तो हमेशा' हमारे प्रेमी प्रभुका यह शाश्वत शब्द याद रख : ''मैं तुझे समस्त पाप और अशुभसे मुक्त कर दंगा; शोक मत कर ।',

 

जिसे श्रीअरविन्द यहां आत्मा कहते है वह हममेंसे प्रत्येकमें उपस्थित भागवत उपस्थिति है; और हमारे अंदरकी इस उपस्थितिकी सुनिश्चितिको हमें अंतिम अनिवार्य विजयका विश्वास दिलाते हुए हमारे सब दुख-दर्दमें सांत्वना देनी चाहिये ।

 

१०-१-७०

 

   २८२ -- पवित्रता तेरी आत्मामें विधमान है; किन्तु कायोंमें पवित्रता या अपवित्रताका प्रश्न कहां ?

 

३०७


श्रीअरविन्द पवित्रता शब्दको सामान्य नैतिक अर्थ नहीं देते । उनके लिये ''पवित्रता'' का अर्थ है ''पूर्णतया भगवानके प्रभावके तले'' होना तथा भगवानको ही अभिव्यक्त करना ।

 

    इस समय, पृथ्वीपर जो भी कार्य हों रहे हैं, उनके विषयमें ऐसा नहीं कहा जा सकता ।

 

 १२ - १ -७ ०

 

२८३ -- ओ मृत्यु, हमारी प्रच्छन्न मित्र एवं अवसरोंकी निम्रत्री, जब तू दुरा खुलने लगे तो हमें पहलेसे ही सूचित करनेमें संकोच न करना; कारण, हम उन लोगोंमेंसे नहीं हैं जो लौह कपाटकी चरमराहटसे भयभीत हो जाते हैं।

 

२८४ -- मृत्यु कभी-कभी एक धृष्ट दासके समान होती है, किंतु जब वह पृथ्वीके इस वेषको एक चमकीली पोशाकमें बदल देती है तो उसकी इस चालाकी और धृष्टताको क्षमा किया जा सकता है ।

 

२८५ -- ओ अमर आत्मा, तुझे कौन भार सकता है? तुझे कौन सात सकता है, ओ शाश्वत आनन्दपूर्ण देव !

 

  आरंभसे ही मृत्युके आस-पास इतना शोक क्यों मंडराता रहता है ?

 

 शोकका कारण मनुष्यका अज्ञान और अहंभाव होता है । किंतु इस शोककी भी मनुष्यजातिके विकासमें अपनी भूमिका रही है ।

 

१३-१-७०

 

   मानवजातिके विकासमें शोकने कौन-सी भूमिका की है ?

 

शोक, कामना, कष्ट, महत्वाकांक्षा और इसी प्रकारकी भावनाओं और वेदनोंसंबंधी अन्य सभी प्रतिक्रियाएं चेतनाको अचेतनामेंसे उद्भूत होने तथा फिर इस चेतनामें प्रगतिकी प्रबल इच्छाको जागृत करनेमें सहायता पहुंचाती है ।

 

१४-१-७०

 

३०८


२८६ -- जब तेरी सत्रके निम्न अंग निराशा और दुर्बलताके वशमें होने लगे तो यह सोच : ''मै 'बाक्स, 'एरस्र' और 'अपोलो' हूं, मैं पवित्र अग्नि हूं और अजेय हूं; मैं सदा प्रचंड रूपसे प्रज्ज्वलित रहनेवाला सूर्य हूं।"

 

२८७ -- अपने अंदरकी डायनिसियन पुकार और हर्षातिरेकसे पीछे न हट, किंतु इसका भी ख्याल रख कि कहीं तू लहरोंपर डूबता-उतराता तिनका ही न बन जाय ।

 

२८८ -- तुझे अपने अंदरके सभी देवताओंको सहना सीखना होगा, न उनके आक्रमणसे तुझे लड़खड़ाना है और न उनके बोझके नीचे टूट ही जाना है ।

 

यह मनुष्यको यह सीखनेके लिये है कि उसे विभित्र धर्मोके देवताओंसे न तो अभिभूत हो जाना है न उनसे डरना है, क्योंकि मनुष्य, मानवसर्ता होनेके कारण, अपने अंदर सर्वोच्च प्रभुके साथ संयुक्त होने तथा उसके प्रति सचेतन होनेकी समावना लिये रहता !

 

१५-१-७०

 

२८१ - - मानवजातिने शकित और आनंदसे तंग आकर शोक और दुर्बलताको एक गुण कहा, ज्ञानसे तंग आकर अज्ञानको शुद्धता कहा, प्रेमसे तंग आकर हृदयहीनताको विवेक और बुद्धिमत्ताके नाम दिया ।

 

२९० - सहनशीलता कई प्रकारकी होती है । मैंने एक कायर देखा जिसने प्रहार करनेवालेके आगे अपना गाल कर दिया । मैंने एक ऐसे निःशक्त व्यक्तिको भी देखा जो एक बलवान् और अहंकारी गुंडेसे मार खाखर अपने आक्रमणकर्ताकी ओर चुपचाप ताकता रह गया; मैंने एक अवतारी देवताको देखा जो अपनेपर पत्थरकी वर्षा करनेवालोंकी ओर प्रेमपूर्वक निहारता रहा । पहला उपहासके योग्य था, दूसरा भयंकर एवं तीसरा दिव्य ओर पावन ।

 

 ३०९


श्रीअरविन्द हमसे कहते है कि सभी परिस्थितियोंमें प्रेमको प्रक्षिप्त करते रहना ही देवत्वका लक्षण है, वह उसे भी प्यार करता है जो उसे लप्पड़ मारता है और उसे मी जो उसकी उपासना करता है -- कैसा पाठ है यह मानवजातिके लिये !

 

 १७-१-७०

 

२९१ -- जो लोग तुम्हें नुकसान पहुंचाते हैं उन्हें क्षमा करना भला कार्य है, किंतु दूसरोंको हानि पहुचानेवालेको क्षमा करना भला नहीं है । तो भी उन्हें क्षमा कर दो,  जब आवश्यकता पड़े तो शांतिपूर्वक बदला भी ले लो ।

 

२९२ -- जब एशियावासी किसीका वध करते हैं तो बह क्रूरता कहलाती है.; जब यूरोपीय ऐसा करते हैं तो सामरिक आवश्यकता । इस भेदको समझो और संसारकी अच्छाइयोंके ऊपर विचार करो ।

 

यह सब हमें  गहराईसे यह अनुभव करनेको बाध्य करता है कि मनुष्यों ऐसे निर्णय जो स्वार्थ और अहंभावकी प्रतिक्रियाओंपर आधारित होते है, कितने मूर्खतापूर्ण है ।

 

  जबतक मनुष्य अज्ञानकी अवस्थामें निवास करता है, जिसमें कि आजकल वह है, तबतक उसके मतों और निर्णयोंका सत्यके सामने कुछ मूल्य नहीं होता, इन्हें ऐसा ही समझना भी चाहिये ।

 

२०-१-७०

 

२९३ -- अत्यधिक जोशीली पुण्यात्माओंकी ओर जरा ध्यानसे दृष्टि डालो । शीघ्र ही तुम देखोगे कि जिस दोषी वे इतने जोर-शोरसे निन्दा करते थे उसीको वे या तो स्वयं कर रहे है या उसकी ओरसे बेखबर है ।

 

२९४ -- ''मनुष्यमें सचमुचका पाखंड बहुत ही कम होता है ।" यह सत्य है, किंतु उनमें कूटनीति काफी है और इससे भी अधिक है आत्म-प्रवंचना । यह आत्म-प्रवंचना तीन प्रकारकी


३१०


   होती है : चेतन, अवचेतन और अर्ध-चेतन; किंतु इनमेंसे तीसरी बहुत भयावह है ।

 

   स्नेहमयी मां, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि चेतन आत्मप्रवंचना सबसे अधिक बुरी है, क्या यह ठीक नहीं है ?

 

चेतन आत्म-प्रवंचना विरले ही देखनेमें आती है, क्योंकि इसका अर्थ है चेतनाका विपुल विकास जिसका संबंध धोखा देनेवाली विरोधी इच्छासे जुड़ा होता है । यह फिर अत्यधिक भयानक झूठोंको जन्म देती है; किंतु इसका इलाज मी शायद सबसे अधिक सरल है । क्योंकि चेतना पहलेसे ही जाग्रत होती है, उसे केवल उसकी गलतीके प्रति सचेतन करना और उस गलतीको दूर करनेका निर्णय लेना ही काफी है क्योंकि उसमें ऐसा करनेकी शक्ति मौजूद होती है ।

 

   औरोंको पहले अपनी क्रियाओंके प्रति सचेतन होना पड़ता है और इसमें सामान्यतया काफी समय लगता है ।

 

२१-१-७०

 

२९५ -- लोगोंके अपने गुणोंके प्रदर्शनसे धोखा मत खाओ, न ही उनके प्रत्यक्ष या गुप्त दोषोंके लिये उनसे घृणा करो । ये वस्तुएं तो मानवजातिके लंबे संक्रमणकालमें आवश्यक परि- वर्तन हैं ।

 

२९६ -- संसारकी कुटिलताके प्रति विरक्ति न दिखाओ; संसार एक घायल और विषधर नाग है जो निश्चित रूपसे अपनी केंचुली उतारने और पूर्णताकी ओर बढ़नेके लिये संघर्ष कर रहा है । थोडी प्रतीक्षा करो, यह भगवानका एक दांव है; और फिर इसी निम्न अवस्थामेंसे भगवान् देदीप्यमान और विजयी होकर प्रकट होंगे ।

 

श्रीअरविन्द हमें बताते है कि मनुष्य संक्रमणकालकी प्राणी है और यह भी कि संसारकी सभी बुराइयोंमेंसे एक ऐसी प्रकाशपूर्ण सत्ता उत्पत्र होगी जो भगवानको अभिव्यक्त कर सकेगी ।

 

  अतएव, जो लोग संसारके वर्तमान स्वरूपसे संतुष्ट नहीं हैं, वे सब यह

 

३११


जानते है कि उनकी अभीप्सा निष्फल नहीं जायगी और यह भी कि संसार बदल रहा है ।

 

  यदि आत्म-निवेदन और प्रयत्न भी अभीप्साके साथ जड़ जायें तो कार्य अधिक शीलतासे होगा ।

 

२२-१-७०

 

२९७ -- बाह्य आवरणसे क्यों विरक्त होते हो ? इसकी घृणित, अहंगत अथवा भयानक प्रतीतियोंके पीछे श्रीकृष्ण तुम्हारे मूर्खतापूर्ण क्रोधपर और इससे भी अधिक तुम्हारी मूर्खतापूर्ण घृणा या विरक्तिपर तथा स्वसे अधिक तुम्हारे मूर्खतापूर्ण आतंकपर हंस रहे हैं ।

 

२९८ -- जब तुम किसी दूसरेका तिरस्कार कर रहे होते हो तो तुम अपने हदयकी ओर देखो और अपनी मूर्खतापर हंसों ।

 

क्या हमारी अपनी मानसिक धारणा ही वस्तुओंको घृणित या अरुचिकर समझती है या क्या ये सचमुचमें वैसी है जैसा व्यक्ति उन्हें देखता है ?

 

तो फिर यही बात सौंदर्यपर भी लागू होनी चाहिये, है न ?

 

यह निश्चित है कि भौतिक जगत् की वर्तमान अवस्थामें बाह्य प्रतीतियां अभीतक बहुत भ्रमोत्पादक हैं, भौतिक सुन्दरता सदैव एक सुन्दर आत्माका चिह्न नहीं होती, उधर एक कुरूप या बेडौल शरीर भी एक प्रतिभावान और ज्योतिपूर्ण आनंदका धारक हो सकता है ।

 

   किंतु जिस मनुष्यमें आंतरिक वेदनशीलता अधिक होती है, उसे बाह्य प्रतीतियां धोखा नहीं दे पातीं और वह एक सुन्दर मुखमें छुपी कुरूपताको और एक कुरूप बाह्य आवरणके पीछे स्थित सौंदर्यको भी देख सकता है ।

 

   ऐसे उदाहरण मी है -- इनकी संख्या दिनोंदिन बढ्ती ही जा रही है -- जिनमें बाह्य प्रतीति उस आंतरिक सत्यताको उजागर कर देती है जो पीछे सबकी दृष्टिमें आ जाती है ।

 

२३-१ -७०

 

३१२


२९९ - व्यर्थके झगड़ेसे बचो; किंतु विचारोंका आदान-प्रदान स्वतंत्रतापूर्वक करो । यदि झगड़ने ही हो तो अपने विरोधीसे कुछ सीखो; कारण, एक मूर्खसे भी तुम बुद्धिमानीकी बातें सीख सकते हो, पर केवल तभी जब कि तुम अपने कानों या तर्कशील मनसे न सुनकर आत्माके प्रकाशमें उसकी बात सुनो ।

 

३०० -- सभी वस्तुओंको मधुरताकी ओर मोड. दो; यही दिव्य जीवनका नियम है ।

 

३०१ -- निजी झगड़ेसे सदैव बचना चाहिये;  सार्वजनिक लडाईसे पीछे न हटो; किंतु वहां भी अपने शत्रुकी शक्तिका मूल्य अवश्य आक लो।

 

३०२ -- जय तुम किसी ऐसी सम्मतिको सुनते हो जो तुम्हें नापसंद हो, तो भी उसकी गहराईमें जाकर उसमें निहित सत्यको ढूंढो ।

 

यदि व्यक्ति सच्चे दिलसे 'सत्य' के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहता है तो उसे यह जान लेना चाहिये कि प्रत्येक वस्तु उसे कुछ सीखा सकती है । प्रत्येक क्षण उसके सामने प्रगतिकी संभावना रहती है । प्रायः एक बड़ी पर ऐसा मूर्खता ही तुम्हारे सामने महान् प्रकाशको प्रकट कर देती है । तभी होता है जब व्यक्ति उसे। देखना जाने।

 

२४-१-७०

 

३०३ -- मध्यकालीन संन्यासी स्त्रियोंके घृणा करते थे और यह सोचते थे कि उन्हें भगवानने साधु-संतोंको लुभानेके लिये ही बनाया है । हमें भगवान् तथा स्त्रीकी विषयमें अधिक अच्छे बिचार रखने चाहिये ।

 

३०४ -- यदि किसी स्त्रीने तुम्हें लुभाया है तो यह उसका दोष है या तुम्हारा ? मूर्ख और आत्म-प्रवंचक मत बनो।

 

३१३


   ३०५ -- स्त्रीके जालसे मचनेके दो ढंग हैं, एक है सभी स्त्रियोंके बहिष्कार करना और दूसरा सभी प्राणियोंसे प्रेम करना ।

 

   सामान्य जीवनमें आधुनिक स्त्रीका आदर्श क्या होना चाहिये ?

 

सामान्य जीवनमें स्त्रियोंके, जो भी दे चाहै, आदर्श हो सकते है । इसका कोई अधिक महत्व नहीं है ।

 

   आध्यात्मिक दृष्टिकोणसे पुरुष और नारी, दोनों ही, भगवानको प्राप्त करनेकी संभावनामें समान है, पर प्रत्येकको यह कार्य अपने ढंगसे, और अपनी संभावनाओंके अनुसार करना है ।

 

२५-१-७०

 

३०६ -- वैराग्य निस्संदेह बड़ा सुखकारी होता है, गुफा बहुत शांतिप्रद होती है और पर्वतकी चोटियां अद्भुत रूपसे आनंददायक ! फिर भी तुम संसारमें वही करो जो भगवान् तुमसे करवाना चाहते हैं ।

 

श्रीअरविन्द हमें बताते हैं कि व्यक्ति त्यागके कारण नहीं अपनी रुचिके अनुसार वैरागी हो सकता है । इस प्रकार वे हमें समझाते हैं कि भगवान्का सेवक बनना और केवल उन्हींकी इच्छानुसार कार्य करना सभी व्यक्तिगत अभिरुचिसे कहीं अधिक श्रेष्ठ है, चाहे उसकी अभिरुचि कितनी ही साधु-संतों जैसी क्यों न प्रतीत हो ।

 

२६-१-७०

 

३०७ -- भगवान् शंकरपर तीन बार हंसे, पहले तब, जब बे अपनी मांका दाहसंस्कार करनेके लिये लोटे, फिर तब, जब उन्होंने ईश उपनिषद्की टीका की और तीसरी बार तब, जब बे

 

  बादमें माताजीने यह भी कहा था कि सामान्य जीवनमें स्त्रियोंका आदर्श ''अच्छा स्वास्थ्य और सामंजस्य है'' ।

 

३१४


    भारतभरमें अकर्मष्यताफे प्रचारके लिये गरजते फिरे ।

 

भगवान् हंसे जब कि इस व्यक्तिने, जो अपने-आपको बहुत बुद्धिमान् समझता था, प्रचलित रीति-रिवाजोंका पालन किया, व्यर्थकी बातें लिखीं और अकर्मण्यताके प्रचारके लिये अत्यधिक क्रियाशीलताका उदाहरण रखा ।

 

 २७-१-७०

 

३०८ -- लोग सफलताके पीछे दौड़-धूप करते है और यदि उन्हें असफल होनेका सौभाग्य प्राप्त होता है तो इसलिये कि प्रकृतिकी बुद्धिमत्ता और शक्ति उनकी बौद्धिक कुशलताको दबा देती हैं । केवल भगवान् ही यह जानते हैं कि कब और कैसे बुद्धिमतापूर्बक गलती की जाय और फलप्रद रूपमें असफल हुआ जाय ।

 

३०९ - जो व्यक्ति कभी असफल न हुआ हो या जिसने कभी कष्ट न झेला हो, उसपर विश्वास मत करो; उसकी समृद्धिके पीछे मत चलो, न ही उसके झंडे तले युद्ध करो ।

 

३१० -- दो हैं जो महानता और स्वाधीनताके अयोग्य होते हैं, एक तो यह मनुष्य जो कभी किसीका दास नहीं रहा और दूसरा यह राष्ट्र ओ कभी विदेशी जूए तले नहीं रहा ।

 

कुछ ऐसे आवश्यक गुण होते है जो केवल कष्ट और कठिनाईमेंसे गुजरनेके बाद ही विकसित हो सकते है । लोग अज्ञानवश इनसे पीछे हटते हैं, किंतु परम प्रभु इन्हें उन लोगोंपर डालते है जिन्हें उन्होंने पृथ्वीपर अपना प्रति-

 

  शंकर (७८८-८२०) का सिद्धांत यह था कि संसार एक म्रान्ति है । संन्यासी होनेके कारण उन्होंने संसारके बंधनोंका त्याग तो कर दिया था पर वह त्याग उन्है भारतीय रीतिके अनुसार ज्येष्ठ पुत्र होनेके कारण मांका अंतिम संस्कार करनेसे रोक न सका । ईश उपनिषद्की टीका करते समय उन्होंने उसके वास्तविक अर्थका अनर्थ करके अपने मायावादके सिद्धांतको सच्चा बताया था जब कि ईश उपनिषद् भगवान् और कर्मकी वास्तविकता- को सिद्ध करता है ।

 

३१५


निधित्व करनेके लिये चूना है ताकि उनका विकास तेजीसे हो सके क्योंकि भगवान् ही सर्वोच्च प्रज्ञा है ।

 

२८-१-७०

  

३११ - अपने आदर्शकी पूर्तिके लिये कोई समय या विधि निश्चित न करो । कार्य करो और समय एवं विधि उस सर्वज्ञ भगवान्पर छोड़ दो ।

 

३१२ -- कार्य इस प्रकार करो मानों आदर्शकी पूर्ति शीघ्र ही, तुम्हारे जीवन-कालमें ही होनी है । काममें ऐसी दृढ़तासे लगे रहो मानों तुम जानते हो कि यह एक हजार वर्षके परिश्रमके बाद ही संपत्र होगा । जिस कार्यके होनेकी तुम पांच हजार वर्षसे पहले आशा नहीं कर सकते वह कल प्रभातसे पहले भी संपत्र हो सकता है और जिसकी तुम अभी आशा और चाहना कर रहे हो बह शायद तुम्हारे सौवें जन्ममें ही हो ।

 

रूपांतरके विषयमें हम सबकी यही मनोवृत्ति होनी चाहिये; वही उत्साह और वही लगन हो मानों हमें इसे अपने वर्तमान जीवनमें प्राप्त कर लेनेका विश्वास हो और वही धैर्य और वही सहनशीलता हो मानों इसे चरितार्थ करनेमें कई शताब्दियोंकी आवश्यकता पड़ेगी ।

 

२९-१-७०

 

३१३ -- हममेंसे प्रत्येकको अभी पृथ्वीपर लाखों जीवन धारण करने हैं । तब यह गड़बड़ी, कोलाहल और अधैर्य क्यों ?

 

३१४ -- शीघ्रतासे डग बढ़ाओ, क्योंकि लक्ष्य दूर है । बिना आवश्यकता विश्राम मत करो; क्योंकि तुम्हारे प्रभु तुम्हारी यात्राके अन्तमें तुम्हारी बाट जोड़ रहे हैं ।

 

यहां मी, सदाकी भांति श्रीअरविंद प्रश्नके सभी पहलुओंको देखते

 

३१६


 है । उत्तेजित व्यक्तिको शांति और धैर्यका पाठ पढ़ाते हुए आलसियोंको झकझोरकर उत्साहकी शिक्षा देते है, विरोधी पक्षोंके मिलनमें ही सच्ची बुद्धिमता और पूर्ण सामर्थ्यकी प्राप्ति हो सकती है ।

 

 ३०-१-७०

 

३१५ - मैं उस बचकाने अधैर्यसे ऊब उठा हूं जो आदर्शको इस कारण नकारता, अस्वीकार करता एवं उसकी निन्दा करता है क्योंकि हम अपने छोटे-से जीवन था कुछ शताब्दियोंमें स्वर्णिम चोटियोंतक नहीं पहुंच सकते ।

 

३१६ -- कामनामुक्त होकर अपनी आत्माको लक्ष्यपर स्थिर रखो और अपने अन्दरकी भागवत शक्तिकी सहायतासे उसीपर दृढ़ रहो; और तब स्वयं लक्ष्य ही साधनको उत्पन्न करेगा; नहीं, वह अपना साधन आप बन जायगा । कारण, लक्ष्य स्वयं ब्राहा है और वह साधित हो भी चुका है; उसे सदा ब्रह्के रूपमें देखो, उसे सदा अपनी आत्मामें साधित हुआ ही देखो ।

 

निश्चय ही हम उस शाश्वत यात्राके दैवी लक्ष्यको अपनी आत्मामें ही लिये रहते है और हमारी व्यक्तिगत अक्षमता ही वह चीज है जो इसके प्रति हमारे चेतन होनेमें बाधा पहुंचाती है ।

 

    परम प्रभु (ब्रह्म) के प्रति संपूर्ण एवं बिना शर्त समर्पण एक अद्भुत वस्तु है और इस अक्षमतासे छुटकारा पानेका एकमात्र साधन ।

 

१-२-७०

 

३१७ - बुद्धिकी सहायतासे योजनाएं मत बनाओ, अपने लिये योजनाएं बनानेका कार्य अपनी दैवी वृष्टिपर छोड़ दो । जब कोई साधन तुम्हारे सामने किसी करणीय कार्यके रूपमें आता है, तो उसे अपना लक्ष्य बना लो; जहांतक लक्ष्यका संबद्ध है बह संसारमें तो अपने-आपको साधित कर रहा है और तुम्हारी आत्मामें साधित हो चुका है ।

 

३१७


३१८ - लोग घटनाओंको इस प्रकार लेते है मानों बे चरितार्थ नहीं हुई हैं ओर उन्हें साधित करनेके लिये अभी प्रयत्न करना है । देखनेका यह ढंग गलत है । घटनाएं साधित नहीं होतीं, विकसित होती हैं । कार्य ब्रह्रा है, वह पहलेसे पूरा हो चुका है, अब बह केवल अभिव्यक्त हो रहा है ।

 

यह बात ऐसे कही जा सकती है सब कुछ सनातन कालसे चला आ रहा है, हम ही इस तथाकथित भौतिक जगत् में उसके प्रति उत्तरोत्तर सचेतन होते है ।

 

  वस्तुओंको इस प्रकारसे देखने तथा उनके विषयमें बात करनेका यह ढंग सामान्य मनुष्यकी चेतनासे बिलकुल उलटा है ।

 

२-२-७०

 

३११ - जिस प्रकार तारेके अस्तित्वके समाप्त होनेके सैकड़ों वर्ष बाद उसका प्रकाश पृथ्वीतक पहुंचता है उसी प्रकार खो घटना शुरूमें ही ब्रह्ममें घट चुकी है बह हमारे भौतिक अनुभवमें अब दृष्टिगोचर होती है ।

 

 हां, किंतु ब्रह्राकी यह इच्छा कि हम घटनामें हस्तक्षेप करें यह उसी पुराने क्षणकी बात है ओर इनके बीचका संबंध. भी वही रहता है । अतएव, महत्त्वपूर्ण बात केवल यह है कि व्यक्तिगत आवेगके वश काम न करो, बहासे मिले आदेशानुसारी करो ।

 

४-२-७०

 

३२० - सरकार, समाज, राजा, पुलिस, न्यायाधीश, संस्था, धर्ममन्दिर, नियम-कानून, रीति-रिवाज, सैन्य-सामंत आदि सभी चीजों सामयिक आवश्यकताएं हैं जो हमारे ऊपर कुछ शताब्दियोंके लिये लादी गयी हैं, क्योंकि भगवानने हमसे अपना मुंह छिपा लिया है । जय वह फिर अपने सत्य-स्वरूप तथा सौन्दर्यके साथ हमारे सामने प्रकट होंगे तब उस प्रकाशमें ये सब चीजों विलीन हो जायेगी ।

 

३१८


३२१ -- जैसे आरंभमें, वैसे ही अन्तमें, अराजक स्थिति ही मनुष्यकी सच्ची दिव्य स्थिति है; पर मध्यवर्ती कालमें यह हमें सीधे शैतान और उसके राज्यकी ओर ले जाती है ।

 

प्रत्येकका स्वयं अपने लिये शासन ही अराजकता है ।

 

  पूर्णशासन तभी बनेगा जब प्रत्येक अपने अंदर स्थित भागवत सत्ताके प्रति सचेतन होकर उसकी और केवल उसीकी आज्ञा मानेगा ।

 

 ५-२-७ ०

 

३२२ -- समाज-सम्बन्धी साम्यवाद सिद्धान्त मूलतः व्यक्तिवादसे उतना ही श्रेष्ठ है जितना भ्रातृत्व-भाव ईर्ष्या तथा पारस्परिक मारकाटते श्रेष्ठ है; परन्तु यूरोपमें आविष्कृत समाजवादकी जितनी भी व्यावहारिक योजनाएं हैं वे सभी एक प्रकारका जुआ, अत्याचार और कारागार हैं ।

 

३२३ -- यदि साम्यवाद (कम्यूनिजम) कभी सफलतापूर्वक पृथ्वीपर पुनः स्थापित हो तो उसे अन्तरात्माके म्गतृभाव तथा अहंकारकी मृत्युकी नींवपर ही स्थापित होना होगा । बलपूर्वक स्थापित संघ और यांत्रिक साहचर्यका अन्त तो एक विश्वव्यापी विफलतामें ही होगा ।

 

३२४ -- जीवनमें उपलब्ध वेदान्त ही साम्यवादी समाजके लिये एकमात्र व्यवहार्य आधार है । यही वह ''साधूना साम्राज्यम्'' (सन्तोंका साम्राज्य) है जिसका स्वप्न ईसाई, मुस्लिम तथा पौराणिक हिन्दू धर्मने देखा था ।

 

जैसा कि श्रीअरविंद हमें इतनी अच्छी तरह बताते हैं व्यक्तिवाद एक प्रकारकी न्यायसंगत ईर्ष्या है, अर्थात्, प्रत्येकका राज्य स्वयं अपने लिये है ।

 

   किंतु इसका वास्तविक उपचार एक ही है, उन परम प्रभुका संपूर्ण और व्यापक राज्य जो सभी प्राणियोंमें चेतन रूपमें उपस्थित है, बाकी संक्रमण कालकी सरकारें उनकी हों जो सचमुच उनके प्रति सचेतन तथा उन्हींकी इच्छाके प्रति पूर्णतया समर्पित हों ।

 

७-२-७०

 

३१९


३२५ -- फ्रासके क्रान्तिकारियोंने ''स्वाधीनता, समानता, और भ्रातृत्व'' का मंत्रोच्चार किया, परन्तु यथार्थमें एक घूंट समानताके साथ केवल स्वाधीनताको ही लानेका प्रयास किया गया है । भ्रातृत्वका जहांतक सम्बन्ध है, केवल 'केन' 'का भ्रातृत्व ही स्थापित किया गया -- और फिर 'बाराब्बास''का । कभी-कभी इसे ''ट्रस्ट'' या ''व्यापारिक्स संघ नाम दिया जाता है और कभी-कभी ''यूरोपका एकत्व' कहा जाता है ।

 

३२६ -- यूरोपका उन्नत बिचार घोषित करता है : ''चूंकि स्वतंत्रता असफल हो गयी है, इसलिये आओ, हम समानतासहित स्वतंत्रताके लिये प्रयास करें, अथवा, चूंकि इन दोनोंको एक साथ जोड़ना कुछ कठिन है इसलिये स्वतंत्रताके बदले समानताका ही प्रयत्न करें । म्रातृत्वका जहांतक प्रश्न है, वह तो असंभव है; अतएव हम उसके स्थानपर ''औद्योगिकी संघ'' रखेंगे ।'' परन्तु इस बार भी, मैं समझता हू, भगवान्को धोखा न दिया जा सकेगा ।

 

अभीतक तो स्वतंत्रता, समानता और बंदुत्व कोरे शब्द ही है जिन्है बड़े जोर-शोरसे घोषित तो किया गया था किंतु जिन्है अभीतक व्यवहारमें नहीं लाया गया है और ये तबतक व्यवहारमें लाये भी नहीं जा सकते जबतक मनुष्य वही बने रहेंगे जो अब हैं - केवल एकमेव सर्वोच्च एवं परम दिव्य सत्तादुरा शासित होनेकी जगह अपने अहंभाव और उसकी सभी इच्छाओंदुरा शासित होते रहैगे ।

 

८-२-७०

 

३२७ -- भारतमें सामाजिक जीवनके तीन गढ़ थे, ग्राम्य समाज, विशालतर सम्मिलित परिवार और संन्यासी-संप्रदाय । ये सब सामाजिक जीवन-सम्बन्धी अहंजन्य परिकल्पनाओंके पदचापसे भंग हो गये हैं था हो रहे हैं; परन्तु क्या, आखिर-

 

   केंन - आदम और हौवाका पहला लड़का था जिसने अपने भाई एबेलको मार डाला था ।

 

  बाराब्बास - एक डाकू था जिसका जिक्र बाइबिलमें आया है ।

 

३२०


कार इन अपूर्ण सांचोंका टूटना केवल एक विशालतर और दिव्यतर समाजवादकी ओर जानेके लिये ही नहीं है ?

 

३२८ -- व्यक्ति तबतक पूर्ण नहीं हो सकता जबतक वह अभी जिसे ''मैं'' कहता है उसे संपूर्णतः भागवत सत्ताको समर्पित न कर दे । ठीक उसी तरह मानवजाति जो कुछ है वह सब बह जबतक भगवानको नहीं दे देती तबतक पूर्णताप्राप्त समाजकी सृष्टि नहीं हो सकती ।

 

श्रीअरविद यहां एक स्पष्ट और निश्चित ढंगसे वही कह रहे हैं जिसे मैंने पहले व्यक्त करनेका प्रलय किया था : कोई भी पूर्णता तबतक प्राप्त नहीं की जा सकती जबतक परम प्रभुके शासनको सर्वत्र, सब वस्तुओंमें मान्यता एवं प्रतिष्ठा नहीं मिलती ।

 

 *

 

   स्वाधीनता तभी अभिव्यक्त हो सकती है जब सब मनुष्य परम प्रभुकी स्वाधीनताको जान लेंगे ।

 

   समानता तभी अभिव्यक्त हो सकती है जब सब व्यक्ति परम प्रभुके प्रति सचेतन हो जायंगे ।

 

  और बंधुभाव तमी प्रकाशमें आयेगा जब सब मनुष्य यह अनुभव करने लगेंगे कि दे सभी परम प्रभुसे समान रूपमें उत्पल हुए हैं तथा उनके 'एकत्व'में सब एक है ।

 

९-२-७०

 

३२९--भगवान्की नजरोंमें कोई चीज तुच्छ नहीं है; तेरी नजरोंमें भी कोई चीज तुच्छ न हो । भगवान् एक सीपीकी रचनामें भी दिव्य शक्तिका उतना ही श्रम प्रयुक्त करते हैं जितना कि एक सासाज्यके गठनमें । तेरे लिये एक विलासी और अयोग्य राजा होनेकी अपेक्षा एक निपुण मोची होना कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है ।

 

३३० -- जो कार्य तेरे लिये अभिप्रेत है उसमें अपूर्ण क्षमता

 

३२१


  तथा अधूरा फल किसी कृत्रिम दक्षता एवं उधार ली हुई पूर्णतासे कहीं अधिक अच्छा है ।

 

   ३३१ -- कर्मका उद्देश्य फल नहीं है, बल्कि उद्देश्य है होने, देखने और करनेमें भगवानका शाश्वत आनन्द ।

 

यह बात स्पष्ट है कि कोई तराजू किसी कार्यकी महानताको नहीं नाप सकती, न ही उसकी पूर्णता किन्हीं बाह्य परिस्थितियों अथवा अवस्थाओंपर निर्भर है, वरन् उसका आधार होता है व्यक्तिके आत्म-निवेदनकी वह सच्चाई जिसके साथ वह कार्य करता है ।

 

  भगवान् हमसे जो करवाना चाहते है वही अपनी सत्ताके पूर्ण समर्पणके भावमें करना - बस, यही है एकमात्र महत्त्वपूर्ण वस्तु; कार्यका बाह्य मूल्यांकन कुछ अर्थ नहीं रखता ।

 

 १०-२-७०

 

३३२- भगवानका जगत् बृहत्तर इकाईके ऊपर गंभीरतापूर्वक प्रयास करनेसे पहले अपेक्षाकृत छोटी इकाईको परिपूर्ण बनाते हुए एक-एक पग आगे बढ़ता है । यदि तू कभी संपूर्ण संसारको एक राष्ट्रका रूप देना चाहे तो सबसे पहले स्वतंत्र राष्ट्रीयताको स्थापित कर ।

 

३३३ -- एक ही रक्त, एक ही भाषा या एक ही धर्मसे कोई राष्ट्र नहीं बनता; ये सब केवल महतपूर्ण सहायक और शक्तिशाली सुविधाएं हैं । परन्तु जहां कहीं पारिवारिक बन्धनोंसे रहित मनुष्योंके समाज एक ही भाव और अभीप्सा रखकर अपने पूर्वजोंसे प्राप्त एक ही उत्तराधिकारकी रक्षा करनेके लिये या अपनी संततिके लिये एक जैसे भविष्यको प्रतिष्ठित करनेके लिये ऐक्यबद्ध होते हैं वहां, समझ लेना चाहिये कि, एक राष्ट्रका अस्तित्व पहलेसे हा विद्यमान है ।

 

३३४ -- राष्ट्रीयता परिवारकी अवस्थासे परे जानेवाले प्रगतिशील भगवानका एक पदक्षेप है; अतएव एक राष्ट्रके उत्पन्न होनेसे पहले कुल और जातिकी आसक्तिको दुर्बल और नष्ट होना होगा ।

 

३२२


इस प्रकार श्रीअरविंद हमें वह महान् राजनीतिक रहस्य बताते है जो प्राप्त किये जानेपर हमें समस्त राष्ट्रोंकी एकता तथा अंतमें मानव एकताकी ओर ले जा सकता है ।

 

 ११-२-७०

 

३३५-- परिवार, राछ और मानवता पृथग्भूत एकत्वसे सामूहिक एकत्वकी ओर जानेके लिये विष्णुके तीन पग' हैं । इनमेंसे पहला चरितार्थ हो गया है, दूसरेकी पूर्णताके लिये अभी हम प्रयास कर रहे हैं, तीसरेकी ओर हम अपने हाथ फैला रहे है और पथ परिष्कृत करनेका प्रयास किया जा चुका है ।

 

३३६ - मनुष्यजातिकी जो वर्तमान नैतिकता है उसकी सहायतासे एक सुदृढ़ तथा स्थायी एकत्वका निर्माण करना अभी संभव नहीं; परन्तु यह कोई कारण नहीं कि हम अपनी उत्कट अभीप्सा और अथक प्रयासके पुरस्कारस्वरूप अस्थायी रूपसे उसके समीप भी न पहुंच सकें । निरन्तर निकटवर्ती होते हुए, आंशिक उपलब्धियां प्राप्त करते हुए तथा क्षणिक सफलताएं प्राप्त करते हुए ही प्रकृति माता आगे बढ़ती है ।

 

जैसी कि श्रीअरविंदने भविष्यवाणी की है, वस्तुएं तेजीसे आगे बढ़ रही है, और जबसे श्रीअर्रावंदने सूक्ष्म भौतिक जगत्में कार्य करना आरंभ कर दिया है तबसे मानवजातिकी अवस्था बहुत बदल चुकी है : मानव एकताके विचारने सामान्य जनताकी बुद्धिमें काफी प्रगति कर ली है ।

 

१२-२-७०

 

  भारतीय परंपराके अनुसार तिगुने -- विकासक्रममें -- वामन रूप धारण किया और राजा बलिके पास गये । बलिने पूछा कि वे क्या चाहते हैं । ' तीन पग पृथ्वी'', विष्णुने कहा । उनकी इच्छा पूर्ण की गयी । अब वामनने विराट रूप धारण कर लिया, उन्होंने समूची पृथ्वी ही अपने एक पगमें नाप ली, आकाशको दूसरे पगमें, और अपना तीसरा पग बलिके सिरपर रख दिया ।
 

३२३


   ३३७ - अनुकरण कभी-कभी एक अच्छे शिक्षण-पोतका काम देता है परंतु उसपर नौसेनाध्यक्षका झंडा कभी नहीं फहरायेगा ।

 

  ३३८ -- सफल अनुकर्ताओंके झुंडमें मिलनेकी अपेक्षा अपने- आपको फांसी लगा लेना कहीं अधिक अच्छा है ।

 

  यह बात कलाकारों और लेखकोंपर लागू होती है -- प्रायः सभी अनुकरण और नकल करते हैं । फिर भी, जो सृजन करते हैं, जिनके पास कुछ कहने या दिखानेके लिये कोई नयी वस्तु है उन्हें ही सृजन करना चाहिये ।

१३-२-७०

 

३३९-- संसारमें कार्य करनेकी विधि बची उलझी हुई है । जब अवतार रामने बालि'का वध किया, अथवा कृष्णने, जो स्वयं भगवान थे, अपनी जातिको अपने अत्याचारी मामा कंससे मुक्त करनेके लिये उसका वध किया तो यह कौन कहेगा कि उन्होंने उचित किया या अनुचित, उनका यह कार्य ठीक था था गलत ? किंतु हम यह अनुभव कर सकते है कि उन्होंने जो किया दिव्य रूपमें किया ।

 

यह इस बातको कहनेका एक बहुत ही सुन्दर ढंग है कि भले और बुरेका विचार पूरी तरह मानवी है और भगवानकी दृष्टिमें इसका कुछ मूल्य नहीं है ।

१६-२-७०

 

