CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - I 418 pages 2009 Edition
Hindi Translation

ABOUT

The Mother's brief statements on Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India and and nations other than India.

माताजी के वचन - I

The Mother symbol
The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - I Vol. 13 385 pages 2004 Edition
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The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - I 418 pages 2009 Edition
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बैतानिक कर्मचारी

 

जो लोग अपनी आजीविका के लिए तुम पर निर्भर हैं उनके साथ तुम्हें बहुत शिष्ट होना चाहिये । अगर तुम उनके साथ बुरा व्यवहार करो, तो उन्हें बहुत खटकता है परंतु नौकरी छूट जाने के भय से वे तुम्हारे मुंह पर जवाब नहीं दे सकते ।

 

   अपने सें बडों के साथ रूखे होने में कुछ शान हो सकती है, परंतु जो तुम पर आश्रित हैं, उनके साथ तो बहुत शिष्ट होने में ही सच्चा बड़प्पन है ।

 

१३ जून, १९३२

 

*

 

मोची तनख्वाह बढ़वाना चाहता है ! वह चाहता हे कि मैं उसकी ओर से आपसे ८ की जगह १० रुपये कर देने के लिए प्रार्थना करूं, क्योंकि उसे तीन के परिवार का पेट पालना होता है

 

परिवार के बारे में मुझे जस भी दिलचस्पी नहीं है । वेतन कर्मचारी के काम पर, उसकी योग्यता पर और उसके नियमित होने पर निर्भर होना चाहिये, जिनके पेट भरने हैं उनकी संख्या पर नहीं । क्योंकि अगर हम इन परिस्थितियों पर विचार करें, तो यह हताश्रय काम न होकर दान हो जायेगा और जैसा कि मैं कई बार कह चुकी हूं, हम कोई सहायता-समिति नहीं हैं । सामान्य नियम के अनुसार मैंने इस वर्ष कर्मचारियों और नौकरों के वेतन नहीं बढ़ाये हैं, लेकिन अगर यह लड़का बहुत अच्छा काम करता है और तुम उसके व्यवहार सें संतुष्ट हो, तो मैं उसे शुरू के लिए ८ की जगह ९ रुपये दे सकती हूं ।

 

३० अगस्त, १९३२

 

*

 

जब कर्मचारी अपने बिल्ले लेने आयें तो उन्हें व्यर्थ में मत रोको ।

 

  दिन- भर काम करने के बाद उन्हें आराम करने के लिए घर जाने की जरूरत होती है ।

 

४ फरवरी, १९३३

 

*

 


नौकर कैदी नहीं है, उसे कुछ आजादी और हिलने-डुलनेकी की छूट होनी चाहिये ।

 

*

 

मुझे विश्वास है कि नौकर वैसा हीं व्यवहार करते हैं जैसा उनसे व्यवहार किया जाता हैं ।

 

१० मार्च ,१९३५

 

*

 

नौकरों को हमेशा डांटते रहना बहुत बुरा है-तुम जितना कम डांटो उतना ही अच्छा हैं । जब ' ' तुमसे उन्हें डांटने के लिए कहें तो तुम इन्कार कर दो और उससे कह दो कि मैंने ऐसा करने से मना किया है ।

 

  रहीं बात तुम्हारे साथी-कार्यकर्ताओं की, हर एक को अपनी भावनाओं के अनुसार काम करने की छूट होनी चाहिये ।

 

   मेरे प्रेम और आशीर्वाद-सहित ।

 

१६ मई, १९४०

 

*

 

अगर तुम्हें विश्वास है कि नौकर चोरी कर रहे हैं तो यह प्रमाणित करता है कि उन पर ठीक निगरानी नहीं रखी जा रही और तुम्हें अधिक सावधानी के साथ नजर रखनी होगी ।

 

१६ जुलाई, १९४०

 

*

 

मैं मज़दूरों की संख्या के बारे में अपना दृष्टिकोण तुम्हें पहले ही बता चुकी हूं । वे जितने ज्यादा हों, उतना ही कम काम करते हैं । मैं तरकारियों के लिए १४ आदमियों की बात को स्वीकार नहीं करती । कम लोगों के साथ काम किया जा सकता हैं और अच्छी तरह किया जा सकता है ।

 

१ नवम्बर, १९४३

 

*

 

१८२


मेरे प्रिय बालक

 

