योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

प्रथम स स्करण १९६९

द्वितीय स स्करण १९९०

तृतीय आवृत्ति २०१२

 

अनुवादक : जगन्नाथ वेदाल कार

 

Rs 360

ISBN 978-81-7058-183-3

 

 

© श्रीअरविन्द आश्रम ट्रस्ट १९६९,१९९०

प्रकाशक : श्रीअरविन्द आश्रम प्रकाशन विभाग, पॉण्डिचेरी ६०५००२

मुद्रक : श्रीअरविन्द आश्रम प्रेस, पॉण्डिचेरी


Yoga-Samanvay (Hindi)

The Synthesis of Yoga by Sri Aurobindo

Translator: Jagannath Vedalankar

 

First edition 1969

Second edition 1990

Third impression 2012

 

© Sri Aurobindo Ashram Trust 1969, 1990

Published by Sri Aurobindo Ashram Publication Department

Pondicherry 605 002

Web http:// www.sabda.in

 

Printed at Sri Aurobindo Ashram Press, Pondicherry

PRINTED IN INDIA

 


 

 

भूमिका

 

समन्वय की शर्तें

 


 

 

 


 

 

जीवन और योग

 

प्रकृति की क्रियाओं के दो प्रयोजन हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि वे सदा ही मानव- क्रिया के महत्तर रूपों में हस्तक्षेप करते रहते हैं । ये रूप या तो हमारे साधारण कार्यक्षेत्रों से सम्बन्धित हो सकते हैं या उन असाधारण क्षेत्रों और उपलब्धियों की खोज कर रहे होते हैं जो हमें उच्च और दिव्य प्रतीत होती हैं । ऐसा प्रत्येक रूप एक ऐसी समन्वित जटिलता या समग्रता की ओर उन्मुख होता है जो पुनः विशेष प्रयत्न और प्रवृत्ति की विविध धाराओं में विभक्त तो हो जाती है, पर फिर एक अधिक विशाल और अधिक शक्तिशाली समन्वय में जुड भी जाती है । दूसरी बात यह है कि किसी चीज का रूपों में विकास एक प्रभावशाली अभिव्यक्ति का अनिवार्य नियम है; पर फिर भी वह समस्त सत्य और व्यवहार अत्यधिक कठोर ढंग से निर्मित होता है, पुराना पड जाता है और यदि अपना पूरा गुण नहीं तो कम- से-कम उसका एक बडा भाग तो खो ही देता है । इसे लगातार आत्मा की नूतन धाराओं से जीवन-शक्ति मिलती रहनी चाहिए जो मृत या मृतप्राय साधन में जीवन का संचार करती रहें तथा उसमें परिवर्तन लाती रहें; केवल तभी उसे नव-जीवन प्राप्त हो सकता है । सदा ही पुनर्जन्म लेते रहना भौतिक अमरत्व की शर्त है । हम एक ऐसे युग में निवास कर रहे हैं जो भावी सृष्टि की प्रसव-वेदना से व्याकुल है । इस युग में विचार और कर्म-संबंधी वे समस्त रूप जिनके अंदर उपयोगिता की या स्थिरता के किसी गुप्त गुण की सबल शक्ति मौजूद है एक सर्वोच्च परीक्षा में से गुजर रहे हैं तथा उन्हें पुनः जन्म लेने का अवसर प्रदान किया जा रहा है । वर्तमान जगत् 'मीडिया' के विशालकाय कडाह का दृश्य उपस्थित कर रहा है जिसमें सब कुछ डालकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये हैं, उन टुकड़ों पर प्रयोग किये जा रहे हैं तथा उन्हें एकत्रित और पुनः एकत्रित किया जा रहा है, जिससे या तो वे नष्ट होकर नये रूपों के लिये बिखरे हुए उपादान जुटाएं या फिर नव-जीवन प्राप्त कर के पुन: प्रकट हो जाएं अथवा यदि वे अभी और जीवित रहना चाहते हैं तो रूपांतरित हो जाएं । भारतीय योग अपने सार-तत्त्व में 'प्रकृति' की कुछ महान् शक्तियों की एक विशेष क्रिया या रचना है; यह स्वयं विशिष्ट एवं विभाजित है और विविध प्रकार से निर्मित है । अतएव, यह अपने बीज-रूप में मनुष्य-जाति के भावी जीवन के इन सक्रिय तत्त्वों में से एक है । यह अनादि युगों का शिशु है तथा हमारे इस आधुनिक समय में अपनी जीवन-शक्ति और सत्य के बल पर जीवित है । अब यह उन गुप्त संस्थाओं और संन्यासियों की गुफाओं में से बाहर निकल रहा है जिनमें इसने आश्रय लिया था; यह आजकल की जीवित मानवी शक्तियों

 

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और उपयोगिताओं के भावी संघात में अपना स्थान खोज रहा है । किन्तु इसे पहले अपने-आपको पाना है, प्रकृति के जिस सामान्य सत्य और सतत उद्देश्य का यह प्रतिनिधित्व करता है उसमें इसे अपने अस्तित्व के गहनतम कारण को ऊपरी तल पर लाना है तथा इस नये आत्म-ज्ञान और आत्म-परिचयके द्वारा अपनें पुनः प्राप्त और अधिक विशाल समन्वय को ढूंढना है । अपनी पुनर्व्यवस्था प्राप्त कर लेने के बाद ही यह जाति के पुनर्व्यवस्थित जीवन में अधिक सरलता से तथा अधिक शक्तिशाली रूप में प्रवेश पा सकेगा । इसकी क्रियाएं दावा करती हैं कि वे जाति के इस जीवन को अन्तरतम गुप्त कक्ष तक, अपने अस्तित्व और व्यक्तित्व की उच्चतम चोटीतक ले जायंगी ।

 

      अगर हम जीवन और योग दोनों को यथार्थ दृष्टिकोण से देखें तो संपूर्ण जीवन ही चेतन या अवचेतन रूप में योग है । कारण, इस शब्द से हमारा मतलब सत्ता में प्रसुप्त क्षमताओं की अभिव्यक्ति के द्वारा आत्म-परिपूर्णता के लिये किया गया विधिबद्ध प्रयत्न और मानव-व्यक्ति का उस विश्वव्यापी और परात्पर सत्ता के साथ मिलन है जिसे हम मनुष्य और विश्व में अंशत: अभिव्यक्त होता हुआ देखते हैं । किन्तु जब हम जीवन को उसके बाह्य रूपों के पीछे जाकर देखते हैं तो वह प्रकृति का एक विशाल योग दिखायी देता है । उन रूपों के द्वारा प्रकृति अपनी शक्यताओं की सदा-वृद्धिशील अभिव्यक्ति में अपनी पूर्णता प्राप्त करने की तथा अपनी दिव्य वास्तविक सत्ता के साथ एक होने की चेष्टा कर रही है । मनुष्य उसका एक विचारशील प्राणी है, अतएव, उसमें वह पहली बार क्रिया के उन स्व-चेतन साधनों और इच्छाशक्ति से युक्त प्रणालियों की रचना करती है जिनकी सहायता से यह महान् उद्देश्य अधिक द्रुत और शक्तिशाली वेग से पूरा हो सकेगा ।

 

     जैसा कि स्वामी विवेकानन्द ने कहा है योग एक ऐसा साधन माना जा सकता है जो व्यक्ति के विकास को शारीरिक जीवन के अस्तित्व के एक ही जीवन-काल में या कुछ वर्षों में, यहांतक कि कुछ महीनों में ही साधित कर दे । अतएव, योग की वर्तमान पद्धति उन सामान्य विधियों के अधिक संकुचित पर अधिक सबल और तीव्र रूपों के बीच एक संग्रह या संक्षेप से अधिक कुछ और नहीं हो सकती जिन्हें महती 'माता' अपने विशाल ऊर्ध्वमुख प्रयास में शिथिलतापूर्वक पर विस्तृत रूप में तथा मंद गति से पहले से प्रयुक्त कर रही है । इनका प्रयोग करते समय, बाह्य रूप से ऐसा अवश्य प्रतीत होता है कि सामग्री और शक्ति का अत्यधिक क्षय हो रहा है, किन्तु इससे मेल अधिक पूर्ण हो जाता है । योग-विषयक यह विचार यौगिक प्रणालियों के यथार्थ और युक्तियुक्त समन्वय का आधार बन सकता है । क्योंकि तब योग एक ऐसी गुह्य और असामान्य वस्तु नहीं रह जाता जिसका 'विश्व- शक्ति' की सामान्य प्रक्रियाओं के साथ तथा उस उद्देश्य के साथ कोई सम्बन्ध ही न हो जिसे वह अपनी बाह्य और आन्तरिक परिपूर्णता की दो महान् गतियों में

 


 

अपने सामने रखती है । बल्कि वह अपने-आपको उन शक्तियों के एक तीव्र और असाधारण प्रयोग के रूप में व्यक्त करता है जिन्हें वह पहले ही अभिव्यक्त कर चुकी है या जिन्हें वह अपने अन्दर अपनी कम उन्नत पर अधिक सामान्य क्रियाओं में अधिकाधिक संगठित कर रही है ।

 

     यौगिक पद्धतियों का मनुष्य की प्रचलित मनोवैज्ञानिक क्रियाओं के साथ वही सम्बन्ध है जो विद्युत् और वाष्प की स्वाभाविक शक्ति के वैज्ञानिक प्रयोग का वाष्प और विद्युत् की सामान्य क्रियाओं के साथ है । और, उनका निर्माण भी एक ऐसे ज्ञान पर आधारित है जो नियमित प्रयोगों, क्रियात्मक विश्लेषणों तथा सतत परिणामों के द्वारा विकसित एवं स्थापित हुआ है तथा जिसे इनसे समर्थन भी प्राप्त हुआ है । उदाहरणार्थ, समस्त 'राजयोग' इस ज्ञान एवं अनुभव पर आधारित है कि हमारे आन्तरिक तत्त्व, संयोग और कार्य तथा हमारी शक्तियां अलग-अलग की जा सकती हैं, उनमें विघटन हो सकता है, उन्हें नये सिरे से मिलाया जा सकता है तथा उनसे ऐसे नये कार्य कराये जा सकते हैं जो पहले असम्भव माने जाते थे, या फिर ये सब स्थायी आन्तरिक प्रक्रियाओं के द्वारा एक नये सामान्य समन्वय में रूपांतरित किये जा सकते हैं । इसी प्रकार 'हठयोग' भी इस बोध एवं अनुभव पर निर्भर करता है कि जिन प्राणिक शक्तियों और क्रियाओं की अधीनता हमारा जीवन स्वीकार कर लेता है तथा जिनके साधारण कार्य रूढ़ और अनिवार्य ढंग के प्रतीत होते हैं वे वश में की जा सकती हैं, उन्हें बदला जा सकता है अथवा उन्हें रोका जा सकता है । इस सब के ऐसे परिणाम निकल सकते हैं जो अन्यथा सम्भव न होते, साथ ही वे परिणाम उन लोगों को जो उनकी प्रक्रियाओं की युक्तियुक्तता को नहीं पकड़ सकते, चमत्कारपूर्ण भी प्रतीत होते है । यदि योग के किसी अन्य रूप में उसका यह गुण उतना प्रत्यक्ष न हो- कारण, ये रूप यान्त्रिक कम और सहजज्ञानयुक्त अधिक होते हैं तथा 'भक्तियोग' के समान एक दिव्य आनन्द के या 'ज्ञानयोग' के समान चेतना और सत्ता की एक दिव्य असीमता के अधिक निकट होते हैं- तो भी ये हमारे अन्दर किसी प्रधान क्षमता के प्रयोग से आरम्भ होते हैं; इनके ढंग तथा उद्देश्य ऐसे होते हैं जो उसकी दैनिक सहज क्रियाओं में, विचार में नहीं आते । जो प्रणालियां योग के सामान्य नाम के अन्तर्गत आती हैं 'वे सब विशेष मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाएं हैं जो 'प्रकृति' -सम्बन्धी एक स्थिर सत्य पर आधारित होती हैं । वे सामान्य क्रियाओं से ऐसी शक्तियां और परिणाम विकसित करती हैं जो सदा प्रसुप्त अवस्था में तो विद्यमान थे, पर जिन्हें उसकी साधारण क्रियाएं आसानी से अभिव्यक्त नहीं करतीं, यदि करती भी हैं तो बहुत कम ।

 

     किन्तु, जैसा कि भौतिक ज्ञान में होता है, वैज्ञानिक प्रक्रियाओं की बहुलता की अपनी हानियां होती हैं, -उदाहरणार्थ, इससे एक ऐसी विजयशील कृत्रिमता उत्पन्न हो जाती है जो हमारे सामान्य मानव-जीवन को यन्त्र के भारी बोझ के नीचे दबा

 


 

देती है तथा एक प्रबल दासता के मूल्य पर स्वतन्त्रता और स्वामित्व के कुछ रूपों का क्रय करती है । इसी प्रकार यौगिक प्रक्रियाओं के कार्य की और उनके असाधारण परिणामों की भी अपनी हानियां और बुराइयां हैं । योगी सामान्य जीवन से अलग हट जाना चाहता है और उसपर अपना अधिकार खो देता है । वह अपनी मानवीय क्रियाओं को दरिद्र बनाकर आत्मा का धन खरीदना चाहता है तथा बाह्य मृत्यु के मूल्य पर आन्तरिक स्वतन्त्रता की इच्छा करता है । यदि वह भगवान् को पा लेता है तो जीवन को खो बैठता है, अथवा यदि जीवन पर विजय प्राप्त करने के लिये अपने प्रयत्नों को बाहर की ओर मोड़ता है तो उसे भगवान् को खो देने का डर रहता है । इसीलिये हम भारतवर्ष में सांसारिक जीवन और आध्यात्मिक उन्नति और विकास में एक तीव्र प्रकार की असंगति पैदा हुई देखते हैं । यद्यपि आन्तरिक आकर्षण और बाह्य मांग में एक विजयपूर्ण समन्वय की परम्परा और आदर्श को स्थिर रखा गया है तो भी इसके अधिक उदाहरण देखने में नहीं आते । वस्तुत: जब मनुष्य अपनी दृष्टि और शक्ति अन्तर की ओर मोड़ता है तथा योग- मार्ग में प्रवेश करता है तो ऐसा माना जाता है कि वह हमारे सामूहिक जीवन के महान् प्रवाह और मनुष्यजाति के लौकिक प्रयत्न के लिये अनिवार्य रूप से निकम्मा हो गया है । यह विचार इतने प्रबल रूप में फैल गया है और इसपर प्रचलित दर्शनों और धर्मों ने इतना बल दिया है कि जीवन से भागना आजकल केवल योग की आवश्यक शर्त ही नही, वरन् उसका सामान्य उद्देश्य भी माना जाता है । योग का ऐसा कोई भी समन्वय संतोषप्रद नहीं हो सकता जो अपने लक्ष्य में भगवान् और प्रकृति को एक मुक्त और पूर्ण मानवीय जीवन में पुन: संयुक्त नहीं कर देता या जो अपनी पद्धति में हमारे आन्तरिक और बाह्य कर्मों और अनुभवों में समन्वय स्थापित करने की अनुमति ही नहीं देता, बल्कि उसका समर्थन भी नहीं करता; इस कार्य में दोनों अपनी चरम दिव्यता को प्राप्त कर लेते हैं । कारण, मनुष्य एक उच्चतर जीवन का उपयुक्त स्तर एवं प्रतीक है, वह एक ऐसे स्थूल जगत् में अवतरित हुआ है जिसमें निम्न तत्त्व का रूपांतरित होना, उच्चतर तत्त्व के स्वभाव को ग्रहण करना और उच्चतर तत्त्व का निम्न तत्त्व में अपने-आपको अभिव्यक्त करना संभव है । एक ऐसे जीवन से बचना जो उसे इसी संभावना को चरितार्थ करने के लिये दिया गया है कभी भी उसके सर्वोच्च प्रयत्न की अनिवार्य शर्त या उसका समस्त और अंतिम उद्देश्य नहीं हो सकता, न ही यह उसकी आत्म-उपलब्धि के अत्यधिक सबल साधन की शर्त या लक्ष्य हो सकता है । यह किन्हीं विशेष अवस्थाओं में एक अस्थायी आवश्यकता तो हो सकता है या यह एक ऐसा विशिष्ट अंतिम प्रयत्न भी हो सकता है जो व्यक्ति पर इसलिये लादा जाता है कि वह पूरी जाति के लिये एक महत्तर सामान्य संभावना को तैयार कर सकै । योग का सच्चा और पूर्ण उपयोग और उद्देश्य तभी साधित हो सकते हैं जब कि मनुष्य के अंदर

 


 

सचेतन योग प्रकृति में चल रहे अवचेतन योग की भांति बाह्यतः जीवन के समान ही व्यापक हो जाय । और तभी हम मार्ग और उपलब्धि दोनों को देखते हुए एक बार फिर एक अधिक पूर्ण और आलोकित अर्थ में कह सकते हैं : "समस्त जीवन ही योग है । "

 


 

 

   प्रकृति के तीन पग

 

हम 'योग' के पिछले विकासक्रमों में एक ऐसी विशिष्टताकारी और पृथक्कारी प्रवृत्ति देखते हैं जिस की, प्रकृति की और समस्त वस्तुओं की भांति, एक अपनी समर्थक उपयोगिता ही नहीं थी बल्कि अनिवार्य उपयोगिता भी थी | हम उन सब विशिष्ट उद्देश्यों और प्रणालियों का एक समन्वय प्राप्त करना चाहते हैं जो इस प्रवृत्ति के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न हो चुके हैं । किन्तु अपने प्रयत्न में बुद्धिमत्तापूर्ण पथप्रदर्शन प्राप्त करने के लिये हमें पहले इस पृथक्कारी प्रेरणा के आधारभूत सामान्य सिद्धान्त और प्रयोजन को जान लेना चाहिये, साथ ही हमें उन विशेष उपयोगिताओं को भी जान लेना चाहिये जिन के ऊपर योग के प्रत्येक संप्रदाय की प्रणाली आधारित है । सामान्य उद्देश्य को जानने के लिये हमें 'प्रकृति' की वैश्व क्रियाओं के विषय में छान-बीन करनी चाहिये । उस के अन्दर हमें केवल विकृतिकारी 'माया' की दिखावटी और भ्रान्तिपूर्ण क्रिया को ही नहीं, बल्कि भगवान् की सर्वव्यापक सत्ता के अन्दर उन की वैश्व शक्ति और क्रिया को भी पहचान लेना चाहिये, यह क्रिया एक विशाल, असीम पर सूक्ष्म रूप में चुनाव करनेवाली प्रज्ञा को रूप देती है तथा उस के द्वारा प्रेरित होती है गीता में इसे 'प्रवृत्ति (प्रज्ञा) प्रसृता पुराणी' कहा गया है । यह प्रज्ञा आरम्भ में 'सनातन सत्ता' से निकली थी । विशेष उपयोगिताओं को जानने के लिये हमें 'योग' की विभिन्न प्रणालियों पर एक पैनी दृष्टि डालनी होगी तथा उन की बारीकियों के समूह के बीच में से उस प्रधान विचार को ढूंढ़ना होगा जिस के अधीन वे कार्य करती हैं, हमें उस में से उस मूलगत शक्ति को भी ढूंढ़ना होगा जो उन्हें चरितार्थ करनेवाली प्रक्रियाओं को जन्म एवं शक्ति देती है । इस के बाद हम उस सामान्य सिद्धान्त और सामान्य शक्ति को अधिक आसानी से ढूंढ़ सकते हैं जो सब की उत्पत्ति एवं प्रवृत्ति के स्रोत हैं, जिन की ओर सब शक्तियां अवचेतन रूप में गति करती हैं और जिनमें उन सब के लिये चेतन रूप में संयुक्त होना सम्भव है ।

 

     मनुष्य के अन्दर विकसनशील आत्माभिव्यक्ति को, जिसे आधुनिक भाषा में उस का विकास कहते हैं, तीन क्रमिक तत्त्वों पर आधारित होना चाहिये; पहला वह तत्त्व है जो पहले ही विकसित हो चुका है, दूसरा, जो लगातार चेतन विकास की अवस्था में रहता है और तीसरा जिसे विकसित होना है तथा जो प्रारम्भिक रचनाओं में या किन्हीं अन्य अधिक विकसित रचनाओं में, सतत रूप में नहीं तो कभी- कभी, एक नियमित अन्तरालपर, शायद पहले से प्रकट हो सकता है । यह भी संभव है कि वह कुछ एसे प्राणियों में — चाहे वे कितने भी विरल क्यों न

 


 

हों-प्रकट हो जो हमारी वर्तमान मनुष्य जाति की उच्चतम सम्भव उपलब्धि के निकट हैं । कारण, प्रकृति की गति एक नियमित और यांत्रिक रूप से आगे ही पग रखती हुई नहीं बढ़ती । वह सदा अपने से आगे प्रगति करती रहती है, उस समय भी जब कि उसे इस प्रगति के परिणाम-स्वरूप निराश होकर पीछे हटना पड़ता है । वह द्रुत वेग से आगे की ओर बढ़ती है । उसमें बहुत बड़े, सुन्दर और आकस्मिक विकास होते हैं, उसे बड़ी विशाल उपलब्धियां प्राप्त होती हैं । कभी- कभी वह बड़े आवेगपूर्वक इस आशा से आगे बढ़ती है कि वह स्वर्ग के राज्य को बलपूर्वक प्राप्त कर लेगी । अपने को अतिक्रान्त करने वाली उस की ये क्रियाएं उस के अंदर के उस तत्त्व को दर्शाती हैं जो अत्यधिक दिव्य है अथवा अत्यधिक आसुरी है, किन्तु दोनों दशाओं में वह इतना अधिक शक्तिशाली अवश्य है कि वह उसे द्रुत गति से आगे, उस के लक्ष्य की ओर ले जायगा ।

 

     जिस तत्त्व को प्रकृति ने हमारे लिये विकसित किया है तथा दृढ़ रूप से स्थापित किया है वह हमारा शारीरिक जीवन है । उसने पृथ्वी पर हमारे कर्म और विकास के दो निम्न तत्त्वों में किन्तु जो अधिक मूल रूप में आवश्यक हैंएक प्रकार का सहयोग एवं समन्वय स्थापित कर दिया है । एक तत्त्व है 'जड़ पदार्थ', जिससे चाहे अत्यधिक आध्यात्मिक मनुष्य घृणा ही करे पर जो हमारा आधार है तथा हमारी समस्त प्राप्तियों और उपलब्धियों की पहली शर्त है । दूसरा तत्त्व  'जीवन-शक्ति' है जो स्थूल शरीर में हमारे अस्तित्व का साधन है, यहांतक कि जो वहां हमारी मानसिक और आध्यात्मिक क्रियाओं का भी आधार है । उसने सफलतापूर्वक अपनी सतत भौतिक क्रियाओं में एक प्रकार का स्थायित्व प्राप्त कर लिया है; ये क्रियाएं पर्याप्त रूप में स्थिर एवं स्थायी हैं, साथ ही ये इतनी नमनीय एवं परिवर्तनशील भी हैं कि ये मनुष्यजाति में अधिकाधिक अभिव्यक्त होनेवाले  'भगवान्' का उचित निवासस्थान और साधन बन सकती हैं । 'ऐतरेय' उपनिषद् में एक कथा आती है जिस का यही मतलब है । उसमें कहा गया है कि जब दिव्य सत्ता ने देवताओं के सामने बारी-बारी से पशुओं के रूप उपस्थित किये तो वे उन्हें अस्वीकार करते गये, पर ज्यों ही मनुष्य उन के सामने आया, वे चिल्ला उठे : "यही वस्तु पूर्ण रचना है", और उन्होंने उसमें प्रवेश करना स्वीकार कर लिया । प्रकृति ने जड़-पदार्थ के तमस् में और उस सक्रिय जीवन में जो उस जड़-पदार्थ में निवास करता है तथा उससे पोषण प्राप्त करता है एक क्रियात्मक समझौता भी साधित कर लिया है । उस समझौते पर प्राणिक जीवन ही निर्भर नहीं करता, वरन् उस की सहायता से मन का पूर्णतम विकास भी सम्भव हो सकता है । यह सन्तुलन मनुष्य में प्रकृति की आधारभूत स्थिति की रचना करता है तथा 'योग' की भाषा में उस का स्थूल शरीर कहलाता है; यह शरीर भौतिक सत्ता अर्थात् 'अन्नकोष' और स्नायु-प्रणाली अर्थात प्राणकोष से बना है ।

 


 

     तब, यदि यह निम्न प्रकार का सन्तुलन ही उच्चतर क्रियाओं का एक आधार और प्रारम्भिक साधन हो जिसे वैश्व शक्ति ने प्रस्तुत किया है, और यदि यही उस साधन का निर्माण करता हो जिसमें भगवान् इस पृथ्वी पर अपने-आपको व्यक्त करना चाहते हैं, यदि यह भारतीय उक्ति सच्ची हो कि शरीर ही वह यंत्र है जो हमारी प्रकृति के यथार्थ नियम को चरितार्थ करने के लिये प्रदान किया गया है, तो भौतिक जीवन के किसी प्रकार के भी अन्तिम त्याग का अर्थ दिव्य प्रज्ञा की चरितार्थता से पीछे हटना होगा, साथ ही यह पार्थिव अभिव्यक्ति-सम्बन्धी उसके उद्देश्य का भी त्याग होगा । कुछ व्यक्तियों के लिये यह त्याग उनके विकास के किसी गुप्त नियम के कारण ठीक वृत्ति भी हो सकता है, किन्तु यह उद्देश्य के रूप में मनुष्यजाति के लिये कभी भी अभिप्रेत नहीं है । अतएव, ऐसा कोई भी योग पूर्णयोग नहीं हो सकता जो शरीर की उपेक्षा करे या उसके अन्त और त्याग को पूर्ण आध्यात्मिकता प्राप्त करने की अनिवार्य शर्त बना दे । बल्कि, शरीर को भी पूर्ण बनाना 'आत्मा' की अन्तिम विजय होनी चाहिये और शारीरिक जीवन को दिव्य बनाना भगवान् की वह अन्तिम मुहर होनी चाहिये जो वे अपने जागतिक कार्य पर स्वयं लगाते हैं । भौतिक शरीर आध्यात्मिकता के मार्ग में बाधा खड़ी करता है यह भौतिक शरीर का त्याग करने के लिये कोई तर्क नहीं है, क्योंकि वस्तुसम्बन्धी अदृश्य भवितव्यता में हमारी सब से बड़ी कठिनाइयां हमारे सर्वश्रेष्ठ सुअवसर होती हैं । एक अत्यधिक बड़ी कठिनाई प्रकृति के इस संकेत को सूचित करती है कि हमें एक अत्यधिक बड़ी विजय प्राप्त करनी है तथा एक चरम समस्या का समाधान करना है । यह एक ऐसे विषय के सम्बन्ध में चेतावनी नहीं है जिससे बचने का प्रयत्न करना पड़े, न ही यह किसी ऐसे शत्रु के सम्बन्ध में चेतावनी है जिससे हमें भागना पड़े ।

 

     इसी प्रकार प्राणिक और स्नायविक शक्तियां भी हमारे अन्दर किसी महान् उपयोगिता के लिये ही मौजूद हैं । वे भी हमारी अन्तिम परिपूर्णता में अपनी सम्भावनाओं को दिव्य रूप में चरितार्थ करने की मांग करती हैं । विश्व-योजना में जो महान् कार्य इस तत्त्व को सौंपा गया है उसपर उपनिषदों की उदार बुद्धिमत्ता ने भी अत्यधिक बल दिया है : "जिस प्रकार पहिये के आरे उसके केन्द्र में जुड़े हुए हैं, उसी प्रकार 'जीवन-शक्ति' में त्रिविध ज्ञान, 'यज्ञ' और सबल व्यक्तियों की शक्ति और ज्ञानियों की पवित्रता स्थापित है । वह सब जो त्रिविध स्वर्ग में विद्यमान है 'जीवन-शक्ति' के नियंत्रण में है ।'' अतएव, ऐसा कोई योग 'पूर्णयोग' नहीं हो सकता जो इन स्नायविक शक्तियों को नष्ट कर दे, इनपर इस शक्तिहीन निश्चलता को जबर्दस्ती लाद दे या इन्हें हानिकारक क्रियाओं का स्रोत समझकर इनका समूल

 

 

   १प्रश्र उपनिषद २, ६ और १३

 

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नाश कर दे । इनका नाश नहीं, बल्कि इनका पवित्रीकरण, इनका रूपान्तर, इनपर नियन्त्रण एवं इनका उचित प्रयोग ही वह उद्देश्य है जो हमारे सामने है, इसी उद्देश्य के लिये इन्हें हमारे अंदर उत्पन्न एवं विकसित किया गया है ।

 

     यदि शारीरिक जीवन को ही 'प्रकृति' ने हमारे लिये, अपने आधार और प्रथम यन्त्र के रूप में दृढ़तापूर्वक विकसित किया है, तो हमारे मानसिक जीवन को वह अपने अगले पग और उच्चतर यन्त्र के रूप में विकसित कर रही है । उसके साधारण उत्कर्षों में यह उसका उच्च एवं प्रधान विचार है । उन समयों को छोड्कर जब कि वह थक जाती है तथा विश्राम और शक्ति को पुनः प्राप्त करने के लिये अंधकार में चली जाती है, अन्य समय उसका सदा यही लक्ष्य रहता है, पर ऐसा वहीं होता है जहां वह अपनी प्रथम प्राणिक और शारीरिक उपलब्धियों के जालों से मुक्त हो सकती है । कारण, यहां मनुष्य में अन्य प्राणियों से एक ऐसी विभिन्नता है जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । उसके अंदर केवल एक मन नहीं, बल्कि द्विविध और त्रिविध मन हैं, भौतिक और स्नायविक मन, विशुद्ध बौद्धिक मन जो शरीर और इन्द्रियों की भ्रांतियों से अपने-आपको मुक्त कर लेता है और तीसरा, बुद्धि से ऊपर दिव्य मन जो तार्किक रूप से विवेक और कल्पनापूर्ण बुद्धि की अपूर्ण विधियों से अपने-आपको मुक्त कर लेता है । मनुष्य में मन सर्वप्रथम शारीरिक जीवन में आवृत रहता है, वनस्पति में वह पूर्ण रूप से छिपा रहता है और पशु में वह सदा बन्दी बना रहता है । वह इस जीवन को अपनी क्रियाओं की पहली शर्त के रूप में ही नहीं, वरन् समस्त शर्त के रूप में भी स्वीकार करता है तथा अपनी आवश्यकताओं को इस प्रकार पूर्ण करने का प्रयत्न करता है मानो वही जीवन का संपूर्ण उद्देश्य हों । किन्तु मनुष्य का शारीरिक जीवन एक आधार है, उद्देश्य नहीं, उसकी पहली अवस्था है, अन्तिम और निर्धारक अवस्था नहीं । प्राचीन लोगों के यथार्थ विचार में मनुष्य मूल रूप से विचारक है, विचारशील प्राणी है, 'मनु' है, एक मानसिक सत्ता है जो प्राण और शरीर को गति देती है, वह पशु नहीं है जो उनके द्वारा चालित होता है । इसलिये, सच्चा मानवीय जीवन केवल तभी शुरू होता है जब कि बौद्धिक मन जड़ पदार्थ में से प्रकट होता है, जब हम स्नायविक और भौतिक आक्रमण से मुक्त होकर मन में अधिकाधिक निवास करने लगते हैं और जिस हद तक वह मुक्ति हमें प्राप्त होती है उस हद तक हम शारीरिक जीवन को यथार्थ रूप में स्वीकार कर सकते हैं तथा उसका यथार्थ प्रयोग करने में समर्थ होते हैं । कारण, स्वामित्व प्राप्त करने के लिये एक निपुण अधीनता नहीं, वरन् स्वतन्त्रता ही सच्चा साधन है । अपनी भौतिक सत्ता की अवस्थाओं को, विस्तृत एवं उन्नत अवस्थाओं को जबरदस्ती से नहीं, बल्कि स्वतन्त्रतापूर्वक स्वीकार करना ही उच्च मानवीय आदर्श है ।

 

  मनोमय: प्राणशरीरनेतामुण्डक उपनिषद् २, २, ७.

 

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     इस प्रकार विकसित होता हुआ मनुष्य का मानसिक जीवन वस्तुत: सब के अन्दर एक-सा नहीं होता; बाह्य रूप से देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ व्यक्तियों में ही यह अत्यधिक पूर्ण रूप से विकसित है, जब कि बहुत से लोगों में, अधिकतर लोगों में, यह या तो उनकी सामान्य प्रकृति का एक छोटा-सा अंग होता है जो भली प्रकार व्यवस्थित भी नहीं होता या बिल्कुल ही विकसित नहीं होता, या फिर यह उनमें प्रसुप्त अवस्था में होता है तथा सरलता से सक्रिय नहीं बनाया जा सकता । निश्चय ही मानसिक जीवन प्रकृति का अन्तिम विकास नहीं है । यह अभीतक मानव-प्राणी में दृढ़तापूर्वक स्थापित भी नहीं हुआ । इसका संकेत हमें इस बात से मिलता है कि प्राण-शक्ति और जड़-पदार्थ का उत्कृष्ट एवं पूर्ण सन्तुलन और स्वस्थ, सबल एवं दीर्घ आयुवाला मानव-शरीर साधारणतया उन्हीं जातियों या समुदायों में पाया जाता है जो चिन्तन के प्रयत्न को, उससे उत्पन्न होनेवाली क्षुब्धता एवं खिंचाव को अस्वीकार कर देते हैं अथवा जो केवल स्थूल मन से ही सोचते हैं । सभ्य मनुष्य को अभी पूर्ण सक्रिय मन और शरीर में सन्तुलन स्थापित करना है, सामान्यतया यह सन्तुलन उसमें अभी नहीं है । वस्तुतः ऐसा प्रतीत होता है कि एक अधिक तीव्र प्रकार के मानसिक जीवन के लिये किया गया अधिकाधिक प्रयत्न प्रायः ही मानवी तत्त्वों में अधिकाधिक असन्तुलन पैदा कर देता है, जिसके परिणाम-स्वरूप प्रसिद्ध वैज्ञानिक मनीषी प्रतिभा को एक प्रकार का पागलपन कहने लगते हैं तथा उसे हृास का, प्रकृति की अस्वस्थ विकृति का परिणाम मानने लगते हैं । पर जो तथ्य इस अतिशयोक्ति को उचित ठहराने के लिये प्रयुक्त किये जाते हैं उन्हें यदि अलग-अलग न लेकर अन्य समस्त यथार्थ स्वीकृत तथ्यों के साथ लिया जाय, तो वे एक भिन्न सत्य की ओर संकेत करते हैं । प्रतिभा वैश्व शक्ति का एक प्रयत्न है; यह हमारी बौद्धिक शक्तियों को इस हद तक वेग एवं तीव्रता प्रदान करता है कि वे उन अधिक सबल, प्रत्यक्ष और द्रुत सामर्थ्यों के लिये तैयार हो जायं जो अतिबौद्धिक या दिव्य मन की क्रीड़ा होती है । तब यह एक सनक या एक अवर्णनीय तथ्यमात्र नहीं रहता, बल्कि यह प्रकृति के विकास की सीधी दिशा में एक पूर्णतया स्वाभाविक अगला कदम बन जाता है । प्रकृति ने शारीरिक जीवन और स्थूल मन में सुसंगति स्थापित कर दी है, वह उसमें और बौद्धिक मन की क्रीड़ा में भी सुसंगति स्थापित कर रही है । कारण, यद्यपि उसका कार्य पूर्णतया पाशव और प्राणिक शक्ति को कम करना होता है, तो भी वह किसी सक्रिय अस्तव्यस्तता को न तो उत्पन्न करती है और न उसे ऐसा करने की आवश्यकता ही पड़ती है । पर अभी भी वह द्रुत वेग से आगे की ही ओर बढ़ रही है, यह उसका पहले से अधिक ऊंचे स्तर पर पहुंचने का एक प्रयत्न है; उसकी प्रक्रिया से उत्पन्न अस्तव्यस्तताएं इतनी बड़ी नहीं होतीं जितनी कि वे मानी जाती हैं । उनमेंसे कुछ तो नयी अभिव्यक्तियों के स्थूल प्रारम्भिक प्रयास हैं और कुछ विघटन की ऐसी क्रियाएं

 

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हैं जो आसानी से ठीक कर ली गयी हैं तथा जो प्रायः ही नयी क्रियाओं को जन्म देती हैं और सदा ही उन दूर तक पहुंचनेवाले प्रकृति के लक्ष्यभूत परिणामों का केवल थोड़ा-सा ही मूल्य चुकाती हैं ।

 

     यदि हम समस्त परिस्थितियों पर विचार करें तो हम शायद इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि मानसिक जीवन मनुष्य के अन्दर कोई हाल में ही प्रकट नहीं हुआ, बल्कि वह पहली उपलब्धि की ही द्रुत पुनरावृत्ति है जिससे च्युत होकर जाति की 'शक्ति 'खेदजनक रूप में हृास को प्राप्त हो गयी थी । बर्बर जाति का मनुष्य शायद उतना सभ्य मनुष्य का पहला पूर्वज नहीं है जितना कि वह किसी पूर्व- सभ्यता का हीन-वंशज है । कारण, यदि वास्तविक बौद्धिक उपलब्धि असमान रूप से विभाजित है तो भी उसकी क्षमता सर्वत्र अवश्य फैली हुई है । यह देखा जा चुका है कि व्यक्तिगत दृष्टान्त में जो जाति अत्यधिक निम्न समझी जाती है, उदाहरणार्थ, मध्य-अफ्रीका की चिरन्तन बर्बर जातियों से उत्पन्न नये हब्शी, वह भी बौद्धिक संस्कृति का अनुसरण करने में समर्थ है, और इसके लिये उसमें रक्त के मिश्रण की आवश्यकता नहीं है, न ही इसके लिये उसे भावी पीढ़ियों तक ठहरने की जरूरत है, हां, प्रधान यूरोपीय संस्कृति की बौद्धिक क्षमता को पाने में वह अभी असमर्थ है । जन-समुदाय में भी मनुष्यों को अनुकूल परिस्थितयां मिलने पर उस उपलब्धि के लिये केवल कुछ ही पीढ़ियों की आवश्यकता प्रतीत होती है जिसे पाने के लिये बाह्य रूप से हजारों वर्ष लग सकते हैं । अतएव, या तो मनुष्य मनोमय प्राणी बननेका गौरव प्राप्त होने के कारण विकास के मंद नियमों के पूरे बोझ से मुक्त हो गया है, या फिर वह पहले से ही भौतिक योग्यता के एक ऊंचे स्तर का प्रतिनिधित्व करता है और यदि उसे सहायक अवस्थाएं और उचित उत्साहवर्धक वातावरण प्राप्त हो जायें, तो वह सदा ही बौद्धिक जीवन के कार्य के लिये इस योग्यता का प्रदर्शन कर सकता है । बर्बर मनुष्य की उत्पत्ति मानसिक अयोग्यता से नहीं होती, बल्कि अवसर को लंबे समय तक खोते रहने या उससे अलग रहने से तथा जागृत करनेवाली प्रेरणा को स्वीकार न करने से होती है । बर्बरता एक मध्यवर्ती निद्रा है, मूल अंधकार नहीं ।

 

     इसके अतिरिक्त, आधुनिक विचार और आधुनिक प्रयत्न की सारी प्रवृत्ति ही निरीक्षक की दृष्टि को यह बताती है कि वह मनुष्य के अन्दर प्रकृति का एक ऐसा विशाल और चेतन प्रयत्न है जिसका कार्य बौद्धिक साधन और योग्यता के एक सामान्य स्तर को तथा आगे की सम्भावना को चरितार्थ करना है, ऐसा वह उन अवसरों को, जिन्हें आधुनिक सभ्यता मानसिक जीवन को प्रदान करती है, सर्वसुलभ करके करना चाहती है । यूरोपीय बुद्धि जो इस प्रवृत्ति की विशेष समर्थक है तथा जो स्थूल प्रकृति और जीवन की बाह्य क्रियाओं में व्यस्त रहती है इसी प्रयत्न का एक आवश्यक अंग है | यह मनुष्य की भौतिक सत्ता में, उसके प्राणिक

 

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और भौतिक वातावरण में उसकी पूर्ण मानसिक सम्भावनाओं के लिये एक पर्याप्त आधार तैयार करना चाहती है । शिक्षा का विस्तार, पिछड़ी जातियों की उन्नति, दलित वर्गों का उत्कर्ष, श्रम से बचने के साधनों की बहुलता, आदर्श सामाजिक और आर्थिक अवस्थाओं की ओर प्रगति तथा सभ्य मनुष्यजाति में उन्नत स्वास्थ्य, दीर्घ आयु एवं नीरोग शरीर की प्राप्ति के लिये विज्ञान का प्रयासये सब इस प्रवृत्ति के अर्थ और इसकी दिशा को व्यक्त करते हैं; ये इसके ऐसे संकेत हैं जो आसानी से समझ में आ सकते हैं । यथार्थ साधनों का या कम-से-कम अन्तिम साधनों का प्रयोग सदा न भी किया जाय, तो भी उनका उद्देश्य एक यथार्थ प्रारम्भिक उद्देश्य अवश्य है, यह उद्देश्य है एक स्वस्थ वैयक्तिक और सामाजिक संगठन तथा स्थूल मन की उचित आवश्यकताओं और मांगों की तुष्टि, पर्याप्त सहजता, अवकाश और समान अवसर । इसके परिणाम-स्वरूप भगवान् की एक विशेष कृपापात्र जाति, वर्ग या व्यक्ति नहीं, बल्कि समस्त मनुष्यजाति अपनी भाविक और बौद्धिक सत्ता को उसकी पूर्णतम योग्यता तक विकसित करने के लिये स्वतन्त्र रूप से कार्य कर सकेगी । वर्तमान समय में भौतिक और आर्थिक उद्देश्य की प्रधानता हो सकती है, किन्तु पृष्ठभूमि में सदा ही उच्चतर और प्रमुख प्रेरणा कार्य करती है या अतिरिक्त शक्ति के रूप में प्रतीक्षा करती है ।

 

     पर जब प्रारम्भिक शर्तें पूरी हो जायं और इस महान् प्रयत्न को अपना अधिकार मिल जाय, तो उसके आगे की सम्भावना का क्या स्वरूप होगा जिसकी चरितार्थता के लिये बौद्धिक जीवन की क्रियाओं को काम करना होगा? यदि 'मन' सचमुच ही 'प्रकृति' का उच्चतम तथ्य है तो तार्किक और कल्पनाकारी बुद्धि के समस्त विकास को और भावों और सम्बेदनों की सामंजस्यपूर्ण पुष्टि को अपने-आपमें पर्याप्त होना चाहिये । किन्तु, इसके विपरीत, यदि मनुष्य एक तर्कशील और भावुक प्राणी से कुछ अधिक है, जो कुछ विकसित हो रहा है उससे आगे भी यदि कोई और वस्तु है जिसे विकसित करना है तो यह बिल्कुल सम्भव है कि मानसिक जीवन की पूर्णता, बुद्धि की लचक, नमनीयता और विस्तृत योग्यता, भाव और सम्बेदना का व्यवस्थित प्राचुर्य एक उच्चतर जीवन और अधिक शक्तिशाली सामर्थ्यों के विकास की ओर केवल एक मार्ग होगा; इन सामर्थ्यों को अभिव्यक्त होना है तथा निम्न यन्त्र को उसी प्रकार अपने अधिकार में करना है जिस प्रकार मन ने शरीर पर अपना ऐसा अधिकार स्थापित कर लिया है कि भौतिक सत्ता अब केवल अपनी सृष्टि के लिये ही अपना अस्तित्व नहीं रखती, बल्कि एक उच्चतर क्रिया के लिये आधार और उपादान भी प्रस्तुत करती है ।

 

     मानसिक जीवन से एक अधिक उच्चतर जीवन की स्थापना ही भारतीय दर्शन का समस्त आधार है और इसे प्राप्त एवं संगठित करने का कार्य ही वह सच्चा उद्देश्य है जिसे चरितार्थ करने के लिये योग की प्रणालियां प्रयुक्त की जाती हैं ।

 

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मन विकास की अन्तिम अवस्था नहीं है, न ही वह उसका अन्तिम लक्ष्य है | वह शरीर के समान ही एक यन्त्रमात्र है, बल्कि योग की भाषा में उसे आन्तरिक यन्त्र कहा जाता है । भारतीय परम्परा इस बात की पुष्टि करती है कि जो वस्तु हमें प्राप्त करनी है वह मानवी अनुभव में कोई नयी वस्तु नहीं, बल्कि वह पहले भी विकसित हो चुकी है, यहां तक कि उसने मनुष्यजाति पर उसके विकास के कुछ युगों में शासन भी किया है । जो भी हो, किसी समय वह आंशिक रूप में अवश्य ही विकसित हुई होगी, केवल तभी वह जानी जा सकती थी । और, यदि प्रकृति अब अपनी इस उपलब्धि से च्युत हो गयी है, तो इसका कारण सदा यही होगा कि कहीं कोई समन्वय साधित नहीं हुआ या बौद्धिक और भौतिक आधार कुछ हद तक अपर्याप्त रह गया जिसकी ओर अब वह लौट आयी है; या फिर निम्न जीवन को नुकसान पहुंचाकर उच्चतर जीवन पर विशेष बल देना भी एक कारण हो सकता है ।

 

     तो फिर वह उच्चतर या उच्चतम जीवन क्या है जिसकी ओर हमारा विकास बढ़ रहा है ? इस प्रश्र का उत्तर देने के लिये हमें उच्चतम अनुभवों की श्रेणी को, असाधारण विचारों की श्रेणी को अपने हाथ में लेना होगा, इन सबको प्राचीन संस्कृत भाषा के सिवाय किसी और भाषा में ठीक-ठीक व्यक्त करना कठिन है, क्योंकि ये केवल उसी भाषा में कुछ हद तक क्रमबद्ध किये गये हैं । अंगरेजी भाषा में जो निकट शब्द हैं वे और बातों के साथ भी सम्बन्धित हैं और उनका प्रयोग बहुत-सी अशुद्धियों को ही नहीं, बल्कि गंभीर अशुद्धियों को भी उत्पन्न कर सकता है । योग की पारिभाषिक शब्द-सूची में हमारी भौतिक-प्राणिक सत्ता का नाम आता है, जिसे स्थूल शरीर कहते हैं और जो अन्नकोष और प्राणकोषदो वस्तुओं से निर्मित है । उसमें हमारी मानसिक सत्ता का भी नाम है, यह सूक्ष्म शरीर है तथा केवल एक चीज से अर्थात् मनोमय कोष से बना है; पर इनके साथ-साथ उसमें एक तीसरा अर्थात् अतिमानसिक सत्ता का सर्वोच्च और दिव्य स्तर भी है जिसे कारण-शरीर कहते हैं तथा जो चौथे और पांचवें कोष से बना है जिन्हें विज्ञानकोष और आनन्दकोष कहा जाता है । किन्तु यह विज्ञान अथवा ज्ञान मानसिक प्रश्रों और तर्कों का कोई क्रमबद्ध परिणाम नहीं, न यह निष्कर्षों और मतों की कोई ऐसी अस्थायी अवस्था ही है जो उच्चतम सम्भावना की परिभाषाओं में वर्णित की गयी है, बल्कि यह एक विशुद्ध सत्य है, जो स्वयंभू और स्वयंप्रकाशमान है । यह आनन्द भी हृदय और संवेदनों का कोई बहुत बडा सुख नहीं जिसके पीछे दुःख और कष्ट विद्यमान हों, वरन् यह एक ऐसा आनन्द है जो स्वयंभू है तथा बाह्य वस्तुओं औरं किन्हीं विशेष अनुभूतियों से स्वतन्त्र अपना अस्तित्व रखता है । यह

 

 अन्त:करण

 

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एक ऐसा आत्मानन्द है जो एक परात्पर और असीम सत्ता का स्वभाव है, बल्कि यह उसका सारतत्त्व है ।

 

     क्या ऐसे मनोवैज्ञानिक विचार किसी वास्तविक और सम्भव वस्तु के साथ सम्बन्ध रखते हैं ? समस्त योग ही इन्हें अपनी अन्तिम अनुभूति और सर्वोच्च लक्ष्य मानता है । ये हमारी चेतना की उच्चतम सम्भव अवस्था को, हमारे अस्तित्व के अधिकतम विस्तृत क्षेत्र को शासित करनेवाले नियम हैं । हमारे विचार में उच्चतम योग्यताओं का एक समन्वय है; ये योग्यताएं कुछ हद तक सत्य दृष्टि, दैवी प्रेरणा और सहजज्ञान की मनोवैज्ञानिक योग्यताओं से साम्य रखती हैं, पर फिर भी ये सहजज्ञानयुक्त बुद्धि या दिव्य मन में कार्य नहीं करतीं, बल्कि इनसे एक उच्चतर स्तर पर कार्य करती हैं । ये सत्य को प्रत्यक्ष रूप में देखती हैं, बल्कि वस्तुओं के वैश्व और परात्पर सत्य में निवास करती हैं तथा उसकी रचना एवं प्रकाशपूर्ण क्रिया होती हैं । ये शक्तियां एक ऐसे चेतन अस्तित्व का प्रकाश हैं जो अहंभावयुक्त अस्तित्व को लांघ जाता है और जो स्वयं वैश्व और परात्पर दोनों है, इसका स्वभाव है आनन्द । ये स्पष्ट ही दिव्य हैं और जैसा कि मनुष्य आजकल प्रत्यक्ष रूप में बना हुआ है उसे देखते हुए ये चेतना और क्रिया की अतिमानसिक अवस्थाएं हैं । परात्पर अस्तित्व, आत्म-बोध और आत्म-आनन्द ये तीनों सचमुच ही सर्वोच्च 'आत्मा' की दार्शनिक रूप में व्याख्या करते हैं, और हमारे जाग्रत् ज्ञान के सामने अज्ञेय तत्त्व की रचना करते हैं, चाहे उस अज्ञेय को हम शुद्ध निर्व्यक्तिक सत्ता के रूप में मानें या जगत् को व्यक्त करनेवाले विश्वव्यापी व्यक्तित्व के रूप में । किन्तु योग में ये अपने मनोवैज्ञानिक पक्षों में आभ्यन्तरिक अस्तित्व की अवस्थाएं मानी जाती हैं जिन्हें हमारी जागृत चेतना इस समय नहीं जानती, किन्तु जो हमारे अन्दर एक अतिचेतन स्तर पर निवास करती हैं और इसीलिये जिनकी ओर हम सदा ही आरोहण कर सकते हैं ।

 

     'कारण-शरीर' इस शब्द से जो कुछ सूचित होता है उसके अनुसार, इस शरीर के लिये यह सर्वोच्च अभिव्यक्ति उस सबका स्रोत और प्रभावकारी शक्ति है जो वास्तविक विकासक्रम में उससे पहले आया है, जब कि दूसरे दो शरीरों के सम्बन्ध में, जो यन्त्र अर्थात् करण हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता । हमारी मानसिक क्रियाएं दिव्य ज्ञान से उत्पन्न हुई हैं तथा उसीमें से उनका चयन किया गया है और जबतक वे उस सत्य से जो गुप्त रूप में उनका स्रोत है अलग रहती हैं तबतक वे दिव्य ज्ञान की विकृतिमात्र होती हैं । हमारे सम्वेदन और आवेग का भी 'परमानन्द' के साथ यही सम्बन्ध है; हमारी स्नायविक शक्तियों और कार्यों का दिव्य चेतनाद्वारा धारण की हुई 'संकल्प-शक्ति ' और 'सामर्थ्य' के पक्ष के साथ तथा हमारी भौतिक

 

  १ सच्चिदानन्द

 

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सत्ता का उस 'परमानन्द' और 'चेतना' के विशुद्ध सार के साथ भी यही सम्बन्ध है । जिस विकास को हम अपने सामने देखते हैं तथा इस जगत् में हम जिसके सर्वोच्च रूप हैं उसे एक अर्थ में एक विपरीत अभिव्यक्ति माना जा सकता है । इस अभिव्यक्ति के द्वारा ही ये 'शक्तियां' अपनी एकता और विभिन्नता में, अपूर्ण सार- पदार्थ का तथा 'जड़-पदार्थ', 'प्राण' और 'मन' की क्रियाओं का प्रयोग करती हैं, उन्हें विकसित करती हैं तथा पूर्ण बनाती हैं जिससे कि वे उन दिव्य और सनातन अवस्थाओं के बढ़ते हुए सामंजस्य को जिनसे वे उत्पन्न हुई हैं एक परिवर्तनशील और अपेक्षित ढंग में व्यक्त कर सकें । यदि यही विश्व का सत्य हो तो विकास का लक्ष्य ही उसका कारण भी है, यही उसके तत्त्व में अन्तर्निहित है और उन्हींसे यह प्रस्फुटित भी होता है । किन्तु यह प्रस्फुटन यदि केवल बचने का एक तरीकामात्र है और, अपनेको धारण करनेवाले सारपदार्थ और उसकी क्रियाओं की ओर उन्हें उन्नत और रूपांतरित करने के लिये नहीं मुड़ता तो यह निश्चय ही अपूर्ण है । इस अन्तर्वर्ती अवस्था को अपने अस्तित्व के लिये कोई विश्वसनीय कारण नहीं मिलेगा, यदि इसका अन्तिम कार्य ऐसे रूपान्तर को साधित करना न हो । किन्तु यदि मानव-मन दिव्य 'प्रकाश' के वैभव को ग्रहण करने में समर्थ हो तो मानव भावना और सम्वेदन को इस ढांचे में रूपान्तरित किया जा सकता है और वे सर्वोच्च आनन्द की मात्रा और क्रिया को ग्रहण कर सकते हैं । यदि मानव कर्म एक दिव्य और निरभिमान 'शक्ति' की क्रिया का केवल प्रतिनिधित्व ही नहीं करता, वरन् अपने- आपको उस क्रिया से अभिन्न अनुभव भी करता है, यदि हमारी सत्ता का भौतिक तत्त्व सर्वोच्च सत्ता की पवित्रता में काफी भाग लेता है, और इन उच्चतम अनुभवों और साधनों को सहायता देने तथा इन्हें अधिक समय तक स्थिर रखने के लिये अपने अन्दर नमनीयता और स्थायी दृढ़ता को काफी मात्रां में एकत्रित करता है तो  'प्रकृति' के समस्त लम्बे परिश्रम का अन्त एक अत्यधिक बड़ी सफलता में होगा और उसके विकासक्रम अपने गहन अर्थ को प्रकट कर देंगे ।

 

     इस सर्वोच्च जीवन की एक झांकी भी इतनी चकाचौंध उत्पन्न करनेवाली है तथा इसका आकर्षण इतना व्यस्तकारी है कि यह यदि एक बार भी दृष्टि में आ जाय और इसके पाने के प्रयत्न में और सब कुछ छोड़ देना भी पड़े तो भी हम उसे उचित ही मानेंगे । जो विचार सब वस्तुओं को 'मन' में निहित मानता है तथा मानसिक जीवन को ही एकमात्र आदर्श समझता है, उस विरोधी और अतिशयोक्तिपूर्ण विचार के कारण हम मन को एक अयोग्य विकृति, एक बहुत बड़ी बाधा, भ्रान्तिपूर्ण विश्व का स्रोत तथा 'सत्य' का निषेध मानने लगते हैं । वस्तुत: हम ऐसे मन के अस्तित्व से ही इन्कार कर देंगे और यदि हम अन्तिम रूप में मुक्त होना चाहते हैं तो उसके समस्त कार्य और परिणाम भी विनष्ट हो जायंगे । किन्तु यह एक अर्ध सत्य है और इसकी भूल यह है कि यह केवल 'मन' की

 

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सीमाओं पर ही ध्यान देता है, और उसके दिव्य प्रयोजन की उपेक्षा कर देता है । अन्तिम ज्ञान वह है जो भगवान् को विश्व में और साथ ही विश्व के परे भी देखता है और स्वीकार करता है । पूर्णयोग वह है जो 'परात्पर सत्ता ' को प्राप्त करके विश्व की ओर लौट आता है तथा उसे अधिकृत कर लेता है, उसके पास यह शक्ति रहती है कि वह अस्तित्व की महान् सीढ़ी पर स्वतन्त्रतापूर्वक चढ़-उतर ले । कारण, यदि सनातन 'प्रज्ञा' का अस्तित्व है तो मन की सामर्थ्य का भी कोई उच्च उपयोग और भविष्य होगा ही । इस उपयोग को उस स्तर एवं भूमिका पर निर्भर होना चाहिये जो उसे आरोहण में प्राप्त है और उस भविष्य का अर्थ भी परिपूर्णता और सूपान्तर होना चाहिये, उन्मूलन और विनाश नहीं|

 

अतएव, हम प्रकृति में ये तीन क्रमिक अवस्थाएं देखते हैं : शारीरिक जीवन, जो यहां भौतिक जगत् में हमारे अस्तित्व की आधारशिला है; मानसिक जीवन, जिसमें हम अभिव्यक्त होते हैं और जिसकी सहायता से हम शारीरिक जीवन का अधिक उच्च प्रयोग़ करते हैं तथा उसे एक महत्तर पूर्णता में विकसित कर लेते हैं; दिव्य जीवन, जो इन दोनों का ही लक्ष्य है और जो इनकी ओर मुड़कर इन्हें इनकी उच्चतम सम्भावनाओं में उन्मुक्त करता है । क्योंकि हम इनमेंसे किसीको भी न तो अपनी पहुंच के बाहर समझते हैं और न अपनी प्रकृति से नीचे दर्जे की चीज समझते हैं और न ही इनमेंसे किसीके विनाश को अन्तिम उपलब्धि के लिये आवश्यक समझते हैं, हम इस मुक्ति और परिपूर्णता को कम-से-कम योग के लक्ष्य का एक अंग, बल्कि एक बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण अंग मानते हैं ।

 

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त्रिविध जीवन

 

सो, प्रकृति एक सनातन और गुप्त अस्तित्व का विकास है अथवा उसकी एक विकसनशील आत्म-अभिव्यक्ति है; उसके तीन क्रमिक रूप उसके आरोहण के तीन पग है । अतएव, ये तीन परस्पर-आश्रित सम्भावनाएं शारीरिक जीवन, मानसिक अस्तित्व और वह आवृत आध्यात्मिक सत्ता, जो निवर्तन में दूसरे अस्तित्वों का कारण है और विकास में उनका परिणाम है, हमारी समस्त क्रियाओं की शर्ते हैं । भौतिक जीवन को सुरक्षित रखते हुए और पूर्ण बनाते हुए तथा मानसिक जीवन को चरितार्थ करते हुए प्रकृति का उद्देश्य यह होता है और हमारा भी यही होना चाहिये कि पूर्णता प्राप्त मन और शरीर में 'आत्मा' की परात्पर क्रियाएं अभिव्यक्त हो जायं । जिस प्रकार मानसिक जीवन शारीरिक जीवन के उत्कर्ष और श्रेष्ठतर उपयोग में बाधा नहीं पहुंचाता, वरन् उसके लिये कार्य करता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक जीवन को भी हमारी बौद्धिक, भाविक, सौन्दर्यात्मक और प्राणिक क्रियाओं का त्याग नहीं, वरन् रूपान्तर करना चाहिये ।

 

     कारण, मनुष्य जो पार्थिव प्रकृति का नेता है तथा जो अकेला ही एक ऐसा पार्थिव ढांचा है जिसमें प्रकृति का पूर्ण विकास सम्भव है, त्रिविध जीवन धारण करता है । उसे एक ऐसा सजीव ढांचा मिला है जिसमें शरीर एक पात्र है और प्राण दिव्य अभिव्यक्ति का सक्रिय साधन । उसकी क्रिया एक विकसनशील मन में केन्द्रित है, इस मन का उद्देश्य है अपने-आपको और उस घर को जिसमें वह निवास करता है पूर्ण बनाना, साथ ही उस प्राणरूपी साधन को भी पूर्ण बनाना जिसका कि वह प्रयोग करता है । इसके अतिरिक्त वह एक विकसनशील आत्मोपलब्धि के द्वारा 'आत्मा' के एक रूप में अपने सच्चे स्वभाव के प्रति जाग्रत भी हो सकता है । उसका चरम विकास उसमें होता है जो वह वास्तव में सदा से था, वह प्रकाश और आनन्द से पूर्ण आत्मा है जिसका प्रयोजन ही अन्त में प्राण और मन को उस वैभव से प्रकाशित कर देना है जो इस समय छुपा हुआ है ।

 

     क्योंकि मानवजाति में यही दिव्य शक्ति की योजना है, हमारे अस्तित्व की समस्त प्रणाली और उसके समस्त उद्देश्य को सत्ता में इन तीन तत्त्वों की पारस्परिक क्रिया के द्वारा ही कार्य करना चाहिये । क्योंकि प्रकृति में इनकी रचना अलग-अलग हुई है, मनुष्य साधारण भौतिक जीवन, मानसिक क्रिया और विकास का जीवन तथा अपरिवर्तनशील आध्यात्मिक आनन्दमय जीवनइन तीनों प्रकार के जीवनों में चुनाव करने के लिये स्वतन्त्र है । किन्तु ज्यों-ज्यों वह विकसित होता है वह इन तीनों रूपों को संयुक्तु कर सकता है, इनके विरोधों को एक सामंजस्यपूर्ण लय में

 


 

विलीन कर सकता है और इस प्रकार अपने अन्दर एक पूर्ण देवता को, पूर्ण  'मनुष्य' को जन्म दे सकता है ।

 

     साधारण 'प्रकृति' में इनमेंसे प्रत्येक का अपना विशिष्ट गुण एवं अपनी प्रधान प्रेरणा होती है ।

 

     शारीरिक जीवन की विशेष शक्ति उतनी विकास के लिये उपयुक्त नहीं है जितनी कि स्थायित्व के लिये, उतनी व्यक्ति के विस्तार के लिये नहीं जितनी कि उसकी अपनी पुनरावृत्ति के लिये । भौतिक 'प्रकृति' में एक जाति से दूसरी जाति तक अर्थात् वनस्पति से पशु तक तथा पशु से मनुष्य तक विकास अवश्य होता है, कारण निजीर्व जड़ पदार्थ में भी मन कार्य करता है । किन्तु एक बार जब एक जाति स्थूल रूप में अपना विशेष आकार धारण कर लेती है तो ऐसा प्रतीत होता है कि पार्थिव जननी का प्रमुख तात्कालिक कार्य उसके अस्तित्व को बनाये रखना होता है, और वह जाति फिर अपने प्रतिरूप को बार-बार उत्पन्न करती रहती है । कारण, जीवन सदा ही अमरत्व की चाहना करता है । किन्तु, वैयक्तिक आकार अस्थायी है और विश्व को उत्पन्न करनेवाली चेतना में आकार का विचार ही स्थायी है, क्योंकि वहां वह नष्ट नहीं होता, इसलिये ऐसे प्रतिरूपों को बार-बार उत्पन्न करना ही भौतिक अमरत्व का एकमात्र सम्भव रूप है । अतएव, अपनी रक्षा और पुनरावृत्ति करना तथा अपनेको बहुगुणित करना आवश्यक रूप में समस्त भौतिक अस्तित्व की प्रधान सहज-प्रवृत्तियां हैं ।

 

     विशुद्ध मन की विशेष शक्ति परिवर्तन है और जितना अधिक वह उत्कर्ष और संगठन को प्राप्त करता है उतना अधिक ही 'मन' का यह नियम एक सतत विस्तार का तथा उपलब्धियों की उत्कृष्टता और श्रेष्ठ व्यवस्था का रूप धारण कर लेता है । इस प्रकार वह एक छोटी और सरल पूर्णता से एक अधिक विशाल और जटिल पूर्णता तक का विच्छिन्न मार्ग बन जाता है । कारण, मन, शारीरिक जीवन के विपरीत, अपने क्षेत्र में असीम है, अपने विस्तार में नमनीय है, अपनी रचनाओं में सरलता से परिवर्तित हो सकता है । अतएव, परिवर्तन, आत्म-विस्तार एवं आत्म- सुधार उसकी उचित सहज-प्रवृत्तियां हैं । उसका धर्म है पूर्णता को प्राप्त करना, उसका सिद्धान्त है प्रगति करना ।

 

     'आत्मा' का विशेष नियम एक स्वयंस्थित पूर्णता और अपरिवर्तनीय असीमता है । 'जीवन' का उद्देश्य अमरत्व और 'मन ' का लक्ष्य पूर्णत्व सदा इसके अधिकार में रहते हैं, इन्हें अपने पास रखने का उसका सहज अधिकार है । 'सनातन' सत्ता की प्राप्ति और सद्वस्तु की उपलब्धि आध्यात्मिक जीवन का वैभव है, उस सद्वस्तु की जो सब चीजों में तथा उनके आगे भी एक ही है, जो विश्व में और उसके बाहर भी समान रूप से आनन्दमय है, जो उन रूपों और क्रियाओं की जिनमें वह निवास करती है अपूर्णताओं और सीमाओं से अछूती है ।

 

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     ऐसे प्रत्येक आकार में 'प्रकृति' वैयक्तिक और सामूहिक दोनों रूपों में काम करती है । कारण, सनातन सत्ता एक आकार और सामूहिक जीवन, दोनों में, समान रूप से अपनी स्थापना करती है, चाहे वह कुटुम्ब हो, चाहे जाति या राष्ट्र अथवा ऐसे समुदाय हों जो कम भौतिक सिद्धान्तों पर निर्भर हों, या फिर सबका सर्वोच्च समूह अर्थात् हमारी सामूहिक मानव जाति हो । मनुष्य अपनी वैयक्तिक भलाई की खोज इनमेंसे किसी या सभी कार्यक्षेत्रों में कर सकता है, या इन्हीं में समूह के साथ अपने-आपको एक कर सकता है और उसीकी खातिर जीवित रह सकता है, या फिर ऊपर उठकर इस जटिल विश्व के अधिक सच्चे बोध को प्राप्त करके वैयक्तिक उपलब्धि को सामूहिक उद्देश्य के साथ समन्वित कर सकता है । कारण, जिस प्रकार आत्मा काजबतक वह विश्व में रहती हैसर्वोच्च सत्ता के साथ यथार्थ सम्बन्ध इसमें है कि वह न तो अहंभावयुक्त ढंग से अपनी पृथक् सत्ता की पुष्टि करे और न परिभाषातीत सत्ता में अपने-आपको मिटा ही डाले, बल्कि भगवान् और जगत् के साथ अपनी एकता स्थापित करके व्यक्ति में इन दोनों को संयुक्त कर दे, उसी प्रकार व्यक्ति का समूह के साथ यथार्थ सम्बन्ध न तो अहंभावयुक्त ढंग से बिना अपने साथियों की ओर ध्यान दिये अपनी भौतिक या मानसिक उन्नति को साधित करना या आध्यात्मिक मोक्ष को प्राप्त करना है और न समाज की खातिर अपने विकास को रोकना या कुचलना है; बल्कि उसे अपने अन्दर अपने विकास की सर्वश्रेष्ठ और पूर्णतम सम्भावनाओं को एकत्र करके उन्हें विचार, कर्म और अन्य समस्त साधनों के द्वारा अपने चारों ओर उंडेल देना है, जिससे समस्त जाति उस उपलब्धि के अधिक निकट पहुंच सके जिसे उसके महान् व्यक्ति पहले प्राप्त कर चुके हैं ।

 

 

     इस सबका निष्कर्ष यह निकलता है कि भौतिक जीवन का प्रयोजन अवश्य ही सबसे पहले 'प्रकृति ' के प्राणिक उद्देश्य को पूरा करना है । भौतिक मनुष्य का समस्त उद्देश्य ही जीवित रहना है, जितना आराम और सुख रास्ते में प्राप्त हो सकता हो उतने के साथ उसे जन्म से मृत्यु तक पहुंचना है, मतलब यह कि किसी-न-किसी प्रकार जीना है । वह अपने इस उद्देश्य को निम्न स्थान भी दे सकता है, पर केवल भौतिक 'प्रकृति' की दूसरी सहज-प्रवृत्तियों की तुलना में ही; ये प्रवृत्तियां हैंव्यक्ति के प्रतिरूप की उत्पत्ति और कुटुम्ब, जाति या समाज में उस प्रतिरूप की रक्षा । सत्ता, कौटुम्बिक जीवन, समाज और राष्ट्र की प्रचलित व्यवस्थाये भौतिक अस्तित्व के निर्माणकारी अंग हैं । प्रकृति की मितव्ययितापूर्ण व्यवस्था में इसका अत्यधिक महत्त्व स्पष्ट है; मानव प्रतिरूप जो उसका प्रतिनिधित्व करता है उसका महत्त्व भी उतना ही है । जिस ढांचे का प्रकृति ने निर्माण किया है उसकी रक्षा का तथा उसकी पिछली उपलब्धियों की व्यवस्थित स्थिरता और सुरक्षा का वह उसे विश्वास दिलाता है ।

 

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     किन्तु इसी उपयोगिता के कारण इस प्रकार के मनुष्य और उनका जीवन बुरे माने जाते हैं, वे सीमित और अन्यायत: अनुदार होते हैं, पृथ्वी के साथ बंधे होते हैं । प्रचलित कार्यक्रम, प्रचलित प्रथाएं, विचार के परम्परागत या अभ्यासगत रूप,ये सब उनके नासारन्ध्रों के जीवन-श्वास होते हैं । भूतकाल में जो परिवर्तन उन्नतिशील व्यक्तियों ने किये हैं उन्हें वे स्वीकार करते हैं तथा उत्साहपूर्वक उनका समर्थन करते हैं, किन्तु साथ ही वे उतने ही उत्साह से उन परिवर्तनों का प्रतिरोध भी करते हैं जो आजकल किये जा रहे हैं । कारण, भौतिक मनुष्य के लिये विकासवादी विचारक कोरा आदर्शवादी है, स्वप्नद्रष्टा अथवा विक्षिप्त मनुष्य है । पुरानी यहूदी और अन्य जातियों के लोग जिन्होंने जीवित पैगम्बरों को पत्थरों से मारा था और मरने के बाद उनके स्मारकों की पूजा की थी, 'प्रकृति' में निहित इसी सहजप्रेरित और विवेकहीन सिद्धान्त के साक्षात् रूप थे । प्राचीन समय में भारतवर्ष में एक-जन्मा और द्वि-जन्मा में भेद किया जाता था, एक-जन्मा यही भौतिक मनुष्य कहा जा सकता है । वह 'प्रकृति' के निम्न काम करता है, उसके उच्चतर कार्यों का आधार सुनिश्चित करता है, किन्तु उसके सामने उसके दूसरे जन्म के वैभव आसानी से प्रकट नहीं होते ।

 

     फिर भी वह इतनी आध्यात्मिकता अवश्य स्वीकार करता है जितनी उसके साधारण विचारों पर भूतकाल की महान् धार्मिक क्रान्तियों ने लादी है । वह अपनी समाजसम्बन्धी योजना में किसी पुरोहित या विद्वान् अध्यात्मवेत्ता के लिये स्थान रखता है, उससे वह आशा करता है कि वह उसे एक सुरक्षाप्रद और साधारण आध्यात्मिक भोजन देता रहे, यह स्थान आदर-योग्य तो हो सकता है, पर प्रभावपूर्ण प्रायः नहीं होता । किन्तु जो व्यक्ति आध्यात्मिक अनुभव और आध्यात्मिक जीवन की स्वतन्त्रता की बलपूर्वक मांग करता है, उसके लिये मनुष्य पुरोहित का बाना नहीं वरन् संन्यासी का चोगा निश्चित करता है, बशर्ते कि वह उसे स्वीकार कर ले । समाज के बाहर उसे अपनी भयंकर स्वतन्त्रता का उपभोग करने दिया जाता है । वह वस्तुतः एक ऐसी मानवी विद्युत्-छड़ी का काम करता है जो आत्मा की विद्युत् को ग्रहण कर लेती है, पर उसे सामाजिक ढांचे से अलग रखती है ।

 

     पर यह सब होते हुए भी भौतिक मनुष्य और उसके जीवन की साधारण उन्नति की जा सकती है, ऐसा भौतिक मन पर उन्नति के नियम का, चेतन परिवर्तन के अभ्यास का तथा जीवन के सिद्धान्त के रूप में विकास के स्थिर विचार का प्रबल प्रभाव डालकर ही किया जाता है । यूरोप में इस साधन के द्वारा विकसनशील समाजों का निर्माण जड़ पदार्थ पर मन की एक बड़ी भारी विजय है । किन्तु भौतिक प्रकृति अपना बदला लेती है, क्योंकि तब जो उन्नति साधित होती है वह अधिक स्थूल एवं बाह्य ढंग की होती है और उसके अधिक उच्च और अधिक दुत कार्य

 

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के लिये किये गये प्रयत्न अत्यधिक थकावट के, तीव्र भ्रान्ति और चौंका देनेवाली अवनति के भाव ले आते हैं ।

 

     भौतिक मन और उसके जीवन को कुछ थोड़ी-सी आध्यात्मिकता प्रदान करना इस प्रकार भी सम्भव है कि वह जीवन की समस्त प्रथाओं और उसकी साधारण क्रियाओं को धार्मिक भावना के दृष्टिकोण से विचारने का अभ्यस्त हो जाय । पूर्व में ऐसे आध्यात्मिक समाजों की उत्पत्ति वस्तुत: जड़ पदार्थ पर आत्मा की एक अत्यधिक बड़ी विजय रही है । किन्तु यहां भी इसमें एक दोष रह गया है । कारण, इसका परिणाम प्रायः ही एक धार्मिक स्वभाव को जन्म देता है जो कि आध्यात्मिकता का एक अत्यन्त बाह्य रूप है । उसकी उच्चतर अभिव्यक्तियां, उसकी अत्यधिक उत्कृष्ट और शक्तिशाली अभिव्यक्तियां भी सामाजिक जीवन से बहुत-से व्यक्तियों को बाहर ले आती हैं और इस प्रकार उसे दरिद्र बना देती हैं या फिर एक क्षणिक उत्कर्ष के द्वारा थोड़े समय के लिये समाज में क्षुब्धता पैदा कर देती हैं । सत्य वस्तुतः यह है कि यदि मानसिक प्रयत्न और आध्यात्मिक प्रेरणा को अलग-अलग लिया जाय तो वे भौतिक प्रकृति के प्रबल प्रतिरोध पर विजय प्राप्त करने के लिये काफी नहीं हैं । इससे पहले कि प्रकृति मनुष्यजाति में एक पूर्ण परिवर्तन लाये वह उन दोनों को एक पूर्ण प्रयत्न में एक साथ देखने की मांग करती है । किन्तु साधारणतया ये दोनों साधन ही एक-दूसरे को आवश्यक छूट देने के लिये अनिच्छुक रहते हैं ।

 

     मानसिक जीवन सौन्दर्यात्मक, नैतिक और बौद्धिक क्रियाओं पर अपने-आपको एकाग्र करता है । मूल मानसिकता आदर्शवादी होती है और पूर्णता की खोज करती है; उधर सूक्ष्म सत्ता, देदीप्यमान आत्मा सदा ही स्वप्नद्रष्टा होता है । पूर्ण सौन्दर्य, पूर्ण आचार-व्यवहार और पूर्ण सत्य का स्वप्न, चाहे वह सनातन सत्ता के नये रूपों की खोज कर रहा हो या उसके पुराने रूपों में पुनः शक्ति का संचार कर रहा हो, विशुद्ध मन की वास्तविक आत्मा है, किन्तु वह 'जड़ पदार्थ' के प्रतिरोध का सामना करना नहीं जानता । वह वहीं रुक जाता है तथा अयोग्य प्रमाणित होता है, वह अनगढ़ प्रयोगों के द्वारा कार्य करता है; फिर उसे या तो संघर्ष से पीछे हटना पड़ता है या एक अन्धकारपूर्ण वास्तविकता की अधीनता स्वीकार करनी पड़ती है । वह भौतिक जीवन का अध्ययन करके तथा संघर्ष की शर्तों को स्वीकार करके सफल भी हो सकता है, किन्तु वह केवल एक ऐसी कृत्रिम प्रणाली को कुछ समय के लिये लादने में ही सफल होता है जिसे असीम 'प्रकृति' या तो नष्ट-भ्रष्ट करके एक

 

    ऐसी आत्मा जो 'स्वप्न' में निवास करती है, जो आन्तरिक रूप से चेतन है, जो अमूर्त भावों का उपभतो करती है तथा दीप्ति से युका है ।

 

माण्डूक्य उपनिषद्, ४

 

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ओर डाल देती है या उसे इतना विरूप बना देती है कि उसे पहचानना कठिन हो जाता है, या फिर वह अपनी अस्वीकृति से उसे एक मृत आदर्श के शव के रूप में छोड़ देती है । मनुष्य के अन्दर के स्वप्नद्रष्टा को बहुत कम उपलब्धियां हुई हैं और बहुत देर के बाद प्राप्त हुई हैं । इन्हें संसार ने बड़ी गम्भीरतापूर्वक स्वीकार किया है, वह इन्हें अपनी मधुर स्मृति में रखकर पीछे की ओर देखता है तथा उसके तत्त्वों में इन्हें स्नेहपूर्वक सुरक्षित रखना चाहता है ।

 

     जब वास्तविक जीवन और विचारक के स्वभाव के बीच की खाई अत्यधिक चौड़ी हो जाती है तो इसके परिणाम-स्वरूप हम मन को जीवन से एक प्रकार से हटता देखते हैं, जिससे कि वह अपने क्षेत्र में अधिक बडी स्वतन्त्रता के साथ कार्य कर सके । अपनी आलोकपूर्ण अन्तर्दृष्टियों में निवास करता हुआ कवि, अपनी कला में लीन कलाकार, अपने एकान्त कक्ष में बौद्धिक समस्याओं पर विचार करता हुआ दार्शनिक, अपने अध्ययनों और प्रयोगों की ही चिन्ता करनेवाला वैज्ञानिक और विद्वान् प्राचीन समय में, बल्कि अब भी, प्रायः ही बौद्धिक संन्यासी होते थे और होते हैं । मनुष्यजाति के लिये किये गये इनके कार्यों का पता हमें उसके प्राचीन इतिहास से लगता है ।

 

     किन्तु यह एकान्त जीवन उनके किसी विशेष कार्य के द्वारा ही उचित ठहराया जा सकता है । मन केवल तभी अपनी पूर्ण शक्ति को प्राप्त कर सकता है और अपने कार्य को पूर्ण रूप से चरितार्थ कर सकता है जब वह अपने-आपको जीवन पर एकाग्र कर लेता है तथा उसकी सम्भावनाओं और बाधाओं को एक अधिक बड़ी आत्म-परिपूर्णता के साधन के रूप में समान रूप से स्वीकार कर लेता है । भौतिक जगत् की कठिनाइयों के साथ संघर्ष करते हुए व्यक्ति का नैतिक विकास एक सुदृढ़ आकार ग्रहण कर लेता है और इस प्रकार आचार-सम्बन्धी महान् सम्प्रदाय निर्मित हो जाते हैं । जीवन के तथ्यों के सम्पर्क में आकर ही 'कला' शक्ति प्राप्त करती है, 'विचार' अपनी धारणाओं को निश्चित करता है तथा दार्शनिक के निष्कर्ष अपने-आपको विज्ञान और अनुभव की स्थिर आधारशिला पर स्थापित करते हैं ।

 

     वैयक्तिक मन की खातिर मनुष्य जीवन के साथ इस सम्बन्ध को प्राप्त करने की चेष्टा कर सकता है; इसमें वह भौतिक जीवन के रूपों के प्रति या जाति के उत्थान के प्रति पूर्णतया उदासीन रहता है । यह उदासीनता ऐपीक्यूरियन अर्थात् भोगवादी अनुशासन में अपने चरम रूप में दिखायी पड़ती है, 'स्टोइक' (Stoic) अर्थात् तितिक्षावादी अनुशासन-प्रणाली में भी यह पूर्णता अनुपस्थित नहीं है । यहां तक कि परार्थवाद की दृष्टि से किया गया दयापूर्ण कार्य भी जितना अपनी खातिर किया जाता है उतना उस जगत् की खातिर नहीं जिसकी सहायता के निमित्त वह किया जाता है । किन्तु यह भी एक सीमित चरितार्थता ही है । विकसनशील मन का

 

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सर्वश्रेष्ठ कार्य तब होता है जब वह समस्त जाति को अपने स्तर तक उठाने की कोशिश करता है; ऐसा वह या तो अपने विचार और अपनी परिपूर्णता की प्रतिमूर्त्ति के बीजों को प्रसारित करके करता है या फिर जाति के भौतिक जीवन को नये रूपों में अर्थात् धार्मिक, बौद्धिक, सामाजिक या राजनीतिक रूपों में परिवर्तित करके करता है । इन रूपों का उद्देश्य है सत्य के, सौन्दर्य, न्याय और सदाचार के उस ओदर्श का अधिक निकट रूप में प्रतिनिधित्व करना जिससे मनुष्य की अपनी आत्मा आलोकित हो चुकी है । ऐसे क्षेत्र में यदि असफलता प्राप्त हो तो इसका कोई अधिक महत्त्व नहीं । कारण, स्वयं प्रयत्न ही सक्रिय और सर्जनकारी होता है । जविन को उठाने के लिये मन का संघर्ष जीवन की उस वस्तु के द्वारा विजय की आशा और शर्त है जो मन से भी बड़ी है ।

 

     उच्चतम जीवन अर्थात् आध्यात्मिक जीवन सनातन सत्ता के साथ सम्बन्ध अवश्य रखता है, किन्तु इसी कारण वह क्षणिक सत्ता से पूर्णतया अलग नहीं हो जाता । आध्यात्मिक मनुष्य के लिये मन का पूर्ण सौन्दर्य-सम्बन्धी स्वप्न एक ऐसे सनातन प्रेम, सौन्दर्य और आनन्द में चरितार्थ होता है जो किसीपर निर्भर नहीं है तथा जो समस्त दृश्यमान प्रतीतियों के पीछे समान रूप से स्थित है; पूर्ण सत्य-सम्बन्धी उसका स्वप्न उस सर्वोच्च, स्वयंस्थित, स्वयं-प्रत्यक्ष और सनातन सत्य में चरितार्थ होता है जो कभी परिवर्तित नहीं होता, बल्कि जो समस्त परिवर्तनों की और समस्त उन्नति के लक्ष्य को व्याख्या करता है तथा उनका रहस्य है । उसका पूर्ण-कर्म-सम्बन्धी स्वप्न उस सर्वशक्तिमान, स्वयं अपना पथ-प्रदर्शन करनेवाले दिव्य विधान में चरितार्थ होता है जो सदा समस्त वस्तुओं के अन्दर निहित है और यहां जगतों की लयपूर्ण व्यवस्था में अपने- आपको व्यक्त करता है । आलोकपूर्ण 'सत्ता' में जो अस्थिर अन्तर्दृष्टि है या सृष्टि-सम्बन्धी सतत प्रयत्न है वह 'सत्ता' में सदा स्थिर रहनेवाली एक ऐसी सद्वस्तु है जौ सब कुछ जानती है और सबकी स्वामिनी है ।

 

     किन्तु यदि मानसिक जीवन अपने-आपको स्थूल रूप से प्रतिरोधकारी भौतिक क्रिया के अनुकूल बनाने में बहुधा कठिनाई अनुभव करता है तो आध्यात्मिक जीवन के लिये एक ऐसे जगत् में निवास करना कितना अधिक कठिन प्रतीत होगा जो 'सत्य' से नहीं, बल्कि प्रत्येक झूठ और भ्रान्ति सै, 'प्रेम' और 'सौन्दर्य' से नहीं, बल्कि सर्वग्रासी विरोध और कुरूपता से, 'सत्य' के नियम से नहीं, बल्कि विजयी स्वार्थ और अधर्म से परिपूर्ण है ? इसीलिये आध्यात्मिक जीवन अपनानेवाले सन्त या संन्यासी को सामान्य प्रवृत्ति भौतिक जीवन को त्यागने की तथा उसे पूर्णतया

 

    वह एकीकृत सत्ता है, जिसमें चेतन विचार एकाग्र रहता है, जो सर्व-आनन्दपूर्ण है तथा आनन्द की भोक्त्री है, वह बुद्धिमत्तापूर्ण सत्ता है... वह सबकी स्वामिनी है, सर्वज्ञात्री है, आन्तरिक पथ-प्रदर्शिका है ।

 

—माण्डुक्य अपनिषद्- ५, ६

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और भौतिक रूप से या आत्मिक रूप से अस्वीकार करने की होती है । वह इस संसार को तो 'अशुभ' या 'अज्ञान' का राज्य समझता है और सनातन एवं दिव्य सत्ता को या तो सुदूर स्वर्ग में या इस जगत् और जीवन से परे देखता है । वह अपने-आपको उस अपवित्रता से अलग कर लेता है; वह आध्यात्मिक सद्वस्तु का समर्थन विशुद्ध एकान्त में करता है । उसका यह त्याग भौतिक जीवन की एक अमूल्य सेवा इस बातमें करता है कि वह उसे उस वस्तु का आदर करने और उसके सामने सिर झुकाने के लिये बाध्य करता है जो उसके तुच्छ आदर्शों का और हीन चिन्ताओं और अहंभावयुक्त स्वतुष्टि का सीधा निषेध है ।

 

     किन्तु संसार में आध्यात्मिक शक्ति जैसी सर्वोच्च शक्ति का कार्य इस प्रकार सीमित नहीं किया जा सकता । आध्यात्मिक जीवन भी भौतिक जीवन की ओर वापिस आकर उसपर क्रिया कर सकता है तथा अपनी महत्तर पूर्णता के लिये उसका एक साधन के रूप में प्रयोग कर सकता है । क्योंकि वह द्वंद्वों और बाह्य प्रतीतियों के द्वारा अन्धा होना अस्वीकार कर सकता है, वह सब बाह्य प्रतीतियों में, चाहे जो भी वे हों, उसी 'भगवान्' की, उसी सनातन 'सत्य', 'सौन्दर्य', 'प्रेम' और 'आनन्द' की झलक की खोज कर सकता है । समस्त वस्तुओं में उपस्थित 'आत्मा' का, 'आत्मा' में उपस्थित सब वस्तुओं का तथा 'आत्मा' की अभिव्यक्तियों के रूप में समस्त वस्तुओं का वैदान्तिक सूत्र इस अधिक समृद्ध और सबको अपने अन्दर धारण करनेवाले योग की कुंजी है ।

 

     किन्तु इस प्रकार, मानसिक जीवन की भांति आध्यात्मिक जीवन भी व्यक्ति के लाभ के लिये इस बाह्य अस्तित्व का प्रयोग कर सकता है; इसमें वह ऐसे जगत् के किसी भी सामूहिक उत्कर्ष की ओर से पूर्णतया उदासीन रह सकता है जो कैवल एक प्रतीकमात्र है तथा जिसका वह प्रयोग करता है । क्योंकि सनातन सत्ता सदा सब वस्तुओं में एक ही रहती है और सब वस्तुएं सनातन सत्ता के लिये भी वही रहती हैं, क्योंकि मनुष्य में उसी एक महान् उपलब्धि की चरितार्थता के मह्त्त्व की अपेक्षा कार्य करने के यथार्थ ढंग और परिणाम का महत्त्व बहुत ही कम है, यह आध्यात्मिक उदासीनता किसी भी वातावरण को, किसी भी कर्म को शान्त भाव से स्वीकार कर लेती है, पर सर्वोच्च लक्ष्य के प्राप्त होते ही वह पीछे हटने के लिये भी तैयार हो जाती है । गीता के आदर्श को बहुतों ने इसी ढंग से समझा है । या फिर आन्तरिक प्रेम और आनन्द अच्छे कार्यों, सेवा और करुणा के रूप में अपने-आपको संसार में उंडेल सकते हैं और आन्तरिक सत्य ज्ञान के रूप मैं अपने-आपको संसार में उंडेल सकता है; अतएव, वे संसार को रूपान्तरित करने की कोशिश नहीं करते, क्योंकि वह अपने अविच्छेद्य स्वभाव के कारण द्वंद्वों का, पाप और पुण्य का, सत्य और भ्रान्ति का तथा सुख और दुःख का युद्ध- क्षेत्र ही बना रहता है ।

 

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     किन्तु यदि 'उन्नति' जागतिक जीवन के प्रधान तथ्यों में से एक है और भगवान् की विकसनशील अभिव्यक्ति ही प्रकृति का सच्चा अर्थ है तो उन्नति-सम्बन्धी यह सीमा भी ठीक नहीं है । जगत् में आध्यात्मिक जीवन के लिये यह सम्भव है कि वह भौतिक जीवन को अपने प्रतिरूप में, भगवान् के प्रतिरूप में परिवर्तित कर दे, बल्कि यही उसका सच्चा कार्य है । इसीलिये, उन महान् एकान्तवासी योगियों को छोड़कर जिन्होंने अपनी मुक्ति की ही खोज की और उसे प्राप्त भी कर लिया, कुछ ऐसे महान् आध्यात्मिक गुरु भी हो चुके हैं जिन्होंने दूसरों को भी मुक्ति दिलायी है । इनसे भी अधिक ऊँची वे महान् सक्रिय आत्माएं हैं जो आत्मिक शक्ति में अपने-आपको भौतिक जगत् की सभी शक्तियों से अधिक सबल अनुभव करके एकत्रित हो गयी हैं, इन्होंने भी संसार पर कार्य किया है, प्रेमपूर्ण साम्मुख्य में उसके साथ संघर्ष किया है, तथा उसे इस बात के लिये बाध्य करने की चेष्टा की है कि वह अपने रूपान्तर के लिये अपनी स्वीकृति दे । साधारणतया मनुष्यजाति में मानसिक और नैतिक परिवर्तन लाने का प्रयत्न किया जाता है, किन्तु इसका विस्तार हमारे जीवन के तथा उसके आचार-व्यवहारों के रूपों के परिवर्तन तक भी हो सकता है जिससे कि वे भी आत्मा के आन्तरिक रस को ग्रहण करने के लिये अधिक उपयुक्त सांचे बन जाएं । ये प्रयत्न मानवी आदर्शों की विकसनशील प्रगति तथा जाति की दिव्य तैयारी में सर्वोच्च संकेत रहे हैं । इनमेंसे प्रत्येक के बाह्य परिणाम चाहे जो हों उसने पृथ्वी को स्वर्ग-प्राप्ति के अधिक योग्य बना दिया है तथा  'प्रकृति' के विकासात्मक 'योग' की मंद गति को द्रुत कर दिया है ।

 

     भारतवर्ष में, पिछले एक हजार या इससे अधिक वर्षों में आध्यात्मिक और भौतिक जीवन पास-पास चलते रहे हैं, इन्होंने मन के विकास की ओर ध्यान नहीं दिया । आध्यात्मिकता ने जड़ पदार्थ के साथ यह समझौता कर लिया है कि वह सामान्य उन्नति साधित करने का प्रयोग छोड़ देगा । उसने समाज से उन सब के लिये स्वतन्त्र आध्यात्मिक उन्नति का अधिकार प्राप्त कर लिया है जो एक विशेष प्रतीक अर्थात् संन्यासी के वेश को अपना लेते हैं; उसने यह स्वीकार कर लिया है कि यही जीवन मनुष्य का लक्ष्य है और जो इसे अपनाते हैं वही पूर्ण सम्मान के योग्य हैं । उसने समाज को एक ऐसे धार्मिक सांचे में ढाल दिया है कि उसके अत्यधिक अभ्यस्त कार्यों के साथ भी जीवन और उसके अन्तिम लक्ष्य का आध्यात्मिक प्रतीक जुड़ा रहता है जिससे कि उसे इसकी याद बनी रहे । पर इसके विपरीत, समाज को अधिकार केवल तमस् और निश्चल आत्मरक्षा का ही मिला । इस छूट ने उन तथ्यों के महत्त्व को बहुत कुछ नष्ट कर दिया । जब धार्मिक सांचा नियत हो गया तो यह वैधिक ढंग से स्मरण दिलाने की रीति नित्यप्रति का क्रम हो गयी और उसने अपना सजीव अर्थ खो दिया । नये मतों और धर्मों के द्वारा सांचे को बदलने के सतत प्रयत्न एक नये क्रम में अथवा पुराने क्रम के संशोधित रूप

 

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में समाप्त हो गये । मुक्त और सक्रिय मन का उद्धारक तत्त्व निर्वासित हो चुका था, क्योंकि स्थूल जीवन तब अज्ञान को, उद्देश्यहीन और अमिट द्वंद्व को सौंप दिया गया था । वह एक ऐसा बोझिल और दुःखदायी जुआ बन गया जिससे भागकर ही मनुष्य बच सकता था ।

 

     भारतीय योग की पद्धतियों ने तब स्वयं ही एक समझौता कर लिया । तब वैयक्तिक पूर्णता या मुक्ति लक्ष्य बन गया और साधारण कर्मों से एक प्रकार का सम्बन्ध-विच्छेद शर्त बन गयी और जीवन का त्याग अन्तिम उपलब्धि हो गया । गुरु अपना ज्ञान केवल कुछ शिष्यों को ही देता था । और, यदि एक विस्तृत क्षेत्र में कार्य करने के लिये प्रयत्न किया भी गया तो भी लक्ष्य व्यक्तिगत आत्मा की मुक्ति ही रहा । अधिकतर तो एक रूढ़ समाज के साथ समझौता ही काम में लाया जाता था ।

 

     उस वक्त जो संसार की वास्तविक दशा थी उसमें इस समझौते की उपयोगिता पर सन्देह नहीं किया जा सकता । इसने भारतवर्ष में एक ऐसे समाज को सुरक्षित रखा जिसने आध्यात्मिकता की रक्षा एवं पूजा की; यह एक ऐसा देश बना रहा जिसमें एक किले की भांति सर्वोच्च आध्यात्मिक आदर्श अपनी अत्यधिक पूर्ण विशुद्धता के साथ अपने-आपको बनाये रख सका, इस किले में वह अपने चारों ओर की शक्तियों के आक्रमण से सुरक्षित रहा । किन्तु यह केवल एक समझौता था, एक पूर्ण विजय नहीं । परिणाम-स्वरूप, भौतिक जीवन ने विकास-सम्बन्धी दिव्य प्रेरणा को खो दिया, आध्यात्मिक जीवन ने अलग रहकर अपनी उच्चता और विशुद्धता को सुरक्षित तो रखा, पर संसार की वह जो सेवा कर सकता था उसका तथा अपनी पूर्ण शक्ति का उसे बलिदान करना पड़ा । अतएव, दिव्य भवितव्यता में योगियों और संन्यासियों के देश को ठीक उसी तत्त्व के साथ अपना दृढ़ और अनिवार्य सम्बन्ध बनाना पड़ा जिसे वह पहले अस्वीकार कर चुका था, यह विकसनशील मन का तत्त्व था । यह सब इसलिये करना पड़ा कि जो चीज उसके पास अब नहीं है उसे वह पुन: प्राप्त कर सके ।

 

     हमें यह एक बार फिर स्वीकार करना पड़ेगा कि व्यक्ति केवल अपने अन्दर ही नहीं, बल्कि समूह में भी निवास करता है और यह कि वैयक्तिकि पूर्णता और मुक्ति ही संसार में भगवान् के अभिप्राय का समस्त अर्थ नहीं है । हमारी स्वाधीनता के स्वतन्त्र प्रयोग में दूसरों की बल्कि मनुष्यमात्र की मुक्ति निहित है । अपने अन्दर दिव्य प्रतीक को चरितार्थ करने के बाद, हमारी पूर्णता का प्रयोजन इसमें है कि हम इसे दूसरों में भी साधित करें, इसे बढ़ाये तथा अन्त में इस विश्वव्यापी बना दें ।

 

     यदि हम मानवजीवन को उसकी तीनों सम्भावनाओं-सहित वास्तविक दृष्टिकोण से देखें तो हम ठीक उसी निष्कर्ष पर पंहुचते हैं जिसे हमने प्रकृति की सामान्य

 

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क्रियाओं तथा उसके विकासक्रम के तीनों पगों का निरीक्षण करने के बाद निकाला था और तभी हम अपने योग-सम्बन्धी समन्वय के पूर्ण उद्देश्य को समझना आरम्भ करते हैं ।

 

     'आत्मा' वैश्व जीवन की उच्चतम चोटी है; 'जड़-पदार्थ' उसका आधार और  'मन' इन दोनोंको जोड़नेवाला सूत्र है । 'आत्मा' सनातन वस्तु है और मन और जड़-पदार्थ उसकी क्रियाएं हैं । आत्मा वह वस्तु है जो छुपी हुई है और जिसे प्रकाश में लाना है; मन और शरीर वे साधन हैं जिनके द्वारा वह अपने-आपको प्रकाश में लाने की चेष्टा करती है । आत्मा 'योग' के 'स्वामी' की प्रतिमूर्ति है; मन और शरीर वे साधन हैं जिन्हें उसने इस प्रतिमूर्ति को भौतिक जीवन में उत्पन्न करने के लिये हमें प्रदान किया है । समस्त प्रकृति इस छिपे हुए 'सत्य' को अधिकाधिक व्यक्त करने का एक प्रयत्न है, दिव्य प्रतिमूर्त्ति की एक अधिकाधिक सफल पुनरावृत्ति है ।

 

     किन्तु जिस वस्तु को प्रकृति समुदाय के लिये एक धीमे विकास के द्वारा उत्पन्न करने की कोशिश करती है उसे 'योग' व्यक्ति के लिये एक द्रुत विकास के द्वारा साधित कर लेता है । वह उसकी समस्त शक्तियों को वेग प्रदान करके और समस्त सामर्थ्य को ऊंचा उठाकर कार्य करता है । प्रकृति आध्यात्मिक जीवन को बड़ी कठिनाई से विकसित कर पाती है और इसमें उसे सदा अपनी निम्न उपलब्धियों की प्राप्ति के लिये निम्न स्तर पर आना पड़ता है, उधर योग की दिव्यभावापन्न शक्ति और केन्द्रित प्रणाली सीधे ही मन की पूर्णता प्राप्त कर सकती है, बल्कि वह उसे अपने साथ ही ला सकती है । इतना ही नहीं, यदि उसे प्रकृति का सहयोग मिले तो वह शरीर की पूर्णता भी प्राप्त कर सकती है । प्रकृति भगवान् को अपने प्रतीकों में खोजती है । योग 'प्रकृति' से आगे 'प्रकृति' के स्वामीतक, विश्व से आगे 'परात्पर सत्ता ' तक जाता है और फिर परात्पर प्रकाश और परात्पर शक्ति सहित सर्वशक्तिमान् भगवान् के आदेश से वापिस भी लौट सकता है ।

 

     किन्तु दोनों का उद्देश्य अन्त में एक ही है । मनुष्यजाति में 'योग' को व्यापक बनाने का अर्थ यह है कि प्रकृति अपने विलम्बों और रहस्पों पर अन्तिम विजय प्राप्त कर लै । अभी तो वह विज्ञान के विकसनशील मन के द्वारा  समस्त मनुष्यजाति को मानसिक जीवन के पूर्ण विकास के लिये तैयार करने की कोशिश करती है, इसी प्रकार योग के द्वारा उसे समस्त मनुष्यजाति को एक उच्चतर विकास के लिये, एक नये जन्म अर्थात् आध्यात्मिक जीवन के लिये अनिवार्य रूप में समर्थ बनाने की कोशिश करनी चाहिये । जिस प्रकार मानसिक जीवन भौतिक जीवन का प्रयोग करके उसे पूर्ण बनाता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक जीवन भी भौतिक और मानसिक जीवन का प्रयोग करके उन्हें पूर्ण बनायेगा, ये दिव्य आत्म- अभिव्यक्ति के यन्त्र होंगे । जिन युगों में यह कार्य साधित होगा वे पूरणप्रोक्त

 

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'सत्य' और 'कृत' अर्थात् प्रतीक के रूप में व्यक्त 'सत्य' के युग होंगे, ये उस महान् कार्य के युग होंगे जब कि प्रकृति मनुष्यजाति में प्रकाश, सन्तोष और आनन्द से परिपूर्ण हो जाती है तथा अपने प्रयत्न के शिखर पर पहुंचकर वहीं विश्राम करती है |

 

     अब मनुष्य को विश्व प्रकृति का प्रयोजन समझना है, उसे विश्व-माता को गलत समझना, उसकी उपेक्षा करना, उसका दुरुपयोग करना छोड़ देना है । उसे माता के उच्चतम आदर्श को प्राप्त करने के लिये उसीके सबलतम साधनों के द्वारा सदैव अभीप्सा करनी है ।

 

     १ सत्य, कृत अर्थात् चरितार्थ या पूर्ण ।

 

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योग की प्रणालियां

 

मानवी सत्ता के विभिन्न मनोवैज्ञानिक विभाजनों और उनपर आधारित प्रयत्न-सम्बन्धी इन अनेक उपयोगिताओं और उद्देश्यों के परस्पर-सम्बन्ध जिन्हें हमने प्राकृतिक विकासक्रम का संक्षेप में निरीक्षण करते हुए देखा है, हमें 'योग' की विभिन्न पद्धतियों के मूल सिद्धान्तों और प्रणालियों में बार-बार मिलेंगे । और, यदि हम उनके केन्द्रीय अभ्यासों और प्रधान उद्देश्यों को संयुक्त और समन्वित करना चाहें तो हम देखेंगे कि अभी भी प्रकृति-प्रदत्त आधार ही हमारा स्वाभाविक आधार है और उनके समन्वय की शर्त भी ।

 

     एक दृष्टि से योग वैश्व प्रकृति की सामान्य क्रिया से आगे निकल जाता है और उसे पीछे छोड़कर ऊपर की ओर आरोहण करता है । कारण, वैश्व माता का उद्देश्य भगवान् से, अपनी क्रीड़ा और सृष्ट रूपों में, मिलना है और वहीं उसे प्राप्त करना है । किन्तु योग के उच्चतम आरोहणों में वह अपनेसे आगे जाकर स्वयं अपने अन्दर ही भगवान को प्राप्त कर लेती है, इसमें वह विश्व से आगे निकल जाती है, पर साथ ही वैश्व क्रीड़ा से अलग भी रहती है । इसलिये कुछ लोग यह मानते हैं कि यह योग का केवल उच्चतम उद्देश्य ही नहीं है, बल्कि एकमात्र सच्चा या वांछनीय उद्देश्य भी है ।

 

     किन्तु, जिस वस्तु का निर्माण प्रकृति ने अपने विकास-क्रम में किया है उसीके द्वारा वह सदा अपने विकासक्रम से आगे भी निकल जाती है । वैयक्तिक हृदय ही अपने उच्चतम और पवित्रतम भावों को ऊपर उठाकर परात्पर आनन्द या अनिर्वचनीय निर्वाण को प्राप्त करता है, वैयक्तिक मन ही अपनी सामान्य क्रियाओं को मानसिकता से परे के ज्ञान में परिवर्तित करके अनिर्वचनीय सत्ता के साथ अपने तादात्म्य को जान लेता है तथा अपने पृथक् अस्तित्व को उस परात्पर एकता में विलीन कर देता है । सदा व्यक्ति अर्थात् ' आत्मा' ही, जो अपने अनुभव में प्रकृति के द्वारा सीमित होता है और उसीकी रचनाओं के द्वारा कार्य करता है असीमित, मुक्त और परात्पर ' आत्मा' को प्राप्त करता है ।

 

     योगाभ्यास के सम्भव हो सकने के लिये क्रियात्मक दृष्टि से तीन विचार आवश्यक हैं । वस्तुत: इस प्रयत्न के लिये तीन पक्षों को अपनी सम्मति देनी होगी- भगवान्, प्रकृति और मानव-आत्मा, अधिक गहन भाषा में इन्हें 'परात्पर सत्ता ', 'वैश्व सत्ता' और व्यक्ति भी कह सकते हैं । यदि व्यक्ति और प्रकृति अपने भरोसे ही छोड़ दिये जाएं तो उनमेंसे एक दूसरे के साथ बंध जाता है और दूसरे की मन्द गति के कारण अधिक आगे बढ़ने में समर्थ नहीं होता । यहीं आकर किसी

 


 

परात्पर वस्तु की आवश्यकता पड़ती है जो उससे स्वतन्त्र और बड़ी हो, जो हमपर और उसपर भी कार्य कर सके और जो हमें ऊपर अपनी ओर खींच सके तथा प्रकृति से, उसकी अपनी प्रसन्नता से या बलपूर्वक, वैयक्तिक आरोहण के लिये उसकी स्वीकृति मांग सके ।

 

     यही सत्य योग के प्रत्येक दार्शनिक सिद्धान्त के लिये ईश्वर, भगवान् सर्वोच्च आत्मा या सर्वोच्च सत्ता के विचार को आवश्यक बना देता है । इसी सर्वोच्च सत्ता की प्राप्ति के लिये प्रयत्न किया जाता है और यही एक प्रकाशप्रद सम्पर्क तथा उसे प्राप्त करने की शक्ति प्रदान करता है । उतना ही सच्चा योग का वह पूरक विचार है जिसे भक्तियोग ने बार-बार लागू किया है अर्थात् यह विचार कि जिस प्रकार परात्पर भगवान् व्यक्ति के लिये आवश्यक हैं और व्यक्ति उसकी खोज करता है उसी प्रकार व्यक्ति भी एक प्रकार से भगवान् के लिये आवश्यक है और भगवान् उसकी खोज करते हैं । यदि भक्त भगवान् की खोज एवं अभिलाषा करता है तो भगवान् भी भक्त की खोज और अभिलाषा करते हैं । ज्ञान-प्राप्ति के अभिलाषी मानव-जिज्ञासु के बिना, ज्ञान के सवोंच्च विषय के बिना तथा व्यक्ति के द्वारा ज्ञान की वैश्व क्षमताओं के दिव्य प्रयोग के बिना 'ज्ञान-योग' का अस्तित्व नहीं हो सकता । भगवान् के मानव-प्रेमी के बिना, प्रेम और आनन्द के सर्वोच्च उद्देश्य के बिना तथा व्यक्ति के द्वारा आध्यात्मिक, भाविक और सौन्दर्यात्मक उपभोग की वैश्व क्षमताओं के दिव्य प्रयोग के बिना भक्तियोग का अस्तित्व नहीं हो सकता । मानव कार्यकर्ता के बिना, सर्वोच्च संकल्पशक्ति के बिना, समस्त कर्मों और यज्ञों के स्वामी के बिना और व्यक्ति के द्वारा शक्ति और कर्म की वैश्व क्षमताओं के दिव्य प्रयोग के बिना कोई कर्मयोग नहीं हो सकता । वस्तुओं का उच्चतम सत्य-सम्बन्धी हमारा बौद्धिक विचार कितना भी एकेश्वरवादी क्यों न हो, क्रियात्मक रूप में हमें इस सर्वव्यापक त्रिविध सत्ता को स्वीकार करना ही पड़ता है ।

 

     कारण, मानव और वैयक्तिक चेतना का दिव्य चेतना के साथ सम्बन्ध ही योग का सार-तत्त्व है । जो चीज विश्व की क्रीड़ा में अलग हो गयी थी उसका अपनी सच्ची सत्ता के साथ, अपने स्त्रोत और अपनी वैश्वता के साथ मेलइसीका नाम योग है । यह सम्बन्ध किसी भी समय तथा जटिल और गहनतः-संघटित चेतना के किसी भी स्थल पर हो सकता है, इसी चेतना को हम अपना व्यक्तित्व कहते हैं । यह भौतिक चेतना में शरीर के द्वारा चरितार्थ किया जा सकता है, प्राण में यह उन व्यापारों की क्रिया के द्वारा साधित होता है जो हमारी स्नायविक सत्ता की अवस्था और अनुभवों को निर्धारित करते हैं, जब कि मन में यह भाविक हृदय, सक्रिय संकल्पशक्ति अथवा विवेकशील मन के द्वारा साधित होता है, अधिकांश में यह 

 

   भक्त अर्थात् भगवान् का अनुरागी या प्रेमी; भगवान अर्थात् परमात्मा, प्रेम और आनन्द का स्वामी; त्रिविधसत्ता में से तीसरी सत्ता है, अर्थात् प्रेम का दिव्य प्रकट रूप |

 

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मानसिक चेतना के उसकी समस्त क्रियाओं में एक सामान्य रूपान्तर के द्वारा साधित होता है । यह सम्बन्ध वैश्व या परात्पर 'सत्य' और ' आनन्द' के प्रति सीधी जागृति के द्वारा और मन में केंद्रीय अहंभाव को परिवर्तित करके किया जा सकता है । इस सम्बन्ध को जिस स्थल पर हम स्थापित करना चाहेंगे वही हमारे योग का रूप निर्धारित करेगा ।

 

     कारण, यदि हम भारत में प्रचलित योग की प्रमुख प्रणालियों की विशिष्ट प्रक्रियाओं की जटिलताओं को एक ओर रखकर अपनी दृष्टि उनके केन्द्रीय विचार पर रखें तो हमें पता लगेगा कि वे एक ऐसे आरोहणकारी क्रम में अपने-आपको संगठित करती हैं जो सीढ़ी के सबसे निचले सोपान अर्थात् शरीर से आरम्भ होकर वैयक्तिक आत्मा और परात्पर और वैश्व सत्ता के अन्तर्वर्ती सीधे सम्बन्ध तक जाता है | हठयोग शरीर और प्राणिक क्रियाओं को पूर्णता और सिद्धि प्राप्त करने के अपने यन्त्रों के रूप में चुनता है, उसका सम्बन्ध स्थूल शरीर के साथ होता है । राजयोग मानसिक सत्ता को, उसके विभिन्न अंगों समेत, अपनी मुख्य शक्ति के रूप में चुनता है; वह सूक्ष्म शरीर पर अपने-आपको एकाग्र करता है । कर्म, प्रेम और ज्ञान का त्रिविध मार्ग, मानसिक सत्ता के एक भाग को, संकल्प-शक्ति, हृदय या बुद्धि को प्रारम्भिक बिन्दु के रूप में प्रयुक्त करता है और मुक्तिदायक 'सत्य', आनन्द और असीमता पाने के लिये उसका रूपान्तर करना चाहता है, ये सत्य, आनन्द और असीमता ही आध्यात्मिक जीवन के प्रारूप के अंग हैं । इसकी प्रणाली व्यक्ति के शरीर में मानव पुरुष और उस दिव्य 'पुरुष' के बीच प्रत्यक्ष आदान- प्रदान की होती है जो प्रत्येक शरीर में निवास करता है, पर फिर भी समस्त रूप और नाम से आगे निकल जाता है ।

 

     हठयोग का लक्ष्य प्राण और शरीर पर विजय प्राप्त करना है और जैसा कि हम देख चुके हैं, इनका संयोग अन्नकोष और प्राणकोष के रूप में स्थूल शरीर का निर्माण करता है; प्राण और शरीर का सन्तुलन ही मानवी सत्ता में प्रकृति के समस्त कार्यों का आधार है । प्रकृतिद्वारा स्थापित सन्तुलन सामान्य अहंकारयुक्त जीवन के लिये तो पर्याप्त है, किन्तु वह हठयोगी के उद्देश्य को पूरा करने के लिये काफी नहीं है । कारण, उसका हिसाब उतनी ही प्राणिक या सक्रिय शक्ति पर लगाया जाता है जितनी की आवश्यकता मानवजीवन के सामान्य काल में भौतिक इंजिन को चलाने के लिये या उन विभिन्न कार्यों को थोड़ा-बहुत यथार्थ रूप में करने के लिये पड़ती है जिनकी मांग उससे इस शरीर में निवास करनेवाला वैयक्तिक प्राण और उसे सीमित करनेवाली जगत्-परिस्थिति करते हैं । अतएव हठयोग प्रकृति में शोधन करना चाहता है तथा एक ऐसा अन्य सन्तुलन स्थापित करना चाहता है जिसके द्वारा यह भौतिक ढांचा प्राण की वृद्धिशील प्राणिक या सक्रिय शक्ति के वेगवान् प्रवाह का सामना करने में समर्थ हो जायगा; यह शक्ति अपनी मात्रा और वेग में वस्तुतः

 

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अनिश्चित और असीमप्राय है । प्रकृति में यह सन्तुलन प्राण की एक सीमित मात्रा और शक्ति के मूर्तीकरण पर आधारित है । इससे अधिक शक्ति को व्यक्ति अपने व्यक्तिगत और पैतृक अभ्यास के कारण न तो सह सकता है और न ही उसे प्रयुक्त या नियन्त्रित कर सकता है । हठयोग में यह सन्तुलन वैयक्तिक प्राण-शक्ति को व्यापक बनाने के लिये एक द्वार खोल देता है, वह शरीर में वैश्व शक्ति की एक बहुत ही कम रूढ़ और सीमित क्रिया को प्रवेश करने देता है तथा उसे अपने अन्दर धारण करके प्रयुक्त एवं नियन्त्रित करता है ।

 

     हठयोग की मुख्य क्रियाएं 'आसन' और 'प्राणायाम' हैं । अनेक आसनों अर्थात् बैठने की नियत स्थितियों के द्वारा वह पहले शरीर को चंचलता से मुक्त करता है । यह चंचलता इस बात का संकेत है कि वह उन प्राणिक शक्तियों को जो उसमें वैश्व जीवन के महासागर से प्रविष्ट हुई हैं कर्म और गति में चरितार्थ किये बिना अपने अन्दर धारण करने में असमर्थ है । इसके बाद हठयोग शरीर को एक असाधारण प्रकार का स्वास्थ्य, बल तथा नमनीयता प्रदान करता है तथा उसे उन रूढ़ अभ्यासों से मुक्त कर देता है जो उसे साधारण भौतिक प्रकृति से बांधे रखते हैं और उसे उसकी सामान्य क्रियाओं की तंग सीमाओं में घेरे रहते हैं । हठयोग की प्राचीन परंपरा में लोग सदा ही यह मानते थे कि यह विजय इतनी दूर तक ले जायी जा सकती है कि वह काफी हद तक गुरुत्व-शक्ति पर भी विजय प्राप्त कर ले । हठयोगी का अगला कदम है विभिन्न प्रकार की गौण परन्तु जटिल प्रक्रियाओं के द्वारा शरीर को समस्त अपवित्रताओं से मुक्त करना तथा स्नायविक प्रणाली को श्वास-प्रश्वास के उन व्यापारों की सहायता से निर्बाध रखना जो उसके अत्यधिक महत्त्वपूर्ण यन्त्र हैं । इन्हें प्राणायाम कहते हैं अर्थात् श्वास अथवा प्राणिक शक्ति का नियन्त्रण, क्योंकि श्वास लेना प्राणिक शक्तियों की मुख्य भौतिक क्रिया है । पहले यह शरीर की पूर्णता को संपन्न करता है : प्राणिक शक्ति भौतिक प्रकृति की बहुत- सी साधारण आवश्यकताओं से मुक्त हो जाती है और व्यक्ति बढ़िया स्वास्थ्य, लंबा यौवन और प्रायः ही असाधारण रूप से लंबी आयु प्राप्त कर लेता है । दूसरी ओर, प्राणायाम प्राणकोष में प्राणिक सक्रियता की सर्पाकार कुंडलिनी-शक्ति को जगा देता है तथा योगी के सामने चेतना के ऐसे क्षेत्र, अनुभव की ऐसी शृंखलाएं तथा असामान्य शक्तियां खोलकर रख देता है जो सामान्य मानव-जीवन में प्राप्त नहीं होतीं, साथ ही वह उन सामान्य शक्तियों एवं क्षमताओं को भी जो उसके पास पहले से हैं अतिशय सबल बना देता है । हठयोगी को कुछ और भी गौण प्रक्रियाएं सुलभ हैं जिनके द्वारा वह इन लाभों को स्थिर एवं पुष्ट कर सकता है ।

 

     हठयोग के परिणाम देखने में बहुत विशेष प्रकार के प्रतीत होते हैं तथा स्थूल अथवा भौतिक मन पर प्रबल प्रभाव डालते हैं । पर अन्त में यह प्रश्र उठ सकता है कि इतने बड़े परिश्रम के बाद हमें मिला क्या? भौतिक प्रकति का उद्देश्य

 

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अर्थात् केवल भौतिक जीवन की सुरक्षा, उसकी उच्चतम पूर्णता, बल्कि कुछ हद तक भौतिक जीवन का अधिक उपभोग करने की सामर्थ्यये वस्तुएं असाधारण मात्रा मैं प्राप्त की जा चुकी हैं । किन्तु हठयोग की दुर्बलता इस बात में है कि इसकी श्रमपूर्ण एवं कठिन प्रक्रियाएं इतने समय और शक्ति की मांग करती हैं तथा मनुष्य के सामान्य जीवन से उसे इतने पूर्ण रूप से अलग होने को बाध्य करती हैं कि जगत् के जीवन के लिये इसके परिणामों की उपयोगिता या तो प्रयोग में ही नहीं लायी जा सकती या फिर वह असाधारण रूप से सीमित होती है । यदि हम इस हानि के बदले अन्दर के एक अन्य जगत् में एक अन्य जीवन अर्थात् मानसिक या सक्रिय जीवन प्राप्त करना चाहें तो ये परिणाम दूसरी प्रणालियों अर्थात् राजयोग और तन्त्रों से भी बहुत कम श्रमपूर्ण साधनों द्वारा प्राप्त हो सकते हैं और इन्हें स्थिर रखने के लिये इतने कठोर नियमों का पालन भी नहीं करना पड़ता । बल्कि, इन भौतिक परिणामों अर्थात् प्राणिक शक्ति की बहुलता, लंबा यौवन, स्वास्थ्य तथा लंबी आयु का लाभ बहुत ही कम होगा, यदि हम सामान्य जीवन से अलग रहकर इन्हींकी खातिर इन्हें कंजूसों की तरह पकड़े रहें, इनका उपयोग न करें या इनका प्रयोग संसार के सामान्य कार्यों के लिये न करें । हठयोग बहुत बड़े परिणाम प्राप्त कर लेता है, परन्तु बहुत ही असाधारण मूल्य पर और बड़े छोटे-से उद्देश्य की खातिर ।

 

     राजयोग इससे ऊंची उड़ान भरता है । इसका उद्देश्य शारीरिक सत्ता की मुक्ति और पूर्णता को नहीं, बल्कि मानसिक सत्ता की मुक्ति और पूर्णता को नहीं, बल्कि मानसिक और पूर्णता को भी प्राप्त करना है तथा भाविक और संवेदनशील प्राण पर नियन्त्रण स्थापित करना एवं विचार और चेतना के समस्त यन्त्र पर प्रभुत्व पाना है । यह अपनी दृष्टि चित्त पर एकाग्र करता है जो मानसिक चेतना का एक ऐसा संघात है जिसमें ये समस्त क्रियाएं उठती हैं । जिस प्रकार हठयोग अपने भौतिक उपादान को शुद्ध एवं शांत करना चाहता है उसी प्रकार राजयोग भी मन को पवित्र और शांत बनाना चाहता है । मनुष्य की सामान्य अवस्था व्याकुलता और अस्तव्यस्तता की अवस्था है, यह एक ऐसा राज्य है जो या तो अपने-आपसे युद्ध करता रहता है या जो बुरी प्रकार शासित होता है । कारण, यहां स्वामी अर्थात् 'पुरुष' अपने मन्त्रियों अर्थात् अपनी शक्तियों के अधीन रहता है, बल्कि अपनी प्रजा के अर्थात् अपने सम्वेदन, भाव, कर्म और उपभोग के यन्त्रों के अधीन रहता है । वस्तुत: इस अधीनता के बदले अपने राज्य अर्थात् अपनी आत्मा के राज्य की स्थापना होनी चाहिये । अतएव सबसे पहले अव्यवस्था की शक्तियों पर व्यवस्था की शक्तियों को विजय प्राप्त करने के लिये सहायता मिलनी चाहिये । राजयोग की प्रारम्भिक क्रिया एक सतर्क आत्मनियन्त्रण की क्रिया होती है जिसके द्वारा निम्न स्नायविक सत्ता को सन्तुष्ट करनेवाली नियमरहित क्रियाओं के स्थान पर मन के अच्छे अभ्यास डाले जाते हैं ।

 

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सत्य के अभ्यास से, अहंकारयुक्त खोज के समस्त रूपों के त्याग से, दूसरों को हानि न पहुंचाने की प्रवृत्ति से और पवित्रता से तथा सतत ध्यान एवं उस दिव्य पुरुष की ओर आकर्षण से जो मानसिक राज्य का सच्चा स्वामी है, मन और हृदय की एक शुद्ध, प्रसन्न और निर्मल अवस्था स्थापित हो जाती है ।

 

     किन्तु यह केवल पहला कदम है । इसके बाद मन और इन्द्रियों की सामान्य क्रियाओं को पूर्ण रूप से शांत बना देना चाहिये जिससे आत्मा चेतना की उच्चतर स्थितियों तक आरोहण करने के लिये स्वतन्त्र हो सके और एक पूर्ण स्वाधीनता और आत्म-संयम के लिये आधार स्थापित कर सके; किन्तु राजयोग यह नहीं भूलता कि सामान्य मन की अयोग्यता इस बात में है कि वह स्नायविक प्रणाली और शरीर की प्रतिक्रियाओं के अधीन रहता है । इसीलिये वह हठयोग की पद्धति से उसके आसन और प्राणायाम के ढंग ग्रहण कर लेता है; किन्तु साथ ही वह प्रत्येक दशा में उनके अनेक और जटिल रूपों को एक ऐसी अत्यधिक सरल पर प्रत्यक्षत: प्रभावशाली प्रक्रिया में बदल देता है जो उसकी तात्कालिक उद्देश्य-प्राप्ति के लिये पर्याप्त होती है । इस प्रकार वह हठयोग की जटिलता और बोझिलपने से मुक्त रहकर उसकी प्रणालियों के द्रुत और शक्तिशाली प्रभाव का उपयोग कर लेता है, यह वह शारीरिक और प्राणिक व्यापारों के नियन्त्रण तथा उस आन्तरिक गतिशीलता को प्राप्त करने के लिये करता है जो एक प्रसुप्त पर असाधारण शक्ति से परिपूर्ण होती है; यौगिक भाषा में यह कुंडलिनी के नाम से प्रसिद्ध है अर्थात् अन्दर की कुंडलित और प्रसुप्त सर्पाकार शक्ति । जब यह हो जाता है तो यह प्रणाली और आगे बढ़ती है और अशान्त मन को पूर्णतया शान्त बना देती है तथा उसे समाधि तक पहुंचानेवाली क्रमिक अवस्थाओं में से गुजारते हुए मानसिक शक्ति की एकाग्रता के द्वारा उच्चतर स्तर तक ले जाती है ।

 

     'समाधि' में मन अपनी सीमित और सजग क्रियाओं से निकलकर चेतना की अधिक मुक्त और उच्च अवस्थाओं में प्रवेश करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है । इसके द्वारा राजयोग दो उद्देश्य सिद्ध करता है; प्रथम तो वह एक ऐसे विशुद्ध मानसिक कर्म को अपने क्षेत्र के अन्दर ले आता है जो बाह्य चेतना की अस्तव्यस्तताओं से मुक्त होता है और तब वह वहां से उन उच्चतर अतिमानसिक स्तरों तक पहुंच जाता है जहां वैयक्तिक आत्मा सच्चे आध्यात्मिक अस्तित्व में प्रवेश करती है । साथ ही वह अपने विषय पर चेतना की उस मुक्त और एकाग्र शक्ति के प्रभाव को भी प्राप्त कर लेता है जिसे हमारा दर्शनशास्त्र प्रारम्भिक वैश्व शक्ति का नाम देता है और जिसे वह जगत् पर भागवत कार्य करने की प्रणाली मानता है, इसी शक्ति के द्वारा योगी, जो समाधि-अवस्था में उच्चतम अति-वैश्व ज्ञान और अनुभव को पहले से ही प्राप्त कर चुका होता है, जागृत अवस्था में भी उस ज्ञान को सीधा प्राप्त कर सकता है तथा उस आत्म-संयम का प्रयोग कर सकता है जो

 

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भौतिक जगत् में उसकी क्रियाओं के लिये लाभदायक या आवश्यक हो सकते हैं । कारण, राजयोग की प्राचीन प्रणाली का उद्देश्य केवल 'स्वराज्य' या आन्तरिक  'प्रभुत्व' या अपने ही प्रदेश के समस्त क्षेत्रों और क्रियाओं पर आन्तरिक चेतना के द्वारा पूर्ण नियन्त्रण ही नहीं था, बल्कि 'साम्राज्य' अर्थात् बाह्य या आन्तरिक चेतना के द्वारा अपनी बाह्य क्रियाओं और परिस्थितियों पर भी नियन्त्रण था ।

 

     हम देखते हैं कि जिस प्रकार हठयोग प्राण और शरीर के साथ व्यवहार करते हुए शारीरिक जीवन और उसकी सामर्थ्यों की असाधारण पूर्णता को अपना उद्देश्य मानता है तथा उससे भी आगे जाकर मानसिक जीवन के क्षेत्र में प्रवेश करता है, उसी प्रकार राजयोग जिसका क्षेत्र मन है मानसिक जीवन की क्षमताओं की असाधारण पूर्णता और विस्तार को अपना लक्ष्य मानता है और फिर उससे आगे जाकर आध्यात्मिक जीवन के क्षेत्र में प्रवेश करता है । किन्तु इस प्रणाली में एक कमजोरी है कि यह समाधि की असामान्य अवस्थाओं पर बहुत अधिक निर्भर रहती है । इस कमजोरी का एक परिणाम यह होता है कि मनुष्य भौतिक जीवन से अलग-सा हो जाता है जब कि वही उसका आधार और क्षेत्र है और उसीमें उसे अपनी मानसिक और आध्यात्मिक उपलब्धियां प्राप्त करनी है । विशेषकर, आध्यात्मिक जीवन इस प्रणाली में समाधि की अवस्था से अत्यधिक जुड़ा होता है । हमारा उद्देश्य आध्यात्मिक जीवन और उसके अनुभवों को पूर्णतया सक्रिय बनाना है तथा जाग्रत् अवस्था में, साथ ही क्रियाओं के सामान्य प्रयोग में भी उन्हें पूर्णतया उपयोगी बनाना है । किन्तु राजयोग में यह उद्देश्य हमारे समस्त जीवन में उतरकर उसे अधिकृत करने के स्थान पर हमारी सामान्य अनुभूतियों के पीछे गौण स्तर पर ही रुक जाता है ।

 

     उधर भक्ति, ज्ञान और कर्म का त्रिविध मार्ग उस प्रदेश को हस्तगत करने का प्रयत्न करता है जिसे राजयोग ने विजित नहीं किया । यह राजयोग से इस बात में भिन्न है कि यह समूची मानसिक प्रणाली की विस्तृत शिक्षा को पूर्णता की शर्त नहीं मानता और इसलिये उसमें व्यस्त नहीं होता, बल्कि यह कुछ केन्द्रीय तत्त्वों को अर्थात् बुद्धि, हृदय और संकल्प-शक्ति को अपने हाथ में ले लेता है और उन्हें उनकी सामान्य और बाह्य क्रियाओं और व्यापारों से परे हटाकर और भगवान् पर केन्द्रित कर रूपान्तरित करना चाहता है । यह उससे इस बात में भी भिन्न है कि यह मानसिक और शारीरिक पूर्णता के प्रति उदासीन है तथा केवल पवित्रता को भागवत सिद्धि की शर्त मानकर उसीको अपना उद्देश्य मानता है और यहां इसमें पूर्णयोग के दृष्टिकोण से एक दोष देखने में आता है । दूसरा दोष यह है कि जिस प्रकार आजकल उसका अभ्यास किया जाता है उसके अनुसार वह तीन समानान्तर मार्गों में से किसी ऐसे मार्ग को चुनता है जो अनन्य रूपसे और प्रायः ही दूसरे मार्गों का विरोधी होता है जब कि उसका कार्य एक पूर्ण दिव्य प्राप्ति में बुद्धि,

 

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हृदय और संकल्प-शक्ति का एक समन्वयात्मक सामंजस्य साधित करना था ।

 

     ज्ञान के मार्ग का उद्देश्य एकमेव और सर्वोच्च 'सत्ता' की प्राप्ति है | यह बौद्धिक चिन्तन अर्थात् विचार की प्रणाली के द्वारा यथार्थ विवेक-बुद्धि की ओर बढ़ता है । यह हमारी ऊपरी अथवा दृश्यमान सत्ता के विभिन्न तत्त्वों का निरीक्षण करता है तथा उनमें विभेद करता है और उन सबसे अलग रहता हुआ उनके परस्पर-विरोध और पार्थक्य के सिद्धान्त पर पहुंचता है । ये विभिन्न तत्त्व प्रकृति के अर्थात् दृश्यमान प्रकृति के अंगों के रूप में और माया अर्थात् बाह्य चेतना की रचनाओं के रूप में एक ही परम तत्त्व में उपस्थित हैं । इस प्रकार यह एकमेव 'सत्ता' के साथ अपना ऐसा यथार्थ तादात्म्य स्थापित कर सकता है जो न तो बदल सकता है और न नष्ट हो सकता है और जो न किसी एक तथ्य से या तथ्यों के संघात से निर्धारित किया जा सकता है । इस दृष्टिकोण से इस मार्ग का, जिसका साधारणतया अनुसरण किया जाता है, परिणाम यह होता है कि दृश्यमान लोकों को भ्रान्ति समझकर चेतना से बहिष्कृत कर दिया जाता है और व्यक्तिगत आत्मा सर्वोच्च सत्ता में अन्तिम रूप में लीन हो जाती है और फिर वहां से नहीं लौटती ।

 

     किन्तु यह एकाङ्गी अत्युच्च अवस्था ही ज्ञान के मार्ग का अकेला या अनिवार्य परिणाम नहीं । कारण, यदि इसका अनुसरण अधिक विस्तृत रूप से, और वैयक्तिक उद्देश्य से कम प्रेरित होकर किया जाय तो ज्ञान की पद्धति का परिणाम केवल परात्परता की प्राप्ति ही नहीं, बल्कि भगवान् के लिये वैश्व सत्ता पर सक्रिय विजय प्राप्त करना भी होगा । इस अतिक्रम का मुख्य अभिप्राय होगाअपनी सत्ता में ही नहीं, बल्कि सब सत्ताओं में सर्वोच्च सत्ता की प्राप्ति और अन्त में तो जगत् के दृश्यमान रूपों की भी प्राप्ति, पर यह होगी दिव्य चेतना की एक क्रीड़ा के रूप में ही; यह कोई ऐसी वस्तु नहीं होगी जो उसके सच्चे स्वभाव के सर्वथा प्रतिकूल हो । इस प्राप्ति के आधार पर एक और आगे की उन्नति भी सम्भव है, अर्थात् ज्ञान के सब रूप, चाहे वे कितने ही सांसारिक क्यों न हों, दिव्य चेतना की क्रियाओं में बदल जायेंगे; ये रूप ज्ञान के एक अखंड ध्येय को अनुभव करने के लिये प्रयुक्त किये जायेंगे और यह अनुभव उसके अपने अन्दर और उसके रूपों और प्रतीकों की क्रीड़ा में प्राप्त किया जायगा | इस प्रणाली का यह परिणाम निकल सकता है कि मानव बुद्धि और बोध का समस्त क्षेत्र ही दिव्य स्तर तक ऊंचा उठ जाय तथा आध्यात्मिक बनकर मनुष्य-जाति में ज्ञान के वैश्व प्रयास की सार्थकता को सिद्ध कर दे ।

 

     भक्ति का मार्ग सर्वोच्च 'प्रेम' और 'आनन्द' के उपभोग को अपना उद्देश्य मानता है और सामान्य रूप से सर्वोच्च प्रभु के व्यक्तित्व के विचार को स्वीकार करके उसका उपयोग करता है, साथ ही वह उन्हें दिव्य प्रेमी और विश्व का भोक्ता भी मानता है | तब जगत् उस प्रभु की क्रीड़ा के रूप में दिखाई देता है और

 

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     मानव-जीवन उसकी अन्तिम अवस्था जान पड़ती है, इसका अनुसरण लुका-छिपी अर्थात् आत्मगोपन और आत्मप्रकाश के विभिन्न रूपों के द्वारा किया जाता है । भक्तियोग मानव-जीवन के उन सब सामान्य सम्पर्कों का उपयोग करता है जिनमें भावावेश उपस्थित रहता है और जिन्हें वह अब अस्थिर सांसारिक सम्बन्धों पर लागू नहीं करता, बल्कि 'सर्व-प्रेम', 'सर्व-सुन्दर' और 'सर्व-आनन्दमय सत्ता' की प्रसन्नता के लिये प्रयुक्त करता है । पूजा और ध्यान केवल भगवान् के साथ सम्बन्ध स्थापित करने की तैयारी के लिये और साथ ही उसे तीव्रता प्रदान करने के लिये किये जाते हैं । यह योग समस्त भाविक सम्बन्धों के प्रयोग में बहुत उदार है; यहां तक कि भगवान् के प्रति शत्रुता और विरोध को भी, जो प्रेम के ही तीव्र, अधीर और विकृत रूप समझे जाते हैं, सिद्धि और मुक्ति का एक सम्भव साधन स्वीकार किया जाता है । इस मार्ग का सामान्यतया जैसा अभ्यास किया जाता है उसके अनुसार यह भी मनुष्य को जगत् के अस्तित्व से दूर, परात्पर और अति-वैश्व सत्ता में लीन होने की अवस्था तक ले जाता है जो अद्वैतवादी की लीनता से भिन्न प्रकार की होती है ।

 

     किन्तु यहां भी एकपक्षीय परिणाम अनिवार्य नहीं है । योग इस गलती को सर्वप्रथम इस प्रकार सुधारता है कि वह दिव्य प्रेम की क्रीड़ा को सर्वोच्च आत्मा और व्यक्ति के सम्बन्ध तक सीमित नहीं रखता, बल्कि उसे उस भावना और पारस्परिक पूजा तक ले जाता है जो सर्वोच्च प्रेम और आनन्द की उसी उपलब्धि के लिये एकत्र हुए भक्तों के बीच एक-दूसरे के प्रति पायी जाती है । एक अधिक सामान्य संशोधन वह और भी उपस्थित करता है कि प्रेम का दिव्य उद्देश्य समस्त सत्ताओं में, मनुष्य में ही नहीं बल्कि पशु में भी चरितार्थ हो जाता है, इसकी पहुंच सभी साकार पदार्थों तक सरलता से हो सकती है । हम देख सकते हैं कि भक्तियोग को इतने व्यापक क्षेत्र में प्रयुक्त किया जाता है कि वह मानव भाव, सम्वेदन और सौन्दर्यात्मक बोध के समस्त क्षेत्र को दिव्य स्तरतक, उसके आध्यात्मीकरण तथा मनुष्यजाति में प्रेम और आनन्द के लिये किये गये वैश्व प्रयत्न की सार्थकता तक ले जाता है ।

 

     कर्म के मार्ग का उद्देश्य है मनुष्य के प्रत्येक कर्म का सर्वोच्च संकल्पशक्ति के प्रति समर्पण । इसका आरम्भ कर्म के समस्त अहंभावयुक्त उद्देश्य के त्याग से और स्वार्थपूर्ण उद्देश्य की, किसी सांसारिक परिणाम की खातिर किये गये कर्म के त्याग से होता है । इस त्याग के द्वारा वह मन और संकल्पशक्ति को इतना शुद्ध कर लेता है कि हम सरलता से उस महान् वैश्व 'शक्ति' के प्रति सचेतन हो जाते हैं तथा उसे ही अपने समस्त कार्यों का सच्चा कर्त्ता मानने लगते हैं, साथ ही हम उस शक्ति के स्वामी को कर्मों का शासक और संचालक भी मानते हैं जब कि व्यक्ति केवल ऊपरी आवरण या बहाना होता है, एक यन्त्र या, अधिक निश्चित रूप में

 

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कहें तो, कर्म और दृश्यमान सम्बन्ध का एक चेतन केन्द्र मात्र होता है । कर्म का चुनाव और उसकी दिशा अधिकाधिक चेतन रूप में इसी सर्वोच्च संकल्पशक्ति और वैश्व 'शक्ति' पर छोड़ दिये जाते हैं । इसीको हमारे कर्म और हमारे कर्मों के परिणाम अन्तर में समर्पित कर दिये जाते हैं । इसमें लक्ष्य यह होता है कि आत्मा बाह्य प्रतीतियों और दृश्यमान व्यापारों की प्रतिक्रियाओं के बंधन से छूट जाय । दूसरे मार्गों की तरह कर्मयोग का उपयोग भी दृश्यमान अस्तित्व से मुक्ति पाने और सर्वोच्च सत्ता में प्रवेश करने के लिये किया जाता है । किन्तु यहां भी एकांगी परिणाम अनिवार्य नहीं । इस मार्ग का अन्त भी समस्त शक्तियों में, समस्त घटनाओं और समस्त कार्यों में दिव्य सत्ता का बोध और वैश्व कर्म में आत्मा का स्वतन्त्र और निरभिमान सहयोग हो सकता है । यदि इसका इस प्रकार अनुसरण किया जाय तो इसका परिणाम यह होगा कि समस्त मानव-संकल्प-शक्ति और क्रिया दिव्य स्तर तक पहुंच जायगी, आध्यात्मिक बन जायगी तथा मानव-सत्ता में स्वतन्त्रता, शक्ति और पूर्णता के लिये किये गये प्रयास के औचित्य को सिद्ध कर देगी ।

 

     हम यह भी देख सकते हैं कि यदि वस्तुओं को सर्वांगीण दृष्टि से देखा जाय तो ये तीनों रास्ते एक ही हैं । सामान्यतया दिव्य प्रेम को पूर्ण घनिष्ठता के द्वारा 'प्रिय ' का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होगा, इस प्रकार वह 'ज्ञान' का मार्ग होगा । उसका ध्येय दिव्य सेवा भी होगा और तब वह 'कर्म' का मार्ग बन जायगा । इसी प्रकार, पूर्ण 'ज्ञान ' पूर्ण 'प्रेम' और ' आनन्द' को जन्म देगा तथा ज्ञात 'सत्ता' के 'कर्मो को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लेगा । इसी प्रकार समर्पित 'कर्म' 'यज्ञ' के स्वामी के सम्पूर्ण प्रेम को तथा उसके मार्गों और उसकी सत्ता के गहनतम ज्ञान को जन्म देगा । इस त्रिविध मार्ग के द्वारा ही हम समस्त सत्ताओं में तथा 'एकमेव' की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति में उसके पूर्ण ज्ञान, प्रेम और सेवा तक पहुंचते हैं ।

 

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 समन्वय

 

सभी प्रमुख यौगिक प्रणालियों में मनुष्य के जटिल और पूर्ण रूप पर क्रिया की जाती है तथा उसकी उच्चतम सम्भावनाओं को प्रकाश में लाया जाता है । इन प्रणालियों के ऐसे स्वरूप को देखते हुए यह पता लगेगा कि इन सब के समन्वय को यदि विशाल रूप में विचार और प्रयोग में लाया जाय तो इसका परिणाम पूर्णयोग हो सकता है । किन्तु सब अपनी प्रवृत्तियों में इतनी विभिन्न हैं तथा अपने रूपोंमें इतनी अधिक विशिष्ट और जटिल हैं और साथ ही इनके विचारों और पद्धतियों के परस्पर-विरोध को इतने लम्बे समय तक पुष्टि मिलती रही है कि इन्हें यथार्थ रूप से संयुक्त करने की विधि का पता नहीं चलता ।

 

     बिना विचार और विवेक के एक संघात में इनको एकत्र कर देने का अर्थ समन्वय नहीं, बल्कि एक 'गड़बड़झाला' होगा । हमारे मानव-जीवन के इस छोटे से काल में इनका बारी-बारी से अभ्यास करना सहज नहीं है, विशेषतया जब कि हमारी शक्तियां भी सीमित हैं, और इस बोझिल प्रक्रिया में कितना परिश्रम व्यर्थ जायगा इसकी तो बात ही क्या । वस्तुत: कभी-कभी तो हठयोग और राजयोग का बारी-बारी से अभ्यास किया जाता है । अभी हाल में श्रीरामकृष्ण परमहंस के जीवन में इस बात का एक विशेष दृष्टान्त देखने में आया हे : उनमें एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक शक्ति मौजूद थी, जिसने पहले सीधे ही भगवान् की प्राप्ति की, मानो स्वर्ग के राज्य को बलपूर्वक हस्तगत कर लिया और बाद में जिसने हर एक यौगिक प्रणाली का प्रयोग करके द्रुतगति से उसका सार निकाल लिया । उसका उद्देश्य सदा पूरे विषय के अन्तस्तल तक अर्थात् प्रेम की शक्ति के द्वारा, विभिन्न प्रकार के अनुभवों में अन्तर्निहित आध्यात्मिकता के विस्तार तथा एक सहज ज्ञान की स्वाभाविक क्रीड़ा के द्वारा भगवान् की अनुभूति और प्राप्ति तक पहुंचना होता था । पर ऐसे उदाहरण को व्यापक रूप नहीं दिया जा सकता । उसका उद्देश्य भी विशेष और अस्थायी ही था । उसका कार्य एक महान् आत्मा की विशाल और अन्तिम अनुभूति में उस सत्य को सिद्ध करना था जो आजकल मनुष्यजाति के लिये अत्यधिक आवश्यक है तथा जिसे पाने के लिये चिरकाल से विरोधी मतों और सम्प्रदायों में विभाजित संसार कठोर प्रयास कर रहा है । वह सत्य यह है कि सभी सम्प्रदाय एक ही समग्र सत्य के रूप और खण्ड हैं और सभी अनुशासन-प्रणालियां अपने विभिन्न तरीकों से एक ही सर्वोच्च अनुभव की प्राप्ति के लिये श्रम कर रही हैं । भगवान् को जानना, वही बन जाना तथा उन्हें पाना ही एक आवश्यक वसा है; बाकी सब बातें या तो इसके अन्दर आ जाती हैं या इसका परिणाम होती हैं । इसी

 


 

अकेले 'शुभ' की ओर हमें बढ़ना है और यदि इसकी प्राप्ति हो गयी तो बाकी सब जिसे भागवत इच्छा-शक्ति हमारे लिये चुनेगी अर्थात् सब आवश्यक रूप और अभिव्यक्तियां पीछे अपने-आप प्राप्त हो जाएंगी ।

 

     अतएव, जिस समन्वय को हम चाहते हैं वह सब प्रणालियों को संयुक्त कर देने से या उनके क्रमिक अभ्यास से प्राप्त नहीं हो सकता । वह तभी प्राप्त हो सकेगा यदि हम यौगिक अनुशासन-प्रणालियों के रूप और बाह्य प्रकार छोड़कर किसी ऐसे केन्द्रीय सामान्य सिद्धान्त को पकड़ लेंगे जो उचित स्थान और उचित मात्रा में उनके विशिष्ट सिद्धान्तों को अपने अन्दर निहित कर लेगा तथा उनका उपयोग करेगा । हमें इसके लिये किसी केन्द्रीय सक्रिय शक्ति को अपने हाथ में लेना होगा जो उनकी विपरीत प्रणालियों का सर्वसामान्य रहस्य होगी और जो, फलत:, उनकी विविध प्रकार की सामर्थ्यों और विभिन्न उपयोगिताओं को स्वाभाविक चुनाव और संयोग के द्वारा व्यवस्थित करने में समर्थ होगी ।

 

     आरम्भ में जब कि हमने प्रकृति की तथा योग की प्रणालियों का तुलनात्मक विवेचन शुरू किया था तब यही उद्देश्य हमारे सामने था और अब हम इसीकी ओर इस संभावना के साथ लौटते हैं कि इसका शायद कोई निश्चित समाधान निकल आये ।

 

     सब से पहले हम यह देखते हैं कि भारतवर्ष में अब भी ऐसी विलक्षण यौगिक प्रणाली है जिसका स्वभाव समन्वयात्मक है और जो प्रकृति के महान् केन्द्रीय सिद्धान्त से, उसकी महान् सक्रिय शक्ति से आरम्भ होती है । किन्तु यह एक अलग योग-प्रणाली है, अन्य प्रणालियों का संयोग नहीं । यह तन्त्र-मार्ग है । इसकी कुछ विशेष पद्धतियों के कारण उन लोगों के सामने जो लोग तान्त्रिक नहीं हैं इसका गौरव कुछ घट गया है, विशेषतया उसकी वाममार्गी पद्धतियों के कारण ही ऐसा हुआ है; क्योंकि ये पद्धतियां पाप और पुण्य के द्वंद्व को अतिक्रान्त करने से ही सन्तुष्ट नहीं हैं अत: इन्होंने उनकी जगह कर्म-सम्बन्धी सहज यथार्थता स्थापित करने के स्थान पर आत्म-उपभोग की असंयत सामाजिक अनैतिकता की प्रणाली विकसित कर ली प्रतीत होती है । यह सब होते हुए भी अपने मूल में 'तन्त्र' एक महान् और शक्तिशाली प्रणाली थी । यह कुछ ऐसे विचारों पर आधारित थी जिनमें कम-से-कम सत्य का कुछ अंश अवश्य विद्यमान था । दक्षिण और वाम मार्ग में इसका दोहरा विभाजन भी एक गहन अनुभव से ही शुरू हुआ था । 'दक्षिण' और 'वाम' शब्दों के प्राचीन प्रतीकात्मक अर्थ के अनुसार यह विभाजन 'ज्ञान' और ' आनन्द' के मार्गों में था । एक में प्रकृति मनुष्य के अन्दर अपनी शक्तियों, तत्त्वों और शक्यताओं के यथार्थ सैद्धान्तिक और व्यावहारिक विवेक के द्वारा अपने-आपको मुक्त करती है, जब कि दूसरे में वह यह कार्य उसके अन्दर अपनी शक्तियों, तत्त्वों और शक्यताओं की हर्षपूर्ण सैद्धान्तिक और व्यावहारिक स्वीकृति के द्वारा करती है ।

 

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किन्तु अन्त में इन दोनों मार्गों में सिद्धान्त-सम्बन्धी अस्पष्टता, प्रतीकों की विकृति तथा ह्रास की अवस्था पैदा हो गयी थी ।

 

     पर यदि हम यहां भी वर्तमान प्रणालियों और अभ्यासों को एक ओर रखकर केन्द्रीय सिद्धान्त की खोज करें तो हमें सब से पहले यही पता लगेगा कि 'तन्त्र'  'योग' की वैदिक प्रणालियों से स्पष्ट रूप में भिन्न है । एक अर्थ में तो वे सब मत जिनका हमने अबतक निरीक्षण किया है अपने सिद्धान्त में वैदान्तिक हैं; उनकी शक्ति ज्ञान में है, उनकी प्रणाली भी ज्ञान है, यद्यपि यह सदा ही बुद्धिद्वारा प्राप्त नहीं होता, या यह उसके स्थान पर हृदय का एक ऐसा ज्ञान हो सकता है जो कि प्रेम और विश्वास में अभिव्यक्त होता है, या यह संकल्प में स्थित एक ऐसा ज्ञान भी हो सकता है जो कर्मद्वारा चरितार्थ होता है, पर सब में योग का स्वामी 'पुरुष' ही है, वह एक चेतन आत्मा है जो जानती है, निरीक्षण करती है, आकर्षित एवं शासित करती है । किन्तु तन्त्र में प्रकृति ही स्वामिनी होती है, वह 'प्रकृति-आत्मा' अर्थात् शक्ति होती है, यह वस्तुत: विश्व में कार्य करनेवाला शक्तिगत संकल्प होता है । इस संकल्प के अन्तरङ्ग रहस्यों को, इसकी प्रणाली और इसके तन्त्र को सीखकर तथा इनका प्रयोग करके ही तान्त्रिक योगी ने अपनी अनुशासन-सम्बन्धी क्रियाओं के उद्देश्यों अर्थात् स्वामित्व, पूर्णता, मुक्ति और आनन्द को प्राप्त करना चाहा था । अभिव्यक्त 'प्रकृति' और उसकी कठिनाइयों से पीछे हटने के स्थान पर उसने उनका सामना किया था, उन्हें प्राप्त एवं अधिकृत कर लिया था । किन्तु अन्त में, जैसा कि प्रकृति का स्वभाव होता है, तान्त्रिक योग अपनी जटिल यान्त्रिक क्रिया में अपने मूल सिद्धान्त को अधिकतर खो बैठा और उन सूत्रों और गुह्य यान्त्रिक प्रक्रियाओं की वस्तु बन गया जो ठीक प्रकार प्रयुक्त होने से अभी भी फलप्रद तो होती थीं, पर अपने मूल उद्देश्य की स्पष्टता से च्युत हो गयी थीं ।

 

     इस केन्द्रीय तान्त्रिक विचार में हमें सत्य के केवल एक पक्ष का ही आभास मिलता है, बल अर्थात् शक्ति की पूजा; यही शक्ति समस्त प्राप्ति की अकेली और प्रभावकारी प्रेरणा मानी जाती है । दूसरी ओर, शक्ति के वैदान्तिक विचार में, यह 'भ्रम' अर्थात् 'माया' की शक्ति मानी जाती है और शान्त निष्क्रिय 'पुरुष' की खोज में सक्रिय शक्ति से उत्पन्न भ्रान्तियों से मुक्त होने का साधन मानी जाती है, किन्तु एक समग्र विचार में चेतन आत्मा ही स्वामी है, और प्रकृति-आत्मा उसकी कार्यकारिणी शक्ति है, 'पुरुष' की प्रकृति 'सत्' है और यह 'सत्' चेतन, पवित्र और असीम स्वयंभू सत्ता है, 'शक्ति' या 'प्रकृति' का स्वभाव 'चित्' हैयह  'पुरुष' के स्वचेतन, पवित्र और असीम अस्तित्व की शक्ति है । इन दोनों का सम्बन्ध निश्चलता और सक्रियता दो ध्रुवों के बीच में गतिमान रहता है । जब  'शक्ति' चेतन अस्तित्व के आनन्द में लीन रहती है, तो वह निश्चल होती है, जब  'पुरुष' अपनी शक्ति के कार्य में अपने-आपको उंडेलता है तो वह सक्रियता होती

 

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है; यही सक्रियता सृजन और कुछ बनने का आनन्द और आस्वाद होती है । किन्तु यदि 'आनन्द' समस्त अस्तित्व का सृजन करता है या उसे उत्पन्न करता है तो उसकी प्रणाली 'तपस्' अर्थात् 'पुरुष' की चेतना की शक्ति होती है जो सत्ता में रहनेवाली अपनी असीम शक्यता पर कार्य करती है तथा अपने अन्दर से विचारसम्बन्धी सत्य या वास्तविक 'विचार' अर्थात् विज्ञान उत्पन्न करती है । क्योंकि इन विचारों का स्रोत सर्वज्ञ और सर्व-शक्तिमान् 'स्वयंभू-अस्तित्व' में है, इन्हें इस बात का निश्चय है कि इनकी चरितार्थता सम्पन्न हो जायगी । ये अपने अन्दर मन, प्राण और ज पदार्थ के रूप में अपने अस्तित्व का स्वभाव और नियम भी सुरक्षित रखते हैं । 'तपस्' की चरम सर्वशक्तिमत्ता और 'विचार' की अचूक चरितार्थता समस्त योग का आधार है । मनुष्य में हम इन्हें संकल्प-शक्ति और विश्वास का नाम देते हैं, एक ऐसी संकल्प-शक्ति जो अन्त में स्वयं ही प्रभावशाली होती है, क्योंकि वह ज्ञानरूपी तत्त्व से बनी है; एक ऐसा विश्वास जो निम्न चेतना में एक ऐसे 'सत्य' या वास्तविक 'विचार' की सहज क्रिया है जो अभिव्यक्ति में अभी चरितार्थ नहीं हुआ है । 'विचार ' को इसी आत्म-निश्चयता का वर्णन गीता में "यो यच्छ्रदधः स एव स:'' इन शब्दों में किया गया है, अर्थात् ''मनुष्य का जो कुछ भी विश्वास या निश्चयात्मक विचार होता है, वही वह बन जाता है ।''

 

     अतएव, अब हम देखते हैं कि मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से 'प्रकृति' का वह कौन-सा विचार है जिससे हमें अपना कार्य आरम्भ करना है, और योग क्रियात्मक मनोविज्ञान के सिवाय और कुछ है ही नहीं । यह 'पुरुष' की उसकी अपनी 'शक्ति' के द्वारा आत्मचरितार्थता है । किन्तु प्रकृति की क्रिया दोहरी होती है, ऊपर की ओर और नीचे की ओर; इसे यदि हम चाहें तो दिव्य और अदिव्य भी कह सकते हैं । यह विभेद वस्तुतः क्रियात्मक प्रयोजनों के लिये ही किया जाता है, क्योंकि संसार में अदिव्य कुछ नहीं है, यदि एक विशालतर दृष्टिकोण से देखा जाय तो यह भेद शब्दों में वैसा ही अर्थहीन प्रतीत होता है जैसा कि प्राकृतिक और अति-प्राकृतिक में किया गया भेद । कारण, वे सभी वस्तुएं जो अपना अस्तित्व रखती हैं प्राकृतिक हैं । समस्त वस्तुएं प्रकृति में विद्यमान हैं और समस्त वस्तुएं भगवान् में स्थित हैं । किन्तु क्रियात्मक प्रयोजन के लिये वहां एक वास्तविक विभेद उपस्थित रहता है । जिस निम्न प्रकृति को हम जानते हैं और जो हम हैं और जो हमें तबतक रहना ही होगा जबतक कि हमारे अन्दर का विश्वास बदल नहीं जाता, वह सीमाओं और विभाजन के द्वारा कार्य करती है, उसका स्वभाव ' अज्ञान' है, उसकी समाप्ति अहंभाव के जीवन में होती है । किन्तु उच्चतर 'प्रकृति' जिसकी हम अभीप्सा करते हैं एकीकरण के द्वारा तथा सीमाओं को पार करके कार्य करती है; इसका स्वभाव 'ज्ञान' है, इसका चरम रूप दिव्य जीवन में लक्षित होता है । निम्न प्रकृति से उच्च प्रकृति की ओर जाना ही 'योग' का लक्ष्य है । इस लक्ष्य की प्राप्ति

 

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निम्न प्रकृति को त्याग करके उच्च प्रकृति में प्रवेश करने पर भी हो सकती है, जो कि सामान्य दृष्टिकोण है,या फिर यह निम्न प्रकृति का रूपान्तर करने और उसे उच्च 'प्रकृति' में ऊंचा उठाने से भी हो सकती है । वस्तुत: यही पूर्णयोग का उद्देश्य है ।

 

     किन्तु दोनों दशाओं में निम्न प्रकृति के ही किसी भाग से हमें उच्च अस्तित्व तक उठना है और योग की प्रत्येक प्रणाली अपने आरम्भ-बिन्दु या अपनी मुक्ति के द्वार को स्वयं ही चुनती है । ये प्रणालियां निम्न प्रकृति की कुछ क्रियाओं में विशेषता प्राप्त कर लेती हैं और उन्हें भगवान् की ओर मो देती हैं । किन्तु हमारे अन्दर प्रकृति की सामान्य क्रिया एक ऐसी पूर्ण क्रिया है जिसमें हमारे समस्त तत्त्वों की पूर्ण जटिलता हमारे चारों ओर की परिस्थितियों के द्वारा प्रभावित होती है और साथ ही उन्हें प्रभावित भी करती है । समस्त जीवन ही प्रकृति का योग है । जिस योग का हम अनुसरण करना चाहते हैं उसे भी प्रकृति की ही एक सर्वांगीण क्रिया होना चाहिये । योगी और एक सामान्य मनुष्य में सारा भेद ही यह होता है कि योगी अहंभाव और विभाजन के अन्दर और उनके द्वारा कार्य करती हुई निम्न प्रकृति की पूर्ण क्रिया के स्थान पर भगवान् और ऐक्य के अन्दर और उनके द्वारा कार्य करनेवाली उच्च प्रकृति की सर्वांगीण क्रिया अपने अन्दर स्थापित करना चाहता है । वस्तुत: यदि हमारा उद्देश्य संसार से भागकर भगवान् को प्राप्त करना हो तो समन्वय की आवश्यकता ही नहीं रहती और इससे समय भी नष्ट होता है । कारण, तब हमारा एकमात्र क्रियात्मक उद्देश्य भगवान् को प्राप्त करने के हजारों मार्गों में से एक ही मार्ग को ढूंना होना चाहिये, जिसे अधिक-से-अधिक छोटा होना चाहिये और तब विभिन्न मार्गों की खोज करने के लिये ठहरने की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी, क्योंकि ये सब मार्ग एक ही लक्ष्य को जाते हैं, किन्तु यदि हमारा उद्देश्य अपनी सम्पूर्ण सत्ता को भागवत जीवन के अंग-प्रत्यंग में रूपान्तरित करना है तो यह समन्वय आवश्यक हो जाता है ।

 

     और तब हमें इस प्रणाली का अनुसरण करना होगा कि हम अपनी समस्त चेतन सत्ता का भगवान् के साथ सम्बन्ध और सम्पर्क स्थापित करें और उन्हें हमारी सम्पूर्ण सत्ता को अपनी सत्ता में रूपान्तरित करने के लिये अपने अन्दर पुकारें, जिसका यह अर्थ है कि स्वयं भगवान् जो हमारे अन्दर के वास्तविक 'पुरुष' हैं साधना के साधक बन जाने के साथ-साथ योग के स्वामी भी बन जाते हैं और उनके द्वारा तब निम्न व्यक्तित्व एक दिव्य रूपान्तर के केन्द्र के तथा अपनी पूर्णता के यन्त्र के रूप में प्रयुक्त किया जाता है । परिणामत: 'तपस्' का दबाव अर्थात्

 

   'साधना' वह क्रिया है जिसके द्वारा पूर्णता अर्थात् सिद्धि की प्राप्ति होती है । 'साधक' वह योगी है जो इस क्रिया के द्वारा सिद्धि प्राप्त करने का इच्छुक होता है ।

 

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हमारे अन्दर की चेतना-शक्ति जो दिव्य 'प्रकृति' के 'अतिमानसिक विचार' में हमारी सम्पूर्ण सत्ता पर कार्य करती है अपनी चरितार्थता अपने-आप सम्पन्न कर लेती है । दिव्य, सर्वज्ञाता और सर्व-साधक अस्तित्व सीमित और अस्पष्ट सत्ता पर छा जाता है और फिर धीरे- धीरे सम्पूर्ण निम्न प्रकृति को प्रकाश एवं शक्ति प्रदान करता है और निम्न मानव-प्रकाश और मानव-क्रिया के सब रूपों के स्थान पर अपनी क्रिया स्थापित कर देता है ।

 

     मनोवैज्ञानिक तथ्य में यह प्रणाली इस प्रकार लक्षित होती है कि अहंभाव अपने समस्त क्षेत्र और समस्त साधनों के साथ धीरे-धीरे अपने-आपको उस ऊपर के एकमेव ' अहम्' के आगे समर्पित करता जाता है जिसकी क्रियाएं विशाल और अगणित, पर सदा अनिवार्य होती हैं । निश्चय ही यह कोई छोटा-सा रास्ता या कोई सरल साधना नहीं है । इसमें अपार विश्वास की, पूर्ण साहस और, सब से बढ़कर, अडिग धैर्य की आवश्यकता पड़ती है । इसमें तीन अवस्थाएं अन्तर्निहित हैं जिनमेंसे केवल अन्तिम ही पूर्णतया आनन्दपूर्ण या दुत हो सकती है; पहली, अहंभाव का भगवान् के सम्पर्क में आने के लिये किया गया प्रयत्न, दूसरी, दिव्य क्रिया के द्वारा समस्त निम्न प्रकृति की उच्चतर प्रकृति को ग्रहण करने और वही बनने के लिये विशाल, पूर्ण और, इसी कारण, कठिन तैयारी और तीसरी, अन्तिम रूपान्तर । पर सच्ची बात यह है कि दिव्य शक्ति जो प्रायः ही अनजाने में पर्दे के पीछे कार्य करती है स्वयं हमारी दुर्बलता का स्थान ले लेती है और जब-जब हम विश्वास, साहस और धैर्य खो बैठते हैं तब-तब वह हमारी सहायता करती है । वह '' अन्धे को देखने और लँगड़े को पहाड़ पर चढ़ने की सामर्थ्य प्रदान करती है । '' बुद्धि तब ऐसे 'नियम' को जान लेती है जिसका आग्रह कल्याणकारी होता है और एक ऐसे प्रश्रय को भी जो हमें स्थिर रखता है । हृदय तब समस्त वस्तुओं के 'स्वामी ' की, मनुष्य के सखा की या जगत्- 'माता' की चर्चा करता है जो हमें सब चूकों में संभाले रखती है । इसीलिये यह मार्ग अत्यधिक कठिन होते हुए भी अपने प्रयत्न और उद्देश्य की विशालता की तुलना में अत्यधिक सरल और सुनिश्चित है ।

 

     जब उच्च प्रकृति निम्न प्रकृति पर सर्वांगीण रूप में क्रिया करती है तो उसकी क्रिया की तीन महत्त्वपूर्ण विशेषताएं दृष्टि में आती हैं । प्रथम यह कि वह एक स्थिर प्रणाली या क्रम के अनुसार कार्य नहीं करती जैसा कि योग की विशिष्ट प्रणालियों में होता है । वह अपना कार्य एक प्रकार की स्वतन्त्र, विस्तृत पर उत्तरोत्तर प्रभावशाली और उद्देश्यपूर्ण क्रिया के द्वारा करती है जो उस व्यक्ति के स्वभाव के द्वारा निर्धारित होती है जिसमें वह कार्य करती है । उसका निर्धारण उन सहायक साधनों के द्वारा भी होता है जिन्हें व्यक्ति का स्वभाव प्रस्तुत करता है तथा उन बाधाओं के द्वारा भी जो वह पवित्रीकरण और पूर्णता के रास्ते में खड़ी करता है । अतएव, एक प्रकार से इस मार्ग में प्रत्येक मनुष्य की योग-सम्बन्धी अपनी प्रणाली

 

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है । परन्तु फिर भी इस प्रक्रिया की कुछ मोटी-मोटी बातें ऐसी हैं जो सबके लिये समान हैं और जो हमें एक सामान्य प्रणाली बनाने में सहायता तो नहीं देतीं, पर फिर भी किसी शास्त्र या समन्वयात्मक योग की किसी वैज्ञानिक प्रणाली को गढ़ने की सामर्थ्य अवश्य प्रदान करती हैं ।

 

     उच्च प्रकृति की प्रक्रिया सर्वांगीण है, अत: वह हमारी प्रकृति को उसी रूप में स्वीकार कर लेती है जिस रूप में वह हमारे पूर्व विकास के द्वारा संगठित हो चुकी है और फिर वह किसी भी मूल वस्तु को अस्वीकार किये बिना सब कुछ को दिव्य तत्त्व में रूपान्तरित होने को बाध्य करती है । हमारे अन्दर की प्रत्येक वस्तु को एक शक्तिशाली शिल्पी अपने हाथ में लेता है और उसे एक ऐसी वस्तु की स्पष्ट प्रतिमूर्ति में रूपान्तरित कर देता है जिसे वह आज एक अव्यवस्थित ढंग से प्रकट करने की चेष्टा करती है । उस सदा-विकसनशील अनुभव में हम यह देखना प्रारम्भ कर देते हैं कि यह निम्न अभिव्यक्त जगत् किस प्रकार निर्मित हुआ है और इसके अन्दर की सब चीजें चाहे वे देखने में कितनी भी विकृत, तुच्छ या हीन क्यों न लगें, दिव्य 'प्रकृति' के समन्वय में किसी तत्त्व या क्रिया की ही थोड़ी-बहुत विकृत या अपूर्ण आकृति हैं । हम तब वैदिक ऋषियों के इस कथन का अभिप्राय भी समझने लगते हैं कि हमारे पूर्व पुरुष देवताओं को उसी प्रकार गढ़ते थे जैसे कि लुहार अपनी दुकान में कच्ची धातु से कोई चीज गढ़ता है ।

 

     तीसरी बात यह है कि हमारे अन्दर की भागवत दिव्य 'शक्ति' समस्त जीवन का इस पूर्ण 'योग' के साधन के रूप में प्रयोग करती है । जागतिक परिस्थितियों के साथ हमारा प्रत्येक बाह्य सम्पर्क, उसके विषयका हमारा प्रत्येक अनुभव चाहे वह कितना भी तुच्छ या कष्टपूर्ण क्यों न हो इस कार्य के लिये प्रयुक्त किया जाता है, और प्रत्येक आन्तरिक अनुभव, यहां तक कि अत्यधिक अप्रिय कष्ट या अत्यधिक दीनतापूर्ण पतन भी पूर्णता के रास्ते पर आगे ले जानेका एक कदम बन जाता है । तब हम संसार में प्रयुक्त भगवान् की प्रणाली को अपने अन्दर प्रत्यक्ष रूप में देखते हैं । हम अन्धकार में प्रकाश-सम्बन्धी उसके उद्देश्य को, दुर्बलों और पतितों में शक्ति-सम्बन्धी और दुःखियों और पीड़ितों में आनन्द-सम्बन्धी उसके उद्देश्य को देखते हैं । हम यह भी देखते हैं कि निम्न और उच्च दोनों प्रक्रियाओं में एक ही दिव्य प्रणाली प्रयुक्त होती है । भेद केवल इतना होता है कि एक में उसका अनुसरण धीमे-धीमे और अस्पष्ट रूप में, प्रकृति में अवचेतन सत्ता के द्वारा किया जाता है, जब कि दूसरी में वह द्रुत गति से और चेतन सत्ता के द्वारा कार्य करती है और तब मानव यन्त्र यह जानता है कि इसमें प्रभु का हाथ है । समस्त जीवन ही  'प्रकृति' का 'योग' है और अपने अन्दर भगवान् की अभिव्यक्ति करना चाहता है । योग वह अवस्था है जहां यह प्रयत्न चेतन रूपमें कार्य कर सकता है और इसी कारण फिर यह व्यक्ति में यथार्थ पूर्णता भी प्राप्त कर सकता है । यह वस्तुत: निम्न

