Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
चौथा अध्याय
आध्यात्मिकवाद के आधार
वेदोंके अर्थके विषयमें कोई वाद निश्चित और युक्तियुक्त हो सके, इसके लिये यह आवश्यक है कि वह ऐसे आघारपर टिका हो जो स्पष्ट तौरपर स्वयं वेदकी ही भाषामें विद्यमान हो । वेदमें जो सामग्री है उसका अधिक भाग चाहे प्रतीकों और अलंकारोंका एक समुदाय हो, जिसका आशय खोजकर पता लगानेकी आवश्यकता है, तो भी मंत्रोंकी स्पष्ट भाषामें ही हमें साफ साफ निर्देश मिलने चाहियें जो वेदका आशय समझनेमें हमारा पथप्रदर्शन करें । नहीं तो, क्योंकि प्रतीक स्वयं संदिग्ध अर्थको देनेवाले हैं, यह खतरा है कि ऋषियोंने जिन अलंकारोंको चुना है उनके वास्तविक अभिप्रायको ढूंढ़ निकालनेके बजाय कहीं हम अपनी स्वतंत्र कल्पनाओं और पसंदगीके बलपर कुछ और ही वस्तु न गढ़ डालें । उस अवस्थामें, हमारा सिद्धांत चाहे कितना ही पूर्ण और बुद्धिकौशलसे युक्त क्यों न हो, यह हवाई किले बनानेके समान होगा जो वेशक शानदार हो पर उसमें कोई वास्तविकता या सार नहीं होगा ।
इसलिये हमारा सबसे पहिला कर्तव्य यह है कि हम इस बातका निश्चय करें कि अलंकारों और प्रतीकोंके अतिरिक्त, वेदमंत्रोंकी स्पष्ट भाषामें आध्यात्मिक विचारों पर्याप्त बीज विद्यमान है या नहीं, जों कि हमारी इस कल्पनाको न्यायोचित सिद्ध कर सके कि वेदका जंगली और अनघड़ अर्थकी अपेक्षा एक उच्चतर अर्थ है | और इसके बाद हमें, जहाँ तक हो सके स्वयं सूक्तोंकी अन्त:-साक्षीके ही द्वारा, प्रत्येक प्रतीक और अलंकारका वास्तविक अभिप्राय क्या है तथा वैदिक देवताओंमेंसे प्रत्येकका अलग-अलग ठीक-ठीक आध्यात्मिक व्यापार क्या है यह मालूम करना होगा । वेदकी प्रत्येक नियत परिभाषाका एक स्थिर, न कि इच्छानुसार बदलता रहनेवाला, अर्थ पता लगाना होगा जिसकी प्रामाणिकता ठीक-ठीक भाषा-विज्ञानसे पुष्ट होती हो और जो उस प्रकरणमें जहाँ कि वह शब्द आता है स्वभावत: ही बिल्कुल उपयुक्त बैठता हो । क्योंकि जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, वेदमंत्रोंकी भाषा एक नियत तथा अपरिवर्तनीय भाषा है, यह सावधानीके साथ सुरक्षित तथा निर्दोष रूपसे आदर पायी हुई. वाणी है, जो या तो एक
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विघिविघानसंबंधी संप्रदाय और याज्ञिक कर्मकांडको अथवा एक परंपरागत सिद्धांत और सतत अनुभूतिको संगतिपूर्वक अभिव्यक्त करती है । यदि वैदिक ऋषियोंकी भाषा स्वच्छन्द तथा परिवर्तनीय होती, यदि उनके विचार स्पष्ट तौरसे तरल अवस्थामें, अस्थिर और अनियत होते, तब तो हम जो ऐसा कहते हैं कि उनकी परिभाषाओंमें जैसा चाहो वैसा अर्थ कर लेनेकी सुलभ छुट है तथा असंगति है यह बात एवं उनके विचारोंमें हम जो कुछ संबन्ध निकालते हैं, वह सब न्याय्य अथवा सह्य हो सक्ता था । परंतु वेदमंत्र स्वयं बिल्कुल प्रत्यक्ष ही ठीक इसके विरुद्ध साक्षी देते हैं । इसलिये हमें यह मांग उपस्थित करनेका. अधिकार. है कि व्याख्याकारको अपनी व्याख्या करते हुए वैसी ही सचाई और सतर्कता रखनी चाहिये जैसी उस मूलमें रखी गयी है वह व्याख्या करना चाहता है । वैदिक धर्मके विभिन्न विचारों और उसकी अपनी परिभाषाओंमें स्पष्ट ही एक अविच्छिन्न संबंद्य है । उनकी व्याख्यामें यदि असंगति और. अनिश्चितता होगी, तों उससे केवल यही सिद्ध होगा कि व्याख्याकार ठीक-ठीक सम्बन्धको पता लगानेमें असफल रहा है, न कि यह कि. वदकी प्रत्यक्ष साक्षी भ्रान्तिमनक. है ।
इस प्रारम्भिक प्रयासको सतर्कता तथा सावधानीके साथ कर चुकनेके पश्चात् यदिं मंत्रोंके अनुवादके, .द्वारा यह दिखाया जा सके कि जो अर्थ हमने निश्चित किये थे वे स्वाभाविकतया और आसानीके साथ किसी भी प्रकरणमें ठीक बैठते हैं, यदि उन अर्थोंको हम ऐसे पाये कि उनसे. घुंघले दीखनेवाले प्रकरण स्पष्ट हो जाते हैं और जहाँ पहिले केवल असंगति और अव्यवस्था मालूम होली थी वहाँ उनसे समक्षमें आने योग्य और स्पष्ट-स्पष्ट संगति दीखने लगती है, यदि पूरे-के-पूरे सूक्त इस प्रकार एक स्पष्ट और सुसंबद्ध अभिप्रायको देने लग जायं और फमबद्ध मन्त्र सम्बद्ध विचारोंकी एक युक्तियुक्त शृंखलाको दिखाने लगें, और कुल मिलाकर जो परिणाम निकले वह यदि सिद्धांतोंका एक गम्भीर, संगत तथा पूर्ण समुदाय हो, तो हमारी कल्पनाको यह अधिकार होगीं कि वह दूसरी कल्पनाओंके मुकाबलेमें खड़ी हो और जहाँ थे इसके विशेघमें जाती हों यहाँ उन्हें ललकारे या जहाँ वे इसके परिणामोंसे संगति रखती हों वहाँ उन्हें पूर्ण बनाये । और तब यदि यह पता लगे कि इस प्रकार वेदमें विचारों और सिद्धांतोंका जो समुदाय प्रकट हुआ है वह उस उत्तरवर्ती भारतीय विचार और घार्मिक अनुभूतिका एक अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन रूप है, जो स्वभावत: वेदान्त और पुराणके जनक इए हैं, तो इससे हमारी स्थापना की संभवनीथता कुछ कम नहीं हो जायगी, बल्कि इसके विपरीत उसकी प्रामाणिकता पुष्ट ही होगी ।
