योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय ७

आनन्द-ब्रह्म

 

 सर्वांगीण समन्वयात्मक योग में भक्तिमार्ग प्रेम और आनन्द द्वारा भगवान् की खोज का और उनकी सत्ता के सभी पक्षों पर सानन्द अधिकार का रूप ग्रहण कर लेगा । इसकी पराकाष्ठा होगी-प्रेम का पूर्ण मिलन, ईश्वर के साथ आत्मा की घनिष्ठता के सभी रूपों का पूर्ण उपभोग । यह ज्ञान से आरम्भ हो सकता है या कर्मों से भी आरम्भ हो सकता है, पर बाद में यह ज्ञान को प्रियतम की सत्ता के साथ ज्योतिर्मय मिलन के हर्ष में परिणत कर देगा और कर्मों को प्रियतम की सत्ता के संकल्प एवं बल के साथ हमारी सत्ता के सक्रिय मिलन के हर्ष में परिवर्तित कर देगा । या फिर यह सीधे प्रेम एवं आनन्द से भी आरम्भ हो सकता है; तब यह अन्य दोनों को अपने अन्तर्गत कर लेगा और एकत्व के पूर्ण हर्ष के अंग के रूप में उन्हें विकसित करेगा ।

 

     भगवान् के प्रति हृदय के आकर्षण का आरम्भ निर्वैयक्तिक भीं हों सकता है । यह किसी विश्वगत या विश्वातीत सत्ता में मिलनेवाले निर्वैयक्तिक हर्ष का स्पर्श हो सकता है, --ऐसी सत्ता में जिसने हमारी भावमय या सौन्दर्यग्राही सत्ता के प्रति या अध्यात्म-सुख की हमारी क्षमता के प्रति अपने-आपको प्रत्यक्ष वा परोक्ष रूप में प्रकाशित किया है । इस प्रकार हमें जिस सत्ता का ज्ञान प्राप्त होता है वह आनन्द- ब्रह्म या आनन्दमय सत्ता है । एक ऐसे निर्वैयक्तिक आनन्द एवं सौन्दर्य की, एक ऐसी शुद्ध और अनन्त पूर्णता की आराधना भी होती है जिसे हम कोई नाम--रूप नहीं दे सकते । जगत् में या इससे परे विद्यमान किसी ऐसी आदर्श और अनन्त उपस्थिति, शक्ति एवं सत्ता के प्रति आत्मा का एक द्रवित आकर्षण भी होता है जो किसी-न-किसी प्रकार हमारे लिये चित्तत: या अध्यात्मत: बोधगम्य हो जाती है और फिर अधिकाधिक अन्तरीय एवं वास्तविक होती जाती है । यही है पुकार, उस आनन्दमय सत्ता का हमारे शिर पर कर-स्पर्श । इसके बाद नित्य-निरन्तर उसकी उपस्थिति का आनन्द और सान्निध्य प्राप्त करना, यह जानना कि वह क्या है, जिससे बुद्धि और सम्बोधि-मन उसकी सतत वास्तविकता से सन्तुष्ट हो जायें, अपनी निष्क्रिय और, यथासाध्य, सक्रिय सत्ता का, अपनी आन्तर अमर और यहांतक कि बाह्य मर्त्य सत्ता का भी उसके साथ पूर्ण सामञ्जस्य स्थापित करना हमारे जीवन--यापन के लिये आवश्यक बन जाते हैं । हमें अनुभव होता है कि अपने-आपको उसकी ओर खोलना ही एकमात्र सच्चा सुख है और उसके अन्दर निवास करना एकमात्र सच्ची पूर्णता ।

 