  ' ' ने तुम्हें '' के बारे मे मेरा फैसला बतला दिया होगा । तुम्हारी '' आपत्ति '' के बावजूद, मुझे यह करना पड़ा, क्योंकि इस आदमी ने बस आश्रम के किसी और विभाग में काम मांगा था; उसने न तो धमकी दौ और न अधिक वेतन मांगा । वह अच्छा कार्यकर्ता है और उसे खो देना खेदजनक होता । अगर तुम इस मामले में अपनी पहली अहंकारमयी प्रतिक्रिया से निकल आओ तो इस बात को आसानी से समझ सकोगे; और निश्चय ही तुम '' अपमानित '' होने के भाव को नहीं स्वीकार कर सकते, जो बिलकुल अयौगिक है ।

 

  मैं आशा करती हूं कि यह पढ़ने के बाद तुम शांत हो जाओगे और इस छोटी-सी महत्त्वहीन घटना को अधिक सच्चे परिप्रेक्ष्य में देख सकोगे । मेरे प्रेम और आशीर्वाद-सहित।

 

१३ अक्तूबर १९४४

 

*

 

 तुम उसे १० आने की दर पर दैनिक मजदूर रख सकते हो, लेकिन मैं ओवरटाइम की मजदूरी देने से इन्कार करती हूं; तुम्हें देखना होगा कि वह समय पर काम पूरा कर ले । हमारा हमेशा का अनुभव है कि जब मज़दूरों को ओवरटाइम का पैसा दिया जाता है तो वे काम के समय में प्रायः कुछ नहीं करते और इस तरह बहुत अधिक दर पर नियमित रूप से ओवरटाइम का पैसा निकाल लेते हैं ।

 

१ फरवरी, १९४५

 

*

 

सारे संसार में तोड़-फोड़ा मचाने वाली दुःखद घटनाओं के कारण, कई वर्षो के अन्तराल के बाद आज हम फिर से नये वर्ष के दिन पकड़ा बांटने की प्रथा को शुरू कर रहे हैं ।

 

  दुर्भाग्यवश, परिस्थितियां अब भी बहुत कठिन हैं, लड़ाई के दिनों से कुछ ज्यादा हो खराब, इसलिए मैं जो करना चाहती थी नहीं कर पाती । मैं बस यहीं कपड़े पा सकी जो आज बंटे जायेंगे, और इन्हें पाना भी बहुत

 

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कठिन था । मैं बस इतना और कहूंगी कि मैं आशा करती हूं कि अगले साल यह ज्यादा अच्छा होगा ।

 

१ जनवरी, १९४६

 

*

 

 श्रीअरविन्द आश्रम के कर्मचारीर्यो के नाम घोषणा

 

मेरी इच्छा है कि साधारण मालिक ओर नौकर की जगह मेरे और कर्मचारियों के बीच जो विशेष सम्बन्ध है वह मैं कर्मचारियों को समझाऊं । मेरी यह भी इच्छा है कि इस विशेष सम्बन्ध को समझकर कर्मचारी हमेशा इस समझ को अपने सभी विचारों में और मेरे सामने अपनी सम्मिलित मांगें रखते समय अपने ध्यान में रख सकें ।

 

  यह विशेष सम्बन्ध इस प्रकार हे :

 

  (क) जैसा कि तुम भली-भांति जानते हो, आश्रम मे काम मुनाफे के लिए नहीं किया जाता । इसलिए युद्ध के दिनों में जब चीजें सभी के लिए ज्यादा महंगी और कठिन हो गयी, तो मेरे लिए भी ऐसा ही हुआ । इन्हीं परिस्थितियों के कारण मेरी आय भी नहीं बढ़ी । औद्योगिकी और व्यापारिक संस्थाओं ने अधिक मुनाफा कमाया, इसलिए वे आसानी से वेतन बढ़ा सके, लेकिन यहां आश्रम में केवल ख़र्चे ही बढ़ते गये । इसके बावजूद, कर्मचारियों की कठिनाइयों को दृष्टि में रखते हुए मैंने वेतन बढ़ाये और महंगाई- भत्ते भी दिये ।

 