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ऐसा बड़ा और सुक्ष्म प्रयास इस छोटी-सी और संक्षिप्त लेखमालाके क्षेत्रसे बाहर की बात है । इन अध्यायोंको लिखनेका मेरा प्रयोजन केवल यह है कि जो सूत्र स्वयं मुझे मिला है उसका जो लोग अनुसरण करना चाहते हैं उनके लिये मार्गका और उसमें आनेवाले मुख्य-मुख्य मोड़ोंका दिग्दर्शन कराऊँ-साथ ही उन परिणामोंका दिग्दर्शन कराउँ जिनपर मैं पहुँचा हूँ और उन मुख्य निर्देशोंका भी जिनके द्वारा वेद स्वयमेव उन परिणामों तक पहुँचनेमें हमारी सहायता करता है । और सबसे पहिले, मुझे यह उचित प्रतीत होता है कि मैं यह स्पष्ट कर दूं कि यह कल्पना मेरे अपने मनमें किस प्रकार उदित हुई, जिससे पाठक उस दिशाको अधिक अच्छी प्रकार समझ सके, जिसे मैंने अपनाया है, अथवा यदि वह चाहे तो, मुझसे जो कोई पक्षपात हो गये हों या मेरी जो कोई वैयक्तिक अभिरुचियाँ हों जिन्होंने इस कठिन प्रश्नपर युक्ति-श्रुंखलाके यथोचित प्रयोगको सीमित कर दिया हो या प्रभावित किया हो उनका वह निवारण. कर सके ।
.जैसा कि अधिकांश शिक्षित भारतीय करते हैं, मैंने भी स्वयं वेदको पढ़नेसे पहले ही बिना परीक्षा किये योरोपियन विद्वानोंके परिणामोंको जो प्राचीन मन्त्रोंकी. धार्मिक दृष्टि तथा ऐतिहासिक व जाति-विज्ञानसंबंधि दृष्टि दोनोंके विषयमें थे, कुछ भी प्रतिकार किये बगैर वैसाका वैसा ही स्वीकार कर लिया था । इसके फलस्वरूप, फिर आधुनिक रंगमें रंगे हिन्दू-मतसे स्वीकृत सामान्य दिशाका ही अनुसरण करते हुए, मैंने उपनिषदोंका ही भारतीय विचार और धर्मका प्राचीन स्रोत, सच्चा वेद, ज्ञानकी आदिपुस्तक समझ लिया था । ऋग्वेदके जो आधुनिक अनुवाद. प्राप्त हैं, केवल उन्हींको मैं इस गंभीर धर्मपुस्तकके विषयमें जानता था और इस ऋष्येदको मैं यही समझता था कि यह हमारे राष्ट्रीय इतिहासका एक महत्त्वपूर्ण लेखा है, परन्तु विचारके. इतिहास या एक .सजीव आत्मिक अनुभूतिके रूपमें मुझे इसका मूल्य या इसकी. महत्ता बहुत थोड़ी प्रतीत होती थी ।
वैदिक बिचारके साथ मेरा प्रथम परिचय अप्रत्यक्ष रूपसे उस समय हुआ जब मैं भारतीय योग-विधिके अनुसार आत्मविकासकी किन्हीं दिशाओंमें अभ्यास कर का था । आत्मविकासकी ये दिशाएं स्वतः ही हमारे पूर्व पितरोंसे अनुसृत, प्राचीन और अब अनभ्यस्त मार्गोकी ओर मेरे अनजाने ही प्रवृत्ति रखती थीं । इस समय मेरे मनमें प्रतीक रूप नामोंकी एक शृंखला उठनी शुरू हुई । ये प्रतीक किन्हीं ऐसी आध्यात्मिक अनुभूतिथोसे सम्बद्ध थे जो मुझे नियमित रूपसे होनी आरम्भ हो चुकी थीं, और उनके बीचमें तीन स्त्रीलिंगी शक्तियों इणा, सरस्वती, सरमाके प्रतीक भी आये । ये
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शक्तियां अन्तर्ज्ञानमय बुद्धिकी चार शक्तियोंमेसे तनकीं-क्रमशः स्यतःप्रकाख (Revelation), अन्तःप्रेरणा ( Inspiration), और अन्त:र्ज्ञान (Intuition) की द्योतक थीं । इनके नामोंमेंसे दो मुझे इस रूपमें सुपरिचित नहीं थे कि ये वैदिक देवियोंके नाम है, बल्कि इससे कहीं अधिक इन शक्तियोके विषयमें मैं यह समझता था कि ये प्रचलित हिंदुधर्म या प्राचीन पौराणिक कथानकोंके साथ संबंध रखती हैं अर्थात् 'सरस्वती' विद्याकी देवी है और 'इणा' चन्द्ववंशकी माता है । परंतु तीसरी 'सरमा' से मैं पर्याप्त रूपसे परिचित था । तथापि इसकी जो आकृति. मेरे अंदर उठी थी उसमें और स्वर्गकी कुतिया ( 'सरमा') में मैं' कोई संबंध निश्चित नहीं कर सका । 'सरमा' मेरी स्मृतिमें आर्गिव हैलन ( Argive Helen)1 के साथ जुड़ी हुई थी और केवल उस भौतिक उषाके रूपककी द्योतक थी; जो खोयी हुई प्रकाशकी गौओंको खोजते-खोजते अंधकारकी शक्तियोंकी गुफामें घुस जाती है । एक बार यदि मूलसूत्र मिल जाता, इस बासका सूत्र कि भौतिक प्रकाश मानसिक प्रकाशको निरूपित करता है, तो यह समझ जाना आसान. था कि स्वर्गकी कुतिया ( 'सरमा' ) हो सकती है अन्तर्ज्ञान, जो अवचेतन मन (Subconscious mind) की अंधेरी युफाओंके अंदर प्रवेश करता है ताकि उन गुफाओंमें बंद पडे हुए ज्ञानके .चमकीले प्रकाशोंको छुटकारा दिलानेकी. और छुटकर उनके जगमगानेकी तैयारी करे । परंतु वह सूत्र नहीं मिला और मैं प्रतिकके किसी सादृश्यके बिना केवल नामके सादृश्यको कल्पित करनेके लिये बाघ्य हुआ ।
पहिले-पहल गंभीरतापूर्वक मेरे विचार वेदकी ओर तब आकृष्ट हुए अब मैं दक्षिण भारतमें रह रहा था | दो बातोंने जो बलात् मेरे मनपर आकर पड़ीं, उत्तरीय आर्य और दक्षिणीय द्रविड़ियोंके बीच जातीय विभागके मेरे विश्वासपर, जिसे मैंने दूसरोंसे लिया था, एक भारी आघात पहुँचाया । मेरा यह जातीय विभागका विश्वास पूर्णत: मिर्भर करता था उस कल्पित भेदपर जो आर्यों तथा द्रविड़ियोंके भौतिक रूपोंमें किया गया है, तथा उस अपेक्षाकृत अधिक निश्चित विसंवादितापर जो उत्तरीय संस्कृतजन्म तथा दक्षिणीय संस्कृतिभिन्न भाषाओंके बीचमें पायी जाती है । मैं उन नये मतोंसे तो अवश्य' परिचित था जिनके अनुसार भारतके प्रायद्वीपपर एक ही सवर्ण-जाति, द्रविड़-जाति या भारत-अफगान ( Indo-Afghan) जाति, निवास करती है, परंतु अबतक मैंने इनको कभी अधिक महत्त्व नहीं दिया था ।
