योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय ७

 

आचार के मानदंड और आध्यात्मिक स्वातंत्र्य

 

जिस ज्ञान पर कर्मयोगी को अपने समस्त कर्म और विकास की नींव रखनी होती है उसके भवन की मुख्य शिला है एकता का अधिकाधिक प्रत्यक्ष बोध एवं सर्वव्यापी एकत्व का जीवन्त-जाग्रत् अनुभव । कर्मयोगी जिस वर्धमान चेतना में रहता-सहता है वह यह है कि सम्पूर्ण सत्ता एक अविभाज्य समष्टि है--समस्त कर्म भी इसी दिव्य अविभाज्य समष्टि का अंग है । अब उसका वैयक्तिक कर्म तथा इसके परिणाम पहले की तरह कोई ऐसी पृथक् गति नहीं हो सकते और न ही वे कोई ऐसी पृथक् गति प्रतीत हो सकते हैं जो समष्टि में पृथग्भूत व्यष्टि की अहंभावमयी ''स्वतंत्र'' इच्छा से मुख्यतया या पूर्णतया निर्धारित हो । हमारे कर्म एक अविभाज्य विश्व-कर्म का भाग हैं । वे जिस समष्टि में से उठते हैं उसके अन्दर यथास्थान रखे हुए होते हैं अथवा यों कहना अधिक ठीक होगा कि वे अपनेको स्वयं अपने स्थान में रखते हैं और उनका परिणाम उन शक्तियों के द्वारा निर्धारित होता है जो हमारी पहुंच से परे हैं । वह विश्व-कर्म अपनी विराट् समग्रता तथा अपनी प्रत्येक छोटी- मोटी क्रिया में उस एकमेव की अखंड गति है जो अपने-आपको विश्व में उत्तरोत्तर अभिव्यक्त कर रहा है । मनुष्य भी अपने अन्दर तथा बाहर रम रहे इस एकमेव के प्रति तथा प्रकृति की गति में इसकी शक्तियों की गु, अद्भुत तथा मार्मिक प्रक्रिया के प्रति जितना जाग्रत् होता है उतना ही वह अपने तथा वस्तुओं के सच्चे स्वरूप से अधिकाधिक सचेतन होता जाता है । यह कर्म एवं गति हममें तथा हमारे चारों ओर रहनेवालों में भी वैश्व व्यापारों के उस छोटे-से खंडित अंश तक ही सीमित नहीं है जिससे हम अपनी स्थूल चेतना में अभिज्ञ हैं; इसके आधार में वह अपरिमेय मूलभूत पारिपार्श्विक सत्ता विद्यमान है जो हमारे मन के लिये प्रच्छन्न या अवचेतन है, साथ ही यह उस अनन्त परात्पर सत्ता से भी आकृष्ट होती है जो हमारी प्रकृति के लिये अतिचेतन है । हमारा कर्म भी हम से अज्ञात विश्वमयता में से उसी प्रकार उत्पन्न होता है जिस प्रकार हम स्वयं उससे प्रादुर्भूत हुए हैं । हम तो इसे अपने वैयक्तिक स्वभाव और व्यक्तिगत विचारात्मक मन या संकल्प से अथवा आवेग या कामना की शक्ति से एक आकारमात्र देते हैं । किन्तु वस्तुओं का वास्तविक सत्य एवं कर्म का यथार्थ नियम इन वैयक्तिक तथा मानवीय रचनाओं को अतिक्रान्त किये हुए हैं । जो कोई भी दृष्टिबिन्दु एवं मनुष्य का बनाया दुआ कर्म का जो कोई भी नियम वैश्व गति की इस अविभाज्य समग्रता की उपेक्षा करता है वह आध्यात्मिक सत्य के नेत्र के लिये एक अपूर्ण दृष्टिकोण तथा अज्ञानयुक्त सिद्धान्त होता है, भले ही बाह्य व्यवहार में वह कितना भी उपयोगी क्यों न हो ।

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जब हम इस विचार की कुछ झांकी प्राप्त कर चुकते हैं अथवा इसे अपनी चेतना में इस रूप में जमा देने में सफल हो जाते हैं कि यह मन का एक ज्ञान है तथा उससे फलित एक अन्तरात्म-वृत्ति है, तब भी अपने बाह्य अंगों में तथा क्रियाशील प्रकृति में इस सार्वभौम दृष्टिबिन्दु का अपनी वैयक्तिक सम्मति, वैयक्तिक इच्छा-शक्ति और वैयक्तिक उमंग एवं कामना की मांगों के साथ मेल बैठाना हमारे लिये कठिन होता है । हमें अब भी इस अखंड गति के साथ इस प्रकार व्यवहार करते रहना पड़ता है मानो यह एक निर्वैयक्तिक साधन-सामग्री का पुंज हो जिसमें से हमें, अहं को अथवा व्यक्ति को, अपनी ही इच्छा-शक्ति तथा मन की मौज के अनुसार निजी संघर्ष एवं प्रयत्न से कुछ गढ़ना है । अपनी परिस्थिति के प्रति मनुष्य की साधारण वृत्ति यही है, पर वास्तव में है यह मिथ्या, क्योंकि हमारी 'मैं' और उसकी इच्छा-शक्ति वैश्व शक्तियों की रचनाएं एवं कठपुतलिया हैं और जब हम अहं से पीछे हटकर उस सनातन देव के दिव्य ज्ञान-संकल्प की चेतना में भीतर लौटते हैं जो इन शक्तियों में कार्य करता है, तभी हम ऊर्ध्वलोक से एक तरह प्रतिनिधि-रूप में नियुक्त होकर इनके स्वामी बन सकते हैं । परन्तु दूसरी तरफ यह वैयक्तिक स्थिति मनुष्य के लिये तबतक यथार्थ वृत्ति बनी रहती है जबतक वह अपने व्यक्तित्व से प्रेम करता है, किन्तु उसे पूर्ण रूप से विकसित नहीं कर पाता है; क्योंकि इस दृष्टिबिन्दु तथा प्रेरक बल के बिना वह अपने अहं में वर्धित नहीं हो सकता, न ही अवचेतन या अर्ध-चेतन विश्वमय समष्टि-सत्ता में से अपने-आपको पर्याप्त रूप से विकसित कर सकता है और विशिष्ट बना सकता है ।

 

   परन्तु पीछे जब हमें विकास की पृथक्कारक, व्यक्तिप्रधान एवं उग्र अवस्था की आवश्यकता नहीं रहती, जब हम इस क्षुद्र अवस्था से, जिसकी शिशु-आत्मा को आवश्यकता पड़ती है, एकता, सार्वभौमता तथा विश्वचेतना की ओर और इससे भी परे अपनी परात्पर आत्म-प्रकृति की ओर बढ़ना चाहते हैं तब अपने सम्पूर्ण जीवन-अभ्यास पर से इस अहं-चेतना के प्रभुत्व को दूर करना कठिन हो जाता है । अपनी विचारशैली ही नहीं, अपितु अनुभव, सम्वेदन और कर्म करने के अपने तरीके में भी हमारे लिये यह स्पष्टतया समझ लेना अनिवार्य है कि यह गति या यह वैश्व कर्म-सत्ता की कोई ऐसी असहाय निर्वैयक्तिक तरंग नहीं है जो किसी अहं के बल एवं आग्रह के अनुसार उस अहं की इच्छाशक्ति का साथ देती हो । बल्कि, यह उस वैश्व पुरुष की गति है जो अपने क्षेत्र का ज्ञाता है, उस ईश्वर के कदम हैं जो अपनी विकासशील कर्म-शक्ति का स्वामी है । जैसे गति एक तथा अखण्ड है, वैसे ही जो गति के अन्दर विद्यमान है वह भी एक, द्वितीय तथा अखण्ड है । यही नहीं कि समस्त परिणाम उसीके द्वारा निर्धारित होता है, अपितु समस्त प्रारम्भ, क्रिया तथा प्रक्रिया उसकी वैश्व शक्ति की गति पर निर्भर हैं और केवल गौणतया तथा अपने बाह्य रूप में ही ये प्राणी से सम्बन्ध रखते हैं ।

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तो फिर व्यक्तिरूपी कर्मी की आध्यात्मिक स्थिति क्या होगी ? सक्रिय विश्वप्रकृति में इस एक विश्वमय पुरुष तथा इस एक समग्र गति से उसका वास्तविक सम्बन्ध क्या है ? वह केवल एक केंद्र है--एक ही वैयक्तिक चेतना के विभेदन का केंद्र, एक ही अखण्ड गति के निर्धारण का केंद्र । उसका व्यक्ति-भाव एक दृढ़ व्यक्तित्व की तरंग के रूप में एकमेव विराट् पुरुष तथा परात्पर एवं सनातन पुरुष को प्रतिबिम्बित करता है । अज्ञान में यह सदा एक भग्न एवं विरूप प्रतिबिम्ब ही होता है, क्योंकि हमारी चेतन जाग्रत् आत्मा, जो उस तरंग का शिखर है, दिव्य आत्मा के अपूर्ण तथा मिथ्याभूत सादृश्य को ही प्रतिक्षिप्त करती है । हमारी सब सम्मतियां, कसौटियां, रचनाएं एवं नियम-व्यवस्थाएं केवल ऐसी चेष्टाएं होती हैं जो वैश्व तथा विकसनशील समग्र क्रिया को और भगवान् की एक चरम अभिव्यक्ति में सहायक इसकी बहुमुखी गति को इस टूटे-फूटे, प्रतिबिंबित तथा विकृत करनेवाले दर्पण में यत्किन्चित प्रदर्शित करती हैं । हमारा मन भी इस वैश्व क्रिया को यथासम्भव उत्तम रूप में एक ऐसे सीमित सादृश्य के साथ प्रदर्शित करता है जो वैसे-वैसे अधिक सक्षम होता जाता है जैसे-जैसे मन का विचार अपनी विशालता, ज्योति और शक्ति में बढ़ता है; किन्तु यह सदा एक सादृश्य ही होता है, यहांतक कि यह एक सच्चा आंशिक प्रतिरूप भी नहीं होता । भागवत संकल्प केवल विश्व की एकता में और जीवधारी तथा विचारशील प्राणियों की समष्टि में ही नहीं, अपितु प्रत्येक व्यष्टि की आत्मा में अपने दिव्य रहस्य के किञ्चित् अंश को तथा अनन्त के निगूढ़ सत्य को उत्तरोत्तर आविर्भूत करने के लिये युग-युग तक कार्य करता रहता है । अतएव, विश्व में, समष्टि तथा व्यष्टि में एक बद्धमूल सहज-ज्ञान किंवा विश्वास है कि वह पूर्णता लाभ कर सकता है, उसके अन्दर एक निरन्तर वृद्धिशील तथा अधिक पर्याप्त एवं अधिक समस्वर आत्म-विकास के लिये अविराम प्रवृत्ति है, --एक ऐसे विकास के लिये जो वस्तुओं के गुप्त सत्य के अधिक निकट हो । यह प्रवृत्ति वा प्रयत्न मनुष्य के रचनाकारी मन के समक्ष ज्ञान, वेदन, चरित्र, सौन्दर्यबोध और कर्म के मानदण्डों के रूप में प्रकट होता है, -ऐसे नियमों, आदर्शों सूत्रों एवं सिद्धान्तों के रूप में प्रकट होता है जिन्हें मनुष्य सार्वभौम नियमों का रूप दे देने का यत्न करता है ।

