श्रीअरविन्द के पत्र

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Sri Aurobindo

Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Letters On Yoga - Parts 2,3 Vol. 23 1776 pages 1970 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द के पत्र 578 pages 1972 Edition
Hindi Translation
Translator:   Chapsip Tripathi  PDF    LINK

श्रीअरविन्दके पत्र


प्रथम संस्करण : १९७२

द्वितीय संस्करण : १९९६

 

 

अनुवादक : चप्सीप त्रिपाठी

 

 

 

मूल्य:रु.११०.००

 

 

ISBN 81-7058-472-8

 

स्वत्वाधिकारि : श्रीऔरोबिन्दो  आश्रम ट्रस्ट, पांडिचेरी - २, १९७२

प्रकाशक : श्रीअरविन्द आश्रम प्रकाशन विभाग, पांडिचेरी - २

मुद्रक : श्रीअरविन्द आश्रम प्रेस, पांडिचेरी - २

भाग दो और भाग तीन

 


 

विभाग- एक

पूर्णयोगका लक्ष्य


पूर्णयोगका लक्ष्य

 

        इस योगका लक्ष्य है भागवत उपस्थिति और चैतन्यमें प्रवेश करना और उसके द्वारा अधिकृत होना, एकमात्र भगवानके  लिये भगवान्को प्रेम करना, अपनी प्रकृति- में भगवान्की प्रकृतिके साथ समस्वर होना और अपने संकल्प तथा कर्म तथा जीवनमें भगवानका यंत्र बन जाना । इसका उद्देश्य कोई महान् योगी या अतिमानव बनना नहीं है (यद्यपि ऐसा हो सकता है ) अथवा अहंकी शक्ति, दंभ या सुखके लिये भगवान्- को पकड़ लेना नहीं है । यह मोक्षके लिये भी नहीं है यद्यपि इससे मुक्ति प्राप्त होती है और दूसरी सभी चीज़ें भी मिल सकती हैं, पर ये सब चीज़ें हमारा उद्देश्य नहीं होनी चाहियें । एकमात्र भगवान् ही हमारे लक्ष्य हैं ।

 

*

 

     इस योगमार्गमें महज अतिमानव बननेकी भावनासे आना प्राणिक अहं- भावका कार्य होगा जो इसके अपने उद्देश्यको ही व्यर्थ कर देगा । जो लोग अपनी सलग्नताओंके सम्मुख इस लक्ष्यको रखते हैं वे निश्चित रूपसे आध्यात्मिक रूपमें तथा अन्य रूपमें कष्टको प्राप्त होते हैं । इस योगका लक्ष्य है, सर्वप्रथम, अपने पृथकात्मक अहंको भागवत चेतनामें निमज्जित करके उसमें प्रवेश कर जाना (प्रासंगिक रूपसे ऐसा करनेपर मनुष्य अपने सच्चे व्यक्तिगत आत्माको पा लेता है जो सीमित, व्यर्थ और स्वार्थी मानव अहं नहीं हे बल्कि भगवानका एक अंश है ) और, द्वितीयत : मन, प्राण और शरीरको रूपांतरित करनेके लिये पृथ्वीपर अतिमानसिक चेतनाको उतार लाना । अन्य सब चीजों इन दो लक्ष्योंके केवल परिणाम हो सकती हैं,. योगका मुख्य लक्ष्य नहीं हो सकतीं ।

 

*

 

    ऐसा लगता है कि योगके विषयमें तुमने कुछ गलत भावनाएं बना रखी हैं जिनमें- से तुम्हें बाहर निकल आना चाहिये, क्योंकि वे खतरनाक हैं और प्रत्येक साधकको उन्हें निकाल बाहर करना चाहिये :

 

1. योगका लक्ष्य श्रीअरविन्द या श्रीमाताजीके ' 'जैसा' ' बनना नहीं है । जो लोग इस विचारका पोषण करते हैं बड़ी आसानीसे आगेके इस विचारपर पहुँच जाते हैं कि वे उनके बराबर और यहांतक कि उनसे अधिक बड़े बन सकते हैं । यह केवल अपने अहंका पोषण करना है ।

 


        2. योगका उद्देश्य शक्ति प्राप्त करना या दूसरोंसे अधिक शक्तिशाली बनना अथवा सिद्धियां प्राप्त करना अथवा महान् या आश्चर्यजनक या चमत्कारपूर्ण कार्य करना नहीं है।

 

       3. योगका उद्देश्य कोई महान् योगी या अतिमानव होना नहीं है । यह योगको अहंकारपूर्ण ढंगसे ग्रहण करना है और इससे कोई भलाई नहीं हो सकती । इससे पूरी तरह बचो ।

 

       4. अतिमानसिक चेतनाके विषयमें बातें करना और उसे अपने अन्दर उतारने- की बात सोचना सबसे अधिक खतरनाक हे । यह महान् कार्य करनेकी पूर्ण लालसा उत्पन्न कर सकता और समतोलता नष्ट कर सकता है । साधकको जो चीज पानेकी चेष्टा करनी है वह है - भगवान्की ओर पूर्ण उद्घाटन, अपनी चेतनाका चैत्य रूपांतर, आध्यात्मिक रूपांतर । चेतनाके उस परिवर्तनके आवश्यक घटक हैं - स्वार्थहीनता, निष्कामभाव, विनम्रता, भक्ति, समर्पण, स्थिरता, सभता, शान्ति, अचंचल सद्हृदयता । जबतक उसमें चैत्य और आध्यात्मिक रूपांतर नहीं हो जाता, अतिमानसिक बननेकी बात सोचना एक मूर्खता है और एक उद्धत मूर्खता है ।

 

      यदि इन सब अहंकारपूर्ण विचारोंको प्रश्रय दिया जया तो ये केवल अहंकी ही अतिरंजित कर सकते, साधनाको नष्ट कर सकते और गंभीर आध्यात्मिक विपत्ति- योंमें ले जा सकते हैं । इन बातोंका पूर्ण रूपमें परित्याग कर देना चाहिये ।

 

*

 

       निस्सन्देह, तुम (महान् हुए बिना योग ) कर सकते हो । महान् होनेकी कोई आवश्यकता नहीं हे । इसके विपरीत, विनम्रता सबसे पहली आवश्यकता है, क्योंकि जिस ब्यक्तिमें अहंकार और गर्व है वह परमोच्च सत्यको नहीं प्राप्त कर सकता ।

 

*

 

       स्वयं पुस्तकका जहांतक प्रश्न है, दुर्भाग्यवश मैं तेलुगु भाषासे अनभिज्ञ हूँ और मूल पुस्तक नहीं पढ़ सकता । परन्तु अंग्रेजीमें जो वर्णन है उससे मैंने उसके सारांशकी थोड़ीसी धारणा बनायी है । मैं समझता हूँ कि मुख्य रूपमें यह पूर्णयोग और मेरे संदेश- का एक वर्णन और समर्थन है; मेरी समझमें तुमने सही रूपमें इसके दो प्रमुख तत्वोंका वर्णन किया है - पहला, जगत्को भगवती शक्तिकी एक अभिव्यक्तिके रूपमें स्वीकार करना, एक भूल या मिथ्या माया मानकर त्याग न करना, और दूसरा, इस अभिव्यक्तिका स्वरूप है एक आध्यात्मिक विकास जिसमें योगके द्वारा मन, प्राण, शरीरको रूपांतरित करके आध्यात्मिक, तथा अतिमानसिक पूर्णत्वके यंत्र बनाया जा सकता है । विश्व कोई भौतिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक तथ्य है, जीवन केवल शक्तियोंकी एक कोई अथवा कोई मानसिक अनुभव नहीं हे, बल्कि प्रच्छन्न आत्माके

 


क्रमविकासका एक क्षेत्र है । जब यह सत्य पकड़ा जायगा और हमारे जीवनकी प्रेरक?- शक्ति बनाया जायगा तथा इस प्रभावशाली सिद्धिका मार्ग आविष्कृत होगा केवल तभी अपनेसे परेकी किसी वस्तुमें मानव-जीवन अपनी चरितार्थता और रूपांतरको प्राप्त करेगा । सिद्धिका पथ एक पूर्णयोगमें प्राप्त करना होगा, अपनी सत्ताके सभी अंगोमे भगवान्के साथ एकत्व प्राप्त करना होगा और उसके फलस्वरूप उनके सभी अभी संघर्षरत तत्त्वोंको बदलकर एक उच्चतर दिव्य चेतना और सत्ताके साथ सुसमं- जस कर देना होगा ।

 

*

 

      योगके जिस मार्गका यहां अनुसरण किया जाता है उसका उद्देश्य अन्य योग- मार्गोंसे भिन्न है,-क्योकि इसका लक्ष्य केवल सामान्य अज्ञ जगच्चेतनासे ऊपर उठकर भागवत चेतनामें पहुँच जाना ही नहीं है, प्रत्युत उस भागवत चेतनाकी अतिमानसिक शक्तिको मन, प्राण और शरीरके अज्ञानके अन्दर उतार लाना, इन्हें रूपांतरित करना, यहां इस पृथ्वीपर भगवान्को प्रकट करना तथा जड़-पार्थिव प्रकृतिमें एक दिव्य जीवन- का निर्माण करना इसका लक्ष्य है । यह बड़ा ही दुर्गम लक्ष्य है और कठिन योगसाधन है; बहुत लोगोंको, या प्रायः सभी लोगोंको यह असम्भव ही प्रतीत होगा । साधारण अज्ञ जगच्चेतनामे जो शक्तियां जमकर बैठी हुई हैं वे इसके विरुद्ध हैं, इसे अस्वीकार करती हैं और इसकी सिद्धिमें बाधा ही डालनेका प्रयत्न करती हैं, और साधक स्वयं भी देखेगा कि उसके अपने मन, प्राण और शरीर इसकी प्राप्तिमें कितनी जबर्दस्ती बाधाएं उपस्थित कर रहे हैं । यदि तुम इस लक्ष्यको सर्वात्मना स्वीकार कर सको, इसके लिये सभी कठिनाइयोंका सामना कर सको, भूतकालमें जो कुछ हुआ है उसे और उसके बंधनोको पीछे छोड़ सको और इस दिव्य संभावनाके लिये सब कुछ छोड देनेके लिये, तथा आगे जो कुछ भी हो उसके लिये, तैयार हो जाओ, तो ही यह आशा कर सकते हो कि इस योगसाधनाके पीछे जो महत्सत्य छिपा हुआ है उसे स्वानुभवसे ढूँढकर प्राप्त कर सको ।

 

*

 

इस योगकी साधनाका कोई बंधा हुआ मानसिक अभ्यासक्रम या ध्यानका कोई निश्चित प्रकार अथवा कोई मंत्र या तंत्र नहीं है । बल्कि यह साधना साधकके हृदयकी अभीप्सासे आरम्भ होती है; साधक अपने ऊर्ध्वस्थित या अंतःस्थित आत्माका ध्यान करता है, अपने-आपको भागवत प्रभावकी ओर, हमारे ऊपर स्थित भागवत शक्ति और उसके कार्यकी ओर तथा हृदयमें विद्यमान भागवत उपस्थितिकी ओर उद्घाटित कर देता है और जो कुछ इन बातोंके लिये विजातीय है उस सबका परित्याग कर देता है । केवल श्रद्धा, अभीप्सा तथा आत्मसमर्पणके द्वारा ही यह सत्योद्घाटन हो सकता

 

*

 


      तुममें स्पष्ट ही एक पुकार है और योग-साधनाके योग्य हो सकते हो; परन्तु योगके विभिन्न पथ हैं और प्रत्येक व्यक्तिके सामने एक अलग लक्ष्य और उद्देश्य होता है । सभी मार्गोंमें ये बातें समान रूपसे पायी जाती हैं कि मनुष्यको अपनी कामनाएं जीतनी चाहियें, जीवनके सामान्य सम्बन्धोंको एक किनारे छोड़ देना चाहिये और अनिश्चयताकी स्थितिसे शाश्वत निश्चयतामें चले जानेकी कोशिश करनी चाहिये । मनुष्य अपने स्वप्न और नींद, भूख और प्यास आदिको भी जीतनेकी कोशिश कर सकता है । परन्तु मेरे योगका यह कोई अंग नहीं है कि मनुष्य संसारके साथ या जीवनके साथ कोई सरोकार न रखे या इंद्रियोंको मार डाले और अपने कर्म पूर्णत: बन्द कर दे । मेरे योगका यह लक्ष्य ही है कि मनुष्य अपने जीवनमें दिव्य सत्यका प्रकाश, बल और आनन्द तथा उसकी सक्रिय निश्चयताओको उतारकर उसका रूपांतर करे । यह योग संसार- का त्याग करनेवाले संन्यासका योग नहीं है, बल्कि दिव्य जीवनका योग है । तुम्हारा उद्देश्य, दूसरी ओर, केवल समाधिमें प्रवेश करने और उसके अन्दर सांसारिक जीवन- के साथके अपने सभी सम्बन्धोंको त्याग देनेपर प्राप्त हो सकता है ।

 

*

 

        संन्यासी होना अनिवार्य नहीं है -- यदि कोई ऊपरी चेतनामें रहनेके बजाय आंतरिक चेतनामें रहना सीख जाय, अपने अंतरात्मा या सच्चे व्यक्तित्वको ढूँढ सके जो कि उपरितलीय मन और प्राणकी शक्तियोंसे आच्छन्न है और अपनी सत्ताको अति- चेतन सद्वस्तुकी ओर उद्घाटित कर सके तो यह पर्याप्त है । परन्तु ऐसा करनेमें कोई तबतक सफल नहीं हो सकता जबतक कि वह अपने प्रयासमें पूर्णरूपेण सच्चा और एकमुखी न हो ।

 

       दूसरे प्रश्नका जहांतक सम्बन्ध है, श्रीअरविन्दके मिशनमें हाथ बंटाना इस बातपर निर्भर करता है कि मनुष्यमें एक कठिन योग करनेकी क्षमता हो अथवा उस आदर्शके लिये अपना जीवन लगा देनेकी पुकार हो और अहंकारकी मांगों या प्राणिक कामनाओंका कोई विचार न हो; अन्यथा इसके विषयमें नहीं सोचना ही अधिक अच्छा है ।

 

*

 

हाँ, जबतक बाहरी प्रकृति रूपांतरित नहीं हो जाती, मनुष्य जितना ऊँचा उठना संभव हो उतना ऊंचा उठ सकता है और बहुत वड़ी-बडी अनुभूतियां प्राप्त कर सकता है - परन्तु बाह्य मन अज्ञानका ही यंत्र बना

 

*

 


        यदि प्राण अभी अशुद्ध भी हो तो भी मानसिक-आध्यात्मिक स्तरपर एक प्रकार- की अनुभूतियां प्राप्त करना सर्वदा सम्भव है । उस समय मानसिक पुरुष और प्रकृति- का एक प्रकारका पार्थक्य साधित हो जाता है और उसके फलस्वरूप एक ज्ञान प्राप्त होता है जिसका जीवनपर कोई रूपांतरकारी प्रभाव नही पड़ता । परन्तु इन जोगियों- का सिद्धांत यह है कि बस आत्माको जाननेकी जरूरत है; जीवन और जीवनमें जो कुछ मनुष्य करता है उससे कुछ आता-जाता नहीं । क्या तुमने उस योगीकी कहानी नहीं पडी है जो अपनी रखेलके साथ आया था और जिससे रामकृष्णने पूछा था: ' 'इस तरह क्यों जीवन बिताते हो?'' उसने उत्तर दिया, ' 'सब कुछ माया है, इसलिये जब- तक मैं ब्रह्मको जानता हूँ तबतक मैं जो कुछ भी करूं उससे कुछ आता-जाता नहीं । '' यह सच है कि रामकृष्णने उत्तर दिया: ' 'मैं तुम्हारे वेदान्तपर मूकता हूँ, '' परन्तु तर्क- की दृष्टिसे उस योगीका भी एक पक्ष था -- क्योंकि, यदि समस्त जीवन और कर्म माया हो और केवल नीरव ब्रह्म ही सत्य हो - तो फिर!

 

 *

 

      ब्राह्मी स्थितिमें मनुष्य आत्माको अस्पृष्ट और शुद्ध अनुभव करता है पर प्रकृति अपूर्ण बनी रहती है । साधारण संन्यासी उसकी कोई परवाह नहीं करता, क्योंकि उसका उद्देश्य प्रकृतिको पूर्ण बनाना नहीं है: बल्कि उससे अपनेको पृथक् कर लेना है ।

 

*

 

      शान्ति आवश्यक आधार है पर शान्ति पर्याप्त नहीं है । यदि शान्ति प्रबल और स्थायी हो तो वह आंतर सत्ताको मुक्त कर सकती है जो बाह्य क्रियाओंका एक स्थिर और अचंचल साक्षी बन सकती है । यही संन्यासीकी मुक्ति है । कुछ प्रसंगोंमें वह बाहरी सत्ताको भी मुक्त कर सकती है और पुरानी प्रकृतिको बाहर पारिपार्श्विक चेतना- में फेंक सकती है, परन्तु यह भी मुक्ति है, रूपांतर नही है ।

 

*

 

     उन्होंने (प्राचीन योगोंने ) आत्मसाक्षात्कारको लक्ष्य बनाया और दिव्यभावा- पन्न बननेकी कोई परवाह नहीं की, सिवाय तांत्रिक और कुछ अन्य लोंगोंके । परन्तु इन सब पथोंमें भी बल्कि लक्ष्य अन्य किसी चीजकी अपेक्षा संत और सिद्ध बनना ही था ।

 

*

 

 ५


       चेतनाका स्तर अनुभूतिकी शक्ति और ज्योतिर्मयता और पूर्णतामें बहुत अधिक अन्तर ला देता है । मानसिक साक्षात्कार अधिमानसिक या अतिमानसिक साक्षात्कारसे बहुत भिन्न होता है यद्यपि अनुभूत सत्य एक ही हो सकता है । उसी तरह जडतत्त्वको ब्रह्म जाननेका फल भी प्राण, मन, अतिमन या आनन्दको ब्रह्म जानने- के फलसे बहुत भिन्न होता है । यदि भगवान्को मनके द्वारा प्राप्त करना ठीक वही चीज हो जो उच्चतर लोकोंमें उन्हें पाना हो तो फिर इस योगका जरा भी कोई अर्थ नहीं रह जायगा -- फिर अतिमानसतक ऊपर आरोहण करने या उसे नीचे उतार लानेकी कोई आवश्यकता नहीं होगी ।

 

*

 

      भगवान्के साथ पूर्ण एकत्व प्राप्त करना अन्तिम लक्ष्य है । जब किसीको किसी प्रकारका सतत एकत्व प्राप्त हों जाता है तो उसे योगी कहा जा सकता है, पर एकत्व- को पूर्ण बनाना होगा । कुछ योगी ऐसे होते हैं जिन्हें आध्यात्मिक स्तरपर एकत्व प्राप्त होता है, दूसरे ऐसे होते ऐ जो मन .और हृदयमें युक्त होते हैं, कुछ दूसरे प्राणमें भी युक्त होते हैं । हमारे योगमें हमारा लक्ष्य है भौतिक चेतनामें और आतेमानसिक लोकमें भी युक्त हो जाना ।

 

*

 

     परन्तु उन्हें (अपरम्परागत मार्गोंके योगियोंको ) भला ( अतिमानसके अवतरण- का ) कोई दबाव क्यों अनुभव करना चाहिये जब कि वे अपनी प्राप्त अनुभूतिसे संतुष्ट थे? वे आध्यात्मिक मनमें रहते हैं और मनका स्वभाव है पृथक् करना -- यहां भगवान्के किसी उच्च स्वरूप या स्थितिको पृथक् कर लेना और बाकी सबको छोड़कर केवल उसीको पानेकी चेष्टा करना । सभी आध्यात्मिक दर्शनशास्त्र और योगमार्ग ऐसा हो करते है । यदि वे परे जाते हैं तो वे 'केवल' ब्रह्मतक जाते हैं -- और मन पूर्ण ब्रह्मकी कल्पना केवल इसी रूपमें कर सकता है कि वह कोई अकल्पनीय वस्तु है, 'नेती नेती' । अधिकंतु, समाधिमे जानेके लिये वे एक एकाकी विचारपर एकाग्र होते हैं और वे उसी चीजको पाते हैं जिसे वह विचार व्यक्त करता है -- समाधि-अवस्था अपने स्वरूपमें बस उसी भावनाके ऊपर एक अनन्य एकाग्रता है । अतएव यह चीज भला किसी दूसरी वस्तुकी ओर उन्हें क्यों खोलेगी? केवल थोडेसे लोग ही ऐसे होते हैं जो इतनी पर्याप्त मात्रामें नमनीय होते हैं कि अपनेकी सीमित करनेवाली साधनाकी इस स्थितिसे बच सकें - उन्हें यह अनुभव होता है कि अनुभूतिका कोई अन्त नहीं है, जब वे एक शिखरपर पहुँचते हैं तो उसके परे वे दूसरा शिखर देखते हैं । इससे अधिक देखनेके लिये साधकको अतिमानसके साथ सज्ञान जाग्रत् संपर्क प्राप्त करना या कम-से-कम उसकी झाकि प्राप्त करनी -- और इसका

 


अर्थ है आध्यात्मिक मनसे परे चले जाना ।

 

*

 

      इस योगका एकदम सिद्धात ही यह है कि एकमात्र चेतनाका अतिमानसीकरण होनेपर ही -- जिसका मतलब है मनसे ऊपर अतिमनमें चला जाना और अतिमनका प्रकृतिके अन्दर उतर आना -- अन्तिम रूपांतर साधित किया जा सकता है । अतएव, यदि कोई मनुष्य मनसे ऊपर अतिमनमें नहीं उठ सकता और अतिमनका अवतरण नहीं करा सकता तो न्यायत: यह योग करना असम्भव हो जाता है । प्रत्येक मनुष्य तत्वतः भगवान्के साथ एक है और अपनी व्यक्तिगत सत्तामें भगवान्का एक अंश है, अतएव उसके अतिमानसिक बननेमें कोई अलंध्य बाधा नहीं है । परन्तु इसमें संदेह नही कि अपने आधारमें मानसिक होनेके कारण किसी मानव-प्रकृतिके लिये केवल अपने एकाकी प्रयाससे अज्ञानका अतिक्रमण करना तथा अतिमानसतक ऊपर उठना या उसका अवतरण कराना असम्भव है, परन्तु भगवान्को समर्पण करनेपर इसे सिद्ध किया जा सकता है । मनुष्य अपनी निजी चेतनाके द्वारा उसे पार्थिब प्रकृतिमें उतार लाता है और 'इस तरह दूसरोंके लिये मार्ग खोल देता है, परन्तु इस परिवर्तनको प्रत्येक चेतनाके अन्दर दुहराना होता है तभी वह व्यक्तिके अन्दर फलोत्पादक बनता है ।

 

*

 

     योगका उद्देश्य है अपनी चेतनाको भगवान्की ओर खोलना और अधिकाधिक आंतर चेतनामें निवास करना तथा वहींसे बाहरी जीवनपर कार्य करना, उसे प्रभावित करना, अपने अन्तरतम हृत्युरुषको सामने ले आना और हृत्युरुषकी शक्तिसे अपनी सारी सत्ताको इस तरह शुद्ध और परिवर्तित करना जिसमे कि वह रूपांतरके लिये तैयार हो सके तथा भागवत ज्ञान, संकल्प और प्रेमके साथ युक्त हो सके । दूसरे, भौतिक चेतनाका विकास करना अर्थात् अपने आधारके सभी स्तरोंको वैश्वभावापन्न बनाना, विश्वपुरुष तथा विश्वशक्तियोका ज्ञान प्राप्त करना और अधिमानसतक चेतनाके सभी स्तरोंमें भगवान्के साथ युक्त होना । तीसरे, अधिमानसके परे जो परात्पर भगवान् हैं उनके साथ अतिमानस-चेतनाके द्वारा सम्बन्ध स्थापित करना, अपनी चेतना और प्रकृतिको अतिमानसभावापन्न बनाना तथा क्रियाशील भागवत सत्यकी सिद्धि और पार्थिव प्रकृतिमें इसके रूपांतरकारी अवतरण के लिये अपने-आपको एक यंत्र बनाना ।

 

*

 

        हमारे लिये भगवान्के तीन रूप ' -


      1. वह विश्वात्मा और विश्वपुरुष है जो सभी वस्तुओं और जिबोंके  पीछे विद्यमान है और जिससे और जिसमें विश्वके अन्दर सब कुछ प्रकट हो रहा है  - यद्यपि यह अभी अज्ञानके अन्दर होनेवाली अभिव्यक्ति है ।

 

      2. वह हमारे अन्दर विद्यमान हमारी निजी सत्ताके आत्मा और प्रभु हैं जिनकी हमें सेवा करनी है और जिनकी इच्छाको हमें अपनी सभी गतिविधियोंमें अभिव्यक्त करना सीखना है जिसमें कि हम अज्ञानसे बाहर निकलकर ज्योतिमें वर्द्धित हो सकें । 

 

      3. भगवान् परात्पर सत्ता और आत्मा हैं, समस्त आनन्द और ज्योति और दिव्य ज्ञान तथा शक्ति हैं, और उसी उच्चतम भागवत सत्ता और उसकी ज्योतिकी ओर हमें ऊपर उठना हूँ एवं उसके सत्यको अधिकाधिक अपनी चेतना और जीवनमें नीचे उतार लाना है ।

 

        सामान्य प्रकृतिमें हम अज्ञानमें रहते हैं और भगवान्को नहीं जानते । साधारण प्रकृतिकी शक्तियां अदिव्य शक्तियां हैं क्योंकि वे अहंकार, कामना और अचेतनताका एक पर्दा बुनती हैं जो भगवान्को हमसे ढक देता है । जो उच्चतर और गभीरतर चेतना जानती और ज्योतिर्मयी रूपसे भगवान्में निवास करती है उसमें जानेके लिये हमें निम्नतर प्रकृतिकी शक्तियोंसे छुटकारा पाना होगा और भगवती शक्तिकी क्रिया- की ओर उद्घाटित होना होगा जो हमारी चेतनाको भागवत प्रकृतिकी चेतनामें रूपांतरित कर देगी ।

 

     भगवान्सम्बन्धी यही परिकल्पना है जिससे हमें आरम्भ करना होगा - इसके सत्यका साक्षात्कार केवल तभी हो सकता है जब हमारी चेतना उद्घाटित और परिवर्त्तित हो जायगी ।

 

*

 

 

      परात्पर, विश्वगत और व्यक्तिगत भगवान्के बीचका यह विभेद मेरा अपना आविष्कार नहीं है, न यह भारत या एशियाकी ही देशी उपज है - यह, इसके विपरीत एक स्वीकृत यूरोपियन शिक्षा है जो कैथोलिक चर्चकी गुह्य परम्परामें प्रचलित है, जहां यह त्रिमूर्त्ति पिता, पुत्र और पवित्रात्मा - की प्रामाणिक व्याख्या है, और यह यूरोपीय गुह्य अनुभवको भी बहुत ज्ञात है । साररूपमें यह सभी आध्यात्मिक साधनाओंमें पायी जाती है जो भगवान्की सर्वव्यापकताको स्वीकार करती हैं - भारतीय वैदान्तिक अनुभवमें यह है और मुसलमानी योगमें है (केवल सूफी मतमें नहीं, बल्कि अन्य भतोंमें भी ) - मुसलमान लोग दो या तीन नहीं बल्कि भगवान्के बहुतसे स्तरोंकी बात त्री कहते हैं और उनके बाद ही कोई परात्परतक पहुँचता है । स्वयं इस भावनाका जहांतक प्रश्न है, निश्चय ही देश और कालके अन्दर स्थित व्यक्ति और विश्व और जो कुछ इस विश्व-व्यवस्थाको या किसी भी विश्व- व्यवस्थाको अतिक्रांत करता है, उसके बीच एक अन्तर है । एक वैश्व चेतना है जिसका अनुभव बहुतोंको हुआ है और जो अपने प्रसार और कर्ममें व्यक्तिगत चेतनासे एकदम

 


मित्र है के क कोई चेतना विश्वसे परे, अनन्त तथा यथार्थतः शाश्वत है, मात्र, कालमें ही विस्तारित नहीं है, तो वह भी अवश्य ही इन दोसे भिन्न होगी । और यदि भगवान् इन तीनोंमें हैं या अपनेको अभिव्यक्त करते हैं तो क्या यह बुद्धिगम्य नहीं है कि अपने रूपमें, अपनी क्रियामें, वह अपनेको इतना अधिक भिन्न बना सकते हैं कि, यदि हमें अनुभवके समस्त सत्यको एक साथ मिला-जुला न देना हो, यदि हमें किसी अनिर्वचनीय वस्तुके महज निश्चल अनुभवसे ही अपनेको सीमित न करना हो तो हम भगवानके त्रिविध स्वरूपकी चर्चा करनेको बाध्य हैं?

 

      योगसाधना करते हुए इन तीनों सम्भव अनुभूतियोंके साथ व्यवहार करनेके हमारे तरीकोंमें बहुत बड़ा सक्रिय अंतर होता है । यदि हम भगवान्को, अपने व्यक्ति- गत आत्माके रूपमें नहीं बल्कि केवल उस रूपमें अनुभव करें जो अभी गुप्त रूपमें मेरी समस्त व्यक्तिगत सत्ताको चलाता है और जिसे मैं परदेसे बाहर सामनेकी ओर ले आ सकता हूँ, अथवा यदि मैं अपने अंगोंमें उस देवकी मूर्तिका निर्माण कर सकूँ तो यह है तो एक उपलब्धि पर है एक सीमित उपलब्धि । यदि मैं विश्व-देवको अनुभव करूं, उसके अन्दर समस्त व्यक्तिगत आत्माको खो दूँ तो यह है तो एक बहुत विशाल उपलब्धि, पर मैं विश्व-शक्तिकी महज एक प्रणाली बन जाता हूँ और मेरे लिये कोई भी व्यक्तिगत या दिव्यत: व्यक्तिगत ससिद्धि नहीं रह जाती । यदि मैं केवल परात्पर अनुभूतिमें ऊपर निकल जाऊं तो मैं अपनेको और संसारको, दोनोंको ही परात्पर ब्रह्ममें खो देता हूँ । दूसरी ओर, यदि इनमेसे कोई भी चीज स्वयं अपने-आपमें मेरा उद्देश्य न हो, बल्कि भगवान्को उपलब्ध करना और संसारमें उन्हें अभिव्यक्त करना भी हो, इस उद्देश्यके लिये अभीतक अव्यक्त दिव्य शक्ति - जैसे अतिमानस - को उतार लाना हो तो इन तीनोंका ही सामजस्यीकरण अपरिहार्य हो जाता है । मुझे उसे नीचे उतार लाना है, और कहांसे मैं उसे उतरंग,-क्योंकि वह विश्व-व्यवस्थाके अन्दर अभीतक व्यक्त नहीं है,-यदि अव्यक्त परात्परसे उसे न उतारू, जहांतक मुझे जाना होगा और जिसे प्राप्त करना होगा? मुझे उसे विश्व-व्यवस्थाके अन्दर उतार लाना होगा और, यदि ऐसा हो तो, मुझे विश्वगत भगवान्को प्राप्त करना होगा और विश्वात्मा तथा विश्व-शक्तियोंके विषयमें सचेतन होना होगा । परन्तु मुझे उसे यहां मूर्तिमान् करना है,-अन्यथा यह केवल एक प्रभावके रूपमें ही छूट जायगा और कोई भौतिक जगत्में स्थापित वस्तु नहीं होगा, और एकमात्र व्यक्तिके अन्दर विद्यमान भगवान्के द्वारा ही ऐसा किया जा सकता है ।

 

        ये हैं आध्यात्मिक अनुभवकी गतिशील शक्तियां और यदि भागवत कर्मको पूरा होना है तो मैं इन्हें अगीकारकरनेको बाध्य हूँ ।

 

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        भगवान्से हम जो कुछ पा सकते हैं केवल उसीके लिये भगवान्को चाहना स्पष्ट ही उचित मनोभाव नहीं है; परन्तु इन चीजोंके लिये उन्हें चाहना यदि एकदम मना

 


होता तो संसारमें अधिकांश लोग उनकी ओर बिलकुल न मुड़ते । मैं समझग है सकूं लिये इसकी स्वीकृति दी गयी है जिसमें कि वे प्रारम्भ कर सकें - यदि उनमें श्रद्धा हो तो वे जो कुछ चाहते हैं वह पा सकते है और यह समझ सकते हैं कि इसे जारी रखना अच्छा है । फिर एक दिन अचानक उन्हें यह विचार सूझ सकता हे कि आखिर एकदम यही एकमात्र करणीय नहीं है, इससे भी अच्छा तरीका और अच्छा भाव है जिसके साथ हम भगवानके पास जा सकते हैं । यदि वे वह चीज न पायें जिसे वे चाहते हैं और फिर भी भगवानके पास आयें और उनपर विश्वास रखें तो फिर यह सूचित करता है कि वे तैयार हो रहे हैं । आओ, हम इसे अप्रस्तुत लोगोंके लिये एक प्रकारका शिशु- विद्यालय समझे । परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि वह आध्यात्मिक जीवन नहीं है, यह केवल एक प्रकारका प्रारम्भिक धार्मिक पथ है । आध्यात्मिक जीवनके लिये तो नियम है कि दे दो और मांगो मत । परन्तु साधक भगवती शक्तिसे अपने स्वास्थ्यको बनाये रखनेके लिये या फिरसे प्राप्त करनेके लिये सहायता करनेकी प्रार्थना कर सकता है यदि वह इसे अपनी साधनाके अंगके रूपमें करे जिसमें कि उसका शरीर आध्यात्मिक जीवनके लिये समर्थ और योग्य हो सके और भागवत कर्मके लिये एक सक्षम यंत्र बन सके ।

 

*

 

      आओ, पहले हम इस बिलकुल अप्रासंगिक विचारको एक ओर अलग रख दें कि यदि भगवानके साथ एकत्व प्राप्त होनेपर शाश्वत निरानंद या यंत्रणा प्राप्त हो तो हम क्या करेंगे । ऐसी किसी चीजका अस्तित्व ही नहीं है और इसे व्यर्थ बहसके बीच घुसेड़ देनेसे प्रमुख प्रश्न मेघाच्छन्न हो जाता है । भगवान् आनंदमय हैं और जो आनन्द वह देते हैं उसके लिये मनुष्य उन्हें खोज सकता है; परन्तु उनमें दूसरी बहुतसी चीजे भी हैं और मनुष्य उनमेंसे किसी भी चीजके लिये उन्हें खोज सकता है, जैसे शान्तिके लिये, मुक्तिके लिये, ज्ञानके लिये, शक्तिके लिये, दूसरी किसी भी चीजके लिये जिसके प्रति वह आकर्षण या अन्तःप्रेरणा अनुभव करे । किसीके लिये यह कहना बिलकुल सम्भव है कि ' 'मुझे तो भगवान्से शक्ति प्राप्त कर लेने और उनका कार्य या उनका संकल्प सिद्ध करने दो और मैं संतुष्ट 'हूँ, यद्यपि शुक्तिका प्रयोग करनेसे कष्ट भी क्यों न उठाना पडे । '' आनन्दको एक अत्यन्त महान् या उल्लासपूर्ण वस्तु समझकर उससे कतराना और केवल या अधिकांशत: शान्ति, मुक्ति, निर्वाणको पानेकी चेष्टा करना सम्भव है । तुम आत्मपरिपूर्णताकी बात करते हो,-मनुष्य परात्परको भगवान् नहीं बल्कि अपना उच्चतम आत्मा समझ सकता है और उस उच्चतम आत्मामें अपनी सत्ताकी परिपूर्णता पानेका प्रयास कर सकता है; परन्तु परम सुख, परमोल्लास, आनन्द- को उसे आत्मा माननेकी आवश्यकता. नहीं -- मनुष्य उसे मुक्ति, विशालता, ज्ञान, शान्ति, शक्ति, स्थिरता, पूर्णताका आत्मा मान सकता है - सम्भवतः अत्यंत शांत- स्थिर जिसे किसी - एक हिलोर भी इतना भंग न करे कि ल कृ० आये । अतएव

 

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यदि कोई कुछ प्राप्त करनेके लिये ही भगवानके पास आता है तो यह सत्य नहीं हे कि मनुष्य अन्य किसी वस्तुके लिये नहीं बल्कि केवल आनन्द पानेके लिये ही भगवानके पास आ सकता अथवा उनके साथ एकत्व प्राप्त करनेका प्रयास कर सकता है ।

 

      यह बात तो एक ऐसी चीजको अंतर्भूत करती है जो तुम्हारे सारे तर्कको ही नष्ट- भ्रष्ट कर देगी । क्योंकि ये भागवत प्रकृतिके विभिन्न रूप, उसकी शक्तियां, भाग- वत सत्ताके स्तर हैं,--परन्तु भगवान् स्वयं कोई निरपेक्ष वस्तु हैं, कोई स्वयंसत् सत्ता हैं, अपने रूपोंसे सीमित नहीं है,-अद्भुत और अनिर्वचनीय हैं, उन (रूपों ) के कारण उनका अस्तित्व नहीं है, बल्कि उनके कारण उन (रूपों ) का अस्तित्व है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि वह अपने रूपोंके द्वारा आकर्षित. करते हैं तो वह अपने नितांत निरपेक्ष आत्मस्वरूपके द्वारा और भी अधिक आकर्षित कर सकते हैं जो उनके किसी रूपसे कहीं अधिक मघुर, शक्तिसंपन्न और गभीर है । उनकी शांति, आनन्दोल्लास, ज्योति, स्वातन्त्र्य, सौन्दर्य अद्भुत और अनिर्वचनीय हैं, क्यग़ेंके वह स्वयं ही जादुई ढंगसे, रहस्यमय रूपसे, चरम रूपसे अद्भुत और अनिर्वचनीय हैं । तब हम उन्हें उनके आश्चर्यमय और अकथनीय स्वरूपके लिये उनकी खोज कर सकते. हैं और केवल उनके किसी एक या दूसरे रूपके लिये ही नहीं कर सकते । उसके लिये बस आवश्यक बात यह है कि सर्वप्रथम, हमें उस बिडपर पहुँच जाना होगा जहां चैत्य पुरुष अपने अन्दर भगवान्के लिये यह खिंचाव अनुभव करता है और, द्वितीयत:, हमें उस बिन्दुपर पहुँच जाना होगा जहां मन, प्राण और दूसरी प्रत्येक चीज भी यह अनुभव करती है कि यही वह चीज थी जिसका अभाव वह अनुभवकरती थी और आनन्दके लिये जो उपरितलीय खोज थी या अन्य जो कुछ था वह सब केवल प्रकृतिको उस सर्वोच्च चुंबककी ओर खींचनेका एक बहाना था ।

 

           तुम्हारा यह तर्क कि चूँकि हम जानते हैं कि भगवान्के साथ प्राप्त एकत्व आनन्द प्रदान करेगा, इसलिये अवश्य ही हम आनन्दके लिये उस एकत्वकी खोज करते है, सही नहीं है और न उसमें कोई बल हे । जो व्यक्ति किसी रानीको प्यार करता हे वह यह जान सकता है कि यदि वह उसके प्रेमका प्रत्युत्तर देगी तो उसे शक्ति, पद प्रतिष्ठा, धन प्राप्त होगा और फिर भी यह आवश्यक नहीं कि वह शक्ति, पद-प्रतिष्ठा और धनके लिये ही उसका प्रेम चाहे । वह उसे उसीके लिये प्यार कर सकता है । और यदि वह कोई रानी न भी होती तो वह उसे उसी तरह प्यार कर सकता; उसे किसी भी प्रकारका प्रतिफल पानेकी कोई आशा नहीं हो सकती और फिर भी वह उसे प्यार कर सकता, उसकी पूजा कर सकता, उसीके लिये जी सकता, उसीके लिये मर सकता है महज इस कारणसे कि वह वह है । ऐसा घटित हुआ है और मनुष्योंने स्त्रियोंको भोग या उत्तरकी किसी आशाके बिना प्यार किया है, उम्र हो जाने और सौन्दर्यके चले जानेके बाद भी सतत और तीव्र रूपमें प्यार किया है । देशभक्त अपने देशको केवल तभी प्यार नहीं करते जब वह समृद्ध, शक्तिशाली और महान् होता है तथा उसके पास उन्हें देनेके लिये बहुत होता है । देशके प्रति प्रेम उस समय अत्यन्त  तीव्र आबेग्पूर्ण, अनन्य हुआ है जब देश गरीब, पतित, दु :खी था , देनेके लिए उसके पास कुछ

 

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न था, वरन् उसकी सेविका पुरस्कार था हानि उठाना, मार खाना, उत्पीड़न, कारावास, और मृत्यु । फिर भी यह जानते हुए कि वे उसे स्वतंत्र नहीं देखेंगे मनुष्य उसके लिये जिये हैं, मरे है और उसकी उन्होंने सेवा की है - केवल उसके लिये यह सब किया है, न कि जो कुछ वह दे सकता था उसके लिये । मनुष्योंने सत्यको केवल उसके तई प्रेम किया है और सत्यका जो कुछ भी अंश वे खोज सकते या पा सकते थे उसके लिये उन्होंने दरिद्रता, अत्याचार और मृत्युको स्वीकार किया । यहांतक कि वे सर्वदा उसकी खोज- से ही संतुष्ट रहे, उन्होंने उसे नहीं पाया, और फिर भी अपनी खोजकोकभी नहीं छोड़ा । इसका अर्थ क्या है? यही कि मनुष्य, देश, सत्य तथा इनके अतिरिक्त दूसरी चीजों- को भी उन्हींके लिये प्यार किया जा सकता है और अन्य किसी चीजके लिये नहीं, किसी परिस्थिति अथवा सहवर्ती गुण अथवा परिणामरूप भोगके लियेनहीं, बल्कि किसी निरपेक्ष वस्तुके लिये कर सकता है जो या तो उनके अन्दर या उनके रूप और परिस्थितिके पीछे विद्यमान होती है । भगवान् एक पुरुष या स्वी, एक भूभाग या एक मत, सम्मति, आविष्कार या सिद्धान्तसे कहीं अधिक हैं । वह सभी व्यक्तियोंके परेके व्यक्ति हैं, सभी आत्माओंके स्वधाम और स्वदेश हैं, वह सत्य हैं जिसके केवल अपूर्ण रूप सभी सत्य हैं । और तब क्या उन्हें केवल उन्हींके नहीं नहीं प्यार किया जा सकता और खोजा जा सकता, उसी तरह और उससे भी अधिक जिस तरह कि इन सब चीजोंको इनके घटिया रूपों और प्रकृतिमें भी मनुष्योंने प्यार किया और खोजा है?

 

      तुम्हारी तर्कणा जिस चीजकी अवहेलना करती है वह वह चीज है जो मनुष्य और उसकी खोजके अन्दर और साथ ही भगवान्के अन्दर निरपेक्ष है या वैसा होनेकी प्रवृत्ति रखती है -- कुछ ऐसी चीज है जिसकी व्याख्या मानसिक युक्ति-तर्क या प्राणिक प्रयोजनसे नहीं की जा सकती । एक प्रयोजन तो है, पर प्राणिक कामनाका नहीं, अन्त- रात्माका एक प्रयोजन है । एक मुक्ति है पर मनकी नहीं, बल्कि आत्माकी मुक्ति है । एक मांग भी है, पर वह मांग है जो अन्तरात्माकी सहज-स्वाभाविक अभीप्सा है, प्राण- की कोई लालसा नहीं । यही वह चीज है जो पूरा-पूरा आत्मदान करनेपर ऊपर आ जाती है, उस समय ऊपर आ जाती है जब ' 'मैं इस वस्तुके लिये तुम्हें चाहता हूँ, मैं उस वस्तुके लिये तुम्हें चाहता हूँ' ' बदलकर महज यह रह जाता है कि ' 'मैं तुम्हारे लिये तुम्हें चाहता हूँ । '' यही वह भगवान्में विद्यमान आश्चर्यजनक और अनिर्वचनीय निरपेक्ष वस्तु है जिसे ' ' सूचित करता है जब वह यह कहता है कि ' 'न तो ज्ञान, न यह, न वह, बल्कि कृष्ण । '' उसका आकर्षण निस्सन्देह एक निश्चित विधान है, हमारे अन्दरका आत्मा महत्तर आत्माकी अनिवार्य पुकारके कारण भगवान्की ओर खिंच जाता है, अन्तरात्मा अपनी पूजाके विषयकी ओर वर्णनातीत ढंगसे खिंच जाता है क्योंकि यह अन्यथा हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह यह है और वह ( भगवान् ) वह हैं । इसके विषयमें बस इतना ही कहा जा सकता है ।

 

     मैंने यह सब केवल यह समझानेके लिये लिखा है कि जब मैं भगवान्के लिये, अन्य किसी चीजके लिये नहीं, भगवान्को खोजनेकी बात कहता हूँ तब मेरा मतलब क्या होता है - जहांतक कि यह समझने योग्य है । समझने योग्य हो या न हो

 

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आध्यात्मिक अनुभवका यह एक अत्यन्त प्रधान तथ्य है । आत्मदानका संकल्प केवल इसी तथ्यकी एक अभिव्यक्ति है । परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मैं यह आपत्ति करता हूँ कि तुम आनन्दकी मांग मत करो । तुम उसकी मांग अवश्य करो जबतक कि उसकी मांग करना तुम्हारी सत्ताके किसी भागकी एक आवश्यकता है -- क्योंकि ये ही वे चीज़ें हैं जो भगवान्की ओर ले जाती हैं जबतक कि निरपेक्ष आंतर पुकार, जो कि सब समय विद्यमान रहती है, ठेलकर उपरितलपर नहीं आ जाती । परन्तु वास्तवमें यही वह चीज है जिसने आरम्भसे ही खींचा है और पीछेकी ओर विद्यमान है - यह सुनिश्चित आध्यात्मिक विधान है, भगवान्को पानेकी अन्तरात्माकी निरपेक्ष आवश्यकता है ।

 

       मैं नहीं कहता कि कोई आनन्द नहीं होना चाहिये । स्वयं आत्मदान ही एक बड़ा गंभीर आनन्द है और जो कुछ वह लाता है वह अपने पीछे एक अवर्णनीय आनन्द वहन करता है - और यह अन्य किसी पद्धतिकी अपेक्षा इस पद्धतिसे अधिक शीघ्र आता है और मनुष्य लगभग यq कह सकता है कि ' 'निःस्वार्थ आत्मदान ही सर्वोत्तम नीति है '' केवल मनुष्य इसे नीतिके रूपमें नहीं करता । आनन्द उसका परिणाम है, पर यह परिणामके लिये नहीं किया जाता, बल्कि स्वयं आत्मदानके लिये और स्वयं भग- वान्के लिये किया जाता है - एक सूक्ष्म भेद है, मनको ऐसा प्रतीत हो सकता है, पर बहुत सच्चा भेद है ।

 

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     यह कहना मेरा आशय नहीं था कि आनन्दके लिये अभीप्सा करना गलत है । मैंने बस यह सूचित करना चाहा था कि आनन्दको स्थायी रूपसे अधिकृत करनेकी  (इसकी सूचनाएं, सार्थ, निम्र प्रवाह पहले भी मनुष्य प्राप्त कर सकता है ) शर्त्त क्या है; इसके लिये प्रमुख शर्त्त है चेतनाका परिवर्तन, शान्ति, ज्योति आदिका आना, वह सब चीज़ें जो सामान्य प्रकृतिसे अध्यात्मभावापन्न प्रकृतिमें जाना संभव बनाती हैं । और ऐसी बात होनेके कारण यह अधिक अच्छा है कि चेतनाके इस परिवर्तनको साधना- का प्रथम उद्देश्य बनाया जाय । दूसरी ओर, जो चेतना आनन्दको धारण करनेमें अभी समर्थ नहीं है उसमें तुरत सतत आनन्दके लिये दबाव डालनेसे, उससे भी अधिक इसके स्थानपर निम्रतर (प्राणिक.) हर्षों और सुखोंको बैठानेसे इन आध्यात्मिक अनु- भवोंका प्रवाह बहुत अच्छी तरह बन्द हो सकता है जो वस्तुत: अविच्छिन्न आनन्दोल्लास- को संभव बनाते हैं । परन्तु निश्चय ही मेरा यह कहनेका आशय कभी नहीं था कि आनन्दको प्राप्त करना नहीं है या यह आग्रह करनेका नहीं था कि तुम निरानंद ब्रह्म- की ओर जाओ । इसके विपरीत, मैंने यह कहा था कि आनन्द योगका मुकुट है, जिसका अर्थ निस्सदिग्ध यह है कि यह उच्चतम सिद्धिका एक अंग हूँ ।

 

       जो कुछ मनुष्य सच्चाईके साथ और निरन्तर भगवान्से चाहता है उसे भगवान् अवश्य देते हैं । तब यदि ' आनन्द चाहो और लगातार. तो तम अन्तमें

 

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उसे अवश्य प्राप्त करोगे । बस, एकमात्र प्रश्न यह है कि तुम्हारी खोजकी प्रमुख शक्ति क्या होनी चाहिये, कोई प्राणिक मांग अथवा कोई चैत्य अभीप्सा जो हृदयके भीतरसे प्रकट हो और मानसिक, प्राणिक तथा भौतिक चेतनातक अपनेको संचारित कर दे । चैत्य अभीप्सा सबसे बड़ी शक्ति है और सबसे छोटा पथ बनाती है -- और इसके अलावा, हमें अधिक शीघ्र या देरसे उस पथपर आना ही होगा ।

 

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        भगवान्को प्राप्त करना निस्सन्देह आध्यात्मिक सत्य और आध्यात्मिक जीवन- की खोज करनेका प्रथम कारण है; यही एकमात्र अपरिहार्य चीज है और बाकी सब इसके बिना कुछ नहीं है । भगवान् जब एक बार प्राप्त हो जाते हैं तो फिर उन्हें अभि- व्यक्त करना है,--अर्थात्, सबसे पहले अपनी निजी सीमित चेतनाको भागवत चेतना- में रूपांतरित करना है, अन्त शान्ति, ज्योति, प्रेम शक्ति, आनन्द में निवास करना है, अपने मूल स्वभावमें वही बन जाना है और, उसके परिणामस्वरूप, अपनी सक्रिय प्रकृतिमें उसीका पात्र, प्रणालिका, यंत्र बन जाना है । एकत्वके तत्त्वको जड़-भौतिक स्तर पर क्रियामें ले आना या मानवताके लिये कार्य करना सत्यका एक मानसिक अशुद्ध रूपा- तर है - ये चीज़ें आध्यात्मिक प्रयासका पहला सच्चा लक्ष्य नहीं हो सकती । हमें आत्मा- को, भगवान्को प्राप्त करना चाहिये, फिर उसके बाद ही हम यह जान सकते हैं कि कौनसा काम आत्मा या भगवान् हमसे चाहते हैं । तबतक हमारा जीवन और कर्म भगवान्को पानेमें केवल एक सहाथ्य या साधन हो सकते हैं और इनका कोई दूसरा उद्देश्य नहीं होना चाहिये । हम जैसे-जैसे आंतरिक चेतनामें वर्द्धित होते हैं, अथवा जैसे- जैसे भगवानका आध्यात्मिक सत्य हमारे अंदर वर्द्धित होता है, हमारा जीवन और कर्म भी निस्सन्देह अधिकाधिक उसीसे प्रवाहित होने चाहियें, उसके साथ एक हो जाने चाहियें । परन्तु पहत्नेसे ही अपनी सीमित मानसिक धारणाओंके द्वारा यह निश्चय कर लेना कि उन्हें कैसा होना चाहिये, भीतर आध्यात्मिक सत्यके विकासकों बाधा पहुँचाना है । जैसे-जैसे वह वर्द्धित होगा हम भागवत ज्योति और सत्यको, भागवत शक्ति और बलको भागवत पवित्रता और शान्तिको अपने कार्य करते हुए, हमारे कर्मों और साथ ही हमारी चेतनाके साथ व्यवहार करते हुए, हमें भगवान्की मूर्त्ति- में पुनर्गठित करनेके लिये उनका व्यवहार करते हुए, कूडे-करकटको हटाते हुए, उसके स्थानमें आत्माके विशुद्ध सोनेको स्थापित करते हुए अनुभव करेंगे । जब हमारे अन्दर सदा-सर्वदा भागवत उपस्थिति बनी रहती है और चेतना रूपांतरित होती है, केवल तभी हमें यह कहनेका आrधेकार होता है कि हम भौतिक स्तरपर भगवान्को अभि- व्यक्त करनेके लिये तैयार हैं । किसी मानसिक आदर्श या सिद्धांतको पकड़े रहने और उसे आंतरिक क्रियापर आरोपित करनेपर किसी मानसिक अनुभवसे अपने-आपको सीमित कर देनेका या भगवान्के साथ पूर्ण संपर्क और एकत्वके अन्दर अपनी सच्ची वृद्धि तथा अपने जीवनमें होनेवाले भगवान्की इच्छाके उन्मुक्त तथा प्रगाढ़ प्रवाहको

 

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अधूरा रूप प्रदान करके उन्हें अवरुद्ध करने या यहांतक कि मिथ्या बना देनेका खतरा उत्पन्न हो जाता है । यह वस्तुओंको ठीक-ठीक समझनेमें होनेवाली एक ऐसी भूल है जिसकी ओर आजका मन विशेष रूपसे झुका हुआ है । एकमात्र आवश्यक वस्तुसे हमें दूर हटानेवाली इन गौण वस्तुओंको सामने रखनेकी अपेक्षा दिव्य शान्ति या ज्योति या आनन्दके लिये, जिन्हें भगवान्की उपलब्धि प्रदान करती है, भगवान्की ओर जाना बहुत अधिक अच्छा है । भौतिक जीवन तथा साथ ही आंतरिक जीवनका भी दिव्य- करण उस वस्तुका अंग है जिसे हम भागवत योजनाके रूपमें देख रहे हैं, पर यह केवल आंतरिक उपलब्धिका बहू बहि:प्रवाह होनेपर ही ससिद्ध हो सकती है जो एक ऐसी चीज है जो भीतरसे बाहरकी ओर वर्द्धित होती है, किसी मानसिक सिद्धांतको क्रियान्वित करनेसे नहीं संसिद्ध हो सकती ।

 

       तुमने पूछा है कि मानसिक खोजको जीवंत आध्यात्मिक अनुभवमें परिणत करनेके लिये कोनसी साधनका अन्रुसरण करना चाहिये । सबसे पहली आवश्यकता है अपने अन्दर अपनी चेतनाको एकाग्र करनेका अभ्यास करना । साधारण मानव- मन ऊपरी सतहपर क्रिया करता है जो यथार्थ आत्माको छिपा देती है । परन्तु हमारे भीतर एक दूसरी, एक प्रच्छन्न चेतना है जो उपरितलीय चेतनाके पीछे है और जिसमें हम यथार्थ आत्मा तथा प्रकृातेके एक वृहत्तर और गभीरतर सत्यके विषयमे सचेतन हो सकते हैं, आत्माका साक्षात्कार कर सकते और प्रकृतिको मुक्त तथा रूपांतरित कर सकते हैं । ऊपरी मनको स्थिर- अचंचल बनाना और अपने भीतर निवास करना आरम्भ करना इस एकाग्रताका लक्ष्य है । उपरितलीय चेतनासे भिन्न इस सत्य- चेतनाके दो मुख्य केंद्र हैं, एक तो हृदयमें (स्थूल हृदयमें नहीं, बल्कि वक्षस्थलके मध्यमें अवस्थित हत्केंद्रमें ) है और दूसरा मस्तकमें है । हृदयमें एकाग्र होनेपर भीतरकी ओर उद्घाटन होता है और इस अन्तर्मुखी उद्घाटनका अनुसरण करने और गहराई- में जानेपर मनुष्य अन्तरात्मा या चैत्य पुरुषके, ब्यक्तिमें विद्यमान दिव्य तत्त्वके विषयमें सज्ञान होता है । जब यह पुरुष अनावृत हो जाता है, तो वह आगेकी ओर आना, प्रकृति- पर शासन करना, उसे और उसकी सभी क्रियाओं और गतिविधियोंको परम सत्यकी ओर, भगवान्की ओर मोड़ना, और जो कुछ ऊपर है उस सबको उसके अंदर उतार लाना आरम्भ करता है । वह भागवत उपस्थितिका ज्ञान प्रदान करता है, उच्चतम देवताके प्रति सत्ताका आत्मोत्सर्ग सिद्ध करता है, और हमारी प्रकृतिके अन्दर एक महत्तर शक्ति और चेतनाका अवतरण कराता है जो हमारे ऊपर प्रतीक्षा कर रही हैं । भगवान्के प्रति अपने-आपको उत्सर्ग करनेकी भावना तथा इस अंतर्मुखी उद्घाटन और हृदयमें भागवत उपस्थितिकी अभीप्साके साथ हृत्केंद्रमें एकाgg होना पहला पथ है और, यदि यह करना सम्भव हो तो, स्वाभाविक प्रारम्भ है; क्योंकि इसका परिणाम जब एक बार प्राप्त हो जाता है तो दूसरे पथसे आरम्भ करनेकी अपेक्षा वह आध्यात्मिक पथको बहुत अधिक आसान और सुरक्षित बना देता है ।

 

       वह दूसरा पथ है मस्तकमें, मनोमय केंद्रमें एकाग्र होना । यह यदि उपरितलीय मनमें निश्चल-नीरवता ले आता है तो यह हमारे भीतर एक आंतर, विशालतर, गभीर-

 

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तर मनको खोल देता है जो आध्यात्मिक अनुभव और आध्यात्मिक ज्ञान ग्रहण करने- में अधिक सक्षम होता है । परन्तु एक बार यहां एकता हो जानेपर मनुष्यको अपने निश्चल-नीरव मानसिक चेतनाको ऊपर उन सबकी ओर खोलना चाहिये जो मनसे ऊपर है । कुछ समय बाद मनुष्य यह अनुभव करता है कि चेतना ऊपर उठ रही है और अन्तमें वह उस आवरणके परे चली जाती है जिसने अबतक उसे शरीरमें आबद्ध कर रखा है और सिरसे ऊपर एक ऐसा केंद्र प्राप्त कर लेती है जहां वह अनन्तके अन्दर मुक्त हो जाती है । वहां वह विश्वात्मा, भागवत शान्ति, ज्योति, शक्ति, ज्ञान, आनन्द- के संपर्क में आना, उन्हीं में प्रवेश करना और वे ही बन जाना, प्रकृतिके अन्दर इन चीजों- का अवतरण अनुभव करना आरम्भ कर देती है । मनमें स्थिरता प्राप्त करने और ऊपर आत्मा तथा भगवान्को उपलब्ध करनेकी अभीप्सा रखते हुए मस्तकमें एकाग्र होना एकाग्रताका दूसरा तरीका है । परन्तु यह स्मरण रखना आवश्यक है कि मस्तक- में चेतनाको एकाग्र करना केवल इस बातकी तैयारी है कि चेतना ऊपरके केंद्रमें आरोहण कर जाय; अन्यथा, मनुष्य अपने निजी मनमें और उसकी अनुभूतियोंमें ही आबद्ध हो सकता है अथवा अधिक-से-अधिक आध्यात्मिक परात्परतामें निवास करनेके लिये उसके अन्दर ऊपर उठनेके बदले ऊपरके परम सत्यका केवल एक प्रतिबिंब ही उपलब्ध कर सकता है । कुछ लोगोंके लिये मनमें एकाग्र होना अधिक आसान होता है, कुछ लोगोंके लिये हृदय-केंद्रमें एकाग्र होना आसान होता है; कुछ लोग दोनों स्थानोंमें बारी-बारीसे एकाग्र होनेमें समर्थ होते हैं -- पर, यदि कोई इसे कर सके तो, हृदय- केंद्रसे प्रारम्भ करना अधिक वांछनीय है ।

 

        साधनाका दूसरा पक्ष प्रकृतिकी, मनकी, प्राणात्मा या प्राणशक्तिकी, भौतिक सत्ताकी क्रियाओंसे सम्बन्ध रखता है । यहांपर सिद्धांत यह है कि प्रकृतिको इस प्रकार आंतरिक उपलब्धिके साथ समस्वर कर देना चाहिये कि साधक दो प्रतिकूल भागोंमें विभक्त न हो जाय । यहां कई साधनाएं या प्रक्रियाएं सम्भव हैं । एक है सभी क्रियाओं- को भगवान्के प्रति समर्पित कर देना और आंतरिक पथप्रदर्शन तथा साधककी प्रकृति- को अपने हाथोंमें ले लेनेके लिये एक उच्चतर दिव्य शक्तिका आवाहन करना । यदि अन्दरकी ओर अन्तरात्माका उद्घाटन हो जाय, यदि चैत्य पुरुष सामने आ जाय तो फिर कोई बडी कठिनाई नही रह जाती -- उस समय उस उद्घाटनके साथ-साथ आता है चैत्य विवेक, लगातार सूचनाओंका आना, अन्तमें एक प्रकारका प्रशासन जो सभी अपूर्णताओंको प्रकट करता और धीरे-धीरे तथा धैर्यपूर्वक दूर: करता है, समु- चित मानसिक तथा प्राणिक क्रियाओंको ले आता और भौतिक चेतनाका भी पुन- निर्माण करता है । दूसरी पद्धति है मन, प्राण और भौतिक सत्ताकी क्रियाओंसे अना- सक्त होकर पीछे हट आना, उनकी क्रियाओंको व्यक्तिके अन्दर सामान्य प्रकृतिकी केवल अभ्यासगत रचना समझना जो विगत क्रियाओंद्वारा हमपर थोप दी गयी है, उन्हें अपनी सच्ची सत्ताका कोई अंग 'न समझना; जितने अंशमें मनुष्य ऐसा करनेमें सफल होता है उतने अंशमें वह अनासक्त होता जाता है, मन और उसकी क्रियाओंको अपना निजी स्वरूप नहीं समझता, प्राण और उसकी क्रियाओंको अपना निजी स्वरूप

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नहीं मानता, शरीर और उसकी क्रियाओंको अपना निजी स्वरूप नहीं स्वीकार करता, वह अपने भीतर स्थित एक आंतर पुरुष - आंतर मत, आंतर प्राण, आंतर शरीर -- निश्चल-नीरव, शांत, मुक्त, अनासक्त पुरुषके बिषयमें सचेतन हो जाता है जो ऊपरके यथार्थ आत्माको प्रतिबिम्बित करता और उसका प्रत्यक्ष प्रतिनिधि बन सकता हूँ; इसी आंतरिक नीरव पुरुषसें निःसृत होता है उन सब चीजोंका परित्याग जो त्याग करने योग्य होती हैं, केवल उन्हीं चीजोंका ग्रहण जो रखने योग्य और रूपांतरित होने योग्य हो सकती हैं, पूर्णत्वकी प्राप्तिका एक आंतरिक संकल्प अथवा प्रकृतिके परिवर्तन- के लिये पग-पगपर जो कुछ करना आवश्यक है उसे करनेके लिये भागवत शक्तिका आवाहन । यह मन, प्राण और शरीरको भी अंतरतम चैत्य सत्ताकी ओर और उसके पथप्रदर्शक प्रभाव अथवा उसके प्रत्यक्ष पथप्रदर्शनकी ओर उद्घाटित कर सकता है । अधिकांश प्रसंगोंमें ये दोनों पद्धतियां एक साथ प्रकट होतीं और कार्य करती है तथा अन्नमें घुलमिलकर एक ही पद्धति बन जाती हैं । परन्तु दोनोमेसे किसी एकसे, जो अत्यन्त स्वाभाविक ओर करनेमें आसान महसूस हो, आरम्भ किया जा सकता है ।

 

       अन्तमें, सभी कठिनाइयोंमें, जहां व्यक्तिगत प्रयास अवरुद्ध हो जाता है, गुरुकी सहायता हस्तक्षेप कर सकती और सिद्धिके लिये जो कुछ भी आवश्यक हो अथवा जो कुछ तत्कालिक स्थितिमें आवश्यक हो, उसे सपन्न कर सकती है ।  -

 

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      यह योग, अन्य किसी भी वस्तुको नहीं, एकमात्र भागवत सत्यकी खोज करने और उसे मूर्त्तिमान करनेकी अभीप्सामें ही जीवनको संपूर्ण रूपसे उत्सर्ग कर देनेकी मांग करता है । जिस बाहरी उद्देश्य और कर्मके साथ परम सत्यकी खोजका कोई संपर्क नहीं उसके तथा भगवान्के बीच अपने जीवनको विभक्त कर देना इस योगमें स्वीकार्य नहीं है । इस तरहकी कोई मामूलीसे मामूली चीज भी योगमें सफलताका आना असंभव बना देती है ।

 

       तुम्हें अपने अन्दर पैठ जाना होगा और आध्यात्मिक जीवनके प्रति पूर्ण आत्मोत्सर्ग कर देना होगा । यदि तुम योगमें सफल होना चाहते हो तो तुम्हें अपनी सभी मानसिक अभिरुचियोंसे चिपकना छोड़ देना होगा, प्राणिक लक्ष्यों और हितों और आसक्तियोके प्रति संपूर्ण आग्रहको दूर भगाना होगा एवं परिवार, मित्रगण और देशके प्रति अहंकारयुक्त लगावको तोडू देना होगा । जिस किसी चीजको बहिर्गामी शक्ति या कर्मके रूपमें आगे आना हो उसे पहले उपलब्ध सत्यसे आना चाहिये न कि निम्रतर मन या प्राणिक आशयोंसे, भागवत संकल्पसे आना चाहिये न कि व्यक्तिगत इच्छा या अहंकी अभिरुचियोंसे ।

 

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        यह आध्यात्मिक प्रयासका एक सर्वस्वीकृत सिद्धांत है कि साधकको बिना कुछ बचाये सब कुछ होम देनेके लिये तैयार रहना चाहिये जिसमे कि वह एक अध्यात्म-भावापन्न चेतनाके द्वारा भगवान्तक पहुँच जाय । यदि उसका लक्ष्य मानसिक, प्राणिक और भौतिक स्तरपर ही आत्मबिकास करना हो तो बात दूसरी है -- वह जीवन तो अहंकार जीवन है जिसमें अन्तरात्मा अविकसित या अर्द्ध-विकसित अवस्थामें पीछे रख दिया जाता हे । परन्तु आध्यात्मिक साधक जिस एकमात्र विकासकी चेष्टा करता है वह है चैत्य और आध्यात्मिक चेतनाका विकास और वह भी केवल इसलिये कि वह भगवान्को प्राप्त करने और उनकी सेवा करनेके लिये आवश्यक है, स्वयं उस विकासकी खातिर नहीं । जिस मानसिक, प्राणिक और भौतिक विकासको अथवा अंतर्निहित शक्तियोंके उपयोगको आध्यात्मिक जीवनका एक अंग और भगवान्के लिये एक यंत्र बनाया जा सकता है, केवल उन्हींके इस शर्त्तपर रखा जा सकता है कि वे रूपांतरके लिये आत्मसमर्पण करें ओर आध्यात्मिक आधारपर उनका पुनर्गठन किया जाय । परन्तु उन्हें स्वयं अपने लिये अथवा अहंके खातिर अथवा अपनी निजी अधिकृत वस्तु या अपने निजी उद्देश्यके लिये व्यवहृत वस्तु समझकर नहीं, बल्कि केवल भगवानके लिये रखना चाहिये ।

 

      जेम्स  के वक्तव्यका जहांतक प्रश्न है, वह निस्सन्देह सत्य है, सिवा उतने अंशमें जितनेमें कि राजनीतिज्ञ अपनी छुट्टीके समयोंको शौकके रूपमें अन्य चीजोंमें लगा सकता है, पर वह यदि एक राजनीतिज्ञके रूपमें सफल होना चाहे तो उसे अपनी श्रेष्ठतम शक्तियोंको राजनीतिमें ही लगाना चाहिये । विपरीत क्रममें, यदि शेक्सपियर और न्यूटनने अपनी शक्तियोंका कुछ अंश राजनीतिमें खर्च किया होता तो वे काव्य और विज्ञानमें वैसी ऊंचाईतक जानेमें समर्थ नहीं हुए होते अथवा यदि वे हुए भी होते तो बहुत कम ही कुछ कर पाये होते । प्रमुख शक्तियोंको एक ही 'वस्तुपर एकाग्र करना होता हे; दूसरी चीज़ें अवकाशके समयकी केवल गौण कार्य ही हो सकती हैं अथवा वे कार्यकी अपेक्षा मन बहलावा या दिलचस्पीकी चीज़ें हो सकती है जो सामान्य मनोविकासको बनाये रखनेके लिये उपयोगी हों ।

 

      सब कुछ इस बातपर निर्भर करता है कि जीवनका लक्ष्य क्या है । जिस व्यक्ति- का लक्ष्य उच्चतम आध्यात्मिक सत्य और दिव्य जीवनकी खोज करना और प्राप्त करना है उसके लिये, मैं नहीं समझता कि, किसी विश्व-विद्यालयके ओहदेका कोई विशेष महत्व हो सकता है, और न मैं यह देखता हूँ कि इन दोनों चीजोंमें कोई व्याव- हारिक संबंध ही हो सकता है । यदि लक्ष्य एक लेखक और मात्र बौद्धिक स्तरपर चिंतन करनेवालेका जीवन हो जिसमें कोई उच्चतर उडान या गभीरतर अन्वेषण न हो तो फिर बात दूसरी हो सकती है । मैं नहीं समझता कि इस प्रकारके कार्यमें अपनेको लगानेसे जो तुमने इनकार कर दिया है उसका कारण कोई दुर्बलता है 1 बल्कि यों कहा जा सकता है कि तुम्हारी प्रकृतिका कोई तुच्छ भाग, और सो भी कोई गभीरतम या प्रबलतम भाग नहीं, उससे अथवा उस वातावरणसे संतुष्ट होता जिसमें कि वह काम किया गया होता ।

 

१८


      ऐसे विषयोंमें चिंतनशील मन नहीं बल्कि प्राण-पुरुष ही -- प्राणशक्ति और कामनामय प्रकृति या कम-से-कम उसका कोई भाग ही -- साधारणतया मनुष्योंके कार्य और चुनावको निश्चित करता हे, जब कि कोई ऐसी बाहरी आवश्यकता या दबाव नहीं होता जो कि बाध्य करता या मुख्यत: निर्णयको प्रभावित करता है । मन केवल उसकी व्याख्या करनेवाला, समर्थन करनेवाला और योजना बनानेवाला कार्य- कर्त्ता होता है । तुम्हारे साधना ग्रहण कर लेनेके कारण तुम्हारी प्राण-सत्ताके इस भागपर ऊपरसे और भीतरसे दबाव पडा है जिसने प्राचीन कामनाओं और प्रवृत्तियों- के प्रति उसके झुकावको, उसकी पुरानी लीकोको, उन सब चीजोंको निरुत्साहित कर दिया है जिन्होंने पहले उसकी दिशाका निश्चय किया होता; यह प्राण, जैसा कि बहुधा उसका एक आरम्भिक परिणाम होता है, नीरव और उदासीन हो गया है । यह अब प्रबल रूपसे साधारण जीवनकी ओर धावित नहीं होता; अभीतक इसने चैत्य केंद्र और उच्चतर मानसिक संकल्पसे या उनके द्वारा कोई पर्याप्त प्रकाश और प्रेरणा नहीं ग्रहण किया है जिससे कि वह कोई नया प्राणिक गतिविधि ग्रहण करे और एक नवीन जीवनके पथपर तेजीसे दौड़ पड़े । यही उस उदासीन-भावका कारण है जिसकी तुम चर्चा करते हो तथा उसीसे भविष्य धुँधला दीखता है ।

 

*

 

         यदि तुम्हारा अन्तरात्मा सर्वदा रूपांतरके  लिये अभीप्सा करता है तो बस उसीका अनुसरण तुम्हें करना होगा । भगवान्को खोजना या यों कहें कि भगवानके किसी रूपकों चाहना -- क्योंकि यदि किसीमें रूपांतर साधित न हो तो वह संपूर्ण रूपसे भगवान्को उपलब्ध नहीं कर सकता -- कुछ लोंगोंके लिये पर्याप्त हो सकता है, पर उन लोंगोंके लिये नहीं हो सकता जिनके अन्तरात्माकी अभीप्सा पूर्ण दिव्य परि वर्तन साधित करनेकी हे ।

 

       कृष्ण और शिव और शक्तिके बीच '' के अन्तःकरण की हिचकिचाहट पर मैं अपनी हंसी रोक नहीं सकता । यदि कोई भगवानके एक रूप या दो रूपोंसे आकर्षित हो तो यह बिलकुल ठीक है, परन्तु वह यदि एक साथ ही अनेक रूपोंकी ओर आकर्षित हो तो उसे इसके लिये संतप्त होनेकी आवश्यकता नहीं । जिस मनुष्यका कृउछ विकास हो चुका है उसकी प्रकृतिमें आवश्यक रूपसे कई पक्ष होते हैं और यह बिलकुल स्वा- भाविक है कि भगवानके विभिन्न रूप उसमें विद्यमान विभिन्न व्यक्तित्वोंको आकर्षित या शासित करें: वह उन सबको स्वीकार कर सकता और उन्हें एकमेव भगवान् तथा एकमेव आद्याशक्तिके अन्दर समन्वित कर सकता है जिनकी ये सभी अभिव्यक्तियां

 

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विभाग दो

 

समन्वयात्मक पद्धति और पूर्णयोग

 


समन्वयात्मक पद्धति और पूर्ण. योग

 

अब '' के प्रश्नके विषयमें-यह केवल भक्तिका योग नहीं है; यह एक पूर्ण योग है अथवा कम-से-कम वैसा होनेका दावा करता है, जिसका अर्थ है, समस्त सत्ताको उसके सभी भागोंके साथ भगवान्की ओर मोड देना । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इसमें ज्ञान और कर्म तथा साथ ही भक्ति भी होनी चाहिये, और इसके अलावा, इसमें प्रकृतिके पूर्ण परिवर्तनको, पूर्णताकी खोजको भी सम्मिलित करना चाहिये जिसमें कि प्रकृति भगवान्की प्रकृतिके साथ एक हो सके । केवल हृदय ही वह वस्तु नहीं है जिसे भगवान्की ओर मुड़ना और बदलना है, बल्कि मनको भी-अतएव ज्ञान आवश्यक है, और संकल्प-शक्ति तथा कर्म एवं सृष्टिकी क्षमताको भी-अतएव कर्म भी आवश्यक है । इस योगमें अन्य योगोंकी पद्धतियां ली गयी हैं -- जैसे इस प्रकृति- पुरुषकी पद्धति- को, परन्तु अन्तिम लक्ष्यमें एक प्रकारका अन्तर रखते हुए । पुरुष प्रकृतिसे पृथक् होता है, पर उसका परित्याग करनेके लिये नहीं, बल्कि स्वयं अपनेको और प्रकृतिको जाननेके लिये तथा अब और उसकी कठपुतली बने रहनेके लिये नहीं बल्कि प्रकृतिका ज्ञाता, प्रभु और धारक बननेके लिये; परन्तु वैसा बन जानेपर या वैसा बनते समय भी मनुष्य वह सब भगवान्को अर्पित कर देता है । कोई ज्ञानसे या कर्मसे या भक्तिसे अथवा परिपूर्णताके हेतु आत्मशुद्धि (प्रकृतिके परिवर्तन ) की तपस्यासे आरम्भ कर सकता है और बाकीको परवर्त्ती क्रियाके रूपमें विकसित कर सकता है अथवा कोई सबको एक ही क्रियाके अन्दर युक्त कर सकता हूँ । सबके लिये कोई एक नियम नहीं है, यह व्यक्तित्व और प्रकृतिपर निर्भर करता है । आत्मसमर्पण योगकी प्रमुख शक्ति है, परन्तु समर्पणका क्रमवर्द्धमान होना अनिवार्य है; आरम्भमें ही पूर्ण समर्पण करना सम्भव नहीं है, बल्कि सत्तामें उस पूर्णत्वके लिये महज एक संकल्प हो सकता है,-- वास्तवमें पूर्ण समर्पण करनेमें समय लगता है; फिर भी सच पूछा जाय तो जब समर्पण पूर्ण हो जाता है केवल तभी साधनाकी पूर्ण बाढका आना सम्भव होता है । ऐसा समय आनेतक व्यक्तिगत प्रयास अवश्य जारी रहना चाहिये और समर्पणके यथार्थ रूपकों निरन्तर बढ़ते रहना चाहिये । साधक भागवत शक्तिकी क्रियाशक्तिका आवाहन करता है और एक बार जब वह शक्ति सत्तामें आना आरम्भ कर देती है तो सबसे पहले वह व्यक्तिगत प्रयासको सहायता करती है, फिर धीरे-धीरे समस्त क्रियाको अपने हाथमें ले लेती है, यद्यपि साधककी अनुमति सर्वदा आवश्यक बनी रहती है । जैसे- जैसे शक्ति कार्य करती है, वह साधकके लिये आवश्यक विभिन्न पद्धतियोंको, ज्ञानकी, कर्मकी, अध्यात्मभावापन्न कर्मकी, प्रकृतिके रूपांतरकी प्रक्रियाओंको ले आती है । यह भावना कि उन्हें एक साथ युक्त नहीं किया जा सकता, एक भूल है ।

 

*

 

२३


          साधनाका उद्देश्य है चेतनाको भगवान्की ओर उद्घाटित करना और  प्रकृति को रूपांतरित करना । इसे करनेका एक उपाय है मनन या ध्यान, पर यह केवल एक उपाय है; भक्ति दूसरा उपाय है; कर्म एक और उपाय है ! योगीगण सिद्धिके प्रथम उपायके रूपमें चित्तशुद्धिकी शिक्षा दिया करते थे और उसके द्वारा उन्हें सन्तका सन्त- भाव और ज्ञानीका शान्त-भाव प्राप्त होता था, पर जिस चीजको हम प्रकृतिका रूपांतर कहते हैं वह उससे कहीं बड़ी चीज है, और यह रूपांतर केवल मनन-ध्यानसे नहीं साधित होता, इसके लिये कर्म आवश्यक है, कर्मयोग अनिवार्य है ।

 

*

 

         ध्यान, समर्पित कर्म या भगवद्भक्तिके द्वारा साधारण मनसे बाहर निकलकर आध्यात्मिक चेतनामें प्रवेश किया जा सकता है । हमारे योगका लक्ष्य केवल निष्क्रिय शान्ति या मनकी लवलीनता प्राप्त करना ही नहीं है बल्कि शक्तिशाली आध्यात्मिक कर्म करना है, और इसलिये इसके लिये कर्म अनिवार्य है, अतिमानसिक सत्यका जहांतक प्रश्न है, वह तो एक दूसरी ही बात है; वह तो केवल भगवान्के अवतरण और परा- शक्तिकी क्यिापर निर्भर करता है तथा वह किसी पद्धति या नियमसे बंधा हुआ नहीं   है !

 

          मैंने कभी प्राचीन योगोंके सत्यको अस्वीकार नहीं किया है - मुझे स्वयं वैष्णव भक्ति और ब्रह्ममें निर्वाणकी अनुभूति प्राप्त हुई थी; मैं उनके अपने क्षेत्रमें और उनके अपने उद्देश्यके लिये उनके सत्यको-जहांतक उनका अनुभव जाता है वहां तक उनके सत्यको - स्वीकार करता हूँ -- यद्यपि मैं किसी भी रूपमें अनुभवपर आधारित मानसिक दर्शनशास्त्रोके सत्यको स्वीकार करनेके लिये बाध्य नहीं हूँ । मैं उसी तरह यह देखता हूँ कि मेरा योग अपने निजी क्षेत्रमें - मेरी समझमें एक विशालतर क्षेत्रमें - और अपने निजी उद्देश्यके लिये सत्य है । पुराने योगोंके उद्देश्य है जीवनसे अलग होकर भगवान्की ओर जाना - सो, स्पष्टत:, आओ, कर्मका त्याय कर दे । इस नये योगका उद्देश्य है भगवान्तक जाना और जो कुछ जीवनमें प्राप्त हुआ है उसके पूर्णत्वकी ले आना - उसके लिये, कर्मयोग अनिवार्य है । मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें कोई रहस्यकी बात नहीं है या कोई वस्तु किसीको चकरा देने- वाली नहीं है - यह युक्तिसंगत औr अवश्यम्भावी है । केवल तुम कहते हो कि यह चीज असंभव है; परन्तु यही बात है जो प्रत्येक चीजके विषयमें उसके पूरी हो जाने- के पहले कही जाती है ।

 

        मैं यहां ध्यान दिला दूँ कि कर्मयोग कोई नया नहीं बल्कि एक बहुत पुराना योग है; गीता कल नहीं लिखी गयी थी और कर्मयोग गीतासे पहले था । तुम्हारा जो यह

 

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विचार है कि गीतामें कर्मोका समर्थन केवल इस तरह किया गया है कि कर्म एक अ- परिहार्य जंजाल है, अतएव यह कहीं अधिक अच्छा है कि इसका उत्तमसे उत्तम उपयोग किया जाय, यह वास्तवमें जल्दबाजीमें किया गया तथा अपक्व विचार है । यदि यही सब कुछ होता तो गीता एक  रचना होती और उसके ऊपर दो जिल्दोंमें मेरा लिखना अथवा संसारका उसे एक महानतम शास्त्रके रूपमें, विशेषकर आध्यात्मिक प्रयत्नके भीतर कर्मोंके स्थानकी समस्या सम्बन्धी उसकी व्याख्याके लिये, मान देना मुश्किलन उचित सिद्ध होता । निस्सन्देह, उसमें इससे बहुत अधिक है । जो हो, तुम्हारा यह सन्देह कि क्या कर्म सिद्धितक ले जा सकते हैं अथवा यों कहें कि इस सम्भावनाकी तुम्हारी सुस्पष्ट और पूर्ण अस्वीकृति उन लोगोंके अनुभवका खंडन करती है जिन्होंने इस कल्पित अमम्भाव्यताको उपलब्ध कर लिया है । तुम कहते हो कि कर्म चेतनाको नीचे गिरा देता है, तुम्हें अन्दरसे बाहरकी ओर खींच लाता है  - हां, यदि तुम भीतरसे कर्म करनेके बदले उसमें अपनेको बहिर्मुखी बनानेकी अनुमति देते हो; परन्तु वही चीज है जिसे मनुष्यको नहीं करना सीखना है । चिंतन और अनुभव भी मनुष्यको उसी रूपमे बहिर्मुखी बना सकते हैं; परन्तु आंतर चेतनामें रहते हुए उसके साथ चिंतन, अनुभव और कर्मको दृढ़तापूर्वक जोड़ना और बाकी बस्तुओंको एक साधन बनाना ही एक समस्या है । कठिन? भक्ति भी तो आसान नहीं है और अधिकांश लोगोंके लिये निर्वाण उससे भी अधिक कठिन है ।

 

         मैं नहीं समझता कि तुम मानबहितवाद, क्यिाशीलतावाद, लोकोपकारी सेवा आदि चीजोंको क्यों इसमें घसीट रहे हो । इनमेंसे कोई भी चीज मेरे योगका अंग नहीं है अथवा कर्मकी मेरी परिभाषाके साथ सुसमंजस नहीं है, अतएब ये मुझे प्रभावित नहीं करतीं । मंनई कभी यह नहीं सोचा कि राजनीति या गरीबोंको खिलाना या अन्दर- सुन्दर कविताएं लिखना सीधे वैकुंठ या ब्रह्मके पास ले जायगा । यदि बात ऐसी होती तो एक ओर रमेशदत्त और दूसरी ओर बोदलेयर  सबसे पहले उच्च- तमको प्राप्त करेंगे और वहां हमारा स्वागत करेंगे । सच पूछो तो स्वयं कर्मका स्वरूप अथवा महज कर्मण्यता नहीं बल्कि उसके पीछे विद्यमान चेतना और ईश्वरमुखी संकल्प बे चीज़ें है जो कर्मयोगका सारतत्त्व हैं, कर्म तो प्रभुके साथ एकत्व प्रश्न करनेका केवल आवश्यक साधन है, अज्ञानकी इच्छा और शक्तिसे निकलकर प्रकाशके विशुद्ध संकल्प और शक्तिमें जानेका पथ है ।

 

        अन्तमें, ऐसा क्यों मानते हो कि मैं ध्यान अथवा भक्तिके विरुद्ध है? यदि तुम भगवान्की ओर जानेके साधनाके रूपमें किसी एकको या दोनोंको ग्रहण करो तो उसमें मुझे तनिक भी आपत्ति नहीं है । केवल मैनई कोई कारण नहीं देखा कि कोई कर्मोंपर आक्यण करे और उन लोगोंके सत्यको अस्वीकार करे जिन्होंने, जैसा कि गीता कहती है, कर्मोके द्वारा पूर्ण सिद्धि और भगवान्के साथ अपनी प्रकृतिका एकत्व, 'संसिद्धिम् स्वाधर्म्यम्' प्राप्त किया है (जैसे जनक और दूसरोंने किया है ) - महज इस कारण कि उसने स्वयं उनके गभीर रहस्यको नहीं जान सका है अथवा अभी नहीं जान सका है कारण मैंने कर्मोका समर्थन क्रिया है !

 

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         कर्मसे मेरा अभिप्राय वह कर्म नहीं है जो अहंता और अज्ञानतामें, अंहताकी तुष्टिके लिये और राजसी कामनाके आवेशमें किया जाता है । अहंकार, रज और काम अज्ञानकी मुहरछाप हैं, इनसे विमुक्त होनेकी इच्छाके बिना कर्मयोग हो ही नहीं सकता ।

 

         कर्मयोगसे मेरा अभिप्राय परोपकार या मनुष्यजातिकी सेवा अथवा उन सब नैतिक या मनःकल्पित बातोसे नहीं है जो मनुष्यका मन कर्मके गभीरतर तत्त्वके स्थान- में लाकर बैठाया करता है ।

 

         कर्मसे मेरा अभिप्राय वह कर्म है जो भगवान्के लिये किया जाय, भगवान्से अधिकाधिक युक्त होकर किया जाय -- एकमात्र भगवान्के लिये किया जाय, और किसी चीजके लिये नहीं । अवश्य ही आरम्भमें यह सहज नहीं है जैसे गभीर ध्यान और ज्योतिर्मय ज्ञान या सच्चा प्रेम और भक्ति भी आरम्भमें सहज नही हैं । परन्तु ध्यान, ज्ञान, प्रेम, भक्तिकी तरह कर्म भी यथावत् सद्भाव और सद्वृत्ति तथा यथार्थ संकल्पके साथ आरम्भ होना चाहिये, तब बाकी सब अपने-आप होगा ।

 

         इस भावके साथ किये जानेवाले कर्म भक्ति या ध्यान जैसे ही अव्यर्थ होते हैं । काम, रजस् और अहंकारके त्यागसे स्थिरता और पवित्रता आती है जिसमें शाश्वती शान्ति उतर सकती है; अपना संकल्प भगवत्संकल्पपर उत्सर्ग करनेसे, अपनी इच्छा भगवदिच्छामे निमज्जित करनेसे अहंभावका अन्त होता है और साधककी चेतना विश्वचेतनाके अन्दर प्रसारित हो जाती है या विश्वके भी ऊपर जो कुछ है उसके अन्दर उठ जाती है; प्रकृतिसे पुरुषकी पृथक् सत्ता अनुभूत होती है और बाह्य प्रकृतिके बंधनों- से मोक्ष होता है; अपने आंतर स्वरूपका साक्षात्कार होता है और बाह्य स्वरूप केवल करण-स्वरूप देख पड़ता है; यह प्रतीति होती है कि वैश्व शक्ति हमारा कार्य करती है और आत्मा या पुरुष निरीक्षक या साक्षी है पर मुक्त है; उस समय ऐसा लगता है कि हमारे सब काम विश्वजननी या परम माता या भागवती शक्तिने अपने हाथोंमें ले लिये हैं और वही हृदयके पीछेसे नियंत्रण करती और कर्म करती हैं । अपने सब संकल्प और कर्म निरन्तर भगवान्को निवेदित करते रहनेसे प्रेम और भक्ति-अर्चना बढ्ती है और हत्युरुष आगे आ जाता है । ऊर्ब्बस्थित शक्तिको निवेदित करनेसे, हमें क्रमश: अपने ऊपर उसकी सत्ता अनुभूत हो सकती हे और हम अपने .अन्दर उसका अवतरण, तथा उत्तरोत्तर प्रवर्द्धमान चैतन्य और ज्ञानकी ओर अपना उद्घाटन अनुभव कर सकते हैं । अन्तमें कर्म, भक्ति और ज्ञान तीनों एक स्रोत होकर चलते हैं और आत्मपरि- पूर्णता संभावित होती हे -- अर्थात् वह कार्य बनता हूँ जिसे हम लोग प्रकृतिका दिव्यी- करण कहते हैं ।

 

       ये सब बातें अवश्य ही एकदम एक साथ नहीं होती; साधककी अवस्था और पात्रताके अनुसार अल्पाधिक मंद गतिसे, अल्पाधिक पूर्णताकी साथ आती हैं । भग- वत्साक्षात्कारका कोई ऐसा सीधा सरल राजमार्ग नहीं है कि चले नही कि पहुँच गये ।

 

       यही वह गीतोक्त कर्मयोग है जिसे मैंने इस रूपमें सर्वांगीण आध्यात्मिक जीवन- की सिद्धिके लिये संवर्द्धित किया है । इसकी प्रतिष्ठा अटकल या तर्कपर नही

 

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प्रत्युत स्वानुभवपर हुई हे । इसमें ध्यानका बहिष्कार नहीं और भक्तिका तो कदापि ? नहीं; क्योंकि भगवान्के प्रति स्वात्मार्पण करना, सर्वस्व भगवान्पर उत्सर्ग करना इस कर्मयोगका सारतत्त्व है और यह तो तत्वतः भक्तिकी ही एक क्रिया है । अवश्य ही इसमे उस ध्यानका बहिष्कार है जो जीवनसे भागता है अथवा उस भावाच्छादित भक्तिका भी बहिष्कार है जो अपने ही आंतर स्वप्तमें बन्द रहती और इसीको योगकी संपूर्ण साधना मान बैठती है । कोई चाहे तो घंटों केवल ध्यानमें अथवा आंतर अचल अर्चन-पूजन और हर्षातिशयमें एकदम निमग्न बैठा रह सकता है, पर पूर्णयोग इतना ही नहीं है ।

 

*

 

       मैंने भक्तिका कभी निषेध नहीं किया है । और मुझे यह भी याद नहीं कि किसी समय मैनि  ध्यानका निषेध किया है । मैंने अपने योगमें भक्ति और ज्ञानको उतना ही प्राधान्य दिया है जितना कि कर्मको । हां, इनमेंसे किसी एकको शंकर या चैतन्य- के समान अनन्य रूपसे सर्वोपरि नहीं माना है ।

 

      साधनाके सम्बन्धमें जो कुछ कठिनाई तुम्हें या किसी भी साधकको मालूम होती है वह यथार्थमें ध्यान और भक्ति और कर्मके परस्परविरोधका प्रश्न नही है । कठिनाई है मनकी अवस्थाके सम्बन्धमें कि किस वृत्तिसे, किस ढंगसे (या इसका और जो चाहो नाम रखो ) यह भक्ति अथवा ध्यान या कर्म किया जाय ।

 

      कर्म करते हुए यदि तुमसे सतत भगवतरमरण नहीं होता तो कोई विशेष क्षति नहीं । अभी, आरम्भमें स्मरण और समर्पण तथा अन्तमें कृतज्ञता निवेदन ही काफी है । अथवा अधिक-से-अधिक, काम करते-करते जहां रुक जाओ, वहां स्मरण कर लेना । इस सम्बन्धमें तुम्हारा जो ढंग है वह मुझे कुछ कष्टकर और कठिन मालूम होता है -- मालूम होता है कि तुम मन-बुद्धिके जिस अंशको कर्ममें लगाते हो उसी अंशसे स्मरण भी करनेका प्रयत्न करते हो । मैं नहीं समझता कि यह सम्भव है । काम करते हुए जो लोग सतत स्मरण करते हैं (इस प्रकार स्मरण किया जा सकता है ), वे प्रायः अपनी मन-बुद्धिके पश्चाद्भागसे स्मरण करते हैं अथवा ऐसा भी होता है कि क्रमश: अभ्याससे ऐसी शक्ति प्राप्त हो जाती है कि जिससे मनुष्य एक साथ दो प्रकारका विचार या दो प्रकारकी चेतना रख सके -- एकको आगे रखे जिसके द्वारा कर्म हो, और दूसरी अन्तःस्थित रहे जो साक्षी-रूपसे देखे और स्मरण करे । एक और तरीका है जो बहुत कालतक मेरा तरीका था -- इसमें यह अवस्था रहती है कि कर्म अपने- आप होता रहता है, उसमें अपने वैयक्तिक विचार या मानसिक क्रियाके दखल देनेकी कोई आवश्यकता नहीं होती और अपना चैतन्य भगवान्में चुपचाप पड़ा रहता है । पर यह बात प्रयत्नसे उतनी साध्य नहीं है जितनी कि अति सरल अविराम अभीप्सा और आत्मसमर्पणेच्छासे साध्य है, अथवा चेतनाकी राई ऐसी गतिसे भी साध्य है जिससे अंतस्सत्ता करण-सत्तासे पृथक ज्ञात होता है । अभीप्सा और समर्पणके भावसे, उपस्थित

 

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कार्यको करनेके लिये, दिव्य महती शक्तिका आवाहन करना भी एक प्रक्यिा है जिससे कार्य अद्भुत रीतिसे सुसंपन्न होता है, यद्यपि इस प्रक्रियाको साधनेमें कुछ लोगोंको बहुत समय लगता है । अपनी मन-बुद्धिके प्रयाससे कुछ करनेके बदले अंतःस्थित या ऊर्ध्वस्थित शक्तिसे कार्य करानेके कौशलको जानना साधनाका एक बहुत बडा रहस्य है । मेरे कहनेका यह अभिप्राय नहीं कि मन-बुद्धिका प्रयास अनावश्यक है अथवा उसके द्वारा कुछ नहीं होता - बात इतना ही है कि यदि मन-बुद्धि हर कामको अपने ही भरोसे करे तो आध्यात्मिक महावीरोके सिवा और सबके लिये यह प्रयास कष्टप्रद ही होता है । न मेरे कहनेका यह अभिप्राय है कि यह दूसरी प्रक्रिया वह संक्षिप्त मार्ग है जिसकी हम कामना करते हैं । इस रास्तेको तै करनेमें भी, जैसा कि मैनई ऊपर कहा, बहुत समय लग सकता है । धीरता और संकल्पकी दृढ़ता साधनाकी प्रत्येक प्रक्रियामें ही आवश्यक हैं ।

 

         सामर्थ्य होनी चाहिये, यह बात सामर्थ्यवानोंके लिये तो ठीक ही है - पर अभीप्सा और उस अभीप्साको प्राप्त होनेवाली भागवती दया सर्वथा अलीक कल्पनाएं नहीं हैं; आध्यात्मिक जीवनके ये महान् और प्रत्यक्ष अनुभव हैं ।

 

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         रूपान्तरके कार्यमें बाह्य चेतनाको भी शामिल करना इस योगमें अत्यन्त आवश्यक है -- इसे ध्यानके द्वारा नहीं किया जा सकता । ध्यान केवल आंतरिक सत्तापर ही क्रिया कर सकता है । अतएव कर्म सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है - बस, इसे करना चाहिये समुचित मनोभावके साथ और सत्य चेतनामें रहकर, फिर यह भी उतना ही फलदायी होता है जितना कि किसी प्रकारका ध्यान हो सकता है ।

 

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         कर्मको जारी रखनेसे भीतरी अनुभव और बाहरी विकासमें समतोलता बनाये रखनेमें सहायता मिलती है; अन्यथा एकपक्षीयता और परिमाण तथा संतुलनका अभाव विकसित हो सकता है । इसके अतिरिक्त, भगवान्के लिये कर्म करनेकी साधना- को जारी रखना आवश्यक है, क्योंकि अन्तमें यह साधकको आंतरिक प्रगतिको बाहरी प्रकृति और चीवनमें ले आनेकी शक्ति प्रदान करता है तथा साधनाको सर्वांगपूर्ण बनाये रखनेमें सहायता करता है ।

 

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   साधनाकी कोई भी अवस्था ऐसी नहीं है जिसमें कर्म करना असम्भव हो, पथमें कोई स्थल ऐसा नहीं है जिसमें कर्म करनेका आधार न हो और कर्म करना भगवद्-

 

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ध्यानसे विसंगत जानकार त्याग देना पड़े ! आधार तो सदा है ही ; यह आधार है   भगवान्का अवलंब और समस्त सत्ताका, संकल्पका और समस्त शक्तियोंका भगवान्- की ओर उद्घाटित होना, भगवान्को समर्पित हो जाना । इस भावसे किया हुआ प्रत्येक कर्म योगसाधनाका साधन बनाया जा सकता है । व्यक्तिविशेषके लिये कहीं- कहीं कुछ समय ध्यान-निमग्न होना और उतने समयके लिये कार्यको स्थगित रखना या उसे गौण बना देना आवश्यक हो सकता है; पर यह किसी-किसी ब्यक्तिकी ही बात है और वह निवृत्ति भी कुछ समयके लिये ही होती है । कर्मका सर्वथा परित्याग और पूर्णतया अपने-आपमें ध्याननिमग्न होना क्वचित् प्रसंगमें ही समुचित हो सकता है; क्योंकि इससे अतिशय एकदेशीय ऑर केवल मनोमयी अवस्था ही बनती है जिसमें साधक एक ऐसे मध्य जगत्में रहता है जहां केवल आंतरिक अनुभव होते हैं, पर बाह्य सत्यमें या जो परम सत्य है उसमें उसकी दृढ भूमि नहीं होती और आंतरिक अनुभवका वह ठीक उपयोग नहीं होता जिससे परम सत्य तथा बाह्य जीवनकी उपलब्धिके बीच सुदृढ़ सम्बन्ध और फिर दोनोंकी एकता स्थापित हो ।

 

         कर्म दो प्रकारका हो सकता है - एक वह कर्म जो साधनाके लिये प्रयोगका क्षेत्र है जिसमें समस्त सत्ता और उसके कर्म क्रमसे अधिकाधिक सामंजस्यको प्राप्त हों और दिव्य बनें, और दूसरा वह कर्म जो भगवान्की सिद्ध अभिव्यक्ति है । पर इस पिछले कर्मका समय तो तभी आ सकता है जब भगवत्साक्षात्कार पूर्णतया पार्थिव चैतन्यमें आ जाय; तबतक जो भी कर्म होगा वह प्रयत्न और प्रयोगका ही क्षेत्र होगा ।

 

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         कर्म अपने-आपमें केवल एक प्रकारकी तैयारी है और उसी तरह ध्यान भी अपने- आपमें एक तैयारी है; परन्तु जब कर्म सतत-वृद्धिशील यौगिक चेतनाके साथ किया जाता है तो वह ध्यानकी तरह ही सिद्धिका साधन बन जाता है... । मैं समझता हूँ कि मैंने यह नहीं कहा है कि कर्म केवल 'तैयार करता है । ' ध्यान भी प्रत्यक्ष संस्पर्श प्राप्त करनेके लिये तैयार करता है । यदि हम केवल तैयारीके रूपमें तो कार्य करें और फिर निश्चल ध्यानमग्न संन्यासी बन जायं तब मेरी समूची आध्यात्मिक शिक्षा ही मिथ्या हो जाती है और अतिमानसकी सिद्धिका अथवा ऐसी किसी चीजका जो भूतकालमें नहीं की गयी है, कोई उपयोग नहीं रह जाता.. -... ।

 

        इस भावके मूलमें जो अज्ञान विद्यमान है वह है यह मान बैठना कि मनुष्यको या तो केवल कर्म ही करना चाहिये या केवल ध्यान ही । उस दृष्टिमें या तो कर्म ही साधन है या ध्यान .ही साधन है; दोनों साधन नहीं हो सकते । जहांतक मुझे याद है, मैनई कभी नही कहा है कि ध्यान नहीं करना चाहिये । कर्म और ध्यानके बीच इस प्रकार एक खुली या निर्णीत प्रतियोगिता खड़ी करना विभेदकारी मनकी एक चालाकी है और इसका सम्बन्ध प्राचीन योगोंसे है । कृपया याद रखिये कि मैं सदासे एक पूर्ण- योगकी घोषणा करता आ रहा हूँ जिसमें ज्ञान, भक्ति और कर्म- चेतनाकी ज्योति,

 

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आनन्द और प्रेम, कार्यके संकल्प और सामर्थ्य--भगवान्के ध्यान, अर्चन और  क्यँ का अपना स्थान है । ध्यान कर्म-योगसे अधिक महान् नहीं हे और न कर्म ज्ञानयोगसे अधिक महान् है - दोनों ही एक जैसे हैं ।

 

       दूसरी बात - अपनी निजी अत्यन्त सीमित अनुभूतिके आधारपर, दूसरों- की अनुभूतिकी अवहेलना करते हुए, तर्क करना और उसपर योगके विषयमें एक विशाल सिद्धांत बना लेना एक भूल है । यही अधिकांश लोग करते हैं, परन्तु यह पद्धति स्पष्ट ही दोषपूर्ण है । तुम्हें कर्मके द्वारा कोई भी प्रमुख अनुभव नहीं हुआ है और तुमने यह सिद्धांत बना लिया है कि ऐसी अनुभूतियोंका होना असम्भव है । परन्तु जिन बहुतसे लोगोंको - दूसरी जगह और यहां आश्रममें भी - ये अनुभूतियां हुई है उनके विषयमें क्या कहा जाय?

 

       जौ हो, यह सिद्धांत मत बनाओ कि मैं सिद्धिके एकमात्र साधनके रूपमें कर्मको सबसे ऊंचा स्थान दे रहा हूँ । मैं केवल उसे अपना समुचित स्थान दे रहा हूँ ।

 

*

 

     तुम यह भूल जाते हो कि मनुष्य अपने स्वभावमें विभिन्न होते हैं और इसलिये प्रत्येक व्यक्ति अपने निजी तरीकेसे साधनामें आयेगा -- एक कर्मके द्वारा, एक भक्ति- के द्वारा, एक ध्यान और ज्ञानके द्वारा - और जो लोग ऐसा करनेमें समर्थ हैं वे एक साथ इन सबके द्वारा । अपने निजी पथका अनुसरण करना तुम्हारे लिये एकदम उचित है, चाहे दूसरोंका सिद्धांत जो कुछ भी क्यों न हो - पर दूसरोंको भी अपने प्रुथका अनुसरण करने दो । अन्तमें सब लोग एक साथ एक ही लक्ष्यपर मिल सकते हैं ।

 

*

 

      जो कुछ तुमने पहले अनुभव किया था वह तुम्हारी मानसिक सत्ता और चेतनामें था, यहां आनेके बाद तुम स्पष्ट ही अपनी बाहरी और स्थूल चेतनामें निकल आये हो, यही कारण है कि तुम अनुभव करते हो मानो जो कुछ तुमने पाया था वह चला गया । वह केवल भौतिक चेतनाके अन्धकारसे छिप गया है और गया नही, है ।

 

       साधनाका जहांतक प्रश्न है, मैं समझता हूँ, उससे तुम्हारा मतलब किसी प्रकार- की एकाग्रताका अभ्यास आदि है । क्योंकि कर्म भी साधना हे, यदि समुचित मनोवृत्ति और भावनाके साथ किया जाय । आंतरिक एकाग्रताकी साधनाके रूप हैं:

 

       1. चेतनाको हृदयमें स्थिर कर देना और वहां भगवती मातासम्बन्धी विचार, उनकी मूर्त्ति या नामपर, तुम्हारे लिये जो सबसे आसान हो, एकाग्रताका अभ्यास करना । 

 

       2. हृदयकी इस एकाग्रताके द्वारा क्रमश: और धीरे-धीरे मनको अचंचल बनाना ।

 

       3. हृदयमें श्रीमाताजीकी उपस्थिति तथा मन, प्राण और कर्मपर उनके

 

 ३०


परन्तु मनको शांत-स्थिर बनाने और आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करनेके लिये यह आवश्यक है कि पहले प्रकृतिको शुद्ध और प्रस्तुत किया जाय । इसमें कभी-कभी बहुत वर्ष लग जाते हैं । इसके लिये सबसे आसान तरीका है समुचित मनोवृत्तिके साथ काम करना -- अर्थात् कामना या अहंकारके बिना काम करना, जब कामना, मांग या अहंकार आये तब उसकी समस्त क्रियाओंका त्याग करना, भगवती माताकी पूजाके रूपमें काम करना, काम करते हुए उनका स्मरण करना तथा उनसे यह प्रार्थना करना कि वह अपनी शक्तिको प्रकट करें और कार्यको अपने हाथोंमें ले लें जिसमें कि उसमें भी और केवल आंतरिक नीरवतामें ही नहीं, तुम उनकी उपस्थिति और क्रियाको अनुभव कर सको ।

 

*

 

       प्रार्थना और ध्यानका योगमें बहुत अधिक मूल्य है । परन्तु प्रार्थनाको भावा- वेग या अभीप्साके शिखरपर हृदयकी गहराईसे फूट निकलना चाहिये । जप या ध्यान एक जीवन्त वेग लेकर आता है जो अपने अन्दर हर्ष और उस वस्तुकी ज्योतिको वहन करता है । यदि वे यांत्रिक रूपसे या किसी ऐसी चीजके रूपमें किये जाते हैं जिसका करना अनिवार्य हो ( अटल कठोर कर्तव्यके रूपमें! ) तो फिर उनमें मनुष्यकी रुचि कम होने लगती है और वे नीरस बनते जाते हैं तथा इस कारण फलहीन बन जाते हैं... । तुम एक परिणाम उत्पन्न करनेके लिये उसके एक साधनके रूपमें बहुत अधिक जप कर रहे थे, कहनेका मतलब, अत्यधिक एक उपाय, एक पद्धतिके रूपमें कर रहे थे जिससे वह कार्य पूरा हो जाय । यही कारण था कि मैं यह चाहता था कि तुम्हारे अन्दर मानसिक अवस्थाएं विकसित हो जायं, चैत्य पुरुषका, मनका विकास हो जाय, क्योंकि जब चैत्य पुरुष सामने होता है तब प्रार्थनाके अन्दर, अभीप्सा और खोजके अन्दर जीवनी-शक्ति तथा हर्षका अभाव नहीं होता भक्तिकी अविच्छिन्न धारामें कोई रुकावट नहीं उत्पन्न होती एवं जब मन शान्त और अन्तर्मुखी और ऊर्ध्वमुखी होता है तो ध्यान करनेमें कोई कठिनाई तथा रुचिका अभाव नहीं होता । इसके अलावा, ध्यान वह पद्धति है जो ज्ञानके द्वारा और ज्ञानकी ओर ले जाती है, यह ( ध्यान ) मस्तककी वस्तु है न कि हृदयकी और इसलिये यदि तुम ध्यान करना चाहो तो तुम ज्ञानसे घृणा नहीं कर सकते । हृदयमें एकाग्र होना ध्यान नहीं है, यह भगवान्के लिये, प्रेमास्पद- के लिये एक पुकार है । यह योग भी केवल ज्ञानका योग नहीं है, ज्ञान इसका केवल एक साधन है, पर इसका आधार है आत्मदान, समर्पण, भक्ति, इसकी मूल-भित्ति हृदयमें है और इस मूलभित्तिके बिना कोई चीज स्थायी रूपसे नहीं की जा सकती । यहां ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो जप करते है या करते रहे हैं और जिन्होंने अपनी साधनाका आधार भक्तिको बनाया है; ऐसे लोग अपेक्षाकृत कम ही हैं जिन्होंने ' 'मस्तक' ' का ध्यान किया है; सामान्यतया प्रेम, भक्ति और कर्म ही आधार '; कितने लोग

 

 ३१


भला ज्ञानके बलपर आगे बढ़ सकते हैं! बहुत ही थोड़े!

 

*

 

        तुमने चैत्य कियाके द्वारा तथा अहंकारको ढूँढने और त्याग करनेके प्रयासके द्वारा जो प्रगति की थी उसकी चर्चा मैंने एकदम गंभीरताके साथ की थी । मैंने तुम्हें पहले भी लिखा था और उस पद्धतिका अनुमोदन प्रबल रूपमें किया था । हमारे योग- में वह पथ भक्ति और समर्पणका है - क्योंकि चैत्य क्रिया ही सतत और विशुद्ध भक्तिभावको ले आती और अहंकारको दूर करती है जिससे समर्पण करना सम्भव होता है । ये दोनों चीजे वास्तवमें एक साथ चलती हैं ।

 

         दूसरा पथ, जो कि ज्ञानका पथ है, मस्तकमें ध्यान करना है जिससे वहां ऊपरकी ओर उद्घाटन होता है, मन अचंचल या निश्चल-नीरव होता है तथा उच्चतर चेतना- की शांति आदिका सामान्यतया तबतक अवतरण होता है जबतक कि वह सत्ताको आवेष्टित नहीं कर लेती और शरीरमें नहीं भर जाती तथा सभी क्रियाओंको अपने हाथमें लेना आरम्भ नहीं कर देती । परन्तु इसके लिये निश्चल-नीरवता और एक प्रकारकी साधारण क्रियाओंकी शून्यतामेंसे गुजरना होता है - वे बाहर फेंक दी जाती हैं और विशुद्धतः उपरितलीय कर्मके रूपमें की जाती हैं - और तुम निश्चल- नीरवता और शून्यताको बहुत अधिक नापसन्द करते हो ।

 

       तीसरा पथ वह है जो कर्मयोगके दो पथोंमेंसे एक है और वह है प्रकृतिंसे पुरुष- को, बाहरी सक्रिय सत्तासे आंतरिक नीरव सत्ताको पृथक् कर लेना, जिससे साधकको दो चेतनाएं अथवा एक द्विविध चेतना प्राप्त हो जाती है, एक तो पीछेसे ध्यानपूर्वक निरीक्षण और अवलोकन करती है तथा अन्तमें दूसरीको, जो सम्मुख भागमें सक्रिय होती है, नियंत्रित और परिवर्त्तित करती है । परन्तु इसका भी अर्थ होता है एक प्रकार- की आंतरिक शांति और नीरवतामें निवास करना और क्रियाओंके साथ ऐसा बर्ताव करना मानों वे ऊपरी तलकी कोई चीज हों । कर्मयोगको आरम्भ करनेका दूसरा पथ: है भगवानके लिये, भगवती माताके लिये कर्मोंको करना और अपने लिये न करना, उन्हें तबतक अर्पित और निवेदित करते रहना जबतक कि साधक ठोस रूपमें यह न अनुभव करने लगे कि भागवती शक्तिने क्रियाओंको अपने हाथमें ले लिया है और उसके लिये उन्हें कर रही है ।

 

      यदि मेरे योगका कोई रहस्य या चाभी है जिसे कि तुम कहते हो कि तुमने नहीं पाया है, वह उन्हीं पद्धतियोमें निहित है -- और, वास्तवमें, स्वयं इनमें कोई भी चीज इतनी रहस्यपूर्ण, असम्भव अथवा यहांतक कि नवीन नहीं है । सच पूछा जाय तो केवल पीछेकी अवस्थामें होनेवाला आगेका विकास तथा इस योगका लक्ष्य ही नवीन हैं । परन्तु आरम्भिक अवस्थाओंमें किसीको उसके साथ सरोकार रखनेकी कोई आवश्यकता नहीं, यदि कोई मानसिक ज्ञानके एक विषयके रूपमें वैसा करना चाहे तो बात दूसरी है ।

 ३२


       ध्यान भगवान्को पानेका एक साधन है और एक महान् पथ है, पर इसे एक छोटा रास्ता नहीं कहा जा सकता - क्योंकि अधिकांश लोगोंके लिये यह एक लम्बी और अत्यन्त कठिन, यद्यपि एक बहुत ऊंची चढ़ाई है । यह पथ किसी भी तरह छोटा नहीं हो सकता जबतक कि यह कोई अवतरण न कराये, और उस हालतमें भी केवल एक आधारही शीघ्रतासे स्थापित होता है; उसके बाद ध्यानको उस आधारपर बड़े परिश्रम- के साथ एक बड़ी रचना खड़ी करनी होती है । ध्यान बड़ा आवश्यक है पर उससे सम्बन्धित कोई छोटी बात नहीं है ।

 

        कर्म बहुत अधिक सरल पथहै बशर्त्ते कि मनुष्यका मन भगवान्से प्थक् होकर कर्मपर ही निबद्ध न हो । लक्ष्य भगवान् ही होने चाहियें और कर्म केवल एक साधन हो सकता है । कविता आदिका उपयोग अपनी आतर सत्ताके साथ सम्पर्क बनाये रखनेके लिये किया जाता है और वह सब अन्तरतमके साथ सीधा संपर्क करनेकी तैयारी करनेमें ल्हायक होता है, पर मनुष्यको बस वहीं ठहर नहीं जाना चाहिये, उसे यथार्थ वस्तुतक अवश्य चले जाना चाहिये । यदि कोई एक साहित्यिक व्यक्ति या कवि या चित्रकार होनेकी बात सोचे और वैसा होना ही बस पर्याप्त हो तो यह कोई यौगिक मनोभाव नहीं है । इसी कारण कभी-कभी मैंने यह कहा है कि हमारा उद्देश्य योगी होना,महज कवि, चित्रकार वगैरह होना नहीं है ।

 

         प्रेम, भक्ति, समर्पण, चैत्य उद्घाटन ही भगवान्की ओर जानेके छोटे रास्ते हैं - अथवा हो सकते हैं; क्योंकि यदि प्रेम और भक्ति अति - प्राणिक हों तो यह सम्भावना है कि आनन्दानुभूति और विरह, अभिमान, निराशा आदिके बीच झूलना पड़े, जिससे रास्ता छोटा नहीं बल्कि लम्बा, टेढा-मेढा हो जाता है - सीधी उड़ान नहीं होती' - भगवान्की ओर दौड़नेके बदले मनुष्य अपने ही अहंकारके चारों ओर चक्कर काटता है ।

 

*

 

       मैंने सर्वदा ही यह कहा है कि साधनाके रूपमें किया गया कर्म - किया गया, तात्पर्य, भगवान्से प्रवाहित एक शक्तिके रूपमें किया गया और भगवान्को समर्पित कर्म अथवा भगवानके लिये किया गया कर्म या भक्तिभावनासे किया गया कर्म साधना- का एक प्रबल साधन है और ऐसा कर्म विशेष रूपसे इस योगके लिये आवश्यक है । कर्म, भक्ति और ध्यान योगके तीन सहायक हैं । कोई चाहे तो तीनोंके या दोके याकर्मके द्वारा साधना कर सकता है । कुछ लोग ऐसे होते हैं जो निर्धारित पद्धतिसे, जिसे लोग ष्यान कहते हैं, ध्यान नहीं कर सकते, पर वे कर्मके द्वारा या भक्तिके द्वारा या एक साथ दोनोंकी द्वारा प्रगति करते है । कर्म और भक्तिके द्वारा मनुष्य एक ऐसी चेतना विकसित कर सकता है जिसमें अन्तमें स्वाभाविक रूपसे ध्यान करना और अनुभव प्राप्त करना सम्भव हो जाता है ।

 

'ल का जो ' विचार कि साहित्यका अनुशीलन करनेकी किसी रहस्यपूर्ण

 

३३


 जन्मजात शक्तिके द्वारा मनुष्य अपनेको गुणवान् और आत्मसंयत और पवित्र वना सकता है, इससे यह सब एकदम भिन्न है । यदि उसने मुझसे कर्म और साधनाके विषय- में प्रश्न पूछा होता तो मैंने उसे दूसरे ढंगसे उत्तर दिया होता । इसमें सन्देह नहीं कि साहित्य और कला आंतर सत्ता - आंतर मन, आंतर प्राण -- के साथ प्रथम परिचय कराते हैं या करा सकते हैं; क्योंकि वहींसे वे आते हैं । और कोई यदि भक्ति- की कविताएं, भगवान्की खोज आदिक विषयकी कविताएं लिखता है या उसी प्रकार- के संगीतका निर्माण करता है तो इसका अर्थ है कि उसके भीतर कोई भक्त या जिज्ञासु_ है जो उस आत्माभिव्यक्तिके द्वारा अपना पोषण करता हूँ । परन्तु इस प्रकारके किसी दृष्टिकोणसे ' ' ने प्रश्न नहीं रखा था और इस प्रकारके किसी दृष्टिकोणसे मैंने अपना उत्तर नहीं दिया था । उसने किसी विशिष्ट चरित्रनिर्मायक गुणके विषयमें लिखा था जिसे, ऐसा लगता था कि, उसने साहित्यपर आरोपित किया था ।

 

*

 

       यह पूछनेसे एकदम कोई लाभ नहीं कि कौन या किस श्रेणीके लोग लक्ष्यपर पहले या अन्तमें पहुँचेंगे । आध्यात्मिक पथ कोई प्रतियोगिताका या दौडका क्षेत्र नहीं है कि इस बातका कोई मूल्य हो । यहां मूल्यवान् वस्तु है भगवान्के लिये व्यक्ति- की अपनी अभीप्सा, अपनी निजी श्रद्धा, समर्पण-भाव, निःस्वार्थ आत्मदान । दूसरों- को भगवान्के ऊपर छोड़ देना चाहिये जो प्रत्येकको उसकी प्रकृतिके अनुसार ले जायेंगे । ध्यान, कर्म, भक्तिमेंसे प्रत्येक सिद्धिकी ओर जानेके लिये प्राथमिक उपायके साधन हैं; ये सभी इस मार्गमें सम्मिलित किये गये है । यदि कोई कर्मके द्वारा अपनेको अर्पित कर सके तो यह आत्मदानका एक अत्यन्त शक्तिशाली साधन है - उस आत्मदान- का जो स्वयं भी साधनाका एक अत्यन्त सामर्थ्यशाली और अनिवार्य तत्व है ।

 

      पथसे चिपके रहनेका मतलब है उसे बिना छोड़ या उससे बिना मुँह मोडे उसका अनुसरण करते रहना । यह समस्त सत्ताके, उसके समस्त भागोंमें, आत्मदान करने- का पथ है, चिन्तनशील मन और हृदयके, संकल्प और कर्मके, आंतर और बाह्य करणों- के निवेदनका पथ है, जिसमें कि भगवान्की उपलब्धि कर सके, अपने भीतर उनकी उपस्थितिका, चैत्य और आध्यात्मिक परिवर्तनका अनुभव कर सके । सभी प्रकारसे मनुष्य जितना अधिक अपनेको देता है, उतना ही अधिक अच्छा वह साधनाके लिये होता है । परन्तु सब लोग एक ही मात्रामें, एक ही तीव्रताके साथ, एक ही ढंगसे इसे नहीं कर सकते । दूसरे किस प्रकार इसे करते हैं या इसे करनेमें असफल होते हैं इसकी चिन्ता हमें नहीं करनी चाहिये -- बस, एक यही बात महत्वपूर्ण है कि हम स्वय इसे निष्ठाके साथ कैसे करते हैं ।

 

*

 

३४


        यह कहना कि केवल कर्मके द्वारा मनुष्य साधनाकी धारामें प्रवेश करता है बहुत अधिक कहना है । मनुष्य ध्यान या भक्तिके द्वारा भी प्रवेश कर सकता है, परन्तु कर्म पूर्ण धारामें पैठ जानेके लिये और एक ओर बह न जानेके लिये और वही चक्कर न काटते रहनेके लिये आवश्यक है । निस्सन्देह सभी कर्म सहायक होते हैं बशर्त्ते कि उन्हें समुचित भावसे किया जाय ।

 

       यहां कई ऐसे साधक है जो एकमात्र कर्मके द्वारा, श्रीमाताजीको समर्पित कर्म- के द्वारा अथवा ध्यानके लिये बहुत थोड़ा समय देते हुए मुख्यतः कर्मके द्वारा बहुत दूर- तक आगे बढ़ गये हैं । दूसरे प्रधानतया ध्यानके द्वारा पर कर्म भी करते हुए दूरतक आगे बढ़ गये हैं । जिन लोगोने केवल ध्यान करनेकी कोशिश की और कर्मसे घबड़ा पये  ( क्योंकि वे उसे श्रीमाताजीको निवेदित नहीं कर सके ) वे सब '' और '' की तरह असफल ही हुए हैं । परन्तु एक या दो व्यक्ति एकमात्र ध्यानके द्वारा भी सफल हो सकते हैं, यदि यह उनके स्वभावमें हो या यदि उनमें तीव्र और अटल श्रद्धा और भक्ति हो । सब कुछ साधककी प्रकृतिपर निर्भर करता है ।

 

 

       जहांतक 'पुराने मनुष्य' की बात है, मैं नहीं समझता कि कर्मी व्यक्तियोंकी बाहरी सत्ता दूसरोंकी अपेक्षा कम परिवर्त्तित हुई है । कुछ लोग तो ऐसे हैं जो जहां थे वही हैं या केवल थोड़ासा आगे बढ़े हैं, दूसरे ऐसे हैं जो बहुत अधिक परिवर्त्तित हार है -- कर्म्हे भी पूर्णतः रूपांतरित नही हुआ है, यद्यपि कुछ लोगोंके एक अचूक और पक्का आध्यात्मिक और चैत्य आधार प्राप्त कर लिया है । परन्तु यह बात एक समान उन कर्मियोंपर लागू होती है जो ध्यानमें समय नहीं बिताते और उन लोगोंपर भी जो एक लम्बा समय ध्यानमें बिताते हैं ।

 

        प्रत्येक साधकको स्वयं उसपर और श्रीमाताजीपर छोड़ देना चाहिये जिसमें वह अपना यथार्थ पथ खोज ले और यह आवश्यक नहीं कि उसका वह पथ ठीक उसके  पडोसीका ही पथ हो ।

 

*

 

       साधनाकी उस धाराका जहांतक प्रश्न है जिसपर सबसे अधिक जोर दिया जाता है, वह निर्भर करती है प्रकृतिपर । कुछ लोग ऐसे होते हैं जो ध्यानके लिये नहीं बनाये गये हैं और केवल कर्मके द्वारा ही वे अपनेको तैयार कर सकते हैं; फिर ऐसे लोग भी हैं जो इसके विपरीत हैं । अहंकारके प्रचंड विकासकी जो बात है, वह चाहे किसी पथ- का अनुसरण करनेपर हो सकता है । मैंने इसे ध्यानी और कर्मी दोनोंमें विकसित होते हुए देखा है; ' ' कहता है कि यह भक्तमें भी वैसे ही बढ़ता है । अतएव यह स्पष्ट है कि सभी भूमियौ इस नरगिस फुलके लिये अनुकूल हैं । ' 'साधनाकी कोई आवश्यकता' '

 

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के विषयमें, स्पष्ट ही जो कोई साधना नहीं करता वह परिवर्त्तित नहीं हो सकता  प्रगति नहीं कर सकता । कर्म, ध्यान, भक्ति ये सभी चीजे साधनाके रूपमें ही करनी चाहियें ।

 

*

 

       भला अपने व्यक्तिगत अनुभवके आधारपर, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, तर्क क्यों करते हो और उसे किसी सर्व-सामान्य सिद्धान्तमें क्यों बदल देते हो? बहुत अधिक लोग (शायद अधिकांश लोग ) इसे (कर्मद्वारा साधनाको ) सबसे अधिक आसान अनुभव करते हैं । बहुतसे लोग कर्म करते समय श्रीमांका चिन्तन करना आसान समझते हैं; परन्तु जब वे पढ़ते या लिखते हैं, उनका मन पढी या लिखी चीज- मेंडूब जाता है और वे बाकीसब कुछ भूल जाते हैं । मैं समझता हूँ कि अधिकांश लोंगा- के साथ यही घटित होता है । दूसरी ओर, भौतिक कार्य मनके अत्यंत बाहरी भागके द्वारा किया जा सकता और बाकी भागको स्मरण करने या अनुभव लेनेके लिये स्वतंत्र छोड़ा जा सकता है ।

 

*

 

      तुम ध्यान किस चीजको कहते हो? आंखें बन्द करके एकाग्रताका अभ्यासकरने- को? परन्तु वह तो सच्ची चेतनाको नीचे उतार लानेकी केवल एक पद्धति है । सत्य चेतनाके साथ युक्त होना या उसके अवतरणको अनुभव करना ही एकमात्र महत्त्वपूर्ण बात है । यदि परम्परागत पद्धतिके बिना वह (सत्यचेतना ) आ जाय, जैसा कि मेरे अन्दर वह सर्वदा ही आयी, तो यह और भी अच्छा है । ध्यान महज एक साधन या उपाय है, सच्ची क्रिया तो यह है कि मनुष्य जब चलता-फिरता, काम करता या बात- चित करता हो तो भी साधनाके भावमें बना रहे ।

 

*

 

      सच पूछो तो ध्यान (मनके द्वारा चिन्तन ) नहीं, बल्कि एकाग्रता अथवा चेतना- को मोड देना महत्वपूर्ण है,-और बह कर्म में, लिखते समय, किसी प्रकारके कर्म में और चिन्तन-मननके लिये बैठे रहनेपर भी हो सकता है ।

 

*

 

ध्यान वही सबसे उत्तम होता है जब वह अपने-आप आता है । परन्तु कर्मको यदि ध्यानका स्थान लेना हो तो उसमें पूर्ण रूपसे एकाग्र हो जाना चाहिये ।

 

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       कर्म और सृजनात्मक क्रियामें जो समय तुम लगाते 'हो उसके विषयमें तुम्हें परेशान होनेकी कोई आवश्यकता नहीं । जिन लोगोंमें एक विशाल सृजनक्षम प्राण होता है या कर्म करनेके लिये निर्मित प्राण होता हे वे साधारणतया सबसे अच्छी स्थिति- में तभी होते हैं जब कि उनके प्राणको उसकी गतिविधिसे अलग नहीं किया जाता और वे अंतर्मुखी ध्यानकी अपेक्षा उससे अधिक तेजीके साथ विकसित हो सकते हैं । आवश्यकता बस इस बातकी है कि कर्म समर्पित होना चाहिये जिसमें कि उससे वे अधि- काधिक वर्द्धित हो सकें और जब उन्हें भागवत शक्ति चलावें वे उसे अनुभव करने और उसका अनुसरण करनेके लिये तैयार हो सकें । यह समझना है कि सब समय अंतर्मुखी ध्यानमें बने रहना ही निश्चित रूपसे सर्वोत्तम अथवा योगका एकमात्र पथ  है !

