CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - I 418 pages 2009 Edition
Hindi Translation

ABOUT

The Mother's brief statements on Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India and and nations other than India.

माताजी के वचन - I

The Mother symbol
The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - I Vol. 13 385 pages 2004 Edition
English
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The Mother symbol
The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - I 418 pages 2009 Edition
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आश्रम से जाना

 

 मैं तुम्हें जाने की सलाह नहीं देती । रहीं बात '' की, तुमने जिन परिस्थितियों का वर्णन किया है उनमें उसके लिए ज्यादा अच्छा होगा कि उसके जाने की जगह कोई उसकी सहायता करने के लिए यहां आ जाये । क्या तुम इसकी व्यवस्था कर सकते हो ?

 

  आशीर्वाद ।

 

२५ फरवरी, १९३९

 

*

 

मैंने '' के जाने को बहुत पसंद नहीं किया, लेकिन तुम्हारे जाने के बारे मे तो मैंने पूरी तरह अस्वीकार किया है । मैं यह नहीं समझ सकतीं कि केवल इस कारण कि वह अपने गांव लौट जाना चाहती है तुम अपना काम क्यों छोड़ और अपनी साधना में बाधा और संकट ले आओ ।

 

  मुझे यह निश्चय स्वयं तुम्हारे और तुम्हारी आध्यात्मिक अभीप्सा के लिए उचित या अच्छा नहीं लगता, अतः मैं आशा करती हूं कि तुम उसे इस प्रकाश में देखोगे और अपने निश्चय पर पुनर्विचार करोगे ।

 

३ मई, १९३९

 

*

 

निश्चय ही मैं तुम्हें दुःखी नहीं करना चाहती और अगर तुम्हारे अन्तःकरण का खिंचाव इतना जोरदार है कि तुम उसे सह नहीं सकते तो मैं तुम्हें जाने सें नहीं रोक सकती ।

 

४ मई, १९३९

 

*

 

अगर तुम्हें यह विकास हैं कि अपने गांव में रहने से तुम्हारे शरीर को राहत मिलेगी तो मैं स्वीकृति देने से इन्कार नहीं कर सकतीं । जैसा कि तुमने लिखा है, तुम पहली जून को जा सकते हो ।

 

३० मई, १९३९

 

*

 


' ' के जाने के कारण बहुत प्रबल नहीं हैं । लेकिन अगर जाने की इच्छा इतनी आग्रही है तो वह जा सकती है-तुम्हारा यह अनुभव करना बिलकुल ठीक है कि तुम्हें नहीं जाना चाहिये ।

 

 मेरे आशीर्वाद ।

 

५ मई, १९४१

 

*

 

माताजी,

 

   सुना है डॉ '' ने यह इच्छा प्रकट की है कि वे आश्रम के चित्रकारों को जिंजी दुर्ग पर ले जायेने? अपने बारे में वे आपको यह बतलाना चाहता हू कि मे जाने के लिए बहुत उत्सुक नहीं हू मैं तभी जाना चाहूंगा जब आपको लगे कि मेरा जाना उचित ने और आप चाहें कि दें जाऊं यह मेरी इच्छा नहीं ने वे हमेशा वही करना चाहता हू जिससे आप खुश हों इसलिए सें आपकी सलाह मानता हू और चाहता हूं कि आप बिना हिचकिचाहट और संकोच के अपनी राय दें मेरे लिए आपकी इच्छा पूरी करना ओर आपके शब्दों का अनुसरण करना एक कामना को संतुष्ट करने की अपेक्षा ज्यादा सुखद है

   प्रणाम- सहित

 

न जाना ज्यादा अच्छा है आध्यात्मिक जीवन के लिए इस तरह की सैर बहुत हितकर नहीं है ।

 

   मेरे प्रेम और आशीर्वाद-सहित ।

 

२४ दिसम्बर, १९४०

 

*

 

तुम अपने पिताजी से मिलने जा सकते हो-लेकिन मैं चाहूंगी कि तुम तब जाओ जब विद्यालय की छुट्टियां हों, यानी दूसरी दिसम्बर के बाद जाओ और पहली जनवरी से पहले, विद्यालय खुलने के समय, वापिस आ जाओ -क्योंकि पढ़ाई की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये ।

 

   मेरे प्रेम और आशीर्वाद-सहित ।

 

*

 

१४७


मेरे यह समझना कठिन कि '' जो बरसों से योग में तल्लीन था जिसके आपने कहा था कि उसका स्वभाव सती जैसा, वह आपसे केले दूर चला गया और योग- मार्ग से स्तुत हो गया

 

