Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय ११
अतिमानस का स्वरूप
योग का लक्ष्य यह है कि मानव-सत्ता को साधारण मन की चेतना से आत्मा की चेतना में उठा ले जाया जाये । साधारण मन की चेतना प्राणिक और भौतिक प्रकृति के नियन्त्रण के अधीन है, जन्म, मृत्यु और काल के द्वारा तथा मुक्त मन-प्राण-शरीर की आवश्यकताओं एवं कामनाओं के द्वारा पूर्णतया आबद्ध है । उधर, आत्मा की चेतना अपनी सत्ता में मुक्त है और मन-प्राण-शरीर-रूपी अवस्थाओं को आत्मा के ऐसे स्वीकृत या स्वयंनिवर्वाचित निर्धारणों के रूप में प्रयुक्त करती है जो उसे (आत्मा को) एक मूर्त रूप प्रदान करते हैं । इनका प्रयोग वह मुक्त आत्मज्ञान, सत्ता के मुक्त संकल्प एवं सामर्थ्य तथा मुक्त आनन्द के साथ करती है । साधारण मर्त्य मन जिसमें हम निवास करते हैं और हमारी दिव्य एवं अमर सत्ता की अध्यात्म-चेतना जो योग के उच्चतम परिणाम के रूप में प्राप्त होती है--इन दोनों में मूल भेद यही है । यह एक प्रकार का आमूल रूपान्तर है, यह उस परिवर्तन जितना ही महान् है किंवा उससे भी अधिक महान् है जिसे, हमारी समझ में, विकासात्मक प्रकृति प्राण-प्रधान पशु से पूर्णत: मानसीकृत मानव-चेतना की ओर अपने संक्रमण में साधित कर चुकी है । पशु में सचेतन प्राणमय मन है, पर उसमें किसी उच्चतर वस्तु के जो भी आरम्भिक संकेत हैं वे बुद्धि की प्राथमिक झांकी या स्थूल इंगितमात्र हैं । पर मनुष्य में बुद्धि मानसिक बोधशक्ति, संकल्प, भावावेग, सौन्दर्यवृत्ति और तर्कबुद्धि का उज्जल रूप बन जाती है । मन की चोटियोंतक ऊंचे उठकर और उसकी गहराइयों के द्वारा गभीर बनकर मनुष्य अपने अन्दर स्थित किसी महान् एवं दिव्य सत्ता को जान जाता है जिसकी ओर कि यह सब कुछ गति कर रहा है । वह सत्ता एक ऐसी वस्तु है जो कि वह बन सकता है, पर अभीतक बना नहीं है; वह अपने मन की शक्तियों को, अपनी ज्ञानशक्ति को तथा संकल्प, भावावेग एवं सौन्दर्यबोध की शक्ति को इसी वस्तु की ओर लगा देता है, ताकि वह इसे ढूंढ़ सके, इसका जितना कुछ स्वरूप हो सकता है उस सारे को हृदयंगम करके पूर्ण रूप से जान सके, स्वयं यही बन सके और इसके महत्तर चैतन्य, आनन्द एवं अस्तित्व में तथा इसकी सर्वोच्च अभिव्यक्ति की शक्ति में पूर्ण रूप से अपना अस्तित्व धारण कर सके । परन्तु अपने सामान्य मन में वह इस उच्चतर अवस्था का जितना कुछ अंश प्राप्त करता है वह उसके अन्दर स्थित आत्मतत्त्व की श्री-शोभा, ज्योति, महिमा और भगवत्ता का एक संकेत, प्राथमिक झांकी एवं स्थूल इंगितमात्र है । इसके पूर्व कि वह इस महत्तर वस्तु को, जो कि वह बन सकता है, अपने समक्ष एक सर्वथा वास्तविक, नित्य-अटल एवं सदा-उपस्थित वस्तु के रूप
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में अनुभव कर सके और जो वस्तु आज उसके लिये अधिक-से-अधिक एक प्रोज्ज्वल अभीप्सामात्र है उसमें पूर्ण रूप से निवास कर सके, उससे यह मांग की जाती है कि वह अपनी सत्ता के सभी अंगों को आध्यात्मिक चेतना के सांचों और यन्त्रों में पूर्णतया रूपान्तरित कर दे । उसे पूर्णयोग द्वारा एक महत्तर भागवत चेतना को अभिवर्द्धित करने तथा उसमें पूर्णतया विकसित होने का यत्न करना चाहिये ।
इस रूपान्तर के लिये जिस आत्मसिद्धियोग की आवश्यकता है उसका स्वरूप, जहांतक हम उसपर विचार करते आ रहे हैं, यह है--मानसिक, प्राणिक और भौतिक प्रकृति की प्रारम्भिक शुद्धि, निम्नतर प्रकृति की ग्रंथियों से मुक्ति, फलत:, सदा ही कामनामय पुरुष की अज्ञानमय एवं विक्षुब्ध क्रिया के अधीन रहनेवाली अहंकारमय अवस्था के स्थान पर एक विशाल और ज्योतिर्मय स्थितिशील समता की स्थापना करना जो बुद्धि, भावप्रधान मन, प्राणिक मन और भौतिक प्रकृति को शान्त कर देती है और हमारे अन्दर आत्मा की शान्ति एवं स्वतन्त्रता लाती है, और अन्त में, निम्नतर प्रकृति की क्रिया के स्थान पर, ईश्वर के नियन्त्रण के अधीन रहनेवाली परमोच्च और विराट् भागवत शक्ति की क्रिया को सक्रिय रूप से स्थापित करना, --यह एक ऐसी क्रिया है जिसका व्यापार पूर्णरूपेण सम्पन्न होने से पहले प्रकृति के करणों की पूर्णता प्राप्त कर लेना आवश्यक है । और यद्यपि ये सब चीजें मिलकर अभी योग का सर्वस्व नहीं हैं तथापि ये वर्तमान सामान्य चेतना से कहीं अधिक महान् एक चेतना का निर्माण करती ही हैं जिसका आधार आध्यात्मिक है और जो एक महत्तर ज्योति, शक्ति एवं आनन्द से परिचालित होती है, और इतना कुछ सम्पन्न हो जानें के बाद यह अधिक सहज हो सकता है कि साधक इसीसे सन्तुष्ट रहे और यह सोचे कि दिव्य रूपान्तर के लिये जो कुछ भी आवश्यक था वह सभी पूरा हों चुका है ।
परन्तु प्रकाश की वृद्धि के साथ-साथ एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उत्पन्न होता है; वह यह कि भागवत शक्ति मनुष्य में किस माध्यम के द्वारा कार्य करेगी ? क्या उसका कार्य सदा मन के द्वारा तथा मानसिक स्तर पर ही होगा अथवा वह किसी ऐसी महत्तर अतिमानसिक रचना के द्वारा होगा जो दिव्य क्रिया करने के लिये अधिक उपयुक्ता माध्यम है और जो मानसिक व्यापारों को अपने हाथ में लेकर उनके स्थान पर स्वयं प्रतिष्ठित हो जायेगी ? यदि सदा मन को ही यन्त्र बने रहना है तो, यद्यपि हम अपने समस्त आन्तर और बाह्य मानवीय कर्म का सूत्रपात और सञचालन करनेवाली एक दिव्यतर शक्ति को जान जायेंगे तथापि इस शक्ति को अपने ज्ञान, संकल्प, आनन्द तथा अन्य सभी वस्तुओं को मानसिक आकार के रूप में गढ़ना होगा, और इसका अर्थ यह हुआ कि उसे उन ज्ञान आदि को एक निम्न प्रकार की क्रिया में परिवर्तित करना होगा जो भागवत चेतना और उसकी शक्ति की अपनी स्वाभाविक परमोच्च क्रियाओं से भिन्न होगी । मन अपनी सीमाओं में आध्यात्मिक,