 

*

 

      यदि कुछ लोगोंसे ध्यान करनेको नहीं कहा जाता तो फिर यह सबके लिये आवश्यक कैसे है? अधिक ध्यान उन लागोंज्ञ लिये है जो अधिक ध्यान कर सकते हैं । इसका यह अर्थ नहीं कि चूँकि अधिक ध्यान करना अच्छा है इसलिये किसीको और कोई चीज नहीं करनी चाहिये ।

 

*

 

       मैंने यह राय नहीं दी हे कि तुम्हें केवल ध्यानके द्वारा ही उन्नति करनी है; परन्तु तुममें उसे करनेकी एक महान् क्षमता है और तुम उसके बिना पूरी-पूरी उन्नति नहीं कर सकते । इस योगमें किसी-न-किसी प्रकारका कोई काम सबके लिये आवश्यक है - यद्यपि किसी निश्चित प्रकारके श्रीमांका रूप लेना इसके लिये जरूरी नहीं है । परन्तु वर्तमान समयके लिये एकाग्रता और आंतरिक अनुभवके द्वारा प्रगति करना तुम्हारे लिये सबसे पहली आवश्यकता है ।

 

         यही वह चीज है जिसे हम मनकी क्रियाशीलता कहते हैं जो बराबर ही एकाग्रता- के मार्गमें बाधक होती है और सन्देह उत्पन्न करने तथा शक्तियोंको तितर-बितर कर देनेकी कोशिश करती है ।

 

        दो प्रकारसे इससे छुटकारा पाया जा सकता है, एक तो इसका त्याग करके और इसे बाहर फेंककर जब कि अन्तमें यह केवल एक बाहरी शक्ति ही रह जाती हे - दूसरे, भौतिक मनमें उच्चतर शांति और ज्योतिको नीचे उतारकर ।

 

*

 

उसे अपने कर्मको उत्सर्ग करना सीखना तथा उसके द्वारा श्रीमाताजी-

 

 ३७


की शक्तिको कार्य करते हुए अनुभव करना होगा । जो आंतरिक उपलब्धि विशुद्ध रूपसे निष्क्रिय होती है वह अर्ध-उपलब्धि होती है ।

 

*

 

       परन्तु मैं एक विषयपर जोर दे दूँ कि भगवान्को प्राप्त करनेका केवल एक ही पथ हो यह आवश्यक नहीं । यदि कोई ध्यानकी सर्वसम्मत पद्धतिसे या जप जैसी पद्धति- योंसे भगवान्को प्राप्त करने, उन्हें अनुभव करने या उन्हें देखनेमें सफल नही होता अथवा अभीतक सफल नहीं हुआ है तो भी यह सम्भव है कि वह हृदयमें बार-बार भक्ति- को पुकारकर अथवा चेतनामें उसे निरन्तर अधिकाधिक वर्द्धित करके या भगवान्- के लिये कर्म करके और उनकी सेवामें अपनेको उत्सर्ग करके उस ओर प्रगति कर चुका हो । तुमने निश्चय ही इन दिशाओंमें प्रर्गाते की है, तुम्हारे अन्दर भक्ति बढ़ी है और तुमने सेवा करनेकी अपनी क्षमता भी प्रदर्शित की है । तुमने अपनी प्राण-प्रकृतिकी बाधाओंसे मुक्ति पानेकी भी चेष्टा की है और इस तरह कई कठिन दिशाओंमें सफलता- पूर्वक शुद्धि ले आनेका प्रयास किया है । आत्मसमर्पणका पथ निस्सन्देह कठिन है, पर यदि कोई सच्चाईके साथ उसपर डटा रहे तो कुछ सफलताका आना और अहं- पर आशिक विजय पाना या उसे घटा देना अवश्यंभावी है और उससे पथपर आगे बढ़नेमें बहुत अधिक सहायता मिल सकती है । मनुष्यको, जैसा कि गीता जोर देकर कहती है, निरुत्साहसे मुक्त चेतनाके साथ - 'अनिर्विण्णचेतसा' - योगके पथ- पर आगे बढ़ते जाना सीखना चाहिये । यदि कोई फिसल भी जाय तो उसे अपनी स्थिति- को सुधार लेना चाहिये; यदि कोई गिर भी जाय तो उसे उठ जाना चाहिये और निरुत्साहित न हो भागवत पथपर चल पड़ना चाहिये । मनोभाव यह होना चाहिये:  ' '

 

       यदि मैं भगवान्से चिपका रहूँ तो वह मुझसे वचनबद्ध हैं; चाहे जो भी घटित हो मैं उसे कभी बन्द नहीं करूँगा । ''

 

*

 

      साधनाका अर्थ है योगाभ्यास करना । तपस्याका अर्थ है साधनाका फल पाने तथा निम्न प्रकृतिको जीतनेके लिये संकल्पशक्तिको एकाग्र करना । आराधनाका तात्पर्य है भगवान्की पूजा करना, उन्हें प्रेम करना, आत्मसमर्पण करना, उनको पाने- की अभीप्सा करना, उनका नाम-जप करना, उनसे प्रार्थना करना । ध्यान है चेतनाका भीतरमें केंद्रीभूत हो जाना, मनन-चिंतन करना, अन्दर समाधिमें चला जाना । ध्यान, तपस्या और आराधना ये सभी साधनाके अंग हैं ।

 

३८

 

विभाग तीन

 

साधन-पथकी मौलिक आवश्यकताएं

 


साधन-पथकी मौलिक आवश्यकताएं

 

      योगके लक्ष्यतक पहुँचना सर्वदा कठिन होता है, पर यह लक्ष्य अन्य किसी भी लक्ष्यसे अधिक कठिन है, और यह केवल उन्हीं लोगोंके लिये है जिनमें पुकार है, क्षमता है, प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक खतरेका, यहांतक कि असफलताके खतरेका भी मुकाबला करनेकी इच्छा है, और संपूर्ण निःस्वार्थभाव, निष्कामभाव और समर्पण-भावकी ओर

 आगे बढ़नेका संकल्प है ।

 

*

 

       इस योगका अभिप्राय केवल ईश्वरका साक्षात्कार पाना नहीं है, बल्कि आंतरिक और बाह्य जीवनको पूर्णत: उत्सर्ग कर देना और परिवर्त्तित कर देना है जिसमें कि वह दिव्य चेतनाको अभिव्यक्त करनेक्रे योग्य हो जाय तथा भागवत कर्मका अंग बन जाय । इसका तात्पर्य है एक आंतरिक अनुशासनका अनुसरण जो महज नैतिक तथा भौतिक तपस्याओंसे भी अधिक कठिन और कठोर है । इस पथपर जो कि अधिकांश योगमार्गोंसे बहुत अधिक विशाल और श्रमसाध्य हे, तबतक किसीको पग नहीं रखना चाहिये जबतक कि वह अपने अन्दरकी चैत्य पुकार तथा अन्ततक जानेकी अपनी तैयारी-के विषयमें निस्सदिग्ध न हो ।'

 

*

 

       तैयारीसे मेरा मतलब क्षमता नहीं बल्कि इच्छुकता हे । यदि सभी कठिनाइयोंका सामना करने तथा अन्ततक जानेका संकल्प अपने अन्दर हो तो पथको ग्रहण किया जा सकता है, फिर कोई बात नहीं चमहे जितना भी लम्बा समय क्यों न लगे ।

 

*

 

      साधारण जीवनसे नितांत अशांत असंतोष ही इस योगके लिये पर्याप्त तैयारी नहीं हूँ । आध्यात्मिक जीवनमें सफलता पानेके लिये एक सुनिश्चित आंतरिक पुकार, प्रबल संकल्प तथा महान् दृढ़ताका होना आवश्यक है ।

 

*

 

४१


        मानसिक सिद्धान्तोंका कोई मौलिक महत्त्व नहीं है, क्योंकि मन ऐसे सिद्धांतों- को बनाता या स्वीकार करता है जो सत्ताकी प्रवृत्तिका समर्थन करते हैं । महत्वपूर्ण बात है तुम्हारे अन्दरकी वह प्रवृत्ति और पुकार ।

 

      यह ज्ञान कि एक परात्पर सत्, चित् और आनन्द है जो न महज एक नकारात्मक निर्वाण या निष्क्रिय और निराकार ब्रह्म है, बल्कि सक्रिय है, यह बोध कि इस भागवत चेतनाको केवल परे ही नहीं बल्कि यहां भी प्राप्त किया जा सकता है, और फलस्वरूप योगके लक्ष्यके रूपमें दिव्य जीवनको स्वीकार करना -- यह सब मनसे सम्बन्ध नहीं रखता । यह कोई मानसिक सिद्धातका प्रश्न नहीं है - यद्यपि मन-बुद्धिके द्वारा भी इस दृष्टिकोणका, यदि अधिक अच्छे रूपमें नहीं तो, उसी रूपमें समर्थन किया जा सकता है जिस रूपमें किसी भी दूसरे सिद्धान्तका किया जा सकता है,--बल्कि अनुभवका और, अनुभव आनेसे पहले, अन्तरात्माकी श्रद्धाका प्रश्न है जो अपने साथ मन और प्राणका भी समर्थन ले आती है । जो व्यक्ति उच्चतर ज्योतिके संपर्कमें है और जिसे अनुभव प्राप्त है वह इस मार्गका अनुसरण कर सकता है, चाहे अनुसरण करनेमें निम्रतर अंगोंके लिये यह जितना भी कठिन क्यों न हो; जिस व्यक्तिको इसका स्पर्श मिल गया है, यद्यपि अभी अनुभव नहीं मिला है, पर जिसमें पुकार है, पूर्ण श्रद्धा है, अन्तरात्माके समर्थनका दबाव हे, वह भी इसका अनुसरण कर सकता है ।

 

*

 

       कोई आदर्शवादी धारणा या धार्मिक विश्वास या भावावेग आध्यात्मिक ज्योति प्राप्त करनेसे बिलकुल भिन्न वस्तु है । कोई आदर्शवादी विचार तुम्हें आध्यात्मिक ज्योतिकी प्राप्तिकी ओर मोड सकता है, पर वह स्वयं वह ज्योति नहीं है । परन्तु यह सच है कि ' 'जहां आत्मा चाहता है वहीं बहता है (प्रकट होता है ) । '' हम प्रायः किसी भी परिस्थितिसे आध्यात्मिक चीजोंका भावात्मक प्रबेग या स्पर्श या मानसिक अनु- भूति प्राप्त कर सकते हैं, जैसे कि विल्वमंगलने अपनी वारागणा उपपत्नीके शब्दोंसे उसे पाया था । स्पष्ट ही, यह इसलिये र्घाटेत होता है कि कोई चीज कहींपर तैयार होती है,-यदि तुम चाहो तो कह सकते हो कि, चैत्य सत्ता अपने सुयोगकी ताकमें रहती है तथा मन, प्राण या हृदयमें कहीं कोई झरोखा खोल देनेका कोई सुअवसर ग्रहण करती है ।

 

*

 

    नितांत आदर्शवादका प्रभाव केवल तभी हो सकता है जब कि व्यक्तिके मनमें प्रबल संकल्पशक्ति हो जो उसका अनुसरण करनेके लिये प्राणको बाध्य करनेमें समर्थ हो ।

 

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      भगवान्में अपने-आपको गर्क कर देनेकी प्रब्रुती  बहुत ही विरल वस्तु है । सामान्यतया कोई मानसिक भावना, कोई प्राणिक प्रबेग या कोई बिलकुल अपर्याप्त कारण होता है जो इस चीजको आरम्भ करता है -- अथवा एकदम कोई कारण नहीं होता । एक मात्र सत्य वस्तु होती है गुह्य चैत्य प्रबेग जिसके विषयमें उपरितलीय चेतनाको कोई ज्ञान नहीं होता अथवा मुश्किलसे कुछ ज्ञान होता है ।

 

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        सच्चे अन्तरात्मा, चैत्य पुरुषके बारेमें जो कुछ तुम लिखते हो वह बिलकुल ठीक है । परन्तु जब लोग अन्तरात्माकी चर्चा करते है तो वे उसका भिन्न-भिन्न अर्थ लेते हैं । कभी-कभी उसका अभिप्राय उस चीजसे होता है जिसे मैंने 'आर्य' में कामनामय आत्माका नाम दिया है,--यह है प्राणमय चेतना जिसमें अभीप्साए, कामनाएं, सब प्रकारकी अच्छी-बुरी भूखे, स्थूल और सूक्ष्म भावावेग, मनके आदर्शात्मक भावों और चैत्यके दबावोंसे प्रभावित सनसनीदार प्रवृत्तियों मिली-जुली होती हैं । किन्तु कभी- कभी यह चीज चैत्य प्रेरणाके अधीन रहनेवाला मन और प्राण भी होती है । चैत्य, जबतक परदेमें रहता है तबतक, उसे मन और प्राणके द्वारा ही व्यक्त होना होता है और वहां उसकी अभीप्साओंके साथ प्राणिक तथा मानसिक चीजें मिलजुल जाती एवं उसपर अपना रंग चढ़ा देती हैं । इस प्रकार, परदेके पीछे विद्यमान चैत्य प्रेरणा मनके अन्दर भगवान्का ज्ञान प्राप्त करनेके विचारकी भूखके रूपमें प्रकट हो सकती है, जिसे यूरोपके लोग ईश्वरके लिये बौद्धिक प्रेम कहते हैं । प्राणके अन्दर वह भगवान्- की चाह या उत्कट लालसाके रूपमें प्रकट हो सकती है । वह चीज प्राणकी प्रकृतिके कारण, उसके अशांत आवेगों, कामनाओं, उत्सुकताओ, विक्षुब्ध भावावेगों, खिन्नता- ओं, अवसादों तथा निराशाओंके कारण बहुत कष्ट ला सकती है । पर, जो हो, सब कोई भगवान्की ओर विशुद्ध चैत्य मार्गसे नहीं जा सकते, कम-सें-कम तुरत -फुरत तो नहीं ही जा सकते,--मन और प्राणकी चेष्टाएं प्रायः आरम्भमें आवश्यक होती हैं और आध्यात्मिक दृष्टिसे भगवान्के प्रति असंवेदनशील होनेकी अपेक्षा अधिक अच्छी होती हैं । इन दोनों अवस्थाओंमें यह अन्तरात्माकी पुकार, अन्तरात्माकी प्रेरणा ही होती है; हां, मन या प्राणकी प्रकृतिके दबावमें पड़कर केवल यह एक रूप या रंग ले लेती है ।

 

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      यह बहुत स्पष्ट है कि ' ' में आध्यात्मिक अनुभवकी ओर एक सहसा उद्घाटन हो गया है -- आश्चर्यजनक रूपमें सहसा उद्घाटन, ऐसा लग सकता है, परन्तु बहुधा उसी रूपमें वह घटित होता है, विशेषकर यदि बाहर में तो शंकाशील मन हो और अन्दरमें अनुभूतिके लिये तैयार अंतरात्मा हो । ऐसे प्रसंगोंमें वह बहुत बार एक आघात

 

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लंगनेके बाद भी आता है जैसे उसके भाईकी बीमारीसे आया हूँ, परन्तु में स्म्व्भता  हॅ कि उसका मन पहले ही मुंड चुका था और उसने ही उसकी तैयारी की थी । यह अचानक और बार-बार होनेवाला प्रत्यक्षीकरण भी यह सूचित करता है कि उसके अन्दर एक क्षमता है जिसने उन द्वारोंको भंग कर दिया है जो उसे अन्दर बन्द रखते है - यह अति- भौतिक दर्शनकी क्षमता है । ' 'कॅन्सीक्रेशन' ' ( आत्मनिवेदन ) शब्दका आना भी इन अनुभवोंका एक सुपरिचित व्यापारहै -- यही वह चीज है जिसे मैं चैत्य पुरुषकी वाणी कहता हूँ; यह उसके अपने ही अन्तरात्मासे मनके लिये एक संकेत है कि अन्तरात्मा उससे क्या कराना चाहता है । अब उसे इसको स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि यह आवश्यक है कि प्रकृति, बाह्य मनुष्य स्वीकार करे जिसमें कि वह प्रभावशाली हो सके । वह ( अपने जीवन-मार्गकी ) एक मोडपर खडा है और उसे उस मार्गका संकेत दिया गया है जिसे उसकी आंतरिक सत्ता, अन्तरात्मा उससे अनुसरण कराना चाहता है - परन्तु, जैसा कि मैं कहता हूँ, उसके मन और प्राणकी सहमति आवश्यक है । यदि वह आत्मनिवेदन करनेका निश्चय कर सके तो आत्मनिवेदनका संकल्प करना चाहिये, भगवान्के प्रति अपनेको उत्सर्ग करना चाहिये तथा सहायता और पथप्रदर्शनके लिये पुकारना चाहिये । यदि वह तुरन्त ऐसा न कर सके तो वह प्रतीक्षा करे और देखें, पर वह अपनेको, मानो, जो अनुभूति आरम्भ हुई है उसके जारी रहने और विकसित होनेके लिये खुला रखे, जबतक कि यह उसकी अपनी अनुभूतिमें निश्चित रूपमें अनिवार्य न बन जाय । वह सहायता प्राप्त करेगा और, वह यदि उस विषयमें सचेतन बन जाय, तो फिर आगे कोई प्रश्न ही नहीं रह सकता - पथमें आगे बढ़ना उसके लिये आसान हो जायगा ।

 

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      योगकी ओर मुड़नेके लिये उसपर डाला हुआ तुम्हारा प्रभाव अच्छा था, पर वह उसकी प्राणिक प्रकृतिको परिवर्त्तित करनेकी शक्ति नहीं रखता था । कोई मान- वीय प्रभाव -- जो केवल मानसिक और नैतिक ही हो सकता है -- वैसा नहीं कर सकता; तुम देख सकते हो कि वह जैसा पहले था ठीक वैसा ही है । वैसा केवल तभी हो सकता है जब कि उसका अन्तरात्मा भगवान्की ओर मुडो जाय । प्रुथका ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है -- उसपर चलना भी होगा, अथवा, यदि कोई वैसा न कर सके तो उसे अपनेको उसपर ले जाने देना होगा । मानवीय प्राणिक और भौतिक बाह्य प्रकृति एकदम अन्ततक बाधा देती है, परन्तु यदि अन्तरात्मा एक बार पुकार सुन लेता है तो वह, शीघ्रतासे या देरसे, अवश्य पहुँच जाता ह

 

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         जिन लोगोंके अन्दर भगवानके लिये सच्ची पुकार होती है, उनके सामने मन या प्राण चाहे कैसी भी कठिनाइयां क्यों न उपस्थित करें, चाहे जो भी आक्रमण क्यों न आयें अथवा उनकी प्रगति चाहे धीमी और दुःख पूर्ण ही क्यों न हो,-यहांतक कि यदि वे पीछे भी हट जायं अथवा कुछ कालके लिये पथसे पतित भी हो जायं तो भी अन्तमें उनका चैत्य पुरुष सर्वदा ही विजयी होता है और भागवत साहाथ्य प्रभावशाली सिद्ध होता है । उसीपर विश्वास रखो और पथपर डटे रहो -- फिर लक्ष्यतक पहुँचना  सुनिश्चित है ।

 

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       तुम्हारे प्रश्ननका उत्तर मैं पहेले ही दे चुका हूँ । तुम इस कारण आये कि तुम्हारा अन्तरात्मा भगवान्की खोज करनेके लिये प्रचालित हुआ था । यह सत्य है कि तुम्हारे प्राणका कुछ भाग उन लोगोंसे प्रबल रूपमें आसक्त है जिन्हें तुमने पीछे छोड़ा है, पर इससे तुम्हारे अन्तरात्माकी खोज झूठी नहीं हो जाती । यदि प्राणिक कठिनाइयोंका होना और बने रहना यह साबित करता हो कि साधक अयोग्य है और उसके लिये कोई संभावना नहीं, तो आश्रममें केवल एक या दो - और शायद वे भी नहीं - कसौटी- पर उतरेंगे । शुष्कताका अनुभव और अभीप्सा न कर पाना भी कोई प्रमाण नहीं है । प्रत्येक साधक ऐसे खालीपनके कालोमेंसे और यहांतक कि लम्बे कालोमेसे गुजरते हैं । मैं कुछ लोगोंके ओर संकेत कर सकता हूँ जिनकी गिनती अत्यन्त ' 'उन्नत' ' साधकों- में की जाती है और फिर भी जो अभीतक पारिवारिक सहजप्रवृत्तिसे पूर्णतः मुक्त नहीं हुए हैं । अतएव इन प्रतिक्रियाओंके कारण, जो अभी भी तुममें बनी हुई हैं, विचलित होना बिलकुल अयुक्तिसंगत हे । ये प्रतिक्रियाएं आती हैं और चली जाती हैं, परन्तु अन्तरात्माकी आवश्यकता स्थायी होती है, उस समय भी जब वह आच्छन्न और निस्तब्ध होती है, और वह बराबर बनी रहेगी और बार-बार प्रकट होगी ।

 

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         जो लोग यहां आये वे सभी भगवानके लिये सज्ञान खोजके साथ नहीं आये । वास्तवमे उनका मन इसे नहीं जानता था, उनका अंतरस्थ अन्तरात्मा ही उन्हें यहां ले आया । तुम भी उसी तरह और श्रीमाताजीके साथ तुम्हारे अन्तरात्माका जो संबंध है उसके कारण आये । एक बार यहां आ जानेपर भगवान्की शक्ति मानव-प्रकृति- पर कार्य करती है जबतक कि अन्तरस्थ अन्तरात्माके लिये पर्देसे बाहर निकल आने- का पथ नहीं खुल जाता । भगवानके लिये सचेतन खोज स्वयं अपने-आप प्रकृतिके अज्ञानके साथ होनेवाले संघर्षको नहीं रोकता; एकमात्र श्रीमाताजीको आत्मदान कर देनेपर ही मनुष्य वैसा कर सकता है ।

 

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        जब किसी ब्यक्तिका इस पथपर आना पूर्वनिर्दिष्ट होता है तो सभी परि- स्थितियां मन और प्राणके समस्त स्खलनोंके द्वारा किसी-न-किसी रूपमें उसे उस ओर ले जानेमें सहायता करती हैं । सच पूछा जाय तो उसके अन्दर विद्यमान उसका चैत्य पुरुष तथा ऊर्ध्वस्थित भागवत शक्ति ही उस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये मन तथा बाह्य परिस्थिति दोनोके उलट-फेरोका व्यवहार करती हैं ।

 

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       जब अन्तरात्माका आगे बढ़ना अभिप्रेत होता है और उस तरहकी कोई बाहरी कमजोरी होती हे तो उसके विरुद्ध बाहरी सत्ताको सहायता करनेके लिये परिस्थितियां उस तरह आती ही हैं  जिसका मतलब है कि पीछेकी ओर कोई वास्तवमें सच्ची अभीप्सा अवश्य होगी; अन्यथा ऐसा नहीं घटित होता ।

 

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       आध्यात्मिक भवितव्यता सदा बनी रहती है - वह अवरुद्ध हो सकती या कुछ समयके लिये लुप्त हो गयी-सी प्रतीत हो सकती है, पर वह कभी विनष्ट नहीं होती ।

 

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       आध्यात्मिक सुयोग कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे इस भावनाके साथ हलके रूपमें दूर फेंक दिया जाय कि किसी दूसरे समय सब ठीक हो जायगा -- दूसरे समयके विषयमें कोई उतना निश्चित नहीं हो सकता । इसके अतिरिक्त, ये चीजे एक चिह्न छोड़ जाती हैं और उस चिह्नके स्थानपर पुनरावृत्ति हो सकती है ।

 

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      ज्योतिका दर्शन और जगन्नाथके रूपमें भगवानका दर्शन ये दोनों ही चीजे यह सूचित करती हैं कि उसमें योग करनेकी क्षमता है और उसकी आंतर सत्ताके लिये भगवान्की पुकार हो गयी है । परन्तु क्षमता ही पर्याप्त नहीं है; भगवान्की खोज करनेका संकल्प भी होना चाहिये तथा प्रुथका अनुसरण करनेका साहस और आग्रह भी होना चाहिये । यह पहली वस्तु है जिसे निकाल फेंकना होगा और दूसरी है बाहरी सत्ताकी गमसिकता जिसने उसे उस पुकारका प्रत्युत्तर देनेसे रोक रखा है ।

 

     वह ज्योति भागवत चैतन्यकी ज्योति है । इस योगका लक्ष्य है सबसे पहले इस चेतनाके साथ संपर्क स्थापित करना और फिर उसकी ज्योतिमें निवास करना और उस ज्योतिको  प्रकृतिका रूपांतर करने देना जिसमें कि 'ल भगवानके

 

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साथ प्राप्त एकत्वमें निवास कर सके तथा प्रकृति दिव्य ज्ञान, दिव्य शक्ति और दिव्य आनन्दकी क्रियाका क्षेत्र बन जाय ।

 

      यदि वह इसी चीजको अपने जीवनका चरम उद्देश्य बना ले और बाकी सभी चीजोंको इसी एक उद्देश्यके अधीन कर देनेके लिये तैयार हो जाय तो केवल तभी वह ऐसा करनेमें सफल हो सकता है । अन्यथा इस जीवनमें वह केवल थोड़ीसी तैयारी ही कर सकता है - एक प्रकारका प्रारंभिक संपर्क प्राप्त कर सकता और अपनी प्रकृतिके किसी अंगमें थोड़ासा आध्यात्मिक परिवर्तन ला सकता है ।

 

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       सभी लोग अपनी-अपनी प्रकृतिके अनुसार कोई-न-कोई योग कर सकते हैं यदि उनमें उसे करनेकी इच्छा हो । परन्तु ऐसे थोडेसे लोग होते हैं जिनके विषयमें यह कहा जा सकता है कि वे इस योगके अधिकारी हैं । केवल कुछ लोग ही क्षमताका विकास कर सकते हैं, दूसरे नहीं कर सकते ।

 

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        कोई व्यक्ति साधनाके योग्य नहीं होता - अर्थात् कोई व्यक्ति एकमात्र अपनी निजी क्षमताके बलपर उसे नहीं कर सकता । बस, प्रश्न है अपने-आपको इस प्रकार तैयार करना जिसमें कि अपनी निजी नहीं, बल्कि दिव्य शक्ति पूर्ण रूपमें अपने अन्दर आ जाय जो इस कार्यको, हमारी अनुमति और अभीप्सा रहनेपर, पूरा कर सकती है ।

 

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      यह कहना कठिन है कि कोई विशिष्ट गुण मनुष्यको योग्य बनाता है अथवा उसका अभाव अयोग्य । किसीमें प्रबल कामावेग, शंका-संदेह, विद्रोह-भाव हो सकता है और फिर भी अन्तमें वह सफल हो सकता है, जब कि दूसरा व्यक्ति असफल हो सकता है । यदि किसीके अन्दर मौलिक सच्चाई हो, सभी चीजोंके बावजूद अन्ततक चले जानेका संकल्प हो और सरल-निश्छल बने रहनेकी तत्परता हो तो साधनामें यही सबसे उत्तम सुरक्षा देनेवाली वस्तु होती है ।

 

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जब कोई सच्ची (यौगिक ) चेतनामें प्रवेश करता है तो तुम देखते हो कि सब कुछ किया जा सकता है, यदि अभी केवल जरा-सा प्रारम्भ ही क्यों न किया गया हो; प्रारम्भ करना पर्याप्त है, क्योंकि दिव्य शक्ति, भागवत बल-सामर्थ्य .' विद्यमान

 

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है । वास्तवमें देखा जाय तो बाहरी प्रकृतिकी क्षमतापर सफलता निर्भर नही करती,  (बाह्य प्रकृतिके लिये संपूर्ण आत्मातिक्रमण असम्भव रूपमें कठिन प्रतीत होता है ), परन्तु आंतरिक सत्ताके बलपर और आंतरिक सत्ताके लिये सब कुछ सम्भव है । मनुष्यको केवल आंतरसंत्ताके साथ संपर्क स्थापित करना होगा और आंतरिक सहायता- से बाह्य दृष्टि और चेतनाको परिवर्त्तित करना होगा । यही साधनाका कार्य है और सच्चाई, अभीप्सा तथा धैर्य होनेपर उसका आना सुनिश्चित है ।

 

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       तुम्हें यह समझ लेना चाहिये कि ये मनोभाव ऐसे आक्रमण है जिनका तुम्हें तुरन्त परित्याग कर देना चाहिये -- क्योंकि ये और किसी चीजपर नहीं, बल्कि अपने ऊपर अविश्वास तथा असमर्थताके सुझावोंपर अवलंबित होते हैं जिनका कोई अर्थ नहीं होता, क्योंकि सच पूछा जाय तो तुम अपनी क्षमता और योग्यताके बलपर नहीं बल्कि भगवान्की कृपा तथा अपनेसे कहीं महत्तर किसी दिव्य शक्तिकी सहायतासे ही साधनाके लक्ष्यको सिद्ध कर सकते हो । तुम्हें इस बातको याद रखना होगा और जब ये सूचनाएं आयें तो इनसे अपनेको पृथक् कर लेना होगा, कभी भी इन्हें न तो स्वी- कार करना होगा या न इनके वशमें होना होगा । किसी साधकमें यदि प्राचीन ऋषियों और तपस्वियोंका सामर्थ्य या विवेकानन्दका बल भी हो तो भी वह अपनी साधनाके प्रारम्भिक वर्र्षोमें लगातार अच्छी स्थिति या भगवान्के साथ एकत्च या अटूट पुकार या अभीप्साकी ऊंचाईको बनाये रखनेकी आशा नहीं कर सकता । समस्त प्रकृतिको अध्यात्मभावापन्न बनानेमेलम्बा समय लगता है और जबतक यह नहीं हो जाता तबतक उतार-चढ़ाव अवश्य होगा । एक प्रकारके सतत विश्वास और धैर्यको विकसित करना होगा - प्राप्त करना होगा - जरा भी कम नहीं जब कि परिस्थितियां प्रतिकूल हों -- क्योंकि जब वे अनुकूल होती हैं, विश्वास और धैर्यको बनाये रखना आसान होता है ।

 

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       यह कहनेकी आवश्यकता नहीं कि जिन गुणोंकी चर्चा तुम करते हो वे आध्यात्मिक पथकी ओर जानेमें सहायक होते हैं, जब कि जिन दोषोंको तुम गिनाते हो उनमेंसे प्रत्येक इस पथका एक बहुत बड़ा रोड़ा है 1 आध्यात्मिक प्रयासके लिये सच्चाईका होना विशेष रूपसे अत्यन्त आवश्यक है और कुटिलता एक स्थायी बाधा है । सात्त्विक प्रकृतिको आध्यात्मिक जीवनके लिये सदासे अत्यन्त उपयुक्त और अनुकूल माना जाता रहा है, जब कि राजसिक प्रकृति अपनी कामनाओं और आवेगो- के द्वारा भाराक्रात रहती है । और, आध्यात्मिकता एक ऐसी चीज है जो द्वन्द्वोंसे परे होती है, और इसके लिये सबसे अधिक आवश्यकता होती है एक सच्ची ऊर्ध्वमुखी

 

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अभीप्साकी । यह अभीप्सा राजसिक मनुष्यमें भी उठ सकती है और सात्विक मनुष्य- में भी । यदि यह उठती है तो उसके द्वारा राजसिक मनुष्य ठीक उसी तरह अपनी दुर्बलताओं और: कामनाओं और आवेगोंसे ऊपर उठकर भागवत पवित्रता और ज्योति और प्रेमतक पहुँच सकता है जैसे कि दूसरा अपने पुण्योंसे ऊपर उठकर वहां पहुँच सकता है । अवश्य ही, यह केवल तभी हो सकता है जब कि वह अपनी निम्र प्रकृतिको जीत ले और अपने अन्दरसे उसे निकाल फेंके; क्योंकि, वह यदि फिरसे उसमें गिर जाय तो यह सम्भव है कि वह पथसे पतित हो जाय अथवा कम-से-कम, जबतक वह गिरावटकी स्थिति बनी रहे तबतक, उसके कारण अपनी आंतरिक प्रगति करनेसे रुका रहे । पर तो. भी, धार्मिक और आध्यात्मिक इतिहासमें प्रायः ही बडे-बडे पापियोंका महान् सन्तों- में, कम गुणशाली या गुगाहीन मनुष्योंका आध्यात्मिक विज्ञासुओं और ईश्वर-प्रेमियों- में परिवर्तन होता रहा है -- जैसे, यूरोपमें सन्त ऑगस्टीन, भारतमें चैतन्यके जगाई और मधाई, विल्वमंगल तथा अनेक दूसरे लोग । भगवान्का गृह किसी व्यक्तिके लिये बन्द नहीं रहता जो सच्चाईके साथ उसके दरवाजोंको खटखटाता हूँ, चाहे पहले उसमें जितनी भी भूल-भ्रांतियां और दोष-त्रुटियां क्यों न रही हो । मानवीय गुण और मानवीय दोष हमारे अन्दर विद्यमान दिव्य तत्त्वके सफेद और काले आवरण हैं जिन्हें यदि एक बार वह तत्व भेद दे तो इन दोनोंके भीतरसे वह आत्माकी ऊंचाइयोंकी ओर प्रज्वलित हो सकता है ।

 

         भगवान्के सम्मुख विनम्रता भी आध्यात्मिक जीवनका एक अपरिहार्य गुण है, और आध्यात्मिक घमंड, दंभ या मिथ्याभिमान और अपने-आपपर ही भरोसा सर्वदा नीचेकी ओर धकेलते हैं । परन्तु भगवान्पर विश्वास और अपनी आध्यात्मिक भवि- तव्यतापर विश्वास ( अर्थात् यह भाव कि चूँकि मेरा हृदय और अन्तरात्मा भगवान्- को खोजते हैं मैं उन्हें प्राप्त करनेमें असफल नहीं हो सकता ) -ये मार्गकी कठिनाइयोंको देखते हुए बहुत आवश्यक हैं । दूसरोंके प्रति पृणा-भाव रखना अनुचित है, विशेष- कर इस कारण कि भगवान् सबके अन्दर विराजमान हैं । स्पष्ट ही मनुष्योंकी क्रियाए और अभीप्साएं तुच्छ और मूल्यहीन नहीं हैं, क्योंकि समस्त जीवन ही अन्तरात्माका अन्धकारसे निकलकर ज्योतिकी ओर अग्रसर होना है । परन्तु हमारा मनोभाव यह है कि मनुष्यजाति मनद्वारा गृहीत सामान्य उपायोंसे, राजनीति, सामाजिक सुधार, लोकोपकार आदिके द्वारा अपनी सीमाओंसे बाहर नहीं जा सकती -- ये चीजे केवल सामयिक या स्थानिक ओषधियां हो सकती हैं । निस्तार पानेका एकमात्र सच्चा उपाय है चेतनाका परिवर्तन, होनेकी एक महत्तर, विशालतर और विशुद्धतर पद्धति- मे परिवर्तन, और उसी परिवर्तनपर आधारित जीवन और कर्म । अतएव उसी चीज- की ओर समस्त शक्तियोंको मोड देना चाहिये जब एक बार आध्यात्मिक जागृति पूर्ण हो जाय । इसका अर्थ अवहेलना करना नही है, बल्कि जो उपाय निष्फल ज्ञात हुए हैं उनके बदते मात्र फलदायी साधनोंको पसन्द करना है ।

 

 

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        इसे इस प्रकार रखा जा सकता है; परन्तु पुण्यात्मा और पापी कहना गलत वर्णन है; क्योंकि यह सही नहीं है कि पुण्यात्मा लोग पापियोंकी अपेक्षा अधिक दुःख भोगते हैं । बहुतेरे पापी ऐसे मनुष्य हैं जो भगवान्की ओर मुड़नेकी तैयारी कर रहे हैं और बहुतेरे पुण्यात्मा लोगोंको अभी अनेक जन्मोंका चक्कर काटना पड़ेगा और उसके बाद ही वे भगवान्की ओर जानेकी बात सोचेंगे ।

 

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       श्रद्धा, सच्चाई, अभीप्सा, भक्ति इत्यादि जैसे गुण पूर्णताका निर्माण करते हैं जिसे फूलोंकी हमारी भाषामें सूचित किया गया है । साधारण भाषामें इसका अर्थ कुछ और होगा जैसे पवित्रता, प्रेम, दया, विश्वस्तता और अन्य गुणोंका एक समूह ।

 

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        हृत्युरुषको सामने ले आओ और उसे वहीं बनाये रखो तथा उसकी शक्तिको मन, प्राण और शरीरके ऊपर प्रयुक्त करो जिसमें वह अपनी अनन्य अभीप्सा, श्रद्धा- विश्वास और समर्पणके बलको, तथा प्रकृतिमें जो कुछ दोष हो, जो कुछ अहंकार और प्रमादकी ओर झुका हुआ हो,. ज्योति और सत्यसे दूर चला गया हो, उसे तुरन्त और प्रत्यक्ष रूपमें पहचान लेनेके अपने सामर्थ्यको उनके मन, प्राण और शरीरके ) अन्दर संचारित कर सके ।

 

         अहंकारके जितने भी रूप हों उन सबको निकाल बाहर करो; उसे अपनो चेतना- की प्रत्येक क्रियामेंसे दूर कर दो ।

 

         विश्वव्यापी चेतनाको विकसित करो । अपने अहं-केन्द्रित द्राष्टका विशालताम नैर्व्यक्तिकतामे, विश्वगत भगवान्की अनुभूतिमें, विश्वशक्तियोकी प्रत्यश प्रतीतिमें और जागतिक अभिव्यक्ति, विश्वलीलाकी सत्योपलब्धि तथा रहस्यबोधमें विलीन हो जाने दो ।

 

          अहंकारके स्थानमें अपनी सत्य-सत्ताको प्राप्त करो, जो भगवान्का अंश है, विश्वजननीसे उत्पन्न हुआ है और इस अभिव्यक्तिका यंत्र है । परन्तु भगवान्का एक अंश, एक यंत्र होनेका जो यह बोध है वह सब प्रकारके गर्व, अहंबोध या अहंकारके दावोंसे या श्रेष्ठत्वस्थापन, मांग या वासनासे रहित होना चाहिये । कारण, यदि ये सब चीजे वहां हों तो यह समझना होगा कि वह यथार्थ वस्तु नहीं है ।

 

            बहुत लोग साधना करते समय अपने मन, प्राण और शरीरमें ही निवास करते हैं और वे मन, प्राण और शरीर कभी-कभी या कुछ अंशमें ही उच्चतर मन और प्रबुद्ध मनके द्वारा उद्भासित होते हैं; किन्तु अतिमानसिक परिवर्तनके लिये प्रस्तुत होनेके के लिये यह आवश्यक है कि ( जैसे ही व्यक्ति-विशेषके लिये इसका समय आ जाय ) संबोधि और अधिमानसकी ओर आत्मोद्घाटन किया जाय, जिसमें ये हमारी समस्त

 

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सत्ता और सारी प्रकृतिको अतिमानसिक रूपांतरके लिये तैयार कर दें । चेतनाको शान्तिके साथ विकसित और विस्तृत होने दो,' फिर इन सब बातोंका ज्ञान तुम्हें अधि- काधिक होता जायगा ।

 

      स्थिरता, विवेक- बुद्धि, अनासक्ति ( किन्तु उदासीनता नहीं ) -ये सब अत्यन्त आवश्यक हैं, क्योंकि इनके जो विरोधी भाव हैं वे रूपांतरके कार्यमें बहुत अधिक बाधा पहुँचाते हैं । अभीप्सामें तीव्रता होनी चाहिये, परन्तु इसे इन सब चीजोंके साथ-साथ रहना चाहिये । न तो जल्दबाजी होनी चाहिये, न जड़ता; न तो राजसिक अति- उत्सुकता होनी चाहिये न तामसिक निरुत्साह - एक धीर-स्थिर, अविराम पर शांत आवाहन और क्रिया होनी चाहिये । सिद्धिको छीनने-झपटने या पकड़ लेनेकी वृत्ति नही होनी चाहिये, बल्कि उसे भीतरसे या ऊपरसे अपने-आप आने देना चाहिये और उसके क्षेत्र, उसकी प्रकृति, उसकी सीमाओंका ठीक-ठीक निरीक्षण करते रहना चाहिये ।

 

       श्रीमांकि शक्तिको अपने अन्दर कार्य करने दो, परन्तु इस विषयमें सावधान रहो कि कहीं तुम्हारे वर्धित अहंकारकी कोई क्रिया या सत्यके रूपमें सामने आनेवाली कोई अज्ञानकी शक्ति उसके साथ मिलजुल न जाय या उसका स्थान स्वयं ग्रहण न कर ले । विशेष रूपसे इस बातकी अभीप्सा करो कि तुम्हारी प्रकृतिमेंसे समस्त अन्धकार और अचेतनता दूर हो जायं ।

 

       ये ही प्रधान शर्त्त हैं जिनका पालन करनेपर मनुष्य अतिमानसिक रूपांतरके लिये तैयार हो सकता हे; परन्तु इनमेंसे किसी भी शर्त्तको पूरा करना आसान नहीं है, और जब पूर्ण रूपसे इन सबका पालन होगा तभी यह कहा जा सकता है कि प्रकृति तैयार हो गयी है । यदि साधनाका यथार्थ भाव (जो चैत्य भाव होता है, अहकारशून्य होता है, एकमात्र भागवत शक्तिकी ओर ही उद्घाटन है ) स्थापित हो जाय तो फिर साधना- की क्रिया बहुत अधिक तेजीके साथ आगे बढ़ सकती है । इस यथार्थ भावको ग्रहण करना और बनाये रखना, अपने अन्दर होनेवाले परिवर्तनको बढ़ाते रहना - बस इतना करना ही साधककी ओरसे सहायता करना है और इसे वह कर सकता हूँ, और सर्वांगीण परिवर्तनकी सहायताके लिये उससे बस इसी एक चीजकी मांग की जाती है ।

 

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मैं समझता हूँ कि तुम्हारे पत्रका उत्तर देनेका सर्वोत्तम तरीका यह होगा कि उसमें सन्निहित प्रश्नोंको अलग-अलग लिया जाय । तुमने जो यह निष्कर्ष निकाला है कि अ-प्राव्य प्रकृतिके लिये योग करना असम्भव है, इसीसे मैं आरम्भ करूंगा ।

 

      मैं ऐसे निर्णयके लिये कोई कारण नहीं देख पाता; यह समस्त अनुभवके विपरीत है । यूरोपके लोगोंने शताब्दियोंसे सफलता पूर्वक आध्यात्मिक साधनाओंका अभ्यास किया है जो पूर्वीय योगसे मिलती-जुलती थीं और उन्होंने आध्यात्मिक जीवनकी उन रीतियोंका भी अनुसरण किया है जो उनके यहां पूर्वसे आयी थीं । उनका अ-पूर्वीय स्वभाव उनके मार्गमें बाधक नहीं हुआ । प्लोटिनसके और उनसे गृहीत यूरोपियन

 

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रहस्यवादियोंके मार्ग और अनुभव, जैसा कि अभी हालमें सिद्ध किया गया है, एक प्रकारके भारतीय योगसे मिलते-जुलते हैं । विशेषकर, ईसाई मतके प्रचारित होने- के समयसे, यूरोपियन लोगोंने इसके रहस्यवादी साधनाओंका अनुसरण किया है जो तत्त्वतः  साधनाओंसे अभिन्न थीं, चाहे वे अपने रूपों, नामों और प्रतीकोंमें जितना अधिक भिन्न क्यों न रही हों । यदि प्रश्न स्वयं भारतीय योगका, उसके अपने विशिष्ट रूपोंमें, हो तो भी अनुभव इस अनुमानित अयोग्यताका खंडन करता है । प्राचीन युगोंमें पश्चिमके यूनानी और सीथियन तथा पूर्वके चीनी, जापानी और कम्बो- डियन लोगोंने बिना किसी कठिनाईके बौद्ध और हिन्दु साधनाओंका अनुसरण किया; वर्तमान कालमें पाश्चात्य लोंगोंकी एक बहुत बड़ी संख्याने वेदान्त या वैष्णव या अन्य भारतीय आध्यात्मिक साधनाओंको ग्रहण किया है और इस अयोग्यता अथवा अनुप- युक्तताकी शिकायत कभी न तो शिष्योंकी ओरसे की गयी है और न गुरुओंकी ओरसे । और, मैं नहीं समझता कि इस प्रकारकी कोई अलंध्य खाई क्यों होनी चाहिये; क्योंकि पूर्वके आध्यात्मिक जीवन तथा पश्चिमके आध्यात्मिक जीवनके बीच कोई मौलिक भेद नहीं है । जो कुछ भेद है वह सदा नामों, रूपों और प्रतीकोंका रहा है अथवा किसी एक या दूसरे लक्ष्यपर अथवा आंतरिक अनुभवके किसी एक या दूसरे पक्षपर अधिक जोर दिया जाता रहा है । इस विषयमें भी बहुधा जिन भेदोंका आरोप किया जाता है वे या तो वास्तवमें नहीं हैं या उतने बड़े नहीं हैं जितने कि प्रतीत होते हैं । मैंने एक ईसाई लेखकको (जो इन बौद्धिक तुच्छ विभेदोंके विषयमें तुम्हारे मित्र ऐंगस ( की आपत्तिमें हिस्सा बंटाता हुआ नहीं प्रतीत होता ) यह आरोप लगाते हुए देखा है कि हिन्दु आध्यात्मिक चिंतन और जीवन केवल परात्परको स्वीकार करता और उसीका अनुसरण करता है और सर्वव्यापी भगवान्की उपेक्षा करता है, जब कि ईसाई मत भगवान्के दोनों स्वरूपोंको उचित स्थान देता है; परन्तु वास्तवमें देखा जाय तो भारतीय आध्यात्मिकताने, नाम और रूपसे परे उच्चतम दिव्य तत्वपर अन्तिम जोर देनेपर भी, संसारके अन्दर परिव्याप्त भगवान् और मनुष्य-प्राणीके अन्तरस्थ भगवान्-  . को पूरी-पूरी मान्यता और स्थान प्रदान किया है । यह सच है कि भारतीय आध्यात्मिकताके पीछे एक विशालतर और सूक्ष्मतर ज्ञान विद्यमान है । इसने सैकड़ों भिन्न-भिन्न पथोंका अनुसरण किया है, भगवान्की ओर जानेके प्रत्येक प्रकारके मार्गों- को स्वीकार किया है और इस तरह वह उन क्षेत्रोंमें प्रवेश करनेमें समर्थ हुई है जो पाश्चात्य साधनाके कम विस्तृत क्षेत्रसे बाहर हैं । परन्तु इससे मौलिक तत्वोंमें कोई अन्तर नहीं आता, और सच पूछा जाय तो केवल मौलिक तत्त्वोंका ही विशेष मूल्य है ।

 

     ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय योगका अभ्यास करनेकी बहुतेरे पश्चिमी लोगोंकी योग्यताकी तुम्हारी व्याख्या यह है कि उनके यूरोपियन और अमेरिकन शरीरमें हिन्दू स्वभाव है । तुम कहते हो कि जैसे गांधीजी आंतरिक रूपमें एक नैतिकता- वादी पाश्चात्य और ईसाई हैं, वैसे ही आश्रमके पाश्चात्य सदस्य अपने दृष्टिकोणमें मूलतः हिन्दू हैं । परन्तु यह हिन्दू दृष्टिकोण ठीक-ठीक है क्या वस्तु? मैनई स्वयं उनके अन्दर. चीज ' देखी जिसका वर्णन इस प्रकार किया जाय और

 

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न माताजीने ही देखा है । मेरा अपना अनुभव तुम्हारी व्यास्याका पूर्णत: खंडन करता है । मैं बहन निवेदिताको अच्छी तरह जानता था (वह बहुत वषोंतक राजनीतिक क्षेत्रमें एक साथिनी और सहकर्मिणी थीं ) और बहन क्रिस्टीनसे मिला था,-ये दोनों विवेकानन्दकी दो घनिष्ठ यूरोपियन शिष्याएं थीं । दोनों ही अपने अन्तरतम प्रदेश- तक पाश्चात्य थीं और हिन्दू दृष्टिकोणका कुछ भी अंश उनमें नहीं था; यद्यपि बहन निवेदितामें, जो एक आयलैंडकी महिला थीं, एक ऐसी शक्ति थी कि वह एक तीव्र सहानुभूतिके द्वारा अपने चारों ओरके लोगोंकी जीवन-पद्धतिके अन्दर प्रवेश कर जाती थीं, पर उनका अपना स्वभाव अन्ततक अ-प्राव्य ही बना रह गया, फिर भी उन्हें वेदांतकी धारामें आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करनेमें कोई कठिनाई नहीं हुई । यहां, इस आश्रममें मैंने इसके उन सदस्योको देखा है जो पश्चिमसे आये हैं (मैं विशेष रूपसे उन लोगोंको समाविष्ट करता हूँ जो यहां बहुत दिनोंसे. रह रहे हैं ), वे अपने समस्त गुणोंमें विशेष रूपमें पाश्चात्य हैं और उनमें पश्चिमी मन तथा प्रकृतिकी सभी कठि- नाइयां भी हैं तथा उन्हें अपनी कठिनाइयोंके साथ ठीक वैसे ही निपटना पडा है, जैसे कि भारतीय सदस्योंकी अपने स्वभाव और शिक्षाद्वारा उत्पन्न सीमाओं और बाधाओं- के साथ संघर्ष करनेके लिये बाध्य होना पडा है । निःसंदेह, उन्होंने योगकी शर्त्तोंको तत्त्वतः स्वीकार किया है, पर जब वे आये तब उनमें हिन्दु दृष्टिकोण नहीं था और मैं नहीं समझता कि उन्होंने उसे प्राप्त करनेका प्रयास ही किया । वे भला वैसा क्यों करते? सच पूछा जाय तो योगमें हिन्दू दृष्टिकोण या पाश्चात्य दृष्टिकोणका कोई मौलिक महत्च नहीं है, बल्कि मह्त्त्व है चैत्य पुरुषके झुकावका और आध्यात्मिक लगनका और ये चीजे सर्वत्र एक जैसी हैं ।

 

       आखिरकार, यौगिक दृष्टिसे भारतके साधकों और पश्चिममें जन्मे हुए .साधकों- के बीच क्या विभेद है? तुम कहते हो कि भारतीयके लिये उसका आधा योग हो चुका रहता है,--प्रथम, इस कारण कि उसका चैत्य पुरुष बहुत अधिक प्रत्यक्ष रूपमें परात्पर भगवान्की ओर उन्मुक्त रहता है । विशेषणको छोड़ देनेपर भी, (क्योंकि ऐसे बहुत- से लोग नहीं होते जो स्वभावत: ही परात्परकी ओर आकर्षित हों, अनेक लोग अधिक आसानीसे साकार भगवान्को, यहां अंतर्यामी भगवान्को खोजते हैं, विशेषकर यदि वे उन्हें किसी मानव-शरीरमें प्राप्त कर सकें ); यहां भारतमें निस्संदेह कुछ सुविधा है । इसका कारण महज यह है कि भारतमें आध्यात्मिक खोजका वातावरण और साधना तथा अनुभूतिकी एक दीर्घ परम्परा प्रबल रूपमें बनी हुई है, जब कि यूरोपमें यह वाता- वरण नष्ट हो गया है, परम्परा खंडित हो गयी है, ओर दोनोंको फिरसे निर्मित करना होगा । यहां मूलभूत शंका-सन्देहका अभाव है जो इतना अधिक यूरोपियन लोगों या, इतना और जोड़ दें कि, यूरोपियन भाववाले भारतीयोंके मनको आक्रांत करता है, यद्यपि इससे भारतीय साधकोंमें व्यावहारिक तथा अत्यन्त फलदायक प्रकारके सन्देह- की महान् क्रिया बन्द नही हो जाती । परन्तु जब तुम किसी गभीरतर भावमें अपने सजातीय मानव-प्राणियोके प्रति उदासीनताकी चर्चा करते हो तो मैं उसका अर्थ समझनेमें अपनेको असमर्थ पाता । मेरा अपना अनभब '' कि व्यक्तियोंके प्रति -

 

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माता, पिता, स्त्री, बच्चों, मित्रोंके प्रति -- कर्तव्यकी या सामाजिक सम्बन्धकी दृष्टिसे ही नहीं, वरन् हृदयके घनिष्ठ बन्धनके द्वारा -- यूरोपमें भी लोग बिलकुल उतने ही प्रबल रूपमें आसक्त होते हैं और बहुत बार तो और भी अधिक तीव्र रूपमें; यह योगपथमें सबसे अधिक बाधा डालनेवाली एक शक्ति है, कुछ लोग तो इस आकर्षण- के सामने हार मान जाते हैं और अनेक लोग, यहांतक कि उन्नत साधक भी, इसे अपने खून तथा अपने प्राणिक तंतुसे बाहर निकाल फेंकनेमें असमर्थ होते है । दूसरोंके साथ एक ' 'आध्यात्मिक' 'अथवा ' 'चैत्य' ' सम्बन्ध स्थापित करनेका आवेग भी -- जो बहुत सामान्य रूपमें एक प्राणिक मिलावटको छिपाये रखता है और जो मिलावट कि उन्हें अपने एकमात्र लक्ष्यसे विचलित करती है -- प्रायः निरन्तर दिखायी देनेवाला एक लक्षण है । यहां पाश्चात्य और पौर्वात्य मानव स्वभावमें कोई अन्तर नहीं है । केवल भारतकी शिक्षा दीर्घकालसे यह रही है कि सब कुछ भगवान्की ओर मोड देना चाहिये और दूसरी प्रत्येक चीजको या तो त्याग देना चाहिये या एक गौण और सहायक क्रिया- में बदल देना चाहिये अथवा उसके उन्नयनके द्वारा केवल भगवान्की खोजका प्रथम पग बना देना चाहिये । निस्सन्देह यह चीज भारतीय साधकको, यदि तुरत अनन्य- चित्त बननेमें नहीं तो भी अपनेको अधिक पूर्णताके साथ लक्ष्यकी ओर मोड देनेमें सहायता करती है । उसके लिये लक्ष्य सर्वदा एकमात्र भगवान् ही नहीं होते, यद्यपि यही सबसे ऊंची स्थिति मानी जाती है; परन्तु वह मुख्यतया और प्रथमत: आसानीसे भगवान्को अपने आदर्शके रूपमें ग्रहण करता है ।

 

       योगसाधनाके अपने पथमें -- कम-से-कम इस योगकी साधनामें -- भारतीय साधकको अपनी निजी कठिनाइयां होती हैं, जो पश्चिमी साधकको कम मात्रामें होती हैं । पाश्चात्य प्रकृतिकी कठिनाइयां वे हैं जो आसन्न अतीतके यूरोपीय मनकी प्रमुख प्रवृत्तिसे उत्पन्न होती हैं । उसकी सामान्य बाधाएं ये हैं -- मौलिक शंका उठानेकी बहुत अधिक तत्परता और मनमें सन्देहवादी बना रहना; स्वभावकी आवश्यकताके रूपमें मानसिक क्रियाओंको जारी रखनेका अभ्यास, जिससे पूर्ण मानसिक नीरवता प्राप्त करनेमें अधिक कठिनाई होती हे; सक्रिय जीवनकी समृद्धिसे उत्पन्न. बाहरी वस्तुओंकी ओर एक प्रबल झुकाव (जब कि भारतीय साधक सामान्यतया अवसन्न या निगृहीत प्राणशक्तिसे उत्पन्न दोषोंसे अधिकतर पीड़ित रहते हैं ); मानसिक और प्राणिक स्वमतस्थापनकी आदत और कभी-कभी आक्रामक रूपसे जागृत स्वातंन्यका भाव जो किसी महत्तर ज्योति और ज्ञान, यहांतक कि भागवत प्रभावके प्रति भी किसी प्रकारके पूर्ण आंतरिक समर्पणको कठिन बना देता है । परन्तु ये चीजें पश्चिमी लोगों- में सार्वजनीन नहीं हैं, और ये, दूसरी ओर, बहुतसे भारतीय साधकोंमें भी विद्यमान हैं; विशिष्ट भारतीय स्वभावकी कठिनाइयोंकी तरह ही ये भी सत्ताके यथार्थ स्वभाव- की चीजे नहीं हैं, बल्कि ऊपरी रचनाएं हैं । ये अन्तरात्माके मार्गमें स्थायी रूपसे रोड़ा नहीं अटका सकतीं, बशर्त्ते कि अन्तरात्माकी अभीप्सा प्रबल और सुदृढ़ हो, आध्यात्मिक लथ्य ही साधकके जीवनकी प्रमुख वस्तु हो । ये ऐसी रुकावटें हैं जिन्हें अन्दरकी अग्नि आसानीसे भस्म कर सकती है यदि इनसे अ पानेका संकल्प प्रबल, और यदि

 

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बाहरी प्रकृति दीर्घ कालतक इनसे चिपकी रहे और इनका समर्थन करे तो भी जिन्हें वह अन्तमें निश्चय ही - यद्यपि कम आसानीसे. - जला देगी, बशर्त्ते कि वह अग्नि, केंद्रीय संकल्प, गभीरतर प्रवेग सब कुछके पीछे हो और यथार्थ तथा सच्चाईयुक्त हो ।

 

         तुमने जो यह निष्कर्ष निकाला है कि भारतीय योग करनेमें अ-पूर्वीय लोग असमर्थ होते हैं, यह केवल तुम्हारी अपनी कठिनाइयोंके अत्यन्त अवसादपूर्ण तीव्र बोधकी उपज है; तुमने उतनी ही बड़ी और कठिनाइयोंको नहीं देखा है जिन्होंने दूसरोंको दीर्घ कालतक परेशान किया है या अभी भी कर रही हैं । न तो भारतीयोंके लिये और न यूरोपियनोंके लिये ही योगका मार्ग निर्विघ्र और सुगम हो सकता है; इसे देखनेके लिये उनकी साधारण मानव-प्रकृति विद्यमान है ही । प्रत्येक मनुष्यको अपनी निजी कठिनाइयां महान् और चरम और यहांतक( कि लगातार और अटल बनी रहनेके कारण असमाधेय प्रतीत होती हैं और विषाद तथा निराशाकी सकटावस्थाओको लम्बे कालतक बनाये रखती हैं । पर्याप्त श्रद्धा बनाये रखने या तुरत अथवा लगभग तुरत प्रतिक्रिया करने तथा इन आक्रमणोंको रोक देनेके लिये पर्याप्त चैत्य दृष्टि प्राप्त करनेकी शक्ति मुश्किलसे सौमें दों-तीन व्यक्तियोंको प्राप्त होती हे । परन्तु मनुष्यको अपने मनमें यह दृढ धारणा नहीं बैठा लेनी चाहिये कि मैं अक्षम हूँ अथवाइस धारणाके वशीभूत नहीं हो जाना चाहिये; क्योंकि ऐसे मनोभावके लिये कोई वास्तविक कारण नहीं है और अनावश्यक रूपसे यह मार्गको अधिक कठिन बना देता है । जहां भी कोई अन्त- रात्मा है जो एक बार जागृत हो गया है, वहां निस्सन्देह अन्तरमें एक क्षमता है जो सभी ऊपरी दोषोंसे प्रबल हो सकती और अन्तमें विजयी हो सकती है ।

 

        यदि तुम्हारा निर्णय सत्य हो तो इस योगका संपूर्ण लक्ष्य ही एक व्यर्थकी चीज हो जायगा । क्योंकि हम किसी एक जाति या एक राष्ट्र या एक महाद्वीपके लिये अथवा किसी ऐसी उपलब्धिके लिये कार्य नहीं कर रहे हैं जिसे प्राप्त करनेकी क्षमता केवल भारतीयोंको अथवा केवल पौर्वात्योको ही हो । फिर हमारा लक्ष्य यह भी नहीं है कि हम एक धर्मकी या किसी दार्शनिक मतकी या किसी योगमार्गकी स्थापना करें, बल्कि हमारा लक्ष्य है आध्यात्मिक विकास और अनुभवके एक ऐसे क्षेत्र और एक ऐसे पथका निर्माण करना जो एक ऐसे महत्तर सत्यको नीचे उतार लायगा जो मनसे अतीत तो होगा पर मानव-आत्मा और चेतनाके लिये दुष्प्राप्य नहीं होगा । जो लोग उस सत्यकी ओर आकर्षित होंगे वे सब उसे प्राप्त कर सकेंगे, चाहे वे भारतके हों अथवा अन्यत्र कहींके, चाहे पूर्वके हों या पश्चिमके । सभी लोग अपनी व्यक्तिगत या सामान्य मानवीय प्रकृतिमें महान् कठिनाइयोंका अनुभव कर सकते हैं; परन्तु सच पूछा जाय तो उनका भौतिक जन्म या उनका जातीय स्वभाव वह वस्तु नहीं है जो उनकी मुक्तिकी एक अलंप्य बाधा बन सके ।

 

II

 

बस, एक ही अनिवार्य शर्त्त है, सच्चाई ।

 

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        'सच्चा' महज एक विशेषण है जिसका अर्थ यह है कि मनुष्यका संकल्प सच्चा संकल्प होना चाहिये । यदि तुम सिर्फ यह सोचते हो कि ' 'मैं अभीप्सा करता हूँ' ' और ऐसी चीजे करते हो जो उस अभीप्साके साथ मेल नहीं खातीं; अथवा अपनी कामना- ओंका अनुसरण करते हो या अपनेको विपरीत प्रभावोंकी ओर उद्घाटित करते हो तो फिर वह सच्चा संकल्प नहीं है ।

 

*

 

      यह सच है कि केंद्रीय. सच्चाई ही पर्याप्त नहीं है, वह तो बस एक प्रारम्भ और आधार है; सच्चाईको, जैसा कि तुम कहते हो, सारी प्रकृतिभरमें फैल जाना चाहिये । परन्तु फिर भी, यदि मनुष्यमें द्विविध प्रकृति (केंद्रीय सामजस्यकारी चेतनाके. बिना ) न हो तो यह आधार सामान्यतया वैसा घटित होनेके लिये पर्याप्त होता है ।

 

*

 

        जब सब कुछ एकमेव परम सत्यके साथ अथवा उसकी अभिव्यक्तिके साथ मेल रखता है तो उसे ही समस्वरता या सामंजस्य कहते हैं ।

 

*

 

        प्राणसत्तामें सच्चाई ले आना अत्यन्त कठिन है और अत्यन्त आवश्यक है

 

*

 

          तुम कहते हो कि तुम्हारी प्रकृतिमें सच्चाई नहीं है । यदि सच्चाईके अभावका मतलब यह हो कि सत्ताका कोई भाग उस उच्चतम ज्योतिके अनुसार, जिसे कि साधक प्राप्त कर चुका है, जीवन बितानेमें या आंतरिक सत्ताके साथ बाह्य सत्ताको एकरूप करनेमें अनिच्छुक है तो यह भाग सदा ही सबके अन्दर कुटिल होता है । एकमात्र पथ है आंतर सत्तापर बल देना और उसमें चैत्य तथा आध्यात्मिक चेतनाको विकसित करना, जबतक कि वह चेतना उसमें उतर न आये और बाहरी सत्तासे भी अन्धकार- को बाहर न निकाल  दे ।

 

         मैंने ऐसा कभी नहीं कहा है कि प्राणको भगवत्प्रेममें कोई भाग नहीं लेना है, केवल यह कहा हे कि उसे चैत्य पुरुषके प्रकाशमें अपने-आपको शुद्ध तथा उन्नत करना होगा । मनुष्य-मनुष्यके बीचके स्वांनुरागी प्रेमके परिणाम अन्तमें इतने तुच्छ और

 

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विपरीत होते हैं - उसीको मैं साधारण प्राणिक प्रेम कहता हूँ - कि मैं भगवान्की ओर जानेके प्रयासके लिये भी प्राणके अन्दर कोई शुद्धतर, महत्तर और उच्चतर वस्तु चाहता हूँ ।

 

*

 

            मनुष्य सर्वदा मिश्रित होता है और उसकी प्रकृतिमें गुण और दोष एक साथ इस प्रकार मिलेजुले होते हैं कि उन्हें अलग करना प्रायः असम्भव होता है । मनुष्य जो कुछ होना चाहता हैं अथवा दूसरे उसमें जो कुछ देखना चाहते हैं अथवा कभी-कभी वह अपनी प्रकृतिके एक भागमें जो कुछ होता है या किसी विशेष संपर्कमें जो कुछ होता है उससे वह वास्तविक रूपमें या अन्य संपर्कोंमें अथवा अपनी प्रकृतिके दूसरे भागमें बहुत भिन्न हो सकता है । पूर्ण रूपसे सच्चा, निर्भीक, उच्च वस्तुओंके प्रति उद्घाटित होना मानव-प्रकृतिके लिये कोई आमान उपलब्धि नहीं है । सच पूछा जाय तो एकमात्र आध्यात्मिक प्रयासके द्वारा ही कोई इस चीजको उपलब्ध कर सकता है -- और पैसा प्रयास करनेके लिये आवश्यकता होती है कठोर अन्तर्निरीक्षणात्मक आत्मदर्शन- की शक्तिकी, निर्दय होकर अपने अन्दर पर्यवेक्षण करने और छानबीन करनेकी शक्ति- की जिसे पानेमें बहुतसे साधक और योगी भी समर्थ नहीं होते । वास्तवमें एकमात्र आलोकदायिनी भागबती कृपा-शक्ति ही साधकके सम्मुख उसका स्वरूप उद्घाटित  .करती और उसमें जो कुछ दोषपूर्ण है उसे रूपांतरित करती है और तभी मनुष्यमें वैसा करनेकी शक्ति आती है । और उस समय भी ऐसा केवल तभी सम्भव होता है जब साधक स्वयं अपनी अनुमति देता और भागवत क्रियाके लिये सम्पूर्ण रूपसे अपने-आपको दे देता है ।

 

*

 

          यदि '' की साधनाको अन्ततक निरन्तर एक बृत्तके अन्दर चक्कर नहीं काटते रहना है अथवा अन्तमें असफल होना और चूर-चूर होकर नष्ट नहीं हो जाना है तो: कुछ चीजोंको सरल और निष्कपटभावसे, आत्मसमर्थन किये बिना समझ लेना उसके लिये नितांत आवश्यक है ।,

 

         इस योगका लक्ष्य है प्राण, मन और शरीरसे परेके एक उच्चतर भागवत सत्यकी ओर उद्घाटित होना और इन तीनोंको उसकी प्रतिमूर्त्तिमें रूपांतरित करना । परन्तु वह रूपांतर तबतक ससिद्ध नहीं हो सकता और स्वयं वह सत्य अपने अभ्रांत भावमें, पूर्ण ज्योति और यथार्थ आकारमें नहीं जाना जा सकता जबतक इग्क समूचा आधार मूलत: तथा धैर्यपूर्वक शुद्ध नहीं कर दिया जाता, और जो कुछ मानसिक रचनाओं, प्राणसत्ताकी कामनाओं तथा भौतिक चेतना और भौतिक सत्ताके अतीत है उसे ग्रहण करनेके लिये नमनीय और सक्षम नहीं बना दिया जाता ।

 

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         उसकी अत्यन्त सुस्पष्ट बाधा, जिस बाधा से उसे अबतक जरा भी छुटकारा नहीं मिला है वह है प्रबल राजसिक-प्राणिक अहंकार जिसके लिये उसका मन समर्थन और आश्रय खोजता है । प्राणिक अहंकारके लिये योगका जामा पहनने, और यह कल्पना करनेसे अधिक अनुकूल कोई चीज नहीं है कि मैं मुक्त, दिव्य, अध्यात्मभावापन्न, सिद्ध और इस तरहकी बाकी सभी चीजे हूँ अथवा उस परिणतिकी ओर आगे बढ़ रहा हूँ, जब कि वास्तवमें इस प्रकारकी कोई चीज वह नहीं करता होता, बल्कि ठीक वही पुराना व्यक्ति नये आकारोंमें होता है । यदि मनुष्य एकनिष्ठ सच्चाईके साथ आत्म- निरीक्षण न करे तो इस चक्रसे बाहर निकलना असम्भव है ।

 

        आत्मप्रतारक प्राणिक अहंके निष्कासनके साथ-साथ वह वस्तु भी अवश्य जानी चाहिये जो उसके साथ रहती है, सामान्यतया मनके भागोंमें रहती है, जैसे मानसिक उद्दण्डता, अपने बड़प्पनका झूठा बोध और ज्ञानका आडम्बरपूर्ण प्रदर्शन । सब प्रकार- के बहानों और सब प्रकारके मिथ्याभिमानोका अवश्य परित्याग होना चाहिये; मनुष्य जो कुछ नहीं है वही होनेका सब प्रकारका बहाना अपने प्रति और दूसरोंके प्रति करना, अथवा मनुष्य जो कुछ नहीं जानता उसे जाननेका बहाना करना, और अपनी निजी आध्यात्मिक स्थितिसे अधिक ऊंचा होनेकी सभी प्रकारकी भावना इस सबका त्याग होना चाहिये ।

 

         प्राणिक अहंकारके सम्मुख है भौतिक सत्तामें तमस्का भद्दापन और भारीपन तथा चैत्य और आध्यात्मिक परिमार्जनका अभाव । उसे अवश्य दूर करना होगा अन्यथा वह सर्वदा प्राण-सत्ता एवं मनके वास्तविक तथा पूर्ण परिवर्तनके मार्गमें बाधा डालता रहेगा ।

 

          जबतक ये चीजे मौलिक रूपमें परिवर्त्तित नहीं हो जाती; तबतक मानसिक और प्राणिक भागोंमें महज अनुभूतियां पाने या क्षणस्थायी और निराधार स्थिरता स्थापित करनेसे अन्तमें कोई लाभ नहीं होगा । सत्तामें कोई भी मौलिक परिवर्तन नहीं होगा, केवल एक स्थितिसे दूसरीमें निरन्तर जाते रहना, कभी-कभी बाधाओंका वापस आना तथा सर्वदा उसी दोषका बने रहना अध्यायके अन्ततक चलता रहेगा ।

 

           इन चीजोंसे छुट्टी पानेकी एकमात्र शर्त्त है सत्ताके समस्त अंगोंमें पूर्ण केंद्रीय सच्चाईका होना, और इसका अर्थ है परम सत्यपर पूरा-पूरा आग्रह करते रहना और परम सत्यके सिवा किसी वस्तुपर आग्रह न करना । तब मनुष्य अपनी निर्दय आलोचना करनेके लिये तत्पर रहेगा तथा ज्योतिकी ओर खुलनेके लिये जागृत रहेगा, जब मिथ्या- पन अपने अन्दर आयेगा तब एक प्रकारकी बेचैनी होगी और ये सब चीजे अन्तमें समूची सत्ताको शुद्ध कर देंगी ।

 

         उपर्युक्त दोष लगभग प्रत्येक साधकमें विभिन्न मात्राओंमें प्रायः ही पाये जाते हैं, यद्यपि कुछ साधक ऐसे होते हैं जिन्हें ये दोष स्पर्श नहीं करते । इनसे छुटकारा मिल सकता है, यदि साधकमें अपेक्षित सच्चाई विद्यमान हो । परन्तु ये यदि सत्ताके केंद्रीय भागोंको अधिकृत कर लें ओर साधकके मनोभावको दूषित कर दें तो फिर साधक निरन्तर ' प्रकट या प्रच्छन्न रूपमें इनका समर्थन करता, मन सदा कपटरूप

 

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देने और समर्थन करनेके लिये सन्नद्ध रहेगा तथा आत्म-समालोचना करनेके गुण- रूपी सर्चलाइट एवं चैत्य पुरुषके विरोधोंसे बचनेकी चेष्टा करेगा । इसका मतलब है कम-मे-कम इस जीवनके लिये योगसाधनामें असफल हो जाना ।

 

*

 

           यह बिलकुल स्वाभाविक है कि जबतक सब कुछ स्वच्छ नहीं हो जाता तबतक हमारे मनोभावमें बहुत अधिक मिलावट बनी रहे -- साधारण प्रकृति कर्मसे चिपकी रहती है और रूपांतरका कार्य एकाएक पूर्ण रूपसे संपन्न नहीं हो सकता । आवश्यकता बस इस बातकी है कि आधारभूत चेतना दृढ़तापूर्वक भगवान्में स्थापित हो जाय, तब बाकी भागोंकी मिलावट दिखायी पड़ेगी और उसे दृढ़तापूर्वक कार्यान्वित किया जा सकेगा । ऐसा बाहरी रूपमें और आंतरिक रूपमें करना एक महान् उन्नति है ।

 

*

 

          एक साधारण ईसाईके लिये पूर्णत: एकरूप बन जाना, सभी अंगोंमें एकभावापन्न बन जाना बहुत कठिन है; क्योंकि ईसाकी शिक्षा यूरोपीय शिक्षा-दीक्षा तथा समाजके द्वारा शिक्षित किसी बुद्धि-प्रधान और प्राणप्रधान मनुष्यकी चेतनाकी अपेक्षा एकदम किसी दूसरे स्तरकी शिक्षा है । वह बौद्धिक और प्राणप्रधान व्यक्ति जब कोई पादरी या पुरोहित होता हे तब भी उससे कभी यह मांग नहीं की जाती कि वह जो कुछ उपदेश देता है उसका अभ्यास वह पूरी सच्चाईके साथ अपने जीवनमें करे । परन्तु सच्चे श्रद्धा-विश्वास या सत्यदर्शनके एकमात्र केंद्रसे विचार करना, अनुभव करना और कार्य करना कहीं भी मानवप्रकृतिके लिये कठिन होता है । एक सामान्य हिन्दु आध्या- त्मिक जीवनको सबसे ऊंचा मानता है, संन्यासीका आदर करता है, भक्तके द्वारा प्रभावित होता है; पर अपने परिवारका कोई आदमी यदि आध्यात्मिक जीवन यापन करनेके लिये संसार छोड़ देता है तो कितना आसू बहाया जाता, तर्क-वितर्क किया जाता, प्रति- वाद किया जाता और शोक प्रकट किया जाता है! यदि उसकी स्वाभाविक मृत्यु हो गयी होती तो उस समय जो कुछ होता उससे भी प्रायः बुरी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है । यह सचेतन मानसिक असद्हृदयता नहीं है-- वे पंडितोंकी तरह तर्क करेंगे और यह सा बेत करनेके लिये शास्त्रकी दुहाई देंगे कि तुम भूल कर रहे हो; यह अचेतनता है, एक प्रकारकी प्राणिक असच्चाई है जिसके विषयमें वे सचेतन नहीं हैं और जो तार्किक मनका व्यवहार पापकर्मके एक साथीके रूपमें करती है ।

 

      यही कारण है कि हम इस योगमें सच्चाईपर इतना अधिक बल देते हैं - और इसका अर्थ है अपनी समस्त सत्ताको एक परम सत्य, एकमात्र भगवान्की ओर सचेतन रूपसे मोड देना । पर यह मानवीय प्रकृतिके लिये एक अत्यन्त कठिन कार्य है, कठोर तापस-जीवन या कट्टर धार्मिकतासे भी बहुत अधिक कठिन है । धर्म स्वयं इस प्रकार-

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की पूर्ण सुसमंजस सच्चाई नहीं प्रदान करता - महज चैत्य पुरुष और एकनिष्ठ आध्यात्मिक अभीप्सा ही यह सच्चाई प्रदान कर सकती हैं ।

 

III

 

       अभीप्सा परम सत्यके पूर्ण अवतरण तथा जगत्में मिथ्यात्वके ऊपर विजयके लिये होनी चाहिये ।

 

*

 

       जो लोग यहां आते है उनमें एक अभीप्सा और एक सम्भावना होती है -- उनके चैत्य पुरुषकी कोई चीज उन्हें प्रेरित करती है और अगर वे उसका अनुसरण करें तो वे लक्ष्यपर पहुँच जायेंगे; परन्तु वह चीज अन्तर्मुखीनता नही है । अन्तर्मुखीनताका मतलब है सत्ताका निम्रतर वस्तुओंसे हटकर भगवान्की ओर मुड जाना ।

 

       अभीप्सा बादमें अन्तर्मुखीनता ला सकती है, पर वह स्वयं अन्तर्मुखीनता नहीं है!

 

      श्रीमाताजीने तीन विभिन्न चीजोंकी बात कही: अन्तर्मुखीनता, अन्तरात्माका निश्चित रूपमें भगवान्की ओर मुंड जाना,-भगबान्की आंतरिक उपलब्धि,-- प्रकृतिका रूपांतर । पहली दो चीजे तेजीसे और अकस्मात् रूपसे और सर्वदाके लिये घटित हो सकती हे, पर तीसरी चीजके होनेमें बराबर ही समय लगता है और वह एक ही क्षणमें, एक ही बारमें नहीं हो सकती । मनुष्य रूपांतरकी ब्योरेकी किसी-न-किसी चीजके दुत परिवर्तनके विषयमें सज्ञान हो सकता है, पर वह भी एक दीर्घ क्रियाका द्रुत परिणाम होता है ।

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 *

 

       आत्मार्पण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी चेतनाको भगवान्के प्रति आत्मदान कर देनेके लिये प्रशिक्षित करता है । परन्तु अन्तर्मुखी-भाव चेतनाकी एक स्वाभाविक क्यिा होता हे । यह भाव भीतरसे और ऊपरसे प्राप्त स्पर्शके द्वारा आता है और उसका परिणाम भी होता है । आत्मार्पण मनुष्यको उस स्पर्शके प्रति उद्घाटित होनेमें सहायता कर सकता है अथवा वह स्पर्श स्वयं अपने-आप भी आ सकता है । परंतु अन्तर्मुखीभाव अभीप्सा और तपस्याकी एक दीर्घ प्रक्रियाकी परिणतिके रूपमें भी आ सकता है । इन विषयोंका कोई अटल नियम नहीं है ।

 

        यदि चैत्य पुरुष सामने आ जाय तो अन्तर्मुखीभाव आसान हो जाता है अथवा तुरत आ जाता है अथवा अन्तर्मुखीभाव चैत्य पुरुषको सामने ले आ सकता है । यहां भी, फिर, कोई निश्चित नियम नहीं है ।

 

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    यह दोनों तरहसे हो सकता है, एक स्पर्श होता है और अनुभूति भी होती है और चैत्य पुरुष उसके परि।गामस्वरूप अपना समुचित स्थान ग्रहण करता है अथवा चैत्य पुरुष सामने आ सकता है और प्रकृतिको अनुभूतिके लिये तैयार कर सकता है ।

 

    रूपांतर क्रमश: होनेवाली चीज है, पर निस्सन्देह अनुभूति पहले अवश्य हो जानी चाहिये, उसके बाद ही रूपांतरके उद्देश्यका सिद्ध होना सम्भव होता है ।

 

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       तुम जो कुछ कहते हो वह बिलकुल सही है । हृदयसे उठनेवाली सरल, सीधी और सच्ची पुकार तथा अभीप्सा एकमात्र प्रधान वस्तु है और क्षमताओंकी अपेक्षा कहीं अधिक आवश्यक और प्रभावशाली होती है । फिर चेतनाको अन्दरकी ओर मोड देना, उसे बहिर्मुखी न बने रहने देना -- आंतरिक पुकार, आंतरिक अनुभव, आंतरिक उपस्थितिके पास पहुँचना बहुत महत्वपूर्ण है ।

 

          जो सहायता तुम मांगते हो वह तुम्हें प्राप्त होगी । अभीप्साको बढ़ने दो और आंतरिक चेतनाको एकदम खुल जाने दो ।

 

*

 

         शान्ति, पवित्रता, निम्र प्रकृतिसे मुक्ति, ज्योति, शक्ति, आनन्द, दिव्य प्रेम, भागवत सेवा आदिके लिये अभीप्सा करनेका क्या ' 'कारण' ' है? ये चीजे अपने- आपमें बहुत अच्छी हैं और मानवीय प्रयासका उच्चतम सम्भव लक्ष्य हैं ।

 

*

 

         हो, यही है पथ -- अभीप्साकी तीव्रता अनुभूतिकी तीव्रता ले आती है और जब बार-बार तीव्र अनुभूति होती है तो परिवर्तन आता है ।

 

*

 

         अभीप्सा भगवान्के लिये पुकार है,--संकल्प प्रकृतिके ऊपर सचेतन शक्तिका दबाव है । 

 

*

 

         अभीप्साके लिये शब्दोंकी कोई आवश्यकता नहीं है । यह शब्दोंमें व्यक्त हो सकती या अव्यक्त रह सकती है ।

 

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      अभीप्साको विचारके रूपमें होनेकी कोई आवश्यकता नहीं -- यह भीतरकी एक भावना हो सकती है जो उस समय भी बनी रहती है जब कि मन कर्ममें निरत रहता रहता है ! 

 

*

 

       अभीप्साका तात्पर्य हे शक्तियोंको पुकारना । जब शक्तियां प्रत्युत्तर दे देती हैं तब शान्त-स्थिर ग्रहणशीलताकी, एकाग्र पर स्वतःस्फूर्त्त ग्रहणशीलताकी एक स्वा भाविक स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।

 

*

 

      हमें भगवान्के लिये अभीप्सा करनी चाहिये और उन्हें ही समर्पण करना चाहिये तथा यह कार्य उनपर छोड़ देना चाहिये कि एक बार आधारके पूर्ण हो जानेपर उसके लिये जो कुछ सत्य और उचित हो उसे वह करें ।

 

*

 

       यह उस स्तरपर निर्भर है जहां साधक पहुँच चुका है । व्यक्तिगत अभीप्सा तबतक आवश्यक है जबतक साधक उस अवस्थामें नहीं पहुँच जाता जिसमें सब कुछ अपने-आप आता है ओर केवल एक प्रकारका ज्ञान तथा आरोहण उसके आत्मबिकास के लिये आवश्यक होता है ।

 

*

 

      ' 'खींचनेका भाव' ' साधारणतया स्वयं अपने लिये चीजे प्राप्त करनेकी कामनासे आता है -- अभीप्सामें एक प्रकारके आत्मदानका भाव होता है जिसमें कि उच्चतर चेतना अवतरित हो और अधिकार जमा लें--जितनी ही अधिक तीव्र पुकार होती है उतना ही अधिक आत्मदानका भाव भी होता है ।

 

*

 

       इसमें सन्देह नहीं कि जो कुछ तुम करते हो, यहांतक कि साधनाका जो तुम्हारा प्रयास है उस सबमें कामनाकी मिलावटका होना ही तुम्हारी कठिनाई है । कामना धैर्यहीन प्रयत्नकी क्रिया ले आती है' और जब कठिनाई अनुभूत होती है और परिणाम तुरत नहीं आता तथा अन्य विभ्रांत और घबड़ा देनेवाली भावनाएं आती हैं तो निराशा- की प्रतिक्रिया और. उत्पन्न करती । अभीप्साको कामनाका एक  रूप नहीं

 

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 लेना एक आवश्यकताका बोध, और भगवान की ओर मुड़ने और उन्हें खोजनेके लिये एक शान्त सुस्थिर संकल्प होना चाहिये । निश्चय ही कामनाकी इस मिलावटसे पूर्णत: बच जाना आसान नहीं है -- किसी भी व्यक्तिके लिये आसान नहीं है; परन्तु मनुष्यमें जब ऐसा करनेका संकल्प होता है तो अवलंब देनेवाली दिव्य शक्तिकी सहायज्ञतासे इसे भी संसिद्ध किया जा सकता हैं ।

 

*

 

       यदि अच्छी कामनाएं हैं तो बुरी कामनाएं भी आयेंगी । संकल्प और अभीप्सा- के लिये तो साधनामें एक स्थान है, पर कामनाके लिये नहीं है । यदि साधकमें कामना है तो उसमें आसक्ति, मांगकी भावना, लालसा, समत्वका अभाव, न पानेपर शोक अवश्य रहेंगे और ये सब चीजे अयौगिक हैं ।

 

*

 

       मनुष्यको जो कुछ उसे मिलता है उससे संतुष्ट रहना चाहिये और ?? भी शांत- रूपसे, बिना संघर्षके, और अधिक पानेके लिये अभीप्सा करनी चाहिये - जबतक सब कुछ नहीं आ जाता । कोई कामना, कोई संघर्ष नहीं -- बस, होनी चाहिये अभीप्सा, श्रद्धा, उद्घाटन -- और भागवत कृपा ।

 

*

 

      कियाका जहांतक प्रश्न है, यह इस बातपर निर्भर है कि तुम उस शब्दका क्या तात्पर्य लेते हो । कामना बहुधा अत्यधिक प्रयास करनेमें प्रवृत्त करती है जिसका अर्थ अधिकांशत: होता है बहुत अधिक श्रम और तनाव तथा क्लांतिके साथ सीमित परिणाम और कठिनाई या असफलता आनेकी दशामें निराशा, अविश्वास या विद्रोह; अथवा वह शक्तिको खीचनेकी प्रवृत्ति प्रदान करती है । शक्तिको खींचा जा सकता है, परन्तु यौगिक दृष्टिसे प्रबल तथा अनुभवप्राप्त लोंगोंके सिवा, यह सर्वदा खतरनाक होता है, यद्यपि यह बहुधा बहुत फलदायी हो सकता है; खतरनाक, सबसे पहले, इस कारण होता है कि इसके कारण तीव्र प्रतिक्रिया उत्पन्न हो सकती है. या यह विपरीत या अशुभ या मिश्रित शक्तियोंको उतार सकता है जिनमेंसे समुचित शक्तियोंको पहचाननेके लिये साधकको पर्याप्त अनुभव नहीं होता । अथवा, यह भगवान्के अबाध दान और यथार्थ पथप्रदर्शनके स्थानमें अनुभव करनेकी साधककी अपनी सीमित शक्ति- को या उसकी मानसिक और प्राणिक रचनाओंको बैठा देता है । हर प्रसंगमें बात अलग होती है, प्रत्येक ब्यक्तिका साधनाका अपनी निजी पथ होता हुँ । परन्तु तुम्हारे लिये मैं जो परामर्श देना चाहता हूँ वह है निरन्तर उद्घाटित रहना, शांतभावसे लगा-

 

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तार अभीप्सा करना, अति-उत्सुकताका न होना, प्रसन्नतापूर्ण विश्वास और धैर्य बनाये रखना ।

 

*

 

        सच पूछा जाय तो चैत्य पुरुष ही सच्ची अभीप्सा प्रदान करता है -- यदि प्राण- सत्ता शुद्ध हो और चैत्यके अधीन हो तो वह तीव्रता देती है -- परन्तु वह यदि अशुद्ध हो तो वह अधीरताके साथ राजसिक तीव्रता तथा अवसाद और नैराश्यकी प्रतिक्रियाएं ले आती है । आवश्यक स्थिरता और समताका जहांतक प्रश्न है, उन्हें मनके भीतरसे होकर ऊपरसे आना चाहिये ।.

 

*

 

     वह चैत्य अभीप्सा, चैत्य अग्नि है । जहां प्राण हस्तक्षेप करता है वहां परिणाम- के लिये अधीरता होती है और यदि परिणाम तुरन्त न हो तो असंतोष होता है । वह अवश्य बन्द होना चाहिये !

 

       ऐसा करना ऊपरी तलके असंस्कृत प्राण-भागके स्वभावमें है । सच्चा प्राण भिन्न प्रकारका होता है, शांत-स्थिर और शक्तिशाली तथा भगवानके प्रति समर्पित एक समर्थ यन्त्र होता है । परंतु उसके सामने आनेके लिये सबसे पहले आवश्यक हूँ मनमें ऊपरकी ओर यह सुदृढ़ स्थिति प्राप्त कर लेना - जब चेतना वहां रहती है और मन स्थिर, स्वतन्त्र और विशाल होता हूँ तो सच्चा प्राण आगे आ सकता है ।

 

*

 

        अधीरता और उद्विग्न अशांति प्राणसे आती हैं जो उन चीजोंको अभीप्सामें भी ले आता है । अभीप्सा होनी चाहिये तीव्र, स्थिर और प्रबल (यह सच्चे प्राणका भी स्वभाव है ) और उसे अशान्त तथा अधीर नहीं होना चाहिये,-केवल तभी वह स्थायी हो सकती है ।

 

*

 

        एक तीव्र पर अचंचल अभीप्सा हो सकती है जो आंतर सत्ताकी समस्वरताको भंग नहीं करती ।

 

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       आसन और प्राणायाम करनेका कोई लाभ नहीं । तीव्र आवेगकी आगमें जलनेकी कोई आवश्यकता नहीं । बस, आवश्यकता है एकाग्रता तथा अटूट अभीप्सा- की सामर्थ्यको धैर्यपूर्वक प्राप्त करना जिसमें कि जिस नीरवताकी तुम चर्चा करते हो वह हृदयमें स्थापित हो सके तथा अन्य अंगोंमें भी फैल जाय । फिर भौतिक मन तथा अवचेतना शुद्ध और अचंचल हो सकती हैं ।

 

*

 

     यह समझना भूल है कि व्याकुलताका सतत अभाव इस बातका चिह्न है कि भगवान्के लिये अभीप्सा या आकांक्षा सच्ची नहीं है । सच पूछा जाय तो भक्तियोग- के किन्हीं विशिष्ट व्यावर्तक मार्गोंमें ही निरन्तर व्याकुलता या क्रंदन या हाहाकार  (यह अन्तिम अधिकांशत: चैत्यकी अपेक्षा प्राणिक ही होता है ) का होना आवश्यक नियम मना जाता हे । यहां (इस योगसे: ) यद्यपि चैत्य उत्कंठा कभी-कभी या बहुधा तेज तरंगोंके रूपमें आ सकती है, पर जो कुछ आधारके रूपमें आता है वह सत्ताका एक शान्त-अचंचल भाव होता है और उस अचंचलभावमें अधिकाधिक सत्यका निरन्तर बोध होता हे, भगवान्के लिये खोजकी वृत्ति तथा भगवान्की आवक्यकताका बोध होता है जिससे सब कुछ उसी ओर अधिकाधिक मुड जाता है । इसी स्थितिमें अनुभव तथा वर्द्धनशील उपलब्धि आती हैं । चूँकि तुम्हारे अन्दर उद्घाटन बढ़ रहा है इसलिये तुम्हें श्रीमाताजीके उपस्थिति (आकारसे परे ) का यह आभास हो रहा है । जैसे- जैसे यह आंतरिक उपलब्धि बढ़ती है वैसे-वैसे भौतिक आकारमें विद्यमान उनकी उपस्थिति अपना पूर्ण मूल्य प्राप्त करती है ।

 

*

 

         प्रार्थनाएं विश्वाससे भरी होनी चाहियें और वहां शोक या विलाप नहीं होना चाहिये ।

 

*

 

      स्वभावत: ही जितनी अधिक एकमुखी अभीप्सा होती है उतनी ही तेजीसे प्रगति होती है । कठिनाई तब आती है जब या तो प्राण अपनी कामनाओंके साथ या भौतिक चेतना अपनी पुरानी अभ्यासगत क्रियाओंके साथ बीचमें आ जाती है -- जैसा कि वे लगभग प्रत्येक व्यक्तिके साथ करती हैं । ऐसे ही समयमें नीरसता और स्वाभाविक अभीप्सामें कठिनाई आती हैं । यह नीरसता समस्त साधनाओंकी एक चिरपरिचित बाधा है । परन्तु साधकको डटे रहना चाहिये और निरुत्साहित नहीं होना चाहिये । यदि कोई इन निष्फल कालोंमें भी अपने संकल्पको स्थिर बनाये रखे तो वे निकल जाते

 

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हैं और उनके निकल जानेके बाद अभीप्सा और अनुभवकी एक महत्तर शक्तिका आना सम्भव हो जाता है ।

 

*

 

      यह तामसिक शक्तियोंका एक सुझाव हे जो कठिनाईपर बल देती और उसे उत्पन्न करती हैं और भौतिक चेतना उसे स्वीकार करती है । वास्तवमें अभीप्सा करना कभी कठिन नहीं होता । परित्याग तुरत फलदायी न भी हो सके पर परित्यागका और अस्वीकृतिका संकल्प बनाये रखना सर्वदा ही सम्भव होता है ।

 

*

 

       निस्सन्देह, सच्ची और प्रबल अभीप्साकी आवश्यकता है, पर यह सच नहीं है कि सच्ची चीज तुम्हारे अन्दर नहीं है । यदि यह न होती तो दिव्य शक्ति कभी तुम्हारे अन्दर कार्य न कर पाती । परंतु यह सच्ची चीज चैत्य पुरुषमें और- तुम्हारे हृदयमें बैठी थी और जब कभी ये ध्यानमें सक्रिय हुए तभी वह प्रकट हुई । परन्तु पूर्णताके लिये क्रियाको नीचे भौतिक चेतनामें आना पडा और वहां स्थिरता और उद्घाटन ले आना पड़ा । भौतिक चेतना प्रत्येक ब्यक्तिमें ही अपने स्वभावमें सर्वदा थोडी जड़ होती है और उसमें सतत प्रबल अभीप्साका होना स्वाभाविक नहीं है, इसे वहां उत्पन्न करना होता है । परन्तु सबसे पहले वहां उद्घाटन, शुद्धीकरण और दृढ स्थिरता होनी चाहिये, अन्यथा र्भातिक प्राण प्रबल अभीप्साको अति-उत्सुकता और अधीरता- में बदल देगा अथवा उसे वैसा मोड देनेका प्रयत्न करेगा । अतएव परेशान मत होओ यदि तुम्हें अपनी प्रकृतिकी स्थिति अत्यन्त उदासीन और शांत प्रतीत हो, उसमें पर्याप्त अभीप्सा और गतिविधि न हो । यह प्रयति करनेका एक आवश्यक मार्ग है बाकी चीजे अवश्य आयेंगी ।

 

*

 

      तुम अभी भी मध्यवर्त्ती कालोंको सहन करनेमें कठिन महसूस कर रहे हो जब कि सब कुछ निश्चल हो जाता है और ऊपरी सतहपर कुछ भी नहीं संपन्न होता । परन्तु ऐसे मध्यवर्त्ती काल सबके लिये आते हैं और इनसे बचा नहीं जा सकता । तुम्हें इस सुझावका पोषण नहीं करना चाहिये कि ऐसा होनेका कारण यह है कि तुम्हारे अन्दर अभीप्साका अभाव है या कोई दूसरी अयोग्यता है, और यदि तुममें सतत तीव्र अभीप्सा होती तो ऐसे काल नहीं आते और अनुभूतियोंकी एक अविरल धारा बनी रहती । बातऐसी नहीं है । यदि अभीप्सा होती तो भी मध्यवर्त्ती काल आते । यदि वैसे समयों- में भी मनुष्य अभीप्सा कर सके तो वह और भी अच्छा है - परन्तु मुख्य बात हे शांति-

 

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के साथ उनका सामना करना और चंचल, अवसन्न या निराश न होना । सतत अग्नि केवल तभी प्रज्वलित रह सकती है जब कि मनुष्य एक विशेष स्थितिको प्राप्त कर ले, वह स्थिति है जब कि मनुष्य अपने अन्दर सर्वदा अपने चैत्य पुरुषमें सचेतन रूपमें निवास करता है, परन्तु उसके लिये मन, प्राण और शरीरकी यह समस्त तैयारी आवश्यक है । क्योंकि यह अग्नि चैत्य पुरुषकी अग्नि है और मनुष्य सर्वदा महज मनके प्रयासके बलपर उसपर कब्जा नहीं कर सकता । चैत्य पुरुषको पूर्णत: मुक्त करना होगा और इसी चीजको पूरी तरह सम्भव बनानेके लिये दिव्य शक्ति कार्य कर रही है !

 

IV

 

श्रद्धा (Faith) - सक्रिय संपूर्ण विश्वास और स्वीकृति ।

विश्वास (Belief)इ - केवल बौद्धिक स्वीकृति ।

प्रतीति (Conviction ) - ऐसी बातोंपर आधारित बौद्धिक विश्वास जो अच्छे कारण प्रतीत हों ।

निर्भरता ( Reliance)- किसी चीजके लिये किसी दूसरेपर, उसपर भरोसा होनेके कारण, आश्रित होना ।

भरोसा(Trust)- दूसरेकी सहायता मिलनेकी सुनिश्चित आशाका भाव तथा उसके वचन, चरित्र आदिपर निर्भरता ।

विश्वासिता (Confidence ) - भरोसा के कारण उत्पन्न संरक्षणका भाव ।

 

*

 

        श्रद्धा सारी सत्तामें होनेवाला एक भाव है, विश्वास (belief)इ मानसिक होता है, प्रतीति (Conviction ) का अर्थ है किसी व्यक्तिपर या भगवानपर भरोसा (Trust ) अथवा अपनी खोज या प्रयासके परिणामके विषयमें निश्चयताका भाव ।

 

*

 

        मानसिक श्रद्धा सन्देहका विरोध करती है और यथार्थ ज्ञानकी ओर उद्घाटित होनेमें सहायता करती है; प्राणिक श्रद्धा विरोधी शक्तियोंके आक्रमणोंको रोकती या उन्हें हराती है तथा यथार्थ आध्यात्मिक संकल्प और कर्मकी ओर खुलनेमें सहायता करती है; भौतिक श्रद्धा मनुष्यको समस्त भौतिक अंधता, तामसिकता या दुःख-क्लेश- के भीतर स्थिर बनाये रखती है तथा यथार्थ चेतनाके आधारकी ओर खुलनेमें सहायता करती है; चैत्य श्रद्धा भगवानके प्रत्यक्ष स्पर्शकी ओर खोल देती है तथा एकत्व एवं ' समर्पण-भाव ले आनेमें सहायता करती है ।

 

*

 

६७


         मानसिक श्रद्धा बहुत सहायक होती है, पर यह एक ऐसी चीज है जो सर्वदा क्षणिक रूपसे डिग सकती या बिलकुल मेघाच्छन्न हो सकती है - जबतक कि उच्चतर चेतना और अनुभव सदाके लिये स्थिर नहीं हो जाते । आच्छादित हो जानेपर भी जो चीज बनी रहती है वह है आंतर सत्ताकी अभीप्सा या किसी उच्चतर वस्तुकी आवश्यकताका बोध, जो कि अंतरात्माकी श्रद्धा है । वह भी कुछ समयके लिये आच्छादित हो सकती है पर वह फिर प्रकट होती है -- उसपर ग्रहण तो लगता है पर वह विनष्ट नहीं होती ।

 

*

 

        यही सच्चा संकल्प है । यदि अन्य चेतनाकी लहरें इसे ऊपरी सतहपर ढक भी दें तो इसे अपने अन्दर अटल-अचल बनाये रखो । यदि कोई अपने अन्दर इस प्रकार किसी श्रद्धा या सकल्पको जमा ले तो वह बना रहता है और यदि कुछ कालके लिये मन आच्छादित भी हो जाय या संकल्प धीमा पंड जाय तो भी मनुष्य उसे पुन: अपने- आप उस जहाजकी तरह निकलते हुए देखता है जो लहरोके आच्छादनसे बाहर निकलता और अदम्य रूपसे अपनी यात्रापर समस्त उलट-फेरोंके भीतरसे होता हुआ तबतक आगे बढ्ता रहता है जबतक कि वह बन्दरपर नहीं पहुँच जाता ।

 

*

 

        इस उक्ति ( '' अन्ध श्रद्धा' ' ) का कोई यथार्थ अर्थ नहीं है । मैं समझता हूँ कि इससे उनका तात्पर्य होता है कि वे प्रमाण के बिना विश्वास नहीं करेंगे । परन्तु प्रमाण पानेपर जो निर्णय लिया जाता है वह श्रद्धा नहीं है, वह तो ज्ञान है अथवा वह एक मानसिक राय है । श्रद्धा एक ऐसी वस्तु है जिसे मनुष्य प्रमाण या ज्ञानसे पहले अपनाता है और यह ज्ञान या अनुभूतिपर पहुँचनेमें सहायता पहुँचाती है । इस बातका कोई प्रमाण नहीं है कि ईश्वरका अस्तित्व है, पर मुझे यदि ईश्वरमें विश्वास हो तो मैं भगवान्का अनुभव प्राप्त कर सकता हूँ ।

 

*

 

      श्रद्धा-विश्वास अनुभवपर नहीं निर्भर करता; वह तो एक ऐसी चीज है जो अनुभवके पहलेसे विद्यमान रहती है । जब कोई योग आरम्भ करता है तो वह साधारणतया अनुभवके बलपर नहीं आरम्भ करता बल्कि श्रद्धा-विश्वासके बलपर करता है । यह बात केवल योग और आध्यात्मिक जीवनके लिये ही नहीं वरन् साधारण 'मीवमफे लिये भी ऐसी. ही है । सभी कर्मशील व्यक्ति, ज्ञानके आविष्कर्त्ता, उद्घाटन और स्त्रष्टा श्रगविश्वाससे ही आरम्भ करते हैं और, जबतक प्रमाण नहीं मिल जाता ३थाकार्थ?पूरा नहीं हो आता तबतक वे निराशा, असफलता, प्रमाणाभाव, अस्वीकृतिके

 

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बावजूद भी अपना प्रयास जारी रखते है, क्रयोकी  उनमें चीजों ऐसी होती है जो उनसे  कहती है कि यही सत्य है, यही वह चीज है जिसका अनुसरण करना होगा और जिसे पूरा करना होगा । रामकृष्णसे जब यह पूछा गया कि क्या अन्ध-श्रद्धा रखना अनुचित नहीं है तब उन्होंने तो यहांतक कह डाला कि अन्ध-श्रद्धा ही तो रखनी चाहिये, क्योंकि श्रद्धा या तो अन्धी होती है अथवा वह श्रद्धा ही नहीं होती, बल्कि कोई अन्य चीज होती है, जैसे युक्तिपूर्ण अनुमान, प्रमाणसिद्ध प्रतीति या निरूपित ज्ञान ।

 

       श्रद्धा-विश्वास अंतरात्माकी किसी ऐसी चीजके विषयमें गवाही है जो अभी अभि- व्यक्त, उपलब्ध या अनुभूत नहीं हुई है, परन्तु फिर भी जिसे हमारे अन्दरका 'ज्ञाता', सभी लक्षणोंका अभाव होनेपर भी, सत्य या अनुसरण करने अथवा प्राप्त करने योग्य परम वस्तु अनुभव करता है । यह चीज उस समय भी हमारे अन्दर बनी रह सकती है जब मनमें कोई दृढ विठवास न हो, यहांतक कि जब प्राण संघर्ष करता, विद्रोह करता और अस्वीकार करता हो । ऐसा कौन आदमी है जो योगाभ्यास करता हो और जिसके सामने निराशा और असफलता और अविश्वास और अन्धकारके काल, बहुत लम्बे- लम्बे काल न आते हों? परन्तु कोई चीज उसमें ऐसी होती है जो उसे सहारा देती है और उसके बावजूद भी बनी रहती है, क्योंकि वह अनुभव करती हे कि जिस चीजका वह अनुसरण कर रही थी वह अब भी सत्य है और इसे वह अनुभव ही नहीं करती बल्कि, उससे कहीं अधिक, वह इसे जानती है । योगकी मौलिक श्रद्धा, जो अन्तरात्मा- में निहित होती है, यह है कि भगवन् हैं और भगवान ही वह एकमात्र वस्तु हैं जिसकी खोज करनी चाहिये - जीवनमें दूसरी कोई चीज ऐसी नहीं जो उसकी तुलनामें प्राप्त करने योग्य हो । जबतक यह श्रद्धा किसी मनुष्यमें है तबतक वह आध्यात्मिक जीवनके लिये निर्दिष्ट है और मैं कहूँगा कि यदि उसकी प्रकृति बाधा-विघ्रोंसे पूर्ण और अस्वीकृतियों तथा कठिनाइयोंसे ठसाठस भरी हुई हो तो भी, और यहांतक कि यदि उसे अनेक वर्षोंतक संघर्ष करना पड़े तो भी, आध्यात्मिक जीवनमें सफलता पाना उसके लिये सुनिश्चित है ।

 

       बस, यही श्रद्धा तुम्हें अपने अन्दर विकसित करनेकी आवश्यकता है -- युक्ति- तर्क और साधारण समझके साथ मेल खानेवाली यह श्रद्धा उत्पन्न करनेकी आवश्यकता है कि यदि भगवान्का अस्तित्व है और उन्होंने ही तुम्हें इस पथपर बुलाया है (जैसा कि स्पष्ट है ), तो निश्चय ही पीछेकी ओर तथा आदिसे अन्ततक सर्वदा भागवत पथ- प्रदर्शन मौजूद रहेगा और सभी कठिनाइयोंकी बावजूद तुम अपने लक्ष्यपर अवश्य पहुँचोगे । असफलताका सुझाव देनेवाली विरोधी शक्तियोंकी वाणियोंको अथवा उनको प्रतिध्वनित करनेवाली अधीरता, प्राणिक जल्दबाजीकी वाणियोंको नहीं सुनना चाहिये, इस बातपर विश्वास नहीं करना चाहिये कि चूँकि महान् कठिनाइयां मौजूद है इसलिये सफलता नहीं मिल सकती अथवा जब अभीतक भगवान् नहीं दिखायी पडे तब वह कभी दिखायी नही पड़ेंगे, बल्कि इस मनोभावको ग्रहण करना चाहिये जिसे किसी महान् और कठिन लक्ष्यपर अपना मन एकाग्र करनेपर प्रत्येक व्यक्ति ही ग्रहण करता है और जो यह कहता है कि ' 'सभी कठिनाइयोंके होते हुए भी मैं तबतक

 

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प्रयत्न करता रहूँगा- जबतक कि सफल नहीं हो जाता' ', और जिसमें गवान्में विश्वास रखनेवाला इतना और जोड़ देता है कि ' 'भगवान् हैं और उन्हें पानेका मेरा प्रयास कभी विफल नहीं हो सकता । जबतक मैं उन्हें पा नहीं लेता तबतक मैं प्रत्येक चीजके भीतर- से होता हुआ आगे बढ़ता रहूँगा । ''

 

*

 

      तुम्हारा जो यह कहना है कि श्रद्धाके लिये अनुभवका होना जरूरी है और अनुभव- के बिना कोई श्रद्धा नहीं हो सकती, यह मानव मनोविज्ञानका पूर्णत: खंडन करता है । हजारों लोगोंको उन्हें अनुभव होनेसे पहले ही श्रद्धा होती है । ' 'अनुभव बिना विश्वास नहीं' ' का सिद्धांत आध्यात्मिकताके लिये या उसी कारण मानव-कर्मके क्षेत्रके लिये विनाशकारी होगा । सन्तों या भक्तोंको भगवान्का अनुभव होनेसे बहुत पहले भग- वान्में श्रद्धा-विश्वास होता है - कर्मी मनुष्यको भी उसके हेतुके सफलतासे मंडित होनेसे बहुत पहले उसमें विश्वास होता है, अन्यथा अपनी उद्देश्यसिद्धिके लिये हार, असफलता और घातक खतरेके बावजूद निरन्तर संघर्ष करनेमें वह समर्थन हुआ होता । मैं नहो समझता कि सच्ची श्रद्धासे ' ' का क्या तात्पर्य है । मेरे लिये श्रद्धा बौद्धिक विश्वास नहीं है बल्कि अन्तरात्माका एक कार्य है । जब मेरा विष्वास डोल जाता, असफल हो जाता, नष्ट हो जाता है तो मेरा अन्तरान्मा अटल बना रहता और ह्ठपूर्वक्( जोर देता रहता है कि ' 'यही पथ है, दूसरा नहीं; जिस सत्यको मैंने अनुभव किया है बस वही सत्य है चाहे मन जो कुछ भी क्यों विश्वाम करे । '' दूसरी ओर, अनुभूतियां आवश्यक रूपसे श्रद्धा नहीं प्रदान करतीं । एक साधकने मुझे लिखा है, ' 'मैं अनुभव करता हूँ कि श्रीमाताजीके कृपाशक्ति मेरे अन्दर उतर रही हे, पर मैं इसपर विश्वास नहीं कर सकता क्योंकि यह मेरी प्राणिक कल्पना हो सकती है । '' एक दूसरे साधकको वर्षों लगातार अनुभव होते हैं, पर पीछे गिर जाता है क्योंकि, वह कहता है, उसने '' श्रद्धा खो दी' ' है । ये सब चीजें मेरी कल्पनाएं नहीं हैं,ये यथार्थ बातें हैं और स्वयं अपनी कहानी बताती है ।

 

         निश्चय ही, मेरा मतलब किसी नैतिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक परिवर्तनसे था - नैतिक मनुष्य गलेतक अहंकारसे भरा हो सकता है, ऐसे अहंकारसे जो उसकी अपनी ही साधुता और पवित्रतासे वर्द्धित होता है । अहंकारसे मुक्त होना आध्यात्मिक दृष्टिसे मूल्यवान् हे, क्योंकि तब मनुष्य अपने व्यक्तिगत. 'स्व' में अब केंद्रित नहीं रहता, बल्कि भगवान्में केंद्रित हो सकता है । और वही भक्तिकी शर्त्त भी है.?....

 

.         मैं नहीं समझता कि हृद्गत भावावेगके विषयमें '' की क्या आपत्ति है; इसका भी बप्रता स्थान है, केवल इसे सर्वदा बाहरकी ओर प्रक्षिप्त नहीं रहना चाहिये, बल्कि ?एरा ओर प्रेरित होना चाहिये जिसमें कि चैत्य सत्ताके द्वार पूर्णत: उन्मुक्त हो सकें । तुम जो कुछ कहते हो बह पूरी तरह सही हो  - मुझे प्रसन्नता है कि तुम इतने तेजस्वी ऐइ?  आदिकर्ता हो  निश्चय. ही यहचैत्य रूपांतरका फल है । अहंकार एक बहुत

 

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विलक्षण वस्तु है और अपने-आपको छिपानेके अपने तरीकेमें और यह बहाना करनेमें कि यह अहंकार नहीं है, यह सबसे अधिक विलक्षण है । यह भगवान्की सेवा करनेकी अभीप्साके पीछे भी सर्वदा छिपा रह सकता है । एकमात्र पथ है इसे इसके सभी पर्दों और गुप्त स्थानोंमें ढूँढकर बाहर निकाल देना । तुम्हारा यह विचार भी ठीक है कि यही वास्तवमें योगका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण अंग है । राजयोगका यह कार्य ठीक ही है कि उसने सबसे आगे शुद्धीकरणको रखा है - जैसे मेरा कार्य भी ठीक ही है कि मैंने 'योग-समन्वय' में एकाग्रताके साथ-साथ इसे सबसे आगे रखा है । तुम्हें बस अपने चारों ओर नजर दौड़ाकर इतना देख लेनेकी आवश्यकता है कि अनुभूतियां और यहांतक कि सिद्धियां भी मनुष्यको लक्ष्यतक नहीं ले जा सकती यदि यह कार्य पूरा न हो - किसी भी मुहूर्त्त प्राणके अभीतक अशुद्ध तथा अहंसे भरपूर होनेके कारण वे व्यर्थ हो सकती हैं ।

 

*

 

      चैत्य पुरुषके प्रति समर्पण करनेकी मांग नहीं की जाती, समर्पण भगवान्को करना होता है । मनुष्य श्रद्धाके बलपर भगवान्की ओर जाता है; ठोस अनुभव साधनाके फलस्वरूप आता है । अपनी चेतनाको अनुभवके लिये तैयार करनेका कोई प्रयास किये बिना कोई मनुष्य प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करनेकी मांग नहीं कर सकता ।

 

*

 

        यदि मनुष्य पुकार अनुभव करता है तो वह उसका अनुसरण करता है - यदि उसमें कोई पुकार नहीं है तो फिर भगवान्को खोजनेकी कोई आवश्यकता नहीं है । आरम्भ करनेके लिये श्रद्धा पर्याप्त है - यह भावना एक मानसिक भूल है कि मनुष्य- को खोज करनेसे पहले समझ लेना और ठीक-ठीक जान लेना चाहिये; यदि यह बात सच हो तो यह सभी साधनाओंको असम्भव बना देगी - ठीक-ठीक ज्ञान केवल साध- नाके परिणामस्वरूप ही आ सकता है, उनकी प्रारंभिक वस्तुके रूपमें नहीं आ सकता ।

 

*

 

         मैंने एक प्रबल केंद्रीय और, सम्भव हा_ए तो, पूर्ण श्रद्धाकी बात कही थी, क्योंकि तुम्हारा मनोभाव मुझे ऐसा प्रतीत हुआ था कि तुम केवल पूर्ण प्रत्युत्तरकी परवाह करते हो - अर्थात् उपलब्धिकी, सान्निध्यकी परवाह करते और अन्य सभी चीजों- को एकदम असंतोषजनक मानते हो,-और तुम्हारी प्रार्थना तुम्हें वह चीज नहीं उपलब्ध करा रही है । परन्तु साधारणतया प्रार्थना स्वयं अपने-आपमें तुरत वह चीज नहीं उपलब्ध कराती - केवल तभी कराती है जब कि केंद्रमें ज्वलन्त श्रद्धा या सत्ताके सभी भागोंमें पूर्ण श्रद्धा होती है । परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जिन लोगोंकी श्रद्धा उतनी प्रबल अथवा समर्पण पूर्ण नही है, वे लक्ष्यपर नहीं पहुँच सकते, बल्कि साधारण तीरपर उन्हें तबतक पहले धीमें पगसे चलना होता तथा अपनी प्रकृतिकी

 

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कठिनाइयोंका सामना करना होता है जबतक कि अध्यवसाय या तपस्याके द्वारा उनके अन्दर पर्याप्त उद्घाटन नहीं हो जाता । डगमगानेवाली श्रद्धा तथा धीमे और आशिक समर्पणमें भी कुछ शक्ति होती है और उनका भी फल होता है, अन्यथा एकमात्र कुछ बिरले लोग ही साधना करनेमें समर्थ होते । केंद्रीय श्रद्धासे मेरा मतलब है वह श्रद्धा जो पीछेकी ओर विद्यमान अन्तरात्मा अथवा केंद्रीय पुरुषमें हो, वह श्रद्धा जो उस समय भी बनी रहती है जब कि मन सन्देह करता, प्राण निराश हो जाता तथा शरीर गिर जाना चाहता है, और जो आक्रमणके समाप्त हो जानेपर पुनः प्रकट होती और फिरसे पथपर चलनेकी प्रेरणा देती है । यह प्रबल और प्रदीप्त हो सकती है, यह निष्प्रभ और देखनेमें दुर्बल हो सकती है, पर यह यदि प्रत्येक समय आगे चलते रहनेका आग्रह करती हे तो यह यथार्थ वस्तु है । अवसाद और अन्धकार और निराशाके दौरोंका आना साधनाके मार्गकी एक परम्परा है- पूर्वीय या पश्चिमीय सभी योगोंमें उनका होना मानो एक नियमसा हो गया है । मैं स्वयं उन सब चीजोंको पूरी तरह जानता हूँ - परन्तु मेरा अनुभव मुझे यह बोध प्रदान करता है कि उनका होना एक अनावश्यक परम्परा है और यदि कोई चाहे तो इनसे छुटकारा मिल सकता है । यही कारण है कि जब कभी वे तुम्हारे अन्दर या दूसरोंमें आती हैं तो मैं उनके सामने श्रद्धाका सिद्धांत खड़ा करनेका प्रयास करता हूँ ! यदि वे फिर भी आती हैं तो मनुष्यको यथासम्भव शीघ्रताके साथ उनमेंसे गुजर जाना होता और सूर्यालोकमें वापस आ जाना होता है । समुद्रका तुम्हारा स्वप्त पूर्ण रूपसे सही स्वप्त था - अन्तमें साधकके अन्दर कृपाकी स्थितिके आनेको और उसके साथ स्वयं कृपाके आगमनको तूफान और बाढ़ नहीं रोकते । इसी चीजको, मैं समझता हूँ, तुम्हारे अन्दरकी कोई चीज सर्वदा चाह रही है - कृपाशक्तिका अतिमानसिक चमत्कार, कोई चीज जो तपस्या, आत्मपरिपूर्णता तथा दीर्घ परिश्रमकी मांगसे घबड़ाती है । हां, वह आ सकती है, वह यहां बहुतोंके पास वर्षपर वर्ष नितांत असफलता, कठिनाईया भयंकर संघर्षोंके बाद आयी है । परंतु यह सामान्यतया उसी तरह -- धीरे-धीरे बढ़ती हुई कृपाशक्तिके रूपमे नहीं -- बहुत कठिनाईके बाद आती है, एकदम तुरत नहीं आती । यदि तुम प्रत्युत्तरके आपात- दृष्ट अभावके बावजूद इसके लिये प्रार्थना करते रहो ए तो वह अवश्य आयेगी । जबतक हम परम सत्यको नहीं जान लेते (मनद्वारा नहीं बल्कि अनुभवद्वारा, चेतनाके परिवर्तनके द्वारा ) तबतक अपनेको सहारा देने तथा सत्यको पकड़े रहने के लिये हमें अन्तरात्माकी श्रद्धाकी आवश्यकता होती हे - परन्तु जब हम ज्ञान- में निवास करते हैं, यह श्रद्धा ज्ञानमें परिवर्त्तित हो जाती है ।

 

*

 

       निस्सन्देह, मैं प्रत्यक्ष आध्यात्मिक ज्ञानकी बात कह रहा हूँ । मानसिक ज्ञान श्रद्धाका स्थान नहीं ले सकता, जबतक मनुष्यमें केवल मानसिक ज्ञान है तबतक श्रद्धा- की आवश्यकता है ।

 

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 श्रद्धा एक ऐसी वस्तु है जो ज्ञानसे पहले आती है, ज्ञानके बाद नहीं आती । यह सत्यकी एक ऐसी झांकी है जिसे मनने अभीतक ज्ञानके रूपमें नहीं पकड़ा हे ।

 

       सच पूछा जाय तो बुद्धिके द्वारा कोई योगमें उन्नति नहीं कर सकता, बल्कि चैत्य और आध्यात्मिक ग्रहणशीलताके द्वारा करता है - जहांतक ज्ञान और सच्ची समझ- का प्रश्न है, यह साधनामें अन्तर्ज्ञानकी वृद्धिके साथ बढ़ती है, भौतिक मन-बुद्धिकी वृद्धि- के साथ नहीं बढ़ती ।

 

      साधनामें चेतनाकी क्रियाके साथ सम्बन्ध रखनेवाली सूक्ष्म प्रकारकी चीजों- में मनुष्यको आंतरिक चेतनाके द्वारा अनुभव करना और निरीक्षण करना और जानना- समझना सीखना तथा चीजोंकी ओर नमनीय दृष्टि रखते हुए अन्तर्बोधके द्वारा निश्चय करना होता है -- नमनीय दृष्टि निर्धारित परिभाषाएं और नियम नहीं बनाती जैसे कि मनुष्य बाहरी जीवनमें बनाता है ।

 

        भगवान्में, भगवान्की कृपा-शक्तिमें, साधनाके सत्यमें, मानसिक, प्राणिक और भौतिक कठिनाइयोंके ऊपर आत्माकी अन्तिम विजयमें, अपने पथ और गुरुमें तथा हेकेल  या  हक्सले  या बेरट्रेण्ड रसेल के दर्शनशास्योंमें लिखी बातोंके भिन्न वस्तुओंको अनुभवमें श्रद्धा-विश्वास बनाये रखो, कारण, यदि ये चीजे सच्ची न होतीं तो फिर योगका कोई अर्थ ही नहीं रह जाता । मैं नहीं समझता कि शरीरके कोषाणुओंमें श्रद्धा पैदा करनेकी पद्धतिकी तुलना चन्द्रमाका एक कतला खानेके साथ कैसे की जा सकती है? किसी व्यक्तिको कभी चन्द्रमाका कोई कतला नहीं मिला, परन्तु कोषाणुओंमें श्रद्धा उत्पन्न करके अपनेको नीरोग कर लेना एक वास्तविक तथ्य है और प्रकृतिका एक विधान है और योगसे पृथक् भी इसकाप्रदर्शन बहुधा काफी मात्रामें हुआ है । श्रद्धाको तथा अन्य सभी चीजों- को पानेका तरीका है उन्हें प्राप्त करनेका आग्रह करना और जबतक वे प्राप्त न हो जायं तबतक अवसन्न होना या हताश होना या प्रयास छोड़ देना अस्वीकार कर देना  - यही वह तरीका है जिससे सभी चीजे उस समयसे प्राप्त होती आयी हैं जिस समय इस कठिन धरतीपर चिन्तनशील तथा अभीस्तु जीवोंने निवास करना आरम्भ किया था । यह तरीका है सर्वदा उद्घाटित होना, सर्वदा ज्योतिकी ओर उद्घाटित होना

 

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और अन्धकारकी ओर अपनी पीठ फेर देना । यह तरीका है उन वाणियोंको अस्वी- कार करना जो लगातार यह कहती हैं कि ' 'तुमसे नहीं हो सकता, तुमसे नहीं होगा, तुम असमर्थ हो, तुम एक स्वप्नके हाथकी कठपुतली हो' '-क्योंकि ये शत्रुकी वाणिया हैं, ये अपने कर्कश चीत्कारके द्वारा मनुष्यको आगे आनेवाले परिणामसे अलग हटा देती हैं तथा उनके बाद अपने प्रतिपाद्य विषयके प्रमाणके रूपमें परिणामकी शून्यता- की ओर विजयोल्लासके साथ संकेत करती हैं । प्रयासमें कठिनाई का आना एक जानी- मानी बात है, परन्तु 'कठिनका अर्थ 'असम्भव' नहीं है - सच पूछो तो कठिन कार्य सदा ही संपन्न हुए हैं तथा कठिनाइयोंपर विजय पाना ही उन सब चीजोंका निर्माण करता है जो पृथ्वीके इतिहासमें बहुमूल्य समझी जाती हैं । आध्यात्मिक प्रयासमें भी बात यही होगी ।

 

         तुम्हें बस इस राक्षसका वध करके दृढ़तापूर्वक प्रयास प्रारम्भ कर देना होगा और फिर तुम्हारे लिये दरवाजे खुल जायेंगे, जैसे कि उन बहुतेरे लोगोंके लिये खुल चुके हैं जिन्हें उनकी अपनी मानसिक या प्राणिक प्रकृतिने रोक रखा था ।

 

*

 

श्रद्धा दो प्रकारकी होती है:

एक श्रद्धा तो वह है जो मनुष्यमें समत्वभाव ले आती है और दूसरी वह है जो सिद्धि ले आती है ।

ये दोनों श्रद्धाएं भगवानके दो भिन्न-भिन्न भावोंसे मिलती-जुलती हैं ।

एक तो हैं परात्पर भगवान् और दूसरे हैं विश्वव्यापी भगवान् ।

सिद्धिका संकल्प है परात्पर भगवानका संकल्प ।

 

          विश्वव्यापी भगवान् वह हैं जिनका सम्बन्ध वर्तमान परिस्थितियोंके अधीन वस्तुओंके यथार्थ कार्यान्वयनके साथ है । इसी विश्वव्यापी भगवानका संकल्प इस जगत्की प्रत्येक परिस्थिति, प्रत्येक गतिविधिमें अभिव्यक्त होती है ।

 

           विश्वव्यापी भगवानका संकल्प, हमारी साधारण चेतनाके लिये, ऐसी कोई चीज नहीं है जो, वह जो कुछ करना चाहती हे उसे, एक स्वातन्त्र्य शक्तिके रूपमें करती है; वह संकल्प इन सभी सत्ताओं, जगत्में कार्य करनेवाली शक्तियों तथा इन शक्तियों- के विधान और उनके परिणामोफे भीतरसे कार्य करता हूँ - जब हम अपनेको खोलते और सामान्य चेतनासे बाह्रा निकल आते हैं केवल तभी हम उसे एक स्वातन्त्र्य शक्ति- के रूपमें हस्तक्षेप करते हुए एवं शक्तियोंकी साधारण क्रीडाका उल्लंघन करते हुए अनु- भव कर सकते हैं।

 

       फिर हम यह भी देख सकते हैं कि शक्तियोंकी कडिमें भी तथा उनके कारण उत्पन्न विकृतियोंके बावजूद भी वैश्व संकल्प परात्पर भगवानके संकल्पकी अन्तिम सिद्धिको ले आनेके लिये कार्य कर रहा है ।

 

       अतिमानसिक संसिद्धि परात्पर भगवानका संकल्प जिसे  लोगोंको कार्या-

 

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 न्वित करना है । जिन परिस्थितियोंके अधीन हम लोगोंको इसे कार्यान्वित करना है वे एक निम्नतर चेतनाकी परिस्थितियां हैं जिनमें वस्तुएं स्वयं हमारे अज्ञान, दुर्बलता- ओं तथा भूलोंके कारण, तथा साथ ही परस्पर-विरोधी शक्तियोंके संघर्षके कारण विकृत हो सकती हैं । यही कारण है कि श्रद्धा और समता दोनों अनिवार्य हैं ।

 

        हम लोगोंको यह श्रद्धा रखनी होगी कि हमारे अज्ञान और भूल-भ्रांतियों और कमजोरियोंके बावजूद तथा विरोधी शक्तियोंके आक्रमणोंके बावजूद और ऊपरसे दीखनेवाली किसी तात्कालिक असफलताके बावजूद भागवत संकल्प हम लोगोंको प्रत्येक परिस्थितिके भीतरसे होते हुए, अन्तिम सिद्धिकी ओर ले जा रहा है । यह श्रद्धा हमें समता प्रदान करती हे; यह एक ऐसी श्रद्धा है जो, जो कुछ घटित होता है उसे, स्वीकार करती है, अवश्य ही अन्तिम रूपमें नहीं बल्कि एक ऐसी चीजके रूपमें स्वीकार करती है जिनमेंसे अपने मार्गपर हमें गुजरना हेंगा । एक बार जब समत्वभाव स्थापित हो जाता है तो फिर उससे पोषित होकर दूसरे प्रकारकी श्रद्धा भी स्थापित हो सकती है जिसे अतिमानसिक चेतनाकी किसी वस्तुके द्वारा शक्तिशाली बनाया जा सकता है और जो वर्तमान परिस्थितियोंको जीत सकती तथा जो कुछ घटित होगा एवं परात्पर भगवान्की ससिद्धिमे सहायक होगा उसको निर्धारित कर सकती है ।

 

      जो श्रद्धा वैश्व भगवान्में होती है वह लीलाकी आवश्यकताके द्वारा अपनी कर्म-शक्तिमें सीमित होती है ।

 

*

 

       इन सीमाओंसे पूर्णत: मुक्त होनेके लिये हमें परात्पर भगवान्को प्राप्त करना होगा ।

 

*

 

       वैश्व शक्तियोंकी क्रियामें, विश्वगत संकल्प -- जैसा कि हम इसे नाम दे सकते हैं -- ऊपरसे देखनेमें हमारे कार्य या साधनाकी किसी सरल और सीधी धाराके अनु- कूल सर्वदा कार्य नहीं करता : वह बहुधा ऐसी चीजे उत्पन्न करता है जो ऐसी उथल- पुथल, अकस्मात् मोड प्रतीत होती हैं जो धाराको तोड़ देते या बदल देते हैं, जो विपरीत या विपर्यस्तकारी परिस्थिति प्रतीत होते हैं अथवा जो कुछ अस्थायी रूपसे सुनिश्चित या सुस्थापित हो चुका था उससे भ्रामक विव्युति प्रतीत होते हैं । बस, एकमात्र आवश्यक बात है समताको बनाये रखना तथा जीवन और साधनाके क्रममें जो कुछ घटित होता है उसमेंसे एक सुअवसर एवं प्रगतिके साधनका निर्माण करना । वैश्व शक्तियोंकी क्रीड़ा और संकल्पके पीछे -- उस क्रीडाका पीछे जिसमें अनुकूल और प्रतिकूल वस्तुओंका सर्वदा सम्मिश्रण होता है-एक उच्चतर गुप्त परात्पर संकल्प होता है और इसी संकल्पकी हमें प्रतीक्षा करनी चाहिये तथा उसीपर विश्वास रखना चाहिये; पर हमें यह आशा नहीं करनी चाहिये कि हम उसकी. क्रियाओंको सर्वदा समझ सकेंगे । मन चाहता है यह हो या वह, एक बार जब इसने रास्ता ले लिया तो इसे ही बनाये रखना चाहिये, पर जो कुछ मन चाहता है वह सर्वदा वह चीज बिलकुल नहीं होती

 

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जो एक वृहत्तर उद्देश्यके लिये अभिप्रेत होती है । यह ठीक है कि मनुष्यको अपनी साधनामें एक सुनिश्चित केंद्रीय लक्ष्यका अवश्य अनुसरण करना चाहिये और उससे अलग नहीं होना चाहिये, परन्तु किन्हीं बाह्य परिस्थितियों, अवस्थाओं आदि-आदिका निर्माण नहीं करना चाहिये मानो वे ही मौलिक वस्तुएं हों ।

 

*

 

     तुम्हारे पिछले पत्रका प्रश्ननका इसके सिवा और कोई उत्तर नहीं हो सकता कि या तो एकमात्र एकनिष्ठ श्रद्धा या स्थिर संकल्प ही तुम्हें योगका खुला मार्ग दे सकता है । तुम जो सफल नहीं होते इसका कारण वास्तवमें यह है कि तुम्हारे विचार और तुम्हारा संकल्प निरन्तर परिवर्त्तित होते रहते अथवा अस्थिर रहते हैं । अपूर्ण श्रद्धाके होनेपर भी स्थिर मन और संकल्प अनुभूतितक ले जा सकते और अनुभूति प्रदान कर सकते हैं जिससे अनिश्चित श्रद्धा निश्चयतामें बदल जाती है ।

 

        यही कारण है कि विभिन्न उपायोंसे सम्बन्धित तुम्हारे प्रश्नोंका उत्तर देना मेरे लिये कठिन हो रहा है । मैं कह सकता हूँ कि गीताका पथ स्वयं यहाके योगका एक अंग है और जिन लोगोंने इसका अनुसरण किया है, आरम्भ करनेके लिये अथवा प्रथम अवस्थाके रूपमें, उन्होंने इस योगका दूसरोंकी अपेक्षा अधिक सुदृढ़ आधार प्राप्त कर लिया है । इसलिये उसे कोई पृथक् या हीन वस्तु समझकर मृणाकी दृष्टिसे देखना कोई समुचित दृष्टिकोण नही है । परन्तु यह चाहे जो कुछ हो, तुम्हें स्वयं चुनाव करना होगा, कोई दूसरा व्यक्ति तुम्हारे लिये चुनाव नहीं कर सकता। जो लोग आते-जाते हैं, वे ऐसा करते हुए केवल तभी लाभान्वित हो सकते हैं यदि या क्योंकि उन्होंने ऐसा निर्णय किया है और उसपर दृढ रहते हैं; जब वे यहां होते हैं, केवल योगके लिये ही वे यहां आते हैं; जब वे दूसरी जगह होते हैं, वहां योगका संकल्प उनमें बना रहता है । तुम्हें निरन्तर तर्क-वितर्क करते रहनेकी आदतसे छुटकारा पाना होगा और यह देखना होगा कि आया योगकी प्रवृत्तिके बिना तुम रह सकते हो या नहीं -- यदि नहीं रह सकते तो फिर योगरहित साधारण जीवनकी बात सोचना निरर्थक है - तुम्हारा स्वभाव तुम्हें इसकी खोज करनेके लिये तब भी बाध्य करेगा जब कि तुम्हें सारे जीवन इसका अनुसरण करनेपर भी बहुत थोड़ा-सा फल प्राप्त होगा । परन्तु थोड़ासा फल होनेका मुख्य कारण है तुम्हारा मन जो सर्वदा रोडे अटकाता है और तुम्हारी प्राणिक दुर्बलता जो उसके तर्कोंको आधार प्रदान करती है । यदि तुम अपने संकल्पको अटल रूपसे स्थिर कर लो तो उससे तुम्हें एक सुयोग मिल जायगा -- और फिर चाहे तुम यहां रहकर उसका अनुसरण करो या अन्यत्र उससे केवल मामूली अन्तर पड़ेगा ।

 

मैंने तुम्हारे लिये गीताकी पद्धतिकी सलाह दी थी क्योंकि यहां योगके लिये जो उद्घाटन आवश्यक है वह तुम्हारे लिये अत्यन्त कठिन प्रतीत होता है । तुम यदि कोई श्रमसाध्य प्रयासकी मांग अपनेसे न करो तो वह एक अधिक बड़ा सुअवसर होगा । पर जो हो, यदि ' साधारण जीवनमें वापस नहीं जा सकते तो, यहां विद्यमान दिव्य

 

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शक्तिके प्रति उद्घाटनके अभावमें, बस यही तुम्हारे लिये पथ प्रतीत होता है ।

 

*

 

     यदि श्रद्धा तथा आत्मदानके लिये अटल और सतत संकल्प बना रहे तो यह एक- दम पर्याप्त है । ऐसा माना जाता है कि मनुष्य-स्वभावके लिये तबतक सन्देह, अन्धता या अभीतक अंसमर्पित वस्तुओंकी क्रियाके बिना सर्वदा रहना सम्भव नहीं है जबतक कि आंतरिक चेतना इन सबको असम्भव बना देनेके लिये पर्याप्त रूपसे विकसित न हो जाय । वास्तवमें यह इसलिये ऐसा है कि संकल्प आवश्यक है जिसमें कि दिव्य शक्ति साधकके मन और हृदयकी पूर्ण अनुमति और संकल्पके साथ इन चीजोंको दूर करनेका कार्य कर सके । इन चीजोंका परित्याग करनेका प्रयास करना तथा संकल्प- को स्थायी बनाना पर्याप्त है,-क्योंकी। यही प्रयास अन्तमें स्थायित्व ले आता है ।

 

        तुम्हारे अनुभवमें नींदकी गहराई इसलिये अभिप्रेत थी कि तुम्हें भीतर गहराई- तक ले जाया जाय और, जैसे ही तुम वहां पहुँच गये, तुम चैत्यऔर आध्यात्मिक अवस्था- में प्रवेश कर गये जिसने सुन्दर मैदान तथा श्वेत ज्योति, शीतलता और शान्तिका रूप ले लियां । सीढी इस चैत्य और आध्यात्मिक स्थितिसे आध्यात्मिक चेतनाके ओर भी अधिक ऊंचे और ऊंचे स्तरोंमें बढ़नेका प्रतीक थी जहां ज्योतिका मूल स्रोत है । श्रीमाताजीका हाथ उनकी उपस्थिति और सहायताका प्रतीक था जो तुम्हें ऊपर उठायेंगी तथा सीढूीके शीर्ष-स्थानपर तुम्हें ले जायेंगी ।

 

*

 

       श्रद्धा तामसिक और निष्फल हो सकती है, उदाहरणार्थ, 'मैं विश्वास करता हूँ कि श्रीमाताजी सब कुछ करेंगी, अतएव मैं कुछ नहीं करूँगा । जब वह चाहेंगी, मुझे रूपांतरित कर देंगी । '' यह सक्रिय नहीं बल्कि निष्क्रिय और जड़ श्रद्धा है । श्रद्धा, भगवानके ऊपर निर्भरता, भागवत शक्तिके प्रति आत्मसमर्पण और आत्मदान - ये सब आवश्यक और अनिवार्य हैं । परन्तु भगवानके ऊपर निर्भर रहनेके बहाने आलस्य और दुर्बलताको नहीं आने देना चाहिये तथा जो चीजे भागवत सत्यके मार्गमें बाधक होती हैं उनका निरन्तर त्याग होते रहना चाहिये । भगवानके प्रति आत्मसमर्पण करनेको, अपनी ही वासनाओं तथा निम्रतर प्रवृत्तियोंके प्रति या अपने अहंकार या अज्ञान और अन्धकारकी किसी शक्तिके प्रति, जो कि भगवानका मिथ्या रूप धारण करके आती है, आत्मसमर्पण करनेका एक बहाना, एक आवरण या एक अवसर नहीं बना देना चाहिये ।

 

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      मनुष्यको भगवान्पर निर्भर होना चाहिये ओर फिर भी कोई उपयुक्त बनाने वाली साधना करनी चाहिये - भगवान् साधनाके अनुपातमें नहीं बल्कि अन्तरात्मा तथा उसकी अभीप्साके अनुपातमें फल प्रदान करते हैं । (मेरा मतलब है अन्तरात्मा- की सच्चाई, भगवान्के लिये उसकी उत्कंठा तथा उच्चतर जीवनके लिये उसकी अभीप्सासे । ) फिर चिन्तित होनेसे - मैं यह बनूँगा वह बनूँगा, मैं क्या बनूँ आदि सोचते रहनेसे -- भी कोई लाभ नहीं होता । कहना चाहिये: ' 'मैं जो कुछ होना चाहता हूँ वह नहीं बल्कि जो भगवान् चाहते हैं कि मैं बनूँ वह बननेके लिये तैयारहूँ' ' -- बाकी सब कुछ उसी आधारपर चलते रहना चाहिये ।

 

*

 

         तुमने फिर सही सिद्धांत पकड़ लिया है -- संपूर्ण श्रीमांका लिये हो जाना और पूर्ण रूपसे यह विश्वास बनाये रखना कि मनुष्यको बस उसी विश्वासके साथ चुपचाप चलते रहना है और जिन सब चीजोंके आनेकी आवश्यकता है वे सब आयेंगी तथा भग- वान् जो कुछ संपन्न करना चाहते हैं वह सब संपन्न हो जायगा । संसारके अन्दर होने- वाली क्रियाएँ मानव-मनकी समझके लिये अत्यन्त सूक्ष्म, विलक्षण और जटिल हैं -- जब ज्ञान ऊपरसे आता है और मनुष्य उच्चतर चेतनामें उठा लिया जाता है केवल तभी उनको समझनेकी शक्ति आ सकती हे । इस बीच मनुष्यको जिस चीजका अनुसरण करना है वह है उस श्रद्धा और प्रेमपर आधारित अन्तरस्थ गभीरतर चैत्य हृदयका आदेश जो कि एकमात्र सुनिश्चित पथप्रदर्शक नक्षत्र है ।

 

*

 

       यह सब मैं पहले ही तुम्हें समझा चुका हूँ । यह बिलकुल ठीक है कि, अपने- आपपर छोड़ देनेपर, तुम कुछ भी नहीं कर सकते; यही कारण है कि तुम्हें उस शक्ति- के संपर्कमें रहना होगा जो यहां जो कुछ तुम अपने लिये नहीं कर सकते उसे तुम्हारे लिये कर देनेके लिये मौजूद है । तुम्हें जो एकमात्र चीज करनी है वह यह है कि तुम उस शक्तिको कार्य करने दो और अपने-आपको उसके पक्षमें बनाये रखो, जिसका अर्थ एवं उस शक्तिमें विश्वास बनाये रखना, उसीपर निर्भर करना, अपने-आपको उद्विग्न और परेशान न करना, उसे शान्तिपूर्वक याद करना, उसे शान्तिपूर्वक पुकारना और उसे चुपचाप कार्य करने देना । यदि तुम ऐसा करो तो बाकी सब कुछ तुम्हारे लिये कर दिया जायगा -- एकदम तुरन्त नहीं, क्योंकि बहुत कुछ साफ करना है, पर फिर भी लगातार और अधिकाधिक वह किया जायगा ।

 

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      भागवत करुणा और शक्ति सब कुछ कर सकती हैं, पर साधककी पूर्ण अनुमति होनेपर । वह पूर्ण अनुमति देना सीखना ही साधनाका संपूर्ण अर्थ हे । इसमे या तो मनके विचारों, प्राणकी कामनाओं या भौतिक चेतनाकी तामसिकताके कारण समय लग सकता है, परन्तु इन चीजोंको भागवत शक्तिकी सहायतासे या उसकी कियाका आवाह्न करके दूर करना होगा और ये दूर हो सकती हैं ।

 

*

 

        किसी प्रकारके निरुत्साहको अपने ऊपर न आने दो और भागवत. कृपा शक्ति- पर किसी प्रकारका अविश्वास न रखो । जो भी कठिनाइयां तुम्हारे बाहर हों, जो भी दुर्बलताएं तुम्हारे अन्दर हों, यदि तुम अपनी श्रद्धा और अपनी अभीप्सापर दृढ़ता- पूर्वक डटे रहो तो गुह्य शक्ति तुम्हें निकाल ले जायगी और यहां वापस ले आयगी । यदि तुम विरोधों और कठिनाइयोंसे दवे हुए हो, यदि तुम लड़खड़ाते हो, यदि तुम्हारे लिये मार्ग बन्द प्रतीत होता है तो भी अपनी अभीप्साको पकड़े रहो; यदि कुछ समयके लिये श्रद्धा मेघाच्छन्न हो गयी है तो मन और हृदयमें हमारी ओर मुडो और बादल दूर हो जायेंगे । पत्रोंके रूपमें बाहरी सहायताका जहांतक प्रश्न है, हम उसे तुम्हें देने- के लिये पूर्णत: सन्नद्ध है...... । परन्तु पथपर डटे रहो -- फिर अन्तमें सारी चीजे अपने-आप खुल जायंगी और परिस्थितियां आंतरिक आत्माके सामने हार मान जायंगी ।

 

*

 

        यह कठिनाई अवश्य ही अविश्वास और अवज्ञाके कारण आयी होगी । क्योंकि अविश्वास और अवज्ञा ठीक मिथ्याचारकी तरह हैं (वे स्वयं मिथ्यापन ही हैं और मिथ्या धारणाओं तथा प्रेरणाओंपर ही आश्रित होते है )? वे महाशक्तिके कार्यमें हस्तक्षेप करते हैं, साधकको उस शक्तिका अनुभव प्राप्त करनेमे या उस शक्तिको पूर्ण रूपसे कार्य करने देनेमें बाधा डालते हैं तथा भागवत संरक्षणकी शक्तिको क्षीण कर देते हैं । केवल अपनी अन्तर्मुखी एकाग्रताके समय ही नहीं, बल्कि अपने बाहरी कार्यों तथा विभिन्न प्रवृत्तियोंमें लगे रहनेपर भी तुम्हें उचित भाव बनाये रखना होगा । यदि तुम ऐसा कर सको और सब बातोंमें श्रीमांका पथप्रदर्शन स्वीकार करो तो तुम देखोगे कि तुम्हारी कठिनाइयां धीरे-धीरे कम होती जा रही हैं अथवा तुम बड़ी आसानीसे उन्हें पार करते जा रहे हो और सभी चीज़ें क्रमश: सुगम होती जा रही हैं ।

 

       तुम्हें अपने सभी कर्मों और क्रियाओंमें भी ठीक वही करना चाहिये जो तुम अपने ध्यानमें करते हो । श्रीमांकि ओर अपने-आपको उद्घाटित करो, अपने सभी कर्मोंके श्रीमांके पथप्रदर्शनपर छोड़ दो, शान्तिका, सहारा देनेवाली दिव्य शक्तिका तथा दिव्य संरक्षणका आवाहन करो और इसलिये कि ये सब अबाध गतिसे अपना कार्य कर सकें उन सब मिथ्या प्रभावोंका त्याग करो जो भ्रांत तथा असावधानी या

 

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अचेतनतासे पूर्ण क्रियाओंको उत्पन्न कर उनके मार्गमें बाधक हो सकती हैं ।

 

       इस नीतिका अनुसरण करो और तुम्हारी समस्त सत्ता शान्तिके अन्दर, शरण- दायिनी शक्ति और ज्योतिके अन्दर एक, अखण्ड शासनके अधीन हो जायगी ।

 

*

 

       उन्हें (श्रद्धा, समर्पण और समताको ) सत्ताके प्रत्येक भाग और अणु-परमाणु- में स्थापित करना होगा जिसमें कि कहीं भी किसी विपरीत स्पंदनकी कोई सम्भावना न रह सके ।

 

*

 

      जो भी विरोधी वस्तुएं उपस्थित हों तुम्हें साहसके साथ उनका सामना करना चाहिये और वे विलुप्त हो जायंगी और सहायता प्राप्त होगी । श्रद्धा और साहस वे सच्चे भाव हैं जिन्हें सर्वदा जीवन और कर्ममें तथा आध्यात्मिक अनुभवमें भी बनाये रखना चाहिये ।

 

*

 

       परीक्षाके क्षणोंमें भागवत संरक्षणमें विश्वास रखना और उस संरक्षणका आवा- हन करना चाहिये; सब समय यह विश्वास रहना चाहिये कि भगवान् जो कुछ चाहते हैं वही सबसे उत्तम है ।

 

       जो कुछ तुम्हें भगवान्की ओर मोड़ता है उसे ही अपने लिये अच्छा समझकर स्वीकार करना चाहिये - वह सब तुम्हारे लिये बुरा है जो तुम्हें भगवान्से दूर हटा ले जाता है ।

 

*

 

      तुम्हारे दु:ख-क्लेशका इसके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं है कि तुम उनकी खटखटाहटको सुनने और दरवाजा खोल देनेके लिये इस प्रकार तैयार रहते हो । यदि तुम केवल भगवान्को चाहते हो तो यह बिलकुल निश्चित है कि तुम उनको पाओगे, परन्तु प्रत्येक क्षण यह सब शंका-सन्देह उपस्थित करना और व्यग्र होते रहना विलंब कराता तथा हृदय एवं आंखोंके सामने एक निकटवर्त्ती पर्दा डाल देता है । क्योंकि जब साधक कोई प्रगति करेगा तो प्रत्येक पगपर विरोधी शक्तियां पैरोंमें फंदा डाल देनेकी तरह इन सन्देहोंको फेंक देंगी और उसे लड़खड़ाहटके साथ बीचमें ही रोक देंगी -- ऐसा करना उनका धंधा ही है...... । हमें कहना यह चाहिये कि ' '?, मैं केवल

 

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भगवान्को चाहता हूँ मेरी सफलता निश्चित है । मुझे बस पूरे विश्वासके साथ आगे बढ़ते जाना है और स्वय उनका हाथ गुप्त रूपसे मुझे उनकी ओर उनके अपने पथसे और उनके अपने समयपर ले जानेके लिये वहां मौजूद रहेगा । '' इसी चीजको तुम्हें अपने मंत्रके रूपमें सतत अपने पास रखना होगा । दूसरी किसी चीजपर मनुष्य शंका कर सकता है पर यह बात कि जो व्यक्ति केवल भगवान्को चाहता है वह उन्हें अवश्य पायेगा एकदम सुनिश्चित है तथा दो और दो चार होनेसे भी अधिक सुनिश्चित है । यही वह श्रद्धा है जिसे प्रत्येक साधकको अपने हृदयकी गहराईमें रखना चाहिये जो उसे प्रत्येक ठोकर और आघात और अग्निपरीक्षाके समय उसे सँभाले रखे । सच पूछो तो केवल मिथ्या विचार अभी भी तुम्हारे मनपर अपनी परछाईं फेंक रहे है जो तुम्हें इस श्रद्धाको बनाये रखनेसे रोकती है । उसे दूर धकेल दो और कठिनाईकी रीढ चूर-चूर हो जायगी ।

 

*

 

        दिव्य ज्योतिकी विजयमें अटूट श्रद्धा-विश्वास बनाये रखो और स्थिर समत्वके साथ जड्तत्व तथा मानव व्यक्तित्वका सामना करो जबतक कि उनका रूपांतर नहो जाय ।

 

*

 

यह केवल एक आशा ही नहीं वरन् एक सुनिश्चित बात है कि प्रकृतिका पूर्ण रूपांतर साधित होगा ।

 

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      यदि बहुत अन्धकार है तो भी -- और यह जगत् उससे पूर्ण है और मनुष्यकी भौतिक प्रकृति भी -- तो भी सच्ची ज्योतिकी एक किरण अन्तमें दसगुने अन्धकार- के विरुद्ध भी विजयी होगी । इसपर विश्वास करो और इससे सर्वदा चिपके रहो ।

 

v

 

      समर्पणका अर्थ है अपने-आपको भगवान्के हाथोंमें सौंप देना - मनुष्य जो कुछ है या उसके पास जो कुछ है सब भगवान्को दे देना और किसी चीजको अपना निजी न समझना, अन्य किसीकी इच्छाका नहीं, केवल भगवान्की इच्छाका अनुसरण करना, अहंकारके लिये नहीं बल्कि भगवान्के लिये जीवन यापन करना ।

 

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८१


        समर्पणका तात्पर्य है संपूर्ण रूपसे श्रीमांके हाथोंमें आ जाना, आर अपने अहंकारके द्वारा या अन्यथा किसी भी तरह उनकी ज्योति, ज्ञान, संकल्प, उनकी शक्तिकी क्रिया आदिका विरोध न करना ।

 

*

 

      तब यह समर्पणका संकल्प है । परन्तु समर्पण श्रीमाताजीके प्रति होना चाहिये -- शक्तिके प्रति भी नहीं, बल्कि स्वयं श्रीमाताजीके प्रति ।

 

*

 

      इस सब जटिलताकी कोई आवश्यकता नहीं । यदि चैत्य पुरुष अभिव्यक्त हो तो वह अपने प्रति नहीं, बल्कि श्रीमाताजीके प्रति समर्पण करनेकी मांग करेगा ।

 

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      भगवान् उन लोगोंको अपने-आपको देते हैं जो बिना कुछ बचाये और अपनी सत्ताके सभी अंगोंमें अपने-आपको भगवानके हाथोंमें अर्पित कर देते हैं । उन्हींके लिये हैं शान्ति, ज्योति, शक्ति, आनन्द, स्वतन्त्रता, विशालता, ज्ञानकी ऊंचाइयां और आनन्दके सागर ।

 

*

 

        यहां केवल आंतरिक अर्थ लिया गया है - इसका तात्पर्य कोई बाहरी महानता नहीं है । सभी प्रकारका आत्मदान अहंकारी दृष्टिमें अपनेको नीचे गिरा देना और- न्यून कर देना है । परन्तु वास्तवमें भगवानके प्रति किया गया आत्मदान सत्ताको वर्धित करता और महान् बनाता है - यही बात यहां कही गयी है ।

 

*

 

        यदि कोई  समर्पण न हो तो फिर समूची सत्ताका कोई रूपांतर भी नहीं हो सकता ।

 

        यह श्रीमाताजीका पुस्तक ' 'वार्त्तालाप' ' के निम्रांकित उद्धरणकी व्याख्या है :

       ' 'समर्पण तुम्हारा हास नही करेगा,. बल्कि वह तुम्हारी वृद्धि करेगा; वह तुम्हारे व्यक्तित्व-को न घटायेगा न दुर्बल करेगा, न विनष्ट करेगा, यह उसे प्रबल और महान् बनायेगा । ''

(वार्त्तालाप, १म संस्करण, पृ २००) ।

 

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     यदि कोई भगवान्को चाहे तो भगवान् स्वयं उसके हृदयको शुद्ध करनेका भार ले लेंगे, साधनाको विकसित करेंगे तथा आवश्यक अनुभूतियां प्रदान करेंगे; इस रूपमें घटित हो सकता और अवश्य होता है यदि कोई भगवानपर भरोसा और विश्वास तथा समर्पणकी इच्छा रखे । क्योंकि इस प्रकार भगवानके ग्रहण करनेका तात्पर्य है एकमात्र अपने निजी प्रयासपर निर्भर न कर अपनो-आपको भगवानके हाथोंमें सौंप देना और फिर इसका मतलब है भगवानपर भरोसा और विश्वास रखना तथा क्रमश: आत्मदान करते जाना । यही वास्तवमें वह साधनाका सिद्धांत है जिसका अन्उसरण मैंने किया था और यही योगकी केंद्रीय पद्धति है जिसकी मैंने परिकल्पना की है । मैं समझता हूँ कि यही वह चीज है जिसे श्रीरामकृष्णने अपनी रूपककी भाषामें बिल्लीके बच्चेकी पद्धति बतलायी थी । परन्तु सब लोग एकाएक इसका अनुसरण नहीं कर सकते; इस पद्धतिको अपनानेमें उन्हें समय लगता है - यह पद्धति सबसे अधिक तब विकसित होती है जब मन और प्राण शांत-स्थिर हो जाते हैं ।

 

       समर्पणसे मेरा जो तात्पर्य है वह यही मन और प्राणका आंतरिक समर्पण है । निस्सन्देह, एक प्रकारका बाहरी समर्पण भी होता है: उन सभी चीजोंका अर्पण जो आत्माके साथ संघर्ष करती हैं अथवा साधनाकी आवश्यकताके. विपरीत पड़ती हैं, भगवान्की पूजा, उनके पथप्रदर्शनके पालन, चाहे प्रत्यक्ष रूपमें, यदि साधक उस स्थितिमें पहुँच चुका हो, अथवा चैत्य पुरुषके द्वारा, अथवा गुरुके मार्गदर्शनका अनु- सरण । मैं यह कह दूँ कि प्रायोपवेशन ( दीर्घकालतक उपवास ) का समर्पणके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है: यह अत्यन्त कठोर तपस्याका एक रूप है ओर, मेरी रायमें, अत्यधिक कठोर प्रकारका है, बहुधा खतरनाक भी होता है ।

 

     आंतरिक समर्पणका सारतत्त्व है भगवान्पर भरोसा और विश्वास । साधक- का मनोभाव होता है: ' 'मैं भगवान्को चाहता हूँ, और किसी चीजको नहीं । मैं पूर्णत: अपनेको उन्हें दे देना चाहता हूँ और चूँकि मेरा अन्तरात्मा इसे चाहता है, इसके सिवा और कुछ नहीं हो सकता कि मैं उनका साक्षात्कार पाऊं और उन्हें उपलब्ध करूं । मैं इसके सिवा और कुछ नहीं चाहता,बस, मेरे अन्दर होनेवाला उनका कार्य मुझे उनके पास पहुंचा दे, उनका यह कार्य चाहे गुप्त हो या प्रकट, प्रच्छन्न हो या अभिव्यक्त । मैं अपने निजी समय और पथपर कोई आग्रह नहीं करता; वह सब कुछ अपने निजी समय और निजी पद्धतिसे करें; मैं उनपर विश्वास बनाये रखूंगी, उनकी इच्छाको स्वी- कार करुंगा, उनकी ज्योति, सान्निध्य और आनन्दके लिये दृढ़तापूर्वक अभीप्सा करूँगा, सभी कठिनाइयों और विलबोके भीतरसे गुजरूँगा, उन्हींपर निर्भर रहूँगा और कभी उनका सहारा नहीं छोडूंगा । मेरा मन शांत हो जाय और उनपर भरोसा करे और वह इसे ज्योतिकी ओर खोल दें; मेरा प्राण अचंचल हो जाय और केवल उन्हींके ओर मुडो जाय और वह इसे अपनी शांति और हर्षकी ओर खोल दें । सब कुछ उनके लिये हो और स्वयं मैं भी उनके लिये होऊं । जो कुछ हो, मैं इस अभीप्सा और आत्मदानके भावको बनाये रखूँगा और इस पूरे भरोसेके साथ आगे बढ़ता रहूँगा कि यह संपन्न हो जायगा । ''

 

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          यही मनोभाव है जिसे मनुष्यको अपने अन्दर बढ़ाना चाहिये ' क्योंकि निश्चय ही इसे तुरत पूर्ण नहीं बनाया जा सकता -- मानसिक और प्राणिक क्रियाएं आडे आती हैं -- परन्तु कोई यदि इसके लिये संकल्प बनाये रखे तो यह सत्तामें विकसित होगा । बाकी चीज है पथप्रदर्शनका अनुसरण करना जब वह प्रकट हो, अपने मन और प्राणकी क्रियाओंको उसमें बाधा न डालने देना ।

 

        मेरे कहनेका आशय यह नहीं है कि यही पथ एकमात्र पथ है और साधना अन्यथा नहीं की जा सकती -- दूसरे बहुत सारे पथ भी हैं जिनके द्वारा मनुष्य भगवान्की ओर जा सकता. है । परन्तु यह एकमात्र पथ है जिसे मैं जानता हूँ और जिससे प्रकृति- के तैयार होनेसे पहले ही भगवान्द्वारा साधनाका ग्रहण किया जाना प्रत्यक्ष तथ्य बन जाता है । दूसरे पथोंमें भागवत क्रिया समय-समयपर अनुभूत हो सकती है, पर वह अधिकांशमें तबतक पर्देके पीछे बनी रहती है जबतक सब कुछ तैयार नहीं हो जाता । कुछ साधनाओंमें भागवत क्रिया पहचानमें नहीं आती; वहां सब कुछ तपस्याके द्वारा करना आवश्यक होता है । कुछ साधनाओंमें दो चीजे मिलीजुली होती हैं; तपस्या अन्तमें प्रत्यक्ष साहाथ्य और हस्तक्षेपका आह्वान करती है । यह भावना और अनु- भव उस योगसे संबद्ध रखते हैं जो समर्पणपर आधारित होता है । परन्तु जिस भी पथका अनुसरण किया जाय, एकमात्र करणीय कार्य है एकनिष्ठ होना तथा अन्ततक प्रयास करते रहना ।

 

       भगवान्द्वारा सब कृउछ किया जा सकता है,--हृदय और स्वभाव शुद्ध किये जा सकते, आंतरिक चेतना जागृत की जा सकती तथा पर्दे दूर किये जा सकते हैं,- यदि कोई भरोसे और विश्वासके साथ अपनेको भगवान्के हाथोंमें अर्पण कर दे और यदि कोई तुरत पूर्ण रूपसे ऐसा न कर सके तो भी, जितना अधिक वह ऐसा कर सकेगा उतना ही अधिक आंतरिक साहाथ्य और पथप्रदर्शन उसे प्राप्त होगा तथा उसके भीतर भगवानका अनुभव बढ़ेगा । यदि सन्देहशील मन कम सक्रिय हो जाय और विनम्रता तथा समर्पणका संकल्प बढ़े तो ऐसा करना पूर्णत: संभव हो सकता है । तब एकमात्र

 

*

 

        इस वस्तुके सिवा किसी दूसरी शक्ति और तपस्याकी आवश्यकता नहीं होती । साधनाकी प्राथमिक अवस्थामें -- और 'प्राथमिक' से मेरा मतलब किसी छोटे अंशसे नहीं है -- प्रयत्न अपरिहार्य है । समर्पण तो ठीक है, पर समर्पण कोई ऐसा कार्य नहीं है जो एक दिनमें हो जाय । मनके अपने भाव और विचार हुआ करते हैं और वह उनसे चिपका रहता है; मानव-प्राण समर्पण में बाधक होता है, क्योंकि प्राण आरम्भिक अवस्थाओंमें जिसे समर्पण समझता है वह संशयग्रस्त आत्मदान है और उसमें प्राणकी मांग भी मिली होती है, भौतिक चेतना पत्थरकी तरह है और यह जिसे समर्पण समझती है वह प्रायः 'तमs', जड़त्वसे अधिक और कुछ नहीं होता । केवल एक हत्युरुष ही है जो जानता है कि समर्पण कैसे करना होता है और आरम्भ-

 

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में यह हत्युरुष तो प्रायः बहुत कुछ छिपा ही रहता है । जब हत्युरुष जागता है तब वह एकाएक और सच्चे रूपमें सारी सत्ताका समर्पण करा सकता है; क्योंकि फिर अन्य अंगोंकी जो कुछ कठिनाई होती है उसका उपाय तुरत हो जाता है और वह कठिनाई दूर हो जाती है । पर जबतक हत्युरुष नहीं जागता तबतक साधकका अपने पुरुषार्थ- से प्रयत्न करना अपरिहार्य है । अथवा यों समझो कि ऐसा प्रयत्न तबतक आवश्यक होता है जबतक कि भागवत शक्ति ऊपरसे उक्लावित होकर सत्तामें न उतर आये और साधना अपने हाथमें न ले ले - साधनाका अधिकाधिक भाग स्वयं ही न करने लग जाय जिसमें साधकके अपने प्रयत्नसे करनेका कार्यभाग बहुत ही थोड़ा शेष रहे  - पर तब भी प्रयत्न न सही पर कम-से-कम अभीप्सा तथा सावधानता तो आवश्यक हैं ही जबतक कि मन, इच्छा, प्राण और शरीरको भागवत शक्ति पूर्णतया अधिकृत न कर ले । मैं समझता हूँ, इस विषयका विवेचन मैंने 'माता' पुस्तकके किसी अध्याय- में किया है ।

 

        - दूसरी ओर, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो पूर्ण समर्पणकी सच्ची और बलवती इच्छाके साथ ही योगारम्भ करते हैं । ये वे लोग हैं जो हृत्युरुषसे अथवा उस सुस्पष्ट एवं उद्बुद्ध मानस-इच्छासे नियंत्रित होते हैं जो जहां एक बार यह मान लेती है कि समर्पण ही साधनाका सिद्धान्त है वहां फिर उसके सम्बन्धमें और कोई बेमतलबकी बात नहीं चलने देती और आधारके अन्य अंगोंको अपने रास्तेपर चलनेके लिये बाध्य करती है । यहां भी प्रयत्न मौजूद है; पर यह इतना सन्नद्ध और स्वयंस्फूर्त होता है तथा इसमें यह भाव कि हमारे पीछे कोई महती शक्ति है, इतना प्रबल और स्वाभाविक होता है कि साधकको प्रायः भान ही नहीं रहता कि मैं कुछ भी प्रयत्न कर रहा हूँ, इसके विपरीत जहां मन या प्राणकी ऐसी इच्छा होती है कि वे अपनी इच्छाको ही लिये रहना चाहते हैं, अपनी स्वतन्त्र वृत्ति-प्रवृत्तिको छोड़ना नहीं चाहते, वहां तबतक संघर्ष और प्रयत्न ही चलता है जबतक कि आधाररूप यंत्र जो सामने है तथा भागवत शक्ति जो पीछे या ऊपर है, इन दोनोंके बीचकी दीवार टूट नहीं जाती । इस विषयमें कोई ऐसा नियम नहीं बताया जा सकता जो बिना किसी भेदके साधकमात्रपर समान रूपसे घट सके । मनुष्य-मनुष्यके स्वभावमें इतना अन्तर है कि किसी एक कठोर नियमसे सबका काम नहीं चल सकता ।

 

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         यह सम्भव नहीं कि साधक एकाएक व्यक्तिगत प्रयासके ऊपर जोर देना छोड़ दे - और न यह सर्वथा वाछनीय ही है; क्योंकि मानसिक जड़तासे व्यक्तिगत प्रयास कहीं अच्छा है ।

 

व्यक्तिगत प्रयासको उत्तरोत्तर भागवत शक्तिकी क्रियाके रूपमें रूपांतरित करना होगा । अगर तुम्हें भागवत शक्तिकी उपस्थितिका अनुभव होता हो तो तुम उसका अपने अन्दर अधिकाधिक  करो जिसमें. = प्रयासको नियंत्रित करे,

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उसे अपने हाथमें ले ले, उसे एक ऐसी चीजमें रूपांतरित कर दे जो तुम्हारी न हो, बल्कि श्रीमाँकी हो । इस तरह व्यक्तिगत आधारमें कार्य करनेवाली शक्तियां भागवत शक्तिके हाथमें चली जायंगी -- अवश्य ही उनका इस प्रकार चला जाना हठात् नहीं, बल्कि धीरे-धीरे पूरा होगा ।

 

       परन्तु अन्तःपुरुषकी स्थितिको प्राप्त करना आवश्यक है; उस विवेकका विकास अवश्य होना चाहिये जो यह ठीक-ठीक देख सके कि भागवत शक्ति क्या है, व्यक्तिगत प्रयास क्या है और निम्रतर विश्वशक्तियोसे आकर क्या-क्या चीजे इन दोनोंके साथ मिल गयी हैं । और, जबतक भागवत शक्तिके हाथमें आधारकी सारी शक्तियां नहीं चलो जाती -- जिसमें बराबर ही कुछ समय लग जाता है -- तबतक सर्वदा ही व्यक्तिगत प्रयास जारी रहना चाहिये, सत्य-शक्तिको निरन्तर स्वीकृति देते रहना चाहिये और प्रत्येक निम्रतर मिश्रणका निरन्तर त्याग करते रहना चाहिये ।

 

       अभी तुम्हें व्यक्तिगत प्रयास छोड़ देनेकी आवश्यकता नहीं है, बल्कि इस बातकी आवश्यकता है कि तुम अपने अन्दर अधिकाधिक भागवत शक्तिका आवाहन करो और उसीके द्वारा अपने व्यक्तिगत प्रयासको नियंत्रित और परिचालित करो ।

 

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        साधनाकी प्रारम्भिक अवस्थाओंमें सब कुछ भगवान्के ऊपर छोड़ देना अथवा अपने व्यक्तिगत प्रयासकी आवश्यकता न समझ सब कुछ भगवान्से ही आशा करना युक्तिसंगत नहीं । ऐसा करना तभी संभव होता है जब हत्युरुष सामने हो और समस्त क्रियाके ऊपर अपना प्रभाव डालता हो ( और तब भी सतर्क रहने और निरन्तर अनु- मति देते रहनेकी आवश्यकता होती है ), अथवा आगे चलकर, योगकी अन्तिम अवस्था- ओमें ऐसा करना सम्भव होता है जब कि साक्षात् रूपमें या लगभग साक्षात् रूपमें अति- मानस-शक्ति साधककी चेतनाको अपने हाथमें ले लेती है; परन्तु यह अवस्था अभी बहुत दूर है । इनके अतिरिक्त अन्य सभी अवस्थाओंमें ऐसा मनोभाव रखनेसे प्रायः साधक निश्चलता और जड़ताको प्राप्त होता है ।

 

      सत्ताके जौ भाग बहुत कुछ यंत्रवत् कार्य करते हैं वे ही वास्तवमें ऐसा कह सकते हैं कि हम निरुपाय हैं, विशेषत: शरीर (स्थूल-भौतिक ) चेतना स्वभावत: ही जड़ है और वह या तो मन और प्राणीकी शक्तियोंद्वारा या उच्चतर शक्तियोंद्वारा परिचालित होती है! परन्तु सभी साधकोंमें सर्वदा ही इतनी सामर्थ्य होती है कि वे अपने मनके संकल्प और प्राणके प्रवेगको भगवान्की सेवामें नियुक्त करें । अवश्य ही यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि इसका फल तुरत ही दिखायी देगा, क्योंकि निम्र प्रकृतिकी बाधा या विरोधी शक्तियोंका आक्रमण कुछ समयतक, यहांतक कि एक दीर्घ कालतक, आवश्यक परिवर्त्तनको रोक रखनेमें सफलता प्राप्त कर सकता है । ऐसी अवस्थामें साधकको तबतक अपने प्रयासमें लगे रहना चाहिये, अपने संकल्पको बराबर भगवान्के पक्षमें नियक्त करते. छ त्याग करने योग्य बरतुओंका

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त्याग करते रहना चाहिये, सत्य ज्योति और सत्य शक्तिकी ओर अपने-आपको खोले रखना चाहिये और उनका स्थिरता और दृढ़ताका साथ, बिना थकावटके, बिना अवसाद या अधीरताके आवाहन करते रहना चाहिये जबतक यह अनुभव न होने लगे कि भागवत शक्ति कार्य करने लगी है और बाधाएं दूर होने लगी हैं ।

 

      तुम कहते हो कि तुम अपने अज्ञान और अन्धकारके विषयमें सचेतन हो । पर, यदि यह केवल साधारण सचेतनता हो तो यह पर्याप्त नहीं है । अगर तुम पूरे ब्यौरेके साथ, उनकी वास्तविक क्रियाओंमें, उनके विषयमें सचेतन होओ तो फिर आरम्भके लिये यह काफी है । तुम जिन भ्रांत क्रियाओंके विषयमें सचेतन हो चुके हो उनका तुम्हें दृढ़ताके साथ त्याग करना होगा और अपने मन और प्राणको भागवत शक्तिकी क्रियाके लिये एक शान्त और स्वच्छ क्षेत्र बनाना होगा ।

 

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         सक्रिय समर्पण उसे कहते हैं जब तुम अपना संकल्प भागवत संकल्पके साथ यूक्त कर देते हो, जो कुछ दिव्य नहीं है उसे त्याग देते हो और जो कुछ दिव्य है उसीको अनु- मति देते हो । निष्क्रिय समर्पण उसे कहते हैं जब सब कुछ पूर्ण रूपसे भगवान्पर छोड़ दिया जाता है -- उसे वास्तवमें बहुत थोड़े लोग ही कर सकते हैं, क्योंकि व्यवहारमें आकर बहू इस प्रकार बदल जाता है कि भगवान्को समर्पण करनेके बहाने तुम निम्र प्रकृतिको समर्पण कर देते हो ।

 

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        यहां दो सम्भावनाएं हैं, एक तो है व्यक्तिगत प्रयासके द्वारा शुद्धीकरण जिसमें लम्बा समय लग जाता है, दूसरी है भागवत कृपाशक्तिका प्रत्यक्ष हस्तक्षेप जिसका कार्य सामान्यतया बहुत तेज होता हे । दूसरीके लिये पूर्ण समर्पण और आत्मदानका होना आवश्यक है और फिर उसके लिये साधारण तीरपर यह आवश्यक है कि साधकका मन ऐसा हो जो एकदम अचंचल रह सके तथा भगवती शक्तिको कार्य करने दे, प्रत्येक पगपर अपने पूर्ण समर्थनके द्वारा उसे सहायता करे, पर अन्यथा स्थिर और अचंचल बना रहे । इस अन्तिम शर्त्तको, जो रामकृष्णद्वारा कथित बिल्लीके बच्चेके भाव-  'के साथ मिलती-जुलती है, बनाये रखना कठिन है । जिन लोगोंको अपने सभी कर्ममें अपने चितना और इच्छा-शक्तिके द्वारा बहुत सक्रिय बने रहनेका अभ्यास है, उन्हें उस कियाको शान्त करना तथा मानसिक आत्मदानके निश्चलताको अपनाना कठिन प्रतीत होता है । इसका अर्थ यह नहीं है कि वे योग नहीं कर सकते अथवा आत्मदान नहीं कर सकते - केवल शुद्धि और आत्मदानके संपन्न होनेमें लम्बा समय लग जायगा और इसके लिये साधकमें धैर्य और अटूट लगन तथा अन्ततक डटे रहनेका संकल्प होना चाहिये ।

 

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         इतने थोड़े समयमें पूर्ण समर्पण करना सम्भव नही,-क्योंकि पूर्ण समर्पणका अर्थ है अपनी सत्ताके प्रत्येक भागमेंसे अहंकी ग्रंथिको काट डालना और उसे मुक्त कर पूर्णरूपेण भगवान्को समर्पित कर देना । मन, प्राण और भौतिक चेतनाको ( यहां- तक कि इनके प्रत्येक भागको और प्रत्येक भागके समस्त क्यिाकलापको ) एकके बाद एक, अलग-अलग अपने-आपको समर्पित करना होगा, उन्हें अपने तरीकेको छोड़ना होगा तथा भगवान्के तरीकेको स्वीकार करना होगा । परन्तु साधक जो कुछ कर सकता है वह यह है कि वह आरम्भसे ही अपनी केंद्रीय चेतनामें एक संकल्प और आत्म- निवेदनका भाव उत्पन्न करे और आत्मदानको पूर्ण बनानेका जौ कोई अवसर उपस्थित हो उससे लाभ उठाते हुए, पग-पगपर जो कोई मार्ग सामने खुला मिले उसके द्वारा उस मूल भावको परिपूर्ण बनाये । जब एक दिशामें समर्पण हो जाता है तब वह अन्य दिशाओंके समर्पणको अधिक आसान और अधिक अनिवार्य बना देता हे; परंतु वह स्वयं अन्य ग्रंथियोंको न तो काटता ही है न ढीला ही करता है? और विशेषकर जो ग्रंथियां हमारे वर्तमान व्यक्तित्व और उसके अत्यन्त प्रिय रचनाओंके साथ घनिष्ठ रूपमें संबद्ध होती हैं वे, केंद्रीय संकल्पके स्थापित हो जाने तथा उस संकल्पके कार्यमें परिणत हो जानेकी पहली मुहर-छाप लग जानेपर भी, बहुत बार महान् कठिनाइयां उपस्थित कर सकती हैं ।

 

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            यह (समर्पणका भाव ) प्रारम्भमें एकदम पूर्ण नहीं हो सकता, पर यह सच्चा हो सकता है -- यदि केंद्रीय संकल्प सच्चा हो और साधकमें श्रद्धा और भक्ति हो । उसके अन्दर विपरीत क्रियाएं हो सकती हैं, पर ये दीर्घकालतक टिके रहनेमें असमर्थ होंगी और निम्रतर भागके समर्पणकी अपूर्णता खतरनाक ढंगसे हस्तक्षेप नहीं करेंगी ।

 

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         यह इस बातपर निर्भर करता है कि पूर्ण समर्पणका क्या तात्पर्य लिया जाता है  - सत्ताके किसी भागोंमें उसका अनुभव या सत्ताके सभी भागोंमें उसका यथार्थ कार्य । पहला किसी भी समय बड़ी आसानीसे आ सकता है; केवल दूसरेको पूर्ण करनेमें समय लगता है ।

 

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         पूर्ण समर्पणको केवल ध्यानमें अनुभूत एक अनुभव ही नहीं होना चाहिये, बल्कि एक यथार्थ तथ्य होना चाहिये जो समस्त जीवनको, सभी विचारों, अनुभवों और कर्मोंको नियंत्रित करे । जबतक  ', साधकके अपने संकल्प और प्रयासका

 

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उपयोग आवश्यक है, पर एक ऐसे प्रयासका उपयोग जिसमें समर्पणकी भावना भी मौजूद हो, साधकके संकल्प और प्रयासको सहायता देनेके लिये दिव्य शक्तिका आवाहन हो तथा सफलता या विफलतासे अविक्षुब्ध हो । जब दिव्य शक्ति साधनाका भार अपने हाथोंमें ले लेती है, तब निस्सन्देह प्रयास बन्द हो सकता है, पर फिर भी सत्ताकी सतत अनुमति और जागरूकताकी आवश्यकता होगी जिसमें कि साधक किसी भी समय किसी मिथ्या शक्तिको प्रवेश न करने दे ।

 

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      यह (यह विचार कि साधना किसी व्यक्तिके अपेक्षा स्वयं भागावान्दुरा की जाती है) एक सत्य है पर एक ऐसा सत्य है जो तबतक चेतनाके लिये प्रभावशाली नहीं बनता जबतक कि वह साक्षात् अनुभवमें नही आ जाता अथवा जितनी मात्रामें वह अनुभूत होता है उतनी ही मात्रामें सार्थक भी होता है 1 इसके कारण जो लोग रुक आते हैं वे ऐसे लोग होते हैं जो इस भावनाको स्वीकार तो करते हैं पर इसे अनुभव नहीं करते - अतएव उनमें न तो तपस्याका बल होता है और न भागवत करुणाका बल । दूसरी ओर, जो लोग इसका साक्षात्कार कर सकते हैं वे अपनी तपस्याके पीछे तथा उसके अन्दर भी भागवत शक्तिकी क्रियाको अनुभव' करते हैं ।

 

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   जो लोग कोई प्रयास नहीं करते,-प्रयासका अभाव अपने-आपमें एक कठि- नाई है - वे प्रगति नहीं करते ।

 

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  समर्पणकी बातें करने या संपूर्ण आत्मनिवेदनकी महज एक भावना या धीमी इच्छा रखनेसे कोई लाभ नही होगा; एक मौलिक और सर्वांगपूर्ण परिवर्तनकी प्रबल प्रवृत्ति अवश्य होनी चाहिये ।

 

     केवल मानसिक मनोभाव ग्रहण कर लेनेसे यह कार्य नहीं किया जा सकता, यहांतक कि बहुतसे आंतरिक अनुभव प्राप्त कर लेनेसे भी नहीं हो सकता जो कि बाहरी मानवको वैसा ही छोड़ देते हैं जैसा कि वह पहले था । बस, इसी बाहरी मानवको उद्घाटित होना, समर्पित होना और परिवर्त्तित होना होगा । उसकी प्रत्येक छोटी- से-छोटी क्यिा, आदत, कार्यको समर्पित हो जाना होगा, उन्हें देखना, रोके रखना और दिव्य ज्योतिके सामने खोल देना होगा, भागवत शक्तिको उन्हें अर्पित कर देना होगा जिसमें उनके पुराने रूप और आशय नष्ट कर दिये जायं तथा उनका स्थान दिव्य सत्य एवं भगवती माताकी रूपांतरकारी चेतनाका कार्य ले लें

 

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    यदि पूर्ण समर्पण न किया जाय तो बिल्लीके बच्चेका भाव ग्रहण करना सम्भव नही है,--वह महज तामसिक निष्क्रियताका रूप ले लेता और अपनेको समर्पणका नाम दे देता है । यदि प्रारम्भमें पूर्ण समर्पण करना सम्भव न हो तो इसका तात्पर्य है कि व्यक्तिगत प्रयास आवश्यक है ।

 

*

 

   जो वृत्तियां यंत्रवत् चलती रहती हैं उनको मानसिक संकल्पके द्वारा बन्द करना बराबर ही अधिक कठिन होता है, क्योंकि वे किसी युक्ति-तर्क या मानसिक समर्थनके ऊपर बिलकुल हां निर्भर नही करती; बल्कि वें पारस्परिक संयोग या केवल यंत्रवत् क्रिया करनेवाली स्मृति या अभ्यासके ऊपर अवलंबित होती हैं ।

 

    परित्यागका अभ्यास अन्तमें विजयी होता है, पर केवल व्यक्तिगत प्रयासके बलपर इसे करनेसे इसमें एक लम्बा समय लग सकता है । अगर तुम यह अनुभव कर सको कि भागवत शक्ति तुम्हारे अन्दर कार्य कर रही है तो फिर यह कार्य अधिक आसान हों जायगा ।

 

      पथप्रदर्शिका दिव्य शक्तिको आत्मदान करनेमें तुम्हारे किसी भागको जड़ता या तामसिकता नही दिखानी चाहिये और न तुम्हारे प्राणके किसी भागको निम्रतर आवेग और वासनाके सुझावोका त्याग न करनेके लिये इस आत्मदानकी आड लेनी चाहिये ।

 

     योगाभ्यास करनेके सदा ही दो पथ होते हैं -- एक है सजग मन और प्राणकी क्रियाके द्वारा साधना करना, जिसमें मन और प्राणकी सहायतासे साधक देखता है, निरीक्षण करता है, विचार करता है और निश्चित करता है कि क्या करना चाहिये या क्या नहीं करना चाहिये । अवश्य ही इस क्रियाके पीछे भी भागवत शक्ति विद्यमान रहती है और उस शक्तिका आवाहन कर उसे अपने अन्दर ले आया जाता है -- क्यों- कि, अगर ऐसा न किया जाय तो फिर कुछ भी विशेष कार्य नहीं हो सकता । फिर भी इस पथसे व्यक्तिगत प्रयास ही प्रधान होता है और वही साधनाके अधिकांश भार- को वहन करता है ।

 

    दूसरा पथ है हृत्युरुषका-इस पथमें चेतना भगवान्की ओर उन्मुक्त रहती है, वह, केवल हृत्युरुषको ही नही उन्मुक्त करती और सामने ले आती, बल्कि वह मन, प्राण और शरीरको भी उन्मुक्त करती है, ज्योतिको ग्रहण करती है, इस बातका ज्ञान प्राप्त करती है कि क्या करना होगा, यह अनुभव करती और देखती है कि स्वयं भागवत शक्ति ही उसे कर रही है तथा भागवत क्रियाको स्वयं भी अपनी सजग और सचेतन सम्मति देकर एव उसका आवाहन कर निरन्तर सहायता करती रहती है ।

 

   परन्तु जबतक चेतना पूर्णरूपेण उन्मुक्त होनेके लिये तैयार नहीं हो जाती, जबतक वह इस प्रकार पूर्णतः भगवानके अधीन नहीं हों जाती कि उसके सारे कर्मोंको प्रारम्भ भगवानके द्वारा ही होने लगे, तबतक बहुधा साधनामें इन दोनों मार्गोंका मिला-जुलाn

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रहना अवश्यंभावी होता है । किन्तु जब ऐसा हों जाता है तब साधकका सारा उत्तर- दायित्व चला जाता हैं और उसके कंधोंपर कोई व्यक्तिगत भार नही रह जाता ।

 

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    जबतक उच्चतर शक्तिकी पूर्ण उपस्थिति नही आ जाती ओर उसकी सचेतन क्रिया नही होने लगती तबतक व्यक्तिगत प्रयासकी कुछ मात्राका होना अपरिहार्य है । निस्सन्देह, स्वयं अपने लिये नही बल्कि वगाबानका लिये साधना करना ही सच्चा मनोभाव है ।

 

*

 

    प्रत्येक वस्तु भगवानके लिये होनी चाहिये, यह भी । भगवानपर फल छोड़ने- का जहांतक प्रश्न है, यह इस बातपर निर्भर करता है कि इस वाक्यांशका तुम क्या अर्थ लेते हो । यदि इसका अर्थ है भागवत कृपापर निर्भरता और समता और निरन्तर अभीप्सा करते रहनेका धैर्य, तब तो यह बिलकुल ठीक है । परन्तु इसे इतनी दूर नहीं फैला देना चाहिये कि यह अभीप्सा और प्रयास करनेमे ढिलाई और उदासीनताको अन्तर्भुक्त कर ले ।

 

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    में नही समझता कि किसी प्रकारके समर्पणका यह अर्थ क्यों होगा कि जाकर सों जाया जाय या सभी बाहरी वस्तुओंसे, यहांतक कि श्रीमाताजीसे भी अपनेको बन्द कर दिया जाय । जो हो, जो समर्पण करना आवश्यक है वह है सज्ञान समर्पण, परन्तु उसके लिये कोई शातिहीन संघर्ष करने अथवा दोषों और कठिनाइयोंपर अत्यधिक बल देनेकी आवश्यकता नहीं है । श्रीमाताजीके मनोभावकी जो बात है, उसे समझने- के लिये तुम्हें अपने भीतर दृष्टि डालनी होगी; यदि तुम बाहरसे देखोगे तो तुम उसे समझ नही सकोगे ।

 

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   तुम्हारी साधनामें तपस्याकी प्रधानता है; क्योंकि' तुममें एक तीव्र और सक्रिय शक्ति है जो तुम्हें उसमें प्रवृत्त करती है । कोई भी पथ पूर्णतया आसान नहीं हैं, और समर्पणके पथसे कठिनाई है सच्चा और पूर्ण समर्पण करनेकी । एक बार जब पूर्ण समर्पण हो जाता है तो निश्चय ही इससे सारी बातें अधिक आसान हों जाती हैं -- यह बात नही कि सारी बातें तुरत-फुरत हों जाती हैं या फिर कोई कठिनाई ही नही

 

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रह जाती, बल्कि उस समय एक आश्वासन, एक' साहाथ्य ।प्राप्त होता है और उत्तेजना- का अभाव होता है जो चेतनाको विश्रांति तथा साथ हो बल देता है और अत्यन्त बुरे प्रकारकी बाधासे मुक्ति प्रदान करता है ।

 

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    हां, निश्चय ही तुम ठीक कह रहे हों । स्वयं समर्पणकी प्रक्रिया भी एक तपस्या है । केवल इतना ही नहीं, बल्कि वास्तवमें तपस्याकी द्विविध प्रक्यिा और निरन्तर वर्द्धमान समर्पण दीर्घकालतक तब भी बना रहता है जब कि पर्याप्त मात्रामें समर्पण- भावका होना प्रारम्भ हो चुका होता है । परन्तु एक समय आता है जब साधक दिव्य शक्तिकी उपस्थिति और क्रियाशक्तिको निरन्तर अनुभव करता है तथा अधिकाधिक यह अनुभव करता है कि वही सब कुछ कर रही है - इस प्रकार अनुभव करता है कि सबसे बुरी कठिनाइयां भी इस अनुभवको विक्षुब्ध नही कर पाती तथा व्यक्तिगत प्रयत्न अब आवश्यक नहीं होता, वरन् मुश्किलसे सम्भव भी होता है । यही भगवान्- के हत्थों प्रकृतिके पूर्ण समर्पणका चिह्न है । कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो इस अनुभव- के आनेसे पहले भी श्रद्धाके बलपर इस स्थितिको ग्रहण करते हैं और यदि श्रद्धा और भक्ति प्रबल हों तो वह स्थिति उन्हें अनुभव प्राप्त होनेतक सभी कठिनाइयोंमेंसे निकाल ले जाती है । परन्तु सब लोग प्रारम्भसे ही इस स्थितिको नहीं ग्रहण कर सकते - और कुछ लोगोंके लिये तो यह खतरनाक होगी, क्योंकि वे सम्भवतः किसी गलत शक्ति- के हाथोंमें अपनेको सौंप देंगे और उसे ही भगवान् समझेंगे । अधिकांश लोंगोंके लिये तपस्याके द्वारा समर्पण-भावको विकसित करना आवश्यक है ।

 

*

 

     हां, यदि साधकको यह बोध होता हो कि उसकी सभी तपस्याओंके पीछे भागवत संकल्प विद्यमान है, उन्हें ग्रहण करता है और उनका फल प्रदान करता है तो यह कम- से-कम समर्पणका प्रथम रूप है ।

 

*

 

    जय संकल्प और शक्ति केंद्रीभूत होते और मन, प्राण और शरीरको संयमित तथा परिवर्त्तित करनेके अथवा उच्चतर चेतनाको नीचे उतार लानेके अथवा किसी अन्य यौगिक उद्देश्य वा किसी महान् उद्देश्यके लिये अभ्यस्त होते हैं तो उसे ही तपस्या कहते हैं।

 

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९२


    भगवानके तरीके मानव-मनके तरीकों जैसे नहीं हैं या हमारे आदर्शोंके अनुरूप नही होते और उनके विषयमें निर्णय करना या भगवानके लिये यह निर्धारित करना कि उन्हें क्या करना या क्या नहीं करना चाहिये, असम्भव है, क्योंकि हम जैसा जान सकते हैं उससे कहीं अच्छा भगवान् जानते हैं । यदि हम जरा भी भगवानको मानते हैं तो यथार्थ बुद्धि और भक्ति दोनों ही मुझे सुस्पष्ट श्रद्धा और समर्पण-भावकी मांग करनेमें एकमत प्रतीत होती हैं।

 

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    भागवत क्रियाओंको समझनेके लिये साधकको भागवत चेतनामें प्रवेश करना चाहिये, जबतक ऐसा नहीं होता तबतक श्रद्धा और समर्पणभाव बनाये रखना ही एक- मात्र यथार्थ मनोभाव है । भला उस वस्तुके विषयमें मन कैसे निर्णय दे सकता है जो उसकी समस्त सीमाओंके परे है?

