वेद-रहस्य

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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Secret of the Veda Vol. 10 582 pages 1971 Edition
English
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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo वेद-रहस्य 985 pages 1971 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Abhaydev Vedalankar
  Dharmaveer Vedalankar
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दूसरा सूक्त

भागवत शक्तिके उन्मुक्त होनेका सूक्त

 

[प्रकृति अपने साधारण, सीमित और भौतिक कार्यकलापोंमें भागवत शक्तिको अपनी गुप्त या अवचेतन सत्तामें छिपाए रखती है । जब चेतना अपने आपको 'एक' और असीमके प्रति विस्तृत करती है तभी भागवत शक्ति सचेतन मन के लिए प्रकट और उत्पन्न होती है । उच्चतर प्रकाशकी निर्मलताएँ तब तक धारण नहीं की जा सकतीं जब तक यह शक्तिरूप अग्नि उनकी रक्षा न करे, क्योंकि विरोधी शक्तियाँ उन्हें छीन लेती है और फिरसे अपनी गुह्य गुफामें छिपा देती हैं । मनुष्यमें प्रकट हुआ भागवत संकल्प स्वयं उन्मुक्त होकर उसे उन पाशोंसे मुक्त कर देता है जो उसे विश्व-यज्ञमें बलिके रूपमें बांधे है । हम इसे इन्द्र--भागवत मन की शिक्षाके द्वारा प्राप्त करते हैं और यह हमारे अंदर प्रकाशकी निर्बाध क्रीड़ाकी रक्षा करता है और असत्यकी शक्तियोंका विनाश करता है जिनकी सीमाएँ इसके विकमित और उज्ज्वलित होनेमें रुकावट नहीं डाल सकतीं । यह ज्योतिर्मय द्युलोकसे दिव्य धाराओंको, शत्रुके आक्रमणोंसे मुक्त दिव्य सम्पदाको लाता है और चरम शक्ति और पूर्णता प्रदान करता हे ।]

 

1

 

कुमारं माता युवति: समुब्धं गुहा बिभर्ति न ददाति पित्रे ।

अनीकमस्य न मिनज्जनास: पुर: पश्यन्ति निहितमरतौ ।।

 

(युवति: माता1) युवती: मां (गुहा) अपनी गुह्य सत्तामें (समुब्धं) दबे हुए (कुमारं) बालकको (बिभर्ति) बहन करती है और (पित्रे न ददाति) उसे पिताको नहीं देती । (अस्य अनीकं न मिनत्) पर उसकी शक्ति क्षीण नहीं होती । (जनास:) मनुष्य (अरतौ पुर: निहित पश्यन्ति) पदार्थोकी ऊर्ध्वमुखी विकास-क्रियामें उसे अपने सामने प्रतिष्ठित2 देखते हैं ।

______________ 

 1. माता और पिता सदा प्रकृति और आत्मा है अथवा भौतिक सत्ता और

   विशुद्ध मानसिक सत्ता हैं ।

 2. ऐसे पुरोहितके रूपमें जो यज्ञके कार्यका मार्गदर्शन और संचालन करता है ।

३९


 

 

 

कमेतं त्वं युवते कुमारं पेषी बिभर्षि महिषी जजान ।

पूर्वीर्हि गर्भ: शरदो ववर्धाऽपश्यं जातं यदसूत माता ।।

 

(युवते) हे युवति माँ ! (कम् एतं कुमारं) यह बालक कौन हैं जिसे  (त्वं बिभर्षि) तू अपने अन्दर धारण करती है जब तू (पेषी) आकारमें संकुचित होती है, किन्तु जिसे (महिषी) तेरी विशालता (जजान) जन्म देती हैं । (पूर्वी: हि शरद:) बहुत-सी ऋतुओंतक (गर्भ: ववर्ध) शिशु गर्भमें बढ़ता रहा; (जातम् अपश्यं) मैंने उसे उत्पन्न हुए तब देखा (यत्) जब (माता असूत) मां उसे बाहर लाई ।

 

 

हिरण्यदन्तं शुचिधर्णमारात् क्षेत्रादपश्यमायुधा मिमानम् ।

ददानो अस्मा अमृतं विपृक्वत् किं मामनिन्द्रा: कृणवन्ननुक्था: ।।

 

