Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
तीसरा सूक्त
भागवत शक्ति-परम कल्याणकी विजेत्री
[ भागवत संकल्प-शक्ति वह देवता है जिसके रूप ही है अन्य सारे देवता । जैसे-जैसे वह देव हमारे अन्दर विकसित होता है वैसे-वैसे परम सत्यकी इन सब शक्तियोंको प्रकट करता चलता है । इस प्रकार हमें सचेतन सत्ताकी सर्वोच्च अवस्था प्राप्त हो जाती है और वह हमारी जटिल और बहुविध सत्ताको प्रकाश और आनन्दमें धारण करती है । ऋषि प्रार्थना करता है कि बुराईको उसमें फिरसे प्रकट न होने दिया जाये, और हमारे अन्दर अवस्थित गुह्य आत्मा जो सब वस्तुओंका पिता होता हुआ भी हमारे अन्दर हमारे कार्यकलाप और हमारे विकासके शिशुके रूपमें प्रकट होता है, अपने-आप विशाल सत्य-चेतनाके प्रति उद्घाटित हो जाय । दिव्य-ज्वाला असत्य और अशुभकी उन सब शक्तियोंको नष्ट कर देगी जो हमें गढ़ेमें गिराना चाहती है और स्वर्गीया कोषको हमसे लूट लेना चाहती हैं ।]
१
त्वमग्ने वरुणो जायसे यत् त्वं मित्रो भवसि यत्समिद्ध: ।
त्वे विश्वे सहसत्युत्र देवास्त्वमिन्द्रो दाशुषे मर्त्याय ।।
(अग्ने) हे संकल्प ! (यत् जायसे त्वं वरुण:) जब तू जन्म लेता है, तू विशाल वरुण1 होता है, (यत् समिद्धः, त्वं मित्र: भवसि) जब तू पूरी तरह प्रदीप्त होता है तब प्रेमका अधिपति2 हो जाता है । (सहसस्पुत्र) हे शक्तिके पुत्र ! (त्वे विश्वे देवा:) सारे देव तेरे अन्दर हैं । (दाशुषे मर्त्याय त्वम् इन्द्र:) जो समर्पण करता है उस मर्त्यके लिये तू मनोगत शक्ति3 हे ।
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1. वरुण, जो व्योमसदृश पवित्रता और असीम सत्यकी सागरतुल्य विशालता का प्रतिनिधित्व करता है ।
2. मित्र, तत्यकी सबका आलिगन करनेवाली समस्वरता, और सब सत्ताओं का मित्र, इसलिए प्रेमका अधिपति ।
3. इन्द्र, हमारी सत्ताका शासक, भागवत मनके देदीप्यमान लोक स्वर्का स्वामी ।
४४
२
त्वमर्यमा भवसि यत् कनीनां नाम स्वधायन् गुह्य बिभर्षि ।
अञ्जन्ति मित्रं सुधित न गोभिर्यद् दंपती समनसा कृणोषि ।।
(स्वधावन्) हे तू जो प्रकृतिके आत्मविधानको धारण करता है ! (यत् कनीनां1 गुह्यं नाम बिभर्षि) जब तू कुमारियोंके गुप्त नामको धारण करता है, (त्वम् अर्यमा2 भवसि) तू अभीप्सा करनेवालेकी शक्ति बन जाता है । वे तुझे (गोभि:) अपनी किरणोंके प्रकाशसे (सुधितं मित्रं न) पूर्णतया प्रतिष्ठित प्रेम3के रूपमें (अञ्जन्ति) आलोकित करते हैं, (यत् दंपती समनसा कृणोषि) जब तू प्रभु और उसकी वधू'को उनपुके प्रासादमें एकमनवाला बनाता है ।
३
तव श्रिये मरुतो मर्जयन्त रुद्र यत् ते जनिम चारु चित्रम् ।
पदं यद् विष्णोरुपमं निधायि तेन पासि गुह्य नाम गोनाम् ।।