३४० -- प्रतिक्रिया अपने अंदर निहित शक्तिको बढ़कर और शुद्ध करके ही विकासको पूर्ण एवं द्रुत बनाती है । इस बातको अधिकांश दुर्बल व्यक्ति नहीं देख सकते, ये वे व्यक्ति होते हैं जो अपने जहाजको अंधड़में निः सहाय अवस्थामें डूबता-उतराता देखकर बंदरगाहके बारेमें निराश होने लगते हैं, तो भी बह वर्षा और सागरकी धारामें छुपा भगवानके इच्छित स्थानकी ओर दौड़ता ही रहता है ।

 

वानरोंका राजा ।

 

३२४


यह हमें कभी निराश न होनेका पाठ सिखानेके लिये है । कारण जिन लोगोंका हृदय शुद्ध और श्रद्धा अडोल है, उन लोगोंके लिये अत्यधिक प्रत्यक्ष पराजय वह गुप्त मार्ग मात्र है जो अंतिम विजयकी ओर ले जाता है ।

 

१७-२-७०

 

३४१ - लोकतंत्र निरंकुश राजा, पुरोहित और सामंतकी गुटबंदीके विरुद्ध मानव आत्माका विद्रोह था, और समाजवाद धनिक वर्षके प्रजातंत्रकी तानाशाहीके विरुद्ध, जब कि अराजकता नौकरशाही समाजवादके अत्याचारके विरुद्ध उसका विद्रोह हो सकता है । एक म्रातिसे दूसरी भ्रांतितक, एक असफलतासे दूसरी असफलतातक उग्र और उत्सुक भावमें बढ़ते रहना यूरोपीय प्रगतिका चित्रण करता है ।

 

३४२ -- यूरोपमें जनतंत्र मंत्रीमंडलके सदस्यका, किसी म्रष्टाचारी प्रतिनिधि या स्वार्थी पूंजीवादीका शासन होता है जिसपर संशयपूर्ण सर्वसाधारणके अस्थायी प्रभुत्वका मुखौटा चढ़ा होता है । यूरोपमें समाजवाद अफसरशाही ओर पुलिसका एक ऐसा शासन हो सकता है जो एक आदर्शवादी राज्यके अव्यावहारिक शासनके परिवेशमें हो । यह पूछना भ्रमकारी होगा कि इनमेंसे कौन-सी प्रणाली ज्यादा अच्छी है; साथ ही यह निश्चय करना भी कठिन होगा कि कौन-सी प्रणाली ज्यादा गलत है ।

 

३४३ - लोकतंत्रका लाभ है अत्याचारी या कुछ स्वार्थरत व्यक्तियोंकी सनकोंसे व्यक्तिके जीवनको, उसकी संपदा एवं स्वतंत्रताको सुरक्षा प्रदान करना; और उसकी बुराई है मानव- जातिकी महानताकी अधोगति ।

 

सभी मानव सरकारें मिथ्या या भ्रामक होती है । यह आशा की जा सकती है कि एक दिन पृथ्वीपर केवल सत्यका साम्राज्य होगा किंतु केवल तभी, जब सर्वोच्च प्रभु इस सत्यको सबके लिये स्पष्ट कर देंगे ।

 

१८-२-७०

३२५


३४४ -- मनुष्योंकी यह म्रांतिशील जाति सदा ही अपने परिवेशको सरकारों और समाजकी मशीनरीसे पूर्ण बनानेका स्वप्न देखती रहती है । किंतु अन्तस्थित आत्माकी पूर्णताके दुरा ही बाह्रा परिवेश पूर्ण बनाया जा सकता है । जो कुछ तुम अंदर होंगे उसीका तुम अपनेसे बाहर भी उपभोग कर सकोगे, कोई भी मशीनरी तुम्हारी अपनी सत्ताके विधानसे तुम्हें छुटकारा नहीं दिला सकती ।

 

३४५ -- जब कि तुम सच्ची बातके बाह्य स्वरूप या प्रतीककी पूजा कर रहे हो, उस समय उसे दोष देने या उसकी उपेक्षा करनेकी अपनी प्रवृत्तिसे सदा सावधान रहो । मनुष्यकी दुष्टता नहीं बल्कि उसकी दुर्बलता ही 'अशुभ 'को अवसर देती है ।

 

हम जो कुछ हैं, जीवनमें उसके परिणाम भोगनेसे कोई मी कानून, कोई भी सरकार हमें नहीं बचा सकती ।

 

    एकमात्र भागवत सत्यका ही आदेश मानो और तब वह जीवनको समस्त कानून और मानवनिर्मित सरकारोंसे अलग रखकर जीवनका परि- चालन करेगा । 

 १९-२-७०

 

३४६ -- संन्यासीके वेशको सम्मान अवश्य दो, किंतु उस वेशको धारण करनेवालेको भी देखो, कहीं ऐसा न हो कि पवित्र स्थानोंपर पाखंडका राज्य हो जाय और आंतरिक साधुता एक कहानी बनकर रह जाय ।

 

३४७ -- कितने ही लोग योग्यता अथवा धनकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करते रहते हैं, कुछ गरीबीको दुलहिनके रूपमें स्वीकार कर लेते हैं; किंतु तुम केवल भगवानके पीछे ही दौडो और उन्हींको गले लगाओ । तुम उन्हें ही अपने लिये चुननेके अवसर दो, चाहे वह राजाका महल हों या भिखारीका भिक्षा-पात्र ।

 

 ३४८ -- पाप अपने-आपको दास बनानेकी वृत्तिका अभ्यास है और पुण्य एक मानवी विचारमात्र । भगवानको देखो और उन्हींकी

 

३२६


  इच्छाका पालन करो, जिस भी मार्गको उन्होंने तुम्हारे लिये निश्चित किया है उसीपर चलो ।

 

 सबसे अच्छी बात यही है । सच्ची साधुताका अर्थ वही कुछ चाहना और प्राप्त करना है जो भगवान् तुम्हारे लिये चाहते है; और सच्ची बुद्धिमता उनके साथ इतना जुड़ जानेंमें है कि तुम यह स्पष्ट रूपमें जान सको कि वे तुमसे और तुम्हारे लिये क्या चाहते हैं । बाकी सब तो मानवीय रूढ़ियां और सिद्धांत ही होते हैं ।

 

 २०-२-७०

 

३४९ -- संसारके संघर्षमें धनियोंका उनके धनके लिये अथवा गरीबोंका उनकी गरीबीके लिये पक्ष न लो, न राजाका उसकी शक्ति और उपाधिके लिये और न ही लोगोंका उनकी आशाएं और उत्साहके लिये । बल्कि सदा भगवानके पक्षमें रहो जबतक कि उसने तुम्हें अपने विरुद्ध युद्ध करनेकी आज्ञा न दी हो! तव अपने पूरे हृदय और शक्तिसे उल्लासपूर्वक उसी कार्यको करो ।

 

३५० -- यह मैं कैसे जानु कि भगवान् मुझसे क्या चाहते हैं? इसके लिये मुझे अपने अहंभावको अपने अंदरसे, कोने-कोनेसे निकाल देना होगा और अपनी दोषमुक्त और निष्कलुष आत्माको उनकी असीम क्रियाओंमें निमज्जित करना होगा; तब वे स्वयं ही अपनी इच्छाको मेरे सामने प्रकट कर देंगे ।

 

३५१ -- केवल वही आत्मा जो निष्कलुष और संकोचविहीन होगी निर्दोष एवं निष्कलंक हो सकती है, उसी प्रकार जिस प्रकार आदम मानवजातिके पुरातन उधानमें था ।

 

  ''निष्कलुष और संकोचविहीन आत्मा'का क्या अर्थ है? क्या आत्मा सदा ही शुद्ध और पवित्र नहीं होती?

 

हां, यही बात श्रीअरविन्द कहते हैं । आत्मा छद्यवेश नहीं पहनती, वह अपने-आपको असली रूपमें प्रकट करती है, बह मनुष्यके मूल्यांकनकी परवाह

 

३२७


नहीं करती; कारण वह भगवानकी निष्ठावान सेविका है, उन भगवानकी जिनका वह वासस्थल है ।

 

 २३-२-७०

 

३५२ -- धन-संपत्तिकी शेखी मत बघारो, न ही लोगोंसे अपनी गरीबी और आत्म-त्यागकी प्रशंसा मांगते फिर; ये दोनों वस्तुएं अहंभावका स्थूल या सूक्ष्म भोजन हैं ।

 

३५३-- परोपकारकी भावना मनुष्यके लिये अच्छी है, पर तब उतनी अच्छी नहीं रहती जब वह अपनी ही सर्वोच्च तुष्टिका रूप धारण कर लेती है और दूसरोंके स्वार्थको पोसकर ही जीती है ।

 

३५४-- परोपकारसे तुम अपनी आत्माकी रक्षा कर सकते हो, किन्तु ध्यान रखो कि तुम अपने भाईसे विनाशमें रस लेकर उसकी रक्षा न करो ।

 

३५५ -- आत्म-त्याग शोधन-क्रियाका एक बड़ा साधन अवश्य है; किन्तु यह न तो अपने-आपमें कोई उद्देश्य ह, न ही जीवनका कोई चरम नियम । आत्मपीड़न नहीं बल्कि संसारमें भगवानकी संतुष्टि तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिये ।

 

३५६ -- अधर्म और पापसे किये हुए बुरे कर्मको जान लेना सरल है, किन्तु एक प्रशिक्षित आंख उस बुरे कर्मको भी देख लेती है जो अपने-आपको सच्चा या गुणवान माननेवाला व्यक्ति करता है ।

 

क्रमिक रूपमें और सभी दृष्टिकोणसे श्रीअरविन्द हमें बताते है कि किस प्रकार सत्य सभी विपरीत और विरोधी वस्तुओं ओर मतभेदोंसे ऊपर और परे है -- वह एक दीप्तिपूर्ण और समग्र एकत्वमें स्थित है ।

 

२५-२-७०

 

३२८


३५७ -- पहले बाह्राणने शास्त्र और कर्मकांडकी पद्धतिसे शासन किया, उसके बाद क्षत्रियने तलवार और ढालसे; अब वैश्य मशीन और मुद्रासे शासन करता है और शूद्र, विमोचित दास, ''संयुक्त-श्रम राज्य" के सिद्धान्तसे कार्य करता है । किन्तु न तो पुरोहित, न राजा, न वैश्य, और न ही श्रमिक मनुष्यजातिका सच्चा शासक है ओर औजारों और कुदालकी यह तानाशाही पहलेके सभी तानाशाहियोंकी तरह ही असफल होगी । जब अहंभाव नष्ट हो जाता है ओर मनुष्यके अन्दर स्थित भगवान् अपनी विश्व-मानवतापर शासन करते हैं, केवल तभी पृथ्वी एक प्रसत्र और सन्तुष्ट जातिको धारण कर सकती है ।

 

इस विषयपर कुछ कहनेको नहीं है । सब कुछ स्पष्ट रूपसे समझा दिया गया है -- केवल दिव्य शासन ही सच्चा शासन हो सकता है ।

 

 २६ - २ - ७०

 

३५८ -- लोग सुखके पीछे दौड़ते है और बड़े आवेशपूर्वक उस अग्निशिखा-सी दुलहिनको अपने क्षुब्ध हदयसे लगा लेते है, जब कि उसी समय एक दिव्य और निर्दोष परम आनंद उनके पीछे खड़ा, देखे और बुलाये जाने और अधिकृत किये जानेकी प्रतीक्षा करता है ।

 

३५९ -- लोग तुच्छ सफलताओं और अति साधारण वस्तुओं- को अधिकृत करनेकी चेष्टामें रहते हैं, और फिर उनसे थकान और परिश्रातिमें जा गिरते हैं, जब कि इस बीच विश्वमें स्थित भगवानकी असीम शक्ति व्यर्थ ही इस प्रतीक्षामें रहती है कि वे आये और उसे प्राप्त कर लें ।

 

३६० - लोग ज्ञानकी छोटी-छोटी बारीकियोंको खोदकर निकालते रहते हैं और फिर उन्हें इकट्ठा करके कुछ एक सीमित और क्षणिक विचार-प्रणालीयोंका रूप दे देते हैं, जब कि समस्त असीम बुद्धिमत्ता उनके सिरके ऊपर खड़ी हंसती है और अपने रंगबिरंगे पंखोंके वैभवको उनके सामने बिखेरती है ।

 

३२९


३६१ - लोग अपनी सीमित और छोटी-सी सत्ताको -- उस सत्ताको जो उनके हीन और तृष्णापूर्ण अहंभावके चारों ओर एकत्रित ।मानसिक धारणाओंसे निर्मित हुई है -- संतुष्ट और सम्मानित करनेके लिये काफी जोर लगाते है जब कि स्थान और कालसे अतीत आत्माको अपनी आनंद और वैभवपूर्ण अभिव्यक्तिसे वंचित रखा जाता है ।

 

इस वस्तुस्थितिको बदलना ही होगा ताकि अतिमानसिक चेतनाका शासन पृथ्वीपर स्थापित हो सके । यधापि अतिमानसिक चेतना एक वर्षसे अधिक पृथ्वीपर कार्य कर रही है, फिर भी क्या इस दुखद अवस्थामें कोई परिवर्तन हुआ है ?...

 

२८-२-७०

 

    चूंकि अतिमानसिक चेतना पृथ्वीपर कार्य कर रही है, तो चाहे कुछ भी होता रहे क्या इस दुःखद अवस्थाको बदलना नहीं होगा ?

 

स्वभावतया पहला परिणाम होगा चेतनाका परिवर्तन, पर यह पहले उनमें होगा जो सबसे अधिक ग्रहणशील होंगे, उसके बाद ही कुछ अधिक व्यक्तियोंमें हो सकता है ।

 

   सामूहिक जीवनकी सामान्य अवस्थामें परिवर्तन केवल बादमें ही आसकता है; जब वैयक्तिक प्रतिक्रियाएं बदल जायंगी, उसके बहुत समय बाद ही शायद यह परिवर्तन आयेगा । उसका सबसे पहला प्रभाव, जो हम इस समय देख सकते है, यह है कि सामान्य अस्तव्यस्तता आगेसे बहुत बढ़ गयी है, क्योंकि पुराने सिद्धांतोंने  अपनी शक्ति खो दी है, और मनुष्य (बहुत कम लोगोंको छोड़कर) दिव्य विधानका आदेश माननेको तैयार नहीं हैं, क्योंकि वे उसे देखनेमें समर्थ नहीं हैं ।

 

१-३-७०

 

 माताजी यहां इस नई चेतना (या सर्वोच्च चेतना) का उल्लेख कर रही हूं जो १ जनवरी, १९६९ को अभिव्यक्त हुई थी ।

 

३३०


३६२ -- ओ भारतकी आत्मा, कलियुगके अज्ञानी पंडितोंके पीछे अपने-आपको रसोईगृह और मंदिरमें न छुपा, भावहीन पूजा-पाठ, दक्षिणाकी पुरानी विधि और अभिशप्त पैसोंके आवरणसे अपने-आपको न ढक, बल्कि अपनी आत्मामें खोज कर, भगवान्से प्रार्थना कर, और सनातन वेदके द्वारा अपने सच्चे ग्राह्यणत्व और क्षत्रियत्वको पुनः प्राप्त कर : बैदिक यज्ञके छुपे हुए सत्यको पुनः स्थापित कर, एक प्राचीनतर और अधिक शक्तिशाली वेदान्तको चरितार्थ कर ।

 

इसका अर्थ है कि व्यक्तिको उन तथाकथित धार्मिक परंपराओंसे मुक्त होना चाहिये जो यह बताती है कि व्यक्तिको क्या करना चाहिये, क्या नहीं । उसे सच्चे ज्ञानको ढूढना चाहिये तथा सीधे भगवान्से ही सत्य- मे और सत्यके लिये जीवन बितानेके यथार्थ निर्देशोंको प्राप्त करना चाहिये ।

 

२-३-७०

 

३६३ -- अपने यज्ञको सांसारिक बरुआ या कुछ इच्छाओं और कामनाओंके त्यागतक ही सीमित न करो, बल्कि अपने प्रत्येक विचार, प्रत्येक कार्य और प्रत्येक आनदोपभोगको अंतर- स्थित भगवानके प्रति अर्पित फर वों, तुम्हारे पग तुम्हारे प्रभुके अंदर ही प्रवेश करें, तुम्हारी निद्रा और जाग्रत अवस्था कृष्णके प्रति ही निवेदित हों ।

 

३६४ -- यह मेरे शास्त्र या मेरी विधाके अनुसार नहीं है, ऐसा नियमप्रिय और रूढ़िवादी कहते हैं । मूर्ख ! क्या भगवान् केवल एक पुस्तक हैं कि उसमें लिखे हुए के सिवाय ओर कुछ सत्य या शुभ नहीं हो सकता ?

 

३६५ -- मैं किस मानदण्डके अनुसार चलूं, उस वाणीके अनुसार जिसमें भगवान् मुझसे कहते हैं : ''यह मेरी इच्छा है, मेरे दास'', अथवा उन नियमोंके अनुसार जिनके लिखनेवाले मरउप चुके हैं ? न, यदि मुझे किसीका डर या आदेश मानना है तो मैं भगवानका ही डर और आदेश मानूंगा, किसी पुस्तकके पृष्ठों था किसी पंडितकी  भृकुटिका नहीं ।

 

३३१


३६६ -- तुम्हें धोखा हो सकता है, क्या तुम यह कहोगे कि तुम्हें चलानेवाली आवाज भगवानकी आवाज नहीं है ? फिर भी मै यह जानता हूं कि वे उन लोगोंका भी त्याग नहीं करते जिन्हेंने, भले अज्ञानपूर्वक सही, उनपर विश्वास किया है; मैंने यह भी देखा है कि बे तब भी जब कि वे पूरी तरह धोखा देते प्रतीत होते हैं, बुद्धिमत्तापूर्वक रास्ता दिखा रहे होते है । बहरहाल मै मृत नियम-विधानमें विश्वास रखकर बच जानेकी अपेक्षा सजीव भगवानके जालमें फंसना अधिक पसंद करुंगा ।

 

३६७ -- अपने ही हठ और इच्छासे कार्य करनेकी अपेक्षा शास्त्रोंके अनुसार कार्य करो, इस प्रकार तुम अपने अंदर स्थित लुटेरेपर नियंत्रण रखनेमें समर्थ हो सकोगे; किंतु शास्त्रकी अपेक्षा भगवानके आदेशानुसारी कार्य करो, इस प्रकार तुम उनकी सर्वोच्च स्थितितक पहुंच जाओगे जो कि सब नियमों और सीमाओंसे बहुत परेकी वस्तु है ।

 

३६८ -- नियम उन लोगोंके लिये है जो बद्ध है, जिनकी आंखें बंद हो चुकी है, यदि वे उसके सहारे नहीं चलेंगे तो रास्तेमें लड़खडायोंगे । किंतु तुम तो स्वतंत्र रूपसे श्रीकृष्णमें हो, या तुमने उसके जीवंत प्रकाशको देख लिया है, तुम अपने 'सखा'का हाथ पकड़कर 'सनातन वेद' के प्रकाशमें आगे बढ़ो ।

 

३६९ -- वेदान्त तुम्हें बंधन और अहंभावकी इस अंधकारपूर्ण रात्रिभैंसे निकालकर आगे चलानेवाला भगवानका प्रकाश है; किंतु जब वेदका प्रकाश तुम्हारी आत्मामें अवतरित हो जाय तब तुम्हें उस दिव्य प्रकाशकी भी आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि अब तुम सनातन प्रकाशमें स्वतंत्रता और विश्वासपूर्वक विचार सकते हो ।

 

केवल सर्बच्च प्रभुके आदेशको ही सुननेकी चेष्टा करो, और यदि तुममें पूर्ण सच्चाई होगी तो वे तुम्हें सुनने और अपने आदेशकों विश्वासपूर्वक पहचाननेका रास्ता भी स्वयं ढूंढ निकालेंगे ।

 

   यह आश्वासन उन सबको प्रदान किया गया है जो सर्वोच्च सत्यके अनुसार अपना जीवन बिताना चाहते है ।

 

३-३-७०

 

३३२


३७० -- केवल जाननेका क्या लाभ ? मै तुमसे कहता हूं, कुछ करो और कुछ होओ । कारण, भगवानने तुम्हें इस मनुष्यके शरीरमें इसीलिये भेजा है ।

 

३७१ -- केवल 'होने' का भी क्या लाभ ? मै तुमसे कहता हूं, वैसा ही बन जाओ; क्योंकि इस जड़तत्त्वको जगत्में मनुष्य रूपमें तुम्हारी स्थापना इसीलिये हुई है ।

 

३७२ -- कर्मका पथ एक प्रकारसे भगवानके तिहारे मार्गका एक अत्यधिक कठिन पक्ष है; तो भी क्या यह, कम-से-कम, इस जड़ जगत्में सबसे अधिक सरल, विस्तृत और आनंद- दायक भी नहीं है ? कारण, प्रत्येक क्षण हम भगवान्से, जो कि स्वयं कर्मी हैं टकराते हैं, तथा उनके सहस्रों दिव्य स्पशोंसे उन्हीं जैसे बन जाते है ।

 

३७३ -- कर्म-पथका चमत्कार यह है कि भगवानके साथ शत्रुता भी मुक्तिका साधन बनायी जा सकती है । कभी-कभी भगवान् हमें अपनी ओर खींचकर द्रुत वेगसे अपने साथ सटा लेते हैं और फिर हमारे साथ एक भयानक, अजेय और दुराग्रही शत्रुके रूपमें बुद्ध भी करते हैं ।

 

संद्रोपमें भागवत कृपा इतनी अद्भुत है कि तुम कुछ भी करो वह तुम्है लक्ष्यकी ओर देर या सवेर लें ही जायगी ।

 

५-३-७०

 

३७४ -- क्या मै मृत्युको स्वीकार कर लूं या उसके साथ संघर्ष करके उसपर विजय प्राप्त करूं, इसका निर्णय मेरे अंतरस्थित भगवान्को ही करना होगा । मैं जीवित रहूं या मृत्यु को प्राप्त होऊं, मेरा अस्तित्व सदा ही रहेगा ।

 

३७५ -- तब वह है क्या जिसे तुम मृत्यु कहते हो ? क्या भगवान् मर सकते हैं ? ओ मृत्युसे डरनेवाले, यह जीवन ही

 

 

३३३


तो है जो तुम्हारे पास मृत्युका मुकुट सजाये आतंकका मुखौटा पहने आया है ।

 

३७६ -- शरीरकी अमरता प्राप्त करनेका कोई तरीका अवश्य है और मृत्यु हमारी इच्छापर निर्भर है, प्रकृतिकी इच्छापर नहीं । किंतु सौ बर्षतक एक ही वस्त्रमें या लंबे कालतक उसी एक संकरे, पुराने धरमें रहना कौन पसंद करेगा?

 

  यदि व्यक्ति यह अनुभव करे कि उसका इस जीवनका कार्य समाप्त हो गया है और उसे अब भेंट देनेके लिये दुरा उसके पास कुछ नहीं बचा तो क्या एक लक्ष्यहीन अस्तित्वको घसीटनेकी अपेक्षा मरकर दुबारा जन्म लेना अधिक अच्छा नहीं है ?

 

यह बह प्रश्न है जो एक असंतुष्ट अहं अपने-आपसे उस समय पूछता है जब उसे लगता है कि वस्तुएं उसकी इच्छानुसार नहीं चल रहीं । किंतु जो व्यक्ति भगवानका है और सत्यमें ही निवास करना चाहता है बह यह जानता है कि भगवान् उसे पृथ्वीपर तबतक रखेंगे जबतक वह उनकी दृष्टिमें पृथ्वीपर उपयोगी होगा, जब पृथ्वीपर उसके करने लायक कुछ न रहेगा तो उसे हटा देंगे । अतएव, यह प्रश्न उठ ही नहीं सकता । और तब व्यक्ति भगवानकी सर्वोच्च बुद्धिमत्ताकी निश्चयतामें शांतिपूर्वक निवास करेगा ।

 

६-३-७०

 

    आपने कल लिखा था : ''किन्तु जो व्यक्ति भगवानका है... ।'' प्रत्येक प्राणी ही भगवानका है, चाहे वह कोई भी हो, ठीक है न ?

 

जब मैं कहती हूं : ''जो व्यक्ति भगवानका है'', तो मै उस व्यक्तिकी बात कहती हूं जिसने अपने अहंसे मुक्ति पा ली है, जो सदा भगवान् के प्रति सचेतन रहता है, जिसकी कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं है, जो केवल भागवत प्रेरणासे ही कार्य करता है ओर जिसका इसके सिवाय कोई और लक्ष्य नहीं है कि वह वही करे जो भगवान् उससे करवाना चाहते है ।

 

  मुझे नहीं लगता कि ऐसे लोग अधिक है जो इस अवस्थामें हों ।

 

३३४


और यह भी निश्चित है कि वे इस बातकी कभी चिंता नहीं. करेंगे कि उनका जीवन पृथ्वीपर उपयोगी है या नहीं क्योंकि ३ केवल भगवानके लिये तथा उन्हींके द्वारा जीवन धारण करते है, उनका कोई वैयक्तिक जीवन नहीं रह जाता ।

 

 ७ - ३ -७ ०

 

३७७ -- भय और चिन्ता इच्छा-शक्तिके विकृत रूप हैं । जिस वस्तुसे तुम भय मानते हो ओर जिसके बारेमें सोचते हो, जिसे अपने मनमें बार-बार घोखते रहते हो, उसके आनेमें तुम सहायता भी करते हो । कारण, यदि तुम्हारी ऊपरी जाग्रत अवस्था उसे परे धकेलती है, तो भी नीचे दबा हुआ तुम्हारा मन सब समय उसीकी इच्छा करता रहता है, अवचेतन नभ तो और भी अधिक शक्तिशाली और विशाल होता है तथा तुम्हारी जाग्रत शक्ति और बुद्धिकी अपेक्षा उसमें चरितार्थ करनेकी शक्ति भी अधिक होती है । किन्तु आत्मा उन दोनोंसे अधिक शक्तिशाली है; भय और आशाका पल्ला छोड़कर आत्माकी महान् शान्ति और चिन्तारहित प्रभुत्वमें आश्रय लो ।

 

३७८ -- भगवान् ने आत्म-ज्ञानसे इस असीम जगत्को बनाया, यह आत्म-ज्ञान अपने कर्मोंमें वह संकल्प-शक्ति है जो अपने-आपको चरितार्थ करती है । उन्होंने अज्ञानका प्रयोग अपनी असीमताको सीमाबद्ध करनेके लिये किया; किन्तु भय, क्लान्ति, अवसाद, आत्म-अविश्वास और दुर्बलताको प्रश्रय ऐसे यंत्र है जिनसे वे अपनी बनायी चीजोंको नष्ट करते हैं । जब ये वस्तुएं तुम्हारे अन्दरकी अशुभ या हानिकारक या असंयमित वस्तुओंपर आक्रमण करें तो भला होता है; किन्तु यदि ये तुम्हारे जीवन और तुम्हारी शक्तिके मूलस्रोतोंपर धावा बोलें, तो तुम उन्हें पकड़कर अपने अन्दरसे निकाल दो, नहीं तो तुम मर जाओगे ।

 

जब ये विनाशकारी शक्तियां हमपर आक्रमण करती है, तो यह इस बातका प्रमाण है कि हम अपने अहंभावसे मुक्त होनेके लिये और चेतन रूपसे भागवत उपस्थितिमें प्रवेश करनेके लिये, और साथ ही अहंभावदुरा

 

३३५


थोपे हुए कष्टोंसे मुक्त होकर शांति और आनंद पानेके लिये तैयार है । उस भागवत उपस्थितिमें जो पूर्ण प्रकाशसहित हमारी सत्ताके केंद्रमें विधमान है । अहंभाव ही जीवनके सब संपर्कोको दुःख में बदल देता है । अहंभाव ही हमें अपने अंदर भागवत उपस्थितिके प्रति सचेतन होने तथा भगवानके शांत, शक्तिशाली और आनन्दपूर्ण यंत्र बननेसे रोकता है ।

 

    आओ, हम इस अहंभावको उसकी समस्त इच्छाओसहित भगवानके प्रति पूर्ण रूपसे समर्पित कर दें और विश्वासपूर्वक प्रतीक्षा  करें जो अवश्य आयेगी ।

 

९-३-७०

 

३७९ -- मनुष्यजातिने अपनी शक्तियों और सुखको नष्ट करनेके लिये दो बड़े शक्तिशाली शास्त्रोंका उपयोग किया है : गलत उपभोग और गलत त्याग।

 

३८० -- हमारी गलती सदासे यही रही है कि हम इलाजके रूपमें पेगेनिज्मकी बुराइयोंसे तप और त्यागकी द्वंओर और तप और त्यागकी बुराइयोंसे पेगेनिज्मकी ओर भागते रहते हैं । हम सदा इन दोनों झूठे विरोधी छोरोंके बीच झूलते रहते हैं ।

 

३८१ -- न तो खेलमें अत्यधिक ढील देकर खेलमें रत रहना अच्छा है, न अपने जीवन और कार्यमें बहुत अधिक गंभीर होना । हम दोनोंमें ही एक प्रफुल्ल स्वतंत्रता और गंभीर व्यवस्थाकी चाहना करते हैं ।

 

अतिशयता, वह चाहे जो भी रूप ले, उग्रता है; केवल शांति, समता और सांमजस्यमें ही सत्यकी खोज की जा सकती है, और उसमें निवास किया जा सकता है ।

 

१०-३-७०

 

३८२ -- लगभग चालीस वर्षोतक मैं सदा ही किसी-न-किसी छोटी या बुद्धि व्याधिसे पीड़ित रहा । मुझे पूरा विश्वास हो गया था कि मेरी शरीर-रचनामें ही दुर्बलता है, साथ ही इनकी

 

३३६


चिकित्साको मै प्रकृतिका अपने ऊपर एक बोझ मानता था । जब मैंने दवाइयोंकी सहायता लेनी छोड़ दी तो रोग भी निराश परजीवियोंकी तरह मुझे छोड़ते चले गये । केवल तभी मेरी समझमें आया कि मेरे अन्दरका प्राकृतिक स्वास्थ्य कितना सबल है और संकल्प-शक्ति और विश्वास तो और भी अधिक शक्तिशाली हैं जो मनसे परेकी वस्तुएं हैं तथा जिन्हें भगवानने इस शरीरमें स्थित हमारे जीवन-तत्त्वकी दिव्य सहायताके लिये हमें प्रदान किया है ।

 

जीवनकी सभी परिस्थितियोंकी व्यवस्था हमें यह सिखानेको की गयी है कि मनसे परे, भागवत कृपामें विश्वास ही हमें सभी परीक्षाओंमें उत्तीर्ण होने, सभी दुर्बलताओंपर विजय प्राप्त करने तथा दिव्य चेतनाके साथ संपर्क स्थापित करनेकी शक्ति प्रदान करता है, उस दिव्य चेतनाके साथ जो हमें केवल शांति ओर आनंद ही नहीं बल्कि शारीरिक संतुलन एवं अच्छा स्वास्थ्य भी प्रदान करती है।

 

११-३-७०

 

३८३ -- हमारी असाध्य बर्बरताके कारण आधुनिक मनुष्यजातिके लिये मशीनें आवश्यक हैं । यदि हमें अपने-आपको चकरानेवाली आरामदेह वस्तुओं और साजोसामानके ढेरमें ढककर रखना है तो हमें कला और उसकी प्रणालियोंको छोड़ना पड़ेगा; कारण सरलता एवं स्वतंत्रताको छोड़नेका अर्थ है सुन्दरताको छोड़ना । हमारे पूर्वजोंका वैभव बड़ा समृद्ध और आडम्बरयुक्त भी था, किन्तु कभी बोझ नहीं बना।

 

३८४ - मैं यूरोपीय जीवनकी बर्बर सुख-सुविधाओं तथा बोझिल आडम्बरको सभ्यताका नाम नहीं दे सकता । जो लोग अपनी आत्मामें स्वतंत्र और अपनी जीवन-व्यवस्थामें अभिजात ढंगसे लयबद्ध नहीं हैं, वे सभ्य नहीं हैं ।

 

३८५,-- आधुनिक समयमें और यूरोपीय प्रभाव-तले कला जीवनकी एक ग्रंथि या एक अनावश्यक दासी बन गयी है,

 

३३७


    जब कि इसे होना चाहिये था मुख्य अभिकर्ता श एक अनिवार्य व्यवस्थापक ।

 

जबतक मन जीवनपर इस अभिमानपूर्ण निश्चयताके साथ शासन करता रहेगा कि वह सब कुछ जानता है, तबतक भगवानका राज्य कैसे स्थापित हो सकता है ?

 

१२ -३ -७ ०

 

३३८

रोग और चिकित्सा-विज्ञान

 

बीमारीको ठीक करना अच्छा है, किंतु बीमार न

पड़ना उससे मी अच्छा है ।

 

-माताजी

 

३८६ -- रोग अनावश्यक रूपसे लम्बा हो जाता है और प्रायः ही मृत्युका कारण बन जाता है, जब कि ऐसा होना आवश्यक नहीं है, और यह इस कारण होता है कि रोगीका मन अपने शरीरकी व्याधिको प्रश्रय देता है, और उसीपर लगा रहता हैं ।

 

पूर्णतया सत्य है यह!

 

३८७ -- चिकित्सा-विज्ञान मनुष्यजातिके लिये वरदानसे अधिक अभिशाप रहा है । इसने महामारियोंके वेगको नष्ट अवश्य कर दिया है, तथा एक अद्भुत प्रकारको शल्य-चिकित्साको जन्म दिया हैं, किन्तु साथ ही इसने मनुष्यके प्राकृतिक स्वास्थ्यको दुर्बल बना दिया है तथा विभित्र प्रकारके रोगोंकी बा-सी ला दी है; इसने मन और शरीरमें भय और निर्भरताकी भावनाको बद्धमूल कर दिया है; इसने हमारे स्वास्थ्यको, प्राकृतिक स्वस्थताको आधार न मानकर धातु और वनस्पति जगत के निस्तेज और निस्वाद प्रभावका सहारा लेना सिखाया है।

 

३८८ -- चिकित्सक रोगपर किसी औषधिका निशाना लगाता है; कभी यह लग जाता है तो कभी चूक जाता है । चूकनेका कोई हिसाब नहीं रखा जाता, पर लगनेका लेखा-जोखा रखा जाता है, उसपर बिचार किया जाता है और फिर 'उसे विज्ञानका सुसंगत कप दे दिया जाता है ।

 

बड़ा अद्भुत है यह!

 

३३९


३८९ -- हम बर्बरपर हंसते हैं क्योंकि वह ओझाओंमें विश्वास करता है । किन्तु डाक्टरोंपर विश्वास करनेवाली सभ्य जातियां कौन-सी कम अंधविश्वासी हैं ? प्रायः बर्बर देखता है कि जब कोई विशेष मंत्र बार-बार उच्चारा जाता है तो उसका रोग दूर हो जाता है, वह विश्वास कर लेता है । सभ्य रोगी देखता है जब बह किसी विशेष नुस्सेकी दवाई लेता है तो वह प्रायः उस रोगसे मुक्त हो जाता है, वह विश्वास कर लेता है । इनमें भेद कहां हुआ ?

 

इसका यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दवाईकी रोगमुक्तिकी शक्ति रोगीके विश्वाससे आती है ।

 

   यदि मनुष्योंको भगवत्कृपामें पूर्ण विश्वास होता तो वे शायद बहुत-सी व्याधियोंसे बच जाते ।

 

 १३ -३ -७ ०

 

३९० -- उत्तर-भारतके चरवाहेको यदि ज्बर हो जाय तो बह नदीकी बर्फीली धारामें एक-दो घंटे बैठ जाता है और स्वस्थ और ताजा होकर उठता है । यदि कोई पढा-लिखा सभ्य व्यक्ति ऐसा करे तो बह मर जायगा। इसलिये नहीं कि एक ही इलाज एकको मार देता है और दूसरेको ठीक कर देता है, किन्तु इसलिये कि हमारे मनने हमारे शरीरोंकी मुठ अभ्यासोंसे पकड़कर घातक सिद्धान्तोंका शिकार बना दिया है।

 

३९१ -- औषधि रोगको उतना ठीक नहीं करती जितना कि रोगीका डाक्टर या उसकी औषधि में विश्वास । ये दोनों रोगीकी अपनी शक्तिमें स्वाभाविक श्रद्धाके भद्दे स्थानापन्न है, उस शक्तिके जिसे स्वयं इन्होंने नष्ट क्रय दिया है ।

 

३९२ -- मनुष्यजातिके सबसे अधिक स्वस्थ युग बे थे जिनमें भौतिक दवाइयां बहुत ही कम थीं ।

 

३१३ -- पृथ्वीपर सबसे अधिक बलिष्ठ और स्वस्थ जाति अफ़ीका-

 

३४०


    निवासी जंगलियोंकी थी, किन्तु जब उनकी भौतिक चेतना सभ्य जातियोंके मतिभ्रमसे दूषित हो गयी तो वे कबतक स्वस्थ रह सकते हैं ?

 

श्रीअरविन्दके ये शब्द मी सदाकी भांति भविष्य-सूचक हैं । कारण जब मनुष्यजाति अपने मतिभ्रमसे मुक्ति पा लेगी, केवल तभी वह अतिमानसिक चेतनाको अभिव्यक्त करनेमें सफल होगी तथा उस प्राकृतिक स्वास्थ्यको पुन: प्राप्त कर सकेगी जिससे मनने उसे वंचित कर दिया है ।

 

 १ ४- ३ -७ ०

 

३९४ - हमें रोगोंकी रोक-थाम तथा चिकित्साके लिये अपने अन्दर स्थित दिव्य स्वास्थ्यका प्रयोग करना चाहिये; किन्तु गेलेन और हिपोक्रेटस तथा उनके अनुयायियोंने इसके बदले हमें दवाइयोंका एक बड़ा शस्त्रागार दे दिया है । भौतिक शास्त्रके रूपमें एक बर्बर लेटन मंत्र-तंत्र दे दिया है ।

 

३९५ -- चिकित्सा-विज्ञान सदाशय है और उसका अभ्यास करनेवाले भी प्रायः ही दयालु स्वभावके होते हैं तथा उनमें त्यागकी भावनाकी कमी नहीं होती । किन्तु अज्ञानीका सदाशय उसे हानि पहुंचानेसे कब रोक सका है ?

 

३९६ - यदि सभी इलाज सचमुच अपने-आपमें प्रभावकारी हैं तथा सभी चिकित्सासबंधी सिद्धान्त ठीक हैं तो इस बातसे हमें खोये हुए प्राकृतिक स्वास्थ्य और बलके लिये कैसे सांत्वना मिल सकती है ? उपास पैड ( इंडोनीशियाका एक पेड़ जिसकी शाखाओंसे जहरीले तीर बनाये जाते थे )के सारे हिस्से स्वस्थ होते हैं, किन्तु है तो वह उपासका पेड़ ही न !