  (ख) ऐसे समय आये हैं जब कुछ कर्मचारियों के लिए कोई काम न था, लेकिन मैंने व्यापारिक संस्थाओं की तरह कभी कर्मचारियों को बरखास्त नहीं किया बल्कि हमेशा उनके करने के लिए कोई और काम ढूंढने की कोशिश करती रही । मेरी हमेशा यह नीति रही है कि जिन लोगों ने वफादारी के साथ काम किया है, उन्हें काम न होने के कारण, निकाला न जाये । मैं आसानी से ऐसा कर सकती थी और आश्रम के लिए कोई, विशेष कठिनाई पैदा किये बिना सब काम बंद कर सकती थी । ऐसा करने से मैं व्यापक दरिद्रता को और भी बढ़ा देती जो वैसे ही इतनी अधिक हैं, और मैं यह नहीं करना चाहती थीं ।

 

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  (ग) काफी संख्या में ऐसे कर्मचारी हैं जिन्होने पिछले बहुत वर्षों से भक्ति और निष्ठा के साथ मेरी सेवा की है, जो मुझे मालिक के अतिरिक्त अपने और अपने परिवार के रक्षक के रूप में भी देखते रहे हैं ।

 

  (घ) सब मिलाकर अभी तक आश्रम के कर्मचारी मुझे अपना मुखिया मान कर एक परिवार के सदस्यों के रूप में काम करते आये हैं, और इस विशेष सम्बन्ध ने उनमें से बहुतों को निश्चय ही लाभ पहुंचाया है । मैं इस सम्बन्ध को बनाये रखना चाहूंगी और कर्मचारियों के साथ अपने व्यवहार में मैं इसे ही आधार बनाऊंगी ।

 

इन बातों को ध्यान में रखते हुए, यह प्रस्ताव है कि आश्रम-कर्मचारी अपना एक अलग संघ बनाये, क्योंकि जैसा कहा गया है, मालिक के साथ सम्बन्ध में उनकी एक अलग ही स्थिति है । यह संघ कर्मचारियों की सार्वजनिक संस्था के साथ सम्बद्ध हो सकता है, लेकिन यह अपनी निजी कार्य और व्यवहार-प्रणाली रखेगा ।

 

  यह भी प्रस्तावित किया जाता है कि आश्रम-कर्मचारियों का यह संघ एक समिति को चुनेगा जो कर्मचारियों की राय की विभिन्न अर्थच्छटाओं का प्रतिनिधित्व करे । यह समिति कर्मचारियों द्वारा पेश की गयी मांगो को लेकर उन पर विचार करेगी और इन पर सोच-विचार करके वह ऐसे निश्चय पर पहुंचेगी जिसे वह उचित और न्यायसंगत समझे, फिर वह कार्रवाई के लिए अपने सभापति के दुरा मेरे पास भेजेगा । इस प्रकार की सभी प्रार्थनाएं को मैं सद्भावना और सहानुभूति के साथ लुंगी और मांगो के औचित्य के अनुसार अच्छे-से- अच्छे के लिए कार्य करूंगी ।

 

  दुंद और संघर्ष और दारिद्र्य और कष्ट के इस काल में जो भी मेरे अधीन, मेरे साथ काम करना चाहते हैं, उन सबको मैं प्रत्युत्तर में सहानुभूति, सफल और हितकारी सहयोग की संभावना भेंट करती हूं ।

 

५ मार्च, १९४६

 

*

 

 मैंने २१ अप्रैल, १९५२ को कर्मचारियों से जो कहा :

 

  तुम्हारा यहां इकट्ठा होना और व्यर्थ में इतना कष्ट उठाना अनावश्यक था । लेकिन अब तुम आ गये हो तो मुझे तुमसे कुछ बातें कहनी हैं ।

 

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  पहली बात, तुमने अपने कपड़ों के लिए मांग की हैं । मैंने कभी नहीं कहा कि ये तुम्हें नहीं मिलेंगे । लेकिन उन्हें पाना मुश्किल है और इसमें समय लगता है । अब वे रास्ते में हैं और जब आ जायेंगे तो तुम्हें सूचना दे दी जायेगी ।

 

  तुम्हारे वेतन बढ़ाने के बारे में, मैं पहले ही तुम्हें उत्तर दे चुकी हूं, और अब फिर दोहराती हूं, मैं अपने वर्तमान साधनों से अधिक खर्च कर चुकी हूं और अब मैं किसी भी तरह खर्च नहीं बढ़ा सकतीं । तो अगर मैं तुममें सें कुछ का वेतन बढ़ाऊं तो मुझे कुछ अन्य लोगों को, हिसाब की क्षतिपूर्ति के लिए निकालना पड़ेगा । देखें, तुम्हारे व्यक्तिगत अहं में ज्यादा बल है या सामुदायिक अहं में ? क्या तुम चाहते हो कि तुम्हारे साथी कर्मचारियों को कम करके तुम्हारे वेतन बढ़ाये जायें ?