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1. ग्रीक गाथाशास्त्रकी एक देवी
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पर दक्षिन भारतमें मुझपर यह छाप पड़नेमें बहुत समय नहीं लगा कि तामिल जातिमें उत्तरीय या 'आर्य' रूप विद्यमान है । जिघर भी मैं मुड़ा, एक चकित कर देनेवाली स्पष्टताके साथ मुझे यह प्रतीत हुआ कि मैं न .केवल ब्राह्मणोंमें किंतु सभी जातियों और श्रेणियोंमें महाराष्ट्र, गुजरात, हिंदुस्थानके अपने मित्रोंके उन्हीं पुराने परिचित चेहरों, रूपों, आकृतियोंको पहिचान रहा हूँ, बल्कि अपने प्रांत बंगालके भी यद्यपि, वह बंगालकी समानता अपेक्षाकृत कम व्यापक रूपमें फैली हुई थी । जो छाप मुझपर पड़ी वह यह थी कि मानो उत्तरकी सभी जातियों, उपजातियोंकी एक सेना दक्षिणमें उतरकर आयी हो और आकर जो कोई भी लोग यहाँ पहिले से बसे हुए हों उन्हें अपने अंदर निमज्जित कर लिया हो । दक्षिणीय रूप ( type) की एक सामान्य छाप बची एही, परंतु व्यक्तियोंकी मुखाकृतियोंका अध्ययन करते हुए उस रूपको दृढ़ताके साथ स्थापित कर सकना असंभव था । और अंतमें यह घारणा बनाये बिना मैं नहीं रह सका कि जो कुछ भी संकर हो गये हों, चाहे जो भी प्रादेशिक भेद विकसित हो गये हों, सब विभेदोंके पीछे सारे भारतमें जैसे एक सांस्कतिक वैसे ही एक भौतिक रूप (type)1 की एकता भी अवश्य है । शेषत:, यह है परिणाम जिसकी ओर पहुँचनेकी स्वयं जाति-विज्ञान-संबंधी विचार2 भी बहुत अधिक प्रवृत्ति रखता है ।
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तो फिर उस तीव्र भेदका क्या होगा जो भाषाविज्ञानियोंने आर्य तथा द्राविड़ जातियोंके बीच बना रचा है ? वह समाप्त हो जाता है । यदि किसी तरह आर्यजातिके .आक्रणको मान ही लिया जाय, तो हमें या तो यह मानना होगा कि इसने भारतको आर्योंसे भर दिया और इस तरह बहुत थोड़े-से अन्य परियर्तनोके साथ इसीने यहाँके लोगोंके भौतिक रूपको निश्चित किया, अथवा यह मानना पड़ेगा कि एक कम सभ्य जातिके छोटे-
1. मैंने यह पसंद किया है कि यहां जाति (race) शब्द का प्रयोग न करूं क्योंकि जाति एक ऐसी चीज है है जो, जैसा कि इसके बिषय में साधारणतया समझ जाता है | उसकी अपेक्षा, बहुत अधिक अस्पष्ट है और इसका निश्चय करना बहुत कठिन है । 'जाति' के विषय में सोचते हुए सर्वसाधारण मन में ओ तीन भेदे प्रर्चीलत हैं वे यहां कुछ भी प्रयोजन के नहीं ।
2. ऐसा मैंने सदा यह मानते हुए कहा है कि कम-से-कम आतिविज्ञानसंबंधी कल्पनाएं किसी प्रमाण पर आाश्रित हैं । आतिविज्ञान का एकमात्र दृढ़ आधार यह मत है कि मनुष्य का कपाल वंशपरंपरा से अपरिवर्तनीय है पर इस मत को अब ललकार आने लगा है | यदि यह प्रसिद् हो जाता है तो इसके साथ यह सारा-का-सारा विज्ञान ही प्रसिद्ध हो जाता है |
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छोटे दल ही यहाँ आ घुसे थे, जो बदलकर धीरे-धीरे आदिम निवासियों जैसे हो गये । तो फिर आगे हमें यह कल्पना करनी पड़ती है कि ऐसे विशाल प्रायद्वीपमें आकर भी जहां कि सभ्य लोग रहते थे, जो बड़े-बड़े नगरोंको बनानेवाले थे, दूर-दूर तक व्यापार करनेवाले थे, जो मानसिक तथा आत्मिक संस्कृतिसे भी शून्य नहीं थे, उनपर वे आक्रान्ता अपनी भाषा, घर्म, विचारों. और रीति-रियाजोंको थोप देनेमें समर्थ हो सके । ऐसा कोई चमत्कार तभी संभव हो सकता था, यदि आक्रान्ताओंकी बहुत ही अधिक संगठित अपनी भाषा होती, रचनात्मक मनकी, अधिक बड़ी शक्ति होती और अपेक्षाकृत अधिक प्रबल धार्मिक विधि और भावना होती ।
और दो जातियोंके मिलानेकी कल्पनाको पुष्ट करनेके लिये भाषाके भेदकी बात तो सदा विद्यमान थी ही । परंतु इस बिषयमें भी मेरे पहिलेके बने हुए विचार गड़बड़. और भ्रांत निकले । क्योंकि तामिल शब्दोंकी परीक्षा करनेपर, जो यद्यपि देखनेमें संस्कृतके रूप और ढंगसे बहुत अधिक भिन्न प्रतीत होते थे, मैने यह पाया कि वे शब्द या शब्द-परिवार जो विशुद्ध रूपसे ताभिल ही समझे जाते थे, संस्कृत तथा इसकी दूरवर्ती बहिन लैटिनके बीचमें और कभी-कभी ग्रीक तथा संस्कृतके बीचमें नये संबंधोकी स्थापना करनेमें मेरा पथप्रदर्शन करते थे । .कभी-कभी तामिल शब्द न केवल शब्दोंके परस्पर-संबंधका पता देते थे, बल्कि संबद्ध शब्दोंके परिवारमें किसी ऐसी कड़ीको भी सिद्ध कर देते थे जो मिल नहीं रही होती थी । और इस द्वाविड़ :भाषाके द्वारा ही मुझे पहिले-पहल आर्य भाषाओंके नियमका जो मुझे अब सत्य नियम प्रतीत होता है, आर्य भाषाओंके उत्पत्ति-बीजोंका, था यों कहना चाहिये कि, मानो इनकी गर्भविद्याका पता मिला था । मैं अपनी जांचको पर्याप्त दूर तक नहीं ले जा सका जिससे कि! कोई निश्चित परिणाम स्थापित कर सकता, परंतु यह मुझे निश्चित रूपसे प्रतीत होता है कि द्राविड़ और आर्य, भाषाओंके बीचमें मौलिक संबंध उसकी अपेक्षा कहीं अधिक घनीनिष्ठ और विस्तृत था जितना प्राय: माना जाता है और संभावना तो यह प्रतीत होती है की वे एक ही लुप्त आदिम भाषासे निकले हुए दो विभिन्न परिवार हों । यदि ऐसा हो तो द्राविड़ भारतपर अर्योंके आक्रमण होनेके विषयमें एकमात्र अवशिष्ट साक्षी यही रह जाती है कि वैदिक सूक्तोंमें इसके निर्देश पाये जाते हों ।
