Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय २५
अतिमानसिक काल-दृष्टि की ओर
समस्त सत्ता, चेतना एवं ज्ञान सत् की दो अवस्थाओं एवं शक्तियों के बीच गति करता है--कालातीत 'अनन्त' की अवस्था, और सब वस्तुओं को अपने अन्दर काल में प्रकट और व्यवस्थित करनेवाले 'अनन्त' की अवस्था के बीच । हमारी वर्तमान स्थूल चेतना के लिये तो यह गुप्त रूप में गति करता है, पर जब हम इससे परे आध्यात्मिक एवं अतिमानसिक स्तरों की ओर उठ जाते हैं तब यह खुले रूप में इन अवस्थाओं के बीच गति करता है । ये दो अवस्थाएं केवल हमारे मानसिक तर्क के लिये ही परस्पर-विरुद्ध और असंगत हैं, क्योंकि वह विरोधों के एक मिथ्या विचार के चारों ओर परेशान होकर चक्कर काटता हुआ निरन्तर ठोकरें खाता रहता है तथा सनातन द्वंद्वों को एक-दूसरे के सामने खड़ा करता रहता है । वास्तव में, जब हम अतिमानसिक तादात्म्य और अन्तर्दर्शन पर आधारित ज्ञान के साथ वस्तुओं को देखते हैं और उस ज्ञान के अपने विशिष्ट, महान्, गभीर एवं नमनीय तर्क के साथ सोचते हैं तो हमें पता चलता है कि ये दोनों अनन्त के एक ही सत्य की केवल सहवर्तिनी एवं सहगामिनी स्थिति एवं गति की अवस्थाएं हैं । कालातीत अनन्त इस अभिव्यक्ति से परे अपने अन्दर, अपनी सत्ता के सनातन सत्य के अन्दर उस सबको धारण करता है जिसे वह काल में व्यक्त करता है । उसकी कालगत चेतना भी स्वयं अनन्त है और जो कुछ हमें वस्तुओं का भूत, वर्तमान और भविष्य प्रतीत होता है उसे वह अपने अन्दर, समग्रताओं एवं विशिष्टताओं के, गतिशील क्रम या क्षण-दृष्टि तथा समग्र स्थिरीकारक दृष्टि या स्थिर समग्र दृष्टि के अन्तरनुभव में एक ही साथ धारण करती है ।
कालातीत अनन्त की चेतना हमें कई प्रकार से हृदयंगम हो सकती है, पर साधारणतया उसकी एक प्रतिच्छाया एवं प्रबल छाप के द्वारा उसे हमारे मन पर लाद दिया जाता है या फिर वह एक ऐसी वस्तु के रूप में हमारे सामने उपस्थित की जाती है जो मन से ऊपर है, जिसके प्रति मन सचेतन होता है, जिसकी ओर वह उठता है, पर जिसमें वह प्रवेश नहीं कर सकता, क्योंकि वह स्वयं कालभावना तथा क्षण-परम्परा में ही निवास करता है । यदि हमारा वर्तमान मन, जो अतिमानसिक प्रभाव से रूपान्तरित नहीं हुआ, कालातीत में प्रवेश करने का यत्न करे तो उसे या तो समाधि की मग्नावस्था में विलुप्त एवं आत्म विस्मृत हो जाना होगा, अथवा यदि वह जागरित अवस्था में रहे तो वह अपने-आपको एक ऐसे अनन्त में विकीर्ण हुआ अनुभव करेगा जहां शायद एक अतिभौतिक आकाश की, विशालता की, चेतना के असीम विस्तार की अनुभूति होती है, पर जहां काल-सत्ता, काल-गति या काल
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व्यवस्था नहीं है । और यदि तब भी मनोमय पुरुष कालगत पदार्थों के प्रति यन्त्रवत् सचेतन होता है तो भी वह उनके साथ अपने ढंग से बरताव नहीं कर सकता, कालातीत सत्ता और कालगत पदार्थों में सत्य सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकता और अपने अनिर्दिष्ट 'अनन्त' में से कर्म और संकल्प नहीं कर सकता । तब मनोमय पुरुष के लिये जो कर्म करना सम्भव रहता है वह प्रकृति के करणों का यान्त्रिक कार्य ही होता है । यह कार्य पुरानी प्रवृत्ति एवं स्वभाव के बलपर या अतीत शक्ति के भोगे जा रहे फल के कारण, प्रारब्ध कर्म के कारण चलता रहता है, या फिर यह एक अस्तव्यस्त, अनियन्त्रित एवं असम्बद्ध कार्य होता है, अर्थात् एक ऐसी शक्ति का अव्यवस्थित एवं आकस्मिक परिणाम होता है जिसका कोई चेतन केन्द्र अब नहीं होता ।
इसके विपरीत, अतिमानसिक चेतना कालातीत अनन्त की परम चेतना पर आधारित है, पर 'काल' के भीतर अनन्त शक्ति के प्राकट्य का रहस्य भी उसे उपलब्ध है । वह कालगत चेतना में स्थित होकर कालातीत अनन्त को अपनी परमोच्च-मूल-सत्ता-रूपी पृष्ठभूमि के रूप में रख सकती है जहां से वह अपना समस्त व्यवस्थाकारी ज्ञान, संकल्प और कर्म प्राप्त करती है । अथवा, वह अपनी मूल सत्ता में केन्द्रित होकर कालातीत में रह सकती है, पर साथ ही वह कालगत अभिव्यक्ति में भी रह सकती है जिसे वह अनन्त एवं उसी एक 'अनन्त' के रूप में अनुभव करती तथा देखती है, और जिसे वह एक में (कालातीत अनन्त में) दिव्यतया धारण करती है उसे दूसरे में (कालगत अनन्त में) प्रकट, धारण और विकसित कर सकती है । अत: उसकी कालगत चेतना मनोमय पुरुष की काल-चेतना से भिन्न होगी । वह क्षणों की धारा पर अवश रूप से बही नहीं चली जायेगी, न ही प्रत्येक क्षण को एक आश्रय-बिन्दु एवं तेजी से विलीन हो जानेवाले दृष्टिकोण के रूप में पकड़ेगी, बल्कि प्रथम तो वह काल के परिवर्तनों से परे अपनी सनातन एकता पर आधारित होगी, दूसरे, इस एकता के साथ रहनेवाली काल की उस शाश्वत धारा पर जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य सनातन के आत्म-ज्ञान एवं आत्म-बल में सदा के लिये एक साथ रहते हैं आधारित होगी, तीसरे, तीनों कालों की इस समग्र दृष्टि पर कि ये तीनों एक ही गति हैं जो इनके क्रमों, युगों और चक्रों के अनुक्रम में भी एक और अविभाज्य दिखायी देती है, अन्त में--और ऐसा केवल करणात्मक चेतना में ही होता है--क्षणों के क्रमिक विकास पर आधारित होगी । अतः उसे तीनों कालों का ज्ञान होगा, त्रिकादृष्टि प्राप्त होगी जिसे प्राचीन काल में द्रष्टा एवं ऋषि का सर्वोच्च चिह्न माना जाता था । पर यह त्रिकालदृष्टि उसकी एक असाधारण शक्ति नहीं, वरन् काल-ज्ञान का उसका साधारण ढंग होगी 1
यह एकीकृत एवं अनन्त काल-चेतना और यह अन्तर्दृष्टि एवं ज्ञान विज्ञानमय
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पुरुष के, अपने परम ज्योतिलोंक मे, ऐश्वर्य हैं और ये अतिमानसिक प्रकृति के उच्चतम स्तरों पर ही अपनी पूर्णता प्राप्त करते हैं । परन्तु ऊंचा उठाने एवं रूपान्तर करनेवाली विकासात्मक योग-प्रक्रिया के द्वारा-अर्थात् अपने-आपको अनावृत, विकसित और उत्तरोत्तर पूर्ण बनानेवाली योग-प्रक्रिया के द्वारा मानव-चेतना का जो आरोहण होता है उसमें हमें तीन क्रमिक अवस्थाओं को विचार में लाना होगा । इन तीनों को पार करके ही हम उच्चतम स्तरों पर विचरण करने के योग्य बन सकते हैं । हमारी चेतना की पहली अवस्था, जिसमें कि हम आज विचरण करते हैं, यह अज्ञानमय मन है जो जड़ प्रकृति की निश्चेतना और निर्ज्ञान में से उद्भूत दुआ है । यह अज्ञ होता हुआ भी ज्ञान की खोज करने में समर्थ है और उसे, कम-से-कम मांनसिक निरूपणों की एक शृंखला के रूप में प्राप्त करता है । इन निरूपणों को यथार्थ सत्य के संकेत-सूत्र बनाया जा सकता है और ये ऊर्ध्व स्तर की ज्योति के प्रभाव, अन्त:क्षरण एवं अवतरण से अधिकाधिक परिष्कृत, आलोकित एवं पारदर्शक बनकर बुद्धि को सत्य ज्ञान की क्षमता की ओर खुलने के लिये तैयार करते हैं । इस मन के लिये समस्त सत्य एक ऐसी वस्तु है जो इसके पास मूलत: नहीं थी और जो इसे प्राप्त करनी पड़ी है या अभी प्राप्त करनी है, एक ऐसी वस्तु जो इसके लिये बाह्य है और जो अनुभव से या अनुसन्धान की कुछ-एक निश्चित विधियों एवं नियमों का अनुसरण करके, गणना के द्वारा, आविष्कृत नियम के प्रयोग से, चिह्नों और संकेतों की व्याख्या के द्वारा सञ्चित करने योग्य है । इसका ज्ञान ही एक पूर्ववर्ती निर्ज्ञान का सूचक है; यह अविद्या का करण है ।