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   यदि हमें आत्मा में स्वतंत्र होना है, यदि हमें केवल परम सत्य के ही अधीन रहना है, तो हमें इस विचार को तिलाञ्जलि दे देनी होगी कि अनन्त सत्ता हमारे मानसिक या नैतिक नियमों से बंधी हुई है या कि हमारे ऊंचे-से-ऊंचे वर्तमान मानदण्डों में भी कोई अनुल्लंघनीय, पूर्ण या नित्य वस्तु विद्यमान हो सकती है । अधिकाधिक ऊंचे अस्थायी मानदण्डों का तबतक निर्माण करना, जबतक कि उनकी

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आवश्यकता हो, भगवान् की विश्व-विकासयात्रा में उनकी सेवा करना है; किन्तु एक पूर्णनिरपेक्ष मानदण्ड की कठोर स्थापना करना सनातन स्रोत के प्रवाह-पथ में बाधा खड़ी करने का यत्न करना है । प्रकृति-बद्ध आत्मा जब एक बार यह सत्य अनुभव कर लेती है तब वह शुभाशुभ के द्वंद्व से मुक्त हो जाती है । कारण, जो कुछ भी व्यक्ति और विश्व को उनकी दिव्य परिपूर्णता के लिये सहायता देता है वह सब शुभ है, और जो कुछ उस वर्धमान पूर्णता को रोकता या भंग करता है वह सब अशुभ है । परंतु क्योंकि पूर्णता काल में प्रगतिशील या विकासशील है, शुभ और अशुभ भी परिवर्तनशील वस्तुएं हैं तथा अपने अर्थ एवं मूल्य को समय-समय पर बदलते रहते हैं । कोई एक वस्तु जो आज अशुभ है तथा जो अपने वर्तमान रूप में अवश्यमेव त्याज्य है, एक समय सामूहिक तथा वैयक्तिक उन्नति के लिये सहायक एवं आवश्यक थी । कोई दूसरी वस्तु जिसे आज हम अशुभ मानते हैं एक अन्य आकार तथा विन्यास में सहज ही किसी भावी पूर्णता का अंग बन सकती है । और, फिर आध्यात्मिक धरातल पर हम इस विभेद से भी परे चले जाते हैं, क्योंकि तब हम इन सब चीजों का जिन्हें हम शुभ और अशुभ कहते हैं प्रयोजन एवं दिव्य उपयोग जान लेते हैं । इनमें जो कुछ भी मिथ्या है उसका तब हमें त्याग करना होता है; जिसे हम अशुभ कहते हैं उसमें और जिसे हम शुभ कहते हैं उसमें जो कुछ भी विकृत, अत तथा तमोग्रस्त है उस सबका हमें समान रूप से त्याग करना होता है । तब हमें केवल सत्य और दिव्य को ही अंगीकार करना होता है, किन्तु शाश्वत प्रक्रियाओं में हमें कोई और भेद करने की आवश्यकता नहीं पड़ती ।

 

       जो लोग केवल कठोर मानदंड के अनुसार ही कार्य कर सकते हैं और केवल मानवीय मूल्यों को ही अनुभव कर सकते हैं, दिव्य मूल्यों को नहीं, उन्हें यह सत्य सम्भवतः एक ऐसी भयानक रियायत प्रतीत होगा जो नैतिकता के आधार तक को नष्ट कर सकती है और आचारमात्र में अव्यवस्था पैदा करके केवल संकर को ही स्थापित कर सकती है । निःसन्देह, यदि चुनाव नित्य एवं अपरिवर्तनशील नैतिकता और नैतिकता के नितान्त अभाव के बीच हो, तो अविद्याग्रस्त मनुष्य के लिये इसका ऐसा ही परिणाम होगा । परन्तु मानवीय स्तर पर भी, यदि हममें यह पहचानने के लिये पर्याप्त ज्योति एवं पर्याप्त नमनशीलता हो कि आचार का कोई मानदंड अस्थायी होता दुआ भी अपने समयतक के लिये आवश्यक हो सकता है और यदि हम उसका तबतक सच्चाई से पालन कर सकें जबतक उसके स्थान पर एक श्रेष्ठतर मानदंड प्रतिष्ठित न कर लें, तो हमें कोई ऐसी हानि नहीं होगी, बल्कि हम केवल एक अपूर्ण तथा असहिष्णु सद्गुण की कट्टरता को ही खोयेंगे । परन्तु इसके स्थान पर हमें प्राप्त होगी उन्मुक्तता, अनवरत नैतिक प्रगति की क्षमता, उदारता, संघर्षरत और स्खलनशील प्राणियों के प्रति, इस सब संसार के प्रति ज्ञानयुक्त सहानुभूति रखने की योग्यता; साथ ही इस उदारता के द्वारा हमें इसे इसके

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मार्ग पर अग्रसर होने में सहायता देने का अधिक योग्य अधिकार और अधिक महान् बल भी प्राप्त होंगे । अन्त में, जहां मनुष्यता समाप्त होगी तथा दिव्यता आरम्भ होगी, जहां मानसिक चेतना अतिमानसिक में अन्तर्धान हो जायगी और सांत अपने को अनन्त में निमज्जित कर देगा वहां अशुभमात्र एक परात्पर दिव्य शुभ में विलीन हो जायगा और यह शुभ फिर चेतना के जिस-जिस स्तर को स्पर्श करेगा उस-उस पर एक सार्वभौम रूप धारण कर लेगा ।

 

      इसलिये, यह एक निश्चित बात है कि जिन किन्हीं भी मानदंडों से हम अपने आचार का नियमन करना चाहें वे सभी केवल हमारे अस्थायी, अपूर्ण एवं विकासशील प्रयत्न ही होते हैं । इन प्रयत्नों का प्रयोजन यह होता है कि जिस वैश्व उपलब्धि की ओर प्रकृति बढ़ रही है उसमें अपनी लड़खड़ाती मानसिक प्रगति को हम अपने प्रति प्रदर्शित कर सकें । परन्तु दिव्य अभिव्यक्ति हमारे क्षुद्र नियमों तथा भंगुर पुण्य भावनाओं से आबद्ध नहीं हो सकती; क्योंकि इसके मूल में जो चेतना है वह इन वस्तुओं की तुलना में अतीव बृहत् है । यदि एक बार हम इस तथ्य को, जो हमारी तर्कशक्ति के स्वेच्छाचारी राज्य के लिये काफी क्षोभजनक है, हृदयंगम कर लें तो हम मनुष्य जाति की वैयक्तिक तथा सामूहिक यात्रा की प्रगति की विभिन्न अवस्थाओं को नियंत्रित करनेवाले क्रमिक मानदंडों को पारस्परिक सम्बन्ध की दृष्टि से उनके समुचित स्थान पर रखने में अधिक अच्छी तरह समर्थ होंगे । इनमें से अत्यन्त व्यापक मानदंडों पर यहां हम एक विहंगम दृष्टि डाल लें । हमें देखना है कि उस अन्य माप-रहित आध्यात्मिक तथा अतिमानसिक कार्यशैली से इनका कैसा सम्बन्ध है । योग इस शैली को आयत्त करना चाहता है और इस ओर उसकी प्रगति तब होती है जब व्यक्ति भगवत्संकल्प के प्रति समर्पण करता है, और इस ओर अधिक सफलतापूर्वक वह तब अग्रसर होता है जब व्यक्ति इस समर्पण के द्वारा एक ऐसी महत्तर चेतना की ओर आरोहण करता है जिसमें सक्रिय सनातन ब्रह्म के साथ एक प्रकार का तादात्म्य सम्भव हो जाता है ।

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      मानवीय आचार के मुख्य मानदंड चार हैं जो एक सीढ़ी के उत्तरोत्तर ऊंचे सोपान हैं । प्रथम है वैयक्तिक आवश्यकता, अभिरुचि एवं कामना; द्वितीय है समष्टि का नियम एवं हित; तृतीय है आदर्श नैतिक नियम और अन्तिम है प्रकृति का सर्वोच्च दिव्य नियम ।

 

     मनुष्य इन चार में से पहले दो को ही अपने प्रकाशप्रद और मार्गदर्शक साधनों के रूप में संग लेकर अपने जीवन-विकास की सुदीर्घ यात्रा आरम्भ करता है, क्योंकि ये दोनों उसकी पाशविक एवं प्राणिक सत्ता के नियम हैं, और प्राण-प्रधान तथा देहप्रधान पशुवृत्ति मनुष्य के तौर पर ही वह अपना विकास प्रारम्भ करता है ।

