CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - I 418 pages 2009 Edition
Hindi Translation

ABOUT

The Mother's brief statements on Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India and and nations other than India.

माताजी के वचन - I

The Mother symbol
The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - I Vol. 13 385 pages 2004 Edition
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The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - I 418 pages 2009 Edition
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भाग ५

भारत

 


भारत
 

 ( २ जून ११४७ को उस समय के वायसराय लॉर्ड माउटंबैटन ने भारत के विभाजन के बारे में घोषणा की जिसमें पाकिस्तान के अतिरिक्त भारत के कुछ प्रान्तों को हिन्दू-मुस्लिम प्रान्त घोषित किया गया इसे सुनने के बाद माताजी ने निम्न वक्तव्य दिया।)

 

भारत की स्वाधीनता को सुसंगठित करने में हमारे सामने जो कठिनाइयां दिखायी दे रही दूं उनका समाधान करने के लिए एक प्रस्ताव रखा गया है ओर भारत के नेता उसे काफी कडवाहटभरे दुःख के साथ और हृदय को थामते हुए स्वीकार रहे हैं ।

 

    परंतु क्या तुम जानते हो कि यह प्रस्ताव हमारे सामने क्यों रखा गया है? यह हमें यह दिखाने के लिए रखा गया है कि हमारे झगड़े कितने हास्यास्पद हैं ।

 

   और क्या तुम जानते हो कि इस प्रस्ताव को हमें क्यों स्वीकार करना होगा ? हमें अपने सामने यह साबित करने के लिए स्वीकार करना होगा कि हमारे झगड़े कितने हास्यास्पद हैं ।

 

    स्पष्ट है कि यह कोई समाधान नहीं हे; यह एक प्रकार की परीक्षा है, एक अग्निपरीक्षा है, जिसमें, अगर हम पूरी सचाई के साथ उत्तीर्ण हो जायें तो यह हमें सिद्ध करके दिखा देगी कि किसी देश को टुकड़े-टुकड़े करके हम उसमें एकता नहीं स्थापित कर सकते, उसे महान् नहीं बना सकते; विभिन्न विरोधी स्वादों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा करके उसे हम समृद्ध नहीं बना सकते; एक मतवाद को दूसरे मतवाद के विरोध मे उपस्थित कर हम 'सत्य ' की सेवा नहीं कर सकते । इस सबके बावजूद, भारत की एक ही आत्मा है और जब तक ऐसी अवस्था नहीं आ जाती कि हम एक भारत की, एक और अखण्ड भारत की बात कह सकें, तब तक हमें बस, यही रट लगानी चाहिये :

 

    भारत की आत्मा चिरंजीवी हो ?

 

३ जून, १९४७

 

*

 

३८१


भारत की आत्मा एक और अविभाज्य है । भारत संसार में अपने मिशन के बारे में सचेतन हे । वह अभिव्यक्ति के बाहरी साधनों की प्रतीक्षा कर रहा है ।

 

६ जून, १९४७

 

*

 

 आहबान

 

 

 १५ अगस्त, १९४७

 

 हे हमारी मां, हे भारत की आत्म-शक्ति, हे जननी, तूने कभी, अत्यंत अंधकारपूर्ण अवसाद के दिनों में भी, यहां तक कि जब तेरे बच्चों ने तेरी वाणी अनसुनी कर दी, अन्य प्रभुओं की सेवा की और तुझे अस्वीकार कर दिया, तब भी तूने उनका साथ नहीं छोड़ा । हे मां, आज, इस महान् घड़ी में जब कि वे गात पड़े हैं और तेरी स्वतंत्रता के इस उषाकाल में तेरे मुख-मण्डल पर ज्योति पंडू रही है, हम तुझे नमस्कार कर रहे हैं । हमें पथ दिखा जिसमें परतंत्रता का जो विशाल क्षितिज हमारे सामने उद्युक्त हुआ है वह तेरी सच्ची महानता का तथा विश्व के राष्ट्र-समाज के अन्दर तेरे सच्चे जीवन का भी क्षितिज बने । हमें पथ दिखा जिसमें हम सर्वदा महान् आदर्शों के पक्ष मे ही खड़े हों और अध्यात्म मार्ग के नेता के रूप में तथा सभी जातियो के मित्र और सहायक के रूप में तेरा सच्चा स्वरूप मनुष्य- जाति को दिखा सकें ।

 

*

 

    ( रजत- नील कपड़े पर माताजी के प्रतीक वाली ''माताजी की ध्वजा '' के बारे में )

 

 यह भारत के आध्यात्मिक मिशन की ध्वजा है । ओर इस मिशन को चरितार्थ करने से भारत की एकता चरितार्थ होगी ।

 

१५ अगस्त, १९४७
 

*

३८२


 सच्चे, साहसी, सहनशील और ईमानदार होकर ही तुम अपने देश की अच्छी-से- अच्छी सेवा कर सकते हो, उसे एक, और संसार में महान् बना सकते हो ।

 

अक्तूबर, १९४८

 

*

 

    ( ' भारत के आध्यात्मिक और  सांस्कृतिक पुनर्जागरण संघ' के लिए संदेश )  

 

 भारत के अतीत की भव्यताएं उसके सन्निकट भविष्य की चरितार्थता में उसकी जीवित-जाग्रत् आत्मा की सहायता और आशीर्वाद के साथ नया जन्म लें ।

 

२३ अगस्त, १९५१

 

*

 

 संसार के कल्याण के लिए भारत की रक्षा होनी ही चाहिये क्योंकि केवल वही विश्व-शांति और नयी विश्व-व्यवस्था की ओर ले जा सकता है।

 

 फरवरी ,१९५४

 

*

 

 केवल ' भागवत शक्ति ' ही भारत की सहायता कर सकती है । अगर तुम देश में श्रद्धा और संबद्धता पैदा कर सको तो यह किसी भी मनुष्य-निर्मित शक्ति से कहीं ज्यादा शक्तिशाली होगी ।

 

फरवरी, १९५४

 

*

 

 भारत और संसार की रक्षा करने के लिए संबद्ध इच्छा-शक्ति वालों का एक बलवान् समुदाय होना चाहिये जिसमें आध्यात्मिक ज्ञान भी हो । भारत ही संसार में ' सत्य ' को ला सकता है । भारत पश्चिम के जड़वादी की नकल करके नहीं, ' भागवत शक्ति ' और उसके ' संकल्प ' को अभिव्यक्त

