CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - I 418 pages 2009 Edition
Hindi Translation

ABOUT

The Mother's brief statements on Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India and and nations other than India.

माताजी के वचन - I

The Mother symbol
The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - I Vol. 13 385 pages 2004 Edition
English
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The Mother symbol
The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - I 418 pages 2009 Edition
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काम का तरीका

 

     लोग ' कि हम जो धी करते है आय उसकी हमेशा उसकी सराहना करती है, वह चाहे कुछ भी क्रयों न हो !

 

 कैसा अजीब विचार है ! ऐसी बहुत-सी चीजें और बहुत-से काम हैं जिन्हें मैं बुरा समझती हूं और जिनकी मैं बिलकुल सराहना नहीं करती ।

 

१२ मई, १९३४

 

*

 

   मैंने आपके आगे तर्क प्रस्तुत  करने में काफी भेजा कपया ! लेकिन आपने उत्तर में कोई नहीं किया ! आप मजे से निशित है !

 

तुम्हारे पत्र के सभी तर्क बाह्य- भौतिक मन से आते हैं । तुम यह आशा नहीं कर सकते कि मैं उस स्तर तक उतर कर वहां से तुम्हारे साथ बहस करूंगी । मैं चीजों को एक अन्य स्तर से और अलग ही ढंग से देखती हूं ।

 

१९ जुलाई १९४२

 

*

 

 यह बिलकुल गलत है कि मेरी चेतना में देर करने की इच्छा रहती हैं । सच तो यह है कि समय पर तैयार होने की इच्छा अन्य इच्छाओं से ऊंचा स्थान नहीं पाती : वह औरों के बीच अपने स्थान पर है, ऐकान्तिक और एकमात्र इच्छा के रूप मे नहीं बल्कि समग्र के एक भाग के रूप में । उसका महत्त्व और उसकी महिमा का स्तर जो तुम सोचते ओर अनुभव करते हो उससे भिन्न हो सकता है । वस्तुत:, तुम्हारा सापेक्ष महत्त्व का विचार वही नहीं है जो मेरा है । इसके अतिरिक्त, तुम समस्या को लकीर की तरह (रैखिक) और ऐकांतिक रूप से देखते हो, मानों वह साथ की दूसरी समस्याओं से भिन्न हो । लेकिन बात ऐसी नहीं हैं; हर समस्या अपने- आपमें अकेली नहीं है, बल्कि सबके साथ सम्बन्धित है; और सच्चा समाधान

 

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उनमें से किसी की उपेक्षा नहीं कर सकता ।

 

   अगर तुम इस बात को समझ सको, तो निश्चय ही तुम्हारी कठिनाई आसानी से दूर हो जायेगी ।

 

१६ नवम्बर, १९५०

 

*

 

 स्पष्ट है कि मानवीय रीत के अनुसार मेरा यह कहना गलत था कि मैं तुमसे हर महीने मिलूंगी, क्योंकि मैंने जो कहा था उसे भूलें बिना भी, निश्चित नहीं था कि में इस तरह मिल सकूंगी ।

 

    वस्तुतः मैं हर क्षण, परम प्रभु के ' पथप्रदर्शन ' के अनुसार, जीती हूं, और, परिणामस्वरूप, योजनाएं बनाने में असमर्थ हूं । मैं जानती हूं कि यह मनुष्य की मनोवृत्ति के लिए सुविधाजनक नहीं है जो समझती है कि वह हर चीज का पहले से ही निर्णय कर सकती हैं । लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से यह अनिवार्य है ।

 

 *

 

हर साधक को यह याद रखना चाहिये कि वह अकेला नहीं है । मैं यथासंभव हर एक को संतुष्ट करने की कोशिश करती हूं और जब कभी जरूरी हो तो समझदारी के साध पूछे गये प्रश्नों के उत्तर देती हूं ।

 

*

 

 यह कहने का एक ढंग है, वास्तव में जो चीज होती है उसको कहने का अभद्र तरीका है लेकिन वह चीज इससे कहीं ज्यादा सूक्ष्म होती है ।

 

