Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
तेईसवाँ सूक्त
समृद्ध और विजयशील आत्माका सूक्त
[ ऋषि अग्निदेवके द्वारा दिव्य प्रकाशके उस प्रचुर ऐश्वर्यकी कामना करता हैं जिसके सामने अन्धकारकी सेनाएँ टिक ही नहीं सकतीं, क्योंकि वह अग्नि अपनी ऐश्वर्य-परिपूर्णता और शक्तिसे उन्हें अभिभूत कर देता है । ऐसा वह आत्माके पुरुषार्थके सभी क्रमिक स्तरों पर करता है और इनमेंसे प्रत्येक स्तर पर मनुष्य सत्य और परात्पर पुरुषरूपी इस दिव्य शक्तिके द्वारा उन स्तरोंमें निहित सभी काम्य पदार्थोंको प्राप्त कर लेता हे । ]
१
अग्ने सहन्तमा भर द्युम्नस्य प्रासहा रयिम् ।
विश्वा यश्चर्षणीरभ्यासा वाजेषु सासहत् ।।
(सहन्तम अग्ने) अत्यधिक बलपूर्वक वशमें करनेवाले शक्तिस्वरूप अग्नि-देव ! ( द्युम्नस्य) प्रकाशकी ( प्र-सहा रयिम्) शक्तिपूर्ण समद्धिको ( आ भर) हमारे लिए ला, ( य:) जो शक्तिमय समृद्धि ( विश्वा: चर्षणी:) हमारे कार्य-पुरुषार्थके सभी क्षेत्रोंमें ( आसा) तेरे ज्वालारूपी मुखके द्वारा ( वाजेषु) परिपूर्ण ऐश्वर्योंके अन्दर प्रवेश करनेमें ( अभि ससहत्) बल-पूर्वक सफल होगी ।
२
तमग्ने पृतनाषहं रयिं सहस्व आ भर ।
त्वं हि सत्यो अद्भुतो दाता वाजस्य गोमत: ।।
(अग्ने) हे ज्वाला ! ( सहस्व:) हे शक्तिमय देव ! ( तं रयिम् आ भर) वह समृद्ध आनन्द ला जो ( पृतना-सहम्) हमारे विरुद्ध युद्ध कर रही सेनाओंको प्रचण्डतासे परास्त करनेवाला हो, ( हि) क्योंकि ( त्वं सत्य:) तू सत्तामें सत्यतत्त्व है, ( अद्भुत:) वह विश्वातीत और अद्भुत तत्त्व है जो मनुष्यको ( गोमत: वाजस्य दाता) ज्योतिर्मय ऐश्वर्य-परिपूर्णता प्रदान करता है ।
३
विश्वे हि त्वा सजोषसो जनासो वृक्तबर्हिषः ।
होतारं सद्मसु प्रियं व्यन्ति वार्या पुरु ।।
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विजयशील आत्माका सूक्त
(विश्वे जनास:) ये सब मनुष्य जिन्होंने (सजोषस:) प्रेममय ह्रदयसे युक्त होकर (वृक्त-बर्हिष:) यज्ञके अपने आसनको निर्मल किया हैं, (सद्मसु) आत्माके निवासस्थानों1में (त्वा) तुझे (व्यन्ति) पाते हैं,- (होतारम्) यज्ञके पुरोहित और (प्रियम्) प्रियतम तुझको प्राप्त करते हैं । दे (पुरु वार्या) अपने अनेक वरणीय पदार्थोंको [ सद्मसु व्यन्ति ] आत्माके निवासस्थानोमे प्राप्त करते हैं ।
४
स हि ष्मा विश्वचर्षणिरभिमाति सहो दधे ।
अग्न एषु क्षयेष्वा रेवन्न: शुक्र दीदिहि द्युमत् पावक दीदिहि ।।
(स: विश्वचर्षणि:) मनुष्यके सब कार्योंमें वही कर्म करता है । (स:) वही अपने अन्दर (अभिमाति सह: दधे) सर्व-अभिभावक शक्ति रखता है । (शुक्र) हे शुभ्र-उज्ज्वल ज्वाला ! तू (नः) हमारे (एषु क्षयेषु) इन घरों-में (रेवत्) आनन्द और समृद्धिसे भरपूर होकर (दीदिहि) चमक । (द्युमत् दीदिहि) प्रकाशसे भरपूर होकर चमक, (पावक) हे हमें पवित्र करनेवाले ।
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1. आत्माके 'सदन' या घर; आत्मा एक स्तरसे दूसरे स्तर तक
विकास करता है और प्रेत्येक स्तरको अपना निवासस्थान बनाता
है । कहीं-कहीं इन्हें नगर कहा गया है । ऐसे स्तर सात हैं जिनमें-
से प्रत्येकके अपने सात प्रदेश हैं और उनके ऊपर एक और भी
स्तर है । साधारणतया हम तो नगरोंके विषयमें सुनते हैं, यह
दुगनी संख्या संभवत: प्रत्येक स्तरमें आत्माकी प्रकृति पर नीचेकी
ओर दृष्टि और प्रकृतिकी आत्माकी ओर ऊर्ध्वमुखी अभीप्साको
दर्शाती है ।
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