Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय २०
अन्तर्ज्ञानात्मक मन
अतिमानस की मूल प्रकृति अनन्त सत्ता का, पदार्थों में विद्यमान विराट् आत्मा और पुरुष का, आत्म-चैतन्य और सर्वचैतन्य है । इसीके द्वारा वह अनन्त आत्मा विश्व के तथा उसकी सभी वस्तुओं के विकास और नियमित व्यापार के लिये अपनी प्रज्ञा तथा अमोघ सर्वशक्तिमत्ता को प्रत्यक्ष आत्म-ज्ञान के आधार पर तथा उसके स्वरूप के अनुसार संघटित करता है । हम कह सकते हैं कि अतिमानस सृष्टि के स्वामी परमात्मा का, आत्मा, ज्ञाता, ईश्वर का, 'विज्ञान' --स्वरूप करण है । जैसे वह अपने--आपको जानता है वैसे ही वह सब पदार्थों को भीं जानता है--क्योंकि सब उसीके भूतभावमात्र हैं । उन सबको वह सीधे, समग्र रूप में और अन्दर से बाहर की ओर जानता है । उनकी हर एक बारीकी को और उनकी व्यवस्था को सहज--स्वाभाविक रूप से जानने के साथ-साथ वह प्रत्येक पदार्थ की सत्ता और प्रकृति के सत्य को तथा अन्य सब पदार्थों के साथ उस पदार्थ के सम्बन्ध को भी जानता है । और इसी प्रकार वह अपनी शक्ति के समस्त कार्य को अर्थात् उसके पूर्वनिमित्त को किंवा उसकी अभिव्यक्ति के कारण और प्रसंग तथा उसके फल या परिणाम को भी जानता है, सब वस्तुओं की असीम और ससीम दोनों प्रकार की सम्भाव्य शक्ति को तथा उस शक्ति में से उनकी प्रत्यक्ष वास्तविक क्षमता के चुनाव को और उनके अतीत, वर्तमान एवं भविष्य की शृंखला को भी जानता है । जगत् में विद्यमान किसी दिव्य पुरुष का संघटनशील अतिमानस उसके अपने कार्य और स्वभाव के तथा इसके घेरे में आनेवाले सभी विषयों के प्रयोजन के लिये तथा उनके क्षेत्र के अन्तर्गत इस उपयुक्त सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता का एक प्रतिनिधि होगा । किसी व्यक्ति में आविर्भूत अतिमानस भी एक इसी प्रकार का प्रतिनिधि होगा, उसका परिमाण और क्षेत्र चाहे जो भी हों । परन्तु एक देवता या दिव्य पुरुष में यह एक ऐसी शक्ति का साक्षात् एवं अव्यवहित प्रतिनिधि होगा जो अपने-आपमें असीम है और केवल कार्य में ही सीमित होती है, पर अपनी क्रिया में और किसी प्रकार से परिवर्तित नहीं होती, सत्ता के लिये स्वाभाविक तथा सदैव पूर्ण और मुक्त होती है । उधर मनुष्य में अतिमानस का कोई भी आविर्भाव एक क्रमिक तथा आरम्भ में एक अपूर्ण रचना जैसा ही होगा और उसके प्रथानुगत मन के लिये तो वह एक असाधारण और अलौकिक संकल्प एवं ज्ञान का व्यापार होगा ।
पहली बात तो यह है कि वह उसके लिये एक ऐसी सहजात शक्ति के समान नहीं होगा जिसका उपभोग बिना किसी बाधा के सदा किया जाता है, बल्कि वह एक ऐसी गुप्त सम्भाव्य शक्ति के समान होगा जिसकी उसे खोज करनी है तथा
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जिसके लिये उसके वर्तमान भौतिक या मानसिक संस्थान में कोई करण नहीं है : उसके लिये उसे या तो एक नये करण का विकास करना होगा या फिर वर्तमान करणों को अपनाकर या रूपान्तरित करके उन्हें इस कार्य के लिये उपयोगी बनाना होगा । उसका कार्य केवल यही नहीं है कि वह अपनी निगूढ़ सत्ता की अन्तःप्रच्छन्न गुहा में छुपे हुए अतिमानस के सूर्य को अनावृत कर दे, न यीं है कि आध्यात्मिक गगन में इसके मुखमण्डल पर उसके मानसिक अज्ञान का जो पर्दा पड़ा हुआ है उसे हटा दे ताकि यह तुरन्त ही अपने पूर्ण वैभव के साथ चमक उठे, बल्कि उसका कार्य कहीं अधिक जटिल और दुष्कर है, क्योंकि वह एक विकसनशील प्राणी है और विश्वप्रकृति ने उसे अपने विकास के द्वारा, जिसका वह एक भाग है, एक निम्न कोटि के ज्ञान से ही सज्जित किया है, और ज्ञान की यह निम्न या मानसिक शक्ति अपनी दृढ़ाग्रही अभ्यस्त-क्रिया के द्वारा अपनी प्रकृति से अधिक महान् किसी नयी रचना में बाधा डालती है । सीमित ऐन्द्रिय मन को आलोकित करनेवाली सीमित मनोमय बुद्धि, तथा तर्क के प्रयोग के द्वारा उसका प्रचुर विस्तार करने की क्षमता जिसे सदा सम्यक्तया उपयोग में नहीं लाया जाता--ये दो ही वे शक्तियां हैं जिनके कारण आज अन्य सब पार्थिव प्राणियों से उसका भेद किया जाता है । यह इन्द्रियाश्रित मन, यह बुद्धि, यह तर्कशक्ति कितने ही अपूर्ण क्यों न हों फिर भी यही वे करण हैं जिनमें उसने विश्वास करना सीखा है और इनकी सहायता से उसने कुछ ऐसी आधारशिलाएं रखी हैं जिन्हें हिलाने के लिये वह उद्यत नहीं है, तथा ऐसी सीमा-रेखाएं खींची हैं जिनके बाहर पैर रखने में उसे निरी अव्यवस्था, अनिश्चितता एवं संकटपूर्ण साहस-यात्रा ही दिखायी देती हैं । अपिच, उच्चतर तत्त्व में संक्रमण करने का अभिप्राय उसके सम्पूर्ण मन, तर्कशक्ति और बुद्धि का दुष्कर रूपान्तर ही नहीं है बल्कि एक अर्थ में यह उनकी सब पद्धतियों का