The Mother's brief statements on Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India and and nations other than India.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother about Sri Aurobindo, Herself, the Sri Aurobindo Ashram, Auroville, India, and nations other than India. Written over a period of nearly sixty years (1914-1973), the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. The majority (about sixty per cent) were written in English; the rest were written in French and appear here in translation. The volume also contains a number of conversations, most of them in the part on Auroville. All but one were spoken in French and appear here in translation.
व्यवस्था और कार्य
'' (आश्रम के लिए) कभी कोई मानसिक योजना नहीं रही कोई निश्चित कार्यक्रम या पहले से ठीक की हुई व्यवस्था नहीं रही । सारी चीज जीवित सत्ता की तरह जन्मी बढ़ी और विकसित हुई ने सारे समय चित-तपs ने इसे सहारा दिया बढ़ाया और मजबूत बनाया हे !''
- श्रीअरविन्द (२२ अगस्त, ११३१)
इसका मतलब है कि एकमेव चेतना की गति कभी बन्द नहीं हुई । ऐसा नहीं हुआ कि ' 'सृजन की प्रक्रिया '' शुरू की गयी और फिर बन्द हो गयी और फिर से शुरू की गयी-चेतना निरन्तर नूतन जन्म देती रहती है, कह सकते हैं कि वह अपना सृजन जारी रखती है; यह ऐसी चीज नहीं है जो एक बार कर दी गयी और फिर जो किया गया है उसमें से निकलती रहे । वह अपना काम जारी रखती है । चेतना निरन्तर काम में लगी रहती है, जो पहले था उसी को जारी रखने में नहीं, बल्कि उसे करने में जिसे वह हर क्षण देखती है । मानसिक गति में, यह जो पहले हो चुका हे उसके परिणामस्वरूप है - ऐसा नहीं है, यहां तो चेतना निरंतर देखती हे कि क्या करना है । यह समझना बहुत अधिक जरूरी है, क्योंकि वह इसी तरह काम करती रहती है-हर चीज के लिए इसी तरह । यह कोई ऐसी '' रचना '' नहीं है जिसकी वृद्धि की देखभाल करनी चाहिये : चेतना हर सेकंड अनुसरण करती है- यह अपनी हीं गति का अनुसरण करती है... । यह हर चीज को मौका देती है; यही चमत्कारों को, उलटाव आदि को मौका देती है यह हर चीज को मौका देती है । यह मानव साजनों से एकदम उल्टी चीज है । और यह ऐसी हो रही है, यह अब भी ऐसी ही है और यह हमेशा ऐसी हो रहेगी, जब तक कि मैं यहां हूं । '
*
आकड़े और हिसाब-किताब शुद्ध रूप से मानसिक होते हैं और यहां उच्चतर शक्ति की क्रिया से अन्ततः सभी मानसिक नियमों का खण्डन होता है ।
१ध्वन्याकित ।
मुझे उचित व्यवस्था बहुत प्रिय है- अगर जो लोग व्यवस्था करते हैं वे सचाई से करना चाहें-मैं केवल स्पष्ट और ठीक-ठीक सूचना चाहती हूं । अगर यह सूचना दी जाये और ' व्यवस्था करने वाली शक्ति ' में काफी विश्वास हो तो इतना काफी है । बाकी कर दिया जायेगा ।
( आश्रम के एक विभाग में बुरी व्यवस्था के बारे में)
बुरी व्यवस्था तभी आती है जब विभागाध्यक्ष में उचित चेतना का अभाव हो ।
किसी संगठन या व्यवस्था को ठीक तरह चलाने के लिए जो करना है उसके लिए स्पष्ट और ठीक-ठीक दृष्टि और उसे करवाने के लिए सुस्थिर, शांत और दृढ़ निश्चय जरूरी हैं । और सामान्य नियम के रूप मे, औरों से कभी उन गुणों की मांग न करो जो स्वयं तुम्हारे अन्दर न हों । मुझे काफी ज़ोरों से यह महसूस होता है कि 'क ' के विभाग में निरीक्षण वैसा नहीं हैं जैसा होना चाहिये ।
(एक साधक दिन में दो घंटे से ज्यादा काम न करना चाहता था ! उसके निरीक्षक ने यह बात माताजी को लिखी)
मैंने उससे कहा कि मैं मांग नहीं कर रहा जितना बन पड़ता है सें उतना काम करता हूं, क्योंकि मे अपनी प्यारी माताजी की सेबा के कर रहा हूं ? किसी और से उतना ही करने के मैं आग्रह नहीं कर सकता,. लोइकन मे माताजी को चहना दे रहा हूं कि हम क्या कर रहे हैं ।
बहुत अच्छा उत्तर दिया, लेकिन यह स्पष्ट है कि जिसमें चेतना नहीं है उसे चेतना देना या किसी आलसी के अन्दर उत्साह डालना कठिन हैं ।
३ मई, १९३५
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मेरे चारों ओर के लोग अब अच्छा काम करते ?
