The Mother's brief statements on Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India and and nations other than India.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.
दूसरों के साथ सम्बन्ध
''मैं तुम्हारे साथ हू ''
माताजी हमेशा हर एक को उतना प्रेम देती हे जितने की उसे जरूरत है ।
११ जनवरी, १९३३
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मैं हमेशा तुम्हारे हृदय में विराजमान हूं, सचेतन रूप से तुम्हारे अन्दर रहती हूं ।
२ सितम्बर, १९६५
अपने हृदय को खोलों और तुम मुझे वहां पहले से हीं मौजूद पाओगे ।
बेचैन न होओ, शान्ति के साथ अपने हृदय में एकाग्र रहो और तुम मुझे वहां पाओगे ।
१ अक्तुबर, १९३५
मन्दिर के अन्दर गहराई में जाओ, तुम मुझे वहां पाओगे ।
११ फरवरी १९३८
सभी अभीप्सा करने वाली आत्माएं हमेशा मेरी सीधी देख-रेख में हैं ।
२७ सितम्बर, १९५७
माताजी उन सबके साथ हैं जो दिव्य जीवन के लिए अभीप्सा में सच्चे हैं ।
२६ मार्च १९७१
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माताजी मैं अपने- आपको निरन्तर आपको अर्पित करता हूं ! मैं यह रहा, मां !
मैं तुम्है अपने हृदय से लगाती हूं और वही रखती हूं ।
आशीर्वाद ।
५ जून १९७१
माताजी कभी- कभी मैं इस नये स्पन्दन को अपने अन्दर उतरते हुए अनुभव करता हूं जो अपने साध तेज ' बल : आनन्द और न जाने क्या- क्या लाता - यह कितना सुन्दर आय यहां ', मेरी मां !
मैं आन्तरिक रूप से हमेशा तुम्हारे साथ हूं ।
११ मई, १९७१
मैं हमेशा तुम्हारे पास, तुम्हारे अन्दर उपस्थित हूं, और मेरे आशीर्वाद मुझे लिये आते हैं ।
यह विश्वास रखो कि मैं हमेशा तुम्हें रास्ता दिखाने के लिए, तुम्हारे काम में और तुम्हारी साधना में सहायता करने के लिए तुम लोगों के बीच उपस्थित रहती हूं ।
अभी के लिए आवश्यक है चेतना के विस्तार और गहराई को बढ़ाना जिसके कारण तुम अपने साहा मेरी निरन्तर उपस्थिति का वास्तविक और ठोस रूप में अनुभव कर सकते हो जिससे तुम्हें निर्विकार शान्ति मिलेगी ।
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मेरी निरन्तर, प्रेममयी उपस्थिति का भान सदा बनाये रखो और सब कुछ ठीक होगा ।
विश्वास रखो, मैं तुम्हारे पास हूं ।
अपने समस्त कोमल प्रेम के साथ ।
आज प्रणाम के समय पहली बार मैं ' क ' के हृदय में प्रवेश कर पायी और मेरा कुछ अंश निकलकर उसमें बस गया ।
१४ जून, १९३२
तुम्हारी चेतना के जगाने से मैं खुश हूं । तुम्हें उसे अधिकाधिक विकसित होने देना चाहिये ताकि प्रकाश हर जगह प्रवेश कर सके, सबसे अधिक अंधेरे कोनों मे भी जा सकें ।
मेरी सहायता और मेरा रक्षण हमेशा तुम्हारे साथ हैं ।
१७ जून, १९३५
तुम्हारी प्रगति और तुम्हारे काम में मदद देने के लिए मेरी सहायता हमेशा तुम्हारे साथ हैं ।
तुम जिन कठिनाइयों को आज नहीं पार कर सकते उन्हें कल या बाद में पार कर लिया जायेगा ।
मैं हमेशा ऊपर की ओर देखती हूं । ' सौन्दर्य ', 'शान्ति ', ' प्रकाश ' वहां मौजूद हैं, वे नीचे आने के लिए तैयार हैं । अतः हमेशा अभीप्सा करो और उन्हें इस धरती पर अभिव्यक्त करने के लिए ऊपर देखो ।
दुनिया की कुरूप चीजों की ओर नीचे न देखो । तुम जब कभी दु :खी
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हो, तो हमेशा मेरे साथ ऊपर देखो ।
बहुत शान्त रहो ओर तुम मेरी सहायता का अनुभव करोगे ।
बालक, तुम्हें शिकायत है कि तुम मुझे केवल मित्र की तरह देखते हो... लेकिन ऐसा मित्र पाने से ज्यादा अच्छी बात क्या होगी जो जानता है, जो काम करता है, जो प्रेम करता है?