(आरात् क्षेत्रात् अपश्यं) मैंने बहुत दूर उसे सत्ताके क्षेत्रमें देखा जो (हिरण्यदन्तं) स्वर्णप्रकाशरूपी दांतोंवाला एवं (शुचिवर्णम्) शुद्ध-उज्ज्वल रंगवाला था और (आयुधा मिमानम्) अपने युद्धके शस्त्रोंका निर्माण कर रहा था । (अस्मै अमृतं ददान:) मैं उसे अमरता देता हूँ जो (विपृक्वत्) मेरे अन्दर सब पृथक्-पृथक् भागों1में विद्यमान है, और (मां कि कृणवन्) वे मेरा क्या करेंगें, (अनुक्था:) जिनके पास न शब्द2 है और (अनिन्द्रा:) न भागवत-मन ?

 

 

क्षेत्रादपश्यं सनुतश्चरन्तं सुमद् यूर्थ न पुरु शोभमानम् ।

न ता अगृभ्रन्नजनिष्ट हि षः पलिक्नीरिद् युवतयो भवन्ति ।।

 

(क्षेत्रात् अपश्यं) मैंने क्षेत्रमें देखा, (सुमत् यूथं न) मानो वह प्रसन्न रश्मि-समूह हो जो (पुरु शोभमानम्) देदीप्यमान सौन्दर्यके अनेक आकारोंमें (सनुत: चरन्तं) लगातार संचरण कर रहा हो, (न ता अगृभ्रन्) उन्हें कोई भी पकड़ नहीं सकता था, (हि) क्योंकि (स:) वह अग्निदेव (अजनिष्ट) उत्पन्न हो चुका था; (पलिक्नी:  इत्) उनमें जो बूढ़ी थीं वे भी (युवतय: भवन्ति) एक बार फिर जवान हो गयीं ।

______________ 

1. सोम, अमरताकी मदिरा देवोंको तीन भागोंमें दीं गई है, हमारी सत्ताके तीन स्तरोंपर, मन, प्राण तथा शरीरमें ।

2. प्रकट करनेवाला 'शब्द' जो 'छिपी वस्तु'को प्रकट करता है, उसे अभिव्यक्त करता है जो प्रकट नहीं हुआ हैं ।

४०


भागवत शक्तिके उन्मुक्त होनेका सूक्त

 

के मे मर्यकं वि यवन्त गोभोर्न येषां गोपा अरणश्चिदास ।

य इं जगृभुरव ते सृजन्त्वाजाति पश्व उप नश्चिकित्वान् ।।

 

( के) वे कौन थे जिन्होंने ( मे मर्यकं) मेरी शक्तिका ( गोभि:) प्रकाशके समूहसे ( वि यवन्त) सम्बन्ध-विच्छेद किया था ? -- ( येषां न गोपा: आस) वे जिनके सम्मुख इस युद्धमें न कोई रक्षक था और ( अरण: चित्) न ही कोई कार्यकर्ता । ( ये ई जगृभु :) जिन्होंने उन्हें मुझसे ले लिया था उन्हें चाहिये कि ( ते अव सृजन्तु) वे उन्हें मुक्तकर मुझे वापिस कर दें; क्योंकि वह ( चिकित्वान्) ज्ञानयुक्त--सचेतन--अनुभूतियोंसे युक्त होकर ( न: पश्व:) हमारे खोए दीप्ति-सम्हको ( उप आ अजाति) हमारी ओर प्रेरित करता हुआ आता है ।

 

 

 

वसां राजानं वसतिं जनानामरातयो नि दधुर्मर्त्येषु ।

ग्रह्माण्यत्रेरव तं सृजन्तु निन्दितारो निन्द्यासो भवन्तु ।।

 

( जनानां वसां राजानं) प्राणियोंमें रहनेवालोंके राजाको, ( वसतिं) जिसमें सारे प्राणी निवास करते हैं, ( अरातय:) विरोधी शक्तियोंने ( मर्त्येषु) मर्त्योंके अन्दर ( नि दधु:) छिपा रखा है; ( तं) उसे ( अत्रे: ब्रह्माणि अव सृजन्तु) पदार्थोंके भक्षकके आत्मिक विचार मुक्त कर दें, ( निन्दितार: निन्द्यास भवन्तु) बाँधनेवाले स्वयं बन्दा हों जाएँ ।

