वेद-रहस्य

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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Secret of the Veda Vol. 10 582 pages 1971 Edition
English
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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo वेद-रहस्य 985 pages 1971 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Abhaydev Vedalankar
  Dharmaveer Vedalankar
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पांचवां अध्याय

 

 सूर्य सविता-रचयिता और पोषक

 

  ऋग्वेद, मण्डल 5 सूक्त 81

 

युञ्जते मम उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चित: ।

वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही देवस्य सवितु: परिष्टुति: ।।1 ।।

 

विप्रा:) प्रकाशपूर्ण मनुष्य (मंन: युञ्जते) अपने मनको योजित करते हैं (उत धिय: युञ्जते) और अपने विचारोंको योजित करते हैं, उस [ सविता] के प्रति योजित करते हैं (विप्रस्य) जो प्रकाशपूर्ण है, (बृहत:) विशाल हैं और (विपश्चित:) स्पष्ट विचारवाला है । (वयुनावित्) सब दृश्योंको जाननेवाला वह (एक: इत्) अकेला ही (होत्रा विदधे) यज्ञकी शक्तियोंको क्रममें स्थापित कर देता है । (मही) महान् हैं (सवितु: देवस्य) सविता देवकी, दिव्य रचयिताकी (परिष्टुति:) सब वस्तुओंमें व्याप्त स्तुति ।।1।।

 

विश्वा रूपाणि प्रति मुञ्चते कवि: प्रासावीद् भद्रं द्विपदे चतुष्पदे ।

वि नाकमख्यत् सविता वरेण्योऽनु प्रयाणमुषसो वि राजति ।।2।।

 

(कवि:) वह द्रष्टा (विश्वा रूपाणि) सब रूपोंको (प्रति मुञ्चते) अपनेमें धारण करता है, और यह उनसे (द्विपदे चतुष्पदे) द्विगुण और चतुर्गुण सत्ताके लिये (भद्रं प्रासावीत्) भद्रको रचता है । (सविता) वह रचयिता, (वरेण्य:) वह परम वरणीय (नाकं वि-अख्यत्) द्यौको पूर्णत: अभिव्यक्त कर देता हैं, और (उषस: प्रयाणम् अनु) जब वह उषाके प्रयाणका अनुसरण करता है तय (विराजति) सबको अपने प्रकाशसे व्याप्त कर लेता है ।।2।।

 

यस्य प्रयाणमन्वन्य इद् ययुर्देवा देवस्य महिमानमोजसा ।

य: पर्थिचानि विममे स एतशो रजांसि देव: सविता महित्वना ।।3।।

 

(यस्य प्रयाणम् अनु) जिसके प्रयाणके पीछे-पीछे (अन्ये देवा: इत्) अन्य देव भी (ओजसा) उसकी शक्तिके द्धारा (देवस्य महिमानं ययु:) दिव्यताकी महिमाको पा लेते हैं, (य:) जो वह (महित्वना) अपनी महिमासे (पार्थिवानि रजांसि) पार्थिव प्रकाशके लोकोंको (विममे) माप डालता हैं, (स देव: सविता) वह दिव्य रचयिता है, (एतश:) बड़ा तेजस्वी है ||3||

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उत यासि सवितस्त्रीणि रोचनोत सूर्यस्य रश्मिभीः सभुच्चसि ।

उत रात्रीमुभयत: परीग्रस उत मित्रो भवसि देव धर्मभि: ।|4।।

 

(उत) और (सवित:) हे सविता देव ! तू (त्रीणि रोचना) तीन प्रकाशमान लोकोंमें (यासि) पहुँचता है; (उत) और तू (सूर्यस्य रश्मिभि:) सूर्यकी किरणों द्वारा (समुच्यसि) सम्यक्तया व्यक्त किया गया है; (उत) और तू (रात्रीम्) रात्रिको (उभयत:) दोनों पार्श्वोसे (परीयसे) घेरे हुए है; (उत) और (धर्मभि:) अपने कर्मोके नियमों द्वारा, तू (देव) दे देव ! (मित्र: भवसि) प्रेमका अधिपति होता है ।।4।।

 

उतेशिषे प्रसवस्य त्यमेक इदुत पूषा भवसि देय यामभि: ।

उतेदं विश्वं भुवनं वि राजसि श्यावाश्वस्ते सवितः स्तोममानशे ।|5।।

 