 

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   साधनाका सच्चा मनोभाव है अपने मन और प्राणिक इच्छाको भगवानके ऊपर आरोपित न करना, बल्कि भगवान्की इच्छाके अवगत होना और उसका अनुसरण करना । यह नहीं कहना कि ' 'यह मेरा अधिकार है, मेरी चाह, मांग, अभाव और आवश्यकता है, क्योंकि इसे मैं नहीं पाता?'' बल्कि अपने-आपको दे देना, समर्पण करना तथा जो कुछ भी भगवान् दें उसे हर्षके साथ ग्रहण करना, दुःख-शोक न मनाना या विद्रोह न करना सबसे अच्छा तरीका है । उस समय तुम जो कुछ ग्रहण करोगे बह तुम्हारे लिये समुचित वस्तु होगी ।

 

*

 

    भगवान् उसे करनेके लिये (हमारी सभी सच्ची आवश्यकताओंको पूरी करनेके लिये) बाध्य नहीं हैं, बह पूरा कर सकते या नहीं भी कर सकते हैं; बह चाहे पूरा करें या न करें इससे उस व्यक्तिके लिये कोई अन्तर नहीं पड़ता जो उनके प्रति समर्पित हो चुका है । यदि उसमें अन्तर पड़ता हैं तो उसके समर्पणमें कोई हिचकिचाहट है और इसलिये बह पूर्ण समर्पण नहीं है ।

 

*

 

    किसी मानद-प्राणीके लिये प्रारम्भमें समस्त अभिरुचियोंसे मुक्त हो जाना और जो कुछ भी भागवत इच्छासे आये उसे हर्षपूर्वक ग्रहण करना सम्भव नहीं है !

 

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प्रारम्भमें मनुष्य जो कर सकता है वह है इस सतत भावनाको उस समय भी बनाये रखना कि जो कुछ भगवान् चाहते हैं वह सदा सबसे अच्छेके लिये होता है जब कि मन यह नही देखता कि ऐसा कैसे हों सकता है, जिस चीजको वह अभी प्रसन्नतापूर्वक नहीं स्वीकार कर सकता उसे समर्पण-भावके साथ स्वीकार करना और इस तरह स्थिर समत्वपर पहुँचना जो उस समय भी हिलता-डुलता नहीं जब कि ऊपरी सतहपर बाह्य घटनाओंके प्रति क्षणिक प्रतिक्रियाकी अस्थायी क्रियाएं होती हैं । यदि यह भाव एक बार दृढ़तापूर्वक स्थापित हो जाय तो बाकी चीजे आ सकती हैं ।

 

*

 

      समर्पणका सारतत्व है भागवत प्रभाव और पथप्रदर्शनको पूरे हदयसे स्वीकार करना, जब आनन्द और शान्ति उतंरे तब उन्हें बिना सन्देह या कुतर्कके स्वीकार करना और उन्हें वर्द्धित होने देना; जब दिव्य शक्ति काम करती हुई अनुभूत हो तो बिना विरोध उसे काम करने देना, जब सच्चा ज्ञान दिया जाय तब उसे ग्रहण करना और उसका अनुसरण करना, जब भागवत संकल्प प्रकट हो तो उसका यंत्र बन जाना ।

 

      भगवान् पथ दिखा सकते हैं, पर वह चलनेको बाध्य नही करते । 'मनुष्य' नाम- धारी प्रत्येक मनोमय प्राणीको यह आंतरिक स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है कि वह चाहे तो भागवत पथप्रदर्शनको स्वीकार करे या न करे: भला अन्यथा किस प्रकार कोई सच्चा आध्यात्मिक विकास साधित हो सकता है?

 

*

 

      एक खास हदतक प्रत्येक व्यक्तिको अपना चुनाव करनेकी स्वतन्त्रता प्राप्त है -- जबतक कि वह पूर्ण समर्पण नहीं कर देता -- और जिस तरह वह उस स्वतन्त्रता- का उपयोग करता है, उसे आध्यात्मिक या अन्य परिणामोंको ग्रहण करना पड़ता है । सहायता केवल दी जा सकती है, लादी नही जा सकती । मौन रहने, निश्छल भाव- से दोष स्वीकार न करनेका अर्थ है अपने निजी चलनेकी प्राणकी इच्छा । जब मनुष्यमें अब छिपावका भाव नहीं रह जाता, जब भगवानके प्रति भौतिक आत्मोद्- घाटन हों जाता है तो भगवान् हस्तक्षेप कर सकते हैं ।

 

*

 

       इस जगतकी समस्त लीला ब्यक्तिकी एक विशिष्ट सापेक्षिक स्वतन्त्र इच्छापर आधारित है । यहांतक कि योगसाधनामें भी वह बनी रहती है और ब्यक्तिकी सम्मति पग-पगपर आवश्यक होती है -- यद्यपि भगवानको समर्पण करनेपर ही वह अज्ञान और पृथकतव ओर अहंसे छुटकारा पाता है, उसका यह समर्पण पग-पगपर एक स्व-

 

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तन्त्र समर्पण होना चाहिये ।

 

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   मनुष्य भगवानको इसलिये आत्मार्पण करता है कि वह पृथक्लके भ्रमसे मुक्त हो जाय - स्वयं आत्मार्पणका कार्य ही यह सूचित करता है कि सब कुछ भगवान्- का है ।

 

*

 

    प्रारम्भमें आत्मसमर्पण आत्मज्ञानके द्वारा नहीं बल्कि कही अधिक प्रेम और भक्तिके द्वारा आता है । परन्तु यह सच है कि आत्मज्ञान होनेपर पूर्ण समर्पण करना अधिक सम्भव हो जाता है ।

 

*

 

    समर्पण और प्रेम-भक्ति विपरीत वस्तुएं नही हैं - वे साथ-साथ रहती हैं । यह सच है कि आरम्भमें मन शानके द्वारा समर्पण कर सकता है पर इससे मानसिक भक्ति परिलक्षित होती है और, ज्योंही समर्पण-भाव हृदयतक पहुँचता है, भक्ति एक भावके रूपमे अभिव्यक्त होती है और भक्तिके भावके साथ प्रेम उदित होता है ।

 

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     उच्चतर मनकी अनुभूतिके अन्दर भक्ति और समर्पण-भाव हों सकता है पर यह जैसे चैत्य चेतनामें होता हे वैसे वह्रां अनिवार्य नही होता । उच्चतर मनमें मनुष्य ' 'ब्रह्म' ' के साथ अपने तादाम्यके विषयमें अत्यधिक सचेतन हो सकता है और तब वहां भक्ति या समर्पण-भावका स्थान नही होता ।

 

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   मनुष्य आत्मदान किये बिना ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त कर सकता है, क्योंकि उस समय वह निर्व्यक्तिक ब्रह्मकी ओर मुड़ता है । उसकी शर्त्त है सभी कामनाओंका तथा प्रकृतिके साथ सब प्रकारके तादात्म्यका परित्याग करना । मनुष्य भगवानके प्रति अपनी प्रकृतिका तथा साथ ही अन्तरात्माका आत्मदान कर सकता है और उसके द्वारा ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त कर सकता है, वह स्थिति केवल अभावात्मक ही नहीं वरन् भावात्मक भी होगी, वह केवल प्रकृतिसे मुक्ति नहीं वरन् स्वयं प्रकृतिकी भी मुक्तित

 

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 होगी ।

 

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    ब्राह्मी-स्थिति अन्तरात्मामें शान्ति और मुक्तिकी एक अभावात्मक स्थिरता ले आती है । आत्मदान एक भावात्मक मुक्ति ले आता है जो प्रकृतिमें कर्मकी एक सबल शक्ति भी बन सकती है ।

 

*

 

    यदि तुम केवल उच्चतर चेतनामें ही समर्पित हो, निम्रतर चेतनामें कोई शांति या पवित्रता नही है तो निश्चय हीं वह पर्याप्त नहीं है और तुम्हें सर्वत्र शान्ति और पवित्रताके आनेकी अभीप्सा करनी चाहिये ।

 

*

 

     जब चैत्य पुरुष, हृदय तथा चिन्तनशील मन समर्पण कर चुके हैं तब बाकी बस समय और प्रंक्यिाका प्रश्न है - और फिर अशान्तिका कोई कारण नहीं । केंद्रीय और फलोत्पादक समर्पण किया जा चुका है ।

 

*

 

      ऐसा कभी नहीं कहा जा सकता कि बहुत शीघ्र आत्मसमर्पण कर दिया गया । कुछ चीजोंके प्रतीक्षा करनेकी आवश्यकता हो सकती है, पर समर्पणके लिये नही ।

 

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     सच पूछा जाय तो पूर्ण समर्पणकी उस चेतनापर ही साधनाका चैत्य आधार स्थापित हों सकता है । एक बार जय यह चीज स्थापित हों जाती है तो फिर, चाहे जो भी कठिनाइयां अतिक्रम करनेके लिये बाकी हों, साधनाका मार्ग पूर्णतः सरल- सहज, सूर्यालोकित, फूलके खिल नेकी तरह स्वाभाविक बन जाता है । जो कुछ तुम अनुभव कर रहे हो वह इस बातका संकेत है कि तुम्हारे अन्दर क्या विकसित हो सकता है और क्या विकसित होना चाहिये ।

 

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जो कठिनाइयां उठती हैं वे यदि स्वयं प्रकृतिमें हैं तो यह अनिवार्य है कि वे उठे और प्रकट हों । समर्पण करना आसान नही है, प्रकृतिका एक बहुत बड़ा भाग इसका विरोध करता है । यदि मन समर्पण करनेका संकल्प बनाता है तो इन सब आंतरिक बाधाओंका प्रकट होना अनिवार्य है । ऐसे समय साधकको उन्हें देखना चाहिये और उनसे अपनेको पृथक् कर लेना चाहिये, अपनी प्रकृतिमेंसे उन्हें त्याग देना और अति- क्रम कर जाना चाहिये । इसमें बहुत लम्बा समय लग सकता है पर इसे करना आवश्यक है । बाहरी बाधाएं आंतरिक समर्पणको तबतक रोक नहीं सकतीं जबतक कि स्वयं प्रकृतिके अन्दरकी कोई बाधा उन्हें सहायता न करती हो ।

 

*

 

       यह साधकपर निर्भर करता है । कुछ लोग पहले बाहरी क्रियाओंको समर्पित करना आवश्यक महसूस कर सकते हैं जिसमें कि वह आंतरिक समर्पण ले आये ।

 

*

 

      प्राणका समर्पण करना सर्वदा कठिन होता है, क्योंकि विश्वव्यापी प्राणिक अज्ञानकी शक्तियां समर्पण करनेमें अनिच्छुक होती हैं । परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि प्राणमें समर्पण करनेकी कोई मौलिक अक्षमता है ।

 

*

 

      एक बच्चेकी तरह बन जाना और अपने-आपको सम्पूर्णत दे देना तबतक असम्भव है जबतक कि चैत्य पुरुषका प्रभुत्व न हों और यह प्राणकी अपेक्षा अधिक बलशाली न हों ।

 

*

 

      साधारण प्राण कभी समर्पण करनेके लिये इच्छुक नहीं होता । सच्चा अन्तर- तम प्राण अन्य प्रकारका होता है - भगवानके प्रति आत्मसमर्पण उसके लिये उतना ही आवश्यक होता है जितना चैत्य पुरुषके लिये ।

 

*

 

       यदि प्राणकी मांगो या चित्कारोंके साथ किसी प्रकारका तादात्म्य हो तो वह अवश्य ही उस समयके लिये समर्पणको कम कर देता है ।

 

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       तुमने जो अपनी प्रतिक्रियाका वर्णन दिया था उसीके आधारपर मैंने कहा था कि वहां प्राणकी कोई मांग थीं । विशुद्ध चैत्य या आध्यात्मिक आत्मदानमें इस प्रकार- की कोई प्रतिक्रिया नही होती, कोई विषाद या नैराश्य नही होता, मनुष्य यह नही कहता कि '' भगवान्की खोज करनेसे मुझे क्या लाभ हुआ है ''', कोई क्रोध, विद्रोह, अभिमान, चले जानेकी इच्छा नही होती - जैसा कि तुमने यहां वर्णन किया है - बल्कि पूर्ण विश्वास तथा सभी परिस्थितियोंमें भगवानसे चिपके रहनेका आग्रह होता है । इसी चीजको मैं चाहता था कि तुम बनाये रखो, यहीं एकमात्र आधार है जिसमे मनुष्य सभी कठिनाइयों और प्रतिक्रियाओंसे मुक्त रहता तथा सतत आगे बढ़ता रहता है !

 

      पर ये सब भावनाएं क्या अन्तरात्माके आत्मदानका चिह्न हैं? यदि वहां प्राणका मिश्रण नही है तो फिर ये सब चीजे जब मैं तुम्हें पत्र लिखता हूँ तो कैसे आती हैं तथा मेरे लिखने और तुम्हें रास्ता दिखानेकी कोशिश करनेके परिणामस्वरूप कैसे आती हैं?

 

     सत्ताके इस भागको जब उसका स्वभाव दिखा दिया जाता है औचेंर उससे बदलने- के लिये कहा जाता है तो उसकी पहली क्रिया यह होती हे कि वह विद्रोह कर बैठता हैं !

 

     कठिन? हमारी साधनाका पहला सिद्धांत ही यह है कि समर्पण ही सिद्धिका उपाय है और जबतक मनुष्य अहंका या प्राणिक मांग और कामनाओंका पोषण करता है, पूर्ण समर्पण करना असम्भव है - आत्मदान अपूर्ण हे । हमने कभी इस बातको छिपाया नही है । यह कठिन हों सकता है और है भी; पर यह साधनाका ठीक सिद्धांत भी है । चूँकि यह कठिन है इसलिये इसे नियमित और धैर्यपूर्वक तबतक करते रहना होगा जबतक कि काम पूरा नहीं हो जाता ।

 

      तुम्हें प्राणिक मिश्रणको, जब कभी वह दिखायी देता है, त्यागते रहना होगा । यदि तुम सतत उसका त्याग करते रहो तो वह अधिकाधिक अपनी शक्तिको खोता जायगा और विलीन हो जायगा ।

 

     इसका तात्पर्य है कि अभीतक पुरानी क्रिया हठपूर्वक पर असंगत रूपसे तथा यत्रवत् बनी हुई है । वास्तवमें इसी ढगसे ये चीजे बनी रहनेका प्रयत्न करती हैं । परन्तु यह जानेके लिये बाध्य है यदि तुम इसे ताजा जीवन न प्रदान करो ।

 

    मुझे इसमे कोई सन्देह नही - तुम्हें बस इस बातको सही रूपमे समझना होगा और फिर तुम तुरत समुचित स्थानपर पहुँच सकते हो ।

 

*

 

    अधिकांश साधकोंमें इसी तरहके विचार हैं -- अथवा कभी-न-कभी थे । वे प्राणिक अहंसे उठते हैं जो या तो भगवानको नही चाहता अथवा. उन्हें अपनी निजी उद्देश्यसे चाहता है और स्वयं भगवानके उद्देश्यसे नही चाहता । जब बदलनेके लिये

 

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उसपर दबाव डाला जाता है अथवा जब उसकी कामनाएं पूरी नही की जाती तो वह आग-बबूला हों उठता है - यही इन सब चीजोंके मूलमें है । यही कारण  कि इस योगमें हम समर्पणपर अधिक बल देते हैं - क्योंकि एकमात्र समर्पणके द्वारा (विशेष- कर प्राणिक अहंके समर्पणद्वारा) ही ये चीजे जा सकती हैं --- भगवानके लिये भगवानको स्वीकार करना चाहिये और किसी दूसरे उद्देश्यसे नही और भगवानके तरीके- से स्वीकार करना चाहिये और अपने निजी तरीकेसे अथवा अपनी निजी शर्त्तोपर नही ।

 

 *

 

     अब जो तुमने अनुभव करना आरम्भ किया है वह है हृत्युसषद्वारा प्रभावित तुम्हारे भौतिक (शारीर) स्तरका आत्मसमर्पण ।

 

     तुम्हारे सभी अंग मूलतः समर्पित हों चुके हैं, परन्तु उन सभी अंगोंको और उनकी सभी क्रियाओंमें, पृथक्-पृथक् और सयुक्त रूपमें, हृत्युरुषोचित आत्मदानकी भावना- को धीरे-धीरे बढ़कर इस समर्पणको पूर्ण बनाना होगा ।

 

भगवानके द्वारा उपमुक्त होनेका अर्थ है पूर्ण रूपसे समर्पित हों जाना, जिसके फलस्वरूप साधक यह अनुभव करता है कि भागवत उपस्थिति, शक्ति, ज्योति, आनन्द- ने उसकी सारी सत्ताको अधिकृत कर रखा है, स्वयं उसने इन सब चीजोंको अपनी तृप्तिके लिये अधिकृत नही किया है । स्वयं अधिकार करनेकी अपेक्षा इस प्रकार समर्पित और भगवानके द्वारा अधिकृत होनेमें बहुत अधिक आनन्द मिलता है । साथ- ही-साथ इस समर्पणके फलस्वरूप अपनी सत्ता और प्रकृतिके ऊपर एक प्रकारका शांत और आनन्दप्रद प्रभुत्व भी प्राप्त होता है ।

 

*

 

   मैंने कहा है कि यदि किसीके मन और हृदयमें समर्पण तथा एकत्वका तत्व विद्यमान है तो फिर इसे शरीर तथा अवचेतनाके अधिक अन्धकारपूर्ण भागोतक प्रसारित करनेमें कोई कठिनाई नहीं है । चूँकि तुम्हारे अन्दर यह केंद्रीय समर्पण-भाव और एकत्व है, तुम इसे आसानीसे सर्वत्र पूर्ण बना सकते हो । इसके लिये जो कुछ आवश्यक है वह है पूर्ण चेतना प्राप्त करनेके लिये स्थिर-भावसे अभीप्सा करना । तब अन्य भागोंकी तरह जड़-भौतिक और अवचेतन भागोंमें भी ज्योति प्रविष्ट हों जायगी और फिर वहां स्थिरता, विशालता तथा सभी प्रतिक्रियाओंसे मुक्त सुसमंजसता आ जायंगी जो अन्तिम परिवर्तनका आधार होगी

 

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     एक ऐसी अवस्था है जिसमें साधक अपने अन्दर काम करनेवाली भागवत शक्ति या कम-से-कम उसके परिणामोंके विषयमें सज्ञान होता है और अपनी निजी मानसिक क्रियाओं ,प्राणिक चंचलता या भौतिक अन्धता और तामसिकताके द्वारा शक्तिके अव- तरणमें अथवा उसके कार्यमें बाधा नहीं डालता । इसे हीं कहते हैं भगवानके प्रति उद्घाटन । उद्घाटनका सर्वोत्तम पथ हे समर्पण; परन्तु जबतक समर्पणभाव नहीं है तबतक अभीप्सा और अचचलता इसे एक खास हदतक कर सकते हैं । समर्पणका अर्थ है अपने अन्दरकी प्रत्येक चीजको भगवानके हाथोंमें अर्पित कर देना, जो कुछ हम हैं और हमारे पास है सब कुछ उत्सर्ग कर देना, अपने ही विचारों, कामनाओं, अभ्यासों आदिपर आग्रह न करना, बल्कि दिव्य सत्यको ऐसा अवसर देना कि बह उनके स्थानमें अपने ज्ञान, संकल्प और कर्मको सर्वत्र स्थापित कर दे ।

 

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     उद्घाटन एक ऐसी चीज है जो संकल्प और अभीप्साकी सच्चाईके द्वारा अपने- आप घटित होती है । इसका अर्थ है उन उच्चतर शक्तियोंको ग्रहण करनेमें समर्थ होना जो श्रीमाताजीसे आती हैं ।

 

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      आत्मोद्घाटनका उद्देश्य है भगवान्की शक्तिको अपने अन्दर प्रवाहित होने देना, उसे ज्योति, शान्ति, आनन्द आदि लें आने देना तथा रूपांतरका कार्य करने देना । जब ब्यक्तिकी सत्ता इस प्रकार भागवत शक्तिको ग्रहण करती हैं और वह शक्ति उसके अन्दर कार्य करती है, अपने परिणाम उत्पन्न करती है ( चाहे वह व्यक्ति उसकी प्रक्रिया- से पूर्णतः सज्ञान हों या न हो), तो कहा जाता है कि वह व्यक्ति उद्घाटित है ।

 

*

 

 ये मनके कार्य हैं, उद्घाटन चेतनाकी एक 'अवस्था' है जो उसे श्रीमाताजीकी ओर मोडे रखती है और तब केतना अन्य गतिविधियोंसे मुक्त होकर जो कुछ भगवान्- से आवे उसकी प्रतीक्षा करती और उसे ग्रहण करनेमें समर्थ होती है ।

 

*

 

      सच पूछो तो श्रीमाताजीपर विश्वास रखनेपर आवश्यक उद्घाटन उस समय होगा जब तुम्हारी चेतना तैयार हो जायगी ।

 

      सच पूछो तो एकमात्र ध्यानके द्वारा वह चीज नहीं आयेगी जो कि आवश्यक

 

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है । वह श्रीमाताजीके प्रति श्रद्धा और उद्घाटन होनेपर आयेगी ।

 

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   श्रीमाँकी ओर अपनेको खोले रखो, उन्हें सर्वदा स्मरण करो और उनकी शक्ति- को अपने अन्दर कार्य करने दो, अन्य सभी प्रभावोंका त्याग करो -- यही योगका नियम है ।

 

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   योगाभ्यासमें तुम्हारे लक्ष्यकी प्राप्ति केवल तभी होगी जब तुम अपनी सत्ताको श्रीमाँकी शक्तिकी ओर खोलोगे और लगातार समस्त अहंकार और मांग और कामना- का, भागवत सत्यको प्राप्त करनेकी अभीप्साके अतिरिक्त अन्य सभी उद्देश्योंका त्याग कर दोगे । यदि ऐसा ठीक-ठीक किया जाय तो भागवत शक्ति और ज्योति काम करना आरम्भ कर देंगी और तुम्हारे अन्दर शान्ति और समता, आंतरिक बल-वीर्य, विशुद्ध भक्ति तथा क्रमवर्द्धमान चेतना और आत्मज्ञान ले आयेंगी जो कि योगकी सिद्धिके लिये आवश्यक आधार हैं ।

 

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     इस योगका सारा सिद्धांत ही है भागवत प्रभावकी, ओर अपने-आपको उद्- घाटित करना । यह प्रभाव तुम्हारे सिरके ऊपर हीं वर्तमान है, यदि तुम एक बार इसके विषयमें सचेतन हो सको तो फिर तुम्हें इसका आवाहन कर अपने अन्दर इसे उतारमा होगा । वह मनके अन्दर ओर शरीरके अन्दर अवतरित होता है शान्तिके रूपमें, ज्योतिके रूपमें, कार्य करनेवाली एकशक्तिके रूपमें, भगवान्की साकार या निराकार उपस्थितिके रूपमें, आनन्दके रूपमें । जबतक यह चेतना नही प्राप्त होती तबतक साधकको श्रद्धा-विश्वास बनाये रखना होगा और आत्मोद्घाटनके लिये अभीप्सा करनी होगी । अभीप्सा, आवाहन और प्रार्थना एक हीं चीजके भिन्न-भिन्न रूप हैं और ये सभी फलदायक हैं, इनमेंसे जो भी रूप तुम्हारे पास आये या तुम्हारे लिये सबसे अधिक आसान हो उसीको तुम अपना सकते हों । दूसरा मार्ग है एकाग्रता- का, तुम अपनी चेतनाको हदयमें एकाग्र करो (कोई-कोई सिरमें या सिरके ऊपुर करते हैं) और हदयमें श्रीमॉका ध्यान करो और वहां उनका आवाहन करो । इनमें- से किसी एक मार्गका अथवा भिन्न-भिन्न समयोंपर दोनों मार्गोंका अनुसरण किया जा सकता हे - जिस समय जो मार्ग स्वभावत: तुम्हारे सामने आ आय अथवा जिसकी ओर तुम्हारी प्रवृत्ति हों जाय । पर, विशेषकर आरम्भमें, सबसे अधिक आवश्यक बात यह है कि अपने मनको अचंचल बनाया जाय, ध्यानके समय उन सभी विचारों

 

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और वृत्तियोंका त्याग किया जाय जो साधनाके लिये विजातीय हों । अचंचल मनमें ही अनुभूतिके आनेके लिये क्रमश: तैयारी होती जायगी । परन्तु सब कुछ यदि एक साथ ही न हों तो तुम्हें अधीर नहीं होना चाहिये, मनके अन्दर पूणे अचंचलता स्थापित करनेमे समय लगता है; जबतक चेतना तैयार न हों जाय तबतक तुम्हें अपने प्रयासमें लगे रहना चाहिये ।

 

*

 

      इस योगमें सब कुछ इस बातपर निर्भर करता है कि साधक भागवत प्रभावकी ओर अपने-आपको उन्मुक्त कर पाता है या नही । अगर अभीप्सा सच्ची हों, और सभी बाधाओंके रहते हुए भी उच्चतर चेतनामें उठ जानेका धीर-स्थिर संकल्प हों तो किसी-न-किसी रूपमें यह उन्मुक्ति (आत्मोद्घाटन) साधकमें अवश्य आती है । पर मन, हृदय और शरीरके तैयार होने या न होनेकी अवस्थाके अनुसार इसके आनेमें कम या अधिक समय लग सकता है; अतएव साधकमें यदि पर्याप्त धैर्य न हों तो आरम्भ- मे आनेवाली कठिनाइयोंके कारण वह अपना प्रयास छोड़ सकता है । इस योगमें इसके अतिरिक्त और कोई पद्धति नहीं है कि साधक अपनी चेतनाकोएकाग्र करे, विशेष- कर हृदयमें एका करे और श्रीमांकि उपस्थिति और शक्तिकाआवाहन इसलिये करे कि वह उसकी सत्ताको अपने हाथमें लें लें और अपनी शक्तिकी क्रियाओंके द्वारा उसकी चेतनाको रूपांतरित करें । कोई चाहे तो अपने मस्तकमें या मृकुटिके बीच भी चेतनाको एकाग्र कर सकता है, परन्तु अधिकांश लोगोंके लिये इस तरह आत्मोद्- घाटन करना अत्यन्त कठिन होता है । जब मन शान्त-स्थिर हों जाता हे ओर एकाग्रता दृढ तथा अभीप्सा तीव्र हो जाती है तब अनुभूतिका होना आरम्भ हों जाता है । श्रद्धा- विश्वास जितना ही अधिक होता है उतनी ही शीघ्रतासे परिणाम भी प्राप्त होनेकी संभावना हों जाती है । शेष चीजोंके लिये साधकको केवल अपने हीं प्रयासपर नही निर्भर करना चाहिये, बल्कि भगवानके साथ एक संपर्क स्थापित करने तथा श्रमों- की शक्ति और उपस्थितिको ग्रहण करनेकी शक्ति प्राप्त करनेमें सफल होना चाहिये ।

 

*

 

     तुम्हारा मन और चैत्य पुरुष आध्यात्मिक लक्ष्यपर एकाग्र है और भगवान्- की ओर खुले हैं -- यही कारण है कि दिव्य प्रभाव केवल मस्तक और हृदयतक नीचे आता है । परन्तु प्राण-पुरुष और प्रकृति और भौतिक चेतना निम्रतर प्रकृतिके प्रभाव- के अधीन हैं । जबतक प्राण और शरीर समर्पित नही हो जाते या स्वयं अपने-आप उच्चतर जीवनकी मांग नही करते, इस संघर्षके चलते रहनेकी सम्भावना है ।

 

   प्रत्येक वस्तुको समर्पित कर दो, दूसरी सभी कामनाओं या हितोंका परित्याग कर दो, अपनी प्राण-प्रकृतिको खोलनेके लिये तथा अचंचलता, शान्ति, ज्योति और

 

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आनन्दको सभी केंद्रोंमें नीचे उतार लानेके लिये भगवती शक्तिका आवाहन करो । अभीप्सा करो और श्रद्धा तथा धैर्यके साथ परिणामकी प्रतीक्षा करो । पूर्ण सच्चाई तथा सर्वांगपूर्ण आत्मनिवेदन और अभीप्सापर ही सब कुछ निर्भर करता है ।

 

     जबतक तुम्हारा कोई भी अंश जगतके अधिकारमें रहेगा तबतक जगत् तुम्हें सतायेगा । केवल उसी समय तुम जगतसे मुक्त हो सकते हो जब कि तुम पूर्ण रूपसे भगवानके हों जाओ ।

 

*

 

      उद्घाटन सबके लिये एक जैसा ही होता है । इसका प्रारम्भ मन और हदयके उद्घाटनके साथ होता है, फिर मुख्य प्राणका उद्घाटन होता है -- जब यह उद्- घाटन निम्रतर प्राण और भौतिक स्तरतक पहुँचता है तो वह पूर्ण हो जाता है । परंतु उद्घाटनके साथ-साथ ऊपरसे आनेवाली वस्तुके प्रति पूर्ण आत्मदान भी अवश्य होना चाहिये; यही पूर्ण परिवर्तनकी शर्त्त हे । सच पूछा जाय तो अन्तिम अवस्था ही वास्तव- मे कठिन होती है और वहींपर सब लोग, जबतक विजयी नही हो जाते, ठोकरें खाते है !

 

*

 

      सर्वदा भगवती शक्तिके साथ संपर्क बनाये रखो । तुम्हारे लिये बस इतना ही करना और भगवती शक्तिको अपना कार्य करने देना सबसे उत्तम बात है; जहां कही भी आवश्यक होगा वह निम्र शक्तियोंको अपने अधिकारमें ले लेगी और उन्हें शुद्ध कर देगी; अन्य समयोंमें वह उन सबको तुम्हारे अन्दरसे बाहर निकाल देगी और स्वयं तुम्हारे अन्दर भर जायगी । परन्तु तुम यदि अपने मनको हीं पथप्रदर्शन करने दोगे, तर्क-वितर्क करने और निर्णय करने दोगे कि क्या करना चाहिये तो भागवत शक्तिके साथ अपना संपर्क खो दोगे और निम्रतर शक्तियां अपने तई काम करना आरम्भ कर देंगी और सब कुछ अस्तव्यस्त हों जायगा तथा गलत क्रिया बन जायगा ।

 

*

 

       1 अपने-आपको अधिकाधिक उत्सर्ग करो -- अपनी समस्त चेतनाको और जो कुछ उसमें घटित होता है उस सबको, अपने सभी कर्मो और क्रिओंको ।

 

        2. यदि तुममें दोष और दुर्बलताएं हैं तो उन्हें परिवर्त्तित करने या विनष्ट कर देनेके लिये भगवानके सम्मुख रखो ।

 

       3. मैनई जो कुछ तुमसे कहा था उसे करनेका प्रयास करो, हृदयमें एकाग्र होने- का अभ्यास करो जबतक कि वहां निरन्तर भगवान्की उपस्थितिका अनुभव न

 

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करने लगो ।

 

*

 

      उद्घाटन और, जब कभी आवश्यक हों, निष्क्रियता होनी चाहिये, पर उच्चतम चेतनाके प्रति होनी चाहिये, जो कुछ भी आवे उसके प्रति नहीं ।

 

    अतएव निष्क्रियताकी स्थितिमें भी एक प्रकारकी शान्त सजगता बनी रहनी चाहिये । अन्यथा या तो अनुचित क्रियाएं होने लगेंगी या तामसिकता आ घेरेगी ।

 

*

 

    संयमके त्याग करनेका अर्थ होगा प्राणको खुले रूपमें क्रीड़ा करने देना और उसका तात्पर्य होगा सब प्रकारकी शक्तियोंको अन्दर प्रवेश करनेका अवसर प्रदान करना । जबतक अधिमानससे लेकर एकदम नीचेतक समस्त सत्तामें, प्रत्येक वस्तु- पर अतिमानसिक चेतनाका अधिकार नही हों जाता और वह सबके अन्दर प्रविष्ट नहीं हो जाती तबतक शक्तियोंकी एक अस्पष्ट क्रीड़ा चलती रहती है, और प्रत्येक शक्ति, अपने मूलमें वह चाहे जितना भी दिव्य, हों, ज्योतिकी शक्तियोंके द्वारा व्यव- हत हों सकती है अथवा, जब वह मन और प्राणके भीतरसे गुजरती है तब, अन्धकार- की शक्तियोंके द्वारा अवरुद्ध हो सकती है । सजगता, विवेक और संयमका तबतक परित्याग नहीं किया जा सकता जबतक कि पूर्ण विजय नहीं प्राप्त हों जाती और चेतना रूपांतरित नहीं हो जाती ।

 

*

 

    हां, सजगतामें ढिलाई नहीं होनी चाहिये । यथार्थमें, जब सत्तामें स्वत: चालित ज्ञान और कर्म: स्थापित हो जाते हैं केवल तभी सतत सजगताकी आवश्यकता समाप्त होती है -- पर उस स्थितिमें भी उसका संपूर्ण रूपसे त्याग नही किया जा सकता जबतक कि पूर्ण ज्योति नहीं आ जाती ।

 

*

 

      साधकके लिये तीन प्रधान संभावनाएं हैं - ( 1) भगवत्कृपाकी प्रतीक्षा करना और भगवानपर निर्भर करना । ( 2) अद्वैतवादियों और बौद्ध लोगोंकी तरह सब कुछ अपने-आप करना । ( 3) मध्यमार्गका अनुसरण करना, दिव्य शक्तिकी सहायता प्राप्त कर अभीप्सा और परित्याग आदि क्यिाओंके द्वारा आगे बढ़ते रहना ।

 

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   प्रत्येक मन चरम दिव्य सत्यको पानेका अपना निजी पथ ग्रहण कर सकता है और वहां प्रत्येकके लिये एक प्रवेश-द्वार है तथा यहांतक जानेकी यात्राके लिये हजार मार्ग हैं । भगवत्कृपामें विश्वास करनेकी अथवा अपने उच्चतम आत्मासे भिन्न किसी परम देवको स्वीकार करनेकी कोई आवश्यकता नही-ऐसे योगमार्ग भी हैं जो इन चीजोंको नही स्वीकार करते । फिर, बहुतोके लिये किसी योगशैलीकी आवश्यकता नही होती - दे मन या हृदय या संकल्पके एक प्रकारके दवावके द्वारा मन या हृदय आदि तथा जो कुछ ठीक उसके परे है और उसका अ स्रोत है उसके बीचके पर्देको फाड़कर किसी सिद्धिको प्राप्त कर लेते हैं । पर्देके फटनेके बाद क्या घटित होता है यह साधक- की चेतनापर होनेवाली दिव्य सत्यकी क्रीडापर तथा साधककी प्रकृतिके झुकावपर निर्भर करता है । इसलिये ऐसा माननेका कोई कारण नहीं कि '' को अपने स्व- रूपका साक्षात्कार उनके भीतरसे होनेवाले विकासके द्वारा अपने निजी तरीकेसे नहीं हुआ होगा, अगर उनका मन इस वर्णनपर आपत्ति करता है तो कह सकते हैं कि वह भागवत कृपासे नहीं हुआ होगा, पर, इतना कहा जा सकता है कि, उनके अन्तरस्थ आत्माकी सहज-स्वाभाविक कियाके द्वारा हुआ होगा ।

 

     कारण, इस ' 'कृपाशक्ति' ' का जहांतक प्रश्न है, हम इसका वर्णन इसी ढंगसे करते हैं, क्योंकि हम अनन्त आत्मा या स्वयंभू सत्ताके अन्दर एक ऐसी उपस्थिति था एक सत्ता, एक चेतनाका अनुभव करते हैं जो निर्णय करती है,--यही वह सत्ता है जिसकी चर्चा हम भगवान् कहकर करते हैं,--यह कोई पृथक् पुरुष नहीं है, बल्कि वह एकमेव पुरुष है जिसका हमारा व्यक्तिगत आत्मा एक अंश या एक पात्र है । पर सबके लिये इसी रूपमें इसे मानना आवश्यक नही है । मान लें कि यह केवल सबका निर्व्यक्तिक आत्मा है, फिर भी इस आत्मा और इसके साक्षात्कारके विषयमें उपनिषद कहती है ' 'यह ज्ञान तर्क-बुद्धिद्वारा या तपस्याद्वारा या अत्यधिक विद्वत्ताद्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता, बल्कि जिन लोगोंको यह आत्मा चुनता है, उन लोंगोंके सामने वह अपने शरीरको प्रकट करता है । '' हां, यह वही चीज है जिसे हम भागवत कृपाके नामसे पुकारते हैं,-यह ऊपरसे या अन्दरसे होनेवाली एक क्रिया है जो मानसिक कारणोंसे स्वतन्त्र है और जो स्वयं अपनी गतिका निर्णय करती है । हम इसे भागवत कृपा कह सकते हैं; हम इसे अन्तरस्थ आत्मा कह सकते हैं जो उपरितलपर मनोमय यंत्रिके सम्मुख अभिव्यक्त होनेके लिये अपने समय और पद्धतिका चुनाव करता है; हम इसे आन्तर पुरुष या आन्तर प्रकृतिका आत्मसाक्षात्कार और ?त्मज्ञानमें प्रस्कु- टन कह सकते हैं । जिस प्रकार हमारे अन्दरकी कोई चीज इसकी ओर जाती है या यह स्वयं हमारे सामने प्रकट होता है उसी रूपमें मन इसे देखता है । परन्तु वास्तवमें यह वही एक वस्तु तथा प्रकृतिके अन्दर विद्यमान पुरुषकी वही एक पद्धति होता है ।

 

*

 

    मैं भागवत कृपाके विषयमें कुछ कहना चाहूँगा - क्योंकि तुम ऐसा समझते

 

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प्रतीत होते हों कि उसे भागवत बुद्धिकी जैसी कोई चीज होनी चाहिये जो ऐसी पद्धइतयोंसे कार्य करती है जो मानव-बुद्धिकी पद्धतियोंसे बहुत भिन्न नही होती । परन्तु बात ऐसी नहीं हुए । फिर यह वैश्व भागवत करुणा भी नही है जो उन सबपर निष्पक्ष- भावसे कार्य करती है जो उसके पास आते हैं और सब प्रकारकी प्रार्थनाओंको स्वीकार करती है । यह न तो पुण्यात्माओंका वरण करती है और न पापियोंका परित्याग करती है । भागवत कृपा अत्याचारी। तारससके सोल।को सहायता करने आयी, दुश्चरित्र संत ऑगर्स्टीनके पास आयो, लोगनिन्दित जगाई-मधाईके पास, ' बिल्वमंगलके पास आयी और ऐसे बहुतसे लोगोंके पार्स आयी जिनके परिवर्तनने मान- वीय नैतिक बुद्धिकी शुचितावादको अच्छी तरह आघात पहुँचाया होगा; परन्तु वह पुण्यात्माओंके पास भी आयी - उसने उनको उनके धर्माभिमानसे मुक्त किया और वह उन्हें इन चीजोंसे परे एक शुद्धतर चेतनामें ले गयी । यह एक ऐसी शक्ति है जो किसी भी विधानसे, यहांतक कि वैश्व विधानसे भी श्रेष्ठ है - सभी आध्यात्मिक द्रष्टाओंने 'विधान' और 'कृपा' के बीच विभेद किया है । फिर भी यह विवेकशून्य नहीं है - केवल इसका अपना निजी विवेक है जो वस्तुओं, व्यक्तियों और समुचित समयों तथा अनुकूल अवसरोंको मनकी दृष्टि या किसी दूसरी सामान्य शक्तिकी दृष्टि- से भिन्न दृष्टिसे देखता है । व्यक्तिके अन्दर कृपाके आनेकी अवस्थाकी तैयारी बहुधा धने पर्देके पीछे ऐसे उपायोंसे होती है जिन्हें मनद्वारा नहीं समझा जा सकता और जब कृपाके आनेकी अवस्था आती है तो फिर कृपा अपने-आप कार्य करती है । ये तीन प्रकारकी शक्तियां हैं: ( 1) वैश्व विधान, कर्मका विधान या और कुछ; ( 2) भागवत करुणा जो विधानके जालके भीतरसे जितने लोगोंतक पहुँच पाती है उतने लोगोंपर कार्य करती है और उन्हें उनका सुअवसर प्रदान करती है; ( 3) भागवत कृपा जो अधिक हिसाब किये बिना कार्य करती है पर साथ ही दूसरोंकी अपेक्षा अधिक अदम्य रूपसे कार्य करती है । बस, प्रश्न यह हे कि क्या जीवनकी समस्त असंगतियोंके पीछे कोई ऐसी चीज है जो पुकारका प्रत्युत्तर दे सके और चाहे जितनी कठिनाईके साथ क्यों न हों, अपनेको तबतक खोले रख सके जबतक कि वह भागवत कृपाकी ज्योतिके लिये तैयार न हो जाय -- और वह 'कोई चीज कोई मानसिक और प्राणिक क्रिया नही होनी चाहिये बल्कि कोई आंतरिक 'कोई चिक होनी चाहिये जो आंतरिक आंख- के द्वारा अच्छी तरह देखी जा सके । यदि वह चीज है और जब वह सम्मुख भागमें क्रियाशील होती है, तो 'करुणा' कार्य कर सकती है, यद्यपि 'कृपा' की पूर्ण क्रिया तब भी प्रतीक्षा कर सकती और सुनिश्चित निर्णय या परिवर्तनका अनुगमन कर सकती है; क्योंकि यह किसी भावी कालके लिये स्थगित हों सकती है, क्योंकि सत्ताका कोई अंश या तत्त्व अभी भी आड़ आता हों, कोई ऐसी चीज हो जो अभी ग्रहण करनेके लिये प्रस्तुत न हो ।

 

     परन्तु 'किसी भी चीजको', किसी भी विचार, किसी भी घटनाको अपने और भगवानके बीच बाधक क्यों बनने दिया जाय? जब तुम्हारे अन्दर पूरी अभीप्सा और प्रसन्नता है तो फिर भगवान् और अपनी अभीप्साके सिवा किसी चीजका विचार

 

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नहीं होना चाहिये, किसी चीजको महत्त्व नही देना चाहिये । यदि कोई भगवानको शीघ्रतासे, अखण्ड रूपमें, संपूर्ण रूपमें पाना चाहता हो तो उसका मनोभाव यही होना चाहिये, वही चरम, संपूर्ण-तल्लीनकारी विषय होना चाहिये, उसे ही ऐसा एकमात्र विषय बना देना चाहिये जिसमें दूसरी किसी चीजको हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये ।

 

भला भगवान्सम्बन्धी मानसिक विचारोंका, उन्हें क्या होना चाहिये, उन्हें कैसे कार्य करना चाहिये, उन्हें कैसे कार्य नहीं करना चाहिये आदि सम्बन्धित विचारों- का क्या मूल्य है-वे केवल रास्तेकी बाधाएं ही हों सकते हैं । एकमात्र भगवानका हीं महत्त्व है । जब तुम्हारी चेतना भगवानका आलिंगन करेगी तब तुम जान सकते हों कि भगवान् क्या हैं, उससे पहले नही । कृष्ण कृष्ण हैं, हम इस बातकी परवाह नहीं करते कि उन्होंने क्या किया या नहीं किया; एकमात्र उन्हें देखना, उनसे ? उनकी ज्योतिका, उपस्थितिका, प्रेमका और आनन्दका अनुभव करना ही महत्त्वपूर्ण बात है । ऐसा ही बराबर आध्यात्मिक अभीप्साके प्रसंगमें होता है -- यही आध्यात्मिक जीवन- का अ सिद्धांत है ।

 

*

 

    '' भगवानका सामान्य कार्य है वस्तुओंके यथार्थ विधानके अन्दर निरन्तर हस्त- क्षेप करते रहना' ' -यह हों सकता या नहीं भी हों सकता पर हम सामान्यतया इसे भागवत कृपा नहीं कहते । भागवत कृपा कोई ऐसी चीज है जिसे मनसे नहीं समझा जा सकता, किसी ऐसी चीजसे बद्ध नहीं है जिसे बुद्धि शर्त्तके रूपमें स्थापित कर सके,- यद्यपि साधारणतया चैत्य पुरुषकी कोई पुकार, अभीप्सा, तीव्रता उसे जगा सकती है, फिर भी कभी-कभी उस पुकारके बिना भी किसी बाह्य कारणसे वह कार्य करती है ।

 

*

 

   यह आवश्यक नहीं कि कृपा ऐसे ढंगसे कार्य करे जिसे मानव-मन समझ सके, वह साधारण तौरपर वैसा नहीं करती । वह अपने निजी ' 'रहस्यपूर्ण' ' ढंगसे कार्य करती है । सर्वप्रथम सामान्यतया वह पर्देके पीछेसे कार्य करती है, वस्तुओंको तैयार करती है, पर अपनेको प्रकट नही करती । फिर पीछे वह प्रकट हों सकती है, पर साधक यह अच्छी तरह नहीं समझता कि क्या हो रहा है; अन्तमें, जब वह समझने योग्य हो जाता है, वह अनुभव भी करता है और समझता भी है अथवा कम-से-कम वैसा करना आरम्भ करता है । कुछ लोग एकदम आरम्भसे ही या बहुत शीघ्र अनुभव करने और समझने लगते हैं; परन्तु यह सामान्य स्थिति नही है ।n

 

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      मैं सामर्थ्य और कृपाके विषयमें जो कुछ कहता हूँ उसमें नहीं समझने लायक कुछ नहीं है । आध्यात्मिक अनुभूतिके लिये सामर्थ्यका भी एक मूल्य है, पर यह कहना कि केवल सामर्थ्यसे ही, अन्य किसी उपायसे नहीं, यह सिद्ध हो सकता है - यह घोर अतिरंजन है । कृपा कोई मनगढ़ंत कथा नहीं है, यह आध्यात्मिक अनुभवका एक तथ्य है । बहुतसे लोगोंने, जिन्हें विज्ञ और शक्तिशाली लोग महज 'नाचीज' समझेंगे, कृपाद्वारा सिद्धि पायी है; निरक्षर, मानसिक शक्ति या शिक्षणसे रहित, चरित्र या संकल्पकी ' 'शक्ति' ' से शून्य वे थे, फिर भी उन्होंने अभीप्सा की और अचानक अथवा शीर अतासे आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त कर ली, क्योंकि उनमें श्रद्धा थी अथवा क्योंकि वे सच्चे थे । मैं नहीं समझता कि जो तथ्य आध्यात्मिक इतिहासके यथार्थ तथ्य हैं और बिलकुल साधारण आध्यात्मिक अनुभवके तथ्य हैं उनके विषयमें वाद-विवाद क्यों किया जाय और उन्हें अस्वीकार क्यों किया जाय और इस प्रकार उनके विषयमें बहस क्यों की जाय मानो बे महज कल्पनाकी वस्तुएं हों?

 

      सामर्थ्य, यदि वह आध्यात्मिक हो तो, आध्यात्मिक सिद्धि ले आनेवाली एक शक्ति है; उससे भी महत्तर शक्ति है सच्चाई; सबसे महत्तम शक्ति है कृपा । मैंने अनगिनत बार कहा है कि यदि मनुष्य सच्चा हों, बहुत विलंब होने और अत्यधिक कठिनाइयां होनेपर भी, वह अन्ततक पहुँच जायगा । मैंने बार-बार भागवत कृपाकी बात कही है । मैंने कितनी ही बार गीताकी इस पंक्तिका हवाला दिया है -- ' 'अह त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्ष्ययिस्यामि मा शोच:-मैं तुम्हें समस्त पाप और बुराईसे मुक्त कर दूँगा, शोकमतकर ।

 

*

 

   यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका कोई स्पष्ट उत्तर नही दिया जा सकता, क्योंकि, इसके दो पक्ष हैं और उनमेंसे दोनों सत्य हैं । भगवत्कृपाके बिना कुछ भी नही किया जा सकता, परन्तु पूर्ण भग छपाके प्रकट होनेके लिये साधकको स्वयं तैयारी करनी होगी । यदि सब कुछ भगवानके हस्तक्षेपपर निर्भर है तो फिर मनुष्य केवल एक कठ- पुतली है और साधनाका कोई उपयोग नहीं, और फिर न तो कोई शर्त्त है न कोई वस्तु- ओंका विधान-अतएव कोई विश्व नहीं है, बस हैं केवल भगवान् जो अपनी मर्जीके मुताबिक चीजोंको लुढ़काते रहते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि अन्तिम रूपसे यह कहा जा सकता है कि सब कुछ भागवत वैश्व कार्य है, पर यह होता हे व्यक्तियोंके द्वारा, शक्तियोंके द्वारा - प्रकृति माताकी शत्तोंके अधीन । विशेष हस्तक्षेप हो सकता है और होता भी है, पर सब कुछ विशेष हस्तक्षेप ही नहीं हों सकता । जिस अनुभवका तुमने वर्णन किया है वह सम्भवतः प्राण-लोकका है और इतने अचानक रूपमें और सुस्पष्ट रूपमें अनुभवोंका होना प्राण-जगत्की ही विशेषता है - परन्तु वे स्थायी नहीं होते, वे केवल तैयार करते हैं । जब मनुष्य मन और प्राण और शरीरके परे जो कुछ है उसके साथ संपर्क स्थापित कर लेता है और वहां ऊपर उठ जाता है तभी सामान्य-

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तया महान् स्थायी मौलिक अनुभूतियां आती हैं !

 

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     योग एक प्रकारका प्रयास, एक तपस्या है - यह केवल तभी प्रयास या तपस्या नहीं होता जब मनुष्य सच्चे रूपमें किसी उच्चतर क्रियाके प्रति समर्पण कर देता है और समर्पण-भावको बनाये रखता और उसे पूर्ण बनाता है । यह सब प्रकारके विवेक- विचार और संगतिसे शून्य कोई कल्पना-संगीत नहीं है अथवा महज कोई चमत्कार नही है । इसके अपने नियम-कानून और शर्त्ते हैं और मैं नही समझता कि तुम भगवान्- से यह मांग कैसे कर सकते हों कि वह प्रत्येक चीज किसी तीव्र चमत्कारके द्वारा पूरा कर दें ।

 

    मैंने कभी नहीं कहा है कि यह योग एक सुरक्षित योग है -- कोई योग ऐसा नहीं है । प्रत्येक योगके अपने-अपने खतरे हैं जैसे कि मानव-जीवनके प्रत्येक महान् प्रयासमें होते हैं । परन्तु उन्हें पार किया जा सकता है यदि मनुष्यमें केंद्रीय सच्चाई हो और भगवानके प्रति सत्यनिष्ठा हों । ये दो आवश्यक शर्तें हैं ।

 

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      तपस्याके बारेमें ब्रह्मानन्द जो कुछ कहते हैं बह, निस्सन्देह, सत्य है 1 यदि कोई श्रम और तपस्या करनेको, मन और प्राणको संयमित करनेको प्रस्तुत न हो तो वह बड़े आध्यात्मिक उपलब्धियोंकी मांग नहीं कर सकता -- क्योंकि मन और प्राण सर्वदा ही अपने निजी राज्यको अधिक दिन बनाये रखनेके लिये, अपनी रुचियों और अरुचियोंको लादनेके लिये तथा उस दिनको टालनेके लिये कौशल और बहाने ढूंढ निकालेंगे जब कि उन्हें अन्तरात्मा और आत्माका अनुगत यंत्र और खुली प्रणाली बनना होगा । कभी-कभी भगवत्कृपा ऐसे परिणाम उत्पन्न कर सकती है जिसके हम अधिकारी न हों अथवा ऊपरसे देखनेमें अधिकारी न हों, पर हम अपने स्वत्व और विशेषाधिकारके रूपमें कृपाकी मांग नहीं कर सकते - क्योंकि, तब तो वह कृपा ही नहीं होगी । जैसा कि तुमने देखा है, कोई यह मांग नहीं कर सकता कि उसे तो बस पुकारना है और उत्तर अवश्य आना चाहिये । इसके अलावा, मैनई बराबर हीं देखा है कि भगवत्कृपाके हस्तक्षेप करनेसे पहले वास्तवमें एक लम्बी अदृश्य तैयारी होती रहती है, और फिर, उसके हस्तक्षेप करनेके बाद भी, मनुष्यको जो कुछ प्राप्त हुआ है उसे बनाये रखने और विकसित करनेके लिये पर्याप्त मात्रामें कार्य करनेकी आवश्यकता होती है - जैसे कि अन्य सभी विषयोंमें मनुष्यको तबतक करना पड़ता है जबतक पूर्ण सिद्धि नहीं आ जाती । उसके बाद, निस्सन्देह, परिश्रम समाप्त हों जाता है और मनुष्य एक सुनिश्चित स्थितिमें आ जाता है । अतएव किसी-न-किसी तपस्यासे बचा नही जा सकता।

 

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काल्पनिक बाधाओंके विषयमें भी तुम्हारा कथन सही है...... । यही कारण है कि हम सर्वदा ही मानसिक निर्माणों ओर प्राणिक रचनाओंको कोई मूल्य नहीं देते -क्योंकि वे मोर्चाबन्दियां हैं जिन्हें मन और प्राण भगवानदुरा अधिकृत होनेसे बचने- के लिये तैयार करते हैं । परन्तु सबसे पहली चीज है इन सब चीजोंके विषयमें सचेतन होना जैसे कि अब तुम हों गये हो,- गूढू रहस्य है इन सबको मार गिरानेके लिये, और कोरी स्लेट बनाने, सच्चे निर्माणके लिये स्थिरता, शान्ति और सहर्ष उद्- घाटनका आधार बनानेके लिये दृढ बने रहना ।

 

*

 

    सर्वोत्तम संभव उपाय है भागवत कृपाको अपने अन्दर कार्य करने देना, कभी उसका विरोध न करना, कभी उसके प्रति अकृतश न होना और उसके विरुद्ध न हों जाना -- बब्बिा दिव्य ज्योति, शान्ति, एकत्व और आनन्दके लक्ष्यतक सर्वदा उसका अनुसरण करते रहना ।

 

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     थोड़े लोग ही ऐसे होते हैं जिनसे कृपाशक्ति विमुख होती है, पर अनेक होते हैं ऐसे लोग जो कृपाशक्तिसे विमुख हों जाते हैं ।

 

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      किसी भी पद्धतिसे समर्पण करना अच्छा है, पर स्पष्ट ही निर्व्यक्तिक भगवान् पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि उनके प्रति किया हुआ समर्पण अपने परिणाममें बाह्य प्रकृति- का कोई रूपांतर किये बिना आंतरिक अनुभवतक ही सीमित हो सकता है ।

 

*

 

      हां, निर्व्यक्तिक (अरूप) भगवानके प्रति किया हुआ समर्पण सत्ताके अंगोंको त्रिगुणों और अहंभावके अधीन छोड़ देगा - क्योंकि निराकारत्वके अन्दर निष्क्रिय अंग मुक्त हों जायंगे पर सक्रिय प्रकृति फिर भी त्रिगुणोंकी क्रीडाके अंदर बनी रहेगी । बहुतसे लोग ऐसा समझते हैं कि वे अहंसे मुक्त हो गये हैं क्योंकि वे आकाररहित सत्ता- का बोध प्राप्त करते हैं । वे यह नहीं देखते कि ठीक पहलेकी तरह ही उनके कर्ममें अहंकारमय तत्व ज्योंके त्यों बने रहते हैं ।

 

*

 

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      तुम निर्व्यक्तिककी बात इस तरह कर रहे हो मानो वह कोई व्यक्ति ( पुरुष) हो । निर्व्यक्तिक 'स: ' ( वह) नहीं है, वह तो 'तत्' है । वह 'तत्' भला कैसे मार्ग दिखा सकता या सहायता कर सकता है? निर्व्यक्तिक ब्रह्म निष्क्रिय, पृथक्, उदासीन है, विश्वमें जो कुछ घटित होता है उसके साथ उसका कोई सरोकार नहीं होता । बुद्ध- का शाश्वत भी वही चीज है । उसमें जो कुछ भी निर्व्यक्तिक सत्य या ज्योति है, उसे तुम्हें पाना होगा, उसका उपयोग करना होगा, उसे लेकर तुम जो कुछ कर सको उसे तुम्हें करना होगा । वह स्वयं तुम्हारा पीछा करनेका कष्ट नही उठाता । यह बौद्ध लोगोंकी भावना है कि अपने लिये प्रत्येक चीज तुम्हें स्वयं करनी होगी ।

 

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     गुरुके प्रति समर्पणको सब समर्पणोंसे श्रेष्ठ समर्पण कहा गया है, क्योंकि उसके द्वारा तुम केवल निराकारको ही नही बल्कि साकारको, केवल अपने अन्दर विद्यमान भगवानको ही नही, बल्कि अपने बाहर विद्यमान भगवानको समर्पण. करते हों; उससे तुम्हें अपने आत्मामें पीछे हटकर ही नहीं जहां कि अहंभाव है ही नही, बल्कि अपनी व्यक्तिगत प्रकृतिमें भी जहां कि वह शासन करता है, अहंको अतिक्रम करनेका सुयोग प्राप्त होता है । वह समग्र भगवानके प्रति -- 'समग्र माम्... .मानुषी तनु आश्रितम्' -के प्रति पूर्ण समर्पण करनेके संकल्पका चिह्न है । निस्सन्देह, इन सब बातोंके सत्य होनेके लिये उसे यथार्थ आध्यात्मिक समर्पण होना चाहिये ।

 

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   गुरुको सब भावों -- परात्पर, निर्व्यक्तिक, सव्यक्तिक - मे स्वीकार करना चाहिये ।

 

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   गुरु योगका पथप्रदर्शक होता है । जब भगवानको पथप्रदर्शकके रूपमें स्वीकार किया जाता है तब उन्हें गुरुके रूपमें स्वीकार किया जाता है ।

 

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    गुरु-शिष्यका सम्बन्ध उन अनेक सम्बन्धोंमेंसे केवल एक सम्बन्ध है जिन्हें मनुष्य भगवानके साथ स्थापित कर सकता हे, और इस योगमें, जिसका लक्ष्य अतिमानसिक सिद्धि है, इसे यह नाम देनेका प्रचलन नहीं है; बल्कि यहां तो भगवानको दिव्य ज्योति, ज्ञान, चैतन्य तथा आध्यात्मिक सिद्धिका मूलस्रोत, जीवंत सूर्य माना जाता है, और

 

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जो कुछ मनुष्य प्राप्त करता है वह सब वहींसे आता हुआ तथा सारी सत्ता भागवत हाथोंद्वारा पुनर्गठित होती हुई अनुभूत होती है । यह मानव गुरु-शिष्यके सम्बन्धसे, जो कि अधिकांशमें एक सीमित मानसिक आदर्श है, कहीं अधिक महान् और अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध है । फिर भी, यदि मनको अभी भी अधिक परिचित मानसिक भावना- की आवश्यकता हो तो इसे तबतक रखा जा सकता है जबतक इसकी आवश्यकता है; केवल अपने अन्तरात्माको इससे बंध मत जाने दो और इसे भगवानके साथके अन्य सम्बन्धों तथा अनुभवके विशालतर रूपोंके अतप्रवाहको सीमित मत करने दो।

 

*

 

    अतिमानसिक योगमें गुरु शब्दका प्रयोग करनेकी प्रथा नही है, यहां सब कुछ स्वयं भगवानसे आता है । परन्तु कोई व्यक्ति इसे चाहता है तो वह फिलहाल इसका प्रयोग कर सकता हैं ।

 

*

 

      नही, भगवानके प्रति समर्पण और गुरुके प्रति समर्पण एक ही चीज नहीं हैं । गुरुको समर्पण करनेपर मनुष्य गुरुके अन्दर विद्यमान भगवानको समर्पण करता है -- यदि वह केवल एक मानव-सत्ता ही हो तो वह समर्पण निष्फल होता है । परन्तु भागवत उपस्थितिकी जो चेतना होती है वही गुरुको सच्चा गुरु बनाती है, इसलिये यदि शिष्य उनके प्रति यह समझकर भी समर्पण करे ?? वह जिसे समर्पण कर रहा है वह एक मनुष्य है तो वह उपस्थिति उस समर्पणको फलदायी बना देगी ।

 

*

 

      सभी सच्चे गुरु एक ही चीज हैं, एकमेव गुरु हैं, क्योंकि सभी एकमेव भगवान् हैं । यह एक मौलिक और व्यापक सत्य है । परन्तु एक विभेदका सत्य भी है; भग- वान् विभिन्न व्यक्तित्वोंमें विभिन्न मनों, शिक्षाओं, प्रभावोंके साथ निवास करते हैं जिसमें कि वह विभिन्न शिष्योंको उनकी विशेष आवश्यकता, स्वभाव, भवितव्यताके साथ विभिन्न पथोंसे सिद्धिकी ओर ले जायं । क्योंकि सभी गुरु एक ही भगवान् हैं इसलिये इससे यह तात्पर्य नहीं निकलता कि यदि शिष्य अपने लिये मनोनीत गुरुको छोड़कर दूसरेका अनुसरण करता है तो वह अच्छा करता है । भारतीय परंपराके अनुसार प्रत्येक शिष्यसे गुरुके प्रति अटूट निष्ठाकी मांग की जाती है । ' 'सभी एक हैं' ' यह एक आध्यात्मिक सत्य है, पर तुम इसे अन्धाधुंध कर्ममें परिवर्त्तित नहीं कर सकते; तुम सभी व्यक्तियोंके साथ एक ही ढंगसे बर्ताव नही कर सकते क्योंकि वे एक ही ब्रह्म हैं; यदि कोई ऐसा करे तो उसका परिणाम व्यावहारिक रूपसे भयानक अव्यवस्था होगी ।

 

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यह एक कठोर मानसिक तर्क है जो कठिनाई उत्पन्न करता है पर आध्यात्मिक विषयों- मैं मानसिक तर्क सहज हीं भूल कर बैठता हे, अंतर्ज्ञान, श्रद्धा-विश्वास, नमनीय आध्या- त्मिक बुद्धि ही यहां एकमात्र पथप्रदर्शक होते हैं ।

 

    श्रद्धाका जहांतक प्रश्न हे, आध्यात्मिक अर्थमें श्रद्धा कोई मानसिक विश्वास नही है जो हिलडुल सकता और बदल सकता है । यह मनमें वह रूप ले सकतीं है, पर वह विश्वास स्वयं श्रद्धा नही है, वह तो उसका केवल बाहरी रूप है । ठीक जिस तरह शरीर, बाहरी आकृति तो बदल सकती है पर आत्मा ठीक वही बना रहता है, वैसी ही बात यहां भी है । श्रद्धा अन्तरात्मामें विद्यमान एक निश्चयता है जो तर्क-बुद्धिपर, किसी एक या दूसरी मानसिक भावनापर, परिस्थितियोंपर, मन या प्राण या शरीरकी किसी एक या दूसरी क्षणिक अवस्थापर निर्भर नही करती । यह आच्छादित, अन्ध- कारग्रस्त हों सकती है, यह निर्वापित भी प्रतीत हो सकतीं है, पर यह तूफान या ग्रहण- के बाद फिर दुबारा प्रकट होती है; जब मनुष्य यह सोच लेता है कि वह सदाके लिये बूझ चुकी है तब भी वह अन्तरात्मामें जलती हुई दिखायी देती है । मन शका-सन्देहों- का एक चंचल सागर हों सकता है और फिर भी वह श्रद्धा भीतर विद्यमान रह सकती है और, यदि ऐसा हो तो, वह सन्देह-ग्रस्त मनको भी रास्तेपर बनाये रखेगी, जिससे कि वह अपने बावजूद भी अपने पूर्वनिर्दिष्ट लक्ष्यकी ओर बढ़ता जाता है । श्रद्धा आध्यात्मिक, दिव्य, आन्तरात्मिक आशंके विषयमें एक प्रकारकी निश्चयता हे, एक ऐसी चीज है जो उस समय भी उससे चिपकी रहती है जब कि वह आदर्श जीवनमें चरितार्थ नही होता, जब कि निकटतम तथ्य या चिरस्थायी परिस्थितियां उसका खंडन करती हुई प्रतीत होती हैं । यह मानव-जीवनका एक सामान्य अनुभव है; यदि यह बात ऐसी न होती तो मनुष्य परिवर्तनशील मनका एक खिलौना या परिस्थितियोंका एक खेल होता ।

 

*

 

      मुझे ऐसा नही लगता कि '' के पत्र प्रचलित विचारों ओर साधारण प्रवृत्तिके एक संक्षिप्त रेखांकनके रूपमें प्रशंसनीय हैं, बल्कि मुझे जो बात इसमें प्रशंसनीय प्रतीत हुई वह यह थी कि उस (लेखक) मे इन विचारों और प्रवृत्तियोंमें इतने पूर्ण रूपमें पीछे हट आनेकी और ज्ञानके (उसके लिये) एक नये और स्थायी स्रोतसे देखनेकी उसमें एक शक्ति है । यदि वह इन प्रचलित मानव गतिविधियोंमें हीं दिलचस्पी रखता होता और उन्हींके संपर्कमें रहा होता तो मैं नही समझता कि उसने उन विषयोंमें रोमां रोलां या अन्य लोगोंसे कुछ अधिक अच्छा किया होता । परन्तु उसे उन विषयोंकी योग- दृष्टि, शीर्ष-दृष्टि प्राप्त है और उसने जिस सुगमताके साथ यह करनेमें समर्थ हुआ हैं उसने मुझे आकर्षित किया है ।

 

    उसने जो इतनी दूरतक प्रगति की है उसकी व्याख्या मैं इस प्रकार करुंगा कि उसने संपूर्ण रूपसे योगके सामान्य अधिकारके अर्थमें अपनी निजी योग्यताके द्वारा

 

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इतनी प्रगति नही की है बल्कि जिस तीव्रता और पूर्णताके साथ उसने अपने अन्दर भक्त और शिष्यका मनोभाव ग्रहण किया है उसके द्वारा की है । यह आधुनिक मनके लिये, चाहे वह यूरोपियन हों अथवा 'शिक्षित' ' भारतीय, एक विरल उपलब्धि है । क्योंकि आधुनिक मन, जब वह अन्य प्रकारका होना चाहता है तब भी, विश्लेषणकारी, सन्देहयुक्त और नैसर्गिक रूपसे ' 'स्वतंत्र' ' होता है, यह अपने पास आनेवाली दिव्य ज्योति और दिव्य प्रभावसे पीछे हट जाता है और उसके सम्मुख हिचकिचाता है; वह उनके अन्दर सहज सरलताके साथ यह चिल्लाता हुआ कूद नहीं जाता कि ' 'यहां मैं हूँ, मैं जो कुछ था या प्रतीत होता था वह सब झाडू फेंकनेके लिये तैयार हूँ, यदि इस प्रकार मैं 'तेरे' अन्दर प्रवेश कर सकूं, तू अपने ढगसे, भगवानके ढंगसे मेरी चेतनाका दिव्य सत्यके अन्दर पुनर्गठन कर । '' हमारे अन्दर कोई ऐसी चीज हे जो इसके लिये तैयार हैं परन्तु वहां यह तत्त्व है जो हस्तक्षेप करता है और अग्रहणशीलताका पर्दा तैयार करता है, मैं स्वयं अपने सम्बन्धमे और दूसरोंके सम्बन्धमें अपने निजी अनुभव- से यह जानता हूँ कि कितने लबे कालतक यह एक पथ बना सकता है जो, संभवतः हम लोंगोंके लिये जो संपूर्ण सत्यकी खोज करते हैं, कभी भीछोटा और आसान नही हो सकता, पर फिर भी, हम बहुत बार इधर-उधर भटकनेसे, रुक जानेसे, पीछे हटनेसे तथा विपथ- गामी होनेसे बच जा सकते हैं । मैं तो सबसे अधिक इस बातकी प्रशंसा करता हूँ कि '' ने इतनी आसानीसे इस दुर्जेय बाधाको जीत लिया है ।

 

    मैं नहीं समझता कि उसके गुरु किसी दृष्टिसे न्यून पड़ते हैं, पर जिस मनोभावको उसने ग्रहण किया है, गुरुकी दुर्बलताओंसे, यदि कोई हों, कुछ आता-जाता नही । सच पूछा जाय तो गुरुकी मानवीय त्रुटियां रास्तेमें बाधक नही हों सकती यदि साधकमें चैत्य उद्घाटन, विश्वास-भरोसा और आत्मसमर्पणभाव हों । गुरु अपने व्यक्तित्व या अपनी सिद्धिकी मात्राके अनुरूप भगवान्की प्रणाली या प्रतिनिधि या अभिव्यक्ति होता है, पर वह चाहे जो कुछ हो, साधक जब उसकी ओर खुलता है तो वह भगवान्- की ओर ही खुलता है, और यदि कोई चीज प्रणालीकी शक्तिके द्वारा निर्दिष्ट होती है तो कहीं अधिक वह ग्रहणशील चेतनाके अंतर्निहित और सहज-स्वाभाविक मनो- भावके द्वारा निर्दिष्ट होती है -- वह चीज एक ऐसा तत्व होती है जो उपरितलीय मनमें सरल विश्वास या प्रत्यक्ष शर्त्तरहित आत्मदानके रूपमें प्रकट होता है, और एक बार जब यह तत्त्व वहां आ जाता है तो मौलिक वस्तुएं उस ब्यक्तिसे भी प्राप्त की जा सकती हैं जो शिष्यसे भिन्न दूसरे लोगोंको एक निम्र कोटिका आध्यात्मिक स्रोत प्रतीत होता है, और बाकी चीजे, यदि गुरुका मानव-रूप उन्हें न भी दे सके तो, अपने-आप भगवान्की कृपासे साधकके अन्दर विकसित डोंगी । ऐसा प्रतीत होता है कि ' ' ने प्रारम्भसे ही शायद यह चीज कर ली है; परन्तु आजकल अधिकाश लोगोंमे यह मनो- भाव बहुत अधिक हिचकिचाहट और ?और संघर्षके बाद कठिनाईसे आता प्रतीत होता है । में अपनी ही बात लूं, मैं अपने आंतरिक जीवनकी ओर अपने पहले निर्णायक मोडके लिये एक ऐसे ब्यक्तिका ऋणी हूँ जो बुद्धि, शिक्षा और क्षमतामें मुझसे अनन्तत: निम्र कोटिके थे और किसी भी प्रकार आध्यात्मिक दृष्टिसे पूर्ण और श्रेष्ठ नही थे,

 

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परन्तु, जब मैंने उनके पीछे एक शक्ति देखी और सहायताके लिये उनकी ओर मुडने- का निर्णय किया तो मैंने संपूर्णत: अपनेको उनके हाथोंमें छोड़ दिया और एक सहज-- स्वाभाविक निष्क्रियताके साथ उनके मार्गदर्शनका अनुसरण किया । वह स्वयं ही आश्चर्यचकित हों गये और दूसरोंसे बोले कि उन्होंने कभी पहले कोई दूसरा आदमी ऐसा नही देखा जो इतने पूर्ण रूपसे और बिना कुछ बचाये अथवा अपने सहायकके पथ- प्रदर्शनके प्रति कोई शंका-सन्देह उठाये बिना आत्मसमर्पण कर सका हो । परिणाम यह हुआ कि एक ऐसे मौलिक प्रकारके रूपांतरकारी अनुभवोंका तांता बँध गया कि वह उसे समझ नहीं सकें और उन्हें मुझसे यह कहना पड़ा कि मे भविष्यमें समर्पणभाव- की उसी पूर्णताके साथ अपने-आपको अन्तरस्थ गुरुके हाथोंमें छोड़ दूँ जिस पूर्णताके साथ मैंने मानव-प्रणालीके हाथोंमें छोडा था । मैं यह उदाहरण यह दिखानेके लिये दे रहा हूँ कि ये चीज कैसे काम करती हैं; ये समझे-बूझे तरीकेसे काम नही करतीं जिसे मानव-बुद्धि निश्चित करना चाहती है, बल्कि किसी अधिक रहस्यपूर्ण तथा महत्तर विधानके द्वारा कार्य करती हैं ।

 

*

 

     तुम आध्यात्मिक क्षमतामें (स्वयं अपनेसे अथवा दूसरे गुरुओंसे) निम्र कोटिके किसी गुरुको स्वीकार कर सकते हों जिसमें बहुतसी मानवीय अपूर्णताएं मौजूद हों और फिर भी, यदि तुममें श्रद्धा, भक्ति, समुचित आध्यात्मिक योग्यता हो तो तुम स्वयं गुरुसे पहले भी उनके द्वारा भगवानका संस्पर्श प्राप्त कर सकते हों, आध्यात्मिक अनु- भूतियां, आध्यात्मिक सिद्धि उपलब्ध कर सकते हो । यहां: 'यदि' शब्दपर ध्यान दो, क्योंकि बह शर्त्त आवश्यक है; यह बात नही है कि प्रत्येक शिष्य प्रत्येक गुरुके साथ ऐसा कर सकता है । किसी मक्कारसे तुम उसकी मक्कारीके सिवा और कुछ नहीं प्राप्त कर सकते । गुरुके अन्दर कोई ऐसी वस्तु अवश्य होनी चाहिये जो भगवानके साथ संपर्क स्थापित करना संभव बनावे, कोई वस्तु होनी चाहिये जो उस समय भी काम करती हे जब कि वह अपने बाहरी मनमें उसकी क्रियाके विषयमें जरा भी सचेतन नहीं होता । यदि उसमें जरा भी कोई आध्यात्मिक वस्तु न हों तो वह गुरु नही है, केवल एक मिथ्या गुरु है । निस्सन्देह, दो गुरुओंके बची आध्यात्मिक उपलब्धिमें पर्याप्त विभिन्नताएं हों सकती हैं; परन्तु बहुत कुछ गुरु और शिष्यके आंतरिक सम्बन्ध- पर निर्भर करता है । कोई व्यक्ति किसी बहुत महान् आध्यात्मिक पुरुषके पास जा सकता है और उनसे कुछ भी प्राप्त नही कर सकता अथवा केवल थोड़ासा ही प्राप्त कर सकता है; परन्तु कोई व्यक्ति उससे कम आध्यात्मिक क्षमतावाले पुरुषके पास जा सकता और जो कुछ वह दे सकता है वह सब - और उससे अधिक भी - प्राप्त कर सकता है । इस वैषम्यके अनेक और सूक्ष्म कारण हैं; यहां उसके विषयमें विस्तार- पूर्वक कुछ कहनेकी आवश्यकता नही । यह बात प्रत्येक व्यक्तिके साथ अलग-अलग होती है । मैं समझता हूँ कि जो कुछ दिया जा सकता है उसे देनेके लिये गुरु सर्वदा

 

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तत्पर रहता है, यदि शिष्य ग्रहण कर सकता हो, अथवा संभवत, जब वह ग्रहण करने- के लिये तैयार हों जाता हों । यदि वह ग्रहण करना अस्वीकार करता है या अपने अन्दर अथवा बाहर इस प्रकार व्यवहार करता है कि ग्रहण करना असंभव हों जाता है अथवा यदि वह सच्चा नही होता या गलत मनोभाव ग्रहण कर लेता है तो बातें कठिन हों जाती हैं । परन्तु कोई यदि सरल-सच्चा और निष्ठावान् हों और उसका मनो- भाव सही हों तथा यदि गुरु कोई सच्चा गुरु हों तो फिर चाहे जितना समय लगे, मनुष्य आध्यात्मिक सिद्धि अवश्य प्राप्त करेगा ।

 

*

 

     रामकृष्णने पहले स्वयं सिद्धि प्राप्त की और उसके बाद दूसरोंको देना प्रारंभ किया -- वैसे ही बुद्धको प्राप्त हुई । में दूसरोंके विषयमें नही जानता । निस्सन्देह, पूर्णताका अर्थ है अपने निजी पथसे सिद्धि प्राप्त करना । रामकृष्णने सर्वदा इस बातको एक नियमके रूपमे रखा कि किसीको तबतक दूसरोंका गुरु नही बनना चाहिये जबतक उसे पूर्ण अधिकार न प्राप्त हो जाय ।

 

*

 

    दिव्य शक्तिकी क्रिया तपस्या, एकाग्रता और साधनाकी आवश्यकताका निषेध नही करती । बल्कि उसकी क्रिया इन चीजोंके प्रत्युत्तरके रूपमे अथवा इनकी सहा- यिकाके रूपमें आती है । यह ठीक है कि कभी-कभी दिव्य शक्ति उनके बिना भी किया करती है; यह बहुत बार उन लोगोमे प्रत्य्रुत्तर उत्पन्न करती है जिन्होंने अपनेको तैयार नहीं किया है और जो तैयार नहीं मालूम होते । परन्तु यह सर्वदा या सामान्यतया उस रूपमे कार्य नही करती, न यह कोई एक प्रकारका जादू है जो शून्यमें या बिना किसी पद्धतिके कार्य करता है । और न यह कोई मशीन है जो सभी व्यक्तियोंपर या सभी अवस्थाओं और परिस्थितियोंमें एक ही ढंगसे कार्य करती है, यह कोई भौतिक नही बल्कि आध्यात्मिक शक्ति है और इसके कार्यको नियमोंसे नही बांधा जा सकता ।

 

दिव्य गुरुकी शक्तिको एक ऐसे शिक्षककी शक्तिसे सीमित करनेकी जो बात है जो रास्ता तो दिखा देता है पर सहायता नहीं कर सकता या पथपर नही लें जा सकता, वह शुद्ध अद्वेतवादियों और बौद्धोंके मार्ग जैसे कुछ योग-मार्गोंके परिकल्पना है । शुद्ध अद्वैतवादी और बौद्ध लोग कहते हैं कि तुम्हें अपने-आपपर निर्भर करना होगा और कोई दूसरा तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता; परन्तु विशुद्ध अद्वैतवादी भी वास्तव- मे गुरुपर निर्भर करते हैं और बौद्धधर्मका प्रधान मंत्र बुद्धिके शरणागत होनेपर जोर देता है । दूसरे साधनमार्गोंके लिये तो, विशेषकर उन मार्गोंके लिये जो, गीताकी तरह, भगवान्के ' 'सनातन अंश' ' के रूपमें व्यक्तिगत जीवके सत्यको स्वीकार करते हैं अथवा जो यह विश्वास करते हैं कि भगवान् और भक्त दोनों सत्य हैं, गुरुकी सहायतापर, उसे

 

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एक अनिवार्य साधन समझकर, सर्वदा निर्भर किया गया है ।

 

    बिबेकानन्दके अनुभवकी सत्यतापर जो आपत्ति की गयी है उसे मैं नही समझता: वह तो ठीक वही अनुभव था जो आत्माके चरम अनुभवके रूपमें उपनिषदोंमें वर्णित है । यह बात सत्य नही है कि समाघिमें प्राप्त अनुभवको जाग्रत् अबस्थामें भी नहीं बनाये रखा जा सकता ।

 

*

 

     हां, यह प्राण-पुरुषका एक दोष है, अनुशासन माननेके संकल्पका अभाव है । अध्यापकसे सीखना होता है और उनकी शिक्षाके अनुसार कार्य करना होता है, क्यों- कि अध्यापक उस विषयको जानते हैं और यह भी जानते है कि उसे कैसे सीखा जाता है - ठीक जिस तरह कि आध्यात्मिक मामलोंमें गुरुका अनुसरण करना पड़ता है जिन्हें ज्ञान प्राप्त होता है और जो मार्गको जानते हैं । अगर कोई सब कुछ स्वयं अपने- आप सीखे तो सम्भावनाएं ऐसी हैं कि बह सब कृरछ गलत ही सीखेगा । भला गलत रूपमें सीखनेकी स्वतत्रतासे क्या लाभ? निस्सन्देह, यदि विद्यार्थी अध्यापककी अपेक्षा अधिक बुद्धिशाली हो तो बह अध्यापककी अपेक्षा कही अधिक सीख लेगा, ठीक जिस तरह कि कोई महान् आध्यात्मिक क्षमता रखनेबाला व्यक्ति उस सिद्धितक पहुँच सकता हे जो गुरुको प्राप्त नहीं है -- परन्तु फिर भी प्रारंभिक अवस्थाओंमें संयम और अनुशासन अपरिहार्य हैं ।

 

*

 

    अबतक किसी मुक्त पुरुषने गुरुवादपर आपत्ति नहीं की है; साधारणतया केवल ऐसे लोग ही कोई गुरु स्वीकार करना अपनी प्रतिष्ठाके विरुद्ध समझते हैं जो मन या प्राणमें निवास करते हैं और जिनमे मनका अहंकार और प्राणका मद होता है ।

 

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    वह सब सस्ता योग है । गुरुका स्पर्श या कृपा किसी चीजको खोल सकती है, पर फिर भी कठिनाइयोंका सर्वदा समाधान करना होता है । सच बात यह है कि यदि साधकमें पूर्ण समर्पण-भाव हो जिसका मतलब है चैत्य पुरुषका प्राधान्य, तो ये कठिनाइयां किसी बधन या बाधाके रूपमे अब अनुभूत नही होती बल्कि केवल उपरितलीय अपूर्णताओके रूपमें अनुभूत होती हैं जिन्हें कृपाकी क्यिा दूर कर देगी ।n

 

*

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      मेरे विचारमें रामकृष्णका यह वचन साधनामें घटित होनेवाली किसी निश्चित विशिष्ट घटनाको व्यक्त करता है और किसी व्यापक और पूर्ण अर्थमें इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती, क्योंकि उस अर्थमे उसके लिये सत्य होना कठिन है । सभी कठिनाइयां एक मुहूर्त्तमें दूर हो जाती हैं? अच्छा, विवेकानन्दको तो आरम्भसे ही राम- कृष्णकी कूपा प्राप्त थीं, परन्तु मै समझता हू कि उनकी सदेह करनेकी कठिनाई कुछ दिनोंतक बनी रही और उनके जीवनके अन्ततक क्रोधको संयमित करनेकी कठिनाई बनी रही -- उसके कारण उन्हें कहना पड़ा कि जो कुछ मुझमें अप्यश है वह सब मेरे गुरुका दान है, पर ये चीजे ( क्रोद्ध वगैरह) मेरी अपनी संपत्ति हैं । परन्तु जो बात सत्य हों सकती है वह यह है कि गुरु और शिष्यके बीच एक विशिष्ट स्पर्शके द्वारा केंद्रीय कठिनाई विलीन हो सकती है । परन्तु कृपाका तात्पर्य क्या हैं? यदि यह गुरुकी साधारण अनुकंपा और कृपा है तो, हम समझेंगे कि, वह शिष्यके साथ बराबर ही विद्य- मान है, उनका- शिष्यको स्वीकार करना ही एक कृपाका कार्य दु और उनकी सहायता शिष्यके ग्रहण करनेके लिये बराबर ही विद्यमान है । परन्तु गुरुके माध्यमसे अथवा सीधे जो कृपाका, भागवत कृपाका स्पर्श मिलता है वह एक विशेष घटना होता है और उसके दो पक्ष होते है,--गुरु या भगवान्की कृपा, सच पूछा जाय तो दोनों हीं साथ एक पक्षमें होती हैं और दूसरी ओर शिष्यके अन्दर ' 'कृपाप्राप्तिकी स्थिति' ' होती है । ' 'कृपाप्राप्तिकी स्थिति' ' बहुधा एक लबी तपस्या या शुद्धीकरणके द्वारा तैयार होती है जिसमें कोई भी बात निश्चित रूपसे घटित होती हुई नहीं प्रतीत होती, अधिक-से- अधिक केवल कुछ स्पर्श या झांकियां या क्षणस्थायी अनुभ्तियां होती हैं, और कृपा एकाएक चेतावनी दिये बिना आ जाती है । यदि यही बात रामकृष्णके वचनमें कही गयी है तो यq सच है कि जब कृपा आती है तो मौलिक कठिनाइयां एक मुहूर्त्तमें दूर हो सकती हैं और सामान्यतया होती ही हैं । अथवा, कम-से-कम, कोई ऐसी चीज घटित होती है जो शेष साधनाको - चाहे उसमें जितना भी लम्बा समय क्यों न लगे -- निश्चित और सुरक्षित बना देती है ।

 

    यह निर्णायक स्पर्श ' 'बिल्लीके बच्चे' ' जैसे लोंगोंके पास अत्यन्त आसानीसे आता है, उन लोंगोंके पास जिनके अन्दर चैत्य पुरुष और भावात्मक प्राणके बिच किसी स्थानपर गुरु या भगवानके प्रति समर्पणकी एक तीब्र और निर्णायक क्रिया होती है । मैंने देखा है कि जब यह किया होती है और साथ ही सचेतन केंद्रीय निर्भरता होती है जो मनको तथा प्राणके गेष भागको भी विवश करती है तब मौलिक कठिनाई समाप्त हो जाती है । यदि अन्य कठिनाइयां बनी रहती हैं तो वे कठिनाइयोंके रूपमें अनुभूत नही होती; बल्कि महज ऐसी चीजे प्रतीत होती हैं जिन्हें बस करना होता है और उनसे कोई परेशानी नही होती । कभी-कभी किसी तपस्याकी आवश्यकता नहीं होती -- मनुष्य बस अपनी बातें उस दिव्य शक्तिके सामने रख देता है जिसे वह मार्गदर्शन कराते

 

'' 'गुरुकी कृपासे सभी कठिनाइयां एक क्षणमें विलीन हो सकती हैं ठीक जैसे कि युगव्यापी

अन्धकारदियासलाई जलाते हो क्षण भरमें विलीन हो जाता है ।

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हुए या साधना करते हुए अनुभव करता है और उसकी क्रियाको अनुमति देता है, उसके विपरीत जो कुछ होता है उस सबका त्याग करता है, और फिर वह शक्ति जो कुछ दूर हटाना है उसे हटा देती है या जो कुछ बदलना है उसे बदल देती है, शीघ्रतासे या धीरे- धीरे -- परन्तु शीघ्रता या धीमेपनका कोई महत्व नही प्रतीत होता क्योंकि मनुष्य- को पूरा विश्वास रहता है कि वह अवश्य होगा । यदि तपस्याकी आवश्यकता होती है तो उसे एक प्रबल साहाथ्य इतने अधिक बोधके साथ किया जाता है कि तपस्याके अन्दर कोई चीज कठिन या कठोर नही होती ।

 

     दूसरोंके लिये, ' 'बन्दरके बच्चे' ' जैसे लोगोंके लिये अथवा जो लोग अभी भी अधिक स्वतंत्र होते हैं, अपने निजी विचारोंका अनुसरण करते हैं, अपनी ?? साधना करते हैं, केवल कुछ शिक्षा या सहायता चाहते हैं, उनके लिये भी गुरुकी कृपा होती है, परन्तु वह साधकके स्वभावके अनुसार कार्य करती है और कम या अधिक मात्रामें उसके प्रयत्नकी प्रतीक्षा करती है; यह सहायता करती है, कठिनाई में मदद देती है, खतरेका समय रक्षा करती है, परन्तु शिष्य सर्वदा यह नही जानता अथवा संभवत: मुश्किलसे थोड़ासा जानता है कि क्या किया जा रहा है, क्योंकि वह स्वयं अपने-आपमें तथा अपने प्रयासमें निमग्न रहता है । ऐसे लोगोंमें उस निर्णायक आंतरिक क्रियाके, स्पर्शके आनेमें अधिक समय लग सकता है जो कि सब कुछ सुस्पष्ट कर देता है ।

 

      परन्तु सबके साथ कृपा विद्यमान है ओर किसी-न-किसी तरह कार्य कर रही है और यह केवल तभी शिष्यका त्याग कर सकती है जब कि स्वयं शिष्य ही उसे छोड़ देता या त्याग देता है -- निर्णायक और अन्तिम विद्रोहके द्वारा, गुरुके परित्यागके द्वारा, सम्बन्धविच्छेद और अपनी स्वतन्त्रताकी घोषणाके द्वारा, अथवा विश्वास- घातके किसी कार्य या मार्गके द्वारा जो कि उसे उसके अपने चैत्य पुरुषसें ही विच्छिन्न कर देता है । परन्तु फिर भी, शायद अन्तिम स्थितिको छोड़कर -- यदि उसमें कोई अन्तिम हदतक चला जाय -- कृपाका वापस आना असम्भव नही होता ।

 

यहीं इस विषयमें मेरा अपना ज्ञान और अनुभव है परन्तु रामकृष्णके कथन- के पीछे क्या वस्तु निहित है और क्या उन्होंने स्वयं उसे एक सामान्य और निरपेक्ष वक्तव्यके रूपमें लिया था -- इस विषयमें मैं कुछ भी घोषणा नही करता ।

 

*

 

   यह सदा ही कहा गया है कि शिष्य बनानेका अर्थ है स्वयं अपनी कठिनाइयों तथा साथ ही शिष्यकी कठिनाइयोंको अपने ऊपर लेना । निस्सन्देह, यदि गुरु शिष्य- के साथ एकाकार न हो जायं, उसे स्वयं अपनी चेतनामें न ले लें, उसे अपनेसे बाहर रखें और उसे केवल उपदेश देकर बाकी उसे अपने-आप करनेके लिये छोड़ दें तो इन परिणामोंकी संभावना बहुत कम हो जाती है, लगभग शून्य हो जाती है ।

 

*

 

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        जब कोई सच्चाईके साथ समर्पणभावको ग्रहण करता है तो कोई भी चीज छिपायी नही जानी चाहिये जिसका साधनाके जीवनके लिये कोई मूल्य हो । दोष स्वीकार करनेसे बाधक तत्त्वोंको चेतनामेंसे निकाल बाहर करनेमें सहायता मिलती है और यह आंतरिक वातावरणको परिष्कृत करके गुरु और शिष्यके मध्य एक अधिक घनिष्ठ और अधिक अंतरंग और फलदायी सम्बन्ध उत्पन्न करता है ।

 

VI

 

    साधना-पथके सभी विषयोंमें ऐसा ही होता है - परन्तु चाहे जितना लम्बा समय लगे मनुष्यको डटे रहना चाहिये, केवल इसी तरह मनुष्य लक्षपर पहुँच सकता

 

*

 

       योगमें जिस शक्तिकी आवश्यकता होती है बह है बिना थके, उदास हुए, निरु- त्साहित या अधीर हुए तथा बिना प्रयास छोड़ या अपने लक्ष्य अथवा संकल्पका परि- त्याग किये श्रम, कठिनाई या असुविधामें गुजर जानेकी शक्ति ।

 

*

 

 चाहे जो भी पद्धति व्यवहृत हो, दृढ़ता और अध्यवसाय आवश्यक हैं । क्योंकि चाहे जिस पद्धतिका व्यवहार क्यों न किया जाय, प्राकृतिक प्रतिरोधकी जटिलता उससे संघर्ष करनेके लिये वहां मौजूद रहेगी ।

 

*

 

       इस योग जैसे योगमें धैर्यकी आवश्यकता होती है, क्योंकि इसका उद्देश्य है मौलिक हेतुओं तथा प्रकृतिके प्रत्येक भाग और ब्योरेका परिवर्तन करना । यह कहनेसे काम नहीं चलेगा कि ' 'कल मैनई अपने-आपको पूर्णत: श्रीमाताजीके हाथोंमें सौंप देनेका निश्चय किया, और देखो वह नहीं किया गया है, इसके विपरीत, सभी पुरानी विपरीत चीज़ें फिर एक बार वापस आ गयी हैं' । निस्सन्देह, जव तुम ऐसी स्थितिमें आ जाते हों जहां तुम इस प्रकारका संकल्प लेते हो, तो तुरन्त रास्तेमें बाधा डालनेवाली सभी चीज़ें अवश्य उठ खड़ी होती हैं - ऐसा निरपवाद रूपसे घटित होता है । ऐसे समय करनेकी चीज शू है कि पीछे हट आया जाय, निरीक्षण किया जाय और त्याग दिया जाय, अपने ऊपर इन चीजोंको अधिकार न जमाने दिया जाय, अपने केंद्रीय संकल्पको इनसे अलग रखा जाये और उनका मुकाबला करनेके लिये श्रीमाताजीकी शक्तिका

 

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आवाहन किया जाय; यदि कोई फंस ही जाय, जैसा कि बहुधा होता है, तो जितना शीघ्र संभव हो उतना शीघ्र उनसे छुटकारा पाया जाय और फिर आगेकी ओर बढ़ा जाय । यही चीज प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक योग करता  चूंकि कोई व्यक्ति एक हीं झपटमें सब कुछ नहीं कर सकता इसलिये अवसन्न होना इस विषयके सत्यके एकदम विपरीत है ।

 

    जो स्थिरता तुमने प्राप्त की है वह एक व्यक्तिगत गुण है परन्तु वह श्रीमाताजी- ३ साय अपना संपर्क बनाये रहनेपर निर्भर करता है - क्योंकि सच पूछो तो उनकी शक्ति हीं उसके पीछे तथा जो प्रगति तुम कर सकते हो उस सबके पीछे विद्यमान रहती है । उसी शक्तिपर निर्भर करना, अधिकाधिक पूर्णताके साथ उसकी ओर खुलना तथा केवल अपने लिये हीं नही बल्कि भगवानके लिये आध्यात्मिक उन्नति करनेका प्रयास करना सीखो - तव तुम अधिक आसानीसे आगे बढ़ोगे ।

 

*

 

      यह निश्चित है कि भगवानके लिये तीव्र अभीप्सा होनेपर प्रगतिमें सहायता मिलती है,' परन्तु धैर्यकी भी आवश्यकता है । क्योंकि सच पूछो तो एक बहुत बड़ा परिवर्तन लानेकी आवश्यकता है और, यद्यपि उसमें महान् तीव्रताके क्षण आ सकते हैं, पर उस तरह सब समय कभी घटित नहीं होता । पुरानी चीज़ें यथासंभव अधिकसे अधिक चिपकी रहना चाहती हैं; जो नयी चीज़ें आती हैं उन्हें विकसित होना होता है और उन्हें आत्मसात् करने तथा प्रकृतिके लिये उन्हें स्वाभाविक बनानेमें चेतनाको समय लगता है ।

 

*

 

     अपने मनमें इस थद्धा-विश्वासको सुदृढ़ बनाये रखो कि आवश्यक चीज की जा रही है और पूर्ण रूपमें की जायगी । इस विषयमें कोई सन्देह नहीं हो सकता ।

 

 यह सच है कि बहुत धैर्य और दृढ़ताकी आवश्यकता है । तब दृढ और धैर्य- शील बनो और साधनाके लक्ष्यपर एकाग्र हो जाओ, पर उन्हें तुरत प्राप्त करनेके लिये अति-उत्सुक मत होओ । तुम्हारे अन्दर एक कार्य करना है और वह किया जा रहा , अटल श्रद्धा और विश्वासका मनोभाव रखकर उसके करनेमें सहायता करो । सदेह सबके अन्दर उठते हैं, वे मानवके भौतिक मनके लिये स्वाभाविक है - उनका त्याग करो । उसी तरह तुरत परिणाम पानेके लिये अधीरता और अति-उत्सुकताका होना मानवीय प्राणके लिये स्वाभाविक है; ये चीजे श्रीमाताजीमे दृढ विश्वास होनेपर ही विलीन होंगी । जिन भगवान्को तुम्हारा जीवन अर्पित है उनके रूपमें श्रीमाताजी- के प्रति प्रेम और विश्वासके साथ प्रत्येक विरोधी भावनाका सामना करो और तव दे विरोधी भावनाएं कुछ समय बाद फिर तुम्हारे पास नहीं आ पायेंगी ।

 

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        अधीर होना सर्वदा हीं एक भूल है, यह सहायता नही करता बल्कि रुकावट डालता है । स्थिर प्रसन्न श्रद्धा और विश्वास ही साधनाका सर्वोत्तम आधार है; बाकी चीजोंके लिये अपने-आपको ग्रहण करनेके लिये सतत निर्बाध खोले रखना चाहिये और उसके साथ-साथ ऐसी अभीप्सा रहनी चाहिये जो तीव्र तो हों, पर सर्वदा शान्त- स्थिर और अटूट हो । पूर्ण यौगिक सिद्धि एकदम तुरत-फुरत नही आती, वह आधार- की एक दीर्घ तैयारीके बाद आती है जिसमें एक लम्बा समय लग सकता है ।

 

    भागवत कृपाके विषयमें कोई संदेह नही हों सकता । यह पूर्ण रूपसे सत्य भी है कि यदि मनुष्य सच्चा हो तो वह भगवान्को पा सकता है । परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि वह तुरत, आसानीसे ओर अविलंब पा जायेगा । तुम्हारी भूल यही है, भगवानके लिये एक समय, पांच वर्ष, छ: वर्ष निश्चित कर देते हो, और सन्देह करते हो क्योंकि अभीतक उसका परिणाम नही दिखायी देता । कोई मनुष्य केंद्रमे सरल - सच्चा हों सकता है और फिर भी उससे बहुतसी ऐसी चीजे हों सकती हैं जिन्हें उप- लब्धि शुरू होनेसे पहले परिवर्त्तित करना जरूरी हो । उसकी सच्चाईको उसे निरन्तर प्रयास करते रहनेके योग्य बनाना चाहिये -- क्योंकि यह भगवान्की चाह है जिसे कोई चीज बुझा नहीं सकती -- न तो विलंब, न निराशा, न कठिनाई और न कोई दूसरी ही चीज ।

 

*

 

 ' 'में फिर कोशिश करूँगा' ' कहना पर्याप्त नही है; आवश्यक बस यह है कि निरन्तर प्रयास किया जाय - अविरत, विषादसे रहित हदयसे, जैसा कि गीता कहती है, ' अनिर्विण्णचेतसा । ' तुम साढे पांच वर्षोंकी बात करते हों मानो यह एक ऐसे उधसश्यके लिये बहुत लम्बा समय हो, परन्तु जो योगी इतने समयमे अपनी प्रकृति- का मूलत रूपांतर कर लेने और भगवानका ठोस निश्चित अनुभव प्राप्त कर लेनेमे समर्थ है, वह आध्यात्मिक पथपर सरपट दौडनेवाला एक विरल व्यक्ति ही माना जायेगा । किसीने कभी यह नहीं कहा है कि आध्यात्मिक परिवर्तन एक आसान कार्य है । सभी आध्यात्मिक साधक यह कहेगे कि यह कठिन है परन्तु सर्वप्रधान रूपसे करने योग्य है । यदि भगवानके लिये किसीकी चाह सर्वोच्च चाह बन जाय तो वह अवश्य ही बिना किसी मनस्तापके उसीके प्रति अपना समूचा जीवन अर्पित कर सकता है और समय, कठिनाई या परिश्रमके लिये शिकायत नहीं कर सकता ।

 

 

     फिर, तुम अपने अनुभवोंको अस्पष्ट और स्वप्न-जैसे कहते हो । सबसे पहले आंतरिक जीवनमें छोटी-छोटी अनुूतियोंका अवहेलना करना विज्ञता, युक्तियुक्तता या सामान्य समझदारीका कोई अंग नहीं है । सच पूछा जाय तो साधनाके प्रारम्भमें और दीर्घ कालतक छोटी-छोटी अनुभूतियां ही एकके बाद एक आती हैं और, यदि उन्हें पूरा मूल्य दिया जाता है तो, क्षेत्रको तैयार करती हैं, प्रारंभिक चेतनाका निर्माण करती हैं तथा एक दिन वड़ी-बडी अनुतियोंके लिये दीवालें तोडकर रास्ता बनाती हैं)। परंतु

 

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तुम यदि इस महत्त्वाकाक्षापूर्ण भावनासे उनका तिरस्कार करो कि या तो तुम्हें बड़ी- बड़ी अनुभूतियां होनी चाहियें या कुछ नही होना चाहिये, तो इसमे कोई आश्चर्य नही कि वे कभी-कदाचित् दीर्घ कालमें एक बार आये और अपना काम न कर सके । अधि- कतु, तुम्हारी सभी अनुभूतियां तुच्छ नही थी । उनमेसे कुछेक शरीरमें स्थिरता लाने- वाला दिव्य शक्तिका अवतरण जैसा था -- जिसे तुम सुन्नत कहा करते थे -- जिसे आध्यात्मिक ज्ञान रखनेवाला कोई भी व्यक्ति उच्चतर शान्ति और ज्योतिके प्रति चेतनाके उद्घाटनका- प्रथम प्रबल पगके रूपमें स्वीकार किया होता । परन्तु वें चीजे तुम्हारी आशाओंके अनुरूप नहीं थी और तुमने उन्हें कोई विशेष महत्व नहीं ? । जहांतक अस्पष्ट और स्वप्त-सदृश होनेका प्रश्न है, तुम इसलिये ऐसा अनुभव करते हों कि तुम उनकी ओर और तुम्हारे अन्दर जो कुछ घटित होता है उस सबकी ओर बाहरी भौतिक मन और बुद्धिकी दृष्टिसे देखते ही जो केवल भौतिक वस्तुओको हीं सत्य और महत्त्वपूर्ण और सुस्पष्ट मान सकती है और उसके लिये आंतरिक घटनाए अवास्तव, अस्पष्ट और सत्यहीन वस्तुए है । आध्यात्मिक अनुभव स्वप्नों और सूक्ष्मदर्शनोंकी अवहेलना भी नही करता । यह उसे ज्ञात है कि इनमेंसे बहुतसी चीजे बिलकुल ही स्वप्न नही होती बल्कि किसी आंतरिक लोकका अनुभूतिया होती हैं और यदि आंतरिक लोकोंकी उन अनुभूतियोंको, जो बाह्य सत्ताके अन्दर आंतरिक आत्मा- के उद्घाटनकी ओर लें जाती है जिसमें कि आंतर आत्मा बाह्य सत्तापर प्रभाव डाले और उसे रूपांतरित करे, यदि सूक्ष्म चेतनाकी तथा समाधि-चेतनाकी अनुभूा?तेयोको स्वीकार न किया जाय तो भला जाग्रत् चेतना शरीर और शारीर मन तथा इद्रियोके सकीर्ण कारागारसे बाहर कैसे प्रसारित होगी? कारण, आंतरिक जागृत चैतन्य- से अस्पृष्ट भौतिक मनको वैश्व चैतन्य या शाश्वत ब्रह्मका अनुभव भी बहुत अच्छी तरह महज प्रातीतिक और अविश्वसनीय प्रतीत हों सकता है । वह सोचेगा. ' 'निस्सन्देह विलक्षण हैं, बल्कि मजेदार हैं, पर बहुत अघिक प्रातीतिक हैं, हैं न? भ्रम- भ्रौतियां है, हा! ', आध्यात्मिक साधकका पहला कार्य है बाहरी मनके दृष्टिकोण- से दूर भागना और आंतरिक व्यापारोंको आंतरिक मनसे देखना जिसके लिये वे बहुत शीघ्र शक्तिशाली और स्फूर्त्तिदायक सत्य बन जाते हैं । यदि कोई ऐसा करता है तो वह यह देखना प्रारम्भ करता है कि यहांपर सत्य और ज्ञानका एक विस्तृत क्षेत्र है जिसमे मनुष्य एक आविष्कारसे दूसरे आविष्कारकी ओर आगे बढ़ सकता और अन्तमे सबसे उच्च आविष्कारतक पहुँच सकता है । परन्तु बाहरी भौतिक मनको यदि भगवान् और आध्यात्मिकताके विषयमे थोडीसी कोई धारणा होती है तो वह आंतर सत्य और अनुभवकी ठोस भूमिसे मीलों दूरकी केवल जल्दबाजीभरी प्रागनुभव धारणा ही होती

 

    मेरे पास अन्य विषयोंपर किसी हदतक विचार करनेके लिये समय नही है । तुम भगवान्की कठोर मागों और कड़ी शर्त्तोंकी चर्चा करते हों -- परन्तु कितनी कठोर माते और लौह शर्त्ते तुम भगवानपर डाल रहे हो! करीब-करीब तुम उनसे यह कहते हो, ' 'में पग-पगपर शंका करुंगा और तुम्हें अस्वीकार करुंगा, परन्तु तुम्हेंn

 

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अपनी निर्मूल उपस्थितिसे मुझे भर देना होगा; जय कभी मैं तुम्हारे या योगके विषय- मे सोचूँगा मैं विषाद और नैराश्यसे भरा रहूँगा, परन्तु तुम्हें मेरे विषादको अपने आह्नादपूर्ण अदम्य आनन्दसे परिप्लावित कर देना होगा; मैं केवल अपने बाहरी भौतिक मन और चेतनाके साथ ही तुम्हारे पास आऊंगा, पर तुम्हें उसके अन्दर मुझे वह शक्ति देनी होगी जो मेरी समूची प्रकृतिको तेजीसे रूपांतरित कर देगी । '' हां, मैं नहीं कहता कि भगवान् ऐसा नहीं करेंगे या नहीं कर सकेंगे, परन्तु यदि ऐसा चमत्कार संपन्न करना है तो तुम्हें उनको कुछ समय और संभावनाका बस एक हजारवां भाग देना होगा ।

 

*

 

   भगवान् कठिन हो सकते हैं, पर उनकी कठिनाइयां जीती जा सकतीं हैं यदि कोई उनसे लगा रहे ।

 

*

 

     यह साधना एक कठिन कार्य है और समयके लिये शिकायत नहीं करनी चाहिये; केवल अन्तिम अवस्थाओंमें हीं बहुत बड़ी और सतत तीव्र प्रगतिकी आशा असंदिग्ध रूपसे की जा सकती हैं ।

 

      दिव्य शक्तिका जहांतक प्रश्न है, प्राणके शुद्ध और समर्पित होनेसे पहले शक्ति- के अवतरणके अपने खतरे हैं । उसके लिये पवित्रीकरण, ज्ञान, हृदयकी अभीप्साकी तीव्रता और शक्तिके जितने कार्यको वह सहन और आत्मसात् कर सके उतने कार्य- के लिये प्रार्थना करना अधिक अच्छा है ।

 

 *

 

    सर्वदा अपने अन्दर निवास करो और कार्योमें स्वयं ग्रस्त हुए बिना उन्हें करो, फिर कोई भी प्रतिकूल चीज घटित नहीं होगी, अथवा, यदि घटित हुई तो कोई गंभीर प्रतिक्यिा नही होगी ।

 

 

किसी भी कारणसे (आश्रम) छोड़नेका विचार, निस्सन्देह, निरर्थक और असंगत है । रूपांतरके लिये आठ वर्ष बहुत थोड़ा समग है । अधिकांश लोग अपने दोषोंके विषयमें सचेतन होने तथा परिवर्तनके लिये गंभीर संकल्प बनानेमें उतना या अधिक समय व्यय कर देते हैं -- और उसके बाद संकल्पको पूर्ण और अन्तिम

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सिद्धिमें परिवर्त्तित करनेमें एक लम्बा समय लग जाता है । जब-जब मनुष्य ठोकर खाता हैं, उसे अपने यथार्थ स्थानपर वापस आ जाना चाहिये और अभिनव संकल्पके साथ आगे बढ़ना चाहिये, ऐसा ही करनेसे पूर्ण परिवर्तन साधित होता है ।

 

*

 

 श्रद्धा-विश्वासके लिये अभीप्सा करनेके सिवा मैं क्या तुमसे चाहता हूँ? हां, ठीक थोड़ीसी पद्धतिमें संपूर्णता और दृढ़ता! दो दिन अभीप्सा मत करो और फिर कूडेखानेमें चले जाओ, भूकंप तथा शोपेन हावरके सिद्धांतोंको विकसित करो और उसके साथ ही गधापन और उससे सबन्धित बाकी चीजोंका विकास करो 1 भग- वान्को पूरा खेलनेका अवसर दो । जब बह तुम्हारे अन्दर कोई चीज प्रज्वलित करें या प्रकाशकी तैयारी करें तो तुम विषादका गीला कंबल लेकर बीचमें मत आ जाओ और उस गरीब लौपर मत फेंकों । तुम कहोगे, ' 'यह तो महज एक मोमबत्ती है जो जलायी गयी है - बिलकुल ही और कोई चीज नहीं! '' परन्तु ऐसे मामलोंमें, जब कि मानव भन, प्राण और शरीरका अन्धकार दूर करना हो, सर्वदा एक मोमबत्तीसे ही प्रारम्भ होता है -- उसके बाद आता है दीपक और फिर उसके बाद सूर्य, परन्तु प्रारंभिक वस्तुको अपना परिणाम अवश्य उत्पन्न करने देना चाहिये और अवसाद, सन्देह तथा निराशाके मोटे तख्तोंके द्वारा उसके स्वाभाविक प्रभावोंसे अपनेको पृथक् नहीं कर लेना चाहिये । प्रारम्भमें, और बहुत लम्बे समयतक, साधारणतया अनु- भूतिया थोडी मात्रामें ही आती हैं और उनके बीच-बीचमें शून्य व्यवधान होते हैं- परन्तु, यदि उसकी प्रगति होने दी जाय, तो ये व्यवधान कम होते जायंगे, और क्वाण्टम सिद्धांत आत्माके न्यूटोनियन सातत्य सिद्धांतको स्थान दे देगा । परन्तु तुमने इसे कभी भी सच्चा अवसर नहीं प्रदान किया है । शून्य व्यवधानोंमें सदेह और इनकार आकर बस गये हैं और इसलिये अनुभूतिकी संख्याएं विरल हो गयी हैं, प्रारम्भ एक प्रारम्भ हीं बना रह गया हैं । दूसरी कठिनाइयोंका तुमने सामना किया और उन्हें त्याग दिया है, परन्तु इस कठिनाईको तुमने बहुत दिनोंतक बहुत अधिक दुलार किया है और यह मजबूत बन गयी है - इसका सामना सतत प्रयासके द्वारा करना होगा । मैं यह नहीं कहता कि कोई चीज आनेसे पहले समस्त शका-सदेहोको विलीन हो जाना होगा - उसका अर्थ होगा साधनाको असंभव बना देना, क्योंकि शंका-संदेह मनपर निरन्तर आक्रमण करते रहते हैं । मैं बस यह कहता हूँ कि आक्रामकको अपना साथी मत बनाओ, उसके लिये खुला दरवाजा मत छोडो और आरामदायक स्थानपर मत बैठाओ । सबसे बढ़कर, विषाद और नैराश्यके उस निरुत्साहित करनेवाले गीले कंबलके द्वारा अन्दर आनेवाले भगवान्को मत भगाओ!