 

३९७ -- हमारे अन्दरकी आत्मा ही एकमात्र निपुणतम चिकित्सक है और सच्ची रामबाण औषधि है शरीरकी उसके प्रति अधीनता ।

 

३९८ -- अन्त:स्थित भगवान् असीम है और चरितार्थ करनेवाली

 

३४१


संकल्प-शक्ति हैं । क्या तुम मृत्युके भयसे प्रभावित हुए बिना अपनी समस्त थ्याधियोंको उन्हें सौंप सकते हो, एक प्रयोगके रूपमें नहीं वरन् एक सुस्थिर और पूर्ण विश्वासके साथ ? और तुम देखोगे कि अन्तमें वे लाखों डाक्टरोंकी कुशलतासे भी आगे निकल जायेंगे ।

 

३९९ -- डाक्टरका कहना है कि स्वास्थ्यके लिये हमें बीस हजार सावधानियां बरतनी पड़ेगी, किन्तु शरीरके लिये यह न तो ईश्वरका वेद-वाक्य है न प्रकृतिका ।

 

मनके अधिराज्यने मनुष्यजातिको डाक्टरोंका और उनकी दवाइयोंका दास बना दिया है । परिणामत: रोग संख्या और गंभीरतामें बढ़ रहे हैं ।

 

  मनुष्यके उद्धारका एकमात्र उपाय यही है कि वह भागवत प्रभावके प्रति खुलकर मानसिक दासतासे मुक्त हो जाय और यह पूर्ण समर्पणसे ही हो सकता है ।

 

 १५ - ३ -७ ०

 

४०० -- एक बार मनुष्य स्वभावसे ही स्वस्थ था और यदि उसे फिरसे उस आदिम स्थितिकी ओर लौटने दिया जाय तो लौट सकता है । किन्तु चिकित्सा-विज्ञान हमारे शरीरका ढेरों दवाइयोंके साथ पीछा कुरता है और हमारी कल्पनाको शिकारकी खोजमें निकले कीटाणुओंके झुंड-के-झुंड दुरा आक्रान्त कर देता है ।

 

४०१ -- कीटाणुओंकी मायामय धेरा-बन्दीसे अपने-आपको बचनेमें सारा जीवन बितानेकी जगह मैं मरकर किस्सा खतम करना अधिक पसन्द करुंगा । यदि यह बर्बरता और अज्ञानताकी निशानी है तो भी मैं प्रसत्रतापूर्वक अपने सुमेरियन आदिम जातिके अज्ञानको ही गले लगाना पसन्द करुंगा ।

 

४०२ -- शल्य-चिकित्सक अंगोंको काट-कूटकर और पंगु बनाकर इलाज करते और जीवनको बचाते हैं । इसके बदले प्रकृतिकी प्रत्यक्ष सर्वसमर्थ औषधियोंकी खोज क्यों न की जाय ?

 

३४२


४०३ -- औषधिक स्थानपर अपनी चिकित्सा आप करनेमें बहुत समय लगेगा क्योंकि भय, आत्म-अविश्वास और दवाइयोंपर शरीरकी अस्वाभाविक निर्भरताकी हमारे मनों और शरीरोंको चिकित्सा-विज्ञानने जो शिक्षा दी है बह हमारी दूसरी प्रकृति बन गयी है ।

 

दवाइयोंकी आवश्यकतामें मानसिक विश्वासदुरा की गयी हानिके विरुद्ध हम किन्हीं बाहरी उपायोंसे प्रतिक्रिया नहीं कर सकते । ऐसा केवल मन-रूपी बंदीगृहसे निकलकर और आत्माके प्रकाशमें चेतन रूपसे प्रवेश करके तथा भगवानके साथ चेतन रूपमें एक होकर ही किया जा सकता है, तभी वे हमें हमारा खोया संतुलन और स्वास्थ्य प्रदान कर सकेंगे ।

 

   अतिमानसिक रूपांतर ही एकमात्र सच्चा इलाज है ।

 

 १७-३-७०

 

४०४ - बीमारीमें औषधि हमारे शरीरके लिये इसलिये आवश्यक है क्योंकि हमारे शरीरोंने औषधियोंके विना ठीक न होनेकी कला सीख ली है । तो भी प्रायः देखा जाता है कि जो क्षण प्रकृति रोगीको रोगमुक्त करनेके लिये चुनती है वह वही क्षण होता है जब डाक्टर रोगीके जीवनकी आशा छोड़ देते हैं।

 

४०५ -- अपनी आंतरिक रोगहर शक्तिमें अविश्वास ही स्वर्गसे हमारे पतनका कारण था । चिकित्सा-विज्ञान और बुरी आनुवंशिकता भगवानके वे देवदूत हैं जो स्वर्गके दुरापर खड़े हमें वापिस जाने तथा पुन: प्रवेश करनेसे रोकते हैं ।

 

४०६ -- चिकित्सा-विज्ञान शरीरके लिये एक ऐसी भारी शक्ति है जो किसी छोटे-से राज्यको सुरक्षा प्रदान करके उसे कमजोर बना देती है था उस दयालु डाकूकी तरह है जो अपने शिकारको नीचे गिराकर उसे घायल कर देता है ताकि अपना सारा जीवन उस टूटे-फूटें शरीरकी सेवामें ही लगा सके।

 

 ४०७ - दवाइयां शरीरको - जय बे न तो उसे कष्ट पहुंचाये

 

३४३


और न विषाक्त करें -- केवल तभी ठीक करती हैं जय रोगोंपर उनके भौतिक आक्रमणको आत्माकी शक्तिकी सहायता भी प्राप्त हो । यदि इस शक्तिको स्वतंत्र रूपसे कार्य करनेकी अनुमति मिले तो फिर दवाइयां एकदम अनावश्यक हो जाती हैं ।

 

श्रीअरविन्द हमें उस दुःस्वप्नका प्रत्यक्ष दिग्दर्शन कराते है जिसमें हम निवास करते है ताकि हमारे अंदर गुच्ची चेतनाकी अभिव्यक्ति तथा 'भगवानकी सर्वशक्तिमत्तामें अनन्य विश्वासकी अथक अभीप्सा जाग उठे ।

 

१८-३-७०

 

३४४

भफित

 

 भक्ति बह कुंजी है जो मुक्तिका दुरा खोल देती है ।

 

 --माताजी


भफित

 

४०८ --- मैं भक्त नहीं हूं, क्योंकि मैंने भगवानके लिये संसारका त्याग नहीं किया है । मैं उस वस्तुका त्याग कैसे कर सकता हूं जो उन्होंने जबर्दस्ती मुझसे ले ली और मेरी इच्छाके विरुद्ध मुझे वापिस दे दी । ये सब बातें मेरे लिये बहुत कठिन हैं ।

 

४०१ -- मैं भक्त नहीं हूं, ज्ञानी भी नहीं हूं, न ही मैं भगवानका कर्मी हूं । तो मैं क्या हूं ? अपने स्वामीके हाथमें एक उपकरण, दिव्य गोपबाल (श्रीकृष्ण) दुरा बजायी जानेवाली बंसी, प्रभुके श्वाससे परिचालित एक पत्ता ।

 

४१० -- भक्तिमें तबतक परिपूर्णता नहीं आती जबतक बह कर्म और ज्ञान नहीं बन जाती । यदि तुम भगवानका पीछा कर रहे हा और उनतक पहुंच सके हो तो उन्हें तबतक न जाने दो जबतक कि तुम उनकी वास्तविकताको न पा लो । यदि तुमने उनकी वास्तविकताको पा लिया है तो उनकी समग्रताको भी पानेका प्रयत्न करो । पहली वस्तु तुम्हें दिव्य ज्ञान प्रदान करेगी और दूसरी दिव्य कर्म और जगत्- मे मुक्त और पूर्ण आनंद देगी ।

 

४११ -- और लोग भगवानके प्रति अपने प्रेमकी डींग मारते हैं । मुझे गर्व है इस बातपर कि मैंने भगवान्से प्रेम नहीं किया, बल्कि उन्होंने मुझसे प्रेम किया, मुझे खोजा ओर जबर्दस्ती अपनाया ।

 

४१२ -- जब मैंने यह जाना कि भगवान् एक स्त्री हैं तो मैंने बड़ी देरसे प्रेमके बारेमें कुछ सीखा । किंतु जब मैं स्त्री बन गया और अपने स्वामी तथा प्रेमीकी चाकरीमें लग गया तभी मैंने पूरी तरहसे प्रेमको जाना ।

 

श्रीअरविन्दमें परिहासके लिये विशेष प्रतिभा थी; हम केवल इतना कर सकते हैं कि सराहना करें और चुप रहै ।

 

२०-३-७०

 


श्रीअरविंदका इससे क्या तात्पर्य है : ''म उस वस्तुका त्याग कैसे कर सकता हूं जो उन्होंने मुझसे जबर्दस्तो ले ली और मेरी इच्छाके विरुद्ध मुझे लौटा दी? ''

 

   और जब वे कहते हैं ''जब मैंने यह जाना कि भगवान् एक स्त्री हैं.. .'' तो इससे उनका क्या तात्पर्य है ?

 

मै इसका उत्तर नहीं दे सकती, क्योंकि जबतक वे सशरीर यहां थे उन्होंने कमी मुझसे इस बातकी चर्चा नहीं की थी ।

 

   यदि किसीको वह ठीक तारीख मालूम हों जब उन्होंने यह लिखा था तो उससे कुछ संकेत मिल सकता है ।

 

   शायद 'न' तुम्है बता सकें कि यह कब लिखा गया था, या फिर श्रीअरविन्दने उससे इस बारेमें कुछ कहा हो ।

 

   ४१३ - भगवानके साथ जारकर्म बह पूर्ण अनुभव है, जिसके लिये इस सृष्टिकी रचना हुई थी ।

 

   मैं इस सूत्रको समझा नहीं ।

 

यह श्रीअरविन्दका, अपने अद्भुत हास्यरसके साथ, मानव नैतिकताका मजाक उड़ानेका अच्छे-से-अच्छा तरीका है । यह वाक्य अपने-आपमें एक अच्छा व्यंग्य है ।

 

२१-३-७०

 

   माताजीको इस विषयमें जो सूचना मिली उसके अनुसार ये 'विचार और सूत्र' श्रीअरविन्दके पांडिचेरीमें आनेके शुरूके दिनोंमें ही लिखे गये थे । उस समय श्रीअरविन्द अपने पत्रोंमें ''काली'' नामसे हस्ताक्षर करते थे । वे कृष्ण और कालीको एक ही मानते थे (जिस प्रकार श्रीरामकृष्ण श्रीकृष्णकी पूजा करते समय किसी-किसी समय अपने-आपको स्त्री समझने लगते थे), शायद इसी अनुभूतिकी श्रीअरविन्द हंसी-हंसीमें यहां चर्चा कर रहे हैं ।

 

३४८


    ४१४ -- भगवान्से डरनेका अर्थ है अपने-आपको उनसे दूर ले जाना, किंतु खेल-खेलमें उनसे डरना आनंदको अधिक तीव्र बना देता है ।

 

     ४१५ --- यहूदिन ईश्वरसे डरनेवाले व्यक्तिका आविष्कार किया; ओर भारतवर्षने भगवानके ज्ञाता और भगवानके प्रेमी- का ।

 

     ४१६ -- जूडियामें भगवानका सेवक उत्पत्र हुआ, किंतु वह वयस्कताको प्राप्त हुआ अरबोंके बीच । भारतका आनंद सेवक-प्रेमीमें है ।

 

     ४१७ -- पूर्ण प्रेम भयको भगा देता है; किंतु फिर भी उस निर्वासनकी कुछ कोमल परछाई और स्मृति बनाये रखो, बह पूर्णताको पूर्णतर बना देगी।

 

     ४१८ -- यदि तेरी आत्माको कभी भगवानका शत्रु बननेका अथवा उनकी चालोंका विरोध करने या उनसे घातक मुठभेड़ करनेका सुरव नहीं मिला तो समझो कि उसे भगवानके संपूर्ण आनंदका स्वाद अभी प्राप्त नहीं हुआ है ।

 

      ४१९ -- यदि तुम भगवान्से प्रेम नहीं करवा सकते तो उन्हें लड़नेके लिये ही उकसाओ । यदि वे तुम्हें प्रेमिका आलिंगन नहीं दे सकते तो उन्हें कुश्तीकी गलबाहीं देनेके लिये विवश करो ।

 

       ४२० -- मेरी आत्मा भगवानकी बंदी है, उन्होंने युद्धमें उसे जीता था; वह अभीतक उस युद्धको आनंद, भय और आश्चर्य- पूर्वक याद करती है, चाहे वह है उससे बहुत दूर ।

 

       ''उनके शत्रु बननेके सुख' से श्रीअरविन्दका क्या तात्पर्य है?

 

यहां भी मुझे कहना पड़ेगा कि मुझे इस बातका ठीक-ठीक पता नहीं क्योंकि इस विषयमें उन्होंने मुझे कमी कुछ नहीं कहा ।

 

३४९


   किंतु मैं तुम्हें अपने अनुभवसे बता सकती हूं । लगभग २५ वर्षकी आयुतक मै केवल धर्मके ईश्वरको, उस ईश्वरको, जैसा कि मनुष्योंने उसे बनाया है, जानती थी, मैं उनसे किसी प्रकारका कोई संबंध नहीं चाहती थी । मैं उनके अस्तित्वको ही अस्वीकार करती थी, मैं विश्वासपूर्वक कहती थी कि यदि कोई ऐसा भगवान् है तो मैं उससे घृणा करती हूं ।

 

   जब मैं २५ वर्षकी हो गयी तो मैंने एक आंतरिक भगवानकी खोज कर ली और तभी मुझे यह मी मालूम हुआ कि पश्चिमी धर्मदुरा वर्णित भगवान् 'महान् विरोधी' के सिवाय और कुछ नहीं है ।

 

   जब मैं सन् १११४ मे भारत आयी और श्रीअरविन्दकी शिक्षाको जाना तो मेरे आगे पूरी बात स्पष्ट हो गयी ।

 

 २ ४- ३ - ७०

 

४२१ -- मैं पृथ्वीपर सबसे बढ़कर पीडासे ही घृणा करता रहा, जबतक कि भगवानने ही मुझे कष्ट एवं पीड़ा नहीं पहुंचायी; तव यह तथ्य मेरे सामने स्पष्ट हुआ कि पीड़ा अत्यधिक आनन्दका ही टेढ़ा और दुराग्रहपूर्ण कप है ।

 

४२२ -- जो पीड़ा भगवान् हमें देते हैं उसकी चार अवस्थाएं होती हैं : जब कि बह केवल पीड़ा होती है; जब बह ऐसी पीड़ा होती है जो सुख देती है; जब पीड़ा स्वयं ही सुख होती है और जब वह शुद्ध रूपसे आनन्दका एक भयानक रूप होती है ।

 

४२३ -- जव व्यक्ति हर्षके उन स्तरोंतक पहुंच जाता है जहां पीडाका नाम-निशान नहीं होता, वहां भी यह एक असहनीय उल्लासके वेषमें उपस्थित रहती है ।

 

४२४ - जब मैं उनके आनन्दके ऊंचे-से-ऊंचे शिखरोंपर चढ़ रहा था तो मैंने अपनेसे पूछा, क्या आनन्दकी तीव्रताकी कोई सीमा नहीं है और तब मुझे भगवानके आलिंगनोंसे डर-सा लगने लगा ।

 

 मैं आपसे ''पीडाकी चार अवस्थाओं'' के विषयमें जानना चाहता हूं, जिनकी चर्चा श्रीअरविन्दने की है ।

 

३५०


यदि श्रीअरविन्द नैतिक पीडाकी बात कर रहे हैं, चाहे वह कुछ मी हो, तो मैं अपने अनुभवसे तुम्हें बता सकती हूं कि दे जिन चार अवस्थाओंकी बात कर रहे है वे चेतनाकी उन चार अवस्थाओंसे मेल खाती हैं जो किसी वैयक्तिक चेतनाद्वारा प्राप्त आंतरिक विकास और भागवत चेतनाके साथ मिलनेसे उत्पन्न होती हैं । जब यह मिलन पूर्ण होता है तो ''आनंदके भयंकर रूप" के सिवाय और किसी वस्तुका अस्तित्व नहीं होता ।

 

   यदि उस पीडाका सवाल है जो शरीर सहता है, तो उस अनुभवमें इतनी स्पष्ट, सुयोजित व्यवस्था नहीं रहती । यह बात और मी अधिक ठीक है क्योंकि भगवान्से मिलनेके बाद पीड़ा भी सामान्यतया तिरोहित हो जाती है ।

 

 २५-३ -७०

 

४२५ - भगवानके प्रेमके बाद सबसे बता आनन्द है मनुष्यके अन्दर स्थित भगवानके प्रेमका; वहां भी व्यक्तिको बहुविधताको आनन्द प्राप्त होता है ।

 

४२६ - एक पत्निव्रत शरीरके लिये अच्छा हो सकता है, पर आत्मा, जो मनुष्योंमें स्थित भगवान्से प्रेम करती है, असीम और भावविभोर वहुपलीवादी है, (उसका प्रेम असीम और आनन्दसे परिपूर्ण होता है) । तो भी सब समय -- और यह एक रहस्य है - वह केवल एक ही सत्तासे प्रेम करती है ।

 

४२७ -- सारा संसार ही मेरा अन्तःपुर है और उसके अन्दरकी प्रत्येक सजीव और निर्जीव सत्ता मेरे उल्लासका उपकरण है ।

 

जिसे भगवानके साथ प्रेमका स्वाद मिल चुका है वह भगवानके सिवाय अन्य किसीसे प्रेम कर ही नहीं सकता और जिन लोगोंके लिये उसके हदयमें स्नेह है उनके अंदर स्थित भगवानके साथ ही वह प्रेम करता है; और यही प्रेम करनेका सबसे अच्छा तरीका भी है, क्योंकि इसी प्रकार बह दूसरों-

 

३५१


को उन भगवानके प्रति सचेतन होनेमें अधिक-से-अधिक सहायता पहुंचा सकता है, जो उनमें अभिव्यक्त होते हैं ।'

 

२७-३-७०

 

४२८ -- कुछ समयतक तो मुझे पता ही नहीं लगा कि मै कृष्णसे अधिक प्रेम करता हूं या कालीसे । जब मैं कालीसे प्रेम करता था तो यह मेरा अपने साथ प्रेम करना था, किन्तु,. जब मैंने कृष्णके. साथ प्रेम किया ' तो यह अन्यके साथ प्रेम था, पर फिर भी मैं प्रेम अपनेसे ही कर रहा था । अतएव, मैं कालीसे भी अधिक कृष्णसे प्रेम करने लगा ।

 

श्रीअरविन्दका कहनेका हमेशा अपना निराला ढंग था जो सदा मौलिक एवं सदा अप्रत्याशित होता था ।

 

२९-३-७०

 

४२९ -- प्रकृतिकी प्रशंसा करने या उसकी एक शक्ति, उपस्थिति अथवा देवीके रूपमें पूजा करनेसे क्या लाभ ? सौन्दर्यकी दृष्टिसे या कालकी दृष्टिसे भी उसका गुण गानेका क्या अर्थ ? असली बात है उसका आत्माद्वारा उपभोग करना, जिस तरह शरीर स्त्रीका उपभोग करता है ।

 

४३० - जब थ्यक्तिके हदयमें अन्तर्दृष्टि होती है तो सब कुछ - प्रकृति, भाव और कर्म, बिचार और कार्य, रुचियां और पदार्थ -- सब प्रेमपात्र बन जाते हैं और परमानन्दकी अनुभूति प्रदान करते हैं ।

 

कुछ कहनेको नहीं है ।

 

 ३०-३-७०

 

३५२


४३१ -- जो दर्शनशास्त्री संसारको माया समझकर उसका त्याग कर देते हैं वे बड़े बुद्धिमान्, संयमी एवं पुण्यात्मा हैं किन्तु मैं कभी-कभी अपने-आपको यह सोचनेसे नहीं रोक सकता कि वे जरा मूर्ख भी हैं, वे भगवान्द्रारा बड़ी सरलतासे ठगे जाते हैं ।

 

४३२ - मेरा अपना यह विचार है कि मैं इस बातपर निश्चय ही आग्रह कर सकता हूं कि भगवान् संसारके अन्दर और बाहर दोनों जगह अपने-आपको अभिव्यक्त करें । यदि बे इस कार्यसे बचना चाहते थे तो फिर उन्होंने इस संसारको बनाया ही क्यों ?

 

४३३ -- मायावादी मेरे वैयक्तिक भगवान्को स्वप्न मानते हैं ओर अवैयक्तिक भगवानका स्वप्न देखते हैं; बौद्ध धर्मके अनुयायी भी इसे एक कोरी कल्पना समझते है, वे निर्वाण और शून्यताके आनन्दके स्वप्न लेना पसन्द करते हैं । इस प्रकार सभी स्वप्नद्रष्टा एक-दूसरेकी अनुभूतियोंको बुरा-भला कहते हैं ओर अपनी अनुभूतियोंको सर्वोच्च मानकर उसका प्रदर्शन करते फिरते हैं । जिस वस्तुमें आत्मा पूर्ण आनन्द मानती है, विचारके लिये वही अन्तिम सत्य वस्तु है ।

 

४३४ -- वैयक्तिक सत्तासे आगे जाकर मायावादी अवर्णनीय सत्ताको देखता है; मैं उसके पीछे-पीछे वहां जा पहुंचा और उसके परे अवर्णनीय सत्तामें मैंने अपने कृष्णको पाया ।

 

सदाकी भांति इस बार भी श्रीअरविन्द बड़े विलक्षण ढंगसे उन मानवी शक्तियोंकी निस्सारताको हमारे सामने स्पष्ट करते हैं जिनमें प्रत्येक गर्वपूर्वक, उस सबका खंडन करता है जो उसकी चीज नहीं है या उसके ठयक्तिगत अनुभवमें नहीं आयी है ।

 

     बुद्धिमत्ता उस क्षमतासे शुरू होती है जो सब सिद्धांतोंको, अत्यधिक विरोधी सिद्धांतोंको भी, स्वीकार करती है ।

 

१-४-७०

 

३५३


४३५ - जब मैं पहली बार कृष्णसे मिला तो मै उनसे मित्र और खेलके साथीके रूपमें तबतक प्रेम करता रहा जबतक उन्होंने मुझे ठग नहीं लिया । इसके बाद मुझे क्रोध आ गया और मैं उन्हें क्षमा नहीं कर सका । फिर मैंने उनसे प्रेमिके रूपमें प्यार किया, और उन्होंने मुझे तब भी धोखा दिया; मैं और भी अधिक क्रुद्ध हो उठा किन्तु इस बार मुझे उन्हें क्षमा करना ही पड़ा ।

 

४३६ -- मुझे नाराज करके उन्होंने मुझे इस बातके लिये विवश कर दिया कि मैं उन्हें क्षमा कर दूं । यह उन्होंने हानिपूर्ति करके नहीं, बल्कि और नयी नाराजगिया पैदा करके किया ।

 

४३७ -- जबतक भगवान् मेरे प्रति किये गये अपने दोषोंको सुधारनेकी कोशिशमें लगे रहे, तबतक हम बीच-बीचमें झगड़ते रहे; किन्तु जब उन्होंने अपनी भूल जान ली तो हमारा झगड़ा भी समाप्त हो गया, क्योंकि तब मैं उनके प्रति पूर्ण समर्पण करनेके लिये विवश हो गया ।

 

४३८ -- जब मैंने संसारमें कृष्ण और अपने सिवाय औरोंको भी देखा तो मैंने अपने साथ भगवानके व्यवहारको गुप्त ही रखा । किन्तु जबसे मैंने उन्हें और अपनेको सर्वत्र देखना शुरू कर दिया है, मैं निर्लज्ज और वाचाल हा गया हूं ।

 

श्रीअरविन्दमें यह प्रतिभा थी कि वे अपने लेखोंमें अत्यधिक असाधारण अनुभूतियोंको मी अत्यधिक साधारण शब्दोंमें अभिव्यक्त करते थे । इस प्रकार वे आभास देते हैं कि उनकी अनुभूतियां बड़ी सरल एवं स्पष्ट है ।

 

२-४-७०

 

४३९ -- जो कुछ मेरे प्रेमिका है, बह सब मेरा है ! यदि मैं उन सुन्दर आभूषणोंका, जो उन्होंने मुझे दिये हैं, प्रदर्शन करता हूं तो तुम मुझे बुरा-भला क्यों कहते हो ?

 

४४० -- मेरे प्रेमीने अपना ताज और राजसी हार अपने सिर

 

३५४


और गलेसे उतारकर मुझे पहना दिये; किन्तु सन्तों और धर्मोपदेशकोंके शिष्योंने मुझे दुर्वचन कहे और बोले : ''यह सिद्धियोंके पीछे पड़ा है।',

 

४४१ -- मैंने संसारमें अपने प्रेमिके आदेशको माना और अपने विजेताकी इच्छाके अनुसार कार्य किया, किन्तु बे सब चिल्ला उठे : ''युवकोंको बिगाड़नेवाला, नीति-धर्मको भ्रष्ट करनेवाला यह कौन है ? ''

 

४४२ -- ओ सन्तो, यदि मैंने तुम्हारी प्रशंसा पानेकी चिन्ता की होती, ओ धर्मोपदेशको, यदि मुझे यशप्राप्तिकी इच्छा होती तो मेरा 'प्रेमी' कभी मुझे अपने हदयसे न लगाता, न ही मुझे कभी अपने निजी कक्षोंमें आनेकी स्वतंत्रता देता ।

 

४४३ -- मै तो अपने 'प्रेमी' के उल्लासपूर्ण सौन्दर्यमें मतवाला हो गया था और मैंने संसार-मार्गके बीचमें ही संसारकी पोशाकको उतार फेंका । अब यदि संसारके प्राणी मेरा उपहास करते हैं और धर्मात्मा लोग अपना मुंह फेर लेते हैं तो मैं इसकी चिन्ता क्यों करूं ?

 

४४४ -- हे प्रभु, तेरे प्रेमीके लिये संसारकी निन्दा वनका मधु है और भीड़दुरा बरसाए पत्थर शरीरपर पड़नेवाली ग्रीष्म ऋतुकी वर्षाकी फुहार हैं । यह सब क्या आप ही नहीं कर रहे हैं, मुझपर बरसनेवाले और मुझे चोट पहुंचनेवाले पत्थरोंमें भी क्या आप ही विधमान नहीं हैं ?

 

इसमें कहनेको कुछ नहीं है । हम केवल इस अनुभूतिकी पूर्णताके आगे सिर ही नवा सकते हैं ।

 

३-४-७०

 

४४५ -- भगवान में ऐसी दो वस्तुएं हैं जिन्हें मनुष्य बुरा कहते हैं, एक बह, जिसे वे एकदम नहीं समझ सकते और दूसरी बह, जिसे वे गलत समझते हैं, और जिसे पाकर

 

३५५


दुरुपयोग करते हैं : जिस वस्तुकी वे मिथ्या गर्वसे तलाश करते हैं तथा जिसे वे समझते भी अस्पष्ट रूपसे हैं उसे ही वे भला और पवित्र कहते हैं । किन्तु मेरे लिये भगवानकी सभी वस्तुएं प्रेमके योग्य हैं ।

 

४४६ -- हे मेरे प्रभु, वे कहते हैं कि मैं पागल हूं क्योंकि मैं तुझमें कोई दोष नहीं देखता; किन्तु यदि मैं सचमुचमें तेरे प्रेममें पागल हूं तो मैं अपने होश-हवासमें वापिस नहीं आना  ।

 

४४७ - बे चिल्लाते हैं : ''म्गन्तियां, मिथ्यात्व, लड़खड़ाहटें'' ! कितनी सुन्दर हैं तेरी म्गन्तियां, प्रभु ! तेरे मिथ्यात्व ही 'सत्य'को जीवित रखते हैं; तेरी लड़खड़ाहटें ही जगत्में पूर्णता लाती हैं ।

 

४४८ -- मैं भावोद्वेगोंको चिल्लाते सुनता हू, ''जीवन, जीवन, जीवन! '' आत्माका उत्तर होता है : ''भगवान्, भगवान्, भगवान् ! '' जबतक तुम जीवनको भगवानके रूपमें नहो देखोगे और उसी रूपमें उससे प्रेम नहीं करोगे, तबतक जीवन तुम्हारे लिये मुहरबन्द आनन्द रहेगा ।

 

४४९ -- इन्द्रियां कहती हैं : ''बह उससे प्रेम करता हैं", किन्तु आत्मा कहती है : ''भगवान्, भगवान्, भगवान् ।', जीवनका सर्वग्राही सूत्र यही है ।

 

इसी प्रकार श्रीअरविन्द जीवनके रहस्यको हमारे सामने प्रकट एवं सूत्रबद्ध करते हैं । अब इसे समझना और जीवनमें उतारना ही बाकी

 

४-४-७०

 

४५० -- यदि तुम क्षुद्रतम कीड़े और अधमतम अपराधीसे प्रेम नहीं कर सकते तो तुम यह कैसे सोच सकते हो कि तुमने अपनी आत्मामें भगवानको स्वीकार कर लिया है ?

 

३५६


४५१ -- संसारको । अलग रखकर भगवानके साथ प्रेम करना उनकी तीव्र किन्तु अपूर्ण आराधना है ।

 

४५२ -- क्या प्रेम सिर्फ ईर्ष्याकी पुत्री या दासी है ? यदि कृष्ण चंद्रावली'से प्रेम करते हैं तो मैं भी उससे प्रेम क्यों न करूं ?

 

४५३ -- चूंकि तुम भगवान्से ही प्रेम करते हो इसलिये तुम्हारी मांग होती है कि बे दूसरोंसे प्रेम न करके तुमसे ही प्रेम करें, किन्तु तुम्हारी यह मांग झूठी है, सत्यकी तथा अन्य वस्तुओंकी प्रकृतिसे उलटी है । कारण, ३ तो एकमेव हैं किन्तु तुम बहुतोंमेंसे एक हो । वस्तुतः तुम अपने हृदय और 'अपनी आत्मामें सब प्राणियोंके साथ एक हो जाओ, तब संसारमें उनके पास प्रेम करनेके लिये तुम्हारे सिवाय अन्य कोई नहीं होगा ।

 

४५४ -- मेरा झगड़ा उन लोगोंके साथ है जो इतने मूर्ख हैं कि मेरे प्रेमीसे प्रेम नहीं करते, उनके साथ मेरा झगड़ा नहीं जो मेरे साथ उनके प्रेममें हिस्सा बंटाते हैं ।

 

४५५ -- जिनसे भगवान् प्रेम करते हैं उनमें आनन्द मानो; जिनसे वे प्रेम न करनेका बहाना करते हैं, उनपर दया करो ।

 

ईर्ष्याकी यह अधिक-से-अधिक सुन्दर आलोचना है, साथ ही इससे मुक्त होनेका सर्वोत्तम उपाय मी यह है । अहंभावकी सीमाओंको पार करके तथा भागवत प्रेमके साथ युक्त होकर ही ऐसा किया जा सकता है, उस भागवत प्रेमके साथ जो शाश्वत और विश्वव्यापी है ।

 

६-४-७०

 

४५६ -- क्या तुम नास्तिकसे इसलिये घृणा करते हो क्योंकि बह भगवान्से प्रेम नहीं करता ? तो क्या तुमसे भी घृणा की जाय, क्योंकि तुम भी भगवानके साथ पूरा-पूरा प्रेम नहीं करते ?

 

   कृष्ण सब गोपियोंमें सबसे अधिक प्रेम राधासे करते थे पर वे चंद्रावली तथा अन्य गोपियोंसे मी तो प्रेम करते थे ।

 

३५७


४५७ -- विशेषतया एक वस्तुमें धर्म और गिरजाघर असुरके सम्मुख अपनी हार मान लेते हैं और यह है उनके अभिशाप । जब पादरी अभिशापका प्रसंग छेड़ता है तो मैं शैतानको प्रार्थना करते देखता हूं ।

 

४५८ -- इसमें कोई सन्देह नहीं कि जब पुरोहित या पादरी शाप दे रहा होता है तो वह देवतासे ही कुछ कह रहा होता है । किन्तु तब बह अपने शत्रुके साथ-साथ क्रोधके देवताकी, अन्धकारके देवताकी अराधनामें लगा होता है । कारण उसकी जो वृत्ति भगवानकी ओर होगी उसी वृत्तिके साथ भगवान् उसे ग्रहण करेंगे ।

 

४५९ -- शैतान मुझे तबतक बहुत कष्ट देता रहा जबतक मुझे यह पता न लगा कि भगवान् ही मुझे प्रलोभन दे रहे थे; तय उसकी वेदना मेरी आत्मासे सदाके लिये चली गयी ।

 

४६० -- मैं शैतानसे घृणा करता था और उसके प्रलोभनों और उसकी यंत्रणाओंसे तंग आ गया था । पर मुझे पता नहीं उसके विदाईके शब्दोंकी आवाज इतनी मधुर क्यों थो कि जब वह लौटकर मेरे पास आता -- जैसा कि प्रायः ही होता था - तो मैं दुःखके साथ ही उसे अस्वीकार करता था । तब मैंने जाना कि यह तो कृष्णकी ही लीला थी और मेरी घृणा हंसीमें बदल गयी ।

 

४६१ -- उन लोगोंके अनुसार संसारमें बुराई इसलिये है कि शैतानने भगवान्पर विजय पा ली है, किन्तु मैं अपने प्रेमपात्रके बिषयमें अधिक गर्वपूर्वक सोचता हूं। मेरा विश्वास है कि उनकी इच्छाके बिना स्वर्गमें या नरकमें, जलमें या थलमें, कहीं भी कुछ नहीं होता ।

 

सर्वोच्च भगवान्में विरोधी वस्तुएं परस्पर समझौता कर लेती है और एक-दूसरेको पूर्ण बनाती हैं । अभिव्यक्त सृष्टिमें, वस्तुत: विभाजन ही विरोधी वस्तुओंको जन्म देता है; किंतु जब व्यक्ति अपनी चेतनाको मागबत चेतनाके साथ युक्त कर लेता है तो विरोध मी समाप्त हों जाता है।

 

७-४-७०

 

३५८


४६२ -- अपने अज्ञानमें हम बच्चों जैसे हैं हम सीधे और बिना सहारेके चलनेमें अपनी सफलतापर गर्व करते हैं तथा चलनेके लिये इतना उत्सुक रहते हैं कि अपने कन्धोंपर मौक़े सभालनेवाले स्पर्शको अनुभव ही नहीं करते । जब हम जागते और पीछे देखते हैं तो पाते हैं कि सर्वदा भगवान् ही हमें पकड़े हुए चला रहे थे ।

 

४६३ -- पहले-पहल जब मैं पापमें जा गिरता तो रोया करता था और अपने ऊपर क्रुद्ध हो उठता था और भगवान्से भी नाराज हो जाता कि उन्होंने यह कैसे होने दिया । उसके बाद मैं बस इतना ही पूछ पाता था : ''ऐ मेरे बाल सखा, तूने मुझे फिरसे कीचड़में क्यों लुढ़का दिया ? '' फिर मुझे यह भी बहुत दुस्साहस और धृष्टताकी बात लगी । मैं बस चुपचाप उठ खड़ा होता, उसे कनखियोंसे देखता और अपने-आपको धो डालता था ।

 

जबतक व्यक्ति अपने पुण्यपर अभिमान करता रहेगा, परम प्रभु उसे विनयकी आवश्यकता सिखानेके लिये पाप-गर्तमें गिराते रहेंगे ।

 

८-४-७०

 

४६४ -- भगवान् ने जीवनको ऐसे व्यवस्थित किया है कि संसार आत्माका पति बन गया है और कृष्ण हैं उसके दिव्य यार । हमारे ऊपर संसारकी सेवा करनेका एक ऋण है और हम उससे एक विधानके दुरा, एक बाध्य करनेवाले मतके दुरा तथा दुःख-सुखके सार्वजनीन अनुभवदुरा बन्ने हुए हैं, परन्तु हमारे हदयकी पूजा, हमारी शक्ति और गुप्त आनन्द तो हमारे दिव्य प्रेमिके लिये ही है ।

 

४६५ - भगवानका आनन्द गूढ़ और अद्भुत है; यह एक रहस्यकी वस्तु है और एक ऐसा परमोल्लास है जिसपर समझदारी उपहास करनेके लिये मुंह बनाया करती है, परन्तु जिस आत्माने उसे एक बार चख लिया है वह कभी उसका त्याग नहीं कर सकती, भले ही उसके कारण संसारमें चाहे जितनी बदनामी, पीड़ा और परेशानी उठानी पड़े ।

 

३५९


अभीतक तो संसार इस विशुद्ध, आलोकपूर्ण, दिव्य आनंदका विरोधी ही प्रतीत होता है; किन्तु एक दिन आयेगा जब संसार भी इस दिव्य आनन्दको अभिव्यक्त करेगा । इस कार्यके लिये उसे तैयार करना होगा ।

 

 ९-४-७०

 

४६६ -- भगवान् जगद्गुरु तेरे मनसे कहीं अधिक ज्ञानी हैं; बस, उन्हीं पर विश्वास रख, न कि उस चिर-स्वार्थापरायण, उद्धत संदेहवादीपर ।

 

४६७ -- अविश्वासी सन सर्वदा संदेह करता है, क्योंकि वह समझ नहीं सकता; परन्तु भगबत्-प्रेमीका विश्वास जाननेके लिये आग्रह करता है यधापि समझ नहीं पाता । हमारे अन्धकारके लिये ये दोनों ही आवश्यक हैं । परन्तु इस विषयमें कोई सन्देह नहीं कि उन दोनोंमेंसे अधिक शक्तिशाली कौन है । जिसे मै अभी नहीं समझ पाता उसे किसी दिन आयत्त कर लूंगा, पर यदि मैं विश्वास और प्रेमको ही खो बैठ तो एकदम उस लक्ष्यसे भ्रष्ट हो जाऊंगा जिसे भगवानने मेरे सामने रखा है ।

 

४६८ -- मैं भगवान्से, अपने पथप्रदर्शक और गुरुसे, प्रश्न कर सकता हूं और पूछ सकता हूं कि क्या मैं सही हूं अथवा अपने प्रेम और ज्ञानके वश तूने मेरे मनको मुझे धोखा देनेका मौका दिया है ? तू चाहे तो अपने मनपर सन्देह कर, पर इस बातपर सन्देह न कर कि भगवान् तुझे पथ दिखा रहे हैं ।

 

जीवन हमें इसलिये दिया गया है कि हम भगवान्को प्राप्त कर सकें और उनके साथ संयुक्त हो सकें ।

 

   मन हमें फुसलानेकी चेष्टा करता है कि ऐसा नहीं है; क्या हम इस झूठेका विश्वास करें ?

 

१० -४-७०

 

२६०


४६९ -- चूंकि तुझे सर्वप्रथम भगवानके विषयमें अपूर्ण धारणाएं दी गयी थीं इसलिये अब तू नाराज. हो रहा है और उन्हें अस्वीकार कर रहा है । ऐ मनुष्य ! क्या तु अपने शिक्षक पर सन्देह करता है क्योंकि उसने तुझे आरंभ में ही सारा ज्ञान नहीं दे दिया था ? तू उस अपूर्ण सत्यका अध्ययन कर और उसे यथास्थान रख दे ताकि तू सुरक्षित रूपमें उस विशालतर ज्ञानतक जा सकें जो अब तेरे सम्मुख उद्घाटित हो रहा है ।

 

४७० -- बस, यही तरीका है जिससे भगवान् अपने प्रेमवश शिशु अन्तरात्मा तथा दुर्बल प्राणिकों शिक्षा देते हैं वे उन्हें एकएक पग आगे ले जाते हैं तथा अपने चरम एवं अभी अप्राप्य पर्वत-शृंगोंका दर्शन नहीं होने देते । और, क्या हम सबके अन्दर कोई-न-कोई दुर्बलता नहीं है ? क्या उनकी वृष्टिमें हम सब-के-सब केवल नन्हीं बच्चे ही नहीं हैं ?