(उत त्वम् इत्) और तू अकेला ही (प्रसवस्य ईशिषे) प्रत्येक रचना करनेके लिये शक्तिमान् है (उत देव) और हे देव! (यामभि:) गतियों द्वारा तू (पूषा भवसि) पोषक बनता है; (उत) और तू (इदं विश्वम् भुवनं) संभूतियोंके इस संपूर्ण जगत्को (विराजसि) पूर्णतया प्रकाशित करता है । (श्यावाश्व:) श्यावाश्वने (सवित:) हे सवितः ! (ते स्तोमम् आनशे) तेरा स्तोम प्राप्त कर लिया है ।।5।।1

 

भाष्य

 

अपने चमकीले गणों (मरुतों) सहित 'इन्द्र', और आर्यके यज्ञको परिपूर्ण करनेवाला दिव्य शंक्ति 'अग्नि'-ये दोनों वैदिक संप्रदायके सबसे महत्त्वपूर्ण देव हैं । अग्निसे आरंभ होता हैं और अग्निपर ही समाप्ति होती है । यही संकल्पाग्नि, जो ज्ञानरूप भी है, मनुष्यके अमरतालक्षी ऊर्ध्वमुरव प्रयत्नका प्रारंभ करनेवाला है; इसी दिव्य चेतनाको, जो दिव्य शक्ति भी है, हम अमर्त्य सत्ताके मूल आघारके तौरपर अंतमें पहुंचते हैं । और इन्द्र, स्वर्लोकका अधिपति, हमारा मुख्य सहायक है । यह वह प्रकाश-मान प्रज्ञा है जिसमें हमें अपने धुंधले भौतिक मनको रूपांतरित कर देना है ताकि हम दिव्य चेतनाको प्राप्त करनेके योग्य हो जायँ । यह रूपांतर इन्द्र और मरुतोंके द्वारा सिद्ध होता है । मरुत् हमारी पाशविक चेतनाको, जो प्राण-मनके आवेगोंसे वनी होती है, अपने हाथमें लेते हैं, इन आवेगोंको

______________ 

 1. अनुवाद मुहावरेदार ओर साहित्यिक हो तथा मूलमें जो आशय और एकलयता है वह

   अनुवादमें ठीक वैसे ही आ जाय इसके लिये संस्कृत शब्दोंको आवश्यकतानुसार

   कुछ परिवर्तित कर लेनेकी स्वतन्त्रता अपेक्षित है । इसलिए मैंने इन संस्कृतके

   वाक्यांशोंका अधिक शाब्दिक अनुवाद यहाँ मन्त्रार्थमें न देकर अपने भाष्यमें दिया है ।

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सुर्य सविता, रचयिता और पोषक

 

अपने प्रकाशोंसे नियन्त्रित करते हैं और इन्हें सत्ताकी पहाड़ीपर स्व:के लोककी तरफ तथा इन्द्रके सत्योंकी तरफ हाँक ले जाते हैं । हमारा मानसिक उतक्रमण इन पाशव सेनाओं, इन ''पशुओं''से आरंभ होता है, ज्यों-ज्यों हम आरोहणमें प्रगति करते हैं, ये पशु सूर्यके जगमगाते पशु, 'गाव: ', किरणें, वेदकी दिव्य गौएँ, बन जाते हैं । यह है वैदिक प्रतीक-वर्णनाका आध्यात्मिक तात्पर्य ।

 