 

      अधिक गंभीरताके साथ इस बातको कहें तो - निश्चित रूपसे स्वीकार कर लो कि यह कार्य करना है, बस यही एकमात्र कार्य है वो तुम्हारे लिये या पृथ्यीके लिये बाकी है । इससे बाहर बैठ भूकंप और हिटलर और एक भग्नशील सभ्यता और, साधा-

 

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रण रूपमें कहें तो, गधापन और सर्वनाश । सर्वोपरि एकमात्र करणीय वस्तुकी ओर, उस वस्तुकी ओर जानेके लिये तर्क करो जिसे पूरा करनेमे सहायता देनेके लेये तुम भेजे गये हों । वह कठिन है और पथ लंबा है और जो प्रोत्साहन दिया गया है वह नगण्य है? तो क्या है? तुम्हें भला इतनी बड़ी चीजके आसान होनेकी क्यों आशा करनी चाहिये अथवा यह आशा क्यों करनी चाहिये कि या तो खूब तेजीसे सफलता मिलनी चाहिये या बिलकुल नही ? चाहिये  कठिनाइयोंका सामना करना हीं होगा और जितनी अधिक प्रसन्नताके साथ उनका सामना किया जायगा उतने हीं शीघ्र वे विजित होंगी । एकमात्र करणीय बात है सफलताके मात्रकों पकड़े रखना, विजय- की निश्चयताको, इस सुदृढ़ संकल्पको बनाये रखना कि ' 'इसे मुझे प्राप्त करना ही होगा और इसे मैं जरूर प्राप्त करुंगा । '' असंभव ' असंभव नामकी कोई चीज नहीं है -- कठिनाइयां हैं और दीर्घ प्रयासकी चीजे हैं, पर असंभव चीजे नही हैं । जो कुछ करनेका दृढ संकल्प मनुष्य कर लेता है वह आज या कल अवश्य पूरा हों जाता है -- वह संभव हों जाता है । काली निराशाको दूर भगाओ और बहादुरीके साथ अपने योगको जारी .रखो । जैसे-जैसे अन्धकार दूर होगा, आंर्तारेक द्वार खुलते जायंगे ।

 

*

 

     चाहे तपस्यासे हों या आत्मसमर्पणसे -- इससे कुछ नही आता-जाता, प्रधान बात बस यही है कि साधक लक्ष्यकी ओर अपनी दृष्टि बनाये रखनेमें दृढ रहे । एक बार जब उसने अपने पैर इस मार्गपर रख दिये तब फिर भला किसी तुच्छतर वस्तुके लिये वह कैसे इससे पीछे हट सकता है ' यदि साधक दृढ बना रहे तो फिर पत्तनोंसे कुछ भी नहीं आता-जाता, वह फिरसे उठता और आगे बढ़ता है । अगर वह अपने लक्ष्यपर दृढ बना रहे तो भगवान्की प्राप्तिके मार्गका अन्त विफलतामें नही हों सकता । और अगर तुम्हारे अन्दर कोई चीज ऐसी हो जो तुम्हें बराबर आगे चलनेके लिये प्रेरित करती हों -- वैसी चीज अवश्य ही तुममें है -- तो फिर पदस्सलन या पतन या श्रद्धा- विश्वासका भंग हों जानेसे अंतिम परिणाममें कोई अन्तर नही पंड सकता । जबतक संघर्ष समाप्त नहीं हों जाता और हमारे सामने सीधा, उन्मुक्त और निष्कंटक मार्ग नही दिखायी देता तबतक हमें अपने प्रयासमें निरन्तर लगे रहना चाहिये ।

 

*

 

 तुम्हें बस शान्त-स्थिर और अपने पथका अनुसरण करनेमे दृढ बने रहना है और तुम अन्ततक पहुँच जाओगे । यदि तुम ऐसा करो तो परिस्थितियां अन्तमें तुम्हारी इच्छाके अनुसार रूप ग्रहण करनेको बाध्य होगी, क्योंकि तब वह इच्छा तुम्हारे अन्दर भगवान्की ही इच्छा होगी ।

 

*

 

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    प्रांरभिक अवस्थाओंमें सर्वदा ही र्काठेनाइयां आती हैं और प्रगति रुक-रुककर होती है तथा जबतक सत्ता तैयार नही हो जाती, आंतरिक द्वारोंके खुलनेमें देर होती है । यदि तुम जब कभी ध्यान करते हों निश्चलताका अनुभव करते हो और आंतरिक ज्योतिकी झलके पाते हों तथा आंतरिक आवेग यदि इतना प्रबल हों जाता है कि बाहरी पकड़ ढीली होने लगती है और प्राणिक उत्पातोंकी शक्ति घोटने लगती है तो यह अपने- आपसे एक महान् प्रगति है । योगका मार्ग लम्बा है, भूमिका एक-एक इंच बहुत प्रति- रोधका सामना करके जीतना होता है तथा साधकको और किसी गुणकी उतनी अधिक आवश्यकता नही होती जितनी कि धैर्य और ऐकांतिक अध्यवसायकी और उसके साथ ऐसे श्रद्धा-विश्वासकी जो सभी कठिनाइयों, विलम्बों तथा आपातदृष्ट असफलताओं- मे स्थिर बना रहता है ।

 

*

 

     जो मनुष्य एकरसतासे डरता है और कोई नयी वस्तु चाहता है वह योग नही कर सकता अथवा कम-से-कम यह योग नहीं कर सकता जिसमें अपार लगन और धैर्य- की आवश्यकता होती है । मृत्युका भय एक प्राणिक दुर्बलताको सूचित करता है जो योगकी क्षमताके भी विपरीत एवं । उसी तरह, जो व्यक्ति अपने प्राणावेगोंके आधि- सत्यके अधीन होता है वह भी योगको कठिन अनुभव करेगा और, जबतक उसे सच्ची आंतरिक पुकारका सहारा न प्राप्त हों और उसमें आध्यात्मिक चेतना तथा भगवान्- के साल एकत्व प्राप्त करनेकी सच्ची और प्रबल अभीप्सा न हों तबतक वह बहुत आसानीसे सांघातिक रूपमे पतित हों सकता है और उसका प्रयास निष्फल हों सकता

 

*

 

    दृढ संकल्पकी आवश्यकता है और अटूट धैर्यके, इस या उस असफलतासे निरुत्साहित होनेकी नही । यह भौतिक प्रकृतिके अभ्यासका परिवर्तन है और इसके लिये ब्योरेवार एक लंबे धैर्यपूर्ण कार्यकी आवश्यकता होती है ।

 

*

 

     आवश्यक परिवर्तन तथा नवीन जीवनके संबंधमें तुम्हारा मनोभाव यथार्थ भाव है । इसे सिद्ध करनेके ?? स्थिर जाग्रत् पर निरुद्वेग अध्यवसाय ही सर्वोत्तम पथ है ।

 

     भीतर घनिष्ठताके पुन स्थापित होनेके लिये स्थिरता इतनी गहरी होनी चाहिये जिसमें कि चैत्य पुरुष भौतिक शरीरमें बाहर निकल आये जैसे कि उसने उच्चतर अगों-

 

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मे किया था ।

 

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   जिस मनुष्यमें जीवन और उसकी कठिनाइयोंका मुकाबला धैर्य और दृढ़ताके साथ करनेका साहस नहीं है वह कभी साधनाकी और भी अधिक वडी आंतरिक कठिनाइयोंको पार करनेमें समर्थ नहीं होगा । इस योगका एकदम पहला पाठ यह है कि अचंचल मनसे, अटूट साहस तथा भगवती शक्तिपर संपूर्ण निर्भरताके साथ जीवन तथा उसकी परीक्षाओंका सामना किया जाय ।

 

*

 

    अचल-अटल बने रहो तथा एक दिशामें -- श्रीमाताजीकी ओर मुड़े रहो।

 

 

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विभाग चार

 

साधनाका आधार


साधनाका आधार

 

    अगर मन चंचल हों तो योगकी नींव डालना संभव नही । सबसे पहले यह आवश्यक है कि मन अचंचल हो । और व्यक्तिगत चेतनाका लय कर देना भी इस योगका प्रथम उद्देश्य नही है, बल्कि प्रथम उद्देश्य है व्यक्तिगत चेतनाको एक उच्चतर आध्यात्मिक चेतनाकी ओर खोल देना और इसके लिये भी जिस बातकी सबसे पहले आवश्यकता हैं वह है मनकी अचंचलता ।

 

*

 

   सबसे पहली बात जो साधनामें करनी है वह है मनमें एक सुस्थापित शान्ति और निश्चल-नीरवताको प्राप्त करना । अन्यथा तुम्हें अनुभूतियां तो हों सकती हैं, पर कुछ भी स्थायी नहीं होगा । एकमात्र निश्चल-नीरव मनमें ही सत्य-चेतनाका निर्माण किया जा सकता है ।

 

    अचंचल मनका अर्थ यह नही है कि उसमें कोई विचार या मनोमय गतियों एक- दम होगी ही नही, बल्कि यह अर्थ है कि ये सब केवल ऊपर-ही-ऊपर होंगी और तुम अपने अन्दर अपनी सत्य सत्ताको इन सबसे अलग अनुभव करोगे, जो इन सबको देखती तो है पर इनके प्रवाहमें बह नही जाती, जो यह योग्यता रखती हैं कि इन सबका निरीक्षण करे और निर्णय करे तथा जिन चीजोंका त्याग करना हो उन सबका त्याग करे एवं जो कुछ सत्य चेतना और सत्य अनुभूति हो उन सबको ग्रहण और धारण करे ।

 

   मनका निष्क्रिय होना अच्छा है, पर इस विषयमें सावधान रहो कि तुम केवल सत्यके सामने तथा भागवत शक्तिके संस्पर्शके सामने ही निष्क्रिय भाव रखते हो । अगर तुम निम्र प्रकृतिकी सुझायी हुई बातों और उसके प्रभावके प्रति वैसा निश्चेष्ट भाव बनाये रहोगे तो तुम अपनी साधनामें उन्नति नहीं कर सकोगे अथवा तुम ऐसी विरोधिनी शक्तियोंके पंजेमें पंड जाओगे जो तुम्हें योगके सच्चे मार्गसे बहुत दूर ले जा सकती हैं ।

 

    श्रीमॉका सामने यह अभीप्सा करो कि तुम्हारे मनमें यह अचंचलता और शान्ति सुप्रतिष्ठित हों और तुम्हें बाह्य प्रकृतिके पीछे वर्तमान तथा ज्योति और सत्यकी ओर उन्मुख इस आंतर सत्ताका बोध निरन्तर बना रहे ।

 

  जो शक्तियां साधनाके मार्गमें बाधा पहुँचाती हैं वे निम्रतर मानसिक, प्राणिक और भौतिक प्रकृतिकी शक्तियां हैं । उनके पीछे मनोमय, प्राणमय और सूक्ष्म-भौतिक जगतोंकी विरोधी शक्तियां हैं । इन सबका मुकाबला केवल तभी किया जा सकता है जब मन और हृदय एकमात्र भगवान्की हीं अभीप्सामें एकाग्र और केंद्रित हो चुके

 

 


हों

 

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   पहली सीढ़ी है अचंचल मन - निश्चल-नीरवता है उसके बादकी सीढ़ी, फिर भी अचंचलता वहां अवश्य रहनी चाहिये, और अचंचल मनसे मेरा मतलब यह है कि भीतर एक ऐसी मनोमयी चेतना होनी चाहिये जो यह देखती है कि विचार उसके पास आ रहे हैं और इधर-उधर मंडरा रहे हैं पर वह स्वयं यह नही अनुभव करती कि वह विचार कर रही है या उन विचारोके साथ तादात्म्य स्थापित कर रहीं है या उन्हें अपना समझ रही है । विचार, मानसिक गतियों उसके भीतरसे होकर ठीक उसी तरह गुजर सकती हैं जिस तरह पथिक कही बाहरसे एक शान्त प्रदेशमें आते हैं और उसमेंसे होकर चले जाते हैं -- अचंचल मन उन्हें देखता है अथवा उन्हें देखनेकी परवा भी नहीं करता, परन्तु, उन दोनों ही अवस्थाओंमें, वह न तो क्रियाशील होता है न अपनी अचंचलताको हीं खोता है 1 निश्चल-नीरवता अचंचलतासे कुछ अधिक चीज है, इसे प्राप्त करनेका उपाय है आभ्यंतरिक मनसे विचारोंको सर्वथा बाहर निकाल देना और मनको एकदम निशब्द बना देना या उसे हटाकर एकदम विचारोके बाहर रखना । परन्तु इससे भी अधिक आसानीसे इसकी स्थापना होती है ऊपरसे इसका अवतरण होनेपर - साधक इसे नीचे उतरती हुई, व्यक्तिगत चेतनामें प्रवेश करती हुई और उसे अधिकृत करती हुई या उसे चारों ओरसे घेरती हुई अनुभव करता है और तब उसकी व्यक्तिगत चेतना विशाल निर्व्यक्तिक निश्चल-नीरवतामें अपने- आपको विलीन करनेमें प्रवृत्त होती है ।

 

*

 

    मनको ऐसे ढंगसे अचंचल बना देना कि कोई विचार न आये आसान नहीं है और साधारणतया इसमें समय लगता है । अत्यन्त आवश्यक बात है मनमें अचंचलता- का अनुभव करना जिसमें कि यदि विचार आयें तो वे मनको विक्षुब्ध न करे अथवा अधि- कृत न करें या उसे अपने पीछे-पीछे न चलायें, बल्कि मात्र उसके भीतरसे गुजर आय । सबसे पहले मन गुजरते हु  विचारोंका साक्षी होता है और उनका चिंतक नही होता, पोछे वह इस योग्य हों जाता है कि वह विचारोंका निरीक्षण न करे वरन् उन्हें बिना देखे गुजर जाने दे और अपने अन्दर एकाग्र हो अथवा उस वस्तुपर एका हों जिसे बह बिना कठिनाईके चून लेता है ।

 

   दो प्रधान वस्तुएं है जिन्हें साधनाके आधारके रूपमें प्राप्त करना होगा - चैत्य पुरुषका उद्घाटन तथा ऊर्ध्वस्थित आत्माका साक्षात्कार । चैत्य पुरुषके उद्- घाटनके लिये श्रीमाताजीपर एकाग्र होना और उनकों आत्मनिवेदन करना सीधा पथ है । भक्तिके बढ़नेका जो तुम अनुभव करते हों बह चैत्य विकासका प्रथम लक्षण

 

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है । श्रीमाताजीकी उपस्थिति या शक्तिका बोध या उनकी स्मृति और यह अनुभव कि वह तुम्हें सहारा दे रहीं और बल दे रही हैं -- यह दूसरा लक्षण है । अन्तमें, अत- रस्य अंतरात्मा अभीप्सा करनेमें सक्रिय होना आरम्भ -करता है और चैत्य ज्ञान मनको समुचित विचारोंकी ओर, प्राणको समुचित गतिविधियों और अनुभवोंकी ओर ले जाने लगता है, उन सब चीजोंको दिखाने और परित्याग करने लगता है जिन्हें त्याग देना है और समस्त सत्ताको, उसकी सभी गतिविधियोंमें, एकमात्र भगवान्की ओर मोड़ने लगता है । आत्मसाक्षात्कारको लिये मनमें शान्ति ओर निश्चल-नीरवताका होना पहली शर्त्त है । उसके बाद साधक मुक्ति, स्वातम्ब, विशालताका अनुभव करना, एक निश्चल-नीरव, प्रशान्त, किसी वस्तु या सभी वस्तुओंसे अस्पृष्ट, सर्वत्र और सब- मे विद्यमान, भगवानके साथ संयुक्त या एकाकार चेतनासे निवास करना आरम्भ करता है । दूसरी अनुभूतियां भी मार्गमें आती हैं या आ सकती हैं, जैसे कि आंतरिक सूक्ष्म-दृष्टिका उद्घाटन, भीतर दिव्य शक्तिके कार्य करनेका बोध और क्रियाकी विभिन्न गतियों और घटनाओंका बोध आदि । साधक चेतनाके ऊपर उठने तथा ऊपरसे दिव्य शक्ति, शान्ति, आनन्द या ज्योतिके अवतरित होनेके विषयमें भी सचेतन हों सकता

 

*

 

   निश्चल-नीरवता सदा ही अच्छी होती हैं, पर मनकी अचंचलतासे मेरा मतलब यह नही है कि मन बिलकुल ही निश्चल-नीरव हों जाय । मेरा मतलब यह है कि मन सब प्रकारकी हलचल और बेचैनीसे मुक्त हों, धीर-स्थिर, शान्त और प्रसन्न हों जिसमे वह अपने-आपको उस शक्तिकी ओर खोल सकें जो प्रकृतिका रूपांतर करेगी । प्रधान बात यह है कि बेचैन करनेवाले विचारों, विकृत अनुभवों, भावनाओंकी उलझनों तथा दुःखदायी वृत्तियोंके मनपर निरन्तर आक्रमण करते रहनेकी जो आदत पडू जाती है उससे छुटकारा पाया जाय । ये सब चीजे प्रकृतिमें विक्षोभ उत्पन्न करती हैं, उसे आच्छादित करती हैं ओर दिव्य शक्तिके लिये कार्य करना कठिन बना देती है । जब मन अचंचल और शान्त होता है तब दिव्य शक्ति अधिक आसानीसे अपना काम कर सकती है, तुम्हारे लिये यह संभव होना चाहिये कि तुम अपने अन्दरकी उन सब चीजों- को विना घबडाये या अवसन्न हुए देख सको जिनका परिवर्तन करना आवश्यक है और तब परिवर्तन और भीं अधिक आसानीसे हों सकता है ।

 

*

 

    शून्य मन और स्थिर मनमें भेद यह है कि जब मन शून्य हो जाता है तब उसमें कोई विचार नही रहता, कोई धारणा नहीं रहती, किसी प्रकारकी कोई मानसिक क्रिया नही होतीं, केवल वस्तुओकी एक मूलगत प्रतीति होती है, उनके विषयमें

 

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कोई बंधी-बधाई भावना नहीं होती । किन्तु स्थिर मनमें मनोमय सत्ताका सार-तत्त्व ही शान्त हो जाता है, इतना शान्त हों जाता है कि कोई भी चीज उसे विचलित नहीं करती । यदि विचार आते या क्रियाएं होती है तो वे मनमेसे बिलकुल ही नही उठती, बल्कि वे बाहरसे आती हैं और ठीक वैसे ही मनमेंसे गुजर जाती हैं जैसे पक्षियोंका दल निर्वात आकाशमेंसे होकर गुजर जाता है । वह गुजर जाता है, कही कोई हलचल नही मचाता, कही कोई चिह्न नही छोड़ जाता । यदि हज़ारों आकृतियां या अत्यन्त प्रचंड घटनाएं भी मनके भीतरसे होकर गूजरें तो भी उसकी शान्त अचंचलता बनी रहती है, मानो उस मनकी रचना ही एक शाश्वत और अविनाशी शान्तिके तत्त्वसे हुई हों । जिस मानने इस स्थिरताको प्राप्त कर लिया है वह कार्य करना आरम्भ कर सकता है, यहांतक कि तीव्रता और शक्तिशालिताके साथ कार्य कर सकता है, पर फिर भी वह अपनी मूलगत निस्तब्धताको बनाये रखेगा - वह अपने भीतरसे कुछ भी नही उत्पन्न करेगा, बल्कि ऊपरसे जो कुछ आयेगा उसे वह ग्रहण करेगा और उसे एक मानसिक रूप प्रदान करेगा, उसमें अपनी ओरसे कुछ भी नही मिलायेगा, और यह सब वह धीर-स्थिर ओर अनासक्त होकर करेगा, यद्यपि करेगा सत्यके आनन्दके साथ तथा सत्यके आत्मप्राकटचकी सुखदायी शक्ति और ज्योतिके साथ ।

 

*

 

     निश्चल-नीरव हो जाना, विचारोंसे मुक्त तथा निस्पंद हो जाना मनके लिये कोई बुरी बात नही है द् - कारण, प्रायः ही जब मन निश्चल-नीरव हों जाता है तब ऊपरसे एक सुविशाल शान्तिका पूर्ण अवतरण होता है और उस विशाल शान्तावस्था- मे उस शान्त आत्माका साक्षात्कार होता है जो मनसे ऊपर अपनी वृहत् सत्ताको सर्वत्र फैलाये हुए हैं । परन्तु इस अवस्थामें कठिनाई यह होती है कि जब यह शान्ति और मनकी निश्चल-नीरवता प्राप्त हो जाती है तब प्राणमय मन तेजीसे भीतर घुस आने और उस स्थानको अधिकृत करनेकी चेष्टा करता है अथवा उसी उद्देश्यसे यत्रवत्- चालित मन अपने तुच्छ अभ्यासगत विचारोंकी परंपराको जारी करनेकी कोशिश करता है । इस अवस्थामें साधकको चाहिये कि वह सावधानीके साथ इन सब आंग- तुकोंको दूर हटा दे तथा इन्हें एकदम शान्त कर दे जिसमें कम-से-कम ध्यानके समय मन और प्राणकी शान्ति और स्थिरता पूरी मात्रामें बनी रहे । अगर तुम दृढ और शान्त संकल्प बनाये रखो तो तुम इस कार्यको सबसे उत्तम रूपमें कर सकते हो । इस तरहका संकल्प उस पुरुषका संकल्प होता है जो मनके पीछे रहता है, जब मन शान्त हों जाता है, जब वह निश्चल-नीरव हो जाता है तब हम उस पुरुषको जान सकते हैं जो पुरुष भी निश्चल-नीरव है और प्रकृतिकी क्रियासे अलग है ।

 

   शान्त, धीर-स्थिर, आत्मप्रतिष्ठित होनेमें मनकी यह अचंचलता, बाह्य प्रकृति- से आंतर पुरुषकी यह पुथक्ला बहुत सहायक होती है, प्राय अनिवार्य होती थे । जबतक हमारी सत्ता विचारोके भवरमें फसी रहती ३ अथवा प्राणमय गतियोंके विक्षोभसे

 

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प्रभावित होती है तबतक हम इस तरह शान्त तथा आत्मप्रतिष्ठ नही हों सकते । इन सबसे अपने-आपको अलग करना, इनसे हटकर पीछे खड़ा होना, इन्हें अपने-आपसे पृथक् अनुभव करना अत्यन्त आवश्यक है ।

 

     वास्तबिक व्यक्तित्वको खोज निकालनेके लिये तथा अपनी प्रकृतिमें उसे मूर्त्तिमान् करनेके लिये दो चीजोंकी आवश्यकता है - पहली चीज है हदयके पीछे रहनेवाले अपने अन्तरात्माके विषयमें सचेतन होना तथा दूसरी है प्रकृतिसे पुरुषकी यह पृथकता । क्योंकि हमारा सच्चा व्यक्तित्व पीछे है और बाह्य प्रकृतिकी क्रियाओं- के द्वारा ढका हुआ है ।

 

     इसका कारण महज यह है कि तुम मानसिक और प्राणिक क्रियाओं तथा संबंधोंसे भरे हुए हो । साधकमें ऐसी शक्ति होनी चाहिये कि वह मन और प्राणको शान्त कर दे, यदि प्रारम्भमें सब समय वह शान्त न भी कर सके तो भी जब वह चाहे तब अवश्य कर दे -- क्योंकि सच पूछा जाय तो ये मन और प्राण ही चैत्य पुरुष तथा आत्मको ढक देते हैं और उनमेसे (चैत्य पुरुष और आत्मामेंसे) किसीको प्राप्त करने- के लिये मनुष्यको उनके (मन और प्राणके) पर्देके भीतरसे जाना होता हैं । परन्तु वे यदि बराबर सक्रिय हों और उनकी क्रियाओंके साथ यदि तुम सदैव एकात्म बने रहो तो पर्दा सर्वदा बना रहेगा । यह भी संभव है कि तुम इन क्रियाओंसे अपनेको पृथक् रखो और उनकी ओर इस प्रकार देखो मानो वे तुम्हारी अपनी क्रियाएं न हों बल्कि प्रकृतिकी कोई यांत्रिक क्रिया हों जिसे तुम एक निर्लिप्त साक्षीकी भांति देखते हों । उस समय मनुष्य एक आंतर सत्ताके विषयमें सज्ञान होता है जो पृथक् और शान्त होती है तथा प्रकृतिमें अंतर्ग्रस्त नही होती । यह आंतर मन या प्राण पुरुष हो सकता है, न कि चैत्य पुरुष, पर आंतरिक मनोमय ओर प्राणमय पुरुषकी चेतनाको प्राप्त करना सर्वदा ही चैत्य पुरुषके उद्घाटनकी ओर जानेका एक पग होता है ।

 

     हां, वाणीपर पूरा संयम प्राप्त करना कही अच्छा होगा -- यह अपने भीतर पैठने तथा सच्ची आंतर और यौगिक चेतना विकसित करनेका एक महत्त्वपूर्ण पग

 

*

 

    पहले इस बातको स्मरण रखो कि साधनाको निर्विघ्र बनानेके लिये चंचल मन और प्राणकी शुद्धिसे उत्पन्न एक आंतरिक अचंचलताकी सबसे पहले आवश्यकता है । उसके बाद यह याद रखो कि बाहरी कर्म करते समय श्रीमांकि उपस्थितिका अनुभव करना हीं साधनामें बहुत कुछ अग्रसर होना है और इसे पर्याप्त आंतरिक उन्नति हुए बिना नही प्राप्त किया जा सकता । संभवत जिस बातको तुम इतना अधिक आवश्यक अनुभव करते हों पर जिसका ठीक-ठीक वर्णन नही कर पाते वह है इस बात- का सतत और स्पष्ट अनुभव होना कि श्रीमाँकी शक्ति तुम्हारे अन्दर कार्य कर रही है, ऊपरसे अवतरित हो रही है और तुम्हारी सत्ताके विविध स्तरोंको अधिकृत कर


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रही है । यह अनुभव प्रायः ही आरोहण और अवरोहणकी द्विविध गति आरंभ होने- के पहले हुआ करता है; समय आनेपर यह अनुभव तुम्हें भी अवश्य होगा । क्या बातोंके प्रत्यक्ष रूपमें आरंभ होनेमें बहुत लम्बा समय लग सकता है, विशेषकर उस अवस्थामें जब कि मनको बहुत अधिक क्रियाशील होनेका अभ्यास हो और निश्चल-नीरव होने- की आदत उसमें बिलकुल न हों । यह (मनकी) सक्रियता एक तरहका पर्दा डाल देती है और जबतक यह रहती है तबतक मनकी चंचल यवनिकाके पीछे बहुतसा कार्य करना पड़ता है और साधक यह समझता है कि कुछ भी नहीं हो रहा है जब कि उसे तैयार करनेके लिये वास्तवमें बहुतसा आरभिक कार्य होता रहता है । अगर तुम बहुत शीघ्र और सुस्पष्ट उन्नति करना चाहो तो यह केवल तभी हो सकता है जब तुम निरन्तर आत्मनिवेदनके द्वारा अपने हृत्युरुषको सामने ले आओ । इसके लिये तीव्र अभीप्सा करो, पर अधीरताको मत आने दो ।

 

 मनकी अचंचलताको बनाये रखो और अगर वह अचंचलता कुछ समयतक सूनी भी मालूम हो तो उसकी कोई परवा मत करो; हमारी चेतना बहुत बार एक पात्रकी तरह होती है जिसमेंसे मिश्रित तथा अवांछित वस्तुओंको निकाल देना पड़ता है और उसे कुछ समयतक खाली रखना पड़ता है, जबतक कि वह नवीन और यथार्थ, उचित और विशुद्ध वस्तुसे नहीं भर दी जाती । परन्तु उस समय एक बातसे बचना चाहिये और वह यह है कि कही उन्हीं पुरानी गधी चीजोंसे वह पात्र फिर न भर जाय । उतने दिन प्रतीक्षा करो, ऊपरकी ओर अपने-आपको खोले रखो, बड़ी धीरता और स्थिरताके साथ, अत्यधिक बेचैनी और व्याकुलताके साथ नहीं, शान्तिका आवाहन करो जिसमें उस निश्चल नीरवतामें वह उतर आये, और जब एक बार वहां शान्ति स्थापित हो जाय तब आनन्द और भागवत उपस्थितिका आवाहन करो ।

 

*

 

     यद्यपि आरम्भमें स्थिरता एक अभावात्मक वस्तु ही मालूम होती है, फिर भी उसे प्राप्त करना इतना कठिन है कि यदि उसकी भी प्राप्ति हो जाय तो यह मानना पड़ेगा कि साधनामें बहुत कुछ उन्नति हो गयी हैं ।

 

     वास्तवमें स्थिरता कोई अभावात्मक वस्तु नही है, यह तो सत्पुरुषका अपना स्वरूप है और भागवत चेतनाका भावात्मक आधार है । अन्य चाहे जिस वस्तुकी अभीप्सा की जाय, चाहे कोई वस्तु प्राप्त की जाय, पर इसे अवश्य बनाये रखना चाहिये; यहांतक कि ज्ञान, शक्ति और आनन्द अगर आते हैं और उन्हें यह आधार नहीं मिलता तो वे ठहर नहीं पाते और उन्हें तबतकके लिये वापस लौट जाना पड़ता है जबतक कि सत्पुरुषकी दिव्य पवित्रता और शान्ति वहां स्थायी रूपसे नहीं स्थापित हो जाती ।

 

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    भागवत चेतनाकी जो और दूसरी-दूसरी चीजे हैं उनके लिये अभीप्सा करो, परन्तु यह अभीप्सा स्थिर और गभीर होनी चाहिये । यह स्थिर होती हुई भी तीव्र हो जाती है, पर यह अधीर, अशान्त या राजसिक उत्सुकतासे भरी हुई नही होनी चाहिये ।

 

    केवल अचंचल मन और अचंचल सत्ताके अन्दर ही अतिमानस-सत्य अपनी सच्ची सृष्टिकी रचना कर सकता है ।

 

*

 

     सबसे पहले यह अभीप्सा तथा श्रीमाँसे प्रार्थना करो कि तुम्हारे मनमें अचंचलता स्थापित हो, तुममें शुद्धता, स्थिरता और शान्तिका निवास हों, तुम्हें प्रबुद्ध चेतना, प्रगाढ़ भक्ति, तथा समस्त आंतर और बाह्य कठिनाइयोंका सामना करनेके लिये और योगसाधनामें अन्ततक पहुँचनेके लिये बल और आध्यात्मिक सामर्थ्य प्राप्त हों । अगर चेतना जागृत हों जाय और वहां भक्ति तथा अभीप्साकी तीव्रता हों तो मनके लिये क्रमश: ज्ञानसंपन्न होना संभव हो जायगा, अवश्य हीं अगर वह अचंचल और शान्त होना सीख ले ।

 

*

 

     शान्त, असुब्ध और अचंचल होना साधनाकी नही बल्कि सिद्धिकी पहली शर्त्त है । केवल थोडेसे लोग' (बहुत थोड़े, सौमें एक, दो, तीन या चार साधक) ही ऐसे होते हैं जो इसे प्रारम्भसे ही प्राप्त कर सकते हैं । अधिकांश लोगोंको कहीं इसकी समीपतातक पहुँचनेमें पहले लंबे समयतक तैयारी करनी पड़ती है । उसके बाद भी जब वे शान्ति और स्थिरताको अनुभव करना आरम्भ करते हैं तो उसे स्थापित करने- मे समय लगता है -- वे काफी लंबे समयतक शान्ति और अशान्तिके बीच झूलते रहते हैं जबतक कि प्रकृतिके सभी भाग सत्य और शान्तिको स्वीकार नहीं कर लेते । अतएव तुम्हारे लिये यह मान लेनेका कोई कारण नहीं कि तुम प्रगति नही कर सकते अथवा लक्ष्यतक नहीं पहुँच सकते । तुम्हें अपनी प्रकृतिके एक भागमें बहुत कठिनाई महसूस हो रही हैं जो इन भावनाओंकी ओर खुले रहनेका, थीमाताजीसे पृथक्ल और सबधियोंसे आसक्त रहनेका अभ्यासी है, और उन्हें छोड़नेका लिये इच्छुक नही है - बस यहीं बात है । परन्तु प्रकृतिके उस भागमें प्रत्येक साधकके सामने - यहांके अत्यंत सफल साधकोंके भी सामने -- वैसी ही दुःसाष्य कठिनाइयां आती हैं । जब- तक वहां ज्योतिकी विजय नहीं हों जाती तबतक मनुष्यको सतत प्रयास करते रहना होता है ।

 

*

 

     यदि शान्तिका अनुभव न भी हो तो साधकको आगे बढ़ते रहना चाहिये - अचंचलता और एकाग्रता आवश्यक हैं । उच्चतर स्थितियोंके विकसित होनेके लिये

 

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शान्ति बड़ी आवश्यक है ।

 

 ''peace ( पीस), Calm( कॉम), Quiet ( कबयट), Ssilence ( साइलेंस)'' -- इन शब्दोमेसे प्रत्येकका अर्थ अलग-अलग है, पर उनकी व्याख्या करना आसान नहीं हे ।

 

Peace( पीस) -- शांति

Calm, ( कॉम) - स्थिरता

Quiet( क्यायट) - अचंचलता

Silence ( साइलेंस) - निश्चल-नीरवता

 

     अचंचलता एक ऐसी अवस्था है जिसमें कोई बेचैनी या उथल-पुथल नहीं होती । स्थिरता और भी अचल अवस्था है जिसे कोई विक्षोभ प्रभावित नहीं कर सकता । शान्ति और भी अधिक भावात्मक अवस्था है, इसमें एक प्रकारकी सुस्थित और सुसमंजस विश्रांति और मुक्तिका बोध होता है ।

 

    निश्चल-नीरवता एक ऐसी स्थिति है जिसमें या तो मन या प्राणकी कोई क्रिया नही होती अथवा एक महान् प्रशान्ति होतीं है जिसका कोई ऊपरी तलकी क्रिया भेदन या परिवर्तन नहीं कर सकती ।

 

*

 

     अचंचलता कुछ-कुछ अभावात्मक स्थिति है -- यह विक्षोभका अभाव है । स्थिरता भावात्मक स्तब्धता है जो उपरितलीय विक्षोभके बावजूद भी बनी रह सकती है ।

 

     शान्ति है एक प्रकारकी स्थिरता जो गभीर होते-होते एक ऐसी चीज बन जाती है जो बहुत भावात्मक होती है और लगभग एक प्रकारका स्तब्ध तरंगहीन आनन्द बन जाती हैं ।

 

     निश्चल-नीरवता चिंतन अथवा अन्य क्रियाशीलताके प्रकंपी समस्त गतिका अभाव है ।

 

*

 

     स्थिरता प्रबल और भावात्मक अचंर्चलता है, सुदृढ़ और ठोस -- साधारण अचंचलता महज अभावात्मक स्थिति है -- महज विक्षोभका अभाव ।

 

     शांति गहरी अचंचलता है जहां कोई विक्षोभ नहि आ सकता -- ऐसी अचंचलता है जिसमें सुप्रतिष्ठित सुरक्षा और मुक्तिका बोध होता है ।

 

 

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    पूर्ण निश्चल - नीरवतामें या तो कोई विचार नही होते या विचार आते हैं, पर वे बाहरसे आनेवाली और निश्चल-नीरवताको भंग न करनेवाली किसी चीजके रूप- मे अनुभूत होते हैं ।

 

    मनकी निश्चल-नीरवता, मनकी शान्ति या स्थिरता तीन अलग-अलग चीजे हैं जो एक-दूसरेके बहुत समीप हैं और एक-दूसरेको लें आती हैं ।

 

*

 

     अचंचलता उस अवस्थाको कहते हैं जब मन या प्राण विक्षुब्ध, अशांत तथा विचारों और भावनाओंके द्वारा बहिर्गत या परिपूर्ण न हों । विशेषत. जब दोनों (मन और प्राण) ही अनासक्त होते और इन सबको एक उपरितलीय क्रियाके रूपमे देखते हैं तो हम कहते हैं कि मचा या प्राण अचंचल है।

 

    स्थिरता इससे अधिक भावात्मक स्थिति है, यह महज विक्षुब्धता, अति-क्रिया- शीलता या उपद्रवका अभाव नही है । जब एक सुस्पष्ट या महान् या प्रबल स्तब्धता विद्यमान होती है जिसे कोई चीज भंग नहीं करती या भंग नहीं कर सकती, तब हम कहते हैं कि स्थिरता स्थापित हों गयी है ।

 

*

 

    ये (स्तब्धता और निश्चलता) साधारण शब्द हैं, ये कोई विशेष यौगिक अर्थ नही रखते, साधारण अर्थ रखते हैं । अचंचलता, स्थिरता और शान्ति इन सबको स्तब्धता कहा जा सकता हे; निश्चल-नीरवता उस चीजसे मिलती-जुलती है जो निश्चलताका तात्पर्य हे ।

 

*

 

    यह मन और प्राणकी निश्चल-नीरवता हैं - यहां निश्चल-नीरवताका अर्थ केवल विचारोंका बन्द हों जाना नही है बल्कि मानसिक और प्राणिक उपादान-तत्त्व- का निष्कंप हो जाना हैं । इस निष्कपताकी गहराईकी विभिन्न मात्राएं होती हैं ।

 

*

 

    पहली हे व्यक्तिगत आधारकी सामान्य मौलिक स्थिरता -- दूसरी है वैश्व चेतनाकी मौलिक असीम स्थिरता, वह स्थिरता सर्वदा बनी रहती है, चाहे वह समस्त क्रियाओंसे पृथक् हों या उन्हें सहारा देती हो ।

 

    यह ऊर्ध्वस्थित आत्माकी स्थिरता है जो आत्मा नीरव, अक्षर और अनन्त है ।

 

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    शान्ति स्थिरताकी अपेक्षा अधिक भावात्मक स्थिति है - एक अभावात्मक स्थिरता भी हो सकती है जो विक्षोभ या उपद्रवका महज अभाव है, परन्तु शान्ति सर्वदा ही कोई भावात्मक वस्तु होती है जो स्थिरताकी तरह केवल मुक्तिका बोध नही ले आती बल्कि एक विशेष प्रकारकी प्रसन्नता अथवा स्वयं आनन्दको ले अति है ।

 

    एक भावात्मक स्थिरता भी होती है, एक ऐसी चीज जो उपद्रव मचानेवाली सभी वस्तुओंको विरुद्ध अडिग बनी रहती है, जो अभावात्मक स्थिरताकी तरह पतली और उदासीन नही होती बल्कि प्रबल और ठोस होती है ।

 

*

 

    शान्तिमें निश्चलताके बोधके साथ-साथ एक प्रकारकी सुसंगति होती है जो मुक्ति और पूर्ण संतुष्टिका बोध प्रदान करती है ।

 

*

 

   शान्ति निस्तब्धता और स्थिरता है - वह आनन्द नही है । अवश्य ही एक प्रकारका स्थिर आनन्द हो सकता है ।

 

*

 

   शान्ति मुक्तिका चिह्न है -- आनन्द सिद्धिकी ओर जाता है ।

 

*

 

     यह आवश्यक नहीं कि शान्ति गभीर या हर्षहीन हों -- इसमें कोई भी चीज खिन्न नहीं होनी चाहिये -- परन्तु प्रसन्नता या हर्ष या हलकेपनका बोध जो शांतिके अन्दर आता है उसे निश्चित रूपसे कोई आंतरिक वस्तु, स्वतसिद्ध होनी चाहिये या अनुभूतिके गहरी होनेके कारण उत्पन्न होना चाहिये - तुम जिस ठहाकेकी बात करते हो उसकी तरह इसे किसी बाहरी कारणसे अथवा उसपर निर्भर करके, उदाहरणार्थ, किसी मजेदार, उल्लासकारी वस्तु आदिकी तरह प्रकट नही किया जा सकता ।

 

*

 

    हर्ष भी अन्दर गहराईमें होना चाहिये, तब शान्ति और आंतरिक चेतनाकी गहराइयोंके साथ उसका संघर्ष नहीं होगा ।

 

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     वे (शान्ति और धैर्य) एक साथ रहते हैं । सभी प्रकारके दबावोंके अधीन धैर्य बनाये रखकर तुम शान्तिका आधार स्थापित करते हो ।

 

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     यह (पवित्रता) एक तत्वकी अपेक्षा कही अधिक एक अवस्था है । शान्ति पवित्रता प्राप्त करनेमें सहायता करती है -- क्योंकि शान्तिके अन्दर विशुद्ध करने- वाले प्रभाव समाप्त हों जाते हैं और पवित्रताका सग्रतत्व है केवल भागवत प्रभावको प्रत्युत्तर देना और अन्य क्रियाओंके साथ कोई संपर्क न रखना ।

 

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    पवित्रता है किसी दूसरे प्रभावको नही, बल्कि केवल भगवानके प्रभावको स्वी- कार करना ।

 

*

 

    पवित्रताका अर्थ है गंदगी या मिलावटसे मुक्त रहना । दिव्य पवित्रता वह चीज है जिसमें निम्रतर प्रकृतिकी गंदी अज्ञानपूर्ण क्रियाओंका कोई मिश्रण न हो । सादा- रणतया (सामान्य भाषाके अन्दर) पवित्रताका अर्थ माना जाता है कामवासनाके आवेग और प्रकोपसे मुक्त रहना ।

 

*

 

   चैत्यकी अपेक्षा भागवत पवित्रता एक अधिक विशाल और सर्वालिगनकारी अनुभूति हैं ।

 

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     पवित्रता या अपवित्रता चेतनापर निर्भर हैं, भागवत चेतनाके अन्दर सब कुछ पवित्र है, अज्ञानमें सब कुछ अपवित्रताके अधीन है, केवल शरीर या शरीरका कोई भाग ही नहीं, बल्कि मन और प्राण और बम कुछ । केवल आत्मा और चैत्य पुरुष सर्वदा पवित्र बने रहते हैं ।

 

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     पवित्र मनका अर्थ है वह मन जो अचंचल हों तथा निरर्थक या विघ्रकारी स्वभाववाले विचारोंसे मुक्त हों ।

 

*

 

    अचंचल मन वह मन है जो परेशान नही होता, अस्थिर नही होता और मान- सिक कार्यकी आवश्यकतासे सर्वदा स्पंदित होता रहता है ।

 

        तुम जिस चीजकी बात कर,रहे हों वह एकाग्र मन है, जो किसी चीज या किसी विषयपर एकाग्र है । वह एकदम भिन्न चीज है ।

 

*

 

    क्या तुम यह समझते हो कि अचंचल मन किसी वस्तुका त्याग नही कर सकता और केवल चंचल मन ही वैसा कर सकता है? सच पूछो तो अचंचल मन ही सर्वोत्तम रूपमें वैसा कर सकता है । अचंचल होनेका अर्थ जड़ और तामसिक होना नही है ।

 

*

 

    यह निरर्थक बात है । मनसे कुछ न करना ही अचंचल या नीरव होना नही है । निष्क्रियतामें तो मन यांत्रिक रूपमें सोचता रहता और किसी एक विषयपर एकाग्र होनेके बदले चारों ओर बिखरा होता है -- बस, यही बात है. ।

 

*

 

     निष्क्रिय शान्ति कुछ करती है - ऐसा नहीं माना जाता । सच पूछो तो जब पूर्ण ठोस रूपमे शान्ति उपस्थित हों जाती है तो केवल उसीके द्वारा समस्त विक्षोभ ऊपरी सतहपर अथवा चेतनाके बाहर ढेले दिया जाता है ।

 

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 निष्क्रिय शान्तिका यह सामान्य स्वभाव नहीं है कि वह केवल निष्क्रियतामें ही एकाग्र हो सकतीं है । वह कर्ममें या कर्मके पीछे भी रह सकती और एकाग्र हों सकती है

 

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    सच पूछा जाय तो यह अचंचल और सहज-स्वाभाविक कर्म हीं विशिष्ट दिव्य कर्म है । आक्रामक कर्म, जैसा कि तुम कहते हो, केवल तब होता है जब वहां विग्रह और विरोध हो । परन्तु इसका मतलब यह नही कि अचंचल शक्ति तीव्र नही हों सकती । यह आक्रामककी अपेक्षा अधिक तीव्र हों सकती है, परन्तु इसकी तीव्रता केवल शांतिकी तीव्रताको बढ़ाती है ।

 

*

 

     हां, निश्चय ही, मानसिक शान्ति, प्राणिक शान्ति और भौतिक प्रकृतिकी शांति भी होती है । ऊपरसे जो शांति अवतरित होती है बह. उच्चतर चेतनाकी शांति होती

 

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    यह एक ही शांति है - पर यह स्थूल रूपमे स्थूल पदार्थमें ठोस रूपमे भौतिक मन और स्तायु-सत्तामे, साथ ही आंतरिक रूपमे मन और प्राणमें अथवा सूक्ष्म रूपमे सूक्ष्म शरीरमें अनुभूत होती है ।

 

*

 

     निस्सन्देह, शांति, पवित्रता और निश्चल-नीरवता सभी स्थूल वस्तुओंसे अनु- भूत हो सकती हैं -- क्योंकि दिव्यात्मा सबके अन्दर विद्यमान है ।

 

*

 

     विश्व-ब्रह्मांडके पीछे जो विरा निश्चल-नीरवता विद्यमान है उसीपर विश्व- की समस्त गतिविधि अवलंबित है ।

 

    दिव्य निश्चल-नीरवतासे ही शान्ति आती है; जब शान्ति गभीर और गभीर होती जाती है तो वह अधिकाधिक निश्चल-नीरवता बनाती जाती है ।

 

    अधिक बाह्य अर्थमें निश्चल-नीरवता शब्दका प्रयोग उस स्थितिके लिये होता है जिसमे विचार या अनुभव आदिकी कोई क्रिया नही होती, केवल मनकी महान् निस्तब्धता बनी रहती है ।

 

    परन्तु निश्चल-नीरवतामें कर्म हो सकता हे, स्थिर भावसे ठीक वैसे हीं जैसे कि वैश्व कर्म वैश्व निश्चल-नीरवतामें चलता रहता है ।

 

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     निष्क्रिय-नीरवता वह स्थिति है जिसमें आंतरिक चेतना शून्य और प्रशांत बनी रहती है, बाहरी चीजों और शक्तियोंके प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं करती ।

 

     सक्रिय निश्चल-नीरवता वह स्थिति है जिसमे एक महान् शक्ति होती हैं जो निश्चल-नीरवताको भंग किये बिना वस्तुओं और शक्तियोंपर फैल जाती है ।

 

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     प्रयत्न, बाधा-विघ्र आदिसे सत्ताका विश्राम । आत्मा कर्मके भीतर भी आंतरिक रूपसे प्रशांत रहता है - शांति ही यह आध्यात्मिक विश्राम प्रदान करती है । तमs तो इससे अधःपतन है और अकर्मण्यतामें ले जाता है ।

 

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    संपूर्णत: निश्चल-नीरव मनमें सामान्यतया बिना किसी सक्रिय गतिके भगवान्- के निष्क्रिय भावक अनुभव होता है । परन्तु उस स्थितिमें सभी उच्चतर विचार और अभीप्साएं और क्रियाएं उठ सकती है । अतएव उस समय कोई अखण्ड नीरवता नहीं होती बल्कि साधक पृष्ठभूमिमें एक मौलिक निश्चल-नीरवताका अनुभव करता है जो किसी भी क्रियासे विक्षुब्ध नही होती ।

 

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     संभवत. तुम सर्वदा यह समझते हो कि चूँकि निश्चल-नीरवता चेतनामें विद्य- मान है इसलिये समूची चेतना अवश्य ही उससे एक समान प्रभावित रहेगी । परन्तु मानव-चेतना उस तरह एक टुकड़ेसे बनी हुई नहीं हैं 1

 

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     यह संभव नही कि यह सहज-स्वाभाविक निश्छ्ल-नीरव स्थिति तुरत-फुरत सदाके लिये स्थायी हो जाय, पर यहीं चीज हे जिसे साधकमें बढ़ना चाहिये जबतक कि सतत आंतरिक निश्चल-नीरवता न स्थापित हों जाय -- ऐसी निश्चल-नीरवता जो किसी बाहरी क्रियासे या यहांतक कि आक्रमण या विघ्र डालनेके किसी प्रयाससे भी भग न हों सके ।

 

    जिस अवस्थाका तुम वर्णन करते हों वह निश्चित रूपसे इस आंतरिक निश्चल- नीरवताकी वृद्धिके सूचित करती है । इसे अन्तमें समस्त आध्यात्मिक अनुभव और कियाके आधारके रूपमें स्थापित हो जाना होगा । यदि कोई यह न जानें कि निश्चल- नीरवताके पीछे अपने अन्दर क्या कार्य चल रहा है तो इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता ।

 

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कारण. योगसाधनामें दो अवस्थाएं आती हैं - एक वह जिसमें सब कुछ नीरव होता हैं और साधकके मनमें कोई विचार, भावना या क्रिया नहीं होती जब कि वह दूसरोंकी तरह ही बाहरसे कार्य भी करता रहता है - दूसरी बहु अवस्था होती है जिसमें एक नवीन चेतना सक्रिय हों जाती है और ज्ञान, हर्ष, प्रेम तथा दूसरी-दूसरी आध्यात्मिक भावनाएं तथा आंतरिक क्रियाएं ले आती है, पर फिर भी उसके साथ-ही-साथ एक प्रकारकी मौलिक निश्चल-नीरवता या अचंचलता बनी रहती है । ये दोनों ही अवस्थाएं आंतरिक सत्ताके विकासके लिये आवश्यक हैं । अखण्ड निश्चल-नीरव स्थिति, जिसमें हल्कापन, सूनापन और मुक्तिका भाव होता है, दूसरी अवस्थाके आने- की तैयारी करती है और जब वह आती है तो उसे धारण करती हे ।

 

III

 

     हा, जो सुस्थिर शांति और शक्ति तीव्रता तथा समतोलता बनाये रखती है और जिसमेंसे प्रत्येक विजातीय वस्तु झड़ जाती है, वह योगका सच्चा आधार है ।

 

*

 

    निश्चय ही यह चीज ऐसी ही होनी चाहिये । इस चीजको अवश्य हीं इतनी दूरतक चले जाना चाहिये कि तुम इस शांति और विशालताको एकदम अपना स्वरूप अपनी चेतनाका स्थायी उपादानतत्व -- अपरिवर्तनीय रूपसे वहां विद्यमान अनु- भव करने. लगो ।

 

*

 

   यह निस्संदेह बहुत अच्छा है । शांति और निश्चल-नीरवताको अन्दर गहराई- मे बैठ जाना चाहिये, इतनी गहराईमें कि जो कुछ भी बाहरसे आये वह भीतर स्थापित स्थिरताको बिना विक्षुब्ध किये केवल ऊपरी सतहपरसे गुजर जाय । यह भी अच्छा है कि ध्यान स्वयं अपने-आप होता है - इसका अर्थ है कि योग-शक्तिने साधनाको अपने हाथमें लेना प्रारम्भ कर दिया है ।

 

*

 

 जब सत्ताके अन्दर सर्वत्र शांति पूरी तरह स्थापित हो जायगी तो ये चीजे (निम्र- तर प्राणकी प्रक्रियाएं) उसे विचलित करनेमे समर्थ नही होंगी । वे पहले ऊपरी तल- पर तरगोंके रूपमें आ सकती हैं, फिर केवल सूचनाओंके रूपमें आती हैं जिनकी ओर मनुष्य दृष्टि डालता है अथवा दृष्टि डालनेकी परवा नही करता, पर दोनों अवस्था-


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ओंमें वे बिलकुल भीतर नही पैठती, प्रभावित या विक्षुब्ध नहीं करती ।

 

    इसकी व्याख्या करना कठिन है, पर यह पर्वतकी जैसी एक चीज है जिसपर मनुष्य पत्थर फेंकता है -- यदि पूराका पूरा पर्वत सचेतन हों तो वह पत्थरोंका स्पर्श अनुभव कर सकता हे, पर वह चीज इतनी कम और ऊपरी होगी कि वह जरा भी प्रभावित नही होगा । अन्तमें वह प्रतिक्रिया भी विलीन हों जाती है ।

 

*

 

    यदि एक बार शांति या निश्चल-नीरवता पूर्णत. स्थापित हो जाय तो ऊपरी तलपर होनेवाली चाहे जितनी भी क्रियाएं उसे भंग या नष्ट नहीं कर सकती । वह विश्वकी समस्त गतिविधियोंको वहन कर सकती है और फिर भी वैसी हीं बनी रह सकतीं है ।

 

*

 

    निस्सन्देह । यदि ऊपरी सतहपर विक्षोभ हों तो भी आंतरिक सत्तामें एक सुप्रतिष्ठित शांतिको अनुभव करना बिलकुल स्वाभाविक बात है । वास्तवमें समस्त सत्तामें पूर्ण समता प्राप्त करनेसे पहले योगीकी यहीं सामान्य स्थिति है ।

 

*

 

    जब शांति और विशालता विद्यमान होतीं हैं तो भी ये चीजे (प्राणिक भौतिक अहजन्य क्रियाएं) ऊपरी तलपर तेरा सकती हैं और भीतर घुसनेकी चेष्टा कर सकती हैं -- केवल तब वे चेतनाको अधिकृत नही करती बल्कि उसे महज छूती हैं । इसीको पुराने योगी प्रकृतिकी बची-खुची यांत्रिक क्रियाएं मानते थे - उसके अन्ध अभ्यासका जारी रहना समझते थे जो आत्माकी वास्तविक मुक्तिके बाद भी बना रहता था । इसे हलके रूपमें लिया जाता था और महत्त्वपूर्ण नही माना जाता था -- परन्तु यह दृष्टिकोण हमारे योगके लिये मान्य नही है, क्योंकि इसका उद्देश्य केवल पुरुषकी मुक्ति नही है बल्कि प्रकृतिका भी पूर्ण रूपांतर है ।

 

*

 

   हां, अंतर्मुखी गति यथार्थ गति है । अपने अन्दर शांति और निश्चल-नीरवता- मे निवाम करना प्रथम आवश्यकता है । मैंने विशालताकी बात कही थी क्योंकि निश्चल-नीरवता और शांतिकी विशालतामें ही (जिसे योगीगण एक साथ ही व्यक्तिगत और विश्वगत आत्माका साक्षात्कार मानते हैं) आंतर और बाह्यको समन्वित करने-

 

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का आधार विद्यमान है । वह आयेगा ।

 

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   जब शांति गहरी या विस्तृत होती है तो वह प्राय. आंतर सत्तामें होती है । सत्ता- के बाहरी अंग सामान्यतया अचंचलताकी एक विशेष सीमाके परे नही जाते -- वे केवल तभी गहरी शांति प्राप्त करते हैं जब कि वे आंतर सत्तासे आनेवाली शांतिके परिप्लावित हों जाते हैं ।

 

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 हां, निश्चय ही -- शांति आंतर सत्तासे प्रारम्भ होती है -- यह आध्यात्मिक और चैत्य होती है पर यह बाहरी सत्तामें भर जाती है -- जब कह कार्यकलापमें विद्य- मान रहती है तो इसका तात्पर्य है कि या तो सामान्य चंचल मन, प्राण और शरीर आंतरिक शांतिकी बाढमें डूब गये हैं अथवा, एक अधिक उन्नत अवस्थामें, वे आशिक या पूर्ण रूपमे ऐसे विचारों, शक्तियों, भावावेगों, संवेदनोंमें पूर्णत. रूपांतरित हों गये हैं जिनके अपने एकदम उपादान-तत्त्वमें ही आंतरिक निश्चल-नीरवता और शांति विद्यमान है ।

 

*

 

   हमारी आंतरिक आध्यात्मिक उन्नति उतनी बाहरी अवस्थाओंपर नही निर्भर करती जितनी कि इस बातपर निर्भर करती है कि हम अपने भीतरसे उन अवस्थाओंके प्रति किस प्रकार प्रतिक्रिया करते हैं -- सदासे आध्यात्मिक अनुभूतिका यह चरम सिद्धांत रहा है । यही कारण है कि हम लोग इस बातपर जोर देते हैं कि साधक उचित भाव ग्रहण करे और उसे बराबर बनाये रखे, एक ऐसी आंतरिक स्थिति प्राप्त करे जो बाह्य परिस्थितियोंपर निर्भर न करती हो, जो एकदम आरंभमें हीं यदि आंतरिक प्रसन्नताकी स्थिति न हो सकती हो तो भी वह समता और स्थिरताकी एक अवस्था अवश्य हो, और वह जीवनके धक्कों और थपेड़ोके वशमे रहनेवाले ऊपरी मनमें निवास करनेके बदले अधिकाधिक अपने भीतर प्रवेश करे और भीतरसे ही बाहरकी ओर देखें । केवल इसी आंतरिक स्थितिके प्रतिष्ठित होनेपर साधक जीवन् तथा जीवनमें बाधा पहुँचानेवाली शक्तियोंसे कही अधिक बलवान बन सकता है और उनपर विजय पानेकी आशा कर सकता है ।

 

   भीतर अचंचल बने रहना, बाधा-विपत्ति या उत्थान-पतनसे विचलित या निरुत्साहित न हों पथपर चलनेके अपने संकल्पमें दृढ बने रहना -- यही वह पहली बात है जिसे इस योगमार्गमें सीखना पड़ता है । अन्यथा करनेसे चेतनाको अस्थिर

 

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होनेका अवसर मिल जाता है और अनुभूतिको बनाये रखनेमें कठिनाई होती है जिसकी तुमने शिकायत की हैं । यदि तुम अन्दरसे स्थिर और अचंचल बने रहो तो ही अनु- भूतिकी धाराएं एक हदतक अबाध गतिसे प्रवाहित हों सकती हैं - यद्यपि ऐसा कभी नही होता कि बीच-बीचमें व्याघात और उत्थान-पतनके काल बिलकुल न आते हों; पर इनका भी यदि ठीक तरहसे उपयोग किया जाय तो ये काल साधनामें व्यर्थ नष्ट हुए कालकी जगह अनुभूतिको पचाने और कठिनाइयोंको नष्ट करनेके काल बन सकते ?

 

    बाह्य परिस्थितियोंकी अपेक्षा आध्यात्मिक वातावरण कही अधिक महत्त्व- पूर्ण है । यदि कोई साधक इसे प्राप्त कर सके और साथ ही अपने श्वास लेनेके लिये और उसीमें रहनेके लिये अपना निजी आध्यात्मिक वायुमंडल उत्पन्न कर सके तो यही उसकी उन्नतिके लिये समुचित अवस्था होगी ।

 

*

 

    तुम्हें समझ लेना चाहिये कि जहां अचंचल परिपार्श्व वांछनीय हैं, वहां सच्ची अचंचलता हमारे भीतर है और कोई दूसरा वह अवस्था तुम्हें नही दे सकता जिसे तुम चाहते हों ।

 

*

 

     अभीप्सा करो, समुचित मनोभावके साथ एकाग्र होओ और, फिर चाहे जो कठिनाइयां हों, जिस उद्देश्यको तुमने अपने सामने रखा है उसे तुम अवश्य प्राप्त करोगे ।

 

   पीछे जो शांति है और तुम्हारे अन्दर जो ' 'अधिक सत्य कोई वस्तु' ' है,उसीमें निवास करना तुम्हें सीखना होगा और यह अनुभव करना होगा कि वही वस्तु तुम स्वयं हो । और इसके अतिरिक्त और जो कुछ है उसे तुम्हें अपना वस्तिग्वक स्वरूप नही समझना होगा, बल्कि उसे बाहरी तलपर होनेवाली उन गतियोंका प्रवाह समझना होगा जो बराबर परिवर्त्तित होती रहती हैं या बार-बार घटित होतीं रहती हैं और जो वास्तविक स्वरूपका प्रकट होते ही निश्चित रूपसे बन्द हो जाती है ।

 

   इसका सच्चा प्रतिकार है शांति; कठिन कार्यमें लगकर मनको दूसरी ओर फेर लेनेसे केवल अस्थायी रूपसे ही कुछ चैन मिल सकता है - यद्यपि आधारके विभिन्न भागोंमें समुचित सामंजस्य बनाये रखनेके लिये कुछ कार्य करना आवश्यक है । अपने सिरके ऊपर और उसके इर्दगिर्द शांतिके अनुभव करना पहली सीढ़ी है । तुम्हें उस शांतिके साथ अपना संबद स्थापित करना होगा और उसे तुम्हारे अन्दर अवतरित होकर तुम्हारे मन, प्राण और शरीरमें भर जाना होगा तथा तुम्हें इस प्रकार घेर लेना होगा कि तुम उसीमें निवास करने लगो - क्योंकि तुम्हारे साथ भगवान्की उप- स्थितिके होनेका एकमात्रचिह्न यही शांति है, और अगर एक बार तुम इसे पा लो तो

 

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बाकी चीज़ें अपने-आप आना आरम्भ कर देंगी ।

 

    भाषणमें सत्यता और विचारमें सत्यता बहुत महत्त्वपूर्ण है । जितना ही अधिक तुम यह अनुभव करोगे कि मिथ्यात्व अपना अंश नहीं है, वह बाहरसे तुम्हारे अन्दर आता है, उतना ही अधिक उसका त्याग करना और उसे अस्वीकार करना तुम्हारे लिये आसान हो जायगा ।

 

   अपना प्रयास जारी रखो और जो कुछ अभी वक्र है बह सरल हो जायगा तथा भगवान्की उपस्थितिके सत्यको तुम निरन्तर जानने और अनुभव करने लगोगे और प्रत्यक्ष अनुभूतिके द्वारा तुम्हारी श्रद्धाकी सत्यता प्रमाणित हो जायगी ।

 

 *

 

   जब ज्योति और शांति प्राणमय और भौतिक चेतनामें भरी होती हैं तो यही चीज समस्त प्रकृतिकी यथार्थ क्रियाके आधारके रूपमें सदा बनी रहती है ।

 

   भीतर, ऊपर और अस्पृष्ट, आंतरिक चेतना और आंतरिक अनुभूतिसे परि- पूर्ण बने रहना,--जब आवश्यक हो तो एक या दो ब्यक्तिकी बातें ऊपरी चेतनासे सुन लेना, पर उससे भी अविक्षुब्ध रहना, न तो बाहरकी ओर खिंच जाना या आक्रांत होना - बस यही साधनाकी पूर्ण स्थिति है ।

 

*

 

   तुमने अपनी अवस्थाके बिषयमें जो कुछ लिखा है वह मोटे रूपमें सही मालूम होता है । निश्चय हीं तुम्हारे भीतर एक महत्तर स्थिरता और आंतर सत्ताकी स्वतंत्र- ता है जो वहां पहले नही थी । यही चीज तुम्हें समता प्रदान करती है जिसे तुम वहां अनुभव करते हो ओर कही अधिक गंभीर उपद्रवोंसे बचनेकी क्षमता भी प्रदान करती है । जब साधकको आंतरिक स्थिरताका यह आधार प्राप्त हो जाता है तो ऊपरी तल- की कठिनाइयों और अपूर्णताओंको घबडाहट, उदासी आदिके बिना दूर किया जा सकता है । बिना आक्रमणके दूसरोंके मध्य चले जानेकी शक्ति भी उसी कारणसे आती है ।

 

*

 

  दूसरे प्रश्नके विषयमें, उस विषयमें कोई सामान्य नियम नही है, परन्तु तुम्हारा मनोभाव तुम्हारे लिये यथार्थ मनोभाव है - क्योंकि तुममें पीछेकी ओर एक अधिक साधारण, तीक्या और व्यापक ढंगका सच्चा मनोभाव होनेके कारण तुम्हें क्षमताका कोई विशेष विकास करनेकी आवश्यकता नहीं है । जो लोग विशेष विकासकी आवश्यकता महसूस करते हैं वे वास्तवमें उसे मांगते हैं और उसे पाते हैं ।

 

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    यह निश्चल-नीरवता आंतरिक चेतनाकी निश्चल-नीरवता है और वास्तवमें इसी निश्चल-नीरवतामें, जो बाहरी वस्तुओंसे अविचलित रहती है, चेतनाकी सच्ची क्रिया निश्चल-नीरवताको भंग किये बिना आ सकती है - जैसे, यथार्थ बोध, संकल्प, अनुभव, कर्म । उस स्थितिमें मनुष्य श्रीमाताजीकी क्रियाको भी अधिक आसानीसे अनुभव कर सकता है । गर्मीका जहांतक प्रश्न है, यह अवश्य हीं 'अग्नि'की गर्मी होगी -- पवित्रीकरण और तपस्याकी अग्निकी गर्मी । जब आंतरिक किया होती रहती है तो बहुधा उस प्रकारका अनुभव होता है ।

 

    मनुष्योंके साथ व्यवहार करनेके विषयमें जो तुम अनुभव करते हों वह बिलकुल सही है । यह इन वस्तुओंकी ओर देखनेका चैत्य पुरुषका तरीका है ।

 

 *

 

     तुम्हारे पत्रमें उद्धत उस योगीके संदेशको मैंने फिरसे पढा है, परन्तु सदर्भसे पृथक् होनेके कारण उसका कोई अधिक या बहुत निश्चित तात्पर्य नही निकाला जा सकता । उसमें दो वक्तव्य हैं जो काफी स्पष्ट हैं:

 

       ' 'निश्चल-नीरवतामें ही है ज्ञान' ' -- मनकी निश्चल-नीरवतामे ही सच्चा ज्ञान आ सकता है, क्योंकि मनकी साधारण क्रियावली केवल बाहरी भावनाओं और प्रतिरूपोंकी सृष्टि करती है जो यथार्थ ज्ञान नही हैं । वाणोई साधारणतया बाह्य प्रकृति- की अभिव्यंजना होतीं है; अतएव ऐसी वाणी बोलनेमें अपने-आपको अत्यधिक व्यस्त करनेसे शक्तिका अपव्यय होता है और आंतर श्रवणमें बाधा पड़ती है जो श्रवण कि सच्चे ज्ञानका शब्द प्रदान करता है । '' श्रवण करनेपर तुम जो कुछ सोचते हो उसे जीत लोगे' ' का अर्थ संभवतः यह है कि नीरवताके अन्दर सच्ची विचार-रचानाएँ प्रकट होगी जो अपने-आपको कार्यान्वित और सिद्ध कर सकती है । विचार एक शक्ति बन सकता है जो अपने-आपको ससिद्ध करती है, परन्तु साधारण उपरितलीय चिंतन उस प्रकारका नहीं होता; उससे और कोई कार्य होनेकी अपेक्षा कही अधिक शक्ति- का अपव्यय होता है । सच पूछो तो जो विचार अचंचल या निश्चल-नीरव मनमें आता है उसीमें शक्ति होतीं हे ।

 

      ' 'कम बोलों और शक्ति प्रान्त करो' ' का भी मूलत. यही अर्थ है; केवल सत्यतर ज्ञान ही नही, बल्कि एक महत्तर शक्ति भी मनकी अचंचलता और निश्चल- नीरवता के अन्दर आती है जो ऊपरी सतहपर बुलबुले उठानेकी जगह, अपनी निजी गहराइयों- मे पैठ सकती और जो कुछ उच्चतर चेतनासे आता है उसे सुन सकती हे ।

 

    संभवत: उनका मतलब यही था; ये बातें उन सभी लोगोंको मालूम हैं जिन्हें योगका कुछ अनुभव प्राप्त है ।

 

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    शांति बाह्य सस्पर्शोंकी समस्त पराधीनतासे मुक्त करती है -- यह वह चीज प्रदान करती है जिसे गीता 'आत्मरति' कहती है । परन्तु आरंभमें इसे अक्षुण्ण बनाये रखनेमें कठिनाई होती है जब कि दूसरोंके साथ संबंध स्थापित होता हैं, क्योंकि चेतना- को वाणीके रूपमे अथवा बाह्य आदान-प्रदानके रूपमे बाहरकी ओर दौड पड़नेकी या फिर सामान्य स्तरपर नीचे उतर आनेकी आदत होती है । अतएव साधकको जबतक यह स्थापित नही हों जाती तबतक बहुत सावधान रहना चाहिये । एक बार स्थापित हो जानेपर यह सामान्यतया अपनी रक्षा आप करती है, क्योंकि उच्चतर शांतिसे भरपूर चेतनाके लिये सभी बाहरी संपर्क उपरितलीय चीज़ें बन जाते हैं ।

 

*

 

     तुमने निश्चल-नीरव आंतरिक चेतनाको प्राप्त कर लिया है, परन्तु वह अशांति- से आच्छादित हो सकती है - अगली स्थिति यह हे कि स्थिरता और निश्चल-नीरवता आधारके रूपमें अधिकाधिक बाहरी चेतनामें स्थापित हो जायं...... । तब सामान्य शक्तियोंकी क्रीड़ा केवल ऊपरी सतहपर होगी और अधिक आसानीसे उनके साथ समुचित व्यवहार किया जा सकेगा ।

 

*

 

      यही सही रास्ता है - उच्चतर चेतनाकी शांतिको बनाये रखना । तब यदि प्राणिक अशांति उत्पन्न भी हों तो वह केवल ऊपरी सतहपर ही रहेगी । इससे साधना- का आधार तबतक बना रहेगा जबतक कि दिव्य शक्ति सच्चे प्राणको मुक्त नही कर लेती ।

 

*

 

   यदि तुम शांति प्राप्त कर लो तो प्राणको शुद्ध करना आसान हो जाता है । यदि तुम केवल शुद्ध और शुद्ध हीं करते रहो और अन्य कुछ भी न करो तो तुम बहुत धीरे- धीरे आगे बढ़ोगे - क्योंकि प्राण फिर गंदा होता जायगा और उसे तुम्हें सैकड़ों बार शुद्ध करना होगा । शांति एक ऐसी चीज है जो अपने-आपमें शुद्ध है, अतएव उसे प्राप्त करना अपने उद्देश्यको सिद्ध करनेका निश्चित पथ है । केवल गंदगीको देखना और उसे साफ करते रहना अभावात्मक पथ है ।

 

*

 

    जब तुम सर्वदा ''निम्रतर शक्तियों'', ''आक्रमणों'' और ''उनके द्वारा अधिकृत

 

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होनेकी बातों' ' आदिको ही सोचते रहोगे तो शांति और अचंचलताको कैसे प्राप्त करोगे? यदि तुम स्वाभाविक और शांत भावसे बस्तुओंकी ओर देख सको, केवल तभी तुम अचंचलता और शांति प्राप्त कर सकते हो ।

 

*

 

    तुमने अपने पहले प्रयासमें परिणाम प्राप्त करनेके लिये अतिउत्सुकता तथा अतिश्रमके किसी दोषको आने दिया होगा और उसीके कारण अवसाद और प्राणिक संघर्ष उत्पन्न हुआ होगा । इसके कारण जब चेतनाका पतन हुआ तो दुःखी, निराश और विभ्रांत प्राण ऊपरी सतहपर आ गया और प्रकृतिके विरोधी पक्षसे आनेवाले संदेह, निराशा और जड़ताके सुझावोंको पूरी तरह प्रवेश करनेका मार्ग दे दिया । मान- सिक चेतनाकी तरह ही तुम्हें प्राणिक और भौतिक चेतनामें भी स्थिरता और समता- का सुदृढ़ आधार स्थापित करनेका प्रयास करना चाहिये; अपने भीतर दिव्य शक्ति और आनन्दको पूरी तरह नीचे उतर आने दो, पर उतर आने दो सशक्त आधारमें जो उसे धारण करनेमे समर्थ हो - पूर्ण समता ही वह क्षमता और दृढ़ता प्रदान करती है ।

 

*

 

     असफलताका कारण क्षमताका अभाव नहीं है बल्कि दृढ़ताका अभाव है -- प्राणकी एक प्रकारकी चंचलता तथा एक प्रकारकी तीव्र जल्दबाजी है जो पूरे ब्यौरे- की तथा सतत प्रयासकी परवा नहीं करती । तुम्हें आवश्यकता है आंतरिक नीरवता- की तथा ठोस सामर्थ्य और शक्तिकी जो इस आंतरिक नीरवतामें कार्य कर सके, प्राणको अपना यंत्र बना ले पर उसे उसके दोषोंके द्वारा कार्यको परिच्छिन्न न करने दे ।

 

*

 

      इसे (शांतिको) पहले नीचे हृदय और नाभि-केंद्रतक उतार लाना होगा । इससे एक विशेष प्रकारकी आंतरिक स्थिरता प्राप्त हो जाती है - यद्यपि वह पूर्ण नही होती । शांतिको पुकारनेका इसके सिवा और कोई दूसरा तरीका नहीं है कि उसके लिये अभीप्सा की जाय, एक प्रबल स्थिर संकल्प बनाया जाय और जिन भागोंमें शांति- का आवाहन करना हो उन भागोंमें जो सब चीज़ें भगवान्की ओर मुंडी हुई नहीं हैं उन सबका परित्याग किया जाय - यहां वे भाग हैं भावात्मक तथा उच्चतर प्राण ।

 

*

 

     स्वयं अपने-आपमें वैश्व-भाव प्राणको विक्षुब्ध होनेसे नहीं रोक सकता -

 

१५२


वास्तवमें जब समस्त सत्तामें, नीचे अत्यंत स्थूल भागतकमें पूर्ण समर्पणका भाव आ जाता है और शांतिका पूर्ण अवतरण हो जाता है तभी प्राणको विक्षुब्ध होनेसे रोका जा सकता हैं ।

 

*

 

    मन और प्राण सर्वदा ही स्थूल भागकी अपेक्षा कही अधिक वैश्व शक्तियोंके प्रति खुले होते हैं । परन्तु दे स्थूल भागकी अपेक्षा तबतक अधिक अशांत हों सकते हैं जबतक कि वे ऊपरसे आनेवाली शांतिके अधीन नही हो जाते ।

 

*

 

    ऊपरसे स्थिरता तुम्हारे पास आयी और उसने तुम्हारा संबंध ऊपरसे जोड़ दिया, और यदि तुम दृढ़तापूर्वक उसे पकड़े रहो तो तुम शांत-स्थिर बने रह सकोगे । परन्तु इन प्राणिक उपद्रवोंसे मुक्त होनेके लिये तुम्हें वही ऊपर विद्यमान दिव्य शक्ति और संकल्पको नीचे उतार लाना होगा अथवा कम-से-कम इस प्रकार उनके साथ .संबंध स्थापित करना होगा कि जब कभी तुम अज्ञानकी शक्तियोंके विरुद्ध उनका आवाहन करो तभी वे कार्य करें ।

 

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    यौगिक स्थितिकी पहली नींव है सभी अवस्थाओंमें, सत्ताके सभी भागोंमें समता और शांतिका बने रहना । उसके बाद प्रकृतिके झुकावके अनुसार या तो ज्योति (अपने साथ ज्ञान वहन करती हुई) या शक्ति (अपने साथ बल-सामर्थ्य तथा बहुत प्रकारकी क्रियाशीलता वहन करती हुई) अथवा आनन्द (अपने साथ प्रेम तथा सत्ता- का आह्लाद वहन करते हुए) आ सकता है । परन्तु शांतिका आना पहली शर्त हैं जिसके विना दूसरी कोई वस्तु स्थायी नही हो सकती ।

 

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    यह सही है कि साधकमें जो कुछ सबसे प्रबल है उसके द्वारा वह अत्यंत आसानी- से भगवान्की ओर खुल सकता है । परन्तु..... .शांति सबके लिये आवश्यक हैं, शांति और वर्द्धमान पवित्रताके बिना, यदि कोई उद्घाटित भी हो तो भी, उद्घाटनके कारण फरसे आनेवाली सभी वस्तुओंको पूर्णत: ग्रहण नहीं कर सकता । ज्योति भी सबके लिये जरूरी है - ज्योतिके विना ऊपरसे आनेवाली सभी चीजोंका पूरा लाभ नहीं उठाया जा सकता ।

 

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    जब मन निश्चल-नीरव होता है तब वहां शांति विद्यमान रहती हे और उस शांतिके भीतर सभी वस्तुएं, जो दिव्य होती हैं, आती हैं । जब वहां मन नही होता तो वहां आत्मा होता है जो मनसे अधिक महान् है ।

 

*

 

   निश्चल-नीरवता ओर शांति स्वयं ही उच्चतर चेतनाका अंग है -- बाकी चीजे निश्चल-नीरवता और शांतिके अन्दर आती हैं ।

 

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   यह वैष्णव भावना है कि वैदान्तिक शांति पर्याप्त नही है, भगवानका प्रेम और आनन्द अधिक मूल्यवान् हैं । परन्तु जबतक ये दो चीज़ें एक साथ नही रहती, अनुभूत प्रेम और आनन्द संभवत: तीव्र तो होते है पर स्थायी नहीं होते, और यह भी सच है कि ये आसानीसे मिश्रित हों जाते, दिग्भ्रात हो जाते अथवा किसी ऐसी चीजकी ओर मुंड जाते हैं जो सत्य वस्तु बिलकुल नहीं होती । शांति और पवित्रताको चेतनाके आधारके रूपमें अवश्य प्राप्त करना होगा, अन्यथा भागवत क्रीडाके लिये कोई सुदृढ़ आधार-भूमि नही प्राप्त हों सकती ।

 

*

 

    आखिरकार साधनाका सच्चा आधार तुम्हें मिल गया । यह स्थिरता, शांति और समर्पणभाव ही वह समुचित वातावरण है जिसमें बाकी सभी चीज़ें -- ज्ञान, शक्ति और आनन्द -- आती हैं । इस स्थितिको पूर्ण होने दो ।

 

     काममें लगे रहनेपर जो यह स्थिति नहीं बनी रहती, इसका कारण यह है कि यह अभी ठीक मनके क्षेत्रमें ही आबद्ध है और मननें भी उस निश्चल-नीरवताके दान- को अभी हालमें ही ग्रहण किया है । जब यह नयी चेतना पूर्ण रूपसे गठित हो जायगी और प्राणमय प्रकृति तथा भौतिक सत्तापर अपना पूर्ण अधिकार जमा लेगी (अभीतक निश्चल-नीरवतामें प्राणका स्पर्शमात्र किया है अथवा उसपर अपना एक प्रभावभर फैलाया है, उसे अभीतक अधिकृत नही किया है), तब यह दोष दूर हो जायगा ।

 

    तुमने अपने मनमें जो अभी शांतिकी अचंचल चेतना प्राप्त की है उसे केवल स्थिर ही नहीं होना होगा, बल्कि उसे विशाल भी होना होगा । तुम्हें उसे सर्वत्र अनुभव करना होगा, यह अनुभव करना होगा कि तुम स्वयं उसमें हो और सब कुछ उसमें है । यह अन्उभव भी कर्मके अन्दर स्थिरताको आधार बनानेमें सहायता करेगा ।

 

   तुम्हारी चेतना जितनी ही अधिक व्यापक होगी उतना ही अधिक तुम ऊपरसे

 

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आनेवाली चीजोंको ग्रहण करनेमें समर्थ होंगे । उस समय ऊपरसे भागवत शक्ति अवतरित हों सकेगी और तुम्हारे आधारमें शांतिके साथ-साथ शक्ति और ज्योति- को लें आ सकेगी । अपने अन्दर जिस चीजको तुम संकीर्ण और सीमित अनुभव कर रहे हों वह तुम्हारा भौतिक (स्थूल) मन है; यह तभी विशाल बन सकता हैं जब कि ये विशालतर चेतना और ज्योति नीचे उतर आयेगी और तुम्हारी प्रकृतिको अधि- कृत कर लेगी ।

 

    जिस भौतिक तामसिकतासे तुम दुख पा रहे हों वह केवल तभी कम हों सकती और दूर हों सकती है जब आधारमें ऊपरसे शक्तिका अवतरण हो ।

 

    अचंचल बने रहो, अपने-आपको खोले रखो और भागवत शक्तिका आवाहन करो जिसमें वह स्थिरता और शांतिको स्थापित करें, चेतनाको प्रसारित करे और अभी उसमें जितनी ज्योति और शक्ति ग्रहण करने तथा धारण करनेकी क्षमता हो उतनी उसके अन्दर ले आयें ।

 

    इस विषयमें सावधान रहो कि कही अति-उत्सुकताका भाव न आ जाय, अन्यथा उससे, जितनी अचंचलता और समतुलता प्राण-प्रकृतिमे अबतक प्रतिष्ठित हो चुकी है, वह फिरसे भंग हो सकती है ।

 

    अंतिम परिणाममें विश्वास बनाये रखो और दिव्य शक्तिको अपना काम करने के लिये समय दो ।

 

*

 

 यदि अभीप्सा नही तो कम-से-कम जो कुछ आवश्यक है उसकी भावनाको ही बनाये रखो -- ( 1) यह भावना बनाये रखो कि नीरवता और शांति एक विशालता- मे बदल जायेगी जिसे तुम आत्माके रूपमें अनुभव करोगे -- (2) निश्चल-नीरव चेतना ऊपरकी ओर भी विस्तारित हो जायगी जिससे तुम अपने ऊपर उसके मूल- स्रोतको अनुभव कर सकोगे -- (3) सब समय शांति आदि विद्यमान रहेगी । ये चीजे सबकी सब तुरत आ जाय यह आवश्यक नही, पर तुम्हारे मनमें क्या चीज रहनी चाहिये यह समझ लेनेपर तामसिकताकी स्थितिमें कभी भी पतित होनेसे बचा जा सकता है ।

 

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     विशालता और स्थिरता यौगिक चेतनाका आधार है और आंतरिक विकास तथा अनुभवके लिये सर्वोत्तम अवस्था है । यदि भौतिक चेतनामें विशाल स्थिरता स्थापित हों सके, एकदम शरीर तथा उसके समस्त कोषाणुओंको अधिकृत और परि- पूरित कर दे तो वह उसके रूपांतरका आधार बन सकता है; सच पूछा जाय तो इस विशालता और स्थिरताके बिना रूपांतर मुश्किलसे संभव होता है ।

 

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यह यथार्थ मौलिक चेतना है जिसे तुमने अब प्राप्त किया है । तमs तथा निम्र- तर विश्व-प्रकृतिकी अन्य वृत्तियां भीतर आनेका प्रयास करनेके लिये तत्पर रहती हैं, परन्तु साधकको यदि आंतर सत्ताकी स्थिरता प्राप्त हों जो कि उन चीजोंको अपनी सत्ता एवं चैत्य पुरुषकी ज्योतिसे (जो कि तुरत उन्हें प्रकट कर देती और त्याग देती है) बाहरकी किसी चीजके रूपमें अनुभव कराती हौ तो इसीको सच्ची चेतना प्राप्त करना कहते हैं जो साधकको सुरक्षित रखती है, जब कि अधिक सुनिश्चित रूपांतरके कार्यकी तैयारी होती रहती हैं या वह कार्य संपन्न होता रहता है ।

 

   ऊपरसे दिव्य शक्ति, ज्योति, ज्ञान, आनन्द आदिका अवतरण होनेपर रूपांतर सिद्ध होता है । अतएव तुम्हारी यह भावना यथार्थ है कि तुम्हें ऊपरसे होनेवाले ज्योति- के अवतरणके लिये एक अचंचल अभीप्सा या प्रार्थनाके साथ अपने-आपको खोलना चाहिये । केवल यह अभीप्सा इस स्थिरता और विशालताके अन्दर होनी चाहिये, उसे इस स्थिरता और विशालताको तनिक भी भग नहीं करना चाहिये -- और तुम्हें परिणामके तुरत न आनेके लिये तैयार रहना चाहिये -- वह (परिणाम) तेजी- से आ सकता है, पर वह कुछ समय भी ले सकता है ।

 

*

 

        'ठोस पत्थर' की तरह अपने-आपको बोध करनेका यह अनुभव इस बातको सूचित करता है कि तुम्हारी बाह्य सत्तामें - परन्तु मुख्यत: प्राणमय भौतिक सत्तामें -- एक प्रकारके ठोस सामर्थ्य और शांतिका अवतरण हुआ है । सर्वदा यही वह चीज होती है जो आधारका, पक्की नीवका काम करती है और इसीमें अन्य सभी चीजे (आनन्द, ज्योति, ज्ञान, भक्ति) भविष्यमें अवतरित हों सकती हैं और इसीके ऊपर निरापद रूपमे स्थित हों सकती या क्रिया कर सकती हैं । दूसरी अनुभूतिमें सूत्र पंडू जानेकीं जो बात तुमने लिखी है, उसका कारण यह है कि वहांपर गति अन्दरकी ओर थी, परन्तु यहांपर योगशक्ति बाहरकी ओर, पूर्ण जाग्रत् बाह्य प्रकृतिके अन्दर आ रही है जिसमें कि वह वहां योगको तथा योगके अनुभवको स्थापित करना आरम्भ करे । अतएव यहांपर वह सुन्न पड़नेकी बात नहीं है जो कि सत्ताके बाहरी अंगोसे चेतनाके पीछे हट आनेका चिह्न है ।

 

*

 

     शांतिसे भरपूर रहना, हृदय अचंचल रहना, दुःखसे विचलित न होना तथा हर्षसे उत्तेजित न होना बहुत अच्छी स्थिति है । आनन्दका जहांतक प्रश्न है, वह अपनी पूर्णतम तीवताके साथ पर कहीं अधिक स्थायी स्थिरताके साथ केवल तभी आ सकता है जब कि मन शांतिपूर्ण हों और हृदय सामान्य हर्ष और शोकसे मुक्त हो । यदि मन और हृदय अशांत, परिवर्तनशील, चंचल हों तो एक प्रकारका आनन्द आ सकता है,

 

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पर वह प्राणिक उत्तेजनाके साथ मिला-जुला होगा और स्थायी नही हों सकता । सब- से पहले साधकको अपनी चेतनामें शांति और स्थिरताको स्थापित कर लेना चाहिये, फिर उसे एक ठोस आधार मिल जायेगा जिसपर आनन्द फैल सकता है और अपने समयपर चेतना और प्रकृतिका एक स्थायी अंग बन सकता है ।

 

*

 

    शांतिकी एक महान् लहर ( अथवा समुद्र) और एक सुविशाल ज्योतिर्मयी सद्- वस्तुका निरंतर बोध - ये दोनों बातें स्पष्ट रूपमें परम सत्यकी उस मूलगत उपलब्धि- को सूचित करनेवाली हैं जो मन और अंतरात्मा उस गरम सत्यका प्रथम संस्पर्श होनेपर प्राप्त होती है । इससे अधिक अच्छे प्रारंभ या स्थापनाकी कामना नही की जा सकतीं -- यह उस चट्टानके समान है जिसके आधारपर बाकी सब कुछ निर्मित किया जा सकता है । निश्चय ही इसका अर्थ ' 'कोई एक उपस्थिति' ' नही है बल्कि इसका अर्थ है ' 'वह एकमात्र ( भागवत) उपस्थिति' ' -- और अगर इस अनुभूतिको किसी तरह अस्वीकार करके या इसके स्वरूपके विषयमें संदेह करके इसे दुर्बल बना दिया जाय तो यह एक बड़ी भारी भूल होगी ।

 

     इसकी कोई परिभाषा करनेकी कोई आवश्यकता नहीं और न किसीको इसे किसी एक रूपमें परिवर्त्तित करनेकी चेष्टा ही करनी चाहिये । क्योंकि यह उपस्थिति अपने स्वभावमें अनत है । अगर वह साधककी ओरसे निरंतर स्वीकृत होती रहे तो इसे अपना या अपने अन्दरसे जो कुछ अभिव्यक्त करना है उसे यह अनिवार्य रूपसे और स्वयं अपनी ही शक्तिसे करेगी ।

 

    यह बिलकुल ठीक है कि यह भगवानके यहांसे आयी हुई करुणा है और ऐसी करुणाका एकमात्र प्रतिदान है उसे स्वीकार करना, कृतज्ञ बने रहना और जिस शक्ति- ने चेतनाको स्पर्श किया है उसके प्रति अपने-आपको खोले रखना और इस तरह उसे सत्ताके अन्दर जो कुछ विकसित करना है उसे विकसित करने देना । प्रकृतिका सर्वांगीण रूपांतर एक क्षणमें नहीं किया जा सकता; इसमे दीर्घ समय लगेगा ही और यह विभिन्न स्तरोंको पार करता हुआ ही आगे बढ़ेगा । अभी जो अनुभूति तुम्हें हुई हैं वह केवल आरंभ है, दीक्षामात्र है, जिस नवीन चेतनामें उस रूपांतरका होना संभव होगा उसका आधारमात्र है । इस अनुभूतिका अनायास अपने-आप होना ही इस बातको प्रकट करता हे कि यह मनके, संकल्पके या भावावेशके द्वारा रचित कोई चीज नही है, यह एक ऐसे सत्यसे आयी है जो इन सबसे परे हैं ।

 

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      यदि तुम अपने हृदयमें विशालता और स्थिरता और श्रीमाँके लिये प्रेम भी बनाये रखो तो सब कुछ सुरक्षित है, क्योंकि इसका अर्थ है योगका द्विविध आधार प्राप्त

 

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कर लेना: ऊपरसे अपने साथ शांति, मुक्ति और प्रशांति लिये हुए उच्चतर चेतनाका अवतरण तथा चैत्य पुरुषका उद्घाटन जो सभी प्रयासों या सभी स्वाभाविक गति- विधियोंको यथार्थ लक्ष्यकी ओर मोडे रखता है ।

 

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     अचंचलता और नीरवताको जो तुम अनुभव करते हों और उसके अन्दर जो प्रसन्नताका बोध है यह सब निस्सन्देह सफल साधनाका सच्चा आधार है । जब मनुष्य इसे प्राप्त कर लेता है तो वह इस विषयमें निस्सदिग्ध हों सकता है कि साधना एक मज- बूत पायेपर खड़ी हों रही है । तुम्हारा यह समझना भी ठीक है कि यदि यह अचंचलता पूर्ण रूपसे स्थापित हो जाय तो जो कुछ भीतर छिपा हुआ है वह सब बाहर आ जायेगा । फिर यह भी सही है कि इस शांतिसे प्राप्त प्रसन्नता किसी भी बाहरी चीजसे प्राप्त प्रसन्नताकी अपेक्षा बहुत अधिक महान् है -- उसके साथ किसी चीजकी तुलना नही की जा सकतीं । बाह्य विषयोंके आकर्षणके प्रति उदासीन होना योगका एक प्रांरभिक नियम है, क्योंकि यह अनासक्ति आनर्त सत्ताको शांति तथा यथार्थ चेतनामें मुक्त करती है । जब मनुष्य सभी वस्तुओंमें भगवान्को देखता है केवल तभी योगके लिये वस्तु- ओंको एक मूल्य प्रान्त हो जाता है, परन्तु उस दिशामें भी वह मूल्य उनके अपने लिये नहीं होता या कामनाके विषयोंके रूपमें नही होता, बल्कि अंतरस्थ भगवानके लिये तथा भागवत कर्म एवं आभव्यक्तिके साधनके रूपमें होता है ।

 

IV

 

     समताका तात्पर्य है सभी परिस्थितियोंमें अपने भीतर अविचलित बने रहना ।

 

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    समता सच्ची आध्यात्मिक चेतनाका प्रमुख अवलंब है और जब साधक किसी प्राणिक वृत्तिक भावना या वाणी या कर्ममें अपनेको बहा ले जाने देता हैं तब वह इसी समतासे भ्रष्ट होता है । समता ठीक वही चीज नही है जो सहनशीलता है,--यद्यपि इसमें कोई संदेह नही कि सुस्थिर समता मनुष्यकी सहनशीलता और धैर्यके शक्तिको बहुत अधिक, यहांतक कि असीम रूपमे बढ़ा देती है ।

 

   समताका अर्थ है अचंचल और स्थिर मन और प्राण, इसका अर्थ है घटित होने- वाली या कही गयी या तुम्हारे प्रति की गयी वस्तुओंसे स्पृष्ट या विचलित न होना, बल्कि उनकी ओर सीधी नजरसे देखना, व्यक्तिगत भावनाद्वारा सृष्ट विकृतियोंसे मुक्त रहना, और उस चीजको समझनेका प्रयास करना जो उनके पीछे विद्यमान हो, यह समझना कि वे क्यों घटित होती हैं, उनसे क्या शिक्षा लेनी चाहिये, हमारे अन्दर

 

१५८


ऐसी कौनसी चीज हैं जिसके विरुद्ध वे निक्षिप्त की गयी हैं और उनसे कौनसा आंतरिक लाभ उठाया जा सकता या उनकी सहायतासे कौनसी प्रगति की जा सकतीं है । इसका अर्थ है प्राणिक क्रियाओंके ऊपर आत्मप्रमुत्व,--क्रोध और असहिष्णुता और गर्व तथा साथ ही कामना और अन्य चीज़ें - इन्हें अपनी भावात्मक सत्तापर अधिकार नहीं जमाने देना और आंतरिक शांतिको भंग नही करने देना, जल्दबाजीमें और इन चीजोंके द्वारा प्रणोदित होकर न बोलना और न कार्य करना, सर्वदा आत्माकी एक स्थिर आंतर स्थितिमें रहकर कार्य करना और बोलना । इस समताको किसी पूर्णत: पूर्ण मात्रामें प्राप्त करना आसान नहीं है, परन्तु साधकको इसे अपनी आंतरिक स्थिति तथा बाह्य क्रियाओंका आधार बननेके लिये सर्वदा अधिकाधिक प्रयास करते रहना चाहिये ।

 

     समताका एक दूसरा अर्थ भी है -- मनुष्यों और उनकी प्रकृति और कर्म तथा उन्हें चलानेवाली शक्तियोंके विषयमें एक सम दृष्टिकोण बनाये रखना, यह चीज मनुष्यकी दृष्टि और विचारमें विद्यमान समस्त व्यक्तिगत भावनाको तथा यहांतक कि समस्त मानसिक पक्षपातको मनसे दूर हटाकर मनुष्य तथा उनकी प्रकृति आदिके सत्यको देखनेमें सहायता पहुँचाती है । व्यक्तिगत भावना सर्वदा विकृति उत्पन्न करती है और मनुष्योंके कामोंमें, केवल स्वयं कामोंको नहीं, बल्कि उनके पीछे विद्यमान उन चीजोंको दिखाती है जो प्रायः वहां नहीं होती । उसका परिणाम होता है गलत- फहमी और अ निर्णय जिससे बचा जा सकता था, उस समय सामान्य परिणाम लानेवालींचीजे बहुत बड़ा रूप ग्रहण कर लेती हैं । मैंने देखा है कि इसी चीजके कारण जीवनमें इस प्रकारकी आधीसे अधिक अनपेक्षित घटनाएं घटती हैं । परन्तु साधारण जीवनमें व्यक्तिगत भावना तथा असहिष्णुता सर्वदा ही मानव-स्वभावका अंग बनी रहती हैं और आत्मरक्षाके लिये आवश्यक हों सकतीं हैं, यद्यपि, मेरी रायमें, वाह भी, मनुष्यों और वस्तुओंके प्रति एक प्रबल, उदार और सम मनोभाव रखना आत्मरक्षा- का उससे बहुत अधिक अच्छा उपाय सिद्ध होगा । परन्तु एक साधकके लिये, उनको अतिक्रम करना और आत्माकी स्थिर शक्तिमें कही अधिक निवास करना उसकी प्रगति- का एक आवश्यक अंग है ।

 

     आंतरिक प्रगतिकी पहली शर्त्त यह है कि प्रकृतिके किसी भी भागमें जो कुछ भी गलत क्रिया हों या हो रहीं हो -- गलत विचार, गलत भावना,गलत वाणी,गलत कार्य हों उसे पहचाना जाय और गलतसे मतलब है वह चीज जो सत्यसे, उच्चतर चेतना और उच्चतर आत्मासे, भगवानके पथसे विरत हों । एक बार पहचान लेनेपर उसे स्वीकार करना चाहिये, उसपर मुलम्मा नहीं चढ़ाना चाहिये और न उसका समर्थन करना चाहिये,--उसे भगवानके प्रति अर्पित कर देना चाहिये जिसमे कि दिव्य ज्योति और भगवत्कृपा अवतरित हों और उसके स्थानमे सत्य चेतनाकी यथार्थ क्रिया स्थापित करें ।

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     समताके बिना साधनामें सुदृढ़ प्रतिष्ठा नही हो सकती । परिस्थितियां चाहें जितनी भी अप्रिय हों, दूसरोंका व्यवहार चाहे जितना भी नापसन्द हो, तुम्हें पूर्ण स्थिर- ताके साथ तथा किसी प्रकारकी क्षोभ उत्पन्न करनेवाली प्रतिक्रियाके बिना उन्हें ग्रहण करना सीखना चाहिये । इन्ही चीजोंसे समताकी परीक्षा होतीं है । -अब सब कुछ अच्छी तरह चलता रहता है और सभी मनुष्य तथा परिस्थितियां अनकल होती हैं तब तो स्थिर और सम बने रहना आसान होता है; परन्तु जब ये सब विपरीत हों जाते हैं तभी स्थिरता, शांति और समताकी पूर्णताकी जांच की जा सकती है, तभी उन्हें दृढूतर और पूर्णतर बनाया जा सकता है ।

 

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      यह बहुत अच्छा है कि तुम्हें यह अनुभव प्राप्त हुआ है; क्योंकि इस प्रकारकी समतासे परिपूर्ण चेतना ही ठीक वह वस्तु है जिसे प्राप्त करना है और जो यथार्थ आधार है जिसपर श्रीमाँसे परिपूर्ण ठोस यौगिक चेतना निर्मित की जा सकतीं है । यदि इसे स्थापित किया जा सके तो साधनाकी अधिकांश तकलीफ़ें और कठिनाइयां दूर हों सकती हैं -- सभी आवश्यक परिवर्तन प्रगतिको रोक देनेवाले और भंग कर देनेवाले इन सब उपद्रवो और उलट-फेरोंके बिना, शांतिके साथ घटित हो सकते हैं । साथ ही उस चेतनाके अन्दर यह समझनेकी यथार्थ और स्पष्ट शक्ति वर्द्धित हो सकती है कि मनुष्य और वस्तुएं क्या हैं और बिना किसी संघर्षके उनके साथ कैसे व्यवहार किया जा सकता हैं और यह चीज हमारे कार्य-कर्मको बहुत अधिक आसान बना सकती है । एक बार जब यह चेतना आ जाती है तब वह निश्चित रूपसे बार-बार आती और बढ्ती रहती

 

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    जो कुछ लोग कहते हैं या जो सूचनाएँ आती हैं उन्हें सुननेसे कोई लाभ नही । दोनों ही चीज़ें ऐसी हैं जिनसे प्रभावित न होना सीखना चाहिये । इन सब मामलोंमें एक प्रकारकी समताकी आवश्यकता होती है जिसमें कि साधकको सुदृढ़ स्थिति प्राप्त हों जाय । एकमात्र वस्तु जो महत्चपूर्ण है वह है भगवान्को प्राप्त करना ।

 

   यह (इंद्रियोंका यथार्थ कार्य) है वस्तुओंके दिव्य या सत्य रूपको ग्रहण करना और उनके प्रति नापसंदगी या कामनाके बिना एक सम आनन्दकी प्रतिक्रिया निक्षिप्त करना ।

 

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   पूर्ण समता स्थापित होनेमें समय लगता है और यह तीन चीजोंपर निर्भर हैं - अन्तरात्माका एक आंतरिक समर्पणभावके द्वारा भगवान्को निवेदित हो जाना, आध्यात्मिक स्थिरता और शांतिका ऊपरसे अवतरित होना तथा समताका खंडन करनेवाली समस्त अहंकारपूर्ण, राजसिक तथा अन्य भावनाओंको सतत, दीर्घ कालतक और आग्रहपूर्वक परित्याग करते रहना ।

 

   सबसे प्रथम करणीय वस्तु हे हदयकी पूर्ण एकाग्रता तथा आत्मदान - आध्यात्मिक स्थिरता तथा समर्पणभावके। बढ़ते रहना वह स्थिति है जिसमें अहं, रजो- गुण आदिका परित्याग करना सफल होता है ।

 

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   जब उच्चतर चेतनाकी शांति अवतरित होती है तो वह सर्वदा अपने साथ समता- की इस प्रवृत्तिको अपने साथ लें आती है, क्योंकि समताके बिना निम्रतर प्रकृतिकी लहरोंके द्वारा शांतिके आक्रांत होनेकी संभावना बराबर रहती है ।

 

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   समता इस योगका एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग है; यह आवश्यक है कि दुःख और कष्टमें भी समताको बनाये रखा जाय - और इसका अर्थ है दृढ़ता और स्थिरता- के साथ सहन करते रहना, बेचैन या विचलित अथवा अवसन्न या हताश न होना तथा भगवान्की इच्छापर अटल विश्वास रखकर अग्रसर होते रहना । परन्तु समताके अन्दर तामसिक स्वीकृतिके लिये कोई स्थान नही । उदाहरणार्थ, अगर साधना करते समय किसी प्रयासमें सामयिक विफलता हो जाय तो समता अवश्य बनाये रखनी चाहिये, उससे विचलित या हताश नहीं होना चाहिये, पर साथ हीं विफलताको भाग- बत इच्छाका चिह्न भी नहीं समझना चाहिये और न अपना प्रयास ही छोड़ना चाहिये । बल्कि इसके बदले तुम्हें उस विफलताका कारण और तात्पर्य खोज निकालना चाहिये और विश्वासके साथ विजयकी ओर आगे बढ़ना चाहिये । यहीं बात रोगके विषयमें भी कही जा सकती है - तुम्हें उससे दुःखित, विचलित या बेचैन नहीं होना चाहिये, पर साथ ही रोगको भगवदिच्छा समझकर स्वीकार भी नही करना चाहिये, बल्कि तुम्हें यह समझना चाहिये कि यह शरीरकी एक अपूर्णता है और जैसे तुम अपने प्राण- की अपूर्णताओं या मनकी मृर्लोको दूर करनेकी चेष्टा करते हों वैसे ही तुम्हें इस शरीर- की अपूर्णताको भी दूर करना है ।.

 

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   यौगिक समता अंतरात्माकी समता है, एकमेव आत्माके, सर्वत्र विद्यमान एक-

 

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मेव भगवानके ज्ञानपर आधारित समत्व है -- अभिव्यक्तिके अन्दर विद्यमान समस्त विभेदो, मात्राओं और विरोधोंके बावजूद एकतमका साक्षात्कार है । मानसिक समता- का तत्व विभेदों, मात्राओं और विरोधोंकी उपेक्षा करने अथवा उन्हें नष्ट कर देनेका प्रयास करता है, इस प्रकार कार्य करनेका प्रयत्न करता है मानों एक समान हो अथवा सबको एक समान कर देनेका प्रयास करता है । यह रामकृष्णके भानजे, हदयके जैसा है, जो रामकृष्णके स्पर्श पानेपर यह चिल्लाने लगा कि ' 'राम- कृष्ण, तुम ब्रह्म हो और मैं भी ब्रह्म हूँ, हम दोनोंमें कोई विभेद नही हे' ', परन्तु जब उसने शांत होना अस्वीकार कर दिया तब रामकृष्णने अपनी शक्ति ही वापस खींच ली । अथवा वह उस शिष्यके जैसा है जिसने महावतकी बात सुनना अस्वीकार कर दिया और जो यह कहते हुए हाथीके सामने खड़ा हों गया कि ' 'मैं ब्रह्म हूँ' ', जबतक कि हाथीने अपनी सुंड उसे उठाकर एक ओर नही रख दिया । जब उसने अपने गुरु- से शिकायत की तो गुरुने कहा, ' 'हां, परन्तु तुमने महावत ब्रह्मकी बात क्यों नहीं सुनी? यही कारण था कि हाथी ब्रह्मको तुम्हें उठाना पड़ा और हानिके पथसे अलग रखना पड़ा । '' अभिव्यक्तिके अन्दर सत्यके दो पक्ष हैं और तुम उनमेंसे किसीकी अवहेलना नहीं कर सकते ।

 

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     निस्सन्देह, घृणा और अभिशाप समुचित मनोभाव नही हैं । यह भी सही है कि सभी वस्तुओं और सभी लोगोंको स्थिर और सुस्पष्ट दृष्टिसे देखना, किसी चीजमें अंतर्ग्रस्त न होना, अपने विचारोंमें निष्पक्ष रहना बिलकुल उचित यौगिक मनोभाव है । पूर्ण समताकी एक स्थितिको स्थापित किया जा सकता है जिसमे मनुष्य सबको, मित्र और शत्रु दोनोंको, एक जैसा देखता है, और जो कुछ मनुष्य करते हैं या जो कुछ घटित होता है उस सबसे विचलित नही होता । प्रश्न यह है कि क्या यही सब कुछ है जिसकी हमसे मांग की जाती है ' यदि ऐसा है, तो सामान्य मनोभाव यही होगा कि प्रत्येक चीजके प्रति तटस्थ उदासीनताका भाव रखा जाय । परन्तु जो गीता पूर्ण और अखंड समतापर प्रबल रूपसे जोर देती है वह यह भी कहती है कि ' 'युद्ध करो, शत्रुका नाश करो, विजय प्राप्त करो । '' यदि किसी प्रकारके सामान्य कर्मकी अपेक्षा नहीं की जाती, सिवा अपनी व्यक्तिगत साधनाके मिथ्यात्वके विरुद्ध सत्यके प्रति एक- निष्ठाकी आवश्यकता नहीं है, सत्यके लिये विजय प्राप्त करनेका कोई संकल्प नही है तो फिर उदासीनताकी समता पर्याप्त होगी । परन्तु यहां एक कार्य संपन्न करना है, एक दिव्य सत्यको स्थापित करना है जिसके विरुद्ध प्रभूत शक्तियां व्यूहबद्ध हैं, अदृश्य शक्तियां विद्यमान है जो अपने यंत्रिके रूपमें दृश्य वस्तुओं, व्यक्तियों तथा कार्योंका उप- योग कर सकती हैं । अगर कोई शिष्योंको, इस सत्यके अन्वेषकोंके दलमें सम्मिलित हो तो उसे सत्यका पक्ष लेना होगा, उन शक्तियोंके विरुद्ध खड़ा होना होगा जो इसपर आक्रमण करती हैं और इसको गला घोटकर मार डालना चाहती हैं । अर्जुनने दोनों-

 

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मे किसी पक्षमें खड़ा न होनेकी इच्छा की थी, आक्रामकोंके विरुद्ध भी शत्रुताका कोई कर्म करना अस्वीकार कर दिया था; पर जिस श्रीकृष्णने समतापर इतना अधिक बल दिया है उन्होंने उसके मनोभावकी बहुत जोरदार शब्दोंमें भर्त्सना की और उसी तरह शत्रुका साथ उसके युद्ध करनेपर भी आग्रह किया । उन्होंने कहा, ' 'समता बनाये रखो, और सत्य- को स्पष्ट रूपमें देखते हुए युद्ध करो । '' अतएव सत्यका पक्ष लेना और आक्रमण करने- वाले मिथ्यात्वके विरुद्ध कुछ भी अंगीकार करना अस्वीकार करना, बेहिचक विरोधी यों और आक्रामकोंके विरुद्ध तथा उनके प्रति विश्वासपात्र बने रहना समताके साथ मेल नही खाता । यह व्यक्तिगत और अहजन्य भावना है जिसे दूर झाडू फेंकना होगा; घृणा और प्राणिक दुर्भावनाका त्याग करना होगा । परन्तु आक्रामकों तथा शत्रुओं- के प्रति वफादार बने रहना और उनके साथ समझौता करना अस्वीकार करना अथवा उनकी भावनाओं और मांगोंको सहर्ष स्वीकार करना और यह कहना कि '' आखिर- कार, हमसे वे लोग जो कुछ मांगते हैं उसके साथ हम समझौता कर सकते हैं' ', अथवा उन्हें अपने साथी और अपने निज जन स्वीकार करना -- ये चीज़ें बहुत महत्व रखती हैं । यदि उनके आक्रमणसे उस कार्यको तथा उस कार्यको नेताओं और कर्मियोंको भौतिक रूपमें हानि होनेकी आशंका हों तो हम तुरत इसे समझ जायेंगे । परन्तु आक- मणि चूँकि कही अधिक सूक्ष्म प्रकारका है इसलिये क्या निष्क्रिय मनोभाव समुचित हो सकता है? यह भीतरी और बाहरी आध्यात्मिक युद्ध है; तटस्थ बने रहने और समझौता करनेसे अथवा निष्क्रिय बने रहनेसे भी हम शत्रु सेनाओंको आगे बढ़ने और सत्य तथा उसके बच्चोको कुचल डालनेका अवसर प्रदान कर सकते है । यदि तुम इस दृष्टिकोणसे इस बातको देखो तो तुम समझ जाओगे कि यदि आंतरिक आध्यात्मिक समता उचित है तो साथ ही सक्रिय वफादारी और दृढ़तापूर्वक सत्यका पक्ष लेना भी उचित है, और ये दोनों बातें बेमेल नही हो सकती ।

 

    अवश्य ही, मैंने एक सामान्य प्रश्नके रूपमें ही इसका विचार किया है, सभी विशेष प्रसंगों अथवा व्यक्तिगत प्रश्नोंको अलग छोड़ दिया है । यह एक कर्मका सिद्धांत है जिसे उसके समुचित प्रकाश और अनुपातमें देखना होगा ।

 

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वि- पांच

 

कर्मके द्वारा साधना


 

कर्मके द्वारा साधना

 

     साधारण जीवनका जो कर्म होता है वह अपने ही किसी उद्देश्य और अपनी ही किसी इच्छाकी पूर्त्तिके लिये किसी बौद्धिक या नैतिक नियमकी अधीनतामें किया जाता है और कभी-कभी वह किसी बौद्धिक आदर्शसे भी संस्पृष्ट होता है । गीताके योगमें कर्मका ब्रह्मार्पण, वासनाजय, निरहंकार और निष्काम कर्म, भगवान्की भक्ति, विश्वचैतन्यके साथ योग, सब प्राणियोके साथ एकत्व बुद्धि और भगवानके साथ एका- आत्मता है । हमारे इस योगमें इन सब बातोंके साथ अतिमानसिक ज्योति और शक्ति- के अवतरण (इसके अंतिम उद्देश्य) और प्रकृतिके रूपांतरको भी जोड़ दिया गया है ।

 

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     मनुष्य सामान्यतया प्राण-सत्ताके साधारण हेतुओंसे, आवश्यकतावश, धन या सफलता या सामाजिक स्थिति या शक्ति-सामर्थ्य या यशकी कामनाके हेतु अथवा कर्म- की प्रवृत्ति और अपनी क्षमताओंको अभिव्यक्त करनेके आनन्दके हेतु कर्म करते हैं आंतर अपने धधक चलाते हैं, तथा वे अपनी क्षमता, कर्म करनेकी शक्ति और अच्छे या बुरे भाग्यके अनुसार, जो कि उनके स्वभाव और उनके कर्मका परिणाम होता है, सफल या विफल होते हैं । जब कोई योग ग्रहण करता है और अपना जीवन भगवान्को समर्पित करना चाहता है तो प्राण-सत्ताके इन साधारण हेतुओंकी अब पूर्ण और मुक्त क्रीड़ा नही होती । उनके स्थानमें दूसरे हेतुक, मुख्यतया चैत्य और आध्यात्मिक हेतुक रखना होता है जो साधकको पहलेकी जैसी ही शक्तिके साथ, अब अपने लिये नही बल्कि भगवानके लिये, कर्म करनेमें समर्थ बनायेगा । यदि साधारण प्राणिक हेतु या प्राणिक शक्ति अब मुक्त रूपमें काम न कर सके और फिर भी उसके स्थानमें कोई अन्य वस्तु न रखी गयी हों तो कर्ममें प्रयुक्त प्रबेग या शक्ति हासको प्राप्त हो सकती है अथवा अब वाह सफलता ले आनेवाली शक्ति नही रह सकती । परन्तु सच्चे साधक- के लिये यह कठिनाई केवल अस्थायी ही हो सकती है; परन्तु उसे अपनी चेतनामें या अपने मनोभाव में विद्यमान दोष-त्रुटिको देखना होगा और उसे दूर करना होगा । तब स्वयं भागवत शक्ति उसके माध्यमसे कार्य करेगी और उसकी क्षमता तथा प्राणिक शक्तिका उपयोग अपने उद्देश्योंके लिये करेगी । तुम्हारा जहांतक प्रश्न है, सच पूछा जाय तो तुम्हारे चैत्य पुरुष तथा तुम्हारे मनके एक भागने तुम्हें योगकी ओर खींचा है और वे इसके लिये पहलेसे उद्यत थे, परन्तु तुम्हारे प्राणिक स्वभावने अथवा कम- से-कम उसके एक बहुत बड़े भागने अभीतक चैत्य क्रियाकी धारामें अपनेको नही रखा है । अभीतक सक्रिय प्राण-प्रकृतिने अपना पूर्ण और अविभक्त आत्मार्पण नही किया है ।

 

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       कर्ममें प्राणके आत्मार्पणके  कुछ लक्षण ये हैं:-- यह बोध (महज विचार- या अभीप्सा नही) कि समस्त जीवन और कर्म श्रीमाँके हैं और इस आत्मार्पण और समर्पणमें प्राण-प्रकृतिका तीव्र हर्ष । इसके फलस्वरूप शांत-स्थिर परितृप्ति और कर्म तथा उसके र्व्याक्तेगत परिणामोंके प्रति अहैजन्म आसक्तिका तिरोधान, परन्तु उसके साथ-हीं-साथ कर्ममें तथा भागवत उद्देश्यसे अपनी क्षमताओंके उपयोग- मे महान् हर्ष ।

 

    यह अनुभव होते रहना कि प्रत्येक मुहूर्त्त भागवत शक्ति हमारे कर्मोंके पीछे क्रिया- शील है और पथप्रदर्शन कर रही है ।

 

    एक अटूट श्रद्धा-विश्वास जिसे कोई परिस्थिति या घटना भंग न कर सके । यदि कठिनाइयां आती हैं तो वे मानसिक संदेह या तामसिक स्वीकृतिको नही जगाती; बल्कि इस सुदृढ़ विश्वासको उत्पन्न करती हैं कि सच्चा आत्मार्पण होनेपर भागवत शक्ति कठिनाइयोंको हटा देगी, और इस विश्वासके साथ-साथ इस उद्देश्यसे साधक उनकी ओर और अधिक मुडेगा और उनपर निर्भर करेगा । जब साधकमें पूर्ण श्रद्धा और आत्मार्पणके भाव होता है तो उस समय दिव्य शक्तिको ग्रहण करनेकी क्षमता भी आती है जो मनुष्यसे यथार्थ कार्य कराती है और सही पद्धति ग्रहण कराती ३ और तब परिस्थितियां अनुकूल हों जाती हैं और परिणाम दिखायी देने लगता है ।

 

   इस स्थितिपर पहुँचनेमें लिये आवश्यक चीज है सतत अभीप्सा करते रहना, पुकारते रहना और आत्मदान करना ओर अपने अन्दरकी या चारों ओरकी जो सब चीज़ें पथमें बाधा डालती हैं उन सबका परित्याग करनेका संकल्प बनाये रखना । कठिनाइयां तो आरंभमें, और परिवर्तनके लिये जितने अधिक समयकी आवश्यकता होगी उतने समयतक बराबर ही होंगी; परन्तु उनका सामना यदि मुस्थिर श्रद्धा, संकल्प तथा धैर्यके साथ किया जाय तो वे विलीन होनेको बाध्य होंगी ।

 

    वह साधारण कर्मयोग है जिसमे साधक स्वयं अपना कार्य चुनता है पर उसे भगवान्को अर्पित करता है -- 'वह कर्म उसे दिया गया है' का तात्पर्य यह है कि वह अपने मन या हृदय या प्राणके किसी आवेगके वश उस ओर चालित हुआ है और यह अनुभव करता है कि उस आवेगके पीछे कोई वैश्व शक्ति अथवा वैश्व भगवत्-शक्ति विद्यमान. है और वह अपनेको यह देखनेका प्रशिक्षण देनेका प्रयास करता है कि सभी कर्मोंके पीछे ?? दिव्य शक्ति विद्यमान रहकर उसके और दूसरोंके अन्दर वैश्व उद्देश्यको सिद्ध करती है ।

 

    एक बार जब वह प्रत्यक्ष समर्पणके आदर्शको ग्रहण कर लेता है तो उसे प्रत्यक्ष परिचालन या पथप्रदर्शन प्राप्त करना होता है - यही कारण है कि वह जिसे महज मानसिक, प्राणिक या भौतिक आवेग समझता हैं जो उसकी अपनी या वैश्व प्रकृति- से आते है, उन सबको वह त्याग देता है । निस्सन्देह, आत्मसमर्पणका पूर्ण अर्थ तो

 

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केवल उस समय प्रकट होता है जब वह तैयार हों जाता है ।

 

     मैं नहीं समझता कि जो पथ तुमने चूना है उसपर कोई मार्गदर्शन देना मेरे लिये संभव है - कम-से-कम जो ब्यौरा तुम्हारे पत्रमें है उससे अधिक सुनिश्चित ब्यौरा हुए बिना कोई भी निश्चित बात कहना मेरे लिये कठिन हैं ।

 

     जिस जीवनधारा और कर्मको तुमने चूना है उसको तबतक बदलनेकी कोई आवश्यकता नही जबतक कि तुम यह अनुभव करते हों कि वही तुम्हारे स्वभावका पथ है या तुम्हारी आंतर सत्ताद्वारा तुम्हें प्राप्त आज्ञा है अथवा, किसी कारणवश, वह तुम्हें अपना समुचित धर्म प्रतीत होता है । ये ही तीन कसौटियां है और इनसे भिन्न मैं नही जानता कि गीताके योगके लिये कोई बंधी-बंधाई आचरणविधि या -कर्म या जीवनकी पद्धति निर्धारित की जा सकतीं है । सच पूछा जाय तो जिस भावना या चेतनाके साथ कर्म किया जाता है वही सबसे अधिक महत्वपूर्ण तै, बाहरी रूप वाभित्र स्वभाववाले लोंगोंके लिये बहुत अधिक बदल सकता है । जबतक मनुष्य यह सुनिश्चित अनुभव नहीं प्राप्त कर लेता कि भगवती शक्तिने मेरे कार्यको अपने हाथोंमें ते लिया हे और वही उन्हें कर रही है तबतक ऐसी हीं बात है, उसके बाद यह भगवती शक्ति हीं यह निर्णय करती है कि क्या करना चाहिये या नही करना चाहिये ।

 

   सभी आसक्तियोंको जीतना अवश्य ही कठिन होगा और यह विजय एक दीर्घ साधनाके फलस्वरूप ही आ सकती है अन्यथा नहीं - जबतक कि आंतरिक आध्या- त्मिक अनुभवमें तेजोसे व्यापक वृद्धि न हो जो कि गीताकी शिक्षाका सारमर्म है । फला- कांक्षाका नाश, स्वयं कर्मके प्रति आसक्तिका अन्त, सभी प्राणियों, सभी घटनाओंके प्रति, यश या अपयश, प्रशंसा या निंदा, सौभाग्य या दुर्भाग्यके प्रति समभावकी वृद्धि, अहंभावके विनाश, जो कि समस्त आसक्तियोंको अभावके लिये आवश्यक हुए, केवल तभी पूर्ण रूपसे सिद्ध हों सकते हैं जब कि समस्त कर्म भगवानके प्रति स्वाभाविक यज्ञ बन जाय, हृदय उनके प्रति समर्पित हों जाय और साधकको सभी वस्तुओं और सभी प्राणियोंमे भगवानका निश्चित अनुभव हों । यह चैतन्य या अनुभव सत्ताके सभी भागों और गतिविधियोंमें, 'सर्वभाव', अवश्य होना चाहिये, केवल मन या विचार- मे ही नही होना चाहिये, उस समय सभी आसक्तियोंको झड़ जाना आसान हो जाता है । मैं यहां गीताके योगमार्गकी बात कह रहा हूँ, क्योंकि सन्यासी जीवनमें मनुष्य इसी उद्देश्यको अन्य रूपसे प्रान्त करता है, वह त्याग और अव्यवहारके द्वारा आसक्ति- की वस्तुओंसे विलग हो जाता है और उसके फलस्वरूप स्वयं आसक्ति भी नष्ट हो जाती है !

 

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    में उसे बस अधिक-से-अधिक यही सुझाव दे सकता हूँ कि उसे किसी प्रकारके कर्मयोगका अभ्यास करना चाहिये - अपने छोटे-से-छोटेसे लेकर बडे-से-बडे सभी कर्ममें परम प्रभुको स्मरण करे, उन्हें अचंचल मनसे तथा अहंभाव या आसक्तिसे रहित होकर करे तथा उन्हें यज्ञके रूपमे परम प्रभुको समर्पित करे । वह संसार और उसकी शक्तियोंके पीछे विद्यमान भागवत शक्तिकी उपस्थितिको भी अनुभव करनेका प्रयास या अभीप्सा कर सकता है, अज्ञानकी निम्रतर प्रकृति तथा उच्चतर दिव्य प्रकृति- के बीच,--जिसका स्वभाव है पूर्ण स्थिरता, शांति, शक्ति, ज्योति और आनन्द -, विभेद कर सकता है एव निम्रतरसे उच्चतरमें धीरे-धीरे ऊपर उठा लिये जाने और पहुँचा दिये जानेकी अभीप्सा कर सकता है ।

 

    यदि वह इसे कर सके तो वह कभी-न-कभी अपनेको भगवानके प्रति समर्पित कर देंने तथा पूर्णत: आध्यात्मिक जीवन यापन करनेके योग्य बन जायगा ।

 

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    जो पथ उसके लिये स्वाभाविक प्रतीत होता है वह है कर्मयोग और इसलिये बह जो गीताकी शिक्षाके अनुसार जीवन यापन करनेकी चेष्टा कर रहा है वह ठीक ही कर रहा है, क्योंकि गीता ही इस पथकी महान् पथप्रदर्शिका है । अहंजन्य क्रिया- ओंसे तथा व्यक्तिगत कामनासे परिष्कृत होना और जो ज्योति प्राप्त है उसका ठीक- ठीक अनुसरण करना इस पथके लिये प्रांरभिक प्रशिक्षण है, और जहांतक उसने इन चीजोंका अनुसरण किया है, वह ठीक पथपर ही रहा है, परन्तु अपने कर्मके लिये शक्ति और प्रकाश मांगनेको अहंकारजन्य क्रिया नहीं समझना चाहिये, क्योंकि वे व्यक्तिके आंतरिक विकासके लिये आवश्यक हैं ।

 

    स्पष्ट ही, एक अधिक व्यवस्थित तथा अधिक ताव साधना अपेक्षित है अथवा, किसी भी हालतमें, अटूट अभीप्सा और अधिक सतत रूपसे केंद्रीय लक्ष्यके साथ संलग्न रहना बाहरी वस्तुओं और बाहरी क्रियाओंके बची भी पक्का अनासक्तिभाव तथा सतत पथप्रदर्शन ला सकता है 1 इस योगमार्गकी परिपूर्णता, सिद्धि -- मे पृथक् कर्ममार्गकी अथवा आध्यात्मिक कर्मकी बात कह रहा हूँ - उस समय आना आरंभ करती है जब मनुष्य सुस्पष्ट रूपमे दिव्य पथप्रदर्शक तथा पथप्रदर्शनके विषयमें सज्ञान होता है और जब वह यह अनुभव करता है कि दिव्य शक्ति उसे यत्र बनाकर तथा दिव्य कर्मका भागीदार बनाकर कार्य कर रही है ।

 

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   तुम्हें लिखे गये उसके पत्रसे यह पता चलता है कि वह अपनी साधनामें एक बहुत उपयुक्त पद्धतिका अनुसरण करता रहा है और उसने कुछ अच्छे परिणाम उप- लब्ध किये हैं । इस प्रकारके कर्मयोगका पहला पग है कर्ममें अहकेद्रित स्थिति, निम्र-

 

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तर प्राणिक प्रतिक्रियाओं तथा कामनाके तत्त्वका कम हों जाना और अन्तमें उनसे मुक्ति मिल जाना । उसे निश्चय हीं इस पथपर चलते रहना चाहिये जबतक कि वह उसके अन्त जैसी किसी वस्तुपर नही पहुँच जाता । किसी हालतमें मैं उसे उस पथसे विचलित करना नही पसन्द करुंगा ।

 

    जब मैनई व्यवस्थित साधनाकी बात कही थी तब मेरी दृष्टिमें जो बात थी वह यह थी कि एक ऐसी पद्धतिको स्वीकार किया जाय जो चेतनाके संपूर्ण भावको एक ऐसा सामान्य रूप देगी जिससे कि केवल ब्यौरोंपर कार्य करनेके बदले एक ही साथ उसकी समस्त क्रियाओंको ग्रहण कर लिया जाय -- यद्यपि वह क्रिया भी बराबर आवश्यक होती है । मैं यहां उदाहरणके रूपमें प्रकृति और पुरुषको पृथक् करनेकी साधनाका उल्लेख कर सकता हूँ; सचेतन पुरुष प्रकृतिकी समस्त क्रियाओंसे पृथक् होकर पीछे अवस्थित हों जाता है, उन्हें साक्षी और ज्ञाताके रूपमें और अन्तमें अनु- मति देनेवाले (अथवा न देनेवाले) के रूपमे तथा विकासकी उच्चतम अवस्थामें ईश्वर, विशुद्ध संकल्प और समस्त प्रकृतिके प्रभुके रूपमें निरीक्षण करता है।

 

    तीव्र साधनासे मेरा मतलब था किसी ऐसी महान् निश्चित अनुभूतिपर पहुंचने- का प्रयास करना जो समूची क्रियाके लिये एक दृढ आधार हों सके । मैं देख रहा हुए कि वह कभी-कभी किसी विशाल स्थिरताकी झाँकी मिलनेकी बात कह रहा है. । चेतनामें इस विशाल स्थिरताका स्थायी रूपसे अवतरण होना एक ऐसी अनुभूति हैं जिसकी बात मै सोच रहा था । ऐसे समयोंपर जो वह इसे अनुभव करता है वह यह बात सूचित करता प्रतीत होता है कि उसमें इसे ग्रहण करने और बनाये रखनेकी क्षमता हो सकती है । यदि ऐसा घटित हों या प्रकृति-पुरुषकी अनुभूति प्राप्त हों तो सारी साधना एक प्रबल और स्थायी आधारपर, एक विशुद्ध मानसिक प्रयासके बदले जो सर्वदा कठिन मोर धीमा होता है, एक नवीन और संपूर्णत यौगिक चेतनाके साथ आगे बचेगी । परन्तु मैं इन चीजोंको उसपर लादना नही चाहता; वों अपने समयपर आती हैं और उनकों असमय मत्थे मठ देनेसे उनका बराबर शीघ्र आना संभव नहीं होता । उसे आत्मशुद्धि और आन्म-प्रस्तुतिके अपने प्रारंभिक कार्यको ही जारी रखने दो ।

 

*

 

    यदि मैंने तुम्हें पत्र नही लिखा है तो इसका कारण यह है कि जो कुछ मैंने तुम्हें पहले लिखा था उसमें कोई चीज जोड़ना योग्य नही थी । मैं यह आश्वासन नही दे सकता कि एक निश्चित समयके भीतर तुम एक ऐसा परिणाम पा लोगे जो तुम्हें संसार- मे एक अधिक प्रबल शक्तिके साथ जानेंमें अथवा योगमें सफल होनेमें समर्थ बना देगा । योगके विषयमें तुम स्वयं कहते हो कि इसके लिये अभी तुम्हारा सारा मन तैयार नहीं है और समूचे मनके बिना साधनामें सफलता पाना मुश्किलसे संभव होता हैं । दूसरे- कैंप लिये. सच पूछा जाय तो साधनाका यह कार्य ही नही है कि वह संसारमें जाकर साधा-

 

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रण जीवन बितानेके लिये मनुष्यको तैयार करे । केवल एक चीज है जो ? दिशा- मे कार्य कर सकती है जो ऐसी चीजमें तुम्हें सहायता देगी जो कि वह (साधारण जीवन) नही है, पर फिर भी संपूर्ण योग नही हैं जिसके लिये तुम कहते हों कि तुम पूरे रूपमें तैयार नही हों । वह है कर्मयोगक भाव ग्रहण करना जैसा कि गीता उसका वर्णन करती हे -- एक विशालतर चेतनाको प्राप्त करनेकी अभीप्सा करते हुए अपने- आपको और अपने दुःख-संतापको भूल जाओ, एक महत्तर शक्तिको संसारमें कार्य करते हुए अनुभव करो और किसी करणीय कार्यके लिये, चाहे वह जितना भी छोटा कर्म क्यों न हो, स्वयं उसका यत्र बन जाओ । परंतु चाहे जो भी मार्ग करो न हों, उसे तुम्हें पूर्ण रूपसे स्वीकार करना होगा और उसमें अपनी संपूर्ण संकल्पशक्ति नियुक्त कर देनी होगी -- एक विभक्त औद चंचल संकल्पशक्तिको द्वारा तुम किसी चीजमें, न तो जीवनमें और न योगमें, सफलताकी आशा नही कर सकते ।

 

*

 

    गीताकी भावनाके अनुसार साधना करनेके लिये किसी कर्मको उसका क्षेत्र बनाया जा सकता है ।

 

*

 

    तुमने कर्मके लिये शक्तिका उपयोग किया, और जबतक तुमने उस कर्ममें संलग्न रहना पसन्द किया तबतक उसने तुम्हें सहायता की । प्रथम महत्त्वकी बात किये गये कर्मका धार्मिक या अ-धार्मिक स्वरूप नहीं है बल्कि वह आंतरिक मनोभाव है जिसके साथ उसे किया जाता है । यदि मनोभाव प्राणिक हो और चैत्य न हों तो मनुष्य अपने- को कर्ममें झोंक देता है और आंतरिक संपर्क खो देता है । यदि वह चैत्य होता है तो आंतरिक संपर्क बना रहता है, मनुष्य शक्तिको सहारा देते हुए या कर्म करते हुए अनु- भव करता है और साधनामें प्रगति होती रहती है ।

 

*

 

 ऐसे लोग हैं जिन्होंने श्रीमाँकी शक्तिको अपने अन्दर क्रियाशील अनुभव करते हुए वकीलका कार्य किया है और उसके द्वारा वे आंतरिक चेतनामें विकसित हुए हैं । दूसरी ओर, धार्मिक कार्य अपने स्वभाव था प्रभावमें एकदम बाह्य और प्राणिक हों सकता है ।

 

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       परन्तु मैं कह सकता हूँ कि प्राचीन आध्यात्मिक भारतमें व्यापारको जितनी बुरी या दूषित वस्तु माना जाता था उससे जरा भी अधिक बुरी या दूषित वस्तु मैं नहीं समझता । यदि मैं समझता तो मुझे ' ' से अथवा बंबईमें पूर्वअफिकाकेसाथ व्यापार करनेवाले अपने शिष्योंसे धन न मिल पाता; और न तब मैं उन्हें अपना धंधा करते रहनेके लिये प्रोत्साहित ही कर पाता बल्कि तब मुझे उनसे यह कहना होता कि इसे छोड़ और केवल अपनी आध्यात्मिक उन्नतिकी ओर ध्यान दो । हम कैसे ' ' की आध्यात्मिक ज्योतिकी खोज और उनके मिलमें सामंजस्य बैठाऊं? क्या मुझे उनसे यह नहीं कह देना चाहिये कि अपने मिलको स्वयं उसीके भरोसे और शैतानके हाथ- मे छोड़ दो और किसी आश्रममें जाकर ध्यान करो? यदि स्वयं मुझे भी व्यापार करनेका आदेश मिला होता जैसा कि मुझे राजनीति करनेका आदेश मिला था, तो मैं जरा भी आध्यात्मिक या नैतिक मनस्तापके बिना उसे किया होता । सब कुछ निर्भर करता है उस भावपर जिसके साथ कोई कार्य किया जाता हैं, उन सिद्धातोंपर जिनपर वह कार्य आधारित होता है और उस व्यवहारपर जिसकी ओर वह कार्य प्रयुक्त होता है । मैंने राजनीतिक कार्य किया है और अत्यन्त उग्र प्रकारका क्रांतिकारी राजनीति, 'घोर कर्म', किया कु, और मैंने युद्धका समर्थन किया है और उसमें लोगोंको भेजा है, यद्यपि राजनीति सर्वदा या बहुधा कोई बहुत निर्दोष कार्य नहीं होती और न युद्धका ही कोई आध्यात्मिक कर्म कहा जा सकता है । परन्तु कृष्ण अर्जुनको अत्यन्त भयंकर प्रकारका युद्ध करनेके लिये पुकारते हैं और उसके उदाहरणके द्वारा मनुष्योंको प्रत्येक प्रकारका मानवीय कर्म, 'सर्वकर्माणि', करनेके लिये प्रोत्साहित करते हैं । क्या तुम दृढ़तापूर्वक यह कहते हों कि कृष्ण कोई आध्यात्मिक पुरुष नही थे और अर्जुनको दी हुई उनकी सलाह गत्ता थी या सिद्धांततः गलत थी? कृष्ण तो और आगे जाते और यह घोषित करते हैं कि यदि कोई मनुष्य अपनी मूल प्रकृति, स्वभाव और क्षमताद्वारा अधिप्रेरित कर्मको समुचित ढंगसे और समुचित मनोभावके साथ तथा अपने और उस कर्मके धर्मके अनुसार करे तो वह भगवान्की ओर अग्रसर हों सकता है । वह ब्राह्मण और क्षत्रियकी तरह हीं वैश्यके कर्म और धर्मका समर्थन करते हैं । उनकी दृष्टिमें मनुष्यके लिये यह बिलकुल संभव दु कि वह व्यापार करे, धन कमाये, लाभ अर्जन करे और फिर भी आध्यात्मिक पुरुष बना रहे, योगका अभ्यास करे, आंतरिक जीवन प्राप्त करे । गीता निरन्तर आध्यात्मिक मुक्तिके साधनके रूपमें कर्मोका समर्थन करती और भक्ति तथा ज्ञानके साब-साथ कर्मोंके योगका निर्देश देती है । परन्तु कृष्ण इस उच्चतर विधानको भी सबसे ऊपर स्थान देते हैं कि कर्म बिना कामनाके, किसी फल या पुरस्कारके प्रति आसक्ति रखे बिना, किसी अहंकारपूर्ण मनोभाव या उद्देश्य- के बिना, भगवान्की पूजाके रूपमें, उनको अर्पित यज्ञके रूपमें करना होगा । इन चीजोंके प्रति यही परंपरागत भारतीय मनोभाव है ? सभी कर्म किये जा सकते हैं यदि वे धर्मके अनुसार किये जायं और, यदि उन्हें समुचित ढंगसे किया जाय तो वे भग- वान्को प्राप्त करनेसे या आध्यात्मिक चना तथा आध्यात्मिक जीवन प्राप्त करनेसे नही रोकते ।

 

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     निस्संदेह, एक संन्यासी-भाव भी है जो बहुतोंके लिये आवश्यक है और आध्या- त्मिक परंपरामें जिसका अपना स्थान है । मैं स्वयं भी यह कहूँगा कि कोई व्यक्ति यदि त्यागभावके साथ जीवन नहीं बिता सकता अथवा निःस्व वैरागीके जीवनके जैसे दरिद्र जीवनका अनुसरण नहीं कर सकता तो वह आध्यात्मिक दृष्टिसे पूर्ण नही हो सकता । स्पष्ट ही, धन और धन कमानेकी लालसाका उसके स्वभावमें उसी तरह अभाव होना चाहिये जिस तरह भोजनके लोभ या दूसरे किसी लोभका अभाव होना चाहिये तथा इन चीजोंकी समस्त आसक्तिका परित्याग उसकी चेतनासे हो जाना चाहिये । परन्तु मैं जीवनकी सन्यासी -पद्धतिको आध्यात्मिक परिपूर्णताके लिये अनिवार्य अथवा उसके साथ अभिन्न नहीं मानता । एक आध्यात्मिक आत्मप्रभुत्वका मार्ग है और भगवानके प्रति आध्यात्मिक आत्मदान तथा आत्मसमर्पणका मार्ग है जिसमें कर्मके बीच भी या किसी प्रकारके कर्मका या सभी प्रकारके कर्मका, जिसकी मांग भगवान् हमसे करते हैं, अहंकार और कामनाका त्याग किया जा सकता है । यदि ऐसा न होता तो भारतमें जनक या विदुर जैसे महान् आध्यात्मिक पुरुष न हुए होते और फिर कोई कृष्ण भी न हुए होते अथवा कृष्ण वृंदावन और मथुरा और द्वारकाके स्वामी अथवा राजा और योद्धा और कुरुक्षेत्रके सारथी न हुए होते । बल्कि एक अधिक महान् संन्यासी हुए होते. । भारतीय शास्त्र और भारतीय परंपरा, महाभारत तथा अन्य ग्रंथोंमें भी, जीवन- के त्याग रूप आध्यात्मिकता तथा कर्ममय आध्यात्मिक जीवन दोनोंको स्थान देती है । कोई यह नही कह सकता कि केवल एक ही भारतीय परंपरा है और जीवन तथा सब प्रकारके कर्मोंको, 'सर्वकर्माणि' को, स्वीकार करना अभारतीय, यूरोपियन या पाश्चात्य और अनाध्यात्मिक है ।

 

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      कर्मके अन्दर सभी प्रकारके कार्य सम्मिलित हैं; कर्म है वह कार्य जो किसी निश्चित उद्देश्यकी ओर प्रयुक्त होता है और विधिवत् तथा नियमित रूपसे किया जाता है । सेवा है वह कार्य जो श्रीमाँकी उद्देश्यपूर्त्तिके लिये और उनके निर्देशके अनुसार किया जाता है ।

 

II

 

           ' ' को यह परामर्श देनेका कोई अर्थ नही कि वह तुम्हें ले न जाय और तुम्हें पहले भगवान्को प्राप्त करने दे । क्या मनुष्यको भगवान्की सेवा करनेसे पहले उन्हें प्राप्त कर लेना होगा अथवा क्या भगवान्की सेवा करना उनको प्राप्त करनेका एक उपाय नही है? जो हो, सेवा और भगवत्प्राप्ति दोनों ही पूर्णयोगका लिये आवश्यक हैं और हम इन दोनोंके बीच किसी एकाकी प्राथमिकताका कोई कठोर नियम नही निर्धारित कर सकते ।

 

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१७४


     तुम्हारा उद्देश्य केवल अपनी आंतरिक उन्नति और संरक्षणके लिये योगाभ्यास करना नही बल्कि भगवानके लिये कुछ कर्म करना भी है ।

 

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    जिस कर्मसे आध्यात्मिक शुद्धि होती है वह कर्म तो केवल वही कर्म है जो निर्हेतुक होकर किया जाता है, जिसमें प्रसिद्धि या मान्यता अथवा लोकप्रतिष्ठाकी कोई इच्छा नही होती, जिसमें अपने मनोरथों, प्राणगत लालसाओं और आवश्यकताओं या भौतिक अभिरुचियोंका कोई आग्रह नही होता, जिसमें कोई अतिमान या अहमन्यता या अपनी मानप्रतिष्ठाका कोई दावा नही होता, जो केवल भगवानके लिये और भगवान्की हीं आज्ञासे किया जाता है । अहंभावके साथ जो कोई भी काम किया जाता है वह अज्ञानी जगतके लोगोंके लिये चाहे जितना भी अच्छा हों, योगके साधकके लिये किसी भी कामका नही है ।

 

*

 

    निस्संदेह, कर्मका आध्यात्मिक फल आंतरिक मनोभावपर निर्भर करता हैं । सच पूछा जाय तो महत्त्वपूर्ण बात हैं कर्ममें प्रउक्त पूजाका भाव । यदि कोई इसके साथ-साथ कर्ममें श्रीमाँको स्मरण कर सकें या किसी विशेष एकाग्रताके द्वारा श्रीमांकी उपस्थितिको अथवा कर्मको सहारा देनेवाली या संपन्न करनेवाली शक्तिको अनुभव कर सकें तो वह आध्यात्मिक परिणामको और भी अधिक बढ़ा देती है । परन्तु कोई यदि निराशा, अवसाद या संघर्षके क्षणोंमें ये चीजे न भी कर सके तो भी पीछेकी ओर प्रेम या भक्ति बनी रह सकतीं है जो कि कर्मकी मूल प्रेरक शक्ति थी और वह निराशाके पीछे बनी रह सकती और अन्धकारका काल बीतनेपर सूर्यकी तरह फिरसे प्रकट हो सकतीं है । सभी साधनाएं ऐसी ही हैं और इसी कारण किसीको अंधकारके क्षणोके कारण निरुत्साहित नही होना चाहिये, बल्कि यह समझना चाहिये कि मूल प्रबेग वहां विद्यमान हे और इसलिये अंधकारके मुहूर्त्त यात्राके बीचमें आनेवाली केवल एक अवातर वस्तु है जो एक बार समाप्त हो जानेपर किसी महत्तर प्रगतिकी ओर ले जायगी ।

 

*

 

 निर्दोष सेवक बननेकी शर्त्त है -- सभी अहंकारजन्य प्रयोजनोंसे मुक्त रहना, वाणी और कर्ममें सत्यताके लिये सावधान रहना, स्वैरता और स्वमताग्रहसे शून्य होना, और सभी बातोंमें जाग्रत् और सचेत रहना ।

 

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     शक्ति पानेके लिये खींच-तान नहीं होनी चाहिये, कोई महत्वाकांक्षा, शक्तिका कोई अहंकार नहीं होना चाहिये । जो शक्ति या शक्तियां आती हैं उन्हें अपनी नहीं, बल्कि भगवान्की उद्देश्यसिद्धिके लिये भगवान्की देन समझना चाहिये । इस विषय- मे सावधान रहना चाहिये कि कही उनका महत्वाकाक्षा या स्वार्थके लिये दुर्व्यवहार न हों, किसी प्रकारका अभिमान या मिथ्याभिमान न रहे, कोई बड्णनकी भावना, कोई यंत्र बननेकी चाह या अहंकार न हों, बल्कि केवल यह भावना रहे कि किसी भी तरह प्रकृति एक सरल और शुद्ध चैत्य करण बन जाय जिसमें वह भगवान्की सेवाके योग्य हों ।

 

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    जिस भाव और चेतनासे कोई कर्म किया जाता है वही उसे यौगिक कर्म बनाता है -- कर्म अपने-आपमें वैसा नहीं होता ।

 

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   आत्मसमर्पण किसी विशेष कर्मपर नही निर्भर करता जिसे तुम करते हों, बल्कि उस भावपर निर्भर करता है जिसके साथ सभी कर्म, चाहे जिस प्रकारके वे क्यों न हों, किये जाते हैं । कोई भी कार्य जो भगवानके प्रति यज्ञके रूपमें, कामना या अहंकारसे रहित होकर, मनकी समता और सौभाग्य या दुर्भाग्यके प्रति स्थिर प्रशांतिके साथ, भगवानके लिये न कि अपने किसी व्यक्तिगत लाभ, पुरस्कार या परिणामके लिये, और इस चेतनाके साथ कि सच पूछा जाय तो सभी कर्म भागवत शक्तिके हैं, अच्छी तरह और सावधानीके साथ किया जाता है वही कर्मके द्वारा आत्मसमर्पणका साधन होता

 

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 निस्संदेह, बडेपन और छोटेपनकी भावना आध्यात्मिक सत्यके लिये एकदम विजातीय है.. । आध्यात्मिक दृष्टिसे न तो कोई चीज बड़ी है और न छोटी । ऐसी भावनाएं साहित्यिक लोगोंकी भावनाओंकी जैसी हैं जो यह समझते हैं कि कविता लिखना एक उच्च कार्य है और जूता बनाना या भोजन पकाना छोटा और नीच कार्य । परन्तु सब कुछ परमात्माकी दृष्टिमें एक जैसा है -- और वास्तवमें केवल उस आंतरिक भावनाका ही मूल्य है जिसके साथ कार्य किया जाता है । यही बात किसी विशेष कर्मके विषयमें भी लागू होती है; सच पूछा जाय तो कोई भी चीज बड़ी या छोटी नहीं है।

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   मैं इतना और जोड़ सकता हूँ कि विशालतर चेतनामें मनुष्य तुच्छ और उच्च वस्तुओंके साथ व्यवहार कर सकता है, पर वह उनके साथ एक विशालतर तथा गभीर- तर, सूक्ष्मतर और यथार्थतर दृष्टिका द्वारा व्यवहार करता है जो दृष्टि अधिकाधिक विचक्षण और ज्योतिर्मयी चेतनासे आती हे जिससे कि तुच्छ वस्तुओंसे संबंधित विचार भी अपने-आपमें तुच्छ या नगण्य नही रह जाते बल्कि अधिकाधिक उच्चतर ज्ञानका अंग बन जाते हैं ।

 

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     लगभग प्रत्येक कलाकारके (बहुत विरल हीं अपवाद हों सकते हैं) प्राणिक- भौतिक भागमें सार्वजनिक पुरुषका कृउछ अंश होता है जिसके कारण वह श्रोताओंसे प्राप्त प्रोत्साहन, सामाजिक अनुमोदन, संतुष्ट मिथ्याभिमान, प्रशंसा और प्रसिद्धिके लिये लालायित होता हे । यदि तुम योगी होना चाहते हों तो यह सब पूर्ण रूपसे चला जाना चाहिये, --तुम्हारी कला तुम्हारे अपने अहंकी नही, और किसी व्यक्ति या वस्तुकी नही, बल्कि ?? भगवान्की सेवा होनी चाहिये ।

 

*

 

    यदि तुम लोगोंकी प्रत्याशा और आभार-बोधसे मुक्त रहना चाहते हों तो निस देह किसीसे कुछ न लेना ही सर्वोत्तम हैं, क्योंकि लेनेपर मांगकी भावना अवश्य रहेगी । यह बात नही कि यदि तुम कुछ भी नहीं लोगे तो यह सब चीज़ें बिलकुल नही रहेगी, पर तुम अब उनसे बेध नही रहोगे ।

 

     गानेके विषयमें तुमने जो लिखा है वह पूर्णत. सही है । तुम केवल तभी उत्तम रूपमे गाते हों जब तुम अपनेको भूल जाते हो और उसकी उत्तमताकी आवश्यकता या उससे पड़नेवाली छापकी बात सोचे बिना उसे भीतरसे प्रकट होने देते हो । बाहरी गायकको अवश्य हीं भूतकालमें विलीन हो जाना चाहिये -- केवल तभी भीतर्रो गायक उसका स्थान ले सकता है ।

 

*

 

   अब तुम्हारे गानेकी बातपर आवें, मै सौदर्यबोधात्मक दृष्टिकोणसे किसी नयी सुरष्टिकी बात नहीं कह रहा था, बल्कि आध्यात्मिक परिवर्तनकी दृष्टिसे कह रहा था -- वह क्या रूप लेगा यह उस चीजपर निर्भर करना चाहिये जिसे तुम अपने अन्दर गभीरतर आधारके स्थापित होनेपर प्राप्त करोगे ।

 

   मैं गानेको एकदम बन्द कर देनेकी कोई आवश्यकता नही देखता, मेरा केवल यह मतलब था,--मैनई जो कुछ तुम्हें लिखा हैं, केवल अभी नही बल्कि पहले भी, उसका

 

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यह युक्तिसंगत निष्कर्ष है,-कि आंतरिक परिवर्तनपर सबसे पहले ध्यान देना चाहिये और बाकी चीज़ें उसीसे उत्पन्न होनी चाहिये । यदि श्रोताओंके सम्मुख गाना तुम्हें आंतरिक स्थितिसे बाहर खींच लाता हे तो तुम उसे बन्द कर सकते हो और अपने लिये तथा भगवानके लिये गा सकते हों जबतक कि तुम, श्रोताओंके सम्मुख रहते हुए भी, उन्हें भूल जानेके योग्य नही बन जाते । यदि तुम असफलतासे दुखी और सफलतासे उत्तेजित होते हो तो उसे भी तुम्हें जीतना होगा ।

 

*

 

    यह बात नही कि जो कुछ तुम नापसन्द करते हो उसे ही तुम्हें करना होगा, बल्कि तुम्हें नापसन्द करना बंद कर देना होगा । जो कुछ तुम पसन्द करते हों केवल उसे ही करना अपने प्राणको प्रश्रय देना तथा प्रकृतिके ऊपर उसीका शासन बनाये रखना है -- क्योंकि वही चीज, अपनी पसन्दगी और नापसन्दगीसे शासित होना रूपांतर- रित स्वभावका यथार्थ तत्त्व है । किसी भी चीजको समताके साथ करनेमें सक्षम होना कर्मयोगका सिद्धांत है और उसे प्रसन्नताके साथ करना क्योंकि वह श्रीमांके लिये किया जाता है, इस योगका यथार्थ चैत्य और प्राणिक अवस्था है ।

 

*

 

     एक ही कार्यको सर्वदा उत्साहके साथ करते रखनेमें सक्षम होना चाहिये और उसके साथ-ही-साथ एक क्षणकी नोटिसपर अन्य कोई चीज करने या अपने क्षेत्रको बढ़ानेके लिये तैयार रहना चाहिये ।

 

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    हों! यह चेतनाके एक प्रकारके प्रसारण और तीवीकरणपर निर्भर करता है जिससे सभी कार्यकलाप, केवल अपने-आपमें नही बल्कि उनमें नियुक्त चेतनाके कारण, रोचक बन जाते हैं, और ऊर्जाकी तीव्रताके कारण, ऊर्जाकी व्यवहारमें, तथा कर्मको, चाहे वह कोई भी कर्म क्यों न हो, पूर्ण रूपसे करनेमें आनन्द मिलता है ।

 

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 साधारणतया, मेरा मतलब है उनकी अपरिवर्त्तित स्थितिमें, निम्रतर अंग उस समय अनुरक्त और उत्साहित हों जाते हैं जब अहं स्वार्थके साथ मिल जाता है । परन्तु जब वे अधिकाधिक परिवर्त्तित और शुद्ध होंगे, उनके अन्दर विशुद्ध उत्साह भी आ सकता है और फिर वे योगसिद्धिके लिये अत्यन्त अनिवार्य शक्तियां बन सकते

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है

 

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       प्राणके लिये या मनके लिये भी किसी नयी वस्तुसे ऊर्जस्वी अनुभव करना स्वा- भाविक है - परन्तु भौतिक स्तरके लिये निरन्तर दुहराया गया कार्य ही आधार है - अतएव साधकको कम-से-कम उसमें सर्वदा एक स्थायी स्थिर रुचि लेनेमें समर्थ होना होगा । परंतु इस प्रसंगमें मैं समझता हूँ कि जब उसने तुम्हें देखा था तब श्रीमान तुम्हारे पास एक विशिष्ट शक्ति भेजी थी ।

 

*

 

      शरीरका कुछ अंश कार्य किये बिना नही रह सकता, दूसरा भाग ( अधिक जड़) इसे एक यातना समझता है । परन्तु जो चीज कर्मकी शक्ति और आनन्द प्रदान करती है वह शरीर नहीं बल्कि प्राण है ।

 

     कर्मसंबंधी दो मनोवृत्तियोंके बीच परिणामोंमें, भेद होनेका कारण यह है कि पहली वृत्ति तो है प्राणिक हर्षकी वृत्ति, जब कि दूसरी है चैत्य अचंचलताकी वृत्ति । प्राणिक हर्ष, यद्यपि साधारण मानवजीवनके लिये बहुत उपयोगी वस्तु है, एक उत्तेजित, उत्सुक, स्थिर आधारसे रहित चंचल वस्तु है - यही कारण है कि यह हर्ष बहुत जल्द थक जाता है और बना नहीं रह सकता । प्राणिक हर्षकी जगह अचंचल सुस्थिर चैत्य आनन्दको ला बिठाना होगा और मन तथा प्राणको बहुत स्वच्छ और बहुत शांति- पूर्ण बनाये रखना होगा । जब कोई इस आधारपर कार्य करता है तो प्रत्येक चीज सुखपूर्ण और आसान बन जाती है, उस समय श्रीमांकि शक्तिका स्पर्श बना रहता है और थकावट अथवा अवसाद नहीं आता ।

 

 III

 

     चेतनामें चीजोंके पक्का हो जानेसे पहले, कर्म करनेपर चेतना अवश्य बाहर- की ओर खिंच जाती है जबतक कि कोई अपने द्वारा कार्य करनेवाली '' अपनेसे महत्तर दिव्य शक्ति' ' को अनुभव करना अपनी साधना नही बना चुका हो । मैं समझता हूँ कि यहीं कारण है कि शकरके अनुयायियोंने कर्मको अपने स्वभावमें ही अज्ञानका कार्य तथा सिद्धिकी अवस्थाके साथ असंगत समझा । परन्तु वास्तविक बात यह हैं कि इसकी तीन अवस्थाएं हैं ( 1) जिसमें कर्म तुम्हें एक निम्रतर तथा बाह्य चेतनामें

 

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ले आता है जिससे कि तुम्हें पीछे अपने अनुभवको पुन: प्राप्त करना होता है । ( 2) जिसमें कर्म तुम्हें बाहर ले आता है, पर अनुभूति पीछे (या ऊपर) विद्यमान रहती हे, कर्म करते हुए अनुभूत नही होती, पर ज्योंही कर्म बन्द होता है तुम उसे ठीक वैसे ही अनुभव करते हों जैसे वह पहले थी । ( 3) जिसमें कर्मसे कोई फर्क नही पड़ता, क्योंकि अनुभूति या आध्यात्मिक अवस्था स्वयं कर्मके अन्दर बनी रहती है । ऐसा लगता है कि इस बार तुमने न  ( 2) को अनुभव किया है ।

 

*

 

    यह एक विशेष स्थितिको सूचित करता है जब चेतना कभी कर्ममें होती है और जब कर्ममें नहीं होती तो अपने-आपमें समाहित होती है । पीछे एक ऐसी स्थिति आती है जब सच्चिदानंद स्थिति कर्ममें भी बनी रहती है । फिर इससे भी आगेकी एक स्थिति है जब दोनों मानो एकरूप हों जाते हैं, पर वह अतिमानसिक स्थिति है । दो स्थितियां हैं नीरव ब्रह्म और सक्रिय ब्रह्मकी और वे बारी-बारीसे आ सकती ( पहली स्थिति), एक साथ रह सकतीं ( दूसरी स्थिति) और एक साथ घुलामिला सकती हैं (तीसरी स्थिति). ।

 

    निस्सन्देह, यह (उच्चतम सच्चिदानन्दकी अनुभूति) कर्ममें अनुभूत हो सकती है । हाय राम! यदि यह न हों पाता तो भला पूर्णयोग कैसे संभव हों सकता है?

 

*

 

     यह उद्धरण चेतनाकी उस स्थितिका वर्णन करता है जब मनुष्य सभी वस्तुओं- के मध्य रहता हुआ भी सबसे पृथक् होता है और सब कुछ असत्य, माया अनुभूत होता है । उस समय कोई पसन्दगी या कामना नही होती क्योंकि चीजे इतनी अधिक असत्य होती हैं कि उनकी कामना नही होती और न एकके बदले दूसरेको पसन्द करनेकी वृत्ति होती है । परन्तु, उसके साथ-ही-साथ, मनुष्य संसारसे भागनेकी या कोई कर्म न करने- की कोई आवश्यकता अनुभव नहीं करता, क्योंकि मायासे मुक्त होनेके कारण वह कर्म या सांसारिक जीवनसे भाराक्रांत नही होता, वह बद्ध या अंतर्ग्रस्त नही होता । जो लोग संसारसे भाग जाते हैं या कर्मका त्याग करते हैं (संन्यासीगण) वे इसलिये ऐसा करते हैं कि वे अंतर्ग्रस्त या बद्ध हो जायेंगे; वे संसारको असत्य मानते हैं, पर वास्तवमें जबतक ये लोग इसमें रहते हैं यह उनकों एक सद्वस्तुके रूपमें भाराक्रांत करता है । जब कोई वस्तुओंकी सत्यताके भ्रमसे मुक्त हों जाता है तब वे उसको भाराक्रांत नही कर सकती अथवा बिलकुल ही बांध नहीं सकती ।

 

*

 

१८०


     करता? वह भला कोई चीज क्यों करना चाहता जब कि वह शाश्वत शांति या आनन्दमें या भगवानके साय एकत्वमें निवास करता था? अगर कोई व्यक्ति आध्यात्मिक हो और प्राण तथा मनके परे चला गया हो तो उसे निरन्तर कोई चीज ' 'करते रहने' ' की आवश्यकता नही होती । आत्माको स्वयं अपने अस्तित्वका हीं आनन्द प्राप्त होता है । वह कुछ न करनेके लिये स्वतंत्र हे और प्रत्येक चीज करनेके लिये स्वतंत्र है - पर इसलिये नहीं कि वह कर्मसे बद्ध है और उसके बिना अस्तित्व रखनेमें असमर्थ है ।

 

*

 

      परन्तु जीवनमुक्त कोई बन्धन नहीं अनुभव करता । सभी कार्य-कर्मोंमें वह अपनेको पूर्ण रूपसे स्वतंत्र अनुभव करता है, क्योंकि कर्म वह स्वयं व्यक्तिगत रूपमें (उसमें सीमित अहंवाद नहीं होता) नही करता, बल्कि कर्म तो उसके द्वारा वैश्व शक्ति करती है । कर्मकी सीमाएं वे ही होती हैं जिन्हें स्वयं वैश्व शक्ति अपने निजी कर्ममें निर्धारित करती है । वह स्वयं परात्परके साथ एकत्व-प्राप्तिकी स्थितिमें रहता है और वह परात्पर विश्वके परे है और कोई सीमा अनुभव नहीं करता । कम- से-कम इसी रूपमें यह अधिमानसमे अनुभूत होता है ।

 

*

 

    यदि अहंकार और कामना गुणोंसे भिन्न चीजे हैं तो फिर अहंकार और कामना- के बिना गुणोंका कार्य हो सकता है और इसलिये आसक्तिके बिना हो सकता है । अनासक्त मुक्त योगमें इन गुणोंके कर्मका यही स्वरूप है । यदि यह संभव न हो तो योगियोंके अनासक्त होनेकी चर्चा करना निरर्थक होगा, क्योंकि तब तो उनकी सत्ताके एक भागमें अभी भी आसक्ति बनी रहेगी । यह कहना कि वे पुरुष-भागमें अनासक्त होते हैं, पर प्रकृति-भागमें आसक्त होते हैं, इसलिये वे अनासक्त होते हैं, निरर्थक बकवास करना है । आसक्ति आसक्ति है, फिर वह सत्ताके किसी भी भागमें क्यों न हों । अनासक्त होनेके लिये मनुष्यको केवल कहीं अपने भीतर नीरव अन्तरात्मामें ही नही, बल्कि सर्वत्र, अपने मानसिक, प्राणिक और भौतिक कर्ममें अनासक्त होना होगा ।

 

*

 

     मुक्तावस्थामें केवल आंतर पुरुष ही अनासक्त नहीं बना रहता - आंतर पुरुष सर्वदा ही अनासक्त रहता है, केवल मनुष्य साधारण स्थितिमें उसके विषयमें सचेतन नहीं होता । प्रकृति भी गुणोंकी क्रियासे विक्षुब्ध नहीं होती या उससे आसक्त नही होती - मन, प्राण, शरीर (जो कुछ भी प्रकृति है वही) अचंचलता, अविक्षुब्ध शांति

 

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और अनासक्ति पुरुषकी भांति अनुभव करना आरंभ करते हैं, पर यह अचंचलता होती है, सब कर्मोका अवसान नहीं । यह स्वयं कर्मके अन्दर प्राप्त अचंचलता होतीं है । यदि बात ऐसी न होती तो 'आर्य'में छपा मेरा यह वक्तव्य मिथ्या हों जायगा कि कामना- रहित या मुक्त कर्म भी हो सकता है जिसपर मैनई मुक्त कर्मकी संभावनाको स्थापित किया था । समस्त सत्ता, पुरुष-प्रकृति, (कोई कामना या आसक्ति न होनेके कारण) गुणोंके कर्मके अन्दर भी अनासक्त हो सकती है ।

 

    बाह्य सत्ता भी अनासक्त हो जाती है - सारी सत्ता कामना या आसक्तिसे रहित हो जाती है और फिर भी कर्म करना संभव होता है । कामनाके बिना कर्म करना संभव है, आसक्तिके बिना कर्म करना संभव है, अहंकारके बिना कर्म करना संभव है !