(रुद्र) हे रुद्ररूप ! (तव श्रिये) तेरी श्रीशोभाके लिए (मरुत:) विचार-शक्तियाँ अपने दबावसे, (यत् ते चारु चित्रम् जनिम) तेरा जो समृद्ध और सुन्दर जन्म5 है उसे (मर्जयन्त) भास्वर बनाती है । (यद्) जब (विष्णो: उपमं पदं) विष्णुका वह उच्चतम चरण६ (निधायि) अन्दर प्रतिष्ठित हो जाता है, तब तू (तेन) उसके द्वारा (गोनाम् गुह्यं नाम) ज्योतिर्मय किरणसमूह'के गुप्त नामकी (पासि) रक्षा करता है ।
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1.बहुत संभवतः, 'कनी' शब्दका अर्थ है अपरिपक्व दीप्तियाँ ।
हमारी अभीप्साको इन्हें आत्माकी उच्चशक्तिके साथ इनका मिलाप
करानेके लिये तैयार करना है । अर्यमा इनके गुप्त आशयको,--नाम
को धारण करता है । वह आशय तब प्रकट होता है जब अभीप्सा
ज्ञानके प्रकाश तक पहुँचती है और मित्र आत्मा और प्रकृतिमें सामजंस्य
स्थापित करता है ।
2.अर्यमन्--सत्यकी अभीप्सा करनेवाली शक्ति और क्रिया ।
3.मित्र ।
4.आत्मा और प्रकृति । प्रासाद है मानवीय शरीर ।
5.प्रकाशका परम लोक । एक और जगह अग्निके विषयमें कहा गया
है कि वह अपनी सत्तामें प्रकाशमान लोकोंमें उच्चतम बन जाता है ।
6.विष्णके तीन पग किंवा शक्तियाँ हैं--पृथिवी, आकाश और सर्वोच्च
लोकँ जिनके आधार हैं प्रकाश, सत्य और सूर्य ।
7.ज्ञानकी दीप्तियोंका उच्चतम दिव्यभाव सर्वोच्च प्रकाशके अतिचेतन
लोकोंमें पाया जाता है ।
४५
४
तव श्रिया सुदृशो देव देवा: पुरू दधाना अमृतं सपन्त ।
होतारमअग्निं मनुषो नि षेदुर्दशस्यन्त उशिज: शंसमायो: ।।
(देव) हे देव ! (सुदृश:) क्योंकि तू यथार्थ दृष्टिवाला है अतः (तव श्रिया) तेरी महिमासे (देवा: पुरु दधाना:) देवगण बहुविध सत्ताको धारण करते हुए (अमृतं सपन्त) अमरताका आस्वादन करते हैं । और (मनुष:) मनुष्य (होतारम् अग्नि नि षेदु:) उस शक्तिमें अपना स्थान ग्रहण करते है जो हवि प्रदान करती है । (उशिज:) अभीप्सा करते हुए वे (आयो: शंसं दशस्यन्त) सत्ताकी आत्माभिव्यक्तिका देवोमें सम्यक् विभाग करते हैं ।
५
त्वद्धोता पूर्वो अग्ने यजीयान् न काव्यै: परो अस्ति स्वधाव: ।
विशश्च यस्या अतिथिर्भवासि स यज्ञेन वनवद् देव मर्तान् ।।
(अग्ने !) हे ज्वाला ! (न त्वत् पूर्व: होता) हविका ऐसा पुरोहित तुझसे पहले कोई भी नहीं हुआ और (न यजीयान्) नाहीं कोई यज्ञके लिए तुझसे अधिक शक्तिशाली हुआ है । (स्वधाव:) हे तू जो प्रकृतिकी आत्म-व्यवस्थाको धारण करता है ! (काव्यै: न पर: अस्ति) ज्ञानके विषयमे तुझसे उत्कृष्ट कोई नहीं । (यस्या: विश: च अतिथि: भवासि) और तू जिस प्राणीका अतिथि हो जाता है (स:) वह (देव) हे देव ! (यज्ञेन) यज्ञके द्वारा (मर्तान् वनवत्) उन सबपर प्रभुत्व प्राप्त कर लेता है जो मरणशीलताके धर्मसे युक्त हैं ।