तो फिर यह सूर्य कौन है जिससे ये किरणें निकलती हैं ? वह सत्यका अधिपति है, आलोकप्रदाता-'सूर्य' -है, रचयिता-'सविता,-है, पुष्टि-दायक-'पूषा'--है । उसकी किरणें अपने स्वरूपमें स्वत:प्रकाश ज्ञान (Revelaion) की, अन्त:प्रेरणा (Inspiration)  की, अन्तर्ज्ञान ( Intution) की, प्रकाशपूर्ण विवेक ( luminous discernment) की अतिमानस क्यिाएँ हैं और इन चारोंसे ही उस सर्वातिशायी तत्त्वकी क्रिया निर्मित है जिसे वेदांत 'विज्ञान' कहता है और जिसे बेदमें 'ऋतम्', दिव्य 'सत्य' कहा गया है । परंतु ये किरणें मानवीय मनके अंदर भी अवतरित होती हैं तथा इसके ऊर्ध्यप्रदेशमें प्रकाशमय प्रज्ञाके लोकको, 'स्व: 'को निर्मित करती हैं, जिसका अधिपति इन्द्र है । क्योंकि, यह 'विज्ञान' एक दिव्य शक्ति है, कोई मानवीय शक्ति नहीं । मनुष्यका मन स्वत:प्रकाश सत्यसे निर्मित नहीं है, जैसा कि दिव्य मन होता है; यह तो एक इन्द्रियाधिष्ठित मन है जो सत्यको ग्रहण कर तथा समझ1 तो सकता है, पर सत्यके साथ एकरूप नहीं हो सकता । इसलिये ज्ञानके प्रकाशको कुछ इस तरहसे अपनेको परिवर्तित करके हमारी इस मानवीय बुद्धि ( समझ) के अंदर आना है जिससे इस ( ज्ञानप्रकाश) के रूप हमारी भौतिक चेतनाकी क्षमताओं और सीमाओंके उपयुक्त हो सकें । ओर इसे यह करना है कि यह हमारी मानवीय बुद्धिको क्रमश: आगे ले जाकर उसके वास्तविक स्वरूपतक पहुँचा दे, हमारे अंदर मानसिक विकासके लिये उत्तरोत्तर आनेवाली उत्कर्षकी अवस्थाओंको अभिव्यक्त करता जाय । इस प्र्रकार जब सूर्यकी किरणें हमारी मानसिक सत्ताको निर्मित करनेके लिये यत्न करती हैं, तो वे मनके तीन क्रमिक लोक रचती हैं जो एक दूसरेके ऊपर स्थित होते हैं,-एक तो संवेदनात्मक, सौंदर्यलक्षी और भाव-प्रधान मन, दूसरा विशुद्ध बुद्धि, तीसरा दिव्य प्रज्ञा । मनके इन त्रिविध लोकोंकी परिपूर्णता और संपन्नता सत्ताके केवल विशुद्ध मानसिक लोक3में

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1. समझ या बुद्धि के लिये वैदिक शब्द है 'धी' अर्थात् यह जो ग्रहण करती है और यथा-

  स्थान धारण करती है ।

   2. स्पष्ट ही, हमारी सत्ता का स्वामाविक लोक मौतिक चेतना है, पर अन्य लोक भी

     हमारे लिये खुले हैं, क्योंकि हमारी सत्ता का अंग उनमेंसे प्रत्येक में रहता है |

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निवास करती है, जहाँ वे (लोक) तीनोंआकाशों, तिस्रो दिव:,से ऊपर उनकी तीन दीप्तियों, त्रीणि रोचनानिके रूपमें जगमगाते हैं । पर उनका प्रकाश भौतिक चेतनापर अवतरित होता है और इसके लोकोंमें, वेदोक्त 'पार्थिवानि रजांसि', अर्थात् प्रकाशके पार्थिव लोकोंमें, तदनुरूप रचनाएँ बनाता है । वे पार्थिव लोक भी त्रिगुण हैं, तिस्त्र: पृथिवी:, तीन पृथिवियाँ । और इन सब लोकोंका रचयिता है सविता सूर्य ।

 

इन विविध आध्यात्मिक स्तरोंमेंसे प्रत्येकको एक स्वतंत्र लोक माना गया हैं, इनके रूपकमें हमें वैदिक ऋषियोंके विचारोंकी एक कुंजी मिल जाती है । मानव-व्यक्ति सत्ताकी एक संगठित इकाई है जो विश्वके रचनाविधानको प्रतिबिंबित करती है । यह अपने अंदर उसी अवस्था-क्रमको और शक्तियोंके उसी खेलको दोहराती है । मनुष्य आधार होकर सब लोकोंको अपने अंदर रखे हुए है, और आधेय होकर वह सब लोकोंमें रखा हुआ है । सामान्यतः ऋषि अमूर्तकी अपेक्षा मूर्त रूपमें वर्णनको अधिक पसंद करते हैं, और इसलिये भौतिक चेतनाको वे भौतिक लोक-- भू:, पृथिवी--के नामसे वर्णित करते हैं । विशुद्ध मानसिक चेतनाको वे 'द्यौ' नामसे कहते हैं, जिस द्यौका ऊर्ध्व प्रदेश है 'स्व:' अर्थात् प्रकाशमान मन । मध्यस्थ क्रियाशील, प्राणमय या वातिक चेतनाको वे या तो अन्तरिक्ष ( अर्थात् अन्तरालमें दिखायी देनेवाला) या 'भुवः' नाम देते हैं,--यह 'अन्तरिक्ष' या 'भुवः' वे विविध क्रियामय लोक हैं जो पृथिवीके निर्मापक होते हैं ।

 