२१ सितम्बर ,१९४५
मेरे बालक, निश्चय ही तुम्हें छोड़ देने का मेरा कोई इरादा नहीं है और तुम्हें चिंता न करनी चाहिये; तुम्हें एक बात मालूम होनी चाहिये और उसे कभी न भूलो : वह सब जो सच्चा और निष्कपट है जरूर रखा जायेगा । केवल वह जो मिथ्या और कपटपूर्ण है, वही गायब होगा ।
तुम्हारे अन्दर मेरे लिए आवश्यकता जिस परिमाण में निष्कपट और सच्ची होगी, उस परिमाण में वह पूरी की जायेगी ।
५ अक्तूबर १९५५
मेरे प्रिय बालक
तुम्हें छोड़ देने की यह सारी बात बकवास है ।
मैं तुम्हारी अपेक्षा ज्यादा अच्छी तरह जानती हूं कि तुम क्या हो और क्या नहीं हो; और जिसे तुम अपना निम्न प्राण कहते हो उसके पीछे छिपे हुए खानों को जानती हूं ।
तुम जो कुछ कहते हो उसमें बस एक ही बात सच्ची है, कि प्रेम निःस्वार्थ ओर बिना शर्त होता है । तुम्हारे लिए मेरा और श्रीअरविन्द का प्रेम ऐसा ही हैं ।
इसलिए हम तुम्हारी सारी बकवास पर कभी ध्यान नहीं देंगे और निश्चय हीं तुमसे प्रेम करेंगे ।
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बिना डरे मेरे पास आओ । मैं तुम्हें नहीं डांटूगी और न ''गोल-गोल आंखों '' से देखूंगी ।
मेरे बहुत ही प्यारे बालक
यद्यपि तुम बोले नहीं थे फिर भी इस बारे में मैं कुछ जानती थी, एक ही चीज का खेद है कि तुम्हें अपनी मां से इतना प्रेम और उस पर इतना विकास नहीं हैं कि तुम उससे खुलकर कह सकते । तुम यह कैसे सोच सके कि इससे तुम्हारे लिए मेरा प्रेम बदल जायेगा ?
अब हमारे बीच कोई दीवार नहीं खड़ी है, ' क ' और उसकी मां के बीच, और अगर मेरा प्रेम अधिक हों सकता है, तो अब होगा जब तुमने मेरे प्रति अपना पूरा भरोसा प्रकट कर दिया है ।
श्रीअरविन्द ने तुम्हें जो लिखा है उसे याद रखो । जब ऐसे मुंड आते हैं, तो तुम मां के पास से क्यों भाग जाते हो ? इसके विपरीत, उनके पास जाओ और वह आसानी से तुम्हारा इलाज कर देंगी । उन्होंने जो कहा था उसका यही सार है ।
मेरे अत्यन्त प्रिय बालक
कैसे दुःख की बात हैं कि मेरा प्यारा बच्चा अस्वस्थ है । मैं आशा करती हूं कि अब वह ठीक हो रहा है; लेकिन चुपचाप रहो और काम की या किसी और चीज की चिंता न करो-जब तक यह सब दूर न हो जाये तब तक चलो-फिर मत... । अगर तीसरे पहर तुम बिलकुल स्वस्थ अनुभव करो, तो आ जाना, मैं बहुत खुश होऊंगी ।
अपने समस्त स्नेह और प्रेम के साथ मैं तुम्हारे पास हूं और तुम्हें अपनी भुजाओं मे लिए हुए हूं और प्रार्थना कर रही हूं कि तुम शीघ्र, बहुत ही शीघ्र बिलकुल ठीक हो जाओ ।
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मेरा प्रेम अपनी पूरी तीव्रता के साध तुम्हारे साथ रहता है और प्रेम की इस तीव्रता मे मैंने अपने प्रभु से बार-बार प्रार्थना की हैं कि वे अपनी ' कृपा ' तुम्हारे ऊपर उंडेल और तुम्हें तुम्हारे अन्दर की अन्तरात्मा और ' दिव्य प्रकाश ' के बारे में सचेतन कर दें, तुम्हें अपनी ' उपस्थिति ' की परम सिद्धि प्रदान करें ।
