Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
बारहवाँ सूक्त
सत्यके प्रति मनुष्यकी अभीप्साका सूक्त
[ ऋषि भागवत शक्तिकी इस ज्वालाका, अतिचेतन सत्यके इस विराट् अधीश्वरका, इस सत्य-चेतनामय एकमेवका आह्वान करता है ताकि यह उसके विचार और शब्दको अपने अन्दर ग्रहण करे, मनुष्यमें सत्यके प्रति सचेतन हो जाय और सत्यकी अनेकों धारायें काटकर प्रवाहित कर दे । सत्यको केवल प्रयत्नके बलपर एवं द्वैधके विधानसे प्राप्त नहीं किया जा सकता अपितु स्वयं सत्यसे ही सत्यको प्राप्त किया जा सकता है । परन्तु यह नहीं कि केवल इस संकल्पाग्निकी शक्तियों ही अस्तित्व रखती हैं जो असत्यसे युद्ध करती हैं और रक्षा तथा विजयलाभ करती हैं, अपितु अन्य शक्तियाँ भी हैं जिन्होंने प्रयाणमें अब तक सहायता की है, परन्तु जो असत्यके आधारसे चिपटे रहना चाहेंगी क्योंकि वे मनुष्यकी वर्तमान आत्म-अभिव्यक्तिको कसकर पकड़े हुई हैं और उसके आगे बढ़नेसे इन्कार करती हैं । यही शक्तियाँ अपनी अहंपूर्ण स्वेच्छाके वश सत्यके अन्वेषकके प्रति कुटिलता-पूर्ण वाणीका उपदेश करती है । यज्ञ द्वारा और यज्ञमें नमनके द्वारा मनुष्य, जो सदा प्रगति करनेवाला तीर्थ-यात्री है, अपने से परेके विशाल निवासस्थान को, सत्यके पद और धामको अपने निकट ले आता है । ]
१
प्राग्नये बृहते यज्ञियाय ऋतस्य वृष्णे असुराय मन्म ।
घृतं न यज्ञ आस्ये सुपूतं गिरं भरे वृषभाय प्रतीचीम् ।।
(यज्ञियाय) यज्ञके अधिपति, (असुराय) शक्तिशाली (ऋतस्य बृहते वृष्णे) सत्यके विशाल अधीश्वर और सत्यके प्रसारक (अग्नये) संकल्परूप अग्निदेवके प्रति मैं (मन्म) अपने विचारको भेंटके रूपमें (प्र भरे) आगे लाता हूँ । (आस्ये सुपूतं घृतं न) यह विचार यज्ञके निर्मल घृतके समान है जो ज्वालाके मुखमें पवित्र किया हुआ है । (गिरं भरे) मैं अपनी वाणी1को
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1. विचार और शब्दको उस अतिचेतन सत्यके आकार और अभिव्यक्तिमे
परिणत करना जो मानसिक तथा शारीरिक सत्ता के विभाजन व द्वैधभाव
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आगे लाता हूँ (वृषभाय प्रतीचीम्) जो अपने प्रभु1से मिलनेके लिये उसकी ओर जाती है ।
२
ऋतं चिकित्व ऋतमिच्चिकिद्धचृतस्य धारा अनु तृन्धि पूर्वी: ।
नाहं यातुम् सहसा न द्वयेन ऋतं सपाम्यरुषस्य वृष्ण: ।।
(ऋतं चिकित्व:) हे सत्यके सचेतन द्रष्टा ! (ऋतम् इत् चिकिद्धि) मेरी चेतनामें केवल सत्यको ही अनुभव कर । (ऋतस्य पूर्वी: धारा:) सत्यकी बहती हुई अनेक धाराओ2को (अनु तृन्धि) काटकर प्रवाहित कर दे ।3 (अहं) मैं (यातुं) यात्राको (न सहसा) न बलसे (न द्वयेन) और न द्वैध-भावसे (सपामि) सफल कर सकता हूँ और नाहीं इस प्रकार (अरुषस्य वृष्ण:) दीप्तिमान् दिठय कर्ता और वर्षक प्रभुके सत्यको प्राप्त कर सकता हूँ ।
३
कया नो अग्न ऋतयन्नृतेन भुवो नवेदा उचथस्य नव्य: ।
वेदा मे देव ऋतुपा ऋनूनां नाहं पतिं सनितुरस्य राय: ।।
(अग्ने) हे संकल्पस्वरूप अग्निदेव ! (नः कया) मेरे अन्दर स्थित किस विचारसे (ऋतेन ऋतयत्) सत्यसे सत्यकी खोज करता हुआ तू (नव्य: उचथस्य नवेदा: भुवः) एक नये शब्दके ज्ञानका प्रेरक बनेगा ? (देव:) वह देव जो (ऋतूनाम् ऋतुपा:) सत्यके कालों और ऋतुओं4की रक्षा करता है, (मे वेदा:) मेरे अन्दर की सब बातोंको जानता है, परन्तु (अहम् न वेद) मैं उसे नहीं जानता । (अस्य सनितु: राय: पतिं) वह सब वस्तुओंको अधिकृत करनेवाले उस आनन्दका स्वामी है ।
के परे छिपा हुआ है --यह था वैदिक साधनाका केन्द्रीय विचार
और उसके रहस्योंका आधार ।
1.वृषभ; विचारको चमकती हुई गायके प्रतीकात्मक रूपमें निरूपित