६
वयमग्ने वनुयाम त्योता वसूयवो हविषा बुध्यमाना: ।
वयं समर्ये विदथेष्वह्नां वयं राया सहसस्पुत्र मर्तान् ।।
(अग्ने) हे ज्वाला ! (त्वा-ऊता:) तुझसे पोषित और (बुध्यमाना:) जाग्रत् हुए, (वसूयव: वयम्) सारभूत ऐश्वर्यके अभिलाषी हम (हविषा) समर्पणरूप हविके द्वारा (वनुयाम) विजय-लाभ करें । (समर्ये) बड़े संघर्षमें, (अह्नां विदथेषु) हमारे दिनों1में--हमारे प्रकाशके कालमें होने-वाली ज्ञानकी उपलब्धियोंमें, (सहस: पुत्र) हे शक्तिके पुत्र ! (राया) आनन्दैश्वर्यसे (वयं मर्तान् वनुयाम) हम उन सबको पराभूत कर दें जो मरणशील हैं ।
1. प्रकाशके वे काल जिनका साक्षात्कार आत्माको समय-समयपर होता है ।
४६
भागवत शक्ति--परम कल्याणकी विजेत्री
७
यो न आगो अभ्येनो भरात्यधीदघमधशंसे दधात ।
जही चिकित्वो अभिशस्तिमेतामग्ने यो नो मर्चयति द्वयेन ।।
(य: [अघशंस:] ) अशुभ प्रकट करनेवाला जो कोई (न:) हमारे अन्दर (एन: आग: अभि भराति) पाप और पथभ्रष्टता लाना चाहता है, (अघशंसे इत्) अशुभ प्रकट करनेवाले उसीके सिरपर (अघम् अधि दधात) उसकी अपनी बुराई डाल दी जाय । (चिकित्व: अग्ने) हे सचेतन ज्ञाता ! (य: न: द्वयेन मर्चयति) जो हमें द्वैधभावसे उत्पीड़ित कर रहा है उसकी (एताम् अभिशस्तिं जहि) इस विरोधी आत्म-अभिव्यक्तिको नष्ट-भ्रष्ट कर दे ।
८
त्वामस्या व्युषि देव पूर्वे दूतं कृष्याना अयजन्त हव्यै: ।
संस्थे यदग्न ईयसे रयीणां देवो मर्तेर्वसुभिरिध्यमान: ।।
(देव) हे देव ! (अस्या: वि उषि) हमारी इस रात्रिके बाद उषा-कालमें (त्वाम्) तुझे (पूर्वे) पूर्वजोंने1 (दूतं कृण्वाना:) अपना दूत बनाया और (हव्यै:) अपनी आहुतियोंसे (अयजन्त) तुझ द्वारा यज्ञ किया, क्योंकि (देव: यत्) तू वह देव है जो (वसुभि: मर्ते:) इस देहतत्वमें रहनेवाले मर्त्योंसे (इध्यमान:) प्रदीप्त किया जाता है और (अग्ने) हे अग्निदेव ! तू (रयीणाम्) समस्त आनन्दोंके (संस्थे) मिलनस्थान2की ओर (ईयसे) गति करता है ।
९
अव स्पृधि पितरं योधि विद्वान् पुत्रो यस्ते सहस: सून ऊहे ।
कदा चिकित्वो अभि चक्षसे नोऽग्ने कदाँ ऋतचिद्यातयासे ।।
(पितरम् अब स्पृधि) तू पिताका उद्धार कर और (विद्वान्) अपने ज्ञानसे युक्त (सहस: सूनो) हे शक्तिके पुत्र ! तू (योधि) उस मनुष्यसे बुराईको दूर रख (य: ते पुत्र: ऊहे) जो तेरे पुत्रके रूपमें हमारे अन्दर धारण किया गया है । (चिकित्व:) हे सचेतन ज्ञाता ! ( न: कदा अभि चक्षसे) कब तुम हमपर वह अन्तर्दृष्टि डालोगे ? (ऋत-चित् अग्ने) हे सत्यन-सचेतन संकल्प ! (कदा यातयासे) कब हमें यात्राकी ओर प्रेरित करोगे ?
