Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय १३१
अतिमानस और कर्मयोग
पूर्णयोग सम्पूर्ण सत्ता के एक उच्चतर आध्यात्मिक चेतना एवं विशालतर दिव्य अस्तित्व में रूपान्तर को अपने समग्र और चरम लक्ष्य के अन्दर एक महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य अंग के रूप में समाविष्ट करता है । हमारे संकल्प और कर्म करनेवाले अंगों को, हमारे ज्ञान-प्राप्ति के करणों को, हमारे मनोमय, भावमय और प्राणमय पुरुष को, किंबहुना हमारी समस्त सत्ता और प्रकृति को भगवान् की खोज करनी होगी, अनन्त में प्रवेश करना तथा सनातन के साथ एकमय होना होगा । परन्तु मनुष्य की वर्तमान प्रकृति सीमित, विभक्त तथा विषम है, --उसके लिये सब से सुगम यह है कि वह अपनी सत्ता के सबसे प्रबल भाग में अपने-आपको केन्द्रित करके विकास की एक ऐसी सुनिश्चित धारा का अनुसरण करे जो उसकी प्रकृति के लिये उपयुक्त हो । भगवान् की अनन्तता के सागर में सीधे ही और एकदम एक विशाल डुबकी लगाने की सामर्थ्य तो केवल विरले ही लोगों में होती है । अतएव, कुछ लोगों को अपने अन्दर परम आत्मा के सनातन सत्यस्वरूप को पाने के लिये चिन्तन या मनन की एकाग्रता या मन की एकनिष्ठता को आरम्भबिन्दु के रूप में चुनना पड़ता है; कुछ दूसरे लोग भगवान् किंवा सनातन से मिलने के लिये अन्तर्मुख होकर हृदय के भीतर अपेक्षाकृत अधिक सुगमता से प्रवेश कर सकते हैं; फिर कुछ अन्य लोग प्रधान रूप से गतिशक्तिमय एवं क्रियाशील होते हैं; इनके लिये अपने-आपको संकल्पशक्ति में केन्द्रित करके कर्मों के द्वारा अपनी सत्ता को विस्तारित करना सर्वोत्तम होता है । सबके परम आत्मा एवं उद्गम की अनन्तता के प्रति अपनी संकल्पशक्ति समर्पित करके और उस समर्पण के द्वारा उसके साथ एकत्व लाभ करके, अपने कर्मों में अपने अन्तःस्थ गुप्त भगवान् के द्वारा परिचालित होते हुए अथवा विश्व-व्यापार के स्वामी को अपने विचार, वेदन और कर्म की समस्त शक्तियों के प्रभु और प्रेरक समझते हुए उनके प्रति समर्पित होकर, अपनी सत्ता के इस विस्तार के द्वारा अहंरहित तथा विश्वमय बन कर, वे कर्मों के मार्ग से आध्यात्मिक अवस्था की किसी प्रकार की प्राथमिक पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं । परन्तु मार्ग का आरम्भबिन्दु कोई भी क्यों न हों, वह आगे अपनी संकीर्ण परिधि से निकलकर बृहत्तर प्रदेश में पहुंच ही जायेगा; अन्त में उसे सुसमन्वित ज्ञान और भावावेग की, शक्तिमय कर्म के संकल्प की तथा हमारी सत्ता और समस्त प्रकृति
१ लेखक का विचार इस ग्रन्थ को कुछ परिवर्द्धित करने का था । पर यह कार्य पूरा नहीं हो सका । प्रस्तुत अध्याय उस परिवर्द्धन का ही एक अंश है । यह यहां पहली बार ही प्रकाशित हो रहा है ।