आमूल परिवर्तन भी है । अन्तरात्मा परिवर्तन की एक द्विधा-संकुल निर्णायक रेखा के ऊपर आरोहण करने पर देखती है कि उसकी पुरानी सभी क्रियाएं एक निम्नतर एवं अज्ञानयुक्त व्यापार के समान थीं और तब उसे एक अन्य प्रकार की क्रिया करनी होती है जो एक भिन्न आरम्भ-बिन्दु से शुरू होती है तथा जिसमें सत्ता की शक्ति का प्रचालन बिलकुल और ही प्रकार का होता है । यदि पशु के मन को तर्कशील बुद्धि के संकटपूर्ण साहस के लिये ऐन्द्रिय आवेग, ऐन्द्रिय समझ तथा सहजप्रेरणा के सुरक्षित आधार को चेतनतापूर्वक छोड़ने को कहा जाये तो वह सम्भवतः भयभीत होकर तथा अनिच्छावश इस प्रकार के प्रयत्न से पीठ फेर लेगा । मानसिक चेतना के रूपान्तर के कार्य में मानव-मन का इससे कहीं महान् परिवर्तन साधित करने के लिये आह्वान किया जायेगा और यद्यपि वह अपनी शक्यता के क्षेत्र में आत्म-सचेतन तथा साहसपूर्ण है तथापि वह सहज ही इसे अपने क्षेत्र से परे का मानकर ऐसे साहस-कार्य का परित्याग कर सकता है । सच पूछो तो यह
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परिवर्तन तभी साधित हो सकता है यदि पहले हमारी चेतना के वर्तमान स्तर पर आध्यात्मिक विकास सम्पन्न हो जाये और विकास का यह कार्य सुरक्षित रूप से तभी हाथ में लिया जा सकता है जब मन अन्तःस्थित महत्तर आत्मा से सचेतन हो जाये, अनन्त के प्रति प्रेम से उन्मत्त हो उठे और भगवान् तथा उनकी शक्ति के सान्निध्य एवं मार्गदर्शन के सम्बन्ध में निःशंक हो जाये ।
आरम्भ में इस रूपान्तर की समस्या का समाधान इस प्रकार होता है कि हम एक शक्ति की सहायता से, जो मानव-मन में पहले से ही कार्यरत है, एक मध्यवर्ती अवस्था में से गुजरते हैं । इस शक्ति को हम एक ऐसे तत्त्व के रूप में स्वीकार कर सकते हैं जो अपनी प्रकृति में या कम-से-कम अपने उद्गम में अतिमानसिक है, यह अन्तर्ज्ञान की क्षमता है, एक ऐसी शक्ति है जिसकी उपस्थिति और क्रियाओं को हम अनुभव कर सकते हैं । जब यह कार्य करती है तो हम इसकी उच्च कोटि की कार्यदक्षता, ज्योति, साक्षात् अन्तःप्रेरणा एवं सामर्थ्य से प्रभावित होते हैं, पर हम इसे उस प्रकार हृद्गत या विश्लेषित नहीं कर सकते जिस प्रकार हम अपनी बुद्धि की क्रियाओं को हृद्गत या विश्लेषित करते हैं । तर्कबुद्धि अपने स्वरूप को तो समझती है, पर जो तत्त्व उससे परे है उसे वह नहीं समझती, --उसका तो वह केवल एक सामान्य आकार या प्रतिरूप ही बना सकती है; केवल अतिमानस ही अपनी क्रियाओं की प्रणाली को जान सकता है । अन्तर्ज्ञान की शक्ति अभी हमारे अन्दर अधिकांशतः गुप्त ढंग से ही कार्य करती है । वह तर्कशक्ति तथा सामान्य बुद्धि की क्रिया में प्रच्छन्न एवं आवेष्टित या उसके द्वारा अधिकतर आवृत रहकर ही क्रिया करती है । जहांतक वह एक स्पष्ट पृथक् क्रिया के रूप में बाहर प्रकट होती भी है वहांतक भी वह कभी-कभी, आंशिक एवं खण्डात्मक रूप में तथा रुक-रुककर ही प्रकट होती है । वह एक आकस्मिक प्रकाश फेंकती है, एक ज्योतिर्मय सुझाव देती है अथवा एक एकाकी उज्जल संकेत-सूत्र फेंक देती है या फिर कुछ-एक पृथक्-पृथक् या सम्बद्ध अन्तर्ज्ञानों, भास्वर विवेकों, अन्तःप्रेरणाओं या साक्षात्कारों को बिखेर देती है, और इस बात को तर्कशक्ति, संकल्प-बल, मानसिक बोधशक्ति या बुद्धि पर छोड़ देती है कि हमारी सत्ता की गहराइयों या शिखरों से सहायता का यह जो बीज उन्हें प्राप्त दुआ है उसके साथ उनमें से प्रत्येक जो कुछ कर सके या करना चाहे वह करे । मानसिक शक्तियां तुरन्त ही इन वस्तुओं पर अपना अधिकार जमाने में तथा हमारे मन या प्राण के कार्यों के लिये इनका संचालन एवं उपयोग करने, इन्हें निम्न ज्ञान के रूपों के अनुकूल बनाने, मानसिक सामग्री और सुझाव के भीतर लपेट देने या इनके अन्दर उनका संचार करने में लग जाती हैं । इस प्रक्रिया में वे प्रायः ही इनके सत्य में हेरफेर कर देती हैं और इनमें उक्त वस्तुओं की मिलावट करके तथा इन्हें निम्नतर करण की आवश्यकताओं के प्रति इस प्रकार अधीन करके वे इनकी
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आलोकदायिनी गुप्त शक्ति को सदा ही सीमित कर देती है । प्रायः सदा ही वे इन्हें एक ओर तो जरूरत से बहुत ही कम महत्त्व देती हैं, पर साथ ही दूसरी ओर इनका महत्त्व अत्यधिक बढ़ा भी देती हैं, महत्त्व कम तो इस प्रकार करती हैं कि इन्हें स्थिर होने के लिये तथा आलोकदान के हित अपनी पूरी शक्ति का विस्तार करने के लिये समय ही नहीं देतीं, महत्त्व को बढ़ाती इस प्रकार हैं कि वे इनपर, बल्कि असल में मन इन्हें जिस रूप में परिणत कर देता है उसपर, अत्यधिक आग्रह करती हैं, यहांतक कि अन्तर्ज्ञानशक्ति का अधिक संगत प्रयोग करने से जिस विशालतर सत्य की प्राप्ति हो सकती थी उसे बहिष्कृत ही कर देती हैं । इस प्रकार साधारण मानसिक क्रियाओं में हस्तक्षेप करती हुई अन्तर्ज्ञानशक्ति विद्युत् की प्रभाओं के रूप में कार्य करती है जो सत्य के एक प्रदेश को आलोकित कर देती हैं, पर यह सूर्य की वह स्थिर ज्योति नहीं है जो हमारे विचार, संकल्प, भाव और कर्म के सम्पूर्ण विस्तृत क्षेत्र और राज्य को सुरक्षित रूप से प्रकाशमान कर देती है ।