 तुम्हारी मनोवृत्ति की कठिनाई है उसका बहुत अधिक सरलीकरण । तुम एक दिशा मे देखते हो और उसी पर बहुत ज्यादा जोर देते हो और बाकी की अवहेलना कर देते हो । किसी व्यक्ति मे कुछ गुण हों सकते हैं लेकिन पूर्णता नहीं, और उसकी अवचेतना में इन गुणों के ठीक विपरीत गुण हो सकते हैं । अगर कोई इस विपरीतता को समाप्त कर देने की सावधानी न बरते, तो किसी भी क्षण परिस्थितियों के दबाव से जो चीज अवचेतना में है वह जोर से ऊपर उठ सकती हैं और आदमी ढह हो सकता है जिसे योग में पतन कहते हैं ।

 

३० नवम्बर, १९४३

 

*

 

  अगर एक व्यक्ति जिसे आपने ''संत ''-स्वभाव का बतलाया था बरसों के योग- को छोड़ सकता, तो मैं दु:खी हुए बिना ' रह सकता

 

मैं तुम्हें यह बतला सकतीं हूं कि कोई ऐसी बात नहीं हुई है जिसे सुधारा न जा सके । निश्चय ही आदमी मार्ग सें जितनी दूर भटकेगा उसे वापिस लौटने के लिए उतने ही मौलिक परिवर्तन की जरूरत होगी; लेकिन वापिस आना हमेशा सम्भव है ।

 

२२ दिसम्बर, १९४३

 

*

 

निश्चय माताजी यह जानती ' कि अमुक व्यक्ति करेगा या निष्किय जीवन बितायेगा ओर हर हालत में आश्रम से चला जायेगा यह जानते हूर' बे व्यक्ति को बरसों तक आश्रम में क्यों रहने

 

१४८


   देती हैं ? वे उससे कह क्यों नहीं देती कि उसका यहां रहना बेकार होगा श वह जब चाहे चला जाये?

 

 क्योंकि, हर एक को अपना पूरा-पूरा अवसर दिया जाता है, और हमेशा ही अप्रत्याशित उद्घाटन या परिवर्तन हो सकता है ।

 

२४ सुन, १९५८

 

*

 

 मुझे तुम्हारा पत्र मिल गया और मैंने पढ़ भी लिया ।

 

   कुछ बातों को स्पष्ट करना ज्यादा अच्छा होगा ।

 

   पहली बात, लोगों से और विशेषकर नौकरों से कृतशता की आशा करना हमेशा मूर्खतापूर्ण होता है ।

 

   दूसरी बात, जब केवल मजाक करने वाला ही मजाक में मजा ले सके, तो उसे बुरा मजाक कहते हैं ।

 

   अन्त मे, लोगों की राय को कोई महत्त्व देने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वे उड़ते संस्कारों के उड़ते परिणाम होते है; भिन्न परिस्थितियां और नये संस्कार उन्हें आसानी से बदल सकते हैं ।

 

   लेकिन स्थिति को सहज बनाने के लिए मुझे ज्यादा समझदारी इसी में लगती हैं कि तुम्हारे रहने का स्थान बदल दिया जाये और समय के साथ तनाव हल्का हो जाये ।

 

   और फिर, मुझे यह भी कहना चाहिये कि अगर तुम यहां दुःखी हो और तुम्हें वातावरण सहन करने में कठिनाई होती है, तो मैं इस अग्निपरीक्षा के बावजूद तुमसे यहां ठहरने के लिए नहीं कह सकती ।

 

७ अक्तूबर, १९५१

 

*

 

 मैं तुम्हारे तिरुवण्णमलै जाने में कोई तुक नहीं देखती, अगर तुम सैर- सपाटे के शौकीन हो तो और बात है ।

 

५ दिसम्बर, १९६४

 

*

 

१४९


भगवती मां

 

   क्या मुझे अमरीका लौटकर वहां धन इकट्ठा करना और आपके और श्री के योग का प्रसार करना चाहिये? या यह केवल सक्रिय प्राणिक बकबक है? मैं यहां के संघर्ष से बच निकलना नहीं चाहती-यदि यही मेरी भूमिका हो !लेकिन कुछ समय मुझे लग रहा कि मेरा काम में है

 

   तो वास्तव में मैं यह पूछ हूं कि क्या है और वह कहां होनी चाहिये ?