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के पूर्णत्व की समग्रता के द्वारा ही आगे बढ़ना होगा । अतिमानसिक चेतना में, अतिमानसिक सत्ता के स्तर पर यह समन्वय या समग्रीकरण अपनी पूर्णता के शिखर पर पहुंच जाता है; वहा ज्ञान, संकल्प, भावावेग, आत्मा और सक्रिय प्रकृति की पूर्णता--इनमें से प्रत्येक अपने पूर्ण एवं निरपेक्ष स्वरूप तक ऊंचे उठ जाता है और ये सभी एक-दूसरे के साथ पूर्ण सामंजस्य, परस्पर-विलय एवं ऐक्य, दिव्य समग्रता और दैवी पूर्णता तक उन्नीत हो जाते हैं । कारण, अतिमानस एक सत्य-चेतना है जिसमें भागवत सत्ता पूर्णतया अभिव्यक्त होकर, आगे से अज्ञान के करणों के द्वारा कार्य नहीं करती; सत्ता की स्थितिशीलता का सत्य, जो पूर्ण और निरपेक्ष है, उसी सत्ता की शक्ति और क्रिया के सत्य में, जो स्वयंसत् और सर्वागपूर्ण है, क्रियशील बन जाता है । वहां प्रत्येक गति भागवत सत्ता के आत्म-सचेतन सत्य की गति है और प्रत्येक खण्ड समग्र के साथ पूर्णतया सुसंगत है । सत्य-चेतना में अत्यन्त सीमित एवं सान्त क्रिया भी सनातन एवं अनन्त की एक गति होती है और सनातन एवं अनन्त की स्वभावसिद्ध निरपेक्षता और पूर्णता में से अपना भाग ग्रहण करती है । अतिमानसिक सत्य की ओर आरोहण न केवल हमारी आध्यात्मिक और मूलभूत चेतना को उस ऊंची चोटी तक उठा ले जाता है, बल्कि हमारी संपूर्ण सत्ता में तथा हमारी प्रकृति के सभी भागों में भी इस ज्योति और सत्य का अवतरण साधित कर देता है । तब सभी कुछ भागवत सत्य का एक अंग तथा परमोच्च मिलन एवं एकत्व का एक तत्त्व एवं साधन बन जाता है; अतएव यह आरोहण एवं अवरोहण ही इस योग का अंतिम लक्ष्य होना चाहिये ।
अपनी सत्ता एवं समस्त सत्ता के भागवत सत्स्वरूप के साथ मिलन ही योग का एकमात्र वास्तविक लक्ष्य है । इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है; हमें स्मरण रखना होगा कि हमारे योग का अनुसरण स्वयं अतिमानस की प्राप्ति के लिये नहीं, बल्कि भगवान् के लिये किया जाता है; हम अतिमानस की खोज उससे प्राप्त होनेवाले आनन्द एवं महानता के लिये नहीं, बल्कि मिलन को पूर्ण, निरपेक्ष और सर्वांगीण बनाने के लिये करते हैं, अपनी सत्ता के प्रत्येक सभवनीय रूप में, उसकी उच्च-से-उच्च गभीरताओं और विस्तृत-से-विस्तृत विशालताओं में तथा अपनी प्रक्रति के प्रत्येक क्षेत्र में, उसके एक-एक मोड़ और कोने में एवं प्रत्येक गुप्त प्रदेश में मिलन को अनुभव और अधिकृत करके क्रियाशील बनाने के लिये ही हम अतिमानस को प्राप्त करना चाहते हैं । यह सोचना भूल है--और ऐसा सोचने की भूल बहुतेरे कर सकते हैं, --कि आतेमानसिक योग का लक्ष्य अतिमानवता का शक्तिशाली वैभव, दिव्य शक्ति और महानता, तथा एक पृथक् व्यक्ति के विस्तारित व्यक्तित्व की आत्म-परिपूर्णता प्राप्त करना है । यह एक मिथ्या और संकटपूर्ण धारणा है, --संकटपूर्ण इसलिये कि यह हमारे अन्दर के राजसिक प्राणमय मन के अहंकार, आत्म-गौरव एवं महत्त्वाकांक्षा को बढ़ा सकती है और यदि उस अहंकार