 

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विकास में बिखरी हुई और शिथिल रूप में संयुक्त क्रियाओं का एकत्रीकरण और उनकी एकाग्रता है ।

 

     सर्वांगीण प्रणाली का परिणाम भी सर्वांगीण ही होगा । सबसे पहले आवश्यकता है दिव्य सत्ता की पूर्ण प्राप्ति की, यहां एकमेव को उसके भेद-प्रभेद से रहित एकत्व में ही नहीं बल्कि उसके अनेक पक्षों में भी प्राप्त करना है । ये पक्ष सापेक्ष चेतना के द्वारा उसका पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिये आवश्यक हैं । इसे एकमेव सत्ता में ही एकत्व की प्राप्ति नहीं, बल्कि कार्यों जगतों और प्राणियों की असीम विविधता में भी एकत्व की प्राप्ति होना चाहिये ।

 

     इसी प्रकार मुक्ति को भी सर्वांगीण होना चाहिये । हमारी मुक्ति ऐसी स्वतन्त्रता ही नहीं होनी चाहिये जो व्यक्ति के अपने सब भागों में भगवान्के साथ अपने अटूट सम्बन्ध से उत्पन्न होती है या जिसे 'सायुज्य-मुक्ति' कहा जाता है और जिसके द्वारा वह वियोग में और साथ ही द्वन्द में भी स्वतन्त्र हो जाता है; 'सालोक्य-मुक्ति' भी नहीं जिसके द्वारा समस्त चेतन अस्तित्व भागवत सत्ता की स्थिति में अर्थात् सच्चिदानन्द की अवस्था में निवास करता है, बल्कि इस निम्न सत्ता का भगवान् की मानव प्रतिमूर्ती में रूपान्तर होने के द्वारा हमें दिव्य प्रकृति अर्थात् 'साधर्म्य-मुक्ति' की भी प्राप्ति हो जानी चाहिये । पर सबसे अधिक पूर्ण और अन्तिम मुक्ति होती है अहंभाव के अस्थिर सांचे से चेतना की मुक्ति और उसका उस एकमेव सत्ता के साथ तादात्म्य जो संसार और व्यक्ति दोनों में वैश्व है तथा जगत् में और जगत् से परे भी परात्पर रूप में एक है ।

 

     इस सर्वांगीण प्राप्ति और मुक्ति के द्वारा ही 'ज्ञान', 'प्रेम' और 'कर्म' के परिणामों में पूर्ण समन्वय स्थापित होता है । कारण, इसके द्वारा अहंभाव से पूर्ण मुक्ति मिल जाती है तथा सत्ता में सब के अन्दर और सब से परे विद्यमान एकमेव के साथ तदात्मता स्थापित हो जाती है । किन्तु प्राप्त करने वाली चेतना अपनी प्राप्ति के  द्वारा सीमित नहीं होती, हम 'परमानन्द' में, एकता और 'प्रेम' में समन्वित विविधता भी प्राप्त कर लेते हैं, जिसका फल यह होता है कि क्रीड़ा के सब सम्बन्ध हमारे लिये तब भी सम्भव रहते हैं जब हम अपनी सत्ता के उच्च स्तरों पर  'प्रिय' के साथ सनातन एकत्व बनाये रखते हैं । इसी प्रकार के विस्तार के कारण और इस कारण भी कि हम आत्मा की उस स्वतन्त्रता को प्राप्त करने में समर्थ हैं जो जीवन को स्वीकार करती है तथा जीवन के परित्याग पर निर्भर नहीं करती, हम अहंभाव, बन्धन या किसी प्रतिक्रिया के बिना अपने मन और शरीर में उस दिव्य कर्म के वाहक भी बन सकते हैं जो जगत् में मुक्त रूप से उंडेला जा रहा है ।

 

     दिव्य जीवन का स्वरूप स्वतन्त्रता ही नहीं है, बल्कि पवित्रता, आनन्द और पूर्णता भी है । जो पूर्ण पवित्रता हमारे अन्दर दिव्य सत्ता के पूर्ण चिन्तन को सम्भव बनाये और साथ ही जो इसके 'सत्य' और 'नियम' को जीवन के रूपों में ढार सके

 

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और जो जटिल यन्त्र हम अपने बाह्य भागों में हैं उसकी यथार्थ क्रिया के द्वारा उन्हें हमारे अन्दर भी पूर्ण रूप से उँडेल सके वही पवित्रता पूर्ण स्वाधीनता की शर्त है । इसका परिणाम एक पूर्ण आनन्द है, इसमें उस सब का आनन्द प्राप्त किया जा सकता है जो भगवान् के प्रतीकों के रूप में संसार के अन्दर देखा जाता है और साथ ही उसका भी आनन्द जो संसार से इतर है । यह पवित्रता मानव अभिव्यक्ति की अवस्थाओं के अनुसार दिव्य जाति के रूप में हमारी मानव-जाति की सर्वांगीण पूर्णता की तैयारी करती है और यह पूर्णता सत्ता की तथा प्रेम और आनन्द की स्वतन्त्र वैश्वता पर और ज्ञान की क्रीड़ा तथा शक्ति और निरभिमान कर्म के संकल्प की क्रीड़ा की स्वतन्त्र वैश्वता पर आधारित है । यह पूर्णता भी सर्वांगीण योग के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है ।

 

     पूर्णता के अन्दर मन और शरीर की पूर्णता भी आ जाती है, इसलिये राजयोग और हठयोग के सर्वोच्च परिणाम इस समन्वय के अत्यधिक विस्तृत सूत्र में समाविष्ट हो जाने चाहियें जिसे मनुष्य को अन्त में चरितार्थ करना है । योग के द्वारा मनुष्य-जाति को जो सामान्य मानसिक और भौतिक शक्तियां और अनुभूतियां प्राप्त हो सकती हैं, उनके पूर्ण विकास को तो कम-से-कम योग की पूर्ण प्रणाली के क्षेत्र में आ ही जाना चाहिये । बल्कि इन सब के अस्तित्व का कोई आधार ही नहीं रहेगा जब तक कि इनका प्रयोग पूर्ण मानसिक और भौतिक जीवन के लिये नहीं होगा । इस प्रकार के मानसिक और भौतिक जीवन का अर्थ अपने स्वभाव की दृष्टि से आध्यात्मिक जीवन को उसके अपने यथार्थ मानसिक और भौतिक मूल्यों में रूपान्तरित करना होगा । इस प्रकार हम प्रकृति के तीनों स्तरों और मानव-जीवन की उन तीन अवस्थाओं के समन्वय पर पहुंचेंगे जिन्हें वह विकसित कर चुकी है या कर रही है । हम अपनी मुक्त सत्ता में और कर्म की पूर्णता-प्राप्त प्रणालियों के क्षेत्र में भौतिक जीवन को अपने आधार के रूप में और मानसिक जीवन को अपने मध्यवर्ती यन्त्र के रूप में समाविष्ट कर लेंगे ।

 

     जिस पूर्णता की हम अभीप्सा करते हैं वह यदि एक ही व्यक्ति तक सीमित रहेगी तो वह यथार्थ तो होगी ही नहीं, बल्कि सम्भव भी नहीं रहेगी । क्योंकि हमारी दिव्य पूर्णता का अर्थ सत्ता, जीवन और प्रेम में दूसरों के द्वारा  और स्वयं अपने द्वारा भी अपने-आपको प्राप्त करना है; हमारी स्वतन्त्रता का और दूसरों में उसके परिणामों का विस्तार ही हमारी स्वाधीनता और पूर्णता का अनिवार्य परिणाम और सब से बड़ी उपयोगिता होगी । और, इस विस्तार के लिये किये गये सतत और आन्तरिक प्रयत्न का उद्देश्य होगा मनुष्य-जाति में उसका वृद्धिशील और पूर्णतम सामान्यीकरण ।

 

     इस प्रकार एक विस्तृत रूप से पूर्ण आध्यात्मिक जीवन की सर्वागीणता के द्वारा व्यक्ति और जाति में मनुष्य के सामान्य भौतिक जीवन का तथा मानसिक और

 

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नैतिक आत्म-संस्कृति-सम्बन्धी उसके महान् ऐहिक प्रयत्न का दिव्यीकरण हमारे वैयक्तिक और सामूहिक प्रयत्न का उत्कृष्ट रूप होगा । यह चरम प्राप्ति, जिसका अर्थ एक ऐसा आन्तरिक स्वर्गराज्य होगा जो पीछे बाहर के स्वर्गराज्य में भी उत्पन्न कर दिया जाय, उस महान् स्वप्न की भी सच्ची चरितार्थता होगी जिसे पाने की संसार के धर्म विभिन्न अर्थों में इच्छा करते आये हैं ।

 

         पूर्णता के जिस विशालतम समन्वय के बारे में हम सोच सकते हैं वही एकमात्र ऐसा प्रयत्न है जिसके अधिकारी केवल वही लोग हैं जिनकी समर्पित दृष्टि यह देख लेती है कि भगवान् मनुष्य-जाति में गुप्त रूप में निवास करते हैं ।

 

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पहला भाग

 

दिव्य कर्मों का योग

 

 

 

 

 


 

 

अध्याय १

 

चार साधन

 

योग-सिद्धि, अर्थात् वह पूर्णता जो योगाभ्यास से प्राप्त होती है, चार महान् साधनों की सम्मिलित क्रिया द्वारा सर्वोत्तम रूप से सम्पादित की जा सकती है । पहला साधन है शास्त्र, अर्थात् उन सत्यों, सिद्धांतों, शक्तियों और विधियों का ज्ञान जिन पर सिद्धि निर्भर करती है । दूसरा है उत्साह, अर्थात् शास्त्रोक्त ज्ञान द्वारा निर्धारित पद्धतियों के आधार पर धीर और स्थिर क्रिया, हमारे वैयक्तिक प्रयत्न का बल । तीसरा, गुरु, गुरु का साक्षात् निर्देश, दृष्टान्त और प्रभाव जो हमारे ज्ञान और प्रयत्न को आध्यात्मिक अनुभूति के क्षेत्र में ऊपर उठा ले जाते हैं । अन्तिम है काल, अर्थात् समय का माध्यम; कारण, सभी घटनाओं में क्रिया का एक चक्र और ईश्वरीय गति का एक विशेष समय होता है ।

 

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     पूर्णयोग का परम शास्त्र वह सनातन वेद है जो प्रत्येक विचारशील मनुष्य के हृदय में गुप्त रूप से निहित है । नित्य ज्ञान और नित्य पूर्णता का कमल एक अविकसित और मुकुलित कली के रूप में हमारे अन्दर ही विद्यमान है । एक बार जब मनुष्य का मन सनातन की ओर मुड़ने लगता है, एक बार जब उसका हृदय सांत रूपों के मोह की संकीर्णता से ऊपर उठकर, चाहे किसी भी मात्रा में हो, अनन्त में अनुरक्त हो जाता है, तब वह कली शीघ्र या शनैः -शनैः, एक-एक पंखड़ी करके, एक-एक उपलब्धि के द्वारा खुलने लगती है । उस समय से उसका सारा जीवन, सारे विचार, उसके शक्ति-सामर्थ्य के सभी व्यापार और समस्त निष्क्रिय या सक्रिय अनुभव ऐसे बहुविध आघात बन जाते हैं जो आत्मा के आवरणों को छिन्न-भिन्न कर डालते हैं और उसके अनिवार्य विकास के रास्ते में आनेवाली बाधाओं को दूर कर देते हैं । जो भगवान् को चुनता है वह भगवान् द्वारा चुना जा चुका है । उसने वह दिव्य संस्पर्श प्राप्त कर लिया है जिसके बिना आत्मा का जागरण और उन्मीलन होता ही नहीं । बस, एक बार संस्पर्श प्राप्त हो जाना चाहिये, फिर सिद्धि तो निश्चित है, चाहे हम उसे अति शीघ्र, एक ही मानव-जीवन की अवधि में अधिगत कर लें या अभिव्यक्त जगत् में जन्म-जन्मान्तरों की परंपरा में से गुजरते हुए धैर्यपूर्वक उस ओर अग्रसर हों ।

 

     मन को ऐसी कोई भी शिक्षा नहीं दी जा सकती जिसका बीज मनुष्य की विकसनशील अन्तरात्मा में पहले से ही निहित न हो । अतएव, मनुष्य का बाह्य

 

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व्यक्तित्व जिस पूर्णता को पहुंच सकता है वह भी सारी-की-सारी उसकी अपनी अन्तरस्थ आत्मा की सनातन पूर्णता को उपलब्ध करना मात्र है । हम भगवान् का ज्ञान प्राप्त करते हैं और भगवान् ही बन जाते हैं, क्योंकि हम अपनी प्रच्छन्न प्रकृति में पहले से वही हैं । शिक्षणमात्र का अर्थ है आविर्भूत करना, संभूतिमात्र का अभिप्राय है प्रकट होना । आत्म-उपलब्धि ही रहस्य है; आत्म-ज्ञान और वर्द्धमान चेतना उसके साधन तथा प्रक्रिया हैं ।

 

     ज्ञान को आविर्भूत करने का साधारण साधन है ' श्रुत' शब्द, अर्थात् श्रवण किया हुआ 'शब्द' । शब्द हमें अन्दर से प्राप्त हो सकता है; वह हमें बाहर से भी प्राप्त हो सकता है । परन्तु दोनों अवस्थाओं में वह निगूढ़ ज्ञान की क्रिया शुरू करा देने का साधनमात्र होता है । अन्दर का शब्द हमारी उस अन्तरतम अन्तरात्मा की वाणी हो सकता है जो भगवान् की ओर सदा खुली रहती है, अथवा यह उन प्रच्छन्न और विश्वव्यापी परम गुरु का शब्द हो सकता है जो सब के हृदयों में विराजमान हैं । कुछ एक महापुरुषों के लिये यही पर्याप्त होता है, उन्हें अन्य किसी शब्द की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि बाकी सारा योग तो उस परम गुरु के सतत संस्पर्श और पथ-प्रदर्शन की छाया में आवरणों का खुलनामात्र होता है । ज्ञान का कमल आप-से-आप, भीतर से ही, खिलता है, वह हृदय-कमल के अधिवासी से निःसृत जाज्वल्यमान तेज की शक्ति से विकसित होता है । निःसन्देह ऐसे महापुरुष विरले ही होते हैं जिनके लिये यह आन्तरिक आत्म-ज्ञान ही पर्याप्त होता है और जिन्हें किसी लिखित ग्रंथ या जीवित गुरु के प्रबल प्रभाव के अनुसार चलने की आवश्यकता नहीं होती |

 

     किन्तु साधारणतया, भगवान् के प्रतिनिधि-स्वरूप, बाहर से प्राप्त ईश्वरीय शब्द की जरूरत पड़ती ही है, क्योंकि यह आत्म-प्रस्कुटन के कार्य में सहायक होता है । यह या तो किसी प्राचीन गुरु का शब्द हो सकता है या किसी जीवित गुरु का अधिक प्रभावपूर्ण शब्द । प्रतिनिधिभूत गुरु के उपदेश को कुछ साधक अपनी अन्तःशक्ति के जगाने और प्रकट करने के लिये केवल एक निमित्त के रूप में ही ग्रहण करते हैं, मानों सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् भगवान् प्रकृति के संचालक सामान्य नियम की मर्यादा का मान कर रहे हों । उपनिषदों में देवकी-पुत्र श्रीकृष्ण के बारे में एक कथा आती है कि घोर ऋषिके एक शब्द से उनके अन्दर ज्ञान जागृत हो उठा । इसी प्रकार रामकृष्ण ने अपने निजी आन्तरिक प्रयत्न से केंद्रीय प्रकाश प्राप्त कर योग के विभिन्न मार्गों में अनेक गुरु धारण किये, पर अपनी उपलब्धि के ढंग और वेग से हर बार यह दिखा दिया कि उनका यह गुरु धारण करना उस सामान्य नियम का सम्मान ही था जिसके अनुसार वास्तविक ज्ञान मनुष्य को शिष्य-भाव में मनुष्य से ही प्राप्त करना चाहिये ।

 

     परन्तु सामान्यतया साधक के जीवन में भगवत्प्रतिनिधिरूप शास्त्र या जीवित गुरु

 

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के शब्द के प्रभाव का बहुत ही बड़ा स्थान होता है । यदि साधक किसी ऐसे मान्य प्राचीन शास्त्र के अनुसार साधना कर रहा हो जिसमें कुछ प्राचीन योगियों का अनुभव दिया हो, तो वह केवल वैयक्तिक प्रयत्न से या किसी गुरु की सहायता से ही अपनी साधना चला सकता है । तब, वह उस शास्त्र में प्रतिपादित सत्यों के मनन-निदिध्यासन से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करता है और अपनी व्यक्तिगत अनुभूति में उन सत्यों का साक्षात्कार करके उस ज्ञान को जीवित और जागृत करता है । किसी शास्त्र या परंपरा के द्वारा उसे योग की कुछ निश्चित विधियों का ज्ञान होता है, और जब वह देखता है कि उसके गुरु भी अपनी शिक्षाओं में उन्हीं विधियों को संपुष्ट और स्पष्ट करते हैं तो वह भी उन्हीं का अनुसरण करके उनके फलस्वरूप योग-मार्ग में आगे बढ़ता है । अवश्य ही यह अधिक संकीर्ण पद्धति है, पर अपनी सीमाओं के भीतर सुरक्षित और फलप्रद है, क्योंकि यह चिर-परिचित लक्ष्य पर पहुंचने के लिये एक सुविदित पथ का अवलंबन करती है ।

 

     परन्तु पूर्णयोग के साधक को यह अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि कोई भी लिखित शास्त्र नित्य ज्ञान के केवल कुछ एक अंशों को ही प्रकट कर सकता है, चाहे उसकी प्रामाणिकता कितनी भी महान् क्यों न हो अथवा उसकी भावना कितनी भी विशाल क्यों न हो । साधक शास्त्र का उपयोग करेगा, किन्तु महान्-से-महान् शास्त्र से भी वह अपने-आपको बांधेगा नहीं । यदि धर्मशास्त्र गभीर, विशाल एवं उदार हो तो वह साधक के लिये अत्यंत हितकर तथा महत्त्वपूर्ण हो सकता है । वह उसके लिये सर्वोपरि सत्यों तथा उच्चतम अनुभूतियों की प्राप्ति का साधन बन सकता है । उसका योग दीर्घकाल तक एक ही शास्त्र या क्रमश: अनेक शास्त्रों के अनुसार चल सकता है, उदाहरणार्थ, यदि वह महान् हिन्दू परम्परा का अनुसरण करता है, तो वह गीता, उपनिषदों और वेद के अनुसार योग का अभ्यास कर सकता है । अथवा उसके विकास का अधिकतर भाग इस प्रकार का हो सकता है कि वह अनेक शास्त्रों के सत्यों के विविध अनुभवों की ऐश्वर्यराशि को अपने विकास के स्वरूप में समाविष्ट कर सकता है और अतीत में जो कुछ भी श्रेष्ठ था उस सब से भविष्य को समृद्ध बना सकता है । परन्तु अन्त में उसे अपनी आत्मा की ही शरण लेनी होगी । अथवा इससे भी अच्छा यह होगा (यदि वह ऐसा कर सके तो) कि वह लिखित सत्य का अतिक्रमण करके और जो कुछ वह श्रवण कर चुका है एवं जो कुछ उसे अभी श्रवण करना है उस सबका अतिक्रमण करके सदा-सर्वदा और प्रारम्भ से ही अपनी आत्मा में निवास करे । कारण, वह एक पुस्तक या अनेक पुस्तकों का साधक नहीं है, वह अनन्त का साधक है ।

 

     एक और प्रकार का भी शास्त्र होता है । यह धर्मशास्त्र नहीं होता; इसमें जिस 

 

   शब्दब्रह्मातिवर्तते । गीता ६, ४४ ।

   श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च । गीता२, ५२ ।

 

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योगपथ-पर साधक चलना पसन्द करता है उसकी विद्या एवं विधियों और फलोत्पादक सिद्धान्तों तथा क्रिया-प्रणाली का वर्णन होता है । प्रत्येक पथ का अपना-अपना शास्त्र होता है, चाहे वह लिखित हो या परंपरा-प्राप्त अर्थात् गुरुओं की दीर्घ परंपरा द्वारा गुरुमुख से प्राप्त होता चला आ रहा हो । भारतवर्ष में साधारणत: लिखित या परम्परा-प्राप्त शिक्षा को महान् प्रामाणिकता एवं अतिशय सम्मान तक प्रदान किया जाता है । ऐसा माना जाता है कि योग-विशेष की सभी विधियां नियत और स्थिर होती हैं । इसलिये जिस गुरु ने परम्परा द्वारा शास्त्र को प्राप्त किया है और अभ्यासद्वारा उसे अनुभव-सिद्ध कर लिया है वह अतिप्राचीन पदचिह्नों के सहारे शिष्य को मार्ग दिखाता है । किसी नयी अभ्यास-क्रिया, नयी यौगिक शिक्षा और नवीन सूत्र के अंगीकार के विरुद्ध बलपूर्वक उठायी गयी आपत्ति भी प्रायः हमारे सुनने में आती है कि ' 'यह शास्त्र के अनुसार नहीं है । '' परन्तु असल में बात ऐसी नहीं है, न योगियों की क्रियात्मक साधना में ही वस्तुत: कोई ऐसी लोह-दुर्ग की-सी अभेद्य कठोरता होती है कि उसमें नवीन सत्य, नूतन ईश्वरीय ज्ञान एवं विस्तीर्ण अनुभव का प्रवेश ही न हो सके । लिखित या परम्परागत शिक्षा अनेक शताब्दियों के ज्ञान और अनुभवों को एक शास्त्रीय एवं क्रमबद्ध रीति से प्रकट कर देती है जिससे कि वे योग का आरम्भ करने वाले व्यक्ति के लिये सुलभ हो जाते हैं । अतएव, इसकी महत्ता और उपयोगिता अतीव महान् है । परन्तु विविधता और विकास के लिये अत्यधिक स्वाधीनता सदा ही प्रयोग में लायी जा सकती है । राजयोग जैसी अत्युच्च कोटि की वैज्ञानिक पद्धति का अभ्यास भी पतंजलि की क्रमबद्ध प्रणाली से भिन्न अन्य परिपाटियों द्वारा किया जा सकता है । त्रिमार्ग के तीनों मार्ग अनेक उपमार्गों में विभक्त हो जाते हैं जो अपने लक्ष्य पर पहुंचकर फिर मिल जाते हैं । जिस सामान्य ज्ञान पर योग आश्रित है वह तो नियत है, किन्तु क्रम, पूर्वापरभाव, उपायों और रूपों में विभेद तो हमें स्वीकार करना ही होगा । यद्यपि सामान्य सत्य स्थिर और शाश्वत रहते हैं तथापि वैयक्तिक प्रकृति की आवश्यकताओं और विशेष प्रवृत्तियों को तो तृप्त करना ही होता है ।

 

     विशेषकर, पूर्ण और समन्वयात्मक योग को किसी लिखित या परम्परागत शास्त्र से आबद्ध होने की आवश्यकता नहीं । जहां यह योग प्राचीन ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करता है वहां यह उसे वर्तमान और भविष्य के लिये नवीन रूप में व्यवस्थित करने का यत्न भी करता है । इसके स्वरूप की अभिव्यक्ति के लिये यह अनिवार्य है कि इसे अनुभव उपलब्ध करने की और नयी परिभाषाओं तथा नये रूपों में ज्ञान का फिर से प्रतिपादन करने की पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो । क्योंकि यह सम्पूर्ण जीवन को अपने अन्दर समाविष्ट करने का यत्न करता है, इसकी स्थिति

 

  ज्ञान, भक्ति और कर्म का त्रिविध मार्ग ।


 

उस यात्री की-सी नहीं है जो अपनी मंजिल की तरफ जाने वाले राजपथ पर चलता चला जाता है, बल्कि, कम-से-कम इस अंश में, इसकी स्थिति एक ऐसे मार्गान्वेषक की-सी है जो किसी अपरिचित वन में नये मार्ग बनाता है । कारण, योग चिरकाल तक जीवन से विमुख रहा है और प्राचीन पद्धतियां, उदाहरणार्थ, हमारे वैदिक पूर्वजों की पद्धतियां, जिन्होंने इसका आलिंगन करने का यत्न किया था, हमारे लिये अत्यन्त दुर्गम हैं । वे ऐसे शब्दों में वर्णित हैं जो आज हमारे लिये सुबोध नहीं हैं, ऐसे रूपों में विन्यस्त हैं जो आज व्यवहार्य नहीं । तब से मनुष्यजाति नित्य 'काल' की धारा पर आगे ब चुकी है और इसीलिये अब उसी समस्या पर नये दृष्टिकोण से विचार करने की आवश्यकता है ।

 

     इस योग के द्वारा हम अनन्त की केवल खोज ही नहीं करते, बल्कि उसका आवाहन भी करते हैं जिससे वह अपने-आपको मानवजीवन में प्रस्कुटित करे । अतएव, हमारे योग-शास्त्र को ग्रहणशील मानव आत्मा की अनन्त स्वतन्त्रता के लिये सब प्रकार की सुविधा प्रदान करनी होगी । मनुष्य के पूर्ण आध्यात्मिक जीवन के लिये ठीक अवस्था यह होगी कि विराट् तथा परात्पर पुरुष को अपने में ग्रहण करने के ढंग और प्रकार में उसे हेर-फेर की पूरी स्वतन्त्रता हो । विवेकानन्द ने एक बार कहा था कि सब धर्मों की एकता चरितार्थ करने के लिये यह आवश्यक है कि इसके रूपों की विविधता अधिकाधिक समृद्ध हो तथा उस मूलभूत एकता की पूर्ण अवस्था तब प्राप्त होगी जब प्रत्येक मनुष्य का अपना धर्म होगा और जब वह सम्प्रदाय या रूढ़ि-परम्परा से बंधा न रहकर परम पुरुष के साथ अपने संबन्धों में अपनी स्वतन्त्र और सामंजस्य-साधक प्रकृति का ही अनुसरण करेगा । इसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि पूर्णयोग की पूर्णता तब प्राप्त होगी जब प्रत्येक मनुष्य अपने निजी योग-मार्ग का अवलंबन कर सकेगा तथा प्रकृति से परे की किसी वस्तु की ओर उन्मुख होती हुई अपनी निजी प्रकृति के विकास का ही अनुसरण करेगा । कारण, स्वतन्त्रता ही अन्तिम विधान और चरम परिणति है ।

 

     इस बीच कुछ ऐसी सामान्य पद्धतियां निश्चित करने की जरूरत है जो साधक की चिंतना और साधना का मार्ग-निर्देश करने में सहायक हों । परन्तु इन्हें यथासम्भव व्यापक सत्यों एवं सामान्य सिद्धान्त-वाक्यों का और प्रयास एवं विकास की अत्यन्त शक्तिशाली विस्तृत दिशाओं का ही रूप धारण करना चाहिये, इन्हें कोई ऐसी बंधी-बंधायी विधियां नहीं होना चाहिये जिनका नित्य-नैमित्तिक क्रियाओं की भांति पालन करना पड़े । शास्त्रमात्र भूतकाल के अनुभव का फल होता है और साथ ही भावी अनुभव में सहायक होता है । यह एक साधन और आंशिक मार्गदर्शक होता है । यह चिह्नित खंभे गा देता है और मुख्य सड़कों एवं पहले खोजी जा चुकी दिशाओं के नाम बता देता है, जिससे पथिक को पता चल सके कि वह किधर और किन मार्गों से ब रहा है ।

 

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शेष सब कुछ व्यक्तिगत प्रयत्न और अनुभव पर और पथ-प्रदर्शक की शक्ति पर निर्भर करता है ।

 

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     अनुभव का विकास कितने वेग एवं विस्तार के साथ होता है और उसके परिणाम कितने तीव्र एवं प्रभावशाली होते हैंयह मार्ग के प्रारम्भ में और बाद में भी दीर्घकाल तक मुख्यत: साधक की अभीप्सा और उसके वैयक्तिक प्रयत्न पर ही निर्भर करता है । योग की मौलिक प्रक्रिया यह है कि मानव आत्मा वस्तुओं के बाह्य रूपों और आकर्षणों में ग्रस्त अहंभावमय चेतना से मुंह मोड़कर उस उच्चतर चेतना को अधिकृत कर ले जिसमें परात्पर और विराट्  ईश्वर अपने- आपको व्यक्तिरूपी सांचे के अन्दर उंडेल सकें और उसे रूपान्तरित कर सकें । अतएव, सिद्धि का सर्वप्रथम निर्धारक तत्त्व यही है कि आत्मा उच्चतर चेतना की ओर कितनी तीव्रता से अभिमुख होती है अथवा अपने को अन्तर्मुख करनेवाली शक्ति उसमें कितनी है । इस तीव्रता के नाप हैंहृदय की अभीप्सा की शक्ति, संकल्प का बल, मन की एकाग्रता, प्रयुक्त शक्ति का अनवरत उद्योग और दृ निश्चय । आदर्श साधक को बाइबल की उक्ति के अनुसार यह कहने में समर्थ होना चाहिये ''मेरे भगवत्प्राप्ति के उत्साह ने मुझे पूर्णतः ग्रस लिया है । '' भगवान् के लिये ऐसा उत्साह, अपनी दिव्य परिणति के लिये सम्पूर्ण प्रकृति की व्यग्रता एवं व्याकुलता और भगवान् की प्राप्ति के लिये हृदय की उत्सुकता ही उसके अहं को ग्रस लेती है और इसके क्षुद्र तथा संकीर्ण सांचे की सीमाओं को तो डालती है । फलत:, अहं अपनी अभीष्ट वस्तु को, जो विश्वव्यापी होने से विशालतम तथा उच्चतम व्यष्टिगत आत्मा और प्रकृति को भी अतिक्रान्त किये है और परात्पर होने के कारण उससे अत्यन्त उत्कृष्ट है, पूर्ण तथा विशाल रूप में ग्रहण कर पाता है ।

 

     परन्तु जो शक्ति पूर्णता के लिये कार्य करती है उसका यह केवल एक पार्श्व है । पूर्णयोग की प्रक्रिया में तीन अवस्थाएं आती हैं, निश्चय ही वे तीव्र रूप में भिन्न या पृथक्-पृथक् तो नहीं हैं, पर किसी अंश में क्रमिक अवश्य हैं । सबसे पहले हमें अपने अहंभाव से ऊपर उठने और भगवान् के साथ सम्बन्ध स्थापित करने का यत्न करना होगा जिससे कि हम, कम-से-कम, योग में दीक्षित होकर उसके अधिकारी बन सकें । उसके बाद यह आवश्यक है कि जो परब्रह्म हमसे अतीत है और जिसके साथ हमने अन्तर्मिलन प्राप्त कर लिया है उसे हम अपने अन्दर ग्रहण करें, ताकि वह हमारी सम्पूर्ण चेतन सत्ता का रूपान्तर कर सके । अन्त में, हमें अपनी रूपान्तरित मानवता का संसार में भगवान् के केंद्र के रूप में उपयोग करना होगा । जब तक भगवान् के साथ सम्बन्ध यथेष्ट मात्रा में स्थापित नहीं हो जाता, जब तक कुछ-न-कुछ सतत तादात्म्य, प्राप्त नहीं हो जाता तब तक

 

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साधारणतया व्यक्तिगत प्रयलरूपी अंग अवश्य ही प्रधान रहता है । परन्तु जैसे-जैसे यह सम्बन्ध स्थापित होता जाता है वैसे-वैसे साधक निश्चित रूप में इस बात से सचेतन होता जाता है कि उसकी शक्ति से भिन्न कोई शक्ति, जो उसके अहंभावपूर्ण प्रयत्न और सामर्थ्य से अतीत है, उसके अन्दर काम कर रही है और वह उत्तरोत्तर उस परम शक्ति के प्रति अपने-आपको उत्सर्ग करना सीखता जाता है और अपने योग का कार्यभार उसे सौंप देता है । अन्त में उसका अपना संकल्प और सामर्थ्य उच्चतर शक्ति के साथ एक हो जाते हैं; वह उन्हें भागवत संकल्प और उसकी परात्पर तथा विश्वव्यापिनी शक्ति में निमज्जित कर देता है । तब से वह देखने लगता है कि यह शक्ति उसकी मानसिक, प्राणिक एवं शारीरिक सत्ता के आवश्यक रूपान्तर का सूत्रसंचालन ऐसे न्यायपूर्ण ज्ञान और दूरदर्शी क्षमता के साथ कर रही है जो उत्कंठित और स्वार्थरत अहं के सामर्थ्य से बाहर की वस्तु हैं । जब यह तादात्म्य और आत्म-निमज्जन पूर्ण हो जाते हैं तब संसार में भगवान् का केंद्र तैयार हो जाता है । विशुद्ध, मुक्त, सुनम्य और ज्ञानदीप्त होकर वह केंद्र मानवता या अतिमानवता के विस्तीर्णतर योग में, अर्थात् इस भूलोक की आध्यात्मिक प्रगति या इसके रूपान्तर के योग में, सर्वोच्च शक्ति की साक्षात् क्रिया के लिये साधन के तौर पर उपयोग में आने लग सकता है ।

 

     निःसन्देह हमारे अन्दर सदा उच्चतर शक्ति ही काम करती है । हम में जो यह भाव होता है कि स्वयं हम ही यत्न तथा अभीप्सा करते हैं उसका कारण यह है कि हमारा अहंकारमय मन अपने-आपको दिव्य शक्ति की क्रियाओं के साथ अशुद्ध और अपूर्ण ढंग से एकाकार करने की चेष्टा करता है । यह अतिप्राकृतिक स्तर के अनुभव पर भी मन की वही साधारण परिभाषाएं लागू करने का आग्रह करता है जिनका प्रयोग यह अपने सामान्य सांसारिक अनुभवों के लिये करता है । संसार में हम अहंकार की भावना के साथ कर्म करते हैं । हमारे अन्दर जो वैश्व शक्तियां काम करती हैं उन्हें हम दावे के साथ अपनी कहते हैं । मन, प्राण और शरीर के इस ढांचे में परात्पर की चयनशील एवं निर्माणकारी विकासात्मक क्रिया को हम अपने निजी संकल्प, ज्ञान, बल और पुण्य का परिणाम घोषित करते हैं । प्रकाश की प्राप्ति होने पर हमें यह ज्ञान होता है कि अहंकार तो यन्त्रमात्र है । हम यह देखने और समझने लगते हैं कि ये चीजें केवल इस अर्थ में हमारी हैं कि ये हमारी उस सर्वोच्च अखंड आत्मा से सम्बन्ध रखती हैं जो यन्त्रात्मक अहंकार के साथ नहीं वरन् परात्पर के साथ एकीभूत है । भागवत शक्ति की क्रिया पर हम केवल अपनी सीमाएं और विकृतियां ही थोपा करते हैं; उसमें जो सच्ची शक्ति है वह तो भगवान् की ही है । जब मनुष्य का अहंकार यह अनुभव कर लेता है कि उसका संकल्प एक उपकरण है, उसका ज्ञान अविद्या एवं मूढ़ता है, उसका बल मानों बच्चे का अन्धेरे में टटोलना है एवं उसका पुण्य पाखंडपूर्ण अपवित्रता है, और जब वह अपने-आपको अपने से अतीत सत्ता के हाथों में सौंपना सीख जाता है तभी वह

 

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मुक्ति लाभ करता है । हम अपनी वैयक्तिक सत्ता के बाह्य स्वातंत्र्य तथा स्व- ख्यापन में अतीव गहरे आसक्त हैं, पर इनके पीछे उन सहस्रों सुझावों, प्रेरणाओं तथा शक्तियों के प्रति, जिन्हें हमने अपने क्षुद्र व्यक्तित्व से बाहर की वस्तु बना रखा है, हमारी अत्यन्त दयनीय दासता छिपी रहती है । हमारा अहंकार स्वतन्त्रता की डींग मारता हुआ भी प्रतिक्षण विश्व-प्रकृति के अन्दर अनगिनत सत्ताओं, शक्तियों, सामर्थ्यों और प्रभावों का दास, खिलौना तथा कठपुतली बना रहता है । अहं का भगवान् के प्रति आत्म-उत्सर्ग ही उसकी आत्म-परिपूर्णता है; अपने से अतीत तत्त्व के प्रति उसका समर्पण ही बन्धनों और सीमाओं से उसकी मुक्ति है, यही उसकी पूर्ण स्वतन्त्रता है ।

 

     परन्तु फिर भी, क्रियात्मक विकास में, इन तीनों अवस्थाओं में से प्रत्येक की अपनी-अपनी आवश्यकता और उपयोगिता है और प्रत्येक को अपना समय और अपना स्थान प्राप्त होना चाहिये । अतएव, केवल अन्तिम तथा सर्वोच्च अवस्था के द्वारा आरम्भ करने से ही काम नहीं चलेगा और न ही ऐसा करना सुरक्षित वा फलप्रद हो सकता है । यह भी ठीक मार्ग नहीं होगा कि हम समय से पूर्व ही एक अवस्था से दूसरी पर छलांग मार कर पहुंच जायें । चाहे हम प्रारम्भ से ही मन और हृदय में परम पुरुष पर आस्था रखें तो भी प्रकृति में ऐसे तत्त्व विद्यमान हैं जो आस्था के विषय के उपलब्ध होने में चिरकाल तक बाधा डालेंगे । परन्तु बिना उपलब्धि के हमारा मानसिक विश्वास क्रियाशील वस्तु नहीं बन सकता; वह केवल ज्ञान की प्रतिमूर्त्ति ही रहता है, जीवन्त सत्य नहीं बनता, वह केवल भावना ही रहता है, शक्ति नहीं बनता । उपलब्धि होना चाहे आरम्भ हो भी जाय तो भी तुरत-फुरत यह कल्पना कर लेना या यह मान बैठना भयावह हो सकता है कि हम पूरी तरह से परम पुरुष के हाथों में हैं और उसके यन्त्र बन कर काम कर रहे हैं । ऐसी कल्पना संकटपूर्ण असत्य को जन्म दे सकती है । यह असहाय जड़ता पैदा कर सकती है या भगवान् के नाम पर अहंकार की चेष्टाओं को बहुत अधिक बढ़ा कर योग के सम्पूर्ण अभ्यासक्रम को दुःखद रूप में विकृत और विनष्ट कर सकती है । आन्तरिक प्रयत्न और संघर्ष का एक कम या अधिक लंबा समय आया ही करता है जिसमें वैयक्तिक संकल्प को निम्न प्रकृति के अन्धकार तथा विकारजाल का निराकरण करके दृ निश्चयपूर्वक या उत्साह के साथ दिव्य प्रकाश का पक्ष लेना होता है । हमें अपने मन की शक्तियों, हृदय के भावावेगों एवं प्राण की कामनाओं को और यहां तक कि शरीर को भी बाध्य करना होता है कि वे यथार्थ वृत्ति धारण करें, अथवा उन्हें सिखाना होता है कि वे शुद्ध प्रभावों को स्वीकार करें तथा उत्तर दें । जब यह सब कुछ ठीक-ठीक पूरा हो जाता है तभी निम्न का उच्चतर के प्रति समर्पण सम्पन्न किया जा सकता है, क्योंकि तब हमारा यज्ञ स्वीकार करने योग्य हो जाता है ।

 

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साधक को पहले अपने वैयक्तिक संकल्प के द्वारा अहंकारमयी शक्तियों पर अधिकार करके उन्हें प्रकाश तथा सत्य की ओर मो देना होता है । जब एक बार वे उधर मु जाती हैं तब भी उसे उन्हें सधाना होता है कि वे सदा उस प्रकाश तथा सत्य को ही स्वीकार करें, सदा उसीका वरण और उसीका अनुसरण करें । आगे बढ़ने पर वह वैयक्तिक संकल्प, वैयक्तिक प्रयत्न एवं वैयक्तिक सामर्थ्यों का प्रयोग करता हुआ भी यह सीख जाता है कि किस प्रकार वह उन्हें सचेतन रूप से उच्चतर प्रभाव के अधीन रखकर उच्चतर शक्ति के प्रतिनिधियों के तौर पर व्यवहार में ला सकता है । जब वह और अधिक प्रगति कर लेता है तो उसका संकल्प, प्रयत्न एवं बल पहले की तरह वैयक्तिक तथा पृथक् नहीं रहते, वरन् व्यक्ति में काम कर रहे उच्चतर बल तथा प्रभाव की क्रियाएं बन जाते हैं । परन्तु अब भी दिव्य उद्गम तथा उसमें से निकलनेवाली मानवधारा के बीच एक प्रकार की खाई या दूरी बची रहती है । अनिवार्यत: ही, उसका परिणाम यह होता है कि उच्चतर बल एवं प्रभाव हमारे अन्दर अस्पष्ट रूप में पहुंचता है और हम तक उसके पहुंचने की प्रक्रिया सदा ठीक ही नहीं होती, यहा तक कि कभी-कभी तो वह बहुत विकृत करनेवाली भी होती है । विकास के अन्तिम छोर पर, अहंकार, अपवित्रता और अज्ञान का उत्तरोत्तर लोप होते-होते, यह अन्तिम विछोह भी दूर हो जाता है । तब, मनुष्य में जो कुछ भी है वह सब दिव्य क्रिया बन जाता है ।

 

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     जिस प्रकार पूर्णयोग का परम शास्त्र वह सनातन वेद है जो प्रत्येक मनुष्य के हृदय में निहित है, उसी प्रकार परम पथ-प्रदर्शक और गुरु वह अन्तःस्थित मार्ग- दर्शक और जगद्गुरु है जो हमारे भीतर प्रच्छन्न रूप में विद्यमान है । वही हमारे अंधकार को अपने ज्ञान की जाज्वल्यमान ज्योति से विध्वस्त करता है और उसकी ज्योति हमारे भीतर उसके आत्म-प्राकटय की वर्धमान महिमा बन जाती है । वह हम में स्वातंत्र्य, आनन्द, प्रेम, शक्ति और अमर सत्ता की अपनी ही प्रकृति को उत्तरोत्तर आविर्भूत करता है । वह हमारे लिये अपने दिव्य दृष्टान्त को हमारे आदर्श के रूप में उपस्थित करता है और निम्नतर सत्ता को उस वस्तु की प्रतिच्छवि में परिणत कर देता है जिस पर यह अपनी निर्निमेष दृष्टि लगाये रहती है । वह अपने ही प्रभाव और अपनी ही उपस्थिति को हमारे अन्दर उंडेलकर हमारी वैयक्तिक सत्ता को विराट् तथा परात्पर सत्ता के साथ तादात्म्य प्राप्त करने के योग्य बना देता है ।

 

     उसकी पद्धति और उसकी प्रणाली क्या है? उसकी कोई भी पद्धति नहीं है और प्रत्येक पद्धति उसीकी है । जिन ऊंची-से-ऊंची प्रक्रियाओं तथा गतियों के प्रयोग में प्रकृति समर्थ है उनका स्वाभाविक संगठन ही उसकी प्रणाली है । वे

 

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गतियां तथा प्रक्रियाएं अपने को तुच्छ-से-तुच्छ ब्योरे की बातों में तथा अत्यन्त नगण्य दीखनेवाले कार्यों में भी उतनी ही सावधानता तथा पूर्णता के साथ व्यवहृत करती हैं जितनी कि बड़ी-सें-बड़ी बातों और कार्यों में । इस प्रकार वे अन्त में सभी चीजों को प्रकाश में उठा ले जाती हैं तथा सभी को रूपान्तरित कर देती हैं । कारण, उस जगद्गुरु के योग में कोई भी चीज इतनी तुच्छ नहीं कि उसका उपयोग ही न हो सके और कोई भी चीज इतनी बड़ी नहीं कि उसके लिये यत्न ही न किया जा सके । जिस प्रकार परम गुरु के सेवक और शिष्य को अहंकार या अभिमान से कुछ सरोकार नहीं, क्योंकि उसके लिये सब कुछ ऊपर से ही संपन्न किया जाता है, उसी प्रकार उसे अपनी निजी त्रुटियों या अपनी प्रकृति के स्खलनों के कारण निराश होने का भी कोई अधिकार नहीं । क्योंकि, जो शक्ति उसके अन्दर काम करती है वह निर्वैयक्तिकया अतिवैयक्तिक (superpersonal) और अनन्त है ।

 

     इस अन्तःस्थित पथ-प्रदर्शक, योग के महेश्वर, समस्त यज्ञ और पुरुषार्थ के भर्त्ता, प्रकाशदाता, भोक्ता और लक्ष्य को पूरी तरह से पहिचानना और अंगीकार करना सर्वांगीण पूर्णता के पथ में अत्यन्त महत्त्व रखता है । यह कोई महत्त्व की बात नहीं कि हम उसे पहले-पहल इस रूप में देखें कि वह सब चीजों का उद्गम-भूत निर्वैयक्तिक ज्ञान, प्रेम और बल है, या इस रूप में कि वह सापेक्ष वस्तु में प्रकट होनेवाला तथा उसे आकृष्ट करनेवाला निरपेक्ष तत्त्व है, या हमारी सर्वोच्च आत्मा और सब की सर्वोच्च आत्मा है, या हमारे तथा संसार के भीतर अवस्थित भागवत व्यक्ति है जो अपने स्त्री-पुरुषात्मक अनेक नाम-रूपों में से किसी एक में प्रकटीभूत है, या फिर वह एक ऐसा आदर्श है जिसकी मन कल्पना करता है । पर अन्त में हम देखते हैं कि वह सब कुछ है और इन सब चीजों के योगफल से भी अधिक है । उसके विषय में की जानेवाली परिकल्पना के क्षेत्र में हमारा मन जिस द्वार से प्रवेश करता है वह स्वभावत: ही हमारे अतीत विकास और वर्तमान प्रकृति के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है ।

 

     यह अन्तःस्थ पथ-प्रदर्शक प्रारम्भ में प्रायः हमारे व्यक्तिगत प्रयत्न की तीव्रता के कारण और अहंभाव के अपने-आप में तथा अपने उद्देश्यों में ही संलग्र रहने के कारण छुपा रहता है । ज्यों ही हम चेतना में स्वच्छता प्राप्त करते हैं और अहंमय प्रयत्न अपना स्थान एक अधिक प्रशान्त आत्म-ज्ञान को दे देता है, त्यों ही हम अपने भीतर बढ़ते हुए प्रकाश के स्रोत को पहचान लेते हैं । तब हम इस स्रोत के प्रभाव को अपने पहले के जीवन में भी पहचान लेते हैं, क्योंकि हम यह अनुभव करते हैं कि हमारी सब अन्धकारमयी और संघर्षकारी चेष्टाएं एक ऐसे लक्ष्य की ओर स्थिर रूप से ले जायी गयी हैं जिसे हम केवल अब ही देखने लगते हैं, और यह भी कि योगमार्ग में हमारे प्रवेश करने से पहले भी हमारे जीवन का विकास अपनी निर्णायक दिशा की ओर योजनापूर्वक ले जाया गया है । अब हम अपने

 

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संघर्षों एवं प्रयत्नों और सफलताओं एवं विफलताओं का अभिप्राय समझने लगते हैं । अन्त में हम अपनी अग्रि-परीक्षाओं और कष्टों का मर्म भी हृदयंगम करने में समर्थ हो जाते हैं तथा उस सहायता का भी मूल्य समझ पाते हैं जो हमें आघात- प्रतिघात पहुंचानेवाली वस्तुओं से प्राप्त हुई, यहां तक कि हम अपने पतनों एवं स्खलनों की भी उपयोगिता समझने में समर्थ हो जाते हैं । आगे चलकर हम इस दिव्य पथ-प्रदर्शक को अपने गत जीवन पर दृष्टि डाल कर नहीं, बल्कि तत्क्षण ही अनुभव करने लगते हैं हम अनुभव करते हैं कि एक परात्पर द्रष्टा हमारे विचार को, एक सर्वव्यापिनी शक्ति हमारे संकल्प एवं कर्मों को और एक सर्व-आकर्षी एवं सर्व-आत्मसात्कारी आनन्द और प्रेम हमारे भावमय जीवन को नये सिरे से ग रहे हैं । हम प्रकाश के इस स्रोत को उस अधिक वैयक्तिक रूप में भी अनुभव करने लगते हैं जिसका स्पर्श हमें प्रारम्भ से ही प्राप्त हुआ था अथवा जो हमें अन्त में अधिकृत कर लेता है । हम एक परम स्वामी, सखा, प्रेमी एवं गुरु की शाश्वत उपस्थिति अनुभव करते हैं । जब हमारी सत्ता विकसित होते-होते महत्तर एवं विशालतर सत्ता के साथ सादृश्य एवं एकत्व लाभ कर लेती है तब हम अपनी सत्ता के सारतत्त्व में भी इसीको अनुभव करते हैं । हम देखते हैं कि यह अद्भुत विकास हमारे अपने प्रयत्नों का फल नहीं है, बल्कि एक सनातन पूर्णता हमें अपनी प्रतिच्छवि में परिणत कर रही है । वह एकमेव जो योगदर्शनों में वर्णित ईश्वर है, जो सचेतन सत्ता में विराजमान पथ-प्रदर्शक है (चैत्य गुरु या अन्तर्यामी है), जो विचारक का निरपेक्ष ब्रह्म है, जो अज्ञेयवादी का अज्ञेय तत्त्व और जड़वादी की वैश्व शक्ति है, जो परम आत्मा और परा-शक्ति है, वह एकमेव जिसे नाना धर्म भिन्न- भिन्न नाम और रूप देते हैं, वही हमारे योग का स्वामी है ।

 

     इस एकमेव को अपनी अन्तरात्मा और अपनी सम्पूर्ण बाह्य प्रकृति में देखना एवं जानना और यही बन जाना तथा इसी को चरितार्थ करना सदा ही हमारी देहधारी सत्ता का गुप्त लक्ष्य रहा है और यही अब उसका सचेतन उद्देश्य भी बन जाता है । अपनी सत्ता के अंग-प्रत्यंग में और साथ ही इसके उन भागों में भी, जिन्हें विभाजक मन हमारी सत्ता से बाह्य समझता है, इस एकमेव से सचेतन होना हमारी वैयक्तिक चेतना की पराकाष्ठा है । इससे अधिकृत होना और अपने अन्दर तथा सभी चीजों में इसे अधिकृत करना सम्पूर्ण साम्राज्य और प्रभुत्व का लक्षण है । निष्क्रियता एवं सक्रियता, शान्ति एवं शक्ति और एकता एवं विभिन्नता के समस्त अनुभवों में इसका रस लेना ही वह सुख है जिसे जीवात्मा अर्थात् जगत् में अभिव्यक्त वैयक्तिक आत्मा अन्धकार में खोज रही है । पूर्णयोग के लक्ष्य की सम्पूर्ण परिभाषा यही है । प्रकृति ने जो सत्य अपने भीतर छिपा रखा है और जिसे प्रकाशित करने के लिये वह प्रसव-वेदना भोग रही है उसे वैयक्तिक अनुभव के रूप में प्रकट करना इस योग का उद्देश्य है । इसका अभिप्राय है मानव आत्मा का

 

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दिव्य आत्मा में और प्राकृत जीवन का दिव्य जीवन में रूपान्तर करना ।

 

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     इस पूर्ण कृतार्थता का अत्यन्त सुनिश्चित पथ यह है कि हम गुह्य रहस्य के उस स्वामी को ढूं लें जो हमारे अन्तर में निवास करता है तथा अपने-आपको निरन्तर उस दिव्य शक्ति की ओर उद्घाटित करें जो साथ ही दिव्य प्रज्ञा और प्रेम भी है, और फिर रूपान्तर करने का कार्य उसके हाथों में सौंप दें । परन्तु अहंमय चेतना के लिये शुरू में ऐसा करना ही कठिन होता है, और यदि वह ऐसा कर भी सके तो पूर्ण रूप से तथा प्रकृति के अंग-अंग में करना तो और भी कठिन होता है । शुरू- शुरू में यह इसलिये कठिन होता है कि हमारे विचार, संवेदन एवं भाव-भावनाओं की अहंमूलक आदतें उन द्वारों को बन्द कर देती हैं जिनसे हमें अपेक्षित अनुभव प्राप्त हो सकता है । बाद में यह इस कारण कठिन होता है कि इस पथ के लिये अपेक्षित श्रद्धा, समर्पण और साहस अहंभावाच्छन्न आत्मा के लिये आसान नहीं होते । दिव्य क्रिया कोई वैसी क्रिया नहीं होती जिसे अहंभावमय मन चाहता या मंजूर करता है । वह तो सत्य पर पहुंचने के लिये भ्रान्ति को, आनन्द पर पहुंचने के लिये दुःख को और पूर्णता पर पहुंचने के लिये अपूर्णता को काम में लाती है । अहंकार यह नहीं देख पाता कि वह किधर ले जाया जा रहा है; वह मार्गदर्शन के विरुद्ध विद्रोह करता है, विश्वास खो देता है, साहस छो बैठता है । यदि केवल यही दुर्बलताएं होतीं तो कोई बड़ी बात नहीं थी; क्योंकि हमारा अन्तःस्थ दिव्य मार्गदर्शक हमारे विद्रोह से रुष्ट नहीं होता, न तो वह हमारी श्रद्धा की कमी से निरुत्साहित होता है और न हमारी दुर्बलता के कारण उदासीन ही हो जाता है । उसमें माता का समस्त वात्सल्य और गुरु का अखंड धैर्य है । परशु उसके नेतृत्व से अपनी अनुमति हटा लेने के कारण, हम सचेतन रूप में उसका लाभ अनुभव नहीं कर पाते, यद्यपि वह लाभ किसी अंश में फिर भी प्राप्त होता है और उसका अन्तिम परिणाम तो किसी भी अवस्था में नष्ट नहीं होता । और, हम अपनी अनुमति इसलिये हटा लेते हैं कि जिस निम्नतर सत्ता में से वह अपनी आत्म- अभिव्यक्ति तैयार कर रहा है उसमें और उच्चतर आत्मा में हम विवेक नहीं कर पाते । जैसे हम संसार में ईश्वर को नहीं देख पाते वैसे ही हम अपने अन्दर भी ईश्वर को देखने में असमर्थ होते है; कारण, उसकी कार्यशैलिया ही ऐसी हैं । हम उसे इसलिये भी नहीं देख पाते कि वह हमारे अन्दर हमारी प्रकृति के द्वारा ही काम करता है न कि एक के बाद एक मनमाने चमत्कारों से । मनुष्य चमत्कारों की मांग करता है जिससे वह विश्वास कर सके; वह चकाचौंध होना चाहता है, ताकि वह देख सके । परन्तु हमसि यह अधीरता और अज्ञान महान् भय और संकट का रूप

 

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धारण कर सकते हैं यदि, दिव्य मार्गदर्शन के प्रति विद्रोह के भाव में, हम किसी अन्य विकारजनक शक्ति को, जो हमारे आवेगों और कामनाओं के लिये अधिक सन्तोषकारक होती है, अपने अन्दर बुला लें, उससे अपना पथ-प्रदर्शन करने को कहें और उसे ही भगवान् मान बैठें ।

 

     परन्तु जहां मनुष्य के लिये यह कठिन है कि वह अपने अन्दर की किसी अगोचर वस्तु में विश्वास करे, वहां उसके लिये यह आसान भी है कि वह किसी ऐसी वस्तु में विश्वास करे जिसे वह अपने से बाहर चित्रित कर सकता है । अनेकों मानव प्राणियों की आध्यात्मिक उन्नति बाह्य आश्रय की, अर्थात् उनसे बाहर विद्यमान किसी श्रद्धास्पद वस्तु की अपेक्षा करती है । उन्हें अपनी उन्नति के लिये ईश्वर की बाह्य मूर्ति या मानव-रूप प्रतिनिधिअवतार, पैगंबर या गुरुकी आवश्यकता होती है । अथवा उन्हें इन दोनों की ही आवश्यकता होती है और दोनों को ही वे अंगीकार करते हैं । मानव आत्माकी आवश्यकता के अनुसार भगवान् अपने-आपको देवता, मानवरूपी भगवान् या सीधी-सादी मानवता के रूप में अभिव्यक्त करते हैं और अपनी प्रेरणा का संचार करने के लिये, साधन के तौर पर, उस घने पर्दे को प्रयोग में लाते है जो देवाधिदेव को अति सफलतापूर्वक छिपाये रहता है ।

 

     आत्मा की इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये ही हिन्दू अध्यात्म-साधना ने इष्ट देवता, अवतार और गुरु की परिकल्पना की है । इष्ट देवता से हमारा अभिप्राय किसी निम्न कोटि की शक्ति से नहीं, वरन् परात्पर तथा विराट् देवाधिदेव के एक विशेष नाम -रूप से है । प्रायः सभी धर्म या तो भगवान् के किसी ऐसे नाम-रूप पर आधारित होते हैं या वे इसका उपयोग करते हैं । मानव आत्मा के लिये इसकी आवश्यकता स्पष्ट ही है । ईश्वर सर्व है और सर्व से भी अधिक है । परन्तु जो सर्व से भी अधिक है उसे भला मनुष्य कैसे अपनी कल्पना में लावे? यहां तक कि सर्व भी पहले-पहल उसके लिये अति दुर्बोध होता है; क्योंकि वह स्वयं अपनी सक्रिय चेतना में एक सीमित एवं छंटी-छंटायी रचना है और अपने को केवल उसी चीज की ओर खोल सकता है जो उसकी ससीम प्रकृति के साथ मेल खाती है । सर्व में ऐसी चीजें भी हैं जिन्हें पूरी तरह हृदयंगम करना उसके लिये अत्यन्त कठिन है या जो उसके सूक्ष्मग्राही भावावेगों एवं भयाकुल संवेदनों को अतीव भीषण प्रतीत होती हैं । अथवा, सीधी-सी बात यह है कि जो कोई भी चीज उसके अज्ञानपूर्ण या आंशिक विचारों के घेरे से अत्यधिक बाहर होती है उसे वह भगवान् के रूप में कल्पित नहीं कर सकता, न ही वह उसके पास पहुंच सकता या उसे अंगीकार ही कर सकता है । उसके लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वह ईश्वर को अपनी ही आकृति के रूप में या किसी ऐसे रूप में कल्पित करे जो उससे परे होता हुआ भी उसकी सर्वोच्च प्रवृत्तियों के साथ समस्वर और उसके भावों या उसकी बुद्धि के

 

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लिये गोचर हो । नहीं तो, भगवान् से सम्पर्क और अन्तर्मिलन प्राप्त करना उसके लिये कठिन हो जायगा ।

 

     इस पर भी, उसकी प्रकृति मानव मध्यस्थ की मांग करती है । वह भगवान् को किसी ऐसी चीज में अनुभव करना चाहती है जो उसकी निजी मानवता के पूर्णत: निकट हो और साथ ही मानवी अनुभव एवं दृष्टान्त में प्रत्यक्षगम्य भी । यह मांग मानव आकार में व्यक्त हुए भगवान् या अवतार से, अर्थात् कृष्ण, ईसा या बुद्ध से पूरी होती है । अथवा, यदि इसे कल्पना में लाना उसके लिये अति कठिन होता है तो भगवान् एक कम अद्भुत मध्यस्थ के द्वारा, ईश्वरीय दूत या गुरु के द्वारा भी अपना रूप दिखाते हैं । कारण, बहुत से लोग भागवत मनुष्य को अपनी कल्पना में नहीं ला सकते अथवा उसे स्वीकार ही नहीं करना चाहते; पर वे भी किसी परमोच्च मनुष्य के प्रति अपने-आपको खोलने को उद्यत होते हैं और उसे वे अवतार के नाम से नहीं, बल्कि जगद्गुरु या भगवत्त्रतिनिधि के नाम से पुकारते हैं ।

 

     परन्तु यह भी पर्याप्त नहीं है; सजीव प्रभाव, जीवन्त दृष्टान्त और प्रत्यक्ष उपदेश की भी आवश्यकता होती है । क्योंकि, ऐसे लोग बहुत ही कम होते हैं जो भूतकाल के गुरु और उसकी शिक्षा को, भूतकाल के अवतार और उसके दृष्टान्त तथा प्रभाव को, अपने जीवन में सजीव शक्ति बना सकते हैं । इस आवश्यकता को भी हिन्दू- मर्यादा ने गुरु-शिष्य-सम्बन्ध के द्वारा पूरा किया है । गुरु कभी-कभी अवतार या जगद्गुरु भी हो सकता है; किन्तु वैसे इतना ही पर्याप्त है कि वह अपने शिष्य के समक्ष दिव्य प्रज्ञाका प्रतिनिधि हो, उसे दिव्य आदर्श से यत्किंचित् अवगत कराये अथवा सनातन के साथ मानव आत्मा के अनुभूत सम्बन्ध का उसे कुछ अनुभव कराये ।

 

     पूर्णयोग का साधक इन सब साधनों का अपनी प्रकृति के अनुसार उपयोग करेगा । परन्तु यह आवश्यक है कि वह इनकी न्यूनताओं का परित्याग कर दे और अपने अन्दर से अहंभावपूर्ण मन की उस एकांगी प्रवृत्ति को निकाल फेंके जो आग्रहपूर्वक कहती है, "मेरा ईश्वर, मेरा अवतार, मेरा पैगम्बर, मेरा गुरु" और इसके बल पर साम्प्रदायिक या धर्मान्ध भाव से अन्य सब अनुभवों (तथा उपलब्धियों) का विरोध करती है । समस्त साम्प्रदायिकता एवं समस्त धर्मान्धता से उसे अलग रहना होगा, क्योंकि यह दिव्य उपलब्धि की अखंडता से असंगत है ।

 

     इसके विपरीत, पूर्णयोग का साधक तब तक सन्तुष्ट नहीं होगा जब तक वह इष्ट देवता के अन्य सभी नामों और रूपों को अपनी परिकल्पना में समाविष्ट नहीं कर लेता, अन्य सभी देवताओं में अपने इष्ट देवता के दर्शन नहीं कर लेता, सभी अवतारों को अवतार ग्रहण करनेवाले भगवान् की एकता में एकीभूत नहीं कर लेता और सभी शिक्षाओं में निहित सत्य को नित्य ज्ञान की समस्वरता में समन्वित नहीं कर देता |

 

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     परन्तु उसे इन बाह्य साधनों का उद्देश्य भूल नहीं जाना चाहिये । इनका उद्देश्य है — उसकी आत्मा को उसके अन्तरस्थ भगवान् की ओर उद्बुद्ध कर देना । यदि यह कार्य सिद्ध नहीं हुआ है तो समझो कुछ भी अन्तिम तौर पर सिद्ध नहीं हुआ है । यदि बुद्ध, ईसा या कृष्ण हमारे अन्दर व्यक्त तथा मूर्त्तिमन्त नहीं हुए हैं तो केवल बाहर से ही कृष्ण, ईसा या बुद्ध की पूजा करना पर्याप्त नहीं होगा । इसी प्रकार अन्य सब साधनों का भी इसके सिवा और कोई उद्देश्य नहीं है । प्रत्येक साधन मनुष्य की अपरिवर्तित अवस्था तथा उसके अन्दर होनेवाली भगवान् की अभिव्यक्ति के बीच सेतु भर होता है ।

 

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     पूर्णयोग का गुरु यथासम्भव हमारे अन्तःस्थित परम गुरु -की पद्धति का ही अनुसरण करेगा । वह शिष्य को शिष्य की प्रकृति के द्वारा ही ले चलेगा । शिक्षण, दृष्टान्त, प्रभाव—ये गुरु के तीन साधन होते हैं । परन्तु ज्ञानी गुरु अपने-आपको अथवा अपनी सम्मतियों को (शिष्य के ) ग्रहणशील मन की निष्प्रतिरोध स्वीकृति पर लादने की कोशिश नहीं करेगा । वह केवल कोई फलजनक संस्कार ही उसके भीतर डाल देगा जो बीज की तरह, निश्चितरूपेण, अन्दर-ही-अन्दर दिव्य पोषण पाकर उपजेगा और वृद्धि को प्राप्त होगा । वह शिक्षा देने की अपेक्षा कहीं अधिक उद्बुद्ध करने का ही यत्न करेगा । वह नैसर्गिक प्रक्रिया और स्वतन्त्र विस्तार के द्वारा शक्तियों और अनुभूतियों के विकास को ही लक्ष्य बनायेगा । वह किसी विधि को एक सहायक साधन एवं उपयोगी उपाय के रूप में ही बतलायेगा, किसी अनुल्लंघनीय नियम या नियत नित्याभ्यास के रूप में नहीं । वह इस बात से सावधान रहेगा कि कहीं वह साधन को किसी प्रकार का बन्धन न बना डाले और प्रक्रिया को यान्त्रिक रूप न दे दे । उसका सम्पूर्ण कर्तव्य बस यही है कि वह दिव्य प्रकाश को उद्बुद्ध कर दे और उस दिव्य शक्ति की क्रिया प्रारम्भ करा दे जिसका वह स्वयं एक साधन एवं उपकरण और आधार या प्रणालिका-मात्र है ।

 

     दृष्टान्त्त शिक्षण की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होता है । परन्तु बाह्य कर्मों तथा व्यक्तिगत चरित्र का दृष्टान्त सर्वोत्तम दृष्टान्त नहीं है । इनका अपना स्थान और अपनी उपयोगिता अवश्य है; किन्तु जो चीज दूसरों में अभीप्सा को अत्यधिक उद्दीप्त करेगी वह गरु के अन्दर विद्यमान दिव्य उपलब्धि का केंद्रीय तथ्य है जो उसके अपने जीवन तथा उसकी आन्तरिक अवस्था और उसके सारे कर्मों को नियन्त्रित करता है । यह उसके अन्दर एक सार्वभौम और सारभूत तत्त्व है । शेष सब कुछ व्यक्ति और परिस्थिति से सम्बन्ध रखता है । इस क्रियाशील उपलब्धि को गरु में प्रत्यक्ष देखकर साधक को इसे अपने अन्दर अपनी निजी प्रकृति के अनुसार

 

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मूर्त्तिमान् करना होगा । उसे बाहर से अनुकरण करने का यत्न करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह अनुकरण यथोचित और स्वाभाविक फल पैदा करने के स्थान पर सहज ही पंगु बनानेवाला हो सकता है ।

 

     प्रभाव दृष्टान्त की अपेक्षा अधिक महत्वशाली होता है । प्रभाव का अर्थ गुरु का अपने शिष्य पर बाह्य शासन एवं अधिकार नहीं है, बल्कि उसके संस्पर्श एवं उसकी उपस्थिति की शक्ति है, उसकी आत्मा की दूसरे की आत्मा के साथ समीपता की शक्ति है, जो दूसरे की आत्मा के अन्दर, चाहे मौन रूप में ही, गुरु के अस्तित्व और गुरु को अन्तःसंचारित कर देती है । यह है गुरु का सर्वोत्कृष्ट लक्षण । वास्तव में परमोच्च कोटि का गुरु शिक्षक बहुत कम होता है; वह तो एक उपस्थिति होता है जो अपने आसपास के सभी ग्रहणशील लोगों में दिव्य चेतना और उसकी सारभूत ज्योति, शक्ति, पवित्रता और आनन्द उंडेलता रहता है ।

 

     इसके अतिरिक्त, पूर्णयोग के गुरु का यह भी एक चिह्न होगा कि वह मानवीय अहंकार के तरीके से तथा अभिमानवश गुरुपन का अनुचित दावा नहीं करेगा । उसका काम, यदि कोई काम उसके सुपुर्द है तो, ऊपर से सुपुर्द किया हुआ काम है, वह स्वयं एक प्रणालिका, आधार या प्रतिनिधि है । वह एक मनुष्य है जो अपने मनुष्य-भाइयों की सहायता करता है, एक बालक है जो बालकों का अग्रणी बनता है, एक प्रकाश है जो दूसरे प्रकाशों को प्रदीप्त करता है, एक प्रबुद्ध आत्मा है जो दूसरी आत्माओं को प्रबुद्ध करती है, अपने सर्वोच्च रूप में वह भगवान् की एक शक्ति या उपस्थिति है जो भगवान् की अन्य शक्तियों को अपनी ओर पुकारती है ।

 

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     जिस साधक को ये सब साधन प्राप्त हैं वह अपने लक्ष्य को अवश्यमेव अधिगत करेगा । यहां तक कि पतन भी उसके लिये उत्थान का साधन बन जायगा और मृत्यु परिपूर्णता का पथ । क्योंकि, एक बार जब वह अपने मार्ग पर चल पड़ता है तो जन्म और मरण उसकी सत्ता के विकास में आनेवाली प्रक्रियाएं तथा उसकी यात्रा के पड़ावमात्र बन जाते हैं ।

 

     काल या समय एक और साधन है जो साधना की सफलता के लिये आवश्यक है । काल मानव-प्रयत्न के सम्मुख शत्रु या मित्र के रूप में, बाधक, माध्यम या साधन के रूप में उपस्थित होता है । परन्तु वास्तव में यह सदा ही आत्मा का एक साधन है ।

 

     काल उन परिस्थितियों और शक्तियों का क्षेत्र है जो एकत्र होकर एक परिणामभूत प्रगति को साधित करती हैं । इस प्रगति के पथ को नापने के लिये काल एक साधन है । अहं के लिये यह एक आततायी या प्रतिबन्धक है, पर

 

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भगवान् के लिये एक यन्त्र । अतएव, जब हमारा प्रयत्न व्यक्तिगत होता है तब काल हमें प्रतिबन्धक प्रतीत होता है, क्योंकि यह हमारे सामने उन सब शक्तियों की बाधा उपस्थित करता है जो हमारी शक्तियों के साथ टक्कर खाती हैं । जब दिव्य क्रिया और व्यक्तिगत क्रिया हमारी चेतना में संयुक्त हो जाती हैं तब यह एक माध्यम और अनिवार्य शर्त की तरह प्रतीत होता है । जब ये दोनों क्रियाएं एक हो जाती हैं तब यह एक सेवक और यन्त्र प्रतीत होता है ।

 

     काल के सम्बन्ध में साधक की आदर्श मनोवृत्ति यह होनी चाहिये कि वह अनन्त धैर्य रखे, यह समझते हुए कि अपनी परिपूर्णता के लिये उसके सामने अनन्त काल पड़ा है, किन्तु फिर भी वह ऐसी शक्ति विकसित करे जो मानो आत्म-उपलब्धि को अभी साधित कर लेगी । फिर यह शक्ति एक सदा वृद्धिशील प्रभुत्व के साथ और तीव्र वेग से तब तक बढ़ती जानी चाहिये जब तक कि परम दिव्य रूपान्तर की चमत्कारक घड़ी उपस्थित नहीं हो जाती ।

 

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अध्याय २

 

आत्म-निवेदन

 

योगमात्र स्वरूपतः एक नूतन जन्म है । इसका अर्थ मनुष्य के साधारण मनोमय एवं स्थूल जीवन से निकलकर एक उच्चतर आध्यात्मिक चेतना और महत्तर तथा दिव्यतर सत्ता में जन्म लेना है । जब तक एक विशालतर आध्यात्मिक जीवन की आवश्यकता के प्रति प्रबल जागृति नहीं हो जाती तब तक किसी भी योग का सफलतापूर्वक प्रारम्भ तथा अनुसरण नहीं किया जा सकता । जिस आत्मा को इस गंभीर एवं बृहत्तर परिवर्तन के लिये आह्वान प्राप्त हुआ है वह इसके पथ पर नाना प्रकार से पदार्पण कर सकती है । वह इस पर अपने उस प्राकृतिक विकास के द्वारा पहुंच सकती है जो उसे अब तक, उसके अनजाने ही, आध्यात्मिक जागरण की ओर अग्रसर करता आ रहा है; वह किसी धर्म के प्रभाव अथवा किसी दर्शनशास्त्र के आकर्षण के कारण इस राह पर लग सकती है । एक क्रमश: बढ़ते हुए ज्ञान के प्रकाश के द्वारा भी वह इसमें प्रवेश पा सकती है अथवा सहसा किसी संस्पर्श या आघात की सहायता से एक छलांग में भी इस पर पहुंच सकती है । वह और साधनों से भीबाह्य परिस्थितियों के दबाव से या आन्तरिक आवश्यकता के कारण, मन के आवरणों को छिन्न-भिन्न कर देनेवाले किसी एक ही शब्द से अथवा सुदीर्घ चिन्तन से, किसी अनुभवी के दूरस्थ दृष्टान्त से अथवा सम्पर्क या दैनिक प्रभाव से इस ओर अभिप्रेरित या संचालित हो सकती है । वस्तुत: पुकार सदा साधक की प्रकृति और परिस्थिति के अनुसार आती है ।

 

     परन्तु यह चाहे जैसे भी आवे, मन और इच्छा-शक्ति का निर्णय आवश्यक है और, उसके परिणामस्वरूप, पूर्ण तथा अमोघ आत्म-निवेदन भी । सत्ता में एक नवीन आध्यात्मिक विचारशक्ति का स्वागत और ऊर्ध्व की ओर अभिमुखता, ज्ञान का प्रकाश, एक ऐसा दिशा-परिवर्तन या रूपान्तर जिसे इच्छा-शक्ति और हृद्गत अभीप्सा एकदम ग्रहण कर लेंयह सब एक ऐसी वेगयुक्त प्रक्रिया है जिसमें सभी योगजन्य फल बीज-रूप में विद्यमान हैं । किसी उच्चतर परतत्त्व की कोरी कल्पना या बौद्धिक जिज्ञासा को हमारा मन चाहे कितनी भी रुचि और दृढ़ता के साथ क्यों न अपना ले, किन्तु हमारे जीवन पर इसका तब तक कुछ भी प्रभाव नहीं होगा जब तक हृदय इसे इस रूप में अंगीकार न कर ले कि सही एक चाहने योग्य वस्तु है और इच्छाशक्ति इस रूप में स्वीकार न कर ले कि यही एक करने योग्य कार्य है । कारण, आत्मा के सत्य को केवल विचार का विषय ही नहीं बनाना है अपितु, उसे जीवन में उतारना भी है और उसे जीवन में लाने के लिये सत्ता की एक संगठित एकाग्रता अनिवार्य रूप से आवश्यक है । जिस अतिमहान् परिवर्तन

 


 

को यह योग साधित करना चाहता है वह विभक्त इच्छा-शक्ति से, या शक्ति के एक स्वल्प अंश से, या दोलायमान मन से सम्पादित नहीं हो सकता । जो व्यक्ति भगवान् को पाना चाहता है उसै भगवान् के प्रति और केवल भगवान् के ही प्रति अपने-आपको उत्सर्ग करना होगा ।

 

     यदि परिवर्तन किसी अदम्य प्रभाव के द्वारा एकाएक और सुनिश्चित रूप में सम्पन्न हो जाय तो आगे कोई मूलगत या स्थायी कठिनाई रह ही नहीं जाती । विचार के बाद ही या उसके साथ-ही-साथ साधक मार्ग चुन लेता है और चुनाव के बाद आत्म - निवेदन भी कर देता है । पैर मार्ग पर धरे ही जा चुके हैं, चाहे वे पहले-पहल अनिश्चित दिशा में भटकते ही मालूम दें और चाहे हमें स्वयं मार्ग भी धुंधला-सा दिखायी दे और लक्ष्य का पूरा-पूरा ज्ञान भी न हो । गुप्त एवं अन्तःस्थ मार्ग-दर्शक की क्रिया शुरू हो चुकी है, भले ही वह अभी अपने को प्रकट न करे या अपने मानव-प्रतिनिधि के रूप में हमें अभी दिखायी न दे । साधक के आगे चाहे कैसी भी कठिनाइयां और दुविधाएं क्यों न पैदा हों, वे अन्त तक उस अनुभव की शक्ति के आगे टिकी नहीं रह सकतीं जिसने उसकी जीवन- धारा को पलट दिया है । जब एक बार निश्चित  रूप से पुकार आ जाती है तो वह स्थायी हो जाती है; जो चीज उत्पन्न हो चुकी है वह अन्तिम तौर पर नष्ट नहीं की जा सकती । भले ही परिस्थिति का बल बाधा डाले और हमें प्रारम्भ से ही नियमित रूप में योगाभ्यास तथा पूर्ण एवं क्रियात्मक आत्म-निवेदन न भी करने दे तो भी, क्योंकि मन ने अपनी दिशा निश्चित कर ली है, वह डटा रहता है और सदा-वृद्धिशील प्रभाव के साथ अपने प्रमुख कार्य की ओर फिर-फिर लौट आता है । आन्तर सत्ता में एक अजेय दृढ़ता होती है, जिसके सामने र्पारेस्थितियों का अन्त में कुछ बस नहीं चलता और प्रकृति की कोई भी दुर्बलता अधिक समय तक बाधा नहीं पहुंचा सकती ।

 

     परन्तु साधना का प्रारम्भ सदा इसी ढंग से नहीं होता । साधक प्रायः क्रमश: ही आगे ले जाया जाता है और मन जब पहले-पहल अपने ध्येय की ओर झुकता है तो उसके बाद भी प्रकृति द्वारा उस ध्येय की पूर्ण स्वीकृति में बहुत लम्बा समय लग जाता है । हो सकता है कि प्रारम्भ में साधक को अपने ध्येय में केवल एक जीवन्त बौद्धिक रुचि तथा उसके प्रति एक प्रबल आकर्षण भर हो और वह किसी प्रकार की अपूर्ण साधना का ही अभ्यास करे । अथवा यह भी सम्भव है कि वह प्रयत्न तो करे, परन्तु उसे पूरी प्रकृति का समर्थन प्राप्त न हो और उसका निर्णय या झुकाव बौद्धिक प्रभाव द्वारा थोपा हुआ हो या किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति वैयक्तिक प्रेम तथा आदर द्वारा निधारित हो जो अपने-आपको परम देव के चरणों में निवेदित और समर्पित कर चुका है । ऐसी दशा में, अटल आत्म-निवेदन की घड़ी आने से पूर्व, तैयारी के एक लंबे काल की आवश्यकता हो सकती है । कुछ व्यक्तियों में

 

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शायद वह घड़ी आये ही नहीं; सम्भव है कि कुछ प्रगति हो, प्रबल प्रयत्न हो, यहां तक कि पर्याप्त शुद्धि भी हो और प्रधान या परमोच्च अनुभवों से भिन्न अन्य अनेक अनुभव भी प्राप्त हों; परन्तु हो सकता है कि जीवन या तो तैयारी में ही बीत जाय या शायद, अपने भरसक पुरुषार्थ से एक विशेष अवस्था तक पहुंच चुकने के बाद, मन का प्रेरक उत्साह और बल-वेग कम प जाय और वह उतने में ही सन्तुष्ट हो रहे, यहां तक कि शायद पुनः निम्नतर जीवन की ओर लौट जाय, जिसे योग की सामान्य परिभाषा में पथभ्रष्ट होना कहते हैं । ऐसे पतन का कारण यह होता है कि ठीक केंद्र में ही कोई दोष रह जाता है । बुद्धि उस पुरुषार्थ के प्रति अनुरक्त हो गयी है और हृदय आकृष्ट, इच्छाशक्ति ने भी उसके साथ गठबन्धन कर लिया है, परन्तु सम्पूर्ण प्रकृति भगवान् पर मुग्ध नहीं हुई है । उसने केवल उस अनुराग, आकर्षण या पुरुषार्थ के प्रति अपनी सहमति प्रकट कर दी है, एक परीक्षण किया है, यहां तक कि शायद उत्सुकतापूर्वक परीक्षण भी किया है, पर आत्मा की अलंघ्य आवश्यकता या अपरिहार्य आदर्श के प्रति पूर्ण आत्मदान नहीं किया है । परन्तु ऐसा अपूर्ण योग भी निष्फल नहीं होता, क्योंकि कोई भी ऊर्ध्वमुख प्रयत्न व्यर्थ नहीं जाता । इस समय यह असफल भले ही हो जाय या केवल एक आरम्भिक अवस्था या प्राथमिक उपलब्धि तक ही पहुंच पाये, पर फिर भी इसने आत्मा का भविष्य निश्चित कर दिया है ।

 

     परन्तु यदि हम उस अवसर का जो हमें इस जीवन ने प्रदान किया है अच्छे-से- अच्छा उपयोग करना चाहते हैं, यदि हम उस आवाहन का जो हमें प्राप्त हुआ है पूरी तरह से प्रत्युत्तर देना चाहते हैं और यदि हम उस लक्ष्य को जिसकी हमें झलक मिली है अधिगत करना चाहते हैं, न कि केवल उस ओर थोड़ा-सा बढ़ना भर चाहते हैं, तो यह अनिवार्य है कि हमारा आत्मदान पूर्ण हो । योग में सफलता का रहस्य ही यह है कि इसे जीवन के अनेक अनुसरणीय लक्ष्यों में से कोई एक नहीं, बल्कि जीवन का एक अनन्य लक्ष्य समझा जाये ।

 

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     अधिकतर मनुष्यों के साधारण, स्थूल एवं पाशविक जीवन से या कुछ लोगों की एक अधिक मानसिक, पर तो भी संकुचित जीवन-शैली से मुंह मो कर एक अधिक महान् आध्यात्मिक जीवन और दिव्य जीवन-प्रणाली की ओर उन्मुख होना ही योग का सार है । अतएव, हमसि शक्तियों का जो भी भाग निम्न सत्ता को उसी सत्ता की भावना में सौंपा जाता है वह हमारे लक्ष्य और हमारे आत्म-उत्सर्ग का विरोधी होता है । दूसरी ओर, जब हम किसी भी शक्ति या चेष्टा को रूपान्तरित करके उसे निम्नतर की सेवा से हटाकर उच्चतर की सेवा में लगाने में सफल हो

 

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जाते हैं तब मानों हम इस मार्ग में उतनी कमाई कर लेते हैं और अपनी उन्नति की बाधक शक्तियों के हाथ से उतना वापस छीन लेते हैं । इसी आमूलचूल रूपान्तर की कठिनाई योगमार्ग की समस्त विघ्न-बाधाओं का मूल है । कारण, हमारी सारी प्रकृति तथा इसकी परिस्थिति और हमारी सब व्यक्तिगत एवं विश्वगत सत्ता कुछ ऐसे अभ्यासों और प्रभावों से परिपूर्ण है जो हमारे आध्यात्मिक नवजन्म के प्रतिकूल हैं और हमारे पूरे दिल से किये गये पुरुषार्थ का भी विरोध करते हैं । एक विशेष अर्थ में हम उन मानसिक, स्नायविक और शारीरिक अभ्यासों के जटिल पुंज के सिवा और कुछ नहीं हैं जिन्हें हमारे कुछ प्रधान विचार, कामनाएं और संस्कार एक- दूसरे के साथ जोड़े रखते हैं । हम उन बहुत-सी छोटी-छोटी पुनरावर्ती शक्तियों का संघात हैं जिनमें कुछ-एक मुख्य कंपन होते रहते हैं । इस योग में हम ने अपने सामने जो लक्ष्य रखा है वह इससे लेशभर भी कम नहीं है कि हम अपने भूत और वर्तमान के उस सारे ढांचे को तो डालें जो साधारण भौतिक तथा मानसिक मनुष्य का निर्माण करता है और उसके स्थान पर अपने अन्दर दृष्टि के उस नवीन केंद्र तथा कर्मण्यताओं के उस नये संसार की रचना करें जो एक दिव्य मानवता या अतिमानव प्रकृति का गठन करेंगे ।

 

     इसके लिये सब से पहली आवश्यक बात यह है कि हम मन की उस केंद्रीय श्रद्धा और दृष्टि को तिलांजलि दे दें जिनके अनुसार यह एक चिरअभ्यस्त बहिर्मुखी संसार-व्यवस्था और घटनाक्रम में ही अपना विकास, सुख-संतोष और रस लाभ करने में अपनी सारी शक्ति लगाये रखता है । अवश्य ही इस बहिर्मुख झुकाव के स्थान पर हमें उस गभीरतर श्रद्धा और दृष्टि को प्रतिष्ठित करना होगा जो केवल भगवान् को देखती और केवल भगवान् की ही खोज करती है । दूसरी आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी सारी निम्नतर सत्ता को इस नवीन श्रद्धा और महत्तर दृष्टि के सम्मुख सीस नवाने के लिये बाधित करें । हमारी सारी प्रकृति को पूर्ण समर्पण करना होगा; उसे अपने-आपको अपने एक-एक अंग और एक-एक चेष्टा समेत, उस वस्तु के प्रति सौंप देना होगा जो असंस्कृत इंद्रिय-मानस को स्थूल संसार और इसके पदार्थों की अपेक्षा बहुत ही कम सत्य प्रतीत होती है । हमारी सम्पूर्ण सत्ता को अन्तरात्मा, मन, इंद्रिय, हृदय, इच्छाशक्ति, प्राण और शरीर कोअपनी सभी शक्तियों का अर्पण इतनी पूर्णता के साथ तथा ऐसे तरीके से करना होगा कि वह भगवान् का उपयुक्त वाहन बन जाय । पर यह कोई सरल कार्य नहीं है, क्योंकि संसार की प्रत्येक वस्तु अपने रूढ़ स्वभाव का, जो उसके लिये एक नियम होता है, अनुसरण करती है और मौलिक परिवर्तन का प्रतिरोध करती है । इसके विपरीत, पूर्णयोग एक ऐसी क्रान्ति के लिये प्रयास करता है जिससे बढ़कर मौलिक रूपान्तर कोई हो ही नहीं सकता । इस योग में हमें अपने अन्दर की प्रत्येक चीज को बारंबार केंद्रगत श्रद्धा, संकल्प और दृष्टिकी ओर फेरना

 

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होगा । प्रत्येक विचार और आवेग को उपनिषद् की भाषा में यह स्मरण कराना होगा कि दिव्य ब्रह्म वह है, न कि यह जिसकी लोग यहां उपासना करते हैं । अपने प्राण के तन्तु-तन्तु को इस बात के लिये प्रेरित करना होगा कि आज तक जो चीजें उसकी सत्ता की प्रतिनिधि थीं उन सब को वह पूरी तरह से त्यागना स्वीकार कर ले । मन को मन ही बने रहना छोड़कर अपने से परे की किसी वस्तु से प्रकाशमान बनना होगा । प्राण को एक ऐसी विशाल, शान्त, तीव्र और शक्तिशाली वस्तु में बदल जाना होगा जो अपनी पुरानी अन्ध, आतुर एवं संकीर्ण सत्ता को या क्षुद्र आवेग एवं कामना को पहचान तक न सके । यहां तक कि शरीर को भी परिवर्तन में से गुजरना होगा और आज की तरह एक तृष्णामय पशु या बाधक रोड़ा न रहकर आत्मा का सजग सेवक और तेजस्वी यन्त तथा जीवन्त विग्रह बनना होगा ।

 

     इस कार्य की कठिनाई के कारण स्वभावत: ही सरल और मर्मस्पर्शो उपायों का अनुसरण किया गया है । इस कठिनाई के कारण ही धर्मों और योग-सम्प्रदायों में जगत् के जीवन को आन्तरिक जीवन से पृथक् कर देने की प्रवृत्ति पैदा हुई है जो फिर गहराई से जमकर बैठ गयी है । ऐसा अनुभव किया जाता है कि इस जगत् की शक्तियां और उनके वास्तविक कार्य या तो ईश्वर से बिलकुल सम्बन्ध नहीं रखते अथवा वे माया या और किसी अबोध्य एवं विषम कारण के वश दिव्य सत्य के अन्धकारमय विरोधी हैं । इनसे विपरीत दिशा में हैं 'सत्य' की शक्तियां और उनके आदर्श कार्य । वे चेतना के उस स्तर से, जो अपने आवेगों एवं बलों में अन्ध, अज्ञ तथा विकृत हैं और जो हमारे पार्थिव जीवन का आधार हैं, एक सर्वथा भिन्न स्तर के साथ सम्बन्ध रखते दिखायी देते हैं । इस प्रकार, ईश्वर का शुभ्र और पवित्र राज्य तथा दानव का अन्धेरा और मलिन राज्यइन दोनों में विरोध तुरन्त दीख पड़ता है । हम अपने रेंगनेवाले पार्थिव जन्म एवं जीवन का उदात्त आध्यात्मिक ईश्वर-चेतना से विरोध अनुभव करते हैं । हमें सहज ही निश्चय हो जाता है कि जीवन का माया के वश में होना और आत्मा का शुद्ध ब्रह्म-सत्ता में एकाग्र होनादोनों में किसी प्रकार का भी मेल नहीं साधा जा सकता । इसलिये सब से सुगम उपाय यह है कि जो चीजें पार्थिव जीवन से सम्बन्ध रखती हैं उन सब से हम मुंह मो लें और केवल नग्न आत्मा के साथ सीधे ऊपर चढ़कर ऊर्ध्वस्थित आध्यात्मिक लोक में वापिस लौट जायं । इस प्रकार एक अनन्य एकाग्रता का सिद्धान्त हमें अपनी ओर आकृष्ट करता है और साथ ही आवश्यक भी जान पड़ता है । योग के कुछ विशिष्ट संप्रदायों में इसे अत्यन्त प्रमुख स्थान प्राप्त है, क्योंकि इस एकाग्रता के द्वारा हम संसार का आग्रहपूर्वक त्याग करते हुए उस एक परम देव के प्रति पूर्ण आत्म-निवेदन के लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं जिस पर हम अपने-

 

  १तदेव ब्रह्म त्व विद्धि नेदं यदिदमुपासते | — केनोपनिषद् १ -४

 

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आपको एकाग्र करते हैं । उस समय हमारे लिये यह आवश्यक नहीं रहता कि हम सभी निम्न चेष्टाओं को नये एवं उच्चतर आध्यात्मीकृत जीवन की कठिन दीक्षा के लिये बाध्य करें और उन्हें इसके प्रतिनिधि या कार्यवाहक शक्तियां बनने के लिये शिक्षित करें । तब इतना ही काफी होता है कि हम उन्हें समाप्त या शान्त कर दें, और, अधिक-से-अधिक, कुछ-एक ऐसी शक्तियां सुरक्षित रखें जो एक ओर शरीर के भरण-पोषण के लिये तथा दूसरी ओर भगवन्मिलन के लिये आवश्यक हों ।

 

     पूर्णयोग का असली उद्देश्य और विचार ही हमें इस सीधी, किन्तु कष्टसाध्य तथा उत्तुंग विधि को अपनाने से रोकता है । सर्वांगीण रूपान्तर की आशा हमें इस बात से रोकती है कि हम किसी छोटी पगडंडी का अवलंबन करें अथवा लक्ष्य की ओर वेगपूर्वक अग्रसर होने के लिये अपनी सब विघ्न-बाधाओं को परे फेंककर अपने को हल्का बना लें । कारण, हम तो अपनी सम्पूर्ण सत्ता को और संसार को ईश्वर के लिये जीतने चले हैं । हमने अपनी सम्भूति और सत्ता दोनों को उसे दे देने का निश्चय किया है न कि केवल किसी दूरस्थ लोक में सुदूर और निगूढ़ देवता के प्रति अमूर्त्त-सी भेंट के रूप में केवल विशुद्ध और नग्न आत्मा को प्रस्तुत करने का अथवा जो कुछ भी हम हैं उस सब को अचल कूटस्थ ब्रह्म के प्रति सर्वमेध में स्वाहा करके मिटा देने का ही निश्चय किया है । जिस भगवान् की हम उपासना करते हैं वह केवल दूरस्थ विश्वातिरिक्त सद्वस्तु नहीं, बल्कि एक अर्द्ध-आवृत अभिव्यक्ति है जो यहीं विश्व में हमारे पास और सामने विद्यमान है । जीवन भगवान् की एक ऐसी अभिव्यक्ति का क्षेत्र है जो अभी पूर्ण नहीं हुई है । यहीं, इसी जीवन में, इसी भूतल पर, इसी शरीर में, इहैव, जैसा कि उपनिषदें बार-बार कहती हैं, हमें देवाधिदेव को प्रकट करना है । उसकी परात्पर महिमा, ज्योति और मधुरिमा को हमें यहीं अपनी चेतना के लिये जीवित-जागृत बनाना है, यहीं उसे अधिगत और यथासम्भव व्यक्त करना है । अतः अपने योग में हमें जीवन को, उसका पूर्ण रूपान्तर करने के लिये, अवश्य स्वीकार करना होगा । यह स्वीकृति हमारे संघर्ष में चाहे जो भी कठिनाइयां बढ़ा दे, उनसे हमें घबराना नहीं होगा । यद्यपि हमारा रास्ता अधिक ऊब-खाब है, प्रयत्न अधिक जटिल, विकट, और चकरा देने यहां तक कि हताश कर देनेवाला है, तथापि इसके पुरस्कार-स्वरूप एक विशेष अवस्था के बाद हमें एक महान् लाभ प्राप्त हो जाता है । जब एक बार हमारा मन केंद्रीय दृष्टि में काफी हद तक स्थिर होता है और हमारी इच्छा-शक्ति समूचे रूप में उस एक ही उद्देश्य की ओर अभिमुख हो जाती है, तब जीवन स्वयं हमारा सहायक बन जाता है । एकनिष्ठ, जागरूक एवं पूर्णत: सचेतन रहकर हम जीवन के रूपों की हर एक छोटी-मोटी बारीकी को और उसकी चेष्टाओं के सभी प्रसंगों को अपने अन्दर की यज्ञीय अग्नि के लिये हवि के रूप में ग्रहण कर सकते हैं | संघर्ष में विजयी होकर, हम इस जड़ सत्ता तक को विवश कर सकते हैं कि

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यह पूर्णता की प्राप्ति में हमारी सहायक हो । जो शक्तियां हमारा विरोध करती हैं उन्हीं का राज्य छीन कर हम अपनी उपलब्धि को समृद्ध कर सकते हैं ।

 

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     एक और दिशा भी है जिसमें किसी साधारण योग का साधक सरलता की शरण लेता है । वह सरलता सहायक होने पर भी संकीर्णता पैदा करनेवाली है और सर्वांगीण लक्ष्य के साधक के लिये निषिद्ध है । योगसाधना करने से हमारी सत्ता की असाधारण जटिलता, हमारे व्यक्तित्व की उद्दीपक पर साथ ही व्याकुलकारी बहुविधता और विश्वप्रकृति की विपुल असीम अस्तव्यस्तता हमारे सामने उपस्थित होती है । जो मनुष्य आत्मा की प्रच्छन्न गहराइयां और विशालताएं न जानता हुआ अपने साधारण जागरित अवस्था के स्तर पर रहता है उस साधारण मनुष्य के लिये उसकी मनोवैज्ञानिक सत्ता काफी सरल होती है । इच्छाओं का एक छोटा-सा पर कोलाहलकारी दल, कुछ एक अनुपेक्षणीय बौद्धिक एवं सौन्दर्यमूलक तृष्णाएं कुछ रुचियां, और असंगत या विसंगत एवं अधिकतर क्षुद्र विचारों की एक प्रबल धारा के बीच कतिपय प्रभुत्वपूर्ण और प्रधान विचार, न्यूनाधिक-अनिवार्य प्राणिक आवश्यकताओं का एक समुदाय, शारीरिक स्वास्थ्य और रोग की हेरा-फेरी, एक- के-बाद-एक करके आनेवाले विकीर्ण एवं असंगत हर्ष और शोक, बार-बार होनेवाली मामूली हलचलें और परिवर्तन, मन या शरीर की बहुत विरली प्रबल गवेषणाएं और उतार-चढ़ाव, अपि च, कुछ तो मनुष्य के विचार एवं संकल्प की सहायता लेकर और कुछ इसके बिना या इसके रहते भी, प्रकृति का इन सब चीजों को एक स्थूल व्यावहारिक ढंग से, एक कामचलाऊ अव्यवस्थित क्रम के साथ व्यवस्थित करनायही उसकी सत्ता का उपादान होता है । औसत मानव प्राणी आज भी अपनी आन्तरिक सत्ता में उतना ही असंस्कृत और अविकसित है जितना कि पुरातन और आदिम मनुष्य अपने बाह्य जीवन में था । परन्तु ज्यों ही हम अपने भीतर गहरे उतरते हैं, और योग का अर्थ ही आत्मा की समस्त बहुविध गहराइयों में डुबकी लगाना है, त्यों ही हमें पता चलता है कि जैसे मनुष्य ने अपने विकास में अपने-आपको बाहरी तौर पर एक समूचे जटिल जगत् से घिरा पाया है वैसे ही हम आन्तरिक तौर पर भी एक जटिल जगत् से घिरे हुए है, जिसे जानने तथा जीतने की जरूरत है ।

 

     यह एक अत्यन्त क्षोभजनक उपलब्धि होती है जब हमें पता चलता है कि हमारे प्रत्येक अंग का, अर्थात् बुद्धि, इच्छा-शक्ति, इन्द्रिय-मानस, प्राणिक या कामनामय आत्मा, हृदय और शरीर का मानो सचमुच ही, अपना-अपना जटिल व्यक्तित्व है और शेष अंगों से स्वतन्त्र प्राकृतिक गठन है । प्रत्येक अंग न तो अपने-आपसे मेल

 

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खाता है, न दूसरों से और न ही उस प्रतिनिधिरूप अहं से मेल खाता है जो हमारे उथले अज्ञान पर किसी केंद्रस्थ और केंद्रस्थकारक आत्माद्वारा डाला गया प्रतिबिम्ब है । इस उपलब्धि से हमें ज्ञात होता है कि हम एक ही नहीं, अपितु अनेक व्यक्तित्वों से गठित हैं और उनमें से प्रत्येक की अपनी-अपनी मांगें और पृथक्- पृथक् प्रकृति है । हमारा अस्तित्व भद्दे रूप से गढ़ा हुआ एक गड़बड़झाला है जिसमें हमें दिव्य व्यवस्था के नियम का सूत्रपात करना है । और, साथ ही हमें यह भी पता लगता है कि जैसे बाहर से वैसे ही अन्दर से भी हम संसार में अकेले नहीं हैं और हमारे अहं का तीव्र भेद एक प्रबल अध्यारोप एवं भ्रम के अतिरिक्त और कुछ नहीं है; हमारा कोई अपना पथक् अस्तित्व नहीं, और वास्तव में हम भीतरी निर्जनता या एकान्त में अलग-अलग भी नहीं रहते । हमारा मन एक ऐसी मशीन है जो ग्रहण, संवर्धन एवं परिवर्तन करती है और जिसमें ऊपर से, नीचे से और बाहर से प्रतिक्षण अविरत विजातीय द्रव्य, विषम पदार्थों का एक प्रवहमान पुंज, लगातार प्रविष्ट होता रहता है । हमारे आधे से अधिक विचार और भाव हमारे निजी नहीं होते अर्थात् उनका रूप हम से बाहर ही तैयार होता है । कदाचित् ही किसी विचार या भाव के विषय में ऐसा कहा जा सकता हो कि वह हमारी प्रकृति का सचमुच मौलिक अंग है । अधिकांश में वे दूसरों से या परिपार्श्व से हमारे अन्दर आते हैं, चाहे कच्चे माल के रूप में आवें या तैयार सामान के रूप में । परन्तु इससे भी बड़े परिमाण में वे यहां की विश्व-प्रकृति से या अन्य लोकों तथा स्तरों और उनके जीवों, शक्तियों एवं प्रभावों से आते हैं । हमारे ऊपर और चारों ओर चेतना के अन्य स्तर भी हैं,मन के स्तर, प्राण के स्तर और सूक्ष्म अन्नमय स्तर जो हमारे ऐहिक जीवन और कर्म को पोषण प्रदान करते हैं, अथवा जो अपने पदार्थों और शक्तियों की अभिव्यक्ति के लिये हमारे जीवन और कर्म को अपना साधन बनाते हैं, इन पर दबाव डालते तथा इन्हें वश में करके अपने काम में लाते हैं । क्योंकि हमारी सत्ता जटिल है और हम विश्व की अन्तःप्रवाही शक्तियों के प्रति बहुत तरफ से खुले हुए हैं और उनके दास हैं, हमारे पृथक् मोक्ष की कठिनाई अत्यधिक बढ़ जाती है । इस सब का हमें विचार करना है, इससे निबटना है, अपनी प्रकृति के गुप्त उपादान को तथा इसकी घटक और परिणामभूत चेष्टाओं को जानना है, और फिर इस सब में एक दिव्य केंद्र, एक सच्चा सामंजस्य और ज्योतिर्मय व्यवस्था स्थापित करना भी आवश्यक है ।

 

     योग के प्रचलित मार्गों में इन संघर्षकारी उपादानों का समाधान करने के लिये जो विधि प्रयोग में लायी जाती है वह सीधी और सरल है । हमारे अन्दर की प्रधान मानसिक शक्तियों में से कोई एक भगवत्पाप्ति के एकमात्र साधन के तौर पर चुन ली जाती है और शेष सभी को जडवत् स्तब्ध कर दिया जाता है अथवा अपनी  ? में '-'० मरने दिया जाता है । भक्त सत्ता की भावमय शक्तियों को

 

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और हृदय को तीव्र उमंगों को अधिकार में लाकर ईश्वर-प्रेम में निमग्न रहता है, मानों वह एक अनन्य एकतान अग्निशिखा के रूप में समाहित हो । वह विचार की हलचल के प्रति उदासीन होता है, बुद्धि के आग्रहों को पीछे छोड़ देता है और मन की ज्ञान-पिपासा की कुछ परवाह नहीं करता । उसे जिस ज्ञान की आवश्यकता है वह केवल उसकी श्रद्धा और उसकी वे अनुप्रेरणाएं हैं जो भगवान् के साथ युक्त हृदय से फूट निकलती हैं । कर्म करने के ऐसे किसी भी संकल्प से उसे कुछ मतलब नहीं जो प्रियतम की प्रत्यक्ष पूजा में या उसके मन्दिर की सेवा में तत्पर न हो । उधर, ज्ञानवान् मनुष्य स्वेच्छापूर्वक विवेकशक्ति तथा मनन-चिन्तन में लीन रहकर मन के अन्तर्मुख प्रयत्न में स्वातंत्र्य लाभ करता है । वह आत्मा का एकाग्र चिन्तन करता है, सूक्ष्म अन्तर्विवेक से वह प्रकृति के माया-प्रपंच में आत्मा की शान्त उपस्थिति को पहचान सकने में समर्थ होता है और बोधात्मक विचार के द्वारा प्रत्यक्ष अध्यात्म अनुभव प्राप्त करता है । वह भावावेशों की क्रीड़ा के प्रति तटस्थ, वासना की आतुर पुकार के प्रति बधिर और प्राण की हलचलों से विरत रहता है । जितनी भी जल्दी ये उससे झड़ जायं और उसे स्वतन्त्र, स्थिर और शान्त नित्य अकर्ताबने रहने दें उतना ही अधिक वह भाग्यशाली होता है । शरीर उसके मार्ग का रोड़ा है, प्राण के व्यापार उसके शत्रु हैं; यदि उनकी मांगें कम-से-कम की जा सकें तो वह उसका महान् सौभाग्य होता है । चारों ओर के संसार से जो अनगिनत कठिनाइयां पैदा होती हैं उनके विरुद्ध बाह्य भौतिक और आन्तर आध्यात्मिक एकान्त की मजबूत बाड़ खड़ी करके वह उनका निवारण करता है । आभ्यन्तर शान्ति की दीवार की ओट में सुरक्षित रहकर वह निर्विकार रहता है और साथ ही संसार से तथा दूसरों से निर्लिप्त भी । अपने संग या भगवान् के संग एकाकी रहना, ईश्वर और उसके भक्तों के संग एकान्तवास करना, मन के एकमात्र आत्मोन्मुख प्रयत्न के घेरे में या हृदय की ईश्वरमुखी उमंग के घेरे में अपने-आपको बन्द कर लेनायही इन योगों की प्रवृत्ति की दिशा है । इनमें सभी ग्रंथियों को काटकर समस्या हल कर ली जाती है, केवल एक केंद्रीय कठिनाई रह जाती है जो हमारी एकमात्र मनोतीत प्रेरक-शक्ति का पीछा करती है । अपनी प्रकृति की विक्षिप्त करनेवाली पुकारों के बीच हम विशेष रूप से एकांगी एकाग्रता के सिद्धान्त की शरण लेते हैं ।

 

     परन्तु पूर्णयोग के साधक के लिये यह आन्तरिक या बाह्य एकान्तवास उसकी आध्यात्मिक उन्नति में एक प्रसंग या अवसरमात्र हो सकता है । जीवन को स्वीकार करते हुए उसे केवल अपना भार ही नहीं, बल्कि अपने काफी भारी बोझ के साथ-साथ जगत् का बहुत-सा भार भी वहन करना होता है । अतएव, उसका योग दूसरों के योग की अपेक्षा बहुत अधिक संग्राममय है, किन्तु वह केवल व्यष्टिगत संग्राम नहीं, बल्कि एक विस्तृत प्रदेश पर छोड़ा गया समष्टिगत युद्ध भी है । साधक को केवल अपने अन्दर ही अहंकारमूलक असत्य और अव्यवस्था की शक्तियों पर

 

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विजय प्राप्त नहीं करनी है, बल्कि संसार में भी इन पर विजय प्राप्त करनी है जहां कि ये इन्हीं विरोधी और अक्षय शक्तियों का प्रतिनिधित्व कर रही होती हैं । इनका यह प्रातिनिधिक स्वरूप इन्हें एक बहुत अधिक दुर्दम प्रतिरोध-शक्ति ही नहीं, बल्कि पुनरावर्तन का लगभग अनन्त अधिकार भी प्रदान करता है । प्रायः ही उसे यह अनुभव होता है कि अपना व्यक्तिगत युद्ध अविचल तौर पर जीत चुकने के बाद भी उसे, एक प्रत्यक्षत: अनन्त युद्ध के रूप में, वह युद्ध बार-बार जीतना है, क्योंकि उसकी आन्तरिक सत्ता अब इतनी अधिक विस्तृत हो चुकी है कि वह न केवल साधक की अपनी सुनिश्चित आवश्यकताओं और अनुभवों से युक्त उसकी अपनी सत्ता को समाविष्ट किये हुए है, अपितु वह दूसरों की सत्ता के साथ भी एकाकार है । कारण, अब साधक अपने अन्दर ब्रह्माण्ड को धारण किये होता है ।

 

     सर्वांगीण पूर्णता के अन्वेषक को ऐसी छूट भी प्राप्त नहीं है कि वह अपने आन्तरिक अंगों के संघर्ष को मनमाने ढंग से हल कर ले । उसे विचार-लब्ध ज्ञान को संशयरहित श्रद्धा के साथ समन्वित करना होगा; प्रेम की सौम्य आत्मा को शक्ति की अदम्य मांग के साथ सुसंगत करना होगा तथा परात्पर शांति में सन्तुष्ट रहनेवाली आत्मा की निष्क्रियता को दिव्य सहायक और दिव्य योद्धा की क्रियाशीलता के साथ घुला-मिला देना होगा । अन्य आत्म-जिज्ञासुओं की भांति उसके सामने भी बुद्धि के प्रतिकूल तर्क-वितर्क, इन्द्रियों का दुर्जय वेग, हृदय के विक्षोभ, कामनाओं के दांव-घात और स्थूल शरीर का बन्धनये सब अपने समाधान के लिये उपस्थित होते हैं । परन्तु इनके पारस्परिक तथा आन्तरिक संघर्षों के साथ और उसके लक्ष्य में ये संघर्ष जो बाधाएं पहुंचाते हैं उनके साथ उसे और ही ढंग से निबटना होता है । इन सब विद्रोही तत्त्वों के साथ बरतते हुए उसे एक असंख्यगुना अधिक दु:साध्य पूर्णता प्राप्त करनी है | इन्हें दिव्य उपलब्धि और अभिव्यक्ति के यन्त्र मानकर उसे इनके बेसुरे स्वरों को बदलना होगा, इनकी घनी अन्धेरी गुहाओं में आलोक पहुंचाकर इन्हें अलग-अलग तथा सम्मिलित तौर पर रूपान्तरित करना होगा, इन्हें अपने-आपमें तथा एक-दूसरे के साथ पूर्णतया सुसंगत करना होगा । किसी एक भी कण या तंतु या कंपन की उपेक्षा नहीं करनी होगी, कहीं लेशमात्र भी अपूर्णता नहीं रहने देनी होगी । एकांगी एकाग्रता, यहां तक कि इस प्रकार की अनेक क्रमागत एकाग्रताएं भी उसके जटिल कार्य की सिद्धि के लिये केवल अस्थायी साधन ही हो सकती हैं; इनकी उपयोगिता समाप्त होते ही इन्हें त्याग देना होगा । जिस कठिन सिद्धि के लिये उसे श्रम करना है वह एक सर्वांगीण एकाग्रता है ।

 

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     निःसन्देह, किसी भी योग की पहली शर्त होती है एकाग्रता, परन्तु पूर्णयोग के

 

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असली स्वरूप के अनुसार वह एकाग्रता सर्वग्राही होनी चाहिये । इसमें सन्देह नहीं कि यहां भी विचारों, भावों या इच्छा-शक्ति को अलग-अलग एक ही धारणा, विषय, अवस्था, आन्तरिक गति या तत्त्व पर दृढ़ता से टिकाने की आवश्यकता बारंबार पड़ती है, परन्तु यह केवल एक गौण एवं सहायक प्रक्रिया है । इस योग की अधिक विशाल क्रिया हैसम्पूर्ण सत्ता को एक विशाल और बृहत् रूप में परम देव की ओर उद्घाटित करना और समग्र सत्ता को अपने सब अंगों में तथा अपनी सभी शक्तियों के द्वारा उस एक विश्वात्मा में एक स्वर से तन्मय करना । इसके बिना यह योग अपने लक्ष्य को सिद्ध नहीं कर सकता । कारण, हम उस चेतना को पाने के अभिलाषी हैं जो परम देव में निहित है और विश्व में कार्य करती है; उसीको हम अपनी सत्ता के एक-एक अंग की और अपनी प्रकृति की एक-एक चेष्टा की अधिष्ठात्री बनाना चाहते हैं । विशालता और एकाग्रता से युक्त सम्पूर्ण सत्ता और प्रकृति ही इस साधना का सारभूत स्वरूप है और यह स्वरूप ही इसकी क्रिया-प्रणाली को निश्चित  करेगा ।

 

     यद्यपि समस्त सत्ता को भगवान् पर एकाग्र करना योग का स्वरूप है तथापि हमारी सत्ता इतनी जटिल वस्तु है कि हम इसे आसानी से और एकदम ऊपर नहीं उठा सकतेयह तो ऐसा होगा मानों हम सारे संसार को दो हाथों में भर लेना चाहते हों । न ही हम सारी सत्ता को एक ही साथ किसी काम में लगा सकते हैं । मनुष्य को अपने स्व-अतिक्रमण के प्रयत्न में साधारणतया अपनी प्रकृतिरूपी जटिल मशीन के किसी एक करण या शक्तिशाली उपकरण को ही अपने वश में करना होता है । इस करण या उपकरण को दूसरों की अपेक्षा अधिक अच्छा समझकर ही वह उसको चुनता है और उसके सामने जो लक्ष्य है उसकी ओर मशीन को चलाने के लिये इसका उपयोग करता है । इस चुनाव में विश्व-प्रकृति ही सदा उसकी मार्गदर्शिका होनी चाहिये । परन्तु यहां उसके अन्दर प्रकृति अपनी उच्चतम और विशालतम अवस्था में होनी चाहिये, न कि अपनी निम्नतम अवस्था में या किसी संकीर्ण गति के रूप में । निम्नतर प्राणिक क्रियाओं में से एक कामना ही ऐसी है जिसे प्रकृति अपने अत्यन्त शक्तिशाली उपकरण के तौर पर अपनाती है । परन्तु मनुष्य का विशेष लक्षण यह है कि वह एक मानसिक प्राणी है, केवल प्राणमय जीव नहीं । जैसे वह अपने प्राणिक आवेगों को संयत और मर्यादित करने के लिये अपने चिन्तनशील मन और इच्छा-शक्ति का प्रयोग कर सकता है, वैसे ही वह उस उच्चतर प्रकाशमान मन की क्रिया को भी अवतरित कर सकता है जिसे उसके अन्दर की गभीरतर आत्मा या ह्रुत्पुरुष की सहायता प्राप्त होती रहती है, और इस प्रकार इन महत्तर तथा विशुद्धतर प्रेरक शक्तियों के द्वारा वह इस कामनारूपी प्राणिक और सांवेदनिक आवेग का प्रभुत्व दूर कर सकता है । वह इसे पूरी तरह से वशीभूत या परिचालित कर सकता है और रूपान्तर के लिये इसे इसके दिव्य स्वामी

 

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को सौंप भी सकता है । यह उच्चतर मन और यह गभीरतर आत्मा, अर्थात् मनुष्य के अन्दर स्थित चैत्य तत्त्व दो अंकुश हैं जिनके द्वारा भगवान् उसकी प्रकृति को अपने अधिकार में ला सकते हैं ।

 

     मनुष्य में जो उच्चतर मन है वह तार्किक मन या तर्क-बुद्धि से भिन्न है, वह एक अधिक उच्च, पवित्र, विशाल और शक्तिशाली वस्तु है । पशु प्राणमय और इन्द्रिय-प्रधान जीव है; यह कहा जाता है कि मनुष्य पशु से इस बात में भिन्न है कि उसमें बुद्धि की शक्ति है । परन्तु यह इस विषय का एक अत्यन्त संक्षिप्त, अत्यन्त अपूर्ण और भ्रामक वर्णन है । बुद्धि तो एक विशिष्ट और सीमित, प्रयोजनीय और साधनभूत क्रियामात्र है । इस क्रिया का मूल इससे एक बहुत बड़ी वस्तु में है, एक ऐसी शक्ति में है जो एक उज्ज्वलतर, बृहत्तर एवं असीम आकाश में रहती है । निरीक्षण, तर्क-वितर्क, विचार-विमर्श तथा निर्णय करनेवाली हमारी बुद्धि के तात्कालिक या मध्यवर्ती महत्त्व से भिन्न इसका सच्चा और अन्तिम महत्त्व यह है कि यह मनुष्य को, एक ऊर्ध्व ज्योति को, ठीक प्रकार से ग्रहण करने के लिये तथा उसकी सम्यक् क्रिया के लिये तैयार करती है । यह ज्योति उत्तरोत्तर मनुष्य के उस निम्न तमसाच्छन्न प्रकाश का, जो पशु का परिचालन करता है, स्थान ग्रहण करती जाती है । पशु में भी प्राथमिक बुद्धि, एक प्रकार का मन, आत्मा, इच्छा-शक्ति और तीव्र भावावेश विद्यमान हैं; इसकी मानसिक रचना, कम विकसित होते हुए भी, मनुष्य के समान ही है । परन्तु पशु की ये सब शक्तियां स्वयंचल और सर्वथा सीमित, यहां तक कि प्रायः निम्नतर स्नायविक सत्ता से निर्मित होती हैं । उसके सभी बोधों,संवेदनो और क्रियाओं पर वे स्नायविक और प्राणिक सहज-प्रेरणाएं क्षुधाएं कामनाएं एवं भोग्य वस्तुएं शासन करती हैं जो जीवन-आवेग और प्राणिक कामना से बंधी हुई हैं । मनुष्य भी प्राणिक प्रकृति की इस यन्त्रिक क्रिया से बंधा हुआ है, पर अपेक्षाकृत कम । वह अपने आत्म-विकास के कठिन कार्य में एक प्रबुद्ध संकल्प, प्रबुद्ध विचार और प्रबुद्ध भावों का प्रयोग कर सकता है । वह कामना के निम्न व्यापार को उत्तरोत्तर इन अधिक सचेतन और विचारवान् मार्गदर्शकों के वश में ला सकता है । जितना ही वह अपने निम्न स्व को इस प्रकार नियन्त्रित और प्रबुद्ध कर सकता है उतना ही वह मनुष्य है, पशु नहीं । परन्तु एक इससे भी महत्तर प्रबुद्ध विचार, दृष्टि और संकल्प है जो अनन्त के साथ सम्बद्ध है और जो मनुष्य के अपने संकल्प से अधिक दिव्य संकल्प का सचेतन रूप से अनुसरण करता है तथा अधिक विराट् एवं परात्पर ज्ञान के साथ गुंथा हुआ है । इस विचार, दृष्टि एवं संकल्प को जब मनुष्य अपनी कामना के स्थान पर पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित करना शुरू कर पाता है तब समझो कि उसने अतिमानवत्व की ओर आरोहण आरम्भ कर दिया है, वह भगवान् की ओर अपनी ऊर्ध्वमुखी यात्रा में अग्रसर होने लगा है |

 

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     इसलिये हमें सब से पहले विचार, प्रकाश और संकल्प से युक्त उच्चतम मन को या गभीरतम वेदन और भाव से समन्वित अन्तरीय हृदय को, दोनों में से किसी एक को या, यदि हम समर्थ हों तो, एक साथ दोनों कोअपनी चेतना का केंद्र बनाना होगा और फिर उसे प्रकृति को पूरी तरह से भगवान् की ओर ले जाने के लिये एक साधन के रूप में प्रयुक्त करना होगा । योग का श्रीगणेश तब होता है जब हमारा प्रबुद्ध विचार, संकल्प और हृदय सब एक स्वर से हमारे ज्ञान के एकमात्र बृहत् ध्येय की ओर, हमारे कर्म के एकमात्र प्रकाशमय तथा अनन्त स्रोत की ओर, और हमारे भाव के एकमात्र अक्षय भाजन की ओर अभिमुख होकर उसीमें एकाग्र हो जाते हैं । हमारी खोज का ध्येय होना चाहिये उस प्रकाश का मूलस्रोत जो हमारे अन्दर उत्तरोत्तर बढ़ रहा है, और उस शक्ति का वास्तविक उद्गम जिसे हम अपने अंगों के संचालन के लिये पुकार रहे हैं । हमारा एकमात्र उद्देश्य होना चाहिये स्वयं भगवान् जिनके लिये हमारी गुप्त प्रकृति का कोई भाग, जाने-अनजाने, सदैव अभीप्सा करता है । मन को एकमेव भगवान् के विचार, बोध, दिव्य दर्शन, उद्बोधक स्पर्श और आत्म-साक्षात्कार पर ही व्यापक, बहुमुख किन्तु अनन्य भाव में एकाग्र होना चाहिये । हृदय की ज्वाला को सर्वमय और सनातन भगवान् की ओर एकाग्र भाव से प्रज्ज्वलित होना चाहिये और, एक बार जब हम उन्हें प्राप्त कर लें तो हमें सर्वसुन्दर की उपलब्धि और दिव्यानन्द में गहरी डुबकी लगाकर निमग्र हो जाना चाहिये । भगवान् जो कुछ भी हैं उस सब की प्राप्ति और चरितार्थता में संकल्प को दृढ़ और अचल रूप से एकाग्र होना चाहिये और भगवान् हमारे अन्दर जो कुछ प्रकट करना चाहते हैं उस सबकी ओर हमें अपने संकल्प को स्वतंत्र और नमनीय रूप में खोल देना चाहिये । यही योग का त्रिविध मार्ग है ।

 

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     परन्तु जिस वस्तु को हम अभी जानते नहीं उस पर हम अपने-आपको एकाग्र कैसे करें? और फिर भी जब तक हम भगवान् पर अपनी सत्ता की एकाग्रता को सिद्ध नहीं कर लेते तब तक हम उसका ज्ञान भी प्राप्त नहीं कर सकते । योग में ज्ञान तथा उसकी प्राप्ति के प्रयत्न से हमारा मतलब यह है कि हम एकमेव पर अपने को इस प्रकार एकाग्र करें कि हमें अपने अन्दर तथा उस सब के अन्दर जिससे हम अभिज्ञ हैं उसकी उपस्थिति का जीवन्त साक्षात्कार और सतत अनुभव प्राप्त हो । इतना ही बस नहीं कि हम शास्त्रों के स्वाध्याय से या दार्शनिक तर्क- वितर्क के बल पर भगवान् को बुद्धि द्वारा समझने में अपने को उत्सर्ग कर दें । क्योंकि अपने लंबे मानसिक श्रम के अन्त में हम चाहे वह सब कुछ जान लें जो

 

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सनातन देव के विषय में कहा गया है, वह सब कुछ आत्मसात् कर लें जो अनन्त के सम्बन्ध में सोचा जा सकता है, फिर भी सम्भव है कि हम उसे बिल्कुल न जान पायें । इसमें सन्देह नहीं कि बौद्धिक तैयारी किसी भी शक्तिशाली योग में प्रथम अवस्था हो सकती है, किन्तु यह अनिवार्य नहीं है; यह कोई ऐसी अवस्था नहीं है जिसमें से गुजरना सब के लिये आवश्यक हो या जिसमें से गुजरने को सब से कहा जा सके । ध्यान-चिन्तन करनेवाली बुद्धि ज्ञान की जिस बौद्धिक प्रतिभा को प्राप्त करती है वह यदि योग की आवश्यक शर्त या अनिवार्य प्रारम्भिक प्राप्ति हो तो योग इने-गिने लोगों के सिवा शेष सब के लिये असाध्य हो जाय । ऊपर से आनेवाला प्रकाश अपना काम शुरू कर सकने के लिये हम से जिस चीज की मांग करता है वह केवल आत्मा की पुकार है और है मन के भीतर पर्याप्त मात्रा में समर्थन । वह समर्थन मन में बार-बार भगवान् का विचार करके, क्रियाशील अंगों में तदनुरूप संकल्प करके और अभीप्सा, श्रद्धा तथा हार्दिक कामना के द्वारा किया जा सकता है । यदि ये सब एकस्वर होकर या एकताल होकर न चल सकते हों तो इनमें से किसी को अग्रणी या प्रधान भी बनाया जा सकता है । विचार प्रारम्भ में असमर्थ हो सकता है और होगा ही; अभीप्सा संकीर्ण और अपूर्ण हो सकती है । श्रद्धा अल्प प्रकाशित हो सकती है, यहां तक कि, ज्ञान की चट्टान पर सुप्रतिष्ठित न होने के कारण चलायमान तथा अनिश्चित भी हो सकती है । वह आसानी से मन्द भी पड़ सकती है । यह भी सम्भव है कि वह बार-बार बुझ जाय और आंधीदार घाटी में मशाल की भांति उसे कठिनाई से फिर-फिर प्रच्चलित करना पड़े । परन्तु यदि साधक एक बार अन्तर की गहराई से दृढ़ आत्म-निवेदन कर दे और आत्मा की पुकार के प्रति जाग जाय तो ये अपूर्ण चीजें भी दिव्य प्रयोजन के लिये पर्याप्त साधन हो सकती हैं । अतएव, ज्ञानी लोग ईश्वर की ओर मनुष्य की पहुंच के मार्गों को सीमित कर देने में सदा ही संकोचशील रहे हैं । वे उसके प्रवेश के लिये तंग- से-तंग द्वार, सब से नीची और सब से अंधेरी खिड़की तथा तुच्छ-से-तुच्छ प्रवेश- पथ भी बन्द नहीं करना चाहते । कोई भी नाम, कोई भी रूप, कोई भी प्रतीक, कोई भी अर्घ्य पर्याप्त समझा गया है यदि उसके साथ आत्म-निवेदन का भाव हो; क्योंकि जिज्ञासु के हृदय में भगवान् अपने को विराजमान देखते हैं और यज्ञ को स्वीकार कर लेते हैं ।

 

     तो भी, आत्म-निवेदन को प्रेरित करनेवाला विचार-बल जितना महान् और विशाल होगा, साधक के लिये यह उतना ही उत्तम होगा; उसकी उपलब्धि सम्भवत:, उतनी ही अधिक पूर्ण और प्रचुर होगी । यदि हमें पूर्णयोग की सिद्धि के लिये प्रयत्न करना है तो यह अच्छा होगा कि भगवान् के एक ऐसे विचार को लेकर चलें जो स्वयं पूर्ण हो । हृदय में एक ऐसी अभीप्सा होनी चाहिये जो किन्हीं संकुचित सीमाओं से रहित साक्षात्कार को प्राप्त करने के लिये खूब विशाल हो ।

 

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हमें केवल एक सांप्रदायिक एवं धार्मिक बहिर्दृष्टि को ही नहीं, अपितु उन सभी एकपक्षीय दार्शनिक विचारों को भी त्यागना होगा जो अनिर्वचनीय भगवान् को एक सीमित करनेवाले मानसिक सूत्र में आबद्ध कर देने का यत्न करते हैं । हमारा योग जिस शक्तिशाली विचार या प्रबल भावना को लेकर सुचारु रूप से चल सकता है वह स्वभावतः ही एक ऐसे चेतन अनन्त देव का विचार या भाव है जिसमें सब कुछ आ जाता है तथा जो सब को अतिक्रान्त कर जाता है । हमें अपनी ऊर्ध्वदृष्टि उस स्वतन्त्र, सर्वशक्तिमान्, पूर्ण और आनन्दमय परम एकमेव तथा परम एकत्व की ओर रखनी होगी जिसमें भूतमात्र गति करते और निवास करते हैं और जिसके द्वारा सभी मिल सकते और एक हो सकते हैं । यह 'सनातन' परमदेव आत्मा को समक्ष अपने को प्रकट करने और उसपर अपना वरदहस्त रखने में एक साथ ही वैयक्तिक भी है और निर्वैयक्तिक भी । वह वैयक्तिक है, क्योंकि वह चेतन भगवान् एवं अनन्त पुरुष है जो विश्व के असंख्य दिव्य एवं अदिव्य व्यक्तियों में अपनी एक टूटी-फूटी छाया डालता है । वह निर्वैयक्तिक है, क्योंकि वह हमें अनन्त सत्, चित् और आनन्द प्रतीत होता है और क्योंकि वह सभी सत्ताओं और सभी शक्तियों का मूल स्रोत, आधार एवं घटक है और हमारी सत्ता अर्थात् हमारे मन-प्राण-शरीर का वास्तविक उपादान है तथा हमारी आत्मा और हमारी भौतिक सत्ता है । भगवान् पर एकाग्र होने का अभ्यास करते हुए विचार के लिये केवल यही पर्याप्त नहीं है कि यह उसके अस्तित्व को बौद्धिक रूप में समझ ले अथवा उसे एक अमूर्त्त भाव या तर्कसिद्ध आवश्यक तत्त्व मान ले । इसे एक द्रष्टा का विचार बनना होगा जो घट- घटवासी भगवान् से यहीं मिल सके, जो हमारे अन्दर उसे साक्षात् कर सके और जो उसकी शक्तियों की गति का साक्षी एवं स्वामी बन सके । वह एकमेव सत् है; वह मूल और विश्वव्यापी आनन्द है जिससे यह सब जगत् बना है और जो इससे परे भी है । वह एकमेव अनन्त चेतना है जो सब चेतनाओं को गठित करती और उनकी सब गतियों को अनुप्राणित करती है । वह एकमेव असीम सत् है जो समस्त कर्म और अनुभव को धारण करता है । उसका संकल्प वस्तुओं के विकास को उनके अब तक असिद्ध पर अनिवार्य लक्ष्य तथा पूर्णता की ओर ले चलता है । उस पर हृदय अपने-आपको उत्सर्ग कर सकता है, परम प्रियतम के रूप में उसके पास पहुंच सकता है और प्रेम के सार्वभौम माधुर्य एवं आनन्द के सजीव सिन्धु के रूप में उसके अन्दर स्पन्दन और विचरण कर सकता है । क्योंकि उसका हर्ष वह गुप्त हर्ष है जो आत्मा को उसके सभी अनुभवों में आश्रय देता है और भ्रान्तिशील अहं को भी उसकी अग्नि-परीक्षाओं और संघर्षों में तब तक धारण करता है जब तक समस्त दुःख और क्लेश मिट नहीं जाते । उसका प्रेम और आनन्द उस अनन्त दिव्य प्रेमी का प्रेम और आनन्द है जो सभी वस्तुओं को उनके पथ से अपनी सुखमय एकता की ओर खींच रहा है । उसी पर संकल्प अपने को इस रूप में

 

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दृढ़तया एकाग्र कर सकता है कि वह एक अदृश्य शक्ति है जो इसे संचालित और क्रियान्वित करती है तथा इसके बल का स्रोत है । निर्वैयक्तिकता में यह प्रेरक बल एक स्वयं-प्रकाशमान शक्ति है जो सब परिणामों को धारण करती है और स्थिरतापूर्वक तब तक कार्य करती है जब तक कि वह उन्हें सिद्ध ही नहीं कर लेती । वैयक्तिकता में यह योग का सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् ईश्वर है जिसे अपने संकल्प के उद्देश्य की सिद्धि में कोई चीज बाधा नहीं पहुंचा सकती । इसी श्रद्धा से जिज्ञासु को अपनी खोज और प्रयत्न शुरू करना होता है । इस भूतल पर अपने सम्पूर्ण पुरुषार्थ में और, सब से बढ़ कर, अगोचर को प्राप्त करने के अपने पुरुषार्थ में मनोमय मनुष्य विवश होकर श्रद्धा द्वारा ही आगे बढ़ता है । जब उसे प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त होगा, तब श्रद्धा दिव्य रूपसे कृतार्थ और पूर्ण होकर ज्ञान की नित्य ज्योतिशिखा में परिणत हो जायगी ।

 

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     हमारे समस्त ऊर्ध्वमुख प्रयत्न में कामना का निम्नतर तत्त्व प्रारम्भ में स्वभावत: ही आ घुसेगा । कारण, जिसे ज्ञानदीप्त संकल्प एकमात्र करने योग्य कार्य समझता है और एकमात्र प्राप्तव्य सर्वोच्च ध्येय के रूप में खोजता है, जिसे हृदय एकमात्र आनन्दपूर्ण वस्तु जानकर गले लगाता है, उसीको हमारे अन्दर का कामनामय पुरुष भी अहंमय कामना की क्षुब्ध व्यग्रता के साथ खोजेगा । यह कामनामय पुरुष अपने-आपको सीमित और व्याहत अनुभव करता है, और क्योंकि यह सीमित है, इसलिये यह कामना और संघर्ष करता है । अपने अन्दर की इस कामनाशील प्राणशक्ति या कामनामय पुरुष को हमें शुरू में स्वीकार करना होता है, पर केवल इसलिये कि इसका रूपान्तर किया जा सके । यहां तक कि सर्वथा प्रारम्भ से ही इसे सिखाना होता है कि यह और सभी इच्छाएं त्यागकर केवल भागवत्प्राप्ति की कामना पर ही अपने-आपको एकाग्र करे । इस महत्त्वपूर्ण अवस्था के प्राप्त हो जाने के बाद इसे यह सिखाना होता है कि यह अपने पृथक् स्वार्थ के लिये नहीं, बल्कि संसारवासी ईश्वर और हमारे अन्तर्वासी भगवान् के लिये कामना करे । किसी भी व्यक्तिगत आध्यात्मिक लाभ में इसे ध्यान नहीं लगाना होगा, यद्यपि हमें निश्चय है कि समस्त सम्भव आध्यात्मिक लाभ हमें प्राप्त होगा । बल्कि, इसे उस महान् कर्म में ध्यान लगाना होगा जो हमारे और दूसरों के अन्दर किया जाना है, उस उच्च, भावी अभिव्यक्ति में जो संसार में भगवान् की एक भव्य चरितार्थता होनेवाली है, उस परम सत्य में जिसे खोजना, जीवन में लाना और सदा के लिये सिंहासनाधिरूढ़ करना है । परन्तु सबसे अन्त में इसे जो बात सिखानी होती है वह इसके लिये अत्यन्त कठिन है । वह है ध्येय की ठीक प्रकार से खोज करना । यह बात ठीक

 

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ध्येय को खोजने की अपेक्षा भी कहीं अधिक कठिन है, क्योंकि इसे अपने अहंभावमय तरीके से नहीं, बल्कि भगवान् के तरीके के अनुसार कामना करना सीखना होगा । इसे परिपूर्णता की अपनी शैली का, लक्ष्य-प्राप्ति के अपने स्वम्न का का, उचित और काम्य के विषय में अपने विचार का वैसा आग्रह करना सर्वथा छोड़ देना होगा जैसा कि प्रबल भेदमूलक इच्छा-शक्ति सदा ही किया करती है । एक अधिक विशाल और अधिक महान् इच्छा-शक्ति को चरितार्थ करने की इसे स्पृहा करनी होगी और एक कम स्वार्थासक्त तथा कम अज्ञ पथप्रदर्शन के द्वार पर प्रतीक्षा करने को राजी होना होगा । इस प्रकार शिक्षित होकर यह कामना जो अत्यन्त चंचल है, जो मनुष्य को अत्यधिक हैरान और परेशान करती है तथा प्रत्येक प्रकार का सखलन पैदा करती है, अपने दिव्य स्वरूप में परिणत होने योग्य बन जायगी । क्योंकि, कामना और रागावेश के भी अपने दिव्य रूप हैं । समस्त तृष्णा और दुःख से परे आत्मा की जिज्ञासा का एक विशुद्ध हर्षावेश है, आनन्द की एक ऐसी इच्छा है जो परम दिव्यानन्दों की प्राप्ति में महामहिम होकर विराजमान है ।

 

     जब एक बार हमारी एकाग्रता का ध्येय हमारे तीन प्रधान करणों अर्थात् विचार, हृदय और संकल्प को अधिकृत कर लेता है और इनसे अधिकृत हो जाता है, यह एक ऐसी ऊंची स्थिति है जो पूरी तरह तभी प्राप्त हो सकती है यदि हमारे अन्दर की कामनात्मा दिव्य विधान के अधीन हो जाय, तभी हमारी रूपान्तरित प्रकृति में तन-मन-जीवन की पूर्णता सफलतापूर्वक प्राप्त की जा सकती है । किन्तु यह कार्य अहंकार की निजी तृप्ति के लिये नहीं, वरन् इसलिये करना होगा कि सम्पूर्ण सत्ता दिव्य उपस्थिति के लिये उपयुक्त। मन्दिर एवं दिव्य कर्म के लिये निर्दोष यन्त्र बन सके । दिव्य कर्म सचमुच किया ही तभी जा सकता है जब यन्त्र समर्पित और पूर्णतायुक्त होकर निःस्वार्थ कार्य के योग्य बन जाय, और यह तब होगा जब वैयक्तिक कामना और अहंकार तो मिट जायं, पर स्वातंत्र्यप्राप्त व्यक्ति बना रहे । जब क्षुद्र अहं मिट जाता है तब भी सच्चे आध्यात्मिक पुरुष का अस्तित्व रह सकता है और उसके अन्दर ईश्वर का संकल्प, कर्म और आनन्द तथा उसकी पूर्णता और समृद्धि का आध्यात्मिक उपयोग भी बना रह सकता है । हमारे कर्म तब दिव्य होंगे और दिव्य ढंग से ही किये जायंगे । हमारा ईश्वरार्पित मन, जीवन और संकल्प तब दूसरों के अन्दर और संसार के अन्दर उस चीज को चरितार्थ करने में सहायता पहुंचाने के लिये प्रयुक्त होंगे जिसे हम अपने अन्दर चरितार्थ कर चुके हैं, अर्थात् उस सब साकार एकता, प्रेम, स्वतन्त्रता, बल, शक्ति, ज्योति और अमर आनन्द को चरितार्थ करने में प्रयुक्त होंगे जिसे हम स्वयं प्रकट कर सकते हैं और जो इहलोक में आत्मा के साहसिक कर्म का लक्ष्य है ।

 

     इस पूर्ण एकाग्रता के प्रयत्न से या कम-से-कम इसकी ओर स्थिर प्रवृत्ति से ही योग का आरम्भ होता है । यह आवश्यक है कि परम देव के प्रति अपना सर्वस्व

 

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समर्पित करने के लिये हमारे अन्दर अडिग और अटूट संकल्प हो और हम अपनी सम्पूर्ण सत्ता तथा प्रकति को अंग-प्रत्यगसहित उस सनातन देव पर उत्सर्ग कर दें जो 'सर्व' है । अपनी एकमात्र काम्य वस्तु पर हमारी अनन्य एकाग्रता जितनी शक्तिशाली तथा पूर्ण होगी, एकमात्र स्पृहणीय एकमेव के प्रति हमारा आत्म-समर्पण भी उतना ही पूर्ण होगा । परन्तु यह अनन्यता, अन्त में, संसार को देखने के हमारे मिथ्या ढंग और हमारे संकल्प के अज्ञान के सिवा और किसी चीज का बहिष्कार नहीं करेगी । सनातन देव पर हमारी एकाग्रता मन के द्वारा तब पूर्ण होगी जब हम सदा-सर्वदा-सर्वत्र भगवान् के ही दर्शन करने लगेंगेकेवल उनके निज स्वरूप में तथा अपने अन्दर ही नहीं, बल्कि सब पदार्थों प्राणियों और घटनाओं में भी । हृदय के द्वारा यह तब पूर्ण होगी जब सारे भाव भगवान् के ही प्रेम में संपुटित हो जायेंगे, शुद्ध और निरपेक्ष भगवान् के प्रेम में ही नहीं, बल्कि संसार के अन्दर अपने सभी जीवों, शक्तियों व्यक्तियों और दृश्य पदार्थों में रहने वाले भगवान् के प्रेम में भी | संकल्प के द्वारा यह तब पूर्ण होगी जब हम सदा दैवी प्रेरणा को अनुभव और ग्रहण करेंगे तथा उसीको अपनी एकमात्र चालक शक्ति स्वीकार करेंगे । परन्तु इसका अर्थ यह होगा कि अहंमूलक प्रकृति के भटकनेवाले आवेगों का तथा उनमें भी अन्तिम विद्रोही, उन्मार्गगामी आवेगतक का वध करके हमने अपने को विश्वमय बना लिया है और सभी पदार्थों में हो रही एक ही दैवी क्रिया को सदा हर्षपूर्वक स्वीकार करने के लिये हम योग्य बन गये हैं । यह पूर्णयोग की पहली आधारभूत सिद्धि है ।

 

     जब हम भगवान् के प्रति व्यक्ति के पूर्ण आत्म-निवेदन की बात करते हैं तब हमारा अभिप्राय अन्त में इसी चीज से होता है, इससे कम किसी चीज से नहीं । परन्तु निवेदन की यह समग्र पूर्णता अनवरत प्रगति के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है जब कि कामना का रूपान्तर करके उसका अस्तित्व मिटाने की लंबी और कठिन प्रक्रिया निःशेष रूप से पूर्ण कर ली जाय । पूर्ण आत्मनिवेदन में पूर्ण आत्म-समर्पण भी निहित है |

 

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     इस योग की दो गतियां हैं जिनके बीच में एक संक्रमण-अवस्था आती है, अथवा यूं कहें कि इस योग में दो काल आते हैं, एक तो समर्पण की क्रिया- प्रणाली का, दूसरा उसके शिखर और परिणाम का । पहले में व्यक्ति भगवान् को अपने अंगों में ग्रहण करने के लिये अपने-आपको तैयार करता है । इस सारे प्रारम्भिक काल में उसे निम्नतर प्रकृति के करणों द्वारा काम करते हुए भी ऊपर से अधिकाधिक सहायता प्राप्त करनी होती है ।  परन्तु इस गति की पिछली संक्रमण-

 

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अवस्था में हमारा व्यक्तिगत और अनिवार्यत:-अज्ञानपूर्ण प्रयत्न उत्तरोत्तर कम होता जाता है और उच्चतर प्रकृति कार्य करने लगती है; अनादि परम शक्ति इस सीमित मर्त्य शरीर में अवतरित होती है और इसे उत्तरोत्तर अधिकृत तथा रूपान्तरित करती जाती है । दूसरी अवस्था में महत्तर गति निम्नतर गति का, जो पहले अनिवार्य प्रारम्भिक क्रिया थी, पूर्णतया स्थान ले लेती है । किन्तु यह केवल तभी किया जा सकता है जब हमारा आत्म-समर्पण पूर्ण हो । हमारे अन्दर का अहं-रूप पुरुष अपने बल, ज्ञान या इच्छा-शक्ति के सहारे या अपने किसी गुण के बल पर अपने-आपको भगवान् की प्रकृति में रूपान्तरित नहीं कर सकता । वह केवल इतना ही कर सकता है कि वह अपने-आपको रूपान्तर के योग्य बनाये और जो कुछ वह बनना चाहता है उसके प्रति अपना अधिकाधिक समर्पण करता जाय । जब तक अहं हमारे अन्दर क्रियाशील रहता है तब तक हमारी व्यक्तिगत क्रिया अपने स्वरूप में सत्ता के निम्नतर स्तरों का एक अंगमात्र रहती है और सदा रहेगी ही । वह अज्ञानमय या अर्द्ध-प्रकाशयुक्त अपने क्षेत्र में सीमित और अपनी शक्ति की दृष्टि से बहुत अपूर्ण रूप में प्रभावशाली होती है । यदि आध्यात्मिक रूपान्तर किंचित् भी सिद्ध करना है, और यदि अपनी प्रकृति का केवल प्रकाशप्रद परिवर्तन करना ही इष्ट नहीं है, तो हमें अपनी व्यष्टि-सत्ता में यह चमत्कारक कार्य सिद्ध करने के लिये दिव्य शक्ति का आह्वान करना होगा; कारण, उसीमें इस कार्य के लिये अपेक्षित सामर्थ्य, निर्णायक, सर्वज्ञानमय और असीम सामर्थ्य विद्यमान है । परन्तु मानवीय व्यक्तिगत क्रिया के स्थान पर भगवान् की क्रिया को पूर्णतया स्थापित करना तुरत ही पूरी तरह से सम्भव नहीं होता, क्योंकि नीचे से होनेवाला हस्तक्षेप ऊर्ध्व स्तर की क्रिया के सत्य को मिथ्या रूप दे देता है । इसलिये पहले हमें ऐसे समस्त हस्तक्षेप को बन्द या निष्फल कर देना होगा और वह भी अपनी स्वतन्त्र इच्छा से । जिस चीज की हमसे मांग की जाती है वह यह है कि हम निम्नतर प्रकृति की प्रवृत्तियों और मिथ्यात्वों का सतत और सदा-सर्वदा पुनः-पुनः परित्याग करें और जैसे-जैसे हमारे अंगों में सत्य की वृद्धि हो वैसे-वैसे हम इसे दृढ़ आश्रय प्रदान करते जायें । क्योंकि, भीतर प्रविष्ट होती हुई संजीवनी ज्योति, पवित्रता और शक्ति को अपनी प्रकृति में उत्तरोत्तर प्रतिष्ठित करने और इनकी चरम पूर्णता साधित करने के लिये हमें इनका पोषण एवं संवर्धन करना होगा । इसके लिये यह आवश्यक है कि हम इन्हें मुक्त हृदय से अंगीकार करें और जो कुछ भी इनके विपरीत एवं इनसे हीनतर या असंगत है उस सबका दृढ़तापूर्वक परित्याग करें ।

 

     अपने- आपको तैयार करने की प्रथम गति में अर्थात् व्यक्तिगत प्रयत्न के काल में जिस विधि का हमें प्रयोग करना है वह सम्पूर्ण सत्ता की एकाग्रता है, उस भगवान् पर एकाग्रता है जिसे वह पाना चाहती है और, इसके स्वाभाविक परिणाम के तौर पर उस सबका सतत परित्याग एवं उस सबका परिवर्जन है जो भगवान्

 

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का सच्चा सत्य नहीं है । इस दृढ़ परित्याग का परिणाम उस सबका समग्र निवेदन होगा जो कुछ कि हम हैं और जो कुछ हम सोचते, अनुभव करते और कार्य करते हैं । आत्म-निवेदन क्रमश: सर्वोच्च देव के प्रति समग्र आत्मदान में परिसमाप्त होगा, क्योंकि आत्म-निवेदन का शिखर और उसकी पूर्णता का चिह्न है सम्पूर्ण प्रकृति का सर्वसंग्राहक निरपेक्ष समर्पण । योग की दूसरी अवस्था में, जो मानवीय और दिव्य क्रिया के बीच की संक्रमण-अवस्था है, मानवीय क्रिया के स्थान पर एक अन्य क्रिया ऊर्ध्व में अधिष्ठित होगी । वह है दिव्य शक्ति के प्रति वृद्धिशील, विशुद्ध और जागरूक नमनशीलता, उसके प्रति अधिकाधिक प्रकाशयुक्त दिव्य प्रत्युत्तर किन्तु उसीके प्रति, किसी अन्य के प्रति नहीं । इसके फलस्वरूप, ऊपर से आयेगा एक महान् और सचेतन चमत्कारी क्रिया का वर्धमान प्रवाह । अन्तिम अवस्था में किसी प्रकार का प्रयत्न नहीं होता, न कोई नियत विधि और न कोई बंधी साधना ही होती है । प्रयत्न और तपस्या का स्थान एक सहज-स्वाभाविक विकास ले लेता है । विशुद्ध और पूर्णता-प्राप्त पार्थिव प्रकृति की कली में से भगवान्रूपी कुसम शक्तिशाली और आनन्दप्रद ढंग से स्वयमेव विकसित होने लगता है । योग की क्रिया के स्वाभाविक क्रम यही हैं ।

 

     ये गतियां वास्तव में सदा तथा अटल रूप में इस प्रकार एक कठोर आनुक्रमिक रूप में बंधी हुई नहीं होतीं । पहली अवस्था की समाप्ति से पूर्व दूसरी अवस्था कुछ-कुछ शुरू हो जाती है । पहली अवस्था अंशत: तब तक जारी रहती है जब तक दूसरी पूर्ण नहीं हो लेती । इस बीच चरम दिव्य क्रिया समय-समय पर आश्वासन के रूप में अभिव्यक्त हो सकती है और बाद में वह हमारे अन्दर अन्तिम तौर पर प्रतिष्ठित तथा हमारी प्रकृति के लिये सहज-स्वाभाविक हो जाती है । वैसे तो सदा ही व्यक्ति की अपेक्षा कोई उच्चतर और महत्तर शक्ति उसके पीछे विद्यमान होती है जो उसके वैयक्तिक प्रयत्न और पुरुषार्थ में भी उसका पथ- प्रदर्शन करती है । पर्दे की ओट में प्रच्छन्न इस महत्तर पथप्रदर्शन के प्रति वह कितनी ही बार सचेतन भी हो सकता है, यहां तक कि कुछ काल के लिये पूर्ण रूप से और अपनी सत्ता के कुछ भागों में तो नित्य रूप से भी सचेतन रह सकता है । बल्कि, यह सचेतनता उसे बहुत पहले भी प्राप्त हो सकती है, जब कि उसकी सम्पूर्ण सत्ता अपने सभी अंगों में निम्नतर परोक्ष नियंत्रण की अपवित्रता से अभी मुक्त भी नहीं हुई होती । यहां तक कि वह प्रारम्भ से ही इस प्रकार सचेतन रह सकता है; उसके अन्य अंग न भी सही, किन्तु उसका मन और हृदय दोनों योग में सर्वप्रथम पदार्पण करने के बाद से ही इस प्रच्छन्न शक्ति के अभिभूतकारी और तीक्ष्ण पथ-प्रदर्शन का प्रत्युत्तर एक प्रकार की प्रारम्भिक पूर्णता के साथ दे सकते हैं । परन्तु संक्रमण-अवस्था जैसे-जैसे आगे बढ़ती और अपनी समाप्ति के निकट पहुंचती है वैसे-वैसे जो लक्षण उसे अन्य अवस्थाओं से अधिकाधिक स्पष्ट रूप में

 

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पृथक् करता है वह इस महान् प्रत्यक्ष नियन्त्रण की सतत, पूर्ण एवं समरस क्रिया है । यह महत्तर एवं दिव्यतर पथ-प्रदर्शन हमारे लिये व्यक्तिगत नहीं होता, इसकी प्रधानता इस बात का चिह्न होती है कि प्रकृति समग्र आध्यात्मिक रूपान्तर के लिये उत्तरोत्तर परिपक्व हो रही है । यह इस बात का अचूक चिह्न होती है कि आत्म- निवेदन केवल सिद्धान्तत: ही स्वीकार नहीं किया गया है अपितु वह क्रिया और शक्ति में भी पूर्णतः चरितार्थ हो गया है । परम देव ने अपनी चमत्कारमयी ज्योति, शक्ति और आनन्द के चुने हुए मानवीय आधार के सिर पर अपना ज्योतिर्मय हस्त धर दिया है ।

 

 

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अध्याय ३

 

कर्म में आत्म-समर्पणगीता का मार्ग

 

केवल दूरर्स्थ, नीरव या उन्नीत आनन्द-विभोर पारलौकिक जीवन ही नहीं, वरन् समस्त जीवन हमारे योग का क्षेत्र है । सोचने, देखने, अनुभव करने और रहने की हमारी स्थूल, संकीर्ण और खंडात्मक मानवीय शैली का गंभीर एवं विशाल अध्यात्म-चेतना में तथा एक सर्वांगपूर्ण आन्तरिक एवं बाह्य अस्तित्व में रूपान्तर और हमारे सामान्य मानव-जीवन का दिव्य जीवन-प्रणाली में रूपान्तर इसका प्रधान लक्ष्य होना चाहिये । इस परम लक्ष्य का साधन हैहमारी सम्पूर्ण प्रकृति का अपने- आपको भगवान् के हाथों में सौंप देना । हमें अपनी प्रत्येक चीज अपने अन्तःस्थ ईश्वर, विश्वमय 'सर्व' और विश्वातीत परमात्मा को समर्पित कर देनी होगी । अपने संकल्प, अपने हृदय और अपने विचार को उस एक और बहुरूप भगवान् पर पूर्णरूपेण एकाग्र करना और अपनी सम्पूर्ण सत्ता को निःशेष रूप से भगवान् पर ही न्योछावर कर देना इस योग की एक निर्णायक गति है, यह अहं का उस 'तत्' की ओर मुड़ना है जो उससे अनन्तगुना महान् है, यही उसका आत्मदान और अनिवार्य समर्पण है ।

 

     मानव प्राणी का जीवन, जैसा कि यह साधारणतया बिताया जाता है, नाना तत्त्वों के अर्द्ध-स्थिर, अर्द्ध-तरल समूह से बना है । वे तत्त्व हैंअत्यन्त अपूर्णतया नियन्त्रित विचार, इंद्रियानुभव, संवेदन, भाव, कामनाएं सुखोपभोग तथा कर्म जो अधिकतर रूढ़िबद्ध एवं पुनरावर्ती और केवल अंशत: प्रभावशाली और विकसनशील होते हैं, पर जो सबके सब उथले अहं के इर्द-गिर्द केंद्रित रहते हैं । इन (विचार, इंद्रियानुभव आदि ) क्रियाओं की गति का सम्मिलित परिणाम वह आन्तरिक विकास होता है जो कुछ अंश में तो इसी जीवन में प्रत्यक्ष और फलप्रद होता है और कुछ अंश में भावी जन्मों में होनेवाली प्रगति के लिये बीज का काम करता है । सचेतन सत्ता की यह प्रगति, उसके उपादानभूत अंगों का विस्तार, उत्तरोत्तर आत्म-प्रकाशन और अधिकाधिक समस्वरित विकास ही मानव के अस्तित्व एवं जीवन का सम्पूर्ण अर्थ और समस्त सार है । चेतना के इस सार्थक विकास के लिये ही मनुष्य ने, मनोमय प्राणी ने इस स्थूल शरीर में प्रवेश किया है । यह विकास विचार, इच्छाशक्ति, भाव, कामना, कर्म और अनुभव की सहायता से होता है और अन्त में परम दिव्य आत्म-ज्ञान प्राप्त करा देता है । इसके सिवा शेष सब कुछ सहायक और गौण है अथवा आनुषंगिक और निष्प्रयोजन है; केवल वही चीज आवश्यक है जो मनुष्य की प्रकृति के विकास में और उसकी अन्तरात्मा एवं आत्मा

 

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की उन्नति में अथवा यूं कहें कि उनकी उत्तरोत्तर अभिव्यक्ति और उपलब्धि में पोषक और सहायक हो ।

 

     हमारे योग का लक्ष्य बस इह-जीवन के इस परम लक्ष्य को शीघ्र-से-शीघ्र प्राप्त करना है । यह योग प्राकृतिक विकास की मन्द तथा अस्त-व्यस्त प्रगति की साधारण, लम्बी विधि को छोड़ देता है । प्राकृतिक विकास तो, अधिक-से-अधिक, एक प्रच्छन्न अनिश्चित-सी उन्नति ही होता है; यह कुछ हद तक परिस्थिति के दबाव के द्वारा और कुछ हद तक लक्ष्यहीन शिक्षा और अर्द्ध-प्रकाशमान सोद्देश्य प्रयत्न के द्वारा सम्पन्न होता है । यह सुयोगों का अंशत: प्रबुद्ध और अर्द्ध-यान्त्रिक उपयोगमात्र होता है जिसमें अनेक भूलें, पतन और पुन: -पतन भी होते हैं । इसका एक बहुत बड़ा भाग प्रत्यक्ष परिस्थितियों और आकस्मिक घटनाओं एवं उनके परिवर्तनों से गठित होता है, यद्यपि इसके पीछे गुप्त दिव्य सहायता एवं पथ-प्रदर्शन अवश्य छिपा रहता है । योग में हम इस अस्त-व्यस्त, केंकड़े की-सी टेढ़ी चाल के स्थान पर एक वेगशाली, सचेतन और आत्म-प्रेरित विकास-प्रक्रिया को प्रतिष्ठित करते हैं जो हमें यथासम्भव सीधे ही अपने लक्ष्य की ओर ले जा सकती है । एक ऐसे विकास में जो सम्भवतः असीम हो सकता है कहीं किसी लक्ष्य की चर्चा करना एक दृष्टि से अशुद्ध होगा । फिर भी हम अपनी वर्तमान उपलब्धि से परे एक तात्कालिक लक्ष्य एवं दूरतर उद्देश्य की कल्पना कर सकते हैं जिसके लिये मनुष्य की आत्मा अभीप्सा कर सकती है । एक नूतन जन्म की सम्भावना का द्वार उसके सामने खुला पड़ा है; वह सत्ता के एक उच्चतर और विशालतर स्तर में आरोहण कर सकता है और वह स्तर उसके अंगों का रूपान्तर करने के लिये यहां अवतरित हो सकता है । एक विस्तृत और प्रदीप्त चेतना का उदय होना भी सम्भव है जो उसे मुक्त आत्मा और पूर्णताप्राप्त शक्ति बना देगी और यदि वह चेतना व्यक्ति के परे भी सब ओर व्याप्त हो जाय तो वह दिव्य मानवता अथवा नवीन, अतिमानसिक और अतएव अतिमानवीय जाति की भी रचना कर सकती है । इसी नूतन जन्म को हम अपना लक्ष्य बनाते हैं । दिव्य चेतना में विकसित होना, केवल आत्मा को ही नहीं, अपितु अपनी प्रकृति के सभी अंगों को पूर्ण रूप से दिव्यता में रूपान्तरित करना हमारे योग का सम्पूर्ण प्रयोजन है ।

 

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     हमारी योग साधना का उद्देश्य हैसीमित एवं बहिर्मुख अहं को बहिष्कृत कर देना और उसके स्थान पर ईश्वर  को प्रकृति के नियन्ता अन्तर्यामी के रूप में सिंहासनासीन करना । इसका तात्पर्य हैसब से पहले कामना को उसके अधिकार से च्युत कर देना और फिर उसके सुख को प्रधान मानवीय प्रेरक भाव के रूप में कदापि स्वीकार न करना । आध्यात्मिक जीवन अपना पोषण कामना से नहीं, बल्कि

 

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मूल सत्ता के विशुद्ध और अहंतारहित आध्यात्मिक आनन्द से प्राप्त करेगा । हमारी उस प्राणिक प्रकृति को ही नहीं जिसकी निशानी कामना है, बल्कि हमारी मानसिक सत्ता को भी नूतन जन्म तथा रूपान्तरकारी परिवर्तन का अनुभव करना होगा । हमारे विभक्त, अहंपूर्ण, सीमित और अज्ञानयुक्त विचार एवं बोध को विलुप्त हो जाना होगा और इसके स्थान पर उस अन्धकाररहित दिव्य प्रकाश की एक व्यापक एवं अविकल धारा को प्रवाहित होना होगा जिसका अन्तिम और सर्वोच्च रूप एक ऐसी स्वाभाविक स्वयं-सत् सत्य-चेतना हो जिसमें अन्धकार में खोजनेवाला अर्द्ध-सत्य तथा स्खलनशील भ्रान्ति न हो । हमारे विमूढ़, व्याकुल, अहं-केंद्रित तथा क्षुद्र- भाव- प्रेरित संकल्प एवं कर्म का अन्त हो जाना चाहिये और इसके स्थान पर एक तीव्र- प्रभावशाली, ज्ञानपूर्वक स्वयंचालित और भगवान् से प्रेरित एवं अधिष्ठित शक्ति की पूर्ण क्रिया को प्रतिष्ठित होना चाहिये । हमारे सभी कार्यों में उस परम निर्वैयक्तिक, अविचल और निर्भ्रान्त संकल्प को दृढ़ और सक्रिय होना चाहिये जो भगवान् के संकल्प के साथ सहज और शान्त एकत्व रखता हो । हमें अपने दुर्बल अहंकारमय भावों की अतृप्तिकर ऊपरी क्रीड़ा का बहिष्कार कर इसके स्थान पर उस निभृत, गंभीर और विशाल अन्तरस्थ चैत्य हृदय का आविर्भाव करना होगा जो उन भावों के पीछे छिपा हुआ अपने मुहूर्त्त की प्रतीक्षा कर रहा है । इस अन्तरीय हृदय सेजिसमें भगवान् का वास हैप्रेरित होकर हमारे सब भाव और अनुभव भागवत प्रेम और बहुविध आनन्द की दोहरी उमंग की प्रशान्त और प्रगाढ़ गतियों में रूपान्तरित हो जायेंगे । यही है दिव्य मानवता या विज्ञानमय जाति का लक्षण । यहीन कि मानवीय बुद्धि और कर्म की अतिरंजित किवा उदात्तीकृत शक्तिउस अतिमानव का रूप है जिसे अपने योग के द्वारा विकसित करने के लिये हमें आह्वान प्राप्त हुआ है ।

 

     साधारण मानव जीवन में बहिर्मुख कर्म स्पष्ट ही हमारे जीवन का तीन-चौथाई या इससे भी बड़ा भाग होता है; केवल कुछ-एक असाधारण व्यक्ति ही, जैसे ऋषि-मुनि, विरले मनीषी, कवि और कलाकार, अपने भीतर अधिक रह सकते है । निःसन्देह ये, कम-से-कम अपनी प्रकृति के अन्तरतम अंगों में, अपने-आपको बाह्य कर्म की अपेक्षा आन्तरिक विचार और भाव में ही अधिक गढ़ते हैं । परन्तु इन आन्तर और बाह्य पक्षों में से कोई भी दूसरे से पृथक् होकर पूर्ण जीवन के रूप की रचना नहीं करेगा, वरंच जब आन्तर और बाह्य जीवन पूर्णतः एकीभूत होकर अपने से परे की किसी वस्तु की लीला में रूपान्तरित हो जायंगे तब उनकी वह समरसता ही पूर्ण जीवन को मूर्त्त रूप देगी । अतएव, कर्मयोग, अर्थात् केवल ज्ञान और भाव में ही नहीं, अपितु अपने संकल्प और कार्यों में भी भगवान् के साथ मिलन, पूर्णयोग का एक अनिवार्य अंग है, एक ऐसा आवश्यक अंग है जिसके महत्त्व का वर्णन नहीं हो सकता । वास्तव में हमारे विचार और भाव

 

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रूपान्तर एक पंगु उपलब्धि ही रहेगा यदि इसके साथ हमारे कार्यों की भावना और बाह्य रूप का भी एक अनुरूप रूपान्तर न हो जाय ।

 

     परन्तु यदि यह पूर्ण रूपान्तर संपन्न करना है तो हमें अपने मन और हृदय की भांति अपने कार्यों और बाह्य चेष्टाओं को भी भगवान् के चरणों में समर्पित करना होगा, अपनी कार्य करने की सामर्थ्यों का अपने पीछे विद्यमान महत्तर शक्ति के हाथों में समर्पण करने के लिये सहमत होना होगा तथा इस समर्पण को उत्तरोत्तर सम्पन्न भी करना होगा । हम ही कर्ता और कर्मी है इस भाव को मिटा देना होगा । जो भागवत संकल्प इन सम्मुखीन प्रतीतियों के पीछे छिपा हुआ है, उसीके हाथों में हमें सब कुछ सौंप देना होगा, ताकि वह इस सबका अधिक सीधे तौर से उपयोग कर सके, क्योंकि उस अनुमन्ता संकल्प के द्वारा ही हमारे लिये कोई भी कार्य करना सम्भव होता है । एक निगूढ़ शक्तिशाली देव ही हमारे कार्यों का सच्चा स्वामी और अधिष्ठाता साक्षी है, और केवल वही हमारे अहंकार से उत्पन्न अज्ञान, कालुष्य और विकार में भी हमारे कर्मों का सम्पूर्ण मर्म और अन्तिम प्रयोजन जानता है । हमें अपने सीमित और विकृत अहंभावमय जीवन और कर्मों का उस महत्तर दिव्य जीवन, संकल्प और बल के विशाल एवं प्रत्यक्ष प्रवाह में पूर्ण रूपान्तर साधित करना होगा जो हमें इस समय गुप्त रूप में धारण कर रहा है । इस महत्तर संकल्प और बल को हमें अपने अन्दर सचेतन और स्वामी बनाना होगा; इसे आज की तरह केवल अतिचेतन और धारण करनेवाली और अनुमति देनेवाली शक्ति ही नहीं बने रहना होगा । जो सर्वज्ञ शक्ति और सर्वशक्तिमान् ज्ञान आज गुप्त है उसका पूर्ण ज्ञानमय प्रयोजन एवं प्रक्रिया हमारे अन्दर बिना विकृत हुए संचरित होऐसी अवस्था हमें प्राप्त करनी होगी । वह शक्ति और ज्ञान हमारी समस्त रूपान्तरित प्रकृति को अपनी उस शुद्ध और निर्बाध प्रणालिका में परिणत कर देंगे जो सहर्ष स्वीकृति देने और भाग लेनेवाली होगी । यह पूर्ण निवेदन तथा समर्पण और इससे फलित होनेवाला यह समग्र रूपान्तर तथा (ज्ञान और बल का) स्वतंत्र संचार सर्वांगीण कर्मयोग का समस्त मूल साधन और अन्तिम लक्ष्य हैं ।

 

     उन लोगों के लिये भी जिनकी पहली स्वाभाविक गति चिन्तनात्मक मन और उसके ज्ञान का अथवा हृदय और उसके भावों का पूर्ण निवेदन तथा समर्पण और फलतः उनका पूर्ण रूपान्तर होती है, कर्मों का अर्पण इस रूपान्तर के लिये एक आवश्यक अंग है । अन्यथा, पारलौकिक जीवन में वे ईश्वर को भले ही पा लें पर इह-जीवन में वे भगवान् को अभिव्यक्त नहीं कर सकेंगे, इह-जीवन उनके लिये निरर्थक, अदिव्य और असंगत वस्तु ही रहेगा । वह सच्ची विजय उनके भाग्य में नहीं है जो हमारे पार्थिव जीवन की पहेली की कुंजी होगी; उनका प्रेम आत्म-विजयी एवं परिपूर्ण प्रेम नहीं होगा, न उनका ज्ञान ही एक समग्र चेतना और सर्वांगीण ज्ञान होगा । निःसन्देह, यह सम्भव है कि केवल ज्ञान या ईश्वराभिमुख भाव को लेकर या

 

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इन दोनों को एक साथ लेकर योग प्रारम्भ किया जाय और कर्मों को योग की अन्तिम गति के लिये रख छोड़ा जाय । परन्तु इसमें हानि यह है कि हम आन्तरिक अनुभव में सूक्ष्म वृत्तिवाले बनकर तथा अपने बाह्य-सम्बन्धशून्य आन्तरिक अंगों में बन्द रहते हुए अतीव एकांगी रूप में भीतर-ही-भीतर निवास करने की ओर आकृष्ट हो सकते हैं । सम्भव है कि वहां हम अपने आध्यात्मिक एकान्तवास के कठोर आवरण से आच्छादित हो जायें और फिर बाद में अपनी आन्तरिक जीवनधारा को सफलतापूर्वक बाह्य जीवन में प्रवाहित करना और उच्चतर प्रकृति में हमने जो सिद्धि प्राप्त की है उसे बाह्य जीवन के क्षेत्र में व्यवहृत करना हमें कठिन मालूम होने लगे । जब हम इस बाह्य राज्य को भी अपनी आन्तरिक विजयों में जोड़ने की ओर प्रवृत्त होंगे, तब हम अपने को एक ऐसी शुद्ध रूप से आन्तरिक क्रिया के अत्यधिक अभ्यस्त पायेगे जिसका जड़ स्तर पर कोई प्रभाव नहीं होगा । तब बहिर्जीवन और शरीर का रूपान्तर करने में हमें बड़ी भारी कठिनाई होगी । अथवा हम देखेंगे कि हमारा कर्म अन्तर्ज्योति के साथ मेल नहीं खाता; यह अभी तक पुराने अभ्यस्त भ्रान्त पथों का ही अनुसरण करता है और पुराने सामान्य अपूर्ण प्रभावों के अधीन है; हमारा अन्तरस्थ सत्य एक कष्टकर खाई के द्वारा हमारी बाह्य प्रकृति की अज्ञानपूर्ण क्रिया से पृथक् होता चला जाता है । यह अनुभव प्रायः ही होता है, क्योंकि ऐसी एकांगी पद्धति में प्रकाश और बल स्वयंपूर्ण बन जाते हैं और अपने-आपको जीवन में प्रकट करने या पृथ्वी और इसकी प्रक्रियाओं के लिये नियत भौतिक साधनों का प्रयोग करने को इच्छुक नहीं होते । यह ऐसा ही है मानो हम किसी अन्य विशालतर एवं सूक्ष्मतर जगत् में रह रहे हों और जड़ तथा पार्थिव सत्ता पर हमारा दिव्य प्रभुत्व बिल्कुल भी न हो या शायद किसी प्रकार का भी प्रभुत्व नहीं के बराबर हो ।