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इस भूतल पर मनुष्य का असली कार्य है--मानवता के सांचे में भगवान् को अधिकाधिक मूर्तिमन्त करना; सचेत रूप में हो या अचेत रूप में, इसी लक्ष्य के लिये विश्वप्रकृति अपनी बाह्य तथा आन्तर प्रक्रियाओं के घने पर्दे की आड़ में उसके अन्दर कार्य कर रही है । परन्तु भौतिक या पाशविक मनुष्य जीवन के आन्तरिक लक्ष्य से अनभिज्ञ है; वह केवल इसकी आवश्यकताओं तथा कामनाओं को ही जानता है और, स्वभावत: ही, अपनी आवश्यकता की प्रतीति तथा कामना के उत्तेजनों और निर्देशों को छोड़कर और कोई ऐसा मार्गदर्शक उसके पास नहीं है जो उसे बता सके कि उससे किस चीज की अपेक्षा की जाती है । निःसन्देह, और सब चीजों से पहले अपनी शारीरिक तथा प्राणिक मांगें और आवश्यकताएं पूरी करना, तथा, दूसरे स्थान पर, अपने अन्दर जो भी हृद्गत या मनोगत तृष्णाएं या कल्पनाएं या गतिशील विचार उठते हैं उन्हें पूरा करना उसके आचार का पहला प्राकृतिक नियम होता है । केवल एक ही ऐसा समबल या प्रबल नियम है जो इस अनिवार्य प्राकृतिक मांग का परिवर्तन या प्रतिषेध कर सकता है । यह वह मांग है जो उसके परिवार के अथवा समाज या वंश एवं गण या समुदाय के, जिसका वह सदस्य है, विचारों, आवश्यकताओं और कामनाओं के द्वारा उसपर लादी जाती है ।

 

      यदि मनुष्य केवल अपने लिये ही जी सकता, --ऐसा तो वह तभी कर सकता था यदि व्यक्ति का विकास जगत् में भगवान् का एकमात्र लक्ष्य होता, --तो इस दूसरे नियम के कार्यान्वित होने की आवश्यकता ही न पड़ती । परन्तु सत्तामात्र अवयवी तथा अवयवों की पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया के द्वारा और निर्मित द्रव्य एवं उसके निर्मायक अंगों की एक-दूसरे के लिये आवश्यकता तथा समुदाय एवं उसके व्यक्तियों की अन्योन्य-निर्भरता के द्वारा ही प्रगति करती है । भारतीय दर्शन के शब्दों में, भगवान् अपने-आपको सदा ही व्यष्टि तथा समष्टि के द्विविध रूप में प्रकट करता है । मनुष्य अपने पृथक् व्यक्तित्व तथा इसकी पूर्णूता एवं स्वतंत्रता की वृद्धि के लिये बल लगाता दुआ भी अपनी वैयक्तिक आवश्यकताएं एवं कामनाएं पूरी करने में तब तक असमर्थ रहता है जब तक वह अन्य मनुष्यों के साथ मिल करके बल नहीं लगाता । वह अपने-आपमें पूर्ण है और फिर भी दूसरों के बिना अधूरा है । यह बाध्यता उसके वैयक्तिक आचार-नियम को सामुदायिक नियम के घेरे में ले आती है । सामुदायिक नियम की उत्पत्ति एक स्थायी समुदायसत्ता के निर्माण से होती है जिसका अपना सामूहिक मन तथा प्राण होता है । व्यक्ति के अपने देहबद्ध मन और प्राण एक नश्वर इकाई के रूप में उस सामूहिक मन और प्राण के अधीन होते हैं । तथापि उसके अन्दर एक ऐसी सत्ता भी है जो अमर तथा स्वतन्त्र है  और जो समष्टि-शरीर से बंधी हुई नहीं है, --ऐसे समष्टि-शरीर से जो उसके देहबद्ध जीवन की समाप्ति के बाद भी बना रहता है, परन्तु जो उसकी नित्य आत्मा से अधिक स्थायी नहीं हो सकता, न ही इसे अपने नियम से बांधने का दावा कर सकता है ।

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यह देखने में अधिक व्यापक तथा प्रभुत्वपूर्ण नियम, अपने-आपमें, उस प्राणिक तथा शारीरिक सिद्धान्त के विस्तार से अधिक कुछ नहीं है जो व्यष्टिरूप प्राथमिक मनुष्य को संचालित करता है; यह गण या समुदाय का नियम है । व्यक्ति अपने जीवन को कुछ अन्य व्यक्तियों के जीवन के साथ जिनसे वह जन्म, अभिरुचि या परिस्थिति के कारण सम्बद्ध होता है, कुछ हद तक एकीभूत कर लेता हैं । समुदाय की सत्ता उसकी अपनी सत्ता एवं तृप्ति के लिये आवश्यक है; अतएव, आरम्भ से नहीं तो समय आने पर, इसकी सुरक्षा, इसकी आवश्यकताओं की पूर्ति और इसके सामूहिक विचारों, कामनाओं एवं जीवन-अभ्यासों की चरितार्थता, जिनके बिना यह संयुक्त ही नहीं रह सकता, निश्चित रूप से प्रमुख स्थान ले लेती हैं । तब, वैयक्तिक विचार एवं भाव, आवश्यकता एवं कामना और प्रवृत्ति एवं प्रकृति की तृप्ति को किसी नैतिक या परोपकारात्मक प्रेरक-भाव के कारण नहीं, बल्कि परिस्थितिवश इस या उस अन्य व्यक्ति वा व्यक्तिसमूह के नहीं, बल्कि समूचे_ समाज के विचारों एवं भावों, आवश्यकताओं एवं कामनाओं और प्रवृत्तियों एवं प्रकृतियों की तृप्ति के निरन्तर अधीन करना होता है । यह सामाजिक आवश्यकता ही नैतिकता का तथा मनुष्य के सदाचारसम्बन्धी संवेग का गुप्त मूल है ।

 

     यह यथार्थ रूप से ज्ञात नहीं है कि किसी आदिम काल में मनुष्य अकेला या केवल अपनी संगिनी के संग रहता था जैसे कि कुछ-एक पशु रहते हैं । उसका सम्पूर्ण वृत्तान्त हमें बताता है कि वह एक सामाजिक प्राणी था, एकाकी शरीर और आत्मा नहीं । समुदाय का नियम सदैव उसके स्व-विकास के वैयक्तिक नियम पर सवार रहा है; प्रतीत होता है कि सदैव समूह के अन्दर एक इकाई के रूप में ही उसका जन्म, रहन-सहन तथा विकास हुआ है । परन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टिबिन्दु से, तर्कत: और स्वभावत:, वैयक्तिक आवश्यकता तथा कामना का नियम ही प्रधान होता है, सामाजिक नियम एक ऐसी गौण शक्ति के रूप में प्रवेश करता है जो बलपूर्वक अधिकार जमा लेती है । मनुष्य में दो विस्पष्ट प्रभुत्वशाली आवेग हैं, व्यक्तिप्रधान तथा संघप्रधान, वैयक्तिक जीवन तथा सामाजिक जीवन, आचार का वैयक्तिक प्रेरकभाव तथा आचार का सामाजिक प्रेरकभाव । इनके परस्पर-विरोध की सम्भावना तथा इनके साम्य को ढूंढ़ निकालने का प्रयत्न मानव-सभ्यता का वास्तविक मूल हैं तथा जब वह प्राणिक-शारीरिक उन्नति को अतिक्रान्त कर उच्चतया व्यष्टिभावापन्न मानसिक तथा आध्यात्मिक विकासक्रम में पहुंच जाता है तब भी ये किन्हीं अन्य रूपों में बने ही रहते हैं ।

 

      व्यक्ति से बहिःस्थित सामाजिक नियम का अस्तित्व भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में मनुष्यवर्तिनी दिव्यता के विकास में पर्याप्त लाभकारक अथवा हानिकारक होता है । प्रारम्भ में जब मनुष्य असंस्कृत एवं आत्म-संयम तथा आत्मोपलब्धि में अशक्त होता है तब यह लाभदायक होता है, क्योंकि यह उसके वैयक्तिक अहंभाव की

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शक्ति से भिन्न किसी शक्ति को खड़ा करता है जिसके द्वारा वह अहंभाव अपनी भीषण मांगों को संयत करने, अपनी अयुक्तियुक्त एवं प्रायः -उग्र चेष्टाओं को नियंत्रित करने और एक अधिक विस्तृत एवं कम व्यक्तिगत अहंभाव में अपने--आपको कभी-कभी विलीन तक कर देने के लिये प्रेरित वा बाधित किया जा सकता है । मानवीय सूत्र का अतिक्रमण करने को उद्यत परिपक्व आत्मा के लिये यह हानिकर होता है, क्योंकि यह एक बाह्य मानदंड है जो अपने-आपको बाहर से उस आत्मा पर लादने की चेष्टा करता है । किन्तु मनुष्य की पूर्णता की शर्त यह है कि वह अन्दर से तथा अधिकाधिक स्वतन्त्रता के साथ विकसित हो, अपने समुन्नत व्यक्ति-भाव को दबा करके नहीं, बल्कि इसका अतिक्रमण करके एवं अपने ऊपर थोपे गये किसी ऐसे नियम के द्वारा नहीं जो उसक अंगों को प्रशिक्षित तथा अनुशासित करे, बल्कि अन्दर से अपनी उस आत्मा के द्वारा विकसित हो जो सब पुराने रूपों को छिन्न-भिन्न करके उसके अंगों को अपने प्रकाश से अधिकृत कर लेती है तथा उनका रूपान्तर करती हे ।