 

४७१ -- मैंने देखा है कि भगवानने मुझे जो कुछ नहीं दिया वह अपने प्रेम तथा ज्ञानके वश ही रोक रखा है । यदि मैंने उस समय उसे पा लिया होता तो मैं किसी महान् अमृतका एक महान् विषयमें बदल देता । फिर भी कभी-कभी, जब हम हठ करते है तो, भगवान् हमें विष पीनेके लिये दे देते हैं ताकि हम उससे मुंह मोड़ना सीख सकें तथा ज्ञानपूर्वक उनकी दिव्य सुधा और अमृतरसका आस्वादन कर सकें ।

 

जब मनुष्य थोड़ा और बुद्धिमान् हो जायगा तो वह किसी मी विषयमें शिकायत नहीं करेगा और भगवान्द्रारा दी गयी वस्तुओंको उनकी कृपाके रूपमें स्वीकार करेगा, ऐसी कृपाके रूपमें जौ अत्यधिक अनुग्रहपूर्ण है ।

 

  हम उनके प्रति जितने अधिक समर्पित होंगे उतना अधिक उन्है, समझ सकेंगे ।

 

   हम उनके प्रति जितने अधिक कृतज्ञ होंगे उतने अधिक प्रसत्र रहेंगे ।

 

११-४-७०

 

३६१


४७२ -- आज नास्तिकको भी यह देख सकना चाहिये कि सृष्टि किसी असीम और शक्तिशाली उद्देश्यकी ओर अग्रसर हो रही है, उस उद्देश्यकी ओर जिसे क्रमविवर्तन अपने स्वभाववश ही स्वीकार करता है । परन्तु असीम उद्देश्य और उसकी परिपूर्ति पहले ही मान लेती है कि कोई असीम प्रज्ञा है जो तैयार करती, रास्ता दिखाती, गढ़ती, रक्षा करती और समर्थन करती है । तब उस दिव्य प्रज्ञाका आदर कर, और, मन्दिरमें धूपबत्तीके दुरा नहीं तो, अपनी अन्तरात्मामें चिन्तनके द्वारा उसकी पूजा कर । यदि सु अनन्त प्रेमवाले हृदय तथा अनन्त आत्म-ज्योतिवाले मनको अस्वीकार करे तो भी उसकी पूजा कर । तब तू देखेगा कि, यद्यपि तू बिना जाने जिसका आदर करता और पूजा करता है वह श्रीकृष्ण ही हैं ।

 

शब्दोके परे और विचारोंके परे भगवानकी सर्वोच्च उपस्थिति हमें अपना अनुभव कराती है, तथा आश्चर्य और प्रशंसा करनेके लिये बाधित करती है ।

 

   हमें उन सब मानसिक धारणाओंसे पृथक् रहना चाहिये जो वस्तुओं- को सीमित एवं विकृत करती है । हमें संपर्कको शुद्ध रखनेके लिये प्रयत्न करना होगा ।

 

१२-४-७०

 

४७३ -- प्रेमेश्वरने कहा है, जो लोग अज्ञेय और अनिर्देश्यकी उपासना करते हैं वे मेरी ही उपासना करते हैं और मैं उन्हें स्वीकार करता हूं । उन्होंने अपनी वाणीके दुरा मायावादी और अज्ञेयवादीका समर्थन किया है । तब, हे भक्त, तू भला उसकी निन्दा क्यों करता है जिसे तेरे परम प्रभुने स्वीकार कर लिया है ?

 

   भागवत दृष्टिमें सभी सच्ची मानवीय अभीप्साएं स्वीकार करने योग्य है, चाहे उनके स्वरूपोंमें कितनी भी विषमताएं या प्रत्यक्ष असंगतिया क्यों न हों ।

 

और ये सब मिलकर भी भागवत सत्ताको अभिव्यक्त करनेके लिये काफी नहीं है ।

 

१३-४-७०

 

३६२


४७४ -- जिस कालविनने शाश्वत नरकके अस्तित्वका प्रतिपादन किया उसने भगवानको नहीं जाना, बल्कि उनके एक भयावह छद्यवेशको ही उनका शाश्वत सत्य बना दिया । यदि कोई नित्य नरक हो तो वह केवल नित्य आनन्दोल्लासका ही एक निवास-स्थान हो सकता है; क्योंकि भगवान् आनन्द है और उनके आनन्दकी शाश्वतताके अतिरिक्त दूसरी कोई शाश्वतता है ही नहीं ।

 

४७५ -- दांतेने जब यह कहा कि भगवानके पूर्ण प्रेमने ही शाश्वत नरककी सृष्टि की थी तो संभवतः बह जितना जानता था उससे कहीं अधिक ज्ञानकी बात लिख गया; क्योंकि यदा-कदा प्राप्त होनेवाली झांकियोंके द्वारा मुझे यह धारणा हो गयी है कि कोई एक नरक है जहां हमारी अन्तरात्मा युगोंतक असह्य आनन्दका उपभोग करती है तथा मधुर और भयंकर रुद्रकी एकान्त गोदमें मानों चिरदिन लोटा करती है ।

 

भागवत वैभव मनुष्यकी क्षुद्रता और संकीर्णताके लिये बहुत अधिक चमत्कारपूर्ण है, वह उसे कठिनाईसे सहन कर पाती है. और आनंदकी मनुष्यके लिये बहुत अधिक असहनीय हो सकती है ।

 

१४-४-७०

 

४७६ -- जगद्गुरु भगवानका शिष्य बनना, जगत्पिता भगवानका पुत्र होना, जगन्माता भगवानका स्नेह पाना, दिव्य सुहृद्का हाथ पकड़े रहना, अपने दिव्य सहचर तथा बाल-सखाके साथ हंसना- खेलना, स्वामी भगवानकी आनन्दपूर्वक सेवा करना, अपने दिव्य प्रेमीसे उल्लासके साथ प्रेम करना -- मानवशरीरमें जीवनके ये सात प्रकारके आनन्द हैं । क्या तू इन सबको एक ही सर्वोत्तम और सतरंगी सम्बन्धके अन्दर युक्त कर सकता है? तब तुझे किसी स्वर्गकी आवश्यकता न रहेगी और इ अद्वैतवादीकी मुक्तिको भी अतिक्रम कर जायगा ।

 

    सोलहवीं शताब्दीके एक प्रसिद्ध सुधारक और लेखक ।

  

    इटलीके सर्वश्रेष्ठ कवि ।

 

३६३


इसके आगे और कुछ कहनेको नहीं है । यह कार्य-व्यवस्था अपने-आपमें पूर्ण है ।

 

   अब हमें इसे केवल चरितार्थ करना है ।

 

 १५-४-७०

 

४७७ -- यह संसार बदलकर स्वर्गकी प्रतिमूर्ति कब बनेगा? जब समूची मानवजाति बालक और बालिकाएं बन जायगी और उनके साथ-साथ स्वयं भगवान् भी कृष्ण और कालीके रूपमें प्रकट होंगे, जो उस दलके स्वसे अधिक प्रसन्न बालक और सबसे अधिक शक्तिशाली बालिका होंगे और स्वर्गके बगीचेमें एक संग खेलेंगे । सामी अधन ( सेमेटिक ईडन) काफी अच्छा था, पर आदम और हवा इतनी बढ़ी उखके थे और स्वयं उनके भगवान् भी इतने अधिक वृद्ध और कठोर और गंभीर थे कि सर्पकी प्रस्तावका प्रतिरोध न कर सके ।

 

४७८ -- सामयोनि एक ऐसे भगवानकी कल्पना करके मनुष्य- जातिको व्यथित किया जो कठोर और महाप्रतापी राजा है, नियम- निष्ठ विचारकर्ता है और जिसका हास्य-उल्लाससे कोई सरोकार नहीं । परन्तु हम लोग, जिन्हेंने कृष्णको देखा है, यह जानते हैं कि वह एक बालक है जो खेलनेका बड़ा शौकीन है तथा एक बच्चा है जो शरारत और सुखदायी खिलखिलाहटसे भरा रहता है ।

 

४७९ -- जो भगवान् हंस नहीं सकता बह इस हास्यजनक विश्व- का निर्माण भी न कर पाता ।

 

मिथ्यात्वकी शक्तियोंके विरुद्ध व्यंगका शस्त्र ही अत्यधिक बलशाली प्रमाणित होता है ।

 

   एक वाक्यसे ही श्रीअरविंद मनुष्य-निर्मित देवताओंमेंसे एकाकी शक्तिको नष्ट कर देते हैं ।

 

१७-४-७०

 

३६४


४८० -- भगवानने एक बच्चेको दुलारनेके ' लिये अपनी आनंद- मय गोदमें ले लिया, परंतु मां रोने लगी और उसे सांत्वना नहीं दी जा सकी, क्योंकि उसके बच्चेका कोई अस्तित्व ही नहीं रहा ।

 

४८१ -- जय मै किसी दुःख या शोक या दुर्भाग्यके कारण कष्ट पाता हूं तो कह उठता हूं : ''अच्छा, मेरे खेलके पुराने साथी, तूने फिर मुझे सताना आरंभ कर दिया'', और फिर मैं दुःखका सुख, शोकका हर्ष तथा दुर्भाग्यका सौभाग्य प्राप्त करनेके लिये बैठ जाता हूं; तब भगवान् देखते हैं कि बे पकड़े गये और बह अपने भूतों तथा हौओंको मुझसे हटा लेते हैं ।

 

श्रीअरविंद कितने चमत्कारपूर्ण हास्यके साथ हमें साधारण मानव चेतनाकी असत्यता और साथ ही भागवत चेतनाके आलोकपूर्ण एवं सर्वशक्तिमान् आनंदको समझानेका प्रयत्न करते है, जिसे हमें प्राप्त करना है ।

 

 १८१ -४ - ७०

 

४८२ -- दिव्य ज्ञानके साधकको गोपियोंके चीर हरणमें जीवके साथ शिकवे व्यवहारका एक अत्यंत गहरा रूपक दिखायी देता है, भक्तको अपने हदयकी गुह्य अनुभूतियोंकी भागवत कर्मके रूपमें एक पूर्ण अभिव्यक्ति दिखायी देती है और लंपट तथा अतिनैतिक (एक हा मनोभावके दो रूप) को केवल कामुकतापूर्ण कहानी दिखायी देती है । स्वयं अपने अंदर जो कुछ होता है मनुष्य उसे ही सामने लाते और उसीको शास्त्रोंमें प्रतिफलित देखते है ।

 

४८३ -- मेरे प्रेमीने मेरे पापके वस्त्रको उतार लिया और मैंने उसे खुशीसे गिर जाने दिया । तब उन्होंने मेरे पुष्यका वस्त्रको खींचा, पर मैं लज्जित और भयभीत हो उठा और उन्हें रोक दिया । परंतु जब उन्होंने उसे मुझसे जबर्दस्ती छीन लिया केवल तभी मुझे पता चला कि मेरी अंतरात्मा मुझसे कैसे छिपी हुई थी ।

 

३६५


(इसपर माताजी मौखिक रूपसे कहती हैं :) चलो, हम अपने पुण्यके चोगे- को त्याग दें, ताकि 'सत्य'के लिये तैयार हो सकें ।

 

२२-४-७०

 

४८४ -- पाप श्रीकृष्णकी एक चालाकी और छद्यवेश है जिससे वह धर्मात्माओंकी दृष्टिसे अपने-आपको छिपाये रखते हैं । ऐ धर्मार्थ! पापीमें भगवानको देख, अपने अंदर पापको देख जो तेरे हृदयको पवित्र बना रहा है और अपने भाईको खातीसे लगा ।

 

 

सदा की भांति यहां भी श्रीअरविंद अपने विशिष्ट विनोदपूर्ण ढंगसे हमें कि भागवत सत्य पाप और पुण्य दोनोंसे ऊपर है ।

 

१९-४-७०

 

४८५ -- भगवानके प्रति प्रेम, मनुष्योंके प्रति उदारता -- बस, यही पूर्ण प्रज्ञाकी ओर जानेका पहला पग है ।

 

४८६ -- जो असफलता और अपूर्णताकी निन्दा करता है बह भगवानकी निन्दा करता है; बह अपनी निजी आत्माको सीमित करता और अपनी निजी दृष्टिको धोखा देता है । निन्दा मत कर, बल्कि प्रकृतिका निरीक्षण कर, अपने भाइयोंकी सहायता कर और उन्हें स्वस्थ बना तथा सहानुभूतिके द्वारा उनकी क्षमता और साहसको प्रबल बना ।

 

४८७ -- पुरुषके प्रति प्रेम, स्त्रीके प्रति प्रेम, चीजोंके प्रति प्रेम, अपने पड़ोसीके प्रति प्रेम, अपने देशके प्रति प्रेम, पशुओंके प्रति प्रेम, मनुथ्यजातिके प्रति प्रेम आदि सभी उस भगवानके प्रति प्रेम है जो इन सजीव प्रतिमाओंके अंदर प्रतिफलित होता है । हमें प्रेम करना और शक्तिशाली बनना, सब कुछ उपभोग करना, सब- को सहायता देना और नित्य-निरंतर प्रेम करते रहना है ।

 

४८८ -- यदि ऐसी चीजों हों जो रूपांतरित होना एकदम अस्वी-

 

३६६


कार करती हों अथवा संशोधित .होकर भगवानकी अधिक पूर्ण प्रतिभा बननेसे इन्कार करती हों तो हृदयमें कोमलता, पर प्रहारमें निष्ठुरता रखकर उनका विनाश किया जा सकता है । परंतु सबसे पहले इस विषयमें निसंदिग्ध हो जा कि भगवानने ही तुझे तेरी तलवार और तेरा कार्य प्रदान किया है ।

 

४८९ - मुझे अपने पड़ोसीसे प्यार करना चाहिये, पर इसलिये नहीं कि वह हमारे पड़ोसमें रहता है, -- क्योंकि आखिर पड़ोस- मे और दूरमें क्या रखा है? और न इसलिये कि धर्म मुझे यह सिखाते है कि वह मेरा भाई है, -- क्योंकि उस म्लतत्वके जड़ कहां है? बल्कि इसलिये कि वह स्वयं मेरी आत्मा है । पड़ोस और दूरी शरीरको प्रभावित करते हैं पर हृदय उनसे परे चला जाता है । म्गतृत्वभाव रक्तका, देशका, धर्मका था मानवताका होता है, पर जब स्वार्थ अपनी परिपूर्तिके लिये मचलता है, तब इस म्गतृत्वका क्या हाल होता है? जब मनुष्य भगवान्में निवास करता है और अपने मन, हृदय और शरीरको उनकी विश्व- व्यापी एकताकी प्रतिमूर्तिमें बदल देता है केवल तभी उस गभीर, निःस्वार्थ एवं दुर्धर्ष प्रेमको पाना संभव होता है ।

 

एकता तथा परस्पर प्रेमके लिये दिये गये सभी मानवीय कारणोंका मूल्य कम होता है और उनका प्रभाव कम ही होता है । भगवान्से प्रति सचेत बनकर, उनके साथ तादात्म्य पाकर ही सच्चा ऐक्य संभव हो सकता है ।

 

२०-४-७०

 

४९० -- जब मै श्रीकृष्णमें निवास करता हूं तब अहंकार और स्वार्थ विलीन हो जाते हैं । केवल भगवान् ही मेरे प्रेमको अतल और असीम होनेके योग्य बना सकते हैं ।

 

४९१ -- श्रीकृष्णमें निवास करनेपर शत्रुता भी प्रेमकी ही एक क्रीड़ा तथा भाइयोंकी मल्लयुद्ध बन जाती है ।

 

४९२ -- जिस जीवने उच्चतम आनंदको हस्तगत कर लिया है उसके लिये जीवन कोई अशुभ वस्तु या दुःखदायी मर्म नहीं हो

 

३६७


   सकता; उसके लिये तो सारा जीवन ही किसी दिव्य प्रेमी तथा बालसखाका लहराता प्रेम और हास्य बन जाता है ।

 

किसी भी परिस्थितिमें दिव्य संबंध रख सकना परमानंदका रहस्य है ।

 

 २१-४-७०

 

४९३ -- क्या तू भगवानको निराकार अनंतके रूपमें देख सकता है और फिर भी उनसे वैसे ही प्यार कर सकता है जैसे कोई मनुष्य अपनी प्रेमिकासे प्यार करता है? तभी कहा जा सकता है कि अनंतका उच्चतम सत्य तेरे सम्मुख प्रकट हो गया है । फिर तू क्या अनंतको एक गुप्त, आलिंगन करने योग्य शरीर प्रदान कर सकता है और ये जो दृश्य और ग्राह्य शरीर हैं उन- भैंसे प्रत्येकमें और सबमें उन्हें देख सकता है? तभी कहा जा सकता है कि उसका विशालतम और गभीरतम सत्य भी तेरे अधिकारमें आ गया है ।

 

४९४ -- भागवत प्रेम एक साथ दिविध क्रीड़ा करता है -- उसकी एक तो विश्वव्यापी गति, पातालके समुद्रकी तरह गभीर, शांत और अतल होती है, जो समग्र जगतके ऊपर तथा उसके अंदरकी प्रत्येक चीजके ऊपर झुकी रहती है मानों किसी समतल भूमिपर एकसमान दबाव डालकर झुकी हुई हो, और दूसरी शाश्वत गति जो उसी समुद्रकी नर्तनकारी सतहकी तरह शक्तिशाली, तीव्र और आनदपूर्ण होती है जो. अपनी तरंगोंके वल और पराक्रमको बदलती रहती है तथा उन बस्तुओंको चुनती है जिनपर वह अपने फेन और फुहारेके चुंबन देती हुई तथा अपने निमज्जित करनेवाले जलसे आलिंगन करती हुई गिरना चाहती है ।

 

अपनी बात समझानेके लिये श्रीअरविदने उन चित्रोंका उपयोग किया है जो सबके लिये सुलभ हैं । किन्तु वास्तवमें ऐक्यका चमत्कार इन मानवीय चीजोंसे अनंतगुना पर है ।

 

२२-४-७०

 

३६८


४९५ -- मै पहले दुःख-दर्दसे घृणा किया करता, उससे बचनेकी चेष्टा किया करता तथा उसके आगमनपर रोष किया करता था । परंतु अब मैं देखता हूं कि यदि मैंने दुःख न भोगा होता तो अब, इस प्रकार प्रशिक्षित और पूर्ण बनकर, अपने मन, हृदय और शरीरमें आनंद भोग करनेकी असीम और असंख्य रूपसे बोधक्षम इस क्षमताको अभी आयत्त न कर पाता । जब भगवान् एक निर्दयी और अत्याचारी व्यक्तिके रूपमें अपने-आपको छिपाये रखते हैं तो भी अंतमें बह अपने पक्षकी यथार्थता सिद्ध करते हैं ।

 

४९६ -- मैंने शपथ ली कि मैं संसारके शोक-ताप और संसारकी मूढ़ता, निर्दयता तथा अन्यायसे कभी दुःख नहीं पाऊंगा और मैंने अपने हृदयको सहनशीलतामें पातालकी चक्कीकी तरह कठोर बना लिया एवं अपने मनको इस्पातकी चिकनी सतहके समान । अब मुझे कोई कष्ट नहीं होता था, पर मैं सुख-भोगकी क्षमता भी खो बैठा, फिर भगवानने मेरा हृदय चूर-चूर कर डाला और मेरे मनको जोत दिया । उसके बाद मैं निर्दय और अविराम यातनामेंसे गुजरकर एक सुखकारी दु:खहीनताके अंदर तथा शोक, क्रोध और विद्रोहमेंसे होकर एक अनंत ज्ञान एवं सुस्थिर शांतिके अंदर जा पहुंचा ।

 

यह वही पाठ है जो परम प्रभु उस कायाको सिखाना चाहते हैं जिसका वे रूपांतर करनेमें लगे है ।

 

२३-४-७०

 

४९७ -- जब मैंने जाना कि दुःख आनंदका ही उल्टा पहलू है और उसीकी प्राप्तिका साधन है तो मैं अपने ऊपर आघातोंकी बौछारका स्वागत करने लगा तथा अपने सारे अंगोंमें पीड़ा बढ़ाने लगा; क्योंकि उस समय भगवानका उत्पीड़न भी मुझे धीमा, स्वल्प और अपर्याप्त प्रतीत होता था । तब मेरे परम प्रेमीको मेरा हाथ पकड़कर रोकना पड़ा और चिल्लाकर कहना पड़ा : ''बंद करो; क्योंकि मेरे कोड़े ही तुम्हारे लिये काफी हैं ।''

 

४९८ -- पुराने युगके साधुओं तथा अनुतापियोंका अपने-आपको

 

३६९


पीड़ा पहुंचाना उल्टे पथपर चलना और मूर्खतापूर्ण था; फिर भी उनकी स्वभाव-विकृतिके पीछे ज्ञानका एक प्रच्छन्न रूप विधमान था ।

 

४९९ -- भगवान् हमारे दिल और पूर्ण मित्र हैं, क्योंकि वह एक ही साथ यह जानते हैं कि कब थप्पड़ लगाना और क्या पुचकारना चाहिये, कब हमारी रक्षा और सहायता करनी चाहिये और वैसे ही कब हमारी हत्या करनी चाहिये ।

 

बस, एक ही शान है जो सच्चा हो सकता है और वह है परमेश्वर- का ज्ञान । अतः व्यक्तिगत इच्छाओंका पूरा त्याग करके केवल वही चाहना जो भगवान् चाहते है -- यही सचमुच ज्ञानी बननेकी एकमात्र  रीति है ।

 

 २४-४-७०

 

५०० - समस्त प्राणियोंके दिव्य सुहुद शत्रुका चेहरा पहनकर अपनी मित्रताको तबतक छिपाये रखते हैं जबतक कि वह हमें उच्चतम स्वर्गके योग्य नहीं बना लेते; उसके बाद, जैसा कि कुरुक्षेत्रमें हुआ था, युद्ध, यंत्रणा तथा विनाशके देवताका भयंकर रूप हट जाता है और श्रीकृष्णकी मधुर मूर्ति, करुणा तथा पुन:- पुनः आलिंगित देह उनके चिर-साथी और बाल-सखाकी विचलित आत्मा तथा शुद्ध नेत्रोंके सामने चमक उठती हैं ।

 

५०१ -- यंत्रणा हमें आनंदके अधीश्वरकी संपूर्ण शक्ति धारण करनेके योग्य बनाती है; यह हमें बलवर्धक अधीश्वरकी दूसरी लीलाका सहन करनेकी क्षमता भी प्रदान करती है । दुःख बह कुंजी है जो बल-सामर्थ्यका दुरा उन्मुक्त करती है; दुःख बह राजपथ है जो हमें आनंद-नगरीतक पहुंचा देता है ।

 

५०२ -- फिर भी, ऐ मानवात्मा, दुःखकी खोज मत कर, क्योंकि यह भगवानकी इच्छा नहीं है, केवल उनके आनंदकी ही खोज कर दुःख-कष्टका जहांतक प्रश्न है, वह तो निश्चित रूपसे उनके विधानके अनुसार उतनी बार और उतनी ही मात्रा-

 

३७०


में तेरे पास आयेगा ही जितनी बार और जितनी मात्रामें आना तेरे लिये आवश्यक है । उस समय उसे सहन कर ताकि तू अंतमें उनके आनन्दोल्लासके भरे हृदयको खोज सके ।

 

५०३ -- और न तू, ऐ मनुष्य, अपने साथीपर ही कोई दुःख- कष्ट फेंक; दुःख पहुंचाने का अधिकार एकमात्र भगवानको ही है; अथवा उन्हें है जिनपर स्वयं भगवानने उसका भार सौंपा है । परंतु धर्मान्धताके वश, टार्कमादाकी तरह ऐसा न मान बैठ कि तू भी उनमेंसे एक है ।

 

यह कमी न भूलो कि जबतक जीवन और मनुष्यके संबंधमें तुम्हारी अपनी पसंद बनी रहेगी तबतक तुम भगवानके पवित्र तथा पूर्ण यंत्र नहीं बन सकते।

 

२८-४-७०

 

५०४ -- प्राचीन युगोंमें शक्ति और कर्मसे एकदम परिपूर्ण आत्माओंकी एक श्रेष्ठतम दृढ़ोक्ति थी : ''उतने ही निश्चित रूपमें जितने निश्चित रूपमें भगवान् विद्यमान हैं ।'' परंतु हमारी आधुनिक आवश्यकताके लिये दूसरी दृढ़ोक्ति अधिक उपयुक्त होगी : ''उतने ही निश्चित रूपमें जितने निश्चित रूप- मे भगवान् प्यार करते हैं ।',

 

हमारे दुखी युगके लिये -- जो बुद्धिके अत्यधिक प्रभुत्वके कारण लगभग शुष्क हो गया है, -- भागवत प्रेमकी अपेक्षा अधिक आवश्यक और मूल्यवान् कुछ भी नहीं है ।

 

२९-४-७०

 

  यह स्पेनकी 'धार्मिक कचहरी' (धर्मविरोधी लोगोंकी खोज करने ओर दण्ड देनेवाली संस्था) का एक प्रधान अफसर था ।

 

३७१


५०५ -- सेवा करना मुख्यतः भगवत्-प्रेमी और भगवद्-ज्ञानीफे लिये इस कारण उपयोगी होती है कि वह उसे भगवानकी स्थूल कलाकारीके विलक्षण आश्चर्योंको पूर्ण व्योरेके साथ समझने तथा उनका मूल्यांकन करनेकी योग्यता प्रदान करता है । एक तो सीखता ओर चिल्लाकर कहता है : ''देख, किस तरह आत्मा जडूतत्वमें अभिव्यक्त हुई है''; दूसरा कहता है : ''देख, मेरे प्रेमी और प्रभुका, पूर्ण कलाकार और सर्वशक्तिमान् हाथका स्पर्श देख ।',

 

हम भगवानकी सेवा कैसे कर सकते है जब कि उनके बिना हमारी कोई सत्ता ही नहीं है - ज्यादा-से-ज्यादा हम यही कर सकते है कि उन्होंने हमें जो यह सब दिया है उसीका एक अंश फूहडपनसे उनको अर्पित कर दें ।

 

३-४-७०

 

५०६ -- ऐ विश्वके ऐरिस्टोफेनीस! तू अपने जगत्को देखता है और मन-ही-मन मीठी हंसी हंसता है । पर क्या तू मुझे भी दिव्य नेत्रोंसे देखने और अपने विश्वव्यापी हास्यमें भाग लेने न देगा?

 

निःसंदेह, पृथ्वी जैसी है उसपर हंस सकनेके लिये हमारे अंदर दिव्य जैसी ही समग्र अंतर्दृष्टि होनी चाहिये ।

 

१-५-७०

 

५०७ -- कालिदास एक निर्भीक रूपक देते हुए कहते हैं कि कैलासके हिम-खंड क्या है, मानों शिवके जगत्-हास्यके निनाद परम शुम्ग्ता और शुद्धताके रूपमें पर्वत-शिखरोंपर जम गये हैं । यह सच है; और जब उनकी छाया हदयपर पड़ती है तब सांसारिक नीचेके बादलोंकी तरह विगलित होकर अपनी वास्तविक अस्तित्वहीनताको प्राप्त हो जाती है ।

 

एक हास्यरसका कवि ।

 

३७२


मानव विज्ञान बहुत ही सुनिश्चित घोषणाएं करता है; लेकिन सच्चे कारणोंकी कल्पना करनेके लिये क्षेत्र खुला है -- तब गुह्य कारणोंके लिये क्यों नहीं?

 

२-५-७०

 

५०८ -- जीवका स्वसे अधिक विलक्षण अनुभव यह है कि जब वह दुःखयलेशके आकार और उससे होनेवाली आशंकाकी परवा करना छोड़ देता है तो बह देखता है कि उसके इर्दगिर्द कहीं दुःख-क्लेशका नाम-निशान भी नहीं है । उसके बाद ही हम उन झूठे बादलोंके पीछे भगवानको अपने ऊपर हंसते हुए सुनते हैं ।

 

प्रभु, जब तुम चाहते हो कि आकार तुम्हारी समरूपतामें बदले, तो तुम क्या करते हो?

 

४-५-७०

 

     कल आपने जो लिखा था वह मेरी समझमें नहीं आया ।

 

श्रीअरविंद जिसे आकार कहते हैं वह भौतिक शरीर है । तो मैंने प्रभुसे पूछा कि जब बे भौतिक शरीरका रूपांतर करना चाहते थे तो उन्होंने क्या किया और कल रात उन्होंने मुझे दो अंतर्दर्शनोंदुरा जवाब दिया ।

 

  एक्का संबंध शारीरिक चेतनाकी मृत्यु-संबंधी सभी रुचियोंके मुक्तिके साथ था और दूसरेमें उन्होंने मुझे यह दिखाया कि अतिमानसिक शरीर कैसा होगा । देखते हो न, कि मैंने उनसे पूछकर अच्छा ही किया!

 

९-५-७०

 

५०९ -- ओ दानव ! क्या तेरा प्रयास सफल हो गया है? क्या तू रावण और हिरण्यकशिपुकी तरह बैठा देवताओं और जगत्पतिकी सेवा पा रहा है? परंतु तेरी अंतरात्मा जिस चीज- को वास्तवमें खोज रही थी बह तो तेरी पकडसे बाहर चली गयी ।

 

३७३


५१० -- रावणके मनने सोचा कि यह विश्वके एकाधिपत्य और रामके ऊपर विजय-प्राप्तिके लिये लालायित था; परंतु जिस उद्देश्यपर उसको अंतरात्माने अपनी दृष्टि चिरदिन जमाये रखी बह था यथासंभव शीक्ष-से-शीघ स्वर्गको वापस लौट जाना और फिरसे भगवानका चाकर बन जाना । अतएव, सबसे सहज पथके रूपमें, वह घोर टात्रुताके आलिंगनके साथ भगवान्पर टूर पड़ा ।

 

५११ -- सबसे महान् आनंद है नारदकी तरह भगवानका दास बन जाना; सबसे जघन्य नरक है भगवान्से परित्यक्त होकर संसारका मालिक बनना । जो चीज भगवान्-विषयक अज्ञान- पूर्ण परिकल्पनाके लिये सबसे अधिक समीप प्रतीत होती है वही उनसे सबसे अधिक दूर होती है।

 

५१२ -- भगवानका सेवक होना कुछ चीज है; भगवानका दास होना उससे बढ़कर है ।

 

श्रीअरविद हमें शास्त्रोंको समझनेका सच्चा ढंग बताते है जो इस तरह वैश्व प्रतीक बन जाते हैं ।

 

१२-५-७०

 

५१३ -- संसारका अधिपति बन जानेमें निश्चय ही चरम आनंद होगा लेकिन तभी जब सारे संसारका प्रेम प्राप्त हो; परंतु उसके लिये तो साथ-ही-साथ सारी मनुष्यजातिकागुलाम भी बनना पड़ेगा ।

 

५१४ -- आखिरकार, जब तू यह हिसाब लगायेगा कि तूने भगवानकी कितनी दीर्घ सेवा की तो तू देखेगा कि तूने मनुष्य- जातिके प्रेमके वश जो अधूरा और तुच्छ सत्कार्य किया वसु, वही तेरा सबसे बड़ा कार्य था ।

 

इसीलिये सेवाकी अपेक्षा पूर्णतया नितांत रूपसे भगवानका होकर रहना बेहतर है ।

 

१३-५-७०

 

३७४


   पूर्णतया और नितांत रूपसे भगवानका होकर रहनेके लिये क्या हमें उनकी सेवासे आरंभ नहीं करना चाहिये?

 

निश्चय ही, अपना सारा कार्य भगवानकी सेवामें लगा देना उनके पास पहुंचनेका बहुत अच्छा तरीका है । लेकिन यह, जितना श्रीअरविदने बताया है उससे बहुत आगेतक न ले जा सकेगा । ओर कुछ लोगों- को इससे संतोष नहीं होगा ।

 

२४-५-७०

 

५१५ -- दो कार्य है जिनसे भगवान् अपने सेवकसे पूर्णतः संतुष्ट होते हैं : एक तो मौन पूजा-भावके साथ उनके मंदिर- मे झाडू लगाना और दूसरा, मानवताके अंदर उनकी दिव्य ससिद्धिके लिये संसारके युद्धक्षेत्रमें संग्राम करना ।

 

५१६ - जिसने मानव प्राणियोंकी थोडी-सी भी भलाई की है बह, चाहे सबसे निकृष्ट पापी ही क्यों न हो, भगवान्द्रारा उनके प्रेमियों और सेवकोंकी श्रेणीमें स्वीकृत होता है । वह शाश्वत प्रभुके मुखमंडलके दर्शन अवश्य पायेगा ।

 

श्रीअरविंदका प्रयास हमेशा अपने शिष्यों और पाठकोंतकको सभी पूर्वाग्रहोंसे, सारी रूढ़िगत नैतिकतासे मुक्त करनेका रहा है ।

 

१५-५-७०

 

५१७ - ऐ दुर्बलतामें फंसे मूर्ख ! भयके पर्देके दुरा भगवान्का मुख अपने-आपसे मत छिपा, अनुनयशील दुर्बलताके साथ उनके समीप न जा । देख ! तु उनके चेहरेपर शासक और विचारककी गंभीरता नहीं, बल्कि प्रेमीकी मुस्कान देखेगा ।

 

५१८ -- जैसे एक पहलवान अपने साथीके साथ कुश्ती लड़ता है वैसे ही जबतक तू भगवानके साथ कुश्ती लड़ना नहीं सीख लेता तबतक तेरी अंतरात्माकी शक्ति तुझसे छिपी ही रहेगी ।

 

३७५


अगर हम सचमुच भगवानके नजदीक जाना चाहते है तो क्या यह अच्छा नहो होगा कि हम हमेशाके लिये अपनी सब सीमाओं तथा सब कमज़ोरियों- सें अपने-आपको मुक्त कर लें?

 

 १६-५-७०

 

५१९ -- शुंभने पहले अपने हृदय और शरीरसे कालीके साथ प्यार किया, फिर उनसे क्रोधित होकर उनके साथ युद्ध किया, अंतमें उसने उन्हें पराजित किया, उनके केश पकड़कर उन्हें अपने चारों ओर आकाशमें तीन बार घुमाया; और अगले ही क्षण वह कालीदुरा मारा गया । ये ही अमरत्वकी ओर ले जानेवाले दैत्यके चार पग हे? और उनमेंसे अंतिम पग सबसे अधिक लंबा और सबसे अधिक शक्तिशाली होता है ।

 

   मै दैत्यका चार लंबे पगोंका अर्थ नहीं समझा, जिनके दुरा वह अमरता प्राप्त करता है?

 

प्रत्येकका चाहे कैसा भी स्वभाव क्यों न हो, हिसाबके अंतमें एक ढंगसे या दूसरे ढंगसे, चाहे व्यक्ति उनसे युद्ध करे या प्रेम, अंतिम उद्देश्य हमेशा भगवान् ही होते हैं ।

 

१७-५-७०

 

५२० -- काली भयावनी शक्ति और क्रुद्ध प्रेमके रूपमें अभिव्यक्त श्रीकृष्ण ही है । वह अपने प्रचंड प्रहारोंके दुरा शरीर, मन और प्राणमें स्थित स्वकी हत्या करती है ताकि बह शाश्वत चिदात्माके रूपमें मुक्त हो जाय ।

 

  विश्वको समझनेमें समर्थ एक ज्योर्तर्मय चिगारीको स्थान देनेके लिये जब हम छोटे, असमर्थ अहंको अदृश्य होते देखते है तो शिकायत करते हैं ।

 

२१-५-७०

 

३७६


५२१ -- गभीर सामी कथानकके अनुसार हमारे माता-पिता- का पतन हुआ, क्योंकि उन्होंने पाप और पुष्यके वृक्षका फल चाख था । यदि उन्होंने तुरत शाश्वत जीवनके वृक्षका रसास्वादन कर लिया होता तो वे तात्कालिक परिणामसे बच गये होते; परंतु मानवताके अंदर भगवानका प्रयोजन विफल हो जाता । भगवानका आक्रोश हमारे लिये शाश्वत सुयोग होता हे ।

 

श्रीअरविंद यह समझानेकी कोशिश करते हैं कि किस तरह हमारी दृष्टिकी सीमाएं हमें भागवत प्रज्ञाको देखनेसे रोकती है ।

 

 २२-५-७०

 

५२२ -- यदि नरकका होना संभव हो तो वह उच्चतम स्वर्ग- मे जानेका सबसे छोटा रास्ता होगा । कारण, सचमुच भगवान् प्यार ही करते हैं।

 

५२३ -- भगवान् हमें प्रत्येक 'अदन' (स्वर्गीय बग़ीचे) भैंसे बाहर खदेड़ देते हैं ताकि हम रेगिस्तानमेंसे गुजरते हुए किसी अधिक दिव्य स्वर्गतक जानेके लिये बाध्य हों । यदि तुझे आश्चर्य होता हो कि उस रूखे-सूखे और भयंकर पथकी आवश्यकता ही क्यों होनी चाहिये तो इसका अर्थ है कि तेरे मनने तुझे मूर्ख बना दिया है और तूने पीछे विद्यमान आत्मा तथा उसकी अस्पष्ट इच्छाओं एवं गुप्त आनंदोंका अनुशीलन नहीं किया है ।

 

जब हमें दुःखके लिये आकर्षण नहीं रहेगा और जब हम उसकी विकृत आसक्तिसे मुक्त हो जायंगे तब भगवान् हमें उसके पीछे छिपे परम आनंदका अनुभव करायंगे ।

 

२३-५-७०

 

५२४ -- स्वस्थ मन दुःख-दर्दसे घृणा करता है; क्योंकि मनुष्य कभी-कभी अपने मनमें दुःख-दर्दकी जो कामना पैदा कर लेता है बह दूषित और प्रकृतिके विपरीत होती है । परंतु आत्मा

 

३७७


मन तथा उसके दुख-कष्टोंकी परवाह उससे अधिक नहीं करती जितनी परवाह कि लोहा बनानेवाला चूल्हेमें जलते हुए कच्चे लोहेके दुख-दर्दके लिये करता है; वह अपनी निजी आवश्यकताओं तथा निजी भूखका ही अनुसरण करती है ।

 

एकमात्र परम प्रभु ही स्वामी होने चाहिये और सामान्यतया चैत्य पुरुष उन्हींकी आज्ञा मानता है ।

 

 २४-५-७०

 

५२५ -- बिना विचारे दया करना स्वभावका सबसे उदार गण है; एक भी जीवित वस्तुको कम-से-कम आघात भी न पहुंचाना सभी मानवीय गुणोंमेंसे उच्चतम गुण है; परंतु भगवान् इन दोनोंमेंसे कोई कार्य नहीं करते । तो क्या इसी कारण मनुष्य उन सर्व-प्रेममयसे अधिक महान् और अधिक अच्छा है?

 

५२६ -- यह पता चलना कि किसी मनुष्यके शरीर या मन- को दुःख-कष्टसे बचा देना सर्वदा उसकी अंतरात्मा, मन या शरीरके लिये हितकारी नहीं होता, मानवीय ढंगसे करुणा करनेवालेके लिये अत्यंत कडुआ अनुभव होता है ।

 

भागवत चेतनाके प्रति सचेतन होना मानव सिद्धिकी परम उपलब्धि है; बाकी सब कुछ गौण है ।

 

२५-५-७०

 

५२७ -- मानवीय दया अज्ञान और दुर्बलतासे पैदा होती है; बह भावोवासकी दासी होती है । भागवत करुणा समझती, विवेक करती और रक्षा करती है ।

 

५२८ -- कभी-कभी दया प्रेमका एक अच्छा प्रतिरूप होती है; पर यह सदा ही प्रतिरूपसे अधिक कुछ नहीं होती ।

 

३७८


भगवानके आशयको समझना और उसकी उपलब्धिके लिये काम करना, क्या यह मानवताकी सहायता करनेका सबसे निश्चित मार्ग नहीं है?