 

 काम के लिए और स्वयं तुम्हारे लिए यहीं अच्छा होगा कि तुम यहीं रहो ।

 

 ३० मई, १९६६

 

*

 

मेरे प्रिय बालक

 

   तुम शाश्वत काल के लिए मेरे पुत्र और मैं तुम्हारी मां हूं ।

 

   चिंता न करो, मैं तुम्हारे आध्यात्मिक विकास की पूरी जिम्मेदारी लेती हू और तुम आश्रम में तब तक रह सकते हो जब तक यह तुम्हें अपना घर लगे और तुम सचाई के साथ अपने- आपको '' भगवान् के काम '' के लिए अर्पित कर सको ।

 

   प्रेम और आशीवाद-सहित ।

 

१३ दिसम्बर, १९६

 

*

 

 यह मार्ग आसान नहीं है ।

 

   यहां रहना केवल उन्हीं के लिए सम्भव है जो अपने अन्दर की गहराइयों में अनुभव करते हैं कि यहीं संसार में एकमात्र जगह है जहां उन्हें रहना चाहिये ।

 

   तुम्हारे अन्दर यह चीज आ सकतीं है- आनी चाहिये-लेकिन इस बीच यह ज्यादा अच्छा है कि दुनिया में वापिस जाकर देखो कि उसके पास तुम्हें देने के लिए क्या है ।

 

१५०


  मैं ज्यादा सच्चे भविष्य के प्रति तुम्हारी अभीप्सा में हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगी ।

 

  आशीर्वाद ।

 

३ जुलाई, १९६८

 

*

 

 यहां अनुभव के लिए यथासंभव अधिक-से- अधिक क्षेत्र हैं, क्योंकि वह अधिकाधिक भौतिक क्रिया-कलाप से लेकर अधिकतम आध्यात्मिक क्षेत्रों तक फैला हुआ है जिसमें बीच के सभी स्तर आ जाते हैं ।

 

   इसलिए अगर, जैसा कि तुम कहते हो, तुम यहां से जाकर '' मनुष्य का अनुभव '' पाना चाहते हो, तो इसका कारण यह है कि तुम सत्य चेतना के सीधे नियंत्रण में आये बिना, जो तुम्हें बतला देगी कि ये मूर्खताएं हैं, मनमाने मूर्खता- भरे काम करने की स्वाधीनता चाहते हो ।

 

   व्यक्तिगत प्रगति के लिए जिन सच्ची अनुभूतियों की जरूरत है वे उन परिस्थितियों या उस वातावरण पर निर्भर नहीं हैं जिसमें तुम रहते हो, ये निर्भर हैं आन्तरिक मनोभाव और प्रगति के लिए संकल्प पर ।

 

*

 

अगर तुम अपनी अन्तरात्मा को पाना, उसे जानना और उसकी आज्ञा मानना चाहते हो, तो चाहे जिस कीमत पर हो, यहीं रहो ।

 

*

 

   अगर तुम्हारे जीवन का लक्ष्य यह नहीं हैं और तुम बहुसंख्यक लोगों का जीवन ज़ीने के लिए तैयार हो, तो निश्चय ही तुम अपने परिवार के पास वापिस जा सकते हो ।

 

*

 

'' जानना कि क्या वह इस जीवन को कर सकती या उसे सामान्य जीवन में जाना कर सकती है या उसे सामान्य जीवन में जाना होगा

 

 यह तथ्य ही कि वह यहां है यह प्रमाणित करता हैं कि उसकी सत्ता में

 

१५१


कहीं पर अभीप्सा हे और सहायता द्वारा वह अभीप्सा पूरी सत्ता मे फैल सकती है ।

 

*

 

तुम्हारे इस प्रश्न के बारे में कि '' तुम कहां ठीक बैठेगी '', दुनिया तुम्हारे जैसे लोगों से भरी है, इसलिए तुम दुनिया मे बिलकुल ठीक बैठ जाओगे, अगर-इसमें एक अगर है- अगर तुम अपने अन्दर विभक्त न हो । तुम्हारी सारी कठिनाई का कारण यह है कि तुम अपने साथ ही ठीक नहीं बैठते, बल्कि तुम्हारी बाहरी सत्ता और उसकी क्रियाएं तुम्हारी अन्तरात्मा के साथ बिलकुल मेल नहीं खाती, और चूंकि तुम्हारी अन्तरात्मा काफी जाग्रत् है, इसलिए यह संघर्ष तुम्हें मुश्किल में डालता है।

 

   एक बार तुम्हारे अन्दर जाग्रत् अन्तरात्मा हो तो उससे पीछा छुड़ाना आसान नहीं होता । इसलिए ज्यादा अच्छा यही है कि उसका हुकुम माना जाये ।

 

   मैं तुम्हें जो अच्छी-से- अच्छी सहायता दे सकती हूं वह यही सलाह है ।

 

*

 

क्या यह हो सकत हैं कि तुम जिसे अपनी मंथर प्रगति समझते हों उसके बारे में जस अधीर हो?

 

   क्या तुम अपने प्रयास का फल चखने के लिए बेचैन और उत्सुक हो?