    अगर मैं केवल एक ही व्यक्ति के साथ व्यस्त रहती तो शायद इस तरह की सूक्ष्म बातें याद रख सकती, लेकिन चूंकि मैं सचेतन रूप से एक हजार से अधिक लोगों के साथ व्यवहार करती हूं इसलिए सामान्यतः इतनी सूक्ष्म ब्योरे की बातों का ठीक-ठीक ख्याल नहीं रखा जाता- ओर यह जरूरी भी नहीं हैं-क्योंकि 'चेतना ' हमेशा उस तरह काम करती रहती है जैसे किया जाना चाहिये ।

 

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लोगों को जो होना और करना चाहिये उसमें और वे जो हैं और जो करते हैं इसमें बहुत फर्क है । चेतना इसके बारे मे पूरी तरह जानती है और सदा इसे ठीक करने और बदलने मे लगी रहती है लेकिन वह भित्र-भित्र बिन्दुओं पर अनियमित तरीकों से काम नहीं करती । वह समष्टि पर समग्र ओर व्यापक ढंग से काम करती है । प्रगति धीमी मालूम होती हैं पर वह अधिक पूर्ण होती हैं और कोई चीज भुलायी नहीं जाती ।

 

*

 

सच पूछो तो मेरी कोई राय नहीं है । सत्य-दृष्टि से अभी तक हर चीज बुरी तरह मिश्रित है, प्रकाश और अन्धकार का, सत्य ओर मिथ्यात्व का, ज्ञान और अज्ञान का कम या अधिक अनुकूल संयोजन है, और जब तक रायों के अनुसार निर्णय लिये जायेंगे ओर कार्य किये जायेंगे, तब तक हमेशा ऐसा ही रहेगा ।

 

   हम ऐसे कार्य का उदाहरण रखना चाहते हैं जो सत्य-दृष्टि के अनुसार किया जाये, लेकिन दुर्भाग्यवश हम अभी तक इस आदर्श को चरितार्थ करने से बहुत दूर हैं, और अगर सत्य-दृष्टि अपने- आपको अभिव्यक्त भी करे, तो भी वह कार्यान्वयन में तुरंत विकृत हो जाती हैं ।

 

   अत:, वर्तमान अवस्था में, यह कहना असम्भव है कि '' यह सत्य हैं और वह मिथ्या, यह हमें लक्ष्य की ओर ले जाता हैं और वह उससे दूर । ''

 

  प्रगति के लिए हर एक चीज का उपयोग किया जा सकता है; हर चीज उपयोगी हो सकती हैं अगर हम उसका उपयोग करना जानें ।

 

    महत्त्वपूर्ण चीज यह हैं कि हम जिस आदर्श को चरितार्थ करना चाहते हैं उसे कभी आंख से ओझल न होने दें और इस लक्ष्य को नजर में रखते हुए सभी परिस्थितियों का उपयोग करें ।

 

और अन्त में, चीजों के पक्ष या विपक्ष में मनमाना फैसला न करना हमेशा अच्छा होता है, और साक्षी की निष्पक्षता के साथ घटनाओं को खिलते देखना एवं ' भागवत प्रज्ञा ' पर निर्भर रहना ज्यादा अच्छा रहता है जो सर्वोत्तम के लिए निर्णय करेगी और जो आवश्यक होगा वह करेगी ।

 

 २९ जुलाई, १९६१

 

*

 

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मेरे देखने का तरीका कुछ भिन्न है । मेरी चेतना के लिए पृथ्वी पर समस्त जीवन, जिसमें मानव जीवन और समस्त मनोवृत्ति का समावेश है, स्पन्दनों का ढेर है, अधिकतर स्पन्दन मिथ्यात्व, अज्ञान और अव्यवस्था के हैं जिसमें उच्चतर क्षेत्रों से आने वाले ' सत्य ' और ' सामंजस्य ' के स्पन्दन अधिकाधिक काम कर रहे हैं और प्रतिरोध के बीच में से रास्ता बना रहे हैं । इस अन्तर्दृष्टि मे अहं-भाव, वैयक्तिक आग्रह और पृथकता बिलकुल अवास्तविक और भ्रामक बन जाते हैं ।

 

    जब पहले से चली आ रही अस्तव्यस्तता मे कोई अतिरिक्त घपला पैदा किया जाता है तो थे उस ओर यथासंभव ज्यादा अच्छा सामंजस्य पुन: स्थापित करने के लिए कुछ विशेष स्पन्दन भेजती हूं । इस '' प्रहार '' का असर स्वयं व्यक्तियों के ऊपर उतना नहीं होता जितना उनका असामंजस्य के साथ चिपके रहने या उसका साध देने के ऊपर होता है... । ऐसे मामलों मे कभी एक पक्ष ठीक और एक गलत नहीं होता, बल्कि मिथ्यात्व और अस्तव्यस्तता के साथ लगे रहने के अनुपात में सभी दोषी होते हैं ।