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    समाज के अधिकारों और व्यक्ति के अधिकारों के पारस्परिक संघर्ष में दो आदर्श तथा चरम समाधान एक-दूसरे के सम्मुख उपस्थित होते हैं । समष्टि की मांग यह है कि व्यष्टि को अपने-आपको न्यूनाधिक पूर्णता के साथ समाज के वशीभूत अथवा अपनी स्वतंत्र सत्ता को समाज में विलीन तक कर देना चाहिये, छोटी इकाई को या तो बड़ी पर बलि चढ़ां देना चाहिये या उसे स्वयमेव अपनेको इसपर उत्सर्ग कर देना चाहिये । उसे समाज की आवश्यकता को अपनी आवश्यकता और समाज की कामना को अपनी कामना समझना चाहिये; उसे अपने लिये नहीं, बल्कि उस जाति, कुल, समाज या राष्ट्र के लिये जीना चाहिये जिसका वह सदस्य है । व्यक्ति के दृष्टिकोण से आदर्श एवं चरम समाधान एक ऐसा समाज होगा जिसका अस्तित्व अपने लिये या अपने सर्वातिशयी सामूहिक उद्देश्य के लिये न हो, बल्कि व्यक्ति के हित एवं पूर्णत्व के लिये तथा अपने सभी सदस्यों के महत्तर एवं पूर्णतर जीवन के लिये हो । यथासम्भव उसकी सर्वश्रेष्ठ आत्मा को निदर्शित करता हुआ तथा इसकी उपलब्धि में उसे सहायता पहुंचाता हुआ, यह अपने प्रत्येक सदस्य की स्वतंत्रता का मान करेगा तथा अपनी रक्षा किसी नियम और बल के द्वारा नहीं, बल्कि अपने अंगभूत व्यक्तियों की स्वतंत्र एवं सहज सहमति के द्वारा ही करेगा । इनमें से किसी भी प्रकार का आदर्श समाज कहीं भी नहीं है और जब तक व्यक्ति अपने अहंभाव को जीवन का प्रधान प्रेरक मानकर इससे चिपटा रहेगा तब तक ऐसे समाज का निर्माण करना अत्यन्त कठिन होगा

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और इसके अनिष्चित अस्तित्व को बनाये रखना तो और भी अधिक दुष्कर । अधिक सुगम उपाय यह है कि समाज व्यक्ति पर पूर्ण रूप से नहीं, बल्कि सामान्य रूप से शासन करे । प्रकृति प्रारम्भ से ही सहज-स्वभाववश इसी प्रणाली का अनुसरण करती है और कठोर नियम एवं अलंध्य लोकाचार के द्वारा तथा मानव प्राणी की अब तक वशवर्ती एवं अल्प विकसित बुद्धि को सावधानतापूर्वक अनुशासित करके इस प्रणाली को सन्तुलित रखती है ।

 

    आदिम समाजों में वैयक्तिक जीवन एक कठोर और अपरिवर्तनशील सांघिक रीति-रिवाज एवं नियम के अधीन पाया जाता है; यह मानवी समुदाय का एक प्राचीन तथा नित्यताभिलाषी नियम है जो सदा ही अविनाशी देव के सनातन आदेश, एष धर्मः सनातन:, का वेश धारण करने का यत्न करता है । यह आदर्श मानव मन से मिटा नहीं है; मानव-विकास की अत्यन्त अभिनव दिशा यह है कि मानव की आत्मा को दास बनाने के लिये सामूहिक जीवन की इस प्राचीन प्रवृत्ति का एक परिवर्द्धित एवं बहुमूल्य संस्करण प्रचलित किया जाय । किन्तु इसमें भूतल पर महत्तर सत्य तथा महत्तर जीवन के सर्वांगीण विकास के लिये एक बहुत बड़ा खतरा है । व्यक्ति की कामनाएं एवं स्वतन्त्र अन्वेषणाएं चाहे कैसी भी अहंकारमय क्यों न हों, अपने वर्तमान रूप में चाहे वे कैसी भी मिथ्या या विकृत क्यों न हों, फिर भी उनके प्रच्छन्न अणुओं में विकास का एक ऐसा बीज निहित है जो समष्टि के लिये अपरिहार्य है । व्यक्ति के अनुसंधानों और स्खलनों के मूल में एक ऐसी शक्ति निहित है जिसे सुरक्षित रखना तथा दिव्य आदर्श की प्रतिमूर्त्ति में रूपान्तरित करना अनिवार्य है । उस शक्ति को आलोकित तथा प्रशिक्षित करना तो आवश्यक है, किन्तु उसे दबा डालना अथवा केवल समाज की गाड़ी के भारी- भरकम पहिये को खींचने में ही लगा देना कदापि उचित नहीं ।

 

    चरम पूर्णता के लिये व्यक्तिवाद की भी उतनी ही आवश्यकता है जितनी समष्टि-भावना के मूल में निहित शक्ति की । व्यक्ति का गला घोंटना सहज ही मनुष्यवर्ती ईश्वर का गला घोंटने के समान ही हो सकता है । अपिच, मानवता के वर्तमान सन्तुलन में इस प्रकार का कोई वास्तविक भय कदाचित् ही हो सकता है कि अतिरञ्जित व्यक्तिवाद सामाजिक अखंड सत्ता को विभक्त कर डालेगा । पर इस बात की निरन्तर आशंका है कि कहीं समाजरूपी समुदाय का अतिमात्र दबाव अपने भारी अप्रकाशयुका यन्त्रसम बोझ से व्यक्तिगत आत्मा के स्वतन्त्र विकास को दबा ही न डाले अथवा अनुचित रूप से निरुत्साहित ही न कर दे । कारण, व्यष्टिगत मनुष्य को अपेक्षाकृत अधिक सुगमता से प्रकाशयुका एवं सचेतन बनाया जा सकता है और साथ ही उसे स्पष्ट प्रभावों के प्रति उन्मीलित भी किया जा सकता है; समष्टिगत मनुष्य अब तक भी अन्धकारयुक्त एवं अर्ध-चेतन है तथा उन वैश्व शक्तियों के द्वारा शासित है जो समष्टि के वश तथा ज्ञान से बाहर हैं ।

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    दमन और पंगुकरण के इस भय के विरुद्ध व्यक्ति की प्रकृति प्रतिक्रिया करती है । यह एक एकाकी प्रतिरोध के द्वारा भी प्रतिक्रिया कर सकती है और वह प्रतिरोध अपराधी के अन्धप्रेरित तथा पाशविक विद्रोह से लेकर एकान्तवासी तथा तपस्वी के पूर्ण परित्याग तक का रूप धारण कर सकता है । यह सामाजिक भावना में व्यक्तिवादी प्रवृत्ति के समर्थन के द्वारा भी प्रतिक्रिया कर सकती है, यह इस प्रवृत्ति को समष्टि-चेतना पर बलपूर्वक थोप कर वैयक्तिक तथा सामाजिक मांग में समझौता भी करा सकती है । परन्तु समझौता कोई समाधान नहीं होता; यह तो केवल कठिनाई को ताक पर धर देता है और अन्त में समस्या को और भी जटिल बनाकर उसके विचारणीय पहलुओं को कई गुना बढ़ा देता है । आवश्यकता है एक नये तत्त्व का आह्वान करने की जो इन दो विरोधी प्रवृत्तियों से भिन्न एवं उच्चतर हो तथा इन्हें पार कर जाने और साथ ही इनका समन्वय करने का सामर्थ्य रखता हो । प्राकृतिक वैयक्तिक नियम यह स्थापना करता है कि हमारी व्यक्तिगत आवश्यकताओं, अभिरुचियों तथा कामनाओं की पूर्ति ही आचार का एकमात्र मानदंड है और प्राकृतिक सांघिक नियम यह स्थापना करता है कि समूचे समाज की आवश्यकताओं, अभिरुचियों एवं कामनाओं की पूर्ति एक अधिक उत्कृष्ट मानदण्ड है । इन दोनों नियमों के ऊपर एक ऐसे आदर्श नैतिक नियम के विचार को जन्म लेना ही था जो आवश्यकता एवं कामना की पूर्ति-रूप न हो, बल्कि इन्हें एक आदर्श व्यवस्था के हित नियंत्रित करे, यहां तक कि इन्हें बलपूर्वक दबाये या विनष्ट करे, --एक ऐसी व्यवस्था के हित जो पाशविक, प्राणिक एवं शारीरिक नहीं, वरन् मानसिक हो और जो प्रकाश एवं ज्ञान तथा यथार्थ प्रभुत्व एवं यथार्थ गति और सत्य व्यवस्था के लिये मन की खोज की उपज हो । जिस क्षण यह विचार मनुष्य में प्रबल हो जाता है उसी क्षण से वह व्यस्तकारी प्राणिक तथा शारीरिक जीवन को त्यागकर मानसिक जीवन में प्रवेश करने लगता है; वह विश्व-प्रकृति के त्रिविध आरोहण के प्रथम सोपान से द्वितीय पर आरोहण करता है । उसकी आवश्यकताएं तथा इच्छाएं भी अपने प्रयोजन के उच्चतर प्रकाश से किश्चित प्रभावित हो जाती हैं; मानसिक आवश्यकता तथा सौन्दर्य-भावनात्मक, बौद्धिक एवं भावगत कामना भौतिक तथा प्राणिक प्रकृति की मांग पर प्रभुत्व करने लगती हैं ।

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    आचार का प्राकृतिक नियम शक्तियों, अन्त:प्रवृत्तियों तथा कामनाओं के संघर्ष से इनके सन्तुलन की ओर गति करता है; उच्चतर नैतिक नियम मानसिक तथा नैतिक प्रकृति के विकास के द्वारा एक स्थिर अन्तरीय मानदण्ड की ओर अथवा निरपेक्ष गुणों अर्थात् न्याय, सत्य, प्रेम, यथार्थ तर्क, यथार्थ सामर्थ्य, सौन्दर्य एवं