चेतना की दूसरी अवस्था मनुष्य के लिये केवल सुप्त और सम्भाव्य रूप में ही विद्यमान है और यह आन्तरिक ज्ञान-दीप्ति तथा अज्ञानमय मन के रूपान्तर से ही प्राप्त होती है । इस अवस्था में पहुंचकर ही मन अपने ज्ञान के उद्गम को बाहर न खोजकर भीतर खोजता है और, चाहे जिन भी साधनों से हो, वह अपने वेदन एवं आत्मानुभव के प्रति मूत्र अविद्या से युक्त मन न रहकर आत्मविस्मृतिपूर्ण ज्ञान से सम्पन्न मन बन जाता है । यह मन जानता है कि सब वस्तुओं का ज्ञान इसके अन्दर ही छिपा है या कम-से-कम मानव-सत्ता में ही कहीं पर विद्यमान है पर मानों वह आवृत एवं विस्मृत पड़ा है, और ज्ञान उसके पास एक ऐसी वस्तु के रूप में नहीं आता जो बाहर से प्राप्त की गयी हो, वरन् वह गुप्त रूप से सदा ही वहां विद्यमान होता है और अब स्मृति में आ जाता है तथा तत्काल ही सत्य जान पड़ता है, --उसमें प्रत्येक वस्तु अपने स्थान पर तथा अपनी मात्रा, रीति-नीति और नाप-तोल के अनुसार होती है । ज्ञान के प्रति इस मन की यही वृत्ति होती है--उस समय भी जब कि कोई बाह्य अनुभव, चिह्न या संकेत ही ज्ञान की प्राप्ति में निमित्त बना हो, क्योंकि वह तो इसके लिये एक निमित्तमात्र है और ज्ञान की सत्यता के लिये यह बाह्य संकेत या प्रमाण पर नहीं अपितु अन्दर के निश्चायक साक्षी पर
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निर्भर करता है । वास्तविक मन हमारे अन्दर का वैश्व मन ही है और व्यक्तिगत मन तो उसका उपरितल पर एक प्रक्षेपमात्र है । अतएव, चेतना की यह दूसरी अवस्था हमें या तो तब प्राप्त होती है जब वैयक्तिक मन अधिकाधिक भीतर जाता है और सदा ही चेतन या अवचेतन रूप से वैश्व मन के स्पर्शों के निकटवर्ती एवं उनके प्रति संवेदनशील होता है, --उस वैश्व मन के जिसमें सब कुछ निहित है, सब कुछ ग्रहण किया जाता है और अभिव्यक्त किया जा सकता है, अथवा, और भी शक्तिशाली रूपमें यह अवस्था तब प्राप्त होती हैं जब हम वैश्व मन की चेतना में निवास करते हैं और व्यक्तिगत मन उसका उपरितल पर एक प्रक्षेप या संकेत-पटल या एक सञ्चारक बटनमात्र होता है ।
चेतना की तीसरी अवस्था ज्ञानमय मन की है जिसमें सभी वस्तुएं और सभी सत्य इस रूप में प्रत्यक्ष और अनुभूत होते हैं कि वे पहले से ही विद्यमान और ज्ञात हैं और उसपर (मन पर) अन्दर की ज्योति फेंकनेमात्र से तुरन्त उपलब्ध हो सकते हैं, जैसे, जब कोई व्यक्ति एक कमरे में रखी हुई, पहले से ही विदित और परिचित वस्तुओं पर दृष्टि डालता है और पाता है कि वे पूर्व-विद्यमान ज्ञान के विषय हैं, यद्यपि वे सदा दृष्टि के सामने उपस्थित नहीं होतीं, क्योंकि वह उनकी ओर एकाग्र नहीं होती । चेतना की दूसरी, आत्मविस्मृतिपूर्ण, अवस्था से इसका भेद यह है कि इसमें किसी प्रकार के प्रयत्न या खोज की जरूरत नहीं होती, जरूरत होती है केवल ज्ञान के किसी भी क्षेत्र की ओर अन्दर की ज्योति फेंकने या खोल देने की । अतएव, इसका अर्थ मन की स्मृति से उतर गयी एवं उससे छुपी हुई वस्तुओं का स्मरण नहीं है, बल्कि पहले से ही विद्यमान, प्रस्तुत और उपलभ्य वस्तुओं का उज्जल निरूपण है । यह अन्तिम अवस्था केवल तभी प्राप्त हो सकती है यदि अन्तर्ज्ञानात्मक मन कुछ अंश मे विज्ञानमय बन जाये तथा वह अतिमानसिक स्तरों से आनेवाले प्रत्येक सन्देश के प्रति पूर्ण रूप से खुला रहे । यह ज्ञानमय मन अपने तात्त्विक रूप में गर्भित सर्वशक्तिमत्ता की ही एक क्षमता है, परन्तु मन के स्तर पर इसकी जो यथार्थ क्रिया होती है उसमें इसका क्षेत्र एवं कार्य-व्यापार सीमित होता है । यह सीमितता का स्वभाव स्वयं अतिमानस पर भी लागू होता है जब वह मानसिक स्तर के भीतर अवतरित होकर मन के क्षुद्रतर उपादान में कार्य करता है, चाहे वह करता है अपने ही ढंग से तथा अपने शक्तिमय एवं ज्योतिर्मय स्वरूप में । यह स्वभाव अतिमानसिक बुद्धि की क्रिया में भी दृढ़ रूप से बना रहता है । अपने स्तरों पर कार्य करती हुई उच्चतर अतिमानसिक शक्ति ही एक ऐसी शक्ति है जिसका संकल्प और ज्ञान सदा एक असीम प्रकाश में या ज्ञान का अपरिमेय विस्तार करने की स्वतन्त्र क्षमता के साथ कार्य करते हैं । यह ज्ञान-विस्तार केवल ऐसी सीमाओं के अधीन होता है जिन्हें आत्मा अपने प्रयोजनों के लिये तथा अपनी इच्छानुसार अपने ऊपर लादता है ।
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अतिमानस की ओर विकसित होते हुए मानव-मन को इन सब अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है और अपने आरोहण एवं विस्तार में वह अनेक परिवर्तनों को तथा अपनी काल-चेतना एवं काल-ज्ञान की शक्तियों और शक्यताओं की नाना प्रवृत्तियों को अनुभव कर सकता है । पहले-पहल अज्ञानमय मन की अवस्था में मनुष्य न तो अनन्त काल-चेतना में निवास कर सकता है और न त्रिविध काल-ज्ञान की किसी प्रत्यक्ष एवं वास्तविक शक्ति को अधिकृत कर सकता है । अज्ञानमय मन काल की अविभाज्य, अविच्छिन्न धारा में नहीं, बल्कि क्रमश: एक-एक क्षण में निवास करता है । उसे आत्मा की अविच्छिन्नता की तथा अनुभव की सारभूत अविच्छिन्नता की एक अनिश्चित अनुभूति होती है । इस अनुभूति का मूलस्रोत हमारे अन्दर की गभीरतर आत्मा है, किन्तु, क्योंकि अज्ञानमय मन इस गभीरतर आत्मा में नहीं रहता, वह सच्चे अविच्छिन्न काल-प्रवाह में भी नहीं रहता, पर हां, वह इस अनिश्चित, किन्तु फिर भी आग्रहपूर्ण अनुभूति को अपनी वर्तमान अवस्था में एक पृष्ठभूमि, आश्रय एवं आश्वासन के रूप में प्रयुक्त करता है, नहीं तो यह अवस्था उसके लिये अपनी सत्ता का एक सतत आधारहीन प्रवाह ही होगी । अपनी व्यावहारिक क्रिया में वह वर्तमान में स्थित होने के अतिरिक्त केवल उस लीक का सहारा लेता है जिसे भूतकाल अपने पीछे छोड़ जाता है और जो स्मृति में सुरक्षित होती है । इसके साथ ही वह पूर्व अनुभव से सञ्चित संस्कार-पुंज का भी आश्रय लेता है और, भविष्य के लिये, अनुभव की नियमितता के आश्वासन का तथा अनिश्चित अनुमान की उस शक्ति का सहारा पकड़ता है जो कुछ तो पुनरावृत्त अनुभव एवं सुप्रतिष्ठित अनुमान पर आधारित होती है और कुछ कल्पनात्मक रचना एवं अटकल पर । अज्ञानात्मक मन अपनी सामान्य क्रिया के लिये आपेक्षिक या नैतिक निश्चितताओं के एक विशेष आधार या तत्त्व पर भरोसा रखता है, पर बाकी सब चीजों के लिये सुशक्यताओं और सम्भावनाओ के साथ व्यवहार करना ही उसका मुख्य साधन है ।
इसका कारण यह है कि अज्ञानावस्था में मन एक विशेष क्षण में निवास करता है और एक घण्टे से दूसरे घण्टे की ओर उस पथिक की भांति ही बढ़ता है जो अपने तत्क्षण के दृष्टि स्थान के निकट और चारों ओर दिखायी देनेवाली वस्तुओं को ही देखता है और जिन चीजों से वह पहले गुजर चुका है उन्हें अधूरे रूप में ही याद रखता है, किन्तु उसकी तात्क्षणिक दृष्टि के परे उसके सामने जो कुछ भी है वह सब अदृष्ट एवं अज्ञात है जिसका अनुभव उसे अभी प्राप्त करना है । अतएव, जैसा कि बौद्ध दार्शनिकों ने देखा था, अपनी अज्ञानावस्था में मनुष्य काल-चक्र के अन्तर्गत गति-चेष्टा करता हुआ विचारों और संवेदनों की तथा अपने विचार और संवेदन के समक्ष उपस्थित बाह्य रूपों की क्रमधारा में ही निवास करता है । उसकी वर्तमान क्षणस्थायिनी सत्ता ही उसके लिये सत्य है, उसकी अतीत सत्ता मिट चुकी है या लुप्त हो रही है अथवा केवल स्मृति, परिणाम एवं संस्कार के रूप में ही
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सुरक्षित है, उसकी भावी सत्ता पूर्णतया असत् है या केवल रचना की प्रक्रिया में से गुजर रही है या जन्म लेने की तैयारी में है । उसके चारों ओर का जगत् भी प्रत्यक्ष के इसी नियम के अधीन है । इसका यथार्थ रूप तथा इसकी घटनाओं और दृग्विषयों का समूह ही उसके सामने उपस्थित है तथा उसके लिये सर्वथा वास्तविक है, इसके अतीत की अब कोई सत्ता नहीं है, अथवा वह केवल स्मृति तथा इतिवृत्त के रूप में और अपने उतने ही अंश में विद्यमान है जितना कि अपना मृत स्मारक छोड़ गया है या वर्तमान में अभी भी जीवित है । इसके भविष्य का तो अभी तनिक भी अस्तित्व नहीं है ।