इसलिये मेरी दोहरी दिलचस्पी थी, जिससे प्रेरित होकर मैंने पहिले-पहल मूल वेदको अपने हाथमें लिया, यद्यपि उस समय मेरा कोई ऐसा इरादा नहीं' था कि मैं वेदका सूक्ष्म या गंभीर अध्ययन करूँगा । मुझे देखनेमें
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अधिक समय नहीं लगा की वेदमें कहे जानेवाले आर्यों और दस्युओंके बीचमें जातीय विभाग-सूचक निर्देश तथा यह बतानेवाले निर्देश कि दस्यु और आदिम भारतनिवासी एक ही थे, जितनी कि मैंने कल्पना की हुई थी, उससे भी कहीं अघिक नि:सार हैं । परंतु इससे भी अधिक दिलचस्पीका विषय मेरे लिये यह था कि इन प्राचीन सूक्तोंके अंदर गंभीर अध्यात्मिक विचारों और अनुभूतियोका जो बड़ा भारी समुदाय उपेक्षित पड़ा था उसका मुझे पता लग गया और इस अंगकी महत्ता तब मेरी दृष्टिमें और भी बढ़ गई जब पहिले तो, मैने यह देखा कि वेदके मंत्र एक स्पष्ट और ठीक प्रकाशके साथ मेरी अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियोंको प्रकाशित करते हैं, जिनके लिये न तो योरोपियन अध्यात्म-विज्ञानमें, न ही योग की या वेदांतकी शिक्षाओंमें जहाँतक मैं इनसे परिचित था, मुझे कोई पर्याप्त स्पष्टीकरण मिलता था । और दूसरे यह कि वे उपनिषदोंके उन धुँधले संदर्भों और विचारों पर प्रकाश डालते थे जिनका पहिले मैं कोई ठीक-ठीक अर्थ नहीं कर पाता था, और इसके साथ ही इनसे पुराणोंके भी बहुतसे भागका एक नया अभिप्राय पता लगता था ।
इस परिणाम पर पहुँचनेमें सौभाग्यवश मैनै जो सायणके भाष्यको पहिले नहीं पढ़ा था उसने मेरी बहुत मददकी । क्योंकि मैं स्वतन्त्र था कि वेदके बहुतसे सामान्य और बार-बार आनेवाले शब्दोंको उनका जो स्वाभाविक आध्यात्मिक अर्थ है वह दे सकूं, जैसे कि 'घी'का अर्थ विचार या समझ, 'मनस्'का' अर्थ मन, 'मूर्ति' का अर्थ विचार, अनुभव या मानसिक अवस्था, 'मनीषा'का अर्थ बुद्धि, 'ऋतम्'का अर्थ सत्य; और मैं स्वतन्त्र था कि शब्दोंको उनके अर्थकी वास्तविक प्रतिच्छाया दे, सकूं, 'कवि'को द्रष्टाकी, 'मनीषी'-को विचारककी, 'विप्र, विपश्चित्'को प्रकाशित मनसे युक्तकी, इसी प्रकारके और भी कई शब्दोंको; और मैं स्वतन्त्र था कि कुछ शब्दोंका एक आध्यात्मिक अर्थ-जिसे मेरे अधिक व्यापक अध्ययनने भी यूक्तियुक्त ही प्रमाणित किया था--प्रस्तुत करनेका साहस करूं जैसे कि 'वक्ष''का जिसका कि सायणके अनुसार 'बल' अर्थ है और 'श्रवस्''का जिसके सायणने घन, दौलत, अन्न या कीर्ति ये अर्थ किये हैं | वेदके विषयमें आध्यात्मिक .अर्थका सिद्धान्त इन शब्दोंका स्वाभाविक अर्थ ही स्वीकार करनेके हमारे अधिकारपर आधार रखता है ।
सायणने 'घी', 'ॠतम' आदि शब्दोंके बहुत ही परिवर्तनशील अर्थ किये हैं । 'ॠतम्' शब्दका, जिसे हम मनोवैज्ञानिक या आध्यात्मिक व्याख्याकी लगभग कुञ्जी कह सकते है, सायणने कभी कभी 'सत्य', अघिकतर 'यज्ञ'
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और .किसी-कीसी जगह 'जल' अर्थ किया है । आध्यात्मिक व्याख्याके अनुसार निश्चित रूपसे इसका अर्थ सत्य होता है । 'घी'के सायणने 'विचार', 'स्तुति', 'कर्म', 'भोजन' आदि अनेक अर्थ किये है । आध्यात्मिक व्याख्या के अनुसार नियत रूपसे, इसका अर्थ विचार या, समझ है । और यही बात वेदकी अन्य नियत संज्ञाओंके सम्बन्धमें है । इसके अतिरिक्त, सायणकी प्रवृत्ति यह है कि वह शब्दोंके अर्थोंकी छायाओंको और उनमें जो सूक्ष्म अन्तर होता है उसे बिल्कुल मिटा देता है और उनका जो अधिक-से-अधिक स्थूल सामान्य अर्थ होता है वही कर देता है । सारे-के-सारे विशेषण जो किसी मानसिक क्रियाके द्योतक है, उसके लिये एकमात्र 'बुद्धिशाली' अर्थको देते हैं, सारे-के-सारे शब्द जो शक्तिके विभिन्न विचारोंके सूचक हैं--और वेद उनसे भरा पड़ा है--बलके स्थूल अर्थमें परिणत कर दिये गये हैं । इसके विपरीत, वेदाध्ययनसे मुझपर तो इस बातकी छाप पड़ी कि .वेदके अर्थोंकी ठीक-ठीफ छायाको नियत करने तथा उसे सुरक्षित रखनेकी और विभिन्न शब्दोंके अपने ठीक-ठीक सहचारी सम्बन्ध क्या हैं उन्हें निश्चित करनेकी बड़ी भारी महत्ता है, चाहे वे शब्द अपने सामान्य अभिप्रायमें परस्पर कितना ही निकट सम्बन्ध क्यों न रखते हों । सचमुच, मैं नहीं समझ पाता कि हमें क्यों यह कल्पना कर लेनी चाहिये कि वैदिक ऋषि, काव्यात्मक शैलीमें सिद्धहस्त अन्य रचयिताओंके विसदृश, शब्दोंको अव्यवस्थित रूपसे और अविवेकपूर्णताके साथ प्रयुक्त करते थे, उनके ठीक-कीक सहचारी सम्बन्धोंको अनुभव किये बिना ही और शब्दोंकी श्रुखलामें उन्हें उनका ठीक-ठीक और यथोचित बल प्रदान किये बिना ही प्रयुक्त करते थे ।