इससे यह तुरन्त ही प्रत्यक्ष हो जाता है कि इस ओर प्रगति करने के लिये दो आवश्यक दिशाएं हैं जिनका हमें अनुसरण करना चाहिये । पहली यह है कि हम अन्तर्ज्ञान की क्रिया का विस्तार करते जायें तथा उसे अधिक स्थिर, दृढ़, नियमित एवं सर्वग्राही बनाते चले जायें जिससे अन्त में वह हमारी सत्ता के लिये इतनी अन्तरंग और सामान्य हो जाये कि जो-जो कार्य आज साधारण मन के द्वारा किये जाते हैं उन सभी को वह अपने हाथ में ले सके तथा सम्पूर्ण आधार में उसका स्थान ग्रहण कर सके । यह कार्य पूर्ण रूप से तबतक नहीं किया जा सकता जबतक साधारण मन स्वतन्त्र कार्य और हस्तक्षेप करने की अपनी शक्ति को या अन्तर्ज्ञान की ज्योति पर अधिकार जमाकर उसे अपने कार्यों के लिये प्रयुक्त करने के अपने स्वभाव को बलपूर्वक समर्थित करता रहता है । उच्चतर मन तबतक पूर्ण या सुरक्षित नहीं बन सकता जबतक निम्न बुद्धि उसे विकृत करने में अथवा यहांतक कि उसके अन्दर अपना किसी प्रकार का मिश्रण करने में भी समर्थ रहती है । और, उस दशा में हमें या तो बुद्धि को तथा बौद्धिक संकल्प एवं अन्य निम्न क्रियाओं को सर्वथा शान्त करके केवल अन्तर्ज्ञान की क्रिया को ही अवकाश देना होगा या फिर निम्न क्रिया को अपने अधिकार में लाकर अन्तर्ज्ञान के सतत दबाव से रूपान्तरित करना होगा । अथवा, इन दोनों विधियों को बारी-बारी से एवं मिलाकर प्रयुक्त करना होगा यदि यही उपाय सबसे अधिक स्वाभाविक हो या यदि यह किंचित् भी सम्भव हो । योग की क्रियात्मक प्रक्रिया एवं अनुभव यह दिखलाता है कि अनेक विधियां या क्रियाएं सम्भव हैं जिनमें से कोई भी अकेली व्यवहार में पूरा परिणाम उत्पन्न नहीं करती, भले प्रथम दृष्टि में ऐसा प्रतीत क्यों न हो कि तर्कतः प्रत्येक विधि या क्रिया परिणाम उत्पन्न करने के लिये पर्याप्त होनी चाहिये या हो सकती है । और जब हम किसी विशेष विधिपर एकमात्र यथार्थ विधि के रूप
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में आग्रह न करना सीख जाते हैं तथा सम्पूर्ण क्रिया को एक महत्तर पथ-प्रदर्शन पर छोड़ देते हैं तो हम देखते हैं कि योग का दिव्य स्वामी हमारी सत्ता और प्रकृति की आवश्यकता और दिशा के अनुसार विभिन्न समयों पर किसी एक या दूसरी विधि का किंवा एक साथ सभी का उपयोग करने का कार्य अपनी शक्ति को सौंप देता है ।
पहले-पहल ऐसा प्रतीत होगा कि मन को सर्वथा नीरव कर देना, बुद्धि, मानसिक और वैयक्तिक संकल्प, कामनामय मन तथा भावप्रधान एवं संवेदनात्मक मन को नीरव कर देना और उस पूर्ण नीरवता में परम पुरुष, परम आत्मा एवं भगवान् को स्वयं प्रकट होने देना तथा अतिमानसिक ज्योति, शक्ति एवं आनन्द के द्वारा अपनी सत्ता को आलोकित करने का कार्य उनपर छोड़ देना ही सीधा और ठीक मार्ग है, और निःसंदेह यह एक महती और शक्तिशालिनी साधना है । स्थिर और शान्त मन ही क्षुब्ध और सक्रिय मन की अपेक्षा कहीं अधिक आसानी से और अधिक महान् पवित्रता के साथ अनन्त की ओर खुलता है, परम आत्मतत्त्व को प्रतिबिम्बित करता है, परम आत्मा से ओतप्रोत हों जाता है और एक समर्पित एवं परिपूत मन्दिर की भांति हमारी समस्त सत्ता और प्रकृति के प्रभु के प्रादुर्भाव की प्रतीक्षा करता है । यह ठीक भी है कि इस नीरवता की स्वतन्त्रता अन्तर्ज्ञानात्मक सत्ता की बृहत्तर लीला को सम्भव बना देती है तथा अन्दर से उद्भूत या ऊपर से अवतरित होनेवाले महान् अन्तर्ज्ञानों, अन्त:प्रेरणाओं और साक्षात्कारों को मानसिक अन्धान्वेषण एवं आक्रमण की किसी बड़ी बाधा और गड़बड़ी के बिना प्रवेश करने देती है । अंत: यह एक बड़ी भारी प्राप्ति होगी कि हम मन की एक पूर्ण शान्ति एवं नीरवता को, जो मानसिक चिन्तन या हलचल और क्षोभ की किसी भी आवश्यकता से मुक्त हो, अपनी इच्छा के अनुसार आयत्त करने में सदा समर्थ होने की योग्यता प्राप्त कर सकें तथा उस नीरवता की नींव पर स्थित होकर, अपने अन्दर विचार, संकल्प और वेदन को तभी घटित होने दें जब भागवत शक्ति ऐसा चाहे और जब भागवत उद्देश्य के लिये ऐसा होना आवश्यक हो । तब विचार, संकल्प और वेदन के ढंग तथा स्वरूप को परिवर्तित करना अधिक सुगम हो जाता है । तथापि यह कहना ठीक नहीं कि इस विधि से अतिमानसिक ज्योति तुरन्त ही निम्न मन तथा चिन्तनशील बुद्धि का स्थान ले लेगी । नीरवता के बाद जब आन्तरिक क्रिया शुरू होगी, तब वह चाहे प्रधानतया अन्तर्ज्ञानात्मक चिन्तना और क्रिया ही क्यों न हो, फिर भी पुरानी शक्तियां हस्तक्षेप करेंगी, यदि वे अन्दर से हस्तक्षेप नहीं कर सकेंगी तो बाहर से सैंकड़ो सुझावों के द्वारा करेंगी, साथ ही एक निम्नतर मानसिकता उसके अन्दर आकर मिल जायेगी, महत्तर क्रिया के बारे में सन्देह उत्पन्न करेगी अथवा उसमें बाधा डालेगी या उसपर अधिकार जमाने की चेष्टा करेगी तथा ऐसा करते हुए उसे क्षुद्रतर या अन्धकारमय या विकृत करने या उसका मूल्य अधिक-से-
