वेद-रहस्य

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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Secret of the Veda Vol. 10 582 pages 1971 Edition
English
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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo वेद-रहस्य 985 pages 1971 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Abhaydev Vedalankar
  Dharmaveer Vedalankar
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पहला सूक्त

 

 प्रातःकालीन यज्ञका सूक्त

 

 [ ऋषि स्तुतिगान करता है कि उषाके आनेपर भागवत शक्ति-स्वरूप अग्नि एक सचेतन क्रियाके रूपमें जाग्रत् हो गया है । अग्निदेव ज्योतिर्मय स्वर्गलोककी ओर उठता है जो उसका लक्ष्य है, उस विवेक-चेतना1के कार्योंसे पुष्ट होता है जो यज्ञकी आहुतियों (भेंटों) और उसके क्रियाकलापोंका देवोंमें सम्यक् विभाग करती है, वह हमारे दिनोंका नेतृत्व करनेवाली एक विशुद्ध जीवनशक्ति बन जाता है, विशालता और सत्यकी ओर आरोहण करता है । सत्यके द्वारा वह हमारी शारीरिक तथा मानसिक चेतनाके दो आकाशोंका नये ढंगसे निर्माण करता है । यही उसका हमारे आकाशोंमें स्वर्णिम स्तुतिगान है । ]

 

 

अबोध्यग्नि: समिधा जनानां प्रति धेनुमिवायतीमुषासम् ।

यह्नाइव प्र वयामुज्जिहाना:  प्र भानव: सिस्रते नाकमच्छ ।।2

_______________

1. विवेकमयी देवी--दक्षिणा (देखो मन्त्र ३) ।--अनुवादक

2. यहाँसे श्रीअरविन्द अत्रि ऋषिके अग्नि देवताके सूक्तोंका धारावाही सुस्पष्ट भावार्थ देना आरंभ करते हैं । हिन्दीमें यह भावार्थ ज्यों-का-

त्यों अनूदित करके दिया गया है किन्तु पाठकोंको वेदके मूल मंत्रका-मूल शब्दोंका रस प्राप्त करानेके लिए उसी धारावाही भावार्थमें बीच-बीचमें मंत्रके शब्दोंको यथास्थान कोष्ठमें दिखला दिया गया है । इससे संस्कृतका कुछ ज्ञान रखनेवाले लोग मूल मंत्रका रसास्वादन भी कर सकेंगे, उन्हें मूल वेदके स्वाध्यायका आनन्द भी प्राप्त होगा ।

 

शब्दके आगे लिखा गया अर्थ अनेक स्थानोंपर मूल शब्दकी विभक्ति आदिसे भिन्न प्रतीत होगा । किन्तु श्रीअरविन्दके दिये स्पष्ट, सरल और सरस भावार्थमें किसी प्रकारकी क्षति न हो इसके लिए मूल अंग्रेजीका अविकल अनुवाद उसे संस्कृतकी विभक्तिके अनुसार तोड़े-मरोड़े बिना ही दिया गया है ।

 

पाठक इस बातको दृष्टिमें रखकर स्वाध्याय करेंगे तो मंत्रके रसास्वादनके साथ-साथ वैदिक भाषाका ज्ञान भी प्राप्त कर सकेंगे, इसमें सन्देह नहीं ।

 

जो हिंदी पाठक संस्कृत न जानते हों उन्हें कोष्ठमें लिखे शब्दोंपर ध्यान न देते हुए धारावाही अर्थ पढ़ना चाहिये और तब वे देखेंगे कि कैसे हृदय- स्पर्शी एवं आत्माको ऊँचा उठानेवाले हैं वेदके मंत्र ।                                                                      -अनुवादक

३३


(जनानां) मनुष्योंके (समिधा) प्रदीप्त करनेसे (अग्नि:) शक्तिरूप अग्निदेव (अबोधि) जाग उठा है और वह (उषासं प्रति) उषाके अभिमुख होता है जो (धेनुम् इव आयतीम्) पोषण करनेवाली गायकी तरह उसके पास आती हे । (यह्वा:इव) जिस प्रकार शक्तिशाली सत्ताएँ (वयाम्) अपने विस्तारके लिए (प्र उत्-जिहाना:) तेजीके साथ ऊपरकी ओर जाती हैं उसी प्रकार (भानव:) उसकी दीप्तियां बढ़ती हुई (नाकम् अच्छ) द्युलोकके स्तरकी ओर (प्र सिस्त्रते) आरोहण करती हैं ।

 

 

 

अबोधि होता यजथाय देवानूर्ध्वो अग्नि: सुमना: प्रातरस्थात् ।

समिद्धस्य रुशददर्शि पाजो महान् देवस्तमसो निरमोचि ।।

 