 

३८३


करके हीं संसार को अपना संदेश सुना सकता हैं । ' भागवत इच्छा ' का अनुसरण करके हीं भारत आध्यात्मिक पर्वत के शिखर पर चमकेगा, 'सत्य ' का मार्ग सिखायेगा और विश्व-ऐक्य का संगठन करेगा ।

 

फरवरी, १९५४

 

*

 

 भारत का भविष्य बहुत स्पष्ट है । भारत संसार का गुरु है । संसार की भावी रचना भारत पर निर्भर है । भारत जीवित-जाग्रत् आत्मा है । भारत संसार में आध्यात्मिक शान को जन्म दे रहा है । भारत सरकार को चाहिये कि इस क्षेत्र में भारत के महत्त्व को स्वीकार करे और अपने क्यों की योजना उसी के अनुसार बनाये ।

 

फरवरी, १९५४

 

*

 

 जब घातक युद्ध में से विजयी होकर निकलता हुआ भारत अपनी क्षेत्रीय अखण्डता को फिर से पा लेगा, जब उससे अधिक घातक नैतिक संकट में से विजयी होकर-क्योंकि नैतिक संकट शरीर को मारने की जगह आत्मा के संपर्क को नष्ट कर देता है जो और भी ज्यादा दुःखद हैं-भारत संसार में अपने सच्चे स्थान और अपने उद्देश्य को पा लेगा, तब सरकारों ओर राजनीतिक स्पर्धाओं के ये तुच्छ झगड़े, जो पूरी तरह से निजी हितों और महत्त्वाकांक्षा से भरे हैं, अपने- आप ही एक न्यायसंगत और प्रकाशमयी सहमति में बदल जायेंगे ।

 

१७ अप्रैल, १९५४

 

*

 

(१ नवंबर ११५४ को पॉण्डिचेरी और भारत के अन्य फ़रासीसी क्षेत्र भारत के साथ मिला दिये नये इस अवसर को मानने के लिए सवेरे ६. २० पर माताजी का प्रतीक लिये एक ध्वजा आश्रम पर फहराती गयी उस समय मातारी ने निम्न संदेश पूढा : )

 

३८४


हमारे लिए १ नवंबर का गहरा अर्थ है । हमारे पास एक ध्वजा है जिसे श्रीअरविन्द ने 'संयुक्त भारत की आध्यात्मिक ध्वजा ' कहा है । उसका वर्गाकार, उसका रंग, उसके डिज़ाइन के हर एक ब्योरे का प्रतीकात्मक अर्थ है । यह ध्वजा १५ अगस्त, १९४७ को फहराती गयी थी जब भारत स्वाधीन हुआ था । अब यह पहली नवंबर को फहराती जायेगी जब ये आस्तियां भारत के साथ एक हो रही हैं और भविष्य मे जब कभी भारत को अपने अन्य भाग मिलेंगे, यह फहरायी जायेगी । संसार में अखण्ड भारत को एक विशेष मिशन पूरा करना है । श्रीअरविन्द ने इसके लिए अपना जीवन होम दिया और हम भी यही करने के लिए तैयार हैं ।

 

१ नवंबर, १९५४

 

*

 

      ( राष्ट्रपति राजद्रें बाबू के नाम संदेश जब वे आश्रम आये थे )

 

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३८५


भारत को अपने मिशन के शिखर तक उठना चाहिये और संसार के आगे  ' सत्य ' की घोषणा करनी चाहिये ।

 

१५ नवंबर, १९५५

 

*

 

     मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि भारत की लोगों से रक्षा कीजिये।

 

हां, यह जरूरी-सा मालूम होता है।

 

१९५५

 

*

 

वर्तमान अंधकार और उदासी के बावजूद भारत का भविष्य उज्ज्वल हैं ।

 

१९५७

 

*

 

( २० अक्तूबर १९६२ को चीनी ने भारत की उत्तर- और उत्तर- ओ पर आक्रमण किया। २० और २८ अक्तूबर के बीच चीनियों ने सामरिक स्थलों पर कब्जा कर लिया और भारतीय सेना को पीछे के बाधित किया। इस समय ने निम्न चार वक्तव्य दिये :)

 

कभी- कभी मुझे लगता है कि नेताओं में की तरह मेरुदंड नहीं है जो उनमें स्रुवा के बारे में निर्णय लेते समय था।

 

इस समय इस तरह के विचार बिलकुल असंगत हैं । तुम्हें किसी की आलोचना तब तक न करनी चाहिये जब तक तुम निर्विवाद रूप से यह प्रमाणित न कर दो कि तुम, उन्हीं परिस्थितियों में । उससे ज्यादा अच्छी तरह कर सकते हो ।

 

     क्या तुम्हें लगता हैं कि तुम भारत के अद्वितीय प्रधान मंत्री होने के

 

३८६


योग्य हो ? मैं उत्तर देती हूं : हर्गिज नहीं, और तुम्हें चुप रहने और शांत रहने की सलाह देती हूं ।

 

२४ अक्तूबर, १६२

 

*

 

देश- भक्ति के भाव हमारे योग के साथ असंगत नहीं हैं, उलटे, अपनी मातृभूमि की शक्ति और अखण्डता के लिए कामना करना बिलकुल उचित भाव हैं । यह कामना कि वह प्रगति करे और पूर्ण स्वतन्त्र के साथ, अपनी सत्ता के सत्य को अधिकाधिक अभिव्यक्त करे, सुन्दर और उदात्ता भाव हैं जो हमारे योग के लिए हानिकर नहीं हो सकता ।

 

    लेकिन तुम्हें उत्तेजित नहीं होना चाहिये, तुम्हें समय से पहले कर्म में न कूद पड़ना चाहिये । तुम प्रार्थना कर सकते हो और करनी भी चाहिये, सत्य की विजय के लिए अभीप्सा और संकल्प कर सकते हो और, साथ ही, अपने दैनिक कार्य को जारी रख सकते हो ओर धीरज के साथ ऐसे अचूक चिह्न के लिए प्रतीक्षा कर सकते हो जो तुम्हें कर्तव्य कर्म का निर्देशन दे ।

 

    मेरे आशीर्वाद के साथ ।

 

२७ अक्तूबर, १६२

 

*

 

 मौन!    मौन!