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अधिक गिराने का यत्न करेगी । अतएव, निम्न मन के उच्छेद या रूपान्तर की प्रक्रिया की आवश्यकता सदा ही अटल रूप में बनी रहती है, -या शायद उच्छेद और रूपान्तर दोनों ही एक साथ आवश्यक होते हैं, जो चीजें निम्न सत्ता के सहजात अङग हैं उन सबका उच्छेद, उसके विरूपताजनक गुण-धर्मों का, मृल्य को कम करने तथा तत्त्व को विकृत करने की उसकी वृत्तियों का तथा ऐसी अन्य सभी वस्तुओं का उच्छेद जिन्हें महत्तर सत्य आश्रय नहीं दे सकता, और उन तात्त्विक वस्तुओं का रूपान्तर जिन्हें हमारा मन अतिमानस और आत्म-तत्त्व से ग्रहण करता है, पर जिन्हें वह मानसिक अज्ञान के ढंग से अज्ञानमय रूपों में प्रस्तुत करता है ।
दूसरी क्रिया या विधि वह है जो भक्तिमार्ग के अपने विशेष साधनसूत्र के साथ योगाभ्यास का आरम्भ करनेवाले लोगों के सामने स्वभावत: ही उपस्थित होती है । उनके लिये यह स्वाभाविक ही है कि वे बुद्धि और उसकी क्रिया को त्यागकर अन्तर्वाणी पर कान दें, प्रेरणा या आदेश की प्रतीक्षा करें, अपने अन्तरस्थ ईश्वर के, प्राणिमात्र के हृदय में अवस्थित भागवत आत्मा एवं पुरुष के, ईश्वर: सर्वभूतानां ह्रद्देशे, विचार, संकल्प और शक्ति का ही अनुसरण करें, यह एक ऐसी क्रिया या विधि है जो अवश्य ही सारी-की-सारी प्रकृति को अधिकाधिक अन्तर्ज्ञानमय करती चली जायेगी, क्योकि हृदय में रहनेवाले निगूढ़ पुरुष से जो विचार, संकल्प, प्रेरणाएं और भाव आते हैं उनका स्वरूप प्रत्यक्ष अन्तर्ज्ञान का ही होता है । यह विधि हमारी प्रकृति के एक विशेष सत्य के साथ मेल खाती है । हमारे अन्दर का निगूढ़ आत्मा अन्तर्ज्ञानमय आत्मा है और यह अन्तर्ज्ञानमय आत्मा हमारी सत्ता के प्रत्येक केन्द्र में, अर्थात् भौतिक, स्नायविक, भाविक, संकल्पात्मक, प्रत्ययात्मक या बोधात्मक केन्द्रों में तथा इनसे ऊपर के उन केन्द्रों में भी स्थित है जो अधिक प्रत्यक्ष रूप से आध्यात्मिक हैं और हमारी सत्ता के प्रत्येक भाग में यह हमारे कार्यों का आरम्भ करानेवाली एक गुप्त अन्तर्ज्ञानात्मक प्रेरणा का सञ्चार करती है जिसे हमारा बाह्य मन अपूर्ण रूप से ग्रहण तथा प्रकट करता है और जो हमारी प्रकृति के इन भागों की बाह्य क्रिया में अज्ञान की चेष्टाओं के रूप में परिणत हो जाती है । चिन्तनात्मक कामनामय मन का भावप्रधान केन्द्र अर्थात् हृदय साधारण मनुष्य में सबसे प्रबल केन्द्र होता है, चेतना के समक्ष पदार्थों के जो रूप प्रस्तुत होते हैं उन्हें वही जुटाता है या कम-से-कम स्थूल रूप प्रदान करता है तथा वही देह-संस्थान का मुख्य केन्द्र है । वहीं से सब भूतों के हृदय में स्थित ईश्वर उन्हें मानसिक अज्ञान की माया के द्वारा इस प्रकार घुमाते हैं मानों वे प्रकृति के यन्त्र पर आरूढ़ हों । सुतरां, अपने कर्म का समस्त आरम्भ इस निगूढ़, अन्तर्ज्ञानमय पुरुष एवं आत्मा को, अपने अन्तःस्थ सदा-उपस्थित परमेश्वर को, सौंपकर और उसके प्रभावों को अपनी व्यक्तिगत एवं मानसिक प्रकृति की प्रेरणाओं के स्थान पर प्रतिष्ठित करके निम्न
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बाह्य चिन्तन और कर्म से एक अन्य प्रकार के, आभ्यन्तरिक एवं अन्तर्ज्ञानात्मक तथा अत्यन्त अध्यात्मभावित चिन्तन और कर्म पर पहुंचना सम्मव है । तथापि इस क्रिया या विधि का परिणाम सर्वांगपूर्ण नहीं हो सकता, क्योंकि हृदय हमारी सत्ता का सर्वोच्च केन्द्र नहीं है, वह न तो अतिमानसिक केन्द्र है और न सीधे तौर पर अतिमानसिक उद्गमों से परिचालित ही होता है । इस केन्द्र के द्वारा परिचालित अन्तर्ज्ञानात्मक चिन्तन एवं कर्म अत्यन्त प्रकाशपूर्ण और गभीर हो सकता है, पर वह अपनी तीव्रता में सीमित, यहांतक कि संकुचित भी हो सकता है, निम्न आवेगमय क्रिया से मिश्रित हो सकता है, और अपनी सर्वोत्तम अवस्था में भी वह अपनी क्रिया की या कम-से-कम अपने बहुत-से सहचारी तत्त्वों की अद्भुतता या असामान्यता के कारण उत्तेजित एवं विक्षुब्ध हो सकता है, असंतुलित या अतिरञजित हो सकता है । यह चीज सत्ता की समस्वरित पूर्णता के लिये हानिकारक है । पूर्णता--प्राप्ति के हमारे प्रयत्न का लक्ष्य यह होना चाहिये कि आध्यात्मिक एवं अतिमानसिक क्रिया आगे के लिये एक चमत्कार न रहे, भले वह चमत्कार बारम्बार या निरन्तर ही क्यों न घटित होता हो, न वह हमारी प्राकृतिक शक्ति से महत्तर किसी शक्ति का ज्योतिर्मय हस्तक्षेपमात्र बना रहे, बल्कि वह हमारी सत्ता की एक सामान्य क्रिया तथा उसकी समस्त पद्धति का वास्तविक स्वरूप एवं नियम ही बन जाये ।
