CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - I 418 pages 2009 Edition
Hindi Translation

ABOUT

The Mother's brief statements on Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India and and nations other than India.

माताजी के वचन - I

The Mother symbol
The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - I Vol. 13 385 pages 2004 Edition
English
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The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - I 418 pages 2009 Edition
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पथ-प्रदर्शक की भूमिका

 

 अगर तुम बिलकुल सच्चे हो तो मेरे साथ इस बात में सहमत होगे कि तुम मेरे बहुत अधिक दिव्य होने की नहीं, पर्याप्त दिव्य न होने की शिकायत कर रहे हो । क्योंकि, उदाहरण के लिए, यदि मैंने अपने भौतिक शरीर में वैसा रूप धारण किया होता जैसा प्राचीन भारतीय परंपरा में संजोये गया है, तो कितनी सुविधा होती! कल्पना करो, कितना अच्छा होता यदि मेरे बहुत-से सिर होते, बहुत-सी भुजाएं होती और साथ ही सवव्यापकता की क्षमता होती, तो जब 'क ' मेरे नख-प्रसाधन के लिए आकर, किसी विशेष शिष्टाचार के बिना आने की सूचना देने के लिए दरवाजा खटखटाती, (वह बहुत व्यस्त होती है इसलिए मैं उसे खटखटाने के लिए मना भी नहीं कर सकती) तो उस समय मैं उसके पास उसके काम के लिए एक जोड़ी हाथ भेज देती और साथ ही अपने छोटे कमरे में वहां पर बैठे हुए ' ख ' की बातों का उत्तर देने के लिए बनी रहती, कितना अच्छा होता!...

 

     तो, तुम देख रहे हो न, मुझे लगता है कि मैंने बहुत अधिक मानव बनना स्वीकार किया है, देश और काल के मानवीय नियमों से बहुत अधिक बंधी हुई हूं, और इसलिए, एक ही साथ आधा दर्जन चीजें करने में असमर्थ हूं ।

 

१२ जनवरी १९३२

 

*

 

 प्रभो, मुझे अपनी ससीमताओ के लिए खेद हैं... लेकिन उनके द्वारा, उन्हीं के कारण मनुष्य तुम तक पहुंच सकते हैं । उनके बिना, तुम उतने हो दूरवर्ती और अगम्य बने रहते कि मानों तुमने कभी हाड़-मांस का शरीर धारण ही न किया हो ।

 

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     इसीलिए उनकी हर प्रगति मेरे लिए सच्ची मुक्ति का द्योतक हैं, क्योंकि तुम्हारी तरफ बढ़ाया हुआ उनक हर कदम इन ससीमताओ में से एक को श हटाने और तुम्हें अधिकाधिक सचाई, अधिकाधिक पूर्णता के साथ अभिव्यक्त करने का मुझे अधिकार देता है ।

 

    फिर भी, इन ससीमताओ से पिण्ड छुड़ाया जा सकता था । लेकिन फिर यह आवश्यक होता कि हम अपने पास केवल उन्हीं लोगों को रखते जिन्हें भगवान् की अनुभूति हो चुकी है, जिन्होने तुम्हारे साथ तादात्म्य पा लिया है प्रभो, भले वह एक हो बार हो, चाहे अपने अन्दर या इस विश्व में । क्योंकि यह तादात्म्य हमारे योग का अनिवार्य आधार है, यह उसका आरंभ-बिंदु है ।

 

१७ जुताई, १९३२

*

 

 लोग मुझसे नहीं, मेरे बारे में अपने ही बनाये हुए मानसिक और प्राणिक रूप से प्रेम करते हैं । मुझे इस तथ्य का अधिकाधिक सामना करना पड़ता है । हर एक ने अपनी आवश्यकताओं और कामनाओं के अनुसार अपने लिए मेरी प्रतिमा बना ली है, और उसका सम्बन्ध इसी प्रतिमा के साथ होता है, वह उसी के द्वारा वैश्व शक्तियों की थोडी-सी मात्रा और उससे भी कम अतिमानसिक शक्तियों की मात्रा पाता है जो इन सब रचनाओं मे से छनकर जा पाती है । दुर्भाग्यवश, वे मेरी भौतिक उपस्थिति से चिपके रहते हैं, अन्यथा मैं अपने आन्तरिक एकान्त मे जाकर वहां से चुपचाप, स्वतन्त्र- पूर्वक काम करती हूं; लेकिन उनके लिए यह भौतिक उपस्थिति एक प्रतीक हैं और इसीलिए वे उससे चिपके रहते हैं, क्योंकि वस्तुत: मेरा शरीर सचमुच जो हैं या वह जिस जबर्दस्त सचेतन ऊर्जा के पुंज का प्रतीक है उसके साथ उनका बहुत ही कम वास्तविक सम्पर्क होता है ।

 

    और अब, हे ' उच्चतर शक्ति ', जब कि तुम मेरे अन्दर उतर रही हो और मेरे शरीर के सभी अणुओंकी में परी तरह से प्रविष्ट हो रही हो, तो ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे और मेरे चारों ओर की हर चीज के बीच दूरी अधिकाधिक बढ़ रहीं है, और मैं अधिकाधिक यह अनुभव करती हूं कि मैं कांतिमय व प्रफुल्लित चेतना के एक ऐसे वातावरण में तैर रही

 

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हूं जो उनकी समझ के बिलकुल परे हैं ।

 

११ जून, १९५४

 

*

 

 हे प्रभो, क्योंकि मैं सिर्फ तुम्हारे साथ प्रेम करती हूं, अतः मैं सबके अन्दर और हर एक के अन्दर तुमसे हौ प्रेम करती हू; और उनमें स्थित तुमसे प्रेम करने के दुरा मैं अन्ततः: उन्हें तुम्हारे बारे में जस सचेतन बना दूंगी ।

 

*

 

      उनके लिए, असली चीज है यह जानना कि बिना किसी पसंद के, बिना किसी रुकावट के अपने साथ कैसे प्रेम करने दें । लेकिन इतना ही नहीं कि वे अपने तरीके को छोड्कर किसी और तरीके से प्रेम नहीं चाहते, वे अपने- आपको प्रेम के प्रति तब तक नहीं खोलना चाहते जब तक वह उनके चुने हुए माध्यम के दुरा न आये... और जो चीज कुछ घंटों में, कुछ महीनों में, कुछ वर्षों में की जा सकती है वह चरितार्थ होने के लिए शताब्दिया ले लेती है ।

 

*

 

हर उपस्थित व्यक्ति के साथ सचेतन समर्पक स्थापित कर लेने के बाद मैं परम प्रभु के साथ एक हो जाती हूं और तब मेरा शरीर केवल एक माध्यम के अतिरिक्त कुछ नहीं रह जाता जिसमें से वे सब पर अपना ' प्रकाश ', ' चेतना ' और ' आनन्द ' उंडेलते हैं, हर एक पर उसकी क्षमता के अनुसार ।

 

*

 

मैं तुम सबमें दुरा खोलने के लिए पूरा ध्यान देती हू, ताकि अगर तुम्हारे अन्दर एकाग्रता का जरा-सा भी स्पन्दन हो, तो तुम्हें ऐसे बन्द दरवाजे के सामने बहुत-बहुत देर तक न ठहरना पड़े जो हिलता तक नहीं, जिसकी चाबी तुम्हारे पास नहीं है और जिसे तुम खोलना नहीं जानते ।

 

*

 

       दरवाजा खुला हुआ है, तुम्हें उस दिशा में देखना भर होगा । तुम्हें उसकी ओर पीठ नहीं फेरनी चाहिये ।
 

*

८५


मैं किसी का गुरु होने के लिए उत्सुक नहीं हूं । मेरे लिए सबकी मां होने का और उन्हें चुपचाप प्रेम की शक्ति द्वारा आगे ले जाने का अनुभव ज्यादा सहज और स्वाभाविक है ।

 

१९ सितम्बर, १९६१

 

*

 

मैं किसी का गुरु होने के लिए उत्सुक नहीं हूं । मेरे लिए विश्व-जननी होना और प्रेम के दुरा नीरवता में काम करना ज्यादा सहज और स्वाभाविक है!

 

         लेकिन चूंकि तुमने पूछा दूर, इसलिए मैं उत्तर देती हूं ।

 

      जब तुमने मंत्र का उपयोग करना शुरू किया तो मैंने उसे प्रभावशाली बनाने के लिए उसमें शक्ति रखी थी । अब जब तुमने बताया है कि इस मंत्र का शब्द क्या है, तो मैं उसमें शक्ति को स्थायी करती हूं ।

 

*

 

       आपके साध मेरे सम्बन्ध के बारे में आप क्या सोचती है !

 

क्या तुम विश्व-जननी के पुत्र नहीं हो?

 

२५ जुलाई १९७०

 

*

 

अभी तक मेरी सहजवृत्ति परम जननी की थी जो सारे विश्व को अपनी प्रेममयी भुजाओं मे लिये रहती है और मैं हर एक के साथ एक ऐसे बच्चे की तरह व्यवहार करती थी जिसकी हर बात समान रूप से सह ली जाती हैं; और यहां के लोग मुझे प्रसन्न करने के लिए जो कुछ करते थे उसे मैं उनके प्रेम के चिह्न के रूप में स्वीकारती थी और उसके लिए बहुत कृतज्ञ थी । आणि मैंने जान लिया है कि अगर सब नहीं, तो बहुत-से मुझे गुरु के रूप में मानते और देखते हैं और वे मुझे प्रसन्न करने के लिए उत्सुक हैं, क्योंकि गुरु को प्रसन्न करना मार्ग पर पुण्य अर्जन करने का सबसे अच्छा तरीका है । और तब मैंने यह समझ लिया है कि गत का

 

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कर्तव्य है कि हर एक में केवल उन्हीं चीजों को प्रोत्साहन दे जो उसे तेजी से प्रभु की ओर ले जा सकें और ' भागवत उद्देश्य ' की पूर्ति करें, - और मैं इस पाठ के लिए बहुत कृतज्ञ हूं ।

 

*

 

हर एक को अपने ही मार्ग का अनुसरण करना चाहिये, जो निवाया रूप से, लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सबसे अच्छा और सबसे तेज होता है ।

 

    चूंकि मैं रास्ता जानती हूं, इसलिए उसे औरों को दिखाना मेरा कर्तव्य है !

 

*

 

जब मैं कहती हूं कि मैंने किसी को दीक्षा दौ है, तो उसका मतलब होता है कि मैंने इस व्यक्ति के आगे अपने- आपको बिना बोले प्रकट किया है, और वह यह देखने । अनुभव करने और जानने के योग्य है कि मैं ' कौन ' हूं !









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