सभी बादल बिखर जायें, सभी आसक्तिया गायब हो जायें, सभी बाधाएं लुप्त हो जायें, ताकि तुम यहां, मेरे इतने नजदीक, भगवान् के घर में रहने से मिलने वाली शान्ति और आनन्द का पूरी तरह से रस ले सको ।
मैं तुम्हें यह बताने के लिए लिख रही हूं कि निश्चय ही तुम्हें हर रोज मेरी उपस्थिति अनुभव करने के योग्य होना चाहिये । मैं तुम्हारे साथ कितने मूर्त रूप में हूं, मैं तुम्हें कितना स्पष्ट देखती हूं, हम आपस में बातचीत करते है, हम एक सुन्दर उद्यान के सामंजस्य का अवलोकन करते हैं; मैं तुम्हें बताती और समझाती हूं कि जो महान् शान्ति शाश्वत में, समस्त मानव दु :खों के परे, प्रभु की 'उपस्थिति ' (' सत्य ') में निवास करती है उसे अपने अन्दर हमेशा कैसे रखा जाये ।
मुझे तुम्हारा पत्र मिला । तुम्हारे साथ मेरी बहुत गहरी सहानुभूति है । हमें उस दिन के लिए प्रार्थना करनी चाहिये जब ' सत्य ' का ' प्रकाश ' चेतना में फिर से प्रकट होगा । इस बीच मेरा प्रेम और आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साध है !
मेरे प्रिय नन्हे बालक
मेरा प्रेम तुम्हारे साथ रहता है । मैं प्रभु से यह निरन्तर प्राथना करती हूं कि वे तुम्हें तुम्हारे अन्दर अपनी ' उपस्थिति ' के बारे में सचेतन कर दें
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और इस तरह मेरे साथ एक कर दें ।
बढ़ते हुए प्रकाश और शान्ति में मैं हमेशा तुम्हारे साध हूं ।
आगे बढ़ो, सदा ऊपर उठते हुए प्रेम, आनन्द और शान्ति में हमेशा आगे बढ़ते रहो ।
मेरे बालक मुझे कभी न लिखें तो भी मैं उन्हें हमेशा समान रूप से याद करती और उनसे प्रेम करती हूं- और सभी सच्ची प्रार्थनाएं को हमेशा प्रत्युत्तर मिलता है चाहे मैं स्वयं न भी लिखूं । इसलिए दुःख न करो । और खुश रहो ।
२१ नवम्बर, १९६२
मेरा ख्याल हे कि हमेशा हर क्षण कोई- न- आपको बुलाता रहता है ओर आप उत्तर देती हैं ! क्या इससे आपकी नींद या आपके विश्राम में बाधा ' पड़ती ?
दिन-रात सैकड़ों पुकारें आती रहती हैं-लेकिन चेतना हमेशा जाग्रत् रहती और उत्तर देती है ।
हम केवल भौतिक रूप में देश और काल से सीमित होते हैं ।
३ जनवरी, १९६८
' क ' हमेशा हमारे विचारों में मौजूद रहता है और हमारे हृदयों में निवास करता है । विचार के लिए दुनिया छोटी है, हृदय के लिए कोई दूरी नहीं होती ।
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सदी के दिनों में तुम मां के प्रेम को अपने कंधों पर ओढ़ना चाहोगे ।
कृपा करके कमी- कदास याद कर लिया लीजिये !
केवल इतना ही ! में तुम्हारे बारे में इससे अधिक सोचा करती हूं !!