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1. प्राचीन द्रष्टाओंने जिन्होंने गुह्य नामको ढ़ूंढ़ लिया था ।
2. सत्य और आनन्दका परमोच्च लोक ।
४७
१०
भूरि नाम वन्दमानो दधाति पिता वसो यदि तज्जोषयासे ।
कुविद् देवस्य सहसा चकानः सुम्नमग्निर्वनते वावृधानः ।।
( वसो) हे सारतत्त्वमें निवास करनेवाले ! ( पिता) पिता ( भूरि नाम) उस विशाल1 नामको तभी ( वन्दमान: दधाति) उपासनापूर्वक धारण करता है (यदि) जब तू ( तत् जोषयासे) उसे इस नामको स्वीक करने और दृढ़तासे पकड़े रहनेके लिये प्रेरित करता है ( अग्नि:) हमारे अन्दर अवस्थित संकल्पशक्ति ( कुवित्) बार-बार ( सुम्नं चकान:) आनन्दकी कामना करती है और ( देवस्य सहसा) देव2के सामर्थ्यसे ( ववृधान:) बढ़ती हुई ( वनते) उसे पूरी तरह जीत लेती है ।
११
त्वमङ्ग: जरितारं यविष्ठ विश्वान्यग्ने दुरिताति पर्षि ।
स्तेना अदृश्रन् रिपवो जनासोऽज्ञातकेता वृजिना अभूवन् ।।
( अङग अग्ने) हे संकल्पशक्ति ! ( यविष्ठ) हे अत्यन्त तरुण तेज ! ( त्वम्) तू ( जरितारं) अपने स्तोताको ( विश्वानि दुरिता) शोकसंताप और अशुभकी सम्पूर्ण विध्न-बाधाओंसे ( अति पर्षि) पार ले जाता है । क्योंकि (जनास: अदृश्रन्) तूने उन प्राणियोंको देख लिया है ( रिपव:) जो हमें चोट पहुँचाना चाहते हैं और ( स्तेना:) अपने हृदयमें चोर हैं तथा ( अज्ञात-केता:) जिनकी अनुभूतियाँ ज्ञानसे रिक्त हैं, अतएव जो ( वृजिना: अभूवन्) कुटिलतामें गिरे हुए हैं ।
१२
इमे यामासस्त्वद्रिगभूवन् वसवे वा तदिदागो अवाचि ।
नाहायमग्निरभिशस्तये नो न रीषते वावृधान: परा दात् ।।
( इमे यामास:) हमारी यात्राओंकी इन सब गतियोंने ( त्वद्रिक् अमूवन्) अपने मुँह तेरी तरफ मोड़ लिये हैं, ( तत् इत् आग:) और जो बुराई हमारे अन्दर हुऐ वह ( वसवे वा अवाचि) हमारी सत्तामें निवास करनेवालेके प्रति घोषित हो चुकी है । ( अयम् अग्नि:) यह संकल्पशक्ति ( ववृधान:) बढ़ती हुई (न:) हमें ( अभिशस्तये रीषते) हमारी आत्माभिव्यक्तिमें बाधा डालनेवालेके प्रति, उसके हाथोंमें ( न अह परा दात्) सौंपकर कभी धोखा नहीं दे सकती, ( न [ परा दात् ] ) न ही वह हमें हमारे शत्रुओंके हाथोंमें सुपुर्द करेगी ।
1. सत्यलोकको विशालता या विशाल सत्य भी कहा गया है ।
2. देव, परम देवता, जिसके सब देव विभिन्न नाम और शक्तियाँ हैं ।
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