तो भी यह ध्यान में रखना होगा कि यदि हमारा वर्तमान-सम्बन्धी ज्ञान स्थूल मन तथा इन्द्रियों पर हमारी निर्भरता के कारण सीमित न हो तो उक्त परिणाम सर्वथा अनिवार्य नहीं रहेगा । यदि हम किसी क्षण कार्य कर रही शारीरिक, प्राणिक, मानसिक शक्तियों के सम्पूर्ण वर्तमान को, उनके सम्पूर्ण कार्य को जान सकें तो यह कल्पना की जा सकती है कि हम उनके अन्दर तिरोहित उनके अतीत को तथा उनके गुप्त भविष्य को भी देख सकेंगे या कम-से-कम वर्तमान ज्ञान से अतीत और भावी ज्ञान की ओर बढ़ सकेंगे । कुछ विशेष अवस्थाओं में यह वास्तविक एवं नित्य-विद्यमान, अविच्छिन्न काल-धारा की अनुभूति को, पिछले, अगले और वर्तमान क्षण में जीवन धारण करने की अनुभूति को उत्पन्न कर सकता है, और इससे आगे का और एक कदम हमें इस नित्य अनुभूति में ले जा सकता है कि अनन्त काल में तथा अपने कालातीत आत्मा में हम सदा ही अस्तित्व रखते हैं, और तब सनातन काल में उस (आत्मा) की अभिव्यक्ति हमारे लिये वास्तविक हो सकती है और साथ ही हम लोकों के पीछे अवस्थित कालातीत आत्मा को तथा उसकी शाश्वत विश्व अभिव्यक्ति की वास्तविकता को अनुभव कर सकते हैं । कुछ भी हो, इस समय हमारे अन्दर जो काल-चेतना है उससे भिन्न प्रकार की काल-चेतना तथा त्रिविध काल-ज्ञान की सम्भावना इसपर निर्भर करती हैं कि स्थूल मन और इन्द्रिय की अपनी विशेष चेतना से भिन्न चेतना का हम कहांतक विकास कर सकते हैं और संवेदन, स्मृति, अनुमान एवं अटकल की सीमाओं मे बंधे अज्ञानमय मन की तथा तत्तत् क्षण की जिस कारा में हम कैद हैं उसे हम कहातक तोड़ सकते हैं ।
वस्तुत: मनुष्य केवल वर्तमान में निवास करने से ही सन्तुष्ट नहीं होता, यद्यपि यही वह अत्यन्त प्रबल सजीवता एवं आग्रह के साथ करता है : वह आगे और पीछे देखने के लिये प्रेरित होता हैं, अतीत का अधिक-से-अधिक जितना भी अंश वह जान सकता है उसे जानने के लिये तथा, कितने धूमिल रूप में ही सही, भविष्य के अन्दर दूर से दूरतक पैठने का यत्न करने के लिये प्रेरित होता है । इस प्रयास के लिये उसके पास कुछ-एक सहायक साधन भी हैं जिनमें से कुछ उसके स्थूल
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मनपर पर आश्रित हैं, जबकि दूसरे एक अन्य अन्तःप्रच्छन्न या अतिचेतन सत्ता से आनेवाले संदेशों की ओर खुले रहते हैं । इस सत्ता को अधिक महान्, अधिक सूक्ष्म और सुनिश्चित ज्ञान प्राप्त है । मनुष्य के पास सबसे पहला सहायक साधन बुद्धि है जो आगे तो कारण से कार्य की ओर गति करती है और पीछे कार्य से कारण की ओर, शक्तियों के नियम और उनकी सुनिश्चित यान्त्रिक प्रक्रिया की खोज करती है, प्रकृति की गतियों की शाश्वत एकरूपता की कल्पना करती है, उसके काल-परिमाणों को निश्चित करती है और इस प्रकार सामान्य दिशाओं तथा सुनिश्चित परिणामों के विज्ञान के आधार पर भूत और भविष्य का आकलन करती है । भौतिक प्रकृति के क्षेत्र में इस पद्धति से कुछ सफलता प्राप्त हुई है जो परिमित होने पर भी काफी आश्चर्यजनक है और ऐसा लगता है कि मन और प्राण की क्रियाओं पर भी अन्ततः यही विधि प्रयुक्त की जा सकतीं है और कि, चाहे जो भी हो, किसी भी क्षेत्र में यथार्थता के साथ पीछे और आगे देखने के लिये यही मनुष्य का एकमात्र विश्वसनीय साधन है । पर वास्तव में प्राणिक प्रकृति की और, इससे भी अधिक, मानसिक प्रकृति की घटनाएं सुनिश्चित नियम के आधार पर अनुमान एवं गणना करने की उन विधियों से जो भौतिक ज्ञान के क्षेत्र में लागू होती हैं, एक बड़ी हदतक, अगोचर ही रह जाती हैं । यह नियम वहां नियमित घटनाओं एवं दृग्विषयों के सीमित क्षेत्रतक ही लागू हो सकता है और बाकी के लिये हमें यह सापेक्ष निश्चितताओं, अनिश्चित सुशक्यताओं और अगण्य सम्भावनाओं के एक मिश्रित संघात के बीच, जहां हम थे वहीं छोड़ देता है ।
इसका कारण यह है कि मन और प्राण क्रिया की एक महान् सूक्ष्मता एवं जटिलता को ले आते हैं, प्रत्येक संसिद्ध क्रिया अपने अन्दर शक्तियों के एक जटिल संघात को धारण किये होती है, और यदि हम इन सबको अर्थात् जो बस अभी हाल में चरितार्थ हुई हैं और उपरितल पर या उसके निकट हैं उन सबको संघात में से पृथक् करके जान भी सकें तो भी हम बाकी की उन सब चीजों के बारे में जो तमसाच्छन्न या प्रसुप्त हैं, हतप्रभ ही रहेंगे, अनेकों गुप्त और फिर भी शक्तिशाली सहायक कारण, प्रच्छन्न गति एवं प्रेरक शक्ति, अप्रकाशित सम्भावनाएं परिवर्तन की अनवधारित एवं अनवधार्य सम्भावनाएं--इन सबके बारे में हमारी बुद्धि चकरायी ही रहेगी । यहां भौतिक क्षेत्र की भांति एक निश्चित कारण से निश्चित कार्य का यथार्थ आकलन करना अर्थात् वर्तमान अवस्थाओं के एक ज्ञात, प्रत्यक्ष समुदाय से परवर्ती अवस्थाओं के एक अनिवार्य, परिणामभूत समुदाय का या पूर्ववर्ती अवस्थाओं के एक अनिवार्य पूर्वभाव का ठीक-ठीक और सुनिश्चित हिसाब लगाना हमारी सीमित बुद्धि के लिये व्यवहार्य नहीं रहता । यहीं कारण है कि तथ्य-सामग्री के अवलोकन में व्यापक से व्यापक दृष्टि तथा सम्भावित परिणाम के पर्यालोचन में अत्यन्त सतर्कता के होने पर भी मानव-बुद्धि की भविष्यवाणियां और भाविदृष्टियां
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यथार्थ घटना से निरन्तर पराजित और खण्डित होती रहती हैं । प्राण और मन आत्मा और जड़तत्त्व के बीच में आ सकनेवाली सम्भव वस्तुओं का एक सतत प्रवाह हैं और पग-पग पर ये सम्भव वस्तुओं के एक अनन्त नहीं तो कम-से-कम एक अनिश्चित संघात को ले आते हैं और यह चीज समस्त तार्किक अवधारणा को अनिश्चित एवं सापेक्ष रूप देने के लिये काफी है । पर साथ ही इनके पीछे एक परमोच्च कारण-तत्त्व प्रभुत्वशाली रूप में स्थित है जिसका आकलन मानव-मन नहीं कर सकता । वह है चैत्य का संकल्प तथा गुह्य आत्मा का संकल्प । इनमें से पहला अनियमित रूप से परिवर्तनशील, तरल तथा जटिल है, दूसरा अनन्त है, अज्ञेय रूप से अटल है और यदि वह बद्ध है भी तो केवल अपने-आपसे तथा अनन्त के संकल्प से ही बद्ध है, और किसी से नहीं । अतएव स्थूल भौतिक मन से पीछे हटकर चैत्य और आध्यात्मिक चेतना में जाने से ही तीनों कालों का साक्षात्कार एवं ज्ञान तथा तत्तत् क्षण के दृष्टिबिन्दु एवं दृष्टिक्षेत्र के प्रति अपनी सीमितता का पूर्ण अतिक्रमण किया जा सकता है ।
इस बीच, अन्तश्चेतना पर से बहिर्चेताना की ओर खुलनेवाले कुछ ऐसे द्वार हैं जो स्थूल मन में भी अतीत के प्रत्यक्ष अनुदर्शन, वर्तमान के परिदर्शन और भविष्य के पूर्वदर्शन की कभी-कभी उत्पन्न् होनेवाली पर अपर्याप्त शक्ति को कम-से-कम एक सम्भावना के रूप में साध्य बना देते हैं । सर्वप्रथम, मन-रूपी इन्द्रिय और प्राणिक चेतना की कुछ विशेष क्रियाएं इसी प्रकार की हैं--जिनमें से एक प्रकार की क्रिया को, जिसने हमारे प्रत्यक्ष बोधों को अत्यन्त प्रभावित किया है, 'पूर्वबोध' की संज्ञा दी गयी है । ये क्रियाएं ऐन्द्रिय मन तथा प्राणिक सत्ता के सहज-बोध एवं अस्पष्ट अन्तर्ज्ञान हैं, और मनुष्य में जो भी सहज-प्रेरित वृत्तियां हैं उनके समान इन्हें भी मनोमय बुद्धि की सर्वग्रासिनी क्रिया ने दबा दिया, दुर्लभ बना दिया या अविश्वसनीय कहकर निन्द्य ठहराया है । यदि इन्हें खुला क्षेत्र प्रदान किया जाये तो ये विकसित होकर ऐसी तथ्य सामग्री प्रदान कर सकतीं हैं जो साधारण बुद्धि और इन्द्रियों के लिये प्राप्य नहीं है । किन्तु फिर भी ये अपने-आपमें पूर्णतया उपयोगी या विश्वसनीय संकेत नहीं होंगी जबतक कि इनकी अस्पष्टता एक ऐसे अर्थ-विवरण एवं मार्गदर्शन द्वारा आलोकित न हो जिसे साधारण बुद्धि नहीं प्रदान कर सकती, पर उच्चतर अन्तर्ज्ञान प्रदान कर सकता है । अतएव अन्तर्ज्ञान दूसरा अधिक महत्त्वपूर्ण और सम्भव साधन है जो हमें प्राप्त हो सकता है, और वह हमें वास्तव में ही, इस कठिन क्षेत्र में सामयिक आलोक एवं मार्गदर्शन प्रदान कर सकता है और कभी-कभी प्रदान करता ही है । पर हमारी वर्तमान मानसिकता में कार्य करता हुआ वह इस असुविधा का शिकार होता है कि उसकी क्रिया निश्चित नहीं होती, उसका व्यापार अपूर्ण होता है, वह कल्पना तथा भ्रान्तिशील मानसिक निर्णय का मिथ्या अनुकरणात्मक क्रियाओं से आच्छन्न हो जाता है और सतत-भ्रात्तिशील मन की