इसका उपाय ? यही कि ठण्डे दिमाग से लो, परवाह किये बिना शांति से काम करते चलो... आशा रखो कि अच्छे दिन आयेंगे... ।
सभी ओर कार्य और कार्यकर्ताओं में हास दिखता है ।
हां, अव्यवस्था व्यापक है । एकमात्र सहायता है श्रद्धा ।
ऐसी बात नहीं है कि आश्रम मे बेकार लोगों की कमी है लेकिन जो काम नहीं कर रहे है निश्चय हीं इसलिए नहीं कर रहे कि वे काम नहीं करना चाहते; और इस रोग की दवाई खोज निकालना बहुत कठिन है-इसे कहते हैं आलस्य... ।
जब काम का नेतृत्व मानव आवेग कर रहे हों, तो मैं केवल साक्षी के रूप मे अलग खड़ी रह सकती हूं । जो कुछ निश्चय होता है मुझे बड़े विनम्र ढंग से उसकी सूचना दी जाती है-मुझसे यह कभी नहीं पूछा जाता कि क्या करना चाहिये ।
मैं आज्ञा नहीं दे सकती क्योंकि यदि आशा का उल्लंघन किया जाये, तो उससे स्वभावत: अपने- आप महान् विपत्ति आयेगी ।
तो करने के लिए बस यही रह जाता है कि धीरज के साथ आवेगों के ठण्डे पड जाने तक प्रतीक्षा की जाये और... आशा की जाये कि अच्छे- से- अच्छा होगा ।
शायद कुछ लोग कड़ी मेहनत करने की आवश्यकता के प्रति जागें ।
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इतनी अधिक परस्पर-विरोधी राय और भावनाएं है कि मेरे लिए आज्ञा देना सम्भव नहीं ।
अब सभी के लिए कठिन समय है । युद्ध चल रहा है और सभी को कष्ट हो रहा है ।
जिन्हें यहां शान्ति और सुरक्षा मे रहने का सौभाग्य प्राप्त है उन्हें कम- से-कम तुच्छ झगड़ों ओर मूर्खतापूर्ण शिकायतों को त्याग कर अपनी कृतज्ञता दिखलानी चाहिये ।
हर एक को अपना काम ईमानदारी से और मन लगाकर करना चाहिये, और सभी अंधकारमय स्वार्थपूर्ण हरकतों पर विजय पानी चाहिये ।
२७ सितम्बर, १९३९
सें जानता हूं कि आजकल आश्रम के लिए सहयोग और तालमेल के साध काम करना जरूरी है: मैं इसके लिए भरसक कोशिश करता हूं पर बुरी तरह असफल रहता हूं शायद हममें से हर एक की यही कहानी है ।
इसे व्यक्तिगत मामले के रूप मे न लो । असामंजस्य और अस्तव्यस्तता सारे संसार मे फैल हुए हैं, क्योंकि मिथ्यात्व ' सत्य ' की क्रिया का प्रतिरोध करता है । चूंकि यहां 'सत्य ' की क्रिया अधिक सचेतन और संक्रेन्द्रित है, इसलिए अधिक युद्ध और उत्तेजित प्रतिरोध होता हे । और इस खलबली मे अधिकतर लोग संघर्ष मे लगी शक्तियों के द्वारा कठपुतलियों की तरह नचाये जाते हैं ।
रहीं बात आश्रम की अवस्था की, तो वह वैसी ही हे जैसी तुम कहते हो, शायद उससे भी खराब । मैं श्रीअरविन्द की तरह कहूंगी : सचमुच तब तक कुछ नहीं किया जा सकता जब तक चेतना न बदले ।
तुम बीच में पड़ोगे- और यह उदाहरण और प्रदर्शन के लिए अच्छा
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है-पर दूसरे ही दिन बात और भी ज्यादा बिगड़ जायेगी ।
हम ' सत्य ' को प्रकट होने के लिए भी नहीं बुला सकते । मिथ्यात्व इतनी गहराई में ओर इतने विस्तार मै फैला हुआ है कि उसका परिणाम होगा सम्पूर्ण विनाश । फिर भी, ' कृपा ' अनन्त हैं, वह कोई रास्ता निकाल सकती है ।