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शुद्ध एवं मुक्त होकर तथा पूर्णता प्राप्त करके अतिमानसिक वस्तुओं के सच्चे मानसिक रूपान्तर के यथासम्भव अधिक-से-अधिक निकट पहुंच सकता है, किन्तु हमें पता चल जायेगा कि अन्ततोगत्वा यह एक आपेक्षिक सच्चाई है और है एक अपूर्ण पूर्णता । मन अपने स्वभाव के ही कारण सर्वथा यथार्थ सचाई के साथ रूपान्तर नहीं कर सकता, न वह दिव्य ज्ञान, संकल्प और आनन्द की एकीकृत पूर्णता के साथ कार्य ही कर सकता है, क्योंकि वह सान्त के विभागों के साथ विभाजन के आधार पर व्यवहार करने का यन्त्र है, अतएव, वह निम्नतर प्रकृति की क्रिया के लिये, जिसमें हम निवास करते हैं, एक गौण यन्त्र एवं एक प्रकार का प्रतिनिधि है । मन अपने अन्दर अनन्त को प्रतिबिम्बित कर सकता है, वह अपने--आपको उसके अन्दर विलीन कर सकता है, वह एक विशाल निष्क्रियता के द्वारा उसमें निवास कर सकता है, वह उसके निर्देशों को ग्रहण करके उन्हें अपने ढंग से क्रियान्वित कर सकता है, --एक ऐसे ढंग से जो सदैव खण्डात्मक एवं गौण होने के साथ-साथ न्यूनाधिक विकृति के अधीन होता है, --पर यह सब करता हुआ भी वह स्वयं अपने ही ज्ञान के द्वारा कार्य करते हुए अनन्त आत्मा का सीधा और पूर्ण यन्त्र नहीं बन सकता । अनन्त चेतना की क्रिया को संघटित करनेवाली और आत्मा के सत्य तथा उसकी अभिव्यक्ति के नियम के अनुसार समस्त वस्तुओं का निर्धारण करनेवाली भागवत संकल्पशक्ति एवं प्रज्ञा मानसिक नहीं, वरन् अतिमानसिक वस्तु है और अपनी उस रचना में भी, जो मन के निकटतम है, वह अपनी ज्योति और शक्ति में मानसिक चेतना से उतनी ऊपर है जितनी कि मनुष्य की मानसिक चेतना निम्नतर प्राणियों के प्राणिक मन से ऊपर है । प्रश्न यह है कि सिद्ध मनुष्य कहांतक अपने-आपको मन से ऊपर उठा सकता है, अतिमानस के साथ किसी प्रकार का एकीकारक मिलन प्राप्त कर सकता है और अपने अन्दर अतिमानस का एक स्तर, एक प्रकार का विकसित विज्ञान निर्मित कर सकता है जिसके रूप और शक्ति- सामर्थ्य की सहायता से भागवत शक्ति, मानसिक रूपान्तर के द्वारा नहीं, वरन् अपनी अतिमानसिक प्रकृति में अन्तर्जात रूप से, सीधे ही कार्य कर सके ।
यह विषय, हमारे चिन्तन और अनुभव की साधारण पद्धतियों से इतनी दूर का है कि इसके सम्बन्ध में पहले यह बता देना यहां आवश्यक है कि वैश्व विज्ञान या दिव्य अतिमानस क्या है, विश्व के वास्तविक कार्य-व्यापार में वह किस रूप में प्रकट होता है और मनुष्य के वर्तमान मनोविज्ञान के साथ उसके क्या सम्बन्ध हैं ? तब यह स्पष्ट हो जायेगा कि यद्यपि अतिमानस हमारी बुद्धि के निकट अतिबौद्धिक है और उसकी क्रियाएं हमारे बोध के प्रति गुह्य हैं, तो भी वह कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो अबौद्धिक रूप से रहस्यमय हो, वरञच उसका अस्तित्व एवं प्रादुर्भाव जगत् की प्रकृति का एक अनिवार्य एवं तर्कसिद्ध सत्य है, हां, इसमें यह शर्त तो सदा ही है कि हम यह स्वीकार करें कि केवल जड़तत्त्व या मन ही नहीं, वरन् आत्मा भी
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एक मूलभूत सद्वस्तु है और वह एक विश्वव्यापक उपस्थिति के रूप में सर्वत्र विद्यमान है । सभी वस्तुएं अनन्त आत्मा की ही एक अभिव्यक्ति हैं जिसे वह अपनी ही सत्ता एवं चेतना में से और उस चेतना की अपने-आपको उपलब्ध, निर्धारित एवं चरितार्थ करनेवाली शक्ति के द्वारा सम्पन्न करती है । हम कह सकते हैं कि अनन्त इस सृष्टि में अपनी सत्ता की अभिव्यक्ति के नियम को अपने आत्म-ज्ञान की शक्ति के द्वारा व्यवस्थित करता है, यहां सृष्टि से अभिप्राय इस इन्द्रियगोचर जड़ जगत् से ही नहीं, वरन् उस सब कुछ से है जो इसके पीछे, सत्ता के किन्हीं भी स्तरों पर विद्यमान है । सभी वस्तुओं की व्यवस्था वही करता है, यह व्यवस्था वह किसी अदम्य निश्चेतन प्रेरणा के वश होकर नहीं, अपने मन की कल्पना या मौज के अनुसार नहीं, बल्कि अपनी असीम आध्यात्मिक स्वतन्त्रता में अपनी सत्ता के, अपनी अनन्त सम्भाव्य शक्तियों के तथा उन सम्भाव्य शक्तियों में से आत्म-सर्जन करने की अपनी इच्छा के आत्म-सत्य के अनुसार करता है, और इस आत्म-सत्य का विधान ही वह अटल नियम है जो प्रत्येक उत्पन्न वस्तु को उसकी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करने और विकसित होने को बाध्य करता है । जो अनन्त अपनी अभिव्यक्ति को इस प्रकार संघटित एवं व्यवस्थित करता है उसे प्रज्ञा ( Intelligence) एवं शब्दब्रह्म (Logos) का नाम दिया जा सकता है, यद्यपि यह एक अनुपयुक्त नाम ही होगा । यह प्रज्ञा किंवा शब्दब्रह्म उस मानसिक प्रज्ञा से, जो हमारे लिये चेतना की ऊंची-से-ऊंची उपलब्ध भूमिका एवं अभिव्यक्ति है, स्पष्टत: ही एक अनन्तगुना महान् वस्तु है, ज्ञान में एक अधिक व्यापक, आत्म-शक्ति में एक अधिक अदमनीय, अपनी आत्म-सत्ता के आनन्द तथा अपनी सक्रिय सत्ता और कार्यकलाप के आनन्द दोनों में एक अधिक विशाल प्रज्ञा है । इसी प्रज्ञा को जो अपने-आपमें अनन्त है, पर अपने आत्म-सर्जन तथा कार्यकलाप में स्वतन्त्त्रतापूर्वक व्यवस्था करनेवाली तथा ऐसी सुघटित है कि अपने-आप आत्म निर्धारण भी करती है, हम अपने वर्तमान प्रयोजन के लिये दिव्य अतिमानस या विज्ञान का नाम दे सकते हैं ।
इस अतिमानस का मूल स्वभाव यह है कि इसका समस्त ज्ञान मूलत: तादात्म एवं एकत्व के द्वारा प्राप्त ज्ञान होता है, और जब यह अपनेमें अनगिनत प्रत्यक्ष विभाग और प्रभेद-कारक परिवर्तन करता है तब भी, इसके व्यापारों में क्रिया करनेवाला समस्त ज्ञान, इन विभागों में भी, तादात्म्य और एकत्व द्वारा प्राप्त इस पूर्ण ज्ञान पर आधारित होता है और उसीके द्वारा धारित, प्रकाशित एवं परिचालित भी होता है । परम आत्मा सब जगह एक ही है और वह सभी वस्तुओं को अपनी सत्ता के रूप में और अपने ही अन्दर विद्यमान जानता है, उन्हें सदा इसी रूप में देखता है और अतएव उन्हें घनिष्ठ एवं पूर्ण रूप से जानता है, अर्थात् उनका वास्तविक और प्रतीयमान रूप, उनका सत्य और नियम तथा उनकी प्रकृति और क्रियावलि