      मन और वाणी द्वारा अकल्पनीय एवं अवर्णनीय परात्पर आनन्द ही उस 

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 अनिर्वचनीय ब्रह्म का स्वरूप है । वह सम्पूर्ण विश्व में और विश्व की एक--एक वस्तु में अन्तर्यामी और निगूढ़ रूप से विराजमान है । उसकी उपस्थिति का वर्णन इस प्रकार किया गया है कि वह सत्ता के आनन्द का गुह्य आकाश है । इस आकाश के सम्बन्ध में उपनिषद् कहती है--यदि यह न होता तो कोई एक क्षण भी श्वास न ले सकता और न जीवित ही रह सकता । यह आध्यात्मिक आनन्द यहां हमारे हृदय में भी निहित है । यह उस तलवर्ती मन के श्रम के कारण अन्दर छुपा हुआ है जो जीवन-हर्ष के नानाविध मानसिक, प्राणिक और भौतिक रूपों में इसके दुर्बल एवं त्रुटिपूर्ण प्रतिबिम्ब ही ग्रहण करता है । पर जब एक बार मन अपनी ग्रहण-क्रियाओं में पर्याप्त सूक्ष्म और शुद्ध हो जाता है और जीवन के प्रति हमारी बाह्य प्रतिक्रियाओं के स्थूलतर स्वभाव से आबद्ध नहीं रहता, तब हम उसके अन्दर इस आनन्द का प्रतिबिम्ब ग्रहण कर सकते हैं । वह प्रतिबिम्ब शायद पूर्णत: या मुख्यत: हमारी प्रकृति के सबसे प्रबल तत्त्व का रंग-रूप धारण कर लेगा । पहले-पहल यह एक ऐसे विश्वव्याप्त सौन्दर्य की स्पृहा के रूप में प्रकट हो सकता है जिसे हम प्रकृति और मनुष्य में एवं अपने चारों ओर की सभी वस्तुओं में अनुभव करते हैं । अथवा हमें एक ऐसे विश्वातीत सौन्दर्य का अन्तर्ज्ञान हो सकता है जिसका कि समस्त दृश्यमान ऐहिक सौन्दर्य प्रतीकमात्र है । जिन लोगों की सौन्दर्यग्राही सत्ता विकसित एवं दृढ़ है और जिनमें ऐसी वृत्तियां प्रबल हैं जो व्यक्त रूप में आने पर कवि और कलाकार का निर्माण करती हैं, उन लोगों में यह इसी ढंग से उद्भूत हो सकता है । अथवा यह प्रेम की, दिव्य आत्मा की अनुभूति हों सकती है या यह जगत् में या इसके पीछे या इसके परे विद्यमान आश्रयदायिनी और करुणामयी अनन्त उपस्थिति हो सकती है जो हमें उस समय उत्तर देती है जब हम अपनी आत्मा की मांग को लेकर इसकी ओर मुड़ते हैं । जब भावमय सत्ता तीव्रतः विकसित होती है तब यह पहले-पहल इसी प्रकार अपना रूप दिखा सकता है । और--और प्रकार से भी यह हमारे निकट आ सकता है, पर सदा आनन्द, सौन्दर्य, प्रेम या शान्ति की एक ऐसी शक्ति या उपस्थिति के रूप में जो मन को छूती है । किन्तु साधारणत: ये चीजें मन में जो नाना रूप ग्रहण करती हैं उनसे यह परे है ।

 

     वास्तव में समस्त हर्ष, सौन्दर्य, प्रेम, शान्ति एवं आनन्द, --आत्मा, बुद्धि, कल्पना, सौन्दर्य-भावना, नैतिक अभीप्सा और सन्तुष्टि, कर्म, जीवन एवं शरीर का समस्त आनन्द, --आनन्दब्रह्म से ही स्रवित होते हैं । हमारी सत्ता के सभी रूपों द्वारा भगवान् हमें स्पर्श कर सकते हैं और उन्हें आत्मा को जाग्रत् एवं मुक्त करने के लिये उपयोग में ला सकते हैं । परन्तु साक्षात् आनन्द-ब्रह्म की प्राप्ति के लिये उसके मानसिक ग्रहण को सूक्ष्म, आध्यात्मिक और विश्वमय बनाना होगा । इसे ऐसी प्रत्येक वस्तु से निर्मुक्त करना होगा जो कलुषित और सीमा में बाधनेवाली हो । कारण, जब हम इसके सर्वथा निकट पहुंचते हैं या इसमें प्रवेश करते हैं तो यह

