Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय १
अहं से मुक्ति
देह- भावना के साथ बंधे हुए मानसिक और प्राणिक अहं की रचना विराट् प्राण का, अपने क्रमिक विकास में, सर्वप्रथम और महान् प्रयास था; क्योंकि जड़तत्त्व में से चेतन व्यक्ति को उत्पन्न करने का जो साधन उसने ढूंढ निकाला वह यही था | इस सीमाकारी अहं का विलय कर देना ही वह एकमात्र शर्त्त एवं आवश्यक साधन है जिसके द्वारा स्वयं यह विराट् प्राण अपनी दिव्य परिणति प्राप्त कर सकता है; क्योंकि केवल इसी तरीके से चेतन व्यक्ति अपने परात्पर आत्म-स्वरूप या सच्चे पुरुष को उपलब्ध कर सकता है । इस दोहरी क्रिया को साधारणतया पतन और उद्धार या निर्माण और विनाश कहकर वर्णित किया जाता है, - इसे प्रकाश का प्रज्ज्वलित होना और बुझना या पहले तो एक अपेक्षाकृत क्षुद्र, अस्थायी और अवास्तविक आत्म-सत्ता की रचना करना और फिर उससे मुक्त होकर अपनी सच्ची आत्मा की नित्य विशालता में पहुंचना भी कहा जाता है । क्योंकि इस विषय में मानव की विचारधारा विभक्त होकर दो नितान्त विरोधी दिशाओं में प्रवाहित होती है : उनमेंसे एक है लौकिक एवं उपयोगितावादीय जो व्यक्ति या समाज की मानसिक, प्राणिक और शारीरिक अहं-भावना की परिपूर्त्ति एवं तृप्ति को ही जीवन. का लक्ष्य समझती है और इससे परे दृष्टि नहीं डालती, जब कि दूसरी है आध्यात्मिक, दार्शनिक या धार्मिक जो अन्तरात्मा या आत्मा के अथवा अन्तिम सत्ता जो कोई भी हों उसके हित अहं की विजय को ही एकमात्र परम कर्तव्य मानती है । अहं के शिविर में भी दो विभिन्न मनोवृत्तियां देखने में आती हैं जो जगद्विषयक ऐहिक या जड़वादी विचार को दो धाराओं में विभक्त कर देती हैं | उनमें से एक विचारधारा मानसिक अहं को हमारे मन की एक ऐसी रचना मानती है जो देह की मृत्यु होने पर मन के विनाश के साथ ही विनष्ट हो जायगी; एकमात्र स्थायी सत्य है सनातन प्रकृति जो मानवजाति में—इस मानवजाति में या किसी अन्य में
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प्रकार का मतभेद पाया जाता है । बौद्धमतवादी वास्तविक आत्मा या अहं की सत्ता से इंकार करता है, किसी विराट् या परात्पर पुरुष को नहीं मानता । अद्वैतवादी घोषणा करता है कि वैयक्तिक सत्ता के रूप में प्रतीत होनेवाला जीवात्मा परम आत्मा एवं ब्रह्म से भिन्न और कुछ नहीं है, इसकी वैयक्तिक सत्ता मायामय है; वैयक्तिक सत्ता का परित्याग कर देना ही एकमात्र सच्ची मुक्ति है । कुछ अन्य दर्शन इस विचार का पूर्ण रूप से विरोध करते हुए जीव की नित्यता की स्थापना करते हैं; एकमेव में अनेकात्मक चेतना का आधार होने के कारण या फिर एकमेव पर आश्रित, किन्तु फिर भी एक पृथक् सत्ता होने के कारण जीव नित्य, वास्तविक और अविनाशी है ।
इन नानाविध और परस्पर-विरोधी मतों के बीच सत्य के अन्वेषक को अपने लिये निर्णय करना होगा कि वह 'ज्ञान' के किस रूप को स्वीकार करेगा । परन्तु यदि हमारा लक्ष्य आध्यात्मिक मुक्ति या आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करना हो तो अहं के इस क्षुद्र घेरे को पार करना अनिवार्य रूप से आवश्यक है । मानवीय अहंभाव और इसकी तुष्टि में कोई दिव्य परिणति एवं मुक्ति निहित नहीं हों सकतीं । यहां तक कि नैतिक विकास और उत्कर्ष के लिये तथा समाज की भलाई और पूर्णता के लिये भी अहंभाव से यत्किञ्चित् मुक्त होना नितान्त आवश्यक है; आन्तरिक शान्ति, शुद्धि और आनन्द के लिये तो यह और भी अधिक आवश्यक है । किन्तु हमारा लक्ष्य मानव-प्रकृति को दैवी प्रकृति में उठा ले जाना हो तो केवल अहंता से ही नहीं, बल्कि अहं-भावना और अहंबुद्धि से भी एक कहीं अधिक आमूल मुक्ति की आवश्यकता होगी । अनुभव से पता चलता है कि जैसे-जैसे हम संकीर्णकारी मानसिक और प्राणिक अहं से मुक्त होते जाते हैं वैसे-वैसे हमें एक विशालतर जीवन, बृहत्तर सत्ता, उच्चतर चेतना, मंगलतर आत्म-स्थिति, यहां तक कि मलत्तर ज्ञान एवं शक्ति और महत्तर जीवन- क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त होता जाता है । अपिच एक अत्यन्त ऐहलौकिक दर्शन व्यक्ति की चरितार्थता, पूर्णता और तृप्ति के जिस लक्ष्य का अनुसरण करता है वह इसी अहं को तृप्त करने से नहीं, बल्कि उच्चतर एवं विशालतर आत्मा में स्वातंत्र्य लाभ करने से ही सर्वोत्तम तथा सुनिश्चित रूप में प्राप्त हो सकता है । उपनिषद् कहती है, 'सत्ता की क्षुद्रता में कोई सूख नहिं, सत्ता के विशाल होने पर ही सुख प्राप्त होता है' ।१ अहं अपने स्वभाव से छी सत्ता की एक क्षुद्रावस्था है; यह चेतना में संकीर्णता लाता है और उस संकीर्णता के साथ साथ लाता है ज्ञान की सीमितता, असमर्थकारी अज्ञान, —सीमाबन्धन और शक्ति का हास और उस हास के द्वारा अक्षमता तथा दुर्बलता, —इसी प्रकार यह एकता में विभाजन उत्पन्न कर देता है और उस विभाजन के द्वारा असामजस्य की सृष्टि करता है तथा सहानुभूति, प्रेम और सद्भावना को नष्ट कर देता है, —सत्ता के आनन्द का
१ यो वै भूमा तत्सुखम् नाल्पे सुखमस्ति । — छान्दोग्य
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निरोध कर देता है या उसे खण्ड-खण्ड कर डालता है और खण्ड-खण्ड करने के कारण दुःख-दर्द पैदा करता है । जो कुछ हम इस प्रकार खो बैठे हैं उसे फिर से प्राप्त करने के लिये हमें अहं के लोकों के घेरे को तोड़कर उनसे बाहर निकल आना होगा । अहं को या तो निर्व्यक्तिकता में विलीन हो जाना होगा या फिर इसे एक बृहत्तर 'मैं' में घुलमिल जाना होगा; इसे या तो उस विराट् पुरुष की उस विशालतर 'मैं' में घुलमिल जाना होगा जो इन सब क्षुद्रतर अहं-सत्ताओं को अपने अन्दर समाये हुए है या फिर उस परात्पर 'मैं' में जिसकी यह वैश्व आत्मा भी एक क्षीण प्रतिमा है ।
परन्तु यह वैश्व आत्मा अपने सारतत्त्व में और अनुभवगम्य स्वरूप में आध्यात्मिक है; इसे भ्रान्तिवश सामष्टिक सत्ता या कोई सामूहिक आत्मा अथवा किसी मानव-समाज या यहांतक कि सारी मानवजाति का भी प्राण और शरीर नहीं समझ लेना चाहिये । आजकल जगत् की विचारधारा और आचारनीति की नियामक भावना यह है कि अहं को मानवजाति की प्रगति और सुख-संपदा की अपेक्षा गौण स्थान देना चाहिये; किन्तु यह एक मानसिक एवं नैतिक आदर्श है, आध्यात्मिक नहीं । क्योंकि, यह प्रगति लगातार होनेवाले मानसिक, प्राणिक और शारीरिक परिवर्तनों की एक शृंखला है, इसमें स्थिर आध्यात्मिक तत्त्व कोई भी नहीं है और मानव की आत्मा को यह कोई निश्चित आधार नहीं प्रदान करती । समग्र मानवजाति की चेतना वैयक्तिक अहंभावों का एक बहुत बड़ा और व्यापक संस्करण या कुल- योगमात्र है। उसी उपादान से तथा प्रकृति के उसी सांचे में ढले होने के कारण इसमें कोई महत्तर प्रकाश नहीं है, अपनी अधिक नित्य स्थायिता की कोई अनुभूति नहीं है, शान्ति, आनन्द और मुक्ति का कोई अधिक शुद्ध स्रोत नहीं है । बल्कि सच पूछो तो यह व्यक्ति की चेतना की अपेक्षा कहीं अधिक पीड़ित, विक्षुब्ध और तमसाच्छन्न है, निस्संदेह यह उससे अधिक अस्पष्ट, भ्रान्त और अप्रगतिशील तो है ही । व्यक्ति इस अंश में समूह से महान् है और अपनी अधिक प्रकाशमय सम्भावनाओं को इस अधिक अन्धकारपूर्ण सत्ता के अधीन कर देने के लिये उससे अनुरोध नहीं किया जा सकता । यदि प्रकाश, शान्ति, मुक्ति, जीवन की एक अधिक उत्तम अवस्था प्राप्त होनी ही हैं तो ये हमारी आत्मा में किसी ऐसी सत्ता से ही अवतरित होंगी जो व्यक्ति से अधिक विशाल हो, पर साथ ही जो सामूहिक अहं से अधिक उच्च भी हो । परोपकार, लोकहित, मानवजाति की सेवा अपने- आपमें मानसिक या नैतिक आदर्श हैं, आध्यात्मिक जीवन के नियम नहीं । यदि आध्यात्मिक लक्ष्य के अन्तर्गत वैयक्तिक 'स्व' का परित्याग करने अथवा मानवजाति या समूचे विश्व की सेवा करने का आवेग उठता है तो यह अहं से या मानवजाति की समष्टि-भावना से नहीं, बल्कि इन दोनों से परे के किसी अधिक गुह्य एवं गम्भीर तत्त्व से ही उठता है । क्योंकि, यह इस अनुभूति पर आधारित होता
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है कि भगवान् सबमें हैं और यह अहं या मानवजाति के लिये नहीं, बल्कि भगवान् के लिये तथा व्यक्ति या समूह या समष्टि-मानव में निहित उनके प्रयोजन के लिये ही कार्य करता है । सबके आदिमूल इन परात्पर भगवान् की ही हमें खोज और सेवा करनी होगी, उस बृहत्तर सत् और चित् की जिसके निकट मानवजाति और व्यक्ति उसकी सत्ता के गौण रूप हैं ।
इसमें सन्देह नहीं कि व्यवहारवादी की प्रेरणा के पीछे भी एक सत्य है जिसकी अन्य-वर्जक एकांगी अध्यात्मवाद उपेक्षा कर सकता है या जिसे वह अस्वीकार कर सकता या तुच्छता की दृष्टि से देख सकता है । वह सत्य यह है—क्योंकि व्यक्ति और विश्व उस उच्चतर और बृहत्तर सत् के रूप हैं, उस परम सत् मे इनकी चरितार्थता का कोई वास्तविक स्थान अवश्य होना चाहिये । इनके पीछे परम प्रज्ञा और ज्ञान का कोई महान् प्रयोजन, परम आनन्द का कोई शाश्वत स्वर अवश्य होना चाहिये : इनकी रचना व्यर्थ में की गयी नहीं हो सकती, यह व्यर्थ में की ही नहीं गयी । परन्तु व्यक्ति की पूर्णता और सन्तुष्टि की भांति मानवजाति की पूर्णता और सन्तुष्टि का आधार भी वस्तुओं के एक अधिक शाश्वत पर अभी तक अनधिगत सत्य और यथार्थ रूप पर ही सुरक्षित रूप से रखा जा सकता है और उसी आधार पर इन्हें सुरक्षित रूप से साधित भी किया जा सकता है । किसी महत्तर 'सत्' के गौण रूप होने के कारण ये अपने-आपको तभी चरितार्थ कर सकते हैं जब कि, जिसके ये रूप हैं वह शात और प्राप्त हो जाये । मानवजाति की सबसे महान्, सेवा, इसकी सच्ची उन्नति, सुख-सम्पदा और पूर्णता का सबसे अधिक सुनिश्चित आधार उस मार्ग को तैयार करना या ढूंढना है जिसके द्वारा व्यष्टि और समष्टि-मानव अज्ञान, अक्षमता, असामंजस्य और दुःख के साथ न बंधे रहकर अपने अहं के परे जा सकें तथा अपनी सच्ची आत्मा में निवास कर सकें । हमारे आधुनिक चिन्तन और आदर्शवाद ने हमारे सामने जो विकासमूलक, सामूहिक एवं परार्थवादी लक्ष्य रखा है उसे भी हम सवोंत्तम एवं सुनिश्चित रूप से तभी प्राप्त कर सकते हैं यदि हम प्रकृति के मन्द सामूहिक विकास में न बंधे रहकर सनातन तत्त्व का अनुसन्धान करें । परन्तु वह भी अपने-आपमें एक गौण लक्ष्य है; भागवत सत्ता, चेतना एवं प्रकृति को ढूंढना, जानना ओर प्राप्त करना और उसीमें भगवान् के लिये निवास करना ही हमारा सच्चा लक्ष्य एवं एकमात्र पूर्णता है जिसे प्राप्त करने के लिये हमें अभीप्सा करनी होगी ।
अतएव, उच्चतम ज्ञान के अन्वेषक को किसी संसारबद्ध जड़वादी सिद्धान्त के नहीं, वरन् आध्यात्मिक दर्शनों और धर्मों के मार्ग पर ही चलना होगा, यद्यपि उसे समृद्ध लक्ष्यों तथा अधिक व्यापक आध्यात्मिक प्रयोजन को लेकर ही अग्रसर होना होगा । परन्तु अहं के उन्मूलन के मार्ग पर उसे कितनी दूरतक आगे जाना होगा? प्राचीन ज्ञानमार्ग में हम उस अहं-बुद्धि के उन्मूलनतक पहुंचते हैं जो शरीर, प्राण या
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मन के साथ अपने-आपको आसक्त कर लेती है और उन सबके या उनमें से किसी एकके बारे में कहती है, ''यह मैं हूं । '' इस मार्ग में हम कर्ममार्ग की भांति कर्ता होने के ''अहंभाव'' से मुक्त हो जाते हैं और यह देखने लगते हैं कि केवल ईश्वर ही सब कर्मों का तथा उनकी अनुमति का सच्चा स्रोत है और उसकी कार्यवाहिका प्रकृति-शक्ति अथवा उसकी पराशक्ति ही एकमात्र करण और कर्त्री है, —इतना ही नहीं, बल्कि हम उस अहंबुद्धि से भी मुक्त हो जाते हैं जो भूल से हमारी सत्ता के करणों या अभिव्यक्त रूपों को हमारी सच्ची सत्ता एवं आत्मा समझती है । पर यद्यपि यह सब अहं समाप्त हों जाता है, फिर भी अहं का कोई रूप शेष रह जाता है; इन सबका एक आधार, पृथक् अहं का एक सामान्य भाव, बचा रह जाता है । यह आधारभूत अहं एक अनिश्चित, अनिर्देश्य एवं प्रतारक वस्तु है; यह किसी विशेष वस्तु को आत्मा मानकर उसके साथ अपने को आसक्त नहीं करता अथवा इसे ऐसा करने की जरूरत नहीं; यह किसी समष्टिभूत वस्तु के साथ भी तादात्म्य स्थापित नहीं करता; यह मन का एक प्रकार का आधारभूत रूप या शक्ति है जो मनोमय पुरुष को यह अनुभव करने के लिये बाध्य करती है कि मैं शायद एक अनिर्देश्य, पर फिर भी सीमित सत्ता हूं जो मन, प्राण या शरीर नहीं है, पर जिसके अधीन प्रकृति में इनकी क्रियाएं प्रकट होती हैं । अन्य अहंताएं तो परिमित अहं- भावना और अहं-बुद्धि थीं जो प्रकृति की क्रीड़ा पर ही अपना आधार रखती थीं; पर यह अहंता शुद्ध मूलभूत अहं-शक्ति है जो मनोमय पुरुष की चेतना पर अपना आधार रखती है। और, क्योंकि यह खेल के अन्दर नहीं, बल्कि इसके ऊपर या पीछे अवस्थित प्रतीत होती है, क्योंकि यह ऐसा नहीं कहती कि ''मैं मन, प्राण या शरीर हूं ", बल्कि ऐसा कहती है कि ''मैं एक ऐसी सत्ता हूं जिसपर मन, प्राण और शरीर की क्रिया निर्भर करती है'', बहुत-से साधक अपने को मुक्त समझ बैठते हैं और इस प्रतारक अहं को अपने अन्दर विद्यमान 'एकं सत्', भगवान् सच्चा पुरुष या कम-से-कम सच्चा 'व्यक्ति' समझने की अ करते हैं, — भ्रांतिवश 'अनिर्देश्य' को 'अनन्त' समझ लेते हैं । परन्तु जबतक यह मूलभूत अहंभाव शेष रहता है तबतक पूर्ण मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । अहंमय जीवन इस अहंभाव का सहारा लेकर भी अपना काम काफी अच्छी तरह से चला सकता है, उसका बल और वेग भले ही कुछ कम हो जायें । पर यदि हम भ्रान्तिवश इस अहं को ही अपनी आत्मा समझ लें तो इसकी आड़ में अहंमय जीवन और भी अधिक बल-वेग प्राप्त कर सकता है । यदि हम ऐसी किसी भ्रान्ति में न पड़ें तो अहंमय जीवन अधिक शुद्ध और विशाल तथा अधिक नमनीय बन सकता है और तब मुक्ति प्राप्त करना कहीं अधिक आसान हो सकता है और उसकी पूर्णता अधिक निकट आ सकती है, किन्तु फिर भी निश्चयात्मक मुक्ति अभी प्राप्त नहीं हुई है । हमें तो, अनिवार्यत:, इस अवस्था से भी आगे बढ़ना होगा, इस अनिर्देश्य पर
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आधारभूत अहंभावना से भी मुक्त होकर इसके पीछे अवस्थित उस पुरुष को प्राप्त करना होगा जो इसका आधार है और जिसकी यह एक छाया है; छाया को विलुप्त हो जाना होगा और अपने विलोप के द्वारा आत्मा के अनावृत मूलतत्त्व को प्रकट करना होगा ।
वह तत्त्व मनुष्य की आत्मा है जिसे यूरोपीय विचारधारा में शक्त्यणु (Monad) और भारतीय दर्शन में जीव या जीवात्मा, अर्थात् जीवात्मक सत्ता या प्राणी की आत्मा कहते हैं । यह जीव वह मानसिक अहंभाव नहीं है जिसे प्रकृति ने अपनी क्रियाओं के द्वारा अपने अल्पकालीन प्रयोजन के लिये निर्मित किया है । यह कोई ऐसी सत्ता नहीं है जो मानसिक, प्राणिक और शारीरिक सत्ता की भांति उसके अभ्यासों और नियमों से या उसकी प्रक्रियाओं से बंधी हुई हों । जीव तो अध्यात्मसत्ता एवं आत्मा है जो प्रकृति से उच्चतर है । यह सच है कि यह उसके कार्यों को अनुमति देता है, उसकी अवस्थाओं को अपनेमें प्रतिबिम्बित करता है तथा मन, प्राण और शरीर के उस त्रिविध माध्यम को धारण करता है जिसके द्वारा वह उन अवस्थाओं को अन्तरात्मा की चेतना पर प्रक्षिप्त करती है । पर जीव अपने-आपमें विराट् और परात्पर आत्मा का सजीव प्रतिबिम्ब अथवा आन्तरात्मिक रूप या आत्म-सृष्टि है । एकमेव आत्मा जिसने अपनी सत्ता के कुछ एक गुणों को विश्व में और आत्मा में प्रतिबिम्बित किया है, जीव में अनेकविध रूप धारण किये हुए है । वह आत्मतत्त्व हमारे आत्मा का भी आत्मा है, एकमेव और उच्चतम सत्ता है, परात्पर है जिसका हमें साक्षात्कार करना होगा, अनन्त सत्ता है जिसमें हमें प्रवेश करना होगा । यहांतक तो सभी तत्त्वोपदेशक संग-संग चलते हैं, सब इस बात से सहमत हैं कि ज्ञान, कर्म और भक्ति का परम लक्ष्य यही है, इस बात पर सब एकमत हैं कि यदि जीव को यह लक्ष्य प्राप्त करना हो तो उसे निम्न प्रकृति या माया से सम्बन्ध रखनेवाली अहंबुद्धि से अपने-आपको मुक्त करना ही होगा । परन्तु यहां पहुंचकर वे स्व-अरे का साथ छोड़ देते हैं और हर एक अपनी अलग राह पकड़ लेता है । अद्वैतवादी ऐकान्तिक ज्ञान के पथ पर ही दृढ़तापूर्वक अपने पग धरता है और परात्पर में जीव के पूर्ण रूप से लौट जाने, विलुप्त, निमज्जित या लीन हो जाने को ही हमारे लिये एकमात्र आदर्श के रूप में प्रस्तुत करता है । द्वैतवादी या विशिष्टाद्वैतवादी भक्तिमार्ग की ओर मुड़ता है और निःसन्देह हमें निम्नतर अहं तथा भौतिक जीवन का त्याग करने के लिये तो कहता ही है, पर साथ ही यह अनुभव करने के लिये भी प्रेरित करता है कि मानव-आत्मा की सर्वोच्च नियति न तो बौद्ध का आत्म-निर्वाण या अद्वैतवादी का आत्म-निमज्जन है और न ही एकमेव का अनेक को कवलित कर लेना, बल्कि यह परात्पर, एकमेव तथा सर्वप्रेमी के विचार, प्रेम और रसास्वादन में निमग्न शाश्वत जीवन को प्राप्त करना है ।
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इस विषय में पूर्णयोग के साधक के लिये सन्देह-द्विविधा का कोई स्थान नहीं हो सकता; ज्ञान के अन्वेषक के रूप में उसे किसी अधबीच की और आकर्षक या अत्युच्च एवं अनन्य वस्तु की नहीं, बल्कि सर्वांगीण ज्ञान की ही खोज करनी होगी । उसे उच्चतम शिखरतक उड़ान भरनी होगी, पर साथ ही अपने-आपको अधिकतम विशाल और व्यापक भी बनाना होगा, दार्शनिक विचारों की किसी कट्टरतापूर्ण रचना के साथ अपने-आपको नहीं बांधना होगा, बल्कि अन्तरात्मा के समस्त उच्चतम, महत्तम और पूर्णतम अगणित अनुभवों को स्वीकार तथा धारण करने के लिये स्वतन्त्र रहना होगा । यदि आध्यात्मिक अनुभव की सबसे ऊंची चोटी, समस्त उपलब्धि का अनन्य शिखर व्यक्ति और विश्व के परे अवस्थित परात्पर के साथ अन्तरात्मा का पूर्ण एकत्व है तो उस एकत्व का विस्तृततम क्षेत्र यह उपलब्धि है कि स्वयं वह परात्पर ही भागवत मूलतत्त्व और भागवत प्रकृति की इन दोनों प्राकटयकारी शक्तियों का उद्गम, आश्रय एवं आधार है तथा अन्दर से गठन करनेवाला और उपादानभूत आत्मा एवं सारतत्त्व भी है । पूर्णयोग के साधक का मार्ग कोई भी क्यों न हो, उसका ध्येय यही होना चाहिये । कर्मयोग भी तबतक सार्थक, परिपूर्ण तथा सफलतापूर्वक सिद्ध नहीं होता जबतक साधक परात्पर के साथ अपनी तात्त्विक और समग्र एकता अनुभव नहीं कर लेता तथा उस एकता में निवास नही करने लगता । उसे भागवत संकल्प के साथ एक होना ही होगा-अपनी उच्चतम, अन्तरतम तथा विशालतम सत्ता और चेतना में, अपने कर्म और संकल्प में, अपनी कार्यशक्ति में, अपने मन, प्राण और शरीर में । नहीं तो वह केवल व्यक्तिगत कर्मों के भ्रम से ही मुक्त होगा, पर पृथक् सत्ता और पृथक् करणों के भ्रम से मुक्त नहीं होगा । भगवान् के सेवक और यन्त्र के रूप में वह कर्म करता है, पर उसके श्रम का मुकुट तथा इसका पूर्ण आधार या हेतु तो, जिनकी वह सेवा करता तथा जिन्हें चरितार्थ करता है उनके साथ एकत्व प्राप्त करना ही है । भक्तियोग भी तभी पूर्ण होता है जब प्रेमी और प्रियतम एक हो जाते हैं और दिव्य एकत्व के परमोल्लास में समस्त भेद मिट जाता है, परन्तु इस एकीभाव का रहस्य यह है कि इसमें एकमात्र सत्ता तो प्रियतम की ही रह जाती है, पर प्रेमी का भी निर्वाण या लय नहीं होता । उधर, ज्ञानमार्ग का स्पष्ट लक्ष्य है केवल उच्चतम एकत्व, उसका आवेग है पूर्ण एकत्व की पुकार, उसका आकर्षण है इस एकत्व का अनुभव: परन्तु यह उच्चतम एकता ही उसके अन्दर अपनी अभिव्यक्ति के क्षेत्र के रूप में यथासम्भव-विस्तुततम वैश्व विशालता का रूप ग्रहण कर लेती है । अपनी त्रिविध प्रकृति की व्यावहारिक अहंता से तथा उसकी आधारभूत अहं-बुद्धि से क्रमश: पीछे हटने की आवश्यक शर्त का पालन करते हुए हम अध्यात्मसत्ता एवं आत्मा का, इस अभिव्यक्त मानव-व्यक्तित्व के प्रभु का, साक्षात्कार प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु हमारा ज्ञान तबतक समग्र नहीं हो सकता
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जबतक हम व्यक्ति में अवस्थित इस जीव को विश्व के आत्मा के साथ एक नहीं कर देते और इन दोनों के ऊर्ध्वस्थित महत्तर सत्स्वरूप को अवर्णनीय-पर अज्ञेय नहीं-परात्परता मे प्राप्त नहीं कर लेते । उस जीव को अपने-आपको उपलब्ध करके भगवान् की सत्ता में उत्सर्ग कर देना होगा । मनुष्य की अन्तरात्मा को सर्व के आत्मा के साथ एक करना होगा; सांत व्यक्ति की आत्मा को असीम सांत में अपने-आपको उंडेल देना होगा और फिर परात्पर अनन्त में उस विश्वात्मा को भी अतिक्रम कर जाना होगा ।
यह तबतक नहीं किया जा सकता जबतक अहंबुद्धि को दृढ़तापूर्वक जड़मूल से न उखाड़ फेंका जाय । ज्ञानमार्ग में मनुष्य अहं के विनाश के लिये दो प्रकार से प्रयत्न करता है, एक तो निषेधात्मक रूप में अर्थात् अहं की सत्यता से ही इंकार करके, दूसरे, भावात्मक रूप में, स्वयं एकमेव और अनन्त के या सर्वत्र व्याप्त एकमेव और अनन्त के विचार पर मन को सतत एकाग्र रखकर । यह साधना यदि दृढ़तापूर्वक की जाय तो अन्त में यह हमारे अपने ऊपर तथा सम्पूर्ण जगत् के ऊपर हमारी मानसिक दृष्टि को परिवर्तित कर देती है और हमें एक प्रकार का मानसिक साक्षात्कार प्राप्त हो जाता है; पर बाद में क्रमश: या शायद तीव्र वेग से और अनिवार्य रूप से तथा लगभग आरम्भ में ही वह मानसिक साक्षात्कार गहरा होकर आध्यात्मिक अनुभव में-हमारी सत्ता के असली सारतत्त्व में उत्पन्न होनेवाले साक्षात्कार में परिणत हो जाता है । किसी अनिर्देश्य और असीम वस्तु की, एक अवर्णनीय शान्ति, नीरवता, हर्ष एवं आनन्द की, पूर्ण निर्व्यक्तिक शक्ति के भान की, शुद्ध सत्ता, शुद्ध चेतना एवं सर्व-व्यापक उपस्थिति की अवस्थाएं अधिकाधिक बहुल रूप में आती हैं । अहं अपने-आपमें या अपनी अभ्यासगत चेष्टाओं मे अड़ा रहता है, परन्तु उसकी शान्ति एक अधिकाधिक अभ्यस्त अवस्था बनती जाती है, उधर उसकी चेष्टएं छिन्न-भिन्न हो जाती हैं, कुचली जाती या उत्तरोत्तर त्याग दी जाती हैं, उनकी तीव्रता मन्द पड़ जाती है तथा उनकी क्रिया पंगु या यान्त्रिक बन जाती है । अन्त में हम अपनी सम्पूर्ण चेतना परम पुरुष की सत्ता में सतत अर्पित करने लगते हैं । आरम्भ में जब हमारी बाह्य प्रकृति की अशान्त अस्तव्यस्तता एवं अन्धकारजनक अपवित्रता अपनी हलचल मचाये होती है, जब मानसिक, प्राणिक और शारीरिक अहंभाव अभी शक्तिशाली होते हैं, यह नया मानसिक दृष्टिकोण, ये अनुभव अतीव कठिन प्रतीत हो सकते हैं: पर एक बार जब वह त्रिविध अहंभाव निरुत्साहित या मृतप्राय हो जाता है और आत्मा के करण संशोधित एवं पवित्र हो जाते हैं, तब एक सर्वथा शुद्ध, प्रशान्त, निर्मल, विस्तृत चेतना में एकमेव की पवित्रता, अनन्तता और शान्ति स्वच्छ सरोवर में आकाश की भांति विशदतया प्रतिबिम्बित होती हैं । प्रतिबिम्बित करनेवाली चेतना का प्रतिबिम्बित चेतना के साथ मिलना या इसे अपने अन्दर ग्रहण करना उत्तरोत्तर अनिवार्य एवं सम्भव होता जाता
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है, वह निर्विकार निर्व्यक्तिक विशाल चिदाकाश तथा वैयक्तिक सत्ता का यह किसी-समय-चंचल आवर्त या संकुचित प्रवाह-इन दोनों के बीच जो अन्तर था उसे लांघना या अब कोई दुःसाध्य एवं असम्भवनीय कार्य नहीं रह जाता और यहांतक कि इस अवस्था का अनुभव बारंबार भी हो सकता है, भले यह अभी पूर्ण रूप से स्थायी न भी हो । क्योंकि यदि अहंपूर्ण हृदय और मन के बन्धन पहले ही काफी क्षीण एवं शिथिल पड़ चुके हों तो शुद्धि के पूर्ण होने से पहले भी जीव मुख्य रजूओं को एकाएक तोड़कर गगन में मुक्त किये गये पक्षी की तरह ऊपर की ओर उड़ता दुआ या एक मुक्त प्रवाह की तरह विशाल रूप से फैलता हुआ एकमेव और अनन्त की ओर प्रयास कर सकता है । सबसे पहले सहसा ही विराट् चेतना की अनुभूति होती है, मनुष्य अपनी सत्ता को विश्वमय सत्ता में होम देता है; उस विश्वमयता से वह अधिक सुगमता के साथ परात्पर की प्राप्ति के लिये अभीप्सा कर सकता है । जिन दीवारों ने हमारी चेतन सत्ता को कैद कर रखा था वे परे हट जाती हैं और फट जाती हैं या ध्वस्त होकर ढह जाती हैं; पृथक् अस्तित्व और व्यक्तित्व का, देश या काल में अथवा प्रकृति की क्रिया एवं उसके नियम के अन्तर्गत स्थित होने का समस्त भान लुप्त हो जाता है । अब किसी अहं या किसी निश्चित एवं निदेंश्य व्यक्ति का अस्तित्व नहीं रह जाता, रह जाती है केवल चेतना, केवल सत्ता, कैवल शान्ति और आनन्द; व्यक्ति एक अमर, सनातन एवं अनन्त सत्ता बन जाता है । तब उसके जीवात्मा का अस्तित्व सनातन में किसी एक स्थलपर शान्ति, स्वातंत्र और आनन्द के संगीत के स्वर के रूप में ही शेष रह जाता है ।
जब मानसिक सत्ता अभी पर्याप्त रूप से शुद्ध नहीं हुई होती तो मुक्ति प्रारम्भ में आशिक एवं अस्थायी प्रतीत होती है; ऐसा लगता है कि जीव पुन: अहंमय जीवन में उतर आता है और उच्चतर चेतना उससे पीछे हट जाती है । वास्तव में होता यह है कि निम्नतर प्रकृति और उच्चतर चेतना के बीच बादल छा जाता या पर्दा पड़ जाता है और प्रकृति कुछ समय के लिये फिर कार्य करने की अपनी पुरानी आदत का अनुसरण करने लगती है; तब इसपर उस उच्च अनुभव का दबाव तो अवश्य पड़ता रहता है, पर न तो इसे सदा उसका ज्ञान रहता है और न उसकी स्मृति ही उपस्थित रहती है । तब इसके अन्दर जो कार्य करता है वह पुराने अहं का एक प्रेत होता हैं जो हमारी सत्ता में अभीतक बची हुई अव्यवस्था और अपवित्रता के अवशेषों के आधार पर पुरानी आदतों की यांत्रिक पुनरावृत्ति को आश्रय देता रहता है । बादल आ-आकर चला जाता है, आरोहण और अवरोहण का लयताल फिर-फिर चालू होता रहता है जबतक कि अपवित्रता को निकालकर बाहर नहीं कर दिया जाता । बदल-बदलकर आनेवाली ये अवस्थाएं पूर्णयोग में, सहज ही, दीर्घ कालतक चल सकती है; क्योंकि, यहां आधार की समग्र पूर्णता की अपेक्षा की जाती है; उसे सब समयों में, सभी अवस्थाओं और परिस्थितियों मैं, वे चाहे कर्म
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की हों या निष्कर्मता की, परम सत्य की चेतना को अंगीकार करने में और फिर उसके अन्दर निवास करने में भी समर्थ बनना होगा । केवल समाधि की मग्नता में या निश्चल शान्ति में चरम साक्षात्कार प्राप्त करना भी साधक के लिये काफी नहीं है, बल्कि उसे क्या समाधि में और क्या जागरित में, क्या निष्क्रिय चिन्तन में और क्या क्रियाशील शक्ति की अवस्था में, सुप्रतिष्ठित ब्राह्मी चेतना की१ सतत समाधि में रह सकना चाहिये । पर यद्यपि हमारी चेतन सत्ता पर्याप्त शुद्ध और निर्मल हो जाय या जब भी यह ऐसी हो जाय तो हमें उच्चतर चेतना में दृढ़ स्थिति प्राप्त हो जायगी । निर्व्यक्तिक बना हुआ जीव, विश्वात्मा के साथ एकमय या परात्पर से अधिकृत होकर, ऊपर उच्च स्तर पर आसीन२ रहता है और प्रकृति की पुरानी क्रिया के जो भी अवशेष आधार में पुनः प्रकट हों उनपर अविचलित भाव से दृष्टिपात करता है । वह अपनी निम्नतर सत्ता में विद्यमान प्रकृति के तीन गुणों के कार्य-व्यापार के कारण विचलित नहीं हों सकता, यहांतक कि दुःख-शोक के आक्रमणों के कारण भी वह अपनी स्थिति से चलायमान नहीं हो सकता । और अन्त में, बीच का पर्दा हट जाने के कारण, उच्चतर शान्ति निम्नतर विक्षोभ और विकार को अभिभूत कर देती है । एक सुस्थिर नीरवता प्रतिष्ठित हो जाती है जिसमें जीव ऊपर, नीचे तथा सब ओर पूर्ण रूप से अपनी सत्ता पर सर्वोच्च प्रभुत्व प्राप्त कर सकता है ।
निश्चय ही, परम्परागत ज्ञानयोग का लक्ष्य ऐसा प्रभुत्व प्राप्त करना नहीं है । उसका लक्ष्य तो वस्तुत: ऊर्ध्व और निम्न सत्ता से तथा सर्व से परे हटकर अवर्णनीय परब्रह्म को प्राप्त करना है । परन्तु ज्ञानमार्ग का लक्ष्य चाहे जो हो, उसके एक प्रथम परिणाम के रूप में पूर्ण शान्ति अवश्य प्राप्त होनी चाहिये; क्योंकि जबतक हमारे अन्दर होनेवाली प्रकृति की पुरानी क्रिया पूर्ण रूप से शान्त नहीं हो जाती तबतक किसी सच्ची आत्मिक अवस्था या किसी दिव्य कर्म की नींव रखना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है । हमारी प्रकृति सत्तागत अव्यवस्था के आधार पर तथा कर्म के प्रति अशान्तिपूर्ण प्रेरणा के कारण कार्य करती है, भगवान् अथाह शान्ति में से मुक्त रूप से कार्य करते हैं । यदि हमें अपनी आत्मा पर से इस निम्नतर प्रकृति का प्रभुत्व मिटाना हो तो हमें शान्ति के उस अतल सागर में डुबकी लगानी होगी और वही बन जाना होगा । अतएव, विश्वात्मभाव को प्राप्त दुआ जीव सर्वप्रथम नीरवता में आरोहण करता है; वह विशाल, शान्त, निष्क्रिय बन जाता है । तब जो भी क्रिया घटित होती है, वह शरीर की या इन अंगों की हो या और कोई, उसे जीव देखता है, पर उसमें भाग नहीं लेता, न उसे अनुमति देता और न उससे
१एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । -गीता
२ उदासीन (उत=ऊंचाई पर, आसीन=विराजमान), इस शब्द का अर्थ है आध्यात्मिक ''उदासीनता'', अर्थात् परम शान का स्पर्श पायी हुई आत्मा की अनासक्त स्वतन्त्रता ।
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किसी प्रकार का सम्बन्ध जोड़ता है । तब कर्म तो होता है, पर कोई व्यक्ति-रूप कर्ता नहीं होता, न कोई बन्धन या दायित्व ही होता है । यदि वैयक्तिक कर्म करने की जरूरत हो तो जीव को एक प्रकार के अहं को सुरक्षित रखना या पुनः प्राप्त करना होता है जिसे अहं का एक विशेष रूप किंवा ज्ञाता, भक्त, सेवक या यन्त्ररूप ''मैं'' की एक प्रकार की मानसिक प्रतिमा कहा गया है, पर वह केवल प्रतिमा ही होती है, वास्तविक वस्तु नहीं । यदि अहं की यह प्रतिमा भी न हो तो भी कर्म प्रकृति के अभीतक चले आ रहे पुराने वेगमात्र से जारी रह सकता है, पर उसका व्यक्ति-रूप कर्ता कोई भी नहीं होता, वस्तुत: तब कर्ता का किसी प्रकार का भान भी बिल्कुल नहीं होता; क्योंकि जिस परम आत्मा में जीव ने अपनी सत्ता का लय किया है वह निष्क्रिय एवं अगाध शक्तिमय है । उधर कर्म-मार्ग हमें ईश्वर का साक्षात्कार तो प्राप्त कराता है, पर यहां उस ईश्वर का भी ज्ञान प्राप्त होना शेष रह जाता है; यहां तो होता है केवल निश्चल-नीरव आत्मा और क्रियाशील प्रकृति जो अपने कार्य कर रही है; प्रारम्भ में ऐसा प्रतीत होता है कि वह भी अपने कार्य सचमुच की सजीव सत्ताओं के द्वारा नहीं, बल्कि ऐसे नाम-रूपों के द्वारा कर रही है जो आत्मा में अस्तित्व तो रखते हैं, पर जिन्हें आत्मा वास्तविक नहीं मानता । जीव इस साक्षात्कार से भी परे जा सकता है; आत्मा के विचारमात्र से विपरीत दिशा में यह शून्य ब्रह्म की ओर उठ सकता है, जिसमें यहां की सभी वस्तुओं का अभाव है एवं एक अनिर्वचनीय शान्ति है और जिसमें सब वस्तुओं का, सत् का भी, यहांतक कि उस सत् का भी लय हो जाता है जो व्यक्ति या विराट् के व्यक्तित्व का निर्व्यक्तिक आधार है । या फिर यह उसके साथ एक ऐसे अनिर्वचनीय ''तत्'' के रूप में ऐक्य लाभ कर सकता है जिसके सम्बन्ध में कुछ भी वर्णन नहीं किया जा सकता; क्योंकि यह विश्व और इसमें जो कुछ भी है वह सब 'तत्' में भी अस्तित्व नहीं रखता, बल्कि वह मन को एक स्वप्न जान पड़ता है, स्वप्न भी ऐसा कि हमने आजतक जो भी स्वप्न देखे हैं या जो भी हमारी कल्पना में आये हैं उन सबसे अधिक अवास्तविक, यहांतक कि 'स्वप्न' शब्द भी इतना अधिक भावात्मक प्रतीत होता है कि यह उसकी पूर्ण अवास्तविकता को प्रकट नहीं कर सकता । ये अनुभव ही उदात्त मायावाद की आधारशिला हैं; जब मानव-मन अपने-आपको अतिक्रम कर ऊंचे-से-ऊंचा जाने के लिये उड़ान भरता है तो इन अनुभवों के द्वारा मायावाद उस पर अत्यन्त दृढ़ता के साथ अधिकार जमा लेता है ।
स्वप्न और माया के ये विचार तो ऐसे परिणाममात्र हैं जो हमारी अबतक विद्यमान मानसिकता में जीव की नयी स्थिति के कारण उत्पन्न होते हैं । इनके उत्पन्न होने का एक और कारण यह है कि जीव के पुराने मानसिक संस्कार, और जीवन एवं सत्ता-सम्बन्धी इसका दृष्टिकोण इससे जो मांग करते हैं उससे यह इन्कार कर देता है । वास्तव में, प्रकृति अपने लिये या अपनी ही गति के द्वारा कार्य नहीं
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करती, बल्कि आत्मा को प्रभु मानकर उसके लिये तथा उसके द्वारा कार्य करती है; क्योंकि उस नीरवता में से ही इस सब विराट् कर्म का प्रवाह फूटता है, वह प्रतीयमान शून्य अनुभवों के इन सब असीम ऐश्वर्यों को मानो गतिशील रूप में निर्मुक्त कर देता है । यह अनुभव पूर्णयोग के साधक को अवश्य प्राप्त करना होगा, किस विधि से प्राप्त करना होगा यह हम आगे चलकर बतायेंगे । जब वह इस प्रकार विश्व पर अपना प्रभुत्व पुनः प्राप्त कर लेगा और पहले की तरह अपने-आपको जगत् में नहीं देखेगा, बल्कि जगत् को अपने-आपमें देखने लगेगा, तब जीव की स्थिति क्या होगी अथवा उसकी नयी चेतना में अहं-भावना का स्थान कौन चीज ले लेगी ? अहं-भावना रहेगी ही नहीं, यद्यपि व्यक्तिगत मन और देह में वैश्व चेतना की लीला के प्रयोजनों के लिये एक प्रकार का व्यष्किरण अवश्य रहेगा; कारण यह कि उसके लिये सब वस्तुएं अविस्मरणीय रूप में एकमेव ही होंगी और प्रत्येक व्यक्ति या पुरुष भी उसके लिये एकमेव होगा, अपन अनेक रूपों में या यों कहें कि अपने अनेक पक्षों एवं स्थितियों मे ब्रह्म ही ब्रह्म पर क्रिया कर रहा होगा, सर्वत्र एक ही नर-नारायण१ व्याप रहा होगा । भगवान् की इस बृहत्तर लीला में दिव्य प्रेम के सम्बन्धों का आनन्द भी, अहंभावना में पतित हुए बिना, प्राप्त किया जा सकता है, -ठीक वैसे ही जैसे मानव-प्रेम की परमोच्च अवस्था को भी 'दो शरीरों में एक ही आत्मा' की एकता कहा जाता है । यह अहं-भावना जो विश्वलीला में इतनी सक्रिय है और वस्तुओं के सत्य को इतना मिथ्या रूप दे डालती है, लीला के लिये अनिवार्य ही हो ऐसी बात नहीं । कारण, सत्य तो सदा यह है कि एक 'एकं सत्' है जो आप हीं अपनेपर क्रिया कर रहा है, आप ही अपने साथ लीला कर रहा है, अपने एकत्व में असीम है और अपने बहुत्व में भी असीम है । जब व्यष्टिभूत् चेतना विश्वलीला के इस सत्यतक उठ जाती है और इसमें निवास करने लग जाती है, तब कर्म के पूर्ण प्रवाह में रहते हुए भी, निम्नतर सत्ता को धारण करते हुए भी जीव ईश्वर के साथ एकमय रहता है, और तब न कोई बन्धन रहता है, न कोई भ्रम । वह आत्मा को प्राप्त करके अहं सै मुक्त हो जाता है ।
१ भगवान् किंवा नारायण मानवता के साथ, उसके मानव-रूप में भी अपनेको एक कर देते है । तब नर भगवान् के साथ एक हो जाता है ।
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