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सामान्य क्रिया उसे निरन्तर अपने अधिकार में लाकर मिश्रित और विकृत करती रहती है । उच्चतर प्रकाशपूर्ण बुद्धि के कार्य की इस सम्भावना को विस्तृत और सुनिश्चित रूप देने के लिये उपर्युक्त त्रुटियों से मुक्त एवं विशुद्ध, व्यवस्थित अन्तर्ज्ञानात्मक मन का निर्माण करना आवश्यक होगा ।
बुद्धि की इस असमर्थता के सामने खड़ा हुआ पर भविष्य के ज्ञान के लिये उत्कण्ठित मानव फिर से अन्य बाह्य साधनों की, शकुनों, भाग्य-निर्णयों, स्वप्नों तथा फलित ज्योतिष की और भूत एवं भावी के ज्ञान के लिये अन्य अनेक प्रस्थापित तथ्यों की शरण में चला गया है जिन्हें कम संशयवादी युगों में सच्चे विज्ञानों का रूप दे दिया गया है । संशयप्रधान बुद्धि के द्वारा चुनौती दिये जाने एवं अविश्वास किये जाने पर भी ये अभीतक हमारे मनों को आकृष्ट करने में निरन्तर निरत हैं और अपना अधिकार जमाये हुए हैं; इसमें इन्हें कामना, श्रद्धालुता और अन्धविश्वास का सहारा मिलता हैं, साथ ही इनके दावों में सत्य का कुछ अंश होने की जो साक्षी, अपूर्ण ही सही, हमें प्रायः मिलती है वह भी इनका समर्थन करती है । एक उच्चतर चैत्य ज्ञान हमें दिखाता है कि वास्तव में जगत् सादृश्यों और संकेतों की अनेक पद्धतियों से पूर्ण है और चाहे इन चीजों का मानव-बुद्धि द्वारा कितना ही अधिक दुरुपयोग क्यों न किया गया हो, फिर भी ये अपने स्थान पर तथा ठीक अवस्थाओं में हमें अतिभौतिक ज्ञान के लिये वास्तविक तथ्य सामग्री दे सकती हैं । तथापि यह स्पष्ट ही है कि अन्तर्ज्ञान (बोधिमय ज्ञान) ही इन्हें खोजकर सूत्रबद्ध रूप दे सकता है, -जैसे कि वास्तव में चैत्य एवं अन्तर्ज्ञानात्मक मन ने सत्य-प्रतिपादक ज्ञान की इन पद्धतियों की पहले-पहल रचना की थी, --और व्यवहार में भी यह पता चलेगा कि परम्परागत या दैव-घटित व्याख्या या यान्त्रिक नियम एवं सूत्र का कोरा प्रयोग नहीं वरन् बोधिमूलक ज्ञान ही हमें इन संकेतों के यथायथ प्रयोग का निश्चय बंधा सकता है । अन्यथा, स्थूल बुद्धि द्वारा प्रयोग में लाये जानें पर ये भ्रान्ति के एक घने जंगल का रूप धारण कर सकते हैं ।
भूत, वर्तमान और भविष्य का सच्चा और प्रत्यक्ष ज्ञान या साक्षात्कार चैत्य चेतना और चैत्य शक्तियों के उद्घाटन से आरम्भ होता है । चैत्य चेतना वह है जिसे आजकल प्रायः प्रच्छन्न अन्तःसत्ता कहा जाता है, अर्थात् भारतीय मनोविज्ञान का सूक्ष्म या स्वाप्न आत्मा । उसके सम्भाव्य ज्ञान का क्षेत्र, जैसा कि पिछले अध्याय में निर्दिष्ट किया जा चुका है, लगभग अनन्त ही है । वह भूत, वर्तमान और भविष्य की सम्भावनाओं और निश्चित यथार्थताओं में पैठनेवाली अन्तर्दृष्टि की एक बहुत व्यापक शक्ति को तथा इस अन्तर्दृष्टि के अनेक रूपों को अपने अन्दर समाविष्ट करता है । उसकी प्रथम शक्ति, जो सहज ही हमारा ध्यान आकृष्ट करती है, देश और काल में विद्यमान किन्हीं भी वस्तुओं की मूर्तियों को चैत्य इन्द्रिय द्वारा देखने की उसकी शक्ति है । अतीन्द्रिय-दर्शियों, माध्यमों तथा कुछ दूसरों के द्वारा
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यह जिस रूप में प्रयोग में लायी जाती है उसमें यह प्रायः ही और, वास्तव में साधारणतया ही, एक विशिष्ट शक्ति है जो सीमित होती हुई भी अपनी क्रिया में प्रायः सुनिश्चत और यथार्थ होती है, और यह अन्तरात्मा या आध्यात्मिक सत्ता या उच्चतर बुद्धि के किसी प्रकार के विकास को द्योतित नहीं करती । यह एक द्वार है जो जाग्रत् मन और अन्तःप्रच्छन्न मन के बीच संयोगवश या एक सहजात देन के कारण या किसी प्रकार के दबाव से खुल जाता है और यह हमें प्रच्छन्न मन के ऊपरी तल या बाहरी अंचल में ही प्रवेश प्रदान करता है । गुप्त विराट् मन की एक विशेष शक्ति एवं क्रिया में सभी वस्तुएं प्रतिमाओं के द्वारा--केवल चाक्षुष ही नहीं वरन् यदि हम ऐसी पदावलिका प्रयोग कर सकते हों तो, श्रव्य या अन्यविघ प्रतिमाओं के द्वारा भी--प्रतिरूपित होती हैं । और यदि रचनाकारी मन और उसकी कल्पनाओं का हस्तक्षेप न हो, अर्थात् यदि कृत्रिम या मिथ्याकारक मानसिक प्रतिमाएं बीच में दखल न दें, यदि चैत्य इन्द्रिय मुक्त, सच्ची और निष्क्रिय (निष्प्रतिरोध) हो तो सूक्ष्म या चैत्य इन्द्रियों के एक विशेष प्रकार के विकास से इन प्रतिरूपों या प्रतिलेखों को पूर्ण यर्थाथता के साथ ग्रहण करना सम्भव हो जाता है । इसके साथ ही, मन की यथार्थ प्रतिमाओं में भूत और भविष्य को तथा स्थूल इन्द्रिय की पहुंच से परे के वर्तमान को साक्षात् देखना भी सम्भव हो जाता है, यद्यपि उनके बारे में भविष्यवाणी करना उतना सम्भव नहीं होता । इस प्रकार के साक्षात्कार की यथार्थता इसपर निर्भर करती है कि मन दृष्ट वस्तु के वर्णनतक ही सीमित रहे । अनुमान एवं व्याख्या करने की अथवा किसी और प्रकार से चाक्षुष ज्ञान के परे जाने की चेष्टा अत्यधिक भ्रान्ति की ओर ले जा सकती है । पर हां, यदि इस चेष्टा के साथ ही एक परिष्कृत, सूक्ष्म, विशुद्ध और तीव्र चैत्य अन्तर्ज्ञान भी विद्यमान हो या ज्योतिर्मय अन्तर्ज्ञानात्मक बुद्धि का उच्च विकास हो चुका हो तो बात दूसरी है ।
चैत्य चेतना का एक अधिक पूर्ण उद्घाटन हमें प्रतिमाओं द्वारा साक्षात्कार करने की इस शक्ति से बहुत ही परे ले जाता है और निःसन्देह वह हमें एक नयी काल-चेतना में तो नहीं पर तीनों कालों के ज्ञान की अनेक पद्धतियों में प्रवेश प्रदान करता है । अन्त: -प्रच्छन्न या चैत्य सत्ता अपने-आपको चेतना एवं अनुभूति की अतीत अवस्थाओं में वापिस ले जा सकती या प्रक्षिप्त कर सकती है और चेतना एवं अनुभूति की भावी अवस्थाओं को भी पहले से जान सकती है अथवा उनमें अपनेको प्रबलतया प्रक्षिप्त भी कर सकती है, यद्यपि साधारणतया ऐसा कम ही देखने में आता है । ऐसा वह भूत और भविष्य के नित्य स्वरूपों या प्रतिरूपों में कुछ काल के लिये प्रवेश करके या उनके साथ अपनी सत्ता को या ज्ञानानुभव की शक्ति को एकीभूत करके करती है । ये नित्य स्वरूप या प्रतिरूप हमारे मन के पीछे स्थित सनातन काल-चेतना में धारित रहते हैं या फिर अतिमानस की सनातनता के द्वारा काल-दृष्टि की अविभाज्य, अविच्छिन्न धारा में उपरितल पर उछाल फेंके जाते