 

 २८-५-७०

 

५२९ -- आत्म-दया सर्वदा आत्म-प्रेमसे उत्पन्न होती है; परंतु दूसरोंके प्रति दया सवंदा पात्रके प्रति प्रेमके कारण नहीं उत्पन्न होती । यह कभी-कभी तो दुख-कष्टके दृश्यके अहम्मन्यता हिचक होती है; ओर कभी दरिद्रके लिये धनी ब्यक्तिका घृणापूर्ण दान होती है । तू मानवीय दयाके बदले भगवानकी दिव्य करुणा- को विकसित कर ।

 

५३० -- दया नहीं जो हृदयको काटती और भीतरी अंगोंको दुर्बल बनाती है, बल्कि एक दिव्य प्रभुत्वशाली ओर अक्षुब्ध करुणा एवं उपकारिता वह गुण है जिसे हमें प्रोत्साहित करना चाहिये ।

 

क्या परम प्रभुको जाने बिना जीनेसे बढ़कर कोई और दुःख भी हो सकता है? और फिर मी यह प्रायः विश्वव्यापी दुःख कभी-कदास ही दयाको जगाता है । क्योंकि जो यह जानता है कि वह दुःखी है वह यह भी जानता है कि असीम ठीक होना उसके अपने ऊपर निर्भर है - क्योंकि प्रभुकी करुणा ह ।

 

१-६-७०

 

५३१ -- मनुष्योंसे प्यार कर और उनकी सेवा कर, पर सावधान, कहीं सु प्रशंसाकी कामना न कर बैठे । उसकी जगह अपने अंदर विराजमान भगवानकी आज्ञाका पालन कर ।

 

   ५३२ -- भगवान् तथा उनके बूतोंकी वाणीको न सुनना ही संसारकी भावनाके अनुसार मानसिक स्वस्थता है ।

 

   ५३३ -- भगवानको सर्वत्र देख और उनके छग्रवेशोंको देख- कर भयभीत न हो । विश्वास कर कि समस्त मिथ्यापन या

 

३७९


तो तैयार होता हुआ सत्य है अथवा भंग होता हुआ सत्य, समस्त असफलता प्रच्छन्न चरितार्थता, समस्त दुर्बलता अपनी दृष्टिसे ही अपनेको छिपानेवाली शक्तिमत्ता, समस्त पीड़ा एक गुप्त और प्रचंड आनदोल्लास है । यदि तू दृढ़तापूर्वक और सतत भावसे विश्वास बनाये रखे तो अंतमें सर्वसत्यमय, सर्वशक्तिमय और सर्वानन्दमयको देख और अनुभव कर सकेगा ।

 

सतत और अथक प्रयास तथा श्रद्धाद्वारा हम अपने-आपको भागवत चेतना- के साथ एक कर सकते हैं, जो सतत, संपूर्ण परमानन्द है ।

  

 २-६-७०

 

५३४ -- मानव प्रेम अपने निजी हर्षोल्लासके कारण ही असफल हो जाता है; मानव पराक्रम अपने निजी प्रयासके कारण ही निःशेष हो जाता है; मानव ज्ञान एक ऐसी परछाई फेंकता है जो सत्य-रूपी गोलकके आधे भागको उसके अपने सूर्यालोकसे छिपा देती है; परंतु भागवत ज्ञान विरोधी सत्योंका आलिंगन करता और उनमें सामंजस्य स्थापित करता है, भागवत सामर्थ्य अकुंठ आत्मव्ययके कारण वर्द्धित होता है, भागवत प्रेम अपने-आपको संपूर्ण रूपसे लूट सकता है और फिर भी न कभी नष्ट होता है, न घटता है ।

 

   क्या मानव प्रेम भागवत प्रेममें बदल सकता है? मानव शक्ति भागवत शक्तिमें और मानव ज्ञान भागवत ज्ञान-में ?

 

 बस एक ही प्रेम है ।

 

   मानव प्रेम भागवत प्रेमसे  अलग कोई और चीज नहीं है । वह जिस यंत्रके द्वारा अपने-आपको अभिव्यक्त करता है उसीके द्वारा पथम्ग्ष्ट और विकृत हो गया है । शक्ति और ज्ञानके लिये भी यही बात है । अपने मूल तत्त्वमें वे शाश्वत और असीम है । मानव स्वभावकी सीमाएं आर कमियां ही उन्है विकृत करती है और विरूप बना देती है ।

 

३-६-७०

 

३८०


५३५ -- विशुद्ध सत्यकी खोज करते हुए मन जो मिथ्यापन- का त्याग करता है वह एक प्रधान कारण है जिससे बह सुनिश्चित, अखंड और पूर्ण सत्यको नहीं प्राप्त कर सकता; दिव्य मन मिथ्यापनसे बच निकलनेका प्रयास नहीं करता, बल्कि उस सत्यको पकड़नेके प्रयास करता है जो अत्यंत भद्दा या म्पष्ट भूल-भ्रांतिके पीछे छिपा रहता है ।

 

    ''दिव्य मन'' क्या है?

 

श्रीअरविन्द मानसिक कार्यके आदि रूपको दिव्य मन कहते है । वह समग्र रूपसे पूर्णतया भगवानको अर्पित है और भागवत प्रेरणाके अधीन ही कार्य करता है ।

 

   अगर कोई मनुष्य भगवानके द्वारा और भगवानके लिये ही जीता है तो अनिवार्य रूपसे उसका मन दिव्य मन बन जाता है ।

 

 ४-६-७०

 

५३६ - किसी मी वस्तुके विषयमें सारा सत्य यह है कि बह एक पूर्ण तथा सर्वालिगनकारी गोलक होता है जो निरंतर ज्ञान- के एकमात्र विषय ओर वस्तु, भगवानके चारों ओर चक्कर काटता रहता है पर कभी उन्हें स्पर्श नहीं करता ।

 

५३७ -- बहुत-से गंभीर सत्य उन अस्त्रोंके समान हैं जो अन- न्यस्त अस्त्रचालकके लिये खतरनाक होते हैं । समुचित रूप- मे व्यवहार करनेपर वे भगवानके अस्त्रागारके अत्यंत मूल्यवान् और शक्तिशाली अस्त्र होते हैं ।

 

सच्चे ज्ञानकी एक बूंद अगर अज्ञानकी दुनियामें गिरे तो वह क्रान्ति पैदा कर सकती है ।

 

५-६-७०

 

३८१


५३८ -- जिस दुर्दमनीय आग्रहके साथ हम अपनी तुच्छ, खंड- विखंड, निशाक्रांत, क्लेशग्रस्त व्यक्तिगत सत्ताके साथ उस समय भी चिपके रहते हैं जब हमारे विश्वगत जीवनका आनंद हमें पुकारता है, वह भगवानके रहस्योंमेंसे एक अत्यंत आश्चर्यजनक रहस्य है । इसकी तुलना केवल उस अनंत अंधताके साथ की जा सकती है जिसकी सहायतासे हम अपने अहंकारकी एक छाया संपूर्ण जगत् पर फेंककर उसे ही विश्वपुरुषका नाम दे देते हैं । थे दोनों प्रकारके . अंधकार ही, मायाके ठीक-ठीक सारतत्व तथा अंतर्निहित शक्ति है ।

 

उस दिनतक जब अज्ञान और अहंकारकी मूर्खतासे थककर तुम प्रभुके पैरोंपर गिरकर उनसे याचना न करो कि वे ही स्वामी बन जायं ।

 

६-६-७०

 

५३९ -- अनीश्वरवाद भगवान्-संबंधी उच्चतम ज्ञानकी परछाई अथवा अंधकारमय पक्ष है । भगवानके विषयमें मनाया हुआ हमारा प्रत्येक सिद्धांत, यद्यपि रूपकके रूपमें सदा सत्य होता है, पर उस समय मिथ्या वन जाता है जब हम उसे एक पूर्ण सिद्धांतके रूपमें स्वीकार करते हैं । अनीश्वरवादी और अज्ञेयवादी हमारी भूल-म्रातिकी याद दिलानेके लिये आते है ।

 

५४० -- भगवान्-संबंधी अस्यीकृतियां भी हमारे लिये उतनी ही उपयोगी हैं जितनी उनके विषयकी स्वीकृतियां । सच पूछा जाय तो मानवीय ज्ञानको और भी अच्छे रूपमें पूर्णता प्रदान करनेके लिये स्वयं भगवान् अनीश्वरवादी बनकर अपने निजी अस्तित्वको अस्वीकार करते हैं । ईसा और रामकृष्णमें ही भगवानको देखना और उनकी वाणीको सुनना काफी नहीं है, हमें हक्सले' और हेकेल' मे भी उन्हें देखना चाहिये और उनकी वाणी सुन्नी चाहिये ।

 

   हक्सले १९ वों शताब्दीके प्रसिद्ध वैज्ञानिक और लेखक थे । इन्होंने पार्थिव क्रमविकासके सिद्धांतका प्रतिपादन किया ।

 

   २हेकेल जर्मनीके प्रसिद्ध वैज्ञानिक और दार्शनिक व्यक्ति थे । इन्होंने भी क्रमविकासके सिद्धांतको प्रकट किया है ।

 

३८२


भगवानके विषयमें सभी मानसिक ज्ञान अपूर्ण और अपर्याप्त है, यदि उन सबको समाविष्ट कर लिया जाय तो भी । एकमात्र अनुभव किया हुआ ज्ञान ही हमें सत्यकी एक झांकी दे सकता है ।

 

 ७ - ६ -७ ०

 

५४१ -- क्या तू अपने ऊपर अत्याचार करनेवाले और अपनी हत्या करनेवालेके भीतर मृत्युके क्षण या अत्याचारके समय भी भगवानको देख सकता है? क्या तू जिसकी हत्या कर रहा है उसमें भी उनको देख सकता है, उसकी हत्या करते समय भी उन्हें देख सकता और प्यार कर सकता है? तब निश्चय ही परम ज्ञान तेरे हाथमें आ गया है । भला वह मनुष्य कृष्णको कैसे पा सकता है जिसने कभी कालीकी उपासना नहीं की?

 

सब कुछ भगवान् है और एकमात्र भगवानका ही अस्तित्व है ।

 

८-६-७०

 

३८३

अनुक्रमणिका

 

अंत,

  होनेके दो तरीके : विनाश और

     रूपांतर, २२८

अंतः प्रेरणा ? अंतः प्रकाश,

 शाश्वत ज्ञानसे उछलती.. पतली

   धारा, ५-६

 और तर्क-बुद्धि, ५, ७-८, १०

 -का माध्यम, ७

 -की प्राप्तिके सोपान, ७

 

पानेकी शतें, ८

 कई प्रकारकी नहीं; उसके कई

   उपयोग हैं, ८

  -से अधिकृत वाणी, १०

  -से प्राप्त ज्ञान, १४८

  और बौद्धिक ज्ञान, १४९

  नीरव मनमें ही संभव, १५०

  सदा ही व्यक्तिगत, १११

   (दे० 'प्रज्ञा' भी)

 

सूचना :

 

  ऐसे पढ़ें :

 

कठिनाई    दूसरे    क्षमता  चीज    सिद्धांत 

 

     योंको    में      ओंका (सब)       (सब),    को

 

कठिनाइयोंका   दूसरोंमें  क्षमताओंका  सब चीज़ें सब सिद्धांतोंको

 

  ( २) जिन वाक्योंमें केवल शुरूमें ( ' ) है वह अपने-आपमें पूरा वाक्य है, उन्हें मूल शब्दके साथ मिलाकर न पढ़ें ।

 

   ( ३) जहां ( " ) का प्रारंभ नहीं दिखाया गया, वहां मूल शब्दसे पहले ( '') कल्पना कर लें ।

 

   (४) कहीं-कहीं अधिक स्पष्टताके लिये लिखा है :

 

   (दे० 'चीज' '' (विरोधी) भी) या (दे० 'भगवान्' दुर्बल भी), इसका मतलब है चीज के नीचेका वह वाक्य देखो जो (विरोधी) से शुरू होता है, भगवानके नीचेका वह वाक्य देखो जो दुर्बल शब्दसे शुरू होता है ।

 

    ( ५) पृष्ठ संख्याके बाद अ का मतलब है कि वह प्रसंग उस पृष्ठके अंतसे शुरू होकर, बस, अगले पृष्ठके आरंभतक ही गया है ।

 

  ( ६) जहां वाक्य-रचना मूल शब्दके साथ संगत न जान पड़े, वहां मूल शब्दके आगे कोष्ठमें जो शब्द दिया गया है उसके साथ मिलाकर पढ्नेसे वह संगत बन जायगी ।

 


अंतरात्मा,

   जो देखती है वही ज्ञान है, बाकी

    ..., २६

  क्या देखती है, कैसे जानें, २६,

    २८-९

 -को ढूंढना, २७

 यही है, कैसे जानें, २७

 -की वाणी सुनना, २७-९

 -से युक्त होनेका उपाय, २१

 -को जानना मृत शरीरके टुकड़े-

    टुकड़े करके, २९-३०

 ही अंतरात्माको जान सकती है,

   २९,२१३

   (दे 'सजातीय' भी)

 -का पुनः जन्म और मनोमय

   व्यक्तित्व, ३१

 मुक्त है या बद्ध, तू कैसे कह सकता

   है, २१२

 पृथ्वीपर ही, '२ १ २- १३

 'आंतरात्मिक प्रकृति, २५१

 -की असफल सफलताएं, २८९

 -की पूर्णताके द्वारा ही बाह्य परि-

   वेशको पूर्ण..., ३२६

 ही एकमात्र चिकित्सक, ३४१

  (दे० 'चैत्यपुरुष' भी)

अंतर्दर्शन,

 क्या होता है, ४१-२

 (पूर्वसूचक), १३०-३४

   ( दे० 'भविष्यवाणी' भी)

 व्यक्तिके संबंधमें, १३२

अंतर्मुखता, १६०, १६१

अंधकार, १४,३८२

 और संतापको विलीन करनेका

 शक्तिशाली साधन, १६४

 (दे० 'अज्ञान' भी)

अंध-विश्वास, ४१, ३०१

अकर्म,

  -सें प्रेम या घृणा मूर्खता, २४१

  नामकी कोई वस्तु नहीं, २४१

    (दे० 'गति' भी)

अकिलीस, २८८

अक्षमता,

 (हमारी), ही आत्मस्थ लक्ष्यसे

    सचेतन होनेमें बाधा, ३१७ -

  -से छुटकारेका साधन, ३१७

अक्षर-, ११

अगहन (वैदिक), २०२

अचंचलता, ७९,२०२

  (दे 'निश्चल-नीरवता' और

  'बोलना' भी)

अच्छा और बुरा, दे० 'शुभ और अशुभ'

अज्ञान, ३८,७४,२७०

  तब विलीन हों जायगा, २१

  -के प्रति सच्चा मनोभाव, रे ०

  परिस्थिति संबंधी, ४९,५९

  व संकीर्णताकी ही क्रियाएं है

    घृणा, क्रोध आदि, ७८

  और ज्ञान, १७२, १७३

  -को शुद्धता कहा, ३०१

  और अशुभ-इच्छाका रूपांतर किस

    प्रकार, १२६-२७ (दे० 'अंध-

    कार' व 'कामना' भी)

    (दे० 'भ्रांति' भी)

अज्ञेय,

  और अनिर्देश्यकी उपासना, ३६२

अज्ञेयवादी ३६२, ३८२

अति [ अतिशयता ] ,

  -मे गिरना, २०७, २१२

 

 ३८६


योंकी आवश्यकता, २०८

 त्याग और भोगमें, ३३६

 उग्रता है, ३३६

अतिमानव,

 कौन है ?, २५५-५६

 -का निर्माण, हो रहा है, २५५

 (अपनेको), कहनेवाले लोग, २५६

 -का सिंह, गाय और ऊंटका प्रतीक,

       २५६-५७

 मनुष्यमेंसे प्रकट हो रहा है, २६५

अतिमानस,

 -के माथ संपर्कके दो चिह्न,

    ११२ टि०

अतिमानसिक अभिव्यक्ति,

   (पहली), २१७

अतिमानसिक कार्य,

  -की पद्धति, ११५

अतिमानसिक चेतना,

  -को ग्रहण करनेकी शतें ११ ३- १५

  -को जडपदार्थमे ग्रहण करनेमें

    कठिनाई, ११ ३- १८

 ''समग्रतायुक्त'' भगवानकी चेतना

     है, ११३

 -की अभीप्सा करो, अभौतिक

   चेतनाकी अपेक्षा, २६ १अ

 -ने प्रेम और शक्तिको संयुक्त कर

   दिया है, २६१ अ

 -के पृथ्वीपर शासनकी शर्त, ३३०

 -के कार्यका) पहला परिणाम, ३३०

   (दे० 'अतिमानसिक सत्ता' भी)

  -का प्रभाव सामूहिक जीवनपर,

    ३३०

  -को अभियुक्त करनेमें मनुष्य-

     जाति कब सफल होगी, ३४१

अतिमानसिक जगत्,

  -को अनूदित करनेकी योग्यता,

     १११, १२४

  -में पोशाकें, ११५, १२१

  और भौतिक जगत् के बीचके प्रदेश-

    का निर्माण, १२०, १२३

अतिमानसिक जीवन,

  -की अवस्था, ११५, ११६

  और आध्यात्मिक संकल्पसे चालित

    जीवन, ११५अ

  -की उपलब्धिके लिये व्यक्तियों-

     का समूह अनिवार्य, १४३-४४

अतिमानसिक दृष्टिकोण, १११, १२४

अतिमानसिक नौका,

  -की अनुभूति, ११२,११४,११९-

       २४

अतिमानसिक पूर्णता, १०९

अतिमानसिक रूपांतर, ३४३

  इस समयका सत्य, ११;

     इसे संसिद्ध करनेके लिये

  आवश्यक चीज, ११

  (दे० 'रूपांतर' भी)

अतिमानसिक सत्ता,

  किन वस्तुओंको स्थान-च्युत करना

     चाहती. है, १०१

  -का पहला प्रभाव, १० ९- १०

  (दे 'अतिमानसिक चेतना' भी)

  -ओ और मनुष्योंमें अंतर, १११

अतिमानसिक स्पंदन,

  -की अभिव्यक्ति, ११३

अतीत

  -के सांचोंको तोड़ दो, पर उसकी

     भावना सुरक्षित..., २९६

'अदन' [ सेमेटिक ईडन ], ३ ६४,३ ७७

 

 ३८७


अधीरता । अधैर्य, जल्दबाजी, १५,

  २९,३१६, ।३१७

 'रुकना होता है.. यह असीम कृपा

   है, २१०

  -मे तुम सदा होते हो, २१०-११

अध्यवसाय ? लगन, २२, ३१६

    (दे० 'प्रयास' भी)

अनंत, १५७

अनंतता,

  -की अनुभूति कैसे?, २७४

अनीश्वरवाद, ३८२

अनुकरण

  और सृजन, ३२४

अनुभव अनुभूति ,

  -(आध्यात्मिक संपदाओंके), को

    पानेकी शर्त, १६

  -का मूल्य कब, १६

  (सच्चे), का एक क्षण सैकड़ों

     व्याख्याओंसे अधिक, २२, ३७

  (सच्चे), की प्राप्तिके लिये दो

      क्रियाएं, २२

  (अपना), एक व्यक्तिगत, आत्म-

     निष्ठ विषय, २४, १९०-९२

  और ज्ञान-प्राप्ति, ३ ६-८, २२०

  -को मिथ्या बनानेवाली चीज, ३६

  -की प्रामाणिकता, में ६

  (प्रेम शक्तिका), पानेकी शर्त, ७४

  -का शब्दोंका रूप लेना, १११-९४

  -की भाषा, १९२

  -के साथ शक्ति भी, १९२

  -को पकड़नेकी चेष्टा, ११३

  दूसरेकी, विश्वासोत्पादक कब,

     २१८-११

  आवश्यक, समझनेके लिये, २२०

अनुशासन, ३५

अपराध, ७६, १२५, १६४,२२४

अभिव्यक्ति ( अभिव्यक्त वस्तु ),

   -का मूल सूक्ष्मतर लोकमें, ६१

 बाह्यीकरणके आनंदके लिये,

   २२१अ

 -के कारण 'अनभिव्यक्ति' में विशेष

  रस, २३४

 (दे० 'चीज' '' (विरोधी), 'जगत्'

    और 'विकास' भी)

अभिशाप-प्रसंग,

   धर्म और गिरजाघरके, ३५८

अभीप्सा, १६, २९, १३८,२८५

  और प्रयत्नको तीव्र बनानेके

    लिये आंतरिक विरोधकी

    आवश्यकता, ६७, १७४

  ''परमाश्चर्यमय'के लिये प्यास,

    १७०, १७१

 'अभिव्यक्ति'में सहायक, १७२

 ऐसी तीव्र कि रूपांतर कर सके, १७६

 और कठिन अवस्थाएं, २०८

 तीव्र रूपमें, किंतु अधैर्यके बिना,

  २१०

 भगवत्कृपाको लानेमें सहायक,

  २४४

 और प्रयत्नका क्या स्थान है यदि

     सब कुछ पूर्वदृष्ट है, २५१अ

   -एं (सभी सच्ची), स्वीकार करने

     योग्य हैं, चाहे उनके स्वरूपोंमें

     कितनी भा विषमता.., ३६२

अमरता ( अमरत्व ),

 -का अर्थ, ३१-२

 -का अमृत'', ८४-५

 

३८८


ह भगवान्से मिलन, ८४-५

 लेनेसे मतलब, पात्र कोई भी हो,

   ८४-५

 -की चेतना और भौतिक सत्ताकी

  अमरता, ८५

     (दे० 'शरीर' भी)

 'मर्त्य और अमर, ९८

अयोग्यता,

 -की भावना, ७४, १६४

अराजकता, ३२५

 दिव्य, ३११

अरिस्टोफेन (व्यंग्य लेखक), १५२,

  १६२

अर्जन करना,

 केवल अपने लिये ही २८८

अर्यमा (देवता) ८६

 अलीपुर जेल, ६१

 अवतार, ६२

  -का कार्य, ७५

  अकेला, पृथ्वीपर अतिमानसिक

  जीवनको उपलब्ध नहीं कर

  सकता, १४३-४४

  -की आवश्यकता क्या अब आगे

    भी पड़ेगी?, २६३

  (दे० 'भगवान्' व 'रूपांतर' भी)

अविश्वास, ४२

 आत्मिक संपदाओंके प्रति, १३, १४

   (दे० 'विश्वास' नहीं, और

     'संदेह' भी )

अव्यवस्था ( अस्तव्यस्तता),

 और सरलता, १७५

 तमस्के प्रतिरोधसे, २४३

 और विनाशके लिये भागवत शक्ति-

   को दोषी ठहराना, २४३

 -में वृद्धि अतिमानसिक चेतनाके

   प्रभावसे, ३३०

अशुभ ( अदिव्य, बुराई ),  ४९,७१,

  २७६, २८७, ३२६

और असुंदरको दूर करनेमें सह-

 योग : अभावात्मक और मावा-

   त्मक, ७२-३

 और प्रेमकी शक्ति, ७३-४

 -की भावना क्या सदा नहीं रहेगी?

   १२६

 नामकी कोई वस्तु नहीं, २७६

  -की व्याख्या और इलाज, २८२

 और कष्टसे बचनेका मार्ग, २८७

 -मेंसे प्रकाशपूर्ण सत्ता, ३११

 -को अवसर देनेवाली वस्तु दुष्टता

     नहीं, दुर्बलता, ऐ २६

 -की लोक-व्याख्या, ३५८

    (दे० 'चीजें' बुरी, 'पाप' और

    'शुभ और अशुभ' भी)

अशुभ संकल्प ( दुर्भावना, ३८,७४

     २९०

असंभव, ९५, १५५

असत् १०१, ११३

असत्य

 -का रूप सत्य कैसे लेता है, ६७

 (पूर्ण), संभव हा' नहीं, १००

 (पूर्ण), के नष्ट होनेका अर्थ, १०१

 अवास्तविक, न कि संसार, ११०

   (दे० 'मिथ्यात्व' भी)

असफलता [ पराजय ], १०२, २५३,

    १७१,

 और पराजयका जीवन, ५७,२७१

    २८९

सच्ची, २८१

 

 ३८९


''महान् और श्रेष्ठ'' : व्याख्या,

  २९६

 नहीं, लक्ष्यकी और चक्राकार गति, ३

  ३००

 अंत नहीं, द्वार है,३००, ३२५

 किसी कार्यमें... ,  ३०४

 'असफल जो कभी नहीं हुआ. .,

    ३१५

 -की निंदा', ३६६

 है प्रच्छन्न. चरितार्थता, ३८०

   (दे 'सफलता' भी)

असहिष्णुता, २३-४

असीम, ९९, १००

असुर

 देवताओंसे अधिक बलशाली, २५३

 ज्येष्ठ देवता, २९२

 रूपांतरित हो चुका है.., २९२

अस्वीकृति, २१८

 -की क्रिया वस्तुओंके प्रति, ७८,

   १०४

 (दे० 'आत्मा'-की शक्तिकी भी)

अहं ? अहंकार, अहंभाव, २७०

 तभी विलीन होता है, १९,३६७

 (मानसिक), और सहज पवित्रता,

   ५५

 -युक्त चेतना, ७७

 -की सेवा, जबकि बहाना भगवान्-

 की सेवाका, ८३

 -का शोधन और पाप-भावना, ११०

 -से मुक्ति. कब, ११०, २७३

 और अतिमानसिक स्पंदन, ११३

 'हम अभी वही हैं जो हम होना

   नहीं चाहते.., १७९

 और रूपांतर-बोध, २०१

-विमुक्त आत्मा ही सृष्टिके क्यों

   और कैसेको जान सकती है,

   २५४

 और अतिमानव, २५६

 -की सीमाओंको तोड़ना होगा,

   २७३

 (असंतुष्ट), की ही इच्छा मरकर

   दूसरा जन्म लेनेकी, बे मे 

 भगवानको समर्पित कर दो, यही

   दुःख... का कारण है, ३३६

 -को अदृश्य होते देख शिकायत,

   ३७६

 (अपने), को विश्व-पुरुष का नाम

   पैना. ., ३८२

अहंकर्तृत्व बोध, २४४, ३०६

 

      आ

 

आँखमिचौली, ५७-८, २३२, २३४,

    २४०

आंतरिक जीवन, दै० 'समझना'

आंतरिक तश्य,

 - ओंको ''देखना'', २१५, २१८

 - ओंको समझनेकी 1 क्षमता, २१९,

  २२०

 -को जाननेकी इस अनिच्छापर

   कैसे कार्य किया जाय, २२१

 - ओंको न समझनेकी क्रिया सामान्य

 एवं सर्वागीण है, २२४

आघात,

 मानवीय हाथके द्वारा..., ४८

 कर! ऐ प्रेमिका! '', ५८

 पाना सद्भावनाके कारण, ८१

 (दे 'घटना' व 'दुर्भाग्य' भी)

 

३९०


आत्म-त्याग ![ आत्मपीड़न ],

 -की प्रशंसा..., ३२८

 नहीं, भगवानकी तुष्टि लक्ष्य, ३२८

आत्म-दया, ३७९

आत्म-प्रवंचना,

 -की दो विभिन्न तरीके, ८१

 कि पाखण्ड!, ८३

 तीन प्रकारकी, ३१०अ

 (चेतन), का अर्थ, ३११

 (दे० 'बहाना' व 'समर्पण' भी)

आत्म-विकास ( आंतरिक विकास

 -सें कर्मपर नियंत्रण, २८५

 -मे ही जीवनकी सुरक्षा, २८७

आत्म-विस्मृति, १२

और आत्म-निवेदनमें अंतर, २८८

आत्मा

 -की शांत, शान-निरपेक्ष अवस्था,

   ११-२

 (जाग्रत्), ही जाग्रत् आत्माको

  पहचान सकती है, ११

    (दै० 'सजातीय' भी)

 -का जगत् और भौतिक 'आश्चर्य',

    २१ ५- १७,२२०

 -की शक्ति और जडपदार्थमे, २१८

 -की शक्तिकी क्रियाको व्यक्ति

   अस्वीकार कर देते है, २१८

  (दे० 'आंतरिक तथ्य' - ओंकोऐभी)

 -की शक्ति और विश्वासोत्पादकता,

    २१९-२०

 और प्रकृतिके नियम, २५०अ

 -की अवस्थाके दबावसे संसारमें

   परिवर्तन, ३०५-६

 -की शक्ति और भौतिक शक्ति

    दोनों आवश्यक, ३०६

तुझे कौन मार सकता है?, ३०८

 ''निष्कलुष और संकोचविहीन,''

    ३२७

 (मेरी), भगवानकी बंदी, ३४९

 दुख-कष्टकी परवाहसे अधिक

  निजी आवश्यकताका अनुसरण

  करती है, ३ ७७अ

आदम और हीवा, ३६४

आदर्श

 -की पूर्तिके लिये कार्य करनेकी

   सही मनोवृत्ति, ३१६-१७

 -को नकारना, छोटे-से जीवनमें

 उसे न पा सकनेके कारण, ३१७

आदि और अंत,

 वस्तुओंका, २२७, २३०, २३२

आदेश

 जब मिले उसे माननेमें.., ३०३

 तीन रूपोंमें आ सकता है, ३०३

 किसका मान्, भगवानका या

   पुस्तकका, ३३१

आध्यात्मिक जीवन,

 और धर्म, १८

 'आध्यात्मिक मार्गको अनन्य

   मानना भी घातक, १४२

 --लें प्रति भारत और यूरोपकी

    प्रणाली, २२१

 -मे तर्क, विश्वास और सहज प्रवृत्ति-

 का प्रयोजन, ३०२

आनंद,

 दिव्य क्रीडाका, ५२

 -मे वर्धित होनेके तनी स्तर,

    १७७-७८

 (अक्षर), को जीवनके बीच कैसे

 पाया जाय?, १८१-८३

 

२९१


(अक्षर), की स्थिति खतरनाक,

 संसारकी वर्तमान अवस्थामें,

   १८२-८३

 -की कुंजी, २५४-५५, २८७,२८८

 प्राप्त कर, पहले अपने लिये २८७

 -की खोज अपने ही लिये २८८

 -की शाश्वतता असहनीय, ३६३

 सात प्रकारके मानव शरीरमें, ३६३

 'परमानंदका रहस्य, ३६८

 (सबसे महान्), ३७४

 ( दे० 'सुरव' भी)

आलोचना,

 करनेसे पहले अपने अंदर दृष्टि

   डालो, २४-५, १२४

 करनेवालोंका तर्क, ७२-३

आवाज,

 -के पार सुनना, १३१ टि०

 -के पीछेकी सत्ता, १३१ टि०

 (प्रत्येक), को आदेश न समझ,

    ३०४

 भगवानकी, ३३२

    (दे० 'आदेश' भी)

आवश्यकता, १८६,२०५

आश्रम

 -मे' भी मनकी यह संकुचितता!, ८०

 -की स्थापनाका आधार, २०७-८;

    'अभीप्साका स्थान आलस्यने

 ले लिया है, २०७-८

 -मे साधकोंका चुनाव, २०८

 -मे यही करनेका यत्न.., २७०

 -के बच्चोंमें असभ्य शब्द-व्यवहार,

   २७४अ

 और ओरोवील, २७९अ

 'हममेंसे प्रत्येकका प्रयत्न, २७९

 (दे० 'कार्य' हमारे भी)

आश्वासन ! सांत्वना,

 दु:ख-दर्दमें : ''मै' तुझे सब पापोंसे

  मुक्त.. '', ३०७

 जगतके रूपांतरका, ३११-१२,३६०

 आदेश पहचाननेके बारेमें, ३३२

 उपलब्धिका, ३८०

    (दे० 'निश्चयता' भी)

आसक्ति,

 -के अवसरोंसे भागना, २०३

 

        इ

 

इन्द्र (देवता), ' ८६

इन्द्रिय

 -नों, ज्ञान-प्राप्तिके दोषपूर्ण माध्यम,

    ७

   (दे 'तर्कबुद्धि' भी)

 -के विस्तारकी विधि, १३८-४०

 - ओंका कथन और आत्माका कथन,

    ३५६

इच्छा, १८६

 (वैयक्तिक), की उपयोगिता, ५४

 -से ही कठिनाइयां, १८८-८९

 -ओंकी अपूर्ति कृपाका चिह्न, २७२

 -का पूर्ण अभाव आवश्यक, ३०४

 -का त्याग, ३७०

 'पसंदके रहते पूर्ण यंत्र नही बन

   सकते, ३७१

 (दे० 'कामना' व 'भागवत संकल्प'

   भी)

इतिहास,

 और पौराणिक कहानियां, ६२-३

 -की चार महान् घटनाएं, ६३

 

३९२


              ई

ईर्ष्या, ४९

 -से मुक्त होनेका उपाय, ३५७

ईश्वरवादी, दे० 'नास्तिक'

ईसा, २६७,३८२

 इसी कारण शूलीपर झूल. ., ६०

 -क् अस्तित्वका ही खण्डन!, ६१-२

 -की फांसी सीजरकी मृत्युसे बड़ी

    ऐतिहासिक घटना, ६१-२

 अवतार, ६२

 भगवानके बलिदानका मूर्त रूप, ६२

 -की कहानी जालसाजी है, ६४

 -के उपदेशोंने जो कार्य किया

   . ., व उनका संदेश, ६४-५

 -के आनेका प्रयोजन, २६९;

   उन्हें फिरसे भगवानकी तलवार

   लेकर..., २६१

ईसाई धर्म,

 'ईसाई विचार 'स्रष्टा भगवान्'

   का, १०३

 -की सीख और आधुनिक ज्ञानकी

 सीख मनुष्यजातिको, २८१

 

      उ

 

उग्रता

 -की सभी क्रियाएं संकीर्णता व दुर्बल-

 ताकि क्रियाएं है, ७८,७९, ८२

उदारता, १२४,३६६

 आत्माका सूक्ष्म आकाश, २९४

 -का अर्थ, २९५

उबहरण,

 'चरागाहमें रहनेवाला पशु, १५

कुली-मजूरका व्यायाम, ३४

 'शिशु, कीचडमें और नहला देने-

   पर, ५५

 'नरकसे एकको निकालनेमें एक

  वर्ष, ६६

 'एक बहुप्रिय, योग्य स्त्री, समाज-

   बहिष्कृत और उपेक्षित, ८०

 'बर्तनकी सुगन्ध सुरामें, ८४

 'बाघ दिव्य है, ८८

 'बारहसिंहेका प्रसंग, १११ टि०

 'फ्रांसका प्राध्यापक, घरका रास्ता

  चुननेमें आध घंटा, १२८

 'स्वप्नमें मुर्दागाडीकी ओर संकेत

   करता हुआ साईस... लिपट

   टूट जाना.., १३५

 'रेड इण्डियन लोगोंकी सुनने और

   सूंघनेकी शक्ति, १४०

 'कल्पना करो तुम भगवान् हो, सब

 वस्तुएं तुम्हारे अंदर है, १५२- ५

  मेजपर चीजों रखना, १६५

 'मै' कहती हूं 'वह वस्तु लाओ' और

 वह दूसरी लें आता है, १८५

 'भोजनदुरा विष अंदर चले जाना,

   १८७

 '' 'जाओ, अमुक व्यक्तिसे यह वस्तु

  प्राप्त करनेके लिये यह कहो,' '

    १८१

 'मैले-कुचैले कपड़ोंका त्याग, २२१

 'बालुकापर पड़ा पत्थर, २४१

 'सिंह, कामधेनुकी पीठपर खड़े

 अंकित पीठपर, २५६

 'वैज्ञानिकके पास एक मूर्ख

   शिक्षार्थी, २६०

 

 ३९३


 'सागरकी गहराइयोंमें हलचल नहीं

    होती, किंतु.., ३०६

 'लहरोंपर डूबता-उतराता तिनका,

   ३०१

 'प्रहार करनेवालेके आगे अपना

   गाल करनेवाला, ३०१

 'गुंडेसे मार खाखर उसे चुपचाप

  ताकता व्यक्ति, ३०१

 'पत्थरकी वर्षा करनेवालोंकी ओर

   प्रेमपूर्वक निहारता.., ३०१

 'तारेका प्रकाश पृथ्वीपर, ३१८

 'सीपी द साम्गज्यकी रचना, ३२१

 'विलासी राजा.. निपुण मोची,

   ३२१

 'विष्णुके तीन पग, ३२३ टि०

 'जहाजको अंधड़में देख निराश

    होना, ३२४

 'लंबे समयतक उसी एक संकरे

    पुराने घरमें रहना, ३३४

 चरवाहेको ज्वर, ३४०

 'अफ्रीका निवासी जंगलियोंकी

   जाति, ३४०अ

 'उपासका पैड, ३४१

 'बच्चा, बिना सहारे चलनेको

  उत्सुक, ३५९

 'गोपियोंका चीर-हरण, ३६५

 'कैलासके हिमखण्ड, ३७२

 (दे 'श्रीमाताजी' भी)

उपभोग, ३० 'अति'

उपलब्धि, ७१

  (वैयक्तिक), और 'ज्ञान' पूर्णतया

     संयुक्त हैं, १४३

  (आंतरिक), होनेपर लोक-स्थिति,

      २९०

उपवास, २०४

उषा (देवी), ८६

 

    ए

 

एकत्व ( एकता,

  -की चेतना और दृश्य वस्तु, १९८

  (दे० 'सत्य चेतना' -मे भौतिक

  जगत् भी)

 तत्वका, २१ १अ;

   इसे जाननेकी क्षमता, २२०

 ऊपरके संकल्पके साथ या नीचेकी

   वस्तुके सत्य.., २४४

 सब मानव प्राणियोंका, २९२

 और प्रेमके मानवीय कारणोंका

  मूल्य ३६७

 (सच्ची), कब संभव, ३६७

 भगवानके साथ, दे० 'तादात्म्ग्न'

 

      ओ

 

ओ३म् ( अ, २७३

आरोवील,

 -की स्थापनाका उद्देश्य, २७९

 -मे दुःख-कष्ट, २७९

 -मे गरीबी, २७१

   (दे० 'आश्रम' भी) औ

 

       औ

 

औषधि ( दवाई,

  -की रोग-मुक्तिकी शक्ति, ३४०,

   ३४४

 उतना ठीक नहीं करती जितना

 

३९४


कि विश्वास, ३४०

-के बिना रहनेमें बाधा, ३४३

   इसका इलाज, ३४३

आवश्यक क्यों, ३४३

   (दे० 'रोग' भी)

 

      फ

 

कंचनजंगा,

 (उच्चतम), से भी उच्च, १९४

 कठिनाई ?r बाधा, विपत्ति, १५९

 -का बोझ और प्रेमकी शक्ति, ७४

 -क् बोझका अपना हिस्सा अपने

 ऊपर लो, १२७

 लट जाना, हस्तक्षेपसे, २००

 'कठिन है इसी कारण इसके लिये

   प्रयास करना चाहिये, २०३

 -यां दण्ड नहीं है, २०१

 -के दबावसे चेतना जाग्रत्..,

  २०१

 'ऊपरकी सभी चीजों कठिन है,

  परंतु भगवान् जब ठेका लें

  लेते है.., २१४

 प्रभु किन्हें देते है, ३१ ५अ

 -योंकी आवश्यकतामें शंकाका अर्थ,

  ३७७

 ( दे० ' इच्छा' 'तम' और 'दुःख-

  कष्ट' भी)

कर्तव्य, २९५

कर्म,

 -के परिणामोंको मिटानेकी शक्ति,

   ४८

 ( दिव्य), कितना सरलतापूर्ण!,

   १७१

(अत्यधिक), अत्यधिक निश्चल-

   ताकि ओर लें जाता है, २०७

 -पर नियंत्रण कैसे, २८५

 (निर्दोष), संभव कैसे, २८७

 -का उद्देश्य, ३२२

 (पुण्यकृत बुरे), को भी जानना

   ३२८

 -का पथ कठिन, पर सरल व आनंद-

   दायक भ), ३३३

 -पथका चमत्कार, ३३३

   (दे० 'कार्य' व 'बोलना' भी)