श्रीअरविन्द कहते हैं कि वे हालात को ठीक करने के लिए बाह्य प्रकार के कदम उठाने की जगह यौगिक उपायों द्वारा प्रयत्न करना चाहते हैं; लेकिन इसके लिए जरूरी है कि चीजें अभी जैसी चल रही हैं वैसी हीं और कुछ समय तक चलती रहें । उसके लिए तुम्हारा सहयोग जरूरी होगा और उन्हें विश्वास है कि इस उद्देश्य की संत के लिए आवश्यक प्रयास करने में वे तुम्हारी सद्भावना पर भरोसा कर सकते हैं ।
यह बात बिलकुल सच है कि मैं अधिकतर ऐसे काम में व्यस्त रहती हूं जिसे मैं- अभी के लिए-बाहरी व्यवस्था से ज्यादा जरूरी मानती हूं, और इसीलिए मैं आशा करती हूं कि हर एक अपनी अधिकतम क्षमता के साथ अपना कर्तव्य पूरा करेगा और अपनी आंखें भगवान् के कार्य की विशालता पर लगाये रहेगा जो निश्चय हीं उसकी निजी कठिनाइयों में भी सहायता देगी । हर एक के लिए और हर चीज के लिए समय कठिन है-लेकिन निश्चय हीं यह हमें अपनी सीमाओं को पार करना सिखाते के लिए है ।
(कुछ दिनों के लिए ऐसा माना जाता था कि माताजी अपने दैनिक कामों से निवृत्त हो रही हैं)
यह बहुत मजेदार हैं परन्तु अप्रत्याशित नहीं । जब से मैं ''निवृत्त '' हुई हूं, तब से मै ऐसा लगता है कि हर एक परस्पर सम्बन्ध के बिना अपने ही विचारों के अनुसार-मेरे काम में बिधना न डालने के बहाने-मुझसे पूछे या मुझे सूचना दिये बिना कर रहा हैं ।
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यधापि अपने तरीकों से मैं प्रायः जान जाती हूं कि क्या हो रहा है, फिर भी मैं बस मुस्कुरा देती हूं और बीच मे नहीं पड़ती । हर एक को अनुभव सें सीखना होगा ।
मैं उस दिन की राह देख रही हूं जब व्यवस्था अव्यवस्था पर विजय पा लेगी और सामंजस्य अस्तव्यस्तता का स्वामी होगा । मैं इस दिशा में किये गये हर प्रयास के पीछे हूं।
यह कहने की जरूरत नहीं कि जो लोग, मेरे साथ मिलकर, इस परिस्थिति से लड़ रहे हैं उनके साथ मेरी शक्ति और सहायता तीव्र रूप में हैं । और मैं उनसे जो मांगती हूं वह बस यही है कि वे विश्वस्त रहें और डटे रहें । ' सत्य ' की विजय होगी । हिम्मत रखो !
मैं किसी व्यक्ति या किसी चीज को दोष नहीं दे रही और मैं जानती हू कि हर एक भरसक अपना अच्छे-से- अच्छा कर रहा है । यह तो स्पष्ट ही है कि काम बहुत कठिन है । लेकिन क्या हम यहां पर कठिनाइयों पर विजय पाने के लिए नहीं हैं?
भली- भांति आश्रम का काम करने के लिए तुम्हें इतना मजबूत और नमनीय होना चाहिये कि तुम यह जानो कि जो अक्षय 'ऊर्जा ' सारे समय तुम सबको सहायता देती रहती है उसका उपयोग कैसे किया जाये ।
मैं यहां के हर व्यक्ति से आवश्यकताओं के अनुसार ऊंचा उठने की आशा करती हूं ।
अगर हम इतना भी न कर सकें, तो हम कैसे आशा कर सकते हैं कि जब ' सत्य ' की 'ज्योति ' धरती पर अभिव्यक्त होने के लिए आयेगी तो उसके अवतरण के लिए हम तैयार होंगे ?...