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हैं । अथवा, चैत्य सत्ता इन वस्तुओं की छाप को ग्रहण करके चैत्य के सूक्ष्म आकाश में एक प्रतिलेख के रूप में इनका अनुभव रच सकती है । या फिर वह भूत को अवचेतन स्मृति में से, जहां वह प्रसुप्त रूप में सदा ही विद्यमान है, उभार सकती है और उसे अपने अन्दर एक जीवन्त रूप तथा एक प्रकार का नया स्मृत्यात्मक अस्तित्व प्रदान कर सकती है, और इसी तरह वह भविष्य को प्रसुप्तता की गहराइयों में से, जहां यह हमारी सत्ता में पहले से ही निर्मित एवं तैयार है, उपरितल पर ला सकती है और अतीत की भांति उसे भी अपने लिये रूप दे सकती एवं अनुभव कर सकती है । वह एक प्रकार की चैत्य विचार-दृष्टि या चैत्य अन्तर्ज्ञान के द्वारा-यह अन्तर्ज्ञान और ज्योतिर्मय अन्तर्ज्ञानात्मक बुद्धि की सूक्ष्मतर एवं कम मूर्त विचार-दृष्टि एक ही चीज नहीं है--भविष्य को पहले से ही देख या जान सकती है या जो भूतकाल पर्दे के पीछे चला गया है उसमें इस चैत्य अन्तर्ज्ञान की प्रभा फेंककर उसे वर्तमान ज्ञान के लिये पुनः प्राप्त कर सकती है । वह एक प्रतीकात्मक अन्तर्दर्शन का विकास कर सकती है जो शक्तियों और गूढ़ार्थों के अन्तर्दर्शन के द्वारा भूत और भविष्य को प्रकाशित करता है । ये शक्तियां और गूढ़ार्थ अतिभौतिक स्तरों से सम्बन्ध रखते हैं पर जड़ जगत् में सर्जन करने में समर्थ हैं । अन्तःप्रच्छन्न या चैत्य सत्ता भगवान् के प्रयोजन एवं देवताओं के विचार को और सभी पदार्थों तथा उनके चिह्नों एवं संकेतों को भी अनुभव कर सकती है जो अन्तरात्मा पर ऊर्ध्व से प्रकट होते हैं और शक्तियों की जटिल गति का निर्धारण करते हैं । वह उन शक्तियों की गति को भी अनुभव कर सकती है जो हमारे जीवनों से सम्बन्ध रखनेवाली, मानसिक, प्राणिक तथा अन्य लोकों की सत्ताओं के दबाव को सूचित करती हैं तथा उसे प्रत्युत्तर देती हैं, जैसे कि वह इन सत्ताओं की उपस्थिति और क्रिया का भी प्रत्यक्ष अनुभव कर सकती है । वह भूत, वर्तमान और भविष्यत् काल की घटनाओं के सब प्रकार के संकेतों को सभी साधनों से अर्जित कर सकती है । वह अपनी दृष्टि के समक्ष आकाशलिपि को ग्रहण कर सकती है जो सभी अतीत वस्तुओं का इतिवृत्त सुरक्षित रखती है तथा उस सबकी प्रतिलिपि करती जाती है जो वर्तमान में घटित हो रहा है, और जो भविष्य को भी लेखबद्ध कर डालती है ।
ये सब तथा अन्य अनेक शक्तियां हमारी अन्तःप्रच्छन्न सत्ता में छुपी हुई हैं और चैत्यगत चेतना के जागरण के साथ ये उपरितल पर लायी जा सकती हैं । हमारे अतीत जन्मों का ज्ञान, -वह चाहे आत्मा की अतीत अवस्थाओं या उसके व्यक्तित्वों का हो या किन्हीं दृश्यों एवं घटनाओं का तथा दूसरों के साथ हमारे सम्बन्धों का, --दूसरों के विगत जन्मों का, संसार के अतीत का, भविष्य का ज्ञान, उन वर्तमान वस्तुओं का ज्ञान जो हमारी स्थूल इन्द्रियों के क्षेत्र से परे हैं या जो स्थूल बुद्धि के सामने खुले हुए ज्ञान के किसी भी साधन की, पहुंच से परे हैं, भौतिक पदार्थों का ही नहीं, वरन् हमारे तथा दूसरों के अतीत, वर्तमान और भावी मन,
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प्राण एवं आत्मा के कार्य-व्यापार का सहजज्ञान एवं स्मृति-अंकन, इस लोक का ही नहीं बल्कि अन्य लोकों या चेतना-स्तरों का तथा उनकी कालगत अभिव्यक्तियों का ज्ञान और पृथ्वी तथा इसकी देहधारी आत्माओं तथा उनके भाग्यों पर अन्य लोकों की क्रियाओं एवं प्रभावों का, इन सबमें उनके हस्तक्षेप का ज्ञान हमारी चैत्य सत्ता के लिये खुला पड़ा है, क्योंकि वह वैश्व सत्ता के सन्देशों के अत्यन्त निकट है, केवल या मुख्य रूप से प्रत्यक्ष और वर्तमान में ही ग्रस्त नहीं है और न निरे वैयक्तिक एवं भौतिक अनुभव के संकुचित घेरे में ही बन्द है ।
पर इसके साथ ही ये शक्तियां इस दोष से ग्रस्त हैं कि ये भूल-भ्रान्ति में फंसने की सम्भावना से किसी तरह भी मुक्त नहीं हैं, और विशेषतया चैत्य चेतना के निम्न स्तर एवं अधिक बाह्य क्रिया-व्यापार तो भयानक प्रभावों, प्रबल भ्रमों, और भ्रान्त, दूषित एवं विकृत करनेवाले सुझावों और प्रतिमाओं के शिकार होते हैं । शुद्ध मन और हृदय तथा तीव्र और सूक्ष्म चैत्य अन्तर्ज्ञान इस विकृति और भ्रान्ति से बचाने के लिये बहुत कुछ कर सकते हैं, पर अधिक-से-अधिक सुविकसित चैत्य चेतना भी तबतक पूर्णतया सुरक्षित नहीं हो सकती जबतक कि चैत्य शक्ति अपने से ऊंची शक्ति के द्वारा आलोकित एवं उन्नीत न हो और उसे ज्योतिर्मय अन्तर्ज्ञानात्मक मन का स्पर्श एवं बल प्राप्त न हों और जबतक इस अन्तर्ज्ञानात्मक मन को भी आत्मा की अतिमानसिक शक्ति की ओर उन्नीत न कर दिया जाये । चैत्य चेतना अपने काल-ज्ञान को आत्मा की अविभाज्य, अविच्छिन्न धारा में सीधे निवास करके नहीं प्राप्त करती और उसके पास अपने मार्गदर्शन के लिये न तो एक पूर्ण अन्तर्ज्ञानात्मक विवेक होता है और न उच्चतर सत्य-चेतना की चरम-परम ज्योति । वह अपने कालानुभवों को मन की भांति केवल किसी अंश एवं व्योरे में ही ग्रहण करती है, सब प्रकार के सुझावों की ओर खुली रहती है, और जैसे, इसके परिणामस्वरूप, उसका सत्य का क्षेत्र अधिक विस्तृत है, वैसे ही इसके भ्रान्ति के मूलस्रोत भी अनेक और नानाविध हैं । भूत में से उसके पास केवल वह ही नहीं आता जो असल में था, बल्कि वह भी जो हो सकता था या जिसने यत्न किया पर घटित होने में असफल रहा, वर्तमान से उसके पास केवल वह ही नहीं आता जो है, बल्कि जो हो सकता है या होना चाहता है उस सबकी भीड़ भी आ जमा होती है और भविष्य से उसके पास आगे होनेवाली वस्तुएं ही नहीं आतीं वरन् अनेक प्रकार की सम्भावनाओं के सुझाव, अन्तर्ज्ञान, अन्तर्दर्शन और मूर्त रूप भी आ जाते हैं । इसके साथ ही चैत्य अनुभव के निरूपण के समय मानसिक रचनाएं और मानसिक प्रतिमाएं वस्तुओं के वास्तविक सत्य में सदा ही हस्तक्षेप कर सकती हैं ।
अन्तःप्रच्छन्न सत्ताके सन्देशों का उपरितल पर आना और चैत्यगत चेतना की क्रिया ये दोनों अज्ञानमय मन को, जिससे हम अपनी साधना आरम्भ करते हैं, पूर्णतया तो नहीं पर उत्तरोत्तर आत्म-विस्मृतिपूर्ण ज्ञान से युक्त मन में बदलते चले
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जाते हैं । यह मन अन्तरात्मा से उठनेवाली सन्देशवाणियों एवं ज्ञानधाराओं से, उसकी समग्र सत्ता एवं अनन्त अन्तर्निधि-विषयक और भी गुप्त चैतन्य से निर्गत रश्मियों से निरन्तर आलोकित होता है । सनातन आत्मा भूत, वर्तमान और भविष्य के जिस सहजात, नित्य पर गुप्त ज्ञान को सदा ही अपने अन्दर धारण किये है, तद्विषयक चैतन्य से भी यह सतत प्रकाशित रहता है--यह चैतन्य यहां अपने--आपको आत्मा के उक्त ज्ञान के एक प्रकार के स्मरण, पुनरुद्बोधन या आविष्करण के रूप में प्रकट करता है । पर क्योंकि हम देहधारी हैं तथा भौतिक चेतना पर आधारित हैं, अत: अज्ञानमय मन तब भी एक अवरोधक परिस्थिति, हस्तक्षेपकारक शक्ति तथा सीमाजनक स्वभाव-शक्ति के रूप में डटा रहता है जो नयी रचना में बाधा डालती हैं तथा उसके साथ मिल-मिला जाती हैं अथवा, व्यापक ज्ञानदीप्ति के क्षणों में भी, यह मन एक साथ एक सीमा-भित्ति एवं दृढ़ आधार के रूप में बना रहता है और अपनी अक्षमताओं एवं भूलों को लादता रहता है । उसकी इस हठधर्मी का इलाज करने के लिये पहला आवश्यक साधन यह प्रतीत होगा कि एक ज्योतिर्मय अन्तर्ज्ञानात्मक बुद्धि की शक्ति का विकास किया जाये जो काल और उसकी घटनाओं के सत्य को तथा अन्य सब प्रकार के सत्य को अन्तर्ज्ञानात्मक विचार, ऐन्द्रिय सम्वेदन और अन्तर्दर्शन के द्वारा देखती है और अपनी सहजात विवेक-ज्योति के द्वारा भूल- भ्रान्तियों के आक्रमणों का पता लगाकर उन्हें बहिष्कृत करती है ।
समस्त बोधिमूलक ज्ञान (अन्तर्ज्ञान), कम या अधिक प्रत्यक्ष रूप से, स्व-सचेतन आत्मा की ज्योति के मन के अन्दर प्रवेश करने से ही प्राप्त होता है । यह आत्मा मन के पीछे छुपा है । इसके अपने अन्दर तथा इसकी सब आत्माओं के अन्दर जो कुछ भी है उस सबसे यह सचेतन है । यह सर्वज्ञ है तथा अज्ञानमय या आत्म-विस्मृतिपूर्ण मन को विरली या सतत दीप्तियों के द्वारा या अपनी उस ज्योति के द्वारा आलोकित कर सकता है जो इसकी सर्वज्ञता में से उसके अन्दर स्थिरतया प्रवाहित होती है । इस 'सब'के अन्दर, जिससे कि यह सचेतन है, वह सभी कुछ आ जाता है जो काल में था, है या होगा और यह सर्वज्ञता हमारे मन के किये हुए तीन कालो के विभाजन से, परिसीमित, प्रतिहत या कुण्ठित नहीं होती, न ही यह एक मृत, इस समय अविद्यमान, अल्प-स्मृत या विस्मृत अतीत के, तथा अभीतक अस्तित्व में न आये और अतएव, अज्ञेय भविष्य के, --जो अज्ञानावस्था में मन के लिये अत्यन्त अटल है, --विचार एवं अनुभव से सीमित, व्याहत या पराभूत होती है । इस प्रकार, अन्तर्ज्ञानात्मक मन का विकास अपने साथ काल--ज्ञान की क्षमता ला सकता है जो उसके पास बाहरी संकेतों से नहीं, वरन् वस्तुओं के विराट् आत्मा के भीतर से आती है । उसके अन्दर अतीत की जो सनातन स्मृति है, वर्तमान वस्तुओं का जो असीम भण्डार है तथा भविष्य का जो पूर्व-दर्शन है, जिसे