इस नियमका अनुसरण करते-करते मैंने पाया कि शब्दों और वाक्य-खण्डोंके सरल, स्वाभाविक और सीधे अभिप्रायको बिना छोड़े ही, न केवल पृथक्-पृथक् ॠचाओंका बल्कि सम्पूर्ण सन्दर्भोंका एक असाधारण विशाल समुदाय तुरन्त ही बुद्धिगोचेर हो गया, जिसने वेदके, सारे स्वरूपको ही पूर्णरूपसे बदल दिया । क्योंकि तब यह घर्म-ग्रन्थ वेद ऐसा प्रतीत होने लग गया कि यह अत्यन्त बहुमूल्य विचार-रूपी सुवर्णकी एक स्थिर रेखाको अपने अन्दर रखता है और आध्यात्मिक अनुभूति इसके अंश-अंशमें चमकती हुई प्रवाहित हुई हो रही है, जो कहीं छोटी-छोटी रेखाओंमें, कहीं बड़े-बड़े समूहोंमें, इसके अधिकांश सूक्तोंमें दिखाई देती है । साथ ही, उन शब्दोके अतिरिक्त जो अपने स्पष्ट और सामान्य अर्थसे तुरन्त ही अपने प्रकरणोंको आध्यात्मिक अर्थकी सुवर्णीय रंगत दे देते हैं, वेद अन्य भी ऐसे वहुतसे शब्दोंसे भरा पड़ा है जिनके लिये यह सम्भव है कि, वेदके सामान्य अभिप्रायके विषयमें
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हमारी जो धारणा हो उसीके अनुसार, चाहे तो उन्हें बाह्य और प्रकृति-वादी अर्थ दिया जा सके, चाहे एक आभ्यन्तर और आध्यात्मिक अर्थ । उदाहरणार्थ, इस प्रकारके शब्द जैसे कि रै, रयी, राषस, रत्न केवल भौतिक समूद्धि या घनदौलतके वाचक भी हो सकते हैं और आन्तरिक ऐश्वर्य तथा समृद्धिके भी । क्योंकि ये मानसिक जगत् और बाह्य जगत् दोनोंके लिये एकसे प्रयुक्त हो सकते हैं । घन, वाज, पोषका अर्थ बाह्य धनदौलत, समृद्धि और पुष्टि भी हो सकता है अथवा सभी प्रकारकी सम्पत्तियां चाहे वे आन्तरिक हों चाहे चाह्य, और व्यक्तिके जीवनमें उनकी प्रचुरता और वृद्धि । उपनिषद्में ऋग्वेदके एक उद्धरणकी व्याख्या करते हुए 'राये'को आध्यात्मिक सम्पत्तिके अर्थमें प्रयुक्त किया है, तो फिर मूल वेदमें इसका यह अर्थ क्यों नहीं हो सकता ? 'बाज' बहुधा ऐसे सन्दर्भमें आता है जिसमें अन्य प्रत्येक शब्द आध्यात्मिक अभिप्राय रखता है, जहां भौतिक समृद्धिका उल्लेख समस्त एकरस विचारके अन्दर असंगतिका एक तीव्र बेसुरापन लादेगा । इसलिये सामान्य बूद्धिकी मांग है कि वेदमें इन शब्दोंका प्रयोगको आध्यात्मिक अभिप्राय देनेवाला ही स्वीकार करना चाहिये ।
परन्तु यदि यह संगतिपूर्वक किया जा सके तो इससे न केवल समूची ऋचाएं और, संदर्भ, बल्कि समूचे सूक्त तुरन्त आध्यात्मिक रंगसे रंग जाते हैं । एक ही शर्त है जिसपर वेदोंका यह आध्यात्मिक रंगमें रंगा जाना प्रायः पूर्ण होगा, एक भी शब्द या एक भी वाक्यखण्ड इससे प्रभावित हुए बिना नहीं बचेगा, वह शर्तें यह है कि हमें वैदिक 'यज्ञं'को प्रतीकरूपमें स्वीकार करना चाहिये । गीतामें हम पाते हैं कि 'यज्ञ'का प्रयोग उन सभी कर्मोंके प्रतीकके रूपमें किया गया है, चाहे वे आन्तर हों चाहे बाह्य, जो देवोंको या ब्रह्मको समर्पित किये जाते है । इस शब्दका यह प्रतीकात्मक प्रयोग क्या उत्तरकालीन दार्शनिक बुद्धिका पैदा किया हुआ है, अथवा यह यज्ञके वैदिक विचारमें पहिलेसे अन्तर्निहित था ? मैंने देखा कि स्वयं वेदमें ही ऐसे सूक्त हैं जिनमें 'यज्ञ'का अथवा बलिका विचार खुले तौर पर प्रती-कात्मक है, और दूसरे कुछ सूक्तोंमें यह प्रतीकात्मकता अपने ऊपर पड़े आवरणमेंसे स्पष्ट दिखाई देती है । तब यह प्रश्न उठा कि क्या ये सूक्त बादकी रचनाएं हैं जो पुराने अन्घ विश्वासपूर्ण विधि-विषानोंमेंसे एक प्रारम्भिक प्रतीकवादको विकसित करती हैं अथवा, इसके विपरीत, क्या ये अवसर पाकर कहीं-कहीं उस अर्थका अघिक स्पष्ट रूपमें प्रतिपादन करते हैं जो अविकतर सूक्तोंमें कम-अधिक सावघानीके साथ अलंकरके पदेंसे ढका हुआ रखा । यदि वेदमें आध्यात्मिक संदर्भ सतत रूपसे न पाये जाते तो
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निस्संदेह पहिले स्पष्टीफरणको ही स्वीकार किया जाता । परन्तु इसके विपरीत, सारे सूक्त स्वभायत: एक आध्यात्मिकि अर्थको लिये हुए हैं जिनमें एकसे दूसरे मन्त्रमें एक पूर्ण और प्रकाशमय संगीत है, अस्पष्टता केवल वहां आती है जहां यज्ञका उल्लेख है या हविका अथवा कहीं-कहीं यज्ञ-संचालक पुरोहितका, जो या तो मनुष्य हो सकता है या देवता । यदि मैं इन शब्दोंकी प्रतीकात्मक व्याख्या कर पता था तो मैं हमेशा यह देखता था कि विचारकी श्रंखला. अधिक पूर्ण, अधिक प्रकाशमय, अधिक संगत हो जाती थी और पूरे-के-पूरे, सूक्तका आशय उज्जवल रूपसे पूर्ण हो जाता था । इस-लिये स्वस्थ समालोचनाके प्रत्येकं नियमके द्वारा मैने इसें न्यायोचित अनुभव किया कि मैं अपनी कल्पनाके अनुसार आगे चलता चलूं और इसमें वैदिक यज्ञके प्रतीकात्मक. अभिप्रायको भी सम्मिलित कर दूं ।
तो भी यहीं पर आध्यात्मिक व्याख्याकी सर्वप्रथम वास्तविक कठिनाई आकर उपस्थित हो जाती है । अबतक तो मैं एक पूर्ण रूपसे सीधी और स्वाभाविक व्याख्यापद्धतिसे चल रहा था जो शब्दों और वाक्योंके ऊपरी अर्थ पर निर्भर थी । पर अब मैं एक ऐसे तत्त्व पर आ गया जिसमें एक दृष्टिसे ऊपरी अर्थ को अतिक्रमण कर जाना' पड़ता था, और यह ऐसी पद्धति थी जिसमें प्रत्येक समालोचक और सदसदविवेकी व्यक्तिका मन अवश्य अपने-आपकों निरन्तर सुन्देहोसे आक्रान्त पायेगा | इस तरह कोई भी, चाहे वह कितनी भी सावधानी रक्खे, इस बातमें सदा निश्चित नहीं हो सकता कि उसने ठीक सूत्र ही पकड़ा है और उसे ठीक व्याख्या ही सूझी है ।