कला,

 -का कार्य, २५७-५१

 आधुनिक, ३३७

 -को जैसा होना चाहिये, ३३८

कलाकार, ३३, ४०, २२९, २५८,

  ३२४

कवि, २५८

कामना, ३६

 -की पूर्ण संतुष्टि या पूर्ण त्याग

 असंभव, १८४

   अज्ञान और अहंकारसे रहित मुक्ति-

 की अपेक्षा लोगोंको उनकी

 दासता पसंद, २७०

 (दे० 'इच्छा' भी)

कायरता, ३८,३०१

कारण

 -की खोज करते रहो, ४२-३

कार्य,

 हमारे करने लायक, ५४, २४५,

 २७९, २९९, ३०५, ३१२,

 ३३१, ३३२, ३६२

 (दे० 'सत्यके पथिक' भी)

 जब पूर्ण सहजताके साथ.., ११५

 

३९५


सामान्यत: संकल्प-चालित, ११५;

  रूपांतर-पथपर किंतु उलटी

 बात, १५१

 (अतिमानसिक), का तरीका, ११५

 और जल्दबाजी, २१०-११

 (महान्), मे भी अकर्तृत्वबोध,

   २४०

 भागवत शक्ति ही करती है, २४४

 (अपने मत या अहंको मिलाये

 बिना), करनेका ठीक ढंग,

   २४६

 करना जब बुद्धिमानी न हो तो

  आदेशकी प्रतीक्षा कारों, ३०४

 -मे' अंतिम असफलता कब, ३०४

 (प्रचंड), के बीच मुक्त आत्माकी

   स्थिति, ३०६

 -का उद्गम, ३०६

 इस प्रकार करो मानों आदर्शकी

   पूर्ति.., ३१ ६- १७

 व्यक्तिगत आवेगके वश नहीएं,

 ब्रह्म- के आदेशानुसारी.., ३१८

 -मे दक्षता एवं पूर्णता, ३२ १अ

 -की महानताकी नाप, ३२२

 -मे' उचित-अनुचितकी उलझन,

   ३२४

 (दे० 'कर्म' भी)

कार्य-कारण,

 -की दृष्टिगोचरता जगत्में, ४५,

   २१८

कालविन, ३६३

काली,

 -को श्रीअरविन्द सबसे अधिक

   महत्व क्यों देते हैं, ८६

 -की प्रणाली, २२१;

इसका अर्थ, २२१

 भयावनी शक्तिके रूपमें ,कृष्ण ही

   हैं, ३७६

     (दे 'श्रीकृष्ण' भी)

कालिदास, ३७२

कुटिलता, ३११

कुरुक्षेत्रका युद्ध, ५३, ६३, ३७०

कुरूप, १०४

 और अनाकर्षक वस्तुएं, ४५-७

 और सुंदर सापेक्ष, ४६

 वस्तुके सौन्दर्य'', ४६, ७०-३

 शरीरमें प्रतिभावान, ३१२

   (दे० 'सुधरता' भी)

कृतज्ञता,

  जितनी, प्रसन्नता उतनी, ३६१

केन, ३ रे ०

कैना,

 -का बैगनी रंगका फूल, ९६

क्रांति

 जो हमें ससिद्ध करनी है, ११

 -योंका परिचालन, पर्वत-चोटी-

   पर मौन बैठे हुए, २४१, ३०६

 -योंमेंसे निकलता है, बस, चेहरा

 ही नया, २९६

 -यां (सफल), केवल छ:, २१६

फंस

  -का प्रतीक, २६१

क्रूरता

 और प्रेम, १०७, १७२, १७३

   (दे० 'निष्ठुरता' तथा 'घृणा' व 'तम' भी)

क्रोध, ७८

 (न्याययुक्त), की बात, आत्म-

 प्रवंचना, ८१-३

३९६


प्राणिक शक्तिका विकृत रूप, ८२

 दुर्बलताका चिह्न, ८२

 आसुरिक वस्तु, ८२

 और प्रतिहिंसा निचली मानवता-

   की वस्तुए, २८८अ

 ( ३० 'घृणा' भी)

क्षमता ?r योग्यता,

-ओंका गर्व, १५१

-की चाह, ३२६

क्षमा,

 किसे करूं और क्या क्षमा करूं,

   ४७-८

 मांगनेके साथ-साथ उन्नति भी

 होनी चाहिये, ४७

 करना भला कार्य कब, ३१०

 ( दे० 'भूल' भी)

 

              ख

 

खोज,

 -को सूत्रोंसे सुला मत दो, ४२-३

 समग्र ज्ञानकी, १४३ (दे० 'समग्र

   दृष्टि' भी)

          

              ग

 

गति,

  तमस्में भी बंद नहीं होती, ७८

    (दे० 'अकर्म' भी)

गरीबी! दरिद्रता, ३२६

  'गरीबोंकी सहायता, २७७

  -के बारेमें, २७८-८१

  और कष्ट कबतक, २८१

गीता,

 -का प्रभाव, ६४

 (दे 'श्रीअरविंद' भी)

गुण,

 -के साथ अवगुण भी, ८२

 (आवश्यक), २५६अ, २९४

 (एक), का अतिरंजन, २७५

 प्रशंसा पाने या पूर्णता पानेके

   लिये!, २९४

 -ओंके प्रदर्शनसे धोखा मत खा,

   ३११

 कष्ट और कठिनाइयोंमेंसे, ३१४

गेलेन, ३४१

ग्रहणशीलता, ८, १२,२२

 

      घ

 

घटना,

 -को शुद्ध रूपमें समझना, ४९,५१

   (दे० 'चीज'- ओंको सच्चे भी)

 'जो कुछ होता है, भलेके लिये,

  ४९

 -को कष्टमें बदलनेवाली चीज,

  ५०, २१०

 (प्रत्येक), के पीछे भगवत्कृपा, ५१

 -ओंका पूर्वबोध, १३२

 -को बदल सकना, १३४-३५

 एक ही,  मनुष्य दुःख।, पशु नहीं,

   १५४

 एक ही, एकको ।आनंद, एकको

  कष्ट, २५४

 (बाह्य), से विचलित मत होओ,

   २७६, २७७

 -की महानता और श्रेष्ठता किन

   चीजोंपर, २९६

 

 ३९७


 एं साधित नहीं, विकसित होती

  हैं, ३१८

 -मे हस्तक्षेप, ३१८

धृणा,

 पापीसे, ७६, २५२

 विद्रोह, क्रोध आदि क्रियाओंकी

  आवश्यकता, ७७;

  इनका मूल, ७८;

  इनका समाधान, ७९;

  इनकी उपस्थितिका अर्थ, ७९

 और प्रेम, २०८

 गुप्त आकर्षणका चिह्न, २२४-२७

 ही एकमात्र अपराध, २२४

 अकर्मसे, २४१

 अत्याचारीसे, २११

 -की तलवारकी धार दोहरी, २११

 कुटिलतासे, ३११

 नास्तिकसे, ३५७

 शैतानसे, ३५८

 हसीमें बदल गयी, ३५८

 

      च

 

चंद्र (देवता), ८६

चंद्रावली, ३५७

चमत्कार, ४०

  -की लिये रुचि किस बातका

    चिह्न, १६५, १७ '

 -का उपयोग आपने या श्री-

  अरविन्द क्यों नहीं किया?,

     १६६-६७

 (प्राणिक या भौतिक), मे मिथ्या-

   तत्वका मिश्रण, १६६-६७

 -को देख सकनेकी क्षमता, १६६,

१६८, २११

नामकी कोई चीज नहीं'', और

  ''चमत्कार द्वारा ही यहां सब

 कुछ बदल सकता है'' :

 व्याख्या, १६८-७०

क्या चीज है?, १६८, १७०

 (सच्चा), तब क्या होगा (इ, १६८

 -का अर्थ पृथ्वीके लिये, १६९,१७०

 - ओंकी आवश्यकताका सबसे बढ़िया

   उपयोग, १७१-७२

  -की वे भौतिक व्याख्या दे देंगे,

   २१९

     (दे 'विज्ञान' भी)

चिकित्सा-विज्ञान,

 वरदान नहीं, अभिशाप, ३३९,३४२

 सदाशय है, किंतु.., ३४१

चीज ( वस्तु )

 , बुरी कब हो उठती है, '४६ ४७,

 ७७-८, १०४,

 इनका इलाज, ४७

 'सब कुछ भगवान् है, ४७, १०३,

   २१४

   (दे० 'भगवान्' सब कुछ .मी)

 - ओंको सच्चे रूपमें देख सकना, ४२,

  ७८,२७६, ३००

 (प्रत्येक), सर्वोच्च सत्ताकी अभि-

   व्यक्ति है, ७१

   (दे 'जगत्' -मे सब भ)),

 (बुरी), के प्रति सम्यक् वृत्ति,

   ७२-३

 , वैसी ही है, जैसी होनी चाहिये,

   ७८, ७९, १०६;

   इस दृष्टिको अपनानेपर कोई

   गति नहीं होगी!, ७८

 

३९८


 , जो भूतकालमे ही रहेगी १०१

 (सब), जहां सह-अस्तित्व रखती

   है, १०१, १०६, २०४

 (अरुचिकर), भी भागवत सत्ता-

  का अंग, १०३-६

   (दे० 'कुरूप' वस्तु भी)

 (प्रत्येक), अपने स्थानपर है,

  १०६, १०८, १०१

  '', अपने स्थानपर नहीं, १०८

 कोई बुरी. नही, केवल.., १०१

 (प्रत्येक), को प्रत्युत्तर देनेका

   ढंग, अतिमानसिक चेतना और

   मानव चेतनाका, ११६

 (सूक्ष्म), को पानेकी विधि, ११९

 जो एक क्षण सत्य है, दूसरे क्षण

 सत्य नहीं रहती, १५२

 एक ही समय है मी ओर नहीं भी,

  कैसे?, १५३

 (प्रत्येक), को उसके ठीक स्थान-

 पर रखनेका तरीका, १६३

 _ कोई), दबानी नहीं चाहिये,

 १६३, २०४-५

 (तुच्छ), आध्यात्मिक अनुभव-

 का विषय कैसे?, १६५

 (विरोधी), -- मृत्यु-जीवन,

 क्रूरता-प्रेम, अज्ञान-ज्ञान --

 'अभिव्यक्ति'को अधिक पूर्ण

 बनानेके मार्ग हैं, १७२-७४;

 ये मार्ग भय है : कारण, १७४ ',

 ऐसी बहुत होंगी जिन्हें विलीन

 होना होगा, १८३

 - ओकों उसी. रूपमें स्वीकारना जैसों

   थे हू और फिर आगे बढ़नेका

   प्रयत्न करना, २०८ अ

कोई ऐसी नहीं जो प्रभु न हो, किंतु

   विरले हैं जो प्रभुके प्रति सचेतन

   हों, २१४

  - ओंका सृजन और संहार आंख-

   मिचौलीका खेल, २३२, २४०

  - ओकों घृणित या अरुचिकर समझना

   मानसिक धारणा है या.. .,

   ३१२

 '', तेजीसे आगे बढ़ रही है, ३२३

  (दे० 'सत्यचेतना'-में वस्तुओं तथा

    'रोना-धोना' भी)

चुनाव

 और निर्णयका सामान्य तरीका, २०

 -संबंधी स्वतंत्रता, ८९

 कार्यका, १२८, १२१

   (दे० 'निर्णय' भी)

चेतना

 भरना शरीरके कोषोंमें, ३३

 पार्थिव मनोवैज्ञानिक और मानव

   समूहकी, ७६

 -का परिवर्तन भी एक क्रिया है,

   १९५

 -का परिवर्तन, एक गति नहीं,

   १९६

 -का प्रत्येक बिंदु समस्त अनुभवको

  पा सकता है, २३०

  (दे० 'जडूतत्व' भी)

चैत्यपुरुष, ३७८

 ही अंतःप्रेरणाके माध्यम, ७

 -द्वारा नये जन्मका चुनाव, ३३

 -का विकास और शरीर-साधना,

   ३३-५

 जब शासन-सूत्र संभालेगा, ८१

  (दे० 'अंतरात्मा' और 'जीव' भी

 

३९९


चोर,

 औरहत्यारेके आगे नतमस्तक, २५२

 

      ज

 

जगत् ( संसार, सृष्टि,

 आगे बढ़ रहा है, ११,४७, १०१,

 १०४, १४८

 एक भ्रांति', के दो सिद्धांत, -५

 -मे' सब कुछ सच्चिदानन्दकी ही

   अभिव्यक्ति है, ४६, ७१, २५२

 -मे प्रत्येक वस्तु सापेक्ष है, ४६

 -का भविष्य, ५३-४

      (दे० 'राष्ट्र' भी)

 एक अंधी आकस्मिकता' मे तर्क, ५६

 -की असत्यताका बोध, १० १अ

 -का स्वरूप सत्यचेतनामें, १०९-१०

 (दे 'सत्यचेतना'-में भौतिक जगत्

   भी)

  यह प्रतिमूर्तियोंका जगत् है, १३१

  (दे० 'अभिव्यक्ति' -का अ भी)

 तीन आयामोवाला, १४५

 'चौथे आयामकी भावना, १४५

 एक प्रहसन है, १५४, १५५-५६;

   इसे दुखांत हीमें बनाते हैं,

   १५४-५५; यह प्रहसन है भग-

   वान्के लिये, किंतु हम.. .,

   १५४, १५६

 -के रूपांतरका उपाय, १९६,२२३,

   २४५, २५०, ३००, ३१२

 (दे 'आत्मा', 'पृथ्वी' -की वापसी

   तथा 'लक्ष्य' भी)

 -के रूपांतरकी प्रक्रिया, २००

   (दे० 'आश्वासन' भी)

-की निश्चेतना ही असत्यको

   बनाती है, २१४

 मिथ्या, किस अर्थमें, २१४अ

 एक आवर्त्त-दशमलव.., २२७

 -की भ्रांतिके विषयमें, २३२अ

 -के बारेमें मानव-विचार, २७१

 -को समझनेका सर्वश्रेष्ठ ढंग,

    २७१, २७६

 -मे दुःख ओर गरीबी न रहे, क्या

   ऐसा दिन आयगा ', २७८

 -से निराश होकर भगवानको

  पकड़ने.., ३००

 तर्कके नहीं, विश्वासके सहारे बढ़

   रहा है, ३०२

 घायल, विषधर नाग, ३११

 -को यदि एक राष्ट्रका रूप..,

  ३२२-२३

 (सारा), मेरा अंतःपुर, ३५१

 -को अलग रखकर भगवान्से प्रेम

  करना, ३५७

  (दे० 'भगवान्'-से प्रेम भी)

 आत्माका पति और कृष्ण यार,

   ३५९

 अभीतक दिव्य आनंदका विरोधी,

   ३६०

 स्वर्गकी प्रतिमूर्ति कब बनेगा, ३६४

 -का अधिपति बननेकी लालसा,

  ३७३-७४;

  इसमें आनंद कब, ३७४

 (दे० 'अभिव्यक्ति' और 'विश्व' में,

 तथा 'श्रीअरविन्द' 'तमूरा' व

 'रोना-धोना' मे मी)

जटिलता,

 और सरलता, १७६

 

४००


(दे 'मन' भी)

जडूतत्व, १७३

 -मे' भागवत उपस्थितिका मूल,

  २१३

 सत्य है या चेतना?, २६१

जडपदार्थ,

 और सर्वोच्च प्रेम, ७५

 -का रूपांतर, ७५

 अभी कठोर है, ७५

 और ये बम-प्रयोग, ९५

 -मे अतिमानसिक चेतना, ११ ३-

    १८

 -की दृढ़ताका प्रयोजन, ११४

 जगत्का मिथ्या रूप नहीं, १९८

 -के 'तम' के प्रतिरोधका परि

  णाम, २४३

जनक,

 -के सामने नारद भी विभ्रांत, २०३,

  २१२

जीब,

 -के शरीरमें आनेका उद्देश्य, ३३,

   ३६०

 (दे 'चैत्यपुरुष और 'मनुष्य'

  किस भी)

जीवन, ८६, १२४,२५१

 -का त्याग, १५,६९,८४,२०५-६,

  २२२

 -की चीजोंसे ऊबका अनुभव..,

  १५, १६

 -की सहायता, चैत्य प्रगतिमें, ३४

 सामान्य और असफलता व पराजय-

  का, ५७

 -की नारकीय परिस्थितियोंमें होने-

   पर उचित भाव, ६६

 सर्वोच्च इच्छा-युक्तिक अभि-

  ठयक्ति कब होगा, ८९

 इतना दुःखमय क्यों है?, १५६,

  २०९, २१४

 यदि सरल होता, १५६,२०१

 -को गंभीरतापूर्वक लेना उसे पूर्ण

 बननेसे कैसे रोकता है?, १६ २- '

  ६३

 -को पूर्ण बनानेका पथ, १६३

 -को दो भागोंमें बांटना, १६५

 और अक्षर आनंद, १८१-८३

 अति व्यस्त और पलायनका, २०७

 आनदपूर्ण कब होगा, २१४

 -को व्यर्थ घसीटनेकी अपेक्षा मरकर

   दुबारा जन्म लेना क्या अधिक

   अच्छा नहीं?, ३३४-३५

 -का सर्वग्राही सूत्र, ३५६

 हमें किस लिये दिया गया है, ३६०,

  (दे 'जीव' भी)

 जब.. हास्य बन जाता है, ३ ६७अ

  (दे० 'पार्थिव स्वर्ग', 'मुक्ति' और

    'मृत्यु' भी)

जड़िया

 -मे भगवानका सेवक.., ३४९

जेहोवा, ९४,९५

ज्ञान,

 और प्रज्ञा, ३-५, १४०, २२२;

  ये संबद्ध शक्तियां क्यों?, ३

 (मानसिक), ''विकृत माध्यममें

   देखा हुआ सत्य'' : व्यारव्या,२-५

 शब्दका प्रयोग, ६, १७

 जो भगवान् देते हैं, न विवेक है, न

   बुद्धिहीनता.., ११-२

(उपार्जित), की जब और

 

 ४०१


 आवश्यकता नहीं रहती, १२;

 इस स्थितिको पानेकी शर्त्त, १२

साधारण ( मानसिक, १७,१ ९अ,

   २७,४२

 प्रज्ञा और तर्कबुद्धि, १९-२०

 (सच्चा), २०, ३७०

 (सच्चे), के लिये प्रथम पग,

   २०,२२

 'पढ़ना-समझना और सच्चा अनु-

    भव, २२

 जिसका कोई यथार्थ मूल्य नहीं,

   २६,२७

 (सच्चा), पानेकी शर्त्त, २ ६-७,

    २१

 (मानसिक), आपेक्षिक शान, २७

 -को जीवनमें उतारनेका महत्व,

    ३७अ, २६४

 (अधिक), की प्राप्तिका उत्तम

   तरीका, ३८

 -के वृक्षका फल, ८९

 -के वृक्षका प्रतीक, ११, ९४

 विभाजनका, ११, ९४

 -के उदय होनेका लक्षण, १२१

  (व्यावहारिक), को व्यवस्थित

 करना आवश्यक, पर नाश-

  कारी, १४०अ, १४२

 वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दोनोंका

   संयोग काफी नहीं, तीसरी वस्तु

   भी चाहिये, १४१-४३, १४४

 (नया), अजेय होता है, पुराना

   होकर वह., १४८

 रूपांतरकारी, १४८-४९

 'जाननेका अर्थ है कर सकना, २१६

 आत्माका, भौतिक ज्ञानसे कहीं

  अधिक अद्भुत, २१६, २१७

 आत्माका, भौतिक ज्ञान प्रदान

   नहीं करता, २१६

 (आंतरिक), मे विश्वास दिलानेकी

   शक्ति नहीं होतीं, २१८

 अपनी. खोजका शोर मचाता..,

   २२२

 'जानना, कहना, करना, अच्छा है,

   किंतु बनना.., २४१

   (दे० 'बनना' भी)

 आध्यात्मिक, के निषेधकी प्रणाली

  जड-वैज्ञानिकोकी, २६१

 पाने योग्य, २६४

 'बोध मस्तिष्क और हदयका, ३०३

 -की छोटी-छोटी बारीकियोंको

  खोदते रहना, जब कि असीम

  बुद्धिमत्ता ऊपर.., ३२१

 'केवल जाननेसे क्या लाभ.., ३३३

 (मानव), और भागवत शान, ३८०

 (सच्चे), की एक बूंद.. क्रांति पैदा. ., ३८१

 (परम), की प्राप्ति कब, ३८३

 (दे० 'सत्य', 'समग्रदृष्टि', सम-

   झना', 'अज्ञान' और 'भूल' भी)

ज्ञानी,

 नहीं हू, समर्पित हू, ११-२

 कौन होता है, ११

 बननेकी एकमात्र विधि, ३७०

 (दे० 'भगवत्प्रेमी' भी)

 

         ज्ञ

 

झगड़े,

   ( मानसिक), सें बच जाओगे, २४ -५

 

४०२


(निजी), से बचो, किंतु सर्व-

  जनिक लड़ाई. ., ३१३

  (दे० 'संघर्ष' भी)

झलक

 पा जाना, प्रतीक्षा करती अनंत

 संपदाओंकी, १२-३, १६

 

      ट

 

 टार्कमादा, ३७१

 ट्रायनगर, ६३

 

       ड

डटे रहो

  अचंचलताके साथ, २०२

  'टिके रहनेका केवल एक तरीका

    है, २२३

   भूतकालके सामने, ३०४

 

      त

तमस,

 और क्रूरता, १०७,२०७

 -से सृष्टिको, बाहर लानेका साधन,

  १७२-७५, २०७

 -का प्रतिरोध ही विपत्तिको उत्पल

  करता है, २४३

   ( दे० 'गति' भी)

तर्क,

 बाह्य रूपको सत्य माननेका, २०

 सबको सत्य साबित कर सकता है,

  २७

  ( दे० 'मन'-द्वारा भी)

 -द्वारा भगवानके अस्तित्वका निषेध,

   ३५

 -शक्तिकी मूर्खता, ३५अ

 और अनुभव, ३५-६

 नियतिवादके पक्षमें, ११७

 -का कार्य, ३०२

 अपनेको विश्वासके अनुकूल..,

  ३०२

   (दे० 'विश्वास' भी)

तर्कबुद्धि,

 और इंद्रिय-ज्ञान, ५,७,८, १९४

 मनुष्यकी मानसिक कियाका शिखर,

   ७,१७

 -द्वारा सोचे हुएसे भिन्न बोल उठना, १-१०

 और अंतः प्रेरणा ?

 प्रज्ञा, १०, १७, १९

 जीवनमें आवश्यक, १७

 -को पार कब करना, १७,१८

 -का कार्य, १९,२०, ६८

 -के चमत्कार'', का आशय, ३९-४०

   (दे० 'मन', 'बुद्धि' और 'सत्य' भी)

तर्कवादी, १०२

तर्कशास्त्र,

 सत्यका सबसे बड़ा शत्रु, ६८-९

तादात्म्य ? एकत्व (भगवान्, भागवत

 चेतना, सर्वोच्च संकल्प.. के

  साथ),

 प्राप्त करनेकी आवश्यकता ब उसके

   परिणाम, ४३, ५२, ७८,७९,

   २२७, २४१, २४४, २७३, २७६,

  ३३७, ३४३, ३५८, ३६५, ३६७

प्राप्त करनेकी शर्त्त, ३८०

 

४०३


तिरस्कार,

 करना किसीका, ३१२

तुच्छ,

 कोई चीज न हो तेरी नजरोंमें भी,

 ३२१

त्याग,

 महत्तर आनंदके लिये..,

 १७९ -की भावना, १७९-८१

 -की भाबाना या मुक्तिका बोध,

   १७९, १८१

 करना नहीं, स्वीकार करना

  कठिन, १८१

 -का पथ, २०५-६

   (दे० 'जीवन' भी)

 कामना, अज्ञान, अहंकारका,

  २७०

 त्यागके लिये नहीं.., २९३

 उस वस्तुका कैसे, जो उन्होंने

   जबर्दस्ती मुझसे छीन ली..,

    ३४७,३४८

     (दे० 'अति' भी)

 

      द

 

दया

 -भाव बौद्धोंकी, २७५

 जीवोंपर, २८७

 -के दास, २८७

 (मानवीय), और भागवत करुणा,

  ३७८-७९

दर्शनशास्त्री (संसार-त्यागी),

  बुद्धिमान्, पर जरा मूर्ख भी,

  ३५३

बातें, ३६३

दानशीलता, २७६अ

दास,

  घृणापात्र व प्रेमपात्रका, २२५

  बस, भगवानके बनो, २८७

  जो किसीका, नहीं रहा.., ३१५

  नारदकी तरह, ३७४

दिखावा,

 या चरितार्थता!, २१२

 (दे० 'बनना' भी)

दुःख-कष्ट ( दुःख-दर्द, पीड़ा, यंत्रणा,

  १०१

 व कठिनाईसे बाहर निकलनेका

  उपाय, १५, १ ५७-५८, १६४

  २७२, २८०-८२, २८७

 -के पीछे शुभ, ५०

 जब आवश्यक नहीं रहेगा, ५२,

  १७४अ, २१४, २७८-७९

 व कठिनाईकी विद्यमानताका हेतु,

 ६७, १५६, १ ७३-७४, २०९,

 २१४, २५३-५५, २७२,२७९,

 २१०, ३१५, ३२४, ३७०

 हमारी दिव्य जननीका स्पर्श. .,

  १७७

 (नैतिक), स्वभावको बनाते हैं,

  १७७

 शरीरका, ३० 'शरीर'

 -का एक कारण, २५५, (दे

   'घटना'-को कष्ट भी)

 मानव जातिके कब दूर होंगे,

   २७टअ, २८०-८१

 (अधिकांश), का कारण मनुष्य-

   की भूलें, २७९

 'एकमात्र दुःखद वस्तु, २८९, ३७९

 

४०४


(अपने और दूसरोंके), के प्रति

  सम्यक् वृत्ति, २९०

 प्रगति न करनेका, ने ३०७

 -मे आश्वासन, ३०७

 कामना, महत्वाकांक्षा आदिकी

   भूमिका मानद-विकासमें, ३०८

 'शोक और दुर्बलताको गुण कहा,

    ३०१

 जिसने कभी नहीं झेला.., ३१५

 आनंदका ही रूप, ३५०

 -की चार अवस्थाएं, ३५०-५१

 -का तिरोभाव भगवान्से मिलनेके बाद,

   ३५१

 शोक या दुर्भाग्यके कारण जब मैं

   कष्ट पाता हू तो कहता हू. .,

    ३६५

 यदि मैंने न भोगा होता..,

   ३६९

 'शोक-तापसे हृदयको कठोर बना

  लिया.., ३६९

 पहुंचाना अपने-आपको.. इस

   विकृतिके पीछे ज्ञानका प्रच्छन्न

 रूप, ३६ १अ

 -की खोज मत कर.., ३७०

 साथीपर न फेंक, ३७१

 पहुंचानेका अधिकार, ३७१

 -के आकार और.. आशंकाकी

   परवा करना जब जीव छोडू

   देता है.. '', ३७३

 -के लिये आकर्षण न रहनेपर प्रभु

   हमें आनंद.., ३७७

 'पीड़ा है गुप्त और प्रचंड आनंदो-

   ल्लास, ३८०

     (दे 'आत्मा' व 'सुरव' भी)

दुर्घटना,

 -का नियम, १३५

 -की विफलताका कारण नियति-

 वाद या सत्यचेतनाका हस्त-

 क्षेप, १ ९६-९७, १९९

दुर्बलता, २१०, ३७५

 सुखके आगे, ५९

 हैं, घृणा, क्रोध आदिकी क्रियाएं,

   ७८, ८२

 ही अशुमका कारण, ३२६

 है... शक्तिमत्ता, ३८०

   (दे 'भगवान्' दुर्बल, व

   'रोना-धोना' भी)

दुर्भाग्य,

 -पर रोना-पीटना, ४९, २७२

 क्या है, ४९,५९

 क्यों आता है, ४९

दूसरे

 - ओंका तरीका पकड़ना ठीक नहीं,

    १६

  - ओंके अनुभव भी सत्य, २४

  - ओंपर अपना अनुभव लादना, २४

  - ओमें हमें क्या चीज खटकती है,

     २४-५

  - ओमें खटकनेवाली चीजके प्रति

     सच्चा मनोभाव, २४-६

  एक आइना हैं, २५,२६

  जो कुछ करते हैं उससे तुम्हारा

      कोई सरोकार नहीं, २६

  - ओंकी बुरी वस्तुको न देखना, बुरी

  बातकी चर्चा न करना, ७२ -

  ओंके पापोंके प्रति सामान्य वृत्ति, ११०

  -ओंके प्रति तब उदार होंगे, १२४

 

४०५


-ओंके कार्योमें हस्तक्षेप, २४७-४८

 - ओंको सलाह देना, २४७-४८

 - ओंके साथ हमारे संबंध, २५५

वृष्टि,

 भविष्य-दर्शनकी, १३०-३४

   (दे० 'विज्ञान' भी)

दृष्टिकोण,

 अगणित है, ३७

 संकुचित, घटनाके प्रति, ४९,५०

    ५२, ८० (दे० 'संकीर्णता' भी)

 अतिमानसिक, १११

   (दे० 'समग्र दृष्टि' मी)

दृष्टि मम,

 -का क्या अर्थ है, ३९-४२

 और अंतर्दर्शन, ४१-२

देवता

 -ओंका - वरुण, इन्द्र आदिका

 --आवाहन, ८६

 -ओंमें अंतरात्मा नहीं होती, २१ २-

   १४

 -ओंका अवतार लेना, २१३

 ही दिव्य नहीं, दैत्य भी.., २९२

 पूरी तरह दिव्य नहीं, यदि उसमें

     असुर.. नहीं, २९२

 -ओंको सहना सीखना होगा, ३०१

देवत्व

 -की विरोधी तीन हठीली चीज़ें :

 स्वार्थपरायणता, नीचता, घृणा,

   २२४

देश,

 मातृरूप भगवान् है; उसके बारे-

    मे बुरी बात कहना.., २९५

दैत्य,

  -के, अमरत्वकी ओर ले जानेवाले,

 चार पग, ३७६

दोष,

 दूसरोंमें खटकनेवाले, २४-६

 (किसी), की निंदा करनेवाले,

   ३१०

  -के लिये किसीसे घृणा. ., ३११

     (दे० 'भूल' भी)

 

         ध

 

धन, ३२६,३२८

धर्म,

 -की सुविधा : भगवानको पीटना,

    ९६

 -की लोगोंको आवश्यकता, ९८

 और योग, ९८

 -की संकीर्णताको निकाल फेंक,

    १९४

 -के कर्मकांड, २५१

 -की सहायता, २५९अ

 अहंभावसे मुक्तिमें सहायक, २८१

 या नास्तिकतामें कौन श्रेष्ठ, २ ९६अ

   (दे० 'संप्रदाय' भी)

धर्म ग्रन्थ, ३० 'शास्त्र'

धर्मात्मा,

 बननेका स्वांग, १२७

 ध्रमाभिमानी,

 और पुण्य, ६८-९, ३५९

धैर्य, १३१

 रखनेकी आवश्यकता, २१०

 आदर्शकी पूर्तिमें, ३१६

ध्यान,

 और पूजा-पाठ पुराने. समयका

 क्या अब जैसा ही था?, ६४

 

 ४०६


 

नरक,

 -मे भगवान् यदि रखें, ६५-६

 (शाश्वत), की बात, ३६३

 (जघन्य), ३७४

 स्वर्गका सबसे छोटा रास्ता, ३७७

नमनीयता, ३२, ११३, ११४

 -का अर्थ, ११७

नारद, २०३, ३७४

 आत्माको न देख पाये, यह कैसे?,

   २१ २- १३

नास्तिक ?अनीश्वरवादी, ५७,२५९,

    ३८२

 और ईश्वरवादी, ५७-८

 'नास्तिकताका प्रयोग, २९६

 -सें धृणा, ३५७

 -को ईश्वर-अस्तित्वकी युक्ति,

   ३६२

निंदा,

 करना दूसरे धर्मों और संप्रदायोंकी

  असहिष्णुताकी, २३

 मायावादी व अज्ञेयवादीकी, ३६२

 असफलता और अपूर्णताकी, ३६६

 मत कर, सहायता कर,३६६

    (दे० 'प्रशंसा' भी)

नियति

 -से आक्रांत अनुभव करना,  २१-२

नियतिवाद,

  समस्त अनुभूति नहीं, १९७-९८

  (उच्चतर), २५२

नियम, ३३१

  -का पालन, कठोरतापूर्वक, २६५

  (आलोकित), को पानेसे पहले

सामाजिककी अपेक्षा उच्चतर

  नियमका पालन अच्छा, २६६

 (आलोकित), क्या है?, २६७

 उच्चतर, का पालन कैसे?, २६८

 -कानून जगत्की रक्षा नहीं कर

   सकता, २७०, ३२६

    (दे० 'सरकार' भी)

 किन लोगोंके लिये, ३३२

   (दे 'कार्य-कारण' भी)

निराशा ! हताश होना, २९,४९

 किस बातका चिह्न और किनमें

  उत्पन्न होती है, ५६

 और दुर्बलताके वश होनेपर यह

   सोच.., ३०१

 'निराश न होनेका पाठ, ३ २४अ

     (दे० 'जगत्'-से निराश, 'भय',

  'विरोधी शक्ति' व 'विश्वास'

  भी)

निरीक्षण ( जांच,

 (अपनी), बिना दयाके, १२४

 यथार्थ, १७१

निर्णय

 देना, जिन चीजोंके बारेमें तुम जरा

  भी नहीं जानते, ३०, ३ ५अ

 और मत मनुष्यके, ३१०

  (दे 'चुनाव', 'मूल्यांकन' भी)

निर्वाण, १०१, १९८,२०४

निश्चयता,

 -का सुरव, २३२

 अनुभूतिसे ही, २७४

 अंतिम चरितार्थतामें, ३०७

 (दे० 'आश्वासन' भी)

निश्चल-नीरवता ( नीरवता,

  अंतः प्रेरणा पानेके लिये, ८, १५०

 

  ४०७


पढेको समझनेके लिये, १

 ज्ञान पानेके लिये, १२

 सत्यदृष्टिके लिये, २२

 और अनुभव, ११ १अ, १९३

 -की शक्ति, २२२;

    इसे नीचे उतारनेमें कठिनाई,

    २२३

 आदेश जान सकनेके लिये, ३०३

 -भैंसे वाणी और कर्म, ३०६

   (दे० 'अचंचलता' भी)

निष्ठुरता,

 -का अपना स्थान?, १०७-८

नीचता

 ही एकमात्र अधर्म, २२४

 क्षम्य पाप, २९४

 -का अर्थ, २९५

नीत्शे,

 -का अतिमानव, २५६

नेपोलियन, १४८

 सशस्त्र भगवान्, ५२

नैतिकता,

 'नैतिक और बुद्धिवादी व्यक्तिका

  ज्ञान, १८

 और मानव एकता, रे ऐ ३

 -का मजाक, ३४८

 -से मुक्त करनेका प्रयास, ३७५

 नैतिक धारणा ( नैतिक दृष्टिकोण),

 १११, ११२, १२४, १८६,२२६,

   २५२

 भगवानके बारेमें, १०२-३, १०५

  (दे० 'पाप-पुण्य', 'शुभ-अशुभ' भी)

नैतिक विचार,

 -ओंकाप्रयोग व्यक्तिगत गतिविधियों-

  को छिपानेके लिये, ८३

          प

 

पक्ष

 सत्यके असंरूप,३७ 

 भगवानके, अनगिनत, १०६

 किसका, संसारके संघर्षोंमें, ३२७

पतन, ३० 'पार्थिव स्वर्ग'

पथ ? योगपथ, रास्ता,

 संकीर्ण है, १३

 ग्रहण करनेमें तीन बाधाएं, १ ३-४,

   १६

 अपना ही अपनाना चाहिये, १६

 कम लंबा कैसे, २९

 -पर आगे बढ़नेका उपाय, ३८,

    १४८, १४९

 कोई भी पकड़ो. ., ८५

 अमृतका स्वाद बदल देता है, ८५

 अनगिनत, १०६

 प्रत्येक, से तुम 'उनके एक पक्षको

   छू सकते हो, १०६

 समग्र ज्ञानकी खोजका, १४३

   (दे० 'समग्रदृष्टि' भी)

 -की बहुविधता और 'रहस्य', १४३

 त्यागका और भागवत प्रेरणाके

  अनुसार कार्य करनेका, २०४-

 दूसरा बहुत कठिन, २०५

 (भयंकर), की आवश्यकतामें शंका-

  का अर्थ, ३७७

 (दे० 'चीज' '' (विरोधी) भी)

पद-परंपरा, ३० 'समझना'

परिणाम,

 वर्तमान स्पंदनका तात्कालिक फल

 नहीं, १८५

 

४०८


परिवर्तन,

 -की शक्ति, सच्चे ज्ञानमें ही, २०-२

 बाह्य क्रियाओंमें, तादात्म्यसे, ४४

    (दे० 'चेतना' भी)

परिवार, २९५

परिस्थिति,

 -संबंधी अज्ञान, ४९,५९

 -द प्रति सच्ची वृत्ति, ५९,६६

  -योंके व्यवस्था.., ३३७

परोपकार-वृत्ति! परोपकार-भावना,

 और भगवत्प्राप्ति, ८४

 'भलाई, बिना शक्तिके अपूर्ण, २९२

 स्वार्थपरताका ही रूप, २९३

 -से दूसरोंकी आत्माका हनन कैसे?,

  २९३

 'परोपकार, कर्तव्य.. बंदीगृह बन

   जाते हैं, २९५

 अच्छी है, पर.., ३२८

पवित्रता, १२७

 (बच्चेंकी सहज), ५५;

 इसे ढकनेवाली चीजों, ५५;

 'अगली पूर्णता, ५६

 भागवत, १०६

 वैराग्यमूलक, ११ रे

 आत्मामें है, किंतु कार्योमें.., ३०७

 -का अर्थ, ३०८

पवित्रीकरण,

 -की शक्ति, ७३अ

     (दे 'शुद्धि' भी)

पशु,

 हमें नहीं समझते, १११

 और दुःखपूर्ण घटनाएं, १५४

 पालतू, १५४

पश्चात्ताप, १६४

ही काफी नहीं है, ४७

पश्चिम,

 -का जीवन, २०६

 -का सिद्धांत, जीवन-यापनका,

  २५१

 'पश्चिमी धर्मोंके भगवान्, ३५०

    (दे 'यूरोप' भी)

पश्चिमी मन ( यूरोपवासी,

  -का मूर्तिके प्रति भाव, ९७

  -के लिये समझना कठिन कि सब

    कुछ भगवान् हैं, १०३

पाखंड, ८३, १२७,३१०

पागल

  अंतःप्रेरणाके दबावसे, २११

  हू, वे कहते हैं.., ३५६

    (दे० 'मूर्ख' भी)

पाठ,

 -सें लाभ उठनेका तरीका, ९

 मानवजातिके लिये, ३१०

    (दे० 'शिक्षा' भी)

पाप,

 

  कोई भी ऐसा नहीं जो हमारे

    अंदर न हो'' : व्याख्या, ७६

 क्या है, ७७, १०७-८

 -का कोई अस्तित्व नही, १०७-८

 -का विचार, १०८, १६५

   ' 'आदि पाप' का विचार, १०८

 मनुष्यमें कोई नहीं.. रोग..