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स्व-विरोधात्मक, पर सांकेतिक भाषा में भविष्य की मति कहा गया है, --उस सबसे उसे काल-ज्ञान की क्षमता प्राप्त होती है । पर यह क्षमता पहले-पहल व्यवस्थित ढंग से नहीं, वरन् विक्षिप्त एवं अनिश्चित रूप से कार्य करती है । जैसे-जैसे अन्तर्ज्ञान की शक्ति बढ़ती है, वैसे-वैसे इस क्षमता के प्रयोग पर प्रभुत्व प्राप्त करना तथा इसके क्रिया-व्यापार एवं नाना गतियों को कुछ सीमातक व्यवस्थित करना अधिक सम्भव होता जाता है । तीनों कालों की वस्तुओं के उपादानों पर तथा उनके मूलतत्त्वों या सूक्ष्म व्योरों के ज्ञान पर प्रभुत्व प्राप्त करने की शक्ति अभ्यास द्वारा आयत्त एवं स्थापित की जा सकती है, पर साधारणतया यह एक विशिष्ट या असामान्य शक्ति के रूप में ही अस्तित्व रखती है और मन का सामान्य कार्य या उसका एक बहुत बड़ा भाग अब भी अज्ञानमय मन का व्यापार बना रहता है । यह स्पष्ट ही एक न्यूनता एवं सीमा है । जब यह शक्ति पूर्णत: बोधि-भावापन्न मन की सामान्य एवं स्वाभाविक क्रिया के रूप में अपना स्थान ग्रहण कर लेती है तभी यह कहा जा सकता है कि जहांतक मनोमय मनुष्य में सम्भव है वहांतक त्रिकाल-ज्ञान की क्षमता पूर्णता को पहुंच गयी है ।
बुद्धि की सामान्य क्रिया को उत्तरोत्तर बहिष्कृत करके, अन्तर्ज्ञानमय चेतना पर पूर्ण एवं समग्र निर्भरता प्राप्त करके और इसके फलस्वरूप मनोमय सत्ता के सभी भागों को अन्तर्ज्ञानमय बनाकर ही अज्ञानमय मन के स्थान पर अन्तर्निहित ज्ञान से युक्त मन को, अभी पूर्ण रूप से नहीं तो अधिक सफलतापूर्वक, प्रतिष्ठित किया जा सकता है । परन्तु, आवश्यकता है अज्ञानमय मन की नींव पर खड़ी की गयी मानसिक रचनाओं को समाप्त करने की, विशेषकर, उक्त प्रकार के अन्तर्ज्ञान के लिये तो इन्हें समाप्त करना अत्यावश्यक है । साधारण मन और अन्तर्ज्ञानात्मक मन में भेद यह है कि साधारण मन अन्धेरे में या, अधिक-से-अधिक, अपनी अस्थिर मशाल के प्रकाश द्वारा खोजता हुआ पहले तो पदार्थों को वैसे ही देखता है जैसे वे उस प्रकाश में उसे प्रतीत होते हैं और दूसरे, जहां उसे पता नहीं चलता वहां वह कल्पना, अनिश्चित अनुमान तथा अपने कुछ अन्य साधनों एवं कामचलाऊ युक्तियों के द्वारा वस्तुओं को गढ़ लेता है जिन्हें वह तुरत ही सत्य मान लेता है, अर्थात् वह छाया-प्रक्षेपों, गन्धर्व-नगरों, मिथ्या-विस्तारित-छायाओं, प्रतारक-पूर्वबोधों, सम्भावनाओं और सुशक्यताओं को घड़ लेता है जो उसके लिये सुनिश्चित सत्यों का कार्य करती हैं । अन्तर्ज्ञानात्मक मन इस प्रकार की कोई भी कृत्रिम रचना नहीं करता, वरन् अपने-आपको ज्योति का ग्रहण करनेवाला पात्र बनाता है और सत्य को अपने अन्दर व्यक्त होने तथा उसकी रचनाओं को संघटित करने की अनुमति देता है । पर जबतक मिश्रित क्रिया चलती रहती है और जबतक मानसिक रचनाओं तथा कल्पनाओं को क्रिया करने दी जाती है, तबतक उच्चतर ज्योति या सत्य ज्योति के प्रति अन्तर्ज्ञानात्मक मन की यह निष्क्रियता पूर्ण नहीं हो सकती, न यह सुरक्षित प्रभुत्व ही प्राप्त कर सकती है और अतएव त्रिकालज्ञान की सुदृढ़ व्यवस्था भी
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स्थापित नहीं हो सकती । इस बाधा एवं मिश्रण के कारण ही त्रिकाल-दर्शन की, अर्थात् पश्चादद्दर्शन, परिदर्शन और पुरोदर्शन की वह शक्ति, जो कभी-कभी आलोकित मनपर अपनी छाप लगाती है, मानसिक क्रिया की बुनावट का भाग न होकर अन्य शक्तियों की तरह केवल एक असामान्य शक्ति ही है । इतना ही नहीं, वरन् वह केवल कभी-कभी ही प्रकट होनेवाली तथा अत्यन्त अपूर्ण होती है और प्रायः ही विकृत हो जाती है, क्योंकि हमें बिना पता लगे ही उसमें भूल मिल-मिला जाती है या उसमें हस्तक्षेप करके वह उसका स्थान स्वयं ले लेती है ।
जो मानसिक रचनाएं हस्तक्षेप करती हैं वे मुख्यतया दो प्रकार की हैं । उनमें से पहले प्रकार की एवं अत्यन्त प्रबल रूप से विकृत करनेवाली वे हैं जो इच्छाशक्ति के दबावों से उत्पन्न होती हैं । हमारी इच्छाशक्ति देखने और निर्णय करने का दावा करती है, वह ज्ञान में हस्तक्षेप करती है और अन्तर्ज्ञान को सत्य ज्योति के प्रति निष्क्रिय तथा उसकी निष्पक्ष एवं शुद्ध प्रणालिका नहीं बनने देती । व्यक्तिगत इच्छाशक्ति, --वह चाहे भावावेगों और हृदय की कामनाओं का रूप ले या प्राण की लालसाओं का अथवा प्रबल क्रियाशील संकल्पों का रूप ले या बुद्धि की स्वेच्छापूर्ण अभिरुचियों का, --स्पष्टतया ही विकृति का मूल होती है, उस समय जब कि ये सब (भावावेग आदि) अपने-आपको ज्ञान पर लादने की चेष्टा करते हैं और जिस चीज के लिये हम कामना या संकल्प करते हैं उसीको अतीत, वर्तमान या भविष्य की वास्तविक वस्तु समझने के लिये हमें प्रेरित करते हैं, और ऐसी चेष्टा ये प्रायः अवश्य ही करते हैं और इसमें इन्हें सफलता भी मिलती है । कारण, या तो ये सत्य-ज्ञान को अपनी क्रिया नहीं करने देते, अथवा यदि वह अपने को सामने लाता भी है तो ये उसपर झपटकर उसे अपने अधिकार में कर लेते हैं, उसे तोड़- मरोड़कर उसका रूप ही बदल डालते हैं और उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न हुए विकृत रूप को एक ऐसा आधार बना देते हैं जो इच्छाशक्ति द्वारा रचे मिथ्यात्व के संघात को सही सिद्ध करता है । अतः व्यक्तिगत इच्छाशक्ति को या तो बिल्कुल त्याग देना होगा या फिर उसके सुझावों को तबतक उनके उचित स्थान पर रखना होगा जबतक कि उच्चतर निर्व्यक्तिक ज्योति के सामने उन्हें प्रस्तुत करके उनके बारे में उसका सर्वोच्च निर्णय न प्राप्त कर लिया जाये और तब मन की अपेक्षा कहीं गहरी एक भीतरी सत्ता से या एक उच्चतर स्तर से प्राप्त सत्य के अनुसार उन्हें स्वीकार या अस्वीकार करना होगा । पर, यद्यपि व्यक्तिगत इच्छाशक्ति को निरुद्ध तथा मन को उच्चतर सत्य के ग्रहण के लिये निष्क्रिय रखा जाये, तो भी सब प्रकार की शक्तियों और सम्भावनाओं के सुझाव उसपर (मन पर) आक्रमण कर सकते हैं तथा अपने-आपको उसपर लाद सकते हैं । ये शक्तियां और सम्भावनाएं संसार में अपनी चरितार्थता के लिये प्रयास करती हैं । अपनी अस्तित्वेच्छा के (अपने-आपको प्रकट करने की इच्छाशक्ति के) प्रवाह में ये जिन वस्तुओं को घड़ती हैं उन्हें ये
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भूत, वर्तमान या भविष्य के सत्य के रूप में प्रस्तुत करती हुई हमारे सामने प्रकट होती हैं । यदि मन इन प्रतारक सुझावों पर ध्यान दे, उनके स्व-मूल्यांकनों को स्वीकार कर ले, उन्हें दूर न हटाये या सत्य ज्योति के सामने निर्णयार्थ प्रस्तुत न करे तो सत्य का अवरोध या विकृति-रूपी उपर्युक्त परिणाम उत्पन्न होकर रहेगा । यह भी सम्भव है कि इच्छाशक्ति के तत्त्व को पूर्णतया बहिष्कृत कर दिया जाये और मन को उच्चतर ज्योतिर्मय ज्ञान की एक नीरव एवं निष्क्रिय पंजिका बना दिया जाये, और ऐसी दशा में काल-सम्बन्धी अन्तर्ज्ञानों को कहीं अधिक शुद्ध रूप से ग्रहण करना सम्भव हो जाता है । परन्तु सत्ता की समग्रता एक निष्क्रिय ज्ञान की ही नहीं, इच्छाशक्ति के कार्य की भी मांग करती है, और इसलिये अधिक व्यापक और पूर्ण उपचार यह है कि व्यक्तिगत इच्छा के स्थान पर विश्वभावापन्न इच्छा को उत्तरोत्तर प्रतिष्ठित किया जाये । यह विश्वभावापन्न इच्छा ऐसी किसी भी चीज पर आग्रह नहीं करती जिसे यह सुरक्षित रूप में यों अनुभव नहीं कर लेती कि यह उस उच्चतर ज्योति से प्राप्त भावि-सम्बन्धी अन्तर्ज्ञान, अन्तःप्रेरणा या साक्षात्कार है जिसमें इच्छाशक्ति ज्ञान के साथ एकीभूत है ।