प्रेम और आशीर्वाद ।
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मैं तुम्हारे साथ हूं
''मैं साध हूं '' इसका ठीक-ठीक अर्थ क्या है ?
जब हम प्रार्थना करते है या किसी समस्या को लेकर अपने अन्दर हैं तो क्या हमारे अनाड़ीपन और के बावजूद हमारी दुर्भावना और भ्रान्ति के बावजूद हमारी होती है? ओर जो सुनता आप जो हमारे साध है ?
और आप अपनी परम चेतना में, निर्गुण भागवत शक्ति योग- शक्ति के रूप में या भूतिका चेतना सहित सशरीर माताजी के रूप में ? एक व्यक्तिगत उपस्थिति जो वास्तव में प्रत्येक विचार और प्रत्येक क्रिया को जानती है जो अनाम शक्ति नहीं ने है क्या आप हमें यह बतला सकती हैं कि आप हमारे अन्दर कैसे किस तरह विधामान 'है ?
कहा जाता है कि आपकी और श्रीअरविन्द की चेतना एक ही है लेकिन क्या आपकी और श्रीअरविन्द की वैयक्तिक उपस्थिति दो अलग चीजें हैं जो अपनी- अपनी विशिष्ट निभाती है ?
मैं तुम्हारे साहा हूं क्योंकि मैं तुम हूं या तुम मैं हो ।
मैं तुम्हारे साथ हूं, इसके बहुत सारे अर्थ होते हैं, क्योंकि मैं सभी स्तरों पर, सभी भूमिकाओं में, परम चेतना से लेकर अत्यन्त भौतिक
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चेतना तक तुम्हारे साथ हू । यहां, पॉण्डिचेरी मे, तुम मेरी चेतना को अन्दर लिए बिना श्वास भी नहीं ले सकते । वह सूक्ष्म भौतिक मे सारे वातावरण को लगभग भौतिक रूप में भरे हुए है, और यहां से दस किलोमीटर दूर झील तक ऐसा है । उसके आगे, मेरी चेतना को भौतिक प्राण में अनुभव किया जा सकता हैं, उसके बाद मानसिक स्तर पर तथा अन्य उच्चतर स्तरों पर हर जगह । जब मैं यहां पहली बार आयी थी तो, मैंने भौतिक रूप से दस किलोमीटर नहीं, दस समुद्री मिल की दूरी से श्रीअरविन्द के वातावरण का अनुभव किया था । वह एकदम अचानक, बहुत ठोस रूप में, एक शुद्ध, प्रकाशमय, हल्का, ऊपर उठनेवाला वातावरण था ।
बहुत समय पहले श्रीअरविन्द ने आश्रम में हर जगह यह अनुस्मारक लगवा दिया था जिसे तुम सब जानते हो : ''हमेशा ऐसे व्यवहार करो मानों माताजी तुम्हें देख रही हैं, क्योंकि, वास्तव में, वे हमेशा उपस्थित हैं । ''
यह केवल एक वचन नहीं है, कुछ शब्द नहीं हैं, यह एक तथ्य है । मैं तुम्हारे साथ बहुत ठोस रूप में हूं और जिनमें सूक्ष्म दृष्टि हे वे मुझे देख सकते हैं ।
सामान्य रीति से मेरी ' शक्ति ' हर जगह कार्यरत है, वह हमेशा तुम्हारी सत्ता के मनोवैज्ञानिक तत्त्वों को इधर-उधर हटाती और नये रूप में रखती तथा तुम्हारे सामने तुम्हारी चेतना के नये-नये रूपों को निरूपित करती रहती है ताकि तुम देख सको कि क्या-क्या बदलना, विकसित करना या त्यागना है ।
