CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - I 418 pages 2009 Edition
Hindi Translation

ABOUT

The Mother's brief statements on Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India and and nations other than India.

माताजी के वचन - I

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The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - I Vol. 13 385 pages 2004 Edition
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The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - I 418 pages 2009 Edition
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बाह्रा जीवन

 

 घोषणा

 

 मैं इस दिन के साथ अपनी एक चिर-पोषित अभिलाषा की अभिव्यक्ति जोड़ देना चाहती हूं; वह है भारतीय नागरिक बनने की अभिलाषा । सन् १९१४ से ही, जब मैं पहली बार भारत में आयी थी, मैंने अनुभव किया कि भारत ही मेरा असली देश हैं, यहीं मेरी आत्मा और अन्तःकरण का देश है । मैंने निश्चय किया था कि ज्यों ही भारत स्वतन्त्र होगा मैं अपनी यह अभिलाषा पूरी करूंगी । लेकिन मुझे उसके बाद भी यहां पॉण्डिचेरी में आश्रम के प्रति अपने भारी उत्तरदायित्व के कारण बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ी । अब समय आ गया है जब मैं अपने विषय मे यह घोषणा कर सकती हूं ।

 

         लेकिन, श्रीअरविन्द के आदर्श के अनुसार, मेरा ध्येय यह दिखाना है कि सत्य एकत्व में है, न कि विभाजन में । एक राष्ट्रीयता प्राप्त करने के लिए दूसरी को छोड़ना कोई आदर्श समाधान नहीं है । इसलिए मैं आशा करती हूं कि मुझे दोहरी राष्ट्रीयता अपनाने की छूट रहेगी, यानी, भारतीय हो जाने पर भी मैं फ्रेंच बनी रहूंगी ।

 

      जन्म और प्रारम्भिक शिक्षा से मैं फ्रेंच हूं, अपने चुनाव और चाहना से मैं भारतीय हूं । मेरी चेतना में इन दोनों में कोई विरोध नहीं है , इसके विपरीत, वे एकदूसरे से भली प्रकार मेल खाते हैं और एकदूसरे के पूरक हैं ! मैं यह भी जानती हूं कि मैं दोनों देशों की समान रूप से सेवा कर सकती हूं, क्योंकि मेरे जीवन का एकमात्र ध्येय है श्रीअरविन्द की महान् शिक्षाओं को मूर्त रूप देना और उन्होंने अपनी शिक्षा में यह प्रकट किया है कि सारे राष्ट्र वस्तुत: एक हैं और सुसंगठित एवं समस्वर विविधता के दुरा इस भूमि पर ' भागवत एकत्व ' को अभिव्यक्त करने के लिए उनका अस्तित्व है ।

 

१५ अगस्त, १९५४

 

*

 

 दिव्य जननी

 

    जो अफसर चुनाव के मतदाताओं की तैयार कर रहा

 


     है वह सूची में आपका नाम भी लिखना चाहता है अगर आपकी स्वीकृति हो तो सें आपका नाम दे दूं ।

 

हां ।

 

अगर वे राष्ट्रीयता पूछे तो कह देना भारतीय ।

 

१२ अप्रैल, १९५५

 

*

 

मेरी किताब या किताबों के लिए फार्म मत भोर-मैं लेखक के अधिकार का दावा नहीं करती- और मैं उनके प्रश्नों का उत्तर देने से इन्कार करती हूं । सच यह है कि यह शरीर पेरिस मे पैदा हुआ था और उसकी अन्तरात्मा ने घोषणा कर दी हैं कि वह भारतीय है, लेकिन मैं किसी भी राष्ट्र-विशेष की नहीं हूं । और चूंकि सरकारें इसे नहीं समझ सकतीं, इसलिए मैं उनके साथ बहस नहीं करना चाहती ।

 

१४ फरवरी १९६८

 

*

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संस्मरण संक्षिप्त होंगे ।

 

      मैं श्रीअरविन्द से मिलने के लिए भारत आयी । मैं श्रीअरविन्द के साथ रहने के लिए भारत में रह गयी । उनके शरीर त्यागने के बाद भी मैं यहां रह रहीं हूं ताकि उनका काम पूरा करूं । उनका काम है 'सत्य ' की सेवा करके मानवजाति को प्रकाश देते हुए धरती पर ' भागवत प्रेम ' के राज्य को जल्दी लाना ।

 

२१ फरवरी १९६८

 

*

 

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 इस शरीर के भौतिक अस्तित्व के ब्योरों के बारे में प्रश्न मत पूछो; अपने- आपमें वे रुचिकर नहीं हैं और उन पर ध्यान नहीं देना चाहिये ।

 

इस सारे जीवन में, जानते हुए या अनजाने, मैं वही बनी जो भगवान् ने बनाना चाहा, मैंने वही किया जो भगवान् ने करवाना चाहा । केवल उसी का मूल्य है ।

 

*

 

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समाधि की ओर देखते हुए :

 

      मैं नहीं चाहती कि मुझे पूजा जाये । मैं काम करने के लिए आयी हूं, पूजे जाने के लिए नहीं; वे जी भर कर तुझे पूजे और मुझे चुपचाप व छिपा हुआ छोड़ दें ताकि मैं बिना किसी बाधा के अपना काम करती रहूं -सभी पथों में शरीर सबसे अच्छा पर्दा है ।

 

*

 

 बस, यह अनंतिम बार मेरे पूर्व जीवन के बारे में सार्वजनिक रूप से कुछ कहा जाये! -यह शरीर नहीं चाहता कि उसके बारे में कुछ कहा जाये- यह चुपचाप और, जहां तक बन पड़े, उपोक्षत रहना चाहता है ।

 

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