 

यह ऊर्जाऐं समेटने का समय है, उन्हें व्यर्थ और निरर्थक शब्दों में नष्ट करने का नहीं ।

 

    जो कोई देश की वतंमान स्थिति पर अपनी राय जोर-जोर से घोषित करता है, उसे यह समझ लेना चाहिये कि उसकी रायों का कोई मूल्य नहीं है और वे भारत माता की, कठिनाई से बाहर निकलने में रंचमात्र भी सहायता नहीं कर सकतीं । अगर तुम उपयोगी होना चाहते हो, तो पहले अपने- आपको वश में करो और चुप रहो ।

 

    मौन! मौन! मौन!

 

३८७


केवल मौन रहकर ही कोई बडी चीज की जा सकती हे ।

 

२८ अक्तूबर,१९६२

 

*

 

      अगर आप दें तो हम आपके युवा बालकों से चंदा  इकट्ठा करके आपके उपयोग के लिए आपकी सवो मे रख दें

 

 यह ठीक है । मैं स्वीकार करती हूं । मैं इस अवसर का लाभ उठाकर तुम्हें यह भी बता दूं कि मैंने अभी, भारत की रक्षा के लिए आश्रम की भेंट सीधे दिल्ली भेजी है ।

 

   मेरे आशीर्वाद-सहित ।

 

३१अक्तूबर,१९६२

 

*

 

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 सच्ची आध्यात्मिकता जीवन से संन्यास नहीं है, बल्कि 'दिव्य पूर्णता' के साथ जीवन को पूर्ण बनाना हैं ।

 

    अब भारत को चाहिये कि संसार को यह दिखलाये ।

 

२६ जनवरी, १९६३

 

*

 

३८८


   वर्तमान आपत्काल में हर भारतीय का क्या कर्तव्य है ?

 

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 अपने तुच्छ, स्वार्थपूर्ण व्यक्तित्व से बाहर निकलो ओर अपनी भारतमाता के योग्य शिशु बनो । अपने कर्तव्यों को सच्चाई और ईमानदारी के साथ पूरा करो और ' भागवत कृपा ' में अडिग विश्वास रखते हुए हमेशा प्रफुल्ल और विश्वासपूर्ण बने रहो ।

 

३ फरवरी, १९६३

 

*

 

     १. अगर आपसे संक्षेप में केवल एक ही वाक्य में भारत के बारे में अपनी ' को प्रस्तुत करने के कह जाये, तो आपका क्या उत्तर होगा ?

 

 भारत की सच्ची नियति है जगत् का गुरु बनना ।

 

   २. इसी तरह अगर आपसे कहा जाये कि आपको वास्तविकता

 

३८९


    जिस रूप में दिखायी देती है उस पर एक ही वाक्य में टिप्पणी करें, तो आप क्या कहेगी ?

 

 वर्तमान वास्तविकता एक बड़ा मिथ्यात्व है जो एक शाश्वत सत्य को छिपाये हुए है ।

 

   ३. आपके मतानुसार कौन- सी तीन बाधाएं और वास्तविकता के बीच खड़ी हैं ?

 

 

क) अज्ञान; (ख) भय; (ग) मिथ्यात्व ।

  

    ४. रबाधिनता के बाद सब मिलाकर भारत ने जो प्रगति की है उससे आय संतुष्ट है ?

 

 नहीं ।

 

   ५. आधुनिक काल में हमारी सबसे उत्कृष्ट उपलब्धि कौन- सी है ? आप उसे इतना क्यों समझती हैं ?

 

' सत्य ' के लिए प्यास का जागना । क्योंकि 'सत्य ' के बिना कोई वास्तविकता नहीं होती ।

 

    ६. उसी प्रकार क्या आप यह बता सकती हैं कि सबसे पृ: खद असफलता कौन- सी है ? किन कारणों से आप उसे इतना दु..खद समझती हैं ?

 

 सचाई का अभाव । क्योंकि सचाई का अभाव नाश की ओर ले जाता है ।

( २६ जनवरी ,१९६४ मे प्रकाशित)

 

*

३९०


माताजी,

 

      बंगाल की नयी परिरिथातियों के बारे में मैन अभी- अभी सुना है ! आपने कहा है कि बंगाल आपकी शक्ति के प्रति ग्रहणशील नहीं हे और आपको स्वीकार नहीं करता बंगाल के लिए इससे अधिक दू..खद की बात कोई नहीं हो सकती ! लेकीन माताजी यह केसी बात हे कि बंगाल जो यूगों' मे आपको दिव्य बन्नी के रूए मै पूजता आया हे, जिसने सभी परिस्थितियों में आपसे प्रार्थना की है अब ऐसी शोचनीय और दृ:खद स्थिति में है ?

 

     माताजी सें इसके लिए कहां तक जिम्मेदार हूं और क्या करना चाहिये कि आप इस अभागे प्रदेश को भुला न दें (क्योंकि मैं अपने को अपराधी अनुभव करता हूं )?

 

 मेरे प्रिय बालक,

 

मैंने खास बंगाल के विरुद्ध कुछ नहीं कहा था । मैंने कहा था कि ये सब घटनाएं जो घट रही हैं वे मनुष्यों के अंदर ग्रहणशीलता के अभाव के कारण हैं । ऐसा लगता हे कि वे अब भी चेतना की उसी अवस्था में हैं जो तीन-चार सौ वर्ष पहले स्वाभाविक और व्यापक थी ।

 

    स्पष्ट है कि यह आशा की जा सकती थी कि अपनी श्रद्धा के कारण बंगाली अधिक ग्रहणशीलता के उदाहरण बनेंगे और अचेतन हिंसा की इन गतिविधियों के आगे झुकन से इन्कार करेंगे । लेकिन, जैसा कि तुमने बहुत ठीक कहा, हर एक अपने अंदर से उत्तर पा सकता हैं और सचाई के साथ अपने- आपसे पूछ सकता है कि उसने अपने यहां रहने का कितना लाभ उठाया है! अगर यहां भी परिणाम बहुत हल्का ओर घटिया हो, तो हम उनसे क्या आशा कर सकते हैं जिन पर प्रभाव सीधा और प्रत्यक्ष नहीं है ?

 

उपचार एक ही है : ''जागों और सहयोग दो! ''

 

३१ जनवरी, १९६४

 

*

 

 नेहरू शरीर छोड़ रहे हैं पर उनकी आत्मा भारत की ' आत्मा ' के साथ

 

३९१


जुही है, जो चिरन्तन है ।

 

२७ मई, १९६४

 

*

 

 (''माताजी के भारत के मानचित्र '' के बारे में जिसमें पाकिस्तान नेपाल, विविक्त, भूदान, बांगला देश, बर्मा और ' शामिल है !यहां ''विभाजन '' का मतलब भारत पाकिस्तान का विभाजन। )

 

 यह मानचित्र विभाजन के बाद बना था ।

 

   यह सब तरह के अस्थायी रूपों के बावजूद सच्चे भारत का मानचित्र हैं, और यही हमेशा सच्चे भारत का मानचित्र रहेगा, लोग इसके बारे मे कुछ भी क्यों न सोचें ।

 

२१ जुलाई, १९६४

 

*

 

 हमारा उद्देश्य भारत के लिए राष्ट्रीय शिक्षा-पद्धति नहीं, बल्कि समस्त संसार के लिए शिक्षा-पद्धति है ।

 

*

 

 परम माता

 

हमारा लक्ष्य भारत के ' शिक्षा ' बल्कि सारी मानवजाति के लिए सारभूत और मौलिक शिक्षा हे मगर, क्या यह ठीक नहीं है माताजी कि अतीत के अपने ' प्रयासों और उपलब्धियों के द्वारा अर्जित विशिष्ट योग्यता के कारण यह शिक्षा भारत का सौभाग्य है और अपने तथा जगत् के प्रति कुछ विशेष जिम्मेदारी हे? बहरहाल पेश ख्याल कि वह सारभूत शिक्षा ही भारत की राष्ट्रीय शिक्षा होगी? वास्तव में मै यह मानता हूं कि भाति हर बड़े रुष्ट में अपनी विशेष विभिन्नता के आधार पर एक राष्ट्रीय शिक्षा होगी।

 

       क्या यह ठीक ने और क्या माताजी इसका समर्थन करेगी ?

 

३९२


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३९३


हां, यह बिलकुल ठीक है ओर अगर मेरे पास तुम्हारे प्रश्न का पूरा उत्तर देने का समय होता तो मैं जो उत्तर देती उसका यह एक भाग होता । भारत के पास आत्मा का ज्ञान है या यूं कहें था, लेकिन उसने जडुद्रव्य की अवहेलना की और उसके कारण कष्ट भोगा ।

 

     भारत के पास जडुद्रव्य का ज्ञान है पर उसने ' आत्मा ' को अस्वीकार किया और इस कारण बुरी तरह कष्ट पा रहा हैं ।

 

पूर्ण शिक्षा वह होगी जो, कुछ थोड़े-से परिवर्तनों के साथ, संसार के सभी देशों में अपनायी जा सके । उसे पूर्णतया विकसित और उपयोग में लाये हुए जडुद्रव्य पर ' आत्मा ' के वैध अधिकार को वापिस लाना होगा ।

 

    मैं जो कहना चाहती थी उसका संक्षेप यही हैं ।

 

    आशीर्वाद सहित ।

 

२६ जुलाई १९६५

 

*

 

 (अगस्त १९६५ में भारत सरकार का शिक्षा- आयोग 'शिक्षा- केंद्र ' की शिक्षा- पद्धति और इसके आदर्श का निरीक्षण करने के पॉण्डिचेरी आया था? उस समय कुछ अध्यापकों ने माताजी से ये प्रश्न थे !)

 

 भारतीय शिक्षा के आधारभूत प्रश्न

 

१. वर्तमान और भावी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय जीवन को दृष्टि में रखते हुए भारत को शिक्षा में किस चीज को अपना लक्ष्य बनाना चाहिये?

 

अपने बालकों को मिथ्यात्व के त्याग और ' सत्य ' की अभिव्यक्ति के लिए तैयार करना ।

 

      २. किन उपायों से देश इस महान् लक्ष्य को चरितार्थ कर सकता है ? इस दिशा मे आरंभ कैसे किया जाये ?

 

जडुद्रव्य को ' आत्मा ' की अभिव्यक्ति के लिए तैयार करो ।

 

३९५


    ३. भारत की सच्ची प्रतिभा क्या और उसकी नियति क्या है ?

 

 जगत् को यह सिखाना कि जडुद्रव्य तब तक मिथ्या और अशक्त है जब तक वह ' आत्मा ' की अभिव्यक्ति न बन जाये ।

 

    ४. माताजी भारत मै विज्ञान औद्योगिकी की क्रांति को किस से 'दृष्टि मनुष्य के अन्दर ' आत्मा ' के विकास में बे क्या सकते ' है ?

 

 इसका एकमात्र उपयोग हे जडुद्रव्य को ' आत्मा ' की अभिव्यक्ति के लिए अधिक मजबूत, अधिक पूर्ण और अधिक प्रभावशाली बनाना ।

 

    ५. देश राष्ट्रीय एकता के लिए काफी चिंतित हे माताजी की क्या दृष्टि है ! भारत अपने तथा जगत् के प्रति अपने उत्तरदायित्व को कैसे पूरा करेगा ?

 

सभी देशों की एकता जगत् की अवश्यंभावी नियति है । लेकिन सभी देशों की एकता के संभव होने के लिए पहले, हर देश को अपनी एकता चरितार्थ करनी होगी ।

 

    ६. भाषा समस्या भारत को काफी तंग इस मामले में हमारा उचित मनोभाव क्या होना चाहिये !

 

 एकता एक जीवित तथ्य होना चाहिये, मनमाने नियमों के द्वारा आरोपित वस्तु नहीं । जब भारत एक होगा, तो सहज रूप से उसकी एक भाषा होगी जिसे सब समझ सकेंगे ।

 

 ७. शिक्षा सामान्यत: साक्षरता और एक सामाजिक प्रतिज्ञा कि चीज बन गयी है ! क्या यह अस्वस्थ अवस्था प्रवर्ती नहीं है ? लेकिन उसका ' आंतरिक मूल्य और उसका सहज आनन्द प्रदान किया जाये ?

 

३९६


परंपराओं से बाहर निकलो और अंतरात्मा के विकास पर जोर दो ।

 

    ८. आज हमारे शिक्षा कौन- से और भ्रांतियों का शिकार है ? हम उनसे यथासंभव बच सकते है ?

 

 क) सफलता, आजीविका और धन को दिया जाने वाला प्रायः ऐकांतिक महत्त्व ।

 

ख) ' आत्मा ' के साथ संपर्क और सत्ता के सत्य के विकास और उसकी अभिव्यक्ति की परम आवश्यकता पर जोर दो ।

 

५ अगस्त, १९६५

 

*

 

 मैं चाहूंगी कि वे (सरकार) योग को शिक्षा के रूप मे स्वीकार कर लें, हमारे लिए उतना नहीं जितना यह देश के लिए अच्छा होगा ।

 

     जडुद्रव्य का रूपांतर होगा, वह ठोस आधार होगा । जीवन दिव्य बनेगा । भारत को नेतृत्व करना चाहिये ।

 

*

 

 ( १ सितंबर १९६५ को पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर की ओर आक्रमण किया था २२ सितंबर को युद्ध-विराम हुआ !  इस बीच माताजी ने ये पांच वक्तव्य दिये थे !)

 

   श्रीअरविन्द अपनी पुस्तक 'ऐसेज़ ऑन द गीता ' (गीता-प्रबंध) मे कहते हैं : '' जब तक रुद्र का क्या न चूक जाये तब तक विष्णु का विधान प्रभावी नहीं हो सकता '' इसका क्या अर्थ हे ?

 

   माताजी क्या भारत की वर्तमान अवस्था रुद्र के ऋण की तरह है जिसे चुकाना होगा ?

 

जो लोग वर्तमान स्थिति के बारे में ' क्यों ' और ' कैसे ' पूछेंगे उनके लिए मैंने यह पूरा उद्धरण पहले से ही तैयार कर रखा था । मैं तुम्हें यह उद्धरण भेज रही हूं जो तुम्हारे प्रश्न से निबटा लेगा ।

 

३९७


''सच्ची शांति तब तक नहीं हो सकती जब तक मनुष्य का हृदय शांति पाने का अधिकारी न हो जब तक रुद्र का ऋण न चुकाया जाये तब तक विष्णु का विधान प्रभावी नहीं हो सकता । तो फिर इसे छोड़कर अभी तक अविकसित मानवजाति को प्रेम और ऐक्य के विधान का पाठ पढ़ाना ? प्रेम और ऐक्य के विधान के शिक्षक जरूर होने चाहिये, क्योंकि उसी रास्ते से परम मोक्ष आयेगा । लेकिन जब तक मनुष्य के अंदर 'काल- पुरुष ' तैयार न हो जाये, तब तक बाह्य और तात्कालिक वास्तविकता पर आंतरिक और परम हावी नहीं हो सकता । ईसा और बुद्ध आये और चले गये, लेकिन अभी तक संसार रुद्र की हथेली में है । और इस बीच अहंकारमयी शक्ति का फायदा उठाने वालों और उनके सेवकों दुरा सताती और संतप्त मानवजाति का दुर्धर्ष अग्रगामी परिश्रम ' योद्धा ' की तलवार और अपने मसीहा की वाणी के लिए आत, पुकार कर रहा है । '''

 

८ सितंबर, १९६५

 

*

 

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 ' श्रीअरविन्द, 'गीता-प्रबंध' ।


' भारत ' सत्य ' के लिए और उसकी विजय के लिए लड़ रहा है और उसे तब तक लड़ते रहना चाहिये जब तक हिन्दुस्तानी और पाकिस्तान फिर से ' एक ' न हो जायें, क्योंकि यही उनकी सत्ता का सत्य है ।

 

१६ सितंबर, १९६५

 

*

 

 आपके प्रधानमंत्री के और सेनापति के नाम १६ सितंबर के संदेश के बावजूद वर्तमान परिस्थितियों में हमारी सरकार का युद्ध-विराम को स्वीकार कर लेना क्या सर्वश्रेष्ठ उपाय न था ?

 

 वे और कुछ कर ही नहीं सकते थे ।

 

२१ सितंबर, १९६५

 

*

 

 हम देखते ' कि इस समय पूरा संसार एक प्रकार के असंतुलन और ' की स्थिति में है क्या इसका यह अर्थ ने कि वह अपने- आपको एक नयी शक्ति की अभिव्यक्ति के, 'सत्य ' के अवतरण के तैयार कर रहा है ?  श फिर यह अवतरण के विरुद्ध शक्तियों के विद्रोह का परिणाम है? इस सबमें भारत का क्या स्थान है ?

 

 दोनों बातें एक साथ हैं । यह तैयारी का एक विशृंखल तरीका हैं । भारत को आध्यात्मिक पथप्रदर्शक होना चाहिये जो समझा सके कि क्या हो रहा हैं, और इस आंदोलन को छोटा करने में सहायता दे । लेकिन, दुर्भाग्यवश, पश्चिम का अनुकरण करने की अंधी महत्त्वाकांक्षा में वह जड़वादी बन गया है और अपनी आत्मा की उपेक्षा कर रहा है ।

 

१३ अक्तूबर, १९६५

 

*

 

    सें आशा करता हूं कि काश्मीर की लड़ाई भारत और पाकिस्तान के एक की ओर पहला कदम है।

 

३९९


'परम प्रज्ञा' इस पर नजर रखे हुए है ।

 

१९६५

 

*

 

 माना यह जाता कि जगत् में आध्यात्मिक जीवन स्थापित करने के भारत संसार का गुरु है !लेकिन, माताजी, यह उच्च पद पाने के लिए उसे राजनीतिक,  नैतिक और भौतिक दृष्टि से इसके से योग्य होना चाहिये, है न ?

 

 निस्संदेह-और अभी इसके लिए बहुत कुछ करना बाकी है ।

 

७ सितंबर, १९६६

 

*

 

    हमारी वर्तमान सरकार कि इतनी बिशुन्ख्ला  दशा दंश क्यों है ?  क्या यह अच्छा  कार ' सत्य ' शासन का चिन्ह है ?

 

 समस्त धरती पर ' सत्य ' की शक्ति के दबाव के कारण ही हर जगह अव्यवस्था, अस्तव्यस्तता और मिथ्यात्व उछल रहे हैं जो रूपान्तरित होने से इन्कार कर रहे हैं ।

 

   ' सत्य ' का मार्ग निश्चित है, पर यह कहना मुश्किल है कि वह कब और कैसे आयेगा ।

 

१४ सितंबर, १९६६

 

*

 

    माताजी, मैंने सुना है कि १९६७ में भारत "संसार का अधार्मिक  गुर बन जायगा !" लेकिन केसी ? जब हम वर्तमान अवस्था को देखते है तो.

 

 भारत को जगत् का आध्यात्मिक नेता होना चाहिये । अंदर तो उसमें क्षमता हैं, परंतु बाहर... अभी तो सचमुच जगत् का आध्यात्मिक नेता बनने के

 

४००


लिए बहुत कुछ करना बाकी है ।

 

   अभी तुरंत ऐसा अद्भुत अवसर है! पर...

 

८ जून, १९६७

 

*

 

    ( भारत सरकार का शिक्षा- आयोग आश्रम आया था उसके नाम संदेश )

 

भारत सरकार को एक बात जाननी जरूरी है-क्या वह भविष्य के लिए जीना चाहती है, या अतीत के साथ भीषण रूप से चिपकी रहना चाहती है ?

 

२० जून, १९६७

 

*

 

     ( ' आकाशवाणी : पॉण्डिचेरी के उद्घाटन के अवसर पर प्रसारित सदेशी )

 

हे भारत, ज्योति और आध्यात्मिक ज्ञान के देश! संसार में अपने सच्चे लक्ष्य के प्रति जागों, ऐक्य और सामंजस्य की राह दिखाओ ।

 

२३ सितंबर १९६७

 

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भारत आधुनिक मानवजाति की सभी कठिनाइयों का प्रतीकात्मक प्रतिनिधि बन गया है ।

 

     भारत ही उसके पुनरुत्थान का, एक उच्चतर और सत्यतर जीवन में पुनरुत्थान का देश होगा ।

 

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सारी सृष्टि में धरती का एक प्रतिष्ठित विशेष स्थान है, क्योंकि अन्य सभी ग्रहणों से भिन्न, वह विकसनशील है और उसके केंद्र में एक चैत्य सत्ता हे ।

 

४०१


उसमें भी, विशेष रूप से भारत भगवान् दुरा चूना हुआ एक विशेष देश है !

 

*

 

 केवल भारत की आत्मा ही इस देश को एक कर सकती है ।

 

   बाह्य रूप मे भारत के प्रदेश स्वभाव, प्रवृत्ति, संस्कृति और भाषा, सभी दृष्ठियों से बहुत अलग- अलग हैं और कृत्रिम रूप से उन्हें एक करने का प्रयत्न केवल विनाशकारी परिणाम ला सकता है ।

 

   लेकिन उसकी आत्मा एक है । वह आध्यात्मिक सत्य, सृष्टि की तात्त्विक एकता और जीवन के दिव्य मूल के प्रति अभीप्सा मे तीव्र है, और इस अभीप्सा के साथ एक होकर सारा देश अपने ऐक्य को फिर से पा सकता है । उस ऐक्य का अस्तित्व प्रबुद्ध मानस के लिए कभी समाप्त नहीं हुआ ।

 

७ जुलाई, १९६८

 

*

 

 (राष्ट्रपति वी. वी. गिरि जब आश्रम आये थे तो माताजी ने उन्हें यह संदेश दिया )

 

आओ, हम सब भारत की महानता के लिए काम करें ।

 

१४ सितंबर, १९६१

 

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     ( भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के आने पर माताजी ने उन्हें ये संदेश दिये थे )

 

भारत भविष्य के लिए काम करे और सबका नेतृत्व करे । इस तरह वह जगत् मे अपना सच्चा स्थान फिर से पा लेगा ।

 

    बहुत पहले त यह आदत चली आयी है कि विभाजन और विरोध के द्वारा शासन किया जाये ।

 

४०२


   अब समय आ गया है एकता, पारस्परिक समझ और सहयोग के दुरा शासन करने का ।

 

   सहयोगी चुनने के लिए, वह जिस दल का है उसकी अपेक्षा स्वयं मनुष्य का मूल्य ज्यादा महत्त्वपूर्ण है ।

 

    राष्ट्र की महानता अमुक दल की विजय पर नहीं बल्कि सभी दलों की एकता पर निर्भर है ।

 

६ अक्तूबर,१९६९

 

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 भारत को फिर से अपनी आत्मा को पाना और अभिव्यक्त करना होगा ।

 

*

 

     आपने अपने एक संदेश में कहा :

 

      '' भारत की पहले नंबर की समस्या है अपनी आत्मा को फिर सें पाना और अभिव्यक्त करना ''

 

       भारत की आत्मा को कैसे पाया जाये ?

 

४०३


अपने चैत्य पुरुष के बारे में सचेतन होओ । ऐसा करो कि तुम्हारा चैत्य पुरुष भारत की ' आत्मा ' में तीव्र रुचि ले और उसके लिए सेवा-वृत्ति से अभीप्सा करे; और अगर तुम सच्चे हो तो सफल हों जाओगे ।

 

१५ जून, १९७०

 

*

 

 भारत वह देश है जहां चैत्य के विधान का शासन हो सकता है और होना चाहिये और अब यहां उसका समय आ गया है । इसके अतिरिक्त इस देश के लिए, जिसकी चेतना दुर्भाग्यवश विदेशी राज्य के प्रभाव और आधिपत्य के कारण विकृत हो गयी है, यही एक संभव निस्तार है । हर चीज के बावजूद, उसके पास एक अनोखी आध्यात्मिक परंपरा है ।

 

    आशीर्वाद ।

 

२ अगस्त, १९७०

 

    ( ' आकाशवाणी : पॉण्डिचेरी सें प्रसारित संदेश )

 

हम प्रकाश और सत्य के संदेशवाहक होना चाहते हैं । सामंजस्यपूर्ण भविष्य जगत् के सामने उद्घोषित होने के लिए तैयार खड़ा है ।

 

     समय आ गया है जब भय दुरा शासन करने की आदत के स्थान पर प्रेम का शासन आये ।

 

५ नवंबर, १९७०

 

*

 

    (माताजी के जन्मदिन २१ फरवरी १९७१ को 'आकाशवाणी : पॉण्डिचेरी से प्रसारित संदेश )

 

सच्ची स्वाधीनता ऊपर उठती हुई गति है जो निम्न वृत्तियों के आगे नहीं झुकती ।

 

    सच्ची स्वाधीनता एक भागवत अभिव्यक्ति है ।

 

   हम भारत के लिए सच्ची स्वाधीनता चाहते हैं ताकि वह संसार के

 

४०४


सामने इस बात का उचित उदाहरण बन सके कि मानवजाति को क्या होना चाहिये ?

 

१३ फरवरी, १९७१

 

*

 

      (बांगला देश की लड़ाई के दिनों मे माताजी ने ये धार संदेश दिये थे !)

 

अवस्था गंभीर है । कोई शक्तिशाली और प्रबुद्ध कदम ही देश को इसमें सें निकाल सकता है ।

 

आशीवाद ।

 

३० अप्रैल,१९७१

 

*

 

   (यह संदेश आश्रम में इस भूमिका के साथ बांटा गया था :

 

   ''देश के वर्तमान संकट के समय सब लोगों के लिए माताजी का दिया हुआ मंत्र ")

 

परम प्रभो, शाश्वत सत्य

वर दे कि हम तेरी ही आज्ञा का पालन करें

और ' सत्य ' के अनुसार जियें ।

 

जून, १९७१

 

*

 

 मैं बाह्य रूप से तब तक कुछ नहीं कर सकतीं जब तक वे ' सत्य ' का अनुसरण करने के लिए कटिबद्ध न हो जायें ।

 

   वैसा ' सत्य ' नहीं जैसा वे देखते हैं बल्कि वह ' सत्य ' जैसा कि वह है । ' सत्य ' को जान सकने के लिए तुम्हें पसंदों सें ऊपर और कामनाओं से रहित होना चाहिये, और जब तुम ' सत्य ' के लिए अभीप्सा करो तो तुम्हारा मन नीरव होना चाहिये ।

 

८ जुलाई, १९७१

 

*

 

४०५


यह इसलिए है कि क्योंकि समस्त संसार मिथ्यात्व में सराबोर हे-इसलिए चें सभी काम जो किये जाते हैं मिथ्या होंगे, और यह अवस्था लंबे समय तक चल सकती हैं और लोगों के लिए और देश के लिए बहुत कष्ट ला सकती है ।

 

    बस, एक ही चीज करने लायक हैं, हृदय से भागवत हस्तक्षेप के लिए प्रार्थना करो, क्योंकि वही एक चीज है जो हमारी रक्षा कर सकती है । वे सब जो इस विषय में सचेतन हो सकते हैं उन्हें बहुत दृढ़ता के साथ निश्चय करना चाहिये कि वे केवल ' सत्य ' पर ही डटे रहेंगे और केवल ' सच्चाई ' से ही काम करेंगे । कोई समझौता नहीं होना चाहिये । यह बहुत आवश्यक है । यही एकमात्र मार्ग है ।

 

   चीजें भले भटकती या हमारे लिए बुरी होती दिखायी दें, वस्तुत: जैसा कि इस समय फैल हुए मिथ्यात्व के कारण होगा-हम ' सत्य ' के लिए डटे रहने के अपने निश्चय से न डीके ।

 

    यही एकमात्र रास्ता है ।

 

जुलाई, १९७१

 

*

 

    भारत संसार में अपना सच्चा स्थान तभी पायेगा जब वह पूर्ण रूप से 'भागवत जीवन' का संदेशवाहक बन जायेगा ।

 

२४ अप्रैल, १९७२

 

*

 

   भारत क्या है ?

 

 भारत इस भूमि की मिट्टी, नदिया और पहाड़ नहीं है, न ही इस देश के वासियों का सामूहिक नाम भारत है । भारत एक जीवंत सत्ता हैं, इतनी ही जीवंत जितने कि, कह सकते हैं, शिव । भारत एक देवी है जैसे शिव एक देवता हैं । अगर वे चाहें तो मानव रूप मे भी प्रकट हो सकतीं हैं ।

 

*

 

४०६


जब तुम्हें सुंदरता से कतराना सिखाया जाता हों तो इसका अथ है कि इसके पीछे असुर का एक बहुत बड़ा अस्त्र क्रियाशील है । इसी ने भारत का विनाश किया है । भगवान् चैत्य में प्रेम, मन में ज्ञान, प्राण में शक्ति तथा भौतिक में सौंदर्य के रूप मे प्रकट होते हैं । अगर तुम सौंदर्य का बहिष्कार करो तो तुम भगवान् को भौतिक स्तर पर प्रकट होने से रोकते हो और उस भाग को असुर के हाथ में सौंप देते हो ।

 

*

 

 अति प्राचीन काल से (कुछ विद्वान् कहते हैं ईसा से ८००० वर्ष पहले सें) भारत आध्यात्मिक ज्ञान और साधना का देश, ' परम सद्वस्तु ' की खोज और उसके साथ ऐक्य का देश रहा है । यह वह देश हे जिसने एकाग्रता का सर्वोत्तम और सबसे अधिक अभ्यास किया है । इस देश में जो पद्धतियां सिखायी जाती हैं, जिन्हें संस्कृत में योग कहते हैं, वे अनंत हैं । कुछ केवल थोतिक हैं, कुछ शुद्ध रूप से बौद्धिक हैं, कुछ धार्मिक और भक्तिपरक हैं; अंतत: कुछ हैं जो अधिक सर्वांगीण परिणाम प्राप्त करने लिए इन विविध पद्धतियों को मिला देती हैं ।

 

 

 ''आहों !क्योंकि भारत जो धर्म का पालना है , जहां इतने सारे देवता उसके भाग्य के अधिष्ठाता है उनमें से कोने-सा इस नगर को पुनरुज्जीवित करने का चमत्कार सिद्ध करेगा ? ''

 

     (१९२८ में लिखे पॉण्डिचेरी के बारे में ए. शमेल के एक लेख में सै )

 

 वह मिथ्या बाह्य छलियों से अंधा होकर, बदनामियों से धोखा खाकर, भय और पक्षपात की पकडू में आकर, उस देव के पास से होकर गुजर गया जिसके हस्तक्षेप का वह आवाहन कर रहा है और जिसे उसने देखा नहीं; वह उन शक्तियों के पास से होकर निकल गया जो वह चमत्कार सिद्ध करेगी जिसकी वह मांग कर रहा है परंतु उसमें उन्हें पहचानने की इच्छा न थी । इस भांति वह अपने जीवन का सबसे बड़ा अवसर खो बैठा-उन