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जेब मैं किसी को काम देती हूं तो यह केवल काम के लिए ही नहीं होता बल्कि योग-मार्ग पर प्रगति के लिए सबसे अच्छे निमित्त के रूप में भी होता है । जब मैंने तुम्हें यह काम दिया था, तो मैं तुम्हारी त्रुटियां और कठिनाइयों से भली- भांति परिचित थी, लेकिन साथ ही यह भी जानती थी कि अगर तुम अपने- आपको मेरी सहायता और शक्ति की ओर खोलोगे तो तुम इन कठिनाइयों को पार कर सकोगे और साथ ही अपनी चेतना को बढ़ा सकोगे और अपने- आपको ' भागवत कृपा ' की ओर खोल सकोगे ।
अब समय आ गया है कि तुम्हें सच्ची प्रगति करनी चाहिये और जब कभी तुम्हारी इच्छा का विरोध हों तो तुम्हें अपने क्रोध के विस्फोटों को रोकना चाहिये । अगर तुम मुझे प्रसन्न करना चाहते हो- और इस विषय में मुझे कोई सन्देह नहीं हें-तों तुम सचाई से ' क ' के साध सहयोग करने की कोशिश करोगे और उसके साथ मिलकर काम करते रहोगे ।
मैं तुम दोनों में से किसी को भी दूसरे का अध्यक्ष नहीं बनाना चाहती -मैं चाहती हूं कि तुम दोनों भाई- भाई की तरह, एक हीं मां के बच्चों की तरह अनुभव करो और उसके प्रेम के लिए सचाई और साहस के साथ काम करो ।
मैं आशा करती हूं कि तुम इससे सहमत होगे और मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूं कि इस प्रयास में मेरा प्रेम और मेरे आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ रहेंगे ।
११ जनवरी, १९७५
मैंने ' क ' से जो कहा था वह ठीक-ठीक यह है : '' मैं तुम्हें इस काम की जिम्मेदारी देती हूं, इसकी व्यवसाय और इसे चलाने की जिम्मेदारी । योजना और नक़्शे स्वीकृति के लिए मुझे दिखाने होंगे । क्रियान्वित करने के लिए, मैं 'ख ' से कहूंगी जिसके उत्साह की मैं सराहना करती हूं, यह दृष्टि में रखते हुए कि यह मेरा ओर श्रीअरविन्द का काम है, वह तुम्हारे साथ, तुम्हारे आदेश के अनुसार काम करे और तुम्हें पूरा सहयोग दे, और इसे सफल करने के लिए भरसक काम करे । ''
और तुमसे मैं कहती हूं :
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काम शुरू कर दो और पूरी-पूरी व्यवस्था करो ।
जब तक कुछ काम न हो जाये और हर एक अपने काम के दुरा यह प्रमाणित न कर दे कि वह क्या करने के योग्य हैं, मेरा किसी को कोई पद या प्रतिष्ठा देने का इरादा नहीं है ।
मैं कार्यकर्ताओं का मूल्यांकन उनके कार्य की कुशलता और गुणवत्ता के अनुसार करूंगी ।
ओर उसके बाद ही पदवियां दी जा सकती हैं ।
यह कभी न भूलो कि यहां हम अहं की तुष्टि के लिए नहीं, कार्य की पूर्णता के लिए प्रयास कर रहे हैं ।
मैं साधकों को पद नहो देती-मैं उन्हें काम देती हूं; और मैं सभी को समान अवसर देती हूं । जो सबसे अधिक योग्य, सबसे अधिक सच्चे, ईमानदार और वफादार साबित होते हैं उन्हें अधिक-से- अधिक काम और अधिक-से- अधिक जिम्मेदारी मिलती है ।
बाहरी परिस्थितियां चाहे जो भी हों, वे हमेशा, बिना अपवाद के, तुम्हारे अन्दर जो कुछ है उसका बही-प्रक्षेपण होता है । जब अपने काम में तुम्हें कोई चीज बाहर से तकलीफ देती हुई मालूम हो, तो अपने अन्दर देखो और वहां, अपने अन्दर तुम उसके अनुरूप तकलीफ पाओगे ।
अपने- आपको बदलों और परिस्थितियां बदल जायेंगी ।
२६ जून, १९५४
मैं खुश हू कि अनुभव के द्वारा तुम इस तथ्य से अवगत हो गये हो कि मैं तुम्हारे साथ हू ।
यह हमारे बीच सच्चा सम्बन्ध हैं, सतही सम्पर्क की अपेक्षा कही अधिक ।
१) यहां, आश्रम में । हमारा लक्ष्य सामान्य मानवीय रूढ़िवादिताओं का अनुसरण करना नहीं, बल्कि एक उच्चतर ' सत्य ' को अभिव्यक्त करना है ।