 

 

शुनश्चिच्छेपं निदितं सहस्राद् यूपादमुञ्चो अशमिष्ट हि ष: ।

एवास्मदग्ने वि मुमुग्धि पाशान् होतश्चिकित्व इह तू निषद्य ।।

 

( शुन:-शेपं चित्) आनन्दका प्रमुख नायक शुनःशेप भी ( सहस्रात् यूपात्) यज्ञके हजार प्रकारके खम्भोंसे ( निदितं) बंधा हुआ था । उसे ( अमुञ्च:) तू ने मुक्त कर दिया है । ( स: अशमिष्ट) उसने अपने कार्योंसे पूर्णताको सिद्ध किया है । (एव इह तु निषद्य) उसी प्रकार तू यहाँ हमारे अन्दर भी आसन ग्रहण कर । ( चिकित्व: अग्ने) हे सचेतन दृष्टिसे युक्त ज्वाला ! ( होत:) हे यज्ञके पुरोहित ! ( पाशान्) बन्धनके पाशोंको ( अस्मत् वि मुमुग्धि) हमसे काटकर अलग कर दे ।

.

हृणीयमानो अप हि मदैये: प्र मे देवानां व्रतपा उवाच ।

  इन्द्रो विद्वाँ अनु हि त्वा चचक्ष तेनाहमग्ने अनुशिष्ट आगाम् ।।

____________

.* यहों यह ध्यान देने योग्य है कि श्रीअरविन्दने इस मन्त्रमें "हृणीयमान: ''

४१


(न: मा हृदणीय) तू मुझपर कुपित मत हो और (मत् अप [मा]  ऐये: हि) मुझसे दूर मत हो । (देवानां व्रतपा) जो देवोंके कार्यके नियमकी रक्षा करनेवाला है उसने (मे प्र उवाच) मुझे तेरे विषयमें बता दिया है । (इन्द्र:) इन्द्र (विद्वान्) जान गया, (त्वा अनु) उसने तेरी खोजकी और (चचक्ष हि) तुझे देख लिया । (अग्ने) हे ज्वाला ! (तेन अनुशिष्ट: अहम्) उससे मैं उसका ज्ञानोपदेश अधिगत करके ( आ अगाम्) तेरे निकट आ गया हूँ ।

 

 

वि ज्योतिषा बृहता भात्यग्निराविर्विश्वानि कृणुते महित्वा ।

प्रादेवीर्माया: सहते दुरेवा: शिशीते शृङे रक्षसे विनिक्षे ।।

 

(अग्नि:) संकल्प की यह ज्वाला (बृहता ज्योतिषा वि भाति) सत्यकी विशाल ज्योतिसे चमक रही है और (महित्वा) अपनी महानतासे (विश्वानि आवि: कृणुते) सब पदार्थोंको प्रकट कर देती है । वह (माया:1) ज्ञानकी उन रचनाओंको (प्र सहते) अभिभूत करती है जो (अदेवी:) अदिव्य हैं और (दुरेवा:) बुरी चालवाली हैं । वह (रक्षसे विनिक्षे) राक्षसका विनाश करनेके लिए (शृङे शिशीते) अपने सींगोंको तेज करती है ।

 

१०

 

 

उत स्वानासो दिवि षन्त्वग्नेस्तिग्मायुधा रक्षसे हन्तवा उ ।

मदे चिदस्य प्र रुजन्ति भामा न वरन्ते परिबाधो अदेवी: ।।

 

(रक्षसे हन्तवै उ) राक्षसका क्या करनेके लिए (दिवि) हमारे द्युलोकमें

_______________ 

 इस पदको 'हणीय', 'मा', 'नः' इन तीन पदोंमें विभक्त कर अर्थ किया है ।

 किन्तु पदपाठमें इसे एक ही पद माना गया है । अतः इसका तीन पदोंमें

 छेद पदपाठियोंकी परम्परा द्वारा अनुमोदित नहीं ।

 प्रचलित पदपाठके अनुसार इस मन्त्रका अर्थ यों होगा--

  