वैदिक यज्ञके अन्तर्गत-एक क्षणके लिये देवता और. मन्त्रको छोड़ दे तो-तीन अंग हैं. हवि देनेवाले, हवि और हविके फल | यदि 'यज्ञ' एक कर्म है जो देवताओंको समर्पित किया जाता है तो 'यजमान'' को, हवि देनेवालेको मैं यह समझे बिना नहीं रह सकता कि वह उस कर्मका कर्ता है । ' यज्ञ'-का अभिप्राय है कर्म, वे कर्म आन्तरिक हो या बाह्य, इसलिये 'यजमान' होना चाहिये आत्मा अथवा! वह व्यक्तित्व जो कर्ता है । परंतु साथ ही यज्ञ-प्तंचालक, पुरोहित भी होते थे, होता, ॠत्विक्, पुरोहित, ब्रह्मा, अध्वर्यु आदि । इस प्रतीकात्मकवादमें उनका कौन-सा भाग था ? क्योंकि एक बार यदि यज्ञके लिये हम प्रतीकात्मक अभिप्रायकी कल्पना कर लेते हैं तो इस यज्ञ-विघिके प्रत्येक अंगका हमें प्रतीकात्मक मूल्य कल्पित करना चाहिये । मैने पाया की देवताओंके विषयमें सतत रूपसे यह कहा गया है कि वे यज्ञके पुरोहित हैं और बहुतसे संदर्भोंमें तो प्रकट रूपसे एक अमुाषी सत्ता या शक्ति ही यज्ञका अधिष्ठान करती है । मैने यह भी देखा की सारे वेदमें
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हमारे व्यक्तित्वको बनानेवाले तत्त्व स्वयं सतत रूपसे सजीव शरीरघारी मानकर वर्णित किये गये है । मुझे इस नियमको केवल उलट करके प्रयुक्त करना था और यह कल्पना करनी थी कि बाह्य अलंकारमें जो पुरोहितका व्य व्यक्तित्व है वह आभ्यंतर क्रियाओंमें आलंकारिक रूपसे एक अमानुषी सत्ता या शक्तिको अथवा हमारे व्यक्तित्वके किसी तत्त्वको सूचित करता है । फिर अवशिष्ट रह गया पुरोहितसंबंघी भिन्न-भिन्न कार्योंके लिये आध्यात्मिक अभिप्राय नियत करना । यहाँ मैने पाया कि वेद स्वयं अपने भाषासंबंधी निर्देशों औंर दृढ़ शक्तियोंके द्वारा हमें मूलसूत्रको पकड़ा रहा है, जैसे, 'पुरोहित' शब्दका प्रतिनिधिके भावके साथ अपने असमस्त रूपमें, पुर:-हित "आगे रखा हुआ'' इस अर्थमें प्रयुक्त होना और प्राय: इससे अग्निदेवताका संकेत किया जाना; यह अग्नि मानवतामें उस दिव्य संकल्प या दिव्य शक्तिका प्रतीक है जो यज्ञरूपसे किये जानेवाले सब पवित्र कर्मोंमें क्रियाकी सञ्जालिका
होती हैं ।
हवियोंको समझ सकना और भी अधिक कठिन था । चाहे सोम-सुरा भी, जिन प्रकरणोंमें इसका वर्णन है उनके द्वारा, अपने. वर्णित उपयोग और प्रभावके. द्वारा और अपने .पर्यायवाची शब्दोंसे मिलनेवाले भाषा-विज्ञान- संबंधी निर्देशके द्वारा स्वयं अपनी व्याख्या कर सकती थी, पर यज्ञके घी, 'धृतम्'का क्या अभिप्राय लिया जाना संभव था ? तो भी वेदमें यह शब्द जिस रूपमें प्रयुक्त हुआ है वह .इसीपर बल देता था कि इसकी प्रती- कात्मक व्याख्या. ही होनी. चाहिये । उदाहरणार्थ, अंतरिक्षसे. बूंदरूपमें गिरनेवाले घृतका या .इन्द्रके षोड़ोंमेंसे क्षरित .होनेवाले अथवा मनसे क्षरित होनेवाले घृतका क्या अर्थ हो सकता था ? स्पष्ट ही यह एक बिल्कुल असंगत और व्यर्थकी बात होती, यदि घी अर्थको देनेवाले 'धृत' शब्दका इसक अतिरिक्त कोई और अभिप्राय होता कि यह किसी बातके लिए एक ऐसा प्रतीक है जिसका प्रयोग बहुत. शिथिलताके साथ किया. गया है, यहांतक कि विचारक को बहुधा अपने मनमें, इसके बाह्य अर्थको सवाँशमें गा आशिक रूपसे अलग रख देना चाहिये । नि :संदेह यह भी संभव था कि आसानीके साथ इन शब्दोंके अर्थको प्रसंगानुसार बदल दिया जाय, 'धृत'क़ो कहीं घी और कहीं पानीके अर्थमें ले लिया जाय तथा 'मनस्'का अर्थ कहीं मन और कहीं अन्न या अपूप कर लिया जाय । परंतु मुझे पता लगा कि 'धृत' सतत रूपसे विचार या मनके साथ प्रयुक्त हुआ है तथा वेदमें 'द्यो' मनका प्रतीक है और 'इन्द्र' प्रकाशयुक्त मनोवृत्तिका प्रतिनिधि है और उसके दो घोड़े उस मनोवृत्तिकी द्विविध शक्तियां हैं । मैंने यहांतक देखा कि वेद कहीं-कहीं साफ
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तौरसे बुद्धि ( धिषणा ) की शोषित धृतके रूपमें देवोंके लिये हवि देनेको कहता है, 'ध्रुतं. न पूतं धिषणाम्_ ( 3-2-1 ). । 'धृत' शब्दकी भाषविज्ञानकी द्रृष्टि-से जो व्याख्याएं की जाती हैं, उनमें भी इसका एक अर्थ अत्यधिक था उष्ण चमक है । इन सब निर्देशोंकी अनुकूलताक आधार पर ही मैने अनुभव किया कि 'धृत'के प्रतीककी यदि मैं कोई आध्यात्मिक व्याख्या करता हूं. तो मैं ठीक रास्ते पर हूं । और इसी नियम तथा. इसी प्रणालीको मैंने यज्ञके दूसरे अंगोंमें भी प्रयुक्त करने .योग्य पाया ।