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 उस परात्पर एवं विश्वव्याप्त आनन्द की प्रबुद्ध आध्यात्मिक अनुभूति के द्वारा ही होता है जो विश्व के अन्दर और इसके विरोधों के पीछे और परे भी विद्यमान है और जिसके साथ हम एक बढ़ते हुए विराट् और आध्यात्मिक या परात्पर हर्षावेश के द्वारा अपने-आपको एकीभूत कर सकते हैं ।

 

     साधारणतः, मन इस अनन्त को, जिसे हम देखते हैं, प्रतिबिम्बित करके या हमारे भीतर और बाहर इसकी प्रतीति को एक अनुभव के रूप में उपलब्ध करके ही सन्तुष्ट हो जाता है। यह अनुभव बारम्बार होने पर भी रहता है अपवाद-रूप ही । जब यह प्राप्त होता है तो यह अपने-आपमें ही इतना सन्तोषप्रद और आश्चर्यजनक प्रतीत होता है और हमारा साधारण मन और सक्रिय जीवन, जो हमें बिताना होता है, हमें इससे इतने असंगत प्रतीत हो सकते हैं कि इससे अधिक किसी वस्तु की आशा हमें शायद अति जान पड़ेगी । परन्तु योग की वास्तविक भावना ही यह है कि अपवाद को सामान्य बनाया जाये और जो हमारे ऊपर है, हमारे साधारण 'स्व' से महत्तर है उसे अपनी शाश्वत चेतना बना लिया जाये । अतएव अनन्त का जो भी अनुभव हमें प्राप्त हो उसकी ओर अपनेको अधिक तत्परता के साथ खोलने, उसे शुद्ध और तीव्र करने, उसे अपने अनवरत मनन--चिन्तन का विषय बनाने में संकोच नहीं करना चाहिये । ऐसा तबतक करते जाना चाहिये जबतक यह एक ऐसी चालक-शक्ति न बन जाये जो हमारे अन्दर क्रिया करती है, ऐसा देवाधिदेव न बन जाये जिसका हम आराधन और आलिंगन करते हैं और जबतक हमारी सत्ता इसके साथ एकस्वर न हो जाये और यह हमारी सत्ता की वास्तविक आत्मा न बन जाये ।

 

    एतद्विषयक अपने अनुभव को हमें प्रत्येक मानसिक मिश्रण से शुद्ध करना होगा अन्यथा यह लुप्त हो जायेगा और हम इसे धारण नहीं कर पायेंगे । इस शोधन का एक भाग यह है कि यह किसी भी कारण पर या मन की किसी उत्तेजक अवस्था पर निर्भर रहना छोड़ दे । यह आवश्यक है कि यह अपना कारण आप ही हों; स्वयं-सत् बने, अन्य समस्त आनन्द का उद्गम हो, जो केवल इसीपर आश्रित रहे । ऐसी किसी जागतिक या अन्य प्रतिमा या प्रतीक में इसे आसक्त नहीं रहना होगा जिसके द्वारा हम इसके साथ पहले-पहल सम्पर्क में आये थे । एतद्विषयक अपने अनुभव को हमें अनवरत तीव्र एवं अधिक प्रगाढ़ बनाना होगा, अन्यथा यह उसे केवल अपूर्ण मन के दर्पण में ही प्रतिफलित करेगा और उन्नयन एवं रूपान्तर के उस शिखर तक नहीं पहुंचेगा जिसके द्वारा हम मन से परे अनिर्वचनीय आनन्द में ले जाये जाते हैं । हमारे अखण्ड मनन-चिन्तन का विषय बनकर यह सत्-मात्र को अपनेमें परिणत कर डालेगा, विश्वव्यापी आनन्द-ब्रह्म के रूप में अपनेकी प्रकाशित करेगा और समस्त सत्ता को आनन्द की वृष्टि का रूप दे देगा । यदि हम अपने सभी आन्तर एवं बाह्य कार्यों की प्रेरणा प्राप्त करने के लिये इसके द्वार पर प्रतीक्षा