हमारी देहबद्ध सत्ता का और देह में होनेवाले उसके कार्य का सर्वोच्च सुव्यवस्थित केन्द्र है--परमोच्च मनोमय केन्द्र जिसका चित्रण योगियों ने सहस्रदल कमल के यौगिक प्रतीक के द्वारा किया है, और उसके शिखर तथा सर्वोच्च चूड़ा पर ही अतिमानसिक स्तरों के साथ सीधा सम्बन्ध स्थापित होता है । तब एक भिन्न प्रकार की एवं अधिक सीधी पद्धति का अवलम्बन करना सम्भव हो जाता है, वह पद्धति यह है कि अपने समस्त चिन्तन और कर्म का निर्णय ह्रत्पद्म में प्रच्छन्न प्रभु पर नहीं, बल्कि मन के ऊपर स्थित भगवान् के आवृत सत्य पर छोड़ा जाये और सब कुछ ऊपर से एक प्रकार के अवतरण के द्वारा प्राप्त किया जाये, इस अवतरण के प्रति हम तब आध्यात्मिक ही नहीं, भौतिक रूप से भी सचेतन हो जाते हैं । इस क्रिया की सिद्धि या सम्पूर्ण पूर्णता तभी प्राप्त हो सकती है जब हम चिन्तन और सचेतन कर्म के केन्द्र को भौतिक मस्तिष्क से ऊपर ले जाने में तथा उन्हें सूक्ष्म शरीर के अन्दर घटित होते हुए अनुभव करने में समर्थ हो जायें । यदि हम अपने को पहले की तरह मस्तिष्क से नहीं, बल्कि सिर के ऊपर और बाहर के किसी केन्द्र से सूक्ष्म शरीर में चिन्तन करते हुए अनुभव कर सकें, तो वह भौतिक मन की सीमाओं से मुक्ति का अचूक स्थूल चिह्न है, और यद्यपि यह अवस्था एकदम ही पूर्ण नहीं हो जायेगी, न यह अकेली अपने-आपमें अतिमानसिक क्रिया को जन्म ही दे देगी, क्योंकि सूक्ष्म शरीर मन का बना हुआ है अतिमानस का नहीं, तथापि
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यह सूक्ष्म और विशुद्ध मन की अवस्था है और अतिमानसिक केन्द्रों के साथ आदान-प्रदान को अधिक सुगम बना देती है । निम्नतर क्रियाएं फिर भी प्रकट होंगी, पर तब एक द्रुत और सूक्ष्म विवेकपूर्ण निर्णय पर पहुंचना अधिक सुगम प्रतीत होता है । वह निर्णय हमें तुरन्त ही दोनों क्रियाओं में भेद बतला देता है, अन्तर्ज्ञानात्मक विचार को निम्नतर बौद्धिक मिश्रण से अलग करके दिखला देता है, उसे उसके मानसिक आवरणों से निर्मुक्त कर देता है, मन की उन निरी वेगमय गतियों को अस्वीकार कर देता है, जो अन्तर्ज्ञान के वास्तविक सार से रहित होती हुई भी उसके बाह्य रूप का अनुकरण करती हैं । तब सच्ची अतिमानसिक सत्ता के उच्चतर स्तरों को शीघ्र ही अनुभव करना और अभिष्ट रूपान्तर की सिद्धि के लिये उनकी शक्ति का यहां आवाहन करना अधिक सुगम हो जायेगा । साथ ही यह भी अधिक सहज हो जायेगा कि हम समस्त निम्नतर कार्यों को उच्चतर शक्ति एवं ज्योति के हाथों में सौंप दें ताकि वह उनका परित्याग एवं बहिष्कार या शोधन एवं रूपान्तर कर सके तथा हमारे अन्दर जिस परम सत्य का संघटन करना है उसके लिये उनमें समुचित सामग्री का चुनाव कर सके । एक उच्चतर भूमिका का तथा उसके अधिकाधिक उच्च स्तरों का इस प्रकार उद्घाटित होना और इसके परिणामस्वरूप हमारी सम्पूर्ण चेतना और उसके कार्य का उनके सांचे में ढलकर पुन: गठित होना तथा उनकी शक्ति एवं ज्योतिर्मय सामर्थ्य के सारतत्त्व में रूपान्तरित होना ही, व्यवहार में, भागवत शक्ति के द्वारा प्रयुक्त होनेवाली प्राकृतिक पद्धति का अधिक बड़ा भाग प्रतीत होता है ।
चौथी विधि वह है जो विकसित बुद्धि के समक्ष स्वभावत: ही प्रस्तुत होती है और चिन्तनशील मनुष्य के अनुकूल है । वह यह है कि हम अपनी बुद्धि का बहिष्कार करने के स्थान पर उसका विकास करें, पर यह विकास हमें इस संकल्प के साथ करना चाहिये कि हमें उसकी सीमाओं को न पाल-पोसकर उसकी शक्ति, ज्योति एवं प्रखरता को तथा उसकी क्रिया के स्तर और शक्ति-सामर्थ्य को उन्नत करते जाना है जिससे कि अन्त में वह अपने से परे के तत्त्व के किनारे पर पहुंच जाये और उसकी उच्चतर सचेतन क्रिया में सहज ही उन्नीत और रूपान्तरित हो सके । साधना की यह क्रिया (विधि) भी हमारी प्रकृति के सत्य पर आधारित है और आत्मसिद्धि के सर्वांगीण योग की क्रिया-प्रक्रिया में स्थान पाती है । जैसा हम पहले कह आये हैं, इस क्रिया-प्रक्रिया का एक अङ्ग यह भी है कि हम अपने प्राकृत करणों और शक्तियों की क्रिया को उन्नत और महान् बनाते जायें । इस प्रकार अन्त में जब वे शुद्धता और सारभूत अविकलता प्राप्त कर लेते हैं तो हमारे अन्दर कार्य करनेवाली शक्ति की वर्तमान सामान्य क्रिया की प्रारम्भिक पूर्णता साधित हो जाती है । तर्कशक्ति एवं बुद्धिमूलक संकल्प अर्थात् बुद्धि इन शक्तियों और करणों में सबसे महान् है, विकसित मनुष्य में वह शेष सब करणों की