हविके फल देखनेमें विशुद्ध .रूपसे भौतिक प्रतीत होते थे--गौएँ, घोडे, सोना, अपत्य, मनुष्य, शारीरिक बल, युद्धमें विजय । यहां कठिनाई और भी दुस्तर हो गयी. । पर यह मुझे पहले ही दीख चुका था कि वेद की 'गौ' बहुत ही. पहेलीदार प्राणी है, यह किसी पार्थिव गोशालासे नहीं आया है । 'गौ' शब्द के दोनों अर्थ है, गाय और प्रकाश, और कुछ एक संदर्भों में तो, चाहे हम गाय के प्रतीकको अपने सामने रखें भी, तो भी स्पष्ट ही इसका अर्थ प्रकाश ही होता था । यह. पर्याप्त स्पष्ट हो जाता है जब हम सूर्यकी गौओं--होमर (Homer) कविकी हीलियसकीं गौओं--और उषा की गौओं पर विचार करते हैं । आध्यात्मिक रूपमें, भौतिक प्रकाश ज्ञानके--विशेषकर दिव्य ज्ञानके-प्रतीकके रूपमें अच्छी तरह प्रयुक्त किया जा सकता हैं । परंतु यह तो केवल संभावनामात्र थी, इसकी परीक्षा और प्रमाणसे स्थापना कैसे होती ? मैंने पाया कि ऐसे संदर्भ आते हैं, जिनमें आसपासका सारा ही प्रकरण अध्यात्मपरक है और केवल 'गौ'का प्रतीक ही अपने अड़ियल भौतिक अर्थके साथ बीचमें आकर बाधा डालता है । इन्द्रका आह्वान सुन्दर (पूर्ण ) रूपोंके निर्माता, 'सुरूपकृत्नु तौर पर किया गया है कि वह आकर सोमरसको पिये; उसे पीकर बह आनन्दमें भर जाता है और गौओंको देनेवाला ( गोदा: ) हो जाता है, तब हम उसके समीपतम या चरम सुविचारोंको प्राप्त कर सकते हैं, तब हम उससे प्रश्न करते हैं और उसका स्पष्ट विवेक हमें हमारे सर्वोच्च कल्याणको प्राप्त कराता है1 । यह स्पष्ट है कि इस, प्रकारके संदर्भोंमें गौएं भौतिक गाये नहीं हो सकतीं, नाहीं 'भौतिक प्रकाशको देनेवाला' यह अर्थ प्रकरणमें किसी अभिप्रायको लाता है । कम-से-कम एक उदाहरण मेरे सामने ऐसा आया जिसने मेरे मनमें यह निश्चित रूपसे स्थापित कर दिया कि वहां वैदिक गौ आध्यात्मिक प्रतीक ही है । तब मैंने इसे उन दूसरे संदर्भोंमें प्रयुक्त किया जहां 'गौ' शब्द
1. यह ॠग्वेद मंडल 1 सूक्त 4 के आधारपर हैं | ---अनुवादक
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आता या सर्वदा मैंने यही पाया की परिणाम यह होता था कि इससे प्रकरणका अर्थ अच्छे-से-अच्छा .हो जाता था और उसमें अघिक-से-अघिक संभवनीय संगति आ जाती थी ।
गाय और घोड़ा 'गो' , और 'अश्व' निरन्तर इकट्ठे आते हैं । उषाका वर्णन इस रूपमें हुआ है कि वह 'गोमती अश्वावती' है उषा यज्ञकर्त्ता (यजमान ) को घोड़े और गौएं देती है । प्राकृतिक उषाको ले तो 'गोमती'का अर्थ है प्रकाशकी किरणोंसे युक्त या प्रकाशकी किरणोंको जाती हुई और यह मानवीय मनमें होनेवाली प्रकाशकी उषाके लिये एक रूपक है । इसलिए 'अश्यावती' विशेषण भी एकमात्र भौतिक घोड़ोंका निर्देश करनेवाला नहीं हो सकता, साथमें इसका कोई आध्यात्मिक अर्थ भी अवश्य होना चाहिये ।. वैदिक 'अश्व'का अध्ययन करने पर. मैं इस परिणामपर पहुंचा कि 'गौं' और अश्व वहां प्रकाश और शक्तिके, ज्ञान और बलके दो सहचर विचारोंके प्रतिनिधि हैं जो वैदिक और वैदांतिक. मनके लिये सत्ताकी सभी क्रियाओंके द्विविध या युगलरूप पक्ष होते थे ।
इसलिए यह स्पष्ट हो गया कि वैदिक यज्ञके दो मुख्य फल गौओंकी संपत्ति और घोड़ोंकी संपत्ति, क्रमश: मानसिक प्रकाशकी समृद्धि और जीवन-शक्तिकी बहुलताके प्रतीक हैं । इससे परिणाम निकला कि. वैदिक कर्म (यज्ञ) के इन दो मुख्य फलोंके साथ निरन्तर संबद्ध जो दूसरे फल हैं उनकी भी अवश्यमेव आध्यात्मिक व्याख्या हो सकनी चाहिये । शेष केवल यह रह गया कि उन सबका ठीक-ठीक अभिप्राय नियत किया जाय ।
वैदिक प्रतीकवादका एक दूसरा अत्यावश्यक अंग है लोकोंका संस्थान और देवताओंके व्यापार । लोकोंके प्रतीकवादका सूत्र मुझे 'व्याहतियों'के वैदिक विचारमें, ''ओ३म् भूर्भुवः स्व:'' इस मंत्रके तीन प्रतीकात्मक शब्दों-में और चौथी व्याहति 'मह:'का आध्यात्मिक अर्थ रखनेवाले 'ॠत' शब्दके साथ जो संबंघ है उसमें मिल गया । ॠषि विश्वके तीन विभागोंका वर्णन करते हैं, पृथिवी, अंतरिक्ष या मध्यस्थान और घौ, परंतु साथ ही एक आध्यात्मिक बड़ा द्यौ (वृहत् द्यौ ) भी है, जिसे विस्तृत लोक् (वृहत् ) भी कहा गया है और कहीं-कहीं जिसे महान् जल, 'महो अर्णः'के रूपमें भी वर्णित किया गया है । फिर इस ' बृहत्'का 'ॠतम् बृहत्' इस रूपमें अथवा 'सत्यम् ॠतम् बृहत्'1 इन तीन शब्दोंकी परिभाषाके रूपमें वर्णन मिलता है । और क्योंकि तीन लोक प्रारंभिक तीन व्याह्रतियोंसे सूचित होते हैं,
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1. सत्यम् बृहत् ऋतम् | अथर्व० 12-1-1
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इसलिये बृहत्'के और ॠत'के इस चौथे लोकका संवंध उपनिषदोंमें उल्लेखित चौथी व्याहृति 'मह:'से होना चाहिये । पौराणिक सूत्रमें ये चार तीन अन्य--'जन:', ' तप:', 'सत्यम्' से मिलकर पूर्ण होते हैं, जो तीन कि हिंदू सृष्टि-विज्ञानके तीन उच्च लोक हैं । वेदमें भी हमें तीन सर्वोच्च लोकोंका उल्लेख मिलता है, यद्यपि उनके नाम नहीं दिये गये हैं । परंतु वैदांतिक और पौराणिक सम्प्रदायमें ये सात लोक सात आध्यात्मिक तत्त्वों या सत्ताके सात रूपों-सत्, चित्, आनंद, विज्ञान, मन, प्राण, अन्न-को सूचित करते हैं । अब यह मध्यका लोक विज्ञान, जो 'मह:'का लोक है, एक महान् लोक है, वस्तुओंका सत्य है, और यह तथा वैदिक 'ॠतम्' जो 'बृहत्'का लोक है, दोनों एक ही हैं, और जहाँ पौराणिक संप्रदायके 'मह:'के बाद, यदि नीचेसे ऊपरका क्रम लें तो, 'जन:' आता है, ( जो आनन्दका, दिव्य सुखका लोक है ) वहाँ वेदमें भी ' ॠतम्' अर्थात् .सत्य ऊपरकी ओर 'मय:' तक, सुख तक, ले जाता है । इसलिये हम उचित रूपसे इस निश्चय पर पहुंच सकते हैं कि ( पौराणिक तथा वैदिक ) ये दोनों सम्प्रदाय, इस बिषयमें एक हैं और दोनोंका आधार इस एक विचार पर है कि अन्दर अपनी चेतनाके सात तत्त्व है जो बाहर सात लोकोंके रूपमें अपने-आपको प्रकट करते? हैं । इस सिद्धान्त पर मैं वैदिक लोकोंकी तदनुसारी चेतनाके आध्यात्मिक स्तरोंके साथ एकता स्थापित-कर सका और तब सारा ही वैदिक संस्थान मेरे मनमें स्पष्ट हो गया ।