दूसरे प्रकार की मानसिक रचना हमारे मन एवं बुद्धि के वास्तविक स्वभाव के साथ तथा कालगत वस्तुओं के प्रति उसके व्यवहार के साथ सम्बन्ध रखती है । मन को यहां सभी वस्तुएं ऐसी संसिद्ध, प्रत्यक्ष, यथार्थ वस्तुओं का संघात दिखायी देती हैं जिनके कुछ पूर्ववर्ती कारण तथा स्वाभाविक परिणाम होते हैं, उसे सब कुछ सम्भावनाओं का एक अनिर्धारित संघात प्रतीत होता है । और सम्भवतः उसे एक और चीज भी दीख पड़ती है, यद्यपि इसके सम्बन्ध में वह निश्चयवान् नहीं होता । इन सब सम्भावनाओं के पीछे उसे एक निर्धारक तत्त्व, --एक संकल्पशक्ति, नियति या कोई शक्तिशालिनी सत्ता, --दिखायी देता है जो अनेक सम्भव वस्तुओं में से कुछ को अस्वीकार कर देता है तथा कुछ दूसरी वस्तुओं को स्वीकृति देता है या प्रकट होने के लिये बाध्य करता है । अतएव, उसकी रचनाएं कुछ अंश में तो, अतीत और वर्तमान दोनों की वास्तविक वस्तुओं के आधार पर किये गये अनुमानों से बनी होती हैं, कुछ अंश में सम्भावनाओं के संकल्पानुगत या कल्पनामूलक एवं आनुमानिक चयन एवं संयोजन से और, थोड़े-से अंश में, निर्णायक तर्कणा या रागमूलक निर्णय या आग्रहपूर्ण सर्जनशील संकल्प-बुद्धि से बनी होती हैं जो यथार्थ और सम्भव वस्तुओं के संघात में उस सुनिश्चित सत्य को निर्धारित करने का यत्न करती है जिसे खोजने या निर्धारित करने का वह प्रयास कर रही है । इस सबको, जो हमारे मन के चिन्तन एवं व्यापार के लिये अनिवार्य हैं, बहिष्कृत या रूपान्तरित करना होगा । ऐसा होने के बाद ही अन्तर्ज्ञान को एक सुदृढ़ आधार पर अपने-आपको व्यवस्थित करने का अवसर प्राप्त हो सकता है । ऐसा रूपान्तर सम्भव है, क्योंकि अन्तर्ज्ञानाक्क मन को भी वही (मन का) कार्य करना होता है और उसका
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क्षेत्र भी वही होता है; पर हां, वह अपने साधन-द्रव्यों का प्रयोग भिन्न ढंग से करता है तथा उनके अर्थ पर एक और ही प्रकार का प्रकाश डालता है । इसी प्रकार, मन की रचनाओं का बहिष्कार करना भी सम्भव है, क्योंकि वास्तव में सब कुछ ऊपर, सत्य-चेतना में ही निहित है और अज्ञानमय मन की वह निश्चल-नीरवता एवं फलगर्भित ग्रहणशीलता हमारी पहुंच के बाहर नहीं है जिसमें सत्य-चेतना से उतरनेवाले अन्तर्ज्ञान की रश्मियां सूक्ष्म या तीव्र यथार्थता के साथ ग्रहण की जा सकती हैं और ज्ञान के सब साधन-द्रव्यों को भी उनके समुचित स्थान एवं यथार्थ अनुपात में देखा जा सकता है । व्यवहार में हमें यह पता चलेगा कि एक प्रकार के मन से दूसरे प्रकार के मनतक संक्रमण साधित करने के लिये दोनों विधियां बारी-बारी से या एक साथ प्रयुक्त की जाती हैं ।
त्रिकाल की गति के साथ सम्बन्ध रखनेवाले अन्तर्ज्ञानात्मक मन को प्रत्यक्ष यथार्थ तथ्यों, सम्भव पदार्थों तथा अटल भावी वस्तुओं--तीनों को अपनी विचारात्मक इन्द्रिय तथा विचारात्मक दृष्टि के द्वारा ठीक-ठीक देखना होगा । सबसे पहले एक प्राथमिक अन्तर्ज्ञानात्मक क्रिया विकसित होती है जो साधारण मन की तरह मुख्यतया काल में विद्यमान क्रमिक यथार्थ-सत्ताओं की धारा को देखती है, पर यह कार्य वह सत्य की एक ऐसी तात्क्षणिक प्रत्यक्ष-क्रिया के द्वारा तथा सहज यथार्थता के साथ करती है जो साधारण मन को आयत्त नहीं हो सकती । पहले-पहल वह उन्हें एक प्रत्यक्ष-बोध के द्वारा, एक विचार-क्रिया, विचारेन्द्रिय एवं विचारदृष्टि के द्वारा देखती है जो व्यक्तियों और पदार्थों पर कार्य कर रही शक्तियों को अर्थात् उनके अन्दर और चारों ओर कार्यरत विचारों, निश्चयों, प्रेरणाओं, सामर्थ्यों और प्रभावों को तुरन्त ही जान लेती है, केवल उन्हीं विचारों, निश्चयों आदि को नहीं जो उनके अन्दर रूप ग्रहण कर चुके हैं या ग्रहण कर रहे हैं, वरन् उन्हें भी जो परिपार्श्व से या साधारण मन को न दीखनेवाले गुह्य उद्गमों से उनके अन्दर या ऊपर आ रहे हैं या आनेवाले हैं । यह विचारात्मक क्रिया, इन्द्रिय एवं दृष्टि इन शक्तियों के जटिल संघात को खोज और आयास से रहित एक द्रुत अन्तर्ज्ञानात्मक विश्लेषण के द्वारा या एक समन्वयात्मक समग्र दृष्टि के द्वारा विभक्त करके इन सब शक्तियों में भेद करती हैं, फलप्रद शक्ति और निष्फल या कम फलप्रद शक्ति में विवेक करती है तथा उनसे निकलनेवाले परिणाम को भी देख लेती है । प्रत्यक्ष यथार्थ वस्तुओं के अन्तर्ज्ञानात्मक दर्शन की सर्वांगीण विधि यही है, किन्तु अन्य विधियां भी हैं जो अपने स्वरूप में इतनी पूर्ण नहीं हैं । कारण, कार्यरत शक्तियों को परिणाम से पहले या उसके साथ-साथ प्रत्यक्ष किये बिना भी परिणाम को देख लेने की शक्ति साधक में विकसित हो सकती है । या फिर यह भी हो सकता है कि पहले परिणाम ही तीव्र वेग से, तुरन्त उसके सामने आ जाये और कार्यरत शक्तियां बाद में ही दिखायी दें । दूसरी ओर, यह भी सम्भव है कि शक्तियों के जटिल
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संघात का कुछ-कुछ या पूर्ण प्रत्यक्ष प्राप्त हो जाये, पर अन्तिम निश्चित परिणाम के विषय में निश्चय न होने पाये या, केवल धीमे-धीमे ही निश्चय हो पाये या फिर एक सापेक्ष निश्चय ही प्राप्त हो । यथार्थ वस्तुओं के समग्र और एकीकृत साक्षात्कार की क्षमता के विकास में यही क्रमिक अवस्थाएं आती हैं ।
इस प्रकार का अन्तर्ज्ञान काल-ज्ञान का पूर्णतया निर्दोष यन्त्र नहीं है । साधारणतया यह वर्तमान की धारा में ही बहता है, और एक-एक क्षण में केवल वर्तमान, निकटतम भूत और निकटतम भविष्य को ही ठीक-ठीक देखता है । यह ठीक है कि वह अपने को पीछे की ओर (भूतकाल में) प्रक्षिप्त करके अपनी इसी शक्ति और पद्धति के द्वारा एक अतीत क्रिया को फिर से ठीक रूप में निर्मित कर सकता है या अपने को आगे की ओर (भविष्य में) प्रक्षिप्त करके अधिक दूरस्थ भविष्य की किसी वस्तु की ठीक प्रतिमूर्ति बना सकता है । पर विचारात्मक अन्तर्दृष्टि की सामान्य शक्ति के लिये यह एक अधिक असाधारण एवं दुष्कर प्रयास है और साधारणतया वह इस आत्म-प्रक्षेपण को अधिक स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग में लाने के लिये चैत्य साक्षात्कार की सहायता और आश्रय की अपेक्षा रखती है । अपिच, वह केवल वही कुछ देख सकती है जो कि प्रत्यक्ष यथार्थ वस्तुओं की अनुद्वेल्लित प्रक्रियामें स्वतः ही उसके सम्मुख आ जाये और यदि शक्तियों की कोई अदृष्ट भीड़ या कोई हस्तक्षेपकारी शक्ति विशालतर सम्भाव्य शक्ति के प्रदेशों से टूट पड़े तथा अवस्थाओं के जटिल संघात को बदल डाले तो उसकी अन्तर्दृष्टि फिर अपना कार्य नहीं करती । काल की गति में कार्य कर रही शक्तियों की क्रिया में ऐसी घटना निरन्तर ही होती रहती है । अन्तर्ज्ञान की उक्त शक्ति इन सम्भाव्य शक्तियों पर प्रकाश डालनेवाली अन्त:प्रेरणाओं को ग्रहण करके उनसे सहायता प्राप्त कर सकती है, इसी प्रकार उसे सत्य के उन अटल साक्षात्कारों से भी सहायता मिल सकती है जो यह बताते हैं कि इन सम्भाव्य शक्तियों में निर्णायक तत्त्व कौन-सा है और उसके परिणाम क्या होंगे । इन दो शक्तियों से वह यथार्थ वस्तुओं के बोधक अन्तर्ज्ञानात्मक मन की त्रुटियों को सुधार सकती है । परन्तु अन्तर्ज्ञान की इस प्रारम्भिक क्रिया में अन्तर्दर्शन के इन महत्तर उद्गमों के साथ व्यवहार करने की जो क्षमता है वह कभी भी पूर्णतया सफल नहीं होती । एक निम्न स्तर की शक्ति के लिये यह सदा स्वाभाविक ही है कि महत्तर चेतना से प्राप्त सामग्री के साथ बर्ताव करते समय वह पूर्णतया सफल न हो । उसका स्वभाव सदा तात्कालिक यथार्थ-सत्ताओं की धारा पर बल देकर अन्तर्दर्शन को काफी सीमित कर देने का ही होता