 

*

 

 तुम मेरे कार्य करने का तरीका नहीं समझते । तुम भले हो कह लो : '' आपके पास अतिमानसिक शक्ति है, आप उसका उपयोग क्यों नहीं करती और इस अव्यवस्था को खत्म क्यों नहीं कर देती?'' किन्तु इस तरह कार्य नहीं किया जा सकता । संसार अतिमानसिक शक्ति के लिए तैयार नहीं है और अगर आधार को तैयार किये बिना हो उसका उपयोग किया जाये, तो चीजें बिलकुल चकनाचूर हो जायेंगी । मुझे पहले आधार तैयार करना है ओर फिर शक्ति को उतारना है ।

 

   तुम्हारी मानव-दृष्टि चीजों को एक सीधी लकीर में देखती है । तुम्हारे लिए या तो यह तरीका है या वह । मेरे लिए ऐसा नहीं है । मैं सारी वस्तु को चेतना के एक पिण्ड के रूप में देखती हूं जो अपने ध्येय या लक्ष्य की ओर बढ़ रही है । मुझे हर छोटी गति के लिए भी यह देखना पड़ता हैं कि सम्पूर्ण पिण्ड पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, बाद में क्या अप्रत्यक्ष प्रभाव आयेंगे ।

 

   जब मैं कहती हूं कि कोई चीज इस तरह या उस तरह करनी चाहिये, तो तुम्हारा मानव मन उसे सिद्धार्थ के रूप में ले लेता है और कठोरता

 

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के साथ सब जगह लागू करने की कोशिश करता है । मेरे लिए बात ऐसी नहीं है । मेरे लिए कोई नियम, कोई अधिनियम या सिद्धार्थ नहो हैं । मेरे लिए हर एक अपवादिक व्यक्ति है जिसके साथ विशिष्ट तरीके से व्यवहार करना चाहिये । कोई दो व्यक्ति एक जैसे नहीं होते ।

 

मैं जानती हूं कि इस चेतना के पिण्ड की गति में अमुक बिन्दु को अपने लक्ष्य तक आसानी से पहुंचने के लिए अमुक दिशा में गति करनी चाहिये । इस बिन्दु को नजर मे रखते हुए मैं घोषणा करती हूं कि यह करना चाहिये या नहीं करना चाहिये, लेकिन मैं देखती हूं कि कभी-कभी रास्ते में एक बहुत बडी बाधा आती है । अब, इसके साथ दो तरह से निबटा जा सकता है : या तो मैं उस बिन्दु को अपनी दिशा बदल लेने दूं और बाधा को तब तक के लिए अछूता छोड़ दूं जब तक उस पर अधिकाधिक प्रकाश न पड़े और वह बदल न जाये, या फिर मैं रुकावट को तोड़ दूं । जैसा कि मैंने कहा, पूरे पिण्ड पर हर छोटी-सी गति की अपनी प्रतिक्रियाएं और अपने अप्रत्यक्ष प्रभाव होते हैं, इसलिए इसे तोड़ने से भी प्रतिक्रियाओं की एक शंखला बन जायेगी जो एक बहुत बड़े क्षेत्र पर असर कर सकती है । मैं व्यक्तियों के साथ पक्षपात नहीं करती, परंतु मुझे हर क्षण सम्बन्ध व्यक्ति या व्यक्तियों के बदलने से, समय और वहन करने वाली धारा के बदलने के कारण बदलती परिस्थितियों को देखना होता है । मुझे देखना होता है कि इन सब परिवर्तनों मे से होकर चीज को कैसे किया जा सकता है ताकि वह पिण्ड की प्रगति में सहायक हो । मुझे देखना होता हैं कि क्या बाधा को तोड़ना और उससे आने वाले परिणामों को आने देना लाभप्रद होगा या यह ज्यादा अच्छा होगा कि उसे अभी के लिए छोड़ दिया जाये और मानव मूर्खता को सह लिया जाये । जो तुम्हें विरोध दिखता है वह सारी चीज को एक इकाई के रूप में देखने पर विरोध नहीं रह जाता । एक ही लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अनेक मार्ग हैं । इसलिए अगर मुझे लगे कि तोड़ना आवश्यकता से अधिक महंगा पंडू जायेगा तो मैं तुम्हें मनचाही राह लेने देती हूं । लेकिन यह चीज मुझे उस बाधा की निंदा करने से या यह कहने से नहीं रोकती कि उसे जाना चाहिये ।

 

   आखिर, देर या सवेर इस चेतना-पिण्ड की हर एक चीज को एक ही लक्ष्य की ओर बढ़ना है । लेकिन चेतना को उस लक्ष्य की ओर ले जाने

 

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के लिए मुझे मनुष्यों को अपने साथ चलाना होता है और उन्हीं के रूप में प्रकट होना और उन्हीं की अपनी भाषा में बोलना होता है । मुझे एक भोंडा अभिव्यंजना को अपनाना होता है । मुझे जिस तरह बोलना पड़ता है और नियम, अधिनियम बनाने पढ़ते हैं उनकी मूर्खता को मैं देख सकती हूं, परंतु यह एक ऐसी सुविधा है जो मुझे मानवजाति को देनी पड़ती है अन्यथा वह कुछ भी न समझ पायेगी । जब मैं उनकी अपनी भाषा में बोलती हूं, तब भी तो लोग गलत समझते हैं और घोटाला कर डालते हैं । अगर मैं प्रकाश की भाषा में बोलूं । तो सारी चीज उसके सिर के ऊपर से गुजर जायेगी ओर वे कुछ भी समझे बिना मुंह बाये खड़े रह जायेंगे ।

 

  ' ' का मन बहुत अच्छी तरह विकसित है । मैं कह सकती हूं कि उसका मन प्रकाश की ओर बहुत खुला हुआ है । दो बार मैंने उसके साथ उस भाषा में बात करने की कोशिश की जिसे श्रीअरविन्द प्रकाश का मन कहते हैं, लेकिन वह भी उसे न समझ पाया । वह थोडी-बहुत पकडू पाया, लेकिन सारा भाव नहीं पकडू पाया ।

 

   दूसरों के साथ तो हाल और भी बुरा है; वे कुछ भी नहीं समझ पाते और भौचक्के रह जाते हैं । इन लोगों के लिए मुझे समझौता करना पड़ता हैं । मैं कहती हू कि अमुक चीज मूर्खतापूर्ण कु, परंतु मैं देखती हूं कि तुम उसे किये बिना नहीं रह सकते, तो मुझे उसे सह लेना पड़ता है । मैं चीजों के सापेक्ष मूल्य देखती हूं और उस रास्ते को अपनाती हूं जो प्रगति करने में सहायक हो सके । तुम्हारे हित में और समस्त चेतना-पिण्ड की प्रगति के हित में, मैं बहुत-सी चीजें कर लेने देती हूं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं हैं कि मैं उसकी ओर से अंधी हूं या उसकी मूर्खता को नहीं देख सकती । कभी-कभी यह जरूरी होता है कि तुम एक अनुभव प्राप्त करो, इसलिए कोई चीज कर लेने दी जाती है । लेकिन जब मैं निश्चयपूर्वक '' नहीं '' कहती हूं, तो उसका विरोध करना खतरनाक है । एक ही क्रिया के लिए कोई कारण हो सकते हैं; लेकिन उन्हें तुम्हारे मन को समझाना संभव नहीं है ।

 

    विशेष रूप से इस मामले मे मैंने कहा था '' नहीं '' । फिर ' ' ने हस्तक्षेप किया । ' ' बहुत अच्छा आदमी है और किन्हीं भागों मे बहुत सच्चा है । मुझे मालूम है कि वह कमजोर है और उसमें हथियाने और अधिकार कर लेने की आदत है । मैं मना कर सकती थी । लेकिन इससे मैं उसे बहुत जोर

 

से झकझोर डालती । उसके लिए अपने- आपको संभालना मुश्किल हो जाता । जैसा कि मैंने कहा, थे चीजों का सापेक्ष मूल्य देखती हूं, और मैंने देखा कि वह झकझोरने लायक नहीं हैं और मैंने स्वीकृति दे दी । लेकिन यह बात मुझे यह कहने से नहीं रोकती कि यह ठीक बात नहीं है ।

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