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स्वाभाविक नेत्री है, अन्यों के विकास में सहायता करने में सर्वाधिक समर्थ है । हमारी प्रकृति की साधारण क्रियाएं एवं प्रवृत्तियां सब-की-सब, हमारी अभिलषित महत्तर पूर्णता के लिये उपयोगी हैं, उनके अस्तित्व का प्रयोजन ही यह है कि उन्हें महत्तर एवं पूर्णतर क्रिया के उपादान में परिणत किया जाये और उनका विकास जितना अधिक महान् होगा, अतिमानसिक क्रिया की तैयारी उतनी ही अधिक समृद्ध होगी ।
योग में भागवत शक्ति को बौद्धिक सत्ता को भी हाथ में लेना होगा और उसे उसकी पूर्णतम एवं उन्नततम शक्तियोंतक ऊंचे उठा ले जाना होगा । उसके बाद बुद्धि का रूपान्तर हो सकता है, क्योंकि बुद्धि का समस्त कार्य-व्यापार गुप्तरूपेण अतिमानस से ही उद्भूत होता है, प्रत्येक विचार और संकल्प में उसका कुछ सत्य समाविष्ट होता है, भले वह बुद्धि की निम्न क्रिया के द्वारा कितना ही सीमित और परिवर्तित क्यों न हो गया हो । सीमा-मर्यादा को दूर करके तथा विरूप या विकृत करनेवाले तत्त्व का उच्छेद करके रूपान्तर साधित किया जा सकता है । पर यह कार्य केवल बौद्धिक क्रिया को उच्च और महत् बनाकर ही सिद्ध नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह तो मनोमय बुद्धि के मूल सहजात दोषों के द्वारा सदा ही सीमित रहेगी । अतएव, अतिमानसिक शक्ति का हस्तक्षेप आवश्यक है जो उसकी विचार, संकल्प और वेदन-सम्बन्धी अपूर्णताओं को आलोकित करके दूर कर सके । यह हस्तक्षेप भी तबतक पूर्णतया प्रभावकारी नहीं हो सकता, जबतक कि अतिमानसिक स्तर अभिव्यक्त नहीं हों जाता और, पहले की तरह आवरण या पर्दे के पीछे से नहीं, भले वह पर्दा कितना ही पतला क्यों न हो गया हो, --बल्कि एक सुस्पष्ट और ज्योतिर्मय क्रिया के द्वारा, अधिक सतत भाव के साथ, मन के ऊपर से कार्य नहीं करने लगता । इस प्रकार अन्ततोगत्वा सत्य के सूर्य का परिपूर्ण मण्डल दिखायी देने लगता है जिसकी प्रभा को कोई भी मेघ कम नहीं कर सकता । यह भी आवश्यक नहीं हैं कि हस्तक्षेप के लिये अतिमानसिक शक्ति का आवाहन करने या उसके द्वारा अतिमानसिक स्तरों को उन्मुक्त करने से पहले बुद्धि को पृथक् रूप से पूर्णतया विकसित कर लिया जाये । हस्तक्षेप पहले भी आरम्भ हो सकता है और बौद्धिक क्रिया को तुरन्त ही विकसित कर सकता है तथा जैसे-जैसे वह विकसित हो वैसे-वैसे उसे उच्चतर अन्तर्ज्ञानात्मक रूप और सारतत्त्व में रूपान्तरित कर सकता है ।
भागवत शक्ति की विशालतम स्वाभाविक क्रिया इन सब विधियों को मिलाकर प्रयुक्त करती है । वह कभी तो साधना की पहली ही अवस्था में और कभी किसी बाद की या शायद सबसे अन्तिम अवस्था में आध्यात्मिक निश्चल-नीरवता-रूपी मुक्ति को जन्म देती है । वह स्वयं मन में भी गुप्त अन्तर्ज्ञानात्मक सत्ता को खोल देती है और हमारे अन्दर ऐसा अभ्यास डालती है कि हम अपने समस्त विचार,
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भाव, संकल्प और कर्म की प्रेरणा उन भगवान् से, ज्योतिर्मय एवं शक्तिस्वरूप भगवान् से ही प्राप्त किया करें जो आज मन की निभृत गुहाओं के अन्तस्तल में छुपे हुए हैं । जब हम तैयार हो जाते हैं तो वह उसकी क्रियाओं के केन्द्र को मनोमय भूमिका के शिखरतक उठा ले जाती है तथा अतिमानसिक स्तरों को खोल देती है और दो क्रियाओं के द्वारा अपने कार्यपथ पर आगे बढ़ती है । उनमें से एक क्रिया वह है जो ऊपर से निम्न स्तरों पर कार्य करती है तथा निम्न प्रकृति को पूरित एवं रूपान्तरित करती है । दूसरी क्रिया वह है जो नीचे से ऊपर की ओर गति करती है तथा नीचे की सभी शक्तियों को उस भूमिकातक उठा ले जाती है जो उनसे ऊपर है । ये क्रियाएं तबतक चलती रहती हैं जबतक निम्न भूमिका का अतिक्रमण पूरा नहीं हो जाता तथा सम्पूर्ण आधार का रूपान्तर समग्र रूप से सम्पन्न नहीं हो जाता । वह बुद्धि, संकल्प-वृत्ति तथा अन्य प्राकृत शक्तियों को हाथ में लेकर उनका विकास करती है, पर उनकी क्रिया को रूपान्तरित करने और विशाल बनाने के लिये वह पहले तो अन्तर्ज्ञानात्मक मन को पुनः -पुन: प्रकट करती है और पीछे सच्ची अतिमानसिक शक्ति को भी कार्य क्षेत्र में ले आती है । ये सब कार्य वह किसी ऐसे नियत और यान्त्रिकतया अपरिवर्तनीय क्रम से नहीं करती जिसकी मांग कट्टर तर्कबुद्धि कर सकती है, बल्कि यह सब वह अपने कार्य की आवश्यकताओं तथा प्रकृति की मांग के अनुसार स्वतन्त्र और नमनीय ढंग से करती है ।