 

 *

 

    संभवतः तुम यह समझते हों कि कर्म और प्रकृति एक ही चीज हैं और जहां कोई कर्म नही है वहां कोई प्रकृति नही हो सकती! पुरुष और प्रकृति सत्ताकी पृथक्- पृथक् शक्तियां हैं । यह बात नही है कि पुरुष? निष्क्रियता और प्रकृति  कर्म है, अत- एव जब सब कुछ निश्चल है तब कोई प्रकृति नही है और जब सब कुछ सत्रिय है तब- कोई पुरुष नही है । जब सब कुछ सक्रिय होता है तब भी पुरुष सक्रिय प्रकृतिके पीछे विद्यमान रहता है और जब सब कुछ निश्चल-निष्क्रिय होता है तब भी वहां प्रकृति होती है, पर प्रकृति निश्चेष्ट होती है ।

 

*

 

    प्रकृति वह शक्ति है जो कार्य करती है । शक्ति कार्यरत हो सकतीं या निष्क्रिय हो सकतीं है, पर जब बह निश्चल होती है तब वह उतनी ही अधिक एक शक्ति होती है जितनी वह कर्म करते समय होती है । त्रिगुणा शक्तिका कार्य हैं, वे स्वयं शक्तिमें ही विद्यमान हैं । समुद्र हैं और उसकी लहरें हैं, पर लहरें समुद्र नहीं हैं और जब लहरें नही होती और समुद्र शांत-स्थिर होता है तब बह समुद्र होना बन्द नही कर देता ।

 

*

 

    सत्व प्रभुत्व रखता है, रजस् गतिकारक क्रियाके रूपमें सत्वके शासनके अधीन तबतक कार्य करता है जबतक कि तमसु विश्रामकी आवश्यकताको नही लादता । यही सामान्य बात है (मुक्तावस्थामें) । परन्तु यदि तमस अधिकार जमा ले और कर्म दुर्बल हों जाय अथवा रजs अधिकार जमा ले और कर्म अत्यधिक मात्रामें हों तो भी न तो पुरुष और न प्रकृति ही विक्षुब्ध होती है, सारी सत्तामें एक मौलिक स्थिरता

 

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बनी रहती है और कर्म ऊपरी तहपर उठनेवाली एक तरंग या भंवरसे अधिक कोई चीज नहीं होता ।

 

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    यह (उपरितलीय कर्मसे पृथक् होना पुरुषकी अपेक्षा) प्रकृतिके लिये अधिक कठिन है, क्योंकि इसकी साधारण क्रीड़ा है उपरितलीय सत्ताकी क्रीड़ा । इसे उससे पृथक् होनेके लिये अपनेको दो भागोंमें विभक्त करना होता है । इसके विपरीत, पुरुष अपने स्वभावमें ही नीरव और पृथक् होता है - अतएव उसे केवल अपने मूल स्व- रूपमें पीछे चेत जाना होता है ।

 

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     जब प्रकृति मुक्त होती है तो वह अपनेको दो भागोंमें विभक्त कर देती है - ( 1) आंतर शक्ति जो अपने कर्मसे मुक्त (रजसू, तमस आदिसे मुक्त) होती हैं; ( 2) बाह्य प्रकृति जिसे वह व्यवहृत करती और बदलती रहती है ।

 

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     यदि चेतना और ऊर्जा एक ही चीज हैं तो फिर उनके लिये दो अलग-अलग शब्द प्रयुक्त करनेसे कोई लाभ नही होगा । उस अवस्थामें, यह कहनेके बदले कि ' 'मैं अपने दोषोंके विषयमें सचेतन हूँ, '' हम कह सकते हैं कि ' 'मैं अपने दोषोंके विषयमें ऊर्जस्वी हूँ । '' यदि कोई मनुष्य तेज दौड रहा है तो उसके विषयमें तुम कह सकते हों कि ' 'वह महान् स्फूर्ति ( या ऊर्जा) के साथ दौड रहा है । '' क्या तुम समझते हों कि जब तुम यह कोह कि ' 'वह महान् चेतनाके साथ दौड रहा है, '' तो उसका अर्थ भी वही होगा? चेतना वह चीज है जो वस्तुओंसे अवगत होती हे -- ऊर्जा कर्ममें प्रयुक्त एक शक्ति है जो कार्य करती है । चेतनामें ऊर्जा हों सकती है और वह उसे अपने अन्दर रख सकतीं या बाहर प्रयुक्त कर सकती है, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि वह ऊर्जाकी लिये केवल एक दूसरा शब्द है, और जब ऊर्जा बाहर जाती है तो उसे भी बाहर चले जाना होगा और वह पीछे नही हट सकती और कर्मरत ऊर्जाका निरीक्षण नही कर सकती । तुम्हारे अन्दर पर्याप्त मात्रामें तमs है, पर इसका तात्पर्य यह नही कि तुम और तमs एक ही चीज हों और जब तम उठता है और तुम्हें पछाड़ देता है तब स्वयं तुमही उठते और अपने-आपको पछाड़ देते हो ।

 

*

 

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    निश्चय ही, मन और आंतर सत्ता चेतना हैं । जो मनुष्य अपने अन्दर अधिक गहराईतक नही पैठे हैं उनके लिये मन और चेतना समानार्थक शब्द हैं । केवल जब मनुष्य चेतनाके वर्द्धित होनेपर अपने विषयमें अधिक सज्ञान होता है तो वह चेतनाके विभिन्न स्तरों, प्रकारों, शक्तियोंको, मानसिक, प्राणिक, भौतिक, चैत्य, आध्यात्मिक आदिको देख सकता है । भगवानका वर्णन सत्, चित्, आनन्दके रूपमें, यहांतक कि एक चैतन्यके रूपमें किया गया है जो एक शक्ति या ऊर्जाको, दिव्य शक्तिको प्रकट करता है जो संसारका सृजन करती है । मन एक प्रकारकी परिवर्त्तित चेतना है जो एक मान- सिक ऊर्जाको अपने अन्दरसे प्रकट करती है । परन्तु भगवान् अपनी ऊर्जासे पीछे हटकर अवस्थित हो सकते और उसे कार्य करते हुए निरीक्षण कर सकते हैं, वह साक्षी पुरुष हो सकते और प्रकृतिके कार्योंको देख सकते हैं । स्वयं मन भी ऐसा कर सकता है -- मनुष्य अपनी मानस-चेतनामें पीछे हटकर अवस्थित हो सकता, मानसिक ऊर्जाको कार्य करते हुए, सोचते हुए, योजना बनाते हुए आदि-आदि देख सकता है; समस्त अतर्निरीक्षण इसी तथ्यपरक आधारित है कि मनुष्य अपने-आपको इस प्रकार एक चेतना ( जो निरीक्षण करती है) और एक ऊर्जा (जो कार्य करती है) मे विभक्त कर सकता है । ये बिलकुल प्रारंभिक बातें हैं और ऐसा माना जाता है कि इन्हें प्रत्येक व्यक्ति जानता है । कोई भी व्यक्ति महज थोडेसे अभ्याससे इसे कर सकता है; जो भी व्यक्ति अपने विचारों, भावनाओं, कार्योंको अवलोकन करता है उसने ऐसा करना बिलकुल प्रारंभ कर दिया है । योगमें हम इस विभाजनको पूर्ण बना देते है, बस इतनी ही बात है ।

 

*

 

    यह (चेतना) अपने स्वभावसे ही मानसिक और अन्य क्रियावलियोंसे अनासक्त नही होती । यह अनासक्त हो सकती है, यह अतर्ग्रस्त हो सकतीं हे । मानव-चेतनामें सामान्यतया यह सर्वदा अंतर्ग्रस्त होती हे, परन्तु इसने अपनेको अनासक्त करनेकी शक्ति विकसित कर लें है - यह एक ऐसी चीज है जिसे करनेमें निम्रतर सृष्टि अक्षम प्रतीत होती है । जैसे-जैसे चेतना विकसित होती है, यह अनासक्त होनेकी शक्ति भी विकसित होती है ।

 

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     नही, साधनाके बिना योगका लक्ष्य नही प्राप्त किया जा सकता । स्वयं कर्म- को साधनाके अंगके रूपमे ग्रहण करना होगा । परन्तु स्वभावत: ही जब तुम कर्म कर रहे हो तब तुम्हें कर्मकी ही बात सोचनी होगी जिसे तुम एक यंत्ररूप यौगिक चेतना- से तथा भगवान्की स्मृतिके साथ करना सीखोगे ।

 

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इसका कारण यह है कि ऊर्जा कर्ममें प्रयुक्त की गयी है । परन्तु जैसे-जैसे शांति और संपर्क बढ़ते हैं वैसे-वैसे एक द्विविध चेतना विकसित हो सकती है -- एक तो कर्ममें संलग्न होगी, दूसरी पीछेकी ओर, निश्चल-नीरव और साक्षी होगी अथवा भग- वानिकी ओर मुंडी होगी - इस चेतनामें अभीप्सा बनी रह सकतीं है जब कि बाहरी चेतना कर्मकी ओर मुंडी रहती ै !

 

*

 

    मनुष्य ठीक उसी समय अभीप्सा और कर्म दोनों कर सकता है तथा और भी बहुतसी चीज़ें कर सकता है जब कि चेतना योगके द्वारा विकसित होती रहती है ।

 

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     नही - वास्तवमें यदि वह आंतरिक निमग्नता हो तो केवल तभी वह बाधा उपस्थित करेगी । परन्तु मेरा जो तात्पर्य है वह है एक प्रकारसे उस चीजमें पीछे हट आना जो नीरव और अंतरस्थ साक्षी है और जो कर्ममें लिप्त नही है, फिर भी निरीक्षण करती और उसपर अपना प्रकाश डालती है । इस तरह हम देखते हैं कि सत्ताके दो भाग हैं एक आंतर भाग जो निरीक्षक और साक्षी और ज्ञाता है, दूसरा भाग जो कार्य- वाहक और यंत्र और कर्त्ता है । यह चीज केवल मुक्ति ही नहीं बल्कि शक्ति भी देती है -- और इस आंतर सत्तामें मनुष्य मानसिक क्रियावली माध्यमसे नही बल्कि सत्ताके सारतत्वके माध्यमसे एक प्रकारके आंतरिक स्पर्श, बोध, ग्रहणशीलताके द्वारा भगवानके संपर्कमें आ सकता है तथा कर्मकी यथार्थ अंतः प्रेरणा या अंतर्ज्ञान प्राप्त कर सकता है ।

 

*

 

     यदि मनुष्य किसी ऐसी चेतनाको अनुभव करता है जो कर्मसे सीमित नही हे, जो पीछे रहकर कर्म करनेवाली वस्तुको सहारा देती है तो यह अधिक आसान है । यह चीज सामान्यतया या तो सुस्थिर और विस्तारित होती हुई विशालता और नीरव- ताके द्वारा अथवा उस दिव्य शक्तिका अनुभव होनेपर आती है जो हम स्वयं नही हैं और जो कर्ताके द्वारा कार्य करती है ।

 

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    श्रीमाताजी तुम्हारे पुस्तक लिखनेको नापसंद नहीं करती - चाहे वह कविता हो या छोटी कहानियां या उपन्यास । वस, हमने यह अनुभव किया कि इस प्रकार

 

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उसमें संपूर्ण तल्लीन हो जाना और उससे अभिभूत हों जाना तुम्हारी आध्यात्मिक स्थितिके लिये अच्छा नही है और यह चेतनाको एक सुदृढ़ आध्यात्मिक सामंजस्यके अन्दर उसके समुचित स्थानमें रखनेके बदले अधिकांश समय उसके अग्रभागमें एक हीन- तर वस्तुको रखता है और यहांतक कि उसके संपूर्ण अग्रभागको अधिकृत कर लेता है ।

 

*

 

      यदि तुम चाहो तो (उपन्यास लिखनेकी) चेष्टा कर सकते हों । कठिनाई यह है कि उपन्यासकी विषय-वस्तु अधिकांशत: बाह्य चेतनासे संबध रखती है जिससे कि चेतना आसानीसे नीचे गिर सकती या बहिर्मुखी हो सकती है । इसके अलावा, जब मनुाव्य बाह्य कर्ममें मनको लगाता है तो आंतरिक स्थितिको बनाये रखना कठिन होता है । यदि तुम अपने अन्दर एक सुदृढ़ स्थिति प्राप्त कर सको तो फिर चेतनाको विक्षुब्ध किये बिना या नीचे गिराये बिना कोई भी कार्य करना संभव होगा ।

 

*

 

    यह चेतनाकी नमनीयतापर निर्भर है । कुछ लोग ऐसे ही होते हैं, वे इतने निमग्न हों जाते हैं कि उससे बाहर आना या अन्य कोई काम करना पसंद नहीं करते । एक प्रकारका संतुलन बनाये रखना आवश्यक है जिससे कि मौलिक चेतना एक एकाग्र- तैसे दूसरीमे आसानीसे मुड़नेमें समर्थ बनी रहे ।

 

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   कर्ममें तल्लीन होना अवांछनीय नही है -पर अंतर्मुखी होनेकी कठिनाई केवल अस्थायी हो सकती हे । भौतिक चेतनाकी एक प्रकारकी नमनीयता, जो अवश्य आयेगी, एक एकाग्रतासे दूसरीमें मुड़ना आसान बनाती है ।

 

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    कर्म करते समय जिस बाधाकी तुम चर्चा करते हो यह और अपर्याप्त ग्रहण- शीलता और संपर्कको बनाये रखनेकी अयोग्यता - ये सब बातें भौतिक चेतनाके किसी भागके कारण हों सकती हैं जो अभी भी दिव्य ज्योतिकी ओर खुला नही हे -- संभवत कोई चीज प्राणिक-भौतिक और जड़ भौतिक अवचेतनामें होगी जो भौतिक मनके अपने संपूर्ण रूपमें मुक्त और संवेदनशील होनेमें बाधक होती है ।

 

    ऊपरसे आनेवाली शक्तिसे मिलनेके लिये नीचेसे अभीप्साको ऊपर उठानेमे कोई हर्ज नही है । बस, तुम्हें इस बातकी सावधानी रखनी होगी कि नीचेसे किसी

 

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कठिनाईको पहले न उठाया जाय जिसे दूर करनेके लिये अवतरण करनेवाली शक्ति तैयार नही है ।

 

   जब तुम ध्यान करते हो तब अपनी चेतनाको खो देनेकी कोई आवश्यकता नही है । वास्तवमें मुख्य बात है चेतनाको विस्तारित करना और परिवर्त्तित करना । यदि तुम्हारा मतलब अन्दर पैठनेसे है तो तुम उसे चेतना खोये बिना कर सकते हो ।

 

*

 

     यह भौतिक चेतनाकी एक प्रकारकी जड़ता है जो इसे उस चीजकी लीकमें इसे बन्द कर देती है जिसे वह करती है और इस कारण यह उसके अन्दर आबद्ध हो जाती है और स्मरण करनेके लिये स्वतंत्र नही होती ।

 

*

 

     जिन सब कठिनाइयोंका तुम वर्णन करते हों वे बिलकुल स्वाभाविक चीज़ें हैं और अधिकांश लोगोंमें होती हैं । जब मनुष्य ध्यानमें शांत-अचंचल बैठता है तब याद करना और सचेतन रहना उसके लिये अपेक्षाकृत सहज होता है; परन्तु जब उसे कर्म- मे व्यस्त रहना पड़ता है तो यह कठिन होता है । स्मरण होते रहना और कर्ममें सचेतन रहना यह धीरे-धीरे आनेकी चीज है, तुम्हें इसे एकदम तुरत-फुरत पानेकी आशा नही करनी चाहिये, कोई व्यक्ति इसे एकदम तुरत-फुरत नहीं पा सकता । यह दो तरिकों- से आता हुए,--पहले, यदि कोई व्यक्ति प्रत्येक बार कोई कार्य करते समय श्रीमाताजी- को स्मरण करते रहने और उन्हें कर्म अर्पित करनेका अभ्यास करता है (काम करते हुए सब समय नही, परन्तु प्रारम्भमें या जब कभी वह स्मरण कर सके), तो यह धीरे- धीरे आसान और प्रकृतिके लिये स्वाभाविक हों जाता है । दूसरे, ध्यान करनेसे एक आंतरिक चेतना विकसित होना आरंभ करती है जो, कुछ समय बाद, तुरत या एका- एक नही, अधिकाधिक अपने-आप स्थायी हों जाती है । मनुष्य इसे कार्य करनेवाली बाहरी चेतनासे पृथक् एक चेतना अनुभव करता है । प्रारंभमें जब मनुष्य कर्म करता रहता है तब इस पृथक् चेतनाको अनुभव नही करता परन्तु जैसे ही वह कर्म बन्द कर देता है वह अनुभव करता है कि वह सब समय वहां विद्यमान थी और पीछेसे निरीक्षण कर रही थी; कुछ दिन बाद स्वयं कर्मके समय भी अनुभूत होने लगती है, मानो व्यक्ति- की सत्ताके दो भाग हों - एक तो निरीक्षण करता और पीछेसे सहारा देता हो और श्रीमाताजीको स्मरण करता और उन्हें अर्पित करता हो तथा दूसरा कर्म कर रहा हो, जब ऐसा होता है तब यथार्थ चेतनासे कर्म करना अधिकाधिक आसान होता जाता है । . यही बात और सब बाकी चीजोंके विषयमें भी है । आंतर चेतनाका विकास होनेपर जिन सब चीजोंकी तुम चर्चा करते हो वे सब ठीक हो जायंगी । उदाहरणार्थ, सत्ताके एक भागमें तो कर्मके लिये उत्साह है, पर दूसरा स्थिरताका दबाव अनुभव

 

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करता है और कर्मके लिये उतना इच्छुक नहीं है । तुम्हारा मनोभाव उस चीजपर निर्भर करता है जो उस समय ऊपर आ जाती है - यहीं बात सब लोगोंके साथ घटित होती है । दोनोंको संयुक्त करना कठिन है, पर एक समय आता है जब वे अवश्य समन्वित हो जाती हैं - एक चीज तो आंतरिक एकाग्रतामें संतुलित पडी रहती है जब कि दूसरेको उसकेकर्म करनेके प्रयासमें वह सहारा देती है । स्वभावका रूपांतर करना, सत्ताकी इन सब विरोधी चीजोंको समन्वित करना साधनाका काम है । इस- लिये इन चीजोंको अपने अन्दर देखकर तुम्हें निरुत्साहित होनेकी आवश्यकता नही । मुश्किलन कोई आदमी ऐसा होगा जिसने अपने अन्दर इन चीजोंको न पाया हो । यह सब कुछ आंतरिक दिव्य शक्तिकी क्रियाके द्वारा व्यवस्थित हो सकता है, बस इसके लिये साधककी सतत अनुमति और पुकार बनी रहनी चाहिये । स्वयं अपने-आप शायद वह इस कार्यको न कर सके, परन्तु अन्दरमें भगवती शक्तिका कार्य होनेपर सब कुछ संपन्न हों सकता है ।

 

*

 

    आरंभमें आंतरिक स्थितिको बाह्य कर्मकी तल्लीनता और दूसरोंके साथ मिलने- जुलनेके कार्यके साथ संयुक्त करना थोड़ा कठिन होता है । परन्तु एक समय आता है जब आंतर सत्ताके लिये यह संभव हो जाता हे कि यह श्रीमाताजीके साथ पूर्ण एकत्व बनाये रखे जब कि कर्म उस एकाग्रीभूत एकत्वसे निःसृत होता है और अपने ब्यौरेमें इतनी आसानीसे परिचालित होता है जिससे कि चेतनाका कुछ भाग बाहरी प्रत्येक चीजपर ध्यान दे सकता है, यहांतक कि उसपर एकाग्र हो सकता हे और फिर भी श्रीमाताजीपर अपनी आंतरिक एकाग्रताको अनुभव कर सकता है ।

 

*

 

    यह बहुत अच्छा लक्षण है कि पूरे कार्यके बावजूद भी पीछेकी ओर आंतरिक क्रिया अनुभूत हुई और वह निश्चल-नीरवता स्थापित करनेमें सफल हुई । साधक- के लिये अन्तमें एक समय .ऐसा आता है जब चेतनता और गभीरतर अनुभव पूरे कर्म- के बीच या नीदमें, बातचीत करते समय या किसी भी प्रकारकी क्रियाशीलतामें भी घटित होते रहते हैं ।

 

*

 

प्रारंभमें कर्मके बीच (श्रीमांकि) उपस्थितिकी स्मृति बनाये रखना आसान नही होता; परन्तु कोई यदि कर्मके समाप्त होनेके तुरत बाद उपस्थितिके बोधकों पुन: जगा ले तो यह बिलकुल ठीक है । समय आनेपर कर्मके बीच भी उपस्थितिका

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बोध होना स्वाभाविक बन जायगा ।

 

*

 

   साधनामें दुःखी होना आवश्यक या अनिवार्य नही है, पर ऐसा होता है क्योंकि तुम्हारी आंतरिक प्रकृति अपने लिये भागवत उपस्थितिका स्पर्श अपरिहार्य अनुभव करती है और जब वह उसे नही अनुभव करती तो दुःखी होती है: उसे सर्वदा अनुभव करनेके लिये अंतरमें एक प्रकारकी सतत अनासक्तिका होना आवश्यक है जो तुम्हें अपने भीतर बने रहने दे ओर प्रत्येक कार्य भीतरसे ही करने दे । यह चीज अधिक आसानीसे शांत-स्थिर कार्यों और शांत-स्थिर संपर्कोंके समय की जा सकती है । क्यों- कि सच पूछा जाय तो अचंचलता और अंतर्मुखीनता ही भागवत उपस्थितिको अनुभव करनेकी क्षमता देती हैं ।

 

*

 

     तुम्हें सर्वदा भीतरसे कार्य करना सीखना चाहिये -- अपनी आंतर सत्तासे कार्य करना सीखना चाहिये जो भगवानके संपर्कमें रहती है । वाद्य सत्ता महज एक यंत्र होनी चाहिये और उसे बिलकुल ही अपनी वाणी, बिचार या क्रियाको विवश या अभिप्रेरित नहीं करने देना चाहिये ।

 

*

 

     कार्य, बातचीत, पढ़ना, लिखना आदि सब कुछ शांतिके साथ, यथार्थ चेतनाके अंगके रूपमे भीतरसे किया जाना चाहिये -- सामान्य चेतनाकी अस्तव्यस्त और चंचल कियाके द्वारा नहीं किया जाना चाहिये ।

 

*

 

    मनुष्य कर्म कर सकता और भीतर शांत-स्थिर बना रह सकता है । स्थिरता- का अर्थ यह नहीं है कि मन शून्य हों जाय या कोई कार्य बिलकुल किया हीं न जाय ।

 

*

 

    शक्तिका दबाव होना बिलकुल ठीक है, परन्तु वास्तवमें आंतरिक नीरवता और कर्मके बीच कुछ भी असंगत नहीं है । सच पूछा जाय तो उनके इस सम्मिलनकी ओर ही साधनाको अग्रसर होना चाहिये ।

 

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IV

 

    भगवान्की इच्छाको जाननेके लिये अचंचल मनकी आवश्यकता होती है । भग- वान्की ओर मोडे हुए अचंचल मनमें भागवत इच्छाका और उसे कार्यान्वित करनेके यथार्थ पथका अंतर्बोध (उच्चतर मन) आता है ।

 

*

 

    जब मन शुद्ध और चैत्य पुरुष प्रमुख होता हैं तब मनुष्य यह अनुभव करता है कि कौनसी चीज भागवत इच्छाके अनुकूल है और कौन उसके विरुद्ध ।

 

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     एक बार जब मानसिक नीरवता प्राप्त हों जाती है तो उसके अन्दर मानसिक विचारोंकी स्थानमें कर्मसंबंधी कुछ दर्शन और अतर्ज्ञान आ सकता है ।

 

*

 

     यह अच्छा है कि तुम सब समय अपने-आपको निरीक्षण करने, गतिविधियों- को देखने तथा यह माननेमें सक्षम थे कि नयी चेतनाका हस्तक्षेप निरंतर और स्वा- भाविक रूपमें हों रहा था । एक बादकी स्थितिमें निस्संदेह मनमें भी यह पथ-प्रदर्शन पाने लगोगे कि जो कुछ तुम करना चाहते हो उसे कैसे कर सकते हो । स्पष्ट ही तुम्हारा मन अत्यधिक सक्रिय था -- साथ-ही-साथ दूसरोंके मन भी -- और इसलिये तुमने अपने उद्देश्यको, दर्शकोंकी अत्यधिक भिंड होनेके कारण, खो दिया । जो भी हो -

 

*

 

     कर्मोंके चैत्य होनेके लिये, चैत्य पुरुष सम्मुख भागमें होना चाहिये । साक्षी पुरुष अपनेको पृथक् कर सकता है, पर प्रकृतिको बदल नहीं सकता । परन्तु साक्षी पुरुष होना प्रथम पग है । उसके बाद पुरुषके संकल्पका कार्य श्रीमांकि शक्तिका यत्र बन जाना चाहिये । यह संकल्प एक यथार्थ चेतनापर स्थापित होना चाहिये जो यह देखती है कि प्रकृतिके अन्दर क्या अशुद्ध, अज्ञानपूर्ण, स्वार्थपूर्ण, अहंकारपूर्ण तथा कामना- से परिचालित है और उसे ठीक कर देती है ।

 

*

 

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    यदि सत्य-कमोंकी चेतनाको पाना बहुत अधिक चाहते हों और उसके लिये अभीप्सा करते हो तो वह इन कई तरीकोंमेंसे किसी एकके द्वारा प्राप्त हो सकती है

 

    1. तुम अपनी गतिविधियोंको इस ढंगसे देखनेकी आदत या क्षमता प्रान्त कर सकते हो कि तुम कर्मके प्रवेगको आते हुए देख लो और उसके स्वरूपको भी देख सको ।

    2 एक ऐसी चेतना आ सकती हैं जो कोई भूल बिचार या कर्मकी प्रवृत्ति या अनु- भव होते ही बेचैनी अनुभव करे ।

.    3 जब तुम अनुचित कार्य करने जा रहे हों तब तुम्हारे अन्दरकी कोई चीज तुम्हें सावधान कर सकती और रोक सकती है ।

 

*

 

         (भगवान्द्वारा निरन्तर परिचालित होते रहना) इसके लिये पहली चीज है सतत अभीप्सा करते रहना -- दूसरी है अपने अन्दर एक प्रकारकी निस्तब्धता बनाये रखना और बाह्य कर्मसे पीछे हटकर निस्तब्धतामें आ जाना और एक प्रकारकी श्रवणक्षम प्रतीक्षाके भागमें रहना, शब्द सुननेके लिये नहीं बल्कि आध्यात्मिक बोध या चेतनाका निर्देश पानेके लिये प्रतीक्षा करना जो चैत्य पुरुषके भीतरसे आता है ।

 

 *

 

      अन्दरसे अनुभव करनेका जहांतक प्रश्न है, यह अन्दर पैठनेकी योग्यतापर निर्भर करता है । कभी-कभी तो यह अनुभव भक्तिसे या अन्यथा चेतनाके अधिक गभीर होनेपर अपने-आप आता है, कभी-कभी यह अभ्याससे आता है -- यह मानो अपनी बात कह देने और उत्तर सुननेकी जैसी बात है - निस्सन्देह, सुनना यहाँ एक रूपका- लकार है पर इसे अन्य प्रकारसे व्यक्त करना कठिन है -- इसका मतलब यह नही है कि उत्तर आवश्यक रूपसे शब्दोंके रूपमें आता है, चाहे वे उच्चारित हों या अनुच्चता- रित, यद्यपि कभी-कभी या कुछ लोगोंके पास शब्दोंमें भी आता है; यह कोई भी आकार ले सकता है । बहुतोके प्रधान कठिनाई है यथार्थ उत्तरके विषयमें निस्सदिग्ध होनेकी । उसके लिये यह आवश्यक है कि अपने अन्दर गुरुकी चेतनाके साथ संपर्क स्थापित करने- की क्षमता हो -- वह भक्तिके द्वारा सबसे उत्तम रूपमें आती है । अन्यथा, अभ्यासके द्वारा अन्दरसे अनुभव प्राप्त करनेका प्रयत्न एक नाजुक और जटिल कार्य हों सकता है । बाधाएँ हैं : ( 1) प्रत्येक चीजके लिये बाहरी साधनोंपर निर्भर करनेकी आम आदत, ( 2) अहं, जो यथार्थ उत्तरकी जगह अपने सुझाव देता है, ( 3) मानसिक क्रियाशीलता; ( 4) भीतर घुस आनेवाली अनिष्टकर वस्तुए । मेरी रायमें तुम्हें इसके लिये उत्सुक नही होना चाहिये, बल्कि आंतरिक चेतनाके विकास- पर निर्भर करना चाहिये । ऊपर जो कुछ कहा गया है वह केवल सामान्य व्याख्याके रूपमे कहा गया है ।

 

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     कर्ममें उद्घाटित होना वही बात है जो चैतन्यमें उद्घाटित होना है । जो शक्ति तुम्हारे ध्यानकी अवस्थामें चेतनामें कार्य करती है और उसकी ओर तुम्हारे उद्घाटित होनेपर सब प्रकारके बादल और अस्तव्यस्तताको दूर कर देती है, वही शक्ति तुम्हारे कर्मको भी हाथमें ले सकती है और न केवल उस कर्मके दोषोंसे तुम्हें सज्ञान कर सकती है, बल्कि तुम्हारे अन्दर यह उद्बोध करा सकती है कि आगे क्या करना होगा, और जो कुछ करना होगा उसके करनेमें तुम्हारी मन-बुद्धि और तुम्हारे हाथोको निर्देश कर सकती है । यदि तुम अपने कर्ममें इस प्रकार उसकी ओर अपने-आपको खोल दो तो तुम उसके इस निर्देशकों अधिकाधिक अनुभव करोगे, यहांतक कि, तुम अपने सब कर्मो- के पीछे माताज़ीकी कर्मशक्तिको अनुभव करोगे ।

 

 *

 

     बाहरी जीवनके मामलोंमें भागवत शक्तिको ग्रहण करनेमें समथे होने तथा उस शक्तिको अपने द्वारा कार्य करने देनेके लिये तीन आवश्यक शर्त्ते हैं

 

        ( 1) प्रशांति, समता -- जो कुछ भी घटित हो उससे विचलित न होना, मन- को स्थिर और दृढ बनाये रखना, शक्तियोंकी क्रीडाको देखते रहना पर अपने-आप शांत-स्थिर बने रहना ।

 

        ( 2) पूर्ण श्रद्धा-विश्वास -- यह श्रद्धा-विश्वास कि जो कुछ सर्वोत्तम है वही घटित होगा, पर यह श्रद्धा भी कि यदि कोई अपनेको सच्चा यत्र बना सके तो फल वही होगा जिसे भागवत ज्योतिद्वारा परिचालित उसकी इच्छा-शक्ति कर्तव्य कर्मके रूपमें देखती है ।

 

       ( उ) ग्रहणशीलता - भागवत शक्तिको ग्रहण करनेकी और उसकी तथा उसके अन्दर श्रीमाताजीकी उपस्थितिको अनुभव करनेकी शक्ति तथा उसे कर्म करने देना, अपनी दृष्टि, संकल्प और कर्मको परिचालित करने देना । यदि इस शक्ति और उपस्थितिको अनुभव किया जा सके तथा इस नमनीयताको कर्मरत चेतनाका अभ्यास बनाया जा सके,-पर एकमात्र भागवत शक्तिके प्रति नमनीयताको, और उसमें किसी विजातीय तत्त्वको मिलाते बिना,--तो अन्तिम परिणाम सुनिश्चित है ।

 

 *

 

 जो कुछ तुम्हारे अन्दर घटित हुआ वह यह सूचित करता है कि उस स्थितिको प्राप्त करनेकी क्या-क्या शर्त्ते हैं जिसमें भागवत शक्ति अहंका स्थान ले लेती है और मन, प्राण तथा शरीरको यंत्र बनाकर कर्मका परिचालन करती है । भगवान्द्वारा चालित और एकमात्र उन्हीद्वारा चालित उनका यंत्र बननेके लिये अन्य कोई नही, बल्कि ये शर्त्ते हैं कि मनमें ग्रहणशील नीरवता हो, मानसिक अहंका विलोप हो जाय और मनोमय पुरुष अपनी स्थितिसे हटकर साक्षीकी स्थितिमें आ जाय, हमारी सत्ता

 

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भागवत शक्तिके घनिष्ठ संपर्कमें आ जाय और एकमात्र उसी एक प्रभावके अधीन आ जाय तथा और किसी अन्य प्रभावको स्वीकार न करे ।

 

   मनकी निश्चल-नीरवता स्वयं अपने-आप अतिमानसिक चेतनाको नही लें आती; मानव मन और अतिमानसके बीच चेतनाकी बहुतसी अवस्थाएं या लोक या स्तर हैं । निश्चल-नीरवता मनको तथा सत्ताके बाकी भागको महत्तर वस्तुओंकी ओर, कभी तो वैश्व चेतनाकी ओर, कभी शोथ आत्माकी अनुभूतिकी ओर, कभी भग- वान्की उपस्थिति या शक्तिकी ओर, कभी मानव मनकी चेतनासे किसी उच्चतर चेतनाकी ओर खोल देती है; इनमेंसे किसी चीजके घटित होनेके लिये मनकी निश्चल- नीरवता अत्यंत अनुकूल अवस्था है । इस योगमें पहले व्यक्तिगत चेतनाके ऊपर और फिर उसके अन्दर भागवत शक्तिके अवतरित होने और वहां उस चेतनाको रूपांतरित करनेके लिये उसके कार्य करने, उसे आवश्यक अनुभूतियां देंने, इसके समस्त दृष्टिकोण और गतिविधियोंको बदल देने, यह जबतक अंतिम ( अतिमानसिक) रूपांतरके लिये तैयार नही हो जाती तबतक इसे धीरे-धीरे एक-एक स्तर पार कराते हुए ले जानेके लिये यह अत्यंत अनुकूल अवस्था (एकमात्र अवस्था नहीं) है ।

 

*

 

     जो कुछ घटित हुआ है वह एक ऐसी चीजों है जो बहुधा घटित होती है, और, उसके विषयमें जो तुम्हारा वर्णन है उसीके अनुसार, उसने तुम्हारे अन्दर सर्वदा घटित होनेवाली अवस्थाओंको उत्पन्न किया है । सबसे पहले, तुम प्रार्थना करने बैठ गये, -- उसका अर्थ है ऊर्ध्वकी ओर एक पुकार, यदि मैं उसे इस प्रकार प्रकट कर सकूं । उसके बाद आयी प्रार्थनाके प्रत्युत्तरके प्रभावशाली होनेके लिये आवश्यक अवस्था -- ' 'धीरे-धीरे एक प्रकारकी विश्रांतिकी स्थिति आयी, '' दूसरे शब्दोंमें, चेतनाकी प्रशांतावस्था आयी जिसका आना आवश्यक है, वास्तवमें उसके आनेके बाद हीं जिस दिव्य शक्तिको कार्य करना होता है वह कार्य कर सकतीं है । उसके बाद फिर दिव्य ऊर्जा या शक्तिका प्रवाह आया, ' 'ऊर्जाकी बाQ और शक्ति-सामर्थ्यका बोध तथा चमक- दमक' ' आदि आये, और अत प्रेरणा और अभिव्यजनाके प्रति सत्ताकी स्वाभाविक एकाग्रता हों गयी, दिव्य शक्तिका कार्य हुआ ।

 

     प्राण भौतिक स्तरपर कार्यसिद्धिका साधन है, इसलिये सभी कर्मोंके लिये उसका कार्य और शक्ति आवश्यक हैं; उसके बिना, केवल मन यदि प्राणका सहयोग लिये बिना और उसे यत्र बनाये बिना कार्यमें प्रेरित करे तो बहुत कठिन और विरक्तिजनक श्रम और प्रयत्न करना पड़ता है और ऐसे परिणाम निकलते हैं जो सामान्यतया बहुत उत्तम प्रकारके बिलकुल नही होते । कर्मके लिये आदर्श स्थिति वह है जब कि विशेष ऊर्जाके अन्दर चेतनाकी एक स्वाभाविक एकाग्रता हों और वह संपूर्ण चेतनाकी एक प्रकारकी आरामदायक विश्रांति तथा प्रशांतिपर आधारित हों । अन्य क्रियावलियों- द्वारा उत्पन्न मनका विक्षेप विश्रांति तथा एकाग्र ऊर्जाकी इस समतोलताको भग कर

 

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देता है,-थकावट भी इसे भग कर देती या नष्ट कर देती है । अतएव सबसे पहले करने योग्य कार्य यह है कि सहारा देनेवाली इस विश्रांतिकी अवस्थाको वापस ले आया जाय और इसे साधारण तीरपर कर्मको बन्द करके तथा विश्राम करके लें आया जाता है । जो अनुभव तुम्हें हुआ था उसके स्थानपर एक विश्रांतिकी अवस्था आयी जो तुम्हारी प्रार्थनाकी स्थितिके उतरनें ऊपरसे आयी तथा एक ऊर्जा आयी और वह भी ऊपरसे ही आयी । यह ठीक वही सिद्धांत है जैसा कि साधनामें होता है,--यही कारण है कि हम चाहते हैं कि लोग अपनी चेतनाको अचंचल बनाये जिसमें कि उच्चतर शांति उसमें उतर सके और उस शांतिके आधारपर एक नवीन शक्ति ऊपरसे उतर सकें । वास्तवमें प्रयासके कारण अतः प्रेरणा नही आयी । अतः प्रेरणा ऊपरसे एकाग्र- ताकि एक स्थितिके उत्तरमे आती है जो एकाग्रता स्वयं उसके लिये एक पुकार होती हैं । उसके विपरीत, प्रयास चेतनाको थका देता है और इस कारण सर्वोत्तम कर्मके लिये उपयोगी नही है, बसकेवल इतनी बात है कि कभी-कभी--सर्वदा कदापि नही -- प्रयास अन्तमें अंतःप्रेरणाको खींचनेकी स्थितिमें पहुँच जाता है और उस कारण कुछ उत्तर आता है, पर यह सामान्यतया उतनी अच्छी और फलदायी अतः प्रेरणा नहीं होती जितनी कि वह अतप्रेरणा जो उस समय आती है जब ऊर्जाकी अपने कार्य- मे सहज और तीव्र एकाग्रता होती हे । प्रयास और ऊर्जाका व्यय आवश्यक रूपमें एक ही वस्तु नहीं है,--ऊर्जाका सर्वोत्तम व्यय वह है जब ऊर्जा तनिक भी प्रयासके बिना सहज रूपमें प्रवाहित होतीं है,--जब अतप्रेरणा या ऊर्जा ( कोई भी ऊर्जा) अपने- आप कार्य करती है और मन, प्राण और यहांतक कि शरीर भी उज्जवल यंत्र होता है और ऊर्जा तीव्र एवं सुखकर क्रियाके अंदर -- लगभग श्रमहीन श्रमके अन्दर प्रवाहित होती हैं ।

 

*

 

    यह सच है कि तुम्हारी ओरसे कोई प्रयास हुए बिना दिव्य शक्ति फलदायी रूप- मे कार्य कर सकती हैं । उसके कार्यके लिये प्रयासकी नही, बल्कि सत्ताकी अनुमति- की आवश्यकता होती है ।

 

*

 

 हां, यही योगकी भावना है - कि समुचित निष्क्रिय भाव ग्रहण करनेपर मनुष्य अपने-आपको अपने सीमित आत्मभावसे किसी महत्तर वस्तुकी 'ओर खोलता है, और प्रयास केवल उस स्थितिको पानेके लिये उपयोगी होता है । सामान्य जीवन- मे भी व्यक्ति वैश्व शक्तिके हाथका महज एक यत्र होता है, यद्यपि वह जो कुछ करता है उस सबका श्रेय उसका अहंकार ले लेता है ।

 

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    चूँकि तुमने अपनेको दिव्य शक्तिकी ओर खोला है और क्रियाशक्तिके लिये अपने- को एक प्रणाली बना दिया है, इसलिये यह बिलकुल स्वाभाविक है कि जब तुम यह कार्य करना चाहते हो तो शक्ति प्रवाहित हों और उस ढगसे कार्य करे जिसे चाहा जाता था अथवा उस ढगसे कार्य करे जो आवश्यक है और उस परिणामके लिये करे जो आवश्यक हों । जब मनुष्य अपने-आपको एक प्रणाली बना देता है, शक्ति यंत्रकी सीमा- ओ या अयोग्यताओंसे आवश्यक रूपमें बंधी नहीं होती; यह उनकी उपेक्षा कर सकती तथा स्वयं अपनी शक्ति-सामर्थ्यसे कार्य कर सकती है । ऐसा करते समय यह महज एक माध्यमसे रूपमें मानव-उपकरणका व्यवहार कर सकती है और काम पूरा होते हीं उसे वह पहले जैसा था ठीक वैसा ही, अपने साधारण क्षणोंमें ऐसा अच्छा कर्म करने- मे अयोग्य, छोड़ सकती है; परन्तु यह अपनी क्रियाके द्वारा उपकरणको सुधार सकती है, उसे आवश्यक अतर्बोधात्मक ज्ञान और कियाका अभ्यस्त बना सकती है जिसमें कि वह स्वेच्छापूर्वक शक्तिकी क्रियाको अपने अधिकारमें ले ले । क्रियाशैलीका जहां- तक प्रश्न है, दो अलग-अलग चीज़ें हैं, एक तो बौद्धिक ज्ञान जिसका प्रयोग मनुष्य करता है और दूसरा अंतः प्रेरणात्मक संज्ञान जो स्वयं अपने अधिकारसे, जब वास्तवमें यह कर्मीद्वारा अधिकृत नहीं होता तो भी, कार्य करता है । उदाहरणार्थ, बहुतसे कवियों- को छन्दसबधी या भाषाविषयक शैलीका मामूलीसा ज्ञान ही होता है और वे यह नही बता सकते कि वे कैसे लिखते है या उनकी सफलतामें कौनसे गुण और तत्व है, परन्तु तो भी वे ऐसी चीजे लिखते हैं जो छंद और भाषाकी दृष्टिसे पूर्ण होते हैं । तक- नोकका बौद्धिक ज्ञान, निश्चय ही, सहायता करता है बशर्त्ते कि कोई उसे महज एक उपाय या कोई कठोर बंधन ही न बना दे! कुछ कलाएं ऐसी हैं जो तकनीकी ज्ञानके बिना अच्छी तरह नही की जा सकती, उदाहरणार्थ, चित्रकला, मूर्त्तिकला आदि ।

 

   जो कुछ तुम लिखते हों वह इस अर्थमें तुम्हारा अपना है कि तुम उसकी अभि- व्यंजनाके यत्र बने हों -- यही बात प्रत्येक कलाकारके या कर्मीके विषयमें है, यद्यपि, इसमें संदेह नही कि, साधनाके लिये यह आवश्यक है कि यह स्वीकार किया जाय कि यथार्थ शक्ति तुम्हारी अपनी नही थी और तुम केवल एक यत्र थे जिसपर उस (शक्ति) ने अपना स्वर बजाया ।

 

    सृजनका आनन्द अहंका सुख नहीं है जो उसे व्यक्तिगत रूपसे कार्य अच्छी तरह करनेसे था कोई व्यक्ति होनेसे प्राप्त होता है, वह तो कोई बाहरी वस्तु है जो कर्म और सृजनके उल्लासके साथ अपने-आपको संलग्न कर देती है । दिव्य आनन्द एक महत्तर शक्तिके फूट पडनेसे आता है, उसके द्वारा अधिकृत और व्यवहृत होनेके पुलकते आता है, आवेशसे, चेतनाको ऊपर उठानेके, उसे आलोकित कर देनेके उल्लाससे और उसके अधिक महान् और अधिक ऊंचे कर्मसे आता है और फिर उस सौन्दर्य, शक्ति या पूर्णत्व- का भी आनन्द होता है जो सृष्ट होता है । कहातक मनुष्य उसे अनुभव करता है यह निर्भर करता है उस समयकी उसकी चेतनाकी अवस्थापर, प्राणकी प्रकृति तथा उसकी क्रियापर; निश्चय ही, कोई योगी ( अथवा प्रबल और स्थिर मनवाले कुछ लोग भी) उस आनन्दमें बह नही जाता, वह उसे धारण करता और निरीक्षण करता है और मन,

 

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प्राण या शरीरके माध्यमसे महज कोई उत्तेजना उसके प्रवाहके साथ नहीं मिल जाती । स्वभावत: ही समर्पण या आध्यात्मिक उपलब्धि या दिव्य प्रेमका आनन्द उससे बहुत महान् वस्तु है, पर सृजनके आनन्दका भी अपना स्थान है ।

 

*

 

      यह देखना कि कर्म वास्तवमें अच्छी तरह किया गया है या नहीं और श्रीमाताजी- के लिये किये गये कर्मका आनन्द अनुभव करना । ' 'मैं' ' से मुक्त हो जाओ । यदि कर्म अच्छी तरह किया गया है तो उसे वास्तवमें दिव्य शक्तिने किया १ और तुम्हारा भाग बस इतना ही था कि तुम एक अच्छे या बुरे यंत्र थे ।

 

*

 

 वास्तवमें (कर्ममें) रस होना चाहिये, पर वह तब आता है जब दिव्य शक्तिका सक्रिय भावमें अवतरण होता है ।

 

*

 

     जो कुछ तुम घटित होते हुए देखते हो वह सभी कर्मोंमें होनेवाला आम अनुभव है । श्रीमाताजी कहती हैं कि इसका कारण यह तथ्य हैं कि कर्म आरंभ? करते समय यह अंतर्ज्ञान उपलब्ध होता है कि क्या करना चाहिये और प्रारंभमें मन उसके लिये एक प्रणालिकाके रूपमें काम करता है और सब कुछ अच्छी तरह चलता है । बादमें चलकर मन अपने हिसाबसे काम करना आरंभ कर देता है,--साधारणतया साधक- का इस ओर: ध्यान ही नहीं जाता जबतक कि वह बहुत सचेत और अपने-आपको सूक्ष्म रूपसे देखनेका अभ्यस्त न हो - और अ अंतःप्रेरणाके बिना अपने मामूली साधनों- से कार्य करने लगता है । यह चीज कविता और संगीत जैसे कामोंमें बहुत स्पष्ट रूपमे अनुभूत होती है -- क्योंकि वहां मनुष्य अंतःप्रेरणाको आते हुए अनुभव करता है और उसे न आते हुए तथा साधारण मनके साथ मिलजुल जाते हुए अनुभव करता है । जबतक वह आती रहती है तबतक तो प्रत्येक चीज आसानीसे और उत्तम रूपमें संपन्न होती है, पर ज्योंही मन हस्तक्षेप करना या उसके स्थानमें काम करना आरंभ करता है, कार्य कम अच्छे रूपमें संपन्न होता है । रसोई बनाने जैसे कार्यमें मनुष्य प्रत्यक्ष रूप- मे और सुस्पष्ट रूपमें अंतःप्रेरणाको अनुभव नहीं करता, संभवत: एक प्रकारकी प्रसन्न- चित्तता, प्रत्यक्ष ज्ञानशक्ति और आत्मविश्वासको अनुभव करता है - उसी तरह जब भौतिक मन सक्रिय होता है तो मनुष्य' उस ओर ध्यान नही देता । कविता जैसी चीजमें मनुष्य फिरसे अंतः प्रेरणा आनेतक लिखना छोड़ सकता हे, पर रसोई बनानेमें वह वैसा नहीं कर सकता, कामको उसी समय तुरत समाप्त करना होगा । मैं समझता

 

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हूँ कि इस विषयमें केवल तभी सुधार किया जा सकता है जब मनुष्य अपने भीतर अधिक सचेतन हो, जैसा कि साधनामें मनुष्य करता है, जब कि मनुष्य निम्रतर मानसिक क्रियाशीलताकी गलत क्रियाको देखने लगे और अपने संकल्पके द्वारा पुन: यथार्थ अत:- प्रेरणा और ज्ञानको नीचे उतारकर उसका प्रतीकार करने लगे ।

 

*

 

    श्रीमाताजी संकेत दे सकती हैं और संभावनाओंको उद्घाटित कर सकती हैं, परन्तु मन यदि हस्तक्षेप करे और यदि उनका अनुसरण न किया जाय तो फिर क्या किया जा सकता हे?

 

*

 

    तुम्हें भला उन्हीं चीजोंके लिये क्यों प्रयास करना चाहिये जिनके लिये दूसरे करते हैं? जिस कार्यको करनेके लिये मनुष्य अतप्रेरणा अनुभव करता है वही उसके लिये सर्वोत्तम है ।

 

V

     साधनाके कालमें मनुष्य वैश्व प्राण-शक्तिको आहरण करना सीख सकता है और उससे अपनी शक्तियोंको परिपूरित कर सकता है । परन्तु साधारणतया सर्वोत्तम पथ है अपने-आपको श्रीमाताजीकी शक्तिकी ओर उद्घाटित करना और उसके विषय- मे यह जानना कि वह समस्त आधारको धारण कर रही और चला रही है अथवा उसमें प्रवाहित हो रही है तथा कर्मके लिये आवश्यक शक्ति दे रही है, वह कर्म चाहे मानसिक, प्राणिक या शारीरिक हो ।

 

    स्वभावत: हीं वर्तमान वैश्व शक्तियोंके ऊपर एक उच्चतर शक्ति है और यह वह शक्ति है जो प्रकृतिका रूपांतर करेगी और मानसिक, प्राणिक तथा शारीरिक शक्तियोंको अपने हाथमें लेकर उन्हें स्वयं अपनी ही जैसी शक्तियोंमें परिवर्त्तित कर देगी ।

 

*

 

     यह एक दिव्य शक्ति है जो आती और कर्ममें प्रवृत्त करती है और उतने ही यथार्थ रूपमें आध्यात्मिक जीवनका एक अंग है जितने यथार्थ रूपमे दूसरी शक्तियां हैं । यह एक विशेष शक्ति है जो कर्मीके सत्तापर अधिकार जमा लेती है और उसके द्वारा अपने- आपको चरितार्थ करती है । किसीके अन्दर इस प्रकार पूर्ण शक्तिके साथ कार्यका

 

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होना पूर्णतया लाभदायक है । बस, एक क्षई बात है कि शक्तिसे अधिक कार्य नही होना चाहिये - अर्थात् किसी प्रकारकी थकावटसे अथवा भौतिक तमस्में लौट पड़नेसे बचना चाहिये ।

 

    आत्मनिवेदनका जहांतक प्रश्न है, अपने-आपको अर्पित करनेके लिये सर्वदा संकल्प करो और जब तुम्हारे लिये संभव हो (मेरा मतलब है कर्मके प्रसंगमें), स्मरण करो और प्रार्थना करो । इसका अर्थ है एक विशेष प्रकारका मनोभाव स्थिर कर लेना । पीछे चलकर, दिव्य शक्ति अतरके अधिक गहरे आत्मदानको खोल देनेके लिये इस चाभीका लाभ उठा सकती हैं ।

 

*

 

     ऊपरसे आनेवाली शक्ति उच्चतर चेतनाकी शक्ति है । पीछेसे आनेवाली शक्ति आवश्यकताके अनुसार मानसिक, प्राणिक या भौतिक शक्तिके रूपमें कार्य करती है । जब हमारी सत्ता उसकी ओर खुली होती है और उसकी क्रियाके प्रति एक प्रकारकी निष्क्रियता होती हैं तो वह व्यक्तिगत क्रियाशीलताका स्थान ले लेती है और व्यक्ति उसके कार्यका एक साक्षीभर होता है ।

 

*

 

      मैं उस शक्तिकी बात नहीं कह रहा था जो ऊपरसे नीचे आती है, बल्कि पीछे- से आनेवाली उस शक्तिकी बात कर रहा था जो मन और शरीरको यंत्र बनाकर उनके द्वारा कार्य करती है । बहुत बार जब मन और शरीर जड़-निष्क्रिय होते हैं, उनका कार्य फिर भी पीछेसे आनेवाले इस प्रवेगके द्वारा चलता रहता है ।

 

*

 

     योगके साधारण क्रममें उस भौतिक बलका स्थान एक यौगिक बल या यौगिक प्राण-शक्ति ले लेती है जो शरीरको बनाये रखती और उससे कार्य कराती है, परन्तु इस शक्तिके अभावमें शरीर बल-सामर्थ्यसे शून्य, जड़ और तामसिक हो जाता है । इस स्थितिको केवल तभी सुधारा जा सकता है जब कि समूची सत्ता अपने प्रत्येक स्तरमें योग-शक्तिकी ओर -- यौगिक मन.-शक्ति, यौगिक प्राण-शक्ति, यौगिक शरीर- शक्तिकी ओर - उद्घाटित हों जाय ।

 

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      हां, यदि सर्वदा यथार्थ चेतना बनी रहे तो कोई थकावट नहीं आयेगी ।

 

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      जब तुम यह कार्य करते थे तब तुम्हारे अन्दर शक्ति मौजूद थी और सत्य चेतना प्राण और शरीरमे भरी हुई थी - उसके बाद विश्राम करनेपर साधारण भौतिक चेतना ऊपर आ गयी और वह साधारण प्रतिक्रियाओंको - थकावट, कूल्हे और जांघके दर्द आदिको - वापस ले आयी ।

 

*

 

    जब तुम थक जाते हो तो अधिक परिश्रम करके अपनेको अत्यधिक मत थका दो बल्कि विश्राम करो - केवल अपना साधारणसा कार्य करो; अशांतिके साथ सब समय कुछ-न-कुछ करते रहना उसे दूर करनेका पथ नही है । वास्तवमें जब थका- वटका ऐसा बोध हों तो आवश्यकता इस बातकी है कि बाहर और भीतर स्थिर-अचंचल रहा जाय । सदा ही एक बल तुम्हारे समीप विद्यमान रहता है जिसे तुम अपने अन्दर पुकार सकते हों और इन चीजोंको दूर कर सकते हो, परन्तु उसे ग्रहण करनेके लिये तुम्हें शांत-स्थिर बने रहना सीखना होगा ।

 

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     हा, अत्यधिक परिश्रम करके थक जाना भूल है, क्योंकि बादमें उसकी एक प्रति- क्रिया होती है । यदि अपने अन्दर शक्ति है तो सबकी सब शक्तिको खर्च नही कर देना चाहिये, कुछ शक्तिको जमा करके रखना चाहिये जिससे कि शरीरके स्थायी बलकी वृद्धि हो ।

 

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      अत्यधिक परिश्रम जडताको ऊपर ले आता है । प्रत्येक ब्यक्तिकी प्रकृतिमें जड़ता विद्यमान है बस, प्रश्न है उसकी अधिक या कम क्रियाका ।

 

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      यदि बहुत अधिक कार्य किया जाता है तो कमोंकी दिलचस्पीके होनेपर भी कर्म- का स्तर गिर जाता है ।

 

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     आलस्यको अवश्य दूर हो जाना चाहिये - परन्तु मेरी समझमे कभी-कभी तुमने दूसरी ओर बहुत अधिक खींचा है । पूरी शक्तिसे काम करनेमें समर्थ होना

 

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आवश्यक है -- पर कर्म न करनेमें सक्षम होना भी आवश्यक है ।

 

    सामान्य बातचीतके विषयमें तुम जो कुछ कहते हो वह बिलकुल सही है और जो तुम यह कहते हो कि वह सब बन्द हो जाना चाहिये, वह वास्तवमें सत्य चेतना प्राप्त करनेके लिये बहुत आवश्यक है ।

 

 *

 

    यदि शरीर ऐसी स्थितिमें है और कार्य इस तरहकी प्रतिक्रियाएं इसमें उत्पन्न करता है तो इसे जबर्दस्ती मजबूर करने तथा इसपर अतिश्रमका बोझ डालनेसे कोई लाभ नहीं । यह कही अधिक अच्छा है कि स्नायु-संस्थान और शरीरके कोषोंमें निरन्तर स्थिरता, शांति, ज्योति और शक्ति उतारकर धीरे-धीरे बाहरी प्राकृत सत्ताको शिक्षित और प्रशिक्षित किया जाय । शरीरको बलपूर्वक विवश करनेपर उसका उद्देश्य पूर्ण रूपसे विफल हों सकता है । संभवतः तुम्हारी साधना अत्यंत एकांतिक रूपसे आंतरिक और आत्मनिष्ठ रही है; परन्तु बात यदि ऐसी है, तो इस स्थितिको एक क्षणमें नही सुधारा जा सकता । अतएव तुम्हारे लिये यह अधिक अच्छा है कि तुम अभी भारी शारीरिक कार्य मत करो ।

 

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    यह (थकावटका कारण) शायद कोई कामना अथवा प्राणिक अभिरुचि है -- प्राणकी पसन्दगी और नापसन्दगी है । जो कार्य तुम्हें दिये जायं उन सबको तुम्हें श्रीमाताजीके कार्यके रूपमें अनुभव करना चाहिये और हर्षके साथ करना चाहिये और अपनेको श्रीमांकि शक्तिकी ओर खोलना चाहिये जिसमे वह तुम्हारे द्वारा कार्य करे ।

 

 VI

 

    निस्संदेह, तुम प्रगति करते रहे हो, परन्तु श्रीमाताजीने तुमसे जो यह कहा था और प्रत्येक आदमीसे कहती हैं कि सच्चा कलाकार होनेके लिये वर्षों लगातार कठिन परिश्रम करनेकी आवश्यकता होतीं है, वह सही है । परन्तु तुम्हारी भूल यह है कि तुम इन चीजोंपर बड़ा बल देते हों और उनमें कोई रुकावट या कठिनाई आनेपर निरु- उत्साहित हो जाते हों । एकमात्र करणीय बात यह है कि जो कुछ नीचे उतर रहा है उसकी ओर चेतनाको खोला जाय, अन्दर परिवर्तनको घटित होने दिया जाय जिसमें कि चेतना भागवत उपस्थितिसे भरपूर शांति, ज्योति, शक्ति और आनन्दकी चेतना बन जाय । जब ऐसा हों जायगा तब भगवान् तुम्हारे द्वारा जो कार्य कराना चाहते हैं अथवा तुम्हारे अन्दर जो कुछ विकसित करना चाहते हैं वह एक ऐसी तीव्रता और पूर्णताके साथ संपत्र

 

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या विकसित हो जायगा जैसा अभी होना असंभव है । सर्वप्रथम एकमात्र आवश्यक चीज होनी चाहिये, बाकी सब कुछ अभी एकमात्र आवश्यक वस्तुके विकासके लिये अभ्यासका क्षेत्र है ।

 

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   फेंच लिखनेके संबंधमें, तुम्हें अभिव्यक्त होनेवाली चीजोंके विषयमें इतना अधिक नही सोचना चाहिये - इससे कुछ आतप जाता नही कि आया दूसरोंने वही चीज़ें लिखी हैं और अधिक अच्छे रूपमें उन्हें लिखा है या नही । तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिये महज पूर्ण रूपसे फ्रेंच लिखना सीख लेना, फ्रेंच भाषाका एक माध्यमके रूपमें पूरा व्यव- हार कर सकना । आया शक्ति कोई चीज तुम्हारे द्वारा भविष्यमें अभिव्यक्त करना चाहती है या नहीं, यह एक ऐसी बात है जिसे तुम्हें भगवदिच्छापर छोड़ देना चाहिये, एक बार यदि सच्ची चेतनाके साथ अपनेको भगवानके हाथोंमें दे दो तो वह यह जानेगे कि तुम्हारे द्वारा क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये और चाहे जो उप- करणत्व तुम उनके हाथोंमें दे सकोगे उसका वह पूरा उपयोग करेंगे ।

 

*

 

     जैसा कि मैं पहले हीं कह चुका हूँ, सभी विषयोंमें, कर्म और अध्ययन तथा योग- द्वारा होनेवाली आंतरिक प्रगतिमें, वही चीज़ें आवश्यक होती हैं यदि तुम पूर्णता चाहो -- मनकी अचंचलता, दिव्य शक्तिके विषयमें सचेतन होना, उसकी ओर उद्घाटित होना, अपने अन्दर उसे किया करने देना । पूर्णताको लक्ष्य बनाना बहुत अच्छा है, पर मनकी चंचलता उसे प्राप्त करनेका पथ नही है । अपनी अपूर्णताओंपर ही जोर देते रहना और सर्वदा यह सोचते रहना कि कैसे किया जाय और क्या किया जाय - यह भी पथ नहीं है । अचंचल बने रहो, अपनेको खोलो, चेतनाको विकसित होने दो -- दिव्य शक्तिको कार्य करनेके लिये पुकारों । जैसे-जैसे ये चीज़ें बेढंगी और जैसे- जैसे शक्ति कार्य करने लगेंगी, वैसे-वैसे तुम केवल यही नहीं समझने लगोगे कि क्या अपूर्ण है, बल्कि उस क्रियाको भी जानने लगोगे जो तुम्हें (एक हीं पगसे नही, बल्कि धीरे-धीरे) अपूर्णतासे बाहर निकाल लें जायगी और उस समय तुम्हें केवल उस क्रिया- का अनुसरणभर करना होगा ।

 

    यदि अत्यंत देरतक काम करके या अशांतिके साथ कार्य करके अपनेको अत्यधिक थका दोगे तो उससे तुम्हारा स्नायुमंडल, प्राणिक-भौतिक भाग, अस्तव्यस्त या दुर्बल हों जायगा, और अवांछित शक्तियोंकी क्यिाकी ओर तुम उद्घाटित हों जाओगे । कार्य करना पर शांतिके साथ कार्य करना ही यथार्थ पथ है जिसमें कि सतत प्रगति होती रहे ।

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    जो कठिनाई तुम अनुभव करते हो वह बहुत अधिक इस कारण आती है कि तुम सर्वदा अपने मनमें सभी बातोंके लिये दुश्चिता करते रहते हों, सोचते रहते हो कि ' 'यह गलत है, यह मेरे अन्दर या मेरे कार्यमें दोष है' ' और, उसके परिणामस्वरूप, ' 'मैं अयोग्य हूँ, मैं बुरा हूँ, मेरे द्वारा कुछ भी नहीं हों सकता । '' तुम्हारा कसीदेका कार्य, 'लेप-शेड' आदि बराबर ही बहुत अच्छे होते हैं, और फिर भी तुम सदा यह सोचते रहते हों कि ' 'यह खराब काम है, वह दोषपूर्ण है' ' और इस प्रकार अपनेको विभ्रांत करते और उलझनमें जा फंसते हों । स्वभावत: ही तुम कभी-कभी भूल कर देते हों, पर अधिक भूल उस समय करते हों जब इस तरह दुश्चिता करते हों, जब कार्य सरल ढंग- से और विश्वासके साथ करते हों तब उतनी भू लें नहीं होती।

 

     चाहे काम हों या साधना, यह अधिक अच्छा है कि स्थिर-भावसे चला जाय, दिव्य शक्तिको कार्य करने दिया जाय और उसे ठीक-ठीक कार्य करने देनेके लिये यथा- शक्ति प्रयास किया जाय, परन्तु इस प्रकार अपनेको पीड़ा पहुँचाये बिना और निरंतर हर प्रश्नपर शांतिपूर्वक संदेह करते हुए न किया जाय । चाहे जो भी दोष हो वे बहुत जल्द दूर हो जाते, यदि तुम बहुत अधिक उन्हींका स्वर न अलापा करते । क्योंकि इतना अधिक उन्हींपर ध्यान जमाये रहनेसे तुम अपने ऊपर तथा शक्तिकी ओर खुले रहनेकी अपनी क्षमतापर विश्वास खो देते हो - बो क्षमता कि सर्वदा विद्यमान है -- और शक्तिके कार्यके पथमें अनावश्यक कठिनाइयां खड़ी कर देते हों ।

 

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     काममें होनेवाली भूलोंके विषयमें दुश्चिता मत करो । बहुधा तुम कल्पना करते हो कि तुमने बुरे ढंगसे कार्य किया है जब कि तुमने उन्हें बहुत अच्छे ढंगसे किया होता है; परन्तु, यदि भूलें हों भी तो उनके लिये उदास होनेकी कोई बात नही । चेतना- को वर्द्धित होने दो -- एकमात्र दिव्य चेतनामें हीं नितांत परिपूर्णता है । जितना अधिक तुम भगवान्को समर्पण करोगे उतना ही अधिक तुम्हारे अन्दर पूर्णताके आने- की संभावना होगी।

 

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      ऐसी भूलोंको बहुत अधिक महत्त्व मत दो अथवा उनके कारण परेशान मत होओ । ऐसी भूलें करना मनका स्वभाव ही है । एकमात्र उच्चतर चेतना ही इन सबको सुधार सकतीं है - मन प्रत्येक विशिष्ट कार्यमें बहुत दीर्घ प्रशिक्षणके बाद हीं निस्संशय हों सकता है और उसके बाद भी उसे कोई अनपेक्षित बात न घटे इसके लिये केवल सावधान हीं रहना होगा । तुम जितना अच्छा कर सको करो, बाकी चीजोंके लिये उच्चतर चेतनाको विकसित होने दो जबतक कि वह भौतिक मनकी सभी क्रिया- ओंको आलोकित न कर सके ।

 

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     कर्मका कौशल तब आयेगा जब भौतिक मन और शरीर उद्घाटित हों जायंगे । अभी उसके लिये व्याकुल होनेकी कोई आवश्यकता नहीं । अपनी शक्ति और योग्यता- भर काम करो और उसके लिये व्याकुल मत होओ ।

 

*

 

   जब काम हों रहा हों तब केवल अपने कामकी बात सोचों, उससे पहले और उसके बाद नही ।

 

   अपने मनको उस कामपर वापस मत लें जाओ-जो समाप्त हो चुका है । वह भूत- कालकी चीज है और दुबारा उसमें संलग्न होना शक्तिका अपव्यय है ।

 

    जो कार्य आगे करना है उसकी आशामें अपने मनको श्रम मत करने दो । जो शक्ति तुम्हारे अन्दर कार्य कर रही हैं वह उसके अपने समयपर उसकी चिंता करेगी ।

 

    मनके ये दो अभ्यास भूतकालकी क्रियापद्धतिसे संबंध रखते हैं जिसे रूपांतर- कारी शक्ति दूर करनेके लिये दबाव डाल रही है और भौतिक मन जो उनमें बने रहनेका हठ करता है वही तुम्हारे अतिश्रम और थकानका कारण है । यदि तुम याद रख सको कि जब मनके कार्यकी आवश्यकता हों केवल तभी अपने मनको कार्य करने दोगे तो अतिश्रमका भाव कम हो जायगा और विलीन हो जायगा, निस्संदेह, यह उस स्थिति- से पहलेकी मध्यवत्तीं क्रिया है जब कि अतिमानसिक क्रिया भौतिक मनको अधिकृत कर लेगी और इसके अन्दर ज्योतिकी स्वाभाविक क्रिया ले आयेगी ।

 

VII

 

    हाँ, स्पष्ट ही, यह कर्मका एक महान् उपयोग हैं कि यह स्वभावकी परीक्षा करता है और साधकको उसकी बाहरी सत्ताके दोषोंके सामने ला खड़ा करता हे जो अन्यथा उसकी दृष्टिसे बच जाते ।

 

*

 

     कर्म केवल तभी महत्त्वपूर्ण होते हैं जब वे प्रकृतिके अंदर विद्यमान वस्तुओंको व्यक्त करते हैं । तुम्हारे कर्मोंके अन्दरकी जो सब चीज़ें योगके साथ समस्वर नहीं हैं उनके विषयमें तुम्हें सचेत रहना होगा और उनसे मुक्त होना होगा । परन्तु उसके लिये आवश्यकता इस बातकी है कि तुम्हारी अपनी हीं चेतना, चैत्य चेतना भीतरसे निरीक्षण करे और जो कुछ अवांछनीय दिखायी दे उसे दूर फेंक दे ।

 

*

 

    यह कही अधिक अच्छा होगा कि दोषोंसे छुटकारा पानेके लिये साधनाके रूपमें

 

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कर्म किया जाय, बजाय इसके कि कर्म न करनेके कारणके रूपमें दोषोंके स्वीकार किया जाय । इन प्रतिक्रियाओंको स्वीकार करनेके बदले,-मानो वे तुम्हारी प्रकृति- के अपरिवर्तनीय विधान हों,--तुम्हें अपने मनमें यह संकल्प करना चाहिये कि अब उन्हें नही आना चाहिये - श्रीमाताजीकी शक्तिकी सहायताका आवाहन करना चाहिये जिसमें वह प्राणको शुद्ध कर दे और उन दोषोंके एकदम निर्मूल कर दे । यदि तुम विश्वास करो कि शरीरमें कठिनाई अवश्य आयेगी तो स्वभावत: ही वह अवश्य आयेगी; बल्कि अपने मनमें इस भावना और संकल्पको जमा दो कि उसे नहीं आना चाहिये और वह नहीं आयेगी । यदि वह आनेकी चेष्टा करे तो उसका त्याग कर दो और अपने पाससे उसे दूर फेंक दो ।

 

    यह मानव-प्राणकी एक बहुत बड़ी अ है - प्रशंसाओको उनके अपने लिये चाहना और उनके अभावमें हतोत्साह हो जाना और यह समझना कि इसका मतलब हे कि कोई क्षमता है हीं नहीं । इस ससारमें मनुष्य जो कुछ करता है उसे अज्ञान और अपूर्णताके साथ आरम्भ करता है -- मनुष्यको अपनी भूलें जाननी हैं और पाठ सीखना है, मनुष्यको भूलें करनी हैं और उन्हें सुधारकर कार्य करनेका सही रास्ता ढूंढ निकालना है । इस संसारमें कोई मनुष्य कभी इस विधानसे बच नहीं सका है । अतएव मनुष्य- को दूसरोंसे सब समय प्रशसाकी आशा नही करनी है, बल्कि जो चीज सही और सुसंपा- दंत है उसके लिये प्रशंसा और भूल-भ्रातियों तथा गतियोंके लिये टीका-टिप्पणीकी आशा करनी है । जितना हीं अधिक मनुष्य आलोचनाको सह सकता और अपनी भूलें देख सकता है, उतनी ही अधिक उसके अपनी क्षमताकी पूर्णतातक पहुँचनेकी संभावना है । विशेषकर जब मनुष्य बहुत छोटा होता है -- बालिग होनेसे पहले -- वह आसानीसे पूर्ण कर्म नही कर सकता । कवियों और चित्रकारोंके जिस कार्य- को बाल-कृति कहते हैं - जो कार्य वे अपने प्रारंभिक वर्षोंमें करते है वह बराबर अपूर्ण होता है, वह एक आशा होता हैं और उसमें कई गुण होते हैं -- पर वास्तविक पूर्णता और उनकी शक्तियोंका पूरा प्रयोग पीछे आता है । वे स्वयं इस बातको अच्छी तरह जानते हैं, पर वे लिखते जाते या चित्र बनाते जाते हैं, क्योंकि वे यह भी जानते हैं कि ऐसा करनेसे वे अपनी शक्तियोंको विकसित कर लेंगे ।

 

    दूसरोंके साथ तुलनाका जहांतक प्रश्न है, उसे नहीं करना चाहिये । प्रत्येक व्यक्तिको अपना निजी पाठ सीखना है, अपना निजी कार्य करना है और उसे स्वयं उसीसे मतलब रखना चाहिये, न कि अपनी तुलनामें दूसरोंकी अधिक या कम प्रगतिसे । यदि वह आज पीछे है तो भविष्यमें अपनी पूरी योग्यता पा सकता है और वास्तवमें अपनी शक्तियोंकी उस भावी पूर्णताके लिये हीं उसे परिश्रम करना चाहिये । तुम अभी बालक हो और अभी तुम्हें प्रत्येक चीज सिखनी है -- तुम्हारी क्षमताएं अभी केवल कलीकी स्थितिमें हैं, तुम्हें प्रतीक्षा करनी होगी और उनके पूरी तरह खिल जानेके लिये कार्य

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करना होगा -- और यदि इसमें किसी संतोषजनक और पूर्ण वस्तुतक पहुँचनेमें कई महीने या वर्ष भी लग जायं तो तुम्हें चिंता नही करनी चाहिये । वह अपने उचित समयपर आयेगी और जो कार्य तुम अभी करते हो वह बराबर ही उस ओर जानेका एक पग है ।

 

     परन्तु आलोचनाका तथा दोषोंको दिखानेका स्वागत करना सीखो -- जितना ही अधिक तुम ऐसा करोगे उतनी ही तेजीसे तुम आगे बढ़ोगे ।

 

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    जो व्यक्ति चित्र बनाना या बाजा बजाना या लिखना सीख रहा है और जो लोग पहलेसे ये चीज़ें जानते हैं उनके द्वारा अपनी भूलोंको सुझाया जाना पसन्द नही करता - वह भला बिलकुल ही कैसे सीख सकता या तकनीककी किसी पूर्णतातक कैसे पहुँच सकता हे?

 

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     हम तुम्हारे विचारका समर्थन नही कर सकते -- आश्रममें पहलेसे ही काफी बुद्धिजीवी लोग हैं और कमरा-बंद बुद्धिजीवी ही वह जाति नही है जिसके अनुचित प्रचारकों प्रोत्साहित करनेके लिये हम प्रवृत्त हैं । बाहरी कर्म ठीक वह चीज है जो प्रकृतिमे साम्यभाव बनाये रखनेके लिये आवश्यक है और इस उद्देश्यसे तुम्हें निश्चय हीं इसकी आवश्यकता है । फिर तुम्हारा भोजन-गृहमें उपस्थित रहना भी अनिवार्य है । अन्य बातोंका जहांतक प्रश्न है, '' या '' से क्रुद्ध होनेकी जगह तुम्हें अपने अन्दर इन चीजोंका कारण ढूँढना चाहिये -- यही साधकके लिये सदा सच्चा नियम रहा हे । कभी-कभी तुम उच्च स्थितिमें रहते हों और तब सारी बातें बहुत अच्छे ढंगसे चलती है; परन्तु कभी-कभी तुम बिलकुल ही ऊंची स्थितिमें नही रहते और तब ये सब गलतफहमियां उठती हैं । अतएव इसका उपाय है सर्वदा अपनी उच्चतम स्थिति- मे रहना - सदा अपने कमरेमें न रहना, बल्कि अपनी सर्वोत्तम स्थितिमें रहना और इसलिये निरंतर अपने सच्चे स्वरूपमें रहना ।

 

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    तुम्हारी कठिनाई उठती है उस प्राण-प्रकृतिकी एक प्रकारकी अत्यधिक असहिष्णुतासे जो बड़े प्रबल रूपमें कर्ममें सामंजस्यका कोई अभाव या विरोध अथवा कोई अवांछित घटना अनुभव करती है और, जब वह चीज आती है, वह उसे मानो व्युक्तिगत विरोध मान बैठती है और दूसरी ओर भी ठीक वैसी हीं भावना उठती है और इस कारण कठिनाई स्थायी हों जाती है तथा संघर्ष उत्पन्न करती है । सच पूछा

 

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जाय तो कठिनाई बहुधा परिस्थितियोंसे उत्पन्न होती है, जैसे, गृहनिर्माण-विभाग बहुत कम कार्यकर्त्ता होने और कामकी भीडके कारण अपने सभी आदमियोंको काम- मे लगा देनेसे तुम्हारे साथ व्यवस्था करनेमें पहलेकी अपेक्षा अधिक कठिनाई अनुभव कर सकता है । अथवा वह लोगोंके किसी प्रसंगमें अपने दृष्टिकोणसे, जो तुम्हारे दृष्टिकोणसे मेल नहीं खाता, कार्य करनेके कारण उत्पन्न हो सकती है । अथवा, वह उस व्यक्तिके कारण उठ सकती है जो अपने विचारोंका अनुसरण करता है, जो कुछ सुविधाजनक और लाभदायी होता है उसकी दृष्टिसे चलता है और इस तरह तुम्हारे विरुद्ध पड़ता है । इन सब चीजोंमें कोई व्यक्तिगत भावना नही रखनी चाहिये और यह सबसे उत्तम है कि किसी व्यक्तिगत भावनाकी ओर दृष्टि न दी जाय और उस दृष्टि- कोणसे उन्हें न देखा जाय । आवश्यक बात यह है कि सर्वदा सभी बातोंमें शांत दृष्टि और सुस्पष्ट दर्शन-शक्ति अपनायी जाय - स्वयं अपने हीं दृष्टिकोणसे नही देखना चाहिये जो अतमें .सही हों सकती है और फिर भी ब्यौरेमें जिसमें सुधार करनेकी आवश्यकता हों सकती है, बल्कि उस दर्शन-शक्तिसे देखना चाहिये जो दूसरोंके दृष्टि- कोणको भी देखती है, यह उदारभावसे, शांत और निर्व्यक्तिक भावसे देखनेकी शक्ति पूर्ण यौगिक चेतनाके लिये आवश्यक है । इसे प्राप्त कर लेनेपर मनुष्य उस बातपर दृढ़ताके साथ आग्रह कर सकता है जिसपर आग्रह करना आवश्यक है, पर उसके साथ- ही-साथ दूसरेकी बातका विचार करते हुए और उसे समझते हुए आग्रह करेगा जिससे व्यक्तिगत भावनाके एक प्रकारके संघर्षके अवसर दूर हो जाता है । स्वभावत: ही, यदि दूसरा अविवेकी हो तो वह फिर भी क्रोध कर सकता है, पर तब वह पूर्णत: उसका अपना दोष होगा और वह केवल उसीपर वापस जा पड़ेगा । बस, यहीपर हम कुछ परिवर्तनकी आवश्यकता अनुभव करते हैं । कर्मके लिये निष्ठा, विश्वस्तता, क्षमता, संकल्पशक्ति तथा अन्यान्य गुण तुममें पर्याप्त मात्रामें हैं -- पूर्ण शांति और समता एक ऐसी चीज है जिसे तुम्हें केवल अपनी आंतर सत्तामें ही नही जहां वह पहलेसे हीं हों सकती है, बल्कि अपने बाहरी स्नायविक भागोंमें भी पूर्ण रूपसे प्राप्त करना होगा ।

 

*

 

   सर्वदा दोनों पक्षमें दोष होते हैं जो इस असामंजस्यको उत्पन्न करते हैं । तुम्हारी ओर, तुममें.... .दूसरोंके विषयमें अत्यंत कठोर निर्णय देनेकी प्रवृत्ति है, तुम सदा दूसरोंकी मूलों, दोषों, कमजोरियोंको देखने और उनपर बल देनेके लिये तैयार रहते हों और उनकी अच्छाइयोंको पूरी तरह नही देखना चाहते । इसके कारण तुम्हारे दृष्टिकोणमें उदारता नहीं आती जो कि होनी चाहिये और फिर ऐसी छाप पड़ती है कि तुम्हारे अन्दर कठोरता तथा उग्र आलोचनाकी वृत्ति है और दूसरी ओर विरोध ओर विद्रोहकी प्रवृत्ति पैदा करती है, जो, दूसरोंके मनमें जब यह नही होती तो भी, उनकी अवचेतनाके माध्यमसे कार्य करती है और इन सब प्रतिकूल क्रियाओंको उत्पन्न करती है । सबसे अच्छा तरीका यह है कि दूसरोंके अंदर जो कुछ अच्छा है उसका

 

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लाभ उठाया जाय, अपनी दृष्टि सर्वदा उसीपर रखी जाय और उनकी भूलों और दोष- त्रुटियोंके साथ चतुराईसे व्यवहार किया जाय । यह पद्धति दृढ़ता और अनुशासन- की रक्षाका बहिष्कार नही करती, यहांतक कि जब कठोरता संगत हों तो कठोरता भि बरत सकती हे; परन्तु कठोरताका व्यवहार विरल होना चाहिये और दूसरे यह न अनुभव करें कि यह मानो तुम्हारा स्थायी स्वभाव हों ।

 

*

 

    अपने आंतरिक अनुभवों और उपरितलीय प्रतिक्रियाओंके बीचके विभेदका जो तुम्हारा अनुभव है वह यह सूचित करता है कि तुम अपनी प्रक्रतिके विभिन्न भागोंके विषयमें सचेतन हो रहे हों, जिनमेंसे प्रत्येकका अपना निजी स्वभाव है । वास्तवमें प्रत्येक मनुष्य विभिन्न व्यक्तित्वोंसे बना हे जो विभिन्न ढंगसे अनुभव करते और व्यव- हार करते हैं और उसका कार्य उनमेंसे किसी एकके द्वारा निर्धारित होता है जो उस समय प्रमुख होता है । जो भाग किसीके प्रति कोई विरुद्ध भावना नही रखता वह या तो चैत्य पुरुष होता है अथवा हृदयस्थ भावमय सत्ता, जो भाग क्रोधी और कठोर होता है वह उपरितलीय बाह्य प्राण-प्रकृतिका भाग होता है । यह क्रोध और कठोर- ता किसी ऐसी चीजके गलत रूप हैं जो अपने-आपमें मूल्यवान् है, प्राण-सत्तामें विद्य- मान संकल्प और कर्मशक्ति और सयमका एक प्रकारका बल है जिसके बिना कर्म नहीं किया जा सकता । आवश्यकता इस बातकी है कि क्रोधसे मुक्ति पायी जाय और किस परिस्थितिमें कौनसा कार्य करना उचित है इसका निर्णय करनेकी विकसित शक्तिके साथ-साथ किया शक्ति और अटल संकल्पको बनाये रखा जाय । उदाहरणार्थ, लोगों- को उस समय अपने निजी ढंगसे कार्य करने दिया जा सकता है जब उससे कार्य नष्ट न होता हों, जब वह उस चीजको करनेका उनका एकमात्र तरीका हों जिसको करना आवश्यक है; ६ जब उनका तरीका कर्मके अनुशासनके विरुद्ध हो तो उन्हें संयमित करना ही होगा, पर यह कार्य शांति और दयाभावके साथ करना चाहिये, न कि क्रोधके साथ । बहुत बार, यदि किसी ब्यक्तिने अपनी संकल्पशक्तिको यत्र बनाकर श्रीमांकि शक्तिको कर्मपर प्रयुक्त करनेकी नीरव शक्तिका विकास किया हों तो वह शक्ति अपने-आप पर्याप्त हों सकती है और कुछ भी कहनेकी आवश्यकता नही होती, क्योंकि वह व्यक्ति अपने-आप ही, मानो स्वयं अपनी ओरसे, अपने ढंगको बदल देता है ।

 

    भोजन न कर सकने और भोजनको अनावश्यक समझनेकी यह भावना एक प्रकारका सुझाव है जो कई लोंगोंके पास आ रहा है । इसका परित्याग करना चाहिये और आधारसे निकाल बाहर करना चाहिये, क्योंकि अपर्याप्त भोजन करनेके कारण शरीर दुर्बल हो सकता है । बहुधा प्रारंभमें मनुष्य दुर्बलता अनुभव नही करता, एक प्रकारकी प्राणिक शक्ति आती है और शरीरको बल प्रदान करती हैं, पर पीछे चलकर शरीर दुर्बल होता है । यह भावना कभी-कभी मनुष्यके बहुत भीतर पैठ जाने- पर भी आ सकती है और तब शारीरिक आवश्यकताओंके लिये कोई आग्रह नही रहता,

 

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पर इसे स्वीकार नही करना चाहिये । यदि इसका त्याग किया जाय तो यह विलीन हो सकती है ।

 

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    किसी व्यक्तिको निरुत्साहित करना अनुचित है, परन्तु मिथ्या उत्साह देना अथवा किसी अनुचित वस्तुके लिये उत्साहित करना ठीक नहीं है । कठोरताका कभी- कभी उपयोग करना पड़ता है (यद्यपि उसका अत्यधिक उपयोग नहीं होना चाहिये) जब कि इसके बिना अनुचित बातपर होनेवाले हठीले आग्रहको सुधारा नही जा सकता । बहुत बार, यदि आंतरिक संपर्क स्थापित हो जाता है तो, और किसी चीजकी अपेक्षा नीरव दबाव अधिक फलदायी होता है । कोई अटल नियम नही स्थापित किया जा सकता, मनुष्यको हर प्रसंगमें निर्णय करना होगा और अच्छेसे अच्छेके लिये कार्य करना होगा !

 

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   यह कामके लिये बिलकुल जरूरी है; योग्यता और अनुशासन अपरिहार्य हैं । परंतु बाहरी साधनासे इन्हें केवल अंशत ही बनाये रखा जा सकता हैं -- वास्तवमें साधारण जीवनमें यह उच्चाधिकारीके व्यक्तित्वपर, सहायकोंके ऊपर उसके प्रभावपर, उसकी दृढ़ता, कौशल, उनके प्रति व्यवहारमें उसके सौजन्यपर निर्भर करता है । परंतु साधक एक गभीरतर शक्तिपर,। अपनी चेतनाकी शक्तिपर और उसके द्वारा कार्य करने- वाली शक्तिपर निर्भर करता है ।

 

*

 

      इसे (सहयोगियोंको अनुशासनके अधीन रखना) समुचित भावके साथ करना होता है और सहयोगियोंको यह अनुभव होना चाहिये कि यह बात ऐसी है -- उनके साथ पूरी ईमानदारीके साथ व्यवहार किया जा रहा है और एक ऐसे व्यक्तिके द्वारा किया जा रहा है जिसमें सहानुभूति और अंतर्दृष्टि है और केवल कठोरता और कर्मठता ही नही है । यह एक प्राणिक कौशल और प्रबल और विशाल प्राणका प्रश्न है जो सर्वदा यह जान लेता है कि दूसरोंके साथ व्यवहार करनेका समुचित ढंग क्या है ।

 

*

 

     पूरे ब्यौरोंके साथ तुम्हारे पत्र पाकर हम बहुत प्रसन्न हुए हैं जो यह प्रतिपादित करते हैं कि तुमने साधनामें कितनी अधिक और तीव्र प्रगति की है । जो कुछ तुम लिखते हो

 

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वह एक सुस्पष्ट चेतनाको तथा निम्रतर प्राणमें एक नवीन कार्यारंभको सूचित करता है । वहां अधिकार जमानेकी वृत्ति तथा यत्र होनेके गर्वको स्पष्ट रूपमे देख लेनेका तात्पर्य है कि सत्ताका वह भाग समुचित रूपमें परिवर्त्तित होने जा रहा है, इन दोषों- के स्थानमें अब उनके सच्चे प्रतिरूपोंको -- सत्य और ऋतके लिये दूसरोंपर निष्काम भावसे कार्य करनेकी शक्ति तथा भगवानका प्रबल और विश्वस्त पर अहं- भावरहित यंत्र बननेकी क्षमताको ला बिठाना होगा । यह भी स्पष्ट है कि भौतिक स्तर प्रभावशाली रूपमे उद्घाटित हों रहा है; परन्तु उसमें जो सहजात भौतिक तथा प्राणिक-भौतिक गतियों हैं, शरीरमें भय, दुर्बलता, अस्वस्थ रहनेकी प्रवृत्ति आदि हैं उन्हें भी अवश्य चले जाना चाहिये । आहारकी जहांतक बात है, हलक प्रकारका भोजन जो शक्ति और भरणपोषणके लिये पर्याप्त हों, तुम्हारे लिये सर्वोत्तम है -- मांसाहार उपयुक्त नही है ।

 

    जो विशाल उद्घाटन तुम्हारे अन्दर आया है उसे विकसित होने दो और अपनी समूची सत्ताको जड़-भौतिक स्तरतक सच्ची चेतना और सच्ची शक्तिसे भर जाने दो ।

 

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    तुम जानते हो कि कौनसी यथार्थ वस्तु करनेकी है - आवश्यक आंतरिक मनोभावको ग्रहण करना और बनाये रखना -- जब दिव्य शक्किए प्रति उद्घाटन हो जाता है और उससे कर्ममें सामर्थ्य, साहस और क्षमता आने लगती हैं तो बाहरी परिस्थितिका मुकाबला ? जा सकता तथा उन्हें सही दिशामें मोड़ा जा सकता है !

 

*

 

    जब कभी कोई अवांछित चीज घटित होती है तो यह आवश्यक है कि...... भौतिक मन या स्नायुओंमें अस्तव्यस्तता या अशांतिका कोई प्रकंपन न आने दिया जाय । साधकको शांत-स्थिर बने रहना चाहिये तथा दिव्य ज्योति और शक्तिकी ओर खुले रहना चाहिये, तभी वह समुचित ढंगसे कार्य करनेमें समर्थ होगा ।

 

*

 

   साधनाकी दृष्टिसे -- तुम्हें इन चीजोंके कारण तनिक भी अपनेको विक्षुब्ध नही होने देना चाहिये । जो कुछ तुम्हें करना है, जो कुछ करना उचित है, वह भागवत शक्तिकी सहायतासे पूर्ण शांतिके साथ किया जाना चाहिये । सफलतापूर्ण परिणाम पानेके लिये जो सब चीजे आवश्यक हैं वे की जा सकती हैं - जिनमें उन सब लोंगोंकी

 

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सहायता उपलब्ध करना भी सम्मिलित है जो तुम्हें सहायता -देनेमें समर्थ हैं । परन्तु यह बाहरी सहायता यदि न आनेवाली हो तो तुम्हें विक्षुब्ध नही होना चाहिये, बल्कि अपने रास्तेपर शांतिपूर्वक अग्रसर होना चाहिये । यदि कही कोई कठिनाई या अ- सफलता हों जो तुम्हारी अपनी भूलके कारण न हों तो तुम्हें उद्विग्न नही होना चाहिये । शक्ति, अचल स्थिरता, जिन सब चीजोंके साथ तुम्हें व्यवहार करना है उनके साथ एकदम सीधा और समुचित व्यवहार -- बस, यही तुम्हारे कर्मका नियम होना चाहिये ।

 

 *

 

     इस समता तथा प्रतिक्रियाओंके अभावकी अवस्थाको बनाये रखना तथा उस स्थिर भूमिसे योगशक्तिको वस्तुओं और मनुष्योपर (अहंजन्य उद्देश्योंसे नही बल्कि कर्तव्य कर्मके लिये) प्रयुक्त करना योगीकी यथार्थ स्थिति है ।

 

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    अचल-अटल, अक्षुब्ध बने रहो, निरुत्साहित हुए बिना अपना कार्य करो, दिव्य शक्तिको अपने लिये कार्य करनेके लिये पुकारों । तुम्हारे लिये यह परीक्षाका क्षेत्र है -- बाह्यकी अपेक्षा आंतरिक परिणाम अधिक महत्त्वपूर्ण है ।

 

*

 

     द्विविध कार्य करनेकी आवश्यकता है, अधीनस्थोंकी अशुभ इच्छाको नष्ट करना और उच्चाधिकारियोंके मनको परिवर्त्तित करना -- एक अदृश्य कार्य करना है, क्योंकि रोसा लगता है कि दृश्य क्षेत्रमें वे बहुत अधिक अज्ञानकी शक्तियोंके अधिकारमें !

 

*

 

      तुम्हें अपने-आपको अदृश्य दिव्य शक्तिका यंत्र बनाना होगा - एक प्रकारसे उसे आवश्यक बिंदु और आवश्यक लक्ष्यपर प्रयुक्त करनेमें समर्थ होना होगा । परंतु इसके लिये समता पूर्ण होनी चाहिये -- क्योंकि दिव्य शक्तिका स्थिर और दीप्त उपयोग आवश्यक है । अन्यथा शक्तिका उपयोग, यदि अहंजन्य प्रतिक्रियाओंसे मुक्त हों तो, तदनुरूप अहंजन्य विरोध और संघर्ष खड़ा कर सकता है ।

 

*

 

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    समताकी वृद्धि केवल पहली शर्त्त है । जब समताके आधारपर ज्ञानपूर्ण शक्ति- का उपयोग उनके आक्रमणको निष्फल करनेके लिये किया जा सकेगा तभी आक्रमणों- का आना असंभव होगा ।

 

*

 

      [विरोधी शक्तियोंका उन लोगोंपर बाहरी आक्रमण जो सहयोग देते हैं.] सर्वदा यही भौतिक स्तरपर उनकी चातुरीका एक अंग होता है । जब कोई उच्चतर शक्ति उनके विरुद्ध व्यवहृत की जायगी केवल तभी उन्हें हटाया जा सकेगा ।

 

*

 

     यही समताका यथार्थ आंतरिक मनोभाव है -- बाह्रमें चाहे जो भी घटित हों फिर भी अचल-अटल बने रहना । परंतु बाहरी क्षेत्रमें सफलता पानेके लिये (यदि तुम मानवीय साधनोंका, कूटनीति या दाव-पेचक उपयोग न करो) आवश्यकता है उस दिव्य शक्तिको चुपचाप संचारित कर देनेकी क्षमताकी जो मनुष्योंके मनोभाव और परिस्थितियोंको बदल सके और किसी बाहरी कार्यको तुरत करणीय और प्रभाव- शाली यथार्थ कार्य बना सके।

 

*

 

     साधकके लिये बाहरी संघर्ष, कठिनाइयां, विपत्तियां आदि अहं और राजसिक कामनाको जितने तथा पूर्ण समर्पणभाव प्राप्त करनेका केवल एक साधन हैं । जब- तक मनुष्य सफलता प्राप्त करनेका आग्रह करता है तबतक वह कम-से-कम अंशत: अहंके लिये कार्य कर रहा है; कठिनाइयां और बाहरी असफलताएं यह चेतावनी देनेके लिये आती हैं कि बात ऐसी है और पूर्ण समता ले आनेके लिये आती हैं । इसका मतलब यह नहीं है कि विजय पानेका सामर्थ्य प्राप्त करनेकी चीज नही है, बल्कि सच पूछा जाय तो तात्कालिक कर्ममें सफलता पाना ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात नहीं है; सबसे महत्त्वपूर्ण बात है महत्तर और महत्तर शुद्ध दृष्टि और आन्तरिक शक्ति ग्रहण करने तथा संचारित करनेकी योग्यता और इसे ही विकसित करना होगा । परन्तु इसे करना होगा बिलकुल ठंडे दिलसे और धैर्यपूर्वक, तत्काल विजय या असफलतासे न तो फूल उठना और न विक्षुब्ध होना होगा ।

 

*

 

     तुम्हें जो अनुभव करना है वह यह है कि तुम्हारी सफलता या विफलता, सबसे

 

 

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पहले और सर्वदा, तुम्हारे यथार्थ मनोभाव बनाये रखनेपर, तुम्हारे सच्चे चैत्य तथा आध्यात्मिक वातावरणमें बने रहनेपर तथा अपने द्वारा श्रीमाताजीकी शक्तिको कार्य करने देनेपर निर्भर करता है... ।

 

     यदि तुम्हारे पत्रोंके आधारपर विचार कर सकूँ तो कह सकता 'हूँ कि तुम उसकी सहायताको बहुत अधिक सत्य मान लेते हों और कार्यके संबंधमें अपने निजी विचारों और योजनाओ और शब्दोंपर सबसे प्रथम बल देते हो; परन्तु ये चीज़ें, चाहे अच्छी हों या बुरी, ठीक हों या गलत, यदि वे सच्ची दिव्य शक्तिके यत्र नही क्रैश तो असफल होने- के लिये बाध्य हैं. । तुम्हें बराबर एकाग्रचित्त बने रहना होगा, सर्वदा प्रत्येक कठि- नाईको समाधानके लिये उस शक्तिके सम्मुख पेश करना होगा जो यहांसे भेजी जा रही है, सर्वदा उसे हीं कार्य करने देना होगा तथा उसके स्थानपर अपनी निजी मन- बुद्धि और पृथक् प्राणिक इच्छा या आवेगको नही लें आना होगा.. ।

 

      अपने कार्यको जारी रखो, सफलताकी शर्त्तको कभी न भूलो । कर्ममें या अपनी भावनाओमें या योजनाओंमें अपने-आपको खो मत दो अथवा सच्चे मूलस्रोतके साथ सतत संस्पर्श बनाये रखना मत भूलो । अपने तथा शक्ति तथा श्रीमांकि उपस्थितिके बीच किसी व्यक्तिके मन या प्राणिक प्रभाव या इर्दगिर्दके वातावरणके प्रभावको अथवा साधारण मानवीय मनोवृत्तिको मत आने दो ।

 

*

 

    जो कार्य तुमने श्रीमाताजीके लिये अपने हाथमें लिया था उसे इतनी अच्छी तरह पूरा कर डालना -- सभी कठिनाइयोंको पार कर ऐसे सुन्दर परिणामपर समाप्त करना बड़ा संतोषजनक है.. । परन्तु श्रीमाताजीके लिये किया गया तुम्हारा कर्म सर्वदा वैसा ही होना -- पूर्ण, विवेकपूर्ण और'. कौशलपूणे, अटल विश्वाससे अंत:- प्रेरित तथा श्रीमाँकी शक्तिके प्रति उद्घाटित होना - सुनिश्चित है । जहां ये चीज़ें होती हैं वहां सफलताका आना सदा सुनिश्चित होता है ।

 

VIII

 

    भौतिक वस्तुओंमें व्यवस्थित सामंजस्य और संगठन निपुणता और पूर्णताका आवश्यक अंग हैं और यंत्रको जो भी कार्य दिया जाता है उसके लिये उसे सुयोग्य बनाते !

 

*

 

    कोई भौतिक जीवन सुव्यवस्था और ताल-छंदके बिना नही रह सकता । जब यह व्यवस्था बदलती है तब उसे किसी आंतरिक विकासके अनुसार बदलना चाहिये,

 

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न कि किसी बाहरी नवीनताके लिये । सच पूछो तो ऊपरी निम्र-प्राण-प्रकृतिका ही एक विशेष भाग ऐसा होता हैं जो बराबर स्वयं अपने लिये बाहरी परिवर्त्तन तथा नवीन- ता खोजता रहताहै ।

 

   जब मनुष्यके अन्दर निरंतर विकास होता रहता है केवल तभी वह निरन्तर नवीनता भी पाता रह सकता है और जीवनमें स्थायी रस पा सकता है । इससे भिन्न दूसरा कोई संतोषजनक मार्ग नहीं है ।

 

*

 

     बातें बिगड़ जानेपर अधीर हों उठना एक गुणका - यथार्थता और व्यवस्था- पर आग्रह करनेके गुणका - विकार है । असल बात है गुणकों बनाये रखना और विकारसेछुटकारा पाना ।

 

*

 

    अत्यन्त भौतिक वस्तुओंमें तुम्हें उनसे व्यवहार करनेके लिये एक कार्यक्रम तै कर लेना होगा, अन्यथा सब कुछ अस्तव्यस्तता और क्रमहीनताका एक समुद्र बन जायगा । जबतक लोग बिना नियम उनके साथ समुचित रूपमें व्यवहार करनेके लिये पर्याप्त विकसित नही हैं तबतक स्थूल वस्तुओंकी व्यवस्थाके लिये सुनिश्चित नियम बनाना भी जरूरी है । परन्तु आंतरिक विकास और साधनाके मामलेमें प्रत्येक ब्यौरेमें निश्चित कोई योजना बना डालना और यह कहना असंभव है कि ' 'प्रत्येक बार तुम्हें यहां, वहां, इस ढंगसे, इस पथपर, और किसी पथपर नही ठहरना होगा । '' चीज़ें इतनी बंधी-बंधाई और कठोर हों जायंगी कि कुछ भी नहीं किया जा सकेगा; कोई भी यथार्थ और फलदायी किया नहीं हों सकेगी ।

 

*

 

     कर्ममें अवश्य ही कोई नियम और अनुशासन होना चाहिये और जहांतक संभव हो समयके विषयमें नियमितता बरतनी चाहिये ।

 

     कौनसा अच्छा कार्य है ओर कौनसा बुरा या कम अच्छा कार्य? सब श्रीमांके काम हैं और श्रीमाताजीकी दृष्टिमें एक समान हैं ।

 

*

 

     नियमित होनेकी योग्यता एक महान् शक्ति है, मनुष्य अपने समय और अपनी गतिविधियोंका स्वामी बन जाता है ।

 

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     दृढ निश्चयका अर्थ है निश्चित समयमें किसी कार्यको पूरा कर देनेका प्रयास । वह कोई बंधनकारी ' 'प्रतिज्ञा' ' नहीं है कि कार्य उस समयतक पूरा हों जायगा । यदि वह पूरा न भी हों तो भी प्रयास जारी रखना होगा, ठीक उसी तरह मानो तिथि निश्चित हो चुकी हो ।

 

IX

 

   अत्यंत थोड़े समयमें भौतिक वस्तुओंको खुले तीरपर बरबाद करना और असावधानीके साथ नष्ट करना, शिथिलतावश अव्यवस्थित रखना, चाहे प्राणिक लोभ या तामसिक जड़ताके वश सेवा और सामग्रीका दुर्व्यवहार करना समृद्धिके लिये घातक है और धन-शक्तिको दूर भगा देता या निरुत्साहित करता है । ये चीज़ें दीर्घकालसे समाजमें प्रचलित हैं और, यदि बे बनी रहें तो, हमारे साधनोंमें वृद्धि होनेका भली- भांति अर्थ होगा उसी अनुपातमें वस्तुओंकी बरबादी, और कुव्यवस्थामें भी वृद्धि और उससे स्थूल-भौतिक सुयोग-सुविधा व्यर्थ हों जायगी । यदि कोई ठोस प्रगति करनी हों तो इसका इलाज अवश्य होना चाहिये ।

 

   स्वयं वैराग्यके ही लिये वैराग्य इस योगका आदर्श नही है, परंतु प्राणस्तरमें आत्मसंयम तथा भौतिक स्तरमें समुचित व्यवस्था उसके बड़े महत्त्वपूर्ण अंग हैं --- और यहांतक कि हमारे उद्देश्यके लिये सच्चे संयमके बेरोक अभावकी अपेक्षा वैराग्य- पूर्ण अनुशासन कहीं अधिक अच्छा है । भौतिक वस्तुओंपर प्रभुत्व पानेका अर्थ यह नही है कि प्रचुर मात्रामें उन्हें पाया जाय और उन्हें अधिक-से-अधिक बाहर फेंक दिया जाय अथवा जितनी तेजीसे वे आवें उतनी ही तेजीसे अथवा उससे भी अधिक तेजीसे उन्हें नष्ट कर दिया जाय । प्रभुत्वके अन्दर यह भी शामिल है कि वस्तुओंका समुचित और सावधानतापूर्वक व्यवहार किया जाय और उनके व्यवहारमें भी आत्मसंयम बनाये रखा जाय ।

 

*

 

     स्थूल वस्तुएं घृणा करनेके लिये नहीं हैं - उनके बिना इस स्थूल जगत्में कोई प्तंगवदोभव्यक्ति नही हों सकती 1

 

*

 

    प्रत्येक भौतिक वरतुमें एक चेतना है जिसके साथ मनुष्य संपर्क कर सकता है । प्रत्येक वस्तुकी, मकान, मोटरगाडी, साज-सामान आदिकी एक प्रकारकी व्यष्टि-सत्ता है । प्राचीन युगके लोग इसे जानते थे और इसलिये वे प्रत्येक भौतिक वस्तुमें एक आत्मा या '' अधिदेवता' ' देखते थे ।

 

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तुम भौतिक वस्तुओंके विषयमें जो अनुभव करते हों वह ठीक द्रुँ - उनमें भी एक चेतना है, एक प्राण है जो मनुष्य और पशुका प्राण और चेतना नही है जिन्हें हम जानते हैं, पर और भी गुह्य और यथार्थ । यही कारण है कि हमें भौतिक वस्तुओं- के प्रति भी आदरभाव रखना चाहिये और समुचित रूपमें उनका व्यवहार करना चाहिये, कुव्यवहार और अपचय नहीं करना चाहिये, उनके साथ बुरा बर्ताव अथवा अचेतन कठोरताके साथ उनका उपयोग नही करना चाहिये । सभी चीजोंके चेतन या जीवंत होनेकी भावना तब आती है जब हमारी अपनी भौतिक चेतना - और केवल मन हीं नही -- अपनी अंधतासे जागती  और सभी वस्तुओंमें एकमेवके विषय- मे, सर्वत्र भगवानके विषयमें सचेतन होती है ।

 

*

 

    यह बहुत सही है कि भौतिक वस्तुओंके अन्दर एक चेतना होती है जो प्यारको अनुभव करती और प्रत्युत्तर देती है तथा असावधानीपूर्ण स्पर्श और कठोर व्यवहारके प्रति संवेदनशील होती है । इसे जानना या अनुभव करना और उनके विषयमें सावधान होना चेतनाकी एक महान् प्रगति है।

 

*

 

     भौतिक वस्तुओंको बुरी तरह इस्तेमाल करना और असावधानीवश तोड-फोड देना या नष्ट करना और कुव्यवहार करना यौगिक चेतनाको अस्वोकार करना है तथा जड़-भौतिक स्तरपर भागवत सत्यको उतार लानेमें एक महान् बाधा है ।

 

 *

 

     मैं समझता हूँ कि यह एक ऐसी भावना थी जो भौतिक मनके द्वारा आयी थी, जो भौतिक उपयोगका अनुसरण करने तथा अन्य सभी बोध ओर उद्देश्योंकी उपेक्षा करनेका सुझाव थी । तुम्हें भौतिक मनकी इन भावनाओं और सुझावोंसे सावधान रहना चाहिये तथा इनमेंसे किसीको विवेक तथा उच्चतर ज्योतिकी अधीनताके बिना स्वीकार नहीं करना चाहिये ।

 

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विभाग छ:

 

ध्यानके द्वारा साधना


ध्यानके द्वारा साधना

 

      तुम्हारे प्रश्न. एक बहुत विशाल क्षेत्रको पूराका पूरा समाविष्ट कर लेते हैं । अतएव यह आवश्यक हे कि कुछ संक्षेपमें, किन्हीं प्रधान बातोंका स्पर्शमात्र करते हुए उनका उत्तर दिया जाय ।

 

           1 ध्यानका ठीक-ठीक अर्थ क्या है?

 

भारतीय शब्द 'ध्यान की भावनाको अभिव्यक्त करनेके लिये अंगरेजीमें दो शब्दोंका व्यवहार किया जाता है मेडिटेशंन (Meditation) और कण्टेफ्लेशन ( इ(Contemplation) । जब मनुष्य अपने- मनको किसी एक ही विषयको स्पष्ट करनेवाली किसी एक ही विचार-धारापर एकाग्र करता हैं तो उसे ही वास्तवमें 'मेडिटेशंन' कहते हैं । परंतु जब मनुष्य किसी हा_क ही विषय, मूर्त्ति, भावना आदिपर मनकी दृष्टि लगा देता है जिससे एकाग्रताकी शक्तिकी सहायतासे उसके मनमें स्वभावत: ही उस विषय, मूर्त्ति या भावनाका ज्ञान उदित हों जाता है तो वही कहलाता है 'कट्टे- म्प्लेशन' । ये दोनों ही चीज़ें ध्यानके दो रूप हैं, क्योंकि ध्यानका मूल स्वरूप हीं है मानसिक एकाग्रता, फिर वह एकाग्रता चाहे विचारपर की जाय या किसी दृश्यपर या ज्ञानपर. ।

 

    इनके अलावा ध्यानके अन्य रूप भी हैं । अपने एक लेखमें विवेकानन्दने यह सलाह दी है कि अपने विचारोंसे पीछे खड़े हो जाओ, उन्हें अपने मनमें, जैसे वे आवें, आने दो और महज उनका निरीक्षण करो तथा देखो कि वे क्या हैं । इस क्रियाको आत्म- निरीक्षणात्मक एएकाग्रता कह सकते हैं ।

 

     यह क्रिया एक दूसरी क्रियाकी ओर ले जाती है, हम अपने सभी विचारोंको अपने मनसे बाहर निकाल देते हैं और इस तरह उसे एक प्रकारसे शुद्ध, सजग और खाली बनाकर छोड़ देते हैं जिसमें कि उसपर दिव्य ज्ञान प्रकट हों और अपनी छाप डाल दे 1 साधारण मानव-मनके निम्नतर विचार उसे क्षुब्ध न करें और उसकी छाप वैसी ही स्पष्ट हों जैसी कि काले तख्तेपर सफेद खरिया मिट्टीकी लिखावट होती है । तुम देखोगे कि गीता इस प्रकार सभी मानसिक विचारोंके त्यागको योगकी एक पद्धति कहती है और इसी पद्धतिको पसंद करती हुई प्रतीत होती है । इसे हम मुक्तिदायक ध्यान कह सकते हैं, क्योंकि इस ध्यानसे चिंतनकी यांत्रिक क्रियाकी दासतासे मन मुक्त हो जाता है । मनको यह छूट मिल जाती है कि वह चाहे सोचे या न सोचे, यदि चाहे और जब चाहे तो ही सोचे, अथवा अपने विचारोंका चुनाव कर सके अथवा चिंतनके परे जाकर सत्यका शुद्ध दर्शन प्राप्त करे जिसे हमारे दर्शनमे 'विज्ञान' कहा गया है ।

 

    इन सब ध्यानोंमेंसे पहला (मेडिटेशन) मानव-मनके लिये सबसे अधिक सुगम तरीका है, पर अपने परिणामोंमें यह अत्यन्त परिमित है । दूसरे प्रकारका ध्यान

 

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( कण्टेफ्लेशन) अधिक कठिन है, पर पहलेसे अधिक शक्तिशाली हे । आत्मनिरीक्षण- की पद्धति तथा विचार-शृंखलासे मुक्ति - ये दोनों सबसे अधिक कठिन हैं, परंतु अपने परिणामकी दृष्टिसे सबसे अधिक विशाल और महान् हैं । मनुष्य अपनी रुझान और सामर्थ्यके अनुसार इनमेंसे किसी एक पद्धतिको चून सकता है । पूर्ण पद्धति है इन सबका उपयोग करना, प्रत्येकको उसके निजी स्थानमें और उसके निजी उद्देश्यसे व्यव- हत करना । परंतु इसके लिये आवश्यकता है सुदृढ़ विश्वास और अटूट धैर्यकी तथा योगमें अपने-आपको नियुक्त करनेके संकल्पकी महान् शक्तिकी ।

 

    2. ध्यानके लिये कौनसा बिषय या कौनसे विचार होने चाहियें?

 

     जो कुछ तुम्हारे स्वभाव और उच्चतम अभीप्साके साथ सबसे अधिक मेल खाता हों वही ध्यानका विषय है । परंतु तुम यदि मुझसे कोई निरपेक्ष उत्तर पूछो तो मैं यही कहूँगा कि ध्यानके लिये सबसे उत्तम विषय सदा ही ब्रह्म हे और जिस भावनापर मनको जमाना चाहिये यह भावना यह है कि भगवान् सबमें हैं, सब भगबानमें हैं और सब कुछ भगवान् ही है । मूलत: इस बातसे कुछ भी नहीं आता-जाता कि वह भगवान् निराकार है या साकार, अथवा प्रत्येकृदृष्टिसे, एकमेवाद्वितीय ब्रह्म है । परंतु जिसे मैंने सर्वोत्तम भावना पाया है वह है - सर्व खल्विदं ब्रह्म -- यह सब कुछ ब्रह्म ही है, क्योंकि यह उच्चतम भावना है और इसमें अन्य सभी सत्य निहित हैं, चाहे वे सत्य इस जगतके हों या अन्य जगतोंके अथवा समस्त इंद्रियग्राह्य सत्ताके परेके ।

 

        'आर्य' पत्रिकाके तीसरे अंकमें, ईशोपनिषद्की ब्याख्याकी दूसरी किश्तके अंत- मे, 'सर्व' विषयक इस दर्शनका विवरण तुम्हें मिलेगा और उससे तुम्हें इस विचारकों समझनेमें सहायता मिल सकती है । '

 

        3. आंतरिक और बाह्य अवस्थाएं जो ध्यानके लिये अत्यत आवश्यक हैं । वास्तवमें कोई भी अनिवार्य बाहरी अवस्थाएं नही हैं, पर ध्यानके समय एकांत और निर्जन स्थानमें रहना तथा शरीरका शातस्थिर रहना सहायक होता है, कभी- कभी नये साधकके लिये प्रायः आवश्यक होता है । परन्तु साधकको बाहरी अवस्था- ओंसे बंधा हुआ नही रहना चाहिये । एक बार जब ध्यान करनेकी आदत पंडू जाय तब फिर ऐसी अवस्था बना लेनी चाहिये जब सभी परिस्थितियोंमें, लेटकर, बैठकर, घूमकर, अकेलेमें, दुकेलेमें, नीरवतामें या शोरगुलके बीच आदि-आदि सभी अवस्था- ओमें ध्यान करना संभव हों जाय ।

 

    सबसे पहली आवश्यक आंतरिक अवस्था है ध्यानके विघ्नोंके विरुद्ध अर्थात् मनकी भाग-दौड, विस्मृति, नींद, शारीरिक और स्नायविक अधीरता और चंचलता आदि-आदिके विरुद्ध साधकके संकल्पकी एकाग्रता ।

 

     दूसरी आवश्यक अवस्था यह है कि जिस आंतरिक चेतना (चित) लें विचार और भावावेग उठते हैं उसकी पवित्रता और शांति निरन्तर बढ़ती रहे अर्थात् '

 

      श्रीअरविन्दकी अंगरेजी पुस्तक 'ईश उपनिषद्' (सन् १९६५ संस्करण), पृष्ठ ३५ देखिये ।

 

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बह विक्षुब्धकारी सभी प्रतिक्रियाओं, जैसे, क्रोध, दुःख, अवसाद, सांसारिक घटनाओं- के विषयमें दुश्चिता आदि, ३ एकदम मुक्त हों । मानसिक परिपूर्णता और नैतिक तत्त्व सदा एक-दूसरेसे घनिष्ठ रूपमे जुड़े होते हैं ।

 

*

 

    एकाग्रताका मतलब है चेतनाको एक साथ एकत्र कर लेना और उसे चाहे एक बिदुपर केंद्रित कर लेना अथवा किसी एक वस्तुकी ओर, जैसे, भगवान्की ओर मोड देना । उस समय किसी एक ही बिदुपर नहीं, बल्कि पूरी सत्ताभरमें एकत्रित अवस्था- का बोध हों सकता है । ध्यानमें इस प्रकार एकत्रित होना आवश्यक नहीं है, मनुष्य महज एक विषयका चिंतन करते हुए शांत-स्थिर बना रह सकता है और यह निरीक्षण कर सकता है कि चेतनाके अन्दर कौनसी चीज आती है और फिर उसके साथ समुचित व्यवहार कर सकता है ।

 

*

 

      एकाग्रताका तात्पर्य है एक स्थान या एक वस्तुपर और महज एक अवस्थामें चेतनाको जमा देना । ध्यान प्रसारित हों सकता है, उदाहरणार्थ, उस समय मनुष्य भगवानके विषयमें विचार कर सकता है, प्रभाव ग्रहण कर सकता है और विवेक कर सकता है, यह देख सकता है कि प्रकृतिमें क्या हों रहा है और उसपर क्यिा कर सकता है इत्यादि-इत्यादि ।

 

*

 

      हमारे योगमें एकाग्रता उसे कहते हैं जब चेतना किसी विशेष स्थितिमें ( जैसे, शांतिमें) अथवा क्रियामें ( जैसे, अभीप्सा, संकल्प, श्रीमाताजीके साथ संपर्क, श्रीमाताजी- का नाम-स्मरण) आदिमें लवलीन होती है । ध्यान उसे कहते हैं जब आंतर मन वस्तु- ओंको उनका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेके लिये देखता रहता है ।

 

       अब एकाग्रताकी बात लें । साधारणतया चेतना चारों ओर फैली हुई, छतरी हुई होती है और इस या उस दिशामें, इस विषय या उस वस्तुकी ओर, जो असंख्य होते हैं, दौड करती है । जव कोई ऐसा काम करना होता है जो स्थायी स्वभावका होता है तो सबसे पहले मनुष्यको इस पूरी छितरी चेतनाको पीछे खींचकर एकाग्र करना होता है । तब, कोई यदि ध्यानसे देखे तो उसे पता चलेगा कि बह चेतना किसी एक

 

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स्थान और किसी एक कार्य, विषय या वस्तुपर एकाग्र होनेके लिये बाध्य हों जाती है -- जैसे उस समय होती है जब तुम कविता लिखते होते हों या कोई वनस्पति-शास्त्री किसी पुष्पका अध्ययन करता होता है । एकाग्रताका स्थान सामान्यतया कहीं मस्तिष्कमें होता है यदि उसका विषय कोई विचार हों, हृदयमें होता है यदि उसका विषय कोई भावना हो । यौगिक एकाग्रता महज इसी चीजका एक विस्तारित और घनीभूत रूप होती हैं । यह एकाग्रता किसी वस्तुपर की जा सकती है जैसे कोई मनुष्य एक चमकते बिंदुपर त्राटक करता हैं - उस समय मनुष्यको इस प्रकार एकाग्र होना होता है ताकि वह केवल उस बिंदुको ही देखे और उसके अतिरिक्त उसमें दूसरा कोई विचार न हों । फिर यह एकाग्रता एक विचार या एक शब्द या एक नामपर, भगवान्- विषयक एक विचारपर,  शब्दपर, कृष्ण नामपर अथवा एक संग विचार और शब्द- पर या विचार ओर नामपर की जा सकती है । परंतु इसके अतिरिक्त योगमें मनुष्य एक विशिष्ट स्थानमें भी एकाग्रताका अभ्यास करता है । योगका एक प्रसिद्ध नियम है दोनों भौंहोंके बीच एकाग्र होना, आंतर मन, गुह्य दर्शन और संकल्पका केंद्र इसी स्थानपर है । इस एकाग्रताके लिये जिस विषयको तुम चुनते हों उसीका तुम उस स्थानमे चिंतन करते हो अथवा वहांसे उसकी प्रतिमूर्त्ति देखनेकी चेष्टा करते हों । यदि तुम ऐसा करनेमें सफल हो जाते हों तो कुछ दिन बाद तुम यह अनुभव करने लगते हो कि तुम्हारी सारी चेतना उस स्थानमें केंद्रित हों गयी है -- अवश्य ही उस समयके लिये । कुछ दिन इसका अभ्यास करनेके बाद और बहुधार ऐसा अनुभव करना आसान और स्वाभाविक हों जाता है ।

 

     मैं समझता हूँ कि यह बात स्पष्ट हो गयी है । अब, इस योगमें, यही चीज तुम्हें करनी होती हैं, पर आवश्यक रूपसे भौंहोंके बीचके उसी विशिष्ट स्थानपर नहीं, बल्कि मस्तकके किसी भी स्थानमें अथवा छातीके केंद्रमें जहां शरीरशास्त्री हदयका स्थान बतलाते है । यहां किसी वस्तुपर एकाग्र होनेके बदले तुम मस्तकमें एक संकल्पपर एकाग्र होते हों, ऊपरसे शक्तिके अवतरणके लिये एक पुकारपर एकाग्रता होते हो, अथवा जैसे कि कुछ लोग करते हैं, एक अदृश्य ढक्कनके खुल जाने और ऊपरसे चेतनाके अव- तरित होनेपर एकाग्र होते हों । हृदय-केंद्रमें साधक किसी अभीप्सापर, किसी उद्- घाटनके लिये, वहां भगवान्की सजीव मूर्त्तिकी उपस्थितिके लिये अथवा और जो भी उसका उद्देश्य होता है उसके लिये एकाग्रताका अभ्यास करता हैं । वहां, हृदय-केंद्रमें किसी नामका जप भी किया जा सकता है, पर, यदि ऐसा करना हों तो, उसके साथ- साथ उस नामपर एकाग्रता भी होना चाहिये और नामका जप स्वयं हृदय-केंद्रमे ही होता रहना चाहिये ।

 

      यहांपर यह प्रश्न किया जा सकता है कि जब इस तरह किसी एक स्थानमें एकाग्रता की जाती है तो चेतनाके बाकी हिस्सेका क्या होता है? हां, बाकी हिस्सा या तो शांत-नीरव हों जाता है जैसा कि किसी भी एकाग्रतामें होता हैं, अथवा, यदि शांत- नीरव नहीं होता तो उस हालतमें विचार या अन्य चीज़ें इस तरह घूम-फिर सकती हैं मानो बाहरकी ओर हों, पर एकाग्र भाग उनकी ओर ध्यान नही देता या उनकी ओर

 

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नहीं देखता । ऐसा तब होता है जब एकाग्रता पर्याप्त रूपमें सफल होती है ।

 

   जबतक मनुष्य अभ्यस्त न हो जाय तबतक उसे आरंभमें लंबे समयतक एकाग्रताका अभ्यास करके अपनेको थका नही देना चाहिये, क्योंकि उस अवस्थामें मनके क्लांत हों जानेके कारण एकाग्रता अपना मूल्य-महत्त्व और शक्ति खो बैठती है । उस समय एकाग्रताका अभ्यास करनेके बदले मनुष्यको विश्रांतिका लिये अपनेको शिथिल अवस्थामें छोड़ देना चाहिये और ध्यान करना चाहिये । जब एकाग्रताकी अवस्था सहज-स्वाभाविक बन जाय केवल तभी मनुष्य धीरे-धीरे लंबे समयतक एकाग्रताका अभ्यास कर सकता है ।

 

    साधक तीन केंद्रोंमेंसे किसी एकमें एकाग्र हों सकता है जहां एकाग्र होना उसके लिये सबसे आसान हों और जो सबसे अधिक परिणाम देता हों । हृदय-केंद्रमें होनेवाली एकाग्रताकी क्षमता यह है कि वह उस केंद्रको खोल देती है और अभीप्सा, प्रेम, भक्ति और समर्पणकी शक्तिके द्वारा उस पर्देको हटा देती है जो अंतरात्माको ढकता और छिपाता है तथा अंतरात्मा या चैत्य पुरुषको सम्मुख भागमें ले आती है जिसमें कि वह मन, प्राण और शरीरपर शासन करे और उन सबको भगवान्की ओर पूर्णतः मोड दे और उद्घाटित कर दे और जो कुछ उस मोड और उद्घाटनका विरोध करता है उस सबको दूर हटा दे ।

 

     यहीं वह चीज है जिसे इस योगमें चैत्य रूपांतर कहा जाता है, सिरके ऊपर किये जानेवाली एकाग्रताकी सामर्थ्य यह है कि वह शांति, निश्चल-नीरवता, शरीर-बोधसे मुक्ति, मन और प्राणके साथ तादात्म्य प्रदान करती है और निम्रतर (मानसिक, प्राणिक, भौतिक) चेतनाके लिये ऊर्ध्वस्थ उच्चतर चेतनासे मिलनेके लिये ऊपर उठनेका रास्ता. खोल देती है और उच्चतर ( आध्यात्मिक प्रकृतिकी) चेतनाकी शक्तियोंके लिये मन, प्राण और शरीरमें उतर आनेका मार्ग खोल देती है । यही वह चीज है जिसे इस योग- मे आध्यात्मिक रूपांतरका नाम दिया गया है । यदि कोई इस क्रियासे आरंभ करता है तो ऊपरसे आनेवाली दिव्य शक्तिका अवतरण सभी केंद्रोंको (निम्रतम केंद्रतकको) खोलनेके लिये तथा चैत्य पुरुषको बाहर ले आनेके लिये होता हे; क्योंकि जबतक यह कार्य नहीं संपन्न हों जाता तबतक यह संभावना है कि निम्रतर चेतनाकी ओरसे बहुत अधिक कठिनाइयां ओर संघर्ष आयें और ऊपरसे होनेवाली भागवत क्रियाको वह चेतना बाधा दे, उसके साथ मिल-जुल जाय या यहांतक कि उसे अस्वीकार कर दे । यदि चैत्य पुरुष एक बार सक्रिय हों जाय तो यह संघर्ष और ये कठिनाइयां बहुत अधिक कम की जा सकतीं हैं ।

 

    दोनों भृकुटियोंके मध्यमें किये जानेवाली एकाग्रताकी शक्ति यह है कि वह वहां- के केंद्रको खोल देती है और आंतर मन और दृष्टिको तथा आंतर या यौगिक चेतनाको एव उसकी अनुभूतियों और शक्तियोंको  कर देती है । यहांसे भी साधक ऊपरकी ओर उद्घाटित हों सकता है और निम्रतर केंद्रोंमें भी कार्य कर सकता है; परंतु इस प्रकियाका खतरा यह है कि साधक अपनी मानसिक-आध्यात्मिक रचनाओमे आबद्ध हों सकता है और उनमेंसे बाहर निकलकर मुक्त और सर्वांगपूर्ण आध्यात्मिक अनुभव

 

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और ज्ञान तथा सत्ता और प्रकृतिके सर्वांगपूर्ण परिवर्तनकी स्थितिमें नहीं पहुँच सकता ।

 

*

 

    जब कोई किसी विचार या शब्दपर एकाग्र होता है तब उसे उस शब्दमें निहित मूल भावनापर ध्यान जमाना होता है और यह अभीप्सा रखनी होती है कि जिस चीज- को बह शब्द व्यक्त करता है वह अनुभूत हो ।

 

*

 

   इस समय वह मूल अध्याय मेरे सामने नही है; परंतु जिन वाक्योंको तुमने उद्- धृत किया है,' उससे मालूम होता है कि वह भावना अ मानसिक भावना है । उदाहरणार्थ, वैदांतिक ज्ञानमार्गमें मनुष्य सर्वव्यापी ब्रह्मकी भावनापर एकाग्र होता है - वह एक वृक्षकी ओर या दूसरी आसपासकी वस्तुकी ओर इस भावनाके साथ ताकता है कि ब्रह्म वहां विद्यमान हैं और वृक्ष या दूसरी वस्तु महज उसका एक रूप है । कुछ समय बाद जब एकाग्रता समुचित प्रकारकी हों जाती है तब मनुष्य एक उपस्थिति, एक सत्ताका अनुभव करना आरंभ करता है और स्थूल वृक्षका रूप एक बाहरी खोल बन जाता है और बह उपस्थिति, या सत्ता ही एकमात्र सद्वस्तुके रूपमें अनुभव होने लगती है । भावना तब विलीन हों जाती है, वह उस वस्तुका साक्षात् दर्शन बन जाता है जो भावनाके स्थानमें आ जाती है - उस समय अब भावनाके ऊपर एकाग्र होनेकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, मनुष्य एक गभीरतर चेतनाके द्वारा देखने लगता हैं -- ' 'स पश्यति । '' यहांपर यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि भावनाके ऊपर की गयी यह एकाग्रता महज चिंतनकी, मनकी क्यिा नहीं है - यह भावनाके स्व स्वरूप- पर एक प्रकारसे आंतरिक रूपसे ध्यानस्थ होना है ।

 

*

 

   अगर तुम कभी तो हृदयमें और कभी मस्तकके ऊपर ध्यान एकाग्र करो तो इसमें कोई हर्ज नहीं । परंतु इन दोनों स्थानोंपर एकाग्र होनेका अर्थ यह नही है कि किसी

 

    '''यह एकाग्रता भावनासे आरंभ होती है......, क्योंकि भावनाके द्वारा हीं मनोमय सत्ता समस्त अभिव्यक्तिके परे उस चीजतक चली जाती है वों अभिव्यक्त की गयी होती है, उस चीज- तक जाती है जिसका महज एक यंत्र यह भावना होती है । भावनापर एकाग्र होकर मनोमय सत्ता, वों कि हम अभी हैं, हमारी मानसिक सीमाको तोड़ देती है और चेतनाकी उस स्थितिपर, सताकी उस स्थितिपर, चेतन सत्ताकी शक्तिकी और चेतनन्दत्ताके आनन्दकी उस स्थितिपर पहुंच जाती १ जिसके अनुरूप वह भावना होती है और जिसका यह एक रूपक, क्यिा और छंद होती दु ।''

 

- ( ''योग-समन्वय'') आर्य, वर्ष, 1 पृष्ठ ४६५)

 

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एक विशिष्ट स्थानपर अपने ध्यानको जमाये रखा जाय । तुम दोनोंमेंसे किसी एक स्थानपर अपनी चेतनाको ले जाकर वहां जम जाओ और फिर वहां किसी स्थानपर नहीं वरन् भगवानपर एकाग्र होओ । इसे, चाहे आंखें बंद करके या खोल करके, जैसा कि सबसे अधिक तुम्हारे अनुकूल हो उसके अनुसार, किया जा सकता है ।

 

    तुम सूर्यपर ध्यान जमा सकते हों, पर भगवानपर ध्यान एकाग्र करना सूर्यपर एकाग्र होनेसे कही अधिक अच्छा है ।

 

*

 

     अधिकांश लोग चेतनाका मतलब मस्तिष्क या मन समझते हैं, क्योंकि बौद्धिक चिंतन और मानसिक दर्शनका वही केंद्र है । परंतु चेतना केवल उस तरहके चिंतन या दर्शनमे सीमित नहीं है । चेतना तो हमारी सत्तामें सर्वत्र विद्यमान है और उसके कई केंद्र हैं, जैसे, आंतरिक एकाग्रताका केंद्र मस्तिष्कमें नही वरन् हृदयमें है,--प्राणिक वासनाओंका उद्भव-केंद्र उससे भी और नीचे है ।

 

    योगके लिये चेतनाको एकाग्र करनेके दो प्रमुख स्थान हैं जो मस्तकमें और हृदय- मे हैं - इन्हें मानस-केंद्र और चैत्य-केंद्र कह सकते हैं ।

 

*

 

   मस्तिष्कको एकाग्र करना बराबर ही एक प्रकारकी तपस्या है और आवश्यक रूपसे थकावट ले आता है । जब मनुष्य मस्तिष्क-मनसे पूर्णतया ऊपर उठ जाता है केवल तभी मानसिक एकाग्रताकी थकावट दूर होती है ।

 

*

 

    पढ़ने या चिंतन करते समय यौगिक एकाग्रता करनेका उत्तम स्थान है मस्तक- का शीर्ष-स्थान या उससे भी और ऊपर ।

 

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    एकाग्रतापूर्ण ध्यानके लिये स्वाभाविक मुद्रा है निश्चल होकर बैठ जाना - खड़ा होना और घूमते रहना सक्थि अवस्थाएं हैं । जब मनुष्य अपनी चेतनामें स्थायी स्थिरता और निश्चेष्टता प्राप्त कर लेता है केवल तभी घूमते-फिरते या कोई काम करते हुए एकाग्र होना और ग्रहणशील होना आसान होता है । जब चेतना अपने अंदर सिमटकर अपने सार-तत्वमें निष्क्यि हो जाती है तो वही अवस्था एकाग्रताकी समुचित स्थिति होती है और उसके लिये सबसे उत्तम मुद्रा है शरीरकी बैठी हुई स्थितिमें

 

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समाहित निश्चलता । ऐसा लेटकर भी किया जा सकता है पर वह आसन अत्यधिक निष्क्रिय हे और उसमें अंतरमें समाहित होनेकी अपेक्षा जड़ बन जानेकी प्रवृत्ति पैदा होती है । यही कारण है कि योगी लोग सर्वदा बैठकर आसन लगाते है । मनुष्य घूमते हुए, खड़े होकर, सोकर ध्यान करनेका अभ्यास डाल सकता है, परंतु बैठकर ध्यान करना सबसे पहली स्वाभाविक स्थिति है ।

 

*

 

    जब तुम अकेले होओ या शांत-स्थिर होओ केवल तभी गभीर रूपमे एकाग्र होना अच्छा है । उस समय तुम्हें बाधा देनेवाला कोई बाहरी शब्द नही होना चाहिये ।

 

 *

 

    ध्यानके बाद कुछ समयतक नीरव और एकाग्र बने रहना निस्संदेह बहुत अच्छा मद्य । ध्यानको हलके रूपमें लेना भूल है -- वैसा करनेसे मनुष्य जो कुछ ग्रहण कर चुका है उसे या उसके अधिकांश भागको धारण करनेमें असमर्थ होता अथवा बिखेर देता है ।

 

*

 

   तुम गहरी अंतर्मुखीनता और स्थिरताकी अवस्थामें प्रवेश कर जाते हों । परंतु कोई यदि हठात् इस अवस्थासे बाहर निकलकर साधारण चेतनामें वापस आ जाय तो उसे थोड़ा स्नायविक धक्का लग सकता है अथवा कृउछ समयके लिये हदयकी धड़कन आरंभ हों सकतीं है जैसा कि तुमने वर्णन किया है । इस अतर्मुखीनतासे बाहर आने और आंखें खोलनेसे पहले कुछ क्षणोंतक शांत-स्थिर बने रहना सदा हीं अत्युत्तम होता है ।

 

    कर्मके विषयमें तुम्हारी नवीन भावना बिलकुल सही है, यह नवीन शांतिका ही अंश है और यह सूचित करती है कि तुम्हारी चेतना अधिक संतुलित और मुक्त हों रही है । आलस्यको आनेकी संभावना नहीं है ।

 

    जो खुला मैदान तुमने देखा वह निश्चल-नीरव आंतरिक चेतनाका, मुक्त, उल्वल, सुस्पष्ट और स्थिर चेतनाका प्रतीक है ।

 

    जो चीज़ें तुम देखते हो वे अधिकांशत: उस क्रियाके चिह्न बे जो तुम्हारे अन्दर चल रही है । इस बातका कोई भय नहीं कि वे चेतनापर कोई प्रभाव न डालनेवाले केवल सूक्ष्मदर्शन ही रहेंगी । तुम्हारी चेतना अबतक बहुत परिवर्त्तित हों चुकी है और फिर भी आगे आनेवाले और भी महत्तर परिवर्तनका यह केवल प्रारंभ ही है ।

 

*

 

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    बहिर्मुखी क्रियाओंके विषयमें तुमने जो कुछ देखा वह निश्चय ही कल्पना नही था । यह उनकी क्रियाका एक सच्चा और सही अनुभव और दर्शन था । उनसे अपने- को पृथक् अनुभव करना और उन्हें देखना यथार्थ आंतरिक अवस्था है जो अन्तमें उनसे एकदम मुक्त हो जानेके लिये आवश्यक है ।

 

  एकाग्रता बहुत उपयोगी और आवश्यक है -- मनुष्य जितना ही अधिक ( निस्संदेह, शरीरको थकाये बिना उसकी क्षमताकी सीमाओंके भीतर) एकाग्र होता. है उतनी ही अधिक योगकी शक्ति बढ्ती है । परंतु तुम्हें कभी-कभी ध्यानके असफल होने- के लिये भी तैयार रहना चाहिये और उससे घबड़ा नही जाना चाहिये - क्योंकि ध्यानकी यह अस्थिरता प्रत्येक व्यक्तिके साथ घटित होती है । इसके कई कारण होते हैं । परंतु अधिकतर कोई भौतिक वस्तु होती है जो हस्तक्षेप करती है, अथवा जो कुछ आया हैं या किया गया है उसे आत्मसात् करनेके लिये समय लेनेकी शरीरकी आवश्यक- ता होती है । कभी-कभी तामसिकता या जड़ता होती है जो ऐसे कारणोंसे, जिनका तुमने वर्णन किया है अथवा दूसरे कारणोंसे आती है । सबसे उत्तम बात यह है कि जबतक शक्ति फिरसे कार्य नही करने लग जाती तबतक शांतस्थिर बना रहा जाय और अधीर या उदास न हुआ जाय ।

 

*

 

    संभव है कि किसी साधकके ध्यानका कोई निश्चित समय न हो और फिर भी वह साधना कर सकता है

 

*

 

    अनुभूति और उसके बादकी भावना दोनोंका अपना सत्य मग्न । आरंभमें बहुत दीर्घ कालतक प्रयास करके भी एकाग्र होना आवश्यक है, क्योंकि अभी प्रकृति, चेतना तैयार नही होती । पर उस अवस्थामें भी एकाग्र होनेकी क्रिया जितनी अधिक अचंचल और स्वाभाविक हों उतना ही अच्छा है । परंतु चेतना और प्रकृति जब तैयार हों जाती हैं तब एकाग्रताका अभ्यास सहज-स्वाभाविक बन जाना चाहिये और सब समय बिना प्रयासके आसानीसे करना संभव होना चाहिये । अंतमें जाकर तो यह सत्ताकी स्वाभाविक और स्थायी अवस्था बन जाती है - उस समय यह अब एकाग्रता नही रह जाती, बल्कि भगबानमें जीवकी ससिद्ध स्थिति बन जाती है ।

 

    यह सही है कि एकाग्र होना और उसके साथ-हीं-साथ कोई बाहरी कार्य करना आरंभमें संभव नहीं होता । पर वह भी संभव हो जाता है । चाहे तो चेतना दो भागों- मे विभक्त हों जाती है, एक, आंतरिक भाग तो गवान्में स्थित होता है और दूसरा, बाहरी भाग बाहरी कार्य करता है,--अथवा संपूर्ण चेतना ही उस प्रकार भगबानमें स्थित होती है और शक्ति निष्क्रिय यंत्रके द्वारा कार्य करती ।

 

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     स्वभावत: ही यदि ध्यान स्वाभाविक हो जाय तो थकावट नहीं आती । परन्तु अभीतक यदि उसकी क्षमता न हो तो बहुतसे लोग बिना तनावके उसे जारी नहीं रख सकते जो कि थकावट ले आता है ।

 

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    यदि मन थक जाय तो स्वभावत: ही एकाग्र होना कठिन हो जाता है - जबतक कि तुम मनसे पृथक् नहीं हो जाते ।

 

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    तुम्हें मनसे भी अपनेको पृथक् करना होगा । तुम्हें मानसिक, प्राणिक और भौतिक स्तरोंमें भी (केवल ऊर्ध्वमे ही नहीं) एक चेतनाको अनुभव करना होगा जो न तो मन, प्राण है और न शरीर 1

 

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    प्रयासका मतलब है खिंचाव उत्पन्न करनेवाला प्रयत्न । ऐसा कर्म भी हो सकता है जिसमें एक संकल्प हो पर जिसमें कोई खिंचाव या प्रयास न हो ।

 

    खींच-तान (एकाग्रताके लिये संघर्ष) और एकाग्रता एक ही चीज नहीं हैं । खींचतानका तात्पर्य है एक प्रकारकी अति-उत्सुकता और प्रयासमें जोर-जबर्दस्ती; परंतु एकाग्रता अपने स्वभावमें शांत-स्थिर और अविचल होती हे । यदि मनुष्यमें चंचलता या अति-उत्सुकता हों तो यह कहना होगा कि उसमें एकाग्रता नही है ।

 

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   सच पूछो तो तुमने बिना पथप्रदर्शनके जो व्यक्तिगत रूपसे प्रयास किया उसीके कारण तुम कठिनाइयों में जा पड़े तथा ऐसी उत्तप्त स्थितिमें पहुँच गये जहां तुम ध्यान वगैरह कर ही नही सके । मैनई तुमसे कहा कि प्रयास बंद कर दो और शांत बने रहो और तुमने वैसा किया भी । मेरा आशय यह था कि जब तुम शांत रहोगे तो श्रीमीकी शक्तिके लिये तुम्हारे अंदर कार्य करना, एक अच्छी आरंभिक अवस्थाको स्थापित करना और प्राथमिक अनुभूतियों एक धारा खोल देना संभव होगा । इस चीजका होना आरंभ भी हों गया था; पर तुम्हारा मन यदि फिरसे सक्थि हों जाय और अपने लिये साधनाकी व्यवस्था करनेका प्रयत्न करे तो विख्त-बाधाओंके आनेकी संभावना है । भागवत पथप्रदर्शन तभी उत्तम रूपमें काम करता है जब चैत्य पुरुष खुला हुआ और सामने होता है (तुम्हारा चैत्य पुरुष खुल रहा था), पर वह उस समय भी कार्य

 

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कर सकता है जब साधक उस विषयमें सचेतन न हो अथवा जब उसके परिणामोंके कारण ही वह उसे जानता हों । निर्विकल्प समाधिका जहांतक प्रश्न है, यदि उसे कोई चाहे भी तो उसे केवल उसके लिये तैयार की हुई चेतनामें एक लबी साधना करनेपर ही पा सकता है -- अभी उसकी चर्चा करनेसे कोई लाभ नही जब कि आंतरिक चेतना- ने यौगिक अनुभूतिकी ओर केवल उद्घाटित होना अभी-अभी आरंभ किया है !

 

 *

 

     यदि ध्यानमें यह कठिनाई आती है कि सब प्रकारके विचार भीतर घुस आते हैं तो यह विरोधी शक्तियोंके कारण नहीं बल्कि मानव-मनकी सामान्य प्रकृतिके कारण होता है ! सभी साधकोंको यह कठिनाई होती है और बहुतोंके साथ तो यह बहुत लंबे अर्सेतक लगी रहती है । इससे छुटकारा पानेके कई रास्ते हैं । उनमेंसे [रक रास्ता है विचारोंका निरीक्षण करना और यह देखना कि मानव-मनका स्वभाव क्या है जिसे ये विचार हमें दिखाते है, पर इन विचारोंको कोई अनुमति न देना और इन्हें तबतक दौड़ते रहने देना जबतक कि ये निस्तब्ध नही हों जाते -- यही वह पथ है जिसे विवेका- नदने अपने राजयोगमें बताया है । दूसरा हे विचारोंकी ओर इस प्रकार देखना मानो वे अपने न हों, उनसे पीछे साक्षी पुरुषकी तरह खड़ा हों जाना और अनुमति देना अस्वी- कार कर देना -- उस समय विचारोंको इस प्रकार देखा जाता है मानों वे बाहरसे, प्रकृतिसे आते हों, और फिर उनके विषयमें यह समझना चाहिये कि वे मनोमय देशमें से गुजरनेवाले यात्री हैं जिनके साथ हमारा कोई संबद्ध नहीं और जिनमें हम कोई रुचि नही रखते । ऐसा करनेपर साधारणतया यह होता है कि कुछ समय बाद मन दो भागोंमें बट जाता है, एक भाग वह होता हे जो मनोमय साक्षी होता है, जो देखता है और पूर्णत: अनुद्विग्न और शांत होता है । दूसरा भाग वह होता है जो निरीक्षणका विषय होता है, प्रकृति-भाग होता है जिसमें विचार घूमते-फिरते या जिसमेंसे होकर गुजर जाते है । कुछ दिन बाद हम प्रकृति-भागको भी नीरव या शांत-स्थिर करनेका प्रयास कर सकते है । एक तीसरा पथ भी है, एक सक्रिय पद्धति है जिसमे मनुष्य यह देखनेकी चेष्टा करता हैं कि विचार कहांसे आते है और उसे पता चलता है कि स्वयं अपने अंदरसे वे नही आते बल्कि मानो मस्तकके बाहरसे आते हैं । यदि कोई उन्हें बाहरसे आते हुए देख सके तो, उनके भीतर प्रवेश करनेसे पहले ही, उन्हें एकदम दूर फेंक देना होता है । यह शायद सबसे अधिक कठिन पद्धति है और सब इसे नही कर .सकते । पर यदि इसे किया जा सके तो यह नीरवता प्राप्त करनेका सबसे छोटा और सबसे अधिक शक्तिशाली पथ है ।

 

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   मन सर्वदा क्रियाशील रहता है, पर हम पूरी तरह यह नहीं देखते कि यह क्या

 

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कर रहा है, बल्कि हम अपनेको सतत चिंतनकी धारामें बहा ले जाने देते है । जब हम एकाग्र होनेका प्रयास करते हैं, यह स्वनिर्मित यांत्रिक चिंतनकी धारा हमारी निरीक्षण- क्रियाके लिये स्थायी बन जाती है । योगके प्रयासके लिये यह प्रथम सामान्य बाधा है (दूसरी है ध्यानके समय नींदका आना) ।

 

   ऐसे समय करने योग्य सबसे उत्तम बात यह अनुभव करना है कि यह विचार- धारा हम स्वयं नही हैं, सचमुचमें हम स्वयं विचार नही कर रहे हैं, बल्कि विचार ही मनमें चल रहे हैं । वास्तवमें प्रकृति ही अपनी विचार-शक्तिके द्वारा हमारे अन्दर 'विचारोंका यह सब भंवर उठा रही है । हमें पुरुष-रूपसे उससे पीछे साक्षीभावके साथ खड़ा होना चाहिये, उस कार्यको देखना चाहिये, पर उसके साथ अपनेको एकात्म करना अस्वीकार कर देना चाहिये । दूसरी बात है एक प्रकारके नियंत्रणका प्रयोग करना और विचारोंका त्याग कर देना -- यद्यपि कभी-कभी ए_कदम अनासक्तिकी क्रियासे हीं चिंतनाभ्यास बंद हो जाता है या ध्यानके समय कम हों जाता है और पर्याप्त नीरवता आ जाती है या कम-से-कम अचंचलता आ जाती है जिसके कारण आनेवाले विचारोंका त्याग करना, और अपने-आपको ध्यानके विषयपर एकाग्र करना आसान हों जाता है । यदि कोई इतना सचेत हों जाय कि विचारोंको बाहरसे, विश्व-प्रकृतिसे आते हुए देख सके तो वह उनके मनमें आनेसे पहले ही उन्हें बाहर फेंक सकना है : इस प्रकार मन अंतमें निश्चल-नीरव हों जाता है । यदि इनमेंसे कोई भी बात न हों सके तो परित्यागका सतत अभ्यास करना आवश्यक हो जाता है -- विचारोके साथ कोई संघर्ष या कुश्ती नहीं होनी चाहिये, बल्कि केवल शांत रूपसे अपने-आपको पृथक् करना चाहिये और उन्हें अस्वीकार करना चाहिये । प्रारंभमें हीं सफलता नहीं आती, परंतु अनुमति जब निरंतर हटा ली जाती है तो यंत्रकी तरह चलनेवाला भंवर अतमें बद हों जाता है और मरना आरंभ कर देता है और तब साधक इच्छापूर्वक आंतरिक स्थिरता या नीरवता प्राप्त कर सकता है ।

 

    यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि, कुछ विरल लोंगोंके प्रसंगको छोड़कर यौगिक प्रक्रियाओंको फल तुरत नहीं प्राप्त होता और साधकको तबतक अपने संकल्प- धैर्यको प्रयुक्त करना चाहिये जबतक कि वे फल नही देने लगती, जिसके आनेमें कभी- कभी, यदि बाहरी प्रकृतिमें बहुत अधिक बाधा-विरोध हो तो, लंबा समय लग जाता

 

    जबतक तुम्हें उच्चतर आत्माका बोध या अनुभव नही प्राप्त हुआ है तबतक तुम उसपर अपने मनको कैसे जमा सकते हों? तुम केवल उस आत्माकी भावनापर एकाग्र हो सकते हों अथवा कोई भगवानके या भगवती माताके विचारपर या किसी मूर्तिपर या उस भक्तिभावनापर एकाग्र हो सकता है जो हृदयमें भागवत उपस्थिति- को पुकारती है अथवा शक्तिको मन, प्राण और शरीरमें कार्य करने, चेतनाको मुक्त करने तथा आत्मसाक्षात्कार प्रदान करनेके लिये पुकारती हे । यदि तुम आत्माकी भावनापर एकाग्र होओ तो इसे तुम्हें इस कल्पनाके साथ करना चाहिये कि आत्मा मनसे और उसके विचारोंसे, प्राण और उसके अनुभवोंसे तथा शरीर और उसकी

 

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क्रियाओंसे भिन्न कोई वस्तु है -- कोई ऐसी चीज है जो इन सब चीजोंके पीछे अवस्थित है, ऐसी चीज है जिसे तुम ठोस तीरपर सत-चितके रूपमें, इस सबसे पृथक् फिर भी इन चीजोंमें अंतर्ग्रस्त हुए बिना मुक्त रूपमे इन सबमें परिव्याप्त अनुभव करोगे ।

 

    जो कुछ तुम पढो उस सबको यदि प्रयोगमें लानेका प्रयास करोगे तो तुम्हारे नये-नये प्रारभोंका कोई अंत नहीं होगा । विचारोंका त्याग करके विचारोंको बद किया जा सकता हैं और नीरवताके अन्दर अपने-आपको पाया जा सकता है । कोई विचारोंको अबाध दौड़नेके लिये छोड़ सकता और उनसे अपनेको पृथक् कर सकता तथा इस प्रकार इस कार्यको कर सकता है । दूसरे और भी कई रास्ते हैं । ' ' की पुस्तकमें वर्णित पथ मुझे अद्वैत-ज्ञानीकी पद्धति प्रतीत होता है जिसमें शरीर, प्राण और मनसे अपनेको, ' 'मैं शरीर नही हूँ, मैं प्राण नही हूँ, मैं मन नही हूँ' ' आदि विवेकके द्वारा तबतक पृथक् किया जाता है जबतक मनुष्य मन, प्राण और शरीरसे पृथक् आत्माको नहीं प्राप्त कर लेता । यह भी इसे करनेका एक पथ हे । फिर प्रकृति और पुरुषका पृथक्करण भी तबतक किया जा सकता है जबतक कि साधक केवल साक्षी नही बन जाता और साक्षी-चैतन्यके रूपमें अपनेको सभी क्रियाकलापोंसे पृथक् नही अनुभव करने लगता । इनके अतिरिक्त और भी पद्धतियां है ।

 

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    मनको एकत्र करनेकी पद्धति आसान पद्धति नही है । यह कही अधिक अच्छा है कि विचारोंका निरीक्षण किया जाय और अपनेको उनसे पृथक् किया जाय जबतक कि अपने अन्दर विद्यमान एक शांत-स्थिर प्रदेशका बोध न प्राप्त हों जाय जिसमे कि वे विचार बाहरसे आते हैं ।

 

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    भौतिक मनकी भिनभिनाहटके लिये उपाय यह है कि जरा भी उद्विग्न हुए बिना उसका चुपचाप परित्याग करते रहो; अंतमें हताश होकर वह पीछे हट जायगा और सिर हिलाते हुए कहेगा, ' 'यह पट्टा मेरे लिये अत्यंत शांत-अचल और बलवान् है । '' बराबर दो चीज़ें ऐसी होती हैं जो उठ सकती और नीरवताको भग कर सकती हैं -- प्राणिक सुझाव तथा भौतिक मनकी यत्रवत् बार-बार होनेवाली क्रियाएं । दोनोंको दूर करनेका उपाय है शांतिपूर्वक परिवर्जन करना । हमार अंदर एक पुरुष है जो प्रकृतिको यह आदेश दे सकता है कि उसे क्या आने देना चाहिये और क्या बाहर छोड़ देना चाहिये, परंतु उसका संकल्प एक प्रबल, शांत संकल्प है, यदि साधक कठिनाइ-

 

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योंके, कारण घबड़ा जाय या चंचल हों जाय तो फिर पुरुषका संकल्प वैसे हीं सफलता- पूर्वक कार्य नहीं कर सकता जैसे कि वह अन्य स्थितिमें करता ।

 

    सक्रिय उपलब्धि संभवत. तब प्राप्त होगी जब कि उच्चतर चेतना पूर्ण रूपसे प्राणके अन्दर उतर आयेगी । जब वह मनमें आती है तब वह पुरुषकी शांति और मुक्ति ले आती है तथा वह ज्ञान भी लें आ सकती है । परन्तु जब वह प्राणमें आती है तभी सक्थि उपलब्धि उपस्थित होतीं और सजीव होती है ।

 

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    यांत्रिक मनकी क्रियासे अपने-आपको पृथक् करनेकी क्षमता प्राप्त करना सबसे पहली आवश्यकता है; ऐसा कर लेनेपर, जब वह क्रिया होती है तब भी, मनकी स्थिरता और शांतिको उससे अविचलित बनाये रखना बहुत आसान होता है ।

 

    यदि शांति और निश्चल-नीरवताका नीचे उतरना जारी रहता है तो सामान्य- तया दें इतनी तीव्र हो जाती है कि कुछ समय बाद भौतिक मनको भी अभिभूत कर लेती है ।

 

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    वास्तवमें हुआ यह कि सक्रिय मन अधिक स्थिर हों गया जिससे भौतिक मनकी क्रियाएं अधिक स्पष्ट हो गयी -- ऐसा ही बहुधा घटित होता है । ऐसी अवस्थामें हमारा कर्तव्य है इन क्रियाओंसे अपने-आपको पृथक् कर लेना और उनकी ओर अब और ध्यान दिये बिना एकाग्र होना । फिर उन क्रियाओंका स्थिरतामें डूब जाना या विलीन हों जाना संभव हों जाता है ।

 

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    यही यांत्रिक मनका स्वभाव है -- उसकी किसी संवेदनशीलता कारण ऐसा नही हुआ है । चूँकि मनके अन्य भाग अधिक नीरव और संयमके अधीन हैं, केवल इसी कारण यह क्रिया अधिक प्रमुख दिखायी देती है और अधिक स्थान ले रही है । यदि कोई इसका लगातार परित्याग करता रहे तो यह सामान्यतया क्षीण हों जाती है !