उसके अलावा, मेरे और तुम्हारे बीच एक विशेष सम्बन्ध है, उन सबके साथ जो मेरी और श्रीअरविन्द की शिक्षा की ओर मुंडे हुए हैं, - और, यह भली- भांति जानी हुई बात हैं कि इसमें दूरी से कोई अन्तर नहीं पड़ता, तुम फांस में हो सकते हो, दुनिया के दूसरे छोर पर हो सकते हो या पॉण्डिचेरी मे, यह सम्बन्ध हमेशा सच्चा और कायम रहता है । और हर बार जब पुकार आती है, हर बार जब इसकी जरूरत हो कि मुझे पता लगे ताकि मैं एक शक्ति, एक प्रेरणा या रक्षण या कोई और चीज भेजों, तो अचानक मेरे पास एक सन्देश-सा आता है और मैं जो जरूरी होता है वह कर देती हूं । यह तो स्पष्ट है कि ये सन्देश मेरे पास किसी भी समय पहुंचाते रहते हैं, और तुमने कई बार मुझे अचानक किसी वाक्य या काम
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के बीच रुकते देखा होगा; यह इसलिए कि कोई चीज मेरे पास आती है, कोई सन्देश आता है और मैं एकाग्र हो जाती हूं ।
जिन लोगों को मैंने शिष्य रूप में स्वीकार लिया, जिन्हें '' हां '' कह दी है, उनके साथ सम्बन्ध से बढ़कर कुछ और होता है, उनके साथ मुझसे निकला कुछ अंश रहता हैं । जब कभी जरूरत हो तो यह अंश मुझे चेतावनी देता है और मुझे बतलाता है कि क्या हो रहा है । वास्तव मे मुझे सारे समय सूचनाएं मिलती रहती हैं, परंतु मेरी सक्रिय स्मृति में वे सब अंकित नहीं होती । तब तो मेरे अन्दर बाढ़ आ जायेगी; भौतिक चेतना फिल्टर या छन्ने का काम करती हैं । चीजें एक सूक्ष्म स्तर पर अंकित होती हैं, वे वहां अव्यक्त अवस्था में रहती हैं, मानों कोई संगीत ध्वन्याकित तो कर लिया गया हो पर बजाय न गया हो, और जब मुझे अपनी भौतिक चेतना में कुछ जानने की जरूरत होती है, तो मैं इस सूक्ष्म भौतिक स्तर के साथ सम्पर्क जोड़ती हूं और रिकार्ड बजने लगता है । तब मैं देखती हूं कि चीजें कैसी हैं, समय के साथ उनका क्या विकास हुआ और उनका वास्तविक परिणाम क्या है ।
और अगर किसी कारण से तुम मुझे चिट्ठी लीखों और मेरी सहायता मांगो और मैं उत्तर दूं '' मैं तुम्हारे साथ हूं '', तो इसका मतलब यह है कि तुम्हारे साध की संचार-व्यवस्था सक्रिय हो गयी है, तुम कुछ समय के लिए, जितने समय के लिए जरूरी हो, मेरी सक्रिय चेतना में आ जाते हो ।
ओर मेरे और तुम्हारे बीच का यह सम्बन्ध कभी नहीं टूटता । ऐसे लोग हैं जिन्होने विद्रोह की अवस्था मे बहुत पहले आश्रम छोड़ दिया था, और फिर भी मैं उनके बारे में टोह लेती रहती हूं, उनकी देखभाल करती हूं । तुम्हें कभी ऐसे ही छोड़ नहीं दिया जाता ।
सच तो यह हैं कि मैं अपने- आपको हर एक के लिए जिम्मेदार मानती हूं, उनके लिए भी जिनसे मैं अपने जीवन में बस निमिषमात्र के लिए ही मिली हूं।
यहां एक बात याद रखो । श्रीअरविन्द और मैं एक ही हैं, एक ही चेतना हैं, एक और अभिन्न व्यक्ति हैं । हां, जब यह शक्ति या यह उपस्थिति, जो एक ही है, तुम्हारी वैयक्तिक चेतना में से गुज़रती है, तो वह एक रूप, एक आकार धारण कर लेती हैं जो तुम्हारे स्वाभा, तुम्हारी अभीप्सा,
