Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
छब्बीसवाँ सूक्त
पुरोहित और यज्ञिय अग्नि का सूक्त
[ ऋषि दिव्य ज्वालाका उसके इन सब सामान्य गुणोंके रूपमें आवाहन करता है कि वह यज्ञकर्ता है, ज्योतिर्मय लोकके अन्तर्दर्शनसे युक्त प्रकाशमय द्रष्टा, देवोंको लानेवाला, भेंटोंका वाहक, दूत, विजेता, मनुष्यमें दिव्य क्रियाओंका संवर्द्धक एवं जन्मोंका ज्ञाता है और हैं देवोंका उत्तरोत्तर आवि-र्भाव करनेवाले यज्ञकी प्रगतिका नेता । ]
१
अग्ने पावक रोचिषा मन्द्रया देव जिहया ।
आ देवान् वक्षि यक्षि च ।।
(अग्ने) हे ज्वालास्वरूप अग्ने (पावक) हे पवित्र करनेवाले ! (देव) हे देव ! (रोचिषा मन्द्रया जिह्वया) अपनी प्रकाशमय आनन्दोल्लासपूर्ण जिह्वासे (देवान् आ वक्षि) देवोंको हमारे पास ले आ (यक्षि च) और उन्हें यज्ञस्वरूप भेंट दे ।
२
तं त्वा धृतस्नवीमहे चित्रभानो स्वर्दृशम् ।
देवाँ आ वीतये वह ।।
(घृतस्नो) हे निर्मलताको चुआनेवाले ! (चित्रभानो) हे समृद्ध व विविध प्रकाशसे युक्त अग्ने ! (तं त्वा) उस तुझको (ईमहे) हम चाहते हैं क्योंर्कि तू (स्व:दृशम्) हमारे सत्यमय लोकके अन्तर्दर्शनसे सम्पन्न है । (देवान्) देवोंको (वीतये) उनकी अभिव्यक्तिके लिए1 (आ वह) पास ले आ ।
३
वीतिहोत्रं त्वा कवे द्युमन्तं समिधीमहि ।
अग्ने बृहन्तमध्वरे ।।
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1. या सत्यके ज्योतिर्मय लोककी ओर ''यात्रा करनेके लिए'', या
हवियोका ''भक्षण करनेके लिए'' ।
११५
(कवे) हे द्रष्टा ! (द्युमन्तं बृहन्तम्) प्रकाश और विशालतासे युक्त, (वीति-होत्रम्) हविरूप भेंटोंको उनकी यात्रा पर ले जानेवाले (त्वा) तुझ अग्निदेवको हम (अध्वरे) अपनी यज्ञयात्रामे (सम् इधीमहि) प्रज्वलित करते हैं ।
४
अग्ने विश्वेभिरा गहि देवेभिर्हव्यदातये ।
होतारं त्वा वुणीमहे ।।
(अग्ने) हे संकल्परूप अग्निदेव ! तू (हव्यदातये) हमारी हवियोंको देनेके लिए (विश्वेभि: देवेभि:) सब देवोंके साथ (आ गहि) आ । (त्वा होतारं वृणीमहे) हम तुझे आहुतिके वाहक पुरोहितके रूपमें वरण करते हैं ।
५
यजमानाय सुन्वत आग्ने सुवीर्य वह ।
देवैरा सत्सि बर्हिषि ।।
(सुन्वते यजमानाय) आनन्दमधुको निकालनेवाले यजमानके लिए, (अग्ने) हे ज्वालास्वरूप अग्निदेव ! (सुवीर्यम् आ वह) पूर्ण शक्ति ले
आ । (बर्हिषि) आत्माकी पूर्णताके आसन पर (देवै: आ सत्मि) देवोंके साथ बैठ ।
६
समिधान: सहस्रजिदग्ने धर्माणि पुष्यसि ।
देवानां दूत उक्थ्य: ।।
(आने) हे ज्वालास्वरूप अग्निदेव ! तू (समिधान:) सुप्रदीप्त होकर (धर्माणि पुष्यसि) दिव्य नियमोका सवर्धन करता है । तु (सहस्रजित्) हजारगुणा ऐश्वर्यका विजेता है, (देवानां दूत:) देवोंका ऐसा ग है जो (उक्थ्य:) हमारे स्तुतिवचनको प्राप्त करता है ।
७
न्यग्निं जातवेदसं होत्रवाहं यविष्ठयम् ।
दधाता देवमृत्विजम् ।।
(अग्निं निदधात) तुम अपने अन्दर उस ज्वालाको प्रतिष्ठित करो जो (जातवेदसं) जन्मोंको जाननेवाली है, (होत्रवाहं) भेंटका वहन करनेवाली हैं, (यविष्ठयम्) तरुणतम शक्तिसे सम्पन्न है, (ऋत्विजम्) सत्यकी ऋतुओमें दिव्य यज्ञ करनेवाली है ।
११६
८
प्र यज्ञ एत्वानुषगद्या देवव्यचस्तभ: ।
स्तृणीत बर्हिरासदे ।।
(अद्य) आज (यज्ञ:) [ तुम्हारा ] यज्ञ (आनुषक्) निरन्तर (प्र एतु) प्रगति करे, ऐसा यज्ञ जो (देवव्यचस्तम:) देवोंके पूर्ण आविर्भावको लाएगा । (बर्हि: स्तृणीत) अपनी आत्माका आसन बिछाओ (आसदे) जिससे कि वे ( देव वहाँ बैठ सकें ।
९
एदं मरुतो अश्विना मित्र: सीदन्तु वरुण: ।
देवास: सर्वया विशा ।।
(मरुत:)1 जीवन-शक्तियाँ (इदम् आ सीदन्तु) यहाँ अपना आसन-ग्रहण करें और (अश्विना)2 शक्तिरूप अश्वके सवार, (मित्र:)3 प्रेम का अधिपति, (वरुण:)4 विशालताका अधीश्वर एवं (देवास:) सब देव भी (सर्वया विशा) अपनी समस्त प्रजाओंके साथ [ आ सीदन्तु ] इस आसन पर बैठें ।
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1. मरुत्
2. युगलरूप अश्विदेव
3. मित्र
4. वरूण
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