 

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     तुम संभवत उनकी (यांत्रिक मनके विचारोंकी) ओर बहुत अधिक ध्यान दे रहे हों । यह बिलकुल संभव हैं कि मनुष्य एकाग्र होवे और यांत्रिक त्रियाकी ओर

 

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देखे बिना उसे जारी रहने दे ।

 

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 जो कुछ तुम प्रस्ताव करते हों उसके विषयमें मैं बिलकुल निस्सदिग्ध नही हूँ । इसमें संदेह नहीं कि मानसिक चेतना थकी होनेपर भी अपने पुराने अभ्यासवश बाहर- से विचारोंको ग्रहण करती जाती है - वह उन्हें चाहती हों ऐसी बात नही, पर विचारों- को आनेका अभ्यास है और मन उन्हें यंत्रवत् भीतर आने देता है तथा अभ्यासवश उनकी ओर ध्यान देता है । योगमें जब अनुभूतियां आना आरंभ करती हैं और मन या तो सर्वदा एकाग्र रहना या शांत-स्थिर रहना चाहता है तो उस समय बराबर ही यह एक प्रधान कठिनाई होती है । कुछ लोग तो वही करते हैं जो तुमने प्रस्ताव किया है और कुछ समय बाद या तो मनको एकदम शांत कर देनेमें सफल होते हैं या ऊपरसे निश्चल-नीरवता नीचे उतरती है और मनको शांत कर देती है । परंतु साधक जब इसे करनेका प्रयास करता है तब अकसर विचार बहुत अधिक सक्रिय हों उठते है और नीरवता ले आनेकी प्रक्रियाका विरोध करते हैं और यह सब बड़ा कष्टदायक होता है । अतएव बहुतसे लोग धीरे-धीरे चलना पसंद करते हैं; वे मनको थोडा-थोडा करके स्थिर होने देते हैं, स्थिरताको फैलने तथा अधिक समयतक बने रहने देते हैं जब कि अंतमें जाकर अवांछित विचार जाते हैं अथवा पीछे हट जाते हैं और मन भीतरसे या ऊपरसे आनेवाले ज्ञानके लिये खाली छोड़ दिया जाता है ।

 

     तुम्हें संभवत: इसे करनेकी कोशिश करनी चाहिये और देखना चाहिये कि क्या परिणाम होता है -- यदि विचार बहुत अधिक आक्रमण करें और परेशान करें तो तुम बद कर सकते हो - यदि मन शीघ्र या अधिकाधिक शांत होता हों तो जारी रख सकते हो ।

 

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    जितना ही अधिक चैत्य बाहरी सत्तामें फैलता है उतनी ही अधिक ये सब चीज़ें (अवचेतन मनकी यांत्रिक क्रियाएं) शांत होती हैं । यही सबसे उत्तम तरीका है । मनको शांत करनेके जो सीधे प्रयास होते हैं वे कठिन तरीके होते हैं ।

 

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 एकाग्रता करनेमें सबसे अधिक सहायक चीज है अपने मनमें श्रीमाताजीकी स्थिरता और शांतिको ग्रहण करना । यह तुम्हारे ऊपर विद्यमान है -- केवल मन और उसके केंद्रोंको उसकी ओर खुलनेकी आवश्यकता है । यहीं चीज है जिसे श्रीमाताजी शामके ध्यानके समय तुम्हारे ऊपर ठेलती हैं।

 

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   चित् हे विशुद्ध चेतना, जैसे, सत्-चित्-आनन्दमें ।

 

   चित्त है मानसिक-प्राणिक-शारीरिक चेतनाओंका मिश्रित रूप और इसीमेंसे विचार, भावावेग, संवेदन, प्रवेग आदिकी क्रियाएं उत्पन्न होती हैं । पांतजलि योग- पद्धतिमें इन्ही सबको एकदम शांत कर दिया जाता है जिसमें कि चेतना निश्चल हों जाय और समाधिमें चली जाय ।

 

   हमारे योगमें दूसरी तरहकी क्रिया होती है । साधारण चेतनाकी क्रियाओंको निश्चल बना देना होता है और उस निश्चलताके अंदर उच्चतर चेतना और उसकी शक्तियोंको उतार लाना होता है जो कि प्रकृतिका रूपांतर कर देंगी ।

 

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     यदि तुम चित्तवृत्तियोंका दमन कर दो तो फिर तुम्हारे अंदर चित्तकी एकदम कोई क्रिया ही नही होगी । सब कुछ तबतक निश्चल बना रहेगा जबतक तुम दमनको दूर नहीं कर दोगे अथवा सब कुछ इतना शांत-निश्चल बना रहेगा कि निश्चलताके सिवा वहां और कोई चीज ही नही रह सकेगी ।

 

      यदि तुम उन्हें स्थिर कर दो तो चित्त भी स्थिर हों जायगा, वहां चाहे जो भी क्रिया या गतिशीलता हों वह उस स्थिरताको विचलित नही करेगी ।

 

   यदि तुम उन्हें संयमित कर लो या उनपर प्रभुत्व स्थापित कर लो तो जब तुम चाहोगे तब चित्त निश्चल-निष्क्रिय हों जायगा और जब तुम चाहोगे तब सक्रिय हों जायगा, और उसकी क्रिया ऐसी हों जायगी कि जिस चीजसे तुम छुटकारा पाना चाहोगे वह चली जायगी, जिस चीजको तुम यथार्थ और उपयोगी समझोगे बस वही आयगी ।

 

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    नीरवताकी स्थितिमें चला जाना आसान नही है । ऐसा करना केवल तभी संभव होता है जब समस्त मानसिक-प्राणिक क्रियाओंको बाहर निकाल दिया जाता है । इससे अधिक आसान है अपने अंदर निश्चल-नीरवताको अवतरित होने देना, अर्थात् अपनेको उसकी ओर उद्घाटित करना और उसे उतरने देना । ऐसा करनेका तरीका और उच्चतर शक्तियोंका अपने अंदर आवाहन करनेका तरीका एक ही है । यह तरीका है ध्यानके समय अचंचल बने रहना । उस समय मनके साथ संघर्ष नही करना चाहिये अथवा शक्तिको या निश्चल-नीरवताको नीचे बीच लानेका मानसिक प्रयास नही करना चाहिये बल्कि उसके लिये केवल नीरव संकल्प और अभीप्सा बनाये रखना चाहिये । अगर मन सक्रिय हो तो हमें पीछेकी ओर हटकर और अंदरसे उसके लिये कोई अनुमति दिये बिना उसका तबतक अवलोकन करना सीखना चाहिये जबतक कि उसकी अभ्यासगत या यंत्रवत् क्रियाएं भीतरसे प्राप्त सहारेके अभावमें नीरव हो जाना न आरंभ कर दे । यदि मन अत्यंत हठी हों तो अधिक जोर लगाये या संघर्ष किये

 

 

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बना दृढ़तापूर्वक परित्याग करते रहना ही एकमात्र करणीय कार्य हैं ।

 

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    किसी चीजको अतिरंजित न करना ही अच्छा है । सच पूछा जाय तो मानसिक क्रियावलीसे छुटकारा पाना उतना अधिक आवश्यक नही है जितना कि उसे सम्रुचित रूपमे बदल देना. । जिस चीजको हमें अतिक्रम करना और परिवर्त्तित करना है वह है बौद्धिक तर्क-युक्ति जो चीजोंको केवल बाहरसे, विश्लेषण और अनुमानके द्वारा देखती है -- जब वह ऐसा नही करती तब प्राय. शीघ्रतासे दृष्टिपात करती और कहती है, ' 'यह बात ऐसी दू' ' अथवा ' 'यह बात ऐसी नही है । '' किंतु तुम तबतक इसका अति- क्रमण और परिवर्तन नही कर सकते जबतक कि पुरानी मानसिक क्रिया थोडी स्थिर नही हों जाती । स्थिर मन अपने विचारमें नही उलझता अथवा उनसे दूर नही भाग- ता; वह पीछे खड़ा हों जाता हैं, अपनेको पृथक् कर लेता है और उनके साथ अपना तादात्म्य किये बिना तथा उन्हें अपना बनाये बिना गुजर जाने देता है । वह साक्षी मन बन जाता हे और आवश्यक होनेपर विचारोंका निरीक्षण करता है, परंतु साथ ही उनसे मुँह मोड लेने और अंदरसे तथा ऊपरसे ग्रहण करनेमें समर्थ होता है । निश्चल- नीरवता अच्छी चीज है, पर पूर्ण निश्चल-नीरवता अपरिहार्य नही है, कम-से-कम इस स्थितिमें । मैं नही समझता कि मनको शांत-स्थिर करनेके लिये उसके साथ कुश्ती करनेसे कोई विशेष लाभ है, साधारणतया उस खेलमें मनकी ही जीत होती है । वास्तवमें पीछे हटना, अपनेको पृथक् कर लेना, किसी अन्य चीजकी, बाहरी मनके विचारोंसे भिन्न दूसरी चीजकी बात सुननेकी शक्ति पा लेना ही अधिक आसान पथ है । इसके साथ-ही-साथ मनुष्य मानो ऊपरकी ओर अपनी दृष्टि उठा सकता है, अपनेसे ठीक ऊपर स्थित एक शक्तिकी कल्पना कर सकता ओर उसे नीचे पुकार सकता है अथवा चुपचाप उसकी सहायताकी प्रतीक्षा कर सकता है । इसी ढंगसे बहुतसे लोग इसे करते हैं जबतक कि मन धीरे-धीरे स्थिर नहीं हों जाता या अपने-आप नीरव नही हों जाता अथवा ऊपर- से निश्चल-नीरवता उतरना आरंभ नहीं कर देती । परंतु यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि अवसाद या निराशाको बीचमें न आने दिया जाय क्योंकि तुरत-फुरत सफलता नही मिली; ऐसा करनेसे तो बस कार्य कठिन ही हों सकता है ओर जिस किसी प्रगतिके लिये तैयारी हो रही है वह रुक सकती है ।

 

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     नीरव मन योगसाधनाका एक परिणाम है, साधारण मन कभी नीरव नही होता.. । मनीषियों और दार्शनिकोंका मन नीरव नही होता । उनका मन सक्रिय होता है; अवश्य हीं वे अपने मनको एकाग्र करते हैं और इसलिये सामान्य असंबद्ध मानसिक क्रिया बंद हो जाती है और जो विचार उठते हैं या प्रवेश करते और रूप ग्रहण

 

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करते हैं वे उनके विषय या कार्यसे सामंजस्य रखते हुए बंधे रहते हैं । परंतु यह बात समूचे मनके नीरव हो जानेसे एकदम भिन्न है ।

 

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    जब मन ध्यानमें या पूर्ण निश्चल-नीरवतामें नहीं होता, किसी-न-किसी वस्तु- के साथ -- चाहे अपनी निजी भावनाओं या कामनाओं या अन्य लोगों या वस्तुओं या बातचीत आदिके साथ - सर्वदा सक्रिय रहता है ।

 

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    इसे ध्यान नही कहा जाता -- यह तो चेतनाकी एक विभक्त अवस्था है । जब- तक चेतना वास्तवमें तल्लीन नहीं हो जाती और ऊपरी विचार बस ऐसी चीज़ें नहीं बन जाते जो मनमें आती, स्पर्श करती और निकल जाती हैं, तबतक इसे मुश्किलसे ध्यान कहा जा सकता है । मैं नहीं समझता कि किस तरह आंतरिक सत्ता तल्लीन हो सकती है और साथ हीं अन्य प्रकारके सारे विचार और सारी कल्पनाएं उपरितलीय चेतनामें घूमती-फिरती रह सकतीं हैं । मनुष्य पृथक् रह सकता और विचारों तथा कल्पनाओंको, उनसे प्रभावित हुए बिना, गुजरते हुए देख सकता है, पर उसे ध्यानमें डूब जाना या तल्लीन हो जाना नहीं कहा जा सकता ।

 

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     यह बिलकुल स्वाभाविक है कि आरंभमें जब तुम एकाग्र होनेके लिये बैठ तब केवल स्थिरता और शांतिकी अवस्था बनी रहे । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब कभी तुम बैठा यह अवस्था बनी रहे और उसके लिये बराबर ही दबाव बना रहे । पर दूसरे समय इसके परिणामस्वरूप प्रारंभमें केवल एक प्रकारकी मानसिक अचंचलता और विचारोंसे मुक्तिकी अवस्था विद्यमान रहती है । बादमें जब शांतिकी अवस्था आंतरिक सत्तामें एकदम जम जाती है -- क्योंकि जब कभी तुम एकाग्र होते हों तब आंतरिक सत्तामें ही प्रवेश करते हो - तब वह बाहर आना और बाहरी सत्तापर भी शासन करना आरंभ करती है जिससे कि स्थिरता और शांति उस समय भी बनी रहती है जब मनुष्य कार्य करता है, दूसरोंसे मिलता-जुलता है, बातचित करता या अन्य कार्य करता है । क्योंकि, उस समय बाहरी चेतना चाहे कुछ भी क्यों न करे, आंतरिक सत्ता भीतर शांत अनुभूत होती है - अवश्य हीं मनुष्य अपनी आंतरिक सत्ताको ही अपना सच्चा स्वरूप समझता है और बाहरी सत्ताको एक ऐसी ऊपरी चीज समझता है जिसके द्वारा आंतरिक सत्ता जीवनके ऊपर क्रिया करती है ।

 

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   सुख-शातिका अनुभव अंदर बहुत गहराईमें और बहुत दूर होता हे क्योंकि वे चीज़ें चैत्य सत्तामें होती हैं और चैत्य सत्ता हमारे अंदर बहुत गहराईमें है और मन तथा प्राणके द्वारा आच्छादित है । जब तुम ध्यान करते हों तो चैत्यकी ओर उद्घाटित होते हों, अपने भीतर गहराईमें विद्यमान अपनी चैत्य चेतनाके विषयमें सचेतन होते हो और इन चीजोंको अनुभव करते हों । यदि तुम चाहो कि ये सुख, शांति और प्रसन्न- ता तीव्र और स्थायी हों जायं तथा सारी सत्तामें और शरीरमें भी अनुभूत हों तो तुम्हें अपने अंदर और अधिक गहराईमें पैठना होगा और चैत्य चेतनाकी संपूर्ण शक्तिको शरीरमें लें आना होगा । यह कार्य अधिक आसानीसे तभी किया जा सकता है जब कि इस सच्ची चेतनाकी पानेकी अभीप्सा रखकर नियमित रूपसे एकाग्रता और ध्यान- का अभ्यास किया जाय । यह कार्य कर्मके द्वारा भी किया जा सकता है, आत्मोत्सगैके द्वारा, अपने विषयमें कुछ सोचे बिना और हृदयमें सर्वदा श्रीमाँके प्रति आत्मार्पणका भाव बनाये रखकर एकमात्र भगवानके लिये कर्म करके भी इसे किया जा सकता है । परंतु पूर्ण रूपसे ऐसा करना आसान नहीं है ।

 

*

 

     यदि उच्चतर ध्यान या ऊपर बने रहना मनुष्यको उदास बना देता है, साधनामें उसे किसी प्रकारका संतोष या शांति नही मिलती तो, मैं जहाँतक समझ सकता हूँ, इसके केवल दो ही कारण हैं -- अहंभाव या तामसिकता ।

 

*

 

    यह बिलकुल स्वाभाविक है कि यौगिक साहित्य पढ़ते समय मनुष्य ध्यान करना चाहे - यह आलस्य नहीं है ।

 

    मनका आलस्य तो है ध्यान न करना, जब कि चेतना उसे करना चाहती हो ।

 

*

 

   यह यथार्थ बात नही है कि जब मनुष्यमें धूमिलपन या तामसिकता होती है तो वह एकाग्रता या ध्यान नहीं कर सकता । यदि किसीकी आंतरिक सत्तामें इसे करनेका दृढ संकल्प हो तो वह इसे. कर सकता है ।

 

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 जब कोई ध्यान करनेकी कोशिश करता है तब भीतर पैठनेके लिये, जाग्रत् (बाह्य) चेतना खो देनेके लिये तथा अंदरमें, आंतरिक चेतनाकी गहराईमें जागृत

 

२३७


होनेका दबाव पड़ता है । परंतु आरंभमें मन ऐसा समझता है कि यह दबाव निद्रामें डूबनेके लिये है, क्योंकि निद्रा हीं एकमात्र आंतरिक चेतनाकी वह स्थिति है जिसका उसे अभीतक अभ्यास रहा है । इसलिये योगमें ध्यान करनेपर आरंभमें जो बहुधा कठिनाई होती है वह है नींद । परंतु कोई यदि लगातार प्रयास करता रहे तो धीरे- धीरे नदी एक आंतरिक सचेतन स्थितिमें बदल जाती है ।

 

*

 

    जब कोई ध्यान करनेका प्रयत्न करता है तब उस तरह नींद नही आती । जहां वैसा करना संभव हो, इसे एक सज्ञान आंतरिक तथा अंतर्मुखी स्थितिमें बदलकर और, जहां संभव न हों, ग्रहण करनेके लिये उद्घाटित एक अचंचल एकाग्रीभूत जाग्रतावस्था- मे ( बिना प्रयास) बने रहकर, इस नींदकी स्थितिमें सुधार करना चाहिये ।

 

*

 

    नही, यह नींद नही है । बल्कि जब दबाव अंतर्मुखी होने (समाधिमें जाने) की प्रवृत्ति उत्पन्न करता है तो. भौतिक सत्ता इसे निद्राके भावमें बदल देती है, क्योंकि उसे निद्राके द्वारा अंदर पैठनेके सिवा और किसी चीजका अभ्यास नही होता ।

 

 *

 

    ऐसा लगता है कि तुम एक प्रकारकी समाधिमें भीतर चले जाते हों पर अभी सचेतन नही रहते (इसी कारण निद्राका भाव आता है) । '' सोया नही होता, बल्कि जब वह अन्दर पैठता है तो अपने शरीरपर उसका नियंत्रण नहीं रहता । बहुतसे योगियोंको यह कठिनाई होती है । ऐसी हालतमें वे एक ऐसी चीजका उद्भावन करते हैं जिसे दे अपनी ठोड़ीके नीचे डाल देते हैं ताकि वह ध्यानमें इस प्रकार अंदर घुसनेपर उनके मस्तक और उसके साथ-साथ उनके शरीरको पकड़े रखे ।

 

II

 

    समाधिके समय आंतर भनप्राण और शरीर हीं बाह्य सत्तासे पृथक् होते हैं और अब उससे आच्छादित नहीं रहते -- इसलिये वे पूर्ण रूपसे आंतरिक अनुभव प्राप्त कर सकते हैं । उस समय बाह्य मन या तो निष्क्रिय हों जाता है या किसी रूपमे अनुभवको प्रतिबिंबित करता या उसमें भाग लेता है । समस्त मनोमयी सतासे केंद्रीय चेतनाके पृथक् हों जानेका मतलब है पूर्ण समाधिका अवस्था जिसमे अनुभवोंकी कोई स्मृति नहीं रहती ।

 

२३८


    परंपराके अनुसार निर्विकल्प समाधि महज वह समाधि है जहांसे मनुष्य गर्म लोहेसे दागने या आगसे जलानेपर भी नही जग सकता - अर्थात् ऐसी समाधि जिसमें मनुष्य पूर्ण रूपसे शरीरसे बाहर चला गया होता है । अधिक वैज्ञानिक भाषामें कहा जा सकता है कि यह वह समाधि है जिसमें चेतनाके अंदर कोई रचना या गति नही होती और योगी एक ऐसी स्थितिमें खो जाता है जहांसे वह अनुभवका कोई विवरण नही ले आ सकता, महज यही कह सकता है कि वह आनन्दमें था । ऐसा माना जाता है कि यह स्थिति सुषुप्ति या तुरीयमें पूर्णतः लीन हों जाना है ।

 

*

 

     निर्विकल्प समाधिका ठीक-ठीक अर्थ है पूर्ण समाधि जिसमे कोई विचार नही होता या चेतनाकी कोई गाते नहीं होती अथवा न तो बाहरी न भीतरी वस्तुओंका कोई ज्ञान रहता है -- सब कुछ खींचकर विश्वातीत परात्परमें चला जाता है । पर यहांपर इसका अर्थ ऐसा नही हों सकता -- यहां संभवतः अर्थ है मनसे परेकी चेतनामें समाधि ।

 

    तोड़ना और फिर गढ़ना प्राय. ही परिवर्तनके लिये आवश्यक होता है; परंतु जब एक बार मौलिक चेतना प्राप्त हों चुकती है तब कोई कारण नही कि यह सब कष्ट और उथल-पुथलके साथ किया जाय -- इसे शांतिके साथ किया जा सकता है । सच पूछो तो निम्रतर अंगोंको विरोध हीं कष्ट और उथल-पुथल उत्पन्न करता है !

 

*

 

     सच्चिदानन्दमें डूब जाना एक ऐसी स्थिति हे जिसे निरूप्य समाधिके बिना जाग्रत् अवस्थामें प्राप्त कर सकता है -- विलयन केवल शरीरके नाशके बाद ही 'हों सकता है, बशर्त्ते कि मनुष्य उच्चतम स्थितिको प्राप्त कर चुका हो और संसारकी सहायता करनेके लिये यहां वापस आनेकी इच्छा नहीं करता ।

 

*

 

     यह तुम्हारी भौतिक चेतनाके स्वभावपर निर्भर करता है । जब शरीरमें चेतना- का अवतरण होता है तो मनुष्य सूक्ष्म-भौतिक चेतनाके विषयमें सज्ञान हो उठता है और वह ज्ञान समाधिमें बना रह सकता है -- ऐसा लगता है कि मनुष्यको शरीरका ज्ञान है पर वास्तवमें वह सूक्ष्म शरीर होता है न कि बाहरी स्थूल शरीर । परंतु मनुष्य और अधिक गहराईमें भी जा सकता है और फिर भी भौतिक शरीरके बारेमें और उसपर किया करनेके बारेमें भी सचेतन रह सकता है, पर बाहरी वस्तुओंके बारेमें नहीं रह सकता । अंतमें जाकर मनुष्य एक गभीर एकाग्रतामें निमग्न हों जा सकता

 

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है पर प्रबल रूपमें शरीरके विषयमें तथा उसमें शक्तिके अवतरणके बिषयमें सचेतन रह सकता है । इस अंतिम स्थितिमें बाहरी वस्तुओंका ज्ञान भी बना रहता है यद्यपि उनकी ओर ध्यान नही भी दिया जा सकता । इस अंतिम स्थितिको सामान्यतया समाधि नहीं कहा जाता, पर यह एक प्रकारकी जाग्रत् समाधि है । पूर्ण समाधिकी गभीर स्थितिसे लेकर पूर्ण जागृत चेतनामें होनेवाली शक्तिकी क्रियातककी सभी अवस्थाओंका उपयोग इस योगमें किया जाता है । साधकको सर्वदा पूर्ण समाधिपर ही जोर नही देना चाहिये, क्योंकि अन्य समाधियां भी आवश्यक हैं और उनके बिना पूर्ण परिवर्तन नही साधित हों सकता ।

 

    यह बड़ा अच्छा है कि उच्चतर चेतना और उसकी शक्तियां मस्तक और हदयके नीचेके भागोंमें अवतरित हो रही हैं । यह रूपांतरके लिये अत्यंत आवश्यक है । क्यों- कि निम्रतर प्राण और शरीर भी उच्चतर चेतनाके उपादानमें अवश्य परिवर्तित हों जाने चाहियें ।

 

*

 

     तुम जो अपने ध्यानसे बाहर आनेपर कुछ याद नहीं रख पाते इसका कारण यह है कि अनुभव आंतर सत्तामें घटित होता है और बाह्य सत्ता उसे ग्रहण करनेके लिये प्रस्तुत नहीं है । इससे पहले तुम्हारी साधना मुख्यतया प्राणिक लोकमें चल रही थी जो बहुधा सबसे पहले खुलता है और उस लोकके साथ शारीर चेतनाका संपर्क स्थापित करना आसान होता है क्योंकि वे दोनों स्तर एक-दूसरेके अधिक समीप हैं । अब ऐसा लगता है कि साधना भीतर चैत्य सत्तामें चली गयी है यह एक महान् प्रगति है और तुम्हें अभी अत्यंत बाह्य चेतनाके साथ संपर्क न होनेके कारण कोई चिंता करनेकी आवश्यकता नहीं । कार्य फिर भी चल रहा हैं और संभवत यह आवश्यक है कि ठीक अभी यह इसी भांति हो । पीछे चलकर यदि तुम समुचित मनोभाव सतत बनाये रखोगे तो वह बाहरी चेतनामें भी अवतरित होगी ।

 

*

 

     एक मध्यवर्ती समाधि होती है जो भिन्न प्रकारकी होती है -- उसमें योगीको सच्चिदानन्दकी संपर्क नही प्राप्त होता बल्कि निम्र प्राणिक लोककी सत्ताओंके साथ संपर्क प्राप्त होता है । उच्चतर प्रकारकी समाधिमें जानेकी शक्तिको विकसित करनेके लिये कुछ साधना करनेकी आवश्यकता होती है । पवित्रीकरणका जहांतक प्रश्न है, संपूर्ण पवित्रीकरण आवश्यक नहीं है, पर सत्ताके कुछ भागोंको उच्चतर वस्तुओंकी ओर अवश्य मुड जाना चाहिये ।

 

२४०


     अंगरेजीमें 'ट्रांस' (Trance) शब्दका प्रयोग सामान्यतया केवल गभीरतर प्रकारकी समाधिके लिये होता है, परंतु, अन्य कोई शब्द न होनेके कारण, हमें इसका प्रयोग सब प्रकारकी समाधियोंके लिये करना होगा ।

 

*

 

   समाधि कोई ऐसी चीज नही है जिसका त्याग कर दिया जाय -- बस, आवश्यक- ता है इसे अधिकाधिक सचेतन बनानेकी ।

 

*

 

   भगवानके साथ संपर्क प्राप्त करनेके लिये समाधिमे रहना आवश्यक नहीं है ।

 

*

 

      इसके विपरीत, सच पूछो तो जाग्रत् अवस्थामें इस अनुभूतिको आना चाहिये और बने रहना चाहिये जिसमें कि यह जीवनका एक सत्य बन सके । यदि समाधिमे इसका अनुभव हों तो यह एक ऐसी अतिचेतन अवस्था होगी जो आंतरिक सत्ताके किसी भागते लिये ही सत्य होगी, समस्त चेतनाके लिये सत्य नही होगी । सत्ताके उद्घाटन और उसकी तैयारीके लिये समाधिमें होनेवाली अनुभूतियोंका उपयोग तो है पर जब उपलब्धि जाग्रत् अवस्थामें निरंतर होती रहती है केवल तभी वह वास्तवमें अपने अधि- कारमें होती है । अतएव इस योगमें जाग्रत् उपलब्धि और अनुभूतिको ही सबसे अधिक मूल्य प्रदान किया जाता है ।

 

     स्थिर चिर-विस्तरणशील चेतनामें रहकर कार्य करना एक साथ ही एक साधना और एक सिद्धि भी है ।

 

 *

 

    जो अनुभव तुम्हें हुआ वह निस्संदेह चेतनाका अंदर प्रवेश करना था जिसे साधारणतया समाधि कहा जाता है । परंतु इसका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भाग है मन और प्राणकी निश्चल-नीरवता जो पूर्णत. शरीरतक भी विस्तारित है । इस नीरवता और शांतिकी क्षमताको प्राप्त करना साधनाकी एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अवस्था है । यह सर्वप्रथम ध्यानमें आती है और चेतनाषगे भीतरकी ओर समाधिमें फेंक दे सकती है, पर पीछे इसे जागृत अवस्थामें भी आना होगा और समस्त जीवन तथा कर्मके स्थायी आधारके रूपमे अपनेको स्थापित करना होगा । यही वह अवस्था है जिसमें आत्मा- का साक्षात्कार और प्रकृाताक आध्यात्मिक रूपांतर साधित होता है ।

 

२४०


     हा, उन्हें (उच्चतर सिद्धिकी सभी स्थितियोंके) पूरी क्रियाशीलताके अंदर प्राप्त किया जा सकता है । समाधि आवश्यक नही है -- उसका व्यवहार किया जा सकता है पर वह स्वयं अपने-आपमें चेतनाका परिवर्तन नही लें आ सकती जो कि हमारा उद्देश्य है, क्योंकि समाधि केवल आंतरिक आत्मनिष्ठ अनुभव ही प्रदान करती है जो बाहरी चेतनामें कोई अंतर पैदा करे ही यह आवश्यक नहीं है। ऐसे बहुतसे साधकों- के उदाहरण मौजूद हैं जिन्होंने समाधिमें बड़ी अच्छी-अच्छी अनुभूतियां पायी है पर उनकी बाहरी सत्ता पहलेकी जैसी ही बनी हुई है । जो कुछ अनुभूत होता है उसे बाहर लें आना और उसे आंतरिक तथा बाह्य सत्ता दोनोंके रूपांतरके लिये ए_क शक्तिमें परिणत करना आवश्यक है । परंतु यह कार्य समाधिमें गये बिना स्वयं जाग्रत् चेतनामें किया जा सकता है । अवश्य हीं एकाग्रताका अभ्यास करना अनिवार्य है ।

 

*

 

    दो अलग-अलग स्थितियां हैं -- एक तो वह है जिसे चेतना. एकाग्रताकी अवस्था- मे लेती है और दूसरी वह है जिसे वह विश्रामकी अवस्थामें लेती है । इनमेंसे दूसरी विश्रामकी स्थिति सामान्य चेतना है (सामान्य साधककी दृष्टिसे, पर शायद सामान्य जनकी सामान्य चेतना नही) और पहली एकाग्रताकी स्थिति वह है जो साधनामें चेतनाकी तपस्याके द्वारा प्राप्त होती है । जो साधक इतनी दूर जा चुका है उसके लिये अक्षरकी स्थितिमें प्रवेश करना और वहांसे अनुभवोंको देखना आसान है । वह एकाग्र हो सकता और अपनी सत्ताके प्रमुख पक्षोंमें एकत्व भी बनाये रख सकता हे, यद्यपि इसमे उसे अधिक कठिनाई हों सकती है -- पर शिथिलीकरणकी अवस्थामें वह शिथिल सामान्य चेतनामें आ गिरता है । वास्तवमें साधनाके द्वारा जो कुछ प्राप्त हुआ है वह जब साधारण चेतनाके लिये स्वाभाविक बन जाता है केवल तभी इससे बचा जा सकता है । जितने अंशमें इसे किया जाता है उतने अंशमें सत्यको केवल आंतरिक रूपमें अनुभव करना ही नही बल्कि उसे कार्यमें भी आअभिव्यक्त करना संभव होता है ।

 

*

 

    उच्चतर चेतना संकेंद्रित चेतना है -- भागवत एकत्वमें और भागवत संकल्प- को कार्यान्वित करनेमे संकेंद्रित है, वह बिखरी हुई नही है और न वह किसी -न-किसी मानसिक विचार या प्राणिक कामना या भौतिक आवश्यकताके पीछे हीं दौड़ती है जैसा कि सामान्य मानवीय चेतना करती है -- फिर वह सैकड़ों ऊलजलूल विचारों, भावनाओं और आवेगोंके द्वारा आक्रांत नही होती, बल्कि उसका अपने ऊपर प्रभुत्व होता है, वह केंद्रित और सुसमंजस होती है ।

 

२४२


III

 

   साधारणतया दो अवस्थाओंमेंसे किसी एकमें ही जप फल प्रदान करता है ( 1) यदि जप अर्थपर ध्यान रखकर किया जाता है, साधकके मनमें कोई ऐसी चीज होती है जो उस देवताके स्वभाव, शक्ति, सौंदर्य, मोहिनी शक्तिपर एकाग्र होती है जिसे जपका मंत्र व्यक्त करता है और जिसे चेतनाके अन्दर लें आना अभिप्रेत होता है । यह मानसिक पद्धति है, अथवा ( 2) यदि जप हदयसे उठता है या इसे सजीव बनानेवाली एक प्रकारकी भक्तिके भाव या बोध मात्रकों हृदयमें झंकृत करता है । यह हदयकी भावप्रधान पद्धति है । इस तरह जपको या तो मनका या प्राणका सहारा या पोषण मिलना ही चाहिये । पर जपसे मन यदि शुष्क हो जाय और प्राण चंचल हों उठे तो इसका अर्थ है कि उसे यह सहारा और पोषण नही मिल रहा है । अवश्य ही एक तीसरी पद्धति भी है, वह है स्वयं मंत्र या नामकी शक्तिपर निर्भरता । उस अवस्थामें साधकको तबतक जप करते रहना होता है जबतक कि वह शक्ति पर्याप्त रूपमें आंतरिक सत्तापर अपने प्रकपनोको जमा न दे जिसमें कि एक सुनिश्चित क्षणमें वह एकाएक दिव्य उप- स्थिति या दिव्य स्पर्शकी ओर उद्घाटित हों जाय । परंतु इस फलके लिये यदि संघर्ष किया जाय या आग्रह किया जाय तो फिर इस फलके आनेमें बाधा पड़ती है, क्योंकि इसके आनेके लिये यह आवश्यक हव कि मनके भीतर एक प्रकारकी अचंचल ग्रहणशीलता हों । यही कारण है कि मैत्री बार-बार मनकी अचंचलतापर इतना अधिक जोर दिया था, इस बातपर जोर नही दिया था कि इसके लिये अत्यधिक श्रम या प्रयास  जाय । मेरा उद्देश्य यह था कि चैत्य पुरुष और मनको समय दिया जाय कि वे ग्रहण- शीलताकी आवश्यक स्थितिको विकसित करें -- यह ग्रहणशीलता उतनी ही स्वा- भाविक होनी चाहिये जितनी कि वह उस समय होती है जब मनुष्य कविता या संगीत- की अंतःप्रेरणाको ग्रहण करता है । फिर यही कारण एक मैं नहीं चाहता कि तुम कविता लिखना बंद कर दो -- यह सहायता करता है और तैयारीके कार्यमें बाधा नहीं पहुँचाता, क्योंकि यह ग्रहणशीलताकी और अवस्थामें विद्यमान भक्तिको बाहर निकालनेकी समुचित अवस्थाको विकसित करनेका साधन है । अपनी सारी शक्तिको जप या ध्यानमें खर्च कर देना एक प्रकारका कठिन श्रम है जिसे जारी रखना सफल ध्यान करनेके अभ्यस्त व्यक्तिके लिये भी कठिन होता है -- जिसे केवल उन समयों- मे ही जारी रखना संभव होता हैं जब कि उत्परसे अनुभूतियोंकी अबाध धारा प्रवाहित होती रहती है ।

 

*

 

    ॐ मंत्र है, यह ब्रह्म-चैतन्यके तुरीयसे लेकर बाह्य या भौतिक स्तरतकके चारों लोकोंको अभिव्यक्त करनेवाला शब्द-प्रतीक है । मंत्रका कार्य है आंतर चेतनामें ऐसे प्रकपनोको पैदा करना जो उसे (चेतनाको) उस वस्तुकी सिद्धिके लिये तैयार करते

 

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हैं जिसका प्रतीक वह मंत्र होता है और जिसके विषयमें यह वास्तवमें माना जाता है कि स्वयं वह मंत्र उसे अपने अन्दर वहन करता है । अतएव मंत्र थे को चेतनाका इस प्रकार उद्घाटन करा देना चाहिये कि वह सभी स्थूल-भौतिक वस्तुओंमें, आंतरिक सत्ता और अतिभौतिक जगतोंमें, हमारे लिये अभी अतिचेतन ऊपरके कारण-लोकमेंऔर अंतमें समस्त विश्व-सत्तासे ऊपर स्थित चरम मुक्त परात्परतामें एकमेव चैतन्यको देख और अनुभव कर सके । जो लोग इस मंत्रका उपयोग करते हैं उनका मुख्य लक्ष्य साधारणतया अंतिम अनुभूति ही होती है ।

 

      इस योगमें कोई निश्चित मंत्र नही है, मंत्रोंपर कोई विशेष जोर नहीं दिया जाता, यद्यपि साधकको यदि कोई मंत्र सहायक प्रतीत हों या जबतक सहायक मालूम हो तबतक वह उसका उपयोग कर सकता है । यहांपर बल्कि जोर दिया जाता है चेतनामें अभीप्सा रखनेपर और मन, हृदय, संकल्पशक्ति, समस्त सत्ताकी एकाग्रतापर । यदि कोई मंत्र इस कार्यके लिये उपयोगी प्रतीत होता है तो साधक उसका उपयोग करता है । ॐ मंत्रका यदि ठीक-ठीक (यंत्रवत् नही) उपयोग किया जाय तो यह अवश्य ही ऊपर- की ओर और बाहर (विश्व-चेतना) की ओर उद्घाटित होने तथा साथ ही ऊपरकी चेतनाके अवतरित होनेमें सहायता कर सकता है ।

 

*

 

    साधारणतया इस साधनामें व्यवहृत होनेवाला एकमात्र मंत्र है श्रीमांका मंत्र या मेरे और माताजीके नामका मंत्र । हृदयमें और मस्तकमें दोनों जगह एकाग्रता की जा सकती है दोनोंका अपना अलग-अलग फल हैं । पहली चैत्य पुरुषको उद्घाटित करती है और भक्ति, प्रेम तथा श्रीमाताजीके साथ एकत्व, हृदयमें उनकी उपस्थिति तथा प्रकृतिके अंदर उनकी शक्तिकी क्रियाको ले आती है । दूसरी आत्मोपलब्धिके लिये, जो कुछ मनसे ऊपर है उसका ज्ञान पानेके लिये, चेतनाके शरीरसे ऊपर उठनेके लिये और उच्चतर चेतनाके शरीरके अंदर उतारनेके लिये मनको उद्घाटित करती

 

*

 

   भगवानके नामका जप सामान्यतया संरक्षण पानेके लिये, पूजा करनेके लिये, भक्ति बढ़ानेके लिये, आंतरिक चेतनाको उद्घाटित करनेके लिये, भगवानके उसी स्वरूपका साक्षात्कार करनेके लिये किया जाता है । इस कार्यके लिये अवचेतनके अंदर कार्य करना जितना आवश्यक है उसके लिये नाम अवश्य ही फलदायी हों सकता

 

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नाम जपमें एक महान् शक्ति है ।

 

*

 

    चाहे जिस किसी नामको क्यों न पुकारा जाय, जो शक्ति प्रत्युत्तर देती है वह स्वयं श्रमों हैं । प्रत्येक नाम भगवानके एक विशेष पक्षको सूचित करता है और उस भाव-पक्षसे सीमित होता है; परंतु श्रीमाताजीकी शक्ति सर्वव्यापक है ।

 

*

 

    मैंने उबसाते साथ नाम-जप करनेके लिये प्रोत्साहित नही किया, क्योंकि वह मुझे प्राणायाम जैसा लगा । प्राणायाम बहुत शक्तिशाली चीज है, पर वह यदि अव्यवस्थित रूपमें किया जाय तो उससे बाधाएं खड़ी हों सकती है और यहांतक कि अत्यधिक लोंगोंके शरीरमें रोग भी हो सकते है ।

 

*

 

   गायत्रीकी शक्ति है भागवत सत्यकी ज्योति । यह ज्ञानका मंत्र है ।

 

*

 

   गायत्री मंत्र सत्ताके सभी लोकोंमें सत्यकी ज्योतिको ले आनेका मंत्र है ।

 

*

 

   गायत्री-जपको या जिस पद्धतिका अभी तुम अनुसरण कर रहे हो उसको छोड़ने- की आवश्यकता नही । हृदयमें एकाग्र होना एक पद्धति है, सिरमें (या ऊपर) एकाग्र होना दूसरी पद्धति है, दोनोंको इस योगमें शामिल किया गया है और जिस व्यक्तिको जो पद्धति सबसे अधिक आसान या स्वाभाविक प्रतीत हों उसे उसीका अभ्यास करना चाहिये । हृदयमें एकाग्र होनेका उद्देश्य है वहांके केंद्र (हत्पद्य) को उद्घाटित करना, हृदयमें भगवती माताकी उपस्थितिको अनुभव करना और अपने अंतरात्मा या चैत्य पुरुषके विषयमें जो कि भगवानका अंश है, सचेतन होना । मस्तकमें एकाग्र होनेका उद्देश्य है भागवत चेतनामें ऊपर उठ जाना और सभी चक्रोंमें श्रीमाताजीकी ज्योति या उनकी शक्ति या आनन्दको उतार लाना । यह आरोहण और अवरोहणकी क्रिया तुम्हारे जपकी प्रक्रियामें अंतर्निहित है और इसलिये उसे छोड़नेकी आवश्यकता नही ।

 

    मस्तकमें सत्यलोकके अनुरूप एक स्तर है पर एक विशेष अवस्थामें चेतनाको

 

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ऊपर वैश्व चेतनाके उसी स्तरमें जानेके लिये मुक्तभावसे मस्तकसे ऊपर उठना होता

 

*

 

    ऐसा माना जाता हैं कि इस (प्रणव जप) मे एक अपनी शक्ति है यद्यपि वह शक्ति उसके अर्थपर ध्यान किये बिना पूरी तरह कार्य नही कर सकती । परंतु मेरा अनुभव यह  कि इन बातोंका कोई अकाटच नियम नही है और सबसे अधिक निर्भर करता हे चेतनाके ऊपर या साधककी प्रत्युत्तर देनेकी शक्तिके ऊपर । कुछ लोगोंके प्रसंगमें इसका कोई फल नही होता, कुछ लोगोंके प्रसंगमें ध्यान किये बिना भी इसका बहुत शीघ्र और शक्तिशाली फल होता है -- दूसरोंके लिये कोई फल पानेके लिये ध्यान आवश्यक होता है ।

 

*

 

    गीताके श्लोकोंका उपयोग जपकी तरह किया जा सकता है, यदि उस सत्यको उपलब्ध करना लब्ध है जिसे वे श्लोक धारण करते हैं । यदि ' ' के पिताने उस उद्देश्य- सिद्धिके लिये गीता-शिक्षाके सारको वहन करनेवाले मुख्य-मुख्य श्लोकोंको एकत्रित किया है तो यह बहुत ठीक है । सारी बात निर्भर करती है श्लोकोंके चुनाव- पर । सच पूछो तो गीताके कुछ श्लोकोंको एक साथ रख देनेसे गीताकी शिक्षाका सुसबद्ध संक्षिप्त रूप आसानीसे नही तैयार किया जा सकता, परंतु इस प्रकारके उद्देश्य- के लिये वैसा करना आवश्यक नही है, इसका उद्देश्य तो बस मूल सत्योंको एक साथ रख देना हो सकता है -- किसी बौद्धिक व्याख्याके लिये नन्हों बल्कि अनुभूतिको पकड़नेके लिये जो कि जपका उद्देश्य है । मैंने इस पुस्तकको नही पढा है, इसलिये मैं नही जानता कि कितनी दूरतक यह अपने उद्देश्यको पूरा करती है ।

 

 *

 

    जब कोई नियमित रूपसे किसी मंत्रका जप करता है तो बहुत बार जप अपने- आप भीतरमें होना आरंभ हों जाता है, इसका मतलब है कि आंतरिक सत्ताके द्वारा जप होने लगा है । इस ढंगसे जप अधिक फलदायक बन जाता है ।

 

*

 

     स्वभावत: ही, जिस नामपर मनुष्य एकाग्र होता है वह अपने-आप चलता रहेगा, यदि कोई वैसा करता है । परंतु नीदमें श्रीमांको पुकारना आवश्यक रूपसे कोई जप

 

२४६


नही है -- वास्तवमें आंतर सत्ता कठिनाईके समय या आवश्यक होनेपर बहुधा श्रीमां- को पुकारती है ।

 

*

 

    बहुतसे लोगोंको मंत्र ध्यानमें प्राप्त होते हैं । वेदमें ऋषियोंका कहना है कि अंतर्दर्शन और अतर्ज्ञानके द्वारा उन्होंने सत्यको सुना -- ' 'कवय: सत्यभूत. '' -- वेद इसीलिये श्रुति कहलाते हैं कि वे अंतःकरणमें सुनकर प्राप्त किये गये थे ।

 

२४७

विभाग छ:

 

ध्यानके द्वारा साधना


ध्यानके द्वारा साधना

 

      तुम्हारे प्रश्न. एक बहुत विशाल क्षेत्रको पूराका पूरा समाविष्ट कर लेते हैं । अतएव यह आवश्यक हे कि कुछ संक्षेपमें, किन्हीं प्रधान बातोंका स्पर्शमात्र करते हुए उनका उत्तर दिया जाय ।

 

           1 ध्यानका ठीक-ठीक अर्थ क्या है?

 

भारतीय शब्द 'ध्यान की भावनाको अभिव्यक्त करनेके लिये अंगरेजीमें दो शब्दोंका व्यवहार किया जाता है मेडिटेशंन (Meditation) और कण्टेफ्लेशन ( इ(Contemplation) । जब मनुष्य अपने- मनको किसी एक ही विषयको स्पष्ट करनेवाली किसी एक ही विचार-धारापर एकाग्र करता हैं तो उसे ही वास्तवमें 'मेडिटेशंन' कहते हैं । परंतु जब मनुष्य किसी हा_क ही विषय, मूर्त्ति, भावना आदिपर मनकी दृष्टि लगा देता है जिससे एकाग्रताकी शक्तिकी सहायतासे उसके मनमें स्वभावत: ही उस विषय, मूर्त्ति या भावनाका ज्ञान उदित हों जाता है तो वही कहलाता है 'कट्टे- म्प्लेशन' । ये दोनों ही चीज़ें ध्यानके दो रूप हैं, क्योंकि ध्यानका मूल स्वरूप हीं है मानसिक एकाग्रता, फिर वह एकाग्रता चाहे विचारपर की जाय या किसी दृश्यपर या ज्ञानपर. ।

 

    इनके अलावा ध्यानके अन्य रूप भी हैं । अपने एक लेखमें विवेकानन्दने यह सलाह दी है कि अपने विचारोंसे पीछे खड़े हो जाओ, उन्हें अपने मनमें, जैसे वे आवें, आने दो और महज उनका निरीक्षण करो तथा देखो कि वे क्या हैं । इस क्रियाको आत्म- निरीक्षणात्मक एएकाग्रता कह सकते हैं ।

 

     यह क्रिया एक दूसरी क्रियाकी ओर ले जाती है, हम अपने सभी विचारोंको अपने मनसे बाहर निकाल देते हैं और इस तरह उसे एक प्रकारसे शुद्ध, सजग और खाली बनाकर छोड़ देते हैं जिसमें कि उसपर दिव्य ज्ञान प्रकट हों और अपनी छाप डाल दे 1 साधारण मानव-मनके निम्नतर विचार उसे क्षुब्ध न करें और उसकी छाप वैसी ही स्पष्ट हों जैसी कि काले तख्तेपर सफेद खरिया मिट्टीकी लिखावट होती है । तुम देखोगे कि गीता इस प्रकार सभी मानसिक विचारोंके त्यागको योगकी एक पद्धति कहती है और इसी पद्धतिको पसंद करती हुई प्रतीत होती है । इसे हम मुक्तिदायक ध्यान कह सकते हैं, क्योंकि इस ध्यानसे चिंतनकी यांत्रिक क्रियाकी दासतासे मन मुक्त हो जाता है । मनको यह छूट मिल जाती है कि वह चाहे सोचे या न सोचे, यदि चाहे और जब चाहे तो ही सोचे, अथवा अपने विचारोंका चुनाव कर सके अथवा चिंतनके परे जाकर सत्यका शुद्ध दर्शन प्राप्त करे जिसे हमारे दर्शनमे 'विज्ञान' कहा गया है ।

 

    इन सब ध्यानोंमेंसे पहला (मेडिटेशन) मानव-मनके लिये सबसे अधिक सुगम तरीका है, पर अपने परिणामोंमें यह अत्यन्त परिमित है । दूसरे प्रकारका ध्यान

 

२१९


( कण्टेफ्लेशन) अधिक कठिन है, पर पहलेसे अधिक शक्तिशाली हे । आत्मनिरीक्षण- की पद्धति तथा विचार-शृंखलासे मुक्ति - ये दोनों सबसे अधिक कठिन हैं, परंतु अपने परिणामकी दृष्टिसे सबसे अधिक विशाल और महान् हैं । मनुष्य अपनी रुझान और सामर्थ्यके अनुसार इनमेंसे किसी एक पद्धतिको चून सकता है । पूर्ण पद्धति है इन सबका उपयोग करना, प्रत्येकको उसके निजी स्थानमें और उसके निजी उद्देश्यसे व्यव- हत करना । परंतु इसके लिये आवश्यकता है सुदृढ़ विश्वास और अटूट धैर्यकी तथा योगमें अपने-आपको नियुक्त करनेके संकल्पकी महान् शक्तिकी ।

 

    2. ध्यानके लिये कौनसा बिषय या कौनसे विचार होने चाहियें?

 

     जो कुछ तुम्हारे स्वभाव और उच्चतम अभीप्साके साथ सबसे अधिक मेल खाता हों वही ध्यानका विषय है । परंतु तुम यदि मुझसे कोई निरपेक्ष उत्तर पूछो तो मैं यही कहूँगा कि ध्यानके लिये सबसे उत्तम विषय सदा ही ब्रह्म हे और जिस भावनापर मनको जमाना चाहिये यह भावना यह है कि भगवान् सबमें हैं, सब भगबानमें हैं और सब कुछ भगवान् ही है । मूलत: इस बातसे कुछ भी नहीं आता-जाता कि वह भगवान् निराकार है या साकार, अथवा प्रत्येकृदृष्टिसे, एकमेवाद्वितीय ब्रह्म है । परंतु जिसे मैंने सर्वोत्तम भावना पाया है वह है - सर्व खल्विदं ब्रह्म -- यह सब कुछ ब्रह्म ही है, क्योंकि यह उच्चतम भावना है और इसमें अन्य सभी सत्य निहित हैं, चाहे वे सत्य इस जगतके हों या अन्य जगतोंके अथवा समस्त इंद्रियग्राह्य सत्ताके परेके ।

 

        'आर्य' पत्रिकाके तीसरे अंकमें, ईशोपनिषद्की ब्याख्याकी दूसरी किश्तके अंत- मे, 'सर्व' विषयक इस दर्शनका विवरण तुम्हें मिलेगा और उससे तुम्हें इस विचारकों समझनेमें सहायता मिल सकती है । '

 

        3. आंतरिक और बाह्य अवस्थाएं जो ध्यानके लिये अत्यत आवश्यक हैं । वास्तवमें कोई भी अनिवार्य बाहरी अवस्थाएं नही हैं, पर ध्यानके समय एकांत और निर्जन स्थानमें रहना तथा शरीरका शातस्थिर रहना सहायक होता है, कभी- कभी नये साधकके लिये प्रायः आवश्यक होता है । परन्तु साधकको बाहरी अवस्था- ओंसे बंधा हुआ नही रहना चाहिये । एक बार जब ध्यान करनेकी आदत पंडू जाय तब फिर ऐसी अवस्था बना लेनी चाहिये जब सभी परिस्थितियोंमें, लेटकर, बैठकर, घूमकर, अकेलेमें, दुकेलेमें, नीरवतामें या शोरगुलके बीच आदि-आदि सभी अवस्था- ओमें ध्यान करना संभव हों जाय ।

 

    सबसे पहली आवश्यक आंतरिक अवस्था है ध्यानके विघ्नोंके विरुद्ध अर्थात् मनकी भाग-दौड, विस्मृति, नींद, शारीरिक और स्नायविक अधीरता और चंचलता आदि-आदिके विरुद्ध साधकके संकल्पकी एकाग्रता ।

 

     दूसरी आवश्यक अवस्था यह है कि जिस आंतरिक चेतना (चित) लें विचार और भावावेग उठते हैं उसकी पवित्रता और शांति निरन्तर बढ़ती रहे अर्थात् '

 

      श्रीअरविन्दकी अंगरेजी पुस्तक 'ईश उपनिषद्' (सन् १९६५ संस्करण), पृष्ठ ३५ देखिये ।

 

२२०


बह विक्षुब्धकारी सभी प्रतिक्रियाओं, जैसे, क्रोध, दुःख, अवसाद, सांसारिक घटनाओं- के विषयमें दुश्चिता आदि, ३ एकदम मुक्त हों । मानसिक परिपूर्णता और नैतिक तत्त्व सदा एक-दूसरेसे घनिष्ठ रूपमे जुड़े होते हैं ।

 

*

 

    एकाग्रताका मतलब है चेतनाको एक साथ एकत्र कर लेना और उसे चाहे एक बिदुपर केंद्रित कर लेना अथवा किसी एक वस्तुकी ओर, जैसे, भगवान्की ओर मोड देना । उस समय किसी एक ही बिदुपर नहीं, बल्कि पूरी सत्ताभरमें एकत्रित अवस्था- का बोध हों सकता है । ध्यानमें इस प्रकार एकत्रित होना आवश्यक नहीं है, मनुष्य महज एक विषयका चिंतन करते हुए शांत-स्थिर बना रह सकता है और यह निरीक्षण कर सकता है कि चेतनाके अन्दर कौनसी चीज आती है और फिर उसके साथ समुचित व्यवहार कर सकता है ।

 

*

 

      एकाग्रताका तात्पर्य है एक स्थान या एक वस्तुपर और महज एक अवस्थामें चेतनाको जमा देना । ध्यान प्रसारित हों सकता है, उदाहरणार्थ, उस समय मनुष्य भगवानके विषयमें विचार कर सकता है, प्रभाव ग्रहण कर सकता है और विवेक कर सकता है, यह देख सकता है कि प्रकृतिमें क्या हों रहा है और उसपर क्यिा कर सकता है इत्यादि-इत्यादि ।

 

*

 

      हमारे योगमें एकाग्रता उसे कहते हैं जब चेतना किसी विशेष स्थितिमें ( जैसे, शांतिमें) अथवा क्रियामें ( जैसे, अभीप्सा, संकल्प, श्रीमाताजीके साथ संपर्क, श्रीमाताजी- का नाम-स्मरण) आदिमें लवलीन होती है । ध्यान उसे कहते हैं जब आंतर मन वस्तु- ओंको उनका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेके लिये देखता रहता है ।

 

       अब एकाग्रताकी बात लें । साधारणतया चेतना चारों ओर फैली हुई, छतरी हुई होती है और इस या उस दिशामें, इस विषय या उस वस्तुकी ओर, जो असंख्य होते हैं, दौड करती है । जव कोई ऐसा काम करना होता है जो स्थायी स्वभावका होता है तो सबसे पहले मनुष्यको इस पूरी छितरी चेतनाको पीछे खींचकर एकाग्र करना होता है । तब, कोई यदि ध्यानसे देखे तो उसे पता चलेगा कि बह चेतना किसी एक

 

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स्थान और किसी एक कार्य, विषय या वस्तुपर एकाग्र होनेके लिये बाध्य हों जाती है -- जैसे उस समय होती है जब तुम कविता लिखते होते हों या कोई वनस्पति-शास्त्री किसी पुष्पका अध्ययन करता होता है । एकाग्रताका स्थान सामान्यतया कहीं मस्तिष्कमें होता है यदि उसका विषय कोई विचार हों, हृदयमें होता है यदि उसका विषय कोई भावना हो । यौगिक एकाग्रता महज इसी चीजका एक विस्तारित और घनीभूत रूप होती हैं । यह एकाग्रता किसी वस्तुपर की जा सकती है जैसे कोई मनुष्य एक चमकते बिंदुपर त्राटक करता हैं - उस समय मनुष्यको इस प्रकार एकाग्र होना होता है ताकि वह केवल उस बिंदुको ही देखे और उसके अतिरिक्त उसमें दूसरा कोई विचार न हों । फिर यह एकाग्रता एक विचार या एक शब्द या एक नामपर, भगवान्- विषयक एक विचारपर,  शब्दपर, कृष्ण नामपर अथवा एक संग विचार और शब्द- पर या विचार ओर नामपर की जा सकती है । परंतु इसके अतिरिक्त योगमें मनुष्य एक विशिष्ट स्थानमें भी एकाग्रताका अभ्यास करता है । योगका एक प्रसिद्ध नियम है दोनों भौंहोंके बीच एकाग्र होना, आंतर मन, गुह्य दर्शन और संकल्पका केंद्र इसी स्थानपर है । इस एकाग्रताके लिये जिस विषयको तुम चुनते हों उसीका तुम उस स्थानमे चिंतन करते हो अथवा वहांसे उसकी प्रतिमूर्त्ति देखनेकी चेष्टा करते हों । यदि तुम ऐसा करनेमें सफल हो जाते हों तो कुछ दिन बाद तुम यह अनुभव करने लगते हो कि तुम्हारी सारी चेतना उस स्थानमें केंद्रित हों गयी है -- अवश्य ही उस समयके लिये । कुछ दिन इसका अभ्यास करनेके बाद और बहुधार ऐसा अनुभव करना आसान और स्वाभाविक हों जाता है ।

 

     मैं समझता हूँ कि यह बात स्पष्ट हो गयी है । अब, इस योगमें, यही चीज तुम्हें करनी होती हैं, पर आवश्यक रूपसे भौंहोंके बीचके उसी विशिष्ट स्थानपर नहीं, बल्कि मस्तकके किसी भी स्थानमें अथवा छातीके केंद्रमें जहां शरीरशास्त्री हदयका स्थान बतलाते है । यहां किसी वस्तुपर एकाग्र होनेके बदले तुम मस्तकमें एक संकल्पपर एकाग्र होते हों, ऊपरसे शक्तिके अवतरणके लिये एक पुकारपर एकाग्रता होते हो, अथवा जैसे कि कुछ लोग करते हैं, एक अदृश्य ढक्कनके खुल जाने और ऊपरसे चेतनाके अव- तरित होनेपर एकाग्र होते हों । हृदय-केंद्रमें साधक किसी अभीप्सापर, किसी उद्- घाटनके लिये, वहां भगवान्की सजीव मूर्त्तिकी उपस्थितिके लिये अथवा और जो भी उसका उद्देश्य होता है उसके लिये एकाग्रताका अभ्यास करता हैं । वहां, हृदय-केंद्रमें किसी नामका जप भी किया जा सकता है, पर, यदि ऐसा करना हों तो, उसके साथ- साथ उस नामपर एकाग्रता भी होना चाहिये और नामका जप स्वयं हृदय-केंद्रमे ही होता रहना चाहिये ।

 

      यहांपर यह प्रश्न किया जा सकता है कि जब इस तरह किसी एक स्थानमें एकाग्रता की जाती है तो चेतनाके बाकी हिस्सेका क्या होता है? हां, बाकी हिस्सा या तो शांत-नीरव हों जाता है जैसा कि किसी भी एकाग्रतामें होता हैं, अथवा, यदि शांत- नीरव नहीं होता तो उस हालतमें विचार या अन्य चीज़ें इस तरह घूम-फिर सकती हैं मानो बाहरकी ओर हों, पर एकाग्र भाग उनकी ओर ध्यान नही देता या उनकी ओर

 

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नहीं देखता । ऐसा तब होता है जब एकाग्रता पर्याप्त रूपमें सफल होती है ।

 

   जबतक मनुष्य अभ्यस्त न हो जाय तबतक उसे आरंभमें लंबे समयतक एकाग्रताका अभ्यास करके अपनेको थका नही देना चाहिये, क्योंकि उस अवस्थामें मनके क्लांत हों जानेके कारण एकाग्रता अपना मूल्य-महत्त्व और शक्ति खो बैठती है । उस समय एकाग्रताका अभ्यास करनेके बदले मनुष्यको विश्रांतिका लिये अपनेको शिथिल अवस्थामें छोड़ देना चाहिये और ध्यान करना चाहिये । जब एकाग्रताकी अवस्था सहज-स्वाभाविक बन जाय केवल तभी मनुष्य धीरे-धीरे लंबे समयतक एकाग्रताका अभ्यास कर सकता है ।

 

    साधक तीन केंद्रोंमेंसे किसी एकमें एकाग्र हों सकता है जहां एकाग्र होना उसके लिये सबसे आसान हों और जो सबसे अधिक परिणाम देता हों । हृदय-केंद्रमें होनेवाली एकाग्रताकी क्षमता यह है कि वह उस केंद्रको खोल देती है और अभीप्सा, प्रेम, भक्ति और समर्पणकी शक्तिके द्वारा उस पर्देको हटा देती है जो अंतरात्माको ढकता और छिपाता है तथा अंतरात्मा या चैत्य पुरुषको सम्मुख भागमें ले आती है जिसमें कि वह मन, प्राण और शरीरपर शासन करे और उन सबको भगवान्की ओर पूर्णतः मोड दे और उद्घाटित कर दे और जो कुछ उस मोड और उद्घाटनका विरोध करता है उस सबको दूर हटा दे ।

 

     यहीं वह चीज है जिसे इस योगमें चैत्य रूपांतर कहा जाता है, सिरके ऊपर किये जानेवाली एकाग्रताकी सामर्थ्य यह है कि वह शांति, निश्चल-नीरवता, शरीर-बोधसे मुक्ति, मन और प्राणके साथ तादात्म्य प्रदान करती है और निम्रतर (मानसिक, प्राणिक, भौतिक) चेतनाके लिये ऊर्ध्वस्थ उच्चतर चेतनासे मिलनेके लिये ऊपर उठनेका रास्ता. खोल देती है और उच्चतर ( आध्यात्मिक प्रकृतिकी) चेतनाकी शक्तियोंके लिये मन, प्राण और शरीरमें उतर आनेका मार्ग खोल देती है । यही वह चीज है जिसे इस योग- मे आध्यात्मिक रूपांतरका नाम दिया गया है । यदि कोई इस क्रियासे आरंभ करता है तो ऊपरसे आनेवाली दिव्य शक्तिका अवतरण सभी केंद्रोंको (निम्रतम केंद्रतकको) खोलनेके लिये तथा चैत्य पुरुषको बाहर ले आनेके लिये होता हे; क्योंकि जबतक यह कार्य नहीं संपन्न हों जाता तबतक यह संभावना है कि निम्रतर चेतनाकी ओरसे बहुत अधिक कठिनाइयां ओर संघर्ष आयें और ऊपरसे होनेवाली भागवत क्रियाको वह चेतना बाधा दे, उसके साथ मिल-जुल जाय या यहांतक कि उसे अस्वीकार कर दे । यदि चैत्य पुरुष एक बार सक्रिय हों जाय तो यह संघर्ष और ये कठिनाइयां बहुत अधिक कम की जा सकतीं हैं ।

 

    दोनों भृकुटियोंके मध्यमें किये जानेवाली एकाग्रताकी शक्ति यह है कि वह वहां- के केंद्रको खोल देती है और आंतर मन और दृष्टिको तथा आंतर या यौगिक चेतनाको एव उसकी अनुभूतियों और शक्तियोंको  कर देती है । यहांसे भी साधक ऊपरकी ओर उद्घाटित हों सकता है और निम्रतर केंद्रोंमें भी कार्य कर सकता है; परंतु इस प्रकियाका खतरा यह है कि साधक अपनी मानसिक-आध्यात्मिक रचनाओमे आबद्ध हों सकता है और उनमेंसे बाहर निकलकर मुक्त और सर्वांगपूर्ण आध्यात्मिक अनुभव

 

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और ज्ञान तथा सत्ता और प्रकृतिके सर्वांगपूर्ण परिवर्तनकी स्थितिमें नहीं पहुँच सकता ।

 

*

 

    जब कोई किसी विचार या शब्दपर एकाग्र होता है तब उसे उस शब्दमें निहित मूल भावनापर ध्यान जमाना होता है और यह अभीप्सा रखनी होती है कि जिस चीज- को बह शब्द व्यक्त करता है वह अनुभूत हो ।

 

*

 

   इस समय वह मूल अध्याय मेरे सामने नही है; परंतु जिन वाक्योंको तुमने उद्- धृत किया है,' उससे मालूम होता है कि वह भावना अ मानसिक भावना है । उदाहरणार्थ, वैदांतिक ज्ञानमार्गमें मनुष्य सर्वव्यापी ब्रह्मकी भावनापर एकाग्र होता है - वह एक वृक्षकी ओर या दूसरी आसपासकी वस्तुकी ओर इस भावनाके साथ ताकता है कि ब्रह्म वहां विद्यमान हैं और वृक्ष या दूसरी वस्तु महज उसका एक रूप है । कुछ समय बाद जब एकाग्रता समुचित प्रकारकी हों जाती है तब मनुष्य एक उपस्थिति, एक सत्ताका अनुभव करना आरंभ करता है और स्थूल वृक्षका रूप एक बाहरी खोल बन जाता है और बह उपस्थिति, या सत्ता ही एकमात्र सद्वस्तुके रूपमें अनुभव होने लगती है । भावना तब विलीन हों जाती है, वह उस वस्तुका साक्षात् दर्शन बन जाता है जो भावनाके स्थानमें आ जाती है - उस समय अब भावनाके ऊपर एकाग्र होनेकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, मनुष्य एक गभीरतर चेतनाके द्वारा देखने लगता हैं -- ' 'स पश्यति । '' यहांपर यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि भावनाके ऊपर की गयी यह एकाग्रता महज चिंतनकी, मनकी क्यिा नहीं है - यह भावनाके स्व स्वरूप- पर एक प्रकारसे आंतरिक रूपसे ध्यानस्थ होना है ।

 

*

 

   अगर तुम कभी तो हृदयमें और कभी मस्तकके ऊपर ध्यान एकाग्र करो तो इसमें कोई हर्ज नहीं । परंतु इन दोनों स्थानोंपर एकाग्र होनेका अर्थ यह नही है कि किसी

 

    '''यह एकाग्रता भावनासे आरंभ होती है......, क्योंकि भावनाके द्वारा हीं मनोमय सत्ता समस्त अभिव्यक्तिके परे उस चीजतक चली जाती है वों अभिव्यक्त की गयी होती है, उस चीज- तक जाती है जिसका महज एक यंत्र यह भावना होती है । भावनापर एकाग्र होकर मनोमय सत्ता, वों कि हम अभी हैं, हमारी मानसिक सीमाको तोड़ देती है और चेतनाकी उस स्थितिपर, सताकी उस स्थितिपर, चेतन सत्ताकी शक्तिकी और चेतनन्दत्ताके आनन्दकी उस स्थितिपर पहुंच जाती १ जिसके अनुरूप वह भावना होती है और जिसका यह एक रूपक, क्यिा और छंद होती दु ।''

 

- ( ''योग-समन्वय'') आर्य, वर्ष, 1 पृष्ठ ४६५)

 

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एक विशिष्ट स्थानपर अपने ध्यानको जमाये रखा जाय । तुम दोनोंमेंसे किसी एक स्थानपर अपनी चेतनाको ले जाकर वहां जम जाओ और फिर वहां किसी स्थानपर नहीं वरन् भगवानपर एकाग्र होओ । इसे, चाहे आंखें बंद करके या खोल करके, जैसा कि सबसे अधिक तुम्हारे अनुकूल हो उसके अनुसार, किया जा सकता है ।

 

    तुम सूर्यपर ध्यान जमा सकते हों, पर भगवानपर ध्यान एकाग्र करना सूर्यपर एकाग्र होनेसे कही अधिक अच्छा है ।

 

*

 

     अधिकांश लोग चेतनाका मतलब मस्तिष्क या मन समझते हैं, क्योंकि बौद्धिक चिंतन और मानसिक दर्शनका वही केंद्र है । परंतु चेतना केवल उस तरहके चिंतन या दर्शनमे सीमित नहीं है । चेतना तो हमारी सत्तामें सर्वत्र विद्यमान है और उसके कई केंद्र हैं, जैसे, आंतरिक एकाग्रताका केंद्र मस्तिष्कमें नही वरन् हृदयमें है,--प्राणिक वासनाओंका उद्भव-केंद्र उससे भी और नीचे है ।

 

    योगके लिये चेतनाको एकाग्र करनेके दो प्रमुख स्थान हैं जो मस्तकमें और हृदय- मे हैं - इन्हें मानस-केंद्र और चैत्य-केंद्र कह सकते हैं ।

 

*

 

   मस्तिष्कको एकाग्र करना बराबर ही एक प्रकारकी तपस्या है और आवश्यक रूपसे थकावट ले आता है । जब मनुष्य मस्तिष्क-मनसे पूर्णतया ऊपर उठ जाता है केवल तभी मानसिक एकाग्रताकी थकावट दूर होती है ।

 

*

 

    पढ़ने या चिंतन करते समय यौगिक एकाग्रता करनेका उत्तम स्थान है मस्तक- का शीर्ष-स्थान या उससे भी और ऊपर ।

 

*

 

    एकाग्रतापूर्ण ध्यानके लिये स्वाभाविक मुद्रा है निश्चल होकर बैठ जाना - खड़ा होना और घूमते रहना सक्थि अवस्थाएं हैं । जब मनुष्य अपनी चेतनामें स्थायी स्थिरता और निश्चेष्टता प्राप्त कर लेता है केवल तभी घूमते-फिरते या कोई काम करते हुए एकाग्र होना और ग्रहणशील होना आसान होता है । जब चेतना अपने अंदर सिमटकर अपने सार-तत्वमें निष्क्यि हो जाती है तो वही अवस्था एकाग्रताकी समुचित स्थिति होती है और उसके लिये सबसे उत्तम मुद्रा है शरीरकी बैठी हुई स्थितिमें

 

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समाहित निश्चलता । ऐसा लेटकर भी किया जा सकता है पर वह आसन अत्यधिक निष्क्रिय हे और उसमें अंतरमें समाहित होनेकी अपेक्षा जड़ बन जानेकी प्रवृत्ति पैदा होती है । यही कारण है कि योगी लोग सर्वदा बैठकर आसन लगाते है । मनुष्य घूमते हुए, खड़े होकर, सोकर ध्यान करनेका अभ्यास डाल सकता है, परंतु बैठकर ध्यान करना सबसे पहली स्वाभाविक स्थिति है ।

 

*

 

    जब तुम अकेले होओ या शांत-स्थिर होओ केवल तभी गभीर रूपमे एकाग्र होना अच्छा है । उस समय तुम्हें बाधा देनेवाला कोई बाहरी शब्द नही होना चाहिये ।

 

 *

 

    ध्यानके बाद कुछ समयतक नीरव और एकाग्र बने रहना निस्संदेह बहुत अच्छा मद्य । ध्यानको हलके रूपमें लेना भूल है -- वैसा करनेसे मनुष्य जो कुछ ग्रहण कर चुका है उसे या उसके अधिकांश भागको धारण करनेमें असमर्थ होता अथवा बिखेर देता है ।

 

*

 

   तुम गहरी अंतर्मुखीनता और स्थिरताकी अवस्थामें प्रवेश कर जाते हों । परंतु कोई यदि हठात् इस अवस्थासे बाहर निकलकर साधारण चेतनामें वापस आ जाय तो उसे थोड़ा स्नायविक धक्का लग सकता है अथवा कृउछ समयके लिये हदयकी धड़कन आरंभ हों सकतीं है जैसा कि तुमने वर्णन किया है । इस अतर्मुखीनतासे बाहर आने और आंखें खोलनेसे पहले कुछ क्षणोंतक शांत-स्थिर बने रहना सदा हीं अत्युत्तम होता है ।

 

    कर्मके विषयमें तुम्हारी नवीन भावना बिलकुल सही है, यह नवीन शांतिका ही अंश है और यह सूचित करती है कि तुम्हारी चेतना अधिक संतुलित और मुक्त हों रही है । आलस्यको आनेकी संभावना नहीं है ।

 

    जो खुला मैदान तुमने देखा वह निश्चल-नीरव आंतरिक चेतनाका, मुक्त, उल्वल, सुस्पष्ट और स्थिर चेतनाका प्रतीक है ।

 

    जो चीज़ें तुम देखते हो वे अधिकांशत: उस क्रियाके चिह्न बे जो तुम्हारे अन्दर चल रही है । इस बातका कोई भय नहीं कि वे चेतनापर कोई प्रभाव न डालनेवाले केवल सूक्ष्मदर्शन ही रहेंगी । तुम्हारी चेतना अबतक बहुत परिवर्त्तित हों चुकी है और फिर भी आगे आनेवाले और भी महत्तर परिवर्तनका यह केवल प्रारंभ ही है ।

 

*

 

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    बहिर्मुखी क्रियाओंके विषयमें तुमने जो कुछ देखा वह निश्चय ही कल्पना नही था । यह उनकी क्रियाका एक सच्चा और सही अनुभव और दर्शन था । उनसे अपने- को पृथक् अनुभव करना और उन्हें देखना यथार्थ आंतरिक अवस्था है जो अन्तमें उनसे एकदम मुक्त हो जानेके लिये आवश्यक है ।

 

  एकाग्रता बहुत उपयोगी और आवश्यक है -- मनुष्य जितना ही अधिक ( निस्संदेह, शरीरको थकाये बिना उसकी क्षमताकी सीमाओंके भीतर) एकाग्र होता. है उतनी ही अधिक योगकी शक्ति बढ्ती है । परंतु तुम्हें कभी-कभी ध्यानके असफल होने- के लिये भी तैयार रहना चाहिये और उससे घबड़ा नही जाना चाहिये - क्योंकि ध्यानकी यह अस्थिरता प्रत्येक व्यक्तिके साथ घटित होती है । इसके कई कारण होते हैं । परंतु अधिकतर कोई भौतिक वस्तु होती है जो हस्तक्षेप करती है, अथवा जो कुछ आया हैं या किया गया है उसे आत्मसात् करनेके लिये समय लेनेकी शरीरकी आवश्यक- ता होती है । कभी-कभी तामसिकता या जड़ता होती है जो ऐसे कारणोंसे, जिनका तुमने वर्णन किया है अथवा दूसरे कारणोंसे आती है । सबसे उत्तम बात यह है कि जबतक शक्ति फिरसे कार्य नही करने लग जाती तबतक शांतस्थिर बना रहा जाय और अधीर या उदास न हुआ जाय ।

 

*

 

    संभव है कि किसी साधकके ध्यानका कोई निश्चित समय न हो और फिर भी वह साधना कर सकता है

 

*

 

    अनुभूति और उसके बादकी भावना दोनोंका अपना सत्य मग्न । आरंभमें बहुत दीर्घ कालतक प्रयास करके भी एकाग्र होना आवश्यक है, क्योंकि अभी प्रकृति, चेतना तैयार नही होती । पर उस अवस्थामें भी एकाग्र होनेकी क्रिया जितनी अधिक अचंचल और स्वाभाविक हों उतना ही अच्छा है । परंतु चेतना और प्रकृति जब तैयार हों जाती हैं तब एकाग्रताका अभ्यास सहज-स्वाभाविक बन जाना चाहिये और सब समय बिना प्रयासके आसानीसे करना संभव होना चाहिये । अंतमें जाकर तो यह सत्ताकी स्वाभाविक और स्थायी अवस्था बन जाती है - उस समय यह अब एकाग्रता नही रह जाती, बल्कि भगबानमें जीवकी ससिद्ध स्थिति बन जाती है ।

 

    यह सही है कि एकाग्र होना और उसके साथ-हीं-साथ कोई बाहरी कार्य करना आरंभमें संभव नहीं होता । पर वह भी संभव हो जाता है । चाहे तो चेतना दो भागों- मे विभक्त हों जाती है, एक, आंतरिक भाग तो गवान्में स्थित होता है और दूसरा, बाहरी भाग बाहरी कार्य करता है,--अथवा संपूर्ण चेतना ही उस प्रकार भगबानमें स्थित होती है और शक्ति निष्क्रिय यंत्रके द्वारा कार्य करती ।

 

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     स्वभावत: ही यदि ध्यान स्वाभाविक हो जाय तो थकावट नहीं आती । परन्तु अभीतक यदि उसकी क्षमता न हो तो बहुतसे लोग बिना तनावके उसे जारी नहीं रख सकते जो कि थकावट ले आता है ।

 

*

 

    यदि मन थक जाय तो स्वभावत: ही एकाग्र होना कठिन हो जाता है - जबतक कि तुम मनसे पृथक् नहीं हो जाते ।

 

*

 

    तुम्हें मनसे भी अपनेको पृथक् करना होगा । तुम्हें मानसिक, प्राणिक और भौतिक स्तरोंमें भी (केवल ऊर्ध्वमे ही नहीं) एक चेतनाको अनुभव करना होगा जो न तो मन, प्राण है और न शरीर 1

 

*

 

    प्रयासका मतलब है खिंचाव उत्पन्न करनेवाला प्रयत्न । ऐसा कर्म भी हो सकता है जिसमें एक संकल्प हो पर जिसमें कोई खिंचाव या प्रयास न हो ।

 

    खींच-तान (एकाग्रताके लिये संघर्ष) और एकाग्रता एक ही चीज नहीं हैं । खींचतानका तात्पर्य है एक प्रकारकी अति-उत्सुकता और प्रयासमें जोर-जबर्दस्ती; परंतु एकाग्रता अपने स्वभावमें शांत-स्थिर और अविचल होती हे । यदि मनुष्यमें चंचलता या अति-उत्सुकता हों तो यह कहना होगा कि उसमें एकाग्रता नही है ।

 

*

 

   सच पूछो तो तुमने बिना पथप्रदर्शनके जो व्यक्तिगत रूपसे प्रयास किया उसीके कारण तुम कठिनाइयों में जा पड़े तथा ऐसी उत्तप्त स्थितिमें पहुँच गये जहां तुम ध्यान वगैरह कर ही नही सके । मैनई तुमसे कहा कि प्रयास बंद कर दो और शांत बने रहो और तुमने वैसा किया भी । मेरा आशय यह था कि जब तुम शांत रहोगे तो श्रीमीकी शक्तिके लिये तुम्हारे अंदर कार्य करना, एक अच्छी आरंभिक अवस्थाको स्थापित करना और प्राथमिक अनुभूतियों एक धारा खोल देना संभव होगा । इस चीजका होना आरंभ भी हों गया था; पर तुम्हारा मन यदि फिरसे सक्थि हों जाय और अपने लिये साधनाकी व्यवस्था करनेका प्रयत्न करे तो विख्त-बाधाओंके आनेकी संभावना है । भागवत पथप्रदर्शन तभी उत्तम रूपमें काम करता है जब चैत्य पुरुष खुला हुआ और सामने होता है (तुम्हारा चैत्य पुरुष खुल रहा था), पर वह उस समय भी कार्य

 

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कर सकता है जब साधक उस विषयमें सचेतन न हो अथवा जब उसके परिणामोंके कारण ही वह उसे जानता हों । निर्विकल्प समाधिका जहांतक प्रश्न है, यदि उसे कोई चाहे भी तो उसे केवल उसके लिये तैयार की हुई चेतनामें एक लबी साधना करनेपर ही पा सकता है -- अभी उसकी चर्चा करनेसे कोई लाभ नही जब कि आंतरिक चेतना- ने यौगिक अनुभूतिकी ओर केवल उद्घाटित होना अभी-अभी आरंभ किया है !

 

 *

 

     यदि ध्यानमें यह कठिनाई आती है कि सब प्रकारके विचार भीतर घुस आते हैं तो यह विरोधी शक्तियोंके कारण नहीं बल्कि मानव-मनकी सामान्य प्रकृतिके कारण होता है ! सभी साधकोंको यह कठिनाई होती है और बहुतोंके साथ तो यह बहुत लंबे अर्सेतक लगी रहती है । इससे छुटकारा पानेके कई रास्ते हैं । उनमेंसे [रक रास्ता है विचारोंका निरीक्षण करना और यह देखना कि मानव-मनका स्वभाव क्या है जिसे ये विचार हमें दिखाते है, पर इन विचारोंको कोई अनुमति न देना और इन्हें तबतक दौड़ते रहने देना जबतक कि ये निस्तब्ध नही हों जाते -- यही वह पथ है जिसे विवेका- नदने अपने राजयोगमें बताया है । दूसरा हे विचारोंकी ओर इस प्रकार देखना मानो वे अपने न हों, उनसे पीछे साक्षी पुरुषकी तरह खड़ा हों जाना और अनुमति देना अस्वी- कार कर देना -- उस समय विचारोंको इस प्रकार देखा जाता है मानों वे बाहरसे, प्रकृतिसे आते हों, और फिर उनके विषयमें यह समझना चाहिये कि वे मनोमय देशमें से गुजरनेवाले यात्री हैं जिनके साथ हमारा कोई संबद्ध नहीं और जिनमें हम कोई रुचि नही रखते । ऐसा करनेपर साधारणतया यह होता है कि कुछ समय बाद मन दो भागोंमें बट जाता है, एक भाग वह होता हे जो मनोमय साक्षी होता है, जो देखता है और पूर्णत: अनुद्विग्न और शांत होता है । दूसरा भाग वह होता है जो निरीक्षणका विषय होता है, प्रकृति-भाग होता है जिसमें विचार घूमते-फिरते या जिसमेंसे होकर गुजर जाते है । कुछ दिन बाद हम प्रकृति-भागको भी नीरव या शांत-स्थिर करनेका प्रयास कर सकते है । एक तीसरा पथ भी है, एक सक्रिय पद्धति है जिसमे मनुष्य यह देखनेकी चेष्टा करता हैं कि विचार कहांसे आते है और उसे पता चलता है कि स्वयं अपने अंदरसे वे नही आते बल्कि मानो मस्तकके बाहरसे आते हैं । यदि कोई उन्हें बाहरसे आते हुए देख सके तो, उनके भीतर प्रवेश करनेसे पहले ही, उन्हें एकदम दूर फेंक देना होता है । यह शायद सबसे अधिक कठिन पद्धति है और सब इसे नही कर .सकते । पर यदि इसे किया जा सके तो यह नीरवता प्राप्त करनेका सबसे छोटा और सबसे अधिक शक्तिशाली पथ है ।

 

*

 

   मन सर्वदा क्रियाशील रहता है, पर हम पूरी तरह यह नहीं देखते कि यह क्या

 

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कर रहा है, बल्कि हम अपनेको सतत चिंतनकी धारामें बहा ले जाने देते है । जब हम एकाग्र होनेका प्रयास करते हैं, यह स्वनिर्मित यांत्रिक चिंतनकी धारा हमारी निरीक्षण- क्रियाके लिये स्थायी बन जाती है । योगके प्रयासके लिये यह प्रथम सामान्य बाधा है (दूसरी है ध्यानके समय नींदका आना) ।

 

   ऐसे समय करने योग्य सबसे उत्तम बात यह अनुभव करना है कि यह विचार- धारा हम स्वयं नही हैं, सचमुचमें हम स्वयं विचार नही कर रहे हैं, बल्कि विचार ही मनमें चल रहे हैं । वास्तवमें प्रकृति ही अपनी विचार-शक्तिके द्वारा हमारे अन्दर 'विचारोंका यह सब भंवर उठा रही है । हमें पुरुष-रूपसे उससे पीछे साक्षीभावके साथ खड़ा होना चाहिये, उस कार्यको देखना चाहिये, पर उसके साथ अपनेको एकात्म करना अस्वीकार कर देना चाहिये । दूसरी बात है एक प्रकारके नियंत्रणका प्रयोग करना और विचारोंका त्याग कर देना -- यद्यपि कभी-कभी ए_कदम अनासक्तिकी क्रियासे हीं चिंतनाभ्यास बंद हो जाता है या ध्यानके समय कम हों जाता है और पर्याप्त नीरवता आ जाती है या कम-से-कम अचंचलता आ जाती है जिसके कारण आनेवाले विचारोंका त्याग करना, और अपने-आपको ध्यानके विषयपर एकाग्र करना आसान हों जाता है । यदि कोई इतना सचेत हों जाय कि विचारोंको बाहरसे, विश्व-प्रकृतिसे आते हुए देख सके तो वह उनके मनमें आनेसे पहले ही उन्हें बाहर फेंक सकना है : इस प्रकार मन अंतमें निश्चल-नीरव हों जाता है । यदि इनमेंसे कोई भी बात न हों सके तो परित्यागका सतत अभ्यास करना आवश्यक हो जाता है -- विचारोके साथ कोई संघर्ष या कुश्ती नहीं होनी चाहिये, बल्कि केवल शांत रूपसे अपने-आपको पृथक् करना चाहिये और उन्हें अस्वीकार करना चाहिये । प्रारंभमें हीं सफलता नहीं आती, परंतु अनुमति जब निरंतर हटा ली जाती है तो यंत्रकी तरह चलनेवाला भंवर अतमें बद हों जाता है और मरना आरंभ कर देता है और तब साधक इच्छापूर्वक आंतरिक स्थिरता या नीरवता प्राप्त कर सकता है ।

 

    यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि, कुछ विरल लोंगोंके प्रसंगको छोड़कर यौगिक प्रक्रियाओंको फल तुरत नहीं प्राप्त होता और साधकको तबतक अपने संकल्प- धैर्यको प्रयुक्त करना चाहिये जबतक कि वे फल नही देने लगती, जिसके आनेमें कभी- कभी, यदि बाहरी प्रकृतिमें बहुत अधिक बाधा-विरोध हो तो, लंबा समय लग जाता

 

    जबतक तुम्हें उच्चतर आत्माका बोध या अनुभव नही प्राप्त हुआ है तबतक तुम उसपर अपने मनको कैसे जमा सकते हों? तुम केवल उस आत्माकी भावनापर एकाग्र हो सकते हों अथवा कोई भगवानके या भगवती माताके विचारपर या किसी मूर्तिपर या उस भक्तिभावनापर एकाग्र हो सकता है जो हृदयमें भागवत उपस्थिति- को पुकारती है अथवा शक्तिको मन, प्राण और शरीरमें कार्य करने, चेतनाको मुक्त करने तथा आत्मसाक्षात्कार प्रदान करनेके लिये पुकारती हे । यदि तुम आत्माकी भावनापर एकाग्र होओ तो इसे तुम्हें इस कल्पनाके साथ करना चाहिये कि आत्मा मनसे और उसके विचारोंसे, प्राण और उसके अनुभवोंसे तथा शरीर और उसकी

 

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क्रियाओंसे भिन्न कोई वस्तु है -- कोई ऐसी चीज है जो इन सब चीजोंके पीछे अवस्थित है, ऐसी चीज है जिसे तुम ठोस तीरपर सत-चितके रूपमें, इस सबसे पृथक् फिर भी इन चीजोंमें अंतर्ग्रस्त हुए बिना मुक्त रूपमे इन सबमें परिव्याप्त अनुभव करोगे ।

 

    जो कुछ तुम पढो उस सबको यदि प्रयोगमें लानेका प्रयास करोगे तो तुम्हारे नये-नये प्रारभोंका कोई अंत नहीं होगा । विचारोंका त्याग करके विचारोंको बद किया जा सकता हैं और नीरवताके अन्दर अपने-आपको पाया जा सकता है । कोई विचारोंको अबाध दौड़नेके लिये छोड़ सकता और उनसे अपनेको पृथक् कर सकता तथा इस प्रकार इस कार्यको कर सकता है । दूसरे और भी कई रास्ते हैं । ' ' की पुस्तकमें वर्णित पथ मुझे अद्वैत-ज्ञानीकी पद्धति प्रतीत होता है जिसमें शरीर, प्राण और मनसे अपनेको, ' 'मैं शरीर नही हूँ, मैं प्राण नही हूँ, मैं मन नही हूँ' ' आदि विवेकके द्वारा तबतक पृथक् किया जाता है जबतक मनुष्य मन, प्राण और शरीरसे पृथक् आत्माको नहीं प्राप्त कर लेता । यह भी इसे करनेका एक पथ हे । फिर प्रकृति और पुरुषका पृथक्करण भी तबतक किया जा सकता है जबतक कि साधक केवल साक्षी नही बन जाता और साक्षी-चैतन्यके रूपमें अपनेको सभी क्रियाकलापोंसे पृथक् नही अनुभव करने लगता । इनके अतिरिक्त और भी पद्धतियां है ।

 

*

 

    मनको एकत्र करनेकी पद्धति आसान पद्धति नही है । यह कही अधिक अच्छा है कि विचारोंका निरीक्षण किया जाय और अपनेको उनसे पृथक् किया जाय जबतक कि अपने अन्दर विद्यमान एक शांत-स्थिर प्रदेशका बोध न प्राप्त हों जाय जिसमे कि वे विचार बाहरसे आते हैं ।

 

 *

 

    भौतिक मनकी भिनभिनाहटके लिये उपाय यह है कि जरा भी उद्विग्न हुए बिना उसका चुपचाप परित्याग करते रहो; अंतमें हताश होकर वह पीछे हट जायगा और सिर हिलाते हुए कहेगा, ' 'यह पट्टा मेरे लिये अत्यंत शांत-अचल और बलवान् है । '' बराबर दो चीज़ें ऐसी होती हैं जो उठ सकती और नीरवताको भग कर सकती हैं -- प्राणिक सुझाव तथा भौतिक मनकी यत्रवत् बार-बार होनेवाली क्रियाएं । दोनोंको दूर करनेका उपाय है शांतिपूर्वक परिवर्जन करना । हमार अंदर एक पुरुष है जो प्रकृतिको यह आदेश दे सकता है कि उसे क्या आने देना चाहिये और क्या बाहर छोड़ देना चाहिये, परंतु उसका संकल्प एक प्रबल, शांत संकल्प है, यदि साधक कठिनाइ-

 

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योंके, कारण घबड़ा जाय या चंचल हों जाय तो फिर पुरुषका संकल्प वैसे हीं सफलता- पूर्वक कार्य नहीं कर सकता जैसे कि वह अन्य स्थितिमें करता ।

 

    सक्रिय उपलब्धि संभवत. तब प्राप्त होगी जब कि उच्चतर चेतना पूर्ण रूपसे प्राणके अन्दर उतर आयेगी । जब वह मनमें आती है तब वह पुरुषकी शांति और मुक्ति ले आती है तथा वह ज्ञान भी लें आ सकती है । परन्तु जब वह प्राणमें आती है तभी सक्थि उपलब्धि उपस्थित होतीं और सजीव होती है ।

 

*

 

    यांत्रिक मनकी क्रियासे अपने-आपको पृथक् करनेकी क्षमता प्राप्त करना सबसे पहली आवश्यकता है; ऐसा कर लेनेपर, जब वह क्रिया होती है तब भी, मनकी स्थिरता और शांतिको उससे अविचलित बनाये रखना बहुत आसान होता है ।

 

    यदि शांति और निश्चल-नीरवताका नीचे उतरना जारी रहता है तो सामान्य- तया दें इतनी तीव्र हो जाती है कि कुछ समय बाद भौतिक मनको भी अभिभूत कर लेती है ।

 

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    वास्तवमें हुआ यह कि सक्रिय मन अधिक स्थिर हों गया जिससे भौतिक मनकी क्रियाएं अधिक स्पष्ट हो गयी -- ऐसा ही बहुधा घटित होता है । ऐसी अवस्थामें हमारा कर्तव्य है इन क्रियाओंसे अपने-आपको पृथक् कर लेना और उनकी ओर अब और ध्यान दिये बिना एकाग्र होना । फिर उन क्रियाओंका स्थिरतामें डूब जाना या विलीन हों जाना संभव हों जाता है ।

 

 *

 

    यही यांत्रिक मनका स्वभाव है -- उसकी किसी संवेदनशीलता कारण ऐसा नही हुआ है । चूँकि मनके अन्य भाग अधिक नीरव और संयमके अधीन हैं, केवल इसी कारण यह क्रिया अधिक प्रमुख दिखायी देती है और अधिक स्थान ले रही है । यदि कोई इसका लगातार परित्याग करता रहे तो यह सामान्यतया क्षीण हों जाती है !

 

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     तुम संभवत उनकी (यांत्रिक मनके विचारोंकी) ओर बहुत अधिक ध्यान दे रहे हों । यह बिलकुल संभव हैं कि मनुष्य एकाग्र होवे और यांत्रिक त्रियाकी ओर

 

१३२


देखे बिना उसे जारी रहने दे ।

 

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 जो कुछ तुम प्रस्ताव करते हों उसके विषयमें मैं बिलकुल निस्सदिग्ध नही हूँ । इसमें संदेह नहीं कि मानसिक चेतना थकी होनेपर भी अपने पुराने अभ्यासवश बाहर- से विचारोंको ग्रहण करती जाती है - वह उन्हें चाहती हों ऐसी बात नही, पर विचारों- को आनेका अभ्यास है और मन उन्हें यंत्रवत् भीतर आने देता है तथा अभ्यासवश उनकी ओर ध्यान देता है । योगमें जब अनुभूतियां आना आरंभ करती हैं और मन या तो सर्वदा एकाग्र रहना या शांत-स्थिर रहना चाहता है तो उस समय बराबर ही यह एक प्रधान कठिनाई होती है । कुछ लोग तो वही करते हैं जो तुमने प्रस्ताव किया है और कुछ समय बाद या तो मनको एकदम शांत कर देनेमें सफल होते हैं या ऊपरसे निश्चल-नीरवता नीचे उतरती है और मनको शांत कर देती है । परंतु साधक जब इसे करनेका प्रयास करता है तब अकसर विचार बहुत अधिक सक्रिय हों उठते है और नीरवता ले आनेकी प्रक्रियाका विरोध करते हैं और यह सब बड़ा कष्टदायक होता है । अतएव बहुतसे लोग धीरे-धीरे चलना पसंद करते हैं; वे मनको थोडा-थोडा करके स्थिर होने देते हैं, स्थिरताको फैलने तथा अधिक समयतक बने रहने देते हैं जब कि अंतमें जाकर अवांछित विचार जाते हैं अथवा पीछे हट जाते हैं और मन भीतरसे या ऊपरसे आनेवाले ज्ञानके लिये खाली छोड़ दिया जाता है ।

 

     तुम्हें संभवत: इसे करनेकी कोशिश करनी चाहिये और देखना चाहिये कि क्या परिणाम होता है -- यदि विचार बहुत अधिक आक्रमण करें और परेशान करें तो तुम बद कर सकते हो - यदि मन शीघ्र या अधिकाधिक शांत होता हों तो जारी रख सकते हो ।

 

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    जितना ही अधिक चैत्य बाहरी सत्तामें फैलता है उतनी ही अधिक ये सब चीज़ें (अवचेतन मनकी यांत्रिक क्रियाएं) शांत होती हैं । यही सबसे उत्तम तरीका है । मनको शांत करनेके जो सीधे प्रयास होते हैं वे कठिन तरीके होते हैं ।

 

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 एकाग्रता करनेमें सबसे अधिक सहायक चीज है अपने मनमें श्रीमाताजीकी स्थिरता और शांतिको ग्रहण करना । यह तुम्हारे ऊपर विद्यमान है -- केवल मन और उसके केंद्रोंको उसकी ओर खुलनेकी आवश्यकता है । यहीं चीज है जिसे श्रीमाताजी शामके ध्यानके समय तुम्हारे ऊपर ठेलती हैं।

 

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   चित् हे विशुद्ध चेतना, जैसे, सत्-चित्-आनन्दमें ।

 

   चित्त है मानसिक-प्राणिक-शारीरिक चेतनाओंका मिश्रित रूप और इसीमेंसे विचार, भावावेग, संवेदन, प्रवेग आदिकी क्रियाएं उत्पन्न होती हैं । पांतजलि योग- पद्धतिमें इन्ही सबको एकदम शांत कर दिया जाता है जिसमें कि चेतना निश्चल हों जाय और समाधिमें चली जाय ।

 

   हमारे योगमें दूसरी तरहकी क्रिया होती है । साधारण चेतनाकी क्रियाओंको निश्चल बना देना होता है और उस निश्चलताके अंदर उच्चतर चेतना और उसकी शक्तियोंको उतार लाना होता है जो कि प्रकृतिका रूपांतर कर देंगी ।

 

*

 

     यदि तुम चित्तवृत्तियोंका दमन कर दो तो फिर तुम्हारे अंदर चित्तकी एकदम कोई क्रिया ही नही होगी । सब कुछ तबतक निश्चल बना रहेगा जबतक तुम दमनको दूर नहीं कर दोगे अथवा सब कुछ इतना शांत-निश्चल बना रहेगा कि निश्चलताके सिवा वहां और कोई चीज ही नही रह सकेगी ।

 

      यदि तुम उन्हें स्थिर कर दो तो चित्त भी स्थिर हों जायगा, वहां चाहे जो भी क्रिया या गतिशीलता हों वह उस स्थिरताको विचलित नही करेगी ।

 

   यदि तुम उन्हें संयमित कर लो या उनपर प्रभुत्व स्थापित कर लो तो जब तुम चाहोगे तब चित्त निश्चल-निष्क्रिय हों जायगा और जब तुम चाहोगे तब सक्रिय हों जायगा, और उसकी क्रिया ऐसी हों जायगी कि जिस चीजसे तुम छुटकारा पाना चाहोगे वह चली जायगी, जिस चीजको तुम यथार्थ और उपयोगी समझोगे बस वही आयगी ।

 

*

 

    नीरवताकी स्थितिमें चला जाना आसान नही है । ऐसा करना केवल तभी संभव होता है जब समस्त मानसिक-प्राणिक क्रियाओंको बाहर निकाल दिया जाता है । इससे अधिक आसान है अपने अंदर निश्चल-नीरवताको अवतरित होने देना, अर्थात् अपनेको उसकी ओर उद्घाटित करना और उसे उतरने देना । ऐसा करनेका तरीका और उच्चतर शक्तियोंका अपने अंदर आवाहन करनेका तरीका एक ही है । यह तरीका है ध्यानके समय अचंचल बने रहना । उस समय मनके साथ संघर्ष नही करना चाहिये अथवा शक्तिको या निश्चल-नीरवताको नीचे बीच लानेका मानसिक प्रयास नही करना चाहिये बल्कि उसके लिये केवल नीरव संकल्प और अभीप्सा बनाये रखना चाहिये । अगर मन सक्रिय हो तो हमें पीछेकी ओर हटकर और अंदरसे उसके लिये कोई अनुमति दिये बिना उसका तबतक अवलोकन करना सीखना चाहिये जबतक कि उसकी अभ्यासगत या यंत्रवत् क्रियाएं भीतरसे प्राप्त सहारेके अभावमें नीरव हो जाना न आरंभ कर दे । यदि मन अत्यंत हठी हों तो अधिक जोर लगाये या संघर्ष किये

 

 

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बना दृढ़तापूर्वक परित्याग करते रहना ही एकमात्र करणीय कार्य हैं ।

 

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    किसी चीजको अतिरंजित न करना ही अच्छा है । सच पूछा जाय तो मानसिक क्रियावलीसे छुटकारा पाना उतना अधिक आवश्यक नही है जितना कि उसे सम्रुचित रूपमे बदल देना. । जिस चीजको हमें अतिक्रम करना और परिवर्त्तित करना है वह है बौद्धिक तर्क-युक्ति जो चीजोंको केवल बाहरसे, विश्लेषण और अनुमानके द्वारा देखती है -- जब वह ऐसा नही करती तब प्राय. शीघ्रतासे दृष्टिपात करती और कहती है, ' 'यह बात ऐसी दू' ' अथवा ' 'यह बात ऐसी नही है । '' किंतु तुम तबतक इसका अति- क्रमण और परिवर्तन नही कर सकते जबतक कि पुरानी मानसिक क्रिया थोडी स्थिर नही हों जाती । स्थिर मन अपने विचारमें नही उलझता अथवा उनसे दूर नही भाग- ता; वह पीछे खड़ा हों जाता हैं, अपनेको पृथक् कर लेता है और उनके साथ अपना तादात्म्य किये बिना तथा उन्हें अपना बनाये बिना गुजर जाने देता है । वह साक्षी मन बन जाता हे और आवश्यक होनेपर विचारोंका निरीक्षण करता है, परंतु साथ ही उनसे मुँह मोड लेने और अंदरसे तथा ऊपरसे ग्रहण करनेमें समर्थ होता है । निश्चल- नीरवता अच्छी चीज है, पर पूर्ण निश्चल-नीरवता अपरिहार्य नही है, कम-से-कम इस स्थितिमें । मैं नही समझता कि मनको शांत-स्थिर करनेके लिये उसके साथ कुश्ती करनेसे कोई विशेष लाभ है, साधारणतया उस खेलमें मनकी ही जीत होती है । वास्तवमें पीछे हटना, अपनेको पृथक् कर लेना, किसी अन्य चीजकी, बाहरी मनके विचारोंसे भिन्न दूसरी चीजकी बात सुननेकी शक्ति पा लेना ही अधिक आसान पथ है । इसके साथ-ही-साथ मनुष्य मानो ऊपरकी ओर अपनी दृष्टि उठा सकता है, अपनेसे ठीक ऊपर स्थित एक शक्तिकी कल्पना कर सकता ओर उसे नीचे पुकार सकता है अथवा चुपचाप उसकी सहायताकी प्रतीक्षा कर सकता है । इसी ढंगसे बहुतसे लोग इसे करते हैं जबतक कि मन धीरे-धीरे स्थिर नहीं हों जाता या अपने-आप नीरव नही हों जाता अथवा ऊपर- से निश्चल-नीरवता उतरना आरंभ नहीं कर देती । परंतु यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि अवसाद या निराशाको बीचमें न आने दिया जाय क्योंकि तुरत-फुरत सफलता नही मिली; ऐसा करनेसे तो बस कार्य कठिन ही हों सकता है ओर जिस किसी प्रगतिके लिये तैयारी हो रही है वह रुक सकती है ।

 

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     नीरव मन योगसाधनाका एक परिणाम है, साधारण मन कभी नीरव नही होता.. । मनीषियों और दार्शनिकोंका मन नीरव नही होता । उनका मन सक्रिय होता है; अवश्य हीं वे अपने मनको एकाग्र करते हैं और इसलिये सामान्य असंबद्ध मानसिक क्रिया बंद हो जाती है और जो विचार उठते हैं या प्रवेश करते और रूप ग्रहण

 

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करते हैं वे उनके विषय या कार्यसे सामंजस्य रखते हुए बंधे रहते हैं । परंतु यह बात समूचे मनके नीरव हो जानेसे एकदम भिन्न है ।

 

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    जब मन ध्यानमें या पूर्ण निश्चल-नीरवतामें नहीं होता, किसी-न-किसी वस्तु- के साथ -- चाहे अपनी निजी भावनाओं या कामनाओं या अन्य लोगों या वस्तुओं या बातचीत आदिके साथ - सर्वदा सक्रिय रहता है ।

 

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    इसे ध्यान नही कहा जाता -- यह तो चेतनाकी एक विभक्त अवस्था है । जब- तक चेतना वास्तवमें तल्लीन नहीं हो जाती और ऊपरी विचार बस ऐसी चीज़ें नहीं बन जाते जो मनमें आती, स्पर्श करती और निकल जाती हैं, तबतक इसे मुश्किलसे ध्यान कहा जा सकता है । मैं नहीं समझता कि किस तरह आंतरिक सत्ता तल्लीन हो सकती है और साथ हीं अन्य प्रकारके सारे विचार और सारी कल्पनाएं उपरितलीय चेतनामें घूमती-फिरती रह सकतीं हैं । मनुष्य पृथक् रह सकता और विचारों तथा कल्पनाओंको, उनसे प्रभावित हुए बिना, गुजरते हुए देख सकता है, पर उसे ध्यानमें डूब जाना या तल्लीन हो जाना नहीं कहा जा सकता ।

 

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     यह बिलकुल स्वाभाविक है कि आरंभमें जब तुम एकाग्र होनेके लिये बैठ तब केवल स्थिरता और शांतिकी अवस्था बनी रहे । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब कभी तुम बैठा यह अवस्था बनी रहे और उसके लिये बराबर ही दबाव बना रहे । पर दूसरे समय इसके परिणामस्वरूप प्रारंभमें केवल एक प्रकारकी मानसिक अचंचलता और विचारोंसे मुक्तिकी अवस्था विद्यमान रहती है । बादमें जब शांतिकी अवस्था आंतरिक सत्तामें एकदम जम जाती है -- क्योंकि जब कभी तुम एकाग्र होते हों तब आंतरिक सत्तामें ही प्रवेश करते हो - तब वह बाहर आना और बाहरी सत्तापर भी शासन करना आरंभ करती है जिससे कि स्थिरता और शांति उस समय भी बनी रहती है जब मनुष्य कार्य करता है, दूसरोंसे मिलता-जुलता है, बातचित करता या अन्य कार्य करता है । क्योंकि, उस समय बाहरी चेतना चाहे कुछ भी क्यों न करे, आंतरिक सत्ता भीतर शांत अनुभूत होती है - अवश्य हीं मनुष्य अपनी आंतरिक सत्ताको ही अपना सच्चा स्वरूप समझता है और बाहरी सत्ताको एक ऐसी ऊपरी चीज समझता है जिसके द्वारा आंतरिक सत्ता जीवनके ऊपर क्रिया करती है ।

 

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   सुख-शातिका अनुभव अंदर बहुत गहराईमें और बहुत दूर होता हे क्योंकि वे चीज़ें चैत्य सत्तामें होती हैं और चैत्य सत्ता हमारे अंदर बहुत गहराईमें है और मन तथा प्राणके द्वारा आच्छादित है । जब तुम ध्यान करते हों तो चैत्यकी ओर उद्घाटित होते हों, अपने भीतर गहराईमें विद्यमान अपनी चैत्य चेतनाके विषयमें सचेतन होते हो और इन चीजोंको अनुभव करते हों । यदि तुम चाहो कि ये सुख, शांति और प्रसन्न- ता तीव्र और स्थायी हों जायं तथा सारी सत्तामें और शरीरमें भी अनुभूत हों तो तुम्हें अपने अंदर और अधिक गहराईमें पैठना होगा और चैत्य चेतनाकी संपूर्ण शक्तिको शरीरमें लें आना होगा । यह कार्य अधिक आसानीसे तभी किया जा सकता है जब कि इस सच्ची चेतनाकी पानेकी अभीप्सा रखकर नियमित रूपसे एकाग्रता और ध्यान- का अभ्यास किया जाय । यह कार्य कर्मके द्वारा भी किया जा सकता है, आत्मोत्सगैके द्वारा, अपने विषयमें कुछ सोचे बिना और हृदयमें सर्वदा श्रीमाँके प्रति आत्मार्पणका भाव बनाये रखकर एकमात्र भगवानके लिये कर्म करके भी इसे किया जा सकता है । परंतु पूर्ण रूपसे ऐसा करना आसान नहीं है ।

 

*

 

     यदि उच्चतर ध्यान या ऊपर बने रहना मनुष्यको उदास बना देता है, साधनामें उसे किसी प्रकारका संतोष या शांति नही मिलती तो, मैं जहाँतक समझ सकता हूँ, इसके केवल दो ही कारण हैं -- अहंभाव या तामसिकता ।

 

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    यह बिलकुल स्वाभाविक है कि यौगिक साहित्य पढ़ते समय मनुष्य ध्यान करना चाहे - यह आलस्य नहीं है ।

 

    मनका आलस्य तो है ध्यान न करना, जब कि चेतना उसे करना चाहती हो ।

 

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   यह यथार्थ बात नही है कि जब मनुष्यमें धूमिलपन या तामसिकता होती है तो वह एकाग्रता या ध्यान नहीं कर सकता । यदि किसीकी आंतरिक सत्तामें इसे करनेका दृढ संकल्प हो तो वह इसे. कर सकता है ।

 

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 जब कोई ध्यान करनेकी कोशिश करता है तब भीतर पैठनेके लिये, जाग्रत् (बाह्य) चेतना खो देनेके लिये तथा अंदरमें, आंतरिक चेतनाकी गहराईमें जागृत

 

२३७


होनेका दबाव पड़ता है । परंतु आरंभमें मन ऐसा समझता है कि यह दबाव निद्रामें डूबनेके लिये है, क्योंकि निद्रा हीं एकमात्र आंतरिक चेतनाकी वह स्थिति है जिसका उसे अभीतक अभ्यास रहा है । इसलिये योगमें ध्यान करनेपर आरंभमें जो बहुधा कठिनाई होती है वह है नींद । परंतु कोई यदि लगातार प्रयास करता रहे तो धीरे- धीरे नदी एक आंतरिक सचेतन स्थितिमें बदल जाती है ।

 

*

 

    जब कोई ध्यान करनेका प्रयत्न करता है तब उस तरह नींद नही आती । जहां वैसा करना संभव हो, इसे एक सज्ञान आंतरिक तथा अंतर्मुखी स्थितिमें बदलकर और, जहां संभव न हों, ग्रहण करनेके लिये उद्घाटित एक अचंचल एकाग्रीभूत जाग्रतावस्था- मे ( बिना प्रयास) बने रहकर, इस नींदकी स्थितिमें सुधार करना चाहिये ।

 

*

 

    नही, यह नींद नही है । बल्कि जब दबाव अंतर्मुखी होने (समाधिमें जाने) की प्रवृत्ति उत्पन्न करता है तो. भौतिक सत्ता इसे निद्राके भावमें बदल देती है, क्योंकि उसे निद्राके द्वारा अंदर पैठनेके सिवा और किसी चीजका अभ्यास नही होता ।

 

 *

 

    ऐसा लगता है कि तुम एक प्रकारकी समाधिमें भीतर चले जाते हों पर अभी सचेतन नही रहते (इसी कारण निद्राका भाव आता है) । '' सोया नही होता, बल्कि जब वह अन्दर पैठता है तो अपने शरीरपर उसका नियंत्रण नहीं रहता । बहुतसे योगियोंको यह कठिनाई होती है । ऐसी हालतमें वे एक ऐसी चीजका उद्भावन करते हैं जिसे दे अपनी ठोड़ीके नीचे डाल देते हैं ताकि वह ध्यानमें इस प्रकार अंदर घुसनेपर उनके मस्तक और उसके साथ-साथ उनके शरीरको पकड़े रखे ।

 

II

 

    समाधिके समय आंतर भनप्राण और शरीर हीं बाह्य सत्तासे पृथक् होते हैं और अब उससे आच्छादित नहीं रहते -- इसलिये वे पूर्ण रूपसे आंतरिक अनुभव प्राप्त कर सकते हैं । उस समय बाह्य मन या तो निष्क्रिय हों जाता है या किसी रूपमे अनुभवको प्रतिबिंबित करता या उसमें भाग लेता है । समस्त मनोमयी सतासे केंद्रीय चेतनाके पृथक् हों जानेका मतलब है पूर्ण समाधिका अवस्था जिसमे अनुभवोंकी कोई स्मृति नहीं रहती ।

 

२३८


    परंपराके अनुसार निर्विकल्प समाधि महज वह समाधि है जहांसे मनुष्य गर्म लोहेसे दागने या आगसे जलानेपर भी नही जग सकता - अर्थात् ऐसी समाधि जिसमें मनुष्य पूर्ण रूपसे शरीरसे बाहर चला गया होता है । अधिक वैज्ञानिक भाषामें कहा जा सकता है कि यह वह समाधि है जिसमें चेतनाके अंदर कोई रचना या गति नही होती और योगी एक ऐसी स्थितिमें खो जाता है जहांसे वह अनुभवका कोई विवरण नही ले आ सकता, महज यही कह सकता है कि वह आनन्दमें था । ऐसा माना जाता है कि यह स्थिति सुषुप्ति या तुरीयमें पूर्णतः लीन हों जाना है ।

 

*

 

     निर्विकल्प समाधिका ठीक-ठीक अर्थ है पूर्ण समाधि जिसमे कोई विचार नही होता या चेतनाकी कोई गाते नहीं होती अथवा न तो बाहरी न भीतरी वस्तुओंका कोई ज्ञान रहता है -- सब कुछ खींचकर विश्वातीत परात्परमें चला जाता है । पर यहांपर इसका अर्थ ऐसा नही हों सकता -- यहां संभवतः अर्थ है मनसे परेकी चेतनामें समाधि ।

 

    तोड़ना और फिर गढ़ना प्राय. ही परिवर्तनके लिये आवश्यक होता है; परंतु जब एक बार मौलिक चेतना प्राप्त हों चुकती है तब कोई कारण नही कि यह सब कष्ट और उथल-पुथलके साथ किया जाय -- इसे शांतिके साथ किया जा सकता है । सच पूछो तो निम्रतर अंगोंको विरोध हीं कष्ट और उथल-पुथल उत्पन्न करता है !

 

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     सच्चिदानन्दमें डूब जाना एक ऐसी स्थिति हे जिसे निरूप्य समाधिके बिना जाग्रत् अवस्थामें प्राप्त कर सकता है -- विलयन केवल शरीरके नाशके बाद ही 'हों सकता है, बशर्त्ते कि मनुष्य उच्चतम स्थितिको प्राप्त कर चुका हो और संसारकी सहायता करनेके लिये यहां वापस आनेकी इच्छा नहीं करता ।

 

*

 

     यह तुम्हारी भौतिक चेतनाके स्वभावपर निर्भर करता है । जब शरीरमें चेतना- का अवतरण होता है तो मनुष्य सूक्ष्म-भौतिक चेतनाके विषयमें सज्ञान हो उठता है और वह ज्ञान समाधिमें बना रह सकता है -- ऐसा लगता है कि मनुष्यको शरीरका ज्ञान है पर वास्तवमें वह सूक्ष्म शरीर होता है न कि बाहरी स्थूल शरीर । परंतु मनुष्य और अधिक गहराईमें भी जा सकता है और फिर भी भौतिक शरीरके बारेमें और उसपर किया करनेके बारेमें भी सचेतन रह सकता है, पर बाहरी वस्तुओंके बारेमें नहीं रह सकता । अंतमें जाकर मनुष्य एक गभीर एकाग्रतामें निमग्न हों जा सकता

 

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है पर प्रबल रूपमें शरीरके विषयमें तथा उसमें शक्तिके अवतरणके बिषयमें सचेतन रह सकता है । इस अंतिम स्थितिमें बाहरी वस्तुओंका ज्ञान भी बना रहता है यद्यपि उनकी ओर ध्यान नही भी दिया जा सकता । इस अंतिम स्थितिको सामान्यतया समाधि नहीं कहा जाता, पर यह एक प्रकारकी जाग्रत् समाधि है । पूर्ण समाधिकी गभीर स्थितिसे लेकर पूर्ण जागृत चेतनामें होनेवाली शक्तिकी क्रियातककी सभी अवस्थाओंका उपयोग इस योगमें किया जाता है । साधकको सर्वदा पूर्ण समाधिपर ही जोर नही देना चाहिये, क्योंकि अन्य समाधियां भी आवश्यक हैं और उनके बिना पूर्ण परिवर्तन नही साधित हों सकता ।

 

    यह बड़ा अच्छा है कि उच्चतर चेतना और उसकी शक्तियां मस्तक और हदयके नीचेके भागोंमें अवतरित हो रही हैं । यह रूपांतरके लिये अत्यंत आवश्यक है । क्यों- कि निम्रतर प्राण और शरीर भी उच्चतर चेतनाके उपादानमें अवश्य परिवर्तित हों जाने चाहियें ।

 

*

 

     तुम जो अपने ध्यानसे बाहर आनेपर कुछ याद नहीं रख पाते इसका कारण यह है कि अनुभव आंतर सत्तामें घटित होता है और बाह्य सत्ता उसे ग्रहण करनेके लिये प्रस्तुत नहीं है । इससे पहले तुम्हारी साधना मुख्यतया प्राणिक लोकमें चल रही थी जो बहुधा सबसे पहले खुलता है और उस लोकके साथ शारीर चेतनाका संपर्क स्थापित करना आसान होता है क्योंकि वे दोनों स्तर एक-दूसरेके अधिक समीप हैं । अब ऐसा लगता है कि साधना भीतर चैत्य सत्तामें चली गयी है यह एक महान् प्रगति है और तुम्हें अभी अत्यंत बाह्य चेतनाके साथ संपर्क न होनेके कारण कोई चिंता करनेकी आवश्यकता नहीं । कार्य फिर भी चल रहा हैं और संभवत यह आवश्यक है कि ठीक अभी यह इसी भांति हो । पीछे चलकर यदि तुम समुचित मनोभाव सतत बनाये रखोगे तो वह बाहरी चेतनामें भी अवतरित होगी ।

 

*

 

     एक मध्यवर्ती समाधि होती है जो भिन्न प्रकारकी होती है -- उसमें योगीको सच्चिदानन्दकी संपर्क नही प्राप्त होता बल्कि निम्र प्राणिक लोककी सत्ताओंके साथ संपर्क प्राप्त होता है । उच्चतर प्रकारकी समाधिमें जानेकी शक्तिको विकसित करनेके लिये कुछ साधना करनेकी आवश्यकता होती है । पवित्रीकरणका जहांतक प्रश्न है, संपूर्ण पवित्रीकरण आवश्यक नहीं है, पर सत्ताके कुछ भागोंको उच्चतर वस्तुओंकी ओर अवश्य मुड जाना चाहिये ।

 

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     अंगरेजीमें 'ट्रांस' (Trance) शब्दका प्रयोग सामान्यतया केवल गभीरतर प्रकारकी समाधिके लिये होता है, परंतु, अन्य कोई शब्द न होनेके कारण, हमें इसका प्रयोग सब प्रकारकी समाधियोंके लिये करना होगा ।

 

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   समाधि कोई ऐसी चीज नही है जिसका त्याग कर दिया जाय -- बस, आवश्यक- ता है इसे अधिकाधिक सचेतन बनानेकी ।

 

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   भगवानके साथ संपर्क प्राप्त करनेके लिये समाधिमे रहना आवश्यक नहीं है ।

 

*

 

      इसके विपरीत, सच पूछो तो जाग्रत् अवस्थामें इस अनुभूतिको आना चाहिये और बने रहना चाहिये जिसमें कि यह जीवनका एक सत्य बन सके । यदि समाधिमे इसका अनुभव हों तो यह एक ऐसी अतिचेतन अवस्था होगी जो आंतरिक सत्ताके किसी भागते लिये ही सत्य होगी, समस्त चेतनाके लिये सत्य नही होगी । सत्ताके उद्घाटन और उसकी तैयारीके लिये समाधिमें होनेवाली अनुभूतियोंका उपयोग तो है पर जब उपलब्धि जाग्रत् अवस्थामें निरंतर होती रहती है केवल तभी वह वास्तवमें अपने अधि- कारमें होती है । अतएव इस योगमें जाग्रत् उपलब्धि और अनुभूतिको ही सबसे अधिक मूल्य प्रदान किया जाता है ।

 

     स्थिर चिर-विस्तरणशील चेतनामें रहकर कार्य करना एक साथ ही एक साधना और एक सिद्धि भी है ।

 

 *

 

    जो अनुभव तुम्हें हुआ वह निस्संदेह चेतनाका अंदर प्रवेश करना था जिसे साधारणतया समाधि कहा जाता है । परंतु इसका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भाग है मन और प्राणकी निश्चल-नीरवता जो पूर्णत. शरीरतक भी विस्तारित है । इस नीरवता और शांतिकी क्षमताको प्राप्त करना साधनाकी एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अवस्था है । यह सर्वप्रथम ध्यानमें आती है और चेतनाषगे भीतरकी ओर समाधिमें फेंक दे सकती है, पर पीछे इसे जागृत अवस्थामें भी आना होगा और समस्त जीवन तथा कर्मके स्थायी आधारके रूपमे अपनेको स्थापित करना होगा । यही वह अवस्था है जिसमें आत्मा- का साक्षात्कार और प्रकृाताक आध्यात्मिक रूपांतर साधित होता है ।

 

२४०


     हा, उन्हें (उच्चतर सिद्धिकी सभी स्थितियोंके) पूरी क्रियाशीलताके अंदर प्राप्त किया जा सकता है । समाधि आवश्यक नही है -- उसका व्यवहार किया जा सकता है पर वह स्वयं अपने-आपमें चेतनाका परिवर्तन नही लें आ सकती जो कि हमारा उद्देश्य है, क्योंकि समाधि केवल आंतरिक आत्मनिष्ठ अनुभव ही प्रदान करती है जो बाहरी चेतनामें कोई अंतर पैदा करे ही यह आवश्यक नहीं है। ऐसे बहुतसे साधकों- के उदाहरण मौजूद हैं जिन्होंने समाधिमें बड़ी अच्छी-अच्छी अनुभूतियां पायी है पर उनकी बाहरी सत्ता पहलेकी जैसी ही बनी हुई है । जो कुछ अनुभूत होता है उसे बाहर लें आना और उसे आंतरिक तथा बाह्य सत्ता दोनोंके रूपांतरके लिये ए_क शक्तिमें परिणत करना आवश्यक है । परंतु यह कार्य समाधिमें गये बिना स्वयं जाग्रत् चेतनामें किया जा सकता है । अवश्य हीं एकाग्रताका अभ्यास करना अनिवार्य है ।

 

*

 

    दो अलग-अलग स्थितियां हैं -- एक तो वह है जिसे चेतना. एकाग्रताकी अवस्था- मे लेती है और दूसरी वह है जिसे वह विश्रामकी अवस्थामें लेती है । इनमेंसे दूसरी विश्रामकी स्थिति सामान्य चेतना है (सामान्य साधककी दृष्टिसे, पर शायद सामान्य जनकी सामान्य चेतना नही) और पहली एकाग्रताकी स्थिति वह है जो साधनामें चेतनाकी तपस्याके द्वारा प्राप्त होती है । जो साधक इतनी दूर जा चुका है उसके लिये अक्षरकी स्थितिमें प्रवेश करना और वहांसे अनुभवोंको देखना आसान है । वह एकाग्र हो सकता और अपनी सत्ताके प्रमुख पक्षोंमें एकत्व भी बनाये रख सकता हे, यद्यपि इसमे उसे अधिक कठिनाई हों सकती है -- पर शिथिलीकरणकी अवस्थामें वह शिथिल सामान्य चेतनामें आ गिरता है । वास्तवमें साधनाके द्वारा जो कुछ प्राप्त हुआ है वह जब साधारण चेतनाके लिये स्वाभाविक बन जाता है केवल तभी इससे बचा जा सकता है । जितने अंशमें इसे किया जाता है उतने अंशमें सत्यको केवल आंतरिक रूपमें अनुभव करना ही नही बल्कि उसे कार्यमें भी आअभिव्यक्त करना संभव होता है ।

 

*

 

    उच्चतर चेतना संकेंद्रित चेतना है -- भागवत एकत्वमें और भागवत संकल्प- को कार्यान्वित करनेमे संकेंद्रित है, वह बिखरी हुई नही है और न वह किसी -न-किसी मानसिक विचार या प्राणिक कामना या भौतिक आवश्यकताके पीछे हीं दौड़ती है जैसा कि सामान्य मानवीय चेतना करती है -- फिर वह सैकड़ों ऊलजलूल विचारों, भावनाओं और आवेगोंके द्वारा आक्रांत नही होती, बल्कि उसका अपने ऊपर प्रभुत्व होता है, वह केंद्रित और सुसमंजस होती है ।

 

२४२


III

 

   साधारणतया दो अवस्थाओंमेंसे किसी एकमें ही जप फल प्रदान करता है ( 1) यदि जप अर्थपर ध्यान रखकर किया जाता है, साधकके मनमें कोई ऐसी चीज होती है जो उस देवताके स्वभाव, शक्ति, सौंदर्य, मोहिनी शक्तिपर एकाग्र होती है जिसे जपका मंत्र व्यक्त करता है और जिसे चेतनाके अन्दर लें आना अभिप्रेत होता है । यह मानसिक पद्धति है, अथवा ( 2) यदि जप हदयसे उठता है या इसे सजीव बनानेवाली एक प्रकारकी भक्तिके भाव या बोध मात्रकों हृदयमें झंकृत करता है । यह हदयकी भावप्रधान पद्धति है । इस तरह जपको या तो मनका या प्राणका सहारा या पोषण मिलना ही चाहिये । पर जपसे मन यदि शुष्क हो जाय और प्राण चंचल हों उठे तो इसका अर्थ है कि उसे यह सहारा और पोषण नही मिल रहा है । अवश्य ही एक तीसरी पद्धति भी है, वह है स्वयं मंत्र या नामकी शक्तिपर निर्भरता । उस अवस्थामें साधकको तबतक जप करते रहना होता है जबतक कि वह शक्ति पर्याप्त रूपमें आंतरिक सत्तापर अपने प्रकपनोको जमा न दे जिसमें कि एक सुनिश्चित क्षणमें वह एकाएक दिव्य उप- स्थिति या दिव्य स्पर्शकी ओर उद्घाटित हों जाय । परंतु इस फलके लिये यदि संघर्ष किया जाय या आग्रह किया जाय तो फिर इस फलके आनेमें बाधा पड़ती है, क्योंकि इसके आनेके लिये यह आवश्यक हव कि मनके भीतर एक प्रकारकी अचंचल ग्रहणशीलता हों । यही कारण है कि मैत्री बार-बार मनकी अचंचलतापर इतना अधिक जोर दिया था, इस बातपर जोर नही दिया था कि इसके लिये अत्यधिक श्रम या प्रयास  जाय । मेरा उद्देश्य यह था कि चैत्य पुरुष और मनको समय दिया जाय कि वे ग्रहण- शीलताकी आवश्यक स्थितिको विकसित करें -- यह ग्रहणशीलता उतनी ही स्वा- भाविक होनी चाहिये जितनी कि वह उस समय होती है जब मनुष्य कविता या संगीत- की अंतःप्रेरणाको ग्रहण करता है । फिर यही कारण एक मैं नहीं चाहता कि तुम कविता लिखना बंद कर दो -- यह सहायता करता है और तैयारीके कार्यमें बाधा नहीं पहुँचाता, क्योंकि यह ग्रहणशीलताकी और अवस्थामें विद्यमान भक्तिको बाहर निकालनेकी समुचित अवस्थाको विकसित करनेका साधन है । अपनी सारी शक्तिको जप या ध्यानमें खर्च कर देना एक प्रकारका कठिन श्रम है जिसे जारी रखना सफल ध्यान करनेके अभ्यस्त व्यक्तिके लिये भी कठिन होता है -- जिसे केवल उन समयों- मे ही जारी रखना संभव होता हैं जब कि उत्परसे अनुभूतियोंकी अबाध धारा प्रवाहित होती रहती है ।

 

*

 

    ॐ मंत्र है, यह ब्रह्म-चैतन्यके तुरीयसे लेकर बाह्य या भौतिक स्तरतकके चारों लोकोंको अभिव्यक्त करनेवाला शब्द-प्रतीक है । मंत्रका कार्य है आंतर चेतनामें ऐसे प्रकपनोको पैदा करना जो उसे (चेतनाको) उस वस्तुकी सिद्धिके लिये तैयार करते

 

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हैं जिसका प्रतीक वह मंत्र होता है और जिसके विषयमें यह वास्तवमें माना जाता है कि स्वयं वह मंत्र उसे अपने अन्दर वहन करता है । अतएव मंत्र थे को चेतनाका इस प्रकार उद्घाटन करा देना चाहिये कि वह सभी स्थूल-भौतिक वस्तुओंमें, आंतरिक सत्ता और अतिभौतिक जगतोंमें, हमारे लिये अभी अतिचेतन ऊपरके कारण-लोकमेंऔर अंतमें समस्त विश्व-सत्तासे ऊपर स्थित चरम मुक्त परात्परतामें एकमेव चैतन्यको देख और अनुभव कर सके । जो लोग इस मंत्रका उपयोग करते हैं उनका मुख्य लक्ष्य साधारणतया अंतिम अनुभूति ही होती है ।

 

      इस योगमें कोई निश्चित मंत्र नही है, मंत्रोंपर कोई विशेष जोर नहीं दिया जाता, यद्यपि साधकको यदि कोई मंत्र सहायक प्रतीत हों या जबतक सहायक मालूम हो तबतक वह उसका उपयोग कर सकता है । यहांपर बल्कि जोर दिया जाता है चेतनामें अभीप्सा रखनेपर और मन, हृदय, संकल्पशक्ति, समस्त सत्ताकी एकाग्रतापर । यदि कोई मंत्र इस कार्यके लिये उपयोगी प्रतीत होता है तो साधक उसका उपयोग करता है । ॐ मंत्रका यदि ठीक-ठीक (यंत्रवत् नही) उपयोग किया जाय तो यह अवश्य ही ऊपर- की ओर और बाहर (विश्व-चेतना) की ओर उद्घाटित होने तथा साथ ही ऊपरकी चेतनाके अवतरित होनेमें सहायता कर सकता है ।

 

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    साधारणतया इस साधनामें व्यवहृत होनेवाला एकमात्र मंत्र है श्रीमांका मंत्र या मेरे और माताजीके नामका मंत्र । हृदयमें और मस्तकमें दोनों जगह एकाग्रता की जा सकती है दोनोंका अपना अलग-अलग फल हैं । पहली चैत्य पुरुषको उद्घाटित करती है और भक्ति, प्रेम तथा श्रीमाताजीके साथ एकत्व, हृदयमें उनकी उपस्थिति तथा प्रकृतिके अंदर उनकी शक्तिकी क्रियाको ले आती है । दूसरी आत्मोपलब्धिके लिये, जो कुछ मनसे ऊपर है उसका ज्ञान पानेके लिये, चेतनाके शरीरसे ऊपर उठनेके लिये और उच्चतर चेतनाके शरीरके अंदर उतारनेके लिये मनको उद्घाटित करती

 

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   भगवानके नामका जप सामान्यतया संरक्षण पानेके लिये, पूजा करनेके लिये, भक्ति बढ़ानेके लिये, आंतरिक चेतनाको उद्घाटित करनेके लिये, भगवानके उसी स्वरूपका साक्षात्कार करनेके लिये किया जाता है । इस कार्यके लिये अवचेतनके अंदर कार्य करना जितना आवश्यक है उसके लिये नाम अवश्य ही फलदायी हों सकता

 

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नाम जपमें एक महान् शक्ति है ।

 

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    चाहे जिस किसी नामको क्यों न पुकारा जाय, जो शक्ति प्रत्युत्तर देती है वह स्वयं श्रमों हैं । प्रत्येक नाम भगवानके एक विशेष पक्षको सूचित करता है और उस भाव-पक्षसे सीमित होता है; परंतु श्रीमाताजीकी शक्ति सर्वव्यापक है ।

 

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    मैंने उबसाते साथ नाम-जप करनेके लिये प्रोत्साहित नही किया, क्योंकि वह मुझे प्राणायाम जैसा लगा । प्राणायाम बहुत शक्तिशाली चीज है, पर वह यदि अव्यवस्थित रूपमें किया जाय तो उससे बाधाएं खड़ी हों सकती है और यहांतक कि अत्यधिक लोंगोंके शरीरमें रोग भी हो सकते है ।

 

*

 

   गायत्रीकी शक्ति है भागवत सत्यकी ज्योति । यह ज्ञानका मंत्र है ।

 

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   गायत्री मंत्र सत्ताके सभी लोकोंमें सत्यकी ज्योतिको ले आनेका मंत्र है ।

 

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   गायत्री-जपको या जिस पद्धतिका अभी तुम अनुसरण कर रहे हो उसको छोड़ने- की आवश्यकता नही । हृदयमें एकाग्र होना एक पद्धति है, सिरमें (या ऊपर) एकाग्र होना दूसरी पद्धति है, दोनोंको इस योगमें शामिल किया गया है और जिस व्यक्तिको जो पद्धति सबसे अधिक आसान या स्वाभाविक प्रतीत हों उसे उसीका अभ्यास करना चाहिये । हृदयमें एकाग्र होनेका उद्देश्य है वहांके केंद्र (हत्पद्य) को उद्घाटित करना, हृदयमें भगवती माताकी उपस्थितिको अनुभव करना और अपने अंतरात्मा या चैत्य पुरुषके विषयमें जो कि भगवानका अंश है, सचेतन होना । मस्तकमें एकाग्र होनेका उद्देश्य है भागवत चेतनामें ऊपर उठ जाना और सभी चक्रोंमें श्रीमाताजीकी ज्योति या उनकी शक्ति या आनन्दको उतार लाना । यह आरोहण और अवरोहणकी क्रिया तुम्हारे जपकी प्रक्रियामें अंतर्निहित है और इसलिये उसे छोड़नेकी आवश्यकता नही ।

 

    मस्तकमें सत्यलोकके अनुरूप एक स्तर है पर एक विशेष अवस्थामें चेतनाको

 

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ऊपर वैश्व चेतनाके उसी स्तरमें जानेके लिये मुक्तभावसे मस्तकसे ऊपर उठना होता

 

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    ऐसा माना जाता हैं कि इस (प्रणव जप) मे एक अपनी शक्ति है यद्यपि वह शक्ति उसके अर्थपर ध्यान किये बिना पूरी तरह कार्य नही कर सकती । परंतु मेरा अनुभव यह  कि इन बातोंका कोई अकाटच नियम नही है और सबसे अधिक निर्भर करता हे चेतनाके ऊपर या साधककी प्रत्युत्तर देनेकी शक्तिके ऊपर । कुछ लोगोंके प्रसंगमें इसका कोई फल नही होता, कुछ लोगोंके प्रसंगमें ध्यान किये बिना भी इसका बहुत शीघ्र और शक्तिशाली फल होता है -- दूसरोंके लिये कोई फल पानेके लिये ध्यान आवश्यक होता है ।

 

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    गीताके श्लोकोंका उपयोग जपकी तरह किया जा सकता है, यदि उस सत्यको उपलब्ध करना लब्ध है जिसे वे श्लोक धारण करते हैं । यदि ' ' के पिताने उस उद्देश्य- सिद्धिके लिये गीता-शिक्षाके सारको वहन करनेवाले मुख्य-मुख्य श्लोकोंको एकत्रित किया है तो यह बहुत ठीक है । सारी बात निर्भर करती है श्लोकोंके चुनाव- पर । सच पूछो तो गीताके कुछ श्लोकोंको एक साथ रख देनेसे गीताकी शिक्षाका सुसबद्ध संक्षिप्त रूप आसानीसे नही तैयार किया जा सकता, परंतु इस प्रकारके उद्देश्य- के लिये वैसा करना आवश्यक नही है, इसका उद्देश्य तो बस मूल सत्योंको एक साथ रख देना हो सकता है -- किसी बौद्धिक व्याख्याके लिये नन्हों बल्कि अनुभूतिको पकड़नेके लिये जो कि जपका उद्देश्य है । मैंने इस पुस्तकको नही पढा है, इसलिये मैं नही जानता कि कितनी दूरतक यह अपने उद्देश्यको पूरा करती है ।

 

 *

 

    जब कोई नियमित रूपसे किसी मंत्रका जप करता है तो बहुत बार जप अपने- आप भीतरमें होना आरंभ हों जाता है, इसका मतलब है कि आंतरिक सत्ताके द्वारा जप होने लगा है । इस ढंगसे जप अधिक फलदायक बन जाता है ।

 

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     स्वभावत: ही, जिस नामपर मनुष्य एकाग्र होता है वह अपने-आप चलता रहेगा, यदि कोई वैसा करता है । परंतु नीदमें श्रीमांको पुकारना आवश्यक रूपसे कोई जप

 

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नही है -- वास्तवमें आंतर सत्ता कठिनाईके समय या आवश्यक होनेपर बहुधा श्रीमां- को पुकारती है ।

 

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    बहुतसे लोगोंको मंत्र ध्यानमें प्राप्त होते हैं । वेदमें ऋषियोंका कहना है कि अंतर्दर्शन और अतर्ज्ञानके द्वारा उन्होंने सत्यको सुना -- ' 'कवय: सत्यभूत. '' -- वेद इसीलिये श्रुति कहलाते हैं कि वे अंतःकरणमें सुनकर प्राप्त किये गये थे ।

 

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विभाग सात

 

प्रेम और भक्तिके द्वारा साधना

 

प्रेम और भक्तिके द्वारा  साधना

 

    भागवत प्रेम, सौंदर्य तथा आनन्दको संसारके अंदर ले आना, निस्संदेह, हमारे योगका सर्वोच्च शिखर और सार-तत्व हैं । परंतु यह मुझे सर्वदा तबतक असंभव प्रतीत होता है जबतक कि इसके आधार, आश्रय तथा रक्षकके तौरपर भागवत सत्य -- जिसे कि मैं अतिमानसिक सत्य कहता हुए -- तथा उसकी भागवत शक्ति न अव- तरित हों । अन्य स्थितिमें स्वयं प्रेम भी इस वर्तमान चेतनाकी गडबडियोंसे अंधा होकर अपने मानवीय पात्रोमें ठोकर खा सकता है और, अगर ऐसा  हों तो, मनुष्य- की निम्रतर प्रकृतिकी स्सलनशीलताके कारण वह अस्वीकृत, परित्यक्त या शीघ्र हीं भ्रष्ट और विनष्ट हो सकता है । परंतु जब भागवत प्रेम भागवत सत्य और शक्तिकी उपस्थितिमें आता है तब वह पहले किसी परात्पर और विश्वव्यापी तत्त्वके रूपमें अवतरित होता है और उस परात्परता तथा विश्वव्यापकतामेंसे भागवत सत्य एवं संकल्पके अनुसार व्यक्तियोंपर क्रिया करता है । फलस्वरूप वह उस व्यक्तिगत प्रेम- की अपेक्षा कही अधिक विशाल, महान्, विशुद्ध व्यक्तिगत प्रेमको उत्पन्न करता है जिसकी कल्पना कोई मानवीय मन या हृदय इस समय कर सकता है । वास्तवमें जब कोई इस अवतरणका अनुभव कर लेता है तभी वह संसारमें भागवत प्रेमके जन्म और कर्म- का यंत्र बन सकता है ।

 

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     मैं ठीक-ठीक यह नही समझता कि तुमने जो भागवत प्रेमके नीचे अवचेतनातकमें स्थापित हो जानेकी बात कही है उससे तुम्हारा मतलब क्या है । कौनसा प्रेम? भग- वान्के लिये अंतरात्माकी प्रेम? अथवा भागवत प्रेम और आनन्दका तत्त्व जो वह उच्चतम वस्तु है जिसे प्राप्त किया जा सकता है? पिछले भागवत प्रेम और आनन्द- को नीचे अवचेतनातकमे स्थापित करनेका मतलब हैं समग्र सत्ताका संपूर्ण रूपांतर और इसे अतिमानसिक रूपांतरके परिणामके रूपमे ही किया जा सकता है, अन्यथा नही, और वह रूपांतर अभी बहुत दूर है । दूसरा, भगवानके लिये अंतरात्माका प्रेम तत्वत इस समय भी स्थापित किया जा सकता है, परंतु इसे समूची सत्तामें जीवत और पूर्ण बनानेका अर्थ होगा चैत्य रूपांतरका ससिद्ध हों जाना और आध्यात्मिक रूपांतरका भी भली भांति प्रारंभ हों जाना ।

 

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श्रीमाताजीने तुम्हें यह नही कहा था कि प्रेम कोई भाव नही है, वरन् यह कहा था कि भागवत प्रेम कोई भाव नहीं है - और यह बहुत भिन्न बात है । मानवीय प्रेम भाव, तीव्रावेग तथा कामनासे बना होता है - ये सभी प्राणिक क्रियाएं हैं, और इस कारण मानवीय प्रेम मानवीय प्राणगत प्रकृतिकी दुर्बलताओंसे बद्ध होता है । भाव, अपने सभी दोषों और संकटोंके होते हुए भी, मानवीय प्रकृतिमे एक अत्युत्तम और अनिवार्य वस्तु है,--वैसे ही जैसे मानसिक विचार मानवीय स्थितिमें अपने निजी क्षेत्रमें अत्युत्तम और अनिवार्य वस्तुएं हैं । परंतु हमारा लक्ष्य है मानसिक विचारोंको पार कर जाना तथा उस अतिमानसिक सत्यके प्रकाशमें पहुँच जाना जो चितनात्मक विचारके सहारे नही, प्रत्युत प्रत्यक्ष दृष्टि और तादात्म्यके सहारे स्थित होता है । इसी प्रकार हमारा लज्जा है भावसे परे जाकर भागवत प्रेमकी उच्चता, गम्भीरता एवं तीवतामें पहुँच जाना और वहां आंतरिक चैत्य हदयके द्वारा भगवानके साथ वह असीम एकत्व अनुभव करना जहांतक प्राणमय भावोंकी जोशीली छलाँगें नही पहुँच सकतीं अथवा जिसे वे अनुभव नही कर सकतीं ।

 