किया गया है जो अपने आपको भगवान्के प्रति अभिमुख करके समर्पण
कर रही हैं ।
2.हमारे 'जीवनके अन्दर अतिचेतनका अवतरण द्युलोककी वर्षांके रूपमें
चित्रित किया जाता था, यह उन सात दिव्य नदियोंका रूप लिये था जो
पृथिवी-चेतनापर बहती हैं ।
3.पहाड़ीकी चट्टानसे जहां विरोधी शक्तियाँ उनकी रक्षा कर रही हैं ।
4. ऋतु--काल-वभाग जनका कभी-कभी यज्ञक प्रगतिके वर्षोंके रूपमें
वर्णन किया गया टेक और कभी उसके प्रतीकभूत 12 महीनोके रूपमें ।
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४
के ते अग्ने रिपवे बन्धनास: के पायव: सनिषन्त द्युमन्तः ।
के धासिमग्ने अनृतस्य पान्ति क आसतो वचस: सन्ति गोपा: ।।
(अग्ने) हे संकल्पस्वरूप अग्निदेव ! (के) वे कौन हैं जो (ते) तेरे लिये (रिपवे बन्धनास:) शत्रुको बन्धनमें डालनेवाले हैं ? (के द्युमन्त:, पायव:, सनिषन्त:) कौनसी हैं वे देदीप्यमान सत्तायें,-रक्षक, उपलब्धि और विजयकी अभिलाषी ? (के अनृतस्य धासिं पान्ति) वे कौन हैं जो असत्यके आधारोंकी रक्षा करते है ? (के आसत: वचस: गोपा: सन्ति) वे कौन हैं जो वर्तमान शब्द1के रक्षक हैं ?
५
सखायस्ते विषुणा अग्न एते शिवासः सन्तो अशिवा अभूवन् ।
अधूर्षत स्वयमेते वाचोभिर्ॠजूयते वृजिनानि ब्रुवन्त: ।।
(अग्ने) हे संकल्पाग्ने ! ये हैं वे (ते सखाय:) तेरे साथी जो (विषुणा:) तुझसे भटककर विमुख हो गये हैं । (एते शिवास:) ये शुभ करनेवाले थे, पर (अशिवा: अभूवन्) अशुभ करनेवाले बन गये हैं । ये (ऋजूयते) सरलता चाहनेवालेके प्रति (वृजिनानि ब्रुवन्त:) कुटिल बातें कह-कहकर (वचोभि: स्वयम् अधूर्षत) अपने वचनोंसे अपना नाश कर लेते हैं ।
६
यस्ते अग्ने नमसा यज्ञमीट्ट ऋतं स पात्यरुषस्य वृष्ण: ।
तस्य क्षय: पृथुरा साधुरेतु प्रसर्स्राणस्य नहुषस्य शेष: ।।
(अग्ने) हे संकल्पशक्ते ! (य:) जो (ते यज्ञं) तेरे यज्ञको (नमसा ईट्टे) नमनके साथ, समर्पण-भावके साथ चाहता है (स:) वह (अरुषस्य वृष्ण:) देदीप्यमान दिव्यकर्ता और वर्षक2 देवके (ऋतं पाति) सत्यकी रक्षा करता है । (तस्य) उसे (पृथु: क्षय:) वह विशाल गृह3 (आ एतु) प्राप्त
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1. या, ''असत्य शब्द'' । दोनों पक्षोंमें इसका अभिप्राय है पुराना असत्य
जो सत्यकी उस नई शक्तिके विपरीत है जिसका ज्ञान अग्निको हमारे
लिये उत्पन्न करना है ।
2. चमकनेवाला पुरुष या वृषभ' ( अरुषस्य वृष्ण:), परन्तु इनमेंसे पिछले
शब्द 'वृषन्'का अर्थ प्रचुर वैभवका वर्षक, उत्पादक या प्रसारक भी
है और कभी-कभी इसका अर्थ प्रबल और प्रचर भी होता है । पहला
शब्द 'अरुष' क्रियाशीलि या गतिशीलका अर्थ भी रखता प्रतीत होता है ।
3. मानसिक द्युलोक और भौतिक पृथिवीके परे अतिचेतन सत्यका स्तर
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हो जाय जिसमें (साधु:) सब कुछ सिद्ध किया जा सकता है । (प्रसर्स्राणस्य नहुषस्य) तीर्थयात्री मानवको (शेष:) अपने आगेकी यात्राको पूरा करनेके लिये जो कुछ भी सिद्ध करना शेष1 है, वह सब भी (आ एतु) उसे प्राप्त हो जाए ।
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या 'स्वर्' का लोक जिसमें वह सब सिद्ध किया जाता है जिसके लिये
हम यहाँ प्रयास करते हैं । इसे विशाल निवासस्थानके रूपमें और
चमकती हुई गायोंकी विस्तृत एवं भयमुक्त चरागाहके रूपमें वर्णित
किया गया है ।
1. कभी-कभी इस लोकको अवशेष या अतिरेकके रूपमें वर्णित किया गया
है । यह सत्ताका अतिरिक्त क्षेत्र है, यह मन, प्राण और शरीरकी
इस त्रिविध सत्तासे जो हमारी सामान्य अवस्था है, परे स्थित है ।
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