मैं इन सरकारी प्रलेखों या कागजों को कोई अनावश्यक महत्त्व नहीं देती । वे केवल जगत् की वर्तमान परिस्थिति में आवश्यक हैं, किसी गहरी
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वास्तविकता के साथ मेल नहीं खाते ।
२) जीवन की वास्तविकता में मनुष्य की शक्ति उसकी सरकारी उपाधियों पर नहीं, उसकी आन्तरिक चेतना के प्रकाश और उसकी शक्ति पर निर्भर होती है ।
मैंने तुम्हारे पत्र पढ़ लिये हैं और तुम्हें अपनी काम करने की क्षमता पर जो विश्वास है उससे मैं सन्तुष्ट हूं । यह सच हैं कि तुम्हारे अन्दर क्षमता है, लेकिन तुम स्वीकार करोगे कि क्षमता होने और ज्ञान होने में फर्क है; और किसी काम का शान पाने के लिए उसे सीखना पड़ता है ।
इसलिए तुम्हें पहले उन लोगों से सीखना चाहिये जो उसे जानते हैं और सीखने का सबसे अच्छा तरीका है उन्हें करते हुए देखना । जब तुम जान लोग और काम करने में अपनी दक्षता, स्थिरता और वफादारी प्रमाणित कर दोगे, तब मैं तुम्हें पूरी जिम्मेदारी सौंप दूंगी और काम का पूरा प्रबन्ध तुम्हारे हाथों में होगा ।
ईमानदार लोग हैं लेकिन उनमें काम करने की क्षमता नहीं है । क्षमतावाले लोग हैं परन्तु वे काम में ईमानदार नहीं हैं । जब मुझे कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाता हैं जो ईमानदार भी हो और योग्य भी तो वह बहुत अमूल्य हो उठता है ।
८ अगस्त, १९५५
यहां हर काम जगत् की किसी चीज का प्रतिनिधित्व करता है । जब यहां कोई नया काम शुरू किया जाता है तो संसार की नयी समस्याएं आ जाती हैं । इसीलिए मैं नयी समस्याओं को निमंत्रण नहीं देती, लेकिन वे आ जायें तो मैं उनसे कतराती भी नहीं । मुझे उच्चतम चेतना को नीचे लाना है; इसके लिए मुझे नीचे व्यवस्था करनी है और सभी समस्याओं का सामना करना है ।
१७ अगस्त, १९५५
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पहले मैं हर चीज पर नियंत्रण रखा करती थी । पहले से मुझे बताये और मेरी स्वीकृति के बिना कुछ भी न किया जा सकता था । उसके बाद मैंने काम का एक ओर ही तरीका अपनाना । मैंने सभी ब्योरों से हाथ खींच लिया और अपने- आपको दूरी पर रखा, मानों चीजों को ऊपर से देख रहीं थी और हर कार्यकर्ता के पास उसके अपने क्षेत्र के लिए ठीक-ठीक प्रेरणा भेजती थी ।
कार्यकर्ता के आध्यात्मिक विकास के लिए यह परिवर्तन जरूरी था । उसे मेरे प्रभाव के बारे में आन्तरिक रूप में अवगत होना चाहिये । वह इसे तभी पा सकता है जब सभी कार्यकर्ता सहयोग दें । सहयोग के बिना उचित प्रेरणा प्रभावकारी न होगी । ऊपर की क्रिया का दायरा बहुत बड़ा होता है : उसमें सभी विभाग समा जाते हैं और वह सामंजस्यपूर्ण समग्रता है । अगर कायक्षेत्र में दीवारें खड़ी की जायें जो उसे तोड़ती और विभाजित करती हैं तो काम कभी आध्यात्मिक 'संकल्प ' के अनुसार नहीं हो सकता ।
तो यह बात मन मैं रखो : सहयोग नहीं, तो उचित कार्य भी नहीं ।
१ दिसम्बर, १९५७
''पद'' का कोई प्रश्न ही नहीं है-और न हीं प्रतिष्ठा का । ' क ' को रंगमंच का बहुत शान और अनुभव है जो हमें नहीं है । वह उसे हमारे साथ बांटने को तैयार हैं । समझदारी की बात बस यही है कि हम उससे जितना बन पड़े सीख़ें और उसके लिए कृतज्ञ हों ।
और फिर, यह कभी न भूलो कि हम यहां भगवान् के लिए काम कर रहे हैं, किसी अलंकारमय भाव को दखल देकर काम बिगड़ने नहीं दिया जा सकता ।
सदा तुम्हारे साहा ।
५ नवम्बर, १९५८
मेरे प्रिय बालक,
मेरे कहने से, ' क ' तुमसे मिलने आयेगा ताकि तुम्हारे विभाग में अपने काम की व्यवस्था करे ।