कारण, ऋषियोंके विचारमें लोक मुख्य रूपसे तो चेतनाकी रचना है, वस्तुओंकी भौतिक रचना यह केवल गौण रूपसे हैं । लोक 'लोक' है, ह एक प्रकार है जिसमें सचेतन सत्ता अपने-आपको निरूपित करती है, कल्पित करती है । और लोकके रूपोंका रचयिता है कारणात्मक सत्य, जिसे यहाँ सविता सूर्य नामक देवता द्वारा प्रकट किया गया हैं । क्योकि असीम सत्ताके अंदर रहनेवाला कारणात्मक विचार ही है--जो निर्वस्तुक नहीं, किंतु वास्तविक और क्रियामय है,--नियमका, शक्तियोंका, वस्तुओंकी रचनाओंका तथा उनकी संभाव्यताओंके निश्चित रूपोंमें तथा निश्चित प्रक्रियाओं द्वारा कार्यरूपमें परिणत होनेका मूल स्रोत होता है । चूँकि यह कारणात्मक विचार सत्ताकी एक वास्तविक शक्ति है इसलिये इते सत्यम्, सत्तात्मक सत्य, कहा गया है; चूँकि यह सब क्रियाशीलता तथा रचनाका निश्चायक सत्य हैं इसलिये इसे ॠतम्, गतिमय सत्य कहा गया है; चूँकि यह अपनी आत्म-दृष्टिमें, अपने क्षेत्रमें तथा अपनी क्रियामें विस्तीर्ण और असीम हैं इसलिये इसे बृहत्, विशाल या विस्तृत, कहा गया है ।

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सविता सत्य द्वारा 'रचना करनेवाला' है, पर 'रचना करनेवाला' उन अर्थोमें नहीं जैसे कि कृत्रिम तौरपर कुछ बनाया जाता है या मशीनसे कुछ वस्तुएँ तैयार की जाती हैं । सविता शब्दमें जो धातु हैं उसका अर्थ है अंदरसे धकेलना, आगे प्रेरित कर देना या बाहरको निकालना,--इस धातुमें रचनाके अर्थमें प्रयुक्त होनेवाले सामान्य शब्द 'सृष्टि' का भाव भी है,--और इस प्रकार यह उत्पत्तिके अर्थको देती है । कारणात्मक विचारकी क्रिया कृत्रिम तौरपर निर्माण नहीं करती, बल्कि तप द्वारा, अपनी स्वकीय सत्तापर चेतनाके दबाव द्वारा, उसे ही अभिव्यक्त कर देती है जो इसके अंदर छिपा हुआ है, जो संभाव्य रूपमें अप्रत्यक्ष पड़ा है और जो सत्य रूपमें पहलेसे ही परात्परके अंदर विद्यमान है ।

 

होता यह हैं कि भौतिक जगत्की शक्तियाँ और प्रक्रियाएँ, एक प्रतीकके रूपमें, उस अतिभौतिक क्रियाके सत्योंको दोहराती हैं जिसके द्वारा इस ( भौतिक जगत्) का जन्म हुआ हैं । और चूँकि हमारा आन्तरिक जीवन और इसका विकास उन्हीं शक्तियोंसे और उन्हीं प्रक्रियाओंसे शासित होता हैं जो भौतिक और अतिभौतिक लोकोंमें एक-सी हैं, इसलिये ऋषियोंने भौतिक प्रकृतिकी घटनाओंको ही आन्तर जीवनके व्यापारोंके लिये प्रतीक रूपसे स्वीकार कर लिया और यह उनका एक कठिन कार्य हो गया कि वे उन आन्तर जीवनके व्यापारोंका एक ऐसी पवित्र कविताकी मूर्त्त भाषामें वर्णन करें जो साथ ही देवोंको इस दृश्य जगत्की शक्तियाँ मानकर की जानेवाली बाह्य पूजाका प्रयोजन भी सिद्ध करे । सौर बल (भौतिक सूर्यकी शक्ति) सूर्य देवताका ही भौतिक रूप है, जो देवता प्रकाश और सत्यका अधिपति है; इस सत्य द्वारा ही हम वह अमरता प्राप्त कर पाते हैं, जो वैदिक साधनाका अंतिम लक्ष्य है । इसलिये सूर्य और सूर्यकी किरणोंके, उषा और दिन और रात्रिके, तथा प्रकाश व अंधकार इन दो ध्रुवोंके बीचमें गुजरनेवाले मानव जीवनके रूपकको लेकर आर्य द्रष्टाओंने मानवीय आत्माके उत्तरोत्तर वृद्धिशील प्रकाशको निरूपित किया है । सो इसी प्रकार अत्रिके परिवारका श्यावाश्व इस सूक्तमें सविताकी, रचयिता, पोषक, प्रकाशककी, स्तुति कर रहा है ।