 

  तुम्हें शिकायत है कि तुम दुर्दशा में रहते हो; और मैं तुमसे कहूंगी कि तुम दुर्दशा में इसलिए हो क्योंकि तुम अपना पैसा पीने में, सिगरेट फूंकने में और अपनी शक्ति अतिशय सेक्स में बरबाद करते हो । ये सब चीजें- शराब, तमाकू और सेक्स की अति-तुम्हारे स्वास्थ्य को बरबाद करती है

 

  धन सुख नहीं लाता । जिस संन्यासी के पास कुछ नहीं होता और जो सामान्यतः दिन में एक बार ही खाता है वह अगर सच्चा हो तो पूरी तरह सुखी रहता है । जब कि अगर किसी अमीर आदमी ने सब प्रकार की अतियों और अतिशय भोग-विलास के कारण अपना स्वास्थ्य बरबाद कर लिया हो तो वह पूरी तरह से दुःखी हो सकता है ।

 

मैं फिर से कहती हूं, धन मनुष्य को सुखी नहीं बनाता, बल्कि आन्तरिक ऊर्जा का संतुलन, अच्छा स्वास्थ्य और अच्छे भाव सुखी बनाते हैं । पीना बंद कर दो, तमाकू पीना और अति भोग बंद कर दो, तुम घृणा करना और ईर्ष्या करना बंद कर दो, तब तुम अपने भाग्य को लेकर झीखते रहना बंद कर दोगे, तुम्हें यह न लगेगा कि जगत् दुःख से भरा है ।

 

अप्रैल, १९५२

 

*

 

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 श्रीअरविन्द आश्रम के कर्मचारियों के नाम

 

 मैं तुम्हारे लिए जो करना चाहती हूं।

 

    मैं तुमसे यह कहूंगी कि मैं तुम्हारी, व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों समस्याओं के समाधान को किस दृष्टि से देखती हूं और हमारे परस्पर- सम्बन्ध का सत्य क्या है ।

 

   लेकिन जो कायक्रम मैं तुम्हारे सामने रखने जा रही हूं उसके कार्यान्वयन के लिए दो मौलिक शर्तें आवश्यक हैं । पहली, अपनी योजना के निष्पादन के लिए मेरे पास आर्थिक साधन होने चाहिये; दूसरी, अपने कार्य और मेरे प्रति अपने मनोभाव मे तुम्हें न्यूनतम सचाई, ईमानदारी और सद्भावना दिखानी चाहिये । सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि तुम्हें मुझे छलने की कोशिश करने की आदत है । खराब सलाहकारों ने तुम्हें यह सिखलाया हैं कि अपने मालिक के साथ सम्बन्ध मे करने लायक यही सबसे अच्छी चीज है । तुम्हारी ओर से यह वृत्ति तभी न्यायसंगत हो सकती है जब मालिक स्वयं तुम्हें छलने और तुमसे अपना मतलब निकालने की कोशिश करे । लेकिन मेरे साथ यह मूर्खता और भारी मूल हे; सबसे पहले, इसलिए कि तुम मुझे छल नहीं सकते और तुम्हारा कपट तुरन्त खुल जाता है और वह मेरे अन्दर से तुम्हारी सहायता के लिए आने की सारी इच्छा को दूर कर देता है, और दूसरा यह कि मैं '' मालिक '' नहीं हूं और तुमसे अपना मतलब निकालने की कोशिश नहीं करती ।

 

   मेरा सारा प्रयास है यथार्थ परिस्थितियां जितने अधिक-से- अधिक सत्य की अनुमति दें उसे धरती पर चरितार्थ करना; और सत्य की वृद्धि के साथ-साथ, सभी की भलाई और प्रसन्नता अनिवार्य रूप से बढ़ेगी ।

 

   मेरे लिए जाति और का के भेद- भाव में कोई सत्य नहीं हैं; केवल व्यक्ति का मूल्य हो अर्थ रखता है । मेरा लक्ष्य एक बड़ा परिवार बनाने का है जिसमें हर एक के लिए यह संभव होगा कि वह अपनी क्षमताओं का पूरा-पूरा विकास कर सके ओर उनकों अभिव्यक्त कर पाये । भ्रातृभाव और सद्भावनापूर्ण सम्बन्ध रखते हुए हर एक की क्षमता के अनुसार उसका अपना स्थान ओर काम होगा ।