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मैं तुमसे बहुत प्रेम के साथ उसका स्वागत करने के लिए कहती हूं, क्योंकि जैसे तुम मेरे बालक हो उसी तरह वह भी मेरा बालक है । उसे कुछ रोचक काम करने का अवसर दो जिसमें क्षमताओं का अच्छा उपयोग हो ।
मैं चाहूंगी कि वह निश्चिंत अनुभव करे और यह अनुभव करे कि वह वहां मेरा काम करने के लिए है ।
मेरे आशीर्वाद ।
२ अक्तुबर, १९६२
अनुशासन के बिना कोई समुचित काम संभव नहीं है ।
अनुशासन के बिना समुचित जीवन संभव नहीं है ।
और सबसे बढ़कर, अनुशासन के बिना कोई साधना नहीं है ।
अनिवार्य रूप से हर विभाग का एक अनुशासन होता है और तुम्हें अपने विभाग के अनुशासन का पालन करना चाहिये ।
वैयक्तिक भावनाओं, मनमुटावों और गलतफहमियों को तुम्हारे काम में कभी दखल न देना चाहिये । यह काम मानव हित के लिए नहीं, भगवान् की सेवा के रूप में किया जाता है ।
भगवान् के लिए तुम्हारी सेवा एक धर्मभीरु की सेवा की तरह ईमानदार, अनासक्त ओर निःस्वार्थ होनी चाहिये, अन्यथा उसका कोई मूल्य नहीं ।
२५ जनवरी, १९६५
यहां कोई भी सर्वेसर्वा रूप से अध्यक्ष नहीं हो सकता-हर एक को सहयोग करना सीखना चाहिये । यह दंभ, अहंकार और निजी महत्त्व के अत्यधिक अभिमान के लिए बहुत अच्छा अनुशासन हैं ।
१७ फरवरी, १९६८
आश्रम में, काम में लापरवाही विश्वासघात है ।
१५ मार्च, १९६९
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मानव जीवन में सभी कठिनाइयों, सभी विसंगतियों, सभी नैतिक कष्टों का कारण है हर एक के अन्दर अहंकार की अपनी कामनाओं, अपनी पसंदों और मनपसंदों की उपस्थिति । किसी निष्काम कार्य में भी, जो दूसरों की सहायता के लिए होता है, उसमें भी जब तक तुम अहंकार ओर उसकी मांगो पर विजय पाना न सीख लो, जब तक तुम उसे एक कोने में चुपचाप और शांत रहने के लिए बाधित न कर सको, अहंकार हर उस चीज के विरुद्ध क्रिया करता है जो उसे पसंद न हो, एक आन्तरिक तूफान खड़ा करता है जो सतह पर उठ जाता है और सारा काम बिगाड़ देता है ।
अहंकार पर विजय पाने का यह काम लम्बा, धीमा और कठिन हैं; यह सतत सतर्क रहने की ओर अविच्छिन्न प्रयास की मांग करता है । यह प्रयास कुछ लोगों के लिए ज्यादा आसान और कुछ के लिए ज्यादा कठिन होता है ।
हम यहां आश्रम में श्रीअरविन्द के ज्ञान और उनकी शक्ति की सहायता से आपस में मिलकर एक ऐसे समाज का निर्माण करने के प्रयास में हैं जो अधिक सामंजस्यपूर्ण, अधिक ऐक्यपूर्ण, और परिणामत: जीवन में अधिक प्रभावकारी और समर्थ हो ।
जब तक मैं भौतिक रूप से तुम सबके बीच उपस्थित रहती थीं, मेरी उपस्थिति अहंकार पर प्रभुत्व पाने में तुम्हारी सहायता करती थीं, अत: मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से तुमसे बहुधा इस विषय में कुछ कहना जरूरी न था ।
लेकिन अब इस प्रयास को हर व्यक्ति के जीवन का आधार बनना चाहिये । विशेषकर उनके जीवन का जो जिम्मेदार स्थिति में हैं और जिन्हें औरों की देखभाल करनी होती हैं । नेताओं को हमेशा उदाहरण सामने रखना चाहिये, नेताओं को हमेशा उन गुणों का अभ्यास करना चाहिये जिनकी वे उन लोगों से मांग करते हैं जो उनकी देख-रेख में हैं; उन्हें समझदार, धीर, सहनशील, सहानुभूति, ऊष्मा और मैत्री से पूर्ण सद्भावना से भरा होना चाहिये । ये चीजें अहंकार के कारण या अपने लिए मित्र बटोरन के लिए नहीं, अपितु उदारता के कारण होनी चाहिये ताकि वे औरों को समझ सकें और उनकी सहायता कर सकें।
सच्चा नेता होने के लिए अपने- आपको, अपनी चाह और पसंद को भूल जाना अनिवार्य है।