    जैसे अतिमानसिक सत्य हमारे मानसिक विचारोंका कोई उदात्तीकरणमात्र नही है, वैसे हीं भागवत प्रेम मानवीय भावोंका कोई उदात्तीकरणमात्र नही है; वह एक भिन्न गुण, क्रिया और सारतत्त्वसे युक्त एक भिन्न प्रकारकी चेतना है ।

 

*

 

      यह ( भागवत प्रेम) स्वयं-सत् है और बाह्य संपर्क या बाह्य अभिव्यक्तिपर निर्भर नही करता । आया वह अपने-आपको बाहरमें अभिव्यक्त करेगा या नही अथवा वह किस प्रकार अपने-आपको बाहरमें प्रकट करेगा यह उस आध्यात्मिक सत्यपर निर्भर करता है जिसको हमें अभिव्यक्तकरना है।

 

*

 

     भागवत प्रेम संभवत. भौतिक स्तरपर, मानवजाति जैसी है उसके कारण, अभी उतनी पूर्णता और स्वच्छन्दताके साथ अभिव्यक्त नहीं हो सकता जितनी पूर्णता और स्वच्छन्दताके साथ वह अन्य स्थितिमें अभिव्यक्त होगा । परंतु इस कारण भागवत प्रेम मानवीय प्रेमसे कम घनिष्ठ या तीव्र नहीं हो जाता । वह विद्यमान है और प्रतीक्षा कर रहा है कि उसे समझा जाय और स्वीकार किया जाय तथा इस बीच वह समस्त साहाथ्य दे रहा है जिसे तुम उस चेतनामें अपनेको ऊपर उठाने और विस्तारित करनेके लिये ग्रहण कर सको जिससे इन कठिनाइयों और इन गलतफहमियोंका बार-बार घटित होना अब और संभव नहीं होगा - वह अवस्था प्राप्त हों जायगी जिसमें समग्र और पूर्ण एकत्व प्राप्त करना संभव होता है ।

 

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    और मैं यह भी कह दूँ कि, मानव-प्रेम और दिव्य प्रेमका जहांतक प्रश्न है, मैंने पहलेको उस वस्तुके रूपमें स्वीकार किया था जहांसे हमें प्रस्थान करना है और दूसरे- पर पहुँचना है, मानव-प्रेमको निर्मूल नहीं करना है, बल्कि उसे अधिक तीव्र करना और रूपांतरित करना है । फिर मेरी दृष्टिमें, भागवत प्रेम कोई वायवीय, शीतल और दूरस्थ वस्तु नहीं है, बल्कि एक ऐसा प्रेम हैं जो संपूर्णत: तीव्र, घनिष्ठ और एकत्व. सामीप्य तथा आनन्दोल्लाससे परिपूर्ण है एव अपनी अभिव्यक्तिके लिये समस्त प्रकृति- का उपयोग करता है । निश्चय हीं, यह वर्तमान प्राणगत प्रकृतिकी अस्तव्यस्तताओ तथा अव्यवस्थाओंसे रहित है जिसे वह किसी संपूर्णत उष्ण, गभीर और तीव्र वस्तुमें बदल देगा; परंतु यह माननेका कोई कारण नहीं कि वह किसी भी ऐसी वस्तुको खो देगा जो प्रेम-तत्वके अंदर सत्य और सुखकर है ।

 

*

 

     प्रेम उदासीन नहीं हो सकता-क्योंकि उदासीन प्रेम जैसा कोई भाव अस्तित्व ही नही रखता, किंतु उस उद्धरणमें श्रीमाताजीने जिस प्रेमका उल्लेख किया है वह एक बड़ी ही पवित्र, निश्चित एवं स्थिर वस्तु है । वह न तो अग्निकी तरह भभक उठता है और न ईंधन समाप्त होनेपर बूझ ही जाता है, बल्कि सूर्यके प्रकाशके समान स्थिर, सर्वग्राही तथा स्वयं-सत् होता है । एक ऐसा दिव्य प्रेम भी होता है जो वैयक्तिक है, परंतु यह साधारण मानवीय व्यक्तिगत प्रेमके समान नही होता जो दूसरे व्यक्तिके प्रतिदानपर निर्भर करता हों । यह वैयक्तिक तो होता है पर अहंपूर्ण नहीं होता । यह एक- की वास्तविक सत्तासे दूसरेकी वास्तविक सत्तामें संचरण करता है । परंतु इसे उप- लब्ध करनेके लिये सामान्य मानवी दृष्टिकोणसे छुटकारा पाना आवश्यक होता है ।

 

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    अब पहले साधनामें मानवी प्रेमको लें । अंतरात्माको भगबानकी ओर मोड़ने- वाला प्रेम अनिवार्यत: दिव्य होना चाहिये; पर अभिव्यक्तिका करण प्रारभमें चूँकि मानव प्रकृति होती है, इसलिये यह मानवी प्रेम तथा भक्तिका रूप ग्रहण कर लेता है । परंतु जैसे-जैसे चेतना गहन बनती, महत्तर होती और परिवर्त्तित होती है, उसमें वह महत्तर शाश्वत प्रेम विकसित होता और स्पष्ट रूपसे मानवी प्रेमको दिव्य प्रेम बना देता है । पर स्वयं मानवी प्रेममें कई प्रकारकी प्रेरक शक्तियां हैं । एक चैत्य मानवी प्रेम होता है जो व्यक्तिके अन्दर गहराईसे उद्भूत होता है और आंतरसंत्ताके उसके साथ, जो इसे दिव्य हर्ष और मिलनेके लिये पुकारता है, संपर्कमें आनेका परिणाम होता है । यह, एक बार आत्म-सचेतन हो जानेपर, चिरस्थायी, स्वयं सत, बाह्य तुष्टियोपर अनाश्रित, बाह्य कारणोंसे कम न होनेवाला, निःस्वार्थ, मांग या सौदा न करनेवाला बल्कि सरल तथा स्वाभाविक रूपसे आत्मदान करनेवाला, गलतफहमियों, खित्रतओं,

 

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कलह तथा क्रोघमें न प्रवृत्त होनेवाला धार न उनसे खंडित होनेवाला बल्कि सदा सीधे आंतरिक मिलनकी ओर बढ़नेवाला होता है । यही चैत्य प्रेम दिव्य प्रेमके निकटतम है और अतएव प्रेम ओर भक्तिका यही उचित और सर्वोत्तम रूप है । परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि सत्ताके अन्य अंग, प्राणिक तथा भौतिक भी, अभिव्यक्तिके साधनके रूपमें नहीं बर्त्ते जायंगे अथवा वे प्रेमके पूरे विकासमें तथा इसके पूर्ण अर्थमें, यहांतक कि दिव्य प्रेममें भी भाग नहीं लेंगे । इसके विपरीत, वे दिव्य प्रेमके साधन हैं तथा इसकी पूर्ण अभिव्यक्तिमें बहुत बड़े अंग हो सकते हैं । इसमें संदेह नही कि उनकी क्रिया उचित 'होनी चाहिये, न कि गलत । स्वयं प्राणमें भी दो प्रकारके प्रेम होते हैं । एक तो आनंद, विश्वास और त्यागसे पूर्ण, उदार, स्वार्थहीन, वदान्य तथा आत्मार्पणमें बहुत ही पूर्ण होता है । यह चैत्य प्रेमसे बहुत मिलता-जुलता है और उसका पूरक बनने तथा दिव्य प्रेमको अभिव्यक्त करनेका साधन बननेके लिये बहुत उपयुक्त होता है । चैत्य प्रेम अथवा दिव्य प्रेम कोई भी, अपनी अभिव्यक्तिमें, भौतिक साधनोंकी, जहां-कही वे पवित्र, शुद्ध एवं संभव होते हैं, उपेक्षा नहीं करता । अवश्य हीं वह ऐसे साधनोंपर निर्भर नही करता और उनके न मिलनेपर क्षीण नही होता, विद्रोह नहीं करता अथवा बत्ती काट देनेपर बूझ जानेवाली मोमबत्तीकी तरह मर नहीं जाता । हां, बह उनका उपयोग जब भी कर सकता है, आनन्द और आभारपूर्वक करता है । भौतिक साधनों- का उपयोग दिव्य प्रेमकी प्राप्ति एवं आराधनाके लिये किया जा सकता है और किया जाता भी है । उन्हें केवल मानवीय दुर्बलताको थोडी छूट देनेके लिये ही स्वीकार नहीं किया गया है और न यही सत्य है कि चैत्य पद्धतिमें इन साधनोंका कोई स्थान नही है । इसके विपरीत, ये भगवान्तक पहुंचने, प्रकाशकों पाने तथा चैत्य संबंधोंको मूर्त्ति- मान करनेके माध्यम हैं । जबतक इनका उपयोग समुचित भावके साथ और एक सत्य हेतुक लिये होता हो इनका अपना स्थान है । ये साधन केवल तभी अनुपयुक्त सिद्ध होते तथा विपरीत प्रभाव डालते हैं जब या तो इनका दुरुपयोग किया जाता है या इन्हें समुचित ढंगसे नहीं ग्रहण किया जाता क्योंकि ये उदासीनता और जड़तासे अथवा विद्रोह या शत्रुतासे अथवा किसी स्थूल वासनासे कलुषित होते हैं ।

 

      किंतु प्राणमय प्रेमका एक दूसरा भी प्रकार है जो मानव-प्रकृतिका अधिक सामान्य तरीका है । यह अस्मिता और कामनाका तरीका हैं । यह प्राणमय लालसाओं, इच्छाओं और मांगोंसे पूर्ण होता है । इसकी प्रगति इसकी मांगोंकी पूर्त्तिपर निर्भर करती है । यदि यह अपनी अभिलषित वस्तुको नहीं प्राप्त करता अथवा कल्पना भी कर लेता है कि इसके साथ उपयुक्त सलूक नही किया जा रहा है - क्योंकि यह सब प्रकारकी कल्पनाओं, मिथ्या धारणाओं, ईर्ष्या-द्वेषों और गलतफहमियोंसे भरा होता है - तो यह तत्काल दुःखी, मर्माहत एवं क्रुद्ध हो उठता है, सब प्रकारकी दुरव- स्थाओंसे त्रस्त अनुभव करता है तथा अंतमें अवरुद्ध होकर समाप्त हो जाता है । ऐसा प्रेम अपनी प्रकृतिमें अत्यंत अस्थायी एवं अविश्वसनीय होता है तथा दिव्य प्रेमका आधार नही बनाया जा सकता ।... इसीलिये हम इस निम्र-प्राणस्तरीय मानवीय प्रेमको अनुत्साहित करते हैं और चाहते हैं कि लोग यथासंभव शीघ्रसे शीघ्र अपनी

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प्रकृतिसे इसे बहिष्कृत कर दे । प्रेममें तो हर्ष, मिलन, विश्वास, आत्मदान और आनंद- का प्रस्कुटन होना चाहिये --परंतु यह निम्रस्तरीय प्राणमय प्रेम केवल कष्ट, विपत्ति, निराशा, भ्रमभंग राव वियोगक हीं कारण होता हे । इस प्रेमका रंचमात्र अंश भी शांतिके आधारोंको हिला देता है और आनन्दकी ओर ले जानेके बदले मनुष्यको शोक असंतोष और निरानन्दमें गिरा देता है ।

 

*

 

 जो प्रेम भगवान्की ओर लगाया जाता हैं वह साधारण प्राणगत भाव नही होना चाहिये जिसे मनुष्य प्रेम कहते हैं, क्योंकि वह प्रेम नही हो बल्कि केवल प्राणगत कामना है, स्वायत्त करनेकी सहजवृत्ति है, अधिगत करने और एकाधिकार जमानेका आवेग है । यहीं नही कि वह दिव्य प्रेम नहीं है, अपितु उसे योगमें थोड़ीसी मात्रामें भी नही मिलने देना चाहिये । भगवानके प्रति सच्चा प्रेम है आत्मदान -- मांगसे मुक्त, नमन और समर्पणसे पूर्णत: युक्त; वह प्रेम कोई दावा नही करता, कोई शर्त्त नही लादता, कोई मोल-तोल नही करता, ईर्ष्या या अभिमान या क्रोधकी जबर्दस्तियोंमें रत नही होता - क्योंकि ये चीज़ें उसकी बनावटमें ही नही हैं । उसके बदलेमें भगवती माता भी अपने-आपको दे देती हैं, किंतु स्वतंत्र रूपसे -- और वह चीज आंतरिक दानके रूपमें अपने-आपको प्रकट करती है - तुम्हारे मन, तुम्हारे प्राण, तुम्हारी भौतिक चेतना- मैं उनकी उपस्थिति होती है, उनकी शक्ति तुम्हें दिव्य प्रकृतिमें नवजन्म देती, तुम्हारी सत्ताकी सभी गतियोंको ऊपर उठाती और उन्हें पूर्णता एवं कृतार्थताकी ओर लें जाती इ, उनका प्रेम तुम्हें परिव्याप्त कर लेता और तुम्हें अपनी गोदामें लेकर भगवान्की ओर ले जाता है । यही प्रेम है जिसे अपने सब भागोंमें, एकदम अन्नमय भागतकमे, अनुभव करने और प्राप्त करनेकी अभीप्सा तुम्हें अवश्य करनी चाहिये, और इस प्रेम- की कुछ भी सीमा नही है, न समयमें और न परिपूर्णतामें । अगर कोई सच्चे तीरपर इसकी अभीप्सा करता और इसे पा लेता है तो किसी और दावेकी या किसी हताश कामनाकी कोई गुंजाइश नही रहनी चाहिये । और यदि कोई सच्चे भावसे अभीप्सा करता है तो वह इसे निश्चित रूपसे प्राप्त करता हैं, ज्यों-ज्यों प्रकृति शुद्ध होती जाती है और अपना अपेक्षित परिवर्तन करती जाती है त्योंत्यो वह इसे अधिकाधिक प्राप्त करता जाता है ।

 

      अपने प्रेमको समस्त स्वार्थपूर्ण दावों और कामनाओंसे म्उक्त रखो, तुम देखोगे कि उसके उत्तरमें तुम्हें वह सब प्रेम प्राप्त होने लगा है जिसे तुम सहन और हजम कर सकते हो ।

 

     फिर यह भी समझ लो कि आध्यात्मिक उपलब्धि सबसे पहले होनी चाहिये, जो काम करना है वह पहले होना चाहिये, न कि दावों और इच्छाओंकी मूर्त्ति । जब भागवत चेतना अपने अतिमानसिक प्रकाश और शक्तिके साथ उतर आयेगी और भौतिक सत्ताको रूपांतरित कर देगी केवल तभी अन्य वस्तुओंको प्रमुख स्थान दिया

 

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जा सकता है - और तब भी कामनाकी तृप्ति नही करनी होगी, बल्कि भागवत सत्यको चरितार्थ करना होगा -- प्रत्येकके अंदर तथा 'सर्व' के अंदर और उस जीवन- के अंदर जिसे इस सत्यको अभिव्यक्त करना है । दिव्य जीवनमें सब कुछ भगवानके लिये होता है, न कि अहंके लिये ।

 

    भ्रांतियां दूर करनेके लिये मुझे शायद दो-एक बातें और कह देनी चाहियें । प्रथम, भगवानके प्रति जिस प्रेमकी मैं चर्चा कर रहा हूँ वह केवल आंतरात्मिक प्रेम ही नहीं है; वह प्रेम है व्यक्तिकी सारी सत्ताका, जिसमें प्राण और प्राणमय भौतिक सत्ता १ भी आ जाती है,-ये सभी आत्मोत्सर्गके लिये एक समान समर्थ होती हैं । दूसरे, यह मान लेना भूल होगा कि अगर प्राण प्रेम करे तो अवश्य ही वह ऐसा प्रेम होगा जो अपनी कामनाकी तृप्तिकी मांग करेगा और उसे शर्त्तके रूपमें लादेगा; यह सोचना गलत होगा कि वह या तो अवश्य ऐसा ही होगा या प्राणके लिये आवश्यक है कि वह अपनी ' 'आसक्ति' ' से बचनेकी खातिर अपने प्रेमके पात्रसे सर्वथा दूर हट जाय । प्राण अपने निस्संकोच आत्मदानमें उतप्त ही पूर्ण हों सकता है जितना प्रकृतिका अन्य कोई भी भाग; जब यह अपने प्रियतमके लिये अपने-आपको भुला देता है तब कोई भी भाग इसकी अपेक्षा अधिक उदार नही हो सकता । प्राण और शरीर दोनोंको सच्चे तरीके- से - सच्चे प्रेमके तरीकेसे, अहंकी इच्छाके तरीकेंसे नही -- अपने-आपको उत्सर्ग कर देना चाहिये।

 

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     साधारणतया जब लोग प्राणिक घनिष्ठताकी चर्चा करते हैं तो उनका मतलब किसी अत्यंत बाहरी वस्तुसे होता है जिसे नीचे उतार लानेकी आवश्यकता नही होती क्योंकि यह तो मानव-जीवनकी एक सामान्य वस्तु है । यदि वह भगवानके साथ आंतरिक प्राणिक घनिष्ठता हों तो निःसंदेह वह एकत्वको अधिक पूर्ण बनाती है, बशर्त्ते कि वह चैत्य चेतनापर आधारित हो ।

 

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 यदि भगवानके लिये मनुष्यके प्रेममें प्राण भी सहयोग दे तो वह उस प्रेममें साहस, उत्साह, तीव्रता, पूर्णता, ऐकांतिकता, आत्मत्यागका भाव, समस्त प्रकृतिका संपूर्ण और आबेग्पूर्ण आत्मदान लें आता है । सच पूछा जाय तो भगवानके प्रति प्राणिक आवेग ही आध्यात्मिक वीरों, विजेताओं या हुतात्माओंको  उत्पन्न करतो है ।

 

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    मेरे विचारमें '' प्रेम '' शब्द '' सद्भाव' ' से कुछ अधिक तीव्र वस्तुको अभि

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व्यक्त करता है, सद्भावमें तो महज सामान्य पसंदगी या चाह सम्मिलित हों सकते हैं । पर चाहे प्रेम हों या सद्भाव, मानवीय भाव सदा ही या तो अहंकारपर आधारित होता है या उससे अत्यधिक मिला-जुला होता है, इसीलिये यह पवित्र नही होता । उपनिषदमें कहा है, ' 'व्यक्ति पलीको उसके पली होनेके कारण प्यार नही करता । '' - ( और इसी प्रकार बच्चों, मित्र आदिको भी) - ' 'बल्कि अपने स्वार्थके लिये वह पलीको प्यार करता है । '' साधारणतया बदलेकी, किसी प्रकारके लाभ अथवा आदानकी अथवा विशिष्ट मनोमय, प्राणमय या अन्नमय सुख एवं तृप्तिकी आशा व्यक्ति- को अपने प्रियसे होती ही है । इन आशाओंको हटा दो और प्रेम बहुत शीघ्र दब जायगा, क्षीण हो जायगा या लुप्त हो जायगा अथवा क्रोध, उपालंभ, उपेक्षा या पृणातकमे परि- वर्त्तित हों जायगा । पर इस प्रेममें एक अभ्यासका तत्त्व भी होता है, ऐसा तत्त्व जो प्रिय ब्यक्तिकी उपस्थितिको एक प्रकारसे अनिवार्य बना देता है, क्योंकि वह सदासे साथ रहा है -- और यह भाव कभी-कभी इतना दृढ होता है कि आपसमें स्वभावके पूर्ण वैषम्य, घोर विरोध तथा मृणातकके होनेपर भी बना रहता है और विरोधकी ये खाइयां भी दोनों व्यक्तियोंको पृथक् नहीं होने देती । कुछ लोगोंमें यह भावना कुछ हल्की होतीं है और कुछ समय बाद व्यक्ति अलग रहनेका अभ्यासी हो जाता है अथवा किसी दूसरेको स्वीकार कर लेता है । इसके अतिरिक्त, बहुधा एक प्रकारका स्वाभाविक आकर्षण या अनुरक्ति -- मानसिक, प्राणिक या भौतिक - भी होती है जो प्रेमको अधिकतर दृढ़ता प्रदान करती हे । अंतमें, उच्चतम अथवा गहनतम प्रेममें चैत्य तत्त्व होता हे जो अंतरतम हृदय एवं अंतरात्मासे उद्भूत होता है । यह एक प्रकारका आत- रिक मिलन अथवा आत्मार्पण होता है अथवा कम-से-कम इसे खोजता है, यह एक संबद या उत्प्रेरणा होता है जो अन्य अवस्थाओं अथवा तत्त्वोंसे स्वतंत्र होता है, जो स्वयं-सत् होता है और किसी मानसिक, प्राणिक अथवा शारीरिक सुख, संतुष्टि, स्वार्थ या अभ्यास- के लिये नहीं होता । किंतु मानवीय प्रेममें विद्यमान यह चैत्य तत्त्व, यदि कहीं होता भी है तो, सामान्यतया दूसरे तत्त्वोंके साथ इतना मिश्रित, उनसे इतना दबा हुआ और उनमें इतना छिपा हुआ होता है कि अपनेको फलीभूत करने अथवा अपनी स्वाभाविक पवित्रता और पूर्णता प्राप्त करनेका अवसर उसे नहीं मिलता । अतएव जिसे हम प्रेम कहते हैं वह कभी एक चीज होता है तो कभी दूसरी और बहुधा एक अव्यवस्थित मिश्रण होता है और इसीलिये तुम्हारे इस प्रश्ननका कि अमुक-अमुक अवस्थामें प्रेमका क्या अर्थ होगा, उत्तर देना लगभग असंभव हो जाता है । यह परिस्थितियों एवं व्यक्तियोंपर निर्भर करता है ।

 

     जब प्रेम भगवान्की ओर प्रवृत्त होता है तब भी इसमें यह सामान्य मानवी तत्त्व वर्तमान रहता है । व्यक्ति बदलेमें कुछ चाहता है और यदि बह वस्तु मिलती प्रतीत नहीं होती तो प्रेम क्षीण होने लगता है; स्वार्थ भी होता है, मानवकी अभिलाषाओंकों पूरा करनेवाले भगवान्की चाह भी होती है और यदि माँगें पूरी नहीं होतीं तो भगवान्- के प्रति मान-अभिमान पैदा होता है, विश्वास जाता रहता है, उत्कण्ठा नष्ट हो जाती है आदि-आदि । परंतु भगवानके प्रति सच्चा प्रेम अपने स्वभावमें ऐसा नहीं होता,

 

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बल्कि चैत्य एवं आध्यात्मिक होता है । चैत्य तत्त्व ब्यक्तिकी अंतरतम सत्ताकी, आत्मा- प्रण, प्रेम, भक्ति, अंतर्मिलनके लिये, सबसे बड़ी आवश्यकता है जो भगवान्द्वारा ही पूर्णत: संतुष्ट हो सकती है । आध्यात्मिक तत्त्व सत्ताकी अपने उच्चतम और पूर्ण आत्म-भाव तथा भगवानसे (जो कि सत्ता और चेतना और आनन्दके स्रोत हैं) संपर्क लाभ करने, उसमें लीन, उससे एकीभूत होनेकी मांग है । ये दोनों एक ही वस्तुके दो पक्ष हैं । मन, प्राण एवं शरीर इस प्रेमके पोषक एवं संग्राहक बन सकते हैं, पर वे पूर्णत: ऐसे तभी बनेंगे जब वे परिवर्त्तित होकर चैत्य एवं आध्यात्मिक तत्त्वोंके साथ एकरस ' हो जायंगे और अहंके निम्रतर आग्रहोंको अब अपने अंदर नही लें आयेंगे ।

 

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    भला तुम किसी असाधारण वस्तुकी चाह क्यों करते हों? अंतरात्माका प्रेम सत्य, सरल और पूर्ण वस्तु है -- बाकी चीज़ें केवल तभी अच्छी होती हैं जब वे अंत- रात्माके प्रेमको प्रकट करनेका माध्यम होतीं हैं ।

 

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      बाह्य सत्ताको भी अहंसे रहित होकर चैत्य पुरुषकी पद्धतिसे प्रेम करना सीखना होगा । यदि यह अहंपूर्ण प्राणिक ढंगसे प्रेम करता है तो यह केवल अपने लिये और साधनाके लिये और श्रीमाताजीके लिये कठिनाइयां ही पैदा करता है ।

 

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     श्रीमाताजीके साथ बालक जैसा संबंध वह है जो संपूर्ण, सरल और एकनिष्ठ विश्वास प्रेम और निर्भरताका संबंध है ।

 

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    जब तुम भगवानके पास आते हो, आंतरिक रूपसे भगवान्की ओर झुक जाओ और अन्य चीजोंसे अपनेको प्रभावित न होने दो ।

 

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    जिस चीजका वह वर्णन करता है वह है निज भावावेगों या उमंगोंकी तृप्तिके लिये अहंकी प्राणमय मांग; यह माया है । यह सच्चा प्रेम नही है, क्योंकि सच्चा प्रेम मिलन और आत्मदानकी स्पृहा करता है और ऐसा ही प्रेम व्यक्तिको भगवानके प्रति

 

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निवेदित करना चाहिये । यह प्राणिक (तथाकथित) प्रेम केवल दुख और निराशा ही लाता है । यह सुख नहीं लाता, यह कभी संतुष्ट नही होता । यदि इसे, जो चीज यह मांगता है वह, दे भी दी जाय तो भी यह उससे कदापि संतुष्ट नहीं होता ।

 

    प्राणमय मांगकी इस मायासे छुटकारा पाना पूर्णत: संभव हे, यदि कोई पाना चाहता हो; किंतु छुटकारा पानेकी इच्छा अवश्यमेव सच्ची होनी चाहिये । अगर उसकी इच्छा सच्ची हो तो वह निःसंदेह सहायता और संरक्षण प्राप्त करेगा । उसे प्राणिक केंद्रके स्थानपर चैत्य केंद्रको अपना आधार बनाना होगा ।

 

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    प्राणमय प्रेमका यह सामान्य स्वभाव है कि यह स्थायी नहीं होता अथवा, यदि यह स्थायी होनेका प्रयत्न करता है तो यह संतोष नहीं देता, क्योंकि यह एक वासना है जिसे प्रकृतिने एक क्षणिक उद्देश्यकी पूर्त्तिके लिये मनुष्यमें प्रक्षिप्त किया है । अतएव एक अस्थायी उद्देश्यके लिये तो यह काफी अच्छा है और इसका सामान्य स्वभाव यह है कि जब यह प्रकृतिके प्रयोजनको यथेष्ट मात्रामें पूरा कर चुकता है तो यह क्षीण होने लगता है । मनुष्यजातिमें, चूँकि मनुष्य अधिक जटिल प्राणी है, प्रकृति अपनी इस प्रवृत्तिको बल देनेके लिये कल्पना और आदर्शवादकी सहायता लेती है, इसे एक प्रकारके उमंगका, सौन्दर्य और सजीवता और गौरवका भाव प्रदान करती है, पर कुछ समय बाद वह सब कुछ मद पंड जाता हे । यह प्रेम टिक नही सकता, क्योंकि इसकी ज्योति और शक्ति संपूर्ण रूपसे उधार ली हुई होती हैं, इस अर्थमें उधार ली हुई होती हैं कि वे परेकी किसी वस्तुकी प्रतिबिंब होती हैं, उस प्रतिबिंबक प्राणमय वस्तुकी अपनी निजी शक्तियां नहीं होती जिसका उपयोग कल्पना अपने प्रयोजनके लिये करती है । सच पूछा जाय तो मन और प्राणमें कुछ भी स्थायी नही होता, वहां सब कुछ एक प्रवाह- मात्र होता है । एकमात्र वस्तु जो स्थायी है वह है अंतरात्मा, आत्मा । अतएव प्रेम केवल तभी स्थायी हो सकता या संतोष दे सकता है यदि वह अंतरात्मा और आत्मापर आधारित हो, यदि उसका मूल वहां हो । पर उसका अर्थ है अब प्राणमें न रह अपने अंतरात्मा और आत्मामें रहना।

 

     प्राणको अपने आग्रहोंको छोड़नेमें कठिनाई इसलिये होती इ कि वह बुद्धि या ज्ञानके द्वारा नही, बल्कि सहजप्रेरणा, आवेग और सुखेच्छासे शासित होता है । यह पीछे इस कारण हटता है कि वह निराश हो जाता है, वह अनुभव करता है कि निराशा सर्वदा पुनरावर्तित होती रहेगी, परंतु वह यह नहीं समझता कि सारी चीज ही अपने- आपमें एक माया है अथवा, यदि समझता है तो, वह शिकायत करता है कि उसे ऐसा ही होना चाहिये । जहां वैराग्य सात्तविक होता है, निराशासे उत्पन्न नहीं होता बल्कि महत्तर और सत्यतर वस्तुओंको प्राप्त करनेकी भावनासे उत्पन्न होता है वहां यह कठि- नाई नही होती । परंतु प्राण अनुभवसे सीख सकता है, इतना सीख सकता है कि वह मायामरीचिकाके सौंदर्यके लिये पश्चात्ताप करनेसे मुँह मोड ले । इसका वैराग्य

 

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भी सात्त्विक और निश्चयात्मक हों सकता है ।

 

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    प्राणगत प्रेमका आकर्षण चाहे जितना भी हो, एक बार जब वह छूट जाता है और मनुष्य एक उच्चतर स्तरपर पहुँच जाता है तब उस प्रेमको एक बहुत वडी चीजके रूपमे, जैसा कि मनुष्य उसे पहले समझता था, नहीं देखना चाहिये । उसे इस प्रकार अतिरंजित मूल्य देनेका अर्थ है उस उच्चतर वस्तुके प्रति होनेवाले आकर्षणसे अपनी चेतनाको पीछे हटा रखना जिसके साथ उस प्रेमका एक क्षण भी मुकाबला नही किया जा सकता । अगर कोई मनुष्य एक निम्न कोटिकी भूतकालकी बातके प्रति इस प्रकार- की अतिरंजित भावना बनाये रखे तो फिर इससे निश्चय ही एक उच्चतर भविष्यके लिये समस्त व्यक्तिका विकास साषित करना अधिक कठिन हो जायगा । निःसंदेह श्रीमाताजीकी यह इच्छा नहीं १ कि कोई भी मनुष्य प्राचीन प्राणगत प्रेमके प्रति अनु- रागपूर्ण आदरकी भावनाके साथ पीछेकी ओर नजर ले जाय । वस्तुओंके किसी भी सच्चे मूल्यांकनके अंदर वास्तवमें बह ' 'इसनी थोडी' ' सी चीज ही थी । यह बिलकुल हीं मुकाबला करनेका प्रश्न नहीं है और न एकके प्राणगत अनुरागको निर्मूल कर दूसरेके प्राणगत अनुरागको अत्यधिक मूल्य देनेका प्रश्न है । यह समस्त बात ही अपने मूल्यमें अवश्य क्षीण होती जानी चाहिये और भूतकालकी धुंधली रचनाओंके अंदर वापस चली जानी चाहिये जिनका अब कोई भी महताब नही है ।

 

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     तुम्हारी कठिनाई यह है कि तुम्हारे प्राणने अभीतक प्रेमके स्वयंभू आनन्दका रहस्य, प्रेमके अपने विशुद्ध सत्यके आनन्दका, निरपेक्ष रूपमें 'उसके आंतरिक सौंदर्यके, तथा अंतरकी चिरंतन आनन्दानुभूतिका रहस्य नहीं पाया है; वह अभीतक इसके अस्तित्वमें विश्वास हीं नहीं कर सका है । लेकिन बह उसकी ओर बढ़ रहा है और यह अविश्वासकी स्थिति शायद इस गतिकी एक अवस्था थी-भगवानके साथ एकात्म होनेकी जो पवित्रतम भावानुभूति है उसकी जानेके पथपर एक शुचितर प्राणिक भावानु- भ्तिकी खोज करनेकी अवस्था थी ।

 

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      मानवीय प्रेमके विपरीत, भागवत प्रेम गभीर, विशाल और प्रशांत होता है । इसके विषयमें सज्ञान होने तथा इसका प्रत्युत्तर देनेके लिये मनुष्यको अचंचल और विशाल होना चाहिये । उसे समर्पित हों जानेको ही अपना संपूर्ण लक्ष्य बना लेना चाहिये जिसमें वह एक पात्र और यंत्र बन सके - स्वयं उसमें जिस वस्तुको भरनेकी

 

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आवश्यकता है उस भागवत प्रज्ञा और प्रेमपर छोड़ देना चाहिये । उसे अपने मनमें इस बातका भी निश्चय कर लेना चाहिये कि वह यह आग्रह नहीं करेगा कि अमुक समय- के भीतर उसे अवश्य प्रगति करनी चाहिये, विकसित होना चाहिये, सिद्धि प्राप्त कर लेनी चाहिये । साधनामें जो भी समय लगे, उसे प्रतीक्षा करने, प्रयास जारी रखनेके लिये तैयार रहना चाहिये और अपने समूचे जीबनको केवल एकमेव वस्तु, स्वयं भग- वान्को पानेकी अीप्सामें और उनकी ओर उद्घाटनमें बदल देना चाहिये । अपने- आपको दे देना ही साधनाका रहस्य है, मांग करना और उसे प्राप्त करना नही । जितना ही अधिक मनुष्य अपनेको दे देता है उतना ही अधिक ग्रहण करनेकी सामर्थ्य बढ्ती हैं । परंतु उसके लिये समस्त अधीरता और विद्रोहको दूर भगाना होगा; न पाने, सहायता न आने, प्यार न पाने, यहांसे चले जाने, जीवनका या आध्यात्मिक प्रयासका परित्याग कर देनेके सभी सुझावोंका त्याग कर देना चाहिये ।

 

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    यदि प्रेम अखंड और पूर्ण हो तथा उसके साथ कोई भी प्राणगत मांग कभी न जुडी हुई हों तो विद्रोहके सुझाव नही आ सकते ।

 

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    कोई व्यक्ति अपने स्वभावमें दिव्य बन जानेपर ही दिव्यभावके साथ प्रेम कर सकता है; दूसरा कोई पथ नही है ।

 

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   प्रेम अपने-आपमें पर्याप्त है - इसे अंधेकी लाठीकी आवश्यकता नही होती । इस विषयमें वह श्रद्धा तथा अन्य प्रत्येक दिव्य शक्तिके जैसा ही है ।

 

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    मानव-प्रेम अधिकांशमें प्राणिक और भौतिक होता है जिसे कुछ मानसिक समर्थन प्राप्त होता है - यह एक स्वार्थहीन, उच्च और शुद्ध रूप और अभिव्यक्तिको केवल तभी प्राप्त हो सकता है जब कि इसे चैत्यका स्पर्श प्राप्त हो । यह सच है, जैसा कि तुम कहते हों, कि यह अधिकांश अवसरोंपर अज्ञान, आसक्ति, आवेग और कामना- का एक मिश्रण होता है । पर यह चाहे जो कुछ हो, जो मनुष्य भगवानके पास पहुँचना चाहता है उसे कभी मानव प्रेमों और आसक्तियोका बोझ अपने ऊपर नही लादना चाहिये, क्योंकि वे उसके लिये कितनी ही बेड़िया तैयार कर देते हैं और उसके पगोंको

 

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आगे बढ़नेसे रोकते हैं तथा उसे प्रेमके एकमात्र चरम विषयके ऊपर अपने हृदयावेगोंको एकाग्र करनेके बदले अन्य दिशामें मोड देते हैं ।

 

     अवश्य ही चैत्य प्रेम नामकी एक चीज है जो शुद्ध, मांगसे रहित, आत्मदानमें सच्ची है, परंतु जब मनुष्य एक-दूसरेके प्रति आसक्त होते हैं तब वह साधारणतया उतनी शुद्ध नही रह पाती । जव कोई साधना करता हो तब उसे इस चैत्य प्रेमके मिथ्याभिमानसे खूब सावधान रहना चाहिये - क्योंकि यह अधिकांश में किसी प्राणगत आकर्षण या आसक्तिके अधीन होनेके लिये एक आवरण और समर्थन होता है ।

 

    विश्व-प्रेम आध्यात्मिक होता है और वह स्थापित होता है सर्वत्र विद्यमान एक- मेवाद्वितीय और श्रीभगवान्के बोधपर तथा व्यक्तिगत चेतनाके आसक्ति तथा अज्ञानसे मुक्त होकर एक विशाल विश्वगत चेतनामें परिवर्त्तित हो जाने पर ।

 

   भागवत प्रेम दौ प्रकारका होता है - समस्त सृष्टि तथा जीवोंके लिये, जो स्वयं उसीक्रे अंग हैं, दिव्य प्रेम, तथा प्रेमी साधकोंका प्रेम और प्रेमास्पद भगवानके लिये प्रेम, इसमें वैयक्तिक और निवैंयक्तिक दोनों प्रकारके तत्त्व होते हैं, परंतु इसमें जो वैयक्तिक तत्त्व होता है वह सब प्रकारके निम्रतर तत्त्वोंसे अथवा प्राणगत और भौतिक सहजवृत्तियोके बधनसे मुक्त होता है ।

 

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     चैत्य प्रेम विशुद्ध तथा असंपूर्ण मांगोंसे शून्य आत्मदानके भावसे पूर्ण होता है, पर: यह मानवीय है और भूल कर सकता एवं कष्ट भोग सकता है । भागवत प्रेम उससे कही अधिक विशाल और गभीर वस्तु है तथा ज्योति और आनन्दसे भरपूर रहता है ।

 

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 भगवानका प्रेम वह है जो ऊपरसे आता है और भागवत एकत्व तथा उसके आनंद से मानव-सत्ताके ऊपर बरसता है -- चैत्य प्रेम भागवत प्रेमका एक रूप है जिसे वह मानव-चेतनाकी आवश्यकता और संभावनाओंके अनुसार मनुष्य-सत्ताके अंदर ग्रहण करता है ।

 

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     अंतरात्माका प्रेम और हर्ष भीतरसे चैत्य पुरुष से आते हैं । जो ऊपरसे आता है वह उच्चतर चेतनाका आनन्द होता है

 

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यदि प्रेम अपने उद्देश्यमें चैत्य हो तो वह सर्वदा एकत्वका बोध ले आता है अथवा कम-से-कम सत्ताके एक आंतरिक घनिष्ठ सामीप्यका बोध प्रदान करता है । भाग- वत प्रेम एकत्वपर आधारित होता है और चैत्य प्रेम भागवत प्रेमसे निःसृत होता है ।

 

 अगर चैत्य पुरुष भगवानके साथ युक्त हो जाय तो बह पृथक् नहीं हो सकता । पृथक्करणका अर्थ है एकत्वका अभाव । चैत्य अनुभूति है अनेकमेंसे एककी एकत्वके अंदर अनुभूति ( अंश और समग्र); यह समुद्रमें पानीकी एक बूंदकी तरह लय हो जाने- की अनुभूति नही है - क्योंकि तव तो किसी प्रेम या भक्तिका होना संभव नहीं होगा जबतक कि बह प्रेम स्वयं अपने लिये, भक्ति स्वयं अपने लिये ही न हो ।

 

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    मनुष्य अपनी प्रकृतिके व्यष्टिभावापन्न होनेके कारण अनिवार्यत: पृथक् होते हैं और वसा संपर्क स्थापित कर सकते हैं । चैत्य पुरुषमें मनुष्य चैत्य सहानुभूतिके द्वारा एकत्वका बने प्राप्त करता है, पर एकीभूत हो जानेका अनुभव नही प्राप्त करता, क्योंकि चैत्य व्यष्टिभावापन्न अंतरात्मा है और इसे सबसे पहले भगवानके साथ संयुक्त होना होगा और उसके बाद ही वह भगवानके द्वारा अन्योंके साथ संयुक्त हो सकता हैं । आध्यात्मिक अनुभूतिमें दो बिलकुल विपरीत विधाएं हैं - एक तो वह है जिसमें मनुष्य भगबानमें लीन हो जानेके लिये जगत्की समस्त बाह्य वस्तुओं तथा समस्त स्थूल स्थाओंसे अपनेको अलग कर लेता है और दूसरी वह है जिसमे मनुष्य सर्वमें आत्मा या भगवान्को अनुभव करता है और उस अनुभूतिके द्वारा विश्वके साथ एकत्वकी उपलब्धि करता है ।

 

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     जो प्रेम आध्यात्मिक स्तरोंसे संबंधित होता है बह भिन्न प्रकारका होता है - चैत्य पुरुषमें अपना निजी अधिक व्यक्तिगत प्रेम, भक्ति, समर्पणभाव होता है । उच्चतर या आध्यात्मिक मनका प्रेम अधिक वैश्व और निर्व्यक्तिक होता हैं । उच्चतम दिव्य प्रेमको अभिव्यक्त करनेके लिये इन दोनोंको एक साथ युक्त हो जाना चाहिये ।

 

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  वैश्व प्रेम सर्वदा वैश्व ही होता है - चैत्य प्रेम व्यक्तिभावापत्र हों सकता है ।

 

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    विश्व-प्रेम सबके साथ एकात्म होनेकी अनुभूतिपर निर्भर करता है । इस अनु- भूतिके बिना भी सबके लिये चैत्य प्रेम या सहानुभूति होसकती है ।

 

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   संबुद्ध मानस और अधिमानस साधारणतया मन की अपेक्षा कही अधिक भागवत प्रेमके सत्यके प्रति उद्घाटित होता है तथा प्रेमको विश्वव्यापी बनानेमें भी 'अधिक सक्षम होता है -- उन लोकोंमें प्रेम अपनी तीव्रावस्थामें मानसिक भागोंकी अपेक्षा अधिक स्थिर और कम अहं-बद्ध होता है । परंतु मनमें यदि चैत्य और आध्या- त्मिक प्रेम वर्द्धित हों तो मन भी उनकी तरहका प्रेम प्राप्त कर सकता है ।

 

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    मैं '' के प्रश्नको बिलकुल ही नही समझता । क्या वह यह पूछना चाहता हैं कि मनुष्य स्वयं दूसरोंके प्रति वैश्व प्रेम अनुभव करनेसे पहले सभी जिबोंके प्रति भाग- वत प्रेमको जान सकता है या नहीं? यदि उसका आशय यही है तो निश्चय ही मनुष्य स्वयं वैश्व प्रेम प्राप्त करनेसे पहले भागवत प्रेमके विषयमें सज्ञान हों सकता है -- वह अपने अंदर भगवानके साथ 'संपर्क प्राप्त करके भागवत प्रेमके विषयमें सचेतन हों सकता है । स्वभावत: हीं उसकी सज्ञानता प्राप्त होनेपर मनुष्यके अंदर सबके लिये वैश्व प्रेमका विकास हों जाना चाहिये । परंतु उसका आशय यदि वह प्रेम है जो दिव्य है, निम्रतर वृत्तियोंसे कलंकित नही है, तो यह सही है कि जबतक मनुष्यको शांति, पवित्रता, अहंसे मुक्ति, विशालता और वैश्व चेतनाकी ज्योति जो कि वैश्व प्रेमका आधार है, नही प्राप्त हो जाता तबतक उस प्रेमको पाना कठिन है जो सभी प्रकारके दोषों, सीमाओं तथा सामान्य मानवीय प्रेमके दागोंसे मुक्त है । जितना ही अधिक मनुष्य विश्वभावापत्र होता जाता है उतना हीं वह इन चीजोंसे मुक्ति पाता जाता है ।

 

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    अपने मूलमें सर्वके साथ एकत्वबोध एक ऐसी वस्तु है जो स्वयंसत् और आत्म- तुष्ट है और जिसे अभिव्यक्त होनेकी कोई आवश्यकता नही होती । जब यह प्रेमके रूपमें प्रकट भी होता है तो यह एक ऐसी वस्तु होता है जो विशाल और विश्वव्यापी, तीव्र होनेपर भी अक्षुब्ध और सुदृढ़ होता है । यह आधारभूत वैश्व एकत्वके अंदर विद्यमान रहता है । एक उपरितलीय विश्व-चेतना भी है जो वैश्व शक्तियोकी क्रीडाकी चेतना है -- यहा कोई भी चीज उठ सकती है, कामवासना भी । सच पूछा जाय तो इसी भागको पूर्णत चैत्यभावापन्न बनानेकी आवश्यकता है अन्यथा मनुष्य न तो इसे अधिकृत कर सकता, न बनाये रख सकता और न उचित ढंगसे इसके साथ

 

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व्यवहार कर सकता है ।

 

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    मनमें एकमेवकी उपलब्धि होनेपर मनमें एक प्रकारकी मुक्ति आती है या आनी चाहिये, परंतु यह संभव है कि प्राण और शरीर अपने आवेगके अधीन रहकर अपनी सामान्य वृत्तियोंका बनाये रखें -- क्योंकि वे अपने कार्यके लिये केवल अंशत: ही मनपर निर्भर करते हैं । वे यहांतक कि उसे बहा भी ले जा सकते हैं, 'हरन्ति प्रसव मनः ', अथवा वे मनके तर्क-वितर्क तथा असम्मतिके बावजूद भीकार्य कर सकते हैं । रोमन कवि इसे इस प्रकार कहता है: ' 'मैं उत्तमको देखता हूँ और उसका अनुमोदन करता हूँ, पर निकृष्टता अनुसरण करता हूँ' ' - गीताकी भाषामें कहा गया है, ' 'अनिच्छन्नपि बलादिव नियोजित: । '' अतएव यह आवश्यक है कि इस उपलब्धिको अपनी शांति और पवित्रताकी शक्तिके साथ ठोस रूपमें प्राण और शरीरतकमें उतर आना चाहिये जिससे कि प्राणिक क्रियाएं जब उठनेकी चेष्टा करें तो इसके द्वारा उनका मुकाबला किया जा सके और इसके स्वाभाविक दबावके कारण वे बने रखनेमें असमर्थ हो जायं ।

 

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     जबतक समूची चेतना सदिग्ध पदार्थसे शुद्ध न हों जाय और एकत्वकी अनुभूति चरम पवित्रताके साथ सुस्थापित न हों जाय तबतक सर्व-प्रेमको अभिव्यक्त होने देना उचित नही है । सच पूछा जाय तो इसे अपने अंदर धारण किये रहनेसे यह स्वभावका एक सच्चा अंग बन जाता है और अभी भी आनेवाली अन्य अनुभूतियोंके साथ युक्त हो जानेपर सुस्थापित और शुद्ध हों जाता है । अभी तो तुम्हें उसका महज एक प्राथमिक स्पर्श प्राप्त हुआ है और प्रकट करके उसका अपव्यय करना बहुत नासमझी होगी । कामकेंद्र और प्राण आसानीसे सक्रिय हो सकते है - मैं बहुत अच्छे योगियोंके उदाहरण जानता हूँ..... जिनमें विश्वप्रेम बदलकर विश्वकाम बन गया । ऐसी बात यूरोप और पूर्व दोनों जगहोंमें बहुतोंके साथ घटित हुई है । परंतु इसके अतिरिक्त भी इसे बाहर फेंक देनेकी अपेक्षा इसे ठोस और पुष्ट बनाना सर्वदा उत्तम है । जब साधना आगे बढ़ जाती है और प्रेमको आलोकित करने और पथ दिखानेके लिये ऊपरसे ज्ञान आता है तो फिर बात दूसरी हो जाती है । मैं जो समस्त रूपांतरित प्राणिक क्रिया- ओंके त्यागपर इतना बल देता हूँ यह अनुभवपर आधारित है - मेरे तथा दूसरोंके अनुभवपर तथा चैतन्यके वैष्णव आन्दोलन जैसे प्राचीन योगोंके अनुभवपर आधारित है जो (मैं प्राचीन बौद्ध सहज धर्मकी कोई चर्चा नहीं करता) अत्यधिक भ्रष्टाचारके कारण हीं समाप्त हो गया । विश्वप्रेमके जैसा कोई विशाल आन्दोलन केवल तभी चलाया जा सकता है जब कि प्रकृतिका क्षेत्र इसके लिये पक्के रूपमें तैयार कर लिया गया हों । दूसरोंके साथ तुम्हारे मिलने-जुलनेमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है, पर केवलn

 

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जाग्रत् मन और संकल्पके द्वारा सतत सतर्कता और संयम बनाये रखकर हीं ऐसा करना चाहिये ।

 

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     बोध ही प्रकृतिका रूपांतर करनेके लिये पर्याप्त नहीं है । आष्यात्मिक भाषामें 'पश्यति: ' का अर्थ केवल बोध नही है । बोध मनकी चीज है और मानसिक बोध पर्याप्त नहीं है - वास्तवमें सारी सत्तामें यथार्थ और सक्थि उपलब्धिका होना आवश्यक है । अन्यथा इन तीन चीजोंमेंसे कोई चीज घटित हों सकती हे । ( 1) मन एकरचका बोध प्राप्त करता है पर प्राणपर उसका कोई असर नही पड़ता, वह अपने आवेगोंके अनुसार चलता रहता है, क्योंकि प्राण विचार या तर्कके द्वारा नहीं बल्कि प्रवृत्ति, आवेग, कामना-शक्तिके द्वारा परिचालित होता है -- वह युक्तितर्कका उपयोग केवल अपनी प्रवृत्तियोंमें समर्थनके लिये ही करता है । अथवा, प्राण यह भी कह सकता है, ' 'सब कुछ एक ही सद्वस्तु है, इसलिये इससे कुछ नही आता- जाता कि मैं क्या करता हूँ । भला मैं अपने निजी तरीकेसे दूसरोंके साथ एकत्व प्राप्त करनेका प्रयास क्यों न करुँ?'' ( 2) यदि मनको अनुभव प्राप्त है, पर प्राण उसमें भाग नहीं लेता या उसे विकृत करता है तो फिर प्राण अपने निजी तरीकेपर आग्रह क्रूर सकता है अथवा मनको अपन साथ खींच भी ले जा सकता है । जैसा कि गीता कहती है, इंद्रियां (प्राण) ऐसे मुनिके मनको भी खींच ले जाती हैं जो देखता है, जैसे कि वायु तूफानी समुद्रपर जहाजको बहा ले जाती है । ( उ) आंतर सत्ताको प्रबल रूपमें अनुभूति प्राप्त हो सकतीं है और वह एकत्वमें, स्थिरता और शांतिमें निवास कर सकतीं है, पर बाह्य सत्ताके भीतरी भाग कामना आदिकी प्रतिक्रियाएं अनुभव कर सकते है । ऐसी हालतमें प्रतिक्रियाएं अधिक छिछली होती हैं; परंतु फिर भी जबतक वे बद नहीं हों जाती तबतक परित्याग करते रहना आवश्यक है । जब समग्र सत्ता स्थिरता, शांति, मुक्ति, एकत्व आदिकी ठोस अन्उभूतिमें निवास करती है तब कामनाएं झड़ जाती हैं और परित्यागकी आवश्यकता नही रहती, क्योंकि अब कोई चीज त्याग करनेके लिये नही रह जाती ।

 

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 मानसिक अनुभूति (एकमेव आत्माकी अनुभूति) यह परिणाम ( मोह और शोकसे मुक्ति) नहीं ले आती, आध्यात्मिक अनुभूति ले आती है । वैदान्तिक अनुभव- मे,' 'देखने' ' का अर्थ ' 'हो जाना' ' भी है, मनुष्य वह एक आत्मा है, उसके साथ तदात्म है - प्रकृतिके सभी कर्म उसे उसी एक आत्माके ऊपर होनेवाली क्रिया प्रतीत होते हैं जिससे वह आत्मा स्वयं प्रभावित नहीं होता । इसलिये वहां न तो मोह होता हे और न शोक । ऐसा तभी होता है जब मनुष्य इस अनुभवको रख पाता है और जब

 

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यह पूर्ण होता है । यदि किसी व्यक्तिको यह अनुभव केवल किसी आंतरिक वस्तुके रूपमे ही प्राप्त होता है और प्राणकी क्रियाएं ऊपरी तलपर चलती रहती हैं तो भी ये क्रियाएं बाह्य और निस्सार मालूम होती हैं, वास्तवमें स्वयं अपने साथ उनका कोई सरोकार नहीं होता - अंतरस्थ आत्मा अस्पृष्ट, स्थिर, शोकरहित, शांत बना रहता है । यदि प्राण भी इस चेतनामें रूपांतरित हो जाय तो फिर ऊपरी तलपर भी शोकका होना असंभव हों जाता है ।

 

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    सक्रिय प्रेम सबकी ओर एक समान नही जा सकता - उससे तो अधिकांश लोगोंकी तैयारी न होनेके कारण एक बड़ी गड़बड़ी और अस्तव्यस्तता उत्पन्न हों जायगी । केवल निष्क्रिय अक्षर वैश्व प्रेम हीं एक समान सबके लिये प्रयुक्त हों सकता है -- वह प्रेम जो हदयकी स्थिर विशालताके अंदर आता है जो मनकी स्थिर विशालता- से, जिसमें कि समता और अनंत शांति विद्यमान रहती है, मिलती-जुलती है ।

 

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    मनुष्य सबके साथ बातचीत कर सकता हे जबतक कि वैसा न करनेका उसके पास कोई कारण न हो । सबके साथ एकत्वका बोध एक आंतरिक अनुभव है, पर वह सबके साथ एक ही व्यवहार करनेके लिये बाध्य नही करता..... । यह वही हाथी ब्रह्म और महावत ब्रह्मकी पुरानी कहानी है । एक मौलिक अनुभूति है और फिर लीला- का विषमताए भी हैं -- दोनोंको अपने ध्यानमें रखना होगा ।

 

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    वास्तवमें यह प्राणिक प्रयास है जिसमें प्राण बदलेमें कुछ पानेकी अव्यक्त भावना- के साथ अपनेको उंडेल देता है । एकत्चर्कौ चेतना समस्त जीवनके पीछे विद्यमान रहनेवाली एक वस्तु हे और स्नेहके सभी रूप निस्संदेह उसीसे आते हैं, पर चेतन रूपमें नही., और जब प्राण प्रेमकी शक्तिकी क्रियाको अपने हाथमें ले लेता है जिसके यथार्थ या दिव्य स्वरूपके ??? वह अचेतन होता है तब वे रूप बदल जाते, कई चीजोंके साथ मिल जाते और विकृत हो जाते हैं ।

 

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 ठीक-ठीक यही चीज थीं जिसे '' ने करना चाहा था -- इस या उस व्यक्तिके संबंधमें प्रेमको अभिव्यक्त करना । परंतु वैश्व प्रेम व्यक्तिगत नही होता - उसे चेतना

 

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की एक शर्त्तके रूपमें अपने अंदर धारण कर रखना होता है जिसका परिणाम भागवत संकल्पके अनुसार होता है अथवा जो उस संकल्पके द्वारा आवश्यकता होनेपर व्यवहृत होता है । पर अपने व्यक्तिगत संतोष अथवा दूसरोंके संतोषके लिये उसे चारों ओर व्यक्त करते फिरना केवल उसे नष्ट करना और उसे खो देना है ।

 

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 पहले जब कभी हदयका उद्घाटन हुआ तो तुमने उसे प्राणिक भोगोंके साथ जोड़ना आरंभ कर दिया और भगवान्की ओर प्रेमको मोड़ने और उसकी मौलिक पवित्रताको बनाये रखनेकी जगह उसे तुमने औरोंकी ओर मोड़ा - वैसे ही जब उच्चतर चेतना नीचे उतरी तो उसे भी तुमने मानसिक क्रियाओंमें बिखेर दिया । इस बार वे दोनों चीज़ें अधिक विशुद्ध रूपमें आ रहीं थीं, पर अभी भी यह खतरा है कि मान- सिक और प्राणिक शक्तियां कहीं उन्हें पकड़ न लें और तब संभव है कि उन दोनोंका आना रुक जाय या समाप्त हो जाय । अतएव इस बार तुम्हें सावधान रहना चाहिये और किसी प्रकारकी मानसिक बिज्यूतिको न आने देना चाहिये ।

 

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    एक दार्शनिकके रूपमें मैनई मैक टैगर्ट (Mc. Taggart) का नाम सुना है, पर उनके विचारों तथा उनके लेखोसे मैं संपूर्णत: अपरिचित हूँ; अतएव किसी निश्चय- ताके साथ तुम्हें उत्तर देना मेरे लिये थोड़ा कठिन है । यदि उन विचारों और वाक्यों- को विचारकके देखनेकी संपूर्ण पद्धतिकी पृष्ठभूमिमें रखकर न देखा-समझा जाय, पृथक्-पृथक् देखा जाय तो आसानीसे गलतफहमी हो सकती है । फिर, जय कोई आध्यात्मिक जिज्ञासु या योगी (कभी-कभी) दर्शनकी भाषामें कुछ कहता है और कोई बौद्धिक विचारक (कभी-कभी या अंशत:) रहस्यवादकी भाषामें बोलता है तो दोनोंके दृष्टिकोण और पद्धतिमें सर्वदा बहुत अंतर होता है । एक तो आध्यात्मिक या गुह्य अनुभवसे अथवा कम-से-कम अंतर्ज्ञानात्मक अनुभवसे आरंभ करता ३ और उसे तथा अन्य आध्यात्मिक या अंतर्ज्ञानात्मक सत्यके साथके उसके संबंधको मनकी अपर्याप्त तथा अत्यंत अमूर्त्त भाषामें प्रकट करनेका प्रयत्न करता है । वह विचार और अभिव्यंजनाके पीछे किसी आध्यात्मिक या अंतर्ज्ञानात्मक अनुभवको खोजता है जिसकी ओर वह संकेत कर सके और, यदि वह किसी ऐसे अनुभवको नही पाता तो वह, विचार चाहे बौद्धिक दृष्टिसे जितना भी सुन्दर हो, अथवा अभिव्यंजना चाहे बौद्धिक दृष्टिसे जितनी भी अर्थपूर्ण हो, उन दोनोंको ही आध्यात्मिक तत्त्वसे शून्य होनेके कारण सारहीन अनुभव करनेको इच्छुक होता है । बौद्धिक विचारक भावना- ओ तथा मानसभावापन्न अनुभवोंसे और अन्य मानसिक या बाह्य व्यापारोंसे आरंभ करता है तथा उनके अंदर या पीछे विद्यमान मूल सत्यतक पहुँचनेका प्रयास करता है ।

 

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साधारणतया वह एक मानसिक विविक्त विचारणापर ही आकर अथवा किसी ऐसी चीजके एक गौण मानसिक अनुभवपर ही आकर रुक जाता है जो अपने स्वरूपमें मानसिकसे भिन्न होती हे । परंतु कहीं उसमें यदि सच्चा रहस्यवादी हो तो वह, कभी- कभी, कम-से-कम परेकी चमकों और झाकियोंतक पहुँच जायगा । क्या इस पद्धति- की विवशता वह चीज नही है ( मेरा मतलब है बौद्धिक दर्शनकी पद्धतिकी अक्षमता, शब्द और विचारके अंदर उसका स्थिर हों जाना, जब कि पूर्ण रहस्यवादीके लिये शब्द और विचार केवल उरायोगी रूपक अथवा अर्थद्योतक क्षणिक दीप्तिया हैं) जिसने मैक टैगर्टको अपने अंदरके रहस्यवादीको प्रकट करनेसे रोका है, जैसे कि वह बहुतोंको रोकती है श यदि आलोचक सही है तो, यही कारण है कि मैक टैगर्ट इतना गूढू और नीरस है, जब कि उसके विचारोंमें जो कुछ सुंदर और प्रभावशाली है वह संभवत: कोई ऐसी ज्योति होगी जो अभिव्यंजनाके अयोग्य साधनोंके बालवृंद,--जिसके लिये दार्शनिक विचारक हमारी निंदा करते है,-भीतरसे चमकती है । परंतु, इस थोडी लंबी चेतावनीके अधीन, मैं उन उद्धत वाक्यों या संक्षिप्त विचारोंपर विचार प्रकट करनेका प्रयास करूँगा जिन्हें तुमने अपने पत्रद्वारा मेरे सामने रखा है ।

 

        "चरम सद्वस्तुमें आत्माओंका मुख्य कार्य प्रेम', : मुझे यह बात थोडी अतिरिक्त प्रतीत होती है । यदि ' 'मुख्य कार्य' ' के बदले ' 'एक मौलिक शक्ति' ' कहा गया होता तो चल सकता था । स्वयं मैं यह कहूँगा कि आनन्द और एकत्व चरम सद्वस्तुकी मौलिक स्थितियां हैं, और आनन्द और एकत्वकी अत्यंत विशिष्ट सक्रिय शक्तिके रूप- मे प्रेमको मुख्य रूपसे उनकी क्रियाओंको सहारा देना तथा रंग प्रदान करना चाहिये; परंतु क्रियाएं अपने-आपमें एक ही मुख्य प्रकारकी नही बल्कि स्वभावमें बहुविध हों सकती है ।

 

    ' 'उदारता और सहानुभूति' '. मानसिक अनुभवमें उदारता और सहानुभूति- को प्रेमसे पृथक् करना होगा; परंतु मुझे ऐसा लगता है कि विभाजक मनके परे, जहां एकत्वका सच्चा बोध आरंभ होता हे, ये अपनी क्रियाकी एक उच्चतर तीव्रतापर पहुँच- कर प्रेमके विशिष्ट गुण बन जाती हैं । उदारता प्रेमद्वारा आरोपित एक तीव्र दबाव बन जाती है जिसमें कि सर्वदा प्रेमास्पदकी भलाई करनेका प्रयास किया जाय, सहानुभूति प्रेमवश उत्पन्न यह अनुभूति बन जाती हे कि हम प्रेमास्पदकी सभी गतिविधियों तथा उससे संबंधित सभी चीजोंको अपनी सत्ताके अंगके रूपमें ग्रहण करते हैं, अपने अन्दर धारण करते हैं और उनमें हिस्सा बंटाते हैं ।

 

       ' 'प्रेम सत्य है और उसका कारण चाहे महान् हो या तुच्छ वह अपनेको पूर्णतः सत्य सिद्ध करता है' ' : यह बात मानव-व्यवहारमें बहुधा सत्य नही उतरती; क्योंकि वहां प्रेमकी भवितव्यता और उसका औचित्य साधारणतया बहुत कुछ ( यद्यपि सर्वदा नहीं) उसके कारण या उद्देश्यके स्वरूपपर निर्भर करता है । क्योंकि प्रेमका उद्देश्य यदि इस अर्थमें तुच्छ हो कि वह एकत्वके बोधकी सक्यि उपलब्धिके लिये, जो कि मैक टैगर्टके कथनानुसार प्रेमका सारतत्त्व है, एक अनुपयुक्त यंत्र हो तो प्रेमके अपनी चरितार्थतामें असफल होनेकी संभावना है । हां, निस्संदेह, यदि यह प्रेम केवल होने-

 

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से ही संतुष्ट हों, अपने निजी मौलिक ढंगसे अपने-आपको प्रेमास्पदपर खपा देनेसे ही संतुष्ट हो, अपने-आपको खपा देनेके किसी बदलेकी, किसी पारस्परिक एकीकरणकी आशा न करे तो बात दूसरी है । फिर भी, तत्त्वतः प्रेमका जो वर्णन है वह सत्य हो सकता है: परंतु उस स्थितिमें वह वर्णन इस तथ्यकी ओर संकेत करेगा कि प्रेम अपने मूलमें राका स्वयं-सत् शक्ति है, एक निरपेक्ष, एक परात्पर (जैसा कि मैंने कहा है) वस्तु है, और वह अपने विषयोंपर निर्भर नहीं करता - वह एकमात्र अपने-आपपर अथवा एक- मात्र भगवानपर निर्भर करता है; कारण वह भगवान्की एक स्वयं-सत् शक्ति है । यदि वह स्वयं-सत् न होता तो वह अपने विषयोंके स्वभाव या प्रतिक्रियासे कदापि स्वतंत्र न होता । यह अंशत: वह चीज है जिसे मैं परात्पर प्रेम कहता हूँ - यद्यपि यह उसकी परात्परताका केवल एक रूप है । वह स्वयंभू परात्पर प्रेम सबके ऊपर फैल जाता है सर्वत्र धारण करने, आलिंगन करने, युक्त होने, सहायता करने, प्रेम और आनन्द और एकत्वकी ओर उठा ले जानेके लिये मुंड जाता है और इस तरह विश्वव्यापी दिव्य प्रेम बन जाता है; अपने-आपको पानेके लिये, सक्रिय एकत्वको प्राप्त करनेके लिये अथवा यह? जीवका भगवानके साथ मिलन सिद्ध करनेके लिये जब यह किसी एक या दूसरे- पर तीव्र रूपसे एकाग्र हो जाता है तो यह व्यक्तिगत दिव्य प्रेम बन जाता है । परंतु दुर्भाग्यवश मानव मन, मानव प्राण और मानव शरीरमें आकर यह कई प्रकारके अशुद्ध रूप ग्रहण कर लेता है; यहां प्रेमका दिव्य तत्त्व सहज ही नकली रूपोंके साथ मिलजुल जाता है, धीमा हों जाता, प्रच्छन्न हो जाता अथवा विभाजन और अज्ञानसे प्रसूत टेढी- मेढी क्रियाओंमें खो जाता है ।

 

          ' 'प्रेम और आत्मसम्मान' ' : यह सुननेमें बड़ा उच्च प्रतीत होता है, पर साथ ही रुक्ष भी प्रतीत होता है, प्रेमिके अंदरका यह ' 'भाव' ' बहुत '' भावपूर्ण' ' नही प्रतीत होता, यह मानो किन्हीं भावमय तरगोंके प्रवाहसे बहुत ऊपर गगनचुबी न्यायवाक्योंका व्यवहार करना है । इस अर्थमें या किसी गभीरतर अर्थमें प्रेमसे आत्मसम्मानका भाव उदित हों सकता है, पर यह उसी भांति ज्ञानमें, शक्ति-सामर्थ्यमें अथवा अन्य किसी भी चीजमें भाग बेंटानेपर आ सकता है जिसे मनुष्य उच्चतम श्रेय अथवा उच्चतमका सारतत्त्व समझता है । परंतु प्रेमका भाव, प्रेमकी आराधना एक बिलकुल भिन्न, यहांतक कि एक विपरीत भावको भी उत्पन्न कर सकती है । विशेषकर भगवानके अथवा जिसे वह दिव्य समझता है उसके प्रेममें भक्त प्रेमास्पदके लिये तीव्र आदरभाव अनुभव करता है. उसे ऐसा बोध होता हैं मानो वह कोई महान् मह्त्वकी, सौंदर्यकी या मूल्यकी वस्तु हों और अपने लिये उसमें यह प्रबल धारणा होती है ?? बह अपने प्रेमास्पदके मुक़ाबिले बड़ा अयोग्य हैं और वह जिसकी आराधना करता है उसके जैसा बन जानेकी उसमें तीव्र आकांक्षा होती है । प्रेमके उमड़नेपर बहुत बार ऐसा जरूर होता है कि साधक एक प्रकारके आनन्दोल्लास, अंतरमें एक प्रकारके उत्कर्षसाधन, अपने स्वभावमें नवीन शक्तियों और उच्च या सुन्दर संभावनाओं या प्रकृतिमें प्रकारकी तीव्रताके आनेका बोध प्राप्त करता हैं, पर यह चीज ठीक आत्मसम्मान- का बोध नही है । एक गभीरतर आत्मसम्मानके भावका आना संभव है जो एक सच्चा

 

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भाव है, जिसमें साधक एक पूजाकी वस्तुके रूपमें अथवा परम प्रेमास्पदकी आंतरिक उपस्थितिके स्वयं मंदिरके रूपमें अपने अंतरात्माके, यहांतक कि मन, प्राण और शरीर- के मूल्य-महत्त्व और पवित्रताको भी अनुभव करता है ।

 

     ये प्रतिक्रियाएं घनिष्ठ रूपमे इस तथ्यसे संबंधित हैं कि प्रेम, जब यह इस नामके योग्य होता है, सर्वदा मिलनकी, एकत्वकी खोज होता है, परंतु अपने गुह्य आधारमें भी यह भगवान्की एक खोज है, भले ही कभी-कभी यह केवल एक अस्पष्ट टटोलना ही होता है । अपनी गहराईमें प्रेम स्वयं अपने अंदर विद्यमान भागवत संभावना अथवा सद्वस्तुका प्रेमास्पदके अंदर विद्यमान भागवत संभावना या सद्वस्तुके साथ एक संपर्क है । सच पूछा जाय तो इस गुणकों स्थापित करने या बनाये रखनेकी अक्षमता ही मानव-प्रेमको या तो क्षणस्थायी बना देती या इसके पूर्ण अर्थवत्तासे शून्य बना देती है अथवा मानव आधारकी क्षमताके अनुसार एक क्षीण, एक कम उल्लासपूर्ण क्रियामें डूब जानेका दंड दे देती है । परंतु वहां मैक टैगर्ट अपनी संरक्षक शर्त्त उपस्थित करते हैं, ' 'जब मैं प्रेम करता हूँ, मैं दूसरेको उस रूपमें नही देखता जैसा कि वह अभी है ( और इसलिये वह वास्तवमें नही है )र, बल्कि जैसा कि वह वास्तवमें है ( अर्थात्, जैसा वह होगा) । '' इसका बकिा अंश जिसमे वह कहता है कि '' अपने सारे दोषोंके साथ दूसरा किसी प्रकार अनंत रूपसे भला है --कम-से-कम अपने मित्रके लिये, ' ?मुझे अत्यत मार्नासेक वक्तगा प्रतीत होता है जो आध्यात्मिक आंतर मूल्योंकी दृष्टिसे बहुत निश्चित रूपसे कुछ भी नहो व्यक्त करता । परंतु उद्धत सूत्र भी आद्योपांत सुस्पष्ट नहीं है । मेरी समझमे उसका अर्थ कुछ-कुछ वही है जिसे विवेकानन्दने आपातदृष्ट मनुष्य और सच्चे मनुष्यके बीचका भेद कहा है; अथवा यह कुछ हदतक वेदांतके एक प्राचीन गुरु, याज्ञवल्लके इस कथनके साथ मिलता-जुलता है कि अस्त्रीक लिये स्त्री ( अथवा, मित्र,-- क्योंकि स्त्री सूचीकी ।केवल पहली वस्तु है) प्रिय नही है, बल्कि आत्मा (महत्तर आत्मा, अंतरस्थ जीवात्मा) के लिये वह प्रिय है । '' परंतु याज्ञवल्लने, एकमेव (बहु नही) ब्रह्मका साधक होनेके कारण उस बातको स्वीकार न किया होता जो मैक टैगर्टके वाक्यमें निहित है, उन्होंने कहा होता कि मनुष्यको परे जाना होगा और अतमें स्त्री या मित्रमें अवस्थित आत्माको नहीं खोजना होगा -- यद्यपि कुछ समय उसे वहां खोजा गया हे -- बल्कि आत्माको उसकी अपनी आत्मसत्तामें खोजना होगा । जो हो, ऐसा तगना है कि यहा यह स्पष्ट घोषणा की गयी है कि वास्तवमें मनुष्य नही (जो कुछ कि वह अभी है) बल्कि अंतरस्थ भगवान् अथवा भगवानका एक अंश ( तुम चाहो तो इसे ईश्वर कहो अथवा केवल ब्रह्म कहो) प्रेमका विषय है । परंतु योगी मैक टैगर्टकी तरह उस ' 'होगा' ' से संतुष्ट नही होगा - किसी अप्राप्त अनतके लिये सांतके प्रेममें बंधा रहना स्वीकार नही करेगा । वह तो यह आग्रह करेगा कि भगवान् अपने-आपमे जो कुछ हैं उनकों अथवा अभिव्यक्त भगवान्को प्राप्त करनेके लिये, उनकी पूर्ण उपलब्धिके लिये दौड पड़ा जाय, वह अपने-आपसे अचेतन, अनभि- व्यक्त या केवल सुदूर संभावनाका रूपमें विद्यमान भगवान्से संतुष्ट नहीं रहेगा ।

 

    इसमें ऐसा स्थल हैं जहां इष्ट देवताके साथ सादृश्यकी बात, जैसा कि तुम सूचित

 

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करते हो, ठोक नहीं उतरती  क्योंकि इष्ट देवता, जिसपर साधक एकाग्र होता है, भगवानका एक सचेतन व्यक्ति-रूप होता है जो साधकके निजी व्यक्तित्वकी आवश्यकताकों पूरा करता है और उसे एक प्रतिनिधि मूर्त्तिके अंदर यह दिखाता है कि भगवान् क्या है अथवा कम-से-कम अपने द्वारा उसे परब्रह्मका संकेत देता है । दूसरी ओर, जब मैनई भागवती शक्तिके अपनी तप-क्रियामें आत्मलीन होनेकी बात कही तब मैं यह समझानेकी चेष्टा कर रहा था कि भागवत वैश्व अभिव्यक्तिके अन्दर इस आपात- दृष्ट निश्चेतन जडतत्त्वके प्रादुर्भावकी संभावना है । मैंने कहा था कि सम्मुखीन क्रिया- के अंदर भगवानका कुछ अंश ऐसा था जिसने अपनेको इतनी अधिक एकाग्रताके साथ स्थूल आकारमें फेंक दिया कि वह गति और आकार बन गया जिसे शक्तिकी गतिउत्पत्र करती है और उसके पीछे उस सबको रख देती है जो वह नहीं था,-ठीक जैसे कि, बल्कि कही अधिक मात्रामें और कही अधिक स्थायित्वके साथ, एक मनुष्य जो कुछ करता, देखता या बनाता है उसमें एकाग्रता कर सकता और अपने निजी अस्तित्वको भूल सकता है । स्वयं मनुष्यमें भी, जो निश्चेतन नहीं है, यह एक दूसरे रूपमें दिखायी देता है; उसकी सामनेकी सत्ता यह नहीं जानती कि उपरितलीय व्यक्तित्व और कर्म- के पीछे क्या है, जैसे अभिनेताकी सत्ताका जो भाग भूमिका अदा करनेवाला बनता है वह अभिनेताके पीछे विद्यमान अधिक स्थायी 'स्व' को पूर्णतया भूल जाता है । परंतु दोनों ही अवस्थाओंमें पीछेकी ओर एक वृहत्तर 'स्व है, ' 'निश्चेतन वस्तुओंमें एक चेतन सत्ता' ' है, जो स्वयं अपने विषयमें तथा जीव-रूपमें दृष्ट आत्मविस्मृत सम्मुखीन आकारके विषयमें सचेतन होता हैं । क्या मैक टैगर्ट इस अंतरस्थ सचेतन भगवान्को स्वीकार करते हैं? वह इस परम (प्त०?81?णै०) या वास्तविक आत्माको बहुत कम हीं महत्त्व देते हैं जो, जैसा कि वह फिर भी देखते हैं, अवास्तव या कम वास्तव बाह्य रूपमें विद्यमान है । उन्होंनें भगवान्को अस्वीकार इसलिये किया है कि उनका मन और प्राणिक स्वभाव मित्रके ऊपर, जैसा कि वह है, आग्रह करता है, यद्यपि उनका उच्चतर मन उनका मित्र जो कुछ होगा उसके विचारकी सहायतासे उस आग्रहसे बचनेकी कोशिश कर सकता है । अन्यथा उनके प्रतिपाद्य विषयमें जो यह विशाल- काय अतिरंजना है कि जीवनमें एकमात्र यथार्थ वस्तु है मित्रका प्रेम और भगवानको अवसर देनेकी जो अनिच्छा है और यह डर है कि कही वह मित्रको उठा न ले जाय और उसके स्थानमें भगवान्को न रख जाय, इसे समझना कठिन है ।

 

      मैं बिलकुल नहीं समझ पाता कि आखिर 'परम' (absolute) के विषयमें उनकी परिकल्पना क्या है । यह कैसे कहा जा सकता है कि भिन्न-भिन्न आत्माओंका समाज (?) समष्टिरूपसे 'परम' (absolute) है? यदि इसका मतलब यह हों कि जहां सज्ञान मुक्त आत्माओंका एक संघ होता है वहां भगवान् उपस्थित रहते है और उनकी एक विशेष अभिव्यक्तिका होना संभव होता है,--तो यह बात समझमे आने योय है । अथवा, यदि समाजका अर्थ केवल यह हों कि समस्त पृथक्-पृथन् आत्माओंका जोड़ या समष्टि ही भगवान् है और ये पृथक्-पृथक् आत्मा भगवानके अंश हैं तो यह भी समझमें आने योग्य ( सर्वेश्वरवादी) समाधान है । केवल, वह

 

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 'परम' की अपेक्षा कोई दिव्य 'सर्व' अथवा किसी प्रकारका विश्वात्मा या ब्रह्म होगा । यदि कोई 'परम' हों - जिसे बौद्धिक रूपसे स्वीकार करनेके लिये हम बाध्य नही हैं, हां, बस उच्चतर मनकी कोई वस्तु अनिवार्य रूपसे उसकी मांग करती प्रतीत होती है या यह अनुभव करती है कि वह है -- तो वह निश्चय ही अपनी निजी परम सत्तामें विराजमान होगा,--निर्मित नही होगा, अपनी सत्ताके लिये विभिन्न आत्माओंकी समष्टिपर निर्भर नही होगा, बल्कि स्वयं-सत् होगा । बुद्धिके लिये ऐसा 'परम' एक अवर्णनीय 'क्ष' ( अज्ञात वस्तु) है जिसे वह नही समझ सकती, बल्कि जब रहस्यवादी या आध्यात्मिक अनुभव काफी दूरतक आगे जाता है तो वह अतमें उसके पास पहुँचा देता है और अनुभवका दरवाजा चाहे जो हो जिससे कि हम उसकी प्रथम झाकि पाते हैं, वह वहां होता ही है भले ही हम उस आरभिक अनुभवमें उसे पूर्णत: भी न पकड़ सकें ।

 

      तुम कहते हो कि तुम्हारे अपने अनुभवमें यह ऐसा था मानो सांतके अंदर अनंत- का विस्फोट हों -- एक महत्तर शक्तिका विस्फोट हो जो नीचे तुम्हारे ऊपर उतर आयी हों अथवा अपने पास तुम्हें ऊपर उठा ले गयी हों । निस्संदेह, यहीं वह चीज है जो आध्यात्मिक अनुभवमें सर्वदा घटित होती है -- और यही कारण है कि मैं इसे 'परात्पर' कहता हूँ । यह ऐसी हीं एक अवतरित होनेवाली और ऊपर उठानेवाली दिव्य शक्तिके रूपमें अथवा अवतरणशील और उन्नयनकारी प्रेम -- अथवा ज्योति, शांति, आनन्द, चैतन्य, उपस्थिति आदिके रूपमे प्रकट होती है । यह सांतके अंदर होनेवाली अपनी अभिव्यक्तिसे सीमित नही होती,--मनुष्य इसे, शांति, शक्ति, प्रेम, ज्योति या आनन्द या उपस्थितिको, जिसमें ये सब होते हैं, स्वयंसत् अनतके रूपमें अनु- भव करता है, यहां इसके विषयमें जो हमारा प्रथम दर्शन होता है उससे निर्मित या सीमित वस्तु नही है । मित्रोंके प्रति मैक टेगर्टका प्रेम ही उनके लिये एकमात्र यथार्थ वस्तु बना रहा, मैं मान सकता हूँ कि उन्हें यह झांकी नहीं प्राप्त हुई थी । परंतु एक बार जब यह विस्फोट, यह अवतरण और उन्नयन, घटित हो जाता है तो वह अतमें एक यथार्थ वस्तु बन जानेके लिये बाध्य होता है, क्योंकि एकमात्र उसीके द्वारा बाकी चीजे अपने निजी स्थायी महत्तर सत्यको प्राप्त कर सकतीं हैं । यही वह भागवत चेतना- का अवतरण और उसके अंदर आरोहण या उन्नयन है जिसकी चर्चा हम अपने योगमें करते हैं । अन्य सभी वस्तुएं केवल तभी ठीक उतरती, सफल होती और अपनेको चरितार्थ करती हैं जब कि वे इस दिव्य अनुभूतिका या उसकी अभिव्यक्तिका एक अंग बननेके लिये ऊपर उठ सकती हैं, और, वैसा करनेके लिये उन्हें एक महान् रूपांतर और सिद्धिको स्वीकार करना होगा । परंतु केंद्रीय उपलब्धि ही एकमात्र केंद्रीय लक्ष्य होनी चाहिये और वास्तवमें एकमात्र वह उपलब्धि ही अन्य चीजोंको संपादित करेगी, उन सब चीजोंको संपादित करेगी जो उसका अंग बननेके लिये अभिप्रेत हैं, दिव्यता संभव हैं ।

 

२७३


II 

 

     भक्तिका स्वभाव है उस सत्ताकी आराधना, पूजा करना और उसके प्रति आत्म- दान करना जो हमसे महत्तर है; प्रेमका स्वभाव है सामीप्य यामिलनकाअनुभव करना या उसके लिये प्रयत्न करना । आत्मदान दोनोंका ही गुण है; ये दोनों ही योगमें आवश्यक हैं और जब ये दोनों एक-दूसरेको सहारा देते हैं तो दोनों हीं अपनी पूर्ण शक्ति- को प्राप्त करते हैं ।

 

*

 

    भक्ति कोई अनुभूति नही है, यह हृदय और अंतरात्माकी एक अवस्था है । यह वह अवस्था है जो चैत्य पुरुषके जागृत और प्रमुख होनेपर आती है ।

 

 

    अहैतुकी भक्तिके मार्गमें प्रत्येक वस्तु भक्तिका साधन बनायी जा सकती है - उदाहरणार्थ, काव्य तथा संगीत केवल काव्य और संगीत तथा भक्तिकी अभिव्यंजनामात्र ही नही रहते, बल्कि ये स्वयं प्रेम एवं भक्तिका अनुभव करानेवाले साधन बन जाते हैं । स्वयं ध्यान भी मानसिक एकाग्रताका प्रयत्न ही न रह प्रेम और उपासना और पूजाका एक प्रवाह बन जाता है ।

 

*

 

    इस योगमें केवल आंतरिक पूजा और व्यान करनेकी हीं कोई सीमा नही बांध दी गयी है । चूँकि यह समस्त सत्ताका योग है, केवल आतर सत्ताका ही योग नही है, ऐसा कोई प्रतिबंध अभीष्ट नहीं हो सकता । विभिन्न धर्मोंके पुराने रूप झड़ जा सकते हैं, पर समस्त रूपोका न होना साधनाका नियम नहीं है ।

 

 ये मनद्वारा निर्मित अतिरंजनाएं हैं जिनमें सत्यके एक पक्षको ग्रहण किया जाता और दूसरे पक्षोंकी अबहेलना की जाती है । आंतरिक भक्ति मुख्य वस्तु है और उसके बिना भाती?संबंधी बाह्य बातें महज एक बाह्यांचार और कर्मकांड बन जाती हैं, पर बाह्य बातोंका भी अपना स्थान और उपयोग है. जब कि वे ऋजु और सच्ची हो ।

 

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    बाह्य पूजाका तात्पर्य क्या है ' यदि वह विशुद्ध रूपमे बाह्य हों तो निस्संदेह वह निम्रतम रूप है परंतु उसे यदि सच्ची चेतनासे किया जाय तो वह उपासनाको महत्तम संभावनीय परिपूर्णता प्रदान कर सकतीं है जिसमें शरीर और अत्यंत बाहरी चेतना भी पूजाके भाव और कार्यमें भाग लेनेका अवसर प्राप्त कर सकती है ।

 

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    फोटो तो महज एक बाहन है -- परंतु तुम्हें यदि यथार्थ चेतना प्राप्त है तो तुम उसमें जीवत सत्ताका कुछ अंश ले आ सकते हों या उस सत्ताके विषयमें अभिज्ञ हों सकते हो जिसका वह चित्र है और उसे उसके साथ संपर्क स्थापित करनेका साधन बना सकते हों । यह ठीक मंदिरमें स्थापित मूर्त्तिमें प्राणप्रतिष्ठा करनेकी जैसी बात है ।

 

*

 

     जो कुछ तुम कहते हो वह निस्संदेह सही है, पर यह कही अधिक अच्छा है कि उस अवलंबको न हटा दिया जाय जो अभी वैसे लोगोंकी श्रद्धाके लिये वहां है जिन्हें वैसे अवलंबोंकी आवश्यकता होती है । ये सूक्ष्म दर्शन और म्र्त्तियां और अनुष्ठान इसकी लिये हैं । यह एक आध्यात्मिक सिद्धांत है कि किसी श्रद्धाको या श्रद्धाके आधार- को तबतक नहीं हटाना चाहिये जबतक कि उसे रखनेवाले लोग उसके स्थानमें किसी विशालतर और पूर्णतर वस्तुको ले आनेमें समर्थ न हों ।

 

    यदि प्राणप्रतिष्ठाके द्वारा कोई शक्तिशाली दिव्य सत्ताका अवतरण हों तो वह सत्ता उसे उतारनेवाले व्यक्तिके शरीर छोड़ देनेके बहुत बादतक वहां विद्यमान रह सकती है । साधारणतया यह सत्ता धर्माध्यक्षकी भक्ति और उन लोंगोंके सच्चे वि- श्वास और पूजाके बलपर बनी रहती है जौ उस मंदिरमें उपासन करने आते है । ये लोग अयोग्य हों तो यह संभव है कि वह दिव्य उपस्थिति वापस चली जाय ।

 

*

 

       देखना कई प्रकारका होता है । एक तलीय देखना होता है, जिसमें देखी हुई सत्ताकी एक मूर्ति एक क्षण अथवा कुछ समयके लिये निर्मित या ग्रहण की जाती है । ऐसा देखना कोई परिवर्तन नहीं लाता, जबतक कि आंतरिक भक्ति इसे परिवर्तनका साधन न बनाये । परंतु जीवंत मूर्त्तिकी उसके किसी भी रूपमें - अपनेमें-मानों हृदयमें भी ग्रहण किया जा सकता है; इसका प्रभाव तात्कालिक हो सकता है, या यह आध्यात्मिक विकास- की एक अवधिका श्रीगणेश कर सकता है । फिर अपनेसे बाहर, न्यूनाधिक वस्तुनिष्ठ और सूक्ष्म-भौतिक अथवा भौतिक प्रकारका भी देखना होता है !

 

   रही मिलनेकी बात, सो स्थायी मिलन अंतरमें होता है और बह वहां ममि कालमें

 

२७५


रह सकता है; बाह्य मिलन या स्पर्श बहुधा स्थायी नही होता । कुछ लोग हैं, जो जब पूजा करते हैं बहुधा हीं या सदैव संस्पर्श अनुभव करते हैं । देवता उनके लिये चीजमें, अथवा पूजित मूर्त्तिमें,प्राणवंत हो उठ सकता है, उस ( चित्र अथवा मूर्त्ति) के द्वारा चल- फिर और कार्य कर सकता है । अन्य लोग उनकी (देवताकी) सतत उपस्थितिका अनुभव कर सकते हैं - बाहर, सूक्ष्म-भौतिक रूपमे -- अपने साथ-साथ अथवा अपने ही कमरेमें रहते हुए । किंतु कभी-कभी यह कुछ समयके लिये हीं होता है । अथवा वे सत्ताको अपने पास अनुभव कर सकते हैं, बहुधा किसी शरीरमें देख सकते हैं (यद्यपि यदा-कदाके अतिरिक्त स्थूल रूपमें नहीं), उसका स्पर्श अथवा आलिंगन अनुभव कर सकते हैं, सदा उससे आलाप कर सकते हैं -- यह भी एक प्रकारका मिलन है । सबसे महान् मिलन वह है जिसमे हम देवताका सतत अनुभव करते हैं, अपनेमें निवास करते हुए, संसारकी प्रत्येक वस्तुमें निवास करते हुए, समस्त जगत्को अपने- आपमें धारण किये हुए, अस्तित्वके साथ एक, तथापि परम रूपमें संसारसे परे । किंतु संसारमें भी हम और कुछको नहीं, उन्हींको देखते, उन्हींको सुनते और उन्हींको अनु- भव करते है, यहांतक कि इन्द्रियों भी मात्र उन्हींकी गवाही देती हैं । और इनमेंसे वे विशेष वैयक्तिक अभिव्यक्तियां भी बाद नही हैं, जो '' और उनके गुरुको प्रदान की गयी थी । मिलनेके जितने अधिक प्रकार हों, उतना ही अच्छा है ।

 

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     हम किसी भी इंद्रियके द्वारा अथवा चेतनाके अंदर किसी बोधके द्वारा अभि- व्यक्तिको ग्रहण कर सकते हैं -- पूर्ण बाह्य अभिव्यक्तिके अंदर दर्शन, श्रवण, स्पर्श आदि सब कुछ हो सकता है ।

 

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     मेरा मतलब था कि मनुष्य भागवत चेतनाको एक निर्व्यक्तिक आध्यात्मिक स्थितिके रूपमें, शांति, ज्योति, हर्ष तथा भागवत उपस्थितिके अनुभवसे शून्य विशाल- ताके रूपमें अनुभव कर सकता है । भागवत उपस्थितिका अनुभव एक ऐसी सत्ताके रूपमें होता है जो उस ज्योति आदिका सजीव स्रोत और सारतत्त्व है, अतएव एक ऐसे 'पुरुष'के रूपमें होता है जो केवल एक आध्यात्मिक अवस्था ही नही है । श्रीमाताजीकी उपस्थिति और भी अधिक ठोस, सुनिश्चित और व्यक्तिभावापत्र होती हैं - वह किसी ऐसे ब्यक्तिकी उपस्थिति नही होती जो अपरिचित हो, किसी शक्ति या सत्ताकी हों, बल्कि वह एक ऐसे ब्यक्तिकी उपस्थिति होती है जो परिचित, घनिष्ठ, प्रिय होता है, जिसके प्रति मनुष्य अपनी सारी सत्ताको जीवंत ठोस रूपमें समर्पित कर सकता है । मूर्त्तिका होना अनिवार्य नहीं है, यद्यपि वह सहायक होती है -- उसके बिना भी अपने भीतर उपस्थितिका अनुभव हो सकता है ।

 

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२७६


     यदि भगवान्की उपस्थिति स्थापित हों जाय तो इसका अर्थ है कि सत्ता रूपांतर- के लिये तैयार हो गयी है और वह स्वाभाविक रूपमे होता रहता है ।

 

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     आदेश और दर्शन साधनाकी एक अवस्थाके तत्त्व हैं; घनिष्ठतर मिलनकी अवस्था तब भी बहुत दूर होती है । मन और प्राण दर्शनके द्वारा भगवानका संस्पर्श और आदेशके द्वारा पथका निर्देशन चाहते हैं । अपने योगमें हमारा लक्ष्य भगवानके अखंड मिलन और सान्निध्य तथा नियंत्रणकी अनुभूतिको सब समय बनाये रखना है । परंतु मन और प्राणके स्तरपर वह प्रायः अघूरी रहती है, और उसमें भ्रांतिकी काफी गुंजायश होती है । कर्ममें इस प्रकारके भागवत मिलनका संपूर्ण सत्य तो अतिमानसिक रूपांतरकी सिद्धि हो जानेपर ही प्राप्त हों सकता है ।

 

III

 

     तुम्हारी यह धारणा भ्रमात्मक है कि मैं भक्तिके विरुद्ध हूँ या भावमय भक्ति- के विरुद्ध हूँ - ये दोनों बातें वास्तवमें एक-सी ही हैं, क्योंकि भावके बिना भक्ति हो ही नहीं सकती । बल्कि ठीक तथ्य यह है कि योगविषयक अपने लेखोमें मैंने भक्तिको सर्वोच्च स्थान प्रदान किया है । किसी समय मैनई अगर ऐसा कुछ कहा भी है जिससे इस गलतफहमीका कारण समझमें आ सके तो वह तो उस अपवित्र भावुकताके विरुद्ध है जो, मेरे अन्भवानुसार, संतुलनका अभाव, विक्षुब्ध और सामंजस्यहीन भावाभि- व्यक्ति या यहांतक स्कइ ?प्रतिक्रियाएतक उत्पन्न करती ओर अपनी परकातामे स्तायुविकाररूपी परिणाम भी ले आती है । परंतु पवित्रीकरणके लिये आग्रह करनेका अर्थ यह नही कि मैं सच्चे वेदन और भावको भी निंदनीय ठहराता हूँ, जैसे मन या संकल्प- की पवित्रताके लिये आग्रह करनेका अर्थ यह नही होता कि मे विचार और संकल्पको निन्दा मानता हूँ । बल्कि इसके विपरीत, भाव जितना अधिक गहरा होता है, भक्ति भी उतनी हीं अधिक तीव्र होती है, सिद्धि और रूपांतरकी शक्ति भी उतनी हीं महान् होती है । सच पूछा जाय तो अधिकांश समय भावकी तीव्रतासे ही हत्युरुष जागता है और भगवान्की ओर ले जानेवाले आंतरिक द्वार उद्घाटित होते हैं ।

 

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     हृदयको सुखा देना इस योगका अंग नहीं है; बल्कि हृदय भावोंको भगवान्की ओर मोड़ना होगा । ऐसे अनतिदीर्घ काल आ सकते हैं जिनमें हृदय शांत रहे, साधारण अनुभवोंसे विमुख हों और ऊपरसे भावप्रवाहके आनेकी प्रतीक्षा करे; परंतु ऐसी स्थिति- यां सूखेपनकी स्थितियां नहीं बल्कि नीरवता और शांतिकी स्थितियां हैं । इस योगमें

 

२७७


जबतक चेतना ऊपर नहीं उठती तबतक वास्तवमें हृदयको एकाग्रताका प्रमुख केंद्र होना चाहिये ।

 

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     योगमें हृद्गत भाव आवश्यक होता है और सच पूछा जाय तो केवल अतिरंजित भावुकता ही छोटी-छोटी बातोंके कारण, जिन्हें हमें अतिक्रम करना है, निराशाके गर्त्तमे डाल देती है । इस योगका सच्चा आधार हीं है भक्ति और यदि कोई अपनी भावात्मक सत्ताको मार डाले तो फिर भक्ति हो ही नही सकती । अतएव भावात्मक सत्ताको योगसे बहिष्कृत करनेकी कोई संभावना नही हो सकती ।

 

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    भावावेग योगके लिये एक अच्छी वस्तु है, परंतु भावावेगजन्य कामना सहज ही विक्षोभका एक कारण तथा एक बाधा बन जाती है ।

 

    अपने भावावेगोंको भगवान्की ओर मोड दो, उनकी शुद्धिके लिये अभीप्सा करो, तब वे योगमार्गकी सहायक बन जायेंगे और फिर कभी दुःख-कष्टका कारण नही होंगे ।

 

     भावावेगको मार डालना नही, वरन् उसे भगवान्की ओर मोड देना ही योगका यथार्थ मार्ग है ।

 

     परंतु उसे शुद्ध-पवित्र, आध्यात्मिक शांति और उल्लासके ऊपर प्रतिष्ठित तथा आनन्दमें परिवर्त्तित हों जानेके योग्य बन जाना होगा । मन ब्योर प्राणके भागोंमें समता और स्थिरता तथा हृदयमें तीव्र चैत्य भाव पूर्णतया साथ-साथ रह सकते हैं । अपनी अभीप्साके द्वारा हृदयमें चैत्य अग्निको जगाओ जो धीर-स्थिर रूपसे भगवान्की ओर जलती रहती है - यही भावावेगमयी प्रकृतिको मुक्त और चरितार्थ करनेका एकमात्र पथ है ।

 

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      वास्तवमें केवल साधारण प्राणिक भावावेग ही शक्तिका अपव्यय करते और एकाग्रता तथा शांतिको भंग करते हैं और उन्हें ही निरुत्साहित करनेकी आवश्यकता है । भावावेग अपने-आपमें कोई बुरी वस्तु नहीं हैं; वे तो प्रकृतिका एक आवश्यक अंग हैं और चैत्य भावावेग तो साधनाका एक अत्यन्त बलशाली सहायक है । जो चैत्य भावावेग भगवानके प्रति प्रेमके कारण आसू अथवा आनन्दका आसू ले आता है उसे कभी दबाना नही चाहिये । उसमें जब कोई प्राणिक वस्तु मिल जाती है तो केवल वही साधनामें बाधाविघ्र उपस्थित करती है ।

 

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२७८


भावात्मक (भक्ति) चैत्य भक्तिकी अपेक्षा अधिक बाह्य वस्तु है -- यह बाह्य अभिव्यक्तिकी प्रवृत्ति रखती है । चैत्य भक्ति अंतर्मुखी होती है और संपूर्ण आंतर और बाह्य जीवनको नियंत्रित करती है । भावात्मक भक्ति तीव्र हो सकती है पर वह न तो अपने आधारमें उतनी सुदृढ़ होती है और न उतनी पर्याप्त शक्तिशाली ही कि जीवन- की समूची दिशाको परिवर्त्तित कर दे ।

 

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    यह बिलकुल ठीक है कि ऊपर जानेपर मनुष्य सभी समस्याओंसे बाहर निकल जाता है, क्योंकि अब उनका अस्तित्व हीं नहीं रहता, परंतु समस्याएं यहां नीचे विद्य- मान हैं और इतनी अधिक हल न की हुई समस्याओं तथा समाधानकी मांगके रहते हार सदा ऊपर रहना कठिन है । परंतु ठीक जिस तरह मनुष्य अत्यंत ऊपर जा सकता है, उसी तरह वह भीतर गहराईमें भी जा सकता है और वास्तवमें इस भीतरकी गहराई मे जानेकी आवश्यकता है । जो घटित हुआ वह भावात्मक सत्ताके ऊपरी तलपर था और यदि मनुष्य महज वही ठहर जाय तो भावात्मक सत्ताकी कठिनाइयां आ सकतीं हैं, परंतु करनेकी चीज यह है कि मनुष्य वहां ऊपरी तलपर ही न ठहर जाय बल्कि भीतर गहराईमें पैठ जाय । क्योंकि भावात्मक सत्ताके ऊपरी तलके पीछे, हृदयकेंद्रके पीछे गहराईमें चैत्य पुरुष विद्यमान है । एक बार जब मनुष्य चैत्य पुरुषतक पहुँच जाता है तो फिर ये चीजे उसे नही छूती; उस समय उसके अंदर विद्यमान रहती है आंतरिक शांति और आह्लाद, अविक्षुब्ध अभीप्सा, श्रीमाताजीकी उपस्थिति या सान्निध्य ।

 

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     प्रेम, शोक, विषाद, निराशा, भावोल्लास आदि आवेगोंमें इनके अपने लिये ही आसक्त होना और इनके प्रति एक प्रकारका मानसिक और प्राणिक अत्याग्रह रखना हीं भावुकता है । वास्तवमें गहरे भावके अंदर शांति, नियंत्रण, पावन संयम और मर्यादा आदि होने चाहियें । हमें अपने भावों और अपनी संवेदनाओंका क्रीडा-कडक नहीं, प्रत्युत सदैव उनका नियंता होना चाहिये ।

 

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     जब चेतना इन सब चीजोंमें लिप्त होती है और भावात्मक हर्षावेशमें अथवा दुःख-कष्टमें लोटती-पोटती है तो उसे ही भावुकता कहते हैं । एक दूसरे प्रकारकी भावुकता भी है जिसमें मन प्रेम, वेदना आदि भावोंके बोधमें सुख अनुभव करता है और उनके साथ खेलता है, परंतु वह कम तीव्र और अधिक छिछली भावुकता होती है ।

 

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२७९


     मनके द्वारा साधनाविषयक अभिज्ञता प्राप्त करना अनिवार्य नही है । अगर भक्ति मौजूद है, और हदयकी नीरवतामें अभीप्सा इ, अगर भगवानके प्रति सच्चा प्रेम है, तो तुम्हारी प्रकृतिका उन्मीलन स्वतः हीं हों जायगा, तुम्हें सच्ची अनुभूति मिलेगी और तुम्हारे अंतरमें माताजीकी शक्ति कार्य करने लगेगी, एव आवश्यक ज्ञान स्वतः ही आ जायगा ।

 

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    भगवान् और परम सत्यके सर्वदा ही दो पक्ष होते हैं -- सव्यक्तिक और निर्व्यक्तिक और यह समझना भूल है कि केवल निर्व्यक्तिक ही यथार्थ या प्रमुख है, क्योंकि वह सत्ताके एक भागमें एक प्रकारकी शून्य अपूर्णता लें आता है और केवल एक ही पक्ष- को संतोष प्राप्त होता है । निर्व्यक्तिकताका संबंध बुद्धि और निष्क्रिय आत्मासे है, सथ्यक्तिकताका संबद अंतरात्मा और हृदय और सक्रिय सत्तासे है । जो लोग साकार भगवान्की अवहेलना करते हैं वे राका ऐसी वस्तुकी अवज्ञा करते हैं जो बहुत गभीर और आवश्यक है ।

 

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     हदयके विशुद्धतर आवेगोंका अनुसरण करना एक ऐसी वस्तुका अनुसरण करना है जो कम-से-कम उतनी ही मूल्यवान् है जितनी कि सत्य क्या हों सकता है इस विषय- की अपनी धारणाओंके प्रति मनकी निष्ठा है ।

 

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     इसका कारण विश्लेषणप्रवण मनकी सक्रियता है, उसके सक्रिय होनेपर एक प्रकारकी नीरसताका अनुभव हमेशा हीं होता है । उच्चतर मन या सहज-अतबोंध अपने साथ अधिक स्वाभाविक और संपूर्ण ज्ञान लाता हैं -- वही सच्चे ज्ञानका आरंभ है, और उसमें ररेसा प्रयत्न भी नहीं करना होता । जिस भक्तिका तुम अनुभव कर रहे हों वह आंतरात्मिक है, पर उसपर प्राणका गहरा रंग है; और मन तथा प्राण ही भक्ति और ज्ञानके बीच विरोध खड़ा कर दत हैं । प्राणको, जिसकी रुचि सिर्फ भावमें है, मानस ज्ञान सूखा और नीरस मालूम होता है; और मन भक्तिको एक अध भावावेग मानता है, इसे यह संपूर्णतया आकर्षक तभी मालूम होती है जब वह उसके स्वरूपका विश्लेषण कर लेता और उसे समझ लेता है । इस विरोधका अवसान तब होता है जब अंतः पुरुष और उच्चतर स्तरका ज्ञान मिलकर प्रधान रूपमें कार्य करते हैं । अंत:- पुरुष अपमे भाव और भक्तिके पोषक इस ज्ञानका स्वागत करता है, और उच्चतर विचार- की चेतना भक्तिमें सुखका अनुभव करती है ।

 

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२८०


    यंत्रसम और कृत्रिम भक्ति नामकी कोई वस्तु नही हो सकती - या तो भक्ति होगी अथवा नहीं होगी । भक्ति तीव्र या अतीव, पूर्ण या अपूर्ण, कभी प्रकट और कभी प्रच्छन्न हों सकती है, पर यत्रसम या कृत्रिम भक्ति तो एक विरोधोक्ति है ।

 

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    भोजन और बाह्य वस्तुओंके प्रति तुम्हारा नवीन मनोभाव यथार्थ मनोभाव, चैत्य मनोभाव है और वह यह सूचित करता है कि अब चैत्य पुरुष प्राणिक-भौतिक तथा साथ ही प्राण-प्रकृतिके अन्य भागोंको नियंत्रित करने लगा है ।

 

    अब हदयकी बात लें, इस योगमें भगवानके लिये व्याकुलताकी वृत्ति, रोना, शोक करना, व्यग्र होना आदि आवश्यक नही हे । प्रबल अभीप्सा अवश्य होनी चाहिये, तीव्र उत्कंठा भी अच्छी तरह रह सकती है, तीव्र प्रेम और मिलनकी आकांक्षा रह सकती है; परंतु वहां शोक या विक्षोभ नही होना चाहिये । तुम अपने हृदयमें जो अचंचलता और नीरवता अनुभव करते हो वह नीचे आनेके लिये उच्चतर चेतनाके दबावका परिणाम है । वह चीज सर्वदा ही मन और हृदयमें स्थिरता ले आती है और जब उच्च- तर चेतना उतरती है तो महान् शांति और निश्चल-नीरवता ले आती है । निश्चल-नीरव मन और हृदयमें यथार्थ मनोभाव अवश्य होना चाहिये और तब तुम्हें यह बोध आता है कि तुम श्रीमाताजीके बच्चे हों, उनके प्रति श्रद्धा-विश्वास तथा उनके साथ युक्त होने- की आकांक्षा भी तुम अनुभव करते हों । उसके साथ-साथ, जो कुछ आनेवाला है उसके लिये एक अभीप्सा अथवा नीरव प्रतीक्षाका भाव भी रह सकता है । वह अभीप्सा भी तुम्हारे अन्दर विद्यमान प्रतीत होतीं है । इसलिये सब कुछ अच्छा है ।

 

     जैसा कि मैनई बहुधा लिखा है, इस योगमें दो प्रकारके रूपांतर हैं । पहला रूपांतर तब आता है जब चैत्य पुरुष सामने आता है ओर प्रकृतिको नियंत्रित और परिवर्त्तित करता है । यही चीज तुम्हारे अंदर बरी तेजीके साथ घटित हुई है; इसे अपनी पूर्णता- तक जाना होगा, पर यह स्वाभाविक रूपमे जायगी । दूसरा रूपांतर वह है जब मस्तक- के ऊपरसे श्रीमाताजीकी चेतनाका अवतराग होता हैं और उससे समस्त सत्ता और प्रकृतिका रूपांतर होता है । यह चीज भी तुम्हारे अंदर अब अपनी तैयारी कर रही है । दबावका, हृदय आदिमें नीरवता आनेका यहीं कारण है । इस बार ऊपर जाने- पर जो तुम्हें अनुभूति हुई वह उस ऊर्ध्वस्थ उच्चतर चेतनामें अवस्थित उच्चतर सत्ता- की विशालताका अनुभव थी और उस उच्चतर चेतनाके भीतरसे ज्योति नीचे उतर रही थीं । वह विशालता और वह ज्योति पीछे तुम्हारे अंदर उतरेगी और तुम्हारी चेतना उस ज्योति और विशालता तथा उनके अंदर जो कुछ है उस सबमें परिवर्त्तित हों जायगी ।

 

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२८१


      विरह आत्माकी खोजमें प्राण-स्तरपर होनेवाली एक संक्रमणकालीन अनु. भूति है - कोई कारण नहीं कि साधनाकी बिलकुल प्राथमिक अवस्थामें यह अनुभूति होनेकी संभावना न हो । जो उपलब्धियां बिना किसी बेचैनीके, विशुद्ध आनन्दमें होती हैं वे अधिक विकसित साधनाका फल होती हैं ।

 

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    विरहका विशुद्ध भाव चैत्य भाव होता है - पर उसमें यदि राजसिक या ताम- सिक गतियां (जैसे, अवसाद, विलाप, विद्रोह आदि) अंदर घुस आये तो फिर वह तामसिक या राजसिक बन जाता है ।

 

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    विछोहकी वेदना प्राणकी वस्तु है, चैत्य पुरुषकी नहीं; चैत्य पुरुषमें कोई वेदना नहीं होती और इसलिये उसे व्यक्त करनेकी कोई आवश्यकता नही होती । चैत्य पुरुष श्रद्धा, हर्ष और विश्वासके साथ सर्वदा भगवान्की ओर मुंडा रहता है - जो भी अभीप्सा उसमें होती है वह विश्वास और आशासे भरपूर होती है ।

 

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     मान-अभिमान (कोप) की वृत्तिसे तुम जितनी जल्दी छुटकारा पा जाओ उतना ही अच्छा है । जो मान-अभिमानमें रत होता है वह अपनेको विरोधी शक्तियोंके प्रभाव- के अधीन कर देता है । मान-अभिमानका सच्चे प्रेमके साथ कोई सबब नही । यह भी, ईर्ष्याकी तरह, प्राणिक अहंकारका एक अंग है ।

 

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     योगका यथार्थ उद्देश्य हीं है चेतनामें परिवर्तन लाना - एक नवीन चेतनाको प्राप्त करके या अंतरस्थ सत्य-सत्ताकी प्रच्छन्न चेतनाको अनावृत करके और धीरे- धीरे उसे अभिव्यक्त और पूर्ण बनाकर मनुष्य सबसे पहले भगवानका संस्पर्श और फिर उनके साथ एकत्व प्राप्त करता है । आनन्द और भक्ति उस गभीरतर चेतनाके अंग हैं और जब मनुष्य उस चेतनामें निवास करता है और उसमें वर्द्धित होता है केवल तभी वह आनन्द और भक्ति चिरस्थायी हो सकती है । जबतक ऐसा नहीं होता तबतक मनुष्य आनन्द और भक्तिकी केवल अनुभूतियां प्राप्त वार सकता है, पर सतत और स्थायी स्थिति नहीं प्राप्त कर सकता । परंतु भक्तिकी अवस्था और निरंतर-वर्द्धमान समर्पणकी स्थिति सभी मनुष्योंको साधनाकी प्रारंभिक अवस्था-

 

२८२


में नही प्राप्त होतीं, इस स्थितिके उद्घाटित होनेसे पहले बहुतोंको, निस्संदेह अधि- काश लोगोंको, शुद्धि और तपस्याकी एक लंबी यात्रा पार करनी होती है, और इस प्रकारके अनुभव, जो आरंभमें बहुत कम और बिखेर होते हैं और पीछे बार-बार आते हैं, उनकी प्रगतिके सूचक चिह्न होते हैं । यह किन्हीं विशेष अवस्थाओंपर निर्भर करता है जिनका योग करनेकी उच्चतर या हीनतर क्षमताके साथ कोई संबंध नहीं, बल्कि, जैसा कि तुम कहते हों, भागवत प्रभाव-रूपी सूर्यकी ओर खुलनेकी हदयकी प्रवृत्तिके साथ है ।

 

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    हां, यही चीज घटित हुई, परंतु भक्ति और प्रेमका प्रवाह भी एक ऐसी चीज है जो जितनी हीं अधिक बार आती या जितना ही अधिक जागृत होती है उतना ही अधिक वह अवश्यमेव सत्ताके सभी भागोंमें भर जाती और उनपर अपना प्रभाव डालती है ।

 

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   तुम्हें जो एक वस्तुके स्थानमें दूसरी चीजके आनेका अनुभव हुआ वह बिलकुल सही था । बहुत हदतक रूपांतरका कार्य प्राचीन उपरितलीय (निम्र) आत्मभावको हटाकर और उसकी गतिविधियोंको बाहर फेंककर और उनके स्थानमें एक नवीन गभीरतर आत्मभाव और उसकी सच्ची क्रियाको बैठाकर हीं आगे बढ़ता है ।

 

    यदि उच्चतर भाव, भक्ति आदि तुम्हें कभी-कभी एक प्रभाव या रग जैसे प्रतीत होते हैं तो इससे कोई हर्ज नही । जब तुम अपनेको बाह्य शरीर या बाह्य प्राण या बाह्य मनमें अनुभव करते हो तब वे ऐसा ही दिखते हैं । ये भाव वास्तवमें तुम्हारे अंतरतम आत्माके, तुम्हारे अंतरात्माके, तुम्हारे अंदर विद्यमान चैत्य पुरुषके भाव हैं और जब तुम अपनी चैत्य चेतनामें रहते हों तो वें यथार्थ और स्वाभाविक बन जाते हैं । परंतु जब तुम्हारी चेतना हट जाती है और अधिक बहिर्मुखी हो जाती है तो अंतरात्मा या भागवत चैतन्यकी ये क्रियाएं भी स्वयं बाहरी, महज एक प्रभावके जैसी प्रतीत होती हैं । जो हो, तुम्हें निरंतर उनकी ओर उद्घाटित होना होगा और तब वे अधिकाधिक तुम्हारे अंदर स्थिरताके साथ घुसती जायंगी अथवा क्रमागत तरंगों या बाढोंके रूपमे आयेंगी और तबतक चलती रहेंगी जबतक कि वे तुम्हारे मन, प्राण और शरीरमें भर नही जाती । तब तुम उन्हें केवल यथार्थ वस्तुके रूपमें ही नही बल्कि अपनी वास्तविक सत्ता आत्माके अंग तथा अपनी प्रकृतिके सच्चे उपादानतत्त्वके रूपमे अनुभव करोगे ।

 

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    यदि हम केवल भावात्मक सत्ताकी भक्तिको प्रोत्साहित न करें क्योंकि निम्रतर

 

२८३


प्राण अभी संयमके अधीन नही है और भिन्न रूपसे कार्य करता है तो भक्ति भला कैसे बढ़ेगी और निम्रतर प्राण कैसे परिवर्त्तित होगा? जबतक अंतिम रूपमे प्रकृति निर्मल और सुसमंजस नही हो जाती तबतक सदा ही सत्तामें परस्पर विरोधी चीज़ें विद्यमान रहेंगी । परंतु यह कोई कारण नही कि किसी भी प्रकार उत्तम क्रियाओंकी क्रीड़ा दबा दी जाय-इसके विपरीत, ये ही चीज़ें हैं जिन्हें अर्जित करना और बढ़ाना चाहिये

 

 IV

 

     वैष्णव भावना और भक्तिको संपूर्ण हदयसे तुम्हारे स्वीकार कर लेनेकी बात वास्तवमें चौंका देनेवाली बन जाती है जब उसके साथ यह आग्रह जोड़ दिया जाता है कि जबतक कोई भगवानका अनुभव नही प्राप्त कर लेता तबतक वह उन्हें अपना प्रेम नही दे सकता । भला भक्तिके लिये भक्तिके आनन्दकी अपेक्षा वैष्णव मनोभाव- मे और कौनसी चीज अधिक प्रसिद्ध हे? वह मनोभाव चिल्ला-चिल्लाकर कहता है, ' 'मुझे भक्ति दो, चाहे और जो भी चीज मुझसे दूर क्यों न रखो । यदि तुम्हारे साथ मिलन प्राप्त करनेमें बहुत देर हों, यदि तुम्हारे अभिव्यक्त होनेमें विलंब हों तो भी मेरी भक्ति, तुम्हारे लिये मेरी खोज, मेरी पुकार, मेरे प्रेम, मेरी पूजाको सर्वदा बने रहने दो । '' कितने सतत रूपसे भक्तने गाया है, '' अपने सारे जीवन मैं तुम्हें ढूँढ़ता रहा हूँ और फिर भी तुम नही मिले हों, परंतु फिर भी मैं ढूँढ्ता हूँ और ढूँढूना, प्रेम करना और पूजा करना बन्द नही कर सकता । '' यदि भगवान्को पहले अनुभव किये बिना उनकों प्रेम करना वास्तवमें असंभव होता तो ऐसा भला कैसे होता? सच पूछा जाय तो तुम्हारा मन गाडीको हीं घोडोंसे आगे रखता प्रतीत होता है । मनुष्य सबसे पहले आग्रह अथवा जोशके साथ भगवान्की खोज करता है और उसके बाद ही उन्हें पाता है, कुछ लोग दूसरोंसे जल्दी पाते हैं, पर अधिकांश लोग दीर्घकालकी खोजके बाद ही पाते हैं । कोई उन्हें पहले पाकर फिर उनकी खोज नही करता । उनकी एक झांकी भी बहुधा केवल दीर्घ और तीव्र खोजके बाद ही मिलती है । मनुष्यको भगवानके लिये प्रेम होता है अथवा किसी हदतक उन्हें पानेकी हदयकी थोडी आकांक्षा होती है और उसके बाद ही वह ईश्वर-प्रेमको, हदयकी आकांक्षक प्रति उनके उत्तरको, परम हर्ष और आनन्दके उनके प्रत्युत्तरको जानता है । कोई भगवान्से यह नही कहता, ' 'पहले तुम अपना प्रेम दिखाओ, अपने अनुभवोंको मेरे ऊपर बरसाओ, मेरी मांग पूरी करो, फिर मैं देखूँगा कि जबतक तुम मेरे प्रेमके योग्य हों तबतक मैं तुम्हें प्यार कर सकता हूँ या नही । '' सच पूछा जाय तो निश्चय ही साधकको पहले खोजना और प्यार करना होगा, अन्वेषण करते रहना होगा,' अन्वेषित के लिये आतुर बन जाना होगा - केवल तभी पर्दा खिसकता है और ज्योति प्रकट होती हे और परमप्रियका मुखमंडल प्रत्यक्ष होता है और केवल वही मरुभूमिकी उसकी लबी यात्राके बाद जीवको संतुष्ट कर सकता है ।

 

२८४


पर फिर तुम कह सकते हों, ' 'हा, पर मैं प्यार करता होऊं या नही, मैं चाहता जरूर हूँ, मैंने सदा ही चाहा है और अब मैं और भी अधिक चाहता हूँ, पर मैं पाता कुछ नही हूँ । '' हां, पर चाहना हीं सब कुछ नही हैं । जैसा कि अब तुमने देखना आरंभ किया है, कुछ शर्ते हैं जिन्हें पूरा करना होगा - हदयकी शुद्धिकी तरह । तुम्हारी प्रस्थापना यह थी कि ' 'जब एक बार मैं भगवान्को चाहता हूँ तो भगवान्को अवश्यमेव मेरे सामने प्रत्यक्ष होना चाहिये, मेरे पास आना चाहिये, कम-से-कम मुझे अपनी झांकियां देनी चाहिये, यथार्थ, ठोस, वास्तविक अनुभूति देनी चाहिये न कि महज अस्पष्ट चीज़ें जिन्हें मैं न तो समझ सकूं न मूल्य दे सकूं । ईश्वरकी करुणा-शक्तिको उसके प्रति जो मेरी पुकार है उसका उत्तर अवश्य देना चाहिये, चाहे मैं अभी उसके योग्य होऊं या नहीं -अन्यथा करुणा-शक्ति नामकी कोई वस्तु नही है । '' ईश्वरकी करुणा-शक्ति निस्संदेह कुछ लोगोंके लिये वैसा कर सकतीं है, पर भला यह '' अवश्य' ' कहांसे आ टपकता है ' यदि ईश्वरको ऐसा अवश्य करना चाहिये, तो फिर वह अब ईश्वरकी करुणा नही रह जाती, बल्कि वह ईश्वरका कर्तव्य या दायित्व या ठेका या संधि हों जाता है । भगवान् हदयके भीतर झांकते हैं और उस क्षण वह पर्देको हटा देते हैं जिसे वह वैसा करनेका यथार्थ क्षण समझते हैं । तुमने इस भक्ति-सिद्धातपर जोर दिया है कि केवल उनका नाम पुकारनेकी जरूरत है और उन्हें अवश्य उत्तर देना चाहिये, उन्हें तुरत वहां उपस्थित हों जाना चाहिये । शायद, पर किसके लिये यह सत्य है? निस्संदेह, एक विशेष प्रकारके भक्तके लिये जो नामकी शक्तिको अनुभव करता है, उसमें प्रियतमके लिये आतुरता है और उसे वह अपनी पुकारमें भी शामिल करता है । यदि कोई ऐसा हों तो तुरत उत्तर आ सकता है -- यदि नही हे तो उसे वैसा बनना होगा, तब उत्तर अवश्य आयेगा । परंतु कुछ लोग वर्षों नाम-जप करते रहते हैं और उसके बाद ही उत्तर आता है । स्वयं रामकृष्णने कुछ महीनोंके बाद पाया था, पर कैसे महीनों । और उन्हें उसे पानेसे पहले कैसी स्थितिमेंसे गुजरना पड़ा! फिर भी उन्हें शीघ्र सफलता मिली क्योंकि उनका हृदय पहलेसे ही पवित्र था - और वह दिव्य आवेग उसमें था ।

 

    निस्संदेह भक्त नही बल्कि ज्ञानी पहले अनुभवकी मांग करता है । वह कह सकता है, ' 'मैं अनुभवके बिना कैसे जान सकता हूँ?'' पर वह भी तोता पुरीकी तरह तीस वर्षोंतक भी खोजता रहता हे, सुनिश्चित उपलब्धि पानेका प्रयत्न करता रहता है । वास्तवमें बुद्धिप्रधान, तार्किक मनुष्य हीं यह कहता है, ' 'यदि भगवान् है तो वह पहले अपनेको मेरे सम्मुख सिद्ध करे, तब मैं विश्वास करूँगा, तब मैं उसका अन्वेषण करनेके लिये कोई गंभीर और दीर्घ प्रयास करूँगा और देखूँगा कि वह कैसा है । ''

 

   इस सबका मतलब यह नही है कि अनुभव साधनाके लिये अनावश्यक है -- मैनई अवश्य ही ऐसी बेमतलब बात नहीं कही होगी । मैंने जो कहा है वह यह है कि अनु- भव आनेसे पहले भगवानके प्रति प्रेम और उनकी खोज हो सकतीं हे और सामान्यतया रहती हे -- यह चीज एक सहजवृत्ति है, अंतरात्मामें अंतर्निहित एक उत्कंठा है और ज्योंही अंतरात्माका कोई आवरण दूर होता है या दूर होना आरंभ करता है, वह ऊपर आ जाती है । दूसरी बात मैंने यह कही है कि ' 'अनुभूतियों' 'के

 

२८५


आरंभ होनेसे पहलें प्रकृतिको तैयार कर लेना (विशुद्ध हृदय आदि-आदि) अधिक अच्छा है, न कि उससे उलटी बात, और मैं इसे उन उदाहरणोंके आधारपर कहता हूँ जिनमें सच्ची अनुभूतिके लिये हृदय बार प्राणके तैयार होनेसे पहले ही अनुभूतियोंके कारण खतरा उत्पन्न हुआ है । अवश्य ही, बहुतसे लोगोंको सच्ची अनुभूति पहले प्राप्त होती है, कृपाका एक स्पर्श मिलता है, पर यह ऐसी चीज नहीं होती जो स्थायी हों और वहां सर्वदा रहती हों, बल्कि वह एक ऐसी चीज होती है जो स्पर्श करती, पीछे हट जाती और प्रकृतिके प्रस्तुत हो जानेकी प्रतीक्षा करती है । पर यह प्रत्येक मनुष्यके स्थल नही घटित होता, मेरी समझमें, अधिकसंख्यक लोंगोंके साथ भी नही घटित होता । मनुष्यको अंतरात्माकी अंतर्निहित उत्कंठासे आरंभ करना होता है, तब मंदिर- के प्रस्तुत होनेके लिये प्रकृतिके साथ संघर्ष होता है, फिर दिव्य विग्रहका उद्घाटन होता और अन्तमें देवालयमें देवताकी स्थायी उपस्थिति आ जाती है ।

 

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    प्राचीन योगी और जिज्ञासु जिस वस्तुके लिये सर्वप्रथम प्रार्थना करते थे वह थी शांति और जिस अवस्थाको वे भगवानके साक्षात्कारके लिये सर्वोत्तम घोषित करते थे वह थी मनकी अचंचलता और निश्चल-नीरवता - और इससे सदा ही परम शांतिकी प्राप्ति होती है । प्रसन्न और आलोकित हृदय आनन्दके लिये उपयुक्त आधार है, और यह भला कौन कहेगा कि आनन्द या जो कुछ उसे तैयार करता है, भागवत मिलनमे बाधक होता है? जहांतक निराशाका प्रश्न है, यह निश्चय ही, मार्गका घोर दुर्वह भार है । व्यक्तिको कभी-कभी इसमेंसे गुजरना होता है, जैसे ' 'पथिककी प्रगति  नामक कथाके ईसाई नायकको निराशाकी दलदल- भैंसे गुजरना पड़ा था । परंतु बार-बार इसीकी रट लगाते रहना बाधाके सिवा और कुछ नही हों सकता । गीता तो विशेष रूपसे कहती है: ' 'निराशारहित हदयसे ' अनिर्विण्णचेतसा' ( ६२३), योगका अभ्यास करो । '' मुझे खूब अच्छी तरह पता है कि दुख-दर्द एवं संघर्ष तथा घोर निराशा स्वाभाविक हैं, यद्यपि ये चीजे मार्गकी अवश्यंभावी चीजे नही हैं । ये स्वाभाविक इस कारण नही है कि ये सहायिका हैं, वरन् इसलिये हैं कि ये इस मानवीय प्रकृतिके अंधकारद्वारा हमपर लादी जाती हैं, जिस अधकारमेंसे संघर्ष करते हुए हमें प्रकाशकी ओर जाना है । मैं नही समझता कि तुमने रामकृष्ण और विवेकानन्दके जीवनकी जिन घटनाओंकी चर्चा की है उनके बारेमें वे यह सलाह देते कि ये दूसरोंके लिये अनुकरणीय दृष्टांत हैं - वे तो निश्चित रूपसे यही कहते कि श्रद्धा, धैर्य तथा अध्यवसाय हीं अधिक उत्तम मार्ग हैं । इन अशुभ घड़ी- योंके होते हुए भी अंततोगत्वा वे इसी मार्गपर डटे रहे. । जो हों, रामकृष्णने नारद और एक तपस्वी योगी तथा एक वैष्णव भक्तकी कहानी कहकर उससे मिलनेवाली शिक्षाका समर्थन किया था । मैं उसके सारांशकी रक्षा करते हुए उसे अपने शब्दोंमें रखता हूँ । नारद जब वैकुंठ जा रहे थे तो मार्गमें उनकी एक योगीसे भेंट हुई जो पहाड-

 

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पर घोर तपस्या कर रहा था । योगीने चिल्लाकर कहा, ' 'नारद महाराज! आप तो वैकुठ जा रहे हैं और वहां आप विष्णु भगवान्से मिलेंगे । मैं जीवनभर भीषण तप करता रहा हूँ, परंतु अभीतक मैंने उन्हें प्राप्त नही किया हैं । कृपया मेरे लिये उनसे केवल इतना पूछियेगा कि मैं उन्हें कब प्राप्त करूँगा । '' आगे चलकर नारद एक वैष्णव- से मिले, वह वैष्णव भक्त हरिकीर्तन कर रहा था और अपने कीर्तनके साथ-साथ नाच भी रहा था । वह भी चिल्लाकर बोला: ' 'हे नारदजी! आप मेरे प्रभु भगवान् हरिसे मिलेंगे । उनसे पूछियेगा कि कब मैं उनके पास पहुंचकर उनकी मुखछबि देखूँगा । '' लौटते हुए नारद मुनि पहले उस योगीके पास आये और बोले, ' 'मैनई विष्णुसे पूछा है । तुम उन्हें और छ: जन्मोंके बाद प्राप्त करोगे । '' योगीके मुखसे अत्यत दुःखभरी चीख निकल पडी. ' 'हाय-हाय! इतनी अधिक तपस्याएं! ऐसे विकट पुरुषार्थ! कितने कठोर हैं भगवान् विष्णु मेरे प्रति! '' इसके बाद नारदजी भक्तिसे मिले और बोले. ' 'तुम्हारे लिये मेरे पास कोई अच्छी खबर नही है । तुम्हें भगवानके दर्शन होंगे तो सही, पर एक लाख जन्मोंके बाद । '' परंतु भक्त अतिहर्षके मारे उछल पड़ा और चिल्लाने लगा: '' ओह! मैं अपने प्रभुवर हरिके दर्शन करूँगा । एक लाख जन्मोंके बाद मैं अपने प्रभुवर हरिके दर्शन करुंगा! भगवान्की कितनी महान् कृपा है! '' वह नये हर्षावेशमें साथ नाचने-गाने लगा । तब नारदजीने कहा, ' 'तुमने भगवान्को पा लिया है । आज हीं तुम्हें भगवानके दर्शन होंगे । '' हां, तो आप कहेगे, ' 'कैसी अत्युक्तिपूर्ण कहानी है और मानव प्रकृतिके कितने विपरीत! '' पर वास्तवमें यह उतनी विपरीत है नही और कम-से-कम हरिश्चंद्र तथा शिविका कहानियोंसे अधिक अतिशयोक्तिपूर्ण तो शायद नही है । फिर भी, मैं उस भक्तको आदर्शके रूपमे नहीं पेश करता, क्योंकि मैं स्वयं इसी जीवनमें साक्षात्कार करनेपर आग्रह करता हूँ, न कि छ: या लाख जन्मोंके बाद । परंतु इन कहानियोंकी मार्मिक बात है इनसे मिलनेवाली शिक्षा, और निस्संदेह जब रामकृष्णने यह कहानी कही थी तो वे इस बातसे अनभिज्ञ नही थे कि योगका एक ज्योतिर्मय मार्ग भी है । वे यहांतक कहते दिखते हैं कि वह बहुत शीघ्र पहुँचानेवाली तथा अधिक अच्छा मार्ग है । अतएव ज्योतिर्मय मार्गकी संभावनाकी बात मेरा निजी अनुसंधान या मौलिक आविष्कार नही है । तीस वर्षसे भी अधिक पूर्व मैनई योगकी जो पुस्तकें ण्हले-पहल पढो थी रत्रनमें अंधकारमय तथा ज्योतिर्मय पथका वर्णन था और यह भी बलपूर्वक कहा गया था कि इनमेंसे पिछला पहलेकी अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है ।

 

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     ठीक क्रिया है शुद्ध अभीप्सा और समर्पण । परंतु व्यक्तिको भगवान्से यह अनु- रोध करनेका अधिकार नही है कि वे अपनेको प्रकट करें ही । अभिव्यक्ति तो चेतनाकी आध्यात्मिक या आंतरात्मिक अवस्थाके या ठीक प्रकारसे किये गायें सुदीर्घ साधना- म्यासके उत्तरके रूपमें हीं संपत्र हों सकती है । अथवा, यदि यह उसके पूर्व या किसी प्रत्यक्ष कारणके बिना संपत्र हो तो वह कृपा है । परंतु व्यक्ति कृपाकी मांग नहीं कर

 

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सकता या उसे बाध्य नहीं कर सकता । कृपा तो स्वत:स्फूर्त्त वस्तु है जो भागवत चेतना- से उसकी सत्ताके स्वच्छन्द प्रवाहके रूपमें प्रसवित होतीं है । भक्त इसकी बाट जोहता है; पर वह पूरे विश्वासके साथ - जरूरत हो तो जीवनभर भी -- प्रतीक्षा करनेके लिये तैयार होता है - यह जानते हुए कि वह प्रान्त होगी ही । वह अपने प्रेम तथा समर्पणमें यह सोचकर कभी हेरफेर नहीं करता कि कृपा अभी या जल्दी क्यों नही प्राप्त होती । स्वयं तुमने भक्तोंके जो कितने ही पद गायें हैं उनकी भी यही भावना है । कुछ समय पूर्व मैन एक ऐसा ही गीत तुम्हारे मुखसे रिकार्डमें सुना था और वह अत्यंत सुंदर था और सुन्दरताके साथ गाया गया था -- ' 'चाहे मैंने तुम्हें पाया नहीं है पर, हे नाथ, फिर भी मैं तेरी उपासना करता हूँ ।

 

     तुम्हारी भगवत्प्राप्तिमें बाधा पहुँचानेवाली चीज है प्राणगत अधीरताका चंचल तत्व तथा भगवान्से तुम जो कुछ चाहते हों उनकी अप्राप्तिसे लगातार बार-बार पैदा होनेवाली दृढ निराशा । तुम्हारी निराशा एवं अधीरताभरी भावना यह है कि ' 'मैं इसे इतना चाहता हूँ, मुझे यह अवश्यमेव मिलना चाहिये, यह मुझसे क्यों रोककर रखा गया है?'' परंतु चाह चाहे कितनी भी प्रबल क्यों न हो, वह पानेके लिये कोई आदेश-पत्र नही है. इसके लिये इसके अतिरिक्त कुछ और भी अपेक्षित है । हमारा अनुभव यह कि अतिमात्र प्राणिक उत्सुकता, अत्यधिक आग्रह प्रायः मार्गमें बाधक ही होता है । यह एक प्रकारके विघ्र-बाधासमूहकी या चांचल्य एव विक्षोभके ऐसे बवंडरकी सृष्टि करता है जो भगवानके प्रवेशके लिये या अभीष्ट वस्तुके आगमनके लिये जरा-सा भी शांत अवकाश नही छोड़ता । वह इष्ट वस्तु प्राय. आती तो अवश्य है पर उस समय जब अधीरताका निश्चित रूपसे त्याग किया जा चुका हों और व्यक्तिको जो कोई भी चीज दी जाय (या, कुछ समयके लिये, न भी दी जाय) उसकी वह शांत- भावसे खुला रहकर प्रतीक्षा करे । परंतु जब तुम सच्ची भक्तिको और अधिक बढ़ाने के लिये मार्ग बना रहे होते हो तब कितनी ही बार इस प्राणिक तत्वका स्वभाव उमडकर अपना अधिकार जमा लेता है और की हुई उत्रतिको जहांका तहां रोक देता है ।

 

   अप्रसत्रताका भी अ उद्गम हे प्राण । कुछ अंशमें निराशा भी इसका कारण होती है, पर यहीं एकमात्र कारण नही है । क्योंकि यह अतीव सर्वसामान्य घटना है कि जब प्राणपर मन तथा आत्माका दबाव पड़ता है तो यह प्रायः सात्त्विक वैराग्यके स्थानपर राजसिक या तामसिक वैराग्य धारण कर लेता है । यह किसी भी वस्तुमें रस लेनेसे इनकार करता है, रूक्ष, उदासीन या अप्रसन्न हो जाता है । अथवा, यह कहता है, ' 'भला, जो सिद्धि प्रदान करनेका तुमने मुझे वचन दिया था वह मुझे क्यों नहीं मिलती? मैं प्रतीक्षा नहीं कर सकता । '' इससे छुटकारा पानेका सबसे अच्छा तरीका यह है कि व्यक्ति इसका निरीक्षण करते हुए भी अपनेको इससे एकाकार न करे । यदि मन या मनका कोई भाग अनुमति दे या समर्थन करे तो, यह अवस्था डटी रहेगी या पुनः-पुन: आयेगी । यदि दुख अटल रूपसे आना ही हो तो जिस प्रकारके दुःखका तुमने अपने विगत पत्रमें वर्णन किया है वह अपेक्षाकृत वांछनीय है, वह विषाद जिसमें माधुर्य हों -- निराशा नामभर भी नही, सच्ची चीजके आनेके लिये आंत-

 

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रात्मिक स्पृहामात्र हों । शुद्ध तथा सच्ची भक्तिके बढ़नेपर ऐसी स्पृहा अवश्य उत्पन्न होगी ।

 

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      जिस विकट स्थितिकी तुम चर्चा करते हों उससे निकालनेके पथका जहांतक प्रश्न है, मैं केवल एक ही पथ जानता हूँ मनको अचंचल बना देना जिससे ध्यान फलोत्पादक बन जाता है, हृदयको शुद्ध करना जिससे भागवत स्पर्श प्राप्त होता है और यथासमय भागवत उपस्थितिका बोध होता है, भगवानके सम्मुख नत रहना जो मन और प्राणको अहंभाव तथा अहंतासे मुक्त करता है --उस अहंतासे जो आत्माकी पद्धतियोंपर अपने निजी युक्ति-तर्कको थोपती है और उस अहंतासे जो आत्मसमर्पण करना अस्वी- कार करती या करनेमें असमर्थ होती है -- अंतरमें दृढ़तापूर्वक सतत पुकारते रहना और ऊर्ध्वस्थित भागवत करुणापर निर्भर रहना । ध्यान, जप, प्रार्थना या हदयकी अभीप्सा सभी सफल हो सकते हैं यदि उनके साथ ये चीज़ें अथवा कम-से-कम इनमेंसे कुछ चीज़ें विद्यमान हीं । मुझे पूरा विश्वास है कि जिस मनुष्यमें पुकार है वह यदि भगवान्की ओर ले जानेवाले पथका अनुसरण धैर्यपूर्वक करे तो वह लक्ष्यतक पहुँचनेमें असफल नही हो सकता ।

 

     मैने अवश्य हीं ऐसा कभी नही कहा है कि तुम्हें भगवानके प्रत्युत्तरकी चाह नहीं करनी चाहिये । मनुष्य उसीके लिये योग करता है । मैनई जो कुछ कहा है वह यह है कि उसे तुरत या किसी थोडेसे समयके भीतर पानेकी आशा नही करनी चाहिये अथवा उसके लिये आग्रह नहीं करना चाहिये । वह शीघ्र आ सकता या देरसे आ सकता है, पर वह आयेगा अवश्य यदि कोई श्रद्धाके साथ पुकारे । इसके लिये महज सच्चा होना ही जरूरी नही है बल्कि सब प्रकारसे श्रद्धासंपन्न होना जरूरी है । यदि मैं आग्रह करनेकी मनाही करता हूँ तो इसका कारण यह है कि मैनई सर्वदा ही यह देखा है कि यह चीज कस्निाइयां उत्पन्न करती है और दबाव तथा बेचैनी उत्पन्न होनेके कारण विलंब होता है -- जब आग्रहकी तुष्टि नही होती तो प्रकृतिमें यह दबाव और बेचैनी तथा प्राणमें निराशाए और विद्रोह उत्पन्न होते हैं । भगवान् सबसे अच्छे रूपमें जानते हैं और मनुष्यको उनकी विज्ञतापर विश्वास रखना चाहिये तथा उनके संकल्पके साथ अपने- आपको समस्वर बनाये रखना चाहिये । समयकी दीर्घता लक्ष्यपर पहुँचनेकी अंतिम अक्षमताका कोई सबूत नहीं है: यह बस इस बातका चिह्न है कि मनुष्यमें कोई ऐसी चीज है जिसे जीतना होगा, और यदि भगवान्को प्राप्त करनेका संकल्प हों तो उसे जीता जा सकता है ।

 

      यदि कोई एकदम जीवनसे पलायन कर जाना चाहे तो वह इसे केवल पूर्ण आत- रिक त्यागके द्वारा अथवा अपनेको परम ब्रह्मकी निश्चल-नीरवतामे डुबोकर अथवा उस भक्तिके द्वारा जो निरपेक्ष बन जाती हैं अथवा उस कर्मयोगके द्वारा जो अपनी निजी

 

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 इच्छा और कामनाओंको भगवानके संकल्पको अर्पित कर देता हे, कर सकता है । मैंने यह भी कहा है कि भगवत्कृपा किसी भी मुहूर्त्त एकाएक कार्य कर सकतीं है, पर उसके ऊपर मनुष्यका कोई अधिकार नही है, क्योंकि वह एक असीम संकल्प से आती है जिसे मनुष्य नहीदेख सकता । ठीक यही कारण है कि मनुष्यको कभी निराश नही होना चाहिये, इससे और फिर इस कारण भी निराश नही होना चाहिये कि भगवानके लिये की हुई कोई सच्ची अभीप्सा अंतमें असफल नही हो सकती ।

 

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       आध्यात्मिक वस्तुओंका केवल एक ही युक्ति-तर्क है; वह यह कि जब भगवानके लिये कोई चाह, कोई सच्ची पुकार होती है तो वह एक दिन अपनी चरितार्थता प्राप्य करनेको बाध्य होती है । सच पूछा जाय तो जब कही कोई प्रबल. असच्चाई होती हे, किसी अन्य वस्तुके लिये - शक्ति, महत्त्वकांक्षी आदिके लिये - तीव्र लालसा होती है जो आंतरिक पुकारको व्यर्थ कर देती हे तो फिर वह युक्ति-तर्क लागू नहीं होता । तुम्हारे प्रसंगमें हदयके द्वारा, भक्तिके बढ़ जानेपर अथवा हदयकी आंतरात्मिक शुद्धि हो जानेपर उसके आनेकी ( पुकारके पूरा होनेकी) संभावना है; यही कारण है कि मैं तुम्हारे ऊपर चैत्य पथको ग्रहण करनेका दबाव डालता था ।

 

      इन भ्रांत भावनाओं और वेदनोंको अपने ऊपर शासन मत करने दो या अपने विषादकी स्थितिको अपने लिये निर्णय न देंने दो : उपलब्धिके लिये सुदृढ़ केंद्रीय संकल्प बनाये रखनेका प्रयत्न करो; तुम ऐसा कर सकते हो यदि तुम ऐसा करनेका निश्चय कर लो, इन चीजोंको करना असंभव नहीं है । तुम अनुभव करोगे कि आध्या- त्मिक कठिनाई अन्तमें मृगमरीचिकाकी तरह विलीन हो जाती हे । यह शारीर सत्ता- से संबंध रखती है और, जहां आंतरिक पुकार सच्ची होती है वहां, बाह्य चेतना भी सर्वदा टिक नही सकती. इसकी आपातदृष्ट घनता गल जायगी।

 

      निस्संदेह, तुम्हारा भक्तिकी याचना करना उचित है । क्योंकि मेरी समझमें तुम्हारी प्रकृतिकी यही सर्वप्रधान माँग है । उस विषयके लिये यह वह प्रबलतम चालक- शक्ति है जो साधनामें हो सकतीं है और उस सबके लिये सर्वोत्तम साधन है जिसे प्राप्त करना है । यही कारण है कि मैंने यह कहा था कि वास्तवमें हदयके माध्यमसे ही तुम्हें आध्यात्मिक अनुभूति प्राप्त होनी चाहिये ।

 

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 जहांतक कृष्णके विषयमें प्रश्न है, क्यों न सरल-सीधे ढंगसे उनकी ओर आगे बढ़ा जाय? सरल भावसे बढ़नेका मतलब है उनपर विश्वास रखना । यदि तुम प्रार्थना करते हों तो विश्वास रखो कि वे सुनते हैं । यदि उत्तर आनेमें देर लगती हो तो विश्वास रखो कि वे जानते हैं और प्रेम करते हैं तथा समयका चुनाव करनेके बारमें

 

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परम बुद्धिमान् हैं । इस बीच चुपचाप जमीन साफ करो ताकि जव वे आयें तो उन्हें कंकड़-पत्थर और झाड-झंखाडपर लड़खडाना न पड़े । यही मेरा सुझाव है और जो कुछ मैं कह रहा हूँ उसे मैं खूब समझता हूँ - क्योंकि तुम चाहे जो कहो, मुझे सब मानवी कठिनाइयां और संघर्ष खूब अच्छी तरह मालूम हैं और उनका इलाज भी मुझे मालूम है । इसी कारण मैं सदा ऐसी चीजोंपर जोर देता हूँ जो संघर्षों और कठिनाइयोंको बहुत कम तथा छोटा कर देगी,--आंतरात्मिक वृत्ति, श्रद्धा, पूर्ण और सरल विश्वास तथा भरोसा । स्मरण रहे कि ये वैष्णव योगके सिद्धांत हैं । निःसंदेह, एक और वैष्णव पद्धति भी है जो उत्कंठा तथा निराशा - तीव्र स्पृहा और विरह-वेदनाके बीच झूलती रहती है । तुम उसीका अनुसरण करते दीखते हो और मैं इस बातसे इत्कार नही करता कि मनुष्य इससे लक्ष्यपर पहुँच सकता है जैसे बह प्रायः किसी भी विधिसे पहुँच सकता है यदि वह उसका सच्चाईके अनुकरण करे । परंतु तब, जो लोग उसका अनुसरण करते हैं दे विरहमे -- परम प्रेमी भगवानके वियोग तथा उनकी मनमौजमें भी रस अनुभव करते हैं । उनमेंसे कुछने यह गाया है कि उन्होंने अपने जीवनभर उनकी खोज की है पर सदा ही वह उनकी दृष्टिसे ओझल हो गये हैं और इस चीजमें भी उन्हें रस मिलता है और वे खोजना कभी नहीं छोड़ते । परंतु तुम्हें इसमें कुछ रस नहीं मिलता । अतएव तुम मुझसे यह आशा नहीं कर सकते कि मैं तुम्हारे लिये इसका समर्थन करुँ । कृष्णकी खोज अवश्य करो, परंतु खोजों इस दृढ निश्चयके साथ कि तुम अवश्य उन्हें पाओगे; विफलताकी आशा लेकर खोकै मत करो अथवा अधबीचमें छोड़ बैठनेकी किसी भी संभावनाको अपने. अंदर मत घुसने दो ।

 

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         मुझे कृष्णकी पूजा या वैष्णव मत्तकी भक्तिके लिये जरा भी आपत्ति नहीं है, और न वैष्णव भक्ति और मेरे अतिमानसिक योगमें कोई विरोध है । सच पूछा जाय तो अतिमानसिक योगका कोई विशेष और ऐकांतिक रूप नहीं है; सभी मार्ग अति- मानसकी ओर ले जा सकते हैं, ठीक जैसे कि सभी मार्ग भगवान्तक पहुँचा सकते हैं ।

 

     यदि तुम लगातार प्रयास करते रहो तो तुम जिस स्थायी भक्ति और जिस उप- लब्धिको पाना चाहते हो उसे पानेमें तुम असफल नही होंगे । परंतु तुम्हें कृष्णपर पूर्ण रूपसे यह भरोसा रखना सीखना होगा कि जब वह समझेंगे कि सब कुछ तैयार हों गया है और यथार्थ समय आ गया है तब वह उसे अवश्य देंगे । यदि वह चाहते हैं कि तुम अपनी अपूर्णताओं और अशुद्धियोंको पहले दूर करो तो वह आखिरकार समझ- मे आने योग्य बात है । मैं नहीं समझता कि तुम इसे करनेमें क्यों सफल नहीं हों सकते, अब जब कि तुम्हारा ध्यान इतने सतत रूपसे इसकी ओर आकृष्ट किया जा रहा हे । उन्हें साफ-साफ देखना और उन्हें स्वीकार करना पहला पग है, उन्हें त्याग करनेका प्रबल संकल्प बनाये रखना दूसरा पग है, उनसे अपने-आपको

 

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संपूर्णत: पृथक् कर लेना जिसमे कि यदि वे प्रवेश भों करे तो यह मानो विजातीय तत्त्वों- का आना हों, अब वे तुम्हारी सामान्य प्रकृतिके अंग न रहें बल्कि बाहरसे आनेवाली सूचनाएँ हों -- यह अंतिम पग है; यहांतक कि, एक बार देखे जाने और त्यागे जानेके बाद वे अपने-आप झड़ जा सकती और विलीन हो सकतीं है, परंतु अधिकांश लोगोंके लिये इस प्रक्रियामें काफी समय लगता है । ये चीज़ें तुम्हारी प्रकृतिकी ही अनूठा बातें नहीं है, ये विश्वव्यापी मानव-प्रकृतिके अंग हैं; पर वे विलीन हों सकती हैं, अवश्य होती हैं और अवश्य होगी ।

 

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        अब उस प्रश्नपर आयें जो तुम्हें परेशान करता है । वास्तवमें यह प्रश्न इस कारण उठता है कि भक्तकी भावना और आलोचककी आलोचनाके बीच तुम्हारे मनमें कुछ भ्रम है । निस्संदेह, भक्त कृष्णको इसलिये प्यार करता है कि कृष्ण प्रिय हैं, और किसी कारणसे नहीं करता; बस यही है उसकी भावना और उसकी सच्ची भावना । उसे इस विषयमें अपना सिर खपानेके लिये समय नही होता कि उसके अंदरकी किस चीजने उसे प्रेम करनेके योग्य बनाया है । यह तथ्य कि वह प्रेम करता है उसके लिये पर्याप्त होता है और उसे अपने भावोंका विश्लेषण करनेकी आवश्यकता नही होती । उसके लिये कृष्णकी कृपा रहती है उनके प्रेमयोग्य होनेमें, भक्तके सम्मुख उनके प्रकट होनेमें) उनकी पुकारमें, वंशीकी ध्वनिमें । यह हदयके लिये पर्याप्त है, अथवा यदि इसके अतिरिक्त और कोई चीज हो तो वह होतीं है यह उत्कंठा कि दूसरे या सब लोग उस वंशीको चुनें, उस मुखमंडलका दर्शन करे, इस प्रेमके समस्त सौंदर्य और परमानन्दको अनुभव करे ।

 

      सच पूछो तो भक्तका हृदय नही बल्कि आलोचकका मन यह प्रश्न उठाता है कि यह क्या बात है कि गोपियोंको ही पुकारा गया और उन्होंने तुरत प्रत्यूउत्तर दिया और दूसरोंको -- उदाहरणार्थ, ब्राह्मण स्त्रियों -- नही बुलाया गया और उन्होंने तुरत प्रत्युत्तर नही दिया । एक बार जब मन प्रश्न उठाता है तो इसके दो उत्तर संभव होते है. बिना किसी कारण महज कृष्णकी इच्छासे ऐसा होता है, यह वह चीज हे जिसे मन उनका निरपेक्ष दिव्य चुनाव या उनकी निरंकुश दिव्य मनमौज अथवा जिस हदयकी पुकार हुई हैं उसकी तैयारी कहेगा और यह ठीक उस चीजके समान है जिसे लोग अधिकार-भेद कहते हैं । तीसरा उत्तर होगा : परिस्थितियोंका वश ऐसा होता है, जैसे, ' ' के कथनानुसार '' आध्यात्मिक क्षेत्रको बंद सुरक्षित स्थानके रूपमें परिवे- ष्टितकर रखना । '' परंतु परिस्थितियां भला भगवत्कृपाको कार्य करनेसे कैसे रोक सकती हैं? परिवेष्टित कर देनेके बावजूद भी वह कार्य करती है ईसाई, मुसलमान भीं कृष्णकी कृपाशक्तिको प्रत्युत्तर देते हैं । बाघ और भूत-पिशाच भीं यदि उन्हें देख लें, उनकी वंशीध्वनि सुनें तो उन्हें प्यार करने लगेंगे? हां, पर कुछ लोग क्यों उसे सुनते और उन्हें देखते हैं पर दूसरे नही सुनते और देखते? यहां दो विकल्प हमारे

 

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सामने आ उपस्थित होते हैं कृष्णकी कृपा उन्हें पुकारती है जिन्हें वें पुकारना चाहते है और उनके चुनाव या त्यागके लिये कोई निश्चयात्मक कारण नहीं होता, बस यह सब उनकी कृपा है अथवा उनकी कृपाका पीछे हट आना या कम-से-कम विलंबित होना है अथवा वह ऐसे हृदयोंको पुकारते हैं जो स्पंदित होनेके लिये तैयार होते हैं और उनकी पुकार होते ही उछल पड़ते हैं -- और उस स्थितिमें भी वह यथार्थ मुहूर्त आनेतक प्रतीक्षा करते हैं । यह कहना कि यह बाहरी विशेषता या योग्यताके दिखावेपर नही निर्भर करता, निस्संदेह सत्य है, हों सकता है कि कोई चीज उसे आवृत्त करनेवाली बहुतसी कठोर परतोंके बावजूद जागृत होनेके लिये तैयार हों गयी हों, हों सकता है कि कोई वस्तु कृष्णके लिये दृश्य हो और हम लोंगोंके लिये न हो । संभवत: उसी स्थानमे बहुत दिन पहले वंशी बजनी शुरू हों गयी थी, पर कृष्ण कठोर परतोंको गलानेमें व्यस्त थे जिसमें कि जगानेवाले सुरके बढ़नेपर जब हृदय उछल पड़े तब फिर वे चीज़ें उसे अपने नीचे न दबा दे । गोपियोंने सुना और वे जंगलमे दौड कर चली गयी, दूसरी स्त्रियों नही गयी, --अथवा, क्या उन्होंने यह समझा कि यह केवल कोई ग्राभ्य संगीत है अथवा कोई गवार ग्वाला-प्रेमी अपनी प्रेमिकाके लिये वशी बजा रहा हैं कोई ऐसी पुकार नही है जिसे सुशिक्षित और सुसंस्कृत या धार्मिक लोग भगवान्की पुकार समझमें? आखिरकार कुछ बातें अधिकार-भेदक विषयमें भी कहने योग्य हैं । परंतु, इसमें संदेह नही कि, उन्हें व्यापक अर्थमें समझना होगा । कुछ लोगोंमें कृष्णकी वंशी पहचाननेका अधिकार हों सकता है, कुछको ईसाकी पुकार पहचाननेका, कुछको शिवकानृत्य पहचाननेका -- प्रत्येकका भागवत पुकारके उत्तरका अपना निजी ढंग और उसकी प्रकृतिका निजी उत्तर होगा । अधिकारको मनके कठोर शब्दोंमे नही व्यक्त किया जा सकता यह एक आध्यात्मिक और सूक्ष्म वस्तु है, आह्वानकारी और आहूतके बीच- की कोई गुह्य और गुप्त वस्तु है ।

 

          गर्वसे फूले मस्तकका जहांतक प्रश्न है, भगवत्कृपाका सिद्धांत निस्संदेह, उसके घटित होनेमें सहायक नही होता, यद्यपि मैं यह कल्पना कर सकता हूँ कि उक्त मस्तकने कभी कृपाका अनुभव नही किया था बल्कि केवल अपने निजी अहंके महत्त्वको अनुभव किया था । गर्वसे फूलनेका भाव व्यक्तिगत प्रयासके मार्गमें भी उसी प्रकार आ सकता है जैसे कि भगवत्कृपाकी लालसासे आ सकता है । मूलतः इसका कारण इन दोनोंमेंसे कोई नही हे, बल्कि इसका कारण इस प्रकारकी सूजनकी एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है ।

 

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         राधा अनन्य भगवत्प्रेमकी प्रतिमा हैं - ऐसा अनन्य भगवत्प्रेम जो प्रेमीके ऊर्ध्वतम आध्यात्मिक सत्तासे लेकर शरीर सत्तातक सर्वांगमें परिपूर्ण और अखंड हो, जिसमें कि निरपेक्ष आत्मदान और पूर्ण समर्पण हो और जो शरीरमें तथा अत्यंत जड़ प्रकृतिमे परमानन्द भर दे ।

 

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       राधा-कृष्णकी प्रतिमा देखनेपर काम-वृत्तिके उठनेका कारण यह है कि प्राचीन समयमें राधा-कृष्ण-भक्तिपंथके साथ उसका संबंध था । परंतु वास्तवमें प्रतिमाके साथ उसका कोई संबंध नहीं । उसका सच्चा रूपक मानवीय कामजन्य आकर्षण नहीं होगा, बल्कि अंतरात्मा, चैत्य पुरुष, भागवत पुकारको सुनना और पूर्ण प्रेम तथा समर्पणभावमें विकसित होना होगा जिससे सर्वोच्च आनन्द प्राप्त होता है । यही चीज है जिसे राधा और कृष्ण अपने दिव्य एकत्वके द्वारा मानव-चेतनामें उत्पन्न करते हैं और इसी रूपमें तुम्हें इसे मानना चाहिये और प्राचीन कामवृत्तिके संबंधको दूर फेंक देना चाहिये ।

 

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         गोपियां, शब्दके यथार्थ अर्थमें, सामान्य जन नही हैं, वे आध्यात्मिक प्रेमभावके मूर्त्त रूप हैं, अपने प्रेमके चरम रूप, व्यक्तिगत भक्ति और निःशेष आत्मदानके नाते असामान्य हैं । जिस किसी ब्यक्तिमें ये चीज़ें होती है, उसकी स्थिति अन्य विषयोमें ( शिक्षा, प्रस्तुत करनेकी शक्ति, विद्वत्ता, बाह्य पवित्रता आदि) चाहे जितनी नगण्य क्यों न हों, वह आसानीसे कृष्णकी खोज कर सकता और उन्हें पा सकता है, यहीं मुझे गोपियोंके रूपकका तात्पर्य प्रतीत होता है । निस्संदेह, इसके और भी बहुतसे तात्पर्य हैं - यह उन अनेकोंमेंसे केवल एक तात्पर्य है ।

 

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         निश्चय ही, कृष्णके नामके साथ बहुत अधिक मनमौजपन, कठिन व्यवहार और लीला-वृत्ति जुडी हुई है जिसका मूल्य वे लोग सर्वदा तुरत-फुरत नही समझ पाते जिनके साथ वह खेल करते हैं । परंतु उनकी मनमौजमें एक युक्ति-तर्क है और साथ हीं उनकी एक गुह्य पद्धति है, और जब वह उससे बाहर निकल आते हैं और तुम्हारे साथ भला बननेकी उनकी इच्छा हो जाती है तो उनमें एक प्रकारका चरम आकर्षण, मनोहरता और मोहिनी-शक्ति आ जाती है जो, उनके लिये तुमने जो कुछ कष्ट झेल है, उसका बदला चुका देती है और बदलेसे भी कहीं अधिक चुकाती है ।

 

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           भला कृष्ण घोडेपर क्यों नहीं चढ़ेंगे यदि वह वैसा करना चाहें? उनके कार्यों और आदतोंको मानव मन अथवा अपरिवर्तनीय परंपरा नही निर्धारित कर सकतीं । विशेषकर कृष्ण स्वयं अपने-आपमें एक विधान हैं । संभवत: उस स्थानपर जानेके लिये उन्हें जल्दी थी जहां वह वंशी बजाना चाहते थे ।

 

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      यदि कृष्ण सर्वदा और स्वभावत: रुक्ष और दूरस्थ हों (हे भगवान्! क्या अजीब खोज है - सभी मनुष्योंके कृष्ण!), तो मनुष्यकी भक्ति और अभीप्सा कैसे उनके पासतक जा सकती है -- वह और यह ( मानव भक्ति आदि) शीघ्र ही उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवकी तरह हो जायेंगे, अधिकाधिक हिममय होते जायेंगे, सर्वदा एक- दूसरेके सम्मुख होंगे पर बीचमें पृथ्वीका उभार होनेके कारण एक-दूसरेको देखेंगे नही । फिर, यदि कृष्ण मानव भक्तको नहीं चाहते होते और उसी तरह भक्त उन्हें न चाहता होता तो फिर उन्हें कौन पा सकता था? - तब तो वह सर्वदा शिवकी तरह हिमालय- की बर्फके ऊपर बैठे रहते । परंतु इतिहास उनका दूसरा ही वर्णन देता है और साधारण- तया उनपर अत्यधिक स्नेहपूर्ण और क्रीड़ाप्रिय होनेका आरोप लगाया जाता है ।

 

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       मैं नहीं समझता कि '' जिस चीजको कृष्णकी ज्योति कहता है उससे संबंधित तुम्हारे प्रश्ननका उत्तर मैं दे सकता हूँ । निश्चय ही यह वह चीज नहीं है जिसे सामान्यत: ज्ञान समझा जाता है । उसके कहनेका मतलब भागवत चेतनाकी ज्योति या उससे आनेवाली ज्योति हो सकता है अथवा उसके कहनेका मतलब कृष्णकी ज्योतिर्मय सत्ता हो सकता है जिसमें सभी चीज़ें अपने परम सत्यके अंदर विद्यमान रहती हैं - ज्ञानका सत्य, भक्तिका सत्य, परमोल्लास और आनन्दका सत्य, सभी चीज़ें वहां हैं ।

 

       फिर दिव्य ज्योतिकी एक प्रकारकी अभिव्यक्ति भी है -- उपनिषदों ज्योति- र्ब्रह्मकी, ज्योतिरूप ब्रह्मकी बात कहती हैं । बहुत बार साधक अपने ऊपर और अपने चारों ओर ज्योतिका एक प्रवाह अनुभव करता है अथवा ज्योतिकी एक धाराको अपने केंद्रोंमें यहांतक कि अपनी सारी सत्ता और शरीरतकमें अधिकार जमाते हुए तथा प्रत्येक कोषमें प्रविष्ट होते हुए और उसे आलोकित करते हुए अनुभव करता है तथा उस ज्योति- मे साधककी आध्यात्मिक चेतना वर्द्धित होती है और वह उसकी सभी या बहुतसी क्रिया- ओ और अनुभूतियोंके ओर उद्घाटित होता है । प्रसंगत, मेरे सामने रामदासकी पुस्तक 'विजन' (दर्शन) की एक आलोचना पडी है जिसमें एक ऐसे ही अनु- भबका वर्णन है जो राम मंत्रका जाप करनेसे प्राप्त हुआ था, पर, यदि मैं ठीक-ठीक समझ रहा हूँ, एक लंबी और कठोर तपश्चर्याके बाद प्राप्त हुआ था । ' 'मंत्रके अपने- आप बंद हों जानेके बाद उन्होंने एक छोटीसी वृत्ताकार ज्योति अपनी मानस-दृष्टिका सामने देखी । इससे उनके अन्दर आनन्दकी सिहरन अनुभूत हुई । यह अनुभव कुछ दिनोंतक जारी रहा, फिर बिजलीकी चमककी जैसी उनकी आंखोंके चौंधिया देने- वाली एक ज्योतिका अनुभव उन्हें हुआ और उस ज्योतिने अंतमें उन्हें आच्छादित और परिव्याप्त कर लिया । अब उनके शारीरिक ढांचेके रध-रंध्रमे एक अनिर्वचनीय आनन्दका संचार हो गया । '' यह चीज सर्वदा इस प्रकार नही आती -- अधिकांशत: यह धीरे-धीरे या लंबे व्यवधानके बाद आती है, आरंभमें, चेतनापर तबतक कार्य करती है जबतक चेतना तैयार नही हो जाती ।

 

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      हम भी यहां कृष्णकी ज्योतिकी बात कहते हैं - मनमें कृष्णकी ज्गोति, प्राणमें कृष्णकी ज्योति आदि । परंतु यह एक विशिष्ट ज्योति है - मनमें यह सुस्पष्टता लाती है, अंधकार, मानसिक भ्रांति और विकृतिसे मुक्ति देती है; प्राणमेंसे यह सभी खतरनाक पदार्थोको निकाल देती और जहां वे होते हैं वहां विशुद्ध और दिव्य प्रसन्नता और हर्ष ले आती है ।

 

        परंतु हम अपनेको सीमित क्यों करे, केवल एक चीजपर आग्रह क्यों करें और दूसरी प्रत्येक चीजको बाहर क्यों निकाल दें? चाहे भक्तिसे या ज्योतिसे या आनन्दसे या शांतिसे या चाहे किसी भी दूसरे उपायसे क्यों न मनुष्य भगवान्की प्रारंभिक अनु- भूति प्राप्त करे, मुख्य बात है उस्मेपाना और उसे प्राप्त करानेवाले सभी उपाय अच्छे !