(देवान् यजथाय) देवोंके यजनके लिए (होता) हमारी स्तुतिका पुरोहित (अबोधि) जाग गया है । (सुमना:) अपने अंदर यथार्थ चिन्तनको लिए हुए (अग्नि:) शक्तिरूप अग्निदेव (प्रातः ऊर्ध्व: अस्थात्) हमारे प्रभातकालोंमे ऊर्ध्वमें स्थित हो गया है । (समिद्धस्य) वह पूरी तरह प्रदीप्त है; उसका (रुशत् पाज: अदर्शि) लालिमा प्रवाहित करनेवाला पुंज दिखाई दे रहा है और (महान् देव) महान् देव (तमस:)) अंधकारसे (नि: अमोचि) निर्मुक्त हो गया है ।

 

3

 

यदीं गणस्य रशनाभजीग: शुचिरङगक्ते शुचिभिर्गोभिरग्निः ।

आद् दक्षिणा युज्यते वाजयन्त्युत्तानामूर्ध्वो अधयज्जुहूभि: ।।

 

(यत् ईम् अग्नि:) जब वह शक्तिरूप अग्निदेव (गणस्य) अपने सैन्यगणकी (रशनां) लंबी रस्सीको (अजीग:) खोल चुकता हे, तब वह (शुचिभि: गोभि:) विशुद्ध दीप्तिओंके1 पुंजसे (शुचि: अङगक्ते) शुद्ध रूपमें चमक उठता है । क्योंकि (आत्) तब (दक्षिणा) विवेक करनेवाली देवी (वाजयन्ती) परिपूर्णतामें विकसित होती है, और वह (युज्यते) अपने कार्योंमें जोती जाती है । वह अग्नि (ऊर्ध्व:) उन्नत है, (उत्तानां) वह दक्षिणा देवी ऊर्ध्वमुखी है, उस देवीके आधारपर वह (जुहूभि) अपनी हविकी ज्वालाओंसे (अधयत्) पुष्ट होता है ।

________________

1.  उषाकी गौओंके । दक्षिणा, दिव्य विवेककी देवी, यहाँ स्वयं उषाका ही एक रूप है ।

३४


 

 

अग्निमच्छा देवयतां मनासि चक्षूंषीव सूर्ये सं चरन्ति ।

यदीं सुवाते उषसा विरूपे श्वेतो वाजी जायते अग्रे अह्नाम् ।।

 

(देवयतां) देवत्वमें विकास करनेवाले मनुष्योंके (मनांसि) मन (अग्निम् अच्छ) संकल्पशक्तिकी ज्वालाकी ओर पूरी तरह गति करते हैं, (चक्षूंषि- इव सूर्ये सं चरन्ति) जैसे कि उनकी सब दृष्टियां भी उस सूर्यमें केन्द्रित होती हैं जो प्रकाश देता है ।1 (यत्) जब (विरूपे उषसा) विपरीत रूपोवाली दो उषाएँ2(ई सुवाते) उससे उन्मुक्त होती हैं, तब वह (अह्नाम् अग्रे) दिनोंके अग्रभागमें (श्वेत: वाजी जायते) सफेद अश्वके रूपमें उत्पन्न होता है ।

 

जनिष्ट हि जेन्यो अग्रे अह्नां हितो हितेष्वरुषो वनेषु ।

दमेदमे सप्त रत्ना दधानोङग्निर्होता नि षसादा यजीयान् ।।

 

(हि) निश्चयसे (अह्नाम् अग्रे) दिनोंके पूर्वभागमें, (हितेषु वनेषु) वस्तुओंके प्रतिष्ठित आनन्दोंमें (हित:) स्थित हुआ वह (अरुष:) लाल आभासे संपन्न, तेजोमय कार्यकर्ता (जेन्य जनिष्ट) विजयी रूपमें उत्पन्न हुआ है । (दमे-दमे) घर-घरमे (सप्त रत्ना) सात परम आनन्दोच्यो (दधान:) धारण करते हुए (अग्नि:) शक्तिरूप अग्निने (यजीयान् होता) यज्ञके लिए शक्तिशाली, भेंट देनेवाले पुरोहितके रूपमें (नि ससाद) अपना आसन ग्रहण किया है ।