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को अतिक्रम करके उस पर विजय न प्राप्त की गयी तो वह निश्चय ही आध्यात्मिक पतन की ओर ले जायेगा । इसी प्रकार यह धारणा मिथ्या इसलिये है कि यह अहंकारमय है जब कि अतिमानसिक रूपान्तर की पहली शर्त अहंकार से मुक्त होना है । संकल्पशील और कर्म-प्रधान मनुष्य की सक्रिय और गतिशक्तिमय प्रकृति के लिये तो यह अत्यन्त ही भयावह है, क्योंकि वह शक्ति का पीछा करके सहज ही पथभ्रष्ट हो सकती है । अतिमानसिक रूपान्तर के द्वारा शक्ति अनिवार्यत: ही प्राप्त होती है, सर्वांगपूर्ण कर्म के लिये यह एक आवश्यक शर्त है : पर जो शक्ति इस प्रकार आकर प्रकृति और जीवन को अपने हाथ में ले लेती है वह भागवत शक्ति ही होती है, वह एकमेव की शक्ति होती है जो आध्यात्मिक व्यक्ति के द्वारा कार्य करती है; वह व्यक्तिगत शक्ति का परिवर्द्धित रूप नहीं होती, न भेदजनक मानसिक और प्राणिक अहं की अन्तिम एवं उच्चतम पूर्णता ही होती है । आत्म-परिपूर्णता योग के एक परिणाम के रूप में प्राप्त होती है, पर योग का लक्ष्य व्यक्ति की महानता प्राप्त करना नहीं है । लक्ष्य तो केवल आध्यात्मिक सिद्धि एवं सच्चे आत्मस्वरूप को प्राप्त करना तथा दिव्य चेतना और प्रकृति को धारण करके भगवान् के साथ एकत्व लाभ करना है ।१ शेष सब वस्तुएं इसका गठन करनेवाली व्योरे की चीजें एवं सहचारी अवस्थाएं हैं । अहं-केन्द्रित आवेग, महत्त्वाकाक्षा, शक्ति और महानता की लालसा, आत्मख्यापन-रूपी लक्ष्य इस महत्तर चेतना के लिये विजातीय वस्तुएं हैं और सुदूर भविष्य में भी अतिमानसिक रूपान्तर के निकट पहुंचने की जो कोई भी सम्भावना है उसके विरुद्ध ये वस्तुएं एक अलंध्य बाधा उपस्थित करेंगी । महत्तर आत्मा को पाने के लिये व्यक्ति को अपने क्षुद्र निम्नतर स्व को खोना ही होगा । भगवान् के साथ एकत्व ही प्रधान प्रेरक-भाव होना चाहिये; यहां तक कि अपनी सत्ता के तथा सत्तामात्र के सत्य की खोज, उस सत्य में एवं उसकी महत्तर चेतना में जीवन-यापन तथा प्रकृति की पूर्णता--ये सब भी एकत्व लाभ के प्रयत्न के स्वाभाविक परिणाममात्र होते हैं । उसकी समग्र पूर्णता की अनिवार्य शर्तें होते हुए ये केन्द्रीय लक्ष्य के अंग इसलिये होते हैं कि ये विकास की एक आवश्यक अवस्था तथा एक मुख्य परिणाम हैं ।
यह भी ध्यान में रखना होगा कि अतिमानसिक परिवर्तन एक विषम तथा दूरवर्ती लक्ष्य है, अन्तिम अवस्था है; उसे एक सुदूरव्यापी दृश्य का परला छोर समझना होगा; वह प्रथम लक्ष्य, एक निरन्तर दृष्टिगत आदर्श या एक अव्यवहित उद्देश्य नहीं हो सकता और न उसे कभी ऐसे लक्ष्य, आदर्श या उद्देश्य में परिणत ही करना चाहिये । क्योंकि, वह दुष्कर आत्म-विजय और आत्म-अतिक्रमण के बहुत कुछ सिद्ध होने के बाद, प्रकृति के कठिन आत्म-विकास की बहुत-सी लंबी और कष्टकारी अवस्थाओं के पार होने पर ही सम्भावना के दृश्य क्षेत्र के भीतर आ
१ साधर्म्य-मुक्ति