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का पूर्ण भाव, अर्थ और आकार जानता है । जब वह किसी पदार्थ को ज्ञान के विषय के रूप में देखता है तब भी वह उसे अपनी सत्ता के रूप में तथा अपने अन्दर देखता है, न कि किसी ऐसी वस्तु के रूप में जो उससे इतर या विभक्त हो और, अतएव, जिसकी प्रकृति, रचना एवं क्रियावलि के विषय में वह पहले अनभिज्ञ हो और उनके विषय में उसे जानने की जरूरत हो, जिस प्रकार मन पहले अपने विषय से अनभिज्ञ होता है और उसके सम्बन्ध में उसे जानना होता है, क्योंकि मन अपने विषय से विभक्त है और उसे किसी ऐसी वस्तु के रूप में देखता, अनुभव करता और मिलता है जो उससे भिन्न तथा उसकी अपनी सत्ता से बाहर हो । अपनी आभ्यन्तरिक सत्ता और उसकी गतियों के विषय में हमें जो मानसिक बोध है वह यद्यपि इस तदात्मता और आत्म-ज्ञान की ओर संकेत कर सकता है तथापि वह यही चीज नहीं है, क्योंकि जिन चीजों को वह देखता है वह हमारी सत्ता की मानसिक आकृतियां हैं न कि हमारी अन्तरतम या सम्पूर्ण सत्ता, और जो कुछ हमें दिखायी देता है वह हमारी सत्ता की एक आंशिक, गौण एवं ऊपरी क्रियामात्र है जब कि हमारी सत्ता के विस्तृततम भाग, जो अत्यन्त गुप्त रूप से सब चीजों का निर्धारण करते हैं, हमारे मन के लिये गुह्य ही हैं । मनोमय सत्ता के विपरीत, अतिमानसिक आत्मा को अपना, अपने सम्पूर्ण विश्व का तथा उन सब चीजों का, जो इस विश्व में उसकी रचनाएं एवं आत्म-आकृतियां हैं, वास्तविक ज्ञान है, क्योंकि उसे उन सबका अन्तरतम एवं समग्र ज्ञान है ।
परमोच्च अतिमानस के स्वभाव की दूसरी विशेषता यह है कि उसका ज्ञान समग्र होने के कारण एक वास्तविक ज्ञान है । सर्वप्रथम, उसमें एक परात्पर दृष्टि है और वह इस विश्व को विश्व की परिभाषा में ही नहीं देखता, बल्कि जिस सर्वोच्च एवं सनातन सद्वस्तु से यह उद्भूत होता है तथा जिसकी यह एक अभिव्यक्ति है उसके साथ इसके यथार्थ सम्बन्ध की दृष्टि से भी देखता है । वह वैश्व अभिव्यक्ति का सत्य, मूल-भाव, और सम्पूर्ण अर्थ जानता है, क्योंकि यह अभिव्यक्ति जिस सत्ता को अंशतः व्यक्त करती है उसके सम्पूर्ण सार एवं समस्त अनन्त सत्तत्त्व को तथा उसकी समस्त परिणामभूत और शाश्वत सम्भाव्य शक्ति को वह जानता है । वह सापेक्ष को ठीक-ठीक जानता है, क्योंकि वह उस निरपेक्ष और उसके सब सत्यों को जानता है जिसकी ओर सापेक्ष सत्य निर्देश करते हैं और जिसके वे खण्डात्मक या परिवर्तित या संवृत रूप हैं । दूसरे, वह विश्वमय है और जो कुछ भी वैयक्तिक है उस सबको वह विश्वमय या विराट् की परिभाषा में तथा व्यक्ति-सम्बन्धी अपनी परिभाषा में देखता है और इन सब वैयक्तिक रूपों को विश्व के साथ इनके यथार्थ और पूर्ण सम्बन्ध की स्थिति में धारण किये रहता है । तीसरे, व्यष्टिरूप पदार्थों के सम्बन्ध में पृथक्-पृथक् रूप से, उसकी दृष्टि समग्र है, क्योंकि वह प्रत्येक पदार्थ के उस अन्तरतम सारतत्त्व को जानता है जिसके कि और सभी
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अंश परिणाम होते हैं, उसकी उस समग्रता को जानता है जो उसका पूर्ण स्वरूप है और उसके भागों तथा उनके सम्बन्धों एवं परस्पर निर्भरताओं को भी जानता है, --साथ ही वह अन्य पदार्थों के साथ उसके सम्बन्धों और उनपर उसकी निर्भरताओं को और विश्व के सकल गूढार्थों और प्रकट उद्देश्यों के साथ उसके सम्बन्ध को भी जानता है ।
इसके विपरीत, मन इन सब दिशाओं में सीमित और अशक्त है । मन जब बुद्धि की एक सतत उड़ान के द्वारा 'निरपेक्ष' की कल्पना कर भी लेता है तब भी वह उसके साथ तादात्म्य नहीं प्राप्त कर सकता, बल्कि वह एक प्रकार की मूर्च्छा या निर्वाण की स्थिति में उसके अन्दर लीन भर हो सकता है : वह कुछ-एक निरपेक्ष तत्त्वों का एक प्रकार का बोध या इंगितभर प्राप्त कर सकता है और फिर उन्हें वह मानसिक विचार के द्वारा एक सापेक्ष रूप में प्रस्तुत कर देता है । वह विराट् सत्ता को हृदयंगम नहीं कर सकता, बल्कि व्यष्टि के विस्तार या आपात- पृथक् वस्तुओं के संयोग के द्वारा उसके विषय में केवल किसी कल्पना पर पहुंच जाता है और अतएव उसे या तो एक अनिर्दिष्ट अनन्त या अनिर्धारित सत्ता या एक अर्द्ध-निर्धारित विशालता के रूप में या फिर केवल एक बाह्य योजना या निर्मित आकृति के रूप में देखता है । विराट् की अविभाज्य सत्ता एवं क्रिया, जो उसका वास्तविक सत्य-स्वरूप है, मन की समझ के बाहर रह जाता है, क्योंकि मन उसपर विश्लेषणात्मक ढंग से अर्थात् अपने विभाजनों को इकाइयां समझकर तथा संश्लेषणात्मक ढंग से, अर्थात् इन इकाइयों के अनेकविध संयोग बनाकर, विचार करता हुआ उसका ज्ञान प्राप्त करता है, परन्तु सारभूत एकत्व को नहीं पकड़ पाता और न पूर्ण रूप से उसकी परिभाषा में सोच ही सकता है, यद्यपि वह उसकी कल्पनातक पहुंच सकता है तथा उसके कुछ-एक गौण परिणाम भी प्राप्त कर सकता है । अपिच, वह व्यक्ति एवं प्रत्यक्षतः -पृथक् वस्तु को भी सच्चे और पूर्ण रूप में नहीं जान सकता, क्योंकि यहां भी वह उसी ढंग से आगे बढ़ता है अर्थात् वह उसके भागों, घटकों तथा गुणों का विश्लेषण करके उन्हें संयुक्त करता है । इस प्रक्रिया के द्वारा वह उसकी एक योजना खड़ी करता है जो उसकी एक बाह्य आकृतिमात्र होती है । वह अपने विषय के तात्त्विक एवं अन्तरतम सत्य का संकेत प्राप्त कर सकता है, पर उस तात्त्विक ज्ञान में शाश्वत और ज्योतिर्मय रूप से निवास नहीं कर सकता, और न शेष सब चीजों पर भीतर से बाहर की ओर इस प्रकार कार्य ही कर सकता है कि बाह्य परिस्थितियां अपने अन्तरङग सत्य और अर्थ में किसी ऐसे आध्यात्मिक तत्त्व का, जो विषय का सत्य स्वरूप होता है, अनिवार्य परिणाम, आत्म- प्राकट्य, रूप और कार्य प्रतीत हों । यह सब कार्य मन सम्पन्न नहीं कर सकता, हां, इसके लिये वह केवल यत्न कर सकता है तथा इसे एक रूपमात्र दे सकता है; पर अतिमानसिक ज्ञान के लिये यह एक सहजात और स्वाभाविक कार्य है ।