 

   इस तरह के परिवार-संगठन के फलस्वरूप वेतन या पारिश्रमिक की

 

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कोई आवश्यकता न होगी । काम जीविकोपार्जन का साधन न होना चाहिये; उसका उद्देश्य दोहरा होना चाहिये : पहला, काम के लिए अपने स्वभाव और क्षमता को विकसित करना, और दूसरा, अपने शारीरिक साधन और नैतिक और मानसिक योग्यता के अनुपात में उस परिवार के लिए कार्य करना जिसके तुम अंग हो और जिसके कल्याण के लिए तुम्हें योगदान देना चाहिये, उसी तरह जिस तरह परिवार के लिए अपने सदस्य की सच्ची आवश्यकताओं को पूरा करना उचित है ।

 

   जीवन की वर्तमान परिस्थितियों में इस आदर्श को मूर्त रूप देने के लिए, मेरा विचार एक तरह की नगरी बनाने का है जहां प्रारंभ में करीब दो हजार आदमी रहेंगे । उसका निर्माण आधुनिकतम योजना के अनुसार होगा जहां स्वास्थ्य और सामान्य आरोग्य की सभी अद्यतन आवश्यकताएं पूरी होगी । वहां केवल घर ही न होंगे, बल्कि बग़ीचे, शारीरिक विकास के लिए क्रीड़ाक्षेत्र भी होंगे । हर एक परिवार अलग- अलग घर में रहेगा; अविवाहित पुरुष अपने कार्य और मेल-मिलाप के अनुसार दलों में बांट दिये जायेंगे ।

 

   जीवन के लिए कोई भी अनिवार्य वस्तु जूलाई न जायेगी । आधुनिकतम स्वास्थ्यकर उपकरणों से सज्जित रसोईघर सभी को समान रूप से सादा और स्वास्थ्यप्रद भोजन देंगे, जो शरीर के उचित पोषण के लिए पर्याप्त पौष्टिक होगा । व्यक्ति वहां सहकार के आधार पर मिलकर सहयोग के साथ काम करेंगे ।

 

    पढ़ाई के बारे में, जो कुछ आवश्यक हे वह है बच्चे और वयस्क, सभी के विकास और बौद्धिक व नैतिक शिक्षा के लिए विभिन्न स्कूल, विभिन्न पेशों में तकनीकी शिक्षण, नृत्य और संगीत की कक्षाएं, एक सिनेमा हॉल जहां शिक्षा-सम्बन्धी फिल्में दिखायी जायें, सभा-कक्ष, पुस्तकालय, पठन-कक्ष, विभिन्न शारीरिक शिक्षण, क्रीड़ाक्षेत्र इत्यादि की व्यवस्था ।

 

   हर एक ऐसा कार्य चून सकता है जो उसके स्वभाव के सबसे अधिक अनुरूप हो और वह उसके लिए आवश्यक प्रशिक्षण पायेगा । यहां तक कि छोटे-बड़े बग़ीचे भी दिये जायेंगे जहां, जिन्हें खेती में रस है, वे वहां फल, फूल और तरकारी उगा सकेंगे ।

 

  स्वास्थ्य के विषय में, नियमित रूप से चिकित्सक देखभाल करेंगे,

 

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अस्पताल, डिस्पेन्सरी और संक्रामक रोगों के रोगियों को अलग रखने के लिए एक नर्सिंग होम होगा । एक स्वास्थ्य विभाग का पूरी तरह सें यही काम होगा कि सभी सार्वजनिक और व्यक्तिगत गृहों में जाकर यह देखे कि सभी जगहों पर और सभी के द्वारा सफाई के कठोरतम नियमों का पालन किया जा रहा है । इस विभाग से स्वाभाविक रूप से जुड़े हुए सार्वजनिक स्नानगृह और सामूहिक धोबीखाने होंगे ।

 

   अंत में, बडी दूकानें बनायी जायेंगी जहां व्यक्ति छोटी-मोटी '' अतिरिक्त चीजें '' पा सकेगा जो जीवन को विभिन्नता और सुख देती हैं । ये उसे ''कूपन '' के बदले में मिलेगी जो काम और आचरण की किसी विलक्षण सफलता के पुरस्कार के रूप में दिया जायेगा ।

 

  मैं संस्था के काम और व्यवस्था का लंबा वर्णन नहीं करूंगी, यधापि सारी चीज छोटेसे-छोटे ब्योरे के साथ पहले से देखी जा चुकी हैं ।