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 करें तो यह भगवान् का हर्ष बनकर हमारे द्वारा जीवन पर तथा सभी जीवित सत्ताओं पर प्रकाश, प्रेम और बल के रूप में बरस पड़ेगा । जब हम आत्मा के प्रेम और पूजन द्वारा इसे खोजते हैं तो यह देवाधिदेव के रूप में आत्म-प्रकाश करता है, हम इसमें ईश्वर की मुखछवि निहारते हैं और अपने प्रेमी का आनन्द उपलब्ध करते हैं । अपनी सम्पूर्ण सत्ता को इसके साथ एकस्वर कर हम इसके साधर्म्य की कल्याणकारी पूर्णता में एवं दिव्य प्रकृति के मानवीय प्रतिरूप में संवर्धित होते हैं । जब यह सर्वभावेन हमारी आत्मा की आत्मा बन जाता है, तब हमारी सत्ता कृतार्थ हो जाती है और हम पूर्णता को वहन करते हैं ।

 

      ब्रह्म अपनेकी हमारे सम्मुख सदा तीन प्रकार से प्रकट करता है--हमारे भीतर, हमारे स्तर से ऊपर और हमारे चारों ओर इस जगत् में । हमारे भीतर पुरुष के दो केन्द्र हैं । एक तो अन्तःस्थ आत्मा है जिसके द्वारा वह हमें स्पर्श करके जागृत करता है;  हृदयकमल में एक पुरुष है जो हमारी सभी शक्तियों को ऊपर की ओर खोल देता है । एक और पुरुष सहस्रदल कमल में है जहां से अन्तर्दृष्टि की विद्युत्प्रभाएं और दिव्य शक्ति की अग्नि हमारा तृतीय नयन खोलती हुई विचार और संकल्प के द्वारा हमारे अन्दर अवतरित होती हैं । आनन्दमय सत्ता हमें इन केन्द्रों में से किसीके भी द्वारा प्राप्त हो सकती है । जब हृदय-कमल खुलता है; हम दिव्य हर्ष, प्रेम और शान्ति को अपने अन्दर प्रकाश के एक पुष्प की भांति खिलते हुए अनुभव करते हैं जो सम्पूर्ण सत्ता को देदीप्यमान कर देता है । तब वे अपने-आपको अपने निगूढ़ उद्गम के साथ, हमारे हृदय में विराजमान भगवान् के साथ एक कर सकते हैं और उसकी वैसे ही उपासना कर सकते हैं जैसे कि एक मन्दिर में । वे विचार और संकल्प को अधिकृत करने के लिये ऊपर की ओर प्रवाहित हो सकते हैं और ऊपर परात्पर की ओर खुल सकते हैं । हमारे चारों ओर जो कुछ भी है उस सबकी ओर वे विचार, भाव और कर्म के रूप में क्षरित होते हैं । परन्तु जबतक हमारी सामान्य सत्ता कोई-न-कोई बाधा डालती रहेगी या इस दैवी प्रभाव के प्रति प्रत्युत्तर में या इस दिव्य स्वामित्व के यन्त्र में पूर्णत: परिवर्तित नहीं हो जायेगी, तबतक अनुभव रुक-रुककर होगा और सम्भवतः हम बारम्बार अपने पुराने मर्त्य हृदय मे पत्तित होते रहेंगे । परन्तु अभ्यास से या भगवान् की कामना, आराधना के बल से यह क्रमश: परिवर्तित होती जायेगी जबतक कि यह असामान्य अनुभव हमारी सहज चेतना का ही रूप धारण नहीं कर लेता ।

 

     जब दूसरा ऊर्ध्व-कमल खुलता है, सारा-का-सारा मन दिव्य प्रकाश, हर्ष और शक्ति से भर उठता है जिनके पीछे होते हैं भगवानु हमारी सत्ता के स्वामी, अपने सिंहासन पर आसीन, और हमारी आत्मा होती है उन्हींके निकट या उन्हींकी रश्मियों में अन्तःप्रविष्ट । तब विचार और संकल्पमात्र ज्योति, शक्ति और हर्षातिरेक बन जाते हैं जो परात्पर के साथ सम्पर्क रखते हुए हमारे मरणधर्मा अंगों पर बरस