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इस भेद से अतिमानस की एक तीसरी विशेषता प्रकट होती है जो इन दो प्रकार के ज्ञानों का व्यावहारिक भेद हमारे सामने प्रस्तुत कर देती है । वह यह है कि अतिमानस प्रत्यक्ष रूप से ऋत-चित् है । अव्यवहित, सहजात और स्वयंस्कृर्त ज्ञान की दिव्य शक्ति है, एक विज्ञानमय विचार है जो सभी सत्यों को प्रकाशमान रूप में धारण करता है और ज्ञात से अज्ञाततक पहुंचने के लिये अज्ञानशक्ति-रूप मन की भांति संकेतों तथा तर्क-शृंखला आदि सोपानों पर निर्भर नहीं करता । अतिमानस अपना समस्त ज्ञान अपने ही अन्दर समाये हुए है, अपनी सर्वोच्च दिव्य प्रज्ञा के रूप में सम्पूर्ण सत्य को सनातन काल से धारण किये है और अपने निम्न, सीमित या व्यष्टिभावापन्न रूपों में भी उसे प्रसुप्त सत्य को अपने अन्दर से केवल बाहर लाना होता है, --यह वही अनुभव है जिसे प्राचिन मनीषी अपने इस कथन में व्यक्त करने का यत्न करते थे कि समस्त ज्ञान-प्राप्ति अपने वास्तविक उद्गम और स्वरूप में अन्दर विद्यमान ज्ञान की स्मृतिमात्र है । अतिमानस सनातन रूप से और सभी स्तरों पर सत्य से सचेतन और मनोमय तथा अन्नमय सत्ता में भी गुप्त रूप से विद्यमान है, मानसिक अज्ञान की धूमिल-से-धूमिल वस्तुओं को भी सब ओर से देखता और जानता है और उसकी प्रक्रियाओं को समझता है तथा उसकी प्रक्रियाओं के पीछे स्थित रहता हुआ उनका नियमन करता है, क्योंकि मन की प्रत्येक वस्तु अतिमानस से ही निकली है--और अवश्य ही उसीसे निकली होनी चाहिये क्योंकि प्रत्येक वस्तु आत्मतत्त्व से निकली है । जो कुछ भी मानसिक है वह सब अतिमानसिक सत्य का केवल एक आंशिक, परिवर्तित, संवृत या अर्द्ध--संवृत रूप है, उसके महत्तर ज्ञान का एक विकृत या गौण एवं अपूर्ण रूप है । मन अज्ञान से अपनी यात्रा शुरू करता है और ज्ञान की ओर अग्रसर होता है । यथार्थ तथ्य यह है कि इस जड़ जगत् में वह एक आरम्भिक विराट् निश्चेतना में से प्रकट होता है जो वस्तुत: सर्वसचेतन आत्मा के अपनी एकाग्र एवं आत्म-विस्मृत कर्मशक्ति में निवर्तन का परिणाम है; और अतएव वह विकास-प्रक्रिया का एक अंग प्रतीत होता है, सर्वप्रथम वह प्रत्यक्ष सम्वेदन के लिये यत्नशील एक प्राणानुभूति के रूप में प्रकट होता है, उसके बाद सम्वेदन प्राप्त करने में समर्थ प्राणिक मन का उदय होता है और फिर ये उसमें से भावप्रधान एवं कामनामय मन, सचेतन संकल्पशक्ति तथा वर्द्धनशील बुद्धि--ये सब विकसित एवं व्यक्त होते हैं । इनमें से प्रत्येक अवस्था निगूढ़ अतिमानस एवं आत्मा की दबी हुई महत्तर शक्ति का आविर्भाव करनेवाली होती है ।
मनुष्य का मन, जो अपने स्वरूप, अपने आधार और अपनी परिस्थितियों के विषय में चिन्तन एवं सुसम्बद्ध अन्वेषण करने तथा उन्हें समझने में समर्थ है, सत्यतक पहुंचता तो है पर मूल अज्ञान को पृष्ठभूमि में रखते हुए ही । यह सत्य अनिश्चितता और भ्रान्ति की सतत आच्छादक कुहेलिका से आकुलित होता है । मन
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के निश्चय सापेक्ष होते हैं और अधिकांश में वे संदिग्ध निश्चय होते हैं या फिर वे एक तात्त्विक नहीं वरन् असमग्र एवं अपूर्ण अनुभव के सुनिश्चित खण्डात्मक निश्चयमात्र होते हैं । वह खोज-पर-खोज करता है, एक के बाद एक विचार पर पहुंचता है, एक अनुभव में दूसरा अनुभव जोड़ता है और परीक्षण पर परीक्षण करता है, --पर इस सब प्रक्रिया में वह खोता, त्यागता और भुलाता रहता है और जैसे-जैसे वह आगे बढ़ता है उसे बहुत कुछ पुन: -पुन: प्राप्त करना होता है, --और वह युक्ति-तर्क के तथा अन्य प्रकार के क्रमों की, मूलतत्त्वों और उनकी परस्पर निर्भरताओं की तथा व्यापक सिद्धान्तों और उनके प्रयोग की शृंखला स्थापित करके अपने जाने हुए सभी तथ्यों में सम्बन्ध स्थापित करने का यत्न करता है और अपनी उपाय-योजनाओं से एक ऐसी इमारत खड़ी कर लेता है जिसमें वह मानसिक ढंग से निवास और गति कर सके तथा कर्म, उपभोग और श्रम कर सके । यह मानसिक ज्ञान अपने विस्तार में सदा ही सीमित होता है : इतना ही नहीं, बल्कि इसके साथ ही मन अन्य स्वेच्छाकृत बाधाएं भी खड़ी कर लेता है, अपना मत बनाने की मानसिक युक्ति के द्वारा सत्य के कुछ अंगों और पक्षों को तो स्वीकार करता है और शेष सबको बहिष्कृत कर देता है, क्योंकि यदि उसने सभी विचारो को उन्मुक्त प्रवेश और क्रीड़ा की अनुमति दी, यदि वह सत्य की असीमताओं को सहन करने को सहमत हुआ, तो वह अपने-आपको समन्वयरहित विविधता तथा अनिर्धारित बृहत्ता में खो बैठेगा और कार्य करने तथा व्यावहारिक परिणामों एवं फलप्रद रचना की ओर बढ़ने में असमर्थ ही रहेगा । मानसिक ज्ञान जब अधिक-से-अधिक विशाल और पूर्ण होता है तब भी वह अप्रत्यक्ष ज्ञान ही होता है, अर्थात् वह वास्तविक वस्तु का नहीं बल्कि उसके आकारों का ज्ञान होता है, प्रतिरूपों की एक पद्धति या संकेतों की एक योजनामात्र होता है, --निःसन्देह, यहां हम उन कतिपय विशेष गतियों को छोड़ देते हैं जिनमें वह अपने से परे जाता है अर्थात् मानसिक विचार को पार कर आध्यात्मिक तादात्म्य की ओर अग्रसर होता है, पर इस क्षेत्र में उसे कुछ-एक विच्छिन्न और तीव्र आध्यात्मिक अनुभूतियों से परे जाना अथवा ज्ञान के इन विरल तादात्म्यों के यथार्थ क्रियात्मक परिणाम निकालना या इन परिणामों को क्रियान्वित या व्यवस्थित करना अत्यन्त ही कठिन लगता है । इस गहनतम ज्ञान की पूर्ण आध्यात्मिक अनुभूति और चरितार्थता के लिये बुद्धि से अधिक महान् किसी शक्ति की आवश्यकता है ।
यह कार्य अनन्त के साथ घनिष्ठतया सम्बद्ध अतिमानस ही कर सकता है । अतिमानस सत्य के मूलभाव एवं सार, मुख एवं शरीर और परिणाम एवं कार्य को, तथा उसके मूल सिद्धान्तों और उनपर आश्रित उपसिद्धान्तों को एक ही अविभाज्य समष्टि के रूप में प्रत्यक्षतया देखता है और इसलिये परिस्थितिजन्य परिणामों को तात्त्विक ज्ञान की शक्ति के द्वारा गठित कर सकता है, आत्मा की अभिन्नताओं की
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ज्योति में उसकी विविधताओं को उत्पन्न कर सकता है, उसके एकत्व के सत्य में उसके प्रतीयमान विभेदों को प्रकट कर सकता है । अतिमानस अपने निज सत्य का ज्ञाता और स्रष्टा , मनुष्य का मन मिश्रित सत्य और भ्रान्ति के अर्द्ध-प्रकाश और अर्द्ध- अन्धकार में ही ज्ञान प्राप्त करता और सृजन करता है और एक ऐसी वस्तु का भी सृजन करता है जो उसे अपने से परे के किसी महत्तर तत्त्व से प्राप्त होती है, पर जिसे वह परिवर्तित और अनृदित करके हीन बना देता है । मनुष्य मानसिक चेतना में निवास करता है जो दो प्रकार की चेतनाओ के बीच में स्थित है । इसके एक और तो है विशाल अवचेतन जो मनुष्य की दृष्टि के लिये एक अन्धकारमय निश्चेतना है और दूसरी ओर है बृहत्तर अतिचेतन जिसे वह स्वभाववश एक अन्य पर ज्योतिर्मय निश्चेतना समझने की प्रवृत्ति रखता है, क्योंकि उसका चेतना-सम्बन्धी विचार उसके अपने मानसिक सम्वेदन और बुद्धिरूपी बीच के स्तरतक ही सीमित है । इस .ज्योतिर्मय अतिचेतना में ही अतिमानस और आत्मतत्त्व के स्तर विद्यमान है ।