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तुम्हारी आवश्यकता, तुम्हारी सत्ता के विशेष मोड़ के अनुसार होता है । तुम्हारी वैयक्तिक चेतना, यह कहा जा सकता है, एक छन्ने या एक सूचक की तरह होती है जो अनन्त दिव्य सम्भावनाओं में से एक सम्भावना को चुनकर निश्चित कर लेती है । वस्तुत: भगवान् हर एक व्यक्ति को वही देते हैं जिसकी वह उनसे आशा करता हे । अगर तुम यह मानते हो कि भगवान् बहुत दूर और कूर हैं, तो वे दूर और कूर होंगे, क्योंकि तुम्हारे चरम कल्याण के लिए यह जरूरी होगा कि तुम भगवान् के कोप का अनुभव करो; काली के पुजारियों के लिए वे काली होंगे और भक्तों के लिए ' परमानंद ' । और ज्ञानपिपासु के लिए वे 'सर्वज्ञान ' होंगे, मायावादियो के लिए परात्पर ' निर्गुण ब्रह्म '; नास्तिक के साथ वे नास्तिक होंगे और प्रेमी के लिए प्रेम । जो उन्हें हर क्षण, हर गति के आन्तरिक निदेशक के रूप में अनुभव करते हैं उनके लिए वे बंधु और सखा, हमेशा सहायता करने के लिए तैयार, वफादार दोस्त रहेंगे । और अगर तुम यह मानों कि वे सब कुछ मिटा सकते हैं, तो वे तुम्हारे सभी दोषों, तुम्हारी सभी भ्रांतियों को, बिना थके, मिटा देंगे, और तुम हर क्षण उनकी अनन्त 'कृपा ' का अनुभव कर सकोगे । वस्तुत: भगवान् वही हैं जो तुम अपनी गहरी-सेगहरी अभीप्सा में उनसे आशा करते हो ।
ओर जब तुम उस चेतना मे प्रवेश करते हो जहां तुम सभी चीजों को एक ही दृष्टि मे देख सको, मनुष्य और भगवान् के बीच सम्बन्धों की अनन्त बहुलता को देख सको, तो तुम देखते हो कि यह सब अपने पूरे विस्तार मे कैसा अद्भुत है । अगर तुम मानवजाति के इतिहास को देखो तो तुम्हें पता चलेगा कि मनुष्य जो समझे हैं, उन्होंने जिसकी इच्छा और आशा की है, जिसका स्वप्न लिया है, उसके अनुसार भगवान् कितने विकसित हुए हैं । वे किस तरह जड़वादी के साथ जड़वादी रहे हैं और हर रोज किस तरह बढ़ते जाते हैं और जैसे-जैसे मानव चेतना अपने- आपको विस्मृत करती है वे भी दिन-प्रतिदिन निकटतर और अधिक प्रकाशमान होते जाते हैं । हर एक चुनाव करने के लिए स्वतन्त्र हैं । सारे संसार के इतिहास में मनुष्य और भगवान् के सम्बन्ध की इस अनन्त विविधता की पूर्णता एक अकथनीय चमत्कार हैं । और यह सब मिलाकर भगवान् की समग्र अभिव्यक्ति के एक क्षण के समान हैं ।
भगवान् तुम्हारी अभीप्सा के अनुसार तुम्हारे साथ हैं । स्वभावत:, इसका यह अर्थ नहीं है कि वे तुम्हारी बाह्य प्रकृति की सनकों के आगे झुकते हैं, -यहां मैं तुम्हारी सत्ता के सत्य की बात कह रही हूं । और फिर भी, कभी-कभी भगवान् अपने-आपको तुम्हारी बाहरी अभीप्सा के अनुसार गढ़ते हैं, और अगर तुम, भक्तों की तरह, बारी-बारी सें मिलन और बिछोह में, आनन्द की पुलक और निराशा में रहते हो, तो भगवान् भी तुमसे, तुम्हारी मान्यता के अनुसार, बिछुडेंगे और मिलेंगे । इस भांति मनोभाव, बाहरी मनोभाव भी, बहुत महत्त्वपूर्ण है । लोग यह नहीं जानते कि श्रद्धा कितनी महत्त्वपूर्ण है । कितना बड़ा चमत्कार हैं, चमत्कारों को जन्म देनेवाली है । अगर तुम यह आशा करते हो कि हर क्षण तुम्हें ऊपर उठाया जाये और भगवान् की ओर खींचा जाये, तो वे तुम्हें उठाने आयेंगे ओर वे बहुत निकट, निकटतर, सदैव निकट होंगे ।
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