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 प्रकाश के एक स्वयं-रचित आदर्श की ओर बढ़ता है । अतएव, मूलतः, यह एक वैयक्तिक मानदण्ड है; यह समष्टि-मन की रचना नहीं है । विचारक व्यक्ति होता है; जो वस्तु अन्यथा रूपरहित मानवीय समष्टि में अवचेतन पड़ी रहती है उसे निकाल लाने तथा आकार देनेवाला भी वही होता है । नैतिक प्रयासी भी व्यक्ति होता है, बाह्य नियम के जूए तले आकर नहीं, प्रत्युत आभ्यन्तर प्रकाश के आदेशानुसार आत्म-साधना करना भी मूलतः एक वैयक्तिक प्रयत्न होता है । परन्तु अपने वैयक्तिक मानदण्ड को एक चरम नैतिक आदर्श के प्रतिरूप के तौर पर स्थापित करके विचारक इसे केवल अपने पर नहीं, अपितु उन सब व्यक्तियों पर, जिन तक उसका विचार पहुंच तथा पैठ सकता है, लाद देता है । जैसे-जैसे बहु-संख्यक लोग इसे विचार में अधिकाधिक स्वीकार करने लगते हैं, --चाहे व्यवहार में वे इसे बिल्कुल न मानें या केवल अधूरे तौर पर ही मानें, -वैसे-वैसे समाज भी नयी स्थिति का अनुसरण करने को बाधित होता है । यह विचारात्मक प्रभाव को आत्मसात् करता है तथा अपनी संस्थाओं को इन उच्चतर आदर्शों से ईषत् प्रभावित नये रूपों में ढाल देने का यत्न करता है, पर इसमें उसे कोई विशेष आश्चर्यजनक सफलता नहीं मिलती । सदा ही उसकी प्रवृत्ति इन्हें एक अनुल्लंघनीय नियम, आदर्श रीति-नीति, यांत्रिक विधि-विधान तथा अपनी सजीव इकाइयों पर एक बाह्य सामाजिक बलात्कार के रूप में परिणत कर देने की ओर होती है ।

 

    कारण, जब व्यक्ति अंशत: स्वतंत्र हो चुकता है, एक ऐसा नैतिक अवयवी बन चुकता है जो सचेतन विकास के योग्य, अन्तर्मुख जीवन से सज्ञान तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिये उत्सुक होता है, उसके बाद भी चिरकाल तक समाज अपनी परिपाटियों मे बाह्य बना रहता है, एक ऐसा भौतिक तथा आर्थिक संगठन बना रहता है जो यांत्रिक होता है; वह उन्नति तथा आत्म-पूर्णता की अपेक्षा स्थिति तथा स्व-रक्षा की ओर ही अधिक दत्तचित्त रहता है । वर्तमान काल में, स्वभावप्रेरित तथा स्थितिशील समाज पर विचारशाली तथा प्रगतिशील व्यक्ति ने यह एक बड़ी भारी विजय प्राप्त की है कि उसने अपने विचार-संकल्प से समाज को इस बात के लिये बाधित करने की शक्ति अधिगत कर ली है कि वह भी चिन्तन करे, सामाजिक न्याय एवं सत्याचरण तथा सांघिक सहानुभूति एवं पारस्परिक करुणा के विचार के प्रति अपने-आपको खोले, अपनी संस्थाओं की कसौटी के रूप में अन्ध प्रथा की अपेक्षा कहीं अधिक तर्क-बुद्धि के नियम की खोज करे और यह समझे कि उसके नियमों की न्याय्यता के लिये उसके सदस्यों की मानसिक तथा नैतिक सहमति कम-से-कम एक मुख्य तत्त्व अवश्य है । और, नहीं तो, एक आदर्श के रूप में समष्टि-मन के लिये अब यह मानना सम्भव हो चला है कि उसका अनुमतिदाता प्रकाश होना चाहिये, बल नहीं, यहां तक कि उसके दण्ड-विधान का लक्ष्य भी नैतिक विकास होना चाहिये, प्रतिशोध या दमन नहीं । भविष्य में विचारक

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की सबसे महान् विजय तब होगी जब वह व्यष्टि तथा समष्टि दोनों को इस बात के लिये प्रेरित कर सकेगा कि वे अपना जीवन-सम्बन्ध तथा इसकी एकता एवं स्थिरता स्वतंत्र तथा समस्वर सहमति और आत्म-अनुकूलन पर आधारित करें और आन्तर आत्मा को बाह्य रूप और रचना की यंत्रणा से दबा न डालें बल्कि बाह्य रूप को आन्तर सत्य के अनुसार निर्मित तथा नियंत्रित करें ।

 

    परन्तु यह जो सफलता उसने प्राप्त की है वह भी वास्तविक सफलता होने से कहीं अधिक एक बीजरूप वस्तु ही है । व्यक्ति में निहित नैतिक नियम तथा उसकी आवश्यकताओं एवं कामनाओं के नियम के बीच, समाज के समक्ष प्रस्तुत नैतिक नियम तथा जाति, कुल, धार्मिक संघ, समाज एवं राष्ट्र की भौतिक एवं प्राणिक आवश्यकताओं, कामनाओं, रीति-रिवाजों, पक्षपातों, स्वार्थों एवं आवेशों के बीच सदैव असामंजस्य तथा वैषम्य रहता है । नैतिकतावादी वृथा ही अपने चरम सदाचारसम्बन्धी मानदंड को उत्तोलित करता है तथा सबसे यह अनुरोध करता है कि वे परिणामों का विचार किये बिना ही इसके प्रति स्थिरनिष्ठ रहें । उसकी दृष्टि में व्यक्ति की आवश्यकताएं एवं कामनाएं--यदि ये नैतिक नियम के विरुद्ध हों तो--अयुक्त होती हैं और सामाजिक नियम भी--यदि यह उसकी औचित्य-भावना के विपरीत हो और यदि उसका अन्तःकरण भी इसे स्वीकार न करता हो तो--उसपर कोई अधिकार नहीं रख सकता । व्यक्ति के लिये उसका चरम समाधान यह है कि वह ऐसी कामनाओं और अधिकारों का पालन-पोषण न करे जो प्रेम, सत्य और न्याय से संगत न हों । समाज या राष्ट्र से वह मांग करता है कि यह सत्य, न्याय, मानवता और परम लोक-कल्याण की तुलना में अन्य सभी चीजों को, यहां तक कि अपनी सुरक्षा तथा अपने अत्यन्त आवश्यक हितों को भी, तुच्छ समझे ।

 

    कुछ-स्व महान् क्षणों को छोड़कर और किसी समय कोई भी व्यक्ति इन शिखरों तक ऊंचा नहीं उठता, आज तक उत्पन्न किसी भी समाज ने इस आदर्श को पूर्ण नहीं किया है । अथच नैतिकता तथा मानव-विकास की वर्तमान दशा में सम्भवतः कोई भी इसे पूर्ण नहीं कर सकता अथवा किसीको भी ऐसा नहीं करना चाहिये । प्रकृति ऐसा नहीं करने देगी, प्रकृति जानती है कि ऐसा नहीं होना चाहिये । पहला कारण यह है कि हमारे नैतिक आदर्श स्वयं अधिकांशत: अपूर्ण-विकसित, अज्ञानयुक्त तथा मनमाने हैं, ये आत्मा के सनातन सत्यों की प्रतिलिपियां होने की अपेक्षा कहीं अधिक मानसिक रचनाएं हैं । शास्रमूलक तथा दुराग्रहपूर्ण होने से ये कतिपय ऐकान्तिक मानदंडों को सिद्धान्त-रूप में प्रबलतया प्रतिपादित करते हैं, पर क्रियात्मक रूप में आचारशास्त्र की प्रत्येक विद्यमान पद्धति अव्यवहार्य सिद्ध होती है या वास्तव में उस ऐकान्तिक मानदंड से निरन्तर न्यून रहती है जिसका कि आदर्श दावा करता है । यदि हमारी आचारसम्बन्धी पद्धति कोई समझौता या कामचलाऊ चीज हो, तो यह अपनेको निःसत्त्व बनानेवाले उन और अगले समझौतों को भी

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तुरन्त औचित्य का आधार दे देगी जिन्हें करने के लिये समाज और व्यक्ति जल्दी मचाया करते हैं । और, यदि यह समझौता-न-करनेवाली दृढ़ता के साथ पूर्ण प्रेम, न्याय एवं सत्य का आग्रह करे, तो यह मानवीय सम्भाव्यता के शिखर से बहुत ऊंची चली जायगी और बगला भगति के साथ मानी तो जायगी, पर व्यवहार में उपेक्षित ही रहेगी । यहां तक भी देखने में आता है कि नैतिक पद्धति मानवता में विद्यमान उन अन्य तत्त्वों की अवगणना करती है जो जीवित बचे रहने के लिये इसके समान ही आग्रह करते हैं, पर नैतिक सूत्र की चारदीवारी के भीतर बन्द होने से इन्कार करते हैं । जिस प्रकार कामना के वैयक्तिक नियम में अनन्त अखंड वस्तु के कुछ ऐसे अमूल्य तत्त्व अन्तर्निहित हैं जिन्हें प्रबल सामाजिक विचार के अत्याचार से बचाना होता है, ठीक इसी प्रकार व्यष्टिगत मानव तथा समष्टिगत मानव दोनों के स्वभावज आवेगों में भी कुछ ऐसे बहुमूल्य तत्त्व अन्तनिर्हित हैं जो अब तक आविष्कृत किसी भी सदाचारसम्बन्धी सूत्र की सीमाओं से बाहर हैं और फिर भी चरम दिव्य पूर्णता की समृद्धि एवं समस्वरता के लिये आवश्यक हैं ।

 