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सकता है । सबसे पहले मनुष्य को एक आन्तरिक योग-चेतना प्राप्त करनी होगी और उसे वस्तुओं-सम्बन्धी अपने साधारण दृष्टिकोण, अपनी प्राकृत चेष्टाओं, तथा अपने जीवन के प्रेरकभावों के स्थान पर प्रतिष्ठित करना होगा; हमें अपनी सत्ता की सम्पूर्ण वर्तमान गठन में आमूल परिवर्तन लाना होगा । उसके बाद, हमें और भी गहराई में जाकर अपनी आवृत चैत्य सत्ता को उपलब्ध करना होगा और उसके प्रकाश में तथा उसके शासन के तले अपने आन्तर और बाह्य अंगो को चैत्यमय बनाना होगा, मानस-प्रकृति, प्राण-प्रकृति एवं देह-प्रकृति को और अपनी समस्त मानसिक, प्राणिक, शारीरिक क्रियाओं, अवस्थाओं एवं गतियों को अन्तरात्मा के सचेतन करणों के रूप में परिणत करना होगा । उसके बाद अथवा उसके साथ-साथ हमें दिव्य ज्योति, शक्ति, पवित्रता, ज्ञान, स्वतन्त्रता और विशालता के अवतरण के द्वारा अपनी सम्पूर्ण सत्ता को आध्यात्मिक बनाना होगा । व्यक्तिगत मन, प्राण और देह की सीमाओं को तोड़ डालना, अहं को नष्ट करना, विश्वचेतना में प्रवेश करना, आत्मा का साक्षात्कार करना, और आध्यात्मीकृत एवं विश्वभावापन्न मन, हृदय, प्राणशक्ति एवं भौतिक चेतना प्राप्त करना आवश्यक है । ऐसा हो जाने पर ही अतिमानसिक चेतना की ओर प्रयाण करना सम्भव होने लगता है, पर तब भी एक कठिन आरोहण सम्पन्न करना होता है जिसकी हर एक अवस्था एक पृथक् दु:साध्य उपलब्धि होती है । योग सत्ता का एक द्रुत एवं घनीभूत् सचेतन विकास है, पर वह कितना ही द्रुत क्यों न हो, करणात्मक प्रकृति में जिस विकास को सम्पन्न करने में सैंकड़ो और हजारों वर्ष या सैंकड़ो जीवन लग सकते हैं उसे वह चाहे एक ही जीवन में क्यों न साधित कर दे, फिर भी निःसन्देह विकासमात्र क्रमिक अवस्थाओं के द्वारा ही अवसर होता है; साधन-प्रक्रिया की अधिक-से-अधिक तीव्रता एवं एकाग्रता भी सब क्रमिक अवस्थाओं को अपने अन्दर लील नहीं सकती, न वह प्राकृतिक पद्धति को उलट कर अन्त को आरम्भ के निकट ही ला सकती है । अज्ञ और उतावला मन तथा अति उत्सुक शक्ति दोनों ही इस आवश्यक विधान को सहज में भूल जाते हैं; वे अतिमानस को तात्क्षणिक लक्ष्य बनाने के लिये दौड़ पड़ते हैं और अनन्त भगवान् में उसके जो उच्चतम शिखर हैं उनसे उसे एक लंबे नोकीले डंडे के द्वारा नीचे खींच ले आने की आशा करते हैं । यह आशा केवल मूर्खताभरी ही नहीं, बल्कि संकटपूर्ण भी है । क्योंकि, प्राणिक कामना सहज ही अन्धकारमय या उग्र प्राणिक शक्तियों की क्रिया को इस क्षेत्र में ला सकती है । ये शक्तियां उसके सामने उसकी असाध्य लालसा की ता्त्क्षणिक पूर्ति की आशा का चित्र प्रस्तुत करती हैं । इसके परिणास्वरूप व्यक्ति अनेक प्रकार के आत्म-प्रवञ्चनों में फंस सकता है, अन्धकार की शक्तियों के असत्यों तथा प्रलोभनों के आगे झुक सकता है, लोकोत्तर शक्तियों की खोज में भटक सकता है, भागवत प्रकृति से विमुख होकर आसुरिक की ओर मुड़ सकता है, परिवर्द्धित अहं
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की अस्वाभाविक, अमानवीय और अदिव्य बुहत्ता में घातक रूप से फूलकर कुप्पा हो सकता है । यदि व्यक्ति की सत्ता क्षुद्र हों, प्रकृति दुर्बल और अशक्त हो तो विपत्ति इतने बड़े परिमाण में नहीं आती; परन्तु सन्तुलन का नाश, मन की केन्द्रभ्रष्टता और उसका बुद्धिहीनता में पतन अथवा प्राण की केन्द्रभ्रष्टता और उसके परिणामस्वरूप नैतिक भूल या फिर प्रकृति की किसी प्रकार