The Mother's brief statements on Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India and and nations other than India.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.
उचित आचार-व्यवहार
मैं जानती हूं कि लोग बात का बतंगड़ बनाने वाले और नासमझ हैं । लेकिन जब तक उनकी चेतना न बदले, हम उनसे और क्या आशा कर सकते हैं?
*
लोग यहां अपनी चेतना को बदलने के लिए हैं । जब तक वे सब-के-सब अपने लक्ष्य में सच्चे नहीं बन जाते, तब तक कोई सच्ची चीज नहीं की जा सकती ।
यह स्पष्ट है कि जो लोग यहां रहना चाहते हैं उन्हें बदलना होगा, इतना रहन-सहन के ढंग मे नहीं जितना होने के (जीवन के) ढंग मे ।
हम अधिक गहरी, अधिक पूर्ण, अधिक सच्ची चेतना के लिए प्रयास कर रहे हैं; क्योंकि हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है इस चेतना को अभिव्यक्त करना ।
हमारे साधक होने का लाभ ही क्या यदि, जैसे ही हम कुछ क्रिया करें, अज्ञानी साधारण मनुष्य की तरह करें?
हमसे आशा की जाती है कि हम संसार को ज्यादा अच्छे जीवन का नमूना दिखलायेंगे, निश्चय ही दुर्व्यवहार का नहीं ।
जिस क्षण आदमी आश्रम के जीवन मे प्रवेश करता है और योग को अपनाता है, वह किसी मत, जात-पंत या जाति का होना बंद कर देता है; वह श्रीअरविन्द के शिष्यों में से एक होता है, ओर कुछ नहीं । वह पहले
१२१
जो था उसका मजाक उड़ाना एकदम असंगत और कुरुचिपूर्ण है, यह केवल उसमें और बोलनेवाले में पुरानी गलत मानसिक वृत्ति बनाये रखने में सहायक होता हैं ।
जनवरी, १९२१
जब नर्तक ' क ' आपसे मिलने के यहां आया था तो बहुत- से साधक चारों ओर नये बे आग्रह कर थे कि वह नाच दिखलाये ! परन्तु उसने कहा ''मैं नाच की भूषा के बिना आया है'' लोगों नाच के यह इच्छा पसंद नहीं उसने से कहा : '' अगर मैं अगली बार आया तो खाल ख्याल रखूंगा कि वेशभूषा न लाऊं क्योंकि मैं यहां अपने- आपको दिखाने के लिए नहीं , योग के आऊंगा !''
वह बिलकुल ठीक कहता है । आश्रम में बहुत सारे लोग यह फूल जाते हैं कि वे यहां योग के लिए हैं ।
७ जनवरी ११३८
आश्रम योग के लिए है, संगीत, मनोरंजन या अन्य सामाजिक क्यों के लिए नहीं ।
जो आश्रम में रहते हैं उनसे निवेदन है कि चुपचाप, शोर मचाये बिना रहें और अगर वे स्वयं ध्यान करने योग्य नहीं हैं, तो कमसेकम, औरों को तो ध्यान करने दें ।
मुझे नहीं मालूम कि यह अफवाह कौन फैला रहा हैं कि मुझे संगीत पसंद नहीं है । यह बिलकुल सच नहीं हैं-मुझे संगीत बहुत पसंद है, लेकिन उसे थोड़े-से लोगों के बीच सुनना चाहिये, यानी, ज्यादा-सेज्यादा पांच-छह लोगों के लिए बजाय जाये । अगर भिंड हो तो वह, अधिकतर, सामाजिक
१२२
सभा हो जाती हैं, और उसमें जो वातावरण बनता है वह अच्छा नहीं होता ।
यह तथ्य हैं कि आश्रम उनके लिए नहीं हैं जो अपनी प्राणिक और आवेगमय कामनाओं को संतुष्ट करना चाहते हैं, यह उनके लिए है जो भगवान् के प्रति अपने समर्पण को पूर्ण करना चाहते हैं; इसके अतिरिक्त मुझे यह चेतावनी भी देनी चाहिये कि यहां तुम्हें वही करना चाहिये जो खुले तौर पर कर सको, क्योंकि यहां कुछ भी गुप्त नहीं रह सकता ।
२५ अप्रैल, १९५८