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यही चीज है जिसकी मैं अब तुमसे मांग कर रही हूं, ताकि तुम अपनी ज़िम्मेदारियों का उस तरह सामना कर सको जैसे करना चाहिये । और तब तुम देखोगे कि जहां तुम अनबन और फूट देखा करते थे, वे गायब हो गयी हैं, और उनकी जगह सामंजस्य, शांति और आनन्द ने ले ली हैं ।
तुम्हें मालूम है कि मैं तुमसे प्रेम करती हूं और तुम्हें सहारा देने, सहायता देने और रास्ता दिखाने के लिए सदा तुम्हारे साथ हूं ।
आशीर्वाद ।
२६ अगस्त, १९३९
ऐसा लगता है कि तुम यह भूल रहे हो कि आश्रम मे रहने भर से ही, तुम न तो अपने लिए और न अपने अध्यक्ष के लिए काम कर रहे हो, बल्कि भगवान् के लिए कर रहे हो । तुम्हारा जीवन पूरी तरह से ' भगवान् के कार्य ' को समर्पित होना चाहिये । उस पर तुच्छ मानव-विचारों का शासन नहीं हो सकता ।
२८ मई, १९७०
यहां जो कुछ भी किया जाये, वह पूर्ण सहयोग की भावना सै और अपनी दृष्टि के आगे एक ही लक्ष्य रखकर करना चाहिये-और वह लक्ष्य हैं भगवान् की सेवा ।
अनिवार्य रूप से सामुदायिक या सामाजिक जीवन में अनुशासन होना चाहिये ताकि मजबूत वंग कमजोर वर्ग के साथ दुव्यवहार न करे; और जो भी उस समुदाय या समाज में रहना चाहते हों उन सबको इस अनुशासन का पालन करना चाहिये ।
लेकिन समाज के सुखी होने के लिए यह जरूरी है कि यह अनुशासन किसी ऐसे व्यक्ति के दुरा या ऐसे लोगों के द्वारा निर्धारित किया जाये
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जिसमें या जिनमें मन की अत्यधिक विशालता हों और, अगर संभव हो तो, ऐसे व्यक्ति या लोगों दुरा किया जाये जो 'भागवत उपस्थित' के बारे में सचेतन हों और उसे ही समर्पित हों ।
धरती के सुखी होने के लिए जरूरी है कि शक्ति केवल ऐसे लोगों के हाथ में हो जो ' भागवत इच्छा ' के बारे में सचेतन हों । लेकिन अभी तो यह असंभव है क्योंकि ऐसे लोगों की संख्या लगभग नगण्य है जो ' भागवत इच्छा ' के बारे में सचमुच सचेतन हैं और जिनमें अनिवार्य रूप से कोई महत्त्वाकांक्षा भी नहीं होती ।
सच बात तो यह है कि जब इस उपलब्धि का समय आयेगा, तो यह बिलकुल स्वाभाविक रूप से हो जायेगा ।
हर एक का कर्तव्य है कि अपने- आपको उसके लिए यथासंभव पूरी तरह से तैयार करे ।
१८ फरवरी, १९७२
मैं इस बात से सहमत हूं कि मुख्य द्वार की अवस्था दुःखद है । लेकिन आदेश देना कठिन है क्योंकि सब तरह की ब्योरे की चीजें लिखनी होंगी ।
दुरापालों और 'लाइबेरि हाऊस' में रहने वालों के नाम
मैंने बार-बार कहा है कि '' सूप का बरामदा '' बिलकुल साफ-सुथरा रखना चाहिये, वहां व्यक्तिगत चीजें (जैसे, प्याले, गिलास, बोतलें, चप्पल, खड़ाऊँ, आदि) बिखरती न रहनी चाहिये । आश्रम के फाटक में सें आनेवाले दर्शकों के लिए यह बहुत ही अशोभन दृश्य होता है ।
मैं आशा करती हूं कि मुझे यह बात फिर से न दोहरानी पड़ेगी और इस आदेश का पालन कर्तव्य-निष्ठा के साथ किया जायेगा ।
६ जून, १९३२
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व्यवस्था कार्य
द्वारपाल का कार्य
माताजी द्वारपाल के काम को बहुत महत्त्वपूर्ण और बहुत जिम्मेदारी- भरा मानती है । यह काम सावधानी और जागरूकता के साथ करना चाहिये ।
दर्शकों और पूछताछ करने वालों और काम के लिए आने वालों का उचित शिष्टता के साथ स्वागत होना चाहिये, जरूरत हो तो उन्हें कुर्सी देनी चाहिये, आवश्यक सूचना और संभव सहायता देनी चाहिये । लोगों मे कोई भेद- भाव न करना चाहिये ।
किसी असामान्य पूछ-ताछ के लिए, सचिव के पास जाना चाहिये ।