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 सकते हैं और उनसे फिर बाहर की ओर जगत् मे उमड़ पड़ सकते हैं । जैसा कि वैदिक गुह्यज्ञानियों को विदित था, इस उषा में भी हमारे लिये इसके दिन और रात, बारी-बारी से आते हैं, प्रकाश से हमें निर्वासन भी प्राप्त होता है । किन्तु ज्यों-ज्यों इस नयी सत्ता को धारण करने की हमारी सामर्थ्य बढ्ती जाती है हम उस सूर्य को चिरकालतक एकटक देखने में समर्थ होते जाते हैं जिससे ये रश्मिया विकीर्ण होती हैं और अपनी आन्तर सत्ता में हम उससे एक-तन हो सकते हैं । इस परिवर्तन का वेग कभी तो इस प्रकार से प्रकट हुए भगवान् के लिये हमारी उत्कण्ठा के बल पर, एवं हमारी जिज्ञासा की शक्ति की तीव्रता पर निर्भर करता है और कभी, इसके विपरीत, यह उसकी सर्वज्ञानमयी कार्यावलि के लयताल के प्रति निष्क्रिय समर्पण के द्वारा अग्रसर होता है । वह कार्यावलि सदा ही अपनी निराली प्रणाली से कार्य करती है जो शुरू-शुरू में समझ में नहीं आती । परन्तु जब हमारे प्रेम और विश्वास पराकाष्ठा को पहुंचते हैं, जब वह परम प्रेम-स्वरूप एवं सर्वज्ञ शक्ति हमारी सम्पूर्ण सत्ता का अपने भुजयुग में आलिंगन कर लेती है तब तो निष्क्रिय समर्पण ही आधारशिला बन जाता है ।

 

      भगवान् अपने-आपको हमारे चारों ओर के इस जगत् में प्रकाशित करते हैं जब हम इसपर उस आध्यात्मिक कामना या आनन्द के भाव से दृष्टिपात करते हैं जो सभी चीजों में भगवान् को ढूंढ़ता है । बहुधा एक आकस्मिक उन्मीलन होता है जिससे स्वयं आकारों का आवरण ही प्रत्यक्ष दर्शन में परिणत हो जाता है । एक सार्वभौम आध्यात्मिक उपस्थिति, एक सार्वभौम शान्ति, एक सार्वभौम अनन्त आनन्द यहां व्यक्त हुआ है--अन्तर्यामी सर्वालिंगी, सर्वव्यापी रूप में । यदि हम इस उपस्थिति से प्रेम करते हैं, इसमें आनन्द लेते हैं और नित्य-निरन्तर इसका चिन्तन करते हैं, तो यह हमारे भीतर पुनः-पुनः प्रकट होती है और हमारे ऊपर इसका प्रभाव बढ्ता चला जाता है । यह वह वस्तु बन जाती है जिसे हम सबमें देखते हैं, इसके अतिरिक्त सभी वस्तुएं इसका आवास, रूप और प्रतीकमात्र  प्रतीत होती हैं जो अत्यन्त बाह्य वस्तुएं हैं, --शरीर, रूप, शब्द या जो कुछ भी हमारी इन्द्रियों के गोचर होता हैं, --वे सब भी यही उपस्थित दिखायी देती हैं; वे अब भौतिक न रहकर आत्मा के उपादान वा देह-तत्त्व में परिवर्तित हो जाती हैं । इस रूपान्तर का अभिप्राय यह है कि हमारी अपनी आन्तरिक चेतना रूपान्तरित हो जाती है; हमारे चारों ओर विद्यमान उपस्थिति हमें अपने अन्दर ले लेती है और हम उसके अंग बन जाते हैं । हमारे लिये हमारा अपना मन, प्राण, शरीर इसका एक आवास और मन्दिर बन जाते हैं, इसके कार्य-व्यापार का एक रूप और इसकी आत्म-अभिव्यक्ति का एक यन्त्रमात्र हो जाते हैं । तब सभी कुछ इस आनन्द की आत्मा और देहमात्र होता है ।

 

       ये वे भगवान् हैं जो हमारे चारों ओर और हमारे अपने भौतिक स्तर पर दिखायी

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 देते हैं । परन्तु वे अपने-आपको ऊपर भी प्रकाशित कर सकते हैं । हम उन्हें अपने--ऊपर उच्चाधिष्ठित उपस्थिति एवं आनन्द की महान् अनन्त सत्ता के रूप में देखते या अनुभव करते हैं, --अथवा इसके अन्दर, हम अपने द्युलोकस्थित पिता के दर्शन करते हैं, --पर अपने भीतर या चारों ओर हमें उनका अनुभव या साक्षात्कार नहीं होता । जबतक हमें यह दिव्य दृष्टि प्राप्त रहती है, हमारे अन्दर की मर्त्यता उस अमरता से शान्त हुई रहती है । यह ज्योति, शक्ति और हर्ष अनुभव करती है और उसे अपनी सामर्थ्यानुसार उत्तर देती है । अथवा यह आत्मा का अवतरण अनुभव करती है और तब यह कुछ समय के लिये रूपान्तरित हो जाती है या उस ज्योति एवं शक्ति की प्रतिच्छाया की किसी प्रभा में उन्नीत हो जाती है । यह आनन्द का कलश बन जाती है । परन्तु किन्हीं और समयों में यह फिर उसी पुरानी मर्त्यता में जा गिरती है और अपने पार्थिव अभ्यासों के ढेर में पड़ी रहती है अथवा जड़ता या तुच्छता के साथ काम करती है । पूर्ण उद्धार तो तभी होता है जब मानव मन और तन में दैवी शक्ति का अवतरण होता है और इनका अन्तर्जीवन दिव्य प्रतिमा के सांचे मे ढल जाता है--जिसे वैदिक ऋषि 'यज्ञ द्वारा पुत्र का जन्म' कहते थे । निःसन्देह, अविच्छिन्न यज्ञ या अर्पण के द्वारा ही, --अर्चना और अभीप्सा के, समस्त कर्म-कलाप के, विचार एवं ज्ञान के और ईश्वरोन्मुख संकल्प की आरोहिणी ज्वाला के यज्ञ द्वारा ही हम अपने-आपको इस अनन्त की सत्ता में निर्मित करते हैं ।

 

     जब हम आनन्द-ब्रह्म की इस चेतना को इन तीनों--ऊपर, भीतर और चारों ओर की--अभिव्यक्तियो मे दृढ़तापूर्वक अधिकृत कर लेते हैं, तब हमें उसका पूर्ण एकत्व प्राप्त हो जाता है और हम सर्वभूत को उसके आनन्द, शान्ति, हर्ष एवं प्रेम में आलिंगित करते हैं । तब सभी लोक-लोकान्तर इस आत्मा का शरीर बन जाते हैं । पर जिसे हम अनुभव करते हैं वह यदि केवल निर्वैयक्तिक उपस्थिति, विशालता या अन्तर्यामिता मात्र है, यदि हमारी आराधना इतनी अन्तरङग नहीं बनी है कि यह आनन्दमय सत् अपने अत्यन्त विस्तृत हर्ष में से हमें हमारे सखा और प्रेमी का मुखमण्डल और शरीर दिखला सके और उसके हाथों का स्पर्श अनुभव करा सके तो हमें इस आनन्द का सर्वाधिक ऐश्वर्यशाली ज्ञान प्राप्त नहीं दुआ है । इसकी निर्वैयक्तिकता ब्रह्म की आनन्दमय महत्ता है, परन्तु वहां से दिव्य व्यक्तित्व का माधुर्य और घनिष्ठ नियमन हमपर कटाक्षपात कर सकता है । कारण, आनन्द आत्मा का साक्षात् स्वरूप और हमारी सत्ता का स्वामी है और इसका अविरल धाराप्रवाह उसकी लीला का शुद्ध हर्ष हो सकता है ।

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