   ११०

 -भावना क्यों आवश्यक थी, ११०

 (अपने), के प्रति और दूसरेके

 पापके प्रति मनुष्यका वृत्ति,

   ११०

   (अक्षय्य), २९४

 

४०९


और शोकका आघात, ३०७

 -मै जब मैं जा गिरता..,

    ३५९

 -मे प्रभु हमें क्यों गिराते हैं, ३५९

    (दे० 'अशुभ' भी)

पाप-पुण्य,

 नहीं, भगवानकी इच्छा, ५४,

   ३२ ६अ

 -सें घेरे चले गये व्यक्तिके प्रति

   मनुष्यकी प्रतिक्रिया, ६०

 -की भावना पूर्णतामें बाधक,

    ११०

 -का विधान कब आवश्यक, २६७

   -का प्रयोजन, २७६

 (दे 'पुण्य', 'शुभ और अशुभ' भी)

पापी,

 -सें घृणा, ७६, २५२

  'मे भगवानको देख, ३६६

पार्थिव स्वर्ग,

 -का अस्तित्व था, ९०-२;

 तबक़ा जीवन, ९०-२

 -से पतन, ९३, ९४-५, १५६,

   ३७७;

   यह अनिवार्य नहीं था, ९३

 -को दुबारा कैसे पा सकते हैं, ९५

पीड़ा, ३० 'दुःख-कष्ट'

पुण्य,

 -का सबसे बड़ा शत्रु, ६८-९

 और नैतिकता है यह, ७२

 -भावना पापोंकी पोषक, ११०

 -भावना और पूर्णता, १६३

 -का अभिमान, ३५९

 -के वस्त्रको जब खींचा. ., ३६५

 -के चोगेको त्याग दें, ताकि 'सत्य'

 के लिये तैयार हो सकें, ३६६

पुण्यात्मा

 -सें घृणा न करना कठिन,

   ७९-८०

पुनर्जन्म

 -मे साथ जानेवाले अनुभव, ९८

   (दे० 'चैत्यपुरुष' भी)

पुस्तक

 (शिक्षाप्रद), के पढ्नेके लाभ

  तभी.., १

 (अरोचक), को प्रसन्नतासे पढ़ना

   कैसे संभव है?, ७०

पूजा,

 -का अर्थ, ६४

 देवोंको नही, परम प्रभुकी, २५३

 कर उस दिव्य प्रज्ञाकी. ., ३६२

   (दे 'ध्यान' भी)

पूर्णता, २६, ५२

 से लोगोंका अभिप्राय, १०५

 (दिव्य), क्या है, १०५-७

 भगवत्प्राप्तिका एक' मार्ग, १०६

 -का अर्थ, १६३

 समस्वरतामें ही, २७५

 -की प्राप्तिकी शर्त, ३२१

 (बाह्य परिवेशकी), सरकार-

   द्वारा या अंतरात्मा. ., ३२६

पूर्वजन्म,

 - ओंकी स्मृति, १८

पूर्वबोध, १३५-३६

पृथ्वी,

 सूक्ष्म जगतोंका घन रूप, ६१

 -की वापसीको सुनिश्चित बनाने-

 वाली चीज, १ २५-२७, २५०

 (दे० 'जगत्'-के रूपांतर भी)

 

 ४१०


'पार्थिव चेतनकिा मुक्तिका मूल्य,

   १२५

 -का एक आरंभ है, वहां विकास-

   का अर्थ संगत है, १६१

 -के लिये कुछ कर सकनेके लिये

   आवश्यक चीज, २२ मे

 -को लुप्त नहीं होना चाहिये,

   २२१

      (दे० 'प्रेम', 'भागवत प्रेम'

      और 'सूर्य' भी)

पेगेनिज्म, ३३६

प्रकृति,

 -के पहरेदार : भय, अविश्वास,

  और संदेह, १३

 -का तरीका, १४-५

 -के सामने अनंतकाल पड़ा है, १५

 -का उत्तर जल्दबाजी करनेवालो-

   को, १५

  -के रहस्योंको भौतिक चेतनामें

   रहते जाननेका प्रयास, ३०

  -के नियम आवश्यक कब, २५०अ

  -के अनुरूप जीवन-यापन, २५१

  शरीरकी या भगवानकी, २५१

  -का अनुकरण और कला, २५७

  -का ''शाश्वत प्रतीक'', २५८

  क्या है, २८२

  माता कैसे आगे बढ्ती है, ३२३

  -की प्रशंसा व पूजासे क्या, आत्मा-

    द्वारा उपभोग कर, ३५२

  भाव और कर्म -- सब प्रेमपात्र

    बन जाते है, ३५२

  (दे० 'विधान' भी)

प्रगति

 -मे सहायक एक चीज, ३०

ऊपरसे आनेवाले सत्योंका परि-

    णाम, १५०

 -के साथ विघटनकी शक्ति भी

  बढ्ती है, १८०

   ( दे० 'दुःख-कष्ट' प्रगति और

 'पथ'-पर आगे भीं)

प्रज्ञा,

 मानसिक नहीं, आत्मिक शक्ति

   है, ३

 है 'सत्य' की दृष्टि, ५

 और तर्क-बुद्धि, १७, ११

 -की प्राप्ति, १९, २०;

   और बड़प्पनकी भावना, ११

 बाह्य रूपोंके पीछे सद्वस्तुको

   देखती है, १९, २०

 क्या है, ५०

 -का पहला पाठ, १४०

 अपने कार्योंको मौनताके..,

   २२२

  (दे० 'ज्ञान' व 'अंतः प्रेरणा' भी)

प्रणाली,

 भारतकी और यूरोपकी, २२१

 कालीकी और प्रेमकी, २२१

प्रतिक्रिया,

 शक्तिको बढ़ाती है, ३२४

प्रतिभा,

 और बुद्धि, १४८

 क्या है, २१०

प्रतिभाशाली, २९०

प्रतिहिंसा, २८८अ

प्रलोभन,

 जब भगवान् देते हैं.., २९७

   (दे० 'स्त्री' भी)

प्रतिरोध,

 

 ४११


 जडूपदार्थके तमसका, २४३

 -को समाप्त करना ही महत्त्वपूर्ण

   कार्य, २४५

    (दे० 'विरोध' भी)

प्रभुत्व ( अधिकृत करनेकी चेष्टा),

  तुच्छ सफलताओं और साधारण

  वस्तुओंको, जबकि असीम

    'शक्ति'.., ३२१

 (दे०'जगत्'-का अधिपति भी)

प्रमाण (भौतिक),

 मांगनेकी आदत, सत्यकी स्वी-

   कृतिके लिये, ३०

 (दे० 'आत्मा'-की शक्तिकी भी)

प्रयास ( प्रयत्न,

 सतत और अथक, ३८, १३९,

   ३८०

 'बस, हम उसके लिये कष्ट नही

   उठाते, १५६

 पूर्वनिश्चित घटनाओंका एक

  अंग, २५२

 -मे लगे रहो, परिणाम आता न

   देखनेपर भी, ३०४

 और घटनाओंकी चरितार्थता,

   ३१८

 (दे० 'अभीप्सा' व 'संकल्प' भी)

प्रशंसा,

 बटोरनेके लिये भगवानने तुझे

   नहीं अपनाया, २९८

 -निंदासे ऊपर उठनेका उपाय,

   २९९

   (दे० 'भगवत्प्रेमी भी)

प्रश्न,

 करना कब उचित, १

 मनुष्य क्यों करता है?, ८९

प्रसन्नता, ३० 'पुस्तक'

प्राण,

 -की क्रियाओंका त्याग, ११२

प्रार्थना,

 क्यों?, १७२

प्रेम,

 -की शक्ति, ७३-४;

   इसे फैला सकना संभव, ७४

 -का अवरोहण पृथ्वीपर ही, २१३

 -के प्रयोगसे बचनेका कारण, २२१

 -की विकृति, २२५

 -की सच्ची क्रिया, २२६

 और शक्ति मिलकर ही जगत्की

  रक्षा कर सकते हैं, २६९

 अनिवार्य गुण, २९४

 -का अर्थ, २९५

 -को सदा प्रक्षिप्त करते रहना

 .., ३१०, ३६६

 (पूर्ण), भयको भगा देता है,

  किंतु.., ३४९

 करनेका सबसे अच्छा तरीका,

   ३५ १अ

 यदि तुम क्षुद्रतम कीड़े और अप-

  राधिके नहीं.., ३५६

 और ईर्ष्या, ३५७

 -क् सब रूप, भगवानके प्रति प्रेम

   हैं, ३६६

 पड़ोसीसे., ३६७

 (गभीर, निःस्वार्थ), कब संभव,

   ३६७

 (मानव), की असफलताका

 कारण, ३८०

 (मानव), और भागवत प्रेम,

   ३८०

.

 ४१२


 (मानव), क्या भागवत प्रेममें

   बदला जा सकता है?, ३८०

 बस, एक ही है-, ३८०

   (दे० 'भागवत प्रेम' तथा 'क्रूरता'

    व 'घृणा' भी)

प्रेरणा

 विशुद्ध कब, ११५

 

      फिर

 

 फालस्टाफ, २५१

 फिलिप सिडनी (सर), ५०-१

 फोटोग्राफी, २५७

 फ्रेंच क्रांति,

  -का कारण, ३०६

  -का मंत्र, ३२०;

    इसका व्यावहारिक रूप, ३२०

 

       ब

 

 बंदीगृह ( कारागार,

 स्थूल और मानसिक, ६१

 अहंका, २७३

 कब, परोपकार आदि चीजों, २९५

बनना

 अधिक आवश्यक, २१२, २४१,

   २८५, ३३३

धम-प्रयोग, ९५

 थल ? सामर्थ्य ,

 सर्वशक्तिमान्, ७९

 'मानव पराक्रम और भागवत

   सामर्थ्य, ३८०

बहाना

 अपनी अशक्यताका, ३८

अनुकूल मानसिक, ८३

  (दे० 'आत्म-प्रवंचना' भी)

बाइबिल, १११

 -के सृष्टचुत्पत्ति-प्रकरणकी कहानी,

    ११

 -की 'स्वर्ग और सर्प ' की कहानी, ९४

बाराब्बास, ३२०

बाह्य प्रतीति,

 -यों (घृणित, भयानक), ण पीछे

  श्रीकृष्ण तुम्हारे क्रोध, घृणा

  व आतंकपर हंस रहे हैं, ३१२

  -यां भ्रमोत्पादक हैं, ३१२

 -यां किन्हें धोखा नही दे पाती,

   ३१२

बाह्य कप,

 मिथ्या हैं' ऐसा कहना और

   सचमुच समझना, २०-२

 और पीछेका सत्य, ४६, ४८

बिल्ली, १ दूं ९

बुद्ध,

 -की शिक्षा, ७२,२१२

बुद्धि, १५७

 -का देखनेका तरीका, २०,४५-६,

   १२८, १२९, १५२

   (दे 'मन' भी)

 व्यावहारिक, ४२-३

 प्रकृतिका अंतिम तत्व नहीं, २६-५

   (दे० 'तर्कबुद्धि' भी)

बुद्धिमत्ता, २४६अ, २९१,३१७,३२७,

   ३५३

बुद्धिमान, २१

बोलना

 आवेग या अंतःप्रेरणाके अधीन,

  ९- १०

४१३


'समय आता है, जब तुम कुछ भी

   नहीं कह सकते, १०१

 अचचलतामेंसे, ११५

 बंद करना और वाक्यसंयम, २०४

 'बतानेसे आधा कर्म नष्ट, २१२

 'सत्यकी वाणीमें अभिव्यक्तिकी

   शक्ति, २४४

 'असाम्य शब्द-व्यवहार, २७४अ

 कम और सोचकर, २७५

 (दे 'दूसरे' और 'निर्णय' भी)

बौद्ध-धर्म, ७२, २७५, ३५३

ब्रह्मणस्पति, ८६

 

      भ 

 

भक्त,

 नहीं हू, क्योंकि.., ३४७

 नहीं हू, ज्ञानी नहीं हू, तो मैं क्या

भक्ति

 मुक्तिके द्वारकी कुंजी, ३४५

 -मे परिपूर्णता कब, ३४७

भक्तिमार्ग,

 -का उदय, ६३

भग (देवता), ०,६

भगवत्कृपा, २२, २९, २१०, २२०

 विद्यमान है, वह चाहती है.,

  १६

 प्रत्येक घटनाके पीछे, ५१

 -पर जगत्का भविष्य निर्भर, ५४

 -का हस्तक्षेप, २००, २४३अ -

 को ले आनेवाली चीजों, २४४

 सब कुछके द्वारा लक्ष्यकी ओर ले

 जायगी, ३३३

-मे विश्वासका फल, ३३७;

   रंगमें, ३४०

    (दे० 'मुल' भी)

भगवत्प्रेमी,

 -के लिये संसारकी प्रशंसा और

   निंदा, २९८, ३०५, ३५४-५५

 'भगवान्के सिपाही! तेरे लिये

   यह दुःख, कष्ट ओर लज्जा

   क्यों?, ३०७

 और भगवद्-ज्ञानीका संसार-

 कृतिको देखनेका तरीका, ३७२

 (दे० 'सत्यके पथिक' भी)

भगवान्

 ही भगवानको जान सकते हैं, २१

 अविश्वासीके सामने प्रकट. ., ३७

 हास्यप्रिय हैं, ३७

 -के कार्यकी तुलना कलाकारकी

  कृतिसे, ४०

 -को क्या होना चाहिये, कैसे कहूं,

   ४३

 -को क्या भौतिक मनसे जानना

   संभव है?, ४३-४

 -के साथ तादात्म्यका प्रभाव

   बाह्य भागोंपर भी, ४३अ

  प्रत्येक वस्तुमें, ४६

 'सब कुछ वे स्वयं ही हैं, उनके

 सिवा कोई और चीज है ही

 नहीं, ४७, १ त ०, १०३, १०४,

 २१४ ३८३

 -ने एक मानवीय हाथसे मेरे ऊपर

   आघात किया'', ४८

 निर्दयी उत्पीड़क है'' अर्श, ५१-२

 दयालु प्रेम हैं, 6६२

 

४१४


की इच्छा ही यदि सब कुछ है

   तो व्यक्तिकी इच्छाकी क्या

 उपयोगिता?, ५४

अपने ही साथ आँखमिचौली

  खेलते हैं'' अर्थ, ५७-८

 -से पूर्णताके अभीप्सुकी और

   सामान्य मनुष्यकी मांग, ५८

 मानव अज्ञान और दुःखके आव-

  रणको धारण करना क्यों

  स्वीकार करते हैं?, ६२

 यदि नरक दें, ६५

 जानते हैं मेरे लिये सर्वोत्तम क्या

    है, ६५

 ऊपर उठाते हुए भी हमें नीचे

  रखनेकी चेष्टा क्यों करते हैं?,

  ६६-७

 -के तरीके अनगिनत, ६६-७

 वही करते हैं जो उस व्यक्तिके

   लिये आवश्यक होता है, ६७

 -को समझना, ७१, ३६१, ३७७

 -के व्यक्ति-रूपमें अवतरणका

   रहस्य, ७५

 -से प्रेम, पर मनुष्योंसे नहीं, ८ ३-४,

    ३५७

 -के सत्य मिलन अमरताकी चेतना

   प्रदान करता है, ८५

 -को पीटना, धर्मोंमें, १६

 'असीमका अनुभव कैसे पाय, ९९

   (दे० 'अनंतता' भी)

 'असीमसे बाहर भला कैसे कोई

   निकल सकता है, १००

 -के दो पक्ष : नास्तिक, अस्ति, १०१

 ऐसे प्रश्नोंका उत्तर नहीं देते,

   १०१

 महान् है (अल्लाहो अकबर), १०२

 दुर्बल, असफल, मूर्ख.. कैसे हो

   सकते हैं?, १०२-४

 संबंधी हमारा विचार. १०३

   १०१

 -की लीला' का अर्थ, १०४-५

 वस्तुओंके पीछे तो विद्यमान हैं,

   पर क्या पूर्णतया खेलके अंदर

   नही?, १०४

 -के पास पहुंचनेके रास्ते, १०६

 ठीक वही है जो ३ होना चाहते हैं,

  १०६

 आगे-आगे बढ़ते रहते हैं, १४८

 अनंत संभावना हैं, १५२;

   यह हमारे मस्तिष्कमें नहीं

   घुसता, १५५

 कभी हंसते नहीं, १५२

 -के लिये हां और ना एक साथ

   होते हैं, १५३

 एक प्रहसन खेल रहे हैं, इस

   नाटकके दर्शक और पात्र,

   १५४, १५५-५६

 -को सब कुछ करने दो, १ ५७-

   ५१; इसमें कठिनाई, १५९

 सर्वत्र हैं, १६०, १६१, १६५

 दूर कब होते हैं, १६०-६१

 -का हास्य शिष्ट कानोंके लिये ..,

   १६२

 किसी चीजको गंभीरतापूर्वक

   नहीं लेते, १६२, १६५

 -के साथ हंसना-खेलना, १६३-

   ६५, ३७२

 अपनेको क्रमश: मूर्तिमान करते

   हैं, १६१

 

४१५


सभी संभव खेल खेलते है, १७०

तू प्रकट हो'' की अभीप्सा, १७२

वह सब हैं जो हम बनना चाहते

  हैं, १७९

-के साथ मिलन, कामनाके पूर्ण

  त्याग या कामनाकी पूर्ण

  संतुष्टिसे, १८४

-की दृष्टिमें समीप या दूर, वर्त-

  मान, भूत, भविष्य नहीं,

  १९४

 -को बहुत-से प्रयोग करनेमें मजा

   आता है, १९९

 यदि केवल निर्वाण ही चाहते. .,

    २०४

 -की प्रेरणा ! आदेश के अनुसार

   कार्य करना, २०५, ३३२-३३

 -का न आदि है, न अंत, २२७ '

 'सर्व'के साथ चेतनाके संबंध,

   २३०

 'ब्रह्म ही नही, जीव और वस्तुए

  भी नित्य हैं, २३२ टि०, २४०

-ने आखोंपरसे पर्दा हटा लिया

  है, इसका लक्षण, २४०

 -के कार्यका अधिकांश निषेधके

   द्वारा संपन्न.., २६०

 -को संपूर्णत: जानना, २६३

 -को देखना गंध हीन पुष्यमें, २६३

 (अंतरस्थ), सदा ठीक पथसे लें

   चलते हैं, २६८, २८७

 -का विरोध कि उनकी खोज?,

   २७०

 -को जाननेके लिये मानवीय

  मानदण्डोंका त्याग या..,

    २७०अ

बुरे है' मे तर्क, २७१

 (सबमें स्थित), के लिये जीवन

 धारण करो, २७ रे

मौकेपर मूर्ख.. मनुष्य.., २७४

समन्वयकी ओर.., २७५

-की सचेतन उपस्थिति ही उग्र-

   ताओंको वशमें कर सकती

   है, २११

-के आदेशपर वध.., २९३-९४

-को ही चुनना चाहे संसार विरुद्ध

   हो जाय, २९९

-को लक्ष्यकी ओर जानेके लिये

  चक्कर क्यों काटने पड़ते हैं?,

  ३००

ही जानते है बुद्धिमत्तापूर्वक गलती

  करना और असफल होना, ३१५

-की नजरोंमें कोई चीज तुच्छ

   नहीं, ३२१

-को ही अपने लिये चुनने दो

   राजपद या भिखारीपद, ३२६

  -के पक्षमें सदा रहो,  २७

मुझसे क्या चाहते हैं, कैसे जानें?,

   ३२७

-के साथ शत्रुता, ३३३, ३४९

 -ने मुझे खोजा.., ३४७

एक स्त्री हैं जब मैंने यह जाना..

  ३४७, ३४८

-के साथ जार कर्म, ३४८

से  करनेका अर्थ, ३४९

पश्चिमी धर्मोंद्वारा वर्णित, ३५०

-के प्रेमके स्वादके बाद अन्य प्रेम

   .., ३५ १अ

विषयक हमारे सिद्धांत, ३५३,

  ३८२

 

 ४१६


(प्रेमी), का व्यवहारका ३५४

-के अपने साथ व्यवहारको गुप्त..

  किंतु अब.. निर्लज्ज, ३५४

जिनसे प्रेम करते हैं उनमें आनंद

  मानो.., ३५७

-मे विरोधी वस्तुएं पूरक, ३५८

-की इच्छाके बिना कुछ नहीं

  होता, ३५८

-का आनंद जिसने एक बार चख

   ..., ३५९

-के संभालनेवाले स्पर्शको हम

  अनुभव ही नहीं करते, ३५१

-के विषयमें अपूर्ण धारणाएं उन्हें

  अस्वीकार करनेका हेतु!,

  ३६१

-का शिरा देनेका तरीका, ३६१

-ने जो कुछ नहीं दिया वह अपने

  प्रेम व शानके वश रोक..,

  ३६१

'असीम प्रज्ञाके अस्तित्वमें युक्ति,

  ३६२

-की उपस्थिति हमें आश्चर्य व

 प्रशंसाके लिये बाधित करती

 है, ३६२

-क् साथ प्रेम-संबंध सात प्रकार-

 का, ३६३

सामियोंके, ३६४

-का कृष्ण रूप, ३६४

(जो), हंस नहीं सकता वह इस

 हास्यजनक विश्वका निमर्ता

  ..., ३६४

-ने एक बच्चेको गोदामें ले लिया,

 मां रोने लगी.., ३६५

-के प्रति प्रेम, मनुष्योंके प्रति

 उदारता.. पूर्ण प्रशा, ३६६

-को क्या तू निराकार अनतके

 रूपमें देख सकता, फिर भी

 प्रेमिकाके रूपमें प्यार..,

 ३६८

जब निर्दयीके रूपमें.., ३६१

जानते है कब लप्पड़ लगाना, वक

 पुचकारना, ३७०

शत्रुका चेहरा पहनकर अपने-

 को तबतक छिपाये.., ३७०

-की सेवा, ३७२

-सें परित्यक्त होकर संसारका

 मालिक बनना.., ३७४

-का सेवक होना; और दास

 होना, ३७४

-की सेवा और मनुष्यजातिकी

 सेवा, ३७४-७५

-के साथ कुश्ती लड़ना, ३७५

अपने सेवकसे संतुष्ट, दो कार्योंसे,

 ३७५

के नजदीक जानेके लिये आव-

 शक्य चीज, ३७६

-का आक्रोश.., ३७७

ही स्वामी होने चाहिये, ३७८

 (अंतस्थ), की आज्ञाका पालन,

 ३७९

-की वाणी न सुनना सांसारिक

 दृष्टिसे मानसिक स्वस्थता, ३७९

-को देख, उनके छअवेशोंके पीछे

 भी, ३७९अ

-संबंधी अस्वीकृतिया भी उपयोगी,

३८२

-को देख सकना अत्याचारीमें अत्य-

 चारके समय.., ३८३

 

 ४१७


( दे० 'श्रीकृष्ण' मे तथा 'भगवत्. .'

   व 'भागवत. .'के अंतर्गत भी)

भय, ३४३

 'ज्योति' की ओर बढ़नेमें, १३

 भूल करनेका, २०४

 अपने-आपको खो देनेका, २०६

 और चिंताके बारेमें, ३३५

 जिस वस्तुसे, उसके आनेमें तुम

   सहायता., ३३५

 अवसाद आदिके हमपर आक्रमण

   किस बातका प्रमाण, ३३ ५अ

 भगवान्से, ३४९, ३७५

भविष्यवाणी, १३०

 -मे' भूलों और विकृतियोंका कारण,

    १३१, १३४

 और वैश्व मानसिक दृष्टि, १३३

 पृथ्वीपर सुदूर स्थित वस्तुओंके

  बारेमें, १३३

 'भविष्यवक्तासे अपेक्षित वस्तु :

   पूर्ण सच्चाई, १३४

 करनेसे रोकनेवाला चीज, २४४

'भागवत' ( पुस्तक), ६१

 -के लेखक, ६१

भागवत उपस्थिति,

 सब वस्तुओंमें और सत्ताओंमें, ४८

 -का बोध सर्वत्र पानेके लिये

   आवश्यक चीज, १६०-६१

 -की व्याख्या नहीं की जा सकती,

  १६१

 ( दे० 'जडूतत्व' भी)

भागवत प्रेम ( दिव्य प्रेम, सर्वच्च

 प्रेम, प्रेम तत्व, पूर्ण प्रेम ओ,

 द्रुततम मार्गसे हमें ले जाता है, ५२

 के पृथ्वीपर अवतरणका परिणाम,

 ७५;

 इस अवतरणकी शर्त्त, ७५, २०१

-क् पृथ्वीपर अवतरणका प्रयोजन,

 १२६

-की अभिव्यक्तिका समय आ गया

 है, १२६;

 इसका अर्थ, १२६-२७

 और भौतिक चेतना, १७३-७४

 और अक्षर आनन्द, १८,३

 -की द्विविध क्रीड़ा, ३६८

 (दे० 'प्रेम' भी)

भागवत मुहूर्त्त,

 -का लाभ न उठानेका फल, २०१

भागवत शक्ति! सर्वोच्च शक्ति,

 और स्वतंत्रताके साथ पूर्ण शांति

   और अचंचलता भी, ७९

पूर्ण सामंजस्यकी शक्ति है, नीचे

 आकर जब वह जडूपदार्थपर

 दबाव डालती है.., २४३

हीं सब कुछ करती है, २४४

  (दे० 'अव्यवस्था' भी)

भागवत संकल्प ( सर्वोच्च इच्छा,

  सर्वोच्च संकल्प,

 -की अभिव्यक्ति, व्यक्ति-रूपी

 साधनके द्वारा... इसमें विकृ-

 तिका कारण, १८४

 -के स्पंदन और इच्छाके स्पंदनके

 बीचके अंतरकी कुंजी, १ ८५-

 ८६; यह समस्त नैतिक तत्व-

 को दूर कर देती है, १८६

-मैं इच्छाके मिश्रणपग फल,

  १८८-९०

जब व्यक्तिको चुनता है, २३२

_ -की क्रियाका स्वरूप, २४२;

 

 ४१८


राष्ट्रों व पार्थिव परिस्थितिके

   लिये भी', २४२

 -से सचेतन होनेकी शर्त, २९९

   (दे० 'विश्व' -की भी)

भाग्य, २९९

 प्रत्येकका एक ही, १३

 और अपना कार्य, २५१-५२

 -पर बाकी सब छोडू दो।, ३०३

भारत, २२१

 -का प्राचीन सामाजिक आदर्श,

 पुरोहित, राजा, वैश्य और शूद्र-

 के लिये, २७७

 (प्राचीन), की महानता और आधु-

   निककी, अवनतिका रहस्य, २८०

 -मे सामाजिक जीवनके तीन गड

   थे.., ३२०

 -की आत्माको किन चीजोंसे मुक्त

   होना होगा और क्या करना

   होगा, ३३१

 -का आनंद सेवक'प्रैमीमे, ३४९

भावना ( भावोद्वेग),

 -ओंकी चिल्लाहट और आत्माका

   उत्तर, ३५६

भाषा,

 और शब्द हमारे, ७१, १३, १०५

 १९५,  १९६, १९८, २०१,

 २२७, २२८, २३१, २३४

 (दे० 'अनुभव' भी)

भीतर ( अंतरमें ),

 पैठ जाओ, २२

 निवास करो, २७६;

   इसका फल, २७७

   (दे० 'हृदय' भी)

भूमिका

विरोधी-शक्तियोंकी, १२५-२६

 अपनी, निभाते रहो, समय और

   सफलताकी चिंता न करो, ३०३

 दुःख-कष्ट आदिकी, ३०८

भूल,

 और निराशा, २९

 और भगवत्कृपा, २९, ३९, ७४

 करना अज्ञानतावश, ३८

 करते रहना जान लेनेपर भी, ३८

 -के लिये भगवान्से क्षमा, ४७

 -के बुरे परिणाम नष्ट कब, ४७,

    २८७

 विचारमें, १२१

 -का - जो किसी समय सत्य

   वस्तु थी -- त्याग, १७९-८१

 -के भयसे कार्य छोडू देना, २०४५

   (दे० 'भविष्यवाणी' भी)

भूतकाल, दे 'अतीत' व 'डटे रहो'

भूल जाना,

 कि 'केवल वही हैं', १०४

भोजन

 -के बिना रहनेकी प्रवृत्ति, २०४

भौतिक चेतना, ३० 'भागवत प्रेम' मे

भौतिक सत्ता,

 भारतीय आध्यात्मिक जीवनमें,

 ११२

 (दे० 'अमरता' भी)

म्राति ( भूल-भ्रांति, ४२, ८९,१७२,

  १९४

 -के पीछे चेतन संकल्प, ४३, ४५

 -का विचार ही म्गंति है'', ४४-५

 भी न्यायसंगत है'', १५२-५३,

   १५५, १५६-५७

 है ही नहीं, १५२

 

   ४१९


-के अवसरोंको दबाना, २०४

 -यां, मिथ्यात्व.. '' वे चिल्लाते

   हैं, ३५६

   (दे० 'मिथ्यात्व' भी)

भ्रातृत्व ![ बन्धुभाव], ३२०

 तभी प्रकाशमें आयगा, ३२१

 रक्तका, देशका, धर्मका.., ३६७

 

     म

 

मत,

 (निर्विवाद), सबसे भयंकर क्यों,

    ६७-८

 और सत्य, ८७

  (अपने), का व्यवहार, २४५-४७

  -से बुद्धिमत्ता अच्छी, २४६अ

  (पै० 'सिद्धांत' 'निर्णय', और

    'श्रीमाताजी' भी)

मध्यम मार्ग, २१२

मध्यवर्ती, १८९, ११०

मन,

 -द्वारा सत्य ज्ञानको पानेकी चेष्टा,

    ३-५, ३८१

  -की अक्षमता, ३-५, १२१

 -द्वारा तुम कुछ भी सिद्ध कर

 सकते हो, २७, ३६

 -को नमनीय बनानेका एक साधन,

   ३६

 आकारोंका निर्माता, ३६

  (दे 'विचार' (मानव) भी)

 -के अनेक स्तर व प्रदेश है, ४२

 -का देखनेका तरीका, ६७,१२९,

 २३२

 (दे 'बुद्धि' भी)

-को जीत लेनेका प्रमाण, ७०-१

 -की संकुचितता, ८०

   (दे० 'संकीर्णता' भी)

 -का अनुकूल व्याख्याकार अभ्यास,

   ८३

 -की जटिलताएं और विकृतियां,

   ८८अ, १०, ११, ९२; यही

 जटिलता अनंतगुनी सचेतन

 सिद्धि लायेगी, ९६, १७६

 -के आनेके साथ आनेवाले परि-

   णाम, ८९, १४

 यंत्रकी रचना किस लिये, ८९

 -की अभिव्यक्तिकी पहली अव-

   स्था, ९०

 व्यर्थ अपना सिर फोड़ता है,

  १५८

 -को कार्य करनेकी प्रेरणा पाने-

  क् लिये घर बनानेकी आव-

  श्यकता, २३१;

 यह सब कुछको मिथ्या बना

 देता है, २३१

 -ने जगतोंकी सृष्टि नहीं की,

  २६२

 जाग्रत और अवचेतन, ३३५

 -के शासनका परिणाम, ३३८,३४२

 सदा संदेह करता है, ३६०

 'इस झूठेका विश्वास?, ३६०

 (दिव्य), का प्रयास सत्यकी

   खोजमें, ३८१

  (दिव्य), क्या है 7, ३८१

 (दे० 'बुद्धि' व 'तर्क-बुद्धि' भी)

मनुष्य ( लोग),

 जो ज्योतिके प्यासे है, १५

 -की दुर्बलता सुखके आगे, ५९

 

 ४२०


अब भी दुःख-दर्द और पापसे

 आसक्त है, ६०, २७९

-सें तरंग कोई मी काम करा

  सकती है, ७५

-की ''स्वाभाविक'' अवस्था. क्या

 होगी?, ८८

एक संक्रमणकालीन सत्ता है, ८८,

  ३११

पृथ्वीका ही प्राणी नहीं ८८ टि०

-का विकास चक्राकार गतिसे,

   ८८

'मानव आकारोंका पृथ्वीपर

  प्रथम प्रस्फुटन, १२

अपने प्रति सचेतन कैसे हुआ?,

  ९४

'हम अपने भौतिक जीवनमें केवल

  एक प्रतिबिंब है, १३१

'हमारा उपयोग हो रहा है..,

  १४२

'यदि तुम पिछड़ जाना नहीं

  चाहते.., १४८, १४९

'तुम कुछ नहीं कर सकते..

  इससे सचेत हो, १५९

-मे ही आंतरात्मिक सत्ता, २१३

जब आया तो पशुके पास इसे

  जाननेका कोई साधन न था..

  पर मनुष्योंके पास मी साधन

  नहीं हैं, २११

'ऐसा नहीं है कि हम पहले नही

 थे.. और बादमें नहीं रहेंगे,

 २३२ [ट०, २४०

अपनी इच्छाएं दूसरेपर लादते

 रहते हैं, २३१

प्रकृतिकी सर्वोच्च रचना नहीं,

 २६५

जब देश, जाति या जगतके लिये

  सोचते हैं, २७३

-जीवन और कर्मका शिखर..,

  २८२

किस लिये बना है, २८२, २८८,

  ३७८

  (दे 'जीव' भी)

-का सच्चा गौरव, २८९

-मे' शेखी बधारनेकी आदत, २९०

'मानव प्राणियोंकी एकताके प्रति

   सचेतन होनेका फल, २९२

-की संभावना, ३०१

अपनी सीमित सत्ताको संतुष्ट

  करनेमें.. जब आत्मा अभि-

  व्यक्तिसे वंचित. ., ३३०

  ' ''जो व्यक्ति भगवानका है''

  अर्थ, ३३४

-की वर्तमान अवस्था, ३४४

-के अपने अंदर जो होता है वही

 बाहर देखता.., ३६५

 (दे०' व्यक्ति' और 'मानव.. '

 के अंतर्गत भी)

मनोमय व्यक्तित्व,

 क्या चीज है?, ३१

मरुत् (देवता), ८६

मशीन

 -री सरकार व समाजकी, ३२६ ,

 क्यों आवश्यक है, ३३७

मस्तिष्क, २४१

 -सें समाधान मत ढूंढो, २०२

 -सें हदयकी पहुंच अधिक, २३४

 और हदयका बोध, ३०३

महत्वाकांक्षा, ३६,२५६

 

४२१


मानव चेतना,

 अपने मूलमें, ७७

 ..की असत्यता और भागवत

   चेतनाका आनंद, मे ६५

मानव जाति, २९५

 -को क्रूरतापूर्ण व्यवहारमेंसे गुज

   रान पड़ेगा, २०७

 -को भी साथ ले आओ, २५६-५७

 -क। दास बननेका अर्थ, २१६

 -की मुक्ति, २८०-८३

 -का सर्वाधिक विकास कब, २८२

 'मानव यात्राका परमोच्च लक्ष्य,

   २८२

 'मानव एकताकी ओर, ३२२-२३

 -की सेवा, ३७४-७५

 -की सहायताका सबसे सुनिश्चित

   मार्ग, ३७९

 ( दे० 'जगत्' -का भविष्य,

 और 'दुःख-कष्ट' मानवजाति

 भी)

मानव प्रकृति,

 आलसी, २०७

 विद्रोही, २७०

मानसिक जीवन,

 -के स्वाभाविक परिणाम, ८१

मानसिक रचनाएं, ६५, १३३, २३०

माया,

 -की शक्ति, ३८२; इससे बाहर

   आनेका उपाय, ३८२

मायावादी, ३० 'निंदा'

मित्र ( देवता), ८६

मिथ्यात्व, १५१

  -के मूलमें विद्यमान वस्तु, १२७

  -के स्पंदनका स्थान प्रकाश..,

 

१९६, २०१, २०२

 (दे० 'अशुभ' भी)

आया कैसे?, २१४

 -की समाप्ति कैसे, २१४

 -के विरुद्ध व्यंग्यका शस्त्र. ., ३६४

 है तैयार अथवा भंग होता हुआ

    सत्य, ३ ७९अ

 -के साथ मनका व्यवहार, ३८१

 (दे० 'असत्य' व 'म्गंति' भी)

मुक्ति, ६४

 भय, संदेह व अविश्वाससे, १६

 तर्क बुद्धिसे, १८

 (नियतिसे), का पथ, २२

 'जीवन्मुक्तिका आदर्श, २०३

 'मुक्त व्यक्तिकी शक्ति, ३०६

   (दे० 'स्वतंत्रता' तथा 'अहं' -

 विमुक्त भी)

मुहम्मद,

 -का मिशन आवश्यक था, २६१

मूर्ख,

 ' ''सनातन मूर्ख'', ४९

 -की बातोंमें सत्य, ९९

 -की बातोंसे शिक्षा, १०२, ३१३

 कहना किसीको, २७४

   (दे 'पागल' भी)

मूर्खता

 सत्यका विकृत मुखौटा'', ९९अ

    (दे० 'साहस' भी)

मूत,

 -योंके पीछेकी वास्तविकता, ९६-७

  मूल्यांकन,

हमारे, १५२, २५२, ३१०,

  ३२२, ३२७

  (दे० 'निर्णय' भी)

 

 

४२२


मूसा, १११, २६७

 -के अध्यादेश, २७

मृत्यु, ८६, १०१

 -के बाद शरीर, मन, ३१

 -का कारण, ३२

 -को भयानक मनुष्यने बना लिया

  है, १५४

 और जीवन, १७२, १७३, १७४

 क्या है? वैज्ञानिकसे पूछो, २१६

 विशालतम अमरत्वकी ओर..,

   २५४

 और असफलता अशुभ?, २७१

 बिना आत्माको पाये, २८९

 -के बारेमें, ३०८,३३ ३-३४, ३६५

 -के आस-पास इतना शोक क्यों?,

  ३०८,

मोलिऐर (सुखांत नाटककार), १६२

मैकबेथ, २५१

 

      य 

 

यंत्र ?r उपकरण,

 -की पूर्णता, बहुत सहायक, ३४

  हू, स्वामीके हाथमें, ३४७

   (पूर्ण), बननेकी शर्त, ३७७

यंत्रणा, ३० 'दुःख-कष्ट'

यज्ञ,

 -को सीमित न करो, ३३१

यहूदी

 -का भगवानके प्रति भाव, ३४९

युद्ध,

 करना होगा, १४

 बार-बार करना होगा, १६

 क्या आवश्यक है?, ५२-३, २० क

 -की आवश्यकता क्या अब भी

   पड़ेगी?, ५३-४

 कर, हाय, वाणी, र्माएतष्कसे, ३०५

यूनान, ६३

   'यूनानी और शेक्सपीयर, २५८अ

यूरोप

 वैज्ञानिक संगठनके लिये गर्व करता

    .. उसका नाश, १४६-४७

 -मे समाजवाद, ३१९, ३२५

 -की प्रगतिका चित्रण, ३२५

 -मे जनतंत्र, ३२५

 -की सभ्यता, ३३७

  (दे० 'पश्चिम' भी)

योग, ९९, २७१

(दे० 'धर्म', 'सामाजिक नियम' भी)

योग्यता, ३० 'क्षमता'

योजना,

 -एं बनानेका कार्य, ३१७

योद्धा,

 बनना होगा, १४, ३०५

रात्रि (देवी), ८६

राधा, ३५७ टि०

राबले (प व्यंग्य लेखक), १६२

राम,

 नहीं हो सकता तो रावण होऊंगा,

   २९२

 -द्वारा बालिका वध, ३२४

रावण, ३७३

 -का मन विश्व-आधिपप्यके लिये

 लालायित, पर अंतरात्मा..,

 ३७४

राष्ट्र,

 - ओंकी ग्रहणशीलतापर युद्धका टलना

   संभव, ५३

 