 

सूर्य सत्यके प्रकाशोंसे मन व विचारोंको आलोकित करता है । वह विप्र हैं, प्रकाशमान हैं । वह ही अपनेपनके तथा अपनी परिस्थितिके घेरेसे घिरी हुई चेतनामेंसे व्यक्तिगत मानवीय मनको छुड़ाता है और उसकी सीमित गतिको विशाल कर देता है, यह सीमित गति इस मनपर इसलिये थुप गयी है क्योंकि यह अपने निजी व्यक्तिभावमें ही पहलेसे निमग्न या

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ग्रस्त है । इसलिये वह बृहत् है, विशाल है । पर उसका प्रकाश धुंधला प्रकाश नहीं है, न ही उसकी विशालता अपनेको तथा विषयको गड़बड़, अस्पष्ट तथा द्रवित दृष्टिसे देखनेके कारण बनी होती है; वह तो अपने अंदर वस्तुओंका-उनके समुदायी रूपका तथा उनके अलग-अलग अवयवों और उनके परस्पर-संबंधोंका-स्पष्ट विवेक रखता है । इसलिये वह विपश्चित् हैं, विचारमें स्पष्टता-युक्त है । मनुष्य ज्यों ही इस सौर ज्योतिका कुछ अंश अपनेमें ग्रहण करने लगते हैं त्यों ही वे अपनी संपूर्ण मनोमय सत्ताको और इसकी विचार-सामग्रीको उस सविताके प्रति संयोजित करनेका यत्न करते हैं जो उनके अंदर दिव्य सूर्यकी सचेतन सत्ता है । कहनेका अभिप्राय यह है कि वे अपनी सारी धुंधली (तमोग्रस्त) मानसिक अवस्थाको और अपने सारे भ्रांत विचारोंको अपने अंदर अभिव्यक्त हुए इस प्रकाशके साथ मानो योजित कर देते हैं, जोड़ते हैं, ताकि वह प्रकाश मनके धुंघलेपनको निर्मलतामें परिणत कर दे तथा विचारके भ्रमोंको उन सत्योंमें बदल दे जिन सत्योंको वे (विचार-भ्रम) विकृत रूपमें प्रदर्शित करते हैं । यह जोड़ना हीं (युञ्जते) उनका योग हो जाता हैं । ''वे मनको योजित करते हैं और अपने विचारोंको योजित करते हैं, वे जो कि प्रकाशमान (विप्र) हैं उस सविताके (अर्थात् उसके प्रति, या इसलिये कि वे उसके अंग बन सकें या 'उससे संबद्ध हो सकें) जो प्रकाशमान (विप्र), विशाल (वृहत् ), ओर स्पष्ट विचारोंवाला (विपश्चित्) हैं ।''1

तब वह सत्यका अधिपति उसे सौंपी गयी सब मानवीय शक्तियोंको सत्यके नियमोंके अनुसार व्यवस्थित कर देता है; क्योंकि वह मनुष्यके अंदर एकमात्र और सर्वोपरि शक्ति हो जाता है जो सब ज्ञान और कर्मको शासित करती है । विरोधी शक्तियोंसे विध्नित न होता हुआ, वह पूर्ण तौरसे शासन करता है; क्योंकि वह सब अभिव्यक्तियोंको जानता है, उनके कारणोंको समझता हैं, उनके नियम और पद्धतिसे युक्त होता है, उनको

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1. ''युञजते मन, उतयुञ्जते धियः, विप्राः:, विप्रस्य-बृहतः-विपश्चित: ।'' 'विप्रस्य',

  'बृहत:'. 'विपश्चितः' इनमें विभक्ति षष्ठी है, इसलिये इनका अर्थ होगा 'विप्रके',

  बृहत्के', 'विपश्चित्के' । इसलिये शब्दार्थ करते हुए 'के' ऐसा विपश्चित्के'

  इसका अर्थ है 'विप्र, बृहत्, विपश्चित्के प्रति' |  अथवा, यह वाक्यरचना ऐसी है की

  'विप्रस्य, बृहतः, विपश्चितः'के आगे 'भवितुम्'का अध्याहार करनेसे जो अर्थ निकलता

  है वही इसका अर्थ होगा कि 'विप्र, बृहत, विपश्चित् का हो सकनेके लिये', अर्थात्

  इसलिये कि उसके अंग बन सकें या उससे संबद्ध हो सकें ।--अनुवादक

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सूर्य सविता, रचमिता और पोषक

 