________________ 

1. अर्थात दूसरे मनुष्योंके अंधकारमें टटोलनेवाले विचारोंके स्थानपर उनकी

  मानसिएक सत्ता अपने आपको सकल्पाग्निकी ज्ञानस्पर ज्योतिर्मय ज्वालामें

  परिणत करती जाती है, और उनके समस्त विचार सीधी अन्तरद्रॅृष्टिकी

  एक अग्निशिखा, सत्यके सूर्यकी किरणें बन जाते हैं ।

2. दिन और रात--इनमेंसे रात है अज्ञानकी अवस्था जिसका सम्बन्ध हमारी

  भौतिक प्रक्रतिके साथ है, दिन है प्रकाशपूर्ण शानकी अवस्था जिसका

  संबंध भागवत मनके साथ है; हमारी मानसिक सत्ता उस दिव्य-मनकी

  फीकी और धुधली छाया है ।

3. हमारी प्रकृतिके प्रत्येक तत्त्वके अनुरूप एक प्रकारका दिव्य आनन्दोल्लास

  है और प्रत्येक स्तरपर, प्रत्येक शरीर या घरमें, अग्निदेव इन आनन्दोंको

  स्थापित करता है ।

३५


 

 

 

 

अग्निर्होता न्यसीदद् यजीयानुपस्थे मातु: सुरभा उ लोके ।

युवा कवि: पुरुनिःष्ठ ऋतावा धर्ता कृष्टीनामुत मध्य इद्ध: ।।

 

(यजीयान्) यज्ञके लिए शाक्तशाली, (होता) हविर्दाता पुरोहितके रूपमें (अग्नि:) शक्तिस्वरूप अग्निदेवने (मातु: उपस्थे) माताकी गोदमें (न्यसीदत्) अपना आसन ग्रहण कर लिया है । (सुरभौ उ लोके) उस आनन्दोत्पादक अन्य लोक1में वह (युवा) युवक, (कवि:) द्रष्टा, (पुरुनि:ष्ठ) अपने अनेक आकारोंमें प्रकटरूपसे स्थित, (ऋतावा) सत्यसे सम्पन्न, (कृष्टीनां धर्ता) कर्म करनेवालोंका धारक है (उत) और (मध्ये) उन दोनों लोकोंके बीच मे भी (इद्ध:) प्रदीप्त है ।

 

 

 

प्र णु त्यं विप्रमध्चरेषु साधुमग्निं होतारमीळते नमोभि: ।

आ यस्ततान रोदसी ऋतेन नित्यं मृजन्ति बाजिनं घृतेन ।।

 

मनुष्य (विप्रं त्यम् अग्निं) ज्ञानसे प्रदीप्त इस अग्निशक्तिकी (नमोभि: प्र ईडते नु) समर्पणरूप प्रणामोंसे अभीप्सा करते हैं, जो अग्नि (अध्यरेषु साधुं) प्रगतिशील यज्ञोंमें हमारी पूर्णता साधित करता है और (होतारं) उनमे हविका दाता पुरोहित है, (य:) [ जो वह ] क्योंकि वह (ऋतेन) सत्यकी शक्तिसे (रोदसी) हमारी सत्ताके दोनों लोकोका--द्यावापृथिवीका- (आ ततान) निर्माण करता है । (नित्यं वाजिनं) जीवनकी प्रचुरताके उस शाश्वत अश्व [अमर घोड़े]  को वे (घृतेन)2 निर्मलतासे (मृजन्ति) मांज-मांज कर चमकाते हैं ।

 

 

मार्जाल्यो मृज्यते स्वे दमूना: कविप्रशस्तो अतिथि: शिवो नः ।

सहस्रशृङगो वृषभस्तदोजा विश्वाँ अग्ने सहसा प्रास्यन्यान् ।।

 

(मार्जाल्य:) उज्ज्वल वह अग्नि (मृज्यते) घिस-घिसकर चमकीला बनाया जाता है, (कविप्रशस्त:) द्रष्टाके द्वारा प्रकट किया जाता है, (स्वे

_________________ 

 

 1. माँ है पृथिवी, हमारी भौतिक सत्ता; 'दूसरा लोक' है अतिमानसिक

   सत्ता; प्राणिक और भावप्रधान सत्ता इन दोनोंके बीचका लोक है ।

   अग्निदेव इन सबमें एकही साथ प्रकट होता है ।

 2. घृत, शोधित नवनीत प्रकाशकी गौकी उपज है और उस समृद्ध निर्म-

   लताका प्रतीक हैं जो मनकी प्रकाशसे भेंट होनेपर उमके अन्दर आती है ।

३६


दमूना:) अपने घरमें1 स्थिर निवास करनेवाला है, (न:) हमारा (शिव: अतिथि:) कल्याणकारी अतिथि है, (सहस्रशृङ: वृषभ:) हजारों सींगोवाला वृषभ है । (अग्ने) हे शक्तिरूप अग्निदेव ! (तत्-ओजा:) क्योंकि तुझमें यह सामर्थ्य2 है अतएव तू (सहसा) अपनी शक्तिमें (अन्यान्) अन्य सबसे (प्र असि) आगे बढ़ा हुआ है ।

 

 