इस क्रिया का पहला परिणाम वास्तविक अतिमानस की सृष्टि नहीं बल्कि एक ऐसे बोधिमय मन का संघटन होगा जो प्रमुख रूप से या यहांतक कि पूर्णरूप से अन्तर्ज्ञानात्मक होगा तथा जो विकास-प्राप्त मनुष्य के साधारण मन एवं तर्कशील विवेकबुद्धि का स्थान लेने के लिये पर्याप्त रूप से विकसित हो चुका होगा । सबसे मुख्य परिवर्तन यह होगा कि चिन्तन की क्रिया रूपान्तरित हो जायेगी । वह उच्च स्तर पर उन्नीत होकर घनीभूत ज्योति, घनीभूत शक्ति के तत्त्व से तथा ज्योति एवं शक्ति के घनीभूत आनन्द के तत्त्व से एवं प्रत्यक्ष यथातथता से परिपूरित हो जायेगी । यह ज्योति, शक्ति, आनन्द और यथातथता ही सच्चे अन्तर्ज्ञानात्मक चिन्तन के लक्षण हैं । अन्तर्ज्ञानात्मक मन केवल प्राथमिक सुझाव या द्रुत निर्णय ही नहीं प्रदान करेगा बल्कि जो सम्बन्ध-योजक और विकास-साधक क्रियाएं आज बौद्धिक तर्कशक्ति के द्वारा संचालित होती हैं उन्हें वह इसी ज्योति और शक्ति सें तथा सुनिश्चितता के इसी आनन्द और सत्य के इसी प्रत्यक्ष स्वयंस्फूर्त दर्शन के द्वारा संचालित भी करेगा । संकल्पशक्ति भी इसी अन्तर्ज्ञानात्मक रूप में रूपान्तरित हो जायेगी, 'कर्तव्य कर्म' की ओर ज्योति और शक्ति के साथ सीधे ही अग्रसर होगी और सम्भावनाओं तथा यथार्थताओं पर दुत दृष्टि डालकर वह अपने कार्य एवं उद्देश्य के लिये आवश्यक संयोगों का तुरन्त निर्णय कर डालेगी । वेदन भी अन्तर्ज्ञानात्मक होंगे, वे
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समुचित सम्बन्धों को एकदम अधिकृत कर लेंगे, नयी ज्योति, शक्ति और प्रसन्नतापूर्ण निश्चितता के साथ कार्य करेंगे, जबतक कामनाएं और भावावेश टिके रहेंगे तबतक वे केवल यथोचित और सहज स्फूर्त कामनाओं और भावावेगों को ही सुरक्षित रखेंगे, और जब वे हमारी सत्ता में से निकल जायेंगे तब वे उनके स्थान पर ज्योतिर्मय एवं स्वयंस्फूर्त प्रेम तथा एक ऐसे आनन्द को प्रतिष्ठित करेंगे जो अपने विषयों के यथार्थ रस को जानता है तथा तुरन्त अधिकृत कर लेता है । इनकी अन्य सब क्रियाएं भी इसी प्रकार आलोकित हो जायेंगी और यहांतक कि प्राण तथा इन्द्रियों की क्रियाएं एवं शरीर की चेतना भी प्रकाश से दीप्त हो उठेगी । और प्रायः ही आन्तरिक मन और उसकी इन्द्रियों की उन सूक्ष्म (चैत्य) क्षमताओं, शक्तियों और अनुभूतियों का भी कुछ विकास होगा जो बाह्य स्थूल इन्द्रिय और तर्कबुद्धि पर निर्भर नहीं करतीं । अन्तर्ज्ञानात्मक मन केवल एक अधिक शक्तिशाली और अधिक प्रकाशमय तत्त्व ही नहीं होगा, बल्कि योग के इस विकास के पूर्व एक मनुष्य का साधारण मन जो क्रिया कर सकता है उसका अन्तर्ज्ञानात्मक मन सामान्यतया उससे कहीं अधिक विशाल क्रिया कर सकेगा ।
इस अन्तर्ज्ञानात्मक मन को यदि अपने स्वभाव में पूर्ण बनाया जा सके और यदि यह किसी निम्नतर तत्त्व से मिश्रित न हो और फिर भी अपनी सीमाओं से तथा अपनेसे परे के तत्त्व की महत्ता से अनभिज्ञ हो तो यह पशु के सहज-प्रेरणात्मक मन या मनुष्य के तर्कशील मन की भांति एक अन्य सुनिश्चित स्तर एवं विश्रामस्थल बन सकता है । परन्तु अन्तर्ज्ञानात्मक मन को तबतक स्थायी रूप से पूर्ण एवं स्वयं-समर्थ नहीं बनाया जा सकता जबतक कि उसके ऊपर अवस्थित अतिमानस की शक्ति का द्वार नहीं खुल जाता । यह शक्ति प्रकट होते ही उसकी सीमाएं स्पष्ट दर्शा देती है और उसे बौद्धिक मन तथा सच्ची अतिमानसिक प्रकृति के बीच की एक गौण क्रिया बना देती है । अन्तर्ज्ञानात्मक मन भी आखिर मन ही है, विज्ञान नहीं । निःसंदेह वह अतिमानस से आनेवाला एक प्रकाश है, पर वह प्रकाश जिस मनोमय भूमिका में कार्य करता है उसके तत्त्व के द्वारा विकृत तथा क्षीण हो जाता है, और सदा ही मन के तत्त्व से हमारा मतलब होता है--अज्ञान का आधार । अन्तर्ज्ञानात्मक मन की भूमिका भी सत्य की विशाल सूर्य-ज्योति नहीं बल्कि उसकी दीप्तियों की सतत क्रीड़ा होती है । वे दीप्तियां अज्ञान की या अर्द्धज्ञान तथा अप्रत्यक्ष ज्ञान की एक आधारभूत अवस्था को आलोकित किये रखती हैं । जबतक अन्तर्ज्ञानात्मक मन अपूर्ण होता है, तबतक अज्ञानयुक्त मन अपने मिश्रण के द्वारा उसपर आक्रमण करता रहता है और उसके सत्य पर भ्रांति का जाल बुन देता है । जब वह इस अन्तर्मिश्रण से अधिक मुक्त, एक विशालतर स्वाभाविक क्रिया को प्राप्त कर लेता है तब भी, जबतक उसका कार्यक्षेत्र अर्थात् मन का तत्त्व पुराने बौद्धिक या निम्नतर मानसिक अभ्यास को दुहराने में समर्थ रहता है तबतक उसमें