उचित परिणामके लिये बाध्य करता है । मनुष्यके अंदर ये यज्ञिय शक्तियां (होत्रा:) सात हैं, जिनमेंसे प्रत्येक क्रमश: मनुष्यकी आध्यात्मिक सत्ताके धटक सात तत्त्वों--अर्थात् शरीर, जीवन (प्राण), मन, विज्ञान (Supermind)), आनंद, संकल्प (चित्) और सारभूत सत्ता (सत्) -से संबंध रखती हैं । इनकी अनियमित क्रिया या मिथ्या संबंध ही, जो मनके अंदर ज्ञानके तभोग्रस्त हो जानेसे पैदा होते हैं और कायम रहते हैं, सब स्खलनों और दुःखोंके, सब पापमय क्रियाओं और पापमय अवस्थाओंके कारण हैं । ज्ञानका अधिपति सूर्य इनमेंसे प्रत्येक को यज्ञमें उसके उचित स्थानपर स्थापित कर देता है । ''सब दृश्यजातका ज्ञाता अकेला वह यज्ञिय शक्तियोंको क्रममें स्थापित कर देता है", वि होत्रा दधे वयुनावित् एक इत् ।

 

इस प्रकार मनुष्य अपने अंदर इस दिव्य रचयिताकी विशाल और सर्वव्यापी स्तुति पर-वह ऐसा ही है ऐसे दृढ़, श्रद्धापूर्ण कथनपर--जा पहुँचता है । यह इसी संदर्भमें संकेतित कर दिया गया हैं और अमली ऋचामें तो ओर भी अधिक स्पष्टताके साथ निर्दिष्ट कर दिया गया है कि इसका परिणाम यह होता हैं कि मनुष्यकी पूर्ण सत्ताके जगत्की एक उचित और सुखमय रचना होने लगती है--क्योंकि हमारी सारी ही सत्ता एक सतत रचना ही हैं । ''महान् हैं सविता देवकी व्यापक स्तुति'', मही देवस्य सधितुः परिष्टुति: । (मंत्र 1) '

 

सूर्य द्रष्टा है, प्रकट .करनेवाला है । उसका सत्य अपने प्रकाशमें वस्तुओंके सब रूपोंको, सब दृग्गोचर विषयोंको और अनुभूतियोंको जिनका बना हुआ हमारा यह जगत् है, तथा विराट् चेतनाकी उन सब आकृतियोंको लिये हुए है जो हमारे अंदर और हमसे बाहर हैं । यह उनके अंदरके सत्यको, उनके अभिप्रायको, उनके प्रयोजनको, उनके औचित्य तथा ठीक प्रयोगको प्रकट करता है । यज्ञकी शक्तियोंको समुचित प्रकारसे क्रममें स्थापित करता हुआ यह हमारी समग्र सत्ताके नियमके तौरपर भद्रको रचता या पैदा करता हैं । क्योंकि सभी वस्तुएँ अपनी सत्ताका कोई समुचित कारण रखती हैं, अपना उत्तम उपयोग और अपना उचित आनंद रखती हैं । जब वस्तुओंके अंदर यह सत्य च लिया जाता है और उपयोगमें ले आया जाता है तब सब वस्तुएँ आत्माके लिये भद्र पैदा कर देती हैं, इसका आनंद बढ़ा देती हैं, इसके ऐश्वर्यको विशाल कर देती हैं । और यह दिव्य क्रान्ति दोनोंके अंदर होती है, निम्न भौतिक सत्ताके अंदर (द्विपदे) तथा अपेक्षाकृत अधिक पूर्ण उस आन्तरिक जीवनके अंदर (चतुष्पदे), जो अपनी अभिव्यक्तिके लिये इस (भौतिक जीवन) का उपयोग करता

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है ।1 ''वह द्रष्टा सब रूपोंको धारण करता है, वह द्विगुण (द्विपद) के लिये और चतुर्गुण (चतुष्पद) के लिये भद्रको प्रकट कर देता हैं (रच देता या अभिव्यक्त कर देता है)'', विश्वा रूपाणि प्रति मुञ्चते कवि:, भद्रं प्रासावीद् द्विषदे चतुष्पदे ।

 