की अस्वस्थ विकृतावस्था में ले जानेवाली विच्युति-ये प्रतिकूल परिणाम तो उत्पन्न हो ही सकते हैं । यह कोई ऐसा योग नहीं है जिसमें किसी प्रकार की विकृति को, चाहे वह ऊंचे प्रकार की ही क्यों न हो, आत्मपरिपूर्णता या आध्यात्मिक उपलब्धि के साधन के रूप में स्वीकार किया जा सके । जब कोई लोकोत्तर एवं अतिबौद्धिक अनुभव में प्रवेश करे तब भी सन्तुलन-भंग बिल्कुल नहीं होना चाहिये, सन्तुलन को तो चेतना के शिखर से लेकर आधार तक स्थिर रखना होगा; अनुभव करनेवाली चेतना को अपने निरीक्षण में एक शान्त समतोलता, सुनिश्चित स्पष्टता और व्यवस्था सुरक्षित रखनी होगी, इसके साथ ही उसके अपने अन्दर एक प्रकार की उदात्तीकृत साधारण बुद्धि, आत्म-समालोचना की अचूक शक्ति और वस्तुओं के सम्बन्ध में यथार्थ विवेक तथा उनका समन्वय एवं स्थिर अन्तर्दर्शन भी सुरक्षित रखना होगा, उसके अन्दर तथ्यों की बुद्धिमत्तापूर्ण पकड़ और एक उच्च आध्यात्मीकूत प्रत्यक्षवाद सदा ही होना चाहिये । साधारण प्रकृति के परे परा प्रकृति में पहुंचने का कार्य मनुष्य अबौद्धिक या अवबौद्धिक स्तर पर उतरकर नहीं कर सकता; यह तो बुद्धि में से होकर परा बुद्धि के महत्तर प्रकाश में पहुंचने की क्रिया के द्वारा ही करना चाहिये । यह परा बुद्धि, बुद्धि के अन्दर अवतरित होती है और उसकी सीमाओं को तोड़ती हुई भी उसे ऊपर उठाकर उच्चतर स्तरों में ले जाती है; बुद्धि लुप्त नहीं हो जाती, बल्कि परिवर्तित होकर अपने ही सच्चे सीमारहित स्वरूप में, परा प्रकृति की समन्वयकारिणी शक्ति में परिणत हो जाती है ।
एक और भूल से भी बचने की जरूरत है । वह भूल भी ऐसी है जिसकी ओर हमारा मन आसानी से झुक जाता है; वह है--किसी उच्चतर मध्यवर्ती चेतना, यहां तक कि किसी भी प्रकार की लोकोत्तर चेतना को अतिमानस समझ बैठना । अतिमानस तक पहुंचने के लिये मानव-मन की साधारण गतियों के ऊपर चले जाना ही पर्याप्त नहीं है; एक महत्तर ज्योति, महत्तर शक्ति एवं महत्तर आनन्द को ग्रहण करना अथवा ज्ञान, दृष्टि एवं प्रभावशाली संकल्प की शक्तियों को, जो मनुष्य के सामान्य क्षेत्र को अतिक्रम करती हों, विकसित करना भी पर्याप्त नहीं । समस्त प्रकाश आत्मा का ही प्रकाश नहीं होता, अतिमानस का प्रकाश होना तो दूर की बात रही; मन, प्राण और यहांतक कि शरीर का भी अपना-अपना प्रकाश होता है जो अभी छुपा दुआ है । पर वह अत्यन्त अनुप्रेरक, उन्नायक, बोधप्रद तथा प्रबलतया कार्यसाधक हो सकता है । सीमाओं को तोड़कर विश्व-चेतना के भीतर
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प्रवेश करने से भी चेतना और शक्ति का अपरिमित विस्तार साधित हो सकता है । आंतर मन, आंतर प्राण एवं आंतर देह के प्रति, अन्तःप्रच्छन्न चेतना के किसी भी क्षेत्र के प्रति उद्घाटन और उनमें प्रवेश ज्ञान, कर्म या अनुभव की ऐसी अव-सामान्य या सामान्य-अतीत शक्तियों की क्रिया को उन्मुक्त कर सकता है जिन्हें अशिक्षित मन सहज ही आध्यात्मिक साक्षात्कार, अन्तःस्फूरण एवं अन्तर्ज्ञान समझने की भूल कर सकता है । उच्चतर मनोमय पुरुष के महत्तर स्तरों की ओर ऊर्ध्वमुख उद्घाटन अत्यधिक ज्योति और शक्ति उतार ले आ सकता है और वे ज्योति तथा शक्ति अन्तर्ज्ञान-भावित मन और प्राणशक्ति की तीव्र क्रिया उत्पन्न कर सकती हैं, या फिर इन स्तरों में किया गया आरोहण एक ऐसी वास्तविक किन्तु फिर भी अपूर्ण ज्योति ला सकता है जो मिश्रण की ओर सहज ही खुली होती है; यह ज्योति अपने मूलस्रोत में तो आध्यात्मिक होती है, पर निम्न प्रकृति में उतरने पर अपने क्रियाशील स्वरूप में सदा आध्यात्मिक नहीं रहती । किन्तु इनमें से कोई भी चीज अतिमानसिक ज्योति या अतिमानसिक शक्ति नहीं है; उसका साक्षात्कार एवं ज्ञान तो तभी प्राप्त हो सकता है जब हम मानसिक सत्ता के शिखरों पर पहुंच जाते हैं, अधिमानस में प्रवेश कर लेते हैं और आध्यात्मिक सत्ता के ऊर्ध्वतर एवं महत्तर गोलार्द्ध के किनारों पर स्थित हो जाते हैं । वहां अज्ञान, निश्चेतना, अर्द्ध-ज्ञान के प्रति शनैः--शनैः जागरित होता हुआ आदि घनघोर निर्ज्ञान-ये तीनों ही, जो स्थूल- भौतिक प्रकृति का आधार हैं और हमारे मन और प्राण की समस्त शक्तियों को चारों ओर से घेरे हुए हैं तथा उनमें प्रविष्ट होकर उन्हें प्रबल रूप से सीमित करते हैं, पूर्णतया लुप्त हो जाते हैं; क्योंकि अमिश्रित और अपरिवर्तित सत्य-चेतना ही वहां समस्त सत्ता का उपादान है, उसका शुद्ध आध्यात्मिक ताना-बाना है । जब हम अभी अज्ञान के, चाहे वह आलोकित या संबुद्ध अज्ञान ही क्यों न हो, गतिचक्र में घूम रहे हों, तब यह मानना कि हम उक्त अवस्था तक पहुंच चुके हैं अपने-आपको संकटपूर्ण कुमार्गदर्शन के प्रति या सत्ता के विकास के अवरोध के प्रति खोलने के समान होता है । कारण, यदि किसी निम्नतर अवस्था को ही हम इस प्रकार अतिमानस समझने की भूल कर बैठें तो वह हमारे लिये उन सब संकटों का द्वार खोल देगी जो, हम देख ही चुके हैं कि, सिद्धि प्राप्त करने की हमारी मांग की धृष्टतापूर्ण एवं अहंकारमय उतावली के परिणाम के रूप में उत्पन्न होते हैं । अथवा, यदि उच्चतर अवस्थाओं में से किसीको हम उच्चतम मान बैठें तो हम, बहुत-कुछ उपलब्ध करने पर भी, अपनी सत्ता के महत्तर एवं पूर्णतर लक्ष्य से नीचे रह सकते हैं; क्योंकि हम अन्तिम लक्ष्य के निकटवर्ती किसी लक्ष्य से ही सन्तुष्ट रहेंगे और परमोच्च रूपान्तर हमसे छूट ही जायगा । पूर्ण आन्तरिक मुक्ति और उच्च आध्यात्मिक चेतना की उपलब्धि भी वह परम रूपान्तर नहीं है; क्योंकि हमें सारतत्त्व में वह उपलब्धि, वह स्वतः-पूर्ण अवस्था प्राप्त हो सकती है, किन्तु फिर भी हमारे
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क्रियाशील अंग अपने यन्त्रात्मक रूप में एक आलोकित अध्यात्मभावापन्न मन से सम्बन्ध रख सकते हैं और, परिणामत:, जैसे मनमात्र अपनी महत्तर शक्ति और ज्ञान में भी दोषपूर्ण होता है, वैसे वे भी अभी विवशतापूर्वक मूल परिसीमक निर्ज्ञान के द्वारा आंशिक या स्थानीय रूप से तमसाच्छन्न या सीमित हो सकते हैं ।
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