 

  और फिर मैं यह नहीं समझ पाती कि भले कुछ सप्ताहों के लिए क्यों न हो, फिर से उसी वातावरण में डुबकी लगाना तुम्हें '' चिपकी रहने वाली बाधाओं '' से छुड़ाने में कैसे सहायता देगा । वही वाताठारण तुम्हारी ऊपरी परत की मोटाई के लिए जिम्मेदार है जिसे तुम्हारी अन्तरात्मा को छेदना होगा ताकि वह बाहर भी अपना प्रभाव डाल सके ।

 

   तुम अपनी आत्मा के लक्ष्य और अभीप्सा के बारे में काफी सचेतन हो; तुम इस बात से पूरी तरह सचेतन हों कि तुम्हारी अन्तरात्मा तुम्हें क्या बनाना चाहती है और तुमसे क्या होने की आशा करती हैं । केवल वर्तमान भौतिक रचना के परिणाम रास्ते मै खड़े हैं, और अब, केवल इन बाधाओं

 

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पर निरंतर, धैर्य के साथ काम करने से हीं तुम कठिनाई को हल कर सकते हो ।

 

  तो योग के दृष्टिकोण से, '' छुट्टी लेना '' एक तरह से प्रतिरोध की हठ के आगे '' हथियार डालना '' है । मेरे लिए यह बिलकुल स्पष्ट है ।

 

  लेकिन क्या तुम्हें विश्वास है कि तुम्हारे मन के किसी कोने मे आसक्ति की कोई स्मृति नहीं लूकी हुई जो बिना जाने तुम्हें बाहर से आने वाले आग्रही दबाव की बात मानने को बाधित करती हैं? उस हालत मे समस्या पर एक और हीं कोण सें विचार करना होगा ।

 

*

 

यह स्पष्ट हैं कि तुम्हारी आन्तरिक सत्ता बहुत मजबूत नहीं हैं और उसमें निर्वीर्य संदेहों, पराजयवादी निराशा, अहंकार और विश्वासघात से भरे परिवेश के विषैले प्रभाव का प्रतिकार करने की शक्ति नहीं हैं ।

 

  हमारा मार्ग आसान नहीं है, वह बहुत साहस और अथक सहिष्णुता की मांग करता है । परिणाम पाने के लिए, जो कभी-कभी बाहरी तौर पर मुश्किल-से दिखायी देते हैं । शांत-स्थिरता के साथ, कठिन परिश्रम और महान् प्रयास की जरूरत होती है।

 

  बहुत-से मनुष्य ऐसे हैं जिन्हें अपने- आपको साफ करने की जरूरत अनुभव करने के लिए कीचड़ में लोटना की जरूरत होती है ।

 

   अगर कामना इतनी दृढ़ है कि तुम्हारे अन्दर उसे जितने की शक्ति नहीं है, तो अपनी जान-पहचान के लोगों सें कहो कि तुम्हारे लिए कोई नौकरी ढूंढ दें (साधारणत: आश्रम से बाने वाले युवकों के लिए यह बहुत मुश्किल नहीं होता) और जाकर सामान्य जीवन का तब तक सामना करो जब तक त्1म यह न जान जाओ कि जिस जीवन को तुम छोड्कर आये हो उसका सही मूल्य क्या है ।

 

  अरादूत होने के लिए तुम्हारे अन्दर वीरता होनी चाहिये; क्योंकि, साधारणत:, लोगों को उसी पर विश्वास होता हैं जो चरितार्थ हो चुका हो, स्पष्ट हो, प्रत्यक्ष रूप से  देता हो और जिसे बहुत अधिक संदेही या संशयी लोग तक भी स्वीकार करते हों ।

 

*

 

१५३


तुम्हें जाते देखकर मुझे खेद होगा और मैं आशा करती थी कि इसकी जरूरत न होगी । लेकिन अगर तुम इतने दु :खी हो, अपने पर तुम्हें इतना कम विश्वास है, तो शायद कुछ समय के लिए जाना और अपना संतुलन ठीक कर लेना अच्छा होगा । मैं तुम्हारे लिए दरवाजा खुला रखूंगी और जैसे हो तुम काफी मजबूत हो जाओ, तुम वापिस आ जाओगे ।

 

   मेरे आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ हैं और रहेंगे ।

 

   और अगर अगली बार तुम योग के लिए और भागवत जीवन जीने के लिए वापिस आगे, तो सब कुछ आसान हो जायेगा।

 

*

 

मैं प्रसत्र हूं कि यहां रहने से तुम्हारी दृष्टि और समझ विशाल हुई है और तुम्हारी चेतना में गहराई आयी है ।

 

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