    अपिच पूर्ण प्रेम, पूर्ण न्याय, पूर्ण सत्-तर्क व्याकुल तथा अपूर्ण मानवता के द्वारा वर्तमान काल में प्रयोग में लाये जाते हुए सहज ही संघर्षकारी तत्त्व बन जाते हैं । न्याय प्रायः उस चीज की मांग करता है जिससे प्रेम दूर भागता है । सत्-तर्क एक सन्तुष्टिकारक सूत्र या नियम की खोज में प्रकृति के तथा मानवीय सम्बन्धों के तथ्यों पर निष्पक्ष भाव से विचार करता हुआ पूर्ण न्याय या पूर्ण प्रेम के कैसे भी शासन को हेर-फेर के बिना स्वीकार नहीं कर पाता है । सच तो यह है कि मनुष्य का पूर्ण न्याय व्यवहार में अनायास ही महान् अन्याय सिद्ध होता है; क्योंकि उसका मन, अपनी रचनाओं में एकपक्षीय तथा कठोर होने के कारण, एकपक्षीय, आंशिक एवं उग्र योजना वा रचना प्रस्तुत करता हैं और उसकी सर्वांगता तथा पूर्णता का दावा भरता है, साथ ही वह उसके एक ऐसे प्रयोग का भी दावा भरता है जो वस्तुओं के सूक्ष्मतर सत्य एवं जीवन की नमनीयता की उपेक्षा करता है । हमारे सभी मानदंड कार्य में परिणत किये जाने पर या तो समझौतों की दोला में दोलायमान रहते हैं अथवा इस आंशिकता एवं अनमनीय रचना के कारण अपने लक्ष्य से चूक जाते हैं । मानवता एक से दूसरी स्थिति में डोलती रहती है; जाति परस्पर-विरोधी दावों से प्रेरित होकर टेढ़े-मेढ़े मार्ग पर चलती रहती है और, सर्वतोदृष्टया, प्रकृति के अभिमत को ही स्वाभाविक रूप में क्रियान्वित करती है, पर करती है बहुत अपव्यय तथा कष्टसहन के साथ । वह उस कार्य को सम्पन्न नहीं कर पाती जिसे वह चाहती या ठीक मानती है अथवा ऊपर से आनेवाली सर्वोच्च ज्योति शरीरधारी आत्मा से जिसकी मांग करती है ।

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    तथ्य यह है कि जब हम पूर्ण नैतिक गुणों के सिद्धान्त पर पहुंच जाते हैं तथा एक आदर्श नियम का निरपवाद एवं अलंध्य शासन स्थापित कर लेते हैं तब भी हम अपने अनुसंधान की समाप्ति पर नहीं पहुंच गये होते, न हमें कोई मोक्षकारक सत्य ही प्राप्त हो गया होता है । निःसन्देह, नैतिक नियम में एक ऐसी चीज निहित है जो हमें अपने अन्दर के अन्नमय तथा प्राणमय पुरुष के द्वारा सीमाबद्ध होने की स्थिति से ऊंचा उठने में सहायता देती है, एक ऐसा आग्रह निहित है जो मानवता की वैयक्तिक तथा सामूहिक आवश्यकताओं एवं कामनाओं का अतिक्रम कर जाता है, --ऐसी मानवता की जो अभी तक उस प्राणपूरित पार्थिव पंक में फंसी है जिसमें इसने अपनी जड़ें जमायी थीं । साथ ही, नैतिक नियम में एक ऐसी अभीप्सा भी निहित है जो हमें अपने अन्दर के मानसिक तथा नैतिक पुरुष को विकसित करने में सहायता देती है । अतएव, इस नये उन्नायक तत्त्व के रूप में हमें एक बड़े महत्त्व की प्राप्ति हुई है; इसके परिणामों ने पार्थिव प्रकृति के कठिन विकास में एक काफी महान् प्रगति को परिलक्षित किया है । इन नैतिक धारणाओं की अपर्याप्तता के पीछे कोई ऐसी चीज भी छिपी हुई है जो अवश्यमेव परम सत्य से सम्बद्ध है; इनमें एक ऐसे प्रकाश और बल की भी आभा है जो अब तक अप्राप्त दिव्य प्रकृति का अंग हैं । परन्तु इन चीजों की मानसिक धारणा वह प्रकाश नहीं है और न इनकी नैतिक परिकल्पना ही वह बल है । ये तो केवल मन की बनायी प्रतिनिधि रचनाएं हैं, ये उस दिव्य आत्मा को मूर्त्तिमान् नहीं कर सकतीं जिसे ये अपने सुनिश्चित सूत्रों में बांधने की व्यर्थ में चेष्टा करती हैं । परन्तु हमारे अन्दर के मनोमय तथा नैतिक पुरुष के परे एक महत्तर दिव्य पुरुष भी है जो आध्यात्मिक तथा अतिमानसिक है; क्योंकि विस्तीर्ण आध्यात्मिक स्तर के द्वारा ही, जहां मन के सूत्र साक्षात् आन्तर अनुभूति की शुभ्र ज्योति में विलीन हो जाते हैं, हम मन से परे पहुंच सकते हैं और इसकी रचनाओं का अतिक्रम कर अतिमानसिक सद्वस्तुओं की विशालता एवं स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं । वहीं हम उन दिव्य शक्तियों का सामंजस्य भी अनुभव कर सकते हैं जो हमारे मन के सामने तुच्छ और गलत रूप में उपस्थित की जाती हैं अथवा नैतिक नियम के संघर्षकारी वा दोलायमान तत्त्वों के द्वारा मिथ्या रूप में चित्रित की जाती हैं । वहीं रूपान्तरित प्राणमय तथा अन्नमय एवं ज्ञानदीप्त मनोमय पुरुष का उस अतिमानसिक आत्मा में एकीकरण सम्भव हो सकता है जो हमारे मन, प्राण और शरीर का गुप्त स्रोत है और साथ ही इनका लक्ष्य भी है । वहीं परम दिव्य ज्ञान की ज्योति में परस्पर एकीभूत पूर्ण न्याय, प्रेम एवं सत्याचरण की--जो उससे अत्यन्त भिन्न होता है जिसकी हम कल्पना करते हैं--किसी तरह की सम्भावना हो सकती है । वही हमारी सत्ता के अंगों के परस्पर-संघर्ष का सम्यक् समाधान हो सकता है ।

 

    दूसरे शब्दों में, समाज के बाह्य नियम तथा मनुष्य के नैतिक नियम के ऊपर

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और इनके परे भी एक सत्य एवं नियम है जिसे इनके अन्दर की कोई चीज शिथिल रूप में तथा अज्ञानपूर्वक अपना लक्ष्य बनाती है । यह एक बृहत् निर्बन्ध चेतना का विस्तीर्णतर सत्य है, एक दिव्य नियम है जिसकी ओर मनुष्य तथा समाज की ये अन्ध तथा स्थूल व्यवस्थाएं क्रमिक और स्खलनशील पगों सें बढ़ रही हैं । ये पग पशु के प्राकृतिक नियम को लांघ कर एक अधिक उन्नत प्रकाश या सार्वभौम नियम में पहुंचने का यत्न करते हैं । वह दिव्य मानदंड ही हमारी प्रकृति का परम आध्यात्मिक नियम और सत्य होना चाहिये, क्योंकि हमारे अन्दर का देवत्व हमारी आत्मा है जो अपनी गुप्त पूर्णता की ओर बढ़ रही है । और, फिर, क्योंकि हम संसार में ऐसे देहधारी जीव हैं जिनका एक-सा जीवन और प्रकृति है और साथ ही हम ऐसी व्यष्टि-आत्माएं हैं जो परात्पर के साथ सीधा सम्बन्ध जोड़ने में समर्थ हैं, हमारी आत्मा का यह परम सत्य द्विविध होना चाहिये । यह एक ऐसा नियम एवं सत्य होना चाहिये जो महान् आध्यात्मीकृत सामूहिक जीवन की पूर्ण गतिविधि, समस्वरता और लयताल की खोज करे और प्रकृति की विविधतापूर्ण एकता में प्रत्येक प्राणी तथा सभी प्राणयों के साथ हमारे सम्बन्धों को भी पूर्ण रूप से निर्धारित करे । साथ ही यह एक ऐसा नियम एवं सत्य भी होना चाहिये जो जीवधारी व्यक्ति की आत्मा तथा उसके मन, प्राण और शरीर में भगवान् की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति के लयताल और यथार्थ क्रमों को हमारे सामने प्रतिक्षण प्रकाशित करता रहे । अनुभव से हम देखते हैं कि कार्य का यह परम प्रकाश एवं बल अपने सर्वोच्च प्रकट रूप में एक अलंध्य नियम है और साथ ही पूर्ण स्वातंन्त्र भी । अलंध्य नियम तो यह इसलिये है कि एक शाश्वत सत्य के द्वारा यह हमारी प्रत्येक आन्तर तथा बाह्य चेष्टा को नियंत्रित करता है, परन्तु फिर भी क्षण- क्षण में और एक-एक चेष्टा में परम पुरुष का पूर्ण स्वातंत्र्य हमारी सचेतन और मुक्त प्रकृति की पूर्ण नमनीयता को प्रयोग में लाता है ।

 

    नैतिक आदर्शवादी अपने आचारसम्बन्धी ज्ञात तथ्यों में और मानसिक तथा नैतिक सूत्र से सम्बन्ध रखनेवाले हीनतर बलों और घटक-तत्त्वों में इस परम नियम को खोजने का यत्न करता है । अथच इन्हें धारित तथा व्यवस्थित करने के लिये वह आचार का एक आधारभूत तत्त्व चुन लेता है जो मूलत: निस्सार होता है तथा बुद्धि, उपयोगिता, भोगवाद, तर्कणा, अन्तर्ज्ञानात्मक विवेक-बुद्धि अथवा किसी अन्य सामान्यीकृत मानदंड से विरचित होता है । ऐसे सब प्रयत्नों का असफल होना पहले से ही निश्चित है । हमारी आन्तर प्रकृति नित्य आत्मा की एक प्रगतिशील अभिव्यक्ति है और यह ऐसी जटिल शक्ति है कि किसी एक प्रभुत्वशाली मानसिक

 

     अतएव गीता के अनुसार '' धर्म'' उस कार्य को कहते हैं जो हमारी आत्म-सत्ता की सारभूत प्रकृति के द्वारा नियंत्रित हो । धर्म वास्तव में एक ऐसा शब्द है जो मत-मजहब या नैतिकता से परे किसी और ही वस्तु को द्योतित करता है ।

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वा नैतिक सिद्धान्त से बांधी नहीं जा सकती । अतिमानसिक चेतना ही इसकी विभिन्न एवं परस्परविरुद्ध शक्तियों के समक्ष उनके आध्यात्मिक सत्य को प्रकाशित करके उनकी विषमताओं को समस्वर कर सकती है ।

 

    अर्वाचीनतर धर्म आचार के परम सत्य की आदर्शमूर्त्ति को स्थिर करने, किसी पद्धति को स्थापित करने तथा अवतार या पैगम्बर के मुख से ईश्वरीय नियम को घोषित करने का प्रयत्न करते हैं । ये पद्धतियां नीरस नैतिक धारणा की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली एवं क्रियाशील होती हुई भी, अधिकांश में, उस नैतिक तत्त्व के आदर्शवादात्मक गुणगान के अतिरिक्त कुछ नहीं होतीं जो धार्मिक भाव से तथा अपने अतिमानवीय उद्गम की छाप से पवित्रीकृत होता है । ईसाई आचार-शास्त्र-जैसी कई एक चूड़ान्त पद्धतियां भी प्रकृति के द्वारा त्याग दी जाती हैं, क्योंकि वे अव्यवहार्य ऐकान्तिक नियम पर अक्रियात्मक रूप से आग्रह करती हैं । अन्य कई पद्धतियां अन्त में विकासात्मक समझौते ही सिद्ध होती हैं और काल-प्रवाह के अग्रसर होने पर उनका कुछ प्रयोजन नहीं रह जाता । यथार्थ दिव्य नियम इन मानसिक मिथ्या रूपों से भिन्न है । यह उन कठोर नैतिक निर्णयों की पद्धति नहीं हो सकता जो हमारी सभी जीवन-गतियों को जर्बदस्ती अपने कड़े सांचों में ढालने का यत्न करते हैं । दिव्य नियम तो जीवन तथा आत्मा का सत्य है और यह, निश्चय ही, हमारे कर्म के प्रत्येक क्रम को तथा हमारे जीवनप्रश्नों की सारी जटिलताओं को एक स्वतंत्र एवं सजीव नमनीयता के साथ अपनावेगा और उन्हें अपने शाश्वत प्रकाश के साक्षात् स्पर्श से अनुप्राणित कर देगा । निस्सन्देह, यह किसी नियम एवं सूत्र की तरह नहीं, बल्कि उस सर्वतोव्यापी तथा अन्तर्व्यापी चेतन उपस्थिति के रूप में कार्य करेगा जो हमारे सब विचारों, कर्मों भावों और संकल्पावेगों को अपने अचूक बल एवं ज्ञान के द्वारा निर्धारित करती है ।

 

    प्राचीनतर धर्मों ने मनीषियों के धर्मसूत्र, मनु या कन्फ्यूशस के स्मृतिवाक्य और एक ऐसे गहन शास्त्र  की स्थापना की जिसमें उन्होंने सामाजिक नियम तथा नैतिक सिद्धान्त को और हमारी उच्चतम प्रकृति के कतिपय नित्य तत्त्वों के निरूपण को एक प्रकार के एकीकारक मिश्रण में मिला देने का यत्न किया । इन तीनों का उन्होंने एक समान आधार पर वर्णन किया, --इस आधार पर कि ये तीनों ही, समान रूप से, नित्य सत्यों या सनातन धर्म की अभिव्यक्ति हैं । परन्तु इनमें से दो तो विकसनशील तत्त्व हैं और कुछ काल के लिये वे युक्तियुक्त होते हैं, वे मानसिक रचनाएं किंवा सनातन देव की इच्छा की मानवकृत व्याख्याएं हैं; तीसरे के लिये कुछ सामाजिक एवं नैतिक सूत्रों से सम्बद्ध तथा उनके वशीभूत होने के कारण, अपने रूपों के भाग्य में भागीदार होना ही बदा है । फलतः, या तो शास्त्र अव्यवहार्य हो जाता है और इसे उत्तरोत्तर परिवर्तित करना या अन्तिम रूप से त्याग देना होता है अथवा यह व्यक्ति तथा जाति की आत्मोन्नति में अत्यधिक बाधक

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बना रहता है । यह एक सामूहिक तथा बाह्य मर्यादा खड़ी करता है और व्यक्ति की आन्तर प्रकृति की अर्थात् उसके अन्दर की गूढ़ अध्यात्म-शक्ति के अनिर्धार्य तत्त्वों की अवहेलना करता है । परन्तु व्यक्ति की प्रकृति की उपेक्षा नहीं हों सकती; इसकी मांग अलंध्य है । बाह्य आवेगों का असंयत उपभोग करने से व्यक्ति अराजकता तथा विध्वंस की स्थिति में जा पड़ता है, किन्तु किसी निश्चित यांत्रिक नियम के द्वारा उसकी आत्मा की स्वतन्त्रता को कुचलने तथा दबा देने से उसका विकास रुक जाता है अथवा उसकी आन्तरिक मृत्यु हो जाती है । अतएव, इस प्रकार का बाह्य दमन या निर्धारण नहीं, वरन् अपनी उच्चतम आत्मा की स्वतंत्र खोज तथा शाश्वत गति का सत्य ही वह परमार्थ है जो उसे उपलब्ध करना है ।

 

    उच्चतर नैतिक नियम को व्यक्ति अपने मन तथा संकल्प एवं आन्तरात्मिक अनुभूति में खोज निकालता है और फिर उसे जाति में व्यापक बनाता है । परम नियम की खोज भी व्यक्ति को ही अपनी आत्मा में करनी होगी । उसके बाद ही वह इसे आध्यात्मिक प्रभाव के द्वारा-मानसिक विचार के बल पर नहीं--दूसरों तक विस्तारित कर सकता है । किसी नैतिक नियम को कुछ एक ऐसे मनुष्यों पर एक नियम या आदर्श के रूप में आरोपित किया जा सकता है जिन्होंने चेतना की वह भूमिका या मन, संकल्प और आन्तरात्मिक अनुभव की वह सूक्ष्मता अधिगत न की हो जिसमें यह नियम या आदर्श उनके लिये वास्तविक वस्तु और सजीव शक्ति बन सकता है । एक आदर्श के रूप में इसे तनिक भी व्यवहार में लाने की आवश्यकता के बिना इसकी पूजा भी की जा सकती है । एक नियम के तौर पर इसके बाह्य रूप में इसका पालन भी किया जा सकता है चाहे इसका आन्तरिक आशय सर्वथा छूट ही क्यों न जाय । पर अतिमानसिक तथा आध्यात्मिक जीवन ऐसे ढंग से यन्त्रवत् नहीं चलाया जा सकता, उसे मानसिक आदर्श वा बाह्य नियम का रूप नहीं दिया जा सकता । उसकी अपनी ही महान् सरणियां हैं, किन्तु उन्हें वास्तविक बनाने की आवश्यकता है, वे व्यक्ति की चेतना में अनुभूत सक्रिय शक्ति की कार्य-प्रणालियां तथा मन, प्राण एवं शरीर का रूपान्तर करने में समर्थ सनातन सत्य की प्रतिलिपियां होनी चाहियें । और, क्योंकि यह इस प्रकार वास्तविक, कार्यक्षम तथा अनिवार्य है, अतिमानसिक चेतना और आध्यात्मिक जीवन को सार्वभौम बनाना ही एकमात्र ऐसी शक्ति है जो इस भूतल के सर्वोच्च प्राणियों में व्यक्तिगत और सामूहिक पूर्णता का मार्ग प्रशस्त कर सकती है । दिव्य चेतना तथा उसके पूर्ण सत्य के साथ हमारा सतत सम्बन्ध स्थापित होने से ही चिन्मय भगवान् या क्रियाशील ब्रह्म का कोई रूप-विशेष हमारी पार्थिव सत्ता का उद्धार कर सकता है तथा इसके कलह, स्खलन, दुःखों और असत्यों को परम ज्योति, शक्ति एवं आनन्द की प्रतिमूर्त्ति में रूपान्तरित कर सकता है ।

 

    परम पुरुष के साथ आत्मा के ऐसे अविच्छिन्न सम्बन्ध की पराकाष्ठा ही

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आत्मदान है । इसीको हम भगवत्संकल्प के प्रति समर्पण तथा पृथग्भूत अहं का सर्वमय 'एक' में निमज्जन कहते हैं । आत्मा की बृहत् विश्वमयता एवं सबके साथ प्रगाढ़ एकता ही अतिमानसिक चेतना तथा आध्यात्मिक जीवन की भित्ति और अनिवार्य स्थिति है । उस विश्वमयता तथा एकता में ही हम देहधारी आत्मा के जीवन के भीतर दिव्य अभिव्यक्ति का परम नियम ढूंढ़ सकते हैं; उसीमें हम अपनी वैयक्तिक प्रकृति की परम गति-विधि तथा यथार्थ लीला का पता पा सकते हैं । उसीमें ये सब निम्नतर विषमताएं इन व्यक्त जीवों के बीच--जो एकमेव परमेश्वर के अंश तथा एक ही विश्व-जननी की संतानें हैं,--सच्चे सम्बन्धों की विजयी समस्वरता में परिणत हो सकती हैं ।

 