 ४२३


- ओंकी पराधीनताका कारण, २६६

 जो विदेशी जूए तले. ., ३१५

 'स्वतंत्र राष्ट्रीयता.., ३२२

 -की उत्पत्ति, ३२२

 - ओंकी एकताकी ओर, ३२२-२३

रुद्र (देवता), ८६

रूप, ३० 'बाह्य रूप'

रूपांतर

 -की चाभी, २२

 -की सीधी शक्ति, ७३-४

 (भौतिक), की कठिनाई, ११३-

  १८, १५१

 अपना अपेक्षित, विरोधी शक्तियों-

 का नाश चाहनेके स्थानपर,

  १२५

 जगत्का, ३० 'जगत्'

 (आतरिक) ,का प्रभाव निम्न स्तरों-

    पर सदा ही, १५०

 -की रंगीन कल्पना, १५०

 अंगोंका, १५१;

   इसमें तीन सौ वर्ष, १५१

 शरीरमें लक्षित होना, २००

   (दे० 'शरीर' भी)

नहीं, सच्चे स्पंदनका प्रतिस्थापन,

   २०१

 व्यक्तिके उसके प्रति सचेतन हुए

  बिना एक विशेष बिंदुतक ही

  हो सकता है, २११

 साधित करनेवाला अवतार, २७०

 -के कार्यमें सही मनोवृत्ति, ३१६

 'रूपांतरित होना जो चीजों' अस्वी-

   कार करती हों.., ३६७

    (दे 'अहं' व 'विनाश' भी)

रोग ( व्याधि, बीमारी, २११

दूर होना, हस्तक्षेपसे, २००

 स्वस्थताके नवीन आनंद.., २५३

 -सें चालीस वर्षोंतक पीड़ित.,

   ३३६-३७

 -को ठीक करना अच्छा है, किंतु

   बीमार न पड़ना.., ३३१

 अनावश्यक रूपसे लंबा क्यों. .,

   ३३१

 - ओंकी रोक-थाम, ३४१

 भगवानको सौंप सको तो.., ३४२

 बढ़ रहे है, ३४२

 -ओंसे मनुष्यके उद्धारका उपाय,

    ३४२

 ( दे० 'औषधि' भी)

रोना-धोना ( विलखन।, शिकायत

 करना],

 कमजोरियोंकी लिये, ३८, ६७

 दुर्भाग्यपर, ४९, २७२

 जगत्की अवस्थाके लिये, १७६अ

 बीमार होनेपर, २११

 अप्राप्त वस्तुओंके बारेमें, ३६१

 (दे० 'अहं'-को अदृश्य भी)

 

         ल

 

लक्ष्य,

 -को सामने रखना, २१

 अंतिम, सृष्टिका, ४८

 -के निकट होनेका चिह्न, ५१

 (समग्र), को कैसे बेलें, १२७,१२८

 (दे० 'समग्रदृष्टि' भी)

 -पर सीधे या चक्कर काटकर, २६८

 महान्, साधन छोटे; तो भी कार्य

    करते रहो, ३०३

 

 ४२४


दूर है, शीध्ग्तासे डग बढ़ाओ, ३१६

-पर दृढ रहो, वही साधन.. ., ३१७

 स्वयं ब्रह्म है, वह साधित.., ३१७

 अंतिम, प्रत्येकका, ३७६

लज्जा, १६२

लियर, २५८,२५९

लीला, १०४-५

लोकतंत्र,

 -से समाजवाद और फिर अराजक-

  ताकि ओर, ३२५

 -का लाभ और बुराई, ३२ भर

 

      ब

 

वक्रता, १७५

वध करना, ३२४

 क्रोध या स्वार्थवश या भगवानके

   आदेशपर, २९३-९४

 इसे कभी क्रूरता, कभी सामरिक

  आवश्यकता कहना, ३१०

वरुण (देवता), ८६

वर्तमान

 -का क्षण ही महत्त्वपूर्ण क्षण है, २११

वर्तमान युग,

 -के लिये भागवत प्रेमकी सर्वाधिक

   आवश्यकता, ३७१

वाणी, ३० 'बोलना'

वातावरण,

 -मे अब अंतर, नयी वस्तुसे, २१७

विकास ! [क्रमविकास],

 (वैयक्तिक), के लिये सहायक

  वस्तुका प्रश्न, ५७

 -की क्रिया उत्तरोत्तर बढ्ती है, १६१

 -का अंतर्हित हेतु, १७२

अभिव्यक्तिका मूल सिद्धांत, २३३-

   ३४

 अभी समाप्त नहीं हुआ, २६५

 (दें० 'प्रगति' व 'विकृति' मी)

विकृति,

   ' ''विकृत माध्यम'', ३ -४

 विकास-क्रममें, ८८

 आयी कहांसे? : समस्या, १०७

 अवश्य समाप्त होनी चाहिये, १०९

 -के स्पंदनका परिणाम, १९६

 बुरी और अच्छी! र २२ ६अ

 (दे० 'भविष्यवाणी', 'मन' -की

    जटिलता भी)

विचार

 -का गला बहु-शब्द-प्रयोगके नीचे

  मत घोंट दो, ४२-३

 (मानव), सर्जनकारी है, ६५

   (दे० 'मन' आकारों भी)

 (वे ही), सत्य हैं., ६७

 -का तीर एक बिंदुपर लगता है,

   'समग्र' सत्यपर नहीं, १२७-२१

 -की अक्षमता, १२८

 - ओमें सामंजस्य ढूंढ, २४५

  - ओंका आदान-प्रदान, स्वतंत्र, ३१३

  'नापसंद सम्मतिमें भी सत्य ढ्ढा,

  ३१३

 -के लिये अंतिम सत्य वस्तु, ३५३

  'किन मानसिक धारणाओंसे पृथक्

   रहना, ३६२

विज्ञान (जड़, भौतिक), १७६,३७३

 -की शक्ति, २१, २१६,२१९-२०

 -का अभौतिक वस्तुओंके विषयमें

   अपना फतवा देना, ३०

 अपने रास्ते सत्य-ज्ञानतक पहुंच

 

४२५


जायगा' की भावना, १४१

-के चमत्कारोंपर क्या आपको

  हंसी आती है?, २१ ५- १६

-का अपरिमित आश्वासन, २१५

और भविष्य दृष्टि, २१ ६- १७

और आध्यात्मिक अनुभव, २२०

   (दे० 'शान' वैज्ञानिक भी)

बकवास.. और प्रज्ञा. ., २२२

  ( दे 'वैज्ञानिक' भी)

विधान

 प्रकृतिका, बदला जा सकता है,

 २५०; इसके लिये आवश्यक

  चीज, २५०

 स्वेच्छाकृत, का पालन, २६६

 पाप-पुण्यका, २६७

 कौन-सा मुक्तिदाता होता है, २७०

   (दे० 'नियम' भी)

विधि-विधान ( विधि,

 - ओंको तोड़ना, १८, २६५;

 क्या अच्छा है जैसा कि नयी

 पीढ़ी कर रही है?, २६८

 (किसी), के प्रति आसक्ति बच-

 कानापन, २३१

   (दे 'नियम' भी)

विनम्ग्ता ( विनय, १२,३०, ३५९

विनाश,

  किसे कह सकते है, १००, १०१

 -की तब आवश्यकता नहीं रहेगी,

   २२८, २३०

 -का स्थान रूपांतर.., २२८

 और अव्यवस्थाका उत्पत्ति-कारण,

   २४३

 भव्य कब, २८९

 करनेमें सम्यक् वृत्ति, ३६७

(दे० 'शत्रु' -पर आघात भी)

करनेसे पहले निसंदिग्ध.., ३६७

 ( दे० 'विश्व' भी)

वियतनाम,

 -मे अमरीकियोंकी उपस्थिति,

  २४२ [ट०

विरोध

 आंतरिक, क्यों दिया जाता है, ६७

 प्रगतिके लिये उत्तेजक तत्व,

   १७३-७४

( दे० 'चीज' '' (विरोधी) भी)

'विरोधी पक्षोंके मिलने सच्ची

  बुद्धिमत्ता और सामर्थ्य', ३१७

वस्तुओंमें, की समाप्ति कैसे, ३५८

  (दे० 'प्रतिरोध' भी)

विरोधी शक्ति,

 -का शस्त्र : निराशा, ५३

 -यां बदल जायंगी या नष्ट हों

   जायंगी' अर्थ क्या?, १००

 -योंके भूमिका, १२५-१२३

 -यां क्या सदा नहीं बनी रहेगी?,

  १२६

   (दे० 'रूपांतर' भी)

विवाद,

 -का उपयोग, ८६-७

 -मे जीत, ज्ञान-बिस्तारका अवसर

   खोना है, ८७

विवाह ( ब्याह ), ११३

विवेकानन्द, २०३,२९५

 शिवकी विभूति, २१३

 -.ने यह कहा था.., २६३

 क्या थे?, २६३

 साकार भगवानके बारेमें, २७०

विश्व, १६९

 

 ४२६


अबका और पूर्वजोंका, मे ३३७

 भागवत, को सहना कठिन, ३६३

वैराग्य

 -की रुचि या भगवत्सेवा!,

३१४ व्यक्ति

 -का सच्चा 'स्व', ३२

 -से अतिमानसिक कार्यका आरंभ,

  ११०

 अकेला, ३० 'अवतार' (अकेला)

 जगत् और विश्व, २२७

 -का बाह्य यंत्रवत् जीवनमें महसूस

  करना कि 'कोई विशाल वस्तु'

  उसे चाहती है, २३१-३२

 कबतक पूर्ण नहीं, ३२१

 -गत सत्तासे अंध चिपक, ३८२

  (दे० 'मनुष्य' व 'अंतर्दर्शन' भी)

व्यक्तीकरण,

 -का आरंभ, ८९

 और फिर विपरीत ?क्रया, ११७

व्यक्तिवाद,

  क्या है, ३११

.  का उपचार, ३११

व्यवस्था,

 (सभी), क्षण-स्थायी और अपूर्ण,

  १४१

 

     श

 

शंकर शंकराचार्य,

 -पर भगवान् तीन बार हंस

  ३१४अ

शक्ति

 -यां (ऊपरसे आनेवाली, सभी),

  संबद्ध ही होती हैं, ३

 और दुर्बलता, १०३, ३८०

और संतुलन, २०२

 -की आवश्यकता, प्रेमको धारण

  करनेके लिये, २०१

 (अपनी) दिखाओ'', यदि तुम्हारे

  पास दिव्य चेतना है, २२४

-की विराट धारा, २४१

और क्रोध, २८९

 (दे० 'भागवत शक्ति' व

 'विश्व-शक्ति' भी)

शब्द, ३० 'भाषा'

शत्रु,

 -पर आघात, पर उसमें स्थित

 भगवान्से प्यार, २१ १अ

   (दे० 'विनाश' करनेमें भी)

 नहीई, अखाड़ेके पहलवान, २९२,

  ३६७

 -की शक्ति आक लो।, ३१३

 (दे० 'भगवान्' भी)

शरीर,

 प्रभुसे कहता है. ., १२

' 'एक यंत्र और छाया'' है, ३१,

  ३२-३, ३५

 मृत्युके बाद, ३१

 -की अमरता, ३२, ८५, ३३४

  (दे० 'रूपांतर' भी)

-साधना और चैत्य-विकास, ३३-५

-साधना और अतिमानसिक

   जीवन, ३५

-मे' अतिमानसिक चेतना..

  ११ ३- १८

-का निर्माण गुह्य प्रक्रियाद्वारा,

 ११८- ११

 -की वेदनाओंको दूर करनेका

 साधन, १६४

 

 ४२८


 को ठोस समझनेका अभ्यास,

  १६४

 -की आवश्यकता : सरलता, १७५

 -का दर्द आनंदमें : चार अवस्थाएं,

   १७७-७९

 -के कोषाणु भी जल्दी मचाते हैं,

  २११

 -के कोषाणुओंमें भी 'शक्ति' का

   कार्य, २४५

 -के कोषाणुओंमें प्रतिरोधकी

   समाप्ति मुख्य कार्य, २४५

 -का अतिक्रम करनेवाली प्रकृति'',

   २५१

 -का भी रूपांतर अपेक्षित, २५५

   (दे० 'श्रीमाताजी' भी)

शल्य-चिकित्सा, १७६

शांति,

 कभी धोखा न देनेवाली, ७९

 -का आधार आवश्यक, २०२

 ( दे० 'अचंचलता', 'आनंद',

  'सुख' व 'सामंजस्य' भी)

शारीरिक व्यायाम,

 करनेका अर्थ, ३३-५

शासन

 (पूर्ण), ३११

' 'साधूना साम्गज्यम्'', ३११

 प्रभुका, ३२१, ३२१;

   पूर्णताके लिये आवश्यक, ३२१

 -प्रागाली कौन-सी अच्छी, कौन-

  सी बुरी, निश्चय करना

  कठिन, ३ २'१

 'सत्यके साम्राज्यका दिन, ३२५

 ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रका.

   ३२९

 अतिमानसिक चेतनाका, ३३०

 (भगवानका), कबतक स्थापित

   नहीं हो सकता, ३३८

   (दे० 'सरकार' भी)

शास्त्र ( धर्मग्रन्थ, २६७

 -के वचन और अपना अनुभव,

  १९०

 -के वचनोंकी प्रामाणिकता, १९१,

  १९४, ३३१

ब्राह्मणोंके, २७०

 -का अनुसरण कब, ३३२

 - ओंको समझनेका ढंग, ३७४

शिक्षा

 'समझ-शक्ति बढ़नेका तरीका, १ 

  -मे दो प्रवृत्तिया साथ-साथ चाहिये : '

   परमाश्चर्यमय' के लिये प्यास

   और यथार्थ निरीक्षण, १७०-७१ ' '

 बौद्धिक शिक्षण' की सहायता,

  २६४

 प्रतिक्षण, प्रत्येक वस्तुसे, ३१३ -

 का भगवानका तरीका, ३६१

 (दे० 'पाठ' व 'मूर्ख' भी)

शिव,

 पृथ्वीपर कब जन्म लेंगे, २१३

शुंभ,

 -का कालीद्वारा मारा जाना, ३७६

शुद्धि ? सफाई, शोधन,

 -का भार भगवान्पर या अपनेपर,

   १५८,२९७

शुभ, ५०, १२७

शुभ और अशुभ ( दिव्य और अदिव्य,

 भला और बुरा, ८९,१४

  -का विचार, १०४, १११, १२४,

   १८६, २७६, ३२४, ३५५अ

 

४२९


(दे० 'नैतिक धारणा' भी)

 तुम किसे समझो, २९७

   (दे० 'अशुभ' भी)

शेक्सपियर,

 -मे सार्वभौम कलाकार, २५८-५१

शैतान

 -सें कष्ट या घृणा कबतक, ३५८

श्रद्धा,

 और विश्वासकी शक्ति, २४४

   (३० 'विश्वास' भी)

श्रीअरविन्द,

 -के 'विचार और सूत्र' :

   इनका रूप ऐसा क्यों, ५-६,

   १०अ, १७, ७१;

  इनके विरोधाभास) होनेका

  कारण, ५, १७, ७१, १५३;

  इन्हें समझना, २१, ३७;

  इनका लेखन, १०१, १०४,

  १४६,१५३, १५७,३४८ टि०

 -की रचनाओंसे लाभ उठानेका

  तरीका, ६, १

 -की जगत्-विषयक दृष्टि, ४५,

  १०१

 ईसाके बारेमें, ६२

 -का इतिहासका अध्ययन, ६२

 गीताके बारेमें, ६४

 -की गीताकी व्याख्या, ६४

 -का बंदीगृहका अनुभव,

 ६१ सच्ची स्वतंत्रताके नायक, ७०

 सर्वोच्च प्रेमके एकदम पृथ्वीपर न

   आ जानेके बारेमें, ७५

 इस 'अभिव्यक्ति'के बारेमें, ९३,

   १०१

 स्वर्गसे पतनके बारेमें, ९३, ३७७

 

सर्पकी कहानीके बारेमें, ९४

 -की शिक्षा क्या नया धर्म है?,

   ९७-८

 समस्याके सब पक्षोंका उपस्थित

  करते.., ९७

 जिस वस्तुके प्रतीक है, ९७

 -को भी ईसाई शिक्षाके विरुद्ध

   युद्ध लड़ना पड़ा था, १०४

 -के वाक्य लंबे; कारण, १०५

 -को क्रूरतासे घृणा, १० 'उ

 बुरी वस्तुओंके बारेमें, १०१

 गुह्य ढंगसे शरीर-निर्माणके बारेमें,

   ११८

 चमत्कारके बारेमें, १६६

 -ने ''मनमें कई चमत्कार'' किये :

  व्याख्या, १६७

 -को अतिमानसिक शक्तिपर पूरा

  अधिकार था, १६७

 -का लोगोंकी बीमारों दूर करना,

   १६७

 चाहते थे, मुझे यदि सौ व्यक्ति भी

  मिल जायं.., २०८

 युद्धकी आवश्यकताके बारेमें,

   २०१

 प्रभु हैं, प्रभुका एक भाग.., २१४

 चाहते हैं, व्यक्ति नीरवताकी

 शक्तिको  नीचे उतारने, २२३

 -की भावाभिव्यक्तिको, २३४

 -मे विनोद वृत्ति, २५३

 अंतिम अवतार!, २६३

 -का अनुसरण और अन्य देवी-

 देवताओंको मानना, २६४

 -ने जबसे सूक्ष्म-भौतिक जगत्में

 कार्य करना.., ३२३

 

 

 ४३०


-मे परिहास-प्रतिभा, ३४७

 ' ''कोली'' नामसे हस्ताक्षर,

  ३४८ टी०

के कहनेका ढंग निराला, ३५२

-मै प्रतिभा, असाधारण अनुभूत-

    गतियोंको साधारण रूपमें

    अभिव्यक्त करनेकी, ३५४

 एक वाक्यसे ही क्या कुछ कर देते

  हैं, ३६४

 -ने चित्रोंका उपयोग केवल सम-

 झानेके लिये. ., ३६८

 -का प्रयास पाठकोंको नैतिकतासे

  मुक्त करनेका, ३७५

 (दे० 'काली' व 'श्रीमाताजी' भी)

श्रीकृष्ण ? कृष्ण !,३५३

 -के साथ खेलने''का अर्थ, ५१-२

 -को देखने "का अर्थ, ५१-२

 किस कारण वृन्दावनमें वास नहीं

   करते, ६०

 कमी हुए ही नहीं. ., ६०- १

 -अर्जुन-सवादका परिणाम, ६३

 कवियोंको सृष्टि हैं, ६४

 -को जानना, २६३

 -सें अधिकृत ही कालीको सह

   सकता है, २११

 (अकेला), एक ओर, और सेना

  दूसरी ओर, तो भी उनको ही

   चुनो.., २९९

 -द्वारा कंसका वध, ३२४

 -से अधिक प्रेम या कालीसे, ३५२

 -के साथ प्यार और नाराजगीकी

   लीला, ३५४,

 यदि चंद्रावलीसे प्रेम. ., ३५७

 -की मधुर मूर्तिके दर्शन, उनके

संहार-रूप-दर्शनके बाद, ३७०

-को पाना काली-उपासनाके बिना

   कैसे!, ३८३

श्रीमाताजी

मै तुम्हारे लिये जो चाहती हू, १६

 -का नाम लेकर वे एक और मूर्खता-

 को जोड़ देते है, ८०

 -को पार्थिव स्वर्गकी स्मृति, ९०-२

 पहली बार वैयक्तिक पार्थिव

   आकारमें, ९२

 -का संदेश, श्री अरविन्दके बारेमें

   ९७ टि०, २१४

 'हंसी करते संकोच, १०२

 -पर ईसाई शिक्षाका प्रभाव, १०३

 -को 'वस्तुएं अपने स्थानपर नहीं'

  का ज्ञान छुटपनमें, १०८

 -के सामने समस्या, भौतिक रूपा-

   तरकी, ११४, ११७

 -की सामान्य अवस्था, ११७

 मैंने एक प्राणिक सत्ताको शरीर

   प्रदान किया था, ११८

 -की, ३ फरवरी, १९५८ की,

  (अतिमानसिक नौकाकी) अनु-

  भूति, ११९-२४

 -का अतिमानसिक जगतके साथ

   संपर्क, १११

 -की उपस्थिति अतिमानसिक जगत्में,

   ११९, १२३

 -का रूप अतिमानसिक जगत्में,

   १२२

 -की पूर्वबोधकी शक्ति, १३६-३८

 'फांसमें, पर्वतीय प्रदेशमें. .,

   चट्टानके दूसरी ओर सांप,

   १३६-३७


४३१


'यही, अरियन कुप्पम्में, मै सांप-

   पर पैर. ., १३७

 पेरिसमें चौराहा पार करते हुए

   ट्रामका दूरसे धक्का. .,

   १३७-३८

 -का शिक्षक : 'तुम इंद्रियोंसे काम

  नहीं लेती', १३८

 'बीमारीसे महीनों बिस्तरमें..

   देखना चाहती थी, शिल्प-

   शालामें क्या हो रहा है, १३१

 -क् सामने समस्या, तीसरे बिंदु-

 को खोज निकालनेकी, १४१-

 ४३

 -की, १३ अप्रैल १९६२ की अनु-

   भूतिके बाद, उनकी दृष्टिमें

   परिवर्तन, १४१, १४४-४५

 'मै भगवानको सर्वत्र, सब समय

   अनुभव करती हू, १६०

 'मुझे त्यागका अधिक अनुभव नहीं

  .. मैं जानती थीं.. भूलका

  त्याग, १७९-८१

 -की आनंदकी स्थिति और लोगों-

   के बीच कार्यरत रहते हुए

   की स्थिति, १८२

 -की शरीरकी अनुभूतियोंका

    निष्कर्ष, १८८

 शास्त्रकी प्रामाणिकताके बारे-

    मे, १११

 -की अनुभूतियोंकी भाषा, १९२

 -का अपनी अनुभूतिको शब्दोंका

   रूप देना, १९३

 -की २१ फरवरीकी अनुभूतिको

   सूत्रबद्ध करनेकी चेष्टा, ११५

 'मुझे पृथक् 'मै'' का कोई वेदन

  नहीं, १११

 -का शरीर, २००अ

 'शरीरको ज्वर-जैसा लगता, जब

   कार्य बड़ा एकाग्र और घानी-

 भूत होता, २०२

 -का आश्रम बनानेके पीछेका

   विचार, २०७

 'अभी कल ही, शक्तिकी अभि-

  व्यक्ति.. धैर्य. ., २१०

 'मेरे लिये सब चीजों किन्हीं नियमों-

   के अनुसार चलती है, २१८

 'मै भविादुयवणिा कर सकती हू,

   २१८

 -की बहुत पहलेकी अनुभूति :

  ज्ञानका तत्काल ही प्रचार

  करने और शांत बने रहनेके

  बीच भेदकी, २२२

 -की शरीरमें अनुभूति : ''मै एक

 निष्प्राण व्यक्ति है. .'',

    २३५-३७;

   चेतनाकी दृष्टिसे यह एक

   भारी प्राप्ति है, २३७-३८

 -का देखने और सुननेका तरीका,

   २३५-३६;

   यहां व्यक्तिगत कुछ नहीं,

   २३६ :

   खानेकी क्रिया, २३६

 -के शरीरका पूर्ण आत्मदान,

   २३७-३८

 -सें मानव संकल्प यदि कुछ अपेक्षा

   करे.., २३१

 'शरीरमें निश्चयता : यदि वह

 सर्वोच्च सत्ताके साथ संपर्क

   खो दे तो.., २४०

 

४३२


'शरीरका प्रश्न : मैं 'तुम्हारी

  शक्ति' अपने अंदर क्यों नहीं

  अनुभव करता, २४०

 -का अनुभव; अदम्य शक्तिका,

   २४१

 'मैंनें अंतर्दर्शनमें दिव्य सृष्टिका

  निर्माण होते देखा, २४१

 'एक चित्र देखा : मत कैसे बनाये

   जाते है, २४८-४९

 -का पश्चिमी धर्मोंद्वारा वर्णित

   भगवानके प्रति मनोभाव, ३५०

 '२५ वर्षाकी आयुमे मैंने आंतरिक

   भगवानकी खोज कर ली, ३५०

 'कायाके रूपांतरमें जो पाठ प्रभु

  सिखाना चाहते है, ३६९

 'शरीरके रूपांतरके संबंधमें दो

   अंतर्दर्शन, ३७३

श्रीरामकृष्ण, ३८२

 विवेकानन्दसे : 'तुम भगवानको

   उसी भांति देख सकते. ., २१५

 -ने यह कहा था.., २६३

 क्या. थे?, २६३

श्रेष्ठता ? बड़प्पन,

  -की भावना, १८, १९, ३०, ६१

    ८०, १२४

 

       स

 

संकल्प ? इच्छा-शक्ति, ७८

  वैयक्तिक, का अर्थ, ५४

  व्यक्तिगत, और विवेककी आवश्य-

    कता क्या समर्पणके बाद भी?,

     २९७-९८

  (दे० 'प्रयास', 'भागवत संकल्प' भी)

संकीर्णता !r संकुचितता, ३६३

  हीं घटनाओंको दुःखान्त बनाती

   है, ५०, २१०

 मनकी, ८०

 -को निकाल फेंक, १९४

 'जब तुम अपने-आपको घटाते ही

   चले जाते हो, २०६

   (दे 'अज्ञान', 'विस्तार' व

   'दृष्टिकोण' संकुचित भी)

संघर्ष

 कठोर, प्रकृतिके पहरेदारोंसे, १३

 'निरंतर उत्तेजनाकी स्थिति, २५

 'आतरिक तनाव, २११

 (यह), शरीरमें या शरीरके बिना

   भी चलता रहेगा, ३०५

    (दे० 'झगड़े' भी)

संतुलन

 इस सृष्टिका मूल धर्म, १०८,१०१

 'संतुलित मार्ग, २१२

 (दे 'शक्ति' भी)

संदेह ( संशय,

 उच्चतर सपंदाओंके प्रति, १३, १४

 करना, बड़प्पनके भावमें, ३०अ

 विश्वासीको जितना सताता..

   ३०१

 और विश्वास, ३६०

संन्यास

 नहीं, आंतरिक त्याग, २७०

संन्यासी,

 और जीवनमुक्त, २०३

 (पर्वत-चोटीपर बैठे), की शक्ति,

   ३०५-६

 -के वेशको सम्मान दो, किंतु..

   ३२६

 

४३३


संप्रदाय (धार्मिक),

 - ओंकी असहिष्णुताका कारण, २३-४

 ओंकी तुलना विभिन्न पात्रोंसे, ८५

 - का मूल्य और उपयोग, ८५

   (दे० 'धर्म' भी)

संभव, १७०

   सब कुछ है, ३७, १५५

    (दे० 'असंभव' भी)

संयम, दे० 'साधना'

संयोग, ४०, ४२,३०३

 और म्रातिके पीछे चेतन संकल्प,

   ४३, ४५

 जैसी कोई वस्तु नहीं, ४४,२७१अ

  सच्चाई ( सत्यनिष्ठा,

 और अनुभव, ३७, ४२, १९२

 -का अभाव है, ५१

 और भविष्यवक्ता, १३४

 -से चाहना कि भगवान् सब कुछ

   कर दें, १५१

 और विशुद्धता, २१२

 समर्पणमें, २९८

 आदेश जाननेके लिये, ३३२

सजातीय,

 ही सजातियोको जान सकता है,

   २१-३०

सज्जनता ( साधुता,

  आत्माका सूक्ष्म आकाश, २९४

  -का अर्थ, २९५,३२७

सत्ता,

 -एं प्रकाशके वस्त्रोंमें, २४८

सत्य,

 एक पूर्णाग वस्तु है, ५

 उच्चतर, विरोधाभासपूर्ण, १०

 उच्चतम, इस समयका, ११

-की प्राप्तिकी शर्त, २२

 हमारे ही पास है.., २३

 -को पाना बुद्धिद्वारा या अनुभव-

  द्वारा, ३५-८

 और तर्कबुद्धि, ३७

 -को मिथ्यात्वमें बदल देनेकी तर्क-

   बुद्धिकी शक्ति, ४०

 निरपेक्ष, मानसिक स्तरपर, ६७-८

 और तर्क-शास्त्र, ६८-९

 (सर्वोच्च), का स्वरूप, ७१

 (अपने), को दूसरोंको समझाने-

  का तरीका, ८७

 समग्र, का लक्ष्यवेध, १२७-२१

 (दे० 'समग्रदृष्टि' भी)

 पा लेनेसे संतुष्ट व्यक्ति, १२७अ

 (अपनी सत्ताके), को जीना ही

   समग्र शानका रास्ता, १४३

 चुप-चाप नहीं बैठता, १५२

 ही एकमात्र उपाय है जगत्को

   बदलनेका, १९६

 -की अभिव्यक्ति कवि और कला-

   कारका कार्य, २५७-५९

 कौन-सी वस्तु : जडूतत्व या कि

   चेतना?, २६१

 - ओंको जान लेने दो, जिन्हें अवतार-

  ने वाणीबद्ध नही किया, २६३

 ही सच्चा पथ-प्रदर्शक, २८७,३२६

 एक कठिन और आयासपूर्ण विजय

   है, ३०५

 विरोधी वस्तुओंसे ऊपर समग्र

   एकत्वमें, ३२८

 (अपूर्ण), का अध्ययन कर, ताकि

   विशालतर ज्ञानतक जा सके,

    ३६१

 

 ४३४


भागवत, पाप-पुण्यसे ऊपर, ३६६

 उच्चतम, विशालतम, गभीरतम

     अधिकृत कब, ३६८

 (विशुद्ध) की खोज.., ३८१

 (बहुत-से गंभीर) । उन अस्त्रोंके

  समान..., ३८१

  (दे० 'ज्ञान', 'विचार' व 'प्रमाण'

  भी)

सत्यके पथिक,

 -का मार्ग, २८७

 -की वृत्ति सीखनेके बारेमें, ३१३;

  जीवित रहने या न रहनेके

  बारेमें, ३३३, ३३४

 (दे० 'भगवत्प्रेमी' और 'कार्य'

 हमारे करने भी)

सत्यचेतना दिव्य चेतना,

 -मे वस्तुओंका रूप, ४६, ७७,७९,

 १०९, २७६

 -मे सत्य और मिथ्यात्व एक ही

    समय और साथ-साथ, १९६,

    १९८, २०१

 -का हस्तक्षेप, १९९

 -मे भगवानके प्रत्यक्ष दर्शन, २१५

 -मे भौतिक जगत्का बोध स्पष्ट

   और यथार्थ रहता है या. .,

   २३२-३३, २३४, २३८

    (दे० 'एकत्व'-की चेतना भी)

 -के साथ संपर्क और सुस्वास्थ्य, ३३७

    (दे० 'शक्ति' (अपनी) भी)

सनातनता ( सनातनत्व, शाश्वतता,

 -की भावनामें जीओ, २११

 -की भावनामें एक विश्वके लयका

  महत्व नहीं, २२८-२९

आत्मासे संबंधित, २७४

 ' ''शाश्वती: समा:'', २७४

सफलता,

 किस चीजपर निर्भर, ५६-७

 -मे स्थिर रहनेके लिये आवश्यक

   चीज, ५९

 या कि अपनी भूमिका, ३०३

-के पीछे दौड-धूप, ३१५, ३२१

    (दे 'असफलता' भी)

सत्य, ३३७

सभ्यता (यूरोपीय), ३३७

समग्र वृष्टि ( समग्र ज्ञान, समग्र सत्य),

 -का फल एवं उसकी प्राप्तिकी.

 शर्त्त, ७८, १२८-२९, १४३,

 १५६, २७२

समझना,

 पद-परंपराको, ११

 सूत्रोंको, २१, ३७

 आंतरिक जीवनको, ३०, ३ ९अ,

   २१२

 घटनाओंको, ४९,५१

 वस्तुओंको, ४९,७८,२७६,३००

 भगवानको, ७१, ३६१, ३७७

 चमत्कारको, १६६, १६८, २११

 आंतरिक तथ्योंकी, २१९,२२०

 भगवानकी क्रिया व प्रयोजनको,

  २५३, २७६, २९१

 जगत्को, २७१, २७६

 शास्त्रोंको, ३७४

समझ-शक्ति, दे० 'शिक्षा'

समता

 -की वृत्ति, ५९

 पूर्ण और स्थायी, ११२ टि०

 (पूर्ण), अनिवार्य, अतिमानसिक

 

 ४


 स्पंदनके लिये, ११३, ११५

 अतिमानसिक, ११६

समर्पण

 ज्ञान पानेके लिये, १२

 काली छायाका, १२५-२७

 -के रास्तेमें सबसे बड़ी बाधा, १२७

 'भगवान्को सब कुछ करने दो,

   १५७-५९

 (पूर्ण), द्वारा कोषाणुओंमें प्रति-

   रोधकी समाप्ति, २४५

 प्रकृति-परिवर्तनके लिये, २५०

 -मे प्रसन्नता इच्छा-तुष्टिसे अधिक,

  २७२

 और व्यक्तिगत संकल्प, २९८

 -मे आत्म-प्रवंचना, २९८

 -द्वारा अक्षमतासे छुटकारा, ३१७

 -से मानसिक दासतासे मुक्ति,

   ३४२

 भगवानको समझनेका साधन, ३६१

   (दे० 'आत्म-विस्मृति' भी)

समस्या

 कि क्या कहा जाय या क्या किया

   जाय, २८, १५८,

 तरंगोंको अभिव्यक्त न होने देने-

   की, ७७

 कि विकृति आयी कहांसे?, १०७

 भौतिक रूपांतरकी, ११४, ११७-

    १८

 -का हल मानसिक एकाग्रतादुरा,

   १४०

 तीसरे बिंदुकी प्राप्तिकी, १४१-४२

 जीवनके बीच अक्षर आनंदकी स्थिति

   बनाये रखनेकी, १८२-८३

 स्पदनोंकी, १८६-८८

 -एं (सभी), स्पंदनकी ही समस्याएं

    है, १८८

समाज

 पूर्णता-प्राप्त, की सृष्टि, ३१८-२१

समग्जवाद, दे० 'यूरोप'

समाधि,

 ले लेना, जीवित ही, २ २२अ

समानता, ३२०

 -की अभिव्यक्ति तभी, ३२१

सरकार

 समाज, नियम-कानून आदि

   सामयिक आवश्यकताएं, ३१८

   किनकी हों, ३ दूं १

    मिथ्या या खामक, ३२५

 -की सहायतासे पूर्णता लानेका

    स्वप्न, ३२६

  (दे० 'नियम' और 'शासन' भी)

सरलता

 (सहज), को मनुष्य पुन: कब प्राप्त

   करेगा, ८८

 (दिव्य), जटिल अस्त-व्यस्ततामेंसे,

    १७५-७६

 (दे० 'सुन्दरता' भी)

ससीम

 और असीम, ९९, २३०-३२

सहनशीलता,

 'सहन करना दुःख-दर्दको, १७७-७९

 कई प्रकारकी, ३०१

  (दे० 'विश्वास' भी)

सहानुभूति, २९०, ३६६

सहायता,

  गरीबोंकी, २७७

  कर, अपने भाइयोंकी, ३६६

  (दे० 'सेवा.' और 'दया' भी)

 

४३६


सूत्र सूक्ष्म सत्ताएं,

 भविष्यकी सूचना देनेवाली, १३२-

     ३३

सूर्य, ८६, २१५

 आंतर, दिव्य हास्यका; इसे

   पानेकी शर्त, १६४

 -की और पृथ्वीकी चेतनाके पार-

 स्परिक संबंधोंमें परिवर्तन,

  १९४, १११

 -की बनावट देखना... और

    आत्माको देखना.., २१५

सेवा,

 करना उपयोगी किस कारण,

  ३७२

 -की अपेक्षा भगवानका होकर

   रहना बेहतर, ३ ७४अ

 और प्रशंसाकी कामना, ३७९

    ( दे० 'भगवान्'-की सेवा और

 'सहायता' भी)

स्त्री,

 -के विषयमें हमारे विचार, ३१३

 -के जालसे बचनेके दो ढंग, ३१४

 -का आदर्श क्या होना चाहिये,

   ३१४

 और पुरुष आध्यात्मिक दृष्टिसे,

   ३१४

 'एक पत्निव्रत, ३५१

स्पंदन

 ( वह), एक ही होता है जो अनि-

   निश्चित कालतक दुहराया जा

   सकता है' ', ७४

 ( अतिमानसिक), की अभिव्यक्ति-

   की शर्त, ११३

 भागवत उपस्थितिका, १६१

सर्वच्च संकल्पको प्रत्युत्तर देने-

  वाले और स्पंदन अजानके,

   १८५-८८

 (सच्चे), की शक्ति, १९६

 (व्यवस्था और समस्वरताके),

   का हस्तक्षेप, २००

 सच्चे, का हस्तक्षेप अहंभावों या

  व्यक्तित्वोंपर निर्भर नहीं, २०१

 प्रेम और घृणाके, २२४-२७

 प्रकाशमय, २३२, २४२

 सृष्टिकी बाह्य यथार्थताका, २३३;

  ''क्यों''. .का उत्तर, २३३

 भगवानके प्रति पूजाका, २७३

   (दे० 'मिथ्यात्व' भी)

स्पार्टा, २८०

स्मरण ( रटना,

 हर क्षण कि 'केवल वही है', १०४

स्वतंत्रता ( स्वाधीनता,

 विधि-विधानोसे, १८

 (सच्ची व पूर्ण), ७०, ७९

 (सच्ची), का अर्थ, २०४,२०६,

  २६६

 -की चरम पूर्णता, २ ३७अ

 (पूर्ण), का उपभोग, २६६

 कामना, अज्ञान व अहंभावके

  त्यागके मूल्यपर, २७०

 -प्राप्तिकी शर्त्त, २७३

 -के पथपर कब, २७३

 -के अयोग्य कौन, ३१५

 समानता, भ्रातृत्व'', फ्रेंच क्रांतिका

   मंत्र, ३२०; इसे व्यवहारमें

   लानेकी शर्त, ३२०

 -की अभिव्यक्ति तभी, ३२१

    (दे० 'मुक्ति' मी)

 

 ४३८


स्वप्न

 पूर्व सूचक, १३०-३१

स्वर्ग, ३० 'पार्थिव स्वर्ग'

स्वर्ग और नरक, ६५-६, २६२

  (दे० 'नरक' भी)

स्वार्थपरता [ स्वार्थपरायणता ],

 ही एकमात्र पाप, २२४, २९४

 -से आत्माका हनन, २९३

 -का अर्थ, २९५

 विलीन कब, ३६७

स्वास्थ्य (प्राकृत),

 -की पुन प्राप्ति कब, ३४१,

  ३४२-४३

  (दे. 'रोग' व 'औषधि' भी)

 

          ह

हक्सले, ३८२

हास्य

 विश्व-व्यापी, ३७२

   (दे० 'भगवान्' -का हास्य व

 'सूर्य' आंतर भी)

हिपोक्रेटस, ३४१

हिरण्यकशिपु, ३७३

हृदय

 -का रूपांतर, १५१

 -की पहुंच, २३४

 -का बोध, ३०३

  (दे० 'भीतर' भी)

हृदयहीनता,

  -को विवेक.. का नाम, ३०१

हेकेल, ३८२

हेन, १५२

हेमलेट, २५८,२५९

हेलास, ६३

 

४३९









Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates