The Mother's brief statements on Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India and and nations other than India.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.
भाग ६
भारत से इतर राष्ट्र
अमरीका के नाम संदेश
यह सोचना बंद कर दो कि तुम पश्चिम के हों और अन्य लोग पूर्व के । सभी मनुष्य उसी एक दिव्य फल के हैं और धरती पर इस फल की एकता को अभिव्यक्त करने के लिए हैं ।
४ अगस्त, १९४१
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पॉण्डिचेरी में फ्रेंच इंस्टिटचूट के उद्घाटन के लिए संदेश
किसी भी देश में बच्चों को जो सबसे अच्छी शिक्षा दी जा सकतीं है वह यह हैं : उन्हें यह सिखाया जाये कि उनके देश का सच्चा स्वरूप और उसकी विशेषताएं क्या हैं, जगत् में उनके राष्ट्र को कौन-सा कर्तव्य पूरा करना है और कूम्हल में उसका सच्चा स्थान क्या है । उसमें दूसरे राष्ट्रों की भूमिका का विस्मृत शान भी जोड़ देना चाहिये, लेकिन नकल के भाव से रहित और अपने देश की प्रतिभा को आंखों से ओझल किये बिना !
फांस की विशेषता है भावना की उदारता, विचारों की नूतनता और निर्भीकता व कर्म में शौर्य । वही फांस था सबके आदर, सम्मान और प्रशंसा का पात्र : इन्हीं गुणों से वह जगत् पर छाछ गया था ।
स्वार्थी, हिसाबी और व्यापारिक फांस फांस नहीं रहा । ऐसी चीजें उसके सच्चे स्वरूप के साथ मेल नहीं खाती और इन चीजों को अपने आचरण में लाकर वह संसार में अपनी भव्य प्रतिष्ठा की स्थिति को खो रहा हैं । आज के बच्चों को यह अवश्य सिखाया जाना चाहिये ।
४ अप्रैल,१९५५
फांस ही यूरोप को भारत के साथ मिला सकता है । फ्रांस के लिए महान् आध्यात्मिक संभावनाएं हैं । अपनी वर्तमान बुरी अवस्था के बावजूद वह
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बहुत बड़ी भूमिका निभायेगा । फांस के माध्यम से आध्यात्मिक संदेश यूरोप में पहुंचेंगे । इसीलिए मैंने अपने जन्म के लिए फांस को चूना था, यद्यपि मैं फ्रेंच नहीं हूं१ ।
प्रिय 'क्ष',
मैंने अक्तूबर १९६१ में माताजी को 'विश्व ऐक्य ' के संबंध मे जल्दी ही अपने अफ्रीका के दौरे पर जाने के बारे मे लिखा था; मैंने उन बहुत- ले नये देशों के बारे में लिखा था जो अब स्वतंत्र होने जा रहे हैं क्या बे इन राष्ट्रों के लिए कोई संदेश देंगी ? ''क्या इससे ' सहायता मिलेगी ? '' इतना लिखकर उन्होने यह संदेश दिया :
सच्ची स्वाधीनता है कामना से मुक्त होना ।
सच्ची स्वतंत्रता है आवेग से मुक्त होना ।
सच्चा प्रभुत्व है स्वयं अपना प्रभु होना ।
यही एक प्रसन्नता की चाबी हे, बाकी सब अस्थायी भ्रांति है ।
विभाजन में नहीं बल्कि ऐक्य में मानव समस्याओं का हल और मानव कष्टों का उपचार पाया जा सकता है ।
अक्तूबर, १९६१
दिव्य मां
क्या हम आपसे एक ऐसा संदेश श सकते हैं जो अमरीका में उन लोगों को दिया जा सके जो हमारे कोष- संग्रह के काम में सहायता करने के लिए धन इकट्ठा कर रहे हैं ?
१माताजी के पिता तुर्क थे और मां मिस्र की । वे माताजी के जन्म से एक वर्ष पहले, १८७७ में मिस्र से फांस आये थे ।
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धन धन कमाने के लिए नहीं है धन का प्रयोजन है धरती को 'नयी सृष्टि' के लिए तैयार करना ।१
१५ जून, १९६६
जो 'सत्य' की सेवा करते हैं वे कोई एक या दूसरा पक्ष नहीं ले सकते ।
'सत्य' संघर्ष ओर विरोध से ऊपर है ।
सभी देश प्रगति और उपलब्धि के लिए मिले-जूले प्रयास करते हुए 'सत्य' के अंदर आ मिलते हैं ।
८ जून १९६७
एक राष्ट्र के तौर पर इसराईली को भी ज़ीने का वही अधिकार है जो अन्य राष्ट्रों को है ।
१२ जुनू,१९६७
तुम यह कैसे मान सकते हो कि 'कृपा' किसी एक राष्ट्र के पक्ष में या दूसरे के विरोध में काम करती हैं । 'कृपा' 'सत्य' के लिए काम करती है और संसार की वर्तमान अवस्था में 'सत्य' ओर मिथ्यात्व, दोनों हर जगह, सभी राष्ट्रों में मौजूद हैं । मानव मन सोचता हे : यह ठीक है और वह गलत-ठीक और गलत सब जगह उपस्थित हैं ।
'सत्य' सभी संघों और विरोधों से ऊपर है ।
१३ जून, १९६७
क्या मै आपसे दो विषयों में स्पष्टीकरण पा सकता हूं?
(१) क्या 'कृपा ' दोनों पक्षों में जो कुछ 'सत्य ' है उसके लिए काम नहीं करती ?
१यही संदेश पहले किसी ओर अवसर पर भी दिया गया था ।
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करती है ।
या वह अपने- आपको अलग- थलग रखती है क्योंकि दोनों पक्षों मे मिथ्यात्व धी है ?
नहीं । मैंने कहा काम करती है-यह अनवरत क्रिया हैं ।
( २) क्या वर्तमान संघर्ष महायुद्ध के जैसे संघटों से मूलत: मित्र है जिसमें 'कृपा ' ने निश्चित ओर निर्णायक रूप से एक पक्ष में काम किया धा-कम- से- कम सब मिलाकर ?
तुम दो चीजों को आपस में मिलाये दे रहे हो, ' कृपा ' की क्रिया और परिणाम जो निश्चित रूप से ' सत्य ' की विजय का परिणाम है । ये बिलकुल भिन्न चीजें हैं और मित्र स्तर पर हैं ।
'सत्य' की बढ्ती विजय अपने- आप कुछ जटिल और मानव मन के लिए अप्रत्याशित परिणाम लाती है । मन हमेशा सुस्पष्ट परिणाम चाहता हैं । देश और काल दोनों में समग्र दृष्टि ही समझ सकतीं है ।
१४ जून, १९६७
( समान पुरखों के हाते हुए, भी ) अरबों और यहूदियों में चिरकाल ले पीढ़ी-दर- पीढ़ी जो परस्पर घृणा चली आ रही है और जिसके परिणाम- स्वरूप हमें कुछ समय से इस गतिरोध में से गुजरना पड रहा है उसके लिए क्या कहा जाये ?
शायद यह दुश्मनी केवल इसलिए है कि वे पड़ोसी हैं !
हिंसा और शत्रुता... जब भाई- भाई घृणा करते हैं, तो वे औरों की अपेक्षा कहीं अधिक घृणा करते हैं । श्रीअरविन्द ने कहा है : '' घृणा कहीं अधिक प्रगाढ़ प्रेम की संभावना का संकेत हैं । ''
क्या हम यह मान सकते है कि ये दो महान संघर्षरत जातियां उन
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'शक्तियों ' का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व करती हैं जिन्हें हमारी सभ्यता के भाग्य का निर्णय करना है ?
यह संघर्ष हमारी सभ्यता के भविष्य का निर्णायक नहीं है ।
मुसलमान और इज़राइल उन दो धर्मों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनमें भगवान् पर श्रद्धा अपने चरम पर है । बस, इजराइलियों को निर्वैयक्तिक भगवान् पर श्रद्धा होती है और मुसलमान व्यक्तिगत भगवान् पर श्रद्धा रखते हैं ।
अरब बहुत आवेशमयी राजसिक प्रकृति के होते हैं । वे प्रायः ऐकांतिक रूप से आवेशों और कामनाओं से भरे प्राण में रहते हैं, जब कि इजराइली मुख्यत: मन में रहते हैं जिसमें बहुत व्यवस्था और उपलब्धि की शक्ति होती हैं, जो काफी विलक्षण है । इजराइली असाधारण संकल्प वाले बुद्धिप्रधान होते हैं । वे भावुक नहीं होते, यानी वे कमजोरी पसंद नहीं करते ।
मुसलमान आवेगशील होते हैं और इजराइली विचारशील ।
जून, १९६७
( 'श्रीअरविन्द सोसायटी : ओसाका जापान के नाम संदेश )
जापान भौतिक जगत् में सौंदर्य का शिक्षक था ।
उसे अपना यह विशेषाधिकार न त्यागना चाहिये ।
आशीर्वाद ।
१६ अक्तूबर, १९७२
सभी देश समान और तात्त्विक रूप से '' एक '' हैं ।
उनमें से हर एक ' परम देव ' के एक पक्ष का प्रतिनिधित्व करता हे । पार्थिव अभिव्यक्ति मे उन सभी को अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति का समान अधिकार है ।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से किसी देश का महत्त्व उसके आकार, उसकी
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शक्ति या अन्य देशों पर उसके प्रभुत्व पर नहीं बल्कि ' सत्य ' को स्वीकार करने ओर उसे अभिव्यक्त कर सकने में उसकी क्षमता के परिमाण पर निर्भर होता है ।
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