और फिर, अतिमानस ज्ञाता होने के साथ-साथ कार्य और सृजन भी करता है । अतएव वह केवल प्रत्यक्ष सत्य-चेतना ही नहीं है बल्कि आलोकित, प्रत्यक्ष एवं स्वतः--स्फूर्त सत्य-संकल्प भी है । आत्मज्ञानसम्पन्न आत्मा के संकल्प में उसके ज्ञान और संकल्प के बिच कोई विरोध, विभाजन या भेद नहीं है और न हो ही सकता है । आध्यात्मिक संकल्पशक्ति परम आत्मा की चिन्मय सत्ता का तपस् या ज्ञानदीप्त बल है जो परम आत्मा में जो कुछ भी है उस सबको निर्भ्रान्त रूप से क्रियान्वित करता है । यह निर्भ्रान्त क्रिया सभी पदार्थो में, जो अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करते हैं, देखने में आती है । सभी बल-सामर्थ्य में जो अपने अन्दर विघमान शक्ति के अनुसार परिणाम और घटना की सृष्टि करता हैं, तथा प्रत्येक कार्य में जो अपने स्वरूप और उद्देश्य के अन्दर निहित फल और घटना को जन्म देता है यह क्रिया पायी जाती है । इसीको हम इसके विभिन्न पक्षों में प्रकृति का नियम, कर्म, नियति और दैव इन नानाविध नामों से पुकारते हैं । मन को ये वस्तुएं अपने बाहर या ऊपर अवस्थित किसी शक्ति की क्रियाएं प्रतीत होती हैं जिनमें स्वयं वह भी गुंथा एवं फंसा हुआ है और जिनमें वह एक प्रकार के सहायक व्यक्तिगत प्रयत्न के द्वारा ही हस्तक्षेप करता है । उसका प्रयत्न कुछ अंश में तो लक्ष्य को प्राप्त करता एवं सफल होता है, और कुछ अंश में असफल होता एवं लड़खड़ा जाता है । अपनी सफलता में भी वह अपने उद्देश्य से भिन्न या कम-से-कम महत्तर एवं सुदूरगामी लक्ष्यों के लिये अधिकांश में दबा दिया जाता है । मनुष्य की संकल्पशक्ति अज्ञान की अवस्था में आंशिक ज्योति के द्वारा या, अधिकतर, ज्योति की ऐंसी चंचल शिखाओं के द्वारा ही कार्य करती है जो जितना राह दिखाती है उतना भटकाती भी हैं । उसका मन अज्ञान का एक करण है जो ज्ञान के मानदण्ड
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स्थापित करने की चेष्टा कर रहा है, उसकी संकल्पशक्ति भी अज्ञान का एक करण है जो सत्य के मानदण्ड स्थापित करने की चेष्टा कर रहा है, और इसके परिणामस्वरूप, उसका सम्पूर्ण मन बहुत कुछ एक ऐसा घर है जो परस्पर-विरोधी सत्ताओं में बंटा हुआ एवं आत्म-विरोध से पूर्ण है । इसमें एक विचार दूसरे से संघर्ष करता रहता है, संकल्प प्रायः ही सत्य के आदर्श का या बौद्धिक ज्ञान का विरोध करता है । स्वयं संकल्प भी भिन्न-भिन्न रूप ग्रहण कर लेता है, बुद्धि का संकल्प, भावप्रधान चित्त की इच्छाएं आवेशमय एवं प्राणिक सत्ता की कामनाएं स्नायविक और अवचेतन प्रकृति की उत्तेजनाएं और अन्धी या आधी अन्धी अदम्य प्रेरणाएं और ये सब वस्तुएं किसी सामञ्जस्य की रचना बिल्कुल नहीं करतीं, बल्कि ये अपने अच्छे-से-अच्छे रूप में भी विरोधों के बीच एक अनिश्चित संगति का निर्माण करती हैं । मन और प्राण के संकल्प का अर्थ होता है इधर-उधर ठोकरें खाते हुए यथार्थ शक्ति एवं यथार्थ तपसू की खोज करना जब कि शक्ति एवं तपस् के सच्चे और समग्र प्रकाश एवं मार्गदर्शन की पूर्ण उपलब्धि आध्यात्मिक एवं अतिमानसिक सत्ता के साथ एकत्व के द्वारा ही हो सकती है ।
इसके विपरीत, अतिमानसिक प्रकृति सत्यमय, सुसमझस और एकात्मक है, उसमें संकल्प और ज्ञान आत्मा की ज्योति और आत्मा की शक्तिमात्र हैं, शक्ति ज्योति को चरितार्थ करती है, ज्योति शक्ति को आलोकित करती है । विज्ञानमय भूमिका की उच्चात्युच्च अवस्था में वे परस्पर घनिष्ठ रूप से घुली-मिली हैं और उन्हें एक-दूसरे की बाट नहीं जोहनी पड़ती बल्कि वे एक ही क्रिया के रूप में प्रकट होती हैं, संकल्प अपने को आप ही आलोकित करता है, ज्ञान अपने को आप ही चरितार्थ करता है, दोनों एक साथ सत्ता की एक ही तीव्र धारा के रूप में प्रकट होते हैं । मन केवल वर्तमान को ही जानता है और इसकी विच्छिन्न गति में निवास करता है यद्यपि वह अतीत को स्मरण और सुरक्षित रखने और भविष्य का पहले से ही निर्धारण करने का तथा उसे उसी रूप में चरितार्थ होने के लिये बाध्य करने का यत्न करता है । अतिमानस को त्रिकालदृष्टि प्राप्त है; वह तीनों कालों को एक अविभाज्य गति के रूप में देखता है और यह भी देखता है कि इनमें से प्रत्येक के अन्दर दूसरे दो विद्यमान हैं । वह समस्त प्रवृत्तियों, सामर्थ्यो और शक्तियों को एकता की विभिन्न लीला के रूप में जानता है और एकमेव आत्मा की एक ही अभिन्न गति में उनके पारस्परिक सम्बन्ध को भी जानता है । अतएव अतिमानसिक संकल्प और कार्य परम आत्मा के अपने-आपको चरितार्थ करनेवाले सहजस्कूर्त सत्य के संकल्प और कार्य होते हैं । वे अपरोक्ष और समग्र ज्ञान की एक यथार्थ क्रिया होते हैं जो अपने सर्वोच्च रूप में निर्भ्रान्त भी होती है ।
परमोच्च और विश्वत अतिमानस महेश्वर और स्रष्टा-स्वरूप परमोच्च एवं विश्वत आत्मा की सक्रिय ज्योति और तप: -शक्ति, तपस् है जिसे हम योग में
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दिव्य प्रज्ञा एवं शक्ति के रूप में किंवा ईश्वर के सनातन ज्ञान एच संकल्प के रूप में अनुभव करते हैं । 