 

     फिर भी प्रत्येक को अपनी प्रकृति के अनुसार चलना चाहिये और यदि हमें अपने स्वाभाविक योगमार्ग का अनुसरण करना है तो उसमें कुछ कठिनाइयां तो सदा ही आयेंगी जिन्हें कुछ काल के लिये स्वीकार करना पड़ेगा । योग, अन्तत:, मुख्य रूप में आन्तर चेतना और प्रकृति का परिवर्तन है, पर यदि हमारे अंगों का सन्तुलन ही ऐसा हो कि प्रारम्भ में यह परिवर्तन कुछ अंगों में ही करना सम्भव हो और शेष को अभी ऐसे ही छोड़कर बाद में अपने हाथ में लेना आवश्यक हो तो हमें इस प्रक्रिया की प्रत्यक्ष अपूर्णता को स्वीकार करना ही होगा । तथापि पूर्णयोग की आदर्श क्रियाप्रणाली एक ऐसी विकासधारा होगी जो अपनी प्रक्रिया में प्रारम्भ से ही सर्वांगीण और अपनी प्रगति में अखंड तथा सर्वतोमुखी हो । कुछ भी हो, इस समय हमारा प्रमुख विषय उस योग-मार्ग का निरूपण करना है जो अपने लक्ष्य और सम्पूर्ण गतिधारा की दृष्टि से सर्वांगीण हो, किन्तु जो कर्म से प्रारम्भ करे और कर्मद्वारा ही अग्रसर हो, पर साथ ही हर सीढ़ी पर एक जीवनदायी दिव्य प्रेम से

 

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अधिकाधिक प्रेरित और एक सहायक दिव्य ज्ञान से अधिकाधिक आलोकित हो ।

 

 

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     आध्यात्मिक कर्मों का सब से महान् दिव्य सत्य जो आज तक मानव-जाति के लिये प्रकट किया गया है, अथवा कर्मयोग की पूर्णतम पद्धति जो अतीत में मनुष्य को विदित थी, भगवद्गीता में पायी जाती है । महाभारत के उस प्रसिद्ध उपाख्यान में कर्मयोग की महान् मूलभूत रूपरेखा अनुपम अधिकार के साथ और विश्वस्त अनुभव की निर्भ्रान्त दृष्टि के साथ सदा के लिये अंकित कर दी गयी है । यह ठीक है कि केवल उसका मार्ग ही, जैसा कि पूर्वजों ने इसे देखा था, पूरी तरह खोलकर बताया गया है; पूर्ण चरितार्थता या सर्वोच्च रहस्थ के विकास का संकेत ही दिया गया है, उसे खोलकर नहीं रखा गया है; उसे परम रहस्य के अव्यक्त अंश के रूप में छोड़ दिया गया है । इस मौन के कारण स्पष्ट हैं, क्योंकि चरितार्थता अनुभव का विषय होती है और कोई भी उपदेश इसे प्रकट नहीं कर सकता । इसका वर्णन किसी ऐसे ढंग से नहीं किया जा सकता जिसे मन सचमुच में समझ सके, क्योंकि मन को वह प्रकाशमय रूपान्तरकारी अनुभव प्राप्त ही नहीं है । इसके अतिरिक्त जो आत्मा उन चमकीले द्वारों को पार कर अन्तर्ज्योति की ज्वाला के सम्मुख पहुंच गयी है उसके लिये समस्त मानसिक तथा शाब्दिक वर्णन जितना क्षुद्र, अपर्याप्त तथा प्रगल्भ होता है उतना ही निःसार भी होता है । सभी दिव्य सिद्धियों का निरूपण हमें विवश होकर मनोमय मनुष्य के साधारण अनुभव के अनुरूप रचित भाषा की अनुपयुक्त और भ्रामक शब्दावली में ही करना पड़ता है । इस प्रकार वर्णित होने के कारण वे सिद्धियां केवल उन्हींको ठीक-ठीक समझ में आ सकती हैं जो पहले से ही ज्ञानी हों और, ज्ञानी होने के कारण, इन निःसार बाह्य शब्दों को एक परिवर्तित, आन्तरिक तथा रूपान्तरित अभिप्राय प्रदान कर सकते हों । वैदिक ऋषियों ने प्रारम्भ में ही बल देकर कहा था कि परम ज्ञान के शब्द केवल उन्हीं के लिये अर्थ-द्योतक होते हैं जो पहले से ही ज्ञानी हों । गीता ने अपने गूढ़ उपसंहार के रूप में जो मौन साध लिया है उससे ऐसा प्रतीत हो सकता है कि जिस समाधान की हम खोज कर रहे हैं उस तक वह नहीं पहुंच पायी है; वह उच्चतम आध्यात्मिक मन की सीमाओं पर ही रुक जाती है और उन्हें पार कर अतिमानसिक प्रकाश की दीप्तियों तक नहीं पहुंचती । फिर भी उसका प्रधान रहस्य हैहृदयस्थ ईश्वर के साथ केवल स्थितिशील ही नहीं, वरन् क्रियाशील एकत्व और हमारे दिव्य मार्गदर्शक तथा हमारी प्रकृति के स्वामी एवं अन्तर्वासी के प्रति पूर्ण समर्पण का सर्वोच्च गुह्य ज्ञान । यह समर्पण अतिमानसिक रूपान्तर का अनिवार्य साधन है और फिर अतिमानसिक परिवर्तन से ही सक्रिय एकत्व सम्भव होता है ।

     तब गीताद्वारा प्रतिपादित कर्मयोग-प्रणाली क्या है? इसके मुख्य सिद्धान्त या

 

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इसकी आध्यात्मिक पद्धति का हम संक्षेप में इस प्रकार वर्णन कर सकते हैं कि वह चेतना की दो विशालतम और उच्चतम अवस्थाओं या शक्तियों, अर्थात् समता और एकता का मिलन है । इसकी पद्धति का सार है भगवान् को अपने जीवन में तथा अपनी अन्तरात्मा और आत्मा में निःशेष रूप से अंगीकार करना । व्यक्तिगत कामना के आन्तरिक त्याग से समता प्राप्त होती है । इससे भगवान् के प्रति हमारा पूर्ण समर्पण साधित होता है तथा हमें विभाजक अहं से मुक्ति पाने में सहायता मिलती है और यह मुक्ति ही हमें एकत्व प्रदान करती है । परन्तु यह एकत्व शक्ति की सक्रिय अवस्था में होना चाहिये न कि केवल स्थितिशील शान्ति या निष्क्रिय आनन्द की अवस्था में । गीता हमें कर्मों के और प्रकृति की पूर्ण वेगमयी शक्तियों के भीतर भी आत्मा की स्वतन्त्रता का आश्वासन देती है, पर केवल तभी यदि हम अपनी समस्त सत्ता की उस सत्ता के प्रति अधीनता स्वीकार कर लें जो पृथक् और सीमित करनेवाले अहं से उच्चतर है । यह एक ऐसी सर्वांगपूर्ण शक्तिमय सक्रियता को प्रस्थापित करती है जो प्रशान्त निष्क्रियता पर आधारित हो । इसका रहस्य हैएक ऐसा बृहत्तम कर्म जो अचल शान्ति के आधार पर दृढ़ रूप से प्रतिष्ठित हो अर्थात् परम अन्तरीय निश्चल-नीरवता की एक स्वच्छन्द अभिव्यक्ति हो ।

 

     यह संसार एक एवं अखंड, नित्य, विश्वातीत और विश्वमय ब्रह्म है जो विभिन्न वस्तुओं और प्राणियों में विभिन्न प्रतीत होता है । पर वह केवल प्रतीति में ही ऐसा है, क्योंकि वास्तव में वह सदा सभी पदार्थों और प्राणियों में एक तथा 'सम' है और भिन्नता तो केवल ऊपरी वस्तु है । जब तक हम अज्ञानमय प्रतीति में रहते हैं तब तक हम ' अहं' हैं और प्रक्रति के गणों के अधीन रहते हैं । बाह्य आकारों के दास बने हुए द्वंद्वों से बंधे हुए और शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य, हर्ष-शोक, सुख-दुःख, सौभाग्य-दुर्भाग्य एवं जय-पराजय के बीच ठोकरें खाते हुए हम लाचार माया के पहिये के लोहमय या स्वर्णलोहमय घेरे पर चक्कर काटते रहते हैं । सबसे अच्छी अवस्था में भी हमारी स्वतन्त्रता अत्यन्त तुच्छ और सापेक्ष ही होती है और उसीको हम अज्ञानपूर्वक अपनी स्वतन्त्र इच्छा कहते हैं । पर मूलतः वह मिथ्या होती है, क्योंकि प्रकृति के गुण ही हमारी व्यक्तिगत इच्छा में से अपने-आपको व्यक्त करते हैं; प्रकृति की शक्ति ही हमें ज्ञानपूर्वक वश में रखती हुई, पर हमारी समझ और प्रक से बाहर रहकर यह निर्धारित करती है कि हम क्या इच्छा करेंगे और वह इच्छा किस प्रकार करेंगे । हमारा स्वतन्त्र अहं नहीं, बल्कि प्रकृति यह चुनाव करती है कि अपने जीवन की किसी घड़ी में हम एक युक्तियुक्त संकल्प या विचाररहित आवेग के द्वारा किस पदार्थ की अभिलाषा करेंगे । इसके विपरीत, यदि हम ब्रह्म की एकीकारक वास्तविक सत्ता में निवास करते हैं तो हम अहं से ऊपर उठकर विश्वप्रकृति को लांघ जाते हैं । तब हम अपनी सच्ची अन्तरात्मा को पुन: प्राप्त कर लेते हैं और आत्मा बन जाते हैं । आत्मा में हम प्रकृति की प्रेरणा से ऊपर और

 

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उसके गुणों एवं शक्तियों से उत्कृष्ट होते हैं । अन्तरात्मा, मन और हृदय में पूर्ण समता प्राप्त करके हम अपनी उस सच्ची आत्मा को, जो स्वभाव से ही एकत्व धर्मवाली है, अनुभव कर लेते हैं । हमारी यह सच्ची आत्मा सभी सत्ताओं के साथ एकीभूत है । यह उस सत्ता के साथ भी एकीभूत है जो अपने-आपको इन सब सत्ताओं में तथा उस सबमें प्रकट करती है जिसे हम देखते और अनुभव करते हैं । यह समता और एकता एक अनिवार्य दोहरी नींव है जो हमें भागवत सत्ता, भागवत चेतना और भागवत कर्म के लिये स्थापित करनी होगी । यदि हम सबके साथ एकाकार नहीं हैं तो आध्यात्मिक दृष्टि से हम दिव्य नहीं हैं । सब वस्तुओं, घटनाओं और प्राणियों के प्रति आत्मिक समता रखे बिना हम दूसरों को आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं देख सकते, न हम उन्हें दिव्य ढंग से जान सकते हैं और न उनके प्रति दिव्य ढंग से सहानुभूति ही रख सकते हैं । परा शक्ति एवं एकमेव नित्य और अनन्त देव सब पदार्थों और सब प्राणियों के प्रति 'सम' है, और क्योंकि वह 'सम' है, वह अपने कर्मों और अपनी शक्ति के सत्य के अनुसार और प्रत्येक पदार्थ और प्रत्येक प्राणी के सत्य के अनुसार पूर्ण ज्ञानपूर्वक कार्य कर सकता है ।

 

     अपिच, मनुष्य को जो सच्ची स्वतन्त्रता प्राप्त हो सकती है वह केवल यही है । यह एक ऐसी स्वतन्त्रता है जिसे वह तब तक नहीं प्राप्त कर सकता जब तक वह अपनी मानसिक पृथक्ता से ऊपर नहीं उठता और विश्व-प्रकृति में एक चिन्मय आत्मा नहीं बन जाता । भगवान् की इच्छा ही संसार में एकमात्र स्वतन्त्र इच्छा है और इसीको प्रकृति कार्य-रूप में परिणत करती है; कारण, वह अन्य सभी इच्छाओं की स्वामिनी और स्त्रष्ट्री है । मनुष्य की स्वतन्त्र इच्छा एक अर्थ में सच्ची हो सकती है, परन्तु प्रकृति के गुणों से सम्बन्ध रखनेवाली अन्य सभी चीजों की भांति, यह भी केवल सापेक्ष रूप में ही सत्य है । मन प्राकृतिक शक्तियों के भंवर पर सवार होता है, अनेक सम्भावनाओं के बीच एक स्थिति पर अपने को सन्तुलित कर लेता है, एक या दूसरी तरफ झुक जाता है, एक निश्चय कर लेता है और समझता है कि मैंने चुनाव किया है । परन्तु यह उस शक्ति को नहीं देखता और न इसे उसका तनिक आभास ही होता है जिसने पीछे छिपे रहकर इसके चुनाव का निश्चय  किया है । यह उसे देख भी नहीं सकता, क्योंकि वह शक्ति एक ऐसी वस्तु है जो अखण्ड है और हमारी दृष्टि के लिये निर्विशेष है । मन तो अधिक-से-अधिक इस शक्ति के उन नानाविध और जटिल विशिष्ट निर्धारणों में से कुछ-एक का पर्याप्त स्पष्टता और सूक्ष्मता के साथ विवेचन मात्र कर सकता है जिसके द्वारा यह शक्ति अपने अप्रमेय प्रयोजनों को सिद्ध करती है । स्वयं एकांगी होने से, मन हमारी सत्तारूपी मशीन के एक भाग पर सवार हो जाता है और काल एवं परिपार्श्व में इसकी जो चालक शक्तियां हैं उनके नौ-दशमांश से तथा अपनी गत तैयारी एवं भावी दिशा से अनभिज्ञ ही रहता है । परन्तु, क्योंकि यह सवार होता है, यह समझता है कि यह

 

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मशीन को चला रहा है । एक दृष्टि से इसका महत्त्व है : क्योंकि मन की वह स्पष्ट रुचि जिसे हम अपनी इच्छा कहते हैं और उस रुचि के सम्बन्ध में हमारा वह दृढ़ निश्चय जो हमारे सामने ऐच्छिक चुनाव के रूप में उपस्थित होता है, विश्व-प्रकृति के अत्यन्त शक्तिशाली निर्धारकों में से एक है; किन्तु यह निश्चय कभी भी स्वतन्त्र और सर्वेसर्वा नहीं होता । मानव-इच्छा की इस क्षुद्र निमित्तमात्रता के पीछे कोई विराट्, शक्तिशाली और नित्य वस्तु है जो उसकी रुचि की दिशा की देख-रेख करती है और उसकी इच्छा के किसी विशेष रुख को बल प्रदान करती है । प्रकृति में एक अखंड सत्य है जो हमारी वैयक्तिक रुचि से अधिक महान् है और इस अखण्ड सत्य में, या इसके परे और पीछे भी, कोई ऐसी चीज है जो सब परिणामों को निश्चित करती है । उसकी उपस्थिति और उसका गुप्त ज्ञान प्रकृति की क्रियाप्रणाली के अन्दर ठीक सम्बन्धों, परिवर्तनशील या स्थिर आवश्यकताओं तथा गति के अनिवार्य सोपानों के एक सक्रिय और सहजप्राय बोध को स्थिर रूप से बनाये रखते हैं । एक निगूढ़ दिव्य इच्छाशक्ति है, नित्य और अनन्त, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् जो इन सब प्रत्यक्षत:-अनित्य और सान्त, निश्चेतन या अर्धचेतन पदार्थों की समष्टि में तथा इनमें से प्रत्येक व्यष्टि में अपनेको प्रकट करती है । जब गीता कहती है कि सब जीवों के हृद्देश में ईश्वर विराजमान है और वह प्राणिमात्र को प्रकृति की माया के द्वारा यंत्रारूढू की भांति चला रहा है तो वहां उसका अभिप्राय इसी निगूढ़ शक्ति या उपस्थिति से है ।

 

     यह दिव्य इच्छाशक्ति कोई विजातीय शक्ति या उपस्थिति नहीं है । इसका हमसे घनिष्ठ सम्बन्ध है और हम स्वयं इसके अंग हैं, क्योंकि यह हमारी अपनी उच्चतम आत्मा की ही चीज है और हमारी आत्मा ही इसे धारण करती है । हां, यह हमारी सचेतन मानसिक इच्छाशक्ति नहीं है । प्रत्युत, जिसे हमारी सचेतन इच्छाशक्ति स्वीकार करती है उसे यह प्रायः ही ठुकरा देती है और जिसे हमारी सचेतन इच्छाशक्ति ठुकरा देती है उसे यह प्रायः स्वीकार कर लेती है । कारण, जहां यह गुप्त एकमेव इच्छाशक्ति सबको और प्रत्येक अखण्ड वस्तु को तथा एक-एक अंश को जानती है वहां हमारा स्थूल मन केवल वस्तुओं के एक छोटे-से भाग को ही जानता है । हमारी इच्छाशक्ति मन के भीतर सचेतन है और जो कुछ भी यह जानती है विचार द्वारा ही जानती है । दिव्य इच्छाशक्ति हमारे लिये अतिचेतन है, क्योंकि यह मूलतः मन से परे की वस्तु है; यह सब कुछ जानती है, क्योंकि यह स्वयं सब कुछ है । हमारी सर्वोच्च आत्मा जो इस वैश्व शक्ति की स्वामिनी और भर्त्री है हमारा अहं-रूप स्व नहीं है, न ही वह हमारी वैयक्तिक प्रकृति है । वह तो कोई परात्पर तथा विश्वमय वस्तु है जिसकी ये क्षुद्रतर वस्तुएं फेनराशि और तरल तरंगेंमात्र हैं । यदि हम अपनी सचेतन इच्छा को अर्पित कर दें और इसे सनातन पुरुष की साथ एक हो जाने दें, तब और केवल तभी हम सच्चा स्वातंत्र्य

 

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प्राप्त कर सकते हैं । भागवत स्वातंत्र्य में निवास करते हुए हम बन्धनों में जकड़ी हुई उस तथाकथित स्वतंत्र-इच्छा से तब और नहीं चिमटे रहेंगे जो कठपुतली के समान चालित स्वतंत्रता होती है तथा जो अज्ञ, मिथ्या एवं सापेक्ष है और अपने ही न्यूनतापूर्ण प्राणिक प्रेरक भावों एवं मानसिक आकारों की भ्रान्ति से बद्ध है ।

 

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एक विभेद को, जो विशेष महत्त्वपूर्ण है, हमें अपनी चेतना में दृढ़तया अंकित कर लेने की जरूरत है, वह है प्रकृति और पुरुष में विभेद, यांत्रिक प्रकृति और इसके स्वतंत्र स्वामी में, ईश्वर या एकमात्र ज्योतिर्मयी भागवती संकल्प-शक्ति और विश्व के अनेक कार्यवाहक गुणों और शक्तियों में विभेद ।

 

     प्रकृति, सनातन की चेतनाशक्ति के रूप में नहीं जो कि इसका दिव्य सत्य रूप है, बल्कि अपने उस रूप में जिसमें यह हमें अज्ञान में प्रतीत होती है, एक कार्यवाहक शक्ति है, जो यंत्रवत् क्रिया करती है । इसके विषय में हमें जो अनुभव होते हैं उनके अनुसार यह सचेतन रूप में बुद्धिशाली नहीं है, यद्यपि इसके सभी काम पूर्ण बुद्धि से प्रेरित होते हैं । अपने-आप स्वामिनी न होती हुई भी, यह एक ऐसी आत्म-सचेतन शक्ति से पूर्ण है जो अपने अन्दर अनन्त प्रभुत्व को धारण किये हुए है । इस शक्ति के द्वारा परिचालित होने के कारण यह सबपर शासन करती है और जिस कार्य को ईश्वर इसके द्वारा करना चाहते हैं उसे यह ठीक-ठीक संपन्न करती है । भोग न करती हुई भी यह भोगी जाती है और सब भोगों का भार अपने अन्दर वहन करती है । प्रक्रिया-शक्ति के रूप में 'प्रकृति' एक यन्त्रवत् कार्य करनेवाली सक्रिय शक्ति है, क्योंकि यह अपने पर लादी हुई गति को पूरा करती है । परन्तु इसके अन्दर वह एकमेव है जो जानता है, एक सत्ता वहां विराज रही है जो इसकी समस्त क्रिया-प्रक्रिया से अभिज्ञ है । प्रकृति अपने साथ संयुक्त या अपने अन्दर विराजमान 'पुरुष' का ज्ञान, प्रभुत्व और आनन्द धारण करती हुई कार्य करती है; परन्तु यह इनमें भाग तभी ले सकती है यदि यह अपने अन्दर व्याप्त उस पुरुष के अधीन रहकर उसे प्रतिबिम्बित करे । पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है और फिर भी स्थिर तथा निष्क्रिय है; वह प्रकृति के कार्य को अपनी चेतना और ज्ञान में धारण करता है और उसका उपभोग करता है । वह प्रकृति के कार्यों को अनुमति देता है और प्रकृति उससे अनुमत कार्यों को उसकी प्रसन्नता के लिये संपादित करती है । पुरुष अपनी अनुमति को अपने-आप कार्यान्वित नहीं करता; वह प्रकृति को उसके कार्य में आश्रय देता है और जो कुछ वह अपने ज्ञान में देखता है उसे शक्ति, प्रक्रिया एवं मूर्त्त परिणाम में प्रकट करने के लिये उसे अनुमति देता है । यह प्रकृति और पुरुष का सांख्यकृत विवेचन है । यद्यपि सारा वास्तविक सत्य यही नहीं 

 

  यह शक्ति ईश्वर की चिन्मयी दिव्य शक्ति है, परात्पर और विश्वगत जननी है ।

 

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है, यद्यपि यह किसी भी प्रकार पुरुष या प्रकृति का सर्वोच्च सत्य नहीं है फिर भी यह सत्ता के अपरार्ध में एक प्रामाणिक तथा अपरिहार्य अनिवार्य ज्ञान है ।

 

     किसी भी पिड में विद्यमान व्यष्टिरूप आत्मा या चेतन सत् इस अनुभवग्राही पुरुष के साथ या इस क्रियाशील प्रकृति के साथ तदाकार हो सकता है । यदि वह अपने-आपको प्रकृति के साथ तदाकार करता है तो वह स्वामी, भोक्ता और ज्ञाता नहीं होता, बल्कि प्रकृति के गुणों और व्यापारों को प्रतिबिम्बित करता है । अपनी इस तदाकारता से वह उस दासता और यांत्रिक क्रिया-प्रणाली में भाग लेता है जो इस प्रकृति का अपना विशेष धर्म है । यहां तक कि प्रकृति में पूर्णतया लीन होकर यह आत्मा अचेतन या अवचेतन बन जाती है, प्रकृति के स्थूल रूपों में पूर्ण रूप से प्रसुप्त हो रहती है जैसे मिट्टी और धातु में, या फिर लगभग प्रसुप्त हो रहती है जैसे उद्भिज-जीवन में । वहां, उस अचेतना में, यह तमस् के अर्थात् अन्धता और जड़ता के तत्त्व के, उनकी शक्ति या गुण की प्रबलता के अधीन होती है । सत्त्व और रज भी वहां अवश्य होते हैं, पर वे तम के घने आवरण में छिपे रहते हैं । देहधारी जीव जब अपनी विशेष प्रकार की चेतना में उदित हो रहा होता है, किन्तु अभी प्रकृति में तम की अत्यधिक प्रबलता के कारण सच्चे अर्थों में चेतन नहीं होता, तब वह उत्तरोत्तर रजस् के अधीन होता जाता है । रजस् कामना तथा अन्धप्रेरणा से प्रेरित कर्म और आवेश का तत्त्व, शक्ति, गुण या अवस्था है । इस अवस्था में एक प्रकार की पाशविक प्रकृति गठित और विकसित होती है जिसकी चेतना संकीर्ण और बुद्धि असंस्कृत होती है तथा जिसके प्राणिक अभ्यास और आवेग राजस-तामसिक होते हैं । महत् अचेतना से आध्यात्मिक स्तर की ओर और भी अधिक बाहर आकर देहधारी पुरुष सत्त्व को, अर्थात् प्रकाश के गुण को, उन्मुक्त करता है और एक प्रकार का ज्ञान, स्वामित्व तथा सापेक्ष स्वातंत्र्य प्राप्त करता है और इसके साथ-साथ उसे आन्तरिक सन्तोष और सुख का परिच्छिन्न तथा मर्यादित अनुभव भी प्राप्त होता है । मनुष्य की अर्थात् स्थूल देह में रहनेवाले मनोमय पुरुष की प्रकृति ऐसी ही होनी चाहिये, परन्तु इन कोटि-कोटि देहधारी जीवों में से कुछ-एक को छोड़कर किसी की भी प्रकृति ऐसी नहीं होती । साधारणतः उसमें अन्ध पार्थिव जड़ता और विक्षुब्ध एवं अज्ञ पाशव जीवन-शक्ति इतनी अधिक होती है कि वह प्रकाशमय और आनन्दमय आत्मा नहीं बन सकता, बल्कि वह समस्वर संकल्प और ज्ञान से युक्त मन भी नहीं बन सकता । हम देखते हैं कि स्वतन्त्र, स्वामी, ज्ञाता और भोक्ता पुरुष के सच्चे स्वभाव की ओर मनुष्य का आरोहण अभी यहां पूर्ण नहीं हुआ है, अभी तक यह विघ्न-बाधा और विफलता से ही आक्रान्त है । कारण, मानवीय और पार्थिव अनुभव में ये सत्त्व, रज और तम सापेक्ष गुण हैं; इनमें से किसी का भी ऐकान्तिक और पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता । सब एक-दूसरे से मिले हैं और इनमें से किसी एक की भी शुद्ध क्रिया कहीं

 

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नहीं पायी जाती । इनकी अस्तव्यस्त और अनिश्चित परस्पर-क्रिया ही अहम्मन्य मानव-चेतना के अनुभवों को निर्धारित करती है और इस प्रकार वह चेतना प्रकृति के एक अस्थिर सन्तुलन के झूले में झूलती रहती है ।

 

     देहधारी आत्मा के प्रकृति में लीन होने का चिह्न यह होता है कि उसकी चेतना अहं के घेरे में ही सीमित रहती है । इस सीमित चेतना को स्पष्ट छाप मन और हृदय की सतत असमता में और अनुभव के स्पर्शों के प्रति उनकी अनेकविध प्रतिक्रियाओं के बीच के अस्तव्यस्त संघर्ष और असामंजस्य में देखी जा सकती है । मानवीय प्रतिक्रियाएं लगातार द्वंद्वों में चक्कर काटती रहती हैं । द्वंद्व इस कारण पैदा होते हैं कि आत्मा प्रकृति के अधीन है और प्रभुत्व तथा उपभोग के लिये प्रायः ही एक तीव्र पर ओछा संघर्ष करती रहती है । परन्तु वह संघर्ष अधिकांश में निष्फल जाता है और आत्मा प्रकृति के प्रलोभक तथा दुःखमय विरोधी द्वंद्वों, सफलता और विफलता, सौभाग्य और दुर्भाग्य, शुभ और अशुभ, पाप और पुण्य, हर्ष और शोक तथा सुख और दुःखके अन्तहीन घेरे में चक्कर काटती रहती है । प्रकृति के अन्दर ग्रस्त रहने की इस अवस्था से जागकर जब यह एकमेव और भूतमात्र के साथ अपनी एकता अनुभव करती है तभी यह इन द्वंद्वों से मुक्त होकर कर्त्री जगत्-प्रकृति से अपना ठीक सम्बन्ध स्थापित कर सकती है । तब यह उसके हीनतर गुणों के प्रति तटस्थ, उसके द्वंद्वों के प्रति समचित्त और स्वामित्व तथा स्वातंत्र्य के योग्य हो जाती है । अपनी ही नित्य सत्ता के प्रशान्त, प्रगाढ़ एवं अमिश्रित आनन्द से परिपूर्ण होकर यह उच्च सिंहासनाधिरूढ़ ज्ञाता और साक्षी के रूप में प्रकृति से ऊर्ध्व में आसीन (उदासीन ) रहती है । देहधारी आत्मा अपनी शक्तियों को कर्म में प्रकट करना जारी रखती है, किन्तु यह अज्ञान में अब और ग्रस्त नहीं रहती, न ही अपने कर्मों से बद्ध होती है । इसके कर्मों का इसके भीतर अब कोई परिणाम उत्पन्न नहीं होता, बल्कि केवल बाहर प्रकृति में ही परिणाम उत्पन्न होता है । प्रकृति की संपूर्ण गति इसे ऊपरी सतह पर तरंगों का उठना और गिरनामात्र प्रतीत होती है । इन तरंगों से इसकी अगाध शान्ति एवं विशाल आनन्द में, इसकी बृहत् विश्वव्यापिनी समता या निःसीम ईश्वर-भाव में किंचित् भी अन्तर नहीं पड़ता ।

 

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     १यह आवश्यक नहीं कि कर्मयोग के लिये हमें गीता का सम्पूर्ण दर्शन निर्विवाद स्वीकार करना चाहिये । हम चाहें तो इसे एक मनोवैज्ञानिक अनुभव का वर्णन मान सकते हैं, जो योग की व्यावहारिक भित्ति के रूप में उपयोगी है । इस क्षेत्र में यह पूर्णत: युकिायुक्त है और ऊंचे तथा विस्तृत अनुभव से पूरी तरह संगत भी है । इस कारण मैंने यह उचित समझा है कि इसे यहां यथासम्भव आधुनिक चिन्तन की भाषा में प्रतिपादित कर दूं । जो कुछ मनोविज्ञान की अपेक्षा कहीं अधिक वैश्व-सत्ता-विषयक दर्शन से सम्बन्ध रखता है वह सब मैंने छोड़ दिया है |

 

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हमारे प्रयत्न की प्रतिज्ञाएं निम्नलिखित हैं और वे एक ऐसे आदर्श की ओर इंगित करती हैं जो अधोलिखित सूत्रों में या इनके समानार्थक को में प्रकट किया जा सकता है

 

     ईश्वर में निवास करना, अहं में नहीं । एक बृहत् आधार पर प्रतिष्ठित होकर कार्य करना, क्षुद्र अहम्मन्य चेतना पर प्रतिष्ठित होकर नहीं, बल्कि विश्व-आत्मा और विश्वातीत परम देव की चेतना पर प्रतिष्ठित होकर कार्य करना ।

 

     सभी घटनाओं में और सभी सत्ताओं के प्रति पूर्णतया सम होना और उन्हें इस रूप में देखना तथा अनुभव करना कि वे अपने साथ और भगवान् के साथ एक हैं । सभीको अपने में और सभीको ईश्वर में अनुभव करना; ईश्वर को सब में तथा अपने-आपको सबमें अनुभव करना ।

 

     ईश्वर में निवास करते हुए कर्म करना, अहं में नहीं । यहां सब से पहली बात यह है कि कर्म का चुनाव व्यक्तिगत आवश्यकताओं और मानदंडों के विचार से नहीं, बल्कि ऊर्ध्व-स्थित सजीव और सर्वोच्च सत्य के आदेश के अनुसार करना । इसके बाद, ज्यों ही हम आध्यात्मिक चेतना में काफी हद तक प्रतिष्ठित हो जायें, त्यों ही अपनी पृथक् इच्छाशक्ति या चेष्टा से कर्म करना छोड़ देना, वरंच अपने से अतीत भागवत संकल्प की प्रेरणा और पथ-प्रदर्शन की छाया में कर्म को उत्तरोत्तर होने और बढ़ने देना । अन्त में, चरम-फलस्वरूप, उस उच्च अवस्था में उठ जाना जिसमें हमें भागवत शक्ति के साथ ज्ञान तथा शक्ति, चेतना, कर्म और सत्ता के आनन्द में तादात्म्य प्राप्त हो जाता है । इसके साथ ही एक ऐसी प्रबल क्रियाशीलता अनुभव करना जो मर्त्य कामना, प्राणिक अन्ध-प्रेरणा, आवेग और मायामय मानसिक स्वतन्त्र इच्छा के वशीभूत न हो, प्रत्युत अमर आत्म- आनन्द और अनन्त आत्म-ज्ञान में ज्योतिष्मान् रूप से धारित और विकसित हो । यही वह सक्रियता है जो प्राकृतिक मनुष्य को, सचेतन रूप में, दिव्य आत्मा और सनातन आत्मा के अधीन और उसमें निमज्जित कर देने से प्रवाहित होती है । आत्मा ही वह सत्ता है जो सदा से इस जगत्-प्रकृति के परे है और इसे संचालित करती है ।

 

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     परन्तु आत्म-साधना के किन क्रियात्मक उपायों से हम यह सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं?

 

     स्पष्ट है कि समस्त अहम्मूलक किया और उसकी नींव अर्थात् अहम्मय चेतना का बहिष्कार ही हमारी अभीष्ट सिद्धि का उपाय है । और, क्योंकि कर्मयोग के पथ में कर्म ही सब से पहले खोलने योग्य ग्रंथि है, हमें इसे वहीं से खोलने का प्रयत्न करना होगा जहां, अर्थात् कामना और अहंभाव में, यह मुख्य रूप से बंधी हुई है ।

 

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अन्यथा हम केवल कुछ-एक बिखरे धागे ही काटेंगे न कि अपने बंधन का मर्मस्थल । इस अज्ञानमय एवं विभक्त प्रकृति के प्रति हमारी अधीनता की यही दो ग्रन्थियां हैंकामना और अहंभाव । इन दो में से कामना की जन्मभूमि है भाव, सम्बेदन और अन्ध-प्रेरणाएं वहीं से यह विचारों और इच्छाशक्ति पर अपना प्रभाव डालती है । अहंभाव इन चेष्टाओं में तो रहता ही है, पर साथ ही वह चिन्तनात्मक मन और उसकी इच्छाशक्ति में भी अपनी गहरी जड़ें फैलाता है और वहीं वह पूर्णत: आत्म-सचेतन भी होता है । भूत की तरह बसेरा डाले हुई जगद्व्यापिनी अविद्या की ये ही युगल अन्धकारमय शक्तियां हैं जिनमें हमें प्रकाश पहुंचाना है और जिनसे हमें छुटकारा प्राप्त करना है ।

 

     कर्म के क्षेत्र में कामना अनेक रूप धारण करती है । उनमें सबसे अधिक प्रबल रूप है अपने कर्मों के फल के लिये प्राणमय पुरुष की लालसा या उत्कण्ठा । जिस फल की हम लालसा करते हैं वह आन्तरिक सुखरूपी पुरस्कार हो सकता है; वह किसी अभिमत विचार या किसी प्रिय संकल्प की पूर्ति या अहंकारमय भावों की तृप्ति, या अपनी उच्चतम आशाओं और महत्त्वाकांक्षाओं की सफलता का गौरवरूपी पुरस्कार हो सकता है । अथवा वह एक बाह्य पारितोषिक हो सकता है, अर्थात् एक ऐसा प्रतिफल जो सर्वथा स्थूल हो, जैसे धन, पद, प्रतिष्ठा, विजय, सौभाग्य अथवा प्राणिक या शारीरिक कामना की किसी और प्रकार की तृप्ति । परन्तु ये सब समान रूप से कुछ ऐसे फंदे हैं जिनके द्वारा अहंभाव हमें बांधता है । सदा ही ये सुख-सन्तोष हमारे अन्दर यह भाव और विचार पैदा करके कि हम स्वामी और स्वतन्त्र हैं हमें छला करते हैं, जब कि वास्तव में अन्ध 'कामना' की कोई स्थूल या सूक्ष्म, भली या बुरी मूर्त्ति ही — जो जगत् को प्रचालित करती है, हमें जोतती और चलाती है अथवा हमपर सवार होती और हमें कोड़े लगाती है । इसीलिये गीता ने कर्म का जो सब से पहला नियम बताया है वह है फल की किसी भी प्रकार की कामना के बिना कर्तव्य कर्म करना, अर्थात् निष्काम कर्म करना ।

 

     देखने में तो यह नियम आसान है, फिर भी इसे एक प्रकार की पूर्ण सद्हृदयता और स्वतन्त्रकारी समग्रता के साथ निभाना कितना कठिन है ! अपने काम के अधिक बड़े भाग में यदि हम इस सिद्धान्त का प्रयोग करते भी हैं तो बहुत कम, और तब भी प्रायः कामना के सामान्य नियम को एक प्रकार से सन्तुलित करने और इस क्रूर आवेग की अतिशयित क्रिया को कम करने के लिये ही करते हैं । अधिक-से-अधिक हम इतने से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं कि हम अपने अहंभाव को संयत और संशोधित कर लें जिससे वह हमारी नैतिक भावना को बहुत अधिक ठेस लगाने और दूसरों को अत्यन्त निर्दयतापूर्वक पीड़ा पहुंचानेवाला न रहे । और, अपनी इस आंशिक आत्म-साधना को हम अनेक नाम और रूप देते हैं; अभ्यास के द्वारा हम कर्तव्य- भावना, दृढ़ सिद्धान्त-निष्ठा, वैराग्यपूर्ण सहिष्णुता या धार्मिक

 

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समर्पण और ईश्वरेच्छा के प्रति एक शान्त या आनन्दपूर्ण निर्भरता का स्वभाव बना लेते हैं । परन्तु गीता का आशय इन चीजों से नहीं है, यद्यपि ये अपने-अपने स्थान में उपयोगी अवश्य हैं । इसका लक्ष्य है एक चरम-परम, पूर्ण एवं दृढ़-स्थिर अवस्था, एक ऐसी प्रवृत्ति और भावना जो आत्मा का सम्पूर्ण सन्तुलन ही बदल डालेगी । प्राणिक आवेग का मन द्वारा निग्रह करना नहीं, बल्कि अमर आत्मा की दृढ़ अविचल स्थिति ही इसका नियम है ।

 

     इसके लिये वह जिस कसौटी का उल्लेख करती है वह है मन और हृदय की पूर्ण समता सभी परिणामों के प्रति, सभी प्रतिक्रियाओं के प्रति, सभी घटनाओं के प्रति । यदि सौभाग्य और दुर्भाग्य, यदि मान और अपमान, यदि यश और अपयश, यदि जय और पराजय, यदि प्रिय घटना और अप्रिय घटना आवें और चली जावें, पर हम उनसे चलायमान न हों, इतना ही नहीं, वरन् वे हमें छू तक न सकें और हम भावों, स्नायविक प्रतिक्रियाओं एवं मानसिक दृष्टि में स्वतन्त्र बने रहें, प्रकृति के किसी भी भाग में जरा-सी भी चंचलता या हलचल के साथ प्रत्युत्तर न दें, तभी समझना चाहिये कि हमें वह पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त हो गयी है जिसकी ओर गीता निर्देश करती है, अन्यथा नहीं । छोटी-से-छोटी प्रतिक्रिया भी इस बात का प्रमाण होती है कि हमारी साधना अभी अपूर्ण है, हमारी सत्ता का कोई भाग अज्ञान और बन्धन को अपना नियम स्वीकार करता है और अभी तक पुरानी प्रकृति से चिपटा हुआ है, हमारी आत्म-विजय कुछ ही अंश में सिद्ध हुई है, यह हमारी प्रकृतिरूपी भूमि की कुछ लम्बाई में या किसी हिस्से में या किसी छोटे से चप्पे में अभी तक अपूर्ण या अवास्तविक है । अथच अपूर्णता का वह जरा-सा कंकड़ योग के सम्पूर्ण भवन को भूमिसात् कर सकता है |

 

     सम आत्म-भाव से मिलती-जुलती और अवस्थाएं भी होती हैं जिन्हें गीता की गंभीर और बृहत् आध्यात्मिक समता समझ बैठने की भूल हमें नहीं करनी चाहिये । निराशाजनित त्याग की भी एक समता होती है और अभिमान की तथा कठोरता एवं तटस्थता की भी समता होती है । ये सब अपनी प्रकृति में अहंभावमय होती हैं । साधना-पथ में ये आया ही करती हैं, किन्तु इन्हें त्याग देना होगा अथवा इन्हें वास्तविक शम में रूपान्तरित कर देना होगा । इनसे और अधिक ऊंचे स्तर पर तितिक्षावादी (stoic) की समता, धार्मिक-वृत्तिमय त्याग की या साधु-सन्तों की- सी अनासक्ति की समता तथा जगत् से किनारा खींच कर उसके कर्मों से तटस्थ रहनेवाली आत्मा को समता भी होती हैं । ये भी पर्याप्त नहीं हैं; ये प्रारम्भिक प्रवेश-पथ हो सकती हैं, किन्तु आत्मा के वास्तविक और पूर्ण स्वत:सत् विशाल सम-एकत्व में हमारे प्रवेश के लिये ये प्रारम्भिक आत्म-अवस्थाएं ही होती हैं अथवा ये अपूर्ण मानसिक तैयारियों से अधिक कुछ नहीं होतीं ।

 

     यह निश्चित है कि इतने बड़े परिणाम पर हम बिना किन्हीं प्रारम्भिक अवस्थाओं

 

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के तुरन्त ही नहीं पहुंच सकते । सब से पहले हमें संसार के आघातों को इस प्रकार सहना सीखना होगा कि हमारी सत्ता का केंद्रीय भाग उनसे अछूता और शान्त रहे, भले ही हमारा स्कूल मन, हृदय और प्राण खूब जोर से डगमगा जायें । अपने जीवन की चट्टान पर अविचल खडे रहकर, हमें अपनी आत्मा को विलग कर लेना होगा, ताकि वह हमारी प्रकृति के इन बाह्य व्यापारों का पीछे से निरीक्षण करती रहे या अन्दर बहुत गहरे स्थित होकर इनकी पहुंच से परे रहे । इसके बाद, निर्लिप्त आत्मा की इस शान्ति और स्थिरता को इसके करणों तक फैला कर, शान्ति की किरणों को प्रकाशमय केंद्र से अधिक अन्धकारमय परिधि तक शनैः-शनैः प्रसारित करना सम्भव हो जायगा । इस प्रक्रिया में हम बहुत-सी गौण अवस्थाओं की क्षणिक सहायता ले सकते हैं, किसी प्रकार की तितिक्षा का अभ्यास (stoism), कोई शान्तिप्रद दर्शन, किसी प्रकार का धार्मिक भावातिरेक हमें अपने लक्ष्य के किंचित् निकट पहुंचाने में सहायक हो सकते हैं । अथवा हम अपनी मानसिक प्रकृति की कम प्रबल एवं उन्नत किन्तु उपयोगी शक्तियों को भी सहायता के लिये पुकार सकते हैं । परन्तु अन्त में हमें इनका त्याग या रूपान्तर करके इनके स्थान पर पूर्ण आन्तरिक समता और स्वत:सत् शान्ति, यहां तक कि, यदि सम्भव हो तो, अपने सभी अंगों में एक अखंड, अक्षय, आत्मसंस्थित और स्वाभाविक आनन्द प्राप्त करना होगा ।

 

     किन्तु तब हम काम करना ही कैसे जारी रख सकेंगे? क्योंकि साधारणतया मानव प्राणी काम इसलिये करता है कि उसे कोई कामना होती है अथवा वह मानसिक, प्राणिक या शारीरिक अभाव या आवश्यकता अनुभव करता है । वह या तो शरीर की आवश्यकताओं से परिचालित होता है या धन-सम्पत्ति एवं मान-प्रतिष्ठा की तृष्णा से, अथवा मन या हृदय की व्यक्तिगत सन्तुष्टि की लालसा किंवा शक्ति या सुख की अभिलाषा से । अथवा वह किसी नैतिक आवश्यकता के वशीभूत होकर उसीसे इधर-उधर प्रेरित होता है, या कम-से-कम इस आवश्यकता या कामना से प्रेरित होता है कि वह अपने विचारों या अपने आदर्शों या अपने संकल्प या अपने दल या अपने देश या अपने देवताओं का संसार में प्रभुत्व स्थापित करे । यदि इनमें से कोई भी कामना अथवा अन्य कोई भी कामना हमारे कार्य की परिचालिका नहीं होती तो ऐसा प्रतीत होता है मानों समस्त प्रवर्तक कारण या प्रेरकशक्ति ही हटा ली गयी है और तब स्वयं कर्म भी अनिवार्य रूप से बन्द हो जाता है । गीता दिव्य जीवन का अपना तीसरा महान् रहस्य खोलकर इस शंका का उत्तर देती है । एक अधिकाधिक ईश्वराभिमुख और अन्ततः ईश्वर-अधिकृत चेतना में रहते हुए हमें समस्त कर्म करने ही होंगे; हमारे कर्म भगवान् के प्रति यज्ञ-रूप होने चाहियें, और अन्त में तो हमें सम्पूर्ण सत्ता को, मन, संकल्प-शक्ति, हृदय, इंद्रिय, प्राण और शरीर, सब कोएकमेव के प्रति समर्पित कर देना चाहिये

 

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जिससे कि ईश्वर-प्रेम और ईश्वर-सेवा ही हमारे कर्मों का एकमात्र प्रेरक भाव बन जाय । निःसन्देह प्रेरक शक्ति का और कर्मों के स्वरूप तक का यह रूपान्तर ही गीता का प्रधान विचार है । कर्म, प्रेम और ज्ञान के गीताकृत अद्वितीय समन्वय का यही आधार है । अन्त में, कामना नहीं, बल्कि सनातन की प्रत्यक्षत: अनुभूत इच्छा ही हमारे कर्म की एकमात्र परिचालिका और इसके आरम्भ का एकमात्र उद्गम रह जाती है ।

 

     समता, अपने कर्मों के फल की समस्त कामना का त्याग, अपनी प्रकृति और समष्टि-प्रकृति के परम प्रभु के प्रति यज्ञ-रूप में कर्म करना, —यही गीता की कर्मयोग-प्रणाली में ईश्वर-प्राप्ति के तीन प्रधान साधन हैं ।

 

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अध्याय ४

 

यज्ञ, त्रिदल-पथ और यज्ञ के अधीश्व

 

 

यज्ञ के विधान का अभिप्राय वह सार्वजनीन दिव्य कर्म है जो इस सृष्टि के आदि में लोकसंग्रह के प्रतीक के रूप में प्रकट हुआ था । इसी विधान के आकर्षण से एक दिव्यीकारक, रक्षक शक्ति इस अहम्मय और विभक्त सृष्टि की भूलों को सीमित और संशोधित तथा उन्हें शनैः -शनैः दूर करने के लिये अवतरित होती है । यह अवतरण, अथवा पुरुष या भागवत आत्मा का यह यज्ञ, जिसके द्वारा वह अपने- आपको शक्ति और जड़-प्रकृति के अधीन कर देता है, ताकि वह इन्हें अनुप्राणित और प्रकाशयुक्त कर सकेनिश्चेतना और अविद्या के इस संसार की रक्षा का बीज है । कारण, गीता कहती है कि "यज्ञ को इन प्रजाओं का साथी बनाकर प्रजापति ने इन्हें उत्पन्न किया । '' यज्ञ के विधान को स्वीकार करना अहं का इस बात को क्रियात्मक रूप से अंगीकार करना है कि इस संसार में वह न तो अकेला है और न मुख्य ही है । यह उसका इस बात को मान लेना है कि, इस अत्यन्त खंडित सत्ता में भी, उसके परे और पीछे कोई ऐसी वस्तु है जो उसका अपना अहंमय व्यक्तित्व नहीं है, कोई ऐसी वस्तु है जो उससे महत्तर और पूर्णतर है, एक दिव्यतर सर्वमय सत्ता है जो उससे दास्य और सेवा की मांग करती है । निःसन्देह, विराट् विश्व-शक्ति यज्ञ को हमारे ऊपर थोपती है और जहां आवश्यकता हो वहां वह हमें इसके लिये बाध्य भी करती है । जो इस विधान को सचेतन रूप में स्वीकार नहीं करते उनसे भी यह यज्ञ का भाग ले लेती हैऔर यह अनिवार्य ही है, क्योंकि यह जगत् का अन्तरीय स्वभाव है । हमारे अज्ञान या हमारी मिथ्या अहंमूलक जीवन-दृष्टि से प्रकृति के इस शाश्वत आधारभूत सत्य में कोई अन्तर नहीं पड़ सकता । कारण, यह प्रकृति का एक अन्तर्निहित सत्य है कि यह अहं जो अपने को एक पृथक् एवं स्वतन्त्र सत्ता समझता है और स्वयं अपने लिये जीने का अपना अधिकार जताता है स्वतन्त्र नहीं है और हो भी नहीं सकता, न ही यह दूसरों से पृथक् है और न हो ही सकता है । यदि यह चाहे भी, तो भी यह केवल अपने लिये ही नहीं जी सकता, बल्कि सच पूछो तो सभी अहं एक निगूढ़ एकता के द्वारा परस्पर जुड़े हुए हैं । प्रत्येक सत्ता विवश होकर अपने भंडार में से लगातार कुछ-न-कुछ वितरण कर रही है । प्रकृति से प्राप्त उसकी मानसिक आय में से या उसकी प्राणिक और शारीरिक संपत्ति, उपलब्धि और निधि में से एक धारा उस सबकी ओर बहती रहती है जो उसके चारों ओर है । और, फिर वह अपनी ऐच्छिक या अनैच्छिक भेंट के बदले में अपने परिपार्श्व से सदैव कुछ-न-कुछ प्राप्त भी करती

 

सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति: । गीता ३ - १०

 

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है । अपने इस आदान-प्रदान से ही यह अपना विकास सम्पन्न कर सकती है और साथ ही इससे यह समष्टि को भी सहायता देती है । इस प्रकार प्रारम्भ में थोड़ा- थोड़ा और अपूर्ण रूप में यज्ञ करते हुए दीर्घ काल के बाद हम सचेतन रूप से यज्ञ करना सीख जाते हैं । यहां तक कि अन्त में हम अपने-आपको तथा उन सब चीजों को, जिन्हें हम अपनी समझते हैं, प्रेम और भक्तिभाव के साथ 'उस' को दे देने में आनन्द अनुभव करते हैं, चाहे 'वह' हमें आपातत: अपने से भिन्न प्रतीत होता है और निश्चय  ही हमारे सीमित व्यक्तित्वों से भिन्न है भी । यज्ञ एवं उसका दिव्य प्रतिफल तब हमारी अन्तिम पूर्णता का साधन बन जाते हैं जिसे हम सहर्ष स्वीकार करते हैं; कारण, अब हम इसे अपने अन्दर सनातन प्रयोजन की परिपूर्ति का मार्ग समझने लगते हैं ।

 

     परन्तु बहुधा यज्ञ अचेतन रूप से, अहंभावपूर्वक और महान् सार्वभौम विधान के सच्चे अर्थ को जाने या अंगीकार किये बिना किया जाता है । पृथ्वीतल के अधिकांश प्राणी इसे इसी प्रकार करते हैं; और, जब यह इस प्रकार किया जाता है तब व्यक्ति इसके प्राकृतिक अवश्यम्भावी लाभ की एक यान्त्रिक न्यूनतम मात्रा ही प्राप्त करता है । इसके द्वारा वह धीमे-धीमे और कठिनाई से प्रगति करता है और वह प्रगति भी अहं की क्षुद्रता तथा यातना से सीमित एवं पीड़ित होती है । दिव्य यज्ञ का गम्भीर आनन्द और मंगलमय फल तो तभी उपलब्ध हो सकते हैं जब हृदय, संकल्प और ज्ञानात्मक मन अपने-आपको इस विधान से सम्बद्ध करके इसका हर्षपूर्वक अनुसरण करें । इस विधान के सम्बन्ध में मन के ज्ञान तथा हृदय की प्रसन्नता की पराकाष्ठा इस अनुभव में होती है कि हम जो उत्सर्ग करते हैं वह अपनी ही आत्मा और आत्मतत्त्व के तथा सबकी एकमेव आत्मा और आत्मतत्त्व के प्रति ही करते हैं । और, यह बात तब भी सत्य होती है जब कि हम अपनी आत्माहुति परम देव के प्रति नहीं, बल्कि मनुष्यों या क्षुद्रतर शक्तियों और तत्त्वों के प्रति अर्पित कर रहे होते हैं । याज्ञवल्क्य उपनिषद् में कहते हैं, ''पत्नी हमें पत्नी के लिये नहीं, बल्कि आत्मा के लिये प्यारी होती है । '' इसे व्यक्तिगत अहं के निम्नतर अर्थ में लिया जाय, तो भी यह एक ऐसा निर्विवाद सत्य है जो अहंमूलक प्रेम के रंजित एवं आवेशयुक्त दावों के पीछे छिपा रहता है । परन्तु उच्चतर अर्थ में यह उस प्रेम का भी आन्तरिक आशय है जो अहंभावमय नहीं, बल्कि दिव्य होता है । समस्त सच्चा प्रेम एवं समस्त यज्ञ वास्तव में, एक मूलगत अहंभाव और उसकी विभाजनात्मक भ्रान्ति का प्रकृतिद्वारा किया गया विरोध है; यह एक आवश्यक प्रथम विभाजन से एकत्व की पुनरुपलब्धि की ओर मुड़ने का उसका प्रयत्न है । प्राणियों की समस्त एकता वास्तव में एक आत्म-गवेषणा है, यह उसके साथ मिलन है जिससे हम पृथक् हो चुके हैं और साथ ही दूसरों में अपनी आत्मा की उपलब्धि

 

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     परन्तु, एक दिव्य प्रेम और एकत्व ही उस वस्तु को प्रकाश में अधिकृत कर सकते हैं जिसे इन चीजों के मानवीय रूप अन्धकार में खोज रहे हैं । कारण, सच्चा एकत्व केवल उस प्रकार का संगठन और राशिकरण ही नहीं होता जिस प्रकार का समान हितवाले जीवन के द्वारा जुड़े हुए भौतिक कोषाणुओं का होता है, न यह भावों का ज्ञानमूलक सामंजस्य किंवा सहानुभूति, सामाजिकता या निकट संसर्ग ही होता है । जो हम से प्रकृतिजनित भेदों के कारण अलग हो गये हैं उनसे हम वास्तव में एकीभूत केवल तभी हो सकते हैं जब हम भेद को मिटाकर अपने को उस वस्तु में प्राप्त कर लें जो हमें 'अपना-आप' नहीं प्रतीत होती । संगठन प्राणिक और भौतिक एकता है; इसका यज्ञ पारस्परिक सहायता और पारस्परिक सहायता और सुविधाओं का यज्ञ है । निकटता, सहानुभूति और सामाजिकता, मानसिक, नैतिक और भावुक एकता को जन्म देती है; इनका यज्ञ पारस्परिक सहायता और पारस्परिक सन्तुष्टि का यज्ञ है । परन्तु सच्ची एकता तो केवल आध्यात्मिक एकता ही होती है; इसका यज्ञ पारस्परिक आत्मदान और हमारी आन्तरिक सत्ताओं का परस्पर मिलन होता है । यज्ञ का विधान विश्व-प्रकृति में इस पूर्ण और निःशेष आत्मदान की पराकाष्ठा की ओर ही गति करता है, यह इस चेतना को जागृत करता है कि यजनकर्ता में और यज्ञ के ध्येय में एक ही सार्वभौम आत्मा है । यज्ञ की यह पराकाष्ठा मानवीय प्रेम एवं भक्ति की भी सर्वोच्च अवस्था होती है जब कि वह दिव्य बनने के लिये प्रयत्न करती है । कारण, प्रेम की सब से ऊंची चोटी भी पूर्ण पारस्परिक आत्मदान के स्वर्ग की ओर इंगित करती है, इसका सर्वोच्च शिखर भी दो आत्माओं का उल्लासपूर्वक घुल-मिल जाना है ।

 

     विश्वव्यापी विधान का यह गंभीरतर विचार गीता की कर्म-सम्बन्धी शिक्षा का मर्म है; यज्ञ के द्वारा सर्वोच्च देव के साथ आध्यात्मिक मिलन और सनातन देव के प्रति निःशेष आत्मदान इसके सिद्धान्त का सार है । यज्ञ के विषय में एक असंस्कृत विचार यह है कि यह कष्टमय आत्मबलिदान, कठोर आत्मपीड़न तथा कृच्छ्र आत्मोच्छेद का कार्य है । इस प्रकार का यज्ञ आत्मपंगूकरण और आत्म-यातना की सीमा तक भी पहुंच सकता है । ये चीजें मनुष्य के अपने प्रकृतिगत 'अहं' को अतिक्रान्त करने के कठिन प्रयास में कुछ समय के लिये आवश्यक हो सकती हैं । यदि मनुष्य की प्रकृति में अहंभाव उग्र और आग्रहपूर्ण हो तो कभी-कभी एक तदनुरूप प्रबल आन्तरिक अवदमन और उसीके तुल्य उग्रता के द्वारा उसका मुकाबला करना ही होता है । परन्तु गीता अपने प्रति किसी मात्रा में भी अधिक उग्रता के प्रयोग को मना करती है । क्यांकि अन्तःस्थित आत्मा वास्तव में विकसित हो रहा परमेश्वर ही है, वह कृष्ण है, वह भगवान् है । उसे उस प्रकार पीड़ा और यन्त्रणा पहुंचानी हैं जिस प्रकार संसार के असुर उसे पीड़ा और यन्त्रणा पहुंचाते हैं, बल्कि उसे उत्तरोत्तर संवर्धित, पालित-पोषित और दिव्य प्रकाश, बल, हर्ष और विशालता की ओर ज्वलन्त रूप से उद्घाटित करना है । अपनी आत्माको नहीं,

 

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बल्कि आत्मा के आन्तरिक रिपुओं के दल को हमें निरुत्साहित और निष्कासित करना है, इन्हें आत्मोन्नति की वेदी पर बलि चढ़ा देना है । निर्दयतापूर्वक इन सब का उच्छेद किया जा सकता है । इनके नाम हैं, काम, क्रोध, असमता, लोभ, बाह्य सुख-दुःखों के प्रति मोह और बलात् आक्रमण करनेवाले दैत्यों का सैन्यदल जो आत्मा की भ्रान्तियों और दुःखों के मूल कारण हैं । इन्हें अपने अंग नहीं, बल्कि अपनी आत्मा की वास्तविक और दिव्य प्रकृति पर अनधिकार आक्रमण करनेवाले और उसे विकृत करनेवाले समझना चाहिये; बलि शब्द के कठोरतर अर्थ के अनुसार इनकी बलि चढ़ा देनी होगी, भले ही ये जाते समय अपनी प्रतिच्छाया द्वारा जिज्ञासु की चेतना पर कैसा भी दुःख क्यों न डाल जायें ।

 

     परन्तु यज्ञ का वास्तविक सार बलिदान नहीं, आत्मार्पण है । इसका उद्देश्य आत्मोच्छेद नहीं आत्म-परिपूर्णता है । इसकी विधि आत्म-दमन नहीं, महत्तर जीवन है, आत्म-पंगकरण नहीं, बल्कि अपने प्राकृतिक मानवीय अंगों का दिव्य अंगों में रूपान्तर है, आत्म-यन्त्रणा नहीं, वरन् क्षुद्रतर सुख से महत्तर आनन्द की ओर प्रयाण है । केवल एक ही चीज है जो उपरितल की प्रकृति के अपरिपक्व या कलुषित भाग के लिये प्रारम्भ में दुःखदायी होती है । यह एक अनिवार्य अनुशासन है जिसकी उससे मांग की जाती है, एक ऐसा परित्याग है जो अपूर्ण अहं के विलय के लिये आवश्यक है । परन्तु इसके बदले में उसे शीघ्र ही एक अपरिमित फल मिल सकता है, यह दूसरों में, सभी वस्तुओं में, विश्वव्यापी एकता में, विश्वातीत आत्मा एवं आत्म-तत्त्व की स्वतन्त्रता में और भगवान् के स्पर्श के हर्षोन्माद में एक वास्तविक महत्तर या चरम पूर्णता प्राप्त कर सकती है । हमारा यज्ञ कोई ऐसा दान नहीं है जिसके बदले दूसरी ओर से कोई प्रतिदान या फलप्रद स्वीकृति प्राप्त न हो । यह तो हमारी सनातन आत्मा और हमारी शरीरधारी आत्मा एवं सचेतन प्रकृति का पारस्परिक आदान-प्रदान है । क्योंकि, यद्यपि हम किसी भी प्रतिफल की मांग नहीं करते, तथापि हमारे अन्दर गहराई में यह ज्ञान रहता ही है कि एक अद्भुत प्रतिफल की प्राप्ति अवश्यम्भावी है । आत्मा जानती है कि वह अपने-आपको भगवान् पर वृथा ही न्योछावर नहीं करती । कुछ भी याचना न करती हुई भी वह दिव्य शक्ति और उपस्थिति की अनन्त संपदाओं को प्राप्त करती है ।

 

     अन्त में हमें यज्ञ के पात्र (यजनीय ) और यज्ञ की विधि पर विचार करना है । यश अदिव्य शक्तियों को अर्पण किया जा सकता है अथवा यह दिव्य शक्तियों को भी अर्पण किया जा सकता है । यह विराट् विश्वमय देव को अर्पण किया जा सकता है अथवा यह विश्वातीत परम देव को भी अर्पण किया जा सकता है । जो अर्घ्य चढ़ाया जाता है उसका कोई भी रूप हो सकता हैपत्र-पुष्प-फल-तोय या अन्न-धान्य का उत्सर्ग, यहां तक कि उस सबका निवेदन जो कुछ कि हमारे पास है और उस सबका अर्पण जो कुछ कि हम हैं । पात्र और हवि चाहे कोई भी हो, पर

 

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जो हवि को ग्रहण करता और स्वीकार करता है वह परात्पर और विश्वव्यापी सनातन देव ही होता है, भले ही तात्कालिक पात्र उसे अस्वीकार कर दे या उसकी ओर उपेक्षा दिखाये । परात्पर देव जो विश्व से अतीत है, यहां भी, प्रच्छन्न रूप में ही सही, हम में, जगत् में और इसकी घटनाओं में विद्यमान है; हमारे निखिल कर्मों के सर्वज्ञ द्रष्टा और ग्रहीता तथा उनके गुप्त स्वामी के रूप में वह यहां उपस्थित है । एकमेव देव ही हमारे सब कार्यों और प्रयत्नों, पापों और स्खलनों तथा दुःखों और संघर्षों का अन्तिम परिणाम निर्धारित करता है, चाहे हम इस बात के प्रति सचेतन हों या अचेतन, चाहे हम इसे जानते एवं प्रत्यक्ष अनुभव करते हों अथवा न जानते हों और न अनुभव करते हों । सब वस्तुएं उसके अगणित रूपों में उसीकी ओर प्रेरित होती और उन रूपों के द्वारा उसी एक सर्वव्यापक सत्ता के प्रति अर्पित होती हैं । चाहे जिस भी रूप में और चाहे जिस भी भावना के साथ हम उसके पास पहुंचें उसी रूप में और उसी भावना के साथ वह हमारे यज्ञ को ग्रहण करता है |

 

     कर्मों के यज्ञ का फल भी कर्म और उसके प्रयोजन के अनुसार एवं उस प्रयोजन की मूल भावना के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है । परन्तु (आत्मदान के सिवा) अन्य सभी यज्ञ एकांगी, अहंभावमय, मिश्रित, कालावच्छिन्न तथा अपूर्ण होते हैं, ऊंची-से-ऊंची शक्तियों और तत्त्वों के प्रति अर्पित यज्ञों का भी ऐसा ही स्वरूप होता है; उनका फल भी आंशिक, सीमित, कालावच्छिन्न तथा अपनी प्रतिक्रियाओं में मिश्रित होता है और उससे केवल एक तुच्छ या अवान्तर प्रयोजन ही सिद्ध हो सकता है । पूर्ण रूपसे स्वीकार्य यज्ञ तो केवल चरम और परम ऐकान्तिक आत्म-दान ही होता है अर्थात् एक ऐसा समर्पण होता है जो एकमेव देव के प्रति उसकी प्रत्यक्ष उपस्थिति में, भक्ति और ज्ञान के साथ, स्वेच्छापूर्वक और निःसंकोच किया जाता है, उस एकमेव देव के प्रति जो एक साथ ही हमारी अन्तर्यामी आत्मा एवं चतुर्दिग्व्यापी उपादानभूत विश्वात्मा है तथा अभिव्यक्तिमात्र से परे परम सद्वस्तु है और गुप्त रूप से एक साथ ये सभी चीजें है, जो सर्वत्र निगूढ़ अन्तर्यामी परात्परता है । जो आत्मा अपने-आपको पूर्ण रूप से  ईश्वर को दे देती है, उसे ईश्वर भी अपने-आपको पूर्ण रूप से दे देता है । केवल वही जो अपनी सम्पूर्ण प्रकृति को अर्पित कर देता है आत्मा को प्राप्त करता है । केवल वही जो प्रत्येक वस्तु दे सकता है सर्वत्र विश्वमय भगवान् का रसास्वादन कर सकता है । केवल एक परम आत्म-उत्सर्ग ही परात्पर देव तक पहुंच पाता है । जो कुछ भी हम हैं उस सब को यज्ञद्वारा ऊपर उठा ले जाने से ही हम सर्वोच्च देव को साकार रूप में प्रकट करने और यहां परात्पर आत्मा की अन्तर्यामी चेतना में निवास करने में समर्थ हो सकते हैं ।

 

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     जो मांग हम से की जाती है वह संक्षेप में यही है कि हम अपने सम्पूर्ण जीवन को एक सचेतन यज्ञ का रूप दे दें । हमें अपनी सत्ता के प्रत्येक पल और प्रत्येक गति को सनातन देव के प्रति एक सतत और भक्तियुक्त आत्मदान में परिणत करना होगा । अपने सब कर्मों को, छोटे-से-छोटे और अत्यन्त साधारण एवं तुच्छ कर्मों को तथा बड़े-से-बड़े और अत्यन्त असाधारण एवं श्रेष्ठ कर्मों को, सभी को एक समान, ईश्वरार्पण-भाव से करना होगा । हमारी व्यष्टिभावापन्न प्रकृति को एक ऐसी बाह्य तथा आन्तर क्रिया की अखंड चेतना में निवास करना होगा जो हम से परे की ओर अहं से महान् किसी वस्तु के प्रति निवेदित हो । यह कोई महत्त्व की बात नहीं कि हवि किस वस्तु की है और उसे हम किसकी भेंट चढ़ाते हैं, पर भेंट करते समय ऐसी चेतना होनी चाहिये कि सब सत्ताओं में विद्यमान एकमेव दिव्य परम सत्ता को ही हम यह वस्तु भेंट कर रहे हैं । हमारे अत्यन्त साधारण और अति स्थूल भौतिक कार्योंको भी ऐसा उदात्त रूप धारण करना होगा । जब हम भोजन करें, हमें इस रूप में सचेतन होना चाहिये कि हम अपना भोजन अपने अन्दर विराजमान उस दिव्य उपस्थिति को दे रहे हैं । अवश्य ही इसे मन्दिर में एक पवित्र आहुति होना चाहिये और केवल शारीरिक आवश्यकता या शारीरिक भोग का भाव हम से दूर हट जाना चाहिये । किसी महान् प्रयास में, किसी ऊंची साधना में अथवा किसी कठिन या उदात्त पुरुषार्थ मेंचाहे हम उसका बीड़ा अपने लिये उठावें या दूसरों के लिये या जाति के लिये, यह अब सम्भव नहीं होना चाहिये कि हम जाति-सम्बन्धी, अपने-आप-सम्बन्धी या दूसरों-सम्बन्धी धारणा में ही आबद्ध हो जायें । जो काम हम कर रहे हैं वह हमें सचेतन भाव से कर्मों के यज्ञ के रूप में अर्पित करना होगा, पर अपने- आपको, दूसरों को या जाति को नहीं, बल्कि इनके द्वारा या सीधे ही एकमेव देवाधिदेव को अर्पित करना होगा; जो अन्तर्वासी भगवान् इन आकारों के पीछे छिपा हुआ था उसे अब और अधिक हमसे छिपा नहीं रहना चाहिये, बल्कि हमारी आत्मा, हमारे मन और हमारी इंद्रियों के समक्ष सदा उपस्थित रहना चाहिये । अपने कर्मों की प्रक्रियाएं और परिणाम हमें उस एकमेव के हाथों में सौंप देने चाहियें, इस भाव से कि वह उपस्थिति अनन्त और परमोच्च है और वही हमारे प्रयत्न तथा हमारी अभीप्सा को सम्भव बनाती है । उसीकी सत्ता में सब कुछ घटित होता है; उसीके लिये प्रकृति हम से समस्त प्रयत्न और अभीप्सा करवाती है और उस सबको फिर उसीकी वेदी पर अर्पित कर देती है । जिन कार्यों में अति स्पष्ट रूप से प्रकृति स्वयं ही कर्त्री होती है और हम उसकी क्रिया के साक्षी, धारक और सहायक मात्र होते हैं उनमें भी हमें कर्म और उसके दिव्य स्वामी का ऐसा ही अखंड स्मरण और स्थिर ज्ञान रहना चाहिये । हमारे अन्दर हमारे श्वास-प्रश्वास और हमारे हृदय की धड़कन तक को भी सचेतन बनाया जा सकता है और बनाना होगा ही । उन्हें विश्वव्यापी यज्ञ के जीवित-जागृत लय-ताल के रूप में अनुभव करना होगा ।

 

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     स्पष्ट है कि इस प्रकार के विचार और इसके प्रबल अभ्यास में तीन परिणाम अन्तर्निहित हैं जो हमारे आध्यात्मिक आदर्श के लिये केंद्रीय महत्त्व रखते हैं । सर्वप्रथम यह प्रत्यक्ष है कि यद्यपि ऐसा अभ्यास भक्ति के बिना भी प्रारम्भ किया जा सकता है तथापि वह सम्भवनीय उच्चतम भक्ति की ओर सीधे और अनिवार्य तौर पर ले जायगा, क्योंकि यह स्वभावत: ही गंभीर होकर एक कल्पनीय पूर्णतम आराधना एवं अत्यन्त गंभीर ईश्वर-प्रेम में परिणत हो जायगा । इसके साथ-साथ हमें सब वस्तुओं में भगवान् का अधिकाधिक अनुभव भी अवश्य प्राप्त होगा, अपने समस्त विचार, इच्छाशक्ति एवं कर्म में तथा अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में हम भगवान् के साथ उत्तरोत्तर गहरा अन्तर्मिलन लाभ करेंगे और अधिकाधिक भाव-विभोर होकर अपनी सम्पूर्ण सत्ता भगवान् को निवेदित कर देंगे । वस्तुतः, पूर्ण और निरपेक्ष भक्ति का असली सार भी कर्मयोग के इन फलितार्थों के अन्तर्गत हो जाता है । जो जिज्ञासु इन्हें जीवन्त-जाग्रत् रूप में चरितार्थ करता है वह आत्म-निष्ठता की असली भावना की एक स्थिर और प्रभावशाली प्रतिमूर्त्ति का अपने में निरन्तर निर्माण करता है, और यह अनिवार्य ही है कि इसमें से फिर उस सर्वोच्च देव की अत्यन्त मग्न करनेवाली पूजा का जन्म हो जिसे यह सेवा अर्पित की जाती है । समर्पित कर्मी जिस दिव्य उपस्थिति के साथ उत्तरोत्तर घनिष्ठ समीपता अनुभव करता है उसके प्रति उस में अनन्य प्रेम क्रमश: प्रबल होता जाता है । इसके साथ ही एक सार्वभौम प्रेम भी पैदा होता है या वह इस अनन्य प्रेम के अन्दर निहित रहता है । यह कोई भेदमूलक, क्षणिक, चंचल एवं लोलुप भाव नहीं होता, बल्कि एक सुस्थिर निःस्वार्थ प्रेम, एकत्व का एक गंभीरतर स्पन्दन होता है और सभी सत्ताओं, जीवित गोचर पदार्थों एवं प्राणियों के लिये, जो भगवान् के वास-स्थान हैं, समान रूप से उत्पन्न होता है । सभी में जिज्ञासु अपने एकमात्र सेव्य और आराध्य देव से मिलन अनुभव करने लगता है । कर्मों का मार्ग यज्ञ के इस पथ से चल कर भक्ति के मार्ग से जा मिलता है । यह स्वयं एक परिपूर्ण, तन्मयकारी और सर्वांगीण भक्ति हो सकता है, एक ऐसी गहरी-से-गहरी भक्ति हो सकता है जिसे हृदय की उमंग पाना चाह सकती है अथवा मन का प्रबल भाव कल्पना में ला सकता है ।

 

     और फिर, इस योग का अभ्यास एकमात्र केंद्रीय मोक्षदायक ज्ञान के सतत आन्तरिक स्मरण की अपेक्षा रखता है । उस ज्ञान को निरन्तर सक्रिय ढंग से कर्मों के रूप में बाहर उंडेलने से इस स्मरण को उद्दीप्त करने में सहायता मिलती है । सबमें एक ही आत्मा है, एकमेव भगवान् ही सब कुछ है; सब भगवान् में हैं, सब भगवान् हैं और विश्व में भगवान् के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैयह विचार या यह श्रद्धा तब तक कर्मी की चेतना की सम्पूर्ण पीठिका रहती है, जब तक कि यह उसकी चेतना का सार-सर्वस्व ही नहीं बन जाती । इस प्रकार के स्मरण को अर्थात अपने-आपको क्रियाशील बनानेवाले इस प्रकार के ध्यान को उस 'तत्'

 

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केजिसका हम इतने शक्तिशाली रूप से स्मरण करते हैं अथवा इतने अनवरत रूप से ध्यान करते हैं, प्रगाढ़ और निर्बाध सन्दर्शन तथा सजीव और सर्वस्पर्शी ज्ञान में बदल जाना चाहिये और निश्चय ही अन्त में यह इसमें बदल भी जाता है । क्योंकि इससे बाध्य होकर हम प्रतिक्षण समस्त सत्ता, संकल्प और कर्म के उद्गम के सामने निरन्तर अपनी जिज्ञासा निवेदित करते हैं और इन सब विभिन्न आकारों तथा प्रतीतियों का हम उस 'तत्' में, जो इनका कर्त्ता और धर्त्ता है, आलिङ्गन करते हैं और साथ-ही-साथ इन्हें अतिक्रान्त भी कर जाते हैं । यह मार्ग अपने लक्ष्य पर तब तक नहीं पहुंच सकता जब तक कि यह सर्वत्र एक विश्वव्यापी आत्मा की कृतियों को स्पष्ट एवं सजीव रूप में, भौतिक रूप में देखने के समान ही प्रत्यक्ष तौर पर नहीं देख लेता । अपने शिखर पर यह उस अवस्था तक ऊंचा उठ जाता है जहां हम नित्य-निरन्तर अतिमानसिक और परात्पर भगवान् की उपस्थिति में ही रहते-सहते, सोचते-विचारते और संकल्प तथा कर्म करते हैं । जो कुछ हम देखते और सुनते हैं, जो कुछ भी हम छूते और अनुभव करते हैं और जिस-किसी भी चीज के प्रति हम सचेतन होते हैं उस सबको हमें उसी वस्तु के रूप में जानना और अनुभव करना होगा जिसकी हम पूजा और सेवा करते हैं; सभीको भगवान् की प्रतिमा में परिणत करना होगा, सभीको उसके देवत्व का निवासधाम अनुभव करना होगा तथा नित्य सर्वव्यापकता से आच्छादित करना होगा । बहुत पहले नहीं तो अपनी समाप्ति के समय यह कर्ममार्ग, भागवत उपस्थिति और संकल्प एवं बल के साथ अन्तर्मिलन होने पर, एक ज्ञानमार्ग में बदल जाता है । वह ज्ञानमार्ग ऐसे किसी भी मार्ग से अधिक पूर्ण एवं सर्वांगीण होता है जिसे कोरी मानवी मति रच सकती या बुद्धि की खोज उपलब्ध कर सकती है ।

 

     अन्त में, इस यज्ञ-रूपी योग का अभ्यास हमें इस बात के लिये बाध्य करता है कि हम अपने संकल्प, मन और कर्म में से अहंभाव के समस्त आन्तरिक अवलंबनों का त्याग कर दें और अपनी प्रकृति में से इसके बीज, इसकी उपस्थिति एवं इसके प्रभाव को निकाल फेंके । सब कुछ भगवान् के लिये ही करना होगा; सब कुछ भगवान् को लक्ष्य करके ही करना होगा । हमें अपने लिये पृथक् सत्ता के रूप में कुछ भी नहीं करना होगा, दूसरों के लिये भी, चाहे वे पड़ोसी, मित्र और परिजन हों, अथवा देश या मानवजाति या अन्य प्राणी हों, केवल इस नाते से कुछ नहीं करना होगा कि वे हमारे निजी जीवन, विचार और भावधारा से सम्बद्ध हैं, न इस नाते से ही कुछ करना होगा कि हमारा अहं उनकी भलाई में अपेक्षाकृत अधिक रुचि रखता है । कर्म तथा विचार के इस दृष्टिकोण से सभी काम और समस्त जीवन भगवान् की अपनी विराट् वैश्व सत्ता के निःसीम मन्दिर में उसकी दैनिक सक्रिय आराधना और सेवा ही बन जाते हैं । जीवन व्यक्ति में सनातन देव का उत्तरोत्तर एक ऐसा यज्ञ बनता जाता है जो अनवरत एक नित्य परात्परता के प्रति

 

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स्वयमेव अर्पित होता रहता है । यह सनानन विश्वगत आत्मा के क्षेत्र की विशाल यज्ञीय भूमि में अर्पित किया जाता है और नित्य शक्ति या सर्वव्यापिनी माता ही स्वयं इसे अर्पित करती है । अतएव, यह मार्ग कर्मोंद्वारा और कर्मगत भाव तथा ज्ञानद्वारा मिलन एवं अन्त:संभाषण प्राप्त करने का मार्ग है, और यह वैसा ही पूर्ण और सर्वांगीण है जैसे कि हमारी ईश्वराभिमुख इच्छाशक्ति आशा कर सकती है, अथवा जैसे कि हमारी आत्म-शक्ति कायर्गन्वत कर सकती है ।

 

     सर्वांगीण और चरम-परम कर्मयोग की समस्त शक्ति इस मार्ग में विद्यमान है । साथ ही, दिव्य आत्मा और स्वामी के प्रति अपने यज्ञ और आत्मोत्सर्ग के विधान के कारण, यह प्रेममार्ग और ज्ञानमार्ग दोनों की सम्पूर्ण शक्ति से भी सम्पन्न है । इसके अन्त में ये तीनों दिव्य शक्तियां एक-दूसरे से घुलमिलकर और एकीभूत, परिपूरित एवं सर्वगुण-सम्पन्न होकर एक साथ काम करती है ।

 

     भगवान् या सनातन पुरुष हमारे कर्मों के यज्ञ का अधीश्वर है और अपनी सम्पूर्ण सत्ता एवं चेतना में तथा इसके अभिव्यक्तिक्षम करणों में उसके साथ मिलन ही यज्ञ का एकमात्र लक्ष्य है । अतएव, कर्मों के यज्ञ की क्रमिक प्रगति की नाप दो प्रकार से करनी होगीप्रथम, हमारी प्रकृति में किसी ऐसी वस्तु के विकास के द्वारा जो हमें भागवत प्रकृति की ओर अधिक निकट ले जाती है, और दूसरे, भगवान् के अर्थात् उसकी उपस्थिति के अनुभव के द्वारा, हमारे प्रति उसकी अभिव्यक्ति के तथा उस 'उपस्थिति' के साथ अधिकाधिक सान्निध्य एवं मिलन के अनुभव के द्वारा । परन्तु भगवान् तत्त्वत: अनन्त है और उसकी अभिव्यक्ति भी बहुल रूप से अनन्त है । यदि ऐसी ही बात है तो अपनी सत्ता और प्रकृति में सच्ची सर्वांगीण पूर्णता हम किसी एक ही प्रकार के अनुभव से नहीं प्राप्त कर सकते; इसके लिये तो दिव्य अनुभव की अनेक विभिन्न लड़ियों को मिलाना आवश्यक होगा । न ही हम इसे तादात्म्य की किसी एक ही दिशा का एकांगी अनुसरण करके और उसे उसकी चरम सीमा तक पहुंचाकर प्राप्त कर सकते हैं; बल्कि इसके लिये तो हमें अनन्त के अनेक पार्श्वों में सामंजस्य साधना होगा । हमारी प्रकृति के पूर्ण रूपान्तर के लिये यह अनिवार्य है कि हमारी चेतना सर्वांगीण हो और साथ ही बहुरूप एवं शक्तिमय अनुभव से सम्पन्न भी हो ।

 

     इस अनन्त के किसी भी समग्र ज्ञान या बहुमुख अनुभव के लिये एक आधारभूत अनुभूति परमावश्यक है, वह यह कि हम भगवान् को एक ऐसी सारभूत सत्ता और सत्य अनुभव करें जिसके स्वरूप में आकृतियों या गोचर पदार्थों के कारण कुछ अन्तर नहीं पड़ता । अन्यथा, सम्भव है कि हम आकृतियों के जाल में ही फंसे रह जायं अथवा विश्वगत या विशेष रूपों के विशृंखल बाहुल्य में अव्यवस्थित रूप से भटकते फिरें । और, यदि हम इस गड़बड़ से बच भी जायं तो इसके बदले हमें किसी मानसिक सूत्र से या किसी सीमित व्यक्तिगत अनुभव के

 

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घेरे में आबद्ध होना पड़ेगा । एकमात्र सुनिश्चित और सर्वसमन्वयात्मक सत्य, जो विश्व की वास्तविक भित्ति है, यह है कि जीवन एक अज आत्मा तथा आत्मसत्ता की अभिव्यक्ति है, और जीवन के गुप्त रहस्य की कुंजी इस आत्मा का अपनी रची हुई सत्ताओं से सच्चा सम्बन्ध है । इस सब जीवन के पीछे सनातन पुरुष की एक ऐसी दृष्टि है जो अपने असंख्य भूतभावों को देख रही है; इसमें सब ओर तथा सभी जगह एक अव्यक्त कालातीत सनातन पुरुष कालगत अभिव्यक्ति के बाहर और भीतर ओत-प्रोत है । परन्तु यदि यह ज्ञान केवल एक ऐसा बौद्धिक तथा दार्शनिक विचारमात्र हो जिसमें न कोई जीवन हो और न जिसका कोई फल ही होता हो, तो योग के लिये यह किसी काम का नहीं; कारण, कोई भी निरी मानसिक उपलब्धि जिज्ञासु के लिये पर्याप्त नहीं हो सकती । योग जिसकी खोज करता है वह केवल विचार या मन का सत्य नहीं, वरंच एक सजीव और अभिव्यंजक अध्यात्म-अनुभव का सक्रिय सत्य है । एक सच्ची अनन्त उपस्थिति का सतत अन्तर्वासी और सर्वव्यापी सान्निध्य, जीवन्त बोध, घनिष्ठ सम्बेदन तथा समागम और प्रत्यक्ष अनुभव एवं संस्पर्श हमारे भीतर सदा-सर्वदा और सर्वत्र जागृत रहना चाहिये । वह उपस्थिति हमारे संग एक ऐसी सजीव और सर्वव्यापक सद्वस्तु के रूप में रहनी चाहिये जिसमें हम और सभी पदार्थ निवास करते, चलते-फिरते और काम-काज करते हैं । उसे हमें हर समय और हर जगह मूर्त्त, गोचर एवं घटघटवासी अनुभव करना होगा । हमें उसके प्रत्यक्ष दर्शन इस रूप में करने होंगे कि वह सब पदार्थों की सच्ची आत्मा है, उसे इस रूप में स्पर्श करना होगा कि वह सबका अविनाशी सार है, उससे इस रूप में घनिष्ठ मिलन लाभ करना होगा कि वह सबकी अन्तरतम आत्मा है । यहां सभी सत्ताओं में इस आत्मा और आत्म-तत्त्व को मानसिक विचारद्वारा ग्रहण करना ही नहीं, बल्कि इस देखना, अनुभव करना, इंद्रियों द्वारा जानना तथा प्रत्येक प्रकार से इसका संस्पर्श प्राप्त करना और ऐसे ही सुस्पष्ट रूप से सभी सत्ताओं को इस आत्मा और आत्मतत्त्व में अनुभव करनायह एक आधारभूत अनुभव है जिसके चारों ओर अन्य समस्त ज्ञान को केंद्रित होना होगा ।

 

     वस्तुओं की यह अनन्त और नित्य आत्मा सर्वव्यापक सद्वस्तु है, सर्वत्र विद्यमान एक ही सत्ता है; यह एकमेवाद्वितीय एकीकारक उपस्थिति है और भिन्न-भिन्न प्राणियों में भिन्न-भिन्न नहीं है । इस विश्व में प्रत्येक आत्मा या प्रत्येक दृश्य पदार्थ के भीतर हम उसके परिपूर्ण स्वरूप का साक्षात्कार, संदर्शन या अनुभव कर सकते हैं । कारण, इसकी अनन्तता एक निरी देश और काल की असीमता या अनन्तता ही नहीं है, बल्कि एक आध्यात्मिक औरं सारभूत वस्तु है । एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म अणु में या काल के एक क्षण में भी वह अनन्त वैसे ही असंदिग्ध रूप में अनुभव किया जा सकता है जैसे कि युगों के विस्तार या सौर पिण्डों की पारस्परिक दूरी के बृहत्

 

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प्रमाण में किया जा सकता है । उसका ज्ञान या अनुभव कहीं भी शुरू हो सकता है और किसी भी वस्तु के द्वारा प्रकट हो सकता है; क्योंकि भगवान् सबमें हैं और सब कुछ भगवान् ही है ।

 

     तथापि इस आधारभूत अनुभव का प्रारम्भ भिन्न-भिन्न प्रकृति के व्यक्तियों के लिये विभिन्न प्रकार से होगा और उस सम्पूर्ण सत्य के विकसित होने में बहुत समय लगेगा जो इसके सहस्त्रों पहलुओं में छिपा हुआ है । उस शाश्वत उपस्थिति को मैं पहले-पहल सम्भवतः अपने में या अपनी आत्मा के तौर पर देखता अथवा अनुभव करता हूं और बाद में ही अपनी इस महत्तर आत्मा के दर्शन और अनुभव को प्राणिमात्र तक विस्तारित कर सकता हूं । तब मैं संसार को अपने अन्दर या अपने साथ एकीभूत अनुभव करता हूं । इस विश्व को मैं अपनी सत्ता के अन्दर एक नाटक के रूप में और इसकी प्रक्रियाओं के अभिनय को अपनी विराट् आत्मा के अन्दर पदार्थों आत्माओं और शक्तियों की एक गति के रूप में देखता हूं । सभी जगह मैं अपने-आपसे ही मिलता हूं, और किसीसे नहीं । किन्तु इस बात को ध्यान में रखना चाहिये कि यह सब मैं उस असुर की-सी भ्रांत दृष्टि के कारण नहीं करता जो अपनी ही अत्यधिक विस्तृत प्रतिमूर्त्ति में निवास करता है, अहं को ही भ्रमवश अपना स्वरूप और अपनी आत्मा समझता है और अपने आंशिक व्यक्तित्व को अपने चारों ओर की सभी वस्तुओं पर एक प्रभुत्वशाली सत्ता के रूप में थोपने का यत्न करता है । कारण, ज्ञान का उदय होने से मैं यह सत्य तो ग्रहण कर ही चुका हूं कि मेरी सच्ची आत्मा अहं नहीं है; और साथ ही अपनी महत्तर आत्मा मुझे सदा यूं अनुभव होती है कि यह एक निर्वैयक्तिक बृहत् सत्ता या एक तात्त्विक व्यक्ति है जो फिर भी अपने से परे सब व्यक्तियों को अंतर्गत रखता है या फिर यह एक ही साथ दोनों चीजें है । परन्तु कुछ भी हो, चाहे यह निर्वैयक्तिक हो या असीम व्यक्तित्व, अथवा युगपत् दोनों ही हो तो भी यह एक अहं-अतीत अनन्त है । यदि मैंने इसे पहले दूसरों के अन्दर नहीं, वरन् इसके उस रूप में ढूंढ़ा तथा पाया है, जिसे मैं 'अपना-आप' कहता हूं, तो इसका कारण यही है कि वहां, मेरी चेतना के विषयिगत होने के कारण, इसे पाना, तत्काल जान लेना और अनुभव करना मेरे लिये अत्यंत सुगम है । परन्तु ज्यों ही यह आत्मा दिखायी दे त्यों ही यदि संकुचित साधनरूप अहं इसमें विलीन न होने लगे, अथवा यदि क्षुद्रतर बाह्य मनोनिर्मित 'मैं' उस महत्तर स्थिर अजन्मा आध्यात्मिक 'मैं' में विलुप्त हो जाने से इन्कार करे, तो मेरा अनुभव या तो विशुद्ध नहीं है या उसके मूल में ही कहीं त्रुटि है । अभी भी मुझमें कहीं एक अहंमूलक बाधा है; मेरी प्रकृति के किसी भाग ने एक 'स्व' -दर्शी और 'स्व'-संरक्षी निषेध को आत्मा के सर्वग्रासी सत्य के विरोध में खड़ा कर दिया है ।

 

दूसरी तरफ और कुछ लोगों के लिये यह अधिक सुगम तरीका हैमैं

 

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भगवान् को पहले अपने से बाहर जगत् में अर्थात् अपने में नहीं, बल्कि दूसरों में देख सकता हूं । वहां प्रारम्भ से ही मैं उससे इस रूप में मिलता हूं कि वह एक अन्तर्वासी और सर्वाधार अनन्त है जो अपने उपरितल पर धारण की हुई इन सब आकृतियों, प्राणियों और शक्तियों से बंधा हुआ नहीं है । अथवा मैं यह देखता और अनुभव करता हूं कि वह एक शुद्ध एकाकी आत्मा और आत्मतत्त्व है जो इन सब शक्तियों और सत्ताओं को अपने अन्दर धारण किये हुए है, और तब मैं अपनी अहंबुद्धि को अपने चारों ओर की इस निश्चल-नीरव सर्वव्यापक उपस्थिति में विलीन कर देता हूं । बाद में यही मेरी करणात्मक सत्ता को व्याप्त और अधिकृत करने लगती है, और कर्म-सम्बन्धी मेरी सभी प्रेरणाएं, विचार और वाणी का मेरा सब प्रकाश, मेरी चेतना की समस्त रचनाएं और इस एकमेव विश्व-विस्तृत सत्ता के अन्य आत्म-रूपों के साथ मेरी चेतना के सम्बन्ध और संघर्षये सभी इसीमें से निकलते प्रतीत होते हैं । मैं अब पहले की तरह यह क्षुद्र व्यक्तिगत स्व नहीं, वरन्  'तत्' हूं जिसने अपना कुछ अंश आगे कर रखा है और वह अंश विश्व में उस  ('तत्' ) की क्रियाओं के एक विशेष रूप को धारण करता है ।

 

     एक और आधारभूत अनुभव भी है जो सबसे परले सिरे का है और फिर भी कभी-कभी प्रथम निर्णायक उद्घाटन या योग की प्रारम्भिक प्रगति के रूप में प्राप्त होता है । वह उस अनिर्वचनीय, उच्च, परात्पर एवं अविज्ञेय सत्ता के प्रति जागरण है जो मेरे और इस संसार के भी, जिसमें मैं निवास करता प्रतीत होता हूं ऊपर अवस्थित है, वह उस कालातीत और देशातीत अवस्था या सत्ता के प्रति जागरण है जो, साथ ही, मेरे अन्दर की तात्त्विक चेतना के लिये, सबल और असंदिग्ध रूप में, एक अनन्य दुर्निवार सत्य है । प्रायः इस अनुभव के साथ एक और भी इतना ही प्रबल बोध होता है, वह यह कि इहलोक की सब वस्तुएं या तो स्वप्न वा छाया की भांति भ्रमात्मक हैं अथवा वे अस्थायी, गौण और केवल अर्द्ध-वास्तविक हैं । कम-से-कम कुछ समय के लिये मेरे चारों ओर का सब दृश्य जगत् ऐसा दिखायी दे सकता है कि यह चलचित्र-से छाया-रूपों या तलीय आकारों का चलना-फिरना है और मेरा अपना कर्म ऐसा मालूम हो सकता है कि यह मेरे ऊपर या बाहर के किसी अब तक अगृहीत और सम्भवतः अनधिगम्य स्रोत से निकली तरल रचना हो । इस चेतना में रहने और इस प्रवेशात्मक अनुभव को विकसित करने अथवा वस्तुओं के स्वरूप के इस प्रथम संकेत का अनुसरण करने का अर्थ होगाअहं और जगत् का अज्ञेय में लय करने किंवा मोक्ष या निर्वाण प्राप्त करने के लक्ष्य की ओर अग्रसर होना । किन्तु परिणति की केवल यही एक दिशा हो ऐसी बात नहीं है । इसके विपरीत, मेरे लिये यह भी सम्भव है कि मैं तब तक प्रतीक्षा करता रहूं जब तक इस कालातीत रिक्त मोक्ष की निश्चल-नीरवता के द्वारा मैं अपनी सत्ता और अपने कार्यों के इस अद्यावधि अज्ञात स्रोत के साथ सम्बन्ध न जोड़ लूं ।

 

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तब रिक्तता भरने लगती है और इसमें से भगवान् का सकल बहुविध सत्य और क्रियाशील अनन्त सत्ता के समस्त रूप एवं अभिव्यक्तियां तथा अनेकानेक स्तर उदित होने लगते हैं अथवा वे इसके अन्दर ही प्रवाहित होने लगते हैं । यह अनुभव पहले तो मन में और फिर हमारी सारी सत्ता में एक चरम, अथाह और अतल-प्राय शान्ति और नीरवता स्थापित कर देता है । अभिभूत, वशीकृत, स्तब्ध तथा अपने-आपसे निर्मुक्त होकर मन स्वयं इस नीरवता को ही परात्पर सत्ता स्वीकार कर लेता है । परन्तु पीछे जिज्ञासु को पता चलता है कि उसके लिये सब कुछ ही अन्तर्निहित या नवसृष्ट रूप में इस निश्चल-नीरवता में विद्यमान है अथवा सब कुछ इस निश्चल-नीरवता के ही द्वारा एक महत्तर निगूढ़ परात्पर सत्ता से उसके अन्दर अवतरित होता है । कारण, यह परात्पर एवं निरपेक्ष सत्ता अलक्षण शून्यता की शान्तिमात्र नहीं है; इसके अपने अनन्त आधेय और ऐश्वर्य हैं जब कि हमारे आधेय और ऐश्वर्य इनसे हीन और न्यून हैं । यदि सब वस्तुओं का यह स्रोत न होता तो विश्व उत्पन्न ही न हो सकता; सब शक्तियां, क्रियाएं और कर्म भ्रमरूप होते, सृष्टि और अभिव्यक्तिमात्र असम्भव होती ।

 

     यही हैं तीन मूल-रूप अनुभव इतने मूलभूत कि ज्ञानमार्ग के योगी को ये चरम तथा स्वतः-पर्याप्त प्रतीत होते हैं, साथ ही ये उसे निश्चित रूप में अन्य सब अनुभवों के शिरोमणि एवं प्रतिनिधि भी प्रतीत होते हैं । परन्तु परिपूर्णता के अन्वेषक के लिये ये अनन्य सत्य नहीं होते, न ही ये सनातन के समग्र सत्य के पूर्ण और एकमात्र सूत्र होते हैं, वरंच ये एक महत्तर दिव्य ज्ञान के अपूर्ण आरम्भ एवं विशाल आधारमात्र होते हैं, भले ही ये उसे कृपा के चमत्कार से शुरू की अवस्था में ही एकाएक और अनायास प्राप्त हो जायें या लंबी यात्रा और श्रम के पश्चात् कठिनाई से उपलब्ध हों । अन्य अनुभव भी हैं जिनकी निश्चय ही आवश्यकता है और जिनकी खोज उनकी सम्भाव्यताओं के परले छोर तक करनी होगी । यद्यपि उनमें से कुछ एक प्रथम दृष्टि में ऐसे प्रतीत होते हैं कि ये केवल उन भागवत रूपों को समाविष्ट करते हैं जो सत्ता की क्रियाशीलता के लिये यन्त्रात्मक हैं किन्तु उसके सारतत्त्व में अन्तर्निहित नहीं हैं, तो भी जब हम उनका अनुसरण अन्त तक करते हैं अर्थात् क्रियाशीलता में से होते हुए उनके सनातन स्रोत तक पहुंचते हैं तो हमें पता चलता है कि वे भगवान् के उस रूप का प्रकाश करते हैं जिसके बिना वस्तुओं के मूल सत्य का हमारा ज्ञान असमृद्ध और अपूर्ण ही रह जाता । ये यन्त्रात्मक सत्ताएं जो देखने में ऐसी प्रतीत होती हैं, उस रहस्य की कुंजी हैं जिसके बिना स्वयं मूलभूत तत्त्व भी अपना सम्पूर्ण गुह्यार्थ प्रकाशित नहीं करते । भगवान् का प्रकाश करने वाले सभी रूपों को हमें पूर्णयोग की विशाल परिधि के अन्दर ले आना होगा ।

 

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     यदि संसार और उसके कर्मों से पलायन, अर्थात् परम मोक्ष एवं शम ही जिज्ञासु का एकमात्र ध्येय होता, तो ये तीन महान् आधारभूत अनुभव उसके आध्यात्मिक जीवन की कृतार्थता के लिये पर्याप्त होते । इन्हींमें एकाग्र होकर वह अन्य समस्त दिव्य या लौकिक ज्ञान का त्याग कर देता और स्वयं भारमुक्त होकर शाश्वत प्रशांति की ओर प्रयाण करता । परन्तु उसे संसार और उसके कर्मों को भी अपने ध्यान में रखना है, इनके मूलभूत दिव्य सत्य को जानना है और दिव्य सत्य तथा व्यक्त सृष्टि के उस प्रतीयमान विरोध का समाधान करना है जो अधिकतर आध्यात्मिक अनुभवों के आरम्भ में जिज्ञासु के सामने उपस्थित हुआ करता है । साधना की चाहे जिस भी दिशा का वह अनुसरण करे उसमें एक शाश्वद्वैत अर्थात् सत्ता की दो अवस्थाओं का पार्थक्य उसके सामने उपस्थित होता है । उसे प्रतीत होता है कि ये अवस्थाएं परस्पर-विरोधी हैं और इनका विरोध ही जगत् की पहेली की असली जड़ है । बाद में, वह जान सकता है और अवश्य ही जान लेता है कि ये 'एकं सत्' के दो ऐसे ध्रुव हैं जो शक्ति की दो परस्पर-सम्बद्ध, ऋण- धनात्मक समकालीन धाराओं से जुड़े हुए हैं और इनकी एक दूसरे पर क्रिया ही सत्ता के अन्तर्निहित तत्त्वों की अभिव्यक्ति की वास्तविक अवस्था है, इनका पुनर्मिलन ही जीवन की विषमताओं के समाधान का एक नियत साधन है और इसीसे उस सर्वांगीण सत्य की उपलब्धि हो सकती है जिसकी कि वह खोज कर रहा है ।

 

     एक ओर तो उसे भान होता है कि यह आत्मा या नित्य आत्म-तत्त्वब्रह्म, यह सनातन सब जगह रमा हुआ है, एक ही स्वयंभू-सत्ता यहां कालगत रूप में प्रत्येक दृश्य या गोचर पदार्थ के पीछे विद्यमान है और विश्व से परे कालातीत है । उसे एक प्रबल और सर्वाभिभावी अनुभव होता है कि यह आत्मा न तो हमारा सीमित अहं है और न ही यह हमारा मन, प्राण या शरीर है; यह विश्वव्यापी है पर बाह्य दृश्य प्रपंच-रूप नहीं है और फिर भी उसकी आत्मिक इन्द्रिय-शक्ति के लिये यह किसी भी साकार या दृश्य वस्तु की अपेक्षा कहीं अधिक प्रत्यक्ष है; यह सार्वभौम है पर अपने अस्तित्व के लिये संसार की किसी वस्तु पर या संसार की समूची सृष्टि पर भी निर्भर नहीं है; यदि यह सारे-का-सारा जगत् लुप्त हो भी जाय, तो भी इसके लय से उसके स्थिर अंतरीय अनुभव के विषयभूत इस सनातन में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा । उसे निश्चय हो चुका है कि एक अवर्णनीय स्वयंभू-सत्ता है जो उसका तथा सब वस्तुओं का सार है । उसे उस तात्त्विक चेतना का अन्तरंग ज्ञान हो गया है जिसकी हमारा चिन्तक मन, प्राण-सम्बेदन और देह-सम्बेदन आंशिक और हीन प्रतिमाएंमात्र हैं, उसे यह भी अनुभव हो गया है कि वह चेतना एक ऐसी असीम शक्ति से सम्पन्न है जो इन सब शक्तियों का आदिस्रोत है और फिर भी इन सब सम्मिलित शक्तियों के योग या बल या स्वरूप के द्वारा समझ में नहीं आ सकती,

 

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न इनके द्वारा उसकी व्याख्या ही हो सकती है । वह एक ऐसा अविच्छेद्य स्वयं-सत् आनन्द अनुभव करता है और उसमें निवास करता है जो हमारा क्षुद्रतर क्षणिक हर्ष या प्रसन्नता या सुख नहीं है । एक निर्विकार अविनाशी अनन्तता, एक कालातीत नित्यता, एक ऐसी आत्म-सचेतनता जो यह ग्रहणशील एवं प्रतिक्रियाकारी या स्पर्शक-तुल्य (tentacular) मानसिक चेतना नहीं है, वरन् इसके पीछे और ऊपर है तथा इसके नीचे भी विद्यमान है, यहां तक कि निश्चेतना में भी अन्तर्निहित है, और एक ऐसी एकता जिसमें किसी और सत्ता की सम्भावना ही नहीं हैयह इस सुस्थिर अनुभव का चतुर्विध स्वरूप है । तथापि यह नित्य स्वयंभू-सत्ता उसे इस रूप में भी दिखायी देती है कि यह एक चेतन काल-पुरुष है जो घटनाओं के प्रवाह को वहन करता है, एक आत्म-विस्तृत आत्मिक 'देश' है जो सब वस्तुओं और सत्ताओं को धारण करता है, एक आत्मिक सत्तत्त्व है जो अनाध्यात्मिक, अनित्य और सांत प्रतीत होनेवाली सभी वस्तुओं का वास्तविक रूप और उपादान है । जो क्षणभंगुर, देश-काल-बद्ध और सीमित है वह सब भी उसे यूं अनुभूत होता है कि वह अपने सारतत्व, बल और ऊर्जा में उस एकमेव, सनातन तथा अनन्त से भिन्न कुछ नहीं है ।

 

     तो भी उसके अन्दर या उसके सामने केवल यह नित्य आत्म-सचेतन सत्ता, यह आध्यात्मिक चेतना, स्वयं-प्रकाश शक्ति की यह अनन्तता और यह कालातीत तथा अपार परमानन्द ही विद्यमान नहीं है । इसके साथ ही, परिमित देश-काल में बंधा यह विश्व या शायद एक प्रकार का निःसीम सांत भी उसके अनुभव के सम्मुख निरन्तर वर्तमान है । इसके अन्दर सब कुछ नश्वर, सीमित, खण्डित, अनेकात्मक तथा अज्ञ है, दुःख-द्वंद्व के प्रति खुला हुआ है, एकता की किसी असिद्ध किन्तु अन्तर्निहित स्वरमाधुरी की सन्देहपूर्वक खोज कर रहा है, अचेतन या अर्द्ध-चेतन है या, जब अधिक-से-अधिक चेतन होता है तब भी मूल अविद्या और निश्चेतना से बंधा रहता है । सुतरां, वह सदा शान्ति या आनन्द की समाधि में ही नहीं रहता और यदि वह रहे भी तो भी यह कोई हल नहीं होगा, क्योंकि वह जानता है कि यह अविद्यामय जगत् तब भी उससे बाहर अथच उसकी किसी विस्तीर्णतर आत्मा के भीतर मानो सदा के लिये चल रहा होगा । कभी तो उसे यह प्रतीत होता है कि उसकी आत्मा की ये दो अवस्थाएं उसकी चेतना की स्थिति के अनुसार उसके लिये बारी-बारी से आती हैं । और, कभी ऐसा लगता है कि ये उसकी सत्ता के दो अवयव हैं, दो अर्द्धऊर्ध्व और निम्न या आन्तर और बाह्य अर्द्धहैं जिनमें मेल नहीं है और जिनमें मेल बैठाना आवश्यक है । उसे शीघ्र ही मालूम हो जाता है कि उसकी चेतना के इस पार्थक्य में एक बड़ी भारी मोक्षजनक शक्ति है, क्योंकि इसके कारण वह अब अविद्या एवं निश्चेतना से पूर्ववत् बद्ध नहीं रहता । यह पार्थक्य अब उसे अपना और जगत् का वास्तविक स्वरूप नहीं, वरन् एक भ्रम

 

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प्रतीत होता है जो दूर किया जा सकता है अथवा यह उसे कम-से-कम एक अस्थायी मिथ्या स्वानुभव अर्थात् माया मालूम देता है । उसके अन्दर प्रलोभन पैदा होता है कि वह इसे केवल भगवान् का प्रतिषेध, अथवा अनन्त की अगम रहस्य- लीला किंवा उसका छद्यवेश या हास्यास्पद अभिनय मान ले । समय-समय पर उसके अनुभव को यह वास्तव में दुर्दम रूप से ऐसा ही भासित होता है, एक ओर तो ब्रह्म की प्रोज्ज्वल सत्यता और दूसरी ओर माया का अन्धकारमय भ्रम । परन्तु उसके अन्दर की कोई चीज उसे इस प्रकार सदा के लिये सत्ता को दो भागों में विभक्त कर डालने की अनुमति नहीं देगी । अधिक सूक्ष्मता से देखने पर वह जान जाता है कि इस अर्द्ध-प्रकाश या अन्धकार में भी सनातन विद्यमान हैमाया का आवरण पहने हुए स्वयं ब्रह्म ही यहां विराजमान है ।

 

     यह एक वर्द्धनशील आध्यात्मिक अनुभव का प्रारम्भ है । यह उसके समक्ष इस बात को अधिकाधिक प्रकट कर देता है कि जो चीज उसे पहले अन्धकारमय अगम माया प्रतीत होती थी वह तब भी सनातन पुरुष की चिच्छक्ति से भिन्न और कुछ नहीं थी । वह शक्ति इस विश्व से परे कालातीत और असीम है, पर वह यहां, उज्ज्वल और धूसर, विरोधी तत्त्वों का जामा पहन कर मन, प्राण और जड़ में भगवान् की क्रमिक अभिव्यक्ति के चमत्कार के लिये सर्वत्र फैली हुई है । समस्त कालातीत सत्ता कालगत क्रीडा के लिये दबाव डालती है; कालगत सभी कुछ कालातीत आत्म-तत्त्व के आधार पर और उसीके चारों ओर परिभ्रमण करता है । यदि पार्थक्य का अनुभव मोक्षजनक था तो यह एकत्व का अनुभव गतिशील और कार्यक्षम है । वह अब अपने को केवल ऐसा ही अनुभव नहीं करता कि वह अपने आत्म-तत्त्व में सनातन पुरुष का अंश है, अपनी तात्त्विक आत्मा और आत्म-तत्त्व में सनातन पुरुष के साथ पूर्णतया एकीभूत है, वरंच यह भी कि वह अपनी सक्रिय प्रकृति में उसकी सर्वज्ञ और सर्वसमर्थ चिच्छक्ति का यन्त्र है । उसके अन्दर सनातन देव की वर्तमान लीला चाहे कितनी भी सीमित और सापेक्ष क्यों न हो तथापि वह उसकी अधिकाधिक विस्तृत चेतना और शक्ति की ओर उद्घाटित हो सकता है और इस विस्तार की कोई भी निर्धारणीय सीमा नहीं प्रतीत होती । उस चिच्छक्ति का एक आध्यात्मिक एवं अतिमानसिक स्तर भी उसके ऊर्ध्व में अपने को प्रकट करता है और सम्पर्क स्थापित करने के लिये नीचे झुकता हुआ प्रतीत होता है । उस स्तर में ये सीमाएं और शृंखलाएं नहीं हैं और उसकी शक्तियां भी सनातन के एक महत्तर अवतरण और एक कम प्रच्छन्न या अप्रच्छन्न आत्म-प्रकाश के आश्वासन के साथ कालगत क्रीड़ा पर दबाव डाल रही हैं । इस प्रकार, ब्रह्म-माया का जो द्वैत एक समय विरोधमय प्रतीत होता था और अब द्विदल या द्वयात्मक अनुभव होता है उसका रहस्य जिज्ञासु के समक्ष इस रूप में आविष्कृत हो जाता है कि वह सब आत्मा, सत्ता के स्वामी और विश्व-यज्ञ के एवं

 

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उसके अपने यज्ञ के अधीश्वर का प्रथम महान् और क्रियाशील रूप है ।

 

     भगवत्प्राप्ति की एक और दिशा में एक दूसरा द्वैत जिज्ञासु के अनुभव के विषय के रूप में उपस्थित होता है । एक तरफ तो उसे यह ज्ञान प्राप्त होता है कि एक साक्षि-चेतना है जो ग्रहण, निरीक्षण और अनुभव करती है, जो कर्म करती नहीं जान पड़ती, किन्तु जिसके लिये हमारे भीतर और बाहर के ये सभी कर्म प्रारम्भ किये जाते और जारी रखे जाते प्रतीत होते हैं । उसके साथ ही, दूसरी तरफ वह एक कर्त्री शक्ति या कार्य-प्रक्रिया की शक्ति को जानता है जो सभी कल्पनीय क्रियाओं को गठित, प्रेरित और परिचालित करती, गोचर एवं अगोचर अगणित पदार्थों को उत्पन्न करती तथा अपनी अविरत कर्मधारा और सृष्टि-प्रवाह के स्थिर आधारों के तौर पर उन्हें प्रयोग में लाती दिखायी देती है । साक्षि-चेतना में एकान्तभाव से प्रवेश करके वह शान्त, निर्लिप्त तथा निश्चल हो जाता है । वह देखता है कि अब तक वह प्रकृति की गतियों को निष्क्रिय भाव में प्रतिबिंबित करता आया है और फिर पीछे उन्हींको अपनी मान लेता रहा है; तथाच, इसी प्रतिबिंबित करने की क्रिया के कारण उन्हें उसकी अन्तरस्थ साक्षी आत्मा से एक आध्यात्मिक-सा मूल्य और महत्त्व प्राप्त हो गया है । परन्तु अब उसने वह अध्यारोप या प्रतिबिंबात्मक तादात्म्य वापिस ले लिया है । वह केवल अपनी शान्त आत्मा के प्रति ही सचेतन है और उसके चारों ओर जो गतिशील है उस सबसे विलग है । सब चेष्टाएं उसके बाहर हो रही हैं और उनकी अन्तरीय वास्तविकता की एकदम इति हो गयी है । वे उसे अब यान्त्रिक प्रतीत होती हैं, अब वह उनसे अनासक्त रहकर उन्हें समाप्त कर सकता है । केवल राजसिक गति में प्रवेश करने पर उसे एक विपरीत प्रकार का आत्मज्ञान होता है । स्वयं अपने विषय में उसे ऐसा अनुभव होता है मानो वह क्रियाओं का एक पुंज और शक्तियों की रचना एवं परिणाम है; यदि इस सब प्रपंच के बीच कोई सक्रिय चेतना, यहां तक कि किसी प्रकार का गतिशील पुरुष हो भी सही तो भी इसमें स्वतन्त्र आत्मा तो कहीं नहीं है । सत्ता की ये दो विभिन्न और विरोधी अवस्थाएं उसमें बारी-बारी से आती हैं अथवा एक साथ एक-दूसरे के आमने-सामने ही आ उपस्थित होती है । एक तो आन्तर सत्ता में प्रशान्त रहकर निरीक्षण करती है, किन्तु चलायमान नहीं होती और प्रकृति की क्रिया में भाग नहीं लेती; दूसरी किसी बाह्य या तलवर्त्ती आत्मा में सक्रिय रहती हुई अपनी अभ्यस्त गतियां जारी रखती है । उसने पुरुष-प्रकृति के महान् द्वैत के एक तीव्र पृथक्कारक अनुभव में प्रवेश पा लिया है ।

 

     परन्तु जैसे-जैसे चेतना गभीर होती जाती है, वैसे-वैसे वह इस बात से सचेतन होता जाता है कि यह केवल एक प्रारम्भिक सम्मुखीन प्रतीति है । उसे विदित हो जाता है कि उसकी अन्तःस्थित साक्षी आत्मा के प्रशान्त अवलम्बन के द्वारा अथवा उसकी स्वीकृति या अनुमति से ही यह कार्यवाहिका प्रकति उसकी सत्ता पर घनिष्ठता

 

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या दृढ़ता से कार्य कर सकती है । यदि आत्मा अपनी अनुमति वापिस ले ले तो भी प्रकृति की गतियां सर्वथा यंत्रवत् बार-बार होती ही रहती हैं । प्रारम्भ में ये जबर्दस्त होती हैं मानो अब भी बलात् अपना अधिकार जमाने का यत्न कर रही हों, पर बाद में इनकी सक्रियता और वास्तविकता न्यूनातिन्यून हो जाती है । स्वीकृति या अस्वीकृति की इस शक्ति का अधिक सक्रिय प्रयोग करने पर वह देखता है कि प्रकृति की गतियों को वह पहले तो धीमे-धीमे तथा अनिश्चित रूप से और पीछे अधिक निश्चित तौर पर परिवर्तित कर सकता है । अन्त में उसके समक्ष यह तथ्य प्रकट हो जाता है कि इस साक्षी आत्मा में या इसके पीछे एक ज्ञाता और अधिष्ठाता संकल्प विराजमान है जो प्रकृति में क्रिया कर रहा है । उसे उत्तरोत्तर ऐसा भासित होने लगता है कि प्रकृति के सब व्यापार उस चीज की अभिव्यक्तियां हैं जिसे प्रकृति की सत्ता का यह प्रभु जानता है और जिसके लिये यह या तो सक्रिय संकल्प करता है या निष्क्रिय अनुमति देता है । स्वयं प्रकृति भी यान्त्रिक इसी अंश में प्रतीत होती है कि उसके व्यापार सावधानी से व्यवस्थित किये हुए दिखायी देते हैं, परन्तु वास्तव में वह एक चिन्मय शक्ति है जिसके अन्दर एक आत्मा है, जिसकी प्रवृत्तियों में एक आत्मसचेतन आशय है और जिसकी गतिविधियों तथा रचनाओं में एक गुप्त संकल्प एवं ज्ञान का प्रकाश अभिव्यक्त होता है । यह द्वैत, पक्षत: भिन्न होने पर भी, अपने-आपमें अविच्छेद्य है; जहां-जहां प्रकृति है वहां-वहां पुरुष है, जहां-जहां पुरुष वहां-वहां प्रकृति । अपनी निष्क्रियता में भी वह प्रकृति की सम्पूर्ण शक्ति एवं बलों को, प्रयोग के लिये तैयार अवस्था में, अपने अन्दर धारण किये होता है । प्रकृति कर्म के वेग में भी अपने सर्जनोद्देश्य के सम्पूर्ण आधार तथा आशय के रूप में पुरुष की समस्त निरीक्षक और आदेशात्मक चेतना को अपने साथ लिये फिरती है । एक बार फिर जिज्ञासु अपने अनुभव से जान लेता है कि 'एकं सत्' के दो ध्रुव हैं और इनकी परस्पर-सम्बद्ध ऋण- धनात्मक शक्ति की दो दिशाएं या धाराएं हैं जो एक-दूसरी के साथ मिल कर 'सत्' के अन्तर्निहित वस्तुमात्र की अभिव्यक्ति संपादित करती हैं । यहां भी वह देखता है कि भेदात्मक रूप मोक्षजनक है; यह उसे उस बन्धन से मुक्त कर देता है जो अविद्या में प्रकृति की दोषपूर्ण क्रियाओं के साथ एकाकारता स्थापित करने से पैदा होता है । एकीकारक रूप क्रियाशील और फलोत्पादक है; यह उसे प्रभुत्व और पूर्णता प्राप्त करने की सामर्थ्य देता है । प्रकृति के अन्दर जो चीज कम दिव्य या प्रत्यक्षत: अदिव्य है उसे त्याग कर वह अपने अन्दर इसके आकारों और गतियों को एक महत्तर जीवन के उत्कृष्टतर आदर्श तथा उसके विधान एवं लयताल के अनुसार फिरसे गढ़ सकता है । एक आध्यात्मिक और अतिमानसिक स्तर-विशेष पर यह द्वैत और भी अधिक पूर्णता के साथ एक चिच्छक्तिमय परम आत्मा का द्विक बन जाता है । इसकी शक्तिमत्ता किन्हीं भी बाधाओं को नहीं मानती और प्रत्येक सीमा को

 

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तोड़ डालती है । इस प्रकार पुरुष-प्रकृति का यह द्वैत, जो पहले भेदयुक्त प्रतीत होता था पर अब द्वयात्मक अनुभव होता है, उसके समक्ष अपने समस्त सत्यसहित इस रूप में प्रकाशित हो जाता है कि यह सब आत्माओं की आत्मा का, सत्ता के स्वामी और यज्ञ के ईश्वर का द्वितीय महान् यन्त्रात्मक और कार्यसाधक रूप है ।

 

     भगवत्प्राप्ति की इनसे भिन्न एक तीसरी दिशा में जिज्ञासु के सामने एक और, इनसे मिलता-जुलता पर पक्षतः विभिन्न, द्वैत उपस्थित होता है जिसमें द्वयात्मक स्वरूप अधिक शीघ्रता से प्रत्यक्ष होता है । वह ईश्वर और शक्ति का क्रियाशील द्वैत है । एक तरफ तो जिज्ञासु को अनन्त और स्वयंभू देवाधिदेव के उस सत्तात्मक रूप का ज्ञान होता है जिसमें वह देव सब वस्तुओं को सत्ता की अनिर्वचनीय गर्भावस्था में धारण करता है, जिसमें वह सब आत्माओं की आत्मा और सब जीवों का जीव है, सब पदार्थों का आध्यात्मिक पदार्थ और निर्वैयक्तिक अकथनीय सत् है; पर साथ ही वह एक असीम व्यक्ति भी है जो यहां अगणित व्यक्तित्वों में अपने-आपको ही प्रकट करता है, वह ज्ञान का स्वामी, शक्तियों का स्वामी, प्रेम, आनन्द और सौन्दर्य का ईश्वर, सब लोकों का एक ही उद्गम, आत्म-अभिव्यंजक और आत्मसर्जक है, विश्वात्मा, विश्व-मन तथा विश्व-प्राण है, वह एक चेतन और सजीव सद्वस्तु है और इस दृश्य जगत् को, जो अचेतन एवं निर्जीव जड़तत्त्व प्रतीत होता है, आश्रय प्रदान करता है । दूसरी तरफ उसे देवाधिदेव के उस रूप का भी ज्ञान होता है जो कार्य-निष्पादक चिच्छक्ति से सम्पन्न है । वह चिच्छक्ति एक ऐसी आत्म-सचेतन शक्ति के रूप में प्रकट की गयी है जो अपने भीतर सब कुछ धारण और वहन करती है और उसे विश्वगत देश-काल में अभिव्यक्त करने के लिये नियुक्त है । उसे प्रत्यक्ष हो गया है कि यहां एक परम और अनन्त सत् है जो अपने दो भिन्न पार्श्वों में हमारे सामने प्रकट है और उन पार्श्वों का एक-दूसरे के साथ सीधे और उल्टे का सम्बन्ध है । उस सत्स्वरूप देवाधिदेव में सभी कुछ तैयार या पूर्व-वर्तमान है, वह उससे प्रादुर्भूत तथा उसके संकल्प और उपस्थिति के द्वारा धारित होता है । शक्तिस्वरूप देवाधिदेव सबको प्रकट करता है और उन्हें यहां गति में वहन भी करता है । उसी शक्ति से और उसी शक्ति में सब कुछ संभूत होता तथा क्रिया करता है और अपने वैयक्तिक या सार्वभौम प्रयोजन को विकसित करता है । यह भी एक द्वैत है जो अभिव्यक्ति के लिये आवश्यक है । यह शक्ति की उस द्विगुण धारा को उत्पन्न करता तथा समर्थ बनाता है जो जगत् के व्यापारों के लिये सदैव आवश्यक प्रतीत होती है । शक्ति की ये धाराएं एक ही सत्ता के दो ध्रुव हैं, परन्तु द्वैत के इस रूप में ये ध्रुव एक-दूसरे के अधिक निकट हैं तथा प्रत्येक दूसरे की शक्ति को अपने सारतत्त्व तथा सक्रिय प्रकृति में सदैव स्पष्ट रूप से धारण करता है । इस तथ्य के बल पर दिव्य परम रहस्य के दो महान् तत्त्ववैयक्तिक और निर्वैयक्तिक अथवा सगुण और निर्गुण यहां परस्पर

 

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एकीभूत हैं, सर्वांगीण सत्य का अन्वेषक ईश्वरशक्ति के द्वैत में अपने-आपको दिव्य परत्परता और अभिव्यक्ति के उस परम रहस्य के निकट अनुभव करता है जो किसी अन्य अनुभव के द्वारा प्रस्तुत रहस्य की अपेक्षा अधिक अन्तरंग और चरम है ।

 

     ईश्वरी शक्ति, भागवती चिच्छक्ति एवं जगज्जननी, सनातन 'एक' और व्यक्त  'बहु' के बीच मध्यस्था बनती है । एक तरफ तो यह एकमेव से लायी शक्तियों की क्रीड़ाद्वारा, अपने व्यक्तीकारक तत्त्व में 'एक' की अनन्त आकृतियों को तिरोभूत रखती और उसीमें से उन्हें आविर्भूत करती हुई, विश्व में बहुगुणित भगवान् को प्रकट करती है; दूसरी तरफ उन्हीं शक्तियो की पुनरारोहणकारिणी धारा से वह सब वस्तुओं को 'तत्' में, जिससे वे निर्गत हुई हैं, वापिस ले जाती है, जिससे कि आत्मा अपनी विकासशील अभिव्यक्ति में वहां भगवान् की ओर अधिकाधिक लौट सके अथवा यहां अपना दिव्य स्वरूप धारण कर सके । यद्यपि प्रकृति संसार के यन्त्रवत् चलने की क्रिया को आयोजित करती है तो भी उसका वास्तविक रूप यह नहीं कि वह निश्चेतन तथा यन्त्रवत् कार्य-निष्पादन करनेवाली शक्ति है, जैसा कि उसके बाह्याकार पर प्रथम दृष्टि डालते ही हम अनुभव करते हैं; न ही उसमें वह  'मिथ्यात्व' का धर्म है जो 'माया' -विषयक हमारी प्रथम धारणा के साथ जुड़ा रहता है, अर्थात् यह धर्म कि वह भ्रमों या अर्द्ध-भ्रमों की सृष्टि करनेवाली है । अनुभवित्री आत्मा को यह एकदम स्पष्ट हो जाता है कि यहां एक चिन्मय शक्ति है जिसका सारतत्त्व और स्वभाव वही है जो परमदेव का है, क्योंकि वह उसीसे प्रकट हुई है । यदि ऐसा लगता है कि उसने हमें अविद्या और निश्चेतना में डुबा दिया है, किसी ऐसी योजना की पूर्त्ति के लिये जिसे हम अभी समझ नहीं पाते, यदि उसकी शक्तियां हमें विश्व की इन सब अनिश्चित शक्तियों के रूप में दिखायी देती हैं तो भी यह पता चलते देर नहीं लगती कि वह हमारे अन्दर दिव्य चेतना के विकास के लिये कार्य कर रही है और ऊपर स्थित होकर वह हमें अपनी उच्चतर सत्ता की ओर खींच रही तथा दिव्य ज्ञान, संकल्प एवं आनन्द के वास्तविक सार को हमारे सम्मुख अधिकाधिक प्रकट कर रही है । अज्ञान की गतियों में भी जिज्ञासु की आत्मा को यह अनुभव हो जाता है कि प्रकृति का सचेतन मार्ग-निर्देश उसके पगों को अवलंब दे रहा है और उन्हें शनैः-शनैः या शीघ्रता से, सीधे रास्ते या बहुत घुमा-फिराकर, अन्धकार से महत्तर चेतना के प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरता की ओर और अशुभ एवं दुःख से उस शुभ और सुख की ओर ले जा रहा है जिनकी उसका मानवीय मन अभी एक धुंधली-सी कल्पना ही कर सकता है । इस प्रकार उसकी शक्ति एक साथ मोक्षप्रद तथा गतिशील, सर्जनकारी एवं कार्यक्षम है, वस्तुएं जैसी आज हैं, केवल उन्हींकी नहीं, बल्कि जो आगे पैदा होने को हैं उनकी भी वह रचना करती है । अज्ञान के तत्त्व से निर्मित उसकी निम्नतर चेतना की टेढ़ी-मेढ़ी और उलझी गतियों को बहिष्कृत कर वह उसकी

 

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आत्मा और प्रकृति को फिरसे उच्चतर दैवी प्रकृति के सत्त्व और बलों में गढ़ती और नया बनाती है ।

 

     इस द्वैत में भी भेदात्मक अनुभव सम्भव है । इसके एक सिरे पर जिज्ञासु केवल सत्ता के उस स्वामी से सचेतन हो सकता है जो उसे मुक्त और दिव्य बनाने के लिये उसके अन्दर अपने ज्ञान, शक्ति और आनन्द के सामर्थ्य बलपूर्वक उंडेल रहा है; शक्ति उसे इन ज्ञान आदि का द्योतक निर्वैयक्तिक बल या ईश्वर का गुणमात्र प्रतीत हो सकती है । दूसरे सिरे पर वह विश्व का सृजन करनेवाली उस जगज्जननी से मिलन प्राप्त कर सकता है जो अपने आत्मतत्त्व में से देवताओं और लोकों को तथा सब पदार्थों और सत्ताओं को उत्पन्न करती है । अथवा, यदि वह इन दोनों ही रूपों को देखता है तो भी वह इन्हें एक असम एवं विभेदक दृष्टि से ही देख सकता है, वह एक को दूसरे के अधीन कर देता है तथा शक्ति को ईश्वर के पास पहुंचने का साधनमात्र समझता है । इसके परिणामस्वरूप एक एकांगी प्रवृत्ति पैदा होती है अथवा समतोलता नष्ट हो जाती है; अर्थात् कार्य-निष्पादन का जो बल प्राप्त होता है वह अपने आधार पर सुप्रतिष्ठित नहीं होता अथवा ईश्वरीय सत्य का जो प्रकाश उपलब्ध होता है वह पूर्णत: क्रियाशील नहीं होता । जब इस द्वैत के दोनों पक्षों का पूर्ण मिलन साधित हो जाता है और वह उसकी चेतना पर अधिकार कर लेता है तब जिज्ञासु उस पूर्णतर शक्ति के प्रति उद्घाटित होने लगता है जो उसे यहां के विचारों और बलों के अस्त-व्यस्त संघर्ष से सर्वथा बाहर निकालकर उच्चतर सत्य में ले जायगी और इस अविद्यामय जगत् को प्रकाशयुक्त और मुक्त करने तथा इसपर प्रभुत्वपूर्ण ढंग से क्रिया करने के लिये उस सत्य के अवतरण को सम्भव बना देगी । उसने अब सर्वांगीण रहस्य को स्पर्श करना प्रारम्भ कर दिया है । यह रहस्य अपने पूर्ण रूप में तभी अधिगत हो सकता है जब वह मूल अज्ञान के साथ जटिलतापूर्वक गुंथे हुए ज्ञान के उस दोहरे स्तर को लांघ जाता है जिसका यहां राज्य छाया हुआ है और जब वह उस सीमा को पार कर लेता है जहां आध्यात्मिक मन अतिमानसिक विज्ञान में विलीन हो जाता है । एकमेव के इस तीसरे तथा अत्यन्त क्रियाशील द्वैत-पक्ष के द्वारा ही जिज्ञासु यज्ञ-महेश्वर की सत्ता के गहनतम रहस्य में अत्यन्त सर्वांगीण पूर्णता के साथ प्रवेश करने लगता है ।

 

     कारण, जीवन की पहेली का हल जैसे इस रहस्य में छिपा है कि अचित् में से चेतना, प्राणहीन में से प्राण और प्रकृति में से आत्मा प्रकट होती है वैसे ही यह इस रहस्य के पीछे भी छिपा है कि इस आपातत: निर्वैयक्तिक विश्व में भी व्यक्तित्व उपस्थित है । यहां फिर एक और क्रियाशील द्वैत विद्यमान है जो प्रथम दृष्टि में जैसा दिखायी देता है उससे कहीं अधिक व्यापक है और जो शनैः-शनैः आत्म-प्रकाश करनेवाली शक्ति की लीला के लिये नितान्त आवश्यक है । अपनी अध्यात्म- अनुभूति में जिज्ञासु के लिये यह सम्भव है कि वह द्वैत के एक ध्रुव पर खड़ा

 

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होकर विराट् मन का अनुसरण करता हुआ सभी जगह मूलभूत निर्वैयक्तिकता के दर्शन करे । कारण, जड़ जगत् में विकासोन्मुख आत्मा एक ऐसी बृहत् निर्वैयक्तिक निश्चेतना से प्रारम्भ करती है जिसमें हमारी अन्तर्दृष्टि को तब भी एक प्रच्छन्न अनन्त आत्मा की उपस्थिति दिखायी देती है । फिर यह उस अनिश्चित चैतन्य और व्यक्तित्व के प्रादुर्भाव के साथ-साथ आगे बढ़ती है जो अपनी पूर्णतम अवस्था में भी एक उपाख्यान से प्रतीत होते हैंएक ऐसा उपाख्यान जो अविच्छिन्न धारा के रूप में बराबर ही चलता रहता है । बाद में, यह जीवन के अनुभवद्वारा मन से ऊपर उठकर एक अनन्त, निर्वैयक्तिक और निरपेक्ष अतिचेतना में जा पहुंचती है जहां व्यक्तित्व, मनश्चेतना, प्राण-चेतना-सभी निर्वाण या मोक्षकारक नास्ति के कारण अन्तर्धान होते जान पड़ते हैं । इससे निचले शिखर पर जिज्ञासु अब भी इस आधारभूत निर्वैयक्तिकता को ही एक सर्वत्र विद्यमान, साथ ही बड़ी भारी मोक्षप्रद शक्ति के रूप में अनुभव करता है । यह उसके ज्ञान को वैयक्तिक मन की संकीर्णता से मुक्त कर देती है, यह उसके संकल्प को वैयक्तिक कामना के पंजे से, उसके हृदय को क्षुद्र विकारी भावों के बन्धन से, उसके प्राण को उसकी तुच्छ निजी प्रणाली से और उसकी आत्मा को अहंबुद्धि से मुक्त कर देती है । यह उन्हें शान्ति, समता, विशालता एवं सार्वभौमता प्रदान करती है और साथ ही अनन्तता का आलिंगन करने की स्वतंत्रता भी । ऐसा प्रतीत होगा कि कर्मयोग के लिये व्यक्तित्व एक आवश्यक तत्त्व है, मानो यह उसका मुख्य अवलंब तथा उद्गमतुल्य है । परन्तु यहां भी पता चलता है कि निर्वैयक्तिक एक अत्यन्त प्रत्यक्ष मोक्षकारक शक्ति है, क्योंकि एक विशाल अहंरहित निर्वैयक्तिकता से ही मनुष्य स्वतन्त्र कर्त्ता और दिव्य स्रष्टा बन सकता है । कोई आश्चर्य की बात नहीं कि द्वैत के निर्वैयक्तिक ध्रुव से प्राप्त इस अनुभव के दुर्दम प्रभाव के द्वारा प्रेरित होकर ही ऋषियों ने यह घोषणा कर दी हो कि बस यही एक मार्ग है और निर्वैयक्तिक अतिचेतना ही सनातन का अनन्य सत्य है ।

 

     परन्तु इस द्वैत के विपरीत ध्रुव पर स्थित जिज्ञासु को अनुभव की एक अन्य ही दिशा दिखायी देती है जो हमारे हृदय के मूल तथा हमारी ठेठ जीवन-शक्ति में गहरे जमे हुए अन्तर्ज्ञान को प्रमाणित करती है । वह यह है कि निर्वैयक्तिक सनातनता में व्यक्तित्व चेतना, प्राण और आत्मा की तरह थोड़े दिनों का मेहमान नहीं है, वरंच इसमें सत्ता का वास्तविक मर्म निहित है । विराट् शक्ति के इस सुन्दर पुष्प को विश्व-प्रयास के लक्ष्य का पूर्वाभास तथा इसके वास्तविक आशय की झलक प्राप्त है । जैसे ही जिज्ञासु में गुह्य नेत्र खुलता है, उसे पीछे अवस्थित उन लोकों का ज्ञान होता है जिनमें चैतन्य और व्यक्तित्व बहुत बड़ा स्थान रखते हैं तथा प्रथम महत्त्व की वस्तु बन जाते हैं । यहां स्थूल जगत् में भी इस गुह्य दृष्टि के लिये जड़-तत्त्व की निश्चेतना एक गुप्त व्यापक चेतना से भर उठती है, इसकी निर्जीवता

 

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स्पन्दनशील जीवन को बसाये हुए है और इसकी यांत्रिक प्रणाली एक अन्तर्वासी प्रज्ञा का कौशल है, क्योंकि ईश्वर और जीव सभी जगह हैं । सब से ऊपर वह अनन्त चिन्मय पुरुष है जिसने अपने-आपको इन सब लोकों के अन्दर नाना रूपों में प्रकट कर रखा है । निर्वैयक्तिकता तो उसके प्राकटय का केवल एक प्रथम साधन है । यह मूल तत्त्वों तथा शक्तियों का क्षेत्र है और अभिव्यक्ति का एक सम आधार है । परन्तु वे शक्तियां अपने-आपको सत्ताओं के द्वारा प्रकट करती हैं और सचेतन आत्माएं उनके अधिष्ठातृदेवता हैं । वे उस चिन्मय पुरुष की, जो उनका मूलस्रोत है, अंशविभूतियां हैं । नानारूप अगणित व्यक्तित्व, जो उस एकमेव को प्रकट करता है, अभिव्यक्ति का वास्तविक आशय और प्रधान उद्देश्य है । आज यदि व्यक्तित्व संकुचित, खंडित तथा प्रतिबन्धक प्रतीत होता है तो इसका कारण यही है कि यह अपने उद्गम की ओर नहीं खुला है अथवा अपने को विराट् तथा अनन्त से परिपूरित करके अपने दैवी सत्य और पूर्णत्व में कुसुमित नहीं हुआ है । इस प्रकार यह सृष्टि-रचना कोई भ्रम या आकस्मिक यान्त्रिक-संयोग नहीं है, कोई ऐसा नाटक नहीं है जिसके होने की जरूरत नहीं थी; यह कोई निष्फल प्रवाह भी नहीं है, बल्कि सचेतन और जीवन्त सनातन की प्रगाढ़ गतिशीलता है ।

 

     एक ही सत्ता के दो सिरों से दिखायी देनेवाला यह दृश्यगत आत्यन्तिक विरोध पूर्णयोग के जिज्ञासु के सामने कोई मौलिक कठिनाई नहीं पैदा करता । उसके सम्पूर्ण अनुभव ने उसे दिखा दिया है कि इन युगलरूप अवस्थाओं और इनकी शक्तियों की परस्परसम्बद्ध ऋण-योगात्मक धाराओं की इसलिये आवश्यकता है कि एकमेव सत्ता के भीतर जो कुछ है उसकी अभिव्यक्ति साधित हो सके । स्वयं उसके लिये व्यक्तित्व और अव्यक्तित्व उसके आध्यात्मिक आरोहण के हितार्थ दो पंख रहे हैं और उसे यह भाविदृष्टि प्राप्त हो गयी है कि वह एक ऐसी चोटी पर पहुंचेगा जहां उनकी साहाय्यप्रद परस्पर-क्रिया उनकी शक्तियों के सम्मिलन का रूप ले लेगी और एक अखंड सद्वस्तु को आविर्भूत करेगी तथा भगवान् की आद्या शक्ति को क्रिया में प्रवृत्त कर देगी । सत्ता के मूलभूत पक्षों में ही नहीं, बल्कि अपनी साधना की सम्पूर्ण प्रक्रिया में भी उसने उनका दोहरा सत्य तथा परस्परपूरक व्यापार अनुभव किया है । एक निर्वैयक्तिक उपस्थिति ने उसकी प्रकृति पर ऊपर से अधिकार जमा लिया है अथवा उसके अन्दर प्रविष्ट होकर उसे अपने वश में कर लिया है । एक प्रकाश ने अवतीर्ण होकर उसके मन तथा जीवन-शक्ति को एवं उसके शरीर के ठेठ कोषों तक को उसके आप्लावित कर दिया है, उन्हें ज्ञान से प्रकाशित कर दिया है और उसके अपने स्वरूप को एवं उसकी अत्यन्त प्रच्छन्न तथा सन्देहातीत चेष्टाओं तक को उसके आगे खोलकर रख दिया है; जो-जो अज्ञान से सम्बन्ध रखता था उस सबको या तो प्रकाश में लाकर पवित्र कर दिया है या उसे मिटा डाला है अथवा उसे उज्ज्वल रूप में परिणत कर दिया है । एक शक्ति उसके अन्दर

 

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धाराओं में या समुद्र की भांति प्रवाहित हुई है, उसने उसकी सत्ता में तथा सभी अंगों में क्रिया की है, सभी जगह विघटन, नव-निर्माण, पुनर्गठन तथा रूपान्तर किया है । एक आनन्द ने उसे आक्रान्त किया है और जतला दिया है कि वह दुःख-ताप को असम्भव कर दे सकता है तथा स्वयं पीड़ा को भी दिव्य सुख में बदल सकता है । एक सीमातीत प्रेम ने प्राणिमात्र से उसका सम्बन्ध जोड़ दिया है अथवा एक अभेद्य घनिष्ठता और अकथ मधुरता एवं सुन्दरता का लोक उसके सामने प्रकाशित कर दिया है और पार्थिव जीवन की विषमता के बीच भी अपने पूर्णता के विधान तथा अपने परमोल्लास को आरोपित करना आरम्भ कर दिया है । एक आध्यात्मिक सत्य और ऋत ने इस संसार के शुभ और अशुभ को अपूर्णता या मिथ्यात्व का दोषी ठहराया है और एक परम शुभ एवं उसके सूक्ष्म सामंजस्य- सूत्र का तथा उसके द्वारा कर्म, अनुभूति और ज्ञान के उन्नयन का रहस्य खोल दिया है । परन्तु इन सबके पीछे तथा इनके अन्दर उसने एक देव को अनुभव किया है जो ये सभी चीजें है, जो प्रकाश का दाता, मार्गदर्शक, सर्वज्ञ, शक्ति का स्वामी, आनन्ददाता सखा, सहायक, पिता, माता, संसार-क्रीड़ा में खेल का साथी, उसकी सत्ता का परम प्रभु उसकी आत्मा का प्रियतम और प्रेमी है । भगवान् के साथ आत्मा के सम्पर्क में वे सभी सम्बन्ध विद्यमान रहते हैं जिनसे मानव व्यक्ति परिचित है; किन्तु वे अतिमानवीय स्तरों पर पहुंच जाते हैं और उसे दिव्य प्रकृति धारण करने के लिये बाध्य कर देते हैं ।

 

     जिस चीज की हम खोज कर रहे हैं वह पूर्ण ज्ञान एवं पूर्ण शक्ति है और साथ ही सत्ता के मूल में अवस्थित 'सर्व' एवं अनन्त के साथ मिलन की परिपूर्ण विपुलता है । पूर्णयोग के जिज्ञासु के लिये कोई भी एक अनुभव या कोई भी एक भागवत पथ सनातन देव के ऐकान्तिक सत्य का रूप धारण नहीं कर सकता, चाहे वह मानव-मन के लिये कितना भी अभिभूतकारी, उसकी क्षमता के लिये कितना भी पर्याप्त और एकमात्र या चरम सद्वस्तु के रूप में कितनी भी सुगमता से स्वीकार्य क्यों न हो । भागवत एकत्व के चरम-परम अनुभव का और भी अधिक प्रगाढ़ आलिंगन तथा यथेष्ट अवगाहन वह केवल तभी कर सकता है यदि वह भागवत बहुत्व के अनुभव का पूर्ण रूप से अनुसरण करे । बहुदेवतावाद और एकदेवतावाद के पीछे जो कुछ भी सत्य है वह सब उसकी खोज के क्षेत्र के भीतर आ जाता है; परन्तु मानव-मन के निकट इनका जो स्थूल अर्थ है उसे लांघकर वह भगवान् के भीतर निहित इनके गुह्य सत्य को पकड़ पाता है । वह देख लेता है कि कलहायमान संप्रदायों और दर्शनों का लक्ष्य क्या है और सद्वस्तु के प्रत्येक पार्श्व को वह उसके अपने स्थान में स्वीकार करता है । किन्तु उनकी संकीर्णता और भ्रान्तियों को तजकर वह तब तक आगे बढ़ता जाता है जब तक वह उस एकमेव सत्य को ही नहीं ढूंढ़ लेता जो उन्हें एक साथ बांधे हुए है । मानवरूप-ईश्वरवाद (     )  एवं मनुष्यपूजा की निन्दा उसे

 

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विचलित नहीं कर सकती, क्योंकि वह देखता है कि ये तो उस अज्ञ तथा गर्वित तर्कबुद्धि या विश्लेषक मन के पक्षपात हैं जो अपने संकुचित क्षेत्र में अपनी ही धुरी के चारों ओर घूमता रहता है । यद्यपि मानवीय सम्बन्ध, जैसे कि ये आज मनुष्य द्वारा व्यवहार में लाये जाते हैं, तुच्छता, विकार और अज्ञान से पूर्ण हैं तो भी ये भगवान् की ही किसी वस्तु के विरूप प्रतिबिम्ब हैं और इन्हें भगवान् की ओर फेरकर वह उसे पा लेता है जिसके ये प्रतिबिम्ब हैं और उसे जीवन में अपनी अभिव्यक्ति करने के लिये नीचे उतार लाता है । मनुष्य के ही द्वारा, जब कि वह अपने-आपको अतिक्रान्त करके परम पूर्णत्व की ओर उद्घाटित हो जाता है, भगवान् अपने को यहां व्यक्त करते हैं । आध्यात्मिक विकास की धारा और प्रक्रिया में ऐसा होना अनिवार्य है । अतएव, वह ईश्वर को मानव-शरीर धारण किये देखकर, मानुषीं तनुमाश्रितम्, उससे घृणा नहीं करेगा, न उसके प्रति अपने को अन्धा ही बना लेगा । ईश्वर-विषयक सीमित मानवीय धारणा को पार कर वह एकमेव दिव्य सनातन के विचार पर पहुंच जायेगा । परन्तु वह देवताओं के, सनातन के उन वैश्व व्यक्तित्वों के, जो जगत्-क्रीड़ा को आश्रय देते हैं, रूपों में भी उस सनातन का साक्षात् करेगा और विभूतियों-देहधारी जगत्-शक्तियों या मानव-नायकोंके आवरण के पीछे भी उसे पहचानेगा, वह गुरु में उसका आदर और आज्ञा-पालन करेगा और अवतार में भी उसकी पूजा करेगा । यदि वह किसी ऐसे व्यक्ति से मिल सके जो उस 'सत् ' को उपलब्ध कर चुका है या वही 'तत्' बन रहा है जिसकी वह स्वयं खोज कर रहा है और यदि 'तत्' की अभिव्यक्ति के इस आधार में उसकी ओर खुल कर वह स्वयं भी उसे उपलब्ध कर सके तो इसे वह अपना परम सौभाग्य मानेगा । कारण, यह एक विकसनशील परिपूर्णता का अत्यन्त स्पष्ट चिह्न होता है और साथ ही जड़तत्त्व में उस वृद्धिशील अवतरण के महत् रहस्य का आश्वासन होता है जो स्थूल सृष्टि का गुप्त तात्पर्य है और पार्थिव सत्ता की सार्थकता है ।

 

     यज्ञ की प्रगति में यज्ञ का अधीश्वर जिज्ञासु के सामने अपने को इसी प्रकार प्रकट करता है । यह प्राकटय किसी भी स्थिति में प्रारम्भ हो सकता है; किसी भी रूप में कर्म का स्वामी उसके अन्दर कर्म को अपने हाथ में ले सकता है और अपनी उपस्थिति को निरावृत करने के लिये उसपर तथा कर्म पर उत्तरोत्तर दबाव डाल सकता है । समय आने पर सभी रूप अपने-आपको प्रकाशित करते हैं, एक-दूसरे से वियुक्त और संयुक्त होते हैं, घुलते-मिलते और एक हो जाते हैं । अन्त में उस सबमें से वह परम सर्वांगीण सद्वस्तु उद्भासित हो उठती है जो मन के लिये अज्ञेय है, क्योंकि मन अज्ञान का अंग है, पर जो फिर भी ज्ञेय है, क्योंकि वह अध्यात्म-चेतना और अतिमानसिक ज्ञान के प्रकाश में अपने प्रति सचेतन है ।

 

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     यज्ञ का प्रथम लक्ष्य और इसकी चरम सफलता की शर्त हैसर्वोच्च सत्य या सर्वोच्च सत् चित्, शक्ति, आनन्द और प्रेम का दिव्य दर्शन उन सत्य आदि का जो निर्वैयक्तिक भी हैं और वैयक्तिक भी और जो इस कारण हमारी सत्ता के दोनों पार्श्वों को ऊंचा उठा ले जाते हैंक्योंकि हमारे अन्दर भी तो व्यक्तित्व, और अव्यक्तित्वमय तत्त्वों तथा शक्तियों का समुदाय अस्पष्ट रूप से मिले हुए हैं । यज्ञ की सफलता का रूप यह होता है कि जो 'तत्' हमारी दृष्टि और अनुभूति के समक्ष इस प्रकार व्यक्त होता है उसके साथ हम अपनी सत्ता का मिलन प्राप्त कर लेते हैं । यह मिलन तीन प्रकार का होता है । एक तो आध्यात्मिक सारतत्त्व में तादात्म्य, दूसरा इस परमोच्च सत्ता और चेतना में हमारी आत्मा का अन्तर्वास, तीसरा 'तत्' और हमारी ऐहिक यन्त्रात्मक सत्ता में प्रकृतिगत साधर्म्य या एकत्वरूपी सक्रिय मिलन । पहला अज्ञान से मुक्ति और सत्य तथा सनातन से तादात्म्य अर्थात् मोक्ष और सायुज्य है जो ज्ञानयोग का विशेष लक्ष्य है । दूसरा आत्मा का भगवान् के साथ या उसके अन्दर निवास अर्थात् सामीप्य और सालोक्य है । यह सब प्रकार के प्रेमयोग एवं आनन्दयोग की बलवती आशा है । तीसरा प्रकृति में एकरूपता या भगवत्साधर्म्य है अर्थात् वैसा ही पूर्ण बनना जैसा पूर्ण 'वह' है, यह शक्ति एवं पूर्णता के या दिव्य कर्मों तथा सेवा के सभी योगों का उच्च उद्देश्य है । तीनों की सम्मिलित पूर्णता, जो यहां आत्म-अभिव्यंजक भगवान् की बहुगुणित एकता पर आधारित होती है, सर्वांगीण योग की परिणति है, इसके त्रिविध पथ का लक्ष्य तथा इसके त्रिविध यज्ञ का फल है ।

 

     तादात्म्य-रूप मिलन हमें उपलब्ध हो सकता है अर्थात् हमारी सत्ता के उपादान का उस परम आत्मिक उपादान में, हमारी चेतना का उस दिव्य चेतना में, हमारी आत्मस्थिति का आध्यात्मिक परमानन्द की उस मस्ती में अथवा सत्ता के उस शान्त शाश्वत आनन्द में मोक्ष तथा रूपान्तर साधित हो सकता है । भगवान् में प्रकाशमय अन्तर्निवास हम प्राप्त कर सकते हैं; इससे हम अन्धकार तथा अज्ञान की इस निम्नतर चेतना में किसी प्रकार के पतन या निर्वासन से सुरक्षित रहेंगे और हमारी आत्मा प्रकाश, हर्ष, स्वातंत्र्य और एकत्व के अपने स्वाभाविक लोक में स्वतन्त्रता तथा स्थिरतापूर्वक विचरण करेगी । यह अन्तर्निवास हमें किसी अन्य पारलौकिक जीवन में ही प्राप्त नहीं करना है, वरन् इसे यहां भी खोजना और उपलब्ध करना है, और ऐसा तभी हो सकता है यदि एक अवतरण सम्पन्न हो, अर्थात् यदि भागवत सत्य को यहां उतार लाया जाय और आत्मा के निज धाम को, प्रकाश, हर्ष, स्वतंत्रता और एकता के धाम को यहां प्रतिष्ठित किया जाय । हमारी आत्मा और चेतन तत्त्व के समान ही जब हमारी करणात्मक सत्ता भी मिलन लाभ कर लेगी, तब हमारी अपूर्ण प्रकृति दैवी प्रकृति के साक्षात् रूप और प्रतिमूर्ति में परिणत हो जायगी । इसे अज्ञान की अन्ध, कुंठित, पंगु और विषम चेष्टाओं को तजकर ज्योति,

 

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शान्ति, आनन्द, सामंजस्य, सार्वभौमता, प्रभुता, पवित्रता और पूर्णता का स्वभाव धारण करना होगा । इसे अपने-आपको दिव्य ज्ञान के पात्र में, सत्ता की दिव्य संकल्पशक्ति और बल के यंत्र में तथा दिव्य प्रेम, आनन्द और सौन्दर्य के स्रोत में रूपान्तरित कर देना होगा । यही वह रूपान्तर है जो हमें सम्पन्न करना होगा, अपनी कालबद्ध सांत सत्ता को सनातन और अनन्त के साथ योगयुक्त करके हमें उस सब को, जो कुछ कि हम इस समय हैं या प्रतीत होते हैं, पूर्ण रूप से रूपान्तरित करना होगा ।

 

     यह सब कठिन परिणति तभी सम्भव हो सकती है यदि हमारी चेतना का एक महान् परिवर्तन तथा आमूलचूल विपर्यय और हमारी प्रकृति का एक अलौकिक समग्र रूपान्तर सम्पन्न हो जाय । सम्पूर्ण सत्ता को आरोहण करना होगा, इहलोक में बंधी हुई और अपने करणोंपकरणों तथा अपनी परिस्थितियोंसे जकड़ी हुई आत्माको ऊर्ध्वस्थ स्वतंत्र शुद्ध आत्मा की और आरोहण करना होगा, जीव को किसी आनन्दमय अति-जीव की ओर, मन को किसी प्रकाशमय अतिमानस की ओर तथा प्राण को किसी बृहत् अति-प्राण की ओर आरोहण करना होगा; यहां तक कि हमारे शरीर को भी अपने उद्गम से मिलने के लिये एक शुद्ध तथा नमनीय आत्मिक उपादान की ओर आरोहण करना होगा । यह आरोहण एक ही तेज उड़ान में पूरा नहीं हो सकता, बल्कि वेद में वर्णित यज्ञ के आरोहण की भांति यह एक शिखर से दूसरे शिखर पर आरोहण होता है जिसमें मनुष्य प्रत्येक चोटी से यह देखता है कि अभी ऊपर और बहुत कुछ है जिसे सम्पन्न करना शेष है । साथ ही, ऊपर हमने जो उपलब्ध किया है उसे नीचे प्रतिष्ठित करने के लिये अवतरण का होना भी आवश्यक है । प्रत्येक शिखर को जीतने के बाद हमें उसकी शक्ति और प्रकाश को निम्नतर मर्त्य गति में उतारने के लिये लौटना होता है । ऊर्ध्व में नित्य-प्रकाशमान ज्योति की उपलब्धि के अनुरूप ही नीचे अवचेतन प्रकृति की गहनतम गुहाओं तक प्रत्येक अंग में छिपी हुई उस ज्योति का उन्मुक्त होना भी आवश्यक है । आरोहण की यह तीर्थयात्रा एवं रूपान्तर के प्रयास के लिये यह अवतरण अनिवार्य रूप से अपने साथ तथा अपने चारों ओर की विरोधी शक्तियों के साथ एक संघर्ष होता है, एक लंबा युद्ध होता है । जब तक यह चलता रहता है तब तक स्वभावतः ही ऐसा लग सकता है कि यह कभी समाप्त नहीं होगा । क्योंकि, हमारी सारी पुरानी तमसावृत और अज्ञ प्रकृति रूपान्तरकारी प्रभाव का बार-बार हठपूर्वक विरोध करेगी, पारिपार्श्विक विश्वप्रकृति की अनेकों बद्धमूल शक्तियां इसकी शिथिल अनिच्छुकता या इसके सबल प्रतिरोध का पृष्ठपोषण करेंगी, अज्ञान की शक्तियां, उसकी शासक सत्ताएं और उसके अधिपति अपना राज्य आसानी से नहीं छोड़ेंगे । प्रारम्भ में दीर्घ काल के लिये एक प्रायः आयासपूर्ण तथा कष्टप्रद अवस्था आ

 

१ यत्सानोः सानुमारुहद् भृर्यस्पष्ट कर्त्वम्। ऋ. - १. १०. २

 

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सकती है जिसमें हमारी सत्ता की तैयारी और शुद्धि होती रहती है । यह अवस्था तब तक रहती है जब तक कि सारी-की-सारी सत्ता ही महत्तर सत्य और प्रकाश अथवा भागवत प्रभाव और उपस्थिति के प्रति उद्घाटित होने के लिये उद्यत और उपयुक्त नहीं हो जाती । और, जब यह केंद्रत योग्य, उद्यत और उद्घाटित हो जाती है तब भी उस अवस्था के आने में बहुत समय लग जाता है जब हमारे मन, प्राण और शरीर की सब गतियां और हमारे व्यक्तित्व के सब बहुविध एवं संघर्षकारी अंग तथा तत्त्व रूपांतर की कठिन और कठोर प्रक्रिया को स्वीकार करने के योग्य बन जाते हैं और स्वीकार करके उसे सहन करने में भी समर्थ होते हैं । जब हम अपनी चेतना का अंतिम अतिमानसिक रूपान्तर और विपर्यय करना चाहते हैं, तब अपनी सत्ता के सभी अंगों के इच्छुक रहते भी हमें वर्तमान अस्थिर सृष्टि से संबद्ध सार्वभौम शक्तियों के विरुद्ध जो संघर्ष जीतना पड़ता है वह अत्यधिक कठिन होता है । कारण, वह अतिमानसिक रूपान्तर तो किसी प्रकाशयुक्त अज्ञान को नहीं, वरन् भागवत सत्य को उसकी परिपूर्णता में हमारे अंदर प्रतिष्ठित करेगा जब कि ये शक्तियां केवल प्रकाशयुक्त अज्ञान को ही अधिक सुगमता से अवकाश देना चाहेंगी ।

 

     इसीलिये यह अनिवार्य है कि हम उस 'तत्' के प्रति जो हमसे परे है पूर्ण रूप से नमन और समर्पण करें । इससे उसकी शक्ति हमारे अन्दर पूर्ण और स्वतंत्र रूप से किया कर सकेगी । जैसे-जैसे यह आत्म-दान बढ़ता है, यज्ञ का कर्म अधिक सुगम और अधिक शक्तिशाली होता जाता है और विरोधी शक्तियों की बाधा का अधिकांश बल, वेग और सत्त्य नष्ट हो जाता है । जो कुछ इस समय कठिन या अव्यवहार्य प्रतीत होता है उसे सम्भवनीय और यहां तक कि सुनिश्चित वस्तु में परिणत करने के लिये दो आभ्यन्तर परिवर्तन अत्यधिक सहायक होते हैं । प्रथम तो अन्दर की वह गुप्त अन्तरतम आत्मा सामने आ जाती है जो मन की चंचल क्रियाशीलता से, हमारे प्राणिक आवेगों की हलचल से तथा भौतिक चेतना के अन्धकार से आवृत थीयही वे तीन शक्तियां हैं जिन्हें हम इस समय, इनके अस्तव्यस्त संयोग में, अपनी आत्मा कहकर पुकारते हैं । आत्मा के सामने आने के फलस्वरूप केंद्र में एक भागवत उपस्थिति अपनी मोक्षजनक ज्योति और अमोघ शक्ति के सहित, अपेक्षाकृत निर्बाध रूप में, विकसित होने लगेगी और फिर उसकी ज्योति एवं शक्ति हमारी प्रकृति के समस्त चेतन और अवचेतन स्तरों के भीतर विकीर्ण होने लगेगी । यही दो चिह्न हैं, इनमें से पहला यह सूचित करता है कि परम खोज के प्रति हमारी दीक्षा और समर्पण पूर्ण हो गये हैं, दूसरा यह कि भगवान् ने हमारा यज्ञ अन्तिम रूप में स्वीकार कर लिया है ।

 

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अध्याय ५

 

 यज्ञ का आरोहण ( १ )

 

ज्ञान के कर्मचैत्य पुरुष

 

इस प्रकार, यही हमारे यज्ञ के यजनीय परम और अनन्त देव का आधारभूत सर्वांगीण ज्ञान है और यही त्रिविध यज्ञ अर्थात् कर्मों के यज्ञ, प्रेम और पूजा के यज्ञ एवं ज्ञान के यज्ञ का वास्तविक रूप है । कारण, जब हम केवल कर्मों के यज्ञ की चर्चा करते हैं तब भी हमारा मतलब केवल अपने बाह्य कर्मों के अर्पण से नहीं, अपितु उस सबके अर्पण से होता है जो हमारे अन्दर क्रियाशील और शक्तिमय है । अपनी बाह्य क्रियाओं के समान ही अपनी आन्तरिक गतियां भी हमें उसी एक वेदी पर अर्पित करनी होती हैं । यज्ञ के रूप में किये गये समस्त कर्म का मूल तत्त्व होता है आत्म-साधना तथा आत्म-पूर्णता का एक ऐसा प्रयत्न जिसके द्वारा हम उस ऊर्ध्व ज्योति से, जो हमारे मन, हृदय, संकल्प, इन्द्रिय, प्राण और शरीर की सभी गतियों में प्रवाहित होती है, चैतन्यमय और ज्योतिर्मय बनने की आशा कर सकते हैं । दिव्य चेतना की बढ़ती हुई ज्योति से हम अपनी आत्मा में संसार-यज्ञ के स्वामी का सान्निध्य और साथ ही अपनी अन्तरतम सत्ता तथा आध्यात्मिक स्वरूप में उससे तादात्म्य भी प्राप्त कर लेंगे, जो कि प्राचीन वेदान्त के अनुसार जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है । अपिच, इसकी सहायता से हम, अपनी प्रकृति में भगवत्-साधर्म्य लाभ कर, अपनी संभूति में भी उससे एकमय हो जायेंगे, जो कि वेद के ऋषियों की गूढ़ भाषा में यज्ञ के प्रतीक का गुह्य तात्पर्य है ।

 

     परन्तु, यदि पूर्णयोग की दृष्टि में मानसिक सत्ता से आध्यात्मिक सत्ता की ओर द्रुत विकास का स्वरूप यही है तो एक प्रश्र पैदा होता है जो अत्यधिक जटिल होते हुए भी क्रियात्मक दृष्टि से अत्यन्त प्रबल महत्त्व रखता है । जीवन और कर्म के वर्तमान रूप के साथ और अपनी अभी भी अपरिवर्तित मानव-प्रकृति की विशेष प्रवृत्तियों के साथ हमें किस प्रकार व्यवहार करना होगा? एक महत्तर चेतना की ओर आरोहण करना एवं इसकी शक्तियों का हमारे मन, प्राण और शरीर पर अधिकार कर लेना योग का प्रमुख लक्ष्य माना गया है; तथापि इहलोक का जीवन ही——कहीं और का कोई अन्य जीवन नहींआत्मा के कार्य के वर्तमान क्षेत्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है; यह कार्य हमारी यंत्रात्मक सत्ता और प्रकृति का रूपान्तर है, उसका उच्छेद नहीं । तो फिर हमारी सत्ता की वर्तमान क्रियाओं का क्या होगा? ज्ञान और इसके प्रकटय की ओर अभिमुख मन की क्रियाओं का, हमारी भावाग्राही अंगों की क्रियाओं का, बाह्य आचार, जनन और

 

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उत्पादन की क्रियाओं का और मनुष्य, पदार्थ, जीवन, संसार एवं विश्वप्रकृति की शक्तियों पर प्रभुत्व प्राप्त करने में प्रवृत्त इच्छाशक्ति की क्रियाओं का क्या होगा? क्या इनका त्याग करना होगा और इनके स्थान पर जीवन-यापन की कोई अन्य प्रणाली प्रतिष्ठित करनी होगी जिसमें अध्यात्मभावापन्न चेतना अपनी सच्ची अभिव्यक्ति और आकृति प्राप्त कर सके? क्या इन्हें वैसी-की-वैसी जारी रखना होगा जैसी कि ये अपने बाह्य रूप में हैं और केवल कर्मगत आन्तरिक भावना के द्वारा ही इन्हें रूपान्तरित करना होगा अथवा क्या इनका क्षेत्र विस्तृत करना और इन्हें नये रूपों में उन्मुक्त करना होगा? क्या यह कार्य चेतना के एक वैसे विपर्यय के द्वारा करना होगा जैसा कि भूतल पर तब देखने में आया था जब मनुष्य ने पशु की प्राणिक क्रियाओं को तर्क, विचारयुक्त इच्छा-शक्ति, परिष्कृत भाव एवं सुव्यवस्थित बुद्धि के अन्तःसंचार से मानसीकृत, विस्तारित और रूपान्तरित करने का बीड़ा उठाया था? अथवा, क्या कुछ कार्यों का तो त्याग करना होगा और केवल ऐसे ही कर्मों को जारी रखना होगा जो आध्यात्मिक परिवर्तन सहन कर सकें, और शेष कर्मों के स्थान पर एक नये जीवन का सर्जन करना होगा जो, अपनी स्फुरणा और प्रेरकशक्ति की भांति अपने रूप में भी, मुक्त आत्मा की एकता, विशालता, शान्ति, हर्ष और सामंजस्य को प्रकट करनेवाला हो? सभी समस्याओं में से यही एक ऐसी समस्या है जिसने उन लोगों के मन को बहुत व्याकुल कर रखा है जिन्होंने योग की लंबी यात्रा में मानव से भगवान् की ओर ले जानेवाले पथों का अनुसरण करने का यत्न किया है ।

 

     इसके लिये सब प्रकार के समाधान प्रस्तुत किये गये है, जिनके एक छोर पर तो यह समाधान है कि कर्म और जीवन का पूर्ण रूप से त्याग कर देना चाहिये, जहां तक कि ऐसा करना शारीरिक तौर पर सम्भव है और दूसरे छोर पर यह कि जीवन को ज्यों-का-त्यों पर एक नयी भावना के साथ अंगीकार करना चाहिये, एक ऐसी भावना के साथ जिससे इसकी सभी चेष्टाएं अनुप्राणित और उदात्त हो उठें, और देखने में चाहे वे वैसी ही रहें जैसी पहले थीं, किन्तु उनकी मूल भावना और, फलतः, उनका अन्तरीय अर्थ परिवर्तित हो जाय । संसारत्यागी तपस्वी या अन्तर्मुख, आनन्द-विभोर एवं आत्म-विस्मृत गुह्यदर्शी जिस आत्यन्तिक समाधान पर आग्रह करते हैं वह स्पष्ट ही पूर्णयोग के उद्देश्य के प्रतिकूल है; क्योंकि यदि हमें जगत् में भगवान् को उपलब्ध करना है तो यह जगत्-व्यवहार तथा स्वयं कर्म को सर्वथा एक ओर तजकर नहीं किया जा सकता । इससे कुछ निचले शिखर पर, प्राचीन काल में धार्मिक विचारकों ने यह नियम निर्धारित किया था कि मनुष्य को केवल ऐसे काम ही जारी रखने चाहियें जो स्वाभाविक रूप से भगवान् की जिज्ञासा, सेवा या पूजाप्रणाली के अंग हों और कुछ अन्य ऐसे काम जो इनसे सम्बद्ध हों अथवा इनके साथ ही कुछ वे काम भी जो जीवन की सामान्य

 