प्र सद्यो अग्ने अत्येष्यन्यानाविर्यस्मै चारुतमो बभूथ ।

ईळेन्यो वपुष्यो विभावा प्रियो विशामतिथि र्मानुषीणाम् ।।

 

(अग्ने) हे शक्तिरूप अग्निदेव ! (यस्मै चारुतम: आवि: बभूथ) जिस किसीमें तू अपने सौन्दर्यकी पूरी महिमाके साथ प्रकट होता है, उसमें तू (सद्यः) तत्काल (अन्यान् प्र अत्येषि) अन्य सबको लांघकर आगे बढ़ जाता है । तू (ईळेन्य:) स्पृहणीय है, (वपुष्य:) शारीरिक पूर्णतासे युक्त और (विभावा) प्रकाशमें विस्तृत है, (मानुषीणां विशा) मानव प्राणियोंका (प्रिय: अतिथि:) प्रिय अतिथि है ।

 

१०

 

तुभ्यं भरन्ति क्षितयो यविष्ठ बलिमग्ने अन्तित ओत दूरात् ।

आ भन्दिष्ठस्य सुमतिं चिकिद्धि बृहत् ते अग्ने महि शर्म भद्रम् ।।

 

(यविष्ठ) हे अत्यन्त तरुणबल-सम्पन्न, (अग्ने) शक्तिस्वरूप अग्ने ! (क्षितय:) सब लोक और उन के प्राणी (अन्तित: उत दूरात्) समीप और दूरसे (तुभ्यं) तेरे लिए (बलिं) अपनी भेंट (आ भरन्ति) लाते हैं, (भन्दि-ष्ठस्य सुमतिम् आ चिकिद्धि) मनुष्यके ज्ञानमें तू उसकी परम आह्नादपूर्ण स्थितिमें होनेवाली उसके मनकी यथार्थ अवस्थाके प्रति सचेतन रूपसे जागृत हो । (अग्ने) हे शक्तिरूप अग्निदेव ! (ते) तेरी (बृहत्) विशालता (महि) महान् तथा (भद्रं) आनन्द-पूर्ण (शर्म) शान्ति ही है ।

 

११

 

आद्य रथं भानुमो भानुमन्तमग्ने तिष्ठ यजतेभि: समन्तम् ।

विद्वान् पथीनामुर्वन्तरिक्षमेह देवान् हविरद्याय वक्षि ।।

________________

1. अर्थात्, सत्यके स्तरपर, जो उसका अपना धर है, अपना स्थान ग्रहण किए हुए ।

2. सत्यकी शक्ति, पूर्ण बल जो इस पूर्णज्ञानसे सम्बन्धित है ।

३७


(भानुम: अग्ने) हे ज्योतिर्मय संकल्प ! (यजतेभि:) यज्ञके अधिपतियोंके साथ (अद्य) आज ही (समन्तं भानुमन्तं रथं) अपने सर्वाङ्गपूर्ण देदीप्यमान रथपर (आ तिष्ठ) आरोहण कर । तू जो (उरु अन्तरिक्षम्) उस विस्तृत अन्तरिक्ष-लोक1को, (पथीनां) उसके समस्त मार्गों सहित (विद्वान्) जानता है, (देवान्) देवोंको (हवि:-अद्याय) हमारी हविके आस्वादनके लिए (इह आ वक्षि) यहाँ ले आ ।

 

१२

 

अवोचाम कवये मेध्याय वचो वन्दारु वृषभाय वृष्णे ।

गविष्ठिरो नमसा स्तोममग्नौ दिवीव रुक्ममुरुव्यञ्चमश्रेत् ।।

 

हमने (कवये) द्रष्टा (मेध्याय) मेधावीके प्रति, (वृषभाय वृष्णे) उस वृषभ--बैलके प्रति जो गोयूथोंको शक्तिसे उपजाऊ बनाता है, आज (वन्दारु वच: अवोचाम) अपनी स्तुतिके वचन कहे हैं, (गविष्ठिर:) प्रकाशमें स्थिर यजमान (नमसा) अपने समर्पणके द्वारा (अग्नौ) संकल्पशक्तिकी ज्वालामें (अश्रेत्) उन्नत होता है, (दिवि इव) मानो वह द्युलोकमें (उरुव्यञ्चं) विशालताको प्रकट करनेवाली (रुक्मं स्तोमं) स्वर्णिम स्तुतिकी ओर (अश्रेत्) उन्नत हो रहा हो ।______________

   1.प्राणिक या स्नायविक स्तर हमारी भौतिक पृथिवीके ठीक ऊपर है; इसके

     द्वारा देवगण मनुष्यसे संलाप करने आते हैं, किन्तु यह एक अव्यवस्थित

     विस्तार है और इसके मार्ग अनेकों हैं पर हैं पेचीदा और उलझे हुए ।

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