 

  यह मानी हुई बात है कि इस आदर्श स्थान में प्रवेश के लिए जिन अनिवार्य शतों को पूरा करने की आवश्यकता होगी वे हैं अच्छा चरित्र, अच्छा आचरण, सच्चा, नियमित और कुशल कार्य और एक व्यापक सद्भावना ।

 

१० जुताई, १९५४

 

*

 

 क्या तुम सोने के अण्डे देने वाली मुर्ग़ी की कहानी जानते हों ? एक समय की बात है, एक किसान था । एक मुगी ही उसकी सारी भस्मपत्ती थीं; लेकिन वह एक अद्भुत की थी । हर तीसरे दिन वह उसे एक सोने का अण्डा देती थी । अब इस किसान ने अपने लालच- भरे अज्ञान के कारण सोचा कि इस मुर्ग़ी का सारा शरीर सोने से भरा होगा, और अगर वह उसके शरीर को चीरे तो उसे बड़ा-सा खजाना मिल जायेगा । इसलिए उसने मुर्ग़ी को चीर डाला-लेकिन मिला कुछ नहीं । उसने मूली भी गंवायी और अण्डे भी गये ।

 

   यह कहानी हमें बतलाती है कि अज्ञानभरा और मूर्खतापूर्ण लोभ जरूर बरबादी की ओर ले जाता है । इससे यह सीख लो और समझ लो कि अगर तुम मुझसे इतना मांगो जो मेरी बिसात से बाहर हो, और अगर

 

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मैं इतनी मूर्ख होऊं कि तुम्हारी मांग को स्वीकार कर लूं, तो मैं सीधी बरबादी की ओर जाऊंगी और परिणाम यह होगा कि सब काम बंद कर दिया जायेगा और तुम बेकार हो जाओगे और इस कारण तुम्हें कोई वेतन न मिलेगा, और अपनी रोजी कमाने का कोई उपाय न रहेगा ।

 

१८ मार्च,  १९५५

 

*

 

 कुछ लोगों के वेतन बढ़ाने का अर्थ होगा औरों को आजीविका से वंचित करना ।

 

*

 

कार्यकर्ताओं के बारे में विभित्र रिपोर्ट से सावधान-वे हमेशा पक्षपातपूर्ण होती हैं । हर एक अपनी अभिरुचि (पसंद और नापसंद) के अनुसार बोलता है और बातों को तोडे-मरोड़ कर रखता है ।

 

*

 

     अपने कार्यकर्ताओं में से अविश्वास को कैसे हटाया जाये?

 

 क्या तुम अंधे को दिखलाई सकते हो?

 

सारी मानवजाति-बहुत थोड़े-से अपवादों को छोड्कर-भगवान् पर अविश्वास करती है, फिर भी उनकी ' कृपा ' सबसे अधिक क्रियाशील है ।

 

*

 

 मालिक और कर्मचारी ण बीच सम्बन्ध

 

 विश्वास की नींव के बिना कोई स्थायी चीज नहीं स्थापित की जा सकती । और यह विश्वास पारस्परिक होना चाहिये ।

 

   तुम्हें यह विश्वास होना चाहिये कि केवल मेरा अपना भला ही नहीं, तुम्हारा भला भी मेरा लक्ष्य है । इस ओर मुझे भी यह पता होना चाहिये कि तुम केवल लाभ उठाने के लिए ही नहीं सेवा करने के लिए भी हो ।

 

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   हर एक का कल्याण हुए बिना सबका कल्याण होना असंभव है । प्रत्येक भाग की प्रगति के बिना सबका सामंजस्यपूर्ण विकास नहीं हो सकता ।

 

   अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारा शोषण किया जा रहा है, तो मुझे भी लगेगा कि तुम मुझसे अनुचित लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हो । ओर अगर तुम्हें धोखा दिये जाने का डर है, तो मुझे भी लगेगा कि तुम मुझे धोखा देने की कोशिश कर रहे हो ।

 

   मानव समाज केवल स्पष्टवादिता, सचाई और विश्वास में ही प्रगति कर सकता है ।

 

*

 

      (नौकरों के साथ व्यवहार के बारे में )

 

मेहरबान भी न होओ, कठोर भी न बनो ।

 

    उन्हें पता होना चाहिये कि तुम सब कुछ देखते हो, लेकिन उन्हें डांटो मत ।

 

२ जुलाई, १९६८

 

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