जब इतना सिद्ध हो चुका, तो जो बाकी था वह स्वभावत: और अनिवार्य रूपसे होने लगा । मैं यह पहिले ही देख चुका, था कि वैदिक ऋषियोंका केन्द्रीभूत विचार था--मिथ्याके बदले सत्यको, विभक्त तथा सीमाबद्ध जीवनके बदले समग्रता तथा असीमताको लाकर, मानवीय आत्माको मृत्युकी अवस्थासे अमरताकी अवस्थामें पहुँचा देना । मृत्यु है मन और प्राणको अपने अंदर आवेष्टित रखनेवाले जड़तत्त्वकी मर्त्य अवस्था, अमरता है असीम सत्ता, चेतना और आनन्दकी अवस्था । मनुष्य घौ और पृथ्वी, मन और शरीर इन दो लोकों, 'रोदसी'से ऊपर उठकर सत्यकी असीमतामे, 'मह:'में और इस प्रकार दिव्य सुखमें पहुँच जाता है । यही वह 'महापथ' है जिसे ॠषियोंने खोजा था ।
देवोके बिषयमें मैने यह वर्णन पाया कि वे प्रकाशसे उत्पन्न हुए हैं, 'अदिति' के, अनन्तताके पुत्र हैं, और बिना अपवादके उनका इस प्रकार वर्णन आता है कि वे मनुष्यकी उन्नति करते हैं, उसे प्रकाश देते हैं, उसपर पूर्ण जलोंकी, द्यौके ऐश्वर्यकी वर्षा करते हैं, उसके अन्दर सत्यको वृद्धि करते हैं, दिव्य लोकोंका निर्माण करते हैं, उसे सब आक्रमणोंसे बचाकर महान् लक्ष्य
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तक, अखण्ड समृद्धि तक, पूर्ण सुख तक पहुँचाते हैं । उनके पृथक्-पृथक् व्यापार उनकी क्रियाओंसे, उनके विशेषणोसे, उनसे सम्बद्ध कथानकोंका जो आध्यात्मपरक आशय होता था उससे, उपनिषदों और पुराणोंके निर्देशोसे तथा ग्रीक गाथाओं द्वारा कभी-कभी पड़नेवाले आंशिक प्रकाशोंसे निकल आते थे । दूसरी ओर दैत्य जो उनके विरोधी है, सबके सब विभाग तथा सीमाकी शक्तियां हैं, ये जैसा कि उनके नाम सूचित करते हैं, आच्छादक हैं, विदारक हैं, हड़प लेनेवाले हैं, घेरनेवाले हैं, द्वैष पैदा करनेवाले हैं, प्रति-बन्धक हैं, वे ऐसी शक्तियाँ हैं जो जीबनकी स्वतंत्र तथा एकीभूत सम्पूर्णताके विरुद्ध कार्य करती है । ये वृत्र, पणि, अत्रि, राक्षस, शम्बर, वल नमुचि कोई द्राविड़ राजा और देवता नहीं हैं, जैसा कि आधुनिक मन अपनी अतिको पहुँची हुई ऐतिहासिक दृष्टिसे चाहता है कि ये हों; ये. एक अधिक प्राचीन भावके द्योतक हैं जो हमारें पूर्व पितरोंके प्रबल, धार्मिक और नैतिक कार्य-व्यापारोंके अधिक अनुकूल था । ये उच्चतर भद्रकी तथा निम्नतर इच्छाकी शक्तियोंके बीचमें होनेवाले संघर्षके द्योतक हैं और ऋग्वेदका यह विचार तथा पुण्य और पापका इसी प्रकारका विरोध जो अपेक्षाकृत कम आध्यात्मिक सूक्ष्मताके साथ तथा अधिक नैतिक स्पष्टताके साथ पारसियोंके-हमारे इन प्राचीन पड़ोसियों और सजातीय बन्धुओंके-धर्मशास्त्रोंमें दूसरे प्रकारसे प्रकट किया गया है, सम्भवतः एक ही आर्यसंस्कृतिके मौलिक शिक्षणसे प्रादुर्भूत हुआ था ।
अन्तमें मैने देखा कि वेदका नियमित प्रतीकवाद विस्तार पाकर उन कथानकोंमें भी पहुँचा हुआ है जिनमें देवोंका तथा प्राचीन ऋषियोंके साथ उनके संबंधका वर्णन है । इसकी पूर्ण सम्भावना है कि इन गाथाओंमेसे यदि सबका नहीं तो कुछका मूल तो प्रकृतिवादी तथा नक्षत्रविद्यासम्बन्धी रहा हो, पर यदि ऐसा रहा हो तो इनके प्रारम्भिक अर्थकी आध्यात्मिक प्रतीकवादके द्वारा पूर्ति की गयी थी । एक बार यदि वैदिक प्रतीकोंका अभिप्राय ज्ञात हो जाय तो इन कथानकोंका आध्यात्मिक अर्थ स्पष्ट तथा सुनियत हो जाता है । वेद का प्रत्येक तत्त्व उसके दूसरे प्रत्येक तत्त्वके साथ अवियोज्य रूपसे गूंथा हुआ है और इन रचनाओंका स्वरूप ही हमें इसके लिये बाध्य करता है कि हमने एक बार व्याख्याके जिस नियमको स्वीकार कर लिया है उसे हम अधिक-से-अधिक युक्तिसंगत दूरी तक ले जायं । इनकी सामग्री बड़ी चतुराईक साथ दृढ हाथोके द्वारा मिलाकर जोड़ दी गयी है और इनपर हमारे काम करनेमें यदि कोई असंगति बरती जाती है तो उससे इनके अभिप्राय और इनकी सुसम्बद्ध विचार-शृखलाका सारा ताना-बना ही टूट जाता है |
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इस प्रकार वेद, मानो अपनी प्राचीन. ॠचाओंमेसे अपने-आपको प्रकट करता हुआ, मेरे मनके सामने .इस रूपमें उभर आया कि यह सारा-का-सारा ही एक महान् और प्राचीन धर्मकी, जो पहिलेसे ही एक गम्भीर आध्यात्मिक शिक्षणसे विभूषित था, धर्मपुस्तक है, ऐसी घर्मपुस्तक नहीं जो गड़बड़ विचारोसे भरी हो या जिसकी प्रतिपाद्य सामग्री आदिम हो, या जो परस्पर-विरुद्ध तथा जंगली तत्त्वोंकी खिचड़ी हो, बल्कि ऐसी धर्मपुस्तक है जो अपने लक्ष्य और अभिप्रायमें पूर्ण है तथा अपने आपसे अभिज्ञ है; यह अवश्य है कि यह एक दूसरे और भौतिक अर्थके आवरणसे ढकी हुई है, जो आवरण कहीं घना है और कहीं स्पष्ट, परन्तु यह क्षणभरके लिये भी अपने उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य तथा प्रवृत्तिको दृष्टिसे ओझल नहीं होने देती ।
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