The Mother's brief statements on Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India and and nations other than India.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.
''मैं नाराज नहीं हूं''
तुम्हारे अन्दर ये बुरे सुझाव (कि मैं तुम्हें प्रेम नहीं करती, कि तुम चले जाना चाहते हो) इसलिए आते हैं क्योंकि तुम मेरी आशा का उल्लंघन कर रहे थे । लेकिन अब जब तुमने मेरी इच्छा के अनुसार काम करने का निश्चय कर लिया है, ये बुरे सुझाव गायब हो जायेंगे ।
मुझसे तुम्हारे विरुद्ध किसी ने कुछ नहीं कहा ।
२४ दिसम्बर, १९३१
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तुम्है हमेशा के लिए और पूरी तरह से यह विचार छोड़ देना चाहिये कि मैं नाराज होती हूं-मुझे यह अजीब लगता है! अगर मैं मानव दुर्बलताओं के सामने नाराज़ होने लगै तो निश्चय ही मैं जो काम कर रहीं हूं उसके अयोग्य होऊंगी, और मेरे धरती पर आने का कोई अर्थ न होगा ।
१४ जनवरी, १९३३
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जब तुम प्रणाम के लिए आते हो तो मैंने कभी तुम्हारे अन्दर कोई बुरी चीज नहीं देखी । तुम्हारी अभीप्सा बहुत स्पष्ट होती है और मैं हमेशा उसका उत्तर देती हूं । और लोग क्या कहेंगे उसके बारे में चिंता न करो - मैं तुमसे पूरी तरह संतुष्ट हूं और मेरे आशीवाद हमेशा तुम्हारे साथ हैं ।
१५ जनवरी, १९३७
मुझे ऐसा लगा कि आप मुझसे पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं है!
ऐसी कोई बात नहीं हैं । हर एक की अपनी कठिनाइयां हैं ओर मैं उनमें से निकलने में सहायता करने के लिए ही यहां हूं ।
मेरे प्रेम और आशीर्वाद ।
२५ फरवरी १९४२
शायद आपको मेरे पत्र का उत्तर के समय ' मिला या आपने उत्तर ' समझा आक में कुछ चीज धी जिसकी मैं कह ' ले पाया ! वह फटकार- सी मालूम होती थी ! अगर ऐसा है, तो मैं ' जानता कि उसका कारण क्या सकता है! प्रणाम सहिता !
फटकार जैसी कोई चीज नहीं । मैंने ' क ' के दुरा वह उत्तर भेजा था जिसे मैं सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण समझती थीं और मैं आशा करती थीं कि तुम उसके लिए आभार मानोगे-वह दृष्टि इसलिए वैसी थी ।
मैं यह और कह दूं कि सभी मानव सम्बन्धों मे हमेशा प्राणिक आकर्षणों और आवेगों का, वहां पर छिपी चैत्य गति पर ऐसा मुलम्मा होता है कि तुम जितनी सावधानी रखो कम है ।
आशीर्वाद ।
११ जनवरी, १९४४
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माताजी
पिछली तिन दिनों से जब में प्रणाम के आता हूं तो आपकी आंखों का भाव ' पड पाता ! मुझे लगता कि आप मुझसे नाराज है ! हो सकता कि मैं पर हूं लेकिन अगर कोई बात है तो मैं चाहूंगा कि आप बतला दें ! प्रणाम साहिता !
मुझे नहीं पता कि तुम्हारे प्रति मेरे भाव में कोई परिवर्तन हुआ है, और परिवर्तन के लिए कोई कारण भी नहीं हैं । सिर्फ एक बात है, जब तुम आये तो मैं ' क ' के बारे में सोच रहीं थीं और मुझे यह ख्याल आ रहा था कि सारे मामले के बारे में तुम्हें कितनी सूचना दी गयी है । रहीं बात तुमसे नाराज होने की, तो इसका कहीं कोई नाम-गंध भी नहीं है और मैं निश्चित रूप से कह सकतीं हूं कि मैं नाराज नहीं हूं ।
प्रेम और आशीवाद सहित ।
५ सितम्बर, १९४५
मेरी प्यारी मां,
मुझे लगता है कि मैंने आपको नाराज किया है ! इसका जो भी कारण उसके बहुत बहुत बुरा लग रहा आपके अपने बढ़ते हुए प्रेम के बारे मे मुझे कुछ कहने की जरूरत प्रणाम सहिता !
मेरे प्यारे बालक,
बुरा मत मानो और चिंता मत करो-मैं बिलकुल नाराज नहीं हू । हो सकता है कि जस हल्की या विनोद- भरी लगने वाली बातचीत से और लोग कुछ नाराज हुए हों, लेकिन उसके लिए मैं तुम्हें उत्तरदायी नहीं मानती । जो चीजें लज़ेग्रें की साधारण समझ के परे हैं उनके बारे मे लापरवाही सें, मजाक उड़ाते हुए बोलना, आश्रम मे एक आदत बन गयी है । इस प्रभाव का सफल प्रतिरोध करने के लिए बहुत बल और सहनशक्ति की जरूरत होगी । फिर भी मुझे आशा हैं कि यह बल और सहनशक्ति उन
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सभी में बढ़ेगी जिनमें सद्भावना है । इस बीच मेरा प्रेम और मेरे आशीर्वाद सबके साथ हैं ।
विश्वास रखो कि मुझे तुम्हारे अन्दर बढ़ते हुए प्रेम और भक्ति का पूरा अहसास है और वे उचित रूप सें जिस प्रत्युत्तर की आशा कर सकते हैं वह उन्हें पूरी तरह मिलता है ।
मेरे प्रेम और आशीर्वाद के साध ।
२२ सितम्बर, १९४७
यह फिर से बिलकुल निराधार धक्का है... । मुझे बिलकुल पता न था कि तुम ' क ' से जो सितार मांग रहे हो वह तुम्हारा हैं; उसने मुझसे जो कहा, उससे स्पष्ट रूप सें यह लगा कि जिस सितार की बात हो रहीं हैं वह उसका अपना है । मालूम होता है कि यह भूल थी । जब तुम्हें उसकी जरूरत हो तो उसे सितार लौटा देना चाहिये ।
लेकिन खुद तुम्हारे लिए यह बता दूं कि जब तक तुम इस तरह के मिथ्या विचारों में रखें रहोगे कि मैं किसी एक या दूसरे का '' पक्ष लेती हूं '', तब तक यह निश्चित है कि तुम्हें धक्के लगते रहेंगे, जोरदार आघात पहुंचाते रहेंगे ।
यह बिलकुल गलत और निराधार है । अगर तुम भगवान् के नजदीक होने का अनुभव करना चाहते हों तो तुम्हें इस तरह के सोच-विचार से पूरी तरह पिण्ड छुडा लेना चाहिये ।
मेरे प्रेम और आशीर्वाद सहित ।
५ नवम्बर, १९४७
तुम्हें हमेशा के लिए यह सीख लेना चाहिये कि लोग कुछ भी भूलें क्यों न करें, उनसे मैं परेशान या नाराज नहीं हो सकतीं । अगर दुर्भावना या विद्रोह है, तो काली आकर दण्ड दे सकती हैं लेकिन वह हमेशा प्रेम के साथ दण्ड देती है ।
२३ मार्च १९५४
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