यह द्वारपाल के अधिकार मे होगा कि फाटक के आसपास मंडराने वाले या भीड़ करने वाले लोगों से जगह छोड़ जाने के लिए निवेदन करे । उसे भी अन्य आश्रमवासियों के साथ लंबी बातचीत मे न लगना चाहिये । लिखने-पढ़ने मे या अपने कर्तव्य पर केन्द्रीय होने के सिवा किसी और चीज मे मग्न न होना चाहिये ।
बिना स्वीकृति के किसी अनधिकृत व्यक्ति को आश्रम के प्रांगण में न जाने देना चाहिये।
आशा यह की जाती है कि नौकर फिल्टर को हाथ न लगायेंगे । उन्हें ' साइकिल हाऊस ' से पानी लेना चाहिये । जरूरत हो तो आश्रमवासी उन्हें अपने साथ ला सकते हैं ।
फाटक के आसपास की जगह स्वच्छ और शांत रखनी चाहिये । फाटक, उन लोगों को छोड्कर जो इस काम के लिए नियुक्त हैं, औरों पर न छोड़ना चाहिये ।
२५ सितम्बर, १९५२
माताजी चाहती हैं कि जो लोग दर्शकों के स्वागत के लिए जिम्मेदार हैं वे उनके प्रति आचरण मे बहुत सौम्य और शिष्ट रहें । आने वाले अमीर- गरीब, बूढ़े-जवान, अच्छे कड़यों में सज़े या फटेहाल, कैसे भी क्यों न हों, सबका सद्व्यवहार और भद्रता के साध स्वागत करना चाहिये । यह जरूरी नहीं है कि आश्रम में अच्छे कपड़ोंवाले ज्यादा अच्छे स्वागत के योग्य हों । ऐसा न होना चाहिये कि भिखारी-से दीखने वाले सामान्य आदमी की अपेक्षा
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मोटरवाले की ओर ज्यादा ध्यान दिया जाये । हमें यह न भूलना चाहिये कि वे भी उतने ही मानव हैं जितने हम और हमें यह मानने का कोई अधिकार नहीं है कि हम सोपान के शिखर पर हैं ।
और हमारी शिष्टता केवल एक बाह्य शिष्टाचार या यूं कहें, रूखा शिष्टाचार न हो । वह अन्दर से आने वाली चीज हो । चाहे कैसी भी कठिनाइयां हों, चाहे जैसी परिस्थितियां हों-माताजी पूरी बारीकी मे सब परिस्थितियों को जानती हैं और जानती हैं कि हम कब अपने काम मै झल्ला पड़ते हैं और खोज उठते हैं, यह अच्छी तरह जानते हुए वे कहती हैं-चाहे कैसी भी परिस्थितियां हों, अभद्र और रूखे व्यवहार की कभी इजाजत नहीं दी जा सकतीं ।
हमारे मार्ग में कठिनाइयां हैं, परंतु माताजी कहती हैं कि यह नियम समझ लो कि वे कठिनाइयां और तकलीफें हमेशा ऐसी होती हैं जिन्हें पार करने की क्षमता हमारे अंदर जरूर होती है । अगर हम अपनी सर्वोत्तम स्थिति में रहें तो हम हमेशा आपे से बाहर हुए बिना अपनी कठिनाइयों को सुलझा सकेंगे । याद रखो, जब-जब हम अपने काबू से बाहर हो जाते हैं, जब-जब हम युद्ध होते या अनुशासन रखने के लिए बाहरी साधनों का उपयोग करने के लिए बाधित होते हैं, तो उसका मतलब यह होता है कि उस समय हम नीचे लुक गये और मौक़े पर खर न उतर सके । हर चीज में, हर तरह से, निष्कर्ष यहीं निकलता है-हमेशा प्रगति करने के लिए कोशिश करो, अपना सच्चा स्व बनने की कोशिश करो । भले तुम आज न कर सको पर तुम्हें कल वह कर सकने योग्य होना चाहिये । लेकिन प्रयास पूरा होना चाहिये । यह कभी न भूलो कि तुम आश्रम का प्रतिनिधित्व कर रहे हो । लोग तुम्हारे व्यवहार को देखकर आश्रम के बारे में अपनी धारणा बनायेगा । अगर तुम्हें ''ना '' भी करनी हो, अगर किसी की बात अस्वीकार भी करनी हो, तो यह भी पूरे शिष्टाचार और भद्रता के साथ कर सकते हो । हर एक की मदद करने की कोशिश करो । अगर और लोग तुम्हारे साथ असभ्य व्यवहार करें, तो भी यह कोई कारण नहीं है कि तुम भी वैसा ही करो । अगर तुम भी वैसा हो व्यवहार करो जैसा बाहरवाले करते हैं, तो फिर तुम्हारे यहां होने का लाभ ही क्या है ।
९ मई, १९५७
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