इस नवीन रचनाकी पद्धति सूक्तके शेष भागमें वर्णित की गयी हैं । सुर्य, रचयिता बनकर, परम वरणीय बनकर, हमारी मानवीय चेतनामें उस (चेतना) के छिपे हुए दिव्य शिखरको विशुद्ध मनके स्तरोंपर अभिव्यक्त कर देता है और हम इस योग्य हो जाते हैं कि अपनी भौतिक सत्ताकी पृथिवीपरसे ऊपरकी ओर देख सकें और हम अज्ञानरूपी रात्रिके अंधकारोसे छूट जाते हैं । वह, प्राकृतिक सूर्यकी तरह, उषाके प्रयाणका अनुसरण करता है तथा हमारी सत्ताके सब प्रदेशोंको, जिनके ऊपर इसका प्रकाश पड़ता हैं, यह आलोकित कर देता है; क्योंकि इससे पहले कि स्वयं सत्य, अति-मानस तत्त्व, इस निम्न सत्तापर अघिकार पा ले, हमेशा मानसिक प्रकाशका पहले आना अपेक्षित होता हैं । ''ह रचयिता, वह परम स्पृहणीय, सारे द्यौको अभिव्यक्त कर देता है, और उषाकी अग्रमुख गति (प्रयाण) के बाद उसके अनुसार अनुगमन करता हुआ व्यापक रूपमें प्रकाशित हो उठता है'', वि नाकमख्यत् सविता वरेण्य, अनु प्रयाणमुषसो विराजति । (मंत्र 2)

 

अन्य  सब देव सूर्यके इस प्रयाणमें उसके पीछे-पीछे आते हैं और वे उसके प्रकाशकी शक्ति द्वारा उसकी बृहत्ताको पा लेते हैं । अभिप्राय यह कि जब मनुष्यके अंदर सत्य और प्रकाशका विस्तार हो जाता हैं तब उसके साथ-साथ अन्य सब दिव्य शक्तियाँ या दिव्य संभाव्यताएँ भी उसके अंदर विस्तारित हो जाती हैं; आदर्श अतिमानस तत्त्व (विज्ञान) के बल द्वारा वे उचित सत्ता, उचित क्रिया और उचित ज्ञानकी वही असीम विशालता पा लेती हैं । सत्य जब अपनी विशालतामें होता है तब सबको असीम और विराट् जीवनके रूपोंमें ढाल देता है, सीमित वैयक्तिक सत्ताको हटाकर उसके स्थानपर इन्हें ला देता हैं, भौतिक चेतनाके लोकोंको जिन्हें इसने सविता बनकर रचा था, उनकी वास्तविक सत्ताके स्वरूपोंमें पूर्णतया सुव्यवस्थित कर देता है । यह भी हमारे अंदर एक रचना ही है, यद्यपि असलमें यह केवल उसे व्यक्त करता है जो पहलेसे ही विद्यमान हैं पर हमारे अज्ञानके अंधकारसे ढका हुआ है,--ठीक उसी तरह जैसे कि भौतिक

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1. ''द्विपदे'' और ''चतुष्पदे'' शव्दोंके प्रतीकवादकी इससे भिन्न व्याख्या भी की जा

     सकती है । यहाँ इस विषयमें विवाद उठावें तो वह वहुत अधिक स्थान ले लेगा |

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पृथिवीके प्रदेश अंधकारके कारण हमारी आँखोंसे छिपे होते हैं, पर तब प्रकट हो जाते हैं जब सूर्य अपने प्रयाणमें उषाका अनुसरण करता है और एक-एक करके उन पार्थिव प्रदेशोंको दृष्टिके आगे मापता चलता है । ''जिसके प्रयाणका अनुसरण करते हुए अन्य देव भी, उसकी शक्ति द्वारा, दिव्यताकी महत्ता पा लेते हैं । दीप्तिमान् वह सविता देव अपनी महत्ता द्वारा प्रकाशके पार्थिव लोकोंको पूरे तौरसे माप देता है'', यस्य प्रयाणमनु अन्ये इद् ययुः, देवा: देवस्य महिमानम् ओजसा । य: पार्थिवानि विममे स एतश:, रजासि देव: सविता महित्वना । । ( मंत्र 3)

 