'सत्' के उच्चतम स्तरों पर, जहां सभी कुछ ज्ञात है और सभी कुछ एक ही सत्ता की अंशभूत सत्ताओं, एक ही चेतना की चेतनाओं, एक ही आनन्द की आनन्दात्मक आत्म-रचनाओं तथा एक ही सत्य के अंशभूत अनेक सत्यों और सामथ्यों के रूप में व्यक्त होता है, उसके आध्यात्मिक एवं अतिमानसिक ज्ञान का अविकल एवं समग्र आविर्भाव देखने में आता है । उन स्तरों से सम्बन्ध रखनेवाले हमारी अपनी सत्ता के स्तरों में जीव आध्यात्मिक एवं अतिमानसिक प्रकृति में भाग लेता है और उसकी ज्योति, शक्ति और आनन्द में निवास करता है । अपने क्रमिक अवरोहण में जब हम अपने ऐहलौकिक स्वरूप के अधिक निकट पहुंचते हैं तो इस आत्मज्ञान का सान्निध्य एवं कार्य संकुचित हो जाता है, किन्तु अतिमानसिक प्रकृति की पूर्णता को तथा उसकी ज्ञान, संकल्प और कर्म की पद्धति को न भी सही पर उसके सार और स्वभाव को सदा सुरक्षित रखता है, क्योंकि वह अभी भी आत्मा के सारतत्त्व और स्वरूप में निवास करता है । जब हम जड़तत्त्व की ओर आत्मा के अवरोहण के सोपानों का अनुसरण करते हैं तो हम मन को उससे उत्पन्न एक ऐसी सत्ता के रूप में देखते हैं जो आत्मा की पूर्णता से तथा उसकी ज्योति और सत्ता की पूर्णता से दूर चली जाती है और जो विभाजन एवं विच्युति में निवास करती है, सूर्य के ज्योतिर्मण्डल में निवास नहीं करती, वरन् पहले तो उसकी निकटतर और फिर सुदूरतर रश्मियों में निवास करती है । किन्तु एक परमोच्च अन्तर्ज्ञानात्मक मन भी है जो अतिमानसिक सत्य को अधिक निकटता से ग्रहण करता है, पर यह भी एक ऐसी रचना है जो प्रत्यक्ष और महत्तर वास्तविक ज्ञान को छुपा देती है । इसी प्रकार एक बौद्धिक मन भी है जो एक प्रकाशमय अर्द्ध-अपारदर्शक आवरण है । यह आवरण उस सत्य को, जो अतिमानस को ज्ञात है, अपने प्रकाशमय पर विकृति पैदा करनेवाले तथा मूल स्वरूप को दबाकर उसमें फेरफार कर देनेवाले वातावरण में अवरुद्ध तथा प्रतिबिम्बित करता है । इससे भी निचले स्तर का एक मन है जो इन्द्रियों की आधारशिला पर निर्मित दुआ है । उसके तथा ज्ञानसूर्य के बीच एक घना बादल है, भावावेगों तथा सम्वेदनों का कुहासा एवं वाष्प है जिसमें कहीं-कहीं बिजलियां एवं ज्योतियां कौंध जाती हैं । इसी प्रकार एक प्राणमय मन भी है जिसका द्वार बौद्धिक सत्य की ज्योति के लिये भी बन्द है, और उससे भी नीचे अवमानसिक जीवन और जड़तत्त्व मे परम आत्मा अपने-आपको मानों एक निद्रा और निशा में पूर्ण रूप से तिरोहित कर देता है, एक ऐसी निद्रा में जो एक धुंधले पर तीव्र स्नायविक स्वप्न में डूबी होती है, एक ऐसी निशा में जो एक यान्त्रिक स्वप्नचारिणी शक्ति की निशा होती है । निम्नतर सृष्टि के ऊपर जिस उच्च स्तर में हम अपने को आज पाते हैं वह इस निम्नतम अवस्था में से आत्मा के पुनर्विकास का एक स्तर है । यह स्तर हमारे अन्दर के इन सब निम्नतर स्तरों को
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ऊपर उठाकर हमारे आरोहण-क्रम में अबतक सुविकसित मानसिक बुद्धि के प्रकाशतक हीं पहुंचा है । आत्म-ज्ञान की पूर्ण शक्तियां और आत्मा की प्रदीप्त संकल्पशक्ति अभी भी हमसे परे, मन और बुद्धि के ऊपर, अतिमानसिक प्रक्रति में अवस्थित हैं ।
यदि आत्मा सभी जगह, यहांतक कि जड़तत्त्व में भी, विद्यमान है--वस्तुत स्वयं जड़तत्त्व आत्मा का एक तमसाच्छन्न रूपमात्र है--और यदि अतिमानस परमात्मा के सर्वव्यापक आत्मज्ञान की विश्वगत शक्ति है जो सत्ता की समस्त अभिव्यक्ति की व्यवस्था करती है, तो जड़तत्त्व में तथा सभी जगह एक अतिमानसिक क्रिया अवश्य विद्यमान होनी चाहिये और वह एक अन्य प्रकार की निम्नतर एवं धूमिलतर क्रिया से कितनी ही आच्छन्न क्यों न हो, फिर भी जब हम सूक्ष्मता से देखेंगे तो हमें पता चलेगा कि वास्तव में अतिमानस ही जड़तत्त्व, प्राण, मन और बुद्धि को व्यवस्थित करता है । और जिस ज्ञान की ओर हम अब अग्रसर हो रहे हैं वह वस्तुतः यही है । प्राण, जड़तत्त्व और मन में जो चेतना दृढ़ रूप से प्रतिष्ठित है उसकी एक सर्वथा प्रत्यक्ष अन्तरंग क्रिया भी है । उसकी वह, स्पष्टत: ही, निम्नतर माध्यम की प्रकृति और आवश्यकता के अधीन रहनेवाली एक अतिमानसिक क्रिया है । उसे हम आज उसके प्रत्यक्ष अन्तर्दर्शन तथा स्वयं-सक्रिय ज्ञान के अत्यन्त सुस्पष्ट लक्षणों के कारण अन्तर्ज्ञान का नाम देते हैं । वास्तव में उसका अन्तर्दर्शन ज्ञान के विषय के साथ किसी गुप्त तादात्म्य से उत्पन्न होता है । तथापि, जिसे हम अन्तर्ज्ञान कहते हैं वह अतिमानस की उपस्थिति का एक आंशिक संकेतमात्र है, और यदि हम इस उपस्थिति एवं शक्ति को इसके विशालतम रूप में लें तो हम देखेंगे कि यह एक गुप्त अतिमानसिक शक्ति है । इस (गुप्त शक्ति) में एक आत्म-सचेतन ज्ञान निहित है जो जड़प्राकृतिक शक्ति के सम्पूर्ण व्यापार को अनुप्राणित करता है । यह गुप्त अतिमानसिक शक्ति ही उस नियम को, जिसे हम प्रकृति का नियम कहते हैं, निर्धारित करती है, प्रत्येक पदार्थ की क्रिया को उसके अपने स्वधर्म के अनुसार धारण किये रहती है और समष्टि-सत्ता को सुसमन्वित तथा विकसित करती है । इसके बिना समष्टि-सत्ता एक ऐसी आकस्मिक रचना होती जो किसी भी क्षण अस्त-व्यस्तता के गर्त में गिरकर विध्वस्त हो सकती । प्रकृति का प्रत्येक नियम एक ऐसा नियम है जिसकी कार्यपद्धति की अनिवार्यताएं सुस्पष्ट और सुनिश्चित हैं, पर यदि हम उसकी इस अनिवार्यता के कारणपर तथा उसके नियम, छन्द-प्रमाण, संयोग, अनुकूलन एवं परिणाम के सातत्य के कारण पर विचार करने लगें तो पता चलता है कि उसकी (प्रकृति के नियम की) व्याख्या नहीं की जा सकती, बल्कि तब हमें पग-पग पर एक रहस्य और चमत्कार का सामना करना पड़ता है, और इसका कारण या तो यह है कि वह अपनी नियमितताओं में भी तर्कविरुद्ध एवं आकस्मिक है या यह है कि वह अतिबौद्धिक है तथा उसका सत्य
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हमारी बुद्धि के मूल तत्त्व से अधिक महान् किसी तत्त्व के साथ सम्बन्ध रखता है । वह तत्त्व अतिमानस है; अर्थात् प्रकृति का गुप्त रहस्य है आत्मा के स्वयंभू सत्य की असीम शक्यताओं में से किसी वस्तु का संघटन । इस सत्य का स्वरूप पूर्ण रूप से तो उस आदि ज्ञान को ही प्रत्यक्ष होता है जो मूलभूत तादात्म्य से अर्थात् आत्मा के नित्य आत्म-अनुभव से उत्पन्न होता तथा उसीके द्वारा कार्य करता है । प्राण का समस्त कार्य तथा मन और बुद्धि का समस्त कार्य भी इसी प्रकार का है, --यह बुद्धि ही हमारी सत्ता का वह भाग है जो और सब भागों से पहले इस सत्य को अनुभव करता है कि एक महत्तर बुद्धि एवं सत्ता-सम्बन्धी विधान सर्वत्र क्रिया कर रहा है और जो अपनी विचार-रूपी रचनाओं के द्वारा उसे प्रकट करने का भी यत्न करता है, यद्यपि इस बात को वह सदा नहीं अनुभव करता कि जो सत्ता कार्य कर रही है वह मानसिक प्रज्ञा तथा बौद्धिक शब्दब्रह्म से भिन्न कोई और ही सत्ता है । वास्तव में इन सब प्रक्रियाओं का गुप्त परिचालन एक आध्यात्मिक एवं अतिमानसिक सत्ता के द्वारा ही होता है, पर इनकी प्रत्यक्ष पद्धति मानसिक, प्राणिक और भौतिक दिखायी देती है ।