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व्यवस्था के लिये अनिवार्य हों, किन्तु जो धार्मिक भावना से और परंपरागत धर्म तथा धर्मशास्त्र के विधि-निषेधों के अनुसार ही किये जायं | परन्तु यह इतना रूढ़िबद्ध नियम है कि इसके द्वारा स्वतंत्र आत्मा अपने-आपको कर्मों में चरितार्थ नहीं कर सकती । इसके अतिरिक्त, यह एक घोषित तथ्य है कि यह नियम ऐहिक जीवन से पारलौकिक जीवन की ओर जाने की कठिनाइयों को पार करने के लिये एक अस्थायी समाधान से अधिक कुछ नहीं है । इसके अनुसार अन्तिम ध्येय तो एकमात्र पारलौकिक जीवन ही रहता है । वास्तव में, किसी भी सर्वांगीण योग को गीता के इस व्यापक आदेश की ही शरण लेनी होगी कि मुक्त आत्मा को भी, सत्य में निवास करते हुए जीवन के सभी कर्म करते रहने चाहियें, ताकि एक गुप्त दिव्य पथ-प्रदर्शन के अनुसार हो रहे विश्व-विकास की योजना मंद या विनष्ट न हो जाय । परंतु यदि सभी कर्म वैसे ही आकार-प्रकार के साथ और वैसी ही पद्धति के अनुसार करने होंगे जैसे वे अब अज्ञान में किये जाते हैं, तो हमारी प्राप्ति केवल आन्तरिक ही होगी और इस बात का भी भय रहेगा कि कहीं हमारा जीवन बाह्य क्षीण ज्योति के कार्यों में लगी हुई अन्तर्ज्योति का एक संदिग्ध और अस्पष्ट सूत्र ही न बन जाय और परिपूर्ण आत्मा अपनी दिव्य प्रकृति से भिन्न या विजातीय अपूर्णता के सांचे में ही अपने-आपको प्रकट न करती रहे । यदि कुछ समय तक इससे अच्छा कुछ नहीं किया जा सकता, और संक्रमण के दीर्घकाल में ऐसा कुछ अनिवार्यत: होता ही है, तो ऐसी स्थिति तबतक बनी ही रहेगी जबतक सब साधन-सामग्री तैयार नहीं हो जाती और अंतःस्थित आत्मा शरीर और बहिर्जगत् के जीवन पर अपने रूपों को लागू करने में पर्याप्त समर्थ नहीं हो जाती | किन्तु इसे केवल एक संक्रमणावस्था के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है, अपनी आत्मा के आदर्श या अपने पथ के चरम लक्ष्य के रूप में नहीं ।

 

     इसी कारण, नैतिक समाधान भी अपर्याप्त है । नैतिक नियम प्रकृति के दुर्दम अश्वों के मुंह में लगाममात्र डालता है और उनपर एक कठिन तथा आंशिक नियंत्रण का प्रयोग करता है, परंतु इसमें प्रकृति का ऐसा रूपान्तर करने की शक्ति नहीं है कि वह दिव्य आत्म-ज्ञान से प्राप्त होनेवाली अन्त:स्फुरणाओं को चरितार्थ करती हुई सुरक्षित स्वतंत्रता में विचरण कर सके । इसके सर्वोत्तम रूप में भी इसकी विधि हैसीमाओं को निर्धारित करना, दानव का निग्रह करना तथा हमारे चारों तरफ एक सापेक्ष और अत्यन्त संदिग्ध रक्षा की दीवार खड़ी कर देना । आत्म-रक्षण का यह या इसी प्रकार का कोई अन्य उपाय साधारण जीवन में किवा योग में कुछ काल के लिये आवश्यक हो सकता है; किंतु योग में यह केवल संक्रमणावस्था का एक चिह्न भर हो सकता है । हमारा लक्ष्य है आमूल रूपान्तर और आध्यात्मिक जीवन की पावन विशालता और यदि हमें यह प्राप्त करना है तो हमें एक अधिक गम्भीर समाधान तथा एक अधिक विश्वस्त अति-नैतिक और क्रियाशील तत्त्व की

 

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खोज करनी होगी । इस विषय में साधारण धार्मिक समाधान यह है कि व्यक्ति को अंदर से आध्यात्मिक और बाहरी जीवन में नैतिक होना चाहिये, पर यह एक समझौता मात्र है । हम जिस लक्ष्य की खोज कर रहे हैं वह जीवन और आत्मा में समझौता नहीं, वरन् आन्तर सत्ता और बाह्य जीवन दोनों का आध्यात्मीकरण है । अतएव, वस्तुओं के मूल्य और महत्त्व के सम्बन्ध में मनुष्य ने जो गड़बड़ मचा रखी है, ऐसी गड़बड़ जो आध्यात्मिक और नैतिक के भेद को उड़ा देती है और यहां तक दावा करती है कि नैतिक तत्त्व ही हमारी प्रकृति में एकमात्र सच्चा आध्यात्मिक तत्त्व है, वह हमारे लिये किसी काम की नहीं हो सकती । वास्तव में नीतिधर्म एक मानसिक नियंत्रण है और सीमित भ्रांतिशील मन स्वतंत्र और सदा-प्रकाशमान आत्मा नहीं है और न हो ही सकता है । इसी प्रकार, उस सिद्धान्त को भी स्वीकार करना असम्भव है जो जीवन को ही अपना एकमात्र लक्ष्य मानता है, उसके तत्त्वों को ज्यों-का-त्यों मूलभूत रूप में ग्रहण करता है और उसे रंजित तथा सुशोभित करने के लिये एक अर्द्ध-आध्यात्मिक या मिथ्या-आध्यात्मिक प्रकाश को आमंत्रित करता है । न ही प्राण और अध्यात्म में एक प्रकार का कुसम्बन्ध स्थापित करने के लिये बार-बार यत्न करना उपयुक्त हो सकता है, ऐसा कुसम्बन्ध कि भीतर तो गुह्य अनुभव हो और बाहर एक ऐसा सौन्दर्यरसिक, बौद्धिक एवं ऐन्द्रिय प्रकृतिपूजावाद या उच्च सुखवाद हो जो गुह्य अनुभव का सहारा लेकर और आध्यात्मिक स्वीकृति की चमक-दमक में अपनी कामनाओं को तृप्त करता रहे । कारण, यह भी एक अनिश्चित समझौता है और यह कभी भी सफल नहीं हो सकता, यह दिव्य सत्य और उसकी सर्वांगपूर्णता से उतना ही दूर है जितना कि इससे उल्टा अतिनैतिकवाद । ये सभी उस भ्रांतिशील मानव-मन के स्खलनपूर्ण हल हैं जो उच्च आध्यात्मिक शिखरों और साधारण मानसिक एवं प्राणिक प्रेरक-भावों की निम्नतर उपत्यका के बीच कार्य-निर्वाह करने का मार्ग टटोल रहा है । इनके मूल में जो भी आंशिक सत्य छिपा हो उसे केवल तभी स्वीकार किया जा सकता है जब कि उसे आध्यात्मिक स्तर तक ऊचा उठाकर और परम सत्य-चेतना में परखकर अविद्या की मलिनता और भ्रांति से छुड़ा लिया जाय ।

 

     संक्षेप में, यह निःशंक होकर कहा जा सकता है कि जबतक वह अति- मानसिक सत्य-चेतना प्राप्त नहीं हो जाती जिसके द्वारा वस्तुओं के बाह्य रूप अपने-अपने स्थान में सुस्थित हो जायेंगे और उनका सारतत्त्व तथा वह अन्तरीय तत्त्व भी जो सीधा इस आध्यात्मिक सारतत्त्व से निकलता है प्रकट हो जायेंगे, तबतक कोई भी प्रस्तावित समाधान सामयिक होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता । इस बीच हमारी एकमात्र सुरक्षा इस बात में है कि हम आध्यात्मिक अनुभूति के पथ- प्रदर्शक नियम की खोज करें अथवा अपने भीतर के उस प्रकाश को उन्मुक्त करें जो हमें तबतक मार्ग दिखा सकता है जबतक कि वह महत्तर साक्षात सत्य-चेतना

 

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हमें अपने से ऊर्ध्व स्तर में प्राप्त नहीं हो जाती या हमारे अन्दर ही उत्पन्न नहीं हो जाती । क्योंकि हमारे अन्दर की और सब चीजें जो केवल बाहरी हैं, वह सब कुछ जो आध्यात्मिक बोध या प्रत्यक्षानुभव नहीं है, बुद्धि की कल्पनाएं उसके उपपादन अथवा निष्कर्ष, जीवन-शक्ति के निर्देश या उसकी प्रेरणाएं तथा भौतिक पदार्थों की असंदिग्ध आवश्यकताएं ये सब कभी अर्ध-प्रकाश होते हैं और कभी मिथ्या प्रकाश । ये प्रकाश, अपने श्रेष्ठ रूप में भी, केवल कुछ काल के लिये ही सहायक हो सकते हैं या केवल थोड़ी-सी ही सहायता कर सकते हैं और शेषांश में तो ये हमें बाधा पहुंचाते या भ्रम में ही डालते हैं । आध्यात्मिक अनुभूति का पथ- प्रदर्शक नियम तो मानव-चेतना को भागवत चेतना की ओर खोल देने से ही अवगत हो सकता है । हममें ऐसी शक्ति होनी चाहिये कि हम भागवती शक्ति की क्रिया, आज्ञा और सक्रिय उपस्थिति को अपने अन्दर ग्रहण कर सकें और अपने- आपको उसके नियंत्रण के प्रति समर्पित कर सकें । इस समर्पण और नियंत्रण से ही पथ-प्रदर्शन प्राप्त होता है । परन्तु समर्पण तबतक निश्चित रूप से साधित नहीं हो सकता और न ही तब तक पथ-प्रदर्शन का कोई पूरा भरोसा हो सकता है जबतक कि हम उन मानसिक रचनाओं, प्राणिक आवेगों और अहं के उत्तेजनों से आक्रान्त हैं जो हमें आसानी से छल कर मिथ्या अनुभव के हाथों में सौंप सकते हैं । इस विपत्ति का सामना हम अपनी उस अन्तरात्मा या चैत्य पुरुष के उद्घाटन के द्वारा ही कर सकते हैं जो अभी नौ बटा दस भाग छिपा हुआ है । यह हमारे अन्दर विद्यमान तो आरम्भ से ही होता है, पर साधारणतया क्रियाशील नहीं होता । यही हमारी वह अन्तर्ज्योति है जिसे हमें उन्मुक्त करना होगा । कारण, जबतक हम अविद्या के घेरे में ही घूमते रहते हैं और सत्य-चेतना हमारे ईश्वराभिमुख पुरुषार्थ का सम्पूर्ण नियंत्रण अपने हाथ में नहीं ले लेती, तबतक इस अन्तरतम आत्मा का प्रकाश ही हमारा एकमात्र अचूक प्रकाश होता है । भागवती शक्ति की क्रिया जो हमारे अन्दर संक्रमण के नियमों के अनुसार कार्य करती है, और चैत्य पुरुष का प्रकाश जो हमें सदा अज्ञान की शक्तियों की मांगों और उत्तेजनाओं से बचाकर एक उच्चतर संवेग का सचेतन रूप में और सावधानता के साथ अनुसरण करने के लिये प्रेरित करता है—ये दोनों अपने बीच के संक्रमण-काल में हमारे कर्म के एक नित्य- विकसनशील आभ्यन्तर नियम को जन्म देते हैं । वह नियम तब तक चालू रहता है जब तक हम अपनी प्रकृति में आध्यात्मिक और अतिमानसिक विधान को प्रतिष्ठित नहीं कर पाते । इस संक्रमण में, स्वभावत: ही, तीन अवस्थाएं आ सकती हैं, एक तो वह जिसमें हम समस्त जीवन और कर्म को स्वीकार करते और इन्हें भगवान् को सौंप देते हैं ताकि वह इन्हें शुद्ध तथा परिवर्त्तित करे और इनके अन्दर के सत्य को उन्मुक्त कर दे, दूसरी वह जिसमें हम पीछे की ओर हट जाते हैं और अपने चारों और एक आध्यात्मिक दीवार खड़ी करके इसके दरवाजों में से केवल ऐसे कार्यों

 

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को प्रवेश करने देते हैं जो आध्यात्मिक रूपान्तर के नियम के अधीन रहना स्वीकार करते हैं, तीसरी वह जिसमें आत्मा के सम्पूर्ण सत्य के उपयुक्त नये रूपों से सम्पन्न, स्वतंत्र और सर्वस्पर्शी कर्म करना हमारे लिये फिर से सम्भव हो जाता है । किन्तु इन चीजों का निर्णय किसी मानसिक नियम से नहीं, बल्कि अपनी अन्तरस्थ आत्मा के प्रकाश में और भागवती शक्ति के नियामक बल एवं वृद्धिशील मार्गदर्शन के अनुसार करना होगा । वह भागवती शक्ति पहले तो परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप में प्रेरित करती है, फिर स्पष्ट रूप में नियंत्रण रखना और आदेश देना आरम्भ करती है और अन्त में योग का सम्पूर्ण भार ही अपने हाथ में ले लेती है ।

 

     यज्ञ के त्रिविध स्वरूप के अनुसार हम कर्मों को भी तीन श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं, ज्ञान के कर्म, प्रेम के कर्म तथा प्राणगत शक्ति के कर्म, और यह देख सकते हैं कि किस प्रकार यह अधिक सुनम्य आध्यात्मिक नियम प्रत्येक क्षेत्र में लागू होता है और निम्नतर प्रकृति से उच्चतर प्रकृति की ओर के संक्रमण को सम्पादित करता है ।

 

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     ज्ञान की खोज में मानव-मन की जो क्रियाएं होती हैं उन्हें योग के दृष्टिकोण से स्वभावत: ही दो कोटियों में विभक्त किया जा सकता है । एक तो है पराविद्या या परम अतिबौद्धिक ज्ञान जो अपने-आपको परात्पर-रूप एकमेव और अनन्त की खोज पर एकाग्र करता है अथवा प्राकृतिक प्रपंच के मूल में स्थित चरम सत्यों के भीतर अन्तर्ज्ञान, निदिध्यासन एवं साक्षात् आन्तर संस्पर्श के द्वारा प्रवेश करने का यत्न करता है । दूसरी है अपरा विद्या; यह अपने-आपको गोचर पदार्थों अर्थात् एकमेव और अनन्त देव के उन छद्य-रूपों के बाह्य ज्ञान में विकीर्ण कर देती है जिनमें वह देव हमें अपने चारों ओर की जगत्-अभिव्यक्ति के बाह्यतर पदार्थों के भीतर और इनके द्वारा दृष्टिगोचर होता है । इन दो, पर और अपर, गोलार्धों का जो स्वरूप मनुष्यों ने मन की अज्ञ सीमाओं में निर्मित या कल्पित किया है उसमें भी ये, विकसित होकर, कुछ तीव्र रूप में पृथक् हो गये है... दर्शन ने कभी तो आध्यात्मिक या कम-से-कम अन्तर्ज्ञानात्मक और कभी वस्तुनिरपेक्ष एवं बौद्धिक बनकर तथा कभी आध्यात्मिक अनुभव को बौद्धिक रूप देकर या आत्मिक उपलब्धियों को तर्क के उपकरण का सहारा देकर, सदैव अन्तिम सत्य के निर्धारण को अपना क्षेत्र मानने का दावा किया है । परन्तु जब बौद्धिक दर्शन ने तत्त्व-चिन्तन के अति सूक्ष्म शिखरों पर पहुंचकर अपने को व्यावहारिक जगत्-सम्बन्धी तथा नश्वर पदार्थों के अनुशीलन-विषयक ज्ञान से विलग नहीं भी किया तब भी यह, अमूर्त चिन्तन के अपने स्वभाव के कारण, जीवन के लिये शक्ति का स्रोत शायद कभी

 

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नहीं रहा । अवश्य ही, कभी-कभी यह उच्च चिन्तन के लिये शक्तिशाली रहा है, इसने बिना किसी परोक्ष उपयोग या लक्ष्य के मानसिक सत्य का उसीके लिये अनुसन्धान किया है और कभी-कभी शब्दों और विचारों के अस्पष्ट एवं काल्पनिक आदर्शलोक में मन के सूक्ष्म व्यायाम के लिये भी इसने शक्तिशाली रूप में कार्य किया है । परन्तु जीवन के अधिक गोचर तथ्यों से यह दृर ही हट गया है अथवा उनके ऊपर से छलांग मार कर उन्हें छोड़ता चला गया है । यूरोप में प्राचीन दर्शन बहुत शक्तिशाली रहा, पर केवल कुछ एक लोगों के लिये ही; भारत में इसने, अपने अधिक आध्यात्मीकृत रूपों में, प्रबल प्रभाव डाला, किन्तु जाति के जीवन का रूपान्तर नहीं कर सका... धर्म ने, दर्शन की भांति, शिखरों पर ही रहने का यत्न नहीं किया, वरन् इसका लक्ष्य मनुष्य के मन के भागों की अपेक्षा कहीं अधिक उसके प्राण या जीवन के भागों को अधिकार में लाना और उन्हें ईश्वर की और आकृष्ट करना था | इसने आध्यात्मिक सत्य और प्राणिक तथा भौतिक जविन के बीच सेतु बांधने की घोषणा की | इसने निम्नतर को उच्चतर के अधीन करने और दोनों में संगति बैठाने, जीवन को भगवान् की सेवा करने के योग्य तथा भृतल को द्युलोक का आज्ञा-पालक बनाने का यत्न किया । यह स्वीकार करना होगा कि बहुधा इस आवश्यक प्रयत्न का र्पारेणाम विपरीत ही हुआ, इसने द्यौ को पृथ्वी की कामनाओं का समर्थक बना दिया, क्योंकि धार्मिक विचार का बहाना बनाकर मनुष्य लगातार अपने अहं की पूजा और सेवा ही करता रहा । धर्म अपने सारभृत आध्यात्मिक अनुभव की छोटी-सी उज्ज्वल रश्मि को निरन्तर त्याग कर, जीवन के साथ किये गये अपने सदा-विस्तारशील अनिश्चित समझौतों के धुंधले समुदाय में ही पूरी तरह खो गया । चिन्तनात्मक मन को सन्तुष्ट करने के प्रयत्न में इसने बहुत बार इसे या तो दबा डाला या मत-मजहब के सिद्धान्तों को बेड़ी पहिना दी । मानव- हृदय को अपने पाश में पकड़ने की चेष्टा करते हुए, यह स्वयं ही धर्मानुरागी भावुकतावाद और सम्बेदनवाद के गर्त्तों में जा गिरा । मनुष्य की प्राणिक प्रकृति पर शासन करने के लिये उसे अपने अधिकार में लाने का यत्न करते हुए, यह स्वयं ही कलुषित हो गया और उस समस्त धर्मान्धता, नरसंहारी क्रोधोन्माद, अत्याचार की जंगली या कठोर प्रवृत्ति, प्ररोही मिथ्यात्व एवं दृ अज्ञानासक्ति का शिकार हो गया जिनमें कि प्राणिक प्रकृति की स्वाभाविक रुचि होती है । मनुष्य के स्थूल भाग को ईश्वर की ओर आकृष्ट करने की इसकी इच्छा ने स्वयं इसे ही धोखा देकर धर्मसम्बन्धी यांत्रिकता, खोखले संस्कार और निर्जीव कर्मकांड की जंजीर से बांध दिया । सर्वोत्कृष्ट वस्तु ने बिगड़कर सब से निकृष्ट को जन्म दिया; कारण, जीवन- शक्ति की विचित्र रसायन-विद्या अच्छाई में से बुराई पैदा करती है जैसे कि यह बुराई में से अच्छाई भी पैदा कर सकती है । साथ ही, इस अधोमुख पतन के विरुद्ध आत्मरक्षा के व्यर्थ प्रयास में, धर्म ने एक प्रबल प्रेरणा के वश ज्ञान, कर्म-

 

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कलाप, कला एवं जीवन तक को दो विपरीत श्रेणियों, -आध्यात्मिक और सांसारिक, धार्मिक और ऐहिक, पवित्र और अपवित्र, -में बांट कर सत्तामात्र को दो खंडों में विभक्त कर दिया । परन्तु स्वयं यह रक्षात्मक विभाजन भी रूढ़िरूप तथा कृत्रिम बन गया और इसने रोग को ठीक करने के स्थान पर उसे बढ़ा दिया... दूसरी ओर विज्ञान, कला और जीवन-विद्याद्यपि पहले धर्म की छत्रछाया में ही सेवा या निवास करते रहे, पर आगे चलकर ये उससे अलग हो गये, उसके विजातीय या विरोधी बन गये, अथवा यहां तक कि उसके उन शिखरों से, जिनके लिये तत्त्वशानात्मक दर्शन और धर्म अभीप्सा करते हैं, पर जो इन्हें निरुत्साह, वन्ध्य और सुदूर या नि:सार और मायामय तथा अवास्तविकता के शिखर प्रतीत होते हैं, ये उदासीनता, घृणा या सन्देहपूर्वक पीछे हट गये । कुछ काल के लिये यह विच्छेद उस चरम सीमा को पहुंच गया जहां तक कि मानव-मन की एकांगी असहिष्णुता इसे लें जा सकती थी, यहां तक कि यह भय पैदा हो गया कि कहीं इसके परिणामस्वरूप एक अधिक उच्च या अधिक आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति का प्रयत्नमात्र सर्वथा लुप्त ही न हो जाय । पर वास्तव में पार्थिव जीवन में भी एक उच्चतर ज्ञान ही एकमात्र ऐसी चीज है जिसकी सदा-सर्वदा आवश्यकता पड़ती है । इसके बिना निम्नतर विज्ञान और कार्य-व्यवहार, चाहे वे अपने परिणामों की प्रचुरता की दृष्टि से कितने भी फलप्रद, समृद्ध, स्वतंत्र और चमत्कारक क्यों न हों, सहज ही एक ऐसे यश का रूप धर लेते हैं जो बिना ठीक विधि के मिथ्या देवों को अर्पित होता है । अन्त में वे मनुष्य के हृदय को कलुषित और कठोर बनाकर एवं उसके मन के क्षितिजों को सीमित कर या तो एक पाषाणमय भौतिक कारागृह में बंद कर देते हैं या एक अन्तिम निराशाजनक संशय-विकल्प और मोहभंग की ओर ले जाते हैं । इस अर्द्ध-ज्ञान के, जो अभी तक अज्ञान ही है, भास्वर प्रस्कुरण के ऊपर एक वन्ध्य अज्ञेयवाद हमारी प्रतीक्षा कर रहा है

   एक ऐसा योग, जो परम देव को सर्वांगीण रूप में प्राप्त करने के लिये किया जाता है, विश्वात्मा के कर्मों या स्वप्नों की भी- यदि वे स्वप्न हैं तो-अवहेलना नहीं करेगा, न ही वह उस भव्य उद्यम और बहुमुखी विजय से पराङ्मुखी होगा जिसे परम देव ने मानव प्राणी में अपने लिये निर्धारित किया है परन्तु इस प्रकार की व्यापकता के लिये इसकी पहली शर्त्त यह है कि संसार में हमारे कर्म भी यज्ञ के अंग होने चाहियें और वह यज्ञ हमें सर्वोच्च देव तथा भागवती शक्ति को ही अर्पित करना चाहिये, किसी अन्य देव तथा अन्य शक्ति को नहीं, साथ ही वह हमें ठीक भावना के साथ और यथार्थ ज्ञानपूर्वक, अपनी स्वतंत्र आत्मा के द्वारा अर्पित करना चाहिये, जड़-प्रकृति के सम्मोहित क्रीतदास द्वारा नहीं । यदि कर्मों का विभाजन करना ही हो तो इन दो प्रकार के कर्मों में ही विभाजन करना होगा--एक तो वे जो हृदय की पावन ज्वाला के अत्यन्त निकट हैं और दूसरे वे जो इससे

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अधिक दूर हैं तथा इसी कारण इसके द्वारा न्यूनतम प्रभावित या प्रकाशित हैं, --अथवा यूं कहें कि एक तो वे समिधाएं जो जोर से या चमक के साथ जलती हैं और दूसरे वे काष्ठ जो वेदी पर अत्यन्त घना ढेर लगा दिये जाने के कारण अपनी आर्द्र, भारी और विस्तृत बहुलता से आग की तेजी को रोक देते हैं । परन्तु वैसे, इस विभाजन के अतिरिक्त, ज्ञान के सभी कर्म जो सत्य को खोजते या प्रकट करते हैं, अपने-आपमें, पूर्ण उत्सर्ग के लिये उचित सामग्री हैं; उनमें से किसीको भी दिव्य जीवन के विशाल ढांचे से बहिष्कृत करने की आवश्यकता नहीं । मानसिक और भौतिक विज्ञान जो पदार्थों के नियमों, आकारों तथा प्रक्रियाओं का अनुसंधान करते हैं, वे विज्ञान जो मनुष्यों और जीव-जन्तुओं के जीवन से सम्बन्ध रखते हैं, सामाजिक, राजनीतिक, भाषासम्बन्धी तथा ऐतिहासिक विज्ञान और साथ ही वे विज्ञान जो उन कार्यों और व्यापारों को जानने तथा नियंत्रित करने का यत्न करते हैं जिनसे मनुष्य अपने संसार और परिपार्श्व को वशीभूत कर उन्हें उपयोग में लाता है, उत्कृष्ट ललित कलाएं जो एक साथ ही कर्म भी हैं और ज्ञान भी, --कारण, प्रत्येक सुनिर्मित और अर्थगर्भित कविता, चित्र, मूर्त्ति या भवन सर्जनशील ज्ञान की कृति होता है, चेतना की जीवन्त उपलब्धि एवं सत्य की प्रतिमा होता है, मानसिक और प्राणिक अभिव्यक्ति या जगत्-अभिव्यक्ति का सक्रिय रूप होता है, --वह सब जो कि खोज करता है, वह सब जो कि उपलब्ध करता है, वह सब जो कि वाणी या आकार प्रदान करता है, अनन्त की लीला के ही किसी अंश को चरितार्थ करता है और उतने अंश में वह ईश्वर-उपलब्धि या दिव्य सृष्टि का साधन बनाया जा सकता है । परन्तु योगी को देखना होगा कि आगे से वह उसे अज्ञ मानसिक जीवन के अंग के रूप में कभी स्वीकार न करे । उसे वह केवल तभी स्वीकार कर सकता है यदि वह अपने अन्तर्निहित सम्वेदन, स्मरण और समर्पण के द्वारा अध्यात्म-चेतना की गति में परिणत हो जाय और इसके सर्वग्राही एवं प्रकाशप्रद ज्ञान की विशाल पकड़ का अंग बन जाय ।

 

    सब कुछ यज्ञ के रूप में ही करना चाहिये, सब कार्यों का ध्येय और उनके प्रयोजन का सार एकमेव भगवान् ही होना चाहिये । जो विद्याएं ज्ञान-वृद्धि में सहायक हैं उनके अध्ययन में योगी का लक्ष्य यह होना चाहिये कि वह मनुष्य में तथा प्राणियों, पदार्थों और शक्तियों में भागवती चित्-शक्ति के व्यापारों तथा उसके सृष्टि-सम्बन्धी आशयों की खोज करे और उन्हें हृदयंगम करे, साथ ही उन रहस्यों एवं प्रतीकों का, जिनमें वह अपनी अभिव्यक्ति को व्यवस्थित करती है, कार्यान्वित करने के उसके ढंग को भी खोजे और समझे । व्यावहारिक विद्याओं में, चाहे वे मानसिक और भौतिक हों अथवा गुह्य और आन्तरात्मिक, योगी का लक्ष्य यह होना चाहिये कि वह भगवान् के तरीकों और उसकी गतिविधियों की तह में जाय और जो काम हमें सौंपा गया है उसकी साधन-सामग्री का ज्ञान प्राप्त करे जिससे हम

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आत्मा के रहस्य, आनन्द और आत्म-कृतार्थता को सचेतन और निर्दोष रूप से प्रकट करने के लिये उस ज्ञान को काम में ला सकें । कलाओं में योगी का लक्ष्य केवल सौन्दर्य-भावना की और मन या प्राण की तृप्ति करना नहीं, बल्कि यत्र-तत्र-सर्वत्र भगवान् को देखना, उसके कार्यों में उसके भाव और अर्थ का आत्म-प्रकाश अनुभव करते हुए उसकी पूजा करना तथा देवताओं, मनुष्यों, प्राणियों और पदार्थों में उसी एकमेव भगवान् को व्यक्त करना होना चाहिये । जो सिद्धान्त धार्मिक अभीप्सा और सच्ची-से-सच्ची तथा महान्-से-महान् कला में घनिष्ठ सम्बन्ध देखता है वही सार-रूप में सही देखता है; किन्तु हमें मिश्रित और संदिग्ध धार्मिक प्रेरकभाव के स्थान पर आध्यात्मिक अभीप्सा, दृष्टि एवं अर्थ-प्रकाशक अनुभूति को प्रतिष्ठित करना होगा । क्योंकि दृष्टि जितनी अधिक विशाल और व्यापक होगी, जितना ही अधिक यह मानवता में और सब पदार्थों में छुपे हुए भगवान् की अनुभूति को अपने अन्दर धारण करेगी और एक स्थूल धार्मिकता के परे अध्यात्म-जीवन में उन्नीत हो जायगी, इस उच्च आशय से उद्भूत होनेवाली कला भी उतनी ही अधिक प्रकाशमान, नमनीय, गभीर और शक्तिशाली होगी । योगी की दूसरे लोगों से विशेषता यह होती है कि वह एक उच्चतर तथा विशालतर अध्यात्म-चेतना में निवास करता है; अतः उसकी समस्त ज्ञान-कृति या सर्जन-कृति निश्चय ही वहीं से उद्भूत होनी चाहिये, वह मन में नहीं गढ़ी जानी चाहिये, -क्योंकि वह दृष्टि एवं सत्य मनोमय मनुष्य की दृष्टि एवं सत्य से अधिक महान् है जिसकी अभिव्यक्ति योगी को करनी होती है अथवा यूं कहना चाहिये कि जो योगी की व्यक्तिगत संतुष्टि के हित नहीं, बल्कि दिव्य प्रयोजन के हित अपने-आपको उसके द्वारा प्रकट करने तथा उसके कार्यों को ढालने के लिये उसपर दबाव डालता  ।

 

    इसके साथ ही जो योगी परम देव को जानता है वह इन कर्मों में किसी प्रयोजन या आवश्यकता के वशीभूत नहीं होता, क्योंकि उसके लिये ये न तो कोई कर्तव्य होते हैं, न मन का आवश्यक धंधा और न ही कोई उत्कृष्ट विनोद या सर्वोच्च मानवीय प्रयोजन द्वारा आरोपित कोई कार्य । वह किसी कर्म में भी आसक्त और अवरुद्ध नहीं हो जाता, न ही इन कर्मों में यश, गौरव या व्यक्तिगत सन्तोषरूपी उसका कोई निजी हेतु होता है; वह इन्हें छोड़ भी सकता है या जारी भी रख सकता है, जैसी भी उसके अन्तःस्थित भगवान् की इच्छा हो, परन्तु उच्चतर पूर्ण ज्ञान की खोज में किसी अन्य कारण से इनका त्याग करने की उसे आवश्यकता नहीं । वह इन कर्मों को ठीक वैसे ही करेगा जैसे परम शक्ति कर्म करती है और सर्जन करती है, अर्थात् सर्जन और अभिव्यंजन के आध्यात्मिक हर्षविशेष के लिये अथवा ईश्वर के रचे इस संसार को सुसंबद्ध रखने या लोकसंग्रह करने और इसे यथावत् व्यवस्थित या परिचालित करने में सहायता देने के लिये । गीता की शिक्षा है कि ज्ञानी मनुष्य को अपने जीवन के ढंग से उन लोगों में भी जिन्हें अभी

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आध्यात्मिक चेतना प्राप्त नहीं हुई है 'सभी' कर्मों के लिये-केवल उन्हींके लिये नहीं जो अपने स्वरूप की दृष्टि से पुण्यमय, धार्मिक या तपोमय समझे जाते हैं, बल्कि सभी के लिये-प्रेम पैदा करना चाहिये, साथ ही उसे उनके अन्दर सब कर्म करने का अभ्यास भी डलवाना चाहिये । उसे अपने दृष्टान्त से मनुष्यों को संसार-कर्म से हटाना नहीं चाहिये । कारण, संसार को उसकी महान् ऊर्ध्वमुखी अभीप्सा में आगे बढ़ाना होगा; मनुष्यों और राष्ट्रों को ऐसी राह से नहीं ले चलना होगा कि वे अज्ञानमय कर्म से अकर्म के निकृष्टतर अज्ञान में जा गिरें अथवा शोचनीय विघटन और विनाश की उस प्रवृत्ति में जा डूबें जो जातियों तथा राष्ट्रों पर तब आक्रमण करती हैं जब कि तामसिक तत्त्व, -अन्धकारमय अस्तव्यस्तता और भ्रान्ति का या क्लान्ति और जड़ता का तत्त्व-प्रबल हो जाता है । गीता में भगवान् कहते हैं, ''मुझे भी कर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ऐसी कोई चीज नहीं है जो मुझे प्राप्त न हो या जो मुझे अभी अपने लिये प्राप्त करनी आवश्यक हो; तो भी मैं संसार में कर्म करता हूं क्योंकि यदि मैं कर्म न करूं तो सब नियम-धर्म अस्त-व्यस्त हो जायंगे, लोकों में अव्यवस्था छा जायगी और मैं इन प्रजाओं का विनाशक बन जाऊंगा ।'' आध्यात्मिक जीवन को अपनी पवित्रता के लिये इस बात की आवश्यकता नहीं कि वह अवर्णनीय ब्रह्म के सिवा और सभी वस्तुओं में रस लेना छोड़ दें या ज्ञान-विज्ञान, कला-कलाप और जीवन के मूल पर ही कुठाराघात करे । अपितु पूर्ण उगध्यात्मिक ज्ञान एवं कर्म का एक सहज फल यह हो सकता है कि यह उन्हें उनकी सीमाओं से ऊपर उठा ले जा सकता है, साथ ही उनमें हमारे मन को जो अज्ञानयुक्त, परिमित, मंद या क्षुब्ध सुख मिलता है उसके स्थान पर आनन्द का एक स्वतंत्र, प्रगाढ़ और उन्नायक वेग प्रतिष्ठित करके यह उन्हें सर्जनशील आध्यात्मिक बल और प्रकाश का एक नवीन उद्गम प्रदान कर सकता है । वह उद्गम फिर उन्हें उनकी परिपूर्ण ज्ञान-ज्योति और अद्यावधि स्वप्नातीत सम्भावनाओं की ओर तथा अर्थ, रूप और प्रयोग की अत्यन्त सक्रिय शक्ति की और अधिक शीघ्रता तथा गम्भीरता के साथ ले जा सकता है । जो एकमात्र आवश्यक वस्तु है उसीका सर्वप्रथम तथा सदा-सर्वदा अनुसरण करना होगा, और सभी चीजें तो उसके परिणाम-स्वरूप स्वयमेव प्राप्त हो जायंगी । उनकी हमें अपने अन्दर कोई नयी वृद्धि नहीं करनी पड़ेगी, वरंच उस आवश्यक वस्तु के आत्म-प्रकाश में तथा उसके आत्म-प्रकाशक बल के अंशों ण रूप में उनकी पुन: -प्राप्ति एवं पुनर्निर्माण ही करना होगा ।

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   यही दिव्य और मानवीय ज्ञान में सच्चा सम्बन्ध है । इनके पारस्परिक भेद का मर्म यह नहीं है कि ये पवित्र और अपवित्र दो विषम क्षेत्रों में विभक्त हैं, बल्कि

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यह है कि इनकी क्रिया के मूल में रहनेवाली चेतना भिन्न-भिन्न प्रकार की है । जो ज्ञान उस साधारण मानसिक चेतना से उत्पन्न होता है जो पदार्थों की बाहरी या ऊपरी सतहों में, क्रिया-पद्धति और प्रपंच में रुचि रखती है, -चाहे वह रुचि उस प्रपंच के लिये हो या किसी ऊपरी उपयोगिता के लिये अथवा कामना या बुद्धि की मानसिक या प्राणिक सन्तुष्टि के लिये हो, -वह मानवीय ज्ञान है । परन्तु ज्ञान की यह क्रिया यदि आध्यात्मिक या आध्यात्मीकारक चेतना से उत्पन्न हो तो यह योग का अंग बन सकती है । कारण, आध्यात्मिक चेतना जिस भी वस्तु का निरीक्षण करती है या जिस भी वस्तु के भीतर प्रवेश करती है उसमें कालातीत सनातन की उपस्थिति को और सनातन की कालगत अभिव्यक्ति के तरीकों को खोजती और उपलब्ध करती है । यह तो स्पष्ट ही है कि अज्ञान से ज्ञान की ओर संक्रमण करने के लिये एकनिष्ठता अनिवार्य रूप से आवश्यक है । अतएव, जिज्ञासु के लिये यह आवश्यक हो सकता है कि वह अपनी शक्तियां एकत्र कर उन्हें केवल उसीपर केंद्रित करे जो संक्रमण की क्रिया में सहायक है, साथ ही, जो कुछ सीधा उस अनन्य लक्ष्य की ओर उन्मुख नहीं है उस सबसे कुछ काल के लिये किनारा खींच ले या उसे केवल गौण स्थान ही दे । वह अनुभव कर सकता है कि मानव-ज्ञान का यह या वह अनुशीलन, जिसमें वह अपने मन की स्थूल शक्ति के द्वारा व्यस्त रहने का अभ्यस्त था, अब भी उसे उसी प्रवृत्ति या अभ्यास के वश, गहराइयों में से ऊपरी सतह की ओर ले आता है अथवा यह उसे उन शिखरों से, जिन पर वह चढ़ चुका है या जिनके पास वह पहुंचनेवाला ही है, निचले स्तरों पर उतार लाता है । तब ये प्रवृत्तियां कुछ काल के लिये स्थगित रखनी या छोड़नी पड़ सकती हैं जब तक कि वह उच्चतर चेतना में सुस्थिर होकर इसकी शक्तियों को सभी मानसिक क्षेत्रों पर प्रयुक्त करने में समर्थ नहीं हो जाता; बाद में ये उस प्रकाश के अधीन होकर या उसमें उन्नीत होकर उसकी चेतना के रूपान्तर के द्वारा अध्यात्म तथा देवत्व के क्षेत्र में परिवर्तित हो जाती हैं । जो कुछ इस प्रकार रूपान्तरित नहीं किया जा सकता या दिव्य चेतना का अंग बनने से इन्कार करता है उस सबको वह बिना झिझक के त्याग देगा । पर ऐसा वह किसी ऐसी पूर्वनिश्चित धारणा के कारण नहीं करेगा कि यह सब सारशून्य है या नये अन्तर्जीवन का अंश बनने में असमर्थ है । इन चीजों के लिये कोई निश्चित मानसिक कसौटी या सिद्धान्त नहीं हो सकता । अतः वह किसी अपरिवर्तनीय नियम का अनुसरण नहीं करेगा, बल्कि मन की किसी भी प्रवृत्ति को अपने सम्वेदन, अन्तर्दृष्टि या अनुभूति के अनुसार स्वीकार या अस्वीकार करेगा । इस प्रकार, अन्त में महत्तर शक्ति और ज्योति प्रकट हो जायंगी, नीचे जो कुछ भी है उस सबकी ये अचूक छानबीन करेंगी और मानव-विकास ने दिव्य प्रयास के लिये जो कुछ तैयार किया है उसमें से अपने लिये सामग्री का ग्रहण या वर्जन करेंगी ।

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   ठीक किस प्रकार से या किस क्रम से यह विकास एवं परिवर्तन होगा यह बात निश्चय ही वैयक्तिक प्रकृति के स्वरूप, उसकी आवश्यकता और सामर्थ्यों पर निर्भर करेगी । आध्यात्मिक क्षेत्र में सारतत्त्व सदा एक ही होता है, पर फिर भी वहां विविधता का कोई अन्त नहीं होता; कम-से-कम पूर्णयोग में तो सीमित तथा सुनिश्चित मानसिक नियम की कठोरता प्रायः ही लता नहीं होती । कारण, कोई भी दो प्रकृतिया, जब वे एक ही दिशा में चलती हैं तब भी, ठीक एकसमान लीकों अथवा पद-चिहों पर या अपनी प्रगति की सर्वथा एकसमान अवस्थाओं में से होती हुई आगे नहीं बढ़ती । तथापि यह कहा जा सकता है कि उन्नति की अवस्थाओं का तर्क-सम्मत क्रम बहुत कुछ इस प्रकार का होता है । सर्वप्रथम, एक विस्तीर्ण परिवर्तन होता है जिसमें व्यक्तिगत प्रकृति की सभी विशिष्ट एवं स्वाभाविक मानसिक क्रियाएं ऊंची उठायी जाती हैं या उच्चतर दृष्टिबिन्दु से जांची जाती हैं और हमारी अन्तःस्थित आत्मा, चैत्य पुरुष अथवा यज्ञ के पुरोहित के द्वारा भगवान् की सेवा में उत्सर्ग कर दी जाती हैं । उसके बाद सत्ता के आरोहण के लिये तथा इसके ऊर्ध्वमुख प्रयास से प्राप्त होनेवाले चेतना-सम्बन्धी एक नवीन शिखर की विशिष्ट ज्योति और शक्ति को ज्ञान की सम्पूर्ण क्रिया में उतार लाने के लिये प्रयत्न होता है । इस अवस्था में व्यक्ति अपने-आपको चेतना के आभ्यन्तर केंद्रीय परिवर्तन पर प्रबल रूप से एकाग्र कर सकता है और बहिर्गामी मानसिक जीवन के बड़े भारी भाग को त्याग सकता है अथवा उसे तुच्छ और गौण स्थान दे सकता है । भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में वह इसे या इसके कुछ भागों को समय-समय पर फिर से अपना भी सकता है-यह देखने के लिये कि कहां तक नवीन अन्तरीय आन्तरात्मिक और आध्यात्मिक चेतना इसकी गतियों के भीतर लायी जा सकती है । परन्तु शनैः -शनैः स्वभाव या प्रकृति का वह दबाव कम होता जायगा जो मानव प्राणियों में किसी एक या दूसरे प्रकार के कर्म को ऐसा आवश्यक बना देता है कि वह जीवन का एक अनिवार्य-सा अंग प्रतीत होने लगता है । अन्त में कोई भी आसक्ति शेष नहीं रहेगी, कहीं भी कोई निम्नतर दबाव या चालक शक्ति अनुभूत नहीं होगी । हमें केवल भगवान् से ही मतलब होगा, केवल भगवान् ही हमारी सारी सत्ता की एकमात्र आवश्यकता होंगे । यदि कर्म करने के लिये कोई दबाव होगा भी तो वह दृढ़मूल कामना का या विश्वप्रकृति की शक्ति का नहीं, बल्कि उस महत्तर चित्-शक्ति की ज्योतिर्मयी प्रेरणा का दबाव होगा जो उत्तरोत्तर हमारी सारी सत्ता का एकमात्र प्रेरक-बल बनती जा रही है । दूसरी तरफ, आन्तर आध्यात्मिक विकास के किसी काल में व्यक्ति को कर्मों के निषेध की अपेक्षा कहीं अधिक उनके विस्तार का अनुभव भी हो सकता है; योगशक्ति के चमत्कारी स्पर्श से मानसिक सर्जन की नयी क्षमताओं और ज्ञान के नये क्षेत्रों का उद्घाटन भी हों सकता है । सौन्दर्यात्मक अनुभूति, एक क्षेत्र में या युगपत् अनेक क्षेत्रों में कलात्मक सर्जन की शक्ति,

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साहित्यिक भावप्रकाशन की बुद्धि या प्रतिभा, दार्शनिक चिन्तन की योग्यता, आंख या कान या हाथ की कोई शक्ति या मन की शक्ति भी उद्बुद्ध हो सकती है जहां पहले इनमें से कोई भी दिखायी नहीं देती थी । अन्तरस्थ भगवान् इन निगूढ़ ऐश्वर्यों को उन गहराइयों में से जिनमें ये छिपे पड़े हैं, बाहर निकाल ला सकता है अथवा ऊपर से कोई शक्ति अपने सामर्थ्यों को नीचे उंडेल सकती है, इसलिये कि वह हमारी यंत्रात्मक प्रकृति को उस कर्म या सर्जन के योग्य बना सके जिसकी प्रणालिका या निर्मात्री बनना ही इसका प्रयोजन है । योग के गुप्त महेश्वर की चुनी हुई विधि या विकास-पद्धति कोई भी क्यों न हों, फिर भी इस अवस्था की सामान्य परिसमाप्ति इस वृद्धिशील चेतना में होती है कि वह ऊर्ध्वस्थित योग-महेश्वर हमारे मन की सभी गतियों का तथा ज्ञान की सम्पूर्ण क्रियाओं का संचालक, निर्णायक तथा निर्मायक है ।

 

   जिस रूपान्तर से जिज्ञासु का ज्ञानात्मक मन और ज्ञान के कर्म अविद्या की कार्यप्रणाली छोड़कर, पहले थोड़ा- थोड़ा और फिर पूरी तरह से आत्मा के प्रकाश में काम करनेवाली मुक्त चेतना की कार्यप्रणाली का अनुसरण करने लगते हैं, उसके दो चिह्न होते हैं । प्रथम यह कि चेतना का एक केंद्रीय परिवर्तन हो जाता है और परम तथा विश्वमय सत्ता का, स्वयं भगवान् और सर्वगत भगवान् का एक वर्धमान प्रत्यक्ष अनुभव, दर्शन तथा वेदन प्राप्त होता है । फलत: मन उन्नीत होकर सबसे पहले और प्रधान रूप से इसी चीज में अधिकाधिक संलग्न होता जायगा और यह अनुभव करने लगेगा कि वह उच्च एवं विशाल होकर एकमात्र आधारभूत ज्ञान के प्रकाशन का एक उत्तरोत्तर उद्दीप्त साधन बन रहा है । पर साथ ही केंद्रीय चेतना समय पाकर ज्ञान की बाह्य मानसिक क्रियाओं को उत्तरोत्तर ऊंचा ले जायगी और इन्हें अपना एक भाग या अधिकृत प्रदेश बना लेगी । यह इनके भीतर अपनी अधिक विशुद्ध गति का संचार करेगी और अधिकाधिक आध्यात्मीकृत तथा ज्ञानोद्दीप्त मन को इन तलीय क्षेत्रों अर्थात् अपने नवविजित प्रदेशों में, और साथ ही अपने गभीरतर आध्यात्मिक साम्राज्य में अपना यंत्र बना लेगी । यह दूसरा चिह्न होगा जो इस बात की विशेष पूर्ति तथा सिद्धि का चिह्न होगा कि भगवान् स्वयं ज्ञाता बन गये हैं और जो किसी समय शुद्ध रूप से मानवीय मानसिक कार्य था उसकी गतियों सहित, सभी आन्तरिक व्यापार उनके ज्ञान का क्षेत्र बन गये हैं । वैयक्तिक चुनाव, सम्मति किंवा अभिरुचि न्यूनातिन्यून होती जायगी, बौद्धिक क्रिया, मानसिक उधेड़बुन या अतिकठोर मस्तिष्क-श्रम भी न्यूनातिन्यून हों जायगा; जो कुछ देखना आवश्यक है, जो कुछ जानना आवश्यक है वह सब अन्दर की एक ज्योति ही देखेगी और जानेगी, वही विकास, निर्माण एवं संघटन भी करेगी । अन्दर का ज्ञाता ही व्यक्ति के मुक्त तथा विश्वभावापन्न मन में एक सर्वग्राही ज्ञान के कर्म करेगा ।

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   ये दो परिवर्तन उस प्रारम्भिक सफलता के चिह्न हैं जिसके होने पर मानसिक प्रकृति के कार्य उन्नीत, आध्यात्मीकृत, विस्तारित, विश्वमय एवं मुक्त हो जाते हैं और अपने इस असली प्रयोजन से सचेतन हो जाते हैं कि वे कालावच्छिन्न विश्व में अपनी अभिव्यक्ति को विरचित और विकसित करनेवाले भगवान् के साधन हैं । परन्तु यह नहीं हो सकता कि रूपान्तर का सम्पूर्ण क्षेत्र केवल इतना ही हो, क्योंकि पूर्ण सत्य का जिज्ञासु अपना आरोहण केवल इन सीमाओं तक ही समाप्त नहीं कर सकता, न वह अपनी प्रकृति के विशालीकरण को ही यहीं तक सीमित कर सकता है । यदि वह ऐसा करेगा तो ज्ञान अभी भी उस मन का व्यापार बना रहेगा जो मुक्त, विश्वमय एवं अध्यात्ममय तो बन चुका है, पर फिर भी अपेक्षाकृत सीमाबद्ध एवं सापेक्ष है और अपनी क्रियाशीलता के असली सार में भी अपूर्ण है, जैसा कि मनमात्र स्वभावत: ही होता है । यह सत्य की महान् रचनाओं को स्पष्ट रूप से प्रतिक्षिप्त तो करेगा, पर जिस क्षेत्र में सत्य विशुद्ध, प्रत्यक्ष, प्रभुत्वशाली और स्वाभाविक है वहां-वहां विचरण नहीं कर सकेगा । इस शिखर से अभी और ऊंचा आरोहण करना होगा, जिससे आध्यात्मीकृत मन अपने को अतिक्रान्त कर ज्ञान की अतिमानसिक शक्ति में रूपान्तरित हो जायगा । आध्यात्मीकरण की प्रक्रिया में यह मानव-बुद्धि को भड़कीली दरिद्रता में से बाहर निकलना शुरू कर ही चुका होगा; और अब यह पहले उच्चतर मन के विशुद्ध विपुल विस्तारों में और तदनन्तर ऊर्ध्व के प्रकाश से प्रकाशित और भी महत्तर प्रज्ञा के ज्योतिष्मान् मण्डलों में क्रमश: आरोहण करेगा । इस अवस्था में यह एक अन्तर्शान की जो परत: -प्रकाशित नहीं, बल्कि स्वतः -प्रकाशमान एवं स्वतः -सत्य होता है और जो पहले की तरह पूर्ण रूप से मानसिक न होने के कारण भ्रांति के बहुल आक्रमण से अभिभूत भी नहीं होता, -प्रारम्भिक दीप्तियों को अधिक खुलकर अनुभव करने लगेगा और एक कम मिश्रित प्रतिक्रिया के साथ उन्हें अपने अन्दर प्रवेश भी करने देगा । परन्तु यहां भी आरोहण की समाप्ति नहीं हो जायगी, फिर इसे और भी ऊपर उस अखण्डित अन्तर्ज्ञान के असली स्तर में उठना होगा जो मूलभूत सत् की आत्मसंवित् से निकला दुआ प्रथम प्रत्यक्ष प्रकाश है और, इससे भी परे, वह तत्त्व प्राप्त करना होगा जहां से यह प्रकाश आता है । कारण, मन से भी परे एक अधिमानस है, एक अधिक मूलभूत और क्रियाशील शक्ति है जो मन को आश्रय देती है, उसे अपने में से निकली हुई एक क्षीण रश्मि समझती है और एक अधोमुखी गति को संक्रान्त करनेवाले पट्टे या अविद्या को उत्पन्न करनेवाले साधन के तौर पर उसका प्रयोग करती है । आरोहण का अन्तिम पग होगा स्वयं इस अधिमानस को भी पार करना, अथवा इसका अपने और भी महत्तर उद्गम में लौट जाना तथा विज्ञान की अतिमानसिक ज्योति में रूपान्तरित हो जाना । अतिमानसिक ज्योति में ही भागवत सत्य-चेतना की मुहर है । इस चेतना में विश्वगत निश्चेतना और छाया से अकलषित

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परम सत्य के कर्मों को संगठित करने की एक ऐसी स्वाभाविक शक्ति है जैसी इससे नीचे की अन्य किसी चेतना में हो ही नहीं सकती । वहां पहूंचना और अविद्या का रूपान्तर कर सकनेवाली अतिमानसिक क्रियाशक्ति को वहां से उतार लाना पूर्णयोग का सुदूर पर अटल और परम लक्ष्य है ।

 

  जैसे ही इनमें से प्रत्येक उच्चतर शक्ति का प्रकाश ज्ञान के मानवीय कार्यों पर डाला जाता है, पवित्र एवं अपवित्र और मानवीय एवं दैवी का सब प्रकार का भेद अधिकाधिक क्षीण होने लगता है और आगे चलकर यह अन्तिम तौर पर मिट जाता है, मानो यह एक सर्वथा निरर्थक वस्तु हो । भागवत विज्ञान जिस चीज को स्पर्श करता तथा जिसके भीतर पूर्णरूपेण प्रवेश करता है, वह रूपान्तरित होकर इसके निज प्रकाश और बल की गति बन जाती है । वह गति निम्नतर बुद्धि की मलिनता और सीमाओं से मुक्त होती है । अतएव, कुछ कार्यों से नाता तोड़ लेना नहीं, वरन् उन्हें अनुप्राणित करनेवाली चेतना को बदलकर उन सबका कायापलट कर देना ही मुक्ति का मार्ग है, यही ज्ञानयज्ञ का एक अधिक महान्-सदा ही अधिकाधिक महान्-ज्योति और शक्ति की ओर अरोहण है । मन और बुद्धि के सब कर्मों को पहले उच्च और विशाल बनाना होगा, फिर उन्हें प्रकाशयुक्त करके उच्चतर प्रज्ञा के स्तर में उठा ले जाना होगा, तत्पश्चात् उन्हें एक महत्तर मनोतीत अन्तर्ज्ञान की क्रियाओं में परिणत कर अधिमानस-ज्योति के प्रबल प्रवाहों में रूपान्तरित करना होगा, और फिर इन्हें भी अतिमानसिक विज्ञान के पूर्ण प्रकाश और प्रभुत्व में रूपान्तरित कर देना होगा । इस जगत् में चेतना का जो विकास हो रहा है उसमें इस चीज के पूर्वचिह्न विद्यमान हैं पर अभी यह वहां बीजरूप में तथा उसकी प्रक्रिया के आयासपूर्ण दृढ़ आशय में छुपी हुई है । यह प्रक्रिया या यह विकास तब तक नहीं रुक सकता जब तक यह आत्मा की अद्यावधि-अपूर्ण अभिव्यक्ति के स्थान पर पूर्ण अभिव्यक्ति के यंत्र विकसित नहीं कर लेता ।

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  यदि ज्ञान चेतना की एक विशालतम शक्ति है और इसका व्यापार मुक्त और आलोकित करना है, तो प्रेम एक गंभीरतम तथा तीव्रतम शक्ति है और दिव्य परम रहस्य की अतिशय गम्भीर तथा निगूढ़ गुहाओं की कुंजी बनने का विशेष सौभाग्य भी इसीको प्राप्त है । मनोमय जीव होने के कारण मनुष्य की प्रवृत्ति यह है कि वह चिन्तक मन तथा इसके तर्क एवं संकल्प को और सत्य के पास पहुंचने तथा उसे कार्यान्वित करने के इसके तरीके को सर्वोपरि महत्त्व देता है, यहां तक कि उसका झुकाव यह मानने की ओर है कि और कोई तरीका है ही नहीं । उसका हृदय, जो अपने भावों और अपरिमेय गतियों से सम्पन्न है, उसकी बुद्धि को ऐसा दिखायी 

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देता है कि यह एक अन्धकारयुक्त एवं संदिग्ध शक्ति है-जो प्रायः ही भयानक तथा भ्रामक होती है--और इसलिये इसे तर्कबुद्धि, मानसिक संकल्प और प्रज्ञा के नियन्त्रण में रखने की आवश्यकता है । परन्तु हृदय में या इसके पीछे एक गंभीरतर गुह्य ज्योति भी है । यह हृदय की ज्योति चाहे वह चीज नहीं है जिसे हम अन्तर्ज्ञान कहते हैं,--क्योंकि अन्तर्ज्ञान मन की चीज न होते हुए भी मन से होकर ही नीचे आता है- तथापि, यह सत्य से सीधा सम्बन्ध रखती है और ज्ञानगर्वित मानवीय बुद्धि की अपेक्षा भगवान् के अधिक निकट है । प्राचीन शिक्षा के अनुसार अन्तर्यामी भगवान् या निगूढ़ पुरुष का स्थान गुह्य हृदय में है, --हृदये गुहायाम्, जैसा कि उपनिषदें कहती हैं,--और अनेक योगियों के अनुभव के अनुसार, इसी की गहराइयों से आन्तर आप्त पुरुष की वाणी या निःश्वास प्रकट होता है ।

 

  हृदयसम्बन्धी यह द्विविध भाव, उसकी यह गभीरता और अन्धता, जो परस्परविरोधी दिखायी देती हैं, मानव की भावमय सत्ता के दोहरे स्वरूप के कारण पैदा होती हैं । सामने की तरफ तो मनुष्य में प्राणमय भाव का हृदय है जो पशु के हृदय जैसा है, द्यपि है अधिक विविध रूप से विकसित । इसके भाव अहंकारमय आवेश के द्वारा अन्ध और सहज राग-अनुराग तथा उन जीवन-आवेगों की समस्त क्रीड़ा के द्वारा शासित होते हैं जो दोषों और विकारों से भरे हुए हैं और प्रायः ही निकृष्ट पतन का कारण बनते हैं । यह निस्तेज तथा भ्रष्ट जीवन-शक्ति की वासनाओं, कामनाओं, क्रोधों, उत्कट या भयानक मांगों या तुच्छ लोभों और नीच क्षुद्रताओं से आक्रान्त है और उनमें आबद्ध है और साथ ही, आवेगमात्र के अधीन होने के कारण, हीन अवस्था में गिरा दुआ है । भावमय हृदय और सम्वेदनशील सतृष्ण प्राण का यह मिश्रण मनुष्य में कामना की मिथ्या आत्मा को जन्म देता है । यह कामनात्मा वह अपरिष्कृत और भयावह तत्त्व है जिस पर तर्कबुद्धि, ठीक ही, अविश्वास करती है तथा नियंत्रण रखने की आवश्यकता अनुभव करती है, द्यपि जिस वास्तविक नियंत्रण किंवा निग्रह को यह हमारी अपरिपक्य और आग्रहशील प्राणिक प्रकृति पर स्थापित करने में सफल होती है वह सदा अत्यन्त अनिश्चित और वंचनात्मक ही रहता है । परन्तु मनुष्य की सच्ची आत्मा इस भावमय हृदय में नहीं है । वह प्रकृति की किसी ज्योतिर्मयी गुहा में निभृत एक सच्चे और अदृश्य हृदय में है । वहां, दिव्य ज्योति के एक विशेष अन्तर्निस्पंदन की छाया में हमारी आत्मा वा प्रशान्त अन्तरतम सत्ता अवस्थित है जिसका ज्ञान विरले ही लोगों को है । चाहे आत्मा है तो सभीमें, पर बहुत कम ही अपनी सच्ची आत्मा को जानते हैं अथवा इसकी प्रत्यक्ष प्रेरणा अनुभव करते हैं । भगवान् की इस नन्ही-सी चिनगारी का वास हम सभीमें है । यह हमारी प्रकृति के इस तमसाच्छन्न पिण्ड को धारण करती है और इसीके चारों ओर चैत्य पुरुष अर्थात् हमारे अन्दर की गठित आत्मा या वास्तविक 'मनुष्य' वर्धित होता है | ज्यों-ज्यों मनुष्य के अन्दर का यह चैत्य पुरुष

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विकसित होता है और हृदय की गतियां इसकी भविष्यवाणियों तथा प्रेरणाओं को प्रतिबिंबित करने लगती हैं त्यों-त्यों मनुष्य अपनी आत्मा के प्रति उत्तरोत्तर सचेतन होता चलता है; वह अब केवल एक ऊंची श्रेणी का पशु नहीं रहता । वह अपने अन्तर्यामी परमेश्वर की झांकियों के प्रति जागृत होकर इसकी गंभीरतर जीवन और चेतना-विषयक सूचनाओं को तथा दिव्य वस्तुओं के प्रति संवेग को अपने अन्दर अधिकाधिक ग्रहण करने लगता है । वह पूर्णयोग का एक निर्णायक क्षण होता है जब कि यह चैत्य पुरुष मुक्त होकर, पर्दे के पीछे से सामने की ओर आकर, अपनी भविष्य-सूचनाओं, दृष्टियों और प्रेरणाओं की परिपूर्ण बाढ़ से मनुष्य के तन-मन-प्राण को आप्लावित करने और पार्थिव प्रकृति में देवत्व के निर्माण का उपक्रम करने में समर्थ होता है ।

 

  हृदय की क्रियाओं पर विचार करते हुए ज्ञान के कर्मों की भांति ही, इसकी दो प्रकार की गतियों में प्रारम्भिक भेद करना हमारे लिये आवश्यक हो जाता है । एक तो वे गतियां हैं जो सच्ची अन्तरात्मा सें प्रेरित होती हैं अथवा उसके मुक्त होने में सहायता करती हैं और प्रकृति पर शासन करती हैं और दूसरी वे जो अशुद्ध प्राणिक प्रकृति की सन्तुष्टि में ही लगी रहती हैं । परन्तु इस अर्थ में साधारणत: जो भेद किये जाते हैं वे योग के गम्भीर या आध्यात्मिक प्रयोजन के लिये नहीं के बराबर उपयोगी हैं । उदाहरणार्थ, धार्मिक भावों और लौकिक सम्वेदनों में भी भेद किया जा सकता है और आध्यात्मिक जीवन का यह एक नियम बनाया जा सकता है कि केवल धार्मिक भावों को ही बढ़ाना उचित है और सभी सांसारिक सम्वेदनों तथा रागों को या तो त्याग देना चाहिये या उन्हें अपनी सत्ता से निकाल फेंकना चाहिये । क्रियात्मक रूप में इसका अर्थ होगा--एक ऐसे संत या भक्त का धार्मिक जीवन जो भगवान् के साथ अकेला रहता है या केवल सार्वभौम ईश्वर-प्रेम में ही दूसरों से जुड़ा होता है अथवा, अधिक-से-अधिक, बाह्य संसार पर पवित्र, धार्मिक या भक्तिमूलक प्रेम के स्रोतों को प्रवाहित कर रहा होता है । परन्तु स्वयं धार्मिक भाव भी प्राणिक चेष्टाओं के उपद्रव और अन्धकार सें प्रायः निरन्तर ही आक्रान्त होता रहता है । यह बहुत बार या तो असंस्कृत होता है या संकुचित या मतांध, अथवा यह ऐसी चेष्टाओं से मिला रहता है जो आत्मिक पूर्णता के चिह्न नहीं होतीं । इसके अतिरिक्त, यह स्पष्ट है कि सन्तभाव की यह उत्कट प्रतिमूर्त्ति, जो कठोर पुरोहितीय पद्धति में जकड़ी हुई है, अपने सर्वोत्तम रूप में भी, पूर्णयोग के व्यापक आदर्श से बिल्कुल भिन्न वस्तु है । ईश्वर और जगत् के साथ एक अधिक व्यापक आन्तरात्मिक तथा भावमय सम्बन्ध जोड़ना अनिवार्य है जो अपने स्तर में अधिक गम्भीर तथा नमनीय हो, अपने व्यवहारों में अधिक व्यापक और सर्वस्पर्शी हो और अपने क्षेत्र के भीतर सारे-के-सारे जीवन को समा लेने में अधिक समर्थ हो ।

 

  मनुष्य के संसारी मन ने एक इससे भी अधिक व्यापक सूत्र प्रदान किया है जो

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नैतिक भावना पर आधारित है । संसारी मन भावों को दो श्रेणियों में विभक्त करता है, एक तो वे भाव हैं जो नैतिक भावना से अनुमोदित हैं और दूसरे वे जो अहम्मूलक हैं तथा स्वार्थपूर्ण रूप में सर्वसाधारण एवं लौकिक हैं । परार्थ, परोपकार, करुणा, शुभेच्छा, मानवहित, सेवा-कार्य, अथवा मनुष्य तथा प्राणिमात्र के मंगल के लिये प्रयत्न ही हमारा आदर्श होना चाहिये; इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य के अन्तर्विकास का पथ यह है कि वह अहंभाव की केंचुली उतारकर आत्म-त्याग की एक ऐसी आत्मा में विकसित हो जाय जो केवल या मुख्यतः दूसरों के लिये अथवा समूची मनुष्यजाति के लिये जीवन यापन करे । अथवा, यदि यह पथ इतना अधिक सांसारिक और मानसिक है कि हमारी सम्पूर्ण सत्ता इससे सन्तुष्ट नहीं हो सकती, -क्योंकि हमारे अन्दर एक अधिक गहरा धार्मिक तथा आध्यात्मिक स्वर भी है जिसे यह मानवहितवादी सूत्र विचार में नहीं लाता, --तो इसे एक धार्मिक-नैतिक आधार पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है, और वास्तव में इसकी मूल भित्ति थी भी ऐसी ही । एवं, हृदय की भक्तिद्वारा भगवान् या पुरुषोत्तम की आन्तरिक पूजा में या परम ज्ञान की खोज द्वारा अनिर्वचनीय के अनुसन्धान में एक और चीज भी सम्मिलित की जा सकती है । वह है परार्थ के कार्यों द्धारा पुरुषोत्तम की पूजा अथवा मनुष्यजातिके प्रति या अपने आस-पास के लोगों के प्रति प्रेम और सेवा के कार्यों के द्धारा अपनी सत्ता की तैयारी । सच पूछो तो इस धार्मिक-नैतिक भावनाद्धारा ही सार्वभौम हितकामना या विश्वजनीन करुणा के नियम का या पड़ोसी के प्रति प्रेम और सेवा के नियम का, अर्थात् वैदान्तिक, बौद्ध या ईसाई आदर्श का जन्म दुआ था । कारण, मानव-हित का आदर्श सब बन्धनों से मुक्त होकर मानसिक और नैतिक आचार--धर्म की सांसारिक पद्धति का उच्चतम स्तर तभी बन सकता था यदि वह एक प्रकार के सांसारिक शीतलीकरण (refrigeration) के द्वारा अपने अन्दर के धार्मिक तत्त्व की प्रचण्डता को शान्त कर देता । धार्मिक प्रणाली में कर्मों का यह नियम एक ऐसा साधन है जो अपना उद्देश्य सिद्ध होने पर लुप्त हो जाता है या फिर यह एक गौण विषय ही है । यह उस मतवाद का अंश है जिसके द्वारा मनुष्य देवत्व की पूजा और खोज करता है अथवा यह निर्वाण के मार्ग में आत्मा के उच्छेद का अन्तिम से पहला कदम है । सांसारिक आदर्श में इसे अपने-आपमें एक उद्देश्य का उच्च पद प्रदान किया जाता है । यह मानव-प्राणी की नैतिक पूर्णता का चिह्न बन जाता है, अथवा यह भूतल पर मनुष्य की एक अधिक सुखमय अवस्था या एक अधिक श्रेष्ठ समाज की किंवा जाति के एक अधिक एकीभूत जीवन की शर्त बन जाता है । परन्तु इनमें से कोई भी चीज आत्मा की उस मांग को पूरा नहीं करती जिसे पूर्णयोग हमारे सामने रखता है ।

 

   परार्थ, परोपकार, मानवहित और सेवा मानसिक चेतना के पुष्प हैं और, अपने सर्वोत्तम रूप में भी, ये सार्वभौम दिव्य प्रेम की आध्यात्मिक ज्योतिशिखा का मन

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द्वारा किया गया एक भावशन्य और निस्तेज अनुकरणमात्र हैं । ये वास्तव में मनुष्य को अहं-बुद्धि से मुक्त नहीं करते, बल्कि इसे केवल विस्तारित कर उच्चतर तथा विपुलतर तृप्ति प्रदान करते हैं । मनुष्य के प्राणिक जीवन एवं प्रकृति का परिवर्तन करने में क्रियात्मक रूप से अशक्त होते हुए ये केवल इसकी चेष्टा को कुछ संशोधित और शान्त करके इसके अपरिवर्तित अहंभावमय मूलतत्त्व पर लीपापोती कर देते हैं । अथवा यदि एक पूर्ण सत्य-संकल्प के साथ एवं अतिकठोरतापूर्वक इनका अनुसरण किया जाय तो इसके लिये हमारी प्रकृति के एक ही अंग को अतीव विस्तृत करने की जरूरत होगी । इस प्रकार की अति करने से विश्वमय और विश्वातीत सनातन की ओर हमारी व्यष्टिभूत सत्ता के अनेक पहलुओं के पूर्ण तथा समग्र दिव्य विकास के लिये कोई आधार नहीं रह जायगा । धार्मिक-नैतिक आदर्श भी पर्याप्त पथप्रदर्शक नहीं हो सकता, क्योंकि यह तो केवल धार्मिक और नैतिक आवेगों में पारस्परिक सहायता के लिये समझौता है या पारस्परिक रियायतों का शर्तनामा । धार्मिक आवेग साधारण मानव-प्रकृति की उच्चतर प्रवृत्तियों को अपने अन्दर समाकर पृथ्वी पर एक अधिक दृढ़ आधिपत्य जमाना चाहता है और नैतिक आवेग थोड़े-से धार्मिक उत्साह के द्वारा अपने-आपको अपनी मानसिक कठोरता और रूक्षता में से निकालकर ऊपर उठने की आशा करता हैं । इन दोनों के बीच शर्तनामा करने में धर्म अपने-आपको गिराकर मानसिक स्तर पर ले आता है और इस प्रकार उसे मन की स्वभावगत त्रुटियां तथा जीवन का परिवर्तन एवं रूपान्तर करने में इसकी अक्षमता उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त होती हैं । मन द्वंद्वों का क्षेत्र है और जैसे इसके लिये केवल सापेक्ष या भ्रम-मिश्रित सत्यों को छोड़ कर किसी निरपेक्ष सत्य को प्राप्त करना असम्भव है वैसे ही किसी निरपेक्ष शुभ की प्राप्ति भी असम्भव है । कारण, नैतिक शुभ तो अशुभ के सहायक और संशोधक के रूप में ही अपना अस्तित्व रखता है और अशुभ उसके साथ सदा लगा रहता है, मानो यह उसकी छाया, उसका पूरक एवं उसकी सत्ता का हेतु-सा हो । परन्तु आध्यात्मिक चेतना मानसिक स्तर से ऊंचे स्तर के साथ सम्बन्ध रखती है और वहां सब द्वंद्व समाप्त हों जाते हैं । वहां असत्य जब उस सत्य के सामने आता है जिसे मिथ्या बना कर तथा बलपूर्वक हथियाकर यह उससे लाभ उठाता था और अशुभ जब उस शुभ के सम्मुख खड़ा होता है जिसका यह विकार या मलिन प्रतिनिधि था, तब ये असत्य और अशुभ, पोषण न मिलने के कारण, विवश होकर क्षीण होने लगते हैं और अन्त में समाप्त हो जाते हैं । पूर्णयोग मानसिक तथा नैतिक आदर्शों के भंगुर सत्त्व का अवलंबन लेने से इन्कार करता है और इस क्षेत्र में अपना सारा बल तीन केंद्रीय प्रबल विधियों पर लगाता है--सच्ची अन्तरात्मा या चैत्य पुरुष को विकसित करना जिससे कि यह कामना की मिथ्या आत्मा का स्थान ले ले, मानव-प्रेम को दिव्य प्रेम में उदात्त करना और चेतना को उसके मानसिक स्तर से उठाकर

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उस आध्यात्मिक और अतिमानसिक स्तर में ले जाना जिसकी शक्ति से ही आत्मा और जीवन-शक्ति-दोनों अविद्या के आवरणों और छलछद्मों से पूर्णरूपेण मुक्त की जा सकती हैं ।

 

  अन्तरात्मा या चैत्य पुरुष का निज स्वभाव भागवत सत्य की ओर मुड़ना है, वैसे ही जैसे सूर्यमुखी का स्वभाव सूर्य की ओर मुड़ना है । जो कुछ भी दिव्य है या दिव्यता की ओर बढ़ रहा है उस सबको यह स्वीकार करता है और उससे चिपक जाता है और जो कुछ उस दिव्यता का विकार या इन्कार है तथा जो कुछ मिथ्या और अदिव्य है उस सबसे यह परे हटता है । परन्तु यह अन्तरात्मा पहले-पहल देवाधिदेव की एक चिनगारीमात्र और बाद में घने अन्धकार के बीच जल रही एक नन्हीं-सी ज्वाला ही होती है । अधिकांश में यह अपने आन्तर पावन धाम में छिपी रहती है और अपने-आपको आविर्भूत करने के लिये इसे मन, प्राणशक्ति और भौतिक चेतना से अनुरोध करना और उन्हें प्रेरित करना पड़ता है कि वे यथासम्भव उत्तम प्रकार से इसे प्रकट करें । साधारणतः यह अधिक-से-अधिक उनकी बहिर्मुखता को अपने अन्तःप्रकाश से आप्लावित करने तथा उनके अन्ध तमस् या उनके स्थूलतर मिश्रण को अपनी पावन सूक्ष्मता द्वारा कुछ कम करने में ही सफल होती है । यहां तक कि जब चैत्य पुरुष गठित हो जाता है और अपने-आपको जीवन में कुछ प्रत्यक्ष ढंग से प्रकट करने में समर्थ होता है तब भी यह इने-गिने लोगों के सिवा शेष सभी में सत्ता का एक छोटा-सा अंश ही होता है । प्राचीन ऋषि इसके लिये जिस रूपक का प्रयोग करते थे वह यह है कि  ''इस देह-संघात में यह मनुष्य के अंगूठे से अधिक बड़ा नहीं है ।'' यह शारीरिक चेतना के अन्धकार एवं अज्ञ क्षुद्रता और मन के भ्रान्त निश्चयों या प्राणिक प्रकृति की धृष्टता तथा उग्रता पर विजय पाने में सदा सक्षम नहीं होता । यह अन्तरात्मा मनुष्य के मानसिक, भावुक एवं सम्वेदनात्मक जीवन को, जैसा कि यह है, उसके सम्बन्धों, उसकी चेष्टाओं, उसके पालित-पोषित रूपों तथा आकारों के सहित स्वीकार करने के लिये बाध्य होती है । इसे इस सब सापेक्ष सत्य में से जो एक सतत मिथ्याकारी भ्रम से मिला हुआ है, इस प्रेम में से जो पाशविक शरीर के प्रयोजनों या प्राणिक अहंकार की तृप्ति में लगा दुआ है, औसत मनुष्य के इस जीवन में से जो देवाधिदेव की विरल तथा मन्द झांकियों तथा राक्षस और पिशाच की घोरतर बीभत्सताओं से बिंधा दुआ है, दिव्य तत्त्व को निर्मुक्त और संवर्धित करने के लिये यत्न करना होता है । यद्यपि इसका संकल्प सारतः निर्भ्रान्त होता है तो भी यह प्रायः अपने करणों के दबाव में आकर अपने कार्य में गलती कर जाती है, अशुद्ध वेदन प्राप्त कर लेती है, व्यक्ति के चुनाव में अशुद्धि करती है और अपने संकल्प के यथार्थ रूप के विषय में तथा अप्राप्त आन्तर आदर्श की अभिव्यक्ति की अवस्थाओं के सम्बन्ध में बरबस भूलें कर बैठती है । तथापि इसके अन्दर एक

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ऐसा भविष्य-ज्ञान है जो इसे तर्क-बुद्धि की अपेक्षा या ऊंची-से-ऊंची कामना की भी अपेक्षा अधिक अचूक पथप्रदर्शक बना देता है, प्रत्यक्ष भ्रान्तियों तथा स्खलनों के मध्य भी इसकी आवाज सूक्ष्म बुद्धि और विवेकपूर्ण मानसिक निर्णय की अपेक्षा अधिक अच्छा मार्गदर्शन कर सकती है । आत्मा की यह आवाज वह चीज नहीं हैं जिसे हम नैतिक भावना (Conscience) कहते हैं, वह तो केवल एक मानसिक स्थानापन्न-वस्तु है जो प्रायः ही रूढ़ तथा भ्रान्तिशील होती है । आत्मा की आवाज एक अधिक गम्भीर और बहुत ही कम सुनायी देनेवाली पुकार है । तथापि जब कभी यह सुनायी दे, इसका अनुसरण करना अत्यन्त बुद्धिमत्तापूर्ण होता है, यहां तक कि तर्कबुद्धि और बाह्य नैतिक उपदेश की सहायता से प्रत्यक्षतया सीधे रास्ते पर चलने की अपेक्षा अपनी आत्मा की पुकार के पीछे भटकना अधिक अच्छा होता है । परन्तु जब जीवन भगवान् की ओर मुड़ता है तभी अन्तरात्मा वास्तव में आगे आ सकती है और बाह्य अंगों पर अपनी शक्ति का बलपूर्वक प्रयोग कर सकती है । स्वयं भगवान् की चिनगारी होने से, भगवान् की ओर ज्योतिशिखा के रूप में बढ़ना ही इसका सच्चा जीवन और इसके अस्तित्व का वास्तविक हेतु है ।

 

   योग में एक विशेष अवस्था में पहुंचने पर जब कि मन पर्याप्त अचंचल हो जाता है और पहले की तरह पग-पग पर अपने मानसिक निश्चयों की क्षमता का आश्रय नहीं लेता, जब प्राण स्थिर और वशीभूत हो चुकता है और अपनी अविवेकपूर्ण इच्छाशक्ति, मांग और कामना के सम्बन्ध में पूर्ववत् निरन्तर आग्रहशील नहीं रहता, और जब शरीर को भी इतना बदल दिया जाता है कि वह अन्तरीय ज्वाला को अपनी बहिर्मुखता, जड़ता या निष्क्रियता के ढेर के नीचे पूरी तरह से दबा नहीं सकता, तब एक भीतर छुपी हुई और अपने विरल प्रभावों के समय ही अनुभूत होनेवाली अन्तरतम सत्ता सामने आने में समर्थ हों जाती है, यह शेष अंगों को भी आलोकित कर सकती है तथा साधना का नेतृत्व अपने हाथ में ले सकती है । इसका स्वभाव ही भगवान् या सर्वोच्च देव की ओर अनन्य अभिमुखता है, -एक ऐसी अनन्य अभिमुखता जो अनन्य होती हुई भी क्रिया तथा गति में नमनशील होती है । यह एकनिष्ठ बुद्धि की तरह किसी लक्ष्य की कट्टरता को अथवा एकनिष्ठ प्राणिक शक्ति की भांति किसी प्रभुत्वशाली विचार या आवेग की हठधर्मिता को जन्म नहीं देती । प्रतिक्षण और नमनशील असंदिग्धता के साथ यह सत्य की ओर ले जानेवाले मार्ग का निर्देश करती है, सही कदम और गलत कदम में सहज ही भेद जतलाती हे, दिव्य या ईश्वरमुखी गति को अदिव्य वस्तु के चिमटनेवाले मिश्रण से पृथक् कर देती है । इसका कार्य एक जाज्वल्यमान मशाल के समान है जो, प्रकृति में जो कुछ भी परिवर्तनीय है, उस सबको स्पष्ट दिखा देती है । इसमें संकल्प की एक अग्नि है जो पूर्णता के लिये और समस्त आन्तर तथा बाह्य सत्ता के रूपान्तरकारी परिवर्तन के लिये आग्रह करती है । यह सर्वत्र दिव्य

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सारतत्त्व ही देखती है और आवरण एवं आवरक आकारमात्र का परित्याग कर देती है । यह सत्य, संकल्पशक्ति, बल एवं प्रभुत्व तथा हर्ष, प्रेम एवं सौन्दर्य की आग्रहपूर्वक मांग करती है, स्थिर ज्ञान के उस सत्य की जो अज्ञान के केवल व्यावहारिक क्षणिक सत्य का अतिक्रमण कर जाता है, केवल प्राणिक सुख की नहीं, बल्कि आन्तरिक हर्ष की, -क्योंकि यह पतनकारी सुखों की अपेक्षा पवित्रीकारक कष्ट-क्लेश को कहीं अधिक पसन्द करती है, --उस प्रेम की नहीं जो अहंकारमय लालसा के खूंटे से बंधा दुआ है या जिसके पैर पंक में फंसे हुए हैं, बल्कि ऊंची उड़ान लेनेवाले प्रेम की, उस सौन्दर्य की जो सनातन का निरूपण करने के अपने पुरोहित-पद पर प्रतिष्ठित है तथा अहं के नहीं, बल्कि आत्मा के यन्त्रों के रूप में काम आनेवाले बल, संकल्प और प्रभुत्व की आग्रहपूर्वक मांग करती है । इसका संकल्प जीवन को दिव्य बनाने, उसके द्वारा उच्चतर सत्य को अभिव्यक्त करने और उसे भगवान् तथा सनातन सत्ता पर उत्सर्ग कर देने के लिये होता है ।

 

  परन्तु चैत्य पुरुष का अत्यन्त अन्तरंग स्वभाव है भगवान् को पाने के लिये पवित्र प्रेम, हर्ष और एकत्व द्वारा प्रवृत्त होना । भागवत प्रेम ही उसकी खोज का प्रथम विषय होता है, यही प्रेरक, उसका लक्ष्य तथा उसका सत्य का सितारा होता है जो हमारे अन्दर के नवजात देवत्व के नवोदित या अभी भी अन्धकारावृत पालने की प्रकाशमय गुहा पर चमक रहा होता है । अपने विकास और अपरिपक्व अस्तित्व की प्रथम दीर्घ अवस्था में वह पार्थिव प्रेम, वात्सल्य, मृदुता, सद्भावना, करुणा और दया की और समस्त सुन्दरता, कोमलता, सूक्ष्मता, प्रकाश, बल एवं साहस आदि उन सब चीजों की सहायता ले चुका होता है जो मानव-प्रकृति की स्थूलता तथा साधारणता को सूक्ष्म एवं पवित्र करने में सहायक हो सकती हैं । परन्तु वह जानता है कि अपने सर्वोत्तम रूप में भी ये मानवीय गतियां कितनी मिश्रित होती हैं, वह यह भी जानता है कि अपने निकृष्टतम रूप में ये कैसी पतित होती हैं और साथ ही अहं तथा आत्मवंचक कल्पना-जनित मिथ्यात्व की और आत्मगति के अनुकरण से लाभ उठानेवाले निम्नतर 'स्व' की मुहरछाप से कैसी चिह्नित होती हैं । आविर्भूत होते ही यह, एकदम, सभी पुराने सम्बन्धों तथा त्रुटिपूर्ण भावमय चेष्टाओं का उच्छेद करने और उनके स्थान पर प्रेम तथा एकत्व के महत्तर आध्यात्मिक सत्य को स्थापित करने के लिये उद्यत तथा उत्सुक होता है । यह मानवीय रीतियों और गतियों को फिर भी स्वीकार कर सकता है, किन्तु इस शर्त पर कि वे एकमेव देव की ओर ही मोड़ दी जायंगी । यह केवल उन्हीं सम्बन्धों को स्वीकार करता है जो सहायक होते हैं, -हृदय में गुरु के लिये मान, ईश्वरान्वेषकों का समागम, अज्ञानमय मानवीय और जीव-जन्तुमय जगत् तथा इसके प्राणियों के प्रति आध्यात्मिक करुणा, सौन्दर्य का वह हर्ष, सुख एवं सन्तोष जो सर्वत्र भगवान् के

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दर्शन करने से ही प्राप्त होता है । यह हृदय के गुह्य केंद्र में विराजमान अन्तर्यामी भगवान् के साथ प्रकृति का मिलन सम्पादित करने के लिये उसे भीतर निमज्जित करता है और जब ऐसी पुकार विद्यमान होगी तब अहंभाव की कोई भर्त्सना, परार्थ या कर्तव्य या परोपकार या सेवा के कोरे बाहरी बुलावे इसे धोखा नहीं देंगे अथवा इसे इसकी पवित्र अभीप्सा से और निज अन्तःस्थित दिव्यता के आकर्षण के प्रति इसकी आज्ञाकारिता से विमुख नही करेंगे । यह सत्ता को परात्पर आनन्दोद्रेक की ओर उठा ले जाता है और एकमेव सर्वोच्च देव तक पहुंचने के लिये अपनी ऊर्ध्वगति में संसार के समस्त अधोमुख आकर्षण को अपने पंखोंपर से झाड़ फेंकने के लिये उद्यत रहता है । पर साथ ही यह घृणा, कलह, विभाजन, अन्धकार और कलहशील अज्ञान के इस जगत् को मुक्त तथा रूपान्तरित करने के लिये उस परात्पर प्रेम तथा परम आनन्द का यहां आह्वान भी करता है । सार्वभौम भागवत प्रेम, व्यापक करुणा तथा तीव्र और अति महान् संकल्प की ओर यह अपने-आपको खोल देता है--सबके मंगल के लिये, उस जगन्माता के आलिंगन के लिये जो अपनी सन्तानों को सब ओर से आच्छादित किये हुई है या अपने चारों ओर एकत्र कर रही है, उस दिव्य अनुराग के संस्पर्श के लिये जिसने संसार का सार्वभौम अज्ञान से उद्धार करने के लिये रात्रि के भीतर डुबकी लगायी है । यह सत्ता के इन महान् एवं सुप्रतिष्ठित सत्यों के मानसिक अनुकरणों या किसी प्राणिक दुरुपयोग से आकृष्ट या भ्रान्त नहीं होता । यह अपनी अन्वेषक विद्युत्-दृष्टि से इन्हें प्रकाश में ले आता है और दिव्य प्रेम के सम्पूर्ण सत्य का नीचे आवाहन करता है इसलिये कि वह इन दूषित रचनाओं में सुधार करे, मानसिक, प्राणिक एवं दैहिक प्रेम को इनकी त्रुटियों या इनके विकारों से मुक्त करे और घनिष्ठता, एकता, आरोही हर्षावेश तथा अवरोही उल्लास का इनका प्रचुर भाग इनके सामने प्रकट करे ।

 

   प्रेम के और प्रेमसम्बन्धी कर्मों के सभी सच्चे सत्यों को चैत्य पुरुष उनके अपने स्थान में स्वीकार करता है । परन्तु इसकी ज्वाला सदा ऊपर की ओर आरोहण करती है और यह आरोहण को सत्य की निम्नतर से उच्चतर कोटियों की ओर अग्रसर करने को उत्कण्ठित होता है । कारण, यह जानता है कि सर्वोच्च सत्य की ओर आरोहण के तथा उस सर्वोच्च सत्य के अवरोहण के द्वारा ही प्रेम को शूली से मुक्त किया जा सकता है और सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है । शूली एक ऐसे भागवत अवतरण का चिह्न है जो जागतिक रूप-विकृति की आड़ी रेखा से अवरुद्ध और प्रतिबद्ध है । यह विकृति जीवन को दुःख और दुर्भाग्य की अवस्था में परिणत कर देती है । मूल सत्य की ओर आरोहण के द्वारा ही यह विकृति सुधारी जा सकती है और प्रेम के सभी कर्म तथा ज्ञान के और जीवन के सब कर्म भी पुन: दिव्य अर्थ प्राप्त करके सर्वांगीण आध्यात्मिक सत्ता के अंग बन सकते हैं । 

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अध्याय ६

 

यज्ञ का आरोहण (२)

 

 प्रेम के कर्म-प्राण के कर्म

 

चैत्य पुरुष को यज्ञ का नेता और पुरोहित बनाकर प्रेम, कर्म और ज्ञान का यश करने से यह प्राण भी अपने सच्चे आध्यात्मिक स्वरूप में रूपान्तरित किया जा सकता है । यदि ज्ञान-यज्ञ, यथाविधि करने पर, सहज ही एक ऐसी विशालतम और पवित्रतम हवि बन जाता है जो सर्वोच्च देव के प्रति अर्पित करने योग्य होती है, तो हमारी आध्यात्मिक पूर्णता के लिये प्रेम-यज्ञ भी इससे कुछ कम आवश्यक नहीं है । अपितु यह अपनी अनन्यता में अधिक तीव्र एवं समृद्ध होता है और ज्ञान-यज्ञ के समान ही विशाल तथा पवित्र भी बनाया जा सकता है । प्रेम-यज्ञ की तीव्रता में यह पावन विशालता तब आती है जब हमारे समस्त क्रिया-कलाप में एक दिव्य असीम आनन्द की भावना एवं शक्ति प्रवाहित होती है और हमारे जीवन का सम्पूर्ण वातावरण सर्वमय और परमोच्च एकमेव की अनन्य भक्ति से परिपूरित हो उठता है । प्रेम-यज्ञ अपनी पूर्णता की पराकाष्ठा को तब पहुंचता है जब सर्वमय भगवान् को अर्पित होकर यह सर्वांगीण, उदार और असीम हो जाता है तथा जब, पुरुषोत्तम की ओर उन्नीत होकर, यह वह दुर्बल, स्थूल तथा क्षणिक चेष्टा नहीं करता जिसे सामान्य लोग प्रेम कहते हैं, बल्कि एक विशुद्ध, बृहत् तथा गभीर एकीकारक आनन्द बन जाता है ।

 

   द्यपि परात्पर और विश्वव्यापी भगवान् के प्रति दिव्य प्रेम ही हमारे आध्यात्मिक जीवन का नियम होना चाहिये, तथापि यह वैयक्तिक प्रेम के अखिल रूपों का अथवा व्यक्त जगत् में एक आत्मा को दूसरी के प्रति आकृष्ट करनेवाले सम्बन्धों का नितान्त बहिष्कार नहीं करता । बल्कि, यह एक आन्तरात्मिक परिवर्तन की, अविद्या के आवरणों को दूर करने की और पुरानी निम्नतर चेतना को जारी रखनेवाली अहंभावमय मानसिक, प्राणिक और शारीरिक क्रियाओं को शुद्ध करने की मांग करता है । प्रेम की प्रत्येक गति को अध्यात्मभावापन्न होकर मानसिक अभिरुचि, प्राणिक आवेश या शारीरिक लालसा पर नहीं, बल्कि आत्मा द्वारा आत्मा के अंगीकार और प्रत्यभिज्ञान पर निर्भर करना होगा । प्रेम को उसके मूलभूत आध्यात्मिक तथा आन्तरात्मिक सारतत्त्व में पुनः प्रतिष्ठित करके मन-प्राण-शरीर को उस महत्तर एकत्व के अभिव्यंजक यंत्र एवं अंग बनाकर रखना होगा । इस परिवर्तन में वैयक्तिक प्रेम भी आप-से-आप ऊंचा उठ जायगा और उस दिव्य अन्तर्वासी के

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प्रति, जो प्राणिमात्र में रहनेवाले एकमेव के द्वारा अधिकृत मन, आत्मा और शरीर के अन्दर विराजमान है, दिव्य प्रेम में परिणत हो जायगा ।

 

   निःसन्देह, समस्त आराधन-रूप प्रेम के मूल में एक आध्यात्मिक शक्ति होती है । जब यह अज्ञानपूर्वक तथा ससीम पदार्थ को अर्पित किया जाता है तब भी विधि-विधान की दरिद्रता तथा उसके परिणामों की तुच्छता में से आध्यात्मिक वैभव की कुछ छटा दिखायी देती है । पूजात्मक प्रेम एक साथ ही अभीप्सा भी होता है और तैयारी भी । यह अपनी अविद्यागत क्षुद्र सीमाओं के भीतर भी एक साक्षात्कार की झलक प्राप्त करा सकता है जो अभी न्यूनाधिक अन्ध तथा आंशिक होने पर भी आश्चर्यजनक होता है । अतएव, ऐसे क्षण भी आते हैं जब हम नहीं, बल्कि एकमेव ही हम में प्रेम करता है और प्रेम का पात्र होता है और मानवीय अनुराग भी इस अनन्त प्रेम और प्रेमी की जरा-सी झांकी सें उदात्त एवं महिमान्वित किया जा सकता है । यही कारण है कि देवता एवं प्रतिमा की अथवा किसी आकर्षक व्यक्ति या श्रेष्ठ पुरुष की पूजा को तुच्छता की दृष्टि से नहीं देखना चाहिये, क्योंकि ऐसी पूजाएं सोपान होती हैं जिनके द्वारा मानवजाति अनन्त के आनन्दपूर्ण रागावेश और उल्लास की ओर गति करती है । ये अनन्त को सान्त करती हुई भी उसके रागावेश और उल्लास को हमारी अपूर्ण दृष्टि के समक्ष प्रकाशित करती हैं, जब कि अभी हमें निम्नतर सोपानों को, जो प्रकृति ने हमारी प्रगति के लिये बनाये हैं, प्रयोग में लाना तथा अपनी उन्नति के क्रमों को अंगीकार करना होता है । वस्तुत: हमारी भावमय सत्ता के विकास के लिये कई प्रकार की प्रतिमा-पूजाएं अनिवार्य हैं, अतएव ज्ञानीजन को तबतक किसी भी अवसर पर प्रतिमा को भंग करने के लिये उतावला नहीं होना चाहिये जबतक वह इसके स्थान पर इससे प्रतिरूपित सद्वस्तु को पुजारी के हृदय में प्रतिष्ठित न कर सके । अपिच, इनमें यह शक्ति इसलिये है कि इनके अन्दर सदैव कोई ऐसी चीज होती है जो इनके रूपों से बड़ी है, और यहां तक कि जब हम परमोच्च पूजा की अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं तब भी वह चीज बनी रहती है और इस पूजा का विस्तार या इसकी व्यापक समग्रता का अंग बन जाती है । सब रूपों और अभिव्यक्तियों से अतीत 'तत्' को जानकर भी यदि हम प्राणी और पदार्थ में, मनुष्य में और सम्पूर्ण जाति में, पशु पौधे और पुष्प में, अपने हाथों की कृति और प्रकृति की शक्ति में, जो अब हमारे लिये जड़ मशीनरी की अन्ध क्रिया नहीं रहती, वरन् विश्वशक्ति का मुखमंडल और बल-वैभव बन जाती है, भगवान् को स्वीकार नहीं कर सकते तो हमारा ज्ञान अभी हमारे अन्दर अपक्य है और हमारा प्रेम भी अपूर्ण है, क्योंकि वह सनातन इन चीजों में भी उपस्थित है ।

 

   परात्पर एवं परम सत् को किंवा अनिर्वचनीय को हमारे द्वारा अर्पित चरम

 

   १ परं भावम् । गीता--९-११.

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अवर्णनीय आराधना भी पूर्ण पूजा नही होती यदि हम मनुष्य, पदार्थ और प्रत्येक प्राणी में, जहां कहीं वह अपना दिव्यत्व प्रकट करता है अथवा जहां कहीं वह इसे छिपाता है वहां-वहां सर्वत्र उसे अपनी पूजा अर्पित नहीं करते । अवश्य ही, इसमें एक प्रकार का अज्ञान होता है जो हृदय को कैद कर रखता है, उसके भावों को विकृत कर डालता है और उसकी आहुति के मर्म को धुंधला कर देता है । समस्त आंशिक पूजा एवं समस्त धर्म, जो मानसिक या भौतिक प्रतिमा खड़ी करता है, इससे मोहित होकर इसके भीतरी सत्य को अज्ञान के किसी-न-किसी आवरण के द्वारा आच्छादित तथा रक्षित रखने का यत्न करता है और सत्य को उसकी मूर्त्ति में सहज ही खो बैठता है । परन्तु ऐकान्तिक ज्ञान का अभिमान भी एक अन्तराय और बाधा ही होता है । कारण, वैयक्तिक प्रेम के पीछे, इसके अज्ञ मानवीय रूप से ढका दुआ, एक रहस्य छुपा है जिसे मन पकड़ नहीं पाता । वह भगवान् के शरीर का रहस्य है, अनन्त के गुह्य रूप का मर्म है, जिसके पास हम हृदय के हर्षोन्माद तथा शुद्ध और उदात्त सम्वेदन की तीव्रता के द्वारा ही पहुंच सकते हैं । इसका आकर्षण, जो दिव्य मुरलीमोहन की पुकार और सर्व-सुन्दर की मोहक प्रेरणा है, गुह्य प्रेम एवं स्पृहा के द्वारा ही हमें प्राप्त हो सकता है तथा हमें अधिकृत कर सकता है । यह प्रेम एवं स्पृहा अन्त में रूप तथा रूपातीत को एक कर देती है, आत्मा तथा जड़ को अभिन्न कर देती है । इसी एकत्व को प्रेमगत भावना यहां अज्ञान के अन्धकार में खोज रही है और इसीको वह तब प्राप्त भी कर लेती है जब वैयक्तिक मानवी प्रेम स्थूल जगत् में प्रकट हुए अन्तर्यामी भगवान् के प्रेम में परिवर्तित हो जाता है ।

 

   जो बात वैयक्तिक प्रेम के सम्बन्ध में कही गयी है, वही सार्वभौम प्रेम के बारे में भी लता होती है । सहानुभूति, सद्भावना, सर्वजनीन शुभकामना और परोपकार, मानवजाति से प्रेम, प्राणिमात्र के प्रति प्रेम, हमारे चारों ओर के अखिल रूपों एवं आकृतियों का आकर्षण-इन सबके द्वारा ही आत्मा सब प्रकार से विशाल बनती है । फलत: मनुष्य मनोमय तथा भावमय रूप में अपने अहं की प्रथम सीमाओं से मुक्त हो जाता है । इस विशालता को फिर विश्वमय भगवान् के प्रति एकीकारक दिव्य प्रेम में ऊंचा उठाना आवश्यक होता है । प्रेम में परिसमाप्त आराधन, आनन्द में परिसमाप्त प्रेम--सीमातिशायी प्रेम, परात्पर में प्राप्त होनेवाले लोकोत्तर आनन्द का आत्म-परिवेष्टित हर्षावेश, जो भक्ति-मार्ग के अन्त में हमारी प्रतीक्षा करता है, -एक अधिक व्यापक परिणाम पैदा करता है, अर्थात् यह हमारे अन्दर भूतमात्र के प्रति सार्वभौम प्रेम एवं सत्मात्र का आनन्द सरसाता है । हम प्रत्येक पर्दे के पीछे भगवान् के दर्शन करते हैं, सभी गोचर पदार्थों में सर्व-सुन्दर का आत्मिक तौर पर आलिंगन करते हैं । उसकी असीम अभिव्यक्ति में विद्यमान सार्वभौम आनन्द

 

   १ मानुषीं तनुमाश्रितमू । गीता--९-११.

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हमार द्वारा प्रवाहित होता है, वह प्रत्येक रूप और गति को अपनी तरंग में समा लेता है, पर किसीमें बद्ध या स्थित नहीं हो जाता और सदैव एक महत्तर तथा पूर्णतर अभिव्यक्ति की ओर बढ़ता रहता है । यह सार्वभौम प्रेम मोक्षकारी है और साथ ही रूपान्तर करने में भी समर्थ है । आकृतियों और प्रतीतियों का विरोध-वैषम्य अब हृदय पर प्रभाव नहीं डालता, क्योंकि हृदय ने इन सबके पीछे विद्यमान एकमेव परम सत्य को अनुभव कर लिया है और इनका सम्पूर्ण प्रयोजन भी समझ लिया है । निःस्वार्थ कर्मी और ज्ञानी की आत्मा की निष्पक्ष समता दिव्य प्रेम के जादूभरे स्पर्श से आलिंगन करनेवाले हर्षावेश तथा शत-सहस्रदेहधारी दिव्यानन्द में परिवर्तित हो जाती है । सभी वस्तुएं दिव्य प्रियतम के असीम सुख-सदन में उसीकी मूर्त्तियां बन जाती हैं और अखिल गतियां उसीकी लीलाएं । यहां तक कि दुःख भी परिवर्तित हो जाता है और दुःखदायक वस्तुएं अपनी प्रतिक्रिया में तथा अपने सार रूप में भी बदल जाती हैं; दुःख के रूप झड़ जाते हैं, उनके स्थान पर आनन्द के रूप उत्पन्न हो जाते हैं ।

 

   चेतना के परिवर्तन का स्वरूप अपने सार रूप में यहीं है । यह परिवर्तन स्वयं जीवन को भी दिव्य प्रेम और आनन्द के महिमान्वित क्षेत्र में परिणत कर देता है । अपने सार-तत्त्व में यह जिज्ञासु के लिये तब आरम्भ होता है जब वह साधारण स्तर से आध्यात्मिक में पदार्पण करता है और संसार पर तथा अपने-आप और दूसरों पर एक प्रकाशयुक्त दृष्टि एवं अनुभूतिवाले नूतन हृदय से दृष्टिपात करता है । यह अपनी पराकाष्ठा को तब पहुंचता है जब आध्यात्मिक स्तर अतिमानसिक भी बन जाता है । वहां हम इसे केवल सार रूप में ही अनुभव नही करते, बल्कि समस्त आन्तर जीवन तथा सम्पूर्ण बाह्य सत्ता का रूपान्तर करनेवाली शक्ति के रूप में इसका सक्रिय अनुभव भी प्राप्त कर सकते हैं ।

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   प्रेम की आत्मा और प्रकृति का मिश्रित एवं सीमित मानवी भाव के स्वरूप से परम तथा सर्व-समालिंगी दिव्य अनुराग में यह जो रूपान्तर होता है इसे स्वीकार करना अनेक पार्थिव बन्धनों में फंसे मानवी संकल्प के लिये कठिन भले ही हो, पर मन के लिये इसे कल्पना में लाना नितान्त कठिन नहीं है । हां, जब हम प्रेम के कर्मों पर आयेंगे तब एक प्रकार की समस्या खड़ी हो सकती है । जैसे ज्ञानमार्ग की एक अतीव अतिरंजित पद्धति में उस समस्या की ग्रंथि को ही काट डाला जाता है वैसे ही यहां भी समस्या की ग्रंथि को काट डालना और सांसारिक कर्म का परित्याग करके उसके असंस्कृत रूपों के साथ प्रेम की भावना को एकीभूत करने की कठिनाई से भाग जाना सम्भव है । हमारे सामने यह मार्ग खुला है कि हम बाह्य जीवन और कर्म से सर्वथा हटकर हृदय को नीरवता में भगवान् का आराधन

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करते हुए एकाकी रहें । यह भी सम्भव है कि हम केवल वही कर्म अपनावें जो या तो स्वतः भगवत्प्रेम को प्रकट करते हैं, -जैसे प्रार्थना, स्तुति एवं प्रतीकात्मक पूजा-पाठादिरूप अनुष्ठान, --या ऐसी अंगभूत क्रियाएं लें जो इन चीजों से सम्बद्ध होकर इनकी भावना को कछ-कछ धारण कर सकती हैं, और अन्य सब कर्मों को एक तरफ छोड़ दें; आत्मा सन्त और भक्त के आत्म-मग्न या परमात्म-केंद्रित जीवन में अपनी अन्तरीय अभिलाषा पूरी करने के लिये संसार-पथ से हट जाय । टुसरी तरफ, यह भी सम्भव है कि जीवन के किवाड़ अधिक विशालतया खोल दिये जायं और अपना भगवत्प्रेम अपने अड़ोस-पड़ोस के लोगों के प्रति तथा मानवजाति के प्रति सेवा-कार्यों में लगाया जाय । हम मनुष्य तथा पशु एवं प्रत्येक प्राणी के प्रति विश्वप्रेम, शुभकामना एवं परोपकार और दान तथा सहायता के कार्य कर सकते हैं, एक प्रकार की आध्यात्मिक उमंग के द्वारा उन्हें रूपान्तरित भी कर सकते हैं, कम-से-कम उनके निरे नैतिक बाह्य रूप के भीतर आध्यात्मिक प्रेरक-भाव की एक महत्तर शक्ति का प्रवेश करा सकते हैं । आज के धार्मिक विचारक प्रायः इसी समाधान का समर्थन करते हैं, और हम देखते हैं कि इसीको वे सर्वत्र ईश्वरान्वेषक के या दिव्य प्रेम तथा ज्ञान पर अपने जीवन को आधारित करनेवाले मनुष्य के उपयुक्त कर्म-क्षेत्र के रूप में विश्वासपूर्वक प्रस्तुत कर रहे हैं । परन्तु पार्थिव जीवन के साथ भगवान् के पूर्ण मिलन के लिये प्रचालित पूर्णयोग इस संकुचित क्षेत्र में ही नहीं रुक सकता, न ही वह इस मिलन को भूतदया तथा परोपकार के नैतिक नियम की क्षुद्रतर चारदीवारी के अन्दर बन्द ही कर सकता है । इसमें तो कर्ममात्र को भगवज्जीवन का अंग बनाना होगा, केवल प्रेम और परोपकारमय सेवा के कर्मों को ही नहीं, बल्कि ज्ञान के कर्मों को, बल, उत्पादन एवं सर्जन के कर्मों को, हर्ष, सौन्दर्य एवं अध्यात्मसुख के कर्मों और संकल्प, प्रयत्न एवं सामर्थ्य के कर्मों को भी भगवज्जीवन के अंग बनाना होगा । ये सब कार्य करने का इस योग का तरीका बाह्य और मानसिक नहीं, बल्कि आंतरिक और आध्यात्मिक होगा । इसी आशय से यह सभी कर्मों में, वे चाहे जो भी हों, दिव्य प्रेम एवं भजन-पूजन की भावना और भगवान् एवं उसके सौन्दर्य में प्रसन्नता की भावना ले आयेगा, ताकि यह समस्त जीवन को आत्मा के भगवत्-प्रेममय कर्मों के यज्ञ तथा इसकी सत्ता के स्वामी की पूजा के रूप में परिणत कर सके ।

 

   इस प्रकार अपने कर्मों की भावना से मनुष्य अपने जीवन को पुरुषोत्तम के प्रति पूजात्मक कर्म में परिवर्तित कर सकता है । गीता में कहा गया है कि, ''जो मुझे भक्तिभरे हृदय से पत्र-पुष्प या फल-तोय अर्पित करता है, उसकी वह भक्ति-भेंट मैं स्वीकार करता हूं और उसका उपभोग करता हूं । ''  यह बात नहीं कि कोई

 

    १ पत्र पुष्य फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।

     तदहं भक्त्पुपहृतमश्रामि प्रयतात्मना । गीता ९--२६

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समर्पित बाहरी भेंट ही इस प्रकार प्रेम और भक्तिपूर्वक दी जा सकती है, बल्कि हमारे सब विचार, हमारे सब भाव और सम्वेदन तथा हमारी सब बाह्य चेष्टाएं और उनके रूप एवं विषय भी सनातन के प्रति ऐसे उपहार हो सकते हैं । यह ठीक है कि एक विशेष कार्य का या कार्य के किसी विशेष रूप का अपना महत्त्व होता है, यहां तक कि भारी महत्त्व होता है, पर मुख्य वस्तु तो कार्यगत भावना ही है । कार्य जिस भावना का प्रतीक या मूर्त प्रकाश होता है वही इसे इसका सम्पूर्ण मूल्य प्रदान करती है तथा इसका मर्म बताकर इसका समर्थन करती है । अथवा यह कहा जा सकता है कि दिव्य प्रेम और पूजा के पूर्ण कर्म में तीन अवयव होते हैं जो एक ही अखण्ड अवयवी की अभिव्यक्तियां होते हैं, --कर्म में भगवान् की क्रियात्मक पूजा, कर्म के बाह्य रूप में किसी दिव्य दृष्टि और जिज्ञासा को या भगवान् के साथ किसी सम्बन्ध को प्रकट करनेवाला पूजा-प्रतीक, और तीसरा हृदय, अन्तरात्मा और आत्मा में एकत्व या एकत्वानुभूति के लिये आन्तरिक परानुरक्ति और अतिस्पृहा । इस तरीके से ही जीवन पूजा में परिवर्तित किया जा सकता है, --इसके पीछे परात्पर तथा सार्वभौम प्रेम की भावना और एकत्व की खोज एवं अनुभूति को प्रतिष्ठित करके, प्रत्येक कार्य को ईश्वरोन्मुख भाव का या भगवान् के साथ सम्बन्ध का प्रतीक या अभिव्यक्ति बनाकर, जो कुछ हम करें उस सब को पूजा के कार्य में तथा आत्मा के अन्तर्मिलन, मन की समझ, प्राण के आज्ञापालन और हृदय के समर्पण के कार्य में परिणत करके इसे पूजा का रूप दिया जा सकता है ।

 

    किसी भी पूजाविधि में प्रतीक, अर्थपूर्ण विधि-विधान या अभिव्यंजक प्रतिमा केवल गतिशील और समृद्धिवर्धक सौन्दर्यात्मक तत्त्व ही नहीं होती, अपितु एक ऐसा भौतिक साधन भी होती है जिससे मानव प्राणी अपने हृदय के भाव और अभीप्सा को बाहरी तौर पर सुनिश्चित, पुष्ट तथा क्रियाशील बनाने लगता है । क्योंकि, द्यपि आध्यात्मिक अभीप्सा के बिना पूजा निरर्थक और वृथा है, तथापि अभीप्सा भी कर्म और रूप के बिना एक शरीर-रहित शक्ति होती है और जीवन के लिये पूरी तरह फलप्रद नहीं हो सकती । परन्तु दुर्भाग्यवश मानव-जीवनगत सभी रूपों का यहीं अन्त बदा है कि वे स्थिर आकार में बंधकर निरे लोकाचारात्मक और, परिणामत:, निर्जीव हो जाते हैं । यद्यपि पूजापद्धति तथा रूप अपनी शक्ति को उस मनुष्य के लिये सदैव सुरक्षित रखते हैं जो उनके आशय में अब भी पैठ सकता है, तथापि अधिकतर लोग विधि-विधान को यान्त्रिक रीति-रस्म के रूप में तथा प्रतीक को निर्जीव चिह्न के रूप में बरतने लगते हैं । यह चीज धर्म की आत्मा का हनन कर डालती है, इसलिये अन्त में पूजा-विधि और रूप को बदलना या बिल्कुल छोड़ देना पड़ता है । यहां तक कि कुछ ऐसे लोग भी पाये जाते हैं जिनकी दृष्टि में समस्त पूजा-विधि और रूप इसी कारण संदिग्ध और सदोष होते हैं; किन्तु ऐसे तो विरले ही होते हैं जो बाह्य प्रतीकों की सहायता के बिना काम चला सकें । 

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और फिर, मानव-प्रकृति का एक दिव्य तत्त्व-विशेष भी अपनी आध्यात्मिक तृप्ति की पूर्णता के लिये सदैव इनकी अपेक्षा रखता है । सदा ही प्रतीक वहीं तक युक्तियुक्त होता है जहां तक वह यथार्थ एवं सत्य-शिव-सुन्दर होता है, और कोई यहां तक भी कह सकता है कि जो आध्यात्मिक चेतना रसग्राही या भावुक तत्त्व से सर्वथा रहित होती है वह पूर्ण रूप में या कम-से-कम सर्वांगीण रूप में आध्यात्मिक नहीं होती । आध्यात्मिक जीवन में कर्म का आधार आध्यात्मिक चेतना होती है जो नित्य-स्थायिनी और नवस्फूर्त्तिदायिनी है, अपने को नित नये रूपों में प्रकट करने को प्रेरित होती है अथवा सदैव किसी रूप के सत्य को आत्मा के प्रवाह के द्वारा पुन: नूतन कर सकती है । अपने को इस प्रकार प्रकट करके हर एक काम को आत्मा के किसी सत्य का जीवन्त प्रतीक बनाना ही इसकी सर्जनशील दृष्टि और प्रेरणा का वास्तविक स्वभाव है । इसी भाव से आत्म-जिज्ञासु को जीवन के साथ बरतना होगा, उसका रूप बदलना होगा तथा उसे उसके सारतत्त्व में महिमान्वित करना होगा ।

 

   परमोच्च दिव्य प्रेम एक सर्जनशील शक्ति है । यद्यपि यह स्वयं अपने में शान्त और निर्विकार रह सकता है तो भी यह बाह्य रूप और प्राकट्य में रस लेता है और मूक तथा निराकार देवत्व बने रहने के लिये बाधित नहीं है । यहां तक कहा गया है कि स्वयं यह सृष्टि भी प्रेम का कार्य थी या कम-से-कम एक ऐसे क्षेत्र का निर्माण थी जिसमें भागवत प्रेम अपने प्रतीकों का आविष्कार करके अपने को परस्पर-व्यवहार तथा आत्मदान के कर्म में चरितार्थ कर सके । यह सृष्टि का आदि स्वरूप भले ही न हो किन्तु यह इसका अन्तिम लक्ष्य और आशय सहज में हो सकता है । यह ठीक है कि इस समय सृष्टि का स्वरूप ऐसा नहीं प्रतीत होता, परन्तु इसका कारण यह है कि यद्यपि भागवत प्रेम संसार में है और प्राणियों के इस सब विकास को धारण कर रहा है तो भी जीवन का उपादान और कार्य-व्यवहार तो अहंमूलक रचना तथा भेदभावना से ही गठित है, वह एक ऐसे संघर्ष से निर्मित है जो हमारे जीवन और चेतना को, निष्प्राण तथा निष्चेतन प्रकृति के इस प्रत्यक्षत: - उदासीन, निष्ठुर, यहां तक कि शत्रुरूप जगत् में, अपने अस्तित्व तथा स्थायित्व के लिये करना पड़ता है । इस संघर्ष के गोलमाल और अन्धकार में सबकी एक-दूसरे से मुठभेड़ होती है, प्रत्येक की इच्छा होती है कि वह अपनी निजी अस्ति का अधिकार प्रथम और प्रधान जतावे और केवल गौण रूप में ही अपने-आपको दूसरों में तथा बहुत थोड़ा-सा दूसरों के लिये माने । यहां तक कि मनुष्य का परार्थ-भाव भी वास्तव में स्वार्थपूर्ण रहता है और वह ऐसा रहेगा ही जब तक कि आत्मा को दिव्य एकत्व का रहस्य प्राप्त नहीं हो जाता । उस एकत्व का परम उद्गम ढूंढ़ने, उसे अन्दर से निकाल लाने और बाह्य जीवन के परले छोरों तक प्रसारित करने के लिये ही योग का अभ्यास किया जाता है । कर्ममात्र तथा सर्जनमात्र को पूजा,

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उपासना और यज्ञ के ही एक रूप तथा प्रतीक में बदल जाना होगा । इसे अपने अन्दर एक ऐसी चीज धारण करनी होगी जो इस पर उत्सर्ग की और भागवत चेतना के ग्रहण एवं प्रतिरूपण की तथा प्रियतम की सेवा, आत्म-दान एवं समर्पण की छाप लगा दे । ऐसा हमें यथासम्भव कर्म के बाह्य शरीर और रूप में भी करना होगा; इसकी भीतरी उमंग में तो ऐसा सदा ही करना होगा, -ऐसी तीव्रता के साथ जिससे पता चले कि यह हमारी आत्मा से सनातन की ओर बहनेवाला एक प्रवाह है

 

   कर्ममय आराधन स्वतः एक महान्, पूर्ण एवं प्रभावशाली यज्ञ होता है जो अपने-आपको अनेकगुना करके एकमेव का ज्ञान प्राप्त करता है और भगवान् के तेजःपुंज के प्रसार को सम्भव बनाता जाता है । कारण, भक्ति अपने-आपको कर्म में मूर्त्त करके न केवल अपने मार्ग को विशाल, समृद्ध और शक्तिशाली बनाती है, बल्कि इस जगत् के अन्दर कर्मों के कठोरतर पथ में हर्ष तथा प्रेम का एक दिव्य-रसमय तत्त्व भी ले आती है । भक्तिमार्ग के प्रारम्भ में इस तत्त्व का प्रायः अभाव भी होता है, क्योंकि तब केवल तपोमय आध्यात्मिक संकल्प ही संघर्षमय उन्नतिकारी प्रयास के साथ एक सीधी चढ़ाई चढ़ता है और हृदय अभी या तो प्रसुप्त होता है या मूक रहने को बाध्य होता है । यदि दिव्य प्रेम की भावना प्रवेश पा सके तो पथ की कठोरता कम पड़ जायगी, तनाव हल्का हों जायगा, कठिनाई तथा संघर्ष के गर्भ में भी माधुर्य एवं हर्ष उपस्थित रहेगा । निश्चय ही, हमारे समस्त संकल्पों, कर्मों और चेष्टाओं का परम देव के प्रति अनिवार्य समर्पण पूरी तरह से संपन्न और सफल तभी होगा जब कि वह एक प्रेममय समर्पण हो । यदि समस्त जीवन इस पूजा-विधि में परिणत हो जाय, यदि सभी कर्म भगवान् के प्रेम में तथा संसार और इसके प्राणियों के प्रेम में किये जायें और सब प्राणी ऐसे दिखें और लगें मानों वे नाना छद्म-रूपों में अभिव्यक्त भगवान् ही हों तो इस भाव के बल पर सारा जीवन और कर्म पूर्णयोग के अंग बन जायेंगे ।

   

    यज्ञ का असली प्राण है--हृदय की भक्ति का आन्तरिक अर्पण और यज्ञ के प्रतीक एवं उसकी क्रिया में अर्पण की भाव-भावना । यदि अर्पण को पूर्ण और विराट् बनाना है, तो सब भावों को भगवान् की ओर मोड़ना ही होगा । यह मानव-हृदय की शुद्धि का एक अत्यन्त तीव्र उपाय है । कोई भी नैतिक या सौन्दर्यबोधात्मक शुद्धीकरण अपने अपूर्ण बल और ऊपरी दबाव को लिये हुए इसके समान प्रभावशाली कभी नहीं हो सकता । अन्तर में एक चैत्य अग्नि प्रज्ज्वलित करनी होगी जिसमें प्रत्येक चीज भगवान् के नाम से होम देनी होगी । उस अग्नि में सब भाव अपने स्थूलतर अंशों को त्याग देने के लिये बाधित किये जायंगे, जो भाव अदिव्य विकार हैं वे राख कर दिये जायंगे, और अन्य सब भाव भी अपनी न्यूनताएं त्यागते जायंगे जब तक कि विशालतम प्रेम और निर्मल दिव्य

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आनन्द की भावना ज्वाला और धूम और धूप में से उद्भूत नहीं हो उठेगी । इस प्रकार एक दिव्य प्रेम उदित होगा और उस प्रेम को जब एक सक्रिय विश्वव्यापिनी समता के साथ, मनुष्य एवं प्राणिमात्र में विराजमान भगवान् के प्रति एक अन्तरीय भाव के रूप में विस्तारित किया जायगा, तो वह जीवन की पूर्णता की सिद्धि के लिये अधिक समर्थ होगा और एक अधिक सच्चा साधन होगा । भ्रातृभाव का निर्बल मानसिक आदर्श कभी उसकी बराबरी नहीं कर सकता । कर्मों में प्रवाहित इस प्रकार का प्रेम ही जगत् में समस्वरता और इसके सभी प्राणियों में सच्ची एकता सम्पादित कर सकता है । इसके सिवा अन्य सभी उपाय इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये व्यर्थ के प्रयास होंगे जब तक कि दिव्य प्रेम इस पार्थिव प्रकृति में प्रकट हुई अभिव्यक्ति के सार के रूप में अपने-आपको प्रकट नहीं कर देता ।

 

   यहीं हमारे अन्तःस्थ निगूढ़ चैत्य पुरुष का यज्ञ के अग्रणी के रूप में आविर्भाव अत्यन्त महत्त्व रखता है । यह अन्तरतम पुरुष ही कर्म में आत्मा का पूर्ण बल तथा प्रतीक में सारतत्त्व ला सकता है । यही प्रतीक की सनातन नूतनता, सत्यता और सुन्दरता का विश्वास दिला सकता है, तब भी जब कि आध्यात्मिक चेतना अपूर्ण होती है; यह उसे मृत रूप या दूषित तथा दूषक जादू-टोना बन जाने से बचा सकता है । यही कर्म के लिये प्रतीक की शक्ति को इसके आशय सहित सुरक्षित रख सकता है । हमारी सत्ता के अन्य सभी अंग--मन, प्राण-शक्ति, भौतिक या शारीरिक चेतना--इतने अधिक अविद्या के वश में हैं कि ये विश्वस्त यन्त्र नहीं हो सकते, किसी पथ-प्रदर्शक या निर्भ्रान्त आवेग के स्रोत बनना तो और भी दूर की बात है । इन अंगों या शक्तियों के प्रेरक भाव और कर्म का बहुत बड़ा भाग सदैव प्रकृति के पुराने नियम, धोखा देनेवाली मीठी गोलियों तथा रुचिकर निम्न गतियों से ही चिपटा रहता है । ये उन वाणियों और शक्तियों का, जो हमें अपनी ओर पुकारती हैं और प्रेरित करती हैं कि हम अपने को अतिक्रान्त करके महत्तर सत्ता तथा विशालतर प्रकृति में रूपान्तरित कर दें, अनिच्छा, धमकी या विद्रोह या बाधक जड़ता के द्वारा सामना करती हैं । इनके अधिकतर भाग का प्रत्युत्तर या तो विरोध-रूप होता है अथवा मर्यादित या समयानुकूल स्वीकृति-रूप । यदि ये पुकार के पीछे चलती भी हैं तो भी, जान-बूझकर नहीं तो यान्त्रिक अभ्यासवश, ये आध्यात्मिक क्रिया के अन्दर अपनी स्वभावगत दुर्बलताएं तथा भ्रान्तियां ले आने में लग जाती हैं । प्रतिक्षण ही ये आन्तरात्मिक तथा आध्यात्मिक प्रभावों से स्वार्थपूर्ण लाभ उठाने के लिये प्रेरित होती हैं । उन प्रभावों से हमारे भीतर जो बल, हर्ष या प्रकाश आता है उसे ये निम्नतर प्राणिक हेतु के लिये प्रयुक्त करती हुई पकड़ी जा सकती हैं । बाद में, जब जिज्ञासु विश्वातीत, विश्वव्यापी या अन्तर्यामी भागवत प्रेम की ओर खुल जाता है तब भी, यदि वह इसे जीवन के अन्दर उंडेलने का यत्न करता है, तो उसे इन निम्नतर प्रकृति-शक्तियों के अन्धकार तथा विकार पैदा करनेवाले बल

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का सामना करना पड़ता है । सदैव ये गइढों की ओर घसीटती हैं, उस उच्चतर तीव्रता में अपने पतनकारी तत्त्व ढार देती हैं, उतरती हुई शक्ति को अपने लिये तथा अपने स्वार्थों के लिये पकड़ लेने की चेष्टा करती हैं और इसे कामना तथा अहंकार का एक बढ़ा-चढ़ा मानसिक, प्राणिक या भौतिक साधन बनाकर पतित कर डालती हैं । भागवत प्रेम तो सत्य और प्रकाश के एक नये स्वर्ग तथा नये संसार की सृष्टि करनेवाला प्रेम है, किन्तु ये उलटे उसीको यहां बन्दी बना लेना चाहती हैं, इसलिये कि वह पुराने संसार की दलदल पर सोने का मुलम्मा चढ़ाने के लिये और भावोद्दीपक प्राणिक कल्पना तथा मानसिक आदर्शभूत मनोरथ-सृष्टि के पुराने मलिन मिथ्या आकाशों को अपने नीले-गुलाबी रंग से रंगने के लिये एक बड़ी भारी अनुमति तथा गौरवप्रट एवं उन्नायक बल बनकर रहे । यदि ऐसा मिथ्याकरण होने दिया गया तो उच्चतर प्रकाश, बल और आनन्द लौट जायंगे और हम निम्नतर अवस्था में पतित हो जायंगे; अथवा हमारी उपलब्धि एक अरक्षित पड़ाव और मिश्रण तक ही सीमित रहेगी या वह एक हीनतर हर्षावेग से ढक जायगी, यहां तक कि उसमें डूब ही जायगी, पर वह हर्षावेग सच्चा आनन्द नहीं होगा । यही कारण है कि भागवत प्रेम समस्त सृष्टि का हृदय और सभी उद्धारक तथा सर्जक शक्तियों में अत्यन्त बलशाली होता हुआ भी पार्थिव जीवन में बहुत ही कम सामने उपस्थित, सब से कम सफल रक्षक एवं सब से कम सर्जक रहा है । मानव-प्रकृति इसे इसकी शुद्धावस्था में सहन करने में असमर्थ रही है, कारण यही है कि यह सभी दिव्य बलों में सर्वाधिक प्रबल, पवित्र, विरल और तीव्र है । जो थोड़ा-सा ग्रहण किया जा सकता था उसे भी तुरन्त बिगाड़कर प्राणगत अतिशय पुण्याडम्बर, दुर्बल धार्मिक या नैतिक भावुकता, प्रफुल्ल मन या उत्तेजना-कलुषित जीवन-आवेग के ऐंद्रिय या यहां तक कि लंपट प्रेमसम्बन्धी गुह्यवाद का रूप दे दिया गया है । जो गुह्य ज्वाला अपनी होम-शिखाओं से संसार का नव-निर्माण कर सकती है, यह विकृत प्रेम उसे आश्रय देने में असमर्थ है और इस कमी की पूर्त्ति उक्त मिथ्याचारों से की गयी है । केवल अन्तरतम हृत्पुरुष ही अनावृत और अपनी पूरी शक्ति के साथ उदित होकर हमारी जीवनयात्रा के यज्ञ को इन गर्त्तजालों में से अक्षत ले चल सकता है । प्रतिक्षण यह मन और प्राण के असत्यों को पकड़ता है, उनकी पोल खोलता तथा उन्हें हटाता है, दिव्य प्रेम एवं आनन्द के सत्य को दृढ़तापूर्वक अधिकृत करता है और उसे मन की उमंगों के उत्तेजन से तथा मार्गभ्रष्ट करनेवाली प्राण-शक्ति के अन्ध-उत्साह से पृथक् करता है । परन्तु मन, प्राण और स्थूल सत्ता में जो भी चीजें अपने अन्तःसार की दृष्टि से सत्य हैं उन सबका यह उद्धार करता है और उन्हें तब तक यात्रा में अपने संग लिये चलता है जब तक कि वे भावना में नवीन तथा आकृति में उदात्त होकर शिखरों पर आरोहण करती चल सकती हैं ।

 

   परन्तु अन्तरतम हृत्युरुष का पथप्रदर्शन तब तक पर्याप्त नहीं प्रतीत होता जब

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तक यह अपने-आपको निम्नतर प्रकृति के इस ढेर में से निकालकर उच्चतम आध्यात्मिक स्तरों तक उठाने में सफल नहीं हो जाता और इहलोक में अवतीर्ण वह दिव्य स्फुलिंग एवं ज्वाला अपने-आपको अपने मूल, तेजोमय आकाश के साथ फिर से मिला नहीं देती । क्योंकि अब यह वह आध्यात्मिक चेतना नहीं है जो अपूर्ण है तथा मानव मन, प्राण एवं शरीर के घने कोषों में अपने-आपको खोये हुए है, अब तो यह वह पूर्ण आध्यात्मिक चेतना है जो अपनी पवित्रता, स्वतन्त्रता तथा तीव्र विशालता से सम्पन्न है । जिस प्रकार इसमें नित्य ज्ञाता ही हमारे अन्दर ज्ञाता तथा ज्ञानमात्र का प्रेरक एवं प्रयोक्ता बन जाता है, उसी प्रकार वह नित्य आनन्द-स्वरूप ही हमारा उपास्य देव हो जाता है और वह अपनी सत्ता तथा आनन्द के इस सनातन दिव्य अंश को, जो बाहर विश्व की लीला में संलग्न है, अपनी ओर आकर्षित करता है, वह अनन्त प्रेमी ही अपनेको अपनी असंख्य व्यक्त आत्माओं के अन्दर मधुर एकत्व में उंडेल देता है । संसार में जो भी सौन्दर्य है वह सब तब इस प्रियतम का सौन्दर्य हो जाता है; सौन्दर्य के सभी रूपों को उस शाश्वत सौन्दर्य के प्रकाश के तले स्थित होकर अनावृत दिव्य पूर्णता के एक उन्नायक तथा रूपान्तरकारी बल के आगे आत्मसमर्पण करना पड़ता है । तब समस्त आनन्द और हर्ष सर्वानन्दमय के ही हों जाते हैं; भोग, सुख या आराम के सभी हीनतर रूपों को इसकी बाढ़ों या धाराओं के वेग का आघात सहन करना पड़ता है । इसके आकर्षक दबाव के नीचे वे या तो असमर्थ वस्तुओं की तरह चूर-चूर हो जाते हैं या वे अपने को दिव्य आनन्द के रूपों में परिणत करने को बाध्य होते हैं । इस प्रकार वैयक्तिक चेतना के लिये एक ऐसी शक्ति प्रकट हो जाती है जो इसके अन्दर अज्ञान के मूल्यों की न्यूनताओं और हीनताओं का प्रभावपूर्वक प्रतिकार कर सकती है । अन्त में, सनातन के अपने निज प्रेम और हर्ष की अतिशय वास्तविकता तथा सघन मूर्त्तता को जीवन में उतार लाना सम्भव होने लगता है । अथवा, कम-से-कम हमारी अध्यात्म-चेतना के लिये अपनेको मन से अतिमानसिक ज्योति, शक्ति और विशालता में उठा ले जाना सम्भव हो जाता है । अतिमानसिक विज्ञान के प्रकाश और बल में ही दिव्य आत्म-प्रकटन तथा आत्म-संगठन की शक्ति का तेज और हर्ष विद्यमान हैं । वही अज्ञान के जगत् का परित्राण कर सकते हैं और वही आत्मा के सत्य की प्रतिमा में इसका नवसर्जन कर सकते हैं ।

 

   अतिमानसिक विज्ञान में ही आन्तरिक आराधना की कृतार्थता, परिपूर्ण उच्चता तथा सर्वसमालिंगी विस्तीर्णता है, गभीर और पूर्ण मिलन है, परम ज्ञान के बल और हर्ष को वहन करनेवाले प्रेम के प्रज्वलित पंख हैं । कारण, जो शून्य निष्क्रिय शान्ति तथा निस्तब्धता मुक्त मन का द्युलोक है उसे अतिक्रान्त करनेवाले सक्रिय हर्षावेश को अतिमानसिक प्रेम जन्म देता है, साथ ही यह अतिमानसिक निश्चल-नीरवता की प्रारम्भिक गम्भीरतम महत्तर प्रशान्ति का परित्याग भी नहीं करता । प्रेम

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की एकता, जो भेदों की वर्तमान सीमाओं तथा प्रत्यक्ष विषमताओं के द्वारा न्यून या नष्ट हुए बिना इन सबको अपने में सम्मिलित कर सकती है, अतिमानसिक स्तर पर अपनी सम्पूर्ण सम्भाव्य शक्ति के शिखर पर पहुंच जाती है । वहां प्राणिमात्र के बीच प्रगाढ़ एकत्व, जो भगवान् और आत्मा के गभीर एकत्व पर प्रतिष्ठित होता है, सम्बन्धों की क्रीड़ा से संगति स्थापित कर सकता है और यह क्रीड़ा ही एकत्व को अधिक पूर्ण एवं निरपेक्ष बनाती है । प्रेम की शक्ति विज्ञानमय होकर जीवन के सभी सम्बन्धों को बिना संकोच या भय के स्वायत्त कर सकती है और उन्हें अपरिष्कृत, मिश्रित तथा क्षूद्र मानवीय ढंगों से मुक्त करके तथा दिव्य जीवन की सुखमय साधन-सामग्री के रूप में उदात्त करके ईश्वर की ओर मोड़ सकती है । अतिमानसिक अनुभव का यह स्वभाव ही है कि यह दिव्य मिलन या अनन्त एक़त्व से च्युत हुए बिना या उसे जस भी कम किये बिना भेद की क्रीड़ा को जारी रख सकता है । अतिमानसीकृत चेतना के लिये मनुष्यों और जगत् के साथ स्थापित सभी सम्बन्धों को शुद्ध तेजोबल में तथा रूपान्तरित अर्थ के द्वारा आलिंगित करना पूरी तरह सम्भव होगा । कारण, आत्मा तब प्रेम या सौन्दर्य-विषयक समस्त भाव एवं सम्पूर्ण खोज के लक्ष्य के रूप में एकमेव सनातन को निरन्तर अनुभव करेगी और सब वस्तुओं तथा सब प्राणियों में उस एकमेव भगवान् से मिलने और उसके साथ एक हो जाने के लिये विस्तृत तथा मुक्त प्राणावेग का आत्मिक रूप में प्रयोग कर सकेगी ।

 

   यज्ञ के कर्मों की तीसरी वा अन्तिम श्रेणी में उन सब कर्मों का समावेश किया जा सकता है जो प्रत्यक्षत: ही कर्मयोग के विशेष अंग हैं; क्योंकि वही यज्ञ की सिद्धि का क्षेत्र और उसके मुख्य प्रदेश हैं । जीवन के अधिक प्रत्यक्ष कार्य-व्यवहार का सम्पूर्ण क्षेत्र भी इसके अन्दर आ जाता है । पार्थिव जीवन से अधिक-से-अधिक लाभ उठाने के लिये अपने-आपको बाहर की ओर झोंकनेवाली जीवनेच्छा के नानाविध सामर्थ्य भी इसी के अन्तर्गत हो जाते हैं । यहीं तपस्पात्मक या पारलौकिक आध्यात्मिकता अपनी खोज के लक्ष्यभूत सत्य का अकाट्य खण्डन अनुभव करती है; परिणामत: वह पार्थिव जीवन से मुंह मोड़ने को विवश हो जाती है और इसे अप्रतिकार्य अविद्या का एक नित्य अन्धकारमय क्रीड़ाक्षेत्र मानकर त्याग देती है । तथापि ठीक इसी कार्य-व्यवहार को पूर्णयोग आध्यात्मिक विजय और दिव्य रूपान्तर के लिये अपना क्षेत्र बनाने का दावा करता है । अधिक तपस्यामय अभ्यासक्रम जिस क्षेत्र को सर्वथा त्याग देते हैं तथा अन्य विधियां जिसे केवल अल्पकालिक अग्नि-परीक्षा के क्षेत्र या निगूढ़ आत्मा की एक क्षणिक, बाह्य तथा

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संदिग्धार्थक क्रीड़ा के रूप में स्वीकार करती हैं, पूर्णयोग का जिज्ञासु उसका पूरी तरह से आलिंगन एवं स्वागत करता है, इस नाते कि यह परिपूर्णता तथा दिव्य कर्म का और गुप्त एवं अन्तर्वासी आत्मा की पूर्ण आत्मोपलब्धि का क्षेत्र है । अपने अन्दर देवत्व की उपलब्धि उसका प्रथम लक्ष्य है, परन्तु संसार में--इसकी योजना और रूप-रचना द्वारा किये गये देवत्व के प्रत्यक्ष निषेध के पीछे भी-देवत्व की पूर्ण उपलब्धि और, अन्त में, किसी परात्पर सनातन की क्रियाशीलता की पूर्ण उपलब्धि उसका लक्ष्य है । इस क्रियाशीलता के अवतरण से ही यह संसार और आत्मा अपने आवरक कोषों को खोल डालने में समर्थ होंगे और अपने आविष्कारक स्वरूप तथा अभिव्यंजक प्रक्रिया में दिव्य बन जायंगे जैसे वे अब गुप्त रूप से अपने निगूढ़ सार में हैं ही ।

 

   पूर्णयोग का यह लक्ष्य इसके अनुगामियों को पूरी तरह से स्वीकार करना होगा, परन्तु इसे स्वीकार करते हुए भी इसकी प्राप्ति के मार्ग में आनेवाली अनन्त बाधाओं से अनभिज्ञ नहीं रहना होगा । बल्कि, हमें उस प्रबल कारण का पूरा ज्ञान होना आवश्यक है जिसके बल पर अन्य कितनी ही साधनाएं यह भी मानने से इनकार करती हैं कि यह लक्ष्य पार्थिव जीवन का सच्चा मर्म हों सकता है, इसकी अनिवार्यता स्वीकार करने की बात तो दूर रही । कारण, यहां पृथ्वी-प्रकृति में प्राण के कर्मों में ही उस कठिनाई का असली मर्म छिपा है जिसके कारण दर्शन एकाकिता के शिखरों की ओर झुक गया है तथा धर्म की आतुर दृष्टि भी मर्त्य-शरीरगत जन्म की व्याधि से दूरस्थ स्वर्ग या निर्वाण की नीरव शान्ति की ओर फिर गयी है । हमारी मर्त्य सीमाओं और अविद्या के गर्त्तजालों के होते हुए भी शुद्ध ज्ञान का मार्ग जिज्ञासु के अनुसरण के लिये अपेक्षाकृत सीधा और सरल होता है । शुद्ध प्रेम के पथ की अपनी ही विघ्न-बाधाएं विरह-वेदनाएं एवं अग्नि-परीक्षाएँ होती हैं तथापि वह, तुलनात्मक दृष्टि से, खुले आकाश में पक्षी के विचरने की भांति सुगम हो सकता है । ज्ञान और प्रेम तत्त्वतः पवित्र हैं और ये मिश्रित, जटिल, भ्रष्ट एवं पतित तभी होते हैं जब कि ये प्राण-शक्तियों की अस्पष्ट गति में भाग लेते हैं और उनके द्वारा बाह्य जीवन की असंस्कृत गतियों तथा हठीले निम्नतर प्रेरक-भावों के लिये बलात् अधिकृत किये जाते हैं । इन शक्तियों में से केवल जीवन-शक्ति या कम-से-कम एक प्रकार की प्रबल जीवनेच्छा अपने असली सार में भी एक अपवित्र, अभिशप्त या भ्रष्ट वस्तु प्रतीत होती है । इसके संसर्ग से, इसके मलिन आवरणों में लिपटी हुई या इसकी सतरंगी दलदल में फंसी हुई दिव्यताएं भी स्वयं सामान्य एवं पंकिल हो जाती हैं और इनके विकारों में नीचे की ओर घसीटी जाने तथा दुर्भाग्यवश दानव एवं असुर जैसी बन जाने से मुश्किल से ही बच पाती हैं । अंधेरी और मलिन जड़ता का तत्त्व इसकी जड़ में है; शरीर और इसकी आवश्यकताओं तथा कामनाओं के कारण सभी मनुष्य क्षुद्र मन, तुच्छ तृष्णाओं

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और उमंगों से, छोटी-छोटी व्यर्थ की चेष्टाओं, आवश्यकताओं, चिन्ताओं, व्यग्रताओं तथा सुख-दुःखों की निरर्थक आवृत्ति से बंधे हुए हैं । ये सब चीजें अपने से परे किसी चीज की ओर नहीं ले जातीं और इनपर एक ऐसे अज्ञान की छाप लगी हुई है जिसे अपने 'क्यों' और 'किधर' का कुछ पता नहीं है । यह जड़ स्थूल मन अपने छोटे पार्थिव देवों के अतिरिक्त और किसी देवत्व में विश्वास नहीं करता; यह सम्भवतः और भी अधिक सुख-सुविधा तथा सुप्रबन्ध की आकांक्षा करता है, पर ऊर्ध्वगति और आध्यात्मिक मुक्ति की याचना नहीं करता । सत्ता के केंद्र में हमारी एक अधिक रसिक और बलवत्तर जीवनेच्छा से भेंट होती है, पर यह एक अन्धी राक्षसी एवं विकृत आत्मा होती है और ठीक उन्हीं तत्त्वों में मजा लेती है जो जीवन को आयासमय संघर्ष तथा दुःखदायी कलह बना डालते हैं । यह मानवीय या पैशाचिक कामना की आत्मा है जो भड़कीले रंग, उच्छृंखल काव्य तथा शुभ-अशुभ, हर्ष-शोक, प्रकाश-अन्धकार, मादक हर्ष और कटु यंत्रणा के एक मिश्रित प्रवाह के उग्र दुःखान्त या उद्दीपक गीति-नाटक में आसक्त रहती है । यह इन चीजों से प्यार करती है और इन्हें अधिकाधिक पाना चाहती है, अथवा, जब यह दुःख भोगती तथा इनके विरुद्ध चिल्लाती भी है तब भी यह और कोई चीज स्वीकार नहीं कर सकती और न ही उसमें रस ले सकती है । यह उच्चतर वस्तुओं से घृणा और विद्रोह करती है और अपने आवेश में ऐसी किसी भी दिव्यतर शक्ति को कुचल देना, चीर डालना या गला घोंट के मार देना चाहती है जो जीवन को शुद्ध, उज्जल तथा सुखी बनाने तथा उस उत्तेजक मिश्रण की तीक्ष्ण सुरा को इसके अधरों से छीनने का प्रस्ताव रखने का दुःसाहस करती है । एक और जीवनेच्छा भी है जो एक उत्थापक आदर्शात्मक मन का अनुसरण करने को उद्यत होती है तथा उसके इस प्रस्ताव से आकृष्ट हो जाती है कि जीवन में से कुछ सामंजस्य, सौन्दर्य, प्रकाश तथा उत्कृष्टतर व्यवस्था का रस ले लेना चाहिये; परन्तु यह प्राणिक प्रकृति का एक बहुत छोटा-सा भाग है और अपने अधिक उग्र या अन्धतर एवं मूढ़तर साथियों से सहज ही अभिभूत हो सकती है । यह मन की पुकार से अधिक ऊंची किसी पुकार का तब तक आसानी से साथ नहीं देती जब तक वह पुकार अपना नाश आप ही नहीं कर लेती, जैसा कि धर्म प्रायः ही करता है, यह नाश वह अपनी मांग को उन अवस्थाओं तक कम कर लेने से करती है जिन्हें हमारी अन्ध प्राणिक प्रकृति अधिक अच्छी तरह से समझ सके । आध्यात्मिक जिज्ञासु अपने अन्दर इन सब शक्तियों से सचेतन हों जाता है तथा इन्हें अपने चारों ओर सब जगह अनुभव करता है । उसे इनके साथ निरन्तर संघर्ष तथा युद्ध केरना पड़ता है, ताकि वह इनके चंगुल से छुटकारा पा सके तथा इन्होंने उसकी सत्ता एवं पारिपार्श्विक मानव-सत्ता पर जो चिर-रक्षित आधिपत्य जमा रखा है उससे इन्हें च्युत कर सके । यह कठिनाई एक बड़ी भारी कठिनाई है; क्योंकि उनका अधिकार अत्यन्त दृढ़ है, स्पष्ट

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रूप से अदम्य है, यहां तक कि यह इस तिरस्कारपूर्ण उक्ति को सत्य सिद्ध करता है कि मानव-प्रकृति कुत्ते की दुम के समान है । इसे आचार-शास्त्र, धर्म, तर्कबुद्धि या अन्य किसी उद्धारक पुरुषार्थ के बल से चाहे कितना भी सीधा करने का यत्न क्यों न करो, यह अन्त में सदा ही विश्व-प्रकृति की कुटिल वक्रावस्था में पुनः-पुनः लौट आती है । इस अत्यन्त विक्षुब्ध जीवनेच्छा का बल तथा चंगुल इतना दृढ़ है, इसकी वासनाओं तथा भ्रान्तियों का संकट इतना महान् है, इसके आक्रमण का आवेश या इसके विघ्नों की कष्टकर बाधा इतनी सूक्ष्म-आग्रहशील या दृढ़-विद्रोही है तथा द्युलोक के ठेठ द्वारों तक ऐसी अड़ी रहती है कि संत और योगी भी इसके षड्यन्त्र या इसके बलात्कार के विरुद्ध खड़े होने के लिये अपनी मुक्त पवित्रता या अपने अभ्यस्त आत्मप्रभुत्व पर भरोसा नहीं कर सकते । इस जन्मजात कुटिलता को सीधा कर डालने का सारा परिश्रम संघर्षकारिणी संकल्पशक्ति को वृथा प्रतीत होता है । सुखमय स्वर्ग की ओर पलायन या निवृत्ति अथवा शान्तिपूर्ण लय, सहज ही, एकमात्र तत्त्व ज्ञान होने के श्रेय को प्राप्त कर लेता है और पुन: जन्म न लेने के मार्ग की खोज इस रूप में प्रचलित हो जाती है कि पार्थिव जीवन के नीरस बन्धन की या एक दयनीय मिथ्या उन्माद या अन्ध तथा संदिग्ध सुख-सौभाग्य एवं सिद्धि-सफलता की यहीं एकमात्र औषधि है ।

 

   तथापि इस विक्षुब्ध प्राणिक प्रकृति की कोई औषधि, इसके उद्धार का कोई उपाय तथा रूपान्तर की सम्भावना तो होनी ही चाहिये और है भी । किन्तु इसके लिये पहले इसकी पथ-भ्रष्टता का कारण ढूंढ़ना होगा और उस कारण का प्रतिकार स्वयं प्राण या जीवन के केंद्र में तथा उसके असली तत्त्व में करना होगा, चूंकि प्राण भी भगवान् की शक्ति है, यह किसी अतिदुष्ट आकस्मिकता या अन्धकारमय दानवीय आवेग की रचना नहीं है, इसकी वर्तमान आकृति चाहे कैसी भी तमसावृत या विकृत क्यों न हो । प्राण की मुक्ति का बीज स्वयं इसके अपने अन्दर ही है, प्राणशक्ति से ही हमें अपना साधन-बल प्राप्त करना होगा । कारण, द्यपि ज्ञान में रक्षाकारी प्रकाश है, प्रेम में उद्धारकारी तथा रूपान्तरकारी सामर्थ्य है, तथापि ये इह-जीवन में तबतक सफल नहीं हो सकते जबतक ये प्राण की अनुमति प्राप्त नहीं कर लेते और इसके केंद्र में निहित किसी मुक्त-शक्ति-रूपी साधन का प्रयोग भ्रान्तिशील मानवीय प्राण-शक्ति को दिव्य प्राणशक्ति में उठा ले जाने के लिये नहीं कर पाते । यश के कर्मों का विभाजन करके कठिनाई की गांठ काट डालना सम्भव नहीं । हम यह निश्चय करके इससे नहीं बच सकते कि हम केवल प्रेम और ज्ञान के ही कर्म करेंगे और संकल्प एवं शक्ति, अधिकार एवं उपार्जन, उत्पादन एवं सार्थक शक्ति-व्यय तथा युद्ध, विजय एवं प्रभुत्व के कर्मों से किनारा कर लेंगे, कि हम जीवन के अधिक बड़े भाग को अपनेसे दूर कर देंगे क्योंकि यह साक्षात् कामना और अहंकाररूपी उपादान से ही निर्मित प्रतीत होता है और इसलिये

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असामंजस्य तथा निरे संघर्ष एवं अव्यवस्था का क्षेत्र बनना ही इसके भाग्य में लिखा है । ऐसा विभाग वास्तव में किया ही नहीं जा सकता; अथवा, यदि इसके लिये प्रयत्न किया भी जाय तो यह अपने असली उद्देश्य में अवश्य ही असफल रहेगा । कारण, यह हमें संसार-शक्ति के कुल, सामर्थ्यों से पृथक् कर देगा और अखंड विश्व-प्रकृति के एक महत्त्वपूर्ण अंग को, इसकी एकमात्र उसी शक्ति को जो किसी भी सृष्ट्युत्पादक कर्म में आवश्यक साधन है, बन्धन बना देगा । प्राण-शक्ति यहां विश्वप्रकृति में एक अपरिहार्य माध्यम है, एक कार्य-साधक तत्त्व है । मन को इसकी सहायता की आवश्यकता हैं, यदि मन के कर्मों को केवल आकृतिहीन उज्जल आन्तरिक रचनाएं ही नहीं रहना है । आत्मा को इसकी इसलिये जरूरत है कि वह अपनी व्यक्त सम्भावनाओं को बाह्य सामर्थ्य और रूप प्रदान करके जड़-प्रकृति के अन्दर अपनी पूर्ण आत्म-अभिव्यक्ति को मूर्त्त रूप में चरितार्थ कर सके । यदि प्राण आत्मा की अन्य क्रिया-प्रणालियों को अपनी मध्यस्थ शक्ति की सहायता देने से इंकार करता है अथवा यदि आत्मा ही प्राण को अंगीकार नहीं करती है, तो ये दोनों इह-लोक पर अपने समस्त सभ्मव प्रभाव के होते हुए भी, स्थितिशील पर एकाकी या स्वर्णिम पर निर्वीर्य वस्तु में परिणत हो सकते हैं । अथवा, यदि कुछ सम्पन्न हुआ भी तो वह हमारे कर्म का एक आंशिक तेज: -प्रसार होगा जो बाह्य की अपेक्षा कहीं अधिक आन्तरिक ही होगा । वह शायद जीवन में कुछ हेर-फेर तो करेगा, पर उसे परिवर्तित नहीं कर सकेगा । दूसरी तरफ, यदि प्राण अपनी शक्तियों को आत्मा के समक्ष प्रस्तुत तो करे, पर असंस्कृत रूप में, तो इसका परिणाम और भी बुरा हो सकता है । कारण, सम्भव है कि वह प्रेम या ज्ञान की आध्यात्मिक क्रिया को हीन और भ्रष्ट गतियों में परिणत कर डाले अथवा उन्हें अपनी निकृष्ट या विकृत क्रियाओं की दु:सगिनी बना दे । प्राण एक सर्जनशील आध्यात्मिक उपलब्धि की पूर्णता के लिये अपरिहार्य है, किन्तु वह प्राण जो मुक्त, रूपान्तरित और उदात्त हो, न कि वह जो साधारण मानसीकृत मानव-पाशविक हो अथवा आसुरिक या पैशाचिक हो, और न ही वह जो दिव्य तथा अदिव्य दोनों का मिश्रण हो । अन्य संसार-त्यागी या स्वर्गकामी अभ्यास-विधियां चाहे जो करें, पर कठिन होते हुए भी पूर्णयोग का अटल व्रत यही है । यह जीवन के बाह्य कर्मों की समस्या को उलझा नहीं रहने दे सकता, इसे उनके अंदर की नैसर्गिक दिव्यता को ढूंढ़कर उसे प्रेम तथा ज्ञान की दिव्यताओं के साथ सदा के लिये और दृढ़तापूर्वक संबद्ध कर देना होगा ।

 

   यह भी कोई हल नहीं है कि जीवन के कर्मों से सम्बन्ध तबतक स्थगित रखा जाय जबतक प्रेम और ज्ञान उस शिखर तक विकसित नहीं हो जाते जहां वे जीवन-शक्ति का नव-निर्माण करने के लिये एक प्रभावशाली तथा सुरक्षित रूप में अपना अधिकार स्थापित कर सकें । कारण, हम देख चुके हैं कि इसके लिये उन्हें

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पहले अमित ऊंचाइयों तक उठना होता है; तभी वे उस प्राणिक विकार से सुरक्षित रह सकते हैं जो उनकी उद्धारक शक्ति को कुंठित या पंगु कर देता है । यदि एक बार हमारी चेतना अतिमानसिक प्रकृति के शिखरों तक पहुंच सके तो ये दुर्बलताएं सचमुच में दूर हो जायंगी । परन्तु इसमें द्विविधा यह है कि जहां अपने कन्धों पर असंस्कृत जीवन-शक्ति का भार उठाये अतिमानसिक शिखरों तक पहुंचना असम्भव है वहां आध्यात्मिक तथा अतिमानसिक स्तरों के निर्भ्रान्त प्रकाश तथा अजेय बल को नीचे उतारे बिना प्राणेच्छा का जड़मूल से नव-निर्माण करना भी उतना ही असम्भव है । अतिमानसिक चेतना केवल ज्ञान, आनन्द, घनिष्ठ प्रेम और एकत्व ही नहीं है, वह तपस् या संकल्प भी है, बल और शक्ति का तत्त्व भी है, और वह तबतक अवतरित नहीं हो सकती जबतक इस व्यक्त प्रकृति में तपस् अर्थात् बल एवं शक्ति का तत्त्व उसे ग्रहण करने तथा स्पन्दित करने के लिये पर्याप्त विकसित तथा उदात्त नहीं हों जाता । परन्तु संकल्प, बल और शक्ति प्राण-शक्ति के सहजात तत्त्व हैं, इस कारण प्राण ठीक कहता है कि ज्ञान और प्रेम ही सर्वोच्च नहीं हैं, और वह ठीक ही किसी ऐसी चीज की तृप्ति के लिये प्रेरित होता है जो अपेक्षाकृत अत्यधिक विचारशून्य, दुर्दान्त और भयानक होते हुए भी भगवान् तथा परब्रह्म की प्राप्ति के लिये अपने ही वीरतापूर्ण और उत्साहपूर्ण ढंग से साहस कर सकती है । प्रेम और ज्ञान ही भगवान् के एकमात्र पहलू नहीं हैं, उसका एक पहलू शक्ति का भी है । जैसे मन ज्ञान के लिये टटोलता है, हृदय प्रेम के लिये टोहता है, वैसे ही प्राण भी शक्ति और शक्ति-लभ्य अधिकार की प्राप्ति के लिये यत्न करता है, भले ही यह यत्न वह लड़खड़ाते हुए अनाड़ीपन से या हड़बड़ी के साथ क्यों न करे । 'शक्ति' की इस प्रकार की निन्दा करना कि यह स्वभावत: पतनकारिणी और अशुभ होने के कारण अपने-आपमें अनुपादेय या अवांछनीय वस्तु है, नैतिक वा धार्मिक मन की भूल है । अनेकों उदाहरणों से प्रत्यक्षतः ठीक प्रमाणित होने पर भी, यह मूलतः एक अन्ध एवं अयुक्तियुक्त धारणा है । शक्ति चाहे कितनी भी विकृत और दुष्प्रयुक्त क्यों न हो, जैसे प्रेम और ज्ञान भी विकृत और दुष्प्रयुक्त होते हैं, फिर भी वह दिव्य है तथा भगवान् के उपयोग के लिये यहां प्रतिष्ठित की गयी है । शक्ति, -संकल्प वा बल--लोकों की संचालिका है और चाहे वह ज्ञान-शक्ति हो या प्रेम-शक्ति अथवा प्राण-शक्ति हो या कर्म-शक्ति या शरीर-शक्ति, वह सदा ही अपने मूल में आध्यात्मिक होती है और साथ ही अपने स्वभाव में दिव्य भी । परन्तु नर-पशु मानव या दानव अज्ञान में इसका जो प्रयोग करता है उसका त्याग करना होगा और उसके स्थान पर इसके एक ऐसे महत्तर एवं स्वाभाविक व्यापार को--हमारे लिये वह चाहे अलौकिक ही क्यों न हो--प्रतिष्ठित करना होगा जो कि अनन्त तथा सनातन के साथ एकीभूत अन्तश्चेतना के द्वारा ही प्रेरित और परिचालित हो । पूर्णयोग जीवन के कर्मों का वर्जन करके आन्तरिक अनुभव-मात्र से सन्तुष्ट

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नहीं रह सकता । उसका बाह्य को बदलने के लिये अन्दर जाना आवश्यक है, और इसके लिये प्राण-बल को उस योग-शक्ति का अंग तथा व्यापार बनाना होगा जो भगवान् के साथ सम्पर्क रखती है तथा जो अपने मार्गदर्शन में दिव्य है ।

 

   जीवन के कर्मों के साथ आध्यात्मिक तौर पर सम्बन्ध स्थापित करने में सारी कठिनाई इसलिये पैदा होती है कि जिजीविषा-शक्ति ने अपने अविद्यागत प्रयोजनों के लिये एक मिथ्या प्रकार की कामनात्मा को जन्म दिया है और इसे वास्तविक चैत्य-रूपी भगवत्स्फुलिंग के स्थान पर ला बिठाया है । जीवन के सभी या अधिकतर कर्म आज इस कामनामय आत्मा से प्रचालित या कलुषित हैं अथवा वे ऐसे प्रतीत होते हैं । जो कर्म नैतिक या धार्मिक हैं, जो परार्थवाद, परोपकार, आत्म-बलिदान एवं स्वार्थत्याग का जामा पहने हैं वे भी इसीके तैयार किये तानेबाने से बुने हुए हैं । यह कामनामय आत्मा एक अहमात्मक एवं विभाजक आत्मा है और इसकी सभी सहजप्रेरणाएं भेदमुलक अहंख्यापन के लिये होती हैं । यह खुल्लमखुल्ला या न्यूनाधिक चमकीले पर्दों की आमें अपनी ही वृद्धि के लिये, अपने स्वत्व एवं उपभोग तथा विजय और साम्राज्य के लिये सदा ही जोर लगाती रहती है । यदि विक्षोभ, असामंजस्य और विकार के अभिशाप को जीवन से हटाना है, तो सच्ची आत्मा वा हृत्युरुष को उसके प्रमुख पद पर प्रतिष्ठित करना ही होगा और साथ ही कामना तथा अहंकार की मिथ्या आत्मा का विनाश भी करना होगा । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि स्वयं जीवन पर ही बलात्कार करना होगा और उसे अपनी कृतार्थता की स्वाभाविक दिशा में चलने से मना करना होगा । कारण, इस बाह्य कामनामय आत्मा के पीछे हमारे भीतर एक आन्तर तथा वास्तविक प्राणमय पुरुष भी है जिसे विनष्ट नहीं करना, बल्कि प्रमुख स्थान देना है और भागवत प्रकृति की शक्ति के तौर पर अपनी सच्ची कार्यप्रणाली के प्रयोग के लिये उन्मुक्त करना है । हमारी सच्ची अन्तरतम आत्मा के पथप्रदर्शन में इस वास्तविक प्राणमय पुरुष का प्रधान बनकर रहना प्राण-शक्ति के दिव्य ढंग से चरितार्थ करने के लिये आवश्यक है । वे उद्देश्य अपने सार में चाहे वही रहेंगे, पर अपने आन्तरिक आशय और बाह्य स्वरूप में पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जायेंगे । भागवत प्राण-शक्ति भी विकास का एक संकल्प तथा आत्मख्यापन की शक्ति ही होगी, किन्तु यह ख्यापन तलवर्ती क्षुद्र अस्थायी व्यक्तित्व का नहीं, बल्कि अन्तरस्थ भगवान् का होगा, यह विकास भी उस सच्चे दिव्य व्यक्ति, केंद्रीय सत्ता एवं गुप्त अक्षर पुरुष के रूप में होगा जो अहं को वशीभूत तथा विलुप्त करके ही उदित हो सकता है । जीवन का सच्चा उद्देश्य है--विकास, पर प्रकृति में एक ऐसी आत्मा का विकास जो अपने-आपको मन, प्राण और शरीर में प्रतिष्ठित तथा अभिवर्धित करे; स्वामित्व, पर सब पदार्थों में भगवान् का भगवान् पर स्वामित्व, न कि अहं की कामना का वस्तुओं पर वस्तुओं के लिये स्वामित्वू उपभोग, पर संसार में दिव्य आनन्द का उपभोग; अन्धकार की

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शक्तियों के साथ एक विजयी संघर्ष के रूप में युद्ध, विजय और साम्राज्य, आन्तर तथा बाह्य प्रकृति पर पूर्ण आध्यात्मिक स्व-शासन और प्रभुत्व, अज्ञान के क्षेत्रों पर ज्ञान, प्रेम एवं भागवत संकल्प द्वारा विजय ।

 

  यही जीवन के कर्मों के इस दिव्य अनुष्ठान की तथा प्रगतिशील रूपात्तर की, जो त्रिविध यज्ञ का तीसरा अंग है, शर्तें हैं और यही इसके उद्देश्य भी होने चाहियें । योग का लक्ष्य जीवन को बौद्धिक नहीं, बल्कि अतिमानसिक बनाना है, नैतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक बनाना है । इसका मुख्य प्रयोजन बाह्य व्यवहारों या स्थूल मनोवैज्ञानिक हेतुओं को नियन्त्रित करना नहीं, वरन् जीवन तथा इसके कर्म को इनके गुप्त दिव्य तत्त्व पर पुनः प्रतिष्ठित करना है; क्योंकि, इस प्रकार नये आधार पर प्रतिष्ठित होकर ही जीवन सीधे ऊर्ध्व-स्थित गुप्त भागवती शक्ति के द्वारा परिचालित हो सकता है और आज की भांति सनातन नटवर का छद्मवेश और विरूपकारी आवरण न रहकर दिव्यता की एक स्पष्ट अभिव्यक्ति में रूपान्तरित हो सकता है । बाह्य कार्य-कुशलता नहीं, जो मन तथा बुद्धि का तरीका है, बल्कि चेतना का मूलगत आध्यात्मिक परिवर्तन ही जीवन का कायापलट कर सकता है और इसके दु:ख-द्विविधाग्रस्त वर्तमान स्वरूप से इसका परित्राण कर सकता है ।

   इस प्रकार, जीवन के दृश्य-प्रपंच पर बाह्य कौशल-प्रयोग के द्वारा नहीं, बल्कि इसके असली तत्त्व के रूपान्तर के द्वारा ही पूर्णयोग इसे प्रकृति की विक्षुब्ध तथा अज्ञानमय गति से ज्योतिर्मय तथा समस्वर गति में परिवर्तित करने का विचार प्रस्तुत करता है । तीन शर्त्तें हैं जो इस केंद्रीय आन्तर क्रान्ति तथा नवीन निर्माण की सफलता के लिये अनिवार्य हैं । इनमें से एक भी अपने-आपमें पूर्ण रूप से पर्याप्त नहीं है, किन्तु इनकी संयुक्त त्रिगुण शक्ति से जीवन को ऊंचा उठाया जा सकता है, उसका रूपान्तर किया जा सकता है और सम्पूर्ण रूप से किया जा सकता है । सर्वप्रथम, जीवन, अपने वर्तमान रूप में, कामना की एक हलचल ही है और इसने हमारे अन्दर अपने केंद्र के तौर पर एक कामनामय पुरुष की रचना कर रखी है । यह कामना-पुरुष जीवन की सभी चेष्टाओं को अपने द्वारा जांचता है और उनमें अपने अज्ञानयुक्त, अर्द्ध-प्रकाशित एवं पराजित प्रयत्न की व्याकुल चीख-पुकार और दुःख-दर्द को निहित कर देता है । दिव्य जीवन प्राप्त करने के लिये कामना को मिटाना होगा और उसके स्थान पर एक शुद्धतर तथा स्थिरतर प्रेरक-शक्ति की प्रतिष्ठा करनी होगी, कामना की पीड़ित आत्मा को विनष्ट कर उसके स्थान पर अपने अन्दर के प्रच्छन्न सच्चे प्राणमय पुरुष की प्रशान्ति, शक्ति एवं प्रसन्नता को प्रकट करना होगा । दूसरे, जीवन का वर्तमान रूप कुछ तो प्राण-शक्ति के आवेग से

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प्रेरित वा परिचालित होता है और कुछ मन से । मन, अधिकांश में, अज्ञानयुक्त प्राणावेग का दास और पृष्ठ-पोषक है, पर अंशत: यह उसका एक चंचल और कम प्रकाशमय या कम योग्य मार्गदर्शक तथा उपदेशक भी है । दिव्य जीवन के लिये मन और प्राणावेग को यन्त्र मात्र बनकर रहना होगा, इससे अधिक कुछ नहीं, और अन्तरतम हृत्पुरुष को योगमार्ग के अग्रणी या दिव्य मार्ग-दर्शन के निर्देशक के तौर पर उनका स्थान ग्रहण करना होगा । अन्त में जीवन, अपने वर्तमान रूप में, विभाजक अहं की सन्तुष्टि में तत्पर है; इस अहं को विलुप्त होना होगा और इसका स्थान सच्चे आध्यात्मिक पुरुष अर्थात् केंद्रीय पुरुष को लेना होगा । स्वयं जीवन को भी पार्थिव सत्ता में भगवान् की चरितार्थता की ओर मोड़ देना होगा । इसे अपने भीतर जाग रही भागवत शक्ति को अनुभव करना तथा उसके लक्ष्य का आज्ञाकारी यन्त्र बनना होगा ।

 

   इन तीन रूपान्तरकारी आन्तर गतियों में से पहली में ऐसी कोई चीज नहीं है जो प्राचीन तथा परिचित न हो, क्योंकि यह सदैव आध्यात्मिक साधना का एक मुख्य उद्देश्य रही है । गीता के एक सुस्पष्ट सिद्धान्त में इसका अत्युत्तम निरूपण किया गया है । उसमें बताया गया है कि कर्म के प्रेरक के रूप में फलों की कामना का पूर्ण त्याग, स्वयं कामना का पूर्ण उच्छेद एवं विशुद्ध समता की पूर्ण प्राप्ति आध्यात्मिक व्यक्ति की सामान्य अवस्थाएं हैं । कामना के विनाश का एकमात्र सच्चा और अचूक चिह्न पूर्ण आध्यात्मिक समता है, अर्थात् सब पदार्थों के प्रति आत्मिक समता रखना, हर्ष-शोक, प्रिय-अप्रिय और सफलता-विफलता से चलायमान न होना, उच्च और नीच, मित्र और शत्रु पुण्यात्मा और पापी को सम दृष्टि से देखना, सर्वभूत में एकमेव की नानारूप अभिव्यक्ति और सब पदार्थों में देहधारी आत्मा की बहुविध क्रीड़ा या गुप्त क्रमविकास को अनुभव करना । हमारा लक्ष्य मन की अचंचलता, एकाकिता तथा उदासीनता की स्थिति नहीं है, न प्राण की जड़ निस्तब्धता एवं उस शरीर-चेतना की निष्क्रिय अवस्था ही हमारा लक्ष्य है जो या तो कोई भी चेष्टा करने को सहमत नहीं होती अथवा हर प्रकार की चेष्टा करने को उद्यत हो जाती है--यद्यपि इन चीजों को कभी-कभी भूल से आध्यात्मिक स्थिति मान लिया जाता है--बल्कि हमारा लक्ष्य एक ऐसा विशाल एवं सर्वग्राही अविचल विश्वात्मभाव है जैसा कि प्रकृति के पीछे रहनेवाली साक्षी आत्मा का होता है । यद्यपि यहां की सब वस्तुएं शक्तियों का एक अस्थिर और अर्द्ध-व्यवस्थित एवं अर्द्ध-अस्तव्यस्त संगठन प्रतीत होती हैं, फिर भी मनुष्य यह अनुभव कर सकता है कि इनके मूल में एक सर्वाधार शान्ति, निश्चल-नीरवता एवं विशालता विद्यमान है जो निष्क्रिय नहीं, बल्कि शान्त है, अशक्त नहीं, बल्कि गुप्त रूप से सर्वशक्तिमान् है; यह शान्ति एक ऐसी घनीभूत तथा अचल-अटल शक्ति से संपन्न है जो विश्व की सभी हलचलों को सहन करने में समर्थ है । यह पीछे रहनेवाली उपस्थिति सब