 

         यदि कोई भक्तिपर आग्रह करता है तो वह भक्तिसे ही प्राप्त होती है और अपने पूर्ण रूपमें भक्ति और कोई चीज नहीं, सिर्फ संपूर्ण आत्मदान है । परंतु तब सभी ध्यानों, सभी तपस्याओं, प्रार्थना या मंत्रके सभी साधनोंका अन्त यही होगा और वास्तवमें जब कोई उस साधनामें पर्याप्त रूपमें अग्रसर हों चुकता है तब भागवत कृपा अवतरित होती है और अनुभूति आती है और तबतक विकसित होती रहती है जबतक कि पूर्ण नही हों जाती । परंतु उसके आगमनका मुहूर्त्त एकमात्र भगवान्की प्रज्ञाके द्वारा चूना जाता है और मनुष्यमें इतना बल अवश्य होना चाहिये कि वह उस समयके आनेतक चलता रहे, क्योंकि जब सब कुछ वास्तवमें तैयार हो जाता है तब वह आनेमें कभी नहीं चूकती ।

 

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विभाग आठ

 

योगमें मानवीय संबंध


योगमें मानवीय संबंध

 

        ऐसा मालूम होता है कि इस योगके सिद्धांतको तुमने नही समझा है । पुराने योगने पूर्ण त्यागकी, यहांतक कि स्वयं जागतिक जीवनको भी छोड़ देनेकी माय की थीं । पर, उसके बदले, इस योगका लक्ष्य है एक नया और, रूपांतरित जीवन प्राप्त करना । परंतु उतनी ही कठोरताके साथ यह आग्रह करता है_ कि मन, प्राण और शरीर- भैंसे वासना और आसक्तिको पूर्णरूपेण निकाल फेंका जाय । इसका उद्देश्य है जीवन- को आत्माके सत्यमें पुन: प्रतिष्ठित करना ओर उस उद्देश्यकी सिद्धिका ! हम जो कुछ हैं और मन, प्राण तथा शरीरसे जो कुछ करते हैं उस सबके मूलकों मनसे ऊपरकी एक महत्तर चेतनामें उठा ले जाना । इसका अर्थ यह है कि उस नये जीवनमें हमारे सभी संबंध एक आध्यात्मिक घनिष्ठताके ऊपर प्रतिष्ठित होने चाहिये और एक ऐसे सत्यपर प्रतिष्ठित होने चाहिये जो हमारे वर्तमान सबधोको सहारा देनेवाले किसी भी सत्यसे एकदम भिन्न हों । जिन सब चीजोंको लोग स्वाभाविक स्नेह-संबंध कहा करते हैं उन सबको उच्चतर पुकार आनेपर त्याग देनेके लिये हमें तैयार रहना चाहिये । अगर वे कभी रखे भी जायं तो फिर केवल एक परिवर्तनके साथ ही रखे जा सकते हैं जो उन्हें एकदम रूपांतरित कर देगा । पर, वे त्याग दिये जायंगे अथवा रखे जायंगे और परि- वर्त्तित किये जायंगे इसका निर्णय व्यक्तिगत कामनाओंके द्वारा कदापि नहीं करना होगा बल्कि ऊपरके सत्यके द्वारा करना होगा । सब कुछ योगके परम प्रभुके हाथोंमें छोड़ देना होगा ।

 

        जो शक्ति इस योगमें कार्य करती है वह सर्वांगपूर्ण स्वभाववाली है और अंतमें खोटी या बड़ी ऐसी किसी चीजको बर्दाश्त नहीं करती जो सत्य और उसकी प्राप्तिके लिये बाधा साबित हों ।

 

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      व्यक्तिगत संबंध योगका कोई अंग नही है । जब मनुष्य भगवानके साथ एकत्व प्राप्त कर लेता है, केवल तभी दूसरोंके साथ कोई सच्चा आध्यात्मिक संबंध हों सकता

 

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         सभी साम्ग्कोंको एक-दूसरेसे अलग रहना होगा तथा एक-दूसरेके विरुद्ध तलवार खींच रखनी होगी - यह स्वयं एक पूर्वनिर्धारित धारणा है जिसका त्याग करना

 

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ही होगा । यौगिक जीवनका, विधान सामंजस्य है, संघर्ष नहीं । यह पूर्वनिर्धारित धारणा संभवत: उस प्राचीन भावनासे उत्पन्न होती है जिसका लक्ष्य होता है निर्वाण; परंतु यहांपर लक्ष्य निर्वाण नहीं है । यहां लक्ष्य है जीवनमें भगवान्को ससिद्ध करना, अभिव्यक्त करना और उसके लिये एकत्व और सामाजिकताका होना अनिवार्य है ।

 

         योगका आदर्श यह है कि सब कुछ भगवानके अन्दर और उनके इर्दगिर्द केंद्रित होना चाहिये और साधकोंका जीवन उसी सुदृढ़ नींवके ऊपर स्थापित होना चाहिये, उनके व्यक्तिगत संबंधोंको भी केंद्र भगवान् ही होने चाहियें । अधिकंतु सभी संबंध प्राणगत आधारसे उठाकर आध्यात्मिक आधारपर चले जाने चाहियें और प्राणगत आधारको केवल आध्यात्मिक आधारका एक रूप और यंत्र बन जाना चाहिये -- इस बातका अर्थ यह है कि साधकोंके आपसमें कोई भी संबंध क्यों न हों उनमेसे समस्त ईर्ष्या, कलह, घृणा, असंतोष, विद्वेष तथा अन्य अशुभ प्राणगत भावोंको निकाल फेंकना चाहिये, क्योंकि ये सब चीजे आध्यात्मिक जीवनका अंग नहीं बन सकती । इसी तरह समस्त अहंकारपूर्ण प्रेम और आसक्तिको भी दूर होना होगा - उस प्रेमको जो केवल अहंकारकी तृप्तिके लिये ही प्रेम करता है, और, जैसे ही अहंकार आहत और असंतुष्ट हो जाता है वैसे ही प्रेम करना बंद कर देता है, यहांतक कि द्वेष और घृणातकका पोषण करता है । सच पूछो तो प्रेमके पीछे एक सच्चा, सजीव और स्थायी एकत्व अवश्य रहना चाहिये । निःसंदेह यह मानी हुई बात है कि काममूलक अपवित्रता जैसी चीजों भी अवश्य दूर होनी चाहिये ।

 

       यही है आदर्श, पर इसकी सिद्धिके मार्गका जहांतक सबद है, वह विभिन्न लोगोंके लिये अलग-अलग हों सकता है । एक मार्ग वह है जिसमें साधक एकमात्र भगवानका ही अनुसरण करनेके लिये अन्य सभी चीजोंका त्याग कर देता है । इसका मतलब जैसे यह नही है कि वह संसार और जीवनसे विरक्त हो जाय वैसे ही यह भी नहीं है कि वह किसी ब्यक्तिसे विरक्त हो जाय । इसका बस मतलब है अपने केंद्रीय लक्ष्यमें डूब जाना, इस भावनाके साथ कि जब एक बार वह लक्ष्य प्राप्त हो जायगा तब सच्चे आधारके ऊपर सब प्रकारके संबंध स्थापित करना दूसरोंके साथ हृदय और आत्मा और जीवन- मे, आध्यात्मिक सत्य और भगवानसे सचमुचमें युक्त हो जाना आसान हो जायगा । दूसरा मार्ग है जंहापर अभी मनुष्य है वहींसे आगेकी ओर चलना, मुख्यत. भगवान्को खोजते हुए चलना और बाकी सभी चीजोंको उसीके अधीन करना, पर उन्हें अलग नही रख देना, बल्कि उनमें जो कुछ रूपांतरित होनेके योग्य है उसे क्रमश: और अधिकाधिक रूपांतरित करनेकी चेष्टा करना । इस तरह जैसे-जैसे आंतर सत्ता शुद्ध होती जाती है वैसे-वैसे वे सभी चीज़ें जो संबधके अंदर वांछित नही होती-काममूलक अपवित्रता, ईर्ष्या, क्रोध, अहंकारपूर्ण मांग -- दूर होती जाती हैं और उनके स्थानमें आ जाता है अंतरात्माके साथ अंतरात्माका एकत्र और भगवान्की डोरीके द्वारा सामाजिक जीवन- एक साथ बंध जाना ।

 

      यह बात नही है कि साधकमंडलके बाहरके लोगोंके साथ हम संबंध नही रख सकते, पर वहां भी, अगर आध्यात्मिक जीवन भीतरमें वर्द्धित हो रहा हो तो वह निश्चय

 

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ही उस संबंधपर अपना प्रभाव डालेगा और साधककी ओर उसे अप्यात्मभावापत्र बनायेगा । और उस संबंधमें ऐसी कोई आसक्ति नही होनी चाहिये जो संबंधको भग- वान्के लिये एक बाधा अथवा प्रतिद्वंद्वी बना दे । परिवार आदिके प्रति जो आसक्ति होती है वह प्रायः ही इस प्रकारकी होती हैं और, अगर ऐसी होती है तो, वह साधकके अंदरसे दूर हो जाती है । यह एक अनिवार्य आवश्यकता है जिसे, मैं समझता हूँ, अंत्य- धिक नही मानना चाहिये । परंतु यह सब, धीरे-धीरे किया जा सकता है, वर्तमान संबंधोंको काट देना कुछ लोगोंके लिये आवश्यक होता है, यह सभी लोगोंके लिये आवश्यक नही होता । रूपांतर, वह चाहे कितना ही धीरे-धीरे क्यों न हो, अनिवार्य है; जहांपर काट देना ही यथार्थ कर्तव्य है, वहां काटना आवश्यक है ।

 

      पुनश्च :- यहां मुझे फिरसे यह भी कह देना होगा कि प्रत्येक प्रसंग अलग-अलग होता है -- सबके लिये एक ही नियम न तो व्यावहारिक होता है न व्यवहार्य । प्रत्येक मनुष्यके लिये उसकी आध्यात्मिक उन्नतिकी दृष्टिसे जो कुछ आवश्यक है बस वही वांछनीय वस्तु है और उसे ही दृष्टिमें रखना चाहिये ।

 

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         भगवानका सामीप्य प्राप्त करनेके लिये मानवी स्नेह और सहानुभूतिसे रहित होनेकी आवश्यकता नहीं । प्रत्युत, दूसरोंसे समीपता तथा एकताका बोध तो उस दिव्य चेतनाका ही एक अंग है जिसमें साधक भगवान्की समीपता तथा भगवानके साथ एकताका अनुभव करता है । निःसंदेह, समस्त संबंधोंका पूर्ण परित्याग माया- वादीका अंतिम लक्ष्य दु, ओर तपस्यामूलक योगमें संसार तथा इसके जीवित प्राणियोंसे मैत्री, प्रीति एवं आसक्तिके सब संबंधोंका नितांत उच्छेद मोक्षकी ओर प्रगति करनेका आशाजनक चिह्न समझा जायगा । परंतु मेरे विचारमें, वहां भी प्राणिमात्रके साथ एकत्व तथा अनासक्तिपूर्ण आध्यात्मिक सहानुभूतिका अनुभव, कम-से-कम, बौद्धोंकी करुणाके समान, मोक्ष या निर्वाणकी ओर अंतिम झुकाव होनेसे पहलेकी अवस्था हेच । इस योगमें दूसरोंके साथ ऐक्यका अनुभव, प्रेम, सार्वभौम हर्ष तथा आनन्द मुक्ति एवं सिद्धिका मौलिक अंग हैं और ऐसी मुक्ति एवं सिद्धि हीं हमारी साधनाका ध्येय है ।

 

 

         दूसरी ओर मानवसमाज, मानवीय मैत्री, प्रेम, स्नेह और समवेदनाका भाव, -- पूरी तरहसे या निरपवाद रूपमें तो नहीं, पर अधिकतर एवं साधारणत:-- प्राणिक आधारपर स्थित होते हैं और होते हैं अपने अहं-रूपी केंद्रसे धारित । प्रायः, मनुष्य दूसरोंसे प्रेम करनेमें सुख अनुभव होनेके कारण, दूसरोंके संपर्कसे तथा परस्पर आत्म- सत्ताओंके एक्-दूसरेमें व्याप्त होनेसे अहंका विस्तार होनेमें सुख अनुभव होनेके कारण, और अपने व्यक्तित्वके परिपोषक प्राणिक आदान-प्रदानके उल्लासके कारण हीं दूसरों- से प्रेम करते हैं -- इससे भिन्न और कही अधिक स्वार्थपूर्ण अन्य हेतु भी होते हैं जो इस मुख्य चेष्टामे मिल-जुल जाते हैं । निस्संदेह, उच्चतर आध्यात्मिक, आंतरात्मिक, मानसिक, प्राणिक तत्व भी आ घुसते हैं या घुस सकते हैं; किंतु सारी-की-सारी वस्तु,

 

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अपने सर्वोत्तम रूपमें भी, बहुत अधिक मिश्रित होती है । इसीलिये एक विशेष अवस्था- मे, प्रत्यक्ष कारणसे या उसके बिना, जगत्, जीवन, मानवसमाज, मानवीय संबंध और परोपकार (जो अन्य सबके समान ही अहं-आक्रांत होता है) फीक पड़ने लगते हैं । कभी-कभी कोई दिखावटी कारण होता है, जैसे--स्थूल प्राणकी निराशा, दूसरोंका हमें प्रेम करना छोड़ देना अथवा यह अनुभव कि हमारे प्रेमपात्र व्यक्ति या साधारणतया सभी लोग वैसे नहीं हैं जैसा कि हम उन्हें समझते थे । फिर और भी कितने ही कारण हों सकते हैं । पर प्रायः आंतर सत्ताके किसी भागकी निराशा हीं कारण होती है जिसका रूप मनमें प्रकट या अच्छी तरह प्रकट नहीं हुआ होता, क्योंकि मन उन चीजोंसे किसी ऐसी वस्तुकी आशा रखता था जिसे वे नही दे सकती । जो लोग आध्यात्मिक जीवनकी ओर मुड़ते या प्रेरित होते हैं उनमेंसे बहुतोंके साथ ऐसा ही होता है । कुछ व्यक्तियोंमें यह निराशा वैराग्यका रूप धारण करती है जो उन्हें वैरागियोंकीसी उदासीनताकी ओर प्रेरित करता है तथा मोक्षके लिये तीव्र संवेग प्रदान करता है । अपने लिये हम जिस चीजको आवश्यक मानते हैं वह यह है कि मिलावट दूर हो जानी चाहिये और चेतनाको उस शुद्धतर स्तरपर (केवल आध्यात्मिक तथा आंतरात्मिक हीं नही बल्कि शुद्धतर एवं उच्चतर मानसिक, प्राणिक तथा भौतिक चेतनाके स्तरपर भी) प्रतिष्ठित करना चाहिये जिसमे यह मिश्रण है ही नहीं । वहां व्यक्ति एकत्व, प्रेम, सहानुभूति तथा मैत्रीका सच्चा आनन्द अनुभव करेगा । यहीं आनन्द अपने मूल रूपमे आध्यात्मिक तथा स्वयंभू है पर प्रकृतिके अन्य भागोंद्वारा अपनेको प्रकट करता है । यदि ऐसा ही होना हों तो स्पष्ट हैं कि एक .परिवर्तन आवश्यक है । इन क्यिाओंके पुराने रूपकों नष्ट होकर अपना स्थान नयी तथा उच्चतर आत्माको दे देना होगा ताकि यह उन क्रियाओंद्वारा अपने-आपको तथा भगवान्को प्रकट तथा चरितार्थ करनेका अपना पथ प्रशस्त करे - यहीं इस विषयका आंतर सत्य है ।

 

           अतः मैं समझता हूँ कि जिस अवस्थाका तुमने वर्णन किया है वह संक्रमण तथा परिवर्तनका काल हे । ऐसी अवस्थाएं या गतियों शुरू-शुरूमें प्रायः अभावात्मक ही हुआ करती हैं । वैसे ही तुम्हारी यह अवस्था भी प्रारंभमें अभावात्मक है और इसका प्रयोजन है नयी भावात्मक वस्तुके लिये स्थान खाली करना ताकि वह प्रकट होकर इसमें निवास करे और इसे भर दे । परंतु उस रिक्त स्थानकी पूर्ति करनेवाली वस्तुका कोई चिरस्थायी या कम-से-कम पर्याप्त या पूर्ण अनुभव प्राणको नहीं है, अतः वह केवल अभाव ही महसूस करता है तथा इसमे शोक मानता है जब कि सत्ताका एक अन्य भाग, यहांतक कि प्राणका भी एक अन्य भाग लुप्त होती हुई वस्तुको जाने देनेके लिये तैयार होता है तथा उसे रखनेको तरसता नहीं । यदि प्राणकी यह गति न होती (जो तुममें बहुत प्रबल, विस्तृत और जीनेके लिये उत्कंठित रहीं है) तो, इन वस्तुओंका विरोप कम-से-कम शून्यताके प्रथम भानके पश्चात् शांति, विश्राम और महत्तर वस्तुओंकी निस्तब्ध प्रतीक्षाके भावको ही जन्म देता । रिक्त स्थानको भरनेके लिये जो वस्तु सबसे पहले अभिप्रेत हे उसका संकेत तुम्हें उस शांति तथा हर्षके रूपमें मिला जो तुम्हें शिवके स्पर्शके तीरपर अनुभूत हुआ - स्वभावत: हीं, यहीं इतिश्री नहीं हो जायगी

 

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बल्कि यह तो केवल श्रीगणेश होगा । यह नये आत्मभाव तथा नयी चेतनाके लिये और महत्तर प्रकृतिकी कियाके लिये आधार होगा । जैसा मैं तुम्हें बता चुका हूँ, गभीर आध्यात्मिक स्थिरता तथा शांति हीं स्थायी भक्ति एवं आनन्दकी एकमात्र दृढ भित्ति हैं । उस नयी चेतनामें दूसरोंके साथके संबंधोंको लिये नया ही आधार होगा । कारण, वैराग्यपूर्ण शुष्कता या संसर्ग-शून्य एकाकिता तुम्हारा आध्यात्मिक भविष्य नही हो सकती क्योंकि यह तुम्हारे स्वभावसे संगत नही है । तुम्हारा स्वभाव तो हर्ष, विशालता, विस्तार, प्राणशक्तिकी व्यापक गतिके लिये बना है । अतएव निरुत्साहित मत होओ, शिवकी पावन क्यिाकी प्रतीक्षा करो ।

 

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         मैन बराबर ही कहा है कि भागवत या आध्यात्मिक कर्मके लिये प्राण अनिवार्य है - इसके बिना जीवनमें कोई पूर्ण अभिव्यक्ति, कोई उपलब्धि नही हो सकती -- यहांतक कि साधनामें भी कोई अनुभूति मुश्किलसे हो सकती है । जब मैं प्राणिक मिश्रण या प्राणके बाधा-विघ्र, विद्रोह आदिकी चर्चा करता हूँ तब मैं वास्तवमें अस- सुकृत बाह्य प्राणकी बात करता हूँ जो कामना, अहंकार और निम्रतर आवेगोंसे भरा होता है । मैं वही बात मन और शरीरके विषयमें भी कह सकता था यदि वे बाधा देते या विरोध करते, पर ठीक-ठीक इस कारण कि प्राण इतना अधिक शक्तिशाली और अपरिहार्य होता है, इसकी बाधा, इसका विरोध या सहयोग देनेकी अस्वीकृति अत्यत अद्भुत रूपमें प्रभावशाली होती हैं और इसकी अशुद्ध मिलावटें साधनाके लिये अधिक खतरनाक होती हैं । यही कारण हैं कि मैं सर्वदा अशुद्ध प्राणके खतरोंपर और वहां प्रभुत्व प्राप्त करने तथा शुद्धि करनेपर आग्रह करता रहा हूँ । इसका कारण यह नही कि मैं संन्यासियोंकी तरह प्राण और उसकी जीवनी-शक्तिको उसके एकदम स्वभाववश हीं निन्दा करने और परित्याग करनेकी वस्तु मानता हूँ ।

 

       स्नेह, प्रेम, प्यार आदि अपने स्वभावमें चैत्य है,--प्राणमें ये होते हैं क्योंकि चैत्य पुरुष प्राणके माध्यमसे अपनेको प्रकट करनेका प्रयास कर रहा है । सच पूछा जाय तो भावात्मक सत्ताके माध्यमसे चैत्य पुरुष सबसे अधिक आसानीसे प्रकट होता है, क्योंकि वह ठीक उसके पीछे हृदय-केंद्रमें अवस्थित रहता है । परंतु वह चाहता है कि ये चीज़ें शुद्ध हो । यह बात नहीं कि वह प्राण और शरीरके माध्यमसे होनेवाली बाह्य अभिव्यक्तिका त्याग करता है, बल्कि चैत्य पुरुष अंतरात्माका ही रूप होनेके कारण स्वभावत: ही अंतरात्माका अंतरात्माके प्रति होनेवाले आकर्षणको अनुभव करता है, अंतरात्माके साथ अंतरात्माके एकत्वको ठीक उन्हीं वस्तुओंके जैसा अनुभव करता है जो अंतरात्माके लिये अत्यंत स्थायी और ठोस होती हैं । मन, प्राण और शरीर अभिव्यक्तिके साधन हैं और अभिव्यक्तिके बहुत मूल्यवान् साधन हैं, पर अंतरात्माके लिये आंतरिक जीवन सबसे पहली वस्तु, गभीरतम सत्य है और इन सबको उसके अधीन रखना होगा और उसके द्वारा प्रसीमित रखना होगा - उसकी अभिव्यक्ति,

 

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 उसके यंत्र और प्रणालीके रूपमें रखना होगा । मैं नही समझता कि मैं आंतरिक वस्तु- ओंपर, चैत्य और आध्यात्मिक वस्तुओंपर आग्रह करके मैं कोई नयी बात, अद्भुत या न समझमें आने योग्य बात कह रहा हू । इन चीजोंपर आरंभसे हीं सर्वदा अधिक जोर दिया जाता रहा है और जितना ही अधिक मनुष्य विकसित होता है उतना ही इनका महत्व बढ़ जाता है । मेरी समझमें नहीं आता कि आंतरिक जीवनपर, अंत- रात्मा और आत्मापर इस प्रारंभिक आग्रहके बिना योग करना कैसे संभव हो सकता है । प्राणपर प्रभुत्व जमाने, उसको आध्यात्मिक और चैत्य चेतनासे कम महत्त्वपूर्ण और अधीनस्थ बनानेपर जोर डालना भी कोई नवीन, विचित्र या अतिरंजित बात नही है । इन बातोंपर किसी भी प्रकारके आध्यात्मिक जीवनके लिये सर्वदा जोर डाला जाता रहा है; यहांतक कि जो योग, वैष्णव मतकी कुछ पद्धतियोंकी तरह, प्राणका व्यवहार करनेका अत्यधिक प्रयत्न करते हैं, वे भी इसके पवित्रीकरण तथा भगवान्- के प्रति इसके पूर्ण समर्पणपर आग्रह करते हैं । भगवान्से संबंधित सभी अनुभूतियां आंतरिक अनुभूतियां हैं, केवल, यहांपर अंतरात्मा भावात्मक सत्ताके ज़रिये अपने- आपको अर्पण करता है । अंतरात्मा या चैत्य पुरुष कोई अश्रुतपूर्व या अबोध्य वस्तु नही हे ।

 

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            मानव-प्रेम स्पष्ट ही अविश्वसनीय है, क्योंकि यह बहुत अधिक स्वार्थपरता और कामनापर आधारित है, यह अहंभावकी एक लौ है जो कभी मलिन और कुहासाच्छत्र कभी अधिक स्पष्ट और गहरे रंगसे रंगा होता है - कभी सहजवृत्ति और आदतपर आधारित तामसिक, कभी राजसिक और हृदयावेग या प्राणिक आदान- प्रदानके लिये चीख-पुकारसे पोषित होता है, कभी अधिक सात्त्विक होता तथा निष्काम होने या अपनी दृष्टिमें वैसा प्रतीत होनेका प्रयास करता है । परंतु मूलतः यह किसी व्यक्तिगत आवश्यकता या किसी-न-किसी प्रकारके आंतरिक या बाह्य प्रतिफलपर निर्भर करता है और जब वह आवश्यकता पूरी नहीं होती या प्रतिफल समाप्त हों जाता है या नही प्राप्त होता तो यह अधिकांश समय कम हो जाता या मर जाता या भूतकालकी आदतके केवल एक धीमे या विक्षुब्ध अवशेषके रूपमें बना रहता है अथवा अपनी तृप्ति- के लिये अन्यत्र मुंड जाता हे । यह जितना ही अधिक तीव्र होता है, उतना ही अधिक यह अखाडियों, संघर्षों, कलहों, सभी प्रकारके अहंकारपूर्ण उपद्रवों, स्वार्थपरताओं, अवैध मांगों, यहांतक कि क्रोध और घृणाके विस्फोटों और मतभेदोंके द्वारा विक्षुब्ध होनेको बाध्य होता है । यह बात नहीं कि ये स्नेह टिक नही सकते -- तामसिक सहजस्फूर्त्त स्नेह व्यक्तियोंको पृथक् करनेवाली प्रत्येक चीजके बावजूद अभ्यासवश टिकते हैं, जैसे, कुछ पारिवारिक स्नेह; कभी-कभी सारे उपद्रवों और असामंजस्यों और तीक्या मतभेदोंके बावजूद राजसिक स्नेह टिक सकते हैं, क्योंकि एकको दूसरेकी एक प्राणिक आवश्यकता होती है और उसके कारण वह चिपका रहता है अथवा दोनों-

 

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को वह आवश्यकता होती है और वे निरन्तर अलग होते और वापस आते और वापस आते और अलग होते हैं या झगडेसे मेलकी ओर और मेलसे झगड़ेकी ओर जाते हैं; सात्विक स्नेह बहुधा कर्तव्यबोधसे लेकर आदर्शभावनातकके कारण या किसी दूसरे अवलंबके कारण टिकते हैं पर वे अपनी उत्सुकता या तीव्रता या तेजस्विताको खो सकते हैं । परंतु उसमें सच्ची दृढ़ता केवल तभी आती हे जब मनुष्य-प्रेममें चैत्य तत्त्व इतना पर्याप्त प्रबल हों जाता है कि वह बाकीपर अपना रंग चढ़ा सके या उनपर प्राधान्य स्थापित कर सके । उस कारणसे मित्रता अन्य सभी मानवीय स्नेहभावोंकी अपेक्षा बहुत अधिक बार अत्यत स्थायी होती है या हो सकतीं है, कारण उस संबंधमें प्राणका कम हस्तक्षेप होता है और यद्यपि वह अहकी एक लौ होती है, वह एक स्थिर और शुद्ध अग्नि बन सकती है जो सर्वदा अपनी गर्मी और ज्योति देती रहे । परंतु विश्वसनीय मित्रता लगभग सर्वदा बहुत थोडेसे लोगोंमें ही होती है; स्नेहशील, नि:स्वार्थभावसे विश्वासपात्र मित्रोंके एक झुंडका होना तो इतना विरल व्यापार हे कि इसे निश्चित रूपमे एक भ्रम माना जा सकता हैं. । पर जो हों, मानवीय स्नेहका चाहे जो भी मूल्य हों, इसका एक अपना स्थान है, क्योंकि इसके द्वारा चैत्य पुरुषको वे भावात्मक अनुभूतियां प्राप्त होती हैं जिनकी उसे तबतक आवश्यकता होती .जबतक वह आपात- दृष्टके स्थानमें सच्ची, अपूर्णके स्थानमे पूर्ण, मानवीयके स्थानमें दिव्य अनुभूतियोंके सामने उपस्थित करनेके लिये तैयार नही हो जाता । जिस तरह चेतनाको उच्चतर स्तरपर ऊपर उठना है वैसे ही हदयकी क्रियाओंको भी उस उच्चतर स्तरतक ऊपर उठना होगा और अपने आधार और स्वभावको बदलना होगा । योगका स्वरूप है समस्त जीवन और चेतनाको भगवान्में स्थापित करना, इसलिये प्रेम और स्नेहको भी भगवान्में बद्धमूल करना होगा ओर भगवानके अन्दर प्राप्त आध्यात्मिक और चैत्य एकत्व उनका आधार होना चाहिये -- अन्य सभी चीजोंको एक ओर छोड़कर सबसे पहले भगवान्को प्राप्त करना या एकमात्र भगवान्को पानेका प्रयत्न करना उस परिवर्तनका सीधा पथ है । इसका अर्थ है कोई आसक्ति न होना -- आवश्यक रूपसे इसका अर्थ यह नही हे कि स्नेहको अस्नेहमें या ठंडी उदासीनतामे बदल दिया जाय । परंतु संभवतः '' यह चाहता हैं कि उसके अपने प्राणिक भावावेग जैसे वे हैं -- ज्योंके त्यों -- भगवान्में ले लिये जायं -- उसे कोशिश करने दो और आलोचनाओं तथा भाषणोंके द्वारा उसे परेशान मत करो) यदि ऐसा किया जा सकता है तो उसे स्वयं अपने लिये इसका पता लगा लेना होगा ।

 

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       वास्तवमें इसका कारण तुम्हारा स्वभाव या दुर्भाग्य नही है कि तुम्हारा प्राण दूसरोंके साथके संबंधोंसे जो तुष्टि पाना चाहता था वह नही प्राप्त कर पाता । ये संबंध कभी पूरा या स्थायी संतोष नहीं दे सकते । यदि ये देते, तो फिर कोई कारण ही न होता कि मनुष्य कभी भगवान्को पानेका प्रयास करता । वह साधारण पार्थिव

 

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जीवनसे ही संतुष्ट बना रहता । सच पूछा जाय तो जब भगवान् प्राप्त हों जाते हैं और चेतना सत्य-चेतनामें ऊपर उठ जाती है केवल तभी दूसरोंके साथ सच्चा संबंध स्थापित हो सकता है ।

 

        जब मैंने यह कहा था कि इसमें कोई हानि नही है तो मेरा मतलब यह था कि जो कुछ तुम्हारे मनमें है उसे अपने ही अन्दर घूमते रहने देनेकी अपेक्षा उसे श्रीमाताजी- को बता देना अधिक अच्छा है । परंतु एक बार जब कह दिया तो फिर सब कुछ मनसे बाहर निकाल दिया जाना चाहिये और मनको अपनी स्थिरता फिरसे प्राप्त कर लेनी चाहिये ।

 

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        ये क्रियाएं मनुष्यकी अज्ञ प्राणिक प्रकृतिका अंग हैं । जिस प्रेमको मनुष्य परम्परा एक-दूसरेके प्रति अनुभव करता है वह भी सामान्यतया अहंजन्य प्राणिक प्रेम होता है और ये अन्य क्रियाएं, दावा, भाग, ईर्ष्या, मान-अभिमान, क्रोध इत्यादि, उसकी सामान्य सहायक हैं । इनके लिये योगमें कोई स्थान नही है -- न सच्चे प्रेम, चैत्य या दिव्य प्रेममें ही स्थान है । योगमें सभी प्रेम भगवान्की ओर मुंड जाने चाहिये और मनुष्य या दूसरी वस्तुओंकी ओर केवल भगवानके पात्रोंके रूपमें - मान-अभिमान तथा शेष चीजोंके लिये उसमें कोई स्थान नही होना चाहिये ।

 

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          वह सब निस्संदेह प्रेम नही है, बल्कि आत्मप्रेम है । ईर्ष्या आत्मप्रेमका महज एक कुत्सित रूप है । यहीं बात लोग नही समझते -- ये यह भी समझते हैं कि मांग और ईर्ष्या और आहत अभिमान प्रेमके चिह्न हैं अथवा कम-से-कम उसके स्वाभाविक अनुचर हैं ।

 

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          उच्चतर प्राणकी क्रिया सामान्य प्राणकी क्रियासे कहीं अधिक परिमार्जित और अपनी गतिमें अधिक विशाल होती है । वह ईद्रियबोध और कामनाकी अपेक्षा हृद्गगत भावोंपर अधिक बल देती है, पर वह मांग तथा अधिकारकी कामनासे शून्य नहीं होती ।

 

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        जो संबंध मानवजीवनमें साधारण प्राण-प्रकृतिके अंग होते हैं उनका आध्या-

 

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त्मिक जीवनमें कोई मूल्य-महत्त्व नहीं - वे बल्कि प्रगतिमें बाधा डालते हैं; क्योंकि उस जीवनमें मन और प्राण भी पूर्णत: भगवान्की ओर मुंड जाने चाहियें । परंतु, साधना- का उद्देश्य है आध्यात्मिक चेतनामें प्रवेश कर जाना और प्रत्येक चीजको एक नवीन आध्यात्मिक आधारपर स्थापित करना जो केवल तभीह्मे सकता है_ जब कि साधक भगवानके साथ पूर्ण एकता स्थापित कर लेता है । इस बोच सबके ?? शांत शुभ कामना बनाये रखना होगा, पर प्राणिक ढंगके रिश्ते-नाते सहायता नहीं करत - क्योंके वे चेतनाको नीचे एक प्राणिक आधारपर बनाये रखते हैं और उसे उच्चतर स्तरकी ओर ऊपर उठनेसे रोकते हैं ।

 

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          पूरक आत्मा और विवाहके विषयमें जो तुम्हारा प्रश्न है उसका उत्तर देना आसान है; आध्यात्मिक जीवनका मार्ग तुम्हारे लिये एक दिशामें है और: विवाह बिल- कुल दूसरी तथा उलटी दिशामें । पूरक- आत्मा- विषयक सारी-की-सारी चर्चा बनावटी आवरण है जिससे मन निम्र प्राणिक प्रकृतिकी भावनात्मक, संवेदनात्मक तथा भौतिक कामनाओंको ढकनेकी चेष्टा करता है । तुम्हारे अंदरकी यह प्राणिक प्रकृति हीं ऐसा प्रश्न करती है और यह अपनी कामनाओं और मांगों तथा तुम्हारे अंतःस्थ सत्य अंतरात्माकी पुकार - इन दोनोंका मेल मिलनेवाली उत्तर पसंद करेगी । परंतु इसे यहांसे ऐसे किसी असंगत मेलकी अनुमतिकी आशा नहीं करनी चाहिये । अतिमानसिक योगका मार्ग सुस्पष्ट है । इन चीजोंके साथ रियायत करना इस मार्गका अंग नहीं है । तुम जो यथासंभव आध्यात्मिक पर्देके आडूमें, पारिवारिक तथा वैवाहिक जीवनके ऐश-आराम तथा भोगविलासकी एवं साधारण उत्तेजनात्मक इच्छाओं और स्थूल विषयवासनाओके उपभोगकी लालसाकी पूर्ति करना चाहते हों वह इस मार्गका अंग नहीं है,--बल्कि ये चेष्टाए जिन शक्तियोंको विकृत करती तथा जिनका दुरुपयोग करती हैं उन्हें शुद्ध तथा रूपांतरित करना हीं इस मार्गका अंग है । ये मानवीय और पाशविक तृष्णाएं कोई ऊंची वस्तु नहीं हैं, ऊंची वस्तु है दिव्य आनन्द जो इनके ऊपर और परे है । इन हीन कामनाओंमें आसक्त होनेसे आनन्दके अवतरणमें बाधा पहुँचती है । साधकके अंदर प्राणिक पुरुषकी अभीप्साको इसी आनन्द की कामना करनी चाहिये ।

 

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            मानवीय प्राणिक आदान-प्रदान साधनाका सच्चा अवलंब नही हों सकता और, इसके विपरीत, यह निश्चित रूपसे उसे हानि पहुँचाता और विकृत करता है, चेतनाको आत्मप्रतारणाकी ओर ले जाता तथा भावात्मक सत्ता तथा प्राण-प्रकृतिको गलत रास्तेपर मोड देता है ।

 

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           पारिवारिक बंधनके विषयमें तुम जो कुछ लिखते हों वह बिलकुल ठीक है । यह एक अनावश्यक आदान-प्रदानकी क्रियाकी सृष्टि करता है और भगवान्की ओर पूरी तरह मुड़नेके पथमें बाधा डालता है । योग आरंभ करनेके बाद अपने संबंधोको किसी भौतिक मूलस्रोतपर या भौतिक चेतनाके अभ्यासोंपर कम आधारित करना चाहिये और अधिकाधिक साधनाके आधारपर स्थापित करना चाहिये -- साधारण तरीकेसे अथवा प्राचीन दृष्टिकोणसे संबंध नही स्थापित करना चाहिये, बल्कि वह संबंध होना चाहिये साधकोंके साथ एक साधकका, दूसरोंके साथ इस भावसे संबंध होना चाहिये मानो सभी ऐसे आत्मा है जो एक हीं पथसे यात्रा कर रहे हैं अथवा सभी श्रीमाताजीके बच्चे है ।

 

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          जब कोई आष्यात्मिक जीवनमें प्रवेश करता है तो पारिवारिक बंधन, जो सामान्य प्रकृतिकी चीज है, विलीन हों जाता है -- मनुष्य सभी पुरानी वस्तुओंके प्रति उदासीन हों जाता है । यह उदासीनता एक प्रकारकी मुक्ति है । वास्तवमें इस चीजके अन्दर कठोरताके भावके होनेकी बिलकुल आवश्यकता नहीं । प्राचीन भौतिक स्तेहसंबंधोंसे बंधे रहनेका अर्थ होगा सामान्य प्रकृतिसे बंधे रहना और वह चीज आध्यात्मिक प्रगति- मे बाधा पहुँचायेगी ।

 

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       माता-पिताके प्रति आसक्ति साधारण भौतिक प्रकृतिकी वस्तु है -- भागवत प्रेमके साथ इसका कोई सरोकार नही ।

 

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            यह भाव (बच्चेकी अपने पालन-पोषणके लिये अपने पिताका ऋणी अनुभव करना) मानवसमाजका एक विधान है, 'कर्म'का कोई विधान नहीं है । बच्चेने पिता- से उसे जगत्में ले आनेके लिये नहीं कहा था -- और, यदि पिताने अपने निजी सुखके लिये ऐसा किया है तो वह बच्चेके पालन-पोषणके लिये बस कम-से-कम ही कर सकता है । ये सभी सामाजिक संबंध हैं (और सच पूछो तो यह पिताके प्रति बालकका एक- पक्षीय ऋण बिलकुल नहीं है), पर वे चाहे जो हों, जैसे ही कोई आध्यात्मिक जीवन ग्रहण करता है, वे समाप्त हो जाते हैं । क्योंकि आध्यात्मिक जीवन बाहरी भौतिक संबंधपर बिलकुल आश्रित नहीं होता; वास्तवमें एकमात्र भगवानपर हीं मनुष्यको उस समय उसे आधारित करना चाहिये ।
 

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भगवान्की ओर मुड जानेपर आंतरिक सत्ता स्वभावत: ही पुराने प्राणिक संबंधों और बाहरी क्रियाओं तथा संस्पर्शोंसे अलग हट जाता है जबतक कि वह बाहरी सत्ताके अन्दर एक नीवन चेतना नहीं ले आता ।

 

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       जिस क्रियाकी तुम बात करते हों वह चैत्य नहीं बल्कि भावात्मक है । सच पूछो तो तुम प्राणिक-भाविक शक्तिको प्रकट करते और नष्ट करते हों । यह इसलिये भी हानिकारक है कि जहाँ तुम एक ओर किसी पुराने प्राणिक संबंध या इन लोगोंके साथके बंधनको त्यागनेका प्रयत्न करते हों, वहां तुम इस क्रियाके द्वारा दूसरे ढंगसे उनके साथ प्राणिक संबंध पुनः स्थापित करते हों । यदि तुम्हारी पहली क्रियामें कोई चीज गलत थी तो यह दोषको दूर करनेका बिलकुल गलत तरीका है ।

 

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       निश्चय ही, किसी व्यक्तिके विरुद्ध कोई हिंसापूर्ण भावना रखे बिना त्याग करना कहीं अधिक अच्छा होगा, क्योंकि हिंसाभाव प्राणकी किसी विशेष दुर्बलताका चिह्न हैं जिसे अवश्य सुधारना चाहिये -- और किसी दूसरे कारणसे नहीं । परित्याग शांतिपूर्ण, दृढ़तापूर्ण, आत्मसुनिश्चित और निर्णायक होना चाहिये, उस समय वह मौलिक तथा फलदायक हों जाता है ।

 

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        जैसे-जैसे भगवानके प्रति प्रेम बढ़ता हैं वैसे-वैसे अन्य चीज़ें मनको सताना बद करती जाती हैं ।

 

       भगवानके प्रति प्रेम जब किसी भागको अधिकृत करता है तो उसका प्रभाव उस भागको भगवान्की ओर मोड देता है -- जैसा कि तुम इसको '' श्रीमाँके ऊपर एकाग्रता' ' कहते हो -- और अंतमें सब कुछ सत्ताके इस केंद्रीय झुकावके चारों ओर एकत्रित और सुसमंजस हो जाता है । कठिनाई होती है सत्ताके यंत्ररूप भावोंके बिषयमें जिनके अंदर पुराने विचार अभ्यासवश बार-बार उठते रहते हैं । यदि एकाग्रता बढ्ती रहे तो यह चीज मनकी परिधिपर होनेवाली कम महत्त्वपूर्ण चीज हा जाती है और अतमें झुककर उन चीजोंके आनेके लिये स्थान खाली कर देती है जो नयी चेतनासे संबंधित होती हैं ।

 

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      आंतरिक एकाकीपनको केवल भगवान्के साथ एकत्वकी आंतरिक अनुभूति प्राप्त करके ही दूर किया जा सकता है । कोई भी मानवीय संपर्क इस शून्य स्थानको नही भर सकता । उसी तरह, आध्यात्मिक जीवनके लिये मानसिक और प्राणिक संबंधोंको ऊपर नही, बल्कि दिव्य चेतना तथा भगवान्के साथ एकत्वके ऊपर दूसरोंके साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिये । जब कोई भगवान्को अनुभव करता तथा दूसरोंको भगवान्में अनुभव करता है तो फिर वास्तविक सामंजस्य आता है । उससे पूर्व जो कुछ हों सकता है वह है किसी सामान्य दिव्य लक्ष्यकी भावना और सबके श्रीमाताजीके बच्चे होनेके बोधपर स्थापित सद्भावना और एकता...... । सच्ची सुसमंजसता केवल किसी चैत्य या किसी आध्यात्मिक आधारपर ही स्थापित हो सकती है ।

 

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    भगवानके साथ अकेले रहना साधककी समस्त अनुकूल परिस्थितियोंमें सर्वोत्तम है, क्योंकि यही वह स्थिति है जिसमें वह आंतरिक रूपमे भगवान्के सर्वाधिक निकट आता हैं और समस्त सत्ताको अपने हृदय-कक्ष तथा विश्बमदिरके अंदर एकत्वमें परिणत कर सकता है । इसके अतिरिक्त, सबके साथ वास्तविक एकताका प्रारंभ और आधार यही है, क्योंकि यह उस एकताको उसके सच्चे आधारपर, भगवानपर स्थापित करता है, क्योंकि वास्तवमें भगवान्में ही साधक सबके साथ मिलता और युक्त होता है, और अब अपने मानसिक और प्राणिक अहंकारके अनिश्चित आदान- प्रदानकी स्थितिमें नही रहता । अतएव एकाकीपनसे भय मत करो, बल्कि श्रीमां पूरा भरोसा रखो और उनकी शक्ति तथा कृपाके सहारे अपने पथपर आगे बढ़ते जाओ ।

 

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         साधकका प्रेम भगवान्के प्रति ही होना चाहिये । जब उसमें वह प्रेम पूर्ण रूपमे होता है केवल तभी वह दूसरोंको ठीक प्रकारसे प्यार कर सकता है ।

 

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       अपनेको किसी भी बाहरी व्यक्तिके हाथोंमें सौंप देनेका अर्थ होता है साधनाके वातावरणसे बाहर चले जाना और बाह्य सांसारिक शक्तियोंके हाथोंमें अपनेको सौंप देना ।

 

      कोई साधक किसी विशेष व्यक्तिके लिये प्यारकी चैत्य भावना रख सकता है, सभी प्राणियोंके प्रति वैश्व प्रेमकी भावना रख सकता है, परंतु अपने-आपको तो उसे केवल भगवान्के हाथोंमें ही अर्पित करना होगा ।

 

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३१०


यह नही कहा जा सकता कि ये संपर्क सामान्य रूपसे अच्छे हैं या बुरे । यह व्यक्ति, उसके प्रभाव तथा अन्य बहुत-सी बातोंपर निर्भर करता है । सामान्यतया ये सारे संपर्क पुरानी प्रकृतिकी बाकी चीजोंके साथ-साथ भगवान्के प्रति समर्पित हो जाने चाहियें, ताकि जो कुछ भागवत सत्यके साथ सामंजस्य रखता हो केवल वही तुम्हारे अंदर शेष रह सके और उसके कार्यके लिये रूपांतरित हो सके । दूसरे लोगोंके साथके समस्त संबंध पुरानी प्रकृतिके अन्दरके संबंध नहीं, बल्कि भगवान्के अंदरके संबंध होने चाहिये ।

 

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        एक ऐसा भी प्रेम है जिसमें हृदयावेग बढ्ती हुई एकता तथा ग्रहणशीलताके साथ भगवान्की ओर मुड जाता है । जो कुछ वह भगवान्से प्राप्त करता है उसे वह दूसरोंपर उंडेल देता है - पर उन्मुक्त होकर, और बदलेमें कुछ भी न चाहते हुए । यदि तुम ऐसा करनेमें समर्थ हो तो यही प्रेम करनेका सर्वोत्तम और सर्वाधिक संतोष- प्रद मार्ग है ।

 

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          व्यक्तिगत संबंध तभी स्थापित होता है जब एक-दूसरेके प्रति अनन्य पारस्परिक झुकाव होता है । इस योगमें व्यक्तिगत संबंधोंका नियम यह है: ( 1) समस्त व्यक्तिगत संबंध साधक और भगवान्के एकमात्र संबंधमें विलीन हो जायें, ( 2) समस्त व्यक्ति- गत (चैत्य-आध्यात्मिक) संबंध भगवती मासे आयें, उन्हींके द्वारा निर्धारित हों और एकमात्र भगवती मांके साथके संबधके ही अंग हों । जहांतक व्यक्तिगत संबंध इस दुहरे नियमका पालन करता है और किसी प्रकारकी भौतिक तुष्टि अथवा प्राणिक विकृति या मिश्रणको नहीं फटकने देता वहांतक वह रह सकता है । लेकिन अतिमानस चूँकि अभीतक आधिपत्य नहीं जमा सका है, अपितु वह सिर्फ अवतरणकी स्थितिमें है और अभी भी प्राणिक और भौतिक स्तरपर संघर्ष चल रहा है, हमें बहुत अधिक सावधानी बरतनी चाहिये, जैसी सावधानी कि उस समय आवश्यक नहीं होगी जब कि अतिमानसिक रूपांतरण वहां पहलेसे सिद्ध हो चुका होगा । दोनों (व्यक्तियों) को श्रीभगवती मांपर पूर्णत: निर्भर होकर उनके साथ सीधा संबंध स्थापित करना होगा और यह देखते रहना होगा कि वह बना रहे तथा उसकी परिपूर्णतामें कोई वस्तु हानि न पहुँचाये अथवा तनिक भी उसे विच्छिन्न न करे ।

 

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      यहां साधक और साधिकाके बीच केवल वही संबंध स्वीकार्य है जो कि एक

 

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साधक और साधकके बीच अथवा एक साधिका और साधिकाके बीच होता है - एक मित्रताका संबंध जो कि योगके एक ही पथके अनुगामियोंके बीच और श्रीमाताजीके बच्चोंके बीच होता है ।

 

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       इस योगमें पुरुष और नारीके बीच स्वतंत्र और स्वाभाविक यौगिक संबंध - जो कि एक साधक और साधिकाके बीच होना चाहिये -- रखनेमें सफलता प्राप्त करनेका एक ही तरीका है कि दोनों लेशमात्र भी यह विचार किये बिना मिल सकें कि एक नारी है और दूसरा पुरुष । वे दोनों बस मानव हैं, दोनों साधक हैं, दोनों भग- वान्की सेवाके लिये प्रयत्नशील हैं और दोनों हीं एकमात्र भगवान्की खोजमें हैं, अन्य किसीकी खोजमें नही । बस, इसी भावको अपने अन्दर पूर्ण रूपसे बनाये रखो और तुम देखोगे कि कोई भी कठिनाई तुम्हारे पास नहीं फटकेगी ।

 

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       इसका तात्पर्य यह है कि तुम्हें एक-दूसरेके साथ साधकों-जैसा संबंध रखना चाहिये जिसमें मैत्रीपूर्ण सद्भाव हों, परंतु उसमें प्राणिक ढंगका कोई विशेष संबंध न हो । यदि कोई ऐसा व्यक्ति है जिससे कि तुम ऐसे प्राणिक संबधके जगे बिना न झिल सको तो उस दशामें उससे मिलना-जुलना वांछनीय नहीं है ।

 

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     सब कुछको भगवान्की ओर मोड देनेका जहांतक प्रश्न है, वह पूर्णताका परामर्श तो उन व्यक्तियोंके लिये है जो साथमें कोई भी बोझ ढोनेकी इच्छा नही रखते, अन्यथा पुरुष-पुरुषके बीच और नारी-नारीके बीच अथवा पुरुष और नारीके बीच मैत्री वर्जित नहीं है, बशर्त्ते कि वह सच्ची वस्तु हों और उसके अन्दर काम-भाव न उदय हों तथा साथ ही वह किसीको लक्ष्यसे दूर न हटा ले जाय । यदि प्रमुख लक्ष्य शक्तिशाली हों तो बस इतना हीं पर्याप्त है..... । जब मैंने व्यक्तिगत संबंधकी बात कही थीं तब निश्चय ही मेरा ।तात्पर्य कोरी तटस्थतासे कदापि नहीं था, क्योंकि तटस्थतासे कोई संबंध नहीं बनता, अपितु वह एकदम सबंधहीनताको ही प्रश्रय देती है । यह आवश्यक नहीं है कि भावात्मक मैत्री बाधक हीं हों ।

 

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        निश्चय ही पुरुष-पुरुष अथवा नारी-नारीके बीच मैत्री रखना पुरुष और नारीके

 

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बीच मैत्री रखनेकी अपेक्षा अधिक आसान है, क्योंकि वैसी स्थितिमें सामान्यतया काम- भावनाका प्रवेश नहीं होता । पुरुष और नारीकी मैत्रीमें किसी भी क्षण छिपकर या सीधे तीरपर कामुक प्रवृत्ति आ सकती है और बेचैनी उत्पन्न कर सकतीं हैं । किंतु पुरुष और नारीके बीच कामरहित पवित्र संबंधका होना असंभव नही है, ऐसी मैत्री हो सकती है और सदैव होती रही है । एकमात्र आवश्यकता यह है कि निम्र प्राण चोर दरवाजेसे भीतर न झांके या उसे प्रवेश न करने दिया जाय । पुरुष और नारीके स्वभावमें प्रायः एक सामंजस्य या आकर्षण या साम्य होता है जो किसी प्रकट या गुप्त निम्र-प्राणिक (यौन) आधारकी अपेक्षा किसी अन्य आधारपर आश्रित होता है । कभी-कभी यह प्रबल रूपसे मानसिक अथवा चैत्य अथवा उच्च-प्राणिक आधार और कभी-कभी इन तत्वोंके मिश्रणपर निर्भर करता है । ऐसी स्थितिमें मित्रता स्वाभाविक होती है और दूसरे तत्वोंके अंदर आकर इसे विच्छिन्न करने या नीचेकी ओर खींच लानेकी संभावना कम होती है ।

 

        यह सोचना भी गलत है कि केवल प्राण-सत्तामें ही प्यारकी गरमाहट है और चैत्य सत्ता ज्योति-शिखासे रहित कोई शीतल वस्तु है । सुस्पष्ट, स्वच्छ सद्भाव एक बहुत अच्छी और वांछनीय वस्तु है । लेकिन वही चीज चैत्य प्रेम नही हे । प्रेम तो प्रेम है, वह मात्र सद्भाव नही है । चैत्य प्रेममें प्राणकी ही तरह अथवा उससे भी अधिक तीव्र गरमाहट और लौ हों सकती है । बस, यह एक विशुद्ध अग्नि है जो अहजन्य कामनाओंकी तुष्टिपर अथवा जिस ईंधनका वह आलिंगन करती है उसे स्वाहा कर जानेपर निर्भर नहीं करती । यह एक शुभ्र लौ है, न कि लाल । लेकिन शुभ्र लौ अपनी ऊष्णतामें लालकी अपेक्षा हीनतर नहीं है । यह सत्य है कि चैत्य प्रेम मानवीय संबंधों और मानवीय प्रकृतिमे सामान्यतया पूर्ण रूपसे सक्रिय नही हो पाता; जब वह भगवान्- की ओर उन्मुख किया जाता है तभी उसकी उमंग और उसका उल्लौस अधिक आसानीसे अपनी पूर्णताको प्राप्त होते हैं । मानवीय संबंधमें चैत्य प्रेमके साथ ऐसे दूसरे तत्त्व आ मिलते हैं जो तुरत उसका प्रयोग करनेकी चेष्टा करते हैं और उसे ढक देते हैं । वह अपनी पूर्ण प्रगाढ़ता और तीव्रताको बाहर प्रकट करनेका अवसर केवल बिरले क्षणोंमें ही पाता है । अन्यथा वह केवल एक तत्त्वाशरूपमें प्रवेश करता है, किंतु फिर भी मूलत: प्राणिक प्रेममें वही समस्त उच्चतर गुणोंका दान करता है समस्त उत्कृष्ट मधुरता, कोमलता, निष्ठा, आत्मदान, आत्मत्याग, अंतरात्माका अंतरात्मातक पहुँचना, आदर्श- रूपमें विचारोंका उन्नयन आदि जो सब गुण मानवीय प्रेमको स्वयं उसके परे उठा लें जाते हैं, चैत्य पुरुषसें ही आते है । यदि वह अन्य तत्वोंके - मानवीय प्रेमके मानसिक, प्राणिक तथा शारीरिक तत्त्वोंके अधिकृत, शासित और रूपांतरित कर सकता तो प्रेम पृथ्वीपर द्वैत जीवनके अन्दर यथार्थ वस्तुका, आत्मा और उसके उप- करणके पूर्ण एकत्वका कोई प्रतिबिंब या प्रस्तुति-रूप हों सकता । परंतु उसके कुछ अपूर्ण रूप भी दुर्लभ हैं ।

 

      हमारी दृष्टि यह हे कि योगमें प्रकृतिकी संपूर्ण लौके लिये साधारण बात है भग- वान्की ओर मुड जाना और शेष चीजोंको सच्चे आधारकी प्रतीक्षा करनी चाहिये;

 

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साधारण चेतनाकी बालू और कीचडपर उच्चतर चीजोंका निर्माण करना सुरक्षित नही है । पर इसीलिये मैत्री या संग-साथका बहिष्कार करना आवश्यक नहीं है, किन्तु इन्हें पूर्णतया केंद्रीय अग्निके अधीन हों जाना चाहिये । यदि कोई इस बीच भगवान्के साथके संबंधको ही अपना एकमात्र तल्लीनकारी लक्ष्य बना ले तो यह सर्वथा स्वा- भाविक है और इससे साधनाको पूरा-पूरा बल मिलता है । चैत्य प्रेम तब अपना पूर्णत्व प्राप्त करता है जब कि वह दिव्यतर चेतनाकी, जिसकी हम खोज क्ले रहे हैं, आभा बन जाता है । उससे पहले अपनी प्रकाशमयी पूर्ण सत्ता और स्वरूपको व्यक्त करना उसके लिये कठिन हैं ।

 

       पुनश्च: मन, प्राण और शरीर यथार्थतः अंतरात्मा और आत्माके यंत्र हैं; जब वे केवल अपने लिये कार्य करते हैं तब वे अज्ञानमयी और अपूर्ण चीजें ही पैदा करते हैं -- यदि वें चैत्य पुरुष और आत्माके सचेतन यंत्र बना दिये जायं तो वे अपनी दिव्यतर सार्थकताको प्राप्त कर लेते है । इस योगमें हम जिस चीजको रूपांतर कहते हैं उसमें यहीं भाव निहित है ।

 

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       मैत्री अथवा स्तेह-संबंधका योगमें बहिष्कार नहीं किया गया है । भगवान्के साथ मित्रताका होना तो साधनाका एक स्वीकृत संबंध है । साधकोंके बीच मित्रता- का संबंध होता है और श्रीमाताजी उसे प्रोत्साहित करती हैं । बस, हम चाहते यह हैं कि मित्रताके उन संबंधोंको उस आधारकी अपेक्षा कहीं अधिक सुदृढ़ आधारपर स्थापित किया जाय जिसपर कि मानवीय मैत्री-संबंधोंका अधिकांश भाग अस्थिर रूपसे स्थापित होता है । यथार्थतः इस कारण कि हम मैत्री, बंधुत्वभाव, प्रेमको पवित्र चीजे मानते हैं, इसलिये हम यह परिवर्तन चाहते है -- कारण हम प्रत्येक क्षण अहंकारकी क्रियाओंद्वारा इन्हें भंग होते हुए तथा वासनाओं, ईर्ष्या-द्वेषों, प्रतारणाओके द्वारा, जिनकी ओर प्राणकी प्रवृत्ति होती है, इन्हें अशुद्ध और नष्ट-भ्रष्ट होते हुए देखना नही चाहते -- वास्तवमें हम इन्हें सच्चे रूपमें पवित्र और सुदृढ़ बनाना चाहते हैं और इसलिये इनकी जड़ अन्तरात्मामें जमा देना, इन्हें भगवान्की आधार-शिलापर स्थापित करना चाहते हैं । हमारा योग कोई वैराग्यपूर्ण योग नही है, इसका लक्ष्य पवित्रता तो है, पर कठोर तपस्या नही है । मैत्री और प्रेम उस सुर-संगतिके अनिवार्य स्वर हैं जिसे पानेकी हम अभीप्सा करते हैं । यह कोई मिथ्या स्वत्व नही हैं, क्योंकि हमने देखा है कि अपूर्ण अवस्थाओंमें भी, जब अनिवार्य तत्वका थोड़ासा अंश भी एकदम मूलमें विद्यमान रहता है, तो यह चीज संभव होती है । यह कठिन है और पुरानी बाधाएं अभी भी हठपूर्वक चिपकी हुई हैं? परंतु कोई भी विजय लक्ष्यके प्रति सुदृढ़ निष्ठा हुए बिना और दीर्घ प्रयासके बिना नही प्राप्त हों सकतीं । लगातार प्रयास करते रहनेके सिवा और कोई उपाय नहीं है ।

 

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       योगमें मित्रता बनी रह सकती है, पर आसक्तिको अथवा किसी ऐसे तल्लीन- कारी स्तेह-संबंधको अवश्य दूर हो जाना होगा जो मनुष्यको साधारण जीवन और चेतनाके साथ बांध रखे ।

 

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          सभी प्रकारकी आसक्ति साधनाके लिये बाधक है । तुम्हें सबके प्रति सद्भाव, सबके लिये चैत्य करुणा रखनी चाहिये, पर कोई प्राणिक आसक्ति नही रखनी चाहिये ।

 

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        यदि तुम अपनी करुणाके लिये बदलेकी आशा करते हो तो तुम निराश होनेको बाध्य हों । जो लोग प्रेम या करुणा केवल उसीके लिये, किसी बदलेकी आशाके बिना, प्रदान करते हैं, केवल वे ही इस अनुभवसे बचते हैं । कोई संबंध भी केवल तभी किसी सुदृढ़ आधारपर स्थापित किया जा सकता है जब कि वह आसक्तिसे मुक्त हों अथवा जब वह दोनों ओर प्रधानतया चैत्य हों ।

 

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        एक मौलिक चैत्य सद्भावना है जो सबके लिये एक जैसी होती है; परंतु किसी एक या दूसरेके प्रति एक विशेष प्रकारकी चैत्य सद्भावना भी हो सकती है ।

 

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        नहीं - चैत्य प्रेम विवेकको बहिष्कृत नही करता ।

 

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        यह इस बातपर निर्भर करता है कि तुम चैत्य ' 'प्रेम' ' का क्या अर्थ लेते हो । मनुष्य सभी प्राणियोंके लिये चैत्य सद्भाव रख सकता है; यह न तो लिंगभेदपर निर्भर करता है और न इसमें कोई कामुकताकी बात है ।

 

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       संसारमें भी पुरुष और नारीके बीच ऐसे संबंध हुए हैं जिनमें कामवासना हस्त- क्षेप न कर सकी-- वे विशुद्धतः चैत्य संबंध थे । इसमें संदेह नहीं कि ऐसे संबंधमें

 

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लिग-भेदकी चेतना तो रहेगी, पर वह उस संबधके अन्दर कामना या बाधाके स्रोतके रूपमें नहीं आयेगी । परंतु म्बभावत: ही इस स्थितिके संभव होनेसे पहले एक प्रकारके चैत्य विकासका होना आवश्यक होता है ।

 

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       इसकी सीमाओंकी परिभाषा करना अथवा इसे पहचानना कठिन है । क्योंकि यदि किसी दूसरे व्यक्तिके प्रति चैत्य प्रेम हो तो भी यह मनुष्यमें प्राणिक प्रेमके साथ इतना मिलजुल 'जाता है कि यह एक अत्यंत सामान्य बात हो गयी है कि लोग प्राणिक प्रेमको चैत्य स्वभावका प्रेम मानकर उसका समर्थन करते हैं । हम कह सकते हैं कि चैत्य प्रेम अपनी मौलिक पवित्रता और नि:स्वार्थभावके द्वारा पहचाना जाता है - परंतु प्राणिक प्रेम, जब वहचाहे, इस गुणका बहुत भड़कीला अनुकरण कर सकता है ।

 

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       हमारा अनुभव यह है कि जब दोनों भगवान्के इर्दगिर्द केंद्रित सत्यचेतनामें होते हैं केवल तभी भगवान्के अन्दर यथार्थ मिलनकी कुछ संभावना होती है । अन्यथा, जो व्यक्तिगत संबंध वहां बनता है उसके साथ या तो नैराश्य और विच्छेद आता है अथवा ऐसी प्रतिक्रियाएं आती हैं जो विशुद्ध नहीं होती ।

 

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        परंतु मानवीय प्राणिक स्नेहका यही स्वभाव है, यह संपूर्ण स्वार्थपरता है जो प्रेमका छद्यवेश लिये रहता है । कभी-कभी जब उसमें कोई प्रबल प्राणिक आवेग, आवश्यकता या बंधन होता है तो व्यक्ति दूसरेके स्नेहको ( अपने प्रति) बनाये रखनेके लिये कुछ भी करनेको तैयार रहता है । पर जब उस क्रियामें चैत्य भाव प्रवेश करनेमें समर्थ होता है केवल तभी वहां सच्चा निःस्वार्थ स्नेह होता है अथवा कम-से-कम उसका कोई तत्त्व विद्यमान होता है ।

 

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         जिस व्यापारकी तुम चर्चा करते हो वह मानव-प्रकृतिके लिये स्वाभाविक है । लोग प्रीतिकी किसी विशेष भावनाके कारण, अपने स्वभावके किसी भाग और दूसरेके स्वभावके किसी भागके बीच मेल या आकर्षण होनेके कारण परस्पर आकर्षित होते हैं या एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिकी ओर आकर्षित होता है । प्रारंभमें यह केवल अनुभूत होता है; मनुष्य दूसरेके स्वभावके अंदर जो कुछ उसके लिये अच्छा या सखकारक

 

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होता है उस सबको देखता है और यहांतक कि शायद उन गुणोंका भी उसपर आरोप करता है जो उसमें नही होते या उतने अधिक नही होते जितना कि वह सोचता है । परंतु अधिक घनिष्ठ परिचय होनेपर स्वभावके अन्य भाग अनुभूत होते हैं जिनके साथ उसके स्वभावका कोई मेल नहीं होता - संभवत विचारोंका संघर्ष होता है या भाव- नाओमें विरोध होता है या दो अहकारोंका द्वंद्व होता है । यदि वहां घना प्रेम या स्थायी प्रकारका मैत्री-भाव होता है तो मनुष्य संपर्ककी इन कठिनाइयोंको जीत सकता और एक प्रकारका सामंजस्य या मेल-मिलाप स्थापित कर सकता है; परंतु बहुधा यह चीज वहां नही होती अथवा विरोध इतना तीव्र होता है कि मेल-मिलापकी प्रवृत्तिको वह निष्फल कर देता है अथवा अहंकार इतना घायल हो जाता है कि वह पीछे हट जाता है । तब मनुष्यके लिये यह बिलकुल संभव हों जाता है कि वह दूसरेके दोषोंको बहुत अधिक देखना या अतिरंजित रूपमें देखना आरंभ करे अथवा वह दूसरेके ऊपर बुरे या दुःखदायी प्रकारकी बातोंका आरोप करता है जौ उसमें नही होती । ऐसी स्थितिमें समूचा दृष्टि- कोण बदल सकता है, सद्भावना कुभावनामें, स्नेह स्नेहहीनतामे, यहांतक कि शत्रुता या विद्वेषमें बदल सकता है । यह मनुष्य-जीवनमें सर्वदा घटित हों रहा है । इसके विपरीत भी घटित होता है, पर कम आसानीसे -- अर्थात् कुभावनासे सद्भावनामें, विरोध- भावसे सांमजस्यमें परिवर्तन । पर, निस्संदेह, यह आवश्यक नही कि किसी व्यक्तिके प्रति बुरा मत या बुरी भावना केवल इसी कारण उत्पन्न हों । ऐसा कई कारणोंसे, सहज-स्वाभाविक नापसंदगी, ईर्ष्या, विरोधी हितों आदि-आदिके कारण भी घटित होता है ।

 

        मनुष्यको दूसरोंके प्रति शांत-स्थिर-भावसे; उनके गुणों या दोषोंपर अत्यधिक बल दिये बिना, किसी कुभावना या गलतफहमी या अविचारके बिना, शांत-स्थिर मन और दृष्टिसे ताकनेकी चेष्टा करनी चाहिये ।

 

*

 

        यही वह तरीका हैं जिसे प्राणिक प्रेम साधारणतया तब ग्रहण करता है जब कि वहां कोई प्रबल चैत्य शक्ति उसे सुधारने और धारण करनेके लिये विद्यमान नही होती । प्रथम प्राणिक आवेशके समाप्त हो जानेके बाद दो अ अहकारोंका विरोध प्रकट होना आरम्भ हो जाता है और आपसी संबंधोंमें अधिकाधिक तनाव बढ़ता जाता है -- एक या दोनोंके लिये, दूसरेकी माँगें उसके प्राणिक भोगके लिये असह्य हों जाती हैं, निरंतर झुँझलाहट बनी रहती है और मांग एक बोझ या जुआ प्रतीत होने लगती है । स्व- भावतो: ही साधनाके जीवनमें प्राणिक साधकोंके लिये कोई स्थान नही है - वे हमारी प्रकृतिके पूर्णत भगवान्की ओर मुड़नेमें रुकावट डालनेवाली बाधाएं हैं ।

 

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उस समय अपनी सत्ताके सभी भागोंमें अचंचलता तथा तीव्र अभीप्साका तुम्हें अनुभव प्राप्त हुआ । अपने आंतरिक ध्यानमें तुम्हें परिणामस्वरूप श्रीमाताजीके साथ संपर्क अनुभूत हुआ और उसके बाद तुम्हारी आंतर सत्ता ऊर्ध्वस्थित शांति, विशाल- ता और ज्योतिके लोकोंकी ओर ऊपर उठी और फिर हृदयस्थित अपने केंद्रीय स्थानमें वापस आ गयी ।

 

          दूसरोंके प्रति भावनाओंकी असमानता, पसंदगी और नापसंदगी, मानवीय प्राण-प्रकृतिमें बद्धमूल है । इसी कारण कुछ लोग अपने निजी प्राणिक स्वभावके साथ सामंजस्य स्थापित करते हैं, दूसरे नहीं करते; फिर प्राणिक अहंकार भी है जो आघात पानेपर अथवा, जब उसकी अभिरुचियों या उसकी इस भावनाके अनुसार कि लोगोंको क्या करना चाहिये, कार्य नही होते या लोग कार्य नहीं करते तो, नाराज हों जाता है । ऊपर आत्मामें एक प्रकारकी आध्यात्मिक शांति और समता है, सबके प्रति एक प्रकार- का सद्भाव या एक विशेष अवस्थामें भगवान्के सिवा सभी लोगोंके प्रति एक प्रकारकी स्थिर अचंचलता है, चैत्य पुरुषमें मूलत: सबके प्रति एक प्रकारकी सम करुणा या प्रेम है, पर किसीके साथ विशेष संबध भी हों सकते हैं -- परंतु प्राण-पुरुष सर्वदा असम होता है और पसंदगियों तथा नापसंदगियोसे भरा होता है । साधनाके द्वारा प्राणको अचंचल बनाना होगा, उसे ऊर्ध्वस्थित आत्मासे सब वस्तुओंके प्रति उसका अचंचल सद्भाव और समत्व तथा चैत्य पुरुषसें उसकी सामान्य करुणा या प्रेम ग्रहण करना होगा । यह होगा, पर इसके होनेमें समय लग सकता है । इस बीच तुम्हें उन भावनाओंको और बलशाली बनाना होगा जिन्हें तुमने अपने पत्रमें व्यक्त किया है, -- क्योंकि वे सच्ची चैत्य भावनाएं हैं,-- और वे इस लक्ष्यको प्राप्त करनेमें तुम्हें सहायता देंगी । तुम्हें क्रोध, असहिष्णुता या नापसंदगीकी समस्त आंतरिक और बाह्य क्रियाओंसे मुक्त हो जाना चाहिये । यदि कार्य गलत हों जायं या गलत रूपमे किये जायं तो तुम्हें महज यह कहना चाहिये कि ' 'श्रीमाताजी जानती हैं' ' और तुम्हें चुपचाप कार्य करते रहना चाहिये या यथासंभव उत्तम रूपमें बिना संघर्षके कराते रहना चाहिये । कुछ समय बाद हम तुम्हें बतायेंगे कि श्रीमाताजीकी शक्तिका व्यव- हार कैसे किया जाता है जिसमें कि कार्य अधिक अच्छे ढंगसे हों, परंतु सबसे पहले तुम्हें एक अचंचल प्राणके अंदर अपनी आंतरिक स्थितिको प्राप्त करना होगा, क्योंकि केवल वैसा होनेपर हीं उस शक्तिका व्यवहार यथासंभव 1 पूर्ण सफलताके साथ किया जा सकता

 

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         कर्म सर्वदा मौनावस्थामें ही उत्तम रूपमें संपन्न होता है, हा, यदि स्वयं कर्मके लिये हीं यदि बोलनेकी आवश्यकता हों तो बात दूसरी है । बातचीतको छुट्टीके समयके

 

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लिये रख छोड़ना ही सबसे उत्तम हे । अतएव कर्मके समय तुम्हारे चुप रहनेपर कोई व्यक्ति आपत्ति नहो करेगा ।

 

बाकी जो बात है कि तुम्हें क्या करना चाहिये, सों तुम्हें दूसरोंके प्रति अपना समुचित मनोभाव बनाये रखना चाहिये और वे लोग चाहे जो कुछ भी कहें या करें, तुम्हें विक्षुब्ध, उत्तेजित या क्रुद्ध नही होना चाहिये - दूसरे शब्दोंमें, समता तथा सार्वजनीन सद्भाव बनाये रखो जो योगके साधकके लिये उचित हे । यदि तुम ऐसा करो और फिर भी दूसरे लोग विक्षुब्ध या क्रुद्ध हों जायं तो तुम उसकी परवाह न करो, क्योंकि तब तुम उनकी अनुचित प्रतिक्रियाके लिये उत्तरदायी नही होंगे ।

 

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         मैंने तुम्हारा पत्र पढा है और अब मैं समझ रहा हूँ कि तुम्हें कौनसी बातें दुष्कर प्रतीत हों रही हैं - परंतु वे हमें इतनी गंभीर बातें नही प्रतीत होती कि उन्हें यथार्थ- मे अशांतिका कारण समझा जाय । वे तो उस प्रकारकी असुविधाएं हैं जो उस समय सर्वदा आती हैं जब बहुतसे लोग एक साथ रहते और कार्य करते हैं । वे दो मनों या दो संकल्पोंके बीच गलतफहमी होनेके कारण पैदा होती हैं, दोनों ही अपने रास्तेपर खिचते हैं और यदि दूसरा अनुसरण नही करता तो आहत या दुखी अनुभव करते हैं । इसका एकमात्र इलाज है चेतनाका परिवर्तन - क्योंकि जब कोई एक गभीरतर चेतनामें पैठ जाता है, सर्वप्रथम, वह इन बातोंका कारण समझ जाता है और विक्षुब्ध नही होता,- वह एक प्रकारकी समझ-शक्ति, धैर्य और सहिष्णुता उपार्जित करता है जो उसे झुँझलाहट तथा अन्य प्रतिक्रियाओंसे मुक्त कर देती हैं । यदि दोनों या सभी चेतनामें वर्द्धित हों तो उससे एक-दूसरेके दृष्टिकोणोंको मनसे समझनेकी शक्ति उत्पन्न होती है जो सामजस्य लें आना तथा निर्विघ्र कार्य करना अधिक आसान बनाती है । बस, यही चीज है जिसकी खोज हमें आंतरिक परिवर्तनके द्वारा करनी चाहिये -- उस सामंजस्यको बाहरसे, बाहरी उपायोंके द्वारा उत्पन्न करना उतना आसान नही है, क्योंकि मानव-मन अपनी समझमें बड़ा कठोर-होता है और मानवीय प्राण अपने निजी कर्ममार्गपर आग्रह शील होता है । बस, अपना मुख्य संकल्प यह बना लो - अपने अंदर तुम वर्द्धित होंगे और स्पष्टतर तथा गभीरतर चेतनाको आने दोगे तथा यह शुभ- च्छा बनाओगे कि यही परिवर्तन दूसरोंके अंदर आये जिसमें कि संघर्ष और गलत- फहमीके स्थानमें औदार्य तथा सामजस्य उत्पन्न हों ।

 

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        देखो, मैं पहले ही कह चुका हूँ कि झगड़ा करना, आघात पहुँचाना साधनाका अंग नही हैं जिन विरोधों और संघर्षके तुम चर्चा करते हो वे, ठीक जैसा कि बाहरी. जगत्में होता है, प्राणिक अहंकारके संघर्षण हैं । वैर-विरोध, घृणा, नापसंदगी,

 

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लड़ाई-झगड़े आदिको उसी तरह साधनाका अंग नही कहा जा सकता जिस तरह कामा- वेग या काम-क्रियाओंको साधनाका अंग नही कहा जा सकता । मेल-मिलाप, सद्- भाव, सहिष्णुता, समता आदि साधकके साथ साधकके संबंधका आवश्यक आदर्श हैं । मनुष्य किसीके साथ मिलने-जुलनेके लिये बाध्य नहीं है, पर यदि कोई अपने- आपमें अलग रहता है तो ऐसा साधनाके कारणोंसे ही होना चाहिये, अन्य उद्देश्योंसे नहीं; अधिकंतु, यह किसी बडप्पनकी भावना या दूसरोंके प्रति घृणाभावके बिना होना चाहिये...... । यदि कोई देखे कि किसी भी कारणसे दूसरोंके संग-साथमें रहनेसे उस (पुरुष या स्त्री) मे अवांछनीय प्राणिक वृत्तियां उदित होती हैं तो वह (पुरुष या स्त्री) अवश्य ही उस सग-साथसे, सावधानीके लिये, तबतक अलग रह सकता है जबतक कि वह (पुरुष या स्त्री) इस कमजोरीको जीत नही लेता । परंतु अलग रहनेका दिखावा करना या सार्वजनिक रूपसे आघात पहुँचाना आवश्यकताओंके अंदर सम्मिलित नही है और भावनाओंको धोखा देनेकी आदतको भी उसी तरह जीतना चाहिये ।

 

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          ये परिणाम कोई दंड नही हैं, अहंमन्यताके वशवर्त्ती होनेके ये स्वाभाविक परिणाम हैं । सभी झगड़े अहंमन्यतासे उत्पन्न होते हैं जो अपने ही मतको आगे रखता है और अपने ही महत्त्वको प्रस्थापित करता है, यह समझता है कि वही सही हैं और अन्य सभी लोग गलत हैं और इस तरह क्रोध और आघातका बोध आदि उत्पन्न करता है । इन सब चीजोंको प्रश्रय नही देना चाहिये, बल्कि तुरत इनका परित्याग कर देना चाहिये ।

 

*

 

      मैं तुमसे यह कहूँगा कि तुम क्रोध या अन्य किसी वृत्तिको उठने न दो या उनकी प्रेरणासे आचरण मत करो । इन सब चीजोको दूर हटा दो और यह समझो कि अंदर - शांति पाना और भगवान्की खोज करना ही एकमात्र महत्त्वपूर्ण बात हैं -- ये झगड़े तो महज अहंकारके विस्फोट हैं । बस, एक दिशामें मुड जाओ, पर उसके बाद सबके लिये एक शांत सद्भाव बनाये रखो ।

 

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        यदि तुम ज्ञान प्राप्त करना या सबको भाईके रूपमे देखना या शांति पाना चाहते हो तो तुम्हें अपने विषयमें, अपनी कामनाओं, भावनाओं, अपने प्रति लोगोंके व्यवहार आदिके विषयमें कम सोचना चाहिउये तथा भगवान्के विषयमें अधिक सोचना चाहिये - अपने लिये नही, भगवान्के लिये जीवन धारण करना चाहिये ।

 

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      अब तुमने समुचित मनोभाव धारण कर लिया है,'और तुम यदि इसे बनाये रखो तो सब कुछ अच्छे ढंगसे चलेगा । सच पूछो तो तुम भगवती माताके पास योगके लिये आये हों, न कि पुराने ढंगके जीवनके लिये । फिर तुम्हें इस स्थानको एक आश्रम समझना चाहिये, न कि एक साधारण संसार, और दूसरोंके साथके अपने व्यवहारमें क्रोध, स्वा- ग्रह और अभिमानको जीतनेका प्रयत्न. करना चाहिये, चाहे तुम्हारे प्रति उनका मनो- भाव या व्यवहार जैसा भी क्यों न हों; क्योंकि जबतक तुम्हारे ये मनोभाव रहेंगे तबतक योगमें प्रगति अपनेमें तुम्हें कठिनाई होगी ।

 

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        झगड़े और संघर्ष यौगिक स्थितिके अभावके प्रमाण हैं और जो लोग गंभीरता- पूर्वक योग करना चाहते हैं उन्हें इन चीजोंसे बाहर निकलना सीखना होगा । जब संघर्ष या विवाद या झगड़ेका कोई कारण न हो तो रार न करना काफी आसान है; परंतु जब कारण हों और दूसरा पक्ष असहिष्णु और युक्तिविहीन हों तो मनुष्यको अपनी प्राण-प्रकृतिसे ऊपर उठनेका सुअवसर प्राप्त होता है ।

 

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      तुम्हारे प्रश्नकी जहांतक बात हैं, वास्तवमें प्राण-प्रकृतिका भावुक अंश ही लोगों- के साथ झगड़ता हे और उनके साथ बात करना अस्वीकार करता है और यही भाग है जो उस भावके विरुद्ध प्रतिक्रिया होनेपर बोलना और संबंध स्थापित करना चाहता है । जबतक मनुष्यमें इनमेंसे कोई वृत्ति विद्यमान है, दूसरीका होना भी संभव है । जब तुम इस भावुकतासे मुक्त होते हों और अपनी समस्त पवित्र वृत्तियोंका भगवान्की ओर मोड देते हो, केवल तभी ये अस्थिर अवस्थाएं दूर होती हैं और उनके स्थानमें सबके प्रति एक अचंचल शुभेच्छा आ जाती है ।

 

*

 

       दो मनोभाव हैं जिन्हें कोई साधक रख सकता है. उनकी मित्रता या शत्रुताका कोई विचार न कर सबके प्रति स्थिर समताका भाव अथवा एक प्रकारकी सामान्य सदिच्छाका भाव ।

 

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       दूसरोंके दोषोंकी बहुत अधिक चर्चा मत करो । वह सहायक नहीं होता । अपने मनोभावमें सर्वदा अचंचलता और शांतिको बनाये रखो ।

 

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      यह बिलकुल ठीक है । जो लोग सहानुभूति दिखाते हैं केवल वे ही सहायता कर सकते हैं - निश्चय हीं साधकको घृणाके बिना दूसरोंके दोषोंको देखनेमें समर्थ भी होना चाहिये । घृणा दोनों पक्षोंको हानि पहुँचाती है, सहायता किसीकी नही करती ।

 

*

 

       देखने और निरीक्षण करनेमें कोई हानि नहीं यदि सहानुभूति और निष्पक्षताके साथ वैसा किया जाय - सच पूछा जाय तो अनावश्यक रूपसे टीका-टिप्पणी करने, दोष ढूँढने, दूसरोंको दोषी ठहराने (बहुधा बिलकुल गलत रूपमें) की प्रवृत्ति ही अपने और दूसरोंके लिये बुरा वातावरण पैदा करती है । और भला यह कठोरता और सुनिश्चित दोषारोपण किसलिये ' क्या प्रत्येक मनुष्यमें अपने निजी दोष नही हैं - उसे भला दूसरोंमें दोष निकालने और उन्हें दंड देनेके लिये इतना उत्सुक क्यों रहना चाहिये? कभी-कभी मनुष्यको विचार करना पड़ता है पर उसे जल्दबाजीमें या दोष निकालनेकी भावनाके साथ नही करना चाहिये ।

 

*

 

        स्वयं अपने-आप उन्हीं दोषोंसे बचनेमें पटु होनेकी अपेक्षा कहीं अधिक मनुष्य दूसरोंके कार्यकी कटु आलोचना करने और उनसे यह कहनेमें समर्थ होता है कि कार्य कैसे करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये । निस्संदेह, बहुत बार उन्हीं दोषों- को मनुष्य दूसरोंमें अधिक आसानीसे देख लेता है जो स्वयं उसमें होते हैं पर जिन्हें वह देखनेमें असमर्थ होता हे । ये तथा अन्य दोष, जैसे दोषोंकी तुमने अंतमें चर्चा की हे, मानव-स्वभावके सामान्य दोष हैं और थोड़े लोग ही इनसे बचते हैं । मानव-मन वास्तव- मे अपने विषयमें सचेतन नहीं होता - यही कारण है कि योगमें मनुष्यको सर्वदा यह खोजना और देखना होता है कि अपने अन्दर क्या है तथा अधिकाधिक सज्ञान होना होता है ।

 

*

 

          यह सामान्य जीवनका कोई प्रश्न नहीं है । सामान्य जीवनमें मनुष्य सर्वदा गलत रूपमें विचार करते हैं, क्योंकि वे मानसिक मानदंडों तथा साधारणतया परंपरा- गत मानदंडोंसे विचार करते हैं । मानव-मन सत्यका नही बल्कि अज्ञान और भूल- भ्रातिका यंत्र है ।

 

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         सच पूछो तो प्रत्येक ब्यक्तिका तुच्छ अहं ही दूसरोंके ' 'वास्तविक या अवास्तव- विकट' ' चुटियोंको खोजना और उनके विषयमें बातचीत करना पसंद करता है - और इससे कुछ नही आता-जाता कि वे वास्तविक हैं या अवास्तविक; अहंको उनके विषयमें राय देनेका कोई अधिकार नहीं हैं, क्योंकि उसे सत्य दृष्टि या यथार्थ भाव नही प्राप्त है । वास्तवमें एकमात्र शांत, अनासक्त, धीर-स्थिर, सर्व-करुणामय और सर्व-प्रेममय आत्मा ही प्रत्येक जीवके बल और दुर्बलताको ठीक-ठीक देख सकता और उनका विचार कर सकता है ।

 

*

 

       हां, सब सही है । निम्र प्राणको दूसरोंकी कमियोंको ढूँढ्नेमें एक हीन और तुच्छ सुख मिलता है और इस तरह मनुष्य अपनी निजी तथा आलोचनाके विषय दोनों- की प्रगतिमें बाधा पहुँचाता है ।

 

*

 

         गपशप करनेकी वृत्ति सदैव ही एक बाधा होती है ।

 

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       जब साधक अपने प्रति होनेवाली साधारण मानवीय प्राणिक मांगोंके विरुद्ध अपने पथपर दृढ बना रहता है तो उसके विरुद्ध उन लोगोंके द्वारा ऐसी निंदाओं (पत्थर आदि कहना) का होना एकदम सामान्य बात है । परंतु इस बातसे तुम्हें विचलित नही होना चाहिये । साधारण प्राणिक मानव-प्रकृतिके पंकिल पथोंपर नरम और दुर्बल मिट्टी होनेकी अपेक्षा भगवान्के मार्गपर एक पत्थर होना कही अधिक अच्छा है ।

 

*

 

        वास्तवमें इस बातका कोई महत्व नही कि दूसरे तुम्हारे विषयमें क्या सोचते हैं, बल्कि महत्व इस बातका है कि तुम स्वयं क्या हों ।

 

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      कभी-कभी दुर्भावनापूर्ण (उचित दा सुविचारित नही) आलोचना भी अपने कुछ पक्षोंमें सहायक हो सकती है, यदि कोई उसके अनौचित्यसे प्रभावित हुए बिना उसपर ध्यान दे सके ।

 

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      स्वभावत: ही, प्रशंसा ओर निंदाका वह प्रभाव पंडू सकता है (मानव-स्वभाव लगभग अन्य किसी चीजकी अपेक्षा, यहांतक कि यथार्थ लाभ या हानिकी भी अपेक्षा कहीं अधिक इन चीजोंके प्रति संवेदनशील है), जबतक कि उसमें समता न स्थापित हों गयी हो अथवा किसी व्यक्तिके ऊपर इतना पूर्ण उसे विश्वास और प्रसन्नतापूर्ण निर्भरता न हो गयी हो कि प्रशंसा और निंदा दोनों उसके स्वभावके लिये सहायक हों । कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनमें योगके बिना भी इतना संतुलित मन होता हे कि वह निंदा- स्तुतिको शांतभावसे ग्रहण करता और बह जिस योग्य होता है उसका विचार करता

 

III

 

       दूसरोंको सहायता' करनेकी भावना अहंभावका ही एक सुदृम रूप है ! एकमात्र भगवान ही सहायता कर सकते हैं ! मनुष्य उनका यंत्र हो सकता है! परंतु तुमको सबसे पहले एक योग्य और यंत्र बनना  सीखना होगा !

 

*

 

      दूसरोंको सहायता करनेकी भावना अहंभावका एक भ्रम है । वास्तवमें जब श्रीमाताजी नियुक्त करतीं तथा अपनी शक्ति देती हैं केवल तभी मनुष्य सहायता कर सकता है और उस दशामें भी कुछ सीमाओंके भीतर ही कर सकता है ।

 

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       समस्त परिवर्तन भीतरसे, भागवत शक्तिकी अनुभूत अथवा गुह्य सहायताके द्वारा आना चाहिये; वास्तवमें उसके प्रति अपना आंतरिक उद्घाटन होनेपर हीं मनुष्य सहायता ग्रहण कर सकता है, दूसरोंके साथ मानसिक, प्राणिक या भौतिक संपर्क होने- पर नहीं ग्रहण कर सकता ।

 

*

 

       निस्संदेह, यह सापेक्षिक और आशिक सहायता होती है, पर यह कभी-कभी उपयोगी होती है । सच्ची सहायता केवल अंतरसे भागवती शक्तिकी कियाके फलस्वरूप तथा पुरुषकी अनुमति होनेपर आ सकती है । निस्संदेह, यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति, जो वास्तवमें सहायता करता है, यह नहीं सोचता कि वह सहायता कर रहा है । फिर सहायताके साथ यदि ' 'प्रभाव' ' स्थापित करनेका भाव जुड़ा हुआ हो तो वह प्रभाव मिश्रित हो सकता है और यदि यंत्र शुद्ध न हो तो सहायता और साथ

 

३२४


ही हानि भी पहुँचा सकता है ।

 

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      हां, मानव चरित्रके साथ सर्वदा ऐसा ही होता है - मनुष्य पीछे कोई ऐसा अभिप्राय या कोई भावना रखकर एक-दूसरेकी सहायता करना चाहते हैं जो अहंभावसे उत्पन्न होती है ।

 

      हां, जब कोई किसी उच्चतर चेतनामें निवास करता है केवल तभी इससे भिन्न होता है ।

 

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     माता-सदृश महत्त्वाकांक्षाकी वास्तविक त्रुटि - कम-से-कम जिस रूपमें यह उस (स्त्री) की तरह बहुतोंमें प्रकट होती है - यह है कि यह एक अहंजन्य क्यिाको, एक बड़ा पार्ट खेलने, अपने उत्पर निर्भरशील लोगोंको पाने, मातृवत् प्रतिष्ठा पाने आदि-आदिकी कामनाको छिपाये रखती है । मानव-परोपकारवादका अधिकांश वास्तवमें इसी अहं-आधारपर खड़ा होता है । यदि कोई इससे मुक्त हो जाय तो सहायता करनेका संकल्प विशुद्ध सहानुभूति तथा चैत्य भावकी कियाके रूपमें अपना यथार्थ स्थान पा सकता है ।

 

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       तुम्हें '' के विचारोंके बिषयमें न तो अदिक परेशान होनेकी आवश्यकता है न उन्हें महत्त्व देनेकी । उनका एकमात्र सत्य यह है कि यदि कोई सावधान न हो तो साधनाकी क्रियाओंके अन्दर भी बड़ी आसानीसे प्राणिक मिलावट आ जाती है । इससे बचनेका एकमात्र उपाय है सब कुछ भगवान्की ओर मोड देना और भगवान्से ही सब कुछ आहरण करना और आसक्ति, अहंकार तथा कामनासे मुक्त हो जाना । दूसरे साधकोंके साथके अपने संबंधमें न तो कठोरता और रुक्षता होनी चाहिये और न आसक्ति और भाबुकतापूर्ण झुकाव ।

 

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        मातृवत् भावनाका जहांतक प्रश्न है - इसे भी अन्य प्रत्येक चीजकी तरह रूपांतरित करना होगा । ये सभी संबंध जव अरूपांतरित होते हैं तो इनका खतरा यह होता है कि ये सूक्ष्म रूपमें अहंभावके सहायक हों सकते हैं । इससे बचनेके लिये, अपनेको महज एक यंत्र बना लेना होगा, पर यंत्र होनेका अहंकारतक वहां नही होना चाहिये, और फिर उसे अपने मूलस्रोतका ज्ञान होना चाहिये, उसे कार्यपर या किसी संबंधपर आग्रह नही करना चाहिये, बल्कि जव बह यह अनुभव कर सके कि वह अपेक्षित है तब उपयोगी होनेके लिये महज उसका अनुसरण करे । इसके अलावा, इस विषयमें

 

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भी उसे सावधान रहना चाहिये कि उसके द्वारा यथार्थ शक्तियोंके अतिरिक्त दूसरी कोई शक्ति न आवें, केवल वे ही आवें जो उच्चतर चेतना तथा सहायताके साथ सु- समंजस हों । यदि कोई इस भावना तथा इस सावधानीके साथ सर्वदा कार्य करे तो यदि भूलें हों भी जायं तो कोई हर्ज नही - वर्द्धमान चेतना उन्हें सुधार देगी और कही अधिक पूर्ण कियाकी ओर प्रगति करेगी ।

 

*

 

        निस्संदेह, दूसरोंकी सहायता करनेकी असुविधा यह है कि साधक उनकी चेतना तथा उनकी कठिनाइयोंके संपर्कमें आता है और फिर उसकी चेतना अधिक बहिर्मुखी भी हों जाती है ।

 

*

 

      हां, यह (किसी भी व्यक्तिके पथभ्रष्ट हों जानेपर उसके साथ सहानुभूति रखना) खतरनाक है, क्योंकि इससे तुम उस व्यक्तिको पथभ्रष्ट करनेवाली विरोधी शक्तिके संपर्कमें आ जाते हों और वह शक्ति तुरत तुम्हें भी स्पर्श करने, सुझाव देने तथा एक प्रकारके स्पर्शज या संक्रामक रोगके द्वारा भ्रष्ट करनेका प्रयत्न करती है ।

 

*

 

        सहानुभूति दिखानेपर तुम संपर्क प्राप्त करते हो और जो कुछ दूसरेमें है उसे ग्रहण करते हो -- अथवा तुम फिर अपनी शक्तिका कुछ अंश दे सकते या अपने भीतरसे जाने देते या खींच लेने देते हो जो दूसरेके पास चला जाता हे । वास्तवमें वह प्राणगत सहानुभूति है जिसका यह परिणाम होता है; शांत-स्थिर आध्यात्मिक या चैत्य शुभेच्छा इन प्रतिक्रियाओंके नही उत्पन्न करती ।

 

*

 

        परंतु, मुझे भय है, दूसरोंकी कठिनाइयोंको अपने ऊपर लेना किसीके भी लिये एक भारी बोझ होगा और इस पद्धतिकी फलोत्पादकतामें मुझे संदेह है । मनुष्य बहुत अधिक लाभदायी रूपमें जो कुछ कर सकता है वह यह है कि यदि उसके पास शक्ति- सामर्थ्य १ तो वह अपनी शक्ति-सामर्थ्य दूसरेको दे दे, यदि उसके पास शांति है तो दूसरेपर शांति बरसा दे आदि । यह कार्य बह अपनी शक्ति या शांति खोये बिना कर सकता है - यदि ऐसा समुचित ढंगसे किया जाय ।

 

*

 

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    इस मामलेमें दो मनोभावोंका होना संभव है और इनमेंसे प्रत्येकके बारेमें कुछ कहा जा सकता हैं । '' के मनोभावके विषयमें बहुत कुछ कहा जा सकता है - सबसे पहले, जबतक किसी व्यक्तिकी अपनी निजी सिद्धि पूर्ण नही हों जाती, तबतक वह जो सहायता देगा वह सर्वदा थोडी संदिग्ध और अपूर्ण होगी और, दूसरे, अनुभवी योगी- योंने इतने अधिक बार जोरदार शब्दोंमें कहा है कि दूसरोंको सहायता देनेके लिये उनकी कठिनाइयोंको अपने ऊपर लें लेनेमें खतरा है । परंतु जो हो, पूर्णताके लिये प्रतीक्षा करना सर्वदा संभव नहीं है ।

 

*

 

      बिना हिचकिचाये मन और हृदय दोनोंमें दूसरेका मंगल चाहना ही सर्वोत्तम सहायता है जो मनुष्य दूसरेको दे सकता है ।

 

*

 

         यदि तुम्हारे पति अपने जीवनके संकटमय कालसे गुजर रहे हैं और अस्वस्थता भोग रहे हैं और उनके प्रति तुम्हें सहानुभूति है तो फिर भी उनके लिये सबसे अच्छा यही है कि तुम अपने-आपको शांत करो और संकटकाल पार करनेमें उन्हें सहायता देनेके लिये भगवान्को पुकारों । साधारण जीवनतकमें अशांति और अवसाद उस व्यक्तिके लिये अनुपयुक्त वातावरण पैदा करते हैं जो बीमार या कठिनाइयोंमेंसे होता है । एक बार जब तुम साधिका बन गयी तब, चाहे स्वयं तुम्हारे लिये हो अथवा जिन लोगोंके प्रति अभी भी तुम्हारी सहानुभूति है उन लोगोंको सहायता देनेके लिये हो, भागवत संकल्पशक्तिपर भरोसा रखने और ऊपरसे सहायताके लिये आह्वान करनेका सच्चा आध्यात्मिक मनोभाव ही सर्वदा सर्वोत्तम तथा अत्यत फलदायी पथ होता है ।

 

*

 

         तुमने भगवान्के हाथोंमें जो कुछ या जिस किसीको सौंप दिया है, उस वस्तु या मनुष्यके लिये अब न तो तुम्हारे अंदर कोई आसक्ति होनी चाहिये और न दुश्चिन्ता, बल्कि सब कुछ भगवानपर छोड़ देना चाहिये जिसमें कि जो कुछ सर्वोत्तम हों उसे बह करें ।

 

*

 

       यह बहुत अच्छा है कि जिस अवस्थाका तुम वर्णन करते हो वह स्थापित हो गयी है - यह एक बड़ी प्रगति है । प्रार्थनाओंकी जहांतक बात है, प्रार्थना करनेका कार्य

 

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और जो मनोभाव वह ले आती है, विशेषकर दूसरोंके लिये की गयी निःस्वार्थ प्रार्थनाका कार्य, स्वयं तुम्हें उच्चतर दिव्य शक्तिकी ओर खोल देता है, यद्यपि जिसके लिये प्रार्थना की जाती है उस ब्यक्तिमें कोई तदनुसार परिणाम नहीं भी दिखायी देता । उसके विषयमें कोई भी सुनिश्चित बात नहीं कही जा सकतीं, क्योंकि परिणाम आवश्यक रूपसे उन व्यक्तियोंपर निर्भर करता है, इस यातपर निर्भर करता हैं कि आया वे खुले हैं या नहीं अथवा ग्रहणशील हैं या नहीं अथवा उनके अंदरकी कोई वस्तु प्रार्थनाद्वारा उतारी गयी किसी शक्तिको प्रत्युत्तर दे सकती है या नहीं ।

 

IV

 

       अपने संपर्कोंको सीमित करनेमें समर्थ होना अवश्य ही एक महान् साहाथ्य है, बशर्त्ते कि इसे अति दूरतक न खींचा जाय । जो हो, मैं यहां इतना कह १ कि सीमित संपर्कोंके होनेपर भी अवांछित लहरें भीतर घुस सकती हैं - यह सावधानताका एक उपाय है पर यह तुम्हें पूर्णत: सुरक्षित नहीं बना देता । दूसरी ओर, पूर्ण रूपसे अलग हो जानेपर मनुष्य दूसरे छोरपर पहुँच जाता है और उसके भी अपने खतरे हैं । सच पूछो तो ध्यान हटानेवाली, उद्विग्न करनेवाली, बहिर्मुखी बनानेवाली आदि-आदि ' 'वस्तु' ' से पूर्ण संरक्षण केवल तभी मिल सकता है जब कि अंतरमें चेतना वर्द्धित हो । इस तरह कुछ कालके लिये अपने अन्दर निमग्न हो जाना और संपर्कको सीमित कर देना एक सहायक उपाय हों सकता है यदि उसका व्यवहार विवेकपूर्ण तरीकेसे किया जाय ।

 

*

 

       यह सच है कि सभी परिस्थितियोंमें, यहांतक कि अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियोंमें भी, मनुष्यको आंतरिक स्थितिको बनाये रखनेका प्रयत्न करना चाहिये; पर उसका तात्पर्य यह नहीं है कि उस दशामें भी, अनावश्यक रूपसे, प्रतिकूल अवस्थाओं- को स्वीकार करना होगा जब कि उनको बने रहने देनेका कोई समुचित कारण न हों । विशेषत:, स्नायुमंडल और शरीर अत्यधिक श्रम नहीं सहन कर सकते,- मन भी तथा उच्चतर प्राण भी नहीं सह सकते; तुम्हारी थकावट एकमेव भागवत चेतनामें बने रहनेके श्रमके कारण आयी तथा साथ-ही-साथ अपनेको साधारण चेतनाके दीर्घ संपकोंके प्रति अत्यधिक खोले रखनेके कारण आयी । आत्मरक्षणकी कुछ मात्राकी आवश्यकता होती है जिसमें कि चेतना निरंतर सामान्य वातावरणके अन्दर नीचे या बाहरकी ओर न खींच जाय अथवा शरीरको उन कार्योमें जबर्दस्ती नियुक्त कर देनेके कारण थकावट न हो जो तुम्हारे लिये बिजातीय बन चुके हैं । जो लोग योगाभ्यास करते हैं बे बहुधा इन कठिनाइयोंसे बचनेका लिये एकांतकी शरण लेते हैं; यह यहां अनावश्यक है, परंतु साथ-ही-साथ तुम्हें इस प्रकारके निरर्थक श्रमके अधीन अपनेको

 

३२८


सर्वदा खींच ले आने देनेकी कोई आवश्यकता नहीं है ।

 

*

 

        तुम बिलकुल ठीक कहते हो । दूसरोंके साथ न मिलनेपर मनुष्य उस परीक्षणसे बच जाता है जिसे दूसरोंके साथका संपर्क चेतनाके ऊपर लादता है और इन परिस्थिति- योंमें प्रगति करनेका मौका खो देता है । जब मनुष्य केवल प्राणको प्रश्रय देनेके लिये, गपशप करने, प्राणिक क्यिाओं आदिका आदान-प्रदान करनेके लिये किसीसे मिलता- जुलता है तो वह आध्यात्मिक दृष्टिसे लाभदायक नही होता; परंतु सब प्रकारके मिलने- जुलने और संपर्कसे विरति भी वांछनीय नही है । जव चेतना सचमुच पूर्ण एकांतवास- की आवश्यकता समझती है केवल तभी ऐसा एकांतवास किया जा सकता है और उस दशामें भी वह एकांत पूर्ण तो हों सकता है पर अखंड नहीं हो सकता । क्योंकि अखंड एकांतवासमें मनुष्य विशुद्ध रूपमे आत्मनिष्ठ जीवन बिताता है और बाहरी जीवन- तक आध्यात्मिक प्रगतिको प्रसारित करने तथा पूर्णत: उसकी परीक्षा करनेका सुअवसर वहां नहीं होता ।

 

      यह अच्छी बात है कि जो कुछ घटित हुआ उसके प्रति तुम्हें शीघ्र समुचित मनो- भाव प्राप्त हो गया; यह चीज चेतनामें प्राप्त एक अच्छी प्रगतिको सूचित करती है ।

 

*

 

        बह (लोंगोंके साथ मिलना-जुलना, हंसना-बोलना, हंसी-मजाक आदि) एक प्रकारका प्राणिक प्रसरण है, यह प्राणिक सामर्थ्य नहीं हे - यह प्रसरण खर्चीला भी है । क्योंकि जब इस प्रकारका मिलना-जुलना होता है तो जो लोग प्राणिक रूपसे प्रबल होते हैं वे उससे शक्ति पाते हैं पर जो प्राणिक रूपसे दुर्बल होते हैं वे अपनी शक्ति खो देते और अधिक कमजोर हो जाते हैं ।

 

*

 

        मैं समझता हूँ, सबके ऊपर लागू होने योग्य कोई नियम नही बनाया जा सकता । कुछ. ऐसे लोग हैं जो प्राणके फैलावकी प्रवृत्ति रखते हैं, दूसरे लोग ऐसे होते हैं जो एकाग्र- ताकि प्रकृति रखते हैं । ये दूसरे प्रकारके लोग अपने निजी प्रयत्नकी तीव्रताके अन्दर तल्लीन होते हैं और निश्चय हीं उससे ये प्रगतिकी एक महान् शक्ति संग्रह करते हैं और शक्तिके उस व्यय और क्षतिसे बच जाते हैं जो अधिक संपर्क रखनेवाले लोगोंको प्राय. हीं उठाना पड़ता हैं; फिर साथ ही दूसरोंकी प्रतिक्यिाओंकी ओर ये कम खुले होते हैं ( यद्यपि इनसे सर्वथा वचा नहीं जा सकता) । दूसरे लोगोंको, जो कुछ उनके अन्दर है, उसको प्रदान करनेकी आवश्यकता होतीं है और वों जो कुछ उनके पास है उसका

 

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उपयोग करनेसे पहले पूर्ण पूर्णत्व प्राप्त करनेके लिये प्रतीक्षा नही कर सकते । यहां- तक कि उन्हें प्रगति करनेके लिये देने और लेनेकी आवश्यकता हों सकती हैं । बस, एक हीं बात है कि उन्हें दोनों प्रवृतियोमें समतोलता बनाये रखनी चाहिये, जितना अधिक वितरित करनेके लिये बे एक तरफसे खुले हैं उतना हीं अधिक अथवा उससे भी अधिक ऊपरसे ग्रहण करनेके लिये एकाग्र होना चाहिये ।

 

*

 

           '' का प्राण बहुत प्रबल और विस्तरणशील है, अतएव यह बिलकुल स्वसा भाविक हैं कि यदि वह किसीको पसंद करे तो वह उसके साथ मिलकर उसपर इस प्रकार- का प्रभाव डाल सकता है । परंतु मैं नहीं समझता कि जो कुछ वह देता या ग्रहण करता है उसके विषयमें वह सचेतन है; यह अधिक अपने-आप होनेवाले कार्यके जैसा है । वह केवल देनेका ही अभ्यासी नही है यद्यपि, एक प्रबल आत्मलीन प्राणके विपरीत एक प्रबल विस्तारशील प्राणके लिये, ग्रहण करने और देंने दोनोंकी आवश्यकता होती है!

 

*

 

       यह एक स्वभावका विषय है । कुछ लोग कहीसे जो कुछ आता है उस सबके प्रति चैत्य रूपमें और प्राणिक रूपमें संवेदनशील और प्रतिक्रियात्मक होते हैं; दूसरे लोग ठोस स्तायुवाले तथा आक्रमणके लिये प्राचीर-वेष्टित होते. हैं । यह बिलकुल ही प्रबलता या दुर्बलताका प्रश्न नहीं है । पहली कोटिके लोगोंको जीवन तथा जीवनके प्रति उत्तरका एक महत्तर बोध होता है; वे जीवनमें अधिक दुःख भोगते हैं और उससे (जीवनसे) अधिक प्राप्त करते हैं । यह ग्रीक और रोमन लोगोंके बीचका अंतर है । अहंकारके बिना भी यह विभेद बना रहता है, क्योंकि यह स्वभावका अंतर है । योग- मे प्रथम कोटिके लोग प्रत्येक चीजको प्रत्यक्ष रूपमें अनुभव करने तथा घने अनुभवके द्वारा ब्योरेके साथ प्रत्येक चीजको जाननेमें अधिक सक्षम होते हैं; यही उनकी महान् सुविधा है । दूसरे लोगोंको जाननेके लिये मनका व्यवहार करना पड़ता है और उनकी पकड़ कम घानी होती है ।

 

*

 

       यह सही है कि अधिक घनिष्ठ रूपमें दूसरोंसे मिलने-जुलनेसे आंतरिक स्थिति नीचे गिर जाती है, यदि उनमें समुचित मनोभाव न हों और वे बहुत अधिक प्राणमें निवास करें । सभी संपर्कोंके तुम्हें बस यही करना है कि तुम अपने भीतर बने रहो, अनासक्त भाव बनाये रखो और कर्म तथा दूसरोंकी गति-विधियोंमें जो कठिनाइयां

 

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उठे उनसे अपनेको उद्विग्न मत होने दो, बल्कि तुम स्वयं यथार्थ वृत्ति बनाये रखो । दूसरोंको ' 'सहायता' ' करनेकी कामना द्वारा आक्रांत मत होओ -- स्वयं अपनी आत- रिक स्थितिमें रहते हुए यथार्थ कार्य करो और यथार्थ बात बोलो तथा उनके पास भग- वान्के यहांसे सहायता आने दो । कोई भी व्यक्ति वास्तवमें सहायता नहीं कर सकता - एकमात्र भागवत कृपा- शक्ति ही कर सकती है ।

 

*

 

        यह (सामंजस्य, आनन्द और प्रेम) तुममें है और जब यह ऐसा होता है वाता- वरणमें फैल जाता है -- परंतु स्वभावत: ही केवल वे ही लोग उसमें हिस्सा बंटा सकते हैं जो खुले हुए और प्रभावके प्रति संवेदनशील हैं । फिर भी जिसके अंदर शांति या प्रेम है ऐसा प्रत्येक व्यक्ति वातावरणमें उसके बढ़ानेके लिये एक सहायक प्रभाव बन सकता है ।

 

*

 

       जब कोई मनुष्य कुछ समय बातचीत आदि करते हुए दूसरेके साथ रहता है, तब वहां सदा थोड़ा प्राणिक आदान-प्रदान होता है, जबतक कि वह दूसरेसे जो कुछ सहज रूपमें यासज्ञान रूपमें आता है उसका परित्याग नहीं कर देता । यदि कोई व्यक्ति संवेदनशील हों तो दूसरेकी ओरसे एक प्रबल छाप या प्रभाव पंडू सकता है । फिर, जब वह किसी दूसरे व्यक्तिके पास जाता है तो यह संभव है कि बह उस प्रभावको उसकी ओर हस्तांतरित कर दे । यह एक ऐसी चीज है जो बराबर घटित हो रही है । परंतु यह चीज हस्तांतरित करनेवालेके ज्ञानके बिना घटित हो रही है । जब मनुष्य सचेतन होता है जो वह इसे घटित होनेसे रोक सकता है ।

 

*

 

       दूसरे व्यक्तिके साथ बात करके अवसन्न हो जाना किसी व्यक्तिके लिये बिलकुल संभव है । बातचीत करनेका अर्थ है एक प्रकारका प्राणिक आदान-प्रदान, सो ऐसा सदा घटित हो सकता हैं । आया एक विशेष प्रसंगमें उन्होंने ठीक-ठीक निरीक्षण किया है या नही यह दूसरा विषय है ।

 

*

 

        हां, यही है कसौटी । जब कोई अन्य लोगोंके साथ व्यवहार करता है तो सर्वदा ही उनकी ओर चेतनाका एक प्रसारण हों सकता है अथवा चेतनामें उनको ग्रहण किया

 

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जा सकता है, पर उसका तात्पर्य आसक्ति नहीं है - आसक्तिके लिये तो कुछ अधिक चीज आवश्यक है, व्यक्तिके ऊपर उसके प्राणकी एक पकड़ या उसके प्राणपर ब्यक्तिकी पकड़ आदि आवश्यक है ।

 

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        वास्तवमें मुख्य रूपसे तुम्हें एक आंतरिक सतर्कता रखनी चाहिये । उसके साथ-ही-साथ यदि तुम भडिके अन्दर बेचैनी अनुभव करते हों तो उससे बचना अधिक अच्छा हे - सिवा संगीतके समय, यदि तुम अपनेको सुरक्षित अनुभव करो । ऐसे लोगोंकी भिड़, जो विशुद्ध रूपमें सामाजिक आदान-प्रदानमे व्यस्त रहते हैं, निश्चित रूपसे चेतनाके एक निम्रतर स्तरपर होती है जिसमें अवांछनीय शक्तियां घूम-फिर सकती हैं, यदि वहां कोई उनकी ओर खुला हुआ हो, और जो व्यक्ति चेतनाकी रोसी स्थितिमें है जो उच्चतर चीजोंकी ओर उद्घाटित तो है पर अभीतक सुदृढ़ तथा आत्म- साहाथ्यकारी शांतिमें स्थापित नहीं हुआ है तो वह उससे अलग रहनेपर ही अधिक सुरक्षित होता है ।

 

       साधनामें यह माना जाता है कि मनुष्य बाहरी शक्तियोंको अपनेसे दूर रखेगा अथवा कम-से-कम उन्हें अपने आर आक्रमण नहीं करने देगा । यदि मनुष्य किसी कठिनाईका समुचित भावके साथ सामना करता और उसे जीत लेता है तो स्वभावत: ही वह प्रर्गाते करता है, परंतु यह सचेतन सत्ताके अन्दर विरोधी शक्तियों या प्रभावोको घुसने देनेसे भिन्न वस्तु है । किसी व्यक्तिको उन्हें निमंत्रित नही करना चाहिये,-त्रै तो बिना निमंत्रणके ही वैसा करनेके लिये अत्यंत तत्पर रहते हैं । मनुष्य सभी शक्तियों- को, यहांतक कि बुरीसे बुरी, अत्यंत अंधकारपूर्ण और घोर विरोधी शक्तियोंका भी निरीक्षण कर सकता और उनके विषयमें सचेतन हों सकता है, बशर्त्ते कि वह सावधान रहे और उनकी सूचनाओंपर सब प्रकारसे विश्वास करना या उनका पोषण करना अस्वीकार कर दे तथा चेतना और प्रकृतिके अन्दर एक स्थान पानेकी उनकी समस्त मांगका प्रत्याख्यान कर दे । परंतु सब लोग प्रारंभिक अवस्थाओंमें ऐसा नही कर सकते ।

 

           चेतनाकी विच्छित्रता तथा साधना दो चीजे हैं जो एक साथ नहीं चल सकती । साधनामें मनुष्यको मन तथा उसके सभी कार्योंपर संयम स्थापित करना होता है, विच्छित्रतामें, इसके विपरीत, मनुष्य मनद्वारा अधिकृत और अपहृत होता है । वह अपने मनको अपने विषयपर नही लगा सकता । यदि मन सर्वदा विच्छिन्न रहे तो तुम पढ्नेमें या अन्य किसी कार्यमें एकाग्र नहीं हो सकते, तुम किसी कार्यके योग्य नही हो सकते, संभवत: स्त्रियोंके साथ बातचीत करने, मिलने-जुलने, झूठा प्यार दिखाने तथा इसी प्रकारके धधोंके सिवा और कुछ नहीं कर सकते ।

 

*

 

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      तुम यह समझनेमें भूल करते हो कि अ', '', और '' की साधना सभी दिशा- ओमें उनके मनके दौड़नेके कारण क्षतिग्रस्त नही होती । यदि उन्होने एकाग्रभावके साथ योगसाधना की होतीं तो वे पथपर बहुत दूर आगे चले गये होते - यहांतक कि '', जिसमें प्रभूत ग्रहणशीलता है और जो प्रगति करनेके लिये उत्सुक है, जितना वह आगे बढ़ा है उससे तीनगुना अधिक आगे बढ़ गया होता । परंतु तुम्हारी प्रकृति, जो कुछ वह करती है उसमें, बड़ी तीव्र है और इसलिये सीधे रास्तेकी पकड़ लेना उसके लिये बिलकुल स्वाभाविक पंथ था । स्वभावत: ही, जब एक बार उच्चतर चेतना स्थापित हो चुकी और प्राण तथा शरीर दोनों साधनाके हेतु स्वयं अपने-आप चलनेके लिये पर्याप्त रूपमे तैयार हो गये तो अब कठोर तपस्याकी आवश्यकता नहीं रही । परंतु जबतक ऐसा नही हों जाता तबतक हम इसे बहुत उपयोगी और सहायक तथा बहुतसे प्रसंगोंमें अनिवार्य समझते हैं । परंतु, जब प्रकृति इच्छुक नहीं होती तो हम इसके लिये आग्रह नहीं करते । मैं यह भी देखता हूँ कि जो लोग सीधी धारामें आ जाते हैं, ( अभी ऐसे लोग बहुत नहीं हैं), वे स्वयं अपने ही मनको विच्छिन्न करनेवाले इन संबंधों और धंधोंको त्यागनेकी प्रवृति ग्रहण कर लेते हैं तथा अपने-आपको पूर्णत: साधनामें झोंक देते हैं ।

 

*

 

       हां, निश्चय ही, विच्छित्रता एक आंतरिक किया है । परंतु कुछ बाहरी चीजे चेतनाके विच्छिन्न होनेमें सहायता करती हैं और यदि कोई व्यक्ति '' की तरह यह कहता है कि '' की तरह अपने संगी-समाधियोंके साथ इधर-उधर भटकनेसे उसकी चेतना विच्छिन्न नही होती तो मैं कहूँगा कि वह या तो सच नहीं बोलता अथवा अपने- आपको धोखा देता है । यदि कोई सर्वदा आंतरिक चेतनामें रहे तो बाहरी कार्य करते रहनेपर भी उसका मन विच्छिन्न नही हो सकता - अथवा, यदि वह सब समय और सब काम करते हुए भगवान्के विषयमें सज्ञान रहता है तो फिर चेतनामें विच्छिन्न हुए बिना वह समाचारपत्र पट सकता या बहुत अधिक पत्र-व्यवहार कर सकता है । परंतु उस स्थितिमें भी, यद्यपि चेतनामें कोई विच्छित्रता नही होती, फिर भी अखबार पढ़ते समय या पत्र लिखते समय उसकी चेतनाकी तीव्रता उस समयकी अपेक्षा कम घानी होती है जब वह अपना कोई भी भाग बिलकुल बाह्य वस्तुओंमें नही संलग्न करता । वास्तवमें जब चेतना एकदम सिद्ध हो जाती है केवल तभी यह विभेद दूर होता हे । परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि मनुष्यको बाहरी कार्य बिलकुल नहीं करना चाहिये, क्योंकि तब उसे दोनों चेतनाओंको युक्त करनेकी शिक्षा नहीं प्रान्त होतीं । परंतु हमें यह स्वीकार करना चाहिये कि कुछ चीजों चेतनाको अवश्य विच्छिन्न करतीं या उसे नीचे गिराती या उसे दूसरोंकी अपेक्षा अधिक बहिर्मुखी बनाती हैं । विशेषकर किसी व्यक्तिको स्वयं अपने-आपको यह धोखा नहीं देना चाहिये या अपने-आपसे यह झूठा दिखावा नहीं करना चाहिये कि उसकी चेतना उनके द्वारा विच्छिन्न नही होती जब की

 

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वास्तवमें वह होती है । उन लोगोंका जहांतक प्रश्न है जो दूसरे लोगोंको योगके प्रति आकर्षित करना चाहते हैं, मैं कहूँगा कि यदि वे अपने-आपको आंतरिक लक्ष्यके अधिक निकट खींच लें जाय तो वह एक बहुत अधिक फलदायक क्रिया होगी । और अतमें वह चीज बहुतसे पत्र लिखनेकी अपेक्षा बहुत अधिक लोगोंको और कही अधिक अच्छे ढगसे ' 'खींच' ' लें आयगी ।

 

*

 

       यही कारण है कि हम बाहरके रिश्तेदारों आदिके साथ पत्र-व्यवहार करनेके पक्षमें नहीं हैं । जबतक तुम बाहर या नीचे उनके अपने स्तरपर नही आ जाते जो कि स्पष्ट ही योगकी दृष्टिसे वांछनीय नही है, तबतक उनके साथ संपर्कका कोई बिंदु नही प्राप्त होता । मैं नहीं समझता कि पत्रिके द्वारा बहुत अधिक अंतः प्रेरणा भेजी जा सकती है क्योंकि उनकी चेतना बिलकुल ही तैयार नही है । शब्द अधिकसे अधिक उनके मनोंके केवल ऊपरी भागको छू सकते हैं; वास्तवमें महत्त्वपूर्ण है शब्दोंके पीछे विद्यमान कोई वस्तु, पर उसके प्रति वे उद्घाटित नही हैं । यदि उनमें आध्यात्मिक वस्तुओंके प्रति पहलेसे कोई रुचि हो तो बात अलग है । पर उस हालतमें भी बहुधा यह कहीं अधिक अच्छा है कि उन्हें इस मार्गमें खीचनेकी जगह उन्हें अपने निजी गुरुका अनुसरण करने दिया जाय ।

 

*

 

       यही कारण है कि इन चीजों (संबंघियोंके साथ पत्रव्यवहार) को बन्द कर देना अधिक अच्छा है । जो लोग अपने लोगोंके साथ पत्रव्यवहार जारी रखते हैं वे तुम्हारी तरह इस बातको नहीं अनुभव करते, पर, जो हों, यह एक तथ्य है कि वे उन प्रकंपनोंको बनाये रखते तथा बल प्रदान करते हैं जो उनके प्राणमें पुरानी शक्तियोंको सक्रिय बनाये रखते एवं अवचेतनामें उनका संस्कार बनाये रखते हैं ।

 

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         प्रत्येक पत्रका अर्थ है उस व्यक्तिके साथ एक प्रकारका आदान-प्रदान, जो उसे लिखता है -- क्योंकि शब्दोंके पीछे कोई चीज रहती है, उसके व्यक्तित्वका कुछ अंश अथवा पत्र लिखते समय उसने जिन शक्तियोंको उत्पन्न किया या जो शक्तियां उसके चारों ओर थी उन सबका कुछ अंश होता है । हमारे विचार और भावनाएं भी शक्तियां हैं और दूसरोंपर प्रभाव डाल सकती हैं । मनुष्यको इन शक्तियोंकी गतिविधिके विषयमें सचेतन होना होता है और तभी वह अपनी मानसिक और प्राणिक रचनाओंको संयमित कर सकता तथा दूसरोंकी वैसी रचनाओंसे प्रभावित होना बन्द कर सकता है ।

 

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    हां, किसीके बुरे और अच्छे बिचार दूसरोंपर बुरा या अच्छा प्रभाव डाल सकते हैं, यद्यपि वे बराबर नही डालते क्योंकि बे काफी शक्तिशाली नहीं होते -- पर फिर भी वही उनकी प्रवृति होती है । इसलिये जिन लोगोंको ज्ञान प्राप्त है उन्होंने सर्वदा हीं यह कहा है कि इस कारण दूसरोंके बुरे विचारोंसे हमें बचना चाहिये । यह सच है कि मनकी साधारण स्थितिमें दोनों प्रकारके बिचार एक समान मनमें उठते हैं,, परंतु मन और मानसिक संकल्प-शक्ति दोनों सुविकसित हों तो मनुष्य अपने विचारों तथा साथ हीं अपने  संयम स्थापित कर सकता है और बुरे विचारोंको अपनी क्रीड़ा करनेसे रोक सकता है । परंतु साधकके लिये यह मानसिक संयम हीं पर्याप्त नहीं है । उसे अचंचल मनको पाना होगा और मनकी नीरवतामें केवल भागवत विचार-शक्तियों अथवा अन्य दिव्य शक्तियोंको ग्रहण करना होगा और उनका क्रीड़ा-क्षेत्र और उपकरण बनना होगा !

 

      मनको निश्चल-नीरव बनानेके लिये इतना हीं पर्याप्त नही है कि ज्योंही कोई विचार आये उसे पीछे फेंक दिया जाय, वह तो केवल एक गौण क्रिया हो सकती है । मनुष्यको सभी विचारोंसे पीछे हट आना होगा और उनसे पृथक् हों जाना होगा, एक नीरव चेतना पानी होगी जो विचारोंको उनके आनेपर निरीक्षण करती छए, पर स्वयं अपने-आप विचार नही करती अथवा विचारोंके साथ तदात्म नही हो जाती । विचारों- को एकदम बाहरी चीजोंके रूपमें अनुभव करना होगा । वास्तवमें ऐसा करनेपर ही विचारोंका त्याग करना या मनकी स्थिरताको भंग किये बिना उन्हें गुजर जाने देना अधिक आसान होता है ।

 

         हर्ष या शोकसे, प्रसन्नता या अप्रसत्रतासे, लोग जो कुछ कहते या करते हैं उससे या किसी भी बाहरी चीजसे उद्विग्न न होना हीं वह चीज है जिसे योगमें समताकी रइस्थति, सभी बातोंमें समभाव कहते हैं । इस स्थितिको प्राप्त करनेमें समर्थ होना साधनाके लिये अत्यत महत्त्वपूर्ण है । मानसिक अचंचलता और नीरवताको तथा साथ हीं प्राणिक अचंचलता और नीरवताके आनेमें यह सहायता करता है । निश्चय ही इसका अर्थ यह है कि स्वयं प्राण और प्राणिक मन भी अब नीरव और अचंचल होने लगे हैं । चिंतनशील मन भी अवश्य अनुगमन करेगा ।

 

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        किसीके विषयमें बातचीत करना बहुत अच्छी तरह उसपर प्रभाव डाल सकता है, यह प्राय. प्रभाव डालता हैं, क्योंकि यह बिचार या भावनाका एक शक्तिशाली रचना हों सकता है जो, इस प्रकार मूर्त्ति होकर, उसके पास पहुँच सकती है । पर मैं यह नही मानता कि महज यांत्रिक विचार या कु-विरचित कल्पनाएं ऐसा कर सकतीं हैं - कम-से-कम ऐसा बहुत कस ही हो सकता है और इसके लिये असाधारण अवस्था- ओंकी आवश्यकता होती है अथवा शक्तियोंकी एक ऐसी क्रीड़ा होनी चाहिये जिसमें एक तुच्छ वस्तुका भी मूल्य होता है ।

 

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३३५


       नाभिसे नीचेका अंश निम्रतर प्राण है,-तुम्हारे अन्दर यह दूसरोंके अन्दरके उसी भागकी अवस्थाके प्रति अथवा संभवत: उनकी सामान्य अवस्थाके भी प्रति बहुत संवेदनशील हो गया है - जिससे कि यह एक प्रकारसे उसके साथ एकरूप हो जाता है या एक समुचित प्रतिक्यिा करता है । विकासके अन्दरकी यह एक अवस्था है जिसे अतिक्रम कर जाना होगा, क्योंकि निम्रतर प्राणको भी अपने अन्दर पूर्ण शांति पानी होगी और यह यदि दूसरोंकी अवस्थाको अनुभव भी करे तो उसे बिना किसी प्रति- क्यिा या तादात्म्यके अनुभव या ज्ञानके एक कार्यके रूपमें इसे करना होगा ।

 

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       मेरी समझमें यह उस ब्यक्तिपर तथा उसके विषयमें तुम्हारी प्रतिक्रियाके ऊपर निर्भर करता है । यदि वह कामवासनाका प्रकंपन देता है या वह प्राणिक ऊर्जाका एक प्रयोगकर्त्ता है, तो उसकी ओर उद्घाटित होना अच्छा नहीं होगा । परंतु साधारण उपरितलीय आदान-प्रदानमें मनुष्य कोई चीज नहीं भी खो सकता अथवा जो कुछ खो जाता हां वह इतना कम होता है और इतने स्वाभाविक रूपमें उसकी मूर्त्ति हो जाती है कि उससे कुछ आता-जाता नहीं ।

 

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      यह बिलकुल संभव है कि वह अचेतन रूपसे (प्राणिक शक्ति) खींचता हों, क्यों- कि वह प्राणिक रूपसे दुर्बल है और जो लोग प्राणिक रूपसे दुर्बल होते हैं वे अचेतन रूपसे और सहज-स्वाभाविक रूपमें अवश्य दूसरोंसे खिचते हैं ।

 

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          जब लोग परस्पर मिलते-जुलते हैं तो उस समय प्राणिक शक्तियोंका कुछ आदान- प्रदान होता है जो बिलकुल अनिच्छापूर्वक होता है...... । शक्ति-शोषण एक विशेष व्यापार है - एक व्यक्ति ऐसा होता है जो दूसरोंकी प्राणशक्तिपर जीता है और उनके मूल्यपर फलता-फूलता है ।

 

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        लोगोंने इस '' को देखनेके बाद जो थकान अनुभव की यह शक्ति-शोषणका एक चिह्न है, पर बहुत बार ऐसा अनुभव होता नहीं, पर मोटे तीरपर उसका एक बादका प्रभाव होता है । स्नायु धीरे-धीरे दोषपूर्ण हो जाती हैं - जिसे स्नायविक आवरण कहते हैं वह कमजोर हो जाता है अथवा किसीन्य-किसी रूपमें प्राणशक्ति दुर्बल हो

 

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जाती है और एक असामान्य स्थितिमें - उत्तेजित होने और चिड़चिड़ी होनेकी स्थितिमें जा पहुंचती है । ऐसे बहुतसे तरीके हैं जिनसे वह प्रभाव प्रकट होता है । काम- शक्तिशोषण एक अलग ही बात है - कामजनित आदान-प्रदानमें सामान्य बात है देना और लेना, पर कामशक्तिशोषक दूसरेके प्राणको खा जाता है और कुछ भी नहीं देता या बहुत थोड़ा देता है ।

 

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              उस सबकी तरह इतना सावधान रहना आवश्यक नहीं है । साधारण प्राणिक आदान-प्रदान हलके प्रकारके होते हैं । कोई भी व्यक्ति दूसरेके प्राणका आहरण नही कर सकता, और इसका बहुत यथार्थ कारण यह है कि यदि ऐसा हो तो जिस ब्यक्तिका प्राण अपहृत हुआ था वह मर जायगा । निःसंदेह यह संभव है कि कोई व्यक्ति दूसरेकी प्राणशक्तिको इस भांति चूस ले कि वह शिथिल या दुर्बल या मुरझाया हुआ रह जाय, पर वास्तवमें रक्तशोषक प्रेत जैसे लोग ही ऐसा करते हैं । यह भी संभव है कि कोई व्यक्ति अपनी प्राणशक्तियोको इतना अधिक दे डाले कि वह स्वयं कमजोर हो जाय या शक्तिको निःशेष कर दे; यह ऐसी बात है जो नही होनी चाहिये,-वास्तवमें जो लोग यह जानते हैं कि वैश्व प्राणशक्तिसे कैसे आहरण किया जाता है या निर्बाध आहरण कर सकते हैं और अपनी प्राण-शक्तियोंको फिरसे भर सकते हैं, केवल वे ही मुक्त रूपसे दे सकते हैं । अवश्य हीं सब लोग कुछ हदतक आहरण करते हैं, अन्यथा वे जीवित नहीं रहते, क्योंकि प्राणिक ऊर्जाका व्यय निरंतर हो रहा है और उसे फिरसे भरना होता है; परंतु अधिकांश लोगोंमें आहरण करनेकी क्षमता सीमित होती है और बिना थकावटके देनेकी क्षमता भी सीमित होती है ।

 

       परंतु आदान-प्रदानकी सामान्य क्रियाएं क्षतिशून्य होती हैं, बशर्त्ते कि उन्हें साधारण सीमाओंके अधीन रखा जाय । साधनामें जो चीज कठिनाई उत्पन्न करती है वह यह है कि मनुष्य आसानीसे अवांछित प्रभावोको खींच सकता या उन्हें दूसरोंपर प्रेषित कर सकता है । यही कारण है कि विशेष अवस्थाओंमें वार्तालाप, मेल-जोल आदिको सीमित करनेका बहुधा अनुमोदन किया जाता है । परंतु सच्चा उपाय है अंतरमें सचेतन होना, किसी अवांछनीय आक्रमण या प्रभावको जानना तथा उसका प्रत्याख्यान करनेमें समर्थ होना, बातचीत करने, मिलने-जुलने आदिके समय अपने चारों ओर रक्षाकवच बनाये रखनेमें सक्षम होना तथा केवल उसी वस्तुको भीतर घुसने देना जिसे मनुष्य स्वीकार कर सके और अन्य किसी चीजको घुसने न देना; इसके अतिरिक्त यह माप कर सकना कि कौनसी वस्तु मनुष्य सुरक्षित रूपमें दे सकता है और कौनसी चीज नहीं, दे सकता । जब मनुष्यको चेतना और अभ्यास होता है तो यह क्यिा लगभग स्वाभाविक बन जाती है ।

 

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