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     समस्त आचार तथा कर्म उस बल एवं शक्ति की गति का अंग हैं, जो अपने उद्गम, गूढ़ आशय तथा संकल्प में अनन्त एवं दिव्य है, चाहे उसके ये रूप जिन्हें हम देखते हैं निश्चेतन या अज्ञानयुक्त, भौतिक, प्राणिक, मानसिक तथा सांत ही क्यों न प्रतीत होते हों । यह शक्ति व्यष्टिगत तथा समष्टिगत प्रकृति की अन्धता में भगवान् तथा अनन्त के किन्चित अंश को उत्तरोत्तर प्रकाशित करने के लिये कार्य कर रही है । यह ज्योति की ओर ले चल रही है पर अभी अविद्या के द्वारा ही । पहले-पहल यह मनुष्य को उसकी आवश्यकताओं एवं कामनाओं में से राह दिखाती है; तदनंतर यह उसे उसकी विस्तारित आवश्यकताओं तथा कामनाओं में से, जो मानसिक तथा नैतिक आदर्श से संयत एवं आलोकित होती हैं, परिचालित करती है । यह उसे एक ऐसी आध्यात्मिक चरितार्थता की ओर ले जाने की तैयारी कर रही है जो इन सब चीजों को पार कर जायगी और फिर भी इनके भाव तथा प्रयोजन में जो कुछ भी दिव्यतया सत्य है उस सबमें इन्हें कृतार्थ तथा समन्वित करेगी । आवश्यकताओं तथा कामनाओं को यह दिव्य संकल्प तथा आनन्द में रूपान्तरित कर देती है । मानसिक तथा नैतिक अभीप्सा को यह सत्य तथा पूर्णत्व की ऐसी शक्तियों में रूपान्तरित कर देती है जो इनसे परे हैं । वैयक्तिक प्रकृति के खंडित प्रयास एवं पृथक् अहं के क्षोभ और संघर्ष के स्थान पर यह हमारे अन्दर के विश्वात्मभूत पुरुष, केंद्रीय सत्ता एवं परम आत्मा की अंशरूप आत्मा का शान्त, गम्भीर, समस्वर और कल्याणकर नियम प्रतिष्ठित करती है । हमारे अन्दर का यह सच्चा पुरुष विश्वमय होने के कारण अपनी पृथक् तृप्ति की खोज नहीं करता, बल्कि केवल यही चाहता है कि प्रकृति के अन्दर इसकी बाह्य अभिव्यक्ति में इसके वास्तविक स्वरूप का विकास हो, इसकी आन्तरिक दिव्य आत्मा, तथा इसके अन्दर की वह परात्पर आध्यात्मिक शक्ति एवं उपस्थिति प्रकट हों जो सभी के

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साथ एकमय है और प्रत्येक पदार्थ एवं प्राणी तथा दिव्य सत्ता के समस्त सामूहिक व्यक्तित्व और शक्तियों के साथ भी समरस है । साथ ही यह सच्चा पुरुष इन सब को अतिक्रान्त भी कर जाता है तथा किसी प्राणी या समुदाय के अहंभाव में नहीं बंधता और न उनकी निम्न प्रकृति के अज्ञ नियंत्रणों द्वारा सीमित ही होता है । हमारे समस्त अन्वेषण और प्रयास की तुलना में यह एक उच्च उपलब्धि है, यह हमारी प्रकृति के सभी तत्त्वों के पूर्ण समन्वय तथा रूपान्तर का निश्चित आश्वासन देती है । शुद्ध, समग्र और निर्दोष कार्य तो केवल तभी किया जा सकता है जब यह

 उपलब्धि सम्पन्न हो जाय तथा हम अपने अन्दर के इस गुप्त देवाधिदेव का उच्च स्तर प्राप्त कर लें ।

 

     पूर्ण अतिमानसिक कर्म किसी एक ही मूलसूत्र या सीमित नियम का अनुसरण नहीं करेगा । व्यष्टिभूत अहंवादी के या किसी संगठित समष्टिमन के मानदंड को यह सम्भवतः पूरा नहीं करेगा । यह न तो संसार के पक्के व्यावहारिक मनुष्य की मांग के अनुसार चलेगा, न लोकाचारी नैतिकतावादी की, न देशभक्त की, न भावनाप्रधान विश्वप्रेमी की और न ही आदर्शस्रष्टा दार्शनिक की । एक आलोकित एवं ऊर्ध्वीकुत सत्ता, इच्छा-शक्ति तथा ज्ञान की अखंडता में यह शिखरों पर से एक स्वतःप्रवृत्त स्रोतस्स्रवण के द्वारा उदभूत होगा न कि किसी निर्वाचित, अवधारित एवं मर्यादित क्रिया के द्वारा जो बौद्धिक तर्क वा नैतिक संकल्प से प्राप्त होनेवाली अन्तिम चीज होती है । इसका एकमात्र ध्येय होगा-हमारे अन्दर निहित देवत्व को प्रकट करना और लोकसंग्रह करना अर्थात् संसार को एक साथ सम्बद्ध रखना तथा भावी अभिव्यक्ति की ओर आगे बढ़ाना । यह भी इसका ध्येय और प्रयोजन तो बहुत कम होगा, अधिकांश में यह सत्ता का एक स्वत:स्फूर्त्त नियम तथा दिव्य सत्य के प्रकाश और इसके स्वयं गतिशील प्रभाव के द्वारा कार्य का सहज निर्धारण ही होगा । यह उसी प्रकार निःसृत होगा जिस प्रकार प्रकृति का कार्य उसके मूल-स्थित समग्र संकल्प और ज्ञान से निःसृत होता है । पर वह संकल्प तथा ज्ञान अब और इस अज्ञ प्रकृति में तमसाच्छन्न नहीं रहेंगे, बल्कि चिन्मय परमा प्रकृति में आलोकित होंगे । यह एक ऐसा कार्य होगा जो द्वंद्वों से बंधा हुआ नहीं होगा, वरन् उस एकसार आनन्द में परिपूर्ण और विशाल होगा जो आत्मा को सत्तामात्र में उपलब्ध होता है । पीड़ित तथा अज्ञानग्रस्त अहं की व्यग्रताओं और स्खलनों का स्थान दिव्य शक्ति तथा प्रज्ञा की मंगलकारी एवं अन्त:स्फूरित गति ले लेगी और यह शक्ति एवं प्रज्ञा ही हमें प्रेरित और प्रचालित करेगी ।

 

     यदि ईश्वरीय हस्तक्षेप के किसी चमत्कार से सम्पूर्ण मानवजाति एक साथ इस स्तर तक उठायी जा सके तो इसके फलस्वरूप इस भूतल पर परम्परा-प्रसिद्ध स्वर्णयुग या सत्ययुग अर्थात् सत्य के या सच्चे जीवन के युग जैसी कोई वस्तु हमें प्राप्त हो जायगी । सत्ययुग का चिह्न यह होता है कि दिव्य नियम प्रत्येक प्राणी में

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स्वत:स्फूर्त्त एवं सचेतन होता है और अपने कार्य पूर्ण समस्वरता तथा स्वतंत्रता के साथ करता है । पृथक्कारक विभाजन नहीं, बल्कि एकता और सार्वभौमता जाति की चेतना की आधारशिला होगी । प्रेम निरपेक्ष होगा; समानता धर्मशासन के साथ संगत और विभिन्नता में भी परिपूर्ण होगी । पूर्ण न्याय हमारी अन्तःसत्ता की, --जो पदार्थों के और अपने तथा दूसरों के स्वरूप के सत्य के साथ समस्वर है और अतएव यथार्थ तथा युक्त परिणाम के सम्बन्ध में विश्वस्त है, --एक स्वत:स्फूर्त क्रिया के द्वारा उपलब्ध होगा । सत्-तर्क अब पूर्ववत् मानसिक नहीं, वरन् अतिमानसिक होगा और वह कृत्रिम मापदब्दों के पर्यवेक्षण से नहीं, बल्कि युक्त सम्बन्धों के स्वतंत्र और सहज बोध तथा उनकी अनिवार्य कार्यान्विति के द्वारा ही सन्तुष्टि अनुभव करेगा । व्यक्ति और समाज में कलह या समाज-समाज में दुःखदायी संघर्ष नहीं रहने पायेगा । देहधारी जीवों में निहित सार्वभौम चेतना एकता में समरस विविधता को सुनिश्चित आधार प्रदान करेगी ।

 

     मानवजाति की वर्तमान अवस्था में, सर्वप्रथम, व्यक्ति को ही मार्गदर्शक तथा नायक के रूप में इस शिखर पर आरोहण करना होगा । निश्चय ही, उसका एकाकीपन उसके बाह्य कार्यों को एक ऐसी दिशा और रूप दे देगा जो सचेतनत: --दिव्य सामूहिक कार्य की दिशा और रूप से सर्वथा भिन्न होंगे । उसके कार्यों की मूल भित्ति एवं आन्तरिक भूमिका तो वही होगी, किन्तु स्वयं कार्य उनसे बहुत भिन्न हो सकते हैं जैसे वे अज्ञानमुक्त भूतल पर होंगे । तथापि उसकी चेतना और उसके आचार की दिव्य यांत्रिकता--यदि इस प्रकार का शब्द इतनी स्वतंत्र वस्तु के लिये बरता जा सकता हो--वैसी ही होगी जैसी कि वर्णित की गयी है । यह प्राणिक अपवित्रता, कामना और अशुद्ध आवेग के प्रति उस दासता से मुक्त होगी जिसे हम पाप के नाम से पुकारते हैं, यह निर्दिष्ट नैतिक सूत्रों के उस नियंत्रण से बंधी हुई नहीं होगी जिसे हम पुण्य का नाम देते हैं । यह मन से अधिक महान् चेतना में सहज रूप से निश्चयात्मक, पवित्र एवं पूर्ण होगी और पद-पद पर आत्मा के प्रकाश तथा सत्य से परिचालित होगी । परन्तु जो लोग अतिमानसिक पूर्णता प्राप्त कर चुके हों उनका यदि कोई समूह या समुदाय बनाया जा सके, तो निश्चय ही वहां एक दिव्य सृष्टि मूर्तिमन्त हो सकेगी; एक नयी पृथ्वी अवतरित हो सकेगी जो नूतन स्वर्ग होगी, इस पार्थिव अज्ञान के तिरोहित होते हुए अन्धकार में विज्ञानमय ज्योति के जगत् का यहां सर्जन हो सकेगा ।

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