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वस्तुओं के प्रति आत्मिक समता रखती है । इसके अन्दर जो शक्ति निहित है वह किसी भी कार्य के लिये प्रवाहित की जा सकती है, पर साक्षी आत्मा की कोई भी कामना अपने लिये किसी भी कर्म का चुनाव नहीं करती । असल में कर्म का कर्त्ता तो वह सत्य है जो स्वयं कर्म तथा उसके प्रत्यक्ष रूपों और आवेगों से परे तथा अधिक महान् है, मन या प्राण-शक्ति या शरीर से भी परे तथा अधिक महान् है, चाहे अपने तात्कालिक प्रयोजन के लिये वह मानसिक, प्राणिक या शारीरिक रूप भी धारण कर सकता है । जब इस प्रकार कामना की मृत्यु हो जाती है और यह शान्त सम विशालता चेतना में सर्वत्र छा जाती है तभी हमारे अन्दर का सच्चा प्राणमय पुरुष पर्दे से बाहर निकल आता है और अपनी निर्विकार, गम्भीर तथा शक्तिशाली उपस्थिति को व्यक्त करता है । प्राणमय पुरुष का सच्चा स्वरूप यही है; यह दिव्य पुरुष का जीवन के अन्दर प्रसारित अंश है, -शान्त, सशक्त और प्रकाशमय है, नाना सामर्थ्यों से सम्पन्न है, भगवत्संकल्प का आज्ञाकारी है, अहं से रहित है और फिर भी, बल्कि वास्तव में इसी कारण समस्त कार्य, ध्येयसिद्धि तथा अत्यन्त उच्च या अति बृहत् साहस-कर्म करने में समर्थ है । तब एक सच्ची प्राण-शक्ति भी पहले की तरह क्षुब्ध, व्याकुल, विभक्त एवं आयासकारी स्थूल बल के रूप में नहीं, वरन् एक महान् ज्योतिर्मय दिव्य शक्ति के रूप में प्रकट होती है । वह शक्ति शान्ति, बल और आनन्द से परिपूर्ण है, वह विशाल पथ पर विचरण करनेवाला जीवन का देवदूत है जिसके शक्ति के पंख संसार को आच्छादित किये हैं ।

 

   परन्तु विशाल सामर्थ्य और समता की अवस्था में पहुंचानेवाला यह रूपान्तर भी पर्याप्त नहीं है, क्योंकि यद्यपि यह हमारे लिये दिव्य जीवन के करणोपकरण को खोल देता है, तथापि यह उसका शासन और सूत्र-संचालन हमें प्रदान नहीं करता । यहीं पर उन्मुक्त ह्रत्पूरुष की उपस्थिति हस्तक्षेप करती है । यह हृत्युरुष हमें सर्वोच्च शासन और मार्ग-दर्शन तो प्रदान नहीं करता, --क्योंकि वह इसका कार्य नहीं है, --किन्तु यह अज्ञान से दिव्य ज्ञान में संक्रमण के काल में आन्तर तथा बाह्य जीवन एवं कर्म के लिये एक वृद्धिशील पथ-प्रदर्शन अवश्य प्रदान करता है । प्रतिक्षण यह एक पद्धति, पथ एवं सोपानक्रम का निर्देश करता है जो हमें एक ऐसी संसिद्ध आध्यात्मिक स्थिति में पहुंचा देगा, जहां एक परम क्रियाशील उपक्रम-शक्ति सदा उपस्थित रहकर दिव्यीकृत प्राण-शक्ति की क्रियाओं का संचालन करती रहेगी । इसके द्वारा प्रसारित प्रकाश से प्रकृति के अन्य अंग भी आलोकित हो उठते हैं जो अबतक अपनी भ्रान्त तथा स्सलनशील शक्तियों से अधिक श्रेष्ठ किसी मार्गदर्शक के अभाव के कारण अज्ञान के घेरे में भटकते आ रहे हैं । मन को तो यह विचारों तथा बोधों का यथार्थ अनुभव प्रदान करता है और प्राण को इस बात का अचूक ज्ञान कि कौन-सी चेष्टाएं भ्रान्त हैं अथवा भ्रान्त करनेवाली हैं और कौन-सी

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सत्पेरित । अन्दर विराजमान एक शान्त भविष्यवक्ता के समान कोई हमारे पतनों के कारणों को हमारे सामने खोलकर हमें समय पर चेतावनी दे देता है कि वे फिर नहीं होने चाहियें, अनुभव तथा अन्तर्ज्ञान के द्वारा हमारे कार्यों की सही दिशा का, उनके ठीक कदम तथा यथार्थ आवेग का एक ऐसा नियम निकाल लेता है जो कठोर नहीं, बल्कि नमनीय होता है । एक ऐसी संकल्प-शक्ति उत्पन्न हो जाती है जो जिज्ञासाकुल पर अत्यधिक भ्रान्तिशील मन के साथ नहीं, बल्कि विकसनशील सत्य के साथ अधिक समस्वर होती है । उदय होनेवाले महत्तर प्रकाश के प्रति सुनिश्चित अभिमुखता, आत्मिक सहज-प्रेरणा, आन्तरात्मिक कुशलता, तथा वस्तुओं के वास्तविक तत्त्व, गति एवं आशय में पैठनेवाली एक ऐसी अन्तर्दृष्टि जो आन्तर संस्पर्श, आन्तर दृष्टि और यहां तक कि तादात्म्य के द्वारा उपलब्ध ज्ञान के तथा आध्यात्मिक दिव्य द्रष्टि के सदा अधिकाधिक निकट पहुंचती जाती है, ये सब मानसिक निर्णय की उथली सूक्ष्मता का और प्राण-शक्ति के उत्सुक अवधारणों का स्थान लेने लगते हैं । जीवन के कर्म भी अपने को शुद्ध करने तथा भ्रान्ति का त्याग करने लगते हैं और बुद्धिद्वारा थोपी हुई कृत्रिम या तार्किक व्यवस्था की तथा कामना के मनमाने नियम की जगह अन्तरात्मा की गभीर अन्तर्दृष्टि के निर्देश को प्रतिष्ठित करके परम आत्मा के गूढ़ पथों में प्रवेश करने लगते हैं । हृत्पूरुष जीवन पर यह नियम लागू कर देता है कि यह अपने सारे कर्मों को भगवान् और सनातन के प्रति आहुति के रूप में अर्पित करे । जीवन जीवनातीत के प्रति आह्वान बन जाता है; इसका प्रत्येक छोटे-से-छोटा कार्य भी अनन्त की भावना से विशाल हो उठता है ।

 

   जैसे-जैसे हमारे अन्दर आन्तरिक समता बढ्ती है और हमें उस सच्चे प्राणमय पुरुष का अधिकाधिक अनुभव प्राप्त होता है जो एक महत्तर आदेश-निर्देश देने के लिये प्रतीक्षा कर रहा है, जैसे-जैसे हमारी प्रकृति के सभी अंगों में अन्तरात्मा की पुकार बढ़ती है वैसे-वैसे वह, जिसे हमारी पुकार सम्बोधित करती है, अपनेको प्रकाशित करने लगता है, जीवन तथा इसके सामर्थ्यों को अधिकृत करने के लिये अवतरित होता है, और उन्हें अपनी उपस्थिति तथा प्रयोजन की उच्चता, गभीरता और विशालता से भर देता है । अधिकतर लोगों में नहीं तो बहुतों में यह समता तथा मुक्त आन्तरात्मिक संवेग या निर्देश की अवस्था से पहले भी अपना कुछ-न-कुछ अंश प्रकट करता है । बाह्य अज्ञान के ढेर के नीचे दबे पड़े और छुटकारे के लिये क्रन्दन कर रहे प्रच्छन्न चैत्य तत्त्व की पुकार, विह्वल ध्यान का एवं ज्ञान की खोज का दबाव, हृदय की उत्कण्ठा और एक ऐसा सच्चा एवं तीव्र संकल्प जो अभी अज्ञानमय है--ये सब उच्चतर प्रकृति को निम्नतर से पृथक् करनेवाले पर्दे को हटाकर मूल स्रोत के द्वार खोल सकते हैं । दिव्य पुरुष की एक कला अपने-आपको या अनन्त के कुछ प्रकाश, बल, आनन्द एवं प्रेम को व्यक्त कर सकती है । सम्भव है कि यह केवल एक क्षणिक सत्य-दर्शन, एक झलक या एक अचिर

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झांकी ही हो जो शीघ्र ही लौट जाये तथा प्रकृति के तैयार होने तक प्रतीक्षा करे, परन्तु यह बार-बार भी प्राप्त हो सकती है, बढ़ सकती है और देर तक भी रह सकती है । ऐसी दशा में एक लंबी और विस्तृत सर्वांगीण क्रिया आरम्भ हो जाती हैं, जो कभी विशद या तीव्र और कभी मन्द एवं धुंधली होती है । किसी-किसी समय एक भागवत शक्ति सामने आकर मार्ग दिखाती है और प्रेरणा या निर्देश तथा प्रकाश प्रदान करती है । अन्य समयों में यह पीछे हट जाती है तथा सत्ता को उसी के साधनों के भरोसे छोड़ती प्रतीत होती है । सत्ता में जो कुछ भी अज्ञ, अन्ध एवं कलुषित है अथवा केवल अपूर्ण तथा निकृष्ट हैं उसे उभाड़कर और शायद चरम सीमा को पहुंचाकर उसका उपाय वा सुधार किया जाता है, अथवा उसे समाप्त किया जाता है, उसे अपने दुखदायी परिणाम दिखाकर अपने लोप या रूपान्तर के लिये पुकार करने को विवश किया जाता है, या फिर उसे एक निकम्मी या सुधार के अयोग्य वस्तु की भांति प्रकृति से निकाल दिया जाता है । यह प्रक्रिया सरल तथा सम नहीं हो सकती, दिन और रात, प्रकाश और अन्धकार, शान्ति और निर्माण अथवा युद्ध और उथल-पुथल, वर्धमान भागवत चेतना की उपस्थिति और अनुपस्थिति, आशा के शिखर तथा निराशा के अतल गर्त, प्रियतम का आलिंगन और उसके विरह की वेदना, विरोधी शक्तियों का दुर्धर्ष आक्रमण तथा प्रबल धोखा, उग्र विरोध एवं दुर्बल करनेवाला परिहास अथवा देवताओं तथा ईश्वरीय दूतों की सहायता, सांत्वना एवं सन्देश बारी-बारी से आते हैं । जीवन-समुद्र को दीर्घकाल तक और बलपूर्वक अत्यधिक मथा और बिलोड़ा जाता है जिससे कि इसका अमृत और गरल प्रबलता के साथ उछल-उछलकर ऊपर आते हैं । यह क्रिया तबतक चलती रहती है जबतक कि हमारी सारी सत्ता और प्रकृति वृद्धिशील अवतरण के पूर्ण राज्य एवं उसकी व्यापक उपस्थिति के लिये पूर्ण रूप से सज्जित और सन्नद्ध नहीं हो जाती । परन्तु यदि समता, आन्तरात्मिक ज्योति और इच्छाशक्ति विद्यमान हों, तो यह प्रक्रिया-यद्यपि यह पूर्ण रूप से टाली तो नहीं जा सकती--बहुत हलकी एवं सुगम अवश्य की जा सकती है । निश्चय ही, तब यह अपनी अत्यन्त कष्टकर विपदाओं से मुक्त हो जायगी; आन्तर शम, प्रसाद एवं विश्वास रूपान्तर की सभी कठिनाइयों और परीक्षाओं में कदमों को सहारा देंगे और वर्धमान शक्ति प्रकृति की पूर्ण स्वीकृति से लाभ उठाकर विरोधी शक्तियों के सामर्थ्य को शीघ्र ही न्यून और नष्ट कर देगी । निश्चित मार्ग-दर्शन और रक्षण सदासर्वदा विद्यमान रहेंगे, कभी सामने उपस्थित और कभी पर्दे के पीछे कार्यरत । अन्तिम परिणाम की शक्ति प्रयत्न के आरम्भ में तथा बीच की लंबी अवस्थाओं में भी पहले से ही उपस्थित रहेगी । हर समय जिज्ञासु दिव्य मार्गदर्शक और रक्षक से या परम मातृ-शक्ति की क्रिया से सचेतन रहेगा; उसे इस बात का ज्ञान होगा कि सब कुछ अधिक-से-अधिक भले के लिये ही किया जा रहा है और प्रगति निश्चित है एवं विजय

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अनिवार्य । दोनों अवस्थाओं में एक ही प्रक्रिया अटल रूप से काम करती है; आन्तर तथा बाह्य, सम्पूर्ण प्रकृति को, सम्पूर्ण जीवन को, अपनाना होगा जिससे इसकी शक्तियों एवं इनकी गतियों को ऊर्ध्व के दिव्यतर जीवन के दबाव के द्वारा अभिव्यक्त, परिचालित तथा रूपान्तरित किया जा सके । ऐसा तबतक करना होगा जबतक कि महत्तर आध्यात्मिक शक्तियां इहलोक के सब कुछको अपने अधिकार में लाकर आध्यात्मिक कर्म तथा दिव्य लक्ष्य का साधन नहीं बना लेतीं ।

 

   इस प्रक्रिया में तथा इसकी प्रारम्भिक अवस्था में ही यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि अपने सम्बन्ध में हम जो कुछ जानते हैं वह अर्थात् हमारी वर्तमान चेतन सत्ता हमारी गुप्त सत्ता के विशाल संघात की एक प्रतिनिधि-रचना, तलीय क्रिया एवं परिवर्तनशील बाह्य परिणाम है । हमारा प्रत्यक्ष जीवन और इसके कर्म कुछ-एक अर्थपूर्ण अभिव्यक्तियों की शृंखला से अधिक कुछ नहीं हैं, किन्तु जिसे यह जीवन अभिव्यक्त करने का यत्न करता है वह उपरितल पर नहीं है । जिस गोचर सम्मुखस्थ सत्ता को हम 'अपना-आप' मानते हैं और जिसे हम अपने चारों ओर के संसार के सामने प्रस्तुत करते हैं, उसकी अपेक्षा हमारी सत्ता एक बहुत अधिक विस्तृत वस्तु है । यह सम्मुखस्थ तथा बाह्य सत्ता मानसिक रचनाओं, प्राणिक चेष्टाओं तथा शारीरिक व्यापारों का एक अस्त-व्यस्त संकर है । इसके घटक अवयवों तथा मशीनरी में इसका पूर्ण विश्लेषण करने पर भी हमारी वास्तविक सत्ता का सारा रहस्य प्रकाश में नहीं आता । उसे तो हम अपनी सत्ता के पीछे, नीचे और ऊपर, इसके प्रच्छन्न स्तरों में, प्रवेश करके ही जान सकते हैं । अत्यन्त पूर्ण तथा सूक्ष्मतलीय छानबीन और प्रयोग-कुशलता से भी हमें अपने जीवन का, उसके उद्देश्यों एवं उसकी प्रवृत्तियों का सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं हों सकता, न हम उनका पूरी सफलता के साथ नियंत्रण ही कर सकते हैं । हमारी यह असमर्थता ही मानवजाति के जीवन को नियंत्रित, मुक्त तथा पूर्ण बनाने में हमारी बुद्धि, नैतिकता और अन्य प्रत्येक बाह्य क्रिया की असफलता का वास्तविक कारण है । हमारी अत्यन्त धुंधली भौतिक चेतना के भी नीचे एक अवचेतन सत्ता है । इसमें सब प्रकार के बीज, जो हमारे बिना जाने ही हमारे उपरितल पर अंकुरित हो उठते हैं, ऐसे छिपे पड़े हैं जैसे आच्छादक एवं पोषक धरती में सब प्रकार के बीज छिपे रहते हैं । साथ ही, इसमें हम निरन्तर ऐसे नये बीज भी डाल रहे हैं जो हमारे अतीत को चिरायु करते हैं और हमारे भविष्य पर प्रभाव डालते हैं । यह अवचेतन सत्ता एक अन्धकारपूर्ण सत्ता है जो अपनी गतियों में क्षुद्र एवं विशृंखल है और प्रायः ही मनमौजी ढंग से अवबौद्धिक होती है, किन्तु पार्थिव जीवन पर इसका अत्यधिक प्रभाव पड़ता है । अथच हमारे मन, हमारे प्राण एवं हमारी सचेतन स्थूल सत्ता के मूलl में एक विस्तृत प्रच्छन्न चेतना भी है, --आन्तर मनोमय, आन्तर प्राणमय, आन्तर सूक्ष्मतर अन्नमय स्तर हैं जो अन्तरतम चैत्य सत्ता, अर्थात् अन्य सब को सम्बद्ध करनेवाली अन्तरात्मा

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के द्वारा धारित हैं । इन निगूढ़ स्तरों में भी ऐसे अनेको पूर्व-विद्यमान व्यक्तित्व निहित हैं जो हमारी विकसनशील तलीय सत्ता की साधन-सामग्री, चालक शक्तियां तथा अन्तःप्रवृत्तिया जुटाते हैं । यहां हममें से प्रत्येक के अन्दर एक केंद्रीय पुरुष के साथ-साथ अनेक गौण व्यक्तित्व भी हो सकते हैं जो इस पुरुष की अभिव्यक्ति के विगत इतिहास के द्वारा अथवा बाह्य जड़जगत् में इसकी वर्तमान क्रीड़ा को आश्रय देनेवाले आन्तर स्तरों पर इसके आविर्भावों के द्वारा निर्मित होते हैं । अपने ऊपरी तल पर हम अपने चारों ओर के सब पदार्थों से विच्छिन्न हैं, सिवा इसके कि हम उस बाह्य मन एवं इंद्रिय-सन्निकर्ष के द्वारा उनसे सम्पर्क प्राप्त करते हैं जो हमें जगत् के प्रति तथा जगत् को हमारे प्रति केवल बहुत थोड़ा-सा ही खोलता है, किन्तु इन आन्तर स्तरों में हमारे तथा शेष सत्ता के बीच की दीवार पतली है तथा आसानी से टूट जाती है । यहां हम वैश्व तथा वैयक्तिक सत्ता का निर्माण करनेवाली गुप्त विश्व-शक्तियों, मानस-शक्तियों, प्राण-शक्तियों एवं सूक्ष्मभौतिक शक्तियों की क्रिया तुरन्त अनुभव कर सकते हैं--यह नहीं कि उनके परिणामों से इसका अनुमानमात्र कर सकते हैं, बल्कि इसे प्रत्यक्ष अनुभव भी कर सकते हैं । यदि हम अपनेको इसके लिये कुछ शिक्षित करें तो हम इन विश्व-शक्तियों को, जो अपने-आपको हम पर या हमारे चारों ओर फेंकती हैं, अपने हाथ में लेकर अधिकाधिक अपने वश में कर सकते हैं अथवा कम-से-कम हमपर तथा दूसरों पर होनेवाली इनकी क्रिया को और इनकी रचनाओं एवं वास्तविक गतियों को भी बहुत काफी परिवर्तित कर सकते हैं । हमारे मानव मन के ऊपर और भी महत्तर स्तर हैं जो इसके लिये अतिचेतन हैं । वहां से प्रभाव, शक्तियां तथा संस्पर्श गुप्त रूप से अवतीर्ण होते हैं; वे यहां की वस्तुओं के आद्य निर्धारक हैं और यदि उनके पूर्ण ऐश्वर्य समेत उनका यहां आवाहन किया जाय तो वे स्थूल संसार के जीवन की सम्पूर्ण रचना और व्यवस्था को पूर्ण रूप से बदल सकते हैं । यह सब एक गुप्त अनुभव और ज्ञान है । पूर्णयोग में जब हम भागवत शक्ति की ओर उद्घाटित होते हैं तो वह हमपर क्रिया करती हुई इस सब अनुभव और ज्ञान को उत्तरोत्तर हमारे समक्ष प्रकाशित करती है, इसे प्रयोग में लाती और इसके परिणामों को हमारी सम्पूर्ण सत्ता तथा प्रकृति के रूपान्तर के लिये साधनों एवं सोपानों के रूप में तैयार करती है । तब हमारा जीवन ऊपरी तल पर उछलती हुई एक छोटी-सी लहर नहीं रहता, बल्कि विश्व-जीवन और हमारा जीवन एक-दूसरे में प्रविष्ट हो जाते हैं, भले ही अभी वे घुल-मिलकर एकीभूत नहीं हों जाते । हमारी आत्मसत्ता एवं हमारी आत्मा किसी विशाल विश्वात्मा के साथ आन्तरिक तादात्म्य की स्थिति में ही नहीं, अपितु परात्पर के साथ एक प्रकार के सायुज्य की स्थिति में भी उन्नीत हो जाती है, द्यपि विश्व-व्यापार से भी वह सचेतन रहती है और उसपर प्रभुत्व भी रखती है ।

 

   इस प्रकार हमारी खण्डित सत्ता को अखण्ड बनाने की प्रक्रिया से ही योगनिष्ठ

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भागवत शक्ति अपने ध्येय की ओर अग्रसर होगी । मुक्ति, सिद्धि एवं स्वामित्व इस अखंडीकरण पर ही आश्रित हैं, क्योंकि उपरितल की लधु तरंग अपनी ही गति पर काबू नहीं पा सकती, अपने चारों ओर के विराट् जीवन पर कोई वास्तविक नियंत्रण प्राप्त करना तो उसके लिये और भी कम सम्भव है । शक्ति, --अनन्त और सनातन देव की शक्ति, --हमारे भीतर अवतरित होती है, कार्य करती है, प्रत्येक आवरण को टुकड़े-टुकड़े करके हमें विशाल तथा मुक्त कर देती है, दृष्टि, विचारणा और प्रत्यक्ष ज्ञान की नित्य नवीनतर तथा महत्तर शक्तियों और नूतनतर तथा महत्तर प्राणिक प्रेरक-भावों को हमारे सामने प्रस्तुत करती है, आत्मा और उसके करणों को अधिकाधिक विस्तृत करके नये नमूने में ढालती है, प्रत्येक न्यूनता को हमारे सामने ला खड़ा करती है, ताकि उसे दोषी ठहराकर दूर किया जाय । यह हमें महत्तर पूर्णता की ओर खोल देती है, अनेक जन्मों या युगों का कार्य अल्प काल में कर डालती है जिसके फल-स्वरूप नूतन जन्म तथा अभिनव दृश्य हमारे भीतर लगातार खुलते जाते हैं । अपने कार्य में विस्तारशील यह हमारी चेतना को शरीर की सीमा से मुक्त कर देती है । फलत:, हमारी चेतना समाधि या निद्रा में अथवा यहां तक कि जागरित अवस्था में भी बाहर जाकर अन्य लोकों में या इस लोक के अन्य प्रदेशों में प्रवेश कर वहां कार्य कर सकती है अथवा अपना अनुभव अपने साथ ला सकती है । यह बाहर फैल जाती है, शरीर को अपना एक छोटा-सा भागमात्र अनुभव करती है, और उसे अपने अन्तर्गत करने लगती है जो पहले इसे अपने अन्तर्गत रखता था । यह विश्वचेतना को प्राप्त करती है और विश्व के समान व्यापक बनने के लिये अपने को विस्तृत करती है । जगत् में क्रीड़ारत शक्तियों को यह बाह्य निरीक्षण तथा सम्पर्क से ही नहीं, बल्कि अन्दर से तथा प्रत्यक्ष रूप से जानने लगती है, उनकी गति को अनुभव करती है, उनके व्यापार को पहचानती है, और उनपर तुरन्त ही उसी प्रकार क्रिया कर सकती है जिस प्रकार एक वैज्ञानिक भौतिक शक्तियों पर क्रिया करता है । हमारे मन-प्राण-शरीर में उनके कार्यों तथा परिणामों को स्वीकृत या अस्वीकृत करके अथवा संशोधित, परिवर्तित या पुनर्गठित करके यह प्रकृति की पुरानी क्षुद्र चेष्टाओं के स्थान पर नयी अति महत् शक्तियां तथा गतियां उत्पन्न कर सकती है । हम वैश्व मन की शक्तियों के व्यापार को अनुभव करने लगते हैं तथा यह जानने लगते हैं कि किस प्रकार उस व्यापार से हमारे विचार उत्पन्न होते हैं । अपने मानसिक बोधों के सत्य और अनृत को हम अन्दर से अलग-अलग करते हैं और उनका क्षेत्र बढ़ाते हैं तथा उनका अर्थ विस्तृत एवं प्रकाशित करते हैं । हम अपने मन तथा कर्म के स्वामी बन जाते हैं और अपने चारों ओर के जगत् में मन की गतियों का रूप निर्धारित करने में समर्थ और तत्पर हो जाते हैं । विश्वव्यापी प्राण-शक्तियों की धारा और तरंग को हम अनुभव करने लगते हैं, अपने बोधों, भावों, सम्वेदनों एवं आवेगों के उद्गम और नियम को जान

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लेते हैं, स्वीकार, परित्याग एवं पुनर्गठन करने में स्वतंत्र होते हैं और प्राणशक्ति के उच्चतर स्तरों की ओर उठ जाते हैं । 'जड़तत्त्व' की पहेली की कुंजी भी हमें उपलब्ध होने लगती है, 'मन', 'प्राण' तथा 'चेतना' के साथ होनेवाली इसकी क्रीड़ा को हम समझ लेते हैं, इसका करणात्मक तथा फलित व्यापार हम अधिकाधिक जानते जाते हैं तथा अन्त में इसके इस चरम रहस्य का पता पा लेते हैं कि यह केवल शक्ति का नहीं, बल्कि निवर्त्तित तथा अवरुद्ध या अस्थिर तथा बद्ध चेतना का भी रूप है और हम यह भी देखने लगते हैं कि यह मुक्त हो सकता है तथा उच्चतर शक्तियों को प्रत्युत्तर देने के लिये नमनीय बन सकता है, और साथ ही इसमें ऐसी शक्यताएं भी हैं कि यह आत्मा की आधी से अधिक निश्चेतन प्रतिमूर्ति और अभिव्यक्ति न रहकर उसका सचेतन शरीर बन सकता है । यह सब और इससे भी अधिक कुछ उत्तरोत्तर सम्भव होता जाता है जैसे-जैसे भागवती शक्ति की क्रिया हमारे अन्दर बढ़ती है और प्रत्युत्तर देने में हमारी तमसाच्छन्न चेतना के अत्यधिक प्रतिरोध या आयास के विरुद्ध आगे बढ़ने, पीछे हटने और फिर आगे बढ़ने के बहुत अधिक संघर्ष और प्रयत्न के द्वारा महत्तर पवित्रता, सत्यता, उच्चता तथा विशालता की ओर अग्रसर होती है--एक ऐसे संघर्ष और प्रयत्न के द्वारा जो अर्द्ध-निश्चेतन तत्त्व का सचेतन तत्त्व में सुमहान् रूपान्तर करने के कार्य के कारण अनिवार्य हो जाता है । यह सब हमारे अन्दर होनेवाले आन्तरात्मिक जागरण पर, भागवत शक्ति के प्रति हमारे प्रत्युत्तर की पूर्णता तथा हमारे वर्धमान समर्पण पर निर्भर करता है ।

 

   परन्तु यह सब तो केवल बाह्य कर्म की महत्तर सम्भावना से समन्वित एक महत्तर आन्तर जीवन ही कहला सकता है और केवल एक संक्रमण-कालीन उपलब्धि होता है । पूर्ण रूपान्तर तो तभी हो सकता है यदि हमारा यज्ञ अपने उच्चतम शिखरों पर आरोहण करे और दिव्य अतिमानसिक विज्ञान की शक्ति, ज्योति एवं आनन्द के द्वारा जीवन पर अपनी क्रिया करे । कारण, केवल तभी वे सब शक्तियां, जो विभक्त हैं और अपने-आपको जीवन तथा इसके कर्मों में अधूरे तौर पर प्रकट करती हैं, अपने मूत्र एकत्व, सामंजस्य, एकमेव सत्य, वास्तविक पूर्णत्व तथा पूर्ण मर्म तक ऊंची उठ सकती हैं । वहां ज्ञान और संकल्प एक ही हैं, प्रेम और बल एक अखण्ड गति हैं । जो-जो द्वंद्व हमें यहां सताते हैं वे वहां अपनी समस्वरित एकता में परिणत हो जाते हैं । शिव वहां अपना चरम रूप विकसित करता है और अशिव अपने को अपने दोष से मुक्त करके उस शिव में लौट जाता है जो इसके पीछे बराबर ही विद्यमान था । पाप-पुण्य एक दिव्य पवित्रता तथा निर्भ्रान्त सत्य गतिमें विलीन हों जाते हैं । सुख की दोलायमान क्षणिकता एक ऐसे आनन्द में विलीन हो जाती है जो एक शाश्वत तथा प्रसन्न आध्यात्मिक ध्रुवता की क्रीड़ा है । दुःख ध्वस्त होता हुआ उस आनन्द का स्पर्श पा लेता है जो निश्चेतन

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की इच्छा के किसी घोर विकार के वश तथा आनन्द को ग्रहण करने में इसकी असमर्थता के कारण विश्वासघातपूर्वक त्याग दिया गया था । जैसे-जैसे हमारी चेतना सीमित एवं देहबद्ध अन्न-मन में से परा-प्रज्ञा के उच्चात्युच्च शिखर की स्वतंत्रता तथा पूर्णता में उठती जाती है, वैसे-वैसे ये चीजें, जो मन के निकट एक कल्पना या रहस्यमात्र हैं, प्रत्यक्ष तथा अनुभवग्राह्य होती जाती हैं । परन्तु ये पूर्ण रूप से सत्य तथा स्वाभाविक तभी हो सकती हैं जब अतिमानस-सत्य हमारी प्रकृति का नियम बन जाय ।

 

   अतएव, जीवन की सार्थकता एवं इसकी मुक्ति और रूपान्तरित पार्थिव प्रकृति के अन्दर इसका दिव्य जीवन में कायापलट-यह सब इसपर निर्भर करता है कि आरोहण सफलतापूर्वक सम्पन्न हो और इन उच्चतम स्तरों से पृथ्वी-चेतना में एक परिपूर्ण गतिशीलता का अवतरण साधित हो जाय ।

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   जैसी कि पूर्णयोग के स्वरूप की कल्पना या अवधारणा की गयी है, यह इन आध्यात्मिक साधनों को लेकर आगे बढ़ता है तथा इसका सारा आधार प्रकृति के इस पूर्ण रूपान्तर पर ही है । इसका यह स्वरूप अपने-आप इस प्रश्न का निश्चित उत्तर दें देता है कि इस योग में जीवन के साधारण कार्यों को किस भाव से करना होता है और उनका क्या स्थान है ।

 

   पूर्णयोग में कर्मो और जीवन का तपस्वी या ध्यानी या रहस्यवादी का-सा कोई भी नितान्त त्याग, निमग्न ध्यान और निष्क्रियता का कोई सिद्धान्त, प्राण-शक्ति और इसकी क्रियाओं का कोई भी उन्मूलन या तिरस्कार, पृथ्वी-प्रकृति में अभिव्यक्ति का किसी प्रकार का परिवर्जन-इन सबका कुछ भी स्थान नहीं है और हो भी नहीं सकता । जिज्ञासु के लिये किसी समय यह आवश्यक हो सकता है कि वह तब तक अपने भीतर, पीछे की ओर हटकर रहे, अपनी आन्तर सत्ता में निमग्न रहे, वर्तमान जीवन के कलह-कोलाहल के प्रति अपने द्वार बन्द रखे जबतक कि एक विशेष आन्तर परिवर्तन सम्पादित न हो जाय या कोई ऐसी चीज उपलब्ध न हो जाय जिसके बिना अब जीवन पर कोई प्रभावपूर्ण क्रिया करना कठिन या असम्भव हो गया हो । परन्तु यह केवल एक अवसर या प्रसंग, एक अस्थायी आवश्यकता या उपक्रमरूप आध्यात्मिक दांव-पेच ही हो सकता है; यह उसके योग का नियम या सिद्धान्त नहीं हो सकता ।

 

   मानव-जीवन के कार्यकलाप का धार्मिक या नैतिक आधार पर अथवा एक साथ दोनों आधारों पर विभाग करना, उन्हें केवल पूजासम्बन्धी कर्मों या केवल लोकसेवा और परोपकार के कर्मों तक सीमित कर देना पूर्णयोग की भावना के

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विपरीत होगा । कोई निपट मानसिक नियम या निरा मानसिक अंगीकार या निषेध इसकी साधना के उद्देश्य और क्रम के विरुद्ध होता है । सभी चीजों को आध्यात्मिक शिखर तक ऊंचा उठा ले जाना होगा और आध्यात्मिक आधार पर प्रतिष्ठित करना होगा । आन्तर आध्यात्मिक परिवर्तन के प्रत्यक्षानुभव तथा बाह्य रूपान्तर को जीवन के किसी एक भाग पर ही नहीं, बल्कि सारे-के-सारे जीवन पर लागू करना होगा । जो कुछ इस परिवर्तन में सहायक है या इसे अनुमति देता है वह सब स्वीकार करना होगा, जो कुछ अपने-आपको रूपान्तरकारिणी गति के अधीन कर देने में अशक्त या अयोग्य है अथवा इससे इन्कार करता है वह सब त्याग देना होगा । वस्तुओं के या जीवन के किसी भी रूप के प्रति, किसी पदार्थ और कार्य के प्रति नाममात्र की भी आसक्ति नहीं रखनी होगी । सब कुछ त्याग देना होगा यदि ऐसी जरूरत आ पड़े; वह सब कुछ स्वीकार करना होगा जिसे भगवान् दिव्य जीवन के लिये अपनी साधन-सामग्री के रूप में वरण करें । परन्तु जो स्वीकार या परित्याग करे वह न तो मन होना चाहिये, न कामना की स्पष्ट या प्रच्छन्न प्राणिक शक्ति, और न ही नैतिक भावना, प्रत्युत वह होना चाहिये हृत्युरुष का आग्रह, योग के दिव्य मार्गदर्शक का आदेश, उच्चतर आत्मा या आत्म-तत्त्व की दिव्य दृष्टि और परम प्रभु का ज्ञानदीप्त मार्गदर्शन । अध्यात्म-मार्ग कोई मानसिक मार्ग नहीं है । मानसिक नियम या मानसिक चेतना इसकी निर्धारयित्री या इसकी नेत्री नहीं हो सकती ।

 

    ऐसे ही, चेतना की दो श्रेणियों, आध्यात्मिक और मानसिक अथवा आध्यात्मिक और प्राणिक, में मेल या समझौता करना अथवा बाह्य; अपरिवर्तित जीवन को केवल भीतर से उदात्त कर देना योग का नियम या लक्ष्य नहीं हो सकता । सारे जीवन को अपनाना होगा पर सारे ही जीवन का रूपान्तर भी करना होगा; सारे जीवन को अतिमानस-प्रकृति में अवस्थित आध्यात्मिक सत्ता का एक अंग, रूप एवं समुचित अभिव्यक्ति बनना होगा । जड़ जगत् में आध्यात्मिक विकास का शिखर और उसकी सर्वोच्च गति यही है । जैसे प्राण-प्रधान पशु से मनोमय मनुष्य में परिवर्तित होने पर जीवन अपनी मूल चेतना, क्षेत्र और प्रयोजन में कुछ-से-कुछ हो गया था, वैसे ही देहभावापन्न मनोमय जीव से एक ऐसे आध्यात्मिक तथा अतिमानसिक जीव में परिवर्तन, जो जड़तत्त्व का प्रयोग तो करेगा, पर इसके वश में नहीं होगा, जीवन को ऊंचा उठा कर कुछ-से-कुछ बना देगा । तब जीवन दोषयुक्त, त्रुटिपूर्ण, सीमित एवं मानवीय न रहकर अपनी आधारिक चेतना, क्षेत्र और प्रयोजन में बिल्कुल और ही चीज बन जायगा । जीवन के उन सब रूपों को, जो परिवर्तन को नहीं सह सकते, लुप्त हो जाना होगा, जो इसे सहन कर सकते हैं केवल वही जीवित बचे रहेंगे और आत्मा के राज्य में प्रवेश करेंगे । भागवत शक्ति कार्य कर रही है और वह हर क्षण चुनाव करेगी कि क्या करना है या क्या नहीं

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करना है, किसे क्षणिक या स्थायी रूप से ग्रहण करना है और किसे क्षणिक या स्थायी रूप से त्याग देना है । यदि हम उसके स्थान पर अपनी कामना या अपनी 'मैं' को नहीं ला बिठाते, --और इस बारे में आत्मा को सदा जाग्रत्, सदा सावधान, दिव्य मार्गदर्शन के प्रति सचेतन तथा हमारे अन्दर या बाहर से होनेवाले अदिव्य कुपथप्रवर्तन के प्रति प्रतिरोधपूर्ण रहना होगा, -तो वह शक्ति सुपर्याप्त है तथा अकेली ही सर्वसमर्थ है और वही हमें ऐसे मार्गों एवं ऐसे साधनों से कृतार्थता की ओर ले जायगी जो मन के लिये इतने विशाल, इतने अन्तरीय और इतने जटिल हैं कि यह उनका अनुसरण ही नहीं कर सकता, उनके सम्बन्ध में आदेश-निर्देश देना तो दूर रहा । यह एक दुर्गम, विकट एवं विपत्संकुल पथ है, पर इसके सिवाय और कोई पथ है भी नहीं ।

 

    दो नियम ऐसे हैं जो कठिनाई को कम कर देंगे और विपदा का निवारण करेंगे । हमें उस सबका परित्याग करना होगा जिसका स्रोत अहंकार में, प्राणिक कामना, कोरे मन और उसकी अत्यभिमानपूर्ण तर्कणा और अक्षमता में है, तथा उस सबका भी जो अविद्या के इन प्रतिनिधियों की सहायता करता है । हमें अन्तरतम आत्मा की वाणी, गुरु के निर्देश, परम प्रभु के आदेश और भगवती माता की क्रियाप्रणाली का श्रवण और अनुसरण करना सीखना होगा । जो कोई शरीर की कामनाओं तथा दुर्बलताओं से, क्षुब्ध-अज्ञानयुक्त प्राण की तृष्णाओं और वासनाओं से, तथा महत्तर ज्ञान की शान्ति और ज्योति को न पाये हुए वैयक्तिक मन के आदेशों से चिपटा रहता है वह सच्चे आन्तरिक नियम को नहीं ढूंढ़ सकता और दिव्य चरितार्थता के मार्ग में रोड़े अटका रहा है । जो कोई तमसाच्छन्न करनेवाली उन शक्तियों को जान लेने तथा त्यागने और भीतर तथा बाहर विद्यमान सच्चे मार्गदर्शक को पहचानने तथा उसके पीछे चलने में समर्थ है वह आध्यात्मिक नियम को खोज लेगा और योग के लक्ष्य पर पहुंच जायगा ।

 

    चेतना का आमूल तथा पूर्ण रूपान्तर पूर्णयोग का सम्पूर्ण मर्म है । इतना ही नहीं, अपने उत्तरोत्तर प्रबल रूप में तथा अपनी विकसनशील अवस्थाओं के द्वारा यह इस योग की सम्पूर्ण पद्धति भी है ।

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अध्याय ७

 

आचार के मानदंड और आध्यात्मिक स्वातंत्र्य

 

जिस ज्ञान पर कर्मयोगी को अपने समस्त कर्म और विकास की नींव रखनी होती है उसके भवन की मुख्य शिला है एकता का अधिकाधिक प्रत्यक्ष बोध एवं सर्वव्यापी एकत्व का जीवन्त-जाग्रत् अनुभव । कर्मयोगी जिस वर्धमान चेतना में रहता-सहता है वह यह है कि सम्पूर्ण सत्ता एक अविभाज्य समष्टि है--समस्त कर्म भी इसी दिव्य अविभाज्य समष्टि का अंग है । अब उसका वैयक्तिक कर्म तथा इसके परिणाम पहले की तरह कोई ऐसी पृथक् गति नहीं हो सकते और न ही वे कोई ऐसी पृथक् गति प्रतीत हो सकते हैं जो समष्टि में पृथग्भूत व्यष्टि की अहंभावमयी ''स्वतंत्र'' इच्छा से मुख्यतया या पूर्णतया निर्धारित हो । हमारे कर्म एक अविभाज्य विश्व-कर्म का भाग हैं । वे जिस समष्टि में से उठते हैं उसके अन्दर यथास्थान रखे हुए होते हैं अथवा यों कहना अधिक ठीक होगा कि वे अपनेको स्वयं अपने स्थान में रखते हैं और उनका परिणाम उन शक्तियों के द्वारा निर्धारित होता है जो हमारी पहुंच से परे हैं । वह विश्व-कर्म अपनी विराट् समग्रता तथा अपनी प्रत्येक छोटी- मोटी क्रिया में उस एकमेव की अखंड गति है जो अपने-आपको विश्व में उत्तरोत्तर अभिव्यक्त कर रहा है । मनुष्य भी अपने अन्दर तथा बाहर रम रहे इस एकमेव के प्रति तथा प्रकृति की गति में इसकी शक्तियों की गु, अद्भुत तथा मार्मिक प्रक्रिया के प्रति जितना जाग्रत् होता है उतना ही वह अपने तथा वस्तुओं के सच्चे स्वरूप से अधिकाधिक सचेतन होता जाता है । यह कर्म एवं गति हममें तथा हमारे चारों ओर रहनेवालों में भी वैश्व व्यापारों के उस छोटे-से खंडित अंश तक ही सीमित नहीं है जिससे हम अपनी स्थूल चेतना में अभिज्ञ हैं; इसके आधार में वह अपरिमेय मूलभूत पारिपार्श्विक सत्ता विद्यमान है जो हमारे मन के लिये प्रच्छन्न या अवचेतन है, साथ ही यह उस अनन्त परात्पर सत्ता से भी आकृष्ट होती है जो हमारी प्रकृति के लिये अतिचेतन है । हमारा कर्म भी हम से अज्ञात विश्वमयता में से उसी प्रकार उत्पन्न होता है जिस प्रकार हम स्वयं उससे प्रादुर्भूत हुए हैं । हम तो इसे अपने वैयक्तिक स्वभाव और व्यक्तिगत विचारात्मक मन या संकल्प से अथवा आवेग या कामना की शक्ति से एक आकारमात्र देते हैं । किन्तु वस्तुओं का वास्तविक सत्य एवं कर्म का यथार्थ नियम इन वैयक्तिक तथा मानवीय रचनाओं को अतिक्रान्त किये हुए हैं । जो कोई भी दृष्टिबिन्दु एवं मनुष्य का बनाया दुआ कर्म का जो कोई भी नियम वैश्व गति की इस अविभाज्य समग्रता की उपेक्षा करता है वह आध्यात्मिक सत्य के नेत्र के लिये एक अपूर्ण दृष्टिकोण तथा अज्ञानयुक्त सिद्धान्त होता है, भले ही बाह्य व्यवहार में वह कितना भी उपयोगी क्यों न हो ।

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जब हम इस विचार की कुछ झांकी प्राप्त कर चुकते हैं अथवा इसे अपनी चेतना में इस रूप में जमा देने में सफल हो जाते हैं कि यह मन का एक ज्ञान है तथा उससे फलित एक अन्तरात्म-वृत्ति है, तब भी अपने बाह्य अंगों में तथा क्रियाशील प्रकृति में इस सार्वभौम दृष्टिबिन्दु का अपनी वैयक्तिक सम्मति, वैयक्तिक इच्छा-शक्ति और वैयक्तिक उमंग एवं कामना की मांगों के साथ मेल बैठाना हमारे लिये कठिन होता है । हमें अब भी इस अखंड गति के साथ इस प्रकार व्यवहार करते रहना पड़ता है मानो यह एक निर्वैयक्तिक साधन-सामग्री का पुंज हो जिसमें से हमें, अहं को अथवा व्यक्ति को, अपनी ही इच्छा-शक्ति तथा मन की मौज के अनुसार निजी संघर्ष एवं प्रयत्न से कुछ गढ़ना है । अपनी परिस्थिति के प्रति मनुष्य की साधारण वृत्ति यही है, पर वास्तव में है यह मिथ्या, क्योंकि हमारी 'मैं' और उसकी इच्छा-शक्ति वैश्व शक्तियों की रचनाएं एवं कठपुतलिया हैं और जब हम अहं से पीछे हटकर उस सनातन देव के दिव्य ज्ञान-संकल्प की चेतना में भीतर लौटते हैं जो इन शक्तियों में कार्य करता है, तभी हम ऊर्ध्वलोक से एक तरह प्रतिनिधि-रूप में नियुक्त होकर इनके स्वामी बन सकते हैं । परन्तु दूसरी तरफ यह वैयक्तिक स्थिति मनुष्य के लिये तबतक यथार्थ वृत्ति बनी रहती है जबतक वह अपने व्यक्तित्व से प्रेम करता है, किन्तु उसे पूर्ण रूप से विकसित नहीं कर पाता है; क्योंकि इस दृष्टिबिन्दु तथा प्रेरक बल के बिना वह अपने अहं में वर्धित नहीं हो सकता, न ही अवचेतन या अर्ध-चेतन विश्वमय समष्टि-सत्ता में से अपने-आपको पर्याप्त रूप से विकसित कर सकता है और विशिष्ट बना सकता है ।

 

   परन्तु पीछे जब हमें विकास की पृथक्कारक, व्यक्तिप्रधान एवं उग्र अवस्था की आवश्यकता नहीं रहती, जब हम इस क्षुद्र अवस्था से, जिसकी शिशु-आत्मा को आवश्यकता पड़ती है, एकता, सार्वभौमता तथा विश्वचेतना की ओर और इससे भी परे अपनी परात्पर आत्म-प्रकृति की ओर बढ़ना चाहते हैं तब अपने सम्पूर्ण जीवन-अभ्यास पर से इस अहं-चेतना के प्रभुत्व को दूर करना कठिन हो जाता है । अपनी विचारशैली ही नहीं, अपितु अनुभव, सम्वेदन और कर्म करने के अपने तरीके में भी हमारे लिये यह स्पष्टतया समझ लेना अनिवार्य है कि यह गति या यह वैश्व कर्म-सत्ता की कोई ऐसी असहाय निर्वैयक्तिक तरंग नहीं है जो किसी अहं के बल एवं आग्रह के अनुसार उस अहं की इच्छाशक्ति का साथ देती हो । बल्कि, यह उस वैश्व पुरुष की गति है जो अपने क्षेत्र का ज्ञाता है, उस ईश्वर के कदम हैं जो अपनी विकासशील कर्म-शक्ति का स्वामी है । जैसे गति एक तथा अखण्ड है, वैसे ही जो गति के अन्दर विद्यमान है वह भी एक, द्वितीय तथा अखण्ड है । यही नहीं कि समस्त परिणाम उसीके द्वारा निर्धारित होता है, अपितु समस्त प्रारम्भ, क्रिया तथा प्रक्रिया उसकी वैश्व शक्ति की गति पर निर्भर हैं और केवल गौणतया तथा अपने बाह्य रूप में ही ये प्राणी से सम्बन्ध रखते हैं ।

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तो फिर व्यक्तिरूपी कर्मी की आध्यात्मिक स्थिति क्या होगी ? सक्रिय विश्वप्रकृति में इस एक विश्वमय पुरुष तथा इस एक समग्र गति से उसका वास्तविक सम्बन्ध क्या है ? वह केवल एक केंद्र है--एक ही वैयक्तिक चेतना के विभेदन का केंद्र, एक ही अखण्ड गति के निर्धारण का केंद्र । उसका व्यक्ति-भाव एक दृढ़ व्यक्तित्व की तरंग के रूप में एकमेव विराट् पुरुष तथा परात्पर एवं सनातन पुरुष को प्रतिबिम्बित करता है । अज्ञान में यह सदा एक भग्न एवं विरूप प्रतिबिम्ब ही होता है, क्योंकि हमारी चेतन जाग्रत् आत्मा, जो उस तरंग का शिखर है, दिव्य आत्मा के अपूर्ण तथा मिथ्याभूत सादृश्य को ही प्रतिक्षिप्त करती है । हमारी सब सम्मतियां, कसौटियां, रचनाएं एवं नियम-व्यवस्थाएं केवल ऐसी चेष्टाएं होती हैं जो वैश्व तथा विकसनशील समग्र क्रिया को और भगवान् की एक चरम अभिव्यक्ति में सहायक इसकी बहुमुखी गति को इस टूटे-फूटे, प्रतिबिंबित तथा विकृत करनेवाले दर्पण में यत्किन्चित प्रदर्शित करती हैं । हमारा मन भी इस वैश्व क्रिया को यथासम्भव उत्तम रूप में एक ऐसे सीमित सादृश्य के साथ प्रदर्शित करता है जो वैसे-वैसे अधिक सक्षम होता जाता है जैसे-जैसे मन का विचार अपनी विशालता, ज्योति और शक्ति में बढ़ता है; किन्तु यह सदा एक सादृश्य ही होता है, यहांतक कि यह एक सच्चा आंशिक प्रतिरूप भी नहीं होता । भागवत संकल्प केवल विश्व की एकता में और जीवधारी तथा विचारशील प्राणियों की समष्टि में ही नहीं, अपितु प्रत्येक व्यष्टि की आत्मा में अपने दिव्य रहस्य के किञ्चित् अंश को तथा अनन्त के निगूढ़ सत्य को उत्तरोत्तर आविर्भूत करने के लिये युग-युग तक कार्य करता रहता है । अतएव, विश्व में, समष्टि तथा व्यष्टि में एक बद्धमूल सहज-ज्ञान किंवा विश्वास है कि वह पूर्णता लाभ कर सकता है, उसके अन्दर एक निरन्तर वृद्धिशील तथा अधिक पर्याप्त एवं अधिक समस्वर आत्म-विकास के लिये अविराम प्रवृत्ति है, --एक ऐसे विकास के लिये जो वस्तुओं के गुप्त सत्य के अधिक निकट हो । यह प्रवृत्ति वा प्रयत्न मनुष्य के रचनाकारी मन के समक्ष ज्ञान, वेदन, चरित्र, सौन्दर्यबोध और कर्म के मानदण्डों के रूप में प्रकट होता है, -ऐसे नियमों, आदर्शों सूत्रों एवं सिद्धान्तों के रूप में प्रकट होता है जिन्हें मनुष्य सार्वभौम नियमों का रूप दे देने का यत्न करता है ।

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   यदि हमें आत्मा में स्वतंत्र होना है, यदि हमें केवल परम सत्य के ही अधीन रहना है, तो हमें इस विचार को तिलाञ्जलि दे देनी होगी कि अनन्त सत्ता हमारे मानसिक या नैतिक नियमों से बंधी हुई है या कि हमारे ऊंचे-से-ऊंचे वर्तमान मानदण्डों में भी कोई अनुल्लंघनीय, पूर्ण या नित्य वस्तु विद्यमान हो सकती है । अधिकाधिक ऊंचे अस्थायी मानदण्डों का तबतक निर्माण करना, जबतक कि उनकी

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आवश्यकता हो, भगवान् की विश्व-विकासयात्रा में उनकी सेवा करना है; किन्तु एक पूर्णनिरपेक्ष मानदण्ड की कठोर स्थापना करना सनातन स्रोत के प्रवाह-पथ में बाधा खड़ी करने का यत्न करना है । प्रकृति-बद्ध आत्मा जब एक बार यह सत्य अनुभव कर लेती है तब वह शुभाशुभ के द्वंद्व से मुक्त हो जाती है । कारण, जो कुछ भी व्यक्ति और विश्व को उनकी दिव्य परिपूर्णता के लिये सहायता देता है वह सब शुभ है, और जो कुछ उस वर्धमान पूर्णता को रोकता या भंग करता है वह सब अशुभ है । परंतु क्योंकि पूर्णता काल में प्रगतिशील या विकासशील है, शुभ और अशुभ भी परिवर्तनशील वस्तुएं हैं तथा अपने अर्थ एवं मूल्य को समय-समय पर बदलते रहते हैं । कोई एक वस्तु जो आज अशुभ है तथा जो अपने वर्तमान रूप में अवश्यमेव त्याज्य है, एक समय सामूहिक तथा वैयक्तिक उन्नति के लिये सहायक एवं आवश्यक थी । कोई दूसरी वस्तु जिसे आज हम अशुभ मानते हैं एक अन्य आकार तथा विन्यास में सहज ही किसी भावी पूर्णता का अंग बन सकती है । और, फिर आध्यात्मिक धरातल पर हम इस विभेद से भी परे चले जाते हैं, क्योंकि तब हम इन सब चीजों का जिन्हें हम शुभ और अशुभ कहते हैं प्रयोजन एवं दिव्य उपयोग जान लेते हैं । इनमें जो कुछ भी मिथ्या है उसका तब हमें त्याग करना होता है; जिसे हम अशुभ कहते हैं उसमें और जिसे हम शुभ कहते हैं उसमें जो कुछ भी विकृत, अत तथा तमोग्रस्त है उस सबका हमें समान रूप से त्याग करना होता है । तब हमें केवल सत्य और दिव्य को ही अंगीकार करना होता है, किन्तु शाश्वत प्रक्रियाओं में हमें कोई और भेद करने की आवश्यकता नहीं पड़ती ।

 

       जो लोग केवल कठोर मानदंड के अनुसार ही कार्य कर सकते हैं और केवल मानवीय मूल्यों को ही अनुभव कर सकते हैं, दिव्य मूल्यों को नहीं, उन्हें यह सत्य सम्भवतः एक ऐसी भयानक रियायत प्रतीत होगा जो नैतिकता के आधार तक को नष्ट कर सकती है और आचारमात्र में अव्यवस्था पैदा करके केवल संकर को ही स्थापित कर सकती है । निःसन्देह, यदि चुनाव नित्य एवं अपरिवर्तनशील नैतिकता और नैतिकता के नितान्त अभाव के बीच हो, तो अविद्याग्रस्त मनुष्य के लिये इसका ऐसा ही परिणाम होगा । परन्तु मानवीय स्तर पर भी, यदि हममें यह पहचानने के लिये पर्याप्त ज्योति एवं पर्याप्त नमनशीलता हो कि आचार का कोई मानदंड अस्थायी होता दुआ भी अपने समयतक के लिये आवश्यक हो सकता है और यदि हम उसका तबतक सच्चाई से पालन कर सकें जबतक उसके स्थान पर एक श्रेष्ठतर मानदंड प्रतिष्ठित न कर लें, तो हमें कोई ऐसी हानि नहीं होगी, बल्कि हम केवल एक अपूर्ण तथा असहिष्णु सद्गुण की कट्टरता को ही खोयेंगे । परन्तु इसके स्थान पर हमें प्राप्त होगी उन्मुक्तता, अनवरत नैतिक प्रगति की क्षमता, उदारता, संघर्षरत और स्खलनशील प्राणियों के प्रति, इस सब संसार के प्रति ज्ञानयुक्त सहानुभूति रखने की योग्यता; साथ ही इस उदारता के द्वारा हमें इसे इसके

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मार्ग पर अग्रसर होने में सहायता देने का अधिक योग्य अधिकार और अधिक महान् बल भी प्राप्त होंगे । अन्त में, जहां मनुष्यता समाप्त होगी तथा दिव्यता आरम्भ होगी, जहां मानसिक चेतना अतिमानसिक में अन्तर्धान हो जायगी और सांत अपने को अनन्त में निमज्जित कर देगा वहां अशुभमात्र एक परात्पर दिव्य शुभ में विलीन हो जायगा और यह शुभ फिर चेतना के जिस-जिस स्तर को स्पर्श करेगा उस-उस पर एक सार्वभौम रूप धारण कर लेगा ।

 

      इसलिये, यह एक निश्चित बात है कि जिन किन्हीं भी मानदंडों से हम अपने आचार का नियमन करना चाहें वे सभी केवल हमारे अस्थायी, अपूर्ण एवं विकासशील प्रयत्न ही होते हैं । इन प्रयत्नों का प्रयोजन यह होता है कि जिस वैश्व उपलब्धि की ओर प्रकृति बढ़ रही है उसमें अपनी लड़खड़ाती मानसिक प्रगति को हम अपने प्रति प्रदर्शित कर सकें । परन्तु दिव्य अभिव्यक्ति हमारे क्षुद्र नियमों तथा भंगुर पुण्य भावनाओं से आबद्ध नहीं हो सकती; क्योंकि इसके मूल में जो चेतना है वह इन वस्तुओं की तुलना में अतीव बृहत् है । यदि एक बार हम इस तथ्य को, जो हमारी तर्कशक्ति के स्वेच्छाचारी राज्य के लिये काफी क्षोभजनक है, हृदयंगम कर लें तो हम मनुष्य जाति की वैयक्तिक तथा सामूहिक यात्रा की प्रगति की विभिन्न अवस्थाओं को नियंत्रित करनेवाले क्रमिक मानदंडों को पारस्परिक सम्बन्ध की दृष्टि से उनके समुचित स्थान पर रखने में अधिक अच्छी तरह समर्थ होंगे । इनमें से अत्यन्त व्यापक मानदंडों पर यहां हम एक विहंगम दृष्टि डाल लें । हमें देखना है कि उस अन्य माप-रहित आध्यात्मिक तथा अतिमानसिक कार्यशैली से इनका कैसा सम्बन्ध है । योग इस शैली को आयत्त करना चाहता है और इस ओर उसकी प्रगति तब होती है जब व्यक्ति भगवत्संकल्प के प्रति समर्पण करता है, और इस ओर अधिक सफलतापूर्वक वह तब अग्रसर होता है जब व्यक्ति इस समर्पण के द्वारा एक ऐसी महत्तर चेतना की ओर आरोहण करता है जिसमें सक्रिय सनातन ब्रह्म के साथ एक प्रकार का तादात्म्य सम्भव हो जाता है ।

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      मानवीय आचार के मुख्य मानदंड चार हैं जो एक सीढ़ी के उत्तरोत्तर ऊंचे सोपान हैं । प्रथम है वैयक्तिक आवश्यकता, अभिरुचि एवं कामना; द्वितीय है समष्टि का नियम एवं हित; तृतीय है आदर्श नैतिक नियम और अन्तिम है प्रकृति का सर्वोच्च दिव्य नियम ।

 

     मनुष्य इन चार में से पहले दो को ही अपने प्रकाशप्रद और मार्गदर्शक साधनों के रूप में संग लेकर अपने जीवन-विकास की सुदीर्घ यात्रा आरम्भ करता है, क्योंकि ये दोनों उसकी पाशविक एवं प्राणिक सत्ता के नियम हैं, और प्राण-प्रधान तथा देहप्रधान पशुवृत्ति मनुष्य के तौर पर ही वह अपना विकास प्रारम्भ करता है ।

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इस भूतल पर मनुष्य का असली कार्य है--मानवता के सांचे में भगवान् को अधिकाधिक मूर्तिमन्त करना; सचेत रूप में हो या अचेत रूप में, इसी लक्ष्य के लिये विश्वप्रकृति अपनी बाह्य तथा आन्तर प्रक्रियाओं के घने पर्दे की आड़ में उसके अन्दर कार्य कर रही है । परन्तु भौतिक या पाशविक मनुष्य जीवन के आन्तरिक लक्ष्य से अनभिज्ञ है; वह केवल इसकी आवश्यकताओं तथा कामनाओं को ही जानता है और, स्वभावत: ही, अपनी आवश्यकता की प्रतीति तथा कामना के उत्तेजनों और निर्देशों को छोड़कर और कोई ऐसा मार्गदर्शक उसके पास नहीं है जो उसे बता सके कि उससे किस चीज की अपेक्षा की जाती है । निःसन्देह, और सब चीजों से पहले अपनी शारीरिक तथा प्राणिक मांगें और आवश्यकताएं पूरी करना, तथा, दूसरे स्थान पर, अपने अन्दर जो भी हृद्गत या मनोगत तृष्णाएं या कल्पनाएं या गतिशील विचार उठते हैं उन्हें पूरा करना उसके आचार का पहला प्राकृतिक नियम होता है । केवल एक ही ऐसा समबल या प्रबल नियम है जो इस अनिवार्य प्राकृतिक मांग का परिवर्तन या प्रतिषेध कर सकता है । यह वह मांग है जो उसके परिवार के अथवा समाज या वंश एवं गण या समुदाय के, जिसका वह सदस्य है, विचारों, आवश्यकताओं और कामनाओं के द्वारा उसपर लादी जाती है ।

 

      यदि मनुष्य केवल अपने लिये ही जी सकता, --ऐसा तो वह तभी कर सकता था यदि व्यक्ति का विकास जगत् में भगवान् का एकमात्र लक्ष्य होता, --तो इस दूसरे नियम के कार्यान्वित होने की आवश्यकता ही न पड़ती । परन्तु सत्तामात्र अवयवी तथा अवयवों की पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया के द्वारा और निर्मित द्रव्य एवं उसके निर्मायक अंगों की एक-दूसरे के लिये आवश्यकता तथा समुदाय एवं उसके व्यक्तियों की अन्योन्य-निर्भरता के द्वारा ही प्रगति करती है । भारतीय दर्शन के शब्दों में, भगवान् अपने-आपको सदा ही व्यष्टि तथा समष्टि के द्विविध रूप में प्रकट करता है । मनुष्य अपने पृथक् व्यक्तित्व तथा इसकी पूर्णूता एवं स्वतंत्रता की वृद्धि के लिये बल लगाता दुआ भी अपनी वैयक्तिक आवश्यकताएं एवं कामनाएं पूरी करने में तब तक असमर्थ रहता है जब तक वह अन्य मनुष्यों के साथ मिल करके बल नहीं लगाता । वह अपने-आपमें पूर्ण है और फिर भी दूसरों के बिना अधूरा है । यह बाध्यता उसके वैयक्तिक आचार-नियम को सामुदायिक नियम के घेरे में ले आती है । सामुदायिक नियम की उत्पत्ति एक स्थायी समुदायसत्ता के निर्माण से होती है जिसका अपना सामूहिक मन तथा प्राण होता है । व्यक्ति के अपने देहबद्ध मन और प्राण एक नश्वर इकाई के रूप में उस सामूहिक मन और प्राण के अधीन होते हैं । तथापि उसके अन्दर एक ऐसी सत्ता भी है जो अमर तथा स्वतन्त्र है  और जो समष्टि-शरीर से बंधी हुई नहीं है, --ऐसे समष्टि-शरीर से जो उसके देहबद्ध जीवन की समाप्ति के बाद भी बना रहता है, परन्तु जो उसकी नित्य आत्मा से अधिक स्थायी नहीं हो सकता, न ही इसे अपने नियम से बांधने का दावा कर सकता है ।

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यह देखने में अधिक व्यापक तथा प्रभुत्वपूर्ण नियम, अपने-आपमें, उस प्राणिक तथा शारीरिक सिद्धान्त के विस्तार से अधिक कुछ नहीं है जो व्यष्टिरूप प्राथमिक मनुष्य को संचालित करता है; यह गण या समुदाय का नियम है । व्यक्ति अपने जीवन को कुछ अन्य व्यक्तियों के जीवन के साथ जिनसे वह जन्म, अभिरुचि या परिस्थिति के कारण सम्बद्ध होता है, कुछ हद तक एकीभूत कर लेता हैं । समुदाय की सत्ता उसकी अपनी सत्ता एवं तृप्ति के लिये आवश्यक है; अतएव, आरम्भ से नहीं तो समय आने पर, इसकी सुरक्षा, इसकी आवश्यकताओं की पूर्ति और इसके सामूहिक विचारों, कामनाओं एवं जीवन-अभ्यासों की चरितार्थता, जिनके बिना यह संयुक्त ही नहीं रह सकता, निश्चित रूप से प्रमुख स्थान ले लेती हैं । तब, वैयक्तिक विचार एवं भाव, आवश्यकता एवं कामना और प्रवृत्ति एवं प्रकृति की तृप्ति को किसी नैतिक या परोपकारात्मक प्रेरक-भाव के कारण नहीं, बल्कि परिस्थितिवश इस या उस अन्य व्यक्ति वा व्यक्तिसमूह के नहीं, बल्कि समूचे_ समाज के विचारों एवं भावों, आवश्यकताओं एवं कामनाओं और प्रवृत्तियों एवं प्रकृतियों की तृप्ति के निरन्तर अधीन करना होता है । यह सामाजिक आवश्यकता ही नैतिकता का तथा मनुष्य के सदाचारसम्बन्धी संवेग का गुप्त मूल है ।

 

     यह यथार्थ रूप से ज्ञात नहीं है कि किसी आदिम काल में मनुष्य अकेला या केवल अपनी संगिनी के संग रहता था जैसे कि कुछ-एक पशु रहते हैं । उसका सम्पूर्ण वृत्तान्त हमें बताता है कि वह एक सामाजिक प्राणी था, एकाकी शरीर और आत्मा नहीं । समुदाय का नियम सदैव उसके स्व-विकास के वैयक्तिक नियम पर सवार रहा है; प्रतीत होता है कि सदैव समूह के अन्दर एक इकाई के रूप में ही उसका जन्म, रहन-सहन तथा विकास हुआ है । परन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टिबिन्दु से, तर्कत: और स्वभावत:, वैयक्तिक आवश्यकता तथा कामना का नियम ही प्रधान होता है, सामाजिक नियम एक ऐसी गौण शक्ति के रूप में प्रवेश करता है जो बलपूर्वक अधिकार जमा लेती है । मनुष्य में दो विस्पष्ट प्रभुत्वशाली आवेग हैं, व्यक्तिप्रधान तथा संघप्रधान, वैयक्तिक जीवन तथा सामाजिक जीवन, आचार का वैयक्तिक प्रेरकभाव तथा आचार का सामाजिक प्रेरकभाव । इनके परस्पर-विरोध की सम्भावना तथा इनके साम्य को ढूंढ़ निकालने का प्रयत्न मानव-सभ्यता का वास्तविक मूल हैं तथा जब वह प्राणिक-शारीरिक उन्नति को अतिक्रान्त कर उच्चतया व्यष्टिभावापन्न मानसिक तथा आध्यात्मिक विकासक्रम में पहुंच जाता है तब भी ये किन्हीं अन्य रूपों में बने ही रहते हैं ।

 

      व्यक्ति से बहिःस्थित सामाजिक नियम का अस्तित्व भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में मनुष्यवर्तिनी दिव्यता के विकास में पर्याप्त लाभकारक अथवा हानिकारक होता है । प्रारम्भ में जब मनुष्य असंस्कृत एवं आत्म-संयम तथा आत्मोपलब्धि में अशक्त होता है तब यह लाभदायक होता है, क्योंकि यह उसके वैयक्तिक अहंभाव की

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शक्ति से भिन्न किसी शक्ति को खड़ा करता है जिसके द्वारा वह अहंभाव अपनी भीषण मांगों को संयत करने, अपनी अयुक्तियुक्त एवं प्रायः -उग्र चेष्टाओं को नियंत्रित करने और एक अधिक विस्तृत एवं कम व्यक्तिगत अहंभाव में अपने--आपको कभी-कभी विलीन तक कर देने के लिये प्रेरित वा बाधित किया जा सकता है । मानवीय सूत्र का अतिक्रमण करने को उद्यत परिपक्व आत्मा के लिये यह हानिकर होता है, क्योंकि यह एक बाह्य मानदंड है जो अपने-आपको बाहर से उस आत्मा पर लादने की चेष्टा करता है । किन्तु मनुष्य की पूर्णता की शर्त यह है कि वह अन्दर से तथा अधिकाधिक स्वतन्त्रता के साथ विकसित हो, अपने समुन्नत व्यक्ति-भाव को दबा करके नहीं, बल्कि इसका अतिक्रमण करके एवं अपने ऊपर थोपे गये किसी ऐसे नियम के द्वारा नहीं जो उसक अंगों को प्रशिक्षित तथा अनुशासित करे, बल्कि अन्दर से अपनी उस आत्मा के द्वारा विकसित हो जो सब पुराने रूपों को छिन्न-भिन्न करके उसके अंगों को अपने प्रकाश से अधिकृत कर लेती है तथा उनका रूपान्तर करती हे ।

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    समाज के अधिकारों और व्यक्ति के अधिकारों के पारस्परिक संघर्ष में दो आदर्श तथा चरम समाधान एक-दूसरे के सम्मुख उपस्थित होते हैं । समष्टि की मांग यह है कि व्यष्टि को अपने-आपको न्यूनाधिक पूर्णता के साथ समाज के वशीभूत अथवा अपनी स्वतंत्र सत्ता को समाज में विलीन तक कर देना चाहिये, छोटी इकाई को या तो बड़ी पर बलि चढ़ां देना चाहिये या उसे स्वयमेव अपनेको इसपर उत्सर्ग कर देना चाहिये । उसे समाज की आवश्यकता को अपनी आवश्यकता और समाज की कामना को अपनी कामना समझना चाहिये; उसे अपने लिये नहीं, बल्कि उस जाति, कुल, समाज या राष्ट्र के लिये जीना चाहिये जिसका वह सदस्य है । व्यक्ति के दृष्टिकोण से आदर्श एवं चरम समाधान एक ऐसा समाज होगा जिसका अस्तित्व अपने लिये या अपने सर्वातिशयी सामूहिक उद्देश्य के लिये न हो, बल्कि व्यक्ति के हित एवं पूर्णत्व के लिये तथा अपने सभी सदस्यों के महत्तर एवं पूर्णतर जीवन के लिये हो । यथासम्भव उसकी सर्वश्रेष्ठ आत्मा को निदर्शित करता हुआ तथा इसकी उपलब्धि में उसे सहायता पहुंचाता हुआ, यह अपने प्रत्येक सदस्य की स्वतंत्रता का मान करेगा तथा अपनी रक्षा किसी नियम और बल के द्वारा नहीं, बल्कि अपने अंगभूत व्यक्तियों की स्वतंत्र एवं सहज सहमति के द्वारा ही करेगा । इनमें से किसी भी प्रकार का आदर्श समाज कहीं भी नहीं है और जब तक व्यक्ति अपने अहंभाव को जीवन का प्रधान प्रेरक मानकर इससे चिपटा रहेगा तब तक ऐसे समाज का निर्माण करना अत्यन्त कठिन होगा

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और इसके अनिष्चित अस्तित्व को बनाये रखना तो और भी अधिक दुष्कर । अधिक सुगम उपाय यह है कि समाज व्यक्ति पर पूर्ण रूप से नहीं, बल्कि सामान्य रूप से शासन करे । प्रकृति प्रारम्भ से ही सहज-स्वभाववश इसी प्रणाली का अनुसरण करती है और कठोर नियम एवं अलंध्य लोकाचार के द्वारा तथा मानव प्राणी की अब तक वशवर्ती एवं अल्प विकसित बुद्धि को सावधानतापूर्वक अनुशासित करके इस प्रणाली को सन्तुलित रखती है ।

 

    आदिम समाजों में वैयक्तिक जीवन एक कठोर और अपरिवर्तनशील सांघिक रीति-रिवाज एवं नियम के अधीन पाया जाता है; यह मानवी समुदाय का एक प्राचीन तथा नित्यताभिलाषी नियम है जो सदा ही अविनाशी देव के सनातन आदेश, एष धर्मः सनातन:, का वेश धारण करने का यत्न करता है । यह आदर्श मानव मन से मिटा नहीं है; मानव-विकास की अत्यन्त अभिनव दिशा यह है कि मानव की आत्मा को दास बनाने के लिये सामूहिक जीवन की इस प्राचीन प्रवृत्ति का एक परिवर्द्धित एवं बहुमूल्य संस्करण प्रचलित किया जाय । किन्तु इसमें भूतल पर महत्तर सत्य तथा महत्तर जीवन के सर्वांगीण विकास के लिये एक बहुत बड़ा खतरा है । व्यक्ति की कामनाएं एवं स्वतन्त्र अन्वेषणाएं चाहे कैसी भी अहंकारमय क्यों न हों, अपने वर्तमान रूप में चाहे वे कैसी भी मिथ्या या विकृत क्यों न हों, फिर भी उनके प्रच्छन्न अणुओं में विकास का एक ऐसा बीज निहित है जो समष्टि के लिये अपरिहार्य है । व्यक्ति के अनुसंधानों और स्खलनों के मूल में एक ऐसी शक्ति निहित है जिसे सुरक्षित रखना तथा दिव्य आदर्श की प्रतिमूर्त्ति में रूपान्तरित करना अनिवार्य है । उस शक्ति को आलोकित तथा प्रशिक्षित करना तो आवश्यक है, किन्तु उसे दबा डालना अथवा केवल समाज की गाड़ी के भारी- भरकम पहिये को खींचने में ही लगा देना कदापि उचित नहीं ।

 

    चरम पूर्णता के लिये व्यक्तिवाद की भी उतनी ही आवश्यकता है जितनी समष्टि-भावना के मूल में निहित शक्ति की । व्यक्ति का गला घोंटना सहज ही मनुष्यवर्ती ईश्वर का गला घोंटने के समान ही हो सकता है । अपिच, मानवता के वर्तमान सन्तुलन में इस प्रकार का कोई वास्तविक भय कदाचित् ही हो सकता है कि अतिरञ्जित व्यक्तिवाद सामाजिक अखंड सत्ता को विभक्त कर डालेगा । पर इस बात की निरन्तर आशंका है कि कहीं समाजरूपी समुदाय का अतिमात्र दबाव अपने भारी अप्रकाशयुका यन्त्रसम बोझ से व्यक्तिगत आत्मा के स्वतन्त्र विकास को दबा ही न डाले अथवा अनुचित रूप से निरुत्साहित ही न कर दे । कारण, व्यष्टिगत मनुष्य को अपेक्षाकृत अधिक सुगमता से प्रकाशयुका एवं सचेतन बनाया जा सकता है और साथ ही उसे स्पष्ट प्रभावों के प्रति उन्मीलित भी किया जा सकता है; समष्टिगत मनुष्य अब तक भी अन्धकारयुक्त एवं अर्ध-चेतन है तथा उन वैश्व शक्तियों के द्वारा शासित है जो समष्टि के वश तथा ज्ञान से बाहर हैं ।

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    दमन और पंगुकरण के इस भय के विरुद्ध व्यक्ति की प्रकृति प्रतिक्रिया करती है । यह एक एकाकी प्रतिरोध के द्वारा भी प्रतिक्रिया कर सकती है और वह प्रतिरोध अपराधी के अन्धप्रेरित तथा पाशविक विद्रोह से लेकर एकान्तवासी तथा तपस्वी के पूर्ण परित्याग तक का रूप धारण कर सकता है । यह सामाजिक भावना में व्यक्तिवादी प्रवृत्ति के समर्थन के द्वारा भी प्रतिक्रिया कर सकती है, यह इस प्रवृत्ति को समष्टि-चेतना पर बलपूर्वक थोप कर वैयक्तिक तथा सामाजिक मांग में समझौता भी करा सकती है । परन्तु समझौता कोई समाधान नहीं होता; यह तो केवल कठिनाई को ताक पर धर देता है और अन्त में समस्या को और भी जटिल बनाकर उसके विचारणीय पहलुओं को कई गुना बढ़ा देता है । आवश्यकता है एक नये तत्त्व का आह्वान करने की जो इन दो विरोधी प्रवृत्तियों से भिन्न एवं उच्चतर हो तथा इन्हें पार कर जाने और साथ ही इनका समन्वय करने का सामर्थ्य रखता हो । प्राकृतिक वैयक्तिक नियम यह स्थापना करता है कि हमारी व्यक्तिगत आवश्यकताओं, अभिरुचियों तथा कामनाओं की पूर्ति ही आचार का एकमात्र मानदंड है और प्राकृतिक सांघिक नियम यह स्थापना करता है कि समूचे समाज की आवश्यकताओं, अभिरुचियों एवं कामनाओं की पूर्ति एक अधिक उत्कृष्ट मानदण्ड है । इन दोनों नियमों के ऊपर एक ऐसे आदर्श नैतिक नियम के विचार को जन्म लेना ही था जो आवश्यकता एवं कामना की पूर्ति-रूप न हो, बल्कि इन्हें एक आदर्श व्यवस्था के हित नियंत्रित करे, यहां तक कि इन्हें बलपूर्वक दबाये या विनष्ट करे, --एक ऐसी व्यवस्था के हित जो पाशविक, प्राणिक एवं शारीरिक नहीं, वरन् मानसिक हो और जो प्रकाश एवं ज्ञान तथा यथार्थ प्रभुत्व एवं यथार्थ गति और सत्य व्यवस्था के लिये मन की खोज की उपज हो । जिस क्षण यह विचार मनुष्य में प्रबल हो जाता है उसी क्षण से वह व्यस्तकारी प्राणिक तथा शारीरिक जीवन को त्यागकर मानसिक जीवन में प्रवेश करने लगता है; वह विश्व-प्रकृति के त्रिविध आरोहण के प्रथम सोपान से द्वितीय पर आरोहण करता है । उसकी आवश्यकताएं तथा इच्छाएं भी अपने प्रयोजन के उच्चतर प्रकाश से किश्चित प्रभावित हो जाती हैं; मानसिक आवश्यकता तथा सौन्दर्य-भावनात्मक, बौद्धिक एवं भावगत कामना भौतिक तथा प्राणिक प्रकृति की मांग पर प्रभुत्व करने लगती हैं ।

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    आचार का प्राकृतिक नियम शक्तियों, अन्त:प्रवृत्तियों तथा कामनाओं के संघर्ष से इनके सन्तुलन की ओर गति करता है; उच्चतर नैतिक नियम मानसिक तथा नैतिक प्रकृति के विकास के द्वारा एक स्थिर अन्तरीय मानदण्ड की ओर अथवा निरपेक्ष गुणों अर्थात् न्याय, सत्य, प्रेम, यथार्थ तर्क, यथार्थ सामर्थ्य, सौन्दर्य एवं

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 प्रकाश के एक स्वयं-रचित आदर्श की ओर बढ़ता है । अतएव, मूलतः, यह एक वैयक्तिक मानदण्ड है; यह समष्टि-मन की रचना नहीं है । विचारक व्यक्ति होता है; जो वस्तु अन्यथा रूपरहित मानवीय समष्टि में अवचेतन पड़ी रहती है उसे निकाल लाने तथा आकार देनेवाला भी वही होता है । नैतिक प्रयासी भी व्यक्ति होता है, बाह्य नियम के जूए तले आकर नहीं, प्रत्युत आभ्यन्तर प्रकाश के आदेशानुसार आत्म-साधना करना भी मूलतः एक वैयक्तिक प्रयत्न होता है । परन्तु अपने वैयक्तिक मानदण्ड को एक चरम नैतिक आदर्श के प्रतिरूप के तौर पर स्थापित करके विचारक इसे केवल अपने पर नहीं, अपितु उन सब व्यक्तियों पर, जिन तक उसका विचार पहुंच तथा पैठ सकता है, लाद देता है । जैसे-जैसे बहु-संख्यक लोग इसे विचार में अधिकाधिक स्वीकार करने लगते हैं, --चाहे व्यवहार में वे इसे बिल्कुल न मानें या केवल अधूरे तौर पर ही मानें, -वैसे-वैसे समाज भी नयी स्थिति का अनुसरण करने को बाधित होता है । यह विचारात्मक प्रभाव को आत्मसात् करता है तथा अपनी संस्थाओं को इन उच्चतर आदर्शों से ईषत् प्रभावित नये रूपों में ढाल देने का यत्न करता है, पर इसमें उसे कोई विशेष आश्चर्यजनक सफलता नहीं मिलती । सदा ही उसकी प्रवृत्ति इन्हें एक अनुल्लंघनीय नियम, आदर्श रीति-नीति, यांत्रिक विधि-विधान तथा अपनी सजीव इकाइयों पर एक बाह्य सामाजिक बलात्कार के रूप में परिणत कर देने की ओर होती है ।

 

    कारण, जब व्यक्ति अंशत: स्वतंत्र हो चुकता है, एक ऐसा नैतिक अवयवी बन चुकता है जो सचेतन विकास के योग्य, अन्तर्मुख जीवन से सज्ञान तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिये उत्सुक होता है, उसके बाद भी चिरकाल तक समाज अपनी परिपाटियों मे बाह्य बना रहता है, एक ऐसा भौतिक तथा आर्थिक संगठन बना रहता है जो यांत्रिक होता है; वह उन्नति तथा आत्म-पूर्णता की अपेक्षा स्थिति तथा स्व-रक्षा की ओर ही अधिक दत्तचित्त रहता है । वर्तमान काल में, स्वभावप्रेरित तथा स्थितिशील समाज पर विचारशाली तथा प्रगतिशील व्यक्ति ने यह एक बड़ी भारी विजय प्राप्त की है कि उसने अपने विचार-संकल्प से समाज को इस बात के लिये बाधित करने की शक्ति अधिगत कर ली है कि वह भी चिन्तन करे, सामाजिक न्याय एवं सत्याचरण तथा सांघिक सहानुभूति एवं पारस्परिक करुणा के विचार के प्रति अपने-आपको खोले, अपनी संस्थाओं की कसौटी के रूप में अन्ध प्रथा की अपेक्षा कहीं अधिक तर्क-बुद्धि के नियम की खोज करे और यह समझे कि उसके नियमों की न्याय्यता के लिये उसके सदस्यों की मानसिक तथा नैतिक सहमति कम-से-कम एक मुख्य तत्त्व अवश्य है । और, नहीं तो, एक आदर्श के रूप में समष्टि-मन के लिये अब यह मानना सम्भव हो चला है कि उसका अनुमतिदाता प्रकाश होना चाहिये, बल नहीं, यहां तक कि उसके दण्ड-विधान का लक्ष्य भी नैतिक विकास होना चाहिये, प्रतिशोध या दमन नहीं । भविष्य में विचारक

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की सबसे महान् विजय तब होगी जब वह व्यष्टि तथा समष्टि दोनों को इस बात के लिये प्रेरित कर सकेगा कि वे अपना जीवन-सम्बन्ध तथा इसकी एकता एवं स्थिरता स्वतंत्र तथा समस्वर सहमति और आत्म-अनुकूलन पर आधारित करें और आन्तर आत्मा को बाह्य रूप और रचना की यंत्रणा से दबा न डालें बल्कि बाह्य रूप को आन्तर सत्य के अनुसार निर्मित तथा नियंत्रित करें ।

 

    परन्तु यह जो सफलता उसने प्राप्त की है वह भी वास्तविक सफलता होने से कहीं अधिक एक बीजरूप वस्तु ही है । व्यक्ति में निहित नैतिक नियम तथा उसकी आवश्यकताओं एवं कामनाओं के नियम के बीच, समाज के समक्ष प्रस्तुत नैतिक नियम तथा जाति, कुल, धार्मिक संघ, समाज एवं राष्ट्र की भौतिक एवं प्राणिक आवश्यकताओं, कामनाओं, रीति-रिवाजों, पक्षपातों, स्वार्थों एवं आवेशों के बीच सदैव असामंजस्य तथा वैषम्य रहता है । नैतिकतावादी वृथा ही अपने चरम सदाचारसम्बन्धी मानदंड को उत्तोलित करता है तथा सबसे यह अनुरोध करता है कि वे परिणामों का विचार किये बिना ही इसके प्रति स्थिरनिष्ठ रहें । उसकी दृष्टि में व्यक्ति की आवश्यकताएं एवं कामनाएं--यदि ये नैतिक नियम के विरुद्ध हों तो--अयुक्त होती हैं और सामाजिक नियम भी--यदि यह उसकी औचित्य-भावना के विपरीत हो और यदि उसका अन्तःकरण भी इसे स्वीकार न करता हो तो--उसपर कोई अधिकार नहीं रख सकता । व्यक्ति के लिये उसका चरम समाधान यह है कि वह ऐसी कामनाओं और अधिकारों का पालन-पोषण न करे जो प्रेम, सत्य और न्याय से संगत न हों । समाज या राष्ट्र से वह मांग करता है कि यह सत्य, न्याय, मानवता और परम लोक-कल्याण की तुलना में अन्य सभी चीजों को, यहां तक कि अपनी सुरक्षा तथा अपने अत्यन्त आवश्यक हितों को भी, तुच्छ समझे ।

 

    कुछ-स्व महान् क्षणों को छोड़कर और किसी समय कोई भी व्यक्ति इन शिखरों तक ऊंचा नहीं उठता, आज तक उत्पन्न किसी भी समाज ने इस आदर्श को पूर्ण नहीं किया है । अथच नैतिकता तथा मानव-विकास की वर्तमान दशा में सम्भवतः कोई भी इसे पूर्ण नहीं कर सकता अथवा किसीको भी ऐसा नहीं करना चाहिये । प्रकृति ऐसा नहीं करने देगी, प्रकृति जानती है कि ऐसा नहीं होना चाहिये । पहला कारण यह है कि हमारे नैतिक आदर्श स्वयं अधिकांशत: अपूर्ण-विकसित, अज्ञानयुक्त तथा मनमाने हैं, ये आत्मा के सनातन सत्यों की प्रतिलिपियां होने की अपेक्षा कहीं अधिक मानसिक रचनाएं हैं । शास्रमूलक तथा दुराग्रहपूर्ण होने से ये कतिपय ऐकान्तिक मानदंडों को सिद्धान्त-रूप में प्रबलतया प्रतिपादित करते हैं, पर क्रियात्मक रूप में आचारशास्त्र की प्रत्येक विद्यमान पद्धति अव्यवहार्य सिद्ध होती है या वास्तव में उस ऐकान्तिक मानदंड से निरन्तर न्यून रहती है जिसका कि आदर्श दावा करता है । यदि हमारी आचारसम्बन्धी पद्धति कोई समझौता या कामचलाऊ चीज हो, तो यह अपनेको निःसत्त्व बनानेवाले उन और अगले समझौतों को भी

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तुरन्त औचित्य का आधार दे देगी जिन्हें करने के लिये समाज और व्यक्ति जल्दी मचाया करते हैं । और, यदि यह समझौता-न-करनेवाली दृढ़ता के साथ पूर्ण प्रेम, न्याय एवं सत्य का आग्रह करे, तो यह मानवीय सम्भाव्यता के शिखर से बहुत ऊंची चली जायगी और बगला भगति के साथ मानी तो जायगी, पर व्यवहार में उपेक्षित ही रहेगी । यहां तक भी देखने में आता है कि नैतिक पद्धति मानवता में विद्यमान उन अन्य तत्त्वों की अवगणना करती है जो जीवित बचे रहने के लिये इसके समान ही आग्रह करते हैं, पर नैतिक सूत्र की चारदीवारी के भीतर बन्द होने से इन्कार करते हैं । जिस प्रकार कामना के वैयक्तिक नियम में अनन्त अखंड वस्तु के कुछ ऐसे अमूल्य तत्त्व अन्तर्निहित हैं जिन्हें प्रबल सामाजिक विचार के अत्याचार से बचाना होता है, ठीक इसी प्रकार व्यष्टिगत मानव तथा समष्टिगत मानव दोनों के स्वभावज आवेगों में भी कुछ ऐसे बहुमूल्य तत्त्व अन्तनिर्हित हैं जो अब तक आविष्कृत किसी भी सदाचारसम्बन्धी सूत्र की सीमाओं से बाहर हैं और फिर भी चरम दिव्य पूर्णता की समृद्धि एवं समस्वरता के लिये आवश्यक हैं ।

 

    अपिच पूर्ण प्रेम, पूर्ण न्याय, पूर्ण सत्-तर्क व्याकुल तथा अपूर्ण मानवता के द्वारा वर्तमान काल में प्रयोग में लाये जाते हुए सहज ही संघर्षकारी तत्त्व बन जाते हैं । न्याय प्रायः उस चीज की मांग करता है जिससे प्रेम दूर भागता है । सत्-तर्क एक सन्तुष्टिकारक सूत्र या नियम की खोज में प्रकृति के तथा मानवीय सम्बन्धों के तथ्यों पर निष्पक्ष भाव से विचार करता हुआ पूर्ण न्याय या पूर्ण प्रेम के कैसे भी शासन को हेर-फेर के बिना स्वीकार नहीं कर पाता है । सच तो यह है कि मनुष्य का पूर्ण न्याय व्यवहार में अनायास ही महान् अन्याय सिद्ध होता है; क्योंकि उसका मन, अपनी रचनाओं में एकपक्षीय तथा कठोर होने के कारण, एकपक्षीय, आंशिक एवं उग्र योजना वा रचना प्रस्तुत करता हैं और उसकी सर्वांगता तथा पूर्णता का दावा भरता है, साथ ही वह उसके एक ऐसे प्रयोग का भी दावा भरता है जो वस्तुओं के सूक्ष्मतर सत्य एवं जीवन की नमनीयता की उपेक्षा करता है । हमारे सभी मानदंड कार्य में परिणत किये जाने पर या तो समझौतों की दोला में दोलायमान रहते हैं अथवा इस आंशिकता एवं अनमनीय रचना के कारण अपने लक्ष्य से चूक जाते हैं । मानवता एक से दूसरी स्थिति में डोलती रहती है; जाति परस्पर-विरोधी दावों से प्रेरित होकर टेढ़े-मेढ़े मार्ग पर चलती रहती है और, सर्वतोदृष्टया, प्रकृति के अभिमत को ही स्वाभाविक रूप में क्रियान्वित करती है, पर करती है बहुत अपव्यय तथा कष्टसहन के साथ । वह उस कार्य को सम्पन्न नहीं कर पाती जिसे वह चाहती या ठीक मानती है अथवा ऊपर से आनेवाली सर्वोच्च ज्योति शरीरधारी आत्मा से जिसकी मांग करती है ।

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    तथ्य यह है कि जब हम पूर्ण नैतिक गुणों के सिद्धान्त पर पहुंच जाते हैं तथा एक आदर्श नियम का निरपवाद एवं अलंध्य शासन स्थापित कर लेते हैं तब भी हम अपने अनुसंधान की समाप्ति पर नहीं पहुंच गये होते, न हमें कोई मोक्षकारक सत्य ही प्राप्त हो गया होता है । निःसन्देह, नैतिक नियम में एक ऐसी चीज निहित है जो हमें अपने अन्दर के अन्नमय तथा प्राणमय पुरुष के द्वारा सीमाबद्ध होने की स्थिति से ऊंचा उठने में सहायता देती है, एक ऐसा आग्रह निहित है जो मानवता की वैयक्तिक तथा सामूहिक आवश्यकताओं एवं कामनाओं का अतिक्रम कर जाता है, --ऐसी मानवता की जो अभी तक उस प्राणपूरित पार्थिव पंक में फंसी है जिसमें इसने अपनी जड़ें जमायी थीं । साथ ही, नैतिक नियम में एक ऐसी अभीप्सा भी निहित है जो हमें अपने अन्दर के मानसिक तथा नैतिक पुरुष को विकसित करने में सहायता देती है । अतएव, इस नये उन्नायक तत्त्व के रूप में हमें एक बड़े महत्त्व की प्राप्ति हुई है; इसके परिणामों ने पार्थिव प्रकृति के कठिन विकास में एक काफी महान् प्रगति को परिलक्षित किया है । इन नैतिक धारणाओं की अपर्याप्तता के पीछे कोई ऐसी चीज भी छिपी हुई है जो अवश्यमेव परम सत्य से सम्बद्ध है; इनमें एक ऐसे प्रकाश और बल की भी आभा है जो अब तक अप्राप्त दिव्य प्रकृति का अंग हैं । परन्तु इन चीजों की मानसिक धारणा वह प्रकाश नहीं है और न इनकी नैतिक परिकल्पना ही वह बल है । ये तो केवल मन की बनायी प्रतिनिधि रचनाएं हैं, ये उस दिव्य आत्मा को मूर्त्तिमान् नहीं कर सकतीं जिसे ये अपने सुनिश्चित सूत्रों में बांधने की व्यर्थ में चेष्टा करती हैं । परन्तु हमारे अन्दर के मनोमय तथा नैतिक पुरुष के परे एक महत्तर दिव्य पुरुष भी है जो आध्यात्मिक तथा अतिमानसिक है; क्योंकि विस्तीर्ण आध्यात्मिक स्तर के द्वारा ही, जहां मन के सूत्र साक्षात् आन्तर अनुभूति की शुभ्र ज्योति में विलीन हो जाते हैं, हम मन से परे पहुंच सकते हैं और इसकी रचनाओं का अतिक्रम कर अतिमानसिक सद्वस्तुओं की विशालता एवं स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं । वहीं हम उन दिव्य शक्तियों का सामंजस्य भी अनुभव कर सकते हैं जो हमारे मन के सामने तुच्छ और गलत रूप में उपस्थित की जाती हैं अथवा नैतिक नियम के संघर्षकारी वा दोलायमान तत्त्वों के द्वारा मिथ्या रूप में चित्रित की जाती हैं । वहीं रूपान्तरित प्राणमय तथा अन्नमय एवं ज्ञानदीप्त मनोमय पुरुष का उस अतिमानसिक आत्मा में एकीकरण सम्भव हो सकता है जो हमारे मन, प्राण और शरीर का गुप्त स्रोत है और साथ ही इनका लक्ष्य भी है । वहीं परम दिव्य ज्ञान की ज्योति में परस्पर एकीभूत पूर्ण न्याय, प्रेम एवं सत्याचरण की--जो उससे अत्यन्त भिन्न होता है जिसकी हम कल्पना करते हैं--किसी तरह की सम्भावना हो सकती है । वही हमारी सत्ता के अंगों के परस्पर-संघर्ष का सम्यक् समाधान हो सकता है ।

 

    दूसरे शब्दों में, समाज के बाह्य नियम तथा मनुष्य के नैतिक नियम के ऊपर

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और इनके परे भी एक सत्य एवं नियम है जिसे इनके अन्दर की कोई चीज शिथिल रूप में तथा अज्ञानपूर्वक अपना लक्ष्य बनाती है । यह एक बृहत् निर्बन्ध चेतना का विस्तीर्णतर सत्य है, एक दिव्य नियम है जिसकी ओर मनुष्य तथा समाज की ये अन्ध तथा स्थूल व्यवस्थाएं क्रमिक और स्खलनशील पगों सें बढ़ रही हैं । ये पग पशु के प्राकृतिक नियम को लांघ कर एक अधिक उन्नत प्रकाश या सार्वभौम नियम में पहुंचने का यत्न करते हैं । वह दिव्य मानदंड ही हमारी प्रकृति का परम आध्यात्मिक नियम और सत्य होना चाहिये, क्योंकि हमारे अन्दर का देवत्व हमारी आत्मा है जो अपनी गुप्त पूर्णता की ओर बढ़ रही है । और, फिर, क्योंकि हम संसार में ऐसे देहधारी जीव हैं जिनका एक-सा जीवन और प्रकृति है और साथ ही हम ऐसी व्यष्टि-आत्माएं हैं जो परात्पर के साथ सीधा सम्बन्ध जोड़ने में समर्थ हैं, हमारी आत्मा का यह परम सत्य द्विविध होना चाहिये । यह एक ऐसा नियम एवं सत्य होना चाहिये जो महान् आध्यात्मीकृत सामूहिक जीवन की पूर्ण गतिविधि, समस्वरता और लयताल की खोज करे और प्रकृति की विविधतापूर्ण एकता में प्रत्येक प्राणी तथा सभी प्राणयों के साथ हमारे सम्बन्धों को भी पूर्ण रूप से निर्धारित करे । साथ ही यह एक ऐसा नियम एवं सत्य भी होना चाहिये जो जीवधारी व्यक्ति की आत्मा तथा उसके मन, प्राण और शरीर में भगवान् की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति के लयताल और यथार्थ क्रमों को हमारे सामने प्रतिक्षण प्रकाशित करता रहे । अनुभव से हम देखते हैं कि कार्य का यह परम प्रकाश एवं बल अपने सर्वोच्च प्रकट रूप में एक अलंध्य नियम है और साथ ही पूर्ण स्वातंन्त्र भी । अलंध्य नियम तो यह इसलिये है कि एक शाश्वत सत्य के द्वारा यह हमारी प्रत्येक आन्तर तथा बाह्य चेष्टा को नियंत्रित करता है, परन्तु फिर भी क्षण- क्षण में और एक-एक चेष्टा में परम पुरुष का पूर्ण स्वातंत्र्य हमारी सचेतन और मुक्त प्रकृति की पूर्ण नमनीयता को प्रयोग में लाता है ।

 

    नैतिक आदर्शवादी अपने आचारसम्बन्धी ज्ञात तथ्यों में और मानसिक तथा नैतिक सूत्र से सम्बन्ध रखनेवाले हीनतर बलों और घटक-तत्त्वों में इस परम नियम को खोजने का यत्न करता है । अथच इन्हें धारित तथा व्यवस्थित करने के लिये वह आचार का एक आधारभूत तत्त्व चुन लेता है जो मूलत: निस्सार होता है तथा बुद्धि, उपयोगिता, भोगवाद, तर्कणा, अन्तर्ज्ञानात्मक विवेक-बुद्धि अथवा किसी अन्य सामान्यीकृत मानदंड से विरचित होता है । ऐसे सब प्रयत्नों का असफल होना पहले से ही निश्चित है । हमारी आन्तर प्रकृति नित्य आत्मा की एक प्रगतिशील अभिव्यक्ति है और यह ऐसी जटिल शक्ति है कि किसी एक प्रभुत्वशाली मानसिक

 

     अतएव गीता के अनुसार '' धर्म'' उस कार्य को कहते हैं जो हमारी आत्म-सत्ता की सारभूत प्रकृति के द्वारा नियंत्रित हो । धर्म वास्तव में एक ऐसा शब्द है जो मत-मजहब या नैतिकता से परे किसी और ही वस्तु को द्योतित करता है ।

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वा नैतिक सिद्धान्त से बांधी नहीं जा सकती । अतिमानसिक चेतना ही इसकी विभिन्न एवं परस्परविरुद्ध शक्तियों के समक्ष उनके आध्यात्मिक सत्य को प्रकाशित करके उनकी विषमताओं को समस्वर कर सकती है ।

 

    अर्वाचीनतर धर्म आचार के परम सत्य की आदर्शमूर्त्ति को स्थिर करने, किसी पद्धति को स्थापित करने तथा अवतार या पैगम्बर के मुख से ईश्वरीय नियम को घोषित करने का प्रयत्न करते हैं । ये पद्धतियां नीरस नैतिक धारणा की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली एवं क्रियाशील होती हुई भी, अधिकांश में, उस नैतिक तत्त्व के आदर्शवादात्मक गुणगान के अतिरिक्त कुछ नहीं होतीं जो धार्मिक भाव से तथा अपने अतिमानवीय उद्गम की छाप से पवित्रीकृत होता है । ईसाई आचार-शास्त्र-जैसी कई एक चूड़ान्त पद्धतियां भी प्रकृति के द्वारा त्याग दी जाती हैं, क्योंकि वे अव्यवहार्य ऐकान्तिक नियम पर अक्रियात्मक रूप से आग्रह करती हैं । अन्य कई पद्धतियां अन्त में विकासात्मक समझौते ही सिद्ध होती हैं और काल-प्रवाह के अग्रसर होने पर उनका कुछ प्रयोजन नहीं रह जाता । यथार्थ दिव्य नियम इन मानसिक मिथ्या रूपों से भिन्न है । यह उन कठोर नैतिक निर्णयों की पद्धति नहीं हो सकता जो हमारी सभी जीवन-गतियों को जर्बदस्ती अपने कड़े सांचों में ढालने का यत्न करते हैं । दिव्य नियम तो जीवन तथा आत्मा का सत्य है और यह, निश्चय ही, हमारे कर्म के प्रत्येक क्रम को तथा हमारे जीवनप्रश्नों की सारी जटिलताओं को एक स्वतंत्र एवं सजीव नमनीयता के साथ अपनावेगा और उन्हें अपने शाश्वत प्रकाश के साक्षात् स्पर्श से अनुप्राणित कर देगा । निस्सन्देह, यह किसी नियम एवं सूत्र की तरह नहीं, बल्कि उस सर्वतोव्यापी तथा अन्तर्व्यापी चेतन उपस्थिति के रूप में कार्य करेगा जो हमारे सब विचारों, कर्मों भावों और संकल्पावेगों को अपने अचूक बल एवं ज्ञान के द्वारा निर्धारित करती है ।

 

    प्राचीनतर धर्मों ने मनीषियों के धर्मसूत्र, मनु या कन्फ्यूशस के स्मृतिवाक्य और एक ऐसे गहन शास्त्र  की स्थापना की जिसमें उन्होंने सामाजिक नियम तथा नैतिक सिद्धान्त को और हमारी उच्चतम प्रकृति के कतिपय नित्य तत्त्वों के निरूपण को एक प्रकार के एकीकारक मिश्रण में मिला देने का यत्न किया । इन तीनों का उन्होंने एक समान आधार पर वर्णन किया, --इस आधार पर कि ये तीनों ही, समान रूप से, नित्य सत्यों या सनातन धर्म की अभिव्यक्ति हैं । परन्तु इनमें से दो तो विकसनशील तत्त्व हैं और कुछ काल के लिये वे युक्तियुक्त होते हैं, वे मानसिक रचनाएं किंवा सनातन देव की इच्छा की मानवकृत व्याख्याएं हैं; तीसरे के लिये कुछ सामाजिक एवं नैतिक सूत्रों से सम्बद्ध तथा उनके वशीभूत होने के कारण, अपने रूपों के भाग्य में भागीदार होना ही बदा है । फलतः, या तो शास्त्र अव्यवहार्य हो जाता है और इसे उत्तरोत्तर परिवर्तित करना या अन्तिम रूप से त्याग देना होता है अथवा यह व्यक्ति तथा जाति की आत्मोन्नति में अत्यधिक बाधक

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बना रहता है । यह एक सामूहिक तथा बाह्य मर्यादा खड़ी करता है और व्यक्ति की आन्तर प्रकृति की अर्थात् उसके अन्दर की गूढ़ अध्यात्म-शक्ति के अनिर्धार्य तत्त्वों की अवहेलना करता है । परन्तु व्यक्ति की प्रकृति की उपेक्षा नहीं हों सकती; इसकी मांग अलंध्य है । बाह्य आवेगों का असंयत उपभोग करने से व्यक्ति अराजकता तथा विध्वंस की स्थिति में जा पड़ता है, किन्तु किसी निश्चित यांत्रिक नियम के द्वारा उसकी आत्मा की स्वतन्त्रता को कुचलने तथा दबा देने से उसका विकास रुक जाता है अथवा उसकी आन्तरिक मृत्यु हो जाती है । अतएव, इस प्रकार का बाह्य दमन या निर्धारण नहीं, वरन् अपनी उच्चतम आत्मा की स्वतंत्र खोज तथा शाश्वत गति का सत्य ही वह परमार्थ है जो उसे उपलब्ध करना है ।

 

    उच्चतर नैतिक नियम को व्यक्ति अपने मन तथा संकल्प एवं आन्तरात्मिक अनुभूति में खोज निकालता है और फिर उसे जाति में व्यापक बनाता है । परम नियम की खोज भी व्यक्ति को ही अपनी आत्मा में करनी होगी । उसके बाद ही वह इसे आध्यात्मिक प्रभाव के द्वारा-मानसिक विचार के बल पर नहीं--दूसरों तक विस्तारित कर सकता है । किसी नैतिक नियम को कुछ एक ऐसे मनुष्यों पर एक नियम या आदर्श के रूप में आरोपित किया जा सकता है जिन्होंने चेतना की वह भूमिका या मन, संकल्प और आन्तरात्मिक अनुभव की वह सूक्ष्मता अधिगत न की हो जिसमें यह नियम या आदर्श उनके लिये वास्तविक वस्तु और सजीव शक्ति बन सकता है । एक आदर्श के रूप में इसे तनिक भी व्यवहार में लाने की आवश्यकता के बिना इसकी पूजा भी की जा सकती है । एक नियम के तौर पर इसके बाह्य रूप में इसका पालन भी किया जा सकता है चाहे इसका आन्तरिक आशय सर्वथा छूट ही क्यों न जाय । पर अतिमानसिक तथा आध्यात्मिक जीवन ऐसे ढंग से यन्त्रवत् नहीं चलाया जा सकता, उसे मानसिक आदर्श वा बाह्य नियम का रूप नहीं दिया जा सकता । उसकी अपनी ही महान् सरणियां हैं, किन्तु उन्हें वास्तविक बनाने की आवश्यकता है, वे व्यक्ति की चेतना में अनुभूत सक्रिय शक्ति की कार्य-प्रणालियां तथा मन, प्राण एवं शरीर का रूपान्तर करने में समर्थ सनातन सत्य की प्रतिलिपियां होनी चाहियें । और, क्योंकि यह इस प्रकार वास्तविक, कार्यक्षम तथा अनिवार्य है, अतिमानसिक चेतना और आध्यात्मिक जीवन को सार्वभौम बनाना ही एकमात्र ऐसी शक्ति है जो इस भूतल के सर्वोच्च प्राणियों में व्यक्तिगत और सामूहिक पूर्णता का मार्ग प्रशस्त कर सकती है । दिव्य चेतना तथा उसके पूर्ण सत्य के साथ हमारा सतत सम्बन्ध स्थापित होने से ही चिन्मय भगवान् या क्रियाशील ब्रह्म का कोई रूप-विशेष हमारी पार्थिव सत्ता का उद्धार कर सकता है तथा इसके कलह, स्खलन, दुःखों और असत्यों को परम ज्योति, शक्ति एवं आनन्द की प्रतिमूर्त्ति में रूपान्तरित कर सकता है ।

 

    परम पुरुष के साथ आत्मा के ऐसे अविच्छिन्न सम्बन्ध की पराकाष्ठा ही

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आत्मदान है । इसीको हम भगवत्संकल्प के प्रति समर्पण तथा पृथग्भूत अहं का सर्वमय 'एक' में निमज्जन कहते हैं । आत्मा की बृहत् विश्वमयता एवं सबके साथ प्रगाढ़ एकता ही अतिमानसिक चेतना तथा आध्यात्मिक जीवन की भित्ति और अनिवार्य स्थिति है । उस विश्वमयता तथा एकता में ही हम देहधारी आत्मा के जीवन के भीतर दिव्य अभिव्यक्ति का परम नियम ढूंढ़ सकते हैं; उसीमें हम अपनी वैयक्तिक प्रकृति की परम गति-विधि तथा यथार्थ लीला का पता पा सकते हैं । उसीमें ये सब निम्नतर विषमताएं इन व्यक्त जीवों के बीच--जो एकमेव परमेश्वर के अंश तथा एक ही विश्व-जननी की संतानें हैं,--सच्चे सम्बन्धों की विजयी समस्वरता में परिणत हो सकती हैं ।

 

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     समस्त आचार तथा कर्म उस बल एवं शक्ति की गति का अंग हैं, जो अपने उद्गम, गूढ़ आशय तथा संकल्प में अनन्त एवं दिव्य है, चाहे उसके ये रूप जिन्हें हम देखते हैं निश्चेतन या अज्ञानयुक्त, भौतिक, प्राणिक, मानसिक तथा सांत ही क्यों न प्रतीत होते हों । यह शक्ति व्यष्टिगत तथा समष्टिगत प्रकृति की अन्धता में भगवान् तथा अनन्त के किन्चित अंश को उत्तरोत्तर प्रकाशित करने के लिये कार्य कर रही है । यह ज्योति की ओर ले चल रही है पर अभी अविद्या के द्वारा ही । पहले-पहल यह मनुष्य को उसकी आवश्यकताओं एवं कामनाओं में से राह दिखाती है; तदनंतर यह उसे उसकी विस्तारित आवश्यकताओं तथा कामनाओं में से, जो मानसिक तथा नैतिक आदर्श से संयत एवं आलोकित होती हैं, परिचालित करती है । यह उसे एक ऐसी आध्यात्मिक चरितार्थता की ओर ले जाने की तैयारी कर रही है जो इन सब चीजों को पार कर जायगी और फिर भी इनके भाव तथा प्रयोजन में जो कुछ भी दिव्यतया सत्य है उस सबमें इन्हें कृतार्थ तथा समन्वित करेगी । आवश्यकताओं तथा कामनाओं को यह दिव्य संकल्प तथा आनन्द में रूपान्तरित कर देती है । मानसिक तथा नैतिक अभीप्सा को यह सत्य तथा पूर्णत्व की ऐसी शक्तियों में रूपान्तरित कर देती है जो इनसे परे हैं । वैयक्तिक प्रकृति के खंडित प्रयास एवं पृथक् अहं के क्षोभ और संघर्ष के स्थान पर यह हमारे अन्दर के विश्वात्मभूत पुरुष, केंद्रीय सत्ता एवं परम आत्मा की अंशरूप आत्मा का शान्त, गम्भीर, समस्वर और कल्याणकर नियम प्रतिष्ठित करती है । हमारे अन्दर का यह सच्चा पुरुष विश्वमय होने के कारण अपनी पृथक् तृप्ति की खोज नहीं करता, बल्कि केवल यही चाहता है कि प्रकृति के अन्दर इसकी बाह्य अभिव्यक्ति में इसके वास्तविक स्वरूप का विकास हो, इसकी आन्तरिक दिव्य आत्मा, तथा इसके अन्दर की वह परात्पर आध्यात्मिक शक्ति एवं उपस्थिति प्रकट हों जो सभी के

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साथ एकमय है और प्रत्येक पदार्थ एवं प्राणी तथा दिव्य सत्ता के समस्त सामूहिक व्यक्तित्व और शक्तियों के साथ भी समरस है । साथ ही यह सच्चा पुरुष इन सब को अतिक्रान्त भी कर जाता है तथा किसी प्राणी या समुदाय के अहंभाव में नहीं बंधता और न उनकी निम्न प्रकृति के अज्ञ नियंत्रणों द्वारा सीमित ही होता है । हमारे समस्त अन्वेषण और प्रयास की तुलना में यह एक उच्च उपलब्धि है, यह हमारी प्रकृति के सभी तत्त्वों के पूर्ण समन्वय तथा रूपान्तर का निश्चित आश्वासन देती है । शुद्ध, समग्र और निर्दोष कार्य तो केवल तभी किया जा सकता है जब यह

 उपलब्धि सम्पन्न हो जाय तथा हम अपने अन्दर के इस गुप्त देवाधिदेव का उच्च स्तर प्राप्त कर लें ।

 

     पूर्ण अतिमानसिक कर्म किसी एक ही मूलसूत्र या सीमित नियम का अनुसरण नहीं करेगा । व्यष्टिभूत अहंवादी के या किसी संगठित समष्टिमन के मानदंड को यह सम्भवतः पूरा नहीं करेगा । यह न तो संसार के पक्के व्यावहारिक मनुष्य की मांग के अनुसार चलेगा, न लोकाचारी नैतिकतावादी की, न देशभक्त की, न भावनाप्रधान विश्वप्रेमी की और न ही आदर्शस्रष्टा दार्शनिक की । एक आलोकित एवं ऊर्ध्वीकुत सत्ता, इच्छा-शक्ति तथा ज्ञान की अखंडता में यह शिखरों पर से एक स्वतःप्रवृत्त स्रोतस्स्रवण के द्वारा उदभूत होगा न कि किसी निर्वाचित, अवधारित एवं मर्यादित क्रिया के द्वारा जो बौद्धिक तर्क वा नैतिक संकल्प से प्राप्त होनेवाली अन्तिम चीज होती है । इसका एकमात्र ध्येय होगा-हमारे अन्दर निहित देवत्व को प्रकट करना और लोकसंग्रह करना अर्थात् संसार को एक साथ सम्बद्ध रखना तथा भावी अभिव्यक्ति की ओर आगे बढ़ाना । यह भी इसका ध्येय और प्रयोजन तो बहुत कम होगा, अधिकांश में यह सत्ता का एक स्वत:स्फूर्त्त नियम तथा दिव्य सत्य के प्रकाश और इसके स्वयं गतिशील प्रभाव के द्वारा कार्य का सहज निर्धारण ही होगा । यह उसी प्रकार निःसृत होगा जिस प्रकार प्रकृति का कार्य उसके मूल-स्थित समग्र संकल्प और ज्ञान से निःसृत होता है । पर वह संकल्प तथा ज्ञान अब और इस अज्ञ प्रकृति में तमसाच्छन्न नहीं रहेंगे, बल्कि चिन्मय परमा प्रकृति में आलोकित होंगे । यह एक ऐसा कार्य होगा जो द्वंद्वों से बंधा हुआ नहीं होगा, वरन् उस एकसार आनन्द में परिपूर्ण और विशाल होगा जो आत्मा को सत्तामात्र में उपलब्ध होता है । पीड़ित तथा अज्ञानग्रस्त अहं की व्यग्रताओं और स्खलनों का स्थान दिव्य शक्ति तथा प्रज्ञा की मंगलकारी एवं अन्त:स्फूरित गति ले लेगी और यह शक्ति एवं प्रज्ञा ही हमें प्रेरित और प्रचालित करेगी ।

 

     यदि ईश्वरीय हस्तक्षेप के किसी चमत्कार से सम्पूर्ण मानवजाति एक साथ इस स्तर तक उठायी जा सके तो इसके फलस्वरूप इस भूतल पर परम्परा-प्रसिद्ध स्वर्णयुग या सत्ययुग अर्थात् सत्य के या सच्चे जीवन के युग जैसी कोई वस्तु हमें प्राप्त हो जायगी । सत्ययुग का चिह्न यह होता है कि दिव्य नियम प्रत्येक प्राणी में

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स्वत:स्फूर्त्त एवं सचेतन होता है और अपने कार्य पूर्ण समस्वरता तथा स्वतंत्रता के साथ करता है । पृथक्कारक विभाजन नहीं, बल्कि एकता और सार्वभौमता जाति की चेतना की आधारशिला होगी । प्रेम निरपेक्ष होगा; समानता धर्मशासन के साथ संगत और विभिन्नता में भी परिपूर्ण होगी । पूर्ण न्याय हमारी अन्तःसत्ता की, --जो पदार्थों के और अपने तथा दूसरों के स्वरूप के सत्य के साथ समस्वर है और अतएव यथार्थ तथा युक्त परिणाम के सम्बन्ध में विश्वस्त है, --एक स्वत:स्फूर्त क्रिया के द्वारा उपलब्ध होगा । सत्-तर्क अब पूर्ववत् मानसिक नहीं, वरन् अतिमानसिक होगा और वह कृत्रिम मापदब्दों के पर्यवेक्षण से नहीं, बल्कि युक्त सम्बन्धों के स्वतंत्र और सहज बोध तथा उनकी अनिवार्य कार्यान्विति के द्वारा ही सन्तुष्टि अनुभव करेगा । व्यक्ति और समाज में कलह या समाज-समाज में दुःखदायी संघर्ष नहीं रहने पायेगा । देहधारी जीवों में निहित सार्वभौम चेतना एकता में समरस विविधता को सुनिश्चित आधार प्रदान करेगी ।

 

     मानवजाति की वर्तमान अवस्था में, सर्वप्रथम, व्यक्ति को ही मार्गदर्शक तथा नायक के रूप में इस शिखर पर आरोहण करना होगा । निश्चय ही, उसका एकाकीपन उसके बाह्य कार्यों को एक ऐसी दिशा और रूप दे देगा जो सचेतनत: --दिव्य सामूहिक कार्य की दिशा और रूप से सर्वथा भिन्न होंगे । उसके कार्यों की मूल भित्ति एवं आन्तरिक भूमिका तो वही होगी, किन्तु स्वयं कार्य उनसे बहुत भिन्न हो सकते हैं जैसे वे अज्ञानमुक्त भूतल पर होंगे । तथापि उसकी चेतना और उसके आचार की दिव्य यांत्रिकता--यदि इस प्रकार का शब्द इतनी स्वतंत्र वस्तु के लिये बरता जा सकता हो--वैसी ही होगी जैसी कि वर्णित की गयी है । यह प्राणिक अपवित्रता, कामना और अशुद्ध आवेग के प्रति उस दासता से मुक्त होगी जिसे हम पाप के नाम से पुकारते हैं, यह निर्दिष्ट नैतिक सूत्रों के उस नियंत्रण से बंधी हुई नहीं होगी जिसे हम पुण्य का नाम देते हैं । यह मन से अधिक महान् चेतना में सहज रूप से निश्चयात्मक, पवित्र एवं पूर्ण होगी और पद-पद पर आत्मा के प्रकाश तथा सत्य से परिचालित होगी । परन्तु जो लोग अतिमानसिक पूर्णता प्राप्त कर चुके हों उनका यदि कोई समूह या समुदाय बनाया जा सके, तो निश्चय ही वहां एक दिव्य सृष्टि मूर्तिमन्त हो सकेगी; एक नयी पृथ्वी अवतरित हो सकेगी जो नूतन स्वर्ग होगी, इस पार्थिव अज्ञान के तिरोहित होते हुए अन्धकार में विज्ञानमय ज्योति के जगत् का यहां सर्जन हो सकेगा ।

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अध्याय ८

 

परम इच्छाशक्ति

 

 आत्मा की इस विकसनशील अभिव्यक्ति के प्रकाश में, --उस आत्मा की जो पहले प्रत्यक्षत: अज्ञान में बद्ध होती है और पीछे अनन्त की शक्ति तथा प्रज्ञा में स्वतंत्र होती है, --हम कर्मयोगी के प्रति गीता के इस महान् एवं सर्वोच्च उपदेश को अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं कि, ''सब धर्मों अर्थात् आचार-व्यवहार के सब सिद्धान्तों, विधानों एवं नियमों को त्यागकर केवल मेरी ही शरण ले ।''  सभी मानदण्ड और नियम कुछ ऐसी अस्थायी रचनाएं होते हैं जो जड़-प्रकृति से आत्मा की ओर संक्रमण करते हुए अहं की आवश्यकताओं पर आधारित होती हैं । निःसन्देह ये सामयिक उपाय सापेक्ष रूप में अनिवार्य होते हैं जब तक कि हम संक्रमण की अवस्थाओं से तृप्त, शरीर और प्राण के जीवन से सन्तुष्ट एवं मन के व्यापार में आसक्त रहते हैं, अथवा मानसिक स्तर के उन प्रदेशों में ही आबद्ध रहते हैं जो आध्यात्मिक दीप्तियों के द्वारा थोड़े-बहुत प्रभावित हैं । परन्तु इनके परे एक असीम अतिमानसिक चेतना की निर्बाध विशालता है जहां सभी अस्थायी रचनाओं का अन्त हो जाता है । यदि हममें ऐसा विश्वास एवं साहस नहीं है कि हम अपने--आपको सर्वलोकमहेश्वर तथा सर्वभूत-सुहृत् के हाथों में सौंप दें और अपनी मानसिक सीमाओं एवं मर्यादाओं का पूरी तरह से त्याग कर दें तो सनातन तथा अनन्त के आध्यात्मिक सत्य में पूर्ण रूप से प्रवेश करना हमारे लिये सम्भव नहीं हो सकता । एक-न-एक समय हमें निःशेष भाव से, संकोच, भय वा संशय के बिना, मुक्त, अनन्त तथा परिपूर्ण ब्रह्म के महासागर में डुबकी लगानी ही होगी । विधान से परे हैं मुक्तता; वैयक्तिक मापदण्डों और सार्वजनिक एवं सार्वभौम मापदंडों के परे कोई अधिक महान् वस्तु है, एक निर्वैयक्तिक नमनीयता, दिव्य स्वतंत्रता, लोकोत्तर बल एवं स्वर्गीय सम्वेग है । आरोहण के संकीर्ण पथ के पश्च्यात ही शिखर पर विस्तृत अधित्यकाएं आती हैं ।

 

     आरोहण के तीन क्रम हैं, --सबसे नीचे शारीरिक जीवन है जो आवश्यकता तथा कामना के दबाव के वशीभूत है, मध्य में मानसिक, उच्चतर भावमय तथा आन्तरात्मिक नियम है जो महत्तर हितों, अभीप्साओं, अनुभवों एवं विचारों को टोहता है और शिखर पर पहले तो गम्भीरतर आन्तरात्मिक तथा आध्यात्मिक भूमिका है और फिर अतिमानसिक नित्य चेतना है जिसमें हमारी सब अभीप्साएं एवं जिज्ञासाएं अपना अन्तरीय अर्थ जान लेती हैं । शारीरिक जीवन में सर्वप्रथम कामना एवं आवश्यकता और तदनन्तर व्यक्ति तथा समाज के क्रियात्मक हित ही प्रभुत्वशाली विचार तथा प्रधान प्रेरकबल होते हैं । मानसिक जीवन में विचारों तथा

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आदर्शों का प्रभुत्व होता है--उन विचारों का जो सत्य का वेश धारण किये हुए अर्द्ध-प्रकाश होते हैं, तथा उन आदर्शों का जो वर्धमान पर अपूर्ण अन्तर्ज्ञान एवं अनुभव के परिणाम के रूप में मन के द्वारा विरचित होते हैं । जब कभी मानसिक जीवन प्रबल होता है तथा शारीरिक जीवन अपना पाशविक आग्रह कम कर देता है, तब मनुष्य--मनोमय प्राणी--अपने-आपको मानसिक प्रकृति के उस आवेग से प्रेरित अनुभव करता है जो व्यक्ति के जीवन को विचार वा आदर्श की भावना में ढाल देने का आवेग होता है, और अन्त में समाज का अधिक अनिश्चित एवं अधिक जटिल जीवन भी इस सूक्ष्म प्रक्रिया में से गुजरने को बाध्य होता है । आध्यात्मिक जीवन में अथवा उस अवस्था में जब मन से अधिक ऊंची शक्ति प्रकट हो चुकती है तथा प्रकृति को अपने अधिकार में कर लेती है, ये सीमित प्रेरक-बल पीछे हटने लगते हैं और क्षीण तथा लुप्त होते जाते हैं । तब, एकमात्र, आध्यात्मिक वा अतिमानसिक आत्मा, भागवत पुरुष या परात्पर तथा विश्वगत सत्तत्त्व ही हमारा ईश्वर होता है और वही हमारी प्रकृति के नियम या 'स्व- धर्म' की उच्चतम, विशालतम एवं सर्वांगीणतम सम्भव अभिव्यक्ति के अनुसार हमारे चरम विकास को स्वच्छन्दतापूर्वक गढ़ता है । अन्त में हमारी प्रकृति पूर्ण सत्य तथा इसकी सहज स्वतंत्रता में कार्य करने लगती है; क्योंकि वह केवल सनातन की ज्योतिर्मय शक्ति का ही अनुसरण करती है । व्यक्ति के लिये तब और कोई चीज प्राप्त करने को नहीं रह जाती, न कोई कामना ही पूर्ण करने को शेष रहती है; वह तो सनातन के निर्वैयक्तिक स्वरूप या विराट् व्यक्तित्व का अंश बन जाता है । जीवन में भागवत आत्मा को अभिव्यक्त और लीलायित करना तथा दिव्य लक्ष्य की ओर यात्रा करते हुए संसार का धारण और परिचालन करना--इन उद्देश्यों को छोड़ कर और कोई उद्देश्य तब उसे कार्य के लिये प्रेरित नहीं कर सकता । मानसिक धारणाएं सम्मतियां और कल्पनाएं तब और उसकी अपनी नहीं रहतीं; क्योंकि उसका मन निश्चल-नीरव हो जाता है, यह तब दिव्य ज्ञान के प्रकाश तथा सत्य की प्रणालिकामात्र होता है । आदर्श उसकी आत्मा की विशालता के लिये अत्यन्त संकीर्ण हो जाते हैं; उसके अन्दर तो अनन्त का महासागर सदा हिलारें मारता और उसे गति देता रहता है ।

 

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      जो कोई भी व्यक्ति सच्चाई के साथ कर्मों के पथ पर आरूढ़ होता है उसे उस अवस्था को, जिसमें आवश्यकता तथा कामना हमारे कार्यों का प्रथम नियम होती हैं, कोसों दूर छोड़ देना होगा । कारण, जो भी इच्छाएं अभी तक उसकी सत्ता को व्याकुल करती हैं उनको उसे--यदि वह योग के उच्च ध्येय को अपनाता है

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तो--अपने से पृथक् कर अपने अन्दर स्थित ईश्वर के हाथों में सौंप देना होगा । परा शक्ति साधक के और सर्वजन के मंगल के लिये उन इच्छाओं के साथ यथायोग्य बर्ताव करेगी । क्रियात्मक रूप में हम यह देखते हैं कि जब एक बार ऐसा समर्पण कर दिया जाता है, -- हां, इसके साथ सच्चा परित्याग भी सदैव आवश्यक होता है, --तब भी पुरानी प्रकृति के अविरत आवेग के वश कामना के अहंमूलक उपभोग की प्रवृत्ति कुछ काल के लिये उभर सकती है । परन्तु वह केवल इसलिये उभरती है कि कामना के अर्जित आवेग को समाप्त कर दे तथा इसकी प्रतिक्रियाओं द्वारा, इसके दुःख तथा बेचैनी द्वारा--जो उच्चतर शान्ति की प्रसादपूर्ण घड़ियों किंवा दिव्य आनन्द की अद्भुत गतियों से तीव्र रूप में भिन्न होते हैं--शरीरधारी प्राणी की सत्ता के अत्यन्त अशिक्षणीय अंग को, उसकी स्नायविक, प्राणिक एवं भाविक प्रकृति को भी यह सिखा दे कि अहंभावमयी कामना उस आत्मा के लिये नियम नहीं होती जो मुक्ति चाहती है अथवा अपनी मूल देव- प्रकृति के लिये अभीप्सा करती हैं, फिर भी उन प्रवृत्तियों के अन्दर कामना का जो तत्त्व है वह आगे चलकर एक अनवरत वर्जक और रूपान्तरकारी दबाव के द्वारा निकाल फेंका जायगा या दृढ़तापूर्वक दूर कर दिया जायगा । केवल उनके अन्दर की वह शुद्ध क्रिया-शक्ति (प्रवृत्ति) ही जो ऊपर से प्रेरित या आरोपित समस्त कर्म तथा फल में एक समान आनन्द लेने के कारण अपना औचित्य सिद्ध करती है, अन्तिम पूर्णता के सुखद सामंजस्य में सुरक्षित रखी जायगी । कर्म करना एवं उपभोग करना स्नायवीय सत्ता का स्वाभाविक नियम तथा अधिकार है; किन्तु वैयक्तिक कामना के द्वारा अपने कर्म तथा भोग का चुनाव करना उसकी एक अज्ञानयुक्त इच्छामात्र है, उसका अधिकार नहीं । चुनाव तो परम तथा वैश्व इच्छाशक्ति को ही करना होगा; कर्म को उस परम इच्छाशक्ति की प्रबल गति में बदल जाना होगा; भोग का स्थान शुद्ध आध्यात्मिक आनन्द की क्रीड़ा को लेना होगा । समस्त वैयक्तिक इच्छा या तो ऊपर से प्राप्त अस्थायी प्रतिनिधित्व होती है या अज्ञानी असुरके द्वारा परकीय स्वत्व का अपहरण ।

 

     सामाजिक नियम अर्थात् हमारी उन्नति की दूसरी अवस्था एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा अहं को वश में रखा जाता है, इसलिये कि वह विस्तीर्णतर सामूहिक अहं के अधीन रहकर अनुशासन सीख सके । यह नियम किसी भी नैतिक अर्थ से सर्वथा शून्य हो सकता है और केवल समाज की आवश्यकताओं या क्रियात्मक हित को--हित के विषय में किसी समाज की जैसी भी कल्पना हो उसके अनुसार--प्रकट कर सकता है । अथवा यह उन आवश्यकताओं और उस हित को एक ऐसे रूप में भी प्रकट कर सकता है जो एक उच्चतर नैतिक या आदर्श नियम के द्वारा संशोधित, रंजित तथा परिपूरित हो । जो व्यक्ति विकास कर रहा है, पर अभी तक पूर्णत: विकसित नहीं दुआ है उसके लिये यह नियम सामाजिक कर्त्तव्य,

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पारिवारिक दायित्व, सांप्रदायिक या राष्ट्रीय मार्ग के रूप में तब तक अनिवार्य ही होता है जब तक कि यह उच्चतर शुभ-विषयक उसकी प्रगतिशील भावना के विरुद्ध नहीं होता । परन्तु कर्मयोग का साधक इसे भी कर्मों के स्वामी पर उत्सर्ग कर देगा । जब वह इस प्रकार का समर्पण कर चुकेगा, उसके बाद से उसके सामाजिक आवेग तथा निर्णय, उसकी कामनाओं की भांति ही, केवल इसलिये उपयोग में लाये जायेंगे कि वे सर्वथा समाप्त हो जायें । अथवा जहां तक ये कुछ काल के लिये अभी भी आवश्यक होंगे वहां तक ये सम्भवतः उसे इस योग्य बनाने के लिये काम में लाये जायेंगे कि वह अपनी निम्नतर मानसिक प्रकृति को समूची मानवजाति या इसके किसी समूह--विशेष के साथ, इसकी चेष्टाओं, आशाओं और अभीप्साओं के साथ एकाकार कर सके । परन्तु वह अल्पकाल बीत जाने के बाद ये हटा लिये जायंगे और एकमात्र दिव्य शासन ही स्थिर रहेगा । वह भगवान् के साथ तथा दूसरों के साथ दिव्य चेतना के द्वारा ही एकमय होगा, मनोमय प्रकृति के द्वारा नहीं ।

 

     कारण, जब साधक स्वतंत्र हो जायगा उसके बाद भी वह संसार में ही रहेगा और संसार में रहने का मतलब है कर्मों में रहना । परन्तु कामना के बिना कर्मों में रहने का अर्थ है समूचे संसार की भलाई के लिये या वर्ग या जाति के लिये या भूतल पर विकसित होनेवाली किसी नयी सृष्टि के लिये कर्म करना अथवा अपने अन्त:स्थ भागवत संकल्प द्वारा नियुक्त कार्य करना । यह कार्य उसे उस परिस्थिति या समुदाय से प्राप्त ढांचे में करना होगा जिसमें वह पैदा दुआ है या जिसमें उसे रखा गया है अथवा यह उसे एक ऐसे ढांचे में करना होगा जो दैवी आदेश ने उसके लिये चुना या पैदा किया है । अतएव, हमारी पूर्णता की अवस्था में हमारी मानसिक सत्ता के अन्दर ऐसी कोई भी चीज शेष नहीं रहनी चाहिये जो उस वर्ग एवं समुदाय का या भगवान् के और किसी भी सामूहिक रूप का विरोध करे या उसके साथ हमारी सहानुभूति एवं स्वतंत्र एकमयता में बाधा डाले जिसका नेता, सहायक या सेवक बनने के लिये वह भगवान् के द्वारा नियुक्त है । परन्तु अन्त में इसे भगवान् के साथ तादात्म्य द्वारा प्राप्त एक स्वतंत्र आत्म-एकाकारता बन जाना होगा, न कि मेल-मिलाप की कोई ऐसी मानसिक शर्त्त या नैतिक गांठ या कोई प्राणिक साहचर्य बने रहना होगा जो किसी प्रकार के वैयक्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, सांप्रदायिक या धार्मिक अहंकार से नियंत्रित हों । यदि किसी सामाजिक नियम का पालन किया भी जायगा तो वह किसी भौतिक आवश्यकता या वैयक्तिक या सार्वभौम हितबुद्धि या उपयोगिता के वश अथवा परिस्थिति के दबाव या किसी कर्त्तव्य-भावना के कारण नहीं किया जायगा, बल्कि केवल कर्मों के स्वामी के लिये तथा इस बात को ईश्वरेच्छा अनुभव करते या जानते हुए किया जायगा कि सामाजिक विधान या नियम या सम्बन्ध, जैसा भी वह है, अन्तर्जीवन की प्रतिमा के

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रूप में अभी भी सुरक्षित रखा जा सकता है और उसका उल्लंघन करके मनुष्यों में 'बुद्धिभेद' नहीं पैदा करना चाहिये । दूसरी ओर, यदि सामाजिक विधान या नियम या सम्बन्ध की अवहेलना की भी जायगी तो वह कामना, वैयक्तिक संकल्प या वैयक्तिक सम्मति को तुष्ट करने के लिये नहीं की जायगी, वरन् इसलिये कि हमें आत्मा के विधान को प्रकट करनेवाले एक महत्तर नियम का अनुभव हो चुका होगा अथवा यह ज्ञान प्राप्त हो चुका होगा कि दिव्य सर्व-संकल्प की प्रगति में वर्तमान नियमों और रूपों के परिवर्तन, अतिक्रमण या उन्मूलन के लिये प्रयास अवश्य होना चाहिये जिससे कि विश्व-विकास के लिये आवश्यक एक अधिक स्वतंत्र और विशाल जीवन का उदय हो सके ।

 

     अब रहा नैतिक नियम या आदर्श; ये दोनों उन बहुत-से लोगों को भी जो अपने को स्वतंत्र समझते हैं, सदैव पवित्र एवं बुद्धि-अगोचर प्रतीत होते हैं । परन्तु अपनी दृष्टि सदा ऊर्ध्वमुखी रहने के कारण, साधक, इन्हें उन भगवान् के प्रति उत्सर्ग कर देगा जिन्हें समस्त आदर्श अपूर्ण एवं आंशिक रूप से ही प्रकट करने की चेष्टा करते हैं । सभी नैतिक गुण उनके स्वभावसिद्ध तथा असीम पूर्णत्व के तुच्छ तथा अनमनीय हास्यास्पद अभिनयमात्र हैं । स्नायविक या प्राणिक कामना के मिटने के साथ ही पाप एवं अशुभ का बंधन भी मिट जाता है; क्योंकि इसका सम्बन्ध हमारे अन्दर के उस गुण से है जो प्राणगत आवेश का गुण (रजोगुण) है तथा जो हमें प्रवृत्ति के लिये प्रेरित या प्रचालित करता है, और इसलिये प्रकृति के इस गुण का रूपान्तर होते ही यह छिन्न-भिन्न हो जाता है । परन्तु अभीप्सु को रूढ़िभूत या अभ्यासगत पुण्य की अथवा किसी मनोनिर्दिष्ट या उच्च या निर्मल सात्त्विक पुण्य की सुवर्ण-रंजित या स्वर्णिम शृंखला से भी आबद्ध नहीं रहना होगा । इसके स्थान पर उसे एक ऐसी वस्तु प्रतिष्ठित करनी होगी जो उस क्षुद्र एवं न्यूनतापूर्ण वस्तु से जिसे मनुष्य (Virtue) या पुण्य कहते हैं अधिक गंभीर और अधिक तात्त्विक हों । 'वर्चु' (Virtue) शब्द का मूल अर्थ था मनुष्यत्व और यह नैतिक मन तथा इसकी रचनाओं से अधिक विस्तृत और अधिक गहरी वस्तु है । कर्मयोग की सिद्धि इससे भी ऊंची और गहरी अवस्था है जिसे शायद ''आत्म- भाव'' कह सकते हैं--क्योंकि आत्मा मनुष्य से अधिक महान् है । परम सत्य और प्रेम के कर्मों में स्वयमेव स्रवित होता हुआ यह स्वतंत्र आत्म-भाव मानवीय पुण्य का स्थान ले लेगा । परन्तु इस परम सत्य को न तो व्यावहारिक बुद्धि के छोटे-मोटे कमरों में रहने के लिये बाधित किया जा सकता है और न ही इसे उस व्यापकतर चिन्तक बुद्धि की अधिक गरिमामयी रचनाओं में आबद्ध किया जा सकता है जो अपने निरूपणों को परिमित मानव-बुद्धि पर शुद्ध सत्य के रूप में आरोपित किया करती है । यह भी आवश्यक नहीं कि यह परम प्रेम मानवीय आकर्षण, सहानुभूति तथा दया की आंशिक एवं मन्द और अज्ञ एवं भावोद्वेलित चेष्टाओं से संगत ही

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हो, इनसे अभिन्न होना तो दूर की बात रही । क्षुद्र नियम विशालतर गति को बांध नहीं सकता; मन की खण्ड उपलब्धि आत्मा की परम परिपूर्णता पर शासन नहीं कर सकती ।

 

     सर्वप्रथम, उच्चतर प्रेम एवं सत्य अपनी गति को साधक में उसकी निजी प्रकृति के सारभूत धर्म या पथ के अनुसार ही चरितार्थ करेगा । क्योंकि, वह धर्म या पथ दिव्य प्रकृति का एक विशेष रूप एवं परा शक्ति की एक विशिष्ट शक्ति ही होता है, जिसमें से उसकी अन्तरात्मा लीला में आविर्भूत होती है, --निःसन्देह यह उस धर्म वा पथ के रूपों से सीमित नहीं होती, क्योंकि आत्मा तो सीमारहित है । फिर भी इसके प्रकृति-तत्त्व पर उस गति का प्रभाव अंकित रहता है और यह तत्त्व उस प्रबल प्रभाव के चक्राकार घुमावों के चारों ओर उन सरणियों या दिशाओं में निर्बाध रूप से विकसित होता है । साधक दिव्य सत्य-गति को ज्ञानी या शूरवीर योद्धा या प्रेमी तथा उपभोक्ता या कर्मी एवं सेवक के स्वभाव के अनुसार अथवा तीन मूल गुणों के किसी अन्य ऐसे सम्मिश्रण में प्रकट करेगा जो उसकी सत्ता के अपनी ही आन्तर प्रेरणा द्वारा नियत आकार का गठन करनेवाला हो । उसके कार्यों में स्वच्छन्द क्रीड़ा करती हुई उसकी इस स्व-प्रकृति (स्वधर्म) को ही मनुष्य उसमें देखेंगे न कि किसी बाह्य क्षुद्रतर नियम या विधान के द्वारा गठित, निर्धारित तथा कृत्रिमतया नियमित आचार को ।

 

     परन्तु, इससे भी ऊंची एक और उपलब्धि है, एक 'आनंत्य' है जिसमें यह अन्तिम नियम-मर्यादा भी अतिक्रान्त हो जाती है, क्योंकि प्रकृति पूर्ण रूप से तृप्त हों जाती है तथा इसकी सीमाएं विलुप्त हो जाती हैं । वहां आत्मा सभी सीमाओं से मुक्त रहती है, क्योंकि वह अपने अन्दर की दिव्य इच्छाशक्ति के अनुसार सभी रूपों तथा सांचों का प्रयोग करती है, पर वह जिस भी शक्ति या रूप को उपयोग में लाती है उससे निगड़ित नहीं हो जाती, उससे आबद्ध या उसके अन्दर अवरुद्ध नहीं हो जाती । यह कर्म-मार्ग का शिखर है और यही आत्मा की उसके कर्मों में पूर्ण स्वाधीनता है । वास्तव में, वहां कोई भी कर्म इसके नहीं होते; इसकी सभी चेष्टाएं 'परम' की ही स्वरलहरी होती हैं । वे उसीसे निःसृत होती हैं-ऐसे स्वतंत्र रूप में जैसे अनन्त में से एक स्वत:स्फूर्त संगीत निःसृत होता है ।

 

 

     अतएव, समर्पण ही कर्मयोग का साधन तथा साध्य है--अपनी समस्त चेष्टाओं का परम तथा विश्वव्यापी इच्छाशक्ति के प्रति पूर्ण समर्पण, अशेष कर्मों का अपने अन्तःस्थित किसी ऐसी नित्य सत्ता के शासन के प्रति बिना किसी शर्त्त तथा नियम--मर्यादा के समर्पण, जो हमारी अहं-प्रकृति की साधारण कर्म-प्रणाली का स्थान

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ग्रहण कर लेती है । परन्तु वह दिव्य परम इच्छाशक्ति क्या है तथा हमारे भ्रान्त करणों एवं हमारी अन्ध तथा बन्दीकृत बुद्धि द्वारा वह कैसे पहचानी जा सकती है ?

 

     साधारणतया हम अपने विषय में ऐसा सोचते हैं कि हम संसार में एक पृथक् ''अहं'' हैं जो एक पृथक् शरीर तथा मनोमय एवं नैतिक प्रकृति पर शासन करता है, अपने स्व-निर्धारित कार्य पूरी स्वाधीनता से चुनता है तथा स्वतंत्र है और इसी कारण अपने कर्मों का एकमात्र स्वामी एवं उत्तरदायी है । यह कल्पना करना कि कैसे हमारे अन्दर इस प्रतीयमान ''अहं'' तथा इसके साम्राज्य की अपेक्षा अधिक सत्य, अधिक गंभीर एवं अधिक शक्तिशाली कोई अन्य वस्तु हो सकती है साधारण मनुष्य के लिये सुगम नहीं-उस मनुष्य के लिये जिसने अपनी रचना तथा रचनाकारी तत्त्वों पर विचार नहीं किया है तथा इनके मूल में गंभीर दृष्टि नहीं डाली है; यह उन मनुष्यों के लिये भी कठिन है जिन्होंने चिन्तन तो किया है, पर जिन्हें आध्यात्मिक दृष्टि एवं अनुभूति प्राप्त नहीं हुई है । परन्तु दृश्य-प्रपंच के यथार्थ ज्ञान की भांति आत्मज्ञान का भी सबसे पहला कदम यह है कि हम वस्तुओं के प्रतीयमान सत्य के मूल में जायं और उस वास्तविक पर निगूढ़ तथा तात्त्विक और क्रियाशील सत्य को ढूंढ़ निकालें जो इनकी प्रतीतियों से आवृत है ।

 

     यह अहं या ''मैं'' हमारा सारभूत भाग होना तो दूर रहा, हमारा स्थायी सत्य भी नहीं है; यह प्रकृति की एक रचनामात्र है, उसका एक रूप है, बोधग्राही तथा विवेककारी मन में यह विचार का केंद्रीकरण करनेवाला एक मानसिक रूप है, हमारे प्राणमय भागों में यह भाव तथा सम्वेदन का केंद्रीकरण करनेवाला एक प्राणिक रूप है और हमारे शरीरों में यह शारीरिक सचेतन ग्रहणशीलता का एक रूप है जो देहतत्त्व तथा इसके व्यापार का केंद्रीकरण करता हैं । आन्तरिक तौर पर हम जो कुछ हैं वह अहं नहीं, बल्कि चेतना, अन्तरात्मा या आत्मसत्ता है । बाहर से एवं स्थूल रूप में हम जो कुछ हैं तथा जो कुछ करते हैं वह अहं नहीं, वरन् विश्व-प्रकृति है । कर्त्री वैश्व शक्ति हमारा रूप बढ़ती है और इस प्रकार गठित हमारी प्रकृति तथा परिस्थिति एवं मनोवृत्ति के द्वारा, वैश्व शक्तियों से रचित हमारी व्यष्टिभावापत्र रूप-रचना के द्वारा, हमारे कार्यों तथा उनके परिणामों को प्रेरित वा निर्दिष्ट करती है । वास्तव में विचार, इच्छा वा कर्म हम नहीं करते, बल्कि विचार हममें उदित होता है, इच्छाशक्ति हममें उद्भूत होती है, आवेग तथा कर्म हममें घटित होते हैं । हमारा अहंभाव प्राकृतिक चेष्टाओं के इस समस्त प्रवाह को अपने चारों ओर एकत्र कर लेता है तथा इसे अपने सम्मुख विचारार्थ उपस्थित करता है । वैश्व शक्ति किंवा विश्व-प्रकृति ही विचार की रचना करती है, इच्छाशक्ति को बलात् आरोपित करती है और प्रेरणा का संचार करती है । हमारे शरीर, मन तथा अहं उस कार्यरत शक्ति-समुद्र की तरंग हैं, ये उसपर शासन नहीं करते प्रत्युत उसके द्वारा शासित तथा परिचालित होते हैं । सत्य तथा आत्मज्ञान की ओर प्रगति करते-

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करते साधक को एक ऐसे स्थल पर पहुंचना होगा जहां आत्मा अपनी दिव्यदृष्टिसम्पन्न आंखें खोलती है और अहं तथा कर्म-सम्बन्धी इस सत्य को पहचान लेती है । तब साधक यह विचार त्याग देता है कि कोई मानसिक, प्राणिक एवं शारीरिक ''अहं'' है जो कर्म करता या कर्म का संचालन करता है; वह जान जाता है कि प्रकृति एवं वैश्व प्रकृति की शक्ति ही अपने निश्चित गुणों का अनुसरण करती हुई उसमें तथा सभी पदार्थों एवं प्राणियों में एकमात्र और अद्वितीय कर्मकर्त्री है ।

 

     परन्तु प्रकृति के गुणों को किसने निश्चित किया है ? अथवा शक्ति की गतियों का उद्गम एवं अधिष्ठाता कौन है ? इसके मूल में अवस्थित है एक चेतना--अथवा एक 'चेतन' --जो इसके कर्मों का स्वामी, साक्षी, ज्ञाता, भोक्ता, धर्त्ता तथा अनुमन्ता है; यह चेतना है आत्मा या पुरुष । प्रकृति हमारे अन्दर कर्म को आकार देती है; पुरुष इसके अन्दर या इसके पीछे रहकर उसे साक्षिभाव से देखता और अनुमति देता है तथा उसका धारण एवं भरण करता है । प्रकृति हमारे मन में विचार की रचना करती है; इसके अन्दर या पीछे अवस्थित पुरुष उस विचार को तथा उसके अन्तर्निहित सत्य को जानता है । प्रकृति कर्म का परिणाम निश्चित करती है; इसके अन्दर या पीछे अवस्थित पुरुष उस परिणाम को भोगता या सहता है । प्रकृति मन और तन की रचना करती है, उनपर परिश्रम करती एवं उन्हें विकसित करती है; पुरुष उस रचना एवं विकास को धारण करता है और प्रकृति के कार्यों के प्रत्येक पग को अनुमति देता है । प्रकृति एक संकल्पशक्ति का प्रयोग करती है जो पदार्थों एवं मनुष्यों में कार्य करती है और पुरुष, जो करना चाहिये उसे अपनी अन्तर्दृष्टि से देख कर, उस संकल्प-शक्ति को कर्म में प्रवृत्त करता है । यह पुरुष तलीय अहं नहीं है, बल्कि अहं के पीछे अवस्थित निश्चल-नीरव आत्मा है, शक्ति का स्रोत है, ज्ञान का उद्गम तथा ग्रहीता है । हमारा मानसिक ''मैं'' इस आत्मा अथवा शक्ति एवं ज्ञान की एक मिथ्या प्रतिच्छायामात्र है । अतः यह पुरुष या भरण करनेवाला चैतन्य प्रकृति के अखिल कर्मों का मूल, ग्रहीता तथा आधार है, पर यह स्वयं कर्ता नहीं है । सामने की ओर अवस्थित प्रकृति अथवा प्रकृति-शक्ति तथा इसके मूल में विद्यमान शक्ति अथवा चित्-शक्ति या आत्म-शक्ति--क्योंकि यही दो विश्वजननी के आन्तर तथा बाह्य रूप हैं, --उस सबकी व्याख्या कर देती हैं जो कुछ कि संसार में किया जाता है । विश्वजननी किंवा प्रकृति-शक्ति ही एकमात्र तथा अद्वितीय कर्मकत्रीं है ।

 

     पुरुष-प्रकृति, चित्-शक्ति किंवा विश्वप्रकति को धारण करनेवाली आत्मा, --क्योंकि ये दोनों अपने पार्थक्य में भी एक तथा अविभेद्य हैं, --एक साथ ही विश्वव्यपि तथा विश्वातीत शक्ति हैं । परन्तु व्यक्ति में भी कोई ऐसी सत्ता है जो मानसिक अहं नहीं है, कोई ऐसी सत्ता है जो इस महत्तर सद्वस्तु से सारतः अभिन्न है । यह सत्ता उस एकमेव पुरुष का शुद्ध प्रतिबिम्ब या अंश है; यह अन्तरात्मा है,

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पुरुष या शरीरधारी जीव है, व्यक्तिगत आत्मा या जीवात्मा है; यह शुद्ध आत्मा है जो अपने बल एवं ज्ञान को इसलिये सीमित करती प्रतीत होती है कि परात्पर तथा विश्वगत प्रकृति की वैयक्तिक क्रीड़ा को आश्रय दे सके । गम्भीरतम वास्तविकता के क्षेत्र में अनन्ततया 'एक' अनन्ततया 'बहु' भी है; हम 'तत्' के प्रतिबिम्ब या अंशमात्र नहीं, बल्कि 'तत्' ही हैं । हमारे अहं के विपरीत, हमारा आध्यात्मिक व्यक्तित्व हमारी विश्वमयता तथा परात्परता का निषेध नहीं करता । परन्तु इस समय हमारी अन्तःस्थ अन्तरात्मा या आत्मा विश्वप्रकृति मे व्यष्टि-भाव के निर्माण में तल्लीन रहने के कारण अपने-आपको अहं के विचार से भ्रान्त होने देती है । उसे इस अज्ञान से छुटकारा पाना है, उसे जानना है कि वह परम तथा विश्वव्यापी आत्मा की एक प्रतिच्छिया या एक अंश या रूप है और विश्वकर्म में इसकी चेतना का एकमात्र केंद्र है । परन्तु यह 'जीव पुरुष' भी कर्मों का कर्त्ता नहीं है वैसे ही जैसे कि अहं कर्त्ता नहीं है, अथवा जैसे द्रष्टा तथा ज्ञाता की धारक चेतना कर्त्री नहीं है । इस प्रकार, सदा-सर्वदा परात्पर तथा विश्वव्यापिनी शक्ति ही एकमात्र कर्त्री है, परन्तु इसके पीछे अवस्थित है एकमेव परमदेव जो इसमें से युगल-शक्ति, पुरुष-प्रकृति एवं ईश्वर-शक्ति के रूप में प्रकट होता है । वह 'परम' इस शक्ति के रूप में गतिशील हो जाता है और इसीके द्वारा वह विश्व में कर्मों का एकमात्र आरम्भक और स्वामी है ।

 यदि कर्म-विषयक सत्य यही है तो सबसे पहले साधक को यह करना होगा कि

 

      ईश्वर-शक्ति और पुरुष-प्रकृति बिल्कुल एक ही चीज हों ऐसी बात नहीं; क्योंकि पुरुष और प्रकृति पृथक्-पृथक् शक्तियां हैं, पर ईश्वर और शक्ति अपने अन्दर एक-दूसरे को समाविष्ट रखते हैं । ईश्वर वह पुरुष है जो प्रकृति को अपने अन्तर्गत रखता है तथा अपने अन्दर विराजमान शक्ति के सामर्थ्य से शासन करता है । शक्ति वह प्रकृति है जो पुरुष-रूप आत्मा से युक्त है तथा ईश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करती हैं; ईश्वर की इच्छा उस शक्ति की अपनी ही इच्छा है तथा अपनी गति में वह ईश्वर की उपस्थिति को सदा अपने संग रखती है । पुरुष-प्रकृति का अनुभव कर्म-मार्ग पर चलनेवाले जिज्ञासु के लिये अत्यन्त उपयोगी होता है; क्योंकि चेतन पुरुष और शक्ति का पार्थक्य तथा शक्ति की यांत्रिक क्रिया के प्रति पुरुष की अधीनता हमारे अज्ञान एवं अपूर्णत्व का एक प्रबल कारण हैं । अतएव इस अनुभव से पुरुष अपने को प्रकृति की यांत्रिक प्रक्रिया से मुक्त करके स्वतन्त्र हो सकता है और प्रकृति पर प्रथम आध्यात्मिक नियंत्रण प्राप्त कर सकता है । ईश्वर-शक्ति पुरुष-प्रकृति के सम्बन्ध और इस सम्बन्ध की अज्ञ क्रिया के पीछे अवस्थित है और विकास के प्रयोजन के लिये इसका उपयोग करती है । ईश्वर-शक्ति का अनुभव पुरुष को उच्चतर गतिशीलता और दिव्य व्यापार में सहयोगी बना सकता है और आध्यात्मिक प्रकृति में सत्ता का पूर्ण एकत्व एवं सामंजस्य साधित कर सकता है ।

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वह कर्म के अहंकारमय रूपों से पीछे हटे तथा इस भावना से मुक्त हो जाय कि कोई ''मैं'' है जो कार्य करता है । उसे यह देखना तथा अनुभव करना होगा कि जो कोई भी चीज उसमें घटित होती है वह उसके उन मानसिक तथा शारीरिक करणों की सुनम्य, सचेतन वा अवचेतन या कभी पराचेतन सहज प्रक्रिया से घटित होती है जो कि आध्यात्मिक, मानसिक, प्राणिक तथा भौतिक विश्व-प्रकृति की शक्तियों के द्वारा परिचालित होते हैं ।उसके उपरितल पर एक व्यक्तित्व है जो चुनाव करता तथा इच्छा करता है, हार मान लेता तथा संघर्ष करता है और प्रकृति में अपने-आपको सुरक्षित रखने अथवा प्रकृति पर विजय प्राप्त करने का यत्न करता है । पर यह व्यक्तित्व स्वयं प्रकृति की ही रचना है और यह उसके द्वारा इस प्रकार शासित, परिचालित तथा निर्धारित होता है कि यह स्वतंत्र नहीं कहला सकता । यह उसमें निहित आत्मा की रचना या अभिव्यक्ति है, -यह आत्मा की अंशभूत आत्मा होने की अपेक्षा कहीं अधिक प्रकृति का अंशभूत 'स्व' है, यह आत्मा की प्राकृतिक तथा प्रक्रियात्मक सत्ता है न कि उसकी आध्यात्मिक तथा शाश्वत सत्ता, यह एक अस्थायी निर्मित व्यक्तित्व है, न कि वास्तविक अमर व्यक्ति । साधक को तो वास्तविक अमर व्यक्ति बनना होगा । उसे आन्तरिक तौर पर निश्चल बनने में सफल होना होगा और बाह्य क्रियाशील व्यक्तित्व से अपने-आपको निरीक्षक के रूप में पृथक् कर लेना होगा । उसे अपने अन्दर वैश्व शक्तियों की क्रीड़ा का अध्ययन करना होगा और इसके लिये उसे इसके पैंतरों तथा गतियों में आसक्त रहने की विमूढ़कारी अवस्थाओं सें पीछे स्थित होना होगा । इस प्रकार निश्चल, शान्त, अनासक्त, आत्म- अध्ययनार्थी तथा अपनी प्रकृति का द्रष्टा बन कर वह अनुभव करता है कि वह व्यष्टि-रूप आत्मा है जो विश्व-प्रकृति के कर्मों का निरीक्षण करती है, इसके परिणामों को शान्त भाव से स्वीकार करती है तथा प्राकृतिक-कर्मसम्बन्धी आवेग को अनुमति देती या उससे अपनी अनुमति हटा लेती है । इस समय यह आत्मा या पुरुष एक सन्तुष्ट दर्शक से अधिक कुछ नहीं है, अपनी आवृत चेतना के दबाव से यह हमारी सत्ता की क्रिया और अभिवृद्धि पर शायद प्रभाव डालता है, किन्तु अधिकांश में अपनी शक्तियां या इनका कुछ भाग बाह्य व्यक्तित्व को सौंप देता है, -वास्तव में यह इन्हें प्रकृति को ही सौंप देता है, क्योंकि यह बाह्य 'स्व' प्रकृति का ईश नहीं, बल्कि उसके अधीन है, अनीश है । परन्तु एक बार अनावृत होकर यह अपनी स्वीकृति या निषेध को कार्यकारी बना सकता है, अपने कर्म का स्वामी बन सकता है और प्रकृति के परिवर्तन का प्रभुत्वपूर्ण भाव में निर्धारण कर सकता है । चाहे प्रकृति की अभ्यस्त गति स्थिर संस्कार और पुराने शक्ति-संग्रह के परिणाम-स्वरूप, दीर्घकाल तक, पुरुष की स्वीकृति के बिना भी होती रहे और चाहे, पहले से अभ्यास न होने के कारण, प्रकृति किसी स्वीकृत गति का भी दृढ़तापूर्वक निषेध करती रहे, फिर भी उसे पता चलेगा कि अन्त में उसीकी स्वीकृति या

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अस्वीकृति की विजय होती है, -- धीमे- धीमे, बहुत प्रतिरोध के साथ अथवा शीघ्रतापूर्वक, अपने साधनों एवं प्रवृत्तियों को द्रुतगति से अनुकूल बनाते हुए --प्रकृति अपने-आपको और अपने व्यापारों को उसकी आन्तर दृष्टि या संकल्प के द्वारा निर्दिष्ट दिशा में परिवर्तित कर लेती है । इस प्रकार साधक मानसिक नियंत्रण या अहंमूलक इच्छाशक्ति के प्रयोग के स्थान पर आन्तरिक आध्यात्मिक संयम सीख जाता है जो उसे उसके अन्दर काम करनेवाली प्रकृति-शक्तियों का स्वामी बना देता है और तब वह उनका अचेतन यन्त्र या जड़ दास नहीं रहता । उसके ऊपर तथा चारों ओर विराजमान है शक्ति अर्थात् जगज्जननी और यदि उसे इसकी प्रणालियों का सत्य ज्ञान हो तथा इसमें निहित दिव्य इच्छाशक्ति के प्रति वह सच्चे भाव से समर्पण करे तो वह इससे वे सभी चीजें प्राप्त कर सकता है जिनकी आवश्यकता वा इच्छा उसकी अन्तरतम आत्मा को होती है । अन्तमें, वह अपने तथा प्रकृति के भीतर उस सर्वोच्च क्रियाशील आत्मा से सज्ञान हों जाता है जो उसके सब 'देखने' तथा 'जानने' का स्रोत है, और साथ ही अनुमति, स्वीकृति तथा परित्याग का भी स्रोत है । यह है महेश्वर, परात्पर देव सर्वगत एक, ईश्वर-शक्ति जिसका उसकी आत्मा एक अंश है अर्थात् उस परम सत्ता का सत्तांश तथा उस परम शक्ति का शक्त्यंश है । हमारी शेष प्रगति उन प्रणालियों के विषय में हमारे ज्ञान पर निर्भर करती है जिनके अनुसार कर्मों का स्वामी जगत् में तथा हममें अपनी इच्छा को प्रकट करता है और जिनके अनुसार वह परात्पर एवं विराट् शक्ति के द्वारा सभी कर्म सम्पन्न करता है ।

 

     ईश्वर अपनी सर्वज्ञता में वह चीज देखता है जो करनी होती है । यह 'देखना' (ईक्षण) ही उसका संकल्प है, यह सर्जनक्षम शक्ति का एक रूप है । जो कुछ वह देखता है उसे उसके साथ एकीभूत सर्व-सचेतन माता अपनी क्रियाशील आत्मा के अन्दर ले लेती और मूर्तिमन्त करती है और कार्यवाहिका प्रकृति-शक्ति उसे उनकी सर्वशक्तिमती सर्वज्ञता की स्वाभाविक क्रिया के रूप में चरितार्थ कर देती है । परन्तु जो होना है और अतएव जो करना है उसके विषय में यह अन्तर्दृष्टि ईश्वर की निज सत्ता में से ही उद्भूत होती है, सीधे उसकी चेतना से तथा उसकी सत्ता के आनन्द से ही प्रवाहित होती है, सहज-स्फूर्त रूप में, जैसे सूर्य से प्रकाश निकलता है । यह अन्तर्दृष्टि मानवीय 'देखने' का प्रयास नहीं है, न ही यह कर्म एवं उद्देश्य के सत्य का अथवा प्रकृति की यथार्थ मांग का कष्टसाध्य मानवीय ज्ञान है । जब हमारी व्यष्टिगत आत्मा अपनी सत्ता तथा ज्ञान में ईश्वर के साथ पूर्णत: एकीभूत हो जाती है तथा आद्या शक्ति या परात्पर माता से साक्षात् सम्बन्ध स्थापित कर लेती है, तब हममें भी परम इच्छाशक्ति  उच्च एवं दिव्य प्रकार से उद्भूत हो सकती है, --एक ऐसी वस्तु के रूप में उद्भूत हो सकती है जो विश्वप्रकृति की सहज- स्फूर्त क्रिया से सम्पन्न होनी निश्चित है तथा सम्पन्न होती ही है । तब कोई कामना,

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कोई उत्तरदायित्व, कोई प्रतिक्रिया नहीं रहती; आश्रयदायी तथा सर्वतोव्यापी एवं अन्तर्वासी भगवान् की शान्ति, निश्चलता, ज्योति एवं शक्ति में ही सब कुछ घटित होता है ।

 

     परन्तु तादात्म्य की यह सर्वोच्च उपलब्धि साधित होने से पहले भी परम इच्छाशक्ति का कोई रूप हमारे अन्दर एक अलंध्य प्रेरणा एवं ईश्वर-प्रेरित क्रिया के रूप में प्रकट हो सकता है । तब हम एक स्वयंस्फूर्त्त आत्मनिर्धारक शक्ति के द्वारा कर्म करते हैं, पर प्रयोजन और उद्देश्य का पूर्णतर ज्ञान बाद में ही उत्पन्न होता है । अथवा कर्म का आवेग अन्तःप्रेरणा या सम्बोधि के रूप में भी प्रकट हो सकता है, पर वह प्रकट होता है मन की अपेक्षा कहीं अधिक हृदय एवं शरीर में ही । यहां अमोघ दृष्टि तो प्राप्त हो जाती है, पर पूर्ण एवं यथार्थ ज्ञान अभी भी स्थगित रहता है और जब आता हैं तो देर में । परन्तु भागवत इच्छाशक्ति करणीय कार्य के एक प्रकाशमान अनन्य आदेश अथवा समग्र बोध या एक अविच्छिन्न बोध-शृंखला के रूप में भी हमारे संकल्प या विचार के भीतर अवतरित हो सकती है अथवा वह ऊपर से एक ऐसे निर्देश के रूप में भी उतर सकती है जिसे निम्नतर अंग सहज भाव से क्रियान्वित करते हैं । जब योग अभी अपरिपक्व होता है, केवल कुछ-एक कार्य ही इस ढंग से किये जा सकते हैं, अथवा केवल एक सामान्य क्रिया ही इस प्रकार प्रवृत्त हो सकती है और वह भी केवल उच्चता और ज्ञानदीप्ति की अवस्थाओं में ही । जब योग में पूर्णता प्राप्त होती है तो कर्ममात्र इसी कोटि का हो जाता है । निःसन्देह इस वृद्धिशील प्रगति को हम तीन अवस्थाओं में विभक्त कर सकते हैं जिनके द्वारा सर्वप्रथम, हमारी व्यक्तिगत इच्छाशक्ति अपने से परतर परम इच्छाशक्ति या चिच्छक्ति के द्वारा यदा-कदा या बहुधा आलोकित या प्रेरित होती है, बाद में यह उसे निरन्तर अपने स्थान पर प्रतिष्ठित करती जाती है और अन्त में यह उस दिव्य बल-क्रिया के साथ एकीभूत तथा उसमें निमज्जित हो जाती है । प्रथम अवस्था वह है जब हम अभी बुद्धि, हृदय तथा इन्द्रियों के द्वारा ही संचालित होते हैं; इन बुद्धि आदि को दिव्य स्फुरणा तथा पथप्रदर्शन की खोज अथवा प्रतीक्षा करनी होती है और उसे ये सदा ही उपलब्ध अथवा ग्रहण नहीं कर पाते । दूसरी अवस्था वह है जब उच्च, प्रकाशित या अन्तर्ज्ञानात्मक अध्यात्मभावित मन उत्तरोत्तर मानवीय बुद्धि का स्थान ग्रहण करता जाता है और आन्तर चैत्य हृदय बाह्य मानवीय हृदय का तथा विशुद्ध एवं निःस्वार्थ प्राणिक बल इन्द्रियों का स्थान लेता जाता है । तीसरी अवस्था वह है जब हम अध्यात्म-भावापन्न मन से भी ऊपर उठकर अतिमानसिक स्तरों पर पहुंच जाते हैं ।

 

     इन तीनों ही अवस्थाओं में मुक्त कर्म का मूल स्वरूप एक ही होता है, --यह प्रकृति का एक स्वत:स्फूर्त्त व्यापार होता है, किन्तु अब यह पूर्ववत् अहं के द्वारा या उसके लिये नहीं प्रत्युत परम पुरुष की इच्छा के अनुसार तथा उसके भोग के लिये

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सम्पन्न किया जाता है । और भी ऊंचे स्तर पर यह व्यापार निरपेक्ष तथा विश्वमय परब्रह्म का परम सत्य बन जाता है, जिसे अब और हमारी निम्नतर प्रकृति की स्थलनशील, अज्ञ और सर्व-विकारक शक्ति अपने अपूर्ण बोध और अपनी हीन या विकृत कार्यान्विति के द्वारा चरितार्थ नहीं करती, बल्कि सर्वज्ञ एवं परात्पर विश्वजननी ही व्यष्टि की आत्मा के द्वारा व्यक्त करती है और उसीकी प्रकृति के द्वारा सचेतन रूप में कार्यान्वित भी करती है । ईश्वर ने अपने-आपको और अपनी परम प्रज्ञा एवं नित्य चेतना को अज्ञ प्रकृति-शक्ति में छुपा रखा है और इसे अनुमति देता है कि यह व्यक्ति को, उसकी सहायता के द्वारा, अहं के रूप में प्रचालित करे । अपने आशयों को अधिक श्रेष्ठ बनाने और अधिक शुद्ध आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिये मनुष्य अर्द्धप्रबुद्ध एवं अपूर्ण ढंग से जो-जो प्रयत्न करता है उन सबके रहते भी प्रकृति की यह निम्नतर क्रिया प्रायः प्रधान बनी रहती है । हमारे अन्दर प्रकृति के पिछले कार्यों की जो शक्ति संचित है, उसकी जो अतीत रचनाएं एवं चिररूढ़ संस्कार निहित हैं उनके कारण हमारा पूर्णता-प्राप्ति का मानवीय प्रयत्न विफल हो जाता है, अथवा यह बहुत ही अधूरे ढंग से आगे बढ़ता है । यह सफलता के सच्चे और गगनचुंबी शिखर पर केवल तभी आरोहण करता है जब हमारे ज्ञान या शक्ति से अधिक महान् ज्ञान या शक्ति हमारे अज्ञान का आवरण भेद डालती है और हमारी वैयक्तिक इच्छाशक्ति को परिचालित करती अथवा अपने हाथ में ले लेती है । कारण, हमारी मानवीय इच्छाशक्ति एक पथभ्रष्ट एवं भ्रान्तिशील रश्मि है जो परम इच्छाशक्ति से विच्छिन्न हो गयी है । निम्नतर क्रिया में से उच्चतर ज्योति तथा शुद्धतर शक्ति में शनैः -शनैः उदित होने का काल पूर्णता के प्रयासी के लिये मृत्यु के अन्धकार की उपत्यका होता है; यह परीक्षाओं, यातनाओं, दुःखों, अज्ञानावरणों, स्खलनों, भ्रान्तियों, गर्त्तजालों से संकुल एक भीषण पथ होता है । इस अग्नि-परीक्षा को संक्षिप्त तथा हल्का करने के लिये अथवा इसमें दिव्य आनन्द का संचार करने के लिये अपेक्षित है--श्रद्धा, और मन का उस ज्ञान के प्रति वृद्धिशील समर्पण जो अपने को भीतर से हमपर आरोपित करता है तथा सबसे अधिक अपेक्षित है सच्ची अभीप्सा और यथार्थ, अविचल एवं निष्कपट अभ्यास । गीता कहती है, ''निराशारहित हृदय के साथ, स्थिरचित्त होकर, योग का अभ्यास करो'';   क्योंकि पथ की प्रारम्भिक अवस्था में हमें चाहे आन्तरिक कलह एवं दुःख के तीक्ष्ण गरल के बड़े लंबे घूंट पीने पड़ते हैं, तो भी इस प्याले का अन्तिम स्वाद है--अमृतत्व की सुधा की मधुरिमा तथा नित्य आनन्द की सोम-सुरा ।

