The Mother's brief statements on Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India and and nations other than India.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.
''जो चाहो करो''
मे वही चाहता हूं जो आय उत्तम समझें !
जब लोग दो विकल्प सुझाते हैं और मुझसे पूछते हैं कि क्या करें, तो जब इनमें से कोई भी एकदूसरे से अच्छा न हो तो मैं जवाब देती हूं, ''जो चाहो करो ।
१७ जनवरी १९३३
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स्पष्ट है कि '' अगर तुम चाहो '' का अर्थ यह हैं कि यह खतरा है कि तुम जो करना चाहते हो उसके परिणाम तुम्हारी साधना के लिए बहुत अच्छे न होंगे, लेकिन साथ ही यह भी कि शायद तुम यह आवश्यक प्रगति करने के
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लिए तैयार नहीं हो जो तुम्हें इस योग्य बनाये कि जो तुम करना चाहते हो उसे न करो ।
२१ मार्च, १९३३
ऐसा मालूम होता है कि तुम मेरी सीधी, स्पष्ट, सरल बात समझने के लिए बहुत ज्यादा पेचीदा और जटिल हों! जब मैं कहती हूं, '' यह सबसे अच्छा है '' तो मेरा मतलब है कि यही सबसे अच्छा हे, अतः यहीं करना चाहिये । और मैं जिसे समर्पण कहती हूं वह मेरी व्यवस्था के उत्तर में दूसरा प्रस्ताव रखना नहीं बल्कि उसे पूरे दिल के साथ स्वीकार करना है ।
तुम शान्ति की मांग करते हो मानों मैं उसे खींच ले रही हूं-लेकिन जब मैंने तुम्हें कृपा, विश्वास और तुम्हारा ख्याल करके सर्वोत्तम भावनाओं के साथ लिखा, '' करने के लिए यह सबसे अच्छी चीज है '' तो अगर तुम तुरंत उत्तर देते '' जी हां, माताजी, यही हो '', तो निश्चय ही तुम अपने अन्दर अधिक शान्ति अनुभव करते और साथ ही एक मधुर आनन्द भी ।
२६ जुलाई, १९३१
जिस पत्र में मैंने बतलाया था कि से क्या करने की सोचता हू, उसके उत्तर में आप कहती है : ''तुम जो मरज़ी करो? लोइकन चुकी तुम मेरी राय जानना कहते हो इसलिए मै कहूंगी कि यह मूर्खतापूर्ण है !'' क्या यह इसलिए मूर्खतापूर्ण मै क्योंकि मुझे लगता है कि परिस्थितियां अकाटच है ? एक और बात : आपने ये शब्द क्यों छोड़ दिये : ' 'प्रेम और आशीर्वाद ' जो आप हमेशा लिखा करती है और जिनका मेरे लिए बहुत अधिक मूल्य है ?
''यह मूखतापूर्ण हैं '' मेरे इन शब्दों में प्रश्न के बहुत-से पहलू आ गये जिनमें नितांत बाह्य भी आ जाता है । जिसे तुम यह मानने की मूर्खता बताते हो कि परिस्थितियां अकाटच हैं जब कि वे ऐसी नहीं हैं, यह भी उन्हीं का एक भाग है ।
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मैंने जानबूझकर '' प्रेम और आशीर्वाद '' शब्द नहीं लिखे, क्योंकि मैं नहीं चाहती कि तुम यह मान बैठा कि मैं तुम्हारे उद्यम को आशीर्वाद दे रही हूं-नहीं, मैं नहीं दे रही-ठीक इसी कारण कि मैं उसे मूर्खतापूर्ण मानती हूं । इसलिए, अगर मैं प्रेम और आशीर्वाद के साथ खतम करूं तो तुम फ न कर बैठ । ये शब्द तुम्हारी बाहरी सत्ता के लिए नहीं, अन्तरात्मा के त्निए हैं जिसके बारे में अभी तुम बहुत सचेतन नहीं हों ।
१८ जून, १९४२
मुझे इतना डर क्यों लगता है?
क्योंकि तुम्हारा ख्याल है कि मैं तुम्हारे ऊपर अपनी इच्छा लादना चाहती हूं; लेकिन यह गलत है । इसके विपरीत, मैं तुम्हें अपने लिए निर्णय करने के लिए बिलकुल रूबाधीन छोड़ना चाहती हूं । लेकिन जिसे तुम नहीं जान सकते, जिसकी तुममें पूर्वदृष्टि नहीं है, मैं उसे देख सकती हूं और जानती हूं और मैं जो देखती हूं वह तुम्हें बतलाती हूं, बस इतना ही । यह तुम्हारे हाथ में है कि तुम मेरे शान का उपयोग करो या न करो । तुम्हारा एक वर्ष तक प्रतीक्षा करने का निश्चय बुद्धिमत्तापूर्ण है और मुझे खुशी है कि तुमने ऐसा निश्चय किया है ।
१३ फरवरी १९५४
किसी ने भी तुम्हें योग करने के लिए बाधित करने के बारे मे कभी नहीं सोचा । अगर तुम परिस्थितियों पर अधिकार पाने के लिए योग करना चाहते हो तो यह कोई बहुत भव्य या उदात्ता उद्देश्य नहीं हैं, और तुम यह आशा नहीं कर सकते कि मैं उसमें तुम्हारी सहायता करूंगी । मैं तुम्हारी सहायता तभी कर सकती हूं जब तुम्हारा उद्देश्य हो ' सत्य ' की खोज और पूरी तरह से ' सत्य ' के प्रति समर्पण कर देना (पूर्वानुमान न लगा लेना कि तुम जो सोचते हो वही सत्य है) । तो निर्णय तुम्हारे हाथ में हैं ।
१ दिसम्बर, १९६१
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अपने मां-बाप के पास जाओ, और साथ ही तुम यह भी जान जाओगे और निश्चय कर सकोगे कि तुम सचाई के साथ और सब चीजों की अपेक्षा ' भागवत जीवन ' को ज्यादा चाहते हो या नहीं ।
८ अक्तुबर ११६६
मुझे अपनी इच्छा औरों पर लादने की आदत नहीं है ।
अगर वे स्वयं सहायता की मांग करें, तो सहायता दी जायेगी ।
२४ अक्तूबर, १९६७
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