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भ्रांति की उत्पत्ति एवं वृद्धि हो सकती है और वह अज्ञानान्धकार से आच्छन्न तथा अनेक प्रकार के पतनों में ग्रस्त हो सकता है । अपिच, व्यष्टि-मन अकेला तथा अपने लिये नहीं बल्कि समष्टि-मन में निवास करता है और जो कुछ भी वह त्याग चुका है वह उसके चारों ओर के सामष्टिक मनोमय वातावरण में जाकर मिल जाता है और पुराने सुझावों तथा पुराने मानसिक ढंग के अनेक संकेतों के साथ लौटकर उसपर आक्रमण करने की प्रवृत्ति रखता है । अतएव अन्तर्ज्ञानात्मक मन को, वह विकसित हो रहा हो या हो चुका हो, आक्रमण के और विजातीय वस्तु की वृद्धि के विरुद्ध सतत सावधान रहना होगा, मिश्रणों को त्यागने और बहिष्कृत करने के लिये जागरूक रहना होगा, मन के सम्पूर्ण तत्त्व को अधिकाधिक अन्तर्ज्ञानमय करने में संलग्न रहना होगा, और इसका परिणाम केवल यही हो सकता है कि वह स्वयं आलोकित एवं रूपान्तरित होकर अतिमानसिक सत्ता की पूर्ण ज्योति में उन्नीत हो जायेगा ।
अपिच, मन का यह नया स्तर प्रत्येक मनुष्य में उसकी सत्ता की वर्तमान शक्ति का एक विकसित रूप है और इसके प्रगतिशील रूप कितने ही नये और अद्भुत क्यों न हों, फिर भी इसका सुव्यवस्थित व्यावहारिक रूप शक्ति के एक विशेष क्षेत्रतक ही सीमित है । निःसंदेह यह अपने-आपको हाथ में लिये हुए कार्यतक तथा अपनी चरितार्थ शक्ति के वर्तमान क्षेत्रतक सीमित रख सकता है, पर अनन्त की ओर खुले हुए मन का स्वभाव अपने-आपको विकसित, परिवर्तित और विस्तृत करने का होता है, तथापि अपने उक्त सीमा से परे जाने का साहस करने पर यह वहां अज्ञान में बौद्धिक खोज करने की पुरानी आदत के पुन: अधीन हो जाता है, भले वह आदत नये अन्तर्ज्ञानात्मक अभ्यास के कारण कितनी ही सुधर क्यों न गयी हो । जबतक पूर्णतर, अतिमानसिक ज्योतिर्मय शक्ति की अभिव्यक्त क्रिया इसे निरन्तर अतिक्रम करके इसका मार्गदर्शन नहीं करती तबतक यह पुरानी आदत के अधीन होता ही रहेगा । निःसंदेह इसका स्वरूप यह है कि यह वर्तमान मन और अतिमानस के बीच की एक शृंखला एवं संक्रमणात्मक अवस्था है और जबतक संक्रमण पूरा नहीं हो जाता तबतक कभी-कभी तो निम्न भूमिकाओं की ओर आकर्षण की और कभी-कभी ऊर्ध्वभूमिकाओं की ओर आरोहण की वृत्ति देखने में आती है, एक दोलायमान अवस्था अर्थात् नीचे से आक्रमण और आकर्षण तथा ऊपर से आक्रमण और आकर्षण की अवस्था बनी रहती है; और बहुत हुआ तो दो ध्रुवों के बीच की एक अनिश्चित एवं सीमित अवस्था स्थापित हो जाती है । जिस प्रकार मनुष्य की उच्चतर बुद्धि उसके निम्नस्थ, पाशव, रूढ़िप्रधान मानव-मन तथा ऊर्ध्वस्थ विकसनशील आध्यात्मिक मन के बीच अवस्थित है, उसी प्रकार आध्यात्मिक मन की यह पहली भूमिका बौद्धिक-भावापत्र मानव-मन तथा महत्तर अतिमानसिक ज्ञान के बीच अवस्थित है ।
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मन का स्वरूप यह है कि वह अधूरे प्रकाशों तथा अन्धकार के बीच, सुशक्यताओं और सम्भावनाओं के बीच, पूरी तरह से समझ में न आये हुए पहलुओं के बीच, अनिश्चितताओं और अर्द्धनिश्चितताओ के बीच निवास करता है : वह एक प्रकार का अज्ञान है जो ज्ञान को पकड़ में लाने की चेष्टा कर का है, अपने-आपको विशाल बनाने का यत्न कर रहा है और सच्चे विज्ञान के प्रच्छन्न रूप को उघाड़ने के लिये दबाव डाल रहा है । अतिमानस आध्यात्मिक निश्चितताओं की ज्योति में निवास करता है : वह मनुष्य के लिये एक ऐसा ज्ञान है जो अपनी सहजात ज्योति के वास्तविक रूप को प्रकट कर देता है । अन्तर्ज्ञानात्मक मन पहले-पहल एक ऐसे तत्त्व के रूप में प्रकट होता है जो मन के अर्द्ध-प्रकाशो, उसकी शक्यताओं और सम्भावनाओं, उसके नाना पहलुओं, उसकी अनिश्चित निश्चितताओं तथा स्थापनाओं को अपनी विद्युत्प्रभाओं से आलोकित करता है और इन वस्तुओं के द्वारा गोपित या अर्द्धगोपित एवं अर्द्ध-व्यक्त सत्य को प्रकाशित करता है । अपनी उच्चतर क्रिया में वह अतिमानसिक सत्य की प्रथम रश्मि लाता है । उसके लिये उसके साधन ये हैं--निकटतर प्रत्यक्षता के साथ साक्षात्कार, आत्मा के ज्ञान का ज्योतिर्मय संकेत या स्मृति, सत्ता के गुप्त विराट् अन्तर्दर्शन एवं ज्ञान के द्वारों में से अन्तर्ज्ञान प्राप्त करना या अन्दर देखना । यह उस महत्तर ज्योति एवं शक्ति का प्रारम्भिक और अपूर्ण सुगठित रूप है, अपूर्ण इसलिये कि वह उसकी चेतना के सहजात तत्त्व पर आधारित नहीं है बल्कि मन की भूमिका में गठित किया गया है, वह उसके साथ सतत सम्पर्क रखता है, पर उसकी सर्वथा प्रत्यक्ष एवं शाश्वत उपस्थिति को मूर्त रूप में प्रकट नहीं करता । पूर्ण सिद्धि तो इससे परे अतिमानसिक स्तरों में निहित है और इसका आधार मन के तथा हमारी सम्पूर्ण प्रकृति के अधिक निश्चयात्मक एवं पूर्ण रूपान्तर पर प्रतिष्ठित है ।
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