 

      १ स निश्चेयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा । गीता ६-२३ ।

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अध्याय ९

 

समता की प्राप्ति और अहं का नाश

 

 समग्र आत्म-निवेदन, पूर्ण समता, अहं का निर्मम उन्मूलन, प्रकृति का उसकी अज्ञानमय कार्यशैलियों से रूपान्तरकारी उद्धार--ये सब सोपान हैं जिनसे भागवत इच्छाशक्ति के प्रति समस्त सत्ता एवं प्रकृति का समर्पण अर्थात् सच्चा, सर्वांगीण एवं अशेष आत्मदान निष्पन्न तथा सिद्ध किया जा सकता है । सर्वप्रथम आवश्यक वस्तु है अपने कर्मों में आत्म-निवेदन की पूर्ण भावना; इसे पहले-पहल सारी सत्ता में व्याप्त एक सतत संकल्प का रूप धारण करना होगा, फिर इसे उसकी एक अन्तरीय आवश्यकता बनना होगा, अन्त में इसे उसका एक स्वयं-प्रेरित पर सजीव एवं सचेतन अभ्यास तथा हममें, सभी प्राणियों में एवं विश्व के सभी व्यापारों में विद्यमान परमदेव एवं निगूढ़ शक्ति के प्रति यज्ञरूप में सब कर्म करने का एक सहज स्वभाव ही बन जाना होगा । जीवन इस यज्ञ की वेदी है, कर्म आहुति हैं, वे परात्पर और विश्वमय शक्ति एवं उपस्थिति, जिनका हमें अभी ज्ञान या साक्षात्कार तो प्राप्त नहीं हुआ है पर अनुभूति या झांकी मिली है, हमारे इष्टदेव हैं जिनके प्रति हमारे कर्म अर्पित होते हैं । इस यज्ञ या आत्म-निवेदन के दो पहलू हैं; एक तो स्वयं कर्म और दूसरा वह भाव जिससे उसे सम्पन्न किया जाता है अर्थात् जो कुछ भी हम देखते, सोचते और अनुभव करते हैं उस सबमें अपने कर्मों के स्वामी की पूजा का भाव ।

 

     अपने अज्ञान में हम जो अच्छे-से-अच्छा प्रकाश साधिकार प्राप्त कर सकते हैं उसीसे प्रारम्भ में हमारा कर्म भी निर्धारित होता है । उसीको हम करणीय कर्म समझते हैं । कर्म का मूलतत्व तो एक ही है, कर्म का रूप चाहे किसी भी हेतु से नियत क्यों न हो, चाहे वह हमारी कर्तव्य-विषयक भावना से नियत हो या अपने सजातियों के प्रति हमारी सहानुभूति से, अथवा दूसरों के लिये या संसार के लिये क्या हितकर है इस विषय में हमारी धारणा से नियत हो किंवा एक ऐसे व्यक्ति के आदेश से जिसे हम मानव गुरु मानते हैं, जो हमसे अधिक ज्ञानी है तथा हमारे लिये कर्ममात्र के उस स्वामी का प्रतिनिधि है जिसमें हम आस्था तो रखते हैं, पर जिसे हम अभी तक जानते नहीं । परन्तु कर्म-यज्ञ का मूलतत्त्व हमारे कर्मों में अवश्य होना चाहिये और वह मूलतत्त्व है अपने कर्मों के फल की समस्त कामना का समर्पण, कर्म के जिस परिणाम के लिये हम अब तक भी हाथ-पांव मारते हैं उसके प्रति आसक्तिमात्र का परित्याग । कारण, जब तक हम फल में आसक्ति रखते हुए कर्म करते हैं तब तक यज्ञ भगवान् के प्रति नहीं बल्कि हमारे अहं के प्रति ही अर्पित होता है । हम भले ही दूसरी तरह सोचें, पर हम अपने को धोखा दे

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रहे होते हैं; भगवान्-विषयक अपने विचार की, कर्तव्य-विषयक अपनी भावना की, अपने सजातीयों के प्रति सहानुभूति की, संसार के या दूसरों के हित के सम्बन्ध में अपनी धारणा की, गुरु के प्रति अपने आज्ञापालन तक की ओट में हम अपनी अहंकारमयी तृप्तियों तथा अभिरुचियों को छिपाये होते हैं तथा अपनी प्रकृति में से कामनामात्र का उन्मूलन करने की हम से जो मांग की जाती है उससे बचने के लिये इन सभी चीजों को दिखावटी ढाल के रूप में प्रयुक्त कर रहे होते हैं ।

 

     योग की इस अवस्था में और इसकी सम्पूर्ण प्रक्रिया में भी कामना का यह रूप एवं अहं का यह आकार एक ऐसा शत्रु होता है जिसके विरुद्ध हमें सदैव निर्निद्र जागरूकता के साथ सावधान रहना होगा । जब हम इसे अपने अन्दर छुपे हुए और सब प्रकार के भेस धारण करते हुए पायें तो हमें निरुत्साहित नहीं होना चाहिये, बल्कि इसके सभी छद्मरूपों के पीछे इसे ढूंढ़ निकालने के लिये सजग रहना चाहिये और इसके प्रभाव को दूर करने के लिये निष्ठुर । इस गति का प्रकाशप्रद शब्द गीता की यह निर्णायक पंक्ति है, ''कर्म करने में तेरा अधिकार हैं, परन्तु उसके फल पर कभी, किसी भी अवस्था में नहीं ।''   फल तो केवल कर्ममात्र के स्वामी का ही है; हमारा इससे इतना ही मतलब है कि हम सच्चाई और सावधानी के साथ कर्म करके उसका फल तैयार करें और यदि यह प्राप्त हो जाय तो इसे इसके दिव्य स्वामी को सौंप दें । जैसे हमने फल के प्रति आसक्ति का त्याग किया है वैसे ही हमें कर्म के प्रति आसक्ति भी त्यागनी होगी । एक काम, एक कार्यक्रम या एक कार्यक्षेत्र के स्थान पर दूसरे को ग्रहण करने अथवा, यदि प्रभु का स्पष्ट आदेश हो, तो सब कर्मों को छोड़ देने के लिये भी हमें प्रतिक्षण तैयार रहना होगा । अन्यथा हम कर्म प्रभु के लिये नहीं करते, बल्कि कर्म से मिलनेवाली निजी सन्तुष्टि एवं प्रसन्नता के लिये अथवा राजसिक प्रकृति को कर्म की आवश्यकता होने के कारण या अपनी रुचियों की पूर्ति के लिये करते हैं; पर ये सब तो अहं के पड़ाव और अड्डे हैं । हमारे जीवन की साधारण चेष्टाओं के लिये ये कैसे भी आवश्यक क्यों न हों, फिर भी आध्यात्मिक चेतना की प्रगति में इनका त्याग करना होगा, इनके स्थान पर इनके दिव्य प्रतिरूपों की प्रतिष्ठा करनी होगी । आनन्द, अर्थात् निर्वैयक्तिक एवं ईश्वर-प्रेरित आनन्द अप्रकाशित प्राणिक सुख सन्तोष को और भागवत शक्ति का आनन्दपूर्ण आवेग राजसिक आवश्यकता को बहिष्कृत अथवा पदच्युत कर देगा । अपनी रुचियों की पूर्त्ति करना हमारी कोई आवश्यकता या उद्देश्य नहीं रहेगा, इसके स्थान पर स्वतंत्र आत्मा और प्रकाशयुक्त प्रकृति के कर्म में एक स्वाभाविक क्रियाशील सत्य के द्वारा भगवत्संकल्प की परिपूर्त्ति करना ही हमारा उद्देश्य हो जायगा । अन्त में, जैसे कर्मफल तथा कर्म के प्रति आसक्ति हृदय से बाहर निकाल दी गयी है, वैसे ही अपने कर्त्ता होने के विचार तथा भाव के प्रति अन्तिम

 

          कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । गीता २-४७ ।

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 दृढ आसक्ति भी छोड़नी होती है; भगवती शक्ति को अपने ऊपर तथा भीतर इस रूप में जानना एवं अनुभव करना होता है कि वही सच्ची तथा एकमात्र कर्त्री है ।

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     कर्म तथा उसके फल के प्रति आसक्ति का परित्याग मन एवं अन्तरात्मा में पूर्ण समता की प्राप्ति के लिये एक विशाल गति का प्रारम्भ है; यदि हमें आत्मा में पूर्णता प्राप्त करनी है तो इस समता को सर्वतोव्यापी बनना होगा । कारण, कर्मों के स्वामी की पूजा यह मांग करती है कि हम अपनेमें, सब वस्तुओं तथा सभी घटनाओं में उनके स्वामी को स्पष्ट रूप से पहचानें तथा हर्षपूर्वक स्वीकार करें । समता इस पूजा का प्रतीक है; यह आत्मा की वेदी है जिस पर सच्चा यजन-पूजन किया जा सकता है । ईश्वर सर्वभूतों में समान रूप से विराजमान हैं, अपने-आप और दूसरों में, ज्ञानी और अज्ञानी में, मित्र और शत्रु में, मनुष्य और पशु में, पापी और पुण्यात्मा में हमें किसी प्रकार का भी तात्त्विक भेद नहीं करना चाहिये । हमें किसी से घृणा नहीं करनी चाहिये, किसीको नीच नहीं समझना चाहिये, किसी से जुगुप्सा नहीं करनी चाहिये; क्योंकि सभीमें हमें उस एकमेव के दर्शन करने हैं जो स्वेच्छापूर्वक प्रकट या प्रच्छन्न है । ईश्वर पदार्थों तथा व्यक्तियों में जो भी आकार धारण करना चाहता है तथा उनकी प्रकृति में जो भी कर्म करना चाहता है उसके लिये जो कुछ सर्वोत्तम है उसके ज्ञान के अनुसार और साथ ही अपनी इच्छा के अनुसार वह किसी एक में कम प्रकट है या किसी दूसरे में अधिक, अथवा कुछ दूसरों में गुप्त तथा पूर्णत: विकृत है । सब कुछ हमारी आत्मा ही है, वही एक आत्मा जिसने अनेक रूप धारण कर रखे हैं । घृणा-द्वेष और अवज्ञा-वितृष्णा, मोह-आसक्ति और राग-अनुराग किसी विशेष अवस्था में स्वाभाविक, आवश्यक एवं अनिवार्य होते हैं; ये हमारे अन्दर प्रकृति के चुनाव का साथ देते हैं अथवा उसके करने और बनाये रखने में सहायक होते हैं । परन्तु कर्मयोगी के लिये तो ये एक पुरानी वस्तु के अवशेष होते हैं, मार्ग के विघ्न और अज्ञान की प्रक्रिया होते हैं और जैसे वह प्रगति करता है, ये उसकी प्रकृति से झड़कर अलग हो जाते हैं । शिशु-आत्मा को अपने विकास के लिये इनकी आवश्यकता होती है; परन्तु दिव्य विकास में एक प्रौढ़ आत्मा से ये पृथक् हों जाते हैं । दैवी प्रकृति में, जिसकी ओर हमें आरोहण करना है, एक वज्रोपम यहांतक कि विनाशक कठोरता हो सकती है, परन्तु घृणा नहीं; दिव्य व्यंग्य हो सकता है किन्तु तिरस्कार नहीं; शान्त, स्पष्टदर्शी और प्रबल निराकरण हो सकता है पर घृणा और जुगुप्सा नहीं । जिस वस्तु का हमें विनाश करना है उससे भी घृणा नहीं करनी होगी और यह मानना ही होगा कि वह भी उस सनातन की ही एक प्रच्छन्न एवं अस्थायी गति है ।

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और, क्योंकि सब वस्तुएं अभिव्यक्तिगत आत्मा ही हैं, हमें कुरूप तथा सुन्दर, पंगु तथा पूर्ण, सभ्य तथा असभ्य, रुचिकर तथा अरुचिकर, शुभ तथा अशुभ के प्रति आत्मिक समता धारण करनी होगी । यहां भी घृणा, अवज्ञा एवं जुगुप्सा नाममात्र नहीं होगी, वरंच इनके स्थान पर होगी वह समदृष्टि जो सब वस्तुओं को उनके सत्य स्वरूप तथा नियत स्थान में देखती है । कारण, हमें जानना चाहिये कि सभी वस्तुएं यथासम्भव उत्तम रीति से या किसी अपरिहार्य त्रुटि के साथ, अपने लिये अभिमत परिस्थितियों में, अपनी प्रकृति की तात्कालिक अवस्था या इसके व्यापार या विकास के लिये सम्भवनीय ढंग से, भगवान् के किसी ऐसे सत्य या तथ्य अथवा उसकी शक्ति या शक्यता को ही प्रकाशित या आच्छादित और विकसित या विकृत करती हैं जो वर्द्धनशील अभिव्यक्ति में अपनी उपस्थिति के द्वारा वस्तुओं की वर्तमान सम्पूर्ण समष्टि के हित और अन्तिम परिणाम की पूर्णता के लिये आवश्यक होती है । उसी सत्य की हमें क्षणिक अभिव्यक्ति के पीछे खोज एवं उपलब्धि करनी होगी । तब हम प्रतीतियों से और अभिव्यक्ति की त्रुटियों या विकृतियों से अवरुद्ध न होकर उस भगवान् की पूजा कर सकेंगे जो अपने आवरणों के पीछे सदा निष्कलुष, शुद्ध, सुन्दर और परिपूर्ण है । इसमें सन्देह नहीं कि सभी कुछ बदल डालना है, कुरूपता का नहीं, बल्कि दिव्य सुन्दरता का वरण करना है, अपूर्णता को अपना विश्राम-स्थल नहीं मानना है, वरन् पूर्णता के लिये प्रयास करना है, अशिव को नहीं, बल्कि परम शिव को अपना सार्वभौम लक्ष्य बनाना है । परन्तु हम जो कुछ भी करें उसे आध्यात्मिक समझ तथा ज्ञान के साथ करना होगा; हमें केवल दिव्य शुभ, सौन्दर्य, पूर्णत्व एवं हर्ष की प्राप्ति के लिये ही चेष्टा करनी होगी, इनके मानवीय मानों की प्राप्ति के लिये नहीं । यदि हममें समता नहीं है, तो यह इस बात का चिह्न है कि अविद्या अभीतक हमारे पीछे लगी है; हम वास्तव में कुछ भी नहीं समझ पावेंगे और यह सम्भव ही नहीं वरन् निश्चित-सा है कि तब हम पुरानी अपूर्णता का नाश केवल दूसरी को जन्म देने के लिये ही करेंगे; क्योंकि हम अपने मानव-मन तथा कामनामय पुरुष की चीजों को दिव्य वस्तुओं की स्थानापन्न बना रहे हैं ।

 

     समता का अर्थ कोई नया अज्ञान अथवा अंधता नहीं है; यह हम से दृष्टि के धुंधलेपन की तथा समस्त विविधता के अन्त की मांग नहीं करती और न इसे ऐसा करने की आवश्यकता ही है । भेद का अस्तित्व है ही, अभिव्यक्ति की विविधता भीं विद्यमान हैं और इस विविधता को हम खूब अच्छी तरह समझेंगे, --पहले जब हमारी दृष्टि पक्षपातपूर्ण तथा भ्रान्तिशील प्रेम और घृणा से, स्तुति और निन्दा से, सहानुभूति और वैर-विरोध से तथा राग और द्वेष से तिमिराच्छन्न थी तब हम इस जितना समझ पाते थे उसकी अपेक्षा अब बहुत अधिक ठीक रूप में समझ पायेंगे । परन्तु इस विविधता के मूल में हम सदा उस परिपूर्ण तथा निर्विकार ब्रह्म

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को ही देखेंगे जो इसके अन्दर विराजमान है और किसी भी विशिष्ट अभिव्यक्ति के--चाहे वह हमारे मानवीय मानदण्डों को सुडौल एवं पूर्ण प्रतीत होती हो या बेडौल एव अपूर्ण और चाहै वह मिथ्या एवं अशुभ ही क्यों न प्रतीत होती हो --ज्ञानपूर्ण प्रयोजन किंवा दिव्य आवश्यकता को हम अनुभव करेंगे और जानेंगे अथवा यदि यह हमसे छिपी हुई हो तो कम-से-कम इसमें विश्वास अवश्य करेंगे ।

 

     इसी प्रकार हम दुःखदायी वा सुखदायी सभी घटनाओं के प्रति, जय और पराजय, मान और अपमान, यश और अपयश तथा सौभाग्य और दुर्भाग्य के प्रति मन तथा आत्मा की ऐसी ही समता धारण करेंगे । कारण, सभी घटनाओं में हम अखिल कर्मों तथा फलों के स्वामी की इच्छा के दर्शन करेंगे तथा उन्हें भगवान् की विकासशील अभिव्यक्ति के सोपान अनुभव करेंगे । देखनेवाली अन्दर की आंख जिनकी खुली हुई है उनके समक्ष भगवान् अपने-आपको शक्तियों तथा उनकी क्रीड़ा एवं परिणामों में और पदार्थों एवं प्राणियों में प्रकट करता है । सब वस्तुएं एक दिव्य परिणति की ओर बढ़ रहीं हैं; हर्ष तथा सन्तोष की भांति प्रत्येक अनुभव, दुःख एवं अभाव भी वैश्व गति को, जिसे समझना तथा संपुष्ट करना हमारा कर्तव्य है, पूरा करने में एक आवश्यक कड़ी होता है । विद्रोह, निन्दा या चीख-पुकार हमारी अपरिष्कृत एवं अज्ञानयुक्त अन्ध-प्रवृत्तियों का आवेग होती है । अन्य प्रत्यक वस्तु की तरह विद्रोह के भी लीला में अनेक उपयोग हैं, यहां तक कि वह दिव्य विकास के यथासमय और यथास्थिति सम्पन्न होने के लिये आवश्यक, सहायक तथा विहित है किन्तु अज्ञानमय विद्रोह की चेष्टा आत्मा की बाल्यावस्था या उसके अप्रौढ़ यौवन से सम्बन्ध रखती है । परिपक्व आत्मा दोषारोपण नहीं करती, बल्कि समझने तथा अधिकृत करने का यत्न करती है, चीख-पुकार नहीं मचाती, बल्कि स्वीकार कर लेती है या सुधरने तथा पूर्ण बनने का प्रयास करती है, अन्दर से विद्रोह नहीं करती, वरन् आज्ञापालन करने और चरितार्थ तथा रूपान्तरित करने की कोशिश करती है । सुतरां, हम स्वामी के हाथों से सभी वस्तुओं को सम आत्मा के साथ ग्रहण करेंगे । जब तक दिव्य विजय का मुहुर्त्त नहीं आ जाता तब तक हम असफलता को भी एक प्रसंग के रूप में उसी प्रकार शान्त्तिपूर्वक स्वीकार करेंगे जिस प्रकार सफलता को । दारुणतम पीड़ा और दुःख-कष्ट से भी, यदि विधि के विधान में वे हमें प्राप्त हों, हमारी आत्माएं मन और तन चलायमान नहीं होंगे, ओर न ये तीव्र-से-तीव्र हर्ष एवं सुख से ही अभिभूत होंगे । इस प्रकार अत्यन्त सन्तुलित होकर, सभी वस्तुओं के साथ सम शान्ति से सम्पर्क में आते हुए हम स्थिरतापूर्वक अपने मार्ग पर बढ़ते जायंगे जबतक कि हम एक अधिक ऊंची अवस्था के लिये तैयार नहीं हो जाते और परम एवं विराट् आनन्द में प्रवेश नहीं कर पाते ।

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     यह समता सुदीर्घ अग्नि-परीक्षा तथा धीर आत्म-साधना के बिना अधिगत नहीं हो सकती । जबतक कामना प्रबल होती है तबतक निस्तब्धता की तथा कामना की थकावट की घड़ियों को छोड़कर समता किंचित् भी प्राप्त नहीं हो सकती, और तब यह, सम्भवतः, सच्ची शान्ति तथा तात्त्विक आध्यात्मिक एकता होने की अपेक्षा कहीं अधिक निष्क्रिय उदासीनता, या कामना की ठिठक ही होगी । इसके अतिरिक्त, इस साधना के या आत्मिक समता के इस विकास के कुछ-एक आवश्यक काल एवं क्रम होते हैं । साधारणतया हमें सहिष्णुता की अवस्था से प्रारम्भ करना होता है; क्योंकि हमें सब स्पर्शों का सामना करना, उन्हें झेलना तथा आत्मसात् करना सीखना है । अपनी नस-नस को हमें यह सिखाना होगा कि जो चीज दुःख देती तथा घृणा पैदा करती है उससे यह झिझके नहीं और जो वस्तु प्रिय लगती तथा आकृष्ट करती है उसकी ओर उत्सुकतापूर्वक लपके नहीं, वरंच प्रत्येक वस्तु को स्वीकार करे, उसका सामना करे, उसे सहन करे तथा वश में करे । सभी स्पर्शों को सहने के लिये हमें सशक्त होना चाहिये, केवल उन्हींको नहीं जो हमारे लिये विशिष्ट और वैयक्तिक हों, वरन् उन्हें भी जो हमारे चारों ओर के तथा ऊपर या नीचे के लोकों एवं उनके निवासियों के साथ हमारी सहानुभूति या संघर्ष से हमें प्राप्त हों । अपने ऊपर होनेवाली मनुष्यों, पदार्थों और शक्तियों की क्रिया को तथा अपने साथ उनके संघर्षण को, देवताओं के दबाव और असुरों के आक्रमणों को हम शान्त भाव से सहन करेंगे । अपनी आत्मा की अक्षुब्ध गहराइयों में हम उस सब का सामना करेंगे और उसे अपने अन्दर पूर्ण रूप से निमज्जित कर लेंगे जो कुछ कि आत्मा के अनन्त अनुभव के रास्ते हमारे सामने सम्भवतः आ सकता है । यह समता की तैयारी का तितिक्षामय काल है, यद्यपि यह इसकी एक सर्वथा प्रारम्भिक अवस्था है तथापि यह वीरतापूर्ण काल है । परन्तु शरीर और हृदय एवं मन की इस दृढ़ सहिष्णुता को भागवत इच्छाशक्ति के प्रति आध्यात्मिक अधीनता के सुपुष्ट भाव का सहारा देना होगा; इस जीते-जागते पुतले को, अपनी पूर्णता को गढ़नेवाले भागवत हस्त के स्पर्श के प्रति, दुःख में भी, नत होना होगा--कठोर वा साहसपूर्ण सहमतिपूर्वक ही नहीं, अपितु ज्ञानपूर्वक अथवा उत्सर्ग के भाव में । ईश्वर-प्रेमी की ज्ञानपूर्ण, भक्तिपूर्ण अथवा यहांतक कि करुणापूर्ण तितिक्षा भी सम्भवनीय है और इस प्रकार की तितिक्षा उस निरी बर्बर और स्व-निर्भर सहिष्णुता से अधिक अच्छी होती है जो ईश्वर के इस आधार को अत्यन्त कठोर बना सकती है; क्योंकि इस प्रकार की तितिक्षा एक ऐसी शक्ति तैयार करती है जो ज्ञान और प्रेम को धारण कर सकती है;  इसकी स्थिरता एक ऐसी गभीरत: प्रेरित शान्ति होती है जो सहज ही आनन्द में परिणत हो जाती है । उत्सर्ग और तितिक्षा के इस काल का लाभ यह होता है कि हमें समस्त आघातों और सम्पर्कों का सामना करनेवाला आत्मबल प्राप्त हो जाता है ।

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     इसके बाद उस उच्चासीन तटस्थता एवं उदासीनता का काल आता है जिसमें आत्मा हर्ष और विषाद से मुक्त हो जाती है और सुख की लालसा के पाश से तथा दुःख-दर्द के शूलों के अंधेरे बन्धन से छूट जाती है । सभी वस्तुओं, व्यक्तियों और शक्तियों पर, अपने और दूसरों के सभी विचारों, भावों, सम्वेदनों और कार्यों पर आत्मा ऊपर से अपनी दृष्टि डालती है, पर वह स्वयं अस्पृष्ट एवं निर्विकार रहती है और इन चीजों से चलायमान नहीं होती । यह समता की तैयारी का चिन्तनात्मक काल है, एक विशाल तथा अतिमहान् गति है । परन्तु इस उदासीनता को कर्म तथा अनुभव से निष्क्रिय पराङ्मुखता के रूप में स्थायी नहीं हो जाना चाहिये; यह व्याकुलता, विरक्ति तथा अरुचि से उत्पन्न घृणा-रूप नहीं होनी चाहिये, न ही यह निराश या असन्तुष्ट कामना की ठिठक या उस पराजित एवं असन्तुष्ट अहं की उद्विग्रता होनी चाहिये जो अपने रागयुक्त लक्ष्यों से बलात् पीछे हटा दिया गया है । पीछे हटने की ये चेष्टाएं अपक्व आत्मा में अवश्यमेव प्रकट होती हैं और आतुर एवं कामना-प्रचालित प्राणिक प्रकृति को निरुत्साहित करके ये एक प्रकार से प्रगति में सहायक भी हो सकती हैं, किन्तु ये वह पूर्णता नहीं हैं जिसके लिये हम पुरुषार्थ कर रहे हैं । जिस उदासीनता या तटस्थता की प्राप्ति के लिये हमें प्रयत्न करना होगा वह है वस्तुओं के स्पर्शों से परे ऊर्ध्व-अवस्थित आत्मा की प्रशान्त उच्चता; यह उन स्पर्शों को देखती तथा स्वीकार या अस्वीकार करती है, पर अस्वीकृति की अवस्था में चलायमान नहीं होती और स्वीकृति से वशीकृत नहीं हो जाती । यह अपने-आपको उस प्रशान्त आत्मा किंवा आत्म-तत्त्व के निकट और उससे सम्बद्ध तथा एकमय अनुभव करने लगती है जो स्वयंभू है और प्रकृति के व्यापारों से पृथक् है, पर जो विश्व की गतिचेष्टा से अतीत, शान्त एवं अचल सद्वस्तु का एक अंश रहकर या उसमें निमज्जित होकर उन व्यापारों को आश्रय देता तथा सम्भव बनाता है । उच्च अतिक्रमण के इस काल के फलस्वरूप एक ऐसी आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है जो जागतिक गति की मृदुल हिलोरों अथवा तूफानी तरंगों और लहरों से आन्दोलित और उद्वेलित नहीं होती ।

 

     यदि हम आन्तर परिवर्तन की इन दो अवस्थाओं में से किसीमें भी बद्ध या अवरुद्ध हुए बिना इन्हें पार कर सकें, तो हम उस महत्तर दिव्य समता में प्रवेश पा लेंगे जो आध्यात्मिक उत्साह तथा शान्त हर्षावेश को धारण करने में समर्थ है और जो पूर्णताप्राप्त आत्मा की एक आनन्दमयी, सब कुछ समझने तथा सब कुछ अधिकृत करनेवाली समता है, --उसकी सत्ता की एक ऐसी प्रगाढ़ तथा सम विशालता एवं परिपूर्णता है जो सब वस्तुओं का आलिंगन करती है । यह सर्वोच्च अवस्था है और इसे प्राप्त करने का पथ भगवान् तथा विश्वजननी के प्रति पूर्ण आत्मदान के हर्ष में से होकर जाता है । कारण, शक्ति तब एक आनन्दपूर्ण प्रभुत्व

 

      या उदासीन ।

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से सुशोभित होती है, शान्ति सघन होकर आनन्द में परिणत हो जाती है, तब दिव्य स्थिरता की सम्पद् को उन्नीत करके दिव्य गति की सम्पद् का आधार बना दिया जाता है । परन्तु यदि यह महत्तर पूर्णता प्राप्त होनी है तो आत्मा की उस तटस्थ उदासीनता को, जो पदार्थों व्यक्तियों, गतियों और शक्तियों के प्रवाह पर ऊपर से दृक्यात करती है, परिवर्त्तित होना होगा और दृढ़ तथा शान्त नमन और सबल एवं गंभीर समर्पण के एक नये भाव में परिणत हो जाना होगा । यह नमन तब 'हरि- इच्छा' का नहीं, बल्कि सहर्ष स्वीकृति का भाव होगा; क्योंकि तब दुःख झेलने अथवा भार या कष्ट सहने का भाव तनिक भी नहीं होगा; प्रेम और आनन्द तथा आत्मदान का हर्ष ही इसका उज्वल ताना-बाना होगा । यह समर्पण केवल उस दिव्य संकल्प के प्रति ही नहीं होगा जिसे हम अनुभव और स्वीकार एवं शिरोधार्य करते हैं, वरन् इस संकल्प में निहित उस दिव्य प्रज्ञा के प्रति भी होगा जिसे हम अंगीकार करते हैं और इसके अन्तर्निहित उस दिव्य प्रेम के प्रति भी जिसे हम अनुभव करते और सोल्लास अनुमति प्रदान करते हैं, --यह उस आत्मा किंवा आत्मसत्ता की प्रज्ञा एवं प्रेम के प्रति होगा जो हमारी और सब की परम आत्मा एवं आत्मसत्ता है और जिसके साथ हम मंगलमय एवं परिपूर्ण एकत्व उपलब्ध कर सकते है । एकाकिनी शक्ति, शान्ति एवं स्थिरता ज्ञानी की चिन्तनात्मक समता का अन्तिम मंत्र है; परन्तु आत्मा अपने सर्वांग अनुभव में अपने-आपको इस स्वरचित स्थिति से मुक्त कर लेती है और सनातन के अनादि और अनन्त आनन्द के परम सर्वसमालिंगी उल्लास के सागर में अवगाहन करती है । इस प्रकार:, अन्त में हम सब स्पर्शों को आनन्दपूर्ण समता से ग्रहण करने में समर्थ हो जाते हैं, क्योंकि उनमें हम उस अक्षय प्रेम तथा आनन्द का संस्पर्श अनुभव करते हैं जो वस्तुओं के अन्तस्तल में सदा-सर्वदा विद्यमान है । विराट् एवं सम हर्षावेश के इस शिखर पर पहुंचने का परम फल यह होता है कि अध्यात्म-सुख तथा असीम आनन्द के प्रथम द्वार खुल जाते हैं और एक ऐसे दिव्य हर्ष की प्राप्ति होती है जो मन और बुद्धि से परे है ।

 

    इससे पूर्व कि कामना के नाश तथा आत्मिक समता की प्राप्ति का यह प्रयत्न अपनी चरम पराकाष्ठा एवं सफलता को प्राप्त हो, आध्यात्मिक क्रिया के उस क्रम को पूर्ण कर लेना आवश्यक है जो अहंभाव को जड़ से नष्ट कर डालता है । किन्तु कर्मी के लिये कर्म के अहंकार का त्याग इस परिवर्तन का एक परमावश्यक अंग है । कारण, यद्यपि हमने फलों तथा फलों की कामना का यज्ञ के अधीश्वर के प्रति उत्सर्ग करके राजसिक इच्छा के अहंभाव से नाता तोड़ लिया है फिर भी कर्तृत्व का अहंकार हमने शायद अभीतक बचा रखा है । अभी भी हम इस भाव के वशीभूत हैं कि स्वयं हम ही कर्म के कर्ता हैं, हम ही इसके उद्गम और हम ही अनुमतिदाता हैं । अभी भी हमारी ''मैं'' ही चुनती और निर्णय करती है, हमारी

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 ''मैं'' ही उत्तरदायित्व लेती और निन्दाप्रशंसा अनुभव करती है । इस विभाजक अहंबुद्धि का नितान्त उच्छेद हमारे योग का प्रधान लक्ष्य है । यदि किसी प्रकार के अहं को कुछ समय के लिये हमारे अन्दर बचा ही रहना है तो वह इसका एक रूपमात्र है जो अपनेको रूप ही समझता है और हमारे अन्दर चेतना के सच्चे केंद्र की अभिव्यक्ति या स्थापना होने के साथ ही नष्ट हो जाने के लिये उद्यत रहता है । वह सच्चा केंद्र एकमेवाद्वितीय चेतना का ज्योतिर्मय रूपायण तथा 'एक सत्' का शुद्ध वाहन एवं यन्त्र होता है । वैश्व शक्ति की वैयक्तिक अभिव्यक्ति एवं क्रिया का आधार होता हुआ वह क्रमश: अपने पीछे हमारे सच्चे अन्तःपुरुष एवं केंद्रीय नित्य पुरुष को अर्थात् 'परम' की एक शाश्वत सत्ता, और परात्पर शक्ति की एक अंशभूत शक्ति को प्रकाशित करता है

 

     यहां, इस गति में भी, जिसके द्वारा आत्मा अहं के प्रच्छन्न आवरण शनैः -शनैः उतार फेंकती है, सुस्पष्ट क्रमों में से गुजरते हुए उन्नति होती है । कारण, केवल कर्मों के फल पर ही ईश्वर का अधिकार हो ऐसी बात नहीं, अपितु हमारे कर्म भी निश्चित रूप से उसीके होने चाहियें; जैसे वह हमारे फलों का स्वामी है वैसे ही वह हमारे कर्म का भी सच्चा स्वामी है । इस बात को केवल चिन्तनात्मक मन से समझ लेना ही हमारे लिये पर्याप्त नहीं है बल्कि यह हमारी समस्त चेतना तथा इच्छाशक्ति के प्रति पूर्णत: सत्य बन जानी चाहिये । साधक को यह केवल सोचना और जान लेना ही काफी नहीं है, बल्कि उसे कार्य करते समय, इसके आरम्भ में और इसकी सम्पूर्ण प्रक्रिया में, प्रत्यक्ष रूप से तथा गहराई के साथ यह देखना और अनुभव भी करना होगा कि उसके कर्म उसके अपने बिल्कुल नहीं हैं, वरन् वे उसके द्वारा परम सत्ता से प्रवाहित हो रहे हैं । उसको उस शक्ति, उपस्थिति एवं संकल्पशक्ति से सदा सचेतन रहना होगा जो उसकी व्यक्तिगत प्रकृति के द्वारा कार्य करती है । परन्तु ऐसी वृत्ति धारण करने में भय यह है कि वह अपनी प्रच्छन्न या उदात्तीकृत ''मैं'' या किसी निम्नतर शक्ति को भ्रान्तिवश ईश्वर समझकर इसकी मांगों को सर्वोच्च आदेशों का स्थान दे देगा । वह इस निम्नतर प्रकृति के सामन्य दांव में फंस जायगा और उच्चतर शक्ति के प्रति अपने कल्पित समर्पण को अपनी इच्छा की, यहां तक कि अपनी कामनाओं एवं आवेशों की परिवर्द्धित एवं असंयत तृप्ति का बहाना बना लेगा । अतः एक महान् सद्हृदयता की आवश्यकता है और इसे केवल अपने सचेतन मन में ही स्थापित करना काफी नहीं है, बल्कि इससे कहीं अधिक अपने उस प्रच्छन्न भाग में भी स्थापित करना आवश्यक है जो गुप्त चेष्टाओं से भरा पड़ा है । कारण वहां, विशेषकर हमारी प्रच्छन्न प्राणिक प्रकृति में, एक ऐसा मायावी और बहुरूपिया उपस्थित है जिसका सुधार करना अत्यन्त दुष्कर है । सुतरां, कामना के उन्मूलन में तथा सभी क्रियाओं एवं सभी घटनाओं के प्रति दृढ़ आत्मिक

 

       १अंश: सनातन:; पराप्रकतिर्जीवभूता । -गीता १५-७; ७-५ ।

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समता में बहुत अधिक उन्नति कर लेंने के बाद ही साधक अपने कर्मों का भार पूर्ण रूप से भगवान् को सौंप सकता है । उसे प्रतिक्षण अहंकार के छलों तथा अन्धकार की उन भ्रामक शक्तियों के दांवों पर सजग दृष्टि रखते हुए आगे बढ़ना होगा जो सदा ही अपने को प्रकाश तथा सत्य के अनन्य स्रोत के रूप में प्रदर्शित करती हैं और जिज्ञासु की आत्मा को बंदी बनाने के लिये दिव्य रूपों का स्वांग रचती हैं ।

 

     इसके पश्चात् उसे तुरन्त ही अपनेकी साक्षी की स्थिति के प्रति अर्पित करने का अगला कदम उठाना होगा । प्रकृति से पृथक्, निर्वैयक्तिक तथा वीतराग होकर, उसे अपने भीतर काम करती हुई कर्त्री प्रकृति-शक्ति का निरीक्षण करना तथा उसकी क्रिया को समझना होगा । इस पार्थक्य के द्वारा उसे प्रकृति की वैश्व शक्तियों की क्रीड़ा को पहचानना सीखना होगा, उषा और निशा एवं दिव्यता और अदिव्यता के प्रकृतिकृत सम्मिश्रण को अलग-अलग करके देखना और प्रकृति की उन भीषण शक्तियों एवं सत्ताओं को जानना होगा जो अज्ञानी मानव प्राणी का अपने कार्य के लिये उपयोग करती हैं । गीता कहती है कि विश्वशक्ति (Nature) हमारे अन्दर प्रकृति के त्रिविध गुण--प्रकाश तथा सत् के गुण, आवेश एवं कामना के गुण और अन्धता तथा जड़ता के गुण-के द्वारा कार्य करती है । जिज्ञासु को अपनी प्रकृति के इस राज्य में होनेवाली सब कार्रवाई के तटस्थ तथा विवेचक साक्षी के रूप में इन गुणों की पृथक् तथा सम्मिलित क्रिया में भेद करना सीखना होगा । वैश्व शक्तियों की सूक्ष्म अगोचर प्रणालियों तथा छद्मवेशों के समस्त गोरखधन्धे में उसे अपने अन्दर इनकी क्रियाओं का अनुसंधान करना होगा और इस गड़बड़झाले की प्रत्येक पेचीदगी को समझना होगा । ज्यों-ज्यों वह इस ज्ञान में अग्रसर होगा त्यों- त्यों वह अनुमन्ता बनने में समर्थ होता जायगा और आगे को प्रकृति का मूढ़ यन्त्र नहीं रहेगा । सर्वप्रथम उसे प्रकृति-शक्ति को इस बात के लिये प्रेरित करना होगा कि वह उसके करणों पर अपनी क्रिया करते हुए अपने दो निम्नतर गुणों के व्यापार को अभिभूत करके उन्हें प्रकाश एवं सत् के गुण के वशीभूत कर दे और, तदनन्तर, उसे इस सत्त्वगुण को भी इसके लिये प्रेरित करना होगा कि यह भी अपने को अर्पित करे, ताकि एक उच्चतर दिव्य शक्ति तीनों को ही इनके दिव्य प्रतिफलों में, परम विश्रान्ति और शम, दिव्य ज्ञानदीप्ति और आनन्द तथा नित्य दिव्य बल- क्रिया वा तपस् में रूपान्तरित कर सके । इस साधना तथा परिवर्तन का प्रथम भाग हमारी मानसिक सत्ता की संकल्प-शक्ति के द्वारा सिद्धान्त-रूप में दृढ़तापूर्वक सम्पन्न हो सकता है; परन्तु इसकी पूर्ण सिद्धि तथा परिणामभूत रूपान्तर तो तभी सम्पन्न हो सकते हैं जब गभीरतर अन्तरात्मा प्रकृति पर अपने प्रभुत्वको अधिक दृढ़ करके प्रकृति के शासक के रूप में मनोमय पुरुष का स्थान ग्रहण कर ले । ऐसा हो जाने पर जिज्ञासु केवल अभीप्सा तथा भावना एवं प्रारम्भिक तथा वृद्धिशील आत्मोत्सर्ग

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के साथ ही नहीं, अपितु अत्यन्त सबल रूप में यथार्थ एवं सक्रिय आत्मदान के साथ अपने कर्मों का परम इच्छाशक्ति के प्रति पूर्ण समर्पण करने के लिये तैयार हो जायगा । उसके अपूर्ण मानव-बुद्धिवाले मन के स्थान पर क्रमश: एक आध्यात्मिक और ज्ञानदीप्त मन प्रतिष्ठित होता जायगा और यह भी अन्त में अतिमानसिक सत्य-ज्योति में प्रवेश कर सकेगा । तब वह अस्तव्यस्त एवं अपूर्ण क्रिया करनेवाले तीन गुणों से सम्पन्न अपनी अज्ञानमय प्रकृति के द्वारा नहीं, बल्कि आध्यात्मिक शान्ति, ज्योति, शक्ति एवं आनन्द की दिव्यतर प्रकृति के द्वारा कर्म करेगा । वह अपने कर्म और भी अज्ञतर भावुक हृदय की प्रेरणा, प्राण-सत्ता की कामना, शरीर के आवेग एवं अन्धप्रवृत्ति तथा अज्ञ मन एवं संकल्प के पारस्परिक मिश्रण के द्वारा नहीं करेगा, बल्कि पहले आध्यात्मीकृत सत्ता एवं प्रकृति के द्वारा और अन्त में अतिमानसिक सत्य-चेतना तथा उसकी परा प्रकृति की दिव्य शक्ति के द्वारा करेगा ।

 

     इस प्रकार वे अन्तिम पग उठाये जा सकते हैं जिनसे प्रकृति का पर्दा हट सकता है और जिज्ञासु समस्त सत्ता के स्वामी का साक्षात्कार कर सकता है और उसके सभी कर्म उस परम शक्ति के कर्म में निमज्जित हो सकते हैं जो सदा शुद्ध, सत्य, पूर्ण और आनन्दमय है । इस प्रकार वह अपने कर्मों और कर्मफलों को अतिमानसिक शक्ति के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित करके केवल उस सनातन कर्त्ता के एक सचेतन यन्त्र के रूप में कार्य कर सकता है । तब वह अनुमति नहीं देगा, वरन् भगवान् के आदेश को अपने करणों में ग्रहण करके और अतिमानसिक शक्ति के हाथों का यन्त्र बन कर उस आदेश का अनुसरण करेगा । तब वह कर्म नहीं करेगा, बल्कि अतिमानस की निर्निद्र शक्ति को अपने द्वारा कार्य करने देगा । तब वह यह नहीं चाहेगा कि उसकी मानसिक कल्पनाएं चरितार्थ हों तथा उसकी भाविक कामनाएं पूरी हों, बल्कि वह एक ऐसे सर्वशक्तिमान् संकल्प का अनुसरण करेगा और उसमें सहयोग देगा जो सर्ववित् ज्ञान है तथा गुह्य, चमत्कारक एवं अगाध प्रेम है और है सत्ता के नित्य आनन्द का विशाल अतल सागर ।

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अध्याय १०

 

प्रकृति के तीन गुण

 

यदि आत्मा को अपनी सत्ता और कर्मों में स्वतंत्र होना है तो अपरा प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया का अतिक्रम करना उसके लिये अनिवार्य है । इस तथ्यात्मक वैश्व प्रकृति के प्रति सुसमंजस अधीनता किंवा प्रकृति के करणों की शुभ और अविकल कर्म की अवस्था आत्मा के लिये आदर्श नहीं है, उसके लिये तो अधिक अच्छा यह है कि वह ईश्वर तथा उसकी शक्ति के अधीन रहे, पर अपनी प्रकृति की स्वामिनी बने । परम इच्छाशक्ति के माध्यम या वाहन के रूप में उसे अपनी अन्तर्दृष्टि और स्वीकृति या अस्वीकृति के द्वारा यह निर्णय करना होगा कि प्रकृति ने मन-प्राण-शरीररूपी प्राकृतिक करणों की चेष्टा के लिये जो शक्ति-भंडार, पारिपार्श्विक अवस्थाएं तथा सम्मिलित गति के लयताल प्रदान किये हैं उनका क्या प्रयोग किया जायगा । परन्तु इस निम्नतर प्रकृति पर प्रभुत्व केवल तभी प्राप्त किया जा सकता है यदि इसे पार करके इसका प्रयोग ऊपर से किया जाय । ऐसा तभी किया जा सकता है यदि हम इसकी कर्मसम्बन्धी शक्तियों और गुणों एवं अवस्थाओं को अतिक्रान्त कर जायें; अन्यथा हम इसकी अवस्थाओं के ही अधीन रहेंगे और विवश होकर इसके द्वारा शासित होते रहेंगे, इस तरह हम आत्मा में स्वतन्त्र नहीं होंगे ।

 

     प्रकृति की तीन मूल अवस्थाओं का विचार प्राचीन भारतीय मनीषियों की उपज है और इसकी सत्यता हमारे सामने सहज ही स्पष्ट नहीं होती, क्योंकि यह उनके सुदीर्घ अध्यात्मविषयक परीक्षण तथा गभीर आन्तर अनुभूति का परिणाम था । अतएव, सुदीर्घ आन्तर अनुभव तथा अन्तरंग आत्म-निरीक्षण के बिना और प्रकृति- शक्तियों का साक्षात् ज्ञान प्राप्त किये बिना इसे ठीक-ठीक समझना या दृढ़ता से उपयोग में लाना कठिन है । तथापि कुछ मोटे निर्देश कर्म-मार्ग पर आरूढ़ जिज्ञासु के लिये अपनी प्रकृति के अनेकविध शक्ति-संयोगों को समझने, विश्लेषण करने तथा उन्हें अपनी स्वीकृति या निषेध से नियन्त्रित करने में सहायक हो सकते हैं । प्रकृति की मूल अवस्थाओं को भारतीय पुस्तकों में गुण कहा गया है और इन्हें सत्त्व, रज और तम के नाम दिये गये हैं । सत्त्व सन्तुलन की शक्ति है और गुण के रूप में यह सत् सामंजस्य, सुख और प्रकाश कहलाता है; रज गति की शक्ति हैं और गुण के रूप में यह संघर्ष, प्रयत्न, आवेश तथा कर्म कहलाता है; तम अचेतना एवं जड़ता की शक्ति है और गुण के रूप में यह अन्धता, अक्षमता तथा निष्क्रियता कहलाता है । ये विशेष लक्षण अध्यात्मविषयक आत्मविश्लेषण के लिये प्रायः ही प्रयुक्त होते हैं और भौतिक प्रकृति में भी ये ठीक घटते हैं । अपरा प्रकृति

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की एक-एक वस्तु और हरेक सत्ता में ये निहित हैं और प्रकृति की कार्यप्रणाली तथा इसका गतिशील रूप इन गुणात्मक शक्तियों की परस्पर-क्रिया के ही परिणाम हैं ।

 

     चेतन या अचेतन सभी वस्तुओं का प्रत्येक रूप क्रियारत प्राकृतिक शक्तियों का एक स्थिरतापूर्वक रक्षित सन्तुलन होता है । यह उन सहायक, बाधक या विनाशक सम्पर्को के अन्तहीन प्रवाह के अधीन होता है जो इसे अपने चारों ओर की शक्तियों के अन्य संयोगों से प्राप्त होते हैं । हमारी अपनी मन-प्राण-शरीररूपी प्रकृति भी इस प्रकार के रचनाकारी शक्ति-संयोग या त्रिगुण-संयोग तथा सन्तुलन के सिवा और कुछ नहीं है । पारिपार्श्विक स्पर्शों के ग्रहण तथा उनके प्रति प्रतिक्रिया में ये तीन गुण ग्रहीता का स्वभाव तथा प्रत्युत्तर का स्वरूप निर्धारित करते हैं । जड़ तथा अशक्त रहकर वह किसी प्रत्युत्तर-स्वरूप प्रतिक्रिया, आत्म-रक्षा की किसी चेष्टा, अथवा आत्मसात् करने एवं अनुकूल बनाने की किसी भी क्षमता के बिना उन स्पर्शों को झेल सकता है; यह तमोगुण है, जड़ता की रीति है । तम के लक्षण हैं--अन्धता, अचेतनता, अक्षमता और निर्बुद्धिता, प्रमाद, आलस्य, निष्क्रियता और यान्त्रिक पुनरावर्त्तिता, मन की जड़ता, प्राण की मूर्च्छा और आत्मा की निद्रा । इसका प्रभाव, यदि उसे अन्य तत्त्वों के द्वारा सुधारा न जाय तो, इसके सिवाय और कुछ नहीं हो सकता कि प्रकृति का वह रूप या सन्तुलन विघटित हो जायगा और उसके स्थान पर न कोई नया रूप उत्पन्न होगा और न कोई नया सन्तुलन या क्रियाशील विकास की कोई नयी शक्ति ही उत्पन्न होगी । इस जड़ अशक्तता के मूल में निहित है अज्ञान का तत्त्व तथा पारिपार्श्विक शक्तियों के उत्तेजक या आक्रामक स्पर्श एवं उनके सुझाव को तथा नूतन अनुभव के लिये उनकी प्रेरणा को समझने और आयत्त एवं प्रयुक्त करने की अयोग्यता या प्रमादपूर्ण अनिच्छा ।

 

     दूसरी ओर, प्रकृति के स्पर्शों का ग्रहीता उसकी शक्तियों से संस्पृष्ट तथा उत्तेजित, पीड़ित वा आक्रान्त होकर दबाव के अनुकूल या प्रतिकूल प्रतिक्रिया भी कर सकता है । प्रकृति उसे प्रयत्न, प्रतिरोध एवं प्रयास करने, अपनी परिस्थिति को अधिकृत या स्वांगीकृत तथा अपनी इच्छाशक्ति को स्थापित करने और युद्ध, निर्माण एवं विजय करने के लिये स्वीकृति, प्रोत्साहन तथा प्रेरणा देती है । यह रजोगुण है, आवेश, कर्म और कामना की तृष्णा की रीति है । संघर्ष, परिवर्तन और नवसर्जन, विजय और पराजय, हर्ष और शोक तथा आशा और निराशा इसकी सन्तानें हैं और ये इसका ऐसा चित्र-विचित्र जीवन-सदन निर्मित करती हैं जिसमें यह मौज मनाता है । परन्तु इसका ज्ञान अपूर्ण या मिथ्या ज्ञान होता है जो अपने साथ अज्ञानयुक्त प्रयत्न, भूल-भ्रान्ति, अनवरत कुसामंजस्य, आसक्ति का कष्ट, हताश कामना, और हानि रख असफलता का दुःख लाता है । रजोगुण की देन है गतिशील बल, स्फूर्ति, कर्मण्यता तथा ऐसी शक्ति जो सर्जन एवं कर्म करती है और विजय कर सकती

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है । किन्तु यह रजोगुण अविद्या के मिथ्या प्रकाशों या अर्द्धप्रकाशों में विचरण करता है और असुर, राक्षस तथा पिशाच के स्पर्श से कलुषित होता है । मानव-मन का उद्धत ज्ञान और उसके निज-सन्तुष्ट विकार एवं धृष्ट भ्रान्तियां; मद, अहंकार और महत्त्वाकांक्षा क्रूरता, अत्याचार, पाशविक क्रोध और उग्रता; स्वार्थ, क्षुद्रता, छल- कपट और निकृष्ट नीचता; ईर्ष्या, असूया एवं अथाह कृतघ्नता और काम, लोभ, लूट-मार एवं बलापहार जो पृथ्वी-प्रकृति को विकृत करते हैं, इस अनिवार्य किन्तु उग्र एवं भयानक प्रकृति-वृत्ति की स्वाभाविक सन्तानें हैं ।

 

     परन्तु देहधारी जीव प्रकृति के इन दो गुणों से ही बंधा हुआ नहीं है; एक इनसे अच्छा और अधिक प्रकाशयुक्त ढंग भी है जिससे वह अपने चारों ओर के सम्पर्को और जगत्-शक्तियों के प्रवाह के साथ व्यवहार कर सकता है । इन सम्पर्कों और शक्तियों को वह स्पष्ट समझ, समस्थिति एवं सन्तुलन के साथ भी ग्रहण कर सकता है और इनकी ओर प्रतिक्रिया कर सकता है । प्राकृतिक जीव की इस व्यवहार-शैली में एक ऐसी शक्ति है जो समझ से युक्त होने के कारण सहानुभूति प्रकाशित करती है; यह प्रकृति की प्रेरणा और उसकी विधियों की थाह लेती है और उन्हें अधिकृत तथा विकसित करती है । इसमें एक ऐसी बुद्धि है जो प्रकृति की कार्य-प्रणालियों तथा उसके आशयों की तह में जाती है और उन्हें आत्मसात् करके उपयोग में ला सकती है । इसमें एक ऐसी प्रसन्न प्रतिक्रिया होती है जो अभिभूत नहीं होती किन्तु मेल साधती है, सुधारती एवं समस्वर करती है तथा सभी वस्तुओं में से सार निकाल लेती है । यह सत्त्वगुण है, अर्थात् प्रकृति की वह वृत्ति है जो प्रकाश और सन्तुलन से पूर्ण है, सत् ज्ञान, आनन्द, सौन्दर्य तथा सुख और ठीक समझ, ठीक सन्तुलन एवं ठीक व्यवस्था के लक्ष्य की ओर अभिमुख है । इसका स्वभाव है ज्ञान की उज्वल विशदता का ऐश्वर्य और सहानुभूति एवं अन्तरंगता का ज्वलन्त उत्साह । सूक्ष्मता और ज्ञानदीप्ति, संयमित शक्ति, समस्त सत्ता की पूर्ण समस्वरता एवं समतोलता सात्त्विक प्रकृति की सर्वोच्च उपलब्धि है ।

 

     कोई भी सत्ता वैश्व शक्ति के इन गुणों में से पूरी तरह किसी एक के ही न्यारे सांचे में ढली हुई नहीं है; हर एक में और हर जगह तीनों के तीनों विद्यमान हैं । इनके परिवर्तनशील सम्बन्धों तथा परस्पर-संचारी प्रभावों का सतत संयोजन और वियोजन होता रहता है, बहुधा शक्तियों का संघट्ट तथा मल्लयुद्ध एवं स्व-दूसरी पर प्रभुता करने के लिये संघर्ष भी चलता रहता है । सभी के अन्दर कम या अधिक अंश या मात्रा में सात्त्विक वृत्तियां होती हैं, भले ही किसी-किसी में ये अलक्ष्य-सी न्यूनतम मात्रा में ही क्यों न हों; सभी में प्रकाश, निर्मलता एवं प्रसन्नता की स्पष्ट सरणियां या अविकसित प्रवृत्तियां, परिस्थिति के साथ सूक्ष्म अनुकूलीकरण और सहानुभूति, बुद्धि, समतोलता, यथार्थ विचार, यथार्थ संकल्प और भाव, यथार्थ आवेग, सद्गुण और नियम-क्रम देखने में आते हैं । सभी में राजसिक

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वृत्तियां भी होती हैं, सभी में आवेग, कामना, आवेश और संघर्षवाले मलिन अंग, विकार, असत्य एवं भ्रान्ति और असन्तुलित हर्ष एवं शोक दृष्टिगोचर होते हैं और सभी में कर्म एवं उत्सुक सर्जन की उग्र प्रेरणा, और परिस्थिति के दबाव तथा जीवन के आक्रमणों एवं प्रस्तावों के प्रति प्रबल या साहसपूर्ण अथवा प्रचंड या भयानक प्रतिक्रियाएं भी दिखायी देती हैं । सभी में तामसिक वृत्तियां भी होती हैं, सभी में स्थिर अन्धकारमय भाग, अचेतनता के क्षण या स्थल, दुर्बल सहिष्णुता या जड़ स्वीकृति का चिररूढ़ स्वभाव या इसके प्रति अस्थायी रुचि, प्रकृतिगत दुर्बलताएं या क्लान्ति, प्रमाद और आलस्य की गतियां देखने में आती हैं, अज्ञान एवं अशक्तता में पतन, विषाद, भय और भीरुतापूर्ण जुगुप्सा अथवा परिस्थितियों के प्रति और मनुष्यों, घटनाओं एवं शक्तियों के दबाव के प्रति अधीनता भी सभी के अन्दर पायी जाती है । हम सभी अपनी प्राकृतिक शक्ति की कुछ दिशाओं में अथवा अपने मन या स्वभाव के कई भागों में सात्त्विक हैं, कुछ दूसरी दिशाओं में राजसिक और कई अन्य दिशाओं में तामसिक भी हैं । किसी मनुष्य के सामान्य स्वभाव और विशिष्ट मन तथा कर्मधारा में इन गुणों में से जो कोई भी साधारणतया प्रबल होता है उसीके अनुसार उस मनुष्य के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि वह सात्त्विक, राजसिक या तामसिक है । परन्तु ऐसे व्यक्ति विरले ही होते हैं जो सदा एक ही प्रकार के हों और अपने प्रकार में विशुद्ध तो कोई भी नहीं होता । ज्ञानी सदा या पूर्णतया ज्ञानी नहीं होते, बुद्धिमान् केवल खंडश: ही बुद्धिमान् होते हैं; साधु अपने अन्दर अनेक असाधु चेष्टाएं दबाये रखता है और दुष्ट निरे दुष्ट ही नहीं होते । जड़-से-जड़ मनुष्य में भी अप्रकट अथवा अप्रयुक्त एवं अविकसित क्षमताएं होती हैं । अत्यन्त भीरु व्यक्ति भी किसी-किसी समय अपना जौहर दिखाता है अथवा उसका भी एक साहसी रूप होता है, असहाय और दुर्बल की प्रकृति में भी शक्ति का एक प्रसुप्त स्रोत होता है । सत्त्व आदि प्रधान गुण देहधारी जीव के मूल आत्मिक प्रतिरूप नहीं होते, वरन् उस रचना के चिह्नमात्र होते हैं जो रचना जीव अपने इस जीवन के लिये या अपने वर्तमान सत्ता-काल में अपने विकास के किसी विशिष्ट क्षण में निर्मित करता हैं ।

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     जब एक बार साधक अपने भीतर या अपने पर होनेवाली प्रकृति की क्रिया से तटस्थ हो जाता है और उसमें हस्तक्षेप अथवा उसका सुधार या निषेध एवं चुनाव या निर्णय न करते हुए उसकी क्रीड़ा को होने देता है और जब वह उसकी कार्य-पद्धति का विश्लेषण एवं निरीक्षण कर लेता है, तब वह शीघ्र ही जान जाता है कि प्रकृति के गुण स्वाश्रित हैं और वे वैसे ही कार्य करते हैं जैसे एक बार

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चलाकर काम में लगायी हुई मशीन अपनी ही रचना तथा संचालक शक्तियों के द्वारा कार्य करती रहती है । शक्ति और संचालन का स्रोत प्रकृति है, प्राणी नहीं । तब उसे अनुभव हो जाता है कि मेरा यह संस्कार कैसा अशुद्ध था कि मेरा मन मेरे कार्यों का कर्त्ता है; मेरा मन तो मेरा एक छोटा-सा अंश तथा प्रकृति की रचना एवं इंजनमात्र है । वास्तव में प्रकृति ही अपने तीन सार्वभौम गुणों को इस प्रकार घुमाती हुई, जिस प्रकार कोई लड़की अपनी पुतलियों से खेलती हो, अपने गुणों द्वारा बराबर कार्य कर रही है । उसका 'अहं' सदैव एक यन्त्र तथा खिलौनामात्र होता है; उसका चरित्र और बुद्धि, उसके नैतिक गुण और मानसिक शक्तियां, उसकी कृतियां और कर्म एवं पराक्रम, उसका क्रोध और सहिष्णुता, उसकी क्रूरता और करुणा, उसका प्रेम और उसकी घृणा, उसका पाप और पुण्य, उसका प्रकाश और अन्धकार तथा हर्षावेश एवं शोकोच्छूवास प्रकृति की क्रीड़ामात्र हैं जिसे आत्मा आकृष्ट, विजित तथा वशीकृत होकर अपनी निष्क्रिय सहमति दे देती है । तथापि प्रकृति या शक्ति का नियन्तृत्व ही सब कुछ नहीं है, इस विषय में आत्मा की बात भी सुनी जाती है, उसकी भी चलती है, --किन्तु चलती है गुप्त आत्मा की या पुरुष की, न कि मन वा अहंकार की, क्योंकि ये स्वतन्त्र सत्ताएं नहीं, वरन् प्रकृति के ही भाग हैं । आत्मा की अनुमति क्रीड़ा के लिये अपेक्षित है और अनुमति के ईश तथा प्रदाता के रूप में वह आन्तर मौन संकल्प के द्वारा क्रीड़ा का नियम निर्धारित कर सकती है तथा अपने त्रिगुण-संयोगों में हस्तक्षेप कर सकती है, यद्यपि विचार एवं संकल्प और कर्म एवं आवेग में क्रियान्वित करना तब भी प्रकृति का ही कार्य तथा अधिकार रहता है । पुरुष प्रकृति को किसी सामंजस्य के साधित करने के लिये आदेश दे सकता है, पर इसके लिये वह उसके व्यापारों में हस्तक्षेप नहीं करता, बल्कि उसपर एक सचेतन दृष्टि डालता है, जिसे वह तुरन्त या बहुत कठिनाई के बाद एक प्रतिरूपक विचार और क्रियाशील प्रेरणा एवं अर्थपूर्ण प्रतिमा में रूपान्तरित कर देती है ।

 

     यह सर्वथा प्रत्यक्ष ही है कि यदि हमें अपनी वर्तमान प्रकृति का दिव्य चेतना के मूर्त्त बल में तथा उसकी शक्तियों के यन्त्र में रूपान्तर करना है तो दो निम्न गुणों की क्रिया से छुटकारा पाना अनिवार्य है । तम दिव्य ज्ञान के प्रकाश को धुंधला कर देता है तथा उसे हमारी प्रकृति के अंधेरे और मलिन कोनों में प्रवेश नहीं करने देता । यह हमें निःशक्त कर देता है और दैवी आवेग का उत्तर देने की हमारी शक्ति, अपनेको परिवर्तित करने का हमारा बल और प्रगति करने एवं अपनेको महत्तर शक्ति के प्रति नम्य बनाने का हमारा संकल्प हर लेता है । रज ज्ञान को विकृत कर डालता है, हमारी बुद्धि को असत्य की सहायिका तथा प्रत्येक अशुभ चेष्टा की उत्तेजिका बना देता है, हमारी प्राण-शक्ति तथा इसके आवेगों को भड़काता और उलझाता है तथा शरीर का सन्तुलन एवं स्वास्थ्य उलट देता है । यह

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सब अभिजात विचारों तथा उच्चस्थ गतियों पर अधिकार कर लेता हैं और उनका मिथ्या तथा अहंकारमय उपयोग करता है । यहांतक कि दिव्य सत्य और दिव्य प्रभाव भी जब वे पार्थिव स्तर पर अवतरित होते हैं, इस दुरुपयोग और आक्रमण से नहीं बच सकते । जबतक तम आलोकित और रज रूपान्तरित नहीं हो जाता, तबतक कोई दिव्य परिवर्तन या दिव्य जीवन सम्भव नहीं हो सकता ।

 

     अतएव, ऐसा प्रतीत होगा कि सत्त्व का ऐकान्तिक अवलंबन ही उद्धार का उपाय है; किन्तु इसमें कठिनाई यह है कि कोई भी गुण अपने दो संगियों एवं प्रतिस्पर्धियों के विरोध में अकेला विजयी नहीं हो सकता । यदि हम कामना एवं आवेश के गुण को कष्ट-क्लेश और पाप-ताप आदि विकारों का कारण समझकर इसे शान्त तथा वशीभूत करने की चेष्टा और प्रयास करें, तो रज दब जाता है, किन्तु तम उभड़ आता है । सक्रियता का तत्त्व शिथिल पड़ जाने से जड़ता उसका स्थान ले लेती है । प्रकाश का तत्त्व हमें सुस्थिर शान्ति, सुख, ज्ञान, प्रेम और शुद्ध भाव प्रदान कर सकता है, परन्तु यदि रज अनुपस्थित हो या नितान्त दमित हो, तो आत्मा की शान्ति अकर्मण्यता की निश्चलता बनती चली जाती है न कि सक्रिय रूपान्तर की दृढ़ भित्ति । निष्प्रभाव रूप में यथार्थ चिन्तन एवं यथार्थ कर्म करती हुई साधु सौम्य और ऋजु प्रकृति अपने क्रियाशील अंगों में सत्त्व-तामसिक, उदासीन, निस्तेज, असर्जनक्षम या बलशून्य हो सकती है । मानसिक और नैतिक अन्धकार का इसमें अभाव हो सकता है, परन्तु साथ ही कर्म के सबल स्रोत भी सूख जा सकते हैं । इस प्रकार यह भी एक अवरोधक सीमा होती है और साथ ही एक और प्रकार की अक्षमता भी । कारण, तमसू एक दुहरा तत्त्व है; जहां यह रज का निष्क्रियता के द्वारा विरोध करता है वहां यह सत्त्व का भी संकीर्णता, अन्धकार और अज्ञान के द्वारा विरोध करता है और यदि इनमें से कोई अवसन्न हो जाता है तो यह उसका स्थान लेने के लिये घुस आता है ।

 

     यदि हम यह भूल सुधारने के लिये रज को पुनः आमंत्रित करते हैं तथा इसे सत्त्व से गठबंधन करने देते हैं और इनके सम्मिलित प्रभाव से अन्धकारमय तत्त्व से छुटकारा पाने का पुरुषार्थ करते हैं, तो हम देखते हैं कि हमारे कर्म का स्तर तो ऊंचा हो जाता है, किन्तु राजसिक उत्सुकता, लालसा, निराशा, तथा दुःख और रोष के प्रति वश्यता फिर भी बनी रहती है । हो सकता है कि ये गतियां अपने क्षेत्र एवं अपनी भावना तथा क्रिया में पहले की अपेक्षा अधिक उन्नत हो जायें, पर जो शान्ति, स्वतन्त्रता, शक्ति और आत्म-प्रभुता हम प्राप्त करना चाहते हैं वे ये नहीं हैं । जहां-जहां कामना और अहंभाव रहते हैं, वहां-वहां आवेग और विक्षोभ भी उनके साथ रहते ही हैं और उनके जीवन में भाग लेते हैं । यदि हम तीनों गुणों में इस प्रकार का समझौता कराना चाहें कि सत्त्व प्रधान बनकर रहे और अन्य दोनों इसके अधीन रहें तो भी हम प्रकृति के खेल की एक अधिक संयत क्रिया पर ही

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पहुंचेंगे । एक नया सन्तुलन तो हमें प्राप्त हो जायगा, किन्तु आध्यात्मिक स्वातंत्र्य और प्रभुत्व कहीं दिखायी नहीं देंगे अथवा ये अभी केवल एक सुदूर सम्भावना ही रहेंगे ।

 

     एक अन्य मूलत: भिन्न प्रकार की गति हमें गुणों से पीछे हटाकर तथा पृथक् करके अन्तर की ओर ले जायगी और इनसे ऊपर उठायेगी । जो भ्रान्ति प्रकृति के गुणों के व्यापार को स्वीकृति देती है उसे समाप्त होना होगा; क्योंकि जबतक इसे स्वीकृति दी जाती है, तबतक आत्मा इनकी क्रियाओं में आबद्ध और इनके नियम के अधीन ही होती है । रज और तम के समान ही सत्त्व को भी पार करना होगा, सोने की जंजीर भी वैसे ही तोड़ फेंकनी होगी जैसे भारी-भरकम बेड़ियां तथा मिश्र धातुओं के बन्धनभूत भूषण । गीता इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये आत्म-साधना की एक नयी विधि बतलाती है । वह है गुणों की क्रिया से पीछे हटकर अपने अन्दर स्थित होना तथा प्रकृति की शक्तियों की तरंग के ऊपर विराजमान साक्षी की भांति इस अस्थिर प्रवाह का निरीक्षण करना । साक्षी वह है जो देखता है पर तटस्थ एवं उदासीन रहता है, गुणों के निज स्तर पर उनसे पृथक् तथा अपनी स्वाभाविक स्थिति में उनसे ऊपर उच्चासीन होता है । जब वे अपनी तरंगों के रूप में उठते-गिरते हैं, तब साक्षी उनकी गतिविधि देखता है, इसका निरीक्षण करता है, परन्तु न तो वह इसे स्वीकार करता है न इसमें क्षणभर भी हस्तक्षेप करता है । सबसे पहले निर्वैयक्तिक साक्षी की स्वतन्त्रता प्राप्त होना आवश्यक है; तदनन्तर स्वामी या ईश्वर का प्रभुत्व स्थापित हो सकता है ।

 

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     अनासक्ति की इस प्रक्रिया का प्रारम्भिक लाभ यह होता है कि व्यक्ति अपनी निज प्रकृति तथा सर्वजनीन विश्वप्रकृति को समझने लगता है । अनासक्त साक्षी अहंकार से लेशमात्र भी अन्ध हुए बिना प्रकृति की अविद्यामय शैलियों की क्रीड़ा को पूर्ण रूप से देख सकता है तथा उसकी सब शाखा-प्रशाखाएं आवरण एवं सूक्ष्मताएं छान मारने में समर्थ होता है--क्योंकि यह नकली रूप तथा छद्मवेश और जालबन्दी, धोखेबाजी तथा छल-चातुरी से भरी हुई है । दीर्घ अनुभव से सीखा हुआ, सभी कार्यों एवं अवस्थाओं को गुणों की परस्पर-क्रिया समझता हुआ, इनकी कार्यशैलियों से भिज्ञ होता दुआ वह आगे को इनके आक्रमणों से परास्त नहीं हो सकता, इनके फन्दों में एकाएक फंस नहीं सकता अथवा इनके स्वांगों के धोखे में नहीं आ सकता । साथ ही वह देखता है कि अहं यथार्थ में इससे अधिक कुछ नहीं है कि वह एक युक्ति है तथा इनकी परस्पर-क्रिया की धारक ग्रंथि है और, यह जानकर, वह निम्न अहंकारमय प्रकृति की माया से मुक्त हो जाता है । वह परोपकारी और मुनि एवं मनीषी के सात्त्विक अहंकार से छूट जाता है; वह

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स्वार्थसेवी के राजसिक अहंकार को भी उस अधिकार से च्युत कर देता है जो इसने उसके प्राणावेगों पर जमा रखा है । अब वह निज स्वार्थ का परिश्रमी पोषक तथा आवेश एवं कामना का पला हुआ कैदी या अतिश्रम करनेवाला दंडित दास नहीं रहता । अज्ञानमय या निष्क्रिय, जड़ एवं बुद्धिहीन, तथा मानवजीवन के साधारण चक्र में फंसी हुई सत्ता के तामसिक अहंकार को वह अपनी ज्ञान-ज्योति से छिन्न- भिन्न कर देता है । इस प्रकार हमारे समस्त वैयक्तिक कर्म में अहंभाव-रूपी मूल दोष का अस्तित्व निश्चित रूप से स्वीकार कर तथा इससे सचेतन होकर वह आगे से राजसिक या सात्त्विक अहंकार में आत्म-सुधार या आत्म-उद्धार का उपाय ढूंढ़ने की चेष्टा नहीं करता बल्कि इनसे ऊपर एवं प्रकृति के करणों तथा कार्यप्रणाली से परे केवल सर्वकर्म-महेश्वर तथा उसकी परम शक्ति वा परा प्रकृति की ओर ही उन्मुख होता है । केवल वहीं समस्त सत्ता शुद्ध और मुक्त है और वहीं दिव्य सत्य का शासन सम्भव है ।

 

     इस प्रगति में पहला कदम है प्रकृति के तीन गुणों से एक विशेष प्रकार की निर्लिप्त उत्कृष्टता । आत्मा निम्न प्रकृति से अन्तरत: पृथक् तथा स्वतन्त्र होती है, इसके घेरों में फंसी हुई नहीं होती, इसके उर्ध्व में उदासीन और प्रसन्न भाव में स्थित रहती है । प्रकृति अपने पुराने अभ्यासों के त्रिविध चक्र में कार्य करती रहती है, --कामना और हर्ष-शोक हृदय को आ घेरते हैं, सब करणोपकरण अकर्मण्यता, जड़ता एवं खिन्नता के गर्त में जा गिरते हैं, प्रकाश और शान्ति हृदय, मन तथा शरीर में फिर लौट आते हैं । किन्तु आत्मा इन परिवर्तनों से परिवर्तित और प्रभावित नहीं होती । निम्न अंगों की वेदना तथा कामना का निरीक्षण करेती हुई पर उनसे अचलायमान, उनके हर्षों और आयासों पर मुस्कराती हुई, विचार की भ्रान्तियों तथा धूमिलताओं को और हृदय तथा स्नायुओं की उच्छृंखलता एवं दुर्बलताओं को समझती हुई पर उनसे पराभूत न होती हुई, प्रकाश एवं प्रसन्नता के लौटने पर मन के अन्दर उत्पन्न ज्ञान-आलोक तथा सुख-आराम से और उसके विश्राम एवं बल- सामर्थ्य के अनुभव से मोहित तथा इसमें आसक्त न होती हुई आत्मा अपनेको इनमेंसे किसी भी चीज में झोंकती नहीं, किन्तु अविचलित रहकर उच्चतर इच्छाशक्ति के निर्देशों तथा महत्तर एवं प्रकाशपूर्ण ज्ञान की स्कुरणाओं की प्रतीक्षा करती है । सदा ऐसा ही करती हुई यह अपने सक्रिय अंगों में भी तीन गुणों के संघर्ष तथा इनकी अपर्याप्त उपयोगिताओं एवं अवरोधक सीमाओं से अन्तिम रूप में मुक्त हो जाती है । कारण, अब यह निम्नतर प्रकृति अपने-आपको उत्तरोत्तर एक उच्चतर शक्ति के द्वारा प्रबल रूप से प्रेरित अनुभव करती है । पुराने अभ्यासों को, जिनसे यह चिपटी हुई थी, अब और स्वीकृति नहीं मिलती और वे अपनी बहुलता को एवं पुनरावर्तन की शक्ति को लगातार खोने लगते हैं । अन्त में यह इस बात को समझ जाती है कि इसे एक उच्चतर कार्य और श्रेष्ठतर अवस्था के लिये

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आवाहन प्राप्त हुआ है और चाहे कितनी भी धीमे क्यों न हो, चाहे कितनी भी अनिच्छा के साथ और किसी भी आरम्भिक या लंबी दुर्भावना एवं स्खलनशील अज्ञान के साथ ही क्यों न हो, यह अपनेको परिवर्तन के लिये प्रस्तुत, अभिमुख और तैयार करने लगती है ।

 

     साक्षी और ज्ञाता की भी अवस्था से अतीत हमारी आत्मा की स्थितिशील स्वतन्त्रता का परम उत्कर्ष होता है प्रकृति का सक्रिय रूपान्तर । हमारे तीन करणों अर्थात् मन, प्राण, शरीर में एक-दुसरे पर प्रभाव डालते हुए तीन गुणों का सतत मिश्रण एवं विषम व्यापार तब और अपनी साधारण, अव्यवस्थित, विक्षुब्ध तथा अशुद्ध क्रिया और गति नहीं करता । तब एक और प्रकार की क्रिया करना सम्भव हो जाता है जो आरम्भ होती, बढ़ती तथा पराकाष्ठा को पहुंचती है, --एक ऐसी क्रिया जो अधिक सच्चे रूप में शुद्ध तथा अधिक प्रकाशयुक्त होती है और पुरुष और प्रकृति की गंभीरतम दिव्य परस्पर-लीला के लिये तो सहज एवं स्वाभाविक, किन्तु हमारी वर्तमान अपूर्ण प्रकृति के लिये असाधारण एवं अलौकिक होती है । स्थूल मन को सीमाओं में बाधनेवाला शरीर तब और उस तामसिक जड़ता पर आग्रह नहीं करता जो सदा एक ही अज्ञानमय चेष्टा को दुहराती रहती है । यह एक महत्तर शक्ति और ज्योति का निष्प्रतिरोध क्षेत्र और यन्त्र बन जाता है, यह आत्मा की शक्ति की प्रत्येक मांग का उत्तर देता है और प्रत्येक प्रकार के नये दिव्य अनुभव और उसकी तीव्रता को आश्रय देता है । हमारी सत्ता के गतिशील और सक्रिय प्राणिक भाग, हमारे स्नायविक, भाविक, सांवेदनिक और संकल्पात्मक भाग अपनी शक्ति में विस्तृत हो जाते हैं और अनुभव के आनन्दपूर्ण उपभोग तथा अश्रान्त कार्य के लिये अवकाश प्रदान करते हैं । पर साथ ही ये एक ऐसी विशाल, धीर-स्थिर और सन्तुलित शान्ति की आधार-शिला पर स्थित और सन्तुलित होना भी सीख जाते हैं जो शक्ति में अत्युच्च और विश्रान्ति में दिव्य है, जो न हर्षित होती है न उत्तेजित और न दुःख एवं वेदना से पीड़ित, न कामना और हठीले आवेगों से व्याकुल होती है और न ही निर्बलता और अकर्मण्यता से हतोत्साह । बुद्धि किंवा चिन्तनात्मक, बोधग्राही और विचारशील मन अपनी सात्त्विक सीमाएं त्यागकर सारभूत ज्योति और शान्ति की ओर खुल जाता है । एक अनन्त ज्ञान हमारे सामने अपने उज्ज्वल क्षेत्र प्रस्तुत करता है । एक ज्ञान जो मानसिक रचनाओं से गठित तथा सम्मति एवं धारणा से बद्ध नहीं होता, न स्खलनशील संदिग्ध तर्क एवं इन्द्रियों के तुच्छ अवलंब पर ही निर्भर करता है, बल्कि सुनिश्चित, यथार्थ, सर्वस्पशीं और सर्वग्राही होता है, एक अपार शान्ति और आनन्द जो सर्जनशील शक्ति और वेगमय कर्म के कुंठित आयास से मुक्ति की प्राप्ति पर निर्भर नहीं करते और न कुछ-एक सीमित सुखों से ही निर्मित होते हैं, बल्कि स्वयंसत् और सर्वसंग्राहक होते हैं, --ये सब हमारी सत्ता को अधिकृत करने के लिये उत्तरोत्तर-व्यापक क्षेत्रों में

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और नित्य-विस्तारशील एवं सदा अधिकाधिक मार्गों के द्वारा प्रवाहित होते हैं । एक उच्चतर शक्ति, आनन्द और ज्ञान मन, प्राण तथा शरीर से परे के किसी स्रोत से प्रकट होकर नये सिरे से इनका दिव्यतर रूप गढ़ने के लिये इन पर अधिकार कर लेते हैं ।

 

     यहां हमारी निम्न सत्ता के त्रिविध गुण के विरोध-वैषम्य पार हो जाते हैं और दिव्य विश्व-प्रकृति का महत्तर त्रिविध गुण प्रारम्भ होता है । यहां तम या जड़ता की अन्धता का नाम-निशान नहीं । तम का स्थान ले लेता है दिव्य शम एवं प्रशान्त शाश्वत विश्राम जिसमें से कर्म तथा ज्ञान की लीला इस प्रकार आविर्भूत होती है मानों निश्चल एकाग्रता के परम गर्भ से आविर्भूत हो रही हो । यहां कोई राजसिक गति एवं कामना नहीं होती, न कर्म, सर्जन तथा धारण का कोई हर्ष-शोकमय प्रयास ही होता है और न विक्षुब्ध आवेग की कोई सार्थक उथल-पुथल । रज का स्थान ग्रहण करती है धीर-स्थिर शक्ति एवं असीम बल-क्रिया जो अपनी अत्यन्त प्रचंड तीव्रताओं में भी आत्मा की अचल समस्थिति को उद्वेलित नहीं करती और न ही इसकी शान्ति के विशाल गहन व्योमों तथा प्रकाशमान अथाह गह्वरों को कलुषित करती है । सत्य को निगृहीत तथा आबद्ध करने के लिये चतुर्दिक् खोजते फिरते हुए मन के निर्माणकारी प्रकाश का यहां अस्तित्व नहीं, चिन्ताकुल या निश्चेष्ट विश्राम का यहां नाम नहीं । सत्त्व के स्थान पर प्रतिष्ठित होता है प्रकाश तथा आध्यात्मिक आनन्द जो आत्मा की गभीरता एवं अनन्त सत्ता से एकीभूत हैं और सीधे गुह्य सर्वज्ञता के प्रच्छन्न तेजःपुंज से निःसृत होनेवाले प्रत्यक्ष एवं सत्य ज्ञान से अनुप्राणित हैं । यह वह महत्तर चेतना है जिसमें हमें अपनी निम्न चेतना को रूपान्तरित करना है, त्रिगुण की क्षुब्ध एवं असन्तुलित क्रिया से युक्त इस अज्ञानमय प्रकृति को हमें इस महत्तर ज्योतिर्मय परा प्रकृति में परिवर्तित करना है । सर्वप्रथम हम त्रिगुण से मुक्त, निर्लिप्त और अक्षुब्ध निस्त्रेगुण्य प्राप्त करते हैं । परन्तु यह तो उस अन्तरात्मा, आत्मा एवं आत्मतत्त्व की सहज अवस्था की प्राप्ति है जो स्वतन्त्र है और अज्ञान-शक्ति से युक्त प्रकृति की चेष्टा का अपनी अचल शान्ति में निरीक्षण करती है । यदि इस भित्ति पर प्रकृति और इसकी गति को भी स्वतन्त्र बनाना हो तो इसके लिये कर्म को एक ऐसी ज्योतिर्मयी शान्ति एवं नीरवता के अन्दर शान्त और स्थिर करना होगा जिसमें सभी आवश्यक क्रियाएं इस प्रकार की जाती हैं कि मन या प्राण-सत्ता किसी प्रकार की सचेतन प्रतिक्रिया या भागग्रहण या कार्यारम्भ नहीं करती, न विचार की कोई तरंग या प्राणिक भागों की कोई लहर ही उठती है; साथ ही, इसके लिये एक निर्वैयक्तिक वैश्व या परात्पर शक्ति की प्रेरणा, प्रवर्तना और क्रिया की सहायता भी प्राप्त करनी होगी । वैश्व मन, प्राण और सत्तत्त्व को अथवा हमारी अपनी वैयक्तिक सत्ता या इसकी प्रकृति-निर्मित देहपुरी से भिन्न किसी शुद्ध परात्पर आत्म-शक्ति और आनन्द को सक्रिय होना होगा । यह एक

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प्रकार की मुक्त स्थिति है जो कर्मयोग में अहंभाव, कामना और वैयक्तिक उपक्रम के त्याग द्वारा और विश्वात्मा या विश्व-शक्ति के प्रति हमारी सत्ता के समर्पण के द्वारा प्राप्त हो सकती है । ज्ञानयोग में यह विचार के निरोध, मन की नीरवता और विश्व-चेतना, विश्वात्मा, विश्व-शक्ति या परम सद्वस्तु के प्रति सम्पूर्ण सत्ता के उद्घाटन के द्वारा अधिगत हो सकती है । भक्तियोग में यह अपनी सत्ता के आराध्य स्वामी के रूप में उस आनन्दघन के हाथों में अपने हृदय और समस्त प्रकृति के समर्पण के द्वारा उपलब्ध हों सकती है । परन्तु सर्वोच्च परिवर्तन तो एक अधिक निश्चयात्मक एवं क्रियाशील अतिक्रमण के द्वारा ही साधित हो सकता है; एक उच्च आध्यात्मिक स्थिति अर्थात् त्रिगुणातीत स्थिति में हमारा स्थानान्तरण या रूपान्तर हो जाता है जिसमें हम एक महत्तर आध्यात्मिक गतिशीलता में भाग लेने लगते हैं । क्योंकि तीन निम्नतर विषम गुण दैवी प्रकृति की शाश्वत शान्ति, ज्योति और शक्ति किंवा उसकी विश्रान्ति, गति और दीप्ति के सम त्रिविध गुण में परिवर्तित हो जाते हैं ।

 

     यह परम समस्वरता तबतक नहीं प्राप्त हो सकती जबतक अहंकारमय संकल्प, चुनाव तथा कर्म बन्द न हो जायें और हमारी सीमित बुद्धि शान्त न हो जाये । वैयक्तिक अहंभाव को बल लगाना छोड़ देना होगा, मन को मौन हो जाना होगा, कामनामय संकल्प को सर्वारम्भ परित्याग करना सीखना होगा । हमारे व्यक्तित्व को अपने उद्गम में मिल जाना होगा और समस्त विचार तथा आरम्भ को ऊर्ध्वलोक से उद्भूत होना होगा । हमारे कर्मों के गुप्त ईश्वर हमारे समक्ष शनैः -शनैः प्रकाशित होंगे और परम संकल्प एवं ज्ञान की अभय छाया में दिव्य शक्ति को अनुमति देंगे और वह शक्ति ही विशुद्ध तथा उच्च प्रकृति को अपना यन्त्र बनाकर हममें सभी कर्म करेगी । व्यक्तित्व का व्यष्टि-रूप केंद्र इहलोक में प्रकृति के कर्मों का भर्तामात्र होगा, यह उनका ग्रहीता तथा वाहन, उनकी शक्ति को प्रतिबिम्बित करनेवाला तथा उसके प्रकाश, हर्ष तथा बल में ज्ञानपूर्वक भाग लेनेवाला होगा । यह कर्म करता हुआ भी अकर्ता रहेगा और निम्न प्रकृति की कोई भी प्रतिक्रिया इसे स्पर्श नहीं करेगी । प्रकृति के तीन गुणों का अतिक्रमण इस परिवर्तन की पहली अवस्था है, इनका रूपान्तर इसकी अन्तिम सीढ़ी है । इससे कर्मों का मार्ग हमारी तमसाच्छन्न मानवीय प्रकृति की संकीर्णता के गर्त में से निकलकर उर्ध्वस्थित सत्य तथा प्रकाश के अबाध विस्तार एवं बृहत् व्योम में आरोहण करता है ।

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अध्याय ११

 

कर्म का स्वामी

 

 हमारे कर्मों का स्वामी और प्रेरक है वह 'एक' जो विराट् एवं परम है तथा सनातन एवं अनन्त है । वह परात्पर, अविज्ञात या अज्ञेय परब्रह्म है, वह ऊर्ध्वस्थित, अप्रकट एवं अव्यक्त, अनिर्वचनीय देव है, साथ ही वह सर्वभूत की आत्मा, सब लोकों का स्वामी, सब लोकों से अतीत, प्रकाशस्वरूप तथा पथप्रदर्शक, सर्वसुन्दर एवं आनन्दघन, प्रेमी और प्रेमभाजन भी है । वह विश्वात्मा है तथा हमारे चारों ओर की यह सब स्रष्ट्री शक्ति भी है; वह हमारे भीतर अन्तर्यामी देव है । जो कुछ भी है वह सब वही है, और जो कुछ है उस सबसे भी वह 'अधिक' है । हम स्वयं, चाहे हम इसे जानते नहीं, उसकी सत्ता की सत्ता एवं उसकी शक्ति की शक्ति हैं और उसकी चेतना से निर्गत चेतना के द्वारा ही चेतन हैं । हमारी मर्त्य सत्ता भी उसके सत्तत्त्व में से बनी है और हमारे अन्दर एक अमर सत्ता भी है जो सनातन प्रकाश और आनन्द का स्फुलिंग है । अपनी सत्ता के इस सत्य को चाहे ज्ञान, कर्म एवं भक्ति से या अन्य किसी भी साधन से जानना तथा उपलब्ध करना और यहां या और कहीं इसे कार्यक्षम बनाना ही योगमात्र का लक्ष्य है ।

 

     परन्तु सुदीर्घ यात्रा तथा कठिन प्रयास के उपरान्त ही हम सत्य का साक्षात् करनेवाली आंखों से भगवान् को देख पाते हैं, और यदि हम उसके सच्चे स्वरूप के अनुरूप अपनेको फिरसे गढ़ना चाहें तो हमें और भी दीर्घकाल तक तथा अधिक विकट पुरुषार्थ करना होगा । कर्म का स्वामी अपने-आपको जिज्ञासु के समक्ष तुरन्त ही प्रकाशित नहीं कर देता, चाहे बराबर ही उसीकी शक्ति पर्दे के पीछे से कार्य कर रही होती है, किन्तु वह प्रकट तभी होती है जब हम कर्तृत्व का अहंकार त्याग देते हैं, और जितना ही यह त्याग अधिकाधिक मूर्त्त होता जाता है उस शक्ति की प्रत्यक्ष क्रिया उतनी ही बढ़ती चली जाती है । किन्तु उसकी पूर्ण उपस्थिति में निवास करने का अधिकार हमें तभी प्राप्त होगा जब उसकी दिव्य शक्ति के प्रति हमारा समर्पण पूर्ण हो जायेगा । तभी हम यह भी देख सकेंगे कि हमारा कर्म अपने-आपको एक सहज-स्वाभाविक तथा पूर्ण रूप से भागवत संकल्प के सांचे में ढाल रहा है ।

 

     अतएव, इस पूर्णता की प्राप्ति में कुछ क्रम और सोपान अवश्य होने चाहियें जैसे कि प्रकृति के किसी भी स्तर पर अन्य समस्त पूर्णता की ओर प्रगति में होते

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हैं । इसकी पूर्ण गरिमा का अन्तर्दर्शन हमें पहले भी, एकाएक या शनैः -शनैः, एक बार या अनेक बार, प्राप्त हो सकता है, परन्तु जबतक आधारशिला पूर्ण रूप से स्थापित नहीं हो जाती, तबतक यह एक अल्पकालिक और केंद्रित अनुभूति ही होती है, स्थायी और सर्वतोव्यापी अनुभूति एवं शाश्वत उपस्थिति नहीं । भागवत उन्मेष के विशाल और अनन्त वैभव तो बाद में ही प्राप्त होते हैं और अपना बल-माहात्म्य शनैः -शनैः अनावृत करते हैं । अथवा, एक स्थिर अन्तर्दर्शन भी हमारी प्रकृति के शिखरों पर विद्यमान हो सकता है, किन्तु निम्नतर अंगों का पूर्ण प्रत्युत्तर तो क्रमशः ही प्राप्त होता है । सभी योगों में सर्वप्रथम आवश्यक वस्तुएं हैं--श्रद्धा और धैर्य । यदि हृदय की उत्कण्ठाएं और उत्सुक संकल्प की उग्रताएं --जो स्वर्ग के राज्य को बलपूर्वक अपने अधिकार में कर लेना चाहती हैं, --इन अधिक विनीत और शान्त सहायकों को अपनी प्रचण्डता का आधार बनाने से घृणा करें, तो वें दुःखदायी प्रतिक्रियाएं पैदा कर सकती हैं । इस दीर्घ और कठिन पूर्णयोग के लिये सर्वांगीण श्रद्धा एवं अविचल धैर्य का होना अत्यन्त आवश्यक है ।

 

     परंतु हृदय तथा मन की अधीरता और हमारी राजस प्रकृति की उत्सुक पर स्सलनशील इच्छा-शक्ति के कारण योग के विषम एवं संकीर्ण पथ पर इस श्रद्धा तथा धैर्य का उपार्जन वा अभ्यास करना कठिन होता है । प्राणिक प्रकृति का मनुष्य सदा ही अपने परिश्रम के फल के लिये तरसता है और यदि उसे ऐसा लगता है कि फल देने से इंकार किया जा रहा है या इसमें बहुत देर लगायी जा रही है तो वह आदर्श तथा पथप्रदर्शन में विश्वास करना छोड़ देता है । कारण, उसका मन सदा पदार्थों की बाह्य प्रतीति के द्वारा ही निर्णय करता है, क्योंकि यह उस बौद्धिक तर्क का प्रमुख और दृढ़ स्वभाव है जिसमें वह इतना अपरिमित विश्वास करता है । जब हम चिरकाल तक कष्ट भोगते या अन्धेरे में ठोकरें खाते हैं तब अपने हृदयों में भगवान् को कोसने से अथवा जो आदर्श हमने अपने सामने रखा है उसे त्याग देने से अधिक आसान हमारे लिये और कुछ नहीं होता । कारण, हम कहते हैं, ''मैंने सर्वोच्च सत्ता पर विश्वास किया है और मेरे साथ विश्वासघात करके मुझे दुःख, पाप और भ्रान्ति के गर्त में गिरा दिया गया है ।'' अथवा, ''मैंने एक ऐसे विचार पर अपने सारे जीवन की बाजी लगा दी है जिसे अनुभव के दृढ़ तथ्य खंडित तथा निरुत्साहित करते हैं । यह अधिक अच्छा होता कि मैं भी वैसा ही होता जैसे दूसरे आदमी हैं जो अपनी सीमाएं स्वीकार करते हैं और सामान्य अनुभव के स्थिर आधार पर विचरण करते हैं ।''  ऐसी घड़ियों में--और ये कभी-कभी बारम्बार आती हैं और देरतक रहती हैं--समस्त उच्चतर अनुभव विस्मृत हो जाता है और हृदय अपनी कटुता में डूब जाता है । यहांतक कि इन अंधेरे रास्तों में हम सदा के लिये पतित भी हो सकते हैं अथवा दिव्य संघर्ष से पराङ्मुख हो सकते है ।

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     परन्तु यदि कोई पथ पर दूर तक तथा दृढ़ता से चल चुका हो तो हृदय की श्रद्धा उग्र-से-उग्र विरोधी दबाव में भी स्थिर रहेगी; यह आच्छादित या प्रत्यक्षतः अभिभूत भले ही हो जाय तो भी, यह पहला अवसर पाते ही फिर उभर आयेगी । कारण, हृदय या बुद्धि से ऊंची कोई वस्तु इसे अति निकृष्ट पतनों के होते हुए भी तथा अत्यन्त दीर्घकालीन विफलता में भी सहारा देगी । परन्तु ऐंसी दुर्बलताएं या अन्धकार की अवस्थाएं एक अनुभवी साधक की प्रगति में भी व्याघात पहुंचाती हैं और नौसिखुए के लिये तो ये अत्यन्त ही भयानक होती हैं । अतएव, यह आरम्भ से ही आवश्यक होता है कि हम इस पथ की विकट कठिनाई को समझें और इसे अंगीकार करें तथा उस श्रद्धा की आवश्यकता अनुभव करें जो बुद्धि को भले ही अन्ध प्रतीत होती हो फिर भी हमारी तर्कशील बुद्धि से अधिक ज्ञानपूर्ण होती है । कारण, श्रद्धा ऊपर से मिलनेवाला अवलंब है; यह उस गुप्त ज्योति की उज्जल छाया है जो बुद्धि और इसके ज्ञात तथ्यों से अतीत है । यह उस निगूढ़ ज्ञान का हृदय है जो प्रत्यक्ष प्रतीतियों का दास नहीं है । हमारी श्रद्धा, अटल रहकर, अपने कर्मों में युक्तियुक्त सिद्ध होगी और अन्त में दिव्य ज्ञान की स्वयंप्रकाशता में उन्नीत तथा रूपान्तरित हो जायगी । हमें सदा ही गीता के इस आदेश का दृढ़ता से अनुसरण करना होगा कि ''निराशा एवं अवसाद से रहित हृदय के द्वारा योग का निरन्तर अभ्यास करना चाहिये ।''  सदा ही हमें सन्देहशील बुद्धि के सम्मुख ईश्वर की यह प्रतिज्ञा दुहरानी होगी, ''मैं तुझे समस्त पाप एवं अशुभ से निश्चितरूपेण मुक्त कर दूंगा; शोक मत कर ।'' अन्त में, श्रद्धा की चंचलता दूर हों जायगी; क्योंकि हम भगवान् की मुखछवि निहार लेंगे और भागवत उपस्थिति को अनवरत अनुभव करेंगे ।

 *

 

     हमारे कर्मों का स्वामी जब हमारी प्रकृति का रूपान्तर कर रहा होता है तब भी वह इसका मान करता है; वह सदा हमारी प्रकृति के द्वारा ही अपनी क्रिया करता है, मन की मौज के अनुसार नहीं । हमारी इस अपूर्ण प्रकृति में हमारी पूर्णता की सामग्री भी निहित है, पर वह अविकसित, विकृत तथा स्थानभ्रष्ट है और अव्यवस्था या त्रुटिपूर्ण दुर्व्यवस्था के साथ एक ही जगह पटकी हुई है । इस सब सामग्री को धैर्यपूर्वक पूर्ण बनाना है, शुद्ध, पुनर्व्यवस्थित, नव-घटित तथा रूपान्तरित करना है; इसे न तो छिन्न-भिन्न तथा नष्ट- भ्रष्ट वा क्षत-विक्षत करना है और न कोरे बलात्कार वा इन्कार के द्वारा मिटा ही देना है । यह संसार तथा इसमें रहनेवाले हम सब उसी की रचना एवं अभिव्यक्ति हैं, और वह इसके साथ तथा हमारे साथ ऐसे ढंग से बर्ताव करता है जिसे हमारा क्षूद्र एवं अज्ञ मन तबतक नहीं समझ सकता जबतक

 

      १ स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा-गीता ६-२३

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वह शान्त होकर दिव्य ज्ञान के प्रति उन्मुक्त न हों जाय । हमारी भूलों में भी एक ऐसे सत्य का उपादान रहता है जो हमारी अन्धान्वेषक बुद्धि के प्रति अपना अर्थ प्रकाशित करने का यत्न करता है । मानव-बुद्धि भूल को अपने अन्दर से निकालती है, पर साथ-ही-साथ सत्य को भी निकाल फेंकती है और उसके स्थान पर एक और अर्द्ध-सत्य, अर्द्ध-भ्रान्ति को ला बिठाती है । परन्तु भागवत प्रज्ञा हमारी भूलों को तबतक बनी रहने देती है जबतक हम प्रत्येक मिथ्या आवरण के नीचे गुप्त और सुरक्षित रखे हुए सत्य को प्राप्त करने में समर्थ नहीं हो जाते । हमारे पाप उस अन्वेषक शक्ति के भ्रान्त पग होते हैं जिसका लक्ष्य पाप नहीं, वरन् पूर्णत्व होता है अथवा एक ऐसा कर्म होता हैं जिसे हम दिव्य पुण्य कह सकते हैं । बहुधा वे एक ऐसे गुण को ढकनेवाले पर्दे होते हैं जिसे रूपान्तरित करके इस भद्दे आवरण से मुक्त करना होता है; अन्यथा, वस्तुओं के पूर्ण विधान में, उन्हें पैदा होने या रहने ही न दिया जाता । हमारे कर्मों का स्वामी न तो प्रमादी है न उदासीन साक्षी और न ही अनावश्यक बुराइयों की रंगरेलियों से मन बहलानेवाला, वह हमारी बुद्धि से अधिक ज्ञानी हैं, वह हमारे पुण्य से भी अधिक ज्ञानी है ।

 

     यहीं नहीं कि हमारी प्रकृति इच्छा-शक्ति की दृष्टि से भ्रान्त तथा ज्ञान की दृष्टि से अज्ञ है, बल्कि शक्ति की दृष्टि से दुर्बल भी है । किन्तु भागवती शक्ति संसार में विद्यमान है और यदि हम उसपर विश्वास रखें तो वह हमें मार्ग दिखायेगी और हमारी दुर्बलताओं तथा हमारी क्षमताओं को दिव्य प्रयोजन के लिये प्रयुक्त करेगी । यदि हम अपने तात्कालिक लक्ष्य में असफल होते हैं तो वह इसलिये कि असफलता ईश्वर को अभिमत होती है । प्रायः हमारी विफलता या दुष्परिणाम ही ठीक मार्ग होता है जिसमें हमें तात्कालिक एवं पूर्ण सफलता से प्राप्य फल की अपेक्षा अधिक सच्चा फल प्राप्त होता है । यदि हम दुःख भोगते हैं तो वह इसलिये कि हमारे अन्दर के किसी भाग को आनन्द की एक अधिक दुर्लभ सम्भावना के लिये तैयार करना होता है । यदि हम ठोकर खाते हैं तो इसलिये कि अन्त में अधिक पूर्ण ढंग से चलने का रहस्य जान जायें । शान्ति, पवित्रता और पूर्णता प्राप्त करने के लिये भी हमें अति प्रचण्ड रूप में उतावले नहीं हो जाना चाहिये । शान्ति हमारी सम्पदा अवश्य होनी चाहिये, परन्तु एक रिक्त या लुण्ठित प्रकृति की अथवा उन घातित या अपंग शक्तियों की शान्ति नहीं जो चेष्टा करने में समर्थ ही नहीं रहती, क्योंकि हम उन्हें बल, ओज और तेज के अयोग्य बना डालते हैं । पवित्रता हमारा लक्ष्य अवश्य होनी चाहिये, किन्तु एक शून्य या निरानन्द एवं कठोर उदासीनता की पवित्रता नहीं । पूर्णता की हमसे मांग की जाती है, पर उस पूर्णता की नहीं जो अपने क्षेत्र को संकुचित सीमाओं में घेर कर अथवा अनन्त के नित्य-विस्तारशील कुंडल को मनमाने ढंग से छोटा करके ही अस्तित्व रख सकती है । हमारा लक्ष्य दिव्य प्रकृति में रूपान्तरित होना है, परन्तु दिव्य प्रकृति कोई

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मानसिक या नैतिक नहीं वरन् एक आध्यात्मिक अवस्था है जिसकी उपलब्धि करना यहांतक कि कल्पना करना भी हमारी बुद्धि के लिये कठिन है । हमारे कर्म तथा हमारे योग का स्वामी यह जानता है कि उसे क्या करना है, और हमारा कर्तव्य है कि हम उसे उसीकी साधन-सामग्री तथा उसीकी प्रणाली से अपने भीतर कार्य करने का अवकाश दें ।

 

     अज्ञान की गति मूलतः अहंकारमय होती है और जब हम अभी अपनी अनिष्पन्न प्रकृति के अर्द्ध-प्रकाश एवं अर्द्ध-बल में व्यक्तित्व को अंगीकार करते तथा कर्म में आसक्त होते हैं तब अहंकार से छुटकारा पाना हमारे लिये एक अत्यन्त कठिन कार्य होता है । कर्म करने की प्रवृत्ति का त्याग कर अहं को भूखों मारना अथवा व्यक्तित्व की समस्त क्रिया से सम्बन्ध-विच्छेद कर अहं का नाश कर डालना अपेक्षाकृत सुगम है । इसे शान्तिमय समाधि में या दिव्य प्रेम के परमानन्द में निमग्र आत्म-विस्मृति के स्तर पर ऊंचा उठा ले जाना भी अपेक्षाकृत सरल है । परन्तु सच्चे 'पुरुष' को विमुक्त करके एक ऐसी दिव्य मानवता प्राप्त करना जो दिव्य बल का शुद्ध आधार तथा दिव्य कर्म का पूर्ण यन्त्र हो, एक अधिक कठिन समस्या है । एक के बाद एक सभी सोपानों को दृढ़ता से पार करना होगा; एक के बाद एक सभी कठिनाइयों को पूरी तरह से अनुभव करना और उन्हें पूरी तरह से जीतना होगा । दिव्य प्रज्ञा और शक्ति ही हमारे लिये यह कार्य कर सकती है और वह ऐसा करेगी ही यदि हम पूर्ण श्रद्धा से उसके चरणों में नतमस्तक होकर दृढ़ साहस तथा धैर्य के साथ उसकी कार्यप्रणालियो को हृदयंगम करें और उन्हें अपनी सहमति दें ।

 

     इस दीर्घ पथ का प्रथम सोपान यह है कि हम अपने सभी कर्म अपने में तथा जगत् में विद्यमान भगवान् को यश-रूप में अर्पित करें । यह अर्पण मन तथा हृदय का भाव है; इसमें प्रथम प्रवेश तो इतना कठिन नहीं, किन्तु इसे पूर्ण रूप में सच्चा एवं व्यापक बनाना अत्यन्त कठिन है । द्वितीय सोपान है अपने कर्मों के फल में आसक्ति का परित्याग । कारण, यज्ञ का एकमात्र सच्चा, अवश्यम्भावी तथा परम स्पृहणीय फल--एकमात्र आवश्यक वस्तु--यही है कि हमारे भीतर भागवत उपस्थिति एवं भागवत चेतना तथा शक्ति प्रकट हों और यदि यह फल उपलब्ध हो जाय तो और सब कुछ स्वयमेव प्राप्त हो जायगा । तृतीय सोपान है केंद्रीय अहंभाव तथा कर्तृत्व के अहंकार से भी छुटकारा प्राप्त करना । यह सब से कठिन रूपान्तर है और यदि पहले दो सोपान पार न कर लिये गये हों तो इसे पूर्णतया सम्पन्न किया ही नहीं जा सकता । पर वे प्रारम्भिक सोपान भी तबतक पार नहीं हो सकते जबतक रूपान्तर की इस गति को सफल बनाने के लिये तीसरा सोपान प्रारम्भ नहीं हो जाता और यह अहंभाव का विनाश कर कामना के असली मूल का ही उन्मूलन नहीं कर देता । जब कोई जिज्ञासु अपने क्षुद्र अहंभाव को अपनी प्रकृति में से

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निकाल फेंकता है तभी वह उस सच्चे पुरुष को जान सकता है जो भगवान् के अंश और शक्ति के रूप में ऊपर अवस्थित है और तभी वह भागवत शक्ति के संकल्प से भिन्न अन्य समस्त प्रेरक-शक्ति का परित्याग भी कर सकता है ।

     सर्वांगीण सिद्धि प्रदान करनेवाली इस अन्तिम गति के कई सोपान हैं; क्योंकि यह एकदम या उन लंबे प्रवेश-पथों के बिना पूरी नहीं की जा सकती जो इसे उत्तरोत्तर निकट ले आते हैं तथा अन्त में इसे सम्भव बना देते हैं । सर्वप्रथम हमें यह भाव धारण करना होगा कि हम अपने-आपको कर्त्ता समझना छोड़ दें और दृढ़तापूर्वक यह अनुभव करें कि हम वैश्व शक्ति के केवल एक यन्त्र हैं । प्रारम्भ में ऐसा दीख पड़ता है कि एक ही शक्ति नहीं, वरन् अनेक वैश्व शक्तियां हमें चला रही हैं । किन्तु इन्हें अहं की पोषक शक्तियों के रूप में भी परिणत किया जा सकता है और यह दृष्टि मन को तो मुक्त कर देती है, पर शेष प्रकृति को मुक्त नहीं करती । जब हमें यह ज्ञान हों जाये कि सब कुछ एक ही वैश्व शक्ति का तथा उसके मूल में विराजमान भगवान् का व्यापार है तब भी यह आवश्यक नहीं कि यह ज्ञान सारी प्रकृति को मुक्त कर ही देगा । यदि कर्तृत्व का अहंकार लुप्त हो जाय तो यन्त्रभाव का अहंकार इसका स्थान ले सकता है या एक छद्मवेश में इसी को जारी रख सकता है । जगत् का जीवन इस प्रकार के अहंभाव के दृष्टान्तों से भरा पड़ा है और यह अन्य किसी भी अहंभाव की अपेक्षा अधिक ग्रस्त करनेवाला तथा अधिक घोर हो सकता है । यही भय योग में भी है । कोई मनुष्य मनुष्यों का नेता बन जाता है अथवा किसी बड़े या छोटे क्षेत्र में सुप्रसिद्ध हो जाता है और अपनेको एक ऐसी शक्ति से पूर्ण अनुभव करता है जो उसकी समझ में उसके अपने अहं-बल से परतर होती है । वह अपने द्वारा काम करनेवाले एक दैव से अथवा एक गुह्य एवं अगम संकल्पशक्ति या एक अतिभास्वर अन्तज्याति से सचेतन हो सकता है । ऐसे मनुष्य के विचारों और कार्यों अथवा उसकी सर्जनशील प्रतिभा के असाधारण परिणाम होते हैं । वह या तो एक बड़ा भारी विनाश करता है जो मानवता के लिये पथ प्रशस्त कर देता है अथवा वह एक महान् निर्माण करता है जो मानवजाति का एक क्षणिक पड़ाव होता है । वह या तो दण्ड देनेवाला होता है या प्रकाश एवं सुख का वाहक, या तो सौन्दर्य का स्रष्टा होता है या ज्ञान का अग्रदूत । अथवा, यदि उसका कार्य तथा उस कार्य के परिणाम अपेक्षाकृत कम महान् हों और यदि उनका क्षेत्र भी सीमित हो तो भी उसके अन्दर यह भाव प्रबल रूप में रहता है कि वह एक यन्त्र है और अपने भगवदीय कार्य या अपने प्रयास के लिये चुना दुआ है । जो लोग ऐसे भाग्य तथा इन शक्तियों से सम्पन्न होते हैं वे

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अपनेको सहज में ही ईश्वर या नियति के हाथों के निमित्तमात्र मानने तथा घोषित करने लगते हैं । परन्तु उस घोषणा में भी हम देख सकते हैं कि एक इतना अधिक तीव्र एवं बढ़ा-चढ़ा अहंकार भीतर घुस सकता या आश्रय पा सकता है जिसे घोषित करने का साहस या अपने अन्दर आश्रय देने का सामर्थ्य साधारण मनुष्यों में नहीं होता । बहुधा यदि इस प्रकार के लोग ईश्वर की बात करते हैं तो ऐसा वह उसकी एक ऐसी प्रतिमूर्ति खड़ी करने के लिये ही करते हैं जो वास्तव में स्वयं उनके या उनकी अपनी प्रकृति के विशाल प्रतिबिम्ब के सिवाय और उनके अपने विशिष्ट प्रकार के संकल्प, विचार, गुण तथा बल के पोषक दैविक सार के सिवाय और कुछ नहीं होती । उनके अहं का यह परिवर्द्धित आकार ही वह स्वामी होता है जिसकी वे सेवा करते हैं । योग में प्रबल, पर असंस्कृत प्राणिक प्रकृति या मनवाले उन लोगों के साथ जो चटपट ऊंचे उठ जाते हैं ऐसा प्रायः ही होता है जब कि वे महत्त्वाकांक्षा, अभिमान या बड़े बनने की कामना को अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा में घुसने देते हैं तथा उसके द्वारा इसके प्रेरकभाव की शुद्धता को कलुषित होने देते हैं । वास्तव में उनके और उनकी सच्ची सत्ता के बीच में एक परिवर्द्धित अहं स्थित होता है । यह अहं उस, दिव्य या अदिव्य, महत्तर अगोचर शक्ति से, जो उनके द्वारा काम कर रही होती है और जिससे वे अस्पष्ट या तीव्र रूप में सचेतन हो जाते हैं, अपने वैयक्तिक प्रयोजन के लिये बल आयत्त कर लेता है । अतः, इस प्रकार का बौद्धिक ज्ञान या प्राणगत बोध कि एक शक्ति है जो हमसे महत्तर है और हम उसीसे परिचालित होते हैं, हमें अहं से मुक्त करने के लिये पर्याप्त नहीं है ।

 

     यह ज्ञान अथवा यह बोध कि हममें या हमारे ऊपर एक महत्तर शक्ति विद्यमान है और वह हमें चला रही है कोई भ्रम या गर्वोंन्माद नहीं होता । जिन्हें ऐसा अनुभव एवं साक्षात्कार होता है उनकी दृष्टि साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अधिक विशाल होती है और वे सीमित स्थूल बुद्धि से एक पग आगे बढ़े हुए होते हैं परन्तु उनकी दृष्टि पूर्ण दृष्टि या साक्षात् अनुभूति नहीं होती । क्योंकि उनके मन में स्पष्टता वा ज्ञानज्योति तथा उनकी आत्मा में सचेतनता नहीं होती, और क्योंकि उनकी जागृति आत्मा के आध्यात्मिक तत्त्व की अपेक्षा कहीं अधिक प्राणमय भागों में ही होती है, वे भगवान् के सचेतन यन्त्र नहीं बन सकते अथवा अपने स्वामी का साक्षात्कार नहीं कर सकते, बल्कि भगवान् ही उन्हें उनकी भ्रान्तिशील तथा अपूर्ण प्रकृति के द्वारा अपने उपयोग में लाते हैं । देवत्व को वे अधिक-से-अधिक दैव या एक वैश्व शक्ति के रूप में ही देखते हैं अथवा वे एक सीमित देव को या इससे भी निकृष्ट रूप में, एक दानवीय या राक्षसी शक्ति को, जो उसे छिपाये होती है, देव का नाम दे देते हैं । यहां तक कि कई धर्म-संस्थापकों ने भी एक साम्प्रदायिक ईश्वर या राष्ट्रीय ईश्वर की, अथवा आतंक एवं दण्ड की किसी शक्ति की या सात्त्विक प्रेम, दया और पुण्य के देवता की प्रतिमा खड़ी कर दी है और प्रतीत

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होता है कि एकमेव और सनातन का साक्षात्कार उन्होने नहीं किया है । भगवान् उस प्रतिमा को स्वीकार कर लेते हैं जो वे उनकी बनाते हैं और उस माध्यम के द्वारा उनमें अपना कार्य करते हैं । परशु क्योंकि वह एक शक्ति उन्हें अपने अन्दर दूसरों की अपेक्षा अधिक तीव्र रूप में अनुभूत होती है और उनकी अपूर्ण प्रकृति में वह अधिक प्रबलता से कार्य करती है, अहंभाव का प्रेरक तत्त्व भी उनके अन्दर दूसरों की अपेक्षा अधिक उत्कट हो सकता है । एक उन्नत या सात्त्विक अहंभाव अभी भी उन्हें अपने अधिकार में किये होता है और उनके तथा सर्वांगीण सत्य के बीच में आड़े आता हैं । यह भी कुछ चीज अवश्य है, एक आरम्भ अवश्य है, चाहे सत्य और पूर्ण अनुभव से यह अभी दूर ही है । जो लोग मानवीय बंधनों को थोड़ा बहुत तोड़ डालते हैं, किन्तु पवित्रता और ज्ञान से रहित होते हैं, उनकी तो और भी अधिक दुर्दशा हो सकतीं है, क्योंकि वे यन्त्र तो बन सकते हैं, पर भगवान् के नहीं; बहुधा वे भगवान् के नाम पर 'वृत्रों' की, अर्थात उसके आवरणों तथा काले विरोधियों एवं अन्धकार की शक्तियों की ही अनजान में सेवा करते हैं ।

 

     हमारी प्रकृति को अपनेमें वैश्व शक्ति की प्रतिष्ठा अवश्य करनी चाहिये, किन्तु इसके निम्नतर रूप में अथवा इसकी राजसिक वा सात्त्विक गतिवाले रूप में नहीं; इसे वैश्व संकल्प की सेवा अवश्य करनी चाहिये, पर एक महत्तर मोक्षकारी ज्ञान के प्रकाश में । हमारे यन्त्रत्व के भाव में किसी प्रकार का अहंकार कदापि नहीं होना चाहिये, तब भी नहीं जब हम अपनी अन्त:स्थ शक्ति की महत्ता से पूर्णत: सचेतन हों । प्रत्येक मनुष्य, सचेतन रूप से हो या अचेतन रूप से, एक वैश्व शक्ति का यन्त्र है और किसी एक तथा दूसरे कार्य में एवं किसी एक तथा दूसरे प्रकार के यन्त्र में आभ्यन्तर उपस्थिति के सिवाय और कोई ऐसा सारभूत भेद नहीं होता जो अहंमूलक अभिमान की मूर्खता को उचित ठहरा सके । ज्ञान और अज्ञान में अन्तर केवल आत्मा की कृपा का ही होता है; भागवत शक्ति का श्वास जिसे वरण करता है उसीमें प्रवाहित होता है और आज एक को तथा कल किसी दूसरे को वाणी या बल से पूरित कर देता है । यदि कुम्भकार एक पात्र दूसरे की अपेक्षा अधिक पूर्णता से गढ़ता है तो उसका श्रेय पात्र को नहीं, बल्कि निर्माता को होता है । हमारे मन का भाव यह नहीं होना चाहिये कि ''यह मेरा बल है'' अथवा देखो ''मुझमें ईश्वर की शक्ति है'', वरन् यह कि ''इस मन तथा शरीर में भागवती शक्ति कार्य कर रही है और यह वही है जो सभी मनुष्यों तथा प्राणियों में, पौधे तथा धातु में, सचेतन तथा सजीव वस्तुओं में और अचेतन तथा निर्जीव प्रतीत होनेवाली वस्तुओं में भी कार्य करती हैं ।''  एक ही देव सबमें कार्य कर रहा है और सम्पूर्ण संसार समान रूप से एक दिव्य कर्म तथा क्रमिक आत्म-अभिव्यक्ति का यन्त्र है--यह विशाल दृष्टि यदि हमारी अखण्ड अनुभूति बन जाय तो यह हमें अपने अन्दर से समस्त राजसिक अहंकार को निकाल डालने में सहायक होगी और फिर सात्त्विक

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अहं-बुद्धि भी हमारी प्रकृति से क्रमश: दूर होने लगेगी । अहं के इस रूप का परित्याग हमें सीधा उस वास्तविक यन्त्रिय कार्य की ओर ले जाता है जो सर्वांगीण कर्मयोग का मूलतत्त्व है । कारण, जब हम यन्त्रभाव के अहंकार का पोषण कर रहे होते हैं, तब हम अपने निकट तो यह दावा कर सकते हैं कि हम भगवान् के सचेतन यन्त्र हैं, पर वास्तव में हम भागवत शक्ति को अपनी कामनाओं या अपने अहंमूलक प्रयोजन का यन्त्र बनाने का यत्न कर रहे होते हैं । यदि अहं को वश में कर लिया जाये, पर इसका उन्मूलन न किया जाये तो हम दिव्य कर्म के इंजन तो अवश्य बन सकते हैं, पर हम अपूर्ण उपकरण ही रहेंगे और अपने मन की भूलों, प्राण की विकृतियों या भौतिक प्रकृति की हठीली दुर्बलताओं के द्वारा शक्ति की क्रिया को पथच्युत या क्षत-विक्षत ही कर देंगे । यदि यह अहं नष्ट हो जाय तो हम सच्चे अर्थों में ऐसे शुद्ध यन्त्र बन सकते हैं जो हमें चलानेवाले दिव्य हस्त की प्रत्येक गति को सचेतन रूप से अंगीकार करेंगे, इतना ही नहीं, बल्कि हम अपनी सच्ची प्रकृति से सज्ञान भी हो सकते हैं, उस एकमेव सनातन तथा अनन्त के ऐसे सचेतन अंश बन सकते हैं जिन्हें परम शक्ति ने अपने अन्दर अपने कार्यों के लिये प्रसारित किया है ।

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     अपना यन्त्र-स्वरूप अहं भागवती शक्ति को समर्पित करने के बाद एक और महत्तर सोपान पार करना होता है । भागवती शक्ति के इस रूप का ही ज्ञान पर्याप्त नहीं है कि यहीं वह एकमात्र वैश्व शक्ति है जो मन, प्राण तथा जड़ के स्तर पर हमें तथा सब प्राणियों को प्रचालित करती है । कारण, यह तो निम्नतर प्रकृति है और, यद्यपि भागवत ज्ञान, प्रकाश एवं बल अज्ञान में भी निगूढ़ तथा क्रियाशील रूप में विद्यमान हैं और इसके आवरण को कुछ भेद करके अपना सत्य-स्वरूप यत्किञ्चित् व्यक्त कर सकते हैं अथवा ऊपर से अवतीर्ण होकर इन हीन क्रियाओं को ऊंचा उठा सकते हैं, तथापि अपने अध्यात्म-भावित मन, अध्यात्म-भावित प्राण-गति और अध्यात्म-भावित देह-चेतना के अन्दर हमें एकमेव का अनुभव हो जाने पर भी, हमारे क्रियाशील अंगों में अपूर्णता बनी ही रहती है । परम शक्ति के प्रति हमारा प्रत्युत्तर तब भी स्खलनशील होता है, भगवान् का मुखमण्डल तब भी आवृत रहता है और अज्ञान का सतत मिश्रण भी बना ही रहता है । भागवत शक्ति के बल एवं ज्ञान के पूर्ण यन्त्र तो हम तभी बन सकते हैं यदि हम उसके प्रति--इस निम्न प्रकृति का अतिक्रम करनेवाले उसके सत्य--स्वरूप के प्रति--उन्मीलित हो जायें ।

 

     केवल मुक्ति ही नहीं अपितु परिपूर्णता कर्मयोग का लक्ष्य होनी चाहिये । भगवान् हमारी प्रकृति द्वारा तथा हमारी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करता है; यदि हमारी प्रकृति अपूर्ण हो तो भगवान् का कर्म भी अपूर्ण,. मिश्रित एवं अयुक्त होगा ।

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यहां तक कि वह स्थूल भ्रान्तियों, असत्यों, नैतिक दुर्बलताओं और विक्षेपक प्रभावों से व्याहत भी हो सकता है । भगवान् का कर्म हमारे अन्दर तब भी होता रहेगा, पर होगा हमारी दुर्बलताओं के अनुसार, अपने उद्गम की शक्ति और पवित्रता के अनुसार नहीं । यदि हमारा योग सर्वांगीण योग न होता, यदि हमें अपने अन्त:स्थित आत्मा की मुक्ति, या प्रकृति से वियुक्त पुरुष की निश्चल सत्ता ही अभीष्ट होती, तो इस व्यावहारिक अपूर्णता की हमें कुछ भी परवा न होती । शान्त, अक्षुब्ध, हर्ष और विषाद से रहित, पूर्णता और अपूर्णता, गुण और दोष तथा पाप और पुण्य को अपना न मानते हुए और यह अनुभव करते हुए कि प्रकृति के गुण ही अपने क्षेत्र में कार्य करते हुए यह मिश्रण पैदा करते हैं, हम आत्मा की नीरवता में प्रतिगमन कर सकते थे और शुद्ध एवं निर्लिप्त रहकर केवल साक्षी की भांति प्रकृति के व्यापारों को देख सकते थे । परन्तु सर्वांगीण उपलब्धि में यह निश्चलता हमारे मार्ग का एक सोपानमात्र हो सकती है, अन्तिम पड़ाव नहीं, क्योंकि हमारा लक्ष्य आत्मसत्ता की स्थितिशीलता में ही नहीं, वरन् प्रकृति की गति में भी दिव्य चरितार्थता उपलब्ध करना है । ऐसा पूरी तरह से तबतक नहीं हो सकता, जबतक हम अपने कार्यों के प्रत्येक पग में तथा इनकी प्रत्येक गतिविधि और रूप-रेखा में, अपने संकल्प के प्रत्येक झुकाव तथा प्रत्येक विचार, भाव एवं आवेग में भगवान् की उपस्थिति और शक्ति को अनुभव नहीं कर लेते । इसमें सन्देह नहीं कि एक दृष्टि से हम अज्ञान की प्रकृति में भी भगवान् की उपस्थिति एवं शक्ति का अनुभव कर सकते हैं, परन्तु वह होगी एक प्रच्छन्न दिव्य शक्ति तथा उपस्थिति, एक वामनाकृति एवं क्षुद्र मूर्ति । हमारी मांग इससे बहुत बड़ी है, वह यह कि हमारी प्रकृति भगवान् के परम सत्य एवं परा ज्योति में, नित्य आत्म-सचेतन संकल्प की शक्ति और सनातन ज्ञान की बृहत्ता में भगवान् की ही एक विर्भूते बन जाये ।

 

     अहं का पर्दा हटाने के बाद प्रकृति और इसके उन निम्नतर गुणों का पर्दा हटाना होता है जो हमारे तन-मन-जीवन पर शासन करते हैं । अहं की सीमाएं ज्यों ही लुप्त होने लगती हैं त्यों ही हमें पता चल जाता है कि वह पर्दा किस चीज का बना हुआ है और हम अपने में विश्व-प्रकृति की क्रिया होती देखते हैं एवं विश्व-प्रकृति के भीतर या इसके मूल में विश्वात्मा की उपस्थिति तथा जगद्वयापी ईश्वर की विराट् गति अनुभव करते हैं । यन्त्र का स्वामी इस अखिल क्रिया के पीछे अवस्थित है और इसके भीतर भी उसका स्पर्श किंवा उसके महान् पथप्रदर्शक या प्रवर्तक प्रभाव की प्रेरणा उपस्थित रहती है । तब हम अहं या अहं-शक्ति की सेवा नहीं करते; हम जगत् के स्वामी और उसके विकाससम्बन्धी सम्वेग का अनुसरण करते हैं । पग-पग पर हम संस्कृत के एक पद्य की भाषा में कहते हैं कि ''मेरे हृदय में बैठे हुए आप मुझे जैसे प्रेरित करते हैं वैसे ही, हे स्वामिन्--मैं कार्य करता हूं ।''

 

      १ त्वया हृषीकेश हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ।

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फिर भी, वह कार्य दो अत्यन्त भिन्न कोटियों का हो सकता है, एक तो वह जो केवल प्रकाशयुक्त होता है और दूसरा वह जो महत्तर एवं परा प्रकृति में रूपान्तरित तथा उन्नीत हुआ होता है । कारण, हम अपनी प्रकृति द्वारा धारित तथा अनुसृत होकर कर्ममार्ग पर चलते चले जा सकते हैं और जहां पहले हम प्रकृति और इसके अहंता-रूपी भ्रम के द्वारा ''यन्त्रारूढ़ की भांति चलाये जाते थे'', वहां अब हम इस बात को पूर्ण रूप से समझते हुए चल सकते हैं कि इस यन्त्र की क्रिया क्या है और सब कर्मों के स्वामी, जिन्हें हम इस क्रिया के पीछे अनुभव करते हैं, अपने जागतिक प्रयोजनों के लिये इसका क्या उपयोग करते हैं । निश्चय ही यह वह अवस्था है जिसे अनेक महान् योगी भी आध्यात्मीकृत मन के स्तरों पर प्राप्त कर चुके हैं; परन्तु यह आवश्यक नहीं कि हम सदा-सर्वदा ऐसी ही स्थिति में रहें, क्योंकि एक इससे भी महान् एवं अतिमानसिक सम्भावना विद्यमान है । अध्यात्म- भावापन्न मन से ऊंचे उठ जाना तथा परमोच्च माता की आद्या भागवती सत्य-शक्ति की जीवन्त उपस्थिति में सहज स्फुरणापूर्वक कर्म करना भी सम्भव है । हमारी गति उसकी गति से एकीभूत तथा उसमें निमज्जित हो जायेगी, हमारा संकल्प उसके संकल्प से एकीभूत, तथा हमारी शक्ति उसकी शक्ति में दायित्वमुक्त हो जायेगी और हम अनुभव करेंगे कि वह हमारे द्वारा इस प्रकार कर्म कर रही है मानों परमा प्रज्ञा-शक्ति के रूप में अभिव्यक्त साक्षात् भगवान् ही कर्म कर रहे हों । हमें अपने रूपान्तरित मन, प्राण तथा शरीर ऐसे जान पड़ेगे मानों वे अपने से अत्युच्च उस परा ज्योति एवं शक्ति की प्रणालिकाएं मात्र हों जो, अपने ज्ञान में परात्पर तथा परिपूर्ण होने के कारण, अपनी क्रिया-पद्धति में निर्भ्रान्त हैं । हम इस ज्योति एवं शक्ति के वाहन, साधन तथा यन्त्र ही नहीं, अपितु एक परम उदात्त शाश्वत अनुभूति में इसके अंग बन जायेंगे ।

 

     इस चरम पूर्णता तक पहुंचने से पहले ही, हम भगवान् के साथ अपने कर्मों में, --उसके अत्यन्त ज्योतिर्मय शिखरों पर नहीं तो उसकी निरतिशय विशालता में, --मिलन लाभ कर सकते हैं । कारण, अब हम केवल प्रकृति या इसके गुणों को ही अनुभव नहीं करते, अपितु अपनी शारीरिक चेष्टाओं, स्नायविक एवं प्राणिक प्रतिक्रियाओं और मानसिक व्यापारों में एक ऐसी शक्ति को भी अनुभव कर लेते हैं जो शरीर, मन और प्राण से अधिक महान् है और जो हमारे सीमित करणों को अपने अधिकार में कर लेती और इनकी सभी गतियों का परिचालन करती है । अब हमें यह प्रतीति नहीं होती है कि हम ही गति कर रहे हैं और हम ही विचार या अनुभव कर रहे हैं, वरन् यह कि वही हमारे अन्दर गति, विचार और अनुभव कर रही है । यह शक्ति जिसे हम अनुभव करते हैं भगवान् की वैश्व शक्ति है, जो या तो आवृत रहती हैं या अनावृत, या तो स्वयं साक्षात् रूप में कार्य करती है या संसार के जीवों को अपनी शक्तियों का प्रयोग करने देती है । यहीं एकमात्र सत्

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शक्ति है और यही विश्वगत या व्यक्तिगत कार्य को सम्भव बनाती है । कारण, यह शक्ति तो स्वयं भगवान् ही है--अपनी शक्ति के विग्रह में । सब कुछ यह शक्ति ही है, कार्य की शक्ति, विचार एवं ज्ञान की शक्ति, प्रभुत्व एवं उपभोग की शक्ति, प्रेम की शक्ति । प्रतिक्षण या प्रति वस्तु में, अपने में तथा दूसरों में, सचेतन रूप से यह अनुभव करते हुए कि सर्वकर्ममहेश्वर उनमें विद्यमान है तथा इस विराट् शक्ति से, जो वह स्वयं ही है, वह सब वस्तुओं और सब घटनाओं को धारण करता है, इनमें निवास करता तथा इनका उपभोग करता है और इसी शक्ति द्वारा वह स्वयं इन सब वस्तुओं तथा सब घटनाओं के रूप में सम्भुत वा प्रकट होता है, --हम कर्मों द्वारा भागवत मिलन प्राप्त कर चुके होंगे और कर्मों में उपलब्ध इस कृतार्थता से वह सब भी अधिगत कर चुके होंगे जो कुछ दूसरों ने पराभक्ति या शुद्ध ज्ञान से उपलब्ध किया  । परन्तु अभी भी एक और शिखर है जो हमें आहूत करता है, वह है--इस विश्वमय एकत्व से उठकर दिव्य परात्परता के एकत्व में आरोहण करना । हमारे कर्मों तथा हमारी सत्ता का स्वामी इहलोक में हमारा अन्तर्यामी ईश्वर ही नहीं है, न ही वह विश्वात्मा या किसी प्रकार की सर्वव्यापी शक्तिमात्र है । जगत् और भगवान् बिल्कुल एक ही चीज नहीं हैं, जैसा कि एक विशेष प्रकार के सर्वेश्वरवादी विचारकों का अभिमत है । जगत् अंशविभूति है; यह किसी ऐसी वस्तु पर अवलंबित है जो इसमें प्रकट तो होती है, पर इससे सीमित नहीं हो जाती । भगवान् केवल यहां ही हों ऐसी बात नहीं; एक परतत्त्व का भी अस्तित्व है, अनन्त परात्परता की भी अस्ति है । व्यष्टि-सत्ता भी, अपने आध्यात्मिक अंश में, वैश्व सत्ता के अन्दर बनी हुई कोई रचना नहीं है--हमारा अहं, हमारा मन, प्राण ओर शरीर अवश्य ही ऐसी रचनाएं हैं; परन्तु हमारे अन्दर की नित्य निर्विकार आत्मा किंवा हमारा अविनाशी जीव परात्परता में से प्रादुर्भूत हुआ है ।

 

 

     वह परात्पर, जो सकल जगत् और सम्पूर्ण प्रकृति से परे है और फिर भी जगत् तथा इसकी प्रकृति का स्वामी हैं, जो अपने एकांश से इसमें अवतरित है और इसे एक अभूतपूर्व वस्तु में रूपान्तरित कर रहा है, --वह हमारी सत्ता का भी मूल है और वही हमारे कर्मों का उद्गम एवं स्वामी भी है । परन्तु परात्पर चेतना का धाम है ऊर्ध्व में, दिव्य सत्ता की केवलता में--और सनातन देव की पराशक्ति, सत्य एवं आनन्द भी वहीं है; हमारा मन उस केवलता की तनिक भी कल्पना नहीं कर सकता और हमारा बड़े-से-बड़ा आध्यात्मिक अनुभव भी हमारे अध्यात्म-भावित मन तथा हृदय में उस केवलता का एक क्षीण प्रतिबिम्बमात्र होता हैं, उसकी एक मन्द छाया एवं क्षुद्र शाखा ही होता है । तथापि इसीसे उद्भूत, ज्योति, शक्ति, आनन्द

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और सत्य का एक प्रकार का सौवर्ण प्रभामण्डल भी विद्यमान है जिसे प्राचीन गुह्यदर्शियों की भाषा में दिव्य ऋत-चेतना, अतिमानस वा विज्ञान कह सकते हैं । इस अविद्याजन्य, हीनतर-चेतनामय जगत् का उस विज्ञान से गूढ़ सम्बन्ध है और वह विज्ञान ही इसे धारण करता तथा विघटित अस्तव्यस्त स्थिति में गिरने से बचाता है । जिन शक्तियों को हम आज प्रज्ञान, अन्तर्ज्ञान या ज्ञानदीप्ति का नाम देकर सन्तोष कर लेते हैं वे तो केवल क्षीणतर प्रकाश हैं जिनका वह पूर्ण एवं जाज्वल्यमान उद्गम है । उच्चतम मानवीय बुद्धि के तथा उसके बीच आरोहणशील चेतना के अनेक स्तर हैं; उच्चतम मानसिक या अधिमानसिक स्तर हैं जिन्हें अधिकृत करने के बाद ही हम वहां पहुंच सकते हैं अथवा उसकी महिमा-गरिमा यहां उतार ला सकते हैं । यह आरोहण अथवा यह विजय कठिन भले ही हो, पर यह मानव--आत्मा की नियति है और दिव्य सत्य का ज्योतिर्मय अवरोहण या अवतरण पृथ्वी-प्रकृति के कृच्छ विकास की एक अवश्यम्भावी अवस्था है । वह उद्दिष्ट पूर्णता ही मानव--आत्मा के अस्तित्व का हेतु है, हमारी सर्वोच्च अवस्था तथा हमारे पार्थिव जीवन का मर्म है । कारण, यद्यपि परात्पर भगवान् हमारी रहस्यता के गुह्य हृदय में पुरुषोत्तम के रूप में यहां पहले से ही विराजमान हैं, तथापि वह अपनी सम्मोहिनी विश्वव्यापी योगमाया के नाना आवरणों एवं छद्मवेषों के द्वारा आवृत है । इहलोक में इस देह के भीतर आत्मा के आरोहण एवं विजय से ही वे आवरण-पट खुल सकते हैं, और अर्द्ध-सत्य का यह उलझा दुआ बाना जो सर्जनकारी भ्रम बन जाता है तथा यह उदयनशील ज्ञान जो जुड़-तत्त्व की निश्चेतना में डुबकी लगाकर धीमे-धीमे और थोड़ा- थोड़ा अपनी ओर लौटता हुआ एक प्रबल अज्ञान में परिणत हो जाता है--इन दोनों के स्थान पर परम सत्य की क्रियाशीलता प्रतिष्ठित हों सकती है ।

 

     कारण, यहां इस जगत् के अन्दर विज्ञान सत्ता के मूल में गुप्त रूप से चाहे विद्यमान है, किन्तु जो शक्ति यहां क्रिया कर रही है वह विज्ञान नहीं, बल्कि ज्ञान--अज्ञान का इन्द्रजाल है, एक अपरिमेय पर प्रत्यक्षत: -यान्त्रिक अधिमानस-माया है । भगवान् हमें यहां अखण्ड दृष्टि में यों दिखायी देता है कि वह एक सम, निष्क्रिय एवं निर्व्यक्तिक साक्षी आत्मा है, गुण या देश-काल के बन्धन से रहित एक अचल, अनुमन्ता पुरुष है । उसका आश्रय या अनुमति समस्त कर्म तथा उन सब शक्तियों की क्रीड़ा को निष्पक्ष रूप से प्राप्त होती है जिन्हें परात्पर संकल्प ने इस जगत् में अपने-आपको चरितार्थ करने के लिये एक बार स्वीकृति और अधिकार दे दिया है । वस्तुओं में निहित यह साक्षी आत्मा या यह अचल आत्मतत्त्व किसी प्रकार का भी संकल्प और निर्धारण नहीं करता प्रतीत होता । परन्तु हमें यह अनुभव हो जाता है कि उसकी यह निष्क्रियता एवं मौन उपस्थिति ही सब वस्तुओं को उनके अज्ञान में भी एक दिव्य लक्ष्य की ओर यात्रा करने के लिये बाध्य करती

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है और विभाजन की अवस्था से उन्हें एक अद्यावधि-अचरितार्थ एकत्व की ओर आकृष्ट करती है । तथापि कोई परम निर्भ्रान्त भागवत संकल्प यहां विद्यमान प्रतीत नहीं होता, केवल एक विपुलतया विस्तारित विश्व-शक्ति अथवा एक यान्त्रिक कार्यवाहक 'प्र-क्रिया', 'प्र-कृति' ही, प्रतीत होती है । यह विश्वात्मा का एक पार्श्व है । उसका एक दूसरा पार्श्व भी है जो अपने को विश्वमय भगवान् के रूप में प्रस्तुत करता है, वह सत्ता में एक है, व्यक्तित्व एवं शक्ति में बहुविध । जब हम उसकी विराट् शक्तियों की चेतना में प्रवेश करते हैं तो वह हमें अनन्त गुण, संकल्प, कर्म, विश्वव्यापी विशाल ज्ञान तथा एक किन्तु असंख्यविध आनन्द की अनुभूति प्रदान करता है । कारण, उसके द्वारा हम सर्वभूतों के साथ सारतः ही नहीं, बल्कि उनकी कार्यलीला में भी एक हो जाते हैं, अपनेको सबमें और सबको अपनेमें देखते हैं, समस्त ज्ञान, विचार एवं भाव को एक ही मन तथा हृदय की चेष्टाएं और समस्त बल एवं कर्म को एक ही सर्वसमर्थ संकल्प की गति अनुभव करते हैं; समस्त जड़तत्त्व और आकार को एक ही देह के अंग-प्रत्यंग, सब व्यक्तियों को एक ही व्यक्ति की शाखा-प्रशाखाएं एवं अहंभावों को एकमेवाद्वितीय वास्तविक सत्स्वरूप ''मैं'' की विकृतियां अनुभव करते हैं । उसमें तब हमारी कोई पृथक् स्थिति नहीं रह जाती, वरन् हमारा सक्रिय अहंकार वैश्व गति में वैसे ही खो जाता है जैसे निर्गुण, नित्य-निर्लिप्त एवं अनासक्त साक्षी के द्वारा हमारा स्थितिशील अहंभाव सार्वभौम शान्ति में लीन हो जाता है ।

 

     परन्तु अभी भी, दूरस्थ दिव्य निश्चल-नीरवता तथा सर्वव्यापी दिव्य कर्म, इन दोनों अवस्थाओं में विरोध बना रहता है । इसका हम अपने अन्दर एक ऐस प्रकार से एवं ऐसे बड़े परिमाण में समाधान कर सकते हैं जो हमें पूर्ण प्रतीत होता है, पर वास्तव में पूर्ण नहीं होता, क्योंकि वह रूपान्तर एवं विजय को पूर्ण रूप से सम्पन्न नहीं कर सकता । सार्वत्रिक शान्ति, ज्योति, शक्ति एवं आनन्द की सम्पदा हमें प्राप्त हो जाती है, पर इसकी वास्तविक अभिव्यक्ति वही नहीं होती जो ऋत-चेतना या दिव्य विज्ञान की हो सकती है; यद्यपि यह अद्भुत रूप में स्वतन्त्र, उदात्त एवं आलोकित होती है फिर भी विश्वात्मा की वर्तमान अभिव्यक्ति का ही समर्थन करती है । यह अज्ञानमय जगत् के अस्पष्ट प्रतीकों एवं आवृत रहस्यों का वैसा रूपान्तर नहीं करती जैसा कि परात्पर अवतरण करेगा । हम स्वयं स्वतन्त्र हो जाते हैं, पर पृथ्वी-चेतना बंधन में ही ग्रस्त रहती है । एक और भी आगे का परात्पर आरोहण एवं अवरोहण ही इस विरोध का पूर्ण रूप से समाधान कर हमें रूपान्तरित और बंधनमुक्त कर सकता है ।

 

     कर्मों के स्वामी का एक तीसरा अत्यन्त घनिष्ठ एवं वैयक्तिक रूप भी है जो उसके अनुत्तम गूढ़ रहस्य एवं आनन्दातिरेक की कुंजी है । कारण, वह गुप्त परात्परता के रहस्य से तथा वैश्व गति के अस्पष्ट प्राकटय से भगवान् की एक

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व्यष्टि-शक्ति को पृथक् करता है जो दोनों के बीच मध्यस्थ का काम कर सकती है तथा एक से दूसरे तक पहुंचने के लिये सेतु बांध सकती है । इस रूप में भगवान् का विश्वातीत और विश्वमय व्यक्तित्व हमारे व्यष्टि-भावापन्न व्यक्तित्व के अनुरूप है और हमारे साथ वैयक्तिक सम्बन्ध स्थापित करना स्वीकार करता है । हमारी परम आत्मा के रूप में वह हमसे एकाकार रहता है और फिर भी हमारे स्वामी, सखा, प्रेमी, गुरु, पिता एवं माता तथा महान् विश्वलीला में हमारे क्रीड़ासहचर के रूप में हमारे निकट और हमसे भित्र भी रहता है । इन सब रूपों में उसने हमारे मित्र एवं शत्रु या सहायक एवं बाधक रहकर बराबर ही अपनेको छिपाये रखा है और, हमपर प्रभाव डालनेवाले सभी सम्बन्धों तथा व्यापारों में उसने हमें हमारी पूर्णता तथा मुक्तता का मार्ग दिखाया है । इस अधिक वैयक्तिक अभिव्यक्ति के द्वारा ही परात्पर के पूर्ण अनुभव की प्राप्ति के द्वार हमारे लिये खुल सकते हैं । कारण, वैयक्तिक भगवान् के अन्दर हम एकमेव से जो सम्पर्क प्राप्त करते हैं वह केवल मुक्त निश्चलता और शान्ति में अथवा कर्मगत निष्क्रिय या सक्रिय समर्पण के द्वारा या अपने अन्दर व्याप्त तथा अपने मार्ग-निर्देशक वैश्व ज्ञान एवं बल के साथ एकत्व के रहस्य के द्वारा ही प्राप्त नहीं करते, बल्कि दिव्य प्रेम और दिव्य आनन्द के उल्लास के द्वारा भी हम उससे सम्पर्क प्राप्त करते हैं--ऐसे उल्लास के द्वारा जो प्रशान्त साक्षी और सक्रिय विश्व-शक्ति को तीव्र वेग से अतिक्रान्त करके एक महत्तर आनन्दपूर्ण रहस्य का विशेष निश्चयात्मक पूर्वज्ञान प्राप्त करता है । वास्तव में, हमारे साथ अत्यन्त घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध पर अद्यावधि अत्यन्त अस्पष्ट यह वैयक्तिक रूप अपने प्रगाढ़ आवरण में हमारे लिये परात्पर परमेश्वर के गहन और मादक रहस्य को और उसकी पूर्ण सत्ता तथा उसके तन्मयकारी परम सुख एवं रहस्यमय आनन्द की एक चरम निश्चयता को जितना अधिक आवेष्टित रखता है उतना न तो वह ज्ञान ही आवेष्टित रखता है जो किसी अनिर्वचनीय परतत्त्व की ओर ले जाता है और न वह कर्मकलाप जो हमें जगत्-प्रक्रिया से परे अपने आदि- कारण, परम ज्ञाता और परम प्रभु की ओर ले जाता है ।

 

     परन्तु भगवान् के साथ का वैयक्तिक सम्बन्ध सर्वदा या प्रारम्भ से ही एक बृहत्तम विस्तार या उच्चतम आत्म-अतिक्रमण को बलपूर्वक स्थापित नहीं कर देता । हमारी सत्ता की निकटवर्ती या हमारा अन्तर्यामी यह देवाधिदेव पहले-पहल हमें अपनी वैयक्तिक प्रकृति तथा अनुभूति के क्षेत्र में ही, नायक एवं स्वामी, मार्गदर्शक एवं गुरु एवं मित्र एवं प्रेमी के रूप में अथवा एक आत्मसत्ता, शक्ति या उपस्थिति के रूप में भी पूर्णरूपेण अनुभूत हो सकता है । सुतरां, हमें यह अनुभव हो सकता है कि यह हमारे हृदय में अवस्थित अपने अन्तरंग सत्य-स्वरूप की शक्ति के द्वारा हमारी ऊर्ध्वमुख और विस्तारशील गति को निर्मित तथा उन्नीत करता है या हमारी उच्चतम बुद्धि के भी ऊपर से हमारी प्रकृति पर शासन करता है । हमारा वैयक्तिक

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विकास ही उसका मुख्य कार्य है, उसके साथ हमारा वैयक्तिक सम्बन्ध ही हमारा हर्ष और हमारी परिपूर्णता है, अपनी प्रकृति को उसकी दिव्य प्रतिमा में गढ़ना ही हमारी आत्म-उपलब्धि और सिद्धि है । मालूम होता है यह बाह्य जगत् इसीलिये बनाया गया है कि यह इस विकास के क्षेत्र का काम करे और इसकी क्रमिक अवस्थाओं के लिये साधन-सामग्री या सहायक एवं बाधक शक्तियां जुटाये । इस जगत् में हम जो भी काम करते हैं वे सब उसीके काम हैं, परन्तु जब वे कोई अस्थायी सार्वभौम उद्देश्य पूरा करते हैं तब भी हमारे लिये उनका मुख्य प्रयोजन इस अन्तर्यामी भगवान् से अपने सम्बन्धों को बाह्यतः सक्रिय बनाना या इन्हें आभ्यन्तर शक्ति प्रदान करना ही होता है । अनेक जिज्ञासु इससे अधिक कुछ नहीं मांगते अथवा वे इस आध्यात्मिक प्रस्फुटन की अविच्छिन्नता और परिपूर्णता केवल परतर लोकों में ही अनुभव करते हैं; भगवान् से मिलन पूर्ण रूप से उपलब्ध हो जाता है और उसके पूर्णत्व, हर्ष एवं सौन्दर्य के नित्य धाम में यह शाश्वत हो जाता है । परन्तु सर्वांगीण उपलब्धि के अन्वेषक के लिये यह पर्याप्त नहीं है । दूसरों से अलग-थलग निजी वैयक्तिक उपलब्धि, वह चाहे कैसी भी महान् और भव्य क्यों न हो, उसका सम्पूर्ण लक्ष्य या समग्र अस्तित्व नहीं हो सकती । एक ऐसा समय अवश्य आता है जब व्यक्ति विराट् की ओर खुलता है; यहांतक कि हमारा आध्यात्मिक, मानसिक, प्राणिक व्यष्टिभाव ही नहीं, अपितु शारीरिक व्यष्टिभाव तक विश्वमय हो जाता है । यह देवाधिदेव की वैश्व शक्ति तथा विश्वात्मा का शकत्यंश दिखायी देता है अथवा यह जगत् को उस अनिर्वचनीय विशालता में धारण करता है जो व्यष्टि-चेतना को तब प्राप्त होती है जब यह अपने बंधन तोड़कर ऊपर परात्पर की ओर तथा सब तरफ अनन्त में प्रवाहित होती है ।

 

 

     जो योग केवल अध्यात्म-भावित मानसिक स्तर पर ही चरितार्थ किया जाता है उसमें भगवान् की वैयक्तिक या अन्तर्यामी, विश्वमय और विश्वातीत--इन तीन मूल अवस्थाओं का पृथक्-पृथक् अनुभवों के रूप में प्रत्यक्ष होना सम्भव है और ऐसा प्रायः होता ही है । तब इन अनुभवों में से प्रत्येक अकेला ही जिज्ञासु की उत्कंठा की पूर्ति के लिये पर्याप्त प्रतीत होता है । निभृत ज्योतिर्मय हृदय-गुहा में वैयक्तिक भगवान् के साथ एकाकी विचरता हुआ वह अपनी सत्ता को प्रियतम के अनुरूप गढ़ सकता है और अवपतित प्रकृति से निस्तार पाकर आत्मा के किसी उच्च लोक में उसके साथ निवास करने के लिये आरोहण कर सकता है । सार्वभौम विशालता में स्वतन्त्र, अहं से मुक्त, निज व्यक्तित्व में विश्व-शक्ति की क्रिया का केंद्रमात्र, निज सत्ता में शान्त-मुक्त, विश्वमयता में अमर, असीम देश-काल में अनन्तत:

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विस्तृत पर साक्षी आत्मा में निश्चल वह संसार में सनातन के स्वातंन्त्र का उपभोग कर सकता है । किसी अनिर्वचनीय परात्परता में एकाग्र होकर, अपने पृथक् व्यक्तित्व का विसर्जन कर, जागतिक हलचल के आयास-प्रयास को तिलांजलि देकर वह अवर्णनीय निर्वाण की शरण में जा सकता है, अकथनीय की ओर एक असहिष्णु ऊंची उड़ान में वह सभी वस्तुओं को मिथ्या घोषित कर सकता है ।

 

     परन्तु जो व्यक्ति सर्वांगीण योग की विशाल पूर्णता चाहता है उसके लिये इनमें से कोई भी उपलब्धि पर्याप्त नहीं है । वैयक्तिक मोक्ष उसके लिये बस नहीं; क्योंकि वह अपनेको उस विश्व-चैतन्य की ओर खुलता अनुभव करता है जो अपनी विशालता एवं बृहत्ता से हमारी सीमित वैयक्तिक पूर्णता की संकीर्णतर तीव्रता को सर्वथा अतिक्रान्त किये हुए है । इस चैतन्य की पुकार अलंध्य होती है; इसकी अति महत् प्रेरणा से प्रचालित होकर उसे सब विभाजक सीमाएं तोड़ डालनी होंगी, अपने को विश्व-प्रकृति में फैला देना तथा संसार को अपनेमें समा लेना होगा । ऊर्ध्व में भी एक अनिर्वचनीय सक्रिय उपलब्धि उसके लिये प्रस्तुत है जो परम देव के धाम से इस प्राणिजगत् पर दबाव डाल रही है । वह अद्यावधि अनवतरित ऐश्वर्य यहां तभी व्यक्त हो सकता है यदि हम पहले विश्व-चेतना को किसी अंश में परिव्याप्त करें और फिर इसे अतिक्रान्त कर जायें । परन्तु विश्व-चैतन्य भी काफी नहीं है, क्योंकि यह अशेष भागवत सद्वस्तु नहीं है, यह सम्पूर्ण सत्ता नहीं है । व्यक्तित्व के मूल में एक दिव्य रहस्य निहित है जिसे ढूंढ़ निकालना पूर्णयोग के साधक के लिये आवश्यक है; परात्परता के देह- धारण का रहस्य वहां उपस्थित है और काल के भीतर व्यक्त होने के लिये प्रतीक्षा कर रहा है । इस विश्व-चेतना के अन्दर भी अन्त में एक छिद्र रह जाता है, वह यह कि एक उच्चतम ज्ञान, जो मुक्त तो कर सकता है, पर कुछ भी क्रियान्वित नहीं कर सकता, विश्व-शक्ति के साथ समान रूप से सन्तुलित नहीं होता, क्योंकि यह शक्ति सीमित ज्ञान का प्रयोग करती प्रतीत होती है अथवा यह अपने-आपको एक ऐसे तलीय अज्ञान से आवृत रखती है जो सर्जन तो कर सकता है, पर केवल अपूर्णता का या एक क्षणिक, सीमित और निगड़ित पूर्णता का । एक ओर तो स्वतन्त्र निष्क्रिय साक्षी होता है और दूसरी ओर होती है एक बद्ध कार्यकर्त्री जिसे कार्य के सब साधन प्राप्त ही नहीं हैं । प्रतीत होता है कि इन दो सहचरों और प्रतिपक्षियों का समन्वय एक 'अव्यक्त' में जो अभी हमसे परे है, रक्षित, स्थगित और निरुद्ध रखा हुआ है । दूसरी ओर, केवल किसी प्रकार की कूटस्थ परात्परता में पलायन कर जाने से ही हमारा व्यक्तित्व कृतार्थ नहीं होता और इससे वैश्व कर्म भी निरर्थक ही हो जाता है । अतएव, पूर्ण सत्य के जिज्ञासु को इससे सन्तुष्टि नहीं हो सकती । वह अनुभव करता है कि नित्य सत्य एक ऐसी शक्ति है जो सर्जन करती है और साथ ही वह एक अविनाशी सत्ता भी है; वह केवल मायिक या अज्ञानमय अभिव्यक्ति की शक्ति नहीं है । सनातन सत्य अपने

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सत्यों को काल में व्यक्त कर सकता है । वह निश्चेतना और अज्ञान में ही नहीं, बल्कि ज्ञान में भी सृष्टि कर सकता है । भगवान् की ओर आरोहण करने के समान ही भगवान् का अवतरित होना भी सम्भव है; भावी पूर्णता और वर्तमान मुक्ति को अवतारित करने की सम्भावना भी विद्यमान है । जैसे-जैसे उसका ज्ञान विस्तृत होता है, उसके सामने यह अधिकाधिक स्पष्ट होता जाता है कि सर्वकर्ममहेश्वर ने यहां उसके अन्दर अन्तरात्मा को अन्धकार के भीतर अपनी अग्नि के स्फुलिंग के रूप में इसीलिये निक्षिप्त किया था कि यह सनातन ज्योति के एक केंद्र के रूप में विकसित हो सके ।

 

     परात्पर, विश्वात्मा तथा व्यष्टि--ये तीन शक्तियां सम्पूर्ण अभिव्यक्ति के ऊपर वितान की तरह छायी हुई हैं, ये इसके आधार में निहित और इसके अन्दर प्रविष्ट हैं;  यह त्रैतों में से प्रथम त्रैत है । चेतना के उन्मेष में भी यही तीन मूल अवस्थाएं प्रकट होती हैं और यदि हम सत्ता के सम्पूर्ण सत्य का अनुभव करना चाहें तो इनमें से किसी की भी उपेक्षा नहीं कर सकते । व्यष्टि-चेतना में से हम विशालतर एवं स्वतन्त्रतर विश्व-चेतना में जागरित होते हैं; किन्तु आकृतियों एवं शक्तियों की जटिल ग्रन्थि से युक्त विश्व-चेतना में से हम एक और भी महान् आत्म-अतिक्रमण के द्वारा एक ऐसी नि:सीम चेतना में उदित होते हैं जो परब्रह्म पर आधारित है । तथापि इस आरोहण में जिस चीज को हम छोड़ते प्रतीत होते हैं उसे वास्तव में हम नष्ट नहीं कर डालते, वरन् उन्नीत और रूपान्तरित कर देते हैं । कारण, एक ऐसा शिखर भी है जहां ये तीनों शक्तियां नित्य रूप से एक-दूसरी में निवास करती हैं । उस शिखर पर ये अपने समस्वरित एकत्व की नाभि में संयुक्त सच्चा हो जाती हैं । परन्तु वह शिखर ऊंचे-से-ऊंचे तथा विस्तृत-से-विस्तृत अध्यात्ममय मन से भी परे है, चाहे मन मैं भी उसकी कुछ छाया अवश्य अनुभव की जा सकती है । उसे प्राप्त करने तथा उसमें निवास करने के लिये मन को अपने-आपको पार करके अतिमानसिक विज्ञानमय ज्योति, शक्ति एवं सत्तत्त्व में रूपान्तरित होना होगा । इस निम्नतर क्षीण चेतना में समस्वरता के लिये प्रयत्न अवश्य किया जा सकता है, पर वह समस्वरता सदा अपूर्ण ही रहेगी । एक प्रकार की सुसंगति तो सम्भव है पर समकालिक एकीभूत परिपूर्णता नहीं । किसी भी महत्तर उपलब्धि के लिये मन को पार कर ऊपर आरोहण करना अपरिहार्य है। अथवा, आरोहण के साथ या इसके परिणामस्वरूप उस स्वयंभू सत्य का क्रियाशील अवतरण होना भी आवश्यक है जो प्राण और जड़तत्त्व की अभिव्यक्ति से पूर्वतर एवं सनातन है और नित्य ही मन से ऊपर अपने निज प्रकाश में उन्नीत रहता है ।

 

     कारण, मन माया है, अर्थात् यह सत्-असत् है । सत्य और मिथ्या, सत् और असत् के आलिंगन का भी अपना एक क्षेत्र है और उस द्विधा-संकुल क्षेत्र में ही मन शासन करता प्रतीत होता है | पर वास्तव में यह अपने राज्य में भी एक

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परिक्षीग चेतना है, यह सनातन की आद्या परमोत्पादिका शक्ति का अंश नहीं है । मूल तात्त्विक सत्य की किसी प्रतिमा को प्रतिक्षिप्त करने में यह समर्थ भले ही हों, किन्तु इसमें सत्य की गतिशील शक्ति और क्रिया सदा छिन्न-भिन्न ही दीख पड़ती है । मन तो केवल दुकड़ों को जोड़ सकता है अथवा एकता का अनुमानमात्र कर सकता है; मन का सत्य या तो केवल एक अर्द्ध-सत्य होता है या पहेली का एक अंश । मानसिक ज्ञान सदा आपेक्षिक, आंशिक और अनिर्णायक होता है । इसकी बहिर्मुखी क्रिया और रचना इसके व्यापारों में और भी अधिक भ्रान्त रूप धारण कर लेती हैं अथवा ये केवल संकीर्ण सीमाओं में ही यथार्थ होती हैं, किंवा खंड सत्यों को अपूर्ण ढंग से मिलाने पर ही कोई यथार्थ वस्तु बनती हैं । इस क्षीण चेतना में भी भगवान् मनोगत आत्मा के रूप में अभिव्यक्त होता है, ठीक वैसे ही जैसे वह प्राण के अन्दर एक आत्मा के रूप में विचरण करता है अथवा और भी अधिक अस्पष्टतया जड़ के अन्दर एक आत्मा के रूप में वास करता है । परन्तु उसका पूर्ण क्रियाशील प्रकट्य मन में नहीं है, सनातन के पूर्ण तादात्म्य यहां नहीं हैं । हमारे अस्तित्व का स्वामी अपनी सत्ता और अपनी शक्तियों एवं क्रियाओं के अक्षय अखंड सत्य में हमारे समक्ष तभी प्रकाशित होगा जब हम मन की सीमा पार कर उस विशालतर ज्योतिर्मय चेतना तथा आत्म-सचेतन सत्ता में पहुंच जायेंगे, जहां दिव्य सत्य का निजधाम है और जहां वह परदेशी की तरह निवास नहीं करता । वहीं हमारे भीतर हमारी सत्ता के स्वामी के कार्य उसके अमोघ अतिमानसिक प्रयोजन की अविकल गति का रूप धारण कर लेंगे ।

 

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     यह फल सुदीर्घ एवं कठिन यात्रा के अन्त में ही प्राप्त होता है । परन्तु कर्मों का स्वामी योगमार्ग के जिज्ञासु पथिक से मिलने और उसपर तथा उसके अन्तर्जीवन एवं कार्यों पर अपना अदृश्य या अर्द्ध-दृश्य दिव्य हस्त धरने को तबतक प्रतीक्षा नहीं करता रहता । इस संसार में वह विद्यमान तो पहले से ही है, --अचित् के सघन आवरणों के पीछे वह कर्मों के प्रवर्त्तक और ग्रहीता के रूप में विराजमान है, परा प्राण-शक्ति के भीतर वह प्रच्छन्न रूप में अवस्थित है तथा प्रतीकात्मक देवताओं एवं प्रतिमाओं के द्वारा मन के लिये गोचर भी है । यह भी खूब सम्भव है कि वह पूर्णयोग के मार्ग के लिये नियत भाग्यशाली आत्मा को पहले-पहल इन छद्मवेशों में ही दर्शन दे । अथवा यह भी हो सकता है कि इनसे भी अधिक अस्पष्ट आवरणों से आवृत उस सर्वकर्ममहेश्वर को हम एक आदर्श के रूप में परिकल्पित करें या उसे प्रेम, शुभ, सौन्दर्य या ज्ञान की एक अमूर्त्त शक्ति का मानसिक रूप दे दें । अथवा, जैसे ही हम पथ की ओर पग बढ़ाये वह मानवता की एक ऐसी पुकार या एक ऐसे विश्वगत संकल्प के प्रच्छन्न वेष में हमारे समक्ष

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प्रकट हो सकता है जो हमें अज्ञान के प्रधान चतुष्टय--अन्धकार, असत्य, मृत्यु और दुःख--के पंजे से जगत् का परित्राण करने के लिये प्रेरित करता है । पीछे जब हम इस मार्ग में पदार्पण कर चुकते हैं, वह हमें अपनी विशाल एवं महान् स्वातंत्र्यप्रद निर्व्यक्तिकता के द्वारा सब ओर से व्याप्त कर लेता है, या वह व्यक्तित्ववान् ईश्वर की छवि और आकृति के साथ हमारे समीप विचरता है । अपने भीतर तथा चारों ओर हम एक ऐसी शक्ति की उपस्थिति अनुभव करते हैं जो धारण-भरण, रक्षण तथा पालन-पोषण करती है । हम एक मार्गदर्शिका वाणी का श्रवण करते हैं । हम से महत्तर एक सचेतन संकल्प हम पर शासन करता है । एक अलंध्य शक्ति हमारे विचार एवं कार्य-कलाप और हमारे शरीर तक का संचालन करती है । एक नित्य-विस्तारशील चेतना हमारी चेतना को आत्मसात् कर लेती है, ज्ञान की एक जीवन्त ज्योति अन्तर में सर्वत्र प्रज्ज्वलित हो जाती है, अथवा एक दिव्यानन्द हमें अधिकृत कर लेता है । एक ठोस, बृहत् और अदम्य शक्तिमत्ता ऊपर से दबाव डालती है, हमारी प्रकृति के उपादान तक के भीतर पैठ जाती है और अपनेको इसके अन्दर उंडेल देती है । शान्ति, ज्योति, आनन्द, शक्ति और महिमा-गरिमा वहां अवस्थित हों जाती हैं । अथवा, वहां सम्बन्ध भी होते हैं, --वैयक्तिक, स्वयं जीवन की ही भांति घनिष्ठ, प्रेम के समान मधुर, गगन के समान व्यापक, अगाध सिंधु की भांति गभीर । एक सखा हमारे पास विचरता है; एक प्रेमी हमारे हृदय की गुहा में हमारे संग होता है, कर्म और अग्नि-परीक्षा का स्वामी हमें मार्ग दिखाता है; वस्तुओं का स्रष्टा हमें अपने यन्त्र के रूप में प्रयुक्त करता है; हम अनाद्यनन्त जननी की गोद में होते हैं । ये सब अधिक ग्राह्य रूप, जिनमें वह अनिर्वचनीय हमसे मिलता है, सत्य हैं, ये केवल सहायक, प्रतीक या उपयोगी कल्पनाएं ही नहीं हैं । परन्तु जैसे-जैसे हम विकसित होते हैं, हमारे अनुभव में विद्यमान इनके आदिम अपूर्ण रूप अपने मूलवर्ती एकमेव सत्य की विशालतर दृष्टि के अनुगत होते जाते हैं । पद-पद पर भगवान् के इन नाना रूपों के निरे मानसिक आवरण हटते जाते हैं और ये अधिक विस्तृत, अधिक गंभीर एवं अधिक अन्तरीय अर्थ प्राप्त कर लेते हैं । अन्त में अतिमानसिक सीमाओं पर ये सब देवता अपने पवित्र रूपों को मिला देते हैं और, अपना अस्तित्व जरा भी खोये बिना, परस्पर घुल-मिलकर एक हो जाते हैं । इस पथ पर भागवत रूप केवल त्याग दिये जाने के लिये ही प्रकट नहीं होते । ये अस्थायी आध्यात्मिक सुविधाएं या मायामय चेतना के साथ समझौते भी नहीं होते और न ही ये ऐसी स्वप्न-मूर्त्तियां होते हैं जो परब्रह्म की अवर्णनीय अतिचेतना के द्वारा गुह्य ढंग से हमपर प्रतिक्षिप्त कर दी जाती हैं । इसके विपरीत, जैसे-जैसे ये अपने उद्गमभूत सत्य के निकट पहुंचते हैं वैसे-वैसे इनकी शक्ति बढ्ती जाती है और इनकी निरपेक्ष पूर्णता प्रकट होती जाती है ।

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      वह अद्यावधि-अतिचेतन परात्परता एक शक्ति भी है और सत्ता भी । अतिमानसिक परात्परता कोई शून्य महाश्चर्य नहीं है, बल्कि एक अनिर्वचनीय तत्त्व है जो अपने से उत्पन्न सभी मौलिक वस्तुओं को सदा अपने अन्दर समाये रखता है । उन्हें यह उनकी परम नित्य सत्यता में तथा उनके अपने विशिष्ट चरम रूप में धारण करता है । ह्रास, विभाजन तथा अवपतन, जो यहां एक असंतोषजनक पहेली की वा माया के रहस्य की भावना पैदा करते हैं, हमारे आरोहण में स्वयं क्षीण हों जाते हैं, तथा हमसे झड़ जाते हैं, और भागवत शक्तियां अपने वास्तविक रूप धारण कर लेती हैं तथा उत्तरोत्तर ऐसी प्रतीत होती हैं कि ये यहां चरितार्थ होते हुए सत्य की ही अवस्थाएं हैं । भगवान् की आत्मा यहां विद्यमान है और जड़ निश्चेतना में अपने निवर्तन तथा आवेष्टन में शनैः -शनैः जाग रही है । हमारे कर्मों का स्वामी भ्रमों का स्वामी नहीं है, बल्कि एक परम सद्वस्तु है जो अविद्या के उन कोयों से क्रमश: प्रसूत होनेवाली अपनी आत्म-प्रकाशक सद्वस्तुओं का निर्माण कर रहा है जिनमें वे विकासात्मक अभिव्यक्ति के प्रयोजनों के लिये कुछ देर सोयी पड़ी रहने दी गयी हैं । अतिमानसिक परात्परता कोई ऐसी चीज नहीं है जो हमारे वर्तमान अस्तित्व से सर्वथा पृथक् एवं असम्बद्ध हो । यह एक महत्तर ज्योति है जिसमें से यह सब कुछ इसलिये प्रादुर्भूत हुआ है कि आत्मा शनैः -शनैः निश्चेतना में पतित होने और फिर उसमें से आविर्भूत होने का अद्भुत कर्म कर सके । इस भगीरथ कर्म के चलते रहते यह हमारे मन के ऊपर अतिचेतन रूप में प्रतीक्षा करती रहती है जिससे यह अन्त में हमारे अन्दर सचेतन रूप धारण कर सके । आगे चलकर यह अपने-आपको अनावृत करेगी और इस अनावरण के द्वारा हमारी सत्ता तथा हमारे कर्मों का सम्पूर्ण मर्म हमारे समक्ष प्रकाशित कर देगी । यह उस भगवान् को आविर्भूत करेगी जिसकी इस जगत् में पूर्णतर अभिव्यक्ति सत्ता के गुप्त मर्म को उद्घाटित और चरितार्थ कर देगी ।

 

     उस आविर्भाव में परात्पर भगवान् हमारे सम्मुख उत्तरोत्तर इस रूप में प्रकाशित होता जायगा कि वह परम सत् है तथा हम जो कुछ भी हैं उस सबका पूर्ण उद्गम है । पर साथ ही हम इस रूप में भी उसके दर्शन करेंगे कि वह कर्मों तथा सृष्टि का स्वामी है जो अपनी अभिव्यक्ति के क्षेत्र में अपनेको अधिकाधिक प्रवाहित करने को उद्यत रहता है । विश्वचेतना तथा उसका व्यापार तब पहले की तरह एक विशाल एवं नियमित आकस्मिक संयोग नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति का क्षेत्र प्रतीत होंगे । वहां भगवान् इस रूप में दिखायी देगा कि वह अधिष्ठातृ-स्वरूप सर्वव्यापी विश्वात्मा है जो सब कुछ परात्परता में से ग्रहण करता है तथा जो कुछ इस प्रकार अवतरित होता है उसे वह ऐसे आकारों में विकसित करता है जो अभी अपारदर्शक छद्मरूप या प्रवंचक अर्द्ध-छद्मरूप हैं, पर जो आगे चलकर अवश्य ही एक पारदर्शक अभिव्यक्ति बन जायेंगे । तब वैयक्तिक चेतना अपना सच्चा मर्म और

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व्यापार पुनः अधिगत कर लेगी, क्योंकि यह आत्मा का एक ऐसा रूप है जो पुरुषोत्तम से भेजा गया है और, समस्त प्रतीतियों के रहते हुए भी, यह एक ऐसा बीज वा नीहारिका है जिसके भीतर भगवती मातृशक्ति कार्य कर रही है जिससे कि वह काल तथा जड़तत्त्व में कालातीत एवं निराकार भगवान् की एक विजयशाली अभिव्यक्ति साधित कर सके । हमारी दृष्टि और अनुभूति के सामने शनैः -शनैः यह तथ्य प्रकट होता जायगा कि यही कर्मों के स्वामी की इच्छा है तथा यही उसका अपना अन्तिम मर्म है, और इस मर्म से ही जगत् की उत्पत्ति को एवं जगत् में हमारे कर्म को सार्थकता एवं प्रकाश प्राप्त होते हैं । इस तथ्य को हृदयंगम करना तथा इसकी चरितार्थता के लिये यत्न करना पूर्णयोग में दिव्य-कर्ममार्ग का सम्पूर्ण सार-सर्वस्व है ।

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अध्याय १२

 

दिव्य कर्म

 

 जब कर्ममार्ग के साधक की खोज अपने स्वाभाविक रूप में पूरी हो जाती है या पूरी होने लगती है तब भी उसके सामने एक प्रश्न शेष रह जाता है । वह यह कि मुक्ति के बाद आत्मा के लिये कोई कर्म शेष रहता है या नहीं और यदि रहता है तो कौन-सा तथा किस प्रयोजन के लिये ? समता उसकी प्रकृति में प्रतिष्ठित हो चुकी है और उसकी सम्पूर्ण प्रकृति पर शासन करती है; अहं-बुद्धि तथा विस्तृत अहंभाव से और अहंकार की समस्त भावनाओं एवं प्रेरणाओं तथा इसकी स्वेच्छा और कामनाओं से उसे आमूल मुक्ति प्राप्त हो गयी है । उसके मन और हृदय में ही नहीं, बल्कि उसकी सत्ता के सभी जटिल भागों में पूर्ण आत्म-निवेदन सम्पन्न हो चुका है । पूर्ण पवित्रता या त्रिगुणातीत अवस्था समस्वर ढंग से प्रतिष्ठित हो गयी है । अन्तरात्मा ने अपने कर्मों के स्वामी के दर्शन कर लिये हैं और वह उसीके सान्निध्य में निवास करती है या उसीकी सत्ता में सचेतन रूप से निहित रहती है या उससे एकमय होकर रहती है अथवा उसे हृदय में या ऊपर अनुभव करती तथा उसके आदेशों का पालन करती है । उसने अपनी सच्ची सत्ता को जान लिया है और अज्ञान का आवरण उतार फेंका है । तब मनुष्य के अन्दर के कर्मी के लिये क्या कर्म शेष रहता है और किस हेतु से, किस उद्देश्य के लिये तथा किस भावना से वह किया जायेगा ?