बहिर्मुख जड़ देह, प्राण और मन का अतिमानस की इस गुह्य क्रिया पर स्वत्व नहीं है, यद्यपि वे उस अटल नियम के द्वारा अधिकृत हैं तथा बलात् परिचालित भी होते हैं जिसे यह क्रिया उनके व्यापारों पर थोपती है । स्थूल भौतिक ऊर्जा में तथा परमाणु में एक शक्ति कार्य कर रही है जिसे हम कभी-कभी 'बुद्धि' एवं 'संकल्पशक्ति' के नाम से पुकारने को प्रेरित होते हैं (यद्यपि ये नाम हमारे कानों को खटकते हैं एवं अशुद्ध जान पड़ते हैं क्योंकि वह शक्ति तथा हमारी अपनी बुद्धि एवं संकल्पशक्ति असल में एक ही चीज नहीं हैं), --यूं कहें कि स्वयम्भू सत्ता की एक प्रच्छन्न अन्तर्ज्ञानशक्ति उनमें कार्य कर रही है, --परन्तु परमाणु और ऊर्जा उससे सचेतन नहीं हैं, वे तो जड़तत्त्व तथा पार्थिव शक्ति का एक ऐसा तमसाच्छन्न रूपमात्र हैं जो उसके आत्म-प्राकट्य के प्रथम प्रयास से उत्पन्न दुआ है । प्राणमय भूमिका के समस्त व्यापार में ऐंसी अन्तर्ज्ञान-शक्ति की उपस्थिति हमें अधिक प्रत्यक्ष रूप में दृष्टिगोचर होने लगती है, क्योंकि प्राण की भूमिका हमारे अपने (मानवीय) स्तर के अधिक निकट है । और जब प्राण प्रत्यक्ष इन्द्रियबोध और मन का विकास कर लेता है, जैसा कि वह पशु-सृष्टि में करता है, तब हम अधिक विश्वास के साथ यह कह सकते हैं कि उसमें एक प्राणिक अन्तर्ज्ञान विद्यमान है जो उसकी क्रियाओं के पीछे उपस्थित रहता है । वही पशु के मन में अन्ध प्रेरणा के एक सुस्पष्ट रूप में प्रकट हो उठता है, --अन्धप्रेरणा से हमारा मतलब एक स्वयंप्रेरित ज्ञानशक्ति से है जो पशु में बद्धमूल रूप से निहित है, वह अचूक, अपरोक्ष, स्वयम् तथा स्वत:चालित होती है तथा इस तथ्य को सूचित करती है कि उसकी सत्ता के किसी भाग में प्रयोजन, सम्बन्ध, पदार्थ या विषय का
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ठीक-ठीक ज्ञान विद्यमान है । वह प्राणशक्ति तथा मन में कार्य करती है, तथापि स्थूल प्राण और मन का उसपर अधिकार नहीं है । वे उसके कार्य का ब्यौरा नहीं दे सकते, न अपनी इच्छा और संकल्प-शक्ति के अनुसार प्रेरणा की शक्ति का नियन्त्रण या विस्तार ही कर सकते हैं । यहां हमें दो चीजें दिखायी देती हैं, पहली यह कि प्रत्यक्ष अन्तर्ज्ञान केवल एक सीमित आवश्यकता और प्रयोजन के लिये ही कार्य करता है और दूसरी यह कि प्रकृति के शेष सब व्यापारों में दो क्रियाएं देखने में आती हैं, एक तो स्थूल चेतना की अनिश्चित एवं अज्ञानमय क्रिया और दूसरी अन्तःप्रच्छन्न क्रिया जो एक गुप्त अवचेतन मार्ग-निर्देश की सूचक होती है । स्थूल चेतना अन्धान्वेषण एवं शोध की वृत्ति से पूर्ण है । ज्यों-ज्यों प्राण का स्तर ऊंचा उठता है तथा उसकी सचेतन शक्तियों का क्षेत्र विस्तृत होता है त्यों-त्यों स्थूल चेतना की यह वृत्ति घटने के बजाय बढ्ती ही है; परचु प्राणमय मन के अन्धान्वेषण के होते हुए भी अन्तस्थित गुप्त आत्मा हमें इस बात का निश्चित आश्वासन देती है कि प्रकृति का कार्य चलता रहेगा तथा प्राणी की आवश्यकता, भवितव्यता और उद्देश्य-सिद्धि के लिये जो परिणाम अपेक्षित है वह भी अवश्य उत्पन्न होगा । चेतना के स्व-से-एक ऊंचे स्तर पर, मानव की तर्कशक्ति एवं बुद्धितक, बराबर यही क्रम चलता रहता है ।
मनुष्य की सत्ता भी शारीरिक, प्राणिक, भाविक, आन्तरात्मिक और क्रियाशक्ति-मय सहजप्रेरणाओं और अन्तर्ज्ञानों से पूर्ण है, परन्तु वह पशु के समान उनपर निर्भर नहीं करता, --यद्यपि पशुओं तथा उनसे निम्नतर प्राणियों की सृष्टि की अपेक्षा मनुष्य में सहजप्रेरणाओं और अन्तर्ज्ञानों का क्षेत्र कहीं अधिक विस्तृत तथा कार्य कहीं अधिक महान् हो सकता है, क्योंकि उसकी जो विकासात्मक प्रगति वर्तमान में साधित हो चुकी है वह उनकी अपेक्षा कहीं महान् है तथा उसकी सत्ता के भावी विकास की जो शक्यता उसके अन्दर गुप्त रूप में विद्यमान है वह और भी अधिक महान् है । उसने इन शक्तियों को दबा डाला है, इन्हें क्षयग्रस्त करके इनकी पूर्ण और प्रत्यक्ष क्रिया को खण्डित कर डाला है, --इन्हें विनष्ट नहीं कर दिया गया है बल्कि पीछे की ओर, तलशायी चेतना में, रोक रखा या ढकेल दिया गया है, --और इसके परिणामस्वरूप उसकी सत्ता का यह निम्नतर भाग अपने बारे में बहुत ही कम निश्चयवान् है, अपनी प्रकृति की दिशाओं के सम्बन्ध में बहुत ही कम विश्वासपूर्ण है, अपने विस्तृततर क्षेत्र में वह उससे कहीं अधिक अन्धान्वेषी, भ्रान्तिपूर्ण और स्खलनशील है जितना कि पशु का निम्नतर भाग उसकी क्षुद्रतर सीमाओं में होता है । ऐसा इस कारण होता है कि मनुष्य का वास्तविक धर्म किंवा सत्ता सम्बन्धी विधान यह है कि वह एक महत्तर आत्म-सचेतन सत्ता की खोज करे और तदनुरूप आत्म-अभिव्यक्ति के लिये भी यत्न करे । वह अभिव्यक्ति न तो पहले की तरह अन्धकारमय होनी चाहिये और न हीं समझ-में-न-आनेवाली
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आवश्यकता के द्वारा नियन्त्रित । बल्कि वह प्रकाश से युक्त होनी चाहिये तथा जो वस्तु अपने-आपको अभिव्यक्त कर रही है उससे सचेतन और उसे पूर्णतर एवं समग्रतर अभिव्यक्ति देने में समर्थ होनी चाहिये । और अन्त में मनुष्य की सर्वोच्च पूर्णता यह होनी चाहिये कि वह अपने महत्तम एवं वास्तविक आत्मा के साथ अपने-आपको एक कर दे और उसके स्वयंस्फूर्त पूर्ण संकल्प और ज्ञान के द्वारा कार्य करे, वरन् यूं कहना चाहिये कि उसे उनके द्वारा कार्य करने दे (जब कि उसकी अपनी प्राकृत सत्ता आत्मा की अभिव्यक्ति का एक करणात्मक रूप बनी रहे) । इस अवस्था में पहुंचने के लिये उसका प्रमुख करण है तर्कशक्ति तथा तार्किक बुद्धि का संकल्प और जहांतक इस करण का विकास हुआ होता है वहांतक वह अपने ज्ञान और मार्गदर्शन के लिये इसपर निर्भर करने तथा शेष सारी सत्ता की बागडोर उसके हाथ में सौंपने को प्रेरित होता है । और यदि तर्कबुद्धि सर्वोच्च तत्त्व होती तथा अन्तरात्मा एवं अध्यात्म सत्ता का सबसे महान् और सुपर्याप्त साधन भी होती तो इसके द्वारा वह अपनी