परंतु इतना ही नहीं कि यह दिव्य सत्य केवल हमारी भौतिक या पार्थिव चेतनाको ही इसकी पूरी क्षमता तक आलोकित करता है और इसे पूर्ण क्रियाके लिये तैयार कर देता है, बल्कि यह विशुद्ध मनके तीन प्रकाश-मान लोकों ( त्रीणि रोचना) को भी व्याप्त करता है; यह हमारे अंदर संवेदनों और भावोद्वेगोंको, प्रज्ञाको, अन्तर्ज्ञानात्मक बुद्धिको सब दिव्य संभाव्यताओंके संस्पर्शमें ले आता है और उच्चतर शक्तियोंको उनकी सीमासे तथा भौतिक जगत्के साथ उनके सतत संपर्कसे छुड़ाता हुआ यह हमारी समस्त मानसिक सत्ताको परिपूरित कर देता हैं । इसकी क्रियाएँ अपनी पूर्णतम अभिव्यक्तिको पा लेती हैं; वे सूर्यकी किरणों द्वारा, अर्थात् हमारे अंदर व्यक्त हुए दिव्य अतिमानस तत्त्व ( विज्ञान) की पूर्ण दीप्ति द्वारा, पूर्ण सत्यके जीवनमें आकर इकट्ठी हो जाती हैं । ''और हे सवित:! तू तीन प्रकाशमान लोकोंमें जाता है, और तू सूर्यकी किरणों द्वारा पूरे तौरसे अभिव्यक्त किया गया है ( या, किरणों द्वारा एक जगह इकट्ठा कर दिया गया है)'', उत यासि सवितः त्रीणि रोचना, उत सूर्यस्य रश्मिभी: समुच्चसि ।

 

तब यह होता है कि अमरताका, प्रकाशित हुए सच्चिदानंदका, उच्च साम्राज्य इस लोकमें पूरे तौरसे चमक उठता है । इस अतिमानस स्वत:- प्रकाशकी ज्योतिमें उच्च और निम्नका वैर शांत' हो जाता है । अज्ञान, रात्रि, हमारी पूर्ण सत्ताके दोनों पार्श्वोंमें प्रकाशित हो उठती है, न कि केवल एक पार्श्वमें जैसी कि वह हमारी वर्तमान अवस्थामें है, यह उच्च साम्राज्य आनंदके तत्त्वमे पहलेसे ही घोषित हैं और वह आनंदका तत्त्व हमारे लये प्रेम और प्रकाशका तत्त्व है जिसका प्रतिनिधित्व मित्र देवता करता है । सत्यका देवता ( सविता) जब अपने-आपको पूर्ण देवत्वमें प्रकट करता है, तो वह आनंदका देवता ( मित्र) हो जाता है । उसकी सत्ताका नियम, उसकी क्रियाओंको नियमित करनेवाला तत्त्व, प्रेमका रूप धारण करता

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हुआ देखा जाता है; क्योंकि ज्ञान तथा क्रियाके उचित व्यवस्थामें आ जानेपर प्रत्येक ही वस्तु यहाँ भद्र, ऐश्वर्य, आनंदके रूपोंमें परिवर्तित हो जाती है । ''और तू रात्रिको दोनों पार्श्वोसे घेर लेता है, और हे देव! तू अपनी क्रियाके नियमोंसे मित्र बन जाता हैं",  उत रात्रीमुभयतः परीयसे,  उत मित्रो भवसि देव धर्मभि: । (मंत्र 4)

 

दिव्य सत्ताका सत्य अंततः अकेला हमारे अंदर सब रचनाओंका एकमात्र अधिपति हो जाता है; और अपने सतत अभ्यागमनों द्वारा या अपनी निरंतर प्रगतियों द्वारा वह रचयिता पोषक बन जाता हैं, सविता पूषा बन जाता है । वह एक सतत, उत्तरोत्तर प्रगतिशील रचनाके द्वारा हमें तबतक समृद्ध करता चलता हैं, जबतक कि वह हमारी संभूतिके (जो कुछ हुआ है उसके) समस्त लोक (विश्व भुवनम्) को आलोकित नहीं कर देता । हम बढ़ते हुए पूर्ण, विराट्, असीम हो जाते हैं । इस प्रकार अत्रिकुलका श्यावाश्व सविताको अपनी सत्ताके अंदर एक ऐसे आलोकप्रदाता सत्यके रूपमें स्तुत-सुस्थापित-कर लेनेमें सफल हो सका है जो रचयिता है, प्रगतिशील है, मनुष्यका पोषक है,-जो मनुष्यको अहंभावकी सीमामेंसे निकालकर विश्वव्यापक बना देता है, सीमितसे हटाकर असीम कर देता है । ''और तू अकेला ही रचनाके लिये शक्ति रखता है; और हे देव! तु गतियों द्वारा 'पोषक बनता है, और तू इस समस्त लोकको (भुवनम्, शाब्दिक अर्थ है 'संभूतिको') पूर्णत: प्रकाशित कर देता है । श्यावाश्वने, हे सवित: ! तेरे स्तवनको प्राप्त कर लिया है", उत ईशिषे प्रसवस्य त्वमेक इत्, उत पूषा भवसि देव यामभि: । उस इदं विश्वं भुवनं विराजसि, श्यावाश्मस्ते सवित: स्तोममानशे ।।

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