 

 

     इसका एक उत्तर तो वह है जिससे हम भारत में खूब परिचित हैं; कर्म बिल्कुल रहता ही नहीं, क्योंकि शेष रह जाती है निश्चलता । जब आत्मा 'परम' की शाश्वत उपस्थिति में निवास कर सकती है अथवा जब वह परब्रह्म के साथ एक हो जाती है, तब हमारे जागतिक जीवन का लक्ष्य, --यदि यह कहा जा सकता हो कि इसका कोई लक्ष्य है, --तुरन्त परिसमाप्त हो जाता है । आत्म-विभाजन तथा अज्ञान के अभिशाप से मुक्त मनुष्य इस दूसरे प्रकार के क्लेश अर्थात् कर्मों के अभिशाप से भी मुक्त हो जाता है । तब तो कर्म करनामात्र परम स्थिति की मर्यादा से उतरना और अज्ञान में लौटना होगा । जीवन-विषयक इस मनोवृत्ति के पक्ष में जो विचार प्रस्तुत किया जाता है वह प्राणिक प्रकृति की एक भ्रान्ति पर आधारित है । क्योंकि, प्राणिक प्रकृति को अपने कर्म की प्रेरणा तीन निम्न आशयों--आवश्यकता, राजसिक प्रवृत्ति और आवेग या कामना--में से किसी एक से या तीनों से प्राप्त होती है । प्रवृत्ति या आवेग के शान्त हो जाने पर और कामना के लुप्त हो जाने पर

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कर्मों के लिये स्थान ही कहां रह जाता है ? कोई यान्त्रिक आवश्यकता तो रह सकती है, पर और किसी प्रकार की आवश्यकता नहीं रह सकती, और वह भी शरीर छूटने के साथ सदा के लिये समाप्त हो जायगी । परन्तु यह सब होते हुए भी, जबतक जीवन है तबतक कर्म अनिवार्य है । केवल विचार करना भी या, विचार के अभाव में, केवल जीना भी अपने-आपमें एक कर्म है और अनेक कार्यों का कारण है । संसार में विद्यमान सत्तामात्र--मिट्टी के ढेले की जड़ता भी और निर्वाण के किनारे पर पहुंचे हुए निश्चल बुद्ध की शान्ति भी--एक कर्म है, शक्ति है, सामर्थ्य है और वह अपनी उपस्थितिमात्र से समष्टि पर सक्रिय प्रभाव डालती है । वास्तव में प्रश्न तो है केवल कर्म के प्रकार का तथा उन करणों का जो काम में लाये जाते हैं या जो अपने-आप ही कार्य करते हैं, और इसके साथ ही कर्म करनेवाले के भाव एवं ज्ञान का भी प्रश्न है । सच तो यह है कि कोई भी मनुष्य कर्म नहीं करता, बल्कि प्रकृति अपनी अन्तःस्थ शक्ति की अभिव्यक्ति के लिये उसके द्वारा कार्य करती है और वह शक्ति उद्भूत होती है अनन्त से । इस बात को जानना और कामना से तथा अहंमूलक प्रेरणा के भ्रम से मुक्त होकर प्रकृति के स्वामी की उपस्थिति में तथा उसकी सत्ता में निवास करना ही एकमात्र आवश्यक वस्तु है । यहीं सच्चा मोक्ष है न कि शरीर के द्वारा कर्म का त्याग; क्योंकि कर्मों का बंधन तो तुरन्त ही समाप्त हो जाता है । कोई मनुष्य सदा के लिये स्थिर और निश्चेष्ट बैठा रह सकता है और फिर भी वह अज्ञान से उतना ही बंधा हो सकता है जितना एक पशु या कृमि । किन्तु यदि वह इस महत्तर चेतना को अपने अन्दर क्रियाशील बना सके तो सब लोकों का सब कर्म उसके हाथों से सम्पन्न हो सकता है और फिर भी वह निश्चल, पूर्णतया स्थिर एवं शान्त और समस्त बन्धन सें मुक्त रह सकता है । जगत् में कर्म हमें प्रथम तो अपने विकास और परिपूर्णता के साधन के रूप में प्रदान किया गया है; पर चाहे हम चरम सम्भवनीय दिव्य आत्म-पूर्णता तक पहुंच जायें, तो भी जगत् में दिव्य प्रयोजन तथा उस बृहत्तर विश्वात्मा की, जिसका प्रत्येक जीव एक अंश है, --ऐसा अंश जो विश्वात्मा के साथ हीं परात्परता से अवतीर्ण दुआ है, --चरितार्थता के साधन के रूप में कर्म विद्यमान रहेगा ही ।

 

     एक विशेष अर्थ में, जब मनुष्य का योग एक निष्चित शिखर तक पहुंच जाता है, तब उसके लिये कोई कर्म शेष नहीं रह जाता । कारण, तब उसे निज के लिये कर्मों की आवश्यकता नहीं रहती, न उसके अन्दर यह भाव होता है कि कर्म स्वयं मैं ही करता हूं । परन्तु उसे कर्म से भागने या आनन्दपूर्ण निष्क्रियता की शरण लेने की भी आवश्यकता नहीं होती । अब तो वह उसी प्रकार कर्म करता है जिस प्रकार भगवान् कर्म करते हैं, --बिना किसी अलंध्य आवश्यकता और बिना किसी दुर्धर्ष अज्ञान के । वह कर्म करते हुए भी कर्म नहीं करता; वह व्यक्तिगत रूप से कोई कार्य आरम्भ नहीं करता । भागवत शक्ति ही उसके अन्दर उसकी प्रकृति द्वारा कर्म

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करती है । उसका कर्म परा शक्ति के सहज प्रवाह के द्वारा विकसित होता है । उसके करण अब उसी शक्ति के अधिकार में होते हैं, वह उसीका एक अंग होता है, उसका संकल्प उसीके संकल्प से एकमय होता है, उसकी शक्ति उसीकी शक्ति होती है । उसके अन्दर की आत्मा इस कर्म को धारण करती है, इसे आश्रय देती और इसकी देख-रेख करती है । वह ज्ञान में इसके ऊपर अधिष्ठातृत्व करती है, पर आसक्ति या आवश्यकता के कारण इससे चिपट नहीं जाती, न इसके साथ बंध ही जाती है; न इसके फल की कामना से आबद्ध होती है और न किसी प्रवृत्ति या आवेग की दासी बनती है ।

 

     यह समझना कि कामना के बिना कर्म असम्भव है या कम-से-कम निरर्थक है एक आम मूल है । हमें बताया जाता है कि यदि कामना का अन्त हो जाये तो कर्म का भी अन्त हो जायेगा । परन्तु यह सिद्धान्त, अन्य अतिअज्ञानकल्पित सिद्धान्तों की भांति, विभेदक और परिच्छेदक मन के लिये जितना आकर्षक है उतना यह सच्चा नहीं है । संसार में होनेवाले काम का बहुत बड़ा भाग कामना के किसी भी तरह के हस्तक्षेप के बिना सम्पन्न होता है; यह प्रकृति की शान्त आवश्यकता तथा स्वाभाविक नियम के कारण चलता रहता है । मनुष्य भी सहज आवेग, अन्तर्ज्ञान तथा प्रेरणा के वश निरन्तर नाना प्रकार के कार्य करता है अथवा वह मानसिक आयोजना या सचेतन प्राणिक इच्छा या भावमय कामना की प्रेरणा के बिना शक्तियों की स्वाभाविक आवश्यकता और नियम के अनुसार ही काम करता है । कितनी ही बार उसका कार्य उसके संकल्प या उसकी कामना के विपरीत होता है; यह किसी आवश्यकता या दबाव के अधीन, किसी आवेग के वश, उसके अन्दर की जो शक्ति आत्माभिव्यक्ति के लिये प्रेरणा देती है उसकी आज्ञा के अनुकूल अथवा सचेतन रूप से एक उच्चतर नियम के अनुसार उसके अन्दर से निःसृत होता है । कामना एक और प्रलोभन है जिसे प्रकृति ने अपने अवान्तर उद्देश्यों के लिये अपेक्षित एक विशेष प्रकार का राजसिक कर्म सम्पन्न करने के लिये चेतन प्राणियों के जीवन में महान् स्थान दिया है । परन्तु यह उसका एकमात्र इंजन नहीं है, यहां तक कि यह प्रधान इंजन भी नहीं है । जबतक कामना रहती है तब तक इसका एक बड़ा लाभ भी होता है : यह हमें जड़ता से उठने में सहायता पहुंचाती है और अनेक तामसिक शक्तियों का विरोध करती है, अन्यथा वे शक्तियां कर्म को रोक ही देतीं । परन्तु जो जिज्ञासु कर्ममार्ग पर बहुत आगे बढ़ गया है वह इस मध्यवर्ती अवस्था को पार कर चुका है जिसमें कामना सहायक इंजन होती है । इसका वेग अब उसके काम के लिये अनिवार्य नहीं रहता, बल्कि यह अत्यन्त भयानक रूप में बाधक होता है और स्खलन, अयोग्यता तथा विफलता को जन्म देता है । दूसरे लोग वैयक्तिक रुचि या वैयक्तिक हेतु के अनुसार कार्य करने को बाध्य होते हैं, परन्तु उसे निर्वैयक्तिक या वैश्व मन के द्वारा अथवा अनन्त पुरुष के

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अंग या यन्त्र के रूप में कार्य करना सीखना होगा । शान्त उदासीनता, प्रसन्न तटस्थता या दिव्य शक्ति को आनन्दपूर्ण प्रत्युत्तर--भले ही उस शक्ति का आदेश कुछ भी क्यों न हो--यह एक आवश्यक अवस्था है जिसमें वह कोई प्रभावपूर्ण कर्म कर सकता है या किसी सार्थक कार्य का बीड़ा उठा सकता है । उसे कामना एवं आसक्ति के द्वारा परिचालित नहीं होना चाहिये, बल्कि उस संकल्प के द्वारा परिचालित होना चाहिये जो दिव्य शान्ति में गतिमान् होता है, उस ज्ञान के द्वारा जो परात्पर प्रकाश से आता है, उस प्रसन्न सम्वेग को के द्वारा जो परम आनन्द से प्राप्त बल होता है ।

 

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    योग की एक ऊंची अवस्था में जिज्ञासु, किसी वैयक्तिक अभिरुचि के अर्थ में, इस ओर से उदासीन होता है कि वह क्या काम करेगा और क्या नहीं । यहांतक कि यह बात भी कि वह काम करेगा भी या नहीं उसकी निजी पसन्द या प्रसन्नता के द्वारा निश्चित नहीं होती । वह सदैव वही कुछ करने को प्रेरित होता है जो सत्य के साथ समस्वर होता है अथवा जिसकी मांग भगवान् उसकी प्रकृति के द्वारा करता है । इससे कभी-कभी एक मिथ्या परिणाम निकाला जाता है कि आध्यात्मिक पुरुष उस स्थिति को, जिसमें दैव या ईश्वर या अतीत कर्म ने उसे रखा है, शिरोधार्य करके उस कुटुंब, वंश, जाति, राष्ट्र और व्यवसाय के, जो जन्म और परिस्थिति से उसके अपने हैं, क्षेत्र एवं ढांचे के भीतर कर्म करने में सन्तुष्ट रहकर उनका अतिक्रमण करने या किसी महान् लौकिक उद्देश्य का अनुसरण करने की चेष्टा नहीं करेगा और शायद उसे ऐसा करना भी नहीं चाहिये । क्योंकि वास्तव में उसके लिये कर्तव्य कर्म कोई नहीं होता और क्योंकि, जब तक वह इस शरीर में है, उसे कर्मों का, वे चाहे कोई भी क्यों न हों, उपयोग केवल मुक्ति प्राप्त करने के लिये ही करना पड़ता है अथवा, मुक्ति प्राप्त कर लेने के बाद, परम संकल्प का अनुसरण और उसके आदेशों का पालन करने के लिये ही उसे कर्म करने होते हैं, अतएव जो क्षेत्र उसे वास्तव में दिया गया होता है वह इस प्रयोजन के लिये पर्याप्त होता है । एक बार स्वातंत्र्य लाभ हों जाने पर, उसे केवल अदृष्ट तथा परिस्थितियों के द्वारा नियत क्षेत्र में कर्म करते रहना होता है जबतक कि वह महान् मुहूर्त्त नहीं आ जाता जिसमें वह अन्ततः अनन्त में लय प्राप्त कर सके । किसी विशेष लक्ष्य पर आग्रह करना अथवा किसी महान् लौकिक उद्देश्य के लिये कर्म करना कर्मों की माया में फंसना है । यह इस भ्रम को प्रश्रय देना है कि पार्थिव जीवन का एक बुद्धिगम्य आशय भी हैं और इसके अन्दर कुछ प्राप्तव्य वस्तुएं भी हैं । माया का वह महान् सिद्धान्त, जो परमार्थत: भगवान् की उपस्थिति को अंगीकार करने पर भी व्यवहारतः इस जगत् में उसकी सत्ता का निषेध करता है, एक बार फिर हमारे

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सामने आता है । परन्तु भगवान् यहां जगत् में उपस्थित हैं, --स्थितिशील रूप में ही नहीं, वरन् गतिशील रूप में भी, आध्यात्मिक सत्ता और उपस्थिति के रूप में ही नहीं, बल्कि शक्ति, बल और ऊर्जा के रूप में भी अतएव संसार में दिव्य कर्म करना सम्भव है ।

 

     ऐसा कोई संकीर्ण सिद्धान्त नहीं, बंधे--बंधाये कर्म का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जो कर्मयोगी पर उसके नियम या क्षेत्र के रूप में थोपा जा सके । इतनी बात सत्य है कि प्रत्येक प्रकार का काम, चाहे वह मनुष्य की समझ में छोटा हो या बड़ा, क्षेत्र की दृष्टि से क्षुद्र हो या विशाल, मोक्ष की ओर प्रगति या आत्म-साधना के लिये समान रूप से उपयोग में लाया जा सकता है । यह भी सच है कि मुक्ति के बाद मनुष्य जीवन के चाहे किसी भी क्षेत्र में रहे और चाहे किसी भी प्रकार का काम करे उसीमें वह भगवान् के अन्दर अपने अस्तित्व को चरितार्थ कर सकता है । वह आत्मा से जिस प्रकार भी प्रेरित हो उसके अनुसार वह अपने लिये जन्म और परिस्थिति द्वारा नियत क्षेत्र में रह सकता है अथवा उस चौखट को तोड़ कर एक ऐसे बन्धनमुक्त कर्म की ओर बढ़ सकता है जो उसकी महिमान्वित चेतना तथा उच्चतर ज्ञान का उपयुक्त शरीर हो । मनुष्यों के चर्मचक्षुओं को ऐसा दीख सकता है कि उसकी आभ्यन्तरिक मुक्ति के कारण उसके बाह्य कर्मों में कोई स्पष्ट अन्तर नहीं आया है । अथवा, इसके विपरीत, अन्तःस्थ स्वतन्त्त्रता एवं अनन्तता अपने-आपको एक ऐसी विशाल और नवीन बाह्य शक्तिशाली क्रिया में परिणत कर सकती है कि सभी की दृष्टि इस असाधारण शक्ति की ओर आप-से-आप आकृष्ट हो । यदि उसके अन्तर्यामी परमदेव का ऐसा ही संकल्प हो तो मुक्त आत्मा उन्हीं पुरानी मानवी परिस्थितियों में सूक्ष्म और सीमित कर्म से सन्तुष्ट रह सकती है; तब वे परिस्थितियां अपना बाह्य रूप किसी प्रकार भी बदलना नहीं चाहेंगी । परन्तु उसे एक ऐसा कर्म करने के लिये भी आह्वान प्राप्त हो सकता है जो उसके अपने बहिर्जीवन के रूपों तथा क्षेत्र को ही नहीं बदल डालेगा, अपितु उसके चारों ओर की किसी भी चीज को परिवर्तित या प्रभावित किये बिना नहीं छोड़ेगा और नये जगत् एवं नयी व्यवस्था को जन्म देगा ।

 

     एक प्रचलित विचार हमें यह विश्वास बंधाएगा कि संसार के नश्वर जीवन में व्यष्टि-आत्मा के लिये शारीरिक पुनर्जन्म से छुटकारा प्राप्त करना ही मुक्ति का एकमात्र प्रयोजन है । यदि ऐसा छुटकारा एक बार निश्चित रूप से प्राप्त हो जाय तो आत्मा के लिये इहलोक या परलोक के जीवन में कोई और कर्म शेष नहीं रहता अथवा केवल वही कर्म शेष रहता है जिसकी जरूरत शरीर की सत्ता बनाये रखने

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के लिये होती है या जो गत जन्मों के अभुक्त कर्मफलों के कारण आवश्यक होता है । यह थोड़ा-सा कर्म भी, योग की अग्नि से शीघ्र ही निःशेष या दग्ध होकर, मुक्त आत्मा के शरीर से प्रयाण करने पर समाप्त हो जायगा । पुनर्जन्म से छुटकारे का लक्ष्य भारतीय मन के अन्दर चिरकाल से इस रूप में घर किये हुए है कि यही आत्मा का परम पुरुषार्थ है । इसने पारलौकिक स्वर्ग के उस सुख-भोग का स्थान ले लिया है जिसे अनेक धर्मों ने अपने दैवी प्रलोभन के रूप में भक्तों के मन में प्रतिष्ठित किया था । जब वैदिक सूक्तों के स्थूल बाह्य अर्थ का मत अत्यन्त प्रबल था तब भारतीय धर्म ने भी इस अधिक पुरातन और निम्नतर पुकार का ही समर्थन किया । परवर्ती भारत में द्वैतवादियों ने भी इसे अपने परमोच्च आध्यात्मिक लक्ष्य का अंग बनाये रखा । इसमें सन्देह नहीं कि मन और शरीर की सीमाओं से परे आत्मा की शाश्वत शान्ति, स्थिरता और नीरवता में मुक्ति प्राप्त करना मानसिक हर्षों या चिरस्थायी शारीरिक सुखों के स्वर्ग के प्रस्ताव की अपेक्षा अत्यधिक आकर्षक है, पर यह भी अन्ततः एक प्रलोभन ही है । ऐसी मुक्ति का यह आग्रह कि मन को जगत् से विरक्त और प्राण-सत्ता को जन्म लेने के साहसिक कर्म से पराङमुख हो जाना चाहिये एक प्रकार की दुर्बलता को ही ध्वनित करता है और इसलिये ऐसी मुक्ति हमारा परम लक्ष्य नहीं हो सकती । वैयक्तिक मोक्ष की कामना अहंकार की ही उपज है, भले ही इस कामना का स्वरूप कैसा भी ऊंचा क्यों न हो । इसका मूल आधार है हमारे निजी व्यक्तित्व का तथा इसकी कामना और भलाई का विचार, दुःख से छूटने की लालसा या जन्मग्रहण के कष्ट के अवसान के लिये इसकी चीख-पुकार । इन चीजों को ही यह हमारे जीवन का परम लक्ष्य निश्चित करती है । अहंकार के इस आधार के पूर्ण निराकरण के लिये वैयक्तिक मोक्ष की कामना से ऊपर उठना आवश्यक है । यदि हम भगवान् को खोजते हैं तो यह खोज भगवान् के लिये ही होनी चाहिये और किसी चीज के लिये नहीं, क्योंकि यही हमारी सत्ता की परम पुकार है और यही हमारी आत्मा का गभीरतम सत्य है । मोक्ष की प्राप्ति एवं आत्मा के स्वातंत्र्य के लिये तथा अपनी सच्ची एवं सर्वोच्च आत्मा की उपलब्धि और भगवान् के साथ मिलन के लिये प्रयत्न करने का समर्थन केवल इस कारण किया जाता है कि यह हमारी प्रकृति का उच्चतम विधान है एवं हमारे अन्दर के निम्नतर तत्त्व का परमोच्च तत्त्व की ओर आकर्षण है और यहीं हमारे अन्दर भगवान् की इच्छा हैं । यह कारण इसे पर्याप्त रूप से सार्थक सिद्ध करता है और यह इसका सच्चे-से-सच्चा कारण है । अन्य सब कारण तो प्रपंचमात्र हैं, गौण या आनुषंगिक सत्य अथवा उपयोगी प्रलोभन हैं और ज्यों ही उनकी उपयोगिता समाप्त हो जाय और परमदेव तथा भूतमात्र के साथ एकत्व की स्थिति हमारी सामान्य चेतना और इस स्थिति का आनन्द हमारा आध्यात्मिक वातावरण बन जाये, त्यों ही आत्मा को उन सबका त्याग कर देना होगा ।

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      प्रायः हम देखते हैं कि एक और आकर्षण, जो हमारी प्रकृति की एक उच्चतर प्रवृत्ति से सम्बन्ध रखता है और मुक्त आत्मा को जो कर्म करना चाहिये उसके मूल स्वरूप का दिग्दर्शन कराता है, वैयक्तिक मोक्ष की कामना को अभिभूत कर देता है । अमिताभ बुद्ध का महान् आख्यान इसी आकर्षण की ओर इंगित करता है । जब उनकी आत्मा निर्वाण की डयोढ़ी पर पहुंची तो वे वापिस मुड़े और प्रतिज्ञा की कि जबतक एक भी जीव दुःख और अज्ञान मे रहेगा तबतक वे इसे कभी नहीं लाघेंगे । भागवत पुराण के उस उत्कृष्ट पद्य के मूल मे भी यही अर्थ अन्तर्निहित है,  ''मुझे न तो आठों सिद्धियों से युक्त परम पद की कामना है और न पुनर्जन्म से छुटकारे की । मैं चाहता हू कि सभी सन्तप्त प्राणियों का दुःख अपने ऊपर ले लूं और उनके, अन्दर प्रविष्ट हो जाऊं जिससे वे कष्ट से मुक्त हो जायें ।''  यही स्वामी विवेकानन्द के एक पत्र के एक अद्भुत सन्दर्भ का प्रेरक है । उस महान् वेदान्ती ने लिखा था, ''मुझे अपनी मुक्ति की कोई इच्छा नहीं रही है । मै चाहता हू कि मैं फिर-फिर पैदा होऊं और हजारों कष्ट भोगूं जिससे मैं उस एकमात्र ईश्वर की पूजा कर सकूं जो वस्तुत: सत् है; उस एकमात्र ईश्वर की जिसे मैं मानता हूं, जो सब आत्माओं का कुल योग है, --और इससे भी बढ़कर अपने उस ईश्वर की जो सब जातियों और उपजातियों के दुष्ट जनों मे है, अपने उस ईश्वर की जो सब दीन--दुःखियों मे है, उस दरिद्रनारायण की जो मेरा विशेष पूजापात्र है । जो उच्च और नीच, सन्त और पापी, देवता और कृमि है, उसकी पूजा करो, दृश्य, ज्ञेय, वास्तविक और सर्वव्यापक की पूजा करो; और सब मूर्त्तियां तो फेंको । जिसमें न अतीत जीवन है न भावी जन्म, न मृत्यु न आवागमन, जिसमें हम सदा एक रहे हैं और सदा ही एक रहेंगे, उसकी पूजा करो; और सब मूर्त्तियां तो फेंको ।''

 

     अन्तिम दो वाक्य मे सचमुच ही विषय का सम्पूर्ण सार आ जाता है । सच्चा मोक्ष प्राप्त करना या पुनर्जन्म के बन्धन से सच्चा छुटकारा पाना यह नहीं है कि पार्थिव जीवन का त्याग कर दिया जाये या व्यक्ति एक आध्यात्मिक स्व--विलोप के द्वारा जीवन से भाग जाये, जैसे कि सच्चा संन्यास यह नहीं है कि परिवार या समाज का केवल स्थूल रूप से त्याग कर दिया जाये । सच्चा मोक्ष उस भगवान् के साथ आन्तर तादात्म्य है जिसमें अतीत जीवन और भावी जन्म का कोई बंधन नहीं है, बल्कि इनके स्थान पर अज आत्मा की शाश्वत सत्ता है । गीता कहती है कि जो अन्दर से स्वतन्त्र है वह सभी कर्म करता हुआ भी कुछ नहीं करता; प्रकृति ही उसके अन्दर अपने स्वामी की अधीनता मे कार्य करती है । इसी प्रकार, चाहे वह सैंकड़ों बार शरीर धारण करे तो भी वह जन्म के हर प्रकार के बन्धन से या सत्ता के यन्त्रवत् घूमनेवाले चक्र से मुक्त रहता है, क्योकि वह अज एवं अविनाशी आत्मा मे निवास करता है, शरीर के जीवन मे नहीं । अतएव, आवागमन से छुटकारे मे आसक्ति एक ऐसी प्रतिमा है जिसे और कोई भले ही सुरक्षित रखे, पर

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 जिसे पूर्णयोग के साधक को तोड़ कर अपने से दू फेंक देना होगा । कारण, उसका योग समस्त जगत् से परे विद्यमान परात्पर की व्यष्टि-आत्मा द्वारा उपलब्धि तक ही सीमित नहीं है यह विराट्, अर्थात् ''सकल आत्माओं के कुल योग'' की उपलब्धि को भी समाविष्ट करता है, अतएव यह वैयक्तिक मोक्ष तथा पलायन की गति के भीतर ही आबद्ध नहीं किया जा सकता । वैश्व सीमाओं के अतिक्रमण की अवस्था में भी वह भगवान् में सर्व के साथ एक होता है; संसार में दिव्य कर्म उसके लिये तब भी शेष रहता है ।

 

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     वह कर्म किसी मनोनिर्मित नियम या मानवीय प्रतीमान से निश्चित नहीं किया जा सकता; क्योंकि उसकी चेतना मानवीय नियमों और मर्यादाओं को पार कर दिव्य स्वातंत्र्य में पहुंच जाती है, बाह्य और क्षण-भंगुर के राज्य से निकलकर आन्तर और नित्य के आत्म-शासन में तथा सांत के बन्धनकारी रूपों से परे हट कर अनन्त के स्वतन्त्र आत्म-निर्धारण में प्रविष्ट हो जाती है । ''वह चाहे जैसे भी रहता और काम करता हो'',  गीता कहती है, ''वह मुझ में ही रहता और काम करता है । ''  मनुष्यों की बुद्धि जिन नियमों को प्रस्थापित करती है वे मुक्त आत्मा पर लागू नहीं हो सकते । उनके मानसिक संस्कार और पूर्वनिर्णय जिन बाह्य कसौटियों और परीक्षाओं को निश्चित करते हैं उनके द्वारा ऐसे व्यक्ति के विषय में निर्णय नहीं किया जा सकता । वह इन भ्रान्तिपूर्ण न्यायालयों के संकीर्ण अधिकार- क्षेत्र से बाहर होता है । इसका कुछ महत्त्व नहीं कि वह संन्यासी का वेष धारण करता है अथवा गृहस्थी का भरापूरा जीवन बिताता है; वह उन कार्यों में, जिन्हें लोग पवित्र कहते हैं, अथवा संसार के बहुमुख कार्य-व्यवहार में अपने दिन बिताता है; वह अपना जीवन बुद्ध, ईसा या शंकर के समान प्रत्यक्ष रूप से मनुष्यों को प्रकाश की ओर ले जाने में लगाता है अथवा जनक की भांति राज्यों का संचालन करता है अथवा श्रीकृष्ण की भांति एक राजनीतिज्ञ या सेनानायक के रूप में लोगों के सामने उपस्थित होता है; वह क्या खाता-पीता है; उसकी आदतें या प्रवृत्तियां क्या हैं; वह सफल होता है या असफल; उसका कार्य निर्माण का है या विनाश का;  क्या वह पुरातन व्यवस्था का समर्थन या उसकी पुनः प्रतिष्ठा करता है अथवा उसके स्थान पर नयी व्यवस्था की स्थापना करने की चेष्टा करता है; क्या उसके संगी-साथी वे लोग हैं जिनका मान करने में मनुष्य हर्ष अनुभव करते हैं अथवा वे लोग जिन्हें उनकी उत्कृष्ट पवित्रता की भावना बहिष्कृत और तिरस्कृत करती है; क्या उसके समकालीन लोग उसके जीवन और कार्य-कलाप का अनुमोदन करते हैं अथवा उसे

 

           १ सर्वथा वर्तमानोऽपि म योगी मयि वर्तते । गीता ६- ३१

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मनुष्यों को कुमार्ग पर चलानेवाला और धार्मिक, नैतिक या सामाजिक पाखंडों को उत्तेजित करनेवाला कहकर उसकी निन्दा करते हैं--इस सबका भी कुछ महत्त्व नहीं । वह मनुष्यों के निर्णयों या अज्ञानियों के निश्चित किये हुए नियमों के अनुसार नहीं चलता, वह अन्तर की वाणी का अनुसरण करता है और अदृश्य शक्ति से चालित होता है । उसका वास्तविक जीवन भतिर होता है जिसका वर्णन यूं किया जा सकता है कि वह ईश्वर में और भगवान् तथा अनन्त में रहता-सहता, चलता- फिरता और काम-काज करता है ।

 

     पर, यद्यपि उसका कर्म किसी बाह्य नियम से अनुशासित नहीं होता, तो भी वह एक नियम का अनुसरण करता है जो बाह्य नहीं होता; वह किसी वैयक्तिक कामना या लक्ष्य से प्रेरित नहीं होता, बल्कि वह संसार में एक सचेतन तथा आत्मशासित और परिणामत: सुशासित दिव्य क्रिया का भाग होता है । गीता स्पष्ट कहती है कि मुक्त मनुष्य का कर्म कामना से परिचालित नहीं होना चाहिये, बल्कि उसका लक्ष्य होना चाहिये लोकसंग्रह, संसार को एकत्र रखना और इसका शासन, मार्गदर्शन तथा प्रचालन करना तथा इसे इसके नियत पथ पर स्थिर रखना । इस उपदेश का यह अर्थ किया गया है कि क्योंकि संसार एक ऐसा भ्रम है जिसमें अधिकतर मनुष्यों को रखना ही होता है--कारण, वे मोक्ष के अयोग्य होते हैं, --उसे बाहर से इस प्रकार कार्य करना चाहिये कि वह सामाजिक नियम द्वारा उनके लिये निर्दिष्ट किये हुए आचारिक कर्मों में उनकी आसक्ति को दृढ़ बनाये रखे । यदि ऐसा ही हो तो यह एक हीन और तुच्छ नियम होगा और प्रत्येक भद्रहृदय व्यक्ति इसका त्याग कर अमिताभ बुद्ध के दिव्य व्रत, भागवत की उदात्त प्रार्थना और विवेकानन्द की उत्कट अभीप्सा का ही अनुसरण करना चाहेगा । विशेषकर, यदि हम इस विचार को स्वीकार करें कि संसार प्रकृति की एक ऐसी गति है जो दैवी ढंग से परिचालित हो रही है, जो मनुष्य के अन्दर ईश्वर की ओर उच्छलित हो रहीं है और इसी कार्य में, गीता के ईश्वर कहते हैं कि वे निरन्तर लगे हुए हैं, चाहे स्वयं उनके लिये ऐसी कोई अप्राप्त वस्तु नहीं है जो उन्हें अभी प्राप्त करनी हों, --तो इस महान् उपदेश का गंभीर और सत्य आशय हमारे सामने प्रकट हो जायेगा । उस दिव्य कर्म में भाग लेना और संसार में ईश्वर के लिये जीना कर्मयोगी के कर्म का नियम होगा-संसार में ईश्वर के लिये जीना और अतएव इस प्रकार कर्म करना कि भगवान् अपने- आपको अधिकाधिक प्रकट कर सकें और संसार अपनी अज्ञात यात्रा के चाहे जिस भी मार्ग से आगे बढ़ता हुआ दिव्य आदर्श के अधिक निकट पहुंच सके ।

 

     यह कार्य वह कैसे करेगा, किस विशेष ढंग से करेगा, यह किसी सामान्य नियम के द्वारा निश्चित नहीं किया जा सकता । यह तो अन्दर से ही विकसित या निर्धारित होगा । इसका निश्चय ईश्वर और हमारी आत्मा, परम आत्मा और व्यक्तिगत आत्मा के--जो कर्म का यन्त्र होती है-बीच की बात है । मुक्ति से पहले भी,

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अन्तरात्मा, ज्यों ही हम इससे सचेतन होते हैं, हमारी अनुमति या हमारे अध्यात्मतः निर्धारित चुनाव का उद्गम बन जाती है । करणीय कर्म का ज्ञान पूर्णरूपेण अन्दर से ही प्राप्त होना चाहिये । ऐसा कोई विशिष्ट कर्म नहीं है, न ही कर्मों का ऐसा कोई विधि-विधान या बाह्य: स्थिर या नियत ढंग हैं जिसे मुक्त जीव का कर्म या उसके कर्म का विधि-विधान या ढंग कहा जा सके । करणीय कर्म को सूचित करने के लिये गीता में जो शब्द प्रयुक्त दुआ है उसका अर्थ, निश्चय ही, यह लगाया गया है कि हमें फल का विचार किये बिना अपना कर्तव्य कर्म करना चाहिये । किन्तु यह एक ऐसा विचार है जो यूरोपीय संस्कृति की उपज है और आध्यात्मिक की अपेक्षा कहीं अधिक नैतिक है और अपने बोधनों (conceptions) में अन्तर्गभीर होने की अपेक्षा कहीं अधिक बाह्य है । कर्तव्य नाम की किसी सामान्य बाह्य वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है । हमारे सामने तो केवल अनेक कर्तव्य होते हैं जो प्रायः परस्पर-विरोधी होते हैं । ये हमारी परिस्थिति, हमारे सामाजिक सम्बन्धों और हमारी बाह्य जीवन-स्थिति से निर्धारित होते हैं । इनका एक बड़ा लाभ यह होता है कि ये अपरिपक्व नैतिक प्रकृति को सधाते हैं तथा स्वार्थपूर्ण कामना के कर्म को निरुत्साहित करनेवाले प्रतिमान की स्थापना करते हैं । यह कहा ही जा चुका है कि जब तक अभीप्सु को आन्तरिक ज्योति प्राप्त नहीं हो जाती तब तक उसे स्वलब्ध सर्वोत्तम प्रकाश के अनुसार ही चलना होगा; कर्तव्य, सिद्धान्त और ध्येय उन प्रतिमानों में से हैं जिनका वह कुछ काल के लिए निर्माण तथा अनुसरण कर सकता है । परन्तु यह सब होते हुए भी, कर्तव्य कर्म बाह्य चीजें हैं, आत्मा की वस्तु नहीं । ये इस पथ में कर्म के चरम आदर्श नहीं हो सकते । सैनिक का कर्तव्य यह है कि जब उसे आह्वान प्राप्त हो वह युद्ध करे, यहांतक कि अपने बंधु- बांधवों पर भी गोली चलावे । परन्तु ऐसा या इससे मिलता-जुलता और कोई मानदण्ड मुक्त पुरुष पर लगू नहीं किया जा सकता । दूसरी ओर, प्रेम या करुणा करना, अपनी सत्ता के उच्चतम सत्य का अनुसरण करना और भगवान् के आदेश का पालन करना कोई कर्तव्य नहीं है । ये तो प्रकृति का धर्म बनते जाते हैं जैसे--जैसे कि यह भगवान् की ओर ऊपर उठती है, ये आत्म-स्थिति से निःसृत कर्म का प्रवाह तथा आत्म-सत्ता का उच्च सत्य हैं । कर्मों के मुक्त कर्ता का कर्म आत्मा से निःसृत इस प्रकार का प्रवाह ही होना चाहिये । यह भगवान् के साथ उसके आध्यात्मिक मिलन के स्वाभाविक परिणाम के रूप में उसे प्राप्त होना चाहिये अथवा उसके अन्दर प्रकट होना चाहिये, न कि मानसिक विचार एवं संकलप और व्यावहारिक बुद्धि या सामाजिक भावना की किसी उन्नायक रचना से निर्मित होना चाहिये । साधारण जीवन में वैयक्तिक, सामाजिक या परम्परागत निर्मित नियम, प्रतिमान या आदर्श ही मार्गदर्शक होता है । परन्तु जब एक बार आध्यात्मिक यात्रा शुरू हो जाये, तो इसके स्थान पर आन्तरिक जीवन-यापन का एक ऐसा बाह्य एवं

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आभ्यन्तर नियम या प्रणाली प्रतिष्ठित करनी चाहिये जो हमारी आत्म-साधना के लिये तथा हमें स्वतन्त्र एवं पूर्ण बनाने के लिये आवश्यक हो, एक ऐसी जीवनप्रणाली जो हमारे अवलंबित पथ के उपयुक्त या आध्यात्मिक मार्गदर्शक और शिक्षक--'गुरु'--से आदिष्ट हों अथवा हमारे अन्तःस्थ पथप्रदर्शक से निर्दिष्ट हो । परशु आत्मा की अनन्तता और स्वतन्त्रता की चरम अवस्था में सभी बाह्य प्रतिमान पदच्युत या बहिष्कृत कर दिये जाते हैं और तब केवल यही प्रतिमान रह जाता है कि जिस भगवान् के साथ हम योगयुक्त हो चुके हैं उसके आदेश का पालन हम सहज और पूर्ण रूप से करें तथा ऐसा कर्म करें जो हमारी सत्ता और प्रकृति के सर्वांगपूर्ण आध्यात्मिक सत्य को सहज-स्वाभाविक रूप से चरितार्थ करता हो ।

 

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      गीता के इस वचन को कि स्वभाव के द्वारा निर्धारित और परिचालित कार्य ही हमारे कर्मों का नियम होना चाहिये, हमें इस गभीरतर अर्थ में ही ग्रहण करना चाहिये । निश्चय ही, यहां 'स्वभाव' शब्द से स्थूल स्वभाव या चरित्र या अभ्यासगत आवेग अभिप्रेत नहीं है, बल्कि संस्कृत शब्द के मूल अर्थ के अनुसार हमारी ''अपनी सत्ता'', हमारी मूल प्रकृति, हमारी आत्माओं का दिव्य सत्त्व ही अभिप्रेत है । इस मूल से उद्भूत या इन स्रोतों से प्रवाहित होनेवाली प्रत्येक वस्तु गभीर, सारभूत और यथार्थ होती है । शेष सब वस्तुएं--सम्मतियां, कामनाएं, आवेग और अभ्यास--सत्ता की केवल तलीय रचनाएं या आकस्मिक विभ्रम या बाह्य अध्यारोप ही हो सकती हैं । इनमें हेर-फेर और परिवर्तन होता रहता है, पर वह स्थिर रहती है । प्रकृति हमारे अन्दर जो-जो कार्यवाहक रूप ग्रहण करती है वे हमारा अपना आप या हमारा नित्यतः स्थिर और व्यंजक आकार नहीं होते, हमारे अन्दर की आध्यात्मिक सत्ता ही--इसके अन्दर इसकी आत्मिक अभिव्यक्ति भी आ जाती है--विश्व में काल के भीतर अचल और अटल रहती है ।

 

     तथापि अपनी सत्ता के इस सत्य आन्तरिक नियम को हम सुगमता से नहीं जान सकते । जबतक हमारी बुद्धि और हृदय अहंभाव के कारण अशुद्ध रहते हैं, यह हमसे छिपा ही रहता है । तबतक हम अपने परिपार्श्व से प्राप्त सब प्रकार के स्थूल और अस्थायी विचारों, आवेगों, कामनाओं, सुझावों और अध्यारोपों का अनुसरण करते रहते हैं अथवा अपने अल्पकालिक मन-प्राण-शरीररूप व्यक्तित्व की रचनाओं को ही कार्यान्वित करते रहते हैं । यह व्यक्तित्व एक नश्वर, परीक्षणात्मक और सांस्थानिक स्व है जो हमारी सत्ता और अपरा प्रकृति के दबाव की परस्पर-क्रिया के द्वारा हमारे लिये बनाया गया है । जितना ही हम शुद्ध होते हैं उतना ही हमारे अन्दर की सच्ची सत्ता अपने को अधिक स्पष्ट रूप में प्रकट करती है, हमारी इच्छा-शक्ति

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बाहर से आनेवाले सुझावों में उतना ही कम फंसती है अथवा हमारी निजी उथली मानसिक रचनाओं में उतना ही कम आबद्ध होती है । अहंकार के छूट जाने पर, प्रकृति के शुद्ध हो जाने पर, कर्म अन्तरात्मा के आदेश से एवं आत्मा की गहराइयों या ऊंचाइयों से प्रेरित होगा, अथवा यह स्पष्टतया उस ईश्वर के द्वारा परिचालित होगा जो हमारे हृदयों के भीतर गुप्त रूप में सदा से ही आसीन है । योगी के लिये गीता का चरम और परम वचन यह है कि उसे धर्म-कर्म के सब रूढ़ सूत्रों, आचार-व्यवहार के सब बंधे-बंधाये बाह्य नियमों, स्थूल गोचर प्रकृति की सभी रचनाओं--सर्व ' धर्मों को--त्याग करके एकमात्र भगवान् की शरण लेनी चाहिये । जब वह कामना और आसक्ति से मुक्त और प्राणिमात्र के साथ एकीभूत हो जायेगा, अनन्त सत्य और पवित्रता में निवास करेगा, अपनी अन्तश्चेतना की गहनतम गहराइयों से कार्य करेगा और अपनी अमर, दिव्य एवं सर्वोच्च आत्मा से परिचालित होगा, तब अन्तरस्थ शक्ति ही ईश्वर को जगत् में चरितार्थ करने और सनातन को काल में व्यक्त करने के लिये हमारे अन्दर की उस सारभूत आत्मा और प्रकृति के द्वारा, जो ज्ञानोपार्जन, युद्ध-पराक्रम, कार्य-व्यवसाय और सेवा-परिचर्या करती हुई भी सदा दिव्य रहती है, उसके सभी कर्मों का संचालन करेगी ।

 

     भगवान् के साथ योगयुक्त हमारी आध्यात्मिक सत्ता की ज्योति एवं शक्ति से सहज, स्वतन्त्र और निर्भ्रान्त रूप में उद्भूत होनेवाला दिव्य कर्म ही इस सर्वांगीण कर्मयोग की चरम अवस्था हैं । हमें मोक्ष की खोज क्यों करनी चाहिये इसका सब से अधिक यथार्थ कारण यह नहीं है कि हम व्यक्तिगत रूप में जगत् के दुःख से मुक्त हों जायें, --यद्यपि दुःख से मुक्ति भी हमें प्राप्त होगी ही, --वरन् यह है कि हम भगवान्, पुरुषोत्तम और सनातन के साथ एक हो जायें । पूणता की खोज--परम स्थिति, पवित्रता, ज्ञान, बल, प्रेम और सामर्थ्य की खोज --हमें क्यों करनी चाहिये इसका सबसे अधिक यथार्थ कारण यह नहीं है कि व्यक्तिगत रूप में हम दिव्य प्रकृति का उपभोग करें, यह भी नहीं कि हम देवताओं के समान बन जायें, --यद्यपि ऐसा दिव्य उपभोग भी हमें अवश्य प्राप्त होगा, --वरन् यह है कि इस मुक्ति और पूर्णता को प्राप्त करना ही हमारे अन्दर भगवान् की इच्छा है, यही प्रकृति में हमारी आत्मा का सर्वोच्च सत्य है, यही विश्व में वर्द्धनशील अभिव्यक्ति का सदा-अभिमत लक्ष्य है । दिव्य प्रकृति-स्वतन्त्र, परिपूर्ण और आनन्दमय प्रकृति--व्यक्ति में अवश्य प्रकट होनी चाहिये जिससे कि यह संसार में भी अभिव्यक्त हो सके । अविद्या में भी व्यक्ति वस्तुत: विराट् के अन्दर और विराट् के प्रयोजन के लिये ही निवास करता है । अपने अहं के प्रयोजनों और कामनाओं का अनुसरण करता हुआ भी वह विश्वप्रकृति के द्वारा बाध्य होकर अपने अहंमूलक कार्य से इन लोकों के अन्दर उसी (प्रक्रति) के कार्य और प्रयोजन में ही सहयोग देता है । परन्तु यह सहयोग वह बिना सचेतन संकल्प के एवं अपूर्ण ढंग से और

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उसकी अर्ध-विकसित एवं अर्द्ध-चेतन तथा अपूर्ण एवं स्थूल क्रिया को ही देता है । अहं से मुक्त होकर भगवान् से एकत्व प्राप्त करना उसके व्यक्तिभाव की मुक्ति है और यही उसकी परिपूर्णता भी है । इस प्रकार मुक्त, शुद्ध और पूर्णता-प्राप्त व्यक्ति--दिव्य आत्मा--जैसा प्रारम्भ से ही अभिमत था, सचेतन तथा समग्र रूप में, विराट् और परात्पर भगवान् में और उसके लिये तथा उसके विश्वगत संकल्प के लिये जीवन यापन करने लगता है ।

 

     ज्ञानमार्ग में हम एक ऐसी स्थिति में पहुंच सकते हैं जहां हम व्यक्तित्व तथा विश्व का अतिक्रमण करके, समस्त विचार, संकल्प एवं कर्मकलाप तथा प्रकृति की समस्त गतिविधि को पार करके और अनन्तता में लीन तथा उन्नीत होकर परात्परता में निमग्र हों सकते हैं । यह अवस्था ईश्वर-ज्ञानी के लिये अपरिहार्य तो नहीं है, पर यह अन्तरात्मा का एक स्व-निर्णीत लक्ष्य हो सकती है । यह हमारे अन्दर की आत्मा द्वारा अनुसृत एक भूमिका-विशेष हो सकती है । भक्तिमार्ग में हम भक्ति और प्रीति की प्रगाढ़ता के द्वारा उस परमोच्च सर्व-प्रियतम से मिलन लाभ कर नित्य निरन्तर उसके सान्निध्य के हर्षावेश में रह सकते हैं, --उसीमें निमग्र, एक ही आनन्दमय लोक में उसके घनिष्ठ सहचर बनकर । यही तब हमारी सत्ता का संवेग तथा इसका आध्यात्मिक चुनाव हो सकता है । परन्तु कर्मों के मार्ग में हमारे सामने एक और ही प्रकार का भविष्य खुलता है । इस पथ पर यात्रा करते हुए हम सनातन देव के साथ प्रकृति का साधर्म्य और सादृश्य लाभ कर मुक्ति और सिद्धि में प्रवेश कर सकते हैं । हम अपनी इच्छाशक्ति और सक्रिय व्यक्तित्व में भी उसके साथ उतने ही तदाकार हो जाते हैं जितने कि अपनी आध्यात्मिक स्थिति में । कर्म करने का दिव्य ढंग इस मिलन का स्वाभाविक परिणाम होता है और आध्यात्मिक स्वतंत्र्य में दिव्य जीवन का यापन इसकी अभिव्यक्ति का मूर्त्तिमन्त रूप । पूर्णयोग में ये तीनों मार्ग अपने निषेधों का त्याग कर देते हैं और परस्पर घुल-मिलकर एक हो जाते हैं अथवा स्वभावत: ही एक दूसरे में से उद्भूत होते हैं । हमारी आत्मा पर जो मन का पर्दा पड़ा हुआ था उससे मुक्त होकर हम परात्परता में निवास करने लगते हैं, हृदय की उपासना के द्वारा हम परम प्रेम और आनन्द के एकत्व में प्रवेश करते हैं और परा शक्ति में हमारी सत्ता की सब शक्तियों के उन्नति हो जाने तथा एक ही परम संकल्प और शक्ति में हमारे संकल्पों और कर्मों के समर्पित हों जाने पर हम दिव्य प्रकृति की क्रियाशील पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं ।

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अध्याय १३

 

अतिमानस और कर्मयोग

 

 पूर्णयोग सम्पूर्ण सत्ता के एक उच्चतर आध्यात्मिक चेतना एवं विशालतर दिव्य अस्तित्व में रूपान्तर को अपने समग्र और चरम लक्ष्य के अन्दर एक महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य अंग के रूप में समाविष्ट करता है । हमारे संकल्प और कर्म करनेवाले अंगों को, हमारे ज्ञान-प्राप्ति के करणों को, हमारे मनोमय, भावमय और प्राणमय पुरुष को, किंबहुना हमारी समस्त सत्ता और प्रकृति को भगवान् की खोज करनी होगी, अनन्त में प्रवेश करना तथा सनातन के साथ एकमय होना होगा । परन्तु मनुष्य की वर्तमान प्रकृति सीमित, विभक्त तथा विषम है, --उसके लिये सब से सुगम यह है कि वह अपनी सत्ता के सबसे प्रबल भाग में अपने-आपको केन्द्रित करके विकास की एक ऐसी सुनिश्चित धारा का अनुसरण करे जो उसकी प्रकृति के लिये उपयुक्त हो । भगवान् की अनन्तता के सागर में सीधे ही और एकदम एक विशाल डुबकी लगाने की सामर्थ्य तो केवल विरले ही लोगों में होती है । अतएव, कुछ लोगों को अपने अन्दर परम आत्मा के सनातन सत्यस्वरूप को पाने के लिये चिन्तन या मनन की एकाग्रता या मन की एकनिष्ठता को आरम्भबिन्दु के रूप में चुनना पड़ता है; कुछ दूसरे लोग भगवान् किंवा सनातन से मिलने के लिये अन्तर्मुख होकर हृदय के भीतर अपेक्षाकृत अधिक सुगमता से प्रवेश कर सकते हैं; फिर कुछ अन्य लोग प्रधान रूप से गतिशक्तिमय एवं क्रियाशील होते हैं; इनके लिये अपने-आपको संकल्पशक्ति में केन्द्रित करके कर्मों के द्वारा अपनी सत्ता को विस्तारित करना सर्वोत्तम होता है । सबके परम आत्मा एवं उद्गम की अनन्तता के प्रति अपनी संकल्पशक्ति समर्पित करके और उस समर्पण के द्वारा उसके साथ एकत्व लाभ करके, अपने कर्मों में अपने अन्तःस्थ गुप्त भगवान् के द्वारा परिचालित होते हुए अथवा विश्व-व्यापार के स्वामी को अपने विचार, वेदन और कर्म की समस्त शक्तियों के प्रभु और प्रेरक समझते हुए उनके प्रति समर्पित होकर, अपनी सत्ता के इस विस्तार के द्वारा अहंरहित तथा विश्वमय बन कर, वे कर्मों के मार्ग से आध्यात्मिक अवस्था की किसी प्रकार की प्राथमिक पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं । परन्तु मार्ग का आरम्भबिन्दु कोई भी क्यों न हों, वह आगे अपनी संकीर्ण परिधि से निकलकर बृहत्तर प्रदेश में पहुंच ही जायेगा; अन्त में उसे सुसमन्वित ज्ञान और भावावेग की, शक्तिमय कर्म के संकल्प की तथा हमारी सत्ता और समस्त प्रकृति

 

           लेखक का विचार इस ग्रन्थ को कुछ परिवर्द्धित करने का था । पर यह कार्य पूरा नहीं हो सका । प्रस्तुत अध्याय उस परिवर्द्धन का ही एक अंश है । यह यहां पहली बार ही प्रकाशित हो रहा है ।

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के पूर्णत्व की समग्रता के द्वारा ही आगे बढ़ना होगा । अतिमानसिक चेतना में, अतिमानसिक सत्ता के स्तर पर यह समन्वय या समग्रीकरण अपनी पूर्णता के शिखर पर पहुंच जाता है; वहा ज्ञान, संकल्प, भावावेग, आत्मा और सक्रिय प्रकृति की पूर्णता--इनमें से प्रत्येक अपने पूर्ण एवं निरपेक्ष स्वरूप तक ऊंचे उठ जाता है और ये सभी एक-दूसरे के साथ पूर्ण सामंजस्य, परस्पर-विलय एवं ऐक्य, दिव्य समग्रता और दैवी पूर्णता तक उन्नीत हो जाते हैं । कारण, अतिमानस एक सत्य-चेतना है जिसमें भागवत सत्ता पूर्णतया अभिव्यक्त होकर, आगे से अज्ञान के करणों के द्वारा कार्य नहीं करती; सत्ता की स्थितिशीलता का सत्य, जो पूर्ण और निरपेक्ष है, उसी सत्ता की शक्ति और क्रिया के सत्य में, जो स्वयंसत् और सर्वागपूर्ण है, क्रियशील बन जाता है । वहां प्रत्येक गति भागवत सत्ता के आत्म-सचेतन सत्य की गति है और प्रत्येक खण्ड समग्र के साथ पूर्णतया सुसंगत है । सत्य-चेतना में अत्यन्त सीमित एवं सान्त क्रिया भी सनातन एवं अनन्त की एक गति होती है और सनातन एवं अनन्त की स्वभावसिद्ध निरपेक्षता और पूर्णता में से अपना भाग ग्रहण करती है । अतिमानसिक सत्य की ओर आरोहण न केवल हमारी आध्यात्मिक और मूलभूत चेतना को उस ऊंची चोटी तक उठा ले जाता है, बल्कि हमारी संपूर्ण सत्ता में तथा हमारी प्रकृति के सभी भागों में भी इस ज्योति और सत्य का अवतरण साधित कर देता है । तब सभी कुछ भागवत सत्य का एक अंग तथा परमोच्च मिलन एवं एकत्व का एक तत्त्व एवं साधन बन जाता है; अतएव यह आरोहण एवं अवरोहण ही इस योग का अंतिम लक्ष्य होना चाहिये ।

 

     अपनी सत्ता एवं समस्त सत्ता के भागवत सत्स्वरूप के साथ मिलन ही योग का एकमात्र वास्तविक लक्ष्य है । इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है; हमें स्मरण रखना होगा कि हमारे योग का अनुसरण स्वयं अतिमानस की प्राप्ति के लिये नहीं, बल्कि भगवान् के लिये किया जाता है;  हम अतिमानस की खोज उससे प्राप्त होनेवाले आनन्द एवं महानता के लिये नहीं, बल्कि मिलन को पूर्ण, निरपेक्ष और सर्वांगीण बनाने के लिये करते हैं, अपनी सत्ता के प्रत्येक सभवनीय रूप में, उसकी उच्च-से-उच्च गभीरताओं और विस्तृत-से-विस्तृत विशालताओं में तथा अपनी प्रक्रति के प्रत्येक क्षेत्र में, उसके एक-एक मोड़ और कोने में एवं प्रत्येक गुप्त प्रदेश में मिलन को अनुभव और अधिकृत करके क्रियाशील बनाने के लिये ही हम अतिमानस को प्राप्त करना चाहते हैं । यह सोचना भूल है--और ऐसा सोचने की भूल बहुतेरे कर सकते हैं, --कि आतेमानसिक योग का लक्ष्य अतिमानवता का शक्तिशाली वैभव, दिव्य शक्ति और महानता, तथा एक पृथक् व्यक्ति के विस्तारित व्यक्तित्व की आत्म-परिपूर्णता प्राप्त करना है । यह एक मिथ्या और संकटपूर्ण धारणा है, --संकटपूर्ण इसलिये कि यह हमारे अन्दर के राजसिक प्राणमय मन के अहंकार, आत्म-गौरव एवं महत्त्वाकांक्षा को बढ़ा सकती है और यदि उस अहंकार

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को अतिक्रम करके उस पर विजय न प्राप्त की गयी तो वह निश्चय ही आध्यात्मिक पतन की ओर ले जायेगा । इसी प्रकार यह धारणा मिथ्या इसलिये है कि यह अहंकारमय है जब कि अतिमानसिक रूपान्तर की पहली शर्त अहंकार से मुक्त होना है । संकल्पशील और कर्म-प्रधान मनुष्य की सक्रिय और गतिशक्तिमय प्रकृति के लिये तो यह अत्यन्त ही भयावह है, क्योंकि वह शक्ति का पीछा करके सहज ही पथभ्रष्ट हो सकती है । अतिमानसिक रूपान्तर के द्वारा शक्ति अनिवार्यत: ही प्राप्त होती है, सर्वांगपूर्ण कर्म के लिये यह एक आवश्यक शर्त है : पर जो शक्ति इस प्रकार आकर प्रकृति और जीवन को अपने हाथ में ले लेती है वह भागवत शक्ति ही होती है, वह एकमेव की शक्ति होती है जो आध्यात्मिक व्यक्ति के द्वारा कार्य करती है; वह व्यक्तिगत शक्ति का परिवर्द्धित रूप नहीं होती, न भेदजनक मानसिक और प्राणिक अहं की अन्तिम एवं उच्चतम पूर्णता ही होती है । आत्म-परिपूर्णता योग के एक परिणाम के रूप में प्राप्त होती है, पर योग का लक्ष्य व्यक्ति की महानता प्राप्त करना नहीं है । लक्ष्य तो केवल आध्यात्मिक सिद्धि एवं सच्चे आत्मस्वरूप को प्राप्त करना तथा दिव्य चेतना और प्रकृति को धारण करके भगवान् के साथ एकत्व लाभ करना है ।  शेष सब वस्तुएं इसका गठन करनेवाली व्योरे की चीजें एवं सहचारी अवस्थाएं हैं । अहं-केन्द्रित आवेग, महत्त्वाकाक्षा, शक्ति और महानता की लालसा, आत्मख्यापन-रूपी लक्ष्य इस महत्तर चेतना के लिये विजातीय वस्तुएं हैं और सुदूर भविष्य में भी अतिमानसिक रूपान्तर के निकट पहुंचने की जो कोई भी सम्भावना है उसके विरुद्ध ये वस्तुएं एक अलंध्य बाधा उपस्थित करेंगी । महत्तर आत्मा को पाने के लिये व्यक्ति को अपने क्षुद्र निम्नतर स्व को खोना ही होगा । भगवान् के साथ एकत्व ही प्रधान प्रेरक-भाव होना चाहिये; यहां तक कि अपनी सत्ता के तथा सत्तामात्र के सत्य की खोज, उस सत्य में एवं उसकी महत्तर चेतना में जीवन-यापन तथा प्रकृति की पूर्णता--ये सब भी एकत्व लाभ के प्रयत्न के स्वाभाविक परिणाममात्र होते हैं । उसकी समग्र पूर्णता की अनिवार्य शर्तें होते हुए ये केन्द्रीय लक्ष्य के अंग इसलिये होते हैं कि ये विकास की एक आवश्यक अवस्था तथा एक मुख्य परिणाम हैं ।

 

     यह भी ध्यान में रखना होगा कि अतिमानसिक परिवर्तन एक विषम तथा दूरवर्ती लक्ष्य है, अन्तिम अवस्था है; उसे एक सुदूरव्यापी दृश्य का परला छोर समझना होगा; वह प्रथम लक्ष्य, एक निरन्तर दृष्टिगत आदर्श या एक अव्यवहित उद्देश्य नहीं हो सकता और न उसे कभी ऐसे लक्ष्य, आदर्श या उद्देश्य में परिणत ही करना चाहिये । क्योंकि, वह दुष्कर आत्म-विजय और आत्म-अतिक्रमण के बहुत कुछ सिद्ध होने के बाद, प्रकृति के कठिन आत्म-विकास की बहुत-सी लंबी और कष्टकारी अवस्थाओं के पार होने पर ही सम्भावना के दृश्य क्षेत्र के भीतर आ

 

          साधर्म्य-मुक्ति

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सकता है । सबसे पहले मनुष्य को एक आन्तरिक योग-चेतना प्राप्त करनी होगी और उसे वस्तुओं-सम्बन्धी अपने साधारण दृष्टिकोण, अपनी प्राकृत चेष्टाओं, तथा अपने जीवन के प्रेरकभावों के स्थान पर प्रतिष्ठित करना होगा; हमें अपनी सत्ता की सम्पूर्ण वर्तमान गठन में आमूल परिवर्तन लाना होगा । उसके बाद, हमें और भी गहराई में जाकर अपनी आवृत चैत्य सत्ता को उपलब्ध करना होगा और उसके प्रकाश में तथा उसके शासन के तले अपने आन्तर और बाह्य अंगो को चैत्यमय बनाना होगा, मानस-प्रकृति, प्राण-प्रकृति एवं देह-प्रकृति को और अपनी समस्त मानसिक, प्राणिक, शारीरिक क्रियाओं, अवस्थाओं एवं गतियों को अन्तरात्मा के सचेतन करणों के रूप में परिणत करना होगा । उसके बाद अथवा उसके साथ-साथ हमें दिव्य ज्योति, शक्ति, पवित्रता, ज्ञान, स्वतन्त्रता और विशालता के अवतरण के द्वारा अपनी सम्पूर्ण सत्ता को आध्यात्मिक बनाना होगा । व्यक्तिगत मन, प्राण और देह की सीमाओं को तोड़ डालना, अहं को नष्ट करना, विश्वचेतना में प्रवेश करना, आत्मा का साक्षात्कार करना, और आध्यात्मीकृत एवं विश्वभावापन्न मन, हृदय, प्राणशक्ति एवं भौतिक चेतना प्राप्त करना आवश्यक है । ऐसा हो जाने पर ही अतिमानसिक चेतना की ओर प्रयाण करना सम्भव होने लगता है, पर तब भी एक कठिन आरोहण सम्पन्न करना होता है जिसकी हर एक अवस्था एक पृथक् दु:साध्य उपलब्धि होती है । योग सत्ता का एक द्रुत एवं घनीभूत् सचेतन विकास है, पर वह कितना ही द्रुत क्यों न हो, करणात्मक प्रकृति में जिस विकास को सम्पन्न करने में सैंकड़ो और हजारों वर्ष या सैंकड़ो जीवन लग सकते हैं उसे वह चाहे एक ही जीवन में क्यों न साधित कर दे, फिर भी निःसन्देह विकासमात्र क्रमिक अवस्थाओं के द्वारा ही अवसर होता है; साधन-प्रक्रिया की अधिक-से-अधिक तीव्रता एवं एकाग्रता भी सब क्रमिक अवस्थाओं को अपने अन्दर लील नहीं सकती, न वह प्राकृतिक पद्धति को उलट कर अन्त को आरम्भ के निकट ही ला सकती है । अज्ञ और उतावला मन तथा अति उत्सुक शक्ति दोनों ही इस आवश्यक विधान को सहज में भूल जाते हैं; वे अतिमानस को तात्क्षणिक लक्ष्य बनाने के लिये दौड़ पड़ते हैं और अनन्त भगवान् में उसके जो उच्चतम शिखर हैं उनसे उसे एक लंबे नोकीले डंडे के द्वारा नीचे खींच ले आने की आशा करते हैं । यह आशा केवल मूर्खताभरी ही नहीं, बल्कि संकटपूर्ण भी है । क्योंकि, प्राणिक कामना सहज ही अन्धकारमय या उग्र प्राणिक शक्तियों की क्रिया को इस क्षेत्र में ला सकती है । ये शक्तियां उसके सामने उसकी असाध्य लालसा की ता्त्क्षणिक पूर्ति की आशा का चित्र प्रस्तुत करती हैं । इसके परिणास्वरूप व्यक्ति अनेक प्रकार के आत्म-प्रवञ्चनों में फंस सकता है, अन्धकार की शक्तियों के असत्यों तथा प्रलोभनों के आगे झुक सकता है, लोकोत्तर शक्तियों की खोज में भटक सकता है, भागवत प्रकृति से विमुख होकर आसुरिक की ओर मुड़ सकता है, परिवर्द्धित अहं

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की अस्वाभाविक, अमानवीय और अदिव्य बुहत्ता में घातक रूप से फूलकर कुप्पा हो सकता है । यदि व्यक्ति की सत्ता क्षुद्र हों, प्रकृति दुर्बल और अशक्त हो तो विपत्ति इतने बड़े परिमाण में नहीं आती; परन्तु सन्तुलन का नाश, मन की केन्द्रभ्रष्टता और उसका बुद्धिहीनता में पतन अथवा प्राण की केन्द्रभ्रष्टता और उसके परिणामस्वरूप नैतिक भूल या फिर प्रकृति की किसी प्रकार की अस्वस्थ विकृतावस्था में ले जानेवाली विच्युति-ये प्रतिकूल परिणाम तो उत्पन्न हो ही सकते हैं । यह कोई ऐसा योग नहीं है जिसमें किसी प्रकार की विकृति को, चाहे वह ऊंचे प्रकार की ही क्यों न हो, आत्मपरिपूर्णता या आध्यात्मिक उपलब्धि के साधन के रूप में स्वीकार किया जा सके । जब कोई लोकोत्तर एवं अतिबौद्धिक अनुभव में प्रवेश करे तब भी सन्तुलन-भंग बिल्कुल नहीं होना चाहिये, सन्तुलन को तो चेतना के शिखर से लेकर आधार तक स्थिर रखना होगा; अनुभव करनेवाली चेतना को अपने निरीक्षण में एक शान्त समतोलता, सुनिश्चित स्पष्टता और व्यवस्था सुरक्षित रखनी होगी, इसके साथ ही उसके अपने अन्दर एक प्रकार की उदात्तीकृत साधारण बुद्धि, आत्म-समालोचना की अचूक शक्ति और वस्तुओं के सम्बन्ध में यथार्थ विवेक तथा उनका समन्वय एवं स्थिर अन्तर्दर्शन भी सुरक्षित रखना होगा, उसके अन्दर तथ्यों की बुद्धिमत्तापूर्ण पकड़ और एक उच्च आध्यात्मीकूत प्रत्यक्षवाद सदा ही होना चाहिये । साधारण प्रकृति के परे परा प्रकृति में पहुंचने का कार्य मनुष्य अबौद्धिक या अवबौद्धिक स्तर पर उतरकर नहीं कर सकता; यह तो बुद्धि में से होकर परा बुद्धि के महत्तर प्रकाश में पहुंचने की क्रिया के द्वारा ही करना चाहिये । यह परा बुद्धि, बुद्धि के अन्दर अवतरित होती है और उसकी सीमाओं को तोड़ती हुई भी उसे ऊपर उठाकर उच्चतर स्तरों में ले जाती है; बुद्धि लुप्त नहीं हो जाती, बल्कि परिवर्तित होकर अपने ही सच्चे सीमारहित स्वरूप में, परा प्रकृति की समन्वयकारिणी शक्ति में परिणत हो जाती है ।

 

     एक और भूल से भी बचने की जरूरत है । वह भूल भी ऐसी है जिसकी ओर हमारा मन आसानी से झुक जाता है; वह है--किसी उच्चतर मध्यवर्ती चेतना, यहां तक कि किसी भी प्रकार की लोकोत्तर चेतना को अतिमानस समझ बैठना । अतिमानस तक पहुंचने के लिये मानव-मन की साधारण गतियों के ऊपर चले जाना ही पर्याप्त नहीं है; एक महत्तर ज्योति, महत्तर शक्ति एवं महत्तर आनन्द को ग्रहण करना अथवा ज्ञान, दृष्टि एवं प्रभावशाली संकल्प की शक्तियों को, जो मनुष्य के सामान्य क्षेत्र को अतिक्रम करती हों, विकसित करना भी पर्याप्त नहीं । समस्त प्रकाश आत्मा का ही प्रकाश नहीं होता, अतिमानस का प्रकाश होना तो दूर की बात रही; मन, प्राण और यहांतक कि शरीर का भी अपना-अपना प्रकाश होता है जो अभी छुपा दुआ है । पर वह अत्यन्त अनुप्रेरक, उन्नायक, बोधप्रद तथा प्रबलतया कार्यसाधक हो सकता है । सीमाओं को तोड़कर विश्व-चेतना के भीतर

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 प्रवेश करने से भी चेतना और शक्ति का अपरिमित विस्तार साधित हो सकता है । आंतर मन, आंतर प्राण एवं आंतर देह के प्रति, अन्तःप्रच्छन्न चेतना के किसी भी क्षेत्र के प्रति उद्घाटन और उनमें प्रवेश ज्ञान, कर्म या अनुभव की ऐसी अव-सामान्य या सामान्य-अतीत शक्तियों की क्रिया को उन्मुक्त कर सकता है जिन्हें अशिक्षित मन सहज ही आध्यात्मिक साक्षात्कार, अन्तःस्फूरण एवं अन्तर्ज्ञान समझने की भूल कर सकता है । उच्चतर मनोमय पुरुष के महत्तर स्तरों की ओर ऊर्ध्वमुख उद्घाटन अत्यधिक ज्योति और शक्ति उतार ले आ सकता है और वे ज्योति तथा शक्ति अन्तर्ज्ञान-भावित मन और प्राणशक्ति की तीव्र क्रिया उत्पन्न कर सकती हैं, या फिर इन स्तरों में किया गया आरोहण एक ऐसी वास्तविक किन्तु फिर भी अपूर्ण ज्योति ला सकता है जो मिश्रण की ओर सहज ही खुली होती है; यह ज्योति अपने मूलस्रोत में तो आध्यात्मिक होती है, पर निम्न प्रकृति में उतरने पर अपने क्रियाशील स्वरूप में सदा आध्यात्मिक नहीं रहती । किन्तु इनमें से कोई भी चीज अतिमानसिक ज्योति या अतिमानसिक शक्ति नहीं है; उसका साक्षात्कार एवं ज्ञान तो तभी प्राप्त हो सकता है जब हम मानसिक सत्ता के शिखरों पर पहुंच जाते हैं, अधिमानस में प्रवेश कर लेते हैं और आध्यात्मिक सत्ता के ऊर्ध्वतर एवं महत्तर गोलार्द्ध के किनारों पर स्थित हो जाते हैं । वहां अज्ञान, निश्चेतना, अर्द्ध-ज्ञान के प्रति शनैः--शनैः जागरित होता हुआ आदि घनघोर निर्ज्ञान-ये तीनों ही, जो स्थूल- भौतिक प्रकृति का आधार हैं और हमारे मन और प्राण की समस्त शक्तियों को चारों ओर से घेरे हुए हैं तथा उनमें प्रविष्ट होकर उन्हें प्रबल रूप से सीमित करते हैं, पूर्णतया लुप्त हो जाते हैं; क्योंकि अमिश्रित और अपरिवर्तित सत्य-चेतना ही वहां समस्त सत्ता का उपादान है, उसका शुद्ध आध्यात्मिक ताना-बाना है । जब हम अभी अज्ञान के, चाहे वह आलोकित या संबुद्ध अज्ञान ही क्यों न हो, गतिचक्र में घूम रहे हों, तब यह मानना कि हम उक्त अवस्था तक पहुंच चुके हैं अपने-आपको संकटपूर्ण कुमार्गदर्शन के प्रति या सत्ता के विकास के अवरोध के प्रति खोलने के समान होता है । कारण, यदि किसी निम्नतर अवस्था को ही हम इस प्रकार अतिमानस समझने की भूल कर बैठें तो वह हमारे लिये उन सब संकटों का द्वार खोल देगी जो, हम देख ही चुके हैं कि, सिद्धि प्राप्त करने की हमारी मांग की धृष्टतापूर्ण एवं अहंकारमय उतावली के परिणाम के रूप में उत्पन्न होते हैं । अथवा, यदि उच्चतर अवस्थाओं में से किसीको हम उच्चतम मान बैठें तो हम, बहुत-कुछ उपलब्ध करने पर भी, अपनी सत्ता के महत्तर एवं पूर्णतर लक्ष्य से नीचे रह सकते हैं; क्योंकि हम अन्तिम लक्ष्य के निकटवर्ती किसी लक्ष्य से ही सन्तुष्ट रहेंगे और परमोच्च रूपान्तर हमसे छूट ही जायगा । पूर्ण आन्तरिक मुक्ति और उच्च आध्यात्मिक चेतना की उपलब्धि भी वह परम रूपान्तर नहीं है; क्योंकि हमें सारतत्त्व में वह उपलब्धि, वह स्वतः-पूर्ण अवस्था प्राप्त हो सकती है, किन्तु फिर भी हमारे

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क्रियाशील अंग अपने यन्त्रात्मक रूप में एक आलोकित अध्यात्मभावापन्न मन से सम्बन्ध रख सकते हैं और, परिणामत:, जैसे मनमात्र अपनी महत्तर शक्ति और ज्ञान में भी दोषपूर्ण होता है, वैसे वे भी अभी विवशतापूर्वक मूल परिसीमक निर्ज्ञान के द्वारा आंशिक या स्थानीय रूप से तमसाच्छन्न या सीमित हो सकते हैं ।

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दूसरा भाग  

 

पूर्ण ज्ञान का योग

 


 

अध्याय १

 

ज्ञान का लक्ष्य

 

 

 समस्त अध्यात्म-जिज्ञासा 'ज्ञान' के एक ऐसे लक्ष्य की ओर अग्रसर होती है जिसकी तरफ साधारागत: मनुष्य अपने मन की आंख नहीं फेरते, यह एक ऐसे सनातन, असीम एवं निरपेक्ष पुरुष या वस्तु की ओर अग्रसर होती है जो हमारी इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य पार्थिव वस्तुओं या शक्तियों से भिन्न है, भले वह इनके अन्दर या इनके पीछे विद्यमान हो अथवा इनका उद्गम या स्रष्टा ही क्यों न हो । इसका लक्ष्य ज्ञान की एक ऐसी भूमिका है जिसके द्वारा हम इन सनातन, असीम एवं निरपेक्ष का स्पर्श कर सकें, इनमें प्रवेश कर सकें या तादात्म्य द्वारा इन्हें जान सकें; इसका लक्ष्य एक ऐसी चेतना है जो विचारों, रूपों और पदार्थों-विषयक हमारी साधारण चेतना से भिन्न है, एक ऐसा ज्ञान जो वह चीज नहीं है जिसे हम ज्ञान कहते हैं, बल्कि एक स्वयंस्थित, नित्य एवं अनन्त वस्तु है । और, यद्यपि मनुष्य के मनोमय प्राणी होने के कारण, यह ज्ञान के हमारे साधारण करणों से अपनी खोज आरम्भ कर सकती है अथवा यहांतक कि इसे आवश्यक रूप से ऐसा करना ही होता है फिर भी, इसे उतने ही आवश्यक रूप में उन करणों के परे जाकर अतीन्द्रिय तथा अतिमानसिक साधनों और शक्तियों का प्रयोग करना होगा, क्योंकि यह किसी ऐसी चीज की खोज कर रहीं है जो स्वयं अतीन्द्रिय एवं अतिमानसिक है तथा मन और इन्द्रियों की पकड़ से परे है, यद्यपि मन और इन्द्रिय के द्वारा उसकी प्रथम झलक अवश्य प्राप्त हो सकती है या उसकी प्रतिबिम्बित आकृति दिखायी दे सकती है ।

 

     ज्ञान-योग की सभी परम्परागत प्रणालियां, उनके अन्य भेद चाहे जो हों, इस विश्वास या बोध के आधार पर आगे बढ्ती हैं कि सनातन एवं निरपेक्ष सत्ता विश्वरहित सत्ता की शुद्ध परात्पर अवस्था ही हो सकती है या कम-से-कम इसी अवस्था में निवास कर सकती है या फिर, वह असत्ता ही हो सकती है । समस्त वैश्व सत्ता या वह सब कुछ जिसे हम सत्ता कहते हैं अज्ञान की ही एक अवस्था है । यहांतक कि उच्चतम वैयक्तिक पूर्णता एवं आनन्दपूर्ण जागतिक स्थिति भी परम अज्ञान की अवस्था से कोई अच्छी चीज नहीं है । पूर्ण सत्य के अन्वेषक को वैयक्तिक और जागतिक-सभी वस्तुओं एवं अवस्थाओं का कठोरतापूर्वक त्याग कर देना होगा । परम निश्चल आत्मा या चरम शून्य ही एकमात्र सत्य है, आध्यात्मिक ज्ञान का एकमात्र विषय है । ज्ञान की जो भूमिका किंवा इस लौकिक चेतना से भिन्न जो चेतना हमें प्राप्त करनी होगी वह निर्वाण है, अर्थात् अहं का लय है, समस्त मानसिक, प्राणिक और शारीरिक क्रियाओं का, बल्कि सभी

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क्रियाओं का निरोध है, चाहे वे कोई भी क्यों न हों, वह परम प्रकाशयुक्त निश्चलता है, आत्म-लीन और अनिर्वचनीय निर्व्यक्तिक प्रशान्तता का विशुद्ध आनन्द है । इसकी प्राप्ति के साधन हैं ऐसा ध्यान और एकाग्रता जो अन्य सभी वस्तुओं को बहिष्कृत कर दें और मन की अपने विषय में पूर्ण तल्लीनता । कर्म करने की स्वीकृति खोज की प्रारम्भिक अवस्थाओं में ही दी जा सकती है जिससे वह जिज्ञासु के चित्त को शुद्ध करके उसे सदाचार और स्वभाव की दृष्टि से ज्ञान का उपयुक्त आधार बना दे । इस कर्म को भी या तो हिन्दू-शास्त्र के द्वारा कठोरतापूर्वक विहित पूजासम्बन्धी क्रिया-कलाप तथा जीवन-सम्बन्धी नियत कर्तव्यों के अनुष्ठान तक ही सीमित रखना होगा या फिर इसे बौद्ध साधना के अनुसार, अष्टांग मार्ग के द्वारा भूतदया के उन कार्यों के परमोच्च अनुष्ठान की ओर प्रेरित करना होगा जो परहित के लिये 'स्व' के क्रियात्मक उच्छेद की ओर ले जाते हैं । पर अन्त में, किसी भी तात्त्विक एवं विशुद्ध ज्ञानयोग में पूर्ण निश्चलता की प्राप्ति के लिये समस्त कर्मों को त्याग देना होगा । कर्म मोक्ष के लिये तैयार तो कर सकता है, पर उसकी प्राप्ति नहीं करा सकता । कर्म के प्रति किसी भी प्रकार की अनवरत आसक्ति सर्वोच्च उन्नति के साथ असंगत है और आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति में एक अलंध्य बाधा खड़ी कर सकती है । निश्चलता की परमोच्च अवस्था कर्म से सर्वथा विपरीत है, अतएव, यह उन लोगों को नहीं प्राप्त हो सकती जो आग्रहपूर्वक कर्मों में लगे रहते हैं, यहां तक कि भक्ति, पूजा एवं प्रेम भी ऐसी साधनाएं हैं जो अपरिपक्व आत्मा के ही योग्य हैं । अधिक-से-अधिक ये अज्ञान की ही सर्वोत्तम विधियां हैं । कारण, ये-- भक्ति, प्रेम आदि-हमसे भिन्न किसी अन्य, उच्चतर एवं महत्तर वस्तु को अर्पित किये जाते हैं; किन्तु परम ज्ञान में ऐसी किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं हो सकता, क्योंकि वहां या तो केवल एक ही सत्ता होती है या फिर कोई भी सत्ता नहीं होती और इसलिये या तो वहां पूजा करने और प्रेम एवं भक्ति की भेंट बढ़ानेवाला कोई नहीं होता या फिर इसे ग्रहण करनेवाला ही कोई नहीं होता । निश्चय ही, वहां चिन्तन-क्रिया भी तदात्मता या शून्यता की अनन्य चेतना में विलुप्त हो जाती है और अपनी निश्चलता के द्वारा सम्पूर्ण प्रकृति को भी निश्चल बना देती है । तब या तो केवल निरपेक्ष एकमेव रह जाता है या फिर सनातन शून्य ।

 

     यह शुद्ध ज्ञानयोग बुद्धि के द्वारा साधित होता है, यद्यपि इसकी परिणति बुद्धि और उसकी क्रियाओं के अतिक्रमण में ही होती है । हमारे अन्दर का विचारक हमारी गोचर सत्ता के अन्य सभी भागों से अपने-आपको पृथक् कर लेता है, हृदय का बहिष्कार कर देता है, प्राण और इन्द्रियों से पीछे हट जाता है, शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है, ताकि वह उस वस्तु में अपनी ऐकान्तिक परिपूर्णता प्राप्त कर सके जो उससे तथा उसके कार्य-व्यापार से भी परे है । इस मनोवृत्ति के मूल में एक सत्य निहित है, इसी प्रकार एक ऐसा अनुभव भी है जो इसे उचित

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सिद्ध करता प्रतीत होता है । सत्ता का एक 'परम सार' है जो अपनी प्रकृति से ही निश्चल है, मूल सत्ता के अन्दर एक परम नीरवता है जो अपने विकास और परिवर्तनों से परे है, जो निर्विकार है और अतएव उन सब क्रिया-प्रवृत्तियों से उच्चतर है जिनका वह, अधिक-से-अधिक, एक 'साक्षी' है । और, हमारे आभ्यन्तरिक व्यापारों की क्रमपरम्परा में विचार एक प्रकार से इस आत्मा के निकटतम है, कम-से-कम इसके उस सर्व-सचेतन ज्ञाता-रूप के निकटतम है जो सब क्रियाओं पर अपनी दृष्टि डालता है, पर उन सबसे पीछे हटकर स्थित हो सकता है । हमारा हृदय और संकल्प तथा हमारी अन्य शक्तियां मूलतः क्रियाशील हैं, वे स्वभाववश ही कार्य करने में प्रवृत्त होती हैं तथा उसके द्वारा अपनी पूर्ण चरितार्थता प्राप्त करती हैं, --द्यपि वे भी अपने कार्यों में पूर्ण तृप्ति लाभ करके या फिर इससे उल्टी प्रक्रिया के द्वारा निश्चलता को प्राप्त करने में अधिक समर्थ हैं । विचार इस नीरव साक्षी आत्मा को जो हमारी सभी क्रियाओं से उच्चतर है, एक आलोकित बौद्धिक अनुभव के द्वारा जानकर अधिक आसानी से सन्तुष्ट हो जाता है और, एक बार उस अचल आत्मा के दर्शन कर लेने पर, सत्यान्वेषण के अपने ध्येय को पूरा हुआ समझकर, शान्त हो जाने तथा स्वयं भी अचल बन जाने के लिये उद्यत रहता है । कारण, अपनी अत्यन्त विशिष्ट गतिविधि में, यह स्वयं कर्म में उत्सुकतापूर्वक भाग लेनेवाले तथा रागपूर्वक श्रम करनेवाले की अपेक्षा कहीं अधिक वस्तुओं का एक निष्पक्ष साक्षी, निर्णायक एवं निरीक्षक बनने की प्रवृत्ति रखता है, और आध्यात्मिक या दार्शनिक स्थिरता एवं निर्लिप्त पृथक्ता, अत्यन्त सहज रूप से, प्राप्त कर सकता है । और, क्योंकि मनुष्य मनोमय प्राणी है, उसके अज्ञान को आलोकित करने के लिये विचार उसका सच्चे रूप में सर्वोत्तम एवं उच्चतम साधन न सही, पर कम-से-कम एक अत्यन्त स्थिर, सामान्य और प्रभावपूर्ण साधन अवश्य है । ज्ञान-संग्रह और विचार-विमर्श, ध्यान, स्थिर चिन्तन, मन की अपने विषय पर तन्मयतापूर्ण एकाग्रता-रूपी अपने व्यापारों से, अर्थात् श्रवण, मनन और निदिध्यासन से सम्पन्न विचार हमारे अन्वेषणीय तत्त्व की उपलब्धि के एक अनिवार्य साधन के रूप में हमारी सत्ता में उच्च पद पर आसीन है, और यदि यह हमारी यात्रा का अग्रणी तथा मन्दिर का एकमात्र उपलभ्य मार्गदर्शक या कम-से-कम उसका सीधा एवं अन्तरतम द्वार होने का दावा करे तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं ।

 

     वास्तव में विचार केवल एक गुप्तचर और अग्रणी है; वह मार्ग दिखा सकता है, पर आदेश नहीं दे सकता और न अपने-आपको क्रियान्वित ही कर सकता है । हमारी यात्रा का नायक, हमारे अभियान का अग्रणी, हमारे यज्ञ का प्रथम और प्राचीनतम पुरोहित संकल्प है । यह संकल्प न तो हृदय की वह इच्छा है और न मन की वह मांग या अभिरुचि है जिसे हम बहुधा ही यह नाम दिया करते हैं । यह

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 तो हमारी सत्ता की और सत्तामात्र की वह अन्तरतम, प्रबल तथा प्रायः ही आवृत चेतन-शक्ति है, तपस्, शक्ति, श्रद्धा है जो प्रभुत्वशाली रूप में हमारी दिशा का निर्धारण करती है और बुद्धि तथा हृदय जिसके न्यूनाधिक अन्ध एवं स्वयंचालित सेवक और यन्त्र हैं । परम आत्मा, जो निश्चल एवं शान्त है तथा वस्तुओं एवं घटनाओं से शून्य है, सत्ता का आश्रय तथा पृष्ठाधार है, एक परम तत्त्व की नीरव प्रणालिका का या उसका मूल द्रव्य है : वह स्वयं एकमात्र पूर्ण-वास्तविक सत्ता नहीं है, स्वयं परम तत्त्व नहीं है । सनातन एवं परम तत्त्व तो परमेश्वर एवं सर्व-मूल पुरुष है । सब कार्य-व्यापारों के ऊपर अवस्थित रहता हुआ तथा उनमें से किसी से भी बद्ध न होता हुआ वह उन सबका उद्गम, अनुमन्ता, उपादान, निमित्त कारण तथा स्वामी है । सभी कार्य-व्यापार इस परम आत्मा से ही उद्भूत होते हैं तथा इसीके द्वारा निर्धारित भी होते हैं; सभी इसकी क्रियाएं हैं, इसकी अपनी ही चिन्मय शक्ति की प्रक्रियाएं हैं, आत्मा से विजातीय किसी वस्तु की या इस आत्मा से भिन्न किसी अन्य शक्ति की नहीं । इन क्रियाओं में आत्मा का, जो अपनी सत्ता को अनन्त प्रकार से व्यक्त करने के लिये प्रेरित होती है, चेतन संकल्प या शक्ति प्रकट होती है; वह संकल्प या शक्ति अज्ञ नहीं है, बल्कि अपने स्वरूप के तथा उस सबके ज्ञान के साथ, जिसे प्रकट करने के लिये वह प्रयोग में लायी जाती है, एकीभूत है । हमारे अन्दर का गुह्य आध्यात्मिक संकल्प एवं आन्तरात्मिक श्रद्धा, हमारी प्रकृति का प्रमुख गुप्त बल, इस शक्ति का ही एक वैयक्तिक यन्त्र है जो 'परम' के साथ अधिक निकट सम्पर्क रखता है; यदि एक बार हम उसे उपलब्ध और अधिकृत कर सकें तो हमें पता चलेगा कि वह हमारा एक अधिक सुनिश्चित मार्गदर्शक और प्रकाशप्रदाता है, क्योंकि वह हमारी विचार-शक्तियों की ऊपरी क्रियाओं की अपेक्षा अधिक गंभीर है तथा 'एकं सत्' एवं 'निरपेक्ष' के अधिक घनिष्ठतया निकट है । अपनेमें तथा विश्व में उस संकल्प को जानना और उसके दिव्य चरम परिणामों तक, ये चाहे जो भी हों, उसका अनुसरण करना ही, निःसन्देह, कर्मों की भांति ज्ञान के लिये भी तथा जीवन के साधक और योग के साधक के लिये भी उच्चतम मार्ग तथा सत्यतम शिखर है ।

 

     विचार प्रकृति का सबसे उच्च या सबसे सबल भाग नहीं है, न ही यह सत्य का एकमात्र या गभीरतम निर्देशक है । अतएव, इसे अपनी ही ऐकान्तिक तृप्ति का अनुसरण नहीं करना चाहिये, न उस तृप्ति को परम ज्ञान की उपलब्धि का चिह्न ही समझ लेना चाहिये । यह यहां कुछ हद तक हृदय, प्राण तथा अन्य अंगों के मार्गदर्शक के रूप में ही अस्तित्व रखता है, पर यह उनका स्थान नहीं ले सकता; इसे केवल यह नहीं देखना होगा कि इसकी अपनी चरम तृप्ति क्या है, वरन् यह भी कि क्या कोई ऐसी चरम तृप्ति नहीं है जो इन अन्य अंगों के लिये भी अभिप्रेत हो । अमूर्त विचार का एकांगी मार्ग तभी उचित सिद्ध होगा यदि विश्व में परम

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संकल्प का उद्देश्य केवल अज्ञान की क्रिया में एक ऐसा अवरोहण करना ही हो जिसे मन एक अन्धताजनक यन्त्र एवं जेलर के रूप में मिथ्या विचार और सम्वेदन के द्वारा साधित करता है, साथ ही यदि उसका उद्देश्य ज्ञान की निश्चलता में एक ऐसा आरोहण करना भी हों जिसे मन उसी प्रकार यथार्थ विचार के द्वारा, पर उसे एक आलोकप्रद यन्त्र एवं उद्धारक बनाकर, सम्पन्न करता है । परन्तु सम्भावनाएं ये हैं कि जगत् में एक ऐसा उद्देश्य भी है जो इससे कम निरर्थक एवं कम निरुद्देश्य है, निरपेक्ष की प्राप्ति के लिये एक ऐसा आवेग भी है जो इससे कम नीरस एवं कम अमूर्त है, जगत् का एक ऐसा सत्य भी है जो अधिक विशाल एवं जटिल है, अनन्त की एक ऐसी ऊंचाई भी है जो अधिक समृद्ध रूप से अनन्त है । निःसन्देह अमूर्त तर्क, पुराने दर्शनों की भांति, सदैव एक अनन्त शून्य 'नास्ति' या एक उतनी ही रिक्त 'अनन्त' अस्ति' पर पहुंचता है; क्योंकि अमूर्त होता हुआ यह एक पूर्ण अमूर्तता की ओर अग्रसर होता है और यही दो ऐसे एकमात्र अमूर्त प्रत्यय हैं जो पूर्णतया निरपेक्ष हैं । परन्तु एक मूर्त, सदा गहरी होती जानेवाली प्रज्ञा जो संकीर्ण और अक्षम मानव-मन के धृष्ट अमूर्त तर्क की नहीं, बल्कि नि:सीम अनुभव के अधिकाधिक ऐश्वर्य की सेवा करे, दिव्य अतिमानवीय ज्ञान की कुंजी हों सकती है । हृदय, संकल्प-शक्ति, प्राण, यहां तक कि शरीर भी, विचार के समान ही, दिव्य चिन्मय-सत्ता के रूप हैं तथा अत्यन्त अर्थपूर्ण संकेत हैं । इनमें भी ऐसी शक्तियां हैं जिनके द्वारा अन्तरात्मा अपनी पूर्ण आत्मचेतनता की ओर लौट सकती है अथवा इनके पास भी ऐसे साधन हैं जिनके द्वारा वह इसका रसास्वादन कर सकती है । सुतरां, परम संकल्प का उद्देश्य एक ऐसी परिणति को साधित करना हो सकता है जिसमें सम्पूर्ण सत्ता का अपनी दिव्य तृप्ति को उपलब्ध करना अभिमत हो तथा जिसमें ऊंचाइयां गहराइयों को आलोकित करें और जड़ निश्चेतन भी परम अतिचेतना के स्पर्श से अपने-आपको भगवान् के रूप में अनुभव करे ।

 

     परम्परागत ज्ञानमार्ग विवर्जन की प्रक्रिया के द्वारा आगे बढ्ता है और निश्चल आत्मा या परम शून्य या अव्यक्त निरपेक्ष में निमज्जित होने के लिये शरीर, प्राण, इन्द्रियों, हृदय तथा विचारतक का क्रमश: परित्याग कर देता है । पूर्णज्ञान का मार्ग यह मानता है कि सर्वांगीण आत्म-परिपूर्णता उपलब्ध करना ही हमारे लिये नियत उद्देश्य है और एकमात्र वर्जनीय वस्तु हमारी अपनी अचेतनता, हमारा अज्ञान और उसके परिणाम हैं । जो सत्ता अहं का रूप धारण किये है उसके मिथ्यात्व का त्याग कर दो; तब हमारी सच्ची सत्ता हमारे अन्दर प्रकट हों सकती है । जो प्राण निरी प्राणिक लालसा का तथा हमारे दैहिक जीवन के यान्त्रिक चक्र का रूप धारण किये हूए है उसके मिथ्यात्व को त्याग दो; और तब परमेश्वर की शक्ति में और अनन्त के हर्ष में अवस्थित हमारा सच्चा प्राण प्रकट हो उठेगा । स्थूल दृश्य- प्रपंच और द्वंद्वात्मक सम्वेदनों के वशीभूत इन्द्रियों के मिथ्यात्व का त्याग कर दो; हमारे अन्दर

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एक महत्तर इन्द्रिय है जो इनके द्वारा पदार्थों में विद्यमान भगवान् की ओर खुल सकती है तथा दिव्य रूप में उसे प्रत्युत्तर दे सकती है । अपनी कलुषित वासनाओं और कामनाओं तथा द्वंद्वात्मक भावों से युक्त हृदय के मिथ्यात्व को त्याग दो; हमारे अन्दर एक गभीरतर हृदय खुल सकता है जो प्राणिमात्र के लिये दिव्य प्रेम से तथा अनन्त के प्रत्युत्तरों के लिये असीम अभिलाषा और उत्कंठा से युक्त है । उस विचार के मिथ्यात्व का परित्याग कर दो जो अपनी अपूर्ण मानसिक रचना, अपनी अहंकारपूर्ण स्थापनाओं और निषेधों तथा अपनी सीमित और ऐकान्तिक एकाग्रताओं से युक्त है; ज्ञान की एक महत्तर शक्ति इसके पीछे अवस्थित है जो ईश्वर, आत्मा, प्रकृति और जगत् के वास्तविक सत्य की ओर खुल सकती है । लक्ष्य हैं सर्वांगीण आत्म-चरितार्थता, -अर्थात् हृदय के अनुभवों के लिये, इसकी प्रेम, हर्ष, भक्ति और पूजासम्बन्धी सहज-प्रवृत्ति के लिये एक चरम लक्ष्य एवं परिणति; इन्द्रियों के लिये, वस्तुओं के रूपों में इनकी दिव्य सौन्दर्य, शिव और आनन्द की खोज के लिये एक चरम लक्ष्य एवं परिणति; प्राण के लिये, इसकी कर्म करने तथा दिव्य शक्ति, प्रभुत्व और पूर्णता प्राप्त करने की प्रवृत्ति के लिये एक चरम लक्ष्य एवं परिणति; विचार के लिये, इसकी सत्य, प्रकाश, दिव्य प्रज्ञा और ज्ञान की भूख के लिये इसकी सीमाओं से परे एक चरम लक्ष्य एवं परिणति । हमारी प्रकृति के इन अंगों का लक्ष्य कोई ऐसी चीज नहीं है जो इनसे सर्वथा भिन्न हो तथा जिससे इन सबको बहिष्कृत कर दिया जाता हो, बल्कि एक ऐसी परम सद्वस्तु है जिसमें ये अपने-आपको अतिक्रम कर जाते हैं और साथ ही अपने चरम एवं अनन्त रूपों को तथा मानातीत सामंजस्यों को भी प्राप्त कर लेते हैं ।

 

     परम्परागत ज्ञान मार्ग के पीछे एक प्रभुत्वपूर्ण आध्यात्मिक अनुभव अवस्थित है जो इसकी परित्याग और प्रत्याहाररूपी विचार-प्रक्रिया को उचित सिद्ध करता है । यह अनुभव गभीर, तीव्र और निश्चयोत्पादक है और जिन लोगों ने मन के सक्रिय घेरे को कुछ हद तक पार करके क्षितिजरहित आन्तरिक आकाश में प्रवेश कर लिया है उन सबको यह समान रूप से प्राप्त होता है, यह मुक्ति का एक महान् अनुभव है, यह हमारे अन्दर विद्यमान किसी ऐसी वस्तु के बारे में हमारी चेतनता है जो जगत् तथा इसके समस्त रूपों, आकर्षणों, लक्ष्यों, प्रसंगों और घटनाओं के पीछे तथा बाहर अवस्थित है, शान्त, निर्लिप्त, उदासीन, असीम, निश्चल तथा मुक्त है, यह हमारे ऊपर अवस्थित किसी ऐसी, अवर्णनीय एवं अगम वस्तु की ओर हमारी ऊर्ध्वदृष्टि है जिसमें हम अपने व्यक्तित्व के विलोप के द्वारा प्रवेश कर सकते हैं, यह सर्वव्यापक सनातन साक्षी पुरुष की उपस्थिति है, उस्र अनन्त या कालातीत सत्ता का बोध है जो हमारी सम्पूर्ण सत्ता के महामहिम निषेध के स्तर से हमें उपेक्षापूर्ण दृष्टि से देखती है और जो अकेली ही एकमात्र सद्वस्तु है । यह अनुभव अपनी सत्ता के परे स्थिरतापूर्वक दृष्टिपात करनेवाले आध्यात्मीकृत मन की उच्चतम

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ऊर्ध्वगति है । जो इस मुक्ति में से नहीं गुजरा वह मन और इसके पाशों से पूर्णतया मुक्त नहीं हो सकता, परन्तु कोई भी सदा के लिये इस अनुभव पर रुके रहने के लिये बाध्य नहीं । यद्यपि यह महान् है, फिर भी यह मन का अपनेसे तथा अपनी कल्पना में आ सकनेवाली सभी चीजों से परे की किसी वस्तु का एक अत्यन्त प्रबल अनुभवमात्र हैं । यह परमोच्च निषेधात्मक अनुभव है, परन्तु इसके परे एक अनन्त चेतना का समस्त विपुल प्रकाश है, एक असीम ज्ञान, एक भावात्मक चरम-परम उपस्थिति है ।

 

     आध्यात्मिक ज्ञान का विषय है परब्रह्म, भगवान् अनन्त एवं निरपेक्ष सत्ता । यह परब्रह्म हमारी वैयक्तिक सत्ता तथा इस विश्व के साथ सम्बन्ध रखता है और यह जीव तथा जगत् दोनों से परे भी है । विश्व और व्यक्ति वही चीज नहीं हैं जो कि वे हमें प्रतीत होते हैं, क्योंकि हमारा मन और इन्द्रियां हमें इनका जो विवरण देती हैं वह एक मिथ्या विवरण होता है, एक अपूर्ण रचना तथा एक क्षीण एवं भ्रान्तिपूर्ण प्रतिमूर्त्ति होता है, जबतक कि वे उच्चतर अतिमानसिक एवं अतीन्द्रिय ज्ञान की शक्ति से प्रकाशित नहीं हो जातीं । किन्तु फिर भी विश्व और व्यक्ति हमें जो कुछ प्रतीत होते हैं वह उनके वास्तविक स्वरूप की ही एक प्रतिमूर्त्ति है, --एक ऐसी प्रतिमूर्त्ति जो अपने से परे, अपने पीछे अवस्थित वास्तविक सत्य की ओर संकेत करती है । हमारा मन और हमारी इन्द्रियां हमारे सम्मुख वस्तुओं के जो मूल्य प्रस्तुत करती हैं उनके संशोधन के द्वारा ही सत्य ज्ञान उदित होता है, और सर्वप्रथम तो यह उस उच्चतर बुद्धि की क्रिया के द्वारा प्राप्त होता है जो अज्ञानयुक्त इन्द्रिय- मानस तथा सीमित स्थूल बुद्धि के निर्णयों को यथासम्भव आलोकित तथा संशोधित करती है; समस्त मानवीय ज्ञान-विज्ञान की पद्धति यही है । परन्तु इसके परे एक ऐसा ज्ञान एवं सत्य-चेतना है जो हमारी बुद्धि को अतिक्रम कर जाती है और हमें उस सत्य प्रकाश के भीतर ले आती है जिसकी यह एक विचलित रश्मि है । वहां शुद्ध तर्कबुद्धि की अमूर्त परिभाषाएं और मन की रचनाएं विलुप्त हो जाती हैं अथवा अन्तरात्मा की प्रत्यक्ष दृष्टि में एवं आध्यात्मिक अनुभव के अति महत् सत्य में परिणत हो जाती हैं । यह ज्ञान निरपेक्ष सनातन की ओर मुड़ कर जीव और जगत् को दृष्टि से ओझल कर सकता है; परन्तु यह उस सनातन से इह-सत्ता पर दृष्टिपात भी कर सकता है । जब हम ऐसा करते हैं तो हमें पता चलता है कि मन और ईन्द्रियों का अज्ञान तथा मानवजीवन के सब वृथा प्रतीत होनेवाले व्यापार चेतन सत्ता के निरर्थक विक्षेप नहीं थे, न ही कोई क्षुद्र भ्रान्ति थे । यहां वे इस रूप में आयोजित किये गये थे कि वे अनन्त से उद्भूत होनेवाले आत्मा की स्व-अभिव्यक्ति के लिये एक स्थूल क्षेत्र का काम करें, इस विश्व की परिभाषाओं में उसके आत्म-विकास एवं आत्मोपलब्धि के लिये भौतिक आधार बन सकें । यह सच है कि अपने-आपमें उनका तथा यहां की सभी चीजों का कुछ भी अर्थ नहीं,

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और उनके लिये पृथक् अर्थों की परिकल्पना करना माया में निवास करना है; परन्तु परम सत् में उनका एक परम अर्थ है, निरपेक्ष ब्रह्म में उनकी एक निरपेक्ष शक्ति है और वही उनके लिये उनके वर्तमान सापेक्ष मूल्य नियत करती है तथा उस सत्य के साथ उनका सम्बन्ध निर्दिष्ट करती है । यह एक ऐसा अनुभव है जो सब अनुभवों को एक कर देता है और जो गंभीर-से-गंभीर सर्वांगीण तथा अत्यन्त अन्तरंग आत्म-ज्ञान और विश्व-ज्ञान का आधार है ।

 

     व्यक्ति के साथ सम्बन्ध की दृष्टि से परम सत् हमारी अपनी ही सच्ची और सर्वोच्च आत्मा है, यह वह सत्ता है जो कि अन्ततः हम अपने सार-रूप में हैं तथा अपनी अभिव्यक्त प्रकृति में जिसके हम अंग हैं । हमारे अन्दर अवस्थित सच्चे परम आत्मा को प्राप्त करने में प्रवृत्त आध्यात्मिक ज्ञान को परम्परागत ज्ञानमार्ग की भांति समस्त भ्रामक प्रतीतियों का परित्याग करना होगा । इसे यह जान लेना होगा कि शरीर हमारी आत्मा नहीं है, हमारी सत्ता का आधार नहीं है; यह अनन्त का एक इन्द्रियग्राह्य रूप है । यह अनुभव कि जड़-प्रकृति जगत् का एकमात्र आधार है और भौतिक मस्तिष्क, स्नायु कोष्ठक और अणु हमारे अन्दर की सभी चीजों का एकमात्र सत्य हैं, जड़वाद का एक भारी-भरकम एवं अक्षम आधार है, पर वास्तव में यह अनुभव एक भ्रम है, एक अधूरी दृष्टि है जिसे पूरी दृष्टि समझ लिया गया है, वस्तुओं की अन्धकारमय भित्ति या छाया है जिसे भ्रात्तिवश प्रकाशमान सारतत्त्व मान लिया गया है, शून्य की प्रभावशाली आकृति है जिसे पूर्ण इकाई समझ लिया गया है । जड़वादीय विचार एक रचना को रचनाकारी शक्ति समझने की भूल करता है तथा अभिव्यक्ति के साधन को वह सत्ता समझ लेता है जो व्यक्त की जाती तथा व्यक्त करती है । जड़तत्त्व और हमारा भौतिक मस्तिष्क, स्नायुजाल तथा शरीर उस प्राणिक शक्ति की एक क्रिया का क्षेत्र और आधार हैं जो आत्मा को उसकी कृतियों के रूप के साथ सम्बद्ध करने में सहायक होती है और उन्हें उसकी सीधी क्रियाशक्ति के द्वारा धारण करती है । जड़तत्त्व की गतियां एक बाह्य संकेत हैं जिसके द्वारा आत्मा अनन्त के कुछ सत्यों के विषय में अपने बोधों को निरूपित करती है और उन्हें उपादान-तत्त्व की अवस्थाओं में प्रभावकारी बनाती है । ये चीजें एक भाषा एवं संकेतमाला हैं, एक चित्रलिपि एवं प्रतीक-पद्धति हैं, अपने-आपमें ये उन चीजों का जिन्हें ये सूचित करती हैं, गभीरतम एवं सत्यतम आशय नहीं हैं ।

 

     इसी प्रकार प्राणतत्त्व भी, अर्थात् वह प्राणशक्ति एवं ऊर्जा भी जो मस्तिष्क, स्नायुपुंज और शरीर में क्रीड़ा करती है, हमारी आत्मा नहीं है; वह अनन्त की एक शक्ति तो है, पर समग्र शक्ति नहीं । यह अनुभव कि 'एक प्राणशक्ति है जो जड़तत्त्व को सब वस्तुओं के आधार, उद्गम एवं सच्चे कुलयोग के रूप में अपना करण बनाती है', प्राणात्मवाद का एक दोलायमान अस्थिर आधार है । पर यह अनुभव एक भ्रम है, एक अधूरी दृष्टि हैं जिसे पूरी दृष्टि समझ लिया गया है, पास

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 के किनारे पर उठनेवाली एक ज्वार है जिसे गलती से समूर्ण समुद्र और उसकी जलराशि समझ लिया गया है । प्राणात्मवादी विचार एक शक्तिशाली पर बाह्य वस्तु को सारतत्त्व समझ लेता है । प्राणशक्ति तो अपनेसे परे की एक चेतना का क्रियाशील रूप है । वह चेतना अनुभूत होती तथा कार्य करती है, पर वह बुद्धि में हमारे लिये प्रामाणिक रूप तबतक नहीं प्राप्त करती जबतक हम 'मन' --रूपी उच्चतर स्तरतक, अपनी वर्तमान सर्वोच्च अवस्थातक नहीं पहुंच जाते । 'मन' यहां प्रत्यक्षत: प्राण की ही एक रचना प्रतीत होता है, पर वास्तव में यह स्वयं प्राण का तथा उसके पीछे अवस्थित वस्तु का एक दूरतर आशय है, अन्तिम नहीं, और साथ ही उसके रहस्य का एक अधिक सचेतन रूपायण है; 'मन' प्राण की नहीं, वरन् उस वस्तु की अभिव्यक्ति है जिसकी स्वयं प्राण भी एक कम प्रकाशमय अभिव्यक्ति है ।

 

     परन्तु 'मन' भी, अर्थात् हमारी मानसिक सत्ता, हमारा चिन्तनशील एवं बोधग्राही भाग भी हमारा आत्मा नहीं है, 'तत्' नहीं है, अन्त या आदि नहीं है; यह अनन्त से फेंका गया एक अर्द्ध प्रकाश है । यह अनुभव कि मन रूपों और पदार्थों का स्रष्टा है और ये रूप तथा पदार्थ केवल मन में ही अस्तित्व रखते हैं, बाह्यशून्यवाद ( Idealism) का विरल एवं सूक्ष्म आधार है, पर यह भी एक भ्रम है, एक अधूरी दृष्टि है जिसे पूरी दृष्टि समझ लिया गया है, एक मन्द और विचलित प्रकाश है जिसकी सूर्य के जाज्वल्यमान शरीर एवं उसके तेज के रूप में एक आदर्श कल्पना कर ली गयी है । यह आदर्शीकृत दृष्टि भी सत्ता के सारतत्त्व तक नहीं पहुंचती, उसका स्पर्श तक नहीं करती, यह तो केवल प्रकृति की एक निम्न अवस्था को ही छूती है । 'मन' एक चिन्मय सत्ता की अस्पष्ट बाह्य उपच्छाया है; वह चिन्मय सत्ता मन के द्वारा सीमित नहीं, बल्कि इससे अतीत है । परम्परागत ज्ञानमार्ग की पद्धति इन सभी चीजों का परित्याग करके उस शुद्ध चिन्मय सत्ता की परिकल्पना एवं उपलब्धि पर पहुंचती है जो स्वतः -सचेतन, स्वतः -आनन्दपूर्ण है और मन, प्राण तथा शरीर के द्वारा सीमित नहीं है; और इसके चरम भावात्मक अनुभव के लिये वह आत्मा है, अर्थात् हमारी सत्ता का मूल और तात्त्विक स्वरूप है । यहां, अन्त में, कोई ऐसी वस्तु प्राप्त होती है जो केन्द्रीय रूप से सत्य है, परन्तु इसतक पहुंचने की उतावली में यह ज्ञान कल्पना करता है कि चिन्तनात्मक मन तथा 'परम', 'बुद्धे: परतस्तु स: ' के बीच किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं है और समाधि में अपनी आंखें मूंदकर, आत्मा के इन महान् तेजोमय साम्राज्यों को देखे बिना ही, उन सब स्तरों में से जो सचमुच ही रास्ते में पड़ते हैं, भाग जाने का यत्न करता हैं । शायद यह अपने लक्ष्य पर पहुंच जाता हैं, पर पहुंचता है केवल अनन्त में सुषुप्ति लाभ करने के लिये ही । अथवा, यदि यह जागरित रहता भी है, तो उस परम के सर्वोच्च अनुभव में ही जिसमें आत्मोच्छेदक 'मन' प्रवेश कर सकता है न कि परात्पर में । 'मन' मानसभावापन्न आध्यात्मिक सूक्ष्मता में केवल आत्मा का, मन में प्रतिबिम्बित

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सच्चिदानन्द का ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है । परन्तु सर्वोच्च सत्य एवं पूर्ण आत्म-ज्ञान निरपेक्ष ब्रह्म में इस प्रकार की अंधी छलांग लगाकर नहीं, वरन् मन के परे धैर्यपूर्वक उस सत्य-चेतना में पहुंचकर प्राप्त किया जा सकता है जहां अनन्त को उसके सम्पूर्ण, अन्तहीन ऐश्वर्यों सहित जाना और अनुभव किया जा सकता है, देखा तथा उपलब्ध किया जा सकता है । और, वहां हमें पता चलता है कि यह आत्मा, जो हमारी अपनी सत्ता है केवल स्थितिशील सूक्ष्म एवं शून्य आत्मा नहीं है, बल्कि व्यक्ति और विश्व में तथा विश्व के परे विद्यमान महान् गतिशील आत्मा है । उस आत्मा एवं आत्मतत्त्व को मन की बनायी अमूर्त व्याप्तियों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता; ऋषियों और रहस्यदर्शियों के समस्त अन्तःप्रेरित वर्णन उसके अन्दर निहित अर्थों और ऐश्वर्यों को शेष नहीं कर सकते ।

 

     विश्व के साथ सम्बन्ध की दृष्टि से यह परम सत् ब्रह्म है, वह एकमेव सद्वस्तु है जो विश्व के सभी विचारों, शक्तियों और आकारों का आध्यात्मिक, भौतिक एवं सचेतन उपादान ही नहीं है, बल्कि उनका उद्गम, आश्रय और स्वामी भी है, अर्थात् विश्वगत और विश्वातीत आत्मा है । वे सब अन्तिम परिभाषाएं भी जिनमें हम इस विश्व का विश्लेषण कर सकते हैं, अर्थात् शक्ति और जड़तत्त्व, नाम और रूप, पुरुष और प्रकृति, बिल्कुल वही नहीं हैं जो कुछ कि विश्व अपने-आपमें या अपनी प्रकृति में वस्तुत: है । जिस प्रकार, हम जो कुछ हैं वह सब मन-प्राण-शरीर से अपरिच्छिन्न परम आत्मा की क्रीड़ा है, उसका एक रूप हैं, उसकी मानसिक, आन्तरात्मिक, प्राणिक और भौतिक अभिव्यक्ति है, उसी प्रकार विश्व भी उस परम सत्ता की लीला एवं रूप है; उसकी विराट् जीवगत और प्रकृतिगत अभिव्यक्ति है जो सत्ता की शक्ति और जड़तत्त्व से परिच्छिन्न नहीं है, विचार, नाम और रूप से सीमित नहीं है तथा पुरुष और प्रकृति के मौलिक भेद से भी आबद्ध नहीं है । हमारी परम आत्मा और वह परम सत्ता जिसने इस विश्व का रूप धारण किया है, एक ही आत्मतत्त्व हैं, एक ही आत्मा और एक ही सत्ता हैं । व्यक्ति तो अपनी प्रकृति में वैश्व पुरुष की एक अभिव्यक्ति है और अपनी आत्मा में परात्पर सत्ता की एक अंश विभूति है । क्योंकि, यदि वह अपनी आत्मा को उपलब्ध कर ले तो वह यह भी जान जाता है कि उसकी अपनी सच्ची आत्मा यह प्राकृत व्यक्तित्व एवं यह निर्मित व्यष्टिभाव नहीं है, बल्कि दूसरों के साथ तथा प्रकृति के साथ अपने सम्बन्धों में यह एक वैश्व सत्ता है तथा अपने ऊर्ध्वमुख स्वरूप में परम विश्वातीत आत्मा का एक अंश या जीवन्त अग्रभाग है ।

 

     यह परम सत्ता व्यक्ति या विश्व से परिच्छिन्न नहीं है । अतएव, आध्यात्मिक ज्ञान परम आत्मा की इन दो शक्तियों को अतिक्रम करके, यहांतक कि इन्हें त्यागकर एक ऐसी वस्तु की परिकल्पना पर पहुंच सकता है जो पूर्णतया परात्पर

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है, जिसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता, न जिसे मन द्वारा जाना ही जा सकता है, जो शुद्ध निरपेक्ष ब्रह्म है । परम्परागत ज्ञानमार्ग व्यक्ति और विश्व का परित्याग कर देता है । जिस 'निरपेक्ष' की वह खोज करता है वह निराकार, अनिर्देश्य, असंग है, वह न यह है न वह, नेति-नेति । और, फिर भी हम उसके बारे में कह सकते हैं कि वह एकमेव है, वह अनन्त है, वह अनिर्वचनीय आनन्द-चित्-सत् है । यद्यपि  वह मन के द्वारा ज्ञेय नहीं है तथापि अपनी वैयक्तिक सत्ता के द्वारा तथा विश्व के नाम-रूपों के द्वारा हम परम आत्मा, अर्थात् ब्रह्म की उपलब्धि के निकट पहुंच सकते हैं, और उस परमात्मा की उपलब्धि के द्वारा हम इस पूर्ण-निरपेक्ष की किसी प्रकार की उपलब्धि तक भी पहुंच जाते हैं, इस निरपेक्ष की जिसका कि हमारा सच्चा आत्मा ही हमारी चेतना में विद्यमान वास्तविक स्वरूप है । यदि मानव-मन को अपने सम्मुख परात्पर और अपरिच्छिन्न निरपेक्ष की कोई परिकल्पना निर्मित करनी ही हो तो इसे विवश होकर इन्हीं उपायों का प्रयोग करना पड़ेगा । अपनी निजी परिभाषाओं और अपने सीमित अनुभव से छुटकारा पाने के लिये निषेध की प्रणाली इसके लिये अपरिहार्य ही है; इसे बाध्य होकर अनिश्चित 'अपरिच्छिन्न' में से 'अनन्त' की ओर चले जाना पड़ता है । क्योंकि यह उन धारणाओं और प्रतिरूपों के बंद कारागृह में निवास करता है जो इसकी क्रिया के लिये तो आवश्यक हैं, पर जड़तत्त्व या प्राण का अथवा मन या आत्मा का स्वयंस्थित सत्य नहीं हैं । परन्तु यदि हम एक बार मन के सीमान्त के क्षीण आलोक को पार कर अतिमानसिक ज्ञान के बृहत् स्तर में पहुंच पायें तो ये उपाय अनिवार्य नहीं रह जाते । अतिमानस को परम अनन्त सत्ता का एक बिल्कुल ही और प्रकार का, भावात्मक, प्रत्यक्ष और जीवन्त अनुभव प्राप्त है । निरपेक्ष ब्रह्म व्यक्तित्व और निर्व्यक्तित्व से परे है और फिर भी वह निर्व्यक्तिक तथा परम व्यक्ति और सभी व्यक्ति--दोनों है । निरपेक्ष ब्रह्म एकत्व और बहुत्व के भेद से परे हैi, और फिर भी वह 'एक' है तथा समस्त जगतों में असंख्य 'बहु' भीं है । वह सभी गुणकृत सीमाओं से परे है और फिर भी निर्गुण शून्य के द्वारा सीमित नहीं है, बल्कि अशेष, अनन्त गुण-गण से सम्पन्न भी है । वह व्यष्टिगत जीव और सभी जीव है और उनसे अधिक भी है वह निराकार ब्रह्म भी है और विश्व भी । वह विश्वगत और विश्वातीत आत्मा है, परम प्रभु परम आत्मा है, परम पुरुष और पराशक्ति है, नित्य अजन्मा है जो अनन्त रूप से जन्म लेता है, अनत्त हैं जो असंख्य रूप से सांत है, बहुमय 'एक' है, जटिलतामय 'सरल' है, अनेकपक्षीय 'एकमेव सत्ता' है, अनिर्वचनीय नीरवता का शब्द है, निर्व्यक्तिक सर्वव्यापी व्यक्ति है, परम रहस्य है जो उच्चतम चेतना में अपनी आत्मा के प्रति प्रकाशमान है, पर अपने निरतिशय प्रकाश में हीनतर चेतना के प्रति आवृत है तथा उसके द्वारा सदा के लिये अभेद्य है । परिमाणात्मक मन के लिये ये चीजें

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 ऐसे परस्पर-विरोधी तत्त्व हैं जिनमें समन्वय नहीं किया जा सकता, पर अतिमानसिक सत्य-चेतना की अटल दृष्टि और अनुभूति के लिये ये इतने सरल और अनिवार्य रूप में एक-दूसरे  की आभ्यन्तरिक प्रकृति से युक्त हैं कि इन्हें विरोधी वस्तुएं समझना भी एक अकल्पनीय अन्याय है । परिमापक और पृथक्कारक बुद्धि की रची हुई दीवारें उस चेतना के सामने विलुप्त हो जाती हैं और सत्य अपने सरल-सुन्दर रूप में प्रकट होकर सब वस्तुओं को अपने सामंजस्य, एकत्व और प्रकाश की परिभाषाओं में परिणत कर देता है । परिमाण और विभेद रहते तो हैं, पर स्व- विस्मृतिपूर्ण आत्मा के लिये एक पृथक्कारक कारागृह के रूप में नहीं, बल्कि उपयोगयोग्य आकृतियों के रूप में रहते हैं ।

 

     परात्पर निरपेक्ष ब्रह्म से सचेतन होना और साथ ही वैयक्तिक तथा वैश्व सत्ता पर पड़नेवाले उसके प्रभाव से सचेतन होना ही चरम एवं सनातन ज्ञान है । हमारे मन नाना पद्धतियों से इस ज्ञान का विवेचन कर सकते हैं, इसके आधार पर विरोधी दर्शनों की रचना कर सकते हैं, इसे सीमित एवं संशोधित कर सकते हैं, इसके किन्हीं पहलुओं पर बहुत ही अधिक बल दे सकते हैं और दूसरों पर बहुत कम, इससे शुद्ध या अशुद्ध निष्कर्ष निकाल सकते हैं; परन्तु हमारे बौद्धिक विभेदों और अपूर्ण निरूपणों से इस अन्तिम तथ्य में कोई फर्क नहीं पड़ता कि यदि हम विचार और अनुभव को इनके अन्तिम छोर तक ले जायें तो जिस ज्ञान में ये परिसमाप्त होंगे वह यही है । अध्यात्म-ज्ञान के योग का लक्ष्य इस सनातन सद्वस्तु, इस आत्मा, इस ब्रह्म किंवा इस परात्पर के सिवा और कोई नहीं हो सकता जो सबके ऊपर और अन्दर अवस्थित है तथा जो व्यक्ति में अभिव्यक्त होता दुआ भी छुपा हुआ है, विश्व में प्रकट होकर भी प्रच्छन्न है ।

 

     ज्ञानमार्ग की सर्वोच्च परिणति का आवश्यक रूप में यह अर्थ नहीं कि अस्तित्व समाप्त हो जायगा । कारण, जिस परम सत् के सदृश हम अपने-आपको ढालते हैं, जिस निरपेक्ष और परात्पर ब्रह्म में हम प्रवेश करते हैं वह सदा ही उस पूर्ण और चरम-परम चेतना से युक्त रहता है जिसकी हम खोज कर रहे हैं और फिर भी उसके द्वारा वह जगत् में अपनी लीला को आश्रय देता है । हम यह मानने के लिये भी बाध्य नहीं हैं कि हमारा जागतिक अस्तित्व इसलिये समाप्त हो जाता है कि ज्ञान की प्राप्ति से इसका उद्देश्य या परिणति पूर्णतया चरितार्थ हो जाती है और इसलिये उसके बाद हमारे लिये यहां और कुछ (पाने को) नहीं रह जाता । क्योंकि, आरम्भ में हमारी प्राप्ति केवल यही होती है कि व्यक्ति अपनी चेतन सत्ता के सारतत्त्व में आत्मा को सनातन रूप से उपलब्ध कर लेता है और इसके संग मुक्ति, अपरिमेय नीरवता और शान्ति भी अधिगत हो जाती हैं; उस आधार पर ब्रह्म की अनन्तमुखी आत्म-चरितार्थता साधित करने, व्यक्ति में तथा उसकी परिस्थिति के द्वारा एवं उसके दृष्टान्त और कार्य-व्यवहार के द्वारा दूसरों में एवं समूचे विश्व में ब्रह्म की क्रियाशील

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दिव्य अभिव्यक्ति को साधित करने का कार्य फिर भी शेष रहेगा, नीरवता इस कार्य को निराकृत नहीं कर देती और यह मोक्ष एवं स्वातंत्र्य के साथ भी एकीभूत है, --यह वह कार्य है जिसे करने के लिये महान् व्यक्ति इस जगत् में जीवन धारण किया करते हैं । जबतक हम अहंमय चेतना में, मन के मद्धिम प्रकाश में, बन्धन में निवास करते हैं तबतक हमारी क्रियाशील आत्म-चरितार्थता साधित नहीं हो सकती । हमारी वर्तमान सीमित चेतना तो केवल तैयारी का क्षेत्र हो सकती है, यह प्रर्ण रूप में कुछ भी साधित नहीं कर सकती; क्योंकि यह जो कुछ भी प्रकट करती है वह सब अहं-अधिष्ठित अज्ञान और भ्रान्ति से पूर्णतया दूषित होता है । अभिव्यक्त जगत् में ब्रह्म की सच्ची और दिव्य आत्म-चरितार्थता ब्राह्मी चेतना के आधार पर ही साधित हो सकती है और अतएव यह तभी सम्भव हो सकती है यदि मुक्त जीव, अर्थात् जीवनमुक्त पुरुष जीवन को अपनाये ।

 

     यह है पूर्ण ज्ञान, क्योंकि हम जानते हैं कि सब जगह और सभी अवस्थाओं में देखनेवाली आंख के लिये सब कुछ वह 'एक' ही है, दिव्य अनुभव के प्रति सब कुछ भगवान् की एक ही समष्टि है । केवल हमारा मन ही अपने विचार और अभीप्सा की क्षणिक सुविधा के लिये एकत्व की एक तथा दूसरे पक्ष के बीच कठोर विभाजन की कृत्रिम रेखा खींचने एवं उनमें सतत असंगति की कल्पना करने का यत्न करता है । मुक्त ज्ञानी इस जगत् में बद्ध जीव और अज्ञानी मन की अपेक्षा अधिक ही निवास करता तथा कर्म करता है, कम नहीं । वह सभी कर्म करता है, सर्वकृत्, पर हां, करता है सच्चे ज्ञान और महत्तर चेतन शक्ति के साथ । और, ऐसा करने से वह परम एकत्व को गंवा नहीं देता, न परम चेतना और सर्वोच्च ज्ञान से नीचे ही गिरता है । क्योंकि, परम सत्, चाहे इस समय वह हमसे कितना ही छुपा हुआ क्यों न हो, यहां इस जगत् में भी उससे कम विद्यमान नहीं है जितना कि वह अत्यन्त पूर्ण और अनिर्वचनीय आत्म-लय में एवं अत्यन्त असहिष्णु निर्वाण में हो सकता है ।

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अध्याय २

 

ज्ञान की भूमिका

 

सुतरां आत्मा, भगवानन परम सद्वस्तु सर्व, परात्पर, --इन सब पक्षों से युक्त 'एकं सत्' ही यौगिक ज्ञान का लक्ष्य है । साधारण पदार्थ, प्राण और जड़तत्त्व के बाह्य रूप, हमारे विचारों और कर्मों का मनोविज्ञान, दृश्यमान जगत् की शक्तियों का बोध--ये सब ज्ञान के अंग बन सकते हैं, पर केवल वहीं तक जहां तक ये एकमेव की अभिव्यक्ति के अंग हैं । इससे यह तुरन्त स्पष्ट हो जाता है कि जिस ज्ञान की प्राप्ति के लिये योग पुरुषार्थ करता है वह उससे भिन्न है जो कुछ कि मनुष्य साधारणतया 'ज्ञान' शब्द से समझते हैं । क्योंकि, सामान्यतया ज्ञान से हमारा मतलब प्राण, मन और जड़तत्त्व के तथ्यों एवं उन्हें नियन्त्रित करनेवाले नियमों के बौद्धिक विवेचन से होता है । यह एक ऐसा ज्ञान है जो हमारे इन्द्रियबोध पर तथा इन्द्रियबोधों के आधार पर किये गये तर्क पर आधारित होता है और इसका अनुसरण कुछ तो निरी बौद्धिक तृप्ति के लिये किया जाता है और कुछ व्यावहारिक कुशलता तथा उस आन्तरिक क्षमता के लिये जिसे ज्ञान हमें अपने तथा दूसरों के जीवनों की व्यवस्था करने तथा प्रकृति की प्रकट या गुप्त शक्तियों को मानवीय उद्देश्यों के हित उपयोग में लाने के लिये किंवा अपने साथी मनुष्यों को सहायता या हानि पहुंचाने अथवा उनकी रक्षा एवं उन्नति करने या उन्हें सताने और नष्ट करने के लिये प्रदान करता है । निःसंदेह योग समस्त जीवन के समान ही व्यापक है और इन सब विषयों तथा पदार्थों को अपने अन्दर समाविष्ट कर सकता है । यहांतक कि एक ऐसा योग भी है जो स्व-तुष्टि के लिये प्रयोग में लाया जा सकता है और साथ ही आत्म-विजय के लिये भी, दूसरों को हानि पहुंचाने के लिये भी तथा उनका उद्धार करने के लिए भी । परन्तु 'समस्त जीवन' के अन्तर्गत केवल यह जीवन ही, जैसा कि मानवजाति आज इसे बिताती है, नहीं आता; यह भी नहीं कि इसके अन्तर्गत मुख्य रूप से यही आता हो । बल्कि ''समस्त जीवन'' एक उच्चतर, एवं वस्तुतः सचेतन जीवन को अपनी दृष्टि में रखता है और उसे अपना एकमात्र सच्चा उद्देश्य मानता है । हमारी अर्द्ध-चेतन मानवता ने अभीतक उस जीवन को अधिकृत नहीं किया है और वह 'स्व' को अतिक्रम करनेवाले आध्यात्मिक आरोहण के द्वारा ही उसतक पहुंच सकती है । यह महत्तर चेतना एवं उच्चतर जीवन ही योग-साधना का विशिष्ट एवं उपयुक्त लक्ष्य है ।

 

      योग शक्ति का विकास करता है, यह तब भी इसका विकास करता है जब कि हम इसे नहीं चाहते या जब हम सचेत रूप से इसे अपना लक्ष्य नहीं बनाते; और शक्ति सदा ही एक दुधारा शस्त्र होती है जो हानि पहुंचाने या विनाश करने के लिये भी काम में लाया जा सकता है और सहायता एवं रक्षा करने के लिये भी । यह भी ध्यान में रहे कि समस्त विनाश अशुभ ही नहीं होता ।

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      यह महत्तर चेतना एवं यह उच्चतर जीवन कोई ऐसा प्रबुद्ध या ज्ञानदीप्त मन नहीं है जिसे महत्तर क्रियाशील शक्ति का पोषण प्राप्त हो या जो शुद्धतर नैतिक जीवन एवं चरित्र को प्रश्रय देता हो । साधारण मानव-चेतना से इनकी उत्कृष्टता मात्रा में नहीं, बल्कि गुण-धर्म और सारतत्त्व में हैं ।  इनमें हमारी सत्ता के बाह्य ढंग या यन्त्रात्मक प्रणाली का ही नहीं, बल्कि इसके असली आधार तथा क्रियाशील तत्त्व तक का भी परिवर्तन हो जाता है । यौगिक ज्ञान मन से परे की उस गुफा चेतना में प्रविष्ट होने का यत्न करता है जो यहां केवल गुह्य रूप में ही विद्यमान है तथा सत्तामात्र के आधार में छुपी हुई है । कारण, एकमात्र वही चेतना यथार्थ ज्ञान से युक्त है और उसे प्राप्त करके ही हम ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं और जगत् का तथा उसकी वास्तविक प्रकृति एवं गुप्त शक्तियों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । यह सब जगत् जो हमारे लिये दृश्य या इन्द्रियगोचर है तथा इसके अन्दर का वह सब भी जो दृश्य नहीं है किसी ऐसी वस्तु की नाम-रूपात्मक अभिव्यक्तिमात्र है जो मन और इन्द्रियों से परे है । इन्द्रियां तथा उनके द्वारा प्रस्तुत सामग्री के आधार पर की जानेवाली बौद्धिक तर्कणा हमें जो ज्ञान प्रदान कर सकती हैं वह यथार्थ ज्ञान नहीं होता; वह तो प्रतीतियों की विद्या होती हैं । और, प्रतीतियों का भी सम्यक् ज्ञान तबतक प्राप्त नहीं हो सकता जबतक हम पहले उस सद्वस्तु को नहीं जान लेते जिसकी वे प्रतिमाएं हैं । यह सद्वस्तु ही उनकी आत्मा है और सब की आत्मा एक ही है; जब उसे अधिकृत कर लिया जाता है तब अन्य सब वस्तुओं को आज की भांति उनके प्रतीयमान रूप में ही नहीं, बल्कि सत्य रूप में जाना जा सकता है ।

 

     यह प्रत्यक्ष है कि भौतिक और इन्द्रियगोचर .पदार्थो का हम चाहे कितना ही अधिक विश्लेषण क्यों न कर लें, उसके द्वारा हम आत्म-तत्त्व का या अपने-आपका या जिसे हम ईश्वर कहते हैं उसका ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते । दूरवीक्षण, अणुवीक्षण, नश्तर, शुण्डायन्त्र तथा भबका-यन्त्र भौतिक तत्त्व से परे नहीं जा सकते, यद्यपि भौतिक पदार्थ के विषय में ये अधिकाधिक सूक्ष्म सत्यों पर पहुंच सकते हैं । अतएव, यदि हम अपनेको उसीतक सीमित रखें जो कुछ कि इन्द्रियों और उनके भौतिक साधनोपकरण हमारे सामने प्रकाशित करते हैं और यदि हम किसी अन्य सद्वस्तु को या ज्ञान के किसी अन्य साधन को आरम्भ से ही अस्वीकार कर दें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिये बाध्य होंगे कि ' भौतिक' के सिवाय और कुछ भी वास्तविक नहीं है और हममें या विश्व में कोई आत्मा नहीं है. अन्दर और बाहर कहीं भी कोई ईश्वर नहीं है, यहांतक कि स्वयं हम भी मस्तिष्क, स्नायुपुंज और देह के इस संघात के सिवाय और कुछ नहीं हैं । परन्तु ऐसा परिणाम निकालने के लिये हम केवल इस कारण बाध्य हुए हैं कि हमने इसे आरम्भ से ही पक्का मान लिया है और इसलिये अपनी मूल धारणा के चारों ओर चक्कर काटे बिना हम नहीं रह सकते ।

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सुतरां, यदि कोई ऐसा आत्मा किवा सद्वस्तु है जो इन्द्रियों के लिये प्रत्यक्ष नहीं है तो उसे भौतिक विज्ञान के साधनों से भिन्न किसी अन्य साधन के द्वारा ही खोजना और जानना होगा, और बुद्धि वह साधन नहीं है । निःसन्देह ऐसे अनेक अतीन्द्रिय सत्य हैं जिनपर बुद्धि अपने तरीके से पहुंच सकती है और जिन्हें यह बौद्धिक परिकल्पनाओं के रूप में देख तथा निरूपित कर सकती है । उदाहरणार्थ, स्वयं शक्ति का विचार भी जिसपर विज्ञान इतना आग्रह करता है एक ऐसी परिकल्पना एवं सत्य है जिसपर केवल बुद्धि ही अपनी ज्ञात सामग्री से परे जाकर पहुंच सकती है, क्योंकि हम इस वैश्व शक्ति को नहीं, बल्कि इसके परिणामों को ही अनुभव करते हैं, और स्वयं इस शक्ति को हम इन परिणामों के एक आवश्यक कारण के रूप में ही अनुमित करते हैं । इसी तरह, बुद्धि एक प्रकार की कठोर विश्लेषण-पद्धति का अनुसरण करके आत्मविषयक एक बौद्धिक परिकल्पना एवं बौद्धिक विश्वास पर पहुंच सकती है और यह विश्वास अन्य एवं महत्तर वस्तुओं के आरम्भ के रूप में अत्यन्त वास्तविक, अत्यन्त प्रकाशमय एवं अत्यन्त शक्तिशाली हो सकता है । तथापि बौद्धिक विश्लेषण अपने-आपमें, स्पष्ट परिकल्पनाओं की व्यवस्था और शायद यथार्थ परिकल्पनाओं की ठीक व्यवस्था की ओर ही ले जा सकता है; परन्तु यह वह ज्ञान नहीं हैं जो योग का लक्ष्य है । कारण, यह अपने- आपमें कोई फलप्रद ज्ञान नहीं है । मनुष्य इसमें पूर्ण हो सकता है और फिर भी वह ठीक वैसा ही रह सकता है जैसा वह पहले था । हां, इतनी बात अवश्य है कि इससे वह एक महत्तर बौद्धिक प्रकाश प्राप्त कर सकता है । परन्तु सम्भव है कि हमारी सत्ता के जिस परिवर्तन को योग अपना लक्ष्य बनाता है वह बिल्कुल ही सम्पन्न न हो ।

 

     यह सच है कि बौद्धिक विचार-विमर्श और यथार्थ विवेक ज्ञानयोग का महत्त्वपूर्ण अंग है; पर इनका लक्ष्य इस पथ के अन्तिम एवं निश्चयात्मक परिणाम पर पहुंचने की अपेक्षा कहीं अधिक पथ की कठिनाई को दूर करना ही है । हमारी साधारण बौद्धिक धारणाएं ज्ञान के मार्ग में बाधक हैं; क्योंकि वे इन्द्रियों की भ्रान्ति के वशीभूत हैं और इस विचार को अपना आधार बनाती हैं कि जड़तत्त्व एवं देह वास्तविक सत्ता हैं और प्राण एवं शक्ति, हृदयावेग एवं भावावेश तथा विचार एवं इन्द्रियानुभव वास्तविक सत्ताएं हैं; इन वस्तुओं के साथ हम अपने-आपको तदाकार कर लेते हैं, हम इनसे पीछे हटकर वास्तविक आत्मा तक नहीं पहुंच सकते । अतएव, ज्ञान के अन्वेषक के लिये यह आवश्यक है कि वह इस बाधा को दूर करे और अपने तथा जगत् के सम्बन्ध में यथार्थ धारणाओं को प्राप्त करे, क्योंकि ज्ञान के द्वारा वास्तविक आत्मा का अनुसरण हम भला करेंगे ही कैसे यदि हमें उसके स्वरूप की कुछ भी धारणा न हो और, इसके विपरीत, यदि हम ऐसे विचारों के बोझ से दबे हुए हों जो सत्य के सर्वथा विरोधी हैं ? अतएव, यथार्थ विचार

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एक आवश्यक पूर्वसाधन है और एक बार जब यथार्थ विचार का अभ्यास स्थिर रूप से डाल लिया जाता है, ऐसे विचार का जो इन्द्रिय-भ्रम, कामना, पूर्व-संस्कार और बौद्धिक पूर्व-निर्णय से मुक्त हो, तो बुद्धि शुद्ध हो जाती है और ज्ञान की अगली क्रिया में कोई गम्मीर बाधा नहीं उपस्थित करती । तथापि यथार्थ विचार तभी कार्यकर होता है जब शुद्ध बुद्धि में इसके अनंतर अन्य क्रियाएं अर्थात् अन्तर्दृष्टि, अनुभूति तथा उपलब्धि भी सक्रिय हो उठती हैं ।

 

     ये क्रियाएं क्या हैं ? ये निरा मनोवैज्ञानिक स्व-विश्लेषण और स्व-निरीक्षण नहीं हैं । ऐसा विश्लेषण और ऐसा निरीक्षण भी यथार्थ विचार की प्रक्रिया की भांति अत्यन्त उपयोगी हैं और क्रियात्मक दृष्टि से अनिवार्य भी हैं । यहांतक कि यदि इनका ठीक प्रकार से अनुसरण किया जाये तो ये एक ऐसे यथार्थ विचार की ओर ले जा सकते हैं जो पर्याप्त शक्ति और प्रभाव से युक्त हो । ध्यानात्मक चिन्तन की प्रक्रिया के द्वारा किये जानेवाले बौद्धिक विवेक की भांति ये शुद्धि-रूपी परिणाम भी उत्पन्न करेंगे । ये एक प्रकार के आत्मज्ञान की ओर ले जायेंगे तथा हृदय और अन्तरात्मा की अव्यवस्थाओं, यहांतक कि बुद्धि की अव्यवस्थाओं को भी ठीक कर देंगे । सभी प्रकार का स्व-ज्ञान वास्तविक आत्मा के ज्ञान की ओर ले जाने के लिये एक सीधा मार्ग होता है । उपनिषद् हमें बताती है कि स्वयंभू ने अन्तरात्मा के द्वार इस प्रकार बनाये हैं कि वे बाहर की ओर खुलते हैं और अधिकतर लोग बाहर की ओर, पदार्थों के बाह्य रूपों पर ही दृष्टि डालते हैं; कोई विरली ही आत्मा जो शान्त विचार एवं धीर-स्थिर ज्ञान के लिये परिपक्व होती है, अपनी दृष्टि अन्दर की ओर फेरती है, परम आत्मा के दर्शन करती और अमृत-पद लाभ करती है । दृष्टि को इस प्रकार अन्तर की ओर फेरने के लिये मनोवैज्ञानिक स्व-निरीक्षण एवं विश्लेषण महान् और कार्यकारी उपक्रम हैं । अपने भीतर हम उसकी अपेक्षा अधिक सुगमता से दृष्टि डाल सकते हैं जितनी सुगमता से कि अपनेसे बाहर स्थित वस्तुओं के भीतर डाल सकते हैं, क्योंकि वहां, अपनेसे बाहर की वस्तुओं में हम प्रथम तो बाह्य रूप से संमूढ़ हुए रहते हैं और दूसरे, उनके अन्दर की उस वस्तु का, जो उनके भौतिक उपादान से भिन्न है, हमें कोई स्वाभाविक पूर्व-अनुभव नहीं होता । इसके भी पूर्व कि ईश्वर या आत्मा हमें अपने अन्दर अनुभूत हो, शुद्ध या शान्त मन विश्वगत ईश्वर या प्रकृतिगत आत्मा को प्रतिभासित कर सकता है अथवा शक्तिशाली एकाग्रता से युक्त मन उसे जगत् एवं प्रकृति में उपलब्ध भी कर सकता है, पर ऐसा होना दुर्लभ और कठिन है । परन्तु केवल अपने अन्दर ही हम आत्मा की स्व-अभिव्यक्ति की प्रक्रिया को देख और जान सकते हैं और साथ

 

         १ किन्तु एक अंश में यह अधिक सुगम भी है, क्योंकि बाह्य वस्तुओं में हम सीमित अहं की भावना से उतने अधिक प्रतिबद्ध नहीं होते जितने कि अपने-आपमें होते हैं, इसलिये ईश्वरानुभूति की एक बाधा दूर हो जाती है ।

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ही वहीं हम उस प्रक्रिया का अनुसरण भी कर सकते हैं जिसके द्वारा यह अपनी आत्म-सत्ता में वापिस लौटती है । अतएव, 'अपने-आपको जानो (आत्मानं विद्धि) ' का प्राचीन उपदेश सदा ही एक ऐसा आदि मन्त्र रहेगा जो हमें 'उस' ज्ञान की और प्रेरित करता है । फिर भी, मनोवैज्ञानिक स्व-ज्ञान केवल आत्मा की अवस्थाओं का अनुभव होता है, वह शुद्ध सत्स्वरूप आत्मा का साक्षात्कार नहीं होता ।

 

     सुतरां, ज्ञान की जिस भूमिका पर योग ने अपनी दृष्टि जमायी है वह सत्य की केवल बौद्धिक परिकल्पना या विशद विवेचना ही नहीं है, न वह हमारी सत्ता की अवस्थाओं का आलोकित मनोवैज्ञानिक अनुभव ही है । वह एक 'उपलब्धि' है, इस शब्द के पूरे अर्थ में; वह आत्मा किंवा परात्पर एवं विश्वगत भगवान् का अपने लिये और अपने अन्दर साक्षात्कार कर लेना है, और तदनन्तर यह असम्भव हो जाता है कि हम सत्ता की अवस्थाओं को उस आत्मा के प्रकाश में न देखकर किसी अन्य प्रकाश में देखें तथा उन्हें इस यथार्थ रूप में न देखकर कि वे हमारी जागतिक सत्ता की मानसिक और भौतिक अवस्थाओं के बीच आत्मा की सम्भूति का प्रवाह हैं, किसी अन्य रूप में देखें । इस उपलब्धि में तीन क्रमिक क्रियाएं निहित हैं, आभ्यन्तरिक दृष्टि, पूर्ण आभ्यन्तरिक अनुभव और तादात्म्य ।

 

     यह आभ्यन्तरिक दृष्टि, अर्थात्, वह शक्ति जिसे प्राचीन ऋषि इतना अधिक मूल्यवान् मानते थे और जिसके कारण मनुष्य पहले की तरह निरा विचारक न रहकर ऋषि या कवि बन जाता था, अन्तरात्मा के अन्दर एक एसा प्रकाश है जिसके द्वारा अदृष्ट वस्तुएं इसके लिये--केवल बुद्धि के लिये ही नहीं, बल्कि आत्मा के लिये भी--ऐसी प्रत्यक्ष और वास्तविक हो जाती हैं जाना कि दृष्ट वस्तुएं स्थूल आंख के लिये होती हैं । भौतिक जगत् में ज्ञान सदा ही दो प्रकार का होता है, प्रत्यक्ष और परोक्ष, प्रत्यक्ष ज्ञान का मतलब है उस वस्तु का ज्ञान जो आंखों के सामने हो और परोक्ष ज्ञान का अभिप्राय है उस वस्तु का ज्ञान जो हमारी द्रष्टि से दूर और परे हो । जब पदार्थ हमारी दृष्टि से परे होता है तो हम आवश्यक्; रूप से उसके विषय में अनुमान, कल्पना एवं उपमान के द्वारा अथवा दूसरे लोगों के जो उसे देख चुके हैं, वर्णन सुनकर किंवा उसके चित्रात्मक या अन्यविध निरूपणों का, यदि ये लभ्य हों, अनुशीलन करके ही किसी धारणा पर पहुंचने के लिये बाध्य होते हैं । निःसन्देह इन सब साधनों का एक साथ उपयोग करके हम उस वस्तु के विषय में एक न्यूनाधिक उपयुक्त धारणा पर या उसकी किसी सांकेतिक प्रतिमा पर पहुंच सकते हैं, परन्तु स्वयं उस वस्तु का हमें अनुभव नहीं होता; वह अभीतक हमारे लिये एक गृहीत सद्वस्तु नहीं होती, बल्कि एक सद्वस्तुसम्बन्धी हमारा प्रत्ययात्मक निरूपणमात्र होती है । परन्तु एक बार जब हम उसे अपनी आंखों से देख लते हैं--क्योंकि और कोई भी इन्द्रिय सक्षम नहीं है, --तो हम उसे अधिकृत ओर उपलब्ध कर लेते हैं; वह वहां हमारी तृप्त सत्ता में सुरक्षित होती है, हमारा ज्ञानगत

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अंग होती है । चैत्य वस्तुओं तथा आत्मा के सम्बन्ध में भी ठीक यही नियम लागू होता है । दार्शनिकों या गुरुओं से अथवा प्राचीन ग्रन्थों से हम आत्मा के विषय में स्पष्ट और प्रकाशपूर्ण उपदेश भले ही श्रवण कर लें, विचार, अनुमान, कल्पना, उपमान या अन्य किसी प्राप्य साधन से हम इसकी मानसिक आकृति बनाने या मानसिक परिकल्पना करने का यत्न भी कर लें, उस परिकल्पना को हम अपने मन में भले ही दृढ़तापूर्वक जमा लें और एक पूर्ण एवं ऐकान्तिक एकाग्रता के द्वारा अपने अन्दर स्थिर भी कर लें, किन्तु हम ने अभी आत्मा को उपलब्ध नहीं किया है, ईश्वर के दर्शन नहीं किये हैं । जब सुदीर्घ और सुस्थिर एकाग्रता के बाद या किसी अन्य साधन के द्वारा मन का आवरण विदीर्ण या दूर हो जाता है, जब जागरित मन के ऊपर ज्योति का प्रवाह, ज्योतिर्मय ब्रह्म, फूट पड़ता है और परिकल्पना एक ऐसी ज्ञान-दृष्टि को स्थान दे देती है जिसमें आत्मा वैसा ही प्रत्यक्ष, वास्तव और मूर्त होता है जैसी कि स्थूल वस्तु नेत्र के लिये होती है, केवल तभी हम ज्ञान में उसे उपलब्ध करते हैं; क्योंकि तब हमने दर्शन कर लिये हैं । उस दिव्य दर्शन के अनन्तर प्रकाश के चाहे कितने ही तिरोभाव एवं अन्धकार के चाहे कितने ही अन्तराय आत्मा को पीड़ित क्यों न करें, यह जिस वस्तु को एक बार अधिकृत कर चुकी है उसे इस प्रकार से कभी नहीं खो सकती कि पुनः प्राप्त ही न कर सके । अनुभव अनिवार्य रूप से पुन: -पुनः नवीन होता रहता है और निश्चय ही और भी अधिक बार प्राप्त होने लगता है जबतक कि वह स्थायी ही नहीं हो जाता । ऐसा कब और कितनी शीघ्रता से होता है यह उस भक्ति एवं निष्ठा पर निर्भर करता है जिसके साथ हम मार्ग पर डटे रहते हैं और गुप्त भगवान् को अपने संकल्प या प्रेम के द्वारा परिवेष्टित कर लेते हैं ।

 

     यह अन्तर्दृष्टि एक प्रकार का आन्तरिक अनुभव है; किन्तु आन्तरिक अनुभव इस दृष्टि तक ही सीमित नहीं है; दृष्टि हमें आत्मा की ओर खोल देती है, उसका आलिंगन नहीं करती । जिस प्रकार आंख को, यद्यपि अकेली वही उपलब्धि का प्रथम आभास देने में सक्षम है, सर्वग्राही ज्ञान प्राप्त करने के पूर्व त्वचा तथा अन्य ज्ञानेंद्रियों के अनुभव की सहायता का आह्वान करना पड़ता है, इसी प्रकार आत्मा के अन्तर्दर्शन को भी हमें अपने सभी अंगों में इसके अनुभव के द्वारा पूर्ण बनाना चाहिये । हमारी सम्पूर्ण सत्ता को भगवान् की कामना करनी चाहिये न कि केवल हमारी आलोकित ज्ञान-दृष्टि को ही ऐसा करना चाहिये । कारण हममें प्रत्येक तत्त्व आत्मा की अभिव्यक्तिमात्र है और इसीलिये प्रत्येक पुन: अपनी वास्तविक सत्तातक पहुंच सकता तथा उसका अनुभव कर सकता है । हम आत्मा का मानसिक अनुभव प्राप्त कर सकते हैं और उन सब आपातत: अमूर्त वस्तुओं को--चेतना, शक्ति,  

 

        यह ज्ञानयोग की त्रिविध क्रिया अर्थात् श्रवण, मनन और निदिध्यासन का विचार है जिनका मतलब है सुनना, विचारना या मनन करना और एकाग्रता के द्वारा स्थिर कर लेना ।

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आनन्द और इनके नानाविध रूपों एवं व्यापारों को-जो मन के लिये सत्ता का स्वरूप हैं, मूर्त सद्वस्तुओं के रूप में हृदयंगम कर सकते हैं; इस प्रकार मन ईश्वर के विषय में तृप्त हो जाता है । 'प्रेम' और हृद्गत आनन्द के द्वारा, ---अपनी अन्तःस्थित आत्मा एवं विश्वगत आत्मा के, और जिनके भी साथ हमारे सम्बन्ध हैं उन सबके आत्मा के प्रेम एवं आनन्द के द्वारा--हम आत्मा की भागवत अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं; इस प्रकार हृदय ईश्वर के विषय में तृप्त हो जाता है । सौन्दर्य में हम आत्मा की रसात्मक अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं तथा उस निरपेक्ष सद्वस्तु की, जो हमारे किंवा प्रकृति के द्वारा सृष्ट प्रत्येक वस्तु के भीतर रसग्राही मन तथा इन्द्रियों के प्रति अपने आकर्षण में सर्व-सुन्दर है, आनन्दानुभूति एवं रसास्वादन प्राप्त कर सकते हैं; इस प्रकार इन्द्रिय ईश्वर के विषय में तृप्त हो जाती है । यहांतक कि समस्त जीवन एवं रचना में तथा उन शक्तियों, बलों एवं सामर्थ्यों के, जो हमारे या दूसरों के द्वारा या जगत् में क्रिया करते हैं, सकल व्यापारों में भी हम आत्मा का प्राणिक एवं स्नायविक अनुभव और कार्यत: भौतिक सम्वेदन भी प्राप्त कर सकते हैं : इस प्रकार प्राण और शरीर भी ईश्वर के विषय में तृप्त हो जाते हैं ।

 

     यह सब ज्ञान और अनुभव तादात्म्य पर पहुंचने तथा उसे अधिकृत करने के प्रधान साधन हैं । वह हमारी अपनी ही आत्मा है जिसका हम साक्षात्कार और अनुभव करते हैं और इसलिये वह साक्षात्कार और अनुभव तबतक अपूर्ण ही रहते हैं जबतक कि वे तादात्म्य में परिसमाप्त नहीं हो जाते और जबतक हम अपनी समस्त सत्ता में परम वैदान्तिक ज्ञान 'वही मैं हूं (सोऽमस्मि)' को चरितार्थ करने में समर्थ नहीं हो जाते । हमें ईश्वर का केवल साक्षात्कार और आलिंगन ही नहीं करना होगा, बल्कि वही सद्वस्तु बन जाना होगा । अहं और उसकी सभी वस्तुओं को 'उस'में, जिससे ये सब निःसृत हुए हैं, परिणत, उदात्तीकृत तथा स्व-निर्मुक्त करके हमें आत्मा के साथ उसकी रूपातीत और अभिव्यक्ति-अतीत अवस्था में एक होना होगा; इसके साथ ही उसकी समस्त व्यक्त सत्ताओं और सम्भूतियों में भी हमें वहीं आत्मा बनना होगा; उन अनन्त सत्ता, चेतना, शान्ति एवं आनन्द में जिनके द्वारा वह अपने-आपको हममें प्रकाशित करता है, तथा उस कर्म एवं रचना में और आत्म-परिकल्पना की उस लीला में जिनके द्वारा वह इस जगत् में अपने-आपको आच्छादित करता है, उसके साथ एक होना होगा ।

 

     आधुनिक मन के लिये यह समझना कठिन है कि कैसे हम आत्मा या ईश्वर पर बौद्धिक रूप से विचार करने से अधिक भी कुछ कर सकते हैं; परन्तु वह इस दृष्टि, अनुभूति और सम्भूति की कुछ झलक प्रकृति के प्रति उस आन्तरिक जागरण से ले सकता है जिस एक महान् अंग्रेज कवि ने यूरोपीय कल्पना के प्रति वास्तविक सत्य बना दिया है । यदि हम उन कविताओं का, जिनमें वर्ड् स्वर्थ ने अपनी प्रकृति-विषयक अनुभूति को व्यक्त किया है, अध्ययन करें तो अनुभूति क्या वस्तु

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है इसकी एक दूरवर्ती कल्पना हम उससे ग्रहण कर सकते हैं । कारण, सर्वप्रथम, हम देखते हैं कि उसे जगत् में किसी ऐसी वस्तु का अन्तर्दर्शन हुआ था जो इसमें समाविष्ट सभी वस्तुओं का वास्तविक आत्मा है और साथ ही एक ऐसी चिन्मय शक्ति एवं उपस्थिति है जो इसके रूपों से भिन्न है और फिर भी इसके रूपों का मूल कारण है तथा उनमें प्रकटीभूत है । हम देखते हैं कि उसे इस आत्मा का केवल अन्तर्दर्शन तथा वह शान्ति और आनन्द ही प्राप्त नहीं हुए थे जिन्हें इसकी उपस्थिति लाती है, अपितु इसका मानसिक, सौन्दर्यात्मक, प्राणिक और शारीरिक सम्वेदन तक हुआ था; इसका यह सम्वेदन एवं अन्तर्दर्शन उसे केवल इसकी अपनी सत्ता में ही नहीं, बल्कि अत्यन्त निकटस्थ पुरुष, सरलतम मनुष्य तथा जड़ चट्टान में भी हुआ था; और, अन्त में, वह कभी-कभी ऐसी एकात्मता प्राप्त भी कर लेता था, जो उसके समर्पण का विषय बन जाती थी । अपने इस समर्पण की एक अवस्था का वर्णन उसने 'एक निद्रा ने मेरी आत्मा को मुहरबन्द कर दिया है' अपनी इस कविता में गम्भीर और ओजस्वी शब्दों में किया है । उसमें वह कहता है कि मैं अपनी सत्ता में पृथ्वी के साथ एक हो गया हूं ''इसके दैनिक परिभ्रमण में मै तनों, पेड़-पौधों और पत्थरों के साथ चक्कर काट रहा हूं ।''  इस अनुभूति को भौतिक प्रकृति से अधिक गभीर आत्मातक ऊंचा उठा ले जाओ तो तुम यौगिक ज्ञान के मूल तत्त्वों पर जा पहुंचोगे । परन्तु यह सब अनुभव परात्पर की, जो अपने सब रूपों से परे हैं, अतीन्द्रिय एवं अतिमानसिक उपलब्धि का बहिर्द्वारमात्र है, और ज्ञान के अन्तिम शिखर पर तो हम तभी आरूढ़ हो सकते हैं यदि हम अतिचेतन में प्रविष्ट होकर वहां अनिर्वचनीय के साथ स्वर्गीय एकत्व में अन्य समस्त अनुभव को निमज्जित कर दें । यह समस्त दिव्य ज्ञान-प्राप्ति की पराकाष्ठा है; यहीं समस्त दिव्य आनन्द और दिव्य जीवन का उद्गम है ।

 

     इस प्रकार ज्ञान की यह भूमिका इस पथ और वस्तुत: सभी पथों का लक्ष्य होती है जब कि अन्त तक उनका अनुसरण किया जाता है । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बौद्धिक विवेचना एवं विभावना, समस्त एकाग्रता एवं मनोवैज्ञानिक स्व-ज्ञान, प्रेम द्वारा हृदय की समस्त गवेषणा, सौन्दर्य द्वारा इन्द्रियों का, शक्ति एवं कर्मकलाप द्वारा संकल्प का तथा शान्ति एवं हर्ष द्वारा अन्तरात्मा का समस्त अन्वेषण हमारे आरोहण की कुंजियामात्र हैं, उसके राजपथ, प्राथमिक मार्ग एवं आरम्भमात्र हैं जिनका हमें उपयोग और अनुसरण करना होगा, जबतक कि हम विस्तीर्ण एवं अनन्त स्तर उपलब्ध न कर लें और दैवी द्वार अनन्त ज्योति की ओर उद्घाटित न हो जायें ।

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अध्याय ३

 

विशुद्ध बुद्धि

 

ज्ञान की जिस भूमिका की हम अभीप्सा करते हैं उसका वर्णन ज्ञान के उन साधनों को निर्धारित कर देता है जिनका कि हम प्रयोग करेंगे ।  संक्षेप में यूं कहा जा सकता है कि ज्ञान की वह भूमिका एक अतिमानसिक उपलब्धि है जो मानसिक प्रतिरूपों के द्वारा हमारे अन्दर के नाना मानसिक तत्वों की सहायता से तैयार की जाती है और जो एक बार प्राप्त हो जाने पर फिर अपने-आपको हमारी सत्ता के सभी अंगों में अधिक पूर्णता के साथ प्रतिफलित करती है । यह उस भगवानन, एकमेव तथा सनातन के प्रकाश में, जो वस्तुओं की प्रतीतियों के एवं हमारी स्थूल सत्ता की बाह्य अवस्थाओं के प्रति अधीनता से मुक्त है, हमारी सम्पूर्ण सत्ता का पुनरवलोकन और अतएव पुनर्निर्माण है ।

 

     'मानवीय' से 'दैवी' की ओर 'विभक्त' और 'विसंवादी' से 'एकमेव' तथा 'दृग्विषय' से सनातन सत्य की ओर इस प्रकार के प्रयाण में एवं आत्मा के ऐसे पूर्ण पुनर्जन्म या नव-जन्म में दो अवस्थाएं अवश्यमेव आती हैं : एक अवस्था तैयारी की होती है जिसमें आत्मा तथा इसके करण योग्य बनते हैं, और, दूसरी, तैयार आत्मा में इसके योग्य करणों के द्वारा वास्तविक प्रकाश और उपलब्धि के उदय की । निःसन्देह इन दो अवस्थाओं के बीच काल-क्रम की कोई कठोर सीमारेखा नहीं है; बल्कि ये एक-दूसरी के लिये आवश्यक हैं और एक साथ चलती रहती हैं । कारण, जितनी- जितनी आत्मा योग्य बनती है उतनी-उतनी यह अधिक प्रकाशमय होती जाती है और ऊंची-से-ऊंची एवं पूर्ण-से-पूर्ण उपलब्धियों की ओर ऊपर उठती है, और जितक-जितना ये प्रकाश और ये उपलब्धियां बढ्ती हैं, उतनी-उतनी यह योग्य बनती है और उतना-उतना इसके करण अपने कार्य में अधिक समर्थ होते जाते हैं । आत्मा के प्रकाशरहित तैयारी के काल भी होते हैं और प्रकाशयुक्त प्रगति के काल भी, और अन्त में प्रकाशपूर्ण उपलब्धि की कम या अधिक लंबी आत्मिक घड़ियां भी आती हैं, ऐसी घड़ियां जो बिजली की चमक की न्याई क्षणिक होती हैं और फिर भी हमारा सम्पूर्ण आध्यात्मिक भविष्य पलट देती हैं; साथ ही, ऐसी घड़ियां भी आती हैं जो सत्य के सूर्य के अविच्छिन्न प्रकाश या रश्मि-जाल में अनेक मानवीय घण्टों, दिनों एवं सप्ताहों तक चलती रहती हैं । इन सबमें से होती हुई आत्मा, जो एक बार ईश्वर की ओर मुड़ चुकी है, अपने नये जन्म तथा वास्तविक अस्तित्व की नित्यता एवं पूर्णता की ओर विकसित होती जाती है ।

 

     तैयारी का सबसे पहला आवश्यक तत्त्व अपनी सत्ता के सभी अंगों को शुद्ध करना है; विशेषकर, ज्ञान-मार्ग के लिये, बुद्धि को शुद्ध करना आवश्यक है, यह