   (हणीयमान) कुपित हो कर तू (मत अप ऐये: हि) मुझसे परे हट

   गया है । (देवानां व्रतपा:) देवोंके कोर्यके नियमकी रक्षा करनेवालेने

   (मे प्र उवाच) मुझे यह बात बता दी है । (इन्द्र: विद्वान्) इन्द्र

   [दिव्य मन] यह सब जान गया । (त्वा अनु) उसने तेरी खोजकी

   और (चचक्ष हि) तुझे देख लिया । (अग्ने) हे अग्निदेव ! (तेन

   अनशिष्ट: अहम्) उससे अनुशासित, प्रबोधित होकर मैं अब (आ अगाम)

   तेरेँ निकट आ गया हूँ ।--अनुवादक

 

  1.माया-मायाके दो प्रकार हैं, दिव्य और अदिव्य, सत्यकी रचनाएं

   और असत्यकी रचनाएँ ।

४२


( अग्ने: स्वानास:) ज्वाला-शक्तिकी वाणियाँ ( तिग्म-आयुधा: सन्तु) तीक्ष्ण- शस्त्रसे संपन्न हों । ( उत) और ( मदे चित्) उसके हर्षोल्लासके समय ( अस्य भामा:) उसकी क्रोधि-दीप्तियां ( प्र रुजन्ति) उस सबको तोड़-फोड़ देती हैं जो उसकी प्रगतिका विरोध करता हैं । ( अदेवी:) अदिव्य शक्तियाँ ( परिबाध:) जो हमें सब ओर से बाधा पहुँचाती हैं, ( न वरन्ते) उसे रोककर नहीं रख सकती ।

 

११

 

एतं ते स्तोमं तुविजात विप्रो रथं न धीर: स्वपा अतक्षम् ।

यदीदग्ने प्रति त्वं देव हर्या: स्यर्वतीरप एना जयेम ।।

 

( तुविजात) हे अनेक आकारोंमें जन्म लिए हुए अग्निदेव ! मैं ( विप्र:) मनमें प्रकाशमान, ( धीर:) बुद्धिमें सिद्ध और ( सु-अपा:) कार्यमें पूर्ण हूँ । मैंने  (ते) तेरे लिए ( एतं स्तोममू) तेरे इस स्तुतिगीतको ( रथं न) मानो तेरे रथके रूपमें ( अतक्षम्) निर्मित किया है । ( अग्ने) हे शक्तिरूप अग्ने ! ( देव) हे देव ! ( यदि इत् त्वं प्रति हर्या:) यदि तुम इसके प्रत्युत्तरस्वरूप इसमें आनंद लो, तो इसके द्वारा हम ( एता अप: जयेम) वे जलधाराएँ प्राप्त कर सकते हैं जो  (स्वर्वती: 1) ज्योतिर्मय द्युलोकका प्रकाश धारण करती हैं ।

 

१२

 

तुविग्रीवो वृषभो वावृधानोदुशत्र्वर्य: समजाति वेद: ।

इतीममग्निममृता अवोचन् बर्हिष्मते मनवे शर्म यंसद्धविष्मते

                                         मनवे शर्म यंसत् ।।

 

( तुविग्रीव:) शक्तिशाली ग्रीवावाला2 ( वृषभ:) वृषभ ( वावृधान:) हमारे अन्दर बढ़ता है और हमारे प्रति ( वेद: सम् अजाति) ज्ञानके उस खजाने3को खींचकर ले आता है जिसे ( अर्य:) हमारे शत्रुने रोक रखा था । ( अशत्रु) ऐसा कोई शत्रु नहीं है जो इसका विध्वंस कर सकें । क्योंकि (इति) इस प्रकार  (अमृता:) अमर शक्तियोंने ( इमम् अग्निम् अवोचन्) इस शक्तिरूप अग्निदेवसे कहा है कि वह ( मनवे शर्म यंसत्) अपनी किया द्वारा उस मनुष्यके लिए शान्ति ला दे, जिसने ( बर्हिष्मते) यज्ञका आसन विस्तृत किया है और उस मनुष्यके लिए ( शर्म यंसत्) शान्तिको निष्पन्न कर दे जो ( हविष्मते) भेंट को अपने हाथमें लिए है ।

______________

1. स्वर्-प्रकाशपूर्ण सत्यके प्रति खुला हुआ विशुद्ध दिव्य मन ।

2. अथवा अनेक ग्रीवाओंवाला ।

3. देदीप्यमान रश्मिसमूहों ( गोयूथों) की सम्पदा ।

४३

 









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