प्रकृति की सभी क्रियाओं को पूर्णतया जान सकता तथा पूर्णतया उनका मार्गदर्शन भी कर सकता । पर ऐसा वह पूर्ण रूप सें नहीं कर सकता क्योंकि उसकी आत्मा उसकी बुद्धि से विशाल है और यदि मनुष्य तर्कमूलक संकल्प और बुद्धि के द्वारा अपने-आपको सीमित कर ले तो वह अपने आत्म-विकास, आत्म-अभिव्यक्ति, ज्ञान, कर्म और आनन्द पर विस्तार और गुण इन दोनों की दृष्टि से एक मनमानी सीमा लाद देता है । उसकी सत्ता के अन्य भाग भी आत्मा की विशालता और सर्वागीणता में एक पूर्ण अभिव्यक्ति की मांग करते हैं और यदि तार्किक बुद्धि का अनमनीय यन्त्र उनकी अभिव्यक्ति के गुण को परिवर्तित कर दे तथा उसकी क्रिया को तराशकर एवं काट-छांटकर मनचाहा यान्त्रिक आकार दे दे तो वे अपनी पूर्ण अभिव्यक्ति प्राप्त नहीं कर सकते । तर्कबुद्धि-रूपी देवता, बौद्धिक शब्दब्रह्म, महत्तर विज्ञानमय शब्दब्रह्म का एक आंशिक प्रतिनिधि एवं स्थानापन्न देवतामात्र है, और उसका कार्य प्राणी के जीवन पर प्रारम्भिक आंशिक ज्ञान और व्यवस्था का प्रभुत्व स्थापित करना है, परन्तु वास्तविक, अन्तिम और सर्वांगपूर्ण व्यवस्था तो आध्यात्मिक विज्ञान-तत्त्व का आविर्भाव होने पर ही स्थापित हों सकती है ।
निम्नतर प्रकृति में विज्ञान या अतिमानस अन्तर्ज्ञान के रूप में अत्यन्त प्रबलतया विद्यमान है और अतएव अन्तर्ज्ञानात्मक मन के विकास के द्वारा ही हम स्वयंसत्, सहज-स्कूर्त और प्रत्यक्ष अतिमानसिक ज्ञान की ओर पहला पग उठा सकते हैं । मनुष्य की समस्त भौतिक, प्राणिक, भाविक, आन्तरात्मिक और क्रियाशील प्रकृति इन करणों की प्रच्छन्न अन्तर्ज्ञानात्मक आत्म-सत्ता में से उठनेवाले संकेतों को उपरितल पर ग्रहण करने से बनी है और उन्हें वह प्रकृति के स्थूल स्वरूप और शक्ति-सामर्थ्य की क्रिया में चरितार्थ करने के लिये सामान्यत: अन्धवत् ओर प्रायः
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ही चक्करदार ढंग से यत्न करती है । प्रकृति का यह स्थूल रूप एवं शक्ति-सामर्थ्य आन्तरिक शक्ति और ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से आलोकित नहीं है । उत्तरोत्तर विकसनशील अन्तर्ज्ञानात्मक मन को ही यह सर्वोत्तम सुयोग प्राप्त है कि उपर्युक्त करण जिस वस्तु को खोज रहे हैं उसे वह उपलब्ध कर सकता है तथा उन्हें उनकी आत्म-अभिव्यक्ति की अभीष्ट पूर्णतातक भी पहुंचा सकता है । तर्कशक्ति भी किन्हीं संकेतों का उपरितलीय नियामक बुद्धि के द्वारा किया गया एक विशेष प्रकार का प्रयोगमात्र है । ये संकेत वस्तुत: अन्तर्ज्ञानात्मक आत्मा की एक गुप्त शक्ति से आते हैं जो कभी-कभी अंशत: प्रत्यक्ष और सक्रिय भी होती है । उसकी समस्त क्रिया के आच्छन्न या अर्द्ध-आच्छन्न मूल बिन्दु पर कोई ऐसा तत्त्व पाया जाता है जो बुद्धि का रचा नहीं होता, बल्कि जो उसे सीधे अन्तर्ज्ञान के द्वारा या परोक्ष रूप में मन के किसी अन्य भाग के द्वारा प्रदान किया जाता है ताकि वह उसे बौद्धिक आकार और प्रक्रिया के रूप में ढाल सके । हमारी बुद्धि की निर्णयात्मक विवेकशक्ति एवं तर्कबुद्धि की यान्त्रिक प्रक्रिया, अपनी अधिक संक्षिप्त क्रियाओं में हो या अधिक विकसित क्रियाओं में, हमारे संकल्प और चिन्तन के सच्चे उद्गम और स्वाभाविक तत्त्व को जहां विकसित करती है वहा छुपाती भी है । महान्-से-महान् मनीषी वे हैं जिनमें यह छुपानेवाला पदार्थ झीना पड़ जाता है और जिनके मन में अन्तर्ज्ञानात्मक चिन्तन का भाग सबसे बड़ा होता है, जो अपने साथ सदा तो नहीं पर प्रायः ही बौद्धिक क्रिया की महान् सहचारिणी अभिव्यक्ति को भी अवश्य लाता है । परन्तु मनुष्य के वर्तमान मन में अन्तर्ज्ञानात्मक बुद्धि कभी भी सर्वथा शुद्ध और पूर्ण नहीं होती, क्योंकि वह मन के माध्यम में कार्य करती है और मन तुरक हीं उसे अपने अधिकार में लाकर उसपर निश्चित मनोमय तत्त्व की तह चढ़ा देता है । वह अभीतक इतनी प्रकट एवं विकसित नहीं हुई है और न इतनी पूर्णता को ही पहुंची है कि जो-जो क्रियाएं आज अन्य मानसिक करणों के द्वारा की जाता हैं उन सबके लिये वह पर्याप्त हो, न वह अभीतक इतनी सधायी ही गयी है कि उन्हें अपने हाथ में लेकर अपनी पूर्णतम एवं प्रत्यक्षतम तथा अत्यन्त सुनिश्चित एवं सक्षम क्रियाओं में रूपान्तरित कर सके अथवा उनके स्थान पर अपनी ऐसी क्रियाओं को प्रतिष्ठित कर सके । निःसन्देह, यह कार्य केवल तभी सम्पत्र हो सकता है यदि हम अन्तर्ज्ञानात्मक मन को उच्चतर अवस्था में पहुंचने के लिये एक साधन बनाकर उसके द्वारा स्वयं निगूढ़ अतिमानस को भी, जिसका वह एक मनोमय रूप है, अभिव्यक्त कर दें तथा अपनी सामने की चेतना में अतिमानस का एक बाह्य रूप एवं करण भी गठित कर लें । उस बाह्य रूप एवं करण के द्वारा अन्तरात्मा एवं आत्मा अपनी निज विशालता और ज्योति के रूप में अपनेको प्रकट कर सकेगी ।
यह स्मरण रखना होगा कि सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् ईश्वर के परमोच्च अतिमानस तथा जीव को प्राप्त हो सकनेवाले अतिमानस में सदा ही भेद होता है ।
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मनुष्य अज्ञान की अवस्था में से आरोहण कर रहा है और जब वह ऊपर अतिमानसिक प्रकृति में पहुंचेगा तो वह वहां उसके आरोहण के क्रमों को देखेगा और उच्चतर शिखरोंतक आरोहण करने से पहले उसे निम्नतर स्तरों और सीमित सोपानों को निर्मित कर लेना होगा । वहां वह परम आत्मतत्त्व के साथ एकत्व के द्वारा अनन्त आत्मा की पूर्ण सारभूत ज्योति, शक्ति और आनन्द का रसास्वादन करेगा, परन्तु सक्रिय अभिव्यक्ति में इस आत्मा को उस आत्म-अभिव्यक्ति के स्वरूप के अनुसार आत्म-निर्धारण करना होगा तथा अपने-आपको व्यष्टि-रूप प्रदान करना होगा जिसे विश्वातीत और विकात परमात्मा जीव में साधित करना चाहते हैं । ईश्वरोपलब्धि एवं ईश्वराभिव्यक्ति हीं हमारे योग का, विशेषकर इसके सक्रिय पक्ष का, लक्ष्य है, और इसका अभिप्राय है हमारे अन्दर ईश्वर की दिव्य आत्म-अभिव्यक्ति, पर वह (अभिव्यक्ति) होती है मानवता की अवस्थाओं के अधीन तथा दिव्यीकृत मानव -प्रकृति के द्वारा ।
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