तथापि ज्योतिर्मय अन्तःप्रेरणा से सम्पन्न मन का विकास करना सम्भव है । यह मन काल-गति की महत्तर सम्भाव्य शक्तियों के मध्य अधिक स्वच्छन्दतापूर्वक विचरण करेगा, दूर की वस्तुओं को अधिक आसानी से देखेगा और इसके साथ ही
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प्रत्यक्ष यथार्थ वस्तुओं के अन्तर्ज्ञान को अपने अन्दर, अपने अधिक उज्जल, व्यापक और शक्तिशाली प्रकाश में ग्रहण करेगा । यह अन्तःप्रेरित मन वस्तुओं को विश्व की विशालतर सम्भाव्यताओं के प्रकाश में देखेगा और प्रत्यक्ष यथार्थ वस्तुओं की धारा को शक्तिशाली सम्भव पदार्थों के संघात में से किये गये एक चुनाव के रूप में एवं उसमें से निकले एक परिणाम के रूप में देखेगा । तथापि, यदि अटल सत्यों का उद्भासक ज्ञान पर्याप्त मात्रा में इसे प्राप्त न हो तो यह काल-गति की नाना सम्भाव्य दिशाओं के बीच निर्णय करनेवाले विचार के सम्बन्ध में संशयग्रस्त ही रहेगा या यह ऐसे विचार को स्थगित ही रखेगा अथवा, यहांतक कि, अन्तिम यथार्थ वस्तु की दिशा से दूर एक ऐसे कालचक्र में जा फंसेगा जो किसी और, अभीतक अव्यवहार्य परिणाम का अनुसरण कर रहा होगा । ऊपर से प्राप्त होनेवाले अटल सत्य-दर्शनों की सम्पदा इस त्रुटि को कम करने में सहायक होगी, पर यहां भी वही कठिनाई सामने आयेगी कि उच्चतर ज्योति और शक्ति के खजाने से प्राप्त सामग्री को निम्न स्तर की शक्ति की क्रिया में से गुजरना पड़ेगा । किन्तु ज्योतिर्मय सत्य-दर्शन प्राप्त करनेवाले मन का विकास करना भी सम्मव है । यह मन दो निम्न गतियों को अपने अन्दर समेटकर देखता है कि शक्य और यथार्थ वस्तुओं की क्रीड़ा के पीछे निर्णीत वस्तु कौन-सी है तथा अपने अटल निर्णयों को प्रकट करने के लिये यह प्रत्यक्ष यथार्थ वस्तुओं को अपने साधनमात्र समझता है । इस प्रकार से गठित हुआ अन्तर्ज्ञानात्मक मन सक्रिय चैत्य चेतना की सहायता पाकर काल-ज्ञान की एक अत्यन्त विलक्षण शक्ति पर प्रभुत्व प्राप्त कर सकता है ।
पर इसके साथ-साथ हमें यह भी ज्ञात हो जायेगा कि यह मन भी अभी एक सीमित यन्त्र है । पहली बात तो यह है कि यह एक ऐसे उच्चतर ज्ञान को प्रकट करेगा जो मन के उपादान में ही कार्य कर रहा होगा तथा जो मनोमय आकारों के सांचे में ढला होने के कारण अबतक भी मानसिक अवस्थाओं और मर्यादाओं के अधीन होगा । यह पीछे या आगे की ओर कितनी ही दूरतक विचरण क्यों न करे, फिर भी यह ज्ञान के सोपानों या क्रमों के आधार के रूप में सदा मुख्य तौर पर वर्तमान क्षणों की शृंखखला का ही सहारा लेगा, -अपनी उच्चतर सत्योद्भासक क्रिया में भी यह काल के प्रवाह में ही विचरण करेगा और काल की गति को ऊपर से या सनातन काल की उन स्थिरताओं में प्रतिष्ठित होकर नहीं देखेगा जिनकी अन्तर्दृष्टि के क्षेत्र अति विशाल होते हैं, और अतएव, यह अपने कार्यों में सदा एक गौण एवं सीमित क्रिया के साथ, एक प्रकार की तरलता, मर्यादा और सापेक्षता के साथ बंधा होगा । अथच, इसका ज्ञान ज्ञान की वास्तविक उपलब्धि एवं अधिकृति नहीं होगा, वरन् ज्ञान का ग्रहण-रूप होगा । अज्ञानमय मन के स्थान पर यह, अधिक-से-अधिक, आत्म-विस्मृतिपूर्ण ज्ञानवाले मन को जन्म देगा जिसे प्रस्तुत आत्म-चेतना एवं विराट् चेतना सतत आत्म-स्मृति और ज्ञान-ज्योति प्रदान करेंगी ।
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ज्ञान की क्रिया का क्षेत्र एवं विस्तार तथा उसकी साधारण दिशाएं विकास के अनुसार भिन्न-भिन्न होंगी, पर इस ज्ञान में कुछ अत्यन्त प्रबल मर्यादाएं सदा ही रहेंगी । ये मर्यादाएं अज्ञानमय मन में, जो अभी भी हमें चारों ओर से घेरे होगा या हमारे अन्दर अवचेतन रूप से विद्यमान होगा, यह प्रवृत्ति पैदा करेंगी कि वह अपनी सत्ता को फिर सें दृढ़तापूर्वक स्थापित करे, फिर अन्दर घुस आये या उभड़कर ऊपर आ जाये, जहां अन्तर्ज्ञान काम करने से इन्कार करे या काम करने में असमर्थ हों वहां अपना काम करे और अपनी अव्यवस्था एवं भ्रान्ति को तथा अपने मिश्रण को फिर से अपने साथ ले आये । ऐसी दशा में सुरक्षा का एकमात्र साधन यह होगा कि साधक जानने की चेष्टा करने से इन्कार कर दे अथवा, कम-से-कम जबतक उच्चतर ज्योति उतरकर अपनी क्रिया का विस्तार न कर ले तबतक वह ज्ञान-प्राप्ति का प्रयत्न स्थगित रखे । यह आत्म-नियन्त्रण मन के लिये कठिन है और यदि अत्यन्त सन्तुष्ट-भाव से इसका प्रयोग किया जाये तो यह जिज्ञासु साधक के विकास को अवरुद्ध कर सकता है । दूसरी ओर, यदि अज्ञानमय मन को पुनः उभड़ने दिया जाये और उसे अपनी स्थलनशील अपूर्णशक्ति के साथ पुनः ज्ञान की खोज करने दी जाये तो साधक एक सापेक्ष, पर सुनिश्चित पूर्णता प्राप्त करने के स्थान पर अज्ञानमय मन और अन्तर्ज्ञानमय मन--इन दो भूमिकाओं के बीच निरन्तर दोलायमान स्थिति में रह सकता है या फिर उसमें इन दोनों शक्तियों की मिश्रित क्रिया चलती रह सकती है ।
इस द्विविधा में से निकलने का उपाय यह है कि साधक इससे भी महान् पूर्णता की ओर आगे बढ़े । अन्तर्ज्ञानात्मक, अन्तःप्रेरित एवं सत्योद्भासक मन का गठन इस पूर्णता की दिशा में एक उपक्रमात्मक अवस्थामात्र है । यह महत्तर पूर्णता तभी प्राप्त होती है यदि अतिमानसिक ज्योति और शक्ति हमारी सम्पूर्ण मानसिक सत्ता में सतत और अधिकाधिक प्रवाहित एवं अवतरित हों और यदि अन्तर्ज्ञान तथा उसकी शक्तियों को अतिमानसिक प्रकृति के उन्मुक्त वैभवों में विद्यमान उनके उद्गम की ओर निरन्तर ऊंचा उठाया जाये । ऐसा होने पर एक दोहरी क्रिया आरम्भ हो जाती है । प्रथम तो यह कि अन्तर्ज्ञानात्मक मन, जो अपने से ऊर्ध्वस्थित ज्योति के प्रति सचेतन होता है और उसकी ओर खुला रहता है और अपने ज्ञान को निर्णयात्मक विचार, पुष्टि और समर्थन के लिये इस ज्योति के सम्मुख निरन्तर प्रस्तुत करता है । दूसरे, स्वयं यह ज्योति ज्ञानमय मन के उच्चतम स्तर का निर्माण करने लगती है । वास्तव में यह स्वयं अतिमानस की ही क्रिया होती है जो मन के अधिकाधिक रूपान्तरित उपादान में हो रही होती है तथा जिसमें मानसिक अवस्थाओं के प्रति दासता उत्तरोत्तर कम प्रबल होती जाती है । इस प्रकार एक अवर कोटि की अतिमानसिक क्रिया गठित हो जाती है, एक ज्ञानमय मन गठित हो जाता है जिसकी प्रवृत्ति सदा सच्चे विज्ञानमय अतिमानस में परिणत हो जाने की होती है । अज्ञानमय
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मन अधिकाधिक सुनिश्चित रूप से बहिष्कृत हो जाता है, इसका स्थान आत्मविस्मृतिमय ज्ञानवाला मन ले लेता है जो अन्तर्ज्ञान से आलोकित होता है, और स्वयं अन्तर्ज्ञान भी अधिक पूर्ण रूप से व्यवस्थित होकर अपनेसे की जानेवाली अधिकाधिक बड़ी मांग का उत्तर देने में समर्थ बन जाता है । विकसित होता हुआ ज्ञानमय मन एक मध्यवर्ती शक्ति के रूप में कार्य करता है और, जैसे-जैसे यह गठित होता है, यह अज्ञानमय मन पर क्रिया करता है, उसे रूपान्तरित करता या उसका स्थान ले लेता है और उस अगले रूपान्तर को अनिवार्य बना देता है जो मन से अतिमानस में संक्रमण को संसिद्ध करता है । इस अवस्था में पहुंचने पर ही काल-चेतना एवं काल-ज्ञान में परिवर्तन आरम्भ होता है । पर यह काल-चेतना एवं काल-ज्ञान अपना आधार और अपनी सम्पूर्ण वास्तविकता एवं गूढ़ अर्थ अतिमानसिक स्तरों पर ही प्राप्त करता है । अतएव अतिमानस के सत्य के साथ इसके सम्बन्ध से ही इसकी क्रिया-प्रक्रिया पर अधिक फलप्रद रूप से प्रकाश डाला जा सकता है : क्योंकि ज्ञानमय मन विज्ञानमय भूमिका का एक बहि:-प्रक्षेपमात्र है और है अतिमानसिक प्रकृति की ओर आरोहण का अन्तिम सोपान ।
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