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शुद्धि एक ऐसी कुंजी है जो निश्चय ही सत्य का द्वार खोल देती है; पर अन्य अंगों को शुद्ध किये बिना बुद्धि को शुद्ध कर लेना शायद ही सम्भव हो । अशुद्ध हृदय, अशुद्ध इन्द्रिय, अशुद्ध प्राण बुद्धि को विभ्रान्त कर देते हैं, इसकी सामग्री को अस्त-व्यस्त, इसके निष्कर्षों को विकृत एवं इसकी दृष्टि को तमसावृत कर देते हैं और इसके ज्ञान का अशुद्ध प्रयोग करते हैं; अशुद्ध देह-संस्थान इसकी क्रिया को अवरुद्ध या प्रतिबद्ध कर देता है । अतएव, सर्वांगीण शुद्धि आवश्यक है । यहां भी अन्योन्य-निर्भरता देखने में आती है, क्योंकि हमारी सत्ता के प्रत्येक अंग का शोधन अन्य प्रत्येक अंग की शुद्धता से लाभान्वित होता है । उदाहरणार्थ, जैसे-जैसे भाविक हृदय अधिकाधिक शान्त होता जाता है वैसे-वैसे वह बुद्धि के शुद्ध करने में सहायक होता है; उधर शुद्ध बुद्धि, उसी प्रकार, अद्यावधि अपवित्र हद्भावों के मलिन एवं तमसाच्छन्न व्यापारों में शान्ति एवं प्रकाश की स्थापना करती है । यहां तक भी कहा जा सकता है कि यद्यपि हमारी सत्ता के प्रत्येक अंग के शोधन के अपने विशिष्ट नियम हैं तथापि शुद्ध बुद्धि ही मनुष्य में उसकी मलिन एवं अव्यवस्थित सत्ता का अत्यधिक शक्तिशाली शोधक है और जो उसके अन्य अंगों को समुचित क्रिया करने के लिये अत्यन्त प्रभुत्वशाली ढंग से विवश करता है । गीता कहती है कि ज्ञान परम पवित्र वस्तु है; प्रकाश समस्त निर्मलता एवं समस्वरता का स्रोत है जैसे कि अज्ञानान्धकार हमारे समस्त स्खलनों का मूल है । उदाहरणार्थ, प्रेम हृदय का शोधक है और हमारे सब भावों को दिव्य प्रेम के प्रतिरूपों में परिणत करने से हमारा हदय पूर्णता एवं कृतार्थता लाभ करता है, फिर भी स्वयं प्रेम को दिव्य ज्ञान के द्वारा पवित्र करने की आवश्यकता होती है । हृदय का ईश्वर-सम्बन्धी प्रेम अन्ध, संकीर्ण एवं अज्ञानयुक्त हो सकता है और वह धर्मान्धता और अन्धकारप्रियता की ओर ले जा सकता है; यहांतक कि, अन्य प्रकार से शुद्ध होने पर भी, वह ईश्वर को सीमित व्यक्तित्व के सिवाय अन्यत्र कहीं देखना अस्वीकार करके तथा सच्चे एवं अनन्त दिव्य दर्शन से पीछे हटकर हमारी पूर्णता को सीमित कर सकता है । इसी प्रकार हृदय का मानव-सम्बन्धी प्रेम भी भाव, कर्म एवं ज्ञान की विकृतियों एवं अतिरंजनाओं की ओर ले जा सकता है । अतएव, इन्हें बुद्धि के परिशोधन के द्वारा सुधारना और रोकना होगा ।

 

     तथापि हमें इस विषय पर गहराई के साथ और स्पष्ट रूप से विचार करना होगा कि अंडरस्टैण्डिंग (understanding--बुद्धि) तथा इसके शोधन से हमारा क्या अभिप्राय है । 'अंडरस्टैण्डिंग' शब्द का प्रयोग हम संस्कृत के दार्शनिक शब्द 'बुद्धि' के अंग्रेजी भाषा में प्राप्य निकटतम पर्याय के रूप में करते हैं; अतएव, हम 'इससे इन्द्रिय-मानस के उस व्यापार को बहिष्कृत कर देते हैं जो सब प्रकार के बोधों को, बिना किसी भेद के, चाहे वे ठीक हों या गलत, सच्चे दृग्विषय हों या निरे मिथ्या, सूक्ष्म हों या स्थूल, केवल अपने अन्दर अंकित कर लेता है । विशृंखल

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परिकल्पनाओं के उस समूह को भी हम इससे बहिष्कृत कर देते हैं जो इन बोधों का उल्थामात्र है और जो इन्हीं की भांति निर्णय एवं विवेक के उच्चतर तत्त्व से शून्य है । अभ्यासगत विचारों की उस उछल-कूद मचानेवाली अविच्छिन्न धारा को भी हम इसके अन्तर्गत नहीं कर सकते जो औसत अविचारशील मनुष्य के मन में बुद्धि का काम करती है, पर जो केवल अभ्यस्त संस्कारों, कामनाओं, पक्षपातों, पूर्वनिर्णयों, अन्यलब्ध या परम्पराप्राप्त अभिरुचियों की अनवरत आवृत्तिमात्र होती है, भले वह उन प्रत्ययों की, जो परिपार्श्व से हमारे भीतर प्रवाहित होते हैं और प्रभुत्वपूर्ण विवेककारी बुद्धि की चुनौती के बिना प्रविष्ट होने दिये जाते हैं, अभिनव निधि से अपनेको निरन्तर समृद्ध ही क्यों न करती रहे । इसमें सन्देह नहीं कि यह एक ऐसी बुद्धि है जो पशु से मनुष्य के विकसित होने में अत्यन्त उपयोगी रही है; परन्तु यह पशु के मन से केवल एक कदम ही ऊपर है; यह अर्द्ध-पाशविक बुद्धि है जो अभ्यास, कामना एवं इन्द्रियों की दासी है और वैज्ञानिक या दार्शनिक या आध्यात्मिक कैसे भी ज्ञान की खोज के लिये किसी काम की नहीं है । हमें इसके परे जाना होगा; इसका शोधन केवल इस प्रकार किया जा सकता है कि इसे पूर्ण रूप से पदच्युत या शान्त कर दिया जाये अथवा इसे वास्तविक बुद्धि में रूपान्तरित कर दिया जाये ।

 

     बुद्धि से हमारा अभिप्राय उस बुद्धि से है जो एक ही साथ अवलोकन, निर्णय और विवेक करती है, अर्थात् मानव प्राणी की उस सच्ची बुद्धि से है जो इन्द्रियगण एवं कामना के या अभ्यास की अन्ध शक्ति के वश में नहीं है, बल्कि जो प्रभुत्व और ज्ञान के लिये अपने निज अधिकार से ही कार्य करती है । निःसन्देह, मनुष्य जैसा आज है उसकी बुद्धि अपनी सर्वोत्तम अवस्था में भी पूर्णरूपेण इस स्वतन्त्र और प्रभुत्वशाली ढंग से कार्य नहीं करती; पर जहांतक यह असफल होती है उसका कारण यह होता है कि यह अभीतक भी निम्नतर अर्द्ध-पाशविक क्रिया से मिश्रित है तथा अशुद्ध है और अपनी विशिष्ट क्रिया से निरन्तर रोकी जाती एवं नीचे की ओर खींची जाती है । अपनी शुद्धावस्था में इसे इन निम्नतर गतियों में उलझे नहीं रहना चाहिये, बल्कि अपने विषय से पीछे हटकर स्थित होना चाहिये, और निष्पक्ष भाव से उसका निरीक्षण करके अन्यों के साथ साम्य और भेदमूलक तुलना एवं उपमान के बल पर समष्टि में उसे उसके समुचित स्थान पर रखना चाहिये, अपनी सुनिरीक्षित सामग्री के आधार पर निगमन, व्याप्ति एवं अनुमान के द्वारा तर्क-वितर्क करना चाहिये और अपनी सब प्राप्तियो को स्मृति में धारण करके तथा एक परिशोधन एवं सुनिर्देशित कल्पना के द्वारा उन्हें परिपूर्ण बनाकर सब कुछ को एक प्रशिक्षित एवं अनुशासित निर्णय के प्रकाश में देखना चाहिये । यही है बौद्धिक प्रज्ञा जिसके नियम एवं विशेषतासूचक व्यापार निष्पक्ष निरीक्षण, निर्णय और तर्कणा होते हैं ।

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     परन्तु 'बुद्धि' शब्द एक अन्य अधिक गंभीर अर्थ में भी प्रयुक्त किया जाता है । बौद्धिक प्रज्ञा केवल निम्नतर बुद्धि है; एक अन्य उच्चतर बुद्धि भी है जो प्रज्ञा नहीं बल्कि दृष्टि है, नीचे स्थित होना नहीं, वरन् ज्ञान में ऊपर स्थित होना है, और जो ज्ञान की खोज एवं प्राप्ति निरीक्षित सामग्री के अधीन रहकर नहीं करती, बल्कि सत्य को पहले से ही अपने अन्दर रखती है और सत्यदर्शक एवं अन्तर्ज्ञानात्मक विचार के रूपों में उसे प्रकट करती है । साधारणतया मानव मन इस सत्य-सचेतन ज्ञान के अधिक-से-अधिक निकट जिस ज्ञान-क्रियातक पहुंचता है वह प्रकाशयुक्त खोज की वह अपूर्ण क्रिया ही होती है जो तब घटित होती है जब विचार का अत्यधिक दबाव पड़ता है, और जब बुद्धि पर्दे के पीछे से निकलनेवाले अविच्छिन्न विद्युत्-कणों से आविष्ट हो जाती है तथा उच्चतर उत्साह के वशीभूत होकर ज्ञान की बोधिमूलक एवं अन्त:प्रेरित शक्ति से एक प्रचुर अन्तःप्रवाह को प्रवेश करने देती है । कारण, मनुष्य में एक बोधिमय मन है जो अतिमानसिक शक्ति से आनेवाले इन अन्तःप्रवाहों के ग्रहीता एवं इनकी प्रणालिका का काम करता है । परन्तु हमारे अन्दर बोधि और अन्तःप्रेरणा की क्रिया अपूर्ण ढंग की और रुक-रुककर होती है; साधारणतया, यह श्रमरत एवं संघर्षशील हृदय या बुद्धि की मांग के प्रत्युत्तर के रूप में आरम्भ होती है और इसके परिणाम सचेतन मन में प्रवेश करने से भी पहले उस विचार या अभीप्सा के द्वारा, जो उनसे मिलने के लिये ऊपर उठी थी, प्रभावित हो जाते हैं, वे शुद्ध नहीं रहते, बल्कि हृदय की आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तित हो जाते हैं: और जब वे सचेतन मन में प्रविष्ट होते हैं तो हमारी बौद्धिक प्रज्ञा उन्हें तुरन्त ही अपने अधिकार में कर लेती है और विकीर्ण या छिन्न-भिन्न कर डालती है जिससे कि वे हमारे अपूर्ण बौद्धिक ज्ञान के साथ ठीक बैठ जायें, अथवा हमारा हृदय उन्हें अपने अधिकार में कर लेता है और उन्हें नये सिरे से इस प्रकार ढालता है कि हमारी अन्ध या अर्द्ध-अन्ध हृद्गत लालसाओं एवं अभिरुचियों के अनुकूल बन जायें, अथवा यहांतक कि निम्नतर तृष्णाएं भी उन पर अपना अधिकार जमा लेती हैं और उन्हें हमारी सुधाओं एवं आवेगों के उग्र प्रयोजनों के लिये विकृत कर डालती हैं ।

 

     यदि यह उच्चतर बुद्धि इन निम्नतर अंगों के हस्तक्षेप से निर्मुक्त रहकर कार्य कर सके तो यह सत्य के शुद्ध रूपों को प्रकट करेगी; तब निरीक्षण एक ऐसी अन्तर्दृष्टि के अधीन हो जायेगा या उसे अपना स्थान दे देगा जो इन्द्रिय-मानस तथा इन्द्रियों की साक्षी पर दासवत् आश्रित रहे बिना देख सकेगी; कल्पना सत्य की स्वयं-निश्चित अनुप्रेरणा को स्थान दे देगी, तर्क सम्बन्धों के स्वयंस्फूर्त्त विवेक को

 

       भागवत पुरुष को 'अध्यक्ष' कहा गया है, अध्यक्ष अर्थात् वह पुरुष जो सबके ऊपर परम व्योम में विराजमान रहकर वस्तुओं का अधीक्षण करता है, उन्हें ऊपर से देखता और नियन्त्रित करता है ।

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और तर्क का परिणाम एक ऐसे अन्तर्ज्ञान को स्थान दे देगा जो उन सम्बन्धों को अपने अन्दर निहित रखेगा न कि उनके आधार पर श्रमपूर्वक परिणाम निकालेगा, निर्णय एक ऐसी विचार-दृष्टि को स्थान दे देगा जिसके प्रकाश में सत्य उस पर्दे को जिसे यह आज ओढ़े हुए है और जिसका भेदन हमारे बौद्धिक निर्णय को करना पड़ता है हटाकर प्रकाशित हो जायेगा । उधर 'स्मृति' भी वह अधिक व्यापक अर्थ ग्रहण कर लेगी जो ग्रीक चिन्तन में उसे दिया गया है, वह अब पहले की तरह उस भंडार में से जो व्यक्ति ने अपने वर्तमान जीवन में उपलब्ध किया है, एक तुच्छ चुनाव नहीं रहेगी, प्रत्युत वह एक ऐसा ज्ञान बन जायगी जिसके अन्दर सब कुछ निहित है, जो उन सब चीजों को जिन्हें आज हम कष्टपूर्वक अर्जित करते प्रतीत होते हैं, पर वस्तुत: इस अर्थ में जिन्हें हम स्मरणमात्र करते हैं, अपने अन्दर गुप्त रूप से धारण करता है तथा अपने अन्दर से निरन्तर देता रहता है, वह एक ऐसा ज्ञान बन जायगी जो भूत के समान ही भविष्य को भी अपने अन्दर समाविष्ट रखता है । निःसन्देह यह अभिमत ही है कि हम सत्य-सचेतन ज्ञान की इस उच्चतर शक्ति के प्रति अपनी ग्रहणशीलता में विकसित होंवे, परन्तु इसके पूर्ण एवं अपरोक्ष प्रयोग का सौभाग्य अभीतक देवताओं को ही प्राप्त है और यह हमारी वर्तमान मानवीय अवस्था से परे की वस्तु है ।

 

     इस प्रकार हमने देखा कि बुद्धि और उस उच्चतर शक्ति से, हमारा ठीक अभिप्राय क्या है जिसे हम सुविधा के लिये आदर्श शक्ति कह सकते हैं और जिसका विकसित बुद्धि के साथ बहुत कुछ वैसा ही सम्बन्ध है जैसा इस बुद्धि का अविकसित मनुष्य की अर्द्ध-पाशविक बुद्धि से है; इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि बुद्धि के लिये यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति में अपना भाग यथावत् पूर्ण कर सकने के पूर्व उसके जिस शोधन की आवश्यकता है उसका स्वरूप क्या है । अशुद्धतामात्र का अर्थ है क्रिया की गड़बड़ी, वस्तुओं के धर्म से अर्थात् उनके युक्त एवं स्वभावत: उचित व्यापार से विस्मृति, ऐसी वस्तुओं के जो अपने उस उचित व्यापार में विशुद्ध तथा हमारी पूर्णता में सहायक होती हैं । इस प्रकार की विच्युति प्रायः धर्मों के उस अज्ञानयुका संकर (confusion) का परिणाम होती है जिसमें कोई कार्यकारी शक्ति अपनी विशिष्टतया निजी प्रवृत्तियों से भिन्न अन्य प्रवृत्तियों की मांग का अनुसरण करने लगती है ।

 

     बुद्धि की अशुद्धता का प्रथम कारण विचार की क्रियाओं में कामना का मिश्रण है, और स्वयं कामना भी हमारी सत्ता के प्राणिक एवं भाविक अंगों मे अन्तर्निहित इच्छा-शक्ति की एक अशुद्धि है । जब प्राण और हृदय की कामनाएं शुद्ध ज्ञानेच्छा में हस्तक्षेप करती हैं, तब विचार-क्रिया उनके अधीन हो जाती है, अपने विशिष्ट लक्ष्यों से भिन्न लक्ष्यों का अनुसरण करती है और इसके बोध प्रतिहत और अस्त-- 

 

        इस अर्थ में भविष्यवाणी। की शक्ति की ठीक ही भविष्य की स्मृति कहा गया है ।

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व्यस्त हो जाते हैं | बुद्धि को कामना और हद्भाव के घेरे से ऊपर उठना होगा और इसके आक्रमण से पूर्णतया मुक्त होने के लिये इसे स्वयं प्राणिक भागों एवं भावावेगों को भी शुद्ध कर लेना होगा । उपभोग की इच्छा प्राणिक सत्ता का निज धर्म है, पर उपभोग का चुनाव या पीछा करना इसका काम नहीं है, उसका निर्धारण तथा उपार्जन तो उच्चतर कार्य-शक्तियों को ही करना होगा; अतएव, प्राणसत्ता को यह सिखाना होगा कि भागवत संकल्प की क्रिया के अनुसार प्राण के यथावत् कार्य करने में जो कुछ भी लाभ या उपभोग इसे प्राप्त हो उसीको यह ग्रहण करे और लालसा एवं आसक्ति से अपने-आपको मुक्त कर ले । ऐसे ही, हृदय को प्राण- तत्त्व  एवं इन्द्रियों की कामनाओं के प्रति अधीनता से मुक्त करना होगा और इस प्रकार उसे काम, क्रोध, भय, घृणा आदि के मिथ्या भावों से जो हृदय की मुख्य अशुद्धियां हैं, मुक्त होना होगा । प्रेम करने की इच्छा हृदय का निज स्वभाव है, परन्तु यहां भी प्रेम का चुनाव और अनुसरण त्यागना होगा अथवा इन्हें शान्त करना होगा और निश्चय ही हृदय को गहराई एवं तीव्रता के साथ प्रेम करना सिखाना होगा, पर ऐसी गहराई के साथ जो शान्त हो तथा ऐसी तीव्रता के साथ जो क्षुब्ध और विशृंखलित नहीं, बल्कि सुस्थिर एवं समान हो । बुद्धि को भ्रांति, अज्ञान और विपर्यय से मुक्त करने के लिये इन अंगों को शान्त करना तथा इन पर प्रभुत्व स्थापित करना सबसे पहली शर्त है ।

 

     इस शोधन में स्नायविक सत्ता और हृदय की पूर्ण समता की प्राप्ति भी समाविष्ट है; अतएव, जिस प्रकार समता कर्ममार्ग का आदिमन्त्र थी उसी प्रकार यह ज्ञानमार्ग का भी आदिमन्त्र है ।

 

     बुद्धि की अशुद्धता का दूसरा कारण इन्द्रियजन्य भ्रांति और विचार की क्रियाओं में इन्द्रिय-मानस का मिश्रण है । जो कोई भी ज्ञान अपने-आपको इन्द्रिय के अधीन रखता है अथवा उन्हें ऐसे प्रथम दिग्दर्शकों के रूप में प्रयुक्त न करके जिनकी तथ्य-सामग्री का निरन्तर संशोधन एवं अतिक्रमण करना होता है, किसी अन्य रूप में प्रयुक्त करता है वह सत्य ज्ञान नहीं हों सकता । विज्ञान (Science) का आरम्भ तभी होता है जब हम विश्वशक्ति के प्रतीयमान व्यापारों के, जैसा कि हमारी इन्द्रियां हमें इनका स्वरूप दिखाती हैं, आधारभूत सत्यों की परीक्षा करने लगते हैं; दर्शन-शास्त्र का आरम्भ तभी होता है जब हम वस्तुओं के मूलतत्त्वों की, जिन्हें हमारी इन्द्रियां अशुद्ध रूप में हमारे सामने उपस्थित करती हैं, परीक्षा करने लगते हैं; आध्यात्मिक ज्ञान का आरम्भ तभी होता है जब हम इन्द्रियाश्रित जीवन की सीमाओं को अंगीकार करने अथवा दृश्य एवं इन्द्रियग्राह्य पदार्थों को सद्वस्तु के नाम-रूप से अधिक कुछ मानने से इंकार करने लगते हैं ।

 

 शम और दम |

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इसी प्रकार इन्द्रिय-मानस को भी शान्त करना होगा और उसे यह सिखाना होगा कि वह विचार करने का कार्य उस मन पर छोड़ दे जो निर्णय करता और बोध प्राप्त करता है । जब हमारी बुद्धि इन्द्रिय-मानस के कार्य से पीछे हटकर स्थित हो जाती है और इसके मिश्रण का निराकरण करती है, तो इन्द्रिय-मानस अपनेको बुद्धि से पृथक् कर लेता है और इसकी पृथक् क्रिया का निरीक्षण किया जा सकता है । तब इसका यह स्वरूप प्रकट हो जाता है कि यह उन अभ्यस्त प्रत्ययों, संस्कारों, बोधों एवं कामनाओं की निरन्तर चक्राकार घूमनेवाली निम्न धारा है जिनमें कोई वास्तविक क्रम, पौर्वापर्य या प्रकाश का नियम नहीं है । यह निरन्तर पुनः-पुन: ज्ञानहीन और निरर्थक रूप में चक्कर काटता रहता है । साधारणतया मानव-बुद्धि उस निम्नधारा को अपना लेती है और इसे आंशिक क्रम एवं पौर्वापर्य में बांधने का यत्न करती है; किन्तु ऐसा करने से वह स्वयं इसके अधीन हो जाती है और उस अव्यवस्था, चंचलता, अभ्यास के प्रति मूढ़ दासता और अंध निष्मयोजन पुनरावृत्ति में भागीदार बनती है जो साधारण मानवीय तर्कबुद्धि को एक मूक, सीमित और यहांतक कि तुच्छ एवं निरर्थक यन्त्र बना डालती है । इस अस्थिर, चंचल, उग्र और विघ्नकारी तत्त्व से हमें किसी प्रकार का भी सम्बन्ध नहीं रखना है; हां, इसे पृथक् करके और फिर निस्तब्ध करके अथवा विचार में ऐसी एकाग्रता एवं अनन्यता लाकर जिसके द्वारा वह इस विजातीय एवं विमूढ़कारी तत्त्व का स्वयमेव त्याग कर दे, इससे हमें मुक्त भर होना है ।

 

     अशुद्धता का तीसरा कारण स्वयं बुद्धि से ही उद्भूत होता है और वह है ज्ञानेच्छा की अनुपयुक्त क्रिया । ज्ञानेच्छा बुद्धि का निज स्वभाव है, परन्तु यहां भी चुनाव और ज्ञान का समतारहित अनुसंधान इसे अवरुद्ध तथा विकृत कर देते हैं । ये पक्षपात एवं आसक्ति पैदा करते हैं जिसके कारण बुद्धि कम या अधिक आग्रहपूर्ण इच्छा के साथ कुछ विचारों और सम्मतियों से चिपट जाती है और अन्य विचारों एवं सम्मतियों के सत्य की उपेक्षा कर देती है । किसी सत्य के कुछ खण्डों के साथ चिपक जाती है और अन्य खण्डों को, जो उसकी पूर्णता के लिये आवश्यक होते हैं, अंगीकार करने से सकुचाती है, वह ज्ञान के कुछ पूर्वाग्रहों से चिपक जाती है और जो भी ज्ञान विचारक के अतीत द्वारा उपार्जित की हुई वैयक्तिक विचार-प्रकृति से मेल नहीं खाता उसे अस्वीकार कर देती है । इस अशुद्धता को दूर करने का उपाय है मन की पूर्ण समता प्राप्त करना, पूर्ण बौद्धिक शुद्धता का विकास करना और मन को पूर्ण रूप से निष्पक्ष बनाना । शुद्ध बुद्धि जैसे किसी कामना या लालसा का साथ नहीं देगी वैसे ही यह किसी विशेष विचार या सत्य के लिये किसी पूर्वराग किंवा विराग को भी प्रश्रय नहीं देगी, और जिन विचारों के सम्बन्ध में यह अत्यन्त निश्चयवान् है उनमें भी आसक्त होने से इंकार कर देगी, न यह उनपर ऐसा अनुचित बल देगी जो सत्य का सन्तुलन बिगाड़ दे

 

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और पूर्ण एवं सर्वांगीण ज्ञान के अन्य तत्त्वों के मूल्य कम कर दे ।

 

     इस प्रकार शुद्ध की हुई बुद्धि बौद्धिक विचार का एक पूर्णतः नमनीय, सच्चा और निर्दोष यन्त्र होगी और बाधा तथा विकृति के निम्नतर स्रोतों से मुक्त होने के कारण आत्मा और जगत् के सत्यों का इतना पूर्ण और यथार्थ अनुभव प्राप्त करने में समर्थ होगी जितना कि बुद्धि के द्वारा प्राप्त हों सकता है । परन्तु वास्तविक ज्ञान के लिये किसी और वस्तु की भी आवश्यकता है, क्योंकि वास्तविक ज्ञान, हमारी की हुई इसकी परिभाषा के ही कारण, अतिबौद्धिक है । बुद्धि को वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति में हस्तक्षेप न करने देने के लिये हमें उस ''और वस्तु'' तक पहुंचना होगा और एक ऐसी शक्ति का विकास करना होगा जो सक्रिय बौद्धिक विचारक के लिये अतीव दुर्लभ है और उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के लिये अरुचिकर भी है, अर्थात् बौद्धिक निष्क्रियता की शक्ति । इससे दो प्रकार का उद्देश्य सिद्ध होता है और अतएव, दो विभिन्न प्रकार की निष्क्रियताओं को प्राप्त करना होगा ।

 

     सर्वप्रथम, हम देख ही चुके हैं कि बौद्धिक विचार अपने-आपमें पर्याप्त नहीं है और न ही वह सर्वोच्च चिन्तन है; सर्वोच्च चिन्तन तो वह है जो सम्बोधि-मानस के द्वारा तथा अतिमानसिक शक्ति से प्राप्त होता है । जब तक हम बौद्धिक अभ्यास और निम्नतर व्यापारों के द्वारा शासित होते हैं, सम्बोधि-मानस हमें केवल अचेतन रूप से अपने सन्देश ही भेज सकता है जो सचेतन मन तक पहुंचने से पूर्व कम या अधिक पूर्ण रूप से विकृत हो जाते हैं; अथवा यदि यह सचेतन रूप से कार्य करता भी है तो इसके कार्य में पर्याप्त सूक्ष्मता नहीं होती और त्रुटि भी बहुत अधिक रहती है । अपने अन्दर इस उच्चतर ज्ञान-शक्ति को सुदृढ़ करने के लिये हमें अपने विचार के बोधिमय और बौद्धिक तत्त्वों को उसी प्रकार पृथक्-पृथक् करना होगा जिस प्रकार हम बुद्धि और इन्द्रियमानस को कर चुके हैं; और यह कोई सरल कार्य नहीं है, क्योंकि केवल इतना ही नहीं कि हमारे बोधि-ज्ञान बौद्धिक व्यापार में लिपटकर हमारे पास आते हैं, अपितु बहुत-से ऐसे मानसिक व्यापार भी हैं जो इस उच्चतर शक्ति का स्वांग भरते और इसके रूपों का अनुकरण करते हैं । इसका उपाय यह है कि सबसे पहले बुद्धि को सिखाया जाय कि वह सत्य सम्बोधि को पहचाने, असत्य सम्बोधि से इसका भेद करे और फिर उसके अन्दर यह अभ्यास डाला जाय कि जब वह बोध या बौद्धिक निष्कर्ष पर पहुंचे तो उसे कोई चरम महत्त्व की वस्तु न मान ले, बल्कि ऊर्ध्व की ओर देखे, सब बोधों या निष्कर्षों को निर्णयार्थ दिव्य तत्त्व के सामने उपस्थित करे और ऊर्ध्व के प्रकाश के लिये यथाशक्य पूर्ण नीरवता में प्रतीक्षा करे । इस प्रकार अपने बौद्धिक चिन्तन के एक बड़े भाग को ज्योतिर्मय सत्य-चेतन दृष्टि में रूपान्तरित किया जा सकता है, —आदर्श अवस्था तो पूर्ण संक्रमण की ही होगी—अथवा कम-से-कम, बुद्धि के पीछे कार्य करनेवाले आदर्श ज्ञान की बहुलता, शुद्धता और सचेतन शक्ति को

 

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तो अत्यधिक बढ़ाया ही जा सकता है । बुद्धि को आदर्श शक्ति के अधीन एवं उसके प्रति निष्क्रिय होना सीखना होगा ।

 

     परन्तु आत्म-ज्ञान के लिये यह आवश्यक है कि हम पूर्ण बौद्धिक निष्क्रियता की शक्ति अधिगत करें, अर्थात् समस्त विचार को बहिष्कृत करने तथा बिल्कुल ही चिन्तन न करने की वह मानसिक शक्ति प्राप्त करें जिसका गीता ने एक प्रकरण में आदेश दिया है । पाश्चात्य मन के लिये, जिसकी दृष्टि में चिन्तन सर्वोंच्च वस्तु है और जो मन की विचार न करने की शक्ति एवं इसकी पूर्ण नीरवता को चिन्तन करने की अक्षमता समझने की भूल कर सकता है, यह एक दुर्बोध उक्ति है । परन्तु नीरवता की यह शक्ति एक क्षमता है, अक्षमता नहीं, एक शक्ति है, निर्बलता नहीं । यह एक गभीर और फलपूर्ण नीरवता है । जब मन इस प्रकार स्वच्छ, शान्त, निस्तरंग सागर के समान पूर्ण रूप से निश्चल हो जाता है, जब वह समस्त सत्ता की पूर्ण शुद्धि और शान्ति में अवस्थित हों जाता है और जब अन्तरात्मा विचार को अतिक्रान्त कर जाती है केवल तभी वह आत्मा जो सभी क्रियाओं और सभुतियों से परे है और उन सबका उद्गम भी है, वह नीरवता जिससे सब शब्द उत्पन्न होते हैं, वह निरपेक्ष जिसके कि सब सापेक्ष वस्तुएं आंशिक प्रतिबिम्ब हैं, हमारी सत्ता के शुद्ध सारतत्त्व में अपने को अभिव्यक्त कर सकता है । पूर्ण नीरवता में ही 'नीरव' की वाणी सुनायी देती है, विशुद्ध शान्ति में ही उसकी सत्ता प्रकाशित होती है । अतएव, हमारे लिये 'उस 'का नाम है 'नीरवता' और 'शान्ति' ।

 

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अध्याय ४

एकाग्रता

 

शुद्धता के साथ-साथ और इसे लानेवाले एक सहायक साधन के रूप में एकाग्रता का भी होना आवश्यक है । वास्तव में, शुद्धता और एकाग्रता सत्ता की एक ही अवस्था के दो पक्ष हैं, एक स्त्री-प्रकृति और दूसरा पुरुष-प्रकृति, एक निष्क्रिय और दूसरा सक्रिय; शुद्धता वह अवस्था हैं जिसमें एकाग्रता पूर्ण रूप से साधित हो जाती है और ठीक प्रकार से फलप्रद एवं सर्वसमर्थ बन जाती है; एकाग्रता के बल पर ही शुद्धता अपने कार्य करती है और उसके बिना यह शान्तिपूर्ण निश्चलता और नित्य विश्रान्ति की अवस्था की ओर ही ले जायगी । इनके विरोधी गुण भी एक-दूसरे से निकटतया सम्बद्ध हैं; क्योंकि हम देख ही चुके हैं कि अशुद्धता का अर्थ है धर्मों का संकर, सत्ता के विभिन्न भागों की शिथिल, मिश्रित और परस्पर-संश्लिष्ट क्रिया; और यह संकर इस कारण उत्पन्न होता है कि देहधारी आत्मा में सत्ता अपनी शक्तियों पर अपने ज्ञान को ठीक प्रकार से केंद्रित नहीं करती । हमारी प्रकृति का दोष यह है कि पहले तो वह वस्तुओं के स्पर्शों के प्रति, जैसे कि वे बिना किसी व्यवस्था या नियन्त्रण के, अस्त-व्यस्त रूप से मन में प्रवेश करते हैं, जड़वत् अधीन हो जाती है और फिर उनपर आकस्मिक तथा अपूर्ण रूप में अपने-आपको एकाग्र करती है, वह एकाग्रता उत्तेजित एवं अनियमित रूप में की जाती है तथा उसमें कभी एक, तो कभी दूसरे विषय पर कम या अधिक बल दे दिया जाता है, उस हद तक जहां तक कि वे विषय उच्चतर आत्मा या निर्णायक एवं विवेचक बुद्धि को नहीं, बल्कि चंचल, उछल-कूद मचानेवाले, अस्थिर, जल्दी से थक जाने एवं सहज ही विक्षिप्त हो जानेवाले निम्नतर मन को, जो हमारी उन्नति का मुख्य शत्रु है, आकर्षित कर लेते हैं । ऐसी स्थिति में शुद्धता, कार्यकारी अंगों की यथायथ क्रिया तथा सत्ता की विशद, अकलुष और प्रकाशपूर्ण व्यवस्था सम्भव नहीं; विविध क्रियाएं परिस्थिति और बाह्य प्रभावों के संयोगों के ऊपर छोड़ दी जाने पर, निश्चय ही स्व-दूसरी के साथ उलझ जायंगी तथा स्व-दूसरी को बाधा पहुंचायेगी, विचलित, पथभ्रष्ट और विकृत करेंगी । इसी प्रकार, शुद्धता के बिना यथार्थ विचार, यथार्थ संकल्प और यथार्थ वेदन में सत्ता की पूर्ण, सम एवं नमनशील एकाग्रता या आध्यात्मिक अनुभूति की सुरक्षित अवस्था प्राप्त करना सम्भव नहीं । अतएव, इन दोनों को स्व-दूसरी की विजय में सहायता पहुंचाते हुए एक साथ आगे बढ़ना होगा जब तक कि हम उस सनातन स्थिरता तक न पहुंच जायें जहां से सनातन, सर्वसमर्थ और सर्वज्ञानमयी क्रियाशीलता की कोई आंशिक प्रतिमूर्त्ति मनुष्य में उद्भूत हों सके ।

 

    बाह्यस्पर्श ।

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     परन्तु भारतवर्ष में ज्ञानमार्ग का जिस रूप में अनुसरण किया जाता है उसमें एकाग्रता का प्रयोग एक विशेष और संकीर्णतर अर्थ में ही किया जाता है । इसका अभिप्राय होता है विचार को मन की सभी विक्षेपकारी क्रियाओं से हटाना तथा एकमेव की परिकल्पना पर एकाग्र करना जिसके द्वारा जीव दृश्यप्रपंच से बाहर निकलकर एकमेव सद्वस्तु की ओर उठता है । विचार के द्वारा ही हम अपने-आपको दृश्य-प्रपंच में विकीर्ण करते हैं; विचार को पुन: उसके अन्दर समेट करके ही हमें वास्तविक सत्ता में वापस लौटना होगा । एकाग्रता में तीन ऐसी शक्तियां हैं जिनके द्वारा यह लक्ष्य सिद्ध किया जा सकता है । किसी भी वस्तु पर अपने-आपको एकाग्र करके हम उस वस्तु का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, उसे अपने गुप्त रहस्यों का उद्घाटन करने के लिये विवश कर सकते हैं; इस शक्ति का प्रयोग हमें वस्तुओं को नहीं, बल्कि एकमात्र निरपेक्ष सद्वस्तु को जानने के लिये करना होगा । और फिर, एकाग्रता के द्वारा सम्पूर्ण संकल्पशक्ति को उस वस्तु की प्राप्ति के लिये एकत्र जुटाया जा सकता है जो अभी तक हमारे अधिकार में नहीं आयी है, अभी तक हमारी पहुंच से परे है; यदि यह शक्ति पर्याप्त सधी हुई हो, पर्याप्त एकनिष्ठ एवं पर्याप्त सत्यतापूर्ण हो, अपने बारे में निश्चयवान् केवल अपने ही प्रति दृढ़निष्ठ तथा पूर्ण श्रद्धामय हो तो इसे हम चाहे किसी भी वस्तु की प्राप्ति के लिये प्रयोग में ला सकते हैं; परन्तु इसका प्रयोग हमें उन अनेक पदार्थों की प्राप्ति के लिये नहीं करना चाहिये जिन्हें संसार हमारे सामने प्रस्तुत करता है, बल्कि आध्यात्मिक रूप में उस एक वस्तु को अधिकृत करने के लिये करना चाहिये जो खोजने योग्य है और साथ ही जो एकमात्र जानने योग्य विषय है । अपनी सम्पूर्ण सत्ता को उसकी किसी एक ही अवस्था पर एकाग्र करके हम जो कुछ बनना चाहें बन सकते हैं; उदाहरणार्थ, भले हम पहले दुर्बलताओं और भयों का पुंज रहे हों, पर अब हम उसके स्थान पर बल और साहस का पुंज बन सकते हैं, अथवा हम पूर्ण रूप से एक महान् शुद्धता, पवित्रता एवं शान्ति की मूर्ति या फिर एक ही विराट् प्रेममय आत्मा बन सकते हैं; परन्तु यह कहा जाता है कि इस शक्ति का प्रयोग हमें ये चीजें बनने के लिये भी नहीं करना चाहिये, भले ये, जो कुछ हम आज हैं उसकी तुलना में ऊंची ही क्यों न हों, बल्कि हमें इसका प्रयोग वह सत्ता, शुद्ध और निरपेक्ष सत्ता, बनने के लिये करना चाहिये जो सब वस्तुओं से ऊपर है तथा समस्त कार्य-व्यापार और गुणों से मुक्त है । अन्य सब कुछ, अन्य सब प्रकार की एकाग्रता उच्छृंखल एवं विक्षेपशील विचार, संकल्प और सत्ता को उनके महान् और अनन्य लक्ष्य की प्राप्ति के निमित्त तैयार करने के लिये, उनके प्रारम्भिक पगों एवं क्रमिक शिक्षण के लिये ही मूल्यवान् हो सकती है ।

 

     एकाग्रता के अन्य प्रत्येक प्रयोग की भांति इस प्रयोग का भी अर्थ है पहले सत्ता को शुद्ध करना; इसका अर्थ अन्त में त्याग, निवृत्ति और अन्ततः समाधि की

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Image1.gifनिरपेक्ष और परात्पर अवस्था में आरोहण भी है । समाधि की यह अवस्था यदि अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुंच जाय, स्थायी हो जाय तो इससे शायद हजारों आत्माओं में से एकाध को छोड़कर और कोई नहीं वापिस आती । क्योंकि इससे हम ''सनातन की उस सर्वोच्च अवस्था में'' पहुंच जाते हैं ''जहां से आत्माएं'' प्रकृति के कर्मचक्र में ''नहीं लौटती" ; और जिस योगी का लक्ष्य इस संसार से छुटकारा पाना होता है वह अपना शरीर छोड़ने के समय इसी समाधि में चले जाना चाहता है । राजयोग की साधना में हम यही क्रम देखते हैं । क्योंकि, सर्वप्रथम राजयोगी के लिये एक प्रकार की नैतिक एवं आध्यात्मिक पवित्रता प्राप्त करना आवश्यक है; उसे अपने मन की निम्नतर या अधोमुखी क्रियाओं सै छुटकारा पाना होगा, पर बाद में उसे इसकी समस्त क्रियाओं को बन्द कर अपने-आपको उस एक ही विचार पर एकाग्र करना होगा जो क्रिया से स्थिति की निश्चलता की ओर ले जाता है । राजयोग में एकाग्रता की कई अवस्थाएं होती हैं, एक वह जिसमें विषय को अधिकृत किया जाता है (ध्यान), दूसरी वह जिसमें उसे धारण किया जाता है (धारणा), तीसरी वह जिसमें मन उस अवस्था में लीन हो जाता है जिसे वह विषय सूचित करता है या जिसकी ओर एकाग्रता ले जाती है (समाधि) । इनमें से अन्तिम अवस्था को ही राजयोग में समाधि कहा जाता द्वाहै यद्यपि 'समाधि' शब्द इससे अत्यधिक व्यापक अर्थ का वाचक हो सकता है जैसा कि गीता में देखने में आता है । परन्तु राजयोग की समाधि में भिन्न-भिन्न भूमिकाएं हैं, एक वह जिसमें मन बाह्य विषयों से बेसुध होकर भी विचार के जगत् में सोचता- विचारता और अनुभव करता है, दूसरी वह जिसमें मन अभी विचार की प्रारम्भिक रचनाएं करने में समर्थ होता है और अन्तिम वह जिसमें मन की अपने अन्दर भी सब प्रकार की उछल-कूद बन्द हो जाती है और अतएव अन्तरात्मा विचार के परे अकथ्य और अनिर्वचनीय ब्रह्म की नीरवता में उठ जाती है । निःसन्देह, समस्त योगमार्गों में विचार को एकाग्र करने से बहुतसे ऐसे विषय होते हैं जो एकाग्रता की तैयारी में सहायता पहुंचाते हैं, जैसे, (ध्येय वस्तु के) रूप-स्वरूप, चिन्तन-मनन के शाब्दिक सूत्र, (जपने योग्य) अर्थपूर्ण नाम । ये सब इस एकाग्रता की क्रिया में मन के अवलंबन होते हैं, इन सब का प्रयोग करना होता है और फिर इनके परे चले जाना होता है; उपनिषदों के अनुसार सर्वोच्च अवलंबन है गुह्य पद 'ओहैम्', जिसके तीन अक्षर (अ, उ, म्) ब्रह्म या परम आत्मा की तीन क्रमावस्थाओं, जागरित आत्मा, स्वाप्न आत्मा और सुषुप्तिगत आत्मा को सूचित करते हैं । इन अक्षरों का सम्पूर्ण शक्तिशाली नाद उस सत्ता की ओर उठ जाता है जो क्रिया की भांति स्थिति से भी परे है । क्योंकि, सभी ज्ञानयोगों का अन्तिम लक्ष्य परात्पर ब्रह्म ही है ।

 

  यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम । -गीता

 २

माफक्य उपनिषद् ।

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     परन्तु हम ने पूर्णयोग के लक्ष्य की एक ऐसी वस्तु के रूप में परिकल्पना की है जो अधिक जटिल तथा कम एकांगी है—आत्मा की सर्वोच्च अवस्था के विषय में वह कम एकांगी रूप से भावात्मक है, उसके दिव्य आविर्भावों के विषय में वह कम एकांगी रूप से अभावात्मक है । निश्चय ही हमें अपना लक्ष्य परमोच्च ब्रह्म, सबके आदिमूल एवं परात्पर को बनाना होगा, पर परात्पर जिसे अतिक्रम कर जाता है उसे भी त्यागना नहीं होगा, बल्कि उस परात्पर को यह मानते हुए लक्ष्य बनाना होगा कि वह आत्मा की उस सुस्थिर अनुभूति एवं परमोच्च अवस्था का मूल है जो अन्य सब अवस्थाओं को रूपान्तरित कर देगी तथा हमारी जगत्-विषयक चेतना को फिर से अपने गुप्त सत्य के रूप में ढाल देगी । हम जगत्-विषयक समस्त चेतना को अपनी सत्ता से बाहर नहीं निकाल देना चाहते, बल्कि विश्व में तथा इसके परे परमेश्वर, सत्य और आत्मा को प्राप्त करना चाहते हैं । अतएव, हम केवल अनिर्वचनीय ब्रह्म की ही नहीं, बल्कि उसके अनन्त सत्-चित्-आनन्दरूपी व्यक्त स्वरूप की भी खोज करेंगें जो विश्व को अपने अन्दर समाविष्ट किये हुए इसमें अपनी लीला कर रहा है । क्योंकि, यह त्रिविध अनन्तता उसका सर्वोच्च व्यक्त रूप है और इसे जानने, इसमें भाग लेने तथा यही बन जाने की हम अभीप्सा करेंगे, और क्योंकि हम इस त्रैत को केवल इसके स्वरूप में ही नहीं, बल्कि इसकी वैश्व लीला में भी अनुभव करना चाहते हैं, हम उन विश्वव्यापी दिव्य सत्य, ज्ञान, संकल्प और प्रेम को भी जानने तथा उनमें भाग लेने की अभीप्सा करेंगे जो उसकी गौण अभिव्यक्ति एवं दिव्य सम्भूति हैं । इस अभिव्यक्ति के साथ भी हम एकाकार होने की अभीप्सा करेंगे, इसकी ओर भी हम उठने का यत्न करेंगे और जब प्रयत्न का काल गुजर जायगा तो, अपने समस्त अहंभाव के त्याग के द्वारा हम इसे अनुमति देंगे कि यह हमारी सत्ता को अपने अन्दर उठा ले जाय तथा हमारे समस्त व्यक्त रूप में हमारे अन्दर अवतरित हो और हमारा आलिंगन करे । यह सब यत्न हम केवल इसलिये नहीं करेंगे कि यह उसकी सर्वोच्च परात्परता के निकट पहुंचने तथा इसे प्राप्त करने का एक साधन है, वरन् इसलिये भी कि, जब हम परात्पर को प्राप्त कर लें तथा वह हमें अधिकृत कर ले तब भी, जगत् की अभिव्यक्ति में दिव्य जीवन को चरितार्थ करने के लिये यह एक अनिवार्य शर्त है ।

 

     इसलिये कि हम इस कार्य को सम्पन्न कर सकें, 'एकाग्रता' और 'समाधि' शब्द हमारे लिये अधिक समृद्ध एवं गभीर अर्थ से पूर्ण होने चाहियें । हमारी समस्त एकाग्रता उस दिव्य 'तप' की प्रतिमामात्र है जिसके द्वारा आत्मा अपने-आपमें ही एकाग्र रहता है, अपने अन्दर अपने-आपको प्रकट करता है और अपनी अभिव्यक्ति को धारण करता तथा अपने अधिकार में रखता है, साथ ही जिसके द्वारा वह समस्त अभिव्यक्ति से पीछे हटकर अपने परम एकत्व में लौट जाता है । सत् जब आनन्द-प्राप्ति के लिये अपनी चेतना में अपने-आपको अपने ऊपर एकाग्र

 

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करता है तो उसीको दिव्य 'तप' कहते हैं; और ज्ञानयुक्त संकल्प जब अपनी चेतना की शक्ति में अपने-आपको अपने ऊपर तथा अपनी अभिव्यक्तियों के ऊपर एकाग्र करता है तो उसीका नाम है दिव्य एकाग्रता का सार, योगेश्वर का योग । भगवान् के जिस रूप में हम निवास करते हैं उसकी प्रभेदात्मकता (अनेकात्मकता) स्वयंसिद्ध ही है, तब एकाग्रता ही वह साधन है, जिसके द्वारा व्यक्ति की अन्तरात्मा परमात्मा के किसी रूप के साथ, उसकी किसी अवस्था या आध्यात्मिक अभिव्यक्ति (भाव) के साथ अपनेको एकाकार करती है तथा उसमें प्रविष्ट होती है । इस साधन को भगवान् के साथ ऐक्य-लाभ के लिये प्रयुक्त करना ही दिव्य ज्ञान की प्राप्ति की शर्त है और यहीं सभी ज्ञानयोगों का मूलसूत्र है ।

 

      यह एकाग्रता 'विचार' (Idea) के द्वारा अग्रसर होती है, किसी विशेष विचार, रूप और नाम को ऐसी चाबियों के रूप में प्रयुक्त करती है जो समस्त विचार, रूप और नाम के पीछे छुपे हुए सत्य को एकाग्रता करनेवाले मन के सम्मुख प्रकट कर देती है; क्योंकि विचार के द्वारा ही मनोमय प्राणी, मानव, समस्त अभिव्यक्ति से परे उस तत्त्व की ओर उठता है जो यहां अभिव्यक्त होता है और स्वयं विचार भी जिसका एक यन्तमात्र है । विचार पर एकाग्रता के द्वारा ही मनोमय सत्ता, जो हमारा वर्तमान स्वरूप है, हमारे मन के घेरे को तोड़ डालती है और चेतना तथा सत्ता की उस अवस्था पर, चिन्मय शक्ति और आनन्दमय चेतना की उस अवस्था पर जा पहुंचती है जो उस विचार के अनुरूप होती है और वह विचार जिसका एक प्रतीक, क्रिया-व्यापार एवं लयताल होता है । इस प्रकार, विचार के द्वारा मन को एकाग्र करना हमारे लिये हमारी सत्ता के अतिचेतन स्तरों को खोलने का एक साधन एवं कुंजीमात्र है; आत्म-सचेतन एवं आनन्दमय सत्ता के इस अतिचेतन सत्य, उसकी एकता तथा अनन्तता में उठी हुई हमारी समुर्ण सत्ता की एक विशेष प्रकार की आत्म-समाहित अवस्था ही एकाग्रता का लक्ष्य और परिणति है; और 'समाधि' शब्द को हम जो अर्थ देंगे वह यही है । समाधि का अर्थ केवल वह अवस्था नहीं जो बाह्य जगत् की समस्त चेतना से यहांतक कि अन्तर्जगत् की समस्त चेतना से भी पीछे हटकर उस तत्त्व में लीन हो जो इन दोनों से परे इनके बीज के रूप में या इनकी बीजावस्था से भी अतीत रूप में विद्यमान है; बल्कि समाधि का मतलब है एकमेव एवं अनन्त के साथ संयुक्त एवं एकीभूत होकर उसमें सुस्थिर रूप से प्रतिष्ठित होना, और यह अवस्था नित्य-निरन्तर स्थिर रहनी चाहिये चाहे हम जाग्रत् अवस्था में स्थित हों जिसमें हम पदार्थों के रूपों से अभिज्ञ होते हैं या हम पीछे हटकर उस आन्तरिक क्रिया में चले जायं जो वस्तुओं के मूलतत्त्वों की, उनके नामों और प्रतिरूपात्मक आकारों की लीला में मग्न रहती है, अथवा हम ऊंची उड़ान भरकर उस स्थितिशील आन्तर चैतन्य की अवस्था में पहुंच जायें जहां हम साक्षात् मूलतत्त्वों पर एवं सभी तत्त्वों के तत्त्व पर, नाम और रूप के बीज पर पहुंच जाते

 

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Image1.gifहैं । क्योंकि जो आत्मा वास्तविक समाधि में पहुंच गयी है और इस शब्द के गीतोक्त अर्थ के अनुसार उसमें प्रतिष्ठित (समाधिस्थ) हो चुकी है, उसे वह अवस्था प्राप्त हो गयी है जो अनुभवमात्र का आधार है और वह किसी भी अनुभव के कारण जो अभीतक शिखर पर न पहुंचे हुए व्यक्ति के लिये कितना ही विक्षेपकारी क्यों न हो उस अवस्था से पतित नहीं हो सकती । वह किसी भी अनुभव से आबद्ध अथवा विमूढ़ या मयादित हुए बिना सभी अनुभवों को अपनी सत्ता के क्षेत्र में समाविष्ट कर सकती है ।

 

     जब हम यह अवस्था प्राप्त कर लेते हैं तब, हमारी सम्पूर्ण सत्ता और चेतना के एकाग्र हो जानें के कारण, 'विचार' पर एकाग्रता करने की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि वहां उस अतिमानसिक अवस्था में सारी वस्तुस्थिति छी पलट जाती है । मन एक ऐसा तत्त्व है जो विकीर्ण अवस्था और काल-क्रम में निवास करता है; यह एक समय में एक ही वस्तु पर एकाग्र हों सकता है और जब एकाग्र नहीं हुआ होता तो एक चीज से दूसरी चीज पर बहुत कुछ अनियमित ढंग से ही दौड़ता रहता है । अतएव, इसे एक ही विचार पर, ध्यान, चिन्तन किंवा संकल्प के किसी एक ही विषय पर एकाग्रता करनी होती है, ताकि यह उसे प्राप्त या अधिकृत कर सके, और यह इसे कम-से-कम कुछ समय के लिये अन्य सब विचारों एवं विषयों को बाहर निकालकर ही करना पड़ता है । परन्तु जो तत्त्व मन से परे है और जिसमें हम आरोहण करना चाहते हैं वह विचार की अति चंचल क्रिया से तथा भावों के भेद- विभेद से उच्चतर है । भगवान् अपने ही अन्दर केंद्रित रहते हैं और जब वे विचारों और क्रिया-प्रवृत्तियों को अपनेमें से प्रकट करते हैं तो वे उनमें अपने-आपको विभक्त नहीं करते, न बन्दी ही बना डालते हैं, बल्कि उन्हें तथा उनकी गतिविधि को अपनी अनन्तता में धारण किये रहते हैं; उनकी सम्पूर्ण सत्ता अविभक्त रहती हुई प्रत्येक विचार और प्रत्येक क्रिया के पीछे विद्यमान है और साथ ही वह उन सबकी समष्टि के पीछे भी विद्यमान है । उनमें से प्रत्येक उसके द्वारा धारण किया हुआ है तथा सहज रूप से, किसी पृथक् संकल्प-क्रिया के द्वारा नहीं, बल्कि अपने पीछे विद्यमान सर्व-सामान्य चेतना-शक्ति के द्वारा अपने-आपको व्यक्त करता है; यदि हमें ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक में ही भगवान् अपने संकल्प और ज्ञान को एकाग्न कर रहे हैं तो उनकी वह एकाग्रता अनेकविध और एकसमान होती है, एकांगी नहीं, और आत्म-समाहित एकता एवं अनन्तता में स्वतन्त्र और सहज- स्वाभाविक रूप से क्रिया करना ही इस विषय का वास्तविक सत्य है । जो आत्मा दिव्य-समाधि की अवस्था में पहुंच गयी है वह अपनी उपलब्धि के अनुपात में इस उल्टी हुई वस्तुस्थिति में, — इस सच्ची वस्तुस्थिति में, — भाग लेती है, क्योंकि जो स्थिति हमारी मानसिकता से उल्टी है वही सत्य है । इसी कारण, जैसा कि प्राचीन

 

  

आत्मा की जागरित, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाएं ।

 

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ग्रंथों में कहा गया है, जिस मनुष्य को आत्मा की उपलब्धि हो गयी है वह विचार एवं प्रयत्न की एकाग्रता करने की आवश्यकता के बिना, सहज रूप से ही उस ज्ञान या परिणाम को उपलब्ध कर लेता है जिसे सर्वात्मना ग्रहण करने के लिये उसका अन्तःस्थ विचार या संकल्प प्रयत्न करता है ।

 

     अतएव, इस सुस्थिर दिव्य अवस्था को प्राप्त करना ही हमारी एकाग्रता का लक्ष्य होना चाहिये । एकाग्रता का पहला कदम सदा यह होना चाहिये कि चंचल मन में यह अभ्यास डाला जाय कि वह एक ही विषय पर, सम्बद्ध विचार की एक ही शृंखला का स्थिरतापूर्वक, अडोल भाव से अनुसरण करे और यह उसे उसके ध्यान से विचलित करनेवाले सभी प्रलोभनों एवं प्रतिकूल पुकारों से विक्षिप्त हुए बिना करना होगा । ऐसी एकाग्रता हमारे साधारण जीवन में काफी सामान्य रूप से देखने में आती है; परन्तु जब यह हमें मन को लगाये रखनेवाले किसी बाह्य विषय या कार्य के बिना, अपने ही अन्दर करनी होती है तब यह अधिक कठिन हो जाती है; तथापि ज्ञान के अन्वेषक को जो एकाग्रता साधित करनी होगी वह ऐसी आन्तरिक एकाग्रता ही है । यह एक बौद्धिक विचारक की जिसका एकमात्र उद्देश्य विचार करना तथा अपने विचारों को बौद्धिक रूप में सुसम्बद्ध करना होता है, क्रमबद्ध चिन्तन-क्रिया ही नहीं होनी चाहिये । शायद आरम्भिक अवस्थाओं को छोड़कर अन्य अवस्थाओं में तर्क-वितर्क की प्रक्रिया की उतनी जरूरत नहीं है जितनी विचार के फरचपूर्ण सारतत्त्व पर अपने-आपको यथासम्भव एकाग्र करने की है । ऐसा करने सें वह विचार अन्तरात्मा के संकल्प की आग्रहपूर्ण मांग के कारण अपने सत्य के सभी पार्श्वों को प्रकाशित कर देगा । इस प्रकार यदि भागवत प्रेम हमारी एकाग्रता का विषय हो तो मन को प्रेमस्वरूप ईश्वर के विचार के सारतत्त्व पर इस प्रकार एकाग्रता करनी चाहिये कि भागवत प्रेम की नानाविध अभिव्यक्ति साधक के मन के सम्मुख ही नहीं, बल्कि उसके हृदय, उसकी सत्ता और अन्तर्दृष्टि में भी ज्योतिर्मय रूप में प्रकाशित हो उठे । यह हो सकता है कि पहले विचार उत्पन्न हो और अनुभव बाद में हो, पर ठीक इसी प्रकार यह भी सम्भव है कि पहले अनुभव हो और ज्ञान पीछे उस अनुभव में सै उदित हो । बाद में उस उपलब्ध अनुभव में मन को तल्लीन करना तथा उसे अधिकाधिक अपने अन्दर धारण करना होता है जिससे वह स्थायी बनकर अन्त में हमारी सत्ता का धर्म या विधान बन जाय ।

     यह एकाग्रतायुका ध्यान की प्रक्रिया है; परन्तु इससे अधिक आयासपूर्ण विधि हैसम्पूर्ण मन को केवल विचार के सारतत्त्व पर ही एकाग्रतापूर्वक स्थिर करना जिससे हम विषय के विचारमय ज्ञान या मनोवैज्ञानिक अनुभव पर नहीं, बल्कि

     १

आन्तरिक वाद-विवाद और निर्णय, अर्थात् 'वितर्क' और 'विचार' की आरम्भिक अवस्थाओं में मिथ्या विचारों को ठीक करने और बौद्धिक सत्य पर पहुंचने के लिये ।

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Image1.gifविचार के पीछे विद्यमान वस्तु के सत्य स्वरूप पर पहुंच जायें । इस प्रक्रिया में विचार बन्द होकर अपने विषय के तन्मय या आनन्दपूर्ण ध्यान में परिणत हो जाता है या फिर, उस विषय में डूबकर आन्तर समाधि की अवस्था में पहुंच जाता है । यदि इस प्रक्रिया का अनुसरण किया जाये तो इसके फल-स्वरूप हम जिस अवस्था में आरोहण करेंगे उसे फिर नीचे पुकार लाना होगा, ताकि वह निम्नतर सत्ता पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर ले तथा हमारी साधारण चेतना को अपने प्रकाश, शक्ति और आनन्द से परिप्लुत कर दे । क्योंकि, अन्यथा अनेक साधकों की भांति हम इसे एक उच्च भूमिका या आन्तरिक समाधि में तो प्राप्त कर सकते हैं, पर जब हम जागरित अवस्था में पहुंचेंगे या नीचे उतरकर जगत् के सम्पर्कों मे आयेंगे तो हम उस भूमिका पर अपना अधिकार खो बैठेंगे; और यह पंगु उपलब्धि पूर्णयोग का लक्ष्य नहीं है ।

 

     तीसरी प्रक्रिया यह है कि आरम्भ में न तो किसी एक ही आन्तरिक विषय पर एकाग्रतापूर्वक आयासपूर्ण ध्यान किया जाये और न विचारमय अन्तर्दृष्टि के किसी एक ही विषय का आयासपूर्ण चिन्तन किया जाये, बल्कि सर्वप्रथम मन को पूर्णरूपेण शान्त किया जाये । यह कई विधियों से किया जा सकता है; एक विधि हैमानसिक क्रिया से बिल्कुल अलग हटकर उसके पीछे की ओर स्थित हो जाना, उसमें भाग न लेते हुए केवल उसका निरीक्षण करते रहना जबतक कि वह अपनी उछल-कूद और भाग-दौड को स्वीकृति न मिलने के कारण थककर उत्तरोत्तर अचंचल होती हुई अन्त में पूर्ण रूप से शान्त नही हो जाती । दूसरो विधि हैविचाररूपी सुझावों का परित्याग करना, जब कभी वे मन में आयें उन्हैं वहां से दूर निकाल फेंकना और अपनी सत्ता की शान्ति में जो मन के विक्षोभ और उपद्रव के पीछे सचमुच ही सदा विद्यमान रहती है, दृढ़तापूर्वक स्थिर रहना । जब यह गुप्त शान्ति प्रकट होती है तब एक महत् स्थिरता हमारी सत्ता में प्रतिष्ठित हो जाती है और प्रायः ही इसके साध सर्वव्यापी शान्त ब्रह्म का बोध एवं अनुभव भी प्राप्त होता है और उस समय अन्य प्रत्येक वस्तु शुरू-शुरू में एक बाह्य रूप एवं प्रतिच्छायामात्र प्रतीत होती है । इस स्थिरता के आधार पर वस्तुओं के बाह्य प्रपंच के नहीं, बल्कि भागवत अभिव्यक्ति के गभीरतर सत्य के ज्ञान एवं अनुभव में अन्य प्रत्येक वस्तु का निर्माण किया जा सकता है ।

 

     साधारणत:, जब एक बार यह अवस्था प्राप्त हो जायेगी तो फिर आयासपूर्ण एकाग्रता की आवश्यकता अनुभव नहीं होगी । इसका स्थान संकल्प की एक उन्मुक्त एकाग्रता ले लेगी जो विचार का प्रयोग निम्नतर अंगों को सुझाव देने तथा आलोक प्रदान करने के लिये ही करेगी । यह संकल्प तब भौतिक एवं प्राणिक सत्ता तथा हृदय और मन पर दबाव डालेगा कि वे अपने- आपको फिर से भगवान् के

      इस विषय पर हम आत्म-सिद्धि-योग के प्रकरण में अधिक विस्तार के साथ विचार करेगे ।

 

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Image1.gifउन रूपों में ढाल लें जो शान्त ब्रह्म में से स्वतः ही प्रकट होते हैं । अपनी पूर्व तैयारी और विशुद्धि के अनुसार अपेक्षाकृत झ या मन्द वेग से वे अंग न्यूनाधिक संघर्ष के बाद संकल्प और उसके सुझाव के नियम का पालन करने को बाध्य होंगे । फलस्वरूप, अन्त में भगवान् का ज्ञान हमारी चेतना के सभी स्तरों को अपने अधिकार में कर लेगा और हमारी मानवीय सत्ता में भगवान् की प्रतिमूर्त्ति निर्मित हो जायेगी जैसे कि प्राचीन वैदिक साधकों ने अपनी सत्ता में निर्मित की थी । पूर्णयोग के लिये यह सबसे सीधी और शक्तिशाली साधना है ।

 

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Image1.gifअध्याय ५

त्याग

 

यदि शुद्धता और एकाग्रता के द्वारा हमारी सत्ता के सभी अंगों के नियमन को योग के शरीर की दायीं भुजा कहा जाये तो त्याग उसकी बायीं भुजा है । नियमन या भावात्मक साधना के द्वारा हम अपने अन्दर वस्तुओं और सत्ता के सत्य को तथा ज्ञान, प्रेम और कर्मों के सत्य को परिपुष्ट करते हैं और इन्हें उन असत्यों के स्थान पर प्रतिष्ठित कर देते हैं जिन्होंने हमारी प्रकृति को आच्छादित और विकृत कर रखा है; त्याग के द्वारा हम उन असत्यों पर टूट पड़ते हैं, उन्हें जड़-मूल से उखाड़ फेंकते हैं और अपने रास्ते से निकाल बाहर करते हैं जिससे कि वे हमारे दिव्य जीवन के सुखद और समस्वर विकास को अपने दुराग्रह, प्रतिरोध या पुनरावर्तन से अब और न रोक सकें । त्याग हमारी पूर्णता का अनिवार्य साधन है ।

 

     यह त्याग कहां तक जायेगा? इसका स्वरूप क्या होगा? और इसका प्रयोग किस प्रकार किया जायेगा? एक प्रचलित प्रथा, जिसका समर्थन महान् धार्मिक शिक्षक और गम्भीर आध्यात्मिक अनुभव से सम्पन्न व्यक्ति चिरकाल से करते आये हैं, यह है कि त्याग केवल एक साधना के रूप में ही पूर्ण नहीं होना चाहिये, बल्कि एक साध्य के रूप में भी सुनिश्चित और चरम होना चाहिये और साथ ही इसे स्वयं जीवन और हमारी पार्थिव सत्ता के त्याग से जस भी नीचा नहीं रहना चाहिये । इस विशुद्ध, उच्च और अति महान् प्रथा के विकास में अनेक कारणों ने अपना योगदान किया है । सबसे पहला और गभीरतर कारण यह है कि हमारे मानव-विकास की वर्तमान अवस्था में जागतिक जीवन जैसा आज है उसके मलिन और अपूर्ण स्वरूप तथा आध्यात्मिक जीवन के स्वरूप में आमूल विरोध है; और इस विरोध का परिणाम यह हुआ है कि जगत्-जीवन को एक मिथ्या वस्तु आत्मा का उन्माद तथा विक्षोभपूर्ण एवं दुःखदायी स्वप्न मानकर या, इसके सर्वोत्तम रूप में, इसे एक दोषमुक्त, सत्याभासी और निरर्थक-सी वस्तु मानकर पूर्णतया त्याग दिया गया है, अथवा इसे मायामय जगत् शारीरिक भोग और शैतान का राज्य कहकर वर्णित किया गया है और अतएव, भगवान् के द्वारा र्पारेचालित और आकृष्ट आत्मा के लिये इसे केवल अग्रि-परीक्षा एवं तैयारी का स्थान माना गया है, अथवा, सर्वोत्तम दृष्टि से देखने पर भी, इसे 'सर्व' -सत्तास्वरूप प्रभु की एक ऐसी लीला एवं परस्पर-विरोधी उद्देश्यों की एक ऐसी क्रीड़ा माना गया है जिसे वे उससे ऊबकर छोड़ देते हैं । इस प्रथा का दूसरा कारण है-वैयक्तिक मोक्ष के लिये तथा उस अमिश्रित आनन्द और शान्ति के किसी दूरतर या दूरतम शिखर पर भाग जाने के लिये आत्मा की लालसा जो श्रम और संघर्ष से विक्षुब्ध न हों; या फिर, इसका

 

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Image1.gifकारण है—भगवान् के आलिंगन के परमानन्द से कर्म और सेवा के निम्नतर क्षेत्र में लौटने की उसकी अनिच्छा । परन्तु कुछ अन्य अपेक्षाकृत हलके कारण भी हैं जो आध्यात्मिक अनुभव के साथ प्रासंगिक रूप से सम्बद्ध हैं, जैसे, आध्यात्मिक शान्ति तथा अध्यात्म-साक्षात्कारमय जीवन के साथ कर्ममय जीवन का मेल साधने की भारी कठिनाई का प्रबल भान एवं क्रियात्मक प्रमाणइस कठिनाई को हम स्वेच्छापूर्वक बढ़ा-चढ़ा कर एक असाध्य कठिनाई का रूप दे देते हैं; या फिर इसका कारण होता है वह आनन्द जिसे मन त्याग की क्रिया एवं अवस्थामात्र में अनुभव करने लगता है, —जैसे कि वह ऐसी किसी भी चीज में जिसे वह प्राप्त कर लेता है या जिसका अभ्यस्त हो जाता हैं, सचमुच ही आनन्द लेने लगता है, और इसी प्रकार जगत् के प्रति तथा मनुष्य के काम्य पदार्थों के प्रति उदासीनता से शान्ति और मुक्ति की जो अनुभूति प्राप्त होती है वह भी इसका कारण बनती है । सबसे निम्न कारण हैंवह दुर्बलता जो संघर्ष से कतराती है, अन्तरात्मा की वह विरक्ति एवं निराशा जो महान् जागतिक श्रम से पराजित होने पर उसके अन्दर उत्पन्न होती है, वह स्वार्थपरता जो इस बात की चिन्ता नहीं करती कि हमारे पीछे बच रहे लोगों का क्या बनेगा जबतक कि हम स्वयं मृत्यु और पुनर्जन्म के सदा घूमते रहनेवाले राक्षसी चक्र से मुक्त हों सकते हैं, और श्रमरत मानवता के अन्दर से उठनेवाले आर्तनाद के प्रति उदासीनता ।

 

     पूर्णयोग के साधक के लिये इनमें से कोई भी कारण (त्याग का औचित्य सिद्ध करने के लिये) युक्तियुक्त नहीं है । दुर्बलता और स्वार्थपरता से उसका कोई सबन्ध नहीं हों सकता, भले वे अपने वेष या अपनी प्रवृत्ति में कितनी ही आध्यात्मिक क्यों न हों, वह जो कुछ, बनना चाहता है उसका असली उपादान ही हैंदिव्य बल और साहस, दिव्य करुणा और साहाय्यकारिता, ये गुण भगवान् की वह निज प्रकृति हैं जिसे वह आध्यात्मिक प्रकाश और सौन्दर्य के बाह्य वेष के रूप में धारण करना चाहता है । यह जो विराट् चक्र निरन्तर घूम रहा है इसके चक्करों से उसे भय नहीं लगता और न इनसे उसके सिर में चक्कर ही आते हैं; अपनी आत्मा में वह इस चक्र से ऊपर उठ जाता है और वहां से इसके चक्करों के दैवी विधान और दैवी प्रयोजन को जान लेता है । दिव्य जीवन और मानव-जीवन में मेल साधने, भगवान् में रहने और फिर भी मानव-सत्ता में जीवन-यापन करने की कठिनाई ही वह कठिनाई है जो यहां समाधान करने के लिये उसके सामने उपस्थित की जाती है और उसे इससे भागना नहीं होगा । वह जान गया है कि आनन्द, शान्ति और मोक्ष तबतक एक अपूर्ण विजय एवं एक अवास्तविक प्राप्ति ही रहते हैं जबतक कि वे एक ऐसी अवस्था का निर्माण नहीं करते जो अपने-आपमें सुरक्षित हो तथा उसकी आत्मा का एक अविच्छेद्य अंग हो, जो एकान्तवास और निष्क्रियता पर आश्रित न हो, बल्कि तूफान, प्रतिस्पर्धा और युद्ध में भी सुस्थिर रहे और जो सांसारिक हर्ष या

 

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शोक किसी से भी कलुषित न हों\ । भगवान् के आलिंगन का दिव्यानन्द उसे छोड़ नहीं देगा, क्योंकि वह मानवजाति में रहनेवाले भगवान् के प्रति दिव्य प्रेम से प्रेरित होकर कार्य करता है; अथवा यदि यह कुछ समय के लिये उससे हटता प्रतीत होता है तो भी अनुभव द्वारा वह जानता ही होता है कि यह अभी उसकी और अधिक परीक्षा लेने एवं उसे और कसौटी पर कसने के लिये है ताकि इससे मिलने के उसके अपने ढंग में जो कोई अपूर्णता रह गयी है वह उससे झड़कर दूर हो जाये । अपनी निजी मुक्ति की उसे कोई कामना नहीं होती और यदि होती भी है तो केवल इसलिये कि मानव की परिपूर्णता के लिये इसकी आवश्यकता है और इसलिये भी कि जो स्वयं बन्धन में है वह दूसरों को सहज में मुक्त नही कर सकता, —यद्यपि भगवान् के लिये कुछ भी असम्भव नहीं; जिस प्रकार वैयक्तिक सुखोंवाले स्वर्ग की उसे कोई लालसा नहीं उसी प्रकार व्यक्तिगत दुःखोंवाले नरक से उसे कोई भय भी नहीं लगता । यदि आध्यात्मिक जीवन और सांसारिक जीवन में विरोध है तो यही वह खाई है जिसपर सेतु बांधने के लिये वह यहां आया है, यही वह विरोध है जिसे सामंजस्य में बदलने के लिये उसका यहां जन्म हुआ है । यदि आज संसार पर देहपरायणता और आसुरिकता का शासन है तो यह इस बात का और भी प्रबल कारण है कि अमरता के पुत्र (अमृतस्य पुत्रा:) इसे ईश्वर और आत्मा के निमित्त जीतने के लिये यहां उपस्थिति रहें । यदि जीवन एक प्रकार का उन्माद है तब तो करोड़ों आत्माएं ऐसी हैं जिन्हें दैवी बुद्धि का प्रकाश प्रदान करना होगा; यदि यह एक स्वप्न है तो भी यह कितने ही स्वप्न लेनेवालों के लिये अपने- आपमें वास्तविक है जिन्हें प्रेरित करना होगा कि वे या तो अधिक श्रेष्ठ स्वप्न लें या फिर जाग उठे; अथवा यदि यह एक मिथ्या-माया है तो भ्रम में पड़े लोगों को सत्य की प्राप्ति करानी होगी । यदि यह कहा जाये कि जगत् से दूर भागने के उज्ज्वल दृष्टान्त से ही हम जगत् की सहायता कर सकते हैं तो हम इस सिद्धान्त को भी स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि महान् अवतारों का उल्टा दृष्टान्त इस बात को सिद्ध करने के लिये विद्यमान है कि जगत् की सहायता हम केवल इसके वर्तमान जीवन के त्याग से ही नहीं कर सकते, बल्कि इसे स्वीकार तथा उन्नत करके भी कर सकते हैं तथा अधिक मात्रा में कर सकते हैं । और यदि यह विराट् सस्वरूप प्रभु की लीला है तो हम इसमें सुन्दर ढंग से तथा साहस के साथ अपना भाग लेने के लिये सहज ही सहमत हो सकते हैं, इस खेल में अपने दिव्य लीला-सहचर के साथ सम्यक्तया आनन्द ले सकते हैं ।

 

     परन्तु सबसे बढ़कर, संसार के विषय में जो दृष्टिकोण हमने अपनाया है वह हमें विश्व-जीवन का त्याग करने से मना करता है जबतक कि हम इसके उद्देश्यों को कार्यान्वित करने में ईश्वर और मनुष्य की कुछ भी सहायता कर सकते हैं । हम इस जगत् को शैतान का आविष्कार या आत्मा की भ्रान्ति नहीं, बल्कि भगवान् की

 

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अभिव्यक्ति समझते हैं, यद्यपि अभीतक यह अभिव्यक्ति आंशिक ही है, क्योंकि यह एक क्रमिक और विकसनशील वस्तु है । अतएव, हमारे लिये जीवन का त्याग जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता और न ही जगत् का त्याग जगत् की रचना का उद्देश्य हो सकता है । हम भगवान् के साथ अपने एकत्व का साक्षात्कार करना चाहते हैं, परन्तु हमारे लिये उस साक्षात्कार के अन्दर मनुष्य के साथ अपनी एकता का पूर्ण और चरम-परम अनुभव भी आ जाता है और हम इन दोनों को स्व-अरे से अलग नहीं कर सकते । ईसाइयों के शब्दों में कहें तो, ईश्वर का पुत्र ईसा 'मानव' का पुत्र भी है और पूर्ण ईसा-पन प्राप्त करने के लिये ईश्वरत्व और मानवत्व ये दोनों ही तत्त्व आवश्यक हैं; अथवा भारतीय विचारशैली के अनुसार कहें तो दिव्य नारायण, यह विश्व जिसकी केवल एक ही किरण है, नर में प्रकट होता है तथा अपनी पूर्ण चरितार्थता लाभ करता है; पूर्ण नर है नर-नारायण और उस पूर्णता में वह सत्ता के परम रहस्य का प्रतीक है ।

 

     अतएव, निश्चय ही, त्याग हमारे लिये साध्य नहीं, वरन् एक साधनमात्र है; न ही यह हमारा एकमात्र या मुख्य साधन हो सकता है, क्योंकि हमारा लक्ष्य है मानव- सत्ता में भगवान् को चरितार्थ करना, यह एक भावात्मक लक्ष्य है जिसकी प्राप्ति निषेधात्मक साधनों से नहीं हो सकती । निषेधात्मक साधन का प्रयोजन तो उस वस्तु को दूर करना मात्र हो सकता है जो भावात्मक चरितार्थता के मार्ग में बाधा डालती है । इस साधन का मतलब होना चाहिये उन सब वस्तुओं का त्याग, पूर्ण त्याग, जो दिव्य आत्म-परिपूर्णता से भिन्न तथा उसके विरुद्ध हैं और साथ ही इसका मतलब होना चाहिये उस सबका उत्तरोत्तर त्याग जो एक हीनतर या फिर केवल आशिक उपलब्धि है । अपने सांसारिक जीवन के प्रति हममें किसी प्रकार की आसक्ति नहीं होनी चाहिये; यदि आसक्ति हो तो हमें उसका त्याग करना होगा और पूर्ण रूप से करना होगा; पर हमें जगत् से पलायन के प्रति, मोक्ष एवं महान् आत्म-विलोप के प्रति भी किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रखनी चाहिये; यदि इनके प्रति आसक्ति हो तो उसका भी हमें त्याग करना होगा और निःशेष रूप से करना होगा ।

 

     और फिर हमारा त्याग, स्पष्ट ही, एक आन्तरिक त्याग होना चाहिये; विशेषतया और सबसे बढ़कर, वह इन तीन चीजों का त्याग होना चाहियेइन्द्रियों और हृदय में से आसक्ति तथा कामना-लालसा का, विचार और कर्म में से अहंतापूर्ण स्वेच्छा का और चेतना के केंद्र में से अहंभाव का । क्योंकि यही चीजें वे तीन गांठें हैं जिनसे हम अपनी निम्नतर प्रकृति के साथ बंधे हुए हैं और यदि हम इनका पूर्ण रूप से त्याग कर सके तो और कोई ऐसी चीज नहीं जो हमें बांध सके । इसलिये आसक्ति और कामना को पूर्ण रूप से निकाल फेंकना होगा; इस संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जिसके प्रति हमें आसक्त होना चाहिये, न धन-दौलत, न गरीबी, न हर्ष, न शोक, न जीवन, न मरण, न महानता, न क्षुद्रता, न पाप, न पुण्य, न मित्र,

 

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Image1.gifन स्त्री, न सन्तान, न स्वदेश, न अपना कार्य और ध्येय, न स्वर्ग, न भूतल और न वह सब जो इनके अन्दर या इनसे परे है ।

 

     इसका मतलब यह नहीं कि यहां ऐसी कोई भी चीज नहीं है जिससे हमें प्रेम करना चाहिये, ऐसा कुछ भी नहीं है जिसमें हमें आनन्द लेना चाहिये; क्योंकि आसक्ति का मतलब है प्रेम में रहनेवाला अहंकार न कि स्वयं प्रेम, कामना का अर्थ है सुख और सन्तोष की भूख में निहित सीमितता और सुरक्षितता, न कि वस्तुओं में विद्यमान दिव्य आनन्द की खोज । पर सार्वभौम प्रेम तो हममें अवश्य होना चाहिये, ऐसा प्रेम जो शान्त एवं स्थिर हो और फिर भी उत्कट-से-उत्कट अनुराग के क्षणिक आवेश के परे नित्य रूप से प्रगाढ़ रहनेवाला हो; इस विश्व की वस्तुओं में आनन्द हमें अवश्य लेना चाहिये, पर ऐसा आनन्द जो भगवान् में मिलनेवाले आनन्द पर आधारित होता है और जो वस्तुओं के बाह्य रूपों के साथ नहीं चिपटता, बल्कि उनके अन्दर छुपे हुए तत्त्व को मजबूती से पक्ड़े रखता है तथा जगत् के पाशों में फंसे बिना इसका आलिंगन करता है ।

 

     हम देख ही चुके हैं कि यदि हम दिव्य कर्मों के मार्ग में पूर्ण बनना चाहें तो हमें अपने विचार और कर्म में रहनेवाली अहंतापूर्ण स्वेच्छा को सर्वथा त्याग देना होगा; उसी प्रकार यदि हमें दिव्य ज्ञान में पूर्णता प्राप्त करनी हो तब भी हमें इसका पूर्णतया त्याग करना होगा | इस स्वेच्छा का मतलब हैं मन का अहंभाव जो अपनी पसंदगियों तथा आदतों के प्रति और विचार, दृष्टिकोण एवं संकल्प की अपनी अतीत या वर्तमान रचनाओं के प्रति आसक्त हो जाता है, क्योंकि यह उन्हें 'अपना- आप' या अपनी समझता है, उनके चारों ओर ''मैं-पन'' और ''मेरे-पन'' के सूक्ष्म तन्तुओं का जाल बुन डालता है और जाले में मकड़े की तरह उनमें निवास करता है । जैसे मक्का अपने जाले पर आक्रमण बिल्कुल पसन्द नहीं करता, वैसे ही यह भी अपने साथ छेड़छाड़ बिल्कुल पसन्द नहीं करता और यदि इसे नये दृष्टि- बिन्दुओं एवं नयी धारणाओं के क्षेत्र में ले जाया जाय तो वहां यह अपने-आपको परदेसी और दुःखी अनुभव करता है जैसे मकड़े को अपने जाले के सिवाय किसी और जाले में सब कुछ विदेशी एवं विजातीय लगता है । इस आसक्ति को अपने मन से पूर्णरूपेण निकाल फेंकना होगा । इतना ही नहीं कि हमें जगत् और जीवन के प्रति उस साधारण मनोवृत्ति का त्याग करना होगा जिसे अजागरित मन अपना एक स्वाभाविक अंग समझता हुआ उसके साथ चिपटा रहता है; बल्कि हमें अपनी गढ़ी हुई किसी मानसिक धारणा में या किसी बौद्धिक विचार-पद्धति में अथवा धार्मिक सिद्धान्तों या तार्किक परिणामों की किसी क्रमशृंखला में भी नहीं बंधे रहना चाहिये; हमें केवल मन और इन्द्रियों के पाश को नहीं काटना होगा, वरन् विचारक,

 

     निर्लिप्त । वस्तुओं में विद्यमान दिव्य आनन्द निष्काम और निर्लिप्त है, कामना से मुक्त और अतएव अनासक्त है ।

 

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Image1.gifधर्मगुरु और संप्रदाय-प्रवर्तक के पाश से भी, अर्थात् 'शब्द' के जाल तथा 'विचार' के बंधन से भी मुक्त होकर इनसे बहुत परे चले जाना होगा । ये सब बंधन आत्मा को बाह्य रूपों के घेरे में बन्द करने के लिये हमारे अन्दर तैयार बैठे हैं; परन्तु हमें सदा इन्हें पार करते जाना होगा, सदा ही महत्तर के लिये लघुतर को तथा अनन्त के लिये सान्त को त्यागते जाना होगा; हमें एक प्रकाश से दूसरे प्रकाश की ओर, एक अनुभव से दूसरे अनुभव तथा आत्मा की एक अवस्था से उसकी दूसरी अवस्था की ओर बढ़ने के लिये तैयार रहना होगा जिससे कि हम भगवान् की चरम परात्परता तथा चरम विश्वमयता तक पहुंच सकें । इसी प्रकार, जिन सत्यों को हम अत्यन्त सुरक्षित मानते हुए उनमें विश्वास करते हैं उनमें भी हमें आसक्त नहीं होना होगा, क्योंकि वे उस अनिर्वचनीय ब्रह्म के रूप और अभिव्यक्तियांमात्र हैं जो किसी भी रूप या अभिव्यक्तितक अपने को सीमित रखने से इंकार करता है; हमें, सदा ही, ऊपर से आनेवाले उस उच्चतर शब्द की ओर खुले रहना चाहिये जो अपने-आपको अपने अभिप्राय तक ही सीमित नहीं रखता; साथ ही हमें उस 'विचार' के प्रकाश की ओर भी खुले रहना चाहिये जो अपने अन्दर अपने से उल्टे विचारों को भी धारण किये रहता है ।

 

     परन्तु समस्त प्रतिरोध का केन्द्र है अहंभाव और इसलिये इसके प्रत्येक गुप्त स्थान एवं छद्मवेश में हमें इसका पीछा करना होगा और इसे बाहर घसीट कर इसका वध कर डालना होगा; क्योंकि इसके छद्मवेशों का कोई अन्त नहीं और यह अपने छुपा सकनेवाले स्व-स्व चिथड़े के साथ यथाशक्ति चिपटा रहेगा । परोपकार और उदासीनता प्रायः ही इसके अत्यन्त शक्तिशाली छद्मवेश होते हैं; इन वेशों को पहने हुए तो यह इसका पीछा करेने के लिये नियुक्त दैवी दूतों के सामने आने पर भी उनके विरुद्ध धृष्टतापूर्वक विद्रोह करेगा । यहां परम ज्ञान का सूत्र हमारी सहायता के लिये उपस्थित होता है; अपने मूल दृष्टिबिन्दु में हमें इन विभेदों से कुछ मतलब नहीं, क्योंकि यहां न तो कोई मैं है न तू वरन् है केवल एक दिव्य आत्मा जो अपने सभी मूर्त्त रूपों में समान रूप से विद्यमान है, व्यक्ति और समूह में एकसमान व्याप्त है, और उसे उपलब्ध करना, उसे व्यक्त करना, उसकी सेवा करना तथा उसे चरितार्थ करना ही एकमात्र महत्त्वपूर्ण वस्तु है । स्वतुष्टि किंवा परोपकार, उपभोग किंवा उदासीनता मुख्य वस्तु नहीं हैं । यदि इस एकमेव आत्मा की उपलब्धि, चरितार्थता और सेवा हमसे एक ऐसे कार्य की मांग करती हैं जो दूसरों को, अहंकारपूर्ण अर्थ में, अपनी सेवा या अपना ही ख्यापन प्रतीत होता है या फिर अहंपूर्ण भोग एवं अहं-तुष्टि प्रतीत होता है तो भी वह कार्य हमें करना ही होगा, हमें अपने अन्दर के मार्गदर्शक के निर्देशानुसार चलना होगा न कि लोगों की सम्मतियों के अनुसार । परिस्थिति का प्रभाव प्रायः बहुत सूक्ष्म रूप में कार्य करता है; हम अचेतन-प्राय रूप में उस वेश को अधिक पसन्द करते हैं तथा उसीको

 

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पहन भी लेते हैं जो हमें बाहर से देखनेवाली आंख को सर्वोत्तम दीख पड़ेगा और इस प्रकार हम अपने अन्दर की आंख पर पर्दा पड़ जाने देते हैं; हम दरिद्रता के व्रत का या सेवा का बाना पहनने या फिर उदासीनता, त्याग एवं निष्कलंक साधुता के बाह्य प्रमाणों का जामा पहनने को प्रेरित होते हैं, क्योंकि परम्परा एवं लोकमत हमसे इसी चीज की मांग करता है और साथ ही इसी प्रकार हम अपनी परिस्थिति पर सर्वोत्तम प्रभाव डाल सकते हैं । परन्तु यह सब मिथ्याभिमान और भ्रममात्र है । इन चीजों का वेश भी हमें धारण करना पड़ सकता है, क्योंकि वह हमारी सेवा की वर्दी हो सकता है; पर वह ऐसा नहीं भी हो सकता । बाह्य मानव की दृष्टि का कुछ भी महत्त्व नहीं; अन्दर की आंख ही सब कुछ है ।

 

     गीता की शिक्षा में हम देखते, हैं कि अहंभाव से मुक्ति की जो मांग की जाती है वह कितनी सूक्ष्म वस्तु है । शक्ति का मद एवं क्षत्रिय का अहंकार अर्जुन को लड़ने के लिये प्रेरित करते हैं; इससे उल्टा दुर्बलता का अहंकार उसे युद्ध से पराड़्मुख करता हैं; दुर्बलता का मतलब है उसकी जुगुप्सा, वैराग्य की भावना, मन, स्नायविक सत्ता और इन्द्रियों को अभिभूत करनेवाली मिथ्या 'कृपा',

वह दिव्य दया नहीं जो बाहुओं को बल देती है तथा ज्ञान में स्पष्टता लाती है । परन्तु उसकी यह दुर्बलता त्याग एवं पुण्य का बाना पहनकर आती है: ''इन रुधिरलिप्त भोगों को भोगने से तो भीख मांगकर जीवन बिताना कहीं अच्छा; मुझे समस्त भूतल का राज्य नहीं चाहिये, देवताओं का राज्य भी नहीं, '' हम कह सकते हैं कि गुरु ने कितनी बड़ी मूर्खता की कि उसकी इस वृत्ति का समर्थन नहीं किया, संन्यासियों की सेना में एक और महान् आत्मा की वृद्धि करने तथा संसार के सामने पावन त्याग का एक और उज्जल दृष्टान्त उपस्थित करने का यह भव्य अवसर खो दिया । परन्तु गुरु-ऐसे गुरु जो शब्दों के जाल में नहीं आ सकते, इसे किसी और ही रूप में देखते हैं, ''ये दुर्बलता, भ्रम और अहंकार हैं जो तेरे अन्दर बोल रहे हैं । आत्मा को देख, ज्ञान की ओर आंखें खोल, अपनी आत्मा को अहंकार से मुक्त कर । '' और, उसके बाद? ''युद्ध कर, विजय प्राप्त कर, समृद्ध राज्य का उपभोग कर । '' अथवा प्राचीन भारतीय ऐतिह्य से एक और दृष्टान्त लें । हमें ऐसा प्रतीत हों सकता है कि यह एक प्रकार का अहंकार ही था जिसने अवतार राम को लंका के राजा से अपनी पली को पुन: प्राप्त करने के लिये एक सेना खड़ी करने तथा एक राष्ट्र का विनाश करने को प्रेरित किया । परन्तु क्या यह उससे छोटा अहंकार होता यदि वे उदासीनता का भेस धारण कर शान के प्रचलित शब्दों का दुरुपयोग करते हुए कहते, ''मेरी कोई पली नहीं, कोई शत्रु नहीं, कोई कामना नहीं; ये तो इन्द्रियों के भ्रम हैं, मुझे ब्रह्म-ज्ञान का अनुशीलन करना चाहिये और जनक की दुहिता के साथ रावण जो चाहे करे । ''

 

     जैसा कि गीता ने बल देकर कहा है, इसकी कसौटी हमारे अन्दर है । वह यह

 

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कि अन्तरात्मा को लालसा और आसक्ति से मुक्त रखा जाये, पर साथ ही इसे अकर्म के प्रति आसक्ति से तथा कर्म करने के अहंपूर्ण आवेग से भी मुक्त रखा जाय, पुण्य के बाह्य रूपों के प्रति आसक्ति तथा पाप के प्रति आकर्षण-दोनों से एकसमान मुक्त रखा जाये । इसका मतलब है एकमेव आत्मा में निवास करने तथा उसीमें कर्म करने के लिये ''अहंता'' और ममता से मुक्त होना; विराट् पुरुष के व्यक्तिगत केन्द्र के द्वारा कर्म करने से इंकार करने के अहंकार का त्याग करना और साथ ही अन्य सबकी सेवा को छोड़कर केवल अपने वैयक्तिक मन, प्राण और शरीर की सेवा करने के अहंकार का भी त्याग करना । आत्मा में निवास करने का अर्थ यह नहीं कि हम केवल अपने लिये अनन्त में इस प्रकार रहने लगे कि निर्व्यक्तिक आत्मानन्द के उस महासागर में निमग्न होकर सब वस्तुओं की सुध ही बिसार दें; बल्कि इसका मतलब है उस परम आत्मा की तरह तथा उसीमें निवास करना जो इस देह में तथा सब देहों में और साथ ही सब देहों से परे भी समान रूप से विद्यमान है । यही है पूर्णज्ञान ।

 

     इससे यह स्पष्ट हो गया होगा कि त्याग के विचार को हम जो स्थान देते हैं वह इसके प्रचलित अर्थ से भिन्न है । प्रचलित रूप में इसका अर्थ है स्वार्थ-त्याग, सुख का वर्जन, सुखभोग के विषयों का त्याग । स्वार्थ-त्याग मनुष्य की अन्तरात्मा के लिये एक आवश्यक साधन है, क्योंकि उसका हृदय अज्ञानमय आसक्ति से भरा हूआ है; सुख का वर्जन आवश्यक है, क्योंकि उसकी इन्द्रियां ऐन्द्रिय तुष्टियों के पंकिल मधु में फंस जाती हैं और उसमें लथपथ होकर उसीसे चिपकी रहती हैं; सुखभोग के विषयों का त्याग उसपर बलात् थोपा जाता है, क्योंकि उसका मन विषय के साथ चिपट जाता है और उससे परे तथा अपने अन्दर जाने के लिये उसे छोड़ना नहीं चाहता । यदि मनुष्य का मन इस प्रकार अज्ञ, आसक्त, अपनी अशान्त अस्थिरता में भी आबद्ध तथा वस्तुओं के बाह्य रूपों के द्वारा विभ्रान्त न होता तो त्याग की आवश्यकता ही न पड़ती ; आत्मा आनन्द के पथ पर, अल्प आनन्द से महान् आनन्द की ओर, हर्ष से दिव्यतर हर्ष की ओर अग्रसर हो सकती, पर वर्तमान अवस्था में यह सम्भव नहीं । जिन भी चीजों के प्रति मानव-मन आसक्त है उन सबको इस अन्दर से त्याग देना होगा, ताकि यह उस तत्त्व को प्राप्त कर सके जो कि वे अपने सत्य स्वरूप में हैं । बाह्य त्याग मुख्य वस्तु नहीं है, पर वह भी कुछ समय के लिये आवश्यक होता है, अनेक विषयों में तो अनिवार्य भी होता है और कभी-कभी तो सभी विषयों में उपयोगी होता है; हम यहांतक कह सकते हैं कि पूर्ण बाह्य त्याग एक ऐसी अवस्था है जिसमें से आत्मा को अपनी उन्नति के किसी काल में अवश्य गुजरना पड़ता है, द्यपि यह त्याग सदा ही उन स्वच्छन्द जोर-जबर्दस्तियो तथा भीषण आत्म-यन्त्रणाओं के बिना ही करना चाहिये जो हमारे अन्दर विराजमान भगवान् के प्रति अपराधरूप होती हैं । परन्तु अन्ततः यह त्याग या

 

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स्वार्थत्याग सदा एक साधन ही होता है और इसकी उपयोगिताका काल आकर चला जाता है । किसी पदार्थ का परित्याग करना उस समय आवश्यक ही नहीं रह जाता जब कि वह हमें अपने जाल में अब और नहीं फंसा सकता, क्योंकि आत्मा जिसका आनन्द लेती है वह पदार्थ के रूप में पदार्थ नहीं होता, बल्कि उसके द्वारा व्यक्त होनेवाला भगवान् ही होता है; सुख-भोग के वर्जन की तब और आवश्यकता नहीं रहती जब कि आत्मा पहले की तरह सुख की खोज नहीं करती, बल्कि स्वयं पदार्थ पर व्यक्तिगत या भौतिक स्वत्व प्राप्त करने की आवश्यकता के बिना सभी पदार्थों में भगवान् का आनन्द समान रूप से प्राप्त कर लेती है; आत्म- त्याग का कोई क्षेत्र ही नहीं रह जाता जब कि आत्मा पहले की तरह किसी चीज की मांग नहीं करती, बल्कि भूतमात्र में विद्यमान एक ही आत्मा के संकल्प का सचेतन रूप से अनुसरण करती है । तभी हम नियम के बंधन से मुक्त होकर आत्मा का स्वातंत्र्य प्राप्त करते हैं ।

 

     हमें केवल उस चीज को ही मार्ग पर अपने पीछे छोड़ देने के लिये तैयार नहीं रहना होगा जिसे हम अशुभ मानकर उसकी निन्दा करते हैं, बल्कि उस चीज को भी, जो हमें शुभ प्रतीत होती है, किन्तु फिर भी जो एकमात्र शुभ वस्तु नहीं है, छोड़ देने के लिये तैयार रहना होगा । इस मार्ग में ऐसी कई चीजें हैं जो लाभदायक तथा सहायक होती हैं, जो शायद किसी समय एकमात्र काम्य वस्तु प्रतीत होती हैं, और फिर भी एक बार उनका कार्य पूरा हो जाने पर, एक बार उनके प्राप्त हो जाने पर जब हमें उनसे आगे बढ़ने के लिये पुकार आती है तो वे बाधक वस्तुएं और यहांतक कि विरोधी शक्तियां बन जाती हैं । आत्मा की कुछ ऐसी स्पृहणीय भूमिकग़रं हैं जिनमें, उनपर प्रभुत्व पा लेने के बाद, टिके रहना खतरनाक होता है, क्योंकि तब हम इनसे परे स्थित परमेश्वर के विशालतर साम्राज्यों की ओर प्रगति नहीं करते । किन्हीं भी दैवी साक्षात्कारों के साथ हमें चिपटे नहीं रहना होगा यदि वे वह भागवत साक्षात्कार न हों जो चरम रूप से तात्त्विक एवं समग्र होता है । 'सर्व'मय भगवान् से कम तथा चरम परात्पर से नीचे की किसी भी वस्तु पर हमें नहीं रुकना होगा और यदि हमारी आत्मा इस प्रकार मुक्त हो सके तो भगवान् की कार्यलीला का समस्त चमत्कार हमें ज्ञात हो जायेगा; हमें पता लग जायेगा कि अन्दर से हर एक चीज का त्याग करने में हमनें कुछ भी खोया नहीं । ''इस सबका त्याग करके तू 'सर्व' का उपभोग कर'' । कारण, वहां प्रत्येक वस्तु हमारे लिये सुरक्षित रखी हुई है और हमें पुनः प्रदान भी की जाती है, पर तब उसमें अद्भुत परिवर्तन एवं रूपान्तर आ जाता है, वह उस सर्वमंगलमय तथा सर्व-सुन्दर में, भगवान् की पूर्ण-ज्योति एवं पूर्ण-आनन्द मे रूपान्तरित हों जाती है जो नित्य शुद्ध और अनन्त है, उस रहस्य एवं चमत्कार में परिणत हो जाती है जो युग- युगान्तरों से अविरत चला आ रहा है।

 

तेन त्यक्तेन भूञ्जीथा: ईशोपनिषद्, १ ।

 

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अध्याय ६

 

ज्ञानयोग की साधन-पद्धतियों का समन्वय

 

पिछले अध्याय में हम ने त्याग का निरूपण अत्यन्त व्यापक दृष्टि से किया है, जैसे कि उससे पहले हमने एकाग्रता के सभी सम्भव रूपों की चर्चा की थी अतएव, जो कुछ कहा गया है वह ज्ञानमार्ग की भांति कर्ममार्ग और भक्तिमार्ग पर भी समान रूप से लता होता है, क्योंकि तीनों ही मार्गों में एकाग्रता और त्याग की आवश्यकता होती है, हां, जिस रीति और भावना से वहां उनका प्रयोग किया जाता है वें भले ही भिन्न-भिन्न हों । परन्तु अब हमें, अधिक विशिष्ट रूप में, ज्ञानमार्ग के असली सोपानों का वर्णन करना होगा, इस मार्ग पर बढ़ने के लिये हमें एकाग्रता और त्याग की दोहरी शक्ति की सहायता लेनी होगी । क्रियात्मक रूप में, इस मार्ग का मतलब है-सत्ता की उस महान् सीढी पर फिर से ऊपर की ओर चढ़ना जिसपर से अन्तरात्मा स्थूल भौतिक जीवन में उतसई है ।

 

ज्ञान का प्रधान लक्ष्य है आत्मा को, अपनी सच्ची आत्म-सत्ता को फिर से प्राप्त करना, और यह लक्ष्य इस सिद्धान्त को मानकर चलता है कि हमारी सत्ता की वर्तमान अवस्था हमारी सच्ची सत्ता नहीं है । इसमें सन्देह नहीं कि हमने उन तीखे समाधानों को त्याग दिया है जो वि

श्व की पहेली की गांठ ही काट डालते हैं; हम ऐसा नहीं मानते कि यह विश्व भौतिक प्रतीतियों की एक काल्पनिक सत्ता है जिसे शक्ति (Force)  ने उत्पन्न किया है, या कि यह एक ऐसी मिथ्या माया है जिसे 'मन' ने निर्मित किया है, या कि यह संवेदनों एवं विचारों तथा इनके परिणामों का एक ऐसा गट्ठर है जिसके पीछे एक महत् रिक्तता या महान् आनन्दपूर्ण शून्य है और उस रिक्तता या शून्य को अपनी सनातन असत्ता का सच्चा सत्य मानते हुए हमें उसकी प्राप्ति के लिये यत्न करना चाहिये । हम तो यह मानते हैं कि आत्मा एक वास्तविक सत्ता है और विश्व उस आत्मा का एक सत्य, केवल जड़ शक्ति और जड़ रचना का नहीं, बल्कि उस आत्मा की चेतना का सत्य है, किन्तु इसी कारण यह उससे कम नहीं वरञ्च उससे भी अधिक सत्य है । पर यद्यपि विश्व एक वास्तविक तथ्य है, कोई काल्पनिक वस्तु नहीं, भागवत और वैश्व सत्ता का एक सत्य है, वैयक्तिक सत्ता की कल्पना नहीं, फिर भी हमारे ऐहिक जीवन की अवस्था अज्ञान की अवस्था है, हमारी सत्ता का वास्तविक सत्य नहीं । अपनी सत्ता के विषय में हम एक मिथ्या परिकल्पना करते हैं, हम अपनेको एक ऐसे रूप में देखते हैं जैसे हम असल में नहीं हैं; अपने चारों ओर की वस्तुओं के साथ हमारा जो सम्बन्ध है वह मिथ्या ढंग का है, क्योंकि हम विश्व का और अपना वह स्वरूप नहीं जानते जो कि वास्तव में इनका है, बल्कि हम इन्हें एक अपूर्ण दृष्टिबिंदु के द्वारा ही

 

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देखते हैं । वह दृष्टिबिंदु एक क्षणिक मिथ्या-कल्पना पर आधारित है जिसे आत्मा और प्रकृति ने विकासोन्मुख अहं की सुविधा के लिये अपने बीच में प्रतिष्ठित किया है । और, यह मिथ्यापन ही उस व्यापक विकृति, अव्यवस्था और दुःख-कष्ट का मूल है जो हमारे आभ्यन्तरिक जीवन को और अपनी परिस्थिति के साथ हमारे सम्बन्ध को पग-पग पर घेरे रहते हैं । हमारा वैयक्तिक और सामाजिक जीवन, अपने साथ और अपने साथियों के साथ हमारा व्यवहार मिथ्यात्व पर आधारित है, इसलिये इनके स्वीकृत सिद्धान्त और पद्धतियां भी मिथ्या हैं, यद्यपि इस सब भ्रान्ति में से एक विकसनशील सत्य अपने को प्रकट करने के लिये अनवरत यत्न करता रहता है । अतएव, मनुष्य के लिये 'ज्ञान' परम महत्त्वपूर्ण वस्तु है, वह ज्ञान नहीं जिसे जीवन का व्यावहारिक ज्ञान कहते हैं, बल्कि आत्मा और प्रकृति का गहरे-से- गहरा ज्ञान। इस ज्ञान के ऊपर ही जीवन के सच्चे व्यवहार की नींव रखी जा सकती है ।

 

     उक्त भ्रान्ति का कारण यह है कि हम अपने शरीर आदि के साथ मिथ्या तदात्मता स्थापित कर लेते हैं । प्रकृति ने अपनी स्थूल-भौतिक एकता के अन्तर्गत पृथक्-पृथक् दीखनेवाले शरीरों को उत्पन्न किया है । जड़ प्रकृति में व्यक्त हुआ आत्मा उन शरीरों को आवेष्टित करता है तथा उनमें निवास करता है, उन्हें धारण तथा प्रयुक्त करता है; वह अपने-आपको भूलकर जड़तत्त्व की इस एक गांठ को ही अनुभव करता है और कहता है, ''यह शरीर ही मैं हूं । '' वह अपने-आपको शरीर समझता है, शरीर के सुख में सुखी और दुःख में दुःखी होता है, शरीर के साथ ही जन्म लेता और उसके साथ ही नष्ट हों जाता है; अथवा कम-से-कम वह अपनी सत्ता को इसी रूप में देखता है । और फिर, प्रकृति ने अपनी विराट्- प्राणसम्बन्धी एकता के अन्तर्गत प्राण की पूथक्-पृथक् दीखनेवाली धाराओं का सृजन किया है जो प्रत्येक शरीर के अन्दर तथा उसके चारों ओर जीवन-शक्ति के एक आवर्त के रूप में प्रवाहित होती रहती हैं, और प्राणिक प्रकृति में प्रकट दुआ आत्मा उस धारा को पकड़ लेता है और उसकी पकड़ में आ जाता है, प्राण के उस घूमते हुए छोटे-से भँवर में कुछ समय के लिये कैद हो जाता है । आत्मा, अपने-आपको और भी अधिक भूलकर, कहता है, ''मैं यह प्राण हूं"; वह अपने- आपको प्राण समझता है, उसकी लालसाओं या कामनाओं को अपना लालसाएं या कामनाएं समझता है, उसीके सुखों में लोट लगाता है, उसके घावों से घायल हो जाता है, उसकी गतियों के साथ-साथ बेतहाशा दौड़ता है या फिर ठोकर खाकर गिर पड़ता है । यदि वह अभीतक मुख्य रूप से देह-बुद्धि के द्वारा ही शासित हों तो वह उस आवर्त की सत्ता के साथ अपनी सत्ता को एकाकार कर लेता है और सोचता है कि ''जिस शरीर के चारों ओर इस आवर्त ने अपनी रचना कर रखी है

 

    आत्मज्ञान और तत्त्वज्ञान ।

 

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उसके विनाश से जब यह छिन्न-भिन्न हो जायेगा तब 'मैं' भी नहीं रहूंगा । '' यदि वह प्राण की उस धारा को अनुभव करने में समर्थ हो जिसने इस आवर्त का निर्माण किया है तो वह अपने-आपको वही धारा समझने लगता है और कहता है, ''मैं जीवन का यही प्रवाह हूं मैंने यह शरीर धारण किया है, मैं इसे छोड़कर दूसरे शरीर धारण करूंगा; मैं अमर प्राण हू जो सतत पुनर्जन्म के चक्र में घूमता रहता है । ''

 

     और फिर, प्रकृति नै अपनी मानसिक एकता के अन्तर्गत, विराट् मन में, मानो मन: -शक्ति के पृथक्-पृथक् दीखनेवाले विद्युज्जनक यंत्र (dynamos) निर्मित किये हैं । ये यंत्र मानसिक शक्ति और मानसिक क्रियाओं के उत्पादन, वितरण और पुनः -संचय के लिये स्थिर-केंद्रों की तरह काम करते हैं, मानो ये मानसिक तार- प्रेषण (telegraphy) की व्यवस्था में स्टेशनों का काम करते हैं जहां संदेश सोचे एवं लिखे जाते हैं तथा भेजे, पाये और बांचे जाते हैं, और ये संदेश तथा ये क्रियाएं अनेक प्रकार की होती हैं, संवेदनात्मक, भावमय, बोधात्मक, प्रत्ययात्मक तथा बोधिमय । मनोमय प्रकृति मैं प्रकट हुआ आत्मा इन सबको स्वीकार करता है, जगत् के सम्बन्ध में अपने दृष्टिकोण को निश्चित करने के लिये इनका प्रयोग करता है और उसे लगता है कि वह इनके आघातों को बाहर भेजता है और स्वयं ग्रहण भी करता है, इनके परिणामों को भोगता है या फिर उनपर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेता है । प्रकृति इन मनरूपी विद्युत्-यंत्रों का आधार अपने बनाये जड़ शरीरों में स्थापित करती है, इन शरीरों को अपने स्टेशनों की आधार- भूमि बनाती है और प्राण- धाराओं की गति से परिपूर्ण नाड़ी-संस्थान के द्वारा मन और शरीर के बीच सम्बन्ध स्थापित करती है । इस प्राणमय नाड़ी-संस्थान के द्वारा मन प्रकृति के स्थूल भौतिक जगत् का ज्ञान प्राप्त करता है और साथ ही, जहांतक वह चाहे वहांतक, प्राणिक जगत् का भी शान लाभ कर सकता है । अन्यथा मन सर्वप्रथम और प्रधान रूप में मनोमय जगत् से ही सचेतन होगा और भौतिक जगत् की झांकी केवल परोक्ष रूप में ही प्राप्त करेगा । वर्तमान वस्तुस्थिति में इसका ध्यान शरीर और भौतिक जगत् पर ही जमा हुआ है जिनके अन्दर यह प्रतिष्ठित है; शेष सारी सत्ता को यह केवल धुंधले, परोक्ष या अवचेतन रूप में, अपनी चेतना के उस विशाल अवशेष के अन्दर ही जानता है जिसे इसकी ऊपरी चेतना प्रत्युत्तर नहीं देती और जिसे वह अ चुकी है ।

 

     आत्मा इस मनरूपी डायनेमो (dynamo) या स्टेशन के साथ अपने-आपको एकाकार कर लेता है और कहता है, ''मैं यह मन ही हूं | '' और, क्योंकि मन शारीरिक जीवन में डूबा रहता है, वह (आत्मा) सोचता है, ''मैं एक सजीव शरीर में रहनेवाला मन हूं " अथवा, और भी अधिक प्रचलित रूप में वह यों सोचता है कि ''मैं एक शरीर हूं जो जीवन धारण करता और सोचता है । '' वह देहबद्ध मन के विचारों, भावों और संवेदनों के साथ अपने-आपको तदाकार कर लेता है और

 

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सोचता है कि जब शरीर का नाश होगा तब इस सबका भी नाश हों जायेगा, इसलिये तब स्वयं मेरा अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा । अथवा यदि वह अपने मनोमय व्यक्तित्व के सतत प्रवाह को अनुभव कर लेता है तो वह समझता है कि मैं एक मनोमय पुरुष हूं जो एक बार या बारंबार शरीर धारण करता है और पार्थिव जीवन के समाप्त होने पर इससे परे के मनोमय लोकों में लौट जाता है; इस प्रकार कभी तो शरीर में और कभी प्रकृति के मानसिक या प्राणिक स्तर पर मानसिक रूप से सुख-दुःख का भोग करनेवाले इस मनोमय पुरुष के सतत स्थायित्व को छी वह अपनी अमर सत्ता कहता है या फिर, क्योंकि मन, वह चाहे कितना ही अपूर्ण क्यों न हो, प्रकाश और ज्ञान का ही करण है और अपने से परे की सत्ता की कुछ कल्पना कर सकता है, वह उस परे की सत्ता में, किसी शून्य या किसी सनातन सत्ता में, मनोमय पुरुष के लय की सम्भावना देखता है और कहता है, ''वहां मेरा, मनोमय पुरुष का, अस्तित्व समाप्त हों जाता है । '' देहबद्ध मन और प्राण की इस वर्तमान क्रीड़ा के प्रति अपनी आसक्ति या घृणा की मात्रा के अनुसार वह ऐसे लय से डरता है या इसकी कामना करता है, इसे अस्वीकार कर देता है या स्वीकार कर लेता है ।

 

     सुतरां, यह सब सत्य और असत्य का मिश्रण है । यह सत्य है कि 'मन', 'प्राण' और 'जड़तत्त्व' प्रकृति में अस्तित्व रखते हैं और यह भी सत्य है कि मन, प्राण और शरीर उसमें व्यक्तिभाव धारण करते हैं, परन्तु आत्मा इन चीजों के साथ जो तादात्म्य स्थापित कर लेता है वह मिथ्या है । मन, प्राण और जडूतत्त्व भी हमारी सत्ता का स्वरूप हैं तो सही, पर केवल इस अर्थ में कि है सत्ता के ऐसे तत्त्व हैं जिन्हें हमारी सच्ची आत्मा ने अपनी एकमेव सत्ता को सृष्टि के रूप में प्रकट करने के लिये पुरुष और प्रकृति के मिलन तथा इनकी परस्पर-क्रिया के द्वारा विकसित किया है । व्यक्तिगत मन, प्राण और शरीर इन तत्त्वों की एक लीलामात्र हैं । यह लीला यहां आत्मा और प्रकृति के पारस्परिक आदान-प्रदान में 'एकं सत्' के बहुत्व को प्रकट करने के साधन के रूप में प्रस्थापित की गयी है; वह 'एक सत्' अपने बहुत्व को नित्य ही प्रकट कर सकता है तथा अपनी एकता के अन्दर वह इसे नित्य ही प्रच्छन्न रूप में धारण किये रहता है । व्यक्तिगत मन, प्राण और शरीर उस हदतक हमारी अपनी सत्ता के ही रूप हैं जहांतक हम उस 'एक' के बहुत्व के केंद्र हैं; विराट् मन, प्राण और शरीर भी हमारी अपनी आत्मा के रूप हैं, क्योंकि अपनी मूल सत्ता में हम वही 'एक' हैं । परन्तु आत्मा विराट् या व्यक्तिगत मन, प्राण और शरीर से अधिक कुछ है और जब हम इन चीजों के साथ तादात्म्य स्थापित करके अपने-आपको सीमा में बांध लेते हैं तो हम अपने ज्ञान को एक असत्य पर आधारित करते हैं, हम अपनी निज सत्ता के ही नहीं, बल्कि वैश्व सत्ता तथा व्यक्तिगत कार्य-प्रवृत्तियों के निर्धारक विचार एवं व्यावहारिक अनुभव को भी एक मिथ्या रूप दे देते हैं ।

 

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     आत्मा चरम सनातन पुरुष एवं विशुद्ध सत्ता है और ये सब चीजें उसकी अभिव्यक्तियां हैं । हमें इसी ज्ञान को लेकर आगे बढ़ना होगा; इस ज्ञान का साक्षात्कार करके इसे व्यक्ति के आन्तर और बाह्य जीवन का आधार बनाना होगा । ज्ञानयोग ने इस प्राथमिक सत्य से आरम्भ करके साधना की दो प्रकार की भावात्मक और अभावात्मकविधियों की परिकल्पना की है । उन विधियों के द्वारा हम इन मिथ्या तादात्म्यों से छुटकारा पा सकते हैं और इनसे पीछे हटकर सच्चा आत्मज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । अभावात्मक विधि यह है कि ''मैं शरीर हूं " इस मिथ्या विचार का विरोध करने तथा इसे जड़मूल से निकाल फेंकने के लिये हम सदैव यह कहें कि ''मैं शरीर नहीं हूं", और फिर इस ज्ञान पर अपने-आपको एकाग्र करें तथा भौतिक सत्ता के प्रति आत्मा की आसक्ति को त्याग कर देहबुद्धि से मुक्त हो जायें । इसके आगे हम यह कहते हैं कि ''मैं प्राण नहीं हूं " और इस ज्ञान पर अपने-आपको एकाग्र करके तथा प्राण की चेष्टाओं और कामनाओं के प्रति आसक्ति का त्याग करके हम प्राण-बुद्धि से छुटकारा पा लेते हैं । अन्त में हम यह कहते हैं कि ''मैं मन नहीं हूं गति, इन्द्रिय और विचार नहीं हूं" और इस ज्ञान पर अपने-आपको एकाग्र करके तथा मानसिक क्रियाओं का त्याग करके हम मन को आत्मा समझने के भ्रम से मुक्त हो जाते हैं । इस प्रकार जिन चीजों के साथ हमने तादात्म्य स्थापित कर रखा था उनके तथा अपने बीच जब हम निरन्तर एक खाई पैदा करते जाते हैं तो उनके आवरण हमारे आगे से उत्तरोत्तर हटते जाते हैं और आत्मा हमारे अनुभव के प्रति प्रत्यक्ष होने लगता है । उस आत्मा के बारे में तब हम कहते हैं, ''मैं 'वह' हूं शद्ध, सनातन, आनन्दस्वरूप'' और अपने विचार तथा अपनी सत्ता को इस ज्ञान पर एकाग्र करके हम 'वही' बन जाते हैं और अन्त में व्यक्तिगत सत्ता तथा विश्व का त्याग करने में समर्थ हो जाते हैं । दूसरी विधि भावात्मक है और वह वस्तुत: राजयोग से सम्बन्ध रखती है । वह यह है कि हम अन्य सब विचारों का निरोध करक केवल ब्रह्म के विचार पर एकाग्रता करें, जिससे कि यह मनरूपी डायनेमो हमारी बाह्य या वैविध्यपूर्ण आन्तर सत्ता पर क्रिया करना बिलकुल बन्द कर दे; मन के निश्चल हो जाने से प्राण और शरीर की लीला भी एक नित्य समाधि में, सत्ता की किसी अवर्णनीय गभीरतम समाधि की अवस्था में, शान्त हो जायेगी और वहां हम निरपेक्ष सत् में प्रविष्ट हों जायेंगे ।

 

     स्पष्ट ही यह साधना एक स्व-केंद्रित तथा अन्य-वर्जक आन्तर क्रिया है जो विचार में जगत् से इन्कार करके तथा अन्तर्दर्शन में इसके प्रति आत्मा के नेत्र बन्द करके इससे छुटकारा पा लेती है । परन्तु यह विश्व तो परमेश्वर में एक सत्य के रूप में विद्यमान है ही, भले किसी व्यष्टि आत्मा ने इसके प्रति अपनी आंखें बन्द कर रखी हों, और परम आत्मा इस विश्व में मिथ्या रूप में नहीं, बल्कि वास्तविक रूप में विद्यमान है, वह उन चीजों को धारण कर रहा है जिन्हें हम त्याग चुके हैं, सभी

 

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चीजों में सचमुच ही अन्तर्यामी की तरह व्याप्त है, विश्व सत्ता में व्यक्ति को वस्तुत: ही समाये हुए है और विश्व को उस सत्ता में समाये हुए है जो इससे अतीत और परात्पर है । अपने आन्तर ध्यान की समाधि से बाहर आने पर हमें हर बार ही जो यह अटल विश्व चारों ओर से घेरे हुए दिखायी देता है, इसमें व्याप्त इस सनातन आत्मा का हमें क्या करना होगा? जो आत्मा बहिर्मुख भाव में विश्व पर दृष्टिपात करती है उसके लिये निवृत्तिप्रधान ज्ञानमार्ग ने एक समाधान एवं साधनमार्ग प्रतिपादित किया है । वह यह है कि उसे अन्तर्यामी, सर्वतोव्यापी और सर्वनिर्मायक आत्मा को एक ऐसे आकाश के रूप में देखना चाहिये जिसमें सब रूप विद्यमान हैं, जो सब रूपों में व्याप्त है और सब पदार्थों का उपादान कारण है । उस आकाश में विराट् प्राण और मन वस्तुओं के 'श्वास' के रूप में, आकाशगत वायवीय समुद्र के रूप में, विचरण करते हैं और उससे इन सब दृश्य पदार्थों का निर्माण करते है; परन्तु जिन चीजों का वे निर्माण करते हैं वे नाम और रूपमात्र हैं, वास्तविक वस्तुएं नहीं; उदाहरणार्थ, एक घड़े का जो रूप हम देखते हैं वह केवल मिट्टी (पृथ्वी) का ही एक रूप है और वह पीछे मिट्टी (पृथ्वी) में ही मिल जाता है, इसी प्रकार पृथ्वी भी एक रूप है जो विराट् प्राण में लय को प्राप्त हो सकता है, विराट् प्राण एक ऐसी गति है जो उस शान्त निर्विकार आकाश में लय को प्राप्त होकर शान्त हो जाती है । इस शान पर एकाग्रता करने से, समस्त दृग्विषयों एवं बाह्य रूपों का त्याग करने से हमें यह दिखायी देने लगता है कि यह सारा जगत् उस आकाश-ब्रह्म में नामरूपात्मक भ्रममात्र है; यह हमारे निकट एक अवास्तविक वस्तु बन जाता है; और जगत् के अवास्तविक बन जानें पर उसके अन्दर आत्मा की अन्तयामिता भी अवास्तविक बन जाती है और तब रह जाता है केवल आत्मा जिसपर हमारे मन ने जगत् के नाम-रूप का मिथ्या ही आरोप कर रखा है । इस प्रकार हमारा निरपेक्ष ब्रह्म में व्यक्तिगत सत्ता का लय करना उचित ठहरता है ।

 

     फिर भी, आत्मा तो अपनी अन्तयामिता के अविनाशी स्वरूप में, अपनी दैवी सर्वतोव्यापकता के अक्षर स्वरूप में, प्रत्येक वस्तु और सभी वस्तुएं बनने की अपनी अपरंपार माया के रूप में अपनी लीला निरन्तर किये ही जा रहा है; ऐसा लगता है कि हमारे उस वंचक का पता लगा लेने से तथा इस जगत् का त्याग कर देने से आत्मा या जगत् पर तिलभर भी असर नहीं पड़ता । तब क्या हमें इस बात का भी ज्ञान नहीं प्राप्त करना होगा कि वह कौन-सी वस्तु है जो इस प्रकार हमारे अंगीकार एवं परित्याग से ऊपर रहती हुई अटल बनी रहती है और जो इतनी महान्, इतनी अनाद्यनन्त है कि उसपर इसका कुछ असर ही नहीं पड़ता? अवश्य ही, यहां भी कोई अजेय सद्वस्तु कार्य कर रही है और समग्र 'ज्ञान' की यह मांग है कि हम उसका साक्षात्कार एवं अनुभव करें; नहीं तो यह सिद्ध हो सकता है कि हमारा अपना ज्ञान ही माया एवं मायावी था न कि विश्वगत परमेश्वर । अतएव, हमें अभी

 

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और एकाग्रता करनी होगी और इस वस्तु को भी देखना तथा अनुभव करना होगा जो इतने प्रभुत्वपूर्ण रूप में अटल बनी रहती है और यह जानना होगा कि आत्मा उस परम पुरुष से भिन्न कुछ नहीं जो प्रकृति का स्वामी है, विश्व का धर्ता है जिसकी अनुमति से यह विश्व आगे बढ़ रहा है, जिसका संकल्प इसके अनन्तविध कार्यों को प्रबल रूप से प्रेरित करता है तथा इसके शाश्वत गति-चक्रों का निर्धारण करता है । और, अभी एक बार फिर हमें एकाग्रता करनी होगी तथा साक्षात्कार और अनुभव प्राप्त करना होगा और यह जानना होगा कि आत्मा 'एकं सत्' है जो सबका आत्मा और सबकी प्रकृति दोनों हैं, एक ही साथ पुरुष और प्रकृति दोनों है और अतएव वस्तुओं के इन सब रूपों में अपने-आपको प्रकट कर सकता है तथा ये सब रूप-रचनाएं बन भी सकता है । नहीं तो यह समझना चाहिये कि जिस वस्तु को आत्मा बहिष्कृत नहीं करता उसे हमने अपने ज्ञान से बहिष्कृत कर दिया हैं और अपने ज्ञान में एक मनमाना चुनाव किया है ।

 

     प्राचीन निवृत्तिप्रधान ज्ञानमार्ग वस्तुओं की एकता को और 'एकं सत्' के इन सब रूपों पर एकाग्रता करने के सिद्धान्त को स्वीकार करता था, परन्तु वह इनमें एक प्रकार का विभेद करता था तथा एक क्रमपरम्परा की स्थापना करता था । जो आत्मा वस्तुओं के ये सभी रूप धारण करता है वह विराट् या वैश्व पुरुष कहलाता है; जो आत्मा इन सब रूपों का निर्माण करता है वह हिरण्यगर्भ अर्थात् ज्योतिर्मय या ज्ञानपूर्वक सर्जन करनेवाला पुरुष कहलाता है; जो आत्मा इन सब पदार्थों को अपने अन्दर आवृत रूप में धारण करता है वह प्राज्ञ अर्थात् सचेतन कारण या मूल निर्धारक पुरुष कहलाता है; इन सबके परे है निरपेक्ष ब्रह्म जो इस सब अवास्तविक प्रपंच को अनुमति देता है, पर इससे किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता । हमें इस जगत् रो पीछे हटकर उस निरपेक्ष ब्रह्म में अपनी चेतना का लय कर देना होगा और फिर इसके साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखना होगा, क्योंकि ' ज्ञान ' का मतलब है अन्तिम 'ज्ञान', और अतएव लघुतर उपलब्धियां हम से दूर हो जानी चाहियें । पर स्पष्ट ही, हमारे दृष्टिकोण से, ये मन के किये हुए व्यावहारिक भेद हैं । ये कुछ उद्देश्यों के लिये तो उपयोगी हैं, पर इनका अन्तिम मूल्य कुछ भी नहीं है । जगद्विषयक हमारा दृष्टिकोण एकता पर आग्रह करता है; विराट् आत्मा ज्ञानपूर्वक सर्जन करनेवाले आत्मा (हिरण्यगर्भ) से भिन्न नहीं है, न ज्ञानपूर्वक सर्जन करनेवाला कारण-रूप आत्मा (प्राज्ञ) से भिन्न है, और न ही कारण-रूप आत्मा (प्राज्ञ) निरपेक्ष ब्रह्म से, बल्कि यह एक ही ''सत् आत्मा है जो सर्वभूतों के रूप में विलसित हो रहा है'' और यह आत्मा उस परमेश्वर से भिन्न नहीं है जो इन सब व्यष्टि-सत्ताओं के रूप में अपने-आपको प्रकट करता है और न वह परमेश्वर ही उस 'एकं सत्' -रूप ब्रह्म से भिन्न है जो सचमुच ही यह सब कुछ

 

     १ सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूत् ।

 

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है जिसे हम देख सकते हैं, इन्द्रिय, प्राण या मन के द्वारा अनुभव कर सकते हैं । उस आत्मा, परमेश्वर, ब्रह्म को हमें जानना चाहिये जिससे कि हम उसके साथ तथा उसके द्वारा प्रकट की जानेवाली सभी वस्तुओं के साथ अपनी एकता अनुभव कर सकें और फिर उस एकता में हमें निवास भी करना चाहिये । क्योंकि ज्ञान से हमारी मांग यह है कि उसे एकता साधित करनी चाहिये; जो ज्ञान विभाजित करता है वह सदा ही अधूरा ज्ञान होता है जो कुछ व्यावहारिक प्रयोजनों के लिये ही हितकर होता है; पर 'असली' ज्ञान तो वह है जो एकता लाता है ।

 

     अतएव, हमारा पूर्णयोग इन विविध साधनाओं और एकाग्रता के प्रकारों को अपनायेगा तो सही, पर वह इन्हें स्व-दूसरे के साथ समस्वर करेगा और यदि हो सके तो इन्हें एक ऐसे समन्वय के द्वारा घुला-मिलाकर एक कर देगा जो इनकी स्व-अरे का वर्जन करने की वृत्ति को कु कर देगा । पूर्ण ज्ञान का अन्वेषक परमेश्वर और सर्वमय विराट् का साक्षात्कार केवल इसलिये नहीं करेगा कि नीरव आत्मा या अज्ञेय ब्रह्म की प्राप्ति के लिये इनका परित्याग कर दे जैसा कि एकमात्र परात्पर की खोज करनेवाला योग करता है, न ही वह केवल परमेश्वर के लिये या केवल विराट्-रूप सर्व में जीवन धारण करेगा, जैसा कि अनन्य रूप से ईश्वरवादी या अनन्य रूप से सर्वेश्वरवादी योग करता है । पूर्णज्ञान का साधक अपने विचार और व्यवहार में किंवा अपने अनुभव एवं साक्षात्कार में किसी भी धार्मिक मत या दार्शनिक सिद्धान्त से नहीं बंधा रहेगा । वह तो सत्ता के सर्वांगपूर्ण सत्य की खोज करेगा । प्राचीन साधनाओं का वह परित्याग नहीं करेगा, क्योंकि वे सनातन सत्यों पर प्रतिष्ठित हैं, पर अवश्य ही, वह उन्हें अपने लक्ष्य के अनुरूप नयी दिशा में मोड़ देगा ।

 

     हमें यह स्वीकार करना होगा कि ज्ञानमार्ग में हमारा प्रधान लक्ष्य दूसरों में विद्यमान परम आत्मा का अथवा प्रकृति के स्वामी या सर्वमय विराट् के रूप में विद्यमान उसी आत्मा का साक्षात्कार करने की अपेक्षा कहीं अधिक अपने ही अन्दर अपने उसी परम आत्मा का साक्षात्कार करना होना चाहिये । क्योंकि व्यक्ति को जिस चीज की सर्वाधिक अनिवार्य आवश्यकता है वह यही है, अपनी सत्ता के उच्चतम सत्य को प्राप्त करना, इसकी अव्यवस्थाओं एवं अस्तव्यस्तताओं को तथा इसके मिथ्या तादात्म्यों को ठीक करना, इसकी यथायथ एकाग्रता एवं पवित्रता की अवस्थातक पहुंचना और इसके मूल उद्गम को जानना तथा उस ओर आरोहण करना । परन्तु यह कार्य हम इसके उद्गम में लय प्राप्त करने के लिये नहीं करते, वरन् इसलिये करते हैं कि हमारी सम्पूर्ण सत्ता और इस आन्तर राज्य के सभी अंग अपना यथार्थ आधार प्राप्त कर लें, हमारे उच्चतम आत्मा में निवास करें, केवल हमारे उच्चतम आत्मा के लिये ही जीवन धारण करें और उस विधान के सिवाय अन्य किसी विधान का पालन न करें जो हमारे उच्चतम आत्मा से उद्भूत होता है

 

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तथा संचारक मन में किसी प्रकार का मिथ्या रूप धारण किये बिना ही हमारी विशुद्ध सत्ता को प्राप्त होता है । ओर, यदि हम यह कार्य ठीक प्रकार सै करें तो हमें पता चलेगा कि इस परम आत्मा को ढृंढ़कर हमने सबमें विद्यमान एक आत्मा को भी ढृढ़ लिया है. अपनी प्रकृति के तथा समस्त प्रकृति के एकमेव प्रभु को, अपने सर्वमय आत्मा एवं विश्व के सर्वमय आत्मा को भी प्राप्त कर लिया है । कारण, इस आत्मा को जिस हम अपने अन्दर देखते हैं, अवश्य ही सभी जगह देखेगे, क्योंकि यही उसकी एकता का सत्य है । अपनी सत्ता के सत्य को खोजकर उसका ठीक प्रकार प्रयोग करने से अवश्य ही हमारी व्यक्तिगत सत्ता और विश्व के बीच का पर्दा बलात् फट जायेगा और फिर बिल्कुल ही हट जायेगा और जिस सत्य को हम अपनी सत्ता के अन्दर अनुभव करते हैं वह विश्व-सत्ता में भी जो तब हमारी छी सत्ता होगी हमें अपना अनुभव कराके ही रहेगा । अपने अन्दर वेदान्त के ''सोऽहम्'' (मैं वह हूं) का साक्षात्कार करके हम अपने चारों ओर दृष्टि डालने पर सभीमें इसी ज्ञान के दूसरे पक्ष, ''तत्त्वमसि '' (तू वह है) को अनुभव किये बिना नहीं रह सकते । हमें देखना केवल यह है कि क्रियात्मक रूप में इस साधना का अनुशीलन प्रकार करना चाहिये जिससे कि हम यह महान एकात्मता सफलतापृर्वक प्राप्त कर सकें ।

 

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अध्याय ७

 

देह की दासता से मुक्ति

 

अपनी बुद्धि में जब हम एक बार निर्णय कर लेते हैं कि जो कुछ दिखायी देता है वह सत्य नहीं है, आत्मा शरीर या प्राण या मन नहीं है, क्योंकि ये उसके रूपमात्र हैं, तब इस ज्ञानमार्ग में हमारा पहला कदम यह होना चाहिये कि हम प्राण और देह के साथ अपने मन के व्यावहारिक सम्बन्ध को ठीक करें, ताकि मन आत्मा के साथ अपने यथार्थ सम्बन्ध को प्राप्त कर सके । यह कार्य एक उपाय के द्वारा सवाधिक सुगमता के साथ किया जा सकता है और उससे हम पहले से ही परिचित हैं, क्योंकि कर्मयोग-विषयक हमारे दृष्टिकोण में उसने बड़ा भाग लिया था, वह है प्रकृति और पुरुष को स्व-अरे से पृथक् कर लेना । ज्ञाता और ईश्वर-रूप पुरुष अपनी कार्यवाहक सचेतन शक्ति की क्रियाओं में आच्छादित हो गया है । परिणामत: शक्ति की इस स्थूल क्रिया को ही जिसे हम शरीर कहते हैं, वह भूल से अपनी सत्ता समझता हैं; वह फ जाता है कि ज्ञाता और ईश्वर-रूप आत्मा ही मेरा निज स्वरूप है । वह समझता है कि मेरा मन और आत्मा शरीर के नियम और क्रिया-कलाप के अधीन हैं । वह भूल जाता है कि इनके अतिरिक्त वह और भी वह बहुत कुछ है जो कि भौतिक रूप की अपेक्षा अधिक महान् है । वह फ जाता है कि मन, वस्तुत: ही, जड़तत्त्व से अधिक महान् है और इसे उसकी तामस- वृत्तियों एवं प्रतिक्रियाओं का तथा उसके जड़ता एवं अक्षमता के अभ्यास का दास नहीं बनना चाहिये । वह भूल जाता है कि वह मन से भी अधिक कुछ है, वह एक ऐसी शक्ति है जो कि मानसिक सत्ता को उसके अपने स्तर से ऊपर उठा ले जा सकती है । वह भूल जाता है कि वह स्वामी और परात्पर है और यह उचित नहीं कि स्वामी अपनी ही क्रियाओं का दास बन जाय तथा परात्पर एक ऐसे रूप में कैद हो जाये जो उसकी अपनी सत्ता में एक क्षुद्र वस्तु के रूप में ही अस्तित्व रखता है । इस सब विस्मृति का प्रतिकार पुरुष को अपने सच्चे स्वरूप का स्मरण करके ही करना होगा और इसके लिये सबसे पहले तो उसे यही स्मरण करना होगा कि शरीर प्रकृति की एक क्रियामात्र है और सो भी अनेक क्रियाओं में से केवल एक क्रिया है ।

 

     तब हम मन से कहते हैं, ''यह प्रकृति की एक क्रिया है, यह न तुम्हारी निज सत्ता है न मेरी, इससे पीछे हटकर स्थित होओ।'' यदि हम यत्न करें तो हमें पता चलेगा कि मन में अनासक्ति की यह शक्ति वि

द्यमान है और वह केवल विचार में ही नहीं, बल्कि कार्यरूप में और मानो भौतिक वरंच प्राणिक रूप में भी शरीर से पीछे हटकर स्थित हो सकता है । मन की इस अनासक्ति को शरीर की चीजों के

 

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प्रति उदासीनता की एक विशेष वृत्ति के द्वारा दृढ़ करना होगा; इसकी निद्रा या जागरण, गति या विश्राम, दुःख या सुख, स्वास्थ्य या अस्वास्थ्य, शक्ति या क्लान्ति, आराम या कष्ट अथवा खान-पान की हमें कोई खास परवाह नहीं करनी चाहिये । इसका अर्थ यह नहीं कि जहांतक सम्भव हों वहांतक भी, हमें शरीर को ठीक हालत में नहीं रखना चाहिये; हमें उग्र तपस्पाओं में या स्थूल देह की निश्चयात्मक उपेक्षा में भी ग्रस्त नहीं होना होगा । पर साथ ही हमें भूख-प्यास अथवा कष्ट या रोग का अपने मन पर प्रभाव भी नहीं पड़ने देना होगा, न हमें शरीर की चीजों को वैसा महत्त्व ही देना होगा जैसा कि देहप्रधान एवं प्राणप्रधान मनुष्य उन्हें देता है, या फिर, निश्चय ही, इसे एक निरे करण के रूप में बिल्कुल, गौण प्रकार का महत्त्व ही देना होगा; इससे अधिक नहीं । इस करणात्मक महत्त्व को भी इतना नहीं बढ़ने देना होगा कि वह एक आवश्यकता का रूप धारण कर ले; उदाहरणार्थ, हमें यह नहीं सोचना होगा कि मन की पवित्रता हमारे खाने-पीने की चीजों पर निर्भर करती है, यद्यपि एक विशेष अवस्था में खान-पानसम्बन्धी नियम एवं प्रतिबंध हमारी आन्तरिक उन्नति के लिये उपयोगी होते हैं । दूसरी ओर हमें यह भी नहीं समझते रहना चाहिये कि मन या यहां तक कि प्राण का भी खाने-पीने के ऊपर ही जो आधार है वह एक अभ्यास से किंवा इन तत्त्वों (शरीर, प्राण और मन) के बीच प्रकृति के द्वारा स्थापित एक रूढ़ सम्बन्ध से अधिक कुछ है । सच पूछो तो जो भोजन हम ग्रहण करते हैं उसे एक उल्टे अभ्यास एवं नये सम्बन्ध के द्वारा घटाकर कम-से-कम कर सकते हैं और फिर भी मन या प्राण की शक्ति को, बिना किसी प्रकार की कमी के, सुरक्षित रख सकते हैं । इतना ही नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण विकास के द्वारा उन्हें इस प्रकार सधाया जा सकता है कि जिस मानसिक और प्राणिक शक्ति के साथ उनका सम्बन्ध है उनके गुप्त स्रोतों पर भौतिक खाद्य पदार्थों की गौण सहायता की अपेक्षा अधिक निर्भर रहना सीखकर वे एक महत्तर संभाव्य- शक्ति का विकास कर लें । तथापि साधना का यह पक्ष ज्ञानयोग की अपेक्षा आत्मसिद्धि-योग का एक अधिक महत्त्वपूर्ण भाग है; हमारे वर्तमान उद्देश्य के लिये मुख्य बात यह है कि मन को शरीर की चीजों के प्रति आसक्ति या अधीनता का त्याग करना चाहिये ।

 

     इस प्रकार साधना द्वारा अनुशासित होकर मन क्रमश: शरीर के प्रति पुरुष की वास्तविक वृत्ति धारण करना सीख जायेगा । सर्वप्रथम, वह यह जान जायेगा कि मनोमय पुरुष स्वयं शरीर बिल्कुल ही नहीं है, बल्कि शरीर का धारण करनेवाला है; क्योंकि वह उस भौतिक सत्ता से सर्वथा भिन्न है जिसे वह मन के द्वारा प्राण-शक्ति की सहायता से धारण करता है । यह स्थूल शरीर के प्रति हमारी सारी सत्ता की एक सामान्य वृत्ति बन जायेगी, यहांतक कि शरीर हमें इस रूप में अनुभूत होगा कि मानो वह कोई बाहरी चीज है जिसे पहनने की पोशाक की तरह उतारकर

 

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अलग किया जा सकता है अथवा मानो वह एक यन्त्र है जिसे हम अपने हाथ में उठाये हुए हैं । हमें यहां तक अनुभव हो सकता है कि हमारी प्राण-शक्ति एवं हमारे मन की एक प्रकार की आशिक अभिव्यक्ति होने के सिवाय शरीर, एक विशेष अर्थ में, और कुछ भी अस्तित्व नहीं रखता । ये अनुभव इस बात के चिह्न होते हैं कि मन शरीर के सम्बन्ध में एक ठीक सन्तुलित अवस्था प्राप्त कर रहा है, भौतिक सम्वेदन के द्वारा अभिभूत और अधिकृत मन के मिथ्या दृष्टिकोण के स्थान पर वस्तुओं के वास्तविक सत्य का दृष्टिकोण अपना रहा है ।

 

     दूसरे, शरीर की क्रियाओं और अनुभूतियों के सम्बन्ध में, मन यह जान जायेगा कि उसके अन्दर एक पुरुष विराजमान है जो, प्रथम तो, इन क्रियाओं का साक्षी या द्रष्टा है और दूसरे, इन अनुभूतियों का ज्ञाता या अनुभवकर्ता है । वह अपने चिन्तन में इस प्रकार सोचना या सम्वेदन में इस प्रकार अनुभव करना छोड़ देगा कि ये क्रियाएं और अनुभव मेरे हैं, वरन् यों सोचेगा एवं अनुभव करेगा कि ये मेरे नहीं हैं, ये प्रकृति के कार्य-व्यापार हैं जो प्रकृति के गुणों एवं उनकी पारस्परिक क्रिया के द्वारा नियंत्रित होते हैं । इस अनासक्ति को इतना सामान्य बनाया जा सकता है कि मन और शरीर के बीच एक प्रकार का विभाजन उत्पन्न हो जाय और मन शरीर की भूख, प्यास, दर्द, थकान, उदासी आदि का इस प्रकार अवलोकन एवं अनुभव करे मानो ये किसी और व्यक्ति के अनुभव हों, ऐसे व्यक्ति के जिसके साथ इसका इतना निकट सम्बन्ध (rapport) है कि उसके अन्दर जो कुछ भी हो रहा हो उस सबका उसे पता लग जाता है । यह विभाजन आत्म-प्रभुत्व की प्राप्ति का एक महान् साधन एवं महान् पग है; क्योंकि, मन इन चीजों को पहले तो इनसे अभिभूत हुए बिना और अन्त में जस भी प्रभावित हुए बिना, निष्पक्ष भाव से, स्पष्ट समझ पर पूर्ण अनासक्ति के साथ देखने लगता है । यह मनोमय पुरुष की देह की दासता से प्रारम्भिक मुक्ति है, क्योंकि यथार्थ ज्ञान को स्थिरतापूर्वक क्रियान्वित करने से मुक्ति अवश्यमेव प्राप्त होती है ।

 

     अन्त में मन यह जान जायेगा कि मनोमय पुरुष प्रकृति का स्वामी है और इसकी क्रियाओं के लिये उसकी अनुमति आवश्यक है । इसे पता लग जायेगा कि अनुमन्ता के रूप में वह प्रकृति के पुराने अभ्यासों से अपने फ आदेश को वापिस ले सकता है और इस प्रकार अन्त में वह अभ्यास छूट जायेगा अथवा वह पुरुष के संकल्प के द्वारा निर्दिष्ट दिशा में परिवर्तित हो जायेगा; एकदम तो नहीं, क्योंकि जबतक प्रकृति का अतीत कर्म निर्बीज नहीं हो जाता तबतक उसके आग्रहपूर्ण परिणाम के रूप में पुरानी अनुमति अटल रूप से बनी रहती है । और, बहुत कुछ उस अभ्यास की शक्ति पर तथा मन ने पहले उसके साथ मूलभूत आवश्यकता का जो विचार जोड़ रखा था उसपर भी निर्भर करता है । परशु यदि वह उन मूल अभ्यासों में से न हो जिन्हें प्रकृति ने मन, प्राण और शरीर के पारस्परिक सम्बन्ध के

 

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लिये स्थापित कर रखा है और यदि मन पुरानी अनुमति को नये सिरे से संपुष्ट न करे या वह स्वेच्छापूर्वक उस अभ्यास में आसक्त न रहे, तो अन्त में परिवर्तन होने लगेगा । यहांतक कि भूख-प्यास की आदत को भी कम किया जा सकता है, रोका एवं त्यागा जा सकता है; इसी प्रकार बीमार पड़ने की आदत को भी कम किया जा सकता है तथा क्रमश: दूर किया जा सकता है और इस बीच प्राण-शक्ति के सचेतन प्रयोग या केवल मन के आदेश के द्वारा शरीर की गड़बड़ियों को ठीक करने की मन की शक्ति अत्यधिक बढ़ जायेगी । एक ऐसी ही प्रक्रिया के द्वारा उस आदत को भी, जिसके द्वारा शारीरिक प्रकृति में कुछ विशेष प्रकार के तथा बड़े प्रमाणवाले कार्यों के बारे में आयास, थकान, तथा असमर्थता का विचार पैदा होता है, सुधारा जा सकता है और इस शरीररूपी यन्त्र के द्वारा हो सकनेवाले भौतिक या मानसिक कार्य की शक्ति, स्वतन्तता, तीव्रता और प्रभावशालिता को अद्भुत रूप में बढ़ाया जा सकता है, दुगुना, तिगुना, दसगुना किया जा सकता है ।

 

     साधन-प्रणाली का यह पक्ष वास्तव में आत्मसिद्धि-योग का भाग है; परन्तु इन चीजों के बारे में यहां भी संक्षेप से वर्णन करना अच्छा होगा, एक तो इसलिये कि इससे हम पूर्णयोग के एक अंग-आत्मसिद्धि-की आगे आनेवाली व्याख्या का आधार रखते हैं और, दूसरे, इसलिये कि हमें जड़वादी विज्ञान के द्वारा प्रसारित मिथ्या धारणाओं को संशोधित करना है । इस विज्ञान के अनुसार सामान्य मानसिक और भौतिक अवस्थाएं तथा हमारे अतीत के विकास के द्वारा स्थापित किये हुए मन और शरीर के वर्तमान यथार्थ सम्बन्ध ही ठीक, स्वाभाविक और स्वस्थ अवस्थाएं हैं और अन्य कोई भी चीज, इनकी विरोधी कोई भी चीज या तो विकृत एवं असत्य है या फिर भ्रम, आत्म-प्रतारण एवं उन्माद । कहने की आवश्यकता नहीं कि स्वयं विज्ञान भी इस अनुदार सिद्धान्त की पूर्णतया अवहेलना करता है जब कि वह प्रकृति पर मनुष्य के महत्तर प्रभुत्व की प्राप्ति के लिये भौतिक प्रकृति की सामान्य क्रियाओं में इतने परिश्रम के साथ तथा सफलतापूर्वक सुधार करता है । यहां एकबारगी ही यह कह देना काफी होगा कि मानसिक और भौतिक अवस्था के तथा मन और शरीर के पारस्परिक सम्बन्धों के जिस परिवर्तन से हमारी सत्ता की पवित्रता एवं स्वतन्त्रता में वृद्धि होती है, प्रसार एवं शान्ति प्राप्त होती है और मन की अपनेपर तथा भौतिक व्यापारों पर प्रभुत्व रखने की शक्ति बढ़ती है, संक्षेप में, जिससे मनुष्य को अपनी प्रकृति पर महत्तर प्रभुत्व प्राप्त होता है वह, स्पष्ट ही, कोई विकृत वस्तु नहीं है और न उसे भ्रान्ति या आत्म-वंचना ही समझा जा सकता है, क्योंकि उसके परिणाम प्रत्यक्ष और सुनिश्चित हैं । वास्तव में, वह व्यक्ति को विकसित करने की प्रक्रिया में एक स्वेच्छाकृत प्रगतिमात्र है; वह विकास तो प्रकृति हर हालत में साधित करेगी, पर उसमें वह मनुष्य के संकल्प को अपने मुख्य करण के रूप में प्रयुक्त करना पसन्द करती है, क्योंकि उसका मूल लक्ष्य है- पुरुष को उसके ऊपर सचेतन प्रभुत्व प्राप्त करने की ओर ले जाना ।

 

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     यह सब कह चुकने के बाद हमें इतना और कहना होगा कि ज्ञानमार्ग की प्रक्रिया में मन और शरीर की पूर्णता का महत्त्व बिल्कुल ही नहीं है या केवल गौण ही है । एकमात्र आवश्यक वस्तु है-जो भी सबसे तीव्र या फिर सबसे समग्र एवं प्रभावशाली विधि सम्भव हो उसके द्वारा प्रकृति से ऊपर उठकर आत्मातक पहुंचना; और जिस विधि का हम वर्णन कर रहे हैं वह चाहे सबसे तीव्र तो नहीं है फिर भी अपनी प्रभावशालिता में सबसे अधिक समग्र अवश्य है । और, यहां भौतिक कर्म करने या न करने का प्रश्न उठ खड़ा होता है । साधारणतया यह माना जाता है कि योगी को यथासम्भव कर्म से पराड़्मुख हो जाना चाहिये और विशेषकर यह कि अत्यधिक कर्म योग में बाधक होता है, क्योंकि यह शक्तियों को बाहर की ओर खींचता है । कुछ अंश में यह बात ठीक भी है; और हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि जब मनोमय पुरुष केवल साक्षी और द्रष्टा की वृत्तिधारण कर लेता है तब नीरवता, एकान्तवास, भौतिक निश्चलता और शारीरिक निष्क्रियता की प्रवृत्ति हमारी सत्ता पर अधिकार कर लेती है । जबतक यह जड़ता से, काम करने की अक्षमता या अनिच्छा से, संक्षेप में, तमोगुण की वृद्धि से सम्बद्ध नहीं है तबतक यह सब लाभकारक ही है । कुछ भी न करने की शक्ति जो आलस्य, अक्षमता या कर्म करने के प्रति घृणा और अकर्म के प्रति आसक्ति से सर्वथा भिन्न वस्तु है, एक महान् शक्ति एवं महान् प्रभुत्व है; कर्म से पूर्णतया विरत होकर रहने की शक्ति ज्ञानयोगी के लिये उतनी ही आवश्यक है जितनी कि विचार का पूर्णतया निरोध करने की शक्ति, अनिश्चित काल के लिये केवल एकान्त्त और नीरवता में रहने की शक्ति और अचल रूप में शान्त रहने की शक्ति । जो कोई इन अवस्थाओं का आलिंगन करने के लिये इच्छुक नहीं है वह अभी उच्चतम ज्ञान की ओर ले जानेवाले मार्ग के योग्य नहीं है; जो व्यक्ति इनके समीप पहुंचने में असमर्थ है वह अभी उस ज्ञान की प्राप्ति का अधिकारी नहीं है ।

 

     इसके साथ-साथ यह भी कह देना आवश्यक है कि कर्म से विरत होने की शक्ति ही काफी है; समस्त भौतिक कर्म से विरत हो जाना आवश्यक नहीं है, मानसिक किंवा शारीरिक कर्म के प्रति घृणा वांछनीय नहीं है, ज्ञान की समग्रता के अभीप्सु को जहां कर्म के प्रति आसक्ति से मुक्त होना चाहिये वहां अकर्म के प्रति आसक्ति से भी उसी प्रकार मुक्त होना चाहिये । विशेषकर मन या प्राण या शरीर की निरी जड़ता की हर एक प्रवृत्ति पर विजय पानी होगी, और यदि ऐसी आदत प्रकृति पर अपना प्रभुत्व जमाती प्रतीत हों तो पुरुष के संकल्प का प्रयोग करके उसे त्याग देना होगा । अन्त में एक ऐसी अवस्था आ जाती है जब प्राण और शरीर केवल यन्त्र बनकर मनोमय पुरुष के संकल्प को पूरा करते हैं पर वैसा करने में न तो उनपर कोई जोर पड़ता है और न वे उसमें आसक्त होते हैं, न ही वे एक हीनतर, आतुर और प्रायः ही उत्तेजनात्मक शक्ति के साथ अपने-आपको कर्म में

 

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झोंकते हैं जो कि उनका काम करने का साधारण ढंग है । तब वे प्रकृति की शक्तियों की ही तरह कार्य करने लगते हैं - बिना उद्वेग के, बिना किसी श्रम और प्रतिक्रिया के जो सब कि भौतिक सत्ता पर प्रभुत्व न रखनेवाले देहबद्ध प्राण के विशेष लक्षण हैं । जब हम पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं, तब कर्म करने और न करने का कोई महत्व नहीं रहता, क्योंकि उनमें से कोई भी अन्तरात्मा की स्वतकता में हस्तक्षेप नहीं करता, न वह परम आत्मा को प्राप्त करने के इसके आवेग से या परम आत्मा में इसकी समस्थिति से इसे विचलित ही कर सकता है । परन्तु पूर्णता की यह अवस्था योग में बहुत आगे जाकर ही प्राप्त होती है और तबतक गीता द्वारा प्रतिपादित युक्ताहार-विहार का सिद्धान्त ही हमारे लिये सर्वश्रेष्ठ है; अतएव, मानसिक या शारीरिक कर्म की अति अच्छी नहीं है, क्योंकि अति हमारी बहुत अधिक शक्ति को बाहर खींच ले जाती है और हमारी आध्यात्मिक अवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है;  उधर, कर्म में बहुत अधिक कमी कर देना भी अच्छा नहीं, क्योंकि कमी करने से अकर्मण्यता की आदत पड़ जाती है और यहांतक कि अक्षमता भी पैदा हो जाती है जिन्हें जीतने में पीछे काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है । फिर भी, पूर्ण स्थिरता, एकान्त्तवास और निष्कर्मता के अवसर परम वांछनीय हैं और उन्हें जितनी भी बार सम्भव हो प्राप्त करना चाहिये, ताकि अन्तरात्मा अपने अन्दर गहराई में जा सके जो कि ज्ञान-प्राप्ति की अनिवार्य शर्त है |

 

     देह (की दासता) की इस प्रकार चर्चा करते हुए प्राण या जीवन-शक्ति की चर्चा करना भी हमारे लिये आवश्यक हो जाता है । कारण, व्यावहारिक उद्देश्यों के लिये हमें शरीर में कार्य करनेवाली प्राण-शक्ति, स्थूल प्राण, और मानसिक क्रियाओं की सहायता के लिये कार्य करनेवाली प्राण-शक्ति, चैत्य प्राण, में भेद करना होगा । क्योंकि, हम सदा ही द्विविध जीवन बिताते हैं, मानसिक और शारीरिक, और एक ही प्राण-शक्ति इनमें से जिस एक या दूसरे की सहायता करती है उसके अनुसार भिन्न प्रकार से कार्य करती है तथा भिन्न रूप धारण कर लेती है । शरीर में यह भूख, प्यास, थकान, स्वास्थ्य, रोग और भौतिक बल-उत्साह आदि की वे प्रतिक्रियाएं पैदा करती है जो स्थूल देह की प्राणिक अनुभूतियां हैं । क्योंकि, मनुष्य का स्थूल शरीर पत्थर या मृत्पिंड जैसा नहीं है; यह दो कोषों, ''प्राणमय'' और '' अन्नमय '' कोषों, के संयोग से बना है और इसका जीवन दोनों की सतत परस्पर क्रिया हे । फिर भी प्राण-शक्ति और स्थूल देह दो भिन्न-भिन्न वस्तुएं हैं और जैसे-जैसे मन ग्रस्तकारी देहात्मबुद्धि से पीछे हटता जाता है वैसे-वैसे हम प्राण से तथा शरीररूपी यन्त्र में इसकी क्रिया से अधिकाधिक सज्ञान होते जाते हैं और इसकी क्रियाओं का निरीक्षण तथा अधिकाधिक नियन्त्रण कर सकते हैं । व्यवहारतः शरीर से पीछे हटने में हम स्थूल प्राण-शक्ति से भी पीछे हटते हैं, यद्यपि हम इन

 

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दोनों में भेद करते हैं और प्राण को निरे स्थूल यन्त्र की अपेक्षा अपनी सच्ची सत्ता के अधिक निकट अनुभव करते हैं । वास्तव में, शरीर के ऊपर पूर्ण विजय स्थूल प्राण-शक्ति के ऊपर विजय से ही प्राप्त होती है ।

 

     शरीर और उसके कार्यों के प्रति आसक्ति के ऊपर विजय प्राप्त करने के साथ ही देहबद्ध प्राण के प्रति आसक्ति पर भी विजय प्राप्त हो जाती है । क्योंकि, जब हम यह अनुभव करते हैं कि स्थूल देह हमारा अपना स्वरूप नहीं है, बल्कि केवल हमारा वस्त्र या यन्त्र है तब शरीर की मृत्यु से जुगुप्सा की वृत्ति जो प्राणप्रधान मनुष्य में इतनी तीव्र एवं प्रबल होती है अनिवार्यत: ही दुर्बल पड़ जाती है तथा बाहर निकाल फेंकी जा सकती है । इसे निकाल ही फेंकना होगा तथा पूर्ण रूप से निकाल फेंकना होगा । मृत्यु का भय और देह-नाश से तीव्र घृणा एक ऐसा कलंक है जो मनुष्य पर, पशुजाति में से उसका विकास होने के कारण, लगा रह गया है । इस कलंक के टीके को पूर्ण रूप से मिटा देना होगा ।

 

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अध्याय ८

 

हृदय और मन के बन्धन से मुक्ति

 

परन्तु आरोहण करती हुई अन्तरात्मा को देहबद्ध प्राण से ही नहीं, बल्कि प्राणशक्ति की मनोगत क्रिया से भी अपने-आपको पृथक् करना होगा; उसे मन को पुरुष का प्रतिनिधि बनाकर उससे यह कहलाना होगा कि ''मैं प्राण नहीं हू; प्राण पुरुष का निज स्वरूप नहीं है, यह प्रकृति की महज एक क्रिया और वह भी (कई क्रियाओं में से) केवल एक क्रिया है । ''प्राण के विशेष लक्षण हैं-गति और क्रिया, व्यक्ति की सत्ता के बाहर जो भी चीजें हैं उन्हें ग्रहण और आत्मसात् करने के लिये प्रयत्न और यह जिस चीज को अपने अधिकार में ले आता है या जो चीज इसे प्राप्त हो जाती है उसमें सन्तुष्ट या असन्तुष्ट होने का सिद्धान्त जो आकर्षण और विकर्षण के सार्वभौम तथ्य से सम्बद्ध है । प्राण के ये तीन धर्म प्रकृति में सभी जगह देखने में आते हैं, क्योंकि प्राण प्रकृति में सभी जगह है । परन्तु हम मनोमय प्राणियों में इन सबको इन्हें देखने और ग्रहण करनेवाले भिन्न-भिन्न मन के अनुसार भिन्न -भिन्न प्रकार का मानसिक मूल्य दे दिया जाता है । ये क्रिया का, कामना और राग-द्वेष का, सुख और दुःख का रूप धारण कर लेते हैं । प्राण हमारे अन्दर सर्वत्र ओतप्रोत है और हमारे शरीर की ही नहीं, बल्कि हमारे इन्द्रियाश्रित मन, भावमय मन तथा चिन्तनात्मक मन की भी क्रिया को धारण कर रहा है । और, इन सबके अन्दर अपना नियम या धर्म लाकर, वह इनके यथार्थ कर्म को अव्यवस्थित, सीमित एवं अस्तव्यस्त कर देता है और उस धर्मच्युति-रूप अपवित्रता एवं उस विषम गड़बड़झाले को पैदा कर देता है जो हमारी आन्तरिक सत्ता की सारी बुराई की जड़ है । उस गड़बड़झाले में एक नियम, कामना का नियम, शासन करता प्रतीत होता है । जिस प्रकार सबको अपने अन्दर समानेवाले और सबके स्वामी विराट् परमेश्वर केवल दिव्य आनन्द के रसास्वादनार्थ कर्म, गति और उपभोग करते हैं, उसी प्रकार व्यक्ति का प्राण प्रधान रूप से कामना की तृप्ति के लिये ही गति और कर्म करता तथा सुख-दुःख भोगता है । अतएव, चैत्य (सूक्ष्म) प्राणशक्ति हमें एक प्रकार के कामनामय मन के रूप में ही अनुभूत होती है । यदि हम अपनी सच्ची आत्मा में पुन: प्रवेश करना चाहते हैं तो इस कामनामय मन पर हमें विजय पानी होगी ।

 

     कामना, एक साथ ही, हमारे कार्यों का मूल हेतु हमारी सब कार्य-सिद्धियों का मुख्य करण और हमारे जीवन के सब दुःखों का मूल है । यदि हमारा इन्द्रियाश्रित मन, भावमय मन तथा चिन्तनात्मक मन प्राण-शक्ति के हस्तक्षेपों तथा उसकी लायी हुई चीजों से स्वतन्त्र रहकर कार्य कर सकें, यदि उस प्राणशक्ति को इस बात के

 

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लिये बाध्य किया जा सके कि वह हमारे जावन पर अपना जूआ लादने के बदले इन (उच्चतर) करणों के यथार्थ कार्य के अधीन होकर रहे तो सभी मानवीय समस्याएं अपने यथायथ समाधान की ओर सुसमंजस रूप में अग्रसर होंगी । प्राण- शक्ति का अपना यथार्थ धर्म यह है कि वह हमारे अन्दर के दिव्य तत्त्व के आदेश का पालन करे, वे अन्तर्वासी भगवान् उसे जो कुछ दें उसीको ग्रहण करे तथा उसीमें आनन्द ले और किसी भी प्रकार की कामना न करे । इन्द्रियाश्रित मन का अपना यथार्थ धर्म यह है कि वह प्राण के बाह्य स्पर्शों के प्रति निष्क्रिय और आलोकित रूप में खुला रहे तथा उनके सम्वेदनों को और उनके अन्दर विद्यमान रस (यथार्थ आस्वाद), एवं आनन्द के तत्त्व को अपने से उच्च करणतक पहुंचा दे । परन्तु देहगत प्राणशक्ति के आकर्षणों और विकर्षणों, स्वीकृतियों और निषेधों, सन्तुष्टियों और असन्तुष्टियों, सामर्थ्यों और असामर्थ्यों के हस्तक्षेप के कारण, प्रथम तो, उसका क्षेत्र सीमित हो जाता है और, दूसरे, वह इन सीमाओं के भीतर जड़गत प्राण के इन सब असामंजस्यों के साथ सम्बन्ध रखने के लिये बाध्य हो जाता है । वह सत्ता के आनन्द का यन्त्र बनने की जगह सुख-दुःख का यन्त्र बन जाता है ।

 

     इसी प्रकार भावमय मन इन सब असामंजस्यों का ध्यान रखने तथा इनके प्रति भावावेशमयी प्रतिक्रियाएं करने के लिये विवश होने के कारण एक संघर्षमय क्षेत्र बन जाता है जिसमें हर्ष और शोक, प्रेम और घृणा, क्रोध, भय, संघर्ष, अभीप्सा, विरक्ति, राग, द्वेष, उदासीनता, सन्तोष, असन्तोष, आशा, निराशा, प्रस्तकार तथा प्रत्यपकार का एवं अन्यान्य भावावेशों का कितना विपुल खेल चलता रहता है जो इस जगत् में होनेवाले जीवनरूपी नाटक का स्वरूप है । इस गड़बड़झाले को हम अपनी आत्मा कहते हैं । परन्तु वास्तविक आत्मा, वास्तविक चैत्य सत्ता जिसका बहुधा हम बहुत ही कम भाग देख पाते हैं और जिसका विकास मनुष्यजाति का एक छोटा-सा भाग ही कर पाया है, शुद्ध प्रेम और आनन्द का तथा ईश्वर और अपने साथी-प्राणियों के साथ घुल-मिलकर एक हो जाने के लिये उज्ज्वल प्रयत्न करने का एक यन्त्र है । यह चैत्य सत्ता मानसभावापन्न प्राण या कामनामय मन की, जिसे हम भूल से अपनी आत्मा समझते हैं, क्रीड़ा के कारण ढकी हुई है; भावमय मन हमारे अन्दर की वास्तविक आत्मा को, हमारे हृदयों में विराजमान भगवान् को, प्रतिबिम्बित करने में असमर्थ है और इसके स्थान पर वह कामनामय मन को प्रतिबिम्बित करने को बाध्य होता है ।

 

     इसी प्रकार चिन्तनात्मक मन का यथार्थ कार्य यह है कि वह ज्ञान-प्राप्ति में निष्पक्ष भाव से आनन्द लेते हुए निरीक्षण करे, समझे और निर्णय करे और अपने- आपको उन सन्देशों तथा ज्ञानरश्मियों की ओर खोले जो उन सब वस्तुओं में अपनी क्रिया करती हैं जिन्हें वह देखता है तथा उनमें भी जो अभी उससे छुपी हुई हैं, पर जो उत्तरोत्तर प्रकट होंगी । ये सन्देश और ज्ञानरश्मियां हमारे मन से ऊपर की ज्योति

 

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में छुपी हुई दिव्य वाणी से हमारे अन्दर एक चमक के रूप में गुप्ततया उतर आती हैं भले ही ये अन्तर्ज्ञानमय मन के द्वारा उतरती हुई प्रतीत हों या दृष्टिसम्पन्न हृदय में से उद्भूत होती हुई । परन्तु यह कार्य वह ठीक ढंग से नहीं कर सकता, क्योंकि यह इन्द्रियों में अवस्थित प्राणशक्ति के बन्धनों से, सम्वेदन और भावावेश के विरोधों से और बौद्धिक अभिरुचि, जड़ता, आयास, अहम्मय इच्छा के अपने निजी बन्धनों से जकड़ा हुआ है । इन बौद्धिक अभिरुचि आदि रूपों को यह इस कामनामय मन, इस चैत्य प्राण के हस्तक्षेप के कारण ही ग्रहण करता है । जैसा कि उपनिषदों में कहा गया है, हमारी सम्पूर्ण मनश्चेतना इस प्राण के सूत्रों और धाराओं में ओतप्रोत है, - इस प्राणशक्ति के जो प्रयत्न करती है और सीमा में बांधती है, ग्रहण करती और चूक जाती है, कामना करती और कष्ट भोगती है, और इसे शुद्ध करके ही हम अपनी वास्तविक एवं सनातन आत्मा को जान सकते तथा प्राप्त कर सकते हैं ।

 

     यह सत्य है कि इस सब बुराई की जड़ है अहं-बुद्धि और चेतन अहं-बुद्धि का स्थान है स्वयं मन । पर वास्तव में चेतन मन अहं को केवल प्रतिबिम्बित ही करता है, अहं की रचना तो वस्तुओं के अवचेतन मन में, पत्थर और पौधों के अन्दर विद्यमान मूक आत्मा में हो चुकी होती है । यह मूक आत्मा समस्त देह-प्राणधारियों में उपस्थित है, चेतन मन इसे मूलत: जन्म नहीं देता, बल्कि इसे अन्तिम रूप से उन्मुक्त करके केवल जाग्रत् और वावशक्तिसम्पन्न बना देता है । और, इस ऊर्ध्वमुख क्रमविकास में यह हमारी प्राणशक्ति ही है जो अहं की आग्रहपूर्ण ग्रंथि बन गयी है, यह हमारा कामनामय मन ही है जो उस गांठ को ढीली करने से इंकार करता है तब भी जब कि बुद्धि और हृदय अपने दुःखों का कारण खोज चुके होते हैं और उसे दूर करने के लिये सहर्ष उद्यत होते हैं; क्योंकि उनके अन्दर विद्यमान प्राण 'पशु' है जो विद्रोह करता है और अपने इंकार से उनके ज्ञान को आच्छन्न तथा प्रतारित करता है तथा उनके संकल्प को जबर्दस्ती दबा देता है ।

 

     अतएव, मनोमय पुरुष को इस कामनात्मक मनसे अपने सम्बन्ध तथा तादात्म्य का विच्छेद करना होगा । उसे कहना होगा, ''मैं यह सत्ता नहीं हू जो संघर्ष करती और कष्ट भोगती है, सुख-दुःख, प्रेम और घृणा, आशा और निराशा, क्रोध और भय, हर्ष और विषाद के वशीभूत होती है, जो प्राणिक वृत्तियों और भावावेशों से बनी हुई सत्ता है । ये सब चीजें तो संवेदनात्मक और भावप्रधान मन में प्रकृति के कार्यव्यापार और अभ्यासमात्र हैं । '' तब मन अपने भावावेगों से पीछे हट जाता है और शरीर की क्रियाओं एवं अनुभूतियों की भांति इनका भी द्रष्टा या साक्षी बन जाता है । एक बार फिर अन्त:सत्ता में विभाजन पैदा हो जाता है । एक ओर तो होता है यह भावप्रधान मन जिसमें प्रकृति के गुणों के अभ्यास के अनुसार ये भाव और आवेग उठते रहते हैं और दूसरी ओर होता है द्रष्टा मन जो उन्हें देखता है,

 

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उनका अध्ययन करता तथा उन्हें समझता है, पर उनसे विलग रहता है । वह उन्हें इस प्रकार देखता है मानों मन के रंगमञ्च पर उससे भिन्न अन्य व्यक्तियों का एक