 

४०७


रहस्यों और अद्भुत चमत्कारों के संपर्क मे आने का अद्वितीय अवसर खो बैठा जिनके अस्तित्व के बारे मे उसके मस्तिष्क ने अनुमान किया है और जिसके लिए उसका हृदय अनजाने ही अभीप्सा करता है ।

 

    सदा से अभीप्साओं को, दीक्षा पाने से पहले, कुछ परीक्षाएं देनी होती थीं । प्राचीन संप्रदायों में ये परीक्षाएं कृत्रिम होती थीं, और इस कारण वे अपना अधिकतर मूल्य खो बैठती थीं । लेकिन अब ऐसा नहीं है । परीक्षा किसी बहुत हीं मामूली, दैनिक परिस्थिति के पीछे छिपी जाती है और संयोग और दैवयोग का निर्दोष रूप धारण कर लेती है जिसके कारण वह और भी अधिक कठिन और खतरनाक बन जाती है ।

 

भारत अपने खजानों का रहस्य उन्हीं के सामने प्रकट करता है जो मन की अभिरुचियों और जाति तथा शिक्षा के पक्षपातों पर विजय पा लें । अन्य जो खोजते हैं उसे न पारक निराश लौटते हैं; क्योंकि उन्होंने उसे गलत तरीके से खोजा था और 'दिव्य खोज ' का मूल्य चुकने के लिए तैयार न थे ।

 

११ सितंबर, १९२८

 

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    (आश्रम के एक कलाकार ने पॉण्डिचेरी राज्य के लिए एक प्रतीकात्मक मॉडल बनाया था उसका वर्णन )

 

 यहां पॉण्डिचेरी के नये राज्य को एक छोटी देसी नोक का रूप दिया गया है जिसमें एक मण्डप बना है । इस मण्डप के चार मुख्य स्तम्भन हैं : एशियाई, यूरोप, अफ्रीका और अमरीका-चार महाद्वीप । एशिया का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं बुद्ध, यूरोप का पिलास ऐथिनी, अफ्रीका के लिए आसीस है और अमरीका का प्रतीक है स्वाधीनता की मूर्ति । ये आध्यात्मिक सहारे संसार के गोले को उठाये हुए हैं जिसमें ऊपर से ' शांति की फाखता ' उतरती है । गोले के एक ओर एक भारतीय नारी तालपत्र लिये स्वागत करने को खड़ी हैं और दूसरी ओर एक फ़रासीसी नारी मंगलसूचक ज़ैतून की शाखा लिये है । पूर्व और पश्चिम की यह मैत्री राष्ट्रों के बीच चिरस्थायी शांति और सुसंगति के लिए शुभ शकुन है ।

 

४०८


    मण्डप के चार स्तंभों के बीच की खुली जगह उनसे लिपटी हुई बेलों से ढकी हैं जिनमें बारी-बारी से लाल और सफेद कमल हैं । लाल ओर सफेद कमल पार्थिव विकास का पथप्रदर्शन करने वाली यमल आध्यात्मिक ' चेतना ' के प्रतीक हैं ।

 

     मण्डप के चार कोनों पर आध्यात्मिक 'शक्तियों ' के प्रतीक चार रक्षक सिंह खड़े हैं ।

 

    आशा की जाती है कि पॉण्डिचेरी राज्य इस आध्यात्मिक अंतर्दर्शन को मूर्त रूप देगा और संसार की समस्त संस्कृतियों का मिलन-स्थल होगा जिसमें संसार- भर के लोगों को एक साथ बांध रखने वाली मौलिक ' एकता ' की पूरी-पूरी चेतना होगी ।

 

१९५४

 

*

 

    [ मादाम इवोन रीबैर गाबले (सुब्रत) नामक एक फ्रेंच महिला के नाम जिनकी फ्रेंच पुस्तक ' पॉण्डिचेरी का इतिहास ' १९६० में छपी धी]

 

मेरी प्रिय बालिका,

 

    मैंने अभी- अभी तुम्हारी सुन्दर और बहुल मजेदार पुस्तक देखी है; मैंने चित्र देखे और प्रस्तावित स्थल भी पढो हैं, कुछ अन्य स्थल भी देखे । वे जानकारी के लिए बहुमूल्य हैं ।

 

    यह बहुत अच्छी है, इस सुन्दर कृति पर बधाई देते हुए मुझे खुशी होती है ।

 

    क्या हमें पुस्तकालय के लिए एक प्रति मिलेगी? तो, मैं अपनी पुस्तक वहां न भुजंगी ।

 

    मैं आशा करती हूं कि एक दिन आयेगा जब हम खुलकर और यथार्थ रूप से यह कह सकेंगे कि पॉण्डिचेरी कार के लिए श्रीअरविन्द की 'उपस्थिति ' का क्या मूल्य है ।

 

   इस बीच, मैं तुम्हें अपना प्रेम और आशीर्वाद भेजती हूं ।

 

१२ जनवरी, १९६१

 

*

 

४०९


मुझे भारतीय भाषाओं के लिए बहुत अधिक मान है और जब समय मिलता है में संस्कृत का अध्ययन जारी रखती हूं ।

 

*

 

 संस्कृत को भारत की राष्ट्रभाषा होना चाहिये ।

 

आशीर्वाद ।

 

१९ अप्रैल, १९७१

 

*

 

 हिन्दी सिर्फ उन लोगों के लिए ठीक है जो हिन्दी- भाषी प्रदेश के हों । संस्कृत सभी भारतवासियों के लिए अच्छी है ।

 

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 जिन विषयों पर आपने और श्रीअरविन्द ने सीधे उत्तर दिये हैं उनके बारे में हम (' श्रीअरविन्द ऐक्शन ' वाले) धी हैं उदाहरण के लिए... भाषा के बारे में जहां आपने कहा ने कि ( १) क्षेत्रीय भाषा को शिक्षा का माध्यम होना चाहिये ( २) संस्कृत को राष्ट्रभाषा होना चाहिये और (३) अंग्रेजी को अंतर्राष्ट्रीय भारा क्या हम रेले प्रश्नों पर ये उत्तर देकर ठीक करते हैं ?

 

 हां ।

 

आशीर्वाद ।

 

४ अक्तूबर, १९७१
 

४१०









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