आश्रम में तुम्हें केवल वही करना चाहिये जो तुम खुले रूप में कर सको, क्योंकि यहां कोई चीज छिपी नहीं रहती । रहा मेरे संरक्षण का सवाल, वह समान रूप से सबके लिए है, ऐसा नहीं इ कि किसी को मिले ओर किसी को न मिले ।
सभी मामलों के लिए एक ही उत्तर देना असंभव है । वह हर व्यक्ति और हर अवसर के अनुसार अलग होगा । लेकिन, बहरहाल, यह कहा जा सकता है कि जो भी किसी समाज में रहता हे उसे, जहां तक हो सके, उस समाज के नियमों का पालन करना चाहिये । और फिर, तुम्हें सामुदायिक नियम के विरुद्ध जाने का अधिकार तभी है जब तुम्हारे सभी कार्य शुद्ध रूप से भगवान् की प्रेरणा सें होते हों । अगर वे जो कुछ करते हैं, जो कुछ कहते हैं वह उस तरह किया और कहा जाये जैसा वे भगवान् के सामने करेंगे और कहेंगे, तो, और केवल तभी, उन्हें यह कहने का अधिकार है : '' मैं अपने ही नियम का अनुसरण करता हूं, औरों के नियम का वर्ही । ''
२८ जनवरी, १९६०
आश्रम में '' व्यक्तिगत भावनाओं '' के साहा कुछ भी नहीं किया जा सकता ।
१२३
व्यक्तिगत भावनाओं से ऊपर उठो और सिद्धि के दुराखुल जायेंगे ।
३ फरवरी, १९६५
समय आ गया है कि आश्रम में शांति और सामंजस्य का राज हो ।
(दो आश्रमवासियों में लड़ाई के बारे में)
यह देखने में बहुत कुछ ऐसा लगता है कि लोग कन्दराओं में रहने वाले आदिम मानव के युग में वापिस जा रहे हैं ।
हम सभ्य समाज के कृत्रिम जीवन में नहीं रहना चाहते, लेकिन मार- पीट के स्तर तक नीचे गिरने से अच्छा होगा ज्यादा ऊंची सभ्यता के सोपान पर चढ़ना ।
मैंने '' अपराधी '' को यह कहने के लिए बुलाया है कि इस प्रकार की क्रियावली का आश्रम में कोई स्थान नहीं है, यद्यपि दुर्भाग्यवश यहां ऐसा आचरण बहुत हो रहा है; लेकिन मैं उससे मिलने से पहले तुम्हें यह पत्र इसलिए भेज रही हू ताकि तुम यह जानो कि मैं जो लिख रही हू उसके साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है ।
उसके आक्रमण को कभी न्यायोचित ठहराये बिना, क्योंकि आक्रमण को कभी न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता, तुम्हारे पत्र के दूसरे भाग ने मुझे दिखलाया कि तुम्हारी मनोदशा इस चीज की मांग करती है । मैंने असंतुष्ट और दबी हुई कामनाओं से उठती हुई घृणा, ईर्ष्या, कटु आलोचना और घिसी-पिटीसे नैतिकता का ऐसा प्रदर्शन बहुत ही कम देखा हैं ।
यह सब बहुत अच्छा नहीं है और तुम्हारे ऊपर मार पडूने की वजह से तुम्हारे लिए जो सहानुभूति हो सकतीं थी उसे दूर कर देती है ।
मैं तुम्हें यह याद दिलाने के लिए धन्यवाद देती हूं कि मेरे पद के कारण मेरे कर्तव्य और उत्तरदायित्व हैं, लेकिन न्याय की जगह ' कृपा ' को
१२४
बुलाना ज्यादा अच्छा है, क्योंकि अगर न्याय क्रियाशील हों उठेगा ' तो ऐसे बहुत कम होंगे जो उसके आगे खड़े रह सकेंगे ।
आश्रम में कामुक सम्बन्ध वर्जित हैं ।
तो, ईमानदारी आश्रम और कामुक सम्बन्धों के बीच चुनाव की मांग करती है । यह अन्तःकरण का मामला हैं ।
१२ जून, १९७१
आश्रम किसी के साथ प्रेम करने का स्थान नहीं है । अगर तुम इस मूर्खता में जा गिरना चाहते हो, तो तुम यहां नहीं कही और कर सकते हो ।